कुल पेज दृश्य

बुधवार, 31 मई 2023

"व्यवहारिक जीवन में विवेकानन्द-1 " - स्वामी विवेकानंद, 'प्रथम व्याख्यान' [Swami Vivekananda: भाषा -हिन्दी | Vedanta Chapter-1]

 विवेकानंद का वेदांत दर्शन: 

साभार - @ https://www.khabardailyupdate.com/2023/02/Vedanta-swami-vivekananda.html

" व्यावहारिक जीवन में वेदान्त " में स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा लन्दन में 'व्यावहारिक वेदान्त' पर दिये गये चार भाषणों का संग्रह है। साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि Vyavaharik Jivan Me Vedanta केवल सिद्धान्तों का ही समुच्चय है और दैनिक कर्मजीवन के पहलुओं के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है — वह केवल बुद्धिवादियों के मस्तिष्क की चहारदीवारी तक ही सीमित है, अतः व्यावहारिक जीवन में इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है। 

परन्तु इन भाषणों द्वारा स्वामीजी ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि किस प्रकार वेदान्त अत्यन्त व्यावहारिक है तथा वह मनुष्य को किस प्रकार अपने सर्वागीण जीवन-गठन में सहायता प्रदान करता है। इन भाषणों में स्वामीजी ने 'Vedanta' के प्रमुख सिद्धान्तों की आलोचना करते हुये उनको दैनिक जीवन में व्यवहृत करने का मार्ग स्पष्टरूपेण निर्दिष्ट कर दिया है। उन्होंने दिखला दिया है कि किस प्रकार राजा से लेकर रंक तक सभी समान रूप से जीवन के सभी क्षेत्रों में इससे लाभान्वित हो सकते हैं और इस तरह उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वेदान्त की उपादेयता सार्वभौम है। हम आशा करते हैं, जनता इस लेख के प्रकाशन से अत्यधिक लाभान्वित होगी। तो आइये जानते है- स्वामी विवेकानंद के अनुसार वेदांत दर्शन क्या है?

व्यवहारिक जीवन में वेदांत 

[Vyavaharik Jivan Me Vedanta]

प्रथम व्याख्यान

(लंदन में, 10 नवम्बर, 1896 को दिया हुआ भाषण ) 

Vedanta Chapter-1: बहुत से लोगों ने मुझसे व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-दर्शन की उपयोगिता पर कुछ बोलने के लिए कहा है। मैं आप लोगों से पहले ही कह चुका हूँ कि सिद्धान्त बिलकुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है। यदि उसे कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। अतएव, वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक बनना ही पड़ेगा। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा। केवल यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिटाना पड़ेगा क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है- वेदान्त कहता है कि एक ही 'प्राण' सर्वत्र विद्यमान है। धर्म के सभी आदर्श जीवन के सभी अंशों के नींवरूप बनें, वे हमारी प्रत्येक चिन्ता के भीतर प्रवेश करें और कार्य में भी उन्हीं का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता रहे।

मैं क्रमश: व्यावहारिक जीवन पर वेदान्त के प्रभाव के बारे में ही कहूँगा। किन्तु ये व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं, अतः पहले हमें वेदान्त-सिद्धान्त की आलोचना करनी होगी। हमें यह जानना है कि ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्वतों की गुफाओं और घने जंगलों में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाज में भी कार्यान्वित हुए हैं। इन सिद्धान्तों में एक और भी विशेषता है, और वह यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फल स्वरूप उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं वे ही राजसिंहासन पर बैठनेवाले राज राजर्षि (राजा +ऋषि) इनके प्रणेता हैं

आरुणि ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु की कथा छांदोग्य उपनिषद में है। ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे। श्वेतकेतु का लालन-पालन वन में ही हुआ, किन्तु वे पांचाल देश के राजा प्रवाहन जैवलि के पास गये। राजा ने उनसे पूछा "मरते समय प्राणी इस लोक से किस प्रकार गमन करता है, क्या यह तुम जानते हो? - "नहीं।" "किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, जानते हो? " - "नहीं।" 'पितृयान' और 'देवयान' के विषय में भी कुछ जानते हो?"-आदि आदि। इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये। श्वेतकेतु किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके।  तब राजा ने कहा, “तुम कुछ नहीं जानते।" 

बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया। पिता ने कहा, "मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता। अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता?" तब पिता-पुत्र दोनों राजा के पास गये और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा, "यह विद्या- यह ब्रह्मविद्या केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, ब्राह्मणों को इसका कभी ज्ञान न था।" जो हो इसके बारे में वे जो कुछ जानते थे इन दोनों को शिक्षा देने लगे। 

इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया, किन्तु उसके सर्वोत्कृष्ट भिन्न भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये। लाखों मनुष्यों के शासक स्वतन्त्र राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है? किन्तु साथ ही वे राजागण राजा होते हुए राजर्षि भी होते थे, और गम्भीर विचारशील भी होते थे। इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि यह वेदान्त दर्शन पूर्णतः व्यावहारिक है, और इसके आलोक में - युवाओं को 'जीवन गठन' तथा 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी' शिक्षा दी जा सकती है। परवर्ती काल की भगवद्गीता को तो शायद आप लोगों में से बहुतों ने पढ़ा भी  होगा, यह वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्य स्वरूप है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल; जहाँ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दिया। और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर जो मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है, वह है तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसीके बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है। हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। 

यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट हैं। मिटटी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं। और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं। वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है वह अनन्त स्थिरता साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता। हम लोग भी बहुत कुछ देखने-सुनने के बाद यही समझ पाये हैं कि कार्य करने के लिए इस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है। 

लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम कर्म करने के लिए जो एक प्रकार का आग्रह-आवेग अनुभव करते हैं, वह यदि न रहे; तो हम कार्य कैसे करेंगे? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है, जितनी अभिज्ञता बढ़ती जा रही है, उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है। कार्य के भीतर आग्रह का आवेग जितना ही कम रहता है, उतना ही उसे उत्कृष्ट ढंग से पूर्ण किया जा सकता है। हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब हम लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं, तब अपनी शक्ति का विशेष अपव्यय करते हैं, अपनी स्नायुसमूह को विकृत कर डालते हैं, मन को चंचल बना डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं। हमारी जिस अंतर्निहित शक्ति को कार्यरूप में परिणत होना उचित था, वह वृथा भावुकता मात्र में रूपांतरित होकर क्षय हो जाती है।

 जब मन अत्यन्त शान्त और एकाग्र रहता है, केवल तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। यदि तुम जगत् के बड़े बड़े कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी पढ़ो तो देखोगे कि वे अद्भुत शान्त प्रकृति के लोग थे। कोई भी वस्तु उनके चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी। इसीलिए जो व्यक्ति बहुत जल्दी क्रोध में आ जाता है, वह कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर पाता, और जो किसी प्रकार भी क्रोध नहीं करता वह सबसे अधिक काम कर सकता है।जो व्यक्ति क्रोध, घृणा आदि किसी शत्रु के वश में हो जाता है वह कभी कुछ भी व्यावहारिक नहीं कर पाता है। केवल शान्त, क्षमाशील, स्थिरचित्त व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है।

वेदान्त (चार महावाक्य- या 'Be and Make') हमें आदर्श का उपदेश देता है, और हम यह भी जानते हैं कि आदर्श वास्तविक की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चतर  होता हैहम लोगों के जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। एक है आदर्श का सामंजस्य अपने वर्तमान जीवन से करना; और उसे जीवनोपयोगी बनाने के लिए आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवन के स्तर पर खींच लाना। और दूसरी है जीवन को आदर्श के अनुरूप उच्च बनाने के लिए अपने जीवन का गठन करना। इन दोनों का भेद भलीभाँति समझ लेना चाहिए -क्योंकि , पहली प्रवृत्ति - अर्थात आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवनस्तर पर खींच लाने की प्रवृत्ति हमारे जीवन का एक प्रमुख प्रलोभन है। मैं सोचता हूँ कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ (जल्दी से जल्दी दौलतवान बन सकता हूँ।) लेकिन शायद उसका अधिकांश ही बुरा है, और उसके पीछे वासना, क्रोध, घृणा अथवा लालच या स्वार्थपरता का आवेग ही विद्यमान है। अब मान लो किसी व्यक्ति ने (C-IN-C नवनीदा जैसे किसी जीवनमुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता ने) मुझे किसी विशेष आदर्श (स्वामी विवेकानन्द)  के अनुरूप अपना जीवन गठन करने का उपदेश दिया,सद चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का सम्बन्ध में उपदेश - 'Be and Make'  दिया । तो निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि 'स्वार्थपरता' तथा 'आत्मसुख' का त्याग करो में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है। किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ, 'यह है मेरा आदर्श' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो जाता हूँ। इसी प्रकार 'शास्त्रीय' बात को लेकर ['Be and Make' या मनुष्य बनो और बनाओ के अर्थ को लेकर] लोग आपस में झगड़ते रहते हैं और कहते हैं कि जो मैं समझता हूँ वही शास्त्रीय है; तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है। 

'व्यवहार्य' (practical) शब्द को लेकर भी ऐसा ही अनर्थ होता रहता है। जिस बात को मैं कार्यरूप में परिणत करने योग्य समझता हूँ, जगत् में एकमात्र वही व्यवहार्य है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ, यदि मैं एक दूकानदार हूँ तो सोचता हूँ कि संसार में दूकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं चोर (भ्रष्टाचारी) हूँ तो चोरी (भ्रष्टाचार) के बारे में भी यही सोचता हूँ। आप लोग जानते ही हैं कि हम सब इस 'व्यवहार्य' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए करते हैं जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है, और जो हमसे किये जा सकते हैं। इसी कारण मैं तुम लोगों को यह स्पष्ट कर देनाचाहता हूँ कि यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यवहार्य (practical) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से

वेदान्त का आदर्श कितना ही उच्च क्यों न हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यही आदर्श ठीक ठीक आदर्श है। एक शब्द में वेदान्त का उपदेश है "तत्त्वमसि' तुम्हीं वह ब्रह्म हो' और इसके समुदय उपदेश की अन्तिम परिणति यही है। अनेक प्रकार के बौद्धिक वाद-विवाद और विस्तार के पश्चात् तुम्हें इसमें यही सिद्धान्त मिलेगा कि -'मानवात्मा शुद्धस्वभाव और सर्वज्ञ है।' आत्मा के सम्बन्ध में जन्म अथवा मृत्यु की बात करना भी कोरी विडम्बना मात्र है। आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु; मैं मरूँगा अथवा मरने में डर लगता है, यह सब केवल कुसंस्कार मात्र है। और मैं यह कर सकता हूँ, यह नहीं कर सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मैं सब कुछ कर सकता हूँ । वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। 

जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह एक भीषण विचार है, इसमें कोई सन्देह नहीं; और हममें अधिकांश व्यक्ति यही सोचते हैं कि, वेदान्त के महावाक्यों को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकताकिन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। इसकी उपलब्धि में स्त्री -पुरुष का भेद नहीं है, बालक- बालिका का भेद नहीं है, जाति या धर्म का भेद नहीं है- और मानवमात्र ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं- कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, कारण, वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से विद्यमान भी है।

हम सबों में ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही अन्तर्निहित है। हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' 'अन्धकार' कहकर चीत्कार करते हैं। हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। वर्तमान भी है।' अन्धकार कभी था ही नहीं, अपवित्रता कभी थी ही नहीं, हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। 

इस प्रकार वेदान्त, केवल यही नहीं कहता कि 'आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है' बल्कि यह भी कहता है कि वह आदर्श तो हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है !  और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है। और जो कुछ (दुर्बलता, अपवित्रता आदि) हम देखते हैं वह सम्पूर्ण मिथ्या है। जब तक तुम कहते हो, 'मैं एक क्षुद्र मर्त्य जीव हूँ ' तब तब तुम झूठ बोलते हो ; और यही बोल-बोल कर तुम मानो सम्मोहन विद्या (hypnotism) के जोर से अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो।

वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, वेदान्त भ्रम या सम्मोहन-(hypnotism) स्वीकार करता है। और वेदान्त कहता है कि सब से बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना– यह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदि आदि। कारण, जब तुम इस प्रकार सोचने लगते हो, तभी तुम मानो बन्धन-शृंखला में एक कड़ी और जोड़ देते हो, अपनी आत्मा पर सम्मोहन की एक पर्त और जमा देते हो। (अर्थात अपनी आत्मा को पहले से और भी अधिक मायाजाल में फँसा लेते हो।

अतएव, जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं। हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि, " वेदान्त में हमारे इस वर्तमान सम्मोहित जीवन (hypnotized life) का, हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्या जीवन का, जिसमें आदर्श के साथ समझौता करने वाली वृत्ति हो, का कभी अनुमोदन नहीं किया गया है। बल्कि, उसका तो परित्याग करने के लिए कहा गया है और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य-जीवन, शाश्वत-जीवन (true life, eternal life) सदा वर्तमान है, वह प्रकाशित होगा, व्यक्त होगा । यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया, किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है उसका वही पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है। आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता, मुक्त स्वभाव, प्रेम और ऐश्वर्य, हम लोगों में पहले से ही विद्यमान है। 

वेदान्ती यह भी कहते हैं कि ऐसा नहीं कि यह केवल बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में ही उपलब्ध हो सकता है, वरन् हम यह देख ही चुके हैं कि पहले जिन लोगों ने इस सत्यसमूह (महावाक्यों) का आविष्कार किया था, वे बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे, साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे; वरन् वे लोग राजर्षि थे। अर्थात ऐसे व्यक्ति थे जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे, जिन्हें सैन्य परिचालन करना पड़ता था, जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजा वर्ग का हानि लाभ देखना होता था। इसके अतिरिक्त उस समय के राजागण ही सर्वेसर्वा सर्वेसर्वा होते थे- आजकल जैसे कठपुतली नहीं। फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उसको जीवन में परिणत करने और मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। अतएव, उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है, क्योंकि हमारा जीवन उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक कर्महीन है। हम अपेक्षाकृत सारे समय खाली ही रहते हैं, हमारे पास करने को बहुत कम रहता है , उन राजाओं की अपेक्षा हमें कम व्यस्त (busy) रहना पड़ता है; अतः हमारे लिए उस सत्य का साक्षात्कार न  कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है।

 पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों के कर्मव्यस्तता (busyness) की तुलना में, हमारी कर्मव्यस्तता तो कुछ भी नहीं है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित विराट  सेना के परिचालक अर्जुन की जितनी कर्मव्यस्तता रही होगी, उसकी तुलना हमारी कर्मव्यस्तता बिल्कुल नगण्य है।  तब भी इस युद्ध कोलाहल के बीच में भी, वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने को समय पा सके- इसीलिए हमारे इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में (relatively free and comfortable life में ) हमें उतना अवश्य कर सकना चाहिए। 

हम लोग यदि विवेक-पूर्ण ढंग से समय बितायें तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं, उससे हम लोगों में से अनेक के पास अधिक समय है। हम लोगों को जितना अवकाश है, उसमें यदि हम सचमुच चाहें तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए। हमारे जीवन में सब से बड़ी विपत्ति की आशंका ऐसे व्यक्तियों से है, जो मुफ्त की सलाह देने में लगे रहते हैं। वे हमारे व्यर्थ के अभावों और वासनाओं को पूरा करने के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं। और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं हो सकता , किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता। हमें अपने प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ यथासम्भव समन्वित करना पड़ेगा, और क्रमशः अपने वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा।

 कारण, तुम्हें सदा स्मरण रखना होगा कि वेदान्त का मूल सिद्धान्त यह एकत्व अथवा अखण्ड भाव है। द्वित्व कहीं नहीं है दो प्रकार का जीवन अथवा जगत् भी नहीं है। तुम लोग देखोगे कि वेद पहले स्वर्गादि के विषय में कहते हैं, किन्तु अन्त में जब वे अपने दर्शन के उच्चतम आदर्श के विषय में कहना आरम्भ करते हैं तो वे उन सब बातों को बिलकुल त्याग देते हैं।  एक मात्र जीवन है, एक मात्र जगत् है, एक मात्र सत है। सब कुछ वही एक (सच्चिदानन्द) सत्तामात्र हैं; भेद केवल परिमाण का है, प्रकार का नहीं। भिन्न भिन्न जीवन के बीच में अन्तर  प्रकारगत नहीं है। वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशुगण मनुष्यों से सम्पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है। 

कुछ व्यक्तियों ने वैज्ञानिक शोध के निमित्त चीड़फाड़ करने के लिए, मारे जाने वाले पशुओं की हत्या का विरोध करने के लिए, दयावश एक संस्था - 'Anti Vivisection Society' (एंटी विविसेक्शन सोसाइटी, या जीवच्छेदन निवारणी सभा) स्थापित की है। मैंने एक दिन इस सभा के एक सदस्य से पूछा, "भाई, आप भोजन के लिए पशु हत्या को सम्पूर्णतया न्यायसंगत मानते हैं, किन्तु वैज्ञानिक परीक्षा के लिए दो एक पशुओं की हत्या के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" उसने उत्तर दिया, "जीवित की चीरभाड़ बहुत भयानक कार्य है, किन्तु पशुगण हमारे भोजनार्थं ही बनाये गये हैं।" कैसी अजीब बात है! वास्तव में पशुगण भी तो उसी अखण्ड सत्ता के अंशरूप हैं। यदि मनुष्य का जीवन अनन्त है, तो पशु -जीवन भी उसी प्रकार है। प्रभेद केवल परिमाणगत है, प्रकारगत नहीं। विचारपूर्वक देखने पर यह अमीबा (amoeba) और मैं (ईशा) एक ही हूँ; अन्तर केवल पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में परिणाम का है, और उस सर्वोच्च सत्ता की दृष्टि से देखने पर निम्नतम पशु (100% Selfish) और उच्चतम मनुष्य (ईश्वर, ईशा,बुद्ध,श्रीरामकृष्ण) "100% Unselfishness" सभी सामान हैं। 

मनुष्य एक तिनके और पौधे में बहुत अन्तर देख सकता है, किन्तु यदि तुम खूब ऊँचे चढ़कर देखो तो यह तिनका तथा एक बड़ा वृक्ष दोनों ही समान दिखेंगे। इसी प्रकार उस उच्चतम सत्ता के दृष्टिकोण से निम्नतम पशु और उच्चतम मनुष्य सभी समान हैं। और यदि तुम  एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो,  तो तुमको  पशुओं से लेकर उच्चतम प्राणी तक समत्व मानना पड़ेगा। जो ईश्वर अपनी मनुष्य -सन्तान के प्रति पक्षपाती है, और 'पशु' नामक अपनी सन्तान के प्रति निर्दय है, वह तो फिर दानवों से भी अधम हुआ। इस प्रकार के ईश्वर की उपासना करने की अपेक्षा मुझे सैकड़ों बार मरना भी पसन्द हैमेरा समस्त जीवन इस प्रकार के ईश्वर के विरुद्ध युद्ध में ही बीतेगा। किन्तु वास्तविक ईश्वर ऐसे नहीं हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं वे नहीं जानते कि वे दायित्व बोधहीन और हृदयहीन व्यक्ति हैं; वे क्या कह रहे हैं, यह नहीं जानते।

  यहाँ फिर 'व्यावहारिकता' (pragmatism) शब्द गलत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वास्तविक बात यह है कि हम मीट -मुर्गा खाना चाहते हैं, इसीलिए हम (हम बिना लहसुन प्याज का भी) खाते रहते हैं। मैं स्वयं एक कट्टर शाकाहारी (staunch vegetarian) न भी होऊँ,  किन्तु मैं शाकाहार का आदर्श समझता हूँ। जब मैं मांस खाता हूँ, तब जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। परिस्थितिवश उसे खाने को बाध्य होने पर भी मैं यह जानता हूँ कि यह क्रूरता हैशाकाहार के आदर्श (ideal of vegetarianism) को नीचा करके, मुझे  अपनी दुर्बलता का समर्थन नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है - मांस न खाया जाय; किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाय, क्योंकि पशुगण भी हमारे भाई हैं। यदि अपने से इतर प्राणियों के बारे में इस प्रकार से सोच सकते हो, तो तुम सब प्राणियों में भ्रातृभाव की ओर बहुत कुछ अग्रसर हो गये हो - उसके पहले विश्वबन्धुत्व की बात करना व्यर्थ है। तुम संसार में देखोगे कि इस प्रकार का उपदेश बहुत लोग पसन्द नहीं करते, क्योंकि उनसे वह वास्तव को छोड़कर आदर्श की ओर जाने के लिए कहता है। किन्तु यदि तुम एक ऐसी बात कहो जिससे उनके वर्तमान कार्य का वर्तमान आचरण का समर्थन होता हो तो वे उसे तुरन्त 'व्यावहारिक' मान लेंगे । 

मनुष्य स्वभाव में 'Comfort Zone' (आरामदायक स्थिति) में रहने की भारी प्रवृत्ति  दीख पड़ती है। हम लोग उसके आगे एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहते। जिस प्रकार हिमालय पर बर्फ में जमे व्यक्तियों के सम्बन्ध में पढ़ा जाता है, वैसा ही मनुष्य जाति के बारे में भी कहा जा सकता है। सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है। यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है, तो वह कहता है, 'मुझे सोने दो-बर्फ में सोने से बड़ा आराम मिलता है!' और उसी दशा में उसकी मृत्यु हो जाती है।  हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है। सारा जीवन हमलोग भी यही किये जा रहें हैं- सिर से लेकर पैर तक समूचे बर्फ में जमते जा रहे हैं, तो भी हम लोग सोना चाहते हैं। अतएव, आदर्श अवस्था में पहुँचने के लिए सदा संघर्ष करते रहो।  यदि कोई व्यक्ति आदर्श को तुम्हारी निम्न भूमि में खींच लाये, यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता, तो उसकी बात कानों में भी न पड़ने दो। मेरे लिए वह नितांत अव्यवहारिक (impractical) धर्म होगा। 

 किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये जो कि जीवन का सर्वोच्च आदर्श दर्शाता है, तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ। जब कभी कोई व्यक्ति भोगपरक दुर्बलताओं और निस्सार बातों की वकालत करे, तो उससे सावधान रहो।  एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे बन जाते हैं, उस पर भी यदि कोई आकर हमें उस प्रकार की शिक्षा दे और यदि हम उस उपदेश का अनुसरण करें तो हम कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते। 

मैंने ऐसी बातें बहुत देखी हैं, जगत् के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है, और मेरा देश ऐसा देश है जहाँ सम्प्रदाय एकुकुरमुत्तों के समान बढ़ते रहते हैं। प्रतिवर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते हैं। किन्तु मैंने यही देखा है कि - जो संप्रदाय भोगाकांक्षी मानव का सत्याकांक्षी मानव से समझौता कराने  की चेष्टा नहीं करते, वे ही उन्नति करते हैं।  और जहाँ परमोच्च आदर्श का झूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्य करने की– ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खींच लाने की मिथ्या चेष्टा रहती है, वहीं क्षय का आरम्भ हो जाता है। मनुष्य को सांसारिक दासता, इन्द्रियों की गुलामी, या पशु के स्तर पर नहीं घसीटना चाहिए, उसे ईश्वर के स्तर तक उठने में सहायता करनी चाहिए। 

इस प्रश्न का एक और पहलू है। हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है। प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत- पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत- जीवन और मृत्यु के बीच में भेद  केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं; कारण, वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं। सब वही एक है, जो अपने को विचार , जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है  — और उनमें अंतर केवल परिमाण का है। अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है। किसी की भी निन्दा मत करो।  किसी की सहायता कर सकते हो तो करो, नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो, उन्हें आशीर्वाद दो, अपने रास्ते जाने दो। गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती। इस प्रकार से कभी किसी की उन्नति नहीं होती। दूसरे की निन्दा करने से केवल अपनी शक्ति का क्षय होता है। आलोचना  और निन्दा हम लोगों के वृथा शक्ति क्षय का उपाय मात्र है। क्योंकि अन्त में हम देखते हैं कि सभी लोग एक ही वस्तु देख रहे हैं , कम-बेश उसी आदर्श (निःस्वार्थता) की ओर पहुँच रहे हैं और हम लोगों में जो अंतर है , वे केवल अभिव्यक्ति के हैं।

उदाहरणार्थ 'पाप' की बात लो। मैं अभी चर्चा कर रहा था कि वेदान्त पाप को स्वीकार नहीं करता, लेकिन सम्मोहन (hypnotism) स्वीकार करता है, जिसके कारण मनुष्य भूलें करता है । दोनों वास्तव में एक ही बात हैं केवल एक सकारात्मक है, दूसरी नकारात्मक है। एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है, किन्तु उस ओर ध्यान मत दो, हम लोगों को उन्नति करनी है। जब मनुष्य पहले पहल जन्मा तभी उसका रोग क्या है, जान लिया गया। सभी अपना अपना रोग जानते हैं किसी दूसरे को बतलाने की आवश्यकता नहीं होती। सारे समय- हम रोगी हैं (हम भेंड़ हैं )-यही सोचते रहने से हम स्वस्थ नहीं हो सकते, उसके लिए औषध (विवेक-प्रयोग) आवश्यक है। हम लोग बाह्य जगत् के सामने भले ही कपटाचरण करें, परन्तु अपने अन्दर ही अन्दर हम अपनी दुर्बलता जानते हैं। 

किन्तु वेदान्त कहता है, केवल दुर्बलता स्मरण कराने से अधिक उपकार नहीं होगा– उसका उपचार करो। यह कहते रहना कि 'मैं रोगग्रस्त हूँ'– रोग की औषध या उपचार नहीं है। मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। वेदान्त मनुष्य को पापी न बतलाकर ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है, "तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है।" जिसे तुम 'पाप' कहते थे वह तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति का निम्नतम प्रकाश है; अब अपनी आत्मा को उच्चतर भाव (अहंब्रह्मास्मि)  में प्रकाशित करो। एक बात हम सब को सदैव याद रखनी चाहिए और वह यह कि हम सब कुछ कर सकते हैं। कभी 'नहीं' मत कहना, "मैं नहीं कर सकता" यह कभी न कहना, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश, काल (space and time) भी कुछ नहीं हैं। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो। 

अब तक जो कुछ कहा गया है, अवश्य वह केवल नीतिशास्त्र के सिद्धान्त हैं। अब  हमें सिद्धान्त की कोटि से उतरकर, जीवन की विशेष- विशेष अवस्थाओं में वेदान्त का  प्रयोग करना पड़ेगा। हमें देखना होगा कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में, और प्रत्येक राष्ट्र  के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में सहायता नहीं दे सकता, तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं— फिर तो वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त होकर रह जायेगा।  धर्म यदि समग्र मानवजाति का कल्याण करना चाहता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक अवस्था में कर सकने में तत्पर और सक्षम हो - चाहे गुलामी हो या आजादी, घोर पतन हो या अत्यन्त पवित्रता, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर सकने में समर्थ होना चाहिये। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त (चार महावाक्य ) अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो, लोक-कल्याण काम में आ सकेंगे। 

आत्मविश्वास का आदर्श ही मानवजाति के लिए सब से अधिक कल्याणप्रद हो सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और वह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत् में जितना दुःख कष्ट है उसका अधिकांश गायब जाता। समग्र मानवजाति के इतिहास में सभी श्रेष्ठ नर नारियों के बीच में यदि कोई भावविशेष फलीभूत हुआ है तो वह है यही आत्मविश्वास।  वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे और वे महान बने भी। मनुष्य (शराबी ?) कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह इस अवस्था से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है, और अपने ऊपर विश्वास करना सीखता है। किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है।आत्मविश्वास सीखने के लिए हमें (विवेकी मनुष्य को भी ) इतना दुःख-कष्ट क्यों भोगना चाहिए ?

मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है, वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थित तथा अभाव के कारण ही है यह थोड़ी खोज करने से ही समझ में आ सकता है। इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में ही इसे देखा है और अभी भी देखता हूँ और जितनी आयु बढ़ती जा रही है उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। किन्तु नया धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता, अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र 'मै' (व्यष्टि अहं) को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। इस आत्मविश्वास का अर्थ है-सब के प्रति विश्वास, क्योंकि, तुम सभी प्राणीयों के साथ  एक और अभिन्न हो। आत्मप्रीति का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम, क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान आत्मविश्वास जगत को अच्छा बना सकेगा।  

यह मेरी ध्रुव धारणा है। वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है जो साहस के साथ कह सकता है, "मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ।" क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर कितनी ऊर्जा, कितनी शक्ति, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? मनुष्य के अन्दर जो जो वस्तुएँ छिपी पड़ी हैं, उन सबका ज्ञान कौन सा वैज्ञानिक प्राप्त कर सकता है? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर है, किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का अति सामान्य अंश ही प्रकाशित हुआ है। अतएव, तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे कितनी महान सम्भावना है, क्या तुम उसे जानते हो ? तुम्हारे अन्दर जो अनन्त शक्ति है, उसका थोड़ा सा अंश ही तुम जानते हो। तुम्हारे पीछे है शक्ति और आनन्द का अपार सागर। 

“आत्मा वा अरे श्रोतव्यः"- इस आत्मा के बारे में पहले (पुस्तक से नहीं, गुरुमुख से ?) सुनना चाहिए। दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं 'वह' आत्मा हो।  दिन-रात यही भाव अपने में व्याप्त किये रहो- "I am He"; यहाँ तक कि वह  तुम्हारे रक्त की प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस-नस में समा जाय। सम्पूर्ण शरीर को एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो --" मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशतिमान्, नित्य ज्योतिर्मय आत्मा हूं ”–दिन-रात यही चिन्तन करते रहो; जब तक कि यह भाव तुम्हारे प्राणों में भिद नहीं जाता। इसी का ध्यान करते रहो - जब तक कि यह भाव तुम्हारे जीवन का अविभाज्य अंग नहीं बन जाता। - और इसी से तुम सभी कर्मों में सफलता प्राप्त कर लोगे। 'हृदय पूर्ण होने पर मुँह बात करता है,  हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते है।' अतएव इस प्रकार की अवस्था में ही यथार्थ कार्य सम्पूर्ण हो सकेगा। अपने को इस आदर्श के भाव से ओतप्रोत कर डालो- जो कुछ करो, उसीका चिंतन करते रहो। 

तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म परिवर्तित होकर उन्नत देवभावापन्न हो जायेंगे। यदि 'जड़' शक्तिशाली है, तो 'विचार' तो सर्वशक्तिमान् है। इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता , सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा  के भाव से पूर्ण बना लो। ईश्वरेच्छा से यदि कुसंस्कार पूर्णभाव तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते तो अच्छा होता। ईश्वरकृपा से यदि हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव से परिवेष्टित न होते तो कितना अच्छा होता ! ईश्वरेच्छा से यदि मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम (इन्द्रियातीत ?) सत्यों को  प्राप्त कर सकता तो कितना अच्छा होता! किन्तु उसे इन सब में से होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ।

ये सब बातें मनुष्य को प्रायः भयानक प्रतीत होती हैं । मैं जानता हुँ, बहुत से लोग ये सब उपदेश सुनकर भयभीत हो जाते हैं, किन्तु जो व्यावहारिक स्तर पर  अभ्यास करना चाहते हैं, उनके लिए यही पहला पाठ है। अपने को अथवा दूसरे को कभी दुर्बल मत कहना है। यदि कर सको तो जगत  का कल्याण करो, पर उसका  अनिष्ट न करो। अपने हृदय के अन्दर से यह समझ लो कि तुम्हारे ये क्षुद्र क्षुद्र भाव एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्रार्थना करना केवल कुसंस्कार है। मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो। जो भी उत्तर पाते हो वह अपने हृदय से ही। तुम लोगों में से बहुतों का विश्वास है कि भूत नहीं होते, किन्तु अन्धकार में जाते ही शरीर कछ काँप-सा जाता है। इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह सब भय घुसा दिया गया है।

 किन्तु हमें यह अभ्यास करना पड़ेगा कि,  समाज का भय, संसार के कहने-सुनने का भय, बन्धु-बान्धवों की घृणा का भय, प्रिय अन्धविश्वासों के नष्ट होने का भय से, यह सब हम दूसरों के मस्तिष्क में नहीं घुसायेंगे। इस प्रवृत्ति को जीत लो। केवल विश्वब्रह्माण्ड का  एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है। हजारों साल से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है, और अभी भी कर रहा है। अब तुम्हारी बारी है , और उस परम् सत्य को तुम जान चुके हो। क्योंकि  सब ओर से हम यही शिक्षा पाते हैं। केवल दर्शन और मनोविज्ञान ही नहीं, भौतिक विज्ञान भी उसी की घोषणा करता है। क्या ऐसा एक वैज्ञानिक दिखा सकते हो, जो जगत् के एकत्व को अस्वीकृत कर दे? आज कौन अनेक जगतों की बातें कहने का साहस कर सकता है? वह सब कुसंस्कार मात्र है।

 केवल एक ही प्राण, एक ही जीवन, एक ही जगत (one soul, one life, one universe) सर्वत्र विद्यमान है, और वही हम लोगों के सामने अनेकवत् प्रतीत होता है। यह अनेकता (diversity) किसी स्वप्न के सदृश है।  जिस प्रकार स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। लेकिन स्वप्न में जो देखा जाता है वह सत्य तो नहीं है। एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखायी पड़ता है- विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं। इसी प्रकार यह  जगत् पन्द्रह आने (90 %) दुःखरूप और एक आना (10%) सुखरूप जान पड़ता है। हो सकता है कुछ दिन बाद ही यह जगत हमें पन्द्रह आने (90 %) सुखरूप प्रतीत होने लगे तब हम इसे स्वर्ग कहेंगे। 

किन्तु सिद्धावस्था प्राप्त होने पर (पूर्णावस्था या 100 % निःस्वार्थपरता प्राप्त होने पर) सत्यान्वेषी के सामने एक ऐसी अवस्था आती है, जब यह सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच (पृथ्वी,सूर्य, चंद्र-पूरा ब्रह्माण्ड) बहुत तेजी से घूमता हुआ) अन्तर्हित (vanish या गायब) हो जाता है - (माँ जगदम्बा की कृपा से व्युत्थान के बाद) यह जगत और अपनी आत्मा साक्षात् ब्रह्मरूप (सच्चिदानन्द-रूप) अनुभव होती है। अतएव, जगत अनेक नहीं हैं, जीवन अनेक नहीं हैंप्रतीत होने वाला यह 'बहुत्व' उस 'एकत्व' की ही अभिव्यक्ति है है। केवल वह 'एक' (ब्रह्म-शक्ति) ही अपने को बहुरूप में-- जड़, चेतन, मन, विचार अथवा अन्य विविध नाम-रूपों व्यक्त कर रहा है। अतएव, हम लोगों का (Indian Vedantists का भारत-वासी वेदान्तियों का) प्रथम कर्तव्य है - इस ब्रह्मात्मैक्य के विषय में स्वयं को  तथा दूसरों को शिक्षा देना

सम्पूर्ण विश्व इस महान् आदर्श की घोषणा - 'अनेकता में एकता, भारत की विशेषता '  से इस प्रकार प्रतिध्वनित हो कि- उसके सब कुसंस्कार दूर हो जायें। दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- 'तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जागृत हो जाओ। हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, जागो इस प्रकार मोहनिद्रा में पड़े रहना तुम्हें भाता नहीं। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी मत समझो। हे सर्वशक्तिमान्,  उठो, जाग्रत  होओ, अपना स्वरूप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। 'जगत् से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है,  देखो , कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएं (अपने सियाराम स्वरुप में) प्रकाशित हो उठती हैं , और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य जाति से यही कहते रहो- उसे उसकी शक्ति दिखा दो। ऐसा होने से ही हम अपने दैनन्दिन जीवन में व्यावहारिक वेदान्त का प्रयोग करना सीख सकेंगे।  

>>विवेक-प्रयोग > जिसे हम विवेक या सदसत्-विचार कहते हैं उसका-  अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए, हमें सत्य की कसोटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान। हमारे जिस-जिस व्यवहार से एकत्व की प्राप्ति होती हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है, घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है।  घृणा ही एक मनुष्य को दूसरे से पृथक् करती है- अतएव, वह अनुचित और अनुपयोगी है ; यह एक विनाशिनी शक्ति है, यह पृथक  करती है- नाश करती है। 

प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं- माँ सन्तान के साथ एकत्व प्राप्त करती है, परिवार नगर के साथ एकत्व प्राप्त करता है, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के साथ यह सम्पूर्ण जगत् ही  एकीभूत हो जाता है।  क्योंकि प्रेम ही सत है, प्रेम ही भगवान् है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का न्यूनाधिक प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है , किन्तु यह दृष्टिगोचर जगत उसी एक प्रेम का प्रकट रूप है। 

अतएव हम लोगों को कुछ करने से पहले विवेक-प्रयोग करके यह देखना चाहिए कि हम जो करने जा रहे हैं, वह कर्म अनेकत्व -विधायक हैं अथवा एकत्व-सम्पादक ?  यदि वे अनेकत्व - विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा।  और यदि वे एकत्व सम्पादक हैं तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उससे अनेकत्व उत्पन्न होगा या एकत्व ? देखना चाहिए कि वव एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान् शक्ति उत्पन्न करते हैं या नहीं ?  यदि करते हैं , तो ऐसे विचारों  का पोषण करना चाहिए- अन्यथा उन्हें अपराध समझकर त्याग देना चाहिए। 

वैदान्त का नीतिशास्त्र  (ethics) किसी अज्ञय वस्तु (unknowable object) के ऊपर आधारित नहीं है, अथवा वह किसी अज्ञेय तत्व का उपदेश नहीं करता। बल्कि उपनिषदों की भाषा में कहता है - ' जिस ईश्वर को तुम एक अज्ञात ईश्वर मानकर उपासना कर रहे थे, मैं तुम्हें उसी ईश्वर को अपनी आत्मा समझकर उपासना करने का उपदेश कर रहा हूँ। ' तुम जो कुछ जानते हो , आत्मा के द्वारा ही जानते हो।  मैं इस कुर्सी को देख रहा हूँ, किन्तु इस कुर्सी को देखने से पहले मुझे अपने स्वयं का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का। इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है , सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान होता है । अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है। आत्मा को हटा लेने से , सम्पूर्ण जगत् ही विलुप्त हो जाता है। आत्मा  के द्वारा ही सम्पूर्ण ज्ञान होता है,  अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात वस्तु  है। यही 'तुम' हो जिसको तुम 'मैं' कहते हो। तुम लोग यह सोचकर आश्चर्य करते हो कि मेरा 'मैं' भला तुम्हारा 'मैं' कैसे हो सकता है ?  तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह सान्त 'मैं' किस प्रकार अनन्त असीमस्वरूप हो सकता हैकिन्तु वास्तव में यही बात सत्य है।

 सान्त 'मैं' (मिथ्या अहं) केवल भ्रम (illusion) मात्र है, गल्प (fiction-कल्पित कथा) मात्र है। उसी अनन्त के के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है, और उसका कुछ अंश इस 'मैं' रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त का अंश है। यथार्थ में असीम कभी ससीम नहीं होता 'ससीम' केवल कहने की बात है। अतएव यह आत्मा नर-नारी, बालक-बालिका, यहाँ तक कि पशु-पक्षी सभी को ज्ञात है। उसको बिना जाने हम क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते। उस सर्वेश्वर प्रभु को बिना जाने हम लोग एक क्षण भी श्वास-प्रश्वास तक नहीं ले सकते, न गतिशील हो सकते, न अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं।  वेदान्त का ईश्वर (अपने ह्रदय में विराजमान आत्मा) सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात है; वह कभी कल्पनाप्रसूत नहीं है। 

यदि यह, (सबों के ह्रदय में विराजमान आत्मा) प्रत्यक्ष ईश्वर नहीं है तो फिर प्रत्यक्ष ईश्वर और कौन हो सकता है? यदि यह एक व्यावहारिक ईश्वर की शिक्षा नहीं है, तो फिर किस प्रकार से तुम उसकी शिक्षा दे सकोगे ? जो ईश्वर, जो सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है; मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उनसे भी अधिक प्रत्यक्ष और व्यावहारिक ईश्वर कहाँ होगा?  क्योंकि, तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् ईश्वर हो, और यदि यह हूँ कि तुम वह नहीं हो तो मैं झूठ बोलता हूँ। सारे समय में इसकी अनुभूति करू या न करूं, फिर भी सत्य यही है। वह एक अखण्ड वस्तुस्वरूप (सच्चिदानन्द) ही , सर्व वस्तुओं की एकता, समस्त प्राणियों का जीवन और सम्पूर्ण अस्तित्व का यथार्थ स्वरूप हैं। 

वेदान्त के नीतिशास्त्र के इन सभी विचारों को  और भी विस्तारित भाव से कहना पड़ेगा। अतएव थोड़ा सा धैर्य रखना आवश्यक है। पहले ही कह चुका हूँ, हम लोगों को इसकी विस्तृत आलोचना करनी पड़ेगी- और यह भी देखना होगा कि किस प्रकार यह आदर्श निम्नतर आदर्शों से क्रमशः विकसित हुआ है, और किस प्रकार इस एकत्व का आदर्श धीरे धीरे विकसित होकर क्रमशः सार्वजनीन प्रेम रूप में परिणत हो रहा है। विश्वयुद्ध के खतरों से बचने के लिए , इन सब तत्वों का अध्यन आवश्यक है। विश्व के अन्य देश (रूस -यूक्रेन) तो निम्नतम आदर्श से धीरे धीरे ऊपर उठने के इंतजार में रुके  नहीं रह सकते। किन्तु हमारे (भारत के राजर्षियों) ऊँचे सोपान पर चढ़ने का फल ही क्या, यदि हम यह सत्य बाद में आने वाली, अपनी भावी पीढ़ियों (नेताओं) को न दे सकें

इसीलिए, इसकी आलोचना हमें विशेष रूप से विस्तार पूर्वक करनी होगी और प्रथमतः उसके बौद्धिक पक्ष को  स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है।  यद्यपि हम जानते हैं कि विचार का विशेष मूल्य नहीं, हृदय ही सब से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि, हृदय के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि केवल जमादार के समान रास्ता साफ कर देती है- वह गौण सहायक है, पुलिस के समान है- किन्तु समाज के सुन्दर परिचालन के लिए पुलिस सकारात्मक आवश्यकता नहीं होती। पुलिस का कार्य केवल शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए उपद्रव को रोकना और अन्याय निवारण करना है। बुद्धि का कार्य भी इतना ही है। 

जब तुम इस प्रकार की कोई बौद्धिक पुस्तक पढ़ते हो, तब उन पर अधिकार कर लेने, या आत्मसात  कर लेने पर तुम यही सोचते हो कि ' ईश्वर को धन्यवाद है , मैं उसकी बौद्धिकता से बाहर निकल आया। ' इसका कारण यह है कि बुद्धि अन्धी है, उसकी अपनी गतिशक्ति नहीं है, उसके हाथ पैर नहीं हैं।

हृदय (Heart) की भावना (प्रेम) ही वास्तव में कार्य करता है, उसकी गति बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगवान पदार्थ की अपेक्षा द्रुतगामी होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे हृदय में प्रेम की भावना है? यदि है तो तुम उसके द्वारा ही ईश्वर को देखोगे। आज तुम्हारी जितनी भी भावना है,  वही प्रबल होती जायेगी- देवभावापन्न होती रहेगी। उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित होगी , और अन्ततः वह हर प्राणी से प्रेम का अनुभव करेगी। प्रत्येक प्राणियों के साथ एकत्व, स्वयं में तथा प्रत्येक अन्य वस्तु में ईश्वर का अनुभव करने लगेगी। किन्तु बुद्धि (Head) चाहे कितनी विकसित हो , यह नहीं कर सकती।" विचित्र रूप से शब्दों की जोड़तोड़, शास्त्र व्याख्या की विभिन्न शैलियाँ -केवल पण्डितों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं, आत्मा की मुक्ति के लिए नहीं।”

तुम लोगों में से जिन्होंने टामस-आ-केम्पिस की 'ईसा-अनुसरण' नामक पुस्तक पढ़ी है वे जानते हैं कि प्रति पृष्ठ में किस प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया है। संसार  के प्रायः हर सन्त  ने इसी पर जोर दिया है। बुद्धि भी आवश्यक है,  क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं, और भूलें करते हैं। विवेक-प्रयोग  शक्ति उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना। वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, वह अधिक कुछ नहीं कर पाती वास्तविक सहायता ह्रदय की भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है। तुम क्या किसी दूसरे के लिए हृदय के अन्तस्तल से अनुभव करते हो? यदि करते हो तो तुम्हारे हृदय में एकत्व का भाव विकसित हो  रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम एक बहुत बड़े बुद्धिजीवी भले ही हो सकते हो, किन्तु तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं केवल शुष्क बुद्धि का स्तूप बने रहोगे।  और यदि तुम हृदय से सबके प्रति प्रेम का अनुभव करते हो, तो एक पुस्तक न पढ़ सकते पर,  कोई भाषा न जानने पर भी, तुम  ठीक रास्ते पर चल  रहे हो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे। 

क्या तुमने विश्व के इतिहास में पैगम्बरों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? बुद्धि से? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिख छोड़ गया है? अथवा न्याय के कूट विचार लेकर कोई पुस्तक लिख गया है? किसी ने ऐसी नहीं किया। वे केवल कुछ थोड़ीसी बातें कह गये हैं। ईसा के समान सहृदय बनो, तुम भी ईसा हो जाओगे, बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। ह्रदय में प्रेम भावना ही जीवन है, प्रेम की भावना  ही बल है, प्रेम की भावना ही तेज है— भावना  के बिना कितनी ही बद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी।

बुद्धि मानो चलनशक्ति- शून्य अंग प्रत्यंग के समान है। जब भावना  उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करती  है, तभी वह दूसरे के हृदय को स्पर्श करती है। जगत् में सदा से ऐसा ही होता आया है, अतएव यह विषय तुम्हें खूब याद रखना चाहिए। वैदान्ति नीतिशास्त्र  में यह एक सर्वाधिक व्यावहारिक बात है।  क्योंकि वेदान्त कहता है तुम सब भावी पैगम्बर हो- तुम सब को पैगम्बर  होना ही पड़ेगा। कोई शास्त्र तुम्हारे कार्यों का प्रमाण नहीं, किन्तु तुम्हीं शास्त्रों के प्रमाणस्वरूप हो। कौन ग्रन्थ सत्य की ही शिक्षा देता है, यह तुम किस प्रकार जानते हो? क्योंकि तुम स्वयं सत्यस्वरूप हो, इसीलिए तुम भी ठीक वैसा ही अनुभव करते हो।  वेदान्त यही शिक्षा देता है। जगत् के ईसा और बुद्धगणों  का प्रमाण क्या है? - यही  कि हम तुम भी वैसा ही अनुभव करते हैं इसी कारण हम तुम समझते हैं कि ये सब सत्य हैं।

 हम लोगों की पैगम्बर आत्मा (ईश्वरीय आत्मा) ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही, ईश्वर का भी प्रमाण है।यदि तम वास्तविक महापुरुष नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी कोई बात सत्य नहीं। तुम यदि ईश्वर नहीं हो, तो कोई ईश्वर भी नहीं है और कभी होगा भी नहीं। वेदान्त कहता है, इसी आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। हम लोगों में से प्रत्येक को ही पैगम्बर बनना पड़ेगा - और तुम स्वरूपतः वही हो। बस केवल अपनी अनुभूति से यह 'जान ' लो। यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा सोचना ही भयानक नास्तिकता है।  यदि पाप नामक कोई वस्तु है, तो यह कहना कि में दुर्बल हूँ, अथवा अन्य कोई दुर्बल है।

=====



 




    










  




    

 





   

 


 




















 



 













सोमवार, 29 मई 2023

पातंजल योगसूत्र ~ " समाधिपाद/ साधनपाद/ विभूतिपाद " ( मूल संस्कृत सूत्र, सूत्रार्थ और व्याख्या सहित ~ व्याख्याकार स्वामी विवेकानन्द)

🔱🙏उपक्रमणिका 🔱🙏

योगसूत्रों (YogaSutras) को हाथ में लेने से पहले मैं एक ऐसे प्रश्न की चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा, जिस पर योगियों(Yogis) के सारे धार्मिक(religious) मत प्रतिष्ठित हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि संसार के सभी श्रेष्ठ मनीषी इस बात में एकमत हैं और यह बात भौतिक प्रकृति के अनुसन्धान से भी एक प्रकार से प्रमाणित हो ही गयी हैं - कि हम लोग अपने वर्तमान सविशेष (सापेक्ष) भाव के पीछे विद्यमान एक निर्विशेष (निरपेक्ष) भाव के परिणाम एवं व्यक्त रूप हैं, और हम फिर से उसी निर्विशेष भाव में लौटने के लिए लगातार अग्रसर हो रहे हैं। 

यदि यह बात स्वीकार कर ली जाए, तो प्रश्न यह उठता है कि वह निर्विशेष (impersonal) अवस्था श्रेष्ठतर है अथवा यह वर्तमान सविशेष  (special-M/F नाम-रूप वाली) अवस्था? संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो समझते हैं कि यह व्यक्त अवस्था ही मनुष्य की सबसे ऊँची अवस्था है। कई चिन्तनशील मनीषियों का मत है कि हम एक निर्विशेष  (impersonal) सत्ता के व्यक्त रूप हैं, और यह सविशेष अवस्था निर्विशेष अवस्था से श्रेष्ठ है। वे सोचते हैं कि निर्विशेष सत्ता में कोई गुण नहीं रह सकता, अतः वह अवश्य अचेतन है, जड़ है, प्राणशून्य है, और यह सोचकर वे धारणा कर लेते हैं, कि केवल इस जीवन में ही सुखभोग सम्भव है, अतएव इस जीवन के सुख में ही हमें आसक्त रहना चाहिए। अब हम पहले देखें, इस जीवनसमस्या के और कौन-कौन से समाधान हैं, पहले उनके बारे में चर्चा की जाए। 

इस सम्बन्ध में एक प्राचीन सिद्धान्त यह था कि मनुष्य मरने के बाद, जैसा पहले था, वैसा ही रहता है, केवल उसके सारे अशुभ चले जाते हैं, और उसका जो कुछ शुभ है, वही अनन्त काल के लिए बच रहता है। यदि तर्कसंगत भाषा में इस सत्य को रखा जाए, तो वह ऐसा रूप लेता है कि यह संसार ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है और इस संसार की ही कुछ उच्चावस्था को, जहाँ उसके सारे अशुभ निकल जाते हैं और केवल शुभ ही शुभ बच रहता है, स्वर्ग कहते हैं। यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि यह मत नितान्त असंगत और बच्चों की बात के समान है, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि शुभ है, पर अशुभ नहीं, अथवा अशुभ है, पर शुभ नहीं। जहाँ कुछ भी अशुभ नहीं है, जहाँ सब शुभ ही शुभ हैं, ऐसे संसार में वास करने की कल्पना, भारतीय नैयायिकों के अनुसार, दिवास्वप्न (dream Day) देखना है। 

फिर, एक और मतवाद आजकल के बहुत से सम्प्रदायों से सुना जाता है, वह यह कि मनुष्य लगातार उन्नति कर रहा है, चरम लक्ष्य तक पहुँचने का सतत संघर्ष कर रहा है, किन्तु कभी भी वहाँ तक पहुँच न सकेगा। यह मत ऊपर से सुनने में तो बड़ा युक्तिसंगत मालूम होता है, पर यह भी वस्तुतः बिलकुल असंगत ही है, क्योंकि कोई भी गति एक सरल रेखा में नहीं होती। प्रत्येक गति वर्तुलाकार (circular motion)में ही होती है। यदि तुम एक पत्थर लेकर आकाश में फेंको, उसके बाद यदि तुम्हारा जीवन काफी हो और पत्थर के मार्ग में कोई बाधा न आए, तो घूमकर वह ठीक तुम्हारे हाथ में वापस आ जाएगा। यदि एक सरल रेखा अनन्त दूरी (infinite distance) तक बढ़ायी जाए, तो वह अन्त में एक वृत्त (circle) का रूप धारण कर लेगी। 

अतएव यह मत कि मनुष्य का भाग्य सदैव अनन्त उन्नति (eternal progress) की ओर है उसका कहीं भी अन्त नहीं, सर्वथा असंगत है। प्रसंग के थोड़ा बाहर होने पर भी मैं अब इस पूर्वोक्त मत के बारे में दो एक बातें कहूँगा। नीतिशास्त्र (Ethics) कहता है, किसी के भी प्रति घृणा मत करो सब को प्यार करो (love everyone)। नीतिशास्त्र  के इस सत्य का स्पष्टीकरण पूर्वोक्त मत से हो जाता है। विद्युत् शक्ति (electric power) के बारे में आधुनिक मत यह है कि वह डाइनेमो (dynamo) से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यन्त्र (device) में लौट आती है। प्रेम और घृणा (love and hate) के बारे में भी यही नियम लागू होता है। अतएव किसी से घृणा करनी उचित नहीं, क्योंकि यह शक्ति यह घृणा, जो तुममें से बहिर्गत होगी, घूमकर कालान्तर में फिर तुम्हारे ही पास वापस आ जाएगी। यदि तुम मनुष्यों को प्यार करो, तो वह प्यार घूम फिरकर तुम्हारे पास ही लौट आएगा। यह अत्यन्त निश्चित सत्य है कि मनुष्य के मन से घृणा का जो कुछ अंश बाहर निकलता है, वह अन्त में उसी के पास अपनी पूरी शक्ति से लौट आता है। कोई भी इसकी गति रोक नहीं सकता। इस प्रकार प्रेम का प्रत्येक संवेग भी उसी के पास लौट आता है।

हम और भी अन्यान्य प्रत्यक्ष बातों पर आधारित बहुत सी युक्तियों से यह प्रमाणित कर सकते हैं कि यह अनन्त उन्नति सम्बन्धी मत (doctrine of eternal progress) ठहर नहीं सकता। हम तो यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि सारी भौतिक वस्तुओं की एक ही अन्तिम गति है, और वह है विनाश। हमारे ये सारे संघर्ष, सारी आशाएँ, भय और सुख इन सब का आखिर परिणाम क्या है? मृत्यु ही हम सब की चरम गति है। इससे अधिक निश्चित और कुछ भी नहीं। तब फिर यह सरल रेखा में गति कहाँ रही? यह अनन्त उन्नति कहाँ रही? यह तो केवल थोड़ी दूर जाना है और फिर से उस केन्द्र में लौट आना है, जहाँ से गति शुरू होती है। देखो, नीहारिका (nebulaeसे किस प्रकार सूर्य, चन्द्रमा और तारे पैदा होते हैं, और फिर से उसी में समा जाते हैं। 

यदि यही प्रकृति का नियम (law of nature)  हो, तो वह अन्तर्जगत् पर क्यों नहीं लागू होगा? मन भी अपने उत्पत्ति स्थान में जाकर लय को प्राप्त करेगा। हम चाहें या न चाहें, हमें अपने उस आदिकारण (original cause) में लौट ही जाना पड़ेगा, जिसे ईश्वर (माँ काली) या निरपेक्ष सत्ता कहते हैं। हम ईश्वर से आये हैं, और पुनः ईश्वर में ही लौट जाएँगे। इस ईश्वर को फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो गॉड (God) कहो, निरपेक्ष सत्ता कहो, अथवा प्रकृति कहो, सब एक ही बात है।' यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।' 'जिनसे सब प्राणी पैदा हुए हैं, जिनमें उत्पन्न हुए समस्त प्राणी स्थित हैं और जिनमें सब फिर से लौट जाएँगे।' (तैत्तिरीयोपनिषद ३/१)-यह एक निश्चित तथ्य है। प्रकृति सर्वत्र एक ही नियम से कार्य करती है।

अब प्रश्न उठता है कि भगवान् में वापस जाना क्या उच्चतर अवस्था है या निम्नतर? योगमतावलम्बी (yogis) दार्शनिकगण (philosophers) इस बात के उत्तर में दृढ़तापूर्वक कहते हैं, "हाँ, वह उच्चतर अवस्था है।" वे कहते हैं कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था एक अवनत अवस्था (degraded state) है। इस धरती पर ऐसा कोई धर्म नहीं, जो कहता हो कि मनुष्य पहले की अपेक्षा आज अधिक उन्नत है। इसका भाव यह है कि मनुष्य प्रारम्भ में शुद्ध और पूर्ण (100 % निःस्वार्थपर) रहता है, फिर उसकी अवनति होने लगती है और एक अवस्था (पशु अवस्था 100 % स्वार्थपर) ऐसी आ जाती है, जिसके नीचे वह और भ्रष्ट नहीं हो सकता। तब वह पुनः अपना वृत्त पूरा करने के लिए ऊपर उठने लगता है। उसे वृत्त की पूर्ति करनी ही पड़ती है। वह कितने भी नीचे क्यों न चला जाए, अन्त में उसे वृत्त का ऊपरी मोड़ लेना ही पड़ता है- अपने आदिकारण भगवान् (100% Unselfishness) में वापस जाना ही पड़ता है। 

मनुष्य पहले भगवान् से आता है, मध्य में वह मनुष्य (50%Unselfish)  के रूप में रहता है और अन्त पुनः भगवान् के पास वापस चला जाता है। यह हुई द्वैतवाद की भाषा (language of dualism)। अद्वैतवाद की भाषा (the language of monism) में यह भाव व्यक्त करने पर कहना पड़ेगा कि मनुष्य भगवान् है (man is God) , और घूमकर फिर उन्ही में लौट जाता है। यदि हमारी वर्तमान अवस्था ही उच्चतर अवस्था हो, तो संसार में इतने दुःख कष्ट, इतनी सब भयावह घटनाएँ क्यों भरी पड़ी हैं? यदि यही उच्चतर अवस्था हो, तो इसका अवसान क्यों होता है? जिस अवस्था में  मनुष्य भ्रष्टाचरण (corruption) करता है और उसका पतन (downfall) होता है , वह कभी भी सब से ऊँची अवस्था नहीं हो सकती। 

यह जगत् इतने पैशाचिक भावों से क्यों भरा हो- वह इतना अतृप्तिकर क्यों हो? इसके पक्ष में बहुत हुआ, तो इतना ही कहा जा सकता है कि इसमें से होकर हम एक उच्चतर रास्ते की दिशा मरे जा रहे हैं; पुनः उन्नत अवस्था प्राप्त करने के लिए हमें इसमें से होकर गुजरना पड़ रहा है। जमीन में बीज बो दो, वह सड़कर विश्लिष्ट होकर कुछ समय बाद मिट्टी के साथ बिलकुल मिल जाएगा, फिर उसी विश्लिष्ट अवस्था से एक महाकाय वृक्ष उत्पन्न होगा। ऐसा  महाकाय वृक्ष (giant tree) बनने  लिए प्रत्येक बीज को सड़ना पड़ेगा। उसी प्रकार ब्रह्मभावापन्न होने के लिए- ब्रह्मस्वरूप हो जाने के लिए प्रत्येक जीवात्मा को इस अवनति की अवस्था (degradation)  में से होकर जाना पड़ेगा। 

अतएव यह स्पष्ट है कि हम जितनी जल्दी इस 'मानव' संज्ञक अवस्थाविशेष का अतिक्रमण (transcend)  कर उसके ऊपर चले जाएँ , उतना ही हमारा कल्याण है। तो क्या आत्महत्या (suicide) करके हमें इस अवस्था के बाहर होना होगा? नहीं, कभी नहीं वरन् उससे तो उलटा ही फल होगा। शरीर को व्यर्थ में कष्ट देना अथवा संसार को वृथा कोसना (cursing the world) इस संसार से तरने का उपाय नहीं हैं। उसके लिए तो हमें इस नैराश्य के पंकिल सरोवर (turbid lake of despair) में से होकर जाना पड़ेगा; और जितनी जल्दी हम उसे पार कर जाएँ, उतना ही मंगल है। पर यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य अवस्था ही सब से ऊँची अवस्था नहीं है। 

यहाँ यह बात समझना सचमुच कठिन है कि जिस निर्विशेष अवस्था (impersonal state)  को सबसे ऊँची अवस्था कहा जाता है, वह, जैसा कि बहुत से लोग शंका करते हैं, पत्थर या अर्धजन्तु, अर्धवृक्ष जैसे किसी जीवविशेष की अवस्था तो नहीं है ?  जो लोग ऐसा सोचते हैं, उनके मत से संसार भर के सारे अस्तित्व केवल दो भागों में विभक्त हैं- एक तो वह, जो पत्थर आदि के समान जड़ की अवस्था है, और दूसरा वह, जो विचार की अवस्था है। किन्तु हम उनसे पूछते हैं कि सारे अस्तित्व को इन दो ही भागों में सीमित कर देने का उन्हें क्या अधिकार है? क्या विचार से अनन्तगुनी अधिक ऊँची और कोई अवस्था नहीं है? आलोक का कम्पन अत्यन्त मृदु होने पर वह हमें दृष्टिगोचर नहीं होता। जब वह कम्पन अपेक्षाकृत कुछ तीव्र होता है, तब वह हमारी दृष्टि का विषय जाता है- तब हमारी आँखों के सामने वह आलोक के रूप में दीख पड़ता है। पर जब वह और भी तीव्र हो जाता है, तब हम पुनः उसे नहीं देख पाते। वह हमें अन्धकार के समान ही प्रतीत होता है। 

तो क्या यह बाद का अन्धकार उस पहले अन्धकार समान है? नहीं, कभी नहीं, उन दोनों में तो दो ध्रुवों का जमीन आसमान का अन्तर है। क्या पत्थर की विचारशून्यता (thoughtlessness) और भगवान् की विचारशून्यता दोनों एक हैं? बिलकुल नहीं। भगवान् सोचते नहीं - वे तर्क करते नहीं। वे भला करेंगे भी क्यों? उनके लिए क्या कुछ अज्ञात है, जो वे तर्क करेंगे? पत्थर तर्क कर ही नहीं सकता , और ईश्वर तर्क करता नहीं हैं ' बस यही अन्तर है। ये दार्शनिकगण सोचते हैं कि विचार के परे जाना अत्यन्त भयानक बात है। वे विचार के परे कुछ भी नहीं पाते। 

युक्ति तर्क के परे अस्तित्व की अनेक उच्चतर अवस्थाएँ हैं। वास्तव में धर्मजीवन की पहली अवस्था तो बुद्धि की सीमा लाँघने पर शुरू होती है। जब तुम विचार, बुद्धि, युक्ति इन सब के परे चले जाते हो, तभी तुमने भगवत्प्राप्ति के पथ में पहला कदम रखा है। वही जीवन का सच्चा प्रारम्भ है। जिसे हम साधारणतः जीवन कहते हैं, वह तो असल जीवन की भ्रूण अवस्था (embryonic stage)  मात्र है।- 

अब प्रश्न हो सकता है कि विचार और युक्तितर्क के अतीत की अवस्था ही सब से ऊँची अवस्था है, इसका क्या प्रमाण? पहले तो, संसार के श्रेष्ठ महापुरुषगण कोरी लम्बी चौड़ी हाँकनेवालों की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ महापुरुषगण (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण के शिष्य नरेन्द्रनाथ), जिन्होंने अपनी शक्ति के बल से सम्पूर्ण जगत् को हिला दिया था, जिनके हृदय में स्वार्थ का लेशमात्र न था (selfishness-0 %) जगत् के सामने घोषणा कर गये हैं कि हमारा यह जीवन उस सर्वातीत अनन्तस्वरूप में पहुँचने के लिए रास्ते में केवल एक क्षुद्र अवस्था है। दूसरे, उन्होंने केवल मुख से ऐसा कहा हो, सो नहीं, वरन् उन्होंने सभी को वहाँ जाने का रास्ता बतला दिया है, अपनी साधन प्रणाली सभी को समझा दी है, जिससे सब लोग उनका पदानुसरण कर आगे बढ़ सकें। तीसरे, पहले जो व्याख्या दी गयी है, उसको छोड़ जीवन समस्या की और किसी प्रकार से सन्तोषजनक व्याख्या नहीं दी जा सकती। यदि मान लिया जाए कि इसकी अपेक्षा उच्चतर अवस्था और कोई नहीं है, तो भला हम लोग चिरकाल इस वृत्त के माध्यम से क्यों जा रहे हैं? किस युक्ति के आधार पर इस दृश्यमान जगत् की व्याख्या की जाए? 

यदि हममें इससे अधिक दूर जाने की शक्ति न रहे, यदि हमारे लिए इसकी अपेक्षा कुछ अधिक चाहने को न रहे, तब तो यह पंचेन्द्रियग्राह्य जगत् ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा रह जाएगा। इसी को अज्ञेयवाद कहते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि इन इन्द्रियों की गवाही में विश्वास करने के लिए भला हमारे पास कौन सी युक्ति है? मैं तो उन्हीं को यथार्थ अज्ञेयवादी कहूँगा, जो रास्ते में चुप खड़े रहकर मर सकते हैं। यदि युक्ति ही हमारा सर्वस्व हो, तो वह तो हमें इस (nihilism) शून्यवाद  को लेकर संसार में स्थिर होकर कहीं रहने न देगी यदि कोई धन और नाम यश की स्पृहा (desire,भोग-इच्छा) को छोड़ शेष सभी विषयों के सम्बन्ध में अज्ञेयवादी हो, तो वह केवल पाखण्डी (hypocrite) है कान्ट (Kant) ने निःसन्दिग्ध रूप से प्रमाणित किया है कि हम युक्ति तर्करूपी दुर्भेद्य दीवार का अतिक्रमण कर उसके उस पार नहीं जा सकते। किन्तु भारत में तो समस्त विचारधाराओं की पहली बात है- युक्ति के उस पार चले जाना-'go beyond the logic'। 

योगीगण अत्यन्त साहस के साथ इस राज्य की खोज में प्रवृत्त होते हैं, और अन्त में ऐसी एक अवस्था को प्राप्त करने में सफल होते हैं, जो समस्त युक्ति तर्क के परे है और जिसमें ही केवल हमारी वर्तमान परिदृश्यमान अवस्था का स्पष्टीकरण मिलता है। यही लाभ है उसके अध्ययन से, जो हमें जगत् के अतीत तक ले जाता है। 'त्वं हि नः पिता, योऽस्माकमविद्यायाः परं पारं तारयसि।' - 'तुम हमारे पिता हो, तुम हमें अज्ञान के उस पार ले जाओगे।'-(प्रश्न उपनिषद/६.८) यही धर्मविज्ञान है, और कुछ भी नहीं। 

===

साभार --@@@https://www.khabardailyupdate.com/2023/02/patanjali-yoga-sutras-chapter-3.html

समाधि पाद 

परिचय>  पतंजलि योग सूत्र के चार पादों में पहला पाद है समाधिपाद। इस प्रथम पाद में मुख्य रूप से समाधि तथा उसके विभिन्न भेदों का वर्णन किया गया है। अतः इसका नाम समाधि पाद है, इसमें साधकों के लिए समाधि के वर्णन के साथ-साथ योग के विभिन्न साधनों का भी समावेश किया गया है। इस पाद में योग के शुद्धतम स्वरूप, उसके फल, वृत्तियों के प्रकार तथा उनके ठीक ठीक स्वरूप, वैराग्य के भेद,अभ्यास और वैराग्य से वृत्ति निरोध, ईश्वर के सच्चे स्वरूप , योग साधना के मार्ग में आने वाली बाधाओं का विवेचन, जप अनुष्ठान की विधि एवं मनोनिरोध हेतु विविध उपायों का वर्णन, प्रसन्नचित्त रहने के उपाय,समापत्ति के स्वरूप तथा ऋतंभरा प्रज्ञा के लक्षण आदि का वर्णन किया गया है।}

अथ योगानुशासनम् ॥ १॥

सूत्रार्थ - अब योग की व्याख्या करते हैं।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ २ ॥ 

सूत्रार्थ - चित्त को विभिन्न वृत्तियों अर्थात् आकारों में परिणत होने से रोकना ही योग है।

व्याख्या- यहाँ बहुतसी बातें समझाने की आवश्यकता है। पहले हमें यह समझ लेना होगा कि यह चित्त और ये वृत्तियाँ क्या हैं। मेरी ये आँखें हैं। आँखें वास्तव में नहीं देखतीं। यदि मस्तिष्क में स्थित दर्शनेन्द्रिय या दर्शनशक्ति को नष्ट कर दो, तो भले ही तुम्हारी आँखें रहें, आँखों की पुतलियाँ भी साबूत रहें और आँख के ऊपर जिस छबि के प्रड़ने से दर्शन होता है, वह भी रहे, पर फिर भी आँखें देख न सकेंगी। अतः आँख दर्शन का गौण यन्त्र मात्र हुई। वह वास्तव में दर्शनेन्द्रिय नहीं है। दर्शनेन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है। 

अतएव हमने देखा कि दर्शनक्रिया के लिए केवल दो आँखें ही पर्याप्त नहीं हैं। कभी कभी मनुष्य आँखें खुली रखकर सो जाता है। वस्तु का चित्र आँखों पर बना हुआ है, दर्शनेन्द्रिय भी है, पर और एक तीसरी वस्तु की आवश्यकता है-और वह है मन। मन को इन्द्रिय के साथ संयुक्त रहना चाहिए। अतः दर्शनक्रिया के लिए चक्षुरूप बहिर्यन्त्र, मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र और मन -ये तीन चीजें चाहिए। कभी कभी ऐसा होता है कि रास्ते से गाड़ियाँ दौड़ती हुई निकल जाती हैं, पर तुम उन्हें सुन नहीं पाते। क्यों? इसलिए कि तुम्हारा मन श्रवणेन्द्रिय के साथ संयुक्त नहीं रहता। 

अतएव, प्रत्येक अनुभव-क्रिया के लिए पहले तो बाहर का यन्त्र, उसके बाद इन्द्रिय, और तृतीयतः, इन दोनों के साथ मन का योग चाहिए। मन विषय के अभिघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अन्दर ले जाकर निश्चयात्मिका बुद्धि के सामने पेश करता है। तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के साथ अहंभाव जाग उठता है। फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह मिश्रण पुरुष अर्थात् यथार्थ आत्मा के सामने लाया जाता है। 

तब वह पुरुष इस मिश्रण को एक (ससीम) वस्तु के रूप में अनुभव करता है। पाँचों इन्द्रिय, मन, निश्चयात्मिका बुद्धि और अहंकार को मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं। ये सब मन के उपादानस्वरूप चित्त के भीतर होनेवाली भिन्न भिन्न प्रक्रियाएँ हैं। चित्त में उठनेवाली विचारतरंगों को वृत्ति (भँवर) कहते हैं। अब प्रश्न यह है कि यह विचार है क्या चीज ? गुरुत्वाकर्षण या विकर्षण-शक्ति के समान विचार भी एक शक्ति है। 

प्रकृति के अक्षय शक्तिभण्डार से चित्त नामक करण कुछ शक्ति को ग्रहण कर लेता है, अपने में आत्मसात् कर लेता है और उसे विचार के रूप में बाहर भेजता है। यह शक्ति हमें खाद्यान्न के जरिये प्राप्त होती है और इस खाद्यान्न से शरीर गति आदि की शक्ति प्राप्त करता है। दूसरी अर्थात् सूक्ष्मतर शक्तियों को वह विचार के रूप में बाहर भेजता है। अतएव मन चेतन नहीं है; फिर भी वह चेतन-सा प्रतीत होता है। क्यों ? इसलिए कि चेतन आत्मा उसके पीछे है। 

तुम ही एकमात्र चेतन पुरुष हो-मन तो केवल एक करण अर्थात् यन्त्र मात्र है, जिसके द्वारा तुम बाह्य जगत् की उपलब्धि करते हो। इस पुस्तक की ही बात लो: बाहर इसका पुस्तकरूपा अस्तित्व नहीं है। बाहर वस्तुतः जो है, वह तो अज्ञात और अज्ञेय है। वह केवल संकेत देनेवाला कारण मात्र है। जैसे पानी में एक पत्थर फेंकने पर पानी प्रवाहाकार में बँटकर उस पत्थर पर प्रतिघात करता है, ठीक वैसे ही वह अज्ञात वस्तु जाकर मन में आघात प्रदान करती है, और मन से पुस्तक के रूप में एक प्रतिक्रिया होती है। 

यथार्थ बहिर्जगत् तो संकेत देनेवाला कारण मात्र है, जिससे मानसिक प्रतिक्रिया होती है। एक पुस्तक का रूप, हाथी का रूप या मनुष्य का रूप बाहर कोई अस्तित्व नहीं रखता; हम जो कुछ जानते हैं वह बाहर के संकेत से होनेवाली हमारी मानसिक प्रतिक्रिया मात्र है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है, "संवेदना की नित्य सम्भाव्यता का नाम जड़ पदार्थ है।" बाहर जो है, वह है केवल इस प्रतिक्रिया को उत्पन्न करनेवाला संकेत मात्र। 

उदाहरणार्थ, मोती की एक सीप को लो। तुम लोग जानते हो, मोती किस तरह पैदा होता हैकोई पराश्रयी कीटाणु सीप में घुस जाता है और उसमें क्षोभ उत्पन्न करने लगता है। इससे वह सीप उस कीटाणु के चारों ओर 'एनामेल' के समान एक प्रकार का लेप-सा डालने लगती है। बस, उसी से मोती तैयार होता है। यह सारा अनुभवात्मक जगत मानो हमारे अपने उस लेप के समान है, और यथार्थ जगत् मानो केन्द्र के रूप में कीटाणु है। 

सामान्य मनुष्य उसे कभी समझ न सकेगा. क्योंकि जब कभी वह उसे समझने की कोशिश करता है, त्योंही वह बाहर मानो अपना लेप डालने लगता है,और बस, अपने उस लेप को ही देखता है। अब हम समझे कि वृत्ति का सच्चा अर्थ क्या है। मनुष्य का जो असल स्वरूप (आत्मा) है, वह मन के अतीत है। मन तो उसके हाथों एक यन्त्रस्वरूप है। उसी का चैतन्य इस मन के माध्यम से अनुम्रवित (transmitted-संचारित) हो रहा है। जब तुम इस मन के पीछे द्रष्टारूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है। जब मनुष्य इस मन (मिथ्या अहं) को बिलकुल त्याग देता है, तो उस मन का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता। अब समझ में आया कि चित्त का क्या तात्पर्य है । वह मन का उपादानस्वरूप है, और वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें और तरंगें हैं। ज्यों ही बाहर के कुछ कारण उस पर कार्य करने लगते हैं, त्योंही वह तरंगरूप धारण कर लेता है। हम जिसे जगत् कहते हैं, वह तो इन वृत्तियों की समष्टि मात्र है

हम लोग सरोवर की तली को नहीं देख सकते, क्योंकि उसकी तह छोटी छोटी लहरों से व्याप्त रहती है। उस तली की झलक मिलना तभी सम्भव है, जब ये सारी लहरें शान्त हो जाएँ और पानी स्थिर हो जाए। यदि पानी गन्दला हो, या सारे समय उसमें हलचल होती रहे, तो वह तली कभी दिखाई न देगी। पर यदि पानी निर्मल हो और उसमें एक भी लहर न रहे, तब हम उस तली को अवश्य देख सकेंगे। यह चित्त मानो उस सरोवर के समान है और हमारा असल स्वरूप (आत्मा) मानो उसकी तली है; वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें हैं। 

फिर यह भी देखा जाता है कि यह मन तीन प्रकार की अवस्थाओं में रहता है। एक है तम की अवस्था अर्थात् अन्धकारमय अवस्था, जैसा कि हम पशुओं और अत्यन्त मूर्खों में पाते हैं। ऐसे मन की प्रवृत्ति केवल औरों को क्षति पहुँचाने में ही होती है; मन की इस अवस्था में और दूसरा कोई विचार ही नहीं सूझता । दूसरा है- रज अर्थात् मन की क्रियाशील अवस्था, हैं- जिसमें केवल प्रभुत्व और भोग की इच्छा रहती है। उस समय यही भाव रहता है कि मैं शक्तिमान् होऊँगा और दूसरों पर प्रभुत्व करूँगा। तीसरा है-सत्त्व की अवस्था, अर्थात् मन की गम्भीर और शान्त अवस्था, जिसमें समस्त तरंगें शान्त हो जाती हैं और मानस-सरोवर का जल निर्मल हो जाता है। 
 
मन की यह शान्त और निर्मल अवस्था कोई जड़ावस्था नहीं है, प्रत्युत यह तो तीव्र क्रियाशील अवस्था है। शान्त होना शक्ति की महत्तम अभिव्यक्ति है। क्रियाशील होना तो सहज है। बस, लगाम ढीली कर दो, तो घोड़े स्वयं तुम्हें भगा ले जाएँगे। यह तो कोई भी कर सकता है; पर शक्तिमान् पुरुष तो वह है, जो इन तेज घोड़ों को थाम सके। किसमें अधिक शक्ति लगती है- लगाम ढीली कर देने में अथवा उसे थामे रखने में ? शान्त मनुष्य और मन्द बुद्धिवाले मनुष्य एक समान नहीं हैं। सत्त्व की अवस्था को कहीं मन्द बुद्धि की अवस्था या आलस्य न समझ बैठना। शान्त मनुष्य वह है, जो मन की इन लहरों को अपने वश में लाने में समर्थ हुआ है। क्रियाशीलता निम्नतर शक्ति की अभिव्यक्ति है और शान्त भाव उच्चतर शक्ति की ।

यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिए सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना, उसकी इस बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर उस चैतन्यघन पुरुष के पास ले जानेवाले रास्ते पर लाना- यही योग का पहला सोपान है; क्योंकि केवल इसी उपाय से चित्त अपने यथार्थ रास्ते पर आ सकता है।

यद्यपि उच्चतम से लेकर निम्नतम तक सभी प्राणियों में यह चित्त विद्यमान है, तथापि केवल मनुष्यशरीर में ही हम उसे बुद्धिरूप (विवेक ?) में विकसित देख पाते हैं। जब तक यह चित्त बुद्धि का रूप धारण नहीं कर लेता, तब तक उसके लिए इन सब विभिन्न सोपानों में से होते हुए लौटकर आत्मा को मुक्त करना सम्भव नहीं। यद्यपि गाय या कुत्ते के भी मन है पर उनके लिए सद्योमुक्ति असम्भव है; क्योंकि उनका चित्त अभी बुद्धि (विवेक?) का रूप धारण नहीं कर सकता

यह चित्त अवस्थाभेद से बहुतसे रूप धारण करता है, जैसे- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त अवस्था में मन चारों ओर बिखर जाता है और कर्मवासना प्रबल रहती है। इस अवस्था में मन की प्रवृत्ति केवल सुख और दुःख इन दो भावों में ही प्रकाशित होने की होती है। मूढ़ अवस्था तमोगुणात्मक है और इसमें मन की प्रवृत्ति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है। वि'क्षिप्त (क्षिप्त से विशिष्ट) अवस्था वह है, जब मन अपने केन्द्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है। यहाँ पर टीकाकार कहते हैं कि विक्षिप्त अवस्था देवताओं के लिए स्वाभाविक है और क्षिप्त तथा मूढ़ावस्था असुरों के लिए। एकाग्र अवस्था तभी होती है, जब मन निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है। और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि में ले जाती है

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ ३ ॥

 सूत्रार्थ - -उस समय (अर्थात् इस निरोध की अवस्था में) द्रष्टा (पुरुष) अपने (अपरिवर्तनशील) स्वरूप में अवस्थित रहता है।

व्याख्या - ज्योंही लहरें शान्त हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है, त्योंही हम सरोवर की तली को देख पाते हैं। मन के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझो। जब यह शान्त हो जाता है, तब हम देख पाते हैं कि अपना असल स्वरूप क्या है, फिर हम उन तरंगों के साथ अपने आपको एकरूप नहीं कर लेते, वरन् अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।

 वृत्तिसारूप्यमितरत्र ॥४॥

सूत्रार्थ - (इस निरोध की अवस्था को छोड़कर) दूसरे समय में द्रष्टा वृत्ति के साथ एकरूप होकर रहता है।

व्याख्या- उदाहरणार्थ, मान लो, किसी ने मेरी निन्दा की। बस, वह मेरे में एक वृत्ति उठा देता है और मैं उसके साथ अपने आपको एकरूप कर मन देता हूँ। इसका परिणाम होता है - दुःख

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥ ५॥ 

सूत्रार्थ- वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं - (कुछ) क्लेशयुक्त और (कुछ) क्लेशशून्य।

 प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥ ६ ॥

सूत्रार्थ - (वे हैं) प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति- अर्थात् सत्यज्ञान, भ्रमज्ञान, शब्दभ्रम, निद्रा और स्मृति।

 प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥७॥

सूत्रार्थ - प्रत्यक्ष अर्थात् साक्षात् अनुभव, अनुमान और आगम अर्थात् विश्वस्त लोगों के वाक्य-  (ये तीन) प्रमाण हैं।

व्याख्या - जब हमारी दो अनुभूतियाँ आपस में विरोधी नहीं होतीं तब उसे हम प्रमाण कहते हैं। मान लो, मैंने कुछ सुना, यदि वह पहले अनुभव की हुई किसी बात का खण्डन करे, तो मेरे भीतर उसके विरुद्ध तर्क-वितर्क होने लगते हैं और मैं उस पर विश्वास नहीं करता। प्रमाण के फिर तीन प्रकार हैं। साक्षात् अनुभव या प्रत्यक्ष-यह एक प्रकार का प्रमाण है। यदि हम किसी प्रकार आँख और कान के भ्रम में न पड़े हों, तो हम जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं, उसे प्रत्यक्ष कहा जाएगा। मैं इस दुनिया को देखता हूँ; बस, यह उसके अस्तित्व का पर्याप्त प्रमाण है। दूसरा है अनुमान -लक्षण से लक्ष्य वस्तु पर आना। तुमने कोई संकेत देखा और उससे तुम उस लक्ष्य वस्तु पर आ गये, जिसका कि वह संकेत है।

तीसरा है आप्तवाक्य-योगियों अर्थात् सत्यद्रष्टा ऋषियों की प्रत्यक्ष अनुभूति। हम सभी ज्ञान की प्राप्ति के लिए सतत संघर्ष कर रहे हैं; पर तुम्हें और मुझे उसके लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता है; दीर्घ- काल तक विचाररूप क्लान्तिकर रास्ते से होकर अग्रसर होना पड़ता है; किन्तु विशुद्ध-सत्त्व योगी इन सब के पार चले गये हैं। उनके मनश्चक्षु के सामने भूत, भविष्य और वर्तमान सब एक हो गये हैं, उनके लिए वे सब मानो एक पाठ्यपुस्तक के समान हैं। हम लोगों को ज्ञानलाभ के लिए जिस क्लान्तिकर प्रणाली में से होकर जाना पड़ता है, उनके लिए उसकी फिर और आवश्यकता नहीं रह जाती। उनका वाक्य ही प्रमाण है, क्योंकि वे अपने भीतर ही सारे ज्ञान की उपलब्धि करते हैं। ऐसे व्यक्ति ही पवित्र शास्त्रग्रन्थों के प्रणेता हैं, और इसीलिए शास्त्र प्रमाण हैं। 

यदि वर्तमान समय में ऐसे मनुष्य कोई (C-IN-C नवनीदा) हों, तो उनकी बात भी अवश्य प्रमाण होगी। दूसरे दार्शनकों ने इस आप्त के बारे में बहुतसे तर्कवितर्क किये हैं। उनका प्रश्न है कि आप्तवाक्य को सत्य क्यों माना जाए? इसका उत्तर यह है कि वह उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति है। यदि वह पहले किये हुए अनुभव की विरोधी न हो, तो मैं जो कुछ देखता हूँ, वह प्रमाण है और तुम भी जो कुछ देखते हो, वह प्रमाण है। ठीक इसी तरह इन्द्रियों के भी अतीत एक ज्ञान है; और जब कभी यह ज्ञान युक्ति और मनुष्य की पूर्व-अनुभूति का खण्डन नहीं करता, तब वह भी प्रमाण है। यदि कोई पागल इस कमरे में घुस आए और कहने लगे, 'मैं चारों ओर देवदूत देख रहा हूँ', तो वह प्रमाण न कहा जाएगा। पहले तो, वह ज्ञान सत्य होना चाहिए। दूसरे, वह पहले के किसी ज्ञान का खण्डन न करे। और तीसरे, वह उस मनुष्य के चरित्र पर आधारित हो

मैंने बहुतों को यह कहते सुना है कि मनुष्य का चरित्र उतने महत्त्व का नहीं है, जितना कि उसके शब्द; वह क्या कहता है, बस, उसी को पहले सुनो। अन्य विषयों के सम्बन्ध में यह बात भले ही सत्य हो, पर धर्म के सम्बन्ध में तो यह सम्भव नहीं। एक व्यक्ति दुष्ट स्वभाववाला होता हुआ भी ज्योतिष के बारे में कुछ आविष्कार कर सकता है, पर धर्म के बारे में बात अलग है; क्योंकि कोई भी अपवित्र मनुष्य धर्म के यथार्थ सत्य को किसी काल में प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव, सब से पहले हमें देखना होगा कि जो व्यक्ति अपने आपको आप्त कहकर ढिंढोरा पीटता है, वह पूर्णतया निःस्वार्थ (100 % Unselfish) और पवित्र है अथवा नहीं ? दूसरे, उसने अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति की है या नहीं ?

तीसरे, वह जो कुछ कहता है, वह मनुष्यजाति के किसी पूर्वज्ञान या पूर्व अनुभव का खण्डन तो नहीं करता। आविष्कृत कोई भी नया सत्य पूर्वकालीन किसी सत्य का खण्डन नहीं करता, वरन् वह तो पूर्वसत्य के साथ पूरी तरह मेल खाता है। और चौथे, दूसरों के लिए उस सत्य की प्राप्ति करना सम्भव होना चाहिए। यदि कोई मनुष्य कहे कि मुझे एक दर्शन हुआ है और साथ ही यह भी बोले कि उसे मैं ही देख सकता हूँ-और किसी के वश की वह बात नहीं, तो मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। प्रत्येक मनुष्य स्वयं प्रत्यक्ष उपलब्धि करके यह देख सके कि वह सत्य है या नहीं। फिर, जो व्यक्ति अपना ज्ञान बेचता फिरता है, वह आप्त नहीं है। ये सब शर्तें अवश्य पूरी होनी चाहिए। 

तुम्हें पहले देखना होगा कि वह (नवनीदा) व्यक्ति पवित्र और निःस्वार्थ है, उसमें धन-सम्पत्ति या नाम-यश की तृष्णा नहीं है। दूसरे, उसके जीवन से यह प्रकट होना चाहिए कि वह अतिचेतन भूमि पर पहुँच गया है। तीसरे, उसे हम लोगों को ऐसा कुछ देना चाहिए, जो हम इन्द्रियों से न पा सकते हों और जो संसार के कल्याण के लिए हो। साथ ही, वह किसी दूसरे सत्य का खण्डन न करे; यदि वह दूसरे वैज्ञानिक सत्यों का खण्डन करता हो, तो उसे तुरन्त त्याग दो। और चौथे, वह व्यक्ति किसी सत्य की ठेकेदारी न करे, अर्थात् वह ऐसा न कहे कि इस सत्य में मेरा ही अधिकार है, किसी दूसरे का नहीं। 

वह अपने जीवन में उसी को कार्यरूप में परिणत करके दिखाए, जो दूसरों के लिए भी प्राप्त करना सम्भव हो। अतएव, प्रमाण तीन प्रकार के हुए प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों की अनुभूति, अनुमान, और आप्तवाक्य। मैं इस 'आप्त' शब्द का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं कर सकता। इसे प्रेरणाप्राप्त (inspired) शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह प्रेरणा बाहर से आती है, और यहाँ जिस ज्ञान की बात हो रही है, वह भीतर से आता हैइसका शाब्दिक अर्थ है - "जिन्होंने पाया है।"

 विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥ ८ ॥

सूत्रार्थ - विपर्यय का अर्थ है मिथ्याज्ञान, जो उस वस्तु के यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है।

व्याख्या - दूसरे प्रकार की वृत्ति है- एक वस्तु में किसी दूसरे वस्तु की भ्रान्ति, जैसे शुक्ति में रजत का भ्रम। इसे विपर्यय कहते हैं।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥ ९ ॥

सूत्रार्थ- यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व न रहे, तो उस शब्द से जो एक प्रकार का ज्ञान उठता है, उसे विकल्प अर्थात् शब्दजात भ्रम कहते हैं।

व्याख्या - विकल्प नामक और एक प्रकार की वृत्ति है। कोई बात हम सुनते हैं, और उसके अर्थ पर शान्तभाव से विचार न कर झट से एक सिद्धान्त गढ़ लेते हैं। यह चित्त की कमजोरी का लक्षण है। अब संयमवाद अच्छी तरह समझ में आ सकेगा। मनुष्य जितना कमजोर होता है, उसकी संयम की शक्ति उतनी ही कम रहती है। तुम अपने आपको सदा इस संयम की कसौटी पर कसो। जब तुममें क्रोध या दुःखित होने का भाव आए, तो उस समय विचार करके देखना कि यह कैसे हो रहा है; यह कैसे है कि कोई खबर तुम्हारे पास आते ही तुम्हारे मन को वृत्तियों में परिणत किये दे रही है।

अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निदा ॥ १० ॥

सूत्रार्थ- जो वृत्ति शून्यभाव का अवलम्बन करके रहती है, उसे निद्रा कहते हैं। 

व्याख्या- और एक प्रकार की वृत्ति का नाम है निद्रा (स्वप्न और सुषुप्ति)। हम जब जाग उठते हैं, तब हम जान पाते हैं कि हम सो रहे थे। केवल अनुभूत विषय की ही स्मृति हो सकती हैं। हम जिसका अनुभव नहीं करते, उस विषय की हमें कोई स्मृति नहीं आ सकती। हर एक प्रतिक्रिया मानो चित्तरूपी सरोवर की एक तरंग है। अब, यदि निद्रां में मन की किसी प्रकार की वृत्ति न रहती, तो उस अवस्था में हमें भावात्मक या अभावात्मक कोई भी अनुभूति न होती। अतः हम उसका स्मरण भी नहीं कर पाते। हम जो निद्रावस्था का स्मरण कर सकते हैं, उसी से यह प्रमाणित हो जाता है कि निद्रावस्था में मन में एक प्रकार की तरंग थी। स्मृति भी एक प्रकार की वृत्ति है।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥११॥

सूत्रार्थ – अनुभव किये हुए विषयों का मन से लोप न होना (और संस्कारवश - उनका ज्ञान के स्तर पर आ उठना) स्मृति कहलाता है।

व्याख्या–ऊपर जिन चार प्रकार की वृत्तियों के बारे में कहा गया है, उनमें से प्रत्येक से स्मृति आ सकती है। मान लो, तुमने एक शब्द सुना। यह शब्द चित्तरूपी सरोवर में फेंके गये एक पत्थर के समान है; उससे एक छोटीसी लहर पैदा हो जाती है और यह लहर फिर बहुतसी छोटी छोटी लहरों को उत्पन्न करती है। यही स्मृति है। निद्रा में भी यह घटना होती रहती है। जब निद्रा नामक लहरविशेष चित्त के अन्दर स्मृतिरूप लहरें उत्पन्न कर देती है, तब उसे स्वप्न कहते हैं। जाग्रत् अवस्था में जिसे स्मृति कहते हैं, निद्राकाल में उसी प्रकार की वृत्ति को स्वप्न कहते हैं।

 अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥

सूत्रार्थ- अभ्यास और वैराग्य से उन (वृत्तियों) का निरोध होता है। 

व्याख्या - इस वैराग्य को प्राप्त करने के लिए यह विशेष रूप से आवश्यक है कि मन निर्मल, सत् और विवेकशील हो। अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्येक कार्य से मानो चित्तरूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है। फिर क्या शेष रहता है ? - केवल संस्कारसमूह। मन में ऐसे बहुतसे संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि “आदत ही द्वितीय स्वभाव है।” केवल द्वितीय स्वभाव नहीं, वरन् वह 'प्रथम' स्वभाव भी है-मनुष्य का समस्त स्वभाव इस आदत पर निर्भर रहता है। हमारा अभी जो स्वभाव है, वह पूर्व-अभ्यास का फल है। 

तत्र स्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः ॥ १३ ॥

सूत्रार्थ- उन (वृत्तियों) को पूर्णतया वश में रखने के लिए जो सतत प्रयत्न है, उसे अभ्यास कहते हैं।

व्याख्या- अभ्यास किसे कहते हैं? मन को दमन करने की चेष्टा अर्थात् प्रवाहरूप में उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा हीं अभ्यास है। 

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥१४॥

सूत्रार्थ - दीर्घकाल तक परम श्रद्धा के साथ (उस परमपद की प्राप्ति के लिए) सतत चेष्टा करने से वह (अभ्यास) दृढभूमि (अर्थात दृढ़ अवस्थावाला) हो जाता है।

व्याख्या - यह संयम एक दिन में नहीं आता, इसके लिए तो दीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करना पड़ता है।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥१५॥

सूत्रार्थ- देखे और सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देनेवाले में जो एक अपूर्व भाव आता है, जिससे वह समस्त विषय-वासनाओं का दमन करने में समर्थ होता है, उसे वैराग्य या अनासक्ति कहते हैं।

व्याख्या- दो प्रेरक शक्तियाँ हमारे सारे कार्यों की नियामक हैं। एक है। हमारा अपना अनुभव और दूसरा है, दूसरों का अनुभव। ये दो शक्तियाँ हमारे मानस सरोवर में नाना प्रकार की तरंगें पैदा करती रहती हैं। इन दोनों शक्तियों के विरुद्ध लढाई ठानने और मन को वश में रखने के लिए हमें वैराग्यरूपी शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इन दोनों का त्याग ही हमारा अभीष्ट है। मान लो, मैं एक सड़क से जा रहा हूँ। एक मनुष्य आता है और मेरी घड़ी छीन लेता है। यह मेरा निजी अनुभव हुआ। यह मैं स्वयं देखता हूँ। 

वह तुरन्त मेरे चित्त में एक तरंग उत्पन्न कर देता है, जो क्रोध का आकार ले लेती है। अब मुझे चाहिए कि मैं उस भाव को न आने दूँ। यदि मैं उसे न रोक सका, सकूँ, तो फिर मुझमें है ही क्या ? कुछ भी नहीं। यदि मैं रोक तभी समझा जाएगा कि मुझमें वैराग्य है। फिर, संसारी लोगों का अनुभव हमें सिखाता है कि विषय-भोग ही जीवन का चरम लक्ष्य है। ये सब हमारे लिए भयानक प्रलोभन हैं। उन सब के प्रति पूर्णतया उदासीन हो जाना और उन सब से प्रभावित होकर मन को तद्रूप वृत्ति के आकार में परिणत न होने देना ही वैराग्य है। 

स्वयं अपने अनुभव किये हुए और दूसरों के अनुभव किए हुए विषयों से हममें जो दो प्रकार की कार्यप्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें दबाना और इस प्रकार चित्त को उनके वश में नहीं आने देना ही वैराग्य कहलाता है। वे सब मेरे अधीन रहें, मैं उनके अधीन न होऊँ इस प्रकार के मनोबल को वैराग्य कहते हैं, और यह वैराग्य ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है। 

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ।। १६ ।।

सूत्रार्थ- जो (वैराग्य) पुरुष के (असल स्वरूप के) ज्ञान से आता है और जो गुणों का भी सर्वथा त्याग कर देता है, वह परवैराग्य है।

व्याख्या- वैराग्य की शक्ति का उच्चतम विकास तो तब होता है, जब वह गुणों के प्रति हमारी आसक्ति भी दूर हटा देता है। पहले हमें समझ लेना होगा कि यह पुरुष या आत्मा क्या है, ये गुण क्या हैं। योगशास्त्र के मत से, यह सारी प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। ये गुण हैं-तम, रज और सत्त्व। ये तीनों गुण बाह्य जगत् में क्रमशः तम (अन्धकार) या जड़ता, आकर्षण या विकर्षण और उन दोनों का सामंजस्य, इन तीन प्रकारों में प्रकाशित होते हैं। प्रकृति की सारी वस्तुएँ, यह सारा का सारा प्रपंच ही इन तीनों शक्तियों के विभिन्न मेल से उत्पन्न हुआ है। 

सांख्यमतवालों ने प्रकृति को विविध तत्त्वों में विभक्त किया है; मनुष्य की आत्मा इन सब के परे, प्रकृति के भी परे है; वह स्वयंप्रकाश, शुद्ध और पूर्णस्वरुप है। प्रकृति में हम जो कुछ चैतन्य का प्रकाश देख पाते हैं, वह सभी प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है। प्रकृति स्वयं जड़ है। यह स्मरण रखना चाहिए कि मन भी प्रकृति शब्द के अन्तर्भूत है, वह प्रकृति के भीतर की वस्तु है।  हमारे जो कुछ विचार हैं, वे सब के सब प्रकृति के ही अन्तर्गत हैं। विचार से लेकर सब से स्थूलतम जड़ पदार्थ तक सभी प्रकृति के अन्तर्गत हैं – प्रकृति की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं।

इस प्रकृति ने ही मनुष्य की आत्मा को आवृत कर रखा है, और जब वह अपने इस आवरण को हटा लेती है, तब आत्मा आवरणमुक्त हो अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। पन्द्रहवें सूत्र में जिस वैराग्य की बात बतलायी गयी है, जिसके द्वारा समस्त विषयों को अर्थात् प्रकृति को वश में लाया जाता है, वह आत्मा के प्रकाशित होने में सब से बड़ा सहायक है। अगले सूत्र में समाधि या पूर्ण एकाग्रता के लक्षण का वर्णन किया गया है। यह समाधि ही योगी का चरम लक्ष्य है। 

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः ॥१७॥

सूत्रार्थ- वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता - इन चारों के सम्बन्ध से युक्त (जो समाधि है, वह) सम्प्रज्ञात या सम्यक् ज्ञानपूर्वक समाधि कहलाती है।

व्याख्या-समाधि दो प्रकार की है। एक है सम्प्रज्ञात और दूसरी असम्प्रज्ञात। इस सम्प्रज्ञात समाधि में प्रकृति को वश में करने की समस्त शक्तियाँ आती हैं। सम्प्रज्ञात समाधि के चार प्रकार हैं। इसके प्रथम प्रकार को सवितर्क समाधि कहते हैं। सब समाधियों में ही मन को अन्य सब विषयों से हटाकर विशिष्ट विषय के ध्यान में पुनःपुनः नियुक्त करना पड़ता है। इस तरह के विचार या ध्यान के विषय दो प्रकार के हैं। एक तो, चौबीस जड़ तत्त्व और दूसरा, चेतन पुरुष। योग का यह अंश सम्पूर्णतया सांख्यदर्शन पर आधारित है। 

इस सांख्यदर्शन के बारे में मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ। तुम्हें शायद याद होगा कि मन, बुद्धि और अहंकार की एक साधारण आधारभूमि है, जिसे चित्त कहते हैं। चित्त से ही उनकी उत्पत्ति हुई है। यह चित्त प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को लेकर उन्हें विचार के रूप में परिणत करता है। फिर यह भी अवश्य स्वीकार करना होगा कि शक्ति (ऊर्जा या Energy) और जड़ पदार्थ (Matter) दोनों का कारणस्वरूप एक और वस्तु है, जहाँ पर वे दोनों एक हैं। यह 'अव्यक्त ' कहलाता है - वह सृष्टि के पूर्व प्रकृति की अनभिव्यक्त अवस्था है। उसमें एक कल्प के बाद सारी प्रकृति लौट आती है, फिर दूसरे कल्प में उससे पुनः सब प्रादुर्भूत होते हैं। इन सब के अतीत चैतन्यघन पुरुष विद्यमान है। उसका अपरोक्ष 'ज्ञान' होना ही वास्तविक शक्ति है
     
जिस प्रकार किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने पर ही हम उस पर अपना अधिकार चलाने में समर्थ होते हैं। इसी प्रकार, जब हमारा मन इन सब विभिन्न तत्त्वों पर ध्यान करने लगता है, तो उन पर अधिकार प्राप्त करता जाता है। जिस प्रकार की समाधि में बाह्य स्थूल भूत ही ध्यान के विषय होते हैं, उसे सवितर्क कहते हैं। वितर्क का अर्थ है प्रश्न, और सवितर्क का अर्थ है प्रश्न के साथ-मानो उन स्थूल भूतों से पूछना, जिससे वे अपने अन्तर्गत सत्य और अपनी सारी शक्ति अपने ऊपर ध्यान करनेवाले पुरुष को दे दें - इसी को सवितर्क कहते हैं। किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त करने से ही मुक्ति नहीं मिल जाती।

सिद्धियाँ तो भोग के लिए साधन मात्र हैं। पर यहाँ, इस जीवन में यथार्थ भोगसुख है ही नहीं। संसार में यही सब से पुराना उपदेश है कि 'यहाँ (इस मृत्युलोक में) भोगसुख का अन्वेषण वृथा है'- पर मनुष्य के लिए इसे समझना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जब वह सचमुच यह पाठ सीख लेता है, तब इस जगत्-प्रपंच से अतीत होकर मुक्त हो जाता है। 
   
जिन्हें साधारणतः सिद्धियाँ कहते हैं, उनको प्राप्त करने का अर्थ है दुनियादारी तथा संसार के जंजाल को और भी बढ़ाना- अन्त में दुःख को और भी तीव्र करना। यह सत्य है कि विज्ञान की दृष्टि को अपनाते हुए पतंजलि ने इस योगशास्त्र की सम्भावना को स्वीकार किया हैं, पर साथ ही वे इन सब सिद्धियों के प्रलोभन से हमें सावधान करते रहने में भी कभी नहीं चूके

फिर, उसी ध्यान में जब उन भूतों को देश और काल से अलग करके उनके स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, तब उस समाधि को निर्वितर्क समाधि कहते हैं। जब और एक कदम आगे बढ़कर तन्मात्राओं को ध्यान का विषय बनाया जाता है और उन्हें देश-काल के अन्तर्गत समझकर उन पर ध्यान किया जाता है, तब उसे सविचार समाधि कहते हैं। फिर जब इसी समाधि में देश-काल के अतीत जाकर उन सूक्ष्म भूतों के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, तब उसे निर्विचार समाधि कहते हैं। इसके बाद का कदम वह है, जिसमें सूक्ष्म और स्थूल, दोनों प्रकार के भूतों का चिन्तन छोड़कर अन्तःकरण को ध्यान का विषय बनाया जाता है। जब अन्तःकरण को रज और तम इन दोनों गुणों से रहित सोचा जाता है, तब उसे आनन्द समाधि कहते हैं। 

जब स्वयं मन ध्यान का विषय होता है, जब ध्यान बिलकुल परिपक्व और एकाग्र होता जाता है।  जब स्थूल और सूक्ष्म भूतों की समस्त भावनाएँ त्याग दी जाती हैं, और जब अन्य सब विषयों से पृथक् होकर अहंकार की केवल सत्त्वावस्था ही शेष रहती है, तब उसे अस्मिता समाधि कहते हैं। जिस मनुष्य ने इस अवस्था की प्राप्ति कर ली है, उसे वेदों में 'विदेह' कहा गया है। ऐसा व्यक्ति स्वयं का स्थूल देह से रहित रूप में चिन्तन कर सकता है, पर तो भी उसे स्वयं को एक सूक्ष्म शरीरधारी के रूप में सोचना ही पड़ता है। जो लोग इस अवस्था में रहते हुए, उस परमध्येय की प्राप्ति बिना किये, प्रकृति में लीन हो जाते हैं, उन्हें प्रकृतिलय कहते हैं; पर जो लोग वहाँ पर भी नहीं रुकते हैं, वे ही चरम लक्ष्य-मुक्ति-प्राप्त करते हैं

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥ १८ ॥

सूत्रार्थ- दूसरे प्रकार की समाधि में समस्त मानसिक क्रियाओं के विराम का सतत अभ्यास किया जाता है, (उसमें व्युत्थान-प्रत्ययहीन) संस्कार मात्र ही शेष रहता है।

व्याख्या –यही वह पूर्ण अतिचेतन असम्प्रज्ञात समाधि है, जो हमें मुक्त कर देती है। पहले जिस समाधि की बात कही गयी है, वह हमें मुक्ति नहीं दे सकती - आत्मा को मुक्त नहीं कर सकती। भले ही कोई मनुष्य समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर ले, पर तो भी उसका पतन हो सकता है। जब तक आत्मा प्रकृति के परे नहीं चली जाती, तब तक पतन का भय बना ही रहता है। यद्यपि इसकी साधनप्रणाली बहुत सरल मालूम होती है, पर इसे प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। यह साधनप्रणाली ऐसी है कि इसमें स्वयं मन पर ध्यान करना पड़ता है, और जब कभी कोई विचार उठता है तो तत्क्षण उसे दबा देना पड़ता है; मन के अन्दर किसी प्रकार के विचार को स्थान न देकर उसे सम्पूर्णतया शून्य कर देना पड़ता है।

जब हम सचमुच यह करने में समर्थ हो जाएँगे, तो बस, उसी क्षण हम मुक्त हो जाएँगे। जो लोग पूर्वसाधना या पूर्व तैयारियाँ किये बिना ही मन को शून्य करने का प्रयत्न करते हैं, उनका मन अज्ञानात्मक तमोगुण से आवृत हो जाता है, और वह उनके मन को आलसी एवं अकर्मण्य कर देता है, यद्यपि वे सोचते हैं कि वे मन को शून्य कर रहे हैं। इसके साधन में सचमुच समर्थ होना उच्चतम शक्ति की अभिव्यक्ति है - मन को शून्य करने में समर्थ होना यानी संयम की चरमावस्था प्राप्त कर लेना है। 

जब इस असम्प्रज्ञात या अतिचेतन अवस्था की प्राप्ति हो जाती है, तब यह समाधि निर्बीज हो जाती है। समाधि के निर्बीज होने का तात्पर्य क्या है ? सम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृत्तियों का केवल दमन भर होता है, पर तब भी वे संस्कार या बीजाकार में विद्यमान रहती हैं। अवसर पाते ही वे पुनः तरंगाकार प्रकट हो जाती हैं। पर जब संस्कारों को भी निर्मूल कर दिया जाता है, जब मन को भी लगभग नष्ट कर दिया जाता है, तब समाधि निर्बीज हो जाती है; तब मन में ऐसा कोई संस्कार-बीज नहीं रह जाता, जिससे यह जीवन-लता फिर से लह-लहा सके, जिससे यह अविराम जन्म-मृत्यु का चक्र और भी घूम सके

तुम लोग पूछ सकते हो कि वह फिर ऐसी कौनसी अवस्था है, जहाँ मन नहीं, जिसमें कोई ज्ञान नहीं ? जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह तो उस अतिचेतन अवस्था की तुलना में एक निम्नतर अवस्था मात्र है। यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि किसी विषय की सर्वोच्च और सर्वनिम्न अवस्थाएँ प्रायः एक ही प्रकार की मालूम होती हैं। ईथर (आकाशतत्त्व) का कम्पन निम्नतम होने से उसे अन्धकार कहते हैं, मध्य कोटि का होने से आलोक और फिर उसका उच्चतम कम्पन भी अन्धकार के समान दिखता है। इसी प्रकार, अज्ञान सब से निम्नावस्था है और ज्ञान मध्यावस्था। और इस ज्ञान के भी परे एक उच्च अवस्था है। पर अज्ञानावस्था और ज्ञानातीत अवस्था, दोनों देखने में एक ही समान हैं। हम जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक उत्पन्न द्रव्य है - एक मिश्र पदार्थ है, वह यथार्थ सत्य नहीं है।

प्रश्न उठ उठता है, इस उच्चतर समाधि के लगातार अभ्यास का फल क्या होगा? इस अभ्यास के पहले अस्थिरता और जड़त्व की ओर हमारे मन की जो गति थी, इस अभ्यास से वह तो नष्ट होगी ही, साथ ही सत्प्रवृत्ति का भी नाश हो जाएगा। बिना साफ किये हुए सोने में, मल निकालने के लिए कोई रासायनिक वस्तु मिलाने पर जो कुछ होता है, यहाँ भी ठीक वैसा ही होता है। जब खान से निकाली हुई अपरिष्कृत धातु को गलाया जाता है, तब जो रासायनिक पदार्थ उसके साथ मिलाये जाते हैं, वे भी उसके मैल के साथ गल जाते हैं। इसी प्रकार, पूर्वोक्त समाधि के सतत अभ्यास से जो संयमशक्ति प्राप्त होती है, उससे पहले की असत्-प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और अन्त में सत्-प्रवृत्तियाँ भी। 

इस तरह सत् और असत्, दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के निरोध से आत्मा सब प्रकार के बन्धनों से विमुक्त हो जाती है और अपनी महिमा में, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् एवं सर्वज्ञ रूप से अवस्थित रहती है। तब मनुष्य जान पाता है कि न कभी उसका जन्म था, न मृत्यु; न उसे कभी इहलोक की जरूरत थी, न परलोक की। तब वह जान पाता है कि न वह कहीं से आया था, न कहीं गया; वह तो प्रकृति थी, जो यहाँ-वहाँ आवागमन कर रही थी, और प्रकृति की यह हलचल ही आत्मा में प्रतिबिम्बित हो रही थी। काँच से, प्रतिबिम्बित होकर प्रकाश दीवाल पर पड़ता है और हिलता डुलता है। दीवाल मूर्ख के समान शायद सोचती हो कि मैं ही हिल-डुल रही हूँ। ठीक ऐसा ही हम सब के बारे में भी है; चित्त ही लगातार इधर-उधर जा रहा है, अपने को नाना रूपों में परिणत कर रहा हैं, पर हम लोग सोचते हैं कि हमीं ये विभिन्न रूप धारण कर रहे हैं। 

असम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास से यह सारा अज्ञान दूर हो जाएगा। जब वह मुक्त आत्मा कोई आदेश देगी - भिखारी की भाँति प्रार्थना करेगी या माँगेगी नहीं, वरन् आदेश देगी - तब वह जो कुछ चाहेगी, सब तुरन्त पूर्ण हो जाएगा; वह जो कुछ इच्छा करेगी, वही करने में समर्थ होगी। सांख्यदर्शन के मतानुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। यह दर्शन कहता है कि जगत् का कोई ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि यदि वह हो तो अवश्य वह एक आत्मा ही होना चाहिए, और आत्मा या तो बद्ध होगी या मुक्त। जो आत्मा प्रकृति के अधीन है, प्रकृति ने जिस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है, वह भला कैसे सृष्टि कर सकेगी ? वह तो स्वयं एक दास है। 

और दूसरी ओर, यदि आत्मा मुक्त हो, तो वह क्यों इस जगत्-प्रपंच की रचना करेगी, क्यों इस पूरे संसार की क्रिया आदि का संचालन करेगी ? उसकी तो कोई अभिलाषा नहीं रह सकती, अतः उसके सृष्टि या जगत्-शासन आदि करने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। द्वितीयतः यह सांख्यदर्शन कहता है कि ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, प्रकृति को मानने से ही जब सभी का स्पष्टीकरण हो जाता है, तो फिर किसी ईश्वर को लाने की आवश्यकता क्या ? कपिल मुनि कहते हैं कि बहुतसे व्यक्ति ऐसे हैं, जो सिद्धावस्था के नजदीक जाकर भी विभूति-लाभ की वासना पूर्णतया छोड़ने में समर्थ न होने के कारण योगभ्रष्ट हो जाते हैं। उनका मन कुछ काल तक प्रकृति में लीन होकर रहता है; जब वे पुनः पैदा होते हैं, तब प्रकृति के मालिक होकर आते हैं। यदि इन्हें ईश्वर कहो, तो ऐसे ईश्वर अवश्य हैं। हम सभी एक समय ऐसा ईश्वरत्व प्राप्त करेंगे। 

सांख्यदर्शन के मतानुसार, वेद में जिस ईश्वर की बात कही गयी है, वह ऐसी ही एक मुक्तात्मा का वर्णन मात्र है। इसके अतिरिक्त जगत् का अन्य कोई नित्यमुक्त, आनन्दमय सृष्टिकर्ता नहीं है। दूसरी ओर, योगीगण कहते हैं, "नहीं, ईश्वर है; अन्य सभी आत्माओं से, सभी पुरुषों अलग एक विशेष पुरुष (अवतार वरिष्ठ) है; वह (भगवान श्रीरामकृष्ण) समग्र सृष्टि का नित्य प्रभु है, वह नित्यमुक्त है और सभी गुरुओं का गुरुस्वरूप है।" सांख्यमतवाले जिन्हें प्रकृतिलय कहते हैं, योगीगण उनका भी अस्तित्व स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि ये योगभ्रष्ट योगी हैं। कुछ समय तक के लिए उनकी चरम लक्ष्य की ओर की गति में बाधा होती है, और उस समय वे जगत् के अंशविशेष के अधिपतिरूप से अवस्थान करते हैं।

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ १९ ॥

सूत्रार्थ - (यह समाधि यदि परवैराग्य के साथ अनुष्ठित न हो, तो) वही देवताओं और प्रकृतिलीनों की पुनरुत्पत्ति का कारण है।

व्याख्या - भारतीय धर्मप्रणालियों में देवता कुछ उच्च पदविशेषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भिन्न भिन्न जीवात्मा एक के बाद एक इन पदों की पूर्ति करते हैं। पर इनमें से कोई भी पूर्ण नहीं है

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ २०॥

सूत्रार्थ - दूसरों को श्रद्धा अर्थात् विश्वास, वीर्य अर्थात् मन का तेज, स्मृति, समाधि अर्थात् एकाग्रता और प्रज्ञा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से (यह समाधि) प्राप्त होती है।

व्याख्या- जो लोग देवतापद या किसी कल्प के शासनकर्ता होने की भी कल्पना नहीं करते, उन्हीं की बात कही जा रही है। वे मुक्ति प्राप्त करते हैं। 

तीव्रसंवेगानामासन्नः ॥ २१॥

सूत्रार्थ - जिनकी साधना की गति तीव्र है, उनके लिए (यह योग) शीघ्र (सिद्ध) हो जाता है।

मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ २२ ॥ 

सूत्रार्थ -साधना की हल्की, मध्यम और उच्च मात्रा के अनुसार योगियों की सिद्धि में भी भेद हो जाता है।

ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ २३॥

सूत्रार्थ-  अथवा ईश्वर के प्रति भक्ति से भी (समाधि सिद्ध होती है।)। 

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४॥ 

सूत्रार्थ - दुःख, कर्म, कर्मफल और वासना के सम्बन्ध से रहित पुरुषविशेष ईश्वर (परम नियन्ता) है।

व्याख्या - हमें यहाँ फिर से स्मरण करना होगा कि पातंजल योगदर्शन सांख्यदर्शन पर आधारित है। भेद केवल इतना है कि सांख्यदर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है, जब कि योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। ईश्वर को मानने पर भी योगीगण ईश्वरसम्बन्धी सृष्टिकर्तृत्व आदि विविध भावों की कोई बात नहीं उठाते। योगियों के ईश्वर से जगत् के सृष्टिकर्ता ईश्वर का बोध नहीं होता। वेद के मतानुसार ईश्वर जगत्-स्रष्टा है। चूँकि जगत् में सामंजस्य देखा जाता है, अतः जगत् अवश्य एक इच्छाशक्ति की ही अभिव्यक्ति होगा। योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्थापित करने के लिए एक नये प्रकार की युक्ति काम में लाते हैं। वे कहते हैं :

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्वबीजम् ॥ २५ ॥

सूत्रार्थ - औरों में जिस सर्वज्ञत्व का बीज मात्र रहता है, वही उनमें निरतिशय अर्थात् अनन्त भाव धारण करता है।

व्याख्या - मन को सदैव अति बृहत् और अति क्षुद्र, इन दो चरम भावों के भीतर ही घूमना पड़ता है। तुम एक ससीम देश की बात भले ही सोचो, पर वही भावना तुम्हारे भीतर असीम देश का भाव भी जगा देगी। यदि आँखें बन्द करके तुम एक छोटेसे देश के बारे में सोचो, तो देखोगे, इस छोटेसे देशरूप वृत्त के साथ ही उसके चारों ओर अमर्यादित विस्तारवाला एक दूसरा वृत्त भी है। काल के बारे में भी ठीक यही बात है। मान लो, तुम एक सेकण्ड समय के बारे में सोच रहे हो। तो उसके साथ ही साथ तुमको अनन्त काल की भी बात सोचनी पड़ेगी।
 ज्ञान के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझना चाहिए। मनुष्य में ज्ञान का केवल बीजभाव है; पर इस क्षुद्र ज्ञान बात मन में लाने के साथ ही अनन्त ज्ञान के बारे में भी सोचना पड़ेगा। इस प्रकार हमारे मन की गठन से ही यह बिलकुल स्पष्ट है कि एक अनन्त ज्ञान है। इस अनन्त ज्ञान को ही योगीगण ईश्वर कहते हैं

 स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥

सूत्रार्थ - वह प्राचीन गुरुगणों का भी गुरु है, क्योंकि वह काल से सीमित नहीं है। 

व्याख्या - यह सत्य है कि समस्त ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है, पर उसे एक दूसरे ज्ञान के द्वारा जागृत करना पड़ता है। यद्यपि जानने की शक्ति हमारे अन्दर ही विद्यमान है, फिर भी हमें उसे जगाना पड़ता है। और योगियों के मतानुसार, ज्ञान को इस प्रकार जगाना अर्थात् ज्ञान का उन्मेष एक दूसरे ज्ञान के सहारे ही हो सकता है। अचेतन जड पदार्थ ज्ञान का विकास कभी नहीं करा सकता - केवल ज्ञान की शक्ति से ही ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है, उसको जगाने के लिए ज्ञानी पुरुषों का हमारे पास होना सदैव आवश्यक है। यही कारण है कि इन गुरुओं की आवश्यकता सदा ही बनी रही है। 

जगत् कभी भी इन आचार्यों से रहित नहीं हुआ। उनकी सहायता बिना कोई भी ज्ञान नहीं आ सकता। ईश्वर सारे गुरुओं का भी गुरु है, क्योंकि ये सब गुरु कितने ही उन्नत क्यों न रहे हों, वे देवता या स्वर्गदूत ही क्यों न रहे हों, पर वे सब के सब बद्ध थे और काल से सीमित थे; किन्तु ईश्वर काल से आबद्ध नहीं है। योगियों के दो विशेष सिद्धान्त हैं। एक तो यह कि सान्त वस्तु की भावना करते ही मन बाध्य होकर अनन्त की भी बात सोचेगा, और यदि उस मानसिक अनुभूति का एक भाग सत्य हो, तो उसका दूसरा भाग भी अवश्यमेव सत्य होगा। क्यों ? इसलिए कि जब दोनों उस एक ही मन की अनुभूतियाँ हैं, तो दोनों अनुभूतियों का मूल्य समान ही होगा। 

मनुष्य का ज्ञान अल्प है अर्थात् मनुष्य अल्पज्ञ है-इसी से जाना जाता है कि ईश्वर का ज्ञान अनन्त है, ईश्वर अनन्त ज्ञानसम्पन्न है। यदि हम इन दोनों अनुभूतियों में से एक ग्रहण करें, तो दूसरे को भी क्यों न ग्रहण करेंगे ? युक्ति तो कहती है – या तो दोनों को मान लो या फिर दोनों को ही छोड़ दो। यदि मैं विश्वास करूँ कि मनुष्य अल्प ज्ञानसम्पन्न है, तो मुझे यह भी अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके पीछे कोई असीम ज्ञानसम्पन्न पुरुष है। दूसरा सिद्धान्त यह है कि गुरु बिना कोई भी ज्ञान नहीं हो सकता। 
आजकल के दार्शनिकों का जो कथन हैं कि मनुष्य का ज्ञान उसके स्वयं के भीतर से उत्पन्न होता है, यह सच है; सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है, पर उस ज्ञान के विकास के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। हम गुरु बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हों, तो वे भी तो ससीम हैं; फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे ? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अवच्छिन्न नहीं हैं। उन्हीं अनन्त ज्ञानसम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं

तस्य वाचकः प्रणवः ॥२७॥

 सूत्रार्थ - प्रणव अर्थात् ओंकार उसका वाचक (प्रकाशक) है।

व्याख्या- तुम्हारे मन में जो भी भाव उठता है, उसका एक प्रतिरूप शब्द भी रहता है; इस शब्द और भाव को अलग नहीं किया जा सकता। एक ही वस्तु के बाहरी भाग को शब्द और अन्तर्भाग को विचार या भाव कहते हैं। कोई भी व्यक्ति विश्लेषण के बल से विचार को शब्द से अलग नहीं कर सकता। बहुतों का मत है- कुछ लोग एक साथ बैठकर यह स्थिर करने लगे. कि किस भाव के लिए कौनसे शब्द का प्रयोग किया जाए, और इस प्रकार भाषा की उत्पत्ति हो गयी। किन्तु यह प्रमाणित हो चुका है कि यह मत भ्रमात्मक है। जब से मनुष्य विद्यमान है, तब से शब्द और भाषाएँ रही हैं। 

अब प्रश्न यह है कि एक भाव और एक शब्द में परस्पर क्या सम्बन्ध है ?  यद्यपि हम देखते हैं कि एक भाव के साथ एक शब्द का रहना अनिवार्य है,  तथापि ऐसा नहीं कि एक भाव एक ही शब्द द्वारा प्रकाशित हो। बीस विभिन्न देशों में भाव एक ही होने पर भी भाषाएँ बिलकुल भिन्न भिन्न हो सकती हैं। प्रत्येक भाव को प्रकट करने के लिए एक न एक शब्द की आवश्यकता अवश्य होगी, किन्तु इन शब्दों का एक ही ध्वनिविशिष्ट होना कोई आवश्यक नहीं। विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न ध्वनिविशिष्ट शब्दों का व्यवहार होगा। इसीलिए टीकाकार ने कहा है, “यद्यपि भाव और शब्द का परस्परसम्बन्ध स्वाभाविक है तथापि एक ध्वनि और एक भाव के बीच एक नितान्त अलंघनीय सम्बन्ध ही रहे, ऐसी कोई बात नहीं।" ^  यद्यपि ये सब ध्वनियाँ भिन्न भिन्न होती हैं, तो भी ध्वनि और भाव का परस्परसम्बन्ध स्वाभाविक है।

यदि वाच्य और वाचक के बीच यथार्थ सम्बन्ध रहे, तभी यह कहा जा सकता है कि भाव और ध्वनि के बीच परस्परसम्बन्ध है। यदि ऐसा न हो, तो वह वाचक शब्द कभी सर्वसाधारण के उपयोग में नहीं आ सकता। वाचक वाच्यपदार्थ का प्रकाशक होता है। यदि वह वाच्यवस्तु पहले से अस्तित्व में रहे, और हम यदि पुनःपुनः परीक्षा द्वारा यह देखें कि उस वाचक शब्द ने उस वस्तु को अनेक बार सूचित किया है, तो हम निश्चित रूप से यह मान सकते हैं कि उस वाच्य और वाचक के बीच एक यथार्थ सम्बन्ध है। यदि ये वाच्यपदार्थ न भी रहें, तो भी हजारों मनुष्य उनके वाचकों के द्वारा ही उनका ज्ञान प्राप्त करेंगे। पर हाँ, वाच्य और वाचक के बीच एक स्वाभाविक सम्बन्ध रहना अनिवार्य है। 

ऐसा होने पर, ज्योंही उस वाचकशब्द का उच्चारण किया जाएगा, त्योंही वह उस वाच्यपदार्थ की बात मन में ला देगा। सूत्रकार कहते हैं, ओंकार ईश्वर का वाचक है। सूत्रकार ने विशेष रूप से 'ॐ' शब्द का ही उल्लेख क्यों किया है ? 'ईश्वर' '-इस भाव को व्यक्त करने के लिए तो सैकड़ों शब्द हैं। एक भाव के साथ हजारों शब्दों का सम्बन्ध रहता है। 'ईश्वर' – इस भाव का सैकड़ों शब्दों के साथ सम्बन्ध हैं और उनमें से प्रत्येक ही तो ईश्वर का वाचक है। फिर उन्होंने 'ॐ' को ही क्यों चुना? हाँ, ठीक है; पर वैसा होने पर भी उन शब्दों में से एक सामान्य शब्द चुन लेना चाहिए। उन सारे वाचकों का एक सामान्य आधार निकालना होगा, और जो वाचकशब्द सब का सामान्य वाचक होगा, वही सर्वश्रेष्ठ समझा जाएगा, और वास्तव में वही उसका यथार्थ वाचक होगा। 
 
किसी ध्वनि के लिए हम कण्ठनली और तालु का ध्वनि के आधाररूप में व्यवहार करते हैं। क्या ऐसी कोई भौतिक ध्वनि है, जिसकी कि अन्य सब ध्वनियाँ अभिव्यक्ति हैं, जो स्वभावतः ही दूसरी सब ध्वनियों को समझा सकती है? हाँ, 'ओम्' (अउम्) ही वह ध्वनि है; वही सारी ध्वनियों की भित्तिस्वरूप है। उसका प्रथम अक्षर 'अ' सभी ध्वनियों का मूल है - वह सारी ध्वनियों की कुंजी के समान है, वह जिह्वा या तालु के किसी अंश को स्पर्श किये बिना ही उच्चारित होता है। 'म्' ध्वनि-शृंखला की अन्तिम ध्वनि है, उसका उच्चारण करने में दोनों ओठों को बन्द करना पडता है। और 'उ' ध्वनि जिह्वा के मूल लेकर मुख के मध्यवर्ती ध्वनि के आधार की अन्तिम सीमा तक मानो ढुलकता आता है। इस प्रकार 'ॐ' शब्द के द्वारा ध्वनि-उत्पादन की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतएव वही स्वाभाविक वाचकध्वनि है, वही सब विभिन्न ध्वनियों की जननीस्वरूप है
 
 जितने प्रकार के शब्द उच्चारित हो सकते हैं - हमारी ताकत में जितने प्रकार के शब्द के उच्चारण की सम्भावना है, 'ओम्' उन सभी का सूचक है। यह सब तात्त्विक चर्चा छोड़ देने पर भी, हम देखते हैं कि भारतवर्ष में जितने सारे विभिन्न धर्मभाव हैं, यह ओंकार उन सब का केन्द्रस्वरूप है, वेद के सब विभिन्न धर्मभाव इस ओंकार का ही अवलम्बन किये हुए हैं। अब प्रश्न यह है कि इसके साथ अमेरिका, इंग्लैण्ड और अन्यान्य देशों का क्या सम्बन्ध है। उत्तर यह है सब देशों में इस ओंकार का व्यवहार हो सकता है। कारण, भारत में धर्म के विकास की प्रत्येक अवस्था में - उसके प्रत्येक सोपान में ओंकार को अपनाया गया है, उसका आश्रय लिया गया है और वह ईश्वरसम्बन्धी सारे विभिन्न भावों को व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुआ है।

अद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, भेदवादी, यहाँ तक कि नास्तिकों ने भी अपने उच्चतम आदर्श को प्रकट करने के लिए इस ओंकार का अवलम्बन किया था। मानवजाति के अधिकांश के लिए यह ओंकार उनकी अपनी धार्मिक स्पृहा का एक प्रतीक बन गया है। अंग्रेजी गॉड (God) शब्द को लो। यह जिस भाव को प्रकट करता है, वह कोई अधिक दूर तक नहीं जा सकता। यदि तुम उसके अतिरिक्त अन्य कोई भाव उस शब्द से व्यक्त करने की इच्छा करो, तो तुम्हें उसमें विशेषण लगाना पड़ेगा जैसे सगुण (personal), निर्गुण (impersonal), निर्विशेष (absolute), आदि आदि। अन्य दूसरी भाषाओं में ईश्वरवाचक जो सब शब्द हैं, उनके बारे में भी यही बात घटती है, उनमें बहुत कम भाव प्रकट करने की शक्ति है; किन्तु 'ॐ' शब्द में ये सभी प्रकार के भाव विद्यमान हैं। अतएव सर्वसाधारण को उसका ग्रहण करना चाहिए

तज्जपस्तदर्थ भावनम् ॥ २८॥

सूत्रार्थ- इस (ओंकार) का जप और उसके अर्थ का ध्यान (समाधिलाभ का उपाय है)।

व्याख्या- जप अर्थात् बारम्बार उच्चारण की आवश्यकता क्या है ? हम संस्कारविषयक मतवाद को न भूले होंगे। हमें स्मरण होगा कि समस्त संस्कारों की समष्टि हमारे मन में विद्यमान है। ये संस्कार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अव्यक्त भाव धारण करते हैं। पर वे बिलकुल लुप्त नहीं हो जाते, वे मन के अन्दर ही रहते हैं, और ज्योंही उन्हें यथोचित उद्दीपना मिलती है, बस, त्योंही वे चित्तरूपी सरोवर की सतह पर उठ आते हैं। परमाणु- कम्पन कभी बन्द नहीं  होता।जब यह सारा संसार नाश को प्राप्त होता है, तब सब बड़े बड़े कम्पन या प्रवाह लुप्त हो जाते हैं; सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, सभी लय को प्राप्त हो जाते हैं; पर  परमाणुओं में कम्पन बच रहते हैं। 

इन बड़े बड़े ब्रह्माण्डों में जो कार्य होता है, प्रत्येक परमाणु वही कार्य करता है। ठीक ऐसा ही चित्त के बारे में भी है। चित्त में होनेवाले सब कम्पन अदृश्य अवश्य हो जाते हैं, फिर भी परमाणु  के कम्पन के समान उनकी सूक्ष्म गति अक्षुण्ण बनी रहती है, और ज्योंही उन्हें कोई संवेग मिलता है, बस, त्योंही वे पुनः बाहर आ जाते हैं। अब हम समझ सकेंगे कि जप अर्थात् बारम्बार उच्चारण का तात्पर्य क्या है। हम लोगों के अन्दर जो आध्यात्मिक संस्कार हैं, उन्हें विशेष रूप से उद्दीप्त करने में यह प्रधान सहायक है।

“क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका। भवति भवार्णवतरणे नौका।"- साधुओं का एक क्षण का भी सत्संग भवसागर पार होने के लिए नौकास्वरूप है। संत्संग की ऐसी जबरदस्त शक्ति है। बाह्य सत्संग की जैसी शक्ति बतलायी गयी है, वैसी ही आन्तरिक सत्संग की भी है। इस ओंकार का बारम्बार जप करना और उसके अर्थ का मनन करना ही आन्तरिक सत्संग है। जप करो और उसके साथ उस शब्द के अर्थ का ध्यान करो। ऐसा करने से, देखोगे, हृदय में ज्ञानालोक - आएगा और आत्मा प्रकाशित हो जाएगी।'ॐ' शब्द पर मनन तो करोगे ही, पर साथ ही उसके अर्थ पर भी मनन करो। 
कुसंग छोड़ दो; क्योंकि पुराने घाव के चिह्न अभी भी तुममें बने हुए हैं; उन पर कुसंग की गर्मी लगने भर की देर है कि बस, वे फिर से ताजे हो उठेंगे। ठीक इसी प्रकार हम लोगों में जो उत्तम संस्कार हैं, वे भले ही अभी अव्यक्त हों, पर सत्संग से वे फिर से जागृत हो जाएँगे - व्यक्त भाव धारण कर लेंगे। संसार में सत्संग से पवित्र और कुछ भी नहीं है, क्योंकि सत्संग से ही शुभ संस्कार चित्तरूपी सरोवर की तली से ऊपरी सतह पर उठ आने के लिए उन्मुख होते हैं। 

ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ २९ ॥

सूत्रार्थ - उससे अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है और (योग के) विघ्नों का नाश होता है।

व्याख्या - इस ओंकार के जप और चिन्तन का पहला फल यह देखोगे कि क्रमशः अन्तर्दृष्टि विकसित होने लगेगी और योग के मानसिक एवं शारीरिक विघ्नसमूह दूर होते जाएँगे। योग के ये विघ्न क्या हैं ?

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध-
भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ ३० ॥

सूत्रार्थ – रोग, मानसिक जड़ता, सन्देह, उद्यमशून्यता, आलस्य, विषयतृष्णा, मिष्या अनुभव, एकाग्रता न पाना, और उसे पाने पर भी उससे च्युत हो जाना-ये जो चित्त के विक्षेप हैं, वे ही विघ्न हैं।

व्याख्या - व्याधिः इस जीवनसमुद्र के उस पार जाने के लिए यह शरीर ही एकमात्र नाव है। इसे स्वस्थ रखने के लिए विशेष यत्न करना चाहिए। जिसका शरीर अस्वस्थ है, वह योगी नहीं हो सकता। मानसिक जड़ता आने पर हमारी योगविषयक सारी रुचि खो जाती है। और इस रूचि के अभाव में, साधना करने के लिए न तो दृढ़ संकल्प होगा, न शक्ति ही मिलेगी। इस विषय में हमारा विचारजनित विश्वास कितना भी बलशाली क्यों न रहे, पर जब तक दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि अलौकिक अनुभूतियाँ नही होतीं, तब तक इस विद्या की सत्यता के बारे में बहुतसे संशय उपस्थित होंगे

जब इन सब का थोड़ा थोड़ा आभास होने लगता है, तब साधक साधनमार्ग में और भी अध्यवसायशील होता जाता है। अनवस्थितत्व : साधन करते करते देखोगे कि कुछ दिन या कुछ सप्ताह तो मन अनायास ही एकाग्र और स्थिर हो जाता है; उस समय ऐसा मालूम होगा कि तुम साधनमार्ग में बहुत शीघ्र उन्नति कर रहे हो। किन्तु अचानक एक दिन देखोगे कि तुम्हारा यह उन्नति-स्रोत बन्द हो गया है, मानो जहाज दलदल में फँस गया हो। पर उससे कहीं हताश मत हो जाना, अध्यवसाय मत खो बैठना। लगे रहो। इस प्रकार उत्थान और पतन में से होते हुए ही उन्नति होती है

दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१॥

सूत्रार्थ -दुःख, मन खराब होना, शरीर हिलना, अनियमित श्वास-प्रश्वास ये सब (चित्त के) विक्षेपों के साथ साथ उत्पन्न होते हैं।

व्याख्या -जब कभी एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, तभी मन और शरीर पूर्ण स्थिरभाव धारण करते हैं। जब साधना ठीक तरीके से नहीं होती, अथवा जब चित्त पर्याप्त संयत नहीं रहता, तभी ये सब विघ्न आ उपस्थित होते हैं। ओंकार के जप और ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण से मन दृढ होता है तथा नया बल प्राप्त होता है। साधनमार्ग में ऐसी स्नायविक चंचलता प्रायः सभी को आती है। उधर तनिक भी ध्यान न दे साधना करते रहो। साधना से ही वे सब चले जाएँगे, और तब आसन स्थिर हो जाएगा।

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥

सूत्रार्थ - उनको दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)

व्याख्या - कुछ समय तक के लिए मन को किसी विशिष्ट विषय के आकार में परिणत करने की चेष्टा करने से पूर्वोक्त विघ्न दूर हो जाते हैं। यह उपदेश अत्यन्त साधारण रूप से दिया गया है। अगले सूत्रों में यही उपदेश विस्तृत रूप से समझाया जाएगा और विशिष्ट ध्येय-विषयों के सम्बन्ध में इस साधारण उपदेश का प्रयोग बतलाया जाएगा। एक ही प्रकार का अभ्यास सब के लिए उपयोगी नहीं हो सकता, इसीलिए विभिन्न उपायों की बात कही गयी है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं यथार्थ अनुभव द्वारा अपने लिए जो उपाय सहायक है, उसे चुन ले सकता है

मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
 भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ ३३ ॥

सूत्रार्थ- सुख, दुःख, पुण्य और पाप-इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, दया, आनन्द और उपेक्षा का भाव धारण कर सकने से चित्त प्रसन्न होता है।

व्याख्या - हममें ये चार प्रकार के भाव रहने ही चाहिए। यह आवश्यक है कि हम सब के प्रति मैत्रीभाव रखें, दीन-दुखियों के प्रति दयावान हों, लोगों को सत्कर्म करते देख सुखी हों, और दुष्ट मनुष्य के प्रति उपेक्षा दिखाएँ। इसी प्रकार, जो भी विषय हमारे सामने आते हैं, उन सब के प्रति भी हमारे ये ही भाव रहने चाहिए। यदि कोई विषय सुखकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात् अनुकूल भाव धारण करना चाहिए। इसी तरह, यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो हमारे अन्तःकरण को उसके प्रति करुणापूर्ण होना चाहिए। 

यदि वह कोई शुभ विषय हो, तो हमें आनन्दित होना चाहिए, तथा अशुभ विषय होने पर उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है। इन सब विभिन्न विषयों के प्रति मन के इस प्रकार विभिन्न भाव धारण करने से मन शान्त हो जाएगा। मन की इस प्रकार के विभिन्न भावों को धारणा करने की असमर्थता ही हमारे दैनिक जीवन की अधिकांश गड़बड़ी एवं अशान्ति का कारण है। मान लो, किसी ने मेरे प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया।तो मैं तुरन्त उसका प्रतिकार करने को उद्यत हो जाता हूँ। और इस प्रकार बदला लेने की भावना ही यह दिखाती है कि हम चित्त को दबा रखने में असमर्थ हो रहे हैं। वह उस वस्तु की ओर तरंगाकार में प्रवाहित होता है, और बस, हम अपनी मन की शक्ति खो बैठते हैं। 

हमारे मन में घृणा अथवा दूसरों का अनिष्ट करने की प्रवृत्ति के रूप में जो प्रतिक्रिया होती है, वह मन की शक्ति का अपचय मात्र है। दूसरी ओर, यदि किसी अशुभ विचार या घृणाप्रसूत कार्य अथवा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना का दमन किया जाए, तो उससे शुभकरी शक्ति उत्पन्न होकर हमारे ही उपकार के लिए संचित रहती है। यह बात नहीं कि इस प्रकार के संयम से हमारी कोई क्षति होती हो, वरन् उससे तो हमारा आशातीत उपकार ही होता है। जब कभी हम घृणा अथवा क्रोध की वृत्ति को संयत करते हैं, तभी वह हमारे अनुकूल शुभ शक्ति के रूप में संचित होकर उच्चतर शक्ति में परिणत हो जाती है

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ ३४ ॥

सूत्रार्थ - अथवा प्राणवायु को बाहर निकालने और धारण करने से भी (चित्त स्थिर होता है)।

व्याख्या - यहाँ पर 'प्राण' शब्द का व्यवहार हुआ है। प्राण ठीक श्वास नहीं है। समग्र जगत् में जो ऊर्जाशक्ति व्याप्त हुई है, उसी का नाम है प्राण। संसार में तुम जो कुछ देखते हो, जो कुछ हिलता-डुलता या कार्य करता है, जिसमें भी जीवन है-वह सब इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। जगत् में जितनी भी शक्तियाँ विद्यमान हैं, उनकी समष्टि को प्राण कहते हैं

कल्प-आरम्भ के पूर्व यह प्राण एक प्रकार से बिलकुल गतिहीन अवस्था में रहता है, और कल्प के शुरू होने पर वह फिर से व्यक्त होना प्रारम्भ करता है। यह प्राण ही गति के रूप में मनुष्यों अथवा अन्य प्राणियों में स्नायविक गति के रूप में प्रकाशित होता है। फिर यही विचार तथा अन्य शक्तियों के रूप में भी प्रकाशित होता है। यह सारा जगत् इस प्राण एवं आकाश की समष्टि है

मनुष्यदेह के बारे में भी ठीक यही बात जो कुछ तुम देखते हो या अनुभव करते हो, वे सारे पदार्थ आकाश से उत्पन्न हुए हैं और प्राण से सारी विभिन्न शक्तियाँ। इस प्राण को बाहर निकालने और धारण करने का नाम ही प्राणायाम है। योगदर्शन के जनक पंतजलि ने इस प्राणायाम के बारे में कोई विशेष विधान नहीं किया है, परन्तु उनके बाद दूसरे योगियों ने इस प्राणायाम के सम्बन्ध में अनेक तत्त्वों का आविष्कार करके उसकी एक महान् विद्या तैयार कर दी। 
    पतंजलि के मतानुसार यह प्राणायाम चित्तवृत्तिनिरोध के विभिन्न उपायों में से केवल एक उपाय है, परन्तु उन्होंने इस पर कोई विशेष जोर नहीं दिया है। उनका अभिप्राय इतना ही रहा है कि श्वास को बाहर निकालकर फिर से अन्दर खींच लो और कुछ देर तक उसे धारण किये रखो, उससे मन अपेक्षाकृत कुछ स्थिर हो जाएगा किन्तु बाद में इसी से प्राणायाम नामक एक विशेष विद्या की उत्पत्ति हो गयी। 

अब हम देखेंगे कि ये सब परवर्ती योगी उसके बारे में क्या कहते हैं। इस सम्बन्ध में मैंने पहले ही कुछ कहा है, यहाँ पर उसकी कुछ पुनरावृत्ति करने से वह मन में पक्का बैठ जाएगा। पहले तो, यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राण ठीक श्वास-प्रश्वास नहीं है; वरन् जिस शक्ति के बल से श्वास-प्रश्वास की गति होती है, जो वस्तुतः श्वास-प्रश्वास की भी जीवनीशक्ति है, वही प्राण है। फिर, यह 'प्राण' शब्द सब इन्द्रियों के लिए भी व्यवहार में लाया जाता है; वे सब की सब प्राण कहलाती हैं; मन को भी प्राण कहा जाता है। अतएव हम देखते हैं कि प्राण का अर्थ है शक्ति । तो भी इसे हम शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। यह प्राण ही शक्ति तथा नाना प्रकार की गति रूप में प्रकाशित होता है। 

चित्त यन्त्र-स्वरूप होकर चारों ओर से प्राण को भीतर खींचता है और उससे शरीररक्षा करनेवाली विभिन्न जीवनीशक्तियाँ तथा विचार, इच्छा एवं अन्यान्य सब शक्तियाँ उत्पन्न करता है। पूर्वोक्त प्राणायाम-क्रिया से हम शरीर की समस्त भिन्न भिन्न गतियों को तथा शरीर के अन्तर्गत समस्त भिन्न भिन्न स्नायविक शक्तिप्रवाहों को वश में ला सकते हैं। पहले हम उनको पहचानने लगते हैं, उनका साक्षात् अनुभव करने लगते हैं, और फिर धीरे धीरे उन पर अधिकार प्राप्त करते जाते हैं-उनको वशीभूत करने में सफल होते जाते हैं।

पतंजलि के बाद के इन योगियों के मतानुसार मनुष्यदेह में तीन मुख्य प्राणप्रवाह अर्थात् नाड़ियाँ हैं। वे एक को इड़ा, दूसरे को पिंगला और तीसरे को सुषुम्ना कहते हैं। उनके मतानुसार, पिंगला मेरुदण्ड के दाहिनी ओर विद्यमान है और इड़ा बायीं ओर, और उस मेरुदण्ड के मध्य में से होते हुए सुषुम्ना नाम की एक खोखली नली है। उनके मतानुसार इड़ा और पिंगला, ये दो नाड़ियाँ प्रत्येक मनुष्य में कार्य करती हैं, उनके सहारे ही हमारा जीवन चलता है। सुषुम्ना का कार्य सभी में होना सम्भव अवश्य है, किन्तु असल में योगी के शरीर में ही वह कार्यशील रहती है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि योगी योगसाधना के बल से अपने शरीर को परिवर्तित कर लेते हैं।

तुम जितनी ही साधना करोगे तुम्हारा शरीर उतना ही परिवर्तित होता जाएगा। साधना के पूर्व तुम्हारा शरीर जैसा था, बाद में वैसा नहीं रह जाएगा। यह बात कोई अयौक्तिक नहीं है; युक्ति के द्वारा इसको समझाया जा सकता है। हम जो कुछ नये विचार सोचते हैं, वे मानो हमारे मस्तिष्क में एक नया मार्ग तैयार कर देते हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि मनुष्य-स्वभाव इतना प्रबल रूढ़िवादी या गतानुगतिक क्यों है। मनुष्य-स्वभाव ही ऐसा है कि वह पहले चले हुए रास्ते में ही चलना पसन्द करता है, क्योंकि वह सरल होता है। 

यदि दृष्टान्त के रूप में हम सोचें कि मन एक सुई के समान है और मस्तिष्क उसके सामने एक कोमल पिण्ड, तो हम देखेंगे की हमारा प्रत्येक विचार मस्तिष्क के अन्दर मानो एक रास्ता - एक लीक तैयार कर देता है; और यदि मस्तिष्क के अन्दर का धूसर पदार्थ उस रास्ते के चारो ओर एक सीमा खड़ी न कर दें, तो वह रास्ता बन्द हो जाएगा। यदि वह धूसर रंगवाला पदार्थ न रहता, तो हमारी स्मृति ही सम्भव न होती; क्योंकि स्मृति का अर्थ है मानो इन पुराने रास्तों पर से होकर जाना - जो विचार एक बार उठ चुके हैं, उनका मानो पदानुगमन करना। 
  तुम लोगों ने शायद गौर किया होगा, जब कोई व्यक्ति सब लोगों के परिचित कुछ विषयों को लेकर, उन्हीं को घुमा-फिराकर कुछ बोलता है, तो तुम सब अनायास ही उसकी बात समझ लेते हो। इसका कारण बस, इतना ही है कि इस विचार की लीकें या प्रणालियाँ हर एक के मस्तिष्क में विद्यमान हैं, और उन पर से होकर केवल बारम्बार आना-जाना मात्र आवश्यक होता है। परन्तु जब कभी कोई नया विषय हमारे सामने आता है, तब मस्तिष्क में एक नये मार्ग के निर्माण की आवश्यकता होती है; इसीलिए वह विषय उतनी सरलता से समझ में नहीं आता। यही कारण है। मस्तिष्क (मनुष्य नहीं, मस्तिष्क ही) बिना जाने ही किसी नये प्रकार के भाव द्वारा परिचालित होने से इन्कार करता है। वह मानो बलपूर्वक इस नये प्रकार के भाव की गति को रोकने का प्रयत्न करता है। प्राण नये नये मार्ग बनाने का प्रयत्न कर रहा है, और मस्तिष्क उसे करने नहीं देता। बस, यही मनुष्य की रूढ़िवादिता का रहस्य है। 

मस्तिष्क में ये मार्ग जितने थोड़े परिमाण में होंगे और प्राणरूप सुई उसके भीतर जितनी कम लीकें तैयार करेगी, मस्तिष्क उतना ही रूढ़िवादी होगा, वह उतना ही नये प्रकार के विचार और भाव के विरुद्ध लड़ाई ठानेगा। मनुष्य जितना ही चिन्तनशील होता है, उसके मस्तिष्क के भीतर के मार्ग उतने ही अधिक जटिल होते हैं, और उतनी ही सुगमता से वह नये नये भाव ग्रहण कर सकता है तथा उन्हें समझ सकता है। प्रत्येक नवीन भाव के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए। 

   मस्तिष्क में एक नवीन भाव आते ही उसके भीतर एक नया मार्ग तैयार हो जाता है। यही कारण है कि योगाभ्यास के समय हमारे सामने पहले इतनी शारीरिक बाधाएँ आती हैं; (क्योंकि योग सम्पूर्णतया नवीन प्रकार के विचारों एवं भावों की समष्टि है।) इसीलिए हम देखते हैं कि धर्म का वह अंश,जो प्राकृतिक, जागतिक भाव को लेकर व्यस्त रहता है, सर्वसाधारण के लिए बहुत मान्य होता है, और उसका दूसरा अंश अर्थात् दर्शन या मनोविज्ञान, जो केवल मनुष्य के आभ्यन्तरिक प्रकृति को लेकर संलग्न रहता है, वह प्रायशः लोगों द्वारा उपेक्षित होता है

हमें अपने इस जगत् की व्याख्या स्मरण रखनी चाहिए। हमारा यह जगत् क्या है ? वह तो हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त अनन्त सत्ता मात्र है। अनन्त का केवल कुछ अंश हमारे ज्ञान के भीतर प्रक्षिप्त हुआ है, जिसे हम अपना जगत् कहते हैं। अतएव हमने देखा कि जगत् के अतीत एक अनन्त सत्ता विद्यमान है। और धर्म को इन दोनों को लेकर व्यस्त रहना पड़ता है। अर्थात् यह क्षुद्र पिण्ड, जिसे हम अपना जगत् कहते हैं, और जगत् के अतीत अनन्त सत्ता - ये दोनों ही धर्म के विषय हैं। जो धर्म इन दोनों में से केवल एक को लेकर रहता है, वह अपूर्ण है। धर्म को इन दोनों को ही अपना विषय बनाना चाहिए

अनन्त का जो भाग हम अपने इस ज्ञान के भीतर से अनुभव करते हैं, जो मानो देश-काल-निमित्तरूप चक्र के भीतर आ पड़ा है, उसको धर्म के जिस अंश ने अपना विषय बनाया है, वह अंश अनायास हमें बोधगम्य हो जाता है।  क्योंकि हम तो पहले से ही उसी के अन्दर हैं और लगभग स्मरणातीत काल से ही जगत्-सम्बन्धी भाव से हम परिचित हैं। पर धर्म का वह अंश, जो सीमाहीन अनन्त को लेकर संलग्न रहता है, वह हमारे लिए सर्वथा नवीन है; इसीलिए उसके चिन्तन से मस्तिष्क में नयी लीक तैयार होती रहती है, जिससे सारा शरीर-मन ही मानो उलट-पलट जाता है। यही कारण है कि साधना करते समय साधारण मनुष्य पहले-पहल अपने मार्ग से विच्युत हो जाता है। इन विघ्न-बाधाओं को यथासम्भव कम करने के लिए ही पतंजलि ने इन सब उपायों का आविष्कार किया है, ताकि हम उनमें से ऐसी किसी एक साधनप्रणाली को चुनकर अपना लें, जो हमारे लिए सर्वथा उपयोगी हो।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥ ३५ ॥ 

सूत्रार्थ- जिन सब समाधियों में अलौकिक इन्द्रियविषयों की अनुभूति होती है, वे मन की स्थिति का कारण होती हैं।

व्याख्यायह बात धारणा अर्थात् एकाग्रता से अपने आप आती रहती है; योगी कहते हैं कि यदि नासिका के अग्रभाग में मन को एकाग्र किया जाए, तो कुछ दिनों में ही अद्भुत सुगन्धि का अनुभव होने लगता है। इसी प्रकार जिह्वामूल में मन को एकाग्र करने पर सुन्दर शब्द सुनाई देता है। जिह्वाग्र में ऐसा करने पर दिव्य रसास्वादन होता है। जिह्वा के बीच में संयम करने पर प्रतीत होता है कि मैंने मानो किसी एक वस्तु का स्पर्श किया। तालु में संयम करने पर दिव्य रूप दीख पड़ते हैं। यदि कोई अस्थिरचित्त व्यक्ति इस योग के कुछ साधनों का अवलम्बन करना चाहे और फिर भी उनकी सचाई में सन्दिग्धचित्त हो, तो कुछ दिन साधना करने के बाद, ये सब अनुभूतियाँ होने पर, फिर उसे सन्देह नहीं रहेगा। तब फिर वह अध्यवसाय के साथ साधना करता रहेगा।

विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ ३६ ॥

सूत्रार्थ - अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मान पदार्थ के (ध्यान) से भी (समाधि होती है)।

व्याख्या- यह और एक प्रकार की समाधि है। ऐसा ध्यान करो कि हृदय में मानो एक कमल है; उसकी पँखुड़ियाँ अधोमुखी हैं और उसके भीतर से सुषुम्ना गयी है। उसके बाद पूरक करो, फिर रेचक करते समय सोचो कि वह कमल पँखुड़ियों सहित ऊर्ध्वमुखी हो गया है और कमल के भीतर एक महाज्योति विद्यमान है। उस ज्योति का ध्यान करो।

वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ ३७॥

सूत्रार्थ- अथवा जिस हृदय ने इन्द्रियविषयों के प्रति समस्त आसक्ति छोड़ दी है, (उसके ध्यान से भी चित्त स्थिर होता है)।

व्याख्या- किन्हीं महापुरुष या साधु  को लो, जो पूर्ण रूप से अनासक्त हों और जिन पर तुम्हारी अत्यन्त श्रद्धा हो । उनके (CINC -नवनीदा के) हृदय के बारे में चिन्तन करो। उनका अन्तःकरण सर्वविषयों में अनासक्त हो गया है, अतः उनके अन्तःकरण के बारे में चिन्तन करने पर तुम्हारा अन्तःकरण शान्त हो जाएगा। यदि यह न कर सको, तो और एक उपाय है :

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ ३८ ॥

सूत्रार्थ – अथवा स्वप्नावस्था में कभी कभी जो अपूर्व ज्ञानलाभ होता है, उसका- तथा सुषुप्ति अवस्था में प्राप्त सात्विक सुख का ध्यान करने से भी (चित्त प्रशान्त होता है) ।

व्याख्या - कभी कभी मनुष्य ऐसा स्वप्न देखता है कि उसके पास देवता आकर बातचीत कर रहे हैं; वह मानो एक प्रकार से भावावेश में चूर हो गया है; वायु में एक अपूर्व संगीत की ध्वनि बहती हुई चली आ रही है और वह उसे सुन रहा है। उस स्वप्नावस्था में वह आनन्द में मस्त रहता है। जब वह जागता है, तब स्वप्न की वे घटनाएँ उसके मन पर एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं। उस स्वप्न को सत्य मानकर उसका ध्यान करो। यदि तुम इसमें भी समर्थ न होओ, तो जो कोई पवित्र वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, उसी का ध्यान करो।

यथाभिमतध्यानाद्वा ॥ ३९ ॥

सूत्रार्थ - अथवा जिसे जो कोई चीज अच्छी लगे, उसी के ध्यान से (समाधि प्राप्त होती है)।

व्याख्या- इससे यह न समझ लेना चाहिए कि किसी बुरी वस्तु (अपवित्र वस्तु) का भी ध्यान करने से बनेगा। जो कोई भली वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, जो स्थान तुम्हें पसन्द हो, जो दृश्य या जो भाव तुम्हें बहुत अच्छा लगता हो, जिससे तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता हो, उसी का चिन्तन करो

परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥४०॥

सूत्रार्थ- इस प्रकार ध्यान करते करते परमाणु से लेकर परम बृहत् पदार्थ तक सभी में योगी के मन की गति अव्याहत हो जाती है।

व्याख्या -मन इस अभ्यास के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म से लेकर बृहत्तम वस्तु तक सभी पर सुगमता से ध्यान कर सकता है। ऐसा होने पर ये मनोवृत्तिप्रवाह भी धीरे धीरे क्षीण होने लगते हैं

क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्रात्येषु
तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः ॥ ४१ ॥

सूत्रार्थ - जिन योगी की चित्तवृत्तियाँ इस प्रकार क्षीण हो चुकी हैं (वश में आ चुकी हैं), उनका चित्त उस समय ग्रहीता (आत्मा), ग्रहण (अन्तःकरण और इन्द्रियाँ) और ग्राह्य (पंचभूत और विषयों) में उसी प्रकार एकाग्रता और एकीभाव को प्राप्त होता है, जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक (भिन्न भिन्न रंगवाली वस्तुओं के सामने भित्र भिन्न रंग धारण करता है।)

व्याख्या- इस प्रकार लगातार ध्यान करते करते कौनसा फल प्राप्त होता है? हमें यह स्मरण होगा कि पूर्वोक्त एक सूत्र में पतंजलि ने विभिन्न प्रकार की समाधियों का वर्णन किया है। पहली समाधि है स्थूल विषय को लेकर, और दूसरी है सूक्ष्म विषय को लेकर। आगे चलकर, क्रमशः और भी सूक्ष्मतर वस्तुएँ हमारी समाधि का विषय होती जाती हैं, यह भी पहले कहा जा चुका है। इन सब समाधियों के अभ्यास का फल यह है कि हम जितनी सुगमता से स्थूल विषयों का ध्यान कर सकते हैं, उतनी ही सुगमता से सूक्ष्म विषयों का भी। इस अवस्था में योगी तीन वस्तुएँ देखते हैं-ग्रहीता, ग्राह्य और ग्रहण, अर्थात् आत्मा, विषय और मन। हमें ध्यान के लिए तीन प्रकार के विषय दिये गये हैं।

पहला है स्थूल, जैसे- शरीर या भौतिक पदार्थ; दूसरा है सूक्ष्म, जैसे-मन या चित्त; और तीसरा है गुणविशिष्ट पुरुष अर्थात् अस्मिता या अहंकार । यहाँ आत्मा का अर्थ उसके यथार्थ स्वरूप से नहीं है। अभ्यास के द्वारा योगी इन सब ध्यानों में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाते हैं। तब उन्हें ऐसी एकाग्रता-शक्ति प्राप्त हो जाती है कि ज्योंही वे ध्यान करने बैठते हैं, त्योंही अन्य सभी वस्तुओं को मन से हटा दे सकते हैं। वे जिस विषय का ध्यान करते हैं, उस विषय के साथ एक हो जाते हैं। जब वे ध्यान करते हैं, तब वे मानो स्फटिक के एक टुकड़े के समान हो जाते हैं। यह स्फटिक यदि फूल के पास रहे, तो वह फूल के साथ मानो एकरूप हो जाता है। यदि वह फूल लाल हो, तो स्फटिक भी लाल दिखाई देता है, और यदि फूल नीले रंग का हो, तो स्फटिक भी नीला दिखाई देता है।

तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥४२॥

सूत्रार्थ - शब्द, अर्थ और उससे उत्पन्न ज्ञान जब मिश्रित होकर रहते हैं, तब वह सवितर्क अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि (कहलाती है।

व्याख्या- यहाँ शब्द का अर्थ है कम्पन। अर्थ का मतलब है वह स्नायविक शक्तिप्रवाह, जो उसे भीतर ले जाता है। और ज्ञान का अर्थ है प्रतिक्रिया । हमने अब तक जितने प्रकार की समाधि की बात सुनी है, पतंजलि उन सभी को सवितर्क कहते हैं। इसके बाद वे हमें क्रमशः और भी उच्चतर समाधियों की शिक्षा देंगे। इन सवितर्क समाधियों में हम विषयी और विषय, इन दोनों को सम्पूर्ण रूप से पृथक् रखते हैं। यह पार्थक्य या भेद शब्द, उसके अर्थ और तत्प्रसूत ज्ञान के मिश्रण से उत्पन्न होता है। पहले तो है बाह्य कम्पन - शब्द; जब वह इन्द्रिय-प्रवाह द्वारा भीतर प्रवाहित होता है, तब उसे अर्थ कहते हैं। उसके बाद चित्त में एक प्रतिक्रिया-प्रवाह आता है; उसे ज्ञान कहा जाता है। जिसे हम बाह्य वस्तु की अनुभूति कहते हैं, वह वस्तुतः इन तीनों की समष्टि मात्र है। हमने अब तक जितने प्रकार की समाधियों की बात सुनी है, उन सब में यह समष्टि ही हमारे ध्यान का विषय होती है। इसके बाद जिस समाधि के बारे में कहा जाएगा, वह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है।

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥ ४३ ॥ 

सूत्रार्थ -जब स्मृति शुद्ध हो जाती है, अर्थात् स्मृति में जब और किसी प्रकार के गुण का सम्पर्क नहीं रह जाता, जब वह केवल ध्येय वस्तु का अर्थ मात्र प्रकाशित करती है, तब उसे निर्वितर्क अर्थात् वितर्कशून्य समाधि कहते हैं।

व्याख्या-पहले जिस शब्द, अर्थ और ज्ञान की बात कही गयी है, उन तीनों का एक साथ अभ्यास करते करते एक समय ऐसा आता है, जब वे और अधिक मिश्रित नहीं होते; तब हम अनायास ही इन त्रिविध भावों का अतिक्रमण कर सकते हैं। अब पहले हम यही समझने की विशेष चेष्टा करेंगे कि ये तीन क्या हैं। प्रथम चित्त को लो। यह हमेशा याद रखना कि चित्त अर्थात् मनस्तत्त्व की उपमा सरोवर से दी गयी है और स्पन्दन, शब्द या ध्वनि सरोवर के सतह पर आये हुए कम्पन के समान है। तुम्हारे अपने भीतर ही यह स्थिर सरोवर विद्यमान है। मान लो, मैंने 'गाय' शब्द का उच्चारण किया ज्योंही वह तुम्हारे कान में प्रवेश करता है, त्योंही तुम्हारे चित्तरूपी सरोवर में एक कम्पन उठा देता है। यह कम्पन ही 'गाय' शब्द से सूचित भाव या अर्थ है। तुम जो सोचते हो कि मैं एक गाय को जानता हूँ, वह केवल तुम्हारे मन के भीतर रहनेवाली एक तरंग मात्र है। वह बाह्य एवं आभ्यन्तर ध्वनि-स्पन्दन की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होती है। उस ध्वनि के साथ वह तरंग भी नष्ट हो जाती है; ध्वनिजनित क्षोभ के बिना तरंग रह ही नहीं सकती।

 तुम पूछ सकते हो कि जब हम गाय बारे में केवल सोचते हैं, पर बाहर से कोई ध्वनि कानों नहीं पहुँचती, तब भला ध्वनि कहाँ रहती है ? उत्तर यह है कि तब वह ध्वनि तुम स्वयं करते हो। तब तुम अपने मन ही मन 'गाय' शब्द का धीरे धीरे उच्चारण करते रहते हो, और बस, उसी से तुम्हारे भीतर एक तरंग आ जाती है। ध्वनि के इस संवेग के बिना कोई तरंग नहीं आ सकती; और जब यह संवेग बाहर से नहीं आता, तब भीतर से ही आता है। ध्वनि के साथ ही लहर का भी नाश हो जाता है।  
    तब फिर बच क्या रहता है? तब उस प्रतिक्रिया का परिणाम भर बच रहता है। वही ज्ञान है। हमारे मन के अन्दर ये तीनों इतने दृढ़सम्बद्ध हैं कि हम उन्हें अलग नहीं कर सकते। ज्योंही ध्वनि आती है, त्योंही इन्द्रियाँ स्पन्दित हो उठती हैं और प्रतिक्रिया के रूप में एक तरंग उठ. जाती है। ये तीनों क्रियाएँ एक के बाद एक इतनी शीघ्रता से होती हैं कि उनमें एक को दूसरे से अलग करना अत्यन्त कठिन है। यहाँ जिस समाधि की बात कही गयी है, उसका दीर्घ काल तक अभ्यास करने पर स्मृति - समस्त संस्कारों की आधारभूमि - शुद्ध हो जाती है, और तब हम उनमें से एक-दूसरे को अलग कर सकते हैं। इसी को निर्वितर्क समाधि कहते हैं।

एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ ४४॥ 

सूत्रार्थ - पूर्वोक्त दो सूत्रों में सवितर्क और निर्वितर्क जिन दो समाधियों की बात कही गयी है, उन्हीं के द्वारा सूक्ष्मतर विषयवाली सविचार और निर्विचार समाधियों की भी व्याख्या कर दी गयी है।

व्याख्या- यहाँ पहले के ही समान समझना चाहिए। भेद केवल इतना है कि पूर्वोक्त दोनों समाधियों के विषय स्थूल हैं और यहाँ वे विषय सूक्ष्म हैं।-

सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥४५॥ 

सूत्रार्थ- सूक्ष्म विषयों की अवधि प्रधान पर्यन्त है।

व्याख्या- पंच महाभूत और उनसे उत्पन्न समस्त वस्तुओं को स्थूल कहते हैं। सूक्ष्म वस्तु तन्मात्रा से शुरू होती है। इन्द्रिय, मन, अहंकार, महत्तत्त्व (जो समस्त अभिव्यक्ति का कारण है), सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्थारूप प्रधान, प्रकृति या अव्यक्त - ये सभी सूक्ष्म वस्तु के अन्तर्गत हैं। केवल पुरुष (अर्थात आत्मा) ही इसके भीतर नहीं आता

ता एव सबीजः समाधिः ॥ ४६ ॥

सूत्रार्थ - ये सभी सबीज समाधि हैं।

व्याख्या - इन सब समाधियों में पूर्वकर्मों का बीज नष्ट नहीं होता; अतः उनसे मुक्ति प्राप्त नहीं होती। तो फिर उनसे होता क्या है ? यह आगे के सूत्र में बतलाया गया है।

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥४७॥ 

सूत्रार्थ- निर्विचार समाधि की निर्मलता होने पर चित्त की स्थिति दृढ़ हो जाती है। 

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥ ४८ ॥ 

सूत्रार्थ - उसमें जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसे ऋतम्भरा यानी सत्यपूर्ण ज्ञान कहते हैं।

व्याख्या - अगले सूत्र में इसकी व्याख्या होगी।

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥४९॥ 

सूत्रार्थ- जो ज्ञान विश्वस्त मनुष्यों के वाक्य और अनुमान से प्राप्त होता है, वह सामान्य वस्तुविधयक होता है। जो विषय आगम और अनुमान से उत्पन्न ज्ञान के गोचर नहीं हैं, वे पूर्वोक्त समाधि द्वारा प्रकाशित होते हैं

व्याख्या- तात्पर्य यह है कि हमें सामान्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव, उस पर आधारित अनुमान और विश्वस्त मनुष्यों के वाक्यों से होता है। 'विश्वस्त मनुष्यों' से योगियों का तात्पर्य है 'ऋषि', और ऋषि का अर्थ है वेदों में लिपिबद्ध मन्त्रों के द्रष्टा । उनके मतानुसार शास्त्रों का प्रामाण्य केवल यह है कि वे विश्वस्त मनुष्यों के वचन हैं। शास्त्र विश्वस्त मनुष्यों के वचन होने पर भी, वे कहते हैं कि केवल शास्त्र हमें आत्मानुभूति कराने में कभी समर्थ नहीं हैं। हम भले ही सारे वेदों को पढ़ डालें, पर तो भी हो सकता है कि हमें किसी तत्त्व की अनुभूति न हो। पर जब हम शास्त्रों में वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में उतारते हैं - उनके अनुसार कार्य करते हैं, तब हम ऐसी एक अवस्था में पहुँच जाते हैं, जिसमें शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। जहाँ तर्क, प्रत्यक्ष या अनुमान किसी की भी पहुँच नहीं है, वहाँ आप्तवाक्य की भी कोई उपयोगिता नहीं है। यहीं इस सूत्र का तात्पर्य है।

प्रत्यक्ष उपलब्धि ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष सब- उदाहरणार्थ, धर्मसम्बन्धी प्रवचन सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना, या विचार करना उस उपलब्धि के लिए प्रारम्भिक तैयारियाँ मात्र हैं। वह यथार्थ धर्म नहीं है। केवल किसी मत के साथ बौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है। योगियों का मूलभाव यह है कि जैसे इन्द्रियों के विषयों के साथ हम लोगों का साक्षात् सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार धर्म भी प्रत्यक्ष किया जा सकता है; और इतना ही नहीं, बल्कि वह तो और भी तीव्रतर रूप से उपब्लध हो सकता है। 

ईश्वर, आत्मा आदि जो सब धर्म के प्रतिपाद्य सत्य हैं, वे बहिरिन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं हो सकते। मैं आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकता, या हाथ से उनका स्पर्श नहीं कर सकता। हम यह भी जानते कि युक्ति-तर्क हमें इन्द्रियों के परे नहीं ले जा सकता; वह तो हमें सर्वथा एक अनिश्चित स्थल में छोड़ आता हैहम भले ही जीवनभर विचार करते रहें, जैसा कि दुनिया हजारों वर्षों से करती आ रही है, पर आखिर उसका फल क्या होता है ? यही कि धर्म के सत्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं। हम जिसका इन्द्रियों से प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं, उसी के आधार पर हर्म तर्क, विचार आदि किया करते हैं

अतः यह स्पष्ट है कि तर्क को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की इस चारदीवारी के भीतर ही चक्कर काटना पड़ता है; वह उसके परे कभी नहीं जा सकता। अतएव आत्मानुभूति का समस्त क्षेत्र इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे है। योगी कहते हैं कि मनुष्य इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे और तर्क के परे भी जा सकता है। मनुष्य में अपनी बुद्धि को भी लाँघ जाने की शक्ति, सामर्थ्य है, और यह शक्ति प्रत्येक प्राणी में, प्रत्येक जन्तु में निहित है। योग के अभ्यास से यह शक्ति जागृत हो जाती है और तब मनुष्य युक्ति-तर्क की साधारण सीमा को पार करता है और तर्क के अगम्य विषयों का साक्षात्कार करता है।

तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५०॥

सूत्रार्थ-यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात् दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।

व्याख्या- हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय है- एकाग्रता । हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सभी ने गौर किया होगा कि ज्योंही तुम लोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्योंही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार भटकने लगते हैं। ज्योंही ईश्वरचिन्तन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैंदूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते; किन्तु ज्योंही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और तुम्हारे मन को बिलकुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण क्या है ? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं ? 

इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो। और वे अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते। इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है! चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहतें हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात में रहते हैं। 

उन सब को रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आए और दूसरे सब भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध शक्तियाँ हैं। अतएव जिस समाधि की बात अभी कही गयी है, उसका अभ्यास सब से उत्तम है; क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥ ५१ ॥

सूत्रार्थ - उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को रोक देता है) निरोध हो जाने पर, सब का निरोध हो जाने के कारण निर्बीज समाधि (हो जाती है)।

व्याख्या- तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्मसाक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। हम लोग आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा का प्रकृति, मन और शरीर के साथ हमारा तादात्म्य हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर को ही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है। किन्तु दोनों ही भूल में हैं। 

अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों (शरीर या मन) के साथ कैसे एकाकार हो जाती है ? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरें (वृत्तियाँ) उठकर आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं, और हम इन लहरों में से आत्मा का कुछ प्रतिबिम्ब मात्र देख पाते हैं। यही कारण है कि जब क्रोधवृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को क्रोधयुक्त देखते हैं। कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं। जब चित्त में प्रेम की लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिम्बित देखकर हम सोचते हैं कि हम प्यार कर रहे हैं। चित्त में जब दुर्बलतारूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिम्बित हो जाती है, तो हम सोचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते रहते हैं।  चित्तरूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप दिखाई नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिलकुल शान्त नहीं हो जातीं, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा

 इसीलिए पतंजलि ने पहले यह समझाया है कि ये तरंगरूप वृत्तियाँ क्या हैं ? और बाद में उनको दमन करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है। और तीसरी बात यह सिखलायी है कि जैसे एक बृहत् अग्निराशि छोटे छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतनी प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिलकुल लुप्त हो जाएँ। जब केवल एक ही लहर बच रहेगी, तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। तब और कुछ भी नहीं बच रहता और आत्मा अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक पदार्थ है; अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं - वह अमर है, अविनश्वर है, नित्य चैतन्यघन सत्तास्वरूप है
============

पतंजलि योगसूत्र [अध्याय दो] साधनपाद |
 
[Patanjali Yog Sutra Chapter- 2 Sadhanpad : इस द्वितीय पाद में प्रारंभिक साधक के लिए योग के साधनों का वर्णन किया गया है अर्थात वे उपाय जिनसे योग मार्ग प्रशस्त होता है। अतः इसका नाम साधन पाद है। इस द्वितीय पाद में क्रिया योग और उसका फल,  अविद्या आदि क्लेश एवं उनका स्वरूप और उनके नाश के उपाय, क्लेश मूल कर्माशय और उसका फल, विवेकी के लिए सबकुछ दुख ही है और उसको हटाने के उपाय, दृश्य का स्वरूप, योग के आठ अंग और उनके फल, प्राणायाम का लक्षण तथा उसके भेद और फल तथा प्रत्याहार का स्वरूप आदि विषयों पर संक्षिप्त रूप में सूत्रकार ने समझाया है।]

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ॥

सूत्रार्थ-तपस्या, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर में समस्त कर्मफलों के समर्पण को क्रियायोग कहते हैं।

व्याख्या- पिछले अध्याय में जिन सब समाधियों की बात कही गयी है, उन्हें प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। इसलिए हमें धीरे धीरे विभिन्न सोपानों में से होते हुए उन सब समाधियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। इसके पहले सोपान को क्रियायोग कहते हैं। इसका शब्दार्थ है - कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। 
    हमारी देह मानो एक रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथि है और आत्मा रथी है। यह गृहस्वामी, यह राजा, यह मनुष्य की आत्मा रथ में सवार है। यदि घोड़े बड़े तेज हों और लगाम खिंची न रहे, यदि बुद्धिरूपी सारथी उन घोड़ों को संयत करना न जाने, तो रथ की दुर्दशा हो जाएगी। पर यदि इन्द्रियरूपी घोड़े अच्छी तरह से संयत रहें और मनरूपी लगाम बुद्धिरूपी सारथी के हाथों अच्छी तरह थमी रहे, तो वह रथ ठीक अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है। 

अब यह समझ में आ जाएगा कि इस तपस्या शब्द- का अर्थ क्या है। तपस्या शब्द का अर्थ है- इस शरीर और इन्द्रियों को चलाते समय लगाम अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी इच्छानुसार काम न करने देकर अपने वश में किये रहना। उसके बाद है स्वाध्याय या पठन-अध्ययन। यहाँ पठन का तात्पर्य क्या है? नाटक, उपन्यास या कहानी की पुस्तक का पठन नहीं, वरन् उन ग्रन्थों का पठन, जो यह शिक्षा देते हैं कि आत्मा की मुक्ति कैसे होती है। फिर स्वाध्याय से तर्क या वाद-विवाद की पुस्तक का पठन नहीं समझना चाहिए। जो योगी हैं, वे तो वाद-विवाद करके तृप्त हो चुके रहते हैं; वाद-विवाद में उनकी कोई रुचि नहीं रह जाती। वे पठन-अध्ययन करते हैं, केवल अपनी धारणाओं को दृढ़ करने के लिए। 

शास्त्रीय ज्ञान दो प्रकार के हैं। एक है वाद (जो तर्क -युक्ति और विचारात्मक है), और दूसरा है सिद्धान्त (मीमांसात्मक)। अज्ञानावस्था में मनुष्य प्रथमोक्त प्रकार के शास्त्रीय ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है; वह तर्कयुद्ध के समान है - प्रत्येक वस्तु के सब पहलू देखकर विचार करना; इस विचार का अन्त होने पर वह किसी एक मीमांसा या सिद्धान्त पर पहुँचता है। किन्तु केवल सिद्धान्त पर पहुँचने से ही नहीं हो जाता। इस सिद्धान्त के बारे में मन की धारणा दृढ़ करना होगा। शास्त्र तो अनन्त हैं और समय अल्प है; अतः ज्ञानप्राप्ति का रहस्य है - सब वस्तुओं का सारभाग ग्रहण करना । उस सारभाग को ग्रहण करो और उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो। 

भारत में एक पुरानी किंवदन्ती है कि यदि तुम किसी राजहंस के सामने एक कटोरा भर पानी मिला हुआ दूध रख दो, तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। उसी प्रकार ज्ञान का जो अंश आवश्यक है, उसे लेकर असार भाग को हमें फेंक देना चाहिए। पहले-पहल बुद्धि की कसरत आवश्यक होती है। अन्धे के समान कुछ भी ले लेने से नहीं बनता। 

पर जो योगी हैं, वे इस युक्ति - तर्क की अवस्था को पार करके एक ऐसे सिद्धान्त पर पहुँच चुके हैं, जो पर्वत के समान अचल-अटल है। इसके बाद उनका सारा प्रयत्न उस सिद्धान्त के दृढ़ करने में होता है। वे कहते हैं, वाद-विवाद मत करो; यदि कोई तुम्हें वाद-विवाद करने को बाध्य करे, तो चुप रहो। किसी वाद-विवाद का जवाब न देकर शान्तभाव से वहाँ से चले जाओ; क्योंकि वाद-विवाद द्वारा मन केवल चंचल ही होता है। वाद-विवाद की आवश्यकता थी केवल बुद्धि को तेज करने के लिए; जब वह सम्पन्न हो चुका, तब और उसे बेकार चंचल करने की क्या जरूरत ? बुद्धि तो एक दुर्बल यन्त्र मात्र है, वह हमें केवल इन्द्रियों के घेरे में रहनेवाला ज्ञान दे सकती है। 

पर योगी इन्द्रियों के परे जाना चाहते हैं, अतएव उनके लिए बुद्धि चलाने की और कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। उन्हें इस विषय में पक्का विश्वास हो चुका है,अतएव वे वाद-विवाद नहीं करते, चुपचाप रहते हैं; क्योंकि वाद-विवाद करने से मन समता से च्युत हो जाता है, चित्त में एक हलचल मच जाती है; और चित्त की ऐसी हलचल उनके लिए एक विघ्न ही है। यह सब वाद-विवाद, युक्ति-तर्क केवल प्रारम्भिक अवस्था के लिए है। इस युक्ति-तर्क के अतीत और भी उच्चतर तत्त्वसमूह हैं। सारे जीवन भर केवल विद्यालय के बच्चों के समान वाद-विवाद या तर्क-वितर्क समिति लेकर ही रहना पर्याप्त नहीं हैईश्वर में कर्मफल अर्पित करने का तात्पर्य है-कर्म के लिए स्वयं कोई प्रशंसा या निन्दा न लेकर इन दोनों को ही ईश्वर को समर्पित कर देना और शान्ति से रहना

समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥ 

सूत्रार्थ- समाधि की सिद्धि के लिए और क्लेशजनक विघ्नों को क्षीण करने के लिए (इस क्रियायोग की आवश्यकता है) ।

व्याख्या - हममें से अनेकों ने मन को लाड़-प्यार के लड़के के समान कर डाला है। वह जो कुछ चाहता है, उसे वही दे दिया करते हैं। इसीलिए क्रियायोग का सतत अभ्यास आवश्यक है, जिससे मन को संयत करके अपने वश में लाया जा सके। इस संयम के अभाव में ही योग के सारे विघ्न उपस्थित होते हैं और उनसे फिर क्लेश की उत्पत्ति होती है। उन्हें दूर करने का उपाय है-क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना, उसे अपना कार्य न करने देना।

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ ३॥

सूत्रार्थ- अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता) - (ये पाँचों) क्लेश हैं।

व्याख्या- ये ही पंचक्लेश हैं, ये पाँच बन्धनों के समान हमें इस संसार में बाँध रखते हैं। इनमें से अविद्या ही कारण है और शेष चार क्लेश इसके कार्य हैं। यह अविद्या ही हमारे दुःख का एकमात्र कारण है। भला और किसकी शक्ति है, जो हमें इस प्रकार दुःख में रख सके ? आत्मा तो नित्य आनन्दस्वरूप है। उसे अज्ञान-भ्रम-माया के सिवा और कौन दुःखी कर सकता है ? आत्मा के ये समस्त दुःख केवल भ्रम मात्र हैं

अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ ४ ॥ 

सूत्रार्थ- अविद्या ही उन शेष चार का उत्पादक क्षेत्रस्वरूप है। ये कभी लीनभाव से, कभी सूक्ष्मभाव से, कभी अन्य वृत्ति के द्वारा विच्छित्र अर्थात् अभिभूत होकर और कभी प्रकाशित होकर रहते हैं।

व्याख्या- अविद्या ही अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश का कारण है। ये संस्कारसमूह विभिन्न मनुष्यों के मन विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं। कभी कभी वे प्रसुप्त रूप से रहते हैं। तुम लोग अनेक समय 'शिशु के समान 'भोला' - यह वाक्य सुनते हो; परन्तु सम्भव है, इस शिशु के भीतर ही देवता या असुर का भाव विद्यमान हो, जो धीरे धीरे समय पाकर प्रकाशित होगा। योगी में पूर्व कर्मों के फलस्वरूप ये संस्कार सूक्ष्म भाव से रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं और योगी उन्हें दबाकर रख सकते हैं। 

उनमें उन संस्कारों को प्रकाशित न होने देने की शक्ति रहती है। कभी कभी कुछ प्रबल संस्कार अन्य कुछ संस्कारों को कुछ समय तक के लिए दबाकर रखते हैं, किन्तु ज्योंही वह दबा रखनेवाला कारण चला जाता है, त्योंही वे पहले के संस्कार फिर से उठ जाते हैं। इस अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं। अन्तिम अवस्था का नाम है उदार । इस अवस्था में संस्कारसमूह अनुकूल परिस्थितियों का सहारा पाकर बड़े प्रबल भाव से शुभ या अशुभ रूप से कार्य करते रहते हैं।

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ ५ ॥ 

सूत्रार्थ- अनित्य, अपवित्र, दुःखकर और आत्मा से भिन्न पदार्थ में (क्रमशः) नित्य, पवित्र, सुखकर और आत्मा की प्रतीति 'अविद्या' है।

व्याख्या- इन समस्त संस्कारों का एकमात्र कारण है अविद्या । हमें पहले यह जान लेना होगा कि यह अविद्या क्या है। हम सभी सोचते हैं, "मैं शरीर हूँ-शुद्ध, ज्योतिर्मय, नित्य, आनन्दस्वरूप आत्मा नहीं।" यह अविद्या है। हम लोग मनुष्य को शरीर के रूप में ही देखते और जानते हैं। यह महान् भ्रम है

दृग्दर्शन शक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥ ६ ॥

सूत्रार्थ- दृक्-शक्ति और दर्शनशक्ति का एकीभाव ही अस्मिता है। 

व्याख्याआत्मा ही यथार्थ द्रष्टा है; वह शुद्ध, नित्य पवित्र, अनन्त और अमर है। और दर्शनशक्ति अर्थात् उसके व्यवहार में आनेवाले यन्त्र कौन-कौनसे हैं? चित्त, बुद्धि अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति, मन और इन्द्रियाँ - ये उसके यन्त्र हैं, ये सब बाह्य जगत् को देखने के लिए उसके यन्त्रस्वरूप हैं।  और उसकी इन सब के साथ एकरूपता को अस्मिता रूपी अविद्या कहते हैं। 

हम कहा करते हैं, 'मैं मन हूँ', 'मैं क्रुद्ध हुआ हूँ', 'मैं सुखी हूँ' । पर सोचो तो सही, हम कैसे क्रुद्ध हो सकते हैं, कैसे किसी के प्रति घृणा कर सकते हैं ? आत्मा के साथ हमें अपने को अभिन्न समझना चाहिए। आत्मा का तो कभी परिणाम नहीं होता। यदि आत्मा अपरिणामी हो, तो वह कैसे इस क्षण सुखी, और दूसरे ही क्षण दुःखी हो सकती है ? वह निराकार, अनन्त और सर्वव्यापी है। उसे कौन परिणामी बना सकता है ? आत्मा सर्व प्रकार के नियमों के परे है। उसे कौन विकृत कर सकता है ? संसार में कोई भी, आत्मा पर किसी प्रकार का कार्य नहीं कर सकता। तो भी हम लोग अज्ञानवश अपने आप को मनोवृत्ति के साथ एकरूप कर लेते हैं और सोचा करते हैं कि हम सुख या दुःख का अनुभव कर रहे हैं

सुखानुशयी रागः||७||

सूत्रार्थ- जो मनोवृत्ति सुख के आधार पर रहती है, उसे राग (आसक्ति) कहते हैं। 

व्याख्या- हम किसी किसी विषय में सुख पाते हैं। जिसमें हम सुख पाते हैं, मन एक प्रवाह के समान उसकी ओर प्रवाहित होता है। सुखकेन्द्र की ओर दौड़नेवाले मन के इस प्रवाह को ही राग या आसक्ति कहते हैं। हम जिस विषय में सुख नहीं पाते, उधर हमारा मन कभी भी आकृष्ट नहीं होता। हम लोग कभी कभी नाना प्रकार की विचित्र चीजों में सुख पाते हैं, तो भी राग की जो परिभाषा दी गयी है, वह सर्वत्र ही लागू होती है। हम जहा सुख पाते हैं वहीं आकृष्ट हो जाते हैं।

दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥

सूत्रार्थ- जो मनोवृत्ती दुःख के आधार पर रहती है, उसे द्वेष कहते हैं। 

व्याख्या - जिसमें हम दुःख पाते हैं, उसे तत्क्षण त्याग देने का प्रयत्न करते हैं।

स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥ ९ ॥

सूत्रार्थ- जो (पहले के मृत्यु के अनुभवों से) स्वभावतः चला आ रहा है एवं जो विवेकशील पुरुषों में भी विद्यमान देखा जाता है, वह अभिनिवेश अर्थात् जीवन के प्रति ममता है।

व्याख्या - जीवन के प्रति यह ममता जीव मात्र में प्रकट रूप से देखी जाती है। इस पर भविष्य-जीवनसम्बन्धी सिद्धान्तों को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। मनुष्य ऐहिक जीवन से इतना प्यार करता है कि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह भविष्य में भी जीवित रहे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युक्ति का कोई विशेष मूल्य नहीं हैं - पर इसमें सब से आश्चर्यजनक बात तो यह है कि पाश्चात्यों के मतानुसार इस जीवन के प्रति ममता से भविष्य-जीवन की जो सम्भावना सूचित होती है, वह केवल मनुष्य के—बारे में सत्य है, दूसरे प्राणियों के बारे में नहीं। भारत में, पूर्वसंस्कार और पूर्वजीवन को प्रमाणित करने के लिए यह अभिनिवेश एक युक्तिस्वरूप हुआ है। 

मान लो, यदि समस्त ज्ञान हमें प्रत्यक्ष अनुभूति से प्राप्त हुए हों, तो यह निश्चित है कि हमने जिसका कभी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया, उसकी कल्पना भी कभी नहीं कर सकते, अथवा उसे समझ भी नहीं सकते। मुर्गी के बच्चे अण्डे में से बाहर आते ही दाना चुगना आरम्भ कर देते हैं। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि यदि कभी मुर्गी के द्वारा बतख का अण्डा सेया गया, तो बतख का बच्चा अण्डे में से बाहर आते ही पानी में चला जाता है, और उसकी मुर्गी-माँ इधर सोचती है कि शायद बच्चा पानी में डूब गया। यदि प्रत्यक्ष-अनुभूति ही ज्ञान का एकमात्र उपाय हो, तो इन मुर्गी के बच्चे ने कहाँ से दाना चुगना सीखा? अथवा बतख के इन बच्चों ने यह कैसे जाना कि पानी उनका स्वाभाविक स्थान है? यदि तुम कहो कि वह जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) मात्र है, तो उससे कुछ भी बोध नहीं होता; वह तो केवल एक शब्द का प्रयोग मात्र हुआ - वह कोई स्पष्टीकरण तो है नहीं। 

यह जन्मजात प्रवृत्ति क्या है ? हम लोगों में भी ऐसी बहुतसी जन्मजात-प्रवृत्तियाँ हैं। उदाहरणार्थ, तुममें से अनेक महिलाएँ पियानो बजाती हैं; तुमको अवश्य स्मरण होगा, जब तुमने पहले-पहल पियानो सीखना आरम्भ किया था, तब तुमको सफेद और काले परदों पर एक के बाद दूसरे पर कितनी सावधानी के साथ उँगलियाँ रखनी पड़ती थीं, किन्तु कुछ वर्षों अभ्यास के बाद अब शायद तुम किसी मित्र के साथ बातचीत भी करती रहती हो और साथ ही तुम्हारी उँगलियाँ भी पियानो पर अपने आप चलती रहती हैं। अर्थात् वह अब तुम लोगों की जन्मजात - प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गया है - वह तुम लोगों के लिए अब पूर्ण रूप से स्वाभाविक हो गया है। हम जो अन्य कार्य करते हैं, उनके बारे में भी ठीक ऐसा ही है। 

अभ्यास से वह सब जन्मजात प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो जाता है, स्वाभाविक हो जाता है। और जहाँ तक हम जानते हैं, आज जिन क्रियाओं को हम स्वाभाविक या जन्मजात - प्रवृत्तियों से उत्पन्न कहते हैं, वे सब पहले तर्कपूर्वक ज्ञान की क्रियाएँ थीं और अब निम्नभावापन्न होकर इस प्रकार स्वाभाविक हो पड़ी हैं। योगियों की भाषा में, जन्मजात - प्रवृत्ति तर्क की निम्नभावापन्न क्रमसंकुचित अवस्था मात्र है। तर्कजन्य ज्ञान क्रमसंकुचित होकर स्वाभाविक संस्कार के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव यह बात पूर्णरूपेण युक्तिसंगत है कि हम इस जगत् में जिसे जन्मजात - प्रवृत्ति कहते हैं, वह तर्कजन्य ज्ञान की संकुचित निम्नावस्था मात्र है। 

पर चूँकि यह तर्क प्रत्यक्ष-अनुभूति बिना नहीं हो सकता, इसलिए समस्त जन्मजात-प्रवृत्तियाँ पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। मुर्गी के बच्चे चील से डरते हैं, बतख के बच्चे पानी पसन्द करते हैं, ये दोनो पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। अब प्रश्न यह है कि यह अनुभूति जीवात्मा की है, अथवा केवल शरीर की ? बतख अभी जो कुछ अनुभव कर रही है, वह उस बतख के पूर्वजों की अनुभूति से आया है, अथवा वह उसकी अपनी प्रत्यक्ष- -अनुभूति है ? आधुनिक वैज्ञानिक कहते हैं, वह केवल उसके शरीर का धर्म है; पर योगी कहते हैं कि वह मन की अनुभूति है, जो शरीर के माध्यम से संचारित होकर आ रही है। इसी को पुनर्जन्मवाद कहते हैं

हमने पहले देखा है कि हमारा समस्त ज्ञान- प्रत्यक्ष, तर्कजन्य या जन्मजात - एकमात्र प्रत्यक्ष अनुभूतिरूप मार्ग के माध्यम से होकर ही आ सकता है।  और जिसे हम जन्मजात - प्रवृत्ति कहते हैं, वह हमारी पूर्व क्ष - अनुभूति का फल है, वह पूर्वानुभूति ही आज अवनत होकर प्रत्यक्ष- जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गयी है और यह जन्मजात-प्रवृत्ति फिर से तर्कजन्य ज्ञान में उन्नत हो जाती है। सारे संसार भर में यही क्रिया चल रही है। इसी पर भारत में पुनर्जन्मवाद की एक प्रधान युक्ति आधारित हुई है। पूर्वानुभूत बहुतसे भय के संस्कार कालान्तर में इस जीवन के प्रति ममता के रूप में परिणत हो जाते हैं। 

यही कारण है कि बालक बिलकुल बचपन से अपने आप डरता रहता है, क्योंकि उसके मन में दुःख का पूर्वानुभूतिजनित संस्कार विद्यमान है। अत्यन्त विद्वान् मनुष्यों में भी- जो जानते हैं कि यह शरीर एक दिन चला जाएगा, जो कहते हैं कि 'आत्मा की मृत्यु नहीं, हमारे तो सैकड़ों शरीर हैं, अतएव भय किस बात का'- ऐसे विद्वान् पुरुषों में भी, उनकी सारी विचारजनित धारणाओं के बावजूद हम इस जीवन के प्रति प्रगाढ़ ममता देखते हैं। जीवन के प्रति यह ममता कहाँ से आयी ? हमने देखा है कि यह हमारे लिए जन्मजात या स्वाभाविक हो गयी है। 

योगियों की दार्शनिक भाषा में कह सकते हैं कि वह संस्कार के रूप में परिणत हो गयी है। ये सारे संस्कार सूक्ष्म (तनू) और गुप्त (प्रसुप्त) होकर मन के भीतर मानो सोये हुए पड़े हैं। मृत्यु के ये सब पूर्व-अनुभव - वे सभी संस्कार जिन्हें हम जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं - मानो अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि में पहुँच गये हैं। वे चित्त में ही वास करते हैं। वे वहाँ निष्क्रिय रूप से अवस्थान करते हों, ऐसी बात नहीं, वरन् भीतर ही भीतर कार्य करते रहते हैं।

स्थूल रूप में प्रकाशित चित्तवृत्तियों को हम समझ सकते हैं और उनका अनुभव कर सकते हैं; उनका दमन अधिक सुगमता से किया जा सकता है। पर इन सब सूक्ष्मतर संस्कारों का दमन कैसे होगा? उन्हें कैसे दबाया जाए? जब मैं क्रुद्ध होता हूँ, तब मेरा सारा मन मानो क्रोध की एक बड़ी तरंग में परिणत हो जाता है। मैं वह अनुभव कर सकता हूँ, उसे देख सकता हूँ, उसे मानो हाथ में लेकर हिला-डुला सकता हूँ, उसके साथ अनायास ही, जो इच्छा हो, वही कर सकता हूँ, उसके साथ लड़ाई कर सकता हूँ; पर यदि मैं मन के अत्यन्त गहरे प्रदेश में न जा सकूँ, तो कभी भी मैं उसे जड़ से उखाड़ने में सफल न हो सकूँगा। 

कोई मुझे दो कड़ी बातें सुना देता है, और मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा खून गरम होता जा रहा है। उसके और भी कुछ कहने पर मेरा खून उबल उठता है और मैं अपने आपे से बाहर हो जाता हूँ, क्रोधवृत्ति के साथ मानो अपने को एक कर लेता हूँ। जब उसने मुझे सुनाना आरम्भ किया था, उस समय मुझे अनुभव हो रहा था कि मुझमें क्रोध आ रहा है। उस समय क्रोध अलग था और मैं अलग; किन्तु जब मैं क्रुद्ध हो उठा, तो मैं ही मानो क्रोध में परिणत हो गया। इन वृत्तियों को जड़ से, उनकी सूक्ष्मावस्था से ही उखाड़ना पड़ेगा; वे हमारे ऊपर कार्य कर रही हैं, यह समझने के पहले ही उन पर संयम करना पड़ेगा। 

संसार के अधिकांश मनुष्यों को तो इन वृत्तियों की सूक्ष्मावस्था के अस्तित्व तक का पता नहीं। जिस अवस्था में ये वृत्तियाँ अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि से थोड़ी थोड़ी करके उदित होती हैं, उसी को वृत्ति की सूक्ष्मावस्था कहते हैं। जब किसी सरोवर की तली से एक बुलबुला ऊपर उठता है, तब हम उसे देख नहीं पाते: केवल इतना ही नहीं, जब वह सतह के बिलकुल नजदीक आ जाता है, तब भी हम उसे देख नहीं पाते; पर जब वह ऊपर उठकर फूट जाता है और एक लहर फैला देता है, तभी हम उसका अस्तित्व जान पाते हैं। 

इसी प्रकार जब हम इन वृत्तियों को उनकी सूक्ष्मावस्था में ही पकड़ सकेंगे, तभी हम उन्हें रोकने में समर्थ हो सकेंगे। उनके स्थूल रूप धारण करने के पहले ही यदि हम उनको पकड़ न सके, उनको संयत न कर सके, तो फिर किसी भी वासना पर सम्पूर्ण रूप से जय प्राप्त कर सकने की आशा नहीं। वासनाओं को संयत करने के लिए हमें उनके मूल में जाना पड़ेगा। तभी हम उनके बीज तक को दग्ध कर डालने में सफल होंगे। जैसे भुने हुए बीज जमीन में बो देने पर फिर अंकुरित नहीं होते, उसी प्रकार ये वासनाएँ भी फिर कभी उदित न होंगी

ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ १०॥

सूत्रार्थ- उन सूक्ष्म संस्कारों को प्रतिप्रसव यानी प्रतिलोम परिणाम के द्वारा (अर्थात् अपनी कारणावस्था में विलीन करने के साधन द्वारा) नाश करना पड़ता है।

व्याख्या-ध्यान के द्वारा जब चित्तवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब सूक्ष्म संस्कार बच रहते हैं। उनको नष्ट करने का उपाय क्या है ? उन्हें प्रतिप्रसव अर्थात् प्रतिलोम-परिणाम के द्वारा नष्ट करना पड़ता है। प्रतिलोम-परिणाम का अर्थ है - कार्य का कारण में लय । चित्तरूप कार्य जब समाधि के द्वारा अस्मितारूप अपने कारण में लीन हो जाता है, तभी चित्त के साथ ये सब संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं। केवल ध्यान से ही, ये सब सूक्ष्म संस्कार नष्ट नहीं हो सकते

ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ।।११॥

सूत्रार्थ- ध्यान के द्वारा उनकी (स्थूल) वृत्तियाँ नष्ट करनी पड़ती हैं। 

व्याख्या - ध्यान ही इन बड़ी तरंगों की उत्पत्ति को रोकने का एक महान उपाय है। ध्यान के द्वारा मन की ये वृत्तिरूप लहरें दब जाती हैं। यदि तुम दिन पर दिन, मास पर मास, वर्ष पर वर्ष, इस ध्यान का अभ्यास करो-जब तक वह तुम्हारे स्वभाव में न भिद जाए, जब तक तुम्हारी इच्छा न करने पर भी वह ध्यान आप से आप आने लगे,–तो क्रोध, घृणा आदि वृत्तियाँ संयत हो जाएँगी।'

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२॥

सूत्रार्थ- ये सब पूर्वोक्त क्लेश ही कर्मसंस्कारों के समुदाय की जड़ हैं; वर्तमान या भविष्य में होनेवाले जीवन में ये फल प्रसव करते हैं। 

व्याख्या- कर्माशय का अर्थ है, समस्त संस्कारों की समष्टि। हम जो भी कार्य करते हैं, वह चित्तरूपी सरोवर में एक लहर उठा देता है। हम सोचते हैं कि इस काम के समाप्त होते ही वह लहर भी चली जाएगी; पर वास्तव में वैसा नहीं होता। वह तो बस, सूक्ष्म आकार भर धारण कर लेती है, पर रहती वहीं है। ज्योंही हम उस कार्य को स्मरण में लाने का प्रयत्न करते हैं, त्योंही वह फिर से उठ जाती है और लहररूप धारण कर लेती है। इससे यह स्पष्ट है कि वह मन .के ही भीतर छिपी हुई थी; यदि ऐसा न होता, तो स्मृति ही सम्भव न होती । 

अतएव हमारा हर एक कार्य, हर एक विचार, वह चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ, मन के गहरे प्रदेश में जाकर सूक्ष्मभाव धारण कर लेता है और वहीं संचित रहता है। शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के विचार को क्लेश कहते हैं, क्योंकि योगियों के मतानुसार दोनों से ही अन्त में दुःख उत्पन्न होता है। इन्द्रियों से जो सुख मिलता है, वह अन्त में दुःख ही लाता है; क्योंकि भोग से और अधिक भोग की तृष्णा होती है और इसका अनिवार्य फल होता है - दुःख । मनुष्य की वासना का कोई अन्त नहीं; वह लगातार वासना पर वासना रचता जाता है, और जब ऐसी अवस्था में पहुँचता है, जहाँ उसकी वासना पूर्ण नहीं होती, तो फल होता है-दुःख । इसीलिए योगी शुभ या अशुभ समस्त संस्कारों की समष्टि को क्लेश कहते हैं; ये क्लेश आत्मा की मुक्ति में बाधक होते हैं

हमारे सारे कार्यों के सूक्ष्म मूलस्वरूप संस्कारों के बारे में भी ऐसा ही समझना चाहिए। वे कारणस्वरूप होकर इहजीवन अथवा परजीवन में फल प्रसव करते हैं। विशेष स्थलों में ये संस्कार, विशेष प्रबल रहने के कारण बहुत शीघ्र अपना फल दे देते हैं; अत्युत्कट पुण्य या पाप कर्म इहजीवन में ही अपना फल सामने ला देता है। योगी कहते हैं कि जो मनुष्य इहजीवन में ही अत्यन्त प्रबल शुभ संस्कार उपार्जित कर सकते हैं, उन्हें मृत्यु तक बाट जोहने कीआवश्यकता नहीं होती, वे (नवनीदा) तो इसी जीवन में अपने शरीर को देवशरीर में परिणत कर सकते हैं। योगियों के ग्रन्थों में इस प्रकार के कई दृष्टान्तों का उल्लेख मिलता है। 

ये व्यक्ति अपने शरीर के उपादान तक को बदल डालते हैं। ये लोग अपने शरीर के परमाणुओं को ऐसे नये ढंग से ठीक रच लेते हैं कि उनको फिर और कोई बीमारी नहीं होती, और हम लोग जिसे मृत्यु कहते हैं, वह भी उनके पास नहीं फटक सकती। ऐसी घटना न होने का तो कोई कारण नहीं है। शरीरशास्त्र के अनुसार भोजन का अर्थ है -सूर्य से शक्तिग्रहण। वह शक्ति पहले वनस्पति में प्रवेश करती है, उस वनस्पति को कोई पशु खा लेता है, फिर उस पशु को कोई मनुष्य। इसे वैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करना हो, तो कहना पड़ेगा कि हमने सूर्य से कुछ शक्ति ग्रहण करके उसे अपने अंगीभूत कर लिया। 

यदि यही बात हो, तो इस शक्ति को अपने अन्दर लेने के लिए केवल एक ही तरीका क्यों रहना चाहिए? पौधे हमारी तरह शक्तिग्रहण नहीं करते; और हम जिस प्रकार शक्तिसंग्रह करते हैं, धरती उस प्रकार नहीं करती। पर तो भी सभी किसी न किसी प्रकार से शक्तिसंग्रह करते ही हैं। योगियों का कहना है कि वे केवल मन की शक्ति के द्वारा शक्तिसंग्रह कर सकते हैं। वे कहते हैं कि हम बिना किसी साधारण उपाय का अवलम्बन किये ही यथेच्छ शक्ति भीतर ले सकते हैं। जैसे एक मकड़ी अपने ही उपादान से जाला बनाकर उसमें बद्ध हो जाती है और जाले के तन्तुओं का सहारा लिये बिना कहीं नहीं जा सकती, उसी प्रकार हमने भी अपने ही उपादान से इस स्नायुजाल की सृष्टि की है और अब उस स्नायुमार्ग का बिना अवलम्बन किये कोई काम ही नहीं कर सकते। योगी कहते हैं, हम क्यों उसमें बद्ध हों ? [(16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119 ]

इस तत्त्व को और एक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है। हम पृथ्वी के किसी भी भाग में विद्युत्-शक्ति भेज सकते हैं; पर उसके लिए हमें तार की जरूरत पड़ती है। किन्तु प्रकृति तो बिना तार के ही बड़े परिमाण में यह शक्ति भेजती रहती है। हम भी वैसा क्यों न कर सकेंगे ? हम चारों ओर मानस-विद्युत् भेज सकते हैं। हम जिसे मन कहते हैं, वह बहुत कुछ विद्युत्-शक्ति के ही सदृश है। स्नायु के भीतर जो तरल पदार्थ है, उसमें थोड़ी विद्युत्-शक्ति है, क्योंकि विद्युत् के समान उसके भी दोनों ओर दो विपरीत शक्तियाँ दिखाई पड़ती हैं, तथा विद्युत् के अन्यान्य सब धर्म उसमें भी देखे जाते हैं। इस विद्युत्-शक्ति को अभी हम केवल स्नायुओं में से ही प्रवाहित कर सकते हैं। 

पर प्रश्न यह है कि स्नायुओं की सहायता लिये बिना ही हम मानस - विद्युत् को क्यों नहीं प्रवाहित कर सकेंगे ? योगी कहते हैं, हाँ, यह पूरी तरह सम्भव है; और सम्भव ही नहीं, वरन् इसे कार्य में भी परिणत किया जा सकता है। और जब तुम इसमें कृतकार्य हो जाओगे, तब सारे संसार भर में अपनी इस शक्ति को परिचालित करने में समर्थ हो जाओगे। तब तुम किसी स्नायु-यन्त्र की सहायता लिये बिना ही किसी भी स्थान में, किसी भी शरीर द्वारा कार्य कर सकोगे। जब तक आत्मा इस स्नायु-यन्त्ररूप प्रणाली के भीतर से काम करती रहती है, हम कहते हैं कि मनुष्य जीवित है, और जब इन यन्त्रों का कार्य बन्द हो जाता है, तो कहते हैं कि मनुष्य मर गया। 

पर जब मनुष्य इस प्रकार के स्नायु-यन्त्र की सहायता से, या बिना उसकी सहायता के भी, कार्य करने में समर्थ हो जाता है, तब उसके लिए जन्म और मृत्यु का कोई अर्थ नहीं रह जाता। संसार में जितने शरीर हैं, वे सब तन्मात्राओं से बने हुए हैं, उनमें भेद है केवल तन्मात्राओं के विन्यास की प्रणाली में । यदि तुम्हीं उस विन्यास के कर्ता हो, तो तुम इच्छानुसार शरीर की रचना कर सकते हो। यह शरीर तुम्हारे सिवाय और किसने बनाया है ? अन्न कौन खाता है? यदि कोई और तुम्हारे लिए भोजन करता रहे, तो तुम अधिक दिन जीवित न रहोगे। उस अन्न से रुधिर भी कौन तैयार करता है? अवश्य तुम्हीं । उस रुधिर को शुद्ध करके कौन धमनियों में प्रवाहित करता है ? तुम्हीं । हम शरीर के मालिक हैं और उसमें वास करते हैं। 
उसका किस प्रकार पुनर्गठन किया जाए, बस, इसी ज्ञान को हम खो बैठे हैं। हम स्वभाव से अवनत, भ्रष्ट हो गये हैं। हम शरीर के परमाणुओं की विन्यासप्रणाली भूल गये हैं। अतः आज हम जिसे यन्त्रवत् किये जा रहे हैं, उसी को अब जान-बूझकर करना होगा। हमीं तो मालिक हैं - कर्ता हैं, अतः हमीं को इस विन्यासप्रणाली को नियमित करना होगा। और जब हम इसमें सफल हो जाएँगे, तब अपनी इच्छानुसार शरीर का पुनर्गठन कर लेंगे, और तब हमारे लिए जन्म, मृत्यु, आधि-व्याधि कुछ भी न रह जाएगा

सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ १३ ॥

सूत्रार्थ- ( मन में इस संस्काररूप) मूल के विद्यमान रहने तक उसका फल भोग (मनुष्य आदि विभिन्न) जाति, (भिन्न भिन्न) आयु और सुख-दुःख के भोग (के रूप में) होता रहता है।

व्याख्या - संस्काररूप जड़ अर्थात् कारण भीतर विद्यमान रहने के कारण वे ही व्यक्तभाव धारण कर फल के रूप में परिणत होते हैं। कारण का नाश होकर कार्य अर्थात् फल का उदय होता है, फिर कार्य सूक्ष्मभाव धारण कर बाद के कार्य का कारणस्वरूप होता है। वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है; बीज फिर बाद के वृक्ष की उत्पत्ति का कारण होता है। हम इस समय जो कुछ कर्म कर रहे हैं, वे समस्त पूर्वसंस्कार के फलस्वरूप हैं। ये ही कर्म फिर संस्कार के रूप में परिणत होकर भावी कार्य के कारण हो जाएँगे। बस, इसी प्रकार कार्य-कारण-प्रवाह चलता रहता है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि कारण विद्यमान रहने से उसका फल या कार्य अवश्यमेव होगा। 

यह फल पहले जाति के रूप में प्रकाशित होता है - कोई लोग मनुष्य होंगे, तो कोई देवता, कोई पशु, तो कोई असुर। फिर, जीवन में इस कर्म के विविध परिणाम होते हैं। एक मनुष्य पचास वर्ष जीवित रहता है, तो दूसरा सौ वर्ष, और कोई दो वर्ष के बाद ही चल बसता है। यह जो आयु की विभिन्नता है, वह पूर्व कर्म द्वारा ही नियमित होती है। फिर इसी प्रकार, किसी को देखने पर प्रतीत होता है कि मानो सुखभोग के लिए ही उसका जन्म हुआ है-यदि वह वन में भी चला जाए, तो वहाँ भी सुख मानो उसके पीछे पीछे जाता है। और कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा होता है कि उसके पीछे दुःख मानो छाया के समान लगा रहता है। यह सब उनके अपने अपने पूर्व कर्मों का फल है। योगियों के मतानुसार पुण्यकर्म सुख लाते हैं और पापकर्म दुःख। जो मनुष्य कुकर्म करता है, वह क्लेश के रूप में अपने कर्म का फल अवश्य भोगता है

तेह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ १४॥

सूत्रार्थ- वे (जाति, आयु और भोग) हर्ष और शोकरूप फल के देनेवाले होते हैं, क्योंकि उनके कारण हैं पुण्य और पाप कर्म।

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ||१५||

सूत्रार्थ–परिणाम-काल में परिणाम (नतीजा) रूप जो दुःख है, भोग-काल में भोग में विघ्न होने की आशंकारूप जो दुःख है, अथवा सुख के संस्कार से उत्पन्न होनेवाला तृष्णारूप जो दुःख है-उस सब का जन्मदाता होने के कारण, तथा गुणवृत्तियों में अर्थात् सत्त्व, रज और तम में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिए सब दुःखरूप ही है

व्याख्या- योगी कहते हैं कि जिनमें विवेकशक्ति है, जिनमें थोड़ीसी भी अन्तर्दृष्टि है, वे सुख और दुःख देनेवाली सर्वविध वस्तुओं के अन्तस्तल तक को देख लेते हैं और जान लेते हैं कि ये सुख और दुःख आपस में मानो गुँथे हुए हैं।  एक ही दूसरे में परिणत हो जाता है और इनसे संसार में कोई भी अछूता नहीं रहता - ये सब के पास आते हैं। 

विवेकी पुरुष देखते हैं कि मनुष्य सारा जीवन मृगजल के पीछे दौड़ता रहता है और कभी अपनी वासनाओं को पूर्ण नहीं कर पाता। एक समय महाराज युधिष्ठिर ने कहा था, 'जीवन में सब से आश्चर्यजनक घटना तो यह है कि हम प्रतिक्षण प्राणियों को कालकवलित होते देखते हैं, फिर भी सोचते हैं कि हम कभी नहीं मरेंगे।' चारों ओर मूर्खों से घिरे रहकर हम सोचते हैं कि हमीं एकमात्र पण्डित हैं। चारों ओर सब प्रकार के अस्थायी अनुभवों से घिरे रहकर हम सोचते हैं कि हमारा प्यार ही एकमात्र स्थायी प्यार है। [मेरा प्यार वो है कि मर के भी तुमको जुदा अपनी बाँहों से होने न देगा ..... ] यह कैसे हो सकता है? प्यार भी स्वार्थ से भरा है। योगी कहते हैं, 'अन्त में हम देखेंगे कि दोस्तों का प्रेम, सन्तान का प्रेम, यहाँ तक कि पति-पत्नी का प्रेम भी धीरे धीरे क्षीण होकर नाश को प्राप्त हो जाता है।' नाश ही इस संसार का धर्म है - यह किसी भी वस्तु को अछूता नहीं रखता। जब मनुष्य संसार की समस्त वासनाओं में, यहाँ तक कि प्यार में भी निराश हो जाता है, तभी क्षण भर के लिए यह भाव स्फुरित होता है कि यह संसार भी कैसा भ्रम है, कैसा स्वप्न के समान है ! तभी वैराग्य की एक किरण उसके हृदय में फैलती है, तभी वह जगदतीत सत्ता की झलक पाता है। 

इस संसार को छोड़ने पर (अर्थात संसार या गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी  कामिनी,कांचन और कीर्ति में आसक्ति का त्याग कर देने पर) ही संसारातीत तत्त्व हृदय में उद्भासित होता है।  इस संसार के में आसक्त रहते तक यह कभी सम्भव नहीं होता। ऐसे कोई महात्मा नहीं सुख हुए, जिन्हें अपनी महानता को प्राप्त करने के लिए इन्द्रिय-सुख और भोग त्यागना न पड़ा हो। दुःख का कारण है - प्रकृति की विभिन्न शक्तियों का आपस में विरोध। प्रत्येक अपनी अपनी ओर खींचती है, और इस प्रकार स्थायी सुख असम्भव हो जाता है।

हेयं दुःखमनागतम् ॥ १६॥

सूत्रार्थ- जो दुःख अभी तक नहीं आया, उसका त्याग करना चाहिए। 

व्याख्या -कर्म का कुछ अंश हम पहले ही भोग चुके हैं, कुछ अंश हम वर्तमान में भोग रहे हैं, और शेष अंश भविष्य में फल प्रदान करेगा। हमने जिसका भोग कर लिया है, वह तो अब समाप्त हो चुका। हम वर्तमान में जिसका भोग कर रहे हैं, उसका भोग तो हमें करना ही पड़ेगा; केवल जो कर्म भविष्य में फल देने के लिए बच रहा है, उसी पर हम जय प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात् उसका नाश कर सकते हैं। इसीलिए हमें अपनी पूरी शक्ति उस कर्म के नाश के लिए प्रयुक्त कर देनी चाहिए, जिसने अभी तक कोई फल पैदा नहीं किया है। संस्कारों पर विजय पाने के लिए उन्हें उनके कारणों में पर्यवसित करना होगा - पतंजलि के इस कथन का यही अभिप्राय है।

द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ १७ ॥

सूत्रार्थ- यह दुःख जो हेय है, अर्थात् जिसका त्याग करना होगा, उसका कारण है द्रष्टा और दृश्य का संयोग।

व्याख्या- द्रष्टा कौन है? - मनुष्य की आत्मा,पुरुष । दृश्य क्या है ?-मन से लेकर स्थूल भूत तक सारी प्रकृति। इस पुरुष और मन के संयोग से ही समस्त सुख-दुःख उत्पन्न हुए हैं। तुम्हें याद होगा, इस योगदर्शन के मतानुसार पुरुष शुद्धस्वरूप है; ज्योंही वह प्रकृति के साथ संयुक्त होता है और प्रकृति में प्रतिबिम्बित होता है, त्योंही वह सुख अथवा दुःख का अनुभव करता हुआ प्रतीत होता है

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥ १८ ॥ 

सूत्रार्थ- प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, भूत और इन्द्रियाँ जिसका (प्रकट) स्वरूप है, (पुरुष के) भोग और मुक्ति के लिए ही जिसका प्रयोजन है, वह दृश्य है

व्याख्या- दृश्य अर्थात् प्रकृति भूतों और इन्द्रियों से निर्मित है; भूत कहने से स्थूल, सूक्ष्म सब प्रकार के भूतों का बोध होता है, जो सारी प्रकृति का निर्माण करते है, और इन्द्रिय से आँख आदि समस्त इन्द्रियाँ तथा मन आदि का भी बोध होता है। उनके धर्म तीन प्रकार हैं; जैसे-प्रकाश, कार्य और स्थिति यानी जड़त्व; इन्हीं को दूसरे शब्दों में सत्त्व, रज और तम कहते हैं। समग्र प्रकृति का उद्देश्य क्या है ? यही कि पुरुष समस्त भोगों का अनुभव प्राप्त करे। पुरुष मानो अपने महान् ईश्वरीय भाव को भूल गया है। इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुन्दर कहानी है:

किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बनकर (दादा कहते थे नारायण ने वराह अवतार लिया था)  कीचड़ में रहते थे, उनके एक शूकरी थी - उस शूकरी से उनके बहुतसे बच्चे पैदा हुए थे। वे बड़े सुख से समय बिताते थे। कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले, "आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं। फिर आप यहाँ क्यों हैं ?" परन्तु इन्द्र ने उत्तर दिया, “मैं बड़े मजे में हूँ। मुझे स्वर्ग की परवाह नहीं ; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए।” देवगण तो यह सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये - उन्हें कुछ सूझ न पड़ा। कुछ दिनों बाद उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि वे एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालेंगे। जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगेतब देवताओं ने (दादा बोले थे , भगवान शिव ने कहा - होछे टा कि ? और त्रिशूल से) इन्द्र की शूकर-देह को भी चीर डाला। तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, 'मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन् सारा संसार शूकर- देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था!' 
 
पुरुष भी बस,इसी प्रकार प्रकृति के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरूप हैं। पुरुष को अस्तित्ववान् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह स्वयं अस्तित्व-स्वरूप है। आत्मा को ज्ञानवान् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है। वह प्रेम नहीं करता, वह स्वयं प्रेमस्वरूप है। 

आत्मा को अस्तित्ववान्, ज्ञानवान् अथवा प्रेममय कहना सर्वथा भूल है। प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं, वे तो उसका स्वरूप हैंजब वे किसी वस्तु में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब चाहो तो उन्हें उस वस्तु के गुण कह सकते हो। किन्तु वे पुरुष के गुण नहीं हैं, वे तो उस महान् आत्मा, उस अनन्त पुरुष का स्वरूप हैं, जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है। किन्तु वह यहाँ तक स्वरूपभ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है

इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत् के बीच हमारी भी ठीक वहीं दशा हो गयी है। यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिये जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान दौड़ पड़ता है। तुम कभी भी किसी नियम से बद्ध नहीं थे। प्रकृति का बन्धन तुम पर किसी काल में नहीं था। योगी तुम्हें यही शिक्षा देते हैं; धैर्यपूर्वक इसको सीखो । योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष किस प्रकार इस प्रकृति के साथ अपने को मिलाकर – अपने को मन और जगत् के साथ एकरूप करके अपने आप को दुःखी समझने लगता है। योगी यह भी कहते हैं कि अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय है। 

ये सब अनुभव प्राप्त तो करना ही होगा, [हैमलेट वाला ?]  अतएव जितनी जल्दी वह कर लिया जाए, उतना ही शुभ है। हमने अपने आपको इस जाल में फँसा लिया है, हमें इसके बाहर आना होगा। हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी। अतएव, पति-पत्नी-सम्बन्धी, [भाई-बहन ?], मित्रसम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, (अर्थात ससुराली अनुभव -साला,साली,bh से) सभी का अनुभव पा लो यदि अपना स्वरूप तुम्हें सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पार हो जाओगे। यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिलकुल अल्प समय (25 वर्ष ?) के लिए है और हमें इसके भीतर से बाध्य होकर जाना पड़ रहा है। 

भोग-सुख-दुःख का यह अनुभव ही - हमारा एकमात्र महान् शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं।  वे क्रमशः हमें एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिलकुल तुच्छ हो जाती हैं। तब पुरुष अपने को 'विश्वव्यापी विराट्' [माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'] के रूप में प्रकाशित पाता है ! और तब यह सारा विश्व सिन्धु में एक बिन्दुसा प्रतीत होने लगता है, और अपनी ही इस क्षुद्रता के कारण - इस शून्यता के कारण- न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें। 

विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥ १९॥

सूत्रार्थ- विशेष (भूतेन्द्रिय), अविशेष (तन्मात्रा, अस्मिता), केवल चिह्नमात्र (महत्) और चिह्नशून्य (प्रकृति) - ये चार (सत्त्वादि) गुणों की अवस्थाएँ हैं।

व्याख्या- यह पहले कहा जा चुका है कि योगशास्त्र सांख्यदर्शन पर आधारित है; यहाँ पर फिर से सांख्यदर्शन के ब्रह्माण्डविज्ञान का स्मरण कर लेना आवश्यक है। सांख्य के अनुसार प्रकृति ही [मकड़ी के समान]  जगत् का निमित्त और उपादान कारण है। यह प्रकृति तीन प्रकार के उपादानों से निर्मित है-सत्त्व, रज और तम । तम पदार्थ केवल अन्धकारस्वरूप हैं; जो कुछ अज्ञानात्मक और जड़ या भारी है, सभी तमोमय है। रज क्रियाशक्ति है। और सत्त्व स्थिर एवं प्रकाशस्वभाव है। सृष्टि के पूर्व प्रकृति जिस अवस्था में रहती है, उसे अव्यक्त, अविशेष या अविभक्त कहते हैं; इसका तात्पर्य यह कि इस अवस्था में नाम-रूप का कोई भेद नहीं रहता, इस अवस्था में ये तीनों पदार्थ- (तीनों गुण) पूर्ण साम्यभाव से रहते हैं। 

उसके बाद जब यह साम्यावस्था नष्ट होकर वैषम्यावस्था आती है, तब ये तीनों उपादान अलग अलग रूप से परस्पर मिश्रित होते रहते हैं और उसका फल है यह जगत्। प्रत्येक मनुष्य में भी ये तीन उपादान विद्यमान हैं। जब सत्त्व प्रबल होता है, तब ज्ञान का उदय होता है; रज प्रबल होने पर क्रिया की वृद्धि होती है; और तम प्रबल होने पर अन्धकार, आलस्य और अज्ञान आते हैं। सांख्य के अनुसार, त्रिगुणमयी प्रकृति का सर्वोच्च प्रकाश है महत् या बुद्धितत्त्व - उसे सर्वव्यापी या सार्वजनीन बुद्धितत्त्व कहते हैं। जिसका प्रत्येक मानवबुद्धि एक अंश मात्र है। सांख्य मनोविज्ञान के अनुसार, मन और बुद्धि में विशेष भेद है। 

मन का काम है केवल विषय के आघात से उत्पन्न संवेदनाओं को भीतर ले जाकर एकत्र करना और उन्हें बुद्धि अर्थात् व्यष्टि या व्यक्तिगत महत् के पास पहुँचा देना। बुद्धि उन सब विषयों का निश्चय करती है। महत् से अहंतत्त्व और अहंतत्त्व से सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। ये सूक्ष्म भूत फिर परस्पर मिलकर इन बाहरी स्थूल भूतों में परिणत होते हैं; उसी से इस स्थूल जगत् की उत्पत्ति होती है। सांख्यदर्शन का मत है कि बुद्धि से लेकर पत्थर के एक टुकड़े तक सभी एक ही पदार्थ से उत्पन्न हुए हैं, उनमें जो भेद है, वह केवल उनकी सूक्ष्मता और स्थूलता में ही है। 

सूक्ष्म कारण है और स्थूल कार्य। सांख्यदर्शन के अनुसार, पुरुष समग्र प्रकृति के परे है, वह जड़ नहीं है। पुरुष बुद्धि, मन, तन्मात्रा या स्थूल भूत, इनमें से किसी के भी सदृश नहीं है। वह सर्वथा अलग है, उसका स्वभाव सम्पूर्णतः भिन्न है। इससे वे यह सिद्धान्त स्थिर करते हैं कि पुरुष को अवश्य मृत्युरहित, अजर और अमर होना चाहिए, क्योंकि वह किसी प्रकार संघात का परिणाम नहीं है। और जो किसी प्रकार संघात का परिणाम नहीं है, उसका कभी नाश भी नहीं हो सकता। ये पुरुष या आत्मा असंख्य हैं

अब हम इस सूत्र का तात्पर्य कि गुणों की विशेष, अविशेष, केवल चिह्नमात्र और चिह्नशून्य – ये चार अवस्थाएँ हैं, समझ सकेंगे। 'विशेष' शब्द स्थूल भूतों को लक्ष्य करता है - जिनकी हम इन्द्रियों से उपलब्धि कर सकते हैं।'अविशेष' का अर्थ है सूक्ष्म भूत-तन्मात्रा; इन तन्मात्राओं की उपलब्धि साधारण मनुष्य नहीं कर सकते। 

किन्तु पतंजलि कहते हैं, 'यदि तुम योग का अभ्यास करो, तो कुछ दिनों बाद तुम्हारी अनुभव-शक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी की तुम सचमुच तन्मात्राओं को भी देख सकोगे।' तुम लोगों ने सुना होगा कि हरएक मनुष्य की अपनी एक प्रकार की ज्योति होती है, प्रत्येक प्राणी में से एक प्रकार का प्रकाश बाहर निकलता रहता है। पतंजलि कहते हैं, योगी ही उसे देखने में समर्थ होते हैं।
 
हममें से सभी उसे नहीं देख पाते; फिर भी जिस प्रकार फूल में से सदैव फूल की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुस्वरूप तन्मात्राएँ बाहर निकलती रहती हैं, जिनके द्वारा हम उसकी गन्ध ले सकते हैं, उसी प्रकार हमारे शरीर से भी ये तन्मात्राएँ सतत निकल रही हैं। प्रतिदिन हमारे शरीर से शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकार की शक्तिराशि बाहर निकलती रहती है। अतएव हम जहाँ भी जाएँगे, वहीं वातावरण इन तन्मात्राओं से पूर्ण रहेगा। 

इसका असल रहस्य न जानते हुए भी, इसी से मनुष्य के मन में अनजाने मन्दिर, गिरजा आदि बनाने का भाव आया है। भगवान् को भजने के लिए मन्दिर बनाने की क्या आवश्यकता थी? क्यों, कहीं भी तो ईश्वर की उपासना की जा सकती थी। फिर यह सब मन्दिर आदि क्यों ? [जैसे लोकतंत्र के नए मन्दिर में '28 मई, 2023' को सेंगोल (अर्थात धर्म-दण्ड) को स्थापित क्यों करना पड़ा ?]   

इसका कारण यह है कि स्वयं इस रहस्य को न जानने पर भी, मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से ऐसा उठा था कि जहाँ पर लोग ईश्वर की उपासना करते हैं, वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता है। लोग [अर्थात जनता-जनार्दन के चुने हुए प्रतिनिधि]  प्रतिदिन वहाँ जाया करते हैं; और मनुष्य जितना ही वहाँ आते-जाते हैं, उतना ही वे पवित्र होते जाते हैं और साथ ही वह स्थान भी अधिकाधिक पवित्र होता जाता है। यदि किसी मनुष्य (राहुल, नितीश, ममता आदि) के मन में उतना सत्त्वगुण नहीं है, और यदि वह भी वहाँ जाए, तो वह स्थान उस पर भी अपना असर डालेगा और उसके अन्दर सत्त्वगुण का उद्रेक कर देगा। अब हम समझ सकेंगे किं मन्दिर और तीर्थ (लोकसभा) आदि इतने पवित्र क्यों माने जाते हैं। पर यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि साधु व्यक्तियों के समागम (अर्थात सद-चरित्रवान मनुष्यों MP की संख्या) के ऊपर ही उस स्थान (लोकतंत्र के मंदिर) की पवित्रता निर्भर रहती है। किन्तु सारी गड़बड़ी तो यही है कि मनुष्य उसका मूल उद्देश्य भूल जाता है और भूलकर गाड़ी को बैल के आगे जोतना चाहता है। 

पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र बनाते हैं, उसके बाद उस स्थान की पवित्रता स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्यों को पवित्र बनाती रहती है। यदि उस स्थान में सदा (75 वर्षों तक) असाधु व्यक्तियों का ही आवागमन रहे, तो वह स्थान अन्य स्थानों के समान ही अपवित्र बन जाएगा। इमारत के गुण से नहीं, वरन् मनुष्य के गुण से ही मन्दिर पवित्र माना जाता है, पर इसी को हम सदा भूल जाते हैं। इसीलिए अधिक सत्त्वगुणसम्पन्न साधु-सन्त चारों ओर यह सत्त्वगुण बिखेरते हुए अपने परिवेश पर रात-दिन प्रबल प्रभाव डाल सकते हैं। मनुष्य यहाँ तक पवित्र हो सकता है कि उसकी वह पवित्रता मानो बिलकुल मूर्त हो जाती है और जो कोई व्यक्ति उस साधु पुरुष [CINC नवनीदा] के संस्पर्श में आता है, वही पवित्र हो जाता है

[कुछ मनुष्य-जैसे चक्रवर्ती राजगोपाला चारी और आदिनम मठ के महन्त) तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने शुक्रवार, 26 मई, 2023 को कृषि विश्वविद्यालय में आयोजित एक समारोह में कहा कि अंग्रेजों द्वारा "पारंपरिक साज-सज्जा" के साथ सत्ता के हस्तांतरण पर जोर देने के बाद , पहले प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने प्रक्रिया के अनुपालन में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की मदद ली। राज्यपाल ने कहा कि यूरोपीय शिक्षा प्राप्त करने के बाद, पहले प्रधान मंत्री, हालांकि प्रतिभाशाली थे, प्राचीन भारतीय परंपराओं से परिचित नहीं थे।  राजाओं में अपने उत्तराधिकारियों को 'धर्म दंड' (राजदंड) सौंपकर सत्ता हस्तांतरित करने की प्रथा थी। परंपरा को ध्यान में रखते हुए, अंतिम गवर्नर-जनरल राजाजी ने मद्रास के एक प्रसिद्ध जौहरी द्वारा थिरुवदुथुरै अधीनम द्वारा निर्दिष्ट डिजाइन के अनुसार ' सेनगोल ' बनाने की व्यवस्था की। राज्यपाल ने कहा कि पवित्रीकरण की एक प्रक्रिया के बाद 'सेनगोल' को लॉर्ड माउंटबेटन को सौंप दिया गया था। इसके बाद प्रथम प्रधान मंत्री ने श्री थिरुगुनासंबंदर के 'थेवरम' भजनों की अनुष्ठानिक क्रिया के माध्यम इसे प्राप्त किया। श्री रवि ने कहा कि द हिंदू और अन्य राष्ट्रीय समाचार पत्रों द्वारा रिपोर्ट की गई रस्म को भुला दिया गया। उन्होंने महसूस किया कि नए संसद भवन में इलाहाबाद संग्रहालय में रखे गए आनुष्ठानिक राजदंड की स्थापना परंपरा के साथ एक प्रयास का प्रतीक होगी।]

अब देखें, ‘चिह्नमात्र' का अर्थ क्या है। चिह्नमात्र कहने से बुद्धि (महत्तत्त्व) का बोध होता है; वह प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति है; उसी से दूसरी सब वस्तुएँ अभिव्यक्त हुई हैं। गुणों की अन्तिम अवस्था का नाम है 'अलिंग' या चिह्नशून्य । यहीं पर आधुनिक विज्ञान और समस्त धर्मों में एक भारी अन्तर देखा जाता है। प्रत्येक धर्म में यह एक साधारण सत्य देखने में आता है। कि यह जगत् चैतन्यशक्ति (आद्या शक्ति) से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर हमारे समान कोई व्यक्तिविशेष है या नहीं, यह विचार छोड़कर केवल मनोविज्ञान की दृष्टि से ईश्वरवाद का तात्पर्य यह है कि चैतन्य ही सृष्टि की आदि वस्तु है; उसी से स्थूल भूत का प्रकाश हुआ है। 

किन्तु आधुनिक दार्शनिकगण (डार्विन ?) कहते हैं कि चैतन्य सृष्टि की आखिरी वस्तु है। अर्थात् उनका मत यह है कि अचेतन जड़ वस्तुएँ धीरे धीरे प्राणी रूप में परिणत हुई हैं, ये प्राणी क्रमशः उन्नत होते होते मनुष्यरूप धारण करते हैं। वे कहते हैं, यह बात नहीं है कि जगत् की सब वस्तुएँ चैतन्य से प्रसूत हुई हैं, वरन् चैतन्य ही सृष्टि की आखिरी वस्तु है। यद्यपि धर्म एवं विज्ञान के सिद्धान्त इस प्रकार आपस में ऊपर से विरुद्ध प्रतीत होते हैं, तथापि इन दोनों सिद्धान्तों को ही सत्य कहा जा सकता है। एक अनन्त शृंखला या श्रेणी लो, जैसे क-ख-क-ख - क ख आदि; अब प्रश्न यह है कि इसमें ‘क’ पहले है या 'ख' ? यदि तुम इस शृंखला को क-ख क्रम से लो, तो ‘क' को प्रथम कहना पड़ेगा, पर यदि तुम उसे ख-क से शुरू करो, तो 'ख' को आदि मानना होगा। 

अतः हम उसे जिस दृष्टि से देखेंगे, वह उसी प्रकार प्रतीत होगा। चैतन्य अनुलोम-परिणाम को प्राप्त होकर स्थूल भूत का आकार धारण करता है, स्थूल भूत फिर विलोम परिणाम से चैतन्यरूप में परिणत होता है, और इस प्रकार क्रम चलता रहता है। सांख्य और अन्य सब धर्मों के आचार्यगण भी चैतन्य को ही प्रथम स्थान देते हैं। उससे वह शृंखला इस प्रकार का रूप धारण करती है कि पहले चैतन्य और पीछे भूत। वैज्ञानिक भूत को पहले लेकर कहते हैं कि पहले भूत और पीछे चैतन्य । पर ये दोनों ही उसी एक शृंखला की बात कहते हैं। किन्तु भारतीय दर्शन इस चैतन्य और भूत दोनों के परे जाकर उस पुरुष या आत्मा का साक्षात्कार करता है, जो ज्ञान के भी अतीत है। यह ज्ञान तो मानो उस ज्ञानस्वरूप आत्मा से उधार लिये हुए आलोक के समान है।

द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥२०॥

सूत्रार्थ- द्रष्टा केवल चैतन्य मात्र है; यद्यपि वह स्वयं पवित्रस्वरूप है, तो भी वह बुद्धि के भीतर से देखा करता है

व्याख्या- यहाँ पर भी सांख्यदर्शन की बात कही जा रही है। हमने पहले देखा है, सांख्यदर्शन का यह मत है कि अत्यन्त क्षुद्र पदार्थ से लेकर बुद्धि तक सभी प्रकृति के अन्तर्गत है, किन्तु पुरुष (आत्माएँ) इस प्रकृति के बाहर हैं, इन पुरुषों के कोई गुण नहीं है। तब फिर आत्मा क्योंकर सुखी या दुःखी होती है? केवल बुद्धि में प्रतिबिम्बित होकर वह वैसी प्रतीयमान होती है। जैसे स्फटिक के एक टुकड़े के पास एक लाल फूल रखने पर वह स्फटिक लाल दिखाई देता है, उसी प्रकार हम जो सुख या दुःख अनुभव कर रहे हैं, वह वास्तव में प्रतिबिम्ब मात्र है; वस्तुतः आत्मा में यह सब कुछ भी नहीं है। आत्मा प्रकृति से सम्पूर्णतः पृथक् वस्तु है। प्रकृति एक वस्तु है और आत्मा दूसरी-सम्पूर्ण पृथक् और सर्वदा पृथक्। 

सांख्य कहते हैं कि ज्ञान एक यौगिक पदार्थ है, उसका ह्रास और वृद्धि दोनों हैं, वह परिवर्तनशील है; शरीर के समान उसमें भी परिणाम होता है; शरीर के जो सब धर्म हैं, उसके भी प्रायः वैसे ही धर्म हैं। नख का शरीर के साथ जैसा सम्बन्ध है, वैसा ही देह का ज्ञान के साथ। नख शरीर का एक अंशविशेष है, उसे सैकड़ों बार काट डालने पर भी शरीर बचा रहेगा। ठीक इसी प्रकार, यह शरीर सैकड़ों बार नष्ट होने पर भी ज्ञान युग-युगान्तर तक बचा रहेगा। तो भी यह ज्ञान कभी अविनाशी नहीं हो सकता, क्योंकि वह परिवर्तनशील है, उसका ह्रास है, वृद्धि है। और जो परिवर्तनशील हैं, वह कभी अविनाशी नहीं हो सकता। 

यह ज्ञान एक सृष्ट पदार्थ है, और इसी से यह स्पष्ट है कि इसके परे, इससे श्रेष्ठ एक दूसरा पदार्थ अवश्य है। सृष्ट पदार्थ कभी मुक्त नहीं हो सकता; भूत के साथ संश्लिष्ट प्रत्येक वस्तु प्रकृति के अन्तर्गत है और इसीलिए वह चिरकाल के लिए बद्ध है। तो फिर यथार्थ में मुक्त है कौन? जो कार्य-कारण-सम्बन्ध के अतीत है, वही वास्तव में मुक्त है। यदि तुम कहो कि मुक्ति की यह धारणा भ्रमात्मक है, तो मैं कहूँगा कि यह बद्धभाव भी भ्रमात्मक है। हमारे ज्ञान में ये दोनों ही भाव सदैव वर्तमान हैं; वे आपस में एक दूसरे के आश्रित हैं; एक के न रहने से दूसरा भी नहीं रह सकता। उनमें से एक भाव यह है कि हम बद्ध हैं। मान लो, हमारी इच्छा हुई कि हम दीवार के बीच में से होकर चले जाएँ। हम चेष्टा करते हैं औहमारा सिर दीवार से टकरा जाता है; तब हम देख पाते हैं कि हम उस दीवार द्वारा सीमाबद्ध हैं। 

पर साथ ही (योगनिद्रा में ?) हम अपनी इच्छाशक्ति को भी देखते हैं और सोचते हैं कि इस इच्छाशक्ति को हम जहाँ चाहें लगा सकते हैं। पग पग पर हम अनुभव करते हैं कि ये दो विरोधी भाव हमारे सामने आ रहे हैं। हमें विश्वास करना पड़ता है कि हम मुक्त हैं, पर इधर प्रतिक्षण हम यह भी देखते हैं कि हम मुक्त नहीं हैं। इन दोनों में से यदि एक भाव भ्रमात्मक हो, तो दूसरा भी भ्रमात्मक होगा, और यदि एक सत्य हो, तो दूसरा भी सत्य होगा, क्योंकि दोनों ही अनुभवरूप एक ही नींव पर स्थापित हैं। योगी कहते हैं कि ये दोनों भाव सत्य हैं। बुद्धि तक लेने से हम सचमुच बद्ध हैं, पर आत्मा की दृष्टि से हम मुक्त हैं। मनुष्य का यथार्थ स्वरूप आत्मा या पुरुष-कार्य-कारणवाद के परे है। 

आत्मा का यह मुक्त स्वभाव ही भूत के विभिन्न स्तरों में से – बुद्धि, मन आदि नाना रूपों में से प्रकाशित हो रहा है। वह इसी की ज्योति है, जो सभी के माध्यम से प्रकाशित हो रही है। बुद्धि का अपना कोई चैतन्य नहीं है। प्रत्येक इन्द्रिय का मस्तिष्क में एक एक केन्द्र है। समस्त इन्द्रियों का एक ही केन्द्र नहीं है, वरन् प्रत्येक का केन्द्र अलग अलग है। तो फिर हमारी ये अनुभूतियाँ कहाँ जाकर एकत्व को प्राप्त होती हैं ? यदि मस्तिष्क में वे एकत्व को प्राप्त होतीं, तो आँख, कान, नाक सभी का एक ही केन्द्र रहता; पर हम निश्चित रूप से जानते हैं कि वैसा नहीं है- प्रत्येक के लिए अलग अलग केन्द्र है। फिर भी मनुष्य एक ही समय में देख और सुन सकता हैइसी से प्रतीत होता है कि इस बुद्धि के पीछे अवश्य एक एकत्व होना चाहिए। 

बुद्धि सदैव मस्तिष्क के साथ सम्बद्ध है; किन्तु इस बुद्धि के भी पीछे इकाईस्वरूप पुरुष विद्यमान है, जहाँ विविध संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ संयुक्त होकर एकीभाव को प्राप्त होती हैं। आत्मा ही वह केन्द्र है, जहाँ समस्त भिन्न भिन्न इन्द्रिय-अनुभूतियाँ जाकर एकीभूत होती हैं। यह आत्मा मुक्तस्वभाव है और उसका यह मुक्तस्वभाव ही तुम्हें प्रतिक्षण कह रहा है कि तुम मुक्त हो। लेकिन भ्रम में पड़कर (Hypnotized होकर?)  तुम उस मुक्त स्वभाव को प्रतिक्षण बुद्धि और मन के साथ मिला दे रहे हो। 

तुम (आत्मा के ) उस मुक्त स्वभाव को बुद्धि पर आरोपित करते हो, और दूसरे ही क्षण देखते हो कि बुद्धि मुक्त स्वभाव नहीं है। तुम फिर उस मुक्त स्वभाव को देह पर आरोपित करते हो, और प्रकृति तुम्हें तुरन्त बता देती है कि तुम फिर से भूल रहे हो; मुक्ति देह का धर्म नहीं है। यही कारण है कि हमारी मुक्ति और बन्धन ये दो प्रकार की अनुभूतियाँ एक ही समय (युगपत) देखने में आती हैं। योगी मुक्ति और बन्धन दोनों का विचार करते हैं, और उनका अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है। वे जान लेते हैं कि पुरुष मुक्तस्वभाव है, ज्ञानघन है; वह बुद्धिरूप उपाधि के भीतर से इस सान्त ज्ञान के रूप में प्रकाशित हो रहा है, बस, इसी दृष्टि से वह बद्ध है।
तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २१ ॥

सूत्रार्थ- ( उक्त) दृश्य अर्थात् प्रकृति का स्वरूप (यानी विभिन्न रूपों में परिणाम ) उस (द्रष्टा, चिन्मय पुरुष) के ही (भोग तथा मुक्ति के) लिए है।

व्याख्या-  प्रकृति का अपना कोई प्रकाश नहीं है। जब तक पुरुष, 'बुद्धि' पास उपस्थित रहता है, तभी तक वह प्रकाशमय प्रतीत होती है। लेकिन यह प्रकाश उधार लिया हुआ है, जैसे चन्द्रमा का प्रकाश प्रतिबिम्बित है, सूर्य से लिया गया है। योगियों के मतानुसार, सारा व्यक्त जगत् प्रकृति से उत्पन्न हुआ है; पर प्रकृति का अपना कोई उद्देश्य नहीं है, केवल पुरुष को मुक्त करना ही उसका प्रयोजन है

कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २२॥ 

सूत्रार्थ- जिन्होंने उस परम पद को प्राप्त कर लिया है, उनके लिए प्रकृति का नाश हो जाने पर भी प्रकृति नष्ट नहीं होती; क्योंकि वह दूसरों के लिए साधारण है

व्याख्या - यह ज्ञात करा देना ही कि आत्मा प्रकृति से सम्पूर्ण स्वतन्त्र है, प्रकृति का एकमात्र लक्ष्य है। जब आत्मा यह जान लेती है, तब प्रकृति उसे और किसी प्रकार प्रलोभित नहीं कर सकती। जो लोग मुक्त हो गये हैं, केवल उन्हीं के लिए यह सारी प्रकृति बिलकुल उड़ जाती है। पर ऐसे करोड़ों लोग हमेशा ही रहेंगे, जिनके लिए प्रकृति कार्य करती रहेगी । 

स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥२३॥

सूत्रार्थ - दृश्य (प्रकृति) और उसके स्वामी (द्रष्टा पुरूष)- )- इन दोनों की शक्ति के (भोग्यत्व और भोक्तृत्व-रूप) स्वरूप की उपलब्धि का हेतु संयोग है।

व्याख्या- इस सूत्र के अनुसार, जब आत्मा प्रकृति के साथ संयुक्त होती है, तभी इस संयोग के कारण दोनों की क्रम से द्रष्टृत्व और दृश्यत्व दोनों शक्तियों का प्रकाश होता है। तभी यह सारा जगत्-प्रपंच विभिन्न रूपों में व्यक्त होता रहता है। अज्ञान ही इस संयोग का हेतु है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि हमारे दुःख या सुख का कारण है-शरीर के साथ अपना संयोग कर लेना। यदि मुझे यह निश्चित रूप ज्ञान रहता कि मैं शरीर नहीं हूँ, तो मुझे ठण्ड, गरमी या और किसी बात का ख्याल नहीं रहता। यह शरीर एक समवाय या संहति मात्र है। यह कहना भूल है कि मेरा शरीर अलग है, तुम्हारा शरीर अलग और सूर्य एक पृथक् पदार्थ है। यह सारा जगत् जड़पदार्थ के एक महासमुद्र समान है। उस महासमुद्र में तुम एक बिन्दु हो, मैं एक दूसरा बिन्दु हूँ और सूर्य एक तीसरा । हम जानते हैं कि यह भूत सदा ही भिन्न भिन्न रूप धारण कर रहा है। आज जो सूर्य का उपादान बना हुआ है, कल वही हमारे शरीर के उपादान के रूप में परिणत हो सकता है।
 
तस्य हेतुरविद्या ॥ २४ ॥

सूत्रार्थ- उस संयोग का कारण है अविद्या अर्थात् अज्ञान। 

व्याख्या- हमने अज्ञान के कारण अपने को एक निर्दिष्ट शरीर में आबद्ध करके अपने दुःख का रास्ता खोल रखा है। यह धारणा कि "मैं शरीर हूँ”, एक भ्रम मात्र है। यह भ्रम ही हमें सुखी या दुःखी करता है। अज्ञान से उत्पन्न इस भ्रम से ही हम शीत, उष्ण, सुख, दुःख आदि का अनुभव कर रहे हैं। हमारा कर्तव्य है, इस भ्रम के पार चले जाना। किस - तरह इसे कार्य में परिणत करना होगा, यह योगी दिखला देते हैं। 

यह प्रमाणित हो चुका है कि मन की एक विशेष अवस्था में देह-बोध बिलकुल नहीं रह जाता-उस समय शरीर भले ही दग्ध होता रहे, पर जब तक मन की वह अवस्था रहती है, तब तक मनुष्य किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं करता। पर हो सकता है, मन की ऐसी उच्चावस्था अचानक एक क्षण के लिए आँधी के समान आए, और दूसरे ही क्षण चली जाए। किन्तु यदि हम इस अवस्था को योग के द्वारा, ठीक शास्त्रीय ढंग से प्राप्त करें, तो हम सदैव आत्मा को शरीर से पृथक रख सकते हैं।

तदभावात् संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम् ॥ २५॥

सूत्रार्थ-उस (अज्ञान) का अभाव होते ही (पुरुष प्रकृति के संयोग का अभाव ( हो जाता है। यही) हान (अज्ञान का परित्याग) है (और) वही द्रष्टा की (मेरी नहीं ?) कैवल्यपद में अवस्थिति है।

व्याख्या- योगशास्त्र के मतानुसार, आत्मा अविद्या के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गयी है; प्रकृति के पंजे से छुटकारा पाना ही हमारा उद्देश्य है। यही सारे धर्मों का एकमात्र लक्ष्य है। प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।" 

योगी मनःसंयम के द्वारा इस चरम लक्ष्य में पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। जब तक हम प्रकृति के हाथ से अपना उद्धार नहीं कर लेते, तब तक हम गुलाम हैं; प्रकृति जैसा कहती है, हम उसी प्रकार चलने को लाचार होते हैं। योगी यह दावा करते हैं कि जो मन को वशीभूत कर सकते हैं, वे भूत को भी वशीभूत कर लेते हैं। 

अन्तःप्रकृति बाह्य प्रकृति की अपेक्षा कहीं उच्चतर है, और उस पर अधिकार जमाना - उस पर जय प्राप्त करना अत्यधिक कठिन हैइसीलिए जो अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर सकते हैं, सारा जगत् उनके वशीभूत हो जाता है। वह उनका दास हो जाता है। राजयोग प्रकृति को इस तरह वश में लाने का उपाय दिखला देता है।

हम बाह्य जगत् में जिन सब शक्तियों के साथ परिचित हैं, उनकी अपेक्षा उच्चतर शक्तियों को वश में लाना पड़ेगा। यह शरीर,  मन का एक बाह्य आवरण मात्र है। शरीर और मन दो अलग अलग वस्तुएँ नहीं हैं, वे तो सीप और उसके खोल के समान हैं। वे एक ही दो विभिन्न अवस्थाएँ हैं। सीप के भीतर का जन्तु बाहर से नाना प्रकार के उपादान लेकर उस खोल को तैयार करता है। उसी प्रकार मन नामक यह वस्तु की आन्तरिक सूक्ष्म शक्तिसमूह भी बाहर से स्थूल भूत को लेकर उससे इस शरीररूपी ऊपरी खोल को तैयार कर रहा है। अतः हम यदि अन्तर्जगत् पर जयलाभ कर सकें, तो बाह्य जगत् को जीतना फिर बड़ा आसान हो जाएगा। फिर, ये दो शक्तियाँ अलग अलग नहीं हैं। ऐसी बात नहीं है कि कुछ शक्तियाँ भौतिक हैं और कुछ मानसिक । जैसे यह दृश्यमान भौतिक जगत् सूक्ष्म जगत् की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है, उसी प्रकार भौतिक शक्तियाँ भी सूक्ष्म शक्तियों की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है।

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥ 

सूत्रार्थ- निरन्तर विवेक-प्रयोग का अभ्यास ही अज्ञान-नाश का उपाय है।

व्याख्या- सारी साधना का यथार्थ लक्ष्य है यह सदसद्विवेक - यह जानना कि पुरुष प्रकृति से भिन्न है !  यह विशेष रूप से जानना कि पुरुष जड़पदार्थ भी नहीं है और मन भी नहीं, और चूँकि वह प्रकृति भी नहीं है, इसलिए उसका किसी प्रकार का परिणाम असम्भव है। केवल प्रकृति में ही सर्वदा परिवर्तन हो रहा है, उसी का सदैव संश्लेषण-विश्लेषण हो रहा है। जब निरन्तर अभ्यास के द्वारा हम विवेकलाभ करेंगे, तब अज्ञान चला जाएगा और पुरुष अपने स्वरूप में अर्थात् सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापी रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा

तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २७ ॥ 

सूत्रार्थ- उनके (ज्ञानी के) विवेकज्ञान के सात उच्चतम सोपान हैं। 

व्याख्या- जब इस ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब मानो वह एक के बाद एक करके सात स्तरों में आता है। और जब उनमें से एक अवस्था आरम्भ हो जाती है, तब हम निश्चित रूप से जान सकते हैं कि हमें अब ज्ञान की प्राप्ति हो रही है। पहली अवस्था आने पर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जो कुछ जानने का है, जान लिया। मन में तब और किसी प्रकार का असन्तोष नहीं रह जाता। जब तक हमारी ज्ञानपिपासा बनी रहती है, तब तक हम इधर-उधर ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। जहाँ से भी कुछ सत्य मिलने की सम्भावना रहती है, झट वहीं दौड़ जाते हैं। जब वहाँ उसकी प्राप्ति नहीं होती, तब मन अशान्त हो जाता है। 

फिर सत्य की खोज में हम 'अन्य दिशा में' भटकते फिरते हैं। जब तक हम यह अनुभव नहीं कर लेते की समस्त ज्ञान हमारे अन्दर है, जब तक यह दृढ़ धारणा नहीं हो जाती कि, दूसरा कोई भी हमें सत्य की प्राप्ति करने में सहायता नहीं पहुँचा सकता, हमें स्वयं ही अपने आप की सहायता करनी होगी, तब तक सारा सत्यान्वेषण ही वृथा है। जब हम विवेक-प्रयोग का अभ्यास आरम्भ करेंगे, तो हमारे सत्य के नजदीक आ जाने का पहला चिह्न यह प्रकाशित होगा कि वह पूर्वोक्त असन्तोष की अवस्था चली जाएगी। हमारी यह निश्चित धारणा हो जाएगी कि हमने सत्य को पा लिया है और यह सत्य के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। तब हम यह जान लेते हैं कि सत्यस्वरूप सूर्य उदित हो रहा है, हमारी अज्ञान-रजनी पर प्रभात की लाली छा रही है। और तब, हृदय में आशा भरकर, जब तक वह ध्येय प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक हमें अवश्य अध्यवसायी होना होगा।

 दूसरी अवस्था में सारे दुःख चले जाएँगे। तब जगत् का बाहरी या भीतरी कोई भी विषय हमें दुःख नहीं पहुँचा सकेगा। तीसरी अवस्था में हमें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी, अर्थात् हम सर्वज्ञ हो जाएँगे। चौथी अवस्था में विवेक-प्रयोग की सहायता से सारे कर्तव्यों का अन्त हो जाएगा। उसके बाद चित्त-विमुक्ति की अवस्था आएगी। तब हम समझ सकेंगे कि हमारी सारी विघ्न-बाधाएँ चली गयी हैं। जिस प्रकार किसी पर्वत के शिखर से एक पत्थर के टुकड़े को नीचे लुढ़का देने पर वह फिर ऊपर नहीं जा सकता, उसी प्रकार मन की चंचलता, मनःसंयम की असमर्थता आदि सभी गिर जाएँगे, अर्थात् नष्ट हो जाएँगे। छठी अवस्था में चित्त समझ लेगा कि इच्छा मात्र से ही वह अपने कारण में लीन हो जा रहा है। 

अन्त में (7th अवस्था में ? ऊपरवाला पक्षी तो था ही नहीं ?) हम देखेंगे कि हम स्वस्वरूप में अवस्थित हैं और इतने दिन तक जगत् में एकमात्र हमीं अवस्थित थे। मन या शरीर के साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं था- उनके साथ हमारे युक्त होने की बात तो दूर ही रहे। वे अपना अपना काम आप कर रहे थे; और हमने अज्ञानवश अपने आपको उनसे युक्त कर रखा था। पर हम तो सदा से अकेले ही रहे हैं। इस संसार में केवल हमीं सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी और सदानन्द-स्वरूप हैं। हमारी अपनी आत्मा इतनी पवित्र और पूर्ण है कि हमें और किसी की आवश्यकता नहीं थी। 

हमें सुखी करने के लिए और कुछ भी आवश्यक नहीं था, क्योंकि हमीं सुखस्वरूप हैं। हम देखेंगे कि यह ज्ञान और किसी के ऊपर निर्भर नहीं रहता। जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं हैं, जो हमारे ज्ञानालोक से प्रकाशित न हो। यही योगी की अन्तिम अवस्था है। तब योगी धीर और शान्त हो जाते हैं, वे और कोई कष्ट अनुभव नहीं करते, वे फिर कभी अज्ञान-मोह से भ्रान्त नहीं होते, दुःख उन्हें छू नहीं सकता। वे जान लेते हैं कि 'मैं नित्यानन्दस्वरूप, नित्यपूर्णस्वरूप और सर्वशक्तिमान् हूँ।

योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः ॥ २८ ॥

सूत्रार्थ- योग के विभिन्न अंगों का अनुष्ठान करते करते जब अपवित्रता का नाश हो जाता है, तब ज्ञान प्रदीप्त हो उठता है; उसकी अन्तिम सीमा है विवेकख्याति।

व्याख्या- अब साधना की बात कही जा रही है। अभी तक जो कुछ कहा गया, वह अपेक्षाकृत उच्चतर है। वह अभी हमसे बहुत दूर है; किन्तु वही हमारा आदर्श है, हमारा एकमात्र लक्ष्य है। उस लक्ष्यस्थल पर पहुँचने के लिए पहले शरीर और मन को संयत करना आवश्यक है। तभी उस आदर्श में हमारी अनुभूति स्थायी हो सकेगी। हमारा लक्ष्य क्या है यह हमने जान लिया है, अब उसे प्राप्त करने के लिए साधना आवश्यक है

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-
समाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ २९ ॥

सूत्रार्थ-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये आठ (योग के) अंग हैं।

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥३०॥ 

सूत्रार्थ- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (धोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह का अभाव)- ये पाँच यम कहलाते हैं।

व्याख्या-जो पूर्ण योगी होना चाहते हैं, उन्हें स्त्री-पुरुष (M/F) भेद का भाव छोड़ देना पड़ेगा। आत्मा के कोई लिंग नहीं है-उसमें न स्त्री है, न पुरुष; तब क्यों वह स्त्री-पुरुष के भेदज्ञान द्वारा अपने आपको कलुषित करे ? बाद में हम और भी अच्छी तरह समझ सकेंगे कि ये सब भाव हमें क्यों बिलकुल छोड़ देने चाहिए। उपहार ग्रहण करनेवाले मनुष्य के मन पर दाता के मन का असर पड़ता है, इसलिए ग्रहण करनेवाले के भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। दूसरे के पास से कुछ ग्रहण करने से मन की स्वाधीनता चली जाती है और हम मोल लिये हुए गुलाम के समान दाता के अधीन हो जाते हैं। अतएव किसी प्रकार का उपहार ग्रहण करना भी उचित नहीं ।

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१॥ 

सूत्रार्थ- ये सब (उक्त यम) जाति, देश, कात और समय यानी उद्देश्य के द्वारा अविच्छिन्न न होने पर सार्वभौम महाव्रत कहलाते हैं।

व्याख्या- ये सब साधन अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह प्रत्येक व्यक्ति के लिए-प्रत्येक पुरुष, स्त्री और बालक के लिए- बिना किसी जाति, देश या अवस्था के भेद से अनुष्ठेय हैं

शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥ 

सूत्रार्थ- बाह्य एवं अन्तःशौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (मन्त्रजप या अध्यात्म-शास्त्रों का पठन-पाठन) और ईश्वरोपासना-(या कम से कम किसी महापुरुष को अपना गुरु या नेता मान लेना) ये पाँच) नियम हैं।

व्याख्या-बाह्यशौच अर्थात् शरीर को पवित्र रखना। अपवित्र मनुष्य कभी योगी नहीं हो सकता। इस बाह्यशौच के साथ साथ अन्तःशौच भी आवश्यक है। समाधिपाद के तैंतीसवें सूत्र में जिन धर्मों (गुणों) की बात कही गयी है, उनके पालन से यह अन्तःशौच आता है। यह सत्य है कि बाह्यशौच से अन्तःशौच अधिक उपकारी है, किन्तु दोनों की ही आवश्यकता है; और अन्तःशौच के बिना केवल बाह्यशौच कोई फल उत्पन्न नहीं करता।
[मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
 भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ समाधि पाद /३३ ॥ सूत्रार्थ- सुख, दुःख, पुण्य और पाप-इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, दया, आनन्द और उपेक्षा का भाव धारण कर सकने से चित्त प्रसन्न होता है। इसीलिए यह सूत्र अन्तःशौच का उपाय है।  ] 

वितर्कबाधने प्रतिपक्ष भावनम् ॥ ३३ ॥

सूत्रार्थ- बितर्क अर्थात् योग (यम और नियम) के विरोधी भाव उपस्थित होने पर उनके प्रतिपक्षी विचारों का बारम्बार चिन्तन करना चाहिए।

व्याख्या - ऊपर में जिन सब धर्मों (गुणों) की बात कही गयी है, उनके अभ्यास का यही उपाय है। उदाहरणार्थ, जब मन में क्रोध की एक बड़ी तरंग आती है, तब उसे कैसे वश में लाया जाए ? उसके विपरीत एक तरंग उठाकर । उस समय प्रेम की बात मन में लाओ। कभी कभी ऐसा होता है कि पत्नी अपने पति पर खूब गरम हो जाती है, उसी समय उसका बच्चा वहाँ आ जाता हैं और वह उसे गोद में उठाकर चूम लेती है; इससे उसके मन में बच्चे के प्रति प्रेमरूप तरंग उठने लगती है और वह पहले की तरंग को दबा देती है। प्रेम, क्रोध के विपरीत है। इसी प्रकार जब मन में चोरी का भाव उठे, तो चोरी के विपरीत भाव का चिन्तन करना चाहिए। जब दान ग्रहण करने की इच्छा पैदा हो, तो उसके विपरीत भाव का चिन्तन करना चाहिए।

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा 

दुःखाज्ञानान्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥

सूत्रार्थ-वितर्क अर्थात् योग के विरोधी हैं हिंसा आदि भाव (वे तीन प्रकार के होते हैं -) स्वयं किये हुए, दूसरों से करवाये हुए और अनुमोदित किये हुए, इनके कारण हैं- लोभ, क्रोध और मोह; इनमें भी कोई थोड़े परिमाण का, कोई मध्यम परिमाण का और कोई बहुत बड़े परिमाण का होता है; इनके अज्ञान और क्लेशरूप अनन्त फल हैं; इस प्रकार (विचार करना ही) प्रतिपक्ष की भावना है।

व्याख्या- मैं यदि स्वयं कोई झूठ कहूँ, तो उससे जो पाप होता है, उतना ही पाप तब भी होता है, जब मैं दूसरे को झूठ कहने में लगाता हूँ, अथवा दूसरे की किसी झूठ बात का अनुमोदन करता हूँ। वह झूठ भले ही जरासा हो, फिर भी झूठ तो झूठ ही है । पर्वत की कन्दरा में भी बैठकर यदि तुम कोई पाप-चिन्तन करो, किसी के प्रति घृणा का भाव पोषण करो, तो वह भी अपने हृदय से ईर्ष्या और घृणा संचित रहेगा, और कालान्तर में फिर से वह तुम्हारे पास किसी दुःख के रूप में आकर तुम पर प्रबल आघात करेगा। यदि तुम का भाव चारों ओर बाहर भेजो, तो वह चक्रवृद्धि व्याजसहित तुम पर आकर गिरेगा। दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक न सकेगी। यदि तुमने एक बार उस शक्ति को बाहर भेज दिया, तो फिर निश्चित जानो, तुम्हें उसका प्रतिघात सहन करना ही पड़ेगा। यह स्मरण रहने पर तुम कुकर्मों से बचे रह सकोगे।

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ ३५ ॥

सूत्रार्थ-भीतर अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर, उसके निकट सब प्राणी अपना - स्वाभाविक वैरभाव त्याग देते हैं।

व्याख्या– यदि कोई व्यक्ति अहिंसा की चरम अवस्था को प्राप्त कर ले, तो उसके सामने, जो प्राणी स्वभावतः ही हिंस्र हैं, वे भी शान्तभाव धारण कर लेते हैं। उस योगी के सामने शेर और मेमना एक साथ खेलेंगे। इस अवस्था की प्राप्ति होने पर ही समझना कि तुम्हारा अहिंसाव्रत दृढ़प्रतिष्ठित हो गया है।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥

सूत्रार्थ- जब सत्यव्रत हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब कोई कर्म बिना किये ही अपने लिए या दूसरे के लिए कर्म का फल प्राप्त करने की शक्ति योगी में आ जाती है। 

व्याख्या- जब सत्य की यह शक्ति तुममें प्रतिष्ठित हो जाएगी, तब स्वप्न में भी तुम झूठ नहीं कहोगे। तब शरीर, मन और वचन से सत्य ही बाहर आएगा। तब तुम जो कुछ कहोगे, वही सत्य हो जाएगा। यदि तुम किसी से कहो, “तुम कृतार्थ होओ”, तो वह उसी क्षण कृतार्थ हो जाएगा। किसी पीड़ित मनुष्य से यदि कहो, “रोगमुक्त हो जाओ", तो वह उसी समय स्वस्थ हो जाएगा

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७॥

सूत्रार्थ-अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाने पर (उस योगी के सामने) सब प्रकार के धन-रत्न प्रकट हो जाते हैं।

व्याख्या- तुम जितना ही प्रकृति से दूर भागोगे, वह उतना ही तुम्हारा अनुसरण करेगी, और यदि तुम उसकी जरा भी परवाह न करो, तो वह तुम्हारी दासी बनकर रहेगी।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥

सूत्रार्थ- ब्रह्मचर्य की दृढ़ स्थिति हो जाने पर वीर्यलाभ होता है। 

व्याख्या- ब्रह्मचर्यवान मनुष्य के मस्तिष्क में प्रबल शक्ति-महती इच्छाशक्ति-संचित रहती है। ब्रह्मचर्य के बिना और किसी भी उपाय से आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। जितने महान् मस्तिष्कशाली पुरुष हो गये हैं, वे सभी ब्रह्मचर्यवान थे। इसके द्वारा मनुष्यजाति पर आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त की जा सकती है। मानवसमाज के सभी आध्यात्मिक नेतागण ब्रह्मचर्यवान थे – उन्हें सारी शक्ति इस ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त हुई थी। अतएव योगी (नेता) का ब्रह्मचर्यवान होना अनिवार्य है।

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः ॥ ३९ ॥

सूत्रार्थ- अपरिग्रह के दृढ़प्रतिष्ठित हो जाने पर पूर्वजन्मों की बात स्मृति में उदित हो जाती है

व्याख्या- जब योगी दूसरों के पास से कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते, तब उन पर दूसरों का कोई असर नहीं पड़ता, वे किसी के द्वारा अनुगृहीत नहीं होते और इसलिए वे स्वाधीन एवं मुक्त रहते हैं। उनका मन शुद्ध हो जाता है। दान स्वीकार करने से दाता के पाप भी लेने की सम्भावना रहती है। इस परिग्रह को त्याग देने पर मन शुद्ध हो जाता है; और इससे जो फल प्राप्त होते हैं उनमें पूर्वजन्म की स्मृति (जैसे दादा ही कैप्टन सेवियर थे) का उदित होना प्रथम है। तभी वे योगी (CINC नवनीदा) सम्पूर्ण रूप से अपने लक्ष्य में दृढ़ होकर रह सकते हैं। वे देख लेते हैं कि इतने दिन तक वे केवल आवागमन कर रहे थे। तब वे दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि इस बार मैं अवश्य मुक्त होऊँगा, मैं अब और आवागमन नहीं करूँगा, प्रकृति का दास नहीं होऊँगा।

शौचात् स्वाङ्गगुगुप्सा पररसंसर्गः ॥४०॥

सूत्रार्थ- शौच के प्रतिष्ठित हो जाने पर अपने शरीर के प्रति घृणा का उद्रेक होता है, दूसरों के साथ संग करने की भी फिर प्रवृत्ति नहीं रहती।

व्याख्या- जब यथार्थ बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के शौच सिद्ध हो जाते हैं, तब शरीर के प्रति उदासीनता आ जाती है-उसे कैसे अच्छा रखें, कैसे वह सुन्दर दिखेगा, ये सब भाव बिलकुल चले जाते हैं। सांसारिक लोग जिसे अत्यन्त सुन्दर मुख कहेंगे, उसमें यदि ज्ञान का कोई चिह्न न हो, तो वहीं योगी के निकट पशु के मुख के समान प्रतीत होगा। संसार के मनुष्य जिस मुख में कोई विशेषता नहीं देखते, उसके पीछे यदि चैतन्य का प्रकाश हो, तो योगी उसे स्वर्गीय मुखश्री कहेंगे। यह -देहतृष्णा मानवजीवन के लिए एक अभिशापस्वरूप है। अतः शौचप्रतिष्ठा का पहला लक्षण यह दिखेगा कि तुम शरीर के प्रति उदासीन हो जाओगे - तुम्हारे मन में विचार तक न उठेगा कि तुम्हारे शरीर है भी । जब यह पवित्रता हममें आती है, तभी हम देहभाव के ऊपर उठ सकते हैं

सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥४१॥

सूत्रार्थ- इसके सिवा (इस शौच पालन से) सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य अर्थात् मन का प्रफुल्ल भाव, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता-ये पाँचों भी होते हैं।

व्याख्या- इस शौच के अभ्यास द्वारा सत्त्वपदार्थ का प्राबल्य होता है. और मन एकाग्र एवं प्रफुल्ल हो जाता है। तुम धर्मपथ में अपने अग्रसर होने का प्रथम लक्षण यह देखोगे कि तुम दिन पर दिन बड़े प्रफुल्ल होते जा रहे हो। यदि कोई व्यक्ति विषादयुक्त दिखे, तो वह अजीर्ण का फल भले ही हो, पर धर्म का लक्षण नहीं हो सकता। सुख का भाव ही सत्त्व का स्वाभाविक धर्म है, सात्त्विक मनुष्य के लिए सभी सुखमय प्रतीत होते हैं। अतः जब तुममें यह आनन्द का भाव आता रहे, तो समझना कि तुम योग में उन्नति कर रहे हो। सारे दुःख कष्ट तमोगुण से उत्पन्न होते हैं, अतएव तुम्हें उससे बचकर रहना होगा उसको दूर कर देना होगा। विषादपूर्ण होकर चेहरा उतारे रहना तमोगुण का एक लक्षण है। सबल, दृढ, स्वस्थ, युवक और साहसी मनुष्य ही योगी बनने के योग्य हैं। 

योगी के लिए सभी मनुष्य सुखमय प्रतीत होते हैं; वे जिस किसी मनुष्य को देखते हैं, उसी से उनको आनन्द होता है। यही धार्मिक मनुष्य का चिह्न है। पाप ही कष्ट का कारण है, अन्य किसी कारण से कष्ट नहीं आता। उत्तरा हुआ चेहरा लेकर क्या होगा ? कैसा भयानक दृश्य है वह । ऐसी सूरत लेकर बाहर मत जाना। किसी दिन ऐसा होने पर दरवाजा बन्द करके समय बिता देना । संसार में इस बीमारी को संक्रामित करने का तुम्हें क्या अधिकार है ? जब तुम्हारा मन संयत हो जाएगा, तब तुम पूरे शरीर को वश में रख सकोगे; तब फिर तुम इस यन्त्र के दास नहीं बने रहोगे; यह देहयन्त्र ही तुम्हारा दास होकर रहेगा। तब यह देहयन्त्र आत्मा को खींचकर नीचे की ओर न ले जाकर उसकी मुक्ति में महान् सहायक हो जाएगा

सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः ॥ ४२ ॥

सूत्रार्थ- सन्तोष से परम सुख प्राप्त होता है। [इसका अनुभव है ?]

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः ॥ ४३ ॥

सूत्रार्थ- तपस्या से जब अशुद्धि का नाश हो जाता है, तब शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है अर्थात् उनमें नाना प्रकार की शक्तियाँ आती हैं।

व्याख्या- तपस्या का फल कभी कभी अचानक दूरदर्शन, दूरश्रवण इत्यादि रूप से प्रकाशित होता है।

स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ॥ ४४ ॥

सूत्रार्थ- मन्त्र के पुनःपुनः उच्चारण या अभ्यास से इष्टदेवता के दर्शन होते हैं।

व्याख्या- जितने उच्च स्तर के जीव (देवता, ऋषि, सिद्ध, अथवा अवतार वरिष्ठ को ) देखने की इच्छा करोगे, उतना ही कठोर अभ्यास करना पड़ेगा।

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ॥ ४५ ॥

सूत्रार्थ- ईश्वर में समस्त अर्पण करने से समाधिलाभ होता है। 

व्याख्या- ईश्वर-समर्पण से समाधि की पूर्णता होती है।

स्थिरसुखमासनम् ॥ ४६ ॥

सूत्रार्थ- स्थिर भाव से सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है। 

व्याख्या- अब आसन की बात कही जाएगी। जब तक तुम स्थिर भाव से बहुत समय तक बैठे रहने में समर्थ नहीं होते, तब तक प्राणायाम एवं अन्य साधनाओं में किसी प्रकार सफल नहीं हो सकोगे। आसन के स्थिर होने का तात्पर्य है - शरीर के अस्तित्व का बिलकुल भान तक न होना। साधारणतः यह देखा जाता है कि ज्योंही तुम चन्द मिनट के लिए बैठते हो, त्योंही शरीर में नाना प्रकार के विकार आने लगते हैं। पर जब तुम स्थूल देहभाव के परे चले जाओगे, तब तुम्हें शरीर का भान तक न रहेगा। 

फिर तुम सुख या दुःख कुछ भी अनुभव नहीं करोगे। जब फिर से तुम्हें शरीर का ज्ञान आएगा, जब तुम - आसन से उठोगे, तो ऐसा लगेगा कि तुमने बहुत समय तक विश्राम किया है। यदि शरीर को सम्पूर्ण विश्राम देना सम्भव हो, तो वह इसी प्रकार हो सकता है। जब तुम इस प्रकार शरीर को अपने अधीन करके उसे दृढ़ रख सकोगे, तब जानना कि तुम्हारी साधना भी दृढ़ हुई है। किन्तु जब शारीरिक विघ्न-बाधाओं विचलित हो जाओगे तब तुम्हारे स्नायु चंचल रहेंगे और तुम किसी भी प्रकार मन को एकाग्र न कर सकोगे।

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥४७॥

सूत्रार्थ- शरीर में एक प्रकार का जो स्वाभाविक प्रयत्न है (अर्थात् चंचलता की ओर शरीर की जो एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है), उसे शिथिल कर देने से और अनन्त के चिन्तन से (आसन स्थिर और सुखकर होता है) ।

व्याख्या- अनन्त (भगवान श्रीरामकृष्ण) के चिन्तन के द्वारा आसन स्थिर हो सकता हैं। हम उस सर्वद्वन्द्वातीत अनन्त (ब्रह्म) के बारे में सरलता से चिन्तन नहीं कर सकते, किन्तु हम अनन्त आकाश के बारे में सोच सकते हैं।

ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ ४८ ॥

सूत्रार्थ- इस प्रकार आसन सिद्ध हो जाने पर, द्वन्द्वपरम्परा और कुछ विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकती।

व्याख्या- द्वन्द्व का अर्थ है शुभ-अशुभ, शीत-उष्ण, आलोक- अन्धकार, सुख-दुःख आदि विपरीत धर्मवाले युग्म । ये सब फिर तुम्हें चंचल नहीं कर सकेंगे।

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ ४९ ॥

सूत्रार्थ- उस आसन की सिद्धि होने के बाद श्वास और प्रश्वास दोनों की गति को संयत करना प्राणायाम कहलाता है।

व्याख्या- जब यह आसन सिद्ध हो जाता है, तब इस श्वास-प्रश्वास की गति को संयत करके उस पर जय प्राप्त करना पड़ेगा। अतः अब प्राणायाम का विषय आरम्भ होता है। प्राणायाम क्या है? शरीरस्थित जीवनीशक्ति को वश में लाना। यद्यपि 'प्राण' शब्द बहुधा श्वास के अर्थ में प्रयुक्त होता है, तो भी वास्तव में वह श्वास नहीं है। प्राण का अर्थ है जागतिक समस्त शक्तियों की समष्टि। यह वह शक्ति है, जो प्रत्येक देह में अवस्थित है, और उसका ऊपरी प्रकाश है- फेफडे की यह गति । प्राण जब श्वास को भीतर की ओर खींचता है, तभी यह गति शुरू होती है; प्राणायाम करने के समय हम उसी को संयत करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्राण पर अधिकार प्राप्त करने के लिए हम पहले श्वास-प्रश्वास को संयत करना शुरू करते हैं, क्योंकि वही प्राणजय का सब से सरल मार्ग है।

बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ॥ ५०॥

सूत्रार्थ- बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति और स्तम्भवृत्ति के भेद से यह प्राणायाम तीन प्रकार का है; देश, काल और संख्याके द्वारा नियमित तथा दीर्घ या सूक्ष्म होने के कारण उनमें भी फिर नाना प्रकार के भेद हैं।

व्याख्या- यह प्राणायाम तीन प्रकार की क्रियाओं में विभक्त है। पहली - जब हम श्वास को अन्दर खींचते हैं; दूसरी- जब हम उसे बाहर निकालते हैं: तीसरी - जब उसे फेफड़े के भीतर या उसके बाहर रोकते हैं। ये फिर देश, काल और संख्या के अनुसार भिन्न भिन्न रूप धारण करते हैं। देश का अर्थ हैं- प्राण को शरीर के किसी अंशविशेष में आबद्ध रखना। समय का अर्थ है-प्राण को किस स्थान में कितने समय तक रखना होगा, इस बात का ज्ञान; और संख्या का अर्थ है-यह जान लेना कि कितनी बार ऐसा करना होगा। इसीलिए कहाँ पर, कितने समय तक और कितनी बार रेचक आदि करना होगा, इत्यादि कहा जाता है। इस प्राणायाम का फल है उद्घात अर्थात् कुण्डलिनी का जागरण।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥ ५१ ॥

सूत्रार्थ- चौथे प्रकार का प्राणायाम वह है, जिसमें प्राणायाम के समय बाह्य या आभ्यन्तर किसी विषय का चिन्तन किया जाता है। 

व्याख्या- यह चौथे प्रकार का प्राणायाम है। इसमें चिन्तन के साथ दीर्घकाल तक अभ्यास करते रहने से कुम्भक होता है। दूसरे प्राणायामों में चिन्तन का सम्पर्क नहीं रहता।

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥ ५२ ॥

सूत्रार्थ-उस (प्राणायाम के अभ्यास) से (चित्त के) प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है।

व्याख्या- चित्त में स्वभावतः समस्त ज्ञान भरा है। वह सत्त्व पदार्थ द्वारा निर्मित है, पर रज और तम पदार्थों से ढका हुआ है। प्राणायाम के द्वारा चित्त का यह आवरण हट जाता है।

धारणासु च योग्यता मनसः ॥ ५३ ॥

सूत्रार्थ- ( उसी से ) धारणा में मन की योग्यता भी (होती है)। व्याख्या - यह आवरण हट जाने पर हम मन को एकाग्र करने में समर्थ होते हैं।

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ॥ ५४ ॥

सूत्रार्थ- जब इन्द्रियाँ अपने अपने विषय को छोड़कर मानो चित्त का स्वरूप ग्रहण करती हैं, तब उसे प्रत्याहार कहते हैं।

व्याख्या- ये इन्द्रियाँ मन की ही विभिन्न अवस्थाएँ मात्र हैं। मैं एक पुस्तक देखता हूँ। वास्तव में, वह पुस्तक आकृति बाहर नहीं है; वह है। बाहर की कोई चीज उस आकृति को केवल जगा भर देती है; वास्तव में तो वह चित्त में ही है। इन इन्द्रियों के सामने जो कुछ आता है, उसके साथ ये मन में मिश्रित होकर, उसी का आकार धारण कर लेती हैं। यदि तुम चित्त को ये सब विभिन्न आकृतियाँ धारण करने से रोक सको, तभी तुम्हारा मन शान्त होगा और इन्द्रियाँ भी मन के अनुरूप हो जाएँगी। इसी को प्रत्याहार कहते हैं।

ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ॥५५॥

 सूत्रार्थ- उस (प्रत्याहार) से इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से जय प्राप्त हो जाती है। 

व्याख्या - जब योगी इन्द्रियों को इस प्रकार बाहरी वस्तु का आकार धारण करने से रोक सकते हैं और चित्त के साथ उन्हें एक करके रखने में सफल होते हैं, तभी इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से जय प्राप्त होती है। और जब इन्द्रियाँ पूरी तरह विजित हो जाती हैं, तब एक एक स्नायु, एक एक मांसपेशी तक हमारे वश में आ जाती है, क्योंकि इन्द्रियाँ ही सब प्रकार की संवेदना और कार्य की केन्द्र हैं। ये इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय, इन दो भागों में विभक्त हैं। अतः जब इन्द्रियाँ संयत होंगी, तब योगी सब प्रकार के भावों और कार्यों पर जय प्राप्त कर सकेंगे। सारा शरीर ही उनके अधीन हो जाएगा। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर ही मनुष्य देहधारण में आनन्द अनुभव करने लगता है। तभी वह सचमुच कह सकता है, 'मैं धन्य हूँ, जो मेरा जन्म हुआ ! 'जब इन्द्रियों पर ऐसा अधिकार प्राप्त हो जाता है, तभी हम अनुभव कर सकते हैं कि यह शरीर भी सचमुच कैसी अद्भुत चीज है!
=============

पांतजल योगसूत्र तृतीय अध्याय विभूतिपाद| 

[Patanjali Yoga Sutras Chapter-3,भूमिका -विभूति पाद: योग साधनों के श्रद्धापूर्वक किये गए अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली विविध प्रकार की सिद्धियों अर्थात विभूतियों का वर्णन इस तृतीय पाद में मुख्य रूप से किया गया है।  इसी कारण इस पाद का नाम विभूति पाद है। इस पद में धारणा,ध्यान एवं समाधि संयम त्रय के लक्षण तथा उनका शास्त्रीय पारिभाषिक नाम, उनकी सिद्धि का फल तथा विभिन्न स्तरों में विनियोग,मोक्ष प्राप्ति में सभी सिद्धियाँ या विभूतियाँ बाधक हैं इस बात की प्रतिष्ठापना।  संयम के अनुष्ठान से विविध ऐश्वर्य की प्राप्ति, विवेक से उत्पन्न ज्ञान का प्रादुर्भाव एवं उसका परिणाम आदि विषयों पर इस पाद में प्रकाश डाला गया है।]
(Patanjali Yoga Sutras Chapter-3, explanatory Swami Vivekananda) 

अब हम विभूतिपाद में आते हैं।

 देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ १ ॥

सूत्रार्थ- चित्त को किसी विशेष वस्तु में धारण करके रखने का नाम है धारणा । 

व्याख्या -जब मन शरीर के भीतर या उसके बाहर किसी वस्तु के साथ संलग्न होता है और कुछ समय तक उसी तरह रहता है, तो उसे धारणा कहते हैं ।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥२॥

सूत्रार्थ- वह वस्तुविषयक ज्ञान निरन्तर एक रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे ध्यान कहते हैं।

व्याख्या - मान लो, मन किसी एक विषय को सोचने का प्रयत्न कर रहा है, किसी एक विशेष स्थान में जैसे, मस्तक के ऊपर अथवा हृदय आदि में अपने को पकड़ रखने का प्रयत्न कर रहा है। यदि मन शरीर के केवल उस अंश के द्वारा संवेदनाओं को ग्रहण करने में समर्थ होता है, शरीर के दूसरे भागों के द्वारा नहीं, तो उसका नाम धारणा है; और जब वह अपने को कुछ समय तक उसी अवस्था में रखने में समर्थ होता है, तो उसका नाम है ध्यान।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ॥ ३ ॥ 

सूत्रार्थ- वही (ध्यान) जब समस्त बाहरी उपाधियों को छोड़कर अर्थ मात्र को ही प्रकाशित करता है, तब उसे समाधि कहते हैं।

व्याख्या- ध्यान में जब ध्येय वस्तु का नाम-रूप या बाहरी भाग परित्यक्त हो जाता है, तभी यह समाधि-अवस्था आती है। मान लो, मैं इस पुस्तक के बारे में ध्यान कर रहा हूँ और सोचो, मैं उसमें चित्तसंयम करने में सफल हो गया। तब केवल, बिना किसी रूप में प्रकाशित, अर्थ नामक आभ्यन्तरिक संवेदनाएँ ही मेरे ज्ञान में आने लगती हैं। ध्यान की इस अवस्था को समाधि कहते हैं।

त्रयमेकत्र संयमः ॥ ४ ॥

सूत्रार्थ- इन तीनों का जब एक साथ अर्थात् एक ही किया जाता है, तब उसे संयम कहते हैं। वस्तु के सम्बन्ध में अभ्यास  किया जाता है, तब उसे संयम कहते है। 

व्याख्या - जब कोई व्यक्ति अपने मन को किसी निर्दिष्ट वस्तु की ओर ले जाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकता है, और फिर उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी आकार से अलग करके बहुत समय तक रख सकता है, तभी समझना चाहिए कि संयम हुआ। अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि, ये तीनों क्रमशः एक के बाद एक, किसी एक वस्तु के ऊपर होने पर एक संयम हुआ। तब उस वस्तु का बाहरी आकार न जाने कहाँ चला जाता है, मन में केवल इसका अर्थ मात्र उद्भासित होता रहता है

तज्जयात् प्रज्ञालोकः ॥५॥

सूत्रार्थ - इसको जीत लेने से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। 

व्याख्या - जब कोई मनुष्य इस संयम के साधन में सफल हो जाता है, तब सारी शक्तियाँ उसके हाथ में आ जाती हैं। यह संयम ही योगी के ज्ञानलाभ का प्रधान यन्त्रस्वरूप है। ज्ञान के विषय अनन्त हैं। वे स्थूल, स्थूलतर, स्थूलतम और सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम आदि नाना विभागों में विभक्त हैं। इस संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए, और जब स्थूल का ज्ञान प्राप्त होने लगे, तब थोड़ा थोड़ा करके सोपान-क्रम से सूक्ष्मतर वस्तु पर उसका प्रयोग करना चाहिए।

तस्य भूमिषु विनियोगः ॥६॥

सूत्रार्थ - उस (संयम) का प्रयोग सोपान-क्रम से करना चाहिए। 

व्याख्या- जल्दबाजी मत करना। यह सूत्र इस प्रकार हमें सावधान कर दे रहा है

त्रयमन्तरङ्गं पूर्वेभ्यः ॥७॥

सूत्रार्थ - पहले कहे गये (साधनों) की अपेक्षा ये तीनों (साधन अधिक) अन्तरंग हैं। 

व्याख्या- इनके पहले, यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार की बात कही गयी है। वे धारणा, ध्यान और समाधि की अपेक्षा बहिरंग है। इन धारणा आदि अवस्थाओं को प्राप्त करने पर मनुष्य सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् अवश्य हो सकता है, पर सर्वज्ञता अथवा सर्वशक्तिमत्ता तो मुक्ति नहीं है। केवल इन तीन प्रकार के साधनों द्वारा मन निर्विकल्प अर्थात् परिणामशून्य नहीं हो सकता; इन त्रिविध साधनों का अभ्यास होने पर भी देहधारण का बीज रह जाता है। जब वह बीज, जैसा कि योगी कहते हैं, भून दिया जाता है, तभी उसकी पुनः वृक्ष उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। ये सिद्धियाँ उस बीज को कभी भून नहीं सकतीं। 

तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य ॥ ८ ॥

सूत्रार्थ- पर वे (धारणा आदि तीनों) भी निर्बीज (समाधि) की तुलना में बहिरंग (साधन) हैं।

व्याख्या - इसी कारण निर्बीज समाधि के साथ तुलना करने पर इनको भी बहिरंग कहना पड़ेगा। संयम-लाभ होने पर ही हम वस्तुतः सर्वोच्च समाधि-अवस्था की प्राप्ति नहीं कर लेते, वरन् एक निम्नतर अवस्था में अवस्थित रहते हैं। उस अवस्था में यह परिदृश्यमान जगत् विद्यमान रहता है, और सब सिद्धियाँ भी ।

व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ 

निरोधक्षणचित्तान्वयो निरोधपरिणामः ॥ ९॥

सूत्रार्थ- जब व्युत्थान-संस्कार अर्थात् मन की चंचलता का अभिभव (दमन) और निरोध-संस्कार अर्थात् संयम का आविर्भाव हो जाता है, उस समय चित्त निरोध नामक संस्कार के अनुगत होता है, तथा उसे निरोध-परिणाम कहते हैं।

व्याख्या- इसका तात्पर्य यह है कि समाधि की पहली अवस्था में मन की समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध अवश्य होती हैं, किन्तु सम्पूर्ण रूप से नहीं, क्योंकि वैसा होने पर तो किसी प्रकार की वृत्ति ही न रह जाती। मान लो, मन में एक ऐसी वृत्ति उठी है, मन की इन्द्रिय की ओर ले जा रही है, और योगी उस वृत्ति को संयत करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस अवस्था में उस संयम को भी एक वृत्ति कहना पड़ेगा। एक लहर मानो दूसरी लहर द्वारा रोकी गयी है, अतः वह समस्त लहरों की निवृत्तिरूप समाधि नहीं है, क्योंकि वह संयम भी एक लहर है। फिर भी, जिस अवस्था में मन में तरंग के बाद तरंग उठती रहती है, उसकी अपेक्षा यह निम्नतर समाधि उस उच्चतर समाधि के अधिक समीपवर्ती हैं।

तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात् ॥१०॥

सूत्रार्थ- अभ्यास के द्वारा इसका प्रवाह स्थिर होता है।

व्याख्या -प्रतिदिन नियमित रूप से अभ्यास करने पर यह मन के नियत संयम का प्रवाह स्थिर हो जाता है, और तब मन को सदैव एकाग्रशील रहने की क्षमता प्राप्त होती है

सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः ॥ ११ ॥ 

सूत्रार्थ- सब प्रकार के विषयों का चिन्तन करने की वृत्ति का क्षय हो जाना और किसी एक ही ध्येय-विषय का चिन्तन करनेवाली एकाग्रता-शक्ति का उदय हो जाना - यह चित्त का समाधि-परिणाम है।

व्याख्या -मन सर्वदा ही नाना प्रकार के विषय ग्रहण कर रहा है, सदैव सब प्रकार की वस्तुओं में जा रहा है। फिर मन की ऐसी भी एक उच्चतर अवस्था है, जब वह केवल एक ही वस्तु को ग्रहण करके अन्य सब वस्तुओं को छोड़ दे सकता है। इस एक वस्तु को ग्रहण करने का फल है समाधि।

शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः ॥ १२ ॥

सूत्रार्थ -जब मन शान्त और उदित अर्थात् अतीत और वर्तमान दोनों अवस्थाओं में ही तुल्य-प्रत्यय हो जाता है, अर्थात् दोनों को ही एक साथ ग्रहण कर सकता है, तब उसे चित्त का एकाग्रता परिणाम कहते हैं।

व्याख्या -मन एकाग्र हुआ है, यह कैसे जाना जाए ? मन के एकाग्र हो जाने पर समय का कोई ज्ञान न रहेगा। जितना ही समय का ज्ञान जाने लगता है, हम उतने ही एकाग्र होते जाते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में भी देखते हैं। कि जब हम कोई पुस्तक पढ़ने में तल्लीन रहते हैं, तब समय की ओर हमारा बिलकुल ध्यान नहीं रहता। जब हम पढ़कर उठते हैं, तो अचरज करने लगते हैं। कि इतना समय बीत गया! सारा समय मानो एकत्र होकर वर्तमान में एकीभूत हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य आकर जितना ही एकीभूत होते जाते हैं, मन उतना ही एकाग्र होता जाता है।

एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ॥ १३ ॥ 

सूत्रार्थ- इसी से भूतों में और इन्द्रियों में होनेवाले धर्म-परिणाम, लक्षण-परिणाम और अवस्था - परिणाम- इन तीनों की व्याख्या की जा चुकी।

व्याख्या -पीछे के तीन सूत्रों में चित्त के निरोध आदि परिणामों की जो बात कही गयी है, उसके द्वारा भूतों और इन्द्रियों के धर्म, लक्षण और अवस्था-रूप तीन प्रकार के परिणामों की भी व्याख्या कर दी गयी। मन लगातार वृत्ति के रूप में परिणत हो रहा है, यह मन का धर्मरूप परिणाम है। वह अतीत, वर्तमान और भविष्य इन तीन कालों के भीतर से होकर चल रहा है, यह मन का लक्षणरूप परिणाम है। कभी निरोधसंस्कार प्रबल और व्युत्थानसंस्कार दुर्बल हो जाता है, तो कभी ठीक इसका उल्टा होता है; यह मन का अवस्थारूप परिणाम है। मन के इन तीन परिणामों के समान भूतों और इन्द्रियों के भी त्रिविध परिणाम समझना चाहिए। जैसे, सोने का पिण्ड जब अपना पिण्डरूप धर्म छोड़कर कंगन और झुमके में परिणत हो जाता है, तब उसे धर्म-परिणाम कहते हैं। जब इसी घटना को हम काल की दृष्टि से देखते हैं अर्थात् उसके वर्तमान, अतीत और भविष्य अवस्थारूप परिणामों को देखते हैं, तब उसे लक्षण-परिणाम कहते हैं। फिर उनके नवीनत्व, पुरातनत्व आदि अवस्थारूप परिणामों को अवस्था - परिणाम कहते हैं !

पहले के सूत्रों में जिन सब समाधियों की बात कही गयी है, उनका उद्देश्य यह है कि योगी मन के परिणामों पर इच्छापूर्वक क्षमता प्राप्त कर सके। उससे पूर्वोक्त संयमशक्ति प्राप्त होती है।

शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी ॥ १४ ॥

सूत्रार्थ - शान्त (अतीत), उदित (वर्तमान) और अव्यपदेश्य (अब तक व्यक्त न हुए) धर्म जिसमें अवस्थित हैं, वह धर्मी है।

व्याख्या - धर्मी उसे कहते हैं, जिस पर काल और संस्कार कार्य कर रहे हैं, जिसमें सतत परिणाम हो रहा है और जो हरदम व्यक्त भाव धारण कर रहा

क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः ॥ १५ ॥

सूत्रार्थ - भिन्न भिन्न परिणाम होने का कारण है, क्रम की भिन्नता (पूर्वापर पार्थक्य) ।

परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥ १६ ॥

सूत्रार्थ - पूर्वोक्त तीन परिणामों में चित्तसंयम करने से अतीत और अनागत (भविष्य) का ज्ञान उत्पन्न होता है।

व्याख्या - पहले संयम की जो परिभाषा दी गयी है, हम उसे न भूलें। जब मन वस्तु के बाहरी भाग को छोड़कर उसके आभ्यन्तरिक भावों के साथ अपने को एकरूप करने की उपयुक्त अवस्था में पहुँच जाता है, जब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणा करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुँच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है , तब उसे संयम कहते हैं इस अवस्था को प्राप्त करके यदि योगी भूत और भविष्य जानने की इच्छा करें, तो उन्हें केवल संस्कार के परिणामों में संयम का प्रयोग करना होगा। कुछ संस्कार वर्तमान अवस्था में कार्य कर रहे हैं, कुछ का भोग समाप्त हो चुका है और कुछ अभी भी फल प्रदान करने के लिए संचित है। इन सभी में संयम का प्रयोग करके वे भूत और भविष्य सब जान लेते हैं
 
शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभाग-

संयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम् ॥१७॥

सूत्रार्थ - शब्द, अर्थ और प्रत्यय (ज्ञान) - इनकी, आपस में अध्यास हो जाने के कारण, जो संकरावस्था हो रही है, उसके विभागों में संयम करने से समस्त प्राणियों की वाणी का ज्ञान (हो जाता है) ।

व्याख्या - शब्द से उस बाह्य विषय का बोध होता है, जो मन में किसी वृत्ति को जागृत कर देता है। अर्थ कहने से वह आन्तरिक स्पन्दन समझना चाहिए, जो इन्द्रिय-मार्ग के माध्यम से मस्तिष्क में पहुँचता है और बाह्य संवेदना को मन में पहुँचा देता है। ज्ञान कहने से मन की उस प्रतिक्रिया को समझना चाहिए, जिससे विषयानुभूति होती है। इन तीनों के मिश्रित होने से ही हमारे इन्द्रियग्राह्य विषय उत्पन्न होते हैं। मान लो, मैंने एक शब्द-'गाय' सुना, पहले बाहर एक कम्पन हुआ, तत्पश्चात् श्रवणेन्द्रिय द्वारा मन एक आन्तरिक संवेदना पहुँचायी गयी, उसके बाद मन ने प्रतिक्रिया की, और मैं उस शब्द- 'गाय' को जान सका।  मैंने यह जो उस शब्द को जाना है, वह शब्द- 'गाय' तीन पदार्थों का मिश्रण हैं पहला, कम्पन; दूसरा, संवेदना; और तीसरा, प्रतिक्रिया । साधारणतः ये तीन व्यापार पृथक नहीं किये जा सकते, पर अभ्यास के द्वारा योगी उनको पृथक् कर सकते हैं। 
जब मनुष्य इनको अलग करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है, तब वह फिर जिस किसी शब्द में संयम का प्रयोग करे, वह उसी क्षण उस अर्थ को समझ सकता है, जिसको प्रकाशित करने के लिए वह शब्द उच्चारित हुआ है, फिर वह शब्द चाहे मनुष्य द्वारा किया गया हो, चाहे अन्य किसी प्राणी द्वारा।

संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥ १८ ॥

सूत्रार्थ - संस्कारों को प्रत्यक्ष कर लेने से पूर्वजन्म का ज्ञान (हो जाता है)। 

व्याख्या - हम जो कुछ अनुभव करते हैं, वह समस्त हमारे चित्त में तरंग के रूप में आया करता है। वह फिर चित्तरूपी सरोवर की तली में चला जाता है। और क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाता है। वह बिलकुल नष्ट नहीं हो जाता। वह वहाँ जाकर अत्यन्त सूक्ष्मभाव से रहता है। यदि हम उस तरंग को फिर से ऊपर ला सकें, तो वही स्मृति कहलाती है। अतएव योगी यदि मन के इन सब पूर्वसंस्कारों में संयम कर सकें, तो वे पूर्वजन्म की बातें स्मरण करना आरम्भ कर देंगे

प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ॥ १९ ॥

सूत्रार्थ- दूसरे के शरीर में जो चिह्न हैं, उनमें संयम करने से उस व्यक्ति के मन का ज्ञान (हो जाता है) ।

व्याख्या - प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में कुछ विशिष्ट चिह्न रहते हैं, जिनके द्वारा उसको दूसरे व्यक्तियों से पृथक् करके पहचाना जाता है। जब योगी किसी मनुष्य के इन विशेष चिह्नों में संयम करते हैं, तब वे उस मनुष्य के मन का स्वभाव जान लेते हैं।
[मस्सों पर सबसे ज्यादा अध्ययन इस्लामिक मुल्कों में हुए हैं। कई प्रचीन अरब ग्रंथों में इस विद्या के सूत्र मिलते हैं। शरीर के प्रत्येक अंग पर मस्सों का अर्थ अलग-अलग माना जाता है। -ललाट पर मस्सा धनवान बनाता है। जिस व्यक्ति के ललाट पर या मस्तक पर मस्सा होता है वो लोग बहुत सौभाग्यशाली होते हैं।  ये लोग समाज में खूब मान-सम्मान पाते हैं। ]

न च तत् सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात् ॥ २०॥

सूत्रार्थ - किन्तु उस चित्त का अवलम्बन क्या है, यह वे नहीं जान सकते, क्योंकि वह उनके संयम का विषय नहीं है।

व्याख्या - ऊपर के सूत्र में शरीर के चिह्नों में संयम की जो बात कही गयी है, उसके द्वारा उस व्यक्ति के मन में उस समय क्या चल रहा है, यह नहीं जाना जा सकता। उसको जानने के लिए तो दो बार संयम करने की आवश्यकता होगी ; पहले, शरीर के लक्षणों में, और उसके बाद मन में। तब योगी उस व्यक्ति के मन के समस्त भाव जान सकेंगे।

कायरूपसंयमात् तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे

चक्षुःप्रकाशासंयोगेऽन्तर्धानम् ॥ २१ ॥

सूत्रार्थ - शरीर के रूप में संयम कर लेने से जब उस रूप को अनुभव करने की शक्ति रोक ली जाती है, तब आँख की प्रकाश-शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण योगी अन्तर्धान हो जाते हैं।

व्याख्या -मान लो, कोई योगी इस कमरे में खड़े हैं। वे आपातदृष्टि से सब के सामने से अन्तर्धान हो सकते हैं। वे वास्तव में अन्तर्धान हो जाते हों, सो बात नहीं; पर हाँ, कोई उन्हें देख न सकेगा, बस, इतना ही। शरीर का रूप और शरीर – इन दोनों को मानो वे अलग अलग कर डालते हैं। जब योगी ऐसी - एकाग्रता-शक्ति प्राप्त कर लेते हैं कि वे वस्तु के रूप और उस वस्तु को एक दूसरे से अलग कर डालते हैं, तभी इस प्रकार की अन्तर्धान-शक्ति उन्हें प्राप्त होती है। रूप और उस रूपवान् वस्तु के पार्थक्य में संयम का प्रयोग करने से उस रूप को अनुभव करने की शक्ति में मानो एक बाधा पड़ती है; क्योंकि रूप और उस रूपविशिष्ट वस्तु के परस्पर संयुक्त होने पर ही हमें उस वस्तु का ज्ञान होता है।

एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तम् ॥ २२ ॥

सूत्रार्थ - इसके द्वारा ही शब्द आदि के अन्तर्धान होने की अर्थात् शब्द आदि को दूसरों को इन्द्रियगोचर न होने देने की भी व्याख्या कर दी गयी।

सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्त-

ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा ॥ २३ ॥

सूत्रार्थ- शीघ्र फल उत्पन्न करनेवाला और देर से फल देनेवाला-ऐसे दो प्रकार के कर्म होते हैं। इनमें संयम करने से, अथवा अरिष्ट नामक मृत्युलक्षणों से भी, योगी देहत्याग का ठीक समय जान लेते हैं।

व्याख्या - जब योगी अपने कर्म में - अर्थात् अपने मन के उन संस्कारों में, जिनका कार्य आरम्भ हो गया है तथा उनमें, जिनका कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ है - संयम का प्रयोग करते हैं, तब वे उन संस्कारों के द्वारा, जिनका कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ है, यह ठीक जान लेते हैं कि उनकी मृत्यु कब होगी। किस समय, किस दिन, कितने बजे, यहाँ तक कि कितने मिनट पर उनकी मृत्यु होगी - यह सब उन्हें ज्ञात हो जाता है। हिन्दू लोग मृत्यु की इस निकटता को जान लेना विशेष आवश्यक समझते हैं, क्योंकि गीता में यह उपदेश है कि मृत्युसमय के विचार परवर्ती जीवन को निर्धारित करने के लिए विशेष समर्थ हैं

 मैत्र्यादिषु बलानि ॥ २४ ॥ 

सूत्रार्थ - मैत्री आदि गुणों (१1३३) में संयम करने से वे सब गुण अत्यन्त प्रबल भाव धारण करते हैं।

बलेषु हस्तिबलादीनि ॥ २५ ॥

सूत्रार्थ - हाथी आदि प्राणियों के बल में संयम का प्रयोग करने से योगी के शरीर में उन उन प्राणियों के सदृश बल आ जाता है।

व्याख्या - जब योगी यह संयम-शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, तब यदि वे बल की इच्छा करें, तो हाथी के बल में संयम का प्रयोग करके वे हाथी के समान बल प्राप्त कर लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य में अनन्त शक्ति निहित है। यदि वह उपाय जानता हो, तो वह उस शक्ति का इच्छानुसार व्यवहार कर सकता है। योगी ने उसे प्राप्त करने की विद्या खोज निकाली है। 

प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम् ॥ २६ ॥ 

सूत्रार्थ – महाज्योति (१।३६) में संयम करने से सूक्ष्म, व्यवधानयुक्त और दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है

व्याख्या - हृदय में जो महाज्योति है, उसमें संयम करने से योगी अत्यन्त दूरवर्ती वस्तु को भी देख सकते हैं। यदि कोई वस्तु पहाड़ के अन्तराल में रहे, तो उसे भी वे देख लेते हैं, और अत्यन्त सूक्ष्म वस्तुओं का भी उन्हें ज्ञान हो जाता है।

भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ॥ २७ ॥

सूत्रार्थ - सूर्य में संयम करने से सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान (हो जाता है) । 

चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ॥ २८||

सूत्रार्थ - चन्द्रमा में (संयम करने से) तारासमूह का ज्ञान (हो जाता है)। 

ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ॥ २९॥

सूत्रार्थ - ध्रुव तारे में (संयम करने से) ताराओं की गति का ज्ञान (हो जाता है)।

नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ॥ ३० ॥

सूत्रार्थ - नाभिचक्र में (संयम करने से) शरीर की बनावट का ज्ञान (हो जाता) है। 

कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः ॥ ३१||

सूत्रार्थ - कण्ठकूप में (संयम करने से) भूख और प्यास की निवृत्ति हो जाती है। 

व्याख्या - अत्यन्त भूखा मनुष्य यदि कण्ठनली में चित्त का संयम कर सके, तो उसकी भूख शान्त हो जाती है। 

कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् ॥ ३२॥

सूत्रार्थ- कूर्मनाड़ी में (कूर्म-नाड़ी प्राण की, श्‍वास की वाहिका है। संयम करने से) शरीर की स्थिरता होती है। 

व्याख्या–जब वे साधना करते हैं, तब उनका शरीर चंचल नहीं होता।

मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ॥ ३३ ॥

सूत्रार्थमस्तक के ऊर्ध्वभाग से निकलनेवाली ज्योति में (संयम करने से) सिद्धपुरुषों के दर्शन होते हैं।

व्याख्या– यहाँ सिद्ध का तात्पर्य भूतयोनि की अपेक्षा थोड़ी उच्च योनि से है। जब योगी अपने सिर के ऊपरी भाग मन का संयम करते हैं, तब वे इन सिद्धों के दर्शन करते हैं। यहाँ पर 'सिद्ध' शब्द से मुक्त पुरुष नहीं समझना चाहिए।

प्रातिभाद्वा सर्वम् ॥ ३४ ॥

सूत्रार्थ - अथवा प्रातिभ ज्ञान उत्पन्न होने से समस्त (ज्ञान प्राप्त हो जाता है)। 

व्याख्या - प्रातिभ ज्ञान अर्थात् प्रतिभाशक्ति अर्थात् पवित्रता के द्वारा लब्ध ज्ञानविशेष के प्राप्त हो जाने पर बिना किसी प्रकार के संयम के ही समस्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है। जब मनुष्य उच्च प्रतिभाशक्ति प्राप्त कर लेता है, तब उसे इस महान् आलोक की प्राप्ति हो जाती है। उसके ज्ञान से समस्त प्रकाशित हो जाता है। बिना किसी प्रकार का संयम किये ही उसे आप से आप समस्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

हृदये चित्तसंवित्॥३५॥

सूत्रार्थ - हृदय में (संयम करने से) मनोविषयक ज्ञान (प्राप्त हो जाता है)। 

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तसंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः 

परार्थत्वादन्यस्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानम् ॥ ३६ ॥

सूत्रार्थपुरुष और सत्त्व (बुद्धि) अत्यन्त पृथक् हैं - उनके विवेक के अभाव से ही भोग होता है। वह भोग परार्थ है अर्थात् पुरुष के लिए है। सत्त्व (बुद्धि) की एक दूसरी अवस्था का नाम है स्वार्थ; उसमें संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है। 

व्याख्या-पुरुष और बुद्धि वास्तव में सर्वथा भिन्न हैं; ऐसा होने पर भी पुरुष बुद्धि में प्रतिबिम्बित होकर उसके साथ अपने को अभिन्न समझता है और उसी से अपने को सुखी या दुःखी अनुभव करता रहता है। बुद्धि की इस अवस्था को परार्थ कहते हैं, क्योंकि उसके सारे भोग अपने लिए नहीं, वरन् पुरुष लिए होते हैं। इसके सिवा बुद्धि की और एक अवस्था है-उसका नाम है स्वार्थ। जब बुद्धि सत्त्वप्रधान होकर अत्यन्त निर्मल हो जाती है और उसमें पुरुष विशेष रूप से प्रतिबिम्बित होता है, तब वह बुद्धि अन्तर्मुखी होकर केवल पुरुष का अवलम्बन करती है। इस 'स्वार्थ' में संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है। केवल पुरुष का अवलम्बन करनेवाली बुद्धि में संयम करने को कहने का तात्पर्य यह है कि शुद्ध पुरुष ज्ञाता होने के कारण कभी ज्ञान का विषय नहीं बन सकता

ततः प्रातिभश्रवणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ॥ ३७॥ 

सूत्रार्थ – उससे प्रातिभ ज्ञान और (अलौकिक) श्रवण, स्पर्श, दर्शन, स्वाद एवं वार्ता (घ्राण) – ये (छह सिद्धियाँ) प्रकट होती हैं।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः ॥ ३८ ॥

सूत्रार्थ-ये (छहों सिद्धियाँ) समाधि में उपसर्ग (विघ्न) हैं, पर व्युत्थान (संसार - अवस्था) में सिद्धिस्वरूप हैं।

व्याख्या -योगी जानते हैं कि संसार के सभी भोग पुरुष और मन के संयोग द्वारा होते हैं। यदि वे इस सत्य में कि 'आत्मा और प्रकृति एक दूसरे से पृथक् वस्तु हैं' चित्त का संयम कर सकें, तो उन्हें पुरुष का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उससे विवेकज्ञान उदित होता है। जब वे इस विवेक को प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें प्रातिभ ज्ञान अर्थात् अत्यन्त उच्च कोटि का दिव्य आलोक प्राप्त . होता है। पर ये सब सिद्धियाँ उस उच्चतम लक्ष्य अर्थात् उस पवित्रस्वरूप आत्मा के ज्ञान और मुक्ति की प्रतिबन्धकस्वरूप हैं। ये सब तो मानो रास्ते में प्राप्त होनेवाली चीजें भर हैं। यदि योगी इन सिद्धियों का परित्याग कर दें, तभी वे उस उच्चतम ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। यदि वे इनमें अटक जाएँ, तो फिर उनकी उन्नति रुक जाती है।

बन्धकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य

परशरीरावेशः ॥ ३९॥

सूत्रार्थ - जब बन्धन का कारण शिथिल हो जाता है और योगी चित्त क प्रचार-स्थानों को (अर्थात् शरीरस्थ नाड़ीसमूह को जान लेते हैं, तब वे दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।

व्याख्या - योगी एक देह में क्रियाशील रहते हुए भी अन्य किसी मृत देह में प्रवेश करके उसे गतिशील कर सकते हैं। इसी प्रकार, वे किसी जीवित शरीर में प्रवेश करके उस व्यक्ति के मन और इन्द्रियों को निरुद्ध कर सकते हैं, तथा उस समय तक के लिए उस शरीर के माध्यम से कार्य कर सकते हैं। प्रकृति और पुरुष के विवेक को प्राप्त करने पर ही ऐसा करना उनके लिए सम्भव होता है। यदि वे दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की इच्छा करें, तो उस शरीर में संयम का प्रयोग करने से ही वह सिद्ध हो जाएगा, क्योंकि उनके मतानुसार, उनकी आत्मा हीं सर्वव्यापी नहीं है, वरन् उनका मन भी सर्वव्यापी है। उनका मन उस सर्वव्यापी (समष्टि) मन का एक अंश मात्र है। पर अभी वह इस शरीर के स्नायुओं के माध्यम से ही काम कर सकता है; किन्तु जब योगी इन स्नायविक प्रवाहों से अपने को मुक्त कर लेते हैं, तब वे दूसरे शरीर के द्वारा भी काम कर सकते हैं।

उदानजयाज्जलपङ्ककण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च ॥४०॥

सूत्रार्थ - उदान नामक स्नायविक शक्तिप्रवाह पर जय प्राप्त कर लेने से योगी के शरीर से पानी या कीचड़ का संयोग नहीं होता, वे काँटों पर चल सकते हैं और इच्छामृत्यु होते हैं।

व्याख्या - उदान नामक जो स्नायविक शक्तिप्रवाह फेफड़े और शरीर के मारे ऊपरी भाग को चलाता है, उस पर जब योगी जय प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अत्यन्त हल्के हो जाते हैं। ये फिर जल में नहीं डूबते, काँटों पर या तलवार की धार पर वे अनायास चल सकते हैं, आग में खड़े रह सकते हैं और इच्छा मात्र से ही इस शरीर को छोड़ दे सकते हैं

समानजयात्प्रज्वलनम् ॥ ४१॥

सूत्रार्थ- समान स्नायविक शक्तिप्रवाह को जीत लेने से (उनका शरीर) दीप्तिमान हो जाता है।

व्याख्या - वे जब कभी इच्छा करते हैं, तभी उनके शरीर से ज्योति बाहर निकल आती है।

श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद्दिव्यं श्रोत्रम् ॥४२॥ 

सूत्रार्थ- कान और आकाश का जो परस्पर सम्बन्ध है, उसमें संयम करने से दिव्य कर्ण प्राप्त होता है।

व्याख्या- आकाशतत्त्व और उसका अनुभव करने का यन्त्रस्वरूप कान - इनमें संयम करने से योगी दिव्य कर्ण प्राप्त करते हैं, जिससे वे सब कुछ सुन सकते हैं। अत्यन्त दूर कोई बातचीत या शब्द होने पर भी वे उसे सुन सकते हैं।

कायाकाशयोः सम्बन्धसंयमाल्लघुतूल

समापत्तेश्चाकाशगमनम् ॥ ४३ ॥

सूत्रार्थ - शरीर और आकाश के सम्बन्ध में चित्तसंयम करने से और (रुई आदि) हल्की वस्तु में संयम करने से योगी आकाश में गमन कर सकते हैं।

व्याख्या- आकाश ही इस शरीर का उपादान है; आकाश ने ही एक प्रकार से विकृत होकर इस शरीर का रूप धारण किया है। यदि योगी शरीर के उपादानभूत उस आकाशधातु में संयम का प्रयोग करें, तो वे आकाश के समान हल्के हो जाते हैं और जहाँ इच्छा हो, वायु में से होकर जा सकते हैं। ऐसा ही दूसरी बातों के सम्बन्ध में भी है।

बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षयः ॥ ४४ ॥ 

सूत्रार्थ - शरीर के बाहर मन की जो यथार्थ वृत्ति या धारणा है, उसका नाम है महाविदेहा; उसमें संयम का प्रयोग करने से, प्रकाश का जो आवरण है, वह नष्ट हो जाता है।

व्याख्या - अज्ञानवश मन सोचता है कि वह इस देह में से कार्य कर रहा है। यदि मन सर्वव्यापी हो, तो हम केवल एक ही प्रकार के स्नायुओं द्वारा क्यों आबद्ध रहेंगे, इस अहं को एक ही शरीर में सीमाबद्ध करके क्यों रखेंगे? ऐसा करने का तो कोई कारण नहीं दिखता। योगी अपने इस अहंभाव को, जहाँ कहीं इच्छा हो, वहीं अनुभव करना चाहते हैं। अहंभाव के चले जाने पर इस देह में जो मानसिक तरंग उठती है, उसे 'अकल्पिता' या 'महाविदेहा' वृत्ति कहते हैं। जब योगी उसमें संयम करने में सफल होते हैं, तब प्रकाश के सारे आवरण नष्ट हो जाते हैं और समस्त अन्धकार एवं अज्ञान नष्ट हो जाने के कारण सब कुछ उन्हें चैतन्यमय प्रतीत होता है। 

स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद्भूतजयः ॥ ४५ ॥

सूत्रार्थ - भूतों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थवत्त्व- इन पाँच प्रकार की अवस्थाओं में संयम करने से पाँचों भूतों पर विजय प्राप्त हो जाती है। 

व्याख्या - योगी समस्त भूतों में संयम करते हैं- पहले, स्थूल भूतों में और फिर उसके बाद उनकी अन्य सूक्ष्म अवस्थाओं में। बौद्धों एक सम्प्रदाय में यह संयम विशेष रूप से प्रचलित है। वे मिट्टी का एक लोंदा लेकर उसमें संयम का प्रयोग करते हैं, फिर क्रमशः, वह जिन सूक्ष्म भूतों से निर्मित हुआ है, उन्हें देखना शुरू करते हैं। जब वे उसकी समस्त सूक्ष्म अवस्थाओं के बारे में जान लेते हैं, तब वे उस भूत पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा ही अन्य सब भूतों के बारे में भी समझना चाहिए। योगी उन सभी पर जय प्राप्त कर सकते हैं।

ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च ॥४६॥ 

सूत्रार्थ - उससे अणिमा आदि सिद्धियों का आविर्भाव होता है, कायसम्पत् की प्राप्ति होती है और सारे शारीरिक धर्मों से बाधा नहीं होती।

व्याख्या - इसका तात्पर्य यह है कि योगी अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति कर लेते हैं। वे अपने को इच्छानुसार परमाणु के समान छोटा या पर्वत के समान बड़ा कर सकते हैं। वे अपने को पृथ्वी के समान भारी और वायु के समान हल्का कर सकते हैं; वे जहाँ चाहें, जा सकते हैं; जिस पर चाहें, प्रभुत्व कर सकते हैं; जिस पर चाहें, विजय प्राप्त कर सकते हैं। सिंह उनके पैरों के पास मेमने के समान शान्तभाव से बैठा रहेगा, और वे जो भी चाहें, उनकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी

 रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसम्पत् ॥ ४७ ॥

सूत्रार्थ - रूप, लावण्य, बल और वज्र के समान दृढ़ता-ये कायसम्पत् हैं। 

व्याख्या - तब शरीर अविनाशी हो जाता है, कोई भी वस्तु उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचा सकती। यदि योगी स्वयं इच्छा न करें, तो दुनिया की कोई भी ताकत उनके शरीर का नाश नहीं कर सकती। “कालदण्ड को भग्न करके वे इस जगत् में शरीर लेकर वास करते हैं।” वेदों में कहा है कि ऐसे व्यक्ति को बीमारी, मृत्यु या अन्य कोई क्लेश नहीं होता।

ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः || ४८ ||

सूत्रार्थ- इन्द्रियों की बाह्य पदार्थ की ओर गति, उससे उत्पन्न ज्ञान, इस ज्ञान से विकसित अहं प्रत्यय, इन्द्रियों के त्रिगुणमयत्व और उनके भोगदातृत्व इन पाँचों में संयम करने से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त हो जाती है।

व्याख्या - बाह्य वस्तु की अनुभूति के समय इन्द्रियाँ मन से बाहर जाकर विषय की ओर दौड़ती है, तभी ज्ञान होता है। इस कार्य में अस्मिता भी सर्वदा साथ रहती है। जब योगी उनमें तथा अन्य दोनों में भी क्रमशः संयम का प्रयोग करते हैं, तब वे इन्द्रियों पर जय प्राप्त कर लेते हैं। जो कोई वस्तु तुम देखते या अनुभव करते हो-जैसे एक पुस्तक- उसे लेकर उसमें संयम का प्रयोग करो। उसके बाद पुस्तक के रूप में जो ज्ञान है, उसमें; फिर जिस अहंभाव के द्वारा उस पुस्तक का दर्शन होता है, उसमें संयम करो। इस अभ्यास से समस्त इन्द्रियाँ विजित हो जाती हैं।

ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च ॥ ४९ ॥

सूत्रार्थ - उस (इन्द्रियजय) से शरीर को मन के सदृश गति, शरीर के बिना भी विषयों का अनुभव करने की शक्ति और प्रकृति पर विजय – ये तीनों सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

व्याख्या- जैसे भूतजय से कायसम्पत् की प्राप्ति होती है, वैसे ही इन्द्रियजय से उपर्युक्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं

सर्वज्ञातृत्वं च ॥५०॥

सूत्रार्थ - सत्त्व (बुद्धि) और पुरुष के परस्पर पार्थक्य-ज्ञान में संयम करने से सब वस्तुओं पर अधिष्ठातृत्व और सर्वज्ञातृत्व प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या - जब हम प्रकृति पर जय प्राप्त कर लेते हैं तथा पुरुष और प्रकृति का भेद अनुभव कर लेते हैं।  अर्थात् जान लेते हैं कि पुरुष अविनाशी, पवित्र और पूर्णस्वरूप है, तब सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है

तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् ॥५१॥

सूत्रार्थ - इन सब (सिद्धियों) को भी त्याग देने से दोष का बीज नष्ट हो जाता है, और उससे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।

व्याख्या-तब योगी कैवल्य की प्राप्ति कर लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। जब वे सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता इन दोनों को भी त्याग देते हैं, तब वे सारे प्रलोभनों का, यहाँ तक कि देवताओं द्वारा दिये गये प्रलोभनों का भी, अतिक्रमण कर सकते हैं। जब योगी इन सब अद्भुत शक्तियों को प्राप्त करके भी उन्हें त्याग देते हैं, तब वे चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में ये शक्तियाँ हैं क्या ? - केवल अभिव्यक्तियाँ। स्वप्न की अपेक्षा उनमें भला कौनसी श्रेष्ठता है ? सर्वशक्तिमत्ता भी तो एक स्वप्न है। वह केवल मन पर निर्भर रहती है। जब तक मन का अस्तित्व है, तभी तक सर्वशक्तिमत्ता सम्भव हो सकती है; पर हमारा लक्ष्य तो मन के भी अतीत है।

स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात् ॥ ५२ ॥ 

सूत्रार्थ - देवताओं द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उसमें आसक्त होना या आनन्द का अनुभव करना उचित नहीं है, क्योंकि उससे पुनः अनिष्ट होना सम्भव है।

व्याख्या - और भी बहुतसे विघ्न है। देवता आदि योगी को प्रलोभित करने आते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई पूर्ण रूप से मुक्त हो। हम लोग जैसे ईर्ष्यापरायण हैं, वे भी वैसे ही हैं, वरन् कभी कभी तो वे इस बात में हम लोगों से भी आगे बढ़ जाते हैं। वे डरते हैं कि कहीं वे अपने पद को न खो बैठें। जो योगी पूर्ण सिद्ध नहीं होते, वे शरीर त्यागने के बाद देवता बन जाते हैं। वे सीधे रास्ते को छोड़कर मानो बगल के एक रास्ते से चले जाते हैं और इन सब शक्तियों को प्राप्त करते हैं। उनको फिर से जन्म लेना पड़ता है। पर जो इतने शक्तिसम्पन्न हैं कि इन प्रलोभनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे सीधे उस लक्ष्यस्थल पर पहुँच जाते हैं और मुक्त हो जाते हैं। 

क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ॥ ५३ ॥

सूत्रार्थ - क्षण और उसके क्रम में संयम करने से विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है। 

व्याख्या - देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर उपाय क्या है? उपाय है विवेक-सदसत्-विचार। इस विवेकज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस संयम का उपदेश दिया गया है। 'क्षण' का अर्थ है काल का सूक्ष्मतम अंश । एक क्षण होगा- पहले जो क्षण बीत चुका हैं, और उसके बाद जो क्षण प्रकट -इस लगातार सिलसिले को 'क्रम' कहते हैं। अतः उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिए क्षण और उसके क्रम में संयम करना होगा।  
   
जातिलक्षणदेशैरन्यताऽ नवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः ॥ ५४ ॥ 

सूत्रार्थ - जाति, लक्षण और देश-भेद से जिन वस्तुओं का भेद न किये जा सकने के कारण जो तुल्य प्रतीत होती हैं, उनको भी इस उपर्युक्त संयम द्वारा अलग करके जाना जा सकता है।

व्याख्या - हम जो दुःख भोगते हैं, वह अज्ञान से, सत्य और असत्य के अविवेक से उत्पन्न होता है। हम सभी बुरे को भला समझते हैं और स्वप्न को वास्तविक। एकमात्र आत्मा ही सत्य है, पर हम यह भूल गये हैं। शरीर एक मिथ्या स्वप्न मात्र है, पर हम सोचते हैं कि हम शरीर हैं। यह अविवेक ही दुःख का कारण है। और यह अविवेक अविद्या से उत्पन्न होता हैविवेक के उदय के साथ ही बल भी आता है, और तभी हम इस शरीर स्वर्ग तथा देवता आदि की कल्पनाओं को त्यागने में समर्थ होते हैं। जाति, लक्षण और स्थान के द्वारा हम वस्तुओं को अलग करते हैं। उदाहरणार्थ, एक गाय की बात ले लो। गाय का कुत्ते से जो भेद है, वह जातिगत है। और दो गायों में परस्पर भेद हम कैसे करते हैं ? लक्षण के द्वारा। 

फिर दो वस्तुएँ सर्वथा समान होने पर हम स्थानगत भेद के द्वारा उन्हें अलग कर सकते हैं। किन्तु जब वस्तुएँ ऐसी मिली हुई रहती हैं कि अलग करने के ये सब विभिन्न उपाय बिलकुल काम में नहीं आते, तब उपर्युक्त साधनप्रणाली के अभ्यास से लब्ध विवेक के बल से हम उन्हें पृथक् कर सकते हैं। योगियों का उच्चतम दर्शन इस सत्य पर आधारित है कि पुरुष शुद्धस्वभाव एवं नित्य पूर्णस्वरूप है और संसार में वही एकमात्र अयौगिक वस्तु है। शरीर और मन तो यौगिक वस्तुएँ हैं, फिर भी हम सदैव अपने आपको उनके साथ मिला दे रहे हैं। सब से बड़ी गलती यही है कि यह पार्थक्य-ज्ञान नष्ट हो गया है। जब यह विवेकशक्ति प्राप्त होती है, तब मनुष्य देख पाता है कि जगत् की सारी वस्तुएँ, वे फिर बहिर्जगत् की हों, या अन्तर्जगत् की, यौगिक पदार्थ हैं. अतएव वे पुरुष नहीं हो सकतीं।

तारकं सर्वविषय सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥ ५५ ॥

सूत्रार्थ - जो विवेकज्ञान समस्त वस्तुओं को तथा वस्तुओं की सब प्रकार की अवस्थाओं को एक साथ ग्रहण कर सकता है, उसे तारकज्ञान कहते हैं।

व्याख्या - इस ज्ञान का नाम तारक इसीलिए है कि यह योगी का जन्ममृत्यु के सागर से तारण करता है। सारी प्रकृति की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य हैं। इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है। 

सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ॥ ५६ ॥

सूत्रार्थ- जब सत्त्व (बुद्धि) और पुरुष इन दोनों की समानभाव से शुद्धि हो जाती है, तब कैवल्य की प्राप्ति होती है।

व्याख्या - कैवल्य ही हमारा लक्ष्य है। इस लक्ष्यस्थल पर पहुँचने पर आत्मा जान लेती है कि वह सर्वदा ही अकेली थी, उसे सुखी करने के लिए अन्य किसी की भी आवश्यकता न थी। जब तक अपने को सुखी करने के लिए हमें अन्य किसी की आवश्यकता होती है, तब तक हम गुलाम हैं। जब पुरुष जान लेता है कि वह मुक्तस्वभाव है और उसको पूर्ण करने के लिए अन्य किसी की भी जरूरत नहीं, जब वह यह जान लेता है कि यह प्रकृति क्षणिक है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, तभी मुक्ति की प्राप्ति होती है, तभी वह कैवल्य प्राप्त होता है। जब आत्मा जान लेती है कि जगत् छोटे से छोटे परमाणु से लेकर देवता तक किसी पर उसके निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है, तब आत्मा की उस अवस्था को कैवल्य और पूर्णता कहते हैं। जब शुद्धि और अशुद्धि दोनों से मिला हुआ सत्त्व अर्थात् बुद्धि, पुरुष के समान शुद्ध हो जाती है, तब यह कैवल्य प्राप्त हो जाता है, तब वह बुद्धि केवल निर्गुण, पवित्रस्वरूप पुरुष को प्रतिबिम्बित करती है।
===