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बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

UNESCO MGIEP (यूनेस्को महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन फॉर पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट) and Life University (USA), for `SEEK' and 'CIT' Training : स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी के शिक्षा सम्बन्धी विचार पर आधारित ~सहानुभूति और दयालुता के लिए स्व-निर्देशित भावनात्मक शिक्षा >(SEEK) 'दयावान और सत्यनिष्ठ मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण>( 'CIT')]

शांति और सतत विकास के लिए यूनेस्को महात्मा गांधी शिक्षा संस्थान   

यूनेस्को एमजीआईईपी ऐंड लाइफ यूनिवर्सिटी यू० एस० ए

द्वारा - *`SEEK' and  'CIT' Training*  

[यूनेस्को महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन फॉर पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट -आईसीएसएसआर बिल्डिंग, पहली मंजिल, 35 फिरोजशाह रोड, नई दिल्ली- 110001: Phone: +91 11 23072356-60 ] 

[स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर आधारित  ~ ` संवेदना (हमदर्दी)  और करुणा (मेहरबानी) के लिए स्व-निर्देशित भावनात्मक शिक्षा ' >(SEEK)-Self-directed Emotional Learning for Empathy and Kindness/ सेल्फ -डायरेक्टेड इमोशनल लर्निंग फॉर एम्पथी ऐंड काइंडनेस )/( 'CIT')-Compassionate Integrity  Training, कम्पैशनेट इन्टेग्रिटी ट्रेनिंग)/ एवं 'करुणामय (Compassionate ,तरस करने वाला) और पूर्ण (integrity-,मौलिक,अखण्ड,सत्यनिष्ठ ) मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण>[Opinion Feature by Robert W. Roeser, Department of Human Development and Family Studies College of Health and Human Development Pennsylvania State University. 

21 वीं सदी में शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय (Heart) को प्रशिक्षित कर मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा - 'Be and Make' का प्रचार-प्रसार करने में सहायक भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के मानव विकास विभाग तथा परिवार अध्ययन कॉलेज ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन डेवलपमेंट पेनसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी की मान्यता पर आधारित रॉबर्ट डब्ल्यू रोसेर द्वारा प्रेषित एक महत्वपूर्ण लेख (ओपिनियन फीचर)।

संयुक्‍त राष्‍ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्‍कृतिक संगठन (यूनेस्‍को) ने भारत सरकार के साथ मिलकर यूनेस्को महात्‍मा गांधी शांति एवं सतत विकास शिक्षा संस्‍थान " की स्थापना के लिए एक प्रमुख पहल की थी। नई दिल्‍ली स्थित इस संस्‍थान की औपचारिक घोषणा नवम्‍बर, 2012 में भारत के राष्‍ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी और यूनेस्‍को के महानिदेशक सुश्री इरिना बोकोवा (जो बुल्‍गारिया से हैं) ने की।

Compassionate Integrity Training (CIT)-[सेंटर फॉर कम्पैशन, इंटिग्रिटी एंड सेक्युलर एथिक्स एट लाइफ यूनिवर्सिटी (यूएसए) द्वारा, स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर आधारित 'करुणामय और पूर्ण मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण।' (सीआईटी) को विकसित किया गया है। एमजीआईईपी ने सीक (SEEK-) को विकसित करने के लिए लाइफ यूनिवर्सिटी के साथ भागीदारी की है। यह प्रमाणित पाठ्यक्रम अंग्रेजी भाषा में तैयार किया गया है और इसे यूनेस्को एमजीआईईपी के फ्रैमरस्पेस लर्निंग सिस्टम पर होस्ट किया गया है। यह पाठ्यक्रम `Emotional Intelligence Skills ' -'इमोशनल इन्टेलिजेन्स स्किल' (क्वोशन्ट) के विज्ञान पर आधारित है , जो आपकी फीलिंग्स से जुड़ा है। इसकी मदद से आप खुद अपने इमोशंस और दूसरों के इमोशंस को समझते हैं और उन्हें मैनेज करते हैं। 40 घंटे का सीक पाठ्यक्रम स्व-गतिशील  ऐसा पाठ्यक्रम (सहानुभूति और दयालुता के लिए स्व-निर्देशित भावनात्मक शिक्षा) है जो मूल्यवान पारस्परिक कौशल (interpersonal skills)  सिखाता है जो कॉर्पोरेट जगत में अपरिहार्य हैं। यह पाठ्यक्रम  यूजीसी द्वारा समर्थित है और भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा वित्त पोषित है। ] : 

https://mgiep.unesco.org/article/educating-the-head-the-heart-and-the-hand-in-the-21st-century-notes-from-india-and-the-united-states ]

यूनेस्को MGIEP तथा कॉलेज ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन डेवलपमेंट पेनसिल्वेनिया स्टेट लाइफ यूनिवर्सिटी (यू.एस.ए)भारत में यूनेस्‍को का पहला विशेषज्ञ शिक्षा संस्‍थान तथा एशिया प्रशांत क्षेत्र में पहला कैटेगिरी 1 संस्‍थान है। जो 21 वीं सदी में शिक्षार्थियों को सशक्त बनाने के लिए स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित -3H's~ शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय (Heart) को प्रशिक्षित कर मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा फ्रैमरस्पेस लर्निंग (FramerSpace learning- Empowering Learners)अंग्रेजी भाषा में 40 घंटे का, ऑनलाइन, स्व-निर्देशित प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम (self-paced certification course) है, जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के माध्यम से भावनात्मक शिक्षा प्रदान कर सम्पूर्ण विश्व के युवाओं को "परस्पर प्रेम (Empathyऔर करुणा (Kindness) उत्पन्न करने वाली स्व-निर्देशित जीवन -गठन में नामांकन के लिए आमंत्रित कर रही है। 

 यह ऑनलाइन पाठ्यक्रम (SEEK) के माध्यम से युवाओं को 21वीं सदी में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव- शरीर (Hand-समाजसेवा या 'Be and Make' के प्रचार-प्रसार में कर्मठता), मन (Head- mindfulness अर्थात  एकाग्रता जन्य सचेतनता) और ह्रदय (Heart-में परस्पर प्रेम और करुणा ) को सुसमन्वित रूप में विकसित करने का प्रशिक्षण प्रदान करेगा। ताकि विश्व के युवा स्वामी विवेकानन्द के " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (Man-making  and character-building education) में अच्छीतरह से प्रशिक्षित होकर, 'well-equipped' होकर; अर्थात मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयवों को सुसमन्वित ढंग से विकसित कर, स्वयं यथार्थ मनुष्य (निःस्वार्थी मनुष्य) बन सकें और दूसरों को भी 'मनुष्य ' बनने में सहायता करते हुए एक शान्तिपूर्ण और संपोषणीय समाज (peaceful and sustainable societies) के विकास में अपना योगदान दे सकें। 

वर्तमान वैश्विक युग (global age) में समस्त विश्व को सामाजिक व्यवस्था के नवीनीकरण के लिए, आज एक नए प्रकार की  शिक्षा-व्यवस्था की आवश्यकता है। तथा शिक्षा को सामाजिक-परिवर्तन की एकमात्र कुंजी समझने वाले देशों के समक्ष प्रश्न यह है, कि हम प्रबुद्ध नागरिकों (enlightened citizens) की नयी पीढ़ी का निर्माण करने के लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली को कैसे एक नया रूप दे सकते हैं , जिससे ऐसा मनुष्य निर्मित हो जो एक साथ मन (Head) -बुद्धि से सतेज, ह्रदय (Heart) से सहानुभूतिशील और शरीर (Hand) से कर्म करने समर्थ हो, और जो वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो ? युवाओं को 3H's की शिक्षा में कैसे प्रशिक्षित करें?   इस प्रश्न का समाधान करने के प्रयास में वर्तमान समय में जो एक विश्वव्यापी ~ अनाम आंदोलन~ चल रहा है; उसका उद्देश्य प्रपूर्वजों के ज्ञान ('premodern wisdom ' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make' -श्रवण-मनन-निदिध्यासन प्रणाली की शिक्षा द्वारा अर्जित पूर्व-आधुनिक ज्ञान जैसे ऋषियों के चार महावाक्य) को शिक्षा के उत्तर-आधुनिक रूपों (post-modern forms-पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की पूरक शिक्षा व्यवस्था 'Supplementary to western education system') में बदलना है। इस अनाम युवा आन्दोलन ^* के केन्द्र में एक ऐसी शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण करना है, जो स्वयं एक चरित्रवान मनुष्य ('सत्पुरुष'-good people) होने के साथ -साथ दूसरों को भी 'कर्म-व्यस्त नागरिक' (engaged citizens) एवं 'अच्छे कर्मियों -' (good workers-निःस्वार्थ शिक्षकों-मार्गदर्शक नेताओं) के निर्माण को भी समान रूप से महत्वपूर्ण मानता हो। 

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। स्कूली बच्चे होंगे तनावमुक्त- भारतीय बच्चों को तनाव से बचाने की मुहिम में उतरा यूनेस्को।बच्चों में पढ़ाई के दौरान बढ़ने वाला तनाव फिलहाल वैश्विक रूप ले चुका है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। सरकार से लेकर सभी स्तर पर इसको लेकर चिंताएं और कोशिशें जारी है, बावजूद इसके अब तक कोई भी इसकी मूल वजहों और समाधान तक नहीं पहुंच सका है। यूनेस्को अब इन्हीं कारणों को जानने-समझने और उनका समाधान भी देने की कोशिशों में जुटा है। इसके लिए उसने नवोदय विद्यालय के साथ मिलकर देश भर में काम शुरू किया है। फिलहाल इसके लिए 64 नवोदय विद्यालयों को चुना गया है। 

बच्चों में यह तनाव परीक्षा के दौरान काफी बढ़ जाता है। यही वजह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसे लेकर आगे आ चुके है। बच्चों के साथ इसे लेकर परीक्षा पर चर्चा नाम से संवाद भी कर चुके है। जिसमें बच्चों को तनाव से निजात पाने के लिए कुछ टिप्स दी थी। इनमें सबसे अहम परीक्षा को त्यौहार जैसा मनाने का अहम सुझाव भी था। खासबात यह है कि यूनेस्को एमजीआईईपी (महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन फार पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट) ने भी अपने अध्ययन में ऐसे छात्रों पर फोकस किया है, जो सातवीं या उससे बड़ी कक्षाओं में पढ़ रहे है। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में इनमें बढ़ने वाले बच्चे बोर्ड परीक्षाओं में शामिल होंगे।

फिलहाल यूनेस्को एमजीआईईपी और नवोदय विद्यालय के साथ मिलकर शुरु की गई इस मुहिम में इलेक्ट्रॉनिक कंज्यूमर प्रोडक्टस बनाने वाली कंपनी सैमसंग तकनीक मदद उपलब्ध करा रही है। इस रिसर्च को माइ ड्रीम प्रोजेक्ट का नाम दिया गया है। सैमसंग सभी 64 जवाहर नवोदय विद्यालयों में स्मार्ट क्लास का संचालन कर रहा है। गौरतलब है कि यूनेस्को एमजीआईईपी का गठन यूनेस्को ने भारत की मदद से किया है, जो शिक्षा के क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों पर लगातार काम करती है।

आपकी पर्सनैलिटी को बनाने-बिगाड़ने में बड़ा रोल निभानेवाले  IQ, EQ, SQ आदि क्या हैं तथा और इन्हें (गुरु-शिष्य परम्परा में) सीखना क्यों अनिवार्य है ? 

IQ यानी इंटेलिजेंट कोशेंट आपके सोचने-समझने और नॉलेज हासिल करने से जुड़ा है। आप दिमागी तौर पर किसी काम को कितने बेहतर तरीके से कर सकते हैं, यह IQ तय करता है। अगर आप किसी सवाल को सॉल्व करने, नए आइडिया देने या कुछ भी नया सीखने में अपने दोस्तों से आगे रहते हैं, उसे कम पढ़ाई कर ज्यादा मार्क्स लाते हैं तो मुमकिन है कि आपका IQ उनसे बेहतर हो। मेमरी गेम्स (प्रत्याहार और धारणा का खेल ) खेलकर और खुद को चैलेंज करने यानी कुछ हटकर और नया सोच कर इसे कुछ बेहतर किया जा सकता है। 

EQ यानी इमोशनल कोशेंट आपकी फीलिंग्स से जुड़ा है। इसकी मदद से आप खुद अपने इमोशंस और दूसरों के इमोशंस को समझते हैं और उन्हें मैनेज करते हैं।अगर आप अपने दोस्त या भाई-बहन की बहुत केयर करते हैं, उनके साथ चीजें शेयर करते हैं, खाने की चीजें उनके लिए बचाकर रखते हैं, किसी अनजान को भी चोट लगे देखकर आपको तकलीफ होती है तो आपका EQ काफी अच्छा है। कोई एक फैसला IQ के लेवल पर सही, तो EQ के लेवल पर गलत साबित हो सकता है। जैसे कि हिरोशिमा, नागासाकी पर एटम बम गिराना, IQ के लेवल पर सही फैसला हो सकता है लेकिन EQ के लिहाज से यह पूरी तरह गलत फैसला था। रिएक्टिव (प्रतिक्रियाशील ,reactive) होने के बजाय प्रो-एक्टिव (pro-active-अग्रदूत या अग्रसक्रिय) बनकर EQ को बेहतर किया जा सकता है।

और SQ अर्थात स्प्रिचुअल कोशेंट : यह आपकी स्प्रिचुअल इंटेलिजेंस की बात करता है। यह जो दुनिया नजर आती है (इन्द्रियगोचर जगत-(sensual world) और जो दुनिया नजर नहीं आती (world beyond senses), उसकी भी बात करता है। हमारे 5 सेंस (पंचेन्द्रीय - रूप,रस , गंध , शब्द और स्पर्श देखना, सुनना, स्वाद, सूंघना और छूना) से परे (beyond-इन्द्रियातीत या आगे) ,की इंटेलिजेंस को स्प्रिचुअल इंटेलिजेंस कहा जाता है। यह किसी इंसान के धरती पर मौजूद दूसरी जिंदगियों के साथ संबंधों पर फोकस करता है। अगर आपको किसी नदी को गंदा करने पर तकलीफ होती है, किसी पेड़ की टहनियां तोड़ने पर दर्द होता है, किसी जानवर के दर्द पर तड़प महसूस होती है तो आपका स्प्रिचुअल इंटिलेजेंस अच्छा है। यह पेड़-पौधे, पानी से इतर यूनिवर्स में मौजूद हवा, गैस और यहां तक कि वैक्यूम से भी खुद को जोड़कर देखने की बात करता है।  SQ को मेडिटेशन और प्रेयर आदि के जरिए बेहतर किया जा सकता है।

स्व-शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है, इसलिए  स्वाध्याय का अभ्यास करना अनिवार्य है: स्वाध्याय पीढ़ियों  के अनुभव को आत्मसात करने के लिए आंतरिक स्व-संगठन की एक प्रणाली है, जिसका उद्देश्य अपने स्वयं के विकास है। यह खुद को नवीनीकृत (renew) करने की आवश्यकता को स्मृति में ताजा बनाये रखता (retain ) है।  यदि कोई भी छात्र यह सोचता है कि एक शैक्षणिक संस्थान में प्राप्त ज्ञान उसके लिए पर्याप्त है और उसे चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण लेने  की कोई  आवश्यकता नहीं है, तो यह कहा जाना चाहिए कि वह बहुत गलत  है। श्रीरामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड में संत तुलसीदास जी ने कहा है - 

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। 

नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

 जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

 जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥ 

प्रसंग : रावण को विभीषण का समझाना और विभीषण का अपमान :भावार्थ : हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (सद्विवेक -अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (अविवेक -खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥

स्व-शिक्षा, स्वाध्याय, आत्म-शिक्षा या आत्ममूल्यांकन का मनोवैज्ञानिक प्रभाव [Psychological effect of self-education, self-study, self-education or self-evaluation]:  

आधुनिक दुनिया में एक व्यक्ति को वैज्ञानिक, औद्योगिक और सामाजिक समस्याओं को रचनात्मक रूप से हल करने में सक्षम होना चाहिए, और स्व-शिक्षा के बिना आधुनिक दुनिया में सफल होना असंभव है।  एक व्यक्ति की चेतना, जिस तरह से वह सोचता है, कल्पना करता है के तौर-तरीकों को बदलना, ताज़ा करना अनिवार्य हो जाता है ।  वास्तव में, उम्र बढ़ने के साथ, किसी मनुष्य का व्यक्तित्व न केवल निर्धारित होता है, बल्कि "क्रिस्टलीकृत" भी हो जाता है। उसे अपने अनावश्यक आदतों को छोड़ना पड़ता है , व्यर्थ की कामनाओं को त्यागना पड़ता है , असत्य के मार्ग को छोड़कर सत्यपथ पर चलना होता है। वृक्ष भी ऐसा ही करते है , वर्षों से मुरझायी डालियों,  पुराने पत्तों ,  फूलों को त्याग कर वसन्तऋतु में नई कोपलों को खिलाना पड़ता है।  इसके लिए हर पांच से सात साल में, मस्तिष्क को एक "विद्युत झटका" अवश्य मिलना चाहिए, चेतना को सामान्य इंद्रिय बोध की सीमा से परे जाना चाहिए, और सुखद क्षेत्र स्थिति (comfort zonesसुस्थता तापक्षेत्र :  ऐसी स्थिति या तापमान की अवस्था जिसमें कोई व्यक्ति सुरक्षित, आरामदायक या नियंत्रण में महसूस करता है, तापमान सीमा (28 और 30 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच) जिस पर मानव शरीर कांप या पसीने के बिना गर्मी संतुलन बनाए रखने में सक्षम है) का विस्तार होना चाहिये। युवाओं को उनके कम्फर्ट जोन से बाहर जाकर काम करने के लिए प्रोत्साहित और प्रशिक्षित करना चाहिए।

[Every five to seven years, the brain must receive a "electrical shock", consciousness must go beyond normal (Consciousness must go beyond ordinary sense perception), and comfort zones should expand.Youth should be encouraged and trained to work outside their comfort zone.

3 H’s for Mastery: Head, Heart and Hands : Develop 3H's (Head, Heart, Hands): Head..  develop positive thinking, concentration whether in office or home. Heart.. develop heart to do good for others.. have feelings and concerns for others. Hands.. develop hands to do good work.   ~ Vivekananda.  

UNESCO Mahatma Gandhi Institute of Education for Peace and Sustainable Development (MGIEP) UNESCO MGIEP, ICSSR Building, 1st Floor, 35 Ferozeshah Road, New Delhi-110001, Phone: +91 11 23072356-60 ]

Self-directed Emotional Learning for Empathy and Kindness (SEEK) : UNESCO MGIEP and Life University (USA) are inviting the world’s youth to enroll for Self-directed Emotional Learning for Empathy and Kindness (SEEK) an online course that cultivates skills such as empathy, mindfulness, and compassion so youth are well-equipped to contribute towards the development of peaceful and sustainable societies.

was developed by the Center for Compassion, Integrity and Secular Ethics at Life University (USA) and covers a range of skills from self-regulation and self-compassion to compassion for others and engagement with complex systems. UNESCO MGIEP has partnered with Life University to develop SEEK, a self-directed/self-paced version of CIT on UNESCO MGIEP's indigenously developed online learning platform, FramerSpace, and provides support for learners through a dedicated Community of Practice including live Masterclasses and Q&A sessions, and full-featured discussion forums.

The course, based on the Compassionate Integrity Training, is developed by UNESCO MGIEP and Life University, USA. It seeks to build 21st-century emotional intelligence skills and contribute to fulfilling the goals of the India National Education Policy to impart social and emotional learning to create engaged global citizens. The course takes approximately 40 hours to complete and is made of 10 skills in 3 series.

(साभार /Business Standard : October 29, 2021 23:31 IST | ANI Press Release)

🔆🙏Learn to manage emotions and inspire everyone around you.🔆🙏

The renewal of social systems in societies across the world requires new forms of education. How can we reshape education today in order to create new generations of citizens who are simultaneously keen of mind, compassionate in heart, and competent in hand in work; and who therefore can address the challenges of our times? 

There is currently a worldwide movement aimed at adapting premodern wisdom into post-modern forms of education in an effort to address this question. At the heart of this nameless movement-'Be and Make' is a vision of education that sees the formation of “good people” and “engaged citizens” as equally important to the preparation of “good workers.” We hope this vision spreads everywhere, for the flourishing of individuals and for the good of the world.

"Educating the Head, the Heart and the Hand in the 21st Century: Notes received from academics in India and the United States of America, helping to promote 'Be and Make' - the education that trains the body, mind and heart to become human beings in the 21st century. 

Course Introduction : Compassionate integrity refers to the ability to live one’s life in accordance with one’s values with a recognition of common humanity, our basic orientation to kindness and reciprocity. SEEK is a resiliency-informed program that helps in cultivating human values as skills so we can thrive as individuals and society. The original blended course has been taken by thousands of people in over fifty countries around the world.

Course Duration :This course is a three-part online learning program that one can complete at one’s own pace. It includes practices such as reflective writing, contemplative journaling exercises and guided audio practices, which assist in helping one master the skills. The course will take approximately 40 hours to complete.

Certification :There are no assignments or tests in SEEK. At the end of the course, participants will be awarded a Course Completion certificate jointly by UNESCO MGIEP and Life University.

Course Topics : 

Series I: Self-cultivation: The first step toward improving relationships with others and making a positive impact in communities is developing an increased level of personal well-being. In SEEK, this is referred to as the process of self-consciously working to increase these types of personal skills and well-being i.e. “Self-Cultivation.” Skills: Calming Body and Mind, Ethical Mindfulness, Emotional Awareness, and Self-Compassion.

Series II: Relating to Others: Series II turns to focus outward in order to improve relationships with others. This involves examining how we interact with others so that we avoid actions and attitudes that may cause harm and cultivate the actions and attitudes that help others. Skills: Impartiality and Common Humanity, Forgiveness and Gratitude, Empathetic Concern, Compassion.

Series III: Engaging in Systems ("Engaging with Discernment' ~  विवेक (डिसर्न्मन्ट) से जुड़ना, या exercise of discretion/ विवेक (डिस्क्रेशन) का प्रयोग)।:

 Compassion by itself is not enough for ethical and effective decision-making; it must be conjoined with critical thinking and an understanding of reality. Gaining insight into the interdependent nature of our reality can be empowering and can lead to a deeper connection with others and the world around us. Practicing critical thinking guided by the context of our values, interdependence and our common humanity is the best guarantee for a more fulfilling, happy life for ourselves and others. Skills: Appreciating Interdependence, Engaging with Discernment. 

(Interested to learn about the SEEK course? Write to us at youth.mgiep@unesco.org)

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स्वामी विवेकानंद (1863-1902) : का जन्म 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ लेकिन उनके विचार और जीवन दर्शन आज के दौर में अत्यधिक प्रासंगिक हैं। विवेकानंद जैसे महापुरुष मृत्यु के बाद भी जीवित रहते हैं और अमर हो जाते हैं तथा सदियों तक अपने विचारों और शिक्षा से लोगों को प्रेरित करते रहते हैं। मौजूदा समय में विश्व संरक्षणवाद एवं कट्टरवाद की ओर बढ़ रहा है जिससे भारत भी अछूता नहीं है, विवेकानंद का राष्ट्रवाद न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीयवाद बल्कि मानववाद की भी प्रेरणा देता है। इसके साथ ही विवेकानंद की धर्म की अवधारणा लोगों को जोड़ने के लिये अत्यंत उपयोगी है, क्योंकि यह अवधारणा भारतीय संस्कृति के प्राण तत्त्व सर्वधर्म समभाव पर ज़ोर देती है। यदि विश्व सर्वधर्म समभाव का अनुकरण करे तो विश्व की दो-तिहाई समस्याओं और हिंसा को रोका जा सकता है। भारत की एक बड़ी संख्या अभी भी गरीबी में जीवन जीने के लिये मजबूर है तथा वंचित समुदायों की समस्याएँ अभी भी वैसी ही बनी हुई हैं यदि विवेकानंद की दरिद्रनारायण की संकल्पना को साकार किया जाए तो असमानता, गरीबी, गैर-बराबरी, अस्पृश्यता आदि से बिना बल प्रयोग किये ही निपटा जा सकता है तथा एक आदर्श समाज की संकल्पना को साकार किया जा सकता है। हमारी नैतिक प्रकृति अर्थात हमारा चरित्र जितनी उन्नत होता  है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है और उतनी ही अधिक हमारी इच्छा शक्ति बलवती होती है।

'स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी' :  छत्तीसगढ़ के  राज्यपाल  शेखर दत्त  यहां रायपुर में 'रामकृष्ण विवेकानंद आश्रम ' में 'स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी' विषय पर आयोजित परिचर्चा में शामिल हुए। रामकृष्ण मिशन विवेकानंद आश्रम, रायपुर तथा हिन्द स्वराज शोध पीठ के संयुक्प तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम  को संबोधित करते हुए राज्यपाल  दत्त ने कहा कि स्वामी विवेकानंद एवं महात्मा गांधी देश के पहले दो ऐसे महान व्यक्पित्व एवं विचारक है, जिनके विचारों ने न केवल भारतवासियों को अत्यधिक पभावित किया बल्कि पूरी दुनिया को पभावित किया।अपने समय के ऐसे दो महान शक्पिपुंज के विचारों का स्मरण एवं विवेचन अत्यंत पेरणादायक है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था,`मैं उस पभु का सेवक हूं, जिसे अज्ञानी लोग 'मनुष्य' कहते हैं। ' इन शब्दों में स्वामी जी ने अपने जीवन का ध्येय बता दिया। इसी तरह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हमें एक मंत्र दिया था और कहा था जब भी आप संशय की स्थिति में हो तो आप उस व्यक्पि का चेहरा याद करें जो सबसे अधिक गरीब, पी ड़त या दुखी है और ये देखे कि आपके द्वारा लिए जाने वाला निर्णय उस व्यक्पि के जीवन में कैसे अच्छा बदलाव ला सकता है।

दोनों ही महापुरूषों के विचारों में अद्भूत साम्य है। उन्होंने हमें यह राह दिखाई है कि कैसे हमें अपने स्पष्ट विचारों के साथ जीवन में आगे बढ़ना है और उसे मूर्तरूप पदान करना है। दोनों ही महापुरूषों के विचार सामयिक है तथा हमें  भी उनके विचारों की रोशनी में सभी पश्नों के समाधान मिल जाते हैं। हमें उनके विचारें के गहन अध्ययन की जरूरत है।  

छत्तीसगढ़ के  राज्यपाल  शेखर दत्त ने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने यह महसूस किया कि भारतीयों में पराधीनता की भावना 1000 वर्षों की गुलामी से उपजी है तथा यह शारीरिक से अधिक मानसिक व्याधि है। भारत के कल्याण के लिए पहले गुलामी की इस मासिकता `औपनिवेशिक मानसिकता' (colonial mindset) को बदलना अनवार्य है।  स्वामीजी ने पराधीनता की इस स्थिति से उठने के लिए भारतवासियों का आह्वान किया, उन्होंने उद्घोष किया - 'मन की गुलामी से मुक्त होना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है !' उनके इस आह्वान से प्रेरित होकर  गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति का पखर विरोध किया और गुलामी के अपमान को महसूस किया, जिसके कारण उन्होंने देश को आजादी  दिलाने का बीड़ा उठाया।   

उनके विचारों के अनुरूप हमें अपने देश को विकसित देशों की श्रेणी में लाने के लिए स्वयं को सक्षम बनाना होगा तथा एकजुट होकर पूर्ण मनोयोग से दक्षतापूर्वक कार्य करना होगा। विवेकानंद मेमोरियल वड़ोदरा, गुजरात के स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने कहा कि लगभग 116 वर्ष पहले स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों से यह आह्वान किया था कि ' तुम्हारे कमर में भले ही एक छोटा सा वस्त्र हो लेकिन यह मानना की प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।' उनका यह प्रेरणादायक वचन सत्य सिद्ध हुआ जब गांधी जी ने एक छोटा सा वस्त्र धारण कर कहा कि सभी भारतवासी मेरे भाई हैं।

 दरिद्र देवो भवः , मूर्ख देवो भवः या दरिद्र - नारायण शब्द की खोज स्वामी विवेकानंद की देन है जिसे गांधी जी ने जन-जन तक पहुंचाया। स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रीय विचार का मूर्तस्वरूप गांधी जी थे। स्वामी जी के विचार गांधी जी के वचनों के माध्यम से पकट और मुखरित हुआ है। दोनों ही समकालीन थे, लेकिन उनकी मुलाकात संभव न हो सकी। दोनों की विचारधाराओं में समानता मिलती है और पत्रों और विचारों के माध्यम से दोनों की बीच की सूक्ष्म कड़िया मिलती हैं। दोनों ही देशवासियों की समस्याओं के पति व्यथित एवं चिंतित थे। युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद ने यह कहा था कि आने वाले 50वर्षो में हमारा देश बिना युद्ध किया स्वाधीन हो जाएगा। गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन चलाये गये और देश को ादी मिली। 1905 के बंगभंग आंदोलन की पेरणा स्वामी विवेकानंद थे। इस आंदोलन ने गांधी जी के नेतृत्व में होने वाले आंदोलनों के लिए भूमिका तैयार की थी। दोनों महापुरूष ग्रामोंद्धार के पोषक, नारी जागरण के उद्गाता एवं सत्य के महान अन्वेषक थे।

[ साभार http://www.virarjun.com/news-284014/ वीर अर्जुन समाचार, रायपुर,(10 Feb 2014/आरएनएस)] 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (1869-1948) :  गाँधी जी उम्र में स्वामी विवेकानन्द से 6 वर्ष छोटे थे , किन्तु उनका  व्यक्तित्व और कृतित्व भी आदर्शवादी रहा है। महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन में गांधी जी ने शिक्षा को 3R और 3H की संज्ञा दी थी 3R से उनका आशय Reading, Writing, Arithmetic (अर्थात अंको का ज्ञान)  से था, और 3H से उनका आशय Hand, Head ,Heart से था (शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालक का शारीरिक मानसिक और बौद्धिक विकास करें। 

 गाँधीजी ने शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में विभाजित किया है- (अ) तात्कालिक उद्देश्य । (ब) अन्तिम उद्देश्य ।

(अ) शिक्षा का तात्कालिक उद्देश्य- ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(i) बालक की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करके उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना चाहिये।

(ii) बालक के चरित्र का निर्माण करना चाहिये।

(iii) बालक को अपनी संस्कृति को व्यक्त करने का प्रशिक्षण देना।

(iv) बालक को उच्च जीवन की ओर अग्रसारित करना चाहिये।

(v) उसे जीविकोपार्जन के योग्य बनाना।

(ब) अन्तिम उद्देश्य- गाँधीजी के अनुसार, शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य है। “अन्तिम वास्तविकता का अनुभव, ईश्वर और आत्मानुभूति का ज्ञान। “

[साभार /https://sarkariguider.in//]

गांधी जी के अनुसार- ” शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक ओर मनुष्य के शरीर,मन तथा आत्मा का सर्वागीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास होना चाहिए।”गांधी जी मनुष्य को शरीर, मन,ओर आत्मा तीनों का योग मानते थे, उनका कहना था कि शिक्षा द्वारा इनका विकास अवश्य होना चाहिये। महात्मा गांधी जी के अनुसार शिक्षा वह है जो बालक के शरीर , मन और आत्मा का विकास करें। उनका मानना था कि मेरे प्रिय भारत में बच्चों को 3H's विकास की शिक्षा अर्थात् head hand heart के विकास की शिक्षा दी जावे। ताकि शिक्षा उन्हें स्वावलंबी बनाये और वे देश को मतबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। गांधी जी मनुष्य जीवन का अंतिम उद्धेश्य मुक्ति (भ्रममुक्ति) को मानते थे और शिक्षा का उद्देश्य चरित्रवान मनुष्य का निर्माण करना मानते थे। 

शारीरिक विकास – महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन के अनुसार छात्रों को शारीरिक शिक्षा भी प्रदान की जानी चाहिए।शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बालक के शरीर का विकास होना चाहिए क्योंकि उनके अनुसार स्वस्थ शरीर मे ही स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण होता है इसीलिए सबसे पहले उन्होंने शारीरिक विकास पर बल दिया।

मानसिक एवं बौद्धिक विकास – गंधी जी के अनुसार जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए शिशु को माँ के दूध की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए एकाग्रता की शिक्षा लेना आवश्यकता है।

आध्यात्मिक विकास – गांधी जी मनुष्य जीवन का अंतिम उद्धेश्य मुक्ति (अनासक्ति या भ्रममुक्ति) आत्मानुभूति व आत्मबोध मानते हैं।  गांधी जी मानते थे कि शिक्षा के माध्यम से बालक में सत्य,अहिंसा,ब्रमचर्य, आस्तेय  और अपरिग्रह ओर आत्मश्रद्धा आदि चारित्रिक गुणों का विकास होना चाहिए।  गाँधी जी बालक के नैतिक एवं चारित्रिक विकास –के लिए ज्ञान, कर्म, भक्ति और योग पर समान बल देते थे।  

श्रवण-मनन-निदिध्यासन – गांधी जी इस विधि को सर्वोत्तम विधि के रूप में स्वीकार करते थे।  गाँधी जी के अनुसार सर्वप्रथम बालक श्रवण करता है अर्थात सुनता है फिर उसमें मनन करता है अर्थात उसमे चिंतन करता है उसके बारे में सोचता है फिर निदिध्यासन करता है अर्थात फिर क्रिया करता है। शरीर मन और ह्रदय के विकास के लिए यह विधि सर्वोत्तम है ।

Teacher को जीवनमुक्त शिक्षक /मार्गदर्शक नेता बनना होगा –शिक्षक पर गाँधी जी के विचार थे कि शिक्षक मुख्य होता है यह शिक्षा को समाज का आदर्श , ज्ञान के पुण्य और सत्य आचरण करने वाला होना चाहिये। गांधी जी के अनुसार बालक प्रारंभ में अनुकरण द्वारा सीखता है, इसलिए  उसके शरीर , मन और ह्रदय  का विकास अध्यापक के जीवन का अनुकरण द्वारा ही होना चाहिए। इस व्यवसाय को केवल व्यवसाय के रूप में स्वीकार करने वाला व्यक्ति कभी आदर्श शिक्षक नही हो सकता; एव आदर्श शिक्षक वही है जो इस व्यवसाय को निःस्वार्थी मार्गदर्शक नेता द्वारा की गयी सेवा के रूप में कार्य करें । वह बच्चो के पिता , मित्र, सहयोग और पद प्रदर्शक के रूप में कार्य करें। 

Students ~ विद्यार्थी  –शिक्षा की प्रक्रिया का केंद्र होता है विद्यार्थी । विद्यार्थी को अनुशासित रहना चाहिए , अनुशासन तथा ब्रमचर्य का पालन करना चाहिए गाँधी जी शुरू से ही बालक में शरीर , मन , आत्मा के विकास पर बल और आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं।

[साभार /https://sstmaster.com/mahatma-gandhi-ka-siksha-darshan/]

" स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी के शिक्षा सम्बन्धी विचार "  

गांधीजी जब 1901 में पहली बार कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा लेने कलकत्ता पहुंचे तो उन्होंने स्वामी जी से मिलने का प्रयास भी किया था। लेकिन उस समय स्वामीजी मठ में नहीं थे , इसलिए दोनों की मुलाकात न हो सकी थी। बाद में 30 जनवरी 1921 को महात्मा गांधी ने बेलुर मठ में स्वामी विवेकानंद की जयंती के समारोह में हिस्सा लिया। उनसे कुछ कहने का आग्रह किया गया तब उन्होंने आवेग पूर्ण शब्दों में कहा था  “उनके हृदय में दिवंगत स्वामी विवेकानन्द  के लिए बहुत सम्मान है।  स्वामीजी की समस्त रचनाओं का अध्ययन मैंने ध्यानपूर्वक किया है और उन्हें पढ़ने के उपरांत आज मेरे मन में अपने देश के प्रति जो प्रेम है, वह पहले की अपेक्षा कई सहस्त्र गुना बढ़ चुका है। मैं यहाँ आये नौजवानों से आग्रह करता हूँ, स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन से कुछ हासिल किये बिना न जाएँ, ये जगह स्वामी जी की कर्मभूमि रही है और इस पावन धरा पर उन्होंने अपने प्राण भी त्यागे थे। "

[In 1921 on a visit to Belur Math, Mahatma Gandhi movingly spoke of Swami Vivekananda's deep impact on his understanding of India, “I have come here (Belur Math) to pay my homage and respect to the revered memory of Swami Vivekananda, whose birthday is being celebrated today. I have gone through his works very thoroughly, and after having gone through them, the love that I had for my country became a thousand fold. I ask you, young men, not to go away empty-handed without imbibing something of the spirit of the place where Swami Vivekananda lived and died.”] 

"एक अन्य स्थान पर गांधीजी ने कहा था कि कई मामलों में उनके विचार इस महान विभूति के आदर्शों के समान ही हैं। यदि विवेकानन्द आज जीवित होते तो राष्ट्र जागरण में बहुत सहायता मिलती। किंतु उनकी आत्मा हमारे बीच है और उन्हें स्वराज स्थापना के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहा कि उन्हें सबसे पहले अपने देश से प्रेम करना सीखना चाहिए और हिन्दू-मुसलमान सभी देशवासियों का इरादा (लक्ष्य) एक जैसा होना चाहिए।” (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 22, पृष्ठ 291) 

गांधीजी ने एक स्थान पर यह भी बताया था कि अपने ही समृद्ध भाइयों के हाथों “दबाए गए” दरिद्रों के साथ उन्हें वैसी ही सहानुभूति है, जैसी स्वामीजी को थीः “स्वामी विवेकानंद ने ही हमें याद दिलाया कि उच्च वर्ग ने अपने ही लोगों का शोषण किया है और इस तरह अपना ही दमन किया है। आप खुद नीचे गिरे बिना अपने ही स्वजातों को नीचा नहीं दिखा सकते।”( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 30, पृष्ठ 401) 

 उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने आधुनिक भारत के उन निर्माताओं पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला था जिन्होंने बाद में द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त को चुनौती दी थी । इन नेताओं में महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस शामिल थे। एक अप्रैल, 1940 को सेवाग्राम में ‘हरिजन’ के लिए लिखे गए लेख में महात्मा गांधी कहते हैं:‘दो राष्ट्रों का सिद्धांत एक झूठ है। भारत के अधिकांश मुसलमान या तो ऐसे हैं जिन्होंने अपना पुराना धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण किया है या वे इस तरह धर्मांतरण करनेवाले लोगों के वंशज हैं।  इस्लाम स्वीकार करते ही वे अलग राष्ट्र के तो नहीं हो गए। बंगाली मुसलमान वही भाषा बोलता है, जो बंगाली हिंदू बोलते हैं।  वही खाना खाता है जो उसके हिंदू पड़ोसी खाते हैं और उसके मनोरंजन के साधन भी वही हैं जो बंगाली हिन्दुओं के हैं।  वहां के हिंदू और मुसलमान कपड़े भी एक ही तरह के पहनते हैं। पहनावा-ओढ़ावा और बोलचाल के आधार पर बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमान के बीच भेद कर सकना अक्सर  मुश्किल हो जाता है। 'मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सड़कों का नामकरण मुस्लिमों के नाम पर करना द्विराष्ट्र सिद्धांत वाली सोच है। यह उसी तरह की सांप्रदायिक सोच है, जब मुस्लिम लीग ने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग मतदाता सूची की मांग की थी। यह खतरनाक विचार है और इसकी निंदा होनी चाहिए।" जिस समय दोनों पक्षों के बीच सांप्रदायिक तनाव की भावना बहुत ज्यादा थी, उस समय गांधी की आवाज सुनने को कोई तैयार नहीं था; दोनों पक्ष एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। 30 जनवरी 1948 को आखिरकार इन्हीं में से एक उन्मादी शख्श ने गांधी की हत्या कर दी। आज गांधी को गुजरे हुए कई साल हो गए, लोग उनके राजनीतिक अप्रासंगिकता की बात भी करने लगे हैं, लेकिन आज भी मानवता की बात करें, तो सबसे पहले हमें गाँधी ही याद आते हैं।  

 यह स्वामी विवेकानन्द के सकारात्मक विचार ही हैं जिसके कारण अहिंसा अपनाने वाले महात्मा गांधी (1869-1948) जैसे नेता से लेकर बाल गंगाधर तिलक तक, और नेताजी सुभाषचंद्र बोस से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू और बाबा साहब भीमराव आंबेडकर से लेकर वामपंथी नेता ज्योति बसु तक सब उनसे प्रभवित थे। मगर अन्य लोग? हेमचंद्र घोष क्रांतिकारी थे। ढाका मुक्ति संघ के संस्थापक और सबसे अग्रणी नेता थे। उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पाथेर दाबी (1926),जो अपनी क्रांतिकारी विषयवस्तु के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, उसमें वर्णित आदर्श क्रांतिकारी 'सव्यसाची' नाम का पात्र प्रसिद्द क्रांतकारी हेमचंद्र घोष से ही प्रेरित था। कलकत्ता में राइटर्स बिल्डिंग पर धावा बोलने वाले तीन युवा क्रांतिकारियों विनय, बादल और दिनेश के गुरु भी हेमचन्द्र घोष ही थे। 1901 में जब विवेकानन्द ढाका गए तो घोष अपने मित्रों के साथ उनके मिले थे। अपने संस्मरण में वह लिखते है कि स्वामीजी ने उन्हें दोटूक निर्देश दिया थाः “भारत को पहले राजनीतिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि विश्व में कोई भी देश किसी औपनिवेशिक देश का न तो कभी सम्मान करेगा और न ही उसकी बात सुनेगा। और मेरी बात याद रखना कि भारत स्वतंत्र होगा। धरती पर कोई भी ताकत इसे रोक नहीं सकती और मैं मानता हूं कि वह क्षण बहुत दूर नहीं है।”{“India should be free politically first, because nobody in the world comity of nations will ever respect or listen to a colonized country. And take it from me that India shall be free. No power on earth can resist this fact and I tell you, that moment is not very far.”44स्वामी पूर्णात्मानंद, स्वामी विवेकानंद एवं भारतेर स्वाधीनता संग्राम, कोलकाताः उद्बोधन, 1988, पृष्ठ 78 (अर्पिता मित्रा द्वारा बांग्ला से आंशिक अनूदित)}

‘रेमिनिसेंसेस ऑफ़ स्वामी विवेकानंद' पुस्तक में बाल गंगाधर तिलक लिखते हैं कि एक समय जब वो बम्बई के रेलगाड़ी स्टेशन से पुणे जाने के लिए यात्री-डिब्बे में बैठे थे, उसी समय यात्री-डिब्बे में एक संन्यासी ने प्रवेश किया।  वे स्वामीजी थे।  स्वामीजी को जो लोग छोड़ने आये थे, वे बाल गंगाधर तिलक को जानते थे और उन्होंने स्वामीजी से उनका परिचय भी करा दिया था। था और पुणे में तिलक जी के घर पर ही रहने का अनुरोध किया। विश्व धर्म महासभा 1893 की सफलता के बाद जब स्वामीजी के चित्र तिलक जी ने समाचार पत्रों में देखे तो उनको याद आया कि यह वही संन्यासी हैं, जिन्होंने उनके घर पर कुछ दिन तक निवास किया था

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में लिखा, 'विवेकानंद ने दुखी और हतोत्साहित हिंदुओं के दिमाग़ के लिए एक 'टॉनिक' का काम किया और उन्हें विश्वास दिलाया कि उनके अतीत की जड़ें बहुत मज़बूत हैं जिन पर वो गर्व कर सकते हैं। 'नेहरू साफ कहते हैं कि न केवल उनके, बल्कि उनकी पूरी पीढ़ी पर विवेकानंद का गहरा असर रहा।  वे एक जगह इस बात का जिक्र भी करते हैं- ' मैं नहीं जानता कि नई पीढ़ी में से कितने लोग स्वामी विवेदानंद के भाषण और उनके लेखन को पढ़ते हैं लेकिन मैं ये कह सकता हूं कि हमारी पीढ़ी के काफी लोगों पर उनका गहरा असर रहा।  मैं ये भी सलाह देता हूं कि युवा पीढ़ी को भी उन्हें पढ़ना चाहिए।  इससे उन्हें काफी कुछ सीखने का मौका मिलेगा। जवाहरलाल नेहरू खुद काफी शानदार वक्ता हुआ करते थे, लेकिन वे स्वयं स्वामी विवेकानंद के भाषणों से प्रभावित थे।  वे अक्सर इस बात का जिक्र किया करते थे कि कैसे विवेकानंद के भाषणों में अच्छे वक्ता की सारी खूबियां थीं।  नेहरू का मानना था कि उनके भाषण केवल ओज से ही भरे नहीं होते थे, बल्कि उनमें गहरी दृढ़ता और भावना दिखती थी।  ये एक बड़ा कारण है कि वे जब भी बोले, सुनने वालों पर गहरा असर छोड़ गए।  अपनी अन्य पुस्तक ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखते हैं – रामकृष्ण के एक प्रसिद्ध शिष्य स्वामी विवेकानंद थे, जिन्होंने बहुत ही स्पष्ट रूप से राष्ट्रवाद का प्रचार किया. यह किसी भी तरह से मुस्लिम विरोधी या किसी और के विरोधी नहीं थे, और न ही यह संकीर्ण राष्ट्रवाद था।

डाक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर (April 14, 1891 – December 6, 1956)  का स्वामीजी के प्रति भाव : स्वामीजी का संदेश था कि सामान्य व्यक्ति का उत्थान करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है और सभी को अपने आचरण  द्वारा इस धर्म का पालन करना चाहिए। स्वामीजी के इस संदेश को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने प्रत्यक्ष रुप में साकार किया। अज्ञान से ग्रस्त दलित समाज का आत्मसम्मान जगाया। वंचित समाज को उन्होंने 'उठो, जगो और संगठित बनो' का संदेश दिया। बाबासाहब का यह कार्य असामान्य है। इस देश का उपेक्षित समाज स्वामीजी के चिंतन और बाबासाहब के कार्य का साझा लक्ष्य था। जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव एमओ मथाई की पुस्तक ‘रेमिनिसन्स ऑफ नेहरू एज‘ के अनुसार बाबा साहब अम्बेडर के साथ मथाई के संवाद के दौरान अम्बेडर जी ने कहा था, ‘हाल की शताब्दियों में भारत में जन्मे सबसे महान आदमी, गांधी नहीं, बल्कि विवेकानन्द हैं।  बाबा साहब का स्वामी विवेकानंद को सबसे महान बताना उनके स्वामीजी के प्रति सकारात्मक भाव को बताता है। 

 कलकत्ता में राइटर्स बिल्डिंग पर धावा बोलने वाले - बिनय, बादल, दिनेश जैसे क्रांतिकारी नेता, सभी ने विवेकानन्द की विराट देशभक्ति से बराबर प्रेरणा प्राप्त की। स्वामी विवेकानन्द ने तो अरविंद घोष (1872-1950) पर भी गहरा आध्यात्मिक प्रभाव डाला था। श्री अरविंद ने कहा है कि अलीपुर जेल में स्वामीजी की आत्मा से कई बार उनका साक्षात्कार हुआ और स्वामीजी ने उन्हें आध्यात्मिक चेतना के उच्चतर स्तरों के बारे में बताया था।  “यह सत्य है कि कारागार में एकांत में ध्यान साधना के समय, मैं एक पखवाड़े तक लगातार विवेकानन्द की आवाज सुनता रहा, जो मुझसे बात कर रहे थे। मैंने उनकी उपस्थिति भी अनुभव की। मेरे लिए वे  रामकृष्ण ही थे, जो स्वयं आए और मुझे इस योग की ओर प्रवृत्त किया।" (कंपलीट वर्क्स ऑफ श्री अरविंद, खंड 36, पॉण्डिेचेरीः श्री अरविंद आश्रम ट्रस्ट, 2006)  

आज हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमें अपनी विचारधारा को  किसी दूसरे के ऊपर थोपने की जरूरत नहीं है। बल्कि हमें तो युवा आदर्श विवेकानन्द की विचारधारा - “सबसे पहले चरित्रवान बनो। यदि तुम मां भारती की सेवा करना चाहते हो तो वीर बनो। पहले तुम स्वयं शक्ति और साहस अर्जित करो, उसके बाद उन्हें पीड़ा (Colonial mindset) से मुक्त कराने चलो।”

हेमचंद्र स्वामी विवेकानन्द को किसी दूरस्थ आदर्श 'distant idol ~ देव प्रतिमा या पूजित मनुष्य' के रूप  में नहीं देखते थे, बल्कि भारतीय युवाओं का मार्गदर्शन करने वाले बड़े भाई  - के रूप में देखते थे ! वे उन्हें एक ऐसे मार्गदर्शक नेता (C-IN-C नवनीदा) के रूप में देखते थे, जिसने युवावस्था में ही देश के कल्याण के लिए अपने प्राणो को न्योछावर कर दिया था ! इसीलिए वे उन सभी क्रान्तिकारी युवाओं के हृदयस्थ आराध्य थे जिन्होंने बहुत कम आयु में ही भारत माता के लिए अपने प्राणो की आहुति चढ़ा दी थी।

[ Hemchandra fondly remembered Swamiji not as a distant idol, but as an elder brother who showed the way to the Indian youth, as somebody very close to the heart of the revolutionaries who sacrificed their lives at such a young age for the country. (स्वामी पूर्णात्मानंद, संपादित, 'स्मृतिर आलोय स्वामीजी ', कोलकाता: उद्बोधन, 1989, पृष्ठ 228 (अर्पिता मित्रा द्वारा बांग्ला से अनूदित/ साभार/ Published on Vivekananda International  Foundation/ https://www.vifindia.org/print/8083?)आज दुनिया में कहीं भी किसी भी देश की कोई कॉलोनी नहीं है लेकिन ब्रिटश भारत में पाई जाने वाली गुलामी की मानसिकता (Colonial Mindset, औपनिवेशिक मानसिकता) अब भी बरकरार है।  ब्रिटिश और मुगलों के द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण  के परिणामस्वरूप लोगों द्वारा महसूस की गई जातीय या सांस्कृतिक हीनता का आंतरिक दृष्टिकोण को ही  गुलामी की मानसिकता या  औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset ) कहते हैं। यह औपनिवेशिक मानसिकता  इस विश्वास के साथ मेल खाती है कि उपनिवेशक देश या ब्रिटिश-जाति के सांस्कृतिक मूल्य स्वाभाविक रूप से अपने आप में भारत के प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों से भी श्रेष्ठ हैं। तभी तो उन्हें (हिन्दू जाति को) दूसरे समूह द्वारा उपनिवेशित या गुलाम बनाया जा सका है। इसी गुलामी की मानसिकता से पीड़ित होकर ही प्रसिद्द सामाजिक-धार्मिक सुधारक ( socio-religious reformer) राजा राममोहन राय  (1772 — 1833) ने  मैकॉले से क़रीब बारह साल पहले अंग्रेज़ viceroy को एक पत्र में लिखा था कि संस्कृत पढ़ने से भारत तरक्की नहीं कर सकता, जिसके परिणाम स्वरुप मैकाले की शिक्षानीति भारत पर थोप दी गयी। इस मानसिकता ने कई विकृत विचारों को जन्म दिया है। वर्तमान समय में इसका सबसे बड़ा उदाहरण पर्यावरण प्रदूषण  (Carbon Emission ) को मुद्दा बनाकर विकासशील देशों की प्रगति की राह में अड़चने खड़ा करना है। औपनिवेशिक मानसिकता का अजेंडा ही विकासशील देशों की प्रगति को रोकना है। विकसित देशों ने जिन रास्तों और संसाधनों का इस्तेमाल करके खुद तो तरक्की कर ली लेकिन वे नहीं चाहते कि विकासशील देश भी उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करके आगे बढ़ें। 

[Retranslate- मंगलवार, 27 अप्रैल 2010/" महामंडल का उद्देश्य एवं कार्यपद्धति " (Aims and Objects of Mahamandal) तैयार हुआ।  तो इस प्रकार युवाओं की औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) को बदलने के लिए 'प्रशिक्षक -प्रशिक्षण शिविर' (SPTC या OTC ) का आयोजन करने के लिए  1967 में महामण्डल को अविर्भूत होना पड़ा।  औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) को बदलने का युवा -प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया है । " 

🔆🙏भारत की आजादी के 75 वां वर्ष का अमृत महोत्स्व : औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) को बदलने के लिए,  29 जनवरी 2022 को  गणतंत्र दिवस  समाप्ति समारोह  'Beating The retreat ' (जो युद्ध में विजय के बाद , सेना की बैरक वापसी का प्रतिक है) को पहली बार एक विषेश रूप में  आयोजित किया गया।  

विगत 70 वर्षों से औपनिवेशिक मानसिकता ग्रस्त भारत में स्वतंत्रता का जो अर्थ समझकर- ' तूँ हूँ लूटऽ हमहूँ लूटीं, लूटे के आजादी बा,  सबले अधिका उहे लूटी, जेकरा देह पर खादी बा। ' देश को जिस प्रकार लूटा जा रहा है - उसे देखकर  हम शर्मिंदा हैं।  हर जगह, जहाँ भी हम जाते हैं, हम देखते हैं कि यह एक नकली स्वतंत्रता है (Spurious Independence), हमारे पास वास्तविक स्वतंत्रता नहीं है;  भारत में ऐसा क्या है? अभी भी देश पर जो औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) हावी है, उसे बदलना आवश्यक है। औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) को बदलना  तभी सम्भव है जब हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था में आधारित औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) को बदल कर 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त  लीडरशिप परम्परा "Be and Make "  में आधारित स्वामी जी की 'मनुष्य-निर्माण पर चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा नीति'  को लागु कर सकें।

2022  के गणतंत्र दिवस  समाप्ति समारोह  'Beating The retreat ' (जो युद्ध में विजय के बाद , सेना की बैरक वापसी का प्रतिक है) को जब रायसीना हिल्स स्थित राजपथ के 'विजय चौक ' पर आयोजित किया गया; तब भारत के प्रधानमंत्री मोदी के निर्देशानुसार भारत की थल सेना , वायु सेना और नौसेना की बैण्ड ने पहली बार अपनी पारम्परिक धुनों की समाप्ति 'हे मेरे वतन के लोगों को जरा आँख में भर लो पानी' की धुन बजाकर किया। इसके पहले तक 1857 ई ० में लिखित एक इसाई भजन (Christian hymn) "Abide with Me"  की धुन को गाँधीजी की प्रिय धुन बताकर की जाती थी, जबकि गाँधी की प्रिय धुन -'रघुपति राघव राजाराम' , और 'वैष्णवजन तो तेने कहिये' है। तब भारत के लोगों को यह समझ में आया कि........ " किसी भी प्रकार से केवल स्वतंत्रता प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है ! बल्कि औपनिवेशिक मानसिकता (Colonial Mindset) को बदलना भी अनिवार्य है।

\वह तभी सम्भव हो सकता है..अगर हमारे पास 'Proper Men' योग्य और चरित्रवान मनुष्य' (3H में विकसित मनुष्य) हों! ऐसे मनुष्य तैयार किये जाएँ ..जिनमें अपने देश के प्रति प्रेम हो,   अपने माता-पिता के लिए प्यार हो, माता पहले, फिर पिता और अन्य बुजुर्ग लोग हैं, उनके लिए गहरा सम्मान होना चाहिए। युवाओं को जितना संभव हो सके, अपने आराम ,अपनी मौज-मस्ती और दिखावा करना छोड़कर, अपने माता-पिता तथा घर के अन्य बुजुर्ग की   सेवा करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

[स्वामी विवेकानन्द के शिष्य थे स्वामी अशोकानन्द, जिन्होंने 1928 में महात्मा गांधी के साथ मतभेद करने का साहस किया था। 23 अक्टूबर, 1951 को उनके और उनकी शिष्या मैरी लुईस बर्क के बीच कुछ दिलचस्प बातचीत नीचे दी गई है: -

स्वामी अशोकानन्द: इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी एक बहुत ही पवित्र व्यक्ति थे; लेकिन साथ ही वे एक मूर्ख व्यक्ति भी थे।

मैं: क्या वे राजनीतिक दृष्टि से मूर्ख थे ?

स्वामी अशोकानन्द : मैंने उन्हें सीधा कहा- एक मूर्ख व्यक्ति (जिनको स्वामी जी मूर्ख देवो भवः कहते थे !) कहा ; मैंने इसे परिमित (क्वालिफाई) नहीं किया। उनका एक दिल पसन्द खेल था - 'अहिंसा', अपने इस शौक को उन्होंने 'भारत-कल्याण' (राष्ट्रवाद) से भी ऊपर समझ लिया। भारत को जो चाहिए , वह है शक्ति ! -जैसा स्वामीजी ने शिक्षा दी थी। भारतीय लोग (देश के रक्षक सैनिक  समझे जाने वाले क्षत्रिय भी) सदियों से (अशोक के बौद्ध बन जाने के बाद से ही) कट्टर शाकाहारी (grass eaters) बन गए थे। जिसका परिणाम हुआ 1000 वर्ष की गुलामी।        

Swami Ashokananda was Vivekananda's disciple, who had the courage to differ with Mahatma Gandhi in 1928. Some interesting conversation between him and his disciple Marie Louise Burke on 23rd October, 1951 is given below:-   

Swami : Gandhi was a very holy man; there is no doubt of that, but he was a stupid man.                         

Me : Politically Stupid?         

Swami: I said a stupid man; I did not qualify it. He had a hobby,  and he put his hobby (ahimsa) before the good of his country. What India needs is what Swamiji taught. Strength ! They have been grass eaters for too long. Which resulted in 1000 years of slavery. ]

महात्मा गांधी कैसे बने ‘राष्ट्रपिता’ ? : यह बात तो सभी जानते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस विवेकानन्द के कितने ऋणी थे। स्वामीजी के विचारों ने  सुभाषचंद्र बोस के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाये थे। सुभाष चंद्र बोस का स्वामीजी के साहित्य से परिचय महज़ 15 वर्ष की उम्र में हुआ था।  स्वामजी को पढ़ने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने कहा की उनका पूरा जीवन ही बदल गया और भटकाव खत्म होने लगा, उसके बाद उन्होंने पूरे जीवन स्वामजी का अनुकरण किया। सुभाष चंद्र बोस ने ही महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर पहली बार 4 जून 1944 को सिंगापुर रेडिया से राष्ट्र के नाम एक संदेश प्रसारित करते हुए संबोधित किया था !  हालांकि सुभाष चंद्र बोस और गांधी के बीच काफी वैचारिक मतभेद थे. इसके बावजूद वो महात्मा गांधी का सम्मान करते थे. 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘राष्ट्रपिता अब नहीं रहे.’ हालांकि भारत सरकार की तरफ से उन्हें इस तरह की कोई उपाधि नहीं दी गई है. संविधान का अनुच्छेद 8(1) शैक्षिक और सैन्य खिताब के अलावा कोई और उपाधि देने का अधिकार केंद्र सरकार को नहीं देता है। इसीलिए जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पीएम मोदी की प्रशंसा करते हुए उन्हें ‘फ़ादर ऑफ़ इंडिया’ (father of India) कह दिया; तब कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने अमेरिका के इस बयान पर आपत्ति ज़ाहिर करते हुए  कहा - ‘क्या अब अमेरिकी तय करेंगे कि राष्ट्रपिता कौन है? वहीं केंद्रीय मंत्री जीतेंद्र सिंह ने ट्रंप के बयान को देश के लिए गौरव का विषय बताया है. उन्होंने कहा कि ये पीएम मोदी के व्यक्तित्व का जादू है जो अमेरिकी राष्ट्रपति ने उन्हें ‘फ़ादर ऑफ़ इंडिया’ कहकर बुलाया है।  इससे पहले कभी भी भारत के प्रधानमंत्री के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा इस तरह के प्रशंसा के शब्द का प्रयोग नहीं किया गया. ये पूरे देश के लिए सम्मान की बात है।  कांग्रेस को अगर आपत्ति है तो वह डोनाल्ड ट्रंप से बात कर लें।

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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

आदिशंङ्कराचार्यकृत 'प्रश्नोत्तर-मणिमाला' ['न दैन्यं न पलायनम ~न ढूँढ़ो , न टालो ~ आम-मुखत्यारी दे दो' (Neither seek nor avoid ~Give power of attorney to God!)]

 आदिशंङ्कराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमाला : 

गीता गीता कहत कहत , त्यागी त्यागी होहि। 

त्याग गीता का सार है , कह ठाकुर निरमोही।।

श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'गीता शब्द का लगातार उच्चारण करने से 'गीता_गीता_गी_तागी ..... ' अर्थात 'त्यागी त्यागी ' निकलने लगता है। अर्थात गीता यही कहती है कि 'हे जीव , सर्वस्व का त्याग कर ईश्वर के पादपद्मों में चित्त लगा।'       

लेकिन ' त्याग ' का सही अर्थ क्या है ? इसे समझने में विद्वान् लोग भी भूल कर बैठते हैं। क्योंकि "इस बात का विचार करने में कई कठिनाइयां पैदा होती हैं कि क्या किया जाना चाहिए, और क्या नहीं किया जाना चाहिए ?" [What should be done, and what should not be done"?] क्योंकि कृत्यों को क्रियान्वित करने में समस्याएं आती हैं, इसीलिए कृत्यों का त्याग नहीं किया जाना चाहिए। गीता में कहे गए त्याग का मतलब हमारे दैनन्दिन कर्तव्यों  को छोड़ना और एक मठ का संन्यासी जीवन व्यतीत करने के लिए एक वैरागी बनना नहीं है। और न इसका मतलब गृहस्थ धर्म का पालन करने के प्रति उदासीन हो जाना ही है।  एक बार हमको पता चल जाए कि लोकसंग्रह या जन कल्याण के लिए क्या अच्छा है, उसे हमें  पूरी ईमानदारी, पूरे विश्वास के साथ और सफलता या विफलता की चिंता किए बिना कृत्य को करने में खुद को संलग्न करना चाहिए  गीता में त्याग कृत्य के त्याग करने को संदर्भित नहीं करती है, अपितु यह कृत्य में अभिमान (मिथ्या अहं) के त्याग का संकेत देती है। इसका मतलब है अपना कर्तव्य निभाना लेकिन एक वैरागी मन के साथ सभी कृत्यों को केवल भगवान को समर्पित करते हुए सांसारिक लाभ के बारे में सोचे बिना। यह समर्पण त्याग का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। कोई भी व्यक्ति मानवता की सेवा करने में तभी सक्षम होता है जब वह अपने कृत्यों को कुशलता के साथ, दक्षता से और परिणाम की चिंता किए बिना करता है।

'न दैन्यं न पलायनम ~न ढूँढ़ो , न टालो ~ आम-मुखत्यारी दे दो'[Neither seek nor avoid ~Give power of attorney to God!]  माँ काली या अवतारवरिष्ठ को आम-मुखत्यारी देने,  शरणागत होने,  या ईश्वर का अखण्ड स्मरण करते हुए पहले अपने चरित्र का निर्माण करके जगत् की सेवा करने के सिद्धान्त को ऐसी कोई व्यर्थ की कल्पना नहीं समझना चाहिए, जो हमें जगत् की भौतिक सत्यता से पलायन करना करना सिखलाती हों। जगत् में कुशलता- पूर्वक कार्य करके सफलता पाने के लिए मनुष्य़ को अपने चरित्र को ऊँचा उठाना (अपनी योग्यता और स्वभाव को ऊँचा उठाना) आवश्यक है। अखण्ड ईश्वर का स्मरण [ अवतार वरिष्ठ का स्मरण या अद्वैतवादी हो तो अपने आत्मस्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरुप) का स्मरण] वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने मन को सदा अथक उत्साह और आनन्दपूर्ण प्रेरणा के भाव में रख कर एक चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं। अतः हमें चरित्र-निर्माण के लिए उठ खड़ा होना होगा -

" तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।

 मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥

 (गीता -11.33)

[ तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशो लभस्व/ जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्/ मया एव एते निहताः पूर्वम् एव/ निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥

इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो। (हे बायें हाथ से भी बाण चलाने में निपुण - अर्जुन तुम दोनों हाथोंसे बाण चलाओ अर्थात् युद्धमें अपनी पूरी शक्ति लगाओ, पर,बनना है निमित्त मात्र।) निमित्तमात्र बनने का तात्पर्य अपने बल, बुद्धि, पराक्रम आदि को सम्पूर्ण रूप से  लगाना है,  परन्तु मैंने मार दिया, मैंने विजय प्राप्त कर ली -- यह अभिमान नहीं करना है।  क्योंकि ये सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इसलिये तुम्हें केवल निमित्तमात्र बनना है, कोई नया काम नहीं करना है। ]

यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सीधे और स्पष्ट शब्दों में आश्वस्त करते हैं कि उसको उठ खड़े होकर काल (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) के आश्रय से सफलता और वैभव को प्राप्त करना चाहिए। अधर्मियों की शक्ति और सार्मथ्य कितनी ही अधिक क्यों न हो  लोक क्षयकारी महाकाल की शक्ति (माँ  जगदम्बा) ने पहले ही उन्हें मार दिया है। अर्जुन को केवल आगे बढ़कर एक वीर पुरुष की भूमिका निभाते हुए विजय के मुकुट को प्राप्त कर लेना है। हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं , तुम केवल निमित्त बनो। 

वस्तुतः  प्रत्येक विचारशील पुरुष को इस तथ्य का स्पष्ट ज्ञान होता है कि जीवन में वह ईश्वर के हाथों में केवल एक निमित्त ही है। परन्तु सामान्यत हम इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते।  क्योंकि हमारा गर्वभरा अभिमान (मिथ्या अहं)  इतनी सरलता से निवृत्त नहीं होता  (माँ  जगदम्बा के मातृहृदय के  सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित नहीं होता)  कि हमारा शुद्ध दिव्य स्वरूप अपनी सर्वशक्ति से हमारे द्वारा कार्य कर सके। अहंकारी (देहाध्यास -भेंड़शिशु या स्वयं को देह मानने वाले) व्यक्ति को यह जगत् एक बोझ या समस्या प्रतीत होता है। और जिस सीमा तक वह स्वयं को (अपने अहंकार को) किसी महान् और श्रेष्ठ आदर्श (अवतार वरिष्ठ) के प्रति समर्पित कर देता है, उसी सीमा में (पूर्ण भ्रममुक्त अवस्था De-hypnotized अवस्था में)  यह जगत् और उसकी उपलब्धियाँ निश्चित सफलता का खेल बन जाती है। इसके पूर्व भी गीता में अनेक स्थलों पर स्पष्टत सूचित किया गया है कि अहंकार के समर्पण से हममें अन्तर्निहित महानतर क्षमताओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है। उसी विचार को यहाँ दोहराया गया है।

त्याग के सही मर्म को समझने में आदि शंकराचार्य जी की 'प्रश्नोत्तर-मणिमाला' बहुत ही उपादेय पुस्तिका है। जान पड़ता है कि यह पुस्तिका विशेष रूप से संन्यासियों के लिए ही लिखी गयी थी। लेकिन इसमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी गृहस्थों के भी के काम की हैं। सन्यासियों के लिए 'कामिनी -कांचन' को बाह्य रूप से भी त्याग करना अनिवार्य है। लेकिन गृहस्थों को तो आजीवन कामिनी-कांचन के संसर्ग में ही रहना पड़ता है। संसार में (गृहस्थ जीवन में) मनुष्य विशेष रूप से कामिनी-कांचन (स्त्री, धन और पुत्रादि पदार्थों) में अत्यधिक आसक्त हो जाने के कारण ही बन्धन में रहता है, अतः 'कामिनी-कांचन' से वैराग्य होने में ही कल्याण है। कामिनी (स्त्री) में अनासक्त होने के लिए  विशेष जोर देने का कारण भी स्पष्ट है।  धन, पुत्रादि छोडने वाले भी प्राय: स्त्रियों में आसक्त देखे जाते हैं।  वास्तव में यह दोष स्त्रियों का नहीं है, परन्तु मन बड़ा चंचल है, यह दोष तो पुरुषों के बिगड़े हुए मन का है।   इसलिए संन्यासियों  को तो  हर तरह से , यहाँ तक कि स्त्रियों का चित्र देखने से अलग ही रहना चाहिए। उसी प्रकार स्त्रियों को भी यदि भ्रम मुक्त होने के लिए पुरुष की कामना से अनासक्त होना हो, तो स्त्री-पुरुष दोनों को इसके प्रत्येक प्रश्न और उत्तर पर मनन पूर्वक विचार करना आवश्यक है। अत: उनसे हम लोगों को पूरा लाभ उठाना चाहिए। अतः 'वैराग्य और अभ्यास' की सहायता से - उन्हें बिना रुके 'लक्ष्य' प्राप्त होने तक (अर्थात भ्रममुक्त, ब्रह्मविद, या dehypnotized होने तक) 'कामिनी -कांचन '(स्त्री, पुत्र, धन आदि संसार के सभी नश्वर पदार्थों) में  पूर्णतः अनासक्त हो जाने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। 

अपार संसार समुद्र मध्ये,

निमज्जतो मे शरणं किमस्ति। 

गुरो कृपालो कृपया वदैतत् ,

विश्वेश्वर पादाम्बुज दीर्घ नौका।। १ । 

प्र: हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसार रुपी समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है?

उ: विश्वपति परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) के चरणकमलरूपी जहाज। 

बद्धो हि को यो विषयानुरागी

का वा विमुक्तिर्विषये विरक्तिः।

को वास्ति घोरो नरकः स्वदेह-

स्तृष्णाक्षयः स्वर्गपदं किमस्ति। 2 ।

प्र: वास्तव में बंधा कौन है? -

उ: जो विषयों में आसक्त है।

प्र: विमुक्ति क्या है?

उ: विषयों से वैराग्य।

प्र: घोर नरक क्या है?

उ: अपने नश्वर शरीर में आसक्ति -देहाध्यास ।

प्र: स्वर्ग का पद क्या है?

उ: तृष्णा का नाश होना।

संसारहृत्कः श्रुतिजात्मबोधः को मोक्षहेतुः कथितः स एव।

द्वारं किमेकं नरकस्य नारी का स्वर्गदा प्राणभृतामहिंसा। ३ ।

प्र: संसार जन्म-मृत्यु के चक्र को हरनेवाला कौन है ?

उ: वेद से उत्पन्न आत्मज्ञान ।

प्र: मोक्ष का कारण क्या कहा गया है ?

उ: वही आत्मज्ञान ।

प्र: नरक का प्रधान द्वार क्या है ?

उ: नारी । (उसी प्रकार स्त्रियों में पुरुषों की कामना) 

प्र: स्वर्ग को देनेवाली क्या है ?

उ: जीवमात्र की अहिंसा ।

शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।

के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि। ४ 

प्र: (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ?

उ: जो परमत्मा के स्वरुप में स्थित है ।

प्र: और कौन जागता है ?

उ: सत और असत के तत्व का जानने वाला ।

प्र: शत्रु कौन हैं ?

उ: अपनी अवशिभूत मन और इन्द्रियां; परन्तु जो जीती हुई हों तो वही मित्र हैं ।

को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः।

जीवन्मृतः कस्तु निरुद्यमो यः किं वामृतं स्यात्सुखदा निराशा। ५ ।

प्र: दरिद्र कौन है ?

उ: भारी तृष्णा वाला ।

प्र: धनवान कौन है ?

उ: जिसे सब तरह से संतोष है ।

प्र: (वास्तव में) जीते जी मरा कौन है ?

उ: जो पुरुषार्थहीन है ।

प्र: अमृत क्या हो सकता है ?

उ: सुख देने वाली निराशा (आशा से रहित होना) ।

पाशो हि को यो ममताभिमानः सम्मोहयत्येव सुरेव का स्त्री।

को वा महान्धो मदनातुरो यो मृत्युश्च को वापयशः स्वकीयम् । ६ ।

प्र: वास्तव में फांसी क्या है ?

उ: जो 'मैं' और 'मेरा' पन है ।

प्र: मदिरा की तरह क्या चीज़ निश्चय ही मोहित कर देती है ?

उ: नारी । (स्त्रियों के लिए पुरुष का आकर्षण)  

प्र: बड़ा भारी अन्धा कौन है ?

उ: जो कामवश व्याकुल है ।

प्र: मृत्यु क्या है ?

उ: अपनी अपकीर्ति ।

को व गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा 

शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव।

को दीर्घरोगो भव एव साधो

किमौषधं तस्य विचार एव। ७ ।

प्र: गुरु कौन है ?

उ: जो केवल हित का ही उपदेश करनेवाला है ।

प्र: शिष्य कौन है ?

उ: जो गुरु का भक्त है ।

प्र: बड़ा भरी रोग क्या है ?

उ: हे साधो ! बार बार जन्म लेना ही ।

प्र: उसकी दवा क्या है ?

उ: परमात्मा के स्वरुप का मनन ।

किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं

तीर्थं परं किं स्वमानो विशुद्धं।

किमत्र हेयं कनकं च कान्ता

श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यं । ८ ।

प्र: भूषणो में उत्तम भूषण क्या है ?

उ: उत्तम चरित्र ।

प्र: सबसे उत्तम तीर्थ (प्रयागराज-संगम) क्या है ?

उ: अपना मन जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो ।

प्र: इस संसार में त्यागने योग्य क्या है ?

उ: काञ्चन और कामिनी ।

प्र: सदा (मन लगाकर) सुनने योग्य क्या है ?

उ: वेद और गुरु का वचन ।

के हेतवो ब्रह्मगतेस्तु सन्ति 

सत्संङ्गतिर्दानविचारतोषाः

के सन्ति सन्तोऽखिलवीतरागा 

अपास्तमोहाः शिवतत्त्वनिष्ठाः । ९ ।

प्र: परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या साधन हैं ?

उ: सत्संग, सात्विक दान, परमेश्वर के स्वरुप का मनन और संतोष ।

प्र: महात्मा कौन हैं ?

उ: सम्पूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गयी है, जिनका अज्ञान नाश हो चुका है और जो कल्याण रूप परमात्मतत्त्व में स्थित हैं ।

को वा ज्वरः प्राणभृतां हि चिन्ता

मूर्खोस्ति को यस्तु विवेकहीनः।

कार्या प्रिया का शिवविष्णुभक्तिः 

किं जीवनं दोषविवर्जितं यत् । १० ।

प्र: प्राणियों के लिए वास्तव में ज्वर क्या है ?

उ: चिन्ता ।

प्र: मूर्ख कौन है ?

उ: जो विचारहीन है ।

प्र: करनेयोग्य प्यारी क्रिया क्या है ?

उ: शिव और विष्णु की भक्ति ।

प्र: वास्तव में जीवन कौन सा है ?

उ: जो सर्वथा निर्दोष है ।

विद्या हि का या ब्रह्मगतिप्रदा या 

बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः ।

को लाभ आत्मावगमो हि यो वै

जितं जगत्केन मनो हि येन । ११ ।

प्र: वास्तव में विद्या कौन सी है ?

उ: जो परमात्मा को प्राप्त करा देने वाली है ।

प्र: वास्तविक ज्ञान क्या है ?

उ: जो यथार्थ मुक्ति (भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति-De-Hypnotizedका कारण है ।

प्र: यथार्थ लाभ क्या है ?

उ: जो परमात्मा (इन्द्रियातीत सत्य) कि प्राप्ति है, वही ।

प्र: जगत को किसने जीता ?

उ: जिसने मन को जीता ।

शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा 

मनोजबाणैर्व्यथितो न यस्तु।

प्राज्ञोऽथ धीरश्च समस्तु को वा 

प्राप्तो न मोहं ललनाकटाक्षैः। १२ ।

प्र: वीरों में सबसे बड़ा वीर कौन है ?

उ: जो कामबाणों से पीड़ित नहीं होता ।

प्र: बुद्धिमान, समदर्शी और धीरपुरुष कौन है ?

उ: जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोह को प्राप्त न हो ।

विषाद्विषम् किं विषयाः समस्ता 

दुःखी सदा को विषयानुरागी।  

धन्योस्ति को यो परोपकारी 

कः पूजनीयः शिवतत्वनिष्ठः। १३ ।

प्र: विष से भी भारी विष कौन है ?

उ: सारे विषयभोग ।

प्र: सदा दुःखी कौन है ?

उ: जो Hypnotized होकर संसार के भोगों में आसक्त है (सिंह शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझता है) ।

प्र: धन्य कौन है ?

उ: जो परोपकारी है ?

प्र: पूजनीय कौन है ?

उ: कल्याणरूप परमात्मतत्व में स्थित महात्मा ।

विज्ञान्महाविज्ञतमोऽस्ति को वा

नार्या पिशाच्या न च वञ्चितो यः।

का शृंखला प्राणभृतां हि नारी 

दिव्यं व्रतं किं च समस्तदैन्यम् । १५ ।

प्र: समझदारों में सबसे अच्छा समझदार कौन है ?

उ: जो स्त्रीरूप पिशाचिनी से नहीं ठगा गया है ।

प्र: प्राणियों के लिए सांकल क्या है ?

उ: नारी ही ।

ज्ञातुं न शक्यं च किमस्ति सर्वै-

र्योषिन्मनो यच्चरितं तदीयम् ।

का दुस्त्यजा सर्वजनैर्दुराशा 

विद्याविहीनः पशुरस्ती को वा । १६ । 

प्र: सब किसी के लिए क्या जानना सम्भव नहीं है ? 

उ: स्त्री का मन और उसका चरित्र ।

प्र: सब लोगों के लिए क्या त्यागना कठिन है ?

उ: बुरी वासना (विषयभोग और पाप की इच्छाएं-मिथ्या अहं)

प्र: पशु कौन है ?

उ: जो सद्विद्या से रहित (मूर्ख) है ।

वासो न सङ्गः सह कैर्विधेयो

मूर्खैश्च नीचैश्च खलैश्च पापैः ।

मुमुक्षुणा किं त्वरितं विधेयं 

सतसङ्गतिर्निममतेशभक्तिः  । १७ ।

प्र: किन-किन के साथ निवास और संग नहीं करना चाहिए ?

उ: मूर्ख, नीच, दुष्ट और पापियों के साथ ।

प्र: मुक्ति चाहनेवालों को तुरन्त क्या करना चाहिए ?

उ: सत्संग, ममता का त्याग और परमेश्वर की भक्ति ।

लघुत्वमूलं च किमर्थितैव

गुरुत्वमूलं यदयाचनं च ।

जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म

को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः । १८ ।

प्र: छोटेपन की जड़ क्या है ?

उ: याचना ही ।

प्र: बड़प्पन की जड़ क्या है ?

उ: कुछ भी न माँगना ।

प्र: किसका जन्म सराहनीय है ?

उ: जिसका फिर जन्म न हो ।

प्र: किसकी मृत्यु सराहनीय है ?

उ: जिसकी फिर मृत्यु नहीं होती ।

मूकोऽस्ति को वा बधिरश्च को वा

वक्तुं न युक्तं समाये समर्थः।

तथ्यं सुपथ्यं न शृणोति वाक्यं 

विश्वासपात्रं न किमस्ति नारि । १९ ।

प्र: गूंगा कौन है ?

उ: जो समयपर उचित वचन कहने में समर्थ नहीं है ।

प्र: और बहिरा कौन है ?

उ: जो यथार्थ और हितकर वचन नहीं सुनता ।

प्र: विश्वास के योग्य कौन नहीं है ?

उ: नारी (जो भ्रमित, स्त्री या पुरुष है)।

तत्त्वं किमेकं शिवमद्वितीयं

किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति ।

त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव सम्यग 

देयं परं किं त्वभयं सदैव । २० ।

प्र: एक तत्त्व क्या है ?

उ: अद्वितीय कल्याण तत्व (परमात्मा) ।

प्र: सबसे उत्तम क्या है ?

उ: जो उत्तम आचरण है ।

प्र: कौन सा सुख तज देना चाहिए ?

उ: सब प्रकार से स्त्री (या पुरुष) का सुख ही ।

प्र: देने योग्य उत्तम दान क्या है ?

उ: सदा अभय ही ।

शत्रोर्महाशत्रुतमोऽस्ति को वा

कामः सकोपानृतलोभतृष्णः।

न पूर्यते को विषयैः स एव

किं दुःखमूलं ममताभिधानम् । २१ ।

प्र: शत्रुओं में सबसे बड़ा भारी शत्रु कौन है ?

उ: क्रोध, झूठ, लोभ और तृष्णासाहित काम ।

प्र: विषयभोगों से कौन तृप्त नहीं होता ?

उ: वही काम ।

प्र: दुःख की जड़ क्या है ?

उ: ममता नामक दोष ।

किं मण्डनं साक्षरता मुखस्य 

सत्यं च किं भूतहितं सदैव ।

किं कर्म कृत्वा न हि शोचनीयं 

कामारिकंसारिसमर्चनाख्यम् । २२ ।

प्र: मुख का भूषन क्या है ?

उ: विद्वता। 

प्र: सच्चा कर्म क्या है ?

उ: सदा ही प्राणियों का हित करना ।

प्र: कौन सा कर्म करके पछताना नहीं पड़ता ?

उ: भगवान शिव और श्रीकृष्ण का पूजनरूप कर्म ।

कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्षः 

क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।

शल्यं परं किं निजमूर्खतैव 

के के ह्युपास्या गुरुदेव वृद्धाः। २३ ।

प्र: किसके नाश में मोक्ष है ?

उ: मन के ही ।

प्र: किस उपलब्धि में सर्वथा भय नहीं है ?

उ: मोक्ष में ।

प्र: सबसे अधिक चुभने वाली चीज़ कौन सी है ?

उ: अपनी मूर्खता ही ।

प्र: उपासना के योग्य कौन कौन हैं ?

उ: देवता, गुरु और वृद्ध ।

उपस्थिति प्राणहरे कृतान्ते

किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात् ।

वाक्कायचित्तैः सुखदं यमघ्नं 

मुरारिपादाम्बुजचिन्तनं च। २४ ।

प्र: प्राण हरने वाले काल के उपस्थित होने पर अच्छी बुद्धिवालों को बड़े जतन से तुरन्त क्या करना उचित है ?

उ: सुख देनेवाले और मृत्यु का नाश करनेवाले भगवान् मुरारि के चरणकमलों का तन, मन, वचन से चिन्तन करना ।

के दस्यवः सन्ति कुवासनाख्याः

कः शोभते यः सदसि प्रविद्यः।

मातेव का या सुखदा सुविद्या 

किमेधते दानवशात्सुविद्या। २५ ।

प्र: डाकू कौन हैं ?

उ: बुरी वासनाएं ।

प्र: सभा में शोभा कौन पाता है ?

उ: जो अच्छा विद्वान है ।

प्र: माता के समान सुख देनेवाली कौन है ?

उ: उत्तम विद्या ।

प्र: देने से क्या बढ़ती है ?

उ: अच्छी विद्या ।

कुतो हि भीतिः सततं विधेया

लोकापवादाद्भवकाननाच्च ।

को वातिबन्धुः पितरश्च के वा

विपत्साहयः परिपालका ये । २६ ।

प्र: निरन्तर किससे डरना चाहिए ?

उ: लोक-निन्दा से और संसार रुपी वन से ।

प्र: अत्यन्त प्यारा बन्धु कौन है ?

उ: जो विपत्ति में सहायता करे ।

प्र: और पिता कौन है ?

उ: जो सब प्रकार से पालन-पोषण करे ।

बुद्ध्वा न बोध्यं परिशिष्यते किं 

शिवप्रसादं सुखबोधरूपम् ।

ज्ञाते तु कस्मिन्विदितं जगत्स्या-

त्सर्वात्मके ब्रह्मणि पूर्णरूपे । २७ ।

प्र: क्या समझने के बाद कुछ भी समझना बाकी नहीं रहता ?

उ: शुद्ध विज्ञान, आनन्दघन कल्याणरूप परमात्मा को ।

प्र: किसको जान लेने पर (वास्तव) में जगत जाना जाता है ?

उ: सर्वात्मरूप परिपूर्ण ब्रह्म के स्वरुप को ।

किं दुर्लभं सद्गुरुरस्ति लोके

सत्संगतिर्ब्रह्मविचारणा च ।

त्यागो हि सर्वस्व शिवात्मबोधः 

को दुर्जयः सर्वजनैर्मनोजः । २८ ।

प्र: संसार में दुर्लभ क्या है ?

उ: सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्मविचार, सर्वस्व का त्याग और कल्याणरूप परमात्मा का ज्ञान ।

प्र: सबके लिए क्या जीतना कठिन है ?

उ: कामदेव ।

पशोः पशुः को न करोति धर्मं 

प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः।

किन्तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री

के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः। २९ ।

प्र: पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ?

उ: शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म का पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ ।

प्र: वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है ?

प्र: नारी (विपरीत शरीर का भोग)  ।

प्र: शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ?

उ: पुत्र आदि ।

प्र: श्रेष्ठ व्रत क्या है ?

उ: पूर्ण रूप से विनयभाव ।

विद्युच्चलं किं धनयौवनायु-

र्दानं परं किञ्च सुपात्रदत्तम् ।

कण्ठङ्गतैरप्यसुभिर्न कार्यं

किं किं विधेयं मलिनं शिवार्चा । ३० ।

प्र: बिजली की तरह क्षणिक क्या है ?

उ: धन, यौवन और आयु ।

प्र: सबसे उत्तम दान कौन सा है ?

उ: जो सुपात्र को दिया जाय ।

प्र: कण्ठगत प्राण होने पर भी क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए ?

उ: पाप नहीं करना चाहिए और कल्याणरूप परमात्मा की पूजा करनी चाहिए ।

अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं

संसारमिथ्या त्वशिवात्मतत्त्वम् ।

किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः 

क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ । ३१ ।

प्र: रात-दिन विशेषरूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?

उ: संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व ।

प्र: वास्तव में कर्म क्या है ?

उ: जो भगवान् श्रीकृष्ण को प्रिय हो ('Be and Make ' जो अवतार वरिष्ठ को प्रिय है)

प्र:सदैव किसमें विश्वास नहीं करना चाहिए ?

उ: संसार-समुद्र में ।

कण्ठङ्गता वा श्रवणङ्गता वा

प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला ।

तनोतु मोदं विदुषां सुरम्यं

रमेशगौरीशकथेव सद्यः । ३२ ।

यह प्रश्नोत्तर नाम की मणिरत्नमाला कण्ठ में या कानो में जाते ही लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु और उमापति भगवान् शंकर की कथा की तरह विद्वानों के सुन्दर आनन्द को बढ़ावे ।

हरि ॐ

------------------इति स्वामी शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरी------------------