सूत्रार्थ – अथवा स्वप्नावस्था में कभी कभी जो अपूर्व ज्ञानलाभ होता है, उसका- तथा सुषुप्ति अवस्था में प्राप्त सात्विक सुख का ध्यान करने से भी (चित्त प्रशान्त होता है) ।
व्याख्या - कभी कभी मनुष्य ऐसा स्वप्न देखता है कि उसके पास देवता आकर बातचीत कर रहे हैं; वह मानो एक प्रकार से भावावेश में चूर हो गया है; वायु में एक अपूर्व संगीत की ध्वनि बहती हुई चली आ रही है और वह उसे सुन रहा है। उस स्वप्नावस्था में वह आनन्द में मस्त रहता है। जब वह जागता है, तब स्वप्न की वे घटनाएँ उसके मन पर एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं। उस स्वप्न को सत्य मानकर उसका ध्यान करो। यदि तुम इसमें भी समर्थ न होओ, तो जो कोई पवित्र वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, उसी का ध्यान करो।
यथाभिमतध्यानाद्वा ॥ ३९ ॥
सूत्रार्थ - अथवा जिसे जो कोई चीज अच्छी लगे, उसी के ध्यान से (समाधि प्राप्त होती है)।
व्याख्या- इससे यह न समझ लेना चाहिए कि किसी बुरी वस्तु (अपवित्र वस्तु) का भी ध्यान करने से बनेगा। जो कोई भली वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, जो स्थान तुम्हें पसन्द हो, जो दृश्य या जो भाव तुम्हें बहुत अच्छा लगता हो, जिससे तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता हो, उसी का चिन्तन करो।
परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥४०॥
सूत्रार्थ- इस प्रकार ध्यान करते करते परमाणु से लेकर परम बृहत् पदार्थ तक सभी में योगी के मन की गति अव्याहत हो जाती है।
व्याख्या -मन इस अभ्यास के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म से लेकर बृहत्तम वस्तु तक सभी पर सुगमता से ध्यान कर सकता है। ऐसा होने पर ये मनोवृत्तिप्रवाह भी धीरे धीरे क्षीण होने लगते हैं।
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्रात्येषु
तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः ॥ ४१ ॥
सूत्रार्थ - जिन योगी की चित्तवृत्तियाँ इस प्रकार क्षीण हो चुकी हैं (वश में आ चुकी हैं), उनका चित्त उस समय ग्रहीता (आत्मा), ग्रहण (अन्तःकरण और इन्द्रियाँ) और ग्राह्य (पंचभूत और विषयों) में उसी प्रकार एकाग्रता और एकीभाव को प्राप्त होता है, जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक (भिन्न भिन्न रंगवाली वस्तुओं के सामने भित्र भिन्न रंग धारण करता है।)
व्याख्या- इस प्रकार लगातार ध्यान करते करते कौनसा फल प्राप्त होता है? हमें यह स्मरण होगा कि पूर्वोक्त एक सूत्र में पतंजलि ने विभिन्न प्रकार की समाधियों का वर्णन किया है। पहली समाधि है स्थूल विषय को लेकर, और दूसरी है सूक्ष्म विषय को लेकर। आगे चलकर, क्रमशः और भी सूक्ष्मतर वस्तुएँ हमारी समाधि का विषय होती जाती हैं, यह भी पहले कहा जा चुका है। इन सब समाधियों के अभ्यास का फल यह है कि हम जितनी सुगमता से स्थूल विषयों का ध्यान कर सकते हैं, उतनी ही सुगमता से सूक्ष्म विषयों का भी। इस अवस्था में योगी तीन वस्तुएँ देखते हैं-ग्रहीता, ग्राह्य और ग्रहण, अर्थात् आत्मा, विषय और मन। हमें ध्यान के लिए तीन प्रकार के विषय दिये गये हैं।
पहला है स्थूल, जैसे- शरीर या भौतिक पदार्थ; दूसरा है सूक्ष्म, जैसे-मन या चित्त; और तीसरा है गुणविशिष्ट पुरुष अर्थात् अस्मिता या अहंकार । यहाँ आत्मा का अर्थ उसके यथार्थ स्वरूप से नहीं है। अभ्यास के द्वारा योगी इन सब ध्यानों में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाते हैं। तब उन्हें ऐसी एकाग्रता-शक्ति प्राप्त हो जाती है कि ज्योंही वे ध्यान करने बैठते हैं, त्योंही अन्य सभी वस्तुओं को मन से हटा दे सकते हैं। वे जिस विषय का ध्यान करते हैं, उस विषय के साथ एक हो जाते हैं। जब वे ध्यान करते हैं, तब वे मानो स्फटिक के एक टुकड़े के समान हो जाते हैं। यह स्फटिक यदि फूल के पास रहे, तो वह फूल के साथ मानो एकरूप हो जाता है। यदि वह फूल लाल हो, तो स्फटिक भी लाल दिखाई देता है, और यदि फूल नीले रंग का हो, तो स्फटिक भी नीला दिखाई देता है।
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥४२॥
सूत्रार्थ - शब्द, अर्थ और उससे उत्पन्न ज्ञान जब मिश्रित होकर रहते हैं, तब वह सवितर्क अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि (कहलाती है।
व्याख्या- यहाँ शब्द का अर्थ है कम्पन। अर्थ का मतलब है वह स्नायविक शक्तिप्रवाह, जो उसे भीतर ले जाता है। और ज्ञान का अर्थ है प्रतिक्रिया । हमने अब तक जितने प्रकार की समाधि की बात सुनी है, पतंजलि उन सभी को सवितर्क कहते हैं। इसके बाद वे हमें क्रमशः और भी उच्चतर समाधियों की शिक्षा देंगे। इन सवितर्क समाधियों में हम विषयी और विषय, इन दोनों को सम्पूर्ण रूप से पृथक् रखते हैं। यह पार्थक्य या भेद शब्द, उसके अर्थ और तत्प्रसूत ज्ञान के मिश्रण से उत्पन्न होता है। पहले तो है बाह्य कम्पन - शब्द; जब वह इन्द्रिय-प्रवाह द्वारा भीतर प्रवाहित होता है, तब उसे अर्थ कहते हैं। उसके बाद चित्त में एक प्रतिक्रिया-प्रवाह आता है; उसे ज्ञान कहा जाता है। जिसे हम बाह्य वस्तु की अनुभूति कहते हैं, वह वस्तुतः इन तीनों की समष्टि मात्र है। हमने अब तक जितने प्रकार की समाधियों की बात सुनी है, उन सब में यह समष्टि ही हमारे ध्यान का विषय होती है। इसके बाद जिस समाधि के बारे में कहा जाएगा, वह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है।
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥ ४३ ॥
सूत्रार्थ -जब स्मृति शुद्ध हो जाती है, अर्थात् स्मृति में जब और किसी प्रकार के गुण का सम्पर्क नहीं रह जाता, जब वह केवल ध्येय वस्तु का अर्थ मात्र प्रकाशित करती है, तब उसे निर्वितर्क अर्थात् वितर्कशून्य समाधि कहते हैं।
व्याख्या-पहले जिस शब्द, अर्थ और ज्ञान की बात कही गयी है, उन तीनों का एक साथ अभ्यास करते करते एक समय ऐसा आता है, जब वे और अधिक मिश्रित नहीं होते; तब हम अनायास ही इन त्रिविध भावों का अतिक्रमण कर सकते हैं। अब पहले हम यही समझने की विशेष चेष्टा करेंगे कि ये तीन क्या हैं। प्रथम चित्त को लो। यह हमेशा याद रखना कि चित्त अर्थात् मनस्तत्त्व की उपमा सरोवर से दी गयी है और स्पन्दन, शब्द या ध्वनि सरोवर के सतह पर आये हुए कम्पन के समान है। तुम्हारे अपने भीतर ही यह स्थिर सरोवर विद्यमान है। मान लो, मैंने 'गाय' शब्द का उच्चारण किया। ज्योंही वह तुम्हारे कान में प्रवेश करता है, त्योंही तुम्हारे चित्तरूपी सरोवर में एक कम्पन उठा देता है। यह कम्पन ही 'गाय' शब्द से सूचित भाव या अर्थ है। तुम जो सोचते हो कि मैं एक गाय को जानता हूँ, वह केवल तुम्हारे मन के भीतर रहनेवाली एक तरंग मात्र है। वह बाह्य एवं आभ्यन्तर ध्वनि-स्पन्दन की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होती है। उस ध्वनि के साथ वह तरंग भी नष्ट हो जाती है; ध्वनिजनित क्षोभ के बिना तरंग रह ही नहीं सकती।
तुम पूछ सकते हो कि जब हम गाय बारे में केवल सोचते हैं, पर बाहर से कोई ध्वनि कानों नहीं पहुँचती, तब भला ध्वनि कहाँ रहती है ? उत्तर यह है कि तब वह ध्वनि तुम स्वयं करते हो। तब तुम अपने मन ही मन 'गाय' शब्द का धीरे धीरे उच्चारण करते रहते हो, और बस, उसी से तुम्हारे भीतर एक तरंग आ जाती है। ध्वनि के इस संवेग के बिना कोई तरंग नहीं आ सकती; और जब यह संवेग बाहर से नहीं आता, तब भीतर से ही आता है। ध्वनि के साथ ही लहर का भी नाश हो जाता है।
तब फिर बच क्या रहता है? तब उस प्रतिक्रिया का परिणाम भर बच रहता है। वही ज्ञान है। हमारे मन के अन्दर ये तीनों इतने दृढ़सम्बद्ध हैं कि हम उन्हें अलग नहीं कर सकते। ज्योंही ध्वनि आती है, त्योंही इन्द्रियाँ स्पन्दित हो उठती हैं और प्रतिक्रिया के रूप में एक तरंग उठ. जाती है। ये तीनों क्रियाएँ एक के बाद एक इतनी शीघ्रता से होती हैं कि उनमें एक को दूसरे से अलग करना अत्यन्त कठिन है। यहाँ जिस समाधि की बात कही गयी है, उसका दीर्घ काल तक अभ्यास करने पर स्मृति - समस्त संस्कारों की आधारभूमि - शुद्ध हो जाती है, और तब हम उनमें से एक-दूसरे को अलग कर सकते हैं। इसी को निर्वितर्क समाधि कहते हैं।
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ ४४॥
सूत्रार्थ - पूर्वोक्त दो सूत्रों में सवितर्क और निर्वितर्क जिन दो समाधियों की बात कही गयी है, उन्हीं के द्वारा सूक्ष्मतर विषयवाली सविचार और निर्विचार समाधियों की भी व्याख्या कर दी गयी है।
व्याख्या- यहाँ पहले के ही समान समझना चाहिए। भेद केवल इतना है कि पूर्वोक्त दोनों समाधियों के विषय स्थूल हैं और यहाँ वे विषय सूक्ष्म हैं।-
सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥४५॥
सूत्रार्थ- सूक्ष्म विषयों की अवधि प्रधान पर्यन्त है।
व्याख्या- पंच महाभूत और उनसे उत्पन्न समस्त वस्तुओं को स्थूल कहते हैं। सूक्ष्म वस्तु तन्मात्रा से शुरू होती है। इन्द्रिय, मन, अहंकार, महत्तत्त्व (जो समस्त अभिव्यक्ति का कारण है), सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्थारूप प्रधान, प्रकृति या अव्यक्त - ये सभी सूक्ष्म वस्तु के अन्तर्गत हैं। केवल पुरुष (अर्थात आत्मा) ही इसके भीतर नहीं आता।
ता एव सबीजः समाधिः ॥ ४६ ॥
सूत्रार्थ - ये सभी सबीज समाधि हैं।
व्याख्या - इन सब समाधियों में पूर्वकर्मों का बीज नष्ट नहीं होता; अतः उनसे मुक्ति प्राप्त नहीं होती। तो फिर उनसे होता क्या है ? यह आगे के सूत्र में बतलाया गया है।
निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥४७॥
सूत्रार्थ- निर्विचार समाधि की निर्मलता होने पर चित्त की स्थिति दृढ़ हो जाती है।
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥ ४८ ॥
सूत्रार्थ - उसमें जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसे ऋतम्भरा यानी सत्यपूर्ण ज्ञान कहते हैं।
व्याख्या - अगले सूत्र में इसकी व्याख्या होगी।
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥४९॥
सूत्रार्थ- जो ज्ञान विश्वस्त मनुष्यों के वाक्य और अनुमान से प्राप्त होता है, वह सामान्य वस्तुविधयक होता है। जो विषय आगम और अनुमान से उत्पन्न ज्ञान के गोचर नहीं हैं, वे पूर्वोक्त समाधि द्वारा प्रकाशित होते हैं।
व्याख्या- तात्पर्य यह है कि हमें सामान्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव, उस पर आधारित अनुमान और विश्वस्त मनुष्यों के वाक्यों से होता है। 'विश्वस्त मनुष्यों' से योगियों का तात्पर्य है 'ऋषि', और ऋषि का अर्थ है वेदों में लिपिबद्ध मन्त्रों के द्रष्टा । उनके मतानुसार शास्त्रों का प्रामाण्य केवल यह है कि वे विश्वस्त मनुष्यों के वचन हैं। शास्त्र विश्वस्त मनुष्यों के वचन होने पर भी, वे कहते हैं कि केवल शास्त्र हमें आत्मानुभूति कराने में कभी समर्थ नहीं हैं। हम भले ही सारे वेदों को पढ़ डालें, पर तो भी हो सकता है कि हमें किसी तत्त्व की अनुभूति न हो। पर जब हम शास्त्रों में वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में उतारते हैं - उनके अनुसार कार्य करते हैं, तब हम ऐसी एक अवस्था में पहुँच जाते हैं, जिसमें शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। जहाँ तर्क, प्रत्यक्ष या अनुमान किसी की भी पहुँच नहीं है, वहाँ आप्तवाक्य की भी कोई उपयोगिता नहीं है। यहीं इस सूत्र का तात्पर्य है।
प्रत्यक्ष उपलब्धि ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष सब- उदाहरणार्थ, धर्मसम्बन्धी प्रवचन सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना, या विचार करना उस उपलब्धि के लिए प्रारम्भिक तैयारियाँ मात्र हैं। वह यथार्थ धर्म नहीं है। केवल किसी मत के साथ बौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है। योगियों का मूलभाव यह है कि जैसे इन्द्रियों के विषयों के साथ हम लोगों का साक्षात् सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार धर्म भी प्रत्यक्ष किया जा सकता है; और इतना ही नहीं, बल्कि वह तो और भी तीव्रतर रूप से उपब्लध हो सकता है।
ईश्वर, आत्मा आदि जो सब धर्म के प्रतिपाद्य सत्य हैं, वे बहिरिन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं हो सकते। मैं आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकता, या हाथ से उनका स्पर्श नहीं कर सकता। हम यह भी जानते कि युक्ति-तर्क हमें इन्द्रियों के परे नहीं ले जा सकता; वह तो हमें सर्वथा एक अनिश्चित स्थल में छोड़ आता है। हम भले ही जीवनभर विचार करते रहें, जैसा कि दुनिया हजारों वर्षों से करती आ रही है, पर आखिर उसका फल क्या होता है ? यही कि धर्म के सत्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं। हम जिसका इन्द्रियों से प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं, उसी के आधार पर हर्म तर्क, विचार आदि किया करते हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि तर्क को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की इस चारदीवारी के भीतर ही चक्कर काटना पड़ता है; वह उसके परे कभी नहीं जा सकता। अतएव आत्मानुभूति का समस्त क्षेत्र इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे है। योगी कहते हैं कि मनुष्य इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे और तर्क के परे भी जा सकता है। मनुष्य में अपनी बुद्धि को भी लाँघ जाने की शक्ति, सामर्थ्य है, और यह शक्ति प्रत्येक प्राणी में, प्रत्येक जन्तु में निहित है। योग के अभ्यास से यह शक्ति जागृत हो जाती है और तब मनुष्य युक्ति-तर्क की साधारण सीमा को पार करता है और तर्क के अगम्य विषयों का साक्षात्कार करता है।
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५०॥
सूत्रार्थ-यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात् दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।
व्याख्या- हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय है- एकाग्रता । हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सभी ने गौर किया होगा कि ज्योंही तुम लोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्योंही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार भटकने लगते हैं। ज्योंही ईश्वरचिन्तन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते; किन्तु ज्योंही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और तुम्हारे मन को बिलकुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण क्या है ? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं ?
इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो। और वे अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते। इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है! चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहतें हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात में रहते हैं।
उन सब को रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आए और दूसरे सब भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध शक्तियाँ हैं। अतएव जिस समाधि की बात अभी कही गयी है, उसका अभ्यास सब से उत्तम है; क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥ ५१ ॥
सूत्रार्थ - उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को रोक देता है) निरोध हो जाने पर, सब का निरोध हो जाने के कारण निर्बीज समाधि (हो जाती है)।
व्याख्या- तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्मसाक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। हम लोग आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा का प्रकृति, मन और शरीर के साथ हमारा तादात्म्य हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर को ही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है। किन्तु दोनों ही भूल में हैं।
अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों (शरीर या मन) के साथ कैसे एकाकार हो जाती है ? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरें (वृत्तियाँ) उठकर आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं, और हम इन लहरों में से आत्मा का कुछ प्रतिबिम्ब मात्र देख पाते हैं। यही कारण है कि जब क्रोधवृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को क्रोधयुक्त देखते हैं। कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं। जब चित्त में प्रेम की लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिम्बित देखकर हम सोचते हैं कि हम प्यार कर रहे हैं। चित्त में जब दुर्बलतारूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिम्बित हो जाती है, तो हम सोचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते रहते हैं। चित्तरूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप दिखाई नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिलकुल शान्त नहीं हो जातीं, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा।
इसीलिए पतंजलि ने पहले यह समझाया है कि ये तरंगरूप वृत्तियाँ क्या हैं ? और बाद में उनको दमन करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है। और तीसरी बात यह सिखलायी है कि जैसे एक बृहत् अग्निराशि छोटे छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतनी प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिलकुल लुप्त हो जाएँ। जब केवल एक ही लहर बच रहेगी, तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। तब और कुछ भी नहीं बच रहता और आत्मा अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक पदार्थ है; अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं - वह अमर है, अविनश्वर है, नित्य चैतन्यघन सत्तास्वरूप है।
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पतंजलि योगसूत्र [अध्याय दो] साधनपाद |
[Patanjali Yog Sutra Chapter- 2 Sadhanpad : इस द्वितीय पाद में प्रारंभिक साधक के लिए योग के साधनों का वर्णन किया गया है अर्थात वे उपाय जिनसे योग मार्ग प्रशस्त होता है। अतः इसका नाम साधन पाद है। इस द्वितीय पाद में क्रिया योग और उसका फल, अविद्या आदि क्लेश एवं उनका स्वरूप और उनके नाश के उपाय, क्लेश मूल कर्माशय और उसका फल, विवेकी के लिए सबकुछ दुख ही है और उसको हटाने के उपाय, दृश्य का स्वरूप, योग के आठ अंग और उनके फल, प्राणायाम का लक्षण तथा उसके भेद और फल तथा प्रत्याहार का स्वरूप आदि विषयों पर संक्षिप्त रूप में सूत्रकार ने समझाया है।]
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ॥
सूत्रार्थ-तपस्या, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर में समस्त कर्मफलों के समर्पण को क्रियायोग कहते हैं।
व्याख्या- पिछले अध्याय में जिन सब समाधियों की बात कही गयी है, उन्हें प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। इसलिए हमें धीरे धीरे विभिन्न सोपानों में से होते हुए उन सब समाधियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। इसके पहले सोपान को क्रियायोग कहते हैं। इसका शब्दार्थ है - कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना।
हमारी देह मानो एक रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथि है और आत्मा रथी है। यह गृहस्वामी, यह राजा, यह मनुष्य की आत्मा रथ में सवार है। यदि घोड़े बड़े तेज हों और लगाम खिंची न रहे, यदि बुद्धिरूपी सारथी उन घोड़ों को संयत करना न जाने, तो रथ की दुर्दशा हो जाएगी। पर यदि इन्द्रियरूपी घोड़े अच्छी तरह से संयत रहें और मनरूपी लगाम बुद्धिरूपी सारथी के हाथों अच्छी तरह थमी रहे, तो वह रथ ठीक अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है।
अब यह समझ में आ जाएगा कि इस तपस्या शब्द- का अर्थ क्या है। तपस्या शब्द का अर्थ है- इस शरीर और इन्द्रियों को चलाते समय लगाम अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी इच्छानुसार काम न करने देकर अपने वश में किये रहना। उसके बाद है स्वाध्याय या पठन-अध्ययन। यहाँ पठन का तात्पर्य क्या है? नाटक, उपन्यास या कहानी की पुस्तक का पठन नहीं, वरन् उन ग्रन्थों का पठन, जो यह शिक्षा देते हैं कि आत्मा की मुक्ति कैसे होती है। फिर स्वाध्याय से तर्क या वाद-विवाद की पुस्तक का पठन नहीं समझना चाहिए। जो योगी हैं, वे तो वाद-विवाद करके तृप्त हो चुके रहते हैं; वाद-विवाद में उनकी कोई रुचि नहीं रह जाती। वे पठन-अध्ययन करते हैं, केवल अपनी धारणाओं को दृढ़ करने के लिए।
शास्त्रीय ज्ञान दो प्रकार के हैं। एक है वाद (जो तर्क -युक्ति और विचारात्मक है), और दूसरा है सिद्धान्त (मीमांसात्मक)। अज्ञानावस्था में मनुष्य प्रथमोक्त प्रकार के शास्त्रीय ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है; वह तर्कयुद्ध के समान है - प्रत्येक वस्तु के सब पहलू देखकर विचार करना; इस विचार का अन्त होने पर वह किसी एक मीमांसा या सिद्धान्त पर पहुँचता है। किन्तु केवल सिद्धान्त पर पहुँचने से ही नहीं हो जाता। इस सिद्धान्त के बारे में मन की धारणा दृढ़ करना होगा। शास्त्र तो अनन्त हैं और समय अल्प है; अतः ज्ञानप्राप्ति का रहस्य है - सब वस्तुओं का सारभाग ग्रहण करना । उस सारभाग को ग्रहण करो और उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो।
भारत में एक पुरानी किंवदन्ती है कि यदि तुम किसी राजहंस के सामने एक कटोरा भर पानी मिला हुआ दूध रख दो, तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। उसी प्रकार ज्ञान का जो अंश आवश्यक है, उसे लेकर असार भाग को हमें फेंक देना चाहिए। पहले-पहल बुद्धि की कसरत आवश्यक होती है। अन्धे के समान कुछ भी ले लेने से नहीं बनता।
पर जो योगी हैं, वे इस युक्ति - तर्क की अवस्था को पार करके एक ऐसे सिद्धान्त पर पहुँच चुके हैं, जो पर्वत के समान अचल-अटल है। इसके बाद उनका सारा प्रयत्न उस सिद्धान्त के दृढ़ करने में होता है। वे कहते हैं, वाद-विवाद मत करो; यदि कोई तुम्हें वाद-विवाद करने को बाध्य करे, तो चुप रहो। किसी वाद-विवाद का जवाब न देकर शान्तभाव से वहाँ से चले जाओ; क्योंकि वाद-विवाद द्वारा मन केवल चंचल ही होता है। वाद-विवाद की आवश्यकता थी केवल बुद्धि को तेज करने के लिए; जब वह सम्पन्न हो चुका, तब और उसे बेकार चंचल करने की क्या जरूरत ? बुद्धि तो एक दुर्बल यन्त्र मात्र है, वह हमें केवल इन्द्रियों के घेरे में रहनेवाला ज्ञान दे सकती है।
पर योगी इन्द्रियों के परे जाना चाहते हैं, अतएव उनके लिए बुद्धि चलाने की और कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। उन्हें इस विषय में पक्का विश्वास हो चुका है,अतएव वे वाद-विवाद नहीं करते, चुपचाप रहते हैं; क्योंकि वाद-विवाद करने से मन समता से च्युत हो जाता है, चित्त में एक हलचल मच जाती है; और चित्त की ऐसी हलचल उनके लिए एक विघ्न ही है। यह सब वाद-विवाद, युक्ति-तर्क केवल प्रारम्भिक अवस्था के लिए है। इस युक्ति-तर्क के अतीत और भी उच्चतर तत्त्वसमूह हैं। सारे जीवन भर केवल विद्यालय के बच्चों के समान वाद-विवाद या तर्क-वितर्क समिति लेकर ही रहना पर्याप्त नहीं है। ईश्वर में कर्मफल अर्पित करने का तात्पर्य है-कर्म के लिए स्वयं कोई प्रशंसा या निन्दा न लेकर इन दोनों को ही ईश्वर को समर्पित कर देना और शान्ति से रहना।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥
सूत्रार्थ- समाधि की सिद्धि के लिए और क्लेशजनक विघ्नों को क्षीण करने के लिए (इस क्रियायोग की आवश्यकता है) ।
व्याख्या - हममें से अनेकों ने मन को लाड़-प्यार के लड़के के समान कर डाला है। वह जो कुछ चाहता है, उसे वही दे दिया करते हैं। इसीलिए क्रियायोग का सतत अभ्यास आवश्यक है, जिससे मन को संयत करके अपने वश में लाया जा सके। इस संयम के अभाव में ही योग के सारे विघ्न उपस्थित होते हैं और उनसे फिर क्लेश की उत्पत्ति होती है। उन्हें दूर करने का उपाय है-क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना, उसे अपना कार्य न करने देना।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ ३॥
सूत्रार्थ- अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता) - (ये पाँचों) क्लेश हैं।
व्याख्या- ये ही पंचक्लेश हैं, ये पाँच बन्धनों के समान हमें इस संसार में बाँध रखते हैं। इनमें से अविद्या ही कारण है और शेष चार क्लेश इसके कार्य हैं। यह अविद्या ही हमारे दुःख का एकमात्र कारण है। भला और किसकी शक्ति है, जो हमें इस प्रकार दुःख में रख सके ? आत्मा तो नित्य आनन्दस्वरूप है। उसे अज्ञान-भ्रम-माया के सिवा और कौन दुःखी कर सकता है ? आत्मा के ये समस्त दुःख केवल भ्रम मात्र हैं।
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ ४ ॥
सूत्रार्थ- अविद्या ही उन शेष चार का उत्पादक क्षेत्रस्वरूप है। ये कभी लीनभाव से, कभी सूक्ष्मभाव से, कभी अन्य वृत्ति के द्वारा विच्छित्र अर्थात् अभिभूत होकर और कभी प्रकाशित होकर रहते हैं।
व्याख्या- अविद्या ही अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश का कारण है। ये संस्कारसमूह विभिन्न मनुष्यों के मन विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं। कभी कभी वे प्रसुप्त रूप से रहते हैं। तुम लोग अनेक समय 'शिशु के समान 'भोला' - यह वाक्य सुनते हो; परन्तु सम्भव है, इस शिशु के भीतर ही देवता या असुर का भाव विद्यमान हो, जो धीरे धीरे समय पाकर प्रकाशित होगा। योगी में पूर्व कर्मों के फलस्वरूप ये संस्कार सूक्ष्म भाव से रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं और योगी उन्हें दबाकर रख सकते हैं।
उनमें उन संस्कारों को प्रकाशित न होने देने की शक्ति रहती है। कभी कभी कुछ प्रबल संस्कार अन्य कुछ संस्कारों को कुछ समय तक के लिए दबाकर रखते हैं, किन्तु ज्योंही वह दबा रखनेवाला कारण चला जाता है, त्योंही वे पहले के संस्कार फिर से उठ जाते हैं। इस अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं। अन्तिम अवस्था का नाम है उदार । इस अवस्था में संस्कारसमूह अनुकूल परिस्थितियों का सहारा पाकर बड़े प्रबल भाव से शुभ या अशुभ रूप से कार्य करते रहते हैं।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ ५ ॥
सूत्रार्थ- अनित्य, अपवित्र, दुःखकर और आत्मा से भिन्न पदार्थ में (क्रमशः) नित्य, पवित्र, सुखकर और आत्मा की प्रतीति 'अविद्या' है।
व्याख्या- इन समस्त संस्कारों का एकमात्र कारण है अविद्या । हमें पहले यह जान लेना होगा कि यह अविद्या क्या है। हम सभी सोचते हैं, "मैं शरीर हूँ-शुद्ध, ज्योतिर्मय, नित्य, आनन्दस्वरूप आत्मा नहीं।" यह अविद्या है। हम लोग मनुष्य को शरीर के रूप में ही देखते और जानते हैं। यह महान् भ्रम है।
दृग्दर्शन शक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥ ६ ॥
सूत्रार्थ- दृक्-शक्ति और दर्शनशक्ति का एकीभाव ही अस्मिता है।
व्याख्या– आत्मा ही यथार्थ द्रष्टा है; वह शुद्ध, नित्य पवित्र, अनन्त और अमर है। और दर्शनशक्ति अर्थात् उसके व्यवहार में आनेवाले यन्त्र कौन-कौनसे हैं? चित्त, बुद्धि अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति, मन और इन्द्रियाँ - ये उसके यन्त्र हैं, ये सब बाह्य जगत् को देखने के लिए उसके यन्त्रस्वरूप हैं। और उसकी इन सब के साथ एकरूपता को अस्मिता रूपी अविद्या कहते हैं।
हम कहा करते हैं, 'मैं मन हूँ', 'मैं क्रुद्ध हुआ हूँ', 'मैं सुखी हूँ' । पर सोचो तो सही, हम कैसे क्रुद्ध हो सकते हैं, कैसे किसी के प्रति घृणा कर सकते हैं ? आत्मा के साथ हमें अपने को अभिन्न समझना चाहिए। आत्मा का तो कभी परिणाम नहीं होता। यदि आत्मा अपरिणामी हो, तो वह कैसे इस क्षण सुखी, और दूसरे ही क्षण दुःखी हो सकती है ? वह निराकार, अनन्त और सर्वव्यापी है। उसे कौन परिणामी बना सकता है ? आत्मा सर्व प्रकार के नियमों के परे है। उसे कौन विकृत कर सकता है ? संसार में कोई भी, आत्मा पर किसी प्रकार का कार्य नहीं कर सकता। तो भी हम लोग अज्ञानवश अपने आप को मनोवृत्ति के साथ एकरूप कर लेते हैं और सोचा करते हैं कि हम सुख या दुःख का अनुभव कर रहे हैं।
सुखानुशयी रागः||७||
सूत्रार्थ- जो मनोवृत्ति सुख के आधार पर रहती है, उसे राग (आसक्ति) कहते हैं।
व्याख्या- हम किसी किसी विषय में सुख पाते हैं। जिसमें हम सुख पाते हैं, मन एक प्रवाह के समान उसकी ओर प्रवाहित होता है। सुखकेन्द्र की ओर दौड़नेवाले मन के इस प्रवाह को ही राग या आसक्ति कहते हैं। हम जिस विषय में सुख नहीं पाते, उधर हमारा मन कभी भी आकृष्ट नहीं होता। हम लोग कभी कभी नाना प्रकार की विचित्र चीजों में सुख पाते हैं, तो भी राग की जो परिभाषा दी गयी है, वह सर्वत्र ही लागू होती है। हम जहा सुख पाते हैं वहीं आकृष्ट हो जाते हैं।
दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥
सूत्रार्थ- जो मनोवृत्ती दुःख के आधार पर रहती है, उसे द्वेष कहते हैं।
व्याख्या - जिसमें हम दुःख पाते हैं, उसे तत्क्षण त्याग देने का प्रयत्न करते हैं।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥ ९ ॥
सूत्रार्थ- जो (पहले के मृत्यु के अनुभवों से) स्वभावतः चला आ रहा है एवं जो विवेकशील पुरुषों में भी विद्यमान देखा जाता है, वह अभिनिवेश अर्थात् जीवन के प्रति ममता है।
व्याख्या - जीवन के प्रति यह ममता जीव मात्र में प्रकट रूप से देखी जाती है। इस पर भविष्य-जीवनसम्बन्धी सिद्धान्तों को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। मनुष्य ऐहिक जीवन से इतना प्यार करता है कि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह भविष्य में भी जीवित रहे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युक्ति का कोई विशेष मूल्य नहीं हैं - पर इसमें सब से आश्चर्यजनक बात तो यह है कि पाश्चात्यों के मतानुसार इस जीवन के प्रति ममता से भविष्य-जीवन की जो सम्भावना सूचित होती है, वह केवल मनुष्य के—बारे में सत्य है, दूसरे प्राणियों के बारे में नहीं। भारत में, पूर्वसंस्कार और पूर्वजीवन को प्रमाणित करने के लिए यह अभिनिवेश एक युक्तिस्वरूप हुआ है।
मान लो, यदि समस्त ज्ञान हमें प्रत्यक्ष अनुभूति से प्राप्त हुए हों, तो यह निश्चित है कि हमने जिसका कभी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया, उसकी कल्पना भी कभी नहीं कर सकते, अथवा उसे समझ भी नहीं सकते। मुर्गी के बच्चे अण्डे में से बाहर आते ही दाना चुगना आरम्भ कर देते हैं। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि यदि कभी मुर्गी के द्वारा बतख का अण्डा सेया गया, तो बतख का बच्चा अण्डे में से बाहर आते ही पानी में चला जाता है, और उसकी मुर्गी-माँ इधर सोचती है कि शायद बच्चा पानी में डूब गया। यदि प्रत्यक्ष-अनुभूति ही ज्ञान का एकमात्र उपाय हो, तो इन मुर्गी के बच्चे ने कहाँ से दाना चुगना सीखा? अथवा बतख के इन बच्चों ने यह कैसे जाना कि पानी उनका स्वाभाविक स्थान है? यदि तुम कहो कि वह जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) मात्र है, तो उससे कुछ भी बोध नहीं होता; वह तो केवल एक शब्द का प्रयोग मात्र हुआ - वह कोई स्पष्टीकरण तो है नहीं।
यह जन्मजात प्रवृत्ति क्या है ? हम लोगों में भी ऐसी बहुतसी जन्मजात-प्रवृत्तियाँ हैं। उदाहरणार्थ, तुममें से अनेक महिलाएँ पियानो बजाती हैं; तुमको अवश्य स्मरण होगा, जब तुमने पहले-पहल पियानो सीखना आरम्भ किया था, तब तुमको सफेद और काले परदों पर एक के बाद दूसरे पर कितनी सावधानी के साथ उँगलियाँ रखनी पड़ती थीं, किन्तु कुछ वर्षों अभ्यास के बाद अब शायद तुम किसी मित्र के साथ बातचीत भी करती रहती हो और साथ ही तुम्हारी उँगलियाँ भी पियानो पर अपने आप चलती रहती हैं। अर्थात् वह अब तुम लोगों की जन्मजात - प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गया है - वह तुम लोगों के लिए अब पूर्ण रूप से स्वाभाविक हो गया है। हम जो अन्य कार्य करते हैं, उनके बारे में भी ठीक ऐसा ही है।
अभ्यास से वह सब जन्मजात प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो जाता है, स्वाभाविक हो जाता है। और जहाँ तक हम जानते हैं, आज जिन क्रियाओं को हम स्वाभाविक या जन्मजात - प्रवृत्तियों से उत्पन्न कहते हैं, वे सब पहले तर्कपूर्वक ज्ञान की क्रियाएँ थीं और अब निम्नभावापन्न होकर इस प्रकार स्वाभाविक हो पड़ी हैं। योगियों की भाषा में, जन्मजात - प्रवृत्ति तर्क की निम्नभावापन्न क्रमसंकुचित अवस्था मात्र है। तर्कजन्य ज्ञान क्रमसंकुचित होकर स्वाभाविक संस्कार के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव यह बात पूर्णरूपेण युक्तिसंगत है कि हम इस जगत् में जिसे जन्मजात - प्रवृत्ति कहते हैं, वह तर्कजन्य ज्ञान की संकुचित निम्नावस्था मात्र है।
पर चूँकि यह तर्क प्रत्यक्ष-अनुभूति बिना नहीं हो सकता, इसलिए समस्त जन्मजात-प्रवृत्तियाँ पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। मुर्गी के बच्चे चील से डरते हैं, बतख के बच्चे पानी पसन्द करते हैं, ये दोनो पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। अब प्रश्न यह है कि यह अनुभूति जीवात्मा की है, अथवा केवल शरीर की ? बतख अभी जो कुछ अनुभव कर रही है, वह उस बतख के पूर्वजों की अनुभूति से आया है, अथवा वह उसकी अपनी प्रत्यक्ष- -अनुभूति है ? आधुनिक वैज्ञानिक कहते हैं, वह केवल उसके शरीर का धर्म है; पर योगी कहते हैं कि वह मन की अनुभूति है, जो शरीर के माध्यम से संचारित होकर आ रही है। इसी को पुनर्जन्मवाद कहते हैं।
हमने पहले देखा है कि हमारा समस्त ज्ञान- प्रत्यक्ष, तर्कजन्य या जन्मजात - एकमात्र प्रत्यक्ष अनुभूतिरूप मार्ग के माध्यम से होकर ही आ सकता है। और जिसे हम जन्मजात - प्रवृत्ति कहते हैं, वह हमारी पूर्व क्ष - अनुभूति का फल है, वह पूर्वानुभूति ही आज अवनत होकर प्रत्यक्ष- जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गयी है और यह जन्मजात-प्रवृत्ति फिर से तर्कजन्य ज्ञान में उन्नत हो जाती है। सारे संसार भर में यही क्रिया चल रही है। इसी पर भारत में पुनर्जन्मवाद की एक प्रधान युक्ति आधारित हुई है। पूर्वानुभूत बहुतसे भय के संस्कार कालान्तर में इस जीवन के प्रति ममता के रूप में परिणत हो जाते हैं।
यही कारण है कि बालक बिलकुल बचपन से अपने आप डरता रहता है, क्योंकि उसके मन में दुःख का पूर्वानुभूतिजनित संस्कार विद्यमान है। अत्यन्त विद्वान् मनुष्यों में भी- जो जानते हैं कि यह शरीर एक दिन चला जाएगा, जो कहते हैं कि 'आत्मा की मृत्यु नहीं, हमारे तो सैकड़ों शरीर हैं, अतएव भय किस बात का'- ऐसे विद्वान् पुरुषों में भी, उनकी सारी विचारजनित धारणाओं के बावजूद हम इस जीवन के प्रति प्रगाढ़ ममता देखते हैं। जीवन के प्रति यह ममता कहाँ से आयी ? हमने देखा है कि यह हमारे लिए जन्मजात या स्वाभाविक हो गयी है।
योगियों की दार्शनिक भाषा में कह सकते हैं कि वह संस्कार के रूप में परिणत हो गयी है। ये सारे संस्कार सूक्ष्म (तनू) और गुप्त (प्रसुप्त) होकर मन के भीतर मानो सोये हुए पड़े हैं। मृत्यु के ये सब पूर्व-अनुभव - वे सभी संस्कार जिन्हें हम जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं - मानो अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि में पहुँच गये हैं। वे चित्त में ही वास करते हैं। वे वहाँ निष्क्रिय रूप से अवस्थान करते हों, ऐसी बात नहीं, वरन् भीतर ही भीतर कार्य करते रहते हैं।
स्थूल रूप में प्रकाशित चित्तवृत्तियों को हम समझ सकते हैं और उनका अनुभव कर सकते हैं; उनका दमन अधिक सुगमता से किया जा सकता है। पर इन सब सूक्ष्मतर संस्कारों का दमन कैसे होगा? उन्हें कैसे दबाया जाए? जब मैं क्रुद्ध होता हूँ, तब मेरा सारा मन मानो क्रोध की एक बड़ी तरंग में परिणत हो जाता है। मैं वह अनुभव कर सकता हूँ, उसे देख सकता हूँ, उसे मानो हाथ में लेकर हिला-डुला सकता हूँ, उसके साथ अनायास ही, जो इच्छा हो, वही कर सकता हूँ, उसके साथ लड़ाई कर सकता हूँ; पर यदि मैं मन के अत्यन्त गहरे प्रदेश में न जा सकूँ, तो कभी भी मैं उसे जड़ से उखाड़ने में सफल न हो सकूँगा।
कोई मुझे दो कड़ी बातें सुना देता है, और मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा खून गरम होता जा रहा है। उसके और भी कुछ कहने पर मेरा खून उबल उठता है और मैं अपने आपे से बाहर हो जाता हूँ, क्रोधवृत्ति के साथ मानो अपने को एक कर लेता हूँ। जब उसने मुझे सुनाना आरम्भ किया था, उस समय मुझे अनुभव हो रहा था कि मुझमें क्रोध आ रहा है। उस समय क्रोध अलग था और मैं अलग; किन्तु जब मैं क्रुद्ध हो उठा, तो मैं ही मानो क्रोध में परिणत हो गया। इन वृत्तियों को जड़ से, उनकी सूक्ष्मावस्था से ही उखाड़ना पड़ेगा; वे हमारे ऊपर कार्य कर रही हैं, यह समझने के पहले ही उन पर संयम करना पड़ेगा।
संसार के अधिकांश मनुष्यों को तो इन वृत्तियों की सूक्ष्मावस्था के अस्तित्व तक का पता नहीं। जिस अवस्था में ये वृत्तियाँ अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि से थोड़ी थोड़ी करके उदित होती हैं, उसी को वृत्ति की सूक्ष्मावस्था कहते हैं। जब किसी सरोवर की तली से एक बुलबुला ऊपर उठता है, तब हम उसे देख नहीं पाते: केवल इतना ही नहीं, जब वह सतह के बिलकुल नजदीक आ जाता है, तब भी हम उसे देख नहीं पाते; पर जब वह ऊपर उठकर फूट जाता है और एक लहर फैला देता है, तभी हम उसका अस्तित्व जान पाते हैं।
इसी प्रकार जब हम इन वृत्तियों को उनकी सूक्ष्मावस्था में ही पकड़ सकेंगे, तभी हम उन्हें रोकने में समर्थ हो सकेंगे। उनके स्थूल रूप धारण करने के पहले ही यदि हम उनको पकड़ न सके, उनको संयत न कर सके, तो फिर किसी भी वासना पर सम्पूर्ण रूप से जय प्राप्त कर सकने की आशा नहीं। वासनाओं को संयत करने के लिए हमें उनके मूल में जाना पड़ेगा। तभी हम उनके बीज तक को दग्ध कर डालने में सफल होंगे। जैसे भुने हुए बीज जमीन में बो देने पर फिर अंकुरित नहीं होते, उसी प्रकार ये वासनाएँ भी फिर कभी उदित न होंगी।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ १०॥
सूत्रार्थ- उन सूक्ष्म संस्कारों को प्रतिप्रसव यानी प्रतिलोम परिणाम के द्वारा (अर्थात् अपनी कारणावस्था में विलीन करने के साधन द्वारा) नाश करना पड़ता है।
व्याख्या-ध्यान के द्वारा जब चित्तवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब सूक्ष्म संस्कार बच रहते हैं। उनको नष्ट करने का उपाय क्या है ? उन्हें प्रतिप्रसव अर्थात् प्रतिलोम-परिणाम के द्वारा नष्ट करना पड़ता है। प्रतिलोम-परिणाम का अर्थ है - कार्य का कारण में लय । चित्तरूप कार्य जब समाधि के द्वारा अस्मितारूप अपने कारण में लीन हो जाता है, तभी चित्त के साथ ये सब संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं। केवल ध्यान से ही, ये सब सूक्ष्म संस्कार नष्ट नहीं हो सकते।
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ।।११॥
सूत्रार्थ- ध्यान के द्वारा उनकी (स्थूल) वृत्तियाँ नष्ट करनी पड़ती हैं।
व्याख्या - ध्यान ही इन बड़ी तरंगों की उत्पत्ति को रोकने का एक महान उपाय है। ध्यान के द्वारा मन की ये वृत्तिरूप लहरें दब जाती हैं। यदि तुम दिन पर दिन, मास पर मास, वर्ष पर वर्ष, इस ध्यान का अभ्यास करो-जब तक वह तुम्हारे स्वभाव में न भिद जाए, जब तक तुम्हारी इच्छा न करने पर भी वह ध्यान आप से आप आने लगे,–तो क्रोध, घृणा आदि वृत्तियाँ संयत हो जाएँगी।'
क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२॥
सूत्रार्थ- ये सब पूर्वोक्त क्लेश ही कर्मसंस्कारों के समुदाय की जड़ हैं; वर्तमान या भविष्य में होनेवाले जीवन में ये फल प्रसव करते हैं।
व्याख्या- कर्माशय का अर्थ है, समस्त संस्कारों की समष्टि। हम जो भी कार्य करते हैं, वह चित्तरूपी सरोवर में एक लहर उठा देता है। हम सोचते हैं कि इस काम के समाप्त होते ही वह लहर भी चली जाएगी; पर वास्तव में वैसा नहीं होता। वह तो बस, सूक्ष्म आकार भर धारण कर लेती है, पर रहती वहीं है। ज्योंही हम उस कार्य को स्मरण में लाने का प्रयत्न करते हैं, त्योंही वह फिर से उठ जाती है और लहररूप धारण कर लेती है। इससे यह स्पष्ट है कि वह मन .के ही भीतर छिपी हुई थी; यदि ऐसा न होता, तो स्मृति ही सम्भव न होती ।
अतएव हमारा हर एक कार्य, हर एक विचार, वह चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ, मन के गहरे प्रदेश में जाकर सूक्ष्मभाव धारण कर लेता है और वहीं संचित रहता है। शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के विचार को क्लेश कहते हैं, क्योंकि योगियों के मतानुसार दोनों से ही अन्त में दुःख उत्पन्न होता है। इन्द्रियों से जो सुख मिलता है, वह अन्त में दुःख ही लाता है; क्योंकि भोग से और अधिक भोग की तृष्णा होती है और इसका अनिवार्य फल होता है - दुःख । मनुष्य की वासना का कोई अन्त नहीं; वह लगातार वासना पर वासना रचता जाता है, और जब ऐसी अवस्था में पहुँचता है, जहाँ उसकी वासना पूर्ण नहीं होती, तो फल होता है-दुःख । इसीलिए योगी शुभ या अशुभ समस्त संस्कारों की समष्टि को क्लेश कहते हैं; ये क्लेश आत्मा की मुक्ति में बाधक होते हैं।
हमारे सारे कार्यों के सूक्ष्म मूलस्वरूप संस्कारों के बारे में भी ऐसा ही समझना चाहिए। वे कारणस्वरूप होकर इहजीवन अथवा परजीवन में फल प्रसव करते हैं। विशेष स्थलों में ये संस्कार, विशेष प्रबल रहने के कारण बहुत शीघ्र अपना फल दे देते हैं; अत्युत्कट पुण्य या पाप कर्म इहजीवन में ही अपना फल सामने ला देता है। योगी कहते हैं कि जो मनुष्य इहजीवन में ही अत्यन्त प्रबल शुभ संस्कार उपार्जित कर सकते हैं, उन्हें मृत्यु तक बाट जोहने कीआवश्यकता नहीं होती, वे (नवनीदा) तो इसी जीवन में अपने शरीर को देवशरीर में परिणत कर सकते हैं। योगियों के ग्रन्थों में इस प्रकार के कई दृष्टान्तों का उल्लेख मिलता है।
ये व्यक्ति अपने शरीर के उपादान तक को बदल डालते हैं। ये लोग अपने शरीर के परमाणुओं को ऐसे नये ढंग से ठीक रच लेते हैं कि उनको फिर और कोई बीमारी नहीं होती, और हम लोग जिसे मृत्यु कहते हैं, वह भी उनके पास नहीं फटक सकती। ऐसी घटना न होने का तो कोई कारण नहीं है। शरीरशास्त्र के अनुसार भोजन का अर्थ है -सूर्य से शक्तिग्रहण। वह शक्ति पहले वनस्पति में प्रवेश करती है, उस वनस्पति को कोई पशु खा लेता है, फिर उस पशु को कोई मनुष्य। इसे वैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करना हो, तो कहना पड़ेगा कि हमने सूर्य से कुछ शक्ति ग्रहण करके उसे अपने अंगीभूत कर लिया।
यदि यही बात हो, तो इस शक्ति को अपने अन्दर लेने के लिए केवल एक ही तरीका क्यों रहना चाहिए? पौधे हमारी तरह शक्तिग्रहण नहीं करते; और हम जिस प्रकार शक्तिसंग्रह करते हैं, धरती उस प्रकार नहीं करती। पर तो भी सभी किसी न किसी प्रकार से शक्तिसंग्रह करते ही हैं। योगियों का कहना है कि वे केवल मन की शक्ति के द्वारा शक्तिसंग्रह कर सकते हैं। वे कहते हैं कि हम बिना किसी साधारण उपाय का अवलम्बन किये ही यथेच्छ शक्ति भीतर ले सकते हैं। जैसे एक मकड़ी अपने ही उपादान से जाला बनाकर उसमें बद्ध हो जाती है और जाले के तन्तुओं का सहारा लिये बिना कहीं नहीं जा सकती, उसी प्रकार हमने भी अपने ही उपादान से इस स्नायुजाल की सृष्टि की है और अब उस स्नायुमार्ग का बिना अवलम्बन किये कोई काम ही नहीं कर सकते। योगी कहते हैं, हम क्यों उसमें बद्ध हों ? [(16 अगस्त,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-119 ]
इस तत्त्व को और एक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है। हम पृथ्वी के किसी भी भाग में विद्युत्-शक्ति भेज सकते हैं; पर उसके लिए हमें तार की जरूरत पड़ती है। किन्तु प्रकृति तो बिना तार के ही बड़े परिमाण में यह शक्ति भेजती रहती है। हम भी वैसा क्यों न कर सकेंगे ? हम चारों ओर मानस-विद्युत् भेज सकते हैं। हम जिसे मन कहते हैं, वह बहुत कुछ विद्युत्-शक्ति के ही सदृश है। स्नायु के भीतर जो तरल पदार्थ है, उसमें थोड़ी विद्युत्-शक्ति है, क्योंकि विद्युत् के समान उसके भी दोनों ओर दो विपरीत शक्तियाँ दिखाई पड़ती हैं, तथा विद्युत् के अन्यान्य सब धर्म उसमें भी देखे जाते हैं। इस विद्युत्-शक्ति को अभी हम केवल स्नायुओं में से ही प्रवाहित कर सकते हैं।
पर प्रश्न यह है कि स्नायुओं की सहायता लिये बिना ही हम मानस - विद्युत् को क्यों नहीं प्रवाहित कर सकेंगे ? योगी कहते हैं, हाँ, यह पूरी तरह सम्भव है; और सम्भव ही नहीं, वरन् इसे कार्य में भी परिणत किया जा सकता है। और जब तुम इसमें कृतकार्य हो जाओगे, तब सारे संसार भर में अपनी इस शक्ति को परिचालित करने में समर्थ हो जाओगे। तब तुम किसी स्नायु-यन्त्र की सहायता लिये बिना ही किसी भी स्थान में, किसी भी शरीर द्वारा कार्य कर सकोगे। जब तक आत्मा इस स्नायु-यन्त्ररूप प्रणाली के भीतर से काम करती रहती है, हम कहते हैं कि मनुष्य जीवित है, और जब इन यन्त्रों का कार्य बन्द हो जाता है, तो कहते हैं कि मनुष्य मर गया।
पर जब मनुष्य इस प्रकार के स्नायु-यन्त्र की सहायता से, या बिना उसकी सहायता के भी, कार्य करने में समर्थ हो जाता है, तब उसके लिए जन्म और मृत्यु का कोई अर्थ नहीं रह जाता। संसार में जितने शरीर हैं, वे सब तन्मात्राओं से बने हुए हैं, उनमें भेद है केवल तन्मात्राओं के विन्यास की प्रणाली में । यदि तुम्हीं उस विन्यास के कर्ता हो, तो तुम इच्छानुसार शरीर की रचना कर सकते हो। यह शरीर तुम्हारे सिवाय और किसने बनाया है ? अन्न कौन खाता है? यदि कोई और तुम्हारे लिए भोजन करता रहे, तो तुम अधिक दिन जीवित न रहोगे। उस अन्न से रुधिर भी कौन तैयार करता है? अवश्य तुम्हीं । उस रुधिर को शुद्ध करके कौन धमनियों में प्रवाहित करता है ? तुम्हीं । हम शरीर के मालिक हैं और उसमें वास करते हैं।
उसका किस प्रकार पुनर्गठन किया जाए, बस, इसी ज्ञान को हम खो बैठे हैं। हम स्वभाव से अवनत, भ्रष्ट हो गये हैं। हम शरीर के परमाणुओं की विन्यासप्रणाली भूल गये हैं। अतः आज हम जिसे यन्त्रवत् किये जा रहे हैं, उसी को अब जान-बूझकर करना होगा। हमीं तो मालिक हैं - कर्ता हैं, अतः हमीं को इस विन्यासप्रणाली को नियमित करना होगा। और जब हम इसमें सफल हो जाएँगे, तब अपनी इच्छानुसार शरीर का पुनर्गठन कर लेंगे, और तब हमारे लिए जन्म, मृत्यु, आधि-व्याधि कुछ भी न रह जाएगा।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ १३ ॥
सूत्रार्थ- ( मन में इस संस्काररूप) मूल के विद्यमान रहने तक उसका फल भोग (मनुष्य आदि विभिन्न) जाति, (भिन्न भिन्न) आयु और सुख-दुःख के भोग (के रूप में) होता रहता है।
व्याख्या - संस्काररूप जड़ अर्थात् कारण भीतर विद्यमान रहने के कारण वे ही व्यक्तभाव धारण कर फल के रूप में परिणत होते हैं। कारण का नाश होकर कार्य अर्थात् फल का उदय होता है, फिर कार्य सूक्ष्मभाव धारण कर बाद के कार्य का कारणस्वरूप होता है। वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है; बीज फिर बाद के वृक्ष की उत्पत्ति का कारण होता है। हम इस समय जो कुछ कर्म कर रहे हैं, वे समस्त पूर्वसंस्कार के फलस्वरूप हैं। ये ही कर्म फिर संस्कार के रूप में परिणत होकर भावी कार्य के कारण हो जाएँगे। बस, इसी प्रकार कार्य-कारण-प्रवाह चलता रहता है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि कारण विद्यमान रहने से उसका फल या कार्य अवश्यमेव होगा।
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