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"रामकृष्णावतारस्य जन्मतिथितः सत्ययुगस्य आरम्भः अभवत्!"
" रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है !"
"From the date that the Ramakrishna incarnation was born,
has sprung the golden age. "
"রামকৃষ্ণাবতারের জন্মদিন হইতেই সত্যযুগোৎপত্তি হইয়াছে।"
[>>>#1.🔱जिस दिन से महामण्डल' की स्थापना हुई, उसी दिन से सत्य युग लाने की पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ।
From the date that the 'Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal' was established, has sprung the method for bringing the Golden Age.]
स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरुभाई (दक्षिण भारत में काम करने वाले भावी नेता) स्वामी रामकृष्णानन्द [पूर्व नाम शशि भूषण चक्रवर्ती (1863 -1911) वे मद्रास और बैंगलोर में स्थित रामकृष्ण मठ के संस्थापक थे।] को बंगला भाषा में लिखित 1895 में एक पत्र में कहा था - " यह पत्र विशेष रूप से तुम्हारे लिए है। कृपया नीचे लिखे विचारणीय बिन्दुओं को [15 में से 9 अत्यन्त महत्वपूर्ण को] प्रतिदिन एक बार पढ़ना और इसे व्यवहार में लाना। (Please read the below mentioned points of consideration once every day and put them into practice.) अब हमें 'organization' संगठन बनाकर (संघबद्ध होकर) कार्य करने की आवश्यकता है। तुम्हें कुछ थोड़े से आदेशों को देने का मुख्य कारण यह है कि ठाकुरदेव ने मुझे यह दिखलाया है कि तुममें 'organization power ' है। [अर्थात तुममें 'संघ निर्माण शक्ति' (Association formation power) के साथ -साथ उसका 'प्रबंधन शक्ति' (Management power) अर्थात नेतृत्व (मार्गदर्शन) करने की शक्ति है।]। परन्तु उस नेतृत्व क्षमता का अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है। ईश्वर की कृपा से वह शीघ्र हो जायेगा। क्योंकि, तुम अपना 'center of gravity' सन्तुलन-केन्द्र (Poise)# कभी नहीं खोते-; यही उसका प्रमाण है। [#Poise-नारद पानी लाये ? गुरुत्व केन्द्र- गुरुत्व केन्द्र वह बिन्दु है जिससे होकर वस्तु पर लगने वाले कुल गुरुत्वीय बल की क्रिया-रेखा गुजरती है।] किन्तु नेता को 'intensive and extensive' -दोनों होना चाहिए। [अर्थात नेता को 'वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि' -अपने लिए प्रचण्ड वज्र से भी कठोर ह्रदय -अपने लिए और -दूसरों के लिए मातृहृदय जैसा फूल से भी कोमल- विशाल ह्रदय' दोनों होना चाहिए। ]
[এই চিঠি তোমার জন্য লেখা হচ্ছে। তুমি এই উপদেশগুলি রোজ একবার করে পড়বে এবং সেই রকম কাজ করবে। এক্ষণে organization (সঙ্ঘবদ্ধ হইয়া কার্য করা) চাই। তোমাকে আমার এই ক-টি উপদেশ দিবার কারণ এই যে, তোমাতে organization power [(সঙ্ঘ গঠন '- 'Association formation' ও পরিচালন-শক্তি -'Management power' )] আছে — এ-কথা ঠাকুর আমায় বললেন, কিন্তু এখনও ফোটে নাই। শীঘ্রই তাঁর আশীর্বাদে ফুটবে। তুমি যে কিছুতেই centre of gravity (ভারকেন্দ্র) ছাড়িতে চাও না, ইহাই তাহার নিদর্শন, তবে intensive and extensive (গভীর ও উদার) দুই হওয়া চাই।]
1. सभी शास्त्रों का निष्कर्ष यही कि संसार में जो त्रिविध दुःख #हैं , वे नैसर्गिक (natural-असली)-नहीं हैं। इसलिए इन्हें दूर किया जा सकता है।
[# (अविद्या -अस्मिता-राग -द्वेष -अभिनिवेश' आदि पंचक्लेश असली या natural नहीं हैं ?) आधिभौतिक (अर्थात भौतिक कारणों से प्राप्त दुःख)- तो जो कष्ट भौतिक जगत के बाह्य कारणों से होता है उसे आधिभौतिक या भौतिक ताप कहा जाता है। अपने आप को सही और दूसरों को गलत सिद्ध करने के चक्कर में मनुष्य नाना प्रकार के कष्टों को सहन करने के लिए विवश हो जाता है। शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है।आधिदैविक (अर्थात दैवीय कारणों से प्राप्त दुःख) आधिदैविक ताप दैवी शक्तियों द्वारा दिये गये या पूर्वजन्मों में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट कहलाता है।आध्यात्मिक (अर्थात अज्ञानता के फलस्वरूप प्राप्त दुःख) आध्यात्मिक ताप दूर करने के लिए मनुष्य को ईश्वर के समीप जाना चाहिए। भगवद् प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। यम-नियम के साथ-साथ धर्म के नियमों का भी पालन करना चाहिए।]
All the Shâstras hold that the threefold misery that there is in this world is not natural, hence it is removable.
এ জগতে যে ত্রিবিধ দুঃখ আছে, সর্বশাস্ত্রের সিদ্ধান্ত এই যে, তাহা নৈসর্গিক (natural) নহে, অতএব অপনেয়।
2. बुद्ध अवतार में भगवान कहते हैं कि इस अधिभौतिक दुःख का कारण भेद ही है ; अर्थात जन्मगत, गुणगत या धनगत - सब तरह का वर्ग-भेद इन दुखों का कारण है। आत्मा में लिंग (M/F), चार-वर्ण या चार-आश्रम इस इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता , और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता , इसी तरह से भेदभाव से (नानत्व देखने से) एकत्व की प्राप्ति होनी असम्भव है।
2. In the Buddha Incarnation the Lord says that the root of the Âdhibhautika misery or, misery arising from other terrestrial beings, is the formation of classes (Jâti); in other words, every form of class-distinction, whether based on birth, or acquirements, or wealth is at the bottom of this misery. In the Atman there is no distinction of sex (M/F) , or Varna1 or Ashrama, 2 or anything of the kind, and as mud cannot be washed away by mud, it is likewise impossible to bring about oneness by means of separative ideas.
বুদ্ধাবতারে প্রভু বলিতেছেন যে, এই আধিভৌতিক দুঃখের কারণ ‘জাতি’, অর্থাৎ জন্মগত বা গুণগত বা ধনগত সর্বপ্রকার জাতিই এই দুঃখের কারণ। আত্মাতে স্ত্রী-পুং-বর্ণাশ্রমাদি ভাব নাই এবং যে-প্রকার পঙ্ক দ্বারা পঙ্ক ধৌত হয় না, সে-প্রকার ভেদবুদ্ধি দ্বারা অভেদ সাধন হওয়া সম্ভব নহে।
3.- अर्थात " रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है ! "
From the date that the Ramakrishna Incarnation was born, has sprung the Satya-Yuga (Golden Age) . . . .
" রামকৃষ্ণাবতারের জন্মদিন হইতেই সত্যযুগোৎপত্তি হইয়াছে।"
4. अर्थात " रामकृष्ण अवतार में 'नास्तिकतारूप म्लेच्छनिवह' [नास्तिक आतंकवादियों का झुण्ड-हमास ?] ज्ञानरूपी तलवार [जीव ही शिव बोध] से नष्ट होंगे, और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक सूत्र में बँध जायेगा। साथ ही इस अवतार में [महामण्डल संगठन के C-IN-C अवतार में] रजस अर्थात नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। दूसरे शब्दों में, उसका जीवन धन्य है, जो इस अवतार के उपदेश [Be and Make] को व्यवहार में लाये, चाहे वह उन्हें [इस अवतार वरिष्ठ को] स्वयं माने या न माने। "
In this Incarnation atheistic ideas ... will be destroyed by the sword of Jnana (knowledge), and the whole world will be unified by means of Bhakti (devotion) and Prema (Divine Love). Moreover, in this Incarnation, Rajas, or the desire for name and fame etc., is altogether absent. In other words, blessed is he who acts up to His teachings; whether he accepts Him or not, does not matter.
রামকৃষ্ণাবতারে জ্ঞানরূপ অসি দ্বারা নাস্তিকতারূপ ম্লেচ্ছনিবহ ধ্বংস হইবে এবং ভক্তি ও প্রেমের দ্বারা সমস্ত জগৎ একীভূত হইবে। অপিচ এ অবতারের রজোগুণ অর্থাৎ নামযশাদির আকাঙ্ক্ষা একেবারেই নাই, অর্থাৎ যে তাঁহার উপদেশ গ্রহণ করে, সেই ধন্য; তাঁহাকে মানে বা নাই মানে, ক্ষতি নাই।
5. स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है।
There is no chance for the welfare of the world unless the condition of women is improved. It is not possible for a bird to fly on only one wing.
জগতের কল্যাণ স্ত্রীজাতির অভ্যুদয় না হইলে সম্ভাবনা নাই, এক পক্ষে পক্ষীর উত্থান সম্ভব নহে।
6. इसीलिए रामकृष्ण-अवतार में 'स्त्रीगुरु' को ग्रहण किया गया है, इसीलिए उन्होंने स्वयं स्त्री का रूप और भाव धारण कर साधना की और इसी कारण उन्होंने जगत्जननी के रूप का दर्शन नारियों के मातृ-भाव में करने का उपदेश दिया है।
Hence, in the Ramakrishna Incarnation the acceptance of a woman as the Guru, hence His practicing in the woman's garb and frame of mind,3 hence too His preaching the motherhood of women as representations of the Divine Mother.
সেইজন্যই রামকৃষ্ণাবতারে ‘স্ত্রীগুরু’-গ্রহণ, সেইজন্যই নারীভাবসাধন, সেইজন্যই মাতৃভাব-প্রচার।
7. इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों के मठ को स्थापित करने का है। इसी मठ से गार्गी और मैत्रेयि और उनसे भी अधिक योग्यता रखनेवाली स्त्रियों की उत्पत्ति होगी। ....
Hence it is that my first endeavor is to start a Math for women. This Math shall be the origin of Gârgis and Maitreyis, and women of even higher attainments than these. . . .
সেইজন্যই আমার স্ত্রী-মঠ স্থাপনের জন্য প্রথম উদ্যোগ। উক্ত মঠ গার্গী, মৈত্রেয়ী এবং তদপেক্ষা আরও উচ্চতরভাবাপন্না নারীকুলের আকরস্বরূপ হইবে।
8. चालाकी से कोई बड़ा काम पूरा नहीं हो सकता। प्रेम, सत्यानुराग, और महान वीर्य की सहायता से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। 'तत् कुरु पौरुषम्' - इसलिए पुरुषार्थ को प्रकट करो।
(वि ० सा ० खण्ड 4,पृष्ठ-316,317)
No great work can be achieved by humbug. It is through love, a passion for truth, and tremendous energy, that all undertakings are accomplished. तत् कुरु पौरूषम् — Therefore, manifest your manhood.
চালাকি দ্বারা কোন মহৎ কার্য হয় না। প্রেম, সত্যানুরাগ ও মহাবীর্যের সহায়তায় সকল কার্য সম্পন্ন হয়। তৎ কুরু পৌরুষম্ (সুতরাং পৌরুষ প্রকাশ কর)।
9. किसी से लड़ने-झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। Give your message (वेदान्त डिण्डिम) and leave others to their own thoughts. [अपना सन्देश दे दो तथा दूसरों को उनके मतानुसार चलने दो।] सत्यमेव जयते नानृतम् - सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं'; तदा किं विवादेन - फिर बहस में पड़ने की क्या जरूरत ?'
आगे लिखते हैं - 'रामकृष्ण -पोथी' (बंगला पद्य में श्रीरामकृष्ण का जीवन) जो अक्षय [अक्षय कुमार सेन (1854- 1923) ] ने मुझे भेजी , वह बहुत अच्छी है , परन्तु उसके आरम्भ में 'शक्ति' की स्तुति नहीं है , वह उसमें बड़ा दोष है। उससे कहो कि दूसरे संस्करण में इस दोष को दूर कर दे। हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं और लोग हमारे प्रत्येक काम और वचन का निरीक्षण कर रहे हैं। यह स्मरण रखकर काम करो। " (४/३१९)
The Ramakrishna Punthi (Life of Shri Ramakrishna in Bengali verse) that Akshaya has sent is very good, but there is no glorification of the Shakti at the opening which is a great defect. Tell him to remedy it in the second edition. Always bear this in mind that we are now standing before the gaze of the world, and that people are watching every one of our actions and utterances. Remember this and work.
[শাঁকচুন্নী যে ঠাকুরের পুঁথি পাঠাইয়াছে, তাহা পরম সুন্দর। কিন্তু প্রথমে শক্তির বর্ণনা নাই, এই মহাদোষ। দ্বিতীয় edition (সংস্করণ)-এ শুদ্ধ করিতে বলিবে। এই কথা মনে সদা রাখিবে যে, আমরা এক্ষণে জগতের সমক্ষে দণ্ডায়মান। আমাদের প্রত্যেক কার্য, প্রত্যেক কথা লোকে দেখিতেছে, শুনিতেছে — এই ভাব মনে রাখিয়া সকল কার্য করিবে।
[मातृभाव प्रचार : (BR स्कूल में दादा का आदेश) ' শশী, mass (জনসাধারণ)-এর মধ্যে সন্ন্যাসী হওয়া উচিত নয়। শাঁকচুন্নী is the future apostle for the masses of Bengal !' शशि, एक बात समझ लो आम जनता के सामने 'मनुष्य-निर्माण चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' (स्त्रियों के प्रति मातृभाव) का प्रचार-प्रसार करने वाले लोक-शिक्षक (नेता, पैगम्बर) की बाहरी वेशभूषा गेरुआधारी संन्यासी की तरह होना उचित नहीं है ! ' शंखचुन्नी' is the future apostle for the masses of Bengal ! - अर्थात शंखचुन्नी बंगाल की साधारण जनता के लिए भविष्य के 'apostle', भावी नेता (जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर) हैं ! अक्षय से कहना कि अपनी पुस्तक के द्वितीय भाग -'धर्म प्रचार' (विश्वासस्य प्रसारः, "The Propagation of the Faith") में वह निम्नलिखित बातें लिखें :
1 . वेद-वेदान्त तथा अन्य अवतारों ने जो भूतकाल में किया , श्री रामकृष्ण ने उन सबकी साधना एक ही जीवन में कर डाली।
[ 'Whatever the Vedas, the Vedanta, and all other Incarnations have done in the past, Shri Ramakrishna lived to practice in the course of a single life.
‘বেদবেদান্ত, আর আর সব অবতার যা কিছু করে গেছেন, তিনি একলা নিজের জীবনে তা করে দেখিয়ে গেছেন।
2 . वेद-वेदान्त, अवतार और इस प्रकार की अन्य बातों को कोई तबतक समझ नहीं सकता , जबतक वह उनके जीवन को न समझे। क्योंकि उनका जीवन ही उन सब विषयों की व्याख्या है।
' One cannot understand the Vedas, the Vedanta, the Incarnations, and so forth, without understanding his life. For he was the explanation.
তাঁর জীবন না বুঝলে বেদবেদান্ত অবতার প্রভৃতি বোঝা যায় না — কেন না, He was the explanation (তিনি ব্যাখ্যাস্বরূপ ছিলেন)।
3. उनके जन्म की तिथि से सत्ययुग आरम्भ हुआ है। इसलिए अब सब प्रकार भेदों का अन्त है और सब लोग चाण्डाल सहित उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। वे शान्ति के दूत थे - हिन्दू और मुसलमानों का भेद, हिन्दू और ईसाइयों का भेद -सब भूतकाल की बातें हैं। मानप्रतिष्ठा के लिए जो झगड़े होते थे, वे सब अब दूसरे युग से सम्बन्धित हैं। इस सत्ययुग में श्री रामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है।
' From the very date that he was born, has sprung the Satya-Yuga (Golden Age). Henceforth there is an end to all sorts of distinctions, and everyone down to the Chandâla will be a sharer in the Divine Love. And he was the harbinger of Peace — the separation between Hindus and Mohammedans, between Hindus and Christians, all are now things of the past. That fight about distinctions that there was, belonged to another era. In this Satya-Yuga the tidal wave of Shri Ramakrishna's Love has unified all.
তিনি যেদিন থেকে জন্মেছেন, সেদিন থেকে সত্যযুগ এসেছে। এখন সব ভেদাভেদ উঠে গেল, আচণ্ডাল প্রেম পাবে। আর তিনি বিবাদভঞ্জন — হিন্দু-মুসলমান-ভেদ, ক্রিশ্চান-হিন্দু ইত্যাদি সব চলে গেল। ঐ যে ভেদাভেদে লড়াই ছিল, তা অন্য যুগের; এ সত্যযুগে তাঁর প্রেমের বন্যায় সব একাকার।’
अक्षय से कहो कि इन विचारों को वह विस्तार पूर्वक अपनी पद्यात्मक शैली में लिखे।" जो कोई -पुरुष या स्त्री -श्री रामकृष्ण की उपासना करेगा , वह चाहे कितना ही पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जायेगा। एक बात और है , इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे कभी कभी स्त्रियों के समान वस्त्र पहनते थे - वे मानो हमारी जगन्माता जैसे ही थे - इसलिए हमें सब स्त्रियों को उस जगन्माता की मूर्तियाँ माननी चाहिए।
Whoever — man or woman — will worship Shri Ramakrishna, be he or she ever so low, will be then and there converted into the very highest. Another thing, the Motherhood of God is prominent in this Incarnation. He used to dress himself as a woman — he was, as it were, our Mother — and we must likewise look upon all women as the reflections of the Mother.
এই ভাবগুলো তার ভাষায় বিস্তার করে লিখতে বলবে। যে তাঁর পূজা করবে, সে অতি নীচ হলেও মুহূর্তমধ্যে অতি মহান্ হবে — মেয়ে বা পুরুষ। আর এবারে মাতৃভাব — তিনি মেয়ে সেজে থাকতেন, তিনি যেন আমাদের মা — তেমনি সকল মেয়েকে মার ছায়া বলে দেখতে হবে।
भारत में दो बड़ी बुरी बातें हैं। स्त्रियों का तिरस्कार और गरीबों को जातिभेद के द्वारा पीसना। वे स्त्रियों के रक्षक थे, ऊँच -नीच सर्वजनों के 'Saviour' मुक्तिदाता (भ्रमभंजक) थे। और शंखचुन्नी (अक्षय) घर-घर घूमकर उनकी पूजा करवाये; उनकी उपासना सब घरों में प्रचलित कर दे, चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल , पुरुष हो या स्त्री -सबको उनकी पूजा का अधिकार है। जो अपने पूजा घर में घटस्थापना या मूर्ति (छवि) सामने रखकर, मन्त्र जानता हो या नहीं, जिस भाषा में जिसके माध्यम से उनकी प्राणप्रतिष्ठा करवाकर, केवल भक्तिभाव से उनकी पूजा करेगा, वह धन्य जायेगा। उसका सदा के लिए कल्याण हो जायेगा।" ४/३२३ ]
In India there are two great evils. Trampling on the women, and grinding the poor through caste restrictions. He was the Saviour of women, Saviour of the masses, Saviour of all, high and low. And let Akshaya introduce his worship in every home — Brahmin or Chandala, man or woman — everyone has the right to worship him. Whoever will worship him only with devotion shall be blessed for ever.
ভারতে দুই মহাপাপ — মেয়েদের পায়ে দলান, আর ‘জাতি জাতি’ করে গরীবগুলোকে পিষে ফেলা। He was the Saviour of women, Saviour of the masses, Saviour of all high and low.৪ আর শাঁকচুন্নী ঘরে ঘরে তাঁর পূজা করাক। ব্রাহ্মণ, চণ্ডাল, মেয়ে বা পুরুষ — তাঁর পূজায় সকলের অধিকার। যে ঘটস্থাপনা বা প্রতিমা করে তাঁর পূজা করবে — মন্ত্র হোক বা না হোক — যেমন করে যে-ভাষায় যার হাত দিয়ে হোক — খালি ভক্তি করে যে পূজা করবে, সেই ধন্য হয়ে যাবে।
[दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर : रानी रासमणि ने 31 मई, 1855 को दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में देवी-प्रतिष्ठा की थी। देव-सेवा में खर्च के लिए दिनाजपुर जिले में तीन खंड जमींदारी 2.26 लाख में खरीदा था। रानी की अतुल सम्पत्ति का एकाधिकार प्राप्त हो जाने के बाद भी मथुरबाबू का अहंकार से दिमाग नहीं चढ़ना , और ठाकुरदेव के अवतार होने के प्रति अधिकाधिक विश्वास बढ़ते जाना, और 11 वर्ष तक उनकी सेवा में बने रहना -निःसन्देह उनके परम् सौभाग्य का द्योतक है।
ब्राह्मणी का नाम योगेश्वरी था तथा श्रीरामकृष्णदेव उन्हें श्री योगमाया की अंश कहते थे। 1861 में रानी रासमणि के दिवंगत होने के बाद भैरवी ब्राह्मणी श्रीमती योगेश्वरी का दक्षिणेश्वर कालीमंदिर में आगमन हुआ था। 1863 के अन्त तक ठाकुर ने तंत्रोक्त साधनों का अनुष्ठान किया था। [ देखें :@@@वीर भाव/परिच्छेद ~ 25,[( 9 मार्च 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-25 ]
40 वर्ष की भैरवीवेशधारिणी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर आगमन हुआ। ठाकुरदेव ने पूछा - "माँ, मेरे बारे में आपको कौन बताया ? क्या मैं सचमुच पागल हो गया हूँ ?" भैरवी बोलीं - " यह तुम्हारा पागलपन नहीं है , तुम्हारे भीतर महाभाव का उदय हुआ है, इसलिए तुम्हारी ऐसी अवस्था हुई है। श्रीमती राधिका और श्रीचैतन्य कोटि के लोग जब ईश्वर को (परम् सत्य को) ह्रदय से पुकारते हैं , उन सभी को ऐसी अवस्था से गुजरना पड़ता है। "
>>>'Be and Make' - Tantra : गृहस्थाश्रम (तंत्र) एक योग है, अर्थात यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने एक मार्ग (निष्काम कर्मयोग) है - भोग नहीं। एक अरसे से तंत्र (प्रवृत्ति मार्ग) की बड़ी गलत व्याख्या की जा रही है, खास तौर से पश्चिमी देशों में, और इसे उन्मुक्त भोग के रूप में पेश किया जा रहा है।
[# UGC में एच.टी.मजूमदार पढ़ाया जाता है : "विवाह" पुरुष और महिला का एक सामाजिक रूप से स्वीकृत मिलन है या समाज द्वारा पुरुष और महिला के मिलन और संभोग को मंजूरी देने के लिए तैयार की गई एक माध्यमिक संस्था है, जिसका उद्देश्य a) घर स्थापित करना, b) यौन संबंधों में प्रवेश करना c) प्रजनन करना और d) संतानों की देखभाल करना। इसमें हिन्दू विवाह की अनिवार्य पद्धति सात जन्मों तक आत्मिक सम्बन्ध का उल्लेख नहीं है।]
दुर्भाग्य से पश्चिमी देशों में 'तंत्र ' को (विवाह संस्था) या marriage institution in sociology # को एक प्रकार (enjoyment contract) भोग-अनुबन्ध के रूप में इस प्रकार पेश किया जा रहा है कि इसका अर्थ उन्मुक्त भोग है, इसको जब चाहे 'divorce' पैसा देकर तोड़ा जा सकता है। इसका बहुत गलत मतलब निकाला गया है। दुर्भाग्य से पश्चिमी देशों में तंत्र को इस प्रकार पेश किया जा रहा है कि इसका अर्थ उन्मुक्त सेक्स है। इसका बहुत गलत मतलब निकाला गया है। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि तंत्र (Tantra) के बारे में ज्यादातर पुस्तकें उन लोगों ने लिखी हैं, जिनका मकसद बस किताबें बेचना है। वे किसी भी अर्थ में तांत्रिक नहीं हैं। तंत्र का शाब्दिक अर्थ होता है तकनीक (technique) या टेक्नालाजी (technology)। यह मनुष्य बनने की अंदरूनी टेक्नालाजी (internal technology) है।
तंत्र की विधियां आत्मपरक (subjective-व्यक्तिपरक) होती हैं, विषयाश्रित (objective- पंचमकार-परक) नहीं। लेकिन आज-कल समाज में यह समझा जा रहा है कि तंत्र शब्द का अर्थ है परंपरा के विरुद्ध (against tradition) या समाज को मंजूर ना होने वाली (not acceptable to the society) गतिविधियाँ । मगर बात बस इतनी है कि तंत्र में कुछ खास तकनीक का (certain aspects of Tantra) का खास तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है। यह 'योग ' से कतई अलग नहीं है। दरअसल योग के ही एक छोटे-से अंग को तंत्र-योग (Tantra-Yoga) कहा जाता है। विवाह संस्था के माध्यम से अध्यात्म मार्ग में -- अर्थात प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आगे बढ़ने में मैथुन (वंश-विस्तार) को सिर्फ biology या शरीर-विज्ञान की दृष्टि से देखना चाहिए, उसको अलग से कोई दूसरा नाम देने की जरूरत नहीं है।
>>>The simple principle of Tantra-Yoga : तंत्र-योग का सरल सिद्धांत यह है कि जो वस्तुयें आपको मनुष्यत्व से पशुत्व में नीचे गिरा सकता है, वही आपको पशुत्व से मनुष्यत्व में , और फिर मनुष्यत्व से देवत्व में ऊपर भी उठा सकतीं हैं। कोई मनुष्य आम तौर पर जिन कारणों से अपनी जीवन को भोगों में डूबाये रखता है, वह है- आहार, मद्यपान और मैथुन। तंत्र-योग मनुष्य को पशुभाव से ऊपर उठाने के लिए इन्हीं तीन साधनों का उपयोग करता है। लेकिन एक बार कुछ विशेष पदार्थों का (आहार-मदिरा-स्पर्शसुख का) सेवन शुरू कर लेने के बाद, लोगों को एक विशेष अवस्था (certain state-अनासक्त, साक्षी भाव निर्लिप्त अवस्था) में होना होता है, वरना इनकी लत लगते (addicted) देर नहीं लगती।
यदि मद्यपान और मैथुन की आदत को पक्का नहीं होने देना है, अर्थात प्रवृत्ति नहीं बनाना है - तो इसके लिए कड़ा अनुशासन (strict discipline) चाहिए, इतना कड़ा अनुशासन कि ज्यादातर लोगों के लिए इसकी कोशिश करना तक मुमकिन नहीं होता। कोई व्यक्ति जब निष्काम कर्मयोग (विवाह -संस्था में बंधने का) रास्ता चुन लेता और बिना योग्य गुरु के निर्देशन और कड़े अनुशासन को माने बिना मनमाने ढंग से चलता है तो उन 100 में से 99 लोग पियक्कड़ (drunkards) और भोगी बन जाते हैं।
बहरहाल, इसको वाम मार्ग (left-hand tantra) कहा जाता है, जोकि एक अपरिपक्व टेक्नालाजी (immature technology) है जिसमें अनेक कर्मकांड (rituals) होते हैं। एक राइट-हैंड तंत्र भी होता है, जो अत्यंत परिष्कृत टेक्नालाजी (sophisticated technology) है। इन दोनों की प्रकृति बिलकुल अलग है। right-hand system' राइट-हैंड तंत्र अत्यंत अंदरूनी और ऊर्जा पर आधरित होता है, यह पूरी तरह से आपके स्वरुप पर निर्भर है। इससे कोई बाह्य विधि या बाहरी अनुष्ठान नहीं जुड़ा होता है। योग शब्द में ये सब एक साथ शामिल हैं। जब हम 'योग ' कहते हैं, तो किसी भी संभावना (possibility) को नहीं छोड़ते – इसके अंदर सब कुछ है। बस इतना है कि कुछ विकृत (perverted) लोगों ने एक खास तरह का तंत्र अपनाया है, जो विशुद्ध रूप से वाममार्ग (left-handed Tantra) है और जिसमें शरीर का एक विशेष उपयोग होता है। उन्होंने बस इस हिस्से को ले कर उसे बढ़ा-चढ़ा दिया और उसमें तरह-तरह की अजीबोगरीब सेक्स क्रियाएं जोड़ कर किताबें लिख डालीं और कहा, “यही तंत्र है।” नहीं, यह तंत्र नहीं है।
>>>Importance of Tantra Sadhana (तंत्र साधना का महत्त्व)
तंत्र का मतलब होता है कि आप कामों को अंजाम देने के लिए अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल विवेक-पूर्वक किस प्रकार कर सकते हैं। अगर आप अपनी बुद्धि को (विवेक-प्रयोग शक्ति को) इतना धारदार बना लें कि वह हर चीज को आरपार देख-समझ सके, तो यह भी एक प्रकार का तंत्र है।
अगर आप स्वयं को एक 'प्रेममय' मनुष्य में रूपांतरित करने के उद्देश्य से , अपनी आत्मा की शक्ति को अपने ह्रदय का विस्तार करने पर नियोजित कर दें , और आपके ह्रदय में इतना प्रेम उमड़े कि उसमें अपने-पराये का कोई भेद नहीं हो , आप जिस किसी से मिलें - उसी को अपने अनन्त प्रेम सराबोर करने में समर्थ हो गए, तो वह भी एक तंत्र है। अगर आप अपने भौतिक शरीर (physical body) को कमाल के करतब (amazing feats) करने की खातिर तीव्र शक्तिशाली बना लें, तो यह भी तंत्र है। या अगर आप अपनी ऊर्जा (ह्रदय की शक्ति, आत्मिक शक्ति- सर्वग्रासी प्रेम ) को इस काबिल बना लें कि वह शरीर, मन या आसक्ति की भावना का उपयोग किए बिना ये खुद काम कर सके, तो यह भी तंत्र (सिद्धि) है।
तो तंत्र कोई उटपटांग अजूबा (strange wonder) नहीं है। तंत्र एक खास तरह की काबिलियत (special kind of ability) है। उसके बिना कोई संभावना (possibility) नहीं हो सकती। इसलिए सवाल यह है कि आपका तंत्र (3H -system) कितना परिष्कृत (sophisticated) है? अगर आप अपनी ऊर्जा को आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको या तो दस हजार कर्मकांड करने पड़ेंगे या आप यहीं बैठे ऐसा कर सकते हैं। सबसे बड़ा अंतर यही है। सवाल सिर्फ हल्की या ऊंची टेक्नालॉजी (technology) का है, लेकिन तंत्र अपनी आंतरिक ऊर्जा के जीवन में व्यवहार करने का वह विज्ञान है, जिसके बिना कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया नहीं हो सकती।
Tantra is that science, without which no spiritual process can take place.
[साभार -https://isha.sadhguru.org/]
‘भगवति भावना गम्या’ : यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। ‘भगवति भावना गम्या’, ललितासहस्रनाम का यह वचन है। वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अंतर्याग, कुंडलिनी योग, मंत्र-जप आदि भावना का ही तो अभ्यास है।
"Be and Make - तंत्र " की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है। अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है (M/F), वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास (देहाध्यास मुक्त) होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं। जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है।
जो भी भावना हमारे मन में आती (अहं ब्रह्मास्मि !) है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है। भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सबका लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है।
>>>यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है,..... तो लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कुमारी पूजन , कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है।
प्रथम भाव है दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और देवता में भेद नहीं देखता। दिव्य भाव का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति जगदम्बा की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक (देह से अलग आत्मा -चैतन्य) समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है।
दिव्यभाव में स्थित साधक को संसार की प्रत्येक वस्तु या तत्व, शुद्ध तथा परमेश्वर या परमशिव से युक्त या सम्बंधित लगती हैं। अंतिम सोपान कौलाचार या राज-योग ही हैं, साधक साधना के सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर लेता हैं। इस स्तर तक पहुँचने पर साधक सोना और मिट्टी में, श्मशान तथा गृह में, प्रिय तथा शत्रु में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं रखता हैं, उनके निमित्त सब एक हैं, उसे अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं।
दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है। वीर-भाव का मुख्य आधार केवल यह हैं कि! साधक अपने आप में तथा अपने इष्ट देवता में कोई अंतर न समझें। श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त गुरु-प्रशिक्षण परम्परा से प्राप्त मंत्र का अर्थ ही है - ' I am He ' का बार -बार जप करना। तथा साधना में रत रह कर अपने इष्ट देव के समान ही गुण-स्वभाव वाला बने। जिस साधक में अपने नेता /गुरु के प्रति किसी भी प्रकार से कोई शंका नहीं हैं, जो भय मुक्त हैं, निर्भीक हैं, निर्भय हो किसी भी समय कही पर भी चला जाये, लज्जा व कुतूहल से रहित हैं, वेद तथा शास्त्रों के अध्ययन में सर्वदा रत रहता हैं, वह वीर साधन करने का अधिकारी हैं। इसी पञ्च-मकार या पांच तत्व हैं १. मद्य, २. मांस ३. मतस्य ४. मुद्रा तथा ५. मैथुन। में आसक्ति का त्याग करने के मार्ग का अनुसरण कर महर्षि वशिष्ठ ने, नील वर्णा महा-विद्या तारा की सिद्धि प्राप्त की थी।
>>> कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग : विशेष कर स्त्री सेवन में आसक्ति का त्याग करने का मुख्य कारण > स्त्री के प्रति मोह या प्रेम! काम वासना या कामुकता, किसी भी साधन पथ का सबसे बड़ा विघ्न हैं तथा विघ्न से दूर रह कर या कहें तो स्त्री से दूर रहकर इस विघ्न पर विजय नहीं पाया जा सकता हैं। स्त्री-प्रेम में लिप्त मनुष्य, सही और गलत भूल कर, मनमाने तरीके से कार्य करता हैं। स्त्री सेवन में रहते हुए, काम-वासना, प्रेम इत्यादि आसक्ति का आत्म त्याग सर्वश्रेष्ठ माना गया हैं। स्त्री संग से पूर्व स्त्री-पूजन (विवाह से पहले) अनिवार्य हैं तथा स्त्रियों से द्वेष निषेध हैं। स्त्री सेवन या सम-भोग आत्म सुख के लिये करने वाला पापी तथा नरक गामी होता हैं। किसी भी स्त्री को केवल देखकर मन में विकार जागृत होना, साधक के नाश का कारण बनता हैं। कुल-धर्म दीक्षा रहित स्त्री का संग, सर्व सिद्धियों की हानि करने वाला होता हैं।
पूजन, केवल विभिन्न द्रव्यों को देवताओं पर अर्पित करना ही नहीं होता, अपितु देवता के पूर्ण रूप से संतुष्टि होने से भी सम्बंधित हैं। समस्त वस्तु या तत्व परमात्मा द्वारा ही बनायी गई हैं, पंच-मकार मार्ग! समस्त प्रकार के वैभव-भोगो में रत रहते हुए, धीरे-धीरे त्याग का मार्ग हैं। साधक का सदाचारी - चरित्रवान होना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, संस्कार (दीक्षा) विहीन होने पर, गुरु आज्ञा का उलंघन करने पर तथा सदाचार विहीन होने पर साधक पाप का अधिकारी हो पतन की ओर अग्रसर होता हैं। पर-स्त्री गमन , पर-निंदा, से सर्वदा दूर रहाकर! सदाचार पालन अत्यंत आवश्यक हैं। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार मैथुन हेतु सर्वोत्तम स्त्री संग, दीक्षिता तथा देवताओं पर भक्ति भाव रखने वाली, मंत्र-जप इत्यादि देव कर्म करने वाली होना आवश्यक हैं।
>>>पंच-मकार विधि से साधना करने का मुख्य उद्देश्य : पञ्च-मकार साधना केवल मात्र इष्ट देवता की पूजा हेतु विहित हैं न की स्व-तृप्ति या विषय-भोग के लिए, समस्त भौतिक सुखों से पंच-मकार विधि मुक्ति पाने हेतु केवल साधन मात्र हैं। साधारण मनुष्य विषय-भोगो में सर्वदा आसक्त रहता हैं और अधिक प्राप्त करने का प्रयास करता हैं तथा सर्वदा उनमें लिप्त रहता हैं, आदी हो जाता हैं। परन्तु वीराचारी कामिनी-कांचन में आसक्ति से सर्वदा दूर रहता हैं, किसी भी प्रकार से विषय-भोगो में आसक्ति, लिप्त रहने का उसे अधिकार नहीं हैं, सर्वदा ही उसे उन्मुक्त रहना पड़ता हैं, वह आदी नहीं हो सकता हैं। स्त्री संग करने पर साधक पर स्त्री का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये, न मोह न प्रेम। इसी तरह मद्य, मांस तथा मतस्य के सेवन के पश्चात भी, शरीर पर इनका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये, मद्य पान करने पर साधक के शरीर में पूर्ण चेतना रहनी चाहिये।
वास्तव में देखा जाये तो, यह पंच-मकार (प्रवृत्ति मार्ग) मनुष्य के अष्ट पाशों के बंधन से मुक्त होने में सहायक हैं। सर्वश्रेष्ठ विषय भोगो को भोग करते हुए भी, विषय भोगो के प्रति अनासक्ति का भाव, इस मार्ग का चरम उद्देश्य हैं। जब तक मानव पाश-बद्ध, विषय-भोगो के प्रति आसक्त, देहाभिमानी हैं, वह केवल जीव कहलाता हैं, पाश-मुक्त होने पर वह स्वयं शिव के समान हो जाता हैं। वीर-साधना या शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य शिव तथा समस्त जीवों में ऐक्य प्राप्त करना हैं।
यहाँ मानव देह देवालय हैं तथा आत्म स्वरूप में शिव इसी देवालय में विराजमान हैं, अष्ट पाशोंसे मुक्त हुए बिना देह में व्याप्त सदा-शिव का अनुभव संभव नहीं हैं। शक्ति साधना के अंतर्गत पशु भाव, वीर-भाव जैसे साधन कर्मों का पालन कर मनुष्य सफल योगी बन पाता हैं। वीर भाव में अहंकार प्रबल हो उठता है। अहंकार के प्रबल होने के कारण अनेक साधक, साधना से विचलित हो जाते हैं और सिद्धियां कैसे मिलें, इसके फेर में पड़ जाते हैं। इसमें सबसे अधिक सुरक्षित दिव्य भाव है।
तीसरा भाव पशु भाव है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत आवश्यक हैं, अथवा अपनी ही स्त्री में ही रत रहना ब्रह्मचर्य पालन ही समझा जाता हैं। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता।" (पशु भाव) ; जिसके अंतर्गत, दिन में पूजन, प्रातः स्नान, शुद्ध तथा सात्विक आचार-विचार तथा आहार, ब्रह्मचर्य इत्यादि नियम सम्मिलित हैं, मांस-मत्स्यादी से पूजन निषिद्ध हैं। साधना का आरंभ पशु भाव से शुरू होता हैं, तत्पश्चात शनै-शनै साधक सिद्धि की ओर बढ़ता हैं।
"धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः"अर्थः---धर्म से हीन व्यक्ति पशु के समान है । पशु भाव आदि भाव हैं, मनुष्य पशुओं में सर्वश्रेष्ठ तथा सोचने-समझने या बुद्धि युक्त हैं। 'आहार निद्रा भय मैथुनं च,सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।धर्मो हि तेषामधिको विशेष:, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो मनुष्य (इंसान) और पशु में समान है । मानव (इंसान) में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है । जब तक मनुष्य के विवेक-बुद्धि का पूर्ण रूप से विकास ना हो, वह पशु के ही श्रेणी में आता हैं। जिसकी जितनी विवेकी -बुद्धि होगी उसका ज्ञान भी उतना ही श्रेष्ठ होगा। पशु भाव से ही साधन प्रारंभ करने का विधान हैं, यह प्रारंभिक साधन का क्रम हैं, आत्म तथा सर्व समर्पण भाव उदय का प्रथम कारक पशु भाव क्रम से साधना करना हैं। यहाँ भाव निम्न कोटि का माना गया हैं, स्वयं त्रिपुर-सुंदरी, श्री देवी ने अपने मुखारविंद से भाव चूड़ामणि तंत्र में पशु भाव को सर्व-निन्दित तथा सर्व-निम्न श्रेणी का बताया हैं। अपनी साधना द्वारा प्राप्त ज्ञान द्वारा जब अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता हैं, पशुभाव स्वतः ही लुप्त हो जाता हैं। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार (देहध्यास के कारण) आठ प्रकार पाशों या पशुत्व के लक्षणों से बंधा हुआ है; वे अष्ट पाश : अहंकार, घृणा, शंका, भय, लज्जा, कुल, शील तथा जाती। पशु भाव साधन क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता हैं। पशु भाव से साधना प्रारंभ कर अष्ट पाशों, मनोविकारों पर विजय पाकर ही साधक वीर-भाव में गमन का अधिकारी हैं। इस भाव तक आते-आते साधक! अष्ट-पाशों के कारण होने वाले दुष्परिणामों को साधक समझने लगता हैं, परन्तु उनका पूर्ण रूप से वह त्याग नहीं कर पाता हैं, परन्तु करना चाहता हैं।
जन्म से विश्व का प्रत्येक जीव पशुभावप्रधान प्राणी होता है, मनुष्य भी। हमें कालक्रम में उस पशुभाव को देवभाव में बदलना होता है। पहले चरण में जिस मनुष्य का आचार पशुवत है, उन्नत जीवनचर्या और साधना के द्वारा, उसे मनुष्यत्व में बदलता है। इसके बाद वह अपने उस मनुष्यत्व को प्रयासों द्वारा देवत्व में प्रतिष्ठित करता है। पशुत्व से देवत्व में यह जो क्रमोन्नयन है यह जिस पद्धति द्वारा संभव हो सकता है, उसी का नाम 'साधना' 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण है।
कहा गया है कि जन्म से सभी शूद्र हैं, यहां शूद्र का अर्थ है - जिसके अंदर पशु वृत्तियां हैं। मनुष्य जब दीक्षा लेता है अर्थात सीख लेता है कि किस तरह से प्रार्थना करनी है तो ऐसी अवस्था को 'द्विज' कहा गया।
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः |
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः |
द्विज शब्द का अर्थ है, जिसका जन्म दो बार हुआ। इसके बाद शास्त्रों के अध्ययन और सम्यक आध्यात्मिक ज्ञान से वह बनता है विप्र। और अंतिम चरण में तांत्रिकी दीक्षा या मानसिक - आध्यात्मिक साधना की सहायता से ब्रह्मोपलब्धि के बाद होता है ब्राह्माण।
तो क्या जो पशुभाव युक्त मनुष्य है, उसका कोई रक्षक या कल्याणकर्ता नहीं है? निश्चय ही है, क्योंकि परमपुरुष सभी के साथ ही सम भाव से विराजमान होते हैं। मानव देहधारी पशुस्वभाव जीव में भी वे विद्यमान हैं। यह जीव पशु स्वभाव वाला है, इसलिए इनके उपास्य देवता हैं 'पशुपति'। इसके बाद वाले चरण में जब मनुष्य अनुभव से समझता और सीखता है कि उसके लिए करणीय क्या हैं और अकरणीय क्या हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है, तब वह वीरभाव को प्राप्त करता है।
सभी तरह की प्रतिकूलता, बाधा-विपत्ति और परिस्थितियों के विरुद्ध संग्राम करना वीरभाव का द्योतक है। मनुष्यत्व में पहुंचकर साधक के अंदर जब वह वीरभाव जगता है, वह तब मनुष्यत्व विरोधी तत्वों के विरुद्ध संग्राम के लिए उठता है। तंत्र में इस स्तर के साधकों को कहा जाता है 'वीर' और उनके उपास्य देवता को कहा जाता है 'वीरेश्वर'।
तृतीय स्तर में जब साधक पूर्ण रूप से वीरभाव में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह इस संग्राम में भयभीत या पराजित नहीं होता, तब उसमें दिव्यभाव का जन्म होता और उसे 'वीर' की जगह 'देव' कहा जाता है। इस दिव्याचारी साधक के देवता हैं 'महादेव!'
इस तरह साधना के प्रथम चरण में उपास्य हुए 'पशुपति', द्वितीय चरण में वीरेश्वर और तृतीय तथा शेष चरण में 'महादेव'। साधक के मानसिक -आध्यात्मिक स्तर के ही अनुसार उसके उपास्य देवता भी होते हैं।
साधारणत: हम मनुष्य की अभिव्यक्ति को तीन भाग में देखते हैं - (1) मनुष्य मन ही मन चिंतन करता है, (2) मुख से बातें करता है और (3) हाथ पैर से काम करता है। चिंतन करते समय मनुष्य मस्तिष्क के स्नायुकोषों को काम में लगाता है, बात करते समय दोनों होठ काम में आते हैं, और काम करने पर प्राय: पूरे शरीर का ही उपयोग करना पड़ता हे। मनुष्य देहधारी पशु रूपी मनुष्य लक्ष्य कुछ और करते हैं, यानी मन ही मन कुछ और सोचते हैं, मुख से बात दूसरे प्रकार की करते हैं और काम उससे भी अलग तरह से करते हैं। अर्थात उनके चिंतन में, वचन में, और कर्म में कोई संगति नहीं मिलती है।
द्वितीय चरण में वीरभाव के साधकों की चिंतन भावना अवश्य ही बेहतर होती है। उनकी बात में और कार्य में एकरूपता रहती है। वे जैसा सोचते हैं, ठीक वैसा ही बात और काम में तालमेल नहीं मिलता, फिर भी बात में और काम में मेल होता है, अर्थात वे मुख से जो कहते हैं काम भी वैसे ही करते हैं। लेकिन ऐसी संगति सोचने में और कर्म में नहीं होती।
मनुष्य जब देवता में उन्नीत होता है, तब वह जैसा मन में सोचता है, वैसा ही मुख से भी कहता है, और जो मुख से कहता है, उसे ही वह कार्य रूप में भी परिणत करता है। उसके सोचने में, वचन में और कर्म में कहीं कोई असंगति नहीं रह जाती है।
भैरवी अपने इष्टदेव रघुवीर को जब भोग लगाया तब श्रीरामकृष्ण भावावेश में आकर उन खाद्यवस्तुओं को खाने लगे। भैरवी ब्राह्मणी ने ध्यान में देखा की ठाकुर ही रघुवीर हैं। अब उनको बाह्यपूजा की आवश्यकता नहीं रही। उनका पूजन सार्थक हुआ था। ठाकुर के जूठन को प्रसाद समझकर ग्रहण किया। भैरवी ब्राह्मणी दक्षिणेश्वर के देवमण्डल घाट पर रहने लगीं। और मथुरबाबू के सामने उन्होंने ठाकुर को अवतार घोषित कर दिया। वे समझ गयीं कि, गुरु-परम्परा में दीक्षित न होकर केवल अनुराग के सहारे ईश्वरदर्शन करने की चेष्टा से ठाकुर को अपनी उन्नत अवस्था की यथार्थ धारणा नहीं हो पा रही है। - नरेन्द्र का दौड़ते हुए काशीपुर में ठाकुर के पास उपस्थित होना 4 महीने में निर्विकल्प समाधि का आनन्द मिलना। ठाकुर की पंचमुण्डी आसन पर साधना करना शुरू हुआ। विष्णुक्रांता में प्रचलित 64 तंत्रों के साधन में अधिकांश साधक पथभ्रष्ट हो जाते हैं - श्री माँ जगदम्बा की कृपा से ठाकुर उन सभी साधनों में उत्तीर्ण हुए।
स्त्रियों के सम्बन्ध में जगत्जननी बोध की सिद्धि : ब्राह्मणी कहीं से पूर्ण युवती सुन्दर रमणी को बुला लायी , पूजन के बाद विवस्त्र करके देवी के आसन पर बैठाकर मुझसे बोलीं - " बाबा, देवी-बोध से इनका पूजन करो। पूजन के बाद साक्षात् जगत्जननी ज्ञान से इनकी गोद में बैठकर -तन्मय होकर जप करो। " ---उस युवती की गोद में बेठकर समाधिस्थ हो गया। ' जब मुझे बाह्यचेतना आयी ब्राह्मणी बोली तुम सिद्ध हुए हो। मैं कृतज्ञता पूर्ण ह्रदय से माँ जगदम्बा को बारम्बार प्रणाम करने लगा। बाबा अब तुम पूर्णभिषेक क्रिया, सुरतक्रिया और आनन्दासन में सिद्ध होकर दिव्यभाव प्रतिष्ठित हो चुके हो यही इस मत का (वीरभाव का) अन्तिम साधन है। फिर भैरवी को सवा रुपया दक्षिणा द्वारा प्रसन्न करके उनकी सहायता से कालीमन्दिर के सभामण्डप में दिन में सबके समक्ष 'कुलागार' पूजन का विधिवत अनुष्ठान कर मैंने वीरभाव के साधन को पूर्ण किया था। तन्त्रोक्त साधना करते समय स्त्रीजाति के प्रति मेरा मातृभाव अक्षुण्ण था। उसी प्रकार तांत्रिक क्रियाओं में प्रयोग होने वाले 'कारण' - (शराब) का नाम सुनते ही जगत्कारण की उपलब्धि कर विह्वल हो जाता था , तथा 'योनि ' शब्द सुनते ही जगत-योनि का उद्दीपन होने से समाधिस्थ हो जाता था।
गणेशजी का स्त्रीजाति के प्रति मातृभाव की कथा : किशोरावस्था में बिल्ली को घायल किया तो उसके निशान जगन्माता श्री पार्वती के अंगों पर दिखाई दिए। माँ बोली मैं ही बिल्ली आदि समस्त प्राणी के रूप में इस संसार में विचरण कर रही हूँ। स्त्रीरूपधारी सभी प्राणी मेरे अंशभूत हैं, पुरुष रूपधारी प्राणियों का जन्म तुम्हारे पिता के अंश से हुआ है। -शिव तथा शक्ति को छोड़कर इस संसार में और कुछ भी नहीं है।
तंत्रसाधना में विराचारमत के अधिकांश लोग पतित हो जाते हैं। तंत्रों में पशु, वीर और दिव्य भावों का उल्लेख किया गया है। पुनः पुनः अभ्यास के फलस्वरूप ईश्वर की कृपा से समय आने पर वैसे साधक भी दिव्यभाव में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। पंचमकार साधना में स्त्रीग्रहण -कारण ग्रहण आदि साधना का आवश्यक अंग नहीं है। समय के प्रवाह में लोग इसे भूल कर तंत्रशास्त्र को ही दोषी ठहराकर उसकी निंदा करने लगे थे। श्री जगदम्बा कभी कभी शिवारूप (सियारिन का रूप) धारण करती हैं, यह सुनकर उनके उच्छिष्ट भोजन को पवित्र मानकर ग्रहण किया करते थे। ब्रह्मयोनि दर्शन - बृहदाकार अद्भुत ज्योतिर्मय सजीव त्रिकोण दिखाई देता था। 'कुलागार' में स्त्री-योनि में श्री जगदम्बा को साक्षात् अधिष्ठित देखा।
#"रामकृष्णावतारस्य जन्मतिथितः सत्ययुगस्य आरम्भः अभवत्" --उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है? सत्ययुग कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्री रामकृष्ण आये, और समाज में जितने भी न्यायविरोधी, अनैतिक कार्य हो रहे थे वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और जगत के सारे मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ? नहीं, हमारे शास्त्र कहते हैं कि "सतयुग" का प्रारम्भ (या युग-परिवर्तन) तो मनुष्य के विचार जगत में होता है। जैसे "ऐतरेय ब्राह्मण" कहता है -
[कलिः शयानः भवति, संजिहानः तु द्वापरः। उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति, कृतं संपाद्यते चरन्, चर एव इति।।]
सोये रहने (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहने) का नाम है कलिकाल में रहना, जब नींद टूट गयी (डीहिप्नोटाइज्ड
हो गए या स्वप्न भंग हो गया) तो द्वापर में रहना कहेंगे, जब उठ कर खड़े हो गये तब जीवन में त्रेता युग चलने लगता है; फिर जब चलना शुरू कर दिये, तब उसे सत्ययुग में रहना कहते हैं। इसलिये सत्ययुग का लक्ष्ण है, निरन्तर आगे बढ़ना-"चरैवेति चरैवेति।"
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी विवेकानन्द शास्त्र-सम्मत भाव से यही कहना चाह रहे थे कि श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने से पहले मनुष्य गहरी सुषुप्ति में था, अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश ने मनुष्यों को संजीवित (पुनरुज्जीवित) करके, उन्हें मनुष्य-जीवन की महती सम्भावना की ओर आगे बढ़ने के लिये अनुप्रेरित कर दिया है। श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और 'नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति' -["BE AND MAKE " के ५ अभ्यासों ] के अनुसार- मनुष्य अपने आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने (अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने) का संग्राम शुरू कर देता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर चलना शुरू कर देता है- इसी प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है। [क्योंकि सतयुग के लोग (पाशविक प्रवृत्ति में) न तो सोये रहते हैं और न हाथ पर हाथ देकर बैठे रहते हैं। निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। जो चलता है, अर्थात पुरुषार्थ करता है, वही लक्ष्यसिद्धि (मनुष्य जीवन को सार्थक) कर के अपने यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसलिए श्रुति में कहा गया है- "आगे बढ़ो, आगे बढो !"]
ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने स्वयं उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) को अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा व्यक्ति की मानसिक अवस्था के तारतम्य को निर्धारित करने के उद्देश्य से दी गयी है। मनुष्य का मन हर समय एक ही अवस्था में नहीं रहता, कभी बिल्कुल सोया रहता है, कभी जाग्रत जैसा रहता है, या कभी उठकर खड़ा हो जाता है, और उसके बाद चलना शुरू कर देता है।
" श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है " - इस भविष्यवाणी के द्वारा स्वामीजी यही कहना चाहते हैं कि, चिरनिद्रा में सोये हुये हमारे देश ने चलना (आगे बढ़ना या प्रगति करना) शुरू कर दिया है। उनके आगमन के साथ ही साथ सबों के बीच हर प्रकार का अन्तर समाप्त हो गया है। जाति या सम्प्रदाय के आधार पर विभेद-जनित आशान्ति का अवसान हो गया है। एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में रंग-रूप, जाती,भाषा, संप्रदाय, शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, ब्राह्मण-चाण्डाल यहाँ तक स्त्री-पुरुष के बीच भी समस्त प्रकार अन्तर समाप्त हो गया है।
उनका यह कथन वर्तमान के नये उभरते हुए भारत की सम्भावना की ओर इशारा करती है। उनके इस कथन पर हमलोगों को गहराई से चिन्तन करते हुए इसके मर्म को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और यह विश्वास भी करना चाहिये, कि हाँ अब (५ अभ्यास करते हुए अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने के पथ पर) हमलोग सचमुच आगे बढ़ रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन से यह दिखा दिया है, कि ईश्वरीयप्रेम पर शैव, शाक्त, वैष्णव,अथवा हिन्दू, मुसलमान, ईसाई - सभी मनुष्यों का एकसमान अधिकार है; तथा सत्य (निरपेक्ष सत्य) की अनुभूति करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण मात्रा में विद्यमान है। " जिसके फलस्वरूप भविष्य के नये भारत में - हिन्दू, मुसलमान, ईसाई - आदि समस्त सम्प्रदयों के बीच हर प्रकार का विभेद समाप्त हो गया है। इसलिए विभेद-जनित आशान्ति का भी अवसान हो गया है।"
[स्वामीजी ने (एतेरेय ब्राह्मण की) श्रुति-का प्रयोग अपने जीवन पर करके इस बात को निश्चित रूप से जान लिया था, कि यदि हमलोग भी जगतगुरु (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) श्री ठाकुर के चरित्र को केन्द्र में रख कर (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा या "BE AND MAKE " परम्परा में ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण को केन्द्र में रखकर), 'चरैवेति चरैवेति ' करते हुए उनका यथार्थ रूप से अनुसरण करेंगे, तो हमलोगों के जीवन का आमूल परिवर्तन (पशुमानव से मनुष्य में और मनुष्य से देवता में) अवश्यम्भावी रूप से घटित हो जायेगा। ]
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " ब्राह्मण-युग का ज्ञान, क्षत्रिय-युग की सभ्यता और संस्कृति, वैश्य युग का विस्तार या ज्ञान के प्रचार-प्रसार करने की उद्द्य्म एवं शक्ति, एवं शूद्र-युग का साम्यभाव -केवल इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने से ही सत्ययुग के आदर्श राष्ट्र को गठित किया जा सकता है।" अन्यत्र कहा था - " आचार्य शंकर जैसा वेदान्ती मस्तिष्क, बुध के जैसा करुणा पूर्ण हृदय, और इस्लामी भ्रातृभाव का प्रचार योग्य स्वस्थ शरीर (विकसित 3H) -के द्वारा भावी भारत उठ खड़ा होगा।" और इस समन्वय को संभव करने के लिये मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देशों की विवेचना तथा उनका अनुसरण- (अपने आसपास रहने वाले कुछ भाइयों को एकत्र कर के श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा या "BE AND MAKE " परम्परा में ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण को केन्द्र में रखकर, 'चरैवेति चरैवेति ' करते हुए ही नेता का अनुसरण करना।) ही एक मात्र उपाय है।
भारत सरकार के द्वारा 1984 में स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श घोषित कर देने के बाद, तथा महामण्डल द्वारा 55 /56 वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित हो जाने के बाद हिन्दी-भाषी युवा स्वामी विवेकानन्द को तो -'गुरु विवेकानन्द', युवा-मार्गदर्शक नेता विवेकानन्द के रूप में देखने लगा है। किन्तु वह अब भी भगवान विष्णु के अवतार श्री राम (१२ कला), श्री कृष्ण (१६ कला), आदि को तो भगवान का अवतार - समझता है; विवेकानन्द के गुरु- सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शक नेता या "जगत-गुरु" श्री रामकृष्ण परमहंस को 'अवतार-वरिष्ठ' - नहीं समझ सका है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " इस रामकृष्ण अवतार में समस्त प्रकार के नास्तिक विचार 'ज्ञान के तलवार' द्वारा नष्ट कर दिए जायेंगे, तथा सम्पूर्ण जगत भक्ति (उपासना) और प्रेम (डिवाइन लव) के द्वारा एकीकृत हो जायेंगे !" ४/३१७ मनुष्य को केवल श्रद्धा ही नहीं चाहिये, बल्कि उसमें बौद्धिक श्रद्धा (तत्त्वमसि की प्रयोग-गत यथार्थ की अनुभूति) भी रहनी चाहिये । .... यूरोप का उद्धार एक बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है, और वह है 'अद्वैत धर्म' (दी नॉन-डुअलिटी- अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं का बोध) या एकात्मबोध; और निर्गुण-निराकार ईश्वर को प्रतिपादित करने वाला यह वेदान्त ही, एक ऐसा धर्म है -जो किसी बौद्धिक जाति को संतुष्ट कर सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है तभी इसका (अद्वैत श्रीरामकृष्ण का) आविर्भाव होता है।
इस मनुष्य-निर्माण आंदोलन का लक्ष्य होता है -(बौद्धिक श्रद्धा-आस्तिकता या तत्त्वमसि के प्रचारक या परिव्राजक नेताओं के निर्माण द्वारा विश्व-मानव का कल्याण।) उपाय है चरित्र-निर्माण, दिया जलाते ही,
हजार वर्षों का अंधेरा क्षणभर में भाग जाता है। संसार चाहता है-चरित्र, संसार के सभी धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं। सभी धर्मों के अनुयायी मुँह से कहते हैं -मेरा धर्म भी प्रेम-दया-क्षमा ही सिखाता है, किन्तु किसी भी धर्म के अनुयायिओं के आचरण या चरित्र में ये गुण दीखते नहीं हैं ! भारत सरकार ने उनको ही युवा आदर्श (role model प्रेरणा-स्रोत,अनुकरणीय व्यक्ति) घोषित कर, उनके जन्मदिवस १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया है ! अद्वैत या वेदान्त के प्रचारक-नेता हैं, प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा, या लीडरशिप-ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित अद्वैतस्वरूप श्री रामकृष्णदेव के शिष्य परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द ! और उनका आदर्श-वाक्य है - " Be and Make -मनुष्य बनो और बनाओ !"
'परिव्राजक-जीवन" (लोक-शिक्षक या मानव-जाति का मार्गदर्शक नेता) जीवन को अपना लेना"- भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है। हमें चाहिये कि हम अपना सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें । पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसी ही हल्की होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई-बहिनों की देखभाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे हाथ खींचे और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें। ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज में, परिवार, समाज, देश और सम्पूर्ण विश्व में, जिसको माँ-जगदम्बा (श्री श्री माँ सारदा देवी) जितना करने का सैभाग्य प्रदान करे) चरित्र-निर्माणकारी मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा या "BE AND MAKE " का प्रचार-प्रसार करते चलें । युवावस्था के कुसंस्कारों का शमन एवं प्रायश्चित इसी साधना द्वारा होता है। जिस देश, धर्म जाति तथा समाज में उत्पन्न हुए हैं, उनकी सेवा करने का, ऋण मुक्त होने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है । अपने हृदय की वक्रता सीधी करने (या हृदय को 'वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि बनाने ) का सहज उपाय है महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित होकर "BE AND MAKE " का प्रचार-प्रसार में शेष जीवन को सार्थक कर लेना।
रिटायरमेन्ट के बाद (पारिवारिक भरण-पोषण की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाने के बाद) जीवन में जो एक प्रकार का खालीपन महसूस करके होने वाले हर्ट-अटैक से बचने तथा जीवन को ठीक तरह जीने की समस्या भी उसी से हल हो जाती है ।
परिव्राजक का काम है चलते रहना। रुके नहीं, लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, (हिन्दू-मुसलमान, अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित की संकीर्णता में न बन्धे) बल्कि जन-जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ को फैलाए। जो परिव्राजक-नेता या लोक-शिक्षक, लोक-मंगल के लिए संकीणर्ता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख-सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है।
परम देशभक्त स्वामी विवेकानन्द का परिव्राजक जीवन : उन्होंने अपने परिव्राजक जीवन में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते समय तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था। उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे युवाभाई (देशवासी) दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं ! यथार्थ शिक्षा के आभाव ने - अर्थात चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के अभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है।
सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" (स्काईला) तो दूसरी ओर इसीके प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" (चरनबाइडिस) जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। उन्होंने पाया था कि हजार वर्ष की गुलामी तथा पाश्चात्य शिक्षा के दुष्प्रभाव से आधुनिक मनुष्य भारतीय संस्कृति के चार पुरुषार्थों - " धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष" को प्रायः भूल चुका है। तथा केवल " लस्ट और लूकर" (कामिनी- कांचन, वीमेन ऐंड गोल्ड) में आसक्त हो कर पशुतुल्य जीवन जी रहा है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'।
२." संजिहानस्तु द्वापरः"- जब कोई व्यक्ति जगतगुरु श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा के " मान-हूश तो मानुष!",'BE AND MAKE', "चरैवेति चरैवेति", "वाहे गुरुजी का खालसा और वाहेगुरु की फतेह!" आदि महावाक्यों को सुनकर जिसका विवेक जाग उठता है। अर्थात जब वह स्वामी विवेकानन्द को ही अपना गुरु, नेता या आदर्श मान लेता है, और विवेक-दर्शन का अभ्यास (५अभ्यास) करना शुरू देता है! तब एक दिन-उसकी नींद टूट जाती है, उसका स्वप्न-भंग हो जाता है! अर्थात उसके समक्ष "पुरुषार्थ और अहंकार " (आत्मा से प्रेरित निःस्वार्थ कर्म और कर्तापन के "अहंकार" से प्रेरित स्वार्थपूर्ण कर्म) का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।और वह 'पुरुषार्थ' करने के लिये जाग उठता है। पुरुषार्थ करने का अर्थ है क्रमशः स्वार्थी अहं का त्याग कर स्वयं को पशु से मनुष्य और मनुष्य से पूर्णतया निःस्वार्थी 'मनुष्य' (प्रेमस्वरूप-देवमानव) बनते देखना है। तब उसका भाग्य भी जाग जाता है। इसलिये वह मानो द्वापर युग में वास कर रहा होता है।
[ 'पुरुषार्थ' करने का अर्थ: निःस्वार्थ कर्म द्वारा 'अपराप्रकृति (एक्सटर्नल नेचर= करन वाला अहं) और पराप्रकृति (इंटर्नल नेचर= कर्ता वाला अहं)' को वशीभूत कर अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग या 'शिक्षक प्रशिक्षण-पद्धति' को सीखने के लिये महामण्डल के
'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेना।
क्योंकि जिस 'सिंह-शावक' को क्लास नाइंथ से 'भेंड़-शिशु' होने का भ्रम (मृत्यु का भय) परेशान कर था, वह भय महामण्डल रूपी सिंह-गुरु की दहाड़ (श्री ठाकुर-स्वामीजी के महावाक्य) को सुनकर, जिस निर्झर का स्वप्न-भंग हो जाता है,वह 'BE AND MAKE' प्रशिक्षण परम्परा का प्रेमी-प्रशिक्षक, शिक्षक या महामण्डल संगठन का 'दास-नेता' बनकर आजीवन निःस्वार्थ कर्म करता रहता है। क्योंकि अब उसे उस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है कि- 'अविनाशी आत्मा की मृत्यु' तो है ही नहीं ! मृत्यु तो 'अहंकार' की होती है ! ['2H' परिवर्तनशील नश्वर देह-मन को ही मैं समझने वाले भ्रमित-अहं की होती है !]
वह "खतरनाक सत्य" -जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देव- कुलिश अँधा हो गया था; वह अवस्था वास्तव में अतिचेतन अवस्था, या परमसत्य से साक्षात्कार की अवस्था ही थी ! देश-काल- निमित्त के उस पार जाने के बाद भी माँ की इच्छा से, जो वापस देश-काल की सीमा में लौट आता है, केवल 'करण वाला अहं' -नारियल की डाली टूट जाने के बाद भी जैसे उसका एक दाग दीखता है, उसका अहं (2H) भी केवल आत्मा का '3rdH' का निमित्त मात्र होता है !
३." उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति " - " धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष "- इन चारों की प्रेरणा से ही मनुष्य पुरुषार्थ करने के लिये अग्रसर होता है। जब मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द का कोई भक्त या अनुयायी 'BE AND MAKE' परम्परा (या श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा) में "पुरुषार्थ" करने के लिये उठ खड़ा होता है। अर्थात जब वह ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के लिये, कृतसंकल्प होकर
महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का स्वयं निष्ठा पूर्वक पालन करने लगता है, और साथ ही साथ
अपने शहर या गाँव में आस-पास रहने वाले कुछ अन्य युवाओं को भी एकत्र कर, उन्हें भी "BE AND MAKE" के ५ अभ्यासों का पालन करने हेतु अनुप्रेरित करने के लिये, कमर कस कर उठ- खड़ा होता है। तब उसका भाग्य भी उठकर खड़ा हो जाता है। और तब उसके विचार जगत में त्रेता युग का प्रारम्भ हो जाता है।
४." कृतं संपद्यते चरन् "- सत्य-युग को ही कृत-युग भी कहा जाता है। कृत-कृत्य हो जाने का अर्थ है मनुष्य-शरीर प्राप्त करके जो कुछ करने योग्य था सो कर लिया है ! अर्थात 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्राचीन धर्म के सार- 'तत्वमसि' के मर्म को आत्मस्थ करके चरित्रवान मनुष्य (ब्रह्मविद
मनुष्य) बनने और बनाने की पद्धति को सीख लिया है। और अब यदि वह व्यक्ति, समाज में सबसे उपेक्षित समझे जाने वाले -" मछुआ, माली, मोची, मेहतर की झोपड़ियों में, बनिये की दुकान में, भुजवा के भाड़ के पास में,हल द्वारा खेत जोतने वाले किसान के पास में, कारखानों में, हाट में, बाजार में, भारत के कोने कोने में, इसी प्राचीन धर्म के सार - "तत्वमसि " के मर्म को समझने में सहायक- 'BE AND MAKE'
प्रशिक्षण, या " 3H विकास युवा प्रशिक्षण शिविर" द्वारा नया भारत गढ़ने के कार्य में लग जाता है, तब उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है। ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनकर अपने मनुष्य-जीवन को सार्थक कर लेता है ! यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसलिए ऐतरेय श्रुति में कहा गया है-"चरैवेति चरैवेति।" .... अर्थात समाज में आस्तिकता को प्रतिस्थापित करके सत्ययुग की स्थापना करने के लिए - "आगे बढ़ो, आगे बढो!"स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! " इसलिये महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में गोल-घेरे के चारों ओर जो छोटे-छोटे वज्र के निशान अंकित किये गए हैं, वह वास्तव में 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में ५ अभ्यासों द्वारा "पूर्णतया निःस्वार्थी मनुष्यों" का निर्माण करके, धरती पर सतयुग या आस्तिकता (श्रद्धा) को प्रतिस्थापित करने की योजना है!
भगिनी निवेदिता द्वारा निर्मित महामण्डल ध्वज में भी भारत के जुड़वाँ राष्ट्रीय आदर्श -"त्याग और सेवा" में तीव्रता उत्पन्न करने के लिये ही महर्षि दधीचि की हड्डी से बने वज्र के निशान को दर्शाया गया है। (गेरुआ माझे बज्र निशान- आत्माराम की डिबिया!) स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता कहती थीं कि -" निःस्वार्थी मनुष्य थंडरबोल्ट या बज्र के जैसा अप्रतिरोध्य जाता है !" अतः ५ अभ्यास द्वारा जिस 'निर्झर का स्वप्न' एक दिन भंग हो जायेगा वह पूर्ण निःस्वार्थी मनुष्य बनकर, "चरैवेति चरैवेति" करते हुए 'BE AND MAKE' परम्परा में युवा-प्रशिक्षण शिविर द्वारा धरती पर सत्ययुग लाने में सक्षम प्रशिक्षकों का निर्माण करने में जुट जायेगा।
स्वयं ऐसा "मनुष्य" (ब्रह्मविद मनुष्य या नेता) बने - और अपने आसपास रहने वाले अन्य युवाओं को संघबद्ध करके, उन्हें भी महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का प्रशिक्षण देने में समर्थ ऐसा प्रशिक्षक (नेता) बना दे ! जो प्रत्येक युवा को 'थंडरबोल्ट' या वज्र के जैसा निःस्वार्थ मनुष्य बना कर - स्वामी विवेकानन्द के चरित्र-निर्माण एवं मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को एक आन्दोलन के रूप में भारत के कोने-कोने तक पहुँचा देने में समर्थ हो !
नवनी दा कहते थे - " महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में -'Be & Make' वेदान्त परम्परा में महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा 'मनुष्य' (ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य) बनने और बनाने' की सत्यता को आज के युवा एक एक्स्पेरिमेन्टल ट्रूथ या प्रयोग-गत यथार्थ के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं। इसीलिये अब वे १२ जनवरी को केवल एक दिन आवेश-आवेग पूर्ण ढंग से श्रद्धा व्यक्त करके स्वामी विवेकानन्द की जयंती मानाने में विश्वास नहीं करते। बल्कि शिविर से लौटने के बाद, स्वेच्छा से, अपने-अपने गाँव या शहरों में महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों द्वारा 'मनुष्य' (ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य) बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने वाली शाखाएं स्थापित कर रहे हैं। महामण्डल के अविर्भूत होने के ५० वर्षों के भीतर देश-वासियों, विशेषकर युवाओं के विचार-जगत में ऐसा जो परिवर्तन,
'आस्तिकता या सतयुग' स्थापन के प्रति ऐसा जो आग्रह दिखाई दे रहा है। इस परिवर्तन के पीछे,रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान,"महामण्डल" तथा उसके मासिक मुखपत्र "Vivek-Jivan" की भी एक भूमिका अवश्य रही है, ऐसा हमारा विश्वास है ! "
भारत के सैंकड़ों युवाओं को दरिद्रता और अशिक्षा के दलदल में निमज्जित कड़ोड़ो-करोड़ देशवासियों के कल्याण की चिंता से भाव-विह्वल स्वामी विवेकानन्द का संदेश वाहक बनाकर, समस्त प्रकार की आत्म-केन्द्रिकता, भोगविलास और सुख पाने की इच्छा से मुक्त होकर,स्वयं अपने जीवन को ही एक आदर्श मनुष्य (चरित्रवान मनुष्य) का उदाहरण के रूप में गठित करके, कश्मीर से कन्याकुमारी तक "Be & Make" का प्रचार-प्रसार करने में जुट जाना होगा। इस कार्य को दक्षता के साथ रूपायित कर पाने पर ही 'महामण्डल' तथा 'Vivek-Jivan' की सफलता निर्भर करती है। "
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
सोये रहने (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहने) का नाम है कलिकाल में रहना, जब नींद टूट गयी (डीहिप्नोटाइज्ड
हो गए या स्वप्न भंग हो गया) तो द्वापर में रहना कहेंगे, जब उठ कर खड़े हो गये तब जीवन में त्रेता युग चलने लगता है; फिर जब चलना शुरू कर दिये, तब उसे सत्ययुग में रहना कहते हैं। इसलिये सत्ययुग का लक्ष्ण है, निरन्तर आगे बढ़ना-"चरैवेति चरैवेति।"
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी विवेकानन्द शास्त्र-सम्मत भाव से यही कहना चाह रहे थे कि श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने से पहले मनुष्य गहरी सुषुप्ति में था, अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश ने मनुष्यों को संजीवित (पुनरुज्जीवित) करके, उन्हें मनुष्य-जीवन की महती सम्भावना की ओर आगे बढ़ने के लिये अनुप्रेरित कर दिया है। श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और 'नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति' -["BE AND MAKE " के ५ अभ्यासों ] के अनुसार- मनुष्य अपने आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने (अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने) का संग्राम शुरू कर देता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर चलना शुरू कर देता है- इसी प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है। [क्योंकि सतयुग के लोग (पाशविक प्रवृत्ति में) न तो सोये रहते हैं और न हाथ पर हाथ देकर बैठे रहते हैं। निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। जो चलता है, अर्थात पुरुषार्थ करता है, वही लक्ष्यसिद्धि (मनुष्य जीवन को सार्थक) कर के अपने यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसलिए श्रुति में कहा गया है- "आगे बढ़ो, आगे बढो !"]
ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने स्वयं उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) को अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा व्यक्ति की मानसिक अवस्था के तारतम्य को निर्धारित करने के उद्देश्य से दी गयी है। मनुष्य का मन हर समय एक ही अवस्था में नहीं रहता, कभी बिल्कुल सोया रहता है, कभी जाग्रत जैसा रहता है, या कभी उठकर खड़ा हो जाता है, और उसके बाद चलना शुरू कर देता है।
" श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है " - इस भविष्यवाणी के द्वारा स्वामीजी यही कहना चाहते हैं कि, चिरनिद्रा में सोये हुये हमारे देश ने चलना (आगे बढ़ना या प्रगति करना) शुरू कर दिया है। उनके आगमन के साथ ही साथ सबों के बीच हर प्रकार का अन्तर समाप्त हो गया है। जाति या सम्प्रदाय के आधार पर विभेद-जनित आशान्ति का अवसान हो गया है। एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में रंग-रूप, जाती,भाषा, संप्रदाय, शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, ब्राह्मण-चाण्डाल यहाँ तक स्त्री-पुरुष के बीच भी समस्त प्रकार अन्तर समाप्त हो गया है।
उनका यह कथन वर्तमान के नये उभरते हुए भारत की सम्भावना की ओर इशारा करती है। उनके इस कथन पर हमलोगों को गहराई से चिन्तन करते हुए इसके मर्म को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और यह विश्वास भी करना चाहिये, कि हाँ अब (५ अभ्यास करते हुए अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने के पथ पर) हमलोग सचमुच आगे बढ़ रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन से यह दिखा दिया है, कि ईश्वरीयप्रेम पर शैव, शाक्त, वैष्णव,अथवा हिन्दू, मुसलमान, ईसाई - सभी मनुष्यों का एकसमान अधिकार है; तथा सत्य (निरपेक्ष सत्य) की अनुभूति करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण मात्रा में विद्यमान है। " जिसके फलस्वरूप भविष्य के नये भारत में - हिन्दू, मुसलमान, ईसाई - आदि समस्त सम्प्रदयों के बीच हर प्रकार का विभेद समाप्त हो गया है। इसलिए विभेद-जनित आशान्ति का भी अवसान हो गया है।"
जब स्वामीजी यह भविष्य-वाणी कर रहे थे, उस समय उनकी समग्र दृष्टि श्री ठाकुर की अवतार-लीला के भीतर इस प्रकार निबद्ध थी, वे मानो अपनी आँखों के सामने साक्षात् इन्हीं दृश्यों को रूपायित होते देख पा रहे थे ! ठाकुर के जीवन और संदेशों को ठीक से समझकर, उनका अनुसरण करने वाले मनुष्यों के भावी जीवन में आगे जो परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित होने वाला है, उसी घटना को वे इस प्रकार देख रहे थे मानो- " घटना सचमुच घट चुकी है!"
इसके अतिरिक्त उनकी ऋषि दृष्टि के सामने भविष्य भी यदि वर्तमान जैसा स्पष्ट रूप में दिखाई देता हो, तो इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का जीवन हर दृष्टि से इतना परिपूर्ण और उत्कृष्ट था कि उनके पूर्णता-सम्पन्न चरित्र के सामने श्रीकृष्ण और श्रीराम के चरित्र भी फीके पड़ जाते हैं ! इसीलिये उनकी यह भविष्य-वाणी, वर्तमान समय में -भविष्य के नये उभरते हुए भारत की संभावनाओं की ओर इशारा करती है।
अपनी दृष्टि की विभिन्नता के कारण हमलोग श्रीरामकृष्ण को चाहे जिस-भाव से भी क्यों न देखें, उनके जीवन और संदेशों का प्रभाव हमलोगों के जीवन पर पड़ना निश्चित है। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को हमलोग चाहे केवल एक साधारण मनुष्य समझें, नरेन्द्रनाथ के गुरु या कोई महापुरुष समझें, या उनको अवतार समझें, या 'अवतार-वरिष्ठ ' समझें या भगवान समझें - जो भी कुछ क्यों न समझें, हमारे हृदय में उनके प्रति श्रद्धा स्वतः उत्सारित होने को बाध्य है। तथा उस श्रद्धा-भाव में अटलता (perseverance) ही हमलोगों के जीवन के मोड़ को घुमा देगी,( मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी शक्ति के अधोमुखी प्रवाह को उर्ध्व-मुखी या उत्तरायण बना देगी और) हमलोगों को 'मनुष्य' बनाकर ही छोड़ेगी।
श्रीरामकृष्ण देव को हमलोग चाहे अपना मुक्तिदाता माने, या परित्राता (Savior) मानें, या उनको अपना गुरु समझें, या एक अनुकरणीय आदर्श व्यक्ति के रूप में ही क्यों न देखें, हर दृष्टि से वे (श्रीरामकृष्ण) सनातन धर्म के अनन्य सिद्धान्त- 'अनेकता में एकता ' के धारक, वाहक और संस्थापक हैं ! विश्व के समस्त मनुष्यों के समस्त सदगुणों के एक सदा एक समान रहने वाले, 'अचल' समन्वय हैं।
हमलोग सतयुग के आदर्श राष्ट्र (राम-राज्य) की कल्पना करते हैं। हम आशा करते है कि सम्पूर्ण विश्व में एक जाति -'आर्य-जाति' (सभ्य और सुसंस्कृत मनुष्यों) का निवास होगा, एक प्राण, एक बोध की प्रतिष्ठा होगी - अर्थात सभी लोग यह स्वीकार करने लगेंगे कि - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' या 'Each soul is potentially divine !' फिर चारो ओर शान्ति छा जाएगी, चाहे कोई किसी धर्म-पंथ का अनुसरण क्यों न करता हो, सभी आर्य यानि सभ्य- सुसंस्कृत 'मनुष्य' बन जायेंगे-और विश्व के सभी धर्मों में स्थायी रूप से समन्वय स्थापित हो जायेगा। [स्वामीजी ने (एतेरेय ब्राह्मण की) श्रुति-का प्रयोग अपने जीवन पर करके इस बात को निश्चित रूप से जान लिया था, कि यदि हमलोग भी जगतगुरु (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) श्री ठाकुर के चरित्र को केन्द्र में रख कर (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा या "BE AND MAKE " परम्परा में ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण को केन्द्र में रखकर), 'चरैवेति चरैवेति ' करते हुए उनका यथार्थ रूप से अनुसरण करेंगे, तो हमलोगों के जीवन का आमूल परिवर्तन (पशुमानव से मनुष्य में और मनुष्य से देवता में) अवश्यम्भावी रूप से घटित हो जायेगा। ]
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " ब्राह्मण-युग का ज्ञान, क्षत्रिय-युग की सभ्यता और संस्कृति, वैश्य युग का विस्तार या ज्ञान के प्रचार-प्रसार करने की उद्द्य्म एवं शक्ति, एवं शूद्र-युग का साम्यभाव -केवल इस प्रकार का समन्वय स्थापित करने से ही सत्ययुग के आदर्श राष्ट्र को गठित किया जा सकता है।" अन्यत्र कहा था - " आचार्य शंकर जैसा वेदान्ती मस्तिष्क, बुध के जैसा करुणा पूर्ण हृदय, और इस्लामी भ्रातृभाव का प्रचार योग्य स्वस्थ शरीर (विकसित 3H) -के द्वारा भावी भारत उठ खड़ा होगा।" और इस समन्वय को संभव करने के लिये मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देशों की विवेचना तथा उनका अनुसरण- (अपने आसपास रहने वाले कुछ भाइयों को एकत्र कर के श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा या "BE AND MAKE " परम्परा में ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण को केन्द्र में रखकर, 'चरैवेति चरैवेति ' करते हुए ही नेता का अनुसरण करना।) ही एक मात्र उपाय है।
आज भी हमारे देश के विश्वविद्यालयों में जाति-धर्म के नाम पर, या विभिन्न राजनितिक कारणों से वहाँ के छात्र - " भारत तेरे टुकड़े होंगे" जैसे नारे लगाते हैं। इसके फलस्वरूप हमारे वास्तविक जीवन में जो विद्वेष, मतभेद, असमानता आदि दुर्गुण उत्पन्न हो गए हैं, -उसीके घातक परिणाम कश्मीर,पंजाब,अरुणाचल, मणिपुर, आसाम इत्यादि की घटनाओं में दिखाई दे रहे हैं। इन्हें दूर करने का एकमात्र पथ है श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश को, एवं महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में 'परिव्राजक' स्वामी विवेकानन्द की छवि के ऊपर लिखे - "चरैवेति चरैवेति " के अर्थ को- समझ कर; 'उसका' ('BE AND MAKE' वेदान्त परम्परा का) ठीक ठीक प्रचार करना।
जो लोग श्री रामकृष्ण के भक्त या अनुगामी होंगे, उनके लिये अन्य जाति-धर्म के मनुष्यों से विद्वेष करना, किसी मनुष्य के रंग-रूप या धन-दौलत के आधार पर छोटा-बड़ा समझना, या किसी मनुष्य को अपना शत्रु समझ कर उसे आघात पहुँचाना,.... आदि मूर्खतायें करते रहना बिलकुल असंभव हो जायेगा। यदि कोई व्यक्ति एक तरफ तो अपने को, श्री ठाकुर का भक्त या अनुगामी होने का दावा करे, और दूसरी तरफ जाति-धर्म, रंग-रूप के आधार पर घृणा फैलता हुआ भी दिखे; -तो इसीसे सिद्ध हो जायेगा कि वह भले ही और जो कुछ भी हो, किन्तु श्रीरामकृष्ण देव का 'अनुगामी' तो बिल्कुल ही नहीं हैं ! बल्कि वैसे व्यक्ति के लिये तो, अपने मुख से श्री ठाकुर का नाम लेना भी शोभा नहीं देता है।
'रामराज्य' के दिनों की सर्वतोन्मुखी प्रगति, शांति और सुव्यवस्था- को सत्ययुग के नाम से जाना जाता है। जो सत्ययुग के आदर्श-राष्ट्र की परिकल्पना है, वह तभी यथार्थ में बदल सकता है, जब श्रीरामकृष्ण के अनुयायी उनका अनुसरण यथार्थ रूप में करें। और केवल तभी भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण विश्व को पुरुज्जिवित किया जा सकेगा। स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं-" हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! काम में लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा।"
"अब तुमलोगों का काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में में जाकर देश के लोगों को समझा देना होगा कि अब आलस्य के साथ बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-'भाई, अब उठो, जागो, मनुष्य बनने और बनाने के काम में लग जाओ !और कितने दिन सोओगे? और शास्त्र के महान सत्यों को सरल करके उन्हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। काल स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका, तो तुम अब जाकर उन्हें समझा दो कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र में दीक्षित करो।"
यहाँ धर्म का अर्थ है-वैदिक धर्म, जिसके अनुसार सभी जीव एक के ही बहुरूप हैं ! जिसका मूल मन्त्र है- "सर्वं खल्विदं ब्रह्म", "तत्वमसि।" ["समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है, और इस सिद्धांत को इस उपनिषद् के महावाक्य "तत्वमसि" में वाग्बद्ध किया है। (छांदोग्य उपनिषद् 6-8-16)"]
उपनिषदों के इसी ज्ञान को अपना संबल बनाकर भारतमाता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराने के लिये अपने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था- " नूतन भारत बेरुक, बेरुक लांगल धरे, चाषार कुटिर भेद करे, जेले-माला-मूचि-मेथोरेर झूपड़ीर मध्ये होते ! " " एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटी भेदकर, 'मछुआ- माली- मोची- मेहतर' की झोपड़ियों से।" (निकलपड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।")
"नया भारत निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर ! 'मछुआ- माली- मोची- मेहतर' की झोपड़ियों से।" - स्वामी जी के इस कथन का अभिप्राय क्या है ? इस कथन का तात्पर्य यही है कि- अब तक समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले वर्ग या आम लोगों के द्वारा प्राचीन धर्म के सार (तत्वमसि आदि चार महावाक्यों के मर्म) को आत्मस्थ करने के बाद, - नया भारतवर्ष उन्हीं के बीच से उभर कर सामने आएगा ।
[स्वामी जी जानते थे कि भारत तो 'पुण्यभूमि' है - यहाँ जन्म लेने वाली सारी प्रजा तो ऋषि-मुनियों की संतानें हैं, इन्हें (युवाओं को) "चरैवेति चरैवेति " करते हुए (गुरु-शिष्य परम्परा, रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा,नवीन युग की भाषा में 'BE AND MAKE' वेदान्त परम्परा" ) ५ अभ्यास द्वारा लीडर-शिप ट्रेनिंग, के सार 'तत्वमसि' मन्त्र के मर्म को सुनाकर कलियुग की मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा, (अर्थात 3H -मूल H (Heart) में 'विवेक-प्रयोग' द्वारा डीहिप्नोटाइज्ड करना होगा।]
यही 'BE AND MAKE' एवं "चरैवेति चरैवेति " स्वामीजी की अभियान-योजना या समर नीति थी, यही वह कार्य है, जिसे पूरा करने के लिये स्वामीजी भारत के युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं- " हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो! काम में लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा ! (जय गुरुदेव सत्ययुग आयेगा ! - इसको लाने के लिये कमर कस कर उठ खड़े होओ - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्नी बोधत !")]
ऐसा हो जाने से क्या होगा ? यही होगा कि अब सभी जाति -धर्म-भाषा में जन्मे मनुष्यों को केवल 'मनुष्य' होने के नाते ही सम्मान दिया जायेगा! अब हमलोग किसी भी मनुष्य को (जाती-धर्म-भाषा के आधार पर) पराया न समझकर, धर्म के सार - "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" के अनुसार, हर किसी को बिल्कुल अपना समझकर प्रत्येक मनुष्य के साथ प्रेम करने में सक्षम 'मनुष्य' बन जायेंगे।
किन्तु अब भी टी.वी. पर प्रवचन देने वाले जो तथाकथित 'पुरोहित-पण्डे ' निजी स्वार्थवश- 'तत्वमसि' आदि वेदान्त के महावाक्यों को, जन-जन के द्वारा तक ले जाने में बाधा खड़ी कर रहे हैं, उनको बड़े भाई के जैसा झिड़की भरा परामर्श देते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " अतीत के कंकाल-समूहों ! देखो, तुम्हारा उत्तराधिकारी- 'भविष्य का भारत', तुम्हारे समक्ष खड़ा है। तुमलोगों के पास पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं, आजभी तुम्हारी अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली थी !अब अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो। फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ! अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। " तुम " ज्यों ही विलीन होओगे -( अर्थात तुम्हारा कर्तापन का मिथ्या अहंकार ज्योंही विलीन होगा) वैसे ही सुनाई देगी, ' कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पन-कारिणी ' भावी भारत की जागरण-वाणी- "वाहे गुरू जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह! बोले सो निहाल सत श्री अकाल!"
(अर्थात जो कोई भी व्यक्ति " जय श्री ठाकुर" बोल कर 'BE AND MAKE' के अनुसार परिव्राजक नेता बन कर 'चरैवेति चरैवेति' करते हुए ५ अभ्यासों का प्रशिक्षण देने के लिये जगह-जगह घूमना शुरू कर देगा -उस व्यक्ति के जीवन में, उसके विचार-जगत में - सत्ययुग का प्रारम्भ हो जायेगा, और वह निहाल हो जायेगा!)
अतः स्वामी विवेकानन्द का यह 'जयकारा' -वाहे गुरु जी की फतेह!' वास्तव में भारत माता के नेतृत्व में सम्पूर्ण विश्व में सत्ययुग की स्थापना के संकल्प का वहन करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त ये सन्देश -"BE AND MAKE " एवं 'चरैवेति चरैवेति' के ५ अभ्यास
ही आधुनिक युग में चरित्र-निर्माण या लीडरशिप ट्रेनिंग की उपयुक्त पद्धति है। तथा उनका यह कथन कि - " रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है/ 'रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे" ही 'अवतार-वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव के आविर्भाव की अनिवार्यता' को सूचित करता है ! अतः हमलोगों का यह पुनीत कर्तव्य है कि हम स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त उपरोक्त महावाक्यों के मर्म को समझ कर उन्हें क्रियान्वित करने के कार्य में कूद पड़े ! क्योंकि (अच्छे दिन !) अर्थात भारतमाता के भविष्य के गौरव मय दिन बस आने ही वाले हैं। "उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !"
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'रामकृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्' : सतयुग का आधार मनुष्य की खोई हुई श्रद्धा या आस्तिकता को उसे वापस लौटा देना है। जिस सतयुग को, धर्मराज्य या रामराज्य को लाने की हम कामना करते हैं, वह ईश्वर भक्ति के द्वारा, अटूट श्रद्धा या आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के द्वारा ही संभव है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में इस आस्तिकता या श्रद्धा को प्रतिष्ठापित करने हेतु पहला कार्य है, सैकड़ों की संख्या में ऐसे ब्रह्मविद युवाओं, आत्मसाक्षात्कारी,
चरित्रवान मनुष्यों, पैगम्बरों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना। जो अपने जीवन को ही उदाहरण बनाकर समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में सक्षम हों !
और प्रेमस्वरूप भगवान,(अल्ला या गॉड) हर युग में इसी आस्तिकता या धर्म-राज्य को प्रतिष्ठापित करने के लिये युग की आवश्यक्तानुसार, जगतगुरु,अवतार, ईश-दूत, पैगम्बर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता बनकर, विभिन्न स्थानों में- ' श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद' आदि विभिन्न नामों से स्वयं
अवतरित होते रहते हैं। इसलिये 'विष्णु सहस्र नाम'- में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है। भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में छात्रों को "गुरु-गृहवास" करते हुए, उनके अनुकरणीय जीवन से प्रेरणा लेकर, -चरित्रवान मनुष्य, ब्रह्मविद मनुष्य, एक 'अनुकरणीय शिक्षक', या मानव-जाति के मार्गदर्शक 'नेता' बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। इसीलिये प्राचीन भारत सदैव श्रद्धा-सम्पन्न, आस्तिक या आध्यात्मिक बना रहता था, क्योंकि समाज के हर वर्ग में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में समर्थ ब्रह्मविद मनुष्य या नेता (कबीर,नानक, रैदास आदि) उपलब्ध थे!
किन्तु समय के प्रवाह में यह "गुरु-गृह वास" करते हुए , अर्थात 'नेता' (अवतार या ब्रह्मविद गुरु) के सानिध्य में रहते हुए, उनके जीवन से प्रेरणा लेकर स्वयं-" स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनकर दूसरों को भी चरित्र-निर्माण करने के लिए प्रेरित करने वाली प्रशिक्षण पद्धति ", या मानव-जाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने वाली,"नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति' (लीडरशिप ट्रेनिंग मेथड) का लोप हो गया।
भारत इस्लाम का केंद्र बन रहा है और इसका मुख्य भाव सूफ़ीवाद है।
एवं स्वामी विवेकानन्द को सम्पूर्ण विश्व में आस्तिकता (थीइज़म,theism/ईश्वरवाद/ अवतारवाद) का प्रचारक 'नेता' (ब्राह्मणेत्तर जातियों को भी ब्राह्मण बनाने में सक्षम, या खुली आँखों से ध्यान' करने वाला ब्रह्मवेत्ता-मनुष्य,चरित्रवान-मनुष्य, यथार्थ मनुष्य) बनने और बनाने की "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" में, प्रशिक्षण-पद्धति में प्रशिक्षित करने का चपरास दिया था।
" शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी नहीं हो सकते। हम यह कभी न भूलें कि 'शरीर हमारा है' -'हम शरीर के नहीं हैं! ' प्रजापिता ब्रह्मा की तीन संताने देवता, असुर और मनुष्य ने यह सुना कि जो व्यक्ति आत्मा को जान लेता है-वह अमर हो जाता है ? आत्मजिज्ञासु होकर वे किसी महापुरुष (मार्गदर्शक नेता) के पास गए। उन महापुरुष ने उन्हें वेदान्त के चार महावाक्यों को सुनाते हुए कहा - " तुमलोग जिसकी खोज कर रहे हो, वह तो तुम्हीं हो -तत्त्वमसि ! "
एकाग्रता का अभ्यास करते करते एक दिन ज्ञान हुआ - " मैं समस्त मनोवृत्तियों से परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ ! मेरा जन्म नहीं, मेरी मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सूखा सकती, जल नहीं गला सकता,मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान पुरुष हूँ ! आत्मा शरीर या मन नहीं, वह तो इन सबसे परे है। " पर बेचारे असुर को सत्य-लाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यन्त आसक्ति थी।
फिर भी शरीर को स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। हमारे पास ईश्वर लाभ करने का सर्वोत्तम साधन यह शरीर ही है। और सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम प्राणी है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से -यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य श्रेष्ठतर कोई और नहीं है। देवताओं को भी ज्ञान लाभ करने के लिये मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान लाभ करने का अधिकारी है।यहां तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य सभी प्रकार के प्रकार के जीवों की सृष्टि करने के बाद, मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने को कहा। इबलीस को छोड़ कर बाक़ी सबने ऐसा किया, अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। और वह शैतान बन गया। " १/५२व ५४/ श्रीमद्भागवत पुराण (११-९-२८) में भी इस बात के इस प्रकार वर्णन आता है- सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है...
विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण : शरीर में ही परमात्मा हैं, अवश्य हैं, न हो तो अवस्तु ( केवल शरीर-मन '2H' ) को कौन नमस्कार करता है? इस शरीर को ही एक मंदिर के रूप में घोषित किया गया है, और इसमें ही शाश्वत गुरु (सनातन नेता) या आत्मा ही ड्वेलर या निवासक है। शास्त्रों में कहा गया है -
विवेक-प्रयोग करने का सीधा अर्थ है टुकड़े कर देना, न्यारा कर देना ! ज्ञान की तलवार से 'पर' को न्यारा करना या अविद्या की गाँठ को काट देने का कार्य, (गुरुमुख से वेदान्त के चार महावाक्यों का 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' द्वारा होता है।) होता है। अर्थात ज्ञानपूर्वक ही तो होता है, इसलिये कुछ लोग विवेक को ही ज्ञान समझने लगते हैं ! महाभारत में कहा गया है -
सच्चाई यह है कि बिना परमानन्द प्राप्ति हुये कामनायें (लस्ट और लूकर में आसक्ति) जा ही नहीं सकतीं। अतः दोनों साधनायें एक साथ करनी होंगी। अतः कामना त्याग एवं हरि अनुराग साथ-साथ करना है, अर्थात 'BE AND MAKE' साथ साथ करना होगा । इसीलिये जब अर्जुन कहते हैं- मन का वेग तो वायु से भी तीव्र है ! यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं-
अर्थात् संसारी कामनाओं के स्थान पर ईश्वरीय कामनायें बनाने के लिये ५ अभ्यास करना है। यही एकमात्र उपाय है। प्रथम संसार से मन को हटाओ (क्योंकि वहाँ आत्मा का सुख नहीं है) फिर श्री रामकृष्ण में लगाओ (क्योंकि वहाँ सुख ही है)! इस प्रकार बार-बार हटाने एवं लगाने से (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) कुछ काल पश्चात् मन लगने लगेगा। जितना लगने लगेगा, उतना हटने लगेगा। संसारी कामनायें भी (मिथ्या अहं के सुख के लिये नहीं) आत्म-सुख के लिये ही हैं -- जब यह ज्ञान परिपक्व हो जायगा तो लक्ष्य प्राप्त हो जायगा।
फिर उसी प्रशिक्षण-पद्धति में सम्पूर्ण विश्व के युवाओं को प्रशिक्षित करने का चपरास नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को प्रदान करते हुए, ठाकुर ने एक कागज पर लिख दिया था - 'नरेन शिक्षा देगा!' यदि माँ जगदम्बा की यह इच्छा है, कि विश्व-शान्ति को सुनिश्चित करने के लिये भारत माता को महान बन कर पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठाना होगा, और उन्हीं की इच्छा और प्रेरणा से स्वामी विवेकानन्द को पाश्चात्य देशों की यात्रा की थी' तो यह अनिवार्य हो जाता है, कि पहले भारतीय युवाओं को बताया जाए कि 'चपरास प्राप्त लोक-शिक्षकों का निर्माण' करने वाली वह प्रशिक्षण -पद्धति क्या है ?
इसीलिये जगतगुरु श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के मार्दर्शक नेता का अनुसरण, केवल उनकी स्तुति करने या आरती गाने से की जा सकती ! बल्कि ऐसे युग-नेताओं का अनुसरण अपने जीवन को भी उनके साँचे में ढालकर गढ़ने का अभ्यास करने से किया जा सकता है।
इसीलिये स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं- " हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! काम में-[BE AND MAKE में] लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। (जो ज्ञान से नहीं, केवल जन्म से ही ब्राह्मण था, वह अभीतक गीता-उपनिषद या वेदान्त के महावाक्यों पर अपना कॉपीराइट समझता था !) किन्तु समय के प्रवाह में,जब वे और अधिक टिक नहीं सके, तो अब तुमलोग समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले मनुष्यों के बीच जाकर (किसान, मजदूर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरकी झोपड़ियों में, कारखानों में, हाट में, बाजार में जाकर) उन्हें शास्त्र के महान सत्यों ('सर्वं खल्विदं ब्रह्म' "तत्त्वमसि " आदि महावाक्यों) के मर्म को सरल करके समझा दो ! उनमें यह आत्मविश्वास उत्पन्न कर दो, कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र -,"तत्त्वमसि " में दीक्षित करो।"
इस प्रकार जब नया भारतवर्ष,समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले,आम लोगों के बीच से प्राचीन धर्म के सार को - वेदान्त के ४ महावाक्यों को आत्मस्थ करने के बाद उभर कर सामने आयेगा - तो क्या होगा ? यह होगा कि तब समाज में ,जाति-धर्म-भाषा, धनी-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित आदि के आधार पर कोई भेदभाव किये बिना, केवल 'मनुष्य' होने के नाते ही सभी मनुष्यों को सम्मान दिया जायेगा। सभी जाती-धर्म-भाषा के मनुष्यों के साथ, उनको बिल्कुल अपना समझकर, हर किसी से प्रेम करना संभव हो जायेगा। अर्थात सर्वत्र वैदिक साम्यवाद, सत्ययुग, रामराज्य या धर्मराज्य स्थापित हो जायेगा !
इसलिए जिन नर-नारियों की स्थिति इसके लिए उपयुक्त हो, उन्हें महामण्डल द्वारा प्रस्तावित "BE AND MAKE " आन्दोलन के नेतृत्व प्रशिक्षण में "परिव्राजक नेता " बनने और बनाने के कार्य में जुट जाना चाहिए!
इसीलिये पाश्चत्य शिक्षा पद्धति में पढ़ा-लिखा आधुनिक भारतीय युवा (विशेषकर पश्चिम बंगाल से बाहर हिन्दी भाषी प्रदेशों का युवा) - कन्फ्यूज्ड है कि वह भगवान के किस अवतार-रूप को अपना आदर्श या ईश्वर मानकर उसकी भक्ति करे ? या उसका अनुसरण करे ? कोई युग के अनुकूल आदर्श नहीं रहने के फलस्वरूप जैसे-जैसे परिवार,समाज या देश के नेताओं के जीवन में धर्म का अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे राष्ट्रीय-चरित्र का भी पतन होने लगता है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा -यही महानता का एकमात्र रहस्य है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर,और जिन देवी- देवताओं को विदेशियों ने बीच बीच में तुम्हारे भीतर घुसा दिया है; उन सब पर भी यदि तुम्हारी श्रद्धा हो, और अपने आप पर श्रद्धा न हो। तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसी की आवश्यकता है।"
कोई व्यक्ति तुम्हारे जैसा न कभी हुआ था, न है, न कभी आगे हो सकता है। किसी का अँगूठा भी तुम्हारे अँगूठे जैसा नहीं है। आधारकार्ड में जैसी तुम्हारी आँखें हैं, वैसी किसी दूसरे मनुष्य की नहीं हैं। जैसे दुनिया के ७ आश्चर्य कहे जाते हैं, वैसे प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्य जनक है। प्रायः हमलोग दूसरों के 2H से अपनी तुलना करके, अपने को कम या ज्यादा आँक लेते हैं। जबकि हर व्यक्ति अपने आप में अनूठा है। 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है', और सबमें अपनी अपनी श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त कर लेने की क्षमता है। द्वितीयाद्वै भयं भवति (बृ.उप.),वास्तव में डर किसी भी व्यक्ति या वस्तु को 'अपने-आप से' भिन्न मानने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है !
गीता ४-४० में भगवान कहते हैं - 'संशयात्मा विनश्यति।' (अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशय आत्मा विनश्यति) विवेक और श्रद्धा रहित- संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। संशय क्या है? यहाँ संशय का अर्थ डाउट नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अर्थात जो आजीवन अनिर्णय की अवस्था में रहता है कि - '3H' में से कौन सा 'H' मेरा यथार्थ स्वरूप है ? अनिश्चय आत्मा (हिप्नोटाइज्ड आत्मा =बुद्धि) जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम है, जब मन 'यह या वह', इस भांति सोचता है। उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही इनडिसीजन में–टु बी आर नाट टु बी, होऊं या न होऊं, करूं या न करूं ...करते हुए बीत जाती है !
हमें जो कुछ चाहिये वह यह 'श्रद्धा' (आस्तिकता) ही है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है। एकमात्र इस श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य-मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को दुर्बल और छोटा बना देती है।
आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर को मानना। ( अर्थात ईश्वर के सगुण रूप किसी अवतार या पैगम्बर में विश्वास करना।) इसलिए श्रद्धा या आस्तिकता का अर्थ है यह निश्चित रूप से जान लेना कि, युवाओं के आदर्श (मार्गदर्शक नेता या हीरो) स्वामी विवेकानन्द के गुरु भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस आधुनिक युग में केवल ब्रह्म के अवतार ही नहीं, बल्कि 'अवतार वरिष्ठ' हैं। और मेरे हृदय में मेरे भी मार्गदर्शक नेता या गुरु रूप में साक्षात् विराजमान हैं ! क्योंकि " बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता!" इसलिये भारत सरकार ने १९८४ में ही स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवादिवस घोषित कर दिया था। जो मनुष्य युवा अवस्था में ही स्वामी विवेकानन्द को अपने आदर्श (नेता या हीरो) के रूप में चयन नहीं कर पाता, वह आजीवन इंडिजिसन (अनिर्णय) की अवस्था में रहता है, उसका हृदय (Heart) भगवत्प्रेम से रहित, अर्थात शुष्क हो जाता है। और मन (Head) ईश्वर के अवतार को लेकर संशय से भरा हुआ रहता है। और ऐसे विवेक और श्रद्धा रहित- संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसी श्रद्धा या आस्तिकता -- " तुम्हीं ब्रह्म रामकृष्ण -तूँ ही ब्रह्म , तूँ ही राम " -- ही सदाचार की अर्थात 'चरित्र के २४ गुणों' की जननी है।
श्री रामकृष्ण को जगतगुरु (ईश्वर या अवतार वरिष्ठ) मानने का अर्थ है - उनके अनुयायी स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मान कर उनके गुरु या मार्गदर्शक नेता श्री रामकृष्ण के साँचे में अपने जीवन को ढाल कर चरित्रवान मनुष्य (इंसान, नेता, हीरो=ब्रह्मविद मनुष्य) बनना और बनाना। अतः विवेकानन्द का अनुयायी होने का तात्पर्य है, पूज्य नवनी दा द्वारा स्थापित उस संगठन का ' अनुयायी बनना और बनाना'- जो विगत ५० वर्षों से "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा",या " Be and Make" के 'वेदान्तिक-लीडरशिप ट्रेनिंग' परम्परा में ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा, जाति-धर्म-भाषा के आधार पर कोई भेद-भाव किये बिना, भारत के सभी युवाओं को वार्षिक 'ऑल इंडिया यूथ ट्रेनिंग कैम्प ' में 'आदर्श- नेता' (विष्णु भगवान जैसा) मनुष्य, बनने और बनाने का प्रशिक्षण देता चला आ रहा है। महामण्डल के यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद नेता) बनने और बनाने" वाली लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में कोई एक व्यक्ति नहीं, यह 'संगठन' ही हमारा गुरु है! और हम सभी इस संगठन के अनुयायी हैं !
जो मनुष्य सच्चा आस्तिक (या श्रद्धावान) होगा, वह सबमें और सब जगह ( अर्थात सभी धर्म और जाति के मनुष्यों में, तथा मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारा और चर्च में) उसी एक प्रेमस्वरूप श्री रामकृष्ण (अल्ला , ईश्वर गॉड वाहे गुरु जी) की उपस्थिति को देखने में समर्थ हो जायेगा ! इसलिये वह हर किसी से (पत्नी से भी)
निःस्वार्थपूर्ण प्रेम करने में सक्षम हो जायेगा। मनुष्य के भीतर रहने वाले कारण-द्वय, 'मृत्यु का भय और देह में अत्यन्त आसक्ति' (असुरता-पशुता) उसे घोरस्वार्थी एवं निर्लज्ज पशु-मानव बना देते हैं। आज संसार में फैला हुआ सारा अनाचार इसी कारण है कि मनुष्य भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग (निःस्वार्थपरता) और सेवा' को भूल कर घोर स्वार्थी और भोगी बन गया है।
यदि आज युवाओं के जीवन को महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में 'Be & Make ' परम्परा में पूर्ण-निःस्वार्थी मनुष्य, अर्थात 'निवेदिता वज्र'
के समान (অক্ষয়,अविनाशी या Imperishable ) अप्रतिरोध्य मनुष्य रूप में गठित कर दिया जाय। और इस प्रकार 'निवेदिता वज्र ' जैसे चरित्रवान, केवल कुछ सौ युवा भी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता या हीरो बनकर, 'चरैवेति, चरैवेति' करते हुए समाज के सबसे उपेक्षित समझे जाने वाले मनुष्यों में व्यापक स्तर पर
(कारखानों में,बनिये की दुकान में, हाट में, बाजार में,किसान, मजदूर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरकी झोपड़ियों में, सर्वत्र जा- जा जाकर) यदि 'आत्मश्रद्धा', आस्तिकता, विवेक या तत्त्वमसि के मर्म को सरल भाषा में समझाते हुए यदि 'Be & Make ' द्वारा चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचारक बन सकें। तो कुछ ही वर्षों में चिरवांछित - रामराज्य साकार हो उठेगा, और भारत माता पुनः एकबार विश्व-गुरु के गौरवमय सिंहासन पर आरूढ़ हो जायेंगी !
और उस सर्वज्ञ परमात्मा की निष्पक्ष न्यायशीलता का स्मरण रखते हुए हर बुरे काम से बचे, अपना जीवन गठित करे । भारत का कल्याण करने या भारत में सतयुग लाने का उपाय है-चरित्र-निर्माण! अर्थात ऐसे (निःस्वार्थी) ब्रह्मविद मनुष्यों का निर्माण जो खुली आँखों से ध्यान करने में सक्षम हों। और राष्ट्रीय स्तर पर चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा (युवा -प्रशिक्षण) की आधारशिला आस्तिकता ही हो सकती है। और उसी (श्रद्धा या आस्तिक्यबुद्धि के) आधार पर भारत की हर समस्या को सुलझाया जा सकना सम्भव होगा।
अनुयायी होने का तात्पर्य है उसके विचार, निर्देश एवं आदर्श के अनुसार चलना। [ 'चलना' अर्थात 'BE AND MAKE' परम्परा में परिव्राजक बनकर, 'चरैवेति चरैवेति' - करते हुए महामण्डल द्वारा निर्देशित
'चरित्र-निर्माणकारी ५ मूल अभ्यासों' को स्वयं अपने आचरण में उतारने, तथा अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं भी एकत्र करके उन्हें भी ५ अभ्यासों का प्रशिक्षण देनेके द्वारा सम्पूर्ण भारत में सत्ययुग लाने में सक्षम युवा-प्रशिक्षण शिविर में योगदान करना। क्योंकि भगवान श्री रामकृष्ण, माँ श्री श्री सारदा देवी एवं स्वामी विवेकानन्द (पूज्य नवनी दा) जैसे मार्गदर्शक नेताओं का अनुसरण, स्वयं मनुष्य बनने (ब्रह्मविद मनुष्य) का अभ्यास करते हुए, दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता देकर ही की जा सकती है। महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा स्वयं ब्रह्मविद "मनुष्य" बनने और बनाने का प्रशिक्षण (लीडरशिप ट्रेनिंग) देने में समर्थ कुछ 'परिव्राजक-नेताओं' या "लोक-शिक्षकों" के निर्माण द्वारा ही की जा सकती है।
प्रसिद्द अंग्रेजी कहावत है - 'प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर'- अर्थात रोगों का रोकथाम करना उसके इलाज से बेहतर है। रोग होने से पहले ही, रोकथाम करने का सबसे स्थिर उपाय तो यही है कि, ' प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य में ब्रह्म की झाँकी करके उसके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार (एकत्व की अनुभूति) करना सीखे !'
अर्थात हर मनुष्य श्री रामकृष्ण के जीवन और सन्देशों के आलोक में , यह अनुभव करना सीखे कि " ओह, पंचभूते फांदे ब्रह्म पड़े कांदे" (श्री ठाकुर ही पंच भूतों के फन्दों में फंसे हैं, और दुःख से रो रहे हैं! पंच- क्लेशों -'अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष,अभिनिवेश' में फँसे परमेश्वर के दुःख को अपने हृदय में अनुभव करना सीखे।) फिर 'शिव-ज्ञान से जीव-सेवा', 'मान हूँश तो मानुष', 'तत्त्वमसि' के मर्म को समझकर, हर मनुष्य स्वयं दूसरे मनुष्य में 'अव्यक्त ब्रह्म' या सुप्त डिविनिटी की झाँकी करना सीखे, और फिर दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करे !
जो अपने को आस्तिक मानता है उसे यह भी मानना होगा कि वह परम प्रभु परमात्मा का अनुयायी है, उसका प्रतिनिधि है। उनका ऐसा प्रतिबिम्ब है जिसको देखकर परमात्मा के स्वरूप तथा उसके गुण-विशेषताओं का आभास पाया जा सकता है।
ईश्वर में अखण्ड विश्वास रखने वाला सच्चा आस्तिक जीवन में कभी हानि नहीं मानता। एक तो उसे यह विश्वास रहता है कि परमात्मा जो भी सुख, दुःख, अनुग्रह किया करता है उसमें मनुष्य का कल्याण ही निहित रहता है। इसलिए वह किसी हर्ष-उल्लास अथवा कष्ट-क्लेश से प्रभावित नहीं होता। दूसरे परमात्मा के प्रति आस्थावान होने से उसमें संकट सहने की शक्ति बनी रहती है। आस्तिक व्यक्ति परमात्मा का नाम लेकर संकट सहना क्या, उसका नाम लेकर जहर पी जाते और सूली पर चढ़ जाते हैं। मीरा, प्रहलाद, ईसा और मंसूर ऐसे ही आस्तिक थे।
अपने को आस्तिक कहते हुए भी जिसमें भगवद्भक्ति का अभाव है, वह झूठा है, उसकी आस्तिकता अविश्वसनीय है। आस्तिकता के माध्यम से जिसके हृदय में भक्ति भावना का उदय हो जाता है, आनन्द मग्न होकर उसका जीवन सफल हो जाता है। भक्ति का उदय होते ही मनुष्य में सुख-शांति, संतोष आदि के ईश्वरीय गुण फूट पड़ते हैं। भक्त के पास अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति आंतरिक दुःख, क्षोभ, ईर्ष्या का कोई कारण नहीं रहता। भक्त का दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक हो जाता है। उसे संसार में प्रत्येक प्राणी से प्रेम तथा बंधुत्व अनुभव होता है। जन-जन उसका तथा वह जन-जन का होकर लघु से विराट बन जाता है। आठों याम उसका ध्यान प्रभु में ही लगा रहता है। संसार की कोई भी बाधा-व्यथा उसे सता नहीं पाती। वह इसी शरीर में जीवन मुक्त होकर चिदानंद का अधिकारी बन जाता है। यह है आस्तिकता की परिपक्वता का परिणाम।
अखण्ड विश्वास के साथ जब कोई आस्तिक भूत-भविष्य, वर्तमान के साथ अपना संपूर्ण जीवन परमात्मा अथवा उसके उद्देश्योंं को सौंप देता है, तब उसे अपनी जीवन के प्रति किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती। परमात्मा उसके जीवन का सारा दायित्व खुशी-खुशी अपने ऊपर ले लेता है।
चरित्रवान मनुष्यों, पैगम्बरों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना। जो अपने जीवन को ही उदाहरण बनाकर समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में सक्षम हों !
और प्रेमस्वरूप भगवान,(अल्ला या गॉड) हर युग में इसी आस्तिकता या धर्म-राज्य को प्रतिष्ठापित करने के लिये युग की आवश्यक्तानुसार, जगतगुरु,अवतार, ईश-दूत, पैगम्बर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता बनकर, विभिन्न स्थानों में- ' श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद' आदि विभिन्न नामों से स्वयं
अवतरित होते रहते हैं। इसलिये 'विष्णु सहस्र नाम'- में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है। भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में छात्रों को "गुरु-गृहवास" करते हुए, उनके अनुकरणीय जीवन से प्रेरणा लेकर, -चरित्रवान मनुष्य, ब्रह्मविद मनुष्य, एक 'अनुकरणीय शिक्षक', या मानव-जाति के मार्गदर्शक 'नेता' बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। इसीलिये प्राचीन भारत सदैव श्रद्धा-सम्पन्न, आस्तिक या आध्यात्मिक बना रहता था, क्योंकि समाज के हर वर्ग में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में समर्थ ब्रह्मविद मनुष्य या नेता (कबीर,नानक, रैदास आदि) उपलब्ध थे!
किन्तु समय के प्रवाह में यह "गुरु-गृह वास" करते हुए , अर्थात 'नेता' (अवतार या ब्रह्मविद गुरु) के सानिध्य में रहते हुए, उनके जीवन से प्रेरणा लेकर स्वयं-" स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनकर दूसरों को भी चरित्र-निर्माण करने के लिए प्रेरित करने वाली प्रशिक्षण पद्धति ", या मानव-जाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने वाली,"नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति' (लीडरशिप ट्रेनिंग मेथड) का लोप हो गया।
चरित्र का धर्म से (अर्थात आस्तिकता, श्रद्धा से ) गहरा एवं अटूट सम्बन्ध है, क्योंकि धर्म के बिना चरित्र और चरित्र के बिना धर्म कभी कायम नहीं रह सकता। इसलिए मानव समाज में धर्म का विशेष महत्व है, धर्म के बिना मानव-जीवन निष्प्राण एवं पशुतुल्य है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है - "आहार-निद्रा-भय-मैथुनश्च सामान्यम् एतद् पशुभिः नराणाम्। धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषः धर्मेण हीनः पशुभिः समानः॥"--जो मनुष्य "धर्म" अर्थात चरित्र से रहित है, वह किसी जानवर से भिन्न नहीं है!' ( He who is bereft of 'dharma' is no different from a beast./ ही हू इज बिरेफ्ट ऑफ़ 'धर्मा' इज नो डिफ्रेंट फ्रॉम अ बीस्ट!' )
धर्म क्या है ? स्वामी विवेकानन्द धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं - ' मनुष्य में पहले से अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करना ही धर्म है। धर्म वह वस्तु जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। धर्म का रहस्य आचरण (चरित्र या व्यवहार) से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों पर भाषण देने से नहीं। " टू डू गुड ऐंड टू बी गुड " - इज होल ऑफ़ रिलिजन। " -अर्थात "भला बनना और भलाई करना" - इसमें ही समग्र धर्म निहित हैं। धार्मिक मनुष्य वह नहीं, जो केवल 'प्रभु,प्रभु' की रट लगाता है, बल्कि वह है - जो उस परमपिता की इच्छा के अनुसार कार्य (निःस्वार्थ कर्म) करता है ! [समाज में आस्तिकता प्रतिष्ठापित करके चरित्रनिर्माण के कार्य से जुड़ जाता है।]
धर्म और चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश और समाज की व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं जिससे चारो तरफ हाहाकार मच जाता है और देश में हिंसा ,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है। जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है , तब उसके निवारण हेतु मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या किसी चरित्र-निर्माणकारी संगठन का अविर्भूत होना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए समय-समय पर श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, कबीर, नानक, श्री चैतन्य, जगतगुरु श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, शंकराचार्य, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय जैसे महान मार्गदर्शक नेताओं को या 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' जैसे चरित्र-निर्माणकारी संगठनों को अविर्भूत होना ही पड़ता है!
हमलोग श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी में पढ़ते हैं कि मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -अर्थात आस्तिकता को पुनः प्रतिष्ठापित करने में समर्थ गुरु (शिक्षक) बनने और बनाने की साधना के प्रारम्भ में ही श्रीजगन्माता से यह प्रार्थना की थी - " माँ, मुझे क्या करना चाहिये यह मैं कुछ नहीं जानता हूँ; तू मुझे जो सिखायेगी, मैं वही सीखूँगा। " [ जिस सत्य को देखकर देवकुलिश अँधा हो गया था -मैं तो केवल उसी खतरनाक सत्य को खोजने वाला एथेंस का सत्यार्थी हूँ !] श्रीजगदम्बा के बालक श्रीरामकृष्णदेव, तब उनपर पूर्णतया निर्भर होकर उनकी ओर दृष्टि आबद्ध किये अपने दिन बिता रहे थे, तथा वे जहाँ, जैसे उनको घुमा-फिरा रहीं थी, परमानन्दित हो कर वे भी उनका अनुसरण कर रहे थे।
यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं।
यत्र नान्यत्पश्यति, नान्यच्छृणोति, नान्यद्विजानाति, सा भूमाथ
यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति, तदल्पं; यदल्पं तन्मर्त्यम् ।
(छान्दोग्य उप.७-२३,२४)
" जहाँ भूमा है वहाँ 'द्वैत' का भाव नहीं है, क्योंकि द्वैत का भाव तो नाम-रूप से आच्छन्न 'अहं' ही हो सकता है। इसीलिये जहाँ द्वैत का अभाव है, जहाँ 'अहं' नहीं है, 'आमी यंत्र तुमि यंत्री' का भाव है - वहीं अद्वैत है! अहंकार का अर्थ है : अपने को अस्तित्व से पृथक जानना। और परमात्मा के अनुभव का अर्थ है अपने को अस्तित्व (परमसत्य या खतरनाक-सत्य) के साथ एक पाना—एकाकार हो जाना।"
" जिस ज्ञान का अवलंबन करके एक व्यक्ति दूसरे को (जटिला-कुटिला को) देखता है, जानता है, या दूसरों की बातों को सुनता है, वह 'अल्प' है या तुच्छ है ! अर्थात उसमें परमानन्द नहीं है; किन्तु जिस ज्ञान में अवस्थित होकर एक व्यक्ति दूसरे को (मधु-कैटभ को) नहीं देखता है, नहीं जानता है, या दूसरों की वाणी को (कटु-मधुर वचनों को) इन्द्रियगोचर नहीं करता है, -वही 'भूमा' या महान है, उसके सहारे परमानन्द की अवस्थिति होती है। जो सदा सबके भीतर 'विज्ञाता' (जानने वाला) के रूप में विराजमान हैं, उनको किस मन-बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है ? "
उपरोक्त वेदान्त- सिद्धान्तों की सहायता से श्री तोतापुरी ने श्रीरामकृष्णदेव को समाधिस्त करने का प्रयास किया, किन्तु प्रयत्न करने पर भी वे अपने मन को निर्विकल्प न कर सके, यानि नाम-रूप की सीमा से मुक्त न कर सके। तब उन्होंने कहा -"मुझसे ये सम्भव नहीं है, मन को पूर्णतया निर्विकल्प करके आत्मचिंतन करने में असमर्थ हूँ। " तब न्यांगटा (तोतापुरी जी) उत्तेजित होकर तीव्र तिरस्कार करते हुए बोले -" क्यों नहीं होगा ? एक काँच के टुकड़े के नुकीले भाग को उनके भौहों के बीच गड़ाकर बोले -" इस बिन्दु में अपने मन को समेट लो !"
पुनः जब श्री ठाकुर दृढ़संकल्प लेकर ध्यान करने बैठे तथा पहले की भाँति श्रीजगदम्बा की मूर्ति मन में उदित हुई, वैसे उन्होंने ज्ञान को खड़क रूप में कल्पना कर मन को दो टुकड़े कर डाला। फिर मन में कोई विकल्प न रहा; तीव्र गति से उनका मन नाम-रूप के इन्द्रियगोचर जगत के परे चला गया, इन्द्रियातीत भूमि में चला गया और वे समाधि में निमग्न हो गए। तीन दिनों तक वे उसी अवस्था में रहे। यह देखकर श्री तोतापुरी सोचने लगे -" यह कैसी दैवी माया है ? जो अवस्था ४० वर्ष की कठोर साधना से मुझे मिली, उसे इस महापुरुष ने एक ही दिन के भीतर कैसे अपने अधिकार में ले लिया ? " फिर समाधि से व्युत्थान -मंत्र सुनाकर लगातार ११ महीने तक दक्षिणेश्वर में रहते हुए, माँ जगदम्बा के शक्ति-स्वरूप को स्वीकार करने के बाद ही विदा हो सके।
शास्त्रों का कथन है कि अद्वैतभाव की सहायता से अपने " ज्ञानस्वरूप" में पूर्णरूप से अवस्थित होने से पूर्व साधकों को पूर्वजन्म घटनाओं का स्मरण होता है। या किसी किसी व्यक्ति को अद्वैत भाव की परिपक्व अवस्था में पहुँच जाने के बाद भी, इस जन्म के पूर्व जहाँ, जिस रूप में और जितनी बार शरीर धारण कर उन लोगों ने जो भी सुकर्म-दुष्कर्म का अनुष्ठान किया था, उन सारी बातों का उन्हें स्मरण होने लगता है। (१/३७८) विभूतिपाद १८ में कहा गया है -
अर्थात् संस्कारों से साक्षात्कार होने पर पूर्व जन्मों का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि इस जीवन से पूर्व मनुष्य प्रायः सभी प्राणियों की योनि में जन्म ले चुका होता है। उसकी मनः चेतना में उस जानकारी का बहुत कुछ पूर्व ज्ञान बना होता है। अद्वैत में पहुँचे योगियों को विगत जन्मों की कई बातें याद रहती हैं। इसका कारण यह है कि उनका बाह्य जगत से सम्बन्ध उस सीमा तक ही होता है जितना कि उचित है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान मन की तीन अवस्थाओं को स्वीकार करता है- १. जागृत अवस्था २. स्वप्नावस्था ३ . सुषुप्तावस्था। जागृत और सुषुप्तावस्था के बीच की अवस्था स्वप्न की होती है। किन्तु भारतीय मनोविज्ञान कर्म के साथ कर्म-संस्कारों को भी स्वीकार करता है। ये कर्म-संस्कार ही मनुष्य के जीवन को बनाते (सार्थक करते) या बिगाड़ते हैं। हमलोग जो कुछ भी कर्म करते हैं, उसका क्रियापक्ष तो भौतिक(स्थूल) होने के कारण कर्म के साथ ही समाप्त हो जाता है, किन्तु उसका जो सूक्ष्ण प्रभाव हमारे मन के ऊपर पड़ा, वह मानसिक संस्कार के रूप में बच रहता है। ये कर्म-संस्कार हमारे मन के अचेतन में जाकर संचित हो जाते हैं, जहाँ पर पहले से ही जन्मजन्मान्तर के संस्कार दबे पड़े हैं। यह अचेतन ही हमारे मनोरोगों का म्यूजियम (अजायबघर), स्टोरहॉउस या संग्रहालय है। भारतीय मनोविज्ञान अचेतन मन रूपी विशाल संग्रहालय (स्मृति के खजाने) के दो भाग करता है, एक नीचे का भाग जिसमें पूर्वजन्मों के संस्कार संचित हैं और दूसरा -ऊपर का भाग जिसमें वर्तमान जीवन के संस्कार जाकर जमा हो जाते हैं।
स्पष्ट है, मन पड़े हुए संस्कार कभी विनष्ट नहीं होते। अपनी सामर्थ्य के अनुरूप मनुष्य उन्हें पुनः जागृत कर सकता है। स्वप्नावस्था इनके प्रकटीकरण का एक सरल माध्यम है। मन की अनेकों क्रियाओं में स्वप्न भी एक महत्वपूर्ण क्रिया है। सामान्यतः स्वप्न में दो क्रियाएं होती हैं। एक तो बुद्धि व इन्द्रियों का बाह्य जगत् से सम्बन्ध विच्छेद होना तथा दूसरा मन का अंतर्जगत् में विचरण करना। स्वप्नावस्था मन की वह विशेष अवस्था है जिसमें ये दोनों क्रियाएं अनिवार्य रूप से होती हैं। वृहदाण्यकोपनिषद में इसका उदाहरण इस प्रकार दिया गया है कि जिस प्रकार एक बड़ा मगरमच्छ नदी के एक तट से दूसरे तट की ओर आता जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी स्वप्नावस्था में पड़ा हुआ नदी के दोनों किनारों की तरह जागृत और सुषुप्ति के सिरों का स्पर्श करता रहता है। जीवन रूपी प्रवाह के जागृत और सुषुप्ति दो किनारे हैं। स्वप्नावस्था को मध्य धारा कहा जा सकता है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान मनश्चिकित्सा में मनोरोगी के अचेतन को तांत्रिक करके,या सम्मोहन-प्रक्रिया (हिप्नोटिज्म-
पद्धति द्वारा विश्वास अर्जित कर,स्वप्निल स्थिति उत्पन्न करके अचेतन को जगाने की चेष्टा की जाती है। किन्तु इस प्रक्रिया के द्वारा अचेतन खजाने के केवल कुछ ऊपरी हिस्सों को ही जगाया जा सकता है, उसके नीचे के भाग को नहीं। जब तक गहराई में पहुँचकर पूरे अचेतन को ही नहीं जगा दिया जाता, तब तक मन को वश में नहीं लाया जा सकता। और इसी कारण पाश्चात्य मनोविज्ञान मन को पूर्णतया वश में कर लेना असम्भव मानता है।
भारतीय मनोविज्ञान 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' (अष्टांग योग) के ध्यान-धारणा द्वारा एकाग्रता उत्पन्न करके,
इस समूचे अचेतन को, इस खजाने के दोनों भागों को जगाने की पद्धति सामने रखता है, जिससे मनोनिग्रह सध सके। समाधि इस विज्ञान की चरम परिणित है।
अचेतन को पूर्णतया जगाने में समर्थ हो जाने का अर्थ है, अतिचेतन अवस्था में पहुँचकर सम्पूर्ण मन (चेतन-अवचेतन-अचेतन को ही) अपनी पकड़ में ले आना! उसमें जो दिव्य-दर्शन होता है उसे सत्य का साक्षात्कार एवं प्रेमस्वरूप ईश्वर के साथ अद्वैत का स्तर समझा जा सकता है। उस स्थिति में विराट् ब्रह्मांड के सभी रहस्य अपने आप प्रकट होने लगते हैं। चेतना जगत की ब्रह्म सत्ता अपना अन्तराल उस स्थिति में साधक के सामने खोलकर रख देती है। कहने वाले तो इस स्थिति को भी एक विशेष प्रकार का स्वप्न (कभी न भूलने वाला स्वप्न) ही कहते, समझते देखे गये हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जब कोई मनुष्य (साधक) अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है - जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। (अर्थात भय और 'लस्ट और लूकर' में अत्यधिक आसक्ति ही "पंचक्लेष" का मूल है !) पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी (3rd' H की) मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव करलेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा कामिनी-कांचन में आसक्ति' का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ! (इसी देह में ईश्वर या परमसत्य की अनुभूति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)
" शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम (महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास) के द्वारा इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास को वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। " स्वामी विवेकानन्द शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को अभिव्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " हमें ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की
एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं !
तत्त्वदर्शियों ने मन के दो भेद बताये हैं। एक समष्टिगत मन और दूसरा व्यष्टिगत मन। ब्रह्म का मन समष्टिगत है और समस्त प्राणियों का मन व्यष्टिगत। सृष्टि की उत्पत्ति भी ब्रह्म की इच्छा से हुई। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (१०/१२९) में कहा गया है-
अब हमलोग यह समझ सकते हैं, कि सब कुछ भगवच्चरणों में समर्पण कर देने के फलस्वरूप सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त होने के कारण ही, इतने अल्प समय में श्रीरामकृष्णदेव के लिये 'ब्रह्मज्ञान की निर्विकल्प भूमि' (अद्वैत) में आरूढ़ और दृढ़-प्रतिष्ठित होना सम्भव हुआ था। साथ ही अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्तों को जानकर उन्होंने स्पष्ट रूप से अनुभव किया था कि पूर्व पूर्व युगों में 'श्रीराम' तथा 'श्रीकृष्ण' के रूप में आविर्भूत होकर जिन्होंने लोक-कल्याण साधन किया था, वे ही वर्तमान युग में पुनः शरीर धारण कर 'श्रीरामकृष्ण' के रूप में अवतरित हुए हैं।
तब पूर्व जन्म की घटनाओं का स्मरण कर समझ गए कि, वे 'नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाववान' आत्मा (ब्रह्म) के अवतार हैं, तथा वर्तमान युग की धर्मग्लानि दूर कर, लोक-कल्याण साधन के निमित्त (भारत के युवाओं की खोई हुई श्रद्धा या आस्तिकता को लौटा देने के निमित्त) ही श्रीजगदम्बा ने उनको भारत की तात्कालीन राजधानी कोलकाता के दक्षिणेश्वर मन्दिर का निरक्षर-पुजारी बनाया है, और वहाँ के सर्वोच्च शिक्षित लोगों को उनका शिष्य बनाया है।
अद्वैतभावभूमि में आरूढ़ होकर उन्होंने और एक सत्य को हृदयंगम किया था कि अद्वैत भाव में सुप्रतिष्ठित होना ही समस्त साधनों का चरम लक्ष्य है। क्योंकि अद्वैत-भावभूमि में अवस्थित होने के बाद उन्होंने भारत में प्रचलित समस्त मुख्य धर्म-सम्प्रदायों (शाक्त-शैव-वैष्णव-इस्लाम-ईसाई आदि) के मतानुसार साधना करके यही अनुभव किया था कि प्रत्येक धर्मपंथ उसी अद्वैत-भूमि की ओर साधक को अग्रसर करता रहता है। क्योंकि संसार के सभी प्रचलित धर्म प्रेम-दया और क्षमा की शिक्षा देते हैं !
इसीलिये अद्वैत भाव के विषय में पूछने पर वे बारम्बार यही कहते थे -" वह तो अन्तिम बात है रे, अन्तिम बात, ईश्वरप्रेम की चरम परिणति में स्वतः ही एक दिन 'वह' भाव -(तत्त्वमसि का प्रयोगगत यथार्थ का अनुभव), साधक के जीवन में आकर उपस्थित होता है। उन समस्त मतों के अनुसार 'अद्वैत या तत्त्वमसि' का अनुभव हो जाना अन्तिम बात है, एवं -'जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !" (सभी मत अद्वैत तक पहुँचने के ही पथ हैं !)
इस प्रकार से अद्वैत भाव की उपलब्धि कर लेने के बाद,श्रीरामकृष्णदेव के हृदय में अपूर्व उदारता और सहानुभूति का उदय हुआ। जो कोई धर्म-सम्प्रदाय -" ईश्वरप्राप्ति को ही मानवजीवन का चरम लक्ष्य" मानकर शिक्षा प्रदान करते हैं, उन सभी सम्प्रदायों के प्रति उनमें अपूर्व सहानुभूति का उदय हुआ था। किसी को धर्म के विषय पक्षपात करते देख कर उन्हें महान कष्ट होता था, तथा उस हीनबुद्धि को दूर करने के लिये वे हमेशा सचेष्ट रहते थे।
की जीवनी (लीलाप्रसंग) में पढ़ते हैं, " एक दिन वे विष्णु-मन्दिर के बरामदे में बैठकर श्रीमद्भागवत की कथा सुन रहे थे। सुनते सुनते भावाविष्ट हो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के जीवन्त रूप का दर्शन हुआ। तदन्तर उस मूर्ति के चरणों से रस्सी की तरह एक ज्योति निकली, जिसने पहले श्रीमद्भागवत को स्पर्श किया, उसके बाद उनके वक्षस्थल में संलग्न होकर तीनों वस्तुओं को कुछ देर के लिये बाँधे रखा। श्री ठाकुर कहते थे कि ' भागवत (शास्त्र -जीवन नदी के हर मोड़ पर), भक्त (बीके) और भगवान (अवतार-एनदा)' -तीनों भिन्न रूप से प्रकट रहते हुए भी एक ही हैं, अथवा एक ही वस्तु के तीन रूप हैं! (लीला०प्र० १/३५६)
इस-प्रकार 'एक ही वस्तु के तीन रूप हैं ' - भावसाधना की पराकाष्ठा में भावराज्य की इस चरमभूमि में पहुँच जाने के बाद, श्रीरामकृष्ण देव का मन स्वाभाविक रूप से भावातीत अद्वैत भूमि की ओर आकृष्ट होने लगा। क्योंकि भाव (इन्द्रियगोचर) तथा भावातीत (इन्द्रियातीत) राज्य: ये दोनों सदा परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध से बन्धे हुए हैं ! इन्द्रियातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द (परमानन्द) ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य (मानवरूप में) दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त होकर हमारी बुद्धि को भ्रमित करता रहता है! १/३६४
ठीक इसी समय माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्री ठाकुर को वेदान्त श्रवण कराने के लिये ब्रह्मज्ञ श्री तोतापुरी जी दक्षिणेश्वर पधारते हैं। वे श्रीरामकृष्ण का निरीक्षण करने के बाद उनसे पूछते हैं -" तुम उत्तम अधिकारी प्रतीत हो रहे हो, क्या तुम वेदान्त साधना करना चाहते हो ?"
श्रीठाकुर - "करने न करने के बारे में मैं कुछ नहीं जानता -मेरी माँ सब कुछ जानती हैं, उनका आदेश मिलने पर कर सकता हूँ !"
श्री तोतापुरी - " तो फिर जाओ, अपनी माँ से पूछकर जवाब दो; क्योंकि दीर्घकाल तक मैं यहाँ नहीं ठहरूँगा।"
श्री ठाकुर श्रीजगदम्बा के मन्दिर में उपस्थित हुए और भावाविष्ट अवस्था में माँ को बोलते सुना - " जाओ सीखो, तुम्हें सिखाने के लिये ही इस संन्यासी का आगमन यहाँ हुआ है।"
हर्षोत्फुल्ल होकर श्री ठाकुर श्री तोतापुरी जी के समीप पहुँचे तथा माँ की अनुमति मिलने की बात कही। श्रीरामकृष्णदेव मन्दिर में प्रतिष्ठित देवी को ही प्रेम वश माँ कह रहे हैं, इस सरलता पर वे मोहित तो हुए किन्तु सोचे उनका यह आचरण अज्ञता और कुसंस्कार जन्य है ! क्योंकि श्री तोतापुरी जी की तीक्ष्ण बुद्धि वेदान्त-प्रतिपादित कर्मफल-प्रदाता ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी देव-देवी के सम्मुख सिर नहीं झुकाती थी। तथा त्रिगुणात्मिका ब्रह्म-शक्ति माया तो केवल भ्रम मात्र है, ऐसी धारणा रखने वाले श्री तोतापुरी जी उनके व्यक्तिगत अस्तित्व में विश्वास करना और उनकी उपासना करना वे अनावश्यक समझते थे। एवं लोग भ्रान्त संस्कारवश ही ऐसा किया करते होंगे, ऐसा उनका मत था।
विरजाहोम आदि संस्कार के बाद ब्रह्मज्ञ तोतापुरी जी ने श्रीरामकृष्णदेव को 'श्रीरामकृष्ण' नाम प्रदान किया और वेदान्त प्रतिपादित 'नेति नेति ' उपाय का अवलंबन कर, उन्हें अपने ब्रह्मस्वरूप में अवस्थित होने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा -" नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव, देश-काल (शरीर-मन या नाम-रूप) आदि द्वारा सर्वदा अपरिच्छिन्न एकमात्र ब्रह्मवस्तु (आत्मा 3rd'H) ही सदा सत्य (अपरिवर्तनशील-निरपेक्ष सत्य) है ! अघटन-घटन-पटियसी माया अपने प्रभाव से उनको नाम-रूप के द्वारा खण्डितवत् प्रतीत कराने पर भी वे (आत्मा) कभी उस प्रकार नहीं हैं ; क्योंकि समाधि-अवस्था में मायाजनित देश-काल या नाम-रूप की किँचिन्मात्र भी उपलब्धि नहीं होती है। अतः नाम-रूप की सीमा के भीतर जो कुछ अवस्थित है, वह कभी नित्य नहीं हो सकता, उसको दूर से त्याग दो। नाम-रूप से बने लोहे के पिंजड़े को 'सिंह-विक्रम' से भेदकर बाहर निकल आओ ! अपने हृदय में अवस्थित आत्मतत्व के अन्वेषण में डूब जाओ ! समाधि के सहारे उसमें अवस्थित रहो; ऐसा करने पर देखोगे कि उस समय यह 'नामरूपात्मक-जगत' न जाने कहाँ विलुप्त हो चुका है। उस तुच्छ अहं-बोध (करन अहं और कर्ता अहं दोनों) न जाने कहाँ विलुप्त हो चूका है। उस समय तुच्छ अहं-ज्ञान बिराट (आत्मा या ब्रह्म) में लीन व स्तब्ध हो जायेगा, तथा अखण्ड सच्चिदानन्द को अपना स्वरूप साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष कर सकोगे ! " (वही १/३७०)
यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं।
यत्र नान्यत्पश्यति, नान्यच्छृणोति, नान्यद्विजानाति, सा भूमाथ
यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति, तदल्पं; यदल्पं तन्मर्त्यम् ।
(छान्दोग्य उप.७-२३,२४)
" जिस ज्ञान का अवलंबन करके एक व्यक्ति दूसरे को (जटिला-कुटिला को) देखता है, जानता है, या दूसरों की बातों को सुनता है, वह 'अल्प' है या तुच्छ है ! अर्थात उसमें परमानन्द नहीं है; किन्तु जिस ज्ञान में अवस्थित होकर एक व्यक्ति दूसरे को (मधु-कैटभ को) नहीं देखता है, नहीं जानता है, या दूसरों की वाणी को (कटु-मधुर वचनों को) इन्द्रियगोचर नहीं करता है, -वही 'भूमा' या महान है, उसके सहारे परमानन्द की अवस्थिति होती है। जो सदा सबके भीतर 'विज्ञाता' (जानने वाला) के रूप में विराजमान हैं, उनको किस मन-बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है ? "
उपरोक्त वेदान्त- सिद्धान्तों की सहायता से श्री तोतापुरी ने श्रीरामकृष्णदेव को समाधिस्त करने का प्रयास किया, किन्तु प्रयत्न करने पर भी वे अपने मन को निर्विकल्प न कर सके, यानि नाम-रूप की सीमा से मुक्त न कर सके। तब उन्होंने कहा -"मुझसे ये सम्भव नहीं है, मन को पूर्णतया निर्विकल्प करके आत्मचिंतन करने में असमर्थ हूँ। " तब न्यांगटा (तोतापुरी जी) उत्तेजित होकर तीव्र तिरस्कार करते हुए बोले -" क्यों नहीं होगा ? एक काँच के टुकड़े के नुकीले भाग को उनके भौहों के बीच गड़ाकर बोले -" इस बिन्दु में अपने मन को समेट लो !"
पुनः जब श्री ठाकुर दृढ़संकल्प लेकर ध्यान करने बैठे तथा पहले की भाँति श्रीजगदम्बा की मूर्ति मन में उदित हुई, वैसे उन्होंने ज्ञान को खड़क रूप में कल्पना कर मन को दो टुकड़े कर डाला। फिर मन में कोई विकल्प न रहा; तीव्र गति से उनका मन नाम-रूप के इन्द्रियगोचर जगत के परे चला गया, इन्द्रियातीत भूमि में चला गया और वे समाधि में निमग्न हो गए। तीन दिनों तक वे उसी अवस्था में रहे। यह देखकर श्री तोतापुरी सोचने लगे -" यह कैसी दैवी माया है ? जो अवस्था ४० वर्ष की कठोर साधना से मुझे मिली, उसे इस महापुरुष ने एक ही दिन के भीतर कैसे अपने अधिकार में ले लिया ? " फिर समाधि से व्युत्थान -मंत्र सुनाकर लगातार ११ महीने तक दक्षिणेश्वर में रहते हुए, माँ जगदम्बा के शक्ति-स्वरूप को स्वीकार करने के बाद ही विदा हो सके।
शास्त्रों का कथन है कि अद्वैतभाव की सहायता से अपने " ज्ञानस्वरूप" में पूर्णरूप से अवस्थित होने से पूर्व साधकों को पूर्वजन्म घटनाओं का स्मरण होता है। या किसी किसी व्यक्ति को अद्वैत भाव की परिपक्व अवस्था में पहुँच जाने के बाद भी, इस जन्म के पूर्व जहाँ, जिस रूप में और जितनी बार शरीर धारण कर उन लोगों ने जो भी सुकर्म-दुष्कर्म का अनुष्ठान किया था, उन सारी बातों का उन्हें स्मरण होने लगता है। (१/३७८) विभूतिपाद १८ में कहा गया है -
३.१८ संस्कार-साक्षात्कार करणात् पूर्वजाति ज्ञानम् ।।
अर्थात् संस्कारों से साक्षात्कार होने पर पूर्व जन्मों का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि इस जीवन से पूर्व मनुष्य प्रायः सभी प्राणियों की योनि में जन्म ले चुका होता है। उसकी मनः चेतना में उस जानकारी का बहुत कुछ पूर्व ज्ञान बना होता है। अद्वैत में पहुँचे योगियों को विगत जन्मों की कई बातें याद रहती हैं। इसका कारण यह है कि उनका बाह्य जगत से सम्बन्ध उस सीमा तक ही होता है जितना कि उचित है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान मन की तीन अवस्थाओं को स्वीकार करता है- १. जागृत अवस्था २. स्वप्नावस्था ३ . सुषुप्तावस्था। जागृत और सुषुप्तावस्था के बीच की अवस्था स्वप्न की होती है। किन्तु भारतीय मनोविज्ञान कर्म के साथ कर्म-संस्कारों को भी स्वीकार करता है। ये कर्म-संस्कार ही मनुष्य के जीवन को बनाते (सार्थक करते) या बिगाड़ते हैं। हमलोग जो कुछ भी कर्म करते हैं, उसका क्रियापक्ष तो भौतिक(स्थूल) होने के कारण कर्म के साथ ही समाप्त हो जाता है, किन्तु उसका जो सूक्ष्ण प्रभाव हमारे मन के ऊपर पड़ा, वह मानसिक संस्कार के रूप में बच रहता है। ये कर्म-संस्कार हमारे मन के अचेतन में जाकर संचित हो जाते हैं, जहाँ पर पहले से ही जन्मजन्मान्तर के संस्कार दबे पड़े हैं। यह अचेतन ही हमारे मनोरोगों का म्यूजियम (अजायबघर), स्टोरहॉउस या संग्रहालय है। भारतीय मनोविज्ञान अचेतन मन रूपी विशाल संग्रहालय (स्मृति के खजाने) के दो भाग करता है, एक नीचे का भाग जिसमें पूर्वजन्मों के संस्कार संचित हैं और दूसरा -ऊपर का भाग जिसमें वर्तमान जीवन के संस्कार जाकर जमा हो जाते हैं।
स्पष्ट है, मन पड़े हुए संस्कार कभी विनष्ट नहीं होते। अपनी सामर्थ्य के अनुरूप मनुष्य उन्हें पुनः जागृत कर सकता है। स्वप्नावस्था इनके प्रकटीकरण का एक सरल माध्यम है। मन की अनेकों क्रियाओं में स्वप्न भी एक महत्वपूर्ण क्रिया है। सामान्यतः स्वप्न में दो क्रियाएं होती हैं। एक तो बुद्धि व इन्द्रियों का बाह्य जगत् से सम्बन्ध विच्छेद होना तथा दूसरा मन का अंतर्जगत् में विचरण करना। स्वप्नावस्था मन की वह विशेष अवस्था है जिसमें ये दोनों क्रियाएं अनिवार्य रूप से होती हैं। वृहदाण्यकोपनिषद में इसका उदाहरण इस प्रकार दिया गया है कि जिस प्रकार एक बड़ा मगरमच्छ नदी के एक तट से दूसरे तट की ओर आता जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी स्वप्नावस्था में पड़ा हुआ नदी के दोनों किनारों की तरह जागृत और सुषुप्ति के सिरों का स्पर्श करता रहता है। जीवन रूपी प्रवाह के जागृत और सुषुप्ति दो किनारे हैं। स्वप्नावस्था को मध्य धारा कहा जा सकता है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान मनश्चिकित्सा में मनोरोगी के अचेतन को तांत्रिक करके,या सम्मोहन-प्रक्रिया (हिप्नोटिज्म-
पद्धति द्वारा विश्वास अर्जित कर,स्वप्निल स्थिति उत्पन्न करके अचेतन को जगाने की चेष्टा की जाती है। किन्तु इस प्रक्रिया के द्वारा अचेतन खजाने के केवल कुछ ऊपरी हिस्सों को ही जगाया जा सकता है, उसके नीचे के भाग को नहीं। जब तक गहराई में पहुँचकर पूरे अचेतन को ही नहीं जगा दिया जाता, तब तक मन को वश में नहीं लाया जा सकता। और इसी कारण पाश्चात्य मनोविज्ञान मन को पूर्णतया वश में कर लेना असम्भव मानता है।
भारतीय मनोविज्ञान 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' (अष्टांग योग) के ध्यान-धारणा द्वारा एकाग्रता उत्पन्न करके,
इस समूचे अचेतन को, इस खजाने के दोनों भागों को जगाने की पद्धति सामने रखता है, जिससे मनोनिग्रह सध सके। समाधि इस विज्ञान की चरम परिणित है।
अचेतन को पूर्णतया जगाने में समर्थ हो जाने का अर्थ है, अतिचेतन अवस्था में पहुँचकर सम्पूर्ण मन (चेतन-अवचेतन-अचेतन को ही) अपनी पकड़ में ले आना! उसमें जो दिव्य-दर्शन होता है उसे सत्य का साक्षात्कार एवं प्रेमस्वरूप ईश्वर के साथ अद्वैत का स्तर समझा जा सकता है। उस स्थिति में विराट् ब्रह्मांड के सभी रहस्य अपने आप प्रकट होने लगते हैं। चेतना जगत की ब्रह्म सत्ता अपना अन्तराल उस स्थिति में साधक के सामने खोलकर रख देती है। कहने वाले तो इस स्थिति को भी एक विशेष प्रकार का स्वप्न (कभी न भूलने वाला स्वप्न) ही कहते, समझते देखे गये हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जब कोई मनुष्य (साधक) अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है - जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। (अर्थात भय और 'लस्ट और लूकर' में अत्यधिक आसक्ति ही "पंचक्लेष" का मूल है !) पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी (3rd' H की) मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव करलेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा कामिनी-कांचन में आसक्ति' का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ! (इसी देह में ईश्वर या परमसत्य की अनुभूति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)
" शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम (महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास) के द्वारा इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास को वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। " स्वामी विवेकानन्द शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को अभिव्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " हमें ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की
एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं !
तत्त्वदर्शियों ने मन के दो भेद बताये हैं। एक समष्टिगत मन और दूसरा व्यष्टिगत मन। ब्रह्म का मन समष्टिगत है और समस्त प्राणियों का मन व्यष्टिगत। सृष्टि की उत्पत्ति भी ब्रह्म की इच्छा से हुई। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (१०/१२९) में कहा गया है-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
जब सृष्टि बनने लगी तो सबसे पहले काम इच्छा की उत्पत्ति हुई। यह काम (इच्छा ) ही मन का रेतस् अर्थात् वीर्य है। 'लस्ट ऐंड लूकर' की इच्छा ही मन का बीज या अंकुर है । 'लस्ट और लूकर' के पीछे दौड़ने से बारम्बार एक ही भोगी रूप में जन्म लेने से कई जीवन व्यर्थ हुए होंगे ? इस सच्चाई को जान लेने के बाद संसार में फँसाने वाली तीनों प्रकार की एषणाओं (लोक-पुत्र-वित्त) के पीछे दौड़ने और बार-बार एक ही तरह जन्म लेने और मरने की विफलता अच्छी तरह से समझ में आ जाती है। फलतः उन लोगों के मन में भोग की इच्छाओं के प्रति तीव्र वैराग्य का उदय होता है। और उस वैराग्य के सहारे उनका हृदय सब तरह की वासना से एकदम मुक्त हो जाता है। इसके फलस्वरूप ऐसे योगियों में सर्वप्रकार की विभूतियों और सिद्धियों का स्वतः ही उदय होता है।
समाधिपाद के ५० वें सूत्र में कहा गया है -तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कार प्रतिबन्धी।। ५०।
समाधिपाद के ५० वें सूत्र में कहा गया है -तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कार प्रतिबन्धी।। ५०।
[तज्जः – उससे जनित/उत्पन्न, संस्कार – संस्कार, अन्यसंस्कारप्रतिबन्धी – दूसरे संस्कारों का बाध करने (हटाने) वाला होता है। ]
यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात दूसरे संस्कारों को फिर से आने नहीं देता।
हमलोगों ने उपरोक्त सूत्र में देखा कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय है-एकाग्रता! हमने श्री ठाकुर के जीवन में यह भी देखा है कि, पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता (नाम-रूप की सीमा मुक्त एकाग्रता) पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सबों ने गौर किया होगा कि ज्यों ही तुमलोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्यों ही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार उमड़ने लगते हैं। ज्यों ही ईश्वर-चिंतन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय उतने कार्यशील नहीं रहते; किन्तु ज्यों ही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं, और तुम्हारे मन को बिल्कुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं।
इसका कारण क्या है ? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं ? इसका कारण यही है कि जब तुम उनको दबाने की चेष्टा करते हो,वे पुराने संस्कार भी अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय में वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते। इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अधिक है !
[ सृष्टि के २ अरब वर्ष हुए हैं, मानलो किसी को ४२ वर्ष की उम्र में निर्विकल्प की समाधि हुई, तो इसके पूर्व जन्मों के जो संस्कार संचित थे वे सभी आने लगते हैं।] चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहते हैं, और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिये मानो हमेशा घात में रहते हैं। उन सबको रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आये और पहले के सारे भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध शक्तियाँ हैं। अतः समाधि-जन्य जो संस्कार हैं, उन्हें प्राप्त करने का अभ्यास करते रहना ही सबसे उत्तम है; क्योंकि वह पूर्व जन्मों के संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह सत्य को देखने के कारण इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का कार्य रोक कर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।
अद्भुत सिद्धियों को प्राप्त करने पर भी उनके हृदय में लेशमात्र वासना न रहने के कारण वे कभी उन सिद्धियों का प्रयोग नहीं करते। लोककल्याण के निमित्त माँ कृपा करके पुनः शरीर में लौटा देती है, वे पूर्णतया श्री ठाकुर के इच्छाधीन रहकर 'बहुजन-हिताय' ही कभी कभी उन शक्तियों का प्रयोग किया करते हैं। उनकी संसार में स्थिति “लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाSम्भसा।। गीता ५/१० ” जल में कमल की भाँति होती है। मन पर उनका पूरा नियन्त्रण होता है वे मन को स्थूल जगत में लिप्त होने का अवसर ही नहीं देते। बाह्य प्रभाव उनके मन पर अंकित नहीं हो पाते। अतः अब वह योगी अंतर्जगत या अचेतन मन की गहराई में प्रवेश करता और मनःसमुद्र से ऐसे अमूल्य रत्न खोज लाता है कि सामान्य बुद्धि जिस पर आश्चर्य किये बिना नहीं रहती।
तब पूर्व जन्म की घटनाओं का स्मरण कर समझ गए कि, वे 'नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाववान' आत्मा (ब्रह्म) के अवतार हैं, तथा वर्तमान युग की धर्मग्लानि दूर कर, लोक-कल्याण साधन के निमित्त (भारत के युवाओं की खोई हुई श्रद्धा या आस्तिकता को लौटा देने के निमित्त) ही श्रीजगदम्बा ने उनको भारत की तात्कालीन राजधानी कोलकाता के दक्षिणेश्वर मन्दिर का निरक्षर-पुजारी बनाया है, और वहाँ के सर्वोच्च शिक्षित लोगों को उनका शिष्य बनाया है।
अद्वैतभावभूमि में आरूढ़ होकर उन्होंने और एक सत्य को हृदयंगम किया था कि अद्वैत भाव में सुप्रतिष्ठित होना ही समस्त साधनों का चरम लक्ष्य है। क्योंकि अद्वैत-भावभूमि में अवस्थित होने के बाद उन्होंने भारत में प्रचलित समस्त मुख्य धर्म-सम्प्रदायों (शाक्त-शैव-वैष्णव-इस्लाम-ईसाई आदि) के मतानुसार साधना करके यही अनुभव किया था कि प्रत्येक धर्मपंथ उसी अद्वैत-भूमि की ओर साधक को अग्रसर करता रहता है। क्योंकि संसार के सभी प्रचलित धर्म प्रेम-दया और क्षमा की शिक्षा देते हैं !
इसीलिये अद्वैत भाव के विषय में पूछने पर वे बारम्बार यही कहते थे -" वह तो अन्तिम बात है रे, अन्तिम बात, ईश्वरप्रेम की चरम परिणति में स्वतः ही एक दिन 'वह' भाव -(तत्त्वमसि का प्रयोगगत यथार्थ का अनुभव), साधक के जीवन में आकर उपस्थित होता है। उन समस्त मतों के अनुसार 'अद्वैत या तत्त्वमसि' का अनुभव हो जाना अन्तिम बात है, एवं -'जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !" (सभी मत अद्वैत तक पहुँचने के ही पथ हैं !)
इस प्रकार से अद्वैत भाव की उपलब्धि कर लेने के बाद,श्रीरामकृष्णदेव के हृदय में अपूर्व उदारता और सहानुभूति का उदय हुआ। जो कोई धर्म-सम्प्रदाय -" ईश्वरप्राप्ति को ही मानवजीवन का चरम लक्ष्य" मानकर शिक्षा प्रदान करते हैं, उन सभी सम्प्रदायों के प्रति उनमें अपूर्व सहानुभूति का उदय हुआ था। किसी को धर्म के विषय पक्षपात करते देख कर उन्हें महान कष्ट होता था, तथा उस हीनबुद्धि को दूर करने के लिये वे हमेशा सचेष्ट रहते थे।
'अल्ला-प्रेमी गोविन्दराय' इस्लाम धर्म के सूफी सम्प्रदाय को अपनाकर, दरवेशों की भाँति कुरानपाठ तथा साधना करने में लीन रहते थे। उनसे धर्म-चर्चा होने के बाद श्रीरामकृष्णदेव का मन इस्लाम धर्म की ओर झुकने लगा और वे सोचने लगे -" यह भी तो ईश्वर प्राप्ति का (या अद्वैत तक पहुँचने का) एक मार्ग है, अनन्तलीलामयी माँ जगदम्बा -इस मार्ग के द्वारा कितने ही साधकों या अपने आश्रितों को किस प्रकार कृतार्थ करती हैं ? मुझे भी यह देखना चाहिये। गोविन्दराय पहले जाति से क्षत्रिय थे, श्रीठाकुर उन्हीं से सूफिज़्म की दीक्षा लेकर, विधिवत इस्लाम धर्म की साधना में प्रवृत्त हुए।
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे तब मैं 'अल्ला' मन्त्र का जप किया करता था, त्रिसन्ध्या नमाज पढ़ता था, लांग खोलकर धोती पहनता था। उस समय हिन्दू देव-देवियों को प्रणाम करने की बात तो दूर रही, उनका दर्शन करने की इच्छा भी नहीं होती थी। इस साधना के समय वे कालीमन्दिर के बाहर मथुरामोहन जी की कोठी में रहते थे। तीन दिनों तक सूफ़ी मत से साधना करने के बाद उन्हें सर्वप्रथम लम्बी दाढ़ीयुक्त एक ज्योतिर्मय महापुरुष (पैगम्बर ?) का दिव्यदर्शन प्राप्त हुआ था। इस सगुण विराट ब्रह्म की उपलब्धि के बाद उनका मन "तुरीय निर्गुण ब्रह्म" में लीन हो गया था।
एक मात्र वेदान्त-विज्ञान (४ महावाक्य) पर निर्भरशील होकर ही भारत के हिन्दू तथा मुसलमान परस्पर सहानुभूति-सम्पन्न होकर भाईचारगी से रह सकते हैं, युगावतार श्रीरामकृष्णदेव की इस्लाम के सूफिज़्म मत की साधना करना, शायद निकट भविष्य में ही टेरेरिज्म को दूर करने का कारगर उपाय सिद्ध होगा ?भारत इस्लाम का केंद्र बन रहा है और इसका मुख्य भाव सूफ़ीवाद है।
इसने भारत की अलग इस्लामिक विरासत बनाने में मदद की है। इस्लाम का अर्थ वास्तव में शांति होता है। सूफ़ियों के लिए भगवान की सेवा का अर्थ है इंसान की सेवा। अल्लाह ही रहमान और रहीम है। अल्लाह के ९९ नाम हैं जिनमें से कोई भी हिंसा का प्रतीक नहीं है। [कुछ नाम इस प्रकार हैं - १.अर-रहमान (परोपकारी) २.अल-अदल (न्यायीक)३. अल-अफुव (क्षमा करनेवाला)४. अल-अहदों (केवल एक) ५. अल-अलीमो (सब जानने वाला)६. अल-अव्वलो (सबसे पहला)७. अल-बदी (सबसे बेमिसाल)८. अल-बा'इसो (जी उठाने वाला)९. अल-बाक़ी (सदैव रहने वाला)१०. अल-बर्रो (सब अच्छाइयों क़ो स्त्रोत)११. अल-बसेरो (सब देखने वाला)१२. अल-ग़फूरो (सबसे ज्यादा माफ़ी देने वाला)१३. अल-हादियो (मार्गदर्शक)१४. अल-हफीजो (सबसे बड़ा परिरक्षक)१५. अल-हकीमो (सबसे अधिक बुद्धिमान १६. अल-हलीमो (सबसे अधिक धैर्य वाला)१७. अल-हक्क़ो (सबसे सच)१८. अल-जब्बारो (अप्रतिरोध्य बल वाला) १९. अल-कबीरो (सबसे ज़्यादा बड़ा)२०. अल-करीमो (सबसे ज़्यादा उदार):२१. अल-लतीफो ( सबसे सूक्ष्म)२२. अल-मजीदो (सबसे शानदार) २३.अल-नूरो (सबसे प्रकाशित)२४. अल-क़ुद'दुसो (सबसे पवित्र)२५. अर-रहीमो (सबसे ज़्यादा मेहरबान)२६. अर-रशीदो (सही राह का मार्गदर्शक)२७. अस-सबूरो (सबसे ज़्यादा धैर्य वाला) २८.अल-ज़ुल जलाल वल इकराम (महिमा और इनाम का मालिक)]
" निर्विकल्प भूमि में प्रतिष्ठित रहने के फलस्वरूप द्वैत-भूमि की सीमा में अवस्थित कुछ घटनाओं और व्यक्तियों को देखकर अक्सर श्री ठाकुरदेव की "अद्वैत-स्मृति " जाग्रत हो उठती थी, और वे तुरीयभाव में लीन हो जाते थे !
१.वृद्ध घसियारा : मंदिर-प्रांगण से बिना मूल्य घास लेने की अनुमति मिलने पर दिनभर घास काटता रहा, शाम को जब गट्ठर बाँधकर बेचने के लिये बाजार जाने को तैयार हुआ। श्री रामकृष्ण ने देखा लोभ के वशीभूत होकर उस वृद्ध ने इतनी घास काट ली थी कि उस वृद्ध के लिये गट्ठर उठाना भी सम्भव न था। फिर भी बार बार उसको उस बोझ को रखने का प्रयास तो कर रहा था, पर वजन इतना था कि उठा नहीं पा रहा था ! किन्तु वजन की तरफ गरीब घसियारे का कोई ध्यान न था। यह देखकर श्रीरामकृष्णदेव - यह सोचते हुए भावाविष्ट हो गए, कि " भीतर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा रहने पर भी, बाहर ऐसी निर्बुद्धिता, इतना अज्ञान! हे राम , तुम्हारी कितनी विचित्र लीला है ! " पंचभूते फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे !" --और इस प्रकार कहते हुए समाधिस्त हो गए !!
२. नये दूर्वादल पर चलने का दर्द अपने हृदय में
३. दो मल्लाहों का झगड़ा
४. देवघर में अकाल-पीड़ितों को कपड़ा -तेल देने की ज़िद
५. घायल पतिंगा
जब भारत में चरित्र-निर्माण, मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा व्यवस्था के बदले "बाबु -निर्माणकारी शिक्षा व्यवस्था" लागु हो गयी, तब यथार्थ शिक्षा या धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये भगवान विष्णु (नेता) को पुनः विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के रूप में अवतार लेना पड़ा।
शान्तो महान्तो निवसन्ति सन्तो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जना
नहेतुनान्यानपि तारयन्तः ॥
अयम् स्वभाव स्वत एव यत्पर
श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम् ।
महात्माओं का यह स्वभाव ही है कि वे स्वतः ही दूसरों का श्रम दूर करने में प्रवृत्त होते हैं। सूर्य के प्रचण्ड तेज से संतप्त पृथ्वीतल को चन्द्रदेव स्वयं ही शांत कर देते हैं।
This is the inherent nature of all mahātmās (great souls) that they always move of their own accord to remove the strain of other people.]
उन्होंने अपने अंतिम समय में विवेकानन्द (तबके नरेन्द्रनाथ) के समक्ष स्वयं अपने मुख से कहा था - " ओ नरेन्, तुम्हें अब भी विश्वास नहीं हुआ ? जो राम जो कृष्ण, वही रामकृष्ण -इसबार दोनों एक साथ; किन्तु तेरे वेदान्त दृष्टि से नहीं ! एकदम साक्षात्!"
[जो श्री राम, जो श्री कृष्ण, वही श्री रामकृष्ण -इस बार दोनों एक साथ !]
पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था लागू हो जाने के कारण जब भारतीय युवाओं की आत्मश्रद्धा और आस्तिकता लुप्त होने लगी, तो उसे फिर से प्रतिष्ठापित करने के लिये, आधुनिक भारत का प्रथम युवा नेता जगतगुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने युवा शिष्यों को 'काशीपुर उद्यान भवन' में एकत्र कर; भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में गुरु-गृहवास करते हुए 'वेदान्तिक-लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति' [ अर्थात ५अभ्यास से 3H विकास करके, आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में सक्षम शिक्षक या 'नेता (विष्णु जैसा) बनने और बनाने' वाली शिक्षा पद्धति में पहला युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया था।एवं स्वामी विवेकानन्द को सम्पूर्ण विश्व में आस्तिकता (थीइज़म,theism/ईश्वरवाद/ अवतारवाद) का प्रचारक 'नेता' (ब्राह्मणेत्तर जातियों को भी ब्राह्मण बनाने में सक्षम, या खुली आँखों से ध्यान' करने वाला ब्रह्मवेत्ता-मनुष्य,चरित्रवान-मनुष्य, यथार्थ मनुष्य) बनने और बनाने की "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" में, प्रशिक्षण-पद्धति में प्रशिक्षित करने का चपरास दिया था।
" शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी नहीं हो सकते। हम यह कभी न भूलें कि 'शरीर हमारा है' -'हम शरीर के नहीं हैं! ' प्रजापिता ब्रह्मा की तीन संताने देवता, असुर और मनुष्य ने यह सुना कि जो व्यक्ति आत्मा को जान लेता है-वह अमर हो जाता है ? आत्मजिज्ञासु होकर वे किसी महापुरुष (मार्गदर्शक नेता) के पास गए। उन महापुरुष ने उन्हें वेदान्त के चार महावाक्यों को सुनाते हुए कहा - " तुमलोग जिसकी खोज कर रहे हो, वह तो तुम्हीं हो -तत्त्वमसि ! "
एकाग्रता का अभ्यास करते करते एक दिन ज्ञान हुआ - " मैं समस्त मनोवृत्तियों से परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ ! मेरा जन्म नहीं, मेरी मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सूखा सकती, जल नहीं गला सकता,मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान पुरुष हूँ ! आत्मा शरीर या मन नहीं, वह तो इन सबसे परे है। " पर बेचारे असुर को सत्य-लाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यन्त आसक्ति थी।
फिर भी शरीर को स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। हमारे पास ईश्वर लाभ करने का सर्वोत्तम साधन यह शरीर ही है। और सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम प्राणी है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से -यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य श्रेष्ठतर कोई और नहीं है। देवताओं को भी ज्ञान लाभ करने के लिये मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान लाभ करने का अधिकारी है।यहां तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य सभी प्रकार के प्रकार के जीवों की सृष्टि करने के बाद, मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने को कहा। इबलीस को छोड़ कर बाक़ी सबने ऐसा किया, अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। और वह शैतान बन गया। " १/५२व ५४/ श्रीमद्भागवत पुराण (११-९-२८) में भी इस बात के इस प्रकार वर्णन आता है- सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है...
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥
- अर्थात ब्रह्माण्ड की मूलभूत शक्ति ने (महत् तत्व) स्वयं को सृष्टि के रूप में क्रमविकसित किया ....और, इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप-रेंग कर चलने वाले, पशु, पक्षी, डंक मारने वाले कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु ,उस सृजन से विधाता को सन्तुष्टि नहीं हुई, क्योंकि उन प्राणियों में उस परमचैतन्य की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकी थी। अत: अन्त में विधाता ने मनुष्य का निर्माण किया, उसकी चेतना इतनी विकसित थी कि वह उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था;अर्थात जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता था !और अपने इस रचना को देखकर ब्रह्म अत्यन्त प्रसन्न हो गये! (पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवा !) मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण : शरीर में ही परमात्मा हैं, अवश्य हैं, न हो तो अवस्तु ( केवल शरीर-मन '2H' ) को कौन नमस्कार करता है? इस शरीर को ही एक मंदिर के रूप में घोषित किया गया है, और इसमें ही शाश्वत गुरु (सनातन नेता) या आत्मा ही ड्वेलर या निवासक है। शास्त्रों में कहा गया है -
'देहो देवालय प्रोक्तः जीवो देवः सनातनः ।'
- हमारे शरीर रूपी देवालय के गर्भगृह -'हृदय' में ही जो जीवात्मा (विवेक-शक्ति सम्पन्न आत्मा,3rd' H) विद्यमान हैं, वे निश्चित रूप से स्वयं ही परमात्मा (ब्रह्म श्री ठाकुर) हैं। विवेक-प्रयोग शक्ति का अर्थ यह है कि 'आत्मा' और 'पर' का भेद जानने में आये। शरीर स्थूल जड़ है, मन सूक्ष्म जड़ है, पर है दोनों जड़ ही हैं- इसलिये ये (शरीर-मन '2H') दोनों ही 'पर' हैं । किन्तु आत्मा से प्रकाशित होकर चेतन जैसे प्रतीत होते हैं। हमलोग जब कहते हैं - 'मेरा मन नहीं मानता', तो ऐसा कहकर हमलोग स्वयं ही 'जड़ मन' को 'चेतन आत्मा ' जैसी वस्तु के रूप में देखने के भ्रम में फंस जाते हैं (हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं)।विवेक-प्रयोग करने का सीधा अर्थ है टुकड़े कर देना, न्यारा कर देना ! ज्ञान की तलवार से 'पर' को न्यारा करना या अविद्या की गाँठ को काट देने का कार्य, (गुरुमुख से वेदान्त के चार महावाक्यों का 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' द्वारा होता है।) होता है। अर्थात ज्ञानपूर्वक ही तो होता है, इसलिये कुछ लोग विवेक को ही ज्ञान समझने लगते हैं ! महाभारत में कहा गया है -
'शरीरे जर्जरी भूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे ।
औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ॥'
आलोढ्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः॥ (महाभारत)
जब यह शरीर रूपी देवालय असाध्य रोगों से जर्जर हो जाता है, और समस्त प्राण ऊर्जा शरीर को छोड़ देती है। तो भगवान विष्णु रूपी वैद्य के चरणों से निकली गंगा का पवित्र जल औषधि रूप में लाभ दायक सिद्ध होता है। अतः सब शास्त्रोंका मन्थन करके तथा पुनः पुनः विचार करके यही निष्कर्ष निकाला है कि भगवान् नारायण श्री हरि - ही सदा ध्यान करने योग्य हैं । सच्चाई यह है कि बिना परमानन्द प्राप्ति हुये कामनायें (लस्ट और लूकर में आसक्ति) जा ही नहीं सकतीं। अतः दोनों साधनायें एक साथ करनी होंगी। अतः कामना त्याग एवं हरि अनुराग साथ-साथ करना है, अर्थात 'BE AND MAKE' साथ साथ करना होगा । इसीलिये जब अर्जुन कहते हैं- मन का वेग तो वायु से भी तीव्र है ! यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं-
'असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। (गीता ६/३५)
अर्थात् संसारी कामनाओं के स्थान पर ईश्वरीय कामनायें बनाने के लिये ५ अभ्यास करना है। यही एकमात्र उपाय है। प्रथम संसार से मन को हटाओ (क्योंकि वहाँ आत्मा का सुख नहीं है) फिर श्री रामकृष्ण में लगाओ (क्योंकि वहाँ सुख ही है)! इस प्रकार बार-बार हटाने एवं लगाने से (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) कुछ काल पश्चात् मन लगने लगेगा। जितना लगने लगेगा, उतना हटने लगेगा। संसारी कामनायें भी (मिथ्या अहं के सुख के लिये नहीं) आत्म-सुख के लिये ही हैं -- जब यह ज्ञान परिपक्व हो जायगा तो लक्ष्य प्राप्त हो जायगा।
फिर उसी प्रशिक्षण-पद्धति में सम्पूर्ण विश्व के युवाओं को प्रशिक्षित करने का चपरास नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को प्रदान करते हुए, ठाकुर ने एक कागज पर लिख दिया था - 'नरेन शिक्षा देगा!' यदि माँ जगदम्बा की यह इच्छा है, कि विश्व-शान्ति को सुनिश्चित करने के लिये भारत माता को महान बन कर पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठाना होगा, और उन्हीं की इच्छा और प्रेरणा से स्वामी विवेकानन्द को पाश्चात्य देशों की यात्रा की थी' तो यह अनिवार्य हो जाता है, कि पहले भारतीय युवाओं को बताया जाए कि 'चपरास प्राप्त लोक-शिक्षकों का निर्माण' करने वाली वह प्रशिक्षण -पद्धति क्या है ?
इसीलिये जगतगुरु श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के मार्दर्शक नेता का अनुसरण, केवल उनकी स्तुति करने या आरती गाने से की जा सकती ! बल्कि ऐसे युग-नेताओं का अनुसरण अपने जीवन को भी उनके साँचे में ढालकर गढ़ने का अभ्यास करने से किया जा सकता है।
इसीलिये स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं- " हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! काम में-[BE AND MAKE में] लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। (जो ज्ञान से नहीं, केवल जन्म से ही ब्राह्मण था, वह अभीतक गीता-उपनिषद या वेदान्त के महावाक्यों पर अपना कॉपीराइट समझता था !) किन्तु समय के प्रवाह में,जब वे और अधिक टिक नहीं सके, तो अब तुमलोग समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले मनुष्यों के बीच जाकर (किसान, मजदूर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरकी झोपड़ियों में, कारखानों में, हाट में, बाजार में जाकर) उन्हें शास्त्र के महान सत्यों ('सर्वं खल्विदं ब्रह्म' "तत्त्वमसि " आदि महावाक्यों) के मर्म को सरल करके समझा दो ! उनमें यह आत्मविश्वास उत्पन्न कर दो, कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र -,"तत्त्वमसि " में दीक्षित करो।"
इस प्रकार जब नया भारतवर्ष,समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले,आम लोगों के बीच से प्राचीन धर्म के सार को - वेदान्त के ४ महावाक्यों को आत्मस्थ करने के बाद उभर कर सामने आयेगा - तो क्या होगा ? यह होगा कि तब समाज में ,जाति-धर्म-भाषा, धनी-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित आदि के आधार पर कोई भेदभाव किये बिना, केवल 'मनुष्य' होने के नाते ही सभी मनुष्यों को सम्मान दिया जायेगा। सभी जाती-धर्म-भाषा के मनुष्यों के साथ, उनको बिल्कुल अपना समझकर, हर किसी से प्रेम करना संभव हो जायेगा। अर्थात सर्वत्र वैदिक साम्यवाद, सत्ययुग, रामराज्य या धर्मराज्य स्थापित हो जायेगा !
इसलिए जिन नर-नारियों की स्थिति इसके लिए उपयुक्त हो, उन्हें महामण्डल द्वारा प्रस्तावित "BE AND MAKE " आन्दोलन के नेतृत्व प्रशिक्षण में "परिव्राजक नेता " बनने और बनाने के कार्य में जुट जाना चाहिए!
इसीलिये पाश्चत्य शिक्षा पद्धति में पढ़ा-लिखा आधुनिक भारतीय युवा (विशेषकर पश्चिम बंगाल से बाहर हिन्दी भाषी प्रदेशों का युवा) - कन्फ्यूज्ड है कि वह भगवान के किस अवतार-रूप को अपना आदर्श या ईश्वर मानकर उसकी भक्ति करे ? या उसका अनुसरण करे ? कोई युग के अनुकूल आदर्श नहीं रहने के फलस्वरूप जैसे-जैसे परिवार,समाज या देश के नेताओं के जीवन में धर्म का अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे राष्ट्रीय-चरित्र का भी पतन होने लगता है।
" वेदान्त कहता है, ईश्वर के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है। जीवित ईश्वर तुम्हारे भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर,मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। जबकि, मनुष्यदेह में रहने वाली मानव-आत्मा (3rd-H) ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है ! हाँ, पशु आदि भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है-'ताजमहल' जैसा! एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है -मनुष्य को उसके सच्चे स्वरूप में जानना। और वेदान्त का यही सन्देश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है ?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा -यही महानता का एकमात्र रहस्य है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर,और जिन देवी- देवताओं को विदेशियों ने बीच बीच में तुम्हारे भीतर घुसा दिया है; उन सब पर भी यदि तुम्हारी श्रद्धा हो, और अपने आप पर श्रद्धा न हो। तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसी की आवश्यकता है।"
"बिलीफसिस्टम या ऑटो सजेशन" - तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे ! (बच्चा हाथी को सीकड़ से बाँधते हैं -बड़ा हाथी रस्सी से फिर भी नहीं तोड़ पाता ? आदमी आग पर दौड़ जाता है, जलता नहीं ?) "संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास अन्तःस्थित ब्रह्मत्व (प्रेमस्वरूप या डिविनिटी) को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम अन्तःस्थ अमोघ शक्ति (प्रेमशक्ति-कोई पराया नहीं सभी अपने हैं,सभी में मैं ही हूँ !) को अभिव्यक्त करने के लिये यथेष्ट प्रयत्न (पुरुषार्थ) नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है !"
गीता ४-४० में भगवान कहते हैं - 'संशयात्मा विनश्यति।' (अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशय आत्मा विनश्यति) विवेक और श्रद्धा रहित- संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। संशय क्या है? यहाँ संशय का अर्थ डाउट नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अर्थात जो आजीवन अनिर्णय की अवस्था में रहता है कि - '3H' में से कौन सा 'H' मेरा यथार्थ स्वरूप है ? अनिश्चय आत्मा (हिप्नोटाइज्ड आत्मा =बुद्धि) जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम है, जब मन 'यह या वह', इस भांति सोचता है। उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही इनडिसीजन में–टु बी आर नाट टु बी, होऊं या न होऊं, करूं या न करूं ...करते हुए बीत जाती है !
हमें जो कुछ चाहिये वह यह 'श्रद्धा' (आस्तिकता) ही है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है। एकमात्र इस श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य-मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को दुर्बल और छोटा बना देती है।
आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर को मानना। ( अर्थात ईश्वर के सगुण रूप किसी अवतार या पैगम्बर में विश्वास करना।) इसलिए श्रद्धा या आस्तिकता का अर्थ है यह निश्चित रूप से जान लेना कि, युवाओं के आदर्श (मार्गदर्शक नेता या हीरो) स्वामी विवेकानन्द के गुरु भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस आधुनिक युग में केवल ब्रह्म के अवतार ही नहीं, बल्कि 'अवतार वरिष्ठ' हैं। और मेरे हृदय में मेरे भी मार्गदर्शक नेता या गुरु रूप में साक्षात् विराजमान हैं ! क्योंकि " बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता!" इसलिये भारत सरकार ने १९८४ में ही स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवादिवस घोषित कर दिया था। जो मनुष्य युवा अवस्था में ही स्वामी विवेकानन्द को अपने आदर्श (नेता या हीरो) के रूप में चयन नहीं कर पाता, वह आजीवन इंडिजिसन (अनिर्णय) की अवस्था में रहता है, उसका हृदय (Heart) भगवत्प्रेम से रहित, अर्थात शुष्क हो जाता है। और मन (Head) ईश्वर के अवतार को लेकर संशय से भरा हुआ रहता है। और ऐसे विवेक और श्रद्धा रहित- संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसी श्रद्धा या आस्तिकता -- " तुम्हीं ब्रह्म रामकृष्ण -तूँ ही ब्रह्म , तूँ ही राम " -- ही सदाचार की अर्थात 'चरित्र के २४ गुणों' की जननी है।
श्री रामकृष्ण को जगतगुरु (ईश्वर या अवतार वरिष्ठ) मानने का अर्थ है - उनके अनुयायी स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मान कर उनके गुरु या मार्गदर्शक नेता श्री रामकृष्ण के साँचे में अपने जीवन को ढाल कर चरित्रवान मनुष्य (इंसान, नेता, हीरो=ब्रह्मविद मनुष्य) बनना और बनाना। अतः विवेकानन्द का अनुयायी होने का तात्पर्य है, पूज्य नवनी दा द्वारा स्थापित उस संगठन का ' अनुयायी बनना और बनाना'- जो विगत ५० वर्षों से "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा",या " Be and Make" के 'वेदान्तिक-लीडरशिप ट्रेनिंग' परम्परा में ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा, जाति-धर्म-भाषा के आधार पर कोई भेद-भाव किये बिना, भारत के सभी युवाओं को वार्षिक 'ऑल इंडिया यूथ ट्रेनिंग कैम्प ' में 'आदर्श- नेता' (विष्णु भगवान जैसा) मनुष्य, बनने और बनाने का प्रशिक्षण देता चला आ रहा है। महामण्डल के यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद नेता) बनने और बनाने" वाली लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में कोई एक व्यक्ति नहीं, यह 'संगठन' ही हमारा गुरु है! और हम सभी इस संगठन के अनुयायी हैं !
जो मनुष्य सच्चा आस्तिक (या श्रद्धावान) होगा, वह सबमें और सब जगह ( अर्थात सभी धर्म और जाति के मनुष्यों में, तथा मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारा और चर्च में) उसी एक प्रेमस्वरूप श्री रामकृष्ण (अल्ला , ईश्वर गॉड वाहे गुरु जी) की उपस्थिति को देखने में समर्थ हो जायेगा ! इसलिये वह हर किसी से (पत्नी से भी)
निःस्वार्थपूर्ण प्रेम करने में सक्षम हो जायेगा। मनुष्य के भीतर रहने वाले कारण-द्वय, 'मृत्यु का भय और देह में अत्यन्त आसक्ति' (असुरता-पशुता) उसे घोरस्वार्थी एवं निर्लज्ज पशु-मानव बना देते हैं। आज संसार में फैला हुआ सारा अनाचार इसी कारण है कि मनुष्य भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग (निःस्वार्थपरता) और सेवा' को भूल कर घोर स्वार्थी और भोगी बन गया है।
यदि आज युवाओं के जीवन को महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में 'Be & Make ' परम्परा में पूर्ण-निःस्वार्थी मनुष्य, अर्थात 'निवेदिता वज्र'
के समान (অক্ষয়,अविनाशी या Imperishable ) अप्रतिरोध्य मनुष्य रूप में गठित कर दिया जाय। और इस प्रकार 'निवेदिता वज्र ' जैसे चरित्रवान, केवल कुछ सौ युवा भी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता या हीरो बनकर, 'चरैवेति, चरैवेति' करते हुए समाज के सबसे उपेक्षित समझे जाने वाले मनुष्यों में व्यापक स्तर पर
(कारखानों में,बनिये की दुकान में, हाट में, बाजार में,किसान, मजदूर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरकी झोपड़ियों में, सर्वत्र जा- जा जाकर) यदि 'आत्मश्रद्धा', आस्तिकता, विवेक या तत्त्वमसि के मर्म को सरल भाषा में समझाते हुए यदि 'Be & Make ' द्वारा चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचारक बन सकें। तो कुछ ही वर्षों में चिरवांछित - रामराज्य साकार हो उठेगा, और भारत माता पुनः एकबार विश्व-गुरु के गौरवमय सिंहासन पर आरूढ़ हो जायेंगी !
और उस सर्वज्ञ परमात्मा की निष्पक्ष न्यायशीलता का स्मरण रखते हुए हर बुरे काम से बचे, अपना जीवन गठित करे । भारत का कल्याण करने या भारत में सतयुग लाने का उपाय है-चरित्र-निर्माण! अर्थात ऐसे (निःस्वार्थी) ब्रह्मविद मनुष्यों का निर्माण जो खुली आँखों से ध्यान करने में सक्षम हों। और राष्ट्रीय स्तर पर चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा (युवा -प्रशिक्षण) की आधारशिला आस्तिकता ही हो सकती है। और उसी (श्रद्धा या आस्तिक्यबुद्धि के) आधार पर भारत की हर समस्या को सुलझाया जा सकना सम्भव होगा।
अनुयायी होने का तात्पर्य है उसके विचार, निर्देश एवं आदर्श के अनुसार चलना। [ 'चलना' अर्थात 'BE AND MAKE' परम्परा में परिव्राजक बनकर, 'चरैवेति चरैवेति' - करते हुए महामण्डल द्वारा निर्देशित
'चरित्र-निर्माणकारी ५ मूल अभ्यासों' को स्वयं अपने आचरण में उतारने, तथा अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं भी एकत्र करके उन्हें भी ५ अभ्यासों का प्रशिक्षण देनेके द्वारा सम्पूर्ण भारत में सत्ययुग लाने में सक्षम युवा-प्रशिक्षण शिविर में योगदान करना। क्योंकि भगवान श्री रामकृष्ण, माँ श्री श्री सारदा देवी एवं स्वामी विवेकानन्द (पूज्य नवनी दा) जैसे मार्गदर्शक नेताओं का अनुसरण, स्वयं मनुष्य बनने (ब्रह्मविद मनुष्य) का अभ्यास करते हुए, दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता देकर ही की जा सकती है। महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा स्वयं ब्रह्मविद "मनुष्य" बनने और बनाने का प्रशिक्षण (लीडरशिप ट्रेनिंग) देने में समर्थ कुछ 'परिव्राजक-नेताओं' या "लोक-शिक्षकों" के निर्माण द्वारा ही की जा सकती है।
प्रसिद्द अंग्रेजी कहावत है - 'प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर'- अर्थात रोगों का रोकथाम करना उसके इलाज से बेहतर है। रोग होने से पहले ही, रोकथाम करने का सबसे स्थिर उपाय तो यही है कि, ' प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य में ब्रह्म की झाँकी करके उसके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार (एकत्व की अनुभूति) करना सीखे !'
अर्थात हर मनुष्य श्री रामकृष्ण के जीवन और सन्देशों के आलोक में , यह अनुभव करना सीखे कि " ओह, पंचभूते फांदे ब्रह्म पड़े कांदे" (श्री ठाकुर ही पंच भूतों के फन्दों में फंसे हैं, और दुःख से रो रहे हैं! पंच- क्लेशों -'अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष,अभिनिवेश' में फँसे परमेश्वर के दुःख को अपने हृदय में अनुभव करना सीखे।) फिर 'शिव-ज्ञान से जीव-सेवा', 'मान हूँश तो मानुष', 'तत्त्वमसि' के मर्म को समझकर, हर मनुष्य स्वयं दूसरे मनुष्य में 'अव्यक्त ब्रह्म' या सुप्त डिविनिटी की झाँकी करना सीखे, और फिर दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करे !
अर्थात धर्म वह चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा या ५ अभ्यास का प्रशिक्षण है - जिसको धारण करने से राजा-प्रजा समस्त प्राणियों की रक्षा होती है। धर्म अर्थात चरित्र से मनुष्य को सुख सम्पदा यश, वैभव तथा ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। ज्ञान-विज्ञान, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास अथवा उन्नति धर्म (चरित्र) पर ही आधारित है। इतना ही नहीं बल्कि समस्त सृष्टीकार्य संचालन का मूल आधार धर्म ही है। (निःस्वार्थ कर्म या 'BE AND MAKE' वेदान्त परम्परा में चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण शिविर में योगदान करना ही है !)
हमलोग यदि भारत का सचमुच कल्याण करना चाहते हों, तो हमें " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" में जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण करने वाली "शिक्षा" को ( या महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों को) अपनाना ही पड़ेगा ! हम लोगों ने चाहे किसी भी जाति या धर्म में जन्म क्यों न लिया हो, प्रत्येक भारत-वासी को (अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित, चन्द्रवँशी (गुड्ड़ू) -यदुवंशी (कुंदन) , हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई-बौद्ध या जैन की भेद-बुद्धि से पहले) स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य (चरित्रवान -मनुष्य, इंसान, मनोवैज्ञानिक) बनना होगा, और दूसरों को भी अपने यथार्थ स्वरूप को जानकर यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद-मनुष्य) बनने में सहायता करनी होगी !
क्योंकि आचारण बदलने से ही शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र। यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य पर भी लागू होती है। "आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" -अर्थात 'जो मनुष्य भला नहीं बनता और भलाई नहीं करता', आचरण हीन है, वैसे चरित्र-हीन मनुष्य को वेद (चार महावाक्य) भी पवित्र नहीं करते। [अर्थात जो व्यक्ति
महामण्डल द्वारा आयोजित ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' में 'चरित्र-निर्माणकारी ५ मूल अभ्यासों' को स्वयं अपने आचरण में उतारने, तथा अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं को भी एकत्र करके, महामण्डल- ध्वज के नीचे संघबद्ध करके, उन्हें भी ५ अभ्यासों का प्रशिक्षण देने के द्वारा, समाज के सबसे उपेक्षित समझे जाने वाले मनुष्यों को भी 'ब्राह्मण' (ब्रह्मविद मनुष्य-पूर्णत्व प्राप्त मनुष्य) में रूपान्तरित करने का प्रयास नहीं करता, उसे वेद भी पवित्र नहीं करते !] जो अपने को आस्तिक मानता है उसे यह भी मानना होगा कि वह परम प्रभु परमात्मा का अनुयायी है, उसका प्रतिनिधि है। उनका ऐसा प्रतिबिम्ब है जिसको देखकर परमात्मा के स्वरूप तथा उसके गुण-विशेषताओं का आभास पाया जा सकता है।
ईश्वर में अखण्ड विश्वास रखने वाला सच्चा आस्तिक जीवन में कभी हानि नहीं मानता। एक तो उसे यह विश्वास रहता है कि परमात्मा जो भी सुख, दुःख, अनुग्रह किया करता है उसमें मनुष्य का कल्याण ही निहित रहता है। इसलिए वह किसी हर्ष-उल्लास अथवा कष्ट-क्लेश से प्रभावित नहीं होता। दूसरे परमात्मा के प्रति आस्थावान होने से उसमें संकट सहने की शक्ति बनी रहती है। आस्तिक व्यक्ति परमात्मा का नाम लेकर संकट सहना क्या, उसका नाम लेकर जहर पी जाते और सूली पर चढ़ जाते हैं। मीरा, प्रहलाद, ईसा और मंसूर ऐसे ही आस्तिक थे।
अपने को आस्तिक कहते हुए भी जिसमें भगवद्भक्ति का अभाव है, वह झूठा है, उसकी आस्तिकता अविश्वसनीय है। आस्तिकता के माध्यम से जिसके हृदय में भक्ति भावना का उदय हो जाता है, आनन्द मग्न होकर उसका जीवन सफल हो जाता है। भक्ति का उदय होते ही मनुष्य में सुख-शांति, संतोष आदि के ईश्वरीय गुण फूट पड़ते हैं। भक्त के पास अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति आंतरिक दुःख, क्षोभ, ईर्ष्या का कोई कारण नहीं रहता। भक्त का दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक हो जाता है। उसे संसार में प्रत्येक प्राणी से प्रेम तथा बंधुत्व अनुभव होता है। जन-जन उसका तथा वह जन-जन का होकर लघु से विराट बन जाता है। आठों याम उसका ध्यान प्रभु में ही लगा रहता है। संसार की कोई भी बाधा-व्यथा उसे सता नहीं पाती। वह इसी शरीर में जीवन मुक्त होकर चिदानंद का अधिकारी बन जाता है। यह है आस्तिकता की परिपक्वता का परिणाम।
अखण्ड विश्वास के साथ जब कोई आस्तिक भूत-भविष्य, वर्तमान के साथ अपना संपूर्ण जीवन परमात्मा अथवा उसके उद्देश्योंं को सौंप देता है, तब उसे अपनी जीवन के प्रति किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती। परमात्मा उसके जीवन का सारा दायित्व खुशी-खुशी अपने ऊपर ले लेता है।
भारत सरकार के द्वारा 1984 में स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श घोषित कर देने के बाद, तथा महामण्डल द्वारा 55 /56 वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित हो जाने के बाद हिन्दी-भाषी युवा स्वामी विवेकानन्द को तो -'गुरु विवेकानन्द', युवा-मार्गदर्शक नेता विवेकानन्द के रूप में देखने लगा है। किन्तु वह अब भी भगवान विष्णु के अवतार श्री राम (१२ कला), श्री कृष्ण (१६ कला), आदि को तो भगवान का अवतार - समझता है; विवेकानन्द के गुरु- सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शक नेता या "जगत-गुरु" श्री रामकृष्ण परमहंस को 'अवतार-वरिष्ठ' - नहीं समझ सका है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " इस रामकृष्ण अवतार में समस्त प्रकार के नास्तिक विचार 'ज्ञान के तलवार' द्वारा नष्ट कर दिए जायेंगे, तथा सम्पूर्ण जगत भक्ति (उपासना) और प्रेम (डिवाइन लव) के द्वारा एकीकृत हो जायेंगे !" ४/३१७ मनुष्य को केवल श्रद्धा ही नहीं चाहिये, बल्कि उसमें बौद्धिक श्रद्धा (तत्त्वमसि की प्रयोग-गत यथार्थ की अनुभूति) भी रहनी चाहिये । .... यूरोप का उद्धार एक बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है, और वह है 'अद्वैत धर्म' (दी नॉन-डुअलिटी- अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं का बोध) या एकात्मबोध; और निर्गुण-निराकार ईश्वर को प्रतिपादित करने वाला यह वेदान्त ही, एक ऐसा धर्म है -जो किसी बौद्धिक जाति को संतुष्ट कर सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है तभी इसका (अद्वैत श्रीरामकृष्ण का) आविर्भाव होता है।
इस मनुष्य-निर्माण आंदोलन का लक्ष्य होता है -(बौद्धिक श्रद्धा-आस्तिकता या तत्त्वमसि के प्रचारक या परिव्राजक नेताओं के निर्माण द्वारा विश्व-मानव का कल्याण।) उपाय है चरित्र-निर्माण, दिया जलाते ही,
हजार वर्षों का अंधेरा क्षणभर में भाग जाता है। संसार चाहता है-चरित्र, संसार के सभी धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं। सभी धर्मों के अनुयायी मुँह से कहते हैं -मेरा धर्म भी प्रेम-दया-क्षमा ही सिखाता है, किन्तु किसी भी धर्म के अनुयायिओं के आचरण या चरित्र में ये गुण दीखते नहीं हैं ! भारत सरकार ने उनको ही युवा आदर्श (role model प्रेरणा-स्रोत,अनुकरणीय व्यक्ति) घोषित कर, उनके जन्मदिवस १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया है ! अद्वैत या वेदान्त के प्रचारक-नेता हैं, प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा, या लीडरशिप-ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित अद्वैतस्वरूप श्री रामकृष्णदेव के शिष्य परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द ! और उनका आदर्श-वाक्य है - " Be and Make -मनुष्य बनो और बनाओ !"
'परिव्राजक-जीवन" (लोक-शिक्षक या मानव-जाति का मार्गदर्शक नेता) जीवन को अपना लेना"- भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है। हमें चाहिये कि हम अपना सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें । पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसी ही हल्की होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई-बहिनों की देखभाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे हाथ खींचे और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें। ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज में, परिवार, समाज, देश और सम्पूर्ण विश्व में, जिसको माँ-जगदम्बा (श्री श्री माँ सारदा देवी) जितना करने का सैभाग्य प्रदान करे) चरित्र-निर्माणकारी मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा या "BE AND MAKE " का प्रचार-प्रसार करते चलें । युवावस्था के कुसंस्कारों का शमन एवं प्रायश्चित इसी साधना द्वारा होता है। जिस देश, धर्म जाति तथा समाज में उत्पन्न हुए हैं, उनकी सेवा करने का, ऋण मुक्त होने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है । अपने हृदय की वक्रता सीधी करने (या हृदय को 'वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि बनाने ) का सहज उपाय है महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित होकर "BE AND MAKE " का प्रचार-प्रसार में शेष जीवन को सार्थक कर लेना।
रिटायरमेन्ट के बाद (पारिवारिक भरण-पोषण की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाने के बाद) जीवन में जो एक प्रकार का खालीपन महसूस करके होने वाले हर्ट-अटैक से बचने तथा जीवन को ठीक तरह जीने की समस्या भी उसी से हल हो जाती है ।
परिव्राजक का काम है चलते रहना। रुके नहीं, लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, (हिन्दू-मुसलमान, अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित की संकीर्णता में न बन्धे) बल्कि जन-जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ को फैलाए। जो परिव्राजक-नेता या लोक-शिक्षक, लोक-मंगल के लिए संकीणर्ता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख-सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है।
परम देशभक्त स्वामी विवेकानन्द का परिव्राजक जीवन : उन्होंने अपने परिव्राजक जीवन में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते समय तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था। उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे युवाभाई (देशवासी) दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं ! यथार्थ शिक्षा के आभाव ने - अर्थात चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के अभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है।
सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" (स्काईला) तो दूसरी ओर इसीके प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" (चरनबाइडिस) जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। उन्होंने पाया था कि हजार वर्ष की गुलामी तथा पाश्चात्य शिक्षा के दुष्प्रभाव से आधुनिक मनुष्य भारतीय संस्कृति के चार पुरुषार्थों - " धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष" को प्रायः भूल चुका है। तथा केवल " लस्ट और लूकर" (कामिनी- कांचन, वीमेन ऐंड गोल्ड) में आसक्त हो कर पशुतुल्य जीवन जी रहा है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'।
स्वामीजी ने [एतेरेय ब्राह्मण "ऐतरेय" का अर्थ होता है- "ऋत्विज" जिसका अर्थ है, यज्ञ (ज्ञान-यज्ञ) करानेवाला पुरोहित] श्रुति- 'चरैवेति चरैवेति ' का प्रयोग अपने जीवन पर करके इस बात को निश्चित रूप से जान लिया था, कि हमलोग यदि ठाकुर के जीवन को अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाकर उनका यथार्थ अनुसरण करेंगे, तो हमलोगों के जीवन का आमूल परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित हो जायेगा।
जब हम लोग महमामण्डल द्वारा " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में" निर्देशित ५ अभ्यासों को स्वयं करते हुए दूसरों को भी उसका प्रशिक्षण देने के कार्य में जुट जाते हैं, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ" 'BE AND MAKE' आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जाते हैं तो हमलोगों के जीवन में भी सतयुग का प्रारम्भ हो जाता है।
कर्मरत होने पर सत युग की अवस्था में आ जाता है। कहा गया है कि बिना थके हुए श्री नहीं मिलती; जो विचरता है, उसके पैर पुष्पयुक्त होते हैं, उसकी आत्मा फल को उगाती और काटती है। भ्रमण के श्रम से उसकी समस्त पापराशि नष्ट हो जाती है। बैठे-ठाले व्यक्ति का भाग भी बैठ जाता है, सोते हुए का सो जाता है और चलते हुए का चलता रहता है। और मनुष्य चलते हुए ही फल (मोक्ष) प्राप्त करता है। सूर्य के श्रम को देखो, जो निरन्तर चलता रहता है, चलने में कभी आलस्य नहीं करता।
१. " कलिः शयानो भवति" - जो मनुष्य ' लस्ट और लूकर' (कामिनी -कांचन) के 'नशे' में अत्यधिक आसक्त होजाते हैं, वे मदहोश (हिप्नोटाइज-अविवेकी) हो जाते हैं, वे अपने अपने यथार्थ "3rd-H" स्वरूप के प्रति सोये रहते हैं। अपने हृदय में जो अकूत स्वर्ण-भण्डार दबा हुआ है उसके प्रति (श्री ठाकुर के प्रति) अचेत हो जाते हैं, इसीलिये उस समय उनका कलिकाल चल रहा होता है।
अर्थात जब तक मनुष्य अपने "सच्चे स्वरूप" (इन्द्रियातीत सत्य, निरपेक्ष सत्य, 'खतरनाक सत्य' जिसको देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ) के प्रति सोया रहता है, तब तक उसका भाग्य भी सोया रहता है, और वह मानो कलि युग में वास कर रहा होता है ! कलि युग का अर्थ है मनुष्य की सुप्तावस्था।
[यानि मन की अचेतन अवस्था द्वारा प्रेरित होकर, पराप्रकृति के द्वारा हिप्नोटाइज्ड होकर या स्त्री-पुरुष के नश्वर शरीर में कर्तापन के अहंकार द्वारा प्रेरित होकर जब तक हमलोग स्वार्थपूर्ण कर्म करते रहते हैं, तब तक हमें अपना कर्मफल भोगना ही पड़ता है! इसीको कलियुग में रहना कहते हैं। जो युवा भारत में (जहाँ आज भी गीता-उपनिषद पर आधारित महामण्डल प्रशिक्षण शिविर लगता हो),जन्म लेकर भी अभी तक 'विवेक-प्रयोग ' नहीं करते हैं! अर्थात जगतगुरु स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श (नेता या गुरु) नहीं मानते हैं; वे सिंह-शावक (अविनाशी -अमृतपुत्र) होकर भी स्वयं को भेंड़ (नश्वर-शरीर) समझते हैं, वे मानो मोहनिद्रा में सोये-पड़े हैं! उनका स्वप्न-भंग नहीं हुआ है -हिप्नोटाइज्ड अवस्था में हैं इसीलिये वैसे युवा अभी तक मानो 'कलिकाल' में ही वास कर रहे हैं।]
[ 'पुरुषार्थ' करने का अर्थ: निःस्वार्थ कर्म द्वारा 'अपराप्रकृति (एक्सटर्नल नेचर= करन वाला अहं) और पराप्रकृति (इंटर्नल नेचर= कर्ता वाला अहं)' को वशीभूत कर अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग या 'शिक्षक प्रशिक्षण-पद्धति' को सीखने के लिये महामण्डल के
'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेना।
क्योंकि जिस 'सिंह-शावक' को क्लास नाइंथ से 'भेंड़-शिशु' होने का भ्रम (मृत्यु का भय) परेशान कर था, वह भय महामण्डल रूपी सिंह-गुरु की दहाड़ (श्री ठाकुर-स्वामीजी के महावाक्य) को सुनकर, जिस निर्झर का स्वप्न-भंग हो जाता है,वह 'BE AND MAKE' प्रशिक्षण परम्परा का प्रेमी-प्रशिक्षक, शिक्षक या महामण्डल संगठन का 'दास-नेता' बनकर आजीवन निःस्वार्थ कर्म करता रहता है। क्योंकि अब उसे उस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है कि- 'अविनाशी आत्मा की मृत्यु' तो है ही नहीं ! मृत्यु तो 'अहंकार' की होती है ! ['2H' परिवर्तनशील नश्वर देह-मन को ही मैं समझने वाले भ्रमित-अहं की होती है !]
वह "खतरनाक सत्य" -जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देव- कुलिश अँधा हो गया था; वह अवस्था वास्तव में अतिचेतन अवस्था, या परमसत्य से साक्षात्कार की अवस्था ही थी ! देश-काल- निमित्त के उस पार जाने के बाद भी माँ की इच्छा से, जो वापस देश-काल की सीमा में लौट आता है, केवल 'करण वाला अहं' -नारियल की डाली टूट जाने के बाद भी जैसे उसका एक दाग दीखता है, उसका अहं (2H) भी केवल आत्मा का '3rdH' का निमित्त मात्र होता है !
३." उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति " - " धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष "- इन चारों की प्रेरणा से ही मनुष्य पुरुषार्थ करने के लिये अग्रसर होता है। जब मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द का कोई भक्त या अनुयायी 'BE AND MAKE' परम्परा (या श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा) में "पुरुषार्थ" करने के लिये उठ खड़ा होता है। अर्थात जब वह ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के लिये, कृतसंकल्प होकर
महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का स्वयं निष्ठा पूर्वक पालन करने लगता है, और साथ ही साथ
अपने शहर या गाँव में आस-पास रहने वाले कुछ अन्य युवाओं को भी एकत्र कर, उन्हें भी "BE AND MAKE" के ५ अभ्यासों का पालन करने हेतु अनुप्रेरित करने के लिये, कमर कस कर उठ- खड़ा होता है। तब उसका भाग्य भी उठकर खड़ा हो जाता है। और तब उसके विचार जगत में त्रेता युग का प्रारम्भ हो जाता है।
४." कृतं संपद्यते चरन् "- सत्य-युग को ही कृत-युग भी कहा जाता है। कृत-कृत्य हो जाने का अर्थ है मनुष्य-शरीर प्राप्त करके जो कुछ करने योग्य था सो कर लिया है ! अर्थात 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्राचीन धर्म के सार- 'तत्वमसि' के मर्म को आत्मस्थ करके चरित्रवान मनुष्य (ब्रह्मविद
मनुष्य) बनने और बनाने की पद्धति को सीख लिया है। और अब यदि वह व्यक्ति, समाज में सबसे उपेक्षित समझे जाने वाले -" मछुआ, माली, मोची, मेहतर की झोपड़ियों में, बनिये की दुकान में, भुजवा के भाड़ के पास में,हल द्वारा खेत जोतने वाले किसान के पास में, कारखानों में, हाट में, बाजार में, भारत के कोने कोने में, इसी प्राचीन धर्म के सार - "तत्वमसि " के मर्म को समझने में सहायक- 'BE AND MAKE'
प्रशिक्षण, या " 3H विकास युवा प्रशिक्षण शिविर" द्वारा नया भारत गढ़ने के कार्य में लग जाता है, तब उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है। ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनकर अपने मनुष्य-जीवन को सार्थक कर लेता है ! यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसलिए ऐतरेय श्रुति में कहा गया है-"चरैवेति चरैवेति।" .... अर्थात समाज में आस्तिकता को प्रतिस्थापित करके सत्ययुग की स्थापना करने के लिए - "आगे बढ़ो, आगे बढो!"
भगिनी निवेदिता द्वारा निर्मित महामण्डल ध्वज में भी भारत के जुड़वाँ राष्ट्रीय आदर्श -"त्याग और सेवा" में तीव्रता उत्पन्न करने के लिये ही महर्षि दधीचि की हड्डी से बने वज्र के निशान को दर्शाया गया है। (गेरुआ माझे बज्र निशान- आत्माराम की डिबिया!) स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता कहती थीं कि -" निःस्वार्थी मनुष्य थंडरबोल्ट या बज्र के जैसा अप्रतिरोध्य जाता है !" अतः ५ अभ्यास द्वारा जिस 'निर्झर का स्वप्न' एक दिन भंग हो जायेगा वह पूर्ण निःस्वार्थी मनुष्य बनकर, "चरैवेति चरैवेति" करते हुए 'BE AND MAKE' परम्परा में युवा-प्रशिक्षण शिविर द्वारा धरती पर सत्ययुग लाने में सक्षम प्रशिक्षकों का निर्माण करने में जुट जायेगा।
स्वयं ऐसा "मनुष्य" (ब्रह्मविद मनुष्य या नेता) बने - और अपने आसपास रहने वाले अन्य युवाओं को संघबद्ध करके, उन्हें भी महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का प्रशिक्षण देने में समर्थ ऐसा प्रशिक्षक (नेता) बना दे ! जो प्रत्येक युवा को 'थंडरबोल्ट' या वज्र के जैसा निःस्वार्थ मनुष्य बना कर - स्वामी विवेकानन्द के चरित्र-निर्माण एवं मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को एक आन्दोलन के रूप में भारत के कोने-कोने तक पहुँचा देने में समर्थ हो !
इन्हीं सब बातों को- महामण्डल के आदर्श,उद्देश्य और कार्यक्रम को, महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह एवं ध्वज, संघ-मन्त्र, स्वदेश-मन्त्र तथा महामण्डल-जयघोष आदि के द्वारा बहुत सूक्ष्म रूप में व्यक्त किया गया है।
१. अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य: भारत का कल्याण !
२. महामण्डल भारत कल्याण का उपाय: चरित्र-निर्माण !
३. महामण्डल के आदर्श: परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द !
४. महामण्डल का 'आदर्श-वाक्य' (Motto): " Be and Make -मनुष्य बनो और बनाओ !"
५. महामण्डल आन्दोलन की अभियान नीति है :" चरैवेति चरैवेति"
( 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द अद्वैत परम्परा' में 3H विकास का 5 अभ्यासों द्वारा -प्रशिक्षण द्वारा अद्वैत में स्थित, वज्र के जैसा अप्रतिरोध्य, पूर्ण निःस्वार्थी मनुष्यों, भावी लोक-शिक्षकों या नेताओं का निर्माण करके धरती पर सतयुग, धर्मराज्य या रामराज्य लाने की योजना- को ही महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में गोल-घेरे के चारों ओर जो छोटे-छोटे वज्र के निशान रूप- 7 प्रवृत्ति के और 7 निवृत्ति मार्ग के ऋषियों को वज्र के प्रतिक रूप से अंकित किया गया है। )
१. अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य: भारत का कल्याण !
२. महामण्डल भारत कल्याण का उपाय: चरित्र-निर्माण !
३. महामण्डल के आदर्श: परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द !
४. महामण्डल का 'आदर्श-वाक्य' (Motto): " Be and Make -मनुष्य बनो और बनाओ !"
५. महामण्डल आन्दोलन की अभियान नीति है :" चरैवेति चरैवेति"
( 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द अद्वैत परम्परा' में 3H विकास का 5 अभ्यासों द्वारा -प्रशिक्षण द्वारा अद्वैत में स्थित, वज्र के जैसा अप्रतिरोध्य, पूर्ण निःस्वार्थी मनुष्यों, भावी लोक-शिक्षकों या नेताओं का निर्माण करके धरती पर सतयुग, धर्मराज्य या रामराज्य लाने की योजना- को ही महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में गोल-घेरे के चारों ओर जो छोटे-छोटे वज्र के निशान रूप- 7 प्रवृत्ति के और 7 निवृत्ति मार्ग के ऋषियों को वज्र के प्रतिक रूप से अंकित किया गया है। )
नवनी दा कहते थे - " महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में -'Be & Make' वेदान्त परम्परा में महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा 'मनुष्य' (ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य) बनने और बनाने' की सत्यता को आज के युवा एक एक्स्पेरिमेन्टल ट्रूथ या प्रयोग-गत यथार्थ के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं। इसीलिये अब वे १२ जनवरी को केवल एक दिन आवेश-आवेग पूर्ण ढंग से श्रद्धा व्यक्त करके स्वामी विवेकानन्द की जयंती मानाने में विश्वास नहीं करते। बल्कि शिविर से लौटने के बाद, स्वेच्छा से, अपने-अपने गाँव या शहरों में महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों द्वारा 'मनुष्य' (ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य) बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने वाली शाखाएं स्थापित कर रहे हैं। महामण्डल के अविर्भूत होने के ५० वर्षों के भीतर देश-वासियों, विशेषकर युवाओं के विचार-जगत में ऐसा जो परिवर्तन,
'आस्तिकता या सतयुग' स्थापन के प्रति ऐसा जो आग्रह दिखाई दे रहा है। इस परिवर्तन के पीछे,रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान,"महामण्डल" तथा उसके मासिक मुखपत्र "Vivek-Jivan" की भी एक भूमिका अवश्य रही है, ऐसा हमारा विश्वास है ! "
भारत के सैंकड़ों युवाओं को दरिद्रता और अशिक्षा के दलदल में निमज्जित कड़ोड़ो-करोड़ देशवासियों के कल्याण की चिंता से भाव-विह्वल स्वामी विवेकानन्द का संदेश वाहक बनाकर, समस्त प्रकार की आत्म-केन्द्रिकता, भोगविलास और सुख पाने की इच्छा से मुक्त होकर,स्वयं अपने जीवन को ही एक आदर्श मनुष्य (चरित्रवान मनुष्य) का उदाहरण के रूप में गठित करके, कश्मीर से कन्याकुमारी तक "Be & Make" का प्रचार-प्रसार करने में जुट जाना होगा। इस कार्य को दक्षता के साथ रूपायित कर पाने पर ही 'महामण्डल' तथा 'Vivek-Jivan' की सफलता निर्भर करती है। "
>>>Be and Make - आन्दोलन के भगीरथी : प्रचार -प्रसार में अब हम समझ सकते हैं कि,स्वामी विवेकानन्द की वाणी -" श्री रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है " ('रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे'/ फ्रॉम दी डेट दैट दी रामकृष्ण इन्कारनेशन वाज बॉर्न, हैज स्प्रंग दी गोल्डन ऐज।) की सच्चाई को सम्पूर्ण विश्व में सत्ययुग लाने की लिए 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति को स्थापित करने के लिये, जिस प्रकार पश्चिम बंगाल में महामण्डल को वर्ष 1967 में और दो वर्ष बाद उसकी द्विभाषी संवाद पत्रिका 'VIVEK-JIVAN को 1969 में अविर्भूत होना पड़ा था।
क्योंकि "अवतार-वरिष् श्री रामकृष्ण देव का जन्म" तथा ' उनकी जन्म-तिथि से सतयुग का आरम्भ हुआ है ' इस सच्चाई को 'चरैवेति चरैवेति' करते हुए, सम्पूर्ण विश्व में स्थापित करने वाले 'युवा-संगठन' - महामण्डल का आविर्भाव भी पश्चिम बंगाल में हुआ था।
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नवनीदा की स्मृति : महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तिकायें हिन्दी में 1985 तक कहीं भी उपलब्ध नहीं थीं। क्योंकि हमलोगों के तथाकथित " सेक्यूलर " पाठ्य-पुस्तकों में 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में प्राप्त होने वाली मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का कहीं कोई उल्लेख नहीं था ! हमारे विद्यालय के हिन्दी शिक्षक श्री राम विलास केवट जी RSS के भी सदस्य थे वे अपने घर में स्वामीजी अमेरिका में हिन्दू धर्म का प्रचार करने वाला प्रथम हिन्दू संन्यासी 'Hindu Monk Of India" लिखा फोटो रखते थे।
लेकिन अब मैं स्पष्ट रूप से यह देख सकता हूँ कि जिस प्रकार साक्षात् स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से पश्चिम बंगाल में महामण्डल को वर्ष 1967 में और दो वर्ष बाद उसकी द्विभाषी संवाद पत्रिका 'VIVEK-JIVAN को 1969 में अविर्भूत होना पड़ा था। ठीक उसी प्रकार झुमरीतिलैया में "विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर" को 1985 में, महामण्डल को 1988 में तथा दस वर्ष बाद इसकी हिन्दी त्रैमासिक संवाद पत्रिका - "विवेक-अंजन" को 1998 में अविर्भूत होना पड़ा था!
इसी बीच पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने स्वामी विवेकानन्द की जन्मतिथि ' 12 जनवरी' को 1984 ई ० में पहली बार "राष्ट्रिय युवा दिवस" घोषित कर दिया था। और विवेक-अंजन का संपादक युवा अवस्था में ही 1985 तक, तारा प्लास्टिक्स इंडस्ट्री में अच्छी तरह से स्थापित हो चुका था। इसीलिये तात्कालीन काँग्रेसी सांसद श्री तिलकधारी सिंह, विधायक हीरू बाबु को अपना राजनैतिक गुरु बनाकर राजनीति के माध्यम से देश सेवा करना उचित समझ रहा था। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द से जुड़ने के पहले श्रेय-प्रेय विवेक क्या होता है, विवेक-प्रयोग कैसे किया जाता है ? इन सब बातों की कोई जानकारी नहीं थी। इसी दौरान पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की 1984 में हुई हत्या के बाद, श्री राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बने। 12 जनवरी 1985 को " दिल्ली रामकृष्ण मिशन आश्रम" में स्वामी विवेकानन्द कि जयंती मनाई जा रही थी, जिसमें स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर माल्यार्पण करने तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी पहुँचे थे।
[ This image of Swami Vivekananda was taken by popular photographer Thomas Harrison in September 1893 in Harrison Studio, Chicago. The pose of Vivekananda was later named as his "Chicago pose" -or Hindu Monk of India? ]
भी हुआ! क्या संक्रान्ति की घटनाओं को मात्र एक संयोग कहना उचित होगा? 14 अप्रैल, 1992 को प्रातः 5.30 se 6.00 बजे के बीच -वनस्थली राजस्थान- वाराणसी, रोहनिया, ऊँच, कबीर चौरा भ्रम-भंजन गोष्टी अस्पताल मेंजाने के पहले; चिदानन्द रूपः शिवोहं- शिवोहं तो अभी मरेगा कौन मिथ्या अहंकार या अपरिवर्तन-शील सत्य या ब्रह्म ? इसी भावी एक्सीडेंट पर मन को एकाग्र करने के बाद,'Big Bang ' वेदांत डिण्डिम का अनुभव- प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-निर्विकल्प समाधि हो जाने, या उस खतरनाक सत्य से साक्षात्कार हो जाने से मनुष्य का भ्रम या मिथ्या "कर्ता" पन वाला अहंकार (अज्ञान की गाँठ) नष्ट हो जाता है, केवल "करन" (कारण शरीर) वाला अहं ही बचता है इसी को अलंकारिक भाषा में अँधा हो गया था कहते हैं !!
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।
और शायद इन्ही सब कारणों से ' VIVEK-JIVAN का हिन्दी-संस्करण त्रैमासिक " VIVEK-ANJAN " भी आविर्भूत हो गया। अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के अध्यक्ष तथा ' VIVEK-JIVAN ' के संपादक श्री नवनिहरणमुखोपाध्याय जी से उचित मार्गदर्शन तथा प्रोत्साहन पाकर अब इस पत्रिका को नियमित रूप से हिन्दी में भी प्रकाशित एवं वितरित करने की चेष्टा की जा रही है। आशा है, यह पत्रिका स्वामीजी के निर्देशानुसार ''मनुष्य बनो और बनाओ'' आन्दोलन को पूरे भारतवर्ष के कोने-कोने तक पहुँचा देने में महत्वपूर्ण योगदान करेगी।
मैंने नवनी दा से पूछा था कि 'A New Youth Movement' मूल पुस्तक में केवल 18 निबन्ध है। उसमें 'भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण' यह निबन्ध जोड़ने से उसकी उपयोगित बढ़ जाएगी। क्या मैं इसका हिन्दी संस्करण छपाते समय , क्या मैं उसमें 19 और 20 भी जोड़ सकता हूँ ? पूज्य दादा ने कहा था -देख लो, यदि उपयोगो समझते हो!
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के 56 वर्ष पूरे हुए। मेरे साथ-साथ झुमरी तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के (1985 से 2023 तक) के 38 वर्ष पूरे हुए हैं, 12 वर्ष बाद 2035 में झुमरीतिलैया महामण्डल का 50 वर्ष पूरा होगा। तब तक यह शरीर यदि जीवित रहा तो इस शरीर की आयु 85 वर्ष हो चुकी होगी। दादा से पूछा था - महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में "चरैवेति चरैवेति " क्यों दिया है ? डीहिप्नोटाइज होकर (निर्झर का स्वप्नभंग होकर) अद्वैत का प्रचार करने में सक्षम नेता बनो और बनाओ ! जमशेदपुर कैम्प में दादा का अंतिम निर्देश था -" गृहस्थ हो तो क्या हुआ ? आर यू अ बीस्ट? मोने राखबे जे तुमि एक जन शीक्षक ! " विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " (समस्त ४२ निबन्ध )/ महामण्डल का आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम !/इन्हीं निबन्धों के आलोक में, मैंने पुनः एकबार यह समझने का प्रयास किया है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के 20 वर्ष बाद, 1967 ई ० में "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" को और दो वर्षों के बाद 1969 ई० में इसकी द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगला) संवाद पत्रिका 'VIVEK-JIVAN ' को पश्चिम बंगाल में क्यों आविर्भूत होना पड़ा था ? तथा उसके केवल 18 वर्षों बाद 12 जनवरी, 1985 को झुमरीतिलैया में साक्षात् स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से जो युवा चरित्र-निर्माणकारी संगठन "विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर" के नाम से स्थापित हुआ था; वही महामण्डल द्वारा बेलघड़िया में 1987 में आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर में CINC नवनीदा रूपी साक्षात् माँ सारदा के दर्शन और कृपा के बाद 1988 में,"झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल" में कैसे रूपान्तरित हुआ? तथा दस वर्ष बाद 1998 में महामण्डल का हिन्दी प्रकाशन विभाग, एवं इसकी हिन्दी त्रैमासिक संवाद पत्रिका - "विवेक-अंजन" को भी झुमरीतिलैया,कोडरमा (झारखण्ड) में क्यों अविर्भूत होना पड़ा था ?
[ >>> 1.पुनर्जन्म किसका होता है और क्यों होता है ? मन का विश्लेषण करते करते, जब 14अप्रिल 1992 को जब स्त्री/पुरुष शरीर में 'करण-अहं' (बाह्य प्रकृति) उड़ गया था; वह 'खतरनाक सत्य' जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ? तब दादा के समझाने पर समझा था शाश्वत चैतन्य स्पंदन सच्चिदानन्द का अनुभव मुझे (करण-अहं) को नहीं, बल्कि आत्मा को ही हुआ था! और फिर जब एक दिन ( 6मार्च, 1917 को वाट्सएप ग्रूप के जटिला-कुटिला का नाश करने वाले) 'कर्ता-अहंकार' की खोज करते हुए 'चेतन-अवचेतन-अचेतन' रूपी मानस-समुद्र के अंतिम गहराई तक मंथन करके देख लिया; तब यह समझ में आया कि वेदान्त डिण्डिम - " जीवो ब्रह्म नापरः" - आत्मा ही प्रेमस्वरूप परमात्मा है, जिसमें द्वैत बुद्धि तो है ही नहीं। इसलिये, माँ भवतारिणी की इच्छा से केवल 'विद्या का अहं' माँ सारदा देवी के मातृ ह्रदय का सर्वव्यापी विराट 'मैं' रखने वाला अवतारी 'मैं' भी तुम नहीं आत्मा ही -दास मैं बना है, तुम हमेशा से साक्षी चैतन्य थे ,हो रहोगे - तत्त्वमसि !
कर्म और भाग्य (पुनर्जन्म) ये दोनों एक दूसरे से जुड़े है। कर्मों के फल (प्रारब्ध) के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है, तथा पुनर्जन्म के कारण फिर नए कर्म संग्रहीत होते हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म के दो उद्देश्य हैं- पहला, यह कि मनुष्य अपने जन्मों के कर्मों के फल का भोग करता है जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है। दूसरा, यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नए जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है।
जिससे बार-बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढ़ती जाती है, तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है। गौतम बुद्ध जब बुद्धत्व प्राप्त कर रहे थे तब उन्हें बुद्धत्व प्राप्त करने के पहले पिछले कई जन्मों का स्मरण हुआ था। गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां जातक कथाओं द्वारा जानी जाती हैं।
शर शय्या पर पड़े भीष्म पितामह श्री कृष्ण जी से पूछते है कि अपने पिछले कुछ जन्मो में तो मैंने ऐसा कोई काम किया ही नहीं कि मुझे यह दारुण दुःख सहना पड़े ? तब श्री कृष्ण जी ने उनके पिछले ७ वें जन्म का दृश्य उन्हें अपनी योगमाया से दिखाया, कि भीष्म एक राजा थे और जंगल में जा रहे थे। रास्ते में एक सांप आ गया , तब पितामह ने धनुष की नोक से उस सांप को पीछे उछाल दिया वह सांप एक बबूल के पेंड पर जा गिरा। और ६ मास तक तडपता रहा , ६ मास बाद उसकी मृत्यु हुई। मतलब भीष्म अपने पूर्व के ७ वें जन्म का फल भोग रहे थे ।--------------------
द्वितीयाद्वै भयं भवति (Br.up.) Fear verily ensues from anything second (to oneself) क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः [source: Pandavagitaa: [द्रोण] [Even the anger of gods is conducive of benefit. ]
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः [The vedas will not purify the one who is loose in
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः [The vedas will not purify the one who is loose in
morals and does not observe the basic rules of religious and social conduct]
धर्मो रक्षति रक्षितः [Dharma protects the one who protects, abides by, it.]
" शिवः केवलोऽहम्,चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् - " Realization of this Truth is Religion!
वेदः शिवः शिवो वेदो वेदाध्यायी सदाशिवः [The Veda is indeed Shiva, Shiva indeed is Veda, the one who studies / recites the Veda is verily sadAshivaH.]
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धर्मो रक्षति रक्षितः [Dharma protects the one who protects, abides by, it.]
" शिवः केवलोऽहम्,चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् - " Realization of this Truth is Religion!
वेदः शिवः शिवो वेदो वेदाध्यायी सदाशिवः [The Veda is indeed Shiva, Shiva indeed is Veda, the one who studies / recites the Veda is verily sadAshivaH.]
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