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गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

🔱(5) भविष्य के नेताओं के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव। /Some important suggestions for Would be leaders ./ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 (5) 

भविष्य के नेताओं के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव

[Some important suggestions for Would be leaders.]

>>>1. The secret of Work : आत्मगोपन भाव से कर्म करने के उपाय। ( Ways to perform actions with self-discipline). कर्म का रहस्य : अच्छा महामण्डल कर्मी कौन ?] 

         आप में से प्रत्येक व्यक्ति को मन में यह विचार रखना चाहिए कि मैं नेता बन सकता हूँ, लेकिन जब तक दूसरे लोग आपको अपना नेता नहीं चुनते, तब तक आप अनुयायी ही बने रहिए । किन्तु जब आपको ऐसा अनुभव हो कि यहाँ मेरी आवश्यकता है, वहाँ स्वतः आगे बढ़कर अपनी सेवा समर्पित कीजिए। इस बात की गांठ बांध कर मत बैठे रहिए कि मुझे तो इस कार्य की जिम्मेदारी सौंपी ही नहीं गई है तो मैं वहाँ अपनी सेवाएँ क्यों दूँ ? यहाँ पर दो प्रकार की कठिनाईयाँ सामने आती हैं। 

     प्रत्येक संस्था में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो स्वयं को महत्वपूर्ण दिखाने की चेष्टा करते हैं तथा हर काम में दूसरों को पीछे धकेलकर स्वयं को ही आगे रखना चाहते हैं। मुझे ही सचिव के पद पर क्यों नहीं चुना गया, क्या मैं सचिव नहीं बन सकता था ? मुझे ही हाथ में माईक लेकर सभा संचालन करने वाला उद्घोषक क्यों नहीं बनना चाहिएलेकिन वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सबके आँखों के सामने स्वयं को हमेशा दिखाते रहने में विश्वास नहीं करते बल्कि वे स्वयं को हमेशा हर किसी से पीछे रखते हैं। उनकी यही मान्यता होती है कि मैं तो चुपचाप बिना किसी के जाने ही अपना काम करना चाहता हूँ, सबलोग मुझे देखें तथा मेरी सराहना करें - ऐसा मैं बिल्कुल नहीं चाहता । निश्चित रूप से ऐसी मनःस्थिति वाला व्यक्ति पहले वाले व्यक्ति से कहीं अधिक अच्छा कार्यकर्ता है। 

     इस संदर्भ में स्वामीजी की एक उक्ति स्मरणीय है, वे कहते हैं- "One who can work completely in hiding is the best worker" - अर्थात् जो स्वयं को सबकी दृष्टि से पूरी तरह छुपाकर कार्य कर सकता है, वही सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता #1  है। वे युक्ति - तर्क से स्पष्ट करते हुए कहते हैं- इस विश्व ब्रह्माण्ड में ईश्वर ही सबकुछ कर रहे हैं, किन्तु कोई भी उनको कहीं देख नहीं पाता। अच्छे कर्म का यही रहस्य है।

      आत्मगोपन भाव से ही कर्म कीजिए, हर समय मंच के ऊपर अपने ही चेहरे को आगे रखने की चेष्टा मत कीजिए । कागज पर अपना नाम लिखकर फाड़ने एवं रद्दी की टोकरी में फेंकने का अभ्यास कीजिए (Signing a paper and Tearing it- ठाकुर-माँ -स्वामजी की तस्वीर और उपदेशों के साथ भव्य-शोभायात्रा निकले किन्तु) कोई आपका चेहरा न देखने पाये, बाहर का कोई व्यक्ति यह जानने न पाये कि इस कार्य के पीछे कौन व्यक्ति था ? इस प्रकार कर्म करने में समर्थ बन जाना ही कर्म करने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है ।

>>>2.Always be true to your conscience.#  Remove Too much Humbleness : अत्यधिक विनम्रता दिखावा है-##2 अपनी अन्तरात्मा के प्रति सदैव ईमानदार रहिए। दादा के शब्दों में महामण्डल नेतृत्व साँप का खेल दिखाने के बाद -आठ आना , चार आना माँगने वाला कोई मदाड़ी नेतृत्व नहीं है ! ]   

     किन्तु यहाँ यह याद रखना होगा कि यदि समय की मांग हो तो आपको ही वह पहला व्यक्ति होना चाहिए, जो स्वतः आगे बढ़कर उस कर्म में अपने कंधों को लगा दे। वहाँ आपको नेतृत्व देने में इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि- मेरे सभी अग्रज /वरिष्ठ सहकर्मियों को यह पता है कि मेरी बुद्धि कितनी तीव्र है, वे सभी मेरी धारा प्रवाह भाषण क्षमता के साथ-साथ मेरे अध्ययन और लेखनी की तेज धार को भी जानते हैं फिर भी, -इन लोगों ने मंच-संचालन के लिए जब पहले से मेरे नाम का चयन पहले से नहीं किया, मुझे अपना नेता या उद्घोषक  नहीं बनाया;  तो अब क्यों नहीं इन्हें इसका मजा चखने दिया जाय ? यही तो अवसर है, इस समय निश्चित ही मेरे सिवा अन्य कोई ऐसा नहीं है जो मंच-संचालन कार्य को संभाल सके। अब, भला बिन बुलाये मैं वहाँ क्यों जाने लगा ?

     मुझमें इतनी प्रतिभा और सामर्थ्य है, फिर भी उन लोगों ने अभी तक मुझे नेतृत्व (सेक्रेटरी) की जिम्मेदारी क्यों नहीं सौंपी है ? नहीं; इस प्रकार के तुच्छ विचार महामण्डल के किसी नेता को अपने मन में उठने भी नहीं दना चाहिए। जहाँ कहीं भी आपको ऐसा लगे कि यहाँ मेरी आवश्यकता है तो बिना बुलाये ही उस कार्य में स्वयं को भिड़ा दीजिए । किन्तु इसके बाद पद या नाम - यश के पीछे मत दौड़िये न ही इसकी कुछ परवाह कीजिए । एक अच्छा नेता बनने का यही रहस्य है। आप अपनी अन्तरात्मा के प्रति सदैव ईमानदार रहिए कि मैं जो कुछ भी कार्य कर रहा हूँ वह - सचमुच दूसरों के कल्याणार्थ ही है, इसके पीछे मेरा कोई निजी क्षुद्र स्वार्थ नहीं है। ऐसा करने में आप केवल तभी समर्थ हो सकते हैं जब आप जिन भाईयों का नेतृत्व कर रहे हों, स्वयं को भी उन्हीं में से एक बना लें। आपमें स्वयं को उन्हीं में से एक बना लेने की क्षमता का होना अति आवश्यक है। 

>>>3. आप चतुर्भुज नहीं हैं, फिरभी आप धन्य हैं , क्योंकि ईश्वर ने दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करने में आपका चयन किया है !  

     स्वयं को कभी बहुत बड़ा मत मानो, ऐसा कभी मत सोचो कि मैं तो ढेर सारे आवश्यक गुणों से विभूषित हूँ, मुझमें दूसरों से अधिक कई विशिष्ट गुण हैं। अन्य किसी में तो ये सब गुण हैं ही नहीं । अतः मैं ही इन सबमें उत्कृष्ट हूँ । मैं तो एक विशिष्ट व्यक्ति हूँ । बिल्कुल नहीं, आप कोई अलग प्रकार के मनुष्य नहीं हैं। यदि आप में कोई विशिष्टता है तो केवल इतना ही है कि ईश्वर ने आपको दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवायें करने का विशेष अवसर प्रदान किया है। बस, इससे अधिक कुछ मत चाहो ।

>>>4. यौवनोचित जोश के साथ -साथ आत्मसंयम और विनम्रता रखना भी आवश्यक है।  

      आपके अन्दर यौवनोचित जोश अवश्य होना चाहिए किन्तु उसका उपयोग हमेशा आत्मसंयम के साथ करना चाहिए। अपने भीतर निरन्तर जोश बनाये रखिये परन्तु इसके साथ ही साथ यदि आपमें आत्मसंयम का गुण न रहे तो यही जोश आपको धक्के मार कर नीचे भी गिरा देगा। समझाने के लिये जितना अधिक हो सके उतना अवश्य बोलिये परन्तु बकवास मत कीजिए । नेताओं को अपने विचार दूसरों को समझाने के लिये कभी -कभी अधिक बोलना ही पड़ता है ताकि दूसरे लोग उनकी बातों को ठीक ढंग से समझकर सभी कार्यों को सही ढंग से कर सकें। किन्तु बहुत अधिक जोर से बोलने पर किसी भी बात का महत्व कम हो जाता है। ऐसा होना अच्छा नहीं है।

>>>5. नेतृत्व करने में 'Farsightedness- दूरदर्शिता का गुण' रहना अनिवार्य है। 

       नेताओं में दूर दृष्टि का गुण अवश्य होना चाहिए। किसी भी निर्णय को लेते समय उसके बाद एक-एक करके आने वाले सभी परिणामों को पहले ही जान लेने में सक्षम अवश्य होना चाहिए। उदाहरणार्थ, मैंने कोई निर्णय लिया किन्तु, यदि वह निर्णय आगे उत्पन्न होने वाली समस्या के निदान के विषय में बिना सोचे-समझे ही ले लिया ; तो वही एक गलत निर्णय कई अन्य समस्याओं को उत्पन्न करेगी। इन सब बातों के ऊपर बिना विचार किये ही यदि मैंने केवल नेता होने के मद में आकर कोई आदेश सुना दिया कि यह करो;  और सभी उसका पालन करने में लग गये । तथा कुछ ही समय बाद मैंने यह जान भी लिया कि उस समय मेरे द्वारा हड़बड़ी में जो निर्णय लिया गया था, वह तो गलत था, किन्तु तब तक जो क्षति होनी थी वह तो हो ही चुकी होती है। इसीलिये नेताओं को दूरदर्शिता का गुण अर्जित करने के लिये निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए। यह सब कुछ आपके श्रेय- प्रेय विवेक-प्रयोग क्षमता पर ही निर्भर करता है । अतः नेता को विवेक विचार किये बिना कोई तुगलकी फरमान नहीं सुनाना चाहिए ।

>>>6.  Short-term and long-term planning Both are essential/अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजना दोनों ही आवश्यक हैं।  

        किसी भी नेता में सटीक योजना बनाने की प्रतिभा भी अवश्य होनी चाहिए। किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये अल्पकालिक (Plan-A) और दीर्घकालिक (Plan-B) दोनों प्रकार की योजना पर ध्यान रखना आवश्यक है।  कभी-कभी विशेष परिस्थितियों के अचानक ही उपस्थित हो जाने पर तत्काल निर्णय लेकर एक अल्पकालिक योजना बनानी पड़ती है । उसी प्रकार से दीर्घकालिक योजना बना लेना भी आवश्यक है। मान लीजिए हम किसी संगठन के भविष्य की रूप रेखा तय करने के लिये कोई योजना बना रहे हैं। तो उस समय हमें  यह ध्यान रखना होगा कि हमारी वह योजना कम से कम आगामी पचास या सौ वर्षों तक कार्यकारी बनी रहे । 

      महामण्डल के 'Be and Make मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' के प्रारम्भिक काल में जब हमसे लोग यह पूछते थे कि आपके संगठन द्वारा चलाये जा रहे,  'मनुष्य बनो और बनाओ ' आन्दोलन के लिए 'चरैवेति, चरैवेति - अभियान' का प्रभाव समाज के ऊपर दृष्टिगोचर होने में कितना समय लगने की आप उम्मीद करते हैं ?  तब हम कहा करते थे कि मैं आपको अभी इसकी कोई निश्चित समय सीमा नहीं बता सकता। शायद इस संकल्प को पूरा होने में दस-पन्द्रह वर्ष या बीस-पच्चीस वर्ष अथवा पचास वर्ष भी लग सकता है । परन्तु इतना वर्ष बीत जाने के बाद अब हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि यदि हम लोग इसी प्रकार अपना कार्य चलाते रहें तो समाज के ऊपर इस अभियान का ठोस और प्रत्यक्ष परिणाम पचास से सौ वर्ष #3 के भीतर अवश्य ही दृष्टिगोचर होने लगेगा। भारत और महामण्डल का अमृतकाल :  #3  यह महामण्डल पुस्तिका दादा ने 1986 में लिखी थी तो - 1986 + 50 = 2036 से 2086 तक होगा ! )   इत..... ना, लं.......बा समय; तब तक तो शायद हम इस अभियान का फल देखने के लिये जीवित भी नहीं रहेंगे। 

>>>7 

      तब क्या, हमें इस अभियान को यहीं रोक देना चाहिए ? क्योंकि यह बात तो निश्चित है कि इसका परिणाम हम नहीं देख पायेंगे। (दादा 2016 में शरीर छोड़ दिए)  समाज सेवा/ फिल्म आदि क्षेत्र के कार्यों से जुड़ी संस्थाओं के कर्ता-धर्ताओं को कई प्रकार के राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार (2023 दादा साहेब फालके अवार्ड-वहीदा रहमान को)   प्राप्त होते हैं। क्या हमलोगों को भी इसी तरह के किसी पुरस्कार द्वारा सम्मानित होने की आशा नहीं रखनी चाहिए ? महामण्डल ने तो सर्वोत्कृष्ट समाज सेवा का कार्य किया है, जो लोग इस अभियान को सफल बनाने में इसके प्रारम्भ से ही जुड़े रहे हैं और अब 70 वर्ष की आयु को पार कर गये हैं, कम से कम उनको तो इस प्रकार का कोई पुरस्कार अवश्य ही मिलना चाहिए। ऐसी बेतुकी इच्छाएँ हमारे मन में भी उठ सकती हैं। परन्तु, नहीं, इस प्रकार के किसी इच्छा को हमें प्रश्रय भी नहीं देना चाहिए। हमें केवल निष्काम कर्म करने की इच्छा से कर्म करते रहना चाहिए, पुरस्कार या फल पाने की कोई इच्छा मन में नहीं उठने देनी चाहिए। 

      हमें इसी भावना के साथ इस अभियान 'Be & Make को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलाते जाना है। क्योंकि यदि हम अपने आदर्श स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' मुहावरे को ठीक से समझ चुके हों तो हमें यह स्वतः समझ में आ जायेगा कि यह अभियान निरन्तर चलने वाला है। क्योंकि 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' को कभी सीधा नहीं किया जा सकता, इसलिये यह कभी न समाप्त होने वाला कार्य है । सर्वदा इसी अभियान को चलाते रहने के सिवा दूसरा कोई उपाय ही नहीं है नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । 

    परन्तु इतना सब जानकर भी हमलोग यदि इस जिद पर अड़ जायें कि नहीं, हम तो बस इसी समय इस समस्या -  का समूल अंत कर देंगे;  तो यह हमारी बच्चों जैसी जैद होगी। क्योंकि केवल बच्चों की कहानियों में ही कथा का अन्त निरपवाद रूप से 'उसके बाद वे सुखपूर्वक रहने लगे' जैसी पंक्तियों से होता है। इस प्रकार से जिस कहानी का अन्त होता है उसी को हम नानी-दादी की कहानियाँ कहते हैं। सांसारिक द्वंद्वों की उष्मा में भली भाँति तपे - तपाये मनुष्य कभी भी जीवन गाथा के ऐसे अन्त की बात सोच भी नहीं सकते। क्योंकि निरंतर चलने वाले संघर्ष को ही जीवन कहते हैं ।

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 [सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता #1  - जब हमारा अहंज्ञान नहीं रहता तभी हम अपना सर्वोत्तम कार्य कर सकते हैं , दूसरों को सर्वाधिक प्रभावित कर पाते हैं।  अहं को निकाल डालो , उसका नाश कर डालो , उसे भूल जाओ , अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो - यह उन्हीं का कार्य है , उन्हें करने दो। हमें और कुछ नहीं करना होगा - केवल स्वयं हटकर उन्हें काम करने देना होगा। हम जितना दूर हटते जायेंगे, ईश्वर उतना ही हमारे भीतर आएगा। Get rid of the little "I", and let only the great "I" live. कच्चा 'मैं' को नष्ट कर डालो - केवल पक्का 'मैं ' को रहने दो। जब हम 'मैं मैं ' कहते हैं , तब हम मूर्ख से बन जाते हैं , और कहते जाते हैं - मैंने 'ज्ञान' लाभ कर लिया है , किन्तु वास्तव में हम तो 'आँख बँधे बैल ' के समान कोल्हू में ही लगातार घूमते रहते हैं। भगवान खूब अच्छी तरह अपने को छिपाकर रखते हैं , इसीलिए उनका कार्य भी सर्वोत्तम है। इसी प्रकार जो अपने को सम्पूर्ण रूप से छिपाकर रख सकते हैं , वे ही सबकी अपेक्षा अधिक कार्य कर पाते हैं।  7/22  

"Our best work is done, our greatest influence is exerted, when we are without thought of self. Put out self, lose it, forget it; just let God work, it is His business. We have nothing to do but stand aside and let God work. The more we go away, the more God comes in. Get rid of the little "I", and let only the great "I" live. As soon as we say "I", we are humbugged all the time; and we call it "knowable", but it is only going round and round like a bullock tied to a tree. The Lord has hidden Himself best, and His work is best; so he who hides himself best, accomplishes most. To give up the world is to forget the ego, to know it not at all — living in the body, but not of it. This rascal ego must be obliterated. Bless men when they revile you." [ June 26, 1895./ Inspired Talks] 

##2Always be true to your conscience. #अपनी अन्तरात्मा के प्रति सदैव ईमानदार रहिए :स्वान्तः  सुखाय  तुलसी  रघुनाथ  गाथा, # #  श्री  रामायण  जी  सम्पूर्ण   करने   के  उपरांत, बाबा  तुलसीदास  जी  से  किसी  ने  पूछा, बाबा  इसमें  यह  कमी  रह  गई, आपको  वहाँ 'अमुक' व्यक्ति के चरित्र का  भी  चित्रण  करना चाहिए  था।  बाबा  यह  यह  प्रसंग  मुझे अपूर्ण  सा  लगता  है, इसे   थोड़ा  औऱ  रुचिकर  लिखते तो अच्छा होता।  बाबा  जी  ने  सभी  की  बातों  को  सुनकर  जो  उत्तर  दिया  वहः  ह्रदयंगम  करने  योग्य  है- " देखो  भाइयो  यह  रामचरित  मानस  ग्रन्थ/ ज्ञानमन्दिर -महामण्डल आन्दोलन हमने आपकी  किंतु- परन्तु सुनने या अनेकों की  समालोचनाओं  के  लिए  नहीं  लिखा/खड़ा किया  है !  यह  तो  हमने , " स्वान्तः  सुखाय "  अपने  अंतर  के   सुख , अपने  ह्र्दय के आनन्द  के  लिए  लिखा  है।  तुम  को इस संगठन में जो कुछ  अच्छा  लगे  तो  इसमें  से  ग्रहण  करो, अन्यथा  मत  करो ! "  स्वान्तः   सुखाय  तुलसी  रघुनाथ   गाथा" -  बोल  सियावर  रामचंन्द्र  की  जय !"  [(2023 हथिया नक्षत्र कैम्प, जानिबिघा, गया के 30 साला -MLA : चंद्रवंशी प्रेम कुमार /नितीश सरकार में कृषि एवं पशुपालन मंत्री के आने का रहस्य : मेरे ह्रदय में विद्यमान ठाकुर-माँ की इच्छा और आशीर्वाद से, ठाकुर-माँ को आनन्दित करने के लिए स्वामीजी ने स्वयं मुझे अपना यंत्र बनाकर 1985  'विवेकानन्द ज्ञान मंदिर ' खड़ा किया था, जो धनेश्वर पण्डित-दयानन्द -उपेन्द्र सिंह, राहुल सिंह, आनन्द सिंह, अनिल यादव, सचिन की माँ जेपी भोजन के सहयोग से चल रहा है  !]   

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🔱(4 ) नेतृत्व का रहस्य / The Secret of Leadership / नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 (4 ) 

नेतृत्व का रहस्य 

[The Secret of Leadership ]

>>>1. 

       किसी भी नेता में अपने चारित्रिक गुणों को उन्नत करने की क्षमता के साथ-साथ इस संबंध में दूसरों का मार्गदर्शन करने की प्रतिभा एवं सहायता करने का सामर्थ्य भी अवश्य रहनी चाहिए। महामण्डल के नेताओं का यही मुख्य कार्य है और निःसंदेह दीर्घकाल से हमलोग यही करते आ रहे हैं । किन्तु, अब इतने वर्ष बीत जाने के बाद [महामण्डल स्थापना के 56 वर्ष बीत जाने के बाद] हमारे समक्ष इसकी एक अपेक्षाकृत स्पष्ट छवि है तथा इस कार्य योजना को कार्यान्वित करने के लिये हमारा संकल्प पहले की अपेक्षा अधिक हुआ दृढ़ है।

      हमारा यह कार्य अन्य समाज सेवा के कार्यों की तरह कोई साधारण समाजसेवा नहीं है। हमारा लक्ष्य है 'मनुष्य निर्माण' तथा - हमारा ध्येय मंत्र या वाक्य है- 'Be and Make' अर्थात् "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो।" अतः हम सभी को अपना चरित्र उन्नत करने के लिये कठोर परिश्रम तो करना ही चाहिए साथ ही साथ दूसरों को भी अपना चरित्र गठित करने के लिये निरन्तर प्रोत्साहित करते रहना चाहिए एवं इसके लिए सहायता भी करनी चाहिए। यदि हम यह कार्य करने में समर्थ न हो सके तो अन्य प्रकार की समाज सेवा हम चाहे जिस परिमाण में भी करते रहें उसका कुछ परिणाम नहीं निकलेगा और हमारा सारा परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा। 

    अतः कोई भी सामाजिक परियोजना चाहे वह प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र हो, शिक्षण संस्थान हो, शिशुओं के विकास हेतु कोई कार्यक्रम हो, निःशुल्क औषधालय चलाना हो, छात्रावास संचालित करना हो या पोलियो ड्रॉप पिलाने जैसा अन्य कोई टीकाकरण अभियान चलाने में सहयोग देना हो, हमें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि किसी भी कार्य योजना से हमें कोई फल प्राप्त नहीं होगा यदि ये कार्य मौके पर कार्यरत सेवाकर्मियों के चारित्रिक गुणों को उन्नत करने में सहायता नहीं पहुँचाते हों। महामण्डल में समाज सेवा की यही विशिष्ट प्रणाली है 

>>>2. महामण्डल द्वारा की गयी समाजसेवा की विशिष्ट प्रणाली (Special System of Social Service) :

      स्वामीजी की यही इच्छा थी कि जो मनुष्य दुःख कष्ट में पड़े हैं। उनके लिए हम सबों को कुछ न कुछ सेवा कार्य अवश्य करना चाहिए परंतु; वे ऐसा कभी नहीं चाहते थे कि उस सेवा कार्य से हम कोई लाभ नहीं उठाएँ। हमलोग समाज सेवा के माध्यम से भी अपने लिए कुछ न कुछ अवश्य लाभ उठाना चाहते हैं। सामान्यतः लोग किसी भी कार्य के माध्यम से कुछ पैसा कमाना चाहते हैं, कुछ लोग नाम - यश पाने के लिए सत्कर्म किया करते हैं। परंतु महामण्डल में हम इस तरह की कोई तुच्छ वस्तु पाने की कामना मन में रखकर कभी सेवा कार्य नहीं करते। 

       किसी भी रूप में दूसरों की सेवा करते समय अपने अन्दर त्याग की भावना को विकसित करने का प्रयास कीजिए, यदि अन्य कोई सेवा का कार्य नहीं कर सकते तो कम से कम चरित्र के गुणों को ही अर्जित करने का प्रयास कीजिए, अपने हृदय को ही विशाल बनाने की चेष्टा कीजिए। यदि आपने दूसरों की थोड़ी भी सेवा की हो, थोड़ा भी त्याग किया हो तो उस कार्य से आप अपने लिये कुछ लाभ अवश्य उठाइये। यदि आप समाज सेवा से अपने लिये कोई लाभ नहीं उठा पाते तो इसका अर्थ यही है कि आपने सेवा के रहस्य को जाना ही नहीं है । आपमें इस सेवाकार्य के बदले कुछ अधिक ही मूल्यवान वस्तु पाने की योग्यता होनी चाहिए । इस कार्य के द्वारा आपको दूसरों के लिए अधिक त्याग करने की क्षमता, दूसरों की और अधिक सेवा करने का सामर्थ्य अवश्य प्राप्त होना चाहिए। यदि महामण्डल के सभी सहकर्मियों को यह सब प्राप्त हो रहा हो, तभी समझना चाहिए कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं

      परन्तु यदि यह दिखाई पड़े कि हमारे कार्यकर्ता कई तरह के समाज सेवा का कार्य तो कर रहे हैं किन्तु उससे उनकी कोई उन्नति नहीं हो रही है, दूसरों के प्रति विनम्र और उदार होने के बदले उनमें अहं और दिखावा का ही भाव आ रहा है तो नेताओं को सतर्क हो जाना चाहिए । महामण्डल के नेताओं को सदैव सतर्क रहकर यह देखते रहना चाहिए कि हम जिस विधि से सेवा कार्य चला रहे हैं उसमें कुछ दोष तो नहीं है। यदि इसी प्रकार से कार्य चलते रहने दिया गया तो वह कार्य तो व्यर्थ होगा ही साथ ही साथ इसको सम्पादित करने में लगे युवाओं की भी भारी क्षति होगी। वे मिथ्याचारी तथा अहंकारी बन जायेंगे। 

      ग्रामीण क्षेत्रों में रहकर सेवा कार्य चलाने वाले युवा कार्यकर्ताओं के सामने [JPBhS] तो अन्य कई प्रकार की कठिनाईयाँ भी खड़ी हो सकती हैं। किसी न किसी प्रलोभन में फँसने का खतरा भी हो सकता है। वे सेवा-भक्ति का प्रचार-प्रसार के नाम पर ऐसे दुष्चक्र में फंस सकते हैं या ऐसे अंधे कुएँ में  गिर सकते हैं कि जहाँ से उन्हें बाहर निकालना भी कठिन हो जायेगा।  कठिनाईयाँ विभिन्न - विभिन्न रूपों में गले पड़ सकती हैं। स्वतंत्रता से पूर्व भी जब हमारे कुछ राष्ट्रवादी नेता युवाओं को गाँव-देहात में जाकर अस्पताल चलाने या गृहस्थों के घर में रहकर जरूरतमंद ग्रामीणों की सेवा करने का आदेश देते थे तो वे यह जानते थे कि यह कार्य कितना कठिन है। इससे बहुत से कार्यकर्ताओं का तो चारित्रिक पतन ही हो जाता था और एक समय ऐसा भी आया था जब सभी कहने लगे थे, बस! बहुत हो चुकी समाज सेवाअब और कोई 'दूसरी' समाज सेवा करने की जरूरत नहीं है ।

>>>3. समाजसेवा या मानव-कल्याण कार्य का उसके कर्ता पर  'boomerang effect' या प्रत्यावर्ती बाण' की तरह अप्रत्याशित रूप से उल्टा असर भी होने की सम्भवना है।     

      इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि समाज सेवा अथवा उसी प्रकार की कोई अन्य कल्याण-कारी उद्यम या तो आपको सहायता पहुँचा सकता है या आपके साथ ही साथ सम्पूर्ण कार्य को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दे सकता है। उदाहरण के लिये संगीत एक अच्छी कला है। संगीत की साधना से आपको ईश्वरानुभूति भी हो सकती है, वहीं आप इससे स्वयं का नाश भी कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार समाज सेवा आपको उदार या उन्नत मनुष्य में परिणत कर सकता है, यह आपको चरित्रवान मनुष्य बना सकता है, इसके माध्यम से आप एक भद्र नागरिक बन सकते हैं, यह बहुत अच्छा है। किन्तु यदि आप सावधान नहीं रहे तो यही समाज सेवा आपका सर्वनाश भी कर सकता है। 

     अतः जब आप ऐसा सोच रहे हों कि मैं तो बड़ा अच्छा कार्य कर रहा हूँ (नारी जागरण का कार्य?) तो उस समय आपको अपने मन पर कड़ी दृष्टि रखनी चाहिए। एकदम निश्चिन्त कभी भी नहीं होना चाहिए। निरन्तर उचित सावधानी रखनी चहिए। इस बात को हर समय याद रखना चाहिए कि मैं जो सेवा कार्य कर रहा हूँ वह, किसी पर एहसान नहीं बल्कि अपने ही कल्याण लिये, अपने चरित्र को उन्नत बनाने के लिये ही कर रहा हूँ । मैं इसके माध्यम से अपने हृदय के प्रेम प्रवाह को सबके प्रति समान रूप से अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सकता हूँ; अब मेरा प्रेम अपने-पराये का भेद मिटाकर सबों को आत्मसात कर सकता है। समाज सेवा के प्रति यह नई दृष्टि मुझे सर्वग्रासी प्रेम, सहानुभूति, सेवापरायणता तथा आत्मत्याग के भाव से भर देगी।

     यह भी देखते रहिये कि अब तक आपने भय पर विजय प्राप्त किया है या नहीं, आपका आत्मविश्वास बढ़ा है या नहीं, आप निःस्वार्थी हुए हैं या नहीं, आपके मन से स्वार्थ की इच्छा का समूल नाश हुआ है या नहीं ? यदि समाज सेवा के कार्यों से आपमें यह सब सद्गुण बढ़ रहा हो तो बहुत अच्छी बात है। इसीलिये सेवा कार्य करते समय विशेष कर महामण्डल में तो इन सब बातों पर सतर्क दृष्टि रखनी ही चाहिए क्योंकि ऐसा 'नेता' (ब्रह्मविद) बनना और बनाना ही हमारा मुख्य कार्य है।

>>>4. प्रत्येक कार्य को (समाज-सेवा) ईश्वर की पूजा भाव से करने पर कर्म बाँधता नहीं है ! 

       प्रत्येक नेता को, विशेषकर हमारे संगठन के नेताओं को हर दृष्टि से शुद्ध और पवित्र बनना चाहिए तथा प्रत्येक कार्य को पूजा भाव से करना चाहिए । कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखनी चाहिए। जब हम किसी मंदिर में प्रवेश करते हैं तो अपने प्रत्येक कार्य में स्वच्छता और पवित्रता का ध्यान रखते हैं, जब हम वहाँ स्थापित मूर्ति या वेदी के ऊपर फूल चढ़ाते हैं तो हमलोग उन फूलों को बड़े ही आकर्षक ढंग से सजा-संवारकर रखने की चेष्टा करते हैं। उन फूलों को यूँ ही बेतरतीब ढंग से इधर-उधर बिखरा नहीं देते हैं । लेकिन सार्वजनिक पूजा के अवसरों पर हम अक्सर ऐसा ही करते हैं, यह अच्छी बात नहीं है। 

       आपको याद होगा कि प्रारंभ में श्रीरामकृष्णदेव की नियुक्ति दक्षिणेश्वर मंदिर में पुजारी के पद पर नहीं हुई थी बल्कि पहले वे वहाँ स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति के वेशकार थे। उनका कार्य पूजा की विविध सामग्रियों, कपड़ों, गहनों आदि से देवी का श्रृंगार करना तथा फूल-माला से सुन्दर सजावट करना था। प्रारंभ में वे केवल इतना ही कार्य करते थे।  पर इस कार्य को भी बहुत ही शुद्धता और पवित्रता के साथ करते थे कि, बाद में उनको पुजारी का कार्यभार सौंपा गया था।

        फिर पुजारी के रूप में वे अपने तथा निराकार की साकार प्रस्तर प्रतिमा के बीच की दूरी को तोड़ डालने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने जानना चाहा कि क्या माँ भवतारिणी एक प्रस्तर प्रतिमा मात्र हैं ? अब वह मूर्ति अधिक दिनों तक प्रस्तर प्रतिमा नहीं रह सकी, माँ जीवन्त हो उठी थीं, उसी मूर्ति में उन्होंने ईश्वर को खोज निकाला। यह पूजा की एक नवीन प्रणाली थी और उनका सम्पूर्ण जीवन ही पूजा बन गया।

 >>>5. नेतृत्व का रहस्य : प्रत्येक नर-नारी को भगवान समझकर उनसे निःस्वार्थ प्रेम करने की क्षमता।   

      मैं जब महामण्डल कार्यालय में जाता हूँ तो वहाँ मुझे (CINC नवनीदा को)  कई कार्य करने होते हैं। वहाँ की फाइलें देखता हूँ, कुछ पत्रों को टाईप करता हूँ तथा उसके ऊपर पता लिखकर डाक टिकटों को चिपकाता हूँ। मैं इन सभी कार्यों को मन में पूजा का भाव रखते हुए कर सकता हूँ। क्या आप भी इसी प्रकार की दृष्टि रखकर कार्य करने में सक्षम हैं ? यदि आप भी ऐसा ही कर सकते हैं तो आपको हर समय भाषण देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

    प्रत्येक कार्य या वस्तु में विद्यमान चैतन्य की अनुभूति कीजिए तथा उसी अनुभूति को संप्रेषित कीजिए। यह जान लीजिए की यह जगत् ज्यों का त्यों ईश्वर ही है- पूर्णमदः पूर्णमिदम् । सभी स्त्री-पुरूष तथा अन्य पदार्थ भी हमारे लिये ब्रह्म स्वरूप हैं । प्रत्येक मनुष्य के भीतर वही शुद्ध चैतन्य विद्यमान है, प्रत्येक रूप में पवित्रता ही साकार हो रही है। आपको प्रत्येक स्त्री-पुरुष में विद्यमान इस पवित्रता को अनुभव करने का अवश्य ही अभ्यास करना चाहिए। 

     आप अपने हृदय में दूसरों के प्रति इसी अनुभूति को जाग्रत करने में समर्थ होकर ही दूसरों को महान बना सकते हैं। नेतृत्व का वास्तविक गुण इसी क्षमता में सन्निहित है । हर समय उपदेश देते रहने से कुछ लाभ नहीं होगा, बस 'अनुभव' कीजिए । आप प्रत्येक वस्तु में उसी सत्ता की उपस्थिति का अनुभव करने में जितना अधिक सक्षम होते जायेंगे उतना ही अधिक आप अपनी अनुभूति को दूसरों में संप्रेषित भी कर सकेंगे तथा उसी परिमाण में वह अनुभूति दूसरों के हृदय में जाग्रत करा देने में भी समर्थ हो जायेंगे। जब आप यह जान जायेंगे कि सचमुच प्रत्येक मनुष्य के भीतर पहले से ही पूर्ण सत्य, पूर्ण पवित्रता, पूर्ण शक्ति तथा पूर्ण ज्ञान विद्यमान है, तब आप स्वयं यह मानने लगेंगे कि यह केवल शास्त्रों में लिखो बात ही नहीं है, यह बिल्कुल सत्य है, और तब आपके लिये प्रत्येक नर-नारी को भगवान समझकर प्रेम कर पाना संभव हो जायेगा । अपने हृदय में विद्यमान इसी अविभेदकारी प्रेम को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कीजिए। आप जैसे ही इस दृष्टि से दूसरों को देखना शुरू कर देंगे वैसे ही वही सत्ता आपमें तथा आपके द्वारा दूसरों में अभिव्यक्त होने लगेगी। यदि आप ऐसा कर पाने में सक्षम हैं तो आप एक सच्चे नेता हैं। 

      श्रीरामकृष्णदेव एक ऐसे ही नेता थे, स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे ही नेता थे तथा हममें से अनेक व्यक्ति (C-IN-C नवनीदा, पीदा, बिकास दा, तपनदा,.... )  निश्चित रूप से सच्चे नेता बन कर रहेंगे। केवल वे ही नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में ऐसा ही नेता बन सकने की संभावना है। जो भी दृढ़ संकल्प के साथ इस कार्य में लगेगा वह निश्चित ही नेता बन सकता है।

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🔱(3 ) सेवा करें और उच्च विचारों की प्रेरणा भरें / [Serve and inspire high thoughts] / नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

  (3 ) 

सेवा करें और उच्च विचारों की प्रेरणा भरें  

 Serve and Inspire 

[Serve and inspire high thoughts]

>>>1. महामण्डल के Be and Make आन्दोलन का नेता बनने का सौभाग्य -ठाकुर, माँ स्वामीजी की असीम कृपा से प्राप्त होता है।]  

         'नेता' बन जाने पर आप क्या चाहेंगे ? यदि आप यह चाहते हों कि दूसरे लोग आपकी सेवा करें तो जरा आप स्वयं से यह प्रश्न पूछ कर देखिए कि क्या आप स्वयं भी दूसरों की सेवा कर सकते हैं ? यदि 'हाँ', तो नेता बनने का पहला गुण आप में विद्यमान है। क्या आप दूसरों के सम्मान का ध्यान रखते हैं या दूसरों को सम्मान देते हैं ? क्या आप अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करते हैं ? यदि इसका उत्तर भी 'हाँ' है, तभी आपको दूसरों से सम्मान मिल सकता है और दूसरे भी आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करेंगे। महामण्डल के प्रत्येक नेता को इसी प्रकार  विनम्र, मधुरभाषी और 'अहंकार' रहित  बनने की चेष्टा करनी चाहिये। [अर्थात कच्चा 'मैं' को पक्का 'मैं ' में रूपान्तरित करने की चेष्टा करनी चाहिए।] हमलोगों को सदा श्रीरामकृष्ण, श्री श्री माँ सारदा एवं स्वामी विवेकानन्द के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए कि उन्होंने हम पर असीम कृपा करके हमें अपने अन्य युवा भाइयों का नेतृत्व करने का अवसर प्रदान किया है। यह हमारा सौभाग्य है कि उन्होंने हमें इस कार्य को करने का अवसर दिया है। लेकिन, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि केवल मैं ही दूसरों की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करूँगा, बल्कि हमें अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने अन्य भाइयों को भी नेता बन कर दूसरों की सेवा करने के लिए उत्साहित और अनुप्रेरित करना चाहिए। ताकि  वे भी अपना जीवन और चरित्र सुन्दर ढंग से गठित करें, अपनी भोगाकांक्षाओं और इन्द्रिय सुखों का त्याग करना सीखें तथा अपने जीवन को दूसरों की सेवा में समर्पित कर दें। आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है

>>>2. नेता को शब्दों से नहीं बल्कि अपने जीवन को ही जीवन्त उदाहरण स्वरूप गढ़कर, लोगों को अनुप्रेरित करना होगा।  

      महामण्डल के चरित्रनिर्माणकारी आन्दोलन से जुड़े हम सभी भाईयों में से जिन लोगों के अन्दर ये सभी गुण हों, और ऐसी इच्छा भी हो कि मैं स्वयं आगे बढ़कर इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिये नेतृत्व प्रदान करूंगा। और साथ ही साथ इस प्रकार का दृढ़ संकल्प भी हो कि मैं लोक-दिखावा करने या मंच पर 'boss' जैसा दिखने के लिए नहीं ; बल्कि  चुप-चाप केवल दूसरों से अधिक सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करने की इच्छा से मैं इस कार्य को करूँगा। तो वैसे सभी भाई महामण्डल आंदोलन के सच्चे और विनम्र नेता बन सकते हैं। [जैसे ईश्वर पूरे जगत-ब्रह्माण्ड का संचालन करते हैं , किन्तु हर जगह दिखाई नहीं देते ?]

       हमलोगों को इस प्रकार से विचार करना चाहिये कि ठीक है मैं सेवा कर सकता हूँ, मैं किसी की थोड़ी सी सहायता कर सकता हूँ किन्तु, मुझे उतना ही करके क्यों सन्तुष्ट हो जाना चाहिए ? मैं स्वयं तो दूसरों की सेवा करूंगा ही साथ ही साथ अपने आस-पास रहने वाले कुछ अन्य लोगों को भी इसी राह पर चलने के लिये उत्साहित भी करूंगा। एवं इस कार्य को मैं केवल  शब्दों से न करके  प्रेमपूर्ण नेतृत्व क्षमता का एक जीवंत उदाहरण (living example) बनकर अपने जीवन-गठन के माध्यम से दूसरों के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करूँगा जिससे वे स्वतः यह समझ लेंगे कि मैं किस पद्धति को अपनाकर अपना चरित्र गठित करने में सफल हुआ हूँ।   मैं अपने जीवन को ही उदाहरण स्वरुप बनाकर यह समझाने की चेष्टा करूंगा कि सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास को मैंने किस प्रकार अर्जित किया है, मैंने अपनी स्वार्थपरता का त्याग करना कैसे और कहाँ से सीखा ? सभी प्रकार के क्षुद्र भोगाकांक्षाओं की बलि चढ़ा देने की सामर्थ्य और क्षमता मुझे कैसे प्राप्त हुई ?  अब मैं अपने मन को कुछ हद तक ही सही पर नियंत्रित कर पाने में कैसे सफल हुआ हूँ ? दूसरों के दुःख-कष्टों को अपने दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करना मैंने कैसे सीख लिया ?

      अपने जीवन की व्यक्तिगत उपलब्धि को आचरण में उतार कर दूसरों को यह सब उपाय समझा पाने में सफल हो सकने वाले नेतृत्व की ही आज हमें आवश्यकता है।  ऐसे ही नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अर्जित करने के लिये हम सभी सदैव प्रयत्नशील रहेंगे। छोटी सी संख्या तक सीमित रहते हुए चन्द लोगों की सेवा करके ही हम संतुष्ट होकर बैठ नहीं जायेंगे, या दूसरे उपायों से रिलीफ-वर्क जैसी हल्की-फुल्की सहायता करके ही चुपचाप बैठे नहीं रहेंगे। 

>>>3. ठाकुर-माँ -स्वामीजी के जीवन और उपदेशों से प्रेरणा लेकर अपना जीवन-गठन करने से वैसा जीवन उदाहरण स्वरुप, विश्व मानव-कल्याण की बलिवेदी के लिए नैवेद्यस्वरूप बन जाता है।  

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।

वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥

गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जानते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है। किन्तु गुरु तो इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।

      हमलोगों को भी 'नेता' बनना चाहिए तथा जिस पद्धति #1 से स्वामीजी ने अपने अनुयायियों को 'शिष्य' नहीं बनाकर 'नेता' बना दिया उसी पद्धति का हमें भी अनुसरण करना चाहिए। सामान्यतः जिस तरह लोग दूसरों की सेवा करते हैं उस प्रकार की सेवा स्वामीजी ने भी बहुत 'से लोगों की थी। किन्तु इससे भी कई गुना अधिक महत्वपूर्ण सेवा उन्होंने दूसरों के मन में ऐसे सुन्दर - सुन्दर प्रेरक विचारों को संप्रेषित करके की थी जिससे कि उनका जीवन इस सीमा तक रूपान्तरित हो गया कि अब उनको पहचानना भी कठिन था । उन विचारों से बहुतों का जीवन मानव कल्याण की बलिवेदी के लिये नैवेद्यस्वरूप हो गया, उन विचारों ने उन्हें भारतमाता के लिये 'निवेदित' मनुष्य में परिणत कर दिया। हमलोगों में भी दूसरों के जीवन को इसी प्रकार नैवेद्यस्वरूप गढ़ देने की क्षमता होनी चाहिए । नेतृत्व का यही मौलिक सिद्धान्त है

[पद्धति #1 : जिस श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति (Be and Make 'Leadership' training method) द्वारा स्वामी जी ने अपने  अनुयायियों को (मारग्रेट नोबल) 'शिष्य' नहीं बनाकर "नैवेद्यस्वरूप नेता " (भगिनी निवेदिता) बना दिया था- कैप्टन सेवियर को 'C-IN-C नवनीदा बना' दिया था ;.....  उसी पद्धति का अनुकरण हमें भी करना चाहिये।]  

>>>4. 

       हमारे युग के एक  ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक  (British biologist) सर जुलियन हक्सले [1887- 1975 ) कहते हैं कि जिस प्रकार 'भौतिक जगत् का विज्ञान' (Science of Physical World) होता है ठीक उसी तरह 'अन्तर जगत् का विज्ञान' (Science of Internal World) भी होता है। जिस प्रकार भौतिक पदार्थों तथा प्राकृतिक ऊर्जा के कुशल उपयोग तथा प्रबन्धन के लिये 'यांत्रिकी विज्ञान' होता है, ठीक उसी प्रकार अन्तः प्रकृति की शक्तियों तथा आन्तरिक पदार्थों को भी संचालित करने तथा उपयोगी बना लेने की अभियांत्रिकी है। 

     जिस प्रकार हम बाह्य प्राकृतिक संसाधनों की अभियांत्रिकी सीखकर उसको अपने लिये उपयोगी बना लेते हैं उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान प्रचुर संसाधनों को उपयोगी बनाना भी हम सीख सकते हैं। जैसा कि आप सभी जानते हैं स्वामीजी ने भी "अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति दोनों के ऊपर विजय" प्राप्त करने का परामर्श दिया है। जिस प्रकार बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिये विज्ञान, तकनीकी और अभियांत्रिकी है उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान संसाधनों को मानवोपयोगी बना लेने वाला विज्ञान भी है,  जिसे सर जूलियन हक्सले ने 'Science of Human Development' कहा है। अतः 'पूर्ण मनुष्य' बनने के लिये हमलोगों को केवल बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने वाला विज्ञान ही नहीं पढ़ना होगा बल्कि हमें उस अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने वाले विज्ञान (Science of Human Development) को भी सीखना होगा जिसे 'हक्सले का ट्रांस-मानवतावाद' कहा जाता है। अल्बर्ट आइन्स्टीन ने इन दोनों विज्ञानों को Science न कहकर ''Two religions'' कहा है। 

>>>5 . मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने लिए विज्ञान (अपरा विद्या)  और धर्म (परा विद्या) दोनों जरुरी हैं 

       मुण्डकोपनिषद में एक प्रसंग आता है कि आज से हजारों सा पहले शौनक नाम के एक युवा महर्षि थे, जो एक बड़े विश्वविद्यालय (ऋषिकुल) के अधिष्ठाता भी थे । वे शास्त्रविधि के अनुसार हाथ में समिधा लिये श्रद्धापूर्वक अपने गुरू महर्षि अंगिरा के पास आये और उन्होंने विनयपूर्वक पूछा-

“कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति । "

(मुण्डकोपनिषद 1:1:3 ) 

अर्थात् हे भगवन्! क्या जान लेने पर 'इदं सर्वं' यह जगत-ब्रह्माण्ड सब कुछ (भी वही ब्रह्म है ! यह सत्य) निश्चयपूर्वक जाना हुआ हो जाता है ? कृपया बतलाईये कि उसे कैसे जाना जाये ? इस प्रकार का प्रश्न पूछे जाने पर उनके गुरू उत्तर में कहते हैं- "द्वे विद्येवेदितव्ये ।"

      "शौनक ! ब्रह्मविद/ ब्रह्मज्ञ महर्षियों का कहना है कि मनुष्य के लिये जानने योग्य दो विद्याएँ हैं- एक 'परा' और दूसरी 'अपरा' । तुम इस 'अपरा विद्या' (Science of External World) को सीखकर इस भौतिक जगत् के बारे में सब कुछ जान सकते हो तथा एक 'परा विद्या' है जिसके द्वारा तुम आन्तरिक जगत् के बारे में भी सब कुछ जान सकते हो। 

        हमारे प्राचीन युग के ऋषि दो प्रकार की विद्या या Science को सीखने का परामर्श देते हैं तो आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन दो विद्याओं की बात न कहकर दो धर्मों को जानने की बात कहते हैं। एक को वे 'Cosmic Religion' या ब्रह्माण्डीय धर्म कहते हैं जिसके द्वारा हमें इस अभिव्यक्त जगत् के बारे में पता चलता है और दूसरे को वे 'Religion of Internal World' या आन्तरिक जगत् का धर्म कहते हैं। 

       इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी का अन्त आते-आते विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) एक-दूसरे के बिल्कुल निकट आ पहुँचे हैं। जबकि लगभग 100 वर्ष पहले ही स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि भविष्य में विज्ञान तथा धर्म में कोई भी भेद नहीं रहेगा, दोनों एक समान ग्रहणीय माने जाएंगे और हाथ से हाथ मिलाकर दोनों आपस में सहयोगी होकर आगे बढ़ेंगे। ठीक ऐसा ही घटित होने वाला है। जब हम वैज्ञानिक संगोष्ठियों में प्रचलित आधुनिक शोध पत्रों से परिचित होने की चेष्टा करते हैं तो यही बात हमारे समक्ष और अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। 

       आधुनिक विज्ञान अब और अधिक दिनों तक सच्चे धर्म से (यानि एकत्व की अनुभूति से) संघर्ष नहीं कर पायेगा; और ठीक उसी तरह धर्म को भी विज्ञान का विरोधी नहीं रहना चाहिए । जिस प्रकार हमारे भौतिक जीवन को सुख-सुविधा पूर्ण बनाने के लिये- 'विज्ञान' जरुरी है उसी प्रकार हमारे आन्तरिक जीवन में सुख-शांति लाने के लिये 'धर्म' या अध्यात्म भी आवश्यक है।

>>>6.  

        हमलोग जैसा कि मानते/विश्वास करते  हैं, मनुष्य पंचतत्वों के मेल से बना, केवल एक भौतिक देह ही नहीं है, इसी मानव शरीर में पंचतत्वों से भिन्न कोई अन्य वस्तु भी है। उस अति मूल्यवान् 'अन्य वस्तु' को हम तभी जान सकते हैं जब हमारे पास 'आन्तरिक जगत्' को जानने का विज्ञान (Western Science) और धर्म (Eastern Mysticism-भारतीय योग-विद्या) दोनों में समन्वय हो ।

        इसी कारण हमारे नेतृत्व में इतनी क्षमता अवश्य रहनी चाहिए कि आधुनिक जीवन शैली में पले-बढ़े युवाओं को भी वह धर्म और विज्ञान के इस समन्वय से परिचित करा देने में समर्थ हो। क्योंकि इन दोनों विज्ञानों को जान लेने के बाद ही वे सच्चे शक्तिशाली कार्यकर्ता बन सकते हैं, जिनके पास शारीरिक क्षमता के साथ दूसरों के दुःखों को हृदय में अनुभव करने की संवेदना भी रहेगी, तथा इतना प्रखर मस्तिष्क भी होगा जिससे वे दूसरों के दुःखों को दूर करने का उपाय खोजकर उसको दूर करने में समर्थ होंगे। इस प्रकार की मानसिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ऐसे नेता जहाँ कहीं भी जायेंगे, वहाँ के कुछ युवाओं को एकत्र कर उनके भीतर इन्हीं सब प्रेरणादायी विचारों को भरेंगे।

>>>7.    

         सामान्यतः आजकल के युवाओं के जीवन का कोई निर्धारित उद्देश्य नहीं होता है, उन्हें अपने जीवन का एक उद्देश्य निर्धारित कर लेने के लिये उत्साहित करना चाहिए। उनके पास मनुष्य जीवन का कोई दर्शन या जीवन दृष्टि नहीं होता है । प्रायः अधिकांश युवा कभी यह जानने का प्रयास नहीं करते कि यह जीवन है क्या ? इसे महामूल्यवान् क्यों कहा गया है ? वे समझते हैं कि यह बना बनाया मिला है, इसको और कुछ बनाने - सँवारने की आवश्यकता नहीं है। वे ऐसा मानते हैं कि यह जीवन बस यूँ ही आकस्मिक संयोग से प्राप्त हो गया है और हमें इसका भरपूर उपयोग कर लेना चाहिए। उनमें से अधिकांश युवाओं के लिये जीवन का भरपूर उपयोग करने का अर्थ भी केवल इन्द्रियों के उपभोग तक ही सीमित रहता है। ये शरीर और इन्द्रियाँ हमें बहुत सुख देती हैं, अत: किन-किन विषयों से हमें बहुत सुख मिलता है, उसकी खोज की जाये और उनका भरपूर मजा लिया जाये! बस इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है ! किन्तु ऐसा सोचना निरा पागलपन है! अज्ञान है! मूर्खता है!

      महामण्डल के 'मनुष्य बनो और बनाओ वेदान्त नेतृत्व/शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा (Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) के प्रशिक्षण में प्रशिक्षित भविष्य में जो नेतृत्व उभर कर सामने आयेगा,  वह इस मूर्खता के मकड़जाल में फंसे इन युवाओं को उससे बाहर खींच निकालेगा। वह युवाओं का मार्गदर्शन करेगा, ज्ञान के आलोक में जीवन के महत्व को समझाने के लिये उन्हें मनुष्य जीवन के लक्ष्य के विषय में बतायेगा । वह युवाओं को बतलायेगा कि यह जीवन यूँ ही नष्ट करने के लिए नहीं मिला है। इसके पीछे एक महान उद्देश्य, महान संभावना छिपी हुई है। वह मनुष्य योनि में ही उपलब्ध होने वाली महान संभावनाओं का सही चित्र युवाओं के समक्ष रखेगा।

           स्वामीजी मोहनिद्रा में निमग्न युवाओं को झकझोरते हुए कहते हैं-" उठो ,जाग्रत हो जाओ। हे महान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, यह मोह तुम्हें नहीं भाता। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी समझते हो ? हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ , अपना स्वरुप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो , यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने दुर्बल समझते हो , यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है।"  तुम सबों के भीतर जो अनन्त संभावनाएँ छुपी हुई हैं, वे असीम हैं। एक बार यदि यह सत्य समझ में आ गया और यदि तुम उन संभावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये प्रयासरत हो गये तो तुम भी इस मनुष्य जीवन का अर्थ जान जाओगे । जब तुम मनुष्य जीवन की महिमा को जान जाओगे तब तुम्हें जीवन से प्रेम हो जाएगा। तब तुम सचमुच इस मानव जीवन का आनन्द उठाने में समर्थ हो जाओगे । यदि तुम पूर्ण मनुष्य बन सके तो उससे जो आनन्द प्राप्त होगा, उसकी तुलना में इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सारे आनन्द एकदम तुच्छ लगने लगेंगे।  उस परम आनन्द को प्राप्त करने का मार्ग बिल्कुल विज्ञान सम्मत प्रणाली पर आधारित है। यदि तुम आज से ही इस वैज्ञानिक पद्धति को सीखने का प्रयत्न प्रारंभ कर दो तो तुम भी उन्नत हो सकते हो, तुम स्वयं को विकसित कर सकते हो तथा अपने मानव जीवन का पूरा मूल्य प्राप्त कर सकते हो

>>>8

     अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल (1833-1899) ने एक बार स्वामीजी से कहा था- "हम पाश्चात्य वाले इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत् को छोड़कर अन्य किसी वस्तु जगत् को सत्य नहीं समझते, अतः हमारा विश्वास है कि इस से जितना अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है उसे प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। अतः हम इस संतरे (जगत्) को निचोड़कर जितना निकल सके उसका रस निकाल लेना चाहते हैं।" इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- "हाँ हम भारतीय भी संतरे को निचोड़कर उसका रस पीना चाहते हैं । किन्तु, हमलोग आपकी अपेक्षा इस जगत् रूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्कृष्ट प्रणाली जानते हैं जिससे हमलोग अधिक रस प्राप्त करते हैं। 

        क्योंकि हम भारतवासी यह अच्छी तरह जानते हैं कि हमलोग केवल यह नश्वर देहमात्र नहीं हैं, हम तो अजर, अमर, अविनाशी आत्मा हैं। चुँकि , हम जानते हैं कि हम मरणधर्मा शरीर मात्र नहीं हैं; इसीलिए हमें रस निचोड़ने की कोई जल्दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ कि भय का कोई कारण नहीं है अतएव आनन्दपूर्वक रस निचोड़ता हूँ ।  इसीलिये हमलोग सभी नर-नारियों से प्रेम कर सकते हैं। सभी हमारे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं। मनुष्य को भगवान समझकर उनके प्रति प्रेम का भाव रखने में कितना आनन्द है । जगत् रूपी संतरे को इस तरह से निचोड़कर देखिये- अन्य प्रकार से निचोड़ने पर आपको जितना रस प्राप्त होता होगा, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पायेंगे। रस की एक बूँद भी व्यर्थ न जाएगी।"

>>>9. 

        किसी अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था- "तुम पाश्चात्य अज्ञेयवादी संतरे को निचोड़ रहे हो और हम भारतीय आम को निचोड़ते हैं ।" परन्तु संतरे के साथ आम की तुलना करने का क्या अभिप्राय था, इस पर उन्होंने कहीं प्रकाश नहीं डाला है। शायद स्वामीजी के कथन का अभिप्राय यह रहा होगा कि प्रत्येक फल में कुछ सारहीन पदार्थ भी रहता है, जिसको हमें फेंक देना चाहिए। हम जानते हैं कि आम में एक कड़ी सी गुठली भी होती है। अतः आप आम को निचोड़कर आम का रस जरूर निकाल लीजिए, परन्तु; उसके भीतर जो गुठली बची रह गयी है, उससे रस निकालने की चेष्टा व्यर्थ है । अतः उस निस्सार पदार्थ को बाहर फेंक सकने का साहस भी आपमें अवश्य रहना चाहिए।

      इसी प्रकार हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा है जो सरस है, मधुर है, सुस्वादु है, अच्छा है तथा कल्याणकारी है। उस मधुर रस का पान अवश्य कीजिए । परन्तु इसी के साथ कुछ अन्य पदार्थ भी हैं जो कि कूड़े करकट की तरह निरर्थक हैं, तुच्छ हैं- उनको मुख में डालने का प्रयास मत कीजिए। यदि आप आम की तरह उसकी गुठली को भी दाँतों से काटने का प्रयास करेंगे तो उसका स्वाद अच्छा नहीं लगेगा, मुख कसैला हो जाएगा। उसी तरह आपको इतना जरूर जान लेना चाहिए कि इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के बाद इसके किस रस का पान करना है और किस रस को निस्सार समझकर सदा के लिये त्याग देना है । परन्तु; हममें से अधिकांश लोग तो अब भी आम की कड़ी गुठली को ही चबाने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि हमें आम के सच्चे स्वाद का कुछ पता ही नहीं है। हमें उसके वास्तविक रस को पीना चाहिए, परन्तु हमें उसका कुछ पता ही नहीं है। 

         अब, यहीं विवेक-विचार करना जरूरी हो जाता है। आपके सामने उपभोग के लिये जो भी वस्तु आ जाये, उसको वैसे ही निगलने मत लग जाइये। बल्कि उपभोग में लाने के पहले श्रेय - प्रेय का विवेक कर लीजिए, आपके समक्ष जो वस्तु रखी है, वह संपूर्ण रूप से आपके स्वास्थ्य के अनुकूल ही हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। अतः उसके केवल उसी अंश को ग्रहण कीजिए जो पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्द्धक हो। कुछ खाद्य पदार्थों में ऐसे-ऐसे विषाणु भी मिले हो सकते हैं जो शरीर के अन्दर पहुँचकर विष उत्पन्न करने लगें । अतः उन विषोत्पादक वस्तुओं का सेवन करना बंद कीजिए। जो स्वास्थ्यकर पदार्थ हैं, केवल उन्हें ही ग्रहण कीजिए।  जो पदार्थ केवल प्रारंभ में ही सुखकर लगते हों परन्तु, बाद में पीड़ादायक हों या कल्याणकारी न हों उनका त्याग करना चाहिए ।

       हम सभी लोग सुख पाना चाहते हैं, परन्तुः सच्चा सुख क्या है ? इसे नहीं जानने के कारण हम अक्सर 'सुख' के आवरण में छुपे घोर दुःख को ही पाते हैं। हमें इसी भूल से बचाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण गीता में परामर्श देते हैं कि हमलोगों को उपभोग करने से पहले ही जरा ठहर कर धैर्य के साथ विवेक का प्रयोग करके यह जान लेना चाहिए कि कौन सा सुख सच्चा सुख नहीं है। 

          सुख तीन प्रकार के होते हैं- सात्विक सुख, राजसिक सुख तथा तामसिक सुखसात्विक सुख प्रारम्भ में विष के सदृश लगता है परन्तु परिणाम में अमृत तुल्य है, अमृत तत्व को दिलाने वाला है। कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जो शुरू में चबाते समय स्वादिष्ट नहीं लगती या तो कसैली लगती हैं या उनका स्वाद अच्छा नहीं लगता परन्तु जब आप उन्हें चबाकर पचा लेते हैं तो आपको वही सच्ची पौष्टिकता भी प्रदान करती हैं, जैसे, आँवला और हर्रे/ईमली  । इनका नाम आपने अवश्य ही सुना होगा। जब आप इन्हें अपने मुख में डाल कर चबाना शुरू करते हैं तो पहले-पहल उनका स्वाद बिल्कुल अच्छा नहीं लगता किन्तु यदि थोड़ी देर चबा लेने के बाद एक गिलास पानी पी लिया जाये तो मुँह का स्वाद भी बदल जाता है और यह शरीर के लिये लाभकारी भी होता है। इस प्रकार से श्रेय- प्रेय का विवेक करके श्रेय को ही ग्रहण करने से सात्विक सुख प्राप्त होता है।

       उसी प्रकार राजसिक सुख, वह सुख है जो आरंभ में तो बड़ा ही स्वादिष्ट या सुखकर अनुभव होता है किन्तु, बाद में बहुत दुःखदायी होता है जैसे दाद-खुजली[ दाद- खुजाने का आनन्द परमानन्द की तरह होता पर बाद में महापीड़ा होती है।यह खुजलाते समय तो सुखकर लगता है किन्तु उसका अन्तिम परिणाम पीड़ादायक होता है। वैसे ही ईमली का नाम सुनते ही मुख में पानी आ जाता है किन्तु, खाने पर उसका परिणाम शरीर के लिये बिल्कुल अच्छा नहीं होता। जो सुख प्रारंभ और परिणाम दोनों में बुद्धि को मोहग्रस्त करता है जो सुख निद्रा, आलस्य और व्यर्थ की चेष्टाओं से उत्पन्न होता है वह सुख तामसिक सुख कहलाता है ।

        विवेक-प्रयोग के महत्व के बारे में कुछ नहीं जानने के कारण हममें से अधिकांश लोग सामान्यतः तामसिक सुखों में ही अपना सुख खोजते हैं। स्वार्थपरता को कम करते जाने से ही हमारा मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। अतः श्रेय-प्रेय का विवेक सीखकर अभ्यास करने से हमारी स्वार्थपरता दूर हो जाती है। केवल अपने क्षुद्र सुखों को पूरा करने के लिये जीवन धारण करना क्षुद्र स्वार्थपरता ही नहीं अपितु देवदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर उसको व्यर्थ में नष्ट करने जैसा भी है । महामण्डल के नेता अपने आस - पास रहने वाले भाईयों के बीच इन्हीं प्रेरणादायक सुन्दर तथा उदार विचारों को अपने जीवन को ही उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत कर समझाने का प्रयत्न करते हैं ।

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बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

🔱(2) 'मृत्युंजय -प्रलयंकर नेतृत्व सम्बन्धी अवधारणा तथा उसका जीवन्त उदाहरण : / The concept of 'Mrityunjay-Prayankar leadership and its living example: / 'Western Science and Eastern Mysticism ' >( ∞ - ∞ = ∞ )>" मृत्युंजय -मृत्युञ्जय = मृत्युंजय "नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 [2]

नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका जीवन्त उदाहरण 

[Concept of Leadership and its living example ]

[>>>1. राजनीति के क्षेत्र में दिखाई देने वाले नेता, क्या आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं? 

        नेतृत्व के सम्बन्ध में हमें स्वयं अपनी एक धारणा बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व की आवश्यकता होती है, यहाँ तक कि (संयुक्त) परिवार के अन्दर भी । यदि हमारा नेता अर्थात घर का मुखिया योग्य होता है तो पूरा परिवार शांति और आनन्द से एकजुट रहता है तथा हर दृष्टि से समृद्ध होता रहता है। और ठीक यही स्थिति योग्य नेता के नेतृत्व में किसी समाज, कॉरपोरेट जगत  या संगठन की भी होती है।  राजनीति के क्षेत्र में दिखाई पड़ने वाले नेता इस प्रकार के योग्य या आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व नहीं करते। किन्तु, आजकल प्रायः सभी देशों में यह भ्रान्त धारणा प्रचलित है कि नेता केवल राजनीति के क्षेत्र में ही होते हैं।

         किन्तु यदि हम विश्व -इतिहास का सिंहावलोकन करें, तो पायेंगे कि केवल वैसे ही व्यक्तियों को मानव समाज का सच्चा नेता माना गया है जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी थी। वह विशिष्ट योग्यता थी , उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति। विशेषकर भारत में तो यही नेतृत्व की कसौटी रही है। यहाँ केवल उन्हीं को मानव समाज का पथ-प्रदर्शक नेता (Guide) माना गया है जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी अनिवार्य रूप से थी। वह विशिष्ट योग्यता थी, उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति। विशेषकर भारत में तो यही नेतृत्व की कसौटी रही है। यहाँ केवल उन्हीं को मानव समाज का नेता माना जाता है, जिनके पास आध्यात्मिक शक्ति (वेदान्तिक साम्यभाव) अनिवार्य रूप से हो। भारत भूमि पर मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही इस प्रकार के असंख्य नेता अवतरित होते रहे हैं, जिन्होंने न केवल भारत का, अपितु पूरी मानव जाति का मार्गदर्शन किया है

[>>>2.आदर्श नेतृत्व (Love Light-house) की कसौटी है- सांसारिक ज्ञान के साथ-साथ अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक शक्ति -समत्व बुद्धि  या 'एकत्व की अनुभूति' (feeling of oneness) का होना।  

              आज न्यूनाधिक हर जगह यह स्वीकार किया जाने लगा है कि  मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में, उसकी सच्ची उन्नति के लिये मानव सभ्यता को समृद्धि प्रदान करने में भारत का अंशदान प्रचुर रहा है। यह अंशदान भारत केवल इसी कारण कर सका है कि विगत कुछ हजार वर्षों में, भारत भूमि पर ऐसे महापुरुष अवतरित होते रहे हैं जो मानवजाति के सच्चे नेता थे। उन समस्त महापुरुषों में जो विशेषता अनिवार्य रूप से थी वह यह कि वे सभी आध्यात्मिक महापुरुष थे।

       परन्तु, इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि भारत केवल अध्यात्मविद्या में ही आगे था; अपितु भारत ने विभिन्न प्रकार के लौकिक विद्या जैसे विज्ञान, खगोल विद्या (Astronomy या ज्योतिष-शास्त्र) औषधि, गणित, शिल्प-कौशल , अभियांत्रिकी आदि में तो कम से कम 5000 वर्ष पहले ही यथेष्ट ज्ञानार्जन कर लिया था। इन सभी लौकिक विषयों का ज्ञान भारत के पास यथेष्ट था तथा दैनंदिन जीवन के हर कार्य क्षेत्र में उनका उपयोग भी किया जाता था। किन्तु, इन सबके अतिरिक्त भारत की जो सनातन विशिष्टता # है, वह यही है कि भारत वर्ष सदा से परा विद्या या आध्यात्मिक ज्ञान-सम्पन्न नेताओं की जन्मस्थली भी रहा है। 

      यही वह कारण है जिसके चलते उन महापुरुषों ने अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा मानव जाति की न केवल भौतिक उन्नति के लिए ही मार्गदर्शन किया, वरन उचित दिशा में जीवनपुष्प के प्रस्फुटन में भी सच्चे पथ-प्रदर्शक बने रहे हैं। तथा स्वामीजी यह विश्वास करते थे कि यह प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हो गयी है। यह "Be and Make" प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी और भारत सदैव मानव जाति का सच्चा पथ-प्रदर्शक नेता बना रहेगा 

आलासिंगा पेरुमल को 31 अगस्त 1894 को लिखित पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " समग्र जगत ज्ञानालोक के लिये लालायित है, उस ज्ञानालोक को प्राप्त करने के लिये उत्सुकतापूर्ण दृष्टि से जगत हमारी ओर देख रहा है। एकमात्र भारत के पास ही ऐसा ज्ञानालोक विद्यमान है जिसकी कार्य शक्ति न तो इन्द्रजाल में है और न छल ही में , वह तो सच्चे धर्म के मर्मस्थल -उच्चतम आध्यात्मिक सत्य (योग-विद्या, राजयोग) के अशेष महिमामन्वित उपदेशों में प्रतिष्ठित है। जगत को इस तत्व की शिक्षा प्रदान करने के लिए ही प्रभु ने इस जाति को विभिन्न दुःख-कष्टों  के भीतर भी  आज तक जीवित रखा है। अब उस वस्तु को देने का समय उपस्थित हुआ है। हे वीरहृदय युवको, तुम यह विश्वास रखो कि अनेक महान कार्य करने के लिये तुम लोगों का जन्म हुआ है। कुत्तों की आवाज से न डरो, यहाँ तक कि यदि आकाश से प्रबल वज्रपात भी हो तो भी न डरो , उठो -कमर कसकर खड़े होओ - कार्य करते चलो। "] 

       [अन्यत्र उन्होंने कहा था - "भारतवर्ष का पुनरुत्थान होगा, पर वह शारीरिक शक्ति से नहीं , वरन आत्मा की शक्ति द्वारा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं , वरन शान्ति और प्रेम की ध्वजा से ... मैं अपने सामने यह एक सजीव दृश्य अवश्य देख रहा हूँ कि हमारी यह वृद्ध माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवन-पूर्ण और पूर्व की अपेक्षा अधिक महामहिमान्वित होकर विराजी है शान्ति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो !.....एक नवीन भारत निकल पड़े -निकले हल पकड़कर , किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ ,मोची, मेहतरों की झपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से , हाट से, बाजार से । निकले झाड़ियों, जंगलों , पहाड़ों पर्वतों से। " [एक नवीन भारत एक साथ निकल पड़े Sensex market  के 1200 करोड़ डीमैट अकाउंट से और हथिया नक्षत्र में गया के कहाँर-माँझी, कुम्हार-यादव, महतो-भुइयाँ की झोप-ड़ियों से।]

[>>>3.]  एमाउरी डी रेनकोर्ट के ' The Eye of Shiva' और फ्रिटजॉफ कॉपरा की पुस्तक The Tao of Physics के अनुसार पाश्चात्य विज्ञान (western science, Modern Physics या Quantum Physics) अब पूर्वी रहस्यवाद (eastern mysticism-ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या वेदान्तडिण्डिम) के निकट आता जा रहा है।  

        आज यदि हमलोग सभी देशों के तथा भारत के प्रबुद्ध वर्ग के मस्तिष्क में तरंगायित होने वाले विचार -प्रवाहों का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि प्राचीनकाल की ही तरह आज भी पूरी मानव जाति ज्ञान, प्रकाश तथा मार्गदर्शन के लिए भारत की ओर ही निहार रही है यहाँ तक कि सामान्य जनों की अपेक्षा बीसवीं सदी के वैज्ञानिकगण शायद इस बात पर अधिक विश्वास करने लगे हैं कि केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों का समन्वय कर ही विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है और उसे अक्षुण्ण रखा जा सकता है।

         एक आधुनिक  फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट [Amaury De Riencourt ( 1918- 2005)] की पुस्तक ' The Eye of Shiva' # का अध्यन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक भारत के महान आध्यात्मिक सिद्धान्तों से लेखक कितना अधिक अभिभूत है। इस पूरी  पुस्तक में उन्होंने बार-बार श्रीरामकृष्ण के उस अत्यन्त सरल पर अद्भुत जीवन तथा सन्देश का उल्लेख किया है , जिसको स्वामी विवेकानन्द ने अपने पराक्रम और शौर्य के द्वारा पूरे विश्व भर में फैला दिया है। 

       एक अन्य परमाणु वैज्ञानिक फ्रिटजॉफ कॉपरा हैं जिन्होंने पूर्व के समस्त आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर शोध करते हुए भगवान बुद्ध  के उन सिद्धान्तों का मानवता के प्रति योगदान का विशेष अध्यन किया है, जो वेदान्त के सिद्धान्तों से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। यही वैज्ञानिक कॉपरा अपनी अद्भुत पुस्तक The Tao of Physics #2  में स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक ज्ञानयोग की कुछ उक्तियों को यह दिखाने के लिए उद्धृत करते हैं कि आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) अब बहुत स्पष्ट रूप से (Eastern mysticism , योग-विद्या) या पूर्व के रहस्यवादी सिद्धान्तों निकटतर होता जा रहा है। 

[>>>4.] भारत के सनातन धर्म या वेदान्त और विज्ञान में कभी कोई विरोध था ही नहीं, जो धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरते उनका यथाशीघ्र संसार से विदा हो जाना अच्छा है।   

      किन्तु, वे लोग जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द का अध्यन किया है , उन्हें यह ज्ञात है कि स्वामीजी ने तो बहुत पहले ही घोषणा कर दी थी कि विज्ञान और धर्म में अथवा सच्ची अध्यात्म विद्या (चार महावाक्य आदि) में कभी कोई विरोध था ही नहीं। केवल पश्चिमी जगत के इतिहास में ही विज्ञान और धर्म के बीच यह विरोध हमें दिखाई देता है, क्योंकि पाश्चात्य जगत के सारे धर्म न्यूनाधिक पौराणिक मान्यताओं तथा विश्वासों (सेमेटिक पुराणों में धरती चपटी और सूर्य घूमता है के सिद्धांतके ऊपर ही आधारित हैं। जबकि दूसरी ओर भारतीय इतिहास में पौराणिक युग से ही धर्म अर्थात अध्यात्म सम्पूर्णतः वैज्ञानिक प्रणाली के ऊपर ही आधारित रहा है। वैसे कुछ लोग जो भारत के आध्यात्मिक सिद्धान्तों से (व्यावहारिक वेदान्त से)  पूर्व परिचित नहीं रहे हैं, उन्हें यह बात थोड़ी अजीब सी लग सकती है, किन्तु इसमें कुछ भी अजीब नहीं है। 

         स्वामी विवेकानन्द जी तो अत्यन्त ही उच्च स्वर में यह घोषणा करते हैं कि यहाँ धर्म के क्षेत्र में भी प्राचीन युग से ही विज्ञान सम्मत प्रणाली का उपयोग होता आया है। वे जोर देकर कहते हैं - " जब हम धार्मिक सिद्धान्तों को परखने के लिए विज्ञान-सम्मत प्रणाली का उपयोग करें और यदि विज्ञान की कसौटी पर परखते हुए किसी धर्म की बुनियाद/स्तम्भ  ही धाराशायी होने लगें तो मानव जाति के लिये अच्छा यही होगा कि उस धर्म को ही अलविदा कह दिया जाये। " उन्होंने तो यह भी कहा है कि " और यह जितनी शीघ्रता से हो सके उतना ही अच्छा है; क्योंकि कोई भी सिद्धान्त यदि विज्ञान-सम्मत प्रणाली और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित न हो तो वह अधिक दिनों तक न तो टिक सकता है और न उसके द्वारा मानव जाति का सच्चा कल्याण ही हो सकता है। "  वे पुनः कहते हैं कि भारत में धर्म का प्रादुर्भाव जगत  में क्रियाशील नियमों का वैज्ञानिक पद्धति से निरीक्षण, परीक्षण और तुलनात्मक विश्लेषण करने से ही हुआ है। इस कसौटी पर खरा सिद्ध होने के बाद ही इन नियमों का दैनन्दिन जीवन में उपयोग किया जाता है। अतः ये नियम या धर्म पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस प्रकार गवेषणा करने को ही वैज्ञानिक प्रणाली कहते हैं। वे कहते हैं - " इस धर्म की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हमें सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण के जीवन में ही देखने को मिलती है। और इसको वे एक वैज्ञानिक धर्म की संज्ञा देते हैं। " 

[>>>5.]  आत्मसाक्षात्कार की  विज्ञानसम्मत प्रणाली :  

       श्रीरामकृष्णदेव एवं नरेन्द्रनाथ (बाद के स्वामी विवेकानन्द) के बीच जब पहली बार वार्तालाप हुआ था तब , आपस में विचारों का आदान -प्रदान करते समय स्वामी विवेकानन्द (उस समय के नरेन्द्रनाथ दत्त) ने प्रश्न किया था - " महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? " और इस सीधे प्रश्न का उत्तर भी बहुत ही सरलता से और पूरी दृढ़ता के साथ देते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा था - " हाँ, मैंने देखा है और जिस प्रकार मैं तुम को देख रहा हूँ उससे भी स्पष्टता से मैं ईश्वर को देखता हूँ। और केवल इतना ही नहीं ; यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ। " यह बिल्कुल एक विज्ञान-सम्मत प्रस्ताव है। गुरु के द्वारा अपने जिज्ञासु शिष्य को दिया गया यह प्रस्ताव - यही प्रकट करता है कि ईश्वर को देखने की कोई न कोई विज्ञानसम्मत प्रणाली अवश्य है ; जो भी व्यक्ति उस प्रणाली का अनुसरण करेगा उसको भी वही परिणाम प्राप्त होगा ! उसमें कभी अन्तर नहीं हो सकता। यदि तुम स्वयं भी उसी लक्ष्य का संधान करो तो तुम्हें भी वही वैज्ञानिक प्रणाली प्राप्त होगी , यहाँ पर वह लक्ष्य है (इन्द्रियातीत-ऊर्ध्वमूल) सत्य का साक्षात्कार, जो कि ईश्वर दर्शन करने के सामान है।   

[>>>6.] आत्मा का अनुसन्धान प्रयोगशाला में सम्भव नहीं है, पाश्चात्य विज्ञान को भी [Eastern Mysticism] की शरण में आना ही पड़ेगा !]   

        हमें अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता के महत्व को अवश्य समझ लेना चाहिये, क्योंकि मनुष्य केवल दो पैरों वाला एक बुद्धिमान पशु ही नहीं है, अथवा मनुष्य केवल आर्थिक जीव या केवल एक राजनीतिक कीट भी नहीं है , वास्तव में मनुष्य तो एक आध्यात्मिक प्राणी है। इसीलिए यदि मनुष्य को उन्नत होना है, तथा अपनी अनन्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करना है, अपने वास्तविक स्वरुप को प्रकट करना है तो उसे 'आध्यात्मिक प्रणाली' के आश्रय में जाना ही पड़ेगा। अन्य कोई रास्ता नहीं है। 

       जिसको हमलोग अभी धर्मनिरपेक्ष या सांसारिक ज्ञान [ अपरा विद्या ] कहते हैं, वह भी आध्यात्मिक विद्या [ परा विद्या ] का ही एक अंग है। इस विषय को हमें भली-भाँति समझ लेने का प्रयास अवश्य करना चाहिये। क्योंकि एक ही आध्यात्मिक सत्ता हर वस्तु में परिव्याप्त है जिसे हम आत्मा या ब्रह्म कहते हैं। विज्ञान उस सत्ता का अनुसन्धान अपनी प्रयोगशाला में कभी नहीं कर सकता , किन्तु; आधुनिक विज्ञान भी क्रमशः इस सत्य के निकट आता जा रहा है। यह एक दिन इसके अत्यन्त निकट तक भी पहुँच सकता है किन्तु; उस सत्य का साक्षात्कार करने के लिये विज्ञान को अपने पंचेन्द्रिय ग्राह्य माध्यम से इसका संधान करने की जिद छोड़कर अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक प्रणाली के आश्रय में आना ही पड़ेगा। [आत्मा तक पहुँचने के लिये ?] विज्ञान को अपनी गाड़ी (चन्द्रयान) का त्याग करके 'आध्यात्मिक यान' में कूदना ही पड़ेगा। विज्ञान और धर्म अर्थात अध्यात्म निकटतर होते जा रहे हैं। 

>>>7. आत्मा में विद्यमान अनन्त प्रेम या परम्'आनन्द  के उत्स को उद्घाटित कर साम्यावस्था प्राप्त होने पर ही आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता प्राप्त होती है।   

       बीसवीं शताब्दी के अन्त तक तो ये एक दूसरे के बिल्कुल निकट आ ही चुके हैं , किन्तु; इक्कीसवीं शताब्दी में घटित होने वाली सर्वाधिक महान घटना , जिसका पूर्वानुमान स्वामीजी ने बहुत पहले ही कर लिया था, यही होगी कि अब विज्ञान और धर्म यानि आध्यत्मिकता के बीच एक अत्यन्त प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा। हममें से प्रत्येक मनुष्य को अपने यथार्थ स्वरुप पर (अन्तर्निहित आत्मा या ब्रह्म की पूर्णता और दिव्यता पर) श्रद्धा और अटूट विश्वास रखना ही होगा। हम कोई क्षुद्र पदार्थ नहीं हैं। स्वरूपतः हम सभी अत्यन्त महान हैं, हम सबों में अनन्त/अत्यन्त  सम्भावनायें अन्तर्निहित हैं , उसे/ उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये हम सबों को अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये।

     हमारी यथार्थ सत्ता में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम/आनन्द (Bliss) का एक स्रोत (source-उत्स) विद्यमान है। हमें अपने इसी जीवन में उस स्रोत को अवश्य उद्घाटित कर लेना चाहिये। क्योंकि पथ-प्रदर्शक नेताओं का जीवन उनके उनके आस-पास रहने वाले लोगों को प्रेरणा, उत्साह और शक्ति से भर देने में सक्षम /समर्थ होना चाहिए। 

         इसीलिए हमें नेतृत्व के सम्बन्ध में इस अनिवार्य क्षमता को ठीक से आत्मसात कर लेना चाहिये। यदि हम नेतृत्व के इस क्षमता को ठीक से आत्मसात कर लेते हैं,  तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति ऐसे नेतृत्व को कार्यरूप देने में समर्थ हो जायेंगे। (ऐसा हो जाने के बाद ही)  इस आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता में उन्नत हो जाने के बाद ही हम अपने आस-पास रहने वाले भाइयों की सेवा करने के योग्य हो सकते हैं , और समाज के प्रति हमारी सच्ची सेवा भी यही होगी। 

>>> 8. नेतृत्व के लिये हमें The Holy Trio के जीवन से अपना जीवन-गठन करके उनके ही जैसे 'ब्रह्मविद'  या प्रेम-स्वरुप जीवनमुक्त- शिक्षक बन जाने की शिक्षा प्राप्त करनी होगी।]   

       अतः [आध्यात्मिक] नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता अर्जित करने के लिये सबसे प्रमुख आवश्यकता यही है कि हमें स्वयं में अन्तर्निहित सारवस्तु [शाश्वत-नश्वर विवेक,  विवेकज- आनन्द, विवेकानन्द या अजर-अमर अविनाशी आत्मा] के बारे में अनुभूतिजन्य धारणा अवश्य रखनी चाहिए। हमें इस देव-दुर्लभ 'मानव-शरीर' का मूल्य अवश्य समझ लेना चाहिये। तथा अपने चरित्र के उत्तम गुणों को अभिव्यक्त करने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहते हुए ऐसा जीवन जी कर दिखाना चाहिए जो दूसरों के लिए उदाहरण स्वरुप हो ! "हम अपना ऐसा सुन्दर जीवन किस प्रकार गठित करें कि, हमसे मिलने के बाद प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा लगे कि - आज इनसे मिलकर मेरा जीवन तो धन्य हो गया !" ऐसा जीवन भला हम किस प्रकार गठित कर सकते हैं ? हमें इसकी शिक्षा मानव जाति के सच्चे पथ-प्रदर्शक नेताओं के जीवन से (बेलपत्र जैसे पवित्र त्रिमूर्ति -ठाकुर, माँ, स्वामीजी के जीवन से) ही ग्रहण करनी होगी। या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के जीवन से हम इस विद्या को सीख सकते हैं - या इसकी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। अतः यदि हम लोग भी उनके जैसे पथ-प्रदर्शक नेता (Guide) बनना चाहते हों, तो हमलोगों को भी अपने भीतर -'3P' ('3P' -Purity, Patience and Perseverance) प्रेम, पवित्रता और धैर्य जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए अवश्य ही विशेष ध्यान देना होगा। 

>>>9. वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण (अनुभवजन्य विवेकज-ज्ञान के आलोक में) देने के लिए : दुर्गा-पूजा के अवसर पर आयोजित मेले में आसक्ति के परे जाया जा सकता है, किन्तु माँ के राज्य में रहने तक , यानि शरीर के जीवित रहने तक अहं का नाश संभव नहीं है किन्तु माँ दुर्गा की कृपा से उस अहं को  दास मैं बनाकर रखा जा सकता है।  ]

 सर्वप्रथम हमें अपने मन को अवश्य नियंत्रण में रखना पड़ेगा, अपनी इन्द्रियों को अवश्य वशीभूत करना होगा , लालच को कम करते हुए , भोगाकांक्षाओं को /भोगों में आसक्ति को अवश्य सीमित कर लेना होगा। इसके साथ ही साथ हमारे ह्रदय में (निःस्वार्थ) प्रेम की भी अवश्य ही वृद्धि होनी चाहिए, अपने ह्रदय का विस्तार करना चाहिए । ... "ह्रदयवान व्यक्ति 'मक्खन' पा लेते हैं और कोरे बुद्धिमानों के लिए सिर्फ 'छाछ' बच जाती है।" अतएव हमें अपने मन से समस्त स्वार्थपूर्ण विचारों, समस्त घृणा , सारी ईर्ष्या को दूर हटा देना होगा।  (अर्थात सर्वेभवन्तुः सुखिनः की प्रार्थना, मनःसंयोग और स्वाध्याय की सहायता से हमारे ह्रदय में -कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं  'वसुधैवकुटुम्बकम की भावना' का विकास होना चाहिए।इसी प्रकार (3P से प्रेरित) पवित्र जीवन-गठन करते हुए, अपने सद्गुणों को विकसित करते हुए , जब हम उन्हें अपने विचारों, वचनों तथा कर्मों के द्वारा अपने दैनन्दिन जीवन और आचरण में अभिव्यक्त करने लगेंगे; केवल तभी हमलोग भी अच्छे पथ-प्रदर्शक नेता बन पायेंगे और अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी - जीवनगठन के लिए अनुप्रेरित करने में सक्षम हो पायेंगे। 

 >>>10.Foresight and Farsighted Leadership: पूर्वाभास (Premonition) और दूर दृष्टि-सम्पन्न, दिव्य या अतीन्द्रियदर्शी  नेतृत्व Clairvoyant Leadership !

      हमारे अन्दर चिन्तन द्वारा स्पष्ट धारणा बनाने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। जो दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हैं, उनके लिए यह गुण अत्यन्त आवश्यक है। उनको दूर-दृष्टि रखनी चाहिये। उन्हें यह देखने में समर्थ होना चाहिए कि हमारा भविष्य कैसा हो सकता है, हमलोग एकजुट होकर सभी कार्यों को किस प्रकार सम्पादित कर सकते हैं। हम आज अपने लिए जैसा भविष्य चाहते हैं , उसको पाने के लिए हमारी योजनायें कैसी हों ; जिससे कि हम अपनी समस्त ऊर्जा और शक्ति लगाकर उस स्वप्न को साकार कर सकें। हमें केवल अपने व्यक्तिगत भविष्य को ही उज्ज्वल बनाने का प्रयास न करके अपने देश के भविष्य को भी उज्ज्वल बनाने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्यवश आज हमारे समक्ष विशेष कर भारत में ऐसा नेतृत्व कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। 

       जबकि स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार यह कहा था कि- भारत अतीत में बहुत महान था , किन्तु निश्चित तौर उसका भविष्य और भी महान होने वाला है। "  वे कहते थे -" मेरा यह दृढ़-विश्वास है कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा , जिसको उसने अभीतक स्पर्श भी नहीं किया है। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की उन्नति को देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट होंगे। " भारत का भविष्य ऐसी अपूर्व महिमा से मण्डित होगा कि उसकी तुलना में भूतकाल के सारे गौरव फीके पड़ जायेंगे तथा उसके सामने तुच्छ जान पड़ेंगे।  भविष्य के महिमामण्डित भारत के समक्ष पूर्वकाल के सारे गौरव गायों के खुर से बने निशान जितने छोटे दिखाई पड़ेंगे !

      विशेष तौर से भारत युवाओं के मन में भविष्य के भारत का ऐसा ही स्वप्न रहना चाहिए। स्वामीजी ने कहा था - " तुम जड़ (Matter) नहीं हो , जड़ तो तुम्हारा सेवक है। " इस कथन के मर्म से हम सभी (भावी नेताओं -Would Be Leaders) को अवश्य परिचित हो जाना चाहिए। हमें अपनी यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति की ओर सतत ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि हमें  सर्वप्रथम स्वयं यथार्थ मनुष्य [ब्रह्मविद मनुष्य] बनने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।  क्योंकि केवल तभी हमलोग अपनी आन्तरिक ऊर्जा स्रोत की सहायता से समाज की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकेंगे। 

>>>11 . राष्ट्रीय-चरित्र का निर्माण करने के लिये हजारों ब्रह्मविद (जीवन-मुक्त, प्रेम-स्वरूप) नेताओं की आवश्यकता देश के कोने-कोने में है। 

     समाज [के चरित्र] का वैसा रूपान्तरण केवल भारत के भावी सच्चे और चरित्रवान नेताओं के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है, और ऐसे ही [ब्रह्मविद ] नेताओं की आवश्यकता हमें हजारों की संख्या में है। ऐसे नेताओं की आवश्यकता केवल केवल देश या राज्य के राजधानियों में ही नहीं है, वरन हजारों की संख्या में इनकी आवश्यकता छोटे-बड़े शहरों, गाँवों, मुहल्लों तथा देश के कोने में है।  

       इसी प्रकार के प्रेममय जीवनमुक्त  नेताओं को उत्पन्न करना ही महामण्डल का उद्देश्य है, तथा छोटे पैमाने पर ही सही ; यह इसी दिशा में अग्रसर भी है। यदि भारत के कोने-कोने तक ये विचार फ़ैल जायें कि युवाओं चारित्रिक गुणों को विकसित कर, उन्हें शुद्ध और पवित्र जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित/ प्रशिक्षित किया जा सकता है। और वैसे प्रशिक्षित युवा केवल एक लक्ष्य " भविष्य का गौरव मण्डित भारत" के निर्माण के लिए एक मन-प्राण होकर यदि अपना चरित्र गठित करने के प्रयास में स्वयं लग जायें और दूसरों को भी इसके लिये प्रोत्साहित करने में समर्थ हों, केवल तभी भारत की सच्ची प्रगति हो सकती है ! 

          अभी तो हमने मशीनों को ही अपना भगवान बना लिया और स्वयं मशीनों के [यानि जड़ के] दास बन गये हैं। इतना ही नहीं, हमने स्वयं को भी एक हृदयशून्य मशीन के रूप में ढाल लिया है। हमने अपने यूनिवर्सिटियों में इस प्रकार के हृदयशून्य मशीनी मानवों का निर्माण किया है जो केवल लेना ही जानते हैं , किन्तु; देना नहीं जानते। हम सभी इस प्रकार के मशीनी मानव अर्थात 'रोबोट' बन चुके हैं , जो बड़े ही स्वार्थी हैं तथा भविष्य में घोर स्वार्थी होकर सर्वभक्षक राक्षस बन जाने की कामना रखते हैं। 

         यही कारण है कि आजादी के 61 वर्षों / 75 वर्षों के बाद भी भारत की सामान्य जनता दुःख और दारिद्रय से त्रस्त है। अब तो कम से कम उस कवि के करून -क्रन्दन को चारों ओर फ़ैल जाना चाहिए -" Make no more giants, God! But elevate the race. " - अर्थात हे ईश्वर ! अब और अधिक राक्षसों को पैदा मत करो बल्कि मानवता को उन्नत करो। पर केवल प्रार्थना करने से ही काम नहीं चलेगा; यह कार्य केवल तभी संभव हो सकता है , जब हम देश के कोने-कोने में, गाँव -देहातों में रहने वाले युवाओं को उसी प्रकार के 'नेता' [ विवेकानन्द जैसे Clairvoyant Leadership ' दिव्यदृष्टि -सम्पन्न ब्रह्मविद नेता] के रूप में गढ़ सकें, जिसकी हमने पहले चर्चा की है।  

     मोहनिद्रा में निमग्न, दुःख-दारिद्रय में पड़े करोड़ों नागरिकों वाले -[एक अरब 40 करोड़ की विशाल जनसंख्या वाले] इस महान राष्ट्र को केवल वैसे नेता ही उठा सकते हैं जो स्वयं जाग चुके हों। तथा 'महान लक्ष्य'- [ विश्व-कल्याण के लिए भारत के कल्याण का लक्ष्य] पाने के लिये दूसरों को प्राणों को न्योछावर कर देने की आज्ञा - देने के पहले ये नेता अपनी प्यारी मातृभूमि भारत माता की चरणों में अपना शीश [मिथ्या अहं] चढ़ा चुके हों।  केवल रटे-रटाये शब्दों द्वारा दूसरों को अनुप्रेरित करने की चालाकी छोड़कर वे अपने जीवन को उदाहरण स्वरुप बनाकर दूसरों को भी वैसा ही नेता बनने के लिए प्रेरित करेंगे। 

      वे प्रत्येक व्यक्ति में छुपी हुई शक्ति (?) को जगा देंगे। उनके ह्रदय से सभी प्रकार के भय (मृत्यु भय) और शंका को दूर हटाकर  पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने पैरों पर खड़ा होने का सामर्थ्य प्रदान करेंगे। जिससे कि वे जिन्होंने स्वयं को विभिन्न समस्याओं [ ऎषणाओं की दरिद्री] में उलझा लिया है , उस पर वे स्वयं निर्णय कर उससे बाहर निकल आयेंगे। इसके लिए जो सबसे आवश्यक है, वह है पहले स्वयं को यथार्थ मनुष्य (पूर्ण-ह्रदय ? ब्रह्मविद ?100 % निःस्वार्थी ?) बना लेना तथा दूसरों को भी मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करना। 

    इसी प्रकार क्रमशः हम उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह 'मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' आधारित है। हमें महामण्डल के आदर्श वाक्य Be and Make, अर्थात " मनुष्य बनो और बनाओ "  को अपने ह्रदय में सर्वोच्च स्थान देना होगा। शायद अपने देश और सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए इससे बढ़कर और कोई दूसरा कार्य हम कर भी नहीं सकते हैं।

     किन्तु, इस 'मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' को भली-भाँति समझ लेना भी आसान नहीं है। इसे सम्पूर्णता में देखने पर ही हमलोग यह समझ सकते हैं कि - हमारा यह आन्दोलन किस प्रकार हमें [पशुत्व से मनुष्यत्व में] उन्नत कराता हुआ, पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करा रहा है, इसका सारांश समझने के लिए अभी मानवता के इतिहास को लम्बी यात्रा करनी होगी। क्योंकि  मनुष्य की 'सम्भावना' ही (मानवमात्र में अन्तर्निहित सम्भावना ही),  सामान्य रूप से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती जा रही है और वह स्वतः ही #4  पूर्णत्व की ओर आगे बढ़ रही है।  

[#4  Man is marching towards perfection!  अर्थात विभिन्न भूराजनैतिक अनिश्चितता और  भूराजनैतिक घटनाओं के माध्यम से मनुष्य स्वतः ही पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होता जा रहा है। (Geopolitical uncertainty and Geo-political events : का तात्पर्य -रूस-यूक्रेन, हमास -इस्राइल युद्ध का कारण पूर्वी एशिया आर्थिक गलियारा? East Asia Economic corridor' के साथ हथिया नक्षत्र शिविर में गया के सेंट्रल मिनिस्टर का आगमन, बेलूरमठ में गंगा-आरती और सिनेमा-जगत में Guide की वहीदा रहमान को दादा-साहब फालके अवार्ड आदि घटनाओं से है।)]

>>>12. बिना ईश्वर की कृपा के 'पूर्णत्व'/या 'दिव्यता' के मर्म को नहीं समझ सकते: [ अवतार वरिष्ठ ठाकुर-माँ की कृपा के बिना, कोई भी  जिज्ञासु या सत्यार्थी इस परम् सत्य या पूर्णत्व -पद के मर्म को स्वयं नहीं समझ सकता। इसीलिए  गुरु-परम्परा में प्रशिक्षित विवेकानन्द  से (प्रलयंकर शिवजी, या C-IN-C नवनीदा से)-  "मृत्योर्मा अमृतं गमय्"  की प्रार्थना, शिव के तीसरे नेत्र को खोल कर 'मृत्युंजय' पद देने की  प्रार्थना करना अनिवार्य है !] 

     'पूर्णत्व' का अर्थ क्या है , इसके अभिप्राय को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत कठिन है। हमारे शास्त्रों में 'पूर्णता' # 5 शब्द आया है। 

  ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥

कहा गया है 'पूर्णमदः' अर्थात् वह (अद:) ब्रह्म पूर्ण है। अर्थात् उस ब्रह्म के बाहर कोई वस्तु नहीं है; फिर उसके साथ ही कहा गया है - 'पूर्णमिदम्'; यहाँ इदम् का अर्थ है यह अभिव्यक्त जगत् अर्थात् यह जगत् भी पूर्ण है। कैसे ? क्योंकि वही पूर्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड में भी परिव्याप्त है। और 'पूर्णस्य पूर्णमादाय' कहने का तात्पर्य यह है कि यदि तुम स्वयं इस सत्य की अनुभूति कर सको कि वही 'पूर्ण' इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में ओत-प्रोत है तो फिर उस पूर्ण के बाहर शेष बचा क्या ? इसी को कहा गया - 'पूर्णमेवावशिष्यते'; अर्थात् तुम अब हृदय से यह अनुभव करो कि यहाँ जो कुछ भी जगत् के रूप में  दृष्टिगोचर हो रहा है वह भी ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है। 

[#5 = यह मंत्र  ईशावास्योपनिषद का शांति पाठ है, तथा बृहदारण्यक उपनिषद के पांचवें  अध्याय में भी दिया गया है।  (Coordinate Geometry) या निर्देशांक ज्यामिति का एक सूत्र भी है : infinity subtracted from infinity is undefined. because infinity is not a Real Number.

( ∞ - ∞ = ∞ )

अर्थ: यहाँ पूर्ण से तात्पर्य अनंत (infinite) या अथाह (immeasurable) से है। वह (अद:) परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से पूर्ण है। यह जगत भी पूर्ण है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है। ॐ त्रिविध ताप की शांति हो। अंत में तीन बार ‘शान्तिः’ का उच्चारण त्रिविध तापों के शमन हेतु किया गया है । साधारण गणित में हमे पढाया जाता है की शून्य से शून्य का जमा, घटा, भागाकार आदी सब का शून्य फल मिलता है ।

0+0 = 0 ; 0-0=0 ; 0÷0 = 0

बीजगणित मे समीकरण लिख सकते है । लेकिन शून्य की अनंतता की संकल्पना समझायी नही जाती। इसीलिए अनंतता का प्रतिक चिन्ह " ∞ " इस प्रकार लिखा जाता है]

        मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी पूर्णता की अनुभूति कर लेना है। हममें से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में जितने सारे दुःख और थोड़ी सी खुशियों की अनुभूति करता है वे सभी समग्ररूप से इसी दिशा में अग्रसर होने में सहायता करती हैं। इसी 'पूर्णता' के लक्ष्य तक पहुँच जाना ही मनुष्य के जीवन की सच्ची कहानी है, यही मानव जीवन का इतिहास है । परन्तु; हम इस सच्चाई से अनभिज्ञ हैं /यह जानते ही नहीं । इसीलिये प्रत्येक मनुष्य को सचेत रहकर, अपनी पूरी शक्ति से इसी पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। साधारणतया मनुष्य अज्ञान की अवस्था में ही रहता है, क्योंकि उसके हृदय में (बिना ठाकुर-माँ-स्वामीजी की कृपा के) सच्चे ज्ञान की ज्योति नहीं प्रकाशित हो सकती हैइसीलिए तो हम प्रार्थना करते हैं-

तमसो मा ज्योतिर्गमय् ,

असतो मा सद्गमय,

 मृत्योर्मा अमृतं गमय् ।

अर्थात् हे ईश्वर ! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें अविद्या या अज्ञान से निकाल कर सत्य के जगत् में ले चलो। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो ऐसा 'मृत्युंजय' ('मृत्यु को जीतने वाला'-शिव) हमें स्वयं बनना है तथा प्रत्येक व्यक्ति को इसी प्रगति के पथ पर (मृत्युंजय बनने और बनाने के पथ पर) अग्रसर होने में सहायता करनी है 

[मृत्युंजय पद में 'बहुव्रीहि' समास है। "अन्य पद प्रधानम् सः बहुव्रीहि’’ अर्थात् जिस समास में दोनों पद प्रधान नहीं होते हैं, और दोनों पद मिलकर किसी अन्य विशेष अर्थ की ओर संकेत कर रहे होते हैं। 'मृत्युंजय' का समास विग्रह 'मृत्यु को जीतने वाला' अर्थात शिव है।

     समय - समय पर धरती पर ऐसे मनुष्य (प्रलयंकर – प्रलय को करने वाला, मृत्युंजय शिव जिसे तीसरा नेत्र खोलने में समर्थ नेता) आते रहे हैं, जिन्होंने मनुष्यों को इसी शाश्वत प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराने के लिये ही अपना नेतृत्व प्रदान किया है। ऐसे देवमानवों को ही मानव जाति का सच्चा नेता कहा जाता है । परन्तु आज 'नेता' शब्द सुनने मात्र से ही हमारे भीतर वितृष्णा का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसका कारण यही है कि 'नेता' शब्द सुनते ही हमारे मन में किसी राजनीतिक नेता का चित्र उभर आता है, जिनका दर्शन हमें सभी समाजों में अक्सर होता रहता है। ऐसे नेता एक अलग प्रकार के झुण्ड का [भेंड़ों के झुण्ड का?] प्रतिनिधित्व करते हैं ।

>>>13. अवतारी नेतृत्व की अवधारणा (Concept of embodied leadership) :  

     परन्तु जब हम महामण्डल-आन्दोलन के 'नेता' के ऊपर चर्चा करते हैं तो हमारी आँखों के सामने वैसे नर- पशुओं का चेहरा नहीं उभरता है। जब यहाँ हमलोग 'नेता' या 'नेतृत्व' शब्द के वास्तविक व्याख्या को ठीक से समझ लेते हैं तो हमारी आँखों के समक्ष एक 'नर-देव' रूपी नेता का चित्र (The Holy Trio का चित्र ) उभरता है जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। 'विष्णु सहस्त्रनाम' में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है । 

       निःसंदेह श्रीरामकृष्ण एक 'नेता' थे, बल्कि महान नेता (अवतार वरिष्ठ)  थे! स्वामी विवेकानन्द मानव जाति के महान नेताओं में से एक थे। यीशु क्राईस्ट, पैगम्बर मोहम्मद आदि भी मानव जाति के महान नेता थे। इसी श्रृंखला में भगवान बुद्ध, श्रीचैतन्य, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि नेता थे।  इसीलिये जब हमलोग महामण्डल में नेतृत्व या नेता के ऊपर चर्चा करते हैं तो हमारी आँखों के सामने ऐसे ही नेताओं की छवि रहती है। हम सबों के मन में इन्हीं महान नेताओं के छोटे से अंश जैसा भी, बन पाने की आकांक्षा अवश्य रहनी चाहिए। यही है नेतृत्व की अवधारणा। 

    नेतृत्व की इसी अवधारणा को हममें से प्रत्येक को अपने हृदय में अवश्य धारण करना चाहिए तथा इसके एक छोटे अंश के रूप में ही सही, पर वैसा ही बन जाने की इच्छा को अपने भीतर पुष्ट और बलवती बना लेना चाहिए।  हममें से जिन लोगों ने भी स्वामी विवेकानन्द के साहित्य से थोड़ा भी परिचय प्राप्त किया है उन्हें यह ज्ञात होगा कि स्वामीजी बार-बार कहते हैं कि न तो घोर दरिद्र मनुष्य, और न अत्यधिक धनी मनुष्य ही समाज की कोई सच्ची भलाई कर सकता है। उसी प्रकार न तो खूब पढ़े-लिखे तथाकथित 'उच्च शिक्षित' मनुष्य, न ही अज्ञानी मनुष्य समाज की सच्ची भलाई कर सकते हैं। 

>>>14. दोनों अतियों के मध्य-बिन्दु पर स्थित मनुष्य ही पूर्ण निःस्वार्थी नेता बन सकता है : 

     हर स्थान पर विवेकानन्द जी ने यही कहा है कि धन और शिक्षा की दृष्टि से न तो समाज के निम्नतम स्तर पर रहने वाले और न ही उच्चतम स्तर पर रहने वाले - मनुष्य ही कभी समाज की कोई सच्ची भलाई कर सकते हैं;  बल्कि हर स्थान पर उन्होंने इन दोनों अतियों के मध्य रहने वाले मनुष्यों पर ही विशेष जोर दिया है। क्योंकि अतियों में जीनेवाले मनुष्य कभी भी पूर्णतया निःस्वार्थी (ईश्वर या देव-मानव) नहीं बन सकते हैं। वे कभी दूसरों के कल्याण के लिये अपने-आप को समर्पित करने के लिये आगे नहीं आ सकते हैं। क्योंकि दुर्भाग्यवश जो लोग बिल्कुल अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं [अपने को केवल शरीर (M/F) समझते हैं] , वे कभी भी मनुष्य या समाज की भलाई के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर देने के महान विचार को अपने अन्तःकरण में धारण ही नहीं कर सकते हैं।  इस तथ्य को ठीक से समझ लेने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमारे इस चरित्र निर्माण आन्दोलन को सफल बनाने में केवल मध्यमस्तर पर रहनेवाले व्यक्ति ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं

      मध्यम स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की गणना हमें इसी दृष्टिकोण को अपने समक्ष रखते हुए करनी चाहिए। सामान्य तौर पर अत्यधिक धन-सम्पत्ति तथा शिक्षा (ऊँची डिग्री, ऊँचा-पद) किसी भी मनुष्य में अहंकार या 'मद' उत्पन्न कर देता है। जिनको यथार्थ शिक्षा [गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में ]  प्राप्त हो गयी है, केवल वे ही जानते हैं कि 'मद' को किस प्रकार 'दम' में परिवर्तित किया जाता है।  महाभारत में कहा गया है कि 'मद' या भोगाकांक्षा को आत्मसंयम में रूपान्तरित करने में समर्थ होने पर ही लोक-कल्याण के लिये हृदय में शक्ति या प्रेम प्रवाहित होने लगता है।

>>> 15. स्वामीजी की क्रान्तिकारी योजना महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में अंकित है 'Be and Make ' (अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ) और 'चरैवेति, चरैवेति।'    

       यदि हमारे हृदय में भी अनन्तज्ञान और अनन्त प्रेम का एक भी स्फुलिंग उपस्थित न हो तो हमारे मन में कभी दूसरों की सहायता करने की शुभ और महान इच्छा का उदय हो ही नहीं सकता है । स्वामी विवेकानन्द द्वारा मद्रास के विक्टोरिया हॉल में दिये गये भाषण का शीर्षक है 'My Plan of Campaign ' ( मेरी क्रान्तिकारी योजना।) स्वामीजी के मन में एक कार्य योजना थी और महामण्डल प्रारंभिक तौर पर भारत के युवाओं के बीच उसी योजना को क्रियान्वित करने के लिये विगत 41/ 56  वर्षों से प्रयत्न कर रहा है। 

    आखिर वह योजना है क्या ? वह है समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नत मनुष्य बनाना । प्रत्येक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, तथा आर्थिक दृष्टि से उन्नत करने के साथ ही साथ उसके हृदय को इतना उदार बना देना कि उसमें निजी सुख भोग की इच्छा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी भी जगह न रहे। भोगाकांक्षा की गंध भी उस हृदय में शेष नहीं बचे। वहाँ केवल एक अति विशाल सहानुभूतिसम्पन्न उदार हृदय के साथ एक प्रखर मस्तिष्क भी हो । 

     हृदय स्वस्थ और दृढ़ होने के साथ-साथ फूलों जैसा कोमल भी होना चाहिये । "वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि" - अर्थात् अपने संकल्प को पूरा करने के लिये हृदय वज्र की तरह कठोर, किन्तु, अन्य व्यक्तियों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का अनुभव करने के लिये पुष्प के समान कोमल भी होना चाहिये । बिल्कुल इसी तरह का पूर्ण हृदय मनुष्य (Heart Whole Man)  हमलोगों को बनना होगा । यदि हमलोग चरित्र के विशुद्ध गुणों से विभूषित मनुष्य बन सकें तो हम भी अपने समाज में नेता के कर्त्तव्य को किसी न किसी रूप में निभा सकते हैं।

🔱>>>16. मनुष्य-जीवन सार्थक कैसे होता है ? सनातन धर्म का रहस्य :  

       हमलोग जिस समाज में रहते हैं वहीं, अन्य लोगों के साथ-साथ युवाओं का एक बड़ा वर्ग भी रहता है, जिन्हें इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ रखा गया है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा संभावनाओं को समझ लेने से उनको कितना बड़ा लाभ हो सकता है। उनके पास जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, मनुष्य जीवन के बारे में कोई निजी दृष्टिकोण भी नहीं है, जीवन का कोई उद्देश्य भी नहीं है । अतः हमलोग उन्हें नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। 

         हम उनके पास जाकर उनसे ( मध्यम वर्ग के कुछ इच्छुक और जिज्ञासु भाइयों से) कहेंगे-भाईयों, आओ देखो, यह मनुष्य जीवन अति मूल्यवान् है । शायद आप नहीं जानते हैं कि इस मानव शरीर को प्राप्त करके अपने जीवन का सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जाय? आप अपने जीवन को थोड़ा-थोड़ा करके सुन्दर ढंग से गठित कर लेने को बिल्कुल उत्सुक नहीं हैं। यदि आप भी अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का प्रयास करते तो यह जीवन अत्यन्त सुन्दर हो जाता। सुन्दर ढंग से गठित मनुष्य जीवन से बढ़कर महामूल्यवान सम्पदा इस जगत् में और कुछ भी नहीं है, जिसके स्वामी आप भी बन सकते हैं। आपको तो पहले से ही  यह देव दुर्लभ मानव तन प्राप्त हो चुका है।  यदि आप इसको सुन्दर ढंग से गठित करने के प्रति जागरूक होकर इसे विकसित करते हैं तथा इसे क्रमशः दिन पर दिन निर्मित करते हैं तो आप इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ या फल प्राप्त कर सकते हैं। 

          इस मानव तन से प्राप्त किया जा सकने वाला वह सर्वश्रेष्ठ लाभ या उपयोग क्या है ? वह यही है कि हमलोग अपने पूरे जीवन को दूसरों के कल्याण के लिये न्यौछावर कर दे सकते हैं। इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ इस मानव तन से नहीं उठाया जा सकता है। यही वह 'परम वस्तु' (जन्मसाफल्यं) है जिसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है । 

                    श्रीमद्भागवत् में श्रीकृष्ण के मुख से एक अत्यन्त ही सुन्दर श्लोक निकला है। तरूण श्रीकृष्ण अपने गोप मण्डली के बीच नेता की भूमिका की लीला कर रहे थे। वे लोग गौएँ चराते हुए जंगल में बहुत दूर तक चले गए थे। दोपहर के समय एक वृक्ष की छाया में विश्राम करती हुई गायों की ओर इंगित करते हुए श्रीकृष्ण अपने मित्रों से कहते हैं- 

पश्यैतान् महाभागान् परार्थेकान्त जीवितान् । 

वात- वर्षा- ताप- हिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ।।

       मेरे प्रिय मित्रों! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं; इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई के लिये ही होता है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप, पाला सब कुछ सहते हैं, परन्तु हमलोगों की इन सबसे रक्षा करते हैं।

अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्। 

सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥ 

अहो मैं तो कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन धन्य है, सार्थक है, क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को अपना जीवन निर्वाह करने में सहायता मिलती है । जिस प्रकार किसी सज्जन व्यक्ति (धन्या महीरुहा #6)  के घर से कोई याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ न कुछ अवश्य प्राप्त होता है ।

पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।

गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥

ये वृक्ष तो इतने महान हैं कि कामना करने पर अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी गन्ध, गोन्द, राख, कोयला तथा कोपलों से भी लोगों की कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

एतावत् जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु ।

प्राणार्थैधियावाचा श्रेयं आचरणं सदा ।। 

इस प्रकार वृक्ष की उपमा द्वारा श्रीकृष्ण अपने मित्रों को अत्यन्त सरल और सुन्दर ढंग से मानव जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है, इसको समझाते हुए कहते हैं- मनुष्य जीवन की सार्थकता हमारे द्वारा अपने वचन से धन-सम्पत्ति से, विवेक विचार से, आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राण की आहुति देकर भी;  प्रत्येक शरीरधारी का कल्याण करने को तत्पर रहने पर निर्भर करती है। यही तो है सभी धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, धर्मों का वास्तविक रहस्य । धर्मों का सार तत्व भी यही है। इसी तथ्य को उजागर करते हुए महाभारत में भी कहा गया है- 

वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम् ।

 सर्वभूतहितं मैत्रयं पुराणं यतू जना विदुः । । 

- मुझे सनातन धर्म के सारतत्व का पता चल गया है ! वह क्या है ? वह है  सब जीवों का कल्याण, सबों के प्रति प्रेम ! यही तो है सनातन धर्म ! जो लोग यथार्थ धर्म का अनुभव कर चुके हैं या जिनको सच्चे धर्म का ज्ञान हो जाता है उनके लिये धर्म की परिभाषा यही होती है।

      सनातन धर्म के इस रहस्य को स्वयं अच्छी तरह से समझ लेने के बाद हमें अपने आस-पास रहने वाले भाई-बन्धुओं के हृदय में भी धर्म की इसी महान ज्योति को प्रज्वलित करने का प्रयत्न करना चाहिए । विशेष रूप से जो भाई महामण्डल आन्दोलन के सम्पर्क में आ चुके हों उन तक तो अवश्य ही ज्ञान के इस प्रकाश को पहुँचा देना चाहिए। 

        किन्तु यह कार्य हर किसी के द्वारा हो पाना संभव नहीं है हालाँकि ऐसा करने की इच्छा हर किसी के मन में रहनी चाहिए। किन्तु हर व्यक्ति विभिन्न कारणों से वैसा करने में समर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि हर व्यक्ति की मानसिक तैयारी तथा सच्ची शिक्षा द्वारा स्वयं की आध्यत्मिक उन्नति इस प्रकार की नहीं होती कि वह दूसरों को इस विषय में मार्गदर्शन दे सकने में सक्षम हो सके। कभी-कभी विभिन्न परिस्थितियाँ भी ऐसा करने में बाधक बन जाती हैं।

>>>17. रिलीफ-वर्क नहीं रुग्ण मन को स्वस्थ मन में बदलना सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा है।    

     इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति पथप्रदर्शक नेता की भूमिका को उचित तरीके से सम्पादित नहीं कर पाता है। किन्तु वे व्यक्ति, जिनके मन में नेता की भूमिका निभाने की व्याकुलता हो और परिस्थितियाँ भी इसकी अनुमति देती हों तथा वे जो इस भूमिका को निभाने में सक्षम हैं, यदि अपना जीवन उचित तरीके से गठित कर लें, यदि स्वयं मानव जाति के किसी सच्चे नेता के सांचे में ढल जायें तो निश्चित ही वे भी दूसरों के 'मन' को बदल डालने का कार्य कर सकते हैं।  यह समाज - सेवा अन्य किसी भी सेवा से अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि सच्चे नेता का कार्य रूग्ण मन को स्वस्थ मन में परिवर्तित करने का ही होता है। नेता का कार्य मुख्यतः दूसरों के मन पर कार्य करना ही होता है। 

        साधारण ढंग की समाज-सेवा जैसे भोजन, वस्त्र आदि को जरूरतमन्दों तक पहुँचा देने का कार्य तो सामान्य लोग भी करते ही रहते हैं। मैं भी चन्दा माँग कर दान सामग्रियों का संग्रह कर सकता हूँ, या मैं स्वयं भी धन अर्जित कर अपने धन और अन्य सामग्रियों को दूसरों में बाँट सकता हूँ। ऐसा करना अवश्य ही अच्छा है परन्तु, इससे भी बढ़कर अच्छा कार्य है- लोगों के 'मन' को ही उन्नत करने का कार्य, ताकि दूसरे लोग भी अपने मन में कुछ उच्च, महान तथा कल्याणकारी विचारों को धारण करने में समर्थ हो जायें। स्वामी विवेकानन्द ने इसी ढंग से कार्य करने की प्रेरणा दी है। उन्होंने कहा था -" जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र -प्रवर्तन कर दूँ. जो कि उच्च और श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वार द्वार पर पहुँचा दे। फिर स्त्री-पुरुषों को अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करने दो। "   स्वामीजी ने एक बार कहा था- "मेरे उपदेशों को उसके सच्चे अर्थ में समझो और उसी के आलोक में काम में लग जाओ । ... उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर लो। बड़ा कल्याण जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ है।"

         महामण्डल भी यही चाहता है कि स्वामीजी देखें कि हमने उनके उपदेशों/परामर्शों  को सुना है। उनके उपदेशों  को हम व्यवहारिक धरातल पर लायेंगे, हम अपने जीवन जीने के ढंग को  परिवर्तित कर लेंगे।  जगत् के कल्याण के लिये, भारत के उन करोड़ों दोन-दुखियों के प्रति जिनके लिये स्वामीजी आँसू बहाया करते थे, हम अपने जीवन को समर्पित कर देंगे।  यह कोई हँसी-खेल में लिया गया संकल्प नहीं है । यह एक अति आवश्यक पुकार है, जिसे सुनकर प्रत्येक युवा के हृदय में पीड़ा की लहर उठनी चाहिए | 

       स्वामीजी ने पहले भी हमें पुकारा था, वे अब भी हमें पुकार रहे हैं और तब तक पुकारते रहेंगे जब तक हम उनकी पुकार को सुन कर समझ न लें। उनकी पुकार को क्या हमें अनसुना करना चाहिए ? उन्होंने हमारा आह्वान करते हुए कहा था - "Let me be happy to see that you embrace death for the good of man" "मुझे यह देखकर प्रसन्न होने दो कि तुमने लोगों के कल्याण के लिये मृत्यु का भी वरण कर लिया है।" इसी से स्पष्ट हो जात है कि केवल साहसी व्यक्ति ही स्वामीजी के निकट पहुँच सकते हैं, उनकी पुकार सुन सकते हैं तथा उन्हें आश्वस्त करते हुए कह सकते हैं कि हाँ स्वामीजी ! हम आपका अनुसरण करने के लिये तैयार हैं।

>>>18 . पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बन जाना ही आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न नेतृत्व का रहस्य है। 

        स्वामीजी का अनुयायी होने का यह मतलब नहीं है कि हम उनका जन्मदिन धूम-धाम से मनाते रहें। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम जगह-जगह पर स्वामीजी की प्रतिमा या उनका मंदिर स्थापित करते रहें । इसका यह भी अर्थ नहीं है कि उनके जन्म दिवस के अवसर पर तथाकथित बड़े लोगों को बुलवाकर जनता को भाषण पिलवा दिया जाये। उनके अनुयायी बन का मतलब है हम अपने जीवन जीने के ढंग को ही परिवर्तित कर लेंगे। बिना कोई लोक-दिखावा किये, चुप-चाप अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करग लेंगे। अर्थात् स्वयं को चरित्र के गुणों से विभूषित करने का कार्य किसी पुरस्कार पाने के लोभ वश या धन्यवाद के दो शब्द सुनने की आशा से भी नहीं करेंगे। बल्कि अपना जीवन गठित करने का हमारा एकमात्र उद्देश्य होगा कि यह दूसरों के काम आ सके। 

      दूसरों के लिये सर्वोत्तम कार्य जो हम कर सकते हैं वह है लोगों के मन को उदार और सुन्दर विचारों से परिपूर्ण कर देना। स्वामीजी के विचारों को अभी तक हम ठीक से समझ नहीं सके हैं ; यह एक ऐसा सत्य है जिसे स्वीकार कर लेना कोई आसान काम नहीं है। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द जी को कोई व्यक्ति केवल अपनी बुद्धि के द्वारा ही नहीं समझ सकता है। स्वामीजी को समझना चाहते हों तो हमें अपने हृदय के द्वार को खोलना ही पड़ेगा । स्वामीजी यही तो  चाहते थे कि हम सभी 'पूर्णहृदय मनुष्य' बनें।

     वैज्ञानिक कथा-कहानियों में भविष्य के मानव की रुप-रेखा के बारे में ऐसा चित्रण अक्सर देखने को मिल जाता है कि भविष्य का मानव अपने मन के विकास की गति के कारण छाती की तुलना में काफी बड़े सिर वाला होगा । परन्तु; यदि स्वामीजी की दृष्टि से भविष्य के मानवों की आकृति देखने की चेष्टा करें तो भविष्य का मानव  बड़े सिर के साथ एक चौड़ी छाती वाला मनुष्य होगा, जिसकी छाती में एक विशाल हृदय भी होगा । भविष्य के मानव पूर्ण हृदयवान होंगे, जिनके हृदय में संसार के सभी मनुष्यों के प्रति सच्ची सहानुभूति होगी, जिसका कोई शत्रु नहीं होगा, सभी उसके मित्र ही होंगे। भविष्य के मानव अपने तथा जगत् के अन्य सभी वस्तुओं के बीच एकात्मकता का अनुभव करने में समर्थ होंगे। 

       हमें उसी तरह का मनुष्य अवश्य बनना है। वैसे यथार्थ मनुष्य ही मनुष्य जाति के नेता होंगे। मानव जाति को इसी तरह के नेतृत्व की आवश्यकता है और आज के भारत में भी इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नेताओं की आवश्यकता है। महामण्डल इस प्रकार के नेताओं का निर्माण करने का आन्दोलन है। इस आन्दोलन को प्रारंभ हुए अभी मात्र 56 वर्ष ही हुए हैं, तथा किसी राष्ट्र के जीवन में 56 वर्षों की क्या गणना है।  भारत को यदि पुनरूज्जीवित होना है तो इसे केवल अध्यात्म की शक्ति से ही पुनरूज्जीवित किया जा सकता है, और एक बार पुनः आध्यात्मिकता के प्रचण्ड ज्वार के फाटक को भगवान श्रीरामकृष्ण देव ने खोल दिया है। हम सबों को अध्यात्म के इस तीर्थ-क्षेत्र में अवगाहन करना चाहिए , क्योंकि अपने हृदय को उदार बना लेने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है।  स्वार्थपरता से दूर रहने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है । भोगाकांक्षा, इन्द्रिय भोगों से बचे रहने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है। इस विश्व के सभी मनुष्यों के प्रति प्रेम तथा परहित में सर्वस्व न्यौछावर कर देने की क्षमता के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है । 

             अतः आइये, हम सभी आध्यात्मिक मनुष्य बनें, हम सभी पूर्ण हृदयवान् मनुष्य बनें। आइये हमलोग प्रत्येक मनुष्य को इसी प्रकार से आध्यात्मिक मनुष्य | बनने के लिये अनुप्रेरित करें। हमलोगों को चाहिए कि हम विश्व के प्रत्येक मनुष्य तक इन्हीं महान् उदार तथा कल्याणकारी विचारों को पहुँचा दें। हमलोगों को भी इसी कार्य को सम्पादित करने में समर्थ नेता अवश्य बनना है।

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 [2]

नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका जीवन्त उदाहरण 

[Concept of Leadership and its living example ]

[>>>1. क्या राजनीति के क्षेत्र नेता आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं ? 




[>>>2. सांसारिक ज्ञान के साथ-साथ अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक शक्ति -समत्व बुद्धि  या 'एकत्व की अनुभूति' (feeling of oneness), का होना आदर्श नेतृत्व (Love Light-house) की कसौटी है !  





>>>3.आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न (अर्थात ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः विवेकज-ज्ञान सम्पन्न, समत्वबुद्धि या ब्रह्माण्डीय एकत्व के अनुभूति सम्पन्न) नेता को अपना जीवन अपरा विद्या (Western Science) और परा विद्या (Eastern Mysticism) में समन्वय का जीवन्त उदाहरण स्वरुप गठित करना होगा। फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट की पुस्तक ' The Eye of Shiva' एवं फ्रिटजॉफ कॉपरा की पुस्तक 'The Tao of Physics' - में भी कहा गया है कि -"क्वांटम भौतिकी  ब्रह्मांड की मौलिक एकत्व को प्रकट करती है।" (Quantum Physics reveals the fundamental unity of the universe) और आधार पर (Western Science) के साथ  (Eastern Mysticism) पूर्व की योगविद्या अर्थात  पूर्णमदः वाद >>" मृत्युंजय -मृत्युञ्जय = मृत्युंजय ", या आत्मा का रहस्य-वाद, ऊर्ध्वमूल अधोशाखा वाद, या सूफिज़्म में  समानता का अनुसन्धान किया जा सकता है। और इसी विश्वब्रह्माण्ड के साथ एकत्व की अनुभूति के आधार पर विश्व में स्थायी शान्ति स्थापित की जा सकती है। ]




>>>4. वेदान्त के महावाक्य और पाश्चात्य विज्ञान में कभी कोई विरोध था ही नहीं। इसीलिए स्वामीजी वेदान्त को वैज्ञानिक धर्म कहते हैं जिसका जीवन्त उदाहरण  श्रीरामकृष्ण के जीवन से देखने को मिलता है।]  




>>>5. विवेक-दर्शन या आत्मसाक्षात्कार की  विज्ञानसम्मत प्रणाली  





>>>6. आत्मा का अनुसन्धान प्रयोगशाला में सम्भव नहीं है, पाश्चात्य विज्ञान को भी [Eastern Mysticism] की शरण में आना ही पड़ेगा !]   






>>>7. आत्मा में विद्यमान अनन्त प्रेम या परम्'आनन्द  के उत्स को उद्घाटित कर साम्यावस्था प्राप्त होने पर ही आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता प्राप्त होती है।   








>>> 8. नेतृत्व के लिये हमें The Holy Trio के जीवन के साँचे में अपना जीवन-गठन करके उनके ही जैसे 'ब्रह्मविद'  या प्रेम-स्वरुप जीवनमुक्त- शिक्षक बन जाने की शिक्षा प्राप्त करनी होगी।]   







>>>9. वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण (अनुभवजन्य विवेकज-ज्ञान के आलोक में) देने के लिए : दुर्गा-पूजा के अवसर पर आयोजित मेले में आसक्ति के परे जाया जा सकता है, किन्तु माँ के राज्य में रहने तक , यानि शरीर के जीवित रहने तक अहं का नाश संभव नहीं है किन्तु माँ दुर्गा की कृपा से उस अहं को  दास मैं बनाकर रखा जा सकता है।  ]





 >>>10.Foresight and Farsighted Leadership: पूर्वाभास (Premonition) और दूर दृष्टि-सम्पन्न, दिव्य या अतीन्द्रियदर्शी  नेतृत्व Clairvoyant Leadership !





>>>11 . राष्ट्रीय-चरित्र का निर्माण करने के लिये हजारों ब्रह्मविद (जीवन-मुक्त, प्रेम-स्वरूप) नेताओं की आवश्यकता देश के कोने-कोने में है। 






>>>12. बिना ईश्वर की कृपा के 'पूर्णत्व'/या 'दिव्यता' के मर्म को नहीं समझ सकते: [ अवतार वरिष्ठ ठाकुर-माँ की कृपा के बिना, कोई भी  जिज्ञासु या सत्यार्थी इस परम् सत्य या पूर्णत्व -पद के मर्म को स्वयं नहीं समझ सकता। इसीलिए  गुरु-परम्परा में प्रशिक्षित विवेकानन्द  से (प्रलयंकर शिवजी, या C-IN-C नवनीदा से)-  "मृत्योर्मा अमृतं गमय्"  की प्रार्थना, शिव के तीसरे नेत्र को खोल कर 'मृत्युंजय' पद देने की  प्रार्थना करना अनिवार्य है !] 







>>>13. अवतारी नेतृत्व की अवधारणा (Concept of embodied leadership) :  







>>>14. दोनों अतियों के मध्य-बिन्दु पर स्थित मनुष्य ही पूर्ण निःस्वार्थी नेता बन सकता है : 









>>> 15. स्वामीजी की क्रान्तिकारी योजना महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में अंकित है 'Be and Make ' (अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ) और 'चरैवेति, चरैवेति।'    








🔱>>>16. मनुष्य-जीवन सार्थक कैसे होता है ? सनातन धर्म का रहस्य :  








>>>17. रिलीफ-वर्क नहीं रुग्ण मन को स्वस्थ मन में बदलना सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा है।    









>>>18 . पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बन जाना ही आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न नेतृत्व का रहस्य है। 








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[भारत की सनातन विशिष्टता #

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।

अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥

स्रोत - ब्रह्मज्ञानावलीमाला

ब्रह्म सत्य है, ब्रह्माण्ड मिथ्या है (क्योंकि इसे सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता )।  सच्चिदानन्द स्वरुप जीव भी स्वरूपतः ब्रह्म ही है और भिन्न नहीं। इसको सभी शास्त्रों का सही निचोड़  समझा जाना चाहिए। वेदान्त इसी सत्य की घोषणा करता है। 

Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.

ब्रह्म सत्य है । जगत मिथ्या है । तथा जीव ब्रह्म ही है । कोई अन्य नहीं । दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है । इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर गूढ़ संबंध है । इन सृष्टि में अनुस्यूत है - ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो - ब्रह्म है । " सत्य नाम " से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है । यहां मिथ्या शब्द " असत " से भिन्न है ! मिथ्या शब्द का अर्थ यहां भासने वाली प्रतीति है।  

 यह कोई एक श्लोक मात्र नहीं है। आचार्य शंकर के माध्यम से जगत को दिया गया भारत की गुरु -शिष्य परम्परा का एक कल्याणकारी उपहार है। इसकी आधी पंक्ति अपने आप में एक पूर्ण और व्यापक विचार देती है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात‍् ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत‍ जिसे आप वास्तविक मान बैठे हैं, वो मिथ्या है। 

पाश्चात्य विज्ञान यही सवाल उठाता है कि चौबीस घंटे जो संसार हमारे अहसास में खड़ा नजर आता है, जिसे हम ठोस रूप में महसूस करते हैं, उसको मिथ्या कहें, तो व्यवहार कैसे करेंगे? वास्तव में यह दृष्टिगोचर संसार सत्य तो है किन्तु सापेक्षिक सत्य है, सतत परिवर्तनशील होने के कारण यह नाशवान है , अविनाशी नहीं है। एक विद्वान ने जगत के मिथ्या होने का अंग्रेजी में बड़ा खूबसूरत अनुवाद किया है: "दुनिया पल-पल बदलने वाली सच्चाई है ! ‘World Is Passing Reality.’

     एक फिल्म 'आपकी कसम' में किशोर कुमार का  गीत में लाइन है - ज़िन्दगी के सफ़र में  गुज़र जाते हैं जो मकाम वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते।  ........, एक बार चले जाते हैं जो  दिन-रात, सुबहो-शाम वो फिर नहीं आते…  आदमी ठीक से देख पाता नहीं और परदे पर मंजर बदल जाता है।’ संसार के परदे पर बिजली की रफ्तार से बदलता मंजर/दृश्य  मनुष्य के अंदर मतिभ्रम (Hypnotization-सम्मोहन ) की स्थिति  पैदा करता है। कभी यह सच लगता है… कभी वो सच लगता है। आज जो सच है, वो कल झूठ भी लगता है।  अधिकांश लोगों ने अपनी अधिकांश  शक्ति या ऊर्जा मिथ्या के पीछे भागने में लगा दी है। [मैं यह लिख रहा था और अभी अभी 25. 10. 2023 को 4.30 pm पर सुदीप ने रनेन दा के नाती के ऐक्सिडेंट का न्यूज दिया .....]    

        फिर सत्य क्या है?  जगत सत्य होता तो इसका कभी बाध नहीं होता और असत्य होता तो इसकी कभी प्रतीति नहीं होती।  अतः सत्य तथा असत्य से विलक्षण अनिर्वचनीय कोटि की यह प्रकृति है , स्वयं परमात्मा की ही अचिन्त्य शक्ति है जो जगत के रूप में भासित हो रही है। देवस्य शक्तिर्स्वगुणैर्निगूढाम्  ||

मनःसंयोग और निरंतर विवेक-प्रयोग आदि कठोर साधनाएँ जितना ही अधिक करते रहे रहोगे, उतनी ही अधिक बार यह विचार मन में उठेगा कि- वास्तव में यह जगत एक चित्रमाला के सदृश्य है:

 नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम । 

    एष   वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ।। 

     मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्ता तु वर्तते ।

         पश्यामः केवलं तद्धि न्रनिर्माणं कथं भवेत ।।    

 { श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय रचित : ' विवेकानन्द दर्शनम ' }

इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- "यह जगत बदलते हुए चित्रों की श्रृंखला मात्र है। इसकी सतरंगी छटा एक ही उद्देश्य को अभिव्यक्त कर रही है-'मनुष्य अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ क्रमशः पूर्णत्व-प्राप्ति (देव-मानव में रूपांतरित होने) की ओर अग्रसर हो रहा है। 

' After all this world is a series of pictures. ' this colorful conglomeration expresses one idea only- " Man is marching towards perfection. " that is " the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone. " 

[हमलोग अभी ' माइंड-बॉडी काम्प्लेक्स ' बद्ध जीव की अवस्था में जिसे जाग्रत अवस्था मानते हैं, वह अतीन्द्रिय या तुरीय ज्ञान की अपेक्षा एक विराट स्वप्न ही तो है ! जब जीवात्मा सच्चिदानन्द से साक्षात्कार की अवस्था में' ऐक्य' की अनुभूति प्राप्त कर लेती है, तब यह ठोस सा दिखने वाला संसार असत साबित हो जाता है। -गीता 2/16.] साभार- " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या " ? कैसे? [***24] परिप्रश्नेन / https://vivek-jivan.blogspot.com/2012/05/24.html/शनिवार, 26 मई 2012]

19 मार्च, 1897 को अपने शिष्य शरत चन्द्र चक्रवर्ती को दार्जलिंग से संस्कृत में लिखित  पत्र में स्वामीजी कहते हैं -  [जो बेड़ियों में बन्धे हैं उन्हें मुक्त करो..... " हे वीराः, पश्यत इमान् लोकान् मोहग्राहग्रस्तान्। शृणुत अहो तेषां हृदयभेदकरं कारुण्यपूर्णं शोकनादम्।  बद्धपरिकराः भवत्;  सम्मुखे शत्रव: महामोह-रूपा:। भव चिराधिष्ठित ओजसि। वीराणामेव करतलगता मुक्ति: न कापुरुषाणाम्। "श्रेयांसि बहुविघ्नानि" इति निश्चितेऽपि समधिकतरं कुरुत यत्नम्। अग्रगा भवत्, अग्रगा, हे वीरा, मोचयितुं पाशं बद्धानांम्......। अभीः अभीः इति घोषयति वेदान्तडिण्डिमः। भूयात् स भेदाय हृदग्रन्थे: सर्वेषां जगन्निवासिनामिति।"]  

"हे वीर आत्माओं, (हे अमृत के पुत्रों), जरा इन मायामुग्ध (Hypnotized) लोगों की देखो; हाय उनके हृदयविदारक आर्तनाद को सुनो। हे वीरों, अपनी कमर कसकर खड़े हो जाओ ; क्योंकि तुम्हारे सामने त्रिगुणमयी माया (Bh) की भीषण सेना खड़ी है। 'भव चिराधिष्ठित ओजसि'-- वत्स तुम "वीर हो धीर बनो " ओजस्विता के साथ दीर्घायु होओ। मुक्ति (देह-मन की गुलामी से मुक्ति) केवल वीरों का गहना है, कायरों का नहीं।  "श्रेयांसि बहुविघ्नानि"-- श्रेय-प्राप्ति में अनेक विघ्न आते है ' -यद्यपि यह निश्चित है, तथापि "समधिकतरं कुरुत यत्नम् !" --फिर भी अधिकाधिक प्रयत्न करते रहो। हे वीरों, जो अभी तक देह-और मन की गुलामी में बन्धे हुए हैं उनको माया की बेड़ियों से मुक्त करने के लिये आगे बढ़ो! और भी आगे बढ़ो ! - सुनो, "अभीः अभीः इति घोषयति वेदान्तडिण्डिमः।" वेदान्त -दुंदुभि बजाकर भयरहित बनने की कैसी उद्घोषणा कर रहा है। "Be fearless and Make others Fearless "- May that solemn sound remove the heart's knot of all denizens of the earth. "तुम स्वयं भयमुक्त मनुष्य बनो और दूसरों को भी भयमुक्त मनुष्य बनने में सहायता करो" --वेदान्त का यह दुन्दुभि घोष सम्पूर्ण मानवजाति के (पृथ्वी के सभी धर्मों के मनुष्यों के) ह्रदय-ग्रन्थियों का भेदन करने में समर्थ हो। "    

शिष्य - महाराज,  इस उद्दाम उन्मत्त बन्दर के सामान मन को ब्रह्म में डुबो देना बहुत ही कठिन है

 स्वामीजी - वीर के सामने फिर कठिन नाम की कोई भी चीज है क्या ? कापुरूष ही ऐसी बातें कहा करते हैं ! 'वीराणामेव करतलगता मुक्तिः, न पुनः कापुरूषाणाम्'*। अभ्यास और वैराग्य के बल से मन को संयत कर । गीता में कहा है, *'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते' । चित्त मानों एक निर्मल तालाब है । रूपरस आदि के आघात से उसमें जो तरंग उठ रही है, उसी का नाम है मन । इसलिए मन का स्वरूप संकल्प-विकल्पात्मक है । उस संकल्प-विकल्प से ही वासना उठती है ।  उसके बाद मन ही क्रियाशक्ति के रूप में परिणत होकर स्थूल देहरूपी यन्त्र के द्वारा कार्य करता है ।  फिर कर्म भी जिस प्रकार अनन्त है कर्म का फल भी वैसा ही अनन्त है । अतः अनन्त असंख्य कर्मफलरूपी तरंग में मन सदा झूला करता है । उस मन को वृतिशून्य बना देना होगा - और उसे स्वच्छ तालाब में परिणत करना होगा । जिससे उसमें फिर वृतिरूपी एक भी तरंग न उठ सके । तभी ब्रह्मतत्त्व प्रकट होगा । शास्त्रकार उसी स्थिति का आभास इस रूप में दे रहे हैं - 'भिद्यते हृदयग्रन्थिः' आदि  -  समझा ?

शिष्य - जी हाँ, परन्तु व्युत्थान ध्यान तो विषयावलम्बी होना चाहिए न ?

स्वामीजी - तू स्वयं ही अपना विषय बनेगा । तू सर्वव्यापी आत्मा है इसी बात का मनन और ध्यान किया कर । मैं देह नहीं हूँ - मन नहीं हूँ - बुद्धि नहीं हूँ - स्थूल नहीं हूँ - सूक्ष्म नहीं हूँ - इसी प्रकार  'नेति  नेति'  करके प्रत्यक् चैतन्यरूपी अपने स्वरूप में मन को डुबो दे । इसी प्रकार मन को (मिथ्या अहं को ?) बार बार डुबो डुबो कर मार डाल । तभी ज्ञानस्वरूप का बोध या स्वस्वरूप में स्थिति होगी । उस समय ध्याता-ध्येय-ध्यान एक बन जायेंगे, ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान एक बन जायेंगे ।  सभी अध्यासों की निवृत्ति हो जायेगी । 

     इसी को शास्त्र में 'त्रिपुटिभेद'  कहा है ।  इस स्थिति में जानने, न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता ।  आत्मा ही जब एकमात्र विज्ञाता है, तब फिर उसे जानेगा कैसे ? आत्मा ही ज्ञान -आत्मा ही चैतन्य - आत्मा ही सच्चिदानन्द है । जिसे सत् या असत् कुछ भी कहकर निर्देश नहीं किया जा सकता, उस अनिर्वचनीय मायाशक्ति के प्रभाव से जीवरूपी ब्रह्म के भीतर ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भाव आ गया है ।  इसे ही साधारण मनुष्य चैतन्य या ज्ञान की स्थिति  ( Conscious state ) कहते हैं ।  जहाँ तक द्वैतसंघात शुद्ध ब्रह्मतत्त्व में एक बन जाता है, उसे ही शास्त्र में समाधि या साधारण ज्ञान की भूमि से अधिक उच्च स्थिति ( Superconscious state ) कहकर इस प्रकार वर्णन किया है - 'स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम्' ! इन बातों को स्वामीजी मानों ब्रह्मानुभव के गम्भीर जल में मग्न होकर ही कहने लगे ।

स्वामीजी - इस ज्ञाता-ज्ञेय रूप साक्षेप भूमिका से ही दर्शन, शास्त्र-विज्ञान आदि निकले हैं; परन्तु मानव मन का कोई भी भाव या भाषा जानने या न जानने की वस्तु को सम्पूर्ण रूप से प्रकट नहीं कर सकती है । दर्शन, विज्ञान आदि आंशिक रूप से सत्य हैं; इसलिए वे किसी भी तरह परमार्थ तत्त्व के सम्पूर्ण प्रकाशक नहीं बन सकते । अतएव परमार्थ की दृष्टि से देखने पर भी सभी मिथ्या ज्ञात होता है - धर्म मिथ्या  - कर्म मिथ्या,  मैं मिथ्या हूँ,  तू मिथ्या है,  जगत् मिथ्या है । उसी समय देखता है कि मैं ही सब कुछ हूँ, मैं ही सर्वगत आत्मा हूँ; मेरा प्रमाण मैं ही हूँ । मेरे अस्तित्व के प्रमाण की आवश्यकता कहाँ है ? मैं - जैसा कि शास्त्रोंमें कहा है  'नित्यमस्मत्प्रसिद्धम्'  हूँ । मैंने वास्तव मे ऐसी स्थिति को प्रत्यक्ष किया है - उसका अनुभव किया है । तुम लोग भी देखो, अनुभव करो और जीवों को यह ब्रह्मतत्त्व सुनाओ जाकर । तब तो शान्ति पायेगा ।

   ऐसा कहते कहते स्वामीजी का मुख गम्भीर बन गया और उनका मन मानों किसी अज्ञात राज्य में जाकर थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया। कुछ समय बाद वे फिर कहने लगे - "इस  'सर्वमतग्रासिनी, सर्वमतसमंजसा'  ब्रह्मविद्या का स्वयं अनुभव कर और जगत् में प्रचार कर, उससे अपना कल्याण होगा, जीवों का भी कल्याण होगा। तुझे आज सार बात बता दी । इससे बढ़कर और कोई दूसरी बात नहीं है ।"

[वि ० सा ० खण्ड 6 पृष्ठ 166 -167 ]  

[ #1  प्रसिद्द फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट  [Amaury De Riencourt (1918- 2005)] अपनी प्रसिद्द पुस्तक  ' The Eye of Shiva'  में  कहते हैं कि  पूर्व का रहस्यवाद (Eastern mysticism- योगविद्या , ऊर्ध्वमूल अधोशाखा',  'ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या या चार महावाक्य के बातें)  कोई इन्द्रजाल या स्वप्न अवस्था (dream state) नहीं है, बल्कि पाश्चात्य विज्ञान (Western science)  के 'New Physics' या क्वाण्टम भौतिकी (Quantum Physics) की तरह ही  दोनों एक ही 'परम् सत्य'- जिससे सब कुछ निकला है के अनुसन्धान की दो अलग अलग वैज्ञानिक प्रणाली  (scientific method of investigation) है। जिसके द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि किसी ध्यानस्थ योगी की चेतना का ब्रह्माण्डीय एकत्व की अनुभूति में पहुँच जाना इन्द्रियातीत सत्य के साथ एकत्व का सच्चा वर्णन है। 

  उनका मानना है कि   "नई भौतिकी" या क्वाण्टम फिजिक्स (New Physics)  के उद्भव के बाद से, ब्रह्मांड के यांत्रिक मॉडल (mechanical models of the universe)  ने अपना उपयोग खो दिया है। इन दिनों पश्चिमी वैज्ञानिक ब्रह्मांड के  एक ऐसे नए दार्शनिक मॉडल ( new philosophical model of the universe) की तलाश कर रहे,  एक ऐसे ढांचे की खोज कर रहे हैं जिसका उपयोग पूर्वी रहस्य-वादी सहस्राब्दियों से करते आ रहे हैं।   "He believes that this consciousness, symbolized by the Eye of Shiva, can provide the appropriate model for further research in physics. " अर्थात एमौरी डी रिएनकोर्ट का विश्वास है कि योगी की चेतना की वह 'उच्च अवस्था' (तुरीयावस्था-ॐ Existence-Consciousness-Bliss की अवस्था) शिव के उस तीसरी आँख का प्रतीक है, जो प्रबुद्ध अवस्था  में (Enlightenment या समाधि अवस्था में)  सामान्य दृष्टि से अभेद्य अस्तित्व के छिपे हुए स्तरों तक (hidden level of existence) प्रवेश  कर सकती है। इसके अलावा, उनका तर्क यह भी है कि यह "अस्तित्व का छिपा हुआ स्तर"  का सिद्धान्त  पूर्वी और पश्चिमी चिंतन -परंपराओं को एकजुट कर सकता है और पाश्चत्य चिंतन-परम्परा से द्वैतवाद (dualism) को हमेशा के लिए समाप्त भी कर सकता है।और शिव की तीसरी आँख -  किसी ध्यानस्थ योगी के चेतना की उस उच्च अवस्था (higher state of consciousness) का प्रतिनिधित्व करती है, जो भौतिकी में आगे के शोध (research ) के लिए उपयुक्त मॉडल प्रदान करती है।
    भगवान् शिव मानव का शुद्धतम जीवन्त स्वरूप हैं, वे ब्रह्मांड में सब कुछ देख सकते हैं। वे अतीत में देख सकते हैं, वर्तमान पर नियंत्रण रख सकते हैं और भविष्य भी देख सकते हैं। शिव की तीसरी आँख - उस त्रिकालदर्शी नेत्र  का प्रतिनिधित्व करती है , "जो सामान्य दृष्टि से अभेद्य अस्तित्व के छिपे हुए स्तरों तक ("hidden level of existence" - तुरीयावस्था -आत्मा 3rd'H' की अनुभूति तक) प्रवेश कर सकती है।"  वे त्रिकालदर्शी हैं, तीसरे नेत्र के द्वारा आज्ञा चक्र सक्रिय होता है। इसी आज्ञा चक्र के स्थान पर आत्मा का प्रबोधन (ज्ञान) प्रस्तुत और केंद्रित होता है।  जो व्यक्ति इस ऊर्जा को जागृत कर लेता है, उसे सभी प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं। इस ऊर्जा के जरिए व्यक्ति ब्रह्मांड में सभी कुछ देख सकता है।

   लेखक विशेष कर 'शिव के तीसरे नेत्र का  महत्व' का सिद्धान्त से अत्यधिक प्रभावित थे -शिव का तीसरा चक्षु आज्ञाचक्र पर स्थित है। आज्ञाचक्र ही विवेक-बुद्धि का स्रोत है। आप इस आंख से ब्रह्मांड के  अलग-अलग आयामों में देख और सफर कर सकते हैं। तीसरा नेत्र खुलते ही धरती पर प्रलय आ जाता है, तथा सभी अज्ञान और अँधकार का नाश हो जाता है ! तीसरी आंख को विवेक माना गया है। यह दोनों आंखों के ऊपर और मस्तक में मध्य होती है, किन्तु तीसरी आंख कभी दिखाई नही देती है। 
        यह पुस्तक बोधगम्य (lucid) होने के साथ-साथ, जिज्ञासु मनोवृत्ति को सचमुच बेहद उकसाने वाला (provocative) तथा क्रान्तिकारी विचारों से ओतप्रोत है। यह पुस्तक हमारे समस्त पूर्वाग्रहों को बदलने की चुनौती तो देती ही है, किन्तु इसमें शायद हमारे सोचने के तरीके को पूरीतरह से बदल देने की शक्ति भी है। इस मौलिक  और दूरदर्शी पुस्तक में, एमाउरी डी रिएनकोर्ट का तर्क है कि मनुष्य अब इतिहास में एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां "अस्तित्व के छिपे हुए स्तर" (hidden levels of existence) की अनुभूति हम सभी के लिए उपलब्ध हो जाएगी।  उनके विचार में भविष्य में (21 वीं सदी में) होने वाली सबसे महत्वपूर्ण घटना भौतिकी में क्रांतिकारी विकास द्वारा लाया गया पूर्वी रहस्यवाद  और पश्चिमी विज्ञान का आसन्न सम्मिलन ( convergence)  है। 
साभार https://www.goodreads.com/book/show/997969.The_eye_of_Shiva
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[ #2 : फ्रिटजॉफ कैप्रा [Fritjof Capra (born February 1, 1939)] की पुस्तक -'The Tao of Physics'- में आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) और भारत की योग-विद्या (Eastern Mysticism, राज-योग) के बीच समानता की खोज की गयी है।  आधुनिक भौतिकी (Quantum Physics)  और पूर्वी रहस्यवाद Eastern mysticism (पातंजल योगसूत्र) में भला क्या समानता  हो सकती है? पहली नज़र में ऐसा लग सकता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है।  किन्तु  इस पुस्तक में कहा गया है कि दोनों के ज्ञानक्षेत्र (domain) में कई आकर्षक समानताएं हैं, जो ज्ञान  “knowledge” की मानवीय धारणा से शुरू होती हैं। 
             सामान्यतया, ज्ञान (knowledge) को दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है, तर्कसंगत ज्ञान (rational knowledge) और अंतर्बोध ज्ञान (intuitive knowledge)। हालाँकि पूर्वी रह्स्यवाद (Eastern mysticism) अर्थात योगविद्या (राजयोग) द्वारा प्राप्त विवेकज ज्ञान भी तर्कसंगत (rational knowledge) ही है, किन्तु उसकी प्रशिक्षण परम्परा पाश्चात्य विज्ञान (Western science) से बिल्कुल भिन्न हैं; फिर भी ज्ञान के इन दोनों रूपों को समान रूप से देखा और समझा जा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे Quantum Physics का तर्कसंगत पक्ष (rational side) भी वैज्ञानिकों को किसी "intuitive knowledge " अंतर्बोध ज्ञान युक्त घटक का ही आनंद  देता है; क्योंकि  सिद्धांतों को विकसित करने और नई अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए, आवश्यक रचनात्मकता के बिना वैज्ञानिक कभी भी उस निष्कर्ष पर  नहीं पहुंच सकते हैं। उसी प्रकार, पूर्वी रहस्यवाद (Eastern mysticism) या योगविद्या में  एक तर्कसंगत तत्व (rational element) भी अवश्य रहता है
                 फिर भी इस प्रकार परस्पर अतिच्छादन करने (overlap-करने) के बावजूद दोनों के कार्य-क्षेत्र में एक बुनियादी अन्तर (fundamental difference) भी है।  पाश्चात्य दर्शन (Western philosophy) में शरीर को मन से बिल्कुल भिन्न  माना गया  है। क्योंकि पाश्चात्य दर्शन की तरह  पाश्चात्य विज्ञान का उद्भव भी उसी  प्राचीन यूनानी शिक्षा (Greek learning) से हुआ  है, जो स्वयं  इसी शरीर-मन विभेद (जड़-चेतन भ्रम) पर आधारित था ।              प्राचीन यूनानी दार्शनिक डेमोक्रिटस (Democritus) को ही लें, जिनके परमाणुवादी स्कूल (atomist school) ने पदार्थ (matter) और आत्मा ( spirit) के बीच अन्तर को स्पष्ट रूप से चित्रित किया था। उनके अनुसार यदि पत्थर को और भी छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा जाता रहा और यही प्रक्रिया चलती रही तो एक समय ऐसा आएगा जब इसके और अधिक विभाजित होने की संभावना ही समाप्त हो जाएगी। उन्होंने ऐसे टुकड़ों को, जिन्हें आगे विभाजित नहीं किया जा सकता था, "एटोमोस" (atomos) नाम दिया, जिसका ग्रीक में अर्थ अविभाज्य (indivisible) था। और वही  विचार ही पाश्चात्य चिंतन का मूलाधार बना जिसके फलस्वरूप  मन (mind) और पदार्थ (matter) के बीच द्वैतवाद (dualism ) पैदा हो गया। लेकिन मन को भी Transcend किया जा सकता है, उस पूर्वी रहस्य विद्या योग-प्रणाली  से पाश्चात्य विज्ञान अनभिज्ञ है।  
             उदाहरण के लिए, विज्ञान को व्यापक रूप से तर्कसंगत ज्ञान (rational knowledge ) का क्षेत्र माना जाता है। किसी पदार्थ की भौतिक वास्तविकता (material reality) को वर्गीकृत कर उसका विश्लेषण करने, मापने और उसकी मात्रा निर्धारित करने की एक प्रणाली को विज्ञान कहते हैं। Physics (भौतिकी) गणित की अत्यधिक सटीक और तर्कसंगत भाषा के माध्यम से व्यक्त किया गया विज्ञान (science) है, इसके विपरीत, पूर्वी योगी (Eastern mystics : मायावती आश्रम के हिमालयन योगी) के पूर्वी विचार (Eastern thought) के मूल में - अंतर्बोध ज्ञान (intuitive knowledge) के प्रति ही अधिक रुझान रहता है। इसीलिए पूर्व के योगी  परम् सत्य (ईश्वर या आत्मा) का साक्षात्कार (nonintellectual experience) करना चाहते हैं जिसे योग के प्रशिक्षण से आठ चरणों में प्राप्त किया जा सकता है।उनका यह दृढ़ विश्वास है कि बौद्धिक स्थिति या (देश-काल -पात्र सम्बन्धी) या मन की  पंचेन्द्रिय ग्राह्य संवेदी धारणाओं (sensory perceptions) को लाँघ कर अतीन्द्रिय सत्य के राज्य में "oneness of all things. Unity in diversity " अनेकता में एकता" पहुँचा जा सकता है। 
        इसलिए पाश्चत्य जगत वाले भारत की योग-विद्या (राजयोग या योगसूत्र) को भी 'Eastern mysticism', पूर्वी रहस्यवाद, हिन्दूजम, बुडिज़म,और ताओवाद के धार्मिक दर्शनों को शामिल करते हुए, इसे मुख्य रूप से ध्यान (meditation) या मनःसंयोग की प्रक्रिया पर आधारित एक आध्यात्मिक अनुशासन (spiritual discipline) मानते है।अंतर केवल इतना है कि,  एक भौतिक विज्ञानी (physicist) जहाँ प्रयोगशाला में वैज्ञानिक प्रयोग (scientific experimentation) के माध्यम से निरीक्षण-परीक्षण करता है, वहीं राजयोगी (पूर्वी रहस्यवादी) गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में   आत्मनिरीक्षण (introspection) के माध्यम से (उभयतो वाहिनी चित्तनदी में) विवेकदर्शन का अभ्यास करते हैं। 

[अर्थात स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make -निर्भीक मनुष्य, पैगम्बर,  प्रेममय नेता, लीडर निर्माण परम्परा में प्रशिक्षित और C-IN-C का चपरास प्राप्त नेता वरिष्ठ नवनीदा से मैंने पूछा था - "क्या आपने ईश्वर को देखा है ?" उनका उत्तर था - " मैं ऐसे सात आदमियों को देखा हूँ जिन्होंने ईश्वर को देखा है!" और मुझे उनके अन्तर्बोध ज्ञान की  निर्भीकता पर तो विश्वास करना ही था ! 
साभार : The Tao of Physics/ https://www.blinkist.com/en/books/the-tao-of-physics-en]

[>>> #1 स्वामीजी ने कहा था - " प्रबुद्ध भारत "  यह नाम हिन्दुओं के मन में किसी किसी प्रकार का आघात न पहुँचाकर बौद्धों को भी हमारी ओर आकृष्ट करेगा।  प्रबुद्ध शब्द की ध्वनि से ही, ("प्र + बुद्ध = बुद्ध के सहित ") अर्थात गौतम बुद्ध के साथ भारत को जोड़ने पर, हिन्दूधर्म के साथ बौद्धधर्म का सम्मिलन समझा जा सकेगा। "(वि० सा० ख० - 2,पृष्ठ 395)]

[ >>>#4. Geopolitical uncertainty, Geo-political events:  भूराजनीतिक अनिश्चितता और भूराजनीतिक घटनाओं के बीच  आलासिंगा पेरुमल को 31 अगस्त 1894 को लिखित पत्र : समिति का असाम्प्रदायिक नाम 'प्रबुद्ध भारत' रखने से बौद्ध लोग भी हमारी ओर आकृष्ट होंगे। प्रबुद्ध शब्द की ध्वनि का अर्थ है, "प्र + बुद्ध = बुद्ध के सहित " अर्थात गौतम बुद्ध के साथ भारत को जोड़ने पर, हिन्दूधर्म के साथ बौद्धधर्म का सम्मिलन के मर्म को जगत समझ जायेगा। इस बारे में अपने सब मित्रों (SuV>AA<DS) के साथ परामर्श करना - उनकी राय से काम लेना।  विभिन्न दुःख-कष्टों के भीतर # एक ओर जहाँ: रूस-यूक्रेन वार , इस्राइल- हमास वार के भीतर वसुधैवकुटुंबकं के थीम पर G20 or P20 का आयोजन 'यशोभूमि भारत' की राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित हो रहा है। भारत का चन्द्रयान अब चन्द्रमा के ठीक शिव-शक्ति बिन्दु पर लैण्ड हो चुका है,  वहीं दूसरी ओर (अवतार-वरिष्ठ परम्परा : प्रेममय 'C-IN-C नवनीदा परम्परा में महामण्डल के अवतरित होने के बाद अब अखिल भारत स्तर पर युवा-प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से उस मनुष्य-निर्माण चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार करने का समय उपस्थित हुआ है !)  ] 

[धन्या महीरुहा #5  येभ्यो निराशां यान्ति नार्थिनः ॥https://vivek-anjan.blogspot. com/2018/12/2.html/शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2]  [https://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/2.html/शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2] 

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