इस जगतरूपी क्रीडांगन को जिन्होँने रोने का स्थान मान कर इससे भाग कर बचने को ही साध्य मान रखा है, वे जीवनमुक्ति पाने की जीवन-युक्ति दूसरों को सिखा सकें - इस अवस्था से अभी बहुत दूर हैँ । वेदान्त डिण्डिम ज्ञान में सम्पूर्ण विश्व को देवोँ का उपवन बना देने का अद्भुत सामर्थ्य है ” सम्पूर्णँ जगदेव नन्दनवनं ” । संसार के सभी धर्मोँ और दर्शनोँ मेँ एक मात्र वेदान्त ही विश्व को दुःखरहित-परमानन्दानुभवरूप बनाने का दावा करता है ।
जिसने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उसके लिये- सारा संसार नन्दनवन है, समस्त वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सम्पूर्ण जल गङ्गाजल है, उसकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उसकी वाणी प्राकृत हो अथवा संस्कृत हो, उसके मुख से वेद का सार ही निकलता है, उसके लिये सम्पूर्ण भूमण्डल काशी (मुक्तिक्षेत्र) ही है तथा और भी उसकी जो-जो चेष्टाएँ हैं, सब परमार्थमयी ही हैं ।। १० ।।
#दादा से मैंने पूछा था ” नारद ” शब्द का अर्थ क्या है ? नारद शिष्य भाव के प्रतीक हैं । वे भगवान के पास से जगत में और जगत से ब्रह्म में जब चाहे आ -जा सकते है। जगत मेँ आत्मा और अनात्मा मिले हुये हैँ । विवेक से उन्हेँ दो टुकडे करके खण्डित किया जाता है । तत्पश्चात् अनात्मा को ” द्यायति ” तिरस्कृत किया जाता है अतः विवेकी और वैराग्यवान् ही नारद पद वाच्य है । ” नर ” अर्थात् आत्मा । उससे उत्पन्न जगत भी ” नार ” कहा जाता है । उसका जो ” द्यति ” खण्डन या बाध करता है वह ” नारद ” कहा जाता है ।
” नार ” अर्थात् जो दूसरों को ज्ञान देता है वह नारद है । शिष्य (भावी नेता ) वही है जो ज्ञान प्राप्त कर के उसका विस्तार करता है, दूसरों को भी नेता (शिष्य) बनाता । ” जो केवल अपने तक ही ज्ञान को सीमित रखना चाहता है वह वास्तविक शिष्य नहीँ है । इसलिये कठोपनिषद् मेँ प्रार्थना की गई है – ” तेजस्वि नावधीतमस्तु ” हमारा किया हुआ अध्ययन वीर्य वाला बने। जिस प्रकार वीर्यहीन-संतति कुल के लिये व्यर्थ है वैसे ही विद्या को भी समझना चाहिये । ” नार ” का अर्थ नरसमुह भी होता है । उनका तिरस्कार अर्थात् नरसमुह से अलग एकान्त मेँ रहने का स्वभाव जिसका है वह नारद है ।
## वरुण और उनके पुत्र वारुणी : वरुण जल के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। सृष्टि के आधे से ज्यादा हिस्से पर इन्हीं का अधिकार है। पंच तत्वों में भी जल का महत्व सर्वाधिक है। प्राचीन काल से ही सिद्ध महापुरुष वरुण हुआ है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए इनकी पूजा देवता के रूप में की जाती है। प्राचीन वैदिक धर्म में वरुण देव का स्थान बहुत महत्वपूर्ण था पर वेदों से उनका रूप इतना अमूर्त है कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है।
वरुण के पुत्र पुष्कर इनके दक्षिण भाग में सदा उपस्थित रहते हैं। अनावृष्टि के समय भगवान वरुण की उपासना प्राचीन काल से होती आई है। एक बार महर्षि दुर्वासा को वरुण ने भोजन के लिए बुलाया। दुर्वासा एक बार में बहुत खा लेते थे। फिर महीनों नहीं खाते। वरुण देव का पुत्र वारुणी भी वहीं बैठा था। दुर्वासा को खाते देख उसे हंसी आ गई। दुर्वासा महर्षि क्रोधी तो हैं ही, दुर्वासा ने वारुणी को शाप दे दिया, जा तू ऐसा हाथी हो जिसका पेट हाथी का और मुंह बकरी का होगा। वारुणी वैसे ही हाथी हो गया। ऐसे हाथी का पेट कैसे भरे जिसका मुख बकरी का हो।
जैसे वरुण पुत्र – वारुणी को निरंतर दुःख का ही अनुभव करता रह ता था, क्योँकि दुर्वासा (अर्थात दुर्वासना ) के श्राप से, उसका पेट हाथी का और मुँह बकरी का हो गया था। उसके खाने वाला मुख और भरने वाला पेट दोनोँ मेँ सामञ्जस्य नहीँ था! ऐसे ही हमारी मन पर संयम रखने का अभ्यास न करने के कारण हमारी भोक्तृत्त्व शक्ति- बहुत ज्यादा है। ओर नियमित शारीरिक व्यायाम न करने के कारण कर्त्तृत्त्व शक्ति सीमित है, इसलिये हमारी इच्छायें जब पूर्ण नहीं होतीं तो हम दुःख का अनुभव करते हैँ । यह दुःख का अनुभव तब जाये जब हाथी के शरीर (पेट) और बकरी के मुख से पीछा छूटे। अंत में श्री रामेश्वर के पास मदुरै की तरफ जाकर तपस्या की तथा भगवती ने प्रसन्न होकर उसे उस योनि से मुक्त किया।
#वारुणी का दुःख और पाश्चात्य मनोविज्ञान : <इड-ईगो-सुपरइगो > चित्त के अन्दर प्राचीन संस्कार ही मनोवैज्ञानिक ” Id ” इड है । दूसरी तरफ हमारा चेतनांश है - ' विवेक ' जो मनोविज्ञान का ” सुपरइगो ” है । वह हमारे सामने एक आदर्श मूलक व्यवस्था प्रस्तुत करता है । हमारा परिच्छिन्न अंश , जड़ांश तो साधारण सुखों के लिये हमसे – आपसे बुरे कर्म करवाता है । हमारे अन्दर चेतनांश (विवेक) बार–बार हमसे कहता है कि तुम बुरा काम कर रहे हो , ऐसा न करो । इसलिये हमारे मन – मस्तिष्क में तनाव बना रहता है ।
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक तो यही कह कर समाप्त कर देते हैं कि इस तनाव को दूर करने का कोई ऊपाय नहीं है , तो क्या मनुष्य पैदा ही इसीलिये हुआ है कि सदा दुःखी बना रहे ? यह कैसा मनो -वैज्ञानिक आविष्कार है ? यह निराशावाद का सिद्धान्त है जो धीरे – धीरे ऋषियों की भूमि देव – भूमि भारत में भी प्रविष्ट होता चला जा रहा है । द्वैतवाद हमारे यहां ” सेमेटिक धर्मौँ ” से आया है । समेटिक धर्म यहुदि , ईसाई और मुसलमानी तीनों हैं । इन तीनों को आधार एक ही है , इसीलिये इनको ” सेमेटिक धर्म ” कह दिया जाता है । सेमेटिक धर्म के अनुयायी कहते हैं- प्रत्येक मनुष्य का भाग्य पूर्व निर्धारित है, मनुष्य उसमें स्वतन्त्र नहीं है। परमेश्वर के द्वारा प्रत्येक मनुष्य का जीवन सीमित है।
# विवेकानन्द की मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा :
विवेकानन्द कहते हैं - - आजकल के समाज में एक प्रवृत्ति देखी जा रही है और वह है - 'कार्य' पर अधिक जोर देना और 'विचार' की निन्दा करना। कार्य अवश्य अच्छा है, पर वह भी तो विचार या चिन्तन से उत्पन्न होता है। शक्ति की जो छोटी छोटी अभिव्यक्तियाँ, हमारी मांसपेशियों के माध्यम से व्यक्त होती हैं, उन्हीं को कार्य कहते हैं। किन्तु बिना विचार या चिन्तन के कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क को ऊँचे ऊँचे विचारों, ऊँचे ऊँचे आदर्शों से भर लो, और उनको दिन-रात मन के सम्मुख रखो; उन्हीं विचारों से बड़े बड़े कार्य होंगे। अपवित्रता की कोई बात मन में न लाओ, प्रत्युत मन से कहो कि मैं शुद्ध, पवित्रस्वरूप हूँ। हम क्षुद्र हैं, हमने जन्म लिया है, हम मरेंगे, इन्हीं विचारों से हमने अपने आपको एकदम सम्मोहित कर रखा है, और इसीलिये हम सर्वदा भय से काँपते रहते हैं।
# वेदान्त डिण्डिम होशियार!.... वे आ रहे हैं ! (प्रेममय श्रीरामकृष्ण, विवेकानन्द,..... CINC नवनीदा) आ रहे हैं! जो जो उनकी सेवा के लिये --उनकी सेवा नहीं वरन उनके पुत्र दीन-दरिद्रों, पापी-तापियों, कीट-पतंगों तक की सेवा के लिये तैयार होंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा (वे ब्रह्म को जान लेंगे ! 'ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम।') उनके मुख पर सरस्वती बैठेंगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति आकर विराजित होंगी।
जो नास्तिक हैं, अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, ढोंगी हैं--वे अपने को उनका शिष्य क्यों कहते हैं ? पूजा के महासन्धि-मुहूर्त (this great spiritual juncture) में कमर कस कर खड़ा हो जायेगा, गाँव गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है --वही ठाकुर का पुत्र है। उठो, उठो, बड़े जोरों की तरंग (tidal wave) आ रही है- 'Onward! Onward!'; आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, स्त्री-पुरुष आचाण्डाल (Pariah) सब उनके निकट पवित्र हैं।
मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि संसार के किसी भी देश में सार्वभौमिक धर्म और विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रातृभाव (Universal Brotherhood) के ऊपर चर्चा और बहस प्रारम्भ होने के भी बहुत पहले, इस नगर के पास, एक ऐसे अवतार रहते थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही एक आदर्श 'पार्लियामेन्ट ऑफ़ रीलिजन्स ' या सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था। इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष पर हार्दिक अनुराग रखते हुए उनकी पताका के नीचे आश्रय लिये बिना न कोई राष्ट्र उठ सकता है, न बढ़ सकता है (न 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' बन सकता है।) यदि यह राष्ट्र उठना चाहता है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा कि इस ' नाम ' (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा- विवेकानन्द- और CINC नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल) के चारों ओर उत्साह के साथ एकत्र हो जाना चाहिये।
जो जीवन मैंने अपनी आँखों से देखा है, जिसकी छाया में मैं रह चुका हूँ, जिनके चरणों में बैठकर मैंने सब सीखा है, उन श्रीरामकृष्ण का जीवन (गैर संन्यासी में CINC नवनीदा का जीवन) जैसा उज्ज्वल और महिमान्वित है, वैसा मेरे विचार में अन्य किसी अवतार या पैग़म्बर का नहीं है। यदि तुम्हार हृदय खुला है, तो तुम उनको अवश्य ग्रहण करोगे। यदि तुममें सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है (यदि तुम सत्यार्थी हो), तो तुम उन्हें अवश्य प्राप्त करोगे। अँधा, बिल्कुल अँधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तुम लोग ठाकुर की अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव (महामण्डल के Be and Make प्रशिक्षण-परम्परा का आविर्भाव) बिल्कुल सही समय पर हुआ है।
अतएव कर्तव्य की प्रेरणा से अपने राष्ट्र और धर्म की भलाई के लिये मैं यह आध्यात्मिक 'राष्ट्रीय-आदर्श' तुम्हारे सामने प्रस्तुत करता हूँ। मुझे देखकर उनकी कल्पना न करना; मैं एक बहुत ही दुर्बल माध्यम हूँ। उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में लोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरुप के एक कड़ोरवें अंश के तूल्य भी न हो सकेगा। अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में (CINC नवनीदा की अधीनता में) कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है!
भारत के युवाओ ! The Young, The Energetic, The Strong, The Well-Built, The Intellectual उठो, जागो, शुभ मुहूर्त आ गया है। सब चीजें अपने आप तुम्हारे सामने खुलती जा रही हैं। हिम्मत करो और डरो मत। केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर के लिये 'अभीः ' विशेषण का प्रयोग किया गया है। और यह निर्भीकता ही है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। हमें 'अभीः' निर्भय (ऋषि-पैग़म्बर-अवतार) बनना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली (कच्चा मैं या 'अहं मुक्त' युवाओं) की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। प्रश्न उठता है कि युवा कैसे हों? उत्तर है- युवा साधु स्वभाव वाले- अर्थात चरित्रवान हों, अध्ययनशील (उपनिषदों को पढ़ा हुआ ) हों, आशावादी हों, दृढ़निश्चय वाले हों और बलिष्ठ हों। उन्हीं के लिये यह कार्य है, उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है ! "काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? "As You Have Come Into This World, Leave Some Mark Behind!" - संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा। "
स्वामीजी ने अपने आध्यात्मिक सन्देश में कहा था - " संसार के सभी धर्म एक ही सत्यस्वरूप केन्द्र की त्रिज्यायें हैं ; वे रूप हैं, जिनकी विविध मस्तिष्कों की आवश्यकता होती है। वे आगे बढ़ते हैं, नहीं तो मर जाते हैं। तो वह केंद्रीय सत्य क्या है? वह है भीतर का- ईश्वर ! प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही पतित हो, ईश्वर की, दिव्यत्व की - अभिव्यक्ति है। दिव्यत्व पर आवरण आ जाता है, वह दृष्टि से छिप जाता है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके ईश्वर होना है! महान शिक्षा यह है कि सबके भीतर वही एक है। उसे गॉड, प्रेम, आत्मा, रूह, अल्लाह, जिहोवा -चाहे जो कहिये, है वही एक, जो निम्नतम जन्तु से लेकर उच्चतम मनुष्य तक, सब जीवों को प्राणवान बनाता है । " [४/२३३]
जिसको पाश्चात्य देश वाले Eastern Mysticism कहते हैं - वह भारत में करीब पांच हजार साल पहले से प्रचलित, विद्यार्थियों के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास (3H-हैण्ड,हेड और हर्ट विकास) की भारतीय शिक्षा-पद्धति का नाम ही अष्टांग-योग (राजयोग) है; जिसका लक्ष्य विद्यार्थियों की सोच या मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन लाकर चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना है।
योग = समाधि : इसीलिये पतंजलि कहते हैं - ‘अब योग का अनुशासन।’ योग अनुशासन है, साधना है। यह स्वयं को रूपान्तरित करने के लिए, स्वेच्छा से अनुशासित रहने का हमारा अपना प्रयत्न है। यह कुछ ऐसा है जिसे हमें स्वयं करना है। ‘अब योग का अनुशासन।’यदि हमारे मन ने पूरी तरह समझ लिया है कि जो कुछ तुम अब तक कर रहे थे वह बिलकुल निरर्थक था; कि वह बुरे से बुरा दुख स्वप्न था या अच्छे से अच्छा सपना था, तब अनुशासन का मार्ग हमारे सामने खुल जाता है। वह मार्ग क्या है? उसकी मूलभूत परिभाषा है—योग मन की समाप्ति है। अर्थात '‘योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है"- योग मन (अहं) की समाप्ति है। योग शब्द का अर्थ है - ' समाधि '। यही योग की सबसे सही परिभाषा है।
इसीलिये महामण्डल ने युवाओं को योग से परिचित करने के उद्देश्य से बहुत सरल भाषा में मनःसंयोग नामक पुस्तिका प्रकाशित की है। इसमें प्रशिक्षार्थियों को अष्टांग योग के आठ चरणों में से केवल पाँच चरण -'यम-नियम-आसान-प्रत्याहार और धारणा' तक का ही प्रशिक्षण दिया जाता है। 'प्राणायाम' का अभ्यास गुरु के सानिध्य में रहकर नहीं करने से दिमाग बिगड़ जाने का खतरा होता है; इसलिए विवेकानन्द ने विद्यार्थियों को दी जाने वाली चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा में प्रणायाम के अभ्यास को वर्जित कर दिया है। फिर मनःसंयोग का धैर्यपूर्वक अभ्यास करने से ध्यान और समाधी स्वतः उपलब्ध होती है, इसीलिए महामण्डल में ध्यान और समाधि का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।
#Yoga is the cessation of mind" -योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ १/२॥ " 'इन्सानियत का धर्म'-अर्थात मनुष्य बनने और बनाने वाले धर्म (शिक्षा पद्धति) को ही 'योग' या 'मनःसंयोग' कहते है! महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित 'पातञ्जल - योगदर्शनम्' अथवा 'योग' किसी धर्म या सम्प्रदाय-विशेष का शास्त्र नहीं है, इसके 195 सूत्रों में (समाधिपाद -51 सूत्र, साधनपाद -55 सूत्र, विभूतिपाद-56 सूत्र, कैवल्यपाद -33 सूत्र = कुल 195 सूत्र में कहीं हिन्दू शब्द नहीं है। योग का अर्थ है - समाधि; जहाँ पहुँचने पर, हृदय इतना विशाल हो जाता है कि कोई पराया नहीं रह जाता, सभी अपने हो जाते हैं ! वह शिक्षा-प्रणाली जो अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करके 'चरित्रवान मनुष्य' बन जाने का उपाय बतलाती है, उसी उपाय को योग कहते हैं। पातंजलसूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है।
संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है, वह पदार्थ एवं ऊर्जा (Matter and energy) का संगम है। समस्त दृश्य एवं अदृश्य इन्ही दोनो के संयोग से घटित होता है। हम और हमारा मस्तिष्क इसके अपवाद नहीं हैं। हमारा शारीरिक स्वास्थ्य बहुत सीमा तक हमारी मानसिक स्थितियों पर निर्भर करता है। आदि शंकराचार्य कहते हैं:-
रज्जुसर्पवदात्मानं जीवं ज्ञात्वा भयं वहेत् ।
नाहं जीवः परात्मेति ज्ञातं चेन्निर्भयो भवेत् ॥
(शंकराचार्यविरचित आत्मबोधः- २७)
जिस प्रकार रस्सी के टुकड़े को साँप समझने से भय उत्पन्न होता है, उसी प्रकार आत्मा को जीव समझने से भय उत्पन्न होता है। 'मैं जीव नहीं हूं', 'मैं ब्रह्म हूं' यह जानकर व्यक्ति निर्भय हो जाता है।
अर्थात् जब जीव भ्रमवश रस्सी को साँप समझता है, तब उसको भय प्रतीत होता है। परंतु जब उसे यह बोध हो जाता है कि मैं कोई मरणधर्मा मिथ्या-शरीर धारी जीव नहीं,शिव हूँ, अजर-अमर अविनाशी ' ब्रह्म हूँ ' तब वह निर्भय हो जाता है।
Just as mistaking a piece of rope for a snake creates fear, so also mistaking the atman for Jiva creates fear. Knowing that ‘I am not jiva’, ‘I am the paramatman’ one becomes fearless.
जो शक्ति रस्सी को साँप दिखा रही थी वह भ्रम कहलाती है तथा जो शक्ति ब्रह्म को रस्सी दिखा रही है वह माया कहलाती है। जिस प्रकार भ्रम का कारण एक अज्ञान था जो सामान्य प्रकाश के आने से दूर हो गया उसी प्रकार माया का कारण अविद्या है जो उच्चतम ज्ञान के आने से समाप्त हो जाती है। इसीलिये कहा जाता है कि चर्म-चक्षुओं से देखा हुआ हमेशा सच नहीं होता।
हमारे चित्त में जन्म-जन्मांतर से संचित देह-चेतना के संस्कार (देहाध्यास) इतने गहरे हैं कि 'मैं आत्मा हूं' का भाव या आत्मस्वरूपता की स्मृति से बार-बार छूट जाती है। परन्तु मनुष्य को इससे घबड़ाना नहीं चाहिये - क्योंकि 'मैं आत्मा हूं' की अनुभूति में अवस्थित होने के लिए विचार मन्थन की सम्पूर्ण यात्रा, विशेष शक्ति- पवित्रता और श्रम ('3P' Purity, Patience and Perseverance) की मांग करती है। विचारों के मन्थन का अभिप्राय है- 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास अर्थात ' यम-नियम-आसान-प्रत्याहार-धारणा' की प्रक्रिया के नियमित अभ्यास द्वारा अपने मन को देखना। अपने संकल्पों को देखना, चित्त की गहराई में पूर्व संचित अनुभवों तथा वर्तमान सूचनाओं पर आधारित विचारों को देखना,उन अनेक मान्यताओं, धारणाओं,ऐषणाओं पर चिन्तन करना जिनके कारण मनुष्य आत्म स्वरूप को विस्मृत करके देहभाव में स्थित हो गया है।
विचार मन्थन की प्रक्रिया= मनःसंयोग या विवेक-दर्शन की प्रक्रिया का नियमित अभ्यास करने से मनुष्य चार प्रकार से लाभान्वित होगा। मनःसंयोग सीखने का पहला लाभ यह होगा कि मनुष्य चेतना (बुद्धि) के विस्तार अर्थात क्रम-विकास (evolution) और क्रम- संकोच (involution) की प्रक्रिया को समझ लेगा। स्वामी विवेकानन्द ने अन्यत्र कहा है - " मनुष्य में जो स्वाभाविक शक्ति है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग (बुद्धि) इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है (बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित), और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति का-इतिहास !"
स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, " हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं --यह समझ लेने के बाद सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। किन्तु हृदय में क्या है ?-- इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये पहले कुछ साधना (मनःसंयोग- विवेकदर्शन का अभ्यास) करना आवश्यक है।"
" बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है - 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि।' - इसका अर्थ यह है कि- 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! इसीलिये अरे मैत्रेयी, मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य - 'आत्मा का दर्शन' होना सर्वथा सर्वदा वांछनीय है। और उसके लिए 'पातञ्जल - योगदर्शनम्' के माध्यम से 'श्रवण, मनन, निदिध्यासन से होते हुए समाधि (स्वयं को पहचान लेने) तक की यात्रा पूर्ण करनी होती है।
>>># स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश :
यह कहना बहुत कठिन है कि युवक नरेन ने श्रीरामकृष्ण को अपने गुरु (मार्गदर्शक नेता) के रूप में कब स्वीकार किया था? स्वामीजी बुद्धि, शरीर और स्वभाव सभी दृष्टियों से राजसी गुणों से युक्त थे। तत्कालीन नवशिक्षित नौजवानों की भाँति वे भी यूरोपीय विचारकों के विचारों और यूरोप की उन्नति से गहराई से प्रभावित थे। वे किसी ऐसे व्यक्ति के चरणों में बैठकर शिक्षालाभ करना चाहते थे, जिसने स्वयं उस अतीन्द्रिय सत्य का साक्षात्कार कर लिया हो, उन्होंने अपने मन प्राण से यह निश्चय भी कर लिया कि इसी जीवन उस सत्य को प्राप्त करना होगा, नहीं तो इसी प्रयत्न में प्राण दे देने होंगे। अगर ऐसा न हुआ तो ऐसे अशांतिपूर्ण जीवन को रखकर लाभ ही क्या है ? वे तो अपने जीवन को किसी उच्च जीवन से पुनरुज्जीवित करना चाहते थे, अपने विचारों को सतेज विचारों से जागृत करना चाहते थे।
उनके कॉलेज के मित्र ब्रजेन्द्रनाथ शील, जो आगे चलकर अपने समय के अग्र्णी भारतीय दार्शनिक बने, ने उन्हें शैली की कविताओं, और हेगल के दर्शन तथा फ़्रांसिसी विपल्व आदि के इतिहास का अध्यन करने की सलाह दी। क्रमशः बढ़ती हुई ज्ञानपिपासा को लेकर नरेन्द्र जितना ही अग्रसर हुए, उतना ही वे समझने लगे कि परम सत्य को प्राप्त करना हो तो केवल विचार-बुद्धि की सहायता से काम नहीं चलेगा।
यूरोप के दार्शनिकों और विचारकों में हर्बर्ट स्पेंसर और जॉन स्टुअर्ट मिल के विचार, धर्म के विषय पर जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा लिखित तीन निबन्धों ने उन्हें अपनी माँ से प्राप्त और उनके बालमन में बैठे (श्रीरामचन्द्र के प्रति) आस्तिकता, और ब्रह्म-समाज से प्राप्त सहज आशावादी दृष्टिकोण को हिलाकर रख दिया। इसके साथ-साथ काण्ट, शोपेनहावर आदि दार्शनिकों के विचारों में भी उनकी गहन रुचि थी। शैली का सर्वात्मवाद (Shelley's animism) , वर्डस्वर्थ की दार्शनिकता और फ्रांसीसी राज्यक्रान्ति के तीनों सिद्धान्तों- 'Liberty, Equality, and Fraternity' स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का स्वामीजी पर गहरा प्रभाव था। ह्यूम का संशयवाद और हर्बर्ट स्पेंसर का अज्ञेयवाद उनके मन को आलोड़ित कर दिया। अपनी पहले वाली भावनात्मक उत्साह और भोलेपन के तार तार हो जाने के बाद वे रूखे स्वाभाव के हो गए। जीवन के इस कठिन चरण में संगीत के प्रति उनके लगाव ने उनकी बहुत सहायता की। क्योंकि इसके सिवा अन्य कोई वस्तु इन्द्रियातीत सत्य को न देख पाने की विवशता से अश्रुपात करने नहीं देती थी।
उनके कुछ संगीत प्रेमी मित्र ढीली नैतिकता के पोषक थे, जिसे वे पसंद नहीं करते थे। नरेन्द्र ने अपने मित्र ब्रजेन्द्र से पूछा कि क्या उसे इन्द्रियों के बंधन से मुक्त होने का कोई उपाय ज्ञात है ? किन्तु उन्होंने ने कहा कि तुम्हें केवल शुद्ध कारणता पर भरोसा रखना चाहिए और उसे आत्मा से एक समझना चाहिए, और इसीसे उसे एक अनकहे शांति की अनुभूति होगी। यह मित्र स्वयं एक प्लेटोनिक ट्रैन्सेन्डेन्टलिस्ट या अफलातुनी अतिन्द्रियतावादी (Platonic Transcendentalist - जनार्दनवा टाइप ?) था और उसे ध्यान सीखने के लिये किसी गुरु की कृपा और मध्यस्तता प्राप्त करने की अनिवार्यता में कोई विश्वास नहीं था। उन्होंने ने देखा कि इन्द्रिय प्रलोभन के क्षणों में मात्र थोथे सिद्धांत द्वारा आत्मा की दिव्यता को अभिव्यक्त करने के संघर्ष में कोई सहायता नहीं मिलती।
उनका विवेकी मन उन्हें बार बार निर्देश दे रहा था कि उन्हें किसी ऐसे मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता है, जो उन्हें इन्द्रिय प्रलोभनों के आकर्षण से बचाकर मन को अन्तर्मुखी रखने की विद्या सिखाने में समर्थ हो। वे किसी ऐसे व्यक्ति को साक्षात् देखना चाहते थे, जो स्वयं शांति और निश्चित्य में अवस्थित हो चूका हो। वे एक ऐसे जीवन्त नेता से साक्षात्कार करना चाहते थे, जो पूर्णत्व को प्राप्त हो चुका हो। वे ब्रह्म-समाज के नेताओं के साथ साथ अन्य सम्प्रदायों के नेताओं से भी मिले किन्तु कहीं से उन्हें सीधा उत्तर नहीं मिला।
यह केवल श्री रामकृष्ण थे जो, एक अधिकारी व्यक्ति के रूप में उनसे बातें कहीं, और अपनी शक्ति से उनकी घायल आत्मा को शांति प्रदान कर दिया । पहले तो नरेन्द्र ने सोचा उनको शंका हुई कि शायद उन्हें ठाकुर ने हिप्नोटाइज करके शांति प्रदान किया होगा, किन्तु उनकी गलतफहमी क्रमशः दूर होती चली गई और उन्हें स्वयं सच्चिदानन्द की अनुभूति प्राप्त हुई।स्वामीजी स्वभावतः तार्किक, विवेकशील और शोधार्थी-सत्यार्थी स्वभाव के थे। वे सहज जिज्ञासु थे। युवा नरेन्द्रनाथ के व्यक्तित्व को ढालने में नाना प्रकार के तत्व या कारक कार्य कर रहे थे। उनमें सबसे प्रमुख थी, उनकी "Inborn Spiritual Tendencies" अर्थात जन्मजात आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ ही उनके व्यक्तित्व का गठन करने में सबसे प्रमुख कारण थीं, जो श्रीरामकृष्ण की पवित्र संगति के प्रभाव से स्वतः अभिव्यक्त होने लगी थीं, उन्हें देखते ही ऐसा लगता था, मानो पिंजरे में आबद्ध सिंह कारागार को तोड़कर बाहर निकलने के लिये असीम आग्रह के साथ छटपटा रहा हो!
दूसरा था उनकी अपनी माता से मिले हुए संस्कार, जो स्वयं भारत की आध्यात्मिक विरासत से ओत-प्रोत थीं, जो उन्हें निरन्तर उच्च चिंतन और उदारतापूर्ण व्यवहार करने के लिये अनुप्रेरित करता रहता था। तीसरा कारक जो उनके व्यक्तित्व को गठित करने प्रमुख भूमिका निभा रहा था, वह था चाहे जहाँ कहीं से प्राप्त हो, परम सत्य को जानने की अटूट इच्छा और तत्कालीन हिन्दू समाज के धार्मिक विश्वासों और लोकाचारों के प्रति उनका संदेहवादी दृष्टि कोण। यह संशयी दृष्टि उन्हें अपने अंग्रेजी शिक्षित (आर्यसमाजी?) पिता से सीखा था, और पाश्चात्य संस्कृति के साथ स्वयं संपर्क में रहने के कारण उनका संदेहात्मक दृष्टिकोण और अधिक दृढ़ हो गया था। उनके भीतर विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक पद्धति से किसी बात को परखने के प्रति एक तीव्र रुझान उत्पन्न हो गया था, इसीलिये वे ठाकुर के अनेकों आध्यात्मिक या अतीन्द्रिय अनुभवों को उसी विधि से जांचने की इच्छा रखते थे।
अंगेरजी के कवियों -विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ और शेली की कविताओं ने उनकी भावनाओं में उथल-पुथल मचा दिया, और श्रीरामकृष्ण के अद्भुत ट्रांस (मुहुर्मुहुः समाधि में जाने के) रहस्य को जानने के लिये 'nervous system' -विशेष रूप से ब्रेन और स्पाइनल कॉर्ड की कार्य-पद्धति को समझने के लिये उन्होंने वेस्टर्न मेडिसिन का एक कोर्स भी कर लिया। किन्तु यह सब जानने के बाद उनकी आंतरिक अशांति और ज्यादा गहरी हो गई। क्या यह ब्रह्माण्ड कोई बेजान, प्रेम रहित यांत्रिक रचना मात्र है, या इसके भीतर इसे नियंत्रित करने वाले आध्यात्मिक एकत्व का कोई सिद्धान्त भी कार्यरत है ? उनकी चाह शाश्वत प्रश्नों के उत्तर जानने की ओर थी और उन प्रश्नों का संतोषजनक समाधान उन्हें किसी के पास नहीं मिल पा रहा था। इस समाज के बुद्धिवाद, सार्वभौमवाद, समन्वयवाद, मानवतावाद तथा धर्मवाद ने उन्हें प्रभावित किया था।
अपनेे प्रश्नों के उत्तरों की खोज में ही वे विद्यार्थी जीवन में ही ‘ब्रह्म समाज’ से जुड़ गए थे। ठाकुर के निकट आने से पहले नरेन्द्र ने 'ब्रह्म-समाज' के एक सदस्य के रूप में एकेश्वरवाद और निराकार सगुण ब्रह्म की द्वैत भाव से उपासना करने के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया था। तथा वे मनुष्य के स्वाभाविक भ्रष्टता (क्षुद्रता या नीचता natural depravity of man.) में भी विश्वास करते थे। वे 'आत्मा की दिव्यता और अस्तित्व की एकता' जैसे अद्वैत-वेदान्त के सिद्धान्तों को 'ईश -निन्दा' समझते थे। उनकी दृष्टि में - " मनुष्य ईश्वर के साथ एक और अभिन्न है " - ऐसा सोचना भी पाप प्रतीत होता था।
‘ईश्वर से साक्षात्कार कैसे हो?’ इस प्रश्न का समाधान उन्हें ब्रह्म समाज के पास भी नहीं मिला था। ब्रम्ह समाज का सदस्य होने के नाते वह मूर्तिपूजा , बहुदेववाद और रामकृष्ण जी की काली पूजा का विरोध करते थे ! यहाँ तक की वह अद्वैत वेदान्त की विचारधारा को ईश-निन्दा और मूर्खता के समान मानते थे और यदा-कदा उसका मजाक बनाते थे ! यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने रामकृष्ण जी और उनकी विचारधारा को नहीं माना पर वह उसे पूर्णत: नकार भी नहीं सके ! शुरू में उन्हें लगता था की रामकृष्ण जी की परम आनंद की अवस्था और अलौकिक आभास सिर्फ कल्पना और मतिभ्रम है! यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने उन्हें अपना गुरु नहीं माना और उनके विचारों का विरोध किया पर वह उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनसे मिलने जाते रहे ! इसके बाद वे दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे।
किन्तु जहाँ तक गुरु (ठाकुर) का प्रश्न है,अपने शिष्य के साथ उनका आध्यात्मिक-सम्बन्ध, दक्षिणेश्वर में हुए प्रथम भेंट में ही हो गया था, जब उन्होंने नरेन को स्पर्श किया और उसके हृदय को भीतर तक आलोड़ित कर दिया। और उसी पल से उनके भीतर अपने शिष्य के प्रति एक अटूट विश्वास और प्रबल स्नेह का भाव उत्पन्न हुआ।
#नवीन भारत ही प्राचीन भारत की शरण में कब गया ? नरेन्द्रनाथ जब रामकृष्ण की शरण में गए (जब मैं 1967 का सत्यार्थी 1987 में CINC नवनीदा के शरण में गया) , तब, असल में, नवीन भारत ही प्राचीन भारत की शरण में गया था >>>किन्तु उन्होंने नरेन को स्वतंत्र रूप से विवेक-विचार करने के बाद ही किसी को अपना मार्गदर्शक नेता या गुरु के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया। रामधारी सिंह दिनकर ने इस विशिष्ट भेंट के सम्बन्ध में लिखा है, वस्तुतः, नरेन्द्रनाथ जब रामकृष्ण की शरण में गए, तब, असल में, नवीन भारत ही प्राचीन भारत की शरण में गया था अथवा यूरोप भारत के सामने आया था। रामकृष्ण और नरेन्द्रनाथ का मिलन श्रद्धा और बुद्धि का मिलन था, उनसे कहा था, ‘‘भगवन्! मैं जानता हँू कि आप पुरातन नारायण ऋषि हैं और जीवों की दुर्गति का निवारण करने के लिए पुनः शरीर धारण करके आए हैं।’’ नरेन्द्रनाथ ने जब उनसे पूछा था कि, ‘‘श्रीमान्! क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है?’’ तो उन्होंने कहा था, ‘‘हाँ! ईश्वर को मैं उसी प्रकार देखता हूँ जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूँ।’’
यह शुरू से ही नरेन्द्र की प्रकृति रही थी कि वह बिना प्रमाणों के कोई बात नहीं मानते थे , इसी तरह उन्होंने पहले रामकृष्ण जी को परखा, जिन्होंने कभी उन्हें उनकी तार्किकता को छोड़ने के लिए नहीं कहा और उनके सभी तर्कों और आलोचनाओं को धर्य के साथ सुना ! ठाकुर के प्रेम और विश्वास ने प्रचण्ड युवा-जोश के ऊपर एक नियंत्रक का कार्य किया, और यही स्नेह और विश्वास जगत के प्रलोभनों से बचने का एक मजबूत ढाल बन गया।
नरेन् ने सिक्का रखकर टेस्ट किया। ठाकुर ने भी नरेन को टेस्ट किया जब वे उनके कमरे में गए उन्होंने उसकी उपेक्षा कर दिया, मैं आपको सुनने नहीं देखने के लिए आता हूँ, मैं आपसे प्रेम करता हूँ। ठाकुर ने नरेन को गले से लगा लिया, दूसरा होता तो आना ही बंद करदेता ? नरेन को सिद्धि देना चाहा, ' देख, साधना करते समय मुझे अष्टसिद्धियाँ मिली थीं। उनका किसी दिन कोई उपयोग नहीं हुआ, तू ले ले, भविष्य में तेरे काम आयेंगी।'इससे क्या ईश्वर लाभ होगा ? नहीं, सो तो नहीं होगा,पर इहलोक की कोई भी इच्छा उपाल अपूर्ण न रहेगी। '
तनिक भी सोचविचार न करते हुए त्यागीश्रेष्ठ नरेन ने उत्तर दिया "तब तो महाराज, वे मुझे नहीं चाहिये। "उनका सदेव एक ही जवाब होता था की " परम सत्य को सभी दृष्टिकोण से जानने की चेष्टा करो !" पांच वर्षों तक रामकृष्ण जी के प्रशिक्षण में रहने के दोरान नरेन्द्र में यह परिवर्तन आया की अब वह एक व्याकुल, परेशान और अधीर युवक से एक परिपक्व पुरुष में बदल गए। जो ईश्वर - प्राप्ति के लिए सब कुछ त्यागने के लिए तत्पर था! अंत में उन्होंने पूर्ण ह्रदय से रामकृष्ण जी को अपना गुरु स्वीकार कार लिया और उनके शिष्य बन गए !
विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण देव एक परिपूर्ण आध्यात्मिक शिक्षक (मानवजाति के आदर्श मार्गदर्शक नेता) थे, उन्होंने विविध स्वाभाव या रुझान रखने वाले शिष्यों के ऊपर - कभी एक ही प्रकार का अनुशासन (योग, कर्म,ज्ञान या भक्ति मार्ग) थोपने की चेष्टा नहीं की। उन्होंने इस बात पर कभी जोर नहीं दिया कि नरेन को खान-पान के बारे में सख्त नियमों का पालन करना चाहिये। और न उन्होंने इस बात पर ही जोर दिया कि उसको हिन्दू पौराणिक कथाओं में प्रचलित देवी-देवताओं की वास्तविकता पर विश्वास करना ही होगा। नरेन्द्र के दार्शनिक मन के लिये स्थूल-पूजा पद्धति की आवश्यकता नहीं थी, किन्तु वे उसके विवेक-प्रयोग, इन्द्रिय-विषयों के प्रति अनासक्ति, आत्मसंयम और नियमित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करने पर कड़ी दृष्टि रखते थे।
श्रीरामकृष्ण, दूसरे भक्तों के साथ धर्म के सम्बन्ध में रूढ़िवाद और कट्टरवादी सोच के विषय में, नरेन के द्वारा उठाये गए प्रबल तर्कों में आनन्द लेते थे, और जब वे उनके कट्टर सोच को चूर-चूर कर देते तो वे प्रसन्न हो जाते थे। लेकिन, जब नरेन् माँ काली के प्रति श्रद्धा-भक्ति दिखाने के लिये सरल-हृदय राखाल का मजाक उड़ाने लगते, जो अक्सर होता था; तब अपने गुरुभाइयों के ईश्वर के सगुण-साकार रूप में विश्वास को अस्थिर करते देखकर ठाकुर उनके प्रयासों को कभी बर्दाश्त भी नहीं करते थे।
उन्होंने अपने शिष्य नरेन्द्र को धीरे-धीरे, चरणबद्ध तरिके से 'संशय से निश्चय' (from doubt to certainty ) तक पहुँचने, और चंचल मन के मनस्ताप से आत्मा के आनन्द को अपने अनुभव से जानने (निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर) का मार्ग दिखलाया, उसे अपनी राहनुमाई या नेतृत्व प्रदान किया। हालाँकि, यह कोई आसान उपलब्धि नहीं थी।
पहले वे कहते थे -" सृष्ट जीव अपने को स्रष्टा समझे, इससे अधिक पाप और क्या हो सकता है ? मैं ईश्वर हूँ, तुम ईश्वर हो, जन्म-मरणशील सभी पदार्थ ही ईश्वर हैं --इससे अधिक अयौक्तिक बात और क्या हो सकती है ? "जब ठाकुर ने उन्हें समझाया और चेतवानी दी कि इस प्रकार उसे भगवान की अनन्तता को सीमित करने की चेष्टा छोड़कर, भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि- " हे भगवान मैं आपके स्वरूप को नहीं जानता, आप अपने सच्चे स्वरूप को मेरे सामने प्रकट कर दीजिये।" यह सुनकर नरेन्द्र मुस्कुराये बिना न रह सके।
एक दिन वह अपने मित्र के समक्ष श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-वेदान्त का मजाक उड़ाते हुए कह रहे थे, " क्या यह कभी सम्भव है ? लोटा ईश्वर है, कटोरा ईश्वर है और जो कुछ दिखाई पड़ रहा है तथा हम सब भी ईश्वर हैं ?" इसी विषय पर परिहास करते हुए दोनों जोर से हँस पड़े। नरेन्द्र की हँसी को सुनकर ठाकुर बालक की तरह पहनी हुई धोती को बगल में दबाये बाहर निकल आये और 'तुम लोग क्या कह रहे हो ' कहकर हँसते हुए नरेन्द्र को छूते ही समाधिस्त हो गए।
उस अद्भुत स्पर्श ने मानो जादू सा कर दिया और नरेन्द्र के भीतर क्षणभर में भावान्तर उपस्थित हो गया। सतम्भित से होकर वे सचमुच देखने लगे -ईश्वर (शास्वत चैतन्य ) के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड में अन्य कुछ भी नहीं है। उसी मनोस्थिति में घर लौट आये, वहाँ भी वैसा ही -जो कुछ देखा, सभी ईश्वर हैं ऐसा प्रतीत होने लगा। खाने बैठा, देखा -अन्न, थाली, परसनेवाला और वे ईश्वर के अतिरिक्त और दूसरा कुछ नहीं है। वे दो-एक कौर खाकर स्थिर भाव से बैठ गए, माँ ने कहा -'बैठा क्यों है, खा न '- माँ के कहने से होश में आकर वे फिर खाने लगे। इसी तरह खाते-पीते-सोते-जागते तथा कॉलेज जाते समय वैसा ही दिखाई पड़ने लगा और सारा दिन न जाने कैसे उसी भाव में आच्छन्न रहना पड़ा।
रास्ते में चल रहे थे, सामने से घोड़ा-गाड़ी आ रहा है, देखते हैं आज इस डर से कि ये अपने ऊपर आ जायेंगी, हट जाने की इच्छा नहीं होती थी। जब वह आछन्न भाव कुछ घट जाता था, तब सारा संसार स्वप्न की तरह प्रतीत होता था। हेदुआ तालाब पर टहलते हुए किनारे किनारे लोहे लोहे के घेरे की छड़ों पर सिर ठोंक कर देखता था कि वे स्वप्न की हैं या सत्य हैं ? सिर-हाथ-पैर सुन्न हो जाने से कभी कभी पक्षाघात हो जाने की आशंका होती थी। इसके कुछ दिनों बाद जब वे स्वस्थ हुए तब समझ में आया इसीको अद्वैत-वेदान्त का आभास कहा जाता है। तब यह विश्वास हो गया कि गीता-उपनिषद में इस विषय के समबन्ध में जो लिखा है, वह मिथ्या नहीं है। इसी अद्वैत-भाव की सम्पूर्ण अनुभूति उन्हें आगे चलकर काशीपुर उद्यान बाड़ी में हुई थी।
1885 में रामकृष्ण जी को गले का कैंसर हो गया अत: उन्हें कलकत्ता और फिर काशीपुर ले जाया गया ! उनके अंतिम दिनों में विवेकानंद और उनके साथी शिष्यों ने रामकृष्ण जी की सेवा की ! वहां भी विवेकानंद रामकृष्ण जी से अध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करते रहे ! कहा जाता है की काशीपुर में ही विवेकानंद को निर्विकल्प समाधी का अनुभव हुआ !
अपने अंतिम दिनों में रामकृष्ण जी ने विवेकानंद सहित अपने कुछ शिष्यों को तपस्वी के समान भगवा रंग के कपडे दिए जो रामकृष्ण जी के मठ संबंधी पहला आदेश बना ! उन्होंने विवेकानंद से अपने साथी शिष्यों का ध्यान रखने को कहा और उन शिष्यों से कहा कि वह विवेकानंद को अब अपना प्रमुख माने ! विवेकानंद ने सीखा था की मानव - सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है ! कहते हैं की जब विवेकानंद ने रामकृष्ण जी के सामने अवतारवाद पर प्रश्न किया तब रामकृष्ण जी ने कहा की " जो राम था , जो कृष्ण था वही अब इस शरीर में रामकृष्ण है ! " स्वामीजी ने अपने गुरुदेव से वेदान्त और उसे प्राप्त करने की विधि ‘निर्विकल्प समाधि’ की शिक्षा ग्रहण की थी। उनके गुरुदेव ने उन्हें सम्पूर्ण प्राचीन ज्ञान के रहस्य से अवगत कराया था।
धीरे -धीरे रामकृष्ण जी की दशा ख़राब होती गयी और अंतत 16 अगस्त 1886 में श्रीरामकृष्ण परमहंस का निधन हो गया था। सन् 1886 में गुरुदेव के निर्देशानुसार 11 गुरुभाइयों ने मिलकर बरानगर के एक जीर्ण भवन में धर्मसंघ बनाया था। इसके प्रमुख स्वामीजी ही थे। संघ का नाम ‘श्रीरामकृष्ण संघ’ रखा गया था। इस संघ का उद्देश्य आध्यात्मिकता की वृद्धि और मानवता की सेवा करना था।
स्वामीजी ने 3 अगस्त 1890 में अज्ञात गेरुआवस्त्रधारी संन्यासी के रूप में देशाटन के लिए प्रस्थान किया था। परिब्राजक के रूप में देशाटन करते हुए स्वामीजी को देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक एकता का प्रत्यक्ष परिचय मिला। यात्रा से उन्हें देश की महानता के साथ ही उसकी दुरावस्था का भी ज्ञान हुआ। उन्होंने पाया कि हमारे ऋषियों की प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा अर्जित प्रकृति के नियमों और सत्यों पर आधारित वेदान्त में समाहित सच्चे दर्शन को भुला दिए जाने के कारण देश की अवनति हुई है।
तब उन्हें पता चला था कि सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो नगर में धर्म संसद (11 सितम्बर 1893 से 27 सितम्बर 1893) आयोजित होने वाली है। यह धर्म संसद कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज की 400वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में आयोजित मेला के अंग के रूप में थी। 3 वर्ष पश्चात् दिसम्बर 1892 में कन्याकुमारी पहुंचे थे। उन्होंने भारतीय भू-भाग की अंतिम चट्टान पर बैठकर तीन दिन और रात लगातार देश की अवनति के कारणों तथा उनके निराकरण के उपायों पर विचार किया था।
स्वामीजी ने 31 मई 1893 को मुम्बई से अमेरिका के लिए यात्रा आरम्भ की थी। श्रीलंका, सिंगापुर, हांगकांग, कैण्टन और नागासाकी होते हुए वे जुलाई के मध्य में शिकागो पहुँचे थे।स्वामीजी ने 11 सितम्बर 1893 से कोलम्बस सभागृह में आरम्भ हुई इस धर्म संसद में भारत के पक्ष को अद्वितीय रूप से प्रस्तुत किया था। उन्होंने अपने प्रथम भाषण में हिन्दू धर्म को सभी धर्मों का जनक और संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाने वाला धर्म बताते हुए शिवमहिम्न स्तोत्र और गीता के निम्नलिखित श्लोक उद्द्धृत किए थे-
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
(जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे मार्ग से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।)
ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
(जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो- मैं उसको प्राप्त होता हँू। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।)
स्वामीजी ने कहा था, ‘‘साम्प्रदायिकता, कट्टरता और उनकी भयानक उपज ‘धर्मोन्माद’ बहुत दिनों तक इस धरा को ग्रसित कर चुके हैं... बस उनका समय बीत गया है।... मैं आशा करता हँू कि आज प्रातः इस सम्मेलन के सम्मान में जो घण्टा बजा था वह सब प्रकार की धर्मान्धता एवं उत्पीड़न का चाहे वह तलवार का हो या लेखनी का तथा उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे लोगों के बीच द्वेषपूर्ण भावनाओं का मृत्यु-घण्टानाद सिद्ध होगा।’’
यदि कोई व्यक्ति यह समझता हो कि धार्मिक एकता का मार्ग एक धर्म की विजय और बाकी धर्मों का विनाश है तो मैं उससे निवेदन करूँगा कि बन्धु! तुम्हारी आशा पूरी नहीं होगी। क्या मैं यह चाहता हँू कि सभी ईसाई हिन्दू हो जाएँ? भगवान् करे कि ऐसा न हो। क्या मैं यह चाहता हूँ कि सभी हिन्दू और बौद्ध ईसाई हो जाएँ? ईश्वर न करे कि ऐसा हो। ईसाई को हिन्दू या बौद्ध अथवा हिन्दू और बौद्ध को ईसाई नहीं होना है। किन्तु, इनमें से प्रत्येक का कर्तव्य है कि वह अन्य धर्मों का सार अपने भीतर पचा ले और अपनी वैयक्तिकता की, पूर्ण रूप से रक्षा करते हुए उन नियमों के अनुसार अपना विकास खोजे जो उसके अपने नियम रहे हैं।’’ उन्होंने यह भी कहा था कि, ‘‘जिस प्रकार नदी का उद्गमस्रोत एक होता है, परन्तु उससे सहस्त्रों धाराएँ फूटती हैं, उसी प्रकार सभी धर्मों का स्रोत एक ही स्थान पर है।’’
‘द न्यूयार्क हेराल्ड’ ने स्वामीजी के उत्कृष्ट प्रदर्शन से प्रभावित होकर लिखा था, ‘‘धर्मों की संसद में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है।’’विश्वमानवता के कल्याण और स्वदेशोत्थान में स्वामीजी ने अपनी समूची जीवनशक्ति का निवेश कर दिया था। वे समूची मानवता के लिए उद्घोष कर रहे थे, ‘‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।’’ उनका कहना था कि, ‘‘मेरे जीवन का परम ध्येय उस ईश्वर के विरुद्ध संघर्ष करना है, जो परलोक में आनन्द देने के बहाने इस लोक में मुझे रोटियों से वंचित रखता है, जो विधवाओं के आँसू पोंछने में असमर्थ है, जो माँ-बाप से विहीन बच्चे के मुख में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता।’’
धर्म संसद के बाद स्वामीजी लगभग साढ़े तीन वर्षों तक अमेरिका और इंग्लैण्ड में रुककर भाषणों, वार्तालापों और विवादों में भाग लेकर तथा लेख, कविताएँ और वक्तव्य प्रस्तुत कर हिन्दू धर्म के सार-‘वेदान्त के सार्वभौमिक सिद्धान्तों’ का यूरोप में प्रसार करते रहे। उन्होंने बताया कि मानवता के कल्याण के लिए, विश्व में स्थायी शांति लाने के लिए - 'पाश्चात्य विज्ञान' (Western Science) की सहायता से भौतिक सुख-सुविधाओं और पूर्वी रहस्यवाद (eastern mysticism) को इन्द्रजाल या जादूटोना न समझकर राजयोग को आध्यात्मिक विज्ञान समझकर दोनों का सम्यक योग आवश्यक है।
‘‘संसार में जितने भी मनुष्य और जीव-जन्तु हैं, सभी परमात्मा हैं, सभी परब्रह्म के रूप हैं और इनमें भी सर्व प्रथम हमें अपने देशवासियों की पूजा करनी चाहिए। आपस में ईर्ष्या-द्वेष रखने के बदले, आपस में झगड़ा और विवाद के बदले, तुम परस्पर एक-दूसरे की अर्चना करो, एक-दूसरे से प्रेम रखो। हम जानते हैं कि किन कर्मों ने हमारा सर्वनाश किया, किन्तु फिर भी हमारी आँखें नहीं खुलती।’’ स्वामीजी मनुष्य मात्र को आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना चाहते थे। अपनी इसी यात्रा में स्वामीजी ने ‘Vedanta Society' की स्थापना भी की थी। वे ‘वेदान्त’ और ‘पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान’ के बीच समन्वय चाहते थे।
फरवरी 1896 में उन्होंने न्यूयार्क में सुप्रसिद्ध ‘वेदान्त सभा’ की स्थापना की। इंग्लैण्ड में स्वामीजी की भेंट उनकी शिष्या भगिनी निवेदिता और सुप्रसिद्ध दार्शनिक मैक्समूलर आदि से हुई थी। दिसम्बर 1896 में स्वामीजी कोलम्बो होते हुए स्वदेश के लिए चले और स्वदेश पहुँचकर जनवरी 1897 में मद्रास से अल्मोड़ (उत्तरांचल) तक की यात्रा की थी। सभी जगह उनका उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ था।दिसम्बर 1896 में स्वामीजी कोलम्बो होते हुए स्वदेश के लिए चले और स्वदेश पहुँचकर जनवरी 1897 में मद्रास से अल्मोड़ (उत्तरांचल) तक की यात्रा की थी। सभी जगह उनका उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ था।उन्होंने देशवासियों में आत्मगौरव का भाव जागृत करते हुए विश्वास दिलाया था कि भारतवासी श्रेष्ठ संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं। विश्व के सम्मुख भारत का पक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विश्व की विभूतियों को भारत की सराहना करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित किया था। इससे देशवासियों का आत्मविश्वास बढ़ा था।
स्वामीजी अमेरिका और यूरोप के लोगों के जातीय अहंकार, स्वार्थ लिप्सा, विलासिता की अंधी होड़, धार्मिक और सांस्कृतिक असहिष्णुता, गरीबों का आर्थिक शोषण, राजनैतिक चालबाजियों, हिंसा आदि की आलोचना करते थे।उन्होंने शिकागो की धर्मसभा में निर्भीकतापूर्वक कहा था, ‘‘तुम ईसाई लोग भारत की भूमि पर तुम गिरजों पर गिरजे बनवाते जा रहे हो, किन्तु तुम्हें यह ज्ञान नहीं है कि पूर्वी जगत् की आकुल आवश्यकता रोटी है, धर्म नहीं। धर्म एशियावालों के पास अब भी बहुत है। वे दूसरों से धर्म का पाठ नहीं पढ़ना चाहते। जो जाति भूख से तड़प रही है, उसके सामने धर्म परोसना, उसका अपमान है। जो जाति रोटी को तरस रही है, उसके हाथ में दर्शन और धर्म-ग्रंथ रखना, उसकी हँसी उड़ाना है।’’
उनकी दृष्टि में इसका प्रमुख कारण यूरोप के लोगों का धर्म से विमुख होते जाना था। वे चाहते थे कि इस भयानक स्थिति से बचने के लिए अमेरिका और यूरोप को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होना चाहिए। इसके विपरीत भारत के प्रति स्वामीजी की चाह थी कि यहाँ के लोगों की आर्थिक दुरावस्था दूर हो। उन्हें दरिद्रता से मुक्ति मिले। वे चरित्र की पवित्रता को सबसे अधिक महत्त्व देते थे। उन्होंने कहा था, ‘‘मैं संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद नहीं करता। संन्यासी हो या गृहस्थ, जिस में भी मुझे महत्ता, हृदय की विशालता और चरित्र की पवित्रता के दर्शन होते हैं, मेरा मस्तक उसी के सामने झुक जाता है।’’
स्वामीजी का मानना था कि ईश्वर और जीव सहवर्ती और सापेक्षिक सत्ताएँ हैं। ब्रह्म के बिना किसी का अस्तित्व संभव नहीं है। जो कुछ भी सत्य है वह ब्रह्म ही है। ईश्वर और जगत् में वही सम्बन्ध है जो हमारी आत्मा और शरीर में है। उनकी मान्यता थी कि स्वभाव की निजता के कारण आत्मानुभूति के साधन एक ही नहीं हो सकते। स्वभाव के अनुसार योग-कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग अथवा ज्ञानयोग का चयन किया जा सकता है। योग का तात्पर्य है-लक्ष्य और उसकी प्राप्ति का साधन। सभी योग भगवान की ओर ले जाते हैं। कर्मयोग में ‘कर्म’, भक्तियोग में ‘भक्ति’, राजयोग में ‘मनःसंयम’ और ज्ञानयोग में ‘ज्ञान’ आत्मानुभूति के साधन बनते हैं। स्वामीजी के अनुसार, ‘‘जब निर्गुण ब्रह्म को हम माया के कुहरे में से देखते हैं तो वही सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है।’’ उनका कहना था कि, ‘‘योग के विषय में यदि कोई गुप्त या रहस्यमय बात हो तो उसे छोड़ देना चाहिए। रहस्य, व्यापार मानवीय मस्तिष्क को दुर्बल बना देता है। इसने योग को, जो कभी एक उच्चतम विज्ञान था, बिल्कुल नष्ट कर दिया।’’
>>>एकाग्रता की शिक्षा का प्रसार धर्म के प्रसार से भिन्न नहीं है, और धर्म शिक्षा का मेरुदण्ड है : शिक्षा के प्रसार को स्वामीजी उन्नति का आधार मानते थे। उनका कहना था कि, ‘‘देश उसी अनुपात में उन्नति करता है जिस अनुपात में वहाँ के जनसमूह में शिक्षा तथा बुद्धि का प्रसार होता है। भारतवर्ष की पतनावस्था का मूल कारण था कि थोड़े से व्यक्तियों ने मिलकर देश की सम्पूर्ण शिक्षा तथा बुद्धि पर एकाधिपत्य कर लिया। यदि हम पुनः अपने उत्थान और ऐश्वर्य की उपलब्धि चाहते हैं तो उस वर्ग में शिक्षा का व्यापक प्रचार एवं प्रसार करना होगा जो लम्बे समय से उपेक्षित है।’’
स्वामीजी धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड कहते थे उनका मानना था कि व्यक्ति में ज्ञान का वास होता है, और शिक्षा उसको प्रकाश में लाने का कार्य करती है। (बोधगया में पीपल-वृक्ष के नीचे बुद्ध को जो ज्ञान प्राप्त हुआ ? वो क्या था ? 'ब्रह्म-सत्यं जगन्मिथ्या -विवेकजन्य वैराग्य होता है शिक्षा उसे बाहर लाने का कार्य करती है।) शिक्षा से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जागृत होता है। शिक्षा से श्रद्धा और विश्वबंधुत्व बढ़ता है।
शिक्षा की वास्तविक उपलब्धि के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। विद्यार्थी जितने एकाग्रचित्त होते हैं, उनकी विद्या ग्रहण करने की शक्ति उतनी ही अधिक होती है। एकाग्रता की विशिष्टता के अनुसार ही लोग विषय विशेष या अनेक विषयों के ज्ञाता हो जाते हैं। भारतवासियों द्वारा अंतर्जगत पर, आत्मा के अदृष्ट प्रदेश पर अपने मन को एकाग्र किए जाने से यहाँ पर योगशास्त्र का विशेष उत्थान हुआ।
यूरोप के लोगों ने बाह्य जगत पर मन को एकाग्र कर भौतिक उपलब्धियों में शिखरों का स्पर्श कर लिया है। विश्व का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस के बारे में मन को एकाग्र किया जाए और उपलब्धि न प्राप्त हो। स्वामीजी मन की एकाग्रता की प्रक्रिया को शिक्षा के केन्द्र में लाना चाहते थे। उनका कहना था, ‘‘मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ, ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं। यदि एक बार मुझे फिर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले, तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता को तथा मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊँगा और तब साधन अथवा मंत्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा।’’
स्वामीजी का मानना था कि, ‘‘यदि बौद्धिक अन्वेषण के परिणामस्वरूप कोई धर्म नष्ट हो जाता है तो वह धर्म नहीं वरन् अंधविश्वास है। इस अन्वेषण के परिणामस्वरूप जो मैल है, वह तो निकल जाता है, पर जो अनिवार्य तत्त्व हैं, वे विजयी होकर शेष रह जाते हैं।’’ उनके अनुसार धर्म भी एक विज्ञान है जो नैतिक और तात्विक जगत के आंतरिक नियमों का अन्वेषण करता है। विज्ञान और धर्म में केवल पद्धति का भेद है। एक दृष्टिकोण से सभी ज्ञान धर्म हैं और दूसरी दृष्टि से सभी ज्ञान विज्ञान हैं।
स्वामीजी कहते थे कि बड़े काम के लिए सबसे पहली आवश्यकता हृदय अर्थात् ‘अनुभव करने की शक्ति’ की होती है। स्वामीजी का मानना था कि वेदान्त का मूलमंत्र ‘बहुतत्व में एकत्व’- 'Unity in Diversity" है। हृदय को स्वामीजी ने महाशिव का द्वार कहा है। उन्होंने कहा था, ‘‘अंतःस्फूर्ति हृदय से आती है। प्रेम असंभव को भी संभव कर देता है। यह प्रेम ही संसार के सभी रहस्यों का द्वार है, अतः हे मेरे भावी सुधारको! मेरे भावी देशभक्तो!! क्या तुम हृदय से यह अनुभव करते हो कि देवता तथा ऋषियों की करोड़ों संतानें आज पशु-तुल्य हो गई हैं? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि आज लाखों मनुष्य भूखों मर रहे हैं और लाखों मनुष्य शताब्दियों से इसी प्रकार भूखों मरते आए हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सम्पूर्ण भारत को ढँक लिया है? क्या तुम यह सब सोचकर भ्रमित हो जाते हो?
क्या इस भावना ने तुम्हारी नींद को गायब कर दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है? क्या वह तुम्हारे हृदय के स्पंदन से मिल गई है? क्या उसने तुम्हें पागल-जैसा बना दिया है? और क्या इस चिंता में विभोर होकर तुम अपने नाम, यश, स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति यहाँ तक कि अपने शरीर की सुधि को भी भूल गए हो? क्या वास्तव में तुम ऐसे हो गए हो? बस, यही पहला चरण है।... आओ, हम प्रार्थना करें- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ’ कृपामयी योति, मार्ग दिखाओ और अंधकार में से एक किरण दिखाई देगी, कोई पथ-प्रदर्शक हाथ आगे बढ़ आएगा।’’
>>>शिक्षक (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता -जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर) : स्वामीजी का मानना था कि शिक्षक (नेता -जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर) को शास्त्रों का मर्मज्ञ, पवित्र और उज्ज्वल चरित्र वाला तथा विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें धर्मग्रंथों के स्वत्वों का ज्ञान होना आवश्यक है। उनके मन में विद्यार्थियों के प्रति प्रबल प्रेम होना चाहिए। प्रेम से बढ़ कर आध्यात्मिक प्रभाव डालने वाला अन्य कोई तत्त्व नहीं है। स्वामीजी के अनुसार विद्यार्थियों को मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहकर सत्य का अनुशरण और पालन करना चाहिए। उनमें ज्ञानप्राप्ति की सच्ची लगन होना चाहिए। पुरातन मान्यता है कि अंतःकरण से हम जो कुछ (ईश्वर को या परम् सत्य को जानना) चाहते हैं, वह प्राप्त कर लेते हैं। जो हम नहीं चाहते, उसकी उपलब्धि हमें नहीं होती।
छात्र : स्वामीजी का मानना था कि विद्यार्थियों को शिक्षकों के प्रति आदर का भाव रखते हुए कार्य करना चाहिए। गुरु के प्रति नम्रता, विनय तथा श्रद्धा आवश्यक है। विद्यार्थी स्वयं शिक्षा ग्रहण करता है अतः शिक्षक (=नेता) के लिए आवश्यक है कि वह उचित और आवश्यक वातावरण की व्यवस्था करके पथप्रदर्शक, निरीक्षक और निर्देशक की भूमिका का निर्वाह करे। शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को सहानुभूति एवं सद्व्यवहारपूर्वक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। विद्यार्थियों की इच्छाओं और आवश्यकताओं को समझकर तथा उनकी जन्मजात प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर शिक्षा दी जानी चाहिए।
>>> स्वामीजी की दृष्टि में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने का दायित्व युवकों पर :स्वामीजी का मानना था कि देशवासियों को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व देश के पढ़े-लिखे, युवाओं और नौजवानों का है। उनका मानना था कि वेदान्त -परम्परा में शिक्षा प्राप्त करने पर प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन की सभी आवश्यकताओं (भौतिक और आध्यात्मिक दोनों आवश्यकताओं को ) को पूरा करने में सक्षम और निपुण होना चाहिए। स्वामजी मन की एकाग्रता के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक मानते थे। वे प्राचीन भारतीय गुरुकुल प्रणाली के पक्षधर थे जिस में शिक्षा को मूल्य लेकर बेचा नहीं जाता था। विद्यार्थी अपने घर से दूर गुरुगृह में निर्जन-वास करते हुए निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे।
उन्होंने कहा था कि, ‘‘भारतवर्ष के दरिद्रों तथा निम्न वर्ग के लोगों की दशा का स्मरण करके मेरा हृदय फटा जाता है। वे दिन-प्रतिदिन नीचे गिरते चले जा रहे हैं।...जब तक करोड़ों मनुष्य अज्ञानांधकार में जीवन बिता रहे हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक मनुष्य को देशद्रोही मानता हँू, जो उनके व्यय से शिक्षित हुआ है तथा उनकी ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे रहा है। हमारा महान् राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की अवहेलना करना है और यही हमारे अधःपतन का कारण है।
राजनीति चाहे जितनी अधिक मात्रा में रहे, तब तक उसे कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारतवर्ष की जनता एक बार फिर सुशिक्षित न हो जाए, जब तक उसे भरपेट भोजन न मिले तथा हर तरह से उसकी सुख-सुविधा की ओर ध्यान न दिया जाए।... यदि हम फिर उन्नति चाहते हैं तो हम जनसमूह में शिक्षा का प्रचार करके ही उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। निम्न वर्ग के लोगों को अपने खोए हुए व्यक्तित्व का विकास (आत्मश्रद्धा और विवेक में प्रशिक्षित करके 3H विकास ) करने के हेतु शिक्षा देना ही उनकी एक मात्र सेवा करना है। संसार में उनके चारों ओर क्या चल रहा है, इसकी ओर उनकी आँखें खोल दो। तब वे अपनी मुक्ति का कार्य स्वयं कर लेंगे। प्रत्येक राष्ट्र, प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपनी मुक्ति का कार्य स्वयं करना होगा, उनके सामने उच्च विचारों को रख दो - बस, उन्हें इतनी सहायता चाहिए और शेष सब उसके फलस्वरूप आ ही जाएगा।’’
स्वामीजी का मानना था कि विद्यार्थियों को विश्व के सभी महापुरुषों, अवतारों , पैगम्बरों, जीवनमुक्त शिक्षकों और संतों के जीवन-चरित् का अध्ययन-अध्यापन करवाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि मनुष्य धार्मिक पुस्तकें पढ़कर नहीं अपितु स्वतः प्रत्यक्ष अनुभव और उसके अनुसार आचरण करके (अपना सुन्दर जीवन गठन करके) ही व्यक्ति धार्मिक नेता /शिक्षक होने का गौरवपूर्ण पद प्राप्त कर सकता है। धार्मिक नेता -पथप्रदर्शक होने के लिए धर्म के अनुसार जीवनयापन आवश्यक है। शिक्षा में सभी धर्मों की आवश्यक प्रवृत्तियों को समाहित किया जाना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति का हृदय विशाल होना चाहिए। उसे संकीर्णताओं के पार आकर अपने सुख को दूसरों के सुखों में सम्मिलित करना चाहिए।
नारी उत्थान : पुरुषों के साथ-साथ नारियों के उत्थान के प्रति स्वामीजी समान रूप से सचेत थे। इसीलिए उन्होंने कहा था कि, ‘‘वेदान्त तो यही सिखाता है कि सबमें (M/F में) एक ही आत्मा निवास करती है।... नारियाँ महाकाली की साकार प्रतिमाएँ हैं। यदि तुमने इन्हें ऊपर नहीं उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई अन्य मार्ग है। संसार की सभी जातियाँ नारियों का सचमुच सम्मान करके ही महान् हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे उन्नति कर सकेगी।’’
>>>युगों से संस्कृत और ब्राह्मण ही भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है : स्वामीजी (कच्ची उम्र में) सह-शिक्षा के विरोधी थे। उनका मानना था कि पंद्रह वर्ष से कम उम्र की लड़कियों का विवाह नहीं किया जाना चाहिए। उनकी चाह थी कि प्रत्येक भारतवासी समुन्नत और संस्कृति तथा संस्कार से सम्पन्न हो। इसीलिए उन्होंने कहा था, ‘‘भारत के पास जो भी सांस्कृतिक कोष है, उसे जन-साधारण के अधिकार में जाने दो।’’ इस हेतु उन्होंने ब्राह्मणों की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहा था, ‘‘युगों से ‘ब्राह्मण’ भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है। अब उसे इस संस्कृति को सबके पास विकीर्ण कर देना चाहिए।’’ स्वामीजी शिक्षा के माध्यम के रूप में जनसाधारण की बोलचाल की भाषा को अपनाए जाने के पक्षधर थे। उनका यह भी कहना था कि, ‘‘इसके साथ-ही-साथ संस्कृत की शिक्षा भी चलनी चाहिए क्योंकि संस्कृत-शब्दों की ध्वनि मात्र से ही हमारी जाति को प्रतिष्ठा, बल तथा शक्ति प्राप्त होती है।’’
संस्कृत प्रतिष्ठा की भाषा थी और उसमें ज्ञान का अथाह भण्डार सुरक्षित था इसलिए स्वामीजी का कहना था कि लोग इस भाषा में दक्षता प्राप्त करें। उन्होंने कहा था कि, ‘‘जीवनभर संस्कृत भाषा का अध्ययन करने पर भी जब मैं इसकी कोई नई पुस्तक उठाता हूँ तब वह मुझे बिल्कुल नई-सी जान पड़ती है।’’
>>>भारत के लिए प्रवृत्तिमार्ग -यूरोप के लिए निवृत्तिमार्ग : स्वामीजी ने रेखांकित किया था कि यूरोप में गरीबी और पाप सहगामी माने जाते हैं, पर भारतवर्ष में ऐसा नहीं है। यहाँ के सबसे बड़े लोग गरीबी की वेशभूषा में रहते हैं। तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुसार उन्होंने जहाँ यूरोप और अमेरिका के लोगों को निवृत्ति की शिक्षा दी, वहीं भारत के लोगों को प्रवृत्तियोन्मुखी बनाने का प्रयास किया। जमशेदजी टाटा ने स्वामीजी से प्रभावित होकर "रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस" की स्थापना की ! उन्होंने पत्र लिखकर स्वामीजी से इसका प्रमुख बनने का अनुरोध किया लेकिन स्वामीजी ने यह कहकर असमर्थता जताई की यह उनके आध्यात्मिक रुचि के विरुद्ध है !
>>> आत्मोद्धार का प्रचार -प्रसार करने के लिए राष्ट्रीय एकता अनिवार्य: स्वामीजी ने राष्ट्रीय एकता के महत्त्व को भली प्रकार से समझा था। वे चाहते थे कि देश के लोग भी इस बात को समझें और देश की एकता की दिशा में प्रयत्नशील हों। उनका मानना था कि देश की एकता के बिना (सरदार पटेल के डण्डे के बिना) उन्नति प्राप्त नहीं हो सकती। देश की एकता के सूत्र और आवश्यकता बताते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘अथर्ववेद में एक मंत्र है, जिस का अर्थ होता है कि मन से एक बनो, विचार से एक बनो। प्राचीन काल में देवताओं का मन एक हुआ, तभी से वे नैवेद्य के अधिकारी रहे हैं। मनुष्य देवताओं की अर्चना इसलिए करते हैं कि देवताओं का मन एक है। मन से एक होना समाज के अस्तित्व का सार है। किन्तु, द्रविड़ और आर्य, ब्राह्मण और अब्राह्मण, इन तुच्छ विवादों में पड़कर तुम जितना ही झगड़ते जाओगे तुम्हारी शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाएगी, तुम्हारा संकल्प एकता से उतना ही दूर पड़ता जाएगा। स्मरण रखो कि शक्ति-संचय और संकल्प की एकता, इन्हीं पर भारत का भविष्य निर्भर करता है। जब तक महान् कार्यों के लिए तुम अपनी शक्तियों का संचय नहीं करते, जब तक एक-मन होकर तुम आत्मोद्धार के कार्य में नहीं लगते, तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं है।’’
स्वामीजी ने देश की एकता की सुदृढ़ता के लिए भारतमाता की आराधना और पूजा का आवाहन किया था। सन् 1898 में लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने यह भी लिखा था कि, ‘‘हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिन्दुत्व और इस्लाम मिलकर एक हो जाएँ। वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की आशा है।’’
>>>वेदान्त डिण्डिम प्रशिक्षण से दुर्बल भारत को शक्तिमान बनाओ : शक्तिहीन हो रहे भारत को स्वामीजी शक्तिसम्पन्न देखना चाहते थे। इसकी युक्ति उन्होंने सोच ली थी। उन्होंने कहा था, ‘‘अब शक्ति प्राप्त करने का पहला उपाय उपनिषदों का आश्रय लेना तथा यह विश्वास करना है कि ‘मैं आत्मा हूँ, मुझे तलवार नहीं काट सकती, मैं सर्वशक्तिमान हूँ ।’ वेदान्त के इन सब माहन् तत्त्वों को जंगलों तथा गुफाओं से बाहर आना होगा और न्यायालयों, प्रार्थना-मंदिरों तथा गरीबों के झोपड़ों में प्रवेश करके अपना कार्य करना होगा। अब तो मछुआरों तथा विद्यार्थियों के साथ इन तत्त्वों को कार्य करना होगा। यह संदेश प्रत्येक स्त्री, पुरुष तथा बालक के लिए है। वह चाहे जो भी पेशा करे, चाहे जहाँ रहता हो। अच्छा, ये सब मछुआरे आदि उपनिषदों के सिद्धान्तों के अनुसार किस तरह कार्य कर सकते हैं? मार्ग भी बता दिया है। यदि मछुआरा सोचे कि मैं आत्मा हूँ , तो वह एक श्रेष्ठ मछुआरा होगा और यदि विद्यार्थी यह चिंतन करने लगे कि मैं आत्मा हूँ, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा।’’
स्वामीजी चाहते थे कि देशवासी, विशेषकर युवा उत्साही, सेवाभावी और कर्मशील बनें। उनका कहना था, ‘‘आकृति में दमकती हुई कांति, हृदय में अदम्य उत्साह, कर्म-चेष्टा की विपुलता और उद्वेलित शक्ति, ये सत्त्व की पहचान हैं। इसके विपरीत तमस का लक्षण आलस्य और शैथिल्य है, अनुचित आसक्ति और निद्रा का मोह है।’’
>>>नेता का मन शंपा के फूल जैसा कोमल और वज्र जितना कठोर होगा : वे चाहते थे कि , भारतवासी विवेकवान और साहसी बनें इसीलिए उन्होंने कहा था, ‘‘मैं भारत में लोहे की मांसपेशियां और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूँ, क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है जो शंपाओं एवं वज्रों से निर्मित होता है। शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज, इनके समन्वय से भारत की नयी मानवता का निर्माण होना चाहिए।’’
>>>आचार्यो मृत्यु : यम -नचिकेता संवाद सुनने से मृत्यु भय समाप्त : भय के कारकों के सान्निध्य से भय दूर होता है, इस बात को समझते हुए देशवासियों को निर्भयता की ओर ले जाने के लिए स्वामीजी ने कहा था, ‘‘मृत्यु का ध्यान करो। प्रलय को अपनी समाधि में देखो तथा महाभैरव रुद्र को अपनी पूजा से प्रसन्न करो। जो भयानक है, उसकी अर्चना से ही भय बस में आएगा।... संभव हो तो जीवन को मृत्यु की कामना करो। तलवार की धार पर अपना शरीर लगा दो और रुद्र-शिव से एकाकार हो जाओ।’’
>>>कैम्प के माध्यम से शिक्षा का प्रचार: उनका कहना था, (जो इसमें बाधक बने -वैसे दुष्ट को) ‘‘क्षमा तभी करना चाहिए जब भुजा में विजय की शक्ति विद्यमान हो।’ स्वामीजी का मानना था कि निर्धनता के कारण यदि बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय नहीं आ सकता तो शिक्षा प्रदान करने वाले को ही उसके पास पहुँचकर शिक्षा प्रदान करने का उपक्रम करना चाहिए। उन्हीं के शब्द हैं, ‘‘यदि दरिद्र बालक शिक्षा लेने नहीं आ सकता, तो शिक्षा को ही उसके पास पहुँचना चाहिए। हमारे देश में सहस्त्रों निष्ठावान, निःस्वार्थ संन्यासी हैं, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में धर्मोपदेश करते हुए भ्रमण करते हैं। यदि इनमें से कुछ को भौतिक विषयों के शिक्षक के रूप में भी संगठित किया जा सके तो वे एक स्थान से दूसरे स्थान को, एक द्वार से दूसरे द्वार को, न केवल धर्मोपदेश करते हुए अपितु शिक्षा-कार्य भी करते हुए जाएँगे।’’
स्वामीजी चाहते थे कि भारतवासी विश्व से (विज्ञान) सीखें और बदले में जो भारत के पास है (वेदान्त -आध्यात्मिक ज्ञान-तत्वमसि !), उसे विश्व को दें। उन्होंने कहा था, ‘‘क्या यह अच्छा होगा कि हम सदैव पश्चिमवालों के चरणों के पास बैठकर सब-कुछ, यहाँ तक कि धर्म भी, सीखते रहें? क्या हम मात्र लेते ही रहेंगे? देना हमें कुछ भी नहीं है? पश्चिम से हम यंत्रवाद की शिक्षा ले सकते हैं। और भी कई बातें अच्छी हैं, जिन्हें पश्चिम से ग्रहण करना आवश्यक दिखता है। किन्तु, हमें उन्हें कुछ सिखाना भी है। हम उन्हें धर्म और आध्यात्मिकता की शिक्षा दे सकते हैं। विश्व-सभ्यता अभी अधूरी है। पूर्ण होने के लिए वह भारत की राह देख रही है। वह भारत की उस आध्यात्मिक सम्पत्ति की प्रतीक्षा में है जो पतन, गन्दगी और भ्रष्टाचार के होते हुए भी भारत के हृदय में जीवित और अक्षुण्ण है। इसलिए, संकीर्णता को छोड़कर हमें बाहर निकलना है। पश्चिमवालों से हमें एक विनिमय करना है। धर्म और आध्यात्मिकता के स्तर की चीजें हम उन्हें देंगे और बदले में भौतिक साधनों का दान हम सहर्ष स्वीकार करेंगे। समानता के बिना मैत्री संभव नहीं होती और समानता वहाँ आएगी कहाँ से, जहाँ एक तो बराबर गुरु बना रहना चाहता है और दूसरा उसका सनातन शिष्य?’’
>>>रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य और कार्यक्रम : स्वामीजी ने श्रीरामकृष्ण परमहंस के शिष्य के रूप में उनके विचारों का प्रसार करते हुए समूचे विश्व में ख्याति अर्जित की और आधुनिक भारत के प्रवक्ता के रूप में जाने गए। अपने कार्यों को सृजनात्मक व्यवस्थित रूप देने हेतु स्वामीजी ने 1 मई 1897 को कोलकाता में गुरुभाईयों और गुरुदेव के गृहस्थ अनुयायियों की एक सभा बुलाई थी। इस सभा में उन्होंने शैक्षिक, धार्मिक और लोकोपकारी कार्यों का एकीकरण करते हुए उनके संचालन के लिए एक मिशन और इस कार्य में संलग्न सेवाभावी संन्यासियों के संगठन (संन्यासी संघ) को सुदृढ़ आधार पर खड़ा करने हेतु एक मठ की स्थापना की कार्य-योजना रखी थी।
सभी का समर्थन प्राप्त होने पर उसी समय ‘रामकृष्ण मठ’ और ‘रामकृष्ण मिशन’ नाम की दो संस्थाओं का गठन किया गया था। इनके संचालन के लिए गंगा के तट पर ग्राम बेलुड़ में 5 एकड़ भूमि क्रय कर इसकी नींव रखी गई थी। अमेरिका और यूरोप में प्राप्त धन को स्वामीजी ने इन संस्थाओं को सौंप दिया था।के लिए 1 मई, 1897 को स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन एसोसिएशन की स्थापना की और इसकी कार्यपद्धति इस प्रकार निश्चित की गई -
(1) ऐसे कार्यकर्ताओं (पैगम्बरों) को तैयार करना और प्रशिक्षित करना, जो देश की जनता के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए ज्ञान-विज्ञान के वाहक बन सके।
(2) लोगों में इस प्रकार धार्मिक विचारों का प्रचार करना कि वे रामकृष्ण परमहंस के विचारानुसार सच्चे मानव (ब्रह्मविद-निर्भीक मनुष्य) बन सकें।
(3) कलाओं और उद्योगों को प्रोत्साहित करना।
वास्तव में विवेकानन्दजी ने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन नाम से दो पृथक संस्थाएं गठित कीं यद्दपि इन दोनों संस्थाओं में परस्पर नीतिगत सामंजस्य था तथापि इनके उद्देश्य भिन्न किन्तु पूरक थे। रामकृष्ण मठ समर्पित संन्यासियों की शृंखला तैयार करने के लिए थी जबकि दूसरी रामकृष्ण मिशन जनसेवा की गतिविधियों के लिए थी। वर्तमान में इन दोनों संस्थाओं के विश्वभर में सैकड़ों केंद्र हैं और ये संस्थाएं शिक्षा, चिकित्सा, संस्कृति, अध्यात्म और अन्यान्य सेवा प्रकल्पों के लिए विश्वव्यापी व प्रख्यात हो चुकी हैं।
20 जून 1899 को स्वामीजी पुनः इग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, तुर्की, यूनान, मिश्र आदि की यात्रा पर गए थे। उनकी इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य स्वयं के द्वारा स्थापित कार्यों की प्रगति को देखना था। स्वामीजी का जीवन अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं को व्यवहार में चरितार्थ करने के प्रति समर्पित रहा। 29 जनवरी 1900 को केलिफोर्निया में अपने भाषण में उन्होंने कहा भी था कि, ‘‘जो भी विचार मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ , वे मेरे गुरु के विचार हैं। उन विचारों को छोड़कर मेरे पास अन्य कोई मौलिक विचार नहीं हैं।’’
>>>एक ही सत्य के दो पक्ष श्री रामकृष्ण (समाधि की अनुभूति) और नरेन्द्रनाथ : (स्वामी विवेकानन्द और कैप्टन सेवियर -उसकी व्याख्या) : श्री रामकृष्ण और विवेकानन्द एक ही जीवन के दो अंश, एक ही सत्य के दो पक्ष हैं। रामकृष्ण अनुभूति थे, विवेकानन्द उनकी व्याख्या बनकर आए। रामकृष्ण दर्शन थे, विवेकानन्द ने उनके क्रिया-पक्ष का आख्यान किया।... उन्होंने देवसरिता को रामकृष्ण के कमण्डलु से निकालकर सारे विश्व में फैला दिया।
>>>SV= शास्त्र, गुरु और मातृभूमि : विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं," विवेकानन्द की कृतियों का संगीत--'शास्त्र, गुरु और मातृभूमि ' इन तीन स्वर-लहरियों से से निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है।" वे कहते थे, जिस देश में मनुष्य जाति के भीतर सर्वाधिक क्षमा, दया, पवित्रता, और शांति सर्व अपेक्षा अधिक आध्यात्मिकता और अंतर्दृष्टि का विकास हुआ है- वही मेरी मातृभूमि है यही भारतवर्ष है। यहाँ हिन्दू लोग मुसलमानों के लिये मस्जिद और ईसाइयों के लिये गिरजाघर बना देते हैं, ऐसे मनुष्य और किसी देश में नहीं हैं।
वे मानते थे कि भारत के ज्ञान (वेदान्त विवेक) का प्रबल तरंग, भौतिवादी सभ्यता को आध्यात्मिकता से पूर्ण बना देगी। भारत एक बार फिर विश्व को आध्यात्मिक तरंग से आप्लावित करेगा। उनकी जिवनसाधना का मूलमंत्र था- समग्र मानवजाति का आध्यात्मिक रूपान्तरण। ' भारत का भविष्य ' नामक भाषण में कहते हैं, " तुम्हारे स्वदेश-वासी ही तुम्हारे प्रथम उपास्य हैं। उनकी पूजा अन्न-दान, शिक्षा-दान, और धर्म-दान के द्वारा करनी होगी। सभी को उपनिषद कि वाणी सुनानी होगी। वेदान्त का आलोक घर घर तक ले जाना होगा। नया भारत निकल पड़े, निकले हल पकड़कर किसानो के कुटियों को भेद कर, इसी नर रूपी नारायण को शिव जानकर सेवा करने का महामंत्र दिया था। सेवा करो ! और प्रेरणा भरो " यही उस सेवा को पूजा में रूपांतरित करना है। उनमें शिक्षा के द्वारा - निर्जनवास लीडरशिप प्रशिक्षण के द्वारा आत्मश्रद्धा जाग्रत करके विवेक-प्रयोग द्वारा मनुष्यत्व का विकास करना ही इस युग की पूजा है।
>>>सारदा नारी संगठन और विवेकानन्द युवा महामण्डल :
श्री माँ को केंद्र में रखकर स्त्री लोग भी मन को वश मे करने/ एकाग्र करने की शिक्षा प्राप्त करेंगी। उनके सतीत्व और चरित्रबल जाग्रत करने के लिये कैंप करना होगा। नारी मठ की सन्यासिनियों को गाँव गाँव मे ले जाना होगा। शिक्षा पाते ही नारियां स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान खोज लेंगी। स्त्री-पुरुष अपने को शरीर के रूप में नहीं देखकर आत्मा (विशुद्ध चेतना-pure consciousness, जो अभी M/F शरीर में रह रही है) के रूप में पहचान लेंगे। हमें यह सोचना चाहिए कि हमलोग मनुष्य मात्र हैं। जीवन को सार्थक करने के लिये परस्पर सहायता करने के लिये ही हमारा (Bh-67) जन्म हुआ है।
स्त्रियाँ विद्याबुद्धि अर्जित करेंगी, किन्तु पवित्रता विसर्जन करके नहीं। नारी शिक्षा के भीतर, धर्म-शिक्षा, चरित्र-गठन और ब्रह्मचर्य मुख्य विषय होंगे। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस शक्ति का साकार रूप माँ काली के उपासक थे। "इस भारत माता का पुनर्जागरण जनसाधारण की शिक्षा, गरीबी दूर करने शिक्षित मनुष्यों को स्वदेश-सेवा व्रत " Be and Make " से जोड़ने, और नारी समाज की उन्नति और जागरण के ऊपर। विवेकानन्द भारत माता के साथ एकाकार हो गए थे। उन्होंने देखा था कि दीन-दुखियों के झोपड़ियों में ही मानवीय हृदयवत्ता और ईश्वर-निर्भरता बची हुई है।
>>>अमेरिका पहुँचने के बाद जब देखते हैं, कि उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं, कि गर्म कपड़ों का इंतजाम हो सके, तो उन्हें लगा इस परिस्थिति में उनकी मृत्यु भी हो सकती है। फिर तो गुरु के द्वारा सौंपा हुआ कर अधूरा ही रह जायगा, यही सोच कर दूसरी-पंक्ति के भावी गृहस्थ लोक-शिक्षकों को तैयार करने के उद्देश्य से 20 अगस्त 1893 को आलासिंगा को एक पत्र में लिखते हैं, ' मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु युवको ! मैं गरीबों, मूर्खों (अज्ञ या अविवेक में फंसे मनुष्यों), उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति, और प्राणपण प्रयत्न को उत्तराधिकार के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ ! जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वाल-बालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्धावतार-काल में अमीरों का निमन्त्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का निमन्त्रण स्वीकार किया और उसे उबारा; जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक बलि दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो--उन दीन हीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। "
युवा अवस्था में नरेन्द्रनाथ भी ब्रहमसमाज के आदर्श से प्रभावित होने के कारण मूर्तिपूजा को गुड्डे-गुड़ियों का खेल समझते थे। श्रीरामकृष्ण की उदार एवं समन्वय-कारी विचारों के बावजूद उनका 'काली मन्दिर ' में जाना, और शक्ति को प्रभुत्व देना नरेन्द्र की नजरों में असंगत प्रतीत होता था। किन्तु तरुण नरेन्द्र का वह संशयी मनोभाव अधिक दिनों तक टिक नहीं सका था। नरेन्द्र को इस प्रकार माँ को न मानना, श्रीरामकृष्ण को व्याकुल और उद्विग्न कर दिया था। क्योंकि यह जगत शक्ति का इलाका है। यहाँ शक्ति की उपेक्षा करने से कोई कार्य सूसम्पन्न नहीं हो सकता है।
>>> माँ जगदम्बा से नरेन्द्रनाथ का साक्षात्कार : नरेन्द्र की पुरुष सत्ता (मिथ्या अहं) सगुण ब्रह्म की अवधारणा को ग्रहण करने योग्य मानने पर भी जगत-प्रसविनी महाशक्ति को ब्रह्मशक्ति के रूप में यथायोग्य सम्मान नहीं देते थे। वे समझते थे कि शक्ति कि भूमिका तो माया की है,जिसकी जाल को छिन्न-भिन्न करके सिंह-वीर्य साधक को बाहर निकल आना होता है। किन्तु पिता की मृत्यु के बाद दरिद्रता से पीड़ित घर की अवस्था दयनीय हो गयी। अपने माँ और भाइयों का अनाहार-अर्धाहार सहन न कर पाने और इस दुःख के दूर होने का कोई उपाय न देखकर, नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण से ही प्रार्थना किए।
किन्तु उन्होंने स्वयं कुछ न करके नरेन्द्रनाथ को ही मंदिर में माँ के पास भेज दिया। वह घने अंधकार में डूबी अमावस्या की रात्रि थी। मूर्ति पूजा में अविश्वासी नरेन्द्रनाथ धीमे कदमों से सूरम्य मन्दिर के गर्भगृह की ओर बढ़ते जा रहे थे। वहाँ उन्होंने क्या दर्शन किया ? " माँ सचमुच चिन्मयी हैं, सचमुच प्राण-चंचला हैं, एवं अनन्त प्रेम और सौंदर्य की प्रस्रवणरूपिणी हैं।" इस जीवन्त जगदंबा के दर्शन से उनका मन-प्राण अभूतपूर्व भक्तिभाव से परिपूर्ण हो गया था।
कोई शिशु जिस प्रकार माँ के ऊपर निर्भर रहता है, उसी प्रकार तेजस्वी विश्व-विजयी विवेकानन्द भी माँ के हाथ के यंत्र मात्र थे। श्रीरामकृष्ण के अद्वैतवादी परमहंस गुरु तोतापूरी के काली को मानने की घटना भी सबों को ज्ञात है। गहरी रात में शारीरिक कष्ट सहन न कर सकने के कारण, जब वे गंगा में अपने शरीर को विसर्जित करने गए तो, डूबने लायक पानी कहीं नहीं पाकर आश्चर्यचकित तोतापूरी के सामने माँ का सर्वव्यापीनी रूप प्रकट हो गया था। उन्होंने देखा, " माँ, माँ, जगतजननी माँ, अचिन्त्यशक्ति स्वरूपिणी माँ, जल में माँ, थल में माँ, शरीर माँ, मन माँ, यंत्रणा माँ, ज्ञान माँ, अज्ञान माँ, जीवन माँ, मृत्यु माँ, शरीर-मन-बुद्धि के परे भी माँ। और वही माँ तूरिया, निर्गुणा माँ !
"माँ के इस साक्षात् दर्शन का नरेन्द्रनाथ के मन पर कितना गहरी प्रतिक्रिया हुई थी, उसका संकेत बहुत बाद में हमें निवेदिता के संस्मरण में प्राप्त होता है। उन्होंने निवेदिता से कहा था, " देखो, मेरे लिये इसपर विश्वास करने के सिवा कोई उपाय नहीं है कि कहीं एक विराट शक्ति अवश्य हैं, जो स्वयं को कभी कभी नारिरूप में कल्पना करती हैं, एवं लोग उनको ही ' काली ' एवं माँ कहकर पुकारते हैं। मैंने काली को नहीं मानने के लिये छः वर्षों तक गुरु के साथ युद्ध किया था, किन्तु अंत में मानने के लिये मुझे बाध्य होना ही पड़ा। 'रामकृष्ण परमहंस ने अपनी माँ काली के सामने मुझे भेंट चढ़ा दिया था।' उसके बाद से छोटे छोटे कार्यों में भी माँ काली ही मुझे चलाती हैं। "किसी माँ के दुलारे जिद्दी लड़के के समान ही, विवेकानन्द माँ को अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिये मजबूर करते थे। कहते थे, यदि अमुक वस्तु तुम मुझे नहीं दोगी तो मैं तुमको छोड़ कर श्रीचैतन्य को भजना शुरू कर दूंगा।
माँ के मन्दिर को कट्टर-पंथी लोगों ने उजाड़ डाला था, यह देखकर वीर पुत्र के मन में मन्दिर का पुनर्निर्माण करने की इच्छा जाग्रत हुई; इसी के साथ साथ उन्हें माँ की आवाज सुनाई दी, " यदि मलेच्छ लोगों ने मंदिर में घुसकर मेरी मूर्ति को तोड़ भी दिया तो उससे तुम्हें क्या ? तू मेरी रक्षा करता है, मैं तेरी रक्षा करती हूँ? मैं केवल संकल्प मात्र से असंख्य मंदिर और मठ स्थापित कर सकती हूँ। एक क्षण में यहाँ सात-मंजिला स्वर्ण-मंदिर निर्मित हो सकता है। " अर्थात माँ की इच्छा से ही, सभी घटनाएँ, और परिस्थितियाँ आती-जाती रहती हैं। इस अलौकिक कंठस्वर को सुनने के बाद स्वामीजी, सम्पूर्ण मातृमय (माँ पर आश्रित ) छोटे से शिशु बनकर लौट गये।
>>>प्राण की उपासना द्वैतभाव से ही सम्भव है : " स्वामीजी की अद्वैतभावना द्वैतबोध से उपासना करने पर बाध्य हुई थी। वे भी काली- उपासना को तोतापुरी के जैसा स्वीकार नहीं कर सके थे। किन्तु घटना ने दूसरा रूप लिया था, गंगा में उतर कर नहीं, नरेन्द्र के समक्ष गर्भगृह की प्रतिमा में ही जगदम्बा का स्वरुप ? उद्घाटित हो गया था। माँ के तेजस्वी पुत्र नरेन्द्रनाथ के भाग्य में पारिवारिक सुख नहीं लिखा था। उनके माँ-भाइयों के लिये श्रीरामकृष्ण ने मोटा भात-कपड़ा आवन्टित करते हैं। ठाकुर के आनन्द की मानो सीमा नहीं थी। घूम-फिर कर सबको एक ही बात कहते थे, " नरेन काली मेनेछे, बेश होयेछे, ना ? -अर्थात नरेन्द्रनाथ ने शक्ति की प्रभुता को स्वीकार कर लिया है, यह बड़ा अच्छा हुआ है, है न ?
उसके बाद सारी रात वे नए अनुभव का गाना गाते रहे थे, ' आमार माँ त्वं ही तारा ! तुमि जले तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो माँ। आछो सर्वघटे अक्षपूटे साकार, आकार निराकारा ....। उस माँ के पूजा करने बात उन्होंने बाद में लिखी है, " पूजा तार संग्राम अपार, सदा पराजय, ताहा ना डराक तोमा। चूर्ण होक स्वार्थ साध मान, हृदय महाश्मशान नाचुक तहाते श्यामा। "
विवेकानन्द का आजीवन संग्राम ही माँ की पूजा थी। शरीर छोड़ने से कुछ ही दिन पहले अपने प्रिय सखा स्वामी सारदानन्द से विवेकानन्द ने कहा था, " अरे उस लड़की को मैं अब और नहीं देख पा रहा हूँ, लगता है बेटी ने मेरा हाथ छोड़ दिया है।" उस दिन शारदानन्द ने समझ लिया कि जगतजननी को स्वामीजी के शरीर से जो कार्य करवाना था, वह कार्य समाप्त हो चूका है। इसी बात को स्वामीजी एक पत्र में लिखते हैं, " मेरी नौका क्रमशः उस शान्ति के तट के निकट पहुँचती जा रही है.… जय, जय माँ! अब और कोई इच्छा या महत्वाकांक्षा नहीं है। मेरी कोई इच्छा नहीं माँ का नाम ही धन्य हो।"
जब अन्तिम समय निकट आ गया, देहत्याग के दिन प्रातःकाल में गहरे ध्यान के बाद गुनगुना रहे थे, ' श्यामा माँ कि आमार कालो रे/ कालोरूपे दिगम्बरी हृदयपद्म करे आलो रे!' श्यामा माँ के पुत्र विवेकानन्द 28 दिसंबर 1893 को शिकागो से अपने एक प्रिय शिष्य हरिपद मित्र को लिखे थे," शाक्त --शब्द का अर्थ समझते हो ? शाक् का अर्थ मदिरा भांग नहीं है, शाक्त वे हैं जो ईश्वर को समस्त जगत में विराजित महाशक्ति के रूप में जानते हैं, एवं समस्त स्त्रियों में (Bhap) उसी महाशक्ति का विकास देखते हैं। "
🔱>>>🔱श्रीरामकृष्ण-शक्ति माँ सारदा ही माँ काली हैं ! स्वामीजी ने बार बार लिखित पत्रों के माध्यम से वंदना और पूजा निवेदित करके श्रीरामकृष्ण-शक्ति को अपनी महिमा में प्रतिष्ठित करवा दिया था। लिखते हैं, " माँ ठकुरानी कौन हैं, तुम लोग अभी समझ नहीं सके हो, क्रमशः जान जाओगे ! ' आगे लिखते हैं, ' माँ ठकुरानी को उनके जन्मान्तर के दास का साष्टाँग दण्डवत प्रणाम कहना, उनके आशीर्वाद से ही मेरा हर प्रकार से मंगल हो रहा है। " बाद में उन्होंने कहा था, ' उनके (माँ के विषय में ) कुछ लिखने की इच्छा होती है, किन्तु डर के मारे हिम्म्त नहीं होती!' श्रीरामकृष्ण भी मुझे छोड़ दें तो मैं नहीं डरूंगा, किन्तु माँ ठकुरानी यदि चली गयी तो सब नष्ट हो जायेगा।.… मेरे लिये माँ की कृपा पिता की कृपा से लाखों गुना अधिक महत्वपूर्ण है।
माँ ने उनको सिखाया था, ' आजीवन पवित्र रहना, अपने आत्म-सम्मान को कभी न खोना, दूसरों के आत्मसम्मान की रक्षा भी करना। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, बबुआ कभी मन से हार मत मानना ! तुम जो चाहोगे कर सकते हो। मन में इतनी शक्ति है। संतोष की डाली पर मेवा फलता है। दूसरों की चीज का लालच मत करना। किसिको पहले मत मारना किन्तु कोई अकारण मारे तो कम्प्लेन करने मत आना, उसका हाथ तोड़ देना, दुबारा न मार सके ! "
भारत के लोक-शिक्षक या सन्यासी-गण प्रत्येक नारी को माता की दृष्टि से देखते हैं, यहाँ तक कि एक बालिका को भी माँ कहकर पुकारते हैं। पाश्चात्य नारियों को अति-उन्मुक्त रूप में देखकर कहते हैं, " वे महिमामयी, जिन्हों ने मुझे यह शरीर दिया है, वे कहा हैं ? वे कहाँ हैं, जो मुझे अवश्यक होने पर बारबार जन्म देने के लिये तैयार हों ? मैं जन्म लूँगा, इसिलिये मेरी माँ ने कई वर्षों तक अपने शरीर, मन, आहार-पोशाक, विचार-कल्पना तक को पवित्र रखती थी। इसिलिये वे पूजनीय हैं।" मनु कहते हैं, " वही सन्तान आर्य है, जो प्रार्थना के द्वारा जन्म लेती है; बिना प्रार्थना के उत्पन्न प्रत्येक संतान मानो अधर्म से उत्पन्न सन्तान है। "
भारत में आमतौर से यह विश्वास किया जाता है कि किसी भक्त-संतान के जन्म होने के पीछे उसकी माँ की प्रार्थना ही कारण होती है। भुवनेश्वरी देवी भी जप-तप-पुजा-पाठ-उपवास सब आने वाले संतान नरेन्द्र की कल्याण के लिये करती थीं । और काशी-विश्वनाथ के आशीर्वाद से ही बिले का जन्म हुआ था। माँ की शिक्षा से ही बिले में मनुष्यत्व और सद्गुणों का विकास हुआ था। उनकी माँ उन्हें हमेशा सदकर्म करने और सत्य कथन के लिये अनुप्रेरित करती थीं।
29 जनवरी 1894 को जूनागढ़ के दीवान हरिदास बिहारीदास को शिकागो से लिखे पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " यदि मैं सारे संसार में किसी से प्रेम करता हूँ तो वे मेरी माँ हैं। फिर भी मैं विश्वास करता था और अब भी करता हूँ कि यदि मैं संसार-त्याग (घर-परिवार के प्रति मोह का त्याग) नहीं करता तो जिस महान सत्य (जीवशिव-वाद) का उपदेश करने के लिये मेरे गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस अवतीर्ण हुए थे, वह कभी प्रकाशित नहीं हो पाता।
और वे युवक कहाँ से आते जो आधुनिक भौतिकवाद और भोग-विलास की उत्ताल तरंगों को (चरित्र-निर्माण की शिक्षा के प्रचार-प्रसार द्वारा) परकोटे की तरह रोक रहे हैं ? ऐसे राष्ट्र में जहाँ तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पाँच मिनट के लिये भी कोई काम नहीं कर सकते,विशेषतः बंगाल में, एक ऐसे दल का निर्माण करना (विवेकानन्द युवा महामण्डल का निर्माण करना) जो कि परस्पर मत-भेद रखते हुए भी अटल-प्रेम के सूत्र में बँधे हुए हों, क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है ? यह संघ क्रमशः बढ़ता रहेगा, यह अद्भुत उदारता अविरुद्ध गति से सारे भारतवर्ष में फ़ैल जायगी, और यही उदार भाव (जीवशिव-वाद) इस राष्ट्र में संजीवनी शक्ति का संचार करेगा।"
>>>माता के रूप में भारतीय नारी और पाश्चात्य नारी : स्वामीजी ने भारतीय-नारी के विषय में अमेरिका में कहा था, "भारत में स्त्री-जीवन के आदर्श का आरम्भ और अन्त मातृत्व में ही होता है। प्रत्येक हिन्दू के मन में 'स्त्री' शब्द के उच्चारण से मातृत्व का स्मरण हो जाता है, और हमारे यहाँ ईश्वर को माँ कहा जाता है। पश्चिम में स्त्री पत्नी है। यहाँ की गृहस्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय घरों में गृहस्वामिनी और शासिका माता है। पाश्चात्य घरों में यदि माता हो भी, तो उसे पत्नी के अधीन रहना पड़ता है, क्योंकि घर पत्नी का है। हमारे घरों में माता का स्थान ही सर्वोपरि होता है, और पत्नी अनिवार्यतः उसके अधीन रहती है। आदर्शों की इस भिन्नता पर ध्यान देना जरुरी है। यदि आप पूछें " पत्नी के रूप में भारतीय स्त्री का क्या स्थान है ? "
तो भारतीय पूछ सकता है, " माता के रूप में अमेरिकन स्त्री कहाँ है ? " उस तपस्विनी एवं ओजस्विनी माता का, जिसने हमें जन्म दिया है, उसका तुमने क्या सम्मान किया है ? जिसने ९ मास तक अपने पेट में हमारा वहन किया है, जो हमारे जीवन के लिये खर-जुतिया रखती है, यदि हमारे जीवन के लिये प्राणों की भी आहुति देने की अवश्यकता हो, तो बीस बार भी देने को उद्द्त है, वह माता कहाँ है? कोई भी माता कभी अपने बच्चों को अभिशाप नहीं देती, वह सदा क्षमा ही करती है। हम स्वर्गस्थ पिता के बदले सदा 'माता' ही कहते हैं। हमारी माँ ! --यदि हमारी मृत्यु उसके पहले हो, तो हम चाहते हैं, कि मृत्यु के समय पुनः एक बार मेरा सिर उसकी गोद में हो। "( १/३१०)
" जो सचमुच अपनी माँ की पूजा नहीं कर सकता, वह कभी बड़ा नहीं बन सकता। " मैं अपने भीतर ज्ञान का विकास कराने के लिये अपनी माँ का चीर-ऋणी रहूँगा। " बेलुर मठ में आकार जब भुवनेश्वरी देवी 'बिलु' कहकर पुकारती तो उनकी पुकार सुनकर छोटे से ब्च्चे के समान स्वामीजी अपने माँ की चरणधूलि लेते थे। सन्यासी पुत्र की ऐसी मातृ-पूजा माँ को खुश कर देती थी। अपनी माँ के प्रति ऐसी प्रगाढ़ भक्ति ने ही स्वामी विवेकानन्द के चरित्र में नारीजाति के प्रति श्रद्धा का संचार किया था। वही भाव मातृ-साधक श्रीरामकृष्ण के दिव्य सानिध्य में और भी अधिक घनीभूत हो गया था। विवेकानन्द कहते थे, " माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं, परन्तु गुरु हमें मुक्ति-मार्ग दिखाते हैं। 'We are His children, we are born in the spiritual line of the teacher' हम, जगतगुरु श्रीरामकृष्ण की सन्तानें हैं, हम लोगों ने अध्यात्मिक पद्धति चपरास प्राप्त लोक-शिक्षकों की परम्परा में जन्म लिया है।
[NB नोट->"महापुरुषों की जीवनियाँ (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं, पैगम्बरों, गुरुदेव सदृश अवतारों) केवल पढने के लिए नहीं बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए होती हैं ! महान आत्माएं अपना जीवन इसीलिए ही बलिदान करती हैं ताकि हम जैसे लोग उनसे प्रेरणा लें !"] स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश : अद्वैतवेदान्ती, विश्वविख्यात संन्यासी, भारत के प्रथम आध्यात्मिक राजदूत, आधुनिक भारत के चरित्रनिर्माण और मनुष्यनिर्माणकरी धार्मिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के अग्रदूत, आशावादी विचारक, सर्वशिक्षा के पक्षधर, मनुष्यजाति के महान् मार्गदर्शक नेता (सेवक), पूर्व और पश्चिम के सफल समन्वयक, श्रीरामकृष्ण परमहंस के विश्वविख्यात शिष्य, रामकृष्ण मिशन और बेलुड़ मठ के संस्थापक स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी १८६३ को मकर संक्रांति के दिन कोलकाता के कायस्थ-क्षत्रिय परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज वर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) जिले के कालना क्षेत्र के डेरेटोना गाँव के रहने वाले थे।
स्वामीजी का संन्यास ग्रहण करने से पहले का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कोलकाता के प्रसिद्ध वकील थे। माता भुवनेश्वरी देवी को रामायण तथा महाभारत कण्ठस्थ था। स्वामीजी पर माँ का गहरा प्रभाव पड़ा था। आरम्भिक शिक्षा उन्होंने अपनी माता से प्राप्त की। सन् 1879 में उन्होंने मेट्रोपॉलिटन विद्यालय से हाईस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेन्सी महाविद्यालय में प्रवेश लिया। किन्तु मलेरिया बुखार के कारण उत्पन्न व्यवधान से उन्हें इस महाविद्यालय के स्थान पर जेनरल असेंबली महाविद्यालय में प्रवेश लेना पड़ा।
इसी महाविद्यालय से सन् 1881 में एफ.ए. (इण्टर) और सन् 1883 में बी.ए. की परीक्षा पास की। यहाँ उन्होंने संस्कृत साहित्य, अँग्रेजी साहित्य, यूरोप का इतिहास, पाश्चात्य दर्शन, विज्ञान, कला, संगीत और चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन किया। संस्कृत और अँग्रेजी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। स्वामीजी को पढ़ाई के साथ-साथ कुश्ती, बाक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़, तैरना आदि खेलों से प्रेम था और इनमें उन्होंने दक्षता प्राप्त करने का भी प्रयास किया था। उन्हें अभिनय और संगीत से भी गहरा लगाव था।
‘‘हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है जो हमें आत्मविश्वास, राष्ट्रीय आत्म-सम्मान, गरीबों को खिलाने और शिक्षित करने की योग्यता तथा अपने चारों ओर फैले दुःख-दर्द को दूर करने की क्षमता प्रदान करे।... यदि तुम ईश्वर-साक्षात्कार करना चाहते हो तो मनुष्य की सेवा करो।’’
भगिनी निवेदिता को लिखित 7 जून , 1896 का पत्र -
" एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ,वह यह कि अविद्या ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र!हे महान, उठो ! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकती हो ?.... चलते चलते मुझे भेद-प्रभेद सहित सब बातें ज्ञात हो जाती हैं। मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो!
"Religions of the World Have Become Lifeless Mockeries. What the World Wants is Character." Awake, Awake, Great Ones! The World is Burning with Misery. Can 'You' Sleep?
यहाँ पर जगत शब्द से केवल जड़-जगत ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत, स्वर्ग, नरक और वास्तव में जो कुछ भी है, सबको इसके अन्तर्गत लेना होगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का-इत्यादि, इत्यादि। इन सबको लेकर अपना यह जगत निर्मित हुआ है। यह ब्रह्म (a) दी एब्सोल्यूट, (c) टाइम-स्पेस-कॉज़ेशन देश-काल-निमित्त (कारणत्व ; कारण-कार्य संबंध) में से होकर आने से (b) जगत या दी यूनिवर्स बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है।
हम देश-काल-निमित्त रूपी चश्मे से ब्रह्म को देख रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है, वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम नहीं है। और जहाँ सत्ता केवल एक है, वहाँ कार्य-कारणवाद भी नहीं सकता; क्योंकि निमित्त ब्रह्म के नाम-रूप में अधःपतित होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। और हमारी इच्छा, वासना आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। " २/८५
जितनी भी जीवात्माएं हो चुकी हैं या होंगी,सभी वर्तमान काल में हैं -और यदि जड़ जगत की एक उपमा की सहायता लेकर कहें, तो वे सभी दिवंगत या भावी आत्माएँ एक ही ज्यामितीय बिन्दु (जोमेट्रिकल पॉइंट) पर स्थित हैं। चूँकि आत्मा में देश का भाव नहीं रहता, इसलिये जो हमारे थे, वे हमारे हैं, सर्वदा हमारे रहेंगे और सर्वदा हमारे साथ हैं। वे सर्वदा हमारे साथ थे, और हमारे साथ रहेंगे। हम उनमें हैं, वे हममें। निम्नांकित कोषाणुओं (सेल्ज्स) के रेखा-चित्र (डायग्राम) देखो।
इस सिद्धान्त को समग्र जगत पर लागु करने से हम देखते हैं कि 'बुद्धि' ही सृष्टि की प्रभु है, कारण है। इसी सर्वव्यापी, विश्वजनीन 'बुद्धि' का नाम है ईश्वर ! धर्मतत्वज्ञ इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते हैं। मुझसे अनेक बार पूछा गया है, " आप क्यों इस पुराने ईश्वर (god) शब्द का व्यवहार करते हैं ?" … क्योंकि मनुष्य की सारी आशाएं और सुख इसी एक शब्द में केन्द्रित है। अब इस शब्द को बदलना असम्भव है। इस प्रकार के शब्द पहले-पहल बड़े बड़े साधु-महात्माओं द्वारा गढ़े गये थे और वे इन शब्दों के तात्पर्य को अच्छी तरह समझते थे। धीरे धीरे जब समाज में उन शब्दों का प्रचार होने लगा, तब अज्ञ लोग भी उन शब्दों का व्यवहार करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि शब्दों की महिमा घटने लगी। स्मरणातीत काल से 'ईश्वर' शब्द का व्यवहार होता आया है।
... उस पुराने शब्द का ही व्यव्हार करो; मन से अंधविश्वासों को दूर कर, इस प्राचीन शब्द के अर्थ को ठीक तरह से समझकर, उसका और भी उत्तम रूप से व्यव्हार करो। उसको फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो, इतना तो निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी बुद्धि थी। वह विश्वजनीन बुद्धि क्रमसंकुचित हुई थी, और वही क्रमशः अपने को अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण मानव या ईसा-मानव या बुद्ध मानव में परिणत नहीं हो जाती।..... जो कुछ तुम देखते हो, सुनते हो या अनुभव करते हो, सब उसी की सृष्टि है-ठीक कहें, तो उसीका प्रक्षेप है; और भी ठीक कहें, तो सब कुछ स्वयं 'ईश्वर' ही (गॉड,अल्ला,