(1) >>महामण्डल का प्रतीक चिन्ह (emblem ) और संघ-गीत :
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
अर्थात: सभी भारतवासी साथ चलें, मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि चले हैं ! ( ऋग्वेद 10.181.2) यजुर्ववेद कहता है : "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"- (यजुर्वेद 36/18 ) अर्थात- सभी मुझे मित्र की निगाह से देखें। मैं सभी को मित्र की निगाह से देखूं। हम सभी एक दूसरे को मित्र की निगाह से देखें। परस्पर के मानव सम्मान में ही सभी अधिकारों का सार निहित है।
महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में ही महामण्डल के "आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम" को बहुत संक्षेप में बता दिया गया है। महामण्डल द्वारा आयोजित इस 'युवा प्रशिक्षण शिविर और संगोष्ठी कक्षा' (Camp and Seminar) के बैज (Insignia ) में `श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त (समाधि) शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित युवा नेता स्वामी विवेकानन्द द्वारा भारत के युवाओं को विरासत में सौंपा हुआ कार्य (The Task) - "भारत का कल्याण !" (अर्थात 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण) तथा उसके उपाय (the Way)- 'चरित्र-निर्माण आन्दोलन " को "एक नया युवा आन्दोलन " (A New Youth Movement) के रूप में दर्शाया गया है। महामण्डल का आदर्श वाक्य (motto या नीति-वाक्य) - 'Be and Make!' अर्थात "मनुष्य बनो और बनाओ" जो प्रतीक चिन्ह के नीचे लिखा गया है तथा ऊपर अंकित है 'ऐतरेय ब्राह्मण' से लिया गया महामण्डल का अभियान मंत्र -“चरैवेति चरैवेति” ! - अर्थात 'चलते रहो , चलते रहो' क्योंकि क्योंकि अनुभव (समाधि के अनुभव) से ही सही ज्ञान (इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) प्राप्त होता है तथा परिश्रम ही सफलता की कुंजी है ! मानव की उन्नति पुरुषार्थ पर ही आधारित है, यह एक सार्वकालिक सिद्धांत है। परिश्रम नहीं करेंगे तो जीवन पशु के समान हो जाएगा। एक पशु भी अपने भोजन के लिए परिश्रम करता है। यदि हम भी सिर्फ इतने के लिए (पेट भरने के लिये) ही परिश्रम करेंगे, तो फिर मनुष्य में और पशु में क्या अंतर रह जाएगा।
तो क्या हमलोग अभी मनुष्य नहीं हैं? 'मनुष्य' तो हैं किन्तु 'आध्यात्मिक मनुष्य' (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) नहीं हैं। अर्थात ढाँचा तो मनुष्य का है , किन्तु भीतर पशुता छिपी हुई है है।
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् धर्म (आध्यात्मिकता, सू-चरित्र या विवेक) के बिना मनुष्य पशुतुल्य है।
येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील है अर्थात अच्छा चरित्र नहीं है , न गुण और न धर्म। वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग/जानवर की तरह से घूमते रहते हैं।
"ऐतरेय" का अर्थ है "ऋत्विज" अर्थात यज्ञ करानेवाला पुरोहित । "ऋत्विज" या ज्ञान-यज्ञ करवाने वाले 'पुरोहित' का अर्थ है सप्तर्षियों में से एक जीवनमुक्त प्रशिक्षक (100 % निःस्वार्थी पैगम्बर, नेता या 'C-IN-C) जो ज्ञान-यज्ञ (चरित्र-निर्माण आन्दोलन) का प्रचार-प्रसार करने के लिए केवल बंगाल से गुजरात और कन्याकुमारी से कश्मीर तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण धरती में पर्यटन-देशाटन करता रहे। इस अभियान मंत्र का वास्तविक अभिप्राय आध्यात्मिक मनुष्य (100 % निःस्वार्थी ऋषि, पैगम्बर, नेता, या समाधि अनुभव प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक) बनना और बनाना है। और इस कार्य को पूर्ण करने के लिए 'चलते रहो--चलते रहो' पर्यटन-देशाटन करते रहो। क्योंकि जागने व चलने का नाम जीवन है । जागृति ही गति है । निद्रा मृत्यु समान है । [उत्तिष्ठत-जाग्रत !] अर्थात सू-चरित्रवान आध्यात्मिक मनुष्य या ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग पर (निर्विकल्प समाधि होने तक) बराबर आगे कदम बढाते रहो, तुम्हारे कानों में सदैव “चरैवेति चरैवेति” की ध्वनि गूँजनी चाहिए ।
आकाश की ओर देखो, सूर्य सदियों से चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इन्द्र तो चलते रहने वालों का ही मित्र (सखा) है----"इन्द्र इच्चरतः सखा" । यानि इन्द्र अर्थात ईश्वर सत्यार्थी का सत्य -खोजी का साथी होता है । आत्मा उनका ही वरण करती है, जो मार्ग में चल रहे हो, अर्थात् गतिशील हो, परिश्रम कर रहा हो । जो बलहीन है, कार्य नहीं करता, आलसी है, उसे यह आत्मा कदापि नहीं मिलती-"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" (मुण्डकोपनिषद्--३.२.५) "न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात्" अर्थात आत्मदर्शन उसे ही होता है जो प्रमादी और आलसी नहीं है, मिथ्याचारी नहीं है। अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) । (मुण्डकोपनिषद्---३.२.४)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव (100 % निःस्वार्थपरता) को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है। {वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद}
इस अभियान मंत्र का वास्तविक अभिप्राय पशुत्व यानि 0 % निःस्वार्थपरता, से मनुष्यत्व यानि 50 % निःस्वार्थपरता की अवस्था और देवत्व प्राप्त करने यानि आध्यात्मिक मनुष्य (100 % निःस्वार्थपर) बनने और बनाने के लक्ष्य की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते रहना है। और स्वामी जी द्वारा सौंपे हुए इसी कार्य को पूर्ण करने के लिए 'चलते रहो--चलते रहो' पर्यटन-देशाटन करते रहो क्योंकि चलने का नाम ही जीवन है । इसलिए “चरैवेति, चरैवेति ”।
इस बात को स्पष्ट करते हुए ऐतरेय ब्राह्मण में आगे कहा गया है कि युग-परिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है। मन की चार अवस्थाएं हैं -
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।।
चरैवैति चरैवैति ।।
(1) "कलिः शयानो भवति"--अर्थात आलसी, पुरुषार्थ हीन व्यक्ति कलियुग में स्थित हो जाता है। इसीलिए कहा गया है, मोहनिद्रा में सोने वालों के लिए, (सिंहशावक होकर भी भेंड़त्व के भ्रम में या पंचेन्द्रिय भोगों में आसक्त बने रहने वालों के लिए) सदा ही कलियुग है।
(2) " संजिहानस्तु द्वापरः" - स्वामीजी की ललकार - ' उत्तिष्ठ-जाग्रत' बार -बार सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह संजिहान स्थिति में जब कर्म के लिये उद्यत हो जाता है तो उसके लिए द्वापर शुरू हो गया।
(3) " उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति " अर्थात जो व्यक्ति आलस्य त्याग कर पुरुषार्थ करने या 'मनुष्य' बनने के लिये (अर्थात 50 % निःस्वार्थपर बन जाने या इन्द्रियभोगों से अनासक्त होने के लिये) कमर कस कर उठ खड़ा होता है, उसके लिए त्रेता का आरंभ हो गया, और वह त्रेता युग में वास कर रहा है।
(4) " कृतं संपद्यते चरन् " और अपनी मंजिल (100 % निःस्वार्थपरता) की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है, अर्थात जो व्यक्ति `3H विकास के 5 अभ्यास' स्वयं करने और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने का काम शुरू कर दिया हो , उसके लिए उसी क्षण सत्ययुग आ गया। क्योंकि निरन्तर कर्मरत होते हुए भी आत्मस्वरुप के बोध में अवस्थिति ही कृत या सत्ययुग में वास करना है ।
ऐसा कहा जाता है कि स्वामी विवेकानन्द ने उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) को स्वयं अपने जीवन पर प्रयोग करके देखा था कि कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा व्यक्ति की मानसिक अवस्था को निर्धारित करने के उद्देश्य से दी गयी है।
(2)>> धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। ( गीता 4.8)
"हमलोगों को 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, पर यह 'समाधि' क्या है......? हम सभी लोगों को मन की तीन अवस्थाओं का पता है , हमें 'नींद' (Dream state, subconscious state) पता है, 'जागृति' (Conscious state) पता है, सुषुप्ति अवस्था (unconscious state या Deep Sleep) भी जानते हैं, पर यह 'समाधि' क्या है......? इसे जानने की उत्सुकता हम सबों में रहती है । श्री रामकृष्ण का जीवन और उपदेश पढ़ते समय अक्सर उनके मुहुर्मुहः समाधि होने वाले के अनुभवों के प्रति उत्सुकता पनपती है । हमलोगों को 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, पर यह 'समाधि' क्या है......? नरेन्द्रनाथ को भी इसे जानने की उत्सुकता तब उत्पन्न हुई थी जब 1879 में Entrance Exam पास करने के बाद उनकी आयु अठारह वर्ष की थी, और वे Scottish Church College में पढ़ते थे।
एक दिन प्रिंसिपल हेस्टी अंग्रेजी की कक्षा में विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता “ The Excursion ” पढ़ा रहे थे। उन्होंने प्रोफेसर विलियम हेस्टी के मुख से सुना की ' गुलाब के फूल को देख कर कवि 'खो गया' या “Trance” (समाधि) में चला गया । स्वामीजी ने पूछा ये “Trance” क्या होता है ? वह इस शब्द की व्याख्या करते हुए प्रोफेसर हेस्टी बोले कि, “Trance” या समाधि अद्वैत अवस्था में एक तरह का आनन्दमय आध्यात्मिक अनुभव है। " अगर तुम समाधि शब्द का वास्तविक अर्थ समझना चाहते हो या देखना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली के पुजारी श्रीरामकृष्ण से मिलो उन्हें बार -बार समाधि होती है।"
नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) को सम्भवतः अपनी नागपुर से रायपुर तक की गयी उस बैलगाड़ी यात्रा का स्मरण हो आया जब 1877 में 14 वर्ष की आयु में उनका मन मधुमक्खी का विशाल छत्ता देखकर तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर के ध्यान में इतना डूब गया कि थोड़ी देर के लिये उनका बाह्यज्ञान सम्पूर्ण लुप्त हो गया। कितनी देर इस भाव में लीन (तन्मय) होकर बैलगाड़ी में पड़े रहे, उन्हें याद नहीं। जब पुनः होश आया, तो देखा कि उस स्थान से बहुत आगे चले आये थे। ध्यान -राज्य में विचरण करते हुए ईश्वर में पूर्णरूप से तन्मय हो जाने का नरेन्द्रनाथ के जीवन में , सम्भवतः यही पहला (या दूसरा?) मौका था। [चरित पृष्ठ 15]
इसी सन्दर्भ में यह जानना उचित होगा कि श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में ईश्वर की उपासना जगन्माता (माँ काली) की मूर्ति के रूप में किया करते थे। माँ काली की मूर्ति पूजा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करने के उनके इस विचार ने उस समय के ईश्वर को केवल निर्गुण-निराकार मानने वाले मूर्ति-पूजा विरोधी ब्रह्मसमाज तथा आर्य समाज आदि द्वारा मूर्तिपूजा के विरोध में किये जाने वाले कुतर्कों को जड़ से हिला दिया। और ब्रह्मसमाज के प्रमुख आचार्य केशवचन्द्र सेन आदि अंग्रेजी पढ़े लिखे, विद्वान् लोग भी श्री रामकृष्ण के शिष्य बन गए।
[भारतीय मूर्तिपूजा का विज्ञान :मूर्त से अमूर्त या स्थूल से सूक्ष्म,जड़ से चेतन तक-विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेकस्रोत के उद्घाटन तक-'एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ती' (अर्थात अनेकता में एकता, Unity in diversity, वैविध्य में ऐक्य तक) पहुँचने का सिद्धान्त है। जब तक आप अनेक आकृतियों (नाम-रूप) सहित इस संसार को देख रहे हैं, तब तक आप मूर्तिपूजक (idolater मूर्तिउपासक उर्दू में बुतपरस्त, नास्तिक या काफिर pagan) हैं। जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं शरीर (M/F) हूँ', वह जन्मजात मूर्तिपूजक है। वास्तव में आप सब आत्मा है जो अजर-अमर -अविनाशी है , जिसका न रूप है न रंग। जो अनन्त (चैतन्य) है भौतिक जड़ पदार्थ नहीं है। अतः जो व्यक्ति अमूर्त या सूक्ष्म को ग्रहण करने में असमर्थ हो , बिना किसी स्थूल मूर्ति की सहायता के अपने वास्तविक स्वरुप के बारे में सोच नहीं सके उसे हम मूर्ति पूजक (idolater)ही कहेंगे। फिर भी ऐसे लोग एक-दूसरे से लड़ा करते हैं। एक व्यक्ति अपने उपासना गृह या उपास्य मूर्ति को सच्चा बताता है और दूसरों के उपासना स्थलों और उपास्य मूर्तियों को गलत। आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसे लोग जो अपने को गाँधी जी के अनुयायी कहते हैं किन्तु गाँधीजी के प्रिय भजन 'ईश्वर-अल्ला तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान , रघुपति राघव राजा राम पतीत पावन सीता राम ' को साम्प्रदायिक मानते हैं; वे (महबूबा मुफ़्ती जैसे लोग) आध्यात्मिक क्षेत्र में बच्चों के समान हैं। ]
इसके पूर्व भी नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण के विषय में सुन रखा था। इस संत के बारे में उनके अपने कुछ संदेह थे। [श्रीरामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ कहना चाहिए या नहीं ? ] लेकिन, जब उन्होंने प्रोफेसर हेस्टी से उनके विषय में सुना तो वे दक्षिणेश्वर के इस संत से भेट करने को आतुर हो गये। नवम्बर 1881 को वे उनसे मिलने दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर पहुँच गये। रामकृष्ण परमहंस से मिलने पर भी नरेन्द्र ने वही प्रश्न किया जो वे औरों से किया करते थे, कि महाशय , क्या आपने भगवान को देखा है? रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया- हाँ, मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूँ जितना कि तुम्हें देख सकता हूँ, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूँ । और चाहोगे तो तुम्हें दिखला भी सकता हूँ।
रामकृष्ण परमहंस के जवाब से नरेन्द्र प्रभावित तो हुए परन्तु वे इसे ठीक से समझ नहीं सके, तथापि इस मुलाकात के बाद उन्होंने नियमपूर्वक रामकृष्ण परमहंस के पास जाना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में नरेन्दनाथ रामकृष्ण परमहंस के विचारों से सहमत नहीं थे और निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को वे धर्मविरोधी समझते थे। ब्रह्मसमाज समाज के विचारों के प्रभाव के कारण नरेन्द्रनाथ भी प्रारम्भ में मूर्ति पूजा (Idolatry), बहुदेववाद (Polytheism) और रामकृष्ण की काली देवी पूजा (goddess worship) के विरोधी थे। इसी सन्दर्भ में यह जानना उचित होगा कि श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में ईश्वर की उपासना जगन्माता (माँ काली) की मूर्ति के रूप में किया करते थे। माँ काली की मूर्ति पूजा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार (विवेक-स्रोत का उद्घाटन और आत्मसाक्षात्कार) करने के उनके इस विचार ने उस समय के ईश्वर को निर्गुण-निराकार मानने वाले ब्रह्मसमाज (आर्य समाज?) द्वारा किये जाने वाले मूर्ति-पूजा विरोधी आन्दोलन को जड़ से हिला दिया था ।
लकिन शुरुआत में नरेन्द्रनाथ श्री रामकृष्ण के परम आनंद अवस्था (समाधि) और दर्शन को केवल कल्पना और मतिभ्रम के रूप में देखते थे। और इसको लेकर श्री रामकृष्ण से तर्क-वितर्क में भी करते थे। वे रामकृष्ण परमहंस के निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को वे धर्म-विरोधी समझते थे। तब उन्हें उत्तर यही मिलता था कि ईश्वर (सत्य) को सभी दृष्टि कोण से देखने का प्रयत्न करो।
इसके बाद 1884 में उनके पिता का देहावसान हो जाने के बाद नरेन्द्र के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया और अमीर परिवार के नरेन्द्र एकाएक गरीब हो गए। उनके घर पर उधार चुकाने की माँग करने वालों की भीड़ जमा होने लगी। ऐसे में नरेन्द्र ने रोजगार तलाशने की भी कोशिश की लेकिन यहाँ भी उन्हें नाकामयाबी ही हाथ लगी। इस पर वे रामकृष्ण परमहंस के पास लौट आए। उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस से कहा कि वे माँ काली से उनके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रार्थना करें।
रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि आज तो शनिवार है , तुम स्वयं काली माँ से प्रार्थना क्यों नहीं करते? कहा जाता है कि नरेन्द्र तीन बार कालीमंदिर में गये लेकिन प्रत्येक बार उन्होंने अपने लिए ज्ञान और भक्ति माँगी और काली के समक्ष वे परिवार की आर्थिक स्थिति संवारने की इच्छा तक व्यक्त नहीं कर सके । इस आध्यात्मिक अनुभूति के बाद नरेन्द्र ने सांसारिक मोह का त्याग कर दिया और राम कृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया।
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग (Golden Age) का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? जब स्वामीजी यह भविष्य-वाणी कर रहे थे, उस समय उनकी समग्र दृष्टि ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) के जीवन के भीतर इस प्रकार जुड़ी हुई थी, कि वे अपनी आँखों के सामने साक्षात् इन्हीं दृश्यों को रूपायित होते देख रहे थे। ठाकुर के जीवन और संदेशों को ठीक से समझकर अनुसरण करने वाले मनुष्यों के जीवन में आगे जो परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित होने वाला है, उसी को वे इस प्रकार देख रहे थे मानो " घटना घट चुकी है!
सत्ययुग कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने से पहले मनुष्य (विशेष रूप से भारतवासी) गहरी सुषुप्ति में था , अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। तभी श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति - `माँ काली की मूर्ति पूजा का विज्ञान >विवेकप्रयोग या मनःसंयोग' के अभ्यास द्वारा ' मनुष्य के देहमन्दिर में आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने का संघर्ष शुरू हो जाता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर चलना- 'चरैवेति ' प्रारंभ कर देता है-इसी प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग (विवेक-स्रोत का उद्घाटन) का प्रारंभ हो जाता है।
[नए युग के लिए उपयुक्त पद्धति है - अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।। योगसूत्र 1.12।। पर लिखित व्यासदेव का भाष्य। पातंजल योग सूत्र पर आचार्य शंकर ने भाष्य नहीं लिखा है। व्यासदेव के बाद स्वामी विवेकानन्द ने ही राजयोग पर लिखित अपने भाष्य में व्यासदेव को उद्धृत करते हुए लिखा था - " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी.... तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। " अर्थात मन (चित्त) की 'स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति ', चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है जो कि दोनों दिशाओं में बहने वाली है। ( उभयतः वाहिनी = अर्थात उर्ध्व और निम्न मूलाधार और सहस्रार दोनों दिशाओं बहने वाली है।) माँ काली की मूर्ति पूजा का विज्ञान-'मनःसंयोग' को ठीक से समझकर माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का विधिवत और नियमित अभ्यास करने से "विवेक-दर्शन अभ्यासेन विवेक-स्रोत उदघाट्यते " अर्थात माँ काली की मूर्ति पर मन को एकाग्र करने से ईश्वर (इन्द्रियातीत सत्य , ब्रह्म या आत्मा ) का साक्षात्कार हो जाता है। ]
इसको स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (आत्मा) के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द (Existence -Consciousness-Bliss) है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' (मृत्युस्वरूपा माँ काली का भय) नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय -का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द (complete fulfillment) की प्राप्ति हो जाती है ! इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)
[समाधि अनुभव से व्युत्थान के बाद जब मनुष्य अपने को माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा का पुत्र और स्वामीजी को सचमुच का अपना बड़ा भाई जान लेता है, तब उसके मन में असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। `मृत्यु-भय तथा वासना और लालच या कामिनी-कांचन में आसक्ति का अभाव ' ->हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। मनुष्य इस शरीर में रहता हुआ ही जीवनमुक्त (नेता या पैगम्बर) हो जाता है। ]
इस जीवन-मुक्ति को प्राप्त करने के लिए किन किन पड़ावों से गुजरना पड़ता है, ये समझाते हुए आदि शंकरचार्य कहते हैं :
सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे निर्मोहत्वम् ॥
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन मुक्तिः।।
संतों की संगत में रहते रहते भक्त अंततः संगविहीन (कामिनी -कांचन में अनासक्त) हो जाता है। कामिनी -कांचन में अनासक्त हो जाने एवं अनावश्यक इच्छाओं से मुक्त होते ही मन से मिथ्या मोह (मैं और मेरा ) का भी नाश हो जाता है। और भक्त निर्मोहत्व (भ्रममुक्त अवस्था D-hypnotized अवस्था) को प्राप्त हो जाता है। उपरोक्त मनःस्थिति को प्राप्त करके जीव निश्चल-तत्व में स्थित हो जाता है। निश्चल -तत्व अर्थात अपरिवर्तनीय सत्य (सच्चिदानन्द) को जान कर सदैव इस एकमात्र सार्वभौमिक परम सत्य में विचरण करता हुआ निश्चल मन जीवन-मुक्त हो जाता है।
उस अवस्था में `एकं सत विप्राः 'बहुधा' वदन्ती- Unity in diversity, अर्थात अनेकता में एकता में, प्रत्येक देह मन्दिर में एक ही आत्मा ईश्वर या परमसत्य है- प्रत्येक देह में मैं ही हूँ की अनुभूति हो जाती है ! या 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' का बोध हो जाता है !
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卐🙏卐 विरासत में सौंपा हुआ कार्य- "भारत का कल्याण" -और उसका मार्ग 卐🙏卐
[The Task>Welfare of India > and the Way]
हमारे समक्ष जो 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में सौंपा हुआ कार्य है वह है `भारत का कल्याण' अर्थात "एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण " हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण ! अगर हम उस सौंपे हुए कार्य को पूरा करने के लिए काम करना चाहें (? -यहाँ तो हम बाध्य है !) तो हमें अपनी भारतीय संस्कृति को अपनी विरासत को गहराई में पहुँचकर (गुलामी की मानसिकता को हटाकर) चीजों को स्पष्ट रूप से समझना होगा। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव पूरे विश्व विशेषकर भारतवर्ष के कल्याण के लिये हुआ था, क्योंकि वे जानते थे कि सिर्फ भारत ही विश्व- मानवता की प्रगति में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकता है। स्वामीजी ने यह दृष्टि अपने आध्यात्मिक अनुभूति से पाई थी। स्वामीजी की यह आत्म-अभिव्यक्ति और अनुभूति उन्हीं पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित सत्य से प्राप्त हुई थी जिसे हम वेदान्त कहते हैं।
अतीत में हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा वेदान्त का अध्यन विशेषतः जंगलों (अरण्यों) में किया जाता था। स्वामी विवेकानन्द ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित इस महान सत्य को वनों से निकाल कर हाट-बाजार तक, समाज के आम लोगों और उनके घरों तक लाने का कार्य किया था। इसे ही 'Practical Vedanta' या 'व्यावहारिक वेदान्त ' कहते हैं। इसी 'व्यावहारिक वेदान्त' को आम जनों का जीवन गठन करने के उद्देश्य से पूरे समाज का कल्याण करने के लिए, उनके दैनन्दिन जीवन में प्रयोग में लाना होगा।
अतः जैसा कि हम समझते हैं, 'व्यक्ति-चरित्र का निर्माण' - करना ही हमारा प्रमुख कार्य होना चाहिये। स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा था -"किन्तु ,सभी सामाजिक और राजनितिक व्यवस्थायें मनुष्यों के भलेपन (अच्छे चरित्र) पर टिकती हैं। कोई भी राष्ट्र इसलिये महान और अच्छा नहीं होता कि वहाँ के पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। " (भारत का मिशन -४. २३४) [" No nation is great or good because Parliament enacts this or that,(Like RTI and Lokpal Bill) but because its men are great and good. " (India's Mission- Sunday Times, London, 1896) ] किसी व्यक्ति को हम अच्छा मनुष्य तभी कहते हैं, जब उसका चरित्र अच्छा होता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " पहले (आध्यात्मिक) मनुष्य तैयार करो ! " ~ Make men first. ! स्वामी विवेकानन्द को यह अनुभव भी हुआ था कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण (या 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण') करने के कार्य को- वृहत तौर पर करना चाहें , तो हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा और इसके लिये संगठन की आवश्यकता होगी।
इसीलिये अगर हमें अपने देश , अपने जनसाधारण की भलाई और कल्याण के लिये कार्य करना है तो हमें अपना ध्यान व्यक्ति-चरित्र के निर्माण पर केन्द्रित करना होगा। तथा हमें इस ' व्यक्ति-चरित्र निर्माण तथा आत्मविकास ' के कार्य को संगठित होकर और संगठन के माध्यम से ही करना होगा।
अब हमलोग यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या चरित्र निर्माण के लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति हो सकती है ? कई लोगों का मानना है कि चरित्र तो जन्मजात रूप से व्यक्ति में निहित कोई चीज है। हमलोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि जल की अपनी कुछ विशेषतायें हैं, अग्नि के कुछ अलग गुण (धर्म) हैं। बाघ एक क्रूर पशु है, किन्तु क्या हम ऐसा कुछ मनुष्य के बारे में भी कह सकते हैं ? स्वामी जी कहते हैं कि देवता भी मानव रूप में जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। क्योंकि, देवताओं का जीवन चाहे कितना ही महान, गौरवशाली और भव्य क्यों न हो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। हमलोगों ने ऐसा कभी नहीं सुना कि एक बाघ था जो बाद में संत बना गया । लेकिन मानव इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण अभिलिखित हैं, जहां कोई पापी (डाकू रत्नाकर) था जो बाद में गुरु की कृपा से (या मोदी जी के डर से) संत (महर्षि बाल्मीकि) बन गया।
आइए, अब विचार करें कि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जाना कैसे जाता है? किसी व्यक्ति के चरित्र की धारणा उसके आचरण ,व्यवहार एवं समाज के दूसरे लोगों के साथ उसके सम्बन्धों के देखकर बनाई जाती है। मानलो , मैं किसी से मिलता हूं और उसके चले जाने के बाद मेरे मन में उस व्यक्ति के बारे में एक बहुत ही सुखद छवि रह जाती है। या इसके विपरीत, मैं किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में आता हूं और मुझे खेद का अनुभव होता है। ऐसा विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर मैं उस व्यक्ति से कभी मिला ही नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, पहले व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व से भिन्न प्रकृति का है। एक का व्यक्तित्व मनोहर है (winsome, आनन्दमय ,हर्षवर्धन करने वाला, दिलजीत या चित्ताकर्षक है), जबकि दूसरे का ऐसा नहीं है।
आइये, अब हम व्यक्तित्व और चरित्र के बीच के अन्तर को समझने का प्रयास करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों को ऊपर जैसा प्रभाव छोड़ जाता है, समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व समझा जाता है। यहाँ तक कि उस व्यक्ति की वाणी , शारीरिक बनावट, इत्यादि भी इस मामले में काफी महत्व रखते हैं। उसका पहनावा ,केश-विन्यास (hair cut) और उसकी दूसरी अन्य चीजें भी उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना योगदान देती हैं। जबकि चरित्र किसी व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का केवल एक हिस्सा है, लेकिन यह बात हमलोगों को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यक्तित्व का यह हिस्सा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हो सकता है कि मेरी पोशाक पुरानी हो। यह भी हो सकता है कि मैं देखने में प्रभावशाली और आकर्षक न लगूँ, मेरी शिक्षा भी वैसी न हो, किन्तु यदि मेरे व्यवहार में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण (sterling qualities) हों तो अन्ततोगत्वा मेरे सुन्दर व्यवहार और मेरी भावनाओं की मनोहर अभिव्यक्ति के कारण मुझे ही अधिक पसन्द किया जायेगा और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा जायेगा। हमलोग सत्य के बहुत निकट होंगे जब हम कहें कि, " हमारे व्यक्तित्व का अर्थ है - जैसा हम दिखते हैं, जबकि चरित्र वह है, जो हम वास्तव में हैं ! " हो सकता है कि अपनी वाकपटुता और अन्य दूसरी चीजों से शायद हम दूसरों को आकर्षित कर लेते हों, लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहती उस समय हम भिन्न प्रकार से (अपने व्यक्तित्व से अलग हटकर) व्यवहार या कार्य करने लगते हैं। इसलिए, सबसे पहले हमें अपने चरित्र को सही ढंग से निर्मित करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप एक मजबूत नींव पर तैयार हो सके। चाणक्यनीति में कहा गया है -
दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटापटावृतः ।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥
- लंबी शाल तथा खेस इत्यादि चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित एक मूर्ख व्यक्ति दूर से सुशोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही सुशोभित होता है (विद्वान सा प्रतीत होता है ) जब तक वह कुछ कहता नहीं है। मुख खोलते ही उसकी मूर्खता जगजाहिर हो जाती है।
A foolish person dressed nicely in a bright flowing robe looks beautiful and impressive (like a scholar) from a distance only so long he does not speak even a little. (As soon as he speaks something his foolishness gets exposed)
श्री रामकृष्णदेव के बारे में विचार करो। उनके पास तो बहुत से पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग आया करते थे। उनके सामने वे किस तरह के व्यक्ति के रूप में दिखा करते होंगे ? गाँव से आया एक बिल्कुल साधारण निरक्षर देहाती , शिष्टाचार से अपरिचित जो हमेशा भदेस ग्रामीण भाषा का प्रयोग करता हो। श्री रामकृष्णदेव के व्यक्तित्व में प्रथम-दृष्ट्या मन को आकर्षित करने योग्य तो कुछ भी नहीं था। किन्तु, पास जाकर कुछ बोलने के पहले, जैसे ही तुम उनके निकट आते हो, उनकी कृपाकटाक्ष तुम पर पड़ती है और आँखे चार होते ही तुम मोहित (fascinated, मन्त्रमुग्ध) हो जाते हो, तुम उनके प्रेम-जाल में फँस जाते हो ! ऐसा जादू कैसे हो जाता है ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अद्भुत था केवल बाहरी व्यक्तित्व नहीं। उन्होंने इस प्रकार के अद्भुत चरित्र का निर्माण कैसे किया होगा ? उन्होंने भी 'सत्य ' की (एथेंस के सत्यार्थी की तरह परम् सत्य की) खोज की थी, और उस सत्य को - जो पवित्रता है, प्रेम है, करुणा है, सहानुभूति है, जो निःस्वार्थता है, त्याग है, जो सभी के लिए सेवा भावना है; उसे अपने अन्दर ही पाया था। ये सभी वास्तव में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण हैं जो यथार्थ मनुष्य के चरित्र में हो सकते हैं।
यदि हम भी इन गुणों को किसी तरह अपने अन्दर विकसित कर सकें, तभी हम कह सकते हैं कि हमने एक मनोहर चरित्र का निर्माण कर लिया है। चरित्र है क्या चीज ? चरित्र हमारी आदतों या प्रवृत्तियों का समूह मात्र है। सत्य के प्रति अटूट प्रेम, करुणा, सहानुभूति, निःस्वार्थपरता, निर्भयता, त्याग और सेवा भावना - ये सभी चरित्र के उत्कृष्ट गुण हैं। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि ये सभी गुण भी उन्हीं आदत से ही निर्मित होते होंगे जिससे हमारा चरित्र बनता है? हाँ, हमलोग देखेंगे कि ये सभी अच्छे गुण जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है , वे हमारी सत्ता में पहले से ही विद्यमान हैं। यदि उपरोक्त सारे गुण हमारी आत्मा में पहले से अन्तर्निहित हैं, तो फिर चरित्र निर्माण में आदतों की भूमिका क्या है ?
अच्छी तरह से अवलोकन करने पर हम पायेंगे कि असत कार्य और अपने अविवेकपूर्ण निर्णयों के द्वारा हमने ही अपने मन पर कुछ ऐसे गलत छाप या संस्कार डाल दी हैं, जो हमारी सत्ता में निहित उन सुन्दर गुणों के प्रवाह को विकसित होने में रोड़े अटका रही हैं, या बाधा डाल रही हैं। स्वामी जी ने स्वयं कहा है, इसलिए हमें इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया या चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा एक निषेधात्मक प्रक्रिया (negative process) है, जिसमें हमें चित्त पर पड़े गहरे संस्कारों (अहं वृत्ति) को दूर करने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा, ताकि अच्छे गुण स्वतः प्रकट होने लगें। जैसा पतंजलि योग सूत्र (कैवल्य पाद- ४.३) में कहा गया है - "तत: क्षेत्रिकवत् ।" जिस प्रकार खेत में काम करने वाला किसान खेत पटाते समय पानी व खेत के बीच आने वाली मेड़ रूपी बाधाओं को रस्ते से हटाता है। वैसे हमें भी इन गुणों के स्वतः प्रकट होने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना होगा।
अतएव असत कर्म,असत वचन और असत विचारों से विरत हो जाना- ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है। इसी आत्मसंयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके वाद अच्छे कर्मों को बार-बार करते हुए अच्छी आदतों का निर्माण करना होगा । सद्कर्म क्या है, हम स्वाभाविक रूप से पूछेंगे। हम एक स्वर में कहेंगे कि नैतिक कार्य करना ही सद्कर्म है । लेकिन नैतिकता क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता की बड़ी ही आसान परिभाषा दी है, जो देश या काल के अनुसार नहीं बदलता है। स्वामीजी कहते हैं, जो निःस्वार्थ कार्य है वह नैतिक है और जो भी कार्य स्वार्थपूर्ण है वह अनैतिक है। उन्होंने नैतिकता की यह परिभाषा कहाँ से प्राप्त की है? हम आसानी से देख सकते हैं कि यह वेदान्त द्वारा प्रतिस्थापित सत्य - (कोई पराया नहीं सभी अपने हैं) को स्वीकार करने का एक परिणाम है। जब तक मैं केवल 'मैं' और 'मेरा' के बारे में सोचता हूं, मैं स्वयं को सीमित कर लेता हूँ । और जब अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को विस्तृत करते हुए मैं अपने पृथक अस्तित्व (मिथ्या अहं) को समष्टि अहं में खो देता हूँ या लीन कर देता हूँ,तभी मैं निःस्वार्थी हूँ और नैतिक हूं। इसका अर्थ यह हुआ है कि मैं सत्य की पूर्णता ( totality of Truth) को स्वीकार करता हूं। नैतिकता के इसी समझ की सहायता से अब हमलोग आसानी से उचित और अनुचित कर्म में अन्तर (श्रेय-प्रेय, बाबू और बगीचा में विवेक-प्रयोग) कर सकते हैं। और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद जब हम केवल उचित कर्म ही करेंगे तथा उसे बार -बार दुहराते रहेंगे, तो केवल सद्कर्म करने की हमारी आदत पड़ जाएगी। और अच्छे कार्यों से उत्पन्न अच्छी आदतें जब पुरानी होकर जब अच्छी प्रवृत्तियों में परिणत हो जायेंगी; तो उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का समुदाय (agglomeration, संकुलन) हमें एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बना देगा। इसलिए, नैतिक कार्यों की बार-बार पुनरावृत्ति ही चरित्र निर्माण की प्रक्रिया है।
स्वामी विवेकानंद ने हमलोगों को - 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने ' या मनुष्य को ईश्वर समझकर सेवा करने के लिए कहा था । श्रीरामकृष्ण देव ने एक बार स्वयं से प्रश्न किया था कि ' क्या केवल बंद-आंखों से ही ध्यान होना संभव है? उन्हें उत्तर प्राप्त हुआ था कि, नहीं तुम खुली आँखों से भी ध्यान कर सकते हो ! वे दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति की पूजा किया करते थे। लेकिन उन्होंने स्वयं से पूछा , क्या मैं केवल एक मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकता हूँ ? उन्हें उत्तर मिला , यदि तुम एक पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकते हो , तो रक्त -मांस के बने जीवन्त मनुष्यों में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं कर सकते ? इसलिए, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द दोनों ने इस महान सत्य की शिक्षा दी है कि " मानव-सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है" ना कि आत्म-सुख का लालच या घोर स्वार्थपरता। 'त्याग और सेवा '-या 'ईश्वर बुद्धि से मनुष्य की सेवा ' ही चरित्र निर्माण का मार्ग है। स्वामी जी के शब्दों में, 'अपने चरित्र -कमल को पूर्णरूपेण खिला लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ' और हमें वैसा ही करने का प्रयास करना चाहिए।
व्यावहारिक तौर पर हम देखते हैं कि हमारे कर्मों से ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। यदि हमारे कर्मों के ऊपर विवेक-विचार का नियंत्रण हो तब हमारे द्वारा अच्छे कर्म होते हैं, जो अच्छे चरित्र के निर्माण में सहायक बन जाते हैं। उचित और अनुचित कर्म के बीच विवेक-विचार करना हमारे मन का कार्य है। अत: अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए , उसको एकाग्र करने या मनःसंयोग का अभ्यास ही चरित्र निर्माण का प्राथमिक कार्य है। क्योकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प हम मन में ही लेते हैं और सद -असद कर्मों के बीच अन्तर भी मन की सहायता से ही करते हैं। इसलिए मन के ऊपर नियंत्रण और विवेक -प्रयोग की सहायता से अच्छे कर्मों को लगातार दोहराते हुए हम अच्छी आदतें, अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण कर सकते हैं। और अच्छी प्रवृत्तियों का समुदाय ही अच्छा चरित्र है, अतएव हम कह सकते हैं चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही हम सभी की उदात्त नियति है। इसलिए, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि 'तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो।'
हमारा भविष्य किसी अज्ञात जगह से नियंत्रित होने वाले किसी भाग्य नामक असाधारण वस्तु पर निर्भर नहीं करता; यह हमारे पौरुष तथा आत्मविशास पर निर्भर करता है। इसलिए स्वामी जी ने कहा था - " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है , उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' में ही सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सुसमाचार है। " ( सूक्तियाँ एवं सुभाषित : ८.१३१ ) ["The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." (Sayings and Utterances-8.16)]
उन्होंने प्रत्येक युवा को अपने- आप पर विश्वास करने, अपने पौरुष पर और अपने प्रयत्न क्षमता पर विश्वास रखने का सन्देश दिया था। स्वामीजी सभी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते है - अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट करो , अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करो और उस भाग्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नततर, महानतम गौरवशाली भविष्य की ओर ले चलो !
" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। आत्मविश्वास रखो। तुम्हीं लोग तो पूर्वकाल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ , तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ; उठ उठ, काम में लग जा , कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य तैयार करने में लाख जन्म लेने पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। " -स्वामी विवेकानन्द
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" श्री रामकृष्ण - स्वामी विवेकानन्द वेदान्त (समाधि जन्य ज्ञान -प्रेम-भक्ति) शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' द्वारा भारत के युवाओं को विरासत में सौंपा हुआ कार्य- "भारत का कल्याण !" 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' और उसका मार्ग >व्यावहारिक वेदान्त ! "'एक नया युवा आंदोलन' -8. The Task and the Way " Koderma camp 6-7 August 2022]
भगवान कपिल -देवहुति परम्परा में समाधि जन्य ज्ञान -प्रेम-भक्ति का स्वरुप क्या है ? "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"-(यजुर्वेद 36/18 ) Gujarat Camp and Seminar ! 21sept to 26 Sept 2022]
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