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शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

" जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित शिक्षक के महाजीवन का संदेश ' ['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 ]

['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 / मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' निबन्ध संख्या -9 -' স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারা !"] 
महाजीवन का संदेश 
'जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में गठित (प्रशिक्षित शिक्षक) स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा (ideology) को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत ही कठिन है। उनके किसी एक निबन्ध या भाषण में किसी एक विषय पर, चाहे उसमें जितना भी तथ्यपूर्ण या अर्थपूर्ण  विश्लेषण क्यों न प्रस्तुत किया गया हो, उन विचारों के प्रवाह को एक ही दिशा में प्रवाहित देखकर, यदि यह समझ लिया जाय कि स्वामी जी विचारधारा मात्र यही है; तो उस विचारधारा के संबंध में यह सम्यक अवधारणा नहीं हो सकती। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ना और उसपर मनन करना, फिर उन्हें चरित्रगत करना अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी को आराम से बैठकर समस्त विषयों के उपर सारगर्भित निबन्ध लिखने का या तो समय मिला था, या उन्होंने इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की थी। किन्तु, फिर भी अपने कथोपकथन के द्वारा या भाषणों अथवा पत्रों के माध्यम से, या कभी कुछ अस्फुट नोट आदि लिखकर उन्होंने समस्त विषयों की गहराई में जाकर, उनको हमारे समक्ष अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है।
जब हम अन्य विचारकों के द्वारा बहुत से विषयों पर लिखित पुस्तकों का अध्यन करते हैं, तो उन विषयों पर स्पष्ट धारणा बनाने में हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। किन्तु, यदि स्वामी जी की विचारधारा (ideology) या  विचार-पद्धति के साथ हमारा सम्यक परिचय हो जाये तो, वे समस्त भ्रम-भ्रान्तियाँ तो दूर होंगी ही, साथ ही साथ हम प्रत्येक विषय के यथार्थ भाव के मूल में पहुँचकर सहजता से उसकी स्पष्ट धारणा भी बना सकेंगे।इतना ही नहीं, हम उस धारणा को हम अपने जीवन में उतार लेने में समर्थ होंगे और हमें यह अवश्य ही करना चाहिये। हमें यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि भले ही कोई तात्विक ज्ञान कितना भी महान और सुन्दर क्यों न हो, जब तक वह ज्ञान कार्य में रूपायित नहीं हो जाता, तब तक हमारे जीवन के लिये उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। किसी भी ज्ञान का मूल्य उसको व्यवहार में उतारने तथा उससे प्राप्त उसके शुभ फल पर निर्भर करता है। 
[PRACTICAL VEDANTA: "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy."  " मेरा धर्म सत्यधर्म है, तुम्हारा धर्म पाखण्ड है ! ] 
किसी तात्विक -ज्ञान को व्यवहार में उतारने अथवा उसे चरित्रगत करने के लिए, जब उसके ऊपर गहराई से चिन्तन-मनन किया जाता है, तब उस प्रकार के चिन्तन को " Pragmatic Thinking" या व्यावहारिक चिन्तन कहा जाता है। इसीलिये, 'Pragmatism**' या प्रयोगात्मक सिद्धान्तों को एक दार्शनिक मतवाद के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। किन्तु, आजकल किसी के विचार को ठीक से जाने-समझे बिना ही उसके साथ 'ism' या 'वाद' जोड़ देने की प्रथा सी चल पड़ी है। (जैसे श्रीशंकर का अद्वैतवाद, श्रीरामानुज का विशिष्टा-द्वैतवाद, श्री चैतन्य का भेदाभेद-वाद आदि आदि;  एक विश्वास या विश्वास करने की प्रणाली को 'वाद' कहा जाता है।)  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) को भी ठीक से जाने- समझे बिना, उनके लिए कोई विशेष वाद जोड़ने की हड़बड़ी में कह दिया जाता है कि,  स्वामी जी तो एक भावराज्य में विचरण करने वाले, कल्पनावादी या एक आदर्शवादी (Idealistic) मानव थे। हाँ, यह ठीक है कि स्वामी विवकानन्द भावराज्य या मनोराज्य में विचरण करने वाले एक कल्पनाशील (Imaginative) मनुष्य थे, किन्तु उनके लिए इस विशेषण का प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब कहने वाले और सुनने वाले यह अच्छी तरह से जानते और समझते हों कि यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड ही मनःकल्पित है ! इसीलिये विचारों को ही सबसे प्रभावकारी वस्तु माना जाता है !
[ ऑटोसजेशन का अभ्यास को Most effective,मति = bias, बुद्धि के पक्षपातपूर्ण झुकाव, पूर्वाग्रह को ही सबसे प्रभावकारी वस्तु माना जाता है। अवधूत गीता -२/२६ में कहा गया है-"अंते या मति: सा गति:" अर्थात जब प्राण निकले, उस क्षण  हमारी जैसे मति हो वैसी ही हम को गति मिलेगी। अंतिम समय में ही मनुष्य के लिए 'मुक्ति या बंधन' तय हो जाता है। 'या मति सा गतिर्भवेत',अपने भेंड़ समझोगे तो भेंड़ ही बने रहोगे, अपने को सिंह समझोगे तो सिंह बन जाओगे !  इसीलिए कहना पड़ेगा कि इस मनःकल्पित जगत में विचार या 'मति' ही सबसे प्रभावकारी वस्तु है।] 
किन्तुस्वामी जी के मतानुसार जीवन के जिस क्षेत्र को हमलोग वास्तविक या व्यावहारिक क्षेत्र (Practical Side) समझते हैं, जिसको हमलोग 'पंचेन्द्रीय ग्राह्य भौतिक जगत' या बाह्य जगत कहते हैं,  यदि हमारा तात्विक-ज्ञान जीवन के उस व्यावहारिक पक्ष के लिये ही उपयोगी न हुआ, या शुभफल प्रदान नहीं करता हो, तो उस तात्विक-ज्ञान या सिद्धान्त का कुछ भी मूल्य नहीं है। इसीलिये यदि गहराई में जाकर देखा जाय, तो स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति या (ideology) भवराज्य की वस्तु न होकर, वास्तव में 'Pragmatic' या व्यवहार-मूलक विचार ही है! बल्कि सच तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द जैसा व्यवहारिक विचार-सम्पन्न चिन्तक, या जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र के ऊपर सर्वाधिक जोर देने वाले सिद्धान्तवादी (theoretician) बहुत कम ही हुए हैं। फिरभी हमलोग यदि अधकचरे आलोचकों से प्रभावित होकर यह कहना शुरू करदें कि स्वामी जी एक ऐसे कल्पनावादी विचारक हैं, जो रहते तो धरती पर हैं, किन्तु हमेशा आसमान में ही विचरण करते रहते हैं; तो उससे उनकी शिक्षाओं के विषय में हमारी अज्ञता ही प्रदर्शित होगी। जबकि स्वामी जी की शिक्षा तो यह है कि -'उठो, जागो ! और जबतक लक्ष्य पर न पहुँचो रुको मत !' अर्थात चट्टानी भूमि पर खड़े होकर, साक्षी भाव से संसार की वास्तविकता को समझो ! वे हमें अपने पैरों पर खड़े होने की सीख देते हैं। उनका उपदेश था कि "चट्टानी भूमि पर पैरों को दृढ़ता पूर्वक स्थापित कर, बाँहों को फैला लो !" [अर्थात सम्पूर्ण विश्व को ही अपने आलिंगन में भर लो!] स्वामी जी वास्तव में एक उपयोगबुद्धि (resourcefulness, चातुर्य, उपायकुशलता ) सम्पन्न विचारक ही थे, इस बारे में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द के साथ निकट सम्पर्क में आने से, सबसे अधिक लाभ वैसे व्यक्ति ही उठा सकते हैं, जो स्वयं को व्यवहारिकबुद्धि-सम्पन्न समझते हैं, या अपने को Pragmatic, या व्यवहारमूलक व्यक्ति मानते हैं। किन्तु उनकी शिक्षाओं में सन्निहित कूटशब्दों, जैसे "पहले हमें ईश्वर बन लेने दो, फिर दूसरों को ईश्वर बनने में सहायता करेंगे, 'Be and Make' let this be our motto " आदि महावाक्यों को 'decode' करने या समझने के लिए, हमें स्वामी विवेकानन्द के हृदय में प्रवेश करने की चेष्टा करनी होगी। परन्तु, ऐसा कर पाने में समर्थ हो जाना, उसी प्रकार सरल नहीं है, जिस प्रकार कोई मीर्च कितनी तीखी है, उसकी तिक्तता को ज्ञात करने के लिए किसी दूसरे के मुख का उपयोग नहीं किया जा सकता। अतः यदि हमलोग स्वामी जी के साथ निकट का सम्पर्क स्थापित करने के लिये उत्साहित हों, तो इतना जान लेने से ही काम नहीं चलेगा कि, उनके विषय में फलां -फलां व्यक्तियों का कहना है ?  स्वामी जी को जानने के लिये हमें (চর্চা ও চেষ্টা ) स्वयं प्रयत्न करके उनकी शिक्षाओं को आचरण में उतारने का अभ्यास द्वारा स्वामी जी के साथ साक्षात् संबंध स्थापित करना पड़ेगा। स्वामी जी ने स्वयं जो कुछ कहा है या लिखा है, उसके अविकृत (untwisted, un-distorted) अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ने के बाद, उसके उपर परस्पर गहन चिन्तन-मनन करने, और अपने आचरण में उतारने का प्रयत्न करने से ही हमलोग उनका सही परिचय प्राप्त कर सकते हैं, तथा हमारे लिए ऐसा करना प्रयोजनीय भी है। 
यूँ तो स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है, फिर भी उनकी प्रशंसा एक महान देशभक्त के रूप में की जाती है; और निश्चित ही इस विषय में कुछ लोग उनकी निन्दा भी करते हैं।सच पूछा जाये तो स्वामी जी का देशप्रेम सबसे विलक्षण और अनन्य है। एक स्थान पर उन्होंने कहा भी है, कि चाहे भारतवर्ष हो या अमेरिका एक सर्वत्यागी संन्यासी के लिये सभी एक समान हैं। किन्तु, फिर भी जब वे पहली बार विदेश से वापस लौटकर भारत की भूमि पर अपना कदम रखते हैं, तो कहते हैं- " अब मेरे लिये भारतवर्ष का धूल-कण भी पवित्र और महान है तथा वह मुझे प्राणो से भी ज्यादा प्रिय है।" ऐसा उन्होंने क्या सोचकर कहा होगा ? इस बात की व्याख्या कभी शब्दों में नहीं हो सकती।
 जिस विचाधारात्मक परम्परा (Ideological Tradition) में इस धारणा की उपलब्धि का स्रोत सन्निहित है, वही विचारपद्धति (ideology) हमारे निजी जीवन और विश्व भर के मानवों के लिए परम् कल्याणकारी है। उसी विचारधारात्मक परम्परा को "जीवन्मुक्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" या आधुनिक भाषा में " Puri Lineage ' अर्थात नित्य और लीला दोनों को सत्य मानने वाली परम्परा"  भी कहा जा सकता है। [जैसे श्रीमद तोतापुरी-श्रीरामकृष्ण; श्रीरामकृष्ण- स्वामी विवेकानन्द; स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर ....श्रीनवनीदा, श्रीशरदचन्द्र चक्रवर्ती .... आदि, आदि प्रशिक्षित/जीवन्मुक्त शिक्षकों की 'पुरी परम्परा'। इसको ही  महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर में "Be and Make Leadership training tradition" भी कहा जाता है।] 
इस विचारधारात्मक परम्परा (Ideological Tradition)  के जैसी उपादेय, इतना उपकारी भावधारा (ideology) और भी कहीं प्राप्त हो सकती है या नहीं , इसका ज्ञान हमें नहीं है। दूसरे कई विचारकों ने भी बहुत सी अच्छी-अच्छी  बातें कही हैं, जिनके कुछ सदविचारों को हम भी ग्रहण कर सकते हैं। किन्तु, जिनके मुख से जो भी वाणी निकली, वह केवल मानव-कल्याण के लिए ही हों, स्वामी विवेकानन्द (नवनीदा?) के सिवा वैसा कोई दूसरा उदाहरण दिखलायी नहीं पड़ता है। मानव-कल्याण के लिए जितने भी विचार उपयोगी हो सकते हैं, वैसे समस्त विचारों के अकूत भण्डार होने के कारण स्वामी जी अनन्य हो जाते हैं। वे हमारे लिए विस्मय और श्रद्धा के पात्र बन जाते हैं; इसीलिये महामण्डल ने उनको अपने आदर्श के रूप में ग्रहण किया है। सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिये स्वामी जी ने अनेक विषयों के ऊपर अपने विचारों को, अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द के उन समस्त विचारों और उक्तियों में  "नित्य और लीला" के बीच एक संगतता (consistency) है, अविरोध की आन्तरिक धारा है, एक आश्चर्यजनक संसर्ग (Exceptional link) है। 
और इसी 'अविरोध' के आधार पर उन्होंने जाति-प्रथा और नारी-शिक्षा से प्रारम्भ कर सभी कल्याणकारी भावों, अन्तरराष्ट्रीय एकता या विश्व-शांति आदि विभिन्न ज्वलंत समस्याओं का अचूक समाधान भी हमारे समक्ष रखा है। किन्तु, अन्य विचारकों के जैसा एक एक विषय (topic) को अलग -अलग ढंग से लेते हुए, उनके बारे में बहुत सोच-सोच कर कुछ नहीं कहा है। इस समग्र विश्व ब्रह्माण्ड का 'सत्य ' उनकी आँखों के सामने मानो हर क्षण तैरता रहता था। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -अर्थात केवल 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' ही नहीं, बल्कि 'नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य' 'वन हैज बिकम दी मेनी!' यह सत्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। क्योंकि उन्होंने (জগৎ ও জীবনের ভূয়োদর্শন) उन्होंने " जगत और जीवन" का साक्षात् दर्शन ('भूयोदर्शनoutrageous experience, अर्थात  परमसत्य और सापेक्षिक सत्य के बीच एक  चौंका देने वाला अनुभव!) प्राप्त किया था।
क्योंकि वे तो थे ही 'विवेकज ज्ञान' के अधिकारी महापुरुष। इसी अधिकार के बल पर उनके लिए समस्त समस्याओं के तह में जाकर उसका चिरस्थाई निदान (Sustainable Diagnosis) खोज पाना आसान हो गया था। और तभी तो, उनके लिए इतने सारे विषयों के ऊपर , इतने अधिकार पूर्ण ढंग से-व्याख्यान देना सम्भव हो सका था। अतः हमलोगों को पहले यह समझ लेना चाहिए कि शास्त्रविरोधी कर्मों या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना,किसी साधारण अविवेकी-मनुष्य के जैसा (पाशविक) जीवन व्यतीत करते हुए,  हम स्वामी विवेकानन्द का सम्यक परिचय कभी नहीं प्राप्त कर सकते। 
स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) का सम्यक अन्वेषण केवल विवेक-प्रयोग द्वारा ही सम्भव हो सकता है, क्योंकि उनका तो नाम ही विवेकानन्द था; जिसका अर्थ होता है-वह महापुरुष जिसने 'विवेकज-ज्ञान' के माध्यम से 'परमानन्द' के ऊपर अधिकार प्राप्त किया है। [और जैसे नवनीहरण ने नाम का अर्थ है जिसने अद्वैत माखन को चुरा लिया है ?] हमलोग भी उन्हीं के समान अद्वैत ज्ञान  को प्राप्त करना चाहते हैं, 'अमर-आनन्द' के भागीदार (sharers of immortal bliss) बनना चाहते हैं, सभी प्रकार के दुःखों से निवृत्ति चाहते हैं। किन्तु , हमारी मुश्किल यह है कि  हमलोग उनके समान अपनी अन्तर्निहित 'विवेक-शक्ति' का प्रयोग करने की चेष्टा नहीं करते। 
विवेक का प्रयोग कैसे किया जाता है ? इस विद्या को हम यदि सीख लें तो हम भी दुःख के कारणों को समूल नष्ट कर सकते हैं। विवेक का अर्थ होता है, 'सद-असद निर्णय।' अर्थात शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है, श्रेय क्या है, प्रेय क्या है- विवेक-प्रयोग करने के बाद इसका निर्णय करना फिर उसे अपने व्यवहार में उतारने की चेष्टा करना। इसी को प्रचलित भाषा में शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित का निर्णय करना कहते हैं। किन्तु उचित-अनुचित का निर्णय करते समय हमलोग अक्सर भ्रमित हो जाते हैं। क्योंकि, हमलोगों की स्वाभाविक वृत्ति ही ऐसी है कि जो विषय इन्द्रियों को अच्छे लगते हैं, मन उसी को अपने लिए अच्छा मानने लगता है, और ग्रहण करना चाहता है। जो इन्द्रियों को अप्रिय लगता है, मन भ्रमित होकर उसी को अपने लिए बुरा मानने लगता है, और उसी को त्याग देना चाहता है। जैसे -रसगुल्ला मुख में रखने से अच्छा लगता है, किन्तु तिक्त वस्तु चाहे दवा ही क्यों न हो, उसे हम खाना नहीं चाहते , उसको त्यागना चाहते हैं।
 इसीलिये गीता 3:42 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
पण्डित लोग  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर (श्रेष्ठ) कहते हैं, इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ  है वह है आत्मा। इस चैतन्यस्वरूप आत्मा के परे और कुछ नहीं है। 
इसीलिये महामण्डल में 'चित्तनदी के उभयतोवहिनी प्रवाह' पर वैराग्य का फाटक लगाकर, 'विवेक-दर्शन' का प्रशिक्षण दिया जाता है। जहाँ हम  मनः संयोग करते समय 'विवेक-प्रयोग' के द्वारा शरीर, मन और बुद्धि उपाधियों से अपने तादात्म्य को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित होने का सजग प्रयत्न करना सीखते हैं। 
इस 'विवेक-प्रयोग' विद्या सीखने के साथ-साथ, हमारे लिए यह जानना भी अतयन्त उपयोगी होगा कि   'विवेकज ज्ञान ' किसे कहते हैं ? पातंजलि योगसूत्र (3 :54)  में कहा गया है - 'तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।' (अन्वयः तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं, अक्रमम् – बिना क्रम के,  वह, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान है।) 
अर्थात वह ज्ञान जो एक साथ समस्त विषयों की जानकारी देने में सक्षम होता है, जिसे प्राप्त कर लेने पर सभी अवस्थाओं की सम्यक जानकारी हो जाती है। और जो समस्त समस्यायों से त्राण प्रदान करता है, मुक्ति दिला सकता है,उसको ही विवेकज ज्ञान कहते हैं। 
जैसा कि सामान्य तौर पर ज्ञान-अर्जित करने के क्षेत्र में, एक के बाद एक करके, ज्ञान क्रमशः प्राप्त होता है, विवेकज-ज्ञान भी उसी प्रकार के क्रम से प्राप्त होने वाले ज्ञान के जैसा नहीं है। वह ज्ञान बिना क्रम के-अर्थात एक मुहूर्त में होता है।  इस प्रकार 'विवेकज ज्ञान' अर्थ हुआ -भूत, भविष्य, और वर्तमान में घटित होने वाली समस्त घटनाओं, समस्त विषयों को एक साथ समग्र रूप से और क्षणभर में परिपूर्ण जानकारी देने वाला ज्ञान। 
 जैसे कोई कमरा यदि हजार वर्षों से बंद है, तो उस कमरे में बंद अंधकार को जाने में हजार वर्ष नहीं लगते। एक दीपक जलाते ही सारा अंधकार क्षण भर में भाग जाता है। उसी प्रकार विवेकज ज्ञान भी वह ज्ञान है, जो क्षणभर में जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का अनुभव कराकर मनुष्य को भवसागर से, मृत्युभय सहित संसार चक्र से, तार देता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त कर देता है, डीहिप्नोटाइज्ड कर देता है। 
उसी यथार्थ ज्ञान को पाने की लालसा (longing,तीव्र इच्छा) मन में रखकर, पूरी श्रद्धा के साथ स्वामी जी के उपदेशों का पहले श्रवण करना होगा, फिर उस पर चिन्तन या मनन करना होगा, तत्पश्चात निदिध्यासन अर्थात उन शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करना होगा। सामान्य रूप से हमलोग जिस उपाय से ज्ञान अर्जित करते हैं, उस ज्ञान को हम अपनी बुद्धि के द्वारा ही अर्जित करते हैं। उस लौकिक ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान के द्वारा जिन वस्तुओं या विषयों के सम्बन्ध में जो धारणा प्राप्त होती है, वह क्षणिक या तात्कालिक होती है। और इसीलिए उस ज्ञान को सापेक्षिक ज्ञान (Relative knowledge) या परिवर्तनशील, या 'अनित्य ज्ञान' (Variable knowledge) कहते हैं।
 ज्ञाता और ज्ञेय वस्तु के बीच एक स्थानिक और तात्क्षणिक कार्यकारी सम्पर्क स्थापित करने की घटना (Events) के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत के या मनुष्य-जीवन के आध्यात्मिक प्रश्नों (मृत्यु किसकी होती है ?) का समाधान या परिचय नहीं प्राप्त हो पाता है। जबकि स्वामी जी की शिक्षाओं से हमें वह ज्ञानमयी-दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके द्वारा अन्वेषण करने पर हमें एक क्षण में ही हमें समग्र जगत और पूरी सृष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड) का परम सत्य (Absolute knowledge) या नित्य-ज्ञान दृष्टिगोचर होने लगता है। स्वामीजी के संदेशों को ठीक से सुनने, मनन करने, और जीवन में उतारने का प्रयत्न करने से जो ज्ञानालोक उद्भासित होता है, उससे समस्या का स्वरुप और समाधान भी प्राप्त हो जाता है। स्वामी जी की शिक्षाओं को ठीक से श्रवण-मनन और निदिध्यासन करने, अर्थात उनके उपदेशों को विश्वास पूर्वक सुनने, मनन करने और जीवन में उतारने से जो ज्ञानालोक उदभासित होता है, उससे 'मृत्यु की समस्या' का स्वरुप और समाधान भी प्राप्त हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने पातंजलि योगसूत्र 3 :52 की व्याख्या करते हुए इस विवेकज ज्ञान को प्राप्त करने का उपाय भी बतलाया है -   'क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।'3.52  (क्षणतत्क्रमयोः – संयमात् –विवेकजम् –ज्ञानम् – क्षण और उसके क्रम में,संयम करने से,  विवेकजनित, ज्ञान उत्पन्न होता है।) - अर्थात एक क्षण के बाद, आने वाले दूसरे क्षण के क्रम के बीच में  मनःसंयम करने पर विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है। 
इसीलिये स्वामी जी एक महान भविष्यद्रष्टा भी हैं। इसी विवेकज-ज्ञान द्वारा प्राप्त ज्ञानमयी दृष्टि से देखते हुए,उन्होंने  भारत के उज्ज्वल भविष्य की ओर भी संकेत दिया था। पूर्ण (नित्य और लीला, ब्रह्म और जगत) को एक साथ देखकर, उसके विभन्न पक्षों के ऊपर उन्होंने जो व्याख्यान दिये थे, उन्हीं के माध्यम से हमलोग अलग अलग विषयों पर दिए गए उनकी शिक्षाओं से लाभान्वित होते हैं, इसीलिये उनके द्वारा कथित शब्दों को इतना मूल्यवान समझते हैं। जिस प्रकार गीता 10 :42 में श्रीकृष्ण कहते हैं - 
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
भैया अर्जुन, तुम जो इसको-उसको, सब किसी को अलग -अलग रूप से जानने की चेष्टा कर रहे हो, अब तुम्हें उस प्रकार से 'बहुत' (अनेक या many) को जानने की क्या जरूरत है ? तुम तो केवल इतना जान लो कि (One has become Many 'एक या 'नित्य' ही 'लीला' में अनेक बन गए हैं!) 'मैं ही इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
 [" भैया अर्जुन, देखो, मैं घोड़ों की लगाम और चाबुक पकड़े 'सारथि के वेश' में तेरे सामने बैठा हूँ।  दीखने में तो मैं छोटा सा (शरीर-नवनीदा) दीखता हूँ, पर मेरे इस शरीर के किसी एक अंश में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड, महासर्ग और महाप्रलय -- दोनों अवस्थाओं में स्थित हैं। उन सबको लेकर मैं तेरे सामने बैठा हूँ  और तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ,  इसलिये जब मैं स्वयं तेरे सामने हूँ; तब तेरे लिये बहुत सी बातें जानने की क्या जरूरत है ? " https://www.gitasupersite.iitk.ac.in]  
स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) के प्रवाह का वैशिष्ट्य भी यही है ! उनकी समस्त शिक्षाओं का मूल स्वर इतना ही है कि पहले मनुष्य को यथार्थ मनुष्य अर्थात 'पुरुषकार' करने में समर्थ 'मनुष्य' के रूप में गठित करो! उनका कथन है कि तुमलोग समाज को पुनर्गठित करने की बातें करते हो, समाज सुधार करते हो, सेवा करते हो। तुमलोग राजनीति, विज्ञान और अर्थशास्त्र इत्यादि को व्यवहार में लाते हो, इन सबकी आवश्यकता भी है। किन्तु, इतना जान लो कि इन सभी विषयों का प्रयोजन जिस मनुष्य के लिए है, यदि तुम उस मनुष्य को ही अच्छी तरह से गठित नहीं कर सके, उसकी अन्तर्निहित सत्ता (ब्रह्मत्व) को सम्पूर्ण रूप से विकसित कर अभिव्यक्त न करा सके, तो तुम्हारी ये समस्त शिक्षायें -विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, इतिहास, दर्शन सब के सब विफल सिद्ध होंगे, ये सब किसी काम न आ सकेंगे।
 यदि तुम इस मूल (अद्वैत तत्व ) को जान लो, तो सब कुछ का जानना हो जायेगा। इसी को सच्चा ज्ञान कहते हैं। जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे - " एक को जानने का नाम ज्ञान है, और बहुत को जानने का नाम अज्ञान है। यदि ज्ञान-चर्चा के द्वारा हमलोगों का दृष्टिकोण जब तक यह नहीं होता कि हम उसी एक मूल तत्व (अद्वैत) को जानेंगे, जिसको जान लेने से सब कुछ (अनेक) का ज्ञान भी हो जाता है, तब तक 'नित्य और लीला' दोनों सत्य हैं; इस मूल सत्य - को हम कभी हृदयंगम नहीं कर सकते।
আমাদের দৃষ্টিটা থাকা দরকার যে, আমরা সবটাকে জানব, না হলে মূল সত্যটা হৃদয়ঙ্গম হবে না।'  स्वामी जी के मतानुसार  इस 'सम्पूर्ण' को (पूर्णमदः और पूर्णमिदं दोनों को) जानने का अर्थ है, मनुष्य के यथार्थ स्वरुप को जान लेना और अपनी उसी अभिज्ञता (अद्वैतानुभूति) की नींव पर समस्त आनुषंगिक बाह्य विषयों के ज्ञान को व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी बना लेना ( अर्थात धर्म,अर्थ, काम आदि को भी लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति में सहायक बना लेना)। 
स्वामी जी बार-बार जोर देते हुए कहते हैं कि भारत के पुनर्निर्माण के लिए जो हमारा प्रथम कार्य होना चाहिए वह यही है कि मनुष्य अपने यथार्थ स्वरुप का संधान करना सीखे, अर्थात 'Be and Make leadership training tradition' (या पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षण प्राप्त कर ले।अपनी यथार्थ दिव्यता को विकसित करे तथा अपने व्यावहारिक जीवन में उसको अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहे। किन्तु ऐसा प्रशिक्षण केवल वैसे शिक्षक ही दे सकते हैं जो स्वयं उस परम्परा में प्रशिक्षित होकर जीवन्मुक्त बन चुके हैं। इसी "जीवन्मुक्त शिक्षक प्रशिक्षण-परम्परा " को स्पष्ट करते हुए अपने गृहस्थ शिष्य (वुड बी लीडर) श्री शरत चन्द्र चक्रवर्ती से स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
यह बात यदि सत्य है कि, तूने ही पूर्व जन्म में कर्म करके इस देह को प्राप्त किया है,तो कर्म के द्वारा कर्म को काटकर, तू ही फिर इस शरीर में रहते हुए ही जीवन्मुक्त बनने का (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड होने का) प्रयत्न क्यों नहीं करता ? इस बात को निश्चित रूप से समझ लो कि मुक्ति और आत्मज्ञान तेरे अपने ही हाथ में हैं। यह बात बिल्कुल सत्य है कि, ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) में कर्म का लवलेश भी नहीं है, तथापि जो लोग 
जीवन्मुक्त होकर भी काम करते हैं,( कैप्टन सेवियर,नवनीदा आदि महामण्डल आंदोलन में अपने जीवन को न्योछावर कर देते हैं) तो समझ लेना कि वे दूसरों के हित के लिए ही कर्म करते हैं। वे भले-बुरे परिणाम (नरकभोग आदि) की ओर नहीं देखते। किसी वासना (लोक-पुत्र-वित्त) का बीज उनके मन में नहीं रहता।
किन्तु गृहस्थाश्रम में रहकर इस प्रकार यथार्थ परहित के लिए कर्म करना अत्यन्त कठिन है, एक प्रकार से इसे असम्भव ही समझना। (माँ काली पर विश्वासी बनना आसान नहीं ?) समस्त हिन्दू शास्त्रों में उस विषय में जनक राजा का ही एक नाम हैं, परन्तु तुम लोग अब (शास्त्रविरोधी या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना) प्रतिवर्ष बच्चों को जन्म देकर घर घर में विदेह 'जनक ' बनना चाहते हो ! ठाकुर देव कहते थे -

 'जनक राजा महातेजा, तार कीशेर छीलो त्रुटि; 
एदिक् ओ दिक् दू-दिक् रेखे (नित्य-लीला दोनों सत्य), 
खेये छीलो दुधेर बाटी!
शिष्य - महाराज, आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आत्मानुभूति की प्राप्ति इसी शरीर में हो जाये। 
स्वामी जी - भय क्या है ? मन में अनन्यता आने पर , मैं निश्चित रूप से कहता हूँ, इस जन्म में ही आत्मानुभूति हो जाएगी। परन्तु पुरुषकार चाहिये !  (मनुष्यत्व का उन्मेषक किसी मार्गदर्शक नेता को अपना बना लेना चाहिए !) 
पुरुषकार क्या है , जानता है ? आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा; इसमें जो बाधा-विपत्ति सामने आयेगी, उस पर अवश्य विजय प्राप्त करूँगा -इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम ही पुरुषकार है। माँ, बाप, भाई, मित्र, स्त्री, पुत्र मरते हैं मरें , यह देह रहे तो रहे, न रहे तो न सही , मैं किसी भी तरह से पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मदर्शन नहीं होता , तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरूषकार ; नहीं तो दूसरे पुरुषकार (आहार ,निद्रा, भय , मैथुन) तो पशु -पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्य ने 'विवेक-बुद्धि सम्पन्न यह मानव-शरीर' केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्राप्त किया है। संसार में अधिकांश लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, क्या तू भी उसी स्रोत में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार (मनुष्यत्व-उन्मेष) का मूल्य क्या है ? सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है ! महावीर की तरह अग्रसर हो जा। किसीकी परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्त किया है तो भीतर की आत्मा को जगा, और बोल -मैंने मृत्यु के भय को जीत लिया है, मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है। बोल - मैं वही सर्वव्यापी विराट आत्मा (माँ जगदम्बा का अहं बोध) हूँ, जिसमें मेरा पहले वाला क्षुद्र 'अहं भाव' डूब गया है। इसी तरह पहले तू सिद्ध (प्रशिक्षित शिक्षक) बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महवीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत ! ('तू वही है', 'उठो, जागो और लक्ष्य (विवेकज-आनन्द) प्राप्त करने तक रुको नहीं !) यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में  ' पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एक सच्चा 'पूर्वी बंगाली' है।" 6/179]               
विदेश भ्रमण से लौटने के बाद स्वामी जी को ' भारतवर्ष का प्रत्येक धूल-कण पहले से भी अधिक पवित्र और प्राणों से भी प्यारी' लगने लगी थी, वह इसीलिये कि,समस्त मानव जाति के कल्याण करने में समर्थ महान तात्विक ज्ञान -" एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति" का महान सूत्र,इसी भारतवर्ष में आविष्कृत हुआ था। उन्हें इस बात की अनुभूति हुई थी, वे यह समझ सके थे कि यदि विश्व की सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण होना है, तो उसके लिए इसी तात्विक ज्ञान की आवश्यकता है।
 जो ईश्वरीय विधानवश इसी देश के ऋषियों ने प्राचीन ' गुरु-शिष्य ध्यान-मनन प्रशिक्षण परम्परा' के प्रत्यक्ष आलोक में हजारों वर्ष पूर्व ही आविष्कृत कर लिया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि यदि भारतवर्ष पुनः' पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में अन्तः चक्षु के सामने उद्भासित या उपलबध होने वाले इस महान तात्विक ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) प्राप्त करने की,  प्रशिक्षण पद्धति- "Be and Make Leadership training tradition " को यदि सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों तक पहुँचा देने में समर्थ बन जाये, तभी जगत का यथार्थ कल्याण साधित हो सकता है। स्वामी जी पृथ्वी के सभी मनुष्यों से बहुत प्रेम करते थे, और उसी प्यार से अनुप्रेरित होकर उनके हृदय से वैसा उद्गार निकला था, और भारतवर्ष की मिट्टी उनके लिये पुण्यभूमि में प्रकट हो गयी थी। 
अपने स्वरुप -अनुसन्धान करने, वास्तविक सत्ता को विकसित करने तथा अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने" की उसी प्रशिक्षण पद्धति को, जो प्राचीनकाल की दुर्बोध भाषा में लिपिबद्ध थी; अरण्यों के आश्रमों तक ही सीमित थी, पर्वतों की गुफाओं में ही आबद्ध थी, केवल सन्त -महात्माओं के चर्चा की विषय बनकर ही रह गयी थी। उसी प्राचीन आत्मानुसंधान पद्धति को महामण्डलने 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के नये रूप में ढाल कर भारत के सुदूर ग्रामों तक बोधगम्य बना दिया है। [C-in-C, Dy C-in-C Training Tradition.जहाँ डेपुटी सी-इन-सी, सी-इन-सी को उसी प्रकार करेक्ट कर सकता है, जैसे श्रीरामकृष्णदेव 😇 हँसते हुए अपने गुरु श्रीमद तोतापुरी जी को 'नित्य और लीला' दोनों को सत्य मानने की शिक्षा देते समय करेक्ट किया करते थे, फिर भी श्रीमद तोतापुरी उनपर नाराज नहीं होते थे।]   इसीलिये स्वामी जी ने राष्ट्र का आह्वान करते हुए कहा था - " उपनिषदों में सन्निवेशित इस आत्मानुसंधान शिक्षक -प्रशिक्षण पद्धति को, अरण्य के आश्रमों से निकालकर, मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, उन ज्ञान के तत्वों को साधारण जनता के सामने बिखेर देना होगा। उन्हें लाना होगा , हाट -बाजारों में, कल -कारखानों में और खेल के मैदानों में। इस प्रकार वह तात्त्विक ज्ञान  जंगल-झाड़ , पर्वत-पहाड़ से निकल कर आ पहुँचेगा, साधारण जनताकी झोपड़ियों में। और केवल तभी भारतवर्ष विवेकज-ज्ञान की महाशक्ति से तेजस्वी बनकर किसानों के हल से तथा कारखानों के श्रमिकों के बल से पुरुज्जीवन प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़ा समृद्ध राष्ट्र बन जायेगा।"  
'विवेकज-दृष्टि' से प्राप्त होने वाले, वे महा-मूल्यवान तत्व क्या हैं ? वह ज्ञानमयी दृष्टि हमसे यही कहती है, कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है, अनन्त ज्ञान है, अनन्त प्रेम से भरपूर महासमुद्र है। हमलोगों को अपने  हृदय में विद्यमान इस दिव्य सत्ता को जानना होगा, फिर उस दिव्यता को अपने जीवन में अभिव्यक्त करना होगा। हम दीन -हीन नहीं हैं, नश्वर शरीर मात्र ही नहीं हैं, हमलोग अजर-अमर अविनाशी आत्मायें हैं, हमारे भीतर अनन्त शक्ति है ! हमलोग महाभ्रम में पड़कर या हिप्नोटाइज्ड होकर स्वयं को क्षुद्र, नश्वर-शरीर मान रहे हैं, और श्रीमद तोता द्वारा कथित कहानी के बाघ-शिशु  होकर भी स्वयं को ছাগল/ बकरा समझकर मृत्यु के भय से में-में कर रहे हैं ! इसी दुर्दान्त हीन-मन्यता ने हमलोगों को लघु (बौना) बना दिया है, अब हमलोगों को स्वयं अपने प्रयास के द्वारा ही, लघुकृत (diminished) मनुष्यों को दीर्घिकृत (विराट,विशालकाय या mammoth) बनाना होगा।  নিজেদের দ্বারাই খর্ব-কৃত মানুষ কে দীর্ঘায়ত করতে হবে।  सम्पूर्ण मानव जाति को उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त प्रेम से मण्डित कराकर, उसे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित कराना होगा। 
स्वामी जी की उस प्रसिद्द कथन से लगभग हम सभी परिचित हैं -उन्होंने कहा था, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!" अर्थात अपने यथार्थ स्वरुप में हम सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं, इसीलिए हममें से प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है -उसी ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करना। इसके लिए हमें अन्तःप्रकृति और बाह्य-प्रकृति को अपने नियंत्रण में लाकर, दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। 
प्रश्न है कि ऐसा कर पाने में हमलोग समर्थ कैसे होंगे ? इसमें हमलोग कृतकार्य हो सकते हैं -कर्म के द्वारा, मन को अपने नियंत्रण में लाकर, मानसिक एकाग्रता के प्रशिक्षण के द्वारा, ज्ञान के अभ्यास द्वारा, सत्यानृत-विवेक या सत्य-असत्य और मिथ्या विवेक, या सद-असद निर्णय के द्वारा, तथा सभी प्राणियों की निःस्वार्थ सेवा में अपने प्राणों को न्योछावर करके। किन्तु, आज का मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति को (भोग-सामग्रियों को ) जितनी मात्रा में नियंत्रित करता जा रहा है, उतनी मात्रा में ही वह अपनी अन्तःप्रकृति के समक्ष पराजित भी होता जा रहा है। भावी पीढ़ी की इस मानसिक दरिद्रता (penury) को भविष्यद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द ने अपने मानसचक्षु के आलोक में स्पष्ट रूप से देख लिया था, इसीलिए उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था - " तुम लोगों ने आज विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लिया है, इसीलिए तुम लोग विज्ञान पर गर्व कर रहे हो, किन्तु तुम्हारी अन्तः प्रकृति तुम्हें अपने वश में लेकर कैसा कैरम (ricochet- ठोकरें खाने वाला) खेल रही है, उसका तुम्हें बोध भी नहीं है। ओह, इतनी अनोखी ऐश्वर्यमान मानव-मूर्ति अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जानने के कारण धूल-कीचड़ में अवलुण्ठित, उपेक्षित होकर बिल्कुल दीप्तिहीन (lustreless) हो गयी है। इतना महामूल्यवान यह मनुष्य जीवन व्यर्थ होकर मिट्टी में मिलने जा रही है। This can not be allowed-to Be! ऐसा होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। तुम लोग (जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में) अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने का प्रशिक्षण प्राप्त करो,अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सीखो। स्वयं को जगाओ, इस देहाध्यास के सम्मोहन या भ्रम से अपने को मुक्त करो, और ऊर्जावान बन जाओ। उस अन्तर्निहित दिव्य शक्ति से शक्तिवान बनकर (एक प्रशिक्षित शिक्षक, नेता ,माली बनकर) उस दिव्यता को अपने व्यवहार में अभिव्यक्त करो। किन्तु, इस अकूत ऊर्जा को प्राप्त करने पर (जीवन्मुक्त शिक्षक बन जाने पर) कभी गर्व न करना। बल्कि सभी मनुष्यो में विद्यमान किन्तु प्रसुप्त उसी अकूत ऊर्जा को जाग्रत करने कार्य में, सबों की पूजा और सेवा करने के कार्य में स्वयं को खपा दो। निषिद्ध कर्मों या शास्त्र विरोधी कर्मों द्वारा इन्द्रियसुख प्राप्त करने, अधिकाधिक सांसारिक धन-दौलत प्राप्त करने के चक्कर में पड़े रहने से; या स्वार्थपरता और नाम-यश के अहं में  चूर, सीमाबद्ध संकीर्ण पाशविक जीवन व्यतीत करते रहने से, वह दिव्य ऊर्जा जाग्रत नहीं हो सकती। बल्कि इन समस्त क्षणिक सुखों के पीछे दौड़ते रहने से अन्ततोगत्वा अन्तःप्रकृति की गुलामी करने को ही बाध्य होना पड़ता है। 
इसीलिये स्वामी जी कहते हैं - 'यथार्थ रूप से तो केवल वही मनुष्य जीवित है, जो दूसरों के लिए जीता है; शेष तो मुर्दे से भी ज्यादा निकृष्ट हैं। ' स्वामी जी के इसी कथन में छिपा हुआ है, वह आदर्श सूत्र जिसमें स्वामी जी कहते हैं -" यथार्थ मनुष्य,  (Man with capital 'M' या भ्रममुक्त मनुष्य) के रूप में शक्तिशाली बनो और चट्टानी भूमि पर अपने पैरों को जमा कर, दोनों बाँहों को फैला दो !" आदर्श मानव का यही वह महान साँचा है, जिसे स्वामी जी ने भारत के सभी युवाओं के समक्ष रखा है। यथार्थ मनुष्य के रूप में जीवित रहने के लिए, हमें केवल दूसरों के लिये जीना सीखना होगा, अर्थात "Be and Make Leadership training tradition " में प्रशिक्षित होना होगा। सभी एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बाँध लेंगे, भ्रममुक्त मनुष्य बनने के लिए परस्पर एक दूसरे की सहायता करेंगे। एक प्रशिक्षित नेता /शिक्षक या सर्वांग सुन्दर मनुष्य वही बन सकता है, जो स्वार्थशून्य, सेवापरायण और प्रेम से परिपूर्ण हृदय रखता है। जो व्यक्ति चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके सचमुच चरित्रवान मनुष्य बन सका है, केवल वैसे व्यक्ति के जीवन में अग्रगति सम्भव है, और वही मानवजाति की प्रगति और कल्याण का संदेशवाहक (मार्गदर्शक नेता) बन सकता है। 
अतः हमलोगों को पहले अपना चरित्र गठित करना होगा, डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रममुक्त मनुष्य बनना होगा, निषिद्ध कर्मों का परित्याग करके अपने जीवन को महान बना लेना होगा, केवल तभी हम 'विवेकज आनन्द' पर अधिकार प्राप्त करके महाजीवन प्राप्त करने के महालक्ष्य (मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य -शाश्वत जीवन या अमरत्व) की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। इस 'विवेकज आनन्द ' का अधिकारी बनने पर ही मनुष्य जीवन की सार्थकता निर्भर है ! अन्य जो कुछ भी तात्विक सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उन सबका मूल्य इसी लक्ष्य तक पहुँचने के उपाय या साधन होने के कारण ही है। 
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारात्मक परंपरा  'Ideological Tradition' अर्थात " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" से सम्यक परिचय हो जाने पर यही मूल सत्य (अविनाशी विवेकज -आनन्द) प्रकट हो जाता है। इसी अपरिवर्तनशील सत्य को जानना होगा, समझना होगा और जीवन में उसका प्रयोग करना होगा। इसी कारण वर्तमान युग का मुख्य कार्य यही है -कि  हम सभी को 'विवेक' की शरण में जाकर, सत्य -असत्य-मिथ्या के निर्णय द्वारा, पूरी निष्ठा के साथ स्वामी जी के जीवन और संदेशों का अनुध्यान या श्रवण -मनन करके उन्हें अपने जीवन में उतारना होगा। केवल इसी प्रकार अपना चरित्र गठित होगा, और जगत का यथार्थ कल्याण भी सम्भव हो सकेगा।                          
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**"My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy." मेरा धर्म सत्यधर्म है, तुम्हारा धर्म पाखण्ड है !
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिस प्रकार "orthodox" शास्त्रसम्मत या 'सत्यधर्मावलम्बी' शब्द की व्याख्या विभिन्न रूपों में तोड़-मरोड़ कर की जाती है, उसी प्रकार 'practical' (pragmatic) शब्द की व्याख्या भी तोड़-मरोड़ कर की जाती है। जो मैं समझता हूँ, वही धर्म है, जो तुम समझते हो वो पाखण्ड है। अर्थात जिस तात्विक सिद्धान्त को मैं कार्यरूप में परिणत करने के योग्य समझता हूँ, जगत में एकमात्र वही सिद्धान्त व्यावहारिक है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ यदि मैं एक दुकानदार हूँ, तो सोचता हूँ कि संसार में दुकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं एक चोर हूँ तो यही सोचता कि व्यावहारिक बनने के लिये चोरी करना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है; जो ऐसा नहीं करते वे व्यावहारिक मनुष्य नहीं हैं।  इस प्रकार तुम देख सकते हो कि हमलोग व्यावहारिक शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिये करते हैं, जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है,जो हमसे किये जा सकते हैं। इसीलिये मैं चाहूँगा कि तुम वेदान्त को सही रूप में समझने का प्रयास करो, यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यावहारिक (pragmatic-व्यवहार्य) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से।
वेदान्त के चार महावाक्य में निहित आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न प्रतीत होता हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता; बल्कि यही सर्वश्रेष्ठ आदर्श है, और इसी जीवन में आत्मानुभूति करके उसकी सत्यता को परखा जा सकता है। एक शब्द में वेदान्त का सार उपदेश है -'तत्त्वमसि'- तुम्हीं वह ब्रह्म हो ' "Thou art That". 
वेदान्त के ऊपर समस्त बौद्धिक तर्क-कुतर्क, वादविवाद के बाद यही तात्विक निष्कर्ष मिलेगा कि मानवात्मा शुद्ध स्वभाव और सर्वज्ञ (pure and omniscient) है, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है; आत्मा के सम्बन्ध में जन्म और मृत्यु की बात करना निरर्थक बकवास (nonsense) है। आत्मा का न कभी जन्म होता है, न मृत्यु; मैं मर जाऊँगा या मरने में डर लगता है'- यह सब केवल कुसंस्कार (superstitions) हैं। मैं इस सत्य (इन्द्रियगोचर परिवर्तनशील सत्य, सापेक्षिक सत्य) को स्वयं जान सकता हूँ, उस इन्द्रियातीत सत्य (निरपेक्ष सत्य-अविनाशी आत्मा) को नहीं जान सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मनुष्य के लिए सब कुछ जानना सम्भव है !
 वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने आप पर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार संसार के कुछ धर्म कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण  ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि-  जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है।
अपनी आत्मा के बारे में विश्वास न करने को ही नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह, निःसंदेह एक भीषण विचार है( ऐसा कहना 'ईशनिन्दा ' प्रतीत हो सकता है) और हममें से अधिकांश सोचते हैं कि इस आदर्श को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु वेदान्त जोर देकर कहता है, कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को इसी जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। ८/६ 


प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर और धार्मिक शास्त्रों ( वेद, बाइबिल ,कुरान,आदि ) में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस व्यष्टि अहं बोध या क्षुद्र 'मैं'-बोध को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। 8/12     

PRACTICAL VEDANTA: 
 the word "orthodox" has been manipulated into various forms, so has been the word "practical". "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy." So with practicality. What I think is practical, is to me the only practicality in the world. If I am a shopkeeper, I think shopkeeping the only practical pursuit in the world. If I am a thief, I think stealing is the best means of being practical; others are not practical. You see how we all use this word practical for things we like and can do. Therefore I will ask you to understand that Vedanta, though it is intensely practical, is always so in the sense of the ideal. It does not preach an impossible ideal, however high it be, and it is high enough for an ideal. In one word, this ideal is that you are divine, "Thou art That". This is the essence of Vedanta; after all its ramifications and intellectual gymnastics, you know the human soul to be pure and omniscient, you see that such superstitions as birth and death would be entire nonsense when spoken of in connection with the soul. The soul was never born and will never die, and all these ideas that we are going to die and are afraid to die are mere superstitions. And all such ideas as that we can do this or cannot do that are superstitions. We can do everything. The Vedanta teaches men to have faith in themselves first. As certain religions of the world say that a man who does not believe in a Personal God outside of himself is an atheist, so the Vedanta says, a man who does not believe in himself is an atheist. Not believing in the glory of our own soul is what the Vedanta calls atheism. To many this is, no doubt, a terrible idea; and most of us think that this ideal can never be reached; but the Vedanta insists that it can be realised by every one. There is neither man nor woman or child, nor difference of race or sex, nor anything that stands as a bar to the realisation of the ideal, because Vedanta shows that it is realised already, it is already there.
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"In that distant time the sage arose and declared, एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति — "He who exists is one; the sages call Him variously."  This is one of the most memorable sentences that was ever uttered, one of the grandest truths that was ever discovered. And for us Hindus this truth has been the very backbone of our national existence. For throughout the vistas of the centuries of our national life, this one idea — एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति — comes down, gaining in volume and in fullness till it has permeated the whole of our national existence, till it has mingled in our blood, and has become one with us..THE MISSION OF THE VEDANTA. 


            

         
  

   


   



   

  
   














        

  

  


  
                         



   





सोमवार, 5 नवंबर 2018

महामण्डल और जीवन का महाजीवन में रूपान्तरण ![ एक युवा आन्दोलन -7]

महामण्डल और जीवन का महाजीवन में रूपान्तरण !
महामण्डल का उद्देश्य बहुत महान है। (अर्थात महामण्डल आन्दोलन के 'समाज-सेवा' का उद्देश्य बहुत महान है, अत्यन्त विराट है !) किसी 'विराट उद्देश्य ' को जब कम शब्दों में (45 मिनट या 15 मिनट में) कहना पड़ता है तब अनुभव होता है, जैसे कुछ और कहना तो शेष ही रह गया है। और वह उद्देश्य केवल इतना है कि, " हम सबों के मन में, यही संकल्प जाग उठे कि समस्त जगत का कल्याण हो, विश्व के सभी मनुष्यों का मंगल हो!" तथा (स्वयं माँ जगदम्बा की इच्छा से) इसके कल्याण के लिये और इसके मंगल  के लिए, जो प्रयास चलाया जा रहा है, उसमें मैं भी कुछ सहयोग कर सकूँ। एवं जगत के सभी मनुष्यों का कल्याण करने के लिए, अपने को उसके योग्य (competent,अधिकारी) बना सकूँ।"  'জগতের সব মনুষ্যের ভালর জন্যে নিজেকে উপযুক্ত করতে পারি।  इस संकल्प को कार्यरूप देने की प्रेरणा हम सबों के मन में जाग उठे, इसके लिये प्रचण्ड उत्साह के साथ कार्य करते रहना ही महामण्डल का उद्देश्य है।(ঐকান্তিক আকুতি নিয়ে সেই চেষ্টাই করা হোল মহামন্ডের উদ্দেশ্য।) इसीलिये महामण्डल के उद्देश्य को बिन्दुवार क्रम से - 1,2,3, 4......कर बता पाना अत्यन्त ही कठिन है। 
वैधानिक रूप से कम- से- कम 7 व्यक्ति एक साथ मिलकर एक संगठन को बना सकते हैं। इसके लिये, सबसे पहले उन्हें अपने संगठन का उद्देश्य और नियमावली तैयार करके, उसे निबंधित कराने के लिये संबंधित अधिकारी के पास आवेदन करना होता है। यदि सरकारी अधिकारी उस समिति को निबंधित कर लेते हैं, तभी उस संगठन को वैधानिक रूप से स्थापित माना जाता है। महामण्डल के निबंधन के लिये हमलोगों को भी (इसके संस्थापक नवनी दा को भी) इसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है। क्योंकि देश में रहने वाले नागरिकों के लिए देश के संविधान को मानना आवश्यक होता है। किन्तु, जब हमलोगों ने महामण्डल के उद्देश्य तथा नियमावली को निर्धारित कर तथा उसे लिखकर प्रभारी अधिकारी के पास भेजा, तो उसे देखकर उन्होंने कहा कि इस संगठन को निबंधित नहीं किया जा सकता। क्योंकि आप लोगों ने इस संस्था के उद्देश्य को बिन्दुवार क्रम से 1,2,3,4....करके तो दर्शाया ही नहीं है, तब हम आपके संगठन को कैसे निबंधित कर सकते हैं ?
हमने उन्हें समझाने की चेष्टा करते हुए कहा कि हमारे संगठन का उद्देश्य इतना विराट/विशाल है कि उसे हम 1,2,3, 4... गिनते हुए कभी समाप्त नहीं कर सकते। यह मैं कोई कोरी गप्प नहीं हाँक रहा हूँ, बल्कि बिल्कुल सच्ची घटना को आपके समक्ष रख रहा हूँ। महामण्डल को स्थापित करते समय वास्तव में जो कुछ घटित हुआ था, वही आपको सुना रहा हूँ। हमारे बार-बार समझाने पर भी, निबन्धन के लिए दिये गये हमारे प्रस्ताव को वे वापस लौटाते रहे। अन्ततः उनका निर्देश आ गया कि आपको अपने उद्देश्य बिन्दुवार 1, 2, 3, 4 .... करके देना ही होगा, अन्यथा वैधानिक रूप से हम आपकी संस्था को निबन्धित नहीं कर सकते हैं। इसीलिए बाध्य होकर हमें भी अपने उद्देश्य को बिन्दुवार 1,2,3,4 ...करके लिखकर देना ही पड़ा था। जबकि हम यह अच्छी तरह से जानते थे कि  1,2,3, 4 ....करके इसके विस्तृत उद्देश्य की कभी इति नहीं की जा सकती। किन्तु, फिर भी बाध्य होकर, जितने उद्देश्यों को बिन्दुवार लिखकर दे सके थे, वे आज भी 'संस्था के बहिर्नियम' या 'Memorandum of Association' नामक एक पुस्तिका में उसी रूप में मौजूद हैं। [मानव-जीवन की बगिया को खिला देने में सक्षम एक प्रशिक्षित बागवान/माली/लीडर बनने और बनाने के लिए अपने को कैसे उसके योग्य या उपयुक्त अधिकारी बनाना होगा; वे सारे नियम उस पुस्तिका में आज भी उसी रूप में उपलब्ध हैं। ]  
         मूल रूप से महामण्डल का उद्देश्य है -'जगत के सभी मनुष्यों का कल्याण, उनके सर्वांगीण मंगल'। किन्तु, अपने इसी ज्वलंत इच्छा (Burning Desire) को कार्य में रूपायित करने के लिए, हममें से प्रत्येक सदस्य को पहले स्वयं अपने जीवन को जितना अधिक से अधिक (যতখানি/As much as) उपयुक्त ढंग से गठित करना सम्भव हो उसके लिए प्रयास करना होगा। साथ-ही-साथ 'अपने व्यक्ति जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने की इस ज्वलंत इच्छा को',  इसी लालसा को , इसी प्रेरणा को सभी युवाओं के हृदय में जागृत कर देने के लिए जी-जान से प्रयास भी करते रहेंगे। यही है - 'महामण्डल का कार्य।' किन्तु केवल उत्प्रेरित (inspired) हो जाना ही यथेष्ट नहीं है, उसको कार्य में रूपायित करने के लिए अपने भीतर उपयुक्त ऊर्जा भी लानी होगी। और जिस विज्ञान (Technology) द्वारा वह ऊर्जा, वह शक्ति प्राप्त होती है, (5 Practices: 1.'ऑटो-सजेशन या प्रार्थना', 2.मनःसंयोग 3. व्यायाम 4.'स्वाध्याय' और 5. 'विवेक-प्रयोग' आदि)  उसके लिए हम सभी संगठित होकर प्रयास करेंगे और इस कार्य में परस्पर एक-दूसरे की सहायता करेंगे। इसीलिये हमलोगों ने स्वयं स्वामी विवेकानन्द से अपने आदर्श-वाक्य (motto) - 'Be and Make' (मैं स्वयं बनूँगा और दूसरों को भी बनने में सहायता करूँगा) को  ग्रहण किया है। [अर्थात 'पुरी- अद्वैत 'Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में पहले मैं स्वयं एक प्रशिक्षित माली/आध्यात्मिक शिक्षक /नेता बनूँगा और साथ-ही साथ दूसरों को भी 'पुरी परम्परा' में प्रशिक्षित लीडर/माली बनने के कार्य में उसकी सहायता करूँगा।] 
स्वामी जी युवाओं को सदैव उत्साहित करने के लिए कहते थे - 'आगे बढ़ो,आगे बढ़ो !' अर्थात (5 Practices: के मामले में और जितने फूल-'3H' खिल चुके हैं के मामले में), हमलोग अभी जहाँ हैं वहीँ ठहर जाने से काम पूरा नहीं होगा। इसीलिए महामण्डल ने अपना जो प्रतीक चिन्ह निर्धारित किया, उसमें 'ऐतरेय ब्राह्मण' से उन्हीं दो संस्कृत शब्दों को लिया गया है, जिसका प्रयोग स्वामी जी बार -बार करते थे -"चरैवेति, चरैवेति।" अर्थात आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! किन्तु, आगे कहाँ जाना है ? उसी सम्पूर्ण जगत का कल्याण और विश्व-शान्ति के सुदूर स्वप्न को धरातल पर रूपायित करने की दिशा में आगे बढ़ने का आदेश दे रहे हैं। किन्तु, हमारी धरा या पृथ्वी का आकार तो गोल वृत्त के जैसा है, तो फिर हम,'पुरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित- मनुष्य बनने और बनाने की यात्रा' का प्रारम्भ कहाँ से करेंगे ? स्वामी जी के निर्देशानुसार निर्णय हुआ कि इस यात्रा का प्रारम्भ (परिव्राजक या वानप्रस्थ-यात्रा का प्रारम्भ) हमें इसी पुण्य भूमि भारतवर्ष से ही करना होगा। इसीलिये हमारे प्रतीक चिन्ह के भीतर भारतवर्ष का एक मानचित्र (diagram) भी अंकित हो गया।
अब प्रश्न उठा कि इस बनो और बनाओ के यात्रा-पथ का पथ-प्रदर्शक कौन हो सकता है ?  'एगिए चलार पथे दिशारी के हबे ? এগিয়ে চলার পথে দিশারী কে হবে ? [वह beacon,lighthouse,आकाशदीप, या दृढ़ प्रकाश स्तम्भ कौन हो सकता है, जिसके चरणों से टकरा कर समुद्र अपना क्रोध शान्त करता रहता है, अर्थात जिसका चित्त प्रलोभनों (temptations) के उपस्थित रहने पर भी मोह में नहीं फँसता ?इस मार्ग में चलते समय थक जाने पर, या सुदूर गाँवों में शिक्षण का कार्य करते समय , समाज सेवा करते समय किसी प्रकार का प्रलोभन या बाधा (लस्ट ऐंड लूकर) यदि सम्मुख आ जायें और हम कहीं लड़खड़ा जाएँ,या पतनोन्मुखी होने लगें, तब पुनः हमें मजबूती के साथ अपने पैरों पर खड़े होने के लिए अपने हाथों का सहारा देने वाला हमारा मार्गदर्शक नेता कौन होगा ? इसीलि महामण्डल के प्रतीक चिन्ह के मध्य में 'परिव्राजक या वानप्रस्थी-मुद्रा में स्वामी विवेकानन्द' को  खड़ा करना पड़ा। क्योंकि एक आकाश-दीप,सुहृदबन्धु, ज्ञानमयी-बुद्धि के दाता (Friend, Philosopher and Guide) के रूप में स्वामी विवेकानन्द ही हमारे आदर्श पुरुष हैं। इसीलिये महामण्डल के उद्देश्य को (निबन्धित कराने के लिए) जब बहुत संक्षेप में कहने की चेष्टा की गयी, तब कहना पड़ा कि. 'स्वामी विवेकानन्द के शक्तिदायी विचारों को देश के युवा के बीच प्रचार-प्रसार करना ही महामण्डल का उद्देश्य है।' किन्तु यह कहते समय मन में थोड़ा संकोच भी हुआ, कि कहीं इसके पीछे हमारी 'मतूयार-बुद्धितो छिपी नहीं है ? (हठात विवेकानन्दके केन ? হঠাৎ বিবেকানন্দকে কেন?)  श्रीरामकृष्ण द्वारा व्यवहृत इस शब्द 'मतूयार-बुद्धि' का अर्थ होता है, किसी एक विशेष-मतवाद या किसी व्यक्ति- विशेष (particular person) को जनता के सामने खड़ा करके, उसी का प्रचार करने जैसी चेष्टा (मतान्धता, dogmatism) तो नहीं है ? अचानक विवेकानन्द को ही क्यों ? इसीलिये लगता है, थोड़ा संकोच के साथ कहना पड़ा, कि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों और शिक्षाओं के भीतर जो " मनुष्यत्व उन्मेषक एवं चरित्र-निर्माणकारी भाव" (মনুষ্যত্ব উন্মেষক আর চরিত্র গঠনকারী ভাব spirit)" सन्निहित है, उन्हें युवावर्ग के सम्मुख प्रस्तुत कर देना ही महामण्डल का मुख्य-कार्य है।
स्वामी विवेकानन्द की जीवनी के फ्रेंच लेखक रोम्याँ रोलाँ,जो चार मार्ग (चार पुरुषार्थ) हैं, उन मार्गों का उल्लेख करते हुए कहते हैं, इस कार्य -" मनुष्यत्व उन्मेषक एवं चरित्र-निर्माणकारी भाव"  को मूर्त रूप देने के लिये चार घोड़ों वाली बग्गी को सम्पूर्ण विश्व में दौड़ाना होगा!"(चार घोड़ार गाड़ी छोटाते हबे एई काजे!' চার ঘোড়ার গাড়ি ছোটাতে হবে এই কাজে,) अर्थात स्वामी विवेकानन्द के शब्दों और शिक्षाओं में जो 'मनुष्यत्व-उन्मेषक, चरित्र-गठनकारी भावराशि' सन्निहित है, उसे युवाओं के समक्ष सरल भाषा में प्रस्तुत करना होगा, तथा उनके मन की गहराई में स्थापित करा देना होगा। इस कार्य को मूर्त रूप देने के लिये,चारों पथ (पुरुषार्थ) में से अलग -अलग मामले में,  चार घोड़ों वाली बग्गी के चारों घोड़ों - के समान ही 'individual cases' में व्यक्तिगत स्वतंत्र अभिरुचि के अनुसार, एक -एक भाव को ग्रहण करेंगे। किन्तु, उन विचारों को आत्मसात करने या चरित्रगत करने के लिए वे सभी लोग समान रूप से चिन्तन, मनन, अध्यन,'स्व'-स्वरूप का स्मरण और अभ्यास' आदि करते रहेंगे।
['मनुष्यत्व उन्मेषक' अर्थात पुरुषार्थ उन्मेषक (Manliness-awakening, man with capital 'M') चार पुरुषार्थों- 'धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष-प्राप्ति उन्मेषक भाव' या भ्रममुक्त, Dehypnotized - spirit/माली /शिक्षक/नेता  बनने और बनाने में समर्थ भाव या प्रशिक्षण-पद्धति (5 अभ्यास : ऑटो-सुझाव या प्रार्थना, धातु एकाग्रता, मुक्त हाथ व्यायाम, स्वाध्याय या आत्म-अध्ययन, विवेक प्रयोग,आदि) निर्धारित है, उसे आत्मसात करने या चरित्रगत करने का अभ्यास सामान भाव से सभी सदस्य एकसाथ संघबद्ध होकर करते रहेंगे ('5 -Practices'(Auto- Suggestion or Prayer, Metal Concentration, free hand Exercise, Self-study, Conscience experimentation या पुण्य-अपुण्य-विवेक आदि चरित्र-निर्माणकारी भाव का अभ्यास) 
             ऑटोसजेशन आदि पाँच निर्देशों का अभ्यास करते-करते उन्हें यह अनुभव हो जायेगा कि 'स्व-स्वरुप के स्मरण या मनन' का कार्य तो मन ही करता है। किन्तु, यह मन तो बहुत चंचल है, इसलिये सर्वप्रथम इसको ही वश में लाने की चेष्टा करनी होगी। एकाग्रता के अभ्यास द्वारा इसको संयमित करने की चेष्टा करनी होगी। इसीलिये उसको इस ज्ञानचर्चा के साथ-साथ 'राजयोग' सीखने की चेष्टा भी करनी होगी। किन्तु जब चंचल मन को संयमित करने के की चेष्टा करने के साथ-साथ, ज्ञान-प्राप्ति के नीरस विचार-विमर्श और सत्य अन्वेषण के प्रयास में निरन्तर रत रहने के कारण हृदय में शुष्कता (monotony या ऊब) का भाव उत्पन्न होगा; तथा नीरस और कठोर अभ्यास जब शरीर और मन को थका देगा या 'exhausted' कर देगा, जब यांत्रिक प्रक्रिया की घड़घड़ाघट से शोर उत्पन्न होगा और सहज, कोमल (smooth, मसृण), सरल गति में व्यावधान (Speed disruption) आयेगा, उस समय मन को फिर से प्रफुल्लित करने एवं मार्ग को मुलायम, सुखकर, नरम, सहज तथा सरल बनाकर आगे बढ़ने में जो मनोभाव चाहिए, उसका निर्माण करेगा एक अन्य मनोभाव। अतः उस मनोभाव की उपेक्षा (negligence) करने से काम नहीं चलेगा। उसी मनोभाव का नाम है,'भक्तिभाव'(Devotion), और इस विशिष्ट मनोभाव या भक्तिभाव को बढ़ाने के अनेक उपाय हैं, जिन्हें व्यवहार में लाया जा सकता है। 
जैसे कि मन्दिर में या अपने घर के किसी कोने में देवता की मूर्ति स्थापित कर, सुगन्धित पुष्प, सुन्दर चन्दन, सुगन्धित हवन-सामग्री (সুন্দর ধূপধুনো /Beautiful incense) आदि को अर्पित कर वहाँ एक सुन्दर परिवेश की रचना की जा सकती है। तथा हृदय प्रफुल्लित कर देने वाले उस परिवेश के विस्मय (amaze) को अपने मन में प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की जा सकती है। और इस प्रकार कर्कश शोर-युक्त नीरस जीवन में एक सुन्दर नरम भाव का प्रलेप चढ़ाकर, उस जीवन-पुष्प के विकसित (प्रस्फुटित) होने की गति को सहज बनाया जा सकता है। 
किन्तु इसके अन्य उपाय भी हैं, भक्तिभाव का अभ्यास करने की दूसरी पद्धतियाँ भी हैं। इसमें बाहर में स्थापित देवमूर्ति को फूल, चन्दन, धूप, नैवेद्य आदि अर्पित करने के बाद, उसी देवमूर्ति को अपने हृदय में (कल्पना में हनुमान जी जैसा) स्थापित करने के बाद, मानसिक रूप से भी फूल, चन्दन, धूप तथा नैवेद्य आदि अर्पित किया जाता है। इस विशिष्ट पूजा-पद्धति के अनुसार भक्तिभाव से अपने मन को अभिषिक्त करने के लिए, मन के माध्यम से ही सब कुछ अर्पित करना होता है। सभी प्रकार की पूजा पद्धतियों में मानसिक पूजा को सर्वश्रेष्ठ पूजा कहा गया है। इस मानसिक पूजा पद्धति में कोई व्यक्ति (या भक्त) अपने मन में कौन से फूल की कल्पना करेगा (अष्टदल रक्तवर्ण कमल), कैसा चन्दन, धूप, दीप, कौन सी बली (অর্ঘ্য, oblation - हव्य)देनी है, या कितने प्रकार के स्नान कराने हैं-यह सब कुछ बतला दिया गया है। ऐसा देखा गया है कि केवल पंचोपचार या षोड्षोपचार ही नहीं अपितु सहस्रोपचार पद्धति के अनुसार भी पूजन सामग्रियों को अपने इष्टदेवता, या अपने हृदय में विद्यमान अनुपम सत्ता को अर्पित किया जाता है। इसी सहस्रोपचार पद्धति के अनुसार पूजित होने पर 'सहस्र दल श्वेत कमल' के समान, मनुष्य के मन के भीतर (सहस्रार में) भी एक कमल खिल उठता है, और उसी कमल को प्रेम का कमल कहते हैं ! [दादा ने प्रश्नोत्तरी का उल्लेख करते हुए एक बार कहा था , किसी लड़के के पिताजी यदि राम-सीता की मूर्ति के नीचे स्थापित स्वामी जी के चित्र को फेंकने का प्रयास करें, तो उन्हें प्रेमपूर्वक यह समझाना चाहिये कि स्वामी विवेकानन्द तो बचपन से ही स्वयं श्रीरामचन्द्र,माँ सीता और हनुमान के भक्त थे। भक्ति निःस्वार्थ होनी चाहिए : जैसे मां का पुत्र के प्रति स्वाभाविक प्रेम होता है।ईश्वर/गुरु रूपी सूर्य को देखकर कमल खिलता है !ईश्वर/गुरु में स्वाभाविक भक्ति होनी चाहिए। गुरु/नेता  विवेकानन्द की शिक्षा की रोशनी से युवाओं का भविष्य संवरता है।]
जब कोई मनुष्य अपने भीतर निःस्वार्थ प्रेम को जागृत करने में, या प्रेम-कमल को प्रस्फुटित करने में समर्थ हो जाता है, तो फिर उसे बाहर बगीचे में जाकर खिले -खिले फूलों को चुनने की आवश्यकता नहीं होती। चन्दन के साथ-साथ अपने नाख़ून को घिसने की स्थिति भी नहीं आती। धुप-धुने के धुएँ से आँखों में जलन का अनुभव नहीं करना पड़ता, फल-मूल काटकर देवता पर नैवेद्य अर्पित नहीं करना पड़ता। मानस-सरोवर में उस सहस्रदल प्रेम के कमल को प्रस्फुटित कर लेने से, जिस प्रकार हृदयस्थ भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत के मनुष्यों का मन भी एक-दूसरे के निकट आने पर, विगलित होने लगता है, अर्थात एक-दूसरे की दोष-त्रुटियों को  नजरअन्दाज (ignored) करने लगता है। और इस प्रकार हर कोई हर किसी को अपने आलिंगन में बाँधकर, उसे अपना बना सकता है। (एक-दूसरे की गलतियों को नजरअंदाज कर देने से पराये को भी गले लगाकर अपना बनाया जा सकता है -সকলে সকলকে আলিঙ্গন করে আপন করে নিতে পারে।)
इसीलिये महामण्डल कहता है, पुराने ढंग से पूजा करने को यदि बोझ समझते हो, तो उसे अपने से दूर ही रहने दो, तुम यही नयी अभूतपूर्व (unprecedented) 'मानस पूजा' करो न भाई ! तुम तो अपने को आधुनिक युवा (modern youth) समझते हो, तो फिर इसी आधुनिक ढंग की पूजा को प्रारम्भ करो न। तुम अपने मन के कमल को (सहस्रदल श्वेतकमल को) ही थोड़ा खिला लो न भाई ! ईश्वर को खोजने कहाँ जाते हो ? किसी कारण से मन्दिर में जाना उचित नहीं समझते हो, तो कोई बात नहीं, फिर भी, चंदा माँगकर सार्वजनिक कालीपूजा, दुर्गापूजा करके थोड़ा भाँग खाकर या किसी नशे के व्यसन में एक-दो रातें तो तुम बिता ही सकते हो। किन्तु इस विराट जगत के सभी मनुष्यों के भीतर अवस्थित ईश्वर (इष्टदेव) को देखकर, उसको जाग्रत करके, उन दुर्गति भोग रहे देवताओं के आर्तनाद को यदि थोड़ा अपने हृदय में भी अनुभव कर सको, तब तुम कितना विशाल, विश्व-स्तर की सामुदायिक पूजा कर सकोगे ! सार्वजनिक पूजा के नाम पर, जबरन 100-200,500-1000, दो-दो हजार रुपया- झटक लेने के लिये छोटे-छोटे व्यापारियों, ऑटो-टैक्सी ड्राइवरों को क्यों सताते हो ?छोड़ दो ऐसी पूजा। 
देखो, साक्षात् ईश्वर धूल-कीचड़ से सने हुए हैं, धूल में लोट रहे हैं, उन्हें ऊपर उठाकर थोड़ा उनके सिर पर हाथ तो फेर दो। उनके पीड़ा स्थल पर, थोड़ा प्रेम का प्रलेप लगाकर उन्हें अपना बना लेने की चेष्टा तो करो। आओ भाइयों, हमलोग उस परम् सत्ता की आराधना, भक्ति के नये मार्ग से करें। अपने हृदयस्थ परमेश्वर को ही, जन-जन में विराजमान देखकर उस परमेश्वर की पूजा नहीं -'सेवा' करने की नवीन पूजा पद्धति- 'Be and Make' द्वारा आराधना करने में जुट जायें ! इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक केन्द्र के साप्ताहिक पाठचक्र में ज्ञान की चर्चा करने और मन की दुस्तर, दुःसाध्य चंचलता की निवृत्ति, या निवारण के लिए कठोर परिश्रम करने के साथ ही साथ हृदय के इस प्रेम-कमल को प्रस्फुटित करने की चेष्टा को भी सम्मिलित कर लिया गया। 
इसके पश्चात् एक और भी कमी महसूस हुई थी। माना कि अब ज्ञान (अपरोक्ष ज्ञान आदि) के विषय में अब सब कुछ समझता हूँ, माना कि दुःसाध्य मन का प्रबल आवेग भी समाप्त हो गया, यह जहाँ कहीं भी विचरण करता है, उसे वहाँ से खींचकर अपने सामने ले आता हूँ, यह मेरी आज्ञा मानने लगा है, मेरे अधीन हो गया है, मैं अब अपने मन का स्वामी बन गया हूँ। हृदय भी प्रेम के सुगन्ध से भर उठा है। किन्तु, प्रश्न है कि इस प्रेम-पुष्प के पराग को अर्पित कहाँ करूँ ? (ये दिल, किसको दूँ ?) यदि इस प्रेम को वितरित नहीं करूँ, यूँ ही पड़े रहने दूँ, तब तो मेरी इस सम्पदा का कोई मोल ही न रहा। यदि इसका कहीं उपयोग न किया तबतो यह अकारथ (ineffective) ही पड़ा रह जायेगा। अतः अपने इस ज्ञान को, अपने इस निवृत्त  (retired, विष-दन्त रहित), आज्ञाकारी (submissive,विनीत,विनम्र), अधिकृत शक्ति (occupied, प्रवृत्त,कब्जे में आयी हुई शक्ति या केवल उपयोगी कार्यों में व्यस्त रहने वाली शक्ति), एवं हृदय में खिले हुए प्रेम-पुष्प के पराग को, इसके सुगन्ध को सर्वत्र फैला देने के लिए (प्रवृत्ति-निवृत्ति धर्म के अनुसार) 'कर्मक्षेत्र' में तो उतरना ही पड़ेगा। 
जीवन को सार्थक करने वाले जिन उपायों (5 -practices) को हमने सीखा है, उसकी प्रभावकारिता (effectiveness) को परख कर देखने के लिये, उन्हें अपने व्यवहार में लाना होगा। उन्हें अपने आचरण में उतारकर, उन भावों को आत्मसात करते हुए अन्य युवाओं के सम्मुख उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत करना पड़ेगा। यदि मैं अपने (भ्रममुक्त) मन के इन समस्त सुन्दर, चित्ताकर्षक (graceful) वृत्तियों के आरोहण को अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त न कर सका, तो दूसरे युवा यह कैसे समझेंगे कि हृदय में प्रेम-कमल के प्रस्फुटित होने से मनुष्य में कैसा परिवर्तन हो जाता है ? यदि हमलोग इस यथार्थ जगत की तनी हुई भृकुटि को (दुःख-कष्टों को) थोड़ा भी प्रशमित नहीं कर सके तो हमारा यह ज्ञान (साम्यभाव), कठोर साधना द्वारा अर्जित मन की शक्ति और हृदय में प्रस्फुटित प्रेम-कमल का सुगन्ध, क्या सबकुछ व्यर्थ नहीं हो जायेगा?
इसीलिये 'memorandum of association' या महामण्डल 'संस्था के बहिर्नियम' में इन तीनों -'पाठचक्र, मनःसंयोग और हृदय-कमल के प्रस्फुटन' के साथ-साथ 'कर्म' को भी जोड़ दिया गया। अब प्रश्न उठा कि कैसा कर्म किया जाय ? यदि ऐसी जिज्ञासा है, तो केवल उन्हीं कार्यों को हाथ में लो, जिन्हें करना आवश्यक लगता हो, जिसे करने से मनुष्यों का अभाव दूर होता हो, उनका यथार्थ भला होता हो। जैसे गाँव की पगडंडी के किनारे कटीली झाड़ियाँ उग आयी हों, और चलते समय राहगीरों के पैरों में चुभ जाती हों, या शरीर के किसी हिस्से में गड़ जाती हों, तो वैसी दो-चार कटीली झाड़ियों को ही काट दो न। यदि वर्षा के कारण गाँव की गलियों के बीच कहीं-कहीं गड्ढा बन गया हो, या फिसलन आ गयी हो, तो उस पर दो -कड़ाही मिट्टी या राख ही डाल दो न। जिन गरीबों के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हों, उनको एक जगह एकत्र करके, थोड़ा उनको ही पढ़ा दिया करो न। प्रायः व्यस्क लोगों को भी दुनिया के ज्ञातव्य विषयों का ज्ञान नहीं होता है, उन्हें तुम जैविक-कृषि एवं सिंचाई की ड्रिप-एरिगेशन जैसी नई-नई वैज्ञानिक प्रणालियों से अवगत करवा दो न।जो प्रौढ़ लिखना-पढ़ना नहीं जानते, उनके खाली समय में उनके साथ बैठकर उनको थोड़ा पढ़ने-लिखने के लायक बना देने की चेष्टा करो न। सुदूर गाँव-देहात में आमतौर से बेहतर सड़क-सम्पर्क नहीं होता, वहाँ कोई डॉक्टर भी नहीं रहते, तुम स्वयं होमियोपैथी की दो-चार किताबों को पढ़कर सौ-दो-सौ रूपये की दवा खरीदकर अपने पास रखलो, ताकि वक्त-बे-वक्त अचानक किसी की तबियत बिगड़ जाये तो तुम उसकी थोड़ी सेवा कर सको, इतना ही करो न। 
इन्हीं सब छोटे-छोटे कार्यों द्वारा दूसरों की सेवा करते- करते तुम यह समझ सकोगे, कि तुम्हारे मन में यह जो निःस्वार्थ-प्रेम जाग्रत हुआ है, हृदय में जो स्नेह की इच्छा जाग्रत हुई है, उसका मूल्य कितना है, उसकी कीमत क्या हो सकती है ? अर्थात निःस्वार्थ सेवा-मूलक कार्य करते-करते इस बात की परख भी हो जाएगी कि हमारे हृदय का प्रेम कितना सच्चा है, या केवल लोगों को दिखाकर नाम-यश कमाने, या अन्य कुछ पाने के लिए ही है ? ज्ञान (साम्यभाव या ब्रह्मज्ञान) के सम्बन्ध में जो थोड़ा-बहुत हम सीख पाये हैं, उस ज्ञान में प्रतिष्ठित होकर हम कार्य कर पा रहे हैं या यहीं, उसकी जाँच-परख कैसे करेंगे ? इन्हीं सब निःस्वार्थ-सेवामूलक कार्यों के द्वारा सच्चे-प्रेम की परीक्षा भी हो जायेगी!  इसीलिये, महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में,स्वामी जी के जीवन और शिक्षाओं में निहित 'चार घोड़ों' [ चार पुरुषार्थ, चार योगमार्ग ] को एक साथ लेकर- 'ज्ञान चर्चा', 'मनःसंयोग' द्वारा मन को एकाग्र और संयत करने की साधना के साथ-साथ 'हार्दिक स्नेह' -या सबों के प्रति प्रेम जाग्रत कराने, तथा 'कर्म' के माध्यम से, लोक-दिखावन कार्य नहीं, यथार्थ कल्याणकारी कर्मों में इन सबका व्यवहार करके अन्तर्निहित दिव्यत्व को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है। सार रूप में यही महामण्डल का उद्देश्य और उपाय है। 
किन्तु, केवल उद्देश्य और उपाय जान लेने से ही काम पूरा नहीं होगा। सदैव आगे बढ़ते रहते रहने के लिए कोई प्रेरणा स्रोत (inspiration) भी होना चाहिये। स्वामी जी से हमने प्रेरणा प्राप्त की है। इसलिए स्वामी जी हमारे आदर्श हैं। क्योंकि पुरुषार्थ प्राप्ति के पथ पर चलते समय बाधाएँ आयेंगी, अवसाद (dejection) या निराशा आयेगी, ढीलापन (laxness) आयेगा। दुर्बलतावश यदि कभी पैर फिसल गया तो, गिर पड़ने की सम्भावना भी है, अतः किसी ऐसे सशक्त हाथ का सहारा चाहिये, जो हमें लड़खड़ाकर गिर पड़ने से पहले ही आकर थाम ले। जो यह कार्य करते हैं, वे ही तो हमारे आदर्श हैं ! अन्धकार में राह दिखाने वाले, ऐसे ही आकाशदीप, प्रकाश -स्तम्भ (lighthouse) या हमारे मार्गदर्शक नेता हैं -स्वामी विवेकानन्द ! वे ही तो ज्योतिस्वरूप हैं, वे ही तो हैं हमारे खेवन-हार। अतः 'उद्देश्य के साथ-साथ उपाय, और उसके बगल में यह आदर्श' -इन तीनों को एकत्रित करना होगा। इसी 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र निर्माणकारी' आदर्श (विवेकानन्दको युवाओं के बीच फैला देना ही महामण्डल का मुख्य कार्य (उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द के जीवन का अध्यन और अनुध्यान) है। 
           किसी वक्ता/शिक्षक के ["पुरी वंश की अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परंपरा" (Advaita Teacher Training tradition of Puri Lineage) में प्रशिक्षित शिक्षक के] उपदेशों को या शिक्षाओं को भलीभाँति जानने के लिये उसके निजी जीवन में घटित घटनाओं के खबर को भी जानना बेहद जरुरी (Extremely necessary) होता है। क्योंकि, जिस शिक्षक के उपदेशों से उसका अपना जीवन मेल नहीं खाता हो, उसके कर्म और वचन में सच्ची एकरूपता (True kinship) नहीं झलकती हो, वैसे किसी शिक्षक के ऊपर विशेष भरोसा रखना उचित नहीं होता।  
जैसे भाषण देते समय मैं ज्ञान के ऊपर (ब्रह्मज्ञान या साम्यभाव) चर्चा करता हूँ, लोगों को समझाते समय कहता हूँ कि 'एक ही अनेक' बन गए हैं (कण-कण में भगवान, E =M) किन्तु अन्य समय या अन्य स्थान में उस बात पर मैं स्वयं विश्वास नहीं करता- ऐसा ही हाल हमारा हो, तब वह ज्ञान या आदर्श मेरे जीवन में प्रतिबिम्बित नहीं हो सकता। जिसके जीवन में जो आदर्श प्रतिबिंबित नहीं होता, उसके मुख से उस आदर्श 
के ऊपर प्रवचन सुनने से कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि उसमें वक्ता के जीवन का स्पर्श नहीं होता। अपने जीवन के अनुरूप ही यदि कोई उपदेश दिया जाय तो वह प्राणवान हो जाता है, और सीधा श्रोता के हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है। जिस शिक्षक के उपदेशों में उसके जीवन का स्पर्श भी रहता है, वे तात्त्विक ज्ञान (पंचतत्व सुविचार आदि) को अन्य लोगों के बिल्कुल भीतर तक प्रविष्ट करवा दे सकते हैं। इसीलिये किसी पैगम्बर/शिक्षक की शिक्षाओं या विचारों को भलभाँति हृदयंगम करने के लिए, थोड़ा उसके जीवन की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। 
अतः हमलोगों के लिए स्वामी जी के जीवन का गहराई से अवलोकन/অনুধ্যান या चिन्तनशील-विवेचना करना (contemplation), अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक केन्द्रों में आयोजित होने वाले पाठ-चक्र हों, या चर्चा-मंडल (Discussion Circle) हों, वहाँ जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द (नवनी दा) के शिक्षाओं को समीक्षा (review) की जाती है, उसी प्रकार हमलोग उनकी जीवनी (विवेकानन्द चरित, और जीवन नदी के हर मोड़ पर) को, उनके यथार्थ जीवन में घटित होने वाली घटाओं को भी जानने की चेष्टा (करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द के चित्र का दर्शन करना, अर्थात उनके चित्र को सामने रखकर उन पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना भी अत्यन्त लाभकारी होता है। [क्योंकि महर्षि व्यासदेव के अनुसार -विवेकदर्शना-
भ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत.... । विवेकदर्शन का अभ्यास अर्थात उनके जीवन पर चिंतन-मनन करते रहने के परिणामस्वरूप (एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और) विवेकस्रोत (डिस्क्रिमिनेटीव-नॉलेज का स्रोत) उद्घाटित हो जाता है। मानो व्यासदेव 5000 वर्ष पहले ही यह जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द जैसा भव्य व्यक्तित्व का एक मार्गदर्शक नेता भारत में आएगा ! जिसके चित्र पर मन को एकाग्र  करने से युवाओं का विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जायेगा। और मन को वश में करना आसान हो जायेगा।]  
               कितना भव्य और आकर्षक है उनकी मुखाकृति ! उनके आँखों की ओर देखते ही हमारी दृष्टि अनायास वहीँ अटक जाती हैं। चेहरे पर एक अनोखा पौरुष साफ झलकता है। उसी पौरुष के पीछे दो विशाल नेत्रों में एक विलक्षण करुणा, स्नेह, और सहृदयता का एक ऐसा जादुई आकर्षण है, जो न जाने कैसे क्षण भर में ही हमें अपना बना लेता है। इसीलिए स्वामी जी को जानना आवश्यक है, ऐसी प्रेरणा मन में उठती है। हो सकता है कोई उनके अनन्य विद्व्ता या पाण्डित्य के कारण उन्हें जानना चाहता हो, कोई उन्हें उनके निश्छल प्रेम के कारण जानते हों, किन्तु सभी को ऐसा ही लगता है ,कि स्वामी जी बिल्कुल मेरे अपने हैं, मेरे बंधु हैं, और मुझसे गहरा प्रेम करते हैं। हो सकता है कि, भारतवर्ष का युवावर्ग स्वामी जी के जीवन को पूरी तरह से नहीं भी जानता हो, किन्तु उनके चित्र को देखकर विवेकानन्द कहने से उसका अर्थ यदि 'आत्मविश्वास ' समझता हो, विवेकानन्द शब्द का पर्याय यदि 'त्याग' समझता हो, 'निःस्वार्थपरता' समझता हो, यदि विवेकानन्द का अर्थ 'सहानुभूति' और सभी मानवों की 'सेवा' समझता हो, तो फिर उनके लिए और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है।  हो सकता कि मैं स्वामी विवेकानन्द को ठीक से नहीं जानता हूँ ,  यह भी नहीं समझ पाता हूँ कि स्वामी विवेकानन्द का दर्शन और आचार्य शंकर का अद्वैत दर्शन एक दूसरे के कितना निकट है; किन्तु यदि स्वामी जी को मैं अपने हृदय से प्यार करता हूँ, उनके नाम को सुनकर ही मेरा दिल धड़क उठता है, मेरे हृदय में विद्युत् की चमक के समान अचानक कोई उच्च विचार कौंध उठता है, वीरत्व का भाव या करुणा की धारा फूट पड़ती है तो बस - इस भाव को बनाये रखना ही यथेष्ट है।
इसीलिए हमलोग बार बार इस बात को समझाने का प्रयास करते हैं कि , महामण्डल की स्थापना स्वामी विवेकानन्द (या नवनीदा के)  नाम का प्रचार करने के लिए नहीं हुई है। 
महामण्डल आन्दोलन से जुड़ने का  अर्थ यह कदापि नहीं है कि, हमलोग स्वामी जी वाणी को सब जगह फैला देंगे, विवेकानन्द साहित्य/महामण्डल साहित्य की सभी पुस्तकों को बेच डालेंगे। हमारा उद्देश्य तो मात्र इतना ही है कि यदि स्वामी जी के निकट बैठने मात्र से 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी भाव' हमलोगों को प्राप्त हो जाते हैं, तो हमलोग स्वामी जी के चरणों में अपना शीश अवश्य झुकायेंगे! अर्थात यदि केवल स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास तथा उनकी शिक्षाओं और उनके जीवन में घटित घटनाओं का श्रवण,मनन और निदिध्यासन करने से ही, हमारा विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है, तथा हमें उस महान 'विवेकज-ज्ञान' की प्राप्ति सरलता पूर्वक हो जाती है, जो त्राण करती है, जीवन्मुक्त, भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइड कर देती है ! तब  हम अपने जीवन में घटित रूपांतरण की अनुभूति करके, स्वामी जी के/नवनीदा के चरणों में श्रद्धापूर्वक अपना शीश अवश्य झुकायेंगे! 
            अब यह प्रश्न उठाया जा सकता है, कि जिन 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' विचारों के प्राप्त होने की बात कही जा रही है, क्या वे विचार सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द के मन में ही उपजे थे? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। इस प्रकार के विचार एवं अन्य महान विचार पृथ्वी पर अति प्राचीन काल से थे, तथा आज भी प्रचलन में हैं। तो फिर हम इन्हें स्वामी जी के विचार क्यों कहते हैं ? वह इसीलिए कि, स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवनरूपी यज्ञ के द्वारा, समस्त जगत के तात्विक-ज्ञान समूहों का मंथन किया था, और मंथन के फलस्वरूप जो 'अमृत-कलश' निकला था, उसमें भरा था मृत मनुष्य को भी पुनरुज्जीवित कर देने में समर्थ ये अमृततुल्य विचार ! स्वामी जी ने सम्पूर्ण जगत के सभी श्रेष्ठ मानव-मन के उन ज्ञानामृत सदृश निष्कर्षों को चुन-चुन कर ' हस्तामलकवत' (यानि उठाकर देखो,इसीको 'विवेकज-ज्ञान' कहते हैं !) हमारे हाथ पर लाकर रख दिया था। यह कार्य स्वामी जी ने अपने व्यक्तिगत जीवन को ही एक महान यज्ञ के रूप में रूपान्तरित करके पूरा किया था। उनके जीवन को ही 'यज्ञ' इसीलिए कहना पड़ता है, कि यज्ञ का अर्थ होता है -त्याग! स्वामी जी के जीवन-यज्ञ  में क्या हुआ था ? उन्होंने स्वयं का (मिथ्या अहं का) तिल -तिल कर त्याग करते हुए उस महान यज्ञ को सम्पादित किया था। 
आइये हम स्वामी विवेकानन्द के यज्ञमय-जीवन को देखने का प्रयास करते हैं। स्वामी विवेकानन्द तात्कालीन भारत की राजधानी कोलकाता के आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा सम्पन्न, अत्यन्त प्रगतिशील परिवार की सन्तान थे। चाँदी के चम्मच को मुख में लेकर ही, स्वामी जी ने धरती पर जन्म ग्रहण किया था। उस ज़माने जब मोटरकार का अविष्कार भी नहीं हुआ था उनके पिता जो सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील थे, अपनी निजी बग्घी में चढ़कर अदालत जाया करते थे। उनके घर का रहन-सहन धनाढ्यों जैसा ही था, और उसी प्रकार के उच्चवर्गीय लोगों (posh) के रिहायशी मुहल्ले -कोलकाता के शिमुलिया मुहल्ले में उन्होंने जन्म ग्रहण किया था। उस समय के आधुनिक युवाओं जैसा ही, उनका लालन-पालन हुआ था। उनकी प्रतिभा सर्वतोन्मुखी थी।वे फुटबॉल खेलते थे, क्रिकेट खेलते थे, जिम्नास्ट थे, मुक्केबाजी करते थे, kung fu (एक चीनी मार्शल आर्ट) जानते थे , बहुत अच्छा गा सकते थे, नाटकों में अभिनय करते थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, एनाटॉमी, समाज-विज्ञान, आदि विविध विषयों के विभिन्न पुस्तकों का अध्यन किया था। तथा उन विषयों पर बौद्धिक चर्चा भी किया करते थे। तात्विक-बहस में किसी के लिए उन्हें हरा पाना सहज नहीं था। युक्ति-तर्क से किसी विषय को जाँचने के बाद ही उसे ग्रहण करते थे। उन्होंने अपने शरीर को भी सुदृढ़ बना लिया था। इस प्रकार जीवन-यापन करते-करते हठात समय का चक्र घूम जाता है, भाग्य पलटा खाता है। असमय ही पिता की मृत्यु हो जाती है, लिखना-पढ़ना लभगभग छूट ही जाता है। 
                अब, यहाँ से स्वामी जी का जीवन यज्ञ में रूपान्तरित होना प्रारम्भ करता है। उनके पिता को खुले हाथों से दान करने की आदत थी। अतः उनके परलोक सिधारते ही रुपया,पैसा, जमीन-जायदाद, सब कुछ हाथ से बाहर हो  जाता है। जब उनके पिता संसार से गए तो वस्तुतः अपने बच्चों के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं गए थे। नरेन्द्रनाथ अपने भाई-बहनों के साथ अनाथ हो गये। केवल एक विधवा माँ घर पर थीं।  एक बार नरेन्द्रनाथ ने अपने पिता से पूछा था, ' मेरे लिए आपने कुछ छोड़ा भी है या नहीं ? क्या छोड़कर जायेंगे आप मेरे लिये ?' पता नहीं क्या सोचकर, बिल्कुल किसी मनोवैज्ञानिक जैसी भंगिमा में, जैसा कभी कभी मनोवैज्ञानिक लोग किया करते हैं, वे भी नरेन्द्रनाथ को एक आदमकद शीशे के सामने ले जाकर खड़ा करते हुए कहते हैं - "  इसे देखो, यही छोड़कर जाऊँगा। " जबकि विश्वनाथ दत्त ने विवेकानन्द की तरह वाह्यविषयों में उत्कर्ष (excellence) प्राप्त करने की कोई चेष्टा नहीं प की थी। वे तो कानून के ज्ञाता थे, उसी व्यवसाय से जुड़े हुए भी थे, किन्तु पता नहीं क्या विचार कर, नरेन्द्रनाथ को दर्पण में उन्हीं की छवि उनको दिखलाते हुए कहा था - " इसे देखो, यही वह है,  जिसको मैं तुम्हारे लिए छोड़ कर जा रहा हूँ;  मैं तुम्हारे लिए 'तुम्हें' (नेता/शेर को?) ही छोड़ जाता हूँ। " 
अमेरिका में घटित एक सच्ची घटना का वर्णन मनोविज्ञान की एक बहुचर्चित पुस्तक [The Law of Success *]  में इस प्रकार से लिपिबद्ध है..... अमेरिका का एक धनाड्य व्यवसायी अचानक किसी बहुत बड़े आर्थिक संकट में फंस जाता है। उसका अच्छाखासा जमा-जमाया व्यवसाय किसी कारण से ठप्प हो जाता है, और वह आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त दरिद्र हो जाता है। हमारे  देश में तो बहुत सारे लोग दरिद्र ही हैं, कितने लोग तो 'B.P. L.'(below poverty line,) गरीबी रेखा से नीचे भी वास कर लेते हैं। किन्तु पाश्चात्य जगत के कुछ देश आर्थिक दृष्टि से इतने अतिसंपन्न हैं, कि वहाँ कोई धनाढ्य व्यक्ति यदि किसी कारणवश, फिर से कभी गरीब हो जाता है; तब 
उसमें फिर जीवित बचे रहने की क्षमता ही नहीं बचती।  किन्तु,हमारे देश के गरीब लोग, जिन्हें भरपेट दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती, जो फाकाकशी करने पर मजबूर हैं, वे जीर्णशीर्ण शरीर के होते हुए भी, दीर्घकाल तक कैसे जीवित रह पाते हैं ? क्योंकि हमारे देश की साधारण जनता के मन भी दरिद्र लोगों के प्रति, आज भी प्रचूर सहानुभूति, करुणा, सहृदयता और दानशीलता तक बची हुई है। इसीलिए, यहाँ के गरीबों की सहायता करके, किसी भी प्रकार उनके जीवन को नष्ट होने से अवश्य बचा लिया जाता है। 
          किन्तु पाश्चात्य देशों में, वहाँ के गरीब व्यक्तियों को अत्यन्त तुच्छ समझा जाता है, वे बिल्कुल उपेक्षित जीवन जीने को बाध्य रहते हैं। धनदौलत से सपंन्न वहाँ की साधारण जनता, उन लोगों को  जिनके पास धनदौलत नहीं होता, उसकी ओर तो आँख उठाकर भी नहीं देखते। इसी कारण अमेरिका के यह सम्भ्रान्त और धनाड्य व्यवसायी, जो अब  किसी दुर्दैववश अचानक गरीब हो गए थे, उन्होंने यह विचार किये बिना कि उनके नहीं रहने के बाद इनकी पत्नी और बच्चे कैसे रहेंगे, क्या खाएंगे, कैसे जीवित रहेंगे? अपने घर-परिवार को छोड़कर बाहर निकल गए; तथा यह निश्चय कर लिया कि वे मिशिगन स्थित झील में डूबकर आत्महत्या कर लेंगे।  उन्हें जीवित रहने का कोई उपाय ही नहीं सूझ रहा था। 
जब वे इसी निश्चय को कार्यरूप देने की बात सोचते हुए सड़क के किनारे से चले जा रहे थे, कि तभी जाते -जाते एक अचानक एक धटना घटित होती है। यह घटना हमें अलौकिक या चमत्कारपूर्ण  लग सकती है, किन्तु, स्वामीजी कहा करते थे जीवन में अलौकिक घटना जैसी कोई चीज घटित नहीं होती है। फिर भी हमलोग अपने अनुभव से जानते हैं, कि जीवन में कभी-कभी ऐसी कुछ घटनायें घटित हो जाती हैं, जो हमलोगों को अलौकिक, चमत्कार या 'miracle' से थोड़ी भी कम प्रतीत नहीं होती। ..... हठात एक व्यक्ति कहीं से आता है, और विपन्न अवस्था में पड़े उस अमेरिकी सज्जन के ओवर कोट की जेब में एक छोटी पुस्तक डालकर चला जाता है। 
                  वे सज्जन उस पुस्तक को जेब से बाहर निकाल कर देखते हैं, तो उसके ऊपर लिखा था - 'आत्मविश्वास'  (Self-Confidence )| पुस्तक के पन्नों को पलटते हुए वे सज्जन सोचने लगते हैं, कि आत्महत्या तो खैर करना ही है, किन्तु इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही आत्महत्या करूँगा। ऐसा विचार करके सड़क के किनारे लगे एक बेंच पर बैठकर, उस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ को पलटते हैं, तो वहाँ लिखा था - " तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो !" (You are the creator of your own destiny!) इसीलिए तुम्हारे निराश होने का कोई कारण नहीं हो सकता।  जीवन में चाहे जैसी भी विषम परिस्थित क्यों न उपस्थित हो जाय, पर उसमें विचलित हो जाना किसी मनुष्य को शोभा नहीं देता। अपने आत्मस्वरुप को जाग्रत करो, उस पर विश्वास करो और चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो उस पर विजय प्राप्त करो ! " उस सज्जन की आत्मश्रद्धा थोड़ी जाग्रत हो जाती है, और वे निर्णय करते हैं कि आत्महत्या के विचार को कम-से-कम आज के दिन तक तो टाल ही दिया जाय। पुस्तक को उलट-पुलट कर उसके लेखक का नाम खोजने लगे। देखा तो उसमें लेखक के नाम (नेपोलियन हिल) के साथ, उनका पता भी लिखा था, और परिचय में लिखा था कि एक प्रसिद्द मनोविज्ञानिक (Psychologist) हैं। 
                उस सज्जन ने विचार किया कि जिस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे आज तक के लिए ही सही, आत्महत्या के विचार को स्थगित कर देना पड़ा है; इस पुस्तक के लेखक चलकर कम-से-कम एक बार ' Thank-you' बोलना तो बनता है। क्योंकि पाश्चात्य जगत के नागरिकों में  कृतज्ञता ज्ञापित करने का भाव (curtsy) थोड़ाबहुत ही क्यों न हो, रहता अवश्य है। किसी व्यक्ति से सामान्य सी सहायता प्राप्त होने पर भी 'Thanks' कहने की आदत उनमें ऐसा घर कर चुकी है, जो व्यक्ति आज ही आत्महत्या करने पर आमादा था, वह भी सोचने लगता है, कि बिना उसको धन्यवाद दिए ही आत्महत्या कर लेना उचित नहीं होगा। मरने से पहले इस लेखक को धन्यवाद कहने का पूरा कर ही लेना चाहिए। 
उस पुस्तक में लिखे पते को ढूँढ़ते हुए वे सज्जन उस लेखक (नेपोलियन हिल) के कार्यालय में पहुँच जाते हैं। एक कुर्सी खींचकर उनके सामने बैठते हुए पूछते हैं, कि " श्रीमान, क्या इस पुस्तक को आपने ही लिखा है ?" लेखक के 'हाँ'-कहते ही वे सज्जन पूछते हैं, " महाशय, क्या आप मेरे लिए कुछ कर सकते हैं ? लेखक ने पूछा -'आपकी समस्या क्या है?' आप मुझे अपनी कैसी सेवा करने का अवसर देना चाहते हैं ? आपकी कोई भी सेवा करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी !' वे सज्जन उस लेखक के समक्ष अपनी आप बीती सुनाते हैं,....कि  इस- इस प्रकार से सर्वस्व खो चुकने के बाद, अब मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया है। क्या आप मुझे कुछ और थोड़े दिनों तक जीवित रहने का उपाय बतला सकते हैं ? 
              तब वह मनोविज्ञानी लेखक (नेपोलियन हिल) कहते हैं, 'महाशय, मुझे क्षमा करें, मेरे लिए वैसा कर पाना बिल्कुल भी सम्भव नहीं नहीं होगा। " अब तो उस सज्जन के लिए मानो आशा का अंतिम दीपक भी बुझ गया, वे हताश होकर सोफे पर टिका कर सोचने लगे, अब यहाँ से उठकर सीधे मिशिगन झील में ही डूब -मरना होगा, क्योंकि आत्महत्या करने के सिवा दूसरा कोई पथ बचा ही नहीं है। कहाँ तो वे उस मनोवैज्ञानिक -लेखक के पास यही सोचकर आये थे, कि जिसके कलम द्वारा लिखित शब्दों से मुझे इतनी हिम्मत मिली है, उसका साक्षात्कार करने से हो सकता है, वे मुझे कोई नया मार्ग बतला देंगे। किन्तु, जब इस लेखक ने भी सपाट स्वर में यह कह दिया कि अब वह भी कुछ नहीं कर सकता, तब वे हताशा से बिल्कुल टूट ही गए। 
किन्तु, फिर भी थोड़ा साहस बटोरकर, दुबारा प्रश्न किये -' क्या सचमुच, आप भी मेरे लिए कुछ नहीं कर सकते ?' तब उस मनोवैज्ञानिक लेखक ने कहा, ' अच्छा देखता हूँ। बगल के कमरे में ही एक अन्य सज्जन रहते हैं, चलिए उनसे ही कुछ करने को कहता हूँ। ' इतना सुनते ही, वे सज्जन उठ खड़े हुए और बोले, -"चलिए, चलिए, उनके पास ही ले चलिए, मुझसे उनका परिचय करवा दीजिये, मैं अभी तुरंत उनसे मिलना चाहता हूँ। " 
    मनोविज्ञानी लेखक उस सज्जन को अपने ऑफिस के पीछेले दरवाजे को खोलकर, पास वाले कमरे में ले गए। वहाँ एक आदमकद दर्पण लगा था और वह एक पर्दे से (मिथ्या भेँड़त्व के अहं से ?) ढँका हुआ था। लेखक ने, उस दुःखी, हताश सज्जन को ले जाकर उस दर्पण के सामने खड़ा कर दिया।  और पर्दा को खींचकर उस सज्जन के प्रतिबिम्ब को दिखलाते हुए कहा - " इनसे मिलिए, यही वे सज्जन हैं ! (शेर सिंह), जो आपकी मदद कर सकते हैं !" जब उस सज्जन ने दर्पण में (भेंड़-शिशु ने तालाब के जल में) कई दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ अपना विषादपूर्ण चेहरा देखा; तब वे मानो चौंक कर जाग उठे ! (स्व-स्वरूप का स्मरण हो आया ?) और बोल पड़े- " ओह ! अब मैं समझ गया हूँ, तथा उपाय भी जान गया हूँ।"  यह कह क वे पागलों की तरह वहाँ से बाहर निकल गए। " 

                       अमेरिका में घटित इस घटना के विषय में, श्री विश्वनाथ दत्त ने नहीं ही पढ़ा होगा, यह बात तो बिल्कुल निश्चित है, क्योंकि यह पुस्तक 'The Law of Success' उनके स्वर्गीय हो जाने के बहुत वर्षों बाद -1928 ई ० में प्रकाशित हुई थी। किन्तु यह देखकर विस्मय होता है कि श्री विश्वनाथ दत्त भी नरेन्द्रनाथ के समक्ष नाटकीय तरीके यही दृश्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- " शायद तुमलोग ऐसा समझते थे कि तुमलोगों के लिए मैं काफी धन-संपत्ति छोड़ जाऊँगा। किन्तु, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहा हूँ। इस दर्पण में स्वयं को देख लो। मैं, तुम्हारी सहायता के लिए, इसको ही रखकर जा रहा हूँ। [दर्पण में जो दिखता है, वो तुम नहीं हो; तुम तो अजर-अमर अविनाशी आत्मा हो, तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है!] आत्मशक्ति में विश्वास करो ! आत्मविश्वासी बनो ! 'तुम सब कुछ कर सकते हो, यही थाती तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ-  तुम तो हो !" 
अमेरिका में रहने वाले उस सज्जन ने जब दर्पण में स्वयं को ही अपने 'सच्चे सहायक' के रूप में देखा था, तब उनके भीतर भी नचिकेता के जैसी श्रद्धा जाग्रत हो गयी थी, और वे बोल पड़े थे " अभी तो मैं हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ !" (उत्तम यदि नहीं हूँ, तो मृत शरीर जैसा अधम भी नहीं हूँ ! मुझमें जीवन है, पौरुष है! मैं धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष सब कुछ प्राप्त कर सकता हूँ ! कहानी में वर्णित यह सच्ची घटना कहती है की  उस सज्जन ने अपने उसी आत्म-विश्वास (Self -Confidence) की शक्ति से भरकर जब 'विवेकसम्पन्न बुद्धि' को विकसित करके पुनः उद्यम और परिश्रम करना शुरू किया, तब आत्महत्या तो नहीं ही किया, बल्कि अपनी परिस्थितियों को फिर से पलट दिया और एक सफल व्यवसायी बन गए !
..... इस प्रकार की कहानियों को कहानी-लेखन की विधा में (comedy) या सुखान्त कहानी कहा जाता है। प्राचीन भारत के संस्कृत काव्यों में तो दुःखान्त नाटक (tragedy) लिखना बिल्कुल ही वर्जित। तथापि हमलोगों के निजी जीवन में तो, ट्रैजडी या दुःखद घटनायें घटित होती ही रहती हैं। हमलोगों के सांस्कृतिक इतिहास में जितने भी बड़े बड़े नट (নট,actor) या रंगमंच के अभिनेता हुए हैं, जिन्होंने अपने बड़े बड़े जीवन-रूपी नाटक में शानदार अभिनय से अपना अमिट छाप छोड़ा है, उन सभी महानायकों [श्री राम,श्रीकृष्ण,बुद्ध,ईसा..... आदि को अपने जीवन में अभिनय के लिये मिली हुई पटकथायें तो केवल त्रासदियों की शृंखला मात्र हैं। उसी प्रकार के बहुत बड़े त्रासदी नायक (Tragedy King) हुए हैं -स्वामी विवेकानन्द ! जरा विचार कीजिये ठाकुर श्री रामकृष्णदेव उनको किस विषाद-सागर में डुबो कर चले गए थे! क्योंकि, अब तो सम्पूर्ण विश्व के सभी मनुष्यों के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में उन्हें भी चिरकाल तक वहन करना पड़ेगा। फिर भी हमलोग (शिक्षक/नेता) उसी प्रकार के त्रासदी -नायकों के जैसी पटकथा प्राप्त होने की कामना करते हैं।
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"जब भ्रम का नाश होता है , तो उसमें कितना समय लगता है ? पलक झपकने में जितनी देर लगती है, उतनी। जब मैं सत्य को अपने अनुभव से जान लेता हूँ , तो इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता कि असत्य पूरी तरह से गायब हो चुका होता है। मैंने रस्सी को साँप समझा था और अब मैं जानता हूँ कि वह रस्सी है। प्रश्न केवल आधे सेकंड का है। और सब कुछ हो जाता है ! तू 'वह' -है ! तू वास्तविकता है (तू स्वरूपतः इन्द्रियातीत सत्य ब्रह्म है !)  इसे जानने में कितना समय लगता है ? इसका पता लगने में युग नहीं लगना चाहिए कि हम सदा से क्या रहे हैं, और अब क्या हैं ? ३/१९०  इसीलिए स्वामी जी कहते थे -' "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं, लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, वसन्तवत लोकहितं चरन्तः -यही मेरा धर्म है। २/३६३  यदि एक व्यक्ति की मुक्ति के लिए भी मुझे,100 बार नरक में जाना पड़े ?  ...... ट्रेजडिकिंग का शानदार अभिनय करने वाले अवतारों, प्रशिक्षित नटों, नेताओं, शिक्षकों  को अपना ईश्वरत्व कभी नहीं भूलता। संत तुलसी दासजी दुःखान्त नाटकों के नायकों के रूपान्तरित जीवन का कारण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'जौं सपनें सिर काटै कोई, बिनु जागें दुःख (tragedy) दूरि न होई। ' -जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता। मोहनिद्रा से जागे बिना अर्थात अपने यथार्थ स्वरुप को पहचाने बिना, कोई भी साधारण मनुष्य इतना जीवंत ट्रेजडि-किंग का अभिनय क्यों नहीं कर सकता  ? क्योंकि अपने को मरणधर्मा शरीर समझने वाला ये जो सोया हुआ जीव है, या जो जीव हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहता है, वह हर समय मृत्यु के भय से डरता रहता है, और नाना प्रकार के दु:खों से परेशान रहता है। स्त्री/पुरुष का अभिनय ? जैसे ही उसको आत्म-साक्षात्कार हो जाता है, और नींद टूट जाती है, वह डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है। तब उसका स्वप्न भी भंग हो जाता है, और वह आध्यात्मिक मनुष्य सदा के लिए सुखी हो जाता है।]  
                  किन्तु उस अमेरकी सज्जन की कहानी वहाँ जाकर समाप्त होती है, जब वे सम्भ्रान्त सज्जन अपने 'उद्यम और पौरुष ' से अपना भाग्य बदल लेने के बाद, एक दिन जब रास्ते से गुजरते समय अचानक उस मनोवैज्ञानिक लेखक 'नेपोलियन हिल' को अचानक पुनः देखते हैं; तो तुरंत अपनी जेब से चेक-बुक निकाल कर, उसमें 1000 डालर की रकम भर कर, उस दिन पहुँचाई गयी सहायता के लिए परामर्श शुल्क 'consultancy fee'  के रूप में प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस कहानी का सचमुच ही सुखद समापन होता है। 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन में जीवंत अभिनय दिखाने के लिए मिली  पटकथा (Script) की दृष्टि से देखें, तो उनकी कहानी घोर दुःखान्त है। अपने सन्तानों के लिए श्री विश्वनाथ दत्त जी ने अपने बाद कोई सम्पत्ति नहीं छोड़ी। किन्तु अपने पीछे एक ऐसे 'प्रेमपूर्ण हृदय वाले मनुष्य', 'Heart Whole Man' को छोड़ जाते हैं, जिसने आत्मविश्वास की शक्ति से, पूरे जगत को जीत लिया ! किन्तु निजी या वैयक्तिक (personal) बोलने से जो कुछ भी समझा जाता है, उन सबों को उन्होंने खो दिया । यही तो है विश्वविजयी स्वामी विवेकानन्द का जीवन ! 
             श्रीरामकृष्ण के जाने के बाद पदयात्रा करते हुए वे पूरे भारत का दर्शन करते हैं ! (चार शेरों वाले रथ पर सवार, एक हाथ आशीर्वाद मुद्रा में और दूसरे में महामण्डल ध्वज लिए भारतमाता का दर्शन करते हैं ?)हिमालय से कन्याकुमारी तक की यात्रा में उन्होंने राजा के महलों से लेकर दरिद्रों की कुटिया तक में निवास किया था; ये बातें हमलोग उनकी जीवनी पर बोलते समय प्रायः कहते हैं। किन्तु, सच्चाई यह है कि वे केवल दरिद्रों के झोपड़ियों तक में ही निवास नहीं किये थे, बल्कि उससे भी ज्यादा निम्नतम अवस्था में उन्हें रहना पड़ा था। जिनके रहने का कोई ठिकाना नहीं होता, जो भिखारी खुले आसमान के नीचे धूप-वर्षा सहने को विवश होते हैं, स्वामी जी उनके भी बीच जाकर बैठते हैं। तीन-तीन दिनों तक अनाहार ही रह जाते हैं। वे उनके साथ बैठकर उनके जीवन के दुःख भरी बातों को सुनते हैं, और उनसे शांति प्रदान करने वाली बातों को कहते हैं, उनके जीवन में शांति की प्रार्थना करते हैं।
यही है स्वामी जी का जीवन। तभी तो वे सारी पृथ्वी पर अपने व्याख्यानों द्वारा एक अग्नि शिखा प्रज्ज्वलित कर चले जाते हैं। यह सब कहने के लिये कौन उनको बाध्य कर रहा है वे स्वयं नहीं जानते, कहाँ पर क्या बोलना है -कुछ भी नहीं जानते। कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना 'जीवन देवता' में वर्णित पात्र के जैसा न जाने कौन उनके हृदय में बैठकर उनसे भाषण दिलवाता है, और फिर उसी अज्ञात की अग्निवाणी से सम्पूर्ण विश्व में कैसी चिंगारी फैला देते हैं ? अमेरिका में पाप के सिर पर तो वज्र गिराकर ही लौटते हैं। मानव की जो सत्ता शुद्ध-बुद्ध-निरंजन स्वरुप है, उसी को पापी कहकर कलंकित करने का जो षड्यंत्र वहाँ के पुरोहितों (पादरियों) के द्वारा चलाया जा रहा था, उसके विरूद्ध अपनी वाणी द्वारा जिहाद करते हुए विश्व-रंगमंच को प्रकम्पित करने के बाद ही स्वदेश वापस लौटते हैं। और यहाँ आने पर, हमारा देश जो उस समय जड़ता, क्लीवता तथा तमोगुण से आछन्न होकर मोहनिद्रा में निमज्जित था, उसके स्थान पर रजोगुण की स्थापना कर देते हैं। उनके भीतर आत्मविश्वास जगा देते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व को ही अपना मानते थे, इसलिए पाश्चात्य में जिस चीज का अभाव उन्हें दिखा उसको दूर करते हैं, प्राच्य में जिस चीज का अभाव दिखा उसको दूर करने की सामग्री द्वारा, विचारों के द्वारा परिपूर्ण करने के बाद यह 'महावीर' सृष्टि लीला के रंगमंच से प्रस्थान कर जाते हैं।
 अपनी रचनाओं में सारी मानवजाति के लिए कैसे- कैसे कल्याणकारी विचारों को वे छोड़कर गए हैं ! उन महान विचारों को पढ़-सुनकर अवाक् हो जाना पड़ता है।  वे महान भाव क्या हैं ? वे हैं -आत्मविश्वास की अनुभूति, निर्भीकता का भाव, त्याग के विचार, निःस्वार्थपरता का भाव, सहानुभूति के विचार, और बिना डरे (unflinchingly) जगत की  सेवा करने का भाव। उन्होंने कहा था - 'एक बार फिर से धर्म क्या है ? इसे समझना होगा और अपने जीवन में धारण करना होगा।' पुराना धर्म , जहाँ वेदों में और ईश्वर में विश्वास करने को आस्तिक्य कहता था, अब नया धर्म कहेगा -'आत्मविश्वास ही वास्तविक आस्तिकता है!' (अपने स्व-स्वरूप में, 'सिंह'-स्वरूप में विश्वास करना ही आस्तिकता है।) उन्होंने कहा था मन्दिर, मस्जिद और गिरजे में ईश्वर का अन्वेषण करने के बजाय मनुष्य के भीतर ही ईश्वर की खोज क्यों नहीं करते ? और कहा था -'तुमलोगों ने शास्त्रों में पढ़ा है -'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' , मैं कहता हूँ -'दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव !' 'क्रोध ,यदि न्यायोचित भी हो , तो एक जघन्य पाप है !' २/३७८ "सारा संसार आलोक चाहता है। उसे भारत से बड़ी आशा है। एकमात्र भारत में ही यह आलोक है ! " ३/३९६   इस बात में कुछ सन्देह नहीं कि 'इस जगत में जो कुछ है, वह ईश्वर ही हैं - ईशावास्यं इदं सर्वं', किन्तु इन गरीबों के भीतर, इन मूर्खों के भीतर, वे अधिक मात्रा में प्रकाशित हैं। तुमलोग इन्हीं साक्षात् ,जीवंत ,जाग्रत देवी-देवताओं की पूजा करते हुए अपने प्राणों का त्याग करने का सौभाग्य प्राप्त करो। तभी तुम्हें 'अक्षय-स्वर्ग' की प्राप्ति होगी। अन्य कोई स्वर्ग कहीं नहीं है। 'अमरत्व' (शाश्वत जीवन) भी कहीं नहीं है, वह भी इसी 'शिव-ज्ञान से जीव सेवा' द्वारा ही प्राप्त होता है। अफीम के नशा जैसा किसी अन्य प्रकार की 'तथाकथित मुक्ति' की खोज में तुमलोग पागल नबनो! " सभी से पूछना -19 /3 /1894 / क्या सभी लोग ईर्ष्या त्यागकर एक-साथ रह सकेंगे या नहीं ? यदि नहीं, तो जो ईर्ष्या किये बिना नहीं रह सकता , उसके लिये वापस चले जाना ही अच्छा  होगा, और इससे सभी का भला होगा। और यही हमारा राष्ट्रीय दोष है ! इस देश (अमेरिका) में वह नहीं है , इसीसे ये इतने बड़े हैं। और हम ? हम 'आर्यवंशी' जो ठहरे !! वंश (Arya -Lineage) कहाँ है , यह नहीं मालूम ! एक लाख लोगों के दबाने से तीस करोड़ लोग कुत्ते के समान घूमते हैं, और वे 'आर्यवंशी' हैं! "
'श्रीरामकृष्ण की सन्तान' होने की पहचान [पूरी- अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक/माली/ नेता होने की पहचान] उन्होंने कहा था -' जो लोग मेरे अनुगामी बनेंगे, और अपनी मुक्ति के लिए 'अलग से चेष्टा'  भी करते रहेंगे, तब वे लोग नरक में जायेंगे। ' श्रीरामकृष्ण की सन्तानें वे लोग (M/F) ही हैं -जिनके हृदय में जीवों के लिए इतनी करुणा होती है, कि वे उनके कल्याण के लिये स्वयं नरक में भी जाने को तैयार रहते हैं। इतरे कृपणाः -दूसरों को (ब्राह्मण होकर भी) हीनबुद्धिवाला समझना। उनका चरित्र, उनकी शिक्षा, इस समय चारों ओर फैलाते जाओ -यही साधन है, यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है! आगे बढ़ो , आगे बढ़ो ! नाम का समय नहीं, यश का समय नहीं है, मुक्ति का समय नहीं है, भक्ति का समय नहीं है।  श्री रामकृष्ण की सन्तानों की पहचान यही है कि वे विश्व के सभी मनुष्यों के दुःख से विह्वल होकर अपना सर्वस्व -अपने प्राणों तक को न्योछावर कर देने को सदा प्रस्तुत रहते हैं। तथा जो वैसा नहीं करेंगे, चाहे वे उनके गुरुभाई होकर ही क्यों न आगे आ चुके हैं, या जो उनके बाद आगे आना चाहते हों, उन सबको कठोर चेतावनी देते हुए कहते हैं- जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपने जिद के सामने सबका सिर झुका हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे  कोई नहीं हैं। उन्होंने कहा था - " जो कोई भी मनुष्य  इस महान आध्यात्मिक प्लावन की सन्धिवेला 'great spiritual juncture' में हृदय में प्रचण्ड साहस भरकर खड़ा हो जायेगा, गाँव -गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है -वही उनकी सन्तान है। This is the test, he who is Ramakrishna's child does not seek his personal good. " the point of death." यही परीक्षा है - (इस बात कि कसौटी है) कि जो श्रीरामकृष्ण की सन्तानें हैं , वे अपने लिए मुक्ति-भक्ति की कामना नहीं करते, प्राण निकल जाने पर भी दूसरों का कल्याण, सम्पूर्ण जगत का कल्याण चाहते हैं- प्रराणात्ययेऽपि परकल्याण-चिकीर्षवः (=चाहने वाले) । " 
 " My brother , what experiences I have had in the South, of the upper classes torturing the lower ! What Bacchanalian orgies (मद्योत्सव संबंधित व्यभिचार-Wine related adultery) within the temples ! Is it a religion that fails to remove the misery of the poor and turn man into Gods!" या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेषु, अलक्ष्मीः पापात्मानं , त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्व ह्रीः , या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, यत्र नार्यअस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवताः , यथातथ्यतो आयुरथान व्यधतात, त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी, कालः सुप्तेषु जागर्तिं कालो ही दुरतिक्रमः। "  
तुममें से प्रत्येक के जीवन में एक महत्तर आदर्श है, महत्तर उद्देश्य है, अपनी मुक्ति को तुच्छ वस्तु समझकर उसे धूलि में फेंक दो। जगत की मुक्ति हो, जगत का कल्याण हो, जो नीचे गिरे हुए हैं उनको ऊपर उठाने के लिए स्वयं के जीवन  दृढ़तापूर्वक गठित कर लो। और इसी चेष्टा में अपने प्राण त्यागो। तुमलोगों के लिये मेरा यही निर्देश या यही आदेश है ! वे कहते हैं, यही दुःख, यही त्याग, वैसी ही महामृत्यु मैं तुम्हें आशीर्वाद के रूप में दिए जा रहा हूँ। तुमलोग अपने जीवन में उसका वहन करो। स्वामी जी के जीवन और संदेश की सार बात यही है, यदि हम इसे अपने हृदय में बसा सकें , तभी उनके जीवन और संदेश हमारे जीवन को भी अनुप्राणित कर पाएंगे। किन्तु पुस्तक में उनके जीवन की घटनाओं को पढ़कर कंठस्थ करके, पूरी भावुकता के साथ उसके ऊपर भाषण दें, किन्तु उनके उपदेशों की मर्यादा मेरे जीवन से अभिव्यक्त नहीं होती हो, हमारे दैनन्दिन जीवन में प्रतिफलित नहीं होती हो, तो वैसे खोखले उपदेशों से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। स्वामी जी स्वयं कहते हैं -" संसार सिद्धान्तों की कुछ भी परवाह नहीं करता। यहाँ लोग व्यक्तियों की ही पूजा करते हैं। जो व्यक्ति उन्हें प्रिय होगा, जिसका मन-वचन-कर्म एक होगा , उसके वचन वे शांति से सुनेंगे, चाहे वे कैसे भी निरर्थक क्यों न हों -परन्तु जिस मनुष्य का चरित्र उन्हें अप्रिय होगा, उसके वचन नहीं सुनेंगे। इस पर विचार करो और अपने आचरण में तदनुसार परिवर्तन करो। सब कुछ ठीक हो जायेगा। यदि तुम शासक बनना चाहते हो, तो सबके दास बनो। यही सच्चा रहस्य है !" २/३५९  यदि उनका जीवन और उपदेश हमारे भीतर साम्यभाव में स्थित, भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने की यथार्थ प्रेरणा जागृत कर सकें, केवल तभी हमारा स्वाभाविक उद्देश्य सफल हो पायेगा। 
" We as a nation have lost our individuality , and that is the cause of all mischief in India .We have to give back to the nation its lost individuality and raise the masses . again the force to raise them must come from inside , that is from the orthodox HINDUS. To effect this , the first thing we need is men, and the next is funds....Selfishness Personified -are they to spend anything ? Therefor I have come to America , to earn money myself. ...I give them spirituality ,and they give me money. "
   
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DEAR AND BELOVED, (The brother-disciples at Alambazar monastery.)(Summer?) १८९४.Arise! Awake! and stop not till the goal is reached." Life is ever expanding, contraction is death. The self-seeking man who is looking after his personal comforts and leading a lazy life — there is no room for him even in hell. He alone is a child of Shri Ramakrishna who is moved to pity for all creatures and exerts himself for them even at the risk of incurring personal damnation — others are vulgar people. Whoever, at this great spiritual juncture,will stand up with a courageous heart and go on spreading from door to door, from village to village, his message, is alone my brother, and a son of his. This is the test, he who is Ramakrishna's child does not seek his personal good. " the point of death." Those that care for their personal comforts and seek a lazy life, who are ready to sacrifice all before their personal whims, are none of us; let them pack off, while yet there is time. Propagate his character, his teaching, his religion.This is the only spiritual practice, the only worship, this verily is the means, and this the goal. Arise! Arise! A tidal wave is coming! Onward! Men and women, down to the Chandâla (Pariah) — all are pure in his eyes. Onward! Onward! There is no time to care for name, or fame, or Mukti, or Bhakti! We shall look to these some other time. Now in this life let us infinitely spread his lofty character, his sublime life, his infinite soul. This is the only work — there is nothing else to do. Wherever his name will reach
" श्रीरामकृष्ण-जयन्ती वहाँ हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया, यह अच्छी बात है। उनके नाम का जितना ही विस्तार हो, उतना ही अच्छा है। परन्तु एक बात याद रखो -अवतार लोग शिक्षा देने के लिए ही धरती पर जन्म ग्रहण करते हैं, नाम-यश पाने के लिये नहीं। किन्तु उनके कुछ वैसे चेले /शिष्य जो अपनी सिगरेट-स्मोकिंग जैसे कई 'past bad habits' को नहीं छोड़ पाते हैं, वे उनके उपदेशों को पानी में बहाकर पद और नाम के लिए हाथापाई करने लग जाते हैं; बस यही संसार का इतिहास है।  लोग उनका (नवनीदा का) नाम लें या नहीं , इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं , केवल उनके उपदेश, जीवन और शिक्षायें  जिस उपाय से संसार में प्रचारित हों, (विवेक-वाहिनी,किशोर-वाहिनी, सारदा नारी संगठन, युवा पाठचक्र, युवा प्रशिक्षण शिविर etc), उसी के लिए प्राणों का होम कर प्रयत्न करता रहूँगा।['I am ready to lay down my life to help his teachings, his life, and his message 'Be and Make '-Leadership Training Tradition.) spread all over the world.
किन्तु मुझे सबसे अधिक भय ठाकुर-घर का है। ठाकुर-घर बनवाना अपने आप में बुरी बात नहीं, परन्तु उसी को यथा सर्वस्व समझकर पुराने ढर्रे के अनुसार काम कर डालने की जो एक प्रवृत्ति होती है , उसी वृत्ति से मुझे परेशानी है। .... समाज में, संसार में , बिजली की शक्ति के समान काम करना होगा। बैठे बैठे गप्पे लड़ाने, और घण्टी हिलाने से काम नहीं चलेगा। हमें कुछ प्रशिक्षित शिक्षक/लीडर/माली चाहिये -वीर युवक -समझे ? -बुद्धि के तीव्र और हिम्मत हिम्मत के पूरे -यम का सामना करने वाले-तैर कर समुद्र पार करने को तैयार -समझे ? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिये -स्त्री और पुरुष दोनों। [अद्वैत पूरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में] नेताओं का चरित्र-निर्माण हो जाये, फिर मैं तुमलोगों के बीच आता हूँ। .... आध्यात्मिकता की बड़ी भारी बाढ़ आ रही है, साधारण व्यक्ति महान बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पण्डितों के भी आचार्य बन जायेंगे। .. उत्तिष्ठत जाग्रत - उठो, जागो और जब तक लक्ष्य पर (साम्यभाव में ) न पहुँचो तब तक विश्राम मत करो। सदा अपने हृदय का विस्तार करते रहना ही जीवन है, और सिकुड़न (contraction, हर्ट भेन में बलॉकेज या जकड़ाव) ही मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब और आलसी है, उसके लिए नरक में भी जगह नहीं।   
 " भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है: 'ये विघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे' -जो नाहक औरों के हित के बाधक होते हैं, वे किस श्रेणी के हैं यह हमें नहीं मालूम। भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर यह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती ! यही हमारा 'राष्ट्रीय-दोष' (National defect,राष्ट्रीय बुराई) है -केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। वे (तथाकथित बड़े -बड़े नेता,ब्राह्मण-पुरोहित, वानप्रस्थी -निवृत्तिमार्गी) सोचते हैं कि हम ही बड़े हैं-दूसरा कोई बड़ा न होने पाये। "  
"हमारी हिन्दूजाति अपनी 'स्वतन्त्र सत्ता' [अर्थात आत्मश्रद्धा या (PARTICULAR- INDIVIDUALITY-व्यक्तित्व या वैयक्तिकता -व्यक्तिगत विशिष्ट पौरुष] खो बैठी है, और यही भारत के सारे अनर्थ का कारण है। हमें अपनी हिन्दू -जाति को उसकी खोई हुई स्वतन्त्र सत्ता वापस देनी ही होगी और निम्न -जातियों को 
(SC /ST/कन्वर्टेड ईसाई,मुस्लिम,जैन,सिख,बौद्ध....सबको ) उठाना होगा। हिन्दू, मुसलमान,ईसाई सभी (राजाओ/नवाबों/नेताओं) ने उनको पैरों तले रौंदा है। उनको उठाने वाली शक्ति भी अन्दर से अर्थात सनातनमार्गी हिन्दुओं से ही आयेगी! हमारे देश में जो सामाजिक बुराइयाँ हैं, वे धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं। अतः धर्म का कोई दोष नहीं, बल्कि धर्म को न मानने/जानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं। अतः धर्म का दोष नहीं, दोष मनुष्य का है। इसे करने के लिए पहले मनुष्य (माली/शिक्षक/नेता) चाहिये , फिर धन गुरु भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा से, ऐसे मनुष्य (माली या पैगंबर) तो मुझे प्रत्येक शहर में 10 -15  मिल ही जायेंगे। जैसे हमारे देश में सामाजिक सद्गुणों का अभाव है, वैसे ही पाश्चात्य देशों में आध्यात्मिकता का अभाव है। मैं इन अमीर देशों को आध्यात्मिकता प्रदान कर रहा हूँ और ये मुझे धन दे रहे हैं। स्वयं प्राणपण चेष्टा से धन-संग्रह करके अपना उद्देश्य सफल करूँगा, अथवा उसी के लिये मर मिटूँगा। 'सन्निमित्ते वरं त्यागो' --अरे, जब मृत्यु निश्चित है, तो किसी सत्कार्य के लिए मरना ही श्रेयस्कर है।    [दादा के पितामह मॉर्निग वॉक से लौटे तब उनके शरीर पर शॉल नहीं था !'मृत्युभय को सामने देखकर भी बेघड़ीया कैम्प 1987, तालाब, तांत्रिक-तालाब में डुबाने का प्रयत्न करने पर माँ वहाँ स्वयं चली आती हैं !     
"आपने मेरे गुरुभाइयों को देखा है। मुझे सारे भारत में ऐसे निःस्वार्थ , अच्छे एवं शिक्षित /प्रशिक्षित सैकड़ों नवयुवक मिल सकते हैं। दरवाजे दरवाजे पर धर्म को ही नहीं , शिक्षा को भी पहुँचाने के लिए इन लोगों को गाँव -गाँव में घूमने दीजिये। इसीलिए विधवाओं/अविवाहिताओं / प्रशिक्षित महिलाओं को भी शिक्षिकाओं /मालीन के रूप में संगठित करने के लिए मैंने एक छोटे से दल -SNS का गठन कर दिया है। " २/३६६ 
भक्ति निःस्वार्थ होनी चाहिए : शरीर के सात मूल चक्रों के लिए कमल के सात तरह के फूलों को प्रतीक चिह्न माना गया है।  हर इंसान के अंदर कमल के फूल की तरह खिलने और जीने की काबिलियत होती है; योग तो केवल एक तरीका है, खिलते-फूलते जीवन जीने का एक वैज्ञानिक तरीका।  आपको एक कमल के फूल की तरह बनना होगा और गंदे हालात से अनछुए बाहर निकल कर कमल के फूल की तरह खिलना होगा। सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल का फूल खिलता है। गुरु विवेकानन्द की शिक्षा की रोशनी से शिष्य का भविष्य संवरता है। ईश्वर/गुरु में स्वाभाविक भक्ति होनी चाहिए। जैसे मां का पुत्र के प्रति स्वाभाविक प्रेम होता है। सूर्य के उदय हो पर कमल क्यों खिलता है। चन्द्रमा को देखकर चकोर एकटक क्यों हो जाता है। चन्द्रमा के उदय होने पर कुमुदनी क्यों विकसित होती है। इस पर क्यों का कोई जवाब नहीं है। यह उसका स्वाभाविक प्रेम है। इसी प्रकार यदि भगवान में स्वाभाविक प्रेम हो जाय तो व्यक्ति का वैराग्य अपने आप हो जाएगा।

['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 7/ मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' निबन्ध संख्या -72-' মহামণ্ডল ও সেই মহাজীবন'/ Trained Leaders / teachers in 'Be and Make Puri Vedanta Leadership-Training Tradition' And the test of there life transformed into a great life! 'Be and Make पुरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित महामण्डल लीडर्स/टीचर्स  तथा उनके महाजीवन में रूपान्तरित जीवन की कसौटी ! 
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