swami vivekananda स्वामी विवेकानन्द का नव-वेदान्त का सिद्धांत और उपदेश
1. swami vivekananda : 'I have a message to give !'
" मुझे एक सन्देश देना है !"
स्वामी विवेकानन्द ने १ फरवरी, १८९५ को न्यूयार्क से कुमारी मेरी हेल को लिखित एक पत्र में कहा था- " मुझे एक सन्देश देना है। मुझे संसार के प्रति मधुर बनने का समय नहीं है; और मधुर बनने का प्रत्येक प्रयत्न मुझे कपटी बनाता है। .... इस जगत में या अन्य किसी जगत में मेरे लिए मेरे लिए कोई कार्य नहीं है। मेरे पास विश्व को देने के लिए एक संदेश है, जिसे मैं अपनी शैली में ही दूंगा । मैं अपने संदेश को न तो हिन्दू धर्म , न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा, बस. मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा। " (वि० सा० ख० ३/३८०)
" पंचेन्द्रियों में फँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है। जबतक हम पंचेन्द्रियों में पड़े हैं, तब तक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं - सगुण ईश्वर के सिवा और दूसरा भाव हम नहीं देख सकते। हम संसार को ठीक इसी रूप में देखेंगे। रामानुज कहते हैं, 'जबतक तुम अपने को देह , मन या जीव (M/F) समझोगे तब तक तुम्हारे अनुभूति (perception) की हर क्रिया में जीव , जगत और इन दोनों के कारणस्वरूप वस्तुविशेष (ईश्वर ,माँ जगदम्बा) का बोध भी रहेगा !' परन्तु मनुष्य (भक्त या सत्यार्थी) के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिल्कुल चला जाता है, जब उसका मन (अहं) भी क्रमशः सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता हुआ प्रायः तिरोहित हो जाता है, जब देहबुद्धि में डाल देने वाली भावना, भीति और दुर्बलता (मृत्यु का भय) जो हमें कमजोर बनाती हैं, सभी बिल्कुल मिट जाते हैं। तभी -केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है। वह उपदेश क्या है?
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
-[इह एव तैः जितः सर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ ]
जिनका मन साम्यभाव (Equality-समत्वभाव ) में अवस्थित है , उन्होंने यहीं (जीवित अवस्था में ही) जन्म-मृत्यु रूप संसार-चक्र (सर्ग) को जीत लिया है। चूँकि ब्रह्म निर्दोष और सर्वत्र सम हैं , इसलिए वे ब्रह्म में ही अवस्थित हैं। (५/१५७)
[5.19 “Even in this life they have conquered relativity (the round of birth and death) whose minds are firm-fixed on the sameness (Equality), of everything, for God is pure and the same to all, and therefore such are said to be living in God.”
The living entity, by accepting his material existence, has become situated differently than in his spiritual existence. But if one understands that the Supreme is situated in His Paramātmā manifestation everywhere, that is, if one can see the presence of the Supreme Personality of Godhead in every living thing, he does not degrade himself by a destructive mentality, and he therefore gradually advances to the spiritual world. The mind is generally addicted to sense gratifying processes; but when the mind turns to the Supersoul, one becomes advanced in spiritual understanding. ) (५/२३९-४०)
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।
[समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् न हिनस्ति आत्मना आत्मानं ततः याति परां गतिम् ॥]
निश्चय ही, वह पुरुष परमेश्वर को सर्वत्र सम भाव (Equality) से अवस्थित देखते हुए, आत्मा (स्वयं) के द्वारा आत्मा (स्वयं) की हिंसा नहीं करता है, इससे वह परम गति (जीवनमुक्त अवस्था, भ्रममुक्त अवस्था , मोक्ष) को प्राप्त होता है।।
[“Thus seeing the Lord the same everywhere, he, the sage, does not hurt the Self by the self, and so goes to the highest goal.”]
5. swami vivekananda nav vedanta : Love personified ~ Madness of that Love !
स्वामी विवेकानंद नव वेदांत : प्रेम का अवतार ~ उस प्रेम का पागलपन !
इसी श्लोक के परम् गति को प्राप्त करने का उपाय बताने वाले 'भारत के महापुरुष' में उद्धृत करते हुए कहते हैं -
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।
हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की यह वाणी --'स्त्री , वैश्य और शूद्र तक परमगति को प्राप्त होते हैं।' सम्पूर्ण मानवजाति के बंधन , सबकी बेड़ियाँ तोड़ देती हैं और सभी को उस परम् पद पाने का अधिकारी बना देती है। (५/१५७)
15. swami vivekananda : द्वैत मार्ग के मतानुसार उपनिषदों में वर्णित पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि :
विवेकानन्द स्टार थियेटर , कलकत्ता में दिए भाषण - 'सर्वांग वेदान्त' में आगे कहते हैं - " रामानुज के मतानुसार नित्य या शाश्वत पदार्थ तीन हैं -जिसका कभी नाश नहीं होता, और वे हैं - ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति। सभी जीवात्मायें नित्य हैं , ईश्वर के साथ उनका भेद सदैव बना रहेगा , और उनकी स्वतंत्र सत्ता का कभी लोप नहीं होगा। रामानुज कहते हैं , तुम्हारी आत्मा, मेरी आत्मा से अनन्त काल तक पृथक रहेगी और यह प्रकृति भी चिरकाल तक पृथक रूप से विद्यमान रहेगी , क्योंकि उसका अस्तित्व वैसे ही सत्य है , जैसे कि जीवात्मा और ईश्वर का अस्तित्व ! परमात्मा, (भगवान विष्णु, ईश्वर या माँ काली,अल्ला जो कहो) सर्वत्र अन्तर्निहित और आत्मा का सारतत्व है। ईश्वर अन्तर्यामी हैं, [अर्थात भगवान विष्णु की शक्ति माँ काली के अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव भी अन्तर्यामी हैं) ; और इसी अर्थ में रामानुज कहीं कहीं परमात्मा को जीवात्मा से अभिन्न -जीवात्मा का सारभूत पदार्थ बताते हैं। और ये जीवात्मायें प्रलय के समय, जबकि उनके मतानुसार सारी प्रकृति संकुचित अवस्था को प्राप्त होती है , क्रम-संकुचित हो जाती है। और कुछ काल तक उसी संकुचित तथा सूक्ष्म अवस्था में रहती है। और दूसरे कल्प के आरम्भ में वे अपने पिछले कर्मों के अनुसार फिर विकास पाती हैं। और अपना कर्मफल भोगती हैं।(५/२२८)
[ According to Ramanuja, these three entities are eternal — God, and soul, and nature. The souls are eternal, and they will remain eternally existing, individualised through eternity, and will retain their individuality all through. Your soul will be different from my soul through all eternity, says Ramanuja, and so will this nature — which is an existing fact, as much a fact as the existence of soul or the existence of God — remain always different. And God is interpenetrating, the essence of the soul, He is the Antaryâmin. In this sense Ramanuja sometimes thinks that God is one with the soul, the essence of the soul, and these souls — at the time of Pralaya, when the whole of nature becomes what he calls Sankuchita, contracted — become contracted and minute and remain so for a time. And at the beginning of the next cycle they all come out, according to their past Karma, and undergo the effect of that Karma. (The Vedanta in all its phases )]
शुभ -अशुभ विवेक :
भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति या मोक्ष के लिये अपना प्रयास और माँ जगदम्बा का अनुग्रह दोनों आवश्यक :
रामानुज का मत है कि जिस कर्म से आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता और पूर्णता का संकोच होता हो ,वही अशुभ कर्म है। और जिससे उसका विकास हो वह शुभ कर्म है। जो कुछ आत्मा के विकास में सहायता पहुंचाए वह अच्छा है , और जो कुछ उसे संकुचित करे वह बुरा। और इसीतरह आत्मा की प्रगति हो रही है , कभी तो वह संकुचित हो रही है , कभी विकसित। अंत में ईश्वर (माँ काली के अवतार, गुरु ) के अनुग्रह से उसे मुक्ति मिलती है। रामानुज कहते हैं , जो निष्कपट हैं , और उनके (अवतार वरिष्ठ के) अनुग्रह के लिए प्रयत्नशील हैं , वे ही उस भ्रममुक्त (De-Hypnotized) अवस्था या मोक्ष को प्राप्त होते हैं! "(५/२२८ )
Every action that makes the natural inborn purity and perfection of the soul get contracted is a bad action, and every action that makes it come out and expand itself is a good action, says Ramanuja. Whatever helps to make the Vikâsha of the soul is good, and whatever makes it Sankuchita is bad. And thus the soul is going on, expanding or contracting in its actions, till through the grace of God comes salvation. And that grace comes to all souls, says Ramanuja, that are pure and struggle for that grace.(The Vedanta in all its phases) ]
Every' -body is changing. ?????
Every-'body' (2-'H' =Hand and Head) is changing. नेता के लिए 'अहं' (मैं) शब्द के मर्म को अपने अनुभव से जानना अनिवार्य है :
स्वामी जी आगे कहते हैं -" अद्वैतवादियों के मतानुसार इस समय (भेंडत्व या स्वयं को M/F देह समझते समय) जो हमारा व्यक्तित्व है - वह भ्रम मात्र है ! समग्र संसार के लिये इस बात को ग्रहण कर पाना बहुत ही कठिन रहा है। हरेक व्यक्ति (M/F शरीर) तो निरन्तर परिवर्तित हो रहा है। इस नाम-रूप वाले परिवर्तनशील (मिथ्या) व्यक्तित्व के परे प्रत्येक मनुष्य स्वरूपतः आत्मा (अविभाज्य तो ह्रदय -Heart) ही है। और अद्वैतवादी कहते हैं, यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है, दो अनन्त कदापि नहीं रह सकते। केवल एक ही व्यक्ति (ईश्वर) है, जो अनन्तस्वरूप है! [An individual is that which exists as a distinct entity. 'Individual ' या अविभाज्य (inseparable)-सच्चिदानन्द -तो केवल एक ही है, जो अनन्तस्वरूप है।)... अस्तित्व केवल इसी अनन्त का है और सब माया है, किसीकी कोई तात्त्विक सत्ता नहीं है ! कोई भी जड़ वस्तु क्यों न हो, उसमें जो यथार्थ सत्ता (चेतना) है, वह यही ब्रह्म है। हम वही ब्रह्म है, और नाम-रूप आदि जितने हैं सब माया है। नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम सब एक हो जायेंगे। 'उसी' ब्रह्मस्वरूप में हम सभी एक हैं। तुम्हें इस 'अहं' (मैं ) शब्द को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। (नश्वर व्यष्टि मैं को माँ जगदम्बा के मातृ-ह्रदय के सर्वव्यापी, विराट 'समष्टि मैं' में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। )
[According to the Advaitist, this individuality which we have today is a delusion. This has been a hard nut to crack all over the world. Everybody is changing. If so, where is your individuality? Certainly not in the body, or in the mind, or in thought. And beyond that is your Atman, and, says the Advaitist, this Atman is the Brahman Itself. There cannot be two infinites. There is only one individual and it is infinite.... And that 'Infinite', says the Advaitist, is what alone exists. Everything else is Maya, nothing else has real existence; whatever is of existence in any material thing is this Brahman; we are this Brahman, and the shape and everything else is Maya. Take away the (नाम-रूप M/F) form and shape, and you and I are all one. But we have to guard against the word, “I”.
अतः द्वैतवादियों और अद्वैतवादियों में यह बड़ा अन्तर प्रतीत होता है। तुम देखोगे कि शंकराचार्य जैसे बड़े बड़े भाष्यकारों ने भी अपने मत की पुष्टि के लिए, जगह जगह पर शास्त्रों का ऐसा अर्थ किया है जो मेरी समझ में तर्कसंगत (justified) नहीं है । " रामानुज" ने भी कहीं कहीं शास्त्रों का ऐसा अर्थ किया है कि वह साफ समझ में नहीं आता। " (५/२३९-४०???????)
[Now this seems, therefore, to be the great point of difference between the dualist and the Advaitist. You find even great commentators like Shankaracharya making meanings of texts, which, to my mind, sometimes do not seem to be justified. Sometimes you find Ramanuja dealing with texts in a way that is not very clear. The idea has been even among our Pandits that only one of these sects can be true and the rest must be false, although they have the idea in the Shrutis, the most wonderful idea that India has yet to give to the world: एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। — “That which exists is One; sages call It by various names.” That has been the theme, and the working out of the whole of this life-problem of the nation is the working out of that theme — एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। (The Vedanta in all its phases)]
Yea, except a very few learned men, I mean, barring a very few spiritual men, in India, we always forget this. We forget this great idea, and you will find that there are persons among Pandits — I should think ninety-eight per cent — who are of opinion that either the Advaitist will be true, or the Vishishtadvaitist will be true, or the Dvaitist will be true; and if you go to Varanasi, and sit for five minutes in one of the Ghats there, you will have demonstration of what I say. You will see a regular bull-fight going on about these various sects and things.(The Vedanta in all its phases)]
21.swami vivekananda ब्रह्म की दो अवस्था ~ स्थैतिक और गतिज
लक्ष्य तक पहुँचने के तीन सोपानों पर चर्चा करते हुए - ' विवेकानन्द साहित्य ' की भूमिका में सिस्टर निवेदिता लिखती हैं- ' प्रगति दृश्य से अदृश्य की ओर, अनेक से एक की ओर, निम्न से उच्च की ओर, साकार से निराकार की ओर होती है, किन्तु विपरीत दिशा में कदापि नहीं...द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है। इस सिद्धान्त का यह एक और भी महान तथा अधिक सरल अंग है कि ' अनेक और एक ' (the Many and One ) विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखे जानेवाला ' एक ' ही तत्व है। वे आगे कहतीं हैं- ' यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार, सर्जन के सभी प्रकार भी, सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं। अतः लौकिक और धार्मिक ( Sacred and Secular ) में अब आगे कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना (प्रवृत्ति-मार्ग ) उतना ही कठोर न्यास है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना (निवृत्ति-मार्ग ). " ( वि० सा० ख० १/ पेज ठ, ड)
22.swami vivekananda : two states of brahman`ज्ञानी-विज्ञानी '
१, स्थैतिक (अपरिवर्तिक-Static) और २, गतिज (सक्रीय-Dynamic)
अपनी स्थैतिक अवस्था में यह निरपेक्ष सत्ता है, अनेक से परे एकमेवाद्वितीय अवस्था, किसी भी दृष्टिगोचर वस्तु, विचार या कल्पना से परे की अवस्था है। अपने गतिज अवस्था में यह जीव, जगत और ईश्वर के रूप में प्रकाशित होता है। श्रीरामकृष्ण के शब्दों में जिस व्यक्ति ने ब्रह्म के स्थैतिक अवस्था का अनुभव कर लिया है, वह ज्ञानी है। तथा जिसने यह अनुभव से जान लिया है कि अपने सक्रीय या गतिज अवस्था में ब्रह्म ही विभिन्न नामरुपों वाला जगत बन कर भास रहा है- वह विज्ञानी है। श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के आविर्भूत होने से पहले साधारण जन इस सत्य से परिचित नहीं थे.
swami vivekananda पाश्चात्य दर्शन या चार्वाक दर्शन के अनुसार जीवन का उद्देश्य ?
आचार्य शंकर ने घोषणा की है वेदान्त दर्शन में यह स्पष्ट कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत और जीव भी ब्रह्म ही हैं- (विवेकचुड़ामणि-४७८) `अंतरस्थ मनुष्य ' को जानने का विज्ञान सोलहवीं शताब्दी में पाश्चात्य जगत नये उत्साह और नये नये विचारों कि उर्जा से तरंगायित हो रहा था। तभी से विज्ञान ने भी लम्बे लम्बे कदमों से प्रगति करना प्रारम्भ किया एवं उन्नीसवीं शताब्दी आते आते इसने ईसाई धर्म के आध्यात्मिक जड़ों को चकनाचूर करके रख दिया, अब वहां के बुद्धिजीवी धर्म के नाम पर दिये जानेवाले निरर्थक काल्पनिक उपदेशों में विश्वास करने को तैयार नहीं थे। इसीलिए भौतिकवाद विजयी हो गया, और तबसे मनुष्य को केवल एक जैविक-आर्थिक-राजनितिक जन्तु (मानव-संसाधन) समझा जाने लगा। जड़वादी सभ्यता (चार्वाक दर्शन) के प्रचार प्रसार ने एक दार्शनिक शून्य एवं आध्यातिक संकट उत्पन्न कर दिया।
चार्वाक दर्शन कहता है --
"यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ,ऋण कृत्वा घृतं पीबेत,
भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।"
‘जब तक जियो सुख से जियो कर्ज लेकर घी पियो, भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भस्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाहसंस्कार में राख हो चुका, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है ? शरीर भस्म हो जाने के बाद वापस नही आता है।‘– चार्वाक
[^* ‘चारु’+’वाक्’ (अर्थात् लोकलुभावन और आम जन को प्रिय लगने वाले वचन भोगियों का पसंदीदा वचन, या पुनर्जन्म में विश्वास न करनेवाली मानसिकता। दुनिया में 90 प्रतिशत से अधिक लोग चार्वाक सिद्धांत के अनुरूप ही जीवन जीते हैं । प्रायः हर व्यक्ति इसी धरती के सुखों को बटोरने में लगा हुआ है । अनाप-शनाप धन-संपदा अर्जित करना, और भौतिक सुखों का आनंद पाना यही लगभग सभी का लक्ष्य रह गया है। मेरा काम जैसे भी निकले वही तरीका जायज है की नीति सर्वत्र है । इस जीवन से परे भी क्या कुछ है इस प्रश्न को हर कोई टाल देना पसंद करता है । यद्यपि वे किसी न किसी आध्यात्मिक मत में आस्था की बात अवश्य करते हैं। किंतु उनकी धारणा एक प्रकार की भेड़-चाल में अपनाई गयी नीति जैसी महज सतही होती है, एक प्रकार का ‘तोतारटंत’। चूंकि दुनिया में लोग ऐसा या वैसा मानते हैं, अतः हम भी मानते हैं वाली बात उन पर लागू होती है। वस्तुतः इस समय सर्वत्र चार्वाक सिद्धांत की ही मान्यता है; आप मानें या न मानें।
लेकिन आजादी के बाद देश का नेतृत्व फिर चार्वाक दर्शन की मानसिकता या ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ (Colonial Mindset) रखने वाले लोगों के हाथों में चला गया। देश के ज्यादातर राज्य विलासी मानसिकता के संताप से पीड़ित है। सकल आमदनी (सकल घरेलू उत्पाद या GDP) का एक बड़ा भाग भोगेच्छा पूर्ण करने में होम होता है। अक्सर इसका परिणाम सुरसा की तरह बढ़ते राज्यकोषीय घाटा, कर वृद्धि और कर्ज के रुप में सामने आता है। कर्ज कितना भारी है इसका अनुमान मध्यप्रदेश को देखकर लगाया जा सकता है 2011 में सरकार पर 69,259.16 करोड़ का कर्ज था जिसका सूद 5051.83 करोड़ रुपया है। हमारी कार्य प्रणाली गालिब के उस शेर की तरह है:-
”कर्ज की पीते थे मय और समझते थे ।
रंग लायेगी एक दिन फाकामस्ती हमारी ”।।