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रविवार, 24 जुलाई 2022

🙏卐🙏🙏卐 गुजरात शिविर और संगोष्ठी -कक्षा [Camp and Seminar -Class 21 सितंबर से 26 सितंबर 2022] के लिए थीम है - समाधि -एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति - "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"-(यजुर्वेद 36/18 ) आधारित `एक नया युवा आंदोलन। '

(1) >>महामण्डल का प्रतीक चिन्ह (emblem ) और संघ-गीत  : 

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। 

देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।  

अर्थात: सभी भारतवासी साथ चलें, मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि चले हैं ! ( ऋग्वेद 10.181.2) यजुर्ववेद कहता है :  "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"- (यजुर्वेद 36/18 ) अर्थात- सभी मुझे मित्र की निगाह से देखें। मैं सभी को मित्र की निगाह से देखूं। हम सभी एक दूसरे को मित्र की निगाह से देखें। परस्पर के मानव सम्मान में ही सभी अधिकारों का सार निहित है।

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal City Office, Raja Ram Mohan Roy  Sarani - Youth Organisations in Kolkata - Justdial

महामण्डल  के  प्रतीक चिन्ह  में ही महामण्डल के "आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम" को बहुत संक्षेप में बता दिया गया है। महामण्डल द्वारा आयोजित इस 'युवा प्रशिक्षण शिविर और संगोष्ठी कक्षा' (Camp and Seminar) के बैज (Insignia ) में `श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त (समाधि) शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में  प्रशिक्षित युवा नेता स्वामी विवेकानन्द द्वारा भारत के युवाओं को विरासत में सौंपा हुआ कार्य (The Task) - "भारत का कल्याण !" (अर्थात 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण)  तथा उसके  उपाय (the Way)-  'चरित्र-निर्माण आन्दोलन "  को  "एक नया युवा आन्दोलन " (A New Youth Movement) के रूप में दर्शाया गया है। महामण्डल का आदर्श वाक्य (motto या नीति-वाक्य) - 'Be and Make!' अर्थात "मनुष्य बनो और बनाओ" जो प्रतीक चिन्ह के नीचे लिखा गया है तथा ऊपर  अंकित है 'ऐतरेय ब्राह्मण' से लिया गया महामण्डल का अभियान मंत्र -“चरैवेति चरैवेति” ! - अर्थात 'चलते रहो , चलते रहो' क्योंकि क्योंकि अनुभव (समाधि के अनुभव) से ही सही ज्ञान (इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) प्राप्त होता है तथा परिश्रम ही सफलता की कुंजी हैमानव की उन्नति पुरुषार्थ पर ही आधारित है, यह एक सार्वकालिक सिद्धांत है। परिश्रम नहीं करेंगे तो जीवन पशु के समान हो जाएगा। एक पशु भी अपने भोजन के लिए परिश्रम करता है। यदि हम भी सिर्फ इतने के लिए (पेट भरने के लिये)  ही परिश्रम करेंगे, तो फिर मनुष्य में और पशु में क्या अंतर रह जाएगा।

तो क्या हमलोग अभी मनुष्य नहीं हैं? 'मनुष्य' तो हैं किन्तु 'आध्यात्मिक मनुष्य' (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य)  नहीं हैं। अर्थात ढाँचा तो मनुष्य का है , किन्तु भीतर पशुता छिपी हुई है है।  

आहार निद्रा भय मैथुनं च

सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष:

धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् धर्म (आध्यात्मिकता, सू-चरित्र या विवेक) के बिना मनुष्य पशुतुल्य है। 

येषां न विद्या न तपो न दानं,

ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

ते मर्त्यलोके भुविभारभूता,

मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील है अर्थात अच्छा चरित्र नहीं है , न गुण और न धर्म। वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग/जानवर की तरह से घूमते रहते हैं। 

"ऐतरेय" का अर्थ है "ऋत्विज" अर्थात यज्ञ करानेवाला पुरोहित । "ऋत्विज" या ज्ञान-यज्ञ करवाने वाले 'पुरोहित'  का अर्थ है सप्तर्षियों में से एक जीवनमुक्त प्रशिक्षक (100 % निःस्वार्थी  पैगम्बर, नेता या 'C-IN-C) जो  ज्ञान-यज्ञ (चरित्र-निर्माण आन्दोलन) का प्रचार-प्रसार करने के लिए केवल बंगाल से गुजरात और कन्याकुमारी से कश्मीर तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण धरती में पर्यटन-देशाटन करता रहे।  इस अभियान मंत्र का वास्तविक अभिप्राय आध्यात्मिक मनुष्य (100 % निःस्वार्थी ऋषि, पैगम्बर, नेता, या समाधि अनुभव प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक) बनना और बनाना है। और इस कार्य को पूर्ण करने के लिए 'चलते रहो--चलते रहो' पर्यटन-देशाटन करते रहो। क्योंकि जागने व चलने का नाम जीवन है । जागृति ही गति है । निद्रा मृत्यु समान है । [उत्तिष्ठत-जाग्रत !] अर्थात सू-चरित्रवान आध्यात्मिक मनुष्य या ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग पर (निर्विकल्प समाधि होने तक) बराबर आगे कदम बढाते रहो, तुम्हारे कानों में सदैव “चरैवेति चरैवेति” की ध्वनि गूँजनी चाहिए । 

आकाश की ओर देखो, सूर्य सदियों से चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इन्द्र तो चलते रहने वालों का ही मित्र (सखा) है----"इन्द्र इच्चरतः सखा"यानि इन्द्र अर्थात ईश्वर सत्यार्थी का सत्य -खोजी का  साथी होता है । आत्मा उनका ही वरण करती है, जो मार्ग में चल रहे हो, अर्थात् गतिशील हो, परिश्रम कर रहा हो । जो बलहीन है, कार्य नहीं करता, आलसी है, उसे यह आत्मा कदापि नहीं मिलती-"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" (मुण्डकोपनिषद्--३.२.५) "न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात्" अर्थात आत्मदर्शन उसे ही होता है जो प्रमादी और आलसी नहीं है, मिथ्याचारी नहीं है। अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) । (मुण्डकोपनिषद्---३.२.४)

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव (100 % निःस्वार्थपरता) को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है। {वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद}

इस अभियान मंत्र का वास्तविक अभिप्राय पशुत्व यानि  0 % निःस्वार्थपरता, से मनुष्यत्व यानि 50 % निःस्वार्थपरता की अवस्था और देवत्व प्राप्त करने यानि आध्यात्मिक मनुष्य  (100 % निःस्वार्थपर) बनने और बनाने के लक्ष्य की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते रहना है। और स्वामी जी द्वारा सौंपे हुए इसी कार्य को पूर्ण करने के लिए 'चलते रहो--चलते रहो' पर्यटन-देशाटन करते रहो क्योंकि चलने का नाम ही जीवन है । इसलिए  “चरैवेति, चरैवेति ”।

इस बात को स्पष्ट करते हुए ऐतरेय ब्राह्मण में आगे कहा गया है कि युग-परिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है। मन की चार अवस्थाएं हैं -

कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।। 

चरैवैति चरैवैति ।।

(1) "कलिः शयानो भवति"--अर्थात  आलसी, पुरुषार्थ हीन व्यक्ति  कलियुग में स्थित हो जाता है। इसीलिए कहा गया है, मोहनिद्रा में सोने वालों के लिए,  (सिंहशावक होकर भी भेंड़त्व के भ्रम में या पंचेन्द्रिय भोगों में आसक्त बने रहने वालों के लिए) सदा ही कलियुग है। 

(2) " संजिहानस्तु द्वापरः" -  स्वामीजी की ललकार - ' उत्तिष्ठ-जाग्रत'  बार -बार सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह संजिहान स्थिति में जब कर्म के लिये उद्यत हो जाता है तो उसके लिए द्वापर शुरू हो गया।  

(3) " उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति " अर्थात जो व्यक्ति आलस्य त्याग कर पुरुषार्थ करने या 'मनुष्य' बनने के लिये (अर्थात 50 % निःस्वार्थपर बन जाने या इन्द्रियभोगों से अनासक्त होने के लिये) कमर कस कर उठ खड़ा होता है, उसके लिए त्रेता का आरंभ हो गया, और वह त्रेता युग में वास कर रहा है। 

(4) " कृतं संपद्यते चरन् " और अपनी मंजिल (100 % निःस्वार्थपरता) की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है, अर्थात जो व्यक्ति `3H विकास के 5 अभ्यास' स्वयं करने और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने का काम शुरू कर दिया हो , उसके लिए उसी क्षण सत्ययुग आ गया। क्योंकि निरन्तर कर्मरत होते हुए भी आत्मस्वरुप के बोध में अवस्थिति ही कृत या सत्ययुग में वास करना है । 

ऐसा कहा जाता है कि स्वामी विवेकानन्द ने उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) को स्वयं अपने जीवन पर प्रयोग करके देखा था कि कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा व्यक्ति की मानसिक अवस्था को निर्धारित करने के उद्देश्य से दी गयी है। 

(2)>> धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। ( गीता 4.8)

"हमलोगों को 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, पर यह 'समाधि' क्या है......?  हम सभी लोगों को मन की तीन अवस्थाओं का पता है , हमें 'नींद' (Dream state, subconscious state) पता है, 'जागृति' (Conscious state) पता है, सुषुप्ति अवस्था (unconscious state या Deep Sleep) भी जानते हैं,  पर यह 'समाधि' क्या है......?  इसे जानने की उत्सुकता हम सबों में रहती है । श्री रामकृष्ण का जीवन और उपदेश  पढ़ते समय अक्सर उनके मुहुर्मुहः समाधि होने वाले के अनुभवों के प्रति उत्सुकता पनपती है । हमलोगों को 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, पर यह 'समाधि' क्या है......?  नरेन्द्रनाथ को भी इसे जानने की उत्सुकता तब उत्पन्न हुई थी जब 1879 में Entrance Exam पास करने के बाद उनकी आयु अठारह वर्ष की थी, और वे  Scottish Church College  में पढ़ते थे।

          एक दिन प्रिंसिपल हेस्टी अंग्रेजी की कक्षा में  विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता “ The Excursion ”  पढ़ा रहे थे।  उन्होंने  प्रोफेसर विलियम हेस्टी के मुख से सुना की ' गुलाब के फूल को देख कर कवि 'खो गया'  या “Trance” (समाधि)   में चला गया । स्वामीजी ने पूछा ये  “Trance”  क्या होता है ? वह इस शब्द की व्याख्या करते हुए प्रोफेसर हेस्टी बोले कि, “Trance” या समाधि अद्वैत अवस्था में एक तरह का आनन्दमय आध्यात्मिक अनुभव है। " अगर तुम समाधि शब्द का वास्तविक अर्थ समझना चाहते हो या देखना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली के पुजारी श्रीरामकृष्ण से मिलो उन्हें बार -बार समाधि होती है।" 

नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) को सम्भवतः अपनी  नागपुर से रायपुर तक की गयी उस बैलगाड़ी यात्रा का स्मरण हो आया जब 1877 में 14 वर्ष की आयु में  उनका मन मधुमक्खी का विशाल छत्ता देखकर तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर के ध्यान में इतना डूब गया कि थोड़ी देर के लिये उनका बाह्यज्ञान सम्पूर्ण लुप्त हो गया। कितनी देर इस भाव में लीन (तन्मय) होकर बैलगाड़ी में पड़े रहे, उन्हें याद नहीं। जब पुनः होश आया, तो देखा कि उस स्थान से बहुत आगे चले आये थे। ध्यान -राज्य में विचरण करते हुए ईश्वर में पूर्णरूप से तन्मय हो जाने का नरेन्द्रनाथ के जीवन में , सम्भवतः यही पहला (या दूसरा?) मौका था। [चरित पृष्ठ 15] 

 इसी सन्दर्भ में यह जानना उचित होगा कि श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में  ईश्वर की उपासना जगन्माता (माँ काली) की मूर्ति के रूप में किया करते थे। माँ काली की मूर्ति पूजा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करने के उनके इस विचार ने उस समय के ईश्वर को केवल निर्गुण-निराकार मानने वाले मूर्ति-पूजा विरोधी ब्रह्मसमाज तथा आर्य समाज आदि द्वारा मूर्तिपूजा के विरोध में किये जाने वाले कुतर्कों को जड़ से हिला दिया। और ब्रह्मसमाज के प्रमुख आचार्य केशवचन्द्र सेन आदि अंग्रेजी पढ़े लिखे, विद्वान् लोग भी श्री रामकृष्ण के शिष्य बन गए। 

[भारतीय मूर्तिपूजा का विज्ञान :मूर्त से अमूर्त या स्थूल से सूक्ष्म,जड़ से चेतन  तक-विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेकस्रोत के उद्घाटन तक-'एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ती' (अर्थात अनेकता में एकता, Unity in diversity, वैविध्य में ऐक्य तक) पहुँचने का सिद्धान्त है। जब तक आप अनेक आकृतियों (नाम-रूप) सहित इस संसार को देख रहे हैं, तब तक आप मूर्तिपूजक (idolater मूर्तिउपासक उर्दू में बुतपरस्त, नास्तिक या काफिर pagan) हैं। जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं शरीर (M/F) हूँ', वह जन्मजात मूर्तिपूजक है। वास्तव में आप सब आत्मा है जो अजर-अमर -अविनाशी है , जिसका न रूप है न रंग। जो अनन्त (चैतन्य) है भौतिक जड़ पदार्थ नहीं है। अतः जो व्यक्ति अमूर्त या सूक्ष्म को ग्रहण करने में असमर्थ हो , बिना किसी स्थूल मूर्ति की सहायता के अपने वास्तविक स्वरुप के बारे में सोच नहीं सके उसे हम मूर्ति पूजक (idolater)ही कहेंगे। फिर भी ऐसे लोग एक-दूसरे से लड़ा करते हैं। एक व्यक्ति अपने उपासना गृह या उपास्य मूर्ति को सच्चा बताता है और दूसरों के उपासना स्थलों और उपास्य मूर्तियों को गलत। आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसे लोग जो अपने को गाँधी जी के अनुयायी कहते हैं किन्तु गाँधीजी के प्रिय भजन  'ईश्वर-अल्ला तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान , रघुपति राघव राजा राम पतीत पावन सीता राम ' को साम्प्रदायिक मानते हैं; वे (महबूबा मुफ़्ती जैसे लोग) आध्यात्मिक क्षेत्र में बच्चों के समान हैं। ] 

इसके पूर्व भी नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण के विषय में सुन रखा था। इस संत के बारे में उनके अपने कुछ संदेह थे। [श्रीरामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ कहना चाहिए या नहीं ? ] लेकिन, जब उन्होंने प्रोफेसर हेस्टी से उनके विषय में सुना तो वे दक्षिणेश्वर के इस संत से भेट करने को आतुर हो गये। नवम्बर 1881 को वे उनसे मिलने दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर पहुँच गये। रामकृष्ण परमहंस से मिलने पर भी नरेन्द्र ने वही प्रश्न किया जो वे औरों से किया करते थे, कि महाशय , क्या आपने भगवान को देखा है? रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया- हाँ, मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूँ जितना कि तुम्हें देख सकता हूँ, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूँ । और चाहोगे तो तुम्हें दिखला भी सकता हूँ। 

 रामकृष्ण परमहंस के जवाब से नरेन्द्र प्रभावित तो हुए परन्तु वे इसे ठीक से समझ नहीं सके, तथापि इस मुलाकात के बाद उन्होंने नियमपूर्वक रामकृष्ण परमहंस के पास जाना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में नरेन्दनाथ रामकृष्ण परमहंस के विचारों से सहमत नहीं थे और निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को वे धर्मविरोधी समझते थे। ब्रह्मसमाज समाज के विचारों के प्रभाव के कारण नरेन्द्रनाथ भी प्रारम्भ में मूर्ति पूजा (Idolatry), बहुदेववाद (Polytheism) और रामकृष्ण की काली देवी पूजा (goddess worship) के विरोधी थे। इसी सन्दर्भ में यह जानना उचित होगा कि श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में  ईश्वर की उपासना जगन्माता (माँ काली) की मूर्ति के रूप में किया करते थे। माँ काली की मूर्ति पूजा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार (विवेक-स्रोत का उद्घाटन और आत्मसाक्षात्कार) करने के उनके इस विचार ने उस समय के ईश्वर को निर्गुण-निराकार मानने वाले ब्रह्मसमाज (आर्य समाज?) द्वारा किये जाने वाले  मूर्ति-पूजा विरोधी आन्दोलन को जड़ से हिला दिया था ।  

लकिन शुरुआत में नरेन्द्रनाथ श्री रामकृष्ण  के परम आनंद अवस्था (समाधि) और दर्शन को केवल कल्पना और मतिभ्रम के रूप में देखते थे। और  इसको लेकर श्री रामकृष्ण से तर्क-वितर्क में भी करते थे।  वे रामकृष्ण परमहंस के निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को वे धर्म-विरोधी समझते थे। तब उन्हें  उत्तर यही  मिलता था कि ईश्वर (सत्य) को सभी दृष्टि कोण से देखने का प्रयत्न करो

  इसके बाद 1884 में उनके पिता का देहावसान हो जाने के बाद नरेन्द्र के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया और अमीर परिवार के नरेन्द्र एकाएक गरीब हो गए। उनके घर पर उधार चुकाने की माँग करने वालों की भीड़ जमा होने लगी। ऐसे में नरेन्द्र  ने रोजगार तलाशने की भी कोशिश की लेकिन यहाँ भी उन्हें नाकामयाबी ही हाथ लगी। इस पर वे रामकृष्ण परमहंस के पास लौट आए। उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस से कहा कि वे माँ काली से उनके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रार्थना करें। 

रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि आज तो शनिवार है , तुम स्वयं काली माँ से प्रार्थना क्यों नहीं करते? कहा जाता है कि नरेन्द्र तीन बार कालीमंदिर में गये लेकिन प्रत्येक बार उन्होंने अपने लिए ज्ञान और भक्ति माँगी और काली के समक्ष वे परिवार की आर्थिक स्थिति संवारने की इच्छा तक  व्यक्त नहीं कर सके । इस आध्यात्मिक अनुभूति के बाद नरेन्द्र ने सांसारिक मोह का त्याग कर दिया और राम कृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया। 

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि  "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग (Golden Age) का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? जब स्वामीजी यह भविष्य-वाणी कर रहे थे, उस समय उनकी समग्र दृष्टि ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) के जीवन के भीतर इस प्रकार जुड़ी हुई थी, कि वे अपनी आँखों के सामने साक्षात् इन्हीं दृश्यों को रूपायित होते देख रहे थे।  ठाकुर के जीवन और संदेशों को ठीक से समझकर अनुसरण करने वाले मनुष्यों के जीवन में आगे जो परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित होने वाला है, उसी को वे इस प्रकार देख रहे थे मानो " घटना घट चुकी है! 

 सत्ययुग कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? श्रीरामकृष्ण के  आविर्भूत होने से पहले मनुष्य (विशेष रूप से भारतवासी) गहरी सुषुप्ति में था , अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। तभी श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति - `माँ काली की मूर्ति पूजा का विज्ञान >विवेकप्रयोग या मनःसंयोग' के अभ्यास द्वारा ' मनुष्य के देहमन्दिर में आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने का संघर्ष शुरू हो जाता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर चलना- 'चरैवेति ' प्रारंभ कर देता है-इसी प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग (विवेक-स्रोत का उद्घाटन) का प्रारंभ हो जाता है।

[नए युग के लिए उपयुक्त पद्धति है - अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।। योगसूत्र 1.12।। पर लिखित व्यासदेव का भाष्य। पातंजल योग सूत्र पर आचार्य शंकर ने भाष्य नहीं लिखा है। व्यासदेव के बाद स्वामी विवेकानन्द ने ही राजयोग पर लिखित अपने भाष्य में व्यासदेव को उद्धृत करते हुए लिखा था - " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी.... तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। " अर्थात मन (चित्त) की 'स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति ', चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है जो कि दोनों दिशाओं  में बहने वाली है। ( उभयतः वाहिनी = अर्थात उर्ध्व और निम्न  मूलाधार और सहस्रार दोनों दिशाओं  बहने वाली है।)  माँ काली की मूर्ति पूजा का विज्ञान-'मनःसंयोग' को ठीक से समझकर माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का विधिवत और नियमित अभ्यास करने से "विवेक-दर्शन अभ्यासेन विवेक-स्रोत उदघाट्यते " अर्थात  माँ काली की मूर्ति पर मन को एकाग्र करने से ईश्वर (इन्द्रियातीत सत्य , ब्रह्म या आत्मा ) का साक्षात्कार हो जाता है। ] 

इसको स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते  ऐसी एक वस्तु (आत्मा) के साक्षात् दर्शन कर लेता है,  जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द (Existence -Consciousness-Bliss) है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' (मृत्युस्वरूपा माँ काली का भय) नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय -का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द (complete fulfillment) की प्राप्ति हो जाती है ! इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)

[समाधि अनुभव से व्युत्थान के बाद जब मनुष्य अपने को माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा का पुत्र और स्वामीजी को सचमुच का अपना बड़ा भाई जान लेता है, तब उसके मन में असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। `मृत्यु-भय तथा वासना और लालच या कामिनी-कांचन में आसक्ति का अभाव ' ->हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। मनुष्य इस शरीर में रहता हुआ ही जीवनमुक्त (नेता या पैगम्बर) हो जाता है। ]

इस जीवन-मुक्ति को प्राप्त करने के लिए किन किन पड़ावों से गुजरना पड़ता है, ये समझाते हुए आदि शंकरचार्य कहते हैं :

           सत्संगत्वे नि:संगत्वं,  नि:संगत्वे निर्मोहत्वम् ॥    

          निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन मुक्तिः।। 

संतों की संगत में रहते रहते भक्त अंततः संगविहीन (कामिनी -कांचन में अनासक्त)  हो जाता है। कामिनी -कांचन में अनासक्त हो जाने  एवं अनावश्यक इच्छाओं से मुक्त होते ही मन से मिथ्या मोह (मैं और मेरा )  का भी नाश हो जाता है। और भक्त निर्मोहत्व (भ्रममुक्त अवस्था D-hypnotized अवस्था) को प्राप्त हो जाता है। उपरोक्त मनःस्थिति को प्राप्त करके जीव निश्चल-तत्व में स्थित हो जाता है।  निश्चल -तत्व अर्थात अपरिवर्तनीय सत्य (सच्चिदानन्द) को जान कर सदैव इस एकमात्र सार्वभौमिक परम सत्य में विचरण करता हुआ निश्चल मन जीवन-मुक्त हो जाता है। 

उस अवस्था में `एकं सत विप्राः 'बहुधा' वदन्ती- Unity in diversity, अर्थात अनेकता में एकता में, प्रत्येक देह मन्दिर में एक ही आत्मा ईश्वर या परमसत्य है- प्रत्येक देह में मैं ही हूँ की अनुभूति हो जाती है ! या 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' का बोध हो जाता है ! 

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 🙏卐 विरासत में सौंपा हुआ कार्य- "भारत का कल्याण" -और उसका मार्ग 🙏卐 

[The Task>Welfare of India > and the Way]

      हमारे समक्ष जो 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में  सौंपा हुआ कार्य है वह है `भारत का कल्याण' अर्थात  "एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण " हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण ! अगर हम उस सौंपे हुए कार्य को पूरा करने के लिए काम करना चाहें (? -यहाँ तो हम बाध्य है !) तो हमें अपनी भारतीय संस्कृति को अपनी विरासत को गहराई में पहुँचकर (गुलामी की मानसिकता को हटाकर) चीजों को स्पष्ट रूप से समझना होगा। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव पूरे विश्व विशेषकर भारतवर्ष के कल्याण के लिये हुआ था, क्योंकि वे जानते थे कि सिर्फ भारत ही विश्व- मानवता की प्रगति में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकता है। स्वामीजी ने यह दृष्टि अपने आध्यात्मिक अनुभूति से पाई थी। स्वामीजी की यह आत्म-अभिव्यक्ति और अनुभूति उन्हीं पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित सत्य से प्राप्त हुई थी जिसे हम वेदान्त कहते हैं।        

   अतीत में हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा वेदान्त का अध्यन विशेषतः जंगलों (अरण्यों) में किया जाता था। स्वामी विवेकानन्द ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित इस महान सत्य को वनों से निकाल कर हाट-बाजार तक, समाज के आम लोगों और उनके घरों तक लाने का कार्य किया था। इसे ही 'Practical Vedanta' या 'व्यावहारिक वेदान्त ' कहते हैं। इसी 'व्यावहारिक वेदान्त' को आम जनों का जीवन गठन करने के उद्देश्य से पूरे समाज का कल्याण करने के लिए,  उनके दैनन्दिन जीवन में प्रयोग में लाना होगा।  

      अतः जैसा कि हम समझते हैं, 'व्यक्ति-चरित्र का निर्माण' - करना ही हमारा प्रमुख कार्य होना चाहिये। स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा था -"किन्तु ,सभी सामाजिक और राजनितिक व्यवस्थायें मनुष्यों के भलेपन (अच्छे चरित्र) पर टिकती हैं।  कोई भी राष्ट्र इसलिये महान और अच्छा नहीं होता कि वहाँ के पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। " (भारत का मिशन -४. २३४)  [" No nation is great or good because Parliament enacts this or that,(Like RTI and Lokpal Bill) but because its men are great and good. " (India's Mission- Sunday Times, London, 1896) ] किसी व्यक्ति को हम अच्छा मनुष्य तभी कहते हैं, जब उसका चरित्र अच्छा होता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " पहले (आध्यात्मिक) मनुष्य तैयार करो ! " ~ Make men first. ! स्वामी विवेकानन्द को यह अनुभव भी हुआ था कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण (या 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण') करने के  कार्य को-  वृहत तौर पर करना चाहें , तो हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा और इसके लिये संगठन की आवश्यकता होगी।

      इसीलिये अगर हमें अपने देश , अपने जनसाधारण की भलाई और कल्याण के लिये कार्य करना है तो हमें अपना ध्यान व्यक्ति-चरित्र के निर्माण पर केन्द्रित करना होगा। तथा हमें इस  ' व्यक्ति-चरित्र निर्माण तथा आत्मविकास ' के कार्य को संगठित होकर और संगठन के माध्यम से ही  करना होगा। 

       अब हमलोग यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या चरित्र निर्माण  के लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति हो सकती है ? कई लोगों का मानना है कि चरित्र तो जन्मजात रूप से व्यक्ति में निहित कोई चीज है। हमलोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि जल की अपनी कुछ विशेषतायें हैं, अग्नि के कुछ अलग गुण (धर्म) हैं। बाघ एक क्रूर पशु है, किन्तु क्या हम ऐसा कुछ मनुष्य के बारे में भी कह सकते हैं ? स्वामी जी कहते हैं कि देवता भी मानव रूप में जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। क्योंकि, देवताओं का जीवन चाहे कितना ही महान, गौरवशाली और भव्य क्यों न हो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। हमलोगों ने ऐसा कभी नहीं सुना कि एक  बाघ था जो बाद में संत  बना गया । लेकिन मानव इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण अभिलिखित हैं, जहां कोई पापी (डाकू रत्नाकर) था जो बाद में गुरु की कृपा से (या मोदी जी के डर से) संत (महर्षि बाल्मीकि) बन गया।

      आइए, अब विचार करें कि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जाना कैसे जाता है? किसी  व्यक्ति के चरित्र की धारणा उसके आचरण ,व्यवहार एवं समाज के दूसरे लोगों के साथ उसके सम्बन्धों के देखकर बनाई जाती है। मानलो , मैं किसी से मिलता हूं और उसके चले जाने के बाद  मेरे मन में उस व्यक्ति के बारे में एक बहुत ही सुखद छवि रह जाती है। या इसके विपरीत, मैं किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में आता हूं और मुझे खेद का अनुभव होता है। ऐसा विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर मैं उस व्यक्ति से कभी मिला ही नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, पहले व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व से भिन्न प्रकृति का है। एक का व्यक्तित्व मनोहर है (winsome, आनन्दमय ,हर्षवर्धन करने वाला, दिलजीत या चित्ताकर्षक है), जबकि दूसरे का ऐसा नहीं है

       आइये, अब हम व्यक्तित्व और चरित्र के बीच के अन्तर को समझने का प्रयास करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों को ऊपर जैसा प्रभाव छोड़ जाता है, समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व समझा जाता है। यहाँ तक ​​कि उस व्यक्ति की वाणी , शारीरिक बनावट, इत्यादि भी इस मामले में काफी महत्व रखते हैं। उसका पहनावा ,केश-विन्यास (hair cut) और उसकी दूसरी अन्य चीजें भी उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना योगदान देती हैं। जबकि चरित्र किसी व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का केवल एक हिस्सा है, लेकिन यह बात हमलोगों को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यक्तित्व का यह हिस्सा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हो सकता है कि मेरी पोशाक पुरानी हो। यह भी हो सकता है कि मैं देखने में प्रभावशाली और आकर्षक न लगूँ, मेरी शिक्षा भी वैसी न हो, किन्तु यदि मेरे व्यवहार में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण (sterling qualities) हों तो अन्ततोगत्वा मेरे सुन्दर व्यवहार और मेरी भावनाओं की मनोहर अभिव्यक्ति के कारण मुझे ही अधिक पसन्द किया जायेगा और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा जायेगा। हमलोग सत्य के बहुत निकट होंगे  जब हम कहें कि, " हमारे व्यक्तित्व का अर्थ है - जैसा हम दिखते हैं, जबकि चरित्र वह है, जो हम वास्तव में हैं ! " हो सकता है कि अपनी वाकपटुता और अन्य दूसरी चीजों से शायद हम दूसरों को आकर्षित कर लेते हों, लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहती उस समय हम भिन्न प्रकार से (अपने व्यक्तित्व से अलग हटकर) व्यवहार या कार्य करने लगते हैं।  इसलिए, सबसे पहले हमें अपने चरित्र को सही ढंग से निर्मित करने पर अधिक ध्यान देना  चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप एक मजबूत नींव पर तैयार हो सके। चाणक्यनीति में कहा गया है -

दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटापटावृतः ।

तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥ 

- लंबी शाल तथा खेस इत्यादि चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित एक मूर्ख व्यक्ति दूर से सुशोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही सुशोभित होता है (विद्वान सा प्रतीत होता है ) जब तक वह  कुछ कहता नहीं है। मुख खोलते ही उसकी मूर्खता जगजाहिर हो जाती है।   

   A foolish person dressed nicely in a bright flowing robe  looks beautiful and impressive (like a scholar) from a distance only so long he does not speak even a little. (As soon as he speaks something his foolishness gets exposed)

     श्री रामकृष्णदेव के बारे में विचार करो। उनके पास तो बहुत से पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग आया करते थे। उनके सामने वे किस तरह के व्यक्ति के रूप में दिखा करते होंगे ? गाँव से आया एक बिल्कुल साधारण निरक्षर देहाती , शिष्टाचार से अपरिचित जो हमेशा भदेस ग्रामीण भाषा का प्रयोग करता हो।  श्री रामकृष्णदेव के व्यक्तित्व में प्रथम-दृष्ट्या मन को आकर्षित करने योग्य तो कुछ भी नहीं था। किन्तु, पास जाकर कुछ बोलने के पहले, जैसे ही तुम उनके निकट आते हो, उनकी कृपाकटाक्ष तुम पर पड़ती है और आँखे चार होते ही तुम मोहित (fascinated, मन्त्रमुग्ध) हो जाते हो, तुम उनके प्रेम-जाल में फँस जाते हो ! ऐसा जादू कैसे हो जाता है ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अद्भुत था केवल बाहरी व्यक्तित्व नहीं। उन्होंने इस प्रकार के अद्भुत चरित्र का निर्माण कैसे किया होगा ? उन्होंने भी 'सत्य ' की (एथेंस के सत्यार्थी की तरह परम् सत्य की) खोज की थी, और उस सत्य को - जो पवित्रता है, प्रेम है, करुणा है, सहानुभूति है, जो निःस्वार्थता है, त्याग है, जो सभी के लिए सेवा भावना है; उसे अपने अन्दर ही पाया था। ये सभी वास्तव में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण हैं जो यथार्थ मनुष्य के चरित्र में हो सकते हैं।

      यदि हम भी इन गुणों को किसी तरह अपने अन्दर विकसित कर सकें, तभी हम कह सकते हैं कि हमने एक मनोहर चरित्र का निर्माण कर लिया है। चरित्र है क्या चीज ? चरित्र हमारी आदतों या प्रवृत्तियों का समूह मात्र है। सत्य के प्रति अटूट प्रेम, करुणा, सहानुभूति, निःस्वार्थपरता,  निर्भयता, त्याग और सेवा भावना  - ये सभी चरित्र के उत्कृष्ट गुण हैं। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि ये सभी गुण भी उन्हीं आदत से ही निर्मित होते होंगे जिससे हमारा चरित्र बनता है? हाँ, हमलोग देखेंगे कि ये सभी अच्छे गुण जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है , वे हमारी सत्ता में पहले से ही विद्यमान हैं। यदि उपरोक्त सारे गुण हमारी आत्मा में पहले से अन्तर्निहित हैं, तो फिर चरित्र निर्माण में आदतों की भूमिका क्या है ?     

      अच्छी तरह से अवलोकन करने पर हम पायेंगे कि असत कार्य और अपने अविवेकपूर्ण निर्णयों के द्वारा हमने ही अपने मन पर कुछ ऐसे गलत छाप या संस्कार डाल दी हैं, जो हमारी सत्ता में निहित उन सुन्दर गुणों के प्रवाह को विकसित होने में रोड़े अटका रही हैं, या बाधा डाल रही हैं। स्वामी जी ने स्वयं कहा है, इसलिए हमें इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया या चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा एक निषेधात्मक प्रक्रिया (negative process) है, जिसमें हमें चित्त पर पड़े गहरे संस्कारों (अहं वृत्ति) को दूर करने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा, ताकि अच्छे गुण स्वतः प्रकट होने लगें। जैसा पतंजलि योग सूत्र  (कैवल्य पाद- ४.३)  में कहा गया है - "तत: क्षेत्रिकवत् ।" जिस प्रकार खेत में काम करने वाला किसान खेत पटाते समय पानी व खेत के बीच आने वाली मेड़ रूपी बाधाओं को रस्ते से हटाता है। वैसे हमें भी इन गुणों के स्वतः प्रकट होने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना होगा। 

       अतएव असत कर्म,असत वचन और असत विचारों से विरत हो जाना- ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है। इसी आत्मसंयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके वाद अच्छे कर्मों को बार-बार करते हुए अच्छी आदतों का निर्माण करना होगा । सद्कर्म क्या है, हम स्वाभाविक रूप से पूछेंगे। हम एक स्वर में कहेंगे कि नैतिक कार्य करना ही सद्कर्म है । लेकिन नैतिकता क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता की बड़ी ही आसान परिभाषा दी है, जो देश या काल के अनुसार नहीं बदलता है। स्वामीजी कहते हैं, जो निःस्वार्थ कार्य है वह नैतिक है और जो भी कार्य स्वार्थपूर्ण है वह अनैतिक है। उन्होंने नैतिकता की यह परिभाषा कहाँ से प्राप्त की है? हम आसानी से देख सकते हैं कि यह वेदान्त द्वारा प्रतिस्थापित सत्य - (कोई पराया नहीं सभी अपने हैं) को स्वीकार करने का एक परिणाम है। जब तक मैं केवल  'मैं' और 'मेरा' के बारे में सोचता हूं, मैं स्वयं को सीमित कर लेता हूँ । और जब अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को विस्तृत करते हुए मैं अपने पृथक अस्तित्व (मिथ्या अहं) को समष्टि अहं में खो देता हूँ या लीन कर देता हूँ,तभी मैं निःस्वार्थी हूँ और नैतिक हूं। इसका अर्थ यह हुआ है कि मैं सत्य की पूर्णता ( totality of Truth) को स्वीकार करता हूं। नैतिकता के इसी समझ की सहायता से अब हमलोग आसानी से उचित और अनुचित कर्म में अन्तर (श्रेय-प्रेय, बाबू और बगीचा में विवेक-प्रयोग) कर सकते हैं। और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद जब हम केवल उचित कर्म ही करेंगे तथा उसे बार -बार दुहराते रहेंगे, तो केवल सद्कर्म करने की हमारी आदत पड़ जाएगी। और अच्छे कार्यों से उत्पन्न अच्छी आदतें जब पुरानी होकर जब अच्छी प्रवृत्तियों में परिणत हो जायेंगी; तो उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का समुदाय (agglomeration, संकुलन) हमें एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बना देगा। इसलिए, नैतिक कार्यों की बार-बार पुनरावृत्ति ही चरित्र निर्माण की प्रक्रिया है। 

      स्वामी विवेकानंद ने हमलोगों को - 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने ' या मनुष्य को ईश्वर समझकर सेवा करने के लिए कहा था । श्रीरामकृष्ण देव ने एक बार स्वयं से  प्रश्न किया था कि ' क्या केवल बंद-आंखों से ही ध्यान होना संभव है? उन्हें उत्तर प्राप्त हुआ था कि, नहीं तुम खुली आँखों से भी ध्यान कर सकते हो ! वे दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति की पूजा किया करते थे। लेकिन उन्होंने स्वयं से पूछा , क्या मैं केवल एक मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकता हूँ ? उन्हें उत्तर मिला , यदि तुम एक पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकते हो , तो रक्त -मांस के बने जीवन्त मनुष्यों में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं कर सकते ? इसलिए, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द दोनों ने  इस महान सत्य की शिक्षा दी है कि " मानव-सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है" ना कि आत्म-सुख का लालच या घोर स्वार्थपरता। 'त्याग और सेवा '-या  'ईश्वर बुद्धि से मनुष्य की सेवा ' ही चरित्र निर्माण का मार्ग है। स्वामी जी के शब्दों में, 'अपने चरित्र -कमल को पूर्णरूपेण खिला लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ' और हमें वैसा ही करने का प्रयास करना चाहिए। 

          व्यावहारिक तौर पर हम देखते हैं कि हमारे कर्मों से ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। यदि हमारे कर्मों के ऊपर विवेक-विचार का नियंत्रण हो तब हमारे द्वारा अच्छे कर्म होते हैं, जो अच्छे चरित्र के निर्माण में सहायक बन जाते हैं। उचित और अनुचित कर्म के बीच विवेक-विचार करना हमारे मन का कार्य है। अत: अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए , उसको एकाग्र करने या मनःसंयोग का अभ्यास ही चरित्र निर्माण का प्राथमिक कार्य है। क्योकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प हम मन में ही लेते हैं और सद -असद कर्मों के बीच अन्तर भी मन की सहायता से ही करते हैं। इसलिए मन के ऊपर नियंत्रण और विवेक -प्रयोग की सहायता से अच्छे कर्मों को लगातार दोहराते हुए हम अच्छी आदतें, अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण कर सकते हैं।  और अच्छी प्रवृत्तियों का  समुदाय ही अच्छा चरित्र है, अतएव हम कह सकते हैं चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही हम सभी की उदात्त नियति है। इसलिए, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि 'तुम स्वयं  अपने भाग्य के निर्माता हो।'

         हमारा भविष्य किसी अज्ञात जगह से नियंत्रित होने वाले किसी भाग्य नामक असाधारण वस्तु पर निर्भर नहीं करता; यह हमारे पौरुष तथा आत्मविशास पर निर्भर करता है। इसलिए स्वामी जी ने कहा था - " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है , उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' में ही सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सुसमाचार है। " ( सूक्तियाँ एवं सुभाषित : ८.१३१ ) ["The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." (Sayings and Utterances-8.16)]  

      उन्होंने प्रत्येक युवा को अपने- आप पर विश्वास करने, अपने पौरुष पर और अपने प्रयत्न क्षमता पर विश्वास रखने का सन्देश दिया था। स्वामीजी सभी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते है - अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट करो , अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करो और उस भाग्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नततर, महानतम गौरवशाली भविष्य की ओर ले चलो !  

" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। आत्मविश्वास रखो।  तुम्हीं लोग तो पूर्वकाल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ , तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ; उठ उठ, काम में लग जा , कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य तैयार करने में लाख जन्म लेने पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। " -स्वामी विवेकानन्द     

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" श्री रामकृष्ण - स्वामी विवेकानन्द वेदान्त (समाधि जन्य ज्ञान -प्रेम-भक्ति) शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' द्वारा भारत के युवाओं को विरासत में सौंपा हुआ कार्य- "भारत का कल्याण !"  'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण '  और उसका मार्ग >व्यावहारिक वेदान्त ! "'एक नया युवा आंदोलन' -8. The Task and the Way " Koderma camp 6-7 August 2022]

 भगवान कपिल -देवहुति परम्परा में समाधि जन्य ज्ञान -प्रेम-भक्ति का स्वरुप क्या है ? "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"-(यजुर्वेद 36/18 ) Gujarat Camp and Seminar ! 21sept to 26 Sept 2022

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बुधवार, 1 जून 2022

🔆🙏 [राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ] - स्वामी विवेकानंद 🔆🙏दर्शन क्रिया कैसे होती है ?🔆🙏अधिकांश लोगों का मन शरीर का गुलाम होता है🔆🙏मन अपनेआप को द्रष्टा और दृश्य में विभक्त कर सकता है🔆🙏अविनाशी, अपरिवर्तनीय सत्य का दर्शन ही सर्वोच्च पुरस्कार है🔆🙏मन को मन के द्वारा ही देखा जा सकता है🔆🙏यदि कोई विवेक-स्रोत [आत्मा ] है तो उसे उद्घाटित करना होगा🔆🙏आत्मदर्शन ही ईश्वरदर्शन है ! 🔆🙏

 राजयोग 

भूमिका :स्वभाव से ही मानव - मन अतिशय चंचल है । वह एक क्षण भी किसी वस्तु पर ठहर नहीं सकता । इस मन की चंचलता को नष्ट कर उसे किस प्रकार अपने वश में लाया जाए , किस प्रकार उसकी इतस्ततः बिखरी हुई शक्तियों को समेटकर उसे सर्वोच्च ध्येय में एकाग्र कर दिया जाए , यही राजयोग का विषय है । प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का वास है राजयोग उन्हें जागृत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है । राजयोग का  एकमात्र उद्देश्य है मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे ' समाधि ' नामक पूर्ण एकाग्रता की अवस्था में पहुँचा देना

 "मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है । जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है , जिसका किसी काल में नाश नहीं , जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है , तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता , उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है ।  मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है , तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता । अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं । पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता । उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है । इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता । "  

" प्रत्येक जीवात्मा अव्यक्त ब्रह्म है ।

बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है । 

कर्म , उपासना , मनःसंयम अथवा ज्ञान , इनमें से एक , एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ ।

बस , यही धर्म का सर्वस्व है । मत , अनुष्ठानपद्धति , शास्त्र , मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया - कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं ।"  -स्वामी विवेकानन्द

"मनुष्य जो दिखता है, वह नहीं है, बल्कि वह साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरूप बहुत भिन्न-भिन्न हैं ; और बिना अपरोक्षानुभूति के यह जानना बहुत कठिन है।" ~ `मनुष्य का सत्य एवं आभासमय स्वरुप' - -स्वामी विवेकानन्द] 

" कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ 

   तस्मिन् (??) विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। " 

-मुण्डकोपनिषद्।}

प्रथम अध्याय 

अवतरणिका

[CHAPTER - I, INTRODUCTORY]

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏सामान्य -ज्ञान "Common sense"  क्या है ?🔆🙏  

विभिन्न शब्दकोशों के अनुसार,  वह "ज्ञान जो सभी के लिए उपलब्ध है" उसे सामान्य ज्ञान (common sense) कहते हैं। और हमारे समस्त ज्ञान आत्म-अनुभव (self-experience, परीक्षा) पर आधारित हैं । जिसे हम आनुमानिक विश्लेषण (inferential analysis) कहते हैं, और जिसके माध्यम से हम सामान्य से सामान्यतर या सामान्य (general) से " विशेष तरह का ज्ञान" (specialized knowledge) तक पहुँचते हैं , उसकी बुनियाद भी इसी स्वानुभूति में है।

जिनको निश्चित विज्ञान (exact sciences) कहते हैं , उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है , क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं- " तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं , और तब उस पर विश्वास करो । " भौतिक जगत के वैज्ञानिक (scientist) तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को न कहेंगे । उन्होंने स्वयं कुछ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उन पर विचार करके कुछ सिद्धान्तों पर पहुँचे हैं । जब वे अपने उन सिद्धान्तों पर हमसे विश्वास करने के लिए कहते हैं , तब जनसाधारण की अनुभूति पर उनके सत्यासत्य के निर्णय का भार छोड़ देते हैं ।

"[आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिक श्रीरामकृष्ण के सामान्य ज्ञान "Common sense" का उदाहरण :

१. श्रीगोविन्दजी की मूर्ति का खण्डित होना - सन 1855 की बात है। पहले दिन जन्माष्टमी उत्स्व भलीभाँति सम्पन्न हो चुका था। उस दिन 'नन्दोत्स्व' ^ था। मध्याह्न के समय श्रीराधागोविन्दजी के विशेष पूजन तथा भोगादि के पश्चात् पुजारी क्षेत्रनाथ चट्टोपाध्याय श्रीराधारानी को एक कमरे में शयन कराके; श्रीगोविन्दजी को शयन देने के लिए ही जा रहे थे कि सहसा वे फिसल पड़े और श्रीगोविन्दजी की मूर्ति के पैर टूट गये! उससे एकदम खलबली मच गयी ! पुजारी को स्वयं तो चोट लग ही गयी थी , विशेषकर उस घटना से भयभीत हो वे काँपने लगे ! बाबू के समीप समाचार पहुँचा कि अब क्या किया जाये ? भग्नमूर्ति (खण्डित मूर्ति) का पूजन तो सम्भव नहीं था - ऐसी स्थिति में दूसरा उपाय ही क्या था। 

"रानी रासमणि तथा मथुरबाबू ने उपाय निर्धारित लिए शहर के प्रसिद्द पण्डितों को सादर आमंत्रित कर एक सभा की व्यवस्था की। ... पोथी-पत्रा खोलकर बारम्बार अपनी बुद्धि की जड़ में `नस्सी ' ठूँसते हुए पण्डितों ने फतवा दिया कि - "भग्न मूर्ति गंगाजी में विसर्जित कर दी जाये तथा उसके स्थान पर दूसरी नयी मूर्ति स्थापित की जाये।" कारीगर को नवीन मूर्ति बनाने का आदेश दे दिया। सभा की समाप्ति के समय मथुरबाबू ने रानी रासमणि से कहा , " बाबा से इस विषय में तो कुछ पूछा नहीं गया ! वे  इस सम्बन्ध में काया कहते हैं, यह जानना आवश्यक है। "

 श्रीरामकृष्णदेव से इस विषय में उनका अभिमत पूछा गया। भावाविष्ट हो श्रीरामकृष्णदेव कहने लगे , " रानी के दामादों में से , गिर जाने के कारण यदि किसी का पैर टूट गया होता , तब क्या उसे त्यागकर और किसी को लाकर उसके स्थान पर बैठाया जाता या पैर की चिकित्सा की व्यवस्था की जाती ? यहाँ भी ठीक वैसा ही होना चाहिए -मूर्ति को जोड़कर उसी मूर्ति की पूर्ववत पूजा की जाय। उसे त्याग देने का कारण ही क्या है ? " तदन्तर श्रीरामकृष्णदेव ने स्वयं अपने हाथों से उस मूर्ति को जोड़ दिया तथा उसकी पूजा आदि पूर्ववत होने लगी। कारीगर के यहाँ से जो नवीन मूर्ति निर्मित होकर आयी , उसकी प्रतिष्ठा नहीं की गयी।  वह नवीन मूर्ति अभीतक उसी तरह श्रीगोविन्दजी के भीतर एक ओर रखी हुई है।"

 [लोलाप्रसंग -II 'गुरुभाव तथा मथुरनाथ ' पृष्ठ १६९-७० ]        

 २.नौकरी करने के सम्बन्ध में श्री रामकृष्ण का अभिमत - आध्यात्मिकता के साथ नौकरी का कभी सामंजस्य नहीं होता , अतः भक्त को ईश्वर के सिवाय और किसी की नौकरी नहीं करनी चाहिए। अत्यन्त अभावग्रस्त हुए बिना स्वेच्छापूर्वक नौकरी करने पर किसी व्यक्ति को वे अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे। लेकिन यदि अपने असहाय वृद्धा माता के भरण-पोषण के निमित्त किसी ने नौकरी करना स्वीकार किया हो , तो वे उसे बुरा नहीं समझते थे। किसी ने पूछा , " महाशय आप नौकरी की निन्दा कर रहे हैं , किन्तु नौकरी न करने पर संसार -यात्रा [गृहस्थ जीवन ] का निर्वाह कैसे होगा ? उत्तर में श्रीरामकृष्णदेव बोले , " जो नौकरी करना चाहे करे ; मैं तो सबको मना नहीं कर रहा हूँ , (निरंजन आदि अन्यान्य बालक-भक्तों, को दिखाकर ......) मैं इन लोगों से.....मानवजाति के भावी नेताओं, `वुड बी लीडर्स ' से यह बात कह रहा हूँ , इनकी बात अलग है। " श्रीरामकृष्ण अपने बालक-भक्तों के जीवन को दूसरे ही प्रकार से निर्माण कर रहे थे। [लीलाप्रसंग-I, `पूजक-पद ग्रहण'  पृष्ठ -१९६ ]   

 प्रत्येक निश्चित विज्ञान की एक सामान्य आधारभूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं , इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ ले सकता है । अब प्रश्न यह है , धर्म की ऐसी सामान्य आधारभूमि कोई है भी या नहीं ? हमें इसका उत्तर देने के लिए ' हाँ ' (affirmative) और ' नहीं ' (negative), दोनों कहने होंगे । 

संसार में धर्म के सम्बन्ध में सर्वत्र ऐसी शिक्षा मिलती है कि धर्म केवल श्रद्धा और विश्वास ( faith and belief) पर स्थापित है , और अधिकांश स्थलों में तो वह भिन्न भिन्न मतों की समष्टि मात्र है। यही कारण है कि धर्मों के बीच केवल लड़ाई - झगड़ा दिखाई देता है । ये मत फिर विश्वास पर स्थापित हैं । कोई कोई कहते हैं कि बादलों के ऊपर एक महान् पुरुष है , वही सारे संसार का शासन करता है , और वक्ता महोदय केवल अपनी बात के बल पर ही मुझसे इसमें विश्वास करने को कहते हैं । 

मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने के लिए मैं दूसरों से कहता हूँ ; और यदि वे कोई युक्ति चाहें , इस विश्वास का कारण पूछें , तो मैं उन्हें युक्ति - तर्क देने में असमर्थ हो जाता हूँ । इसीलिए आजकल धर्म और दर्शन - शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है । प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का मानो यही मनोभाव है — ‘ अहो , ये धर्म कुछ मतों के गट्टे भर हैं । उनके सत्यासत्य विचार का कोई एक मापदण्ड नहीं ; जिसके जी में जो आया , बस , वही बक गया ! ' किन्तु ये लोग चाहे जो कुछ सोचें , वास्तव में धर्मविश्वास की एक सार्वभौमिक भित्ति है – वही विभिन्न देशों के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न भिन्न मतवादों और सब प्रकार की विभिन्न धारणाओं को नियमित करती है । उन सब के मूल में जाने पर हम देखते हैं कि वे सभी सार्वजनिक अनुभूति पर प्रतिष्ठित हैं ।

पहली बात तो यह कि यदि तुम पृथ्वी के भिन्न भिन्न धर्मों का जरा विश्लेषण करो , तो तुमको ज्ञात हो जाएगा कि वे दो श्रेणियों में विभक्त हैं । कुछ की शास्त्रभित्ति है , और कुछ की शास्त्रभित्ति नहीं । जो शास्त्रभित्ति पर स्थापित हैं , वे सुदृढ़ हैं , उन धर्मों के माननेवालों की संख्या भी अधिक है । जिनकी शास्त्रभित्ति नहीं है , वे धर्म प्रायः लुप्त हो गये हैं । कुछ नये उठे अवश्य हैं , पर उनके अनुयायी बहुत थोड़े हैं । फिर भी उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं । 

ईसाई तुमसे अपने धर्म पर , ईसा पर , ईसा के अवतारत्व पर , ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की भविष्य उन्नति की सम्भवनीयता पर विश्वास करने को कहता है । यदि मैं उससे इस विश्वास का कारण पूछँ , तो वह कहता है , “ यह मेरा विश्वास है । ” किन्तु यदि तुम ईसाई धर्म के मूल में जाओ , तो देखोगे कि वह भी प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है । ईसा ने कहा है , " मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं । ” उनके शिष्यों ने भी कहा है , " हमने ईश्वर का अनुभव किया है । ” - आदि आदि ।

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏आत्मदर्शन ही ईश्वरदर्शन है ! 🔆🙏

अवतरणिका बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है । बुद्धदेव की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है । उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था । उन्होंने उन सब को देखा था , वे उन सत्यों के संस्पर्श में आये थे , और उन्हीं का उन्होंने संसार में प्रचार किया । हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है ; उनके शास्त्रों में कुछ सत्यों ' ऋषि ' नाम से सम्बोधित किये जानेवाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं , " हमने के अनुभव किये हैं । " और उन्हीं का वे संसार में प्रचार कर गये हैं । अतः यह स्पष्ट है कि संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित हैं , जो ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है । 

सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आत्मदर्शन किया था ; अपने अनन्त स्वरूप का ज्ञान सभी को हुआ था , सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी , और जो कुछ उन्होंने देखा था , उसी का वे प्रचार कर गये । [The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternity, and what they saw they preached. ] भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों में , विशेषतः आजकल, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है , और वह यह कि ' इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं । जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे , बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ , ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था ।अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा , फलतः अब धर्म पर विश्वास भर कर लेना होगा ।' 

इस बात को मैं पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ । यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की हैं , तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी । एकरूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है । एक बार जो घटित हुआ है , वह पुनः घटित हो सकता है । 

इसीलिए योगविद्या के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्वकालीन अनुभवों पर केवल स्थापित ही नहीं, वरन् इन अनुभवों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता । जिस विद्या के द्वारा ये अनुभव प्राप्त होते हैं , उसका नाम है योग । धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता , तब तक धर्म की बात करना ही वृथा है । भगवान् के नाम पर इतनी लड़ाई , विरोध और झगडा क्यों ? भगवान् के नाम पर जितना खून बहा है , उतना और किसी कारण से नहीं । ऐसा क्यों ?

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏यदि कोई विवेक-स्रोत [आत्मा ] है तो उसे उद्घाटित करना होगा🔆🙏 

इसीलिए कि कोई भी व्यक्ति, स्वयं विवेक-दर्शन का अभ्यास करके अपने 'विवेक-स्रोत' को (fountain-head को) उद्घाटित करने का प्रयास नहीं करता था । सब लोग पूर्वजों के कुछ आचारों का अनुमोदन करके ही सन्तुष्ट थे । वे चाहते थे कि दूसरे भी वैसा ही करें । जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वरसाक्षात्कार न हुआ हो , उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है ? 

यदि ईश्वर हो , तो उसका साक्षात्कार करना होगा ; यदि आत्मा नामक कोई चीज हो , तो उसकी उपलब्धि करनी होगी । अन्यथा विश्वास न करना ही भला । ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है । [If there is a soul we must perceive it; otherwise it is better not to believe. It is better to be an outspoken atheist than a hypocrite. ]

एक ओर आजकल के तथाकथित विद्वान् “learned”  (उच्च डिग्रीधारी)  कहलाने वाले मनुष्यों के मन का भाव,यह है कि धर्म , दर्शन (metaphysics,आत्मतत्व-विज्ञान) और एक परम पुरुष (Supreme Being-परमात्मा या अवतार) का अनुसन्धान, यह सब व्यर्थ की बातें है। और दूसरी ओर,जो अर्धशिक्षित (semi-educated) हैं,उनका मनोभाव ऐसा जान पड़ता है कि धर्म , दर्शन आदि की वास्तव में कोई बुनियाद नहीं उनकी इतनी ही उपयोगिता है कि वे संसार के मंगलसाधन की बलशाली प्रेरक शक्तियां  हैं; यदि लोगों का ईश्वर की सत्ता में विश्वास रहेगा , तो वे सत् और नीतिपरायण बनेंगे और इसीलिए अच्छे नागरिक होंगे । 

जिन लोगों का मनोभाव ऐसा हैं , तो इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता।  क्योंकि वे धर्म के सम्बन्ध में जो शिक्षा पाते हैं , वह केवल सारशून्य , अर्थहीन अनन्त शब्दसमष्टि पर विश्वास मात्र है । उन लोगों से नीरस और निरर्थक (rigmarole) -शब्दों पर विश्वास करके रहने के लिए कहा जाता है ; क्या ऐसा कोई कभी कर सकता है ? यदि मनुष्य द्वारा यह सम्भव होता , तो मानवप्रकृति पर मेरी तिल मात्र श्रद्धा न रहती । 

मनुष्य चाहता है सत्य । वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है ; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है , सत्य का साक्षात्कार  कर लेता है , हृदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है (उस इन्द्रियातीत परम् सत्य का अविष्कार कर लेता है जो अविनाशी और अपरिवर्तनीय है) , वेद कहते हैं -- 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। 

-मुण्डकोपनिषद् , 

' तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं , सारा तमोजाल छिन्न - भिन्न हो जाता है और ह्रदय की सारी वक्रता सीधी हो जाती है । ' 

" भारत के प्राचीन आचार्य, प्राचीन ऋषि जंगल में बैठे इसी प्रश्न पर विचार कर रहे हैं, बड़े बड़े वयोवृद्ध पवित्रमय महर्षिगण भी इसकी मीमांसा करने में असमर्थ रहे हैं परन्तु एक तरुण  उनके बीच खड़े हो कर घोषणा करता है―"हे अमृत के पुत्रगण सुनो , यहाँ तक कि जो दिव्य धामवासी निवासी हैं, वे भी सुनें ! मुझे अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का मार्ग (गुरु,मार्गदर्शक नेता) मिल गया है, जो समस्त तम के पार है ! उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है - मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं । 

श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।

आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस. परस्तात्।

तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

(श्वेताश्वतर उपनिषद्)

इस सत्य को प्राप्त करने के लिए , राजयोग - विद्या मानव के समक्ष यथार्थ व्यावहारिक और साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली रखने का प्रस्ताव करती है । पहले तो , प्रत्येक विद्या के अनुसन्धान और साधन की प्रणाली पृथक् पृथक् है । यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होने की इच्छा करो और बैठे बैठे केवल ' खगोलशास्त्र खगोलशास्त्र ' कहकर चिल्लाते रहो , तो तुम कभी खगोलशास्त्र के अधिकारी न हो सकोगे । रसायनशास्त्र के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है ; उसमें भी एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा ; प्रयोगशाला में जाकर विभिन्न द्रव्यादि लेने होंगे , उनको एकत्र करना होगा , उन्हें उचित अनुपात में मिलाना होगा , फिर उनको लेकर उनकी परीक्षा करनी होगी , तब कहीं तुम रसायनवित हो सकोगे । 

यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होना चाहते हो , तो तुम्हें वेधशाला में जाकर दूरबीन की सहायता से ताराओं और ग्रहों का पर्यवेक्षण करके उनके विषय में आलोचना करनी होगी , तभी तुम खगोलशास्त्रज्ञ हो सकोगे । प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है । मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ , परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे । सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव साधु - महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। संसार का हित छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी । 

उन सभी लोगों ने कहा है कि "इन्द्रियाँ हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं , हमने उससे उच्चतर सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) प्राप्त कर लिया है" , और वे उसकी परीक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं । वे कहते हैं , " तुम एक निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो , और यदि यह उच्चतर सत्य प्राप्त न हो , तो फिर भले ही कह सकते हो कि इस उच्चतर सत्य के सम्बन्ध की बातें केवल कपोलकल्पित है । पर हाँ , इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिलकुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है । " अतएव निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक हैं , और तब प्रकाश अवश्य आएगा ।

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏मन को मन के द्वारा ही देखा जा सकता है🔆🙏 

कोई ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण की सहायता लेते हैं । और साधारणीकरण (generalisation) घटनाओं के पर्यवेक्षण (observation) पर आधारित है । हम पहले घटनावली (facts) का पर्यवेक्षण करते हैं , फिर उनका साधारणीकरण करते हैं और फिर उनसे अपने सिद्धान्त (conclusions) या मतामत (principles) निकालते हैं । हम जब तक यह प्रत्यक्ष नहीं कर लेते कि हमारे मन के भीतर क्या हो रहा है और क्या नहीं , तब तक हम अपने मन के सम्बन्ध में , मनुष्य की आभ्यन्तरिक प्रकृति के सम्बन्ध में मनुष्य के विचार के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जान सकते । बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है , क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके हैं पर अन्तर्जगत् के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं । 

किन्तु फिर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्यवेक्षण आवश्यक है । उचित विश्लेषण के बिना विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल भित्तिहीन अनुमान में परिणत हो जाता है । इसी कारण , उन थोड़े से मनस्तत्त्वान्वेषियों को छोड़कर , जिन्होंने पर्यवेक्षण करने के उपाय जान लिये हैं , शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं । 

राजयोग - विद्या [मनःसंयोग का प्रशिक्षण]  पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का इस प्रकार उपाय दिखा देती है । मन ही उस पर्यवेक्षण का यन्त्र है । मनोयोग की शक्ति का सही सही नियमन कर जब उसे अन्तर्जगत् की ओर परिचालित किया जाता है , तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है और तब उसके प्रकाश से हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है । 

मन की शक्तियाँ इधर - उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं । जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है , तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं । यही ज्ञान का हमारा एकमात्र उपाय है । बाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में , लोग इसी को काम में ला रहे हैं । पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है , मनस्तत्त्वान्वेषी उसी का मन पर करते हैं। इसके लिए काफी अभ्यास आवश्यक है । बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है , अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी । 

इसी कारण हममें से अधिकांश आभ्यन्तरिक क्रिया - विधि की निरीक्षणशक्ति खो बैठे हैं । मन को अन्तर्मुखी करना , उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना , उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर , उस मन के ही ऊपर उनका प्रयोग करना , ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके , अपने आपको विश्लेषण करके देख सके एक अत्यन्त कठिन कार्य है । पर इस विषय में वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार अग्रसर होने के लिए यही एकमात्र उपाय है । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏अविनाशी, अपरिवर्तनीय सत्य का दर्शन ही सर्वोच्च पुरस्कार है🔆🙏  

इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? पहले तो , ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है । दूसरे , इसकी उपयोगिता भी है । यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा । "जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है , जिसका किसी काल में नाश नहीं , जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है , तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता , उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है । 

मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है । पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है , तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता । अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं । पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता । उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है । 

इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता । रसायनवित् अपनी प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत करके ,जिन वस्तुओं का विश्लेषण करता है , उन पर प्रयोग करता है , और इस प्रकार वह उनके रहस्य जान लेता है । खगोलशास्त्रज्ञ अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके दूरबीन के भीतर से आकाश में प्रक्षिप्त करता है , और बस, त्याही सूर्य , चन्द्र और ताराएँ अपने अपने रहस्य उसके निकट खोल देती हैं ।

 मैं जिस विषय पर बातचीत कर रहा हूँ , उस विषय में मैं जितना मनोनिवेश कर सकूँगा , उतना ही उस विषय का गूढ़ तत्त्व तुम लोगों के निकट प्रकट कर सकूँगा । तुम लोग मेरी बात सुन रहे हो । तुम लोग जितना इस विषय में मनोनिवेश करोगे , उतनी ही मेरी बात की स्पष्ट रूप से धारणा कर सकोगे । 

मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुए हैं ? यदि प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए , - उस पर कैसे आघात देना चाहिए , केवल यह ज्ञात हो गया , तो बस , प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है । उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है । मानव - मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं । वह जितना ही एकाग्र होता है , उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है , यही रहस्य है । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏मन अपनेआप को द्रष्टा और दृश्य -दो में विभक्त कर सकता है🔆🙏 

मन को बाहरी विषय पर स्थिर करना अपेक्षाकृत सहज है । मन स्वभावतः बहिर्मुखी है । किन्तु धर्म , मनोविज्ञान , अथवा दर्शन के विषय में ऐसा नहीं है । यहाँ तो ज्ञाता और ज्ञेय (विषयी और विषय) एक हैं । यहाँ प्रमेय (विषय) एक अन्दर की वस्तु है - मन ही यहाँ प्रमेय है । मनस्तत्त्व का अन्वेषण करना ही यहाँ प्रयोजन है , और मन ही मनस्तत्त्व के अन्वेषण का कर्ता है । हमें मालूम है कि मन की एक ऐसी शक्ति है , जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ हो रहा है , उसे देख सकता है इसको अन्तः पर्यवेक्षण - शक्ति कह सकते हैं । 

मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ फिर साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति होकर बाहर खड़ा हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ ; वह जान - सुन रहा हूँ । तुम एक ही समय काम और चिन्तन दोनों कर रहे हो, परन्तु तुम्हारे मन का एक और अंश मानो बाहर खड़े होकर तुम जो कुछ चिन्तन कर रहे हो , उसे देख रहा है । मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अन्धकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं , उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा । 

तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद" पर पहुँचेंगे । तभी हमको सही सही धर्मप्राप्ति होगी । तभी , आत्मा है या नहीं , "जीवन केवल इस सामान्य जीवितकाल तक ही सीमित है अथवा अनन्तकालव्यापी है और संसार में कोई ईश्वर है या नहीं , यह सब हम स्वयं देख सकेंगे । सब कुछ हमारे ज्ञानचक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा । राजयोग (मनःसंयोग) हमें यही शिक्षा देना चाहता है । इसमें जितने उपदेश हैं , उन सब का उद्देश्य , प्रथमतः , मन की एकाग्रता का साधन है, इसके बाद है - उसके गम्भीरतम प्रदेश में कितने प्रकार के भिन्न भिन्न कार्य हो रहे हैं , उनका ज्ञान प्राप्त करना ; और तत्पश्चात् उनसे साधारण सत्यों को निकालकर उनसे अपने एक सिद्धान्त पर उपनीत होना । 

"इसीलिए राजयोग (मनःसंयोग) की शिक्षा किसी धर्मविशेष पर आधारित नहीं है । तुम्हारा धर्म चाहे जो हो तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक , यहूदी या बौद्ध या ईसाई इससे कुछ बनता - बिगड़ता नहीं , तुम मनुष्य हो, बस, यही पर्याप्त है । प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्त्व का अनुसन्धान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति का , किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है , और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने भीतर से ही उन प्रश्नों के उत्तर पा सके । पर हाँ , उसे इसके लिए कुछ कष्ट उठाना पड़ेगा ।

अब तक हमने देखा , इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं । जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको , तब तक उस पर विश्वास न करो- राजयोग यही शिक्षा देता है । सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं । क्या तुम कहना चाहते हो कि जाग्रत् अवस्था की सत्यता के प्रमाण के लिए स्वप्न अथवा कल्पना की सहायता की जरूरत है ? नहीं , कभी नहीं । इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है । इस अभ्यास का कुछ अंश शरीरसंयम विषयक है , परन्तु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏अधिकांश लोगों का मन शरीर का गुलाम होता है🔆🙏

हम क्रमशः समझेंगे , मन और शरीर में किस प्रकार का सम्बन्ध है । यदि हम विश्वास करें कि मन शरीर की केवल एक सूक्ष्म अवस्थाविशेष है और मन शरीर पर कार्य करता है , तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है । शरीर के अस्वस्थ होने पर मन भी अस्वस्थ हो जाता है , शरीर स्वस्थ रहने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी रहता है । जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है , तब उसका मन अस्थिर हो जाता है । मन की अस्थिरता के कारण शरीर भी पूरी तरह अस्थिर हो जाता है । अधिकांश लोगों का मन शरीर के सम्पूर्ण अधीन रहता है। असल में उनके मन की शक्ति बहुत थोड़े परिमाण में विकसित हुई रहती है। 

अधिकांश मनुष्य पशु से बहुत थोड़े ही उन्नत हैं , क्योंकि अधिकांश स्थलों में तो उनकी संयम की शक्ति पशु - पक्षियों से कोई विशेष अधिक नहीं । हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत थोड़ी है । मन पर यह अधिकार पाने के लिए , शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है । शरीर जब पूरी तरह अधिकार में आ जाएगा, तब मन को हिलाने - डुलाने का समय आएगा । इस तरह मन जब बहुत कुछ वश में आ जाएगा, तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगे , उसकी वृत्तियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेंगे । 

राजयोगी के मतानुसार यह सम्पूर्ण बहिर्जगत् अन्तर्जगत् या सूक्ष्म जगत् का स्थूल विकास मात्र है । सभी स्थलों में सूक्ष्म को कारण और स्थूल को कार्य समझना होगा । इस नियम से , बहिर्जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण । इसी हिसाब से स्थूल जगत् की परिदृश्यमान शक्तियाँ आभ्यन्तरिक सूक्ष्मतर शक्तियों का स्थूल भाग मात्र हैं । 

जिन्होंने इन आभ्यन्तरिक शक्तियों का आविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है , वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं । सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना इस बृहत् कार्य को ही योगी अपना कर्तव्य समझते हैं । वे एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं , जहाँ , हम जिन्हें ' प्रकृति के नियम ' कहते हैं , वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते , जिस अवस्था में वे उन सब को पार कर जाते हैं । तब वे आभ्यन्तरिक और बाह्य समस्त प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं । 

मनुष्यजाति की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है । इस प्रकृति को वशीभूत करने के लिए भिन्न भिन्न जातियाँ भिन्न भिन्न प्रणालियों का सहारा लेती है । जैसे एक ही समाज के भीतर कुछ व्यक्ति बाह्य प्रकृति को और कुछ अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने की चेष्टा करते हैं , वैसे ही भित्र भिन्न जातियों में कोई कोई जातियाँ बाह्य प्रकृति को , तो कोई कोई अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने का प्रयत्न करती हैं । किसी के मत से अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वशीभूत हो जाता है ; फिर दूसरों के मत से , बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वश में आ जाता है । 

इन दो सिद्धान्तों के चरम भावों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि दोनों ही सिद्धान्त सही है ; क्योंकि यथार्थतः प्रकृति में बाह्य और आभ्यन्तर जैसा कोई भेद नहीं । यह केवल एक काल्पनिक विभाग विभाग का कोई अस्तित्व ही नहीं , और यह कभी था भी नहीं । बहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे , तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जाएँगे । जैसे भौतिक विज्ञानी जब अपने ज्ञान को चरम सीमा पर ले जाएँगे , तो अन्त में उन्हें दार्शनिक होना होगा , उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे , वह वास्तव में कल्पना मात्र है वह एक दिन बिलकुल विलीन हो जाएगी । 

जिस `एक ' से यह `अनेक '  उत्पन्न हुआ है , जो एक पदार्थ बहु रूपों में प्रकाशित हुआ है , उसका निर्णय करना ही समस्त विज्ञान का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है । राजयोगी कहते हैं , हम पहले अन्तर्जगत का ज्ञान प्राप्त करेंगे , फिर उसी के द्वारा बाह्य और आन्तर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे । प्राचीन काल से ही लोग इसके लिए प्रयत्नशील रहे हैं । भारतवर्ष में इसकी विशेष चेष्टा होती रही है , परन्तु दूसरी जातियों ने भी इस ओर कुछ प्रयत्न किये हैं । पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या सोचते थे ; जो लोग इसका अभ्यास करने जाते थे , उन पर अघोरी , जादूगर , ऐन्द्रजालिक आदि अपवाद लगाकर उन्हें जला दिया अथवा मार डाला जाता था। भारतवर्ष में अनेक कारणों से यह विद्या ऐसे व्यक्तियों के हाथ पड़ी , जिन्होंने इसका ९ ० प्रतिशत अंश नष्ट कर डाला और शेष को गुप्त रीति से रखने की चेष्टा की । आजकल पश्चिमी देशों में , भारतवर्ष के गुरुओं की अपेक्षा निकृष्टतर अनेक गुरु नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं । भारतवर्ष के गुरु फिर भी कुछ जानते थे, पर ये आधुनिक व्याख्याकार तो कुछ भी नहीं जानते । 

इन सारी योगप्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है , सब छोड़ देना पड़ेगा । जिससे बल मिलता है , उसी का अनुसरण करना चाहिए । अन्यान्य विषयों में जैसा है , धर्म में भी ठीक वैसा ही है - जो तुमको दुर्बल बनाता है (कामिनी-कांचन में आसक्ति) , वह समूल त्याज्य है । रहस्यस्पृहा मानव - मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है । इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट सा हो गया है । किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है । चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था । तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है । 

यह एक आश्चर्यजनक बात है कि व्याख्याकार जितना आधुनिक है , उसका भ्रम भी उतना ही अधिक है ; और लेखक जितना प्राचीन है , उसने उतनी ही अधिक युक्तियुक्त बात कही है । आधुनिक लेखकों में ऐसे अनेक हैं , जो नाना प्रकार की रहस्यात्मक और अद्भुत अद्भुत बातें कहा करते हैं । इस प्रकार , जिनके हाथ यह शास्त्र पड़ा , उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में कर रखने की इच्छा से इसको महागोपनीय बना डाला और युक्तिरूप प्रभाकर का पूर्ण आलोक इस पर नहीं पड़ने दिया । 

मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ , उसमें गुह्य नाम की कोई चीज नहीं है । मैं जो कुछ थोड़ा सा जानता हूँ , वही तुमसे कहूँगा । जहाँ तक यह युक्ति से समझाया जा सकता है , वहाँ तक समझाने की कोशिश करूँगा । परन्तु मैं जो नहीं समझ सकता , उसके बारे में कह दूँगा , “ शास्त्र का यह कथन है । " अन्धविश्वास करना ठीक नहीं । अपनी विचारशक्ति और युक्ति काम में लानी होगी । यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है , वह सत्य है या नहीं । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏दर्शन क्रिया कैसे होती है ?🔆🙏 

भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो , ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा । इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं , किसी विपत्ति की भी आशंका नहीं । इसमें जहाँ तक सत्य है , उसका सब के समक्ष राजपथ पर प्रकट रूप से प्रचार करना आवश्यक है । यह सब किसी प्रकार छिपा रखने की चेष्टा करने से अनेक प्रकार की महान् विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । कुछ और अधिक कहने के पहले मैं सांख्य दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँगा । इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है । 

सांख्य दर्शन के मत से किसी विषय के ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है - प्रथमतः विषय के साथ चक्षु आदि बाह्य करणों का संयोग होता है । ये चक्षु आदि बाहरी करण फिर उसे मस्तिष्कस्थित अपने अपने केन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के पास भेजते हैं ; इन्द्रियाँ मन के निकट , और मन उसे निश्चयात्मिका बुद्धि के निकट ले जाता है , तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करता है । फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अन्दर आया था , उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है । इस प्रकार विषय गृहीत होता है । 

पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ हैं । पर आँख आदि बाहरी करणों की अपेक्षा मन सूक्ष्मतर भूत से निर्मित है । मन जिस उपादान से निर्मित है , उसी से तन्मात्रा नामक सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है । उनके स्थूल हो जाने पर परिदृश्यमान भूतों की उत्पत्ति होती है । यही सांख्य का मनोविज्ञान है । अतएव बुद्धि और परिदृश्यमान स्थूल भूत में अन्तर केवल स्थूलता के तारतम्य में है। एकमात्र पुरुष या आत्मा ही चेतन है । मन तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र है । उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है । 

मन सतत परिवर्तनशील है , इधर से उधर दौड़ता रहता है , कभी सभी इन्द्रियों से लगा रहता है , तो कभी एक से , और कभी किसी भी इन्द्रिय से संलग्न नहीं रहता । मान लो , मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिकटिक सुन रहा हूँ । ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि मन जब श्रवणेन्द्रिय से लगा था , तो दर्शनेन्द्रिय से उसका संयोग न था । पर पूर्णताप्राप्त मन सभी इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है । उसकी अन्तर्दृष्टि की शक्ति है , जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सब से गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है । इस अन्तर्दृष्टि का विकास साधना ही योगी का उद्देश्य है । मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके भीतर की ओर मोड़कर वे जानना चाहते हैं कि भीतर क्या हो रहा है । इसमें केवल विश्वास की कोई बात नहीं ; यह तो दार्शनिकों के मनस्तत्त्व - विश्लेषण का फल मात्र है । 

आधुनिक शरीरविज्ञानवित का कथन है कि आँखें यथार्थतः दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं ; वह इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिए । उनका यह भी कहना है कि मस्तिष्क जिस पदार्थ से निर्मित है , ये केन्द्र भी ठीक उसी पदार्थ से बने हैं । सांख्य भी ऐसा ही कहता है । अन्तर यह है कि सांख्य का सिद्धान्त मनस्तत्त्व पर आधारित है और वैज्ञानिकों का भौतिकता पर । फिर भी दोनों एक ही बात है । हमारे शोध के क्षेत्र इन दोनों के परे हैं ।

 योगी प्रयत्न करते हैं कि वे अपने को ऐसा सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न कर लें , जिससे वे विभिन्न मानसिक स्थाओं को प्रत्यक्ष कर सकें । समस्त मानसिक प्रक्रियाओं को पृथक् पृथक् रूप से मानस - प्रत्यक्ष करना आवश्यक है । 

इन्द्रियगोलकों पर विषयों का आघात होते ही उससे उत्पन्न हुई संवेदनाएँ उस उस करण की सहायता से किस तरह स्नायु में से होती हुई जाती हैं , मन किस प्रकार उनको ग्रहण करता है , किस प्रकार फिर वे निश्चयात्मिका बुद्धि के पास जाती हैं , तत्पश्चात् किस प्रकार वह पुरुष के पास उन्हें पहुँचाता है - इन समस्त व्यापारों को पृथक् पृथक् रूप से देखना होगा । प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है । 

कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो , पहले अपने आपको उसके लिए तैयार करना होगा , फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा , इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है । राजयोग के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही है । 

भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम आवश्यक हैं । जिससे मन खूब पवित्र रहे , ऐसा भोजन करना चाहिए । तुम यदि किसी Zoo (चिड़ियाघर)में जाओ , तो भोजन के साथ जीव का क्या सम्बन्ध है, यह भलीभाँति समझ में आ जाएगा । हाथी बड़ा भारी प्राणी है , परन्तु उसकी प्रकृति बही शान्त है । और यदि तुम सिंह या बाघ  के पिंजड़े की ओर जाओ , तो देखोगे , वे बड़े चंचल हैं । इससे समझ में आ जाता है कि आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है । हमारे शरीर के अन्दर जितनी शक्तियाँ कार्यशील हैं , वे आहार से पैदा हुई है और यह हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं । 

यदि तुम उपवास करना आरम्भ कर दो , तो तुम्हारा शरीर दुर्बल हो जाएगा , दैहिक शक्तियों का हरास हो जाएगा और कुछ दिनों बाद मानसिक शक्तियाँ भी क्षीण होने लगेंगी । पहले स्मृतिशक्ति जाती रहेगी , फिर ऐसा एक समय आएगा , जब सोचने के लिए भी सामर्थ्य न रह जाएगा - किसी विषय पर गम्भीर रूप से विचार करना तो दूर की बात रही । 

इसीलिए साधना की पहली अवस्था में , भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होगा : फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा । जब तक पौधा छोटा रहता है , तब तक उसे घेरकर रखते हैं , नहीं तो जानवर उसे चर जाएँ । उसके बड़े वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता है । तब वह सारे आघात झेलने के लिए पर्याप्त समर्थ है । 

योगी को अधिक विलास और कठोरता , दोनों ही त्याग देने चाहिए । उनके लिए उपवास करना या देह को किसी प्रकार कष्ट देना उचित नहीं । गीता कहती है-[नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।। युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । -गीता , (६।१६-१७) ] - "जो अपने को अनर्थक क्लेश देते हैं , वे कभी योगी नहीं हो सकते । अतिभोजनकारी ^  , उपवासशील , अधिक जागरणशील , अधिक निद्रालु अत्यन्त कर्मी अथवा बिलकुल आलसी- इनमें से कोई भी योगी नहीं हो सकता । उस पुरुष के लिए योग दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।। "

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['नन्दोत्स्व' ^भाद्र पद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी (जन्माष्ठमी ) को अर्धरात्रि में (रात 12 बजे)  श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में कंस के कारागार में हुआ था। उनके पिता वसुदेव कंस के भय से श्रीकृष्ण को रात्रि में ही यमुना नदी पार कर नन्द बाबा के यहाँ गोकुल में छोड़ आये थे।  इसीलिए कृष्ण जन्म के दूसरे दिन गोकुल गाँव में ‘नन्दोत्सव’ मनाया जाता है।  भाद्रपद मास की नवमी पर समस्त ब्रजमंडल में नंदोत्सव की धूम रहती है। गोकुल की गलियां ‘नंद घर आनंद भयो जै कन्हैया लाल की’ ‘गोकुल में मचा हल्ला, जसोदा जायो लल्ला’ के स्वरों से गूंज उठतीं हैं। नन्द जी की पत्नी यशोदा को एक कन्या हुई थी।  वासुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को अपने साथ ले गए।  कंस ने उस कन्या को वासुदेव और देवकी की संतान समझ पटककर मार डालना चाहा लेकिन वह इस कार्य में असफल ही रहा।  दैवयोग से वह कन्या जीवित बच गई।  इसके बाद श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया।  जब श्रीकृष्ण जी बड़े हुए तो उन्होंने कंस का वध कर अपने माता-पिता को उसकी कैद से मुक्त कराया। नंदोत्सव का मुख्य आकर्षण ‘दधिकांदों’ है, ‘दधिकांदो’ का अर्थ है हल्दी मिश्रित दही (लाला की छीछी)। इस दही की वर्षा श्रद्धालुओं पर की जाएगी। मटकियों में दही घोलकर उसमें हल्दी मिलायी जा रही है। इसके अलावा खिलौने, फल, मिश्री-माखन, मूंगा-मोती और रुपये लुटाते हुए गोकुलवासी लाला के जन्मोत्सव की खुशी मनाएंगे। इस दिन सुप्रसिद्ध 'लठ्ठे के मेले' का आयोजन किया जाता है। मथुरा ज़िले में वृंदावन के विशाल श्री रंगनाथ मंदिर में ब्रज के नायक भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के दूसरे दिन नन्दोत्सव की धूम रहती है। ]