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सोमवार, 30 मई 2022

🔆🙏राजयोग [तृतीय अध्याय] प्राण- स्वामी विवेकानंद

 राजयोग 

[तृतीय अध्याय] 

प्राण 

[CHAPTER III – PRANA] 

 [राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]

🔆🙏आकाश ही सर्वव्यापी और सर्वानुस्यूत (all-penetrating) सत्ता है🔆🙏

बहुतों का विचार है , प्राणायाम श्वास - प्रश्वास की कोई क्रिया है । पर असल में ऐसा नहीं है । वास्तव में तो श्वास - प्रश्वास की क्रिया के साथ इसका बहुत थोड़ा सम्बन्ध है । श्वास - प्रश्वास (Breathing) उन क्रियाओं में से सिर्फ एक ही क्रिया है जिनके माध्यम से हम यथार्थ प्राणायाम की साधना के अधिकारी होते हैं । प्राणायाम का अर्थ है , प्राण का संयम (control of Prâna) । भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है । उनमें से एक का नाम है आकाश । यह आकाश एक सर्वव्यापी (omnipresent), सर्वानुस्यूत (all-penetrating) सत्ता है। जिस किसी वस्तु का आकार (नाम-रूप) है, जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न (evolved) हुई है । 

यह आकाश ही वायु में परिणत होता है ; यही फिर तरल और ठोस आकार को प्राप्त होता है । ' यह आकाश ( Akasha ) ही सूर्य (sun) का रूप धारण करता है , पृथ्वी (earth) , चन्द्रमा (moon) तारा (stars), धूमकेतु (comets) आदि में परिणत होता है । समस्त प्राणियों के शरीर (human body),  पशुओं के शरीर (animal body), उद्भिद् (plants) आदि जितने भी रूप हमें देखने को मिलते हैं , जिन वस्तुओं का हम इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं, यहाँ तक कि , संसार में जो कुछ वस्तु है , सभी आकाश से उत्पन्न हुई हैं । इन्द्रियों द्वारा इस आकाश की उपलब्धि करने का कोई उपाय नहीं ; यह इतना सूक्ष्म है कि साधारण अनुभूति के अतीत है । जब यह स्थूल होकर कोई आकार धारण करता है , तभी हम इसका अनुभव कर सकते हैं ।  सृष्टि के आदि में एकमात्र आकाश रहता है । फिर कल्प के अन्त में समस्त ठोस (solids) , तरल (liquids) और वाष्पीय (gases) पदार्थ पुनः आकाश में लीन हो जाते हैं । बाद की सृष्टि (next creation ) फिर से इसी तरह आकाश से उत्पन्न होती है

 [राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]

🔆🙏प्राण की शक्ति से ही आकाश जगत के रूप में परिणत हो जाता है🔆🙏  

किस शक्ति के प्रभाव से आकाश का जगत् के रूप में परिणाम होता है ? (By what power is this Akasha manufactured into this universe?) इस प्राण की शक्ति से। जिस तरह आकाश इस जगत् का कारणस्वरूप अनन्त , सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है , प्राण भी उसी तरह जगत् की उत्पत्ति की कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकर शक्ति है । कल्प के आदि में और अन्त में ( At the beginning and at the end of a cycle ) सम्पूर्ण सृष्टि आकाशरूप में परिणत होती है , और जगत् की सारी शक्तियाँ प्राण में लीन हो जाती हैं । दूसरे कल्प में फिर इसी प्राण से समस्त शक्तियों का विकास होता है । यह प्राण ही गतिरूप (motion) में अभिव्यक्त हुआ है - यह प्राण ही गुरुत्वाकर्षण (gravitation) या चुम्बक शक्ति (magnetism) के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है । 

यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह (nerve currents) के रूप में , विचारशक्ति (thought force) के रूप में और समस्त दैहिक क्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त हुआ है । विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य बाह्य शक्ति तक , सब कुछ प्राण का ही विकास है । बाह्य (physical) और अन्तर्जगत् (mental) की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं , तब उसी को प्राण कहते हैं । " जब अस्ति और नास्ति कुछ भी न था , जब तम से तम आवृत था , तब क्या था? यह आकाश ही गतिशून्य होकर अवस्थित था । " 

 [ नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं, .....  तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं।।  (ऋग्वेद - १० - १२९ /नासदीय सूक्त )  `तदानीम्' अर्थात तब प्रलयावस्था में ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत् ) भाव भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ,.. लेकिन ( अग्रे + तमः + आसीत् ) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण अवश्य था और ( तमसा) उसी तमोवाच्य मूल कारण से ( इदम् + सर्वम् ) यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत ( गूढ़म् ) आच्छादित था , अर्थाकेवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। ]  

`तदानीम्' अर्थात तब प्रलयावस्था में  [अर्थात आत्मसाक्षात्कार के समय ?] --प्राण की सभी प्रकार की बाह्य गति रुद्ध थी , परन्तु तब भी प्राण का अस्तित्व था । संसार में जितने प्रकार की शक्तियों का विकास अब हुआ है , कल्प के अन्त में वे संभावव्यता (potential ) का भाव - धारण करती हैं- अव्यक्त अवस्था में लीन होती हैं , और दूसरे कल्प के आदि में वे ही फिर से व्यक्त होकर आकाश पर कार्य  करती रहती हैं । इसी आकाश से परिदृश्यमान साकार वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं , और आकाश के विविध परिणाम प्राप्त होने पर यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता रहता है । इस प्राण के इस यथार्थ तत्त्व को जानना और उसको संयत करने की चेष्टा करना ही प्राणायाम का प्रकृत अर्थ है । 

 [राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]

🔆🙏प्राणायाम की साधना का लक्ष्य : प्रकृति को वशीभूत करना🔆🙏

इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनन्त शक्ति (unlimited power) का द्वार खुल जाता है । मान लो , किसी व्यक्ति की समझ में यह प्राण का विषय पूरी तरह आ गया और वह उसे वश करने में भी कृतकार्य हो गया , तो फिर संसार में ऐसी कौनसी शक्ति है , जो उसके अधिकार में न आए ? उसकी आज्ञा से चन्द्र - सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं , क्षुद्रतम परमाणु (atoms) से बृहत्तम सूर्य (biggest suns ) तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं , क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है ।

 प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। जब योगी सिद्ध हो जाते हैं , तब प्रकृति में ऐसी कोई वस्तु नहीं , जो उनके वश में न आ जाए । यदि वे देवताओं का आह्वान करेंगे , तो वे उनकी आज्ञा मात्र से आ उपस्थित होंगे ; यदि मृत व्यक्तियों को आने की आज्ञा देंगे , तो वे तुरन्त हाजिर हो जाएँगे । प्रकृति की सारी शक्तियाँ उनकी आज्ञा से दासी की तरह काम करने लगेंगी । 

अज्ञ जन योगी के इन कार्य - कलापों को अलौकिक (miracle ) समझते हैं । हिन्दू मन की यह एक विशेषता है कि वह सदैव अन्तिम सम्भाव्य सामान्यीकरण के लिए अनुसन्धान करता है , और बाद में विशेष पर कार्य करता है ।  वेदों में यह प्रश्न पूछा गया है- " कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ? ’ (मुण्डकोपनिषद -१/३)  – ' ऐसी कौनसी वस्तु है , जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है ?   इस प्रकार , हमारे जितने शास्त्र हैं , जितने दर्शन हैं , सब के सब उसी के निर्णय में लगे हुए हैं , जिनके जानने से  सब कुछ जाना जा सकता है । 

[तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। -`अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को जानने से सब कुछ जाना जा सकता है ।यदि कोई व्यक्ति जगत् का तत्त्व थोड़ा थोड़ा करके जानना चाहे , तो उसे अनन्त समय लग जाएगा ; क्योंकि फिर तो उसे बालू के एक एक कण तक को भी अलग अलग रूप से जानना होगा । अतः यह स्पष्ट है कि इस प्रकार सब कुछ जानना एक प्रकार से असम्भव है । तब फिर इस प्रकार के ज्ञानलाभ की सम्भावना कहाँ है ? 

एक एक विषय को अलग अलग रूप से जानकर मनुष्य के लिए सर्वज्ञ होने की सम्भावना कहाँ है ? योगी कहते हैं , इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक सामान्य – अमूर्त तत्त्व  (Absolute Existence) है । उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है । इसी प्रकार , वेदों में सम्पूर्ण जगत् को उस एक अखण्ड निरपेक्ष सत्स्वरूप में सामान्यीकृत किया गया है । जिन्होंने इस सत्स्वरूप (ब्रह्म -शक्ति अभेद) को पकड़ा है , उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को समझ लिया है । उक्त प्रणाली से ही समस्त शक्तियों को भी इस प्राण में सामान्यीकृत किया गया है । अतएव जिन्होंने प्राण को पकड़ा है , उन्होंने संसार में जितनी शारीरिक या मानसिक शक्तियाँ हैं सब को पकड़ लिया है । जिन्होंने प्राण को जीता है , उन्होंने अपने मन को ही नहीं , वरनू सब के मन को भी जीत लिया है । जिन्होंने प्राण को जीत लिया है , उन्होंने अपनी देह और दूसरी जितनी देह हैं , सब को अपने अधीन कर लिया है , क्योंकि प्राण ही सारी शक्तियों की सामान्यीकृत अभिव्यक्ति है । 

किस प्रकार इस प्राण पर विजय पायी जाए , यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है । इस प्राणायाम के सम्बन्ध में जितनी साधनाएँ और उपदेश हैं , सब का यही एक उद्देश्य है । हर एक साधनार्थी को , उसके सब से समीप जो कुछ है , उसी से साधना शुरू करनी चाहिए - उसके निकट जो कुछ है , उस सब पर विजय पाने की चेष्टा करनी चाहिए । संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सब से निकट है और मन उससे भी निकटतर है । जो प्राण संसार में सर्वत्र व्याप्त है , उसका जो अंश इस शरीर और मन में कार्यशील है , वही अंश हमारे सब से निकट है। यह जो क्षुद्र प्राणतरंग है - जो हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप में परिचित है, वह अनन्त प्राणसमुद्र में हमारे सब से निकटतम तरंग है । 

यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें , तभी हम समस्त प्राणसमुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं । जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं , वे सिद्धि पा लेते हैं , तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती । वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो जाते हैं । हम सभी देशों में ऐसे सम्प्रदाय देखते हैं , जो किसी न किसी उपाय से इस प्राण पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं । इसी देश में (अमेरिका में) हम मनःशक्ति से आरोग्य करनेवाले (mind - healers) , विश्वास से आरोग्य करनेवाले (faith-healers), प्रेतात्मवादी (Spiritists), ईसाईयत  वैज्ञानिक ( Christian Scientists ) , सम्मोहनविद्यावित् ( hypnotists ) आदि अनेक सम्प्रदाय देखते हैं । यदि हम इन मतों का विशेष रूप से विश्लेषण करें , तो देखेंगे कि इन सब मतों की पृष्ठभूमि में - वे फिर जानें या न जानें -प्राणायाम ही है । 

उन सब मतों के मूल में एक ही बात है । वे सब एक ही शक्ति को लेकर कार्य कर रहे हैं ; पर हाँ , वे उसके सम्बन्ध में कुछ जानते नहीं । उन लोगों ने एकाएक मानो एक शक्ति का आविष्कार कर डाला है , परन्तु उस शक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में बिलकुल अज्ञ हैं । योगी जिस शक्ति का उपयोग करते हैं , ये भी बिना जाने - बूझे उसी का उपयोग कर रहे हैं । और वह प्राण की ही शक्ति है ।

 यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनीशक्ति (vital force) के रूप में विद्यमान है । विचारणा (Thought ) इसकी सूक्ष्मतम और उच्चतम अभिव्यक्ति है । फिर जिसे हम साधारणतः विचारणा की आख्या देते हैं , वही प्राण की एकमात्र वृत्ति नहीं है । इसके अतिरिक्त हमारा एक निम्नतम कार्यक्षेत्र भी है , जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति (instinct ) अथवा ज्ञानरहित चित्तवृत्ति (unconscious thought) अथवा मन की अचेतन भूमि कहते हैं । मान लो , मुझे एक मच्छर ने काटा , तो मेरा हाथ अपने ही आप उसे मारने को उठ जाता है । उसे मारने के लिए हाथ को उठाते - गिराते मुझे कोई विशेष सोच - विचार नहीं करना पड़ता । यह भी विचारणा की एक प्रकार की अभिव्यक्ति है । 

शरीर के समस्त स्वाभाविक कार्य ( reflex actions ) इसी विचारणा के स्तर के अन्तर्गत हैं । [बाहर की किसी प्रकार की उत्तेजना से शरीर का कोई यन्त्र , समय समय पर , ज्ञान की सहायता लिये बिना अपने आप जब काम करता है , तो उस कार्य को स्वाभाविक कार्य ( reflex action ) कहते हैं । ] इससे उन्नत विचारणा का एक दूसरा स्तर भी है , जिसे सज्ञान अथवा मन की चेतन भूमि ( conscious) कहते हैं । हम युक्ति - तर्क करते हैं , विचार करते हैं , सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं , लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं । हमें मालूम है , युक्ति या विचार बिलकुल छोटीसी सीमा के द्वारा सीमित है । वह हम लोगों को कुछ ही दूर तक ले जा सकता है , इसके आगे उसका और अधिकार नहीं । 

जिस वृत्त के अन्दर वह चक्कर काटता है , वह बहुत ही सीमित , संकीर्ण है । परन्तु साथ ही हम यह भी देखते हैं कि बहुत से तथ्य बाहर से सहसा बहुत ही इस वृत्त के भीतर आ जाते हैं । पुच्छल तारा जिस प्रकार सौरजगत् के अधिकार के भीतर न होने पर भी कभी कभी उसके भीतर सहसा आ जाता है और हमें दीख पड़ता है , उसी प्रकार बहुत से तथ्य , हमारी युक्ति के अधिकार के बाहर होने पर  भी , उसके भीतर आ जाते हैं । 

यह निश्चित है कि वे सब तथ्य इस सीमा के बाहर से आते हैं , पर हमारा तर्क या युक्ति इस सीमा के परे नहीं जा सकती । इस छोटी सी सीमा के भीतर उन तथ्यों के प्रवेश का कारण यदि हम खोजना चाहें , तो हमें अवश्य इस सीमा के बाहर जाना होगा । हमारे विचार , हमारी युक्तियाँ वहाँ नहीं पहुँच सकतीं । योगियों का कहना है कि यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है । मन इन दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है । उस भूमि को हम अतिचेतन भूमि (superconsciousness)  कहते हैं - वही समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था (perfect concentration) है । 

जब मन उस अवस्था में पहुँच जाता है , तब वह युक्ति - तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है , जो जन्मजात प्रवृत्ति और युक्ति - तर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है । शरीर की सारी सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियाँ , जो प्राण की ही विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं , यदि सही रास्ते से परिचालित हों , तो वे मन पर विशेष रूप से कार्य करती हैं , और तब मन भी पहले से उच्चतर अवस्था में अर्थात् अतिचेतन भूमि में चला जाता है और वहाँ से कार्य करता रहता है । 

इस विश्व में अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर एक अखण्ड वस्तुराशि दीख पड़ती है । भौतिक संसार की ओर दृष्टिपात करने पर दिखता है कि एक ही अखण्ड वस्तु  मानो नाना रूपों में विराजमान है । वास्तव में , तुममें और सूर्य में कोई भेद नहीं । वैज्ञानिक (scientist) के पास जाओ , वे तुम्हें समझा देंगे कि वस्तु-वस्तु में भेद केवल काल्पनिक (fiction) है । इस मेज से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं । यह मेज अनन्त जड़राशि का मानो एक बिन्दु है और मैं उसी का एक दूसरा बिन्दु। प्रत्येक साकार वस्तु इस अनन्त जड़सागर में मानो एक भँवर (whirlpool) है । 

भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते । मान लो , किसी वेगवती नदी में लाखों भँवर हैं; प्रत्येक भँवर में प्रतिक्षण नयी जलराशि आती है , कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है । उसके स्थान में एक नयी जलराशि आ जाती है । यह जगत् भी इसी प्रकार सतत परिवर्तनशील एक जड़राशि मात्र है और ये सारे रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं । कोई भूतसमष्टि किसी मनुष्यदेहरूपी भँवर में घुसती है , और वहाँ कुछ काल तक चक्कर काटने के बाद वह बदल जाती है और एक दूसरी भँवर में किसी पशुदेहरूपी भँवर में प्रवेश करती है । फिर वहाँ कुछ वर्ष तक घूमती रहने के बाद खनिज पदार्थ नामक दूसरे भँवर में चली जाती है । बस , सतत परिवर्तन होता रहता है । कोई भी वस्तु स्थिर नहीं । मेरा शरीर , तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है । वह केवल कहने भर की बात है । है केवल एक अखण्ड जड़राशि।

उसी के किसी बिन्दु का नाम है चन्द्र (moon) , किसी का सूर्य (sun) , किसी का मनुष्य (man)  , किसी का पृथ्वी (earth) , कोई बिन्दु उद्भिद् (plant) है , तो कोई खनिज पदार्थ (mineral) । इनमें से कोई भी सदा एक भाव से नहीं रहता , सभी वस्तुओं का सतत परिवर्तन हो रहा है ; जड का एक बार संश्लेषण (concreting) होता है , फिर विश्लेषण (disintegrating) । मनोजगत् के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है।  ' ईथर ' ( ether, आकाशतत्त्व ) को हम सारी जड़ वस्तुओं के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं । प्राण की सूक्ष्मतर स्पन्दनशील अवस्था (finer state of vibration)  में इस ईथर को मन का भी प्रतिनिधिस्वरूप कहा जा सकता है । अतएव सम्पूर्ण मनोजगत् भी एक अखण्डस्वरूप है । जो अपने मन में यह अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं , वे देखते हैं कि सारा जगत् सूक्ष्माति-सूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है । किसी किसी औषधि (certain drugs-भांग ?) में हमको इस सूक्ष्म अवस्था में पहुँचा देने की शक्ति रहती है , यद्यपि उस समय हम इन्द्रियराज्य के भीतर ही रहते हैं। 

तुममें से बहुतों को सर हम्फ्री डेवी (Sir Humphrey Davy) के प्रसिद्ध प्रयोग की बात याद होगी । हास्योत्पादक गैस ( Laughing Gas ) ने जब उनको अभिभूत कर लिया, तब वे भाषण देते समय स्तब्ध और निःस्पन्द होकर खड़े रहे । कुछ देर बाद जब होश आया , तो बोले , “ सारा जगत् विचारों ( ideas) की समष्टि मात्र है । " कुछ समय के लिए सारे स्थूल कम्पन ( gross vibrations ) चले गये थे और केवल सूक्ष्म कम्पन (subtle vibrations) , जिनको उन्होंने विचारराशि (ideas) कहा था , बच रहे थे । उन्होंने चारों ओर केवल सूक्ष्म कम्पन देखे थे । सम्पूर्ण जगत् उनकी आँखों में मानो एक महानू विचारसमुद्र (ocean of thought,) में परिणत हो गया था । उस महासमुद्र में वे और जगत् की प्रत्येक व्यष्टि मानो एक एक छोटा विचार भँवर (thought whirlpools) बन गयी थी । इन सत्यों को अब अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि विचारजगत् में भी अखण्ड एकत्व विद्यमान है । अन्त में जब हम आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं , तब एक अखण्ड सत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं अनुभव करते । भौतिक पदार्थ के स्थूल और सूक्ष्म स्पन्दनों के परे , सब प्रकार की गतियों के परे वही एक अखण्ड सत्ता है । यहाँ तक कि इन गतियों की स्थूल अभिव्यक्तियों के भीतर भी केवल एकत्व विद्यमान है । 

 आधुनिक भौतिक विज्ञान (Modern physics) ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्तिसमष्टि (sum total of the energies)  सदैव समान है और यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्तिसमष्टि दो तरह से ( two forms में ) अवस्थित है - कभी स्तिमित या अव्यक्त अवस्था (potential, toned down, and calmed) में और कभी व्यक्त अवस्था ( manifested ) में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है । इस प्रकार वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है । इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है । 

 मनुष्यदेह में इस प्राण की सब से स्पष्ट अभिव्यक्ति है- फेफड़े की गति (motion of the lungs)  । यदि यह गति रुक जाए , तो देह की सारी क्रियाएँ तुरन्त बंद हो जाएँगी , शरीर के भीतर जो अन्यान्य शक्तियाँ कार्य कर रही थीं , वे भी शान्त भाव धारण कर लेंगी । पर ऐसे भी व्यक्ति हैं , जो अपने को इस प्रकार प्रशिक्षित कर लेते हैं कि उनके फेफड़े की गति रुक जाने पर भी उनका शरीर नहीं जाता । ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना साँस लिये कई दिनों  तक जमीन के अन्दर गड़े रह सकते हैं , पर तो भी उनका देहनाश नहीं होता । 

सूक्ष्मतर शक्ति को प्राप्त करने के लिए हमें स्थूलतर शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इस प्रकार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शक्ति में जाते हुए अन्त में हम चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं । प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है फेफड़े की इस गति का रोध करना । इस गति के साथ श्वास का निकट सम्बन्ध है । यह गति श्वास - प्रश्वास द्वारा उत्पन्न नहीं होती, वरन् वही श्वास - प्रश्वास की गति को उत्पन्न कर रही है । यह गति ही , पम्प की भाँति , वायु को भीतर खींचती है । प्राण इस फेफड़े को चलाता है और फेफड़े की यह गति फिर वायु को खींचती है । इस तरह यह स्पष्ट है कि प्राणायाम श्वास - प्रश्वास की क्रिया नहीं है । पेशियों की जो शक्ति फेफड़े को चलाती है , उसको वश में लाना ही प्राणयाम है

जो शक्ति स्नायुओं के भीतर से पेशियों के पास जाती है और जो फेफड़ों का संचालन करती है , वही प्राण है । प्राणायाम की साधना में हमें उसी को वश में लाना है । जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जाएगी , तब हम तुरन्त देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएँ हमारे अधिकार में धीरे धीरे आ गयी हैं । मैंने स्वयं ऐसे व्यक्ति देखे हैं , जिन्होंने अपने शरीर की सारी पेशियों को वशीभूत कर लिया है अर्थात् वे उनको इच्छानुसार चला सकते हैं । और वे ऐसा कर भी क्यों न सकेंगे ? 

यदि कुछ पेशियाँ हमारी इच्छा के अनुसार चलायी जा सकती हों तो दूसरी सब पेशियों और स्नायुओं को हम इच्छानुसार क्यों न चला सकेंगे ? इसमें असम्भव क्या है ? अब हमारी इस संयमशक्ति का लोप हो गया है , और पेशियों की गति स्वयंक्रिय हो गयी है । हम इच्छानुसार कानों को नहीं हिला सकते , परन्तु हम जानते हैं कि पशुओं में यह शक्ति है । हममें यह शक्ति इसलिए नहीं है कि हम इसे काम में नहीं लाते । इसी को क्रमअवनति अथवा पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन ( atavism ) कहते हैं । 

फिर , हम यह भी जानते हैं कि जिस गति ने अब अव्यक्त भाव धारण किया है , उसे हम फिर से व्यक्तावस्था में ला सकते हैं । दृढ़ अभ्यास के द्वारा शरीर की कुछ गतियाँ , जो अभी हमारी इच्छा के अधीन नहीं , फिर से पूरी तरह वश में लायी जा सकती हैं । इस प्रकार विचार करने पर दीख पड़ता है कि शरीर का प्रत्येक अंश हम पूरी तरह अपनी इच्छा के अधीन कर सकते हैं । इसमें कुछ भी असम्भव नहीं , बल्कि यह तो पूर्णतया सम्भव है । योगी प्राणायाम द्वारा इसमें कृतकार्य होते हैं । 

तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्राणायाम में श्वास लेते समय सम्पूर्ण शरीर को प्राण से पूर्ण करना होता है । अंग्रेजी अनुवाद में प्राण शब्द का अर्थ किया गया है श्वास । इससे तुम्हें सहज ही सन्देह हो सकता है कि श्वास से सम्पूर्ण शरीर को कैसे पूरा किया जाए । वास्तव में यह अनुवादक का दोष है । देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनीशक्ति (vital force )द्वारा भरा जा सकता है , और जब तुम इसमें सफल होगे , तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश में हो जाएगा ; देह की समस्त व्याधियाँ , सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जाएँगे

इतना ही नहीं , दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम समर्थ हो जाओगे । संसार में भला - बुरा जो कुछ है , सभी संक्रामक (infectious)  है । यदि तुम्हारा शरीर किसी विशेष अवस्था में हो , तो उसकी प्रवृत्ति दूसरों में भी वही अवस्था उत्पन्न करने की होगी । यदि तुम सबल और स्वस्थकाय रहो , तो तुम्हारे समीपवर्ती व्यक्तियों में भी मानो कुछ स्वस्थ भाव , कुछ सबल भाव आएगा । और यदि तुम रुग्ण और दुर्बल रही , तो देखोगे , तुम्हारे निकटवर्ती दूसरे व्यक्ति भी मानो कुछ रुग्ण और दुर्बल हो रहे हैं । तुम्हारी देह का कम्पन मानो दूसरे के भीतर संचारित हो जाएगा । 

जब एक व्यक्ति दूसरे को रोगमुक्त (heal ) करने की चेष्टा करता है , तब उसका पहला प्रयत्न यह होता है कि उसका स्वास्थ्य दूसरे में संचारित हो जाए । यही आदिम चिकित्सा-प्रणाली (primitive sort of healing) है । ज्ञातभाव से हो या अज्ञातभाव से , एक व्यक्ति दूसरे की देह में स्वास्थ्य - संचार कर दे सकता है । यदि एक बहुत बलवान् व्यक्ति किसी दुर्बल व्यक्ति के साथ सदैव रहे , तो वह दुर्बल व्यक्ति कुछ अंशों में अवश्य सबल हो जाएगा । यह बलसंचारण-क्रिया ज्ञातभाव से हो सकती है तथा अज्ञातभाव से भी । जब यह क्रिया ज्ञातभाव (consciously) से की जाती है , तब इसका कार्य और भी शीघ्र तथा उत्तम रूप से होता है ।

 [राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]

🔆🙏वह दूरी कहाँ है जिसमें विच्छेद (break) है?🔆🙏

[Where is the distance that has a break? ]

एक ओर दूसरे प्रकार की भी चिकित्साप्रणाली है , जिसमें आरोग्यकारी स्वयं बहुत स्वस्थकाय न होने पर भी दूसरे के शरीर में स्वास्थ्य का संचार कर दे सकता है । इन स्थलों में उस आरोग्यकारी व्यक्ति को कुछ परिमाण में प्राणजयी समझना चाहिए । वह कुछ समय के लिए अपने प्राण में मानो एक विशेष कम्पन उत्पन्न करके दूसरे के शरीर में उसका संचार कर देता है । 

अनेक स्थलों में यह कार्य बहुत दूर से भी साधित हुआ है । यदि सचमुच में दूरत्व का अर्थ खण्ड या विच्छेद ( break ) हो , तो दूरत्व नामक कोई चीज नहीं । ऐसा दूरत्व कहाँ है, जहाँ परस्पर कुछ भी सम्बन्ध , कुछ भी योग नहीं ? सूर्य में और तुममें क्या वास्तविक कोई विच्छेद है ? नहीं , यह तो समस्त एक अविच्छिन्न अखण्ड वस्तु है ; तुम उसके एक अंश हो और सूर्य उसका एक दूसरा अंश । नदी के एक भाग और दूसरे भाग में क्या विच्छेद है ? तो फिर शक्ति भी एक जगह से दूसरी जगह क्यों न भ्रमण कर सकेगी ? इसके विरोध में तो कोई युक्ति नहीं दी जा सकती ।

[There have been cases where this process has been carried on at a distance, but in reality there is no distance in the sense of a break. Where is the distance that has a break? Is there any break between you and the sun? It is a continuous mass of matter, the sun being one part, and you another. Is there a break between one part of a river and another? Then why cannot any force travel? There is no reason against it.]

दूर से आरोग्य करने की घटनाएँ बिलकुल सत्य हैं । इस प्राण को बहुत दूर तक संचालित किया जा सकता है । पर हाँ , इसमें धोखेबाजी बहुत है । यदि इसमें एक घटना सत्य हो , तो अन्य सैकड़ों असत्य और छलकपट के अतिरिक्त और कुछ नहीं । लोग इसे जितना सहज समझते हैं , यह उतना सहज नहीं । अधिकतर स्थलों में तो देखोगे कि आरोग्य करनेवाले चंगा करने के लिए मानवदेह की स्वाभाविक स्वस्थता की ही सहायता लेते हैं । 

  [May 30, 2022 को यह अनुवाद किया गया]  एक एलोपैथ (allopath) चिकित्सक आता है ,कोविड (COVID-19) के रोगियों की चिकित्सा करता है और उन्हें दवा देता है ; एक होमियोपैथ (homoeopath)  चिकित्सक आता है , वह भी 'कोविड' के रोगियों को अपनी दवा देता है और शायद एलोपैथ की अपेक्षा अधिक रोगियों को चंगा कर देता है । ऐसा क्यों ? इसलिए कि वह रोगी के शरीर में किसी तरह का विपर्यय न लाकर प्रकृति को अपनी चाल से काम करने देता है (allows nature to deal with them) । और विश्वास के बल से आरोग्य करनेवाला, आस्था आरोग्यक (Faith-healer)तो और भी अधिक रोगियों को चंगा कर देता है , क्योंकि वह अपनी इच्छाशक्ति द्वारा कार्य करके विश्वास के बल से रोगी की प्रसुप्त प्राणशक्ति (dormant Prana ) को जाग्रत कर देता है । 

परन्तु विश्वास के बल से रोगों को अच्छा करनेवाले आस्था आरोग्यक  (Faith-healers) को सदा एक भ्रम हुआ करता है , वे सोचते हैं कि साक्षात् विश्वास (faith)  ही लोगों को रोगमुक्त करता है । वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि केवल विश्वास इसका कारण है । ऐसे भी रोग हैं , जिसमें रोगी स्वयं नहीं समझ पाता कि उसके कोई रोग है । रोगी का अपनी नीरोगता पर अतीव विश्वास ही रोग का एक प्रधान लक्षण (symptom) है , और इससे आसन्न मृत्यु की सूचना होती है । इन सब स्थलों में केवल विश्वास से रोग नहीं टलता । यदि विश्वास ही रोग की जड़ काटता हो , तो वे रोगी मौत के मुँह न गये होते । वास्तव में रोग तो इस प्राण की शक्ति से ही दूर होता है । प्राणजित् पवित्रात्मा पुरुष (pure man) अपने प्राण को एक निर्दिष्ट कम्पन में ले जा सकते हैं और उसे दूसरे में संचारित करके , उसके भीतर भी उसी प्रकार का कम्पन (similar vibration) पैदा कर सकते हैं । 

तुम प्रतिदिन की घटना से यह प्रमाण ले सकते हो । मैं व्याख्यान दे रहा हूँ ।व्याख्यान देते समय मैं क्या कर रहा हूँ ? मैं अपने मन को मानो कम्पन की एक विशिष्ट स्थिति में लाता हूँ । और मैं मन को इस स्थिति में लाने में जितना ही सफल होऊँगा , तुम मेरी बात सुनकर उतने ही प्रभावित होगे । तुम लोगों को मालूम है , व्याख्यान देते देते मैं जिस दिन मस्त हो जाता हूँ , उस दिन मेरा व्याख्यान तुमको बहुत अच्छा लगता है , पर जब कभी मेरा उत्साह घट जाता है , तो तुम्हें मेरे व्याख्यान में उतना आनन्द नहीं मिलता ।

[You see that in everyday actions. I am talking to you. What am I trying to do? I am, so to say, bringing my mind to a certain state of vibration, and the more I succeed in bringing it to that state, the more you will be affected by what I say. All of you know that the day I am more enthusiastic, the more you enjoy the lecture; and when I am less enthusiastic, you feel lack of interest.]

जगत् को हिला - डुला देनेवाले तीव्र इच्छाशक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण को कम्पन की एक उच्च स्थिति में ला सकते हैं और यह प्राण इतना महान् तथा शक्तिशाली होता है कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेता है , हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं । जगत् के सभी महान् पैगम्बरों का प्राण पर अत्यन्त अद्भुत संयम था , जिसके बल से वे प्रबल इच्छाशक्तिसम्पन्न हो गये थे । वे अपने प्राण के भीतर अति उच्च कम्पन पैदा कर सकते थे , और उसी से उन्हें समस्त संसार पर प्रभावविस्तार करने की क्षमता प्राप्त हुई थी । 

[The gigantic will-powers of the world, the world-movers, can bring their Prana into a high state of vibration, and it is so great and powerful that it catches others in a moment, and thousands are drawn towards them, and half the world think as they do. Great prophets of the world had the most wonderful control of the Prana, which gave them tremendous will-power; they had brought their Prana to the highest state of motion, and this is what gave them power to sway the world.]

संसार में शक्ति के जितने विकास देखे जाते हैं , सभी प्राण के संयम से उत्पन्न होते हैं । मनुष्य को यह तथ्य भले ही मालूम न हो , पर और किसी तरह इसकी व्याख्या नहीं हो सकती । तुम्हारे शरीर में यह प्राणसंचालन कभी एक ओर अधिक और दूसरी ओर कम हो जाता है । इससे सन्तुलन भंग होता है ; और जब प्राण का यह सन्तुलन नष्ट होता है , तब रोग की उत्पत्ति होती है। अतिरिक्त प्राण को हटाकर , जहाँ प्राण का अभाव है , वहाँ का अभाव भर सकने से ही रोग अच्छा हो जाता है । 

शरीर के किस भाग में प्राण अधिक है और किस भाग में अल्प , इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है । इस प्राणायाम के अभ्यास से अनुभवशक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि मन समझ जाएगा , पैर के अँगूठे में या हाथ की अँगुली में जितना प्राण आवश्यक है , उतना वहाँ नहीं है , और मन उस प्राण के अभाव को पूरा करने में भी समर्थ हो जाएगा । इस प्रकार प्राणायाम के अनेक अंग हैं । इनको धीरे धीरे , एक के बाद एक , सीखना होगा । अतएव यह स्पष्ट है कि विभिन्न रूपों में प्रकाशित प्राण का संयम सिखाना और उसको विभिन्न प्रकार से चलाना ही राजयोग का सम्पूर्ण क्षेत्र है । 

जब कोई अपनी समस्त शक्तियों का संयम करता है , तब वह अपनी देह के भीतर के प्राण का ही संयम करता है । जब कोई ध्यान करता है , तो भी समझना चाहिए कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है । महासागर की ओर यदि देखो , तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वतकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं , फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं , और छोटे छोटे बुलबुले भी । पर इन सब के पीछे वही अनन्त महासमुद्र है । एक ओर वह छोटा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है , फिर दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है । इसी प्रकार , संसार में कोई महापुरुष हो सकता है , और कोई छोटे बुलबुले जैसा सामान्य व्यक्ति , परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है । जहाँ भी जीवनीशक्ति का प्रकाश देखो , वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भाण्डार है । 

एक छोटी सी फफूँदी ( fungus ) है ; वह , सम्भव है , इतनी छोटी , इतनी सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े ; उससे आरम्भ करो । देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भाण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करती हुई एक अन्य रूप धारण कर रही है । कालान्तर में वह उद्भिद के रूप में परिणत होती है , वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करती है , फिर मनुष्य का रूप लेती हुई वही अन्त में ईश्वररूप में परिणत हो जाती है । हाँ , इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापार के घटते घटते लाखों साल पार हो जाते हैं । परन्तु यह समय है क्या ? वेग - साधना का वेग बढा देकर समय काफी घटाया जा सकता है । 

योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है , वही , वेग बढ़ा देने पर , बहुत थोड़े समय में सध सकता है । हो सकता है कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्तिराशि में से बहुत थोड़ी थोड़ी शक्ति लेकर चले । इस प्रकार चलने पर उसे देवजन्म प्राप्त करते , सम्भव है , एक लाख वर्ष लग जाएँ , फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करते शायद पाँच लाख वर्ष लगें । फिर पूर्ण सिद्ध होते और भी पाँच लाख वर्ष लगें । पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है । पर्याप्त प्रयत्न करने पर छह वर्ष या छह महीने में ही यह सिद्धिलाभ क्यों न हो सकेगा

युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है । सोचो , कोई वाष्पीय यन्त्र , निर्दिष्ट मात्रा में कोयला देने पर , प्रति घण्टा दो मील चल सकता है , तो अधिक कोयला देने पर वह और भी शीघ्र चलेगा । इसी प्रकार , यदि हम भी तीव्र वेगसम्पन्न हों , तो इसी जन्म में मुक्तिलाभ क्यों न कर सकेंगे ? हाँ , हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पाएँगे । पर इस प्रकार युग युग तक हम प्रतीक्षा क्यों करें ? इसी क्षण , इस शरीर में ही , इस मनुष्यदेह में ही हम मुक्तिलाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे ? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान , वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे

आत्मा की उन्नति का वेग बंढ़ाकर किस प्रकार थोड़े समय में मुक्ति पायी जा सकती है , यही सारे योगशास्त्र का लक्ष्य और उद्देश्य है । जब तक सारे मनुष्य मुक्त नहीं हो जाते , तब तक प्रतीक्षा करते हुए थोड़ा थोड़ा करके अग्रसर न होकर , प्रकृति के अनन्त शक्तिभाण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्तिलाभ किया जा सकता है , योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है । संसार के सभी पैगम्बर , साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया है ? उन्होंने एक ही जन्म में मानवजाति का सम्पूर्ण जीवन बिताया और उन सब अवस्थाओं को पार कर लिया है , जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ों जन्मों में मुक्त होता है । 

एक जन्म में ही वे अपनी मुक्ति का मार्ग तय कर लेते हैं । वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते , दूसरी बात के लिए एक क्षण भी समय नहीं देते । उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता । इस प्रकार उनकी मुक्तिप्राप्ति का समय घट जाता है । एकाग्रता का अर्थ ही है , शक्तिसंचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना । राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है ।

 इस प्राणायाम के साथ प्रेतात्म-वाद ( spiritism) का क्या सम्बन्ध है ? प्रेतात्मवाद भी प्राणायाम की ही एक अभिव्यक्ति है । यदि यह सत्य हो कि प्रेतात्मा का अस्तित्व है और उसे हम देख भर नहीं पाते , तो यह भी बहुत सम्भव है कि यहीं पर शायद लाखों आत्माएं हैं , जिन्हें हम न देख पाते हैं , न अनुभव कर पाते हैं , न छू पाते हैं । सम्भव है , हम सदा उनके शरीर के भीतर से आ - जा रहे हों । और यह भी बहुत सम्भव है कि वे भी हमें देखने या किसी प्रकार से अनुभव करने में असमर्थ हों । 

यह मानो एक वृत्त के भीतर एक और वृत्त है , एक जगत के भीतर एक और जगत् । हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं । हमारे प्राण का कम्पन एक विशेष प्रकार का है । जिनके प्राण का कम्पन हमारी तरह का है , उन्हीं को हम देख सकेंगे । परन्तु यदि कोई ऐसा प्राणी हो , जिसका प्राण अपेक्षाकृत उच्चकम्पनशील है , तो उसे हम नहीं देख पाएँगे । प्रकाश के कम्पन की तीव्रता अत्यन्त अधिक बढ़ जाने पर हम उसे नहीं देख पाते , किन्तु बहुत से प्राणियों की आँखें ऐसी शक्तियुक्त हैं कि वे उस तरह का प्रकाश देख सकती हैं । इनके विपरीत , यदि आलोक के परमाणुओं का कम्पन अत्यन्त मृदु या हल्का हो , तो भी उसे हम नहीं देख पाते , परन्तु उल्लू और बिल्ली आदि प्राणी उसे देख लेते हैं । 

हमारी दृष्टि इस प्राणकम्पन के एक विशेष प्रकार को ही देखने में समर्थ है । इसी प्रकार वायुराशि की बात लो । वायु मानो स्तर पर स्तर रची हुई है । पृथ्वी का निकटवर्ती वायु -स्तर अपने से ऊँचेवाले स्तर से अधिक घना है , और इस तरह हम जितने ऊँचे उठते जाएँगे , हमें यही दिखेगा कि वायु क्रमशः सूक्ष्म होती जा रही है । इसी प्रकार समुद्र की बात लो ; समुद्र के जितने ही गहरे प्रदेश में जाओगे , पानी का दबाव उतना ही बढ़ेगा । जो प्राणी समुद्र के नीचे रहते हैं , वे कभी ऊपर नहीं आ सकते , क्योंकि यदि वे आएँ , तो उसी समय उनका शरीर टुकड़े टुकड़े हो जाए।" 

सम्पूर्ण जगत् को ईथर ( आकाशतत्त्व ) के एक समुद्र के रूप में सोचो । प्राण की शक्ति से आकाश  मानो स्पन्दित हो रहा है और विभिन्न मात्रा में स्पन्दनशील स्तरों में बँटा हुआ है । तो देखोगे , जिस केन्द्र से स्पन्दन शुरू हुआ है , उससे तुम जितनी दूर जाओगे उतना ही यह स्पन्दन मृदु रूप से अनुभूत होगा ; केन्द्र के पास स्पन्दन बहुत द्रुत होता है । और भी सोचो , भिन्न भिन्न प्रकार के स्पन्दनों के अलग अलग स्तर हैं । यह सम्पूर्ण स्पन्दनक्षेत्र मानो विभिन्न स्पन्दनस्तरों में विभक्त है कई लाख मील तक एक प्रकार का स्पन्दन ; फिर कई लाख मील तक एक उच्चतर किन्तु दूसरे प्रकार का स्पन्दन , आदि आदि । 

अतः यह सम्भव है कि जो प्राण की एक विशेष अवस्था के स्तर पर वास करते हैं , वे एक दूसरे को पहचान सकेंगे , परन्तु अपने से नीचे या ऊँचे स्तरवाले जीवों को न पहचान सकेंगे । फिर भी , जैसे हम अनुवीक्षण यन्त्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं , उसी प्रकार योग के द्वारा मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहाँ क्या हो रहा है , यह जान सकते हैं । समझो , इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं , जिन्हें हम नहीं देख पाते । वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं , और हम एक दूसरे प्रकार के मान लो कि वे प्राण के अधिक स्पन्दन से युक्त हैं और हम उनकी तुलना में कम स्पन्दन से । हम भी प्राणरूप मूल वस्तु से गढ़े हुए हैं , और वे भी वही हैं । 

सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं । विभिन्नता है केवल स्पन्दन की मात्रा में । यदि मन को मैं अधिक स्पन्दनविशिष्ट कर सका , तो मैं फिर इस स्तर पर न रहूँगा , मैं फिर तुम लोगों को न देख पाऊँगा । तुम मेरी दृष्टि से अन्तर्हित हो जाओगे और वे मेरी आँखों के सामने आ जाएँगे । तुममें से शायद बहुतों को मालूम है कि यह व्यापार सत्य है । 

🔆🙏तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।🔆🙏 

[अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को जानने से सब कुछ जाना जा सकता है ।]

मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही योगशास्त्र में एकमात्र ' समाधि ' शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । उच्चतर स्पन्दन की ये सब भूमियाँ , मन के सब अतिचेतन सपन्दन इस एक शब्द - समाधि- में वर्गीकृत हैं । समाधि की निम्नतर भूमियों में इन अदृश्य प्राणियों को प्रत्यक्ष किया जाता है । और समाधि की सर्वोच्च अवस्था तो वह है , जब हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं । तब हम उस उपादान को जान लेते हैं , जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है , जैसे एक मृत्पिण्ड को जान लेने पर समस्त मृत्पिण्ड ज्ञात हो जाते हैं । अतः हम देखते हैं कि प्रेतात्मवाद (spiritism) में जो कुछ सत्य है , वह भी प्राणायाम में समाविष्ट है । 

 इसी प्रकार , जब कभी तुम देखो कि कोई दल या सम्प्रदाय किसी रहस्यात्मक या गुप्त तत्त्व के आविष्कार की चेष्टा कर रहा है , तो समझना , वह यथार्थतः किसी परिमाण में इस राजयोग की ही साधना कर रहा है , प्राणसंयम की ही चेष्टा कर रहा है । जहाँ कहीं किसी प्रकार की असाधारण शक्ति का विकास हुआ है , वहाँ प्राण की ही शक्ति का विकास समझना चाहिए । यहाँ तक कि भौतिक विज्ञान भी प्राणायाम के अन्तर्गत किये जा सकते हैं । वाष्पीय यन्त्र को कौन संचालित करता है ? प्राण ही वाष्प के भीतर से उसको चलाता है । ये जो विद्युत् की अद्भुत क्रियाएँ दीख पड़ती हैं , ये सब प्राण को छोड़ भला और क्या हो सकती हैं ? भौतिक विज्ञान है क्या ? वह बाहरी उपायों द्वारा प्राणायाम का विज्ञान है

प्राण जब मानसिक शक्ति के रूप में प्रकाशित होता है , तब मानसिक उपायों द्वारा ही उसका संयम किया जा सकता है । जिस प्राणायाम में प्राण की स्थूल अभिव्यक्ति को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है , उसे भौतिक विज्ञान कहते हैं , और जिस प्राणायाम में प्राण की मानसिक अभिव्यक्तियों को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है , उसी को राजयोग कहते हैं । 

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`मे प्राण मा विभेः '

(प्राण सूक्त : अथर्ववेद, काण्ड 2, सूक्त 15) 

यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा विभेः ॥1॥

(1) जिस प्रकार आकाश एवं पृथिवी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण तुम भी भयमुक्त रहो ।

यथाहश्च रात्रीं च न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा विभेः ॥2॥

(2) जिस प्रकार दिन एवं रात को भय नहीं होता और इनका नाश नहीं होता, उसी प्रकार हे मेरे प्राण तुम्हें भी भय नहीं होवे ।

यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा विभेः ॥3॥

(3) जिस प्रकार सूर्य एवं चंद्र को भय नहीं सताता और इनका विनाश नहीं होता, उसी भांति हे मेरे प्राण तुम भी भय अनुभव न करो ।

यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा विभेः ॥4॥

(4) जैसे ब्रह्म एवं उसकी शक्ति को कोई भय नहीं होता और उनका विनाश नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण तुम भय से मुक्त रहो ।

यथा सत्यं चानृतं न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा विभेः ॥5॥

(5) जैसे सत्य तथा असत्य किसी से भय नहीं खाते और इनका नाश नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण तुम्हें भी भय नहीं होना चाहिए ।

यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा विभेः ॥6॥

(6) जिस भांति भूतकाल तथा भविष्यत्काल को किसी का भय नहीं होता और जिनका विनाश नहीं होता, उसी भांति हे मेरे प्राण तुम भी भय से मुक्त रहो । (अथर्ववेद, काण्ड 2, सूक्त 15) 

 [ नासदीय सूक्त : - नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं, .....  तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं।। ऋग्वेद - १० - १२९ )   `तदानीम्' अर्थात तब प्रलयावस्था में ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत् ) भाव भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ,.. लेकिन ( अग्रे + तमः + आसीत् ) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण अवश्य था और ( तमसा) उसी तमोवाच्य मूल कारण से ( इदम् + सर्वम् ) यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत ( गूढ़म् ) आच्छादित था , अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं।
नासदीय सूक्त ::  इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। यह सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त है , इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वर्णन दिया गया है।  नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। 
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्/(तदानीम् ) तब प्रलयावस्थामें ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत्) भाव भी नहीं था,  अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था। 
रजः न आसीत्- अर्थात  लोक-लोकान्तर भी न थे।  " लोका रजान्स्युच्यन्ते " ( निरुक्त ४-१९ ) लोकों का नाम रज है।  
व्योम नोयत् परः अवरीवः ( व्योम + नो ) आकाश भी नहीं था ( परः + यत् ) आकाश से भी पर यदि कुछ हो सकता है तो वह भी नहीं था। 
कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम् ----(कुह) किस देश में ( कस्य + शर्मन् ) किस के कल्याण के लिये। 
(किम + आवरीवः)--- कौन किस को आवरण करे। इस लिये आवरण भी नहीं था ( किम् ) क्या ( गहनम् ) ( गभीरम् ) गभीर ( अम्भः ) जल ( आसीत् ) था ? नहीं। 

अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
व्याख्या -- इस प्रथम ऋचा में ऋषि व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं।  प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था।  कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था।  यह प्रत्यक्ष है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ , यव , चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं। जब आच्छाद्य नहीं था , तब आच्छादक का भी अभाव था। 

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
अन्वय- तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम् ( न + मृत्युः + आसीत् ) न मृत्यु थी ( न + तर्हि + अमृतम् ) न उस समय अमृत था। रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् / (न + रात्र्याः + अह्नः ) न रात्रि और दिन का ( प्रकेतः + आसीत् ) कोई चिह्न था। तब उस समय कुछ था , या नहीं ? ब्रह्म भी था,या नहीं ? इस पर कहते हैं कि- तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम्(अवातम्) वायुरहित (तत् + एकम् ) वह एक ब्रह्म (स्वधया) प्रकृति के साथ (आनीत्) चेतनस्वरूप विद्यमान था। तस्मात् ह अन्यत् किंचन न आस न परः ( तस्मात् + ह् + अन्यत् ) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त (किञ्चन + न) कुछ भी नहीं था। अतः (परः) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था | यह सिद्ध होता है। 
‘अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
व्याख्या -- आनीत् --- प्राणनार्थक 'अन' धातु का 'आनीत्' यह रूप है (अवातम् ) वायुरहित | बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था।  केवल वह एक ही नहीं था , किन्तु स्वधा भी उसके साथ थी। सायण स्वधा शब्द का अर्थ माया करते हैं।  क्योंकि स्व = निज सत्ता, अर्थात जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं।  "स्वं दधातीति स्वधा" जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं। जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् =उसी प्रकार जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है।  इसलिए उसको स्वधा कहते हैं। 

तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
अन्वय -अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, (अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और (तमसा ) उसी तमोवाच्य प्रधान से (इदम् + सर्वम्) यह वर्तमानकालिक दृश्यमान जगत (गूढ़म् ) आच्छादित था ,अतएव वह  (अप्रकेतम्) अप्रज्ञात था।  पुनः ( सलिलम् + आः ) दुग्धमिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेदशून्य यह सब था।  आः यत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।
 पुनः ( आभु ) सर्वत्र व्यापक ( यत् ) जो जगन्मूल कारण प्रधान था , वह भी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था। (तत्) वही प्रधान (एकम्) एक होकर (तपसः + महिमा ) परमात्मा के तप के महिमा से (अजायत ) व्यक्तावस्था को प्राप्त हुआ।  
अर्थ –सृष्टि के उत्पन्न होने से पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था,अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।
व्याख्या -- प्रथम ऋचा में 'सत्' और 'असत्' इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों, 'मिथ्या' के बिना नहीं ज्ञात होते थे।  पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी , किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था।  इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया।  अब लोगों को यह सन्देह हो कि क्या जड़ जगत का मूल कारण सर्वथैव शशविषाणदिवत् (खरहे का सींग या बाँझ  का बेटा के सामान अविद्यमान था ? फिर क्या परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने ही सामर्थ्य से बना लिया ?  इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि 'तम आसीत्' इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था।  और उसी मूल कारण से वर्तमानकालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था।  अर्थात केवल कारण विद्यमान था , कार्य नहीं।  वह कारण भी 'तुच्छयेन' अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था , तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमानकालिक रूप में परिणत हुआ। सत्त्व , रज , तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान, अव्यक्त, और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं।  यहाँ वेद में उसी को 'तमः' शब्द से कहा है।  वेदान्त में इसी का नाम अज्ञान है क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है। इस विषय का संग्रह मनु जी ने इस प्रकार किया है कि --
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। 
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यम् प्रसुप्तमिव सर्वतः।।   ( मनु - १-५ ) 
यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय , अप्रज्ञात , अलक्षण , अप्रतर्क्य , अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था।  जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं , तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है। यह ईश्वरीय सिसृक्षा ( सृष्टि करने की इच्छा) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है , तब उससे क्रमपूर्वक महदादि सृष्टि होती है। 

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

अन्वय - अग्रे तत् कामः समवर्तत - यत्मनसः अधिप्रथमं रेतःआसीत्,(तदग्रे) उस सृष्टि के पूर्व (कामः + समवर्त्तत) ईश्वरीय कामना थी (यत्) जो (मनसः + अधि) अन्तःकरण का (प्रथमम् + रेतः) प्रथम बीजस्वरूप (आसीत्) था।  सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन/ (कवयः) बुद्धिमान ऋषि प्रभृति (मनीषा) अपनी सात्विक बुद्धि से (असति) विनश्वर (हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार ( सतः + बन्धुम् ) अविनश्वर सद्वाच्य प्रकृति के बाँधने वाले परमात्मा को ( निरविन्दन् ) पाते हैं |

अर्थ – सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।
व्याख्या -- जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते।  क्योंकि 'सोsकामयत' ( तै . उप . २-६ ) = उसने कामना की , 'तदैक्षत' ( छा . उप . ६-२-१ ) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है।  यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती।  इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी।  और यही कामना मानो , जगद्रचना का बीजभूत थी।  उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं।  उसके अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता।  सतो बन्धुम् = सत् नाम जड़ जगत् के कारण प्रकृति का है | उस कारण को परमेश्वर अपने वश में रखता है।  इस हेतु वह बन्धु कहलाता है। बन्धु नाम बाँधने वाला है।   

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
अन्वय-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।
[(एषाम्) इन सृष्ट पदार्थों के (रश्मिः) सूर्यकिरण के समान विस्तार (स्वित्) क्या ( तिरश्चीनः) तिर्यग्भाव टेढ़ा (विततः) फैला हुआ था।(स्वित् ) अथवा क्या ( अधः + आसीत् ) नीचे था अथवा ( उपरि + आसीत् ) ऊपर था , यह कुछ कहा ही नहीं जा सकता।  यह सृष्ट जगत् ऊपर अथवा नीचे अथवा सीधा या टेढ़ा है , इसका निश्चय नहीं हो सकता , किन्तु ( रेतोधाः + आसन् ) जीव थे ( महिमानः + आसन् ) और उस ब्रह्म के प्रकृति के और जीवों के महत्त्व थे। ( स्वधा + अवस्तात् ) प्रकृति नीचे थी और ( प्रयतिः) ईश्वरीय प्रयत्न ( परस्तात् ) ऊपर था अर्थात उस प्रकृति के ऊपर काम करने वाला था।]   

अर्थ-पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-संकल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।

व्याख्या -- यह सृष्टि किस प्रकार स्थापित है और कहाँ तक है , इसका आदि-अन्त कहीं है अथवा नहीं , इत्यादि ज्ञान कठिन है किन्तु रेतोधा = जीवात्मा इत्यादिक हैं , थे,  और रहेंगे , यह विस्पष्ट प्रतीत होता है।  रेतोधा = यह जीवात्मा वाचक शब्द है।  जीवात्मा का परम्परा , वंश चलाने के लिए आवश्यक है कि उसमे बीजस्वरूप वीर्य हो।  अतएव 'रेतो वीर्यं दधातीति रेतोधा' अर्थात [जो] वीर्य को धारण करे उसे रेतोधा कहते हैं। 
जीवात्मा का लक्षण :: अनेक लक्षणों में से जीवात्मा का एक लक्षण यह है कि जो अपने समान बीज को छोड़ जाए , उसको जीवात्मा कहते हैं। प्रत्येक जीव की यह स्वभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने समान बीज छोड़ को छोड़ जाता है।  उद्भिज्ज सृष्टि में इसकी तो बहुत ही अधिकता है किन्तु अण्डज , जरायुज और ऊष्मज जीवों में भी इसकी न्यूनता नहीं।   प्रत्येक प्राणी अपने समान कम से कम एकाध अपत्य उत्पादन के लिए सचेष्ट रहता है और प्रायः सन्तान छोड़ भी जाता है। अत एव इस सृष्टि के प्रवाह का उच्छेद नहीं होता   सायण भी रेतोधा शब्द का अर्थ जीवात्मा करते हैं।  उनका शब्द इस प्रकार है -- "रेतसो बीजभूतस्य कर्मणो विधातारः कर्त्तारो भोक्तारश्च जीवः" -- सायण रेत शब्द का अर्थ 'बीजभूत कर्म' करते हैं।  किन्तु रेत शब्द का अर्थ वीर्य भी प्रसिद्ध है।  जैसे योगिगण ऊर्ध्वरेता  कहलाते हैं।  'स्वधावस्तात्' = स्वधा नाम प्रकृति का है और वह अचेतन है , अत एव जीवात्मा और ईश्वर के नीचे उसे स्वभावतया ही रहना पड़ता है।  इस हेतु स्वधा के नीचे रहने का वर्णन यहाँ आया है।  और 'प्रयतिः परस्तात्' = प्रयति नाम प्रयत्न का है।  प्रयत्न प्रकृति के ऊपर है अर्थात उसका शासक है , यह प्रत्यक्ष है। 
इस जगत के उपादान और निमित्त कारण को ( कः + वेद ) कौन जानता है ?
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।
( इयम् + विसृष्टिः ) यह विविध सृष्टियाँ ( कुतः + आजाता ) किस उपादान कारण से अच्छे प्रकार से उत्पन्न हुईं ? ( कुतः ) और किस निमित्त कारण से हुईं ? ( कः ) कौन विद्वान ( अद्धा ) परमार्थ रूप से ( वेद ) इन विविध सृष्टियों को जानते हैं ? ( कः ) कौन तत्त्ववित् ( इह ) इस लोक में ( प्रवोचत् ) इनकी व्याख्या हम लोगों को सुनावें ? यदि साधारण पृथिवीस्थ विद्वान इस सृष्टि की व्याख्या न कर सकें तो कदाचित सूर्यादि देव इसके तत्त्व को जानते हों तो उनसे पूछ कर निश्चय किया जाए।  और इस सन्देह को मिटाने के लिए देवों की भी अज्ञता आगे कहते हैं।   ( अस्य ) इस जगत के (विसर्जनेन) त्याग से अर्थात उसके ( अर्वाक् ) पश्चात ( देवाः ) देवगण उत्पन्न हुये अर्थात प्रकृति अथवा परमाणु नित्य हैं और इनके संघात से जब कार्य जगत पृथिव्यादिक बन चुके , तब अन्यान्य देवों की सृष्टि हुई।  इस हेतु वे भी इसके तत्त्व को जानने में सर्वथा असमर्थ हैं।  ( अथ ) तब ( कः + वेद ) कौन जानता है ( यतः + आबभूव ) जिस निमित्तोपकारण से ये सृष्टियाँ हुई।  

अर्थ – कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
( यतः ) जिस निमित्तकारणीभूत परमात्मा से ( इयम् + विसृष्टिः ) ये विविध सृष्टियाँ ( आबभूव ) हुआ करती हैं , वही ( यदि + वा + दधे ) यदि इसको धारण करता है तो वही धारक है।  ( यदि + वा + न ) यदि वह इसका धारण नहीं करता है तो अन्य कोई इसका अध्यक्ष है।  ( सः ) वह ( परमे + व्योमन् ) परम उत्कृष्ट निज महिमा में विद्यमान है ( अंग ) हे मनुष्यों !  ( वेद ) वही जानता है ( यदि + वा + न + वेद ) यदि वह नहीं जानता तो दूसरा इसको कोई नहीं जानता।  इससे संसार की दुर्विज्ञेयता और दुर्द्धस्त्व इत्यादि सिद्ध किया गया है।   

अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।
[नासदीय सूक्त की यह व्याख्या व् पदार्थ पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी की पुस्तक - "त्रैतसिद्धान्तादर्श" - से है।  पण्डित जी ने छठे व् सातवें मन्त्र की व्याख्या नहीं दी , केवल पदार्थ ही दिया है।  त्रैतसिद्धान्त  पर अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासुजन सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ें। ]

निर्वाण षट्कम

मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे। 

न च व्योम भूमिर्न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥

---मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं,मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं, मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोश:| 

न वाक्पाणिपादौ  न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥

मैं न प्राण हूं,  न ही पंच वायु हूं,मैं न सात धातु हूं,और न ही पांच कोश हूं, मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्‍सर्जन की इन्द्रियां हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव: | 

न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥

न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह, न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या। मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:| 

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥

मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं, मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ हूँ। 

न मैं भोजन(भोगने की वस्‍तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं , मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:| 

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥

न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव, मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था। मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्। 

न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥

मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं, मैं चैतन्‍य के रूप में सब जगह व्‍याप्‍त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं,न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं,मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि‍, अनंत शिव हूं।


महत्त-तत्व Mahatt-Tatv :: प्रकृति का पहला विकार (defect) या कार्य (function), पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था, इसी को दार्शनिक परिभाषा में बुद्धि-तत्त्व भी कहते हैं, सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्त्व है, यह जीवात्मा।

1-माण्डुक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय ग्रन्थ मानते हैं कि पंचतत्वों का विकास मन (महत-तत्व) से, मन का प्राण से और प्राण का समाधि (पराचेतना) से हुआ है। योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते हैं। इस तत्व से आप अपने मनोकायिक (मन और तन) अवस्था का पता लगा सकते हैं। शिव स्वरोदय ग्रंथ में भगवान शिव ने कहा-  ''इस संसार में प्राण ही सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा सखा है। इस जगत में प्राण से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है। इस शरीर रूपी नगर में प्राण-वायु एक सैनिक की तरह इसकी रक्षा करता है। 
यही प्राण मन व इंद्रियों को गति देने का कार्य करता है। ये प्राण  बड़ा शक्तिशाली है, जब तक ये शरीर के साथ होता है, जीवन रहता है, लेकिन जैसे ही ये अपनी शक्तियों को शरीर से समेटकर शरीर का साथ छोड़ देता है, उस अवस्था को मृत्यु कहा जाता है। प्राण जन्म देने में भी उतना ही सहायक है, जितना मृत्यु में। इसकी शक्ति को देखते हुए कई बार इस प्राण को ही आत्मा समझ लिया जाता है, जबकि ये तो आत्मा का एक कोष (आवरण) है। उपनिषदों में प्राण को आत्मा की छाया कहा है
श्वास के रूप में शरीर में प्रवेश करते समय श्वांस की  लम्बाई दस अंगुल और बाहर निकलने के समय बारह अंगुल होता है। चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है। साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है, पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है। 

भगवान शिव बताते हैं कि ''यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं।यदि प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है। साँस की लम्बाई चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि, पाँच अंगुल कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं। यदि श्वास की लम्बाई आठ अंगुल कम हो जाय, तो साधक को अष्ट  सिद्धियों की प्राप्ति होती है, नौ अंगुल कम होने पर नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं ..... जिसकी जरूरत किसी सच्चे भक्त को नहीं हैं ! ''
श्वास की लम्बाई बारह अंगुल कम होने पर साधक अमरत्व प्राप्त कर लेता है, अर्थात् साधना के दौरान ऐसी स्थिति आती है कि श्वास की गति रुक जाने के बाद भी ; `तदानीम्' अर्थात प्रलय के समय भी) वह जीवित रह सकता है।  
सृष्टि का प्रारंभिक विकास क्रम यह है कि , ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है। प्रकृति का पुरुष से सम्पर्क होता है तो उससे सवर्प्रथम महत्तत्त्व या महान् की उत्पत्ति होती है- महत् से अहंकार। प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन और इंद्रियां तथा पांच तन्मात्रा और पंच महाभूतों का जन्म हुआ। वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। जब हम पृथ्वी कहते हैं तो सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं है। प्रकृति के इन्हीं रूपों में सत्व, रज और तम गुणों की साम्यता रहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण में उक्त तीनों गुण होते हैं। यह साम्यवस्था भंग होती है तो महत् बनता है।  प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं 
योग चित्त वृत्ति निरोधः (1.2) -योग का अर्थ है - समाधि (अर्थात पूर्ण एकाग्रता)। 
परमात्मा के 2 रूप हैं :- व्यक्त और अव्यक्त, साकार और निराकार। योगी, साधकों, तपस्वियों की दो गतियां  :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है। 
तीन शक्ति ::  (1). इच्छा शक्ति, (2). ज्ञान शक्ति और (3). क्रिया शक्ति। 
प्राणायाम क्रियाएँ :: प्राणायाम दौरान श्वास-निश्वास सम्बन्धी तीन क्रियाएं :- (1). पूरक, (2). कुम्भक और (3). रेचक। उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अन्दर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं। 
चार गुरु :: माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।चार प्राणी :: जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।चार अप्सरा :: उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा। चार पुरुषार्थ :: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। चार युग :: सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग। अंतःकरण के चार अंग :: मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।  
SIGNIFICANCE OF 5 का महत्त्व ::

पञ्च प्राण (प्राणवायु, प्राणायाम) :: प्राणी के शरीर के भीतर पाँच प्रकार की वायु पाई जाती है। ये पाँचों ही पवन देव के पुत्र हैं और प्राणी में प्रकृति के अंश में उपस्थित रहते हैं।
प्राण वायु :: वह वायु जो मनुष्य, प्राणी, जीव के शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत प्राण वायु की उपस्थिति तक ही जीवात्मा इसमें निवास करता है। इस वायु का मुख्‍य स्थान हृदय में है।इस वायु के आवागमन को अच्छी तरह, भली-भाँति समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। वायु शरीर के अन्तर्गत खाद्य पदार्थों-भोजन को पोषक या हानिकारक पदार्थों में तब्दील करने-बदलने की क्षमता रखती है। मल का निर्माण और निष्कासन भी इसी के माध्यम से होता है।
आयाम :: प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार और दिशा। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं, उसी आयाम में चले जाते हैं। मनुष्य जब श्वास लेता है तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँच भागों में विभक्त हो जाती है अर्थात शरीर के भीतर पाँच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थितर रहकर भी गतिशील रहती है।
पंचक :: (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण। वायु के इस पाँच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति चैतन्य रहता है, स्मृतियांँ सुरक्षित रहती हैं, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह-स्पंदन होता रहता है। मन के विचार बदलने या स्थिर रहने में भी इसका योगदान रहता है। इस प्रणाली में किसी भी प्रकार का अवरोध पूरे शरीर, तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर, मन तथा चेतना बीमारी, व्याधि, रोग और शोक से ‍ग्रस्त हो जाते हैं। नियमित प्राणायाम मन-मस्तिष्क, चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायु तंत्र और खून आदि सभी को शुद्ध और पुष्ट, स्वस्थ रखता है।ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ :: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। पाँच कर्म :: रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच प्रकार के क्लेश :: मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं।
SIGNIFICANCE OF 6 का महत्त्व :: शरीर 6 प्रकार के विकार :: उत्पन्न होना, बदलना, सत्तावान दिखना, बढ़ना, धटना और नष्ट होना। मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु :- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की बात ही क्या है।
SIGNIFICANCE OF 7 का महत्त्व ::   सप्त ऋषि :: (1). केतु, (2). पुलह, (3). पुलस्त्य, (4). अत्रि, (5). अंगिरा, (6). वशिष्ट और (7). मारीचि।
SIGNIFICANCE OF 8 :: ज्ञान प्राप्ति के 8 अन्तरङ्ग साधन ::
(1). विवेक :: सत्-असत्, उचित-अनुचित, हानि-लाभ, हित-अहित को सोच-समझकर निर्णय लेना।
(2). वैराग्य :: सत्-असत् को अलग-अलग जानकर उसका त्याग करके संसार से विमुख होना।
(3). शमादि षट्सम्पत्ति :: (3.1). मन को इन्द्रियों से हटाना शम है। (3.2). इन्द्रियों को विषयों से हटाना दम है। (3.3). ईश्वर, शास्त्र पर पूज्य भाव से पूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। (3.4). वृतियों को संसार से हटाना उपरति है। (3.5). सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को सहना उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। (3.6). अन्तःकरण में शंकाओं को न रखना समाधान है।
(4). मुमुक्षता :: संसार से छूटने की इच्छा मुमुक्षता है। मुमुक्षता जाग्रत होने के बाद साधक पदार्थों और कर्मों का स्वरूप से त्यागकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर उसके निवास पर शास्त्रों को सुनकर तात्पर्य का निर्णय करना और उसे धारण करना श्रवण है।
(5). श्रवण :: श्रवण से संशय दूर होता है।
(6). मनन :: इससे प्रमेयगत संशय दूर होता है।
(7). निदिध्यासन :: संसार की सत्ता को मानना और परमात्मा-तत्व को न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावना को हटाना निदिध्यासन है।
(8). तत्व पदार्थ संशोधन :: प्राकृत पदार्थ-मात्र से सम्बन्ध-विच्छेद होना, केवल  चिन्मय-तत्व का शेष रहना, तत्व पदार्थ संशोधन है और यही तत्व साक्षात्कार है।
इन सब साधनों का तातपर्य है असाधन अर्थात असत् से सम्बन्ध का त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिए नहीं होती परन्तु त्याग का परिणाम अपने लिए होता है।
SIGNIFICANCE OF 9 :: नव दुर्गा :: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धि दात्री। 9 का अंक ब्रह्म का प्रतीक और अक्षय है। इसलिए सत्ययुग का प्रारंभ अक्षय नवमी से मान जाता है। आज भी कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी कहते है। माला में मनकों की सँख्या 108 है।वेदों में माया का अंक 8  एवं ब्रह्म का अंक 9  माना गया है। माया में परिवर्तन होता है, ब्रह्म  में नहीं। 9 X 1 = 9/9 X 2 = 18/9 X 3 = 27/ यहाँ 18 मे 1+8 के और 27 मे 2+7 के जोडने पर मूलांक 9 ही होता है। इस प्रकार 9 के अग्रिम पहाड़े में  भी स्वयं जाना जा सकता है। माया का प्रतीक 8 का पहाड़ा ::8 X 1 = 8/8 X 2 = 16, (1+6=7)./ 8 X 3 = 24, (2+4=6)./8 X 4 = 32, (3+2=5)/8 X 5 =  40, (4+0=4)/8 X 6 =  48, (4+8=12; 1+2=3)/8 X 7 = 56, (5+6=11, 1+1=2)/8 X 8 = 64, (6+4=10, 1+0=1)/  यहाँ एक ब्रह्म ही अवशिष्ट हुआ। ब्रह्म के अंक 9 में तो विकार नहीं होता-इसलिए 8 X 9 = 72, (7+2=9) यह यहाँ प्रत्यक्ष है | नवग्रह :- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु।
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रविवार, 29 मई 2022

🔆🙏[राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' - स्वामी विवेकानन्द🔆🙏🔆🙏मेरुदण्ड और मेडुला ऑब्लान्गेटा का महत्व 🔆🙏 राजयोग समस्त अलौकिक घटनाओं (miracles) की युक्तिसंगत व्याख्या है

 [राजयोग (चतुर्थ अध्याय)]

 `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' 

CHAPTER - IV  

THE PSYCHIC PRANA

🔆🙏मेरुदण्ड और मेडुला ऑब्लान्गेटा का महत्व 🔆🙏 

योगियों के मतानुसार मेरुदण्ड के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह और मेरुदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नली है । इस शून्य नली के सब से नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है । योगियों का कहना है कि वह त्रिकोणाकार है । योगियों की रूपक भाषा में कुण्डलिनी शक्ति उस स्थान पर कुण्डलाकार हो विराज रही है । 

जब यह कुण्डलिनी शक्ति जगती है , तब वह इस शून्य नली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है , और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान ऊपर उठती जाती है , त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं और योगी को अनेक प्रकार के अलौकिक दर्शन होने लगते हैं तथा अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं । जब वह कुण्डलिनी मस्तक पर चढ़ जाती है , तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक् हो जाते हैं और उनकी आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है । 

हमें मालूम है कि हमारा मेरुदण्ड  (spinal cord ) एक विशेष प्रकार से गठित है । अंग्रेजी के है आठ अंक (8) को यदि आड़ा (∞) कर दिया जाए , तो देखेंगे कि उसके दो अंश हैं और वे दोनों अंश बीच से जुड़े हुए हैं । इस तरह के अनेक अंकों को एक पर एक रखने पर जैसा दीख पड़ता है , मेरुदण्ड बहुत कुछ वैसा ही है । 

उसके बायीं ओर इड़ा है और दाहिनी ओर पिंगला ; और जो शून्य नली मेरुदण्ड के ठीक बीच में से गयी है , वही सुषुम्ना है । कटिप्रदेशस्थ मेरुदण्ड की कुछ अस्थियों के बाद ही मेरुमज्जा समाप्त हो गयी है , परन्तु वहाँ से भी तागे के समान एक बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ बराबर नीचे उतरता गया है । सुषुम्ना नली वहाँ भी अवस्थित है , परन्तु वहाँ बहुत सूक्ष्म हो गयी है । नीचे की ओर उस नली का मुँह बन्द रहता है । उसके निकट ही कटिप्रदेशस्थ नाड़ीजाल ( sacral plexus ) अवस्थित है,जो आजकल के शरीरशास्त्र ( physiology ) के मत से त्रिकोणाकार है । 

इन विभिन्न नाड़ीजालों के केन्द्र मेरुमंज्जा के भीतर अवस्थित हैं ; वे नाड़ीजाल योगियों के भिन्न भिन्न पद्मों या चक्रों के तौर पर लिये जा सकते हैं । योगियों का कहना है कि सब से नीचे मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार या सहस्रदल पद्म तक कुछ चक्र हैं । यदि हम उन पद्मों को पूर्वोक्त नाड़ीजाल के प्रतिरूप समझें , तो आजकल के शरीरशास्त्र के द्वारा बहुत सहज ही योगियों की बात का मर्म समझ में आ जाएगा । 

हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के (nerve currents) प्रवाह हैं ; उनमें से एक को अन्तर्मुखी और दूसरे को बहिर्मुखी , एक को ज्ञानात्मक (sensory) और दूसरे को कर्मात्मक (motor), एक को केन्द्रगामी (centripetal) और दूसरे को केन्द्रापसारी (centrifugal) कहा जा सकता है । उनमें से एक मस्तिष्क की ओर संवाद ले जाता है , और दूसरा मस्तिष्क से बाहर , समस्त अंगों में । परन्तु अन्त में ये प्रवाह मस्तिष्क के सनयायु-केंद्रों से संयुक्त हो जाते हैं। आगे आनेवाले विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ और बातें ध्यान में रखनी होंगी । 

यह मेरुमज्जा  (spinal cord) मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के ' बल्ब ' या 'medulla oblongata'  (मेडुला ऑब्लान्गेटा) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में समाप्त हो जाती है , जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है , वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है , उसमें तैरता रहता है। अतः यदि सिर पर कोई आघात लगे, तो उस आघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में बिखर जाती है , और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती । यह हमारे मस्तिष्क का सबसे   महत्त्वपूर्ण हिस्सा है , जो हमें स्मरण रखनी चाहिए । ['बल्ब' या 'मेडुला ऑब्लान्गेटा'  मस्तिष्क का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि इसमें श्वास-प्रश्वांस यंत्र और ह्रदय के कामकाज को नियंत्रित करने वाले केंद्र होते हैं। "the medulla oblongata (मेडुला ऑब्लान्गेटा) is the most vital part of the brain because it contains centers controlling breathing and heart functioning."]  दूसरे , हमें यह भी जान लेना होगा कि इन सब चक्रों में से सब से नीचे स्थित मूलाधार , मस्तिष्क में स्थिर सहस्रार और नाभिदेश में स्थित मणिपूर – इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी।

अब भौतिकविज्ञान का एक तत्त्व हमें समझना है । हम लोगों ने विद्युत् और उससे संयुक्त अन्य बहुविध शक्तियों की बातें सुनी हैं । विद्युत् क्या है , यह किसी को मालूम नहीं । हम लोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति हैजगत् में और भी अनेक प्रकार की गतियाँ हैं ; विद्युत् से उनका क्या भेद है ? मान लो , यह मेज चल रहा है और उसके परमाणु विभिन्न दिशाओं में जा रहे हैं । अब यदि उन परमाणुओं को एक ही दिशा में चलाया जाए , तो वह विद्युत् के माध्यम से ही किया जा सकता है । समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों , तो उसी को विद्युत् - गति कहते हैं । इस कमरे में जो वायु है , उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाए , तो यह कमरा एक प्रचण्ड बैटरी ( battery ) के रूप में परिणत हो जाएगा शरीरशास्त्र की एक और बात हमें स्मरण रखनी होगी । वह यह है कि जो स्नायुकेन्द्र श्वासप्रश्वास-यन्त्रों ( respiratory system या  breathing system) को नियमित करता है , उसका सारे स्नायुप्रवाहों के नियमन पर भी कुछ अधिकार है ।

[राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप '

🔆🙏 प्राणायाम द्वारा चंचल मन इच्छाशक्ति में रूपान्तरित हो जाता है 🔆🙏  

अब हम प्राणायाम करने का कारण समझ सकेंगे । पहले तो , यदि श्वास प्रश्वास की गति लयबद्ध या नियमित की जाए , तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे । जब विभिन्न दिशाओं में दौड़नेवाला मन एकमुखी होकर एक दृढ़ इच्छाशक्ति के रूप में परिणत होता है (mind changes into will), तब सारे स्नायुप्रवाह भी परिवर्तित होकर एक प्रकार की विद्युत् प्रवाह जैसी गति प्राप्त करते हैं।  क्योंकि स्नायुओं पर विद्युत् - क्रिया करने पर देखा गया है कि उनके दोनों प्रान्तों में धनात्मक और ऋणात्मक , इन विपरीत शक्तिद्वय (polarity) का उद्भव होता है । इसी से यह स्पष्ट है कि जब इच्छाशक्ति स्नायुप्रवाह के रूप में परिणत होती है , तब वह एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है । जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं , तब वह शरीर मानो इच्छाशक्ति का एक प्रबल विद्युदाधार (gigantic battery of will) बन जाता है

 यह प्रबल इच्छाशक्ति (tremendous will) प्राप्त करना ही योगी ... का उद्देश्य है । इस तरह, शरीरशास्त्र (physiology) की सहायता से प्राणायाम - क्रिया (breathing exercise)  की व्याख्या की जा सकती है । वह शरीर के भीतर एक प्रकार की एकमुखी गति पैदा कर देती है और श्वासप्रश्वास - केन्द्र (respiratory center) पर आधिपत्य करके शरीर के अन्यान्य केन्द्रों को भी वश में लाने में सहायता पहुँचाती है । यहाँ पर प्राणायाम का लक्ष्य मूलाधार में कुण्डलाकार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करना है

हम जो कुछ देखते हैं , कल्पना करते हैं , या कोई स्वप्न देखते हैं , तो सारे अनुभव हमें आकाश (space) में करने पड़ते हैं । हम साधारणतः जिस परिदृश्यमान आकाश को देखते हैं उसका नाम है महाकाश (elemental space) । योगी जब दूसरों का मनोभाव समझने लगते हैं या अलौकिक वस्तुएँ (supersensuous objects, दिव्य ज्योति ) देखने लगते हैं, तब वे सब दर्शन चित्ताकाश (the mental space) में होते हैं । और जब अनुभूति स्थूल-सूक्ष्म विषयशून्य (objectless) हो जाती है , जब आत्मा अपने स्वरूप में प्रकाशित होती है , तब उसका नाम है चिदाकाश (Chidâkâsha, or knowledge space) । 

जब कुण्डलिनी शक्ति जागकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है , तब जो सब विषय अनुभूत होते हैं, वे चित्ताकाश ( mental space) में ही होते हैं । जब वह कुण्डलिनी शक्ति उस नाड़ी की अन्तिम सीमा मस्तिष्क के 'बल्ब' ('Medulla Oblongata') में पहुँचती है ; तब चिदाकाश (knowledge space) में एक विषयशून्य ज्ञान (objectless perception) अनुभूत होता है

अब विद्युत् की उपमा (analogy of electricity) फिर से ली जाए । हम देखते हैं कि मनुष्य केवल तार के योग से एक जगह से दूसरी जगह विद्युत् प्रवाह चला सकता है , परन्तु प्रकृति अपने महान् शक्तिप्रवाहों को भेजने के लिए किसी तार का सहारा नहीं लेती । इसी से अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि किसी प्रवाह को चलाने के लिए वास्तव में तार की कोई आवश्यकता नहीं । किन्तु हम तार के बिना काम करने में असमर्थ हैं , इसीलिए हमें उसकी आवश्यकता पड़ती है । (पाठक को याद रखना चाहिए कि यह व्याख्यान स्वामी विवेकानन्द ने  बेतार का तार (wireless telegraphy ) की खोज से पहले दिया था )

जैसे विद्युत् प्रवाह तार की सहायता से विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होता है , ठीक उसी तरह शरीर की समस्त संवेदनाएँ और गतियाँ (sensations and motions of the body) मस्तिष्क में और मस्तिष्क से स्नायुतन्तु-रूप तार ( wires of nerve fibres)  की ही सहायता से वह  बहिर्देश में प्रेषित की जाती हैं।  मेरुमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगुच्छ-स्तम्भ (sensory and motor fibres in the spinal cord ) ही योगियों की इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ है । उन दोनों प्रधान नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्तिप्रवाह-द्वय संचारित हो रहे हैं । 

परन्तु बात अब यह है कि इस प्रकार के तार के समान किसी पदार्थ की सहायता बिना मस्तिष्क के चारों ओर विभिन्न संवाद भेजना और भिन्न भिन्न स्थानों से मस्तिष्क का विभिन्न संवाद ग्रहण करना सम्भव क्यों न होगा ? प्रकृति में तो ऐसे व्यापार घटते देखे जाते हैं । योगियों का कहना है कि इसमें कृतकार्य होने पर ही भौतिक बन्धनों (bondage of matter) को लाँघा जा सकता है । तो अब इसमें कृतकार्य होने का उपाय क्या है--- How to do it? यदि मेरुदण्ड-मध्यस्थ सुषुम्ना (Sushumna, the canal in the middle of the spinal column) के भीतर से स्नायुप्रवाह चलाया जा सके , तो यह समस्या मिट जाएगी । मन ने ही यह स्नायुजाल ( network of the nervous system) तैयार किया है , और उसी को यह जाल तोड़कर बिना किसी तंत्रिका तंतुओं के तार (wires of nerve fibres)की सहायता के अपना काम करना होगा । तभी सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आएगा , देह का बन्धन (bondage of body)  फिर न रह जाएगा । 

इसीलिए सुषुम्ना नाड़ी पर विजय पाना (control of that Sushumna.) हमारे लिए इतना आवश्यक है । यदि तुम इस शून्य नली के भीतर से , स्नायुजाल की सहायता के बिना भी मानसिक प्रवाह (mental current ) चला सको , तो बस , इस समस्या का समाधान हो गया । योगी कहते हैं कि यह सम्भव है । साधारण मनुष्यों में सुषुम्ना निम्नतर छोर में बन्द रहती है ; उसके माध्यम से कोई कार्य नहीं होता । `The Yogi proposes a practice by which it can be opened, and the nerve currents made to travel through.' योगियों का कहना है कि इस सुषुम्ना का द्वार खोलकर उसके माध्यम से स्नायुप्रवाह चलाने की एक निर्दिष्ट साधना है जिसे 'मनःसंयोग 'कहते हैं)  । 

राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' 

🔆🙏स्वप्न में किसी 'नगर' की एकदम सच्ची अनुभूति कैसे होती है ?🔆🙏

(How do perceptions in dreams arise? ) 

बाह्य विषय के संस्पर्श से उत्पन्न संवेदना जब किसी स्नायु -केन्द्र में पहुँचती है , तब उस केन्द्र में एक ¨प्रतिक्रिया होती है । स्वयंक्रिय केन्द्रों ( automatic centres ) में उन प्रतिक्रियाओं का फल केवल गति होता है , पर सचेतन केन्द्रों ( conscious centres) में पहले अनुभव (perception) , और फिर बाद में गति (motion) होती है । सारी अनुभूतियाँ (perceptions) बाहर से आयी हुई क्रियाओं की प्रतिक्रिया (reaction to action from outside)  मात्र है । तो फिर स्वप्न में अनुभूति किस तरह होती है ? उस समय (स्वप्न देखते समय) तो बाहर की कोई क्रिया नहीं रहती ।

अतएव स्पष्ट है कि विषयों के अभिघात से पैदा हुई स्नायविक गतियाँ शरीर के किसी न किसी स्थान पर अवश्य अव्यक्त भाव से कुंडलित (coiled) रहती हैं । मान लो , स्वप्न में मैंने एक 'नगर' देखा । ' नगर ' नामक बाह्य वस्तु के आघात की जो प्रतिक्रिया है , उसी से उस नगर की अनुभूति होती है । अर्थात् उस नगर की बाह्य वस्तु द्वारा हमारे अन्तर्वाही स्नायुओं (incarrying nerves) में जो गतिविशेष उत्पन्न हुई है , उससे मस्तिष्क के भीतर के परमाणुओं में (brain molecules में)  एक गति पैदा हो गयी है । इसीलिए आज बहुत दिन बाद भी वह नगर मेरी स्मृति में आता है । 

इस स्मृति में भी ठीक वही व्यापार होता है , पर अपेक्षाकृत हल्के रूप में । किन्तु जो क्रिया मस्तिष्क के भीतर उस प्रकार का मृदुतर कम्पन (vibrations ) ला देती है , वह भला कहाँ से आती है ? यह तो कभी नहीं कहा जा सकता कि वह उसी पहले के विषय - अभिघात (primary sensations) से पैदा हुई है । अतः स्पष्ट है कि विषय - अभिघात से उत्पन्न गतिप्रवाह या संवेदनाएँ शरीर के किसी स्थान पर कुण्डलीकृत होकर विद्यमान हैं और उनकी क्रिया के फलस्वरूप ही स्वप्न - अनुभूतिरूप (dream perception रूपी ) मृदु प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है

जिस केन्द्र में विषय - अभिघात से उत्पन्न संवेदनाओं के अवशिष्ट अंश या संस्कार (residual sensations) मानो संचित से रहते हैं , उसे मूलाधार कहते हैं।  और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी “the coiled up” कहते हैं । सम्भवतः गतिशक्तियों का अवशिष्ट अंश  (residual motor energy) भी इसी जगह कुण्डलीकृत होकर संचित है ; क्योंकि हम देखते हैं कि गम्भीर अध्ययन और बाह्य वस्तुओं पर मनन के बाद शरीर के जिस स्थान पर यह मूलाधार चक्र ( सम्भवतः sacral plexus ) अवस्थित है , वह तप्त हो जाता है

 अब यदि इस कुण्डलिनी शक्ति (coiled-up energy ) को जगाकर उसे ज्ञातभाव से सुषुम्ना नली में से प्रवाहित करते हुए एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को ऊपर लाया जाए , तो वह ज्यों ज्यों विभिन्न केन्द्रों पर क्रिया करेगी , त्यों त्यों प्रबल प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होगी। जब शक्ति का बिलकुल सामान्य अंश किसी स्नायुतन्तु के भीतर से प्रवाहित होकर विभिन्न केन्द्रों में प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है , तब वही स्वप्न अथवा कल्पना (dream or imagination) के नाम से अभिहित होता है ।

राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' 

🔆🙏तीव्र ध्यान के बल से इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति🔆🙏  

किन्तु जब मूलाधार में संचित विपुलायतन शक्तिपुंज (the vast mass of energy) दीर्घकालव्यापी तीव्र ध्यान के बल से (by the power of long internal meditation) उद्बुद्ध होकर सुषुम्ना मार्ग में भ्रमण करता है और विभिन्न केन्द्रों पर आघात करता है , तो उस समय एक बड़ी प्रबल प्रतिक्रिया होती है , जो स्वप्न अथवा कल्पनाकालीन प्रतिक्रिया से तो अनन्तगुनी श्रेष्ठ है ही , पर जाग्रत् कालीन विषयज्ञान की प्रतिक्रिया ( reaction of sense-perception) से भी अनन्तगुनी प्रबल है । यही अतीन्द्रिय (super-sensuous )अनुभूति है ।फिर जब वह शक्तिपुंज समस्त ज्ञान के , समस्त संवेदनाओं के केन्द्रस्वरूप (metropolis of all sensation--) मस्तिष्क में पहुँचता है , तब सम्पूर्ण मस्तिष्क मानो प्रतिक्रिया करता है , और इसका फल है ज्ञान का पूर्ण प्रकाश (full blaze of illumination)  या आत्मसाक्षात्कार (perception of the Self)। 

कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को जाती है , वैसे ही वैसे मन का मानो एक एक परदा खुलता जाता है और तब योगी इस जगत् की सूक्ष्म या कारणरूप ( causal form) में उपलब्धि करते हैं । और तभी विषयस्पर्श से उत्पन्न हुई संवेदना और उसकी प्रतिक्रियारूप जो जगत् के कारण (causes of this universe) है , उनका यथार्थ स्वरूप हमें ज्ञात हो जाता है। अतएव तब हम सारे विषयों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, क्योंकि कारण (causes) को जान लेने पर कार्य (effects)का ज्ञान भी अवश्य होगा

 इस प्रकार हमने देखा कि कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्त्वज्ञान (Divine Wisdom) , अतिचेतन अनुभूति (superconscious perception) या आत्मसाक्षात्कार (realisation of the spirit)  का एकमात्र उपाय है । कुण्डलिनी को जागृत करने के अनेक उपाय हैं । किसी की कुण्डलिनी अवतार वरिष्ठ की भक्ति से या भगवान् श्रीरामकृष्ण के प्रति प्रेम से ही जागृत हो जाती है,  किसी की कुण्डलिनी शक्ति सिद्ध महापुरुषों (जीवन्मुक्त शिक्षकों) की कृपा-दृष्टि से और किसी की सूक्ष्म ज्ञानविचार ( analytic will -नेति,नेति)  द्वारा । लोग जिसे अलौकिक शक्ति या ज्ञान (supernatural power or wisdom) कहते हैं , उसका जहाँ कहीं कुछ प्रकाश दीख पड़े , तो समझना होगा कि वहाँ कुछ परिमाण में यह कुण्डलिनीशक्ति सुषुम्ना के भीतर किसी तरह प्रवेश पा गयी है । 

तो भी इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं में से अधिकतर स्थलों में (vast majority of such cases में)  यही देखा जाएगा कि उस व्यक्ति ने बिना जाने ( ignorantly ) एकाएक ऐसी कोई साधना कर डाली है , जिससे उसकी कुण्डलिनी शक्ति अज्ञातभाव से कुछ परिमाण में स्वतन्त्र होकर सुषुम्ना के भीतर प्रवेश कर गयी है । समस्त उपासना , ज्ञातभाव से हो अथवा अज्ञातभाव से ( consciously or unconsciously), उसी एक लक्ष्य पर पहुँचा देती है अर्थात् उससे कुण्डलिनी जागृत हो जाती है । जो सोचते हैं कि मैंने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया , उन्हें मालूम नहीं कि प्रार्थनारूप मनोवृत्ति के द्वारा वे अपनी ही देह में स्थित अनन्त शक्ति (infinite power) के एक बिन्दु को जगाने में समर्थ हुए हैं । 

अतएव योगी घोषणा करते हैं कि मनुष्य बिना जाने जिसकी विभिन्न नामों से , डरते डरते और कष्ट उठाकर उपासना करता है , उसके पास किस तरह अग्रसर होना होगा , यह जान लेने पर समझ में आ जाएगा कि  प्रत्येक व्यक्ति में कुण्डलीकृत वह यथार्थ शक्ति ही - चिरन्तन सुख की जननी (the mother of eternal happiness-माँ जगदम्बा ) है । अतएव राजयोग यथार्थ धर्मविज्ञान (science of religion) है । वह सारी उपासना , सारी प्रार्थना , विभिन्न प्रकार की साधनपद्धति और समस्त अलौकिक घटनाओं (miracles) की युक्तिसंगत व्याख्या है
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शनिवार, 28 मई 2022

🔆🙏 राजयोग (पंचम अध्याय ) -स्वामी विवेकानन्द : `आध्यात्मिक प्राण का संयम ' 🔆🙏प्राणायाम की ऊँची साधना उच्च गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए🔆🙏 कामशक्ति का ओजशक्ति में रूपान्तरण🔆🙏

राजयोग 

[ पंचम अध्याय ]  

 " आध्यात्मिक प्राण का संयम " 

CHAPTER- V  

THE CONTROL OF PSYCHIC PRANA

अब हम प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे । हमने पहले ही देखा है कि योगियों के मत में साधना का पहला अंग फेफड़े की गति (motion of the lungs) को अपने अधीन करना है । हमारा उद्देश्य है - शरीर के भीतर जो सूक्ष्म गतियाँ हो रही हैं , उनका अनुभव प्राप्त करना । हमारा मन बिलकुल बहिर्मुखी हो गया है , वह भीतर की सूक्ष्म गतियों को बिलकुल नहीं पकड़ सकता

हम जब उनका अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होंगे , तो उन पर विजय पा लेंगे । ये स्नायविक शक्ति-प्रवाह (nerve currents) शरीर में सर्वत्र चल रहे हैं ; वे प्रत्येक पेशी में जाकर उसको जीवनी-शक्ति (life and vitality) दे रहे हैं;  किन्तु हम उनका अनुभव नहीं कर पाते । योगियों का कहना है कि प्रयत्न करने पर हम उनका अनुभव प्राप्त करना सीख जाएँगे । कैसे ? पहले फेफड़े की गति पर विजय पाने की चेष्टा करनी होगी । कुछ काल तक यह कर सकने पर हम सूक्ष्मतर गतियों को भी वश में ला सकेंगे । 

अब प्राणायाम की क्रियाओं की चर्चा की जाए । पहले तो , सीधे होकर बैठना होगा । देह को ठीक सीधी रखना होगा । यद्यपि मेरुमज्जा मेरुदण्ड से संलग्न नहीं है , फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर है । टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त - व्यस्त हो जाती है । अतएव देखना होगा कि वह स्वच्छन्द रूप से रहे । टेढ़े बैठकर ध्यान करने की चेष्टा करने से अपनी ही हानि होती है । शरीर के तीनों भाग- वक्ष , ग्रीवा और मस्तक - सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे । देखोगे , बहुत थोड़े अभ्यास से यह श्वास - प्रश्वास की तरह सहज हो जाएगा । 

इसके बाद स्नायु-केन्द्रों  को वशीभूत करने का प्रयत्न करना होगा । हमने पहले ही देखा है कि जो स्नायु-केन्द्र श्वासप्रश्वास- यन्त्र (respiratory organs) के कार्य को नियमित करता है , वह दूसरे स्नायुओं पर भी कुछ नियंत्रण -प्रभाव डालता है । इसीलिए साँस लेना और साँस छोड़ना लययुक्त (rhythmical -नियमित ) रूप से करना आवश्यक है । हम साधारणतः जिस प्रकार साँस लेते और छोड़ते हैं , वह श्वास - प्रश्वास नाम के ही योग्य नहीं । वह बहुत अनियमित है । फिर स्त्री और पुरुष के श्वास - प्रश्वास में कुछ स्वाभाविक भेद भी है । 

प्राणायाम-साधना की पहली क्रिया यह है : भीतर निर्दिष्ट परिमाण में साँस लो और बाहर निर्दिष्ट परिमाण में साँस छोड़ो । इससे देह सन्तुलित होगी । कुछ दिन तक यह अभ्यास करने के बाद , साँस खींचने और छोड़ने के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का (सद्गुरु से प्राप्त बीजमंत्र का ) मन ही मन उच्चारण करने से अच्छा होगा । भारत में , प्राणायाम करते समय हम लोग श्वास के ग्रहण और त्याग की संख्या ठहराने के लिए एक , दो , तीन , चार इस क्रम से न गिनते हुए कुछ सांकेतिक शब्दों का व्यवहार करते हैं । इसीलिए मैं तुम लोगों से प्राणायाम के समय ॐ  अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का व्यवहार करने के लिए कह रहा हूँ । 

चिन्तन करना कि वह शब्द श्वास के साथ लययुक्त और सन्तुलित रूप से बाहर जा रहा है ओर भीतर आ रहा है । ऐसा करने पर तुम देखोगे की सारा शरीर क्रमशः मानो लययुक्त (rhythmical) होता जा रहा है । तभी तुम समझोगे , यथार्थ विश्राम क्या है । उसकी तुलना में निद्रा तो विश्राम ही नहीं । एक बार यह विश्राम की अवस्था आने पर अतिशय थके हुए स्नायु भी शान्त हो जाएँगे और तब तुम जानोगे कि पहले तुमने कभी यथार्थ विश्राम का सुख नहीं पाया

इस साधना का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है । मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करनेवाली रेखाएँ दूर हो जाएँगी । मन की शान्ति मुख से फूटकर बाहर निकलेगी । दूसरे , तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जाएगा । मैंने ऐसा एक भी योगी नहीं देखा , जिसके गले का स्वर कर्कश हो । कुछ महीने के अभ्यास के बाद ही ये चिह्न प्रकट होने लगेंगे । 

 [राजयोग (पंचम अध्याय) `आध्यात्मिक प्राण का संयम ']

🔆🙏प्राणायाम की ऊँची साधना उच्च गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए🔆🙏 

इस पहले प्राणायाम का कुछ दिन अभ्यास करने के बाद प्राणायाम की एक दूसरी . ऊँची साधना ग्रहण करनी होगी । वह यह है : इड़ा अर्थात् बायें नथुने द्वारा फेफड़े को धीरे धीरे वायु से पूरा करो । उसके साथ स्नायुप्रवाह में मन को एकाग्र करो , सोचो कि तुम मानो स्नायुप्रवाह को मेरुमज्जा के नीचे भेजकर कुण्डलिनी शक्ति के आधारभूत , मूलाधारस्थित त्रिकोणाकृति पद्म पर बड़े जोर से आघात कर रहे हो । 

इसके बाद इस स्नायुप्रवाह को कुछ क्षण के लिए उसी जगह धारण किये रहो । तत्पश्चात् कल्पना करो कि तुम उस स्नायविक प्रवाह को श्वास के साथ दूसरी ओर से अर्थात् पिंगला द्वारा ऊपर खींच रहे हो । फिर दाहिने नथुने से वायु धीरे धीरे बाहर फेंको । इसका अभ्यास तुम्हारे लिए कुछ कठिन प्रतीत होगा । सहज उपाय है – अँगूठे से दाहिना नथुना बन्द करके बायें नथुने से धीरे धीरे वायु भरो । फिर अँगूठे और तर्जनी से दोनों नथुने बन्द कर लो , और सोचो , मानो तुम स्नायुप्रवाह को नीचे भेज रहे हो और सुषुम्ना के मूलदेश में आघात कर रहे हो । इसके बाद अँगूठा हटाकर दाहिने नथुने द्वारा वायु बाहर निकालो । फिर बायाँ नथुना तर्जनी से बन्द करके दाहिने नथुने से धीरे धीरे वायु - पूरण करो और फिर पहले की तरह दोनों नासिकाछिद्रों को बन्द कर लो । 

हिन्दुओं के समान प्राणायाम का अभ्यास करना इस देश ( अमेरिका ) के लिए कठिन होगा , क्योंकि हिन्दू बाल्य काल से ही इसका अभ्यास करते हैं , उनके फेफडे इससे अभ्यस्त हैं । यहाँ चार सेकन्ड से आरम्भ करके धीरे धीरे बढ़ाने पर अच्छा होगा । चार सेकन्ड तक (पूरक) वायु पूरण करो , (कुम्भक ) सोलह सेकन्ड बन्द करो और फिर (रेचक) आठ सेकन्ड में वायु का रेचन करो । इससे एक प्राणायाम होगा । उस समय मूलाधारस्थ त्रिकोणाकार पद्म पर मन स्थिर करना भूल न जाना । इस प्रकार की कल्पना से तुमको साधना में बड़ी सहायता मिलेगी । 

एक तीसरे प्रकार का प्राणायाम यह है : धीरे धीरे भीतर श्वास खींचो , फिर तनिक भी देर किये बिना धीरे धीरे वायु - रेचन करके बाहर ही श्वास कुछ देर के लिए रुद्ध कर रखो , संख्या पहले की प्राणायाम की तरह है । पूर्वोक्त प्राणायाम और इसमें भेद इतना ही है कि पहले के प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है और इसमें बाहर । यह प्राणायाम पहले से सीधा है । जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है , उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं [सावधान -दिमाग बिगड़ सकता है !]  । उसका सबेरे चार बार और शाम को चार बार अभ्यास करो । अनियमित रूप से साधना करने पर तुम्हारा अनिष्ट हो सकता है । 

बाद में धीरे धीरे समय और संख्या बढ़ा सकते हो । तुम क्रमशः देखोगे कि तुम बहुत सहज ही यह कर रहे हो और इससे तुम्हें बहुत आनन्द भी मिल रहा है । अतएव जब देखो कि तुम यह बहुत सहज ही कर रहे हो , तब बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ संख्या चार से छह बढ़ा सकते हो । 

उपर्युक्त तीन प्रक्रियाओं में से पहली और अन्तिम क्रियाएँ कठिन भी नहीं और उनसे किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका भी नहीं । पहली क्रिया का जितना अभ्यास करोगे , उतना ही तुम शान्त होते जाओगे । उसके साथ ओंकार जोड़कर अभ्यास करो , देखोगे , जब तुम दूसरे कार्य में लगे हो , तब भी तुम उसका अभ्यास कर सकते हो । इस क्रिया के फल से देखोगे , तुम अपने को सभी बातों में अच्छा ही महसूस कर रहे हो । 

इस तरह कठोर साधना करते करते एक दिन तुम्हारी कुण्डलिनी जग जाएगी । जो दिन में केवल एक या दो बार अभ्यास करेंगे , उनके शरीर और मन कुछ स्थिर भर हो जाएँगे और उनका स्वर मधुर हो जाएगा । परन्तु जो कमर बाँधकर साधना के लिए आगे बढ़ेंगे , उनकी कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी , उनके लिए सारी प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेगी , उनके लिए ज्ञान का द्वार खुल जाएगा । तब फिर ग्रन्थों में तुम्हें ज्ञान की खोज न करनी होगी । तुम्हारा मन ही तुम्हारे निकट अनन्त ज्ञानविशिष्ट पुस्तक का काम करेगा । 

मैंने मेरुदण्ड के दोनों ओर से प्रवाहित इड़ा और पिंगला नामक दो शक्तिप्रवाहों का पहले ही उल्लेख किया है , और मेरुमज्जा के बीच से जानेवाली सुषुम्ना की बात भी कही है । यह इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है । जिनके मेरुदण्ड है , उन सभी के भीतर ये तीन प्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाप्रणालियाँ मौजूद हैं । परन्तु योगी कहते हैं , साधारण जीव में यह सुषुम्ना बन्द रहती है , उसके भीतर किसी तरह की क्रिया का अनुभव नहीं किया जा सकता ; किन्तु इड़ा और पिंगला नाड़ियों का कार्य , अर्थात् शरीर के विभिन्न भागों में शक्तिवहन करना , सभी प्राणियों में होता रहता है । 

Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.

केवल योगी में यह सुषुम्ना खुली रहती है । यह सुषुम्नाद्वार खुलने पर उसके भीतर से स्नायविक शक्तिप्रवाह जब ऊपर चढ़ता है , तब चित्त उच्च से उच्चतर भूमि पर उठता जाता है , और अन्त में हम अतीन्द्रिय राज्य में चले जाते हैं । हमारा मन तब अतीन्द्रिय , अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर लेता है । तब हम बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं ; वहाँ तर्क नहीं पहुँच सकता

 इस सुषुम्ना को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है । ऊपर जिन शक्तिवहन केन्द्रों का उल्लेख किया गया है , योगियों के मत में वे सुषुम्ना में ही अवस्थित हैं । रूपक की भाषा में उन्हीं को पद्म कहते हैं । सब से नीचेवाला पद्म सुषुम्ना रीढ़ की हड्डी (spinal cord) के सब से निचले भाग में अवस्थित है । उसका नाम है मूलाधार । इसके बाद दूसरा है स्वाधिष्ठान । तीसरा मणिपूर। फिर चौथा अनाहत , पाँचवाँ विशुद्ध , छठा आज्ञा चक्र और सातवाँ है सहस्रार या सहस्रदल पद्म । यह सहस्रार  सब से ऊपर,मस्तिष्क में स्थित है।  

 [राजयोग (पंचम अध्याय) `आध्यात्मिक प्राण का संयम ']

🔆🙏कामशक्ति का ओजशक्ति में रूपान्तरण🔆🙏 

अभी इनमें से केवल दो केन्द्रों (चक्रों) की बात हम लेंगे - सब से नीचेवाले मूलाधार  की और सब से ऊपरवाले सहस्रार की। सब से नीचेवाला चक्र (Mulâdhâra) ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है, और उस शक्ति को उस जगह से उठाकर  मस्तिष्कस्थ सर्वोच्च चक्र ( “the thousand-petalled”) पर ले जाना होगा

 योगी दावा करते हैं कि मनुष्यदेह में जितनी शक्तियाँ हैं , उनमें ओज सब से उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है । यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है । जिसके मस्तिष्क में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है , वह उतना ही अधिक बुद्धिमान् और आध्यात्मिक बल से बली (spiritually strong) होता है । एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भाव व्यक्त करता है , परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते । और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है , न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है , परन्तु फिर भी लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं । 

वह जो कुछ कार्य करता है , उसी में महाशक्ति का विकास देखा जाता है । ऐसी है ओज की शक्ति ! यह ओज , थोड़ी - बहुत मात्रा में , सभी मनुष्यों में विद्यमान है । शरीर में जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं , उनका उच्चतम विकास यह ओज है । यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि सवाल केवल रूपान्तरण का है - एक ही शक्ति (काम) दूसरी शक्ति (ओज ) में परिणत हो जाती है । बाहरी संसार में जो शक्ति विद्युत् अथवा चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रही है , वही क्रमशः आभ्यन्तरिक शक्ति में परिणत हो जाएगी । आज जो शक्तियाँ पेशियों में कार्य कर रही हैं , वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जाएँगी । योगी कहते हैं कि मनुष्य में जो शक्ति कामक्रिया कामचिन्तन आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है , उसका दमन करने पर वह सहज ही ओज में परिणत हो जाती है । 

और हमारे शरीर का सब से नीचेवाला केन्द्र ही इस शक्ति का नियामक होने के कारण योगी इसकी ओर विशेष रूप से ध्यान देते हैं । वे सारी कामशक्ति को ओज में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं । कामजयी स्त्री - पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं । इसीलिए ब्रह्मचर्य ही सदैव सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है । मनुष्य यह अनुभव करता है कि अगर वह कामुक हो , तो उसका सारा धर्मभाव चला जाता है , चरित्रबल और मानसिक तेज नष्ट हो जाता है

इसी कारण , देखोगे , संसार में जिन जिन सम्प्रदायों में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं , उन सभी सम्प्रदायों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है । इसीलिए विवाहत्यागी संन्यासियों की उत्पत्ति हुई है । संन्यासियों के इस इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से- तन - मन - वचन से पालन करना नितान्त आवश्यक है । 

ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है ; क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क में विषम विकार पैदा हो सकता है यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवन - यापन करे , तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है ?

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🔆🙏राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा - स्वामी विवेकानन्द 🔆🙏अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara)🔆🙏 मन को विभिन्न इन्द्रियों (स्नायुकेन्द्रों) के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है🔆🙏मन को इन्द्रिय विषयों से खींचकर स्थानविशेष में धारण करना ही धारणा है🔆🙏आहार-शुद्धि🔆🙏शुक्ति ( pearl oyster) के समान बनो !-स्वाध्याय का महत्व- 🔆🙏ब्रह्मवेत्ता मनुष्य - 'बनो और बनाओ' 🔆🙏

 राजयोग 

षष्ठ अध्याय 

🔆🙏प्रत्याहार और धारणा 🔆🙏 

RAJA YOGA  : CHAPTER VI 

 PRATYAHARA AND DHARANA

प्राणायाम के बाद प्रत्याहार की साधना करनी पड़ती है । प्रत्याहार क्या है ? तुम सभी को ज्ञात है कि विषयानुभूति (perception) किस तरह होती है । सब से पहले , इन्द्रियों के द्वारस्वरूप ये बाहर के यन्त्र (external instruments) हैं । फिर हैं इन्द्रियाँ ( internal organs) , जो मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्रों (brain centres) की सहायता से शरीर पर कार्य करती हैं । इसके बाद है मन । जब ये समस्त एकत्र होकर किसी बाहरी वस्तु (external object) के साथ संलग्न होते हैं , तभी हम उस वस्तु का अनुभव कर सकते हैं । किन्तु मन को एकाग्र करके केवल किसी एक ही इन्द्रिय से संयुक्त कर रखना बहुत कठिन है , क्योंकि मन ( विषयों का ) दास है । 

हम संसार में सर्वत्र देखते हैं कि सभी यह शिक्षा दे रहे हैं -'अच्छे बनो ' , ' अच्छे बनो ' , ' अच्छे बनो-“Be good”। ' संसार में शायद किसी देश में ऐसा बालक नहीं पैदा हुआ , जिसे  “Do not tell a lie,” मिथ्याभाषण न करने ,“Do not steal,” चोरी न करने-- आदि की शिक्षा नहीं मिली।  परन्तु कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन अशुभ कर्मों से किस प्रकार बचे ? केवल बात करने से काम नहीं बनता । वह चोर क्यों न बने? हम तो उसको चोरी से निवृत्त होने की शिक्षा नहीं देते , उससे बस , इतना ही कह देते हैं , ' चोरी मत करो । ' [मन लगाकर पढ़ो , यदि उसे मन लगाकर पढ़ने का उपाय सिखाया जाये],  यदि उसे मनःसंयम का उपाय सिखाया जाए , तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है । 

जब हमारा मन इन्द्रिय नामक भिन्न भिन्न स्नायुकेन्द्रों से संलग्न रहता है , तभी समस्त बाह्य और आभ्यन्तरिक कर्म होते हैं । इच्छापूर्वक अथवा अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न भिन्न ( इन्द्रिय नामक ) केन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है । इसीलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता ( foolish deeds)  है और बाद में कष्ट पाता है । मन यदि हमारे वश में रहता , तो मनुष्य कभी अनुचित कर्म न करता । मन को संयत करने का फल क्या है ? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर, मनमाने ढंग से , बिना हमारी अनुमति के (विवेक के) विषयों का अनुभव करनेवाली भिन्न भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त न करेगा । और ऐसा होने पर सब प्रकार की भावनाएँ और इच्छाएँ हमारे वश में आ जाएँगी । यहाँ तक तो बहुत स्पष्ट है । 

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा } 

🔆🙏अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara)🔆🙏

अब प्रश्न यह है , क्या यह सम्भव है ? क्या मन को पूरी तरह से अपने वश में करना सम्भव है ? हाँ , यह सम्पूर्ण रूप से सम्भव है । तुम लोग वर्तमान समय में भी इसका कुछ आभास पा रहे हो, विश्वास के बल से आरोग्यलाभ करानेवाला सम्प्रदाय (faith-healers)  दुःख , कष्ट , अशुभ आदि के अस्तित्व को बिलकुल अस्वीकार कर देने (deny) की शिक्षा देता है । इसमें सन्देह नहीं कि इनके दर्शन में बहुत कुछ पेंचदार (roundabout-गोलमाल) है , तथापि यह आस्था चिकित्सा (faith-healing) भी योग का ही एक अंश है।  किसी तरह उन लोगों ने अचानक उसका ज्ञान प्राप्त कर लिया है । यदि वे दुःख - कष्ट के अस्तित्व को अस्वीकार करने की शिक्षा देकर, लोगों के दुःख दूर करने में सफल होते हैं; तो हमें यही समझना होगा कि उन्होंने वास्तव में प्रत्याहार की ही कुछ शिक्षा दी है।  क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति के मन को इतना अधिक सबल बना दिया हैं कि वह अब इन्द्रियों की गवाही पर भी विश्वास नहीं करता । 

[Is it possible? It is perfectly possible. You see it in modern times; the faith-healers teach people to deny misery and pain and evil. Their philosophy is rather roundabout, but it is a part of Yoga upon which they have somehow stumbled. Where they succeed in making a person throw off suffering by denying it, they really use a part of Pratyahara, as they make the mind of the person strong enough to ignore the senses. ]

सम्मोहनकारी व्यक्ति ( hypnotists ) इसी प्रकार , सम्मोहक संकेत ( hypnotyic suggestion ) द्वारा कुछ देर के लिए अपने सम्मोहित व्यक्तियों को एक प्रकार के अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara) से उद्दीप्त करते हैं । जिसे साधारणतः सम्मोहक संकेत (hypnotic suggestion) कहते हैं , वह केवल कमजोर मन पर ही अपना प्रभाव फैला सकता है । सम्मोहनकारी जब तक स्थिर दृष्टि ( हिलते हुए लॉकेट पर fixed gaze) अथवा अन्य किसी उपाय द्वारा अपने सम्मोहित व्यक्ति के मन को निष्क्रिय , जड़तुल्य अस्वाभाविक अवस्था में नहीं ले जा सकता , तब तक वह चाहे जो कुछ सोचने , सुनने या देखने का आदेश दे , उसका कोई फल न होगा । 

सम्मोहनकारी या विश्वास के बल से आरोग्य करानेवाले `आस्था चिकित्सक' (the operator of faith-healing) थोड़े समय के लिए जो अपने सम्मोहित व्यक्तियों के शरीरस्थ स्नायुकेन्द्रों  (इन्द्रियों ) को वशीभूत कर लेते हैं , वह अत्यन्त निन्दनीय कर्म है , क्योंकि वह उस पेशेन्ट को अन्त में सर्वनाश के रास्ते ले जाता है ।  यह कोई अपनी इच्छाशक्ति के बल से अपने मस्तिष्क-स्थित स्नायु -केन्द्रों का संयम तो है नहीं , यह तो दूसरे की इच्छाशक्ति के एकाएक दिए गए प्रबल आघात से सम्मोहित व्यक्ति के मन को कुछ समय के लिए मानो जड़ कर रखना है ।
इस प्रकार का अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara)  लगाम और बाहुबल की सहायता से , गाड़ी खींचनेवाले उच्छृंखल घोड़ों की उन्मत्त गति को संयत करना नहीं है , वरन् दूसरों को उन अश्वों पर तीव्र आघात करने को कहकर,  उनको कुछ समय के लिए सुन्न (stun) बना कर रखना है । 

आस्था आरोग्यक (faith healer) उस व्यक्ति (माध्यम) पर यह प्रक्रिया जितनी की जाती है , उतना ही वह अपने मन की शक्ति क्रमशः खोने लगता है।  और अन्त में , मन को पूर्ण रूप से जीतना तो दूर रहा , उसका मन बिलकुल शक्तिहीन और विचित्र जड़पिण्ड सा हो जाता है तथा पागलखाने में ही उसकी चरम गति आ ठहरती है । अपने मन को स्वयं अपने मन की सहायता से वश में लाने की चेष्टा के बदले इस प्रकार दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर मन का संयम करना अनिष्टकारक ही नहीं है , वरन् जिस उद्देश्य से वह कार्य किया जाता है , वह भी सिद्ध नहीं होता।

प्रत्येक जीवात्मा का चरम लक्ष्य है मन की गुलामी से मुक्ति या स्वाधीनता - जड़वस्तु और चित्तवृत्ति के दासत्व से मुक्तिलाभ करके, उन पर प्रभुत्व स्थापित करना , बाह्य और अन्तःप्रकृति पर अधिकार जमाना ।  किन्तु अपने मन पर प्रभुत्व स्थापित करने की दिशा में सहायता करने की बात तो अलग रही , दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हमारे चित्त पर लगी हुई पुराने संस्कारों और भ्रान्त धारणाओं की भारी बेड़ी में एक और कड़ी जोड़ देता है। - फिर वह इच्छाशक्ति हम पर किसी भी रूप से क्यों न प्रयुक्त हो , चाहे उससे हमारी इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष वशीभूत हो जाएँ , चाहे वह एक प्रकार की अस्वाभाविक विकृतावस्था में लाकर हमें इन्द्रियों को संयत करने के लिए बाध्य करे । 

इसलिए सावधान ! (Therefore, beware! ) दूसरे को अपने ऊपर इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना । अथवा दूसरे पर ऐसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके अनजाने में उसका सत्यानाश मत कर देना ।  यह सत्य है कि कोई कोई लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति (propensities) का मोड़ फेर कर कुछ दिनों के लिए तो उनका कुछ कल्याण करने में सफल हो जाते हैं। परन्तु साथ ही वे दूसरों पर इस सम्मोहनशक्ति का प्रयोग करके , बिना जाने , लाखों नर - नारियों को एक प्रकार से विकृत जड़ावस्थापन कर डालते हैं , जिसके परिणामस्वरूप उन सम्मोहित व्यक्तियों की आत्मा का अस्तित्व तक मानो लुप्त हो जाता है।

इसलिए जो कोई भी व्यक्ति किसी से किसी बातपर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने को कहता है , अथवा अपनी श्रेष्ठतर इच्छाशक्ति के बल से लोगों को वशीभूत करके अपना अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है , वह मनुष्यजाति का भारी अनिष्ट करता है - भले ही वह उसे इच्छापूर्वक न करता हो ।

अतएव अपने मन का संयम करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लो , और यह सदा याद रखो कि तुम यदि रोगग्रस्त नहीं हो , तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति तुम पर कार्य न कर सकेगी । जो व्यक्ति तुमसे अन्धे के समान विश्वास कर लेने को कहता है , उससे दूर ही रहो, वह चाहे कितना भी बड़ा आदमी या साधु क्यों न हो । संसार के सभी भागों में ऐसे बहुत से सम्प्रदाय हैं , (जैसे मतुआ सम्प्रदाय ?) जिनके धर्म के प्रधान अंग नाच - गान , उछल - कूद , चिल्लाना आदि हैं । वे जब संगीत , नृत्य और प्रचार करना आरम्भ करते हैं , तब उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाते हैं । वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी हैं । 

वे थोड़े समय के लिए भावुक व्यक्तियों पर गजब का प्रभाव डाल देते हैं । पर हाय ! परिणाम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है । इस प्रकार की अस्वाभाविक बाहरी शक्ति के बल से किसी व्यक्ति या जाति के लिए ऊपर ऊपर अच्छी होने की अपेक्षा ,अच्छी न रहना ही बेहतर है। और वह स्वास्थ्य का लक्षण है । इन धर्मोन्मत्त व्यक्तियों का उद्देश्य अच्छा भले ही हो , परन्तु इनको किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं । 

इन लोगों द्वारा मनुष्य का जितना अनिष्ट होता है , उसका विचार करते ही हृदय स्तब्ध हो जाता है । वे नहीं जानते कि जो व्यक्ति संगीत , स्तव आदि की सहायता से - उनकी शक्ति के प्रभाव से इस तरह एकाएक भगवद्-भाव में मत्त हो जाते हैं , वे अपने को केवल जड़ , विकृतिग्रस्त और शक्तिहीन बना लेते हैं और सहज ही किसी भी भाव के वश में हो जाते हैं- फिर वह भाव कितना भी बुरा क्यों न हो । उसका प्रतिरोध करने की उनमें तनिक भी शक्ति नहीं रह जाती । इन अज्ञ , आत्मवंचित व्यक्तियों के मन में यह स्वप्न में भी नहीं आता कि वे एक ओर जहाँ यह कहकर हर्षोत्फुल्ल हो रहे हैं कि उनमें मनुष्य हृदय को परिवर्तित कर देने की अद्भुत शक्ति है -जिस शक्ति के सम्बन्ध में वे सोचते हैं कि वह बादल के ऊपर अवस्थित किसी पुरुष से उन्हें मिली है - वहाँ साथ ही वे भावी मानसिक अवनति , पाप , उन्मत्तता और मृत्यु के बीज भी बो रहे हैं । 

अतएव , जिससे तुम्हारी स्वाधीनता नष्ट होती हो , ऐसे सब प्रकार के प्रभावों से (तांत्रिकों से) सतर्क रहो। ऐरो प्रभावों को भयानक विपत्ति से भरा जानकर प्राणपण से उनसे दूर रहने की चेष्टा करो । 
 
{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }
 
🔆🙏 मन को विभिन्न इन्द्रियों (स्नायुकेन्द्रों) के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है🔆🙏 

जो इच्छा मात्र से अपने मन को मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है , उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है । प्रत्याहार का अर्थ है , एक ओर आहरण करना “gathering towards,”--अर्थात् खींचना - मन की बहिर्गति को रोककर इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना । इस प्रत्याहार में सफल होने पर ही हम यथार्थ चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं। और तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गये हैं । इससे पहले हम तो मशीन मात्र हैं । 

मन को संयत करना कितना कठिन है । इसकी एक सुसंगत उपमा उन्मत्त वानर (maddened monkey) से दी गयी है । कहीं एक वानर था । वह स्वभावतः चंचल था , जैसे कि वानर होते हैं । लेकिन उतने से सन्तुष्ट न हो , एक आदमी ने उसे काफी शराब पिला दी । इससे वह और भी चंचल हो गया । इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया । तुम जानते हो , किसी को बिच्छू डंक मार दे , तो वह दिन भर इधर उधर कितना तड़पता रहता है । सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक ! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया । 

तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया । यह सब मिलाकर , सोचो , बन्दर कितना चंचल हो गया होगा । यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असम्भव है । बस , मनुष्य का मन उस वानर के सदृश है । मन तो स्वभावतः ही सतत् चंचल है , फिर वह वासनारूप मदिरा ( wine of desire) से मत्त है , इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गयी है । जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है , तब सुखी लोगों को देखने पर ईर्ष्यारूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है । उसके भी ऊपर जब अहंकार का भूत उसके भीतर प्रवेश करता है , तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता । ऐसी तो हमारे मन अवस्था है ! सोचो तो , इसका संयम करना कितना कठिन है

अतएव मन के संयम का पहला सोपान यह है कि, तुम कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो ! तब तुम देखोगे कि तुम्हारा मन सतत चंचल है ;और वह भी बन्दर की तरह सदा कूद - फाँद कर रहा है  -` Let the monkey jump as much as he can ! '  यह मनमर्कट जितनी इच्छा हो , उछल - कूद मचाए , कोई हानि नहीं , धीरज धरकर प्रतीक्षा करो और मन की गति को देखते जाओ । लोग जो कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है ( Knowledge is power), यह बिलकुल सत्य है ।`Until you know what the mind is doing you cannot control it. ' --जब तक  तुम यह न जान लो कि तुम्हारा मन अभी कहाँ है और क्या कर रहा है, तब तक तुम उसका संयम न कर सकोगे । अतः मन को इच्छानुसार इन्द्रिय विषयों में घूमने दो । लगाम को ढीली छोड़ दो। सम्भव है , बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आएँ । 

तुम्हारे मन में इतनी असत् भावनाएँ आ सकती हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे । परन्तु देखोगे , मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं , दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है ।  पहले कुछ महीने देखोगे , तुम्हारे मन में हजारों विचार आएँगे , क्रमशः वह संख्या घटकर सैकड़ों तक रह जाएगी । फिर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जाएगी , और अन्त में मन पूर्ण रूप से अपने वश में आ जाएगा । पर हाँ , हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा । 

जब तक विषय हमारे सामने हैं , तब तक हम उन्हें देखेंगे ही। जब तक इंजन के भीतर भाप रहेगी, तब तक वह चलता ही रहेगा।  (As soon as the steam is turned on ? the engine must run.) अतएव ,यह प्रमाणित करने के लिए कि " मनुष्य इंजन की तरह एक मशीन मात्र नहीं है", यह दिखाना आवश्यक है कि वह किसी इन्द्रिय-विषय  (रूप, रस, गंध , शब्द और स्पर्श) का गुलाम नहीं है । इस प्रकार मन का संयम करना और उसे विभिन्न इन्द्रियों के साथ (स्नायुकेन्द्रों के साथ) संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है । इसके अभ्यास का क्या उपाय है ? यह एक - दो दिन का काम नहीं , बहुत दिनों तक लगातार इसका अभ्यास करना होगा । धीरज धरकर लगातार बहुत वर्षों तक अभ्यास करने पर तब कहीं इस विषय में सफलता मिल पाती है

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏मन को इन्द्रिय विषयों से खींचकर स्थानविशेष में धारण करना ही धारणा है🔆🙏 
 
कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद , उसके बाद की साधना , अर्थात् धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा । धारणा का अर्थ है . -मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना । मन को स्थानविशेष में धारण करने का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना । मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया । तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जाएँगे । 

जब चित्त अर्थात् मन-वस्तु (mind-stuff , जिससे मन बनता है)  किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है , तब उसे धारणा कहते हैं । यह धारणा अनेक प्रकार की है । इस धारणा के अभ्यास के समय कल्पना के खेल (play of the imagination) की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो , हमें हृदय में एक बिन्दु की कल्पना करके में मन को उसी बिन्दु में धारण करने की चेष्टा करनी हो । तो हम पायेंगे इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है । अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक `अष्टदल रक्तवर्ण कमल '  की भावना करो और कल्पना करो कि वह ज्योति से पूर्ण है –चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो । अथवा मस्तिष्क में स्थित सहस्रदल कमल को अथवा पूर्वोक्त सुषुम्ना नाड़ी में स्थित विभिन्न चक्रों के पद्म को ज्योतिर्मय रूप से सोचो । 

योगी के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है । योगी को अकेले रहने का (या निर्जन-वास का) प्रयत्न करना होगा । विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है । उनका अधिक बातचीत करना उचित नहीं ; अधिक बातचीत करने से मन चंचल हो जाता है । अधिक काम करना भी अच्छा नहीं , क्योंकि इससे भी मन डाँवाडोल रहता है ; सारे दिन की कड़ी मेहनत के बाद मन का संयम नहीं हो सकता । जो उपर्युक्त नियमों के अनुसार चलते हैं , वे ही योगी हो सकते हैं ।

योग की ऐसी अद्भुत शक्ति है कि बहुत थोड़ी मात्रा में भी उसका अभ्यास करने पर बहुत अधिक फल प्राप्त होता है । इससे किसी का अनिष्ट नहीं होता , वरन् इससे सब का उपकार ही होता है । पहले तो , स्नायविक उत्तेजना शान्त हो जाएगी , मन शान्त भाव धारण करेगा और समस्त विषयों को अत्यन्त स्पष्ट रूप से देखने और समझने की शक्ति आएगी । मिजाज अच्छा रहेगा , स्वास्थ्य भी क्रमशः उत्तम हो जाएगा । योगाभ्यास करने पर जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं , देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है । स्वर भी मधुर हो जाएगा , स्वर में जो कुछ दोष है , सब निकल जाएगा । और भी अनेक प्रकार के चिह्न प्रकट होंगे; पर ये ही प्रथम हैं ।

 
जो बहुत अधिक साधना करते हैं , उनमें और भी दूसरे लक्षण प्रकट होते हैं । कभी कभी घण्टाध्वनि की तरह की ध्वनि सुन पड़ेगी , मानो दूर बहुत से घण्टे बज रहे हैं, या बाँसुरी बज रही है,  और वे सारी ध्वनियाँ मिलकर कानों में लगातार आघात कर रही हैं । कभी कभी देखोगे , आलोक के छोटे छोटे कण हवा में तैर रहे हैं और क्रमशः कुछ कुछ बड़े होते जा रहे हैं । जब ये लक्षण प्रकट होंगे , तब समझना कि तुम द्रुतगति से साधना में उन्नति कर रहे हो । 

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏आहार-शुद्धि🔆🙏
 
जो योगी होने की इच्छा करते हैं और कठोर अभ्यास करते हैं , उन्हें पहली अवस्था में आहार के सम्बन्ध में कुछ विशेष सावधानी रखनी होगी । जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं , वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें , तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिलेगी । किन्तु जो लोग दूसरे दैनिक कामों के साथ थोड़ा - बहुत अभ्यास करना चाहते हैं , उनके लिए अधिक भोजन न करने से (ही काम बन जाएगा । उन्हें खाद्य के सम्बन्ध में उतना विचार करने की आवश्यकता नहीं , वे जो इच्छा हो , वही खा सकते हैं । जो कठोर अभ्यास करके शीघ्र उन्नति करना चाहते हैं , उन्हें आहार के सम्बन्ध में विशेष सावधान रहना चाहिए ।

देहयन्त्र धीरे धीरे जितना ही सूक्ष्म होता जाता है , उतना ही तुम देखोगे कि एक सामान्य अनियम से भी तुम अपना सन्तुलन खो बैठते हो । जब तक मन पर सम्पूर्ण अधिकार नहीं हो जाता , तब तक आहार में एक ग्रास की अल्पता या अधिकता सम्पूर्ण देहयन्त्र को बिलकुल अप्रकृतिस्थ कर देगी । 

मन के पूर्ण रूप से अपने वश में आने के बाद जो इच्छा हो , खाया जा सकता के मन को एकाग्र करना आरम्भ करने पर देखोगे कि एक सामान्य पिन गिरने से ही ऐसा मालूम होगा कि मानो तुम्हारे मस्तिष्क में से वज्र पार हो गया । इन्द्रिययन्त्र जितने सूक्ष्म होते जाते हैं , अनुभूति भी उतनी ही सूक्ष्म होती जाती है । इन्हीं सब अवस्थाओं में से होते हुए हमें क्रमशः अग्रसर होना होगा । और जो लोग अध्यवसाय के साथ अन्त तक लगे रह सकते हैं , वे ही कृतकार्य होंगे ।

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏शुक्ति ( pearl oyster) के समान बनो !-स्वाध्याय का महत्व- 🔆🙏

सब प्रकार के तर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करनेवाली बातों को दूर कर देना होगा । शुष्क और निरर्थक तर्कपूर्ण प्रलाप से क्या होगा ? वह केवल मन के साम्यभाव को नष्ट करके उसे चंचल भर कर देता है । इन सब तत्त्वों की उपलब्धि की जानी चाहिए । केवल बातों से क्या होगा ? अतएव सब प्रकार की बकवास छोड़ दो । जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है , केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढ़ो

शुक्ति के समान बनो ! भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है । वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूँद किसी सीपी में चली जाए , तो उसका मोती बन जाता है । सीपियों को यह मालूम है । अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है , तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं , और उस समय की एक अनमोल बूँद की प्रतीक्षा करती रहती हैं । ज्यों ही एक बूँद पानी उनके पेट में जाता है , त्योंही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं , और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं । हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा । 

पहले सुनना होगा , फिर समझना होगा , अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिलकुल हटाकर , सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्यतत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा । एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके , उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना - इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी सारी शक्ति ही इधर उधर बिखर जाएगी । एक भाव को पकड़ो , उसी को लेकर रहो । उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो । 

जो एक भाव लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं , उन्हीं के हृदय में सत्यतत्त्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ , वहाँ का कुछ , इस तरह खटाइयाँ चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं , वे कभी कोई चीज नहीं पा सकते । कुछ देर के लिए नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो , किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता । वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे , कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे

जो सचमुच योगी होने की इच्छा करते हैं , उन्हें इस प्रकार के थोड़ा थोड़ा हर विषय को पकड़ने की वृत्ति सदैव के लिए छोड़ देनी होगी । एक विचार लो ; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ - उसी का चिन्तन करो , उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ । तुम्हारा मस्तिष्क , स्नायु , शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें । दूसरे सारे विचार छोड़ दो । यही सिद्ध होने का उपाय है ; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है । शेष सब तो बातें करनेवाले मशीन मात्र हैं । 

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏ब्रह्मवेत्ता मनुष्य - 'बनो और बनाओ' 🔆🙏

"Be blessed, and make others blessed " `Be and Make' let this be our motto ! If we really want to be blessed, and make others blessed, we must go deeper.]
यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें , तो हमें गहराई तक जाना होगा ।  इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाए । जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो , उनका साथ छोड़ दो । तुम सब को मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष , व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष के प्रति एक रुष्टता का भाव रहता है । उन सब का परित्याग कर देना । और जो सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी हैं , उन्हें तो सत् - असत् सब प्रकार के संग को त्याग देना होगा । 

पूरी लगन के साथ , कमर कसकर साधना में लग जाओ - फिर मृत्यु भी आए , तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि -काम सधे या प्राण ही जाएँ । फल की ओर दृष्टि रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ । निर्भीक होकर इस प्रकार दिनरात साधना करने पर छह महीने के भीतर ही तुम एक सिद्ध योगी हो सकते हो । परन्तु दूसरे , जो थोड़ी थोड़ी साधना करते हैं , सब विषयों को जरा जरा चखते हैं , वे कभी कोई बड़ी उन्नति नहीं कर सकते । केवल उपदेश सुनने से कोई फल नहीं होता । जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं , अज्ञानी और आलसी हैं , जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता , जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं , उनके लिए धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं । 

जो सिर्फ थोड़े से आमोद - प्रमोद के लिए धर्म करने आते हैं , वे साधना में अध्यवसायहीन हैं । वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं , ' वाह ! ये तो अच्छी बातें हैं ' , पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें भूल जाते हैं । सिद्ध होना हो , तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए , मन का अपरिमित बल चाहिए । अध्यवसायशील साधक कहता है , " मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा । मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर चूर हो जाएँगे । ” ---इस प्रकार का तेज , इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो , तो तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे । 
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2022 में एकादशी की तिथियां (Ekadashi Dates in2022)
13 जनवरी-गुरुवार, पौष- पुत्रदा एकादशी
28 जनवरी- शुक्रवार, षटतिला एकादशी
12 फरवरी-शनिवार, जया एकादशी
27 फरवरी-रविवार, विजया एकादशी
14 मार्च-सोमवार, आमलकी एकादशी
28 मार्च-सोमवार, पापमोचिनी एकादशी
12 अप्रैल- मंगलवार, कामदा एकादशी
26 अप्रैल- मंगलवार, वरुथिनी एकादशी

12 मई- गुरुवार, मोहिनी एकादशी
26 मई-गुरुवार, अपरा एकादशी

11 जून-शनिवार, निर्जला एकादशी
24 जून-शुक्रवार, योगिनी एकादशी

10 जुलाई- रविवार, देवशयनी एकादशी
24 जुलाई- रविवार, कामिका एकादशी

08 अगस्त- सोमवार, श्रावण पुत्रदा एकादशी
23 अगस्त- मंगलवार, अजा एकादशी

06 सितंबर- मंगलवार, परिवर्तिनी एकादशी
21 सितंबर- बुधवार, इन्दिरा एकादशी

06 अक्तूबर- गुरुवार, पापांकुशा एकादशी
21 अक्तूबर- शुक्रवार, रमा एकादशी

04 नवंबर- शुक्रवार, देवोत्थान एकादशी
20 नवंबर- रविवार, उत्पन्ना एकादशी

03 दिसंबर- शनिवार, मोक्षदा एकादशी
19 दिसंबर- सोमवार, सफला एकादशी
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