विवेकानंद का वेदांत दर्शन:
साभार - @ https://www.khabardailyupdate.com/2023/02/Vedanta-swami-vivekananda.html
" व्यावहारिक जीवन में वेदान्त " में स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा लन्दन में 'व्यावहारिक वेदान्त' पर दिये गये चार भाषणों का संग्रह है। साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि Vyavaharik Jivan Me Vedanta केवल सिद्धान्तों का ही समुच्चय है और दैनिक कर्मजीवन के पहलुओं के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है — वह केवल बुद्धिवादियों के मस्तिष्क की चहारदीवारी तक ही सीमित है, अतः व्यावहारिक जीवन में इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है।
परन्तु इन भाषणों द्वारा स्वामीजी ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि किस प्रकार वेदान्त अत्यन्त व्यावहारिक है तथा वह मनुष्य को किस प्रकार अपने सर्वागीण जीवन-गठन में सहायता प्रदान करता है। इन भाषणों में स्वामीजी ने 'Vedanta' के प्रमुख सिद्धान्तों की आलोचना करते हुये उनको दैनिक जीवन में व्यवहृत करने का मार्ग स्पष्टरूपेण निर्दिष्ट कर दिया है। उन्होंने दिखला दिया है कि किस प्रकार राजा से लेकर रंक तक सभी समान रूप से जीवन के सभी क्षेत्रों में इससे लाभान्वित हो सकते हैं और इस तरह उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वेदान्त की उपादेयता सार्वभौम है। हम आशा करते हैं, जनता इस लेख के प्रकाशन से अत्यधिक लाभान्वित होगी। तो आइये जानते है- स्वामी विवेकानंद के अनुसार वेदांत दर्शन क्या है?
व्यवहारिक जीवन में वेदांत
[Vyavaharik Jivan Me Vedanta]
प्रथम व्याख्यान
(लंदन में, 10 नवम्बर, 1896 को दिया हुआ भाषण )
Vedanta Chapter-1: बहुत से लोगों ने मुझसे व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-दर्शन की उपयोगिता पर कुछ बोलने के लिए कहा है। मैं आप लोगों से पहले ही कह चुका हूँ कि सिद्धान्त बिलकुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है। यदि उसे कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। अतएव, वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक बनना ही पड़ेगा। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा। केवल यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिटाना पड़ेगा क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है- वेदान्त कहता है कि एक ही 'प्राण' सर्वत्र विद्यमान है। धर्म के सभी आदर्श जीवन के सभी अंशों के नींवरूप बनें, वे हमारी प्रत्येक चिन्ता के भीतर प्रवेश करें और कार्य में भी उन्हीं का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता रहे।
मैं क्रमश: व्यावहारिक जीवन पर वेदान्त के प्रभाव के बारे में ही कहूँगा। किन्तु ये व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं, अतः पहले हमें वेदान्त-सिद्धान्त की आलोचना करनी होगी। हमें यह जानना है कि ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्वतों की गुफाओं और घने जंगलों में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाज में भी कार्यान्वित हुए हैं। इन सिद्धान्तों में एक और भी विशेषता है, और वह यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फल स्वरूप उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं वे ही राजसिंहासन पर बैठनेवाले राज राजर्षि (राजा +ऋषि) इनके प्रणेता हैं।
आरुणि ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु की कथा छांदोग्य उपनिषद में है। ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे। श्वेतकेतु का लालन-पालन वन में ही हुआ, किन्तु वे पांचाल देश के राजा प्रवाहन जैवलि के पास गये। राजा ने उनसे पूछा "मरते समय प्राणी इस लोक से किस प्रकार गमन करता है, क्या यह तुम जानते हो? - "नहीं।" "किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, जानते हो? " - "नहीं।" 'पितृयान' और 'देवयान' के विषय में भी कुछ जानते हो?"-आदि आदि। इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये। श्वेतकेतु किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके। तब राजा ने कहा, “तुम कुछ नहीं जानते।"
बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया। पिता ने कहा, "मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता। अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता?" तब पिता-पुत्र दोनों राजा के पास गये और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा, "यह विद्या- यह ब्रह्मविद्या केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, ब्राह्मणों को इसका कभी ज्ञान न था।" जो हो इसके बारे में वे जो कुछ जानते थे इन दोनों को शिक्षा देने लगे।
इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया, किन्तु उसके सर्वोत्कृष्ट भिन्न भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये। लाखों मनुष्यों के शासक स्वतन्त्र राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है? किन्तु साथ ही वे राजागण राजा होते हुए राजर्षि भी होते थे, और गम्भीर विचारशील भी होते थे। इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि यह वेदान्त दर्शन पूर्णतः व्यावहारिक है, और इसके आलोक में - युवाओं को 'जीवन गठन' तथा 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी' शिक्षा दी जा सकती है। परवर्ती काल की भगवद्गीता को तो शायद आप लोगों में से बहुतों ने पढ़ा भी होगा, यह वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्य स्वरूप है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल; जहाँ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दिया। और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर जो मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है, वह है तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसीके बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है। हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता।
यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट हैं। मिटटी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं। और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं। वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है वह अनन्त स्थिरता साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता। हम लोग भी बहुत कुछ देखने-सुनने के बाद यही समझ पाये हैं कि कार्य करने के लिए इस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है।
लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम कर्म करने के लिए जो एक प्रकार का आग्रह-आवेग अनुभव करते हैं, वह यदि न रहे; तो हम कार्य कैसे करेंगे? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है, जितनी अभिज्ञता बढ़ती जा रही है, उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है। कार्य के भीतर आग्रह का आवेग जितना ही कम रहता है, उतना ही उसे उत्कृष्ट ढंग से पूर्ण किया जा सकता है। हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब हम लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं, तब अपनी शक्ति का विशेष अपव्यय करते हैं, अपनी स्नायुसमूह को विकृत कर डालते हैं, मन को चंचल बना डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं। हमारी जिस अंतर्निहित शक्ति को कार्यरूप में परिणत होना उचित था, वह वृथा भावुकता मात्र में रूपांतरित होकर क्षय हो जाती है।
जब मन अत्यन्त शान्त और एकाग्र रहता है, केवल तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। यदि तुम जगत् के बड़े बड़े कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी पढ़ो तो देखोगे कि वे अद्भुत शान्त प्रकृति के लोग थे। कोई भी वस्तु उनके चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी। इसीलिए जो व्यक्ति बहुत जल्दी क्रोध में आ जाता है, वह कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर पाता, और जो किसी प्रकार भी क्रोध नहीं करता वह सबसे अधिक काम कर सकता है।जो व्यक्ति क्रोध, घृणा आदि किसी शत्रु के वश में हो जाता है वह कभी कुछ भी व्यावहारिक नहीं कर पाता है। केवल शान्त, क्षमाशील, स्थिरचित्त व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है।
वेदान्त (चार महावाक्य- या 'Be and Make') हमें आदर्श का उपदेश देता है, और हम यह भी जानते हैं कि आदर्श वास्तविक की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चतर होता है। हम लोगों के जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। एक है आदर्श का सामंजस्य अपने वर्तमान जीवन से करना; और उसे जीवनोपयोगी बनाने के लिए आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवन के स्तर पर खींच लाना। और दूसरी है जीवन को आदर्श के अनुरूप उच्च बनाने के लिए अपने जीवन का गठन करना। इन दोनों का भेद भलीभाँति समझ लेना चाहिए -क्योंकि , पहली प्रवृत्ति - अर्थात आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवनस्तर पर खींच लाने की प्रवृत्ति हमारे जीवन का एक प्रमुख प्रलोभन है। मैं सोचता हूँ कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ (जल्दी से जल्दी दौलतवान बन सकता हूँ।) लेकिन शायद उसका अधिकांश ही बुरा है, और उसके पीछे वासना, क्रोध, घृणा अथवा लालच या स्वार्थपरता का आवेग ही विद्यमान है। अब मान लो किसी व्यक्ति ने (C-IN-C नवनीदा जैसे किसी जीवनमुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता ने) मुझे किसी विशेष आदर्श (स्वामी विवेकानन्द) के अनुरूप अपना जीवन गठन करने का उपदेश दिया,सद चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का सम्बन्ध में उपदेश - 'Be and Make' दिया । तो निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि 'स्वार्थपरता' तथा 'आत्मसुख' का त्याग करो। में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है। किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ, 'यह है मेरा आदर्श' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो जाता हूँ। इसी प्रकार 'शास्त्रीय' बात को लेकर ['Be and Make' या मनुष्य बनो और बनाओ के अर्थ को लेकर] लोग आपस में झगड़ते रहते हैं और कहते हैं कि जो मैं समझता हूँ वही शास्त्रीय है; तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है।
'व्यवहार्य' (practical) शब्द को लेकर भी ऐसा ही अनर्थ होता रहता है। जिस बात को मैं कार्यरूप में परिणत करने योग्य समझता हूँ, जगत् में एकमात्र वही व्यवहार्य है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ, यदि मैं एक दूकानदार हूँ तो सोचता हूँ कि संसार में दूकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं चोर (भ्रष्टाचारी) हूँ तो चोरी (भ्रष्टाचार) के बारे में भी यही सोचता हूँ। आप लोग जानते ही हैं कि हम सब इस 'व्यवहार्य' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए करते हैं जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है, और जो हमसे किये जा सकते हैं। इसी कारण मैं तुम लोगों को यह स्पष्ट कर देनाचाहता हूँ कि यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यवहार्य (practical) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से।
वेदान्त का आदर्श कितना ही उच्च क्यों न हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यही आदर्श ठीक ठीक आदर्श है। एक शब्द में वेदान्त का उपदेश है "तत्त्वमसि' तुम्हीं वह ब्रह्म हो' और इसके समुदय उपदेश की अन्तिम परिणति यही है। अनेक प्रकार के बौद्धिक वाद-विवाद और विस्तार के पश्चात् तुम्हें इसमें यही सिद्धान्त मिलेगा कि -'मानवात्मा शुद्धस्वभाव और सर्वज्ञ है।' आत्मा के सम्बन्ध में जन्म अथवा मृत्यु की बात करना भी कोरी विडम्बना मात्र है। आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु; मैं मरूँगा अथवा मरने में डर लगता है, यह सब केवल कुसंस्कार मात्र है। और मैं यह कर सकता हूँ, यह नहीं कर सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मैं सब कुछ कर सकता हूँ । वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है।
जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह एक भीषण विचार है, इसमें कोई सन्देह नहीं; और हममें अधिकांश व्यक्ति यही सोचते हैं कि, वेदान्त के महावाक्यों को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता; किन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। इसकी उपलब्धि में स्त्री -पुरुष का भेद नहीं है, बालक- बालिका का भेद नहीं है, जाति या धर्म का भेद नहीं है- और मानवमात्र ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं।- कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, कारण, वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से विद्यमान भी है।
हम सबों में ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही अन्तर्निहित है। हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' 'अन्धकार' कहकर चीत्कार करते हैं। हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। वर्तमान भी है।' अन्धकार कभी था ही नहीं, अपवित्रता कभी थी ही नहीं, हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं।
इस प्रकार वेदान्त, केवल यही नहीं कहता कि 'आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है' बल्कि यह भी कहता है कि वह आदर्श तो हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है ! और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है। और जो कुछ (दुर्बलता, अपवित्रता आदि) हम देखते हैं वह सम्पूर्ण मिथ्या है। जब तक तुम कहते हो, 'मैं एक क्षुद्र मर्त्य जीव हूँ ' तब तब तुम झूठ बोलते हो ; और यही बोल-बोल कर तुम मानो सम्मोहन विद्या (hypnotism) के जोर से अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो।
वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, वेदान्त भ्रम या सम्मोहन-(hypnotism) स्वीकार करता है। और वेदान्त कहता है कि सब से बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना– यह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदि आदि। कारण, जब तुम इस प्रकार सोचने लगते हो, तभी तुम मानो बन्धन-शृंखला में एक कड़ी और जोड़ देते हो, अपनी आत्मा पर सम्मोहन की एक पर्त और जमा देते हो। (अर्थात अपनी आत्मा को पहले से और भी अधिक मायाजाल में फँसा लेते हो।)
अतएव, जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं। हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि, " वेदान्त में हमारे इस वर्तमान सम्मोहित जीवन (hypnotized life) का, हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्या जीवन का, जिसमें आदर्श के साथ समझौता करने वाली वृत्ति हो, का कभी अनुमोदन नहीं किया गया है। बल्कि, उसका तो परित्याग करने के लिए कहा गया है और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य-जीवन, शाश्वत-जीवन (true life, eternal life) सदा वर्तमान है, वह प्रकाशित होगा, व्यक्त होगा । यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया, किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है उसका वही पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है। आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता, मुक्त स्वभाव, प्रेम और ऐश्वर्य, हम लोगों में पहले से ही विद्यमान है।
वेदान्ती यह भी कहते हैं कि ऐसा नहीं कि यह केवल बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में ही उपलब्ध हो सकता है, वरन् हम यह देख ही चुके हैं कि पहले जिन लोगों ने इस सत्यसमूह (महावाक्यों) का आविष्कार किया था, वे बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे, साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे; वरन् वे लोग राजर्षि थे। अर्थात ऐसे व्यक्ति थे जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे, जिन्हें सैन्य परिचालन करना पड़ता था, जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजा वर्ग का हानि लाभ देखना होता था। इसके अतिरिक्त उस समय के राजागण ही सर्वेसर्वा सर्वेसर्वा होते थे- आजकल जैसे कठपुतली नहीं। फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उसको जीवन में परिणत करने और मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। अतएव, उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है, क्योंकि हमारा जीवन उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक कर्महीन है। हम अपेक्षाकृत सारे समय खाली ही रहते हैं, हमारे पास करने को बहुत कम रहता है , उन राजाओं की अपेक्षा हमें कम व्यस्त (busy) रहना पड़ता है; अतः हमारे लिए उस सत्य का साक्षात्कार न कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है।
पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों के कर्मव्यस्तता (busyness) की तुलना में, हमारी कर्मव्यस्तता तो कुछ भी नहीं है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित विराट सेना के परिचालक अर्जुन की जितनी कर्मव्यस्तता रही होगी, उसकी तुलना हमारी कर्मव्यस्तता बिल्कुल नगण्य है। तब भी इस युद्ध कोलाहल के बीच में भी, वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने को समय पा सके- इसीलिए हमारे इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में (relatively free and comfortable life में ) हमें उतना अवश्य कर सकना चाहिए।
हम लोग यदि विवेक-पूर्ण ढंग से समय बितायें तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं, उससे हम लोगों में से अनेक के पास अधिक समय है। हम लोगों को जितना अवकाश है, उसमें यदि हम सचमुच चाहें तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए। हमारे जीवन में सब से बड़ी विपत्ति की आशंका ऐसे व्यक्तियों से है, जो मुफ्त की सलाह देने में लगे रहते हैं। वे हमारे व्यर्थ के अभावों और वासनाओं को पूरा करने के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं। और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं हो सकता , किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता। हमें अपने प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ यथासम्भव समन्वित करना पड़ेगा, और क्रमशः अपने वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा।
कारण, तुम्हें सदा स्मरण रखना होगा कि वेदान्त का मूल सिद्धान्त यह एकत्व अथवा अखण्ड भाव है। द्वित्व कहीं नहीं है दो प्रकार का जीवन अथवा जगत् भी नहीं है। तुम लोग देखोगे कि वेद पहले स्वर्गादि के विषय में कहते हैं, किन्तु अन्त में जब वे अपने दर्शन के उच्चतम आदर्श के विषय में कहना आरम्भ करते हैं तो वे उन सब बातों को बिलकुल त्याग देते हैं। एक मात्र जीवन है, एक मात्र जगत् है, एक मात्र सत है। सब कुछ वही एक (सच्चिदानन्द) सत्तामात्र हैं; भेद केवल परिमाण का है, प्रकार का नहीं। भिन्न भिन्न जीवन के बीच में अन्तर प्रकारगत नहीं है। वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशुगण मनुष्यों से सम्पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है।
कुछ व्यक्तियों ने वैज्ञानिक शोध के निमित्त चीड़फाड़ करने के लिए, मारे जाने वाले पशुओं की हत्या का विरोध करने के लिए, दयावश एक संस्था - 'Anti Vivisection Society' (एंटी विविसेक्शन सोसाइटी, या जीवच्छेदन निवारणी सभा) स्थापित की है। मैंने एक दिन इस सभा के एक सदस्य से पूछा, "भाई, आप भोजन के लिए पशु हत्या को सम्पूर्णतया न्यायसंगत मानते हैं, किन्तु वैज्ञानिक परीक्षा के लिए दो एक पशुओं की हत्या के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" उसने उत्तर दिया, "जीवित की चीरभाड़ बहुत भयानक कार्य है, किन्तु पशुगण हमारे भोजनार्थं ही बनाये गये हैं।" कैसी अजीब बात है! वास्तव में पशुगण भी तो उसी अखण्ड सत्ता के अंशरूप हैं। यदि मनुष्य का जीवन अनन्त है, तो पशु -जीवन भी उसी प्रकार है। प्रभेद केवल परिमाणगत है, प्रकारगत नहीं। विचारपूर्वक देखने पर यह अमीबा (amoeba) और मैं (ईशा) एक ही हूँ; अन्तर केवल पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में परिणाम का है, और उस सर्वोच्च सत्ता की दृष्टि से देखने पर निम्नतम पशु (100% Selfish) और उच्चतम मनुष्य (ईश्वर, ईशा,बुद्ध,श्रीरामकृष्ण) "100% Unselfishness" सभी सामान हैं।
मनुष्य एक तिनके और पौधे में बहुत अन्तर देख सकता है, किन्तु यदि तुम खूब ऊँचे चढ़कर देखो तो यह तिनका तथा एक बड़ा वृक्ष दोनों ही समान दिखेंगे। इसी प्रकार उस उच्चतम सत्ता के दृष्टिकोण से निम्नतम पशु और उच्चतम मनुष्य सभी समान हैं। और यदि तुम एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो, तो तुमको पशुओं से लेकर उच्चतम प्राणी तक समत्व मानना पड़ेगा। जो ईश्वर अपनी मनुष्य -सन्तान के प्रति पक्षपाती है, और 'पशु' नामक अपनी सन्तान के प्रति निर्दय है, वह तो फिर दानवों से भी अधम हुआ। इस प्रकार के ईश्वर की उपासना करने की अपेक्षा मुझे सैकड़ों बार मरना भी पसन्द है।मेरा समस्त जीवन इस प्रकार के ईश्वर के विरुद्ध युद्ध में ही बीतेगा। किन्तु वास्तविक ईश्वर ऐसे नहीं हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं वे नहीं जानते कि वे दायित्व बोधहीन और हृदयहीन व्यक्ति हैं; वे क्या कह रहे हैं, यह नहीं जानते।
यहाँ फिर 'व्यावहारिकता' (pragmatism) शब्द गलत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वास्तविक बात यह है कि हम मीट -मुर्गा खाना चाहते हैं, इसीलिए हम (हम बिना लहसुन प्याज का भी) खाते रहते हैं। मैं स्वयं एक कट्टर शाकाहारी (staunch vegetarian) न भी होऊँ, किन्तु मैं शाकाहार का आदर्श समझता हूँ। जब मैं मांस खाता हूँ, तब जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। परिस्थितिवश उसे खाने को बाध्य होने पर भी मैं यह जानता हूँ कि यह क्रूरता है। शाकाहार के आदर्श (ideal of vegetarianism) को नीचा करके, मुझे अपनी दुर्बलता का समर्थन नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है - मांस न खाया जाय; किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाय, क्योंकि पशुगण भी हमारे भाई हैं। यदि अपने से इतर प्राणियों के बारे में इस प्रकार से सोच सकते हो, तो तुम सब प्राणियों में भ्रातृभाव की ओर बहुत कुछ अग्रसर हो गये हो - उसके पहले विश्वबन्धुत्व की बात करना व्यर्थ है। तुम संसार में देखोगे कि इस प्रकार का उपदेश बहुत लोग पसन्द नहीं करते, क्योंकि उनसे वह वास्तव को छोड़कर आदर्श की ओर जाने के लिए कहता है। किन्तु यदि तुम एक ऐसी बात कहो जिससे उनके वर्तमान कार्य का वर्तमान आचरण का समर्थन होता हो तो वे उसे तुरन्त 'व्यावहारिक' मान लेंगे ।
मनुष्य स्वभाव में 'Comfort Zone' (आरामदायक स्थिति) में रहने की भारी प्रवृत्ति दीख पड़ती है। हम लोग उसके आगे एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहते। जिस प्रकार हिमालय पर बर्फ में जमे व्यक्तियों के सम्बन्ध में पढ़ा जाता है, वैसा ही मनुष्य जाति के बारे में भी कहा जा सकता है। सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है। यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है, तो वह कहता है, 'मुझे सोने दो-बर्फ में सोने से बड़ा आराम मिलता है!' और उसी दशा में उसकी मृत्यु हो जाती है। हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है। सारा जीवन हमलोग भी यही किये जा रहें हैं- सिर से लेकर पैर तक समूचे बर्फ में जमते जा रहे हैं, तो भी हम लोग सोना चाहते हैं। अतएव, आदर्श अवस्था में पहुँचने के लिए सदा संघर्ष करते रहो। यदि कोई व्यक्ति आदर्श को तुम्हारी निम्न भूमि में खींच लाये, यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता, तो उसकी बात कानों में भी न पड़ने दो। मेरे लिए वह नितांत अव्यवहारिक (impractical) धर्म होगा।
किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये जो कि जीवन का सर्वोच्च आदर्श दर्शाता है, तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ। जब कभी कोई व्यक्ति भोगपरक दुर्बलताओं और निस्सार बातों की वकालत करे, तो उससे सावधान रहो। एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे बन जाते हैं, उस पर भी यदि कोई आकर हमें उस प्रकार की शिक्षा दे और यदि हम उस उपदेश का अनुसरण करें तो हम कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते।
मैंने ऐसी बातें बहुत देखी हैं, जगत् के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है, और मेरा देश ऐसा देश है जहाँ सम्प्रदाय एकुकुरमुत्तों के समान बढ़ते रहते हैं। प्रतिवर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते हैं। किन्तु मैंने यही देखा है कि - जो संप्रदाय भोगाकांक्षी मानव का सत्याकांक्षी मानव से समझौता कराने की चेष्टा नहीं करते, वे ही उन्नति करते हैं। और जहाँ परमोच्च आदर्श का झूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्य करने की– ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खींच लाने की मिथ्या चेष्टा रहती है, वहीं क्षय का आरम्भ हो जाता है। मनुष्य को सांसारिक दासता, इन्द्रियों की गुलामी, या पशु के स्तर पर नहीं घसीटना चाहिए, उसे ईश्वर के स्तर तक उठने में सहायता करनी चाहिए।
इस प्रश्न का एक और पहलू है। हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है। प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत- पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत- जीवन और मृत्यु के बीच में भेद केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं; कारण, वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं। सब वही एक है, जो अपने को विचार , जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है — और उनमें अंतर केवल परिमाण का है। अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है। किसी की भी निन्दा मत करो। किसी की सहायता कर सकते हो तो करो, नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो, उन्हें आशीर्वाद दो, अपने रास्ते जाने दो। गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती। इस प्रकार से कभी किसी की उन्नति नहीं होती। दूसरे की निन्दा करने से केवल अपनी शक्ति का क्षय होता है। आलोचना और निन्दा हम लोगों के वृथा शक्ति क्षय का उपाय मात्र है। क्योंकि अन्त में हम देखते हैं कि सभी लोग एक ही वस्तु देख रहे हैं , कम-बेश उसी आदर्श (निःस्वार्थता) की ओर पहुँच रहे हैं और हम लोगों में जो अंतर है , वे केवल अभिव्यक्ति के हैं।
उदाहरणार्थ 'पाप' की बात लो। मैं अभी चर्चा कर रहा था कि वेदान्त पाप को स्वीकार नहीं करता, लेकिन सम्मोहन (hypnotism) स्वीकार करता है, जिसके कारण मनुष्य भूलें करता है । दोनों वास्तव में एक ही बात हैं केवल एक सकारात्मक है, दूसरी नकारात्मक है। एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है, किन्तु उस ओर ध्यान मत दो, हम लोगों को उन्नति करनी है। जब मनुष्य पहले पहल जन्मा तभी उसका रोग क्या है, जान लिया गया। सभी अपना अपना रोग जानते हैं किसी दूसरे को बतलाने की आवश्यकता नहीं होती। सारे समय- हम रोगी हैं (हम भेंड़ हैं )-यही सोचते रहने से हम स्वस्थ नहीं हो सकते, उसके लिए औषध (विवेक-प्रयोग) आवश्यक है। हम लोग बाह्य जगत् के सामने भले ही कपटाचरण करें, परन्तु अपने अन्दर ही अन्दर हम अपनी दुर्बलता जानते हैं।
किन्तु वेदान्त कहता है, केवल दुर्बलता स्मरण कराने से अधिक उपकार नहीं होगा– उसका उपचार करो। यह कहते रहना कि 'मैं रोगग्रस्त हूँ'– रोग की औषध या उपचार नहीं है। मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। वेदान्त मनुष्य को पापी न बतलाकर ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है, "तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है।" जिसे तुम 'पाप' कहते थे वह तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति का निम्नतम प्रकाश है; अब अपनी आत्मा को उच्चतर भाव (अहंब्रह्मास्मि) में प्रकाशित करो। एक बात हम सब को सदैव याद रखनी चाहिए और वह यह कि हम सब कुछ कर सकते हैं। कभी 'नहीं' मत कहना, "मैं नहीं कर सकता" यह कभी न कहना, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश, काल (space and time) भी कुछ नहीं हैं। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो।
अब तक जो कुछ कहा गया है, अवश्य वह केवल नीतिशास्त्र के सिद्धान्त हैं। अब हमें सिद्धान्त की कोटि से उतरकर, जीवन की विशेष- विशेष अवस्थाओं में वेदान्त का प्रयोग करना पड़ेगा। हमें देखना होगा कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में, और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में सहायता नहीं दे सकता, तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं— फिर तो वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त होकर रह जायेगा। धर्म यदि समग्र मानवजाति का कल्याण करना चाहता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक अवस्था में कर सकने में तत्पर और सक्षम हो - चाहे गुलामी हो या आजादी, घोर पतन हो या अत्यन्त पवित्रता, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर सकने में समर्थ होना चाहिये। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त (चार महावाक्य ) अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो, लोक-कल्याण काम में आ सकेंगे।
आत्मविश्वास का आदर्श ही मानवजाति के लिए सब से अधिक कल्याणप्रद हो सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और वह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत् में जितना दुःख कष्ट है उसका अधिकांश गायब जाता। समग्र मानवजाति के इतिहास में सभी श्रेष्ठ नर नारियों के बीच में यदि कोई भावविशेष फलीभूत हुआ है तो वह है यही आत्मविश्वास। वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे और वे महान बने भी। मनुष्य (शराबी ?) कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह इस अवस्था से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है, और अपने ऊपर विश्वास करना सीखता है। किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है।आत्मविश्वास सीखने के लिए हमें (विवेकी मनुष्य को भी ) इतना दुःख-कष्ट क्यों भोगना चाहिए ?
मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है, वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थित तथा अभाव के कारण ही है यह थोड़ी खोज करने से ही समझ में आ सकता है। इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में ही इसे देखा है और अभी भी देखता हूँ और जितनी आयु बढ़ती जा रही है उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। किन्तु नया धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता, अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र 'मै' (व्यष्टि अहं) को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। इस आत्मविश्वास का अर्थ है-सब के प्रति विश्वास, क्योंकि, तुम सभी प्राणीयों के साथ एक और अभिन्न हो। आत्मप्रीति का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम, क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान आत्मविश्वास जगत को अच्छा बना सकेगा।
यह मेरी ध्रुव धारणा है। वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है जो साहस के साथ कह सकता है, "मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ।" क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर कितनी ऊर्जा, कितनी शक्ति, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? मनुष्य के अन्दर जो जो वस्तुएँ छिपी पड़ी हैं, उन सबका ज्ञान कौन सा वैज्ञानिक प्राप्त कर सकता है? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर है, किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का अति सामान्य अंश ही प्रकाशित हुआ है। अतएव, तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे कितनी महान सम्भावना है, क्या तुम उसे जानते हो ? तुम्हारे अन्दर जो अनन्त शक्ति है, उसका थोड़ा सा अंश ही तुम जानते हो। तुम्हारे पीछे है शक्ति और आनन्द का अपार सागर।
“आत्मा वा अरे श्रोतव्यः"- इस आत्मा के बारे में पहले (पुस्तक से नहीं, गुरुमुख से ?) सुनना चाहिए। दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं 'वह' आत्मा हो। दिन-रात यही भाव अपने में व्याप्त किये रहो- "I am He"; यहाँ तक कि वह तुम्हारे रक्त की प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस-नस में समा जाय। सम्पूर्ण शरीर को एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो --" मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशतिमान्, नित्य ज्योतिर्मय आत्मा हूं ”–दिन-रात यही चिन्तन करते रहो; जब तक कि यह भाव तुम्हारे प्राणों में भिद नहीं जाता। इसी का ध्यान करते रहो - जब तक कि यह भाव तुम्हारे जीवन का अविभाज्य अंग नहीं बन जाता। - और इसी से तुम सभी कर्मों में सफलता प्राप्त कर लोगे। 'हृदय पूर्ण होने पर मुँह बात करता है, हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते है।' अतएव इस प्रकार की अवस्था में ही यथार्थ कार्य सम्पूर्ण हो सकेगा। अपने को इस आदर्श के भाव से ओतप्रोत कर डालो- जो कुछ करो, उसीका चिंतन करते रहो।
तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म परिवर्तित होकर उन्नत देवभावापन्न हो जायेंगे। यदि 'जड़' शक्तिशाली है, तो 'विचार' तो सर्वशक्तिमान् है। इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता , सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा के भाव से पूर्ण बना लो। ईश्वरेच्छा से यदि कुसंस्कार पूर्णभाव तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते तो अच्छा होता। ईश्वरकृपा से यदि हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव से परिवेष्टित न होते तो कितना अच्छा होता ! ईश्वरेच्छा से यदि मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम (इन्द्रियातीत ?) सत्यों को प्राप्त कर सकता तो कितना अच्छा होता! किन्तु उसे इन सब में से होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ।
ये सब बातें मनुष्य को प्रायः भयानक प्रतीत होती हैं । मैं जानता हुँ, बहुत से लोग ये सब उपदेश सुनकर भयभीत हो जाते हैं, किन्तु जो व्यावहारिक स्तर पर अभ्यास करना चाहते हैं, उनके लिए यही पहला पाठ है। अपने को अथवा दूसरे को कभी दुर्बल मत कहना है। यदि कर सको तो जगत का कल्याण करो, पर उसका अनिष्ट न करो। अपने हृदय के अन्दर से यह समझ लो कि तुम्हारे ये क्षुद्र क्षुद्र भाव एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्रार्थना करना केवल कुसंस्कार है। मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो। जो भी उत्तर पाते हो वह अपने हृदय से ही। तुम लोगों में से बहुतों का विश्वास है कि भूत नहीं होते, किन्तु अन्धकार में जाते ही शरीर कछ काँप-सा जाता है। इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह सब भय घुसा दिया गया है।
किन्तु हमें यह अभ्यास करना पड़ेगा कि, समाज का भय, संसार के कहने-सुनने का भय, बन्धु-बान्धवों की घृणा का भय, प्रिय अन्धविश्वासों के नष्ट होने का भय से, यह सब हम दूसरों के मस्तिष्क में नहीं घुसायेंगे। इस प्रवृत्ति को जीत लो। केवल विश्वब्रह्माण्ड का एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है। हजारों साल से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है, और अभी भी कर रहा है। अब तुम्हारी बारी है , और उस परम् सत्य को तुम जान चुके हो। क्योंकि सब ओर से हम यही शिक्षा पाते हैं। केवल दर्शन और मनोविज्ञान ही नहीं, भौतिक विज्ञान भी उसी की घोषणा करता है। क्या ऐसा एक वैज्ञानिक दिखा सकते हो, जो जगत् के एकत्व को अस्वीकृत कर दे? आज कौन अनेक जगतों की बातें कहने का साहस कर सकता है? वह सब कुसंस्कार मात्र है।
केवल एक ही प्राण, एक ही जीवन, एक ही जगत (one soul, one life, one universe) सर्वत्र विद्यमान है, और वही हम लोगों के सामने अनेकवत् प्रतीत होता है। यह अनेकता (diversity) किसी स्वप्न के सदृश है। जिस प्रकार स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। लेकिन स्वप्न में जो देखा जाता है वह सत्य तो नहीं है। एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखायी पड़ता है- विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं। इसी प्रकार यह जगत् पन्द्रह आने (90 %) दुःखरूप और एक आना (10%) सुखरूप जान पड़ता है। हो सकता है कुछ दिन बाद ही यह जगत हमें पन्द्रह आने (90 %) सुखरूप प्रतीत होने लगे तब हम इसे स्वर्ग कहेंगे।
किन्तु सिद्धावस्था प्राप्त होने पर (पूर्णावस्था या 100 % निःस्वार्थपरता प्राप्त होने पर) सत्यान्वेषी के सामने एक ऐसी अवस्था आती है, जब यह सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच (पृथ्वी,सूर्य, चंद्र-पूरा ब्रह्माण्ड) बहुत तेजी से घूमता हुआ) अन्तर्हित (vanish या गायब) हो जाता है - (माँ जगदम्बा की कृपा से व्युत्थान के बाद) यह जगत और अपनी आत्मा साक्षात् ब्रह्मरूप (सच्चिदानन्द-रूप) अनुभव होती है। अतएव, जगत अनेक नहीं हैं, जीवन अनेक नहीं हैं। प्रतीत होने वाला यह 'बहुत्व' उस 'एकत्व' की ही अभिव्यक्ति है है। केवल वह 'एक' (ब्रह्म-शक्ति) ही अपने को बहुरूप में-- जड़, चेतन, मन, विचार अथवा अन्य विविध नाम-रूपों व्यक्त कर रहा है। अतएव, हम लोगों का (Indian Vedantists का भारत-वासी वेदान्तियों का) प्रथम कर्तव्य है - इस ब्रह्मात्मैक्य के विषय में स्वयं को तथा दूसरों को शिक्षा देना।
सम्पूर्ण विश्व इस महान् आदर्श की घोषणा - 'अनेकता में एकता, भारत की विशेषता ' से इस प्रकार प्रतिध्वनित हो कि- उसके सब कुसंस्कार दूर हो जायें। दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- 'तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जागृत हो जाओ। हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, जागो इस प्रकार मोहनिद्रा में पड़े रहना तुम्हें भाता नहीं। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी मत समझो। हे सर्वशक्तिमान्, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरूप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। 'जगत् से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो , कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएं (अपने सियाराम स्वरुप में) प्रकाशित हो उठती हैं , और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य जाति से यही कहते रहो- उसे उसकी शक्ति दिखा दो। ऐसा होने से ही हम अपने दैनन्दिन जीवन में व्यावहारिक वेदान्त का प्रयोग करना सीख सकेंगे।
>>विवेक-प्रयोग > जिसे हम विवेक या सदसत्-विचार कहते हैं उसका- अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए, हमें सत्य की कसोटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान। हमारे जिस-जिस व्यवहार से एकत्व की प्राप्ति होती हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है, घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है। घृणा ही एक मनुष्य को दूसरे से पृथक् करती है- अतएव, वह अनुचित और अनुपयोगी है ; यह एक विनाशिनी शक्ति है, यह पृथक करती है- नाश करती है।
प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं- माँ सन्तान के साथ एकत्व प्राप्त करती है, परिवार नगर के साथ एकत्व प्राप्त करता है, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के साथ यह सम्पूर्ण जगत् ही एकीभूत हो जाता है। क्योंकि प्रेम ही सत है, प्रेम ही भगवान् है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का न्यूनाधिक प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है , किन्तु यह दृष्टिगोचर जगत उसी एक प्रेम का प्रकट रूप है।
अतएव हम लोगों को कुछ करने से पहले विवेक-प्रयोग करके यह देखना चाहिए कि हम जो करने जा रहे हैं, वह कर्म अनेकत्व -विधायक हैं अथवा एकत्व-सम्पादक ? यदि वे अनेकत्व - विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा। और यदि वे एकत्व सम्पादक हैं तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उससे अनेकत्व उत्पन्न होगा या एकत्व ? देखना चाहिए कि वव एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान् शक्ति उत्पन्न करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं , तो ऐसे विचारों का पोषण करना चाहिए- अन्यथा उन्हें अपराध समझकर त्याग देना चाहिए।
वैदान्त का नीतिशास्त्र (ethics) किसी अज्ञय वस्तु (unknowable object) के ऊपर आधारित नहीं है, अथवा वह किसी अज्ञेय तत्व का उपदेश नहीं करता। बल्कि उपनिषदों की भाषा में कहता है - ' जिस ईश्वर को तुम एक अज्ञात ईश्वर मानकर उपासना कर रहे थे, मैं तुम्हें उसी ईश्वर को अपनी आत्मा समझकर उपासना करने का उपदेश कर रहा हूँ। ' तुम जो कुछ जानते हो , आत्मा के द्वारा ही जानते हो। मैं इस कुर्सी को देख रहा हूँ, किन्तु इस कुर्सी को देखने से पहले मुझे अपने स्वयं का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का। इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है , सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान होता है । अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है। आत्मा को हटा लेने से , सम्पूर्ण जगत् ही विलुप्त हो जाता है। आत्मा के द्वारा ही सम्पूर्ण ज्ञान होता है, अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात वस्तु है। यही 'तुम' हो जिसको तुम 'मैं' कहते हो। तुम लोग यह सोचकर आश्चर्य करते हो कि मेरा 'मैं' भला तुम्हारा 'मैं' कैसे हो सकता है ? तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह सान्त 'मैं' किस प्रकार अनन्त असीमस्वरूप हो सकता है? किन्तु वास्तव में यही बात सत्य है।
सान्त 'मैं' (मिथ्या अहं) केवल भ्रम (illusion) मात्र है, गल्प (fiction-कल्पित कथा) मात्र है। उसी अनन्त के के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है, और उसका कुछ अंश इस 'मैं' रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त का अंश है। यथार्थ में असीम कभी ससीम नहीं होता 'ससीम' केवल कहने की बात है। अतएव यह आत्मा नर-नारी, बालक-बालिका, यहाँ तक कि पशु-पक्षी सभी को ज्ञात है। उसको बिना जाने हम क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते। उस सर्वेश्वर प्रभु को बिना जाने हम लोग एक क्षण भी श्वास-प्रश्वास तक नहीं ले सकते, न गतिशील हो सकते, न अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं। वेदान्त का ईश्वर (अपने ह्रदय में विराजमान आत्मा) सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात है; वह कभी कल्पनाप्रसूत नहीं है।
यदि यह, (सबों के ह्रदय में विराजमान आत्मा) प्रत्यक्ष ईश्वर नहीं है तो फिर प्रत्यक्ष ईश्वर और कौन हो सकता है? यदि यह एक व्यावहारिक ईश्वर की शिक्षा नहीं है, तो फिर किस प्रकार से तुम उसकी शिक्षा दे सकोगे ? जो ईश्वर, जो सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है; मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उनसे भी अधिक प्रत्यक्ष और व्यावहारिक ईश्वर कहाँ होगा? क्योंकि, तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् ईश्वर हो, और यदि यह हूँ कि तुम वह नहीं हो तो मैं झूठ बोलता हूँ। सारे समय में इसकी अनुभूति करू या न करूं, फिर भी सत्य यही है। वह एक अखण्ड वस्तुस्वरूप (सच्चिदानन्द) ही , सर्व वस्तुओं की एकता, समस्त प्राणियों का जीवन और सम्पूर्ण अस्तित्व का यथार्थ स्वरूप हैं।
वेदान्त के नीतिशास्त्र के इन सभी विचारों को और भी विस्तारित भाव से कहना पड़ेगा। अतएव थोड़ा सा धैर्य रखना आवश्यक है। पहले ही कह चुका हूँ, हम लोगों को इसकी विस्तृत आलोचना करनी पड़ेगी- और यह भी देखना होगा कि किस प्रकार यह आदर्श निम्नतर आदर्शों से क्रमशः विकसित हुआ है, और किस प्रकार इस एकत्व का आदर्श धीरे धीरे विकसित होकर क्रमशः सार्वजनीन प्रेम रूप में परिणत हो रहा है। विश्वयुद्ध के खतरों से बचने के लिए , इन सब तत्वों का अध्यन आवश्यक है। विश्व के अन्य देश (रूस -यूक्रेन) तो निम्नतम आदर्श से धीरे धीरे ऊपर उठने के इंतजार में रुके नहीं रह सकते। किन्तु हमारे (भारत के राजर्षियों) ऊँचे सोपान पर चढ़ने का फल ही क्या, यदि हम यह सत्य बाद में आने वाली, अपनी भावी पीढ़ियों (नेताओं) को न दे सकें ?
इसीलिए, इसकी आलोचना हमें विशेष रूप से विस्तार पूर्वक करनी होगी और प्रथमतः उसके बौद्धिक पक्ष को स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है। यद्यपि हम जानते हैं कि विचार का विशेष मूल्य नहीं, हृदय ही सब से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि, हृदय के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि केवल जमादार के समान रास्ता साफ कर देती है- वह गौण सहायक है, पुलिस के समान है- किन्तु समाज के सुन्दर परिचालन के लिए पुलिस सकारात्मक आवश्यकता नहीं होती। पुलिस का कार्य केवल शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए उपद्रव को रोकना और अन्याय निवारण करना है। बुद्धि का कार्य भी इतना ही है।
जब तुम इस प्रकार की कोई बौद्धिक पुस्तक पढ़ते हो, तब उन पर अधिकार कर लेने, या आत्मसात कर लेने पर तुम यही सोचते हो कि ' ईश्वर को धन्यवाद है , मैं उसकी बौद्धिकता से बाहर निकल आया। ' इसका कारण यह है कि बुद्धि अन्धी है, उसकी अपनी गतिशक्ति नहीं है, उसके हाथ पैर नहीं हैं।
हृदय (Heart) की भावना (प्रेम) ही वास्तव में कार्य करता है, उसकी गति बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगवान पदार्थ की अपेक्षा द्रुतगामी होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे हृदय में प्रेम की भावना है? यदि है तो तुम उसके द्वारा ही ईश्वर को देखोगे। आज तुम्हारी जितनी भी भावना है, वही प्रबल होती जायेगी- देवभावापन्न होती रहेगी। उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित होगी , और अन्ततः वह हर प्राणी से प्रेम का अनुभव करेगी। प्रत्येक प्राणियों के साथ एकत्व, स्वयं में तथा प्रत्येक अन्य वस्तु में ईश्वर का अनुभव करने लगेगी। किन्तु बुद्धि (Head) चाहे कितनी विकसित हो , यह नहीं कर सकती।" विचित्र रूप से शब्दों की जोड़तोड़, शास्त्र व्याख्या की विभिन्न शैलियाँ -केवल पण्डितों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं, आत्मा की मुक्ति के लिए नहीं।”
तुम लोगों में से जिन्होंने टामस-आ-केम्पिस की 'ईसा-अनुसरण' नामक पुस्तक पढ़ी है वे जानते हैं कि प्रति पृष्ठ में किस प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया है। संसार के प्रायः हर सन्त ने इसी पर जोर दिया है। बुद्धि भी आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं, और भूलें करते हैं। विवेक-प्रयोग शक्ति उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना। वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, वह अधिक कुछ नहीं कर पाती वास्तविक सहायता ह्रदय की भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है। तुम क्या किसी दूसरे के लिए हृदय के अन्तस्तल से अनुभव करते हो? यदि करते हो तो तुम्हारे हृदय में एकत्व का भाव विकसित हो रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम एक बहुत बड़े बुद्धिजीवी भले ही हो सकते हो, किन्तु तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं केवल शुष्क बुद्धि का स्तूप बने रहोगे। और यदि तुम हृदय से सबके प्रति प्रेम का अनुभव करते हो, तो एक पुस्तक न पढ़ सकते पर, कोई भाषा न जानने पर भी, तुम ठीक रास्ते पर चल रहे हो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे।
क्या तुमने विश्व के इतिहास में पैगम्बरों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? बुद्धि से? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिख छोड़ गया है? अथवा न्याय के कूट विचार लेकर कोई पुस्तक लिख गया है? किसी ने ऐसी नहीं किया। वे केवल कुछ थोड़ीसी बातें कह गये हैं। ईसा के समान सहृदय बनो, तुम भी ईसा हो जाओगे, बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। ह्रदय में प्रेम भावना ही जीवन है, प्रेम की भावना ही बल है, प्रेम की भावना ही तेज है— भावना के बिना कितनी ही बद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी।
बुद्धि मानो चलनशक्ति- शून्य अंग प्रत्यंग के समान है। जब भावना उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करती है, तभी वह दूसरे के हृदय को स्पर्श करती है। जगत् में सदा से ऐसा ही होता आया है, अतएव यह विषय तुम्हें खूब याद रखना चाहिए। वैदान्ति नीतिशास्त्र में यह एक सर्वाधिक व्यावहारिक बात है। क्योंकि वेदान्त कहता है तुम सब भावी पैगम्बर हो- तुम सब को पैगम्बर होना ही पड़ेगा। कोई शास्त्र तुम्हारे कार्यों का प्रमाण नहीं, किन्तु तुम्हीं शास्त्रों के प्रमाणस्वरूप हो। कौन ग्रन्थ सत्य की ही शिक्षा देता है, यह तुम किस प्रकार जानते हो? क्योंकि तुम स्वयं सत्यस्वरूप हो, इसीलिए तुम भी ठीक वैसा ही अनुभव करते हो। वेदान्त यही शिक्षा देता है। जगत् के ईसा और बुद्धगणों का प्रमाण क्या है? - यही कि हम तुम भी वैसा ही अनुभव करते हैं इसी कारण हम तुम समझते हैं कि ये सब सत्य हैं।
हम लोगों की पैगम्बर आत्मा (ईश्वरीय आत्मा) ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही, ईश्वर का भी प्रमाण है।यदि तम वास्तविक महापुरुष नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी कोई बात सत्य नहीं। तुम यदि ईश्वर नहीं हो, तो कोई ईश्वर भी नहीं है और कभी होगा भी नहीं। वेदान्त कहता है, इसी आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। हम लोगों में से प्रत्येक को ही पैगम्बर बनना पड़ेगा - और तुम स्वरूपतः वही हो। बस केवल अपनी अनुभूति से यह 'जान ' लो। यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा सोचना ही भयानक नास्तिकता है। यदि पाप नामक कोई वस्तु है, तो यह कहना कि में दुर्बल हूँ, अथवा अन्य कोई दुर्बल है।
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