इसीलिए पुरोहितों के आधिपत्य के साथ ही साथ समाज में इन्द्रियातीत सत्य या (पारमार्थिक) ज्ञान को जानने की विद्या, अथवा बहुमूल्य आध्यात्मिक विद्या (मनःसंयोग और चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया ) का प्रचार-प्रसार होता है। क्योंकि जहाँ इन्द्रियों की गति नहीं है, जो 'सत्य' इन्द्रियातीत या मन और वाणी से भी परे है, उस आध्यात्मिक जगत (supersensuous spiritual world) की बातों को जानने और वहाँ की सहायता पाने के लिए साधारण मनुष्य सदा व्याकुल रहते हैं।और चूँकि वह इन्द्रियातीत सत्य, इन्द्रिय गोचर बाह्य जड़ -जगत (स्थूल जगत) और आंतरिक मनोजगत (सूक्ष्म जगत) से भी परे है, इसलिए साधारण मनुष्य उस (पारमार्थिक) ज्ञान तक आसानी से स्वयं नहीं पहुँच सकते। इसीलिए सर्व साधारण जनता सत्वगुणी प्रधान , संयमी और मननशील ब्राह्मण या पुरोहित (जीवनमुक्त शिक्षक , मार्गदर्शक नेता , गुरु) के शरण में आती है। क्योंकि केवल संयमी और मन-इन्द्रियों के पार देखने वाले सत्वगुणी पुरुष (ब्रह्मविद गुरु) ही इन्द्रियातीत सत्य के राज्य में जाते हैं, वहाँ का समाचार लाते हैं, और दूसरों को भी वहाँ पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। इस क्षमता से सम्पन्न पुरोहित या ब्राह्मण ही 'मानव समाज के प्रथम गुरु , नेता और परिचालक' हैं ! इसीलिए इस शक्ति के अधिकारी पुरोहित (ब्रह्मविद-ब्राह्मण) साधारण मनुष्यों के द्वारा 'देवता' के समान पूजे जाते हैं। दूसरे वर्गों से पूजा , अर्थ और सेवा प्राप्त करते हैं। इसीलिए उनको खाद्य आपूर्ति के लिए अन्य कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है। " (९/२१०)
[(These great souls are the priests, the primitive guides, leaders, and movers of human societies. The priest knows the gods and communicates with them; he is therefore worshipped as a god.)
[ पुरोहित लोग (ब्रह्मतेज) ही खौफनाक क्षत्रिय राजा और राजा के भय से डरे -सहमे उसके द्वारा शोषित प्रजा (अजा) के बीच में खड़े होकर राजा को अपने आध्यात्मिक विद्या के बल से शांत रखते हुए प्रजा का कल्याण करते हैं। त्यागनिष्ठ " पुरोहित (ब्राह्मण) प्रधान सभ्यता का प्रथम आविर्भाव, पशुत्व के ऊपर देवत्व का प्रथम विजय , जड़ के ऊपर चेतन का प्रथम अधिकार विस्तार , प्रकृति के गुलाम जड़पिण्ड रूपी मानवशरीर के भीतर अज्ञातरूप से जो सर्वोच्चता (supremacy-ब्रह्मत्व) छुपा हुआ है -उसका प्रथम विकास हुआ। "
There stands the priest between the dreadful lion — the king — on the one hand, and the terrified flock of sheep — the subject people — on the other. The destructive leap of the lion is checked by the controlling rod of spiritual power in the hands of the priest. vol -4 /453]
चूँकि, विवेक-प्रयोग के द्वारा जड़ (नश्वर शरीर और मन) से चैतन्य (अविनाशी आत्मा ) को अलग- अलग पहचान पाने में, सबसे पहले ब्राह्मण ही समर्थ होते हैं। इसलिए इन्द्रियातीत जगत का समाचार, इन्द्रयगोचर जगत तक पहुँचाने में भी सर्वप्रथम वे सफल होते हैं। अतः देवताओं की तरफ से मनुष्य के पास भेजा गया पहला सन्देशवाहक (देवदूत या पैगम्बर) भी पुरोहित (ब्राह्मण) ही हैं। इसलिए त्यागनिष्ठ पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण) के आधिपत्य युग में ही सभ्यता का प्रथम आविर्भाव होता है। और उनकी शिक्षा को अमल में लाने से ही पशुत्व के ऊपर देवत्व की प्रथम विजय , जड़ (matter) के ऊपर चैतन्य ( spirit) का प्रथम अधिकार और प्रकृति के क्रीतदास (मन और इन्द्रियों के गुलाम) और जड़ पिण्डों जैसे मनुष्य शरीर में भी छिपे हुए ईश्वरत्व (अव्यक्त ब्रह्मत्व) का प्रथम विकास होता है। और चूँकि, कितने ही कल्याणों के अंकुर - (भावी नेता) इन्हीं ब्राह्मणों के तपोबल , इन्हीं के विद्या-प्रेम , इन्हीं के त्याग और इन्हीं के प्राण-सिंचन से प्रस्फुटित होते हैं। इसीलिए सब देशों में पहली पूजा इन्हीं ने पायी है, और इसीलिए इनकी स्मृति भी हम लोगों के लिए पवित्र है। "(९/ २१०)
[भगवान श्रीरामकृष्ण और भक्त (शिष्य-विवेकानन्द) के बीच का पुल (गुरु या नेता ) का काम भी वही पुरोहित (ब्राह्मण नेता -नवनी दा ) करते हैं, इसलिए नवनीदा की स्मृति भी हमलोगों के लिए पवित्र है। and the first manifestation of the divine power which is potentially present in this very slave of nature) The priest is the first discriminator of spirit from matter, the first to help to bring this world in communion with the next, the first messenger from the gods to man, and the intervening bridge that connects the king with his subjects. The first offshoot of universal welfare and good is nursed by his spiritual power, by his devotion to learning and wisdom, by his renunciation, the watchword of his life, and, watered even by the flow of his own life-blood. It is therefore that in every land it was he to whom the first and foremost worship was offered. It is therefore that even his memory is sacred to us!]
पर साथ ही पुरोहित शक्ति के आधिपत्य युग में दोष भी चला आता है। प्राण-स्फुरित होने के साथ ही साथ मृत्यु का बीज भी बोया जाता है। अंधकार और प्रकाश साथ ही साथ चलते हैं। (Darkness and light always go together.প্রাণস্ফূর্তির সঙ্গে সঙ্গেই মৃত্যুবীজ উপ্ত। অন্ধকার আলোর সঙ্গে সঙ্গে চলে। " ) समय के प्रवाह में विशेष अधिकारों का भोग करते करते पुरोहित (ब्राह्मण) भी अपनी त्यागनिष्ठा का परित्याग करके स्वार्थबुद्धि के द्वारा प्रेरित होने लगता है। इसका फल यह होता है कि कपटता, हृदय की घोर संकीर्णता, और सबसे अधिक हानिकारक प्रचण्ड ईर्ष्या से पैदा हुई असहिष्णुता आदी दुर्गुण उनमे चले आते हैं। इस घटना- चक्र में पड़कर मनुष्य का स्वभाव जैसा हो जाना चाहिए, वैसा ही , स्वभाव उन स्वार्थबुद्धि से प्रेरित ब्राह्मणों का भी हो जाता है। (९/२११)
अध्यात्म विद्या के अभ्यास में 'भाटा' (ebb tide) पड़ने तथा साधारण जनता के बीच उसके वितरण या प्रचार-प्रसार को बंद करके, गोपनीय बना लेने से, ( for want of proper exercise and diffusion') ह्रदय विस्तार लिए उचित व्यायाम और हृदयवत्ता का अभाव हो जाता है। ' और आध्यात्मिक विद्या (3H' विकास के 5 अभ्यास जैसे ब्रह्म को जानने की विद्या) को केवल पुरोहित कुल के हाथों में रखने के प्रति रुझान (tendency) या प्रवृत्ति दिखाई देने लगती है। वो कहते हैं न - " बिना अभ्यास और वितरण के प्रायः सभी विद्यायें नष्ट हो जाती हैं" (. All knowledge, all wisdom is almost lost for want of proper exercise and diffusion) शक्ति -संचय जितना आवश्यक है, शक्ति का प्रसार या वितरण भी उतना ही या उससे भी अधिक आवश्यक है !
हृदय रूपी ब्लडपम्पिंग मशीन में रक्त का एकत्र होना तो आवश्यक है, परन्तु उसका यदि सारे शरीर में संचालन न हुआ , तो मृत्यु निश्चित है। और आज सम्पूर्ण देश में जो चारित्रिक गिरावट दिखाई दे रही है, उस राष्ट्रिय चरित्र में पतन का और सामाजिक अवनति का मुख्य कारण बन जाती है। क्योंकि प्रायः सभी विद्याएं (अष्टांग-योग -पद्धति भी) उस विद्या के 'उचित अभ्यास और वितरण" के बिना नष्ट हो जाती हैं।' उसके बाद वह विद्याहीन, पुरुषार्थहीन होकर - केवल अपने पूर्वजों का उपनाम (surname - जैसे बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी या मिश्रा, पाण्डे, त्रिपाठी आदि कुलनाम) रखने वाला पुरोहित अपने पुरोहित-कुल का पैतृक सम्मान और पैतृक आधिपत्य को बनाये रखने के लिए- जिस तिस उपाय से यत्न (चालाकी #) करता है। [# अर्थात भले ही वह स्वयं ब्रह्मविद न बन सका हो, पर चालाकी के द्वारा चेष्टा करता है कि व्यासपीठ पर केवल उसके पुरोहित कुल का कोई वंशधर ही बैठे।] इस अवस्था में ब्राह्मणों के साथ अन्य वर्गों या जातियों का संघर्ष या विवाद शुरू हो जाता है। बाध्य होकर ब्राह्मणों में से अधिकांश लोगों को अब दूसरे वर्ण की वृत्ति या पेशा-रोजगार (सरकारी नौकरी,-निजी नौकरी, वकालत या बणिक -वृत्ति) करनी पड़ती है। जिसके फलस्वरूप ब्राह्मणों की और भी अवनति हो जाती है। गुजरात के नागर ब्राह्मण (पुरोहित -व्यवसायी सम्प्रदाय) और केवल 'नागर' (जो राज-कर्मचारी, वकील या वैश्य -वृत्ति के हैं ) - कहे जाने वाले ब्राह्मणों का उदाहरण देकर स्वामी जी कहते हैं,'आधी यूरोपीय पोशाक और रहन-सहन , तथा सँवारे हुए बाल रखने वाले ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व में समाज को विश्वास नहीं है। और इस प्रकार , अपने वंशगत पुरोहित -व्यवसाय को छोड़कर हजारों ब्राह्मण युवक अन्य जातियों की वृत्ति का अवलम्बन कर धनवान हो रहे हैं, साथ ही उन पुरोहित पूर्वजों के आचार -व्यवहार एकदम रसातल को जा रहे हैं। अटल प्राकृतिक नियमों के अनुसार ब्राह्मण जाति अपना समाधि-मन्दिर आप ही बना रही है। यहाँ स्वामी जी अपना मत प्रकट करते हुए (टिप्पणी करते हुए) कहते है - "और यही कल्याणकर है, क्योंकि प्रत्येक ऊँची जाति (अभिजात जाति ) के लिए अपने ही हाथों अपनी चिता बनाना प्रधान कर्तव्य है।" (९/२१३) ["Nature favors the dying out of the unfit and the survival of the fittest..... It is good and appropriate that every caste of high birth and privileged nobility should make it its principal duty to raise its own funeral pyre with its own hands.4/458]
जिन ऐतिहासिक नियमों तथा शिक्षाओं को हमें (तथाकथित चक्रवर्ती, मुखर्जी , चटर्जी पांडे, मिश्रा, शर्मा, त्रिपाठी,आदि अभिजात कुल के पुरोहित को) अनिवार्य समझ कर ग्रहण कर लेना चाहिए, स्वामी विवेकानन्द उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से उसी विषय में हमलोगों का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं। वे कहते हैं -" ब्राह्मणों ने अपनी उपार्जित ज्ञान शक्ति को केवल अपने भीतर आत्मगोपन करके रखा , और उस आध्यात्मिक विद्या का वितरण नहीं किया, या उस ब्रह्मविद्या का विकिरण सामान्य मनुष्यों तक न करके [ दूसरों के भीतर भी उस विद्या-चर्चा (3H विकास के 5 अभ्यास की प्रशिक्षण पद्धति) का समागम (Communion) नहीं होने दिया] ऐसा करके उन्होंने अपनी ही जाति और समुदाय का ही सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया है ! तथा --similar situation या समान स्थिति में यही अवस्था अन्य समस्त ऊँची जाति वाले समुदाय की होने वाली है। कुछ समय तक किसी कुल-विशेष या जातिविशेष में विद्या और शक्ति का एकत्र होना समाज के कल्याण के लिए परमावश्यक है; परन्तु उन्हें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि वह शक्ति पूरे समाज में वितरित करने के लिए ही संग्रहित हुई है। यदि ऐसा न हुआ तो, निश्चय ही वह समाज-शरीर तुरंत ही नष्ट हो जायेगा। " (९/२१३)
ब्राह्मणों में संचित शक्ति का आधार, वह बुद्धिबल था जो उन्हें तपस्या , संयम , त्याग और सत्य को अपने जीवन में धारण करने के लिए -लगातार Inspired' या उत्प्रेरित करती रहती थी। और इन सब शक्तियों का मूलाधार था त्याग। उन्हीं त्यागनिष्ठ ब्राह्मणों के आधिपत्य युग में -सभ्यता की कोपलें पहली बार प्रस्फुटित हुई थीं। किन्तु इस जगत में 'त्याग' के साथ ही साथ एक और शक्ति कार्य करती है - वह है 'भोग'! स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित मानव-समाज के इतिहास का विश्लेषण और गहन चिंतन-मनन करने से, जिस महान सत्य तक हमारी दृष्टि पहुँच ही जाती है, वह यह है --- कि बहुत लम्बे समय से मानव-समाज में 'त्याग और भोग' के बीच संघर्ष (यानि देव और असुर के बीच संग्राम ?) चलता चला आ रहा है। और जब इस संघर्ष में (देवासुर संग्राम में) त्याग की जीत होती है, तभी साधारण जनता का मंगल या कल्याण साधित होता है। और जिस युग में भोग 'त्याग' को पराजित कर देता है, उस समय (प्रजा) साधारण जनता के दुःख में वृद्धि होती है। जिस समय कोई ब्राह्मण (नेता -जीवनमुक्त शिक्षक) त्याग की महिमा को भूलकर भोगवृत्ति को प्रश्रय देने लगता है, और स्वार्थ-परायण बन जाता है, उस समय पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण) और समाज दोनों का अमंगल होता है।
स्वामी जी द्वारा प्रदत्त इसी ऐतिहासिक सूत्र का अनुसरण करके राष्ट्र-शक्ति के अभ्युदय (emergence of state power या संघशक्ति के अभ्युदय) के विषय में इस तथ्य को भी समझा जा सकता है कि प्रजा-समष्टि की शक्ति का केन्द्र राजा (या संगठन का नेता) ही जनता जनार्दन का प्रधान सेवक होता है! " क्योंकि साधारण जनता (आम आदमी या प्रजा) में त्याग की अपेक्षा भोग करने की प्रवृत्ति (tendency) ही प्रबल होती है ; इसीलिए आम आदमी के अधिकारों (To protect the common right) की रक्षा के लिए यानि सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए " समान प्रयत्न और समान आकूति (आकांक्षा) से प्रेरित होकर व्यक्तिगत स्वार्थ को त्याग देने का भाव " - प्राचीन युग बात तो दूर रही आज के समय में भी किसी भी देश में सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं है।" (९/२१३)
स्वामीजी की स्पष्ट धारणा यह है कि - " समाज ही राजा रूपी शक्ति-केन्द्र की सृष्टि करता है। " इसलिए जो राजा प्रत्येक व्यक्ति को साधारण जनता (या संगठन) के कल्याणार्थ अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्याग देने की शिक्षा देगा या बाध्य कर देगा, वही राजा प्रजा की भोग-विलास (enjoyment) की आकांक्षा को विधिपूर्वक नियंत्रण में रखते हुए सामान्य जनता की सुख के सम्भावना में वृद्धि कर सकेगा। (न खुद खायेगा न दूसरों को खाने देगा।) जिस प्रकार कोई यथार्थ ब्राह्मण (त्यागनिष्ठ गुरु या नेता) बचपन से ही ज्ञानेच्छा (अतीन्द्रिय सत्य को जानने की इच्छा) के द्वारा अभिप्रेरित (Motivated) होकर तपस्या और संयम की सहायता से त्याग और सत्यमार्ग पर आजीवन यत्नपूर्वक चलने की कोशिश करता है। ठीक उसी प्रकार कोई क्षत्रिय (राजा) भी स्वभावतः ही भोगेच्छा के द्वारा अभिप्रेरित होकर ही कार्य करता है।
[ इसीलिए " धर्म , मंत्र और शास्त्र के बल से बलवान , शापरूपी अस्त्र से सज्जित , तथा सांसारिक स्पृहाशून्य तपस्वियों के भ्रू-भंग के सामने प्रतापी राजाओं का काँपना भारतवासी सनातन काल से देखते आये हैं। (जैसे दुर्वाशा मुनि के सामने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का काँपना) फिर सेना और शस्त्रों से सजे हुए वीर राजाओं के अकुण्ठित वीर्य और एकाधिकार के सामने प्रजा का -सिंह के सामने बकरियों की भाँति -सिर झुकाये खड़े रहना भी उन्होंने अवश्य देखा था। ९/२०७]
इसलिए त्यागनिष्ठ ब्राह्मण (कुलगुरु या नेता) का प्रभाव क्षत्रिय राजा के ऊपर जितने दिनों तक कार्य करता रहता है, उतने दिनों तक राजा की भोगेच्छा भी नियंत्रित रहती है और प्रजा का कल्याण संभव होता रहता है। किन्तु ब्राह्मण जब स्वयं स्वार्थी होकर अपने प्रभाव को खो देते हैं, तब क्षत्रिय राजा अपने पूर्ण प्रभुत्व में अपनी भोगक्षाओं की पूर्ति करने में व्यस्त हो जाते हैं। और जैसे ही कोई ब्राह्मण उस राजा की भोगेच्छा में बाधा डालने की चेष्टा करे तो उसका सत्यानाश निश्चित है। यदि वह विनीत होकर, राजा की आज्ञाओं को शिरोधार्य करे , तभी वे सकुशल रह सकते हैं। आमतौर पर समाज में " ब्राह्मणों के प्राधान्य काल में जिस प्रकार ज्ञानेच्छा का पहला उन्मेष होता है ..... उसी प्रकार क्षत्रियों के प्रभुत्वकाल में लौकिक भोगेच्छा की पुष्टि और उसकी सहायक विद्या समूह (शिल्प कला आद्यौगिक विधाओं आदि) की सृष्टि तथा उन्नति होती है। और उसके साथ ही साथ पर्ण कुटियों के स्थान पर अट्टालिकाएँ बनने लगती हैं, औद्योगिक तकनीक की उन्नति होती है, वास्तुकला, सुंदर मूर्तियाँ, मधुर संगीत, वाद्य यंत्र, महीन रेशमी कपड़े, आदि उत्पादों का पृथ्वी पर आगमन होता है। इसके कारण क्षत्रियों के आधिपत्य युग में ग्राम का गौरव जाता रहा और उसके बदले वड़े बड़े नगरों का आविर्भाव (Advent) होता है ।" ९/२१४ ]
हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है, इसीलिए स्वार्थ-पूर्ति ही स्वार्थ-त्याग का पहला शिक्षक है। बड़े बड़े नगरों के अत्यधिक भोग-सुखों की व्यर्थता का अनुभव कर चुकने के बाद, जब राजाओं के मन में (राजा ययाति की तरह ) भोगों के प्रति तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो जाता है; तब वे राजा भी विषय-भोगों से ऊबकर अध्यात्म-विद्या के विषय की गंभीर आलोचना करने में ध्यान देने लगते हैं। गीता और उपनिषदों पर चर्चाएं होने लगती हैं। आध्यात्म विद्या पर गहरे चिंतन-मनन के फलस्वरूप पुरोहितों के मंत्र-तंत्र आधारित कर्मकाण्ड को देखकर उन राजाओं में पुरोहितों (तांत्रिक) के प्रति अत्यन्त घृणा का भाव उत्पन्न होने लगा । --अत्यधिक भोगों की प्रतिक्रिया स्वरूप जब राजा के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया, तब आध्यात्मिक शक्ति से वंचित (Deprived) और उनके ऊपर ही आश्रित ब्राह्मण लोग विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्म-काण्डों में प्रवृत्त हो गये । किन्तु उनके यजमान (क्षत्रिय) को अब उन कर्मकाण्ड के ढोंग में कोई रूचि नहीं थी। फलस्वरूप ब्रह्मणों का वह रोजगार भी चला गया ।
इसीलिए पुरोहित शक्ति तब अपने प्राचीन कर्मकाण्डों (यज्ञ -बली आदि) की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गयी। जिसके फलस्वरूप पुरोहित शक्ति (त्याग विद्या -निवृत्ति मार्ग ) और राज शक्ति (भोग विद्या-प्रवृत्ति मार्ग) के बीच जो नया विवाद उत्पन्न हुआ उसने भारी कलह का रूप धारण कर लिया। [जिसका परिचय बौद्ध और जैन धर्मं के अभ्युदय से (राजा + ऋषि ) राजर्षि जनक जैसे बाहुबल और आध्यात्मिक बल -सम्पन्न राजा की राज्य सभा में वेद-उपनिषद पर होने चर्चाओं को देखने से प्राप्त होता है। (King Janaka was backed by Kshatriya prowess as well as spiritual power. वहां जो ब्राह्मण तर्क में हार जाते थे तब उन्हें जेल में डाल दिया जाता था -अष्टावक्र मुनि के पिता को भी जेल भेज दिया था।)] इस प्रकार हम देखते हैं कि भोगविद्या और त्याग विद्या ' लौकिक और आध्यात्मिक ' (अभ्युदय और निःश्रेयस) दोनों विद्यायें प्रथम अवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों में ही केन्द्रीभूत होती हैं ।
हमारे शास्त्रोक्त चार पुरुषार्थ भी प्रवृत्ति (धर्म,अर्थ और काम) से होकर निवृत्ति (मोक्ष या बुद्धत्व प्राप्ति) में बाधा नहीं देते। (क्योंकि मोक्ष या बुद्धत्वप्राप्ति को सभी के लिए अनिवार्य नहीं किया गया है।) किन्तु पूर्व में उल्लेखित ऐतिहासिक सूत्रानुसार, उसके बाद के युग में जब इन दोनों विद्याओं (प्रवृत्ति-निवृत्ति मार्ग) के अभ्यास और वितरण-पद्धति में युगानुकूल परिवर्तन नहीं करने के कारण वे साधारण मनुष्यों में संचारित न हो सकीं। इसलिए, हमारे पूर्वजों की जो विद्या (चारपुरुषार्थ वाली वर्णाश्रमधर्म की विद्या) प्रत्येक वर्ग को 'लौकिक अभ्युदय और निःश्रेयस ' दोनों प्रदान करने में समर्थ थी उस समस्त विद्या को जब राजा साधारण जनता तक संचारित करने में असफल हो गए तो राजा भी स्वयं उस विद्या से (कर्म और ज्ञानयोग की शीक्षा से) वंचित हो गया, तब साधारण जनता (प्रजा) अपनी उन्नति के प्रत्येक कार्य के लिए पूर्ण रूप से राजा (सरकार) का मुँह देखने लगी। [अर्थात जब राजर्षि जनक (राजा + ऋषि) जैसे राजा भी, चार पुरुषार्थ , चार आश्रम , सोलह संस्कार में आधारित सामाजिक व्यवस्था के आधार पर प्रवृत्ति मार्ग (भोगेच्छा) से निवृत्ति मार्ग (त्यागेच्छा) में आने की पद्धति - 3'H' विकास के 5 अभ्यास पद्धति का प्रचार-प्रसार करने में असफल हो गए। तब हमारे पूर्वजों की वह विद्या जिसे चार पुरुषार्थ में आधारित 'वर्णाश्रम धर्म' कहा जाता है, वह सम्पूर्ण भारत का कल्याण करने में सफल न हो सकीं। इसके फलस्वरूप साधारण जनता (प्रजा) अपनी उन्नति के प्रत्येक कार्य के लिए पूर्ण रूप से राजा (सरकार) का मुँह देखने लगी। ] इसके ही फलस्वरूप प्रजावर्ग के साथ शासक वर्ग का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। क्योंकि यह संघर्ष (Clash -विरोध या टकराव) साधारण जनता के साथ होता है , इसलिए इसके जय -पराजय के ऊपर ही सामाजिक अवस्था और सभ्यता की अवस्था (पतन या उन्नति ) भी निर्भर करती है।
यहाँ पहुंचकर स्वामी जी, वर्णाश्रम समाज-व्यवस्था के विषय में एक अन्य गंभीर तत्व को उपस्थापित करते हैं। वह यह कि विभिन्न समाजों की अपनी अलग अलग एक प्राण-शक्ति होती है। जो उस समाज, देश या कौम की प्राणस्वरूप होती है। उस प्राणशक्ति पर आघात पड़ने से, अथवा उसके दुर्बल व क्षीण होने से समाज -शरीर भी दुर्बल होकर नाना व्याधियों से ग्रसित हो जाता है। और साधरण जनता की अवस्था में अवनति दिखाई पड़ने लगती है। लेकिन प्राण शक्ति ठीक रहने से सब -कुछ ठीक-ठाक बना रहता है।
जिस देश की जो प्राणशक्ति है, उस रुझान के अनुकूल योजना बनाकर कार्य करने से जनता और समाज अधिक उन्नत होता है, और वह योजना (बाबा बौखनाथ की भक्ति में आधारित टनेल खुदाई में फंसे 41 मजदूरों की मुक्ति योजना 17 दिन बाद) भी सफल हो जाती है। इसीलिए समाज में परिवर्तन या उन्नति की समस्त योजनाएं राष्ट्र के प्राणशक्ति में आधारित होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त आम जनता के लिए भी वही सामाजिक परिवर्तन या उन्नति बोधगम्य तथा स्वीकार्य होती है, जिसे वे राष्ट्र की जीवनी-शक्ति के अनुरूप या उसका पोषण करने वाली समझते हैं।
किसी समाज या देश की इच्छा या आकांक्षा के प्रकटीकरण को उस समाज की भाषा का नाम दिया जा सकता है, जिसे वह समाज अच्छी तरह से समझता है। भारतवर्ष की उस प्राणशक्ति को स्वामी जी ने धर्म (आध्यात्मिकता) कहा है। इस गहन सिद्धांत को स्वामी जी ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया था -"क्योंकि भारतवर्ष (केवल कृषि-प्रधान देश ही नहीं) एक धर्म-प्राण देश भी है, अर्थात इसका प्राण धर्म में बसता है। इसलिए धर्म ही इस देश की भाषा है, इसके समस्त उद्यमों (पहलकदमी) का लिंग या चिन्ह है।" इसीलिए भारत की सामाजिक व्यवस्था में परविर्तन लाने के लिए जितने भी आंदोलन या विप्लव बार-बार किये गए हैं, वे सभी धर्म के नाम से ही हुए हैं; उन सब आंदोलनों के पीछे, सदैव हमारे राष्ट्र की प्राणशक्ति -धर्म को देखा जा सकता है।"
किसी अन्य देश में यह राष्ट्रिय प्राण-शक्ति राजनीति हो सकती है, या समाजनीति हो सकती है या अन्य कुछ (व्यापार) हो सकती है, किन्तु भारत के लिए वह प्राणशक्ति धर्म या आध्यात्मिक चेतना ही है। इसको स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने कहा था, " शासनकर्ता राजा (सरकार) और शासित साधारण जनता (प्रजा) के बीच पूर्वोल्लिखित विप्लव या सत्ता और प्रजा का संघर्ष भारत में भी बार- बार होता रहा है, किन्तु वे सारे विवाद धर्म को ही आधार बनाकर धर्म का अवलंबन (खालसा पंथी-सिक्ख, कबीरपंथी मुस्लिम, बौद्ध या जैन और हिन्दू के अद्वैत का अवलंबन) करके ही सुलझा भी लिया गया है। " उदाहरण के लिए उन्होंने - चार्वाक, जैन और बौद्ध, शंकर, रामानुज और चैतन्य आंदोलन, कबीर, नानक, ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज आदि आंदोलनों का उल्लेख करते हुए कहा था कि, इन सभी सम्प्रदायों के आविर्भाव को ऊपरी तौर से देखने पर, वहाँ " धर्म की उत्ताल तरंगे " ही वज्र की भाँति गर्जन करती हुई दिखाई देती हैं, किन्तु वास्तव में उन समस्त (धार्मिक -आन्दोलनों या Be and Make विप्लव) के माध्यम से
सामाजिक नैतिक अभावों की आपूर्ति ही हुई है। " (९/२१५)
इसी प्रसंग में प्राचीन धर्म की पतित अवस्था में अपनी -अपनी जाति या वर्ण के स्वार्थ को किसी भी प्रकार पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध होकर निरर्थक कर्मकाण्ड करने और 'कष्ट साध्य पुरुषार्थ " (धर्म, अर्थ और काम) का पूर्णतया वहिष्कार करने की प्रवृत्ति की स्वामी जी निन्दा करते हैं। वे कहते हैं - " यज्ञ आदि के नाम पर 'कुछ अर्थहीन शब्दों के उच्चारण' से ही यदि सारी कामनायें सिद्ध होती हैं, तो फिर अपनी इष्ट-सिद्धि के लिए कौन कष्ट-साध्य पुरुषकार (manliness) का सहारा लेगा ? और यदि यह रोग सारे समाज-शरीर में प्रवेश कर जाय तो समाज बिल्कुल उद्यमहीन होकर विनष्ट हो जायेगा। इसीलिए धार्मिक विप्लव के रूप में प्रत्यक्षवादी चार्वाकों # की चुभने वाली चुटकियाँ शुरू हुईं। " [चार्वाक सम्प्रदाय #-who believed only in the reality of sense-perceptions and nothing beyond. केवल इन्द्रियगोचर सत्य को ही सत्य समझते थे, इसलिए इन्द्रियातीत सत्य की खोज करने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। ]
इन समस्त धार्मिक विप्लव के समसामयिक (Contemporary) युग में उस विप्लव की प्रयोजनीयता , और कार्यकारिता आदि को यद्यपि बहुत संक्षेप में, तथापि बहुत कुशल तर्क की सहायता से उन्होंने दिखाया है। प्राचीन धर्म में आयी गिरावट के फलस्वरूप जब ब्राह्मणों के .. पशुमेध, नरमेध , अश्वमेध आदि यज्ञ के विस्तृत कर्मकाण्ड से भारत भूमि रक्तरंजित हो रही थी, तब जैन और बौद्ध विप्लव (क्षत्रिय विप्लव) ने जैसे साधारण जनता का उद्धार किया था। उसी प्रकार, कुछ समय बाद जब देश में प्रचलित बौद्ध धर्म का महान सदाचार घोर अनाचार में परिणत हो गया और साम्यवाद (universal all-embracing spirit of equality) की अधिकता से उस सम्प्रदाय में आये हुए विभिन्न बर्बर जातियों के पैशाचिक नृत्य से समाज काँपने लगा। उस समय आचार्य शंकर और रामानुज की अथक चेष्टा से समाज की रक्षा हो सकी। स्वामी जी का यह मानना था कि -" उनके बाद यदि कबीर, गुरु नानक ,गुरु गोविन्द सिंह , चैतन्य सम्प्रदाय, ब्रह्मसमाज और आर्य समाज का यदि जन्म न होता , तो अधिकांश हिन्दुओं जबरन धर्मान्तरण हो जाता और आज भारत में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान और ईसाईयों की संख्या निःसन्देह बहुत अधिक होती। " ९/२१६ ]
प्रत्येक वस्तु की तरह धर्म में भी 'सार और असार (अफ़ीम) ' मिश्रित है। सार को छोड़कर असार के आडम्बर में मन को निवेशित करने से अच्छी वस्तु भी शुभ फल नहीं देते, धर्म भी नहीं। यह सिद्धान्त इसी ऐतिहासिक पर्यालोचना से प्राप्त होता है। दूसरी ओर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि धर्म ( अर्थात बाबा बौखनाथ में आस्था रखने के साथ-साथ पुरुषार्थ भी करते रहना) ही भारत की यथार्थ उन्नति और परिवर्तन करने में सक्षम है।
[ छह ]
(व्यक्ति और समाज के बीच परस्पर सम्बन्ध के विषय में स्वामीजी की धारणा।)
स्वामी जी ने व्यक्ति और समाज के बीच परस्पर सम्बन्ध के विषय में अपने विचारों को बड़े स्पष्ट रूप रखते हुए कहा था- " समष्टि (समाज) के जीवन में व्यष्टि (व्यक्ति) का जीवन है; समष्टि के सुख में व्यष्टि का सुख है। समष्टि के बिना व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है; यही अनन्त सत्य जगत का मूल आधार है। अनन्त (समष्टि) के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख मानकर धीरे धीरे आगे बढ़ना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है। और कर्तव्य ही नहीं, इस नियम का उलँघन (अपवाद) करने से उसकी मृत्यु होती है। और उसका पालन करने से उसे अमृतत्व की प्राप्ति होती है। " ९/२१६
प्रत्येक मनुष्य की जो एक सामाजिक प्राणी है, उस 'मनुष्य' के सचेतन -प्रयास (कर्तव्य) की दिशा क्या होनी चाहिए ? यह बात यहाँ आकर बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। मनुष्य के इस कर्तव्यबोध का आधार है वेदान्तिक सत्य - सभी मनुष्यों का एकत्व, ' the unity of all human beings'-- या अनेकता में एकता के तत्व को समझ बूझकर (Consciously) इसी एकत्व (सर्वेभवन्तु सुखिनः की भावना) को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा, समाज के कल्याणकारी इतिहास की रचना में सहायक होती है। इस वेदान्तिक एकत्व के सत्य - की अनुभूति ही हमलोगों के भीतर सभी मनुष्यों के प्रति-भाव को संचारित करती है। और केवल अपने ही लोगों को नहीं, बल्कि पराये लोगों का मंगल या सभी मनुष्यों के मंगल, या समष्टि के कल्याण के लिए स्वयं को पूर्णतः निःस्वार्थपर बना लेने के लिए अनुप्रेरित करती है।
जब कोई मनुष्य इन दो गुणों - 'प्रेम और निःस्वार्थपरता' ( universal love and self-denying compassion for all) को एक ही साथ वर्जित (Exclude) कर देता है, और स्वार्थ के द्वारा चालित होकर प्रेम के बदले घृणा को प्रश्रय देने लगता है, तब इसके परिणाम-स्वरूप समाज में बहुत सारा कचरा (रूपी ढोंगी शुभचिंतक उसके इर्दगिर्द) आ कर जमा हो जाता है। किन्तु " समाज की आँखों पर बहुत दिनों तक पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। समाज के ऊपरी हिस्से में कितना ही कूड़ा-करकट क्यों न इकट्ठा हो गया हो, परन्तु उस ढेर के नीचे प्रेमरूपी निःस्वार्थ सामाजिक जीवन का प्राण-स्पंदन होता ही रहता है। सब कुछ सहने वाली पृथ्वी की तरह भारतीय समाज भी बहुत सहता है। परन्तु एक न एक दिन वह जागता ही है, और उस जागृति के वेग से युगों की एकत्र मलिनता तथा स्वार्थपरता दूर जा गिरती है। " (९/ २१६)
समाज विज्ञान का एक और गहन सत्य स्वामी जी की दृष्टि में उदभासित हो उठता है - " हम मनुष्य हजारों बार ठगे जाकर भी इस महान सत्य में विश्वास नहीं रखते। पागलों की तरह हम लोग कल्पना करते हैं कि हम प्रकृति को (माँ जगदम्बा को) धोखा दे सकते हैं। हमलोग अत्यन्त अल्पदर्शी हैं, समझते हैं कि स्वार्थ-साधन ही मनुष्य जीवन का चरम उद्देश्य है। हमें यह बात स्मरण नहीं रहती कि - विद्या, बुद्धि, धन , जन , बल, वीर्य जो कुछ प्रकृति (माँ जगदम्बा) हमलोगों के पास एकत्र करती है, वह फिर बाँटने के लिए है; सौंपे हुए धन में आत्म-बुद्धि हो जाती है, और बस इसी प्रकार हमारे विनाश का सूत्रपात होता है। " क्योंकि राजा (क्षत्रिय) जो प्रजा-समष्टि का शक्ति-केन्द्र है, वह बहुत जल्दी भूल जाता है कि शक्ति उसमें इसीलिए संचित हुई है कि वह फिर लोगों में हजार गुनी बंट जाय। ' राजा के स्वार्थी हो जाने से ' पालन के स्थान पर पीड़न ' चला आता है और 'रक्षण की जगह भक्षण' भी आप ही आप आ जाता है। (९/२१७)
इस अवस्था में यदि समाज बलहीन रहा (हिन्दू संगठित नहीं रहा -यदि अब भी जातियों में बँटा रहा) तो सबकुछ चुपचाप सह लेता है। और राजा -प्रजा दोनों ही हीन से हीनतर अवस्था में गिरकर शीघ्र ही किसी दूसरी बलवान जाति के शिकार बन जाते हैं। (कश्मीरी पंडितों को भारत में ही रिफ्यूजी बनकर रहना पड़ता है।) पर यदि समाज शरीर बलवान रहा ( विवेकानन्द भक्त महामण्डल की शाखाएं सब जगह फ़ैल गयीं, तब) --शीघ्र ही अत्यंत प्रबल प्रतिक्रिया उपस्थित होती है - जिसकी चोट से छत्र , दण्ड , चँवर आदि बहुत दूर जा गिरते हैं, और (नेशनल हेराल्ड रूपी) सिंहासन अजायबघर में रखी हुई पुरानी अनूठी वस्तुओं के सदृश हो जाता है। अभी के समय में 'राजा ' कहने का अर्थ प्राचीन इतिहास से भिन्न, राजशक्ति ( किसी संगठन को चलाने की शक्ति) या राष्ट्र शक्ति -वह चाहे जैसे भी 'नेता' के हाथों में हो, उसी के सन्दर्भ में कही हुई बात ,-समझना होगा।
[सात]
इस रचना के अंतस्तल में यद्यपि वेदान्त बुद्धि जन्य शान्त रस ( परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान प्राप्त होने पर, मन को जो शान्ति मिलती है वहाँ पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है, जहाँ पर न दुःख होता है, न ही द्वेष होता है मनुष्य का मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है और मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है।) हर जगह विद्यमान है। तथापि घने जंगल में पेड़ों के बीच से छन छन कर आने वाले सूर्य के किरणों की तरह, हास्यरस भी स्वामी जी की इस रचना में पर्याप्त है। किन्तु कहीं कहीं करुणरस की हल्की ध्वनि भी है जो वीभत्सरस के सामने पड़कर पल भर में ही निस्तब्ध हो जाती है।
इस राजशक्ति (क्षत्रिय शक्ति) के बाद ही वैश्य-शक्ति का उत्थान या उद्भव होता है। " वैश्य कहता है, 'पागल, जिसको तुम 'अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम' कहते हो वह मुद्रा-रूपी अनन्त शक्तिवान मेरे हाथों में है। देखो इसकी बदौलत मैं भी सर्वशक्तिमान हूँ। ब्राह्मणों , तुम्हारा तप-जप, विद्या-बुद्धि मैं इसके प्रभाव से अभी कैसे मोल ले लेता हूँ। और क्षत्रियों तुम्हारा अस्त्र,शस्त्र, तेज वीर्य भी इसकी कृपा से मेरी सहायक बन जाती है। ये जो तुम बड़े बड़े कल-कारखाने आदि देख रहे हो, वे मेरे मधु के क्षत्ते हैं। वह देखो, असंख्य शूद्ररूपी मक्खियाँ उसमें रात-दिन मधु एकत्र करती हैं। परन्तु वह मधु कौन पियेगा ? - मैं ! " (९/२१८)
आत्मरक्षा करने के विषय में सभी वैश्य एकमत रहते हैं, क्योंकि " वैश्यों को सदा इस बात का डर लगा रहता है कि कहीं उस धन को ब्राह्मण ठग नहीं ले, और क्षत्रिय जबरदस्ती छीन न ले। इसी कारण वैश्य लोग अपनी रक्षा के लिए सदा एकमत रहते हैं। अपने रूपये के बल से राज-शक्ति को दबाये रखने के लिए वह सदा व्यस्त रहता है। परन्तु उसकी यह इच्छा बिल्कुल नहीं होती कि यह राज-शक्ति क्षत्रिय कुल से शूद्र कुल (श्रमिक वर्ग) में चली जाये। किन्तु वैश्य या वणिक लोग व्यापार करने के लिए एक देश से दूसरे देशों तक जाते रहते हैं, " जिसके फलस्वरूप जो विद्या , सभ्यता और कला-कौशल ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अधिकार में समाज के केंद्रस्थल में जमा हुआ था , वह सर्वत्र संचारित होने लगा।
[आठ ]
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के हृदय की समस्त सहानुभूति मानो शूद्रकुल (श्रमिक वर्ग) के प्रति थी। वे भारत के भावी नेताओं से कहते हैं - "जिनके शारीरिक परिश्रम के बल पर ब्राह्मणों का आधिपत्य , क्षत्रियों का ऐश्वर्य और वैश्यों का धन-धान्य निर्भर करता है, वे आज कहाँ हैं और किस स्थिति में हैं ? समाज का मुख्य अंग होकर भी जो लोग सदा सब देशों में - 'जघन्य प्रभवो हि सः' कहकर पुकारे जाते हैं, उनका क्या हाल है ? जो लोग समाज के समस्त ऐश्वर्य के मूल कारण हैं, वे लोग ही चिरकाल से उत्पीड़ित (oppressed), उपेक्षित , अपमानित (humiliated) किये जाते रहे हैं-उनकी यह अवस्था स्वामीजी के लिए बिल्कुल असहनीय थी। इतना ही नहीं अंग्रेजों के शासनकाल में तो मानो सभी भारतवासी ही शूद्रत्व की अवस्था तक पदावनत (Degraded) हो चुके हैं, स्वामी जी के लिए सबसे बड़े दुःख की बात तो यह थी।
उनके प्रति अपनी गहरी सहानुभूति से उत्पन्न वेदना को स्वामी जी ने कैसी सुन्दर भाषा में व्यक्त किया था --" इस देश का हाल क्या कहा जाय ? शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्राह्मणत्व अभी गोरे अध्यापकों में है, और उसका क्षत्रियत्व चक्रवर्ती अंग्रेजों में है। उसका वैश्यत्व भी अंग्रेजों के नस नस में है। भारतवासियों के लिए तो केवल भारवाही पशुत्व अर्थात शूद्रत्व ही रह गया है। घोर अंधकार ने अभी सबको सामान भाव से ढँक लिया है। अभी चेष्टा (पुरुषार्थ) में दृढ़ता नहीं है, उद्यम में साहस नहीं है, मन में बल नहीं है, अपमान में घृणा नहीं है, दासत्व में अरुचि नहीं है, हृदय में प्रीति नहीं है और प्राण में आशा नहीं है। और है क्या ? केवल प्रबल ईर्ष्या, स्वजातिद्वेष, दुर्बलों का जैसे-तैसे नाश करने और कुत्तों की तरह बलवानों के तलवे चाटने में है। इस समय तृप्ति , धन और ऐश्वर्य का नंगा प्रदर्शन करने में है, भक्ति स्वार्थ-साधन में है, ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है, योग पैशाचिक आचार में है, कर्म दूसरों के दासत्व (नौकरी करने ?) में है, सभ्यता विदेशियों की नकल करने में है, वाक्पटुता कटुभाषण में है, और भाषा की उन्नति धनिकों की बेढंगी खुशामद में या जघन्य अश्लीलता के प्रचार में है। जब सारे देश में शूद्रत्व भरा हुआ है, तो शूद्रों के विषय में अलग से क्या कहा जाय। " ९/२१९ ]
स्वामीजी के समकालीन (वर्तमान) भारत का कैसा सटीक चित्रण है ! ( -বর্তমান ভারতের কি নিখুঁত চিত্রণ !) केवल इतना ही नहीं यह अवस्था आज भी समानरूप में अधिक रूप में सत्य है। केवल इतना ही नहीं , स्वाधीनता के 70 साल बाद आज भी यही अवस्था समान रूप से या उससे भी अधिक सत्य है। किन्तु स्वामी जी ने वर्तमान भारत की वस्तुस्थिति का केवल पूर्ण चित्रांकन ही नहीं किया था, वे तो इस चित्र में वर्णित उत्पीड़ित और शोषित, भारत की साधारण जनता को इससे बाहर निकलने का मार्ग भी दिखलाना चाहते थे।
स्वामी विवेकानन्द ने देखा था कि यह शूद्र जाति दूसरे देशों में यद्यपि थोड़ा जाग उठी है; किन्तु जाग उठने के बावजूद , जिस एकत्व-बोध (समत्व बोध ?) को अर्जित किये बिना उनका वह जागरण मुक्ति में सहायक नहीं बन सकता , स्वामी जी उसी राष्ट्रिय एकता को स्थापित करने वाले महत्वपूर्ण सूत्र की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे, इसलिए वे कहते हैं - " अन्य देशों के शूद्र-कुल की नींद कुछ टूटी सी है, पर उनमें विद्या नहीं है। ... उनकी जनसंख्या यदि अधिक ही है, तो क्या ? जिस (वेदान्तिक अद्वैत) एकत्व के बल से दस मनुष्य, लाख मनुष्यों की शक्ति अर्जित कर लेते हैं , वह 'एकता' अभी शूद्रों से कोसों दूर है। इसलिए शूद्र जाति मात्र इसी प्राकृतिक नियम- स्वजातिद्वेश, के अनुसार अभी तक पराधीन है।' (९/२१९) यहाँ केवल हमें स्वामी जी सहानुभूति ही नहीं दिखाई देती , बल्कि समस्याओं या वर्तमान अवस्था का ऐतिहासिक विश्लेषण तथा उसके भी ऊपर, वे इस अवस्था से बाहर निकलने का मार्ग भी दिखला देते हैं।
[जिस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह" और "सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं! " का जयघोष करते थे , उसी प्रकार स्वामी जी अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव के नाम का जयघोष करते हुए - नेता,ब्राह्मण, जीवनमुक्त शिक्षक, ब्रह्मविद या बुद्धत्वप्राप्त मनुष्य बनने और बनाने की प्रशिक्षण पद्धति "Be and Make " बतला रहे हैं।]
इस युग में विभिन्न वर्णों के मनुष्यों के धर्म को अन्य वर्णों में जन्मे व्यक्तियों में संचारित होता हुआ देख कर वे आशावान हो जाते हैं। कहते हैं - " परन्तु फिर भी आशा है। काल के प्रभाव से ब्राह्मण आदि वर्ण भी शूद्रों का नीच स्थान प्राप्त कर रहे हैं, और शूद्र जाति ऊँचा स्थान पा रही है। शूद्रों से भरे , रोम के दास यूरोप ने क्षत्रियों का बल प्राप्त कर लिया है। ... और नगण्य जापान हवा की तरह शूद्रत्व को झाड़ता हुआ ऊँची जातियों के गुणों पर अधिकार ले रहा है। महा बलवान चीन हमलोगों के सामने ही बड़ी शीघ्रता से शूद्रत्व प्राप्त कर रहा है। यहाँ ग्रीस (यूनान) और इटली तो क्षत्रियत्व के गुणों को अर्जित कर रहे हैं,किन्तु तुर्क, स्पेन आदि निम्न निचले स्तर पर क्यों जा रहे हैं? इसका कारण भी विचारणीय है। " (९/२१९)
इस प्रकार एक ही नजर में विभिन्न राष्ट्रों के उत्थान और पतन के कारणों को समझ लेना बहुत कठिन है। किन्तु , स्वामी विवेकानन्द की समकालीन वैश्विक इतिहास का विश्लेषण करने और निरीक्षण करने की यही शक्ति, आधुनिक इतिहासकारों को, आश्चर्यचकित कर देती है। शूद्रत्व के कारणों का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं - " युगों से पिसते आ रहे शूद्र मात्र ही या तो कुत्तों की तरह धनवानों, दबंगों के तलवे चाटने वाले बन गए है, या वे हिंस्र पशुओं की तरह निर्दयी (खतरनाक) बन गए है। फिर बहुत दीर्घ समय से उनकी अभिलाषायें निष्फल होती आ रही हैं, इसलिए उनमें संकल्प की दृढ़ता और अध्यवसाय जैसे चारित्रिक गुण उनमें बिल्कुल नहीं है। "
इसके पहले उन्होंने , जिस राष्ट्रिय एकता के महत्व को समझाया था , उसे समझ जाने के परिणाम स्वरुप स्वामी जी की धारणा थी कि - " एक ऐसा समय आएगा, जब शूद्रत्व के गुणों के साथ ही समाज पर शूद्रों का आधिपत्य होगा। " अर्थात आजकल शूद्र जाति जिस प्रकार वैश्यत्व या क्षत्रियत्व के गुणों को अर्जित कर अगड़े-पिछड़े को लड़वाने में अपना बल दिखला रहे हैं, उस प्रकार के जोर-जुल्म से नहीं, बल्कि अपने शूद्रोचित धर्म-कर्म के साथ ही समाज पर शूद्रों का आधिपत्य हो जायेगा।
स्वामी जी की यह धारणा थी कि ... समाजवाद (Socialism) इसकी उत्पत्ति यूरोप में 1835 में हुई थी, इसके अनुसार देश के मूलधन और भूमि का स्वामित्व समाज का हो, न कि किसी व्यक्तिविशेष का, जो शासन प्रणाली रूस और चीन में अब भी अन्य रूप में चल रहा है। अराजकतावाद (Anarchism, अर्थात मनुष्य यदि अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलना शुरू कर दे तो राजशासन या कानून की आवश्यकता नहीं है, 1814 में इसका जन्म हुआ। नाइलहिज्म (Nihilism) - या विनाशवाद रूस में 1862 में जन्मा जिसके मतानुसार तीन चीजें मिथ्या हैं - ईश्वर, राजा का शासन और विवाह ? आदि सम्प्रदाय- भविष्य में सत्य सिद्ध होने वाली इसी धार्मिक -विप्लव की आगे-आगे चलने वाली ध्वजायें हैं। विश्व इतिहास का गहन विश्लेषण करने के बाद, स्वामी जी ने अपनी रचना में -दिखलाया है कि " समाज का नेतृत्व विद्या या ज्ञान-बल से बली ब्राह्मणों के अधिकार में हो, या बाहुबल के बली क्षत्रिय के अधिकार में हो, धन-बल से बली वैश्यों के अधिकार में ही क्यों न हो, .. उस शक्ति का आधार या उत्स तो शोषित प्रजा -मुख्यतः शूद्रकुल ही है।" (९/२२१ )
अतः " शासक वर्ग (चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या वैश्य ही क्यों न हो) , इस शक्ति का उत्स या आधार (प्रजावर्ग) से अपने को जितना ही अलग रखेगा, या अपनी एक अलग पहचान बनाये रखना चाहेगा (जो जितना वीआईपी कल्चर रखेगा), उतना ही वह दुर्बल होगा। वे कहते हैं - " यह मानों माया की (माँ जगदम्बा की) ऐसी विचित्र लीला है कि जिनसे (प्रजा से ) प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से, छलबल -कौशल से (अन्ना -केजरी कट्टर ईमानदार फार्मूला ) यह शक्ति अर्जित होती है , उसी जनता अपना मालिक मानने, या जनता (आम-आदमी) को जनार्दन समझने की भावना वैसे सभी शासकों के मन से शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। "
और पुरोहित शक्ति जैसे ही अपने को प्रजा वर्ग से अलग करती है, उसी समय प्रजा से अपने को जोड़े रहने वाली क्षत्रिय शक्ति, पुरहितों को (ब्राह्मणों को) शक्तिहीन करके या पराजित करके समाज का नेतृत्व करने की क्षमता से निष्कासित कर देती है। फिर उसी प्रकार, जब क्षत्रिय लोग भी , अपने को समाज का सर्वसमर्थ मुखिया मानकर, अपने और अपनी प्रजा के बीच लम्बी दुरी बना लेते हैं, तब साधारण प्रजा से कुछ अधिक सहायता पाने वाले वैश्य-कुल, राजशक्ति को (क्षत्रिय को) या तो नष्ट कर डालते हैं या अपने हाथ की कठपुतली बना लेते हैं।
इस समय जब वैश्यकुल (ईस्ट इंडिया कंपनी) अपनी स्वार्थसिद्धि कर चुका है, इसलिए प्रजा को अनावश्यक समझकर वह अपने को प्रजा के सुख-दुःख से अपने अलग समझ रहा है, और प्रजाकुल (मुख्यतः शूद्रकुल ) से अपने को सम्पूर्णतः अलग कर लेने की चेष्टा कर रहा है, ... उस समय स्वामीजी बिल्कुल स्पष्ट रूप से देख पा रहे थे कि अब यह वैश्यशक्ति भी खुद अपनी मृत्यु का बीज बो रहा है। (और ठीक 50 वर्ष बाद उन्हें भारत छोड़कर भागना पड़ेगा। फिर यह भी दिखाते हैं कि " साधारण प्रजा ( मुख्य रूप से शूद्र ) ही देश की सारी शक्ति का आधार है, किन्तु जाति -धर्म के नाम पर उन्होंने आपस में इतना भेद कर रखा है कि वह अपने सब अधिकारों से वंचित है। और जब तक ऐसा भाव रहेगा तब तक उसकी यही दशा रहेगी। वे सुख-शांति से वंचित ही रहेंगे। " ९/222 ]
राष्ट्रीय एकता के उपादानों का विश्लेषण करके स्वामीजी एक सिद्धान्त देते हुए कहते हैं - " एक सामान विपदा और घृणा ही सामूहिक प्रेम और सहानुभूति का कारण होती है। " जिनकी विपत्ति एक है , जिनकी घृणा एक है , उनके भीतर ही परस्पर प्रेम और सहानुभूति का जन्म होता है। यह नियम सभी जीवों पर लागु होता है। जंगली पशु भी इस नियम वश एकत्रित होते हैं , और सर्व जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य भी इसी नियमवश एकत्रित होकर एक राष्ट्र या एकदेशवासी में परिणत होते हैं। समाज-गठन का प्राथमिक स्थूल कारण यहां प्रकाशित है। जिन देशों को एक ही प्रकार की विपत्ति- इस्लामिक आतंकवाद का सामना करना पड़ता है, जिनकी घृणा और नापसन्द के विषय एक होते हैं (हमाज -इस्राइल युद्ध, बंगाल में मूर्तिपूजा में विघ्न और केरल में कांग्रेसियों द्वारा गौहत्या) उन देशों या व्यक्तियों के बीच परस्पर सहानुभूति और प्रीति का जन्म होता है। - जिस नियम से हिंस्र पशु दलबद्ध होकर शिकार करते फिरते हैं, उसी नियम से - सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य भी मिलकर रहते तथा जाति या राष्ट्र का संगठन करते हैं। "९/ २२२]
हिन्दू- राष्ट्र गठन का प्राथमिक स्थूल कारण यहाँ आकर प्रकट हो जाता है। इतिहास से उदाहरणों को उठाकर स्वामी जी ने दिखलाया है कि - " इसी स्वजाति प्रेम और परजाति विद्वेष ने प्रतिद्वंद्विता की सृष्टि कर , ईरान -द्वेषी यूनान को , कार्थेज -द्वेषी रोम को (ट्यूनिस के पास उत्तरी अफ्रीकी तट पर एक प्राचीन शहर राज्य को संदर्भित करता है; फोनीशियनों द्वारा स्थापित; रोमनों द्वारा नष्ट और पुनर्निर्मित जिसे 697 में अरबों द्वारा नष्ट कर दिया गया ।) , काफ़िर -द्वेषी अरब जाति को, मूर -द्वेषी स्पेन को , स्पेन- द्वेषी फ़्रांस को, फ़्रांस -द्वेषी इंग्लैण्ड और जर्मनी को तथा इंग्लैण्ड द्वेषी अमेरिका को उन्नति के शिखर पर चढ़ाया है। "
[भारतवर्ष को बुद्धत्व प्राप्त नर देवता (विश्व मित्र) बनने और बनाने के समय को और नजदीक लाने के उद्देश्य से C-IN-C नवनी दा ने 1967 में " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप (शिक्षक- प्रशिक्षण) C-IN-C परम्परा में भारत के युवाओं को लीडरशिप ट्रेनिंग देकर इससे बाहर निकलने के उस मार्ग को उद्घाटित कर देते हैं। और भारत में वह समय 2014 में आ जाता है, जब -130 करोड़ भारत वासी को जनार्दन मानकर, 'जनता जनार्दन की सेवा' करने का गुण, या ठाकुर की भाषा में 'शिवज्ञान से जीवसेवा' का गुण आने के साथ ही एक चाय बेचने वाले शूद्र (किन्तु ब्रह्मणत्व में प्रतिष्ठित) लड़के 'नरेन्द्र मोदी' का भारत पर आधिपत्य हो जाता है। क्योंकि वे भी 'समत्व' (ब्रह्मत्व, बुद्धत्व या विश्व-मित्र सबका साथ सबका विकास) में प्रतिष्ठित थे -
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥
(गीता- १३- २७)॥
परमात्मा सभी जीवों में एक से स्थित हैं। विनाश को प्राप्त होते इन जीवों में जो अविनाशी उन परमात्मा को देखता है, वही वास्तव में देखता है।]
[नौ ]
कोई व्यक्ति या राष्ट्र एकाकी होकर जीवित नहीं रह सकता या उन्नति नहीं कर सकता। समाज से वियुक्त होकर (दूधदेने वाले यादव जाति के बिना) तो अपने प्राणों की रक्षा करना भी कठिन है। इसीलिए 'व्यष्टि' के स्वार्थ (निजी-स्वार्थ) को कम करते हुए, 'समष्टि' के स्वार्थ पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसीलिए सच्चा स्वार्थबोध, हमें क्षुद्र स्वार्थों को त्याग देने की शिक्षा देता है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी जी अपनी भाषा में कहते हैं - " Self-love is the first teacher of self-renunciation. The joining of friendly hands in mutual help for the protection of this self-interest is seen in every nation, and in every land.]" स्वार्थ ही स्वार्थ-त्याग का प्रधान शिक्षक है। " निःसंदेह , इस स्वार्थ की परिधि विभिन्न लोगों के लिये भिन्न-भिन्न होती है। ( Of course, the circumference of this self-interest varies with different people.) तथापि, हमें यह बात एक दिन समझ में आ ही जाती है, कि 'स्वजाति (अपने गोत्रज- agnate #) के स्वार्थ में ही अपना स्वार्थ है, 'स्वजाति के कल्याण में ही अपना कल्याण है। ' (भारत का कल्याण मेरा कल्याण है !) इसलिए राष्ट्रीय एकता, सहयोग, सहकारित्व का भाव (Cooperative culture), परस्पर मिलकर एक हो जाना (merger) देश की तरक्की के लिए बहुत आवश्यक है। किन्तु उन्होंने भारतवर्ष में इस समझ का अभाव देखा था, इसलिए क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था - " वंश-विस्तार करनेऔर किसी प्रकार अपना पेट भरने का अवसर पाने (आहार,निद्रा ,भय , मैथुन) से ही हम भारतवासियों की पूरी स्वार्थसिद्धि हो जाती है। और जो उच्च वर्ण के लोग हैं, वे इससे अधिक केवल इतना चाहते हैं कि -उनके धर्माचरण में कोई बाधा न पड़े। इसके अतिरिक्त उनकी मानों और कोई आकांक्षा ही नहीं है।" (९/२२२)
[ agnate # : अपने गोत्रज या हिन्दू जाति या वैसे मुसलमान जो इस बात पर गर्व करती हो कि मेरे पूर्वज मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम थे जो अरब से नहीं आये थे, और जो स्वयं भगवान (सर्वशक्तिमान) होकर भी सर्वत्यागी शंकर को ही अपना उपास्य देवता समझते थे। वैसे भारतमाता की जय बोलने वाले बुद्धिमान हिन्दू-मुसलमानों की एकता में ही सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण है। हमने परिच्छेद 5 में देखा था कि संघमन्त्र, संघशक्ति राष्ट्र-शक्ति के उद्भव (emergence of state power) को स्वामी जी द्वारा प्रदत्त इसी ऐतिहासिक सूत्र का अनुसरण करके,भी समझा जा सकता है। " क्योंकि साधारण जनता में त्याग की अपेक्षा भोग करने की प्रवृत्ति (tendency) ही प्रबल होती है, इसीलिए सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए (To protect the common right)- " समान प्रयत्न, समान आकूति (आकांक्षा)" रखते हुए व्यक्तिगत स्वार्थत्याग का भाव -- प्राचीन युग बात तो दूर , आज के समय भी किसी भी देश में सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं है।" (९/२१३) ]
यहाँ प्रसंगवश 'अंग्रेज शासन -प्रणाली का उल्लेख ' करते हुए स्वामी जी कहते हैं- "पाटलिपुत्र साम्राज्य (मगध साम्राज्य) के पतन के बाद सम्पूर्ण भारतवर्ष पर एक ऐसे शक्तिशाली और सर्वव्यापी शासन-तन्त्र का प्रभाव दिखाई देता है, जैसा प्रभाव इस देश में कभी नहीं हुआ। वैश्य-आधिपत्य वाले शासन-तंत्र की जिस चेष्टा से उस देश का माल, अन्य देशों में पहुँचाया जा रहा है, उसी चेष्टा के फलस्वरूप पाश्चात्य संस्कृति की भावराशि भी बलपूर्वक भारत की अस्थि-मज्जा (bone and marrow of India) में प्रविष्ट होती जा रही है, उन भावों में कुछ तो बहुत ही लाभदायक हैं, कुछ हानिकारक हैं। " फिर भी, स्वामी जी यही देखते हैं कि, इन समस्त घटनाओं तथा इन समस्त वैचारिक -संघर्षों के परिणाम स्वरूप भारत अपनी दीर्घ कालीन निद्रा को त्याग कर, धीरे धीरे जाग्रत हो रहा है। और इस नवजागरण बेला में, यदि भारतवासियों से कुछ भूलें भी हो जाती है, तो उससे इस राष्ट्र की कोई बहुत बड़ी हानि होने की सम्भावना नहीं है । "इसके कारण को स्पष्ट करते हुए, स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हमारे अब तक किये गए सभी कार्यों में भूल-भ्रम-प्रमाद ही हमारे सर्वोत्तम शिक्षक रहे हैं। (इंद्रियातीत) सत्य का पथ उसी (प्रजाति) को मिलता है, जिससे भूलें होती हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो केवल सत्यान्वेषण की प्रथम अवस्था में भ्रमवश इन्द्रियगोचर सत्य को ही एकमात्र सत्य समझने की भूल करता है, किन्तु विवेक जाग्रत होते ही परम् सत्य को प्राप्त कर सकता है। वृक्ष से भूल नहीं होती, पत्थर को भ्रम नहीं होता, पशुओं को भी कभी प्रकृति के निश्चित नियमों का उल्लंघन करते (transgress) नहीं देखा जाता है। लेकिन, सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा एकमात्र प्राणी है, जो पूर्णतः निःस्वार्थी बनने की चेष्टा में हजारों भूलों को करते-करते बुद्धत्व को प्राप्त कर एक दिन बुद्ध या नरदेव (God-on-earth) बन जाता है।
यदि जागने से लेकर सोने तक के हमारे सभी क्रिया-कलापों को दूसरे लोग ही निश्चित कर दे, मुण्डन संस्कार , यज्ञोपवीत संस्कार आदि से लेकर, दाहसंस्कार तक और राजशक्ति दबाव डालकर हमें उन कठोर नियमों के बंधन में और ज्यादा जकड़ दें, तब फिर हमलोगों को अपनी स्वतंत्र चिंतन क्षमता को विकसित करने का अवसर कैसे मिलेगा ? सब कुछ नियम से बंधा हो, और यही अवस्था दीर्घ दिन से चलते रहने से 'मननशीलता' जो मनुष्य का परिचय है - जिसके रहने से ही मनुष्य को मनीषी और ऋषि-मुनि आदी कह कर उसका परिचय दिया जाता है। वही परिचय लुप्त होने के कागार तक आ पहुँचा और देश में तमोगुण या जड़ता का आविर्भाव हुआ। और इन्हीं सब वैचारिक संघर्षों के बीच धर्मनेता और समाज-नेता समाज के लिए और भी कड़े कानून बनाने में व्यस्त हो गए !
इस सबको देखकर स्वामी जी बड़े क्षोभ से प्रश्न करते हैं - ("What makes a man a genius, a sage? Isn't it because he thinks, reasons, and wills? Without exercise, the power of deep thinking is lost. Tamas prevails, the mind gets dull and inert, the spirit is brought down to the level of matter. ")
" कोई मनुष्य प्रतिभाशाली या ऋषि कैसे बन जाता है ? क्या इसलिए नहीं कि वह विवेक-प्रयोग करता है, और अपनी इच्छा-शक्ति के विकास और प्रवाह पर अपना पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है? क्या हम नहीं जानते कि मनःसंयोग (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास नहीं करने से शाश्वत-नश्वर (जड़-चेतन) में 'विवेक-प्रयोग' करने की शक्ति ही लुप्त हो जाती है ? क्या ऐसा नहीं कि स्वयं को जड़ शरीर और मन समझ लेने से, जड़ता का जो गुण -'तमस ' है, वह हम पर हावी हो जाता है ? हमारा मन उत्साह-हीन और निष्क्रिय हो जाता है और आत्मा ( Consciousness) जड़ पदार्थ के स्तर तक नीचे गिर जाती है ? (Yet, even now) इतना सब कुछ हो जाने पर भी, प्रत्येक धर्म-नेता (मुल्ला-पंडित) और समाज-नेता समाज के लिए नियम बनाने (फ़तवा जारी करने) में ही व्यस्त है! देश में क्या नियमों की कमी है ? नियमों से पीसकर समाज जो अधोगति को प्राप्त हो रहा है, उसे कौन समझता है ? " (९/२२३)
यहाँ स्वामी जी अंग्रेज शासन (English rule) के सम्बन्ध में और एक ऐतिहासिक सत्य की ओर वे हमारी दृष्टि को आकृष्ट करते हैं। वे कहते हैं -" सम्पूर्ण स्वाधीन और स्वेच्छाचारी सम्राट जिस देश में अधिष्ठित हैं, उनके अधीन विजित जाति विशेष घृणा का पात्र नहीं होती हैं। शक्तिशाली सम्राट की सब प्रजायें समान अधिकार रखती हैं--अर्थात किसी भी प्रजा को राज-शक्ति पर नियमन करने कोई अधिकार नहीं होता। परन्तु जहाँ प्रजा-नियंत्रित राजशाही या कोई प्रजातन्त्र विजित जाति पर राज्य करता है, (जैसे इंग्लैण्ड) तब- वहाँ विजयी और विजितों के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है। और जो शक्ति, विजितों के हित-साधन में पूरी तरह लगायी जाने से, थोड़े ही समय में विजित जाति का बहुत कल्याण कर सकती थी, उस शक्ति का बहुत सा हिस्सा विजित जाति को जबरन अपने वश में रखने की चेष्टा में ही खर्च किया जाता है, और इस प्रकार वह व्यर्थ नष्ट हो जाती है।" उदाहरण स्वरुप स्वामी जी, प्रजातान्त्रिक रोम और रोमन सम्राट के अधीन रोम के द्वारा जीते देशों की विजातीय प्रजा (Foreign subjects) की अवस्था के बीच पार्थक्य का उदाहरण देते हुए कहते हैं- " विजयी और विजित जाति के बीच घृणा दोनों का अमंगल ही करती है। उसी प्रकार स्वजाति (भारत वासियों) में भी (जाति -धर्म के नाम पर) यदि परस्पर के प्रति घृणा का भाव हो, तो उससे भी समाज के सभी लोगों (हिन्दू -मुसलमान दोनों) को हानि ही पहुँचती है।
" यदि कोई अंग्रेज किसी (मुसहर -भुइयाँ) भारतीय को 'नेटिव ' अर्थात 'कलुआ' या असभ्य कहकर घृणा व्यक्त करे तो उससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि, हमलोगों में तो उससे कहीं अधिक जातिगत घृणा-बुद्धि पहले से ही है। पूर्वी आर्याव्रत में सब जातियाँ जो सामाजिक उन्नति के लिए आपस में कुछ सद्भाव रखती दिख पड़ती है, किन्तु महाराष्ट्र के ब्राह्मण 'मराठा ' जाति की स्तुति जिस रूप से करने लगे हैं, उसे छोटी जातियों के लोग अभी तक निःस्वार्थ भाव का फल नहीं समझते हैं। उसमें स्वामी जी ने निम्नजाति के लिए जिस घृणा भाव को अनुभव किया था, शायद उन्होंने देखा था कि पूर्वी आर्याव्रत में वह भाव अवर्तमान है। ???? -- । " ९/२२४ ]
अंग्रेज भी यह समझ गए थे कि यदि भारत साम्राज्य उनके हाथ से निकल गया तो अंग्रेज जाति का विनाश हो जायेगा। अतः भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए -अंग्रेज जाति के 'गौरव' को भारतवासियों के हृदय सदा जाग्रत रखना अनिवार्य होगा। इस बात को स्वामीजी ने अंग्रेजों की बुद्धि के क्रमविकास के रूप लक्ष्य किया था। किन्तु स्वामी जी का विचार यह था कि, अंग्रेजों ने जिस वीर्य , अध्यवसाय और एकान्त स्वजाति-प्रेम के बल पर इस देश को हथिया लिया है, और जिस वाणिज्य-बुद्धि से उन्होने भारत जैसे सब प्रकार के धन-धान्य उत्पन्न करने वाले देश को भी अंग्रेजी माल का बाजार बना रखा है,' अंग्रेज यदि अपने किसी भी क्षेत्र में प्राप्त 'गौरव ' पर व्यर्थ में शोरगुल मचाने के बजाए, इन सब चारित्रिक गुण, जो उनमें सन्निहित थे, उसका विकास और रक्षा करने की चेष्टा करते , तो वह चेष्टा अधिक फलदायक हो सकती थी। स्वामी जी का मानना था कि, अंग्रेजों ने अध्यवसाय , स्वजाति प्रेम तथा विज्ञान का सहारा लेकर जिस वाणिज्य -बुद्धि के बल पर भारत पर विजय प्राप्त कर लिया था, उनमें यदि वे गुण उनमें वैसे ही बने रहते, तो वह ऐसे अन्य कई विजय को सम्भव बना सकती थे। किन्तु ये गुण यदि घट जाएँ तो अपने गौरव (mere preservation of meaningless "prestige".) को लेकर शोरगुल करते रहे, तो उससे विजयी या विजित दोनों में किसी का भला नहीं हो सकता।
[दस]
इसी प्रसंग में, भारतीय- संस्कृति का एक और दुर्बोध्य तत्व (सिद्धान्त)- 'जाति-प्रथा' के ऊपर भी थोड़ा प्रकाश डालते हुए, स्वामी विवेकान्द कहते हैं - भारत में जो जातिचतुष्टय -बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि प्रचलित है, वैसी व्यवस्था सभी देशों में है। हमारे देश में पहले गुणानुसार वर्ण-व्यवस्था ही प्रचलित थी। बाद में यह जन्मगत जाति -व्यवस्था में परिणत हो गयी।किन्तु , विश्व के दूसरे देश चूँकि इस गुणगत # जातिव्यस्था में निहित तत्वों से परिचित नहीं थे, इसलिए वहाँ इसे कभी जन्मगत जाति -व्यवस्था में रूपांतरित नहीं किया जा सका।
[गुणगत # सांख्य शास्त्र में 'गुण' शब्द प्रकृति के तीन अवयवों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रकृति सत्त्व, रजस् तथा तमस् (माया ) इन तीन गुणोंवाली है। गुणों की साम्यावस्था का ही नाम प्रकृति है। इन तीनों गुणों से अलग प्रकृति कुछ भी नहीं है। इसी कारण प्रकृति को त्रिगुणात्मिका कहते हैं। इन गुणों की प्रधानता के आधार पर व्यक्तियों की प्रकृति, आहार, कर्म आदि का भी विभाग किया जाता है। परंतु सांख्य के अनुसार पुरुष या आत्मा गुणातीत है। योग के अनुसार ईश्वर भी इन गुणों से परे है। (जो मनुष्य विवेक-प्रयोग नहीं करके माया (गुणों) का खिलौना बन जाता है) , उसको सारे क्लेश, सांसारिक आनंद आदि का अनुभव गुणों के कारण होता है, अत: योग का चरम लक्ष्य निस्त्रैगुण्य अवस्था में पहुँचना माना गया है।]
यह जाति तत्व इतना दुर्बोध्य विषय है कि , अन्यत्र स्वामी जी कहते हैं - 'दस लाख में कोई एक व्यक्ति ही इस गुणगत 'जाति चतुष्टय ' के सिद्धान्त को समझ सकता है। ' गुणगत-जातिप्रथा, जो सभी देशों में प्रचलित है; तथा पहले इस देश में भी प्रचलित थी, तथा जन्मगत- जातिप्रथा जो इस समय देश में प्रचलित है - इन दोनों में ही कुछ गुण और कुछ दोष हैं। अपनी इस रचना में स्वामी जी ने उस विषय पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। किन्तु इस रचना का मुख्य स्वर यही है कि - सभी समाजों में प्रत्येक जाति के गुण और दोषों के आधार पर क्रमानुसार जिस प्रकार एक एक जाति का आधिपत्य होता चला आ रहा है , उसी प्रकार भविष्य में शूद्र जाति का भी अभ्युत्थान और समाज पर आधिपत्य होना निश्चित है।
इस देश में गुणगत या गुणानुसार जो वर्ण-व्यवस्था प्राचीन काल में प्रचलित थी, उसीके चलते शूद्रकुल की कभी उन्नति न हो सकी। शूद्रकुल का गुण (धर्म) शरीरिक श्रम करना था, दूसरों के लिए श्रम करते हुए वे सदैव शूद्र ही बने रह गए। यदि शायद ही कभी (কালেভদ্রে-rarely) एक-दो असाधारण मनुष्य शूद्रकुल में उत्पन्न भी होते, तो उच्च वर्ण उन्हें तुरंत ही महर्षि आदि की उपाधियाँ देकर अपनी मण्डली में खींच लेता था। इसलिए शूद्रकुल की विद्या का प्रभाव और धन का हिस्सा अन्य जातियों के ही काम आता था। उनके सजातीय (शूद्र लोग) उनकी विद्या, बुद्धि, और धन से कुछ लाभ नहीं उठा पाते थे। इतना ही नहीं , यदि उच्च वर्णों में यदि कोई गुणहीन पैदा हो जाता, तो उस निकम्मे मनुष्य को भी वे शूद्रकुल में ही मिला दिया करते थे।
इसका उदाहरण देते हुए स्वामीजी कहते हैं - "वशिष्ठ , नारद , सत्यकाम जाबाल , व्यास , कृप , द्रोण, कर्ण, बिदुर आदि ने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व प्राप्त किया था किन्तु इससे उनकी अपनी अपनी जाति या समुदाय उनके द्वारा अर्जित गुण का अंशभागि कभी नहीं हो सके। इसीलिए आधुनिक भारत में जातिप्रथा इतनी कड़ी बना दी गयी है कि, शूद्रकुल में उत्पन्न बड़े से बड़ा व्यक्ति (मंत्री या करोड़पति) को भी अपना समाज छोड़ने का अधिकार नहीं है। जिसके फलस्वरूप उसकी विद्या-बुद्धि और धन उसी जाति में रह जाता है, तथा उन्हीं लोगों के समाज का कल्याण करने में प्रयुक्त होता है। इसीलिए , जाति चाहे जो भी हो (irrespective of caste,জাতি-নির্বিশেষে ), यदि देश में सभी के लिए एक ही कानून लागू हों, तो विद्या का प्रचार होने से, निम्नतर जातियों का अधिक विकास होना सम्भव हो जायेगा। [जब तक भारत में बिना जाति की परवाह किये दण्ड -पुरस्कार देनेवाला राजशासन (मोदी-शासन ?) रहेगा, तब तक निम्न जातियों की इसी प्रकार उन्नति होती रहेगी। ]
[ग्यारह]
वैश्य युग में विभिन्न विचारों का संचार होने के फलस्वरूप परस्पर के बीच विभिन्न विचारों के प्रभाव और क्रिया के विश्लेषण के प्रसंग में स्वामीजी भारत में आये एक नवजागरण का उल्लेख करते हुए कहते हैं - " विदेशी विचारों के साथ संघर्ष करते हुए भारत धीरे धीरे जग रहा है, इस थोड़ी सी जाग्रति के फलस्वरूप स्वतंत्र विचार का थोड़ा उदय भी होने लगा है। " लेकिन, इसी असाधारण स्वतन्त्र-सोंच क्षमता में थोड़ी सी वृद्धि होने के साथ साथ एक प्रकार का द्वन्द्व या संघर्ष भी दिखाई देता है।
" एक ओर आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान है, जिसकी चमक सैकड़ों सूर्यों की ज्योति की तरह आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है; तो दूसरी ओर हमारे पूर्वजों द्वारा उद्घाटित देवदुर्लभ अध्यात्मतत्व है, अपूर्व वीर्य और उनकी अमानवी प्रतिभा की अद्भुत कथाएं हैं। [एक ओर नये नये अदब-कायदे ,तथा नये नये फैशन , जिनके अनुसार सज-धज कर हमारे सामने आजकल की विदुषी नारी काफी निर्लज्जता पूर्ण स्वतन्त्रता से घूमती फिरती हैं। परन्तु फिर वह दृश्य बदलकर इसके स्थान पर एक दूसरा गंभीर दृश्य आ जाता है, और वह है नाक से लिलार तक सिंदूर लगाए - सीता , सावित्री , व्रत-उपवास, तपोवन, जटाजूट, वल्कल , गैरिक वस्त्र , कौपीन , समाधि एवं आत्मोलब्धि की (त्रिगुणातीत होने की?) सतत चेष्टा। " ]
इन दोनों भिन्न विचार-धाराओं के संघर्ष के बीच में फंसकर वर्तमान भारत मानो एक बार सोचता है कि " भविष्य के संदिग्ध पारमार्थिक - हित (राम) के मोह में पड़कर मैं इस लोक से प्राप्त होने वाले (भौतिक सुख) का व्यर्थ में कहीं नाश तो नहीं कर रहा हूँ ? ( अबतक तो मुझे न माया मिली ,न राम ही मिले ?) फिर मंत्रमुग्ध की तरह सुनता है-
इति संसारे स्फुटत्रदोषः कथमिह मानव तव सन्तोषः ॥
— (मोहमुद्गर-13)
यह संसार परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर है, संसार में ये सब दोष--जन्म,जरा मृत्यु आदि भरे पड़े हैं, ऐ मनुष्यों , यहाँ और इसी जीवन में अविनाशी को प्राप्त किये बिना तुम्हें परमानन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? संसार में इस जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हुए -सचमुच सन्तोष या परितृप्ति कहाँ है ? "Here, in this world of death and change, O man, where is thy happiness?"
स्वामी जी ने कहा था - "Of the West, the goal is individual independence, the language money-making education, the means politics; of India, the goal is Mukti, the language the Veda, the means renunciation."
'पाश्चात्य जगत का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वाधीनता है, भाषा अर्थकरि विद्या (money-making education) है, और उपाय राजनीति है। भारत का उद्देश्य (मोक्ष) मुक्ति है, भाषा वेद (शीक्षा) है -(Man-making education, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा है) और उपाय त्याग (धर्म) है। " (९/२२५)
जीवन के सभी क्षेत्रों में यही द्वन्द्व वर्तमान भारत के मन को द्विधाग्रस्त कर रहा है। आधुनिक भारत कभी सोंचता है कि 'हम भारतियों को भी पति-पत्नी चुनने में पाश्चात्यों के समान पूरी स्वंत्रता मिलनी चाहिए। यही नहीं भाव, भाषा, आहार-विहार, स्त्री-पुरुषों के बीच मेल-जोल या आचार-व्यवहार आदि में कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने से ही हमलोग उन लोगों के जैसा बलवीर्य सम्पन्न बन सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है, कि " विवाह इन्द्रिय-सुख के लिए नहीं है, वरन आर्य सन्तानोपत्ति के लिए है।"(Marriage is not for sense-enjoyment, but to perpetuate the race. ... मुर्ख ! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है ? बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है ? "एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कह रही हैं, वही अच्छा है। यदि अच्छा नहीं है, तो वे बलवान कैसे हुए ? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक ! तुम्हारी ऑंखें चौंधिया रही हैं -सावधान ! "( ९/२२६) ]
तो क्या हमें पाश्चात्य जगत से कुछ भी सीखने को नहीं है ? स्वामी जी कहते हैं-' नहीं , सीखने को बहुत कुछ है। सीखने का प्रयत्न तो हमें जीवन भर करना चाहिए। प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। श्री रामकृष्ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ , तब तक सीखूं ' ("As long as I live, so long do I learn.) जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना नहीं है, वह मृत्यु के मुख में जा चुका है। सीखने को तो है, परन्तु भय भी है। O India, this is your terrible danger -- "हे भारत ! उस विकट भय का कारण देखो यह है- कि पाश्चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा हमलोगों में इतनी प्रबल हो जाती है, कि भले-बुरे का निश्चय, शास्त्र सम्मत हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भारतीय भाव या आचार की प्रशंसा करें, वही अच्छा है, और वे जिसकी निन्दा करें , वही बुरा ! अफ़सोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय- अपने आत्मविश्वास के अभाव का परिचय - और क्या होगा ?
" पाश्चात्य लोग यदि मूर्ति-पूजा का मजाक उड़ाते हैं, और एकेश्वरवाद को कल्याण-प्रद बताते हैं, इसलिए क्या हमें अपने देव-देवियों (बाबा बौखनाग) को गंगा जी में फेंक देना चाहिये ? पाश्चात्य लोग जातिभेद को आपत्तिजनक (obnoxious) समझते हैं, इसलिए क्या सब वर्णों को मिला कर एक कर देना चाहिये ? हमे इस बात पर अवश्य चिंतन-मनन करना चाहिए कि कोई प्रथा क्यों चलनी चाहिए , या क्यों रुकनी चाहिए ? " स्वामी जी कहते हैं - " हमारे यहाँ की नारियों की लज्जाशीलता , बाल्य विवाह , वेशभूषा , खाद्य , मूर्तिपूजा , देव-देवी , जातिप्रथा आदि को चूँकि गोरे लोग खराब समझते हैं, इसीलिए क्या हमलोगों को भी उन्हें खराब समझ लेना चाहिए ? नहीं , हमे अवश्य इसका प्रतिवाद करना चाहिए।"
इतना ही नहीं, पाश्चात्य समाज की प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर स्वामीजी कहते हैं, " पाश्चात्यों के अनुकरण पर गठित समाज इस देश में किसी काम का न होगा। जो लोग पाश्चात्य समाज में नहीं रहे हैं, वे बिल्कुल नहीं जानते कि स्त्रियों और पुरुषों के आपस में मिलने और स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा के लिए ने के लिए, पाश्चात्य समाज में कौन-कौन से नियम और निषेध (rules and prohibitions) आदि प्रचलित हैं। किन्तु, उन नियमों और निषेधों को जाने बिना ही, जिस परिवार के लोग अपनी स्त्रियों को पुरुषों से बिना-टोक के मिलने देते हैं, (या लव जिहाद करने का मौका देते हैं), उन लोगों से हमारी रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं है। ९/२२७)
" बलवानों या धनिकों की नकल करने की दौड़ में सभी साधारण मनुष्य शामिल हो जाते हैं, दुर्बल मात्र की यही इच्छा रहती है कि बड़े लोगों के गौरव की छटा उसके भी शरीर में कुछ लग जाये। भारतवासियों को (I. A. S. आदी को ) जब मैं 'टाई -कोट ' में देखता हूँ , तब समझता हूँ कि ये लोग शायद अपने को 'रूलर क्लास' का समझते हैं, और पददलित , विद्याहीन , दरिद्र भारतवासियों के साथ अपनी सजातीयता स्वीकार करने में लज्जित होते हैं। पाश्चात्य देशों में मैंने देखा है कि दुर्बल जातियों की सन्तान जब इंग्लैण्ड में (आजकल अमेरिका में) जन्म लेती है, तो अपने को वह स्पेनिश , पोर्तुगीज , यूनानी आदि --जो कुछ वह वास्तव में हो, उस रूप में अपना परिचय न बताकर, स्वयं को भी अंग्रेज ही बतलाते हैं। कई भारतीय लोग जब अंग्रेजी या यूरोपीय वेशभूषा और अचार-व्यवहार की नकल करते-करते, उसीमें रम जाते हैं, तब अपने को भारतीय कहने में उन्हें भी लज्जा होती है। जैसे चौदह सौ वर्ष तक हिन्दुओं के रक्त से पलकर भी पारसी लोग अपने को 'नेटिव ' नहीं मानते हैं। " फिर उन्हीं पाश्चात्यों ने अब हमें यह भी सिखला दिया है कि यह जो 'केवल कमर में ही कपड़ा लपेटे रहने वाली ' - मूर्ख नीच जाति के (दलित हिन्दू) हैं, वे तो अनार्य (आदिवासी या द्रविड़) है, इसलिए वे लोग हमारे अपने नहीं हैं !!" (Again, the Westerners have now taught us that those stupid, ignorant, low-caste millions of India, clad only in loincloth, are non-Aryans. They are therefore no more our kith and kin!)
इस भेद-बुद्धि की घोर भर्तस्ना करते हुए, स्वामीजी अपने इस निबंध के अंत में , इस मानसिकता से बाहर निकलने और ऊपर उठने के लिए एक अद्भुत मंत्र देते हैं, जो आज 'स्वदेश मंत्र ' के नाम से प्रसिद्द है। और जब प्रत्येक भारत संतान (हिन्दू -मुसलमान दोनों) इसका प्रतिदिन स्मरण और उच्चारण (Everyday remembrance utterance) करने लगेगा, तब यह देश यथार्थ रूप में स्वाधीन हो जायेगा (अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा)!
[बारह]
स्वामी जी के लिए भारतवर्ष एक पुण्यभूमि थी। विदेश भ्रमण के बाद इसका प्रत्येक धूलकण उनको पवित्रता का प्रतीक प्रतीत होता था। ... कलकत्ता-वासियों के अभिनन्दन पत्र का उत्तर देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मनुष्य अपनी व्यक्तिगत सत्ता को, अपनी व्यष्टि चेतना को सार्वभौम चेतना में विलीन कर देना चाहता है, वैराग्य के महाकाश में उड़ जाना चाहता है। वह अपने समस्त पुराने दैहिक संस्कारों को सम्पूर्ण रूप से छोड़ने की चेष्टा करता है, यहाँ तक की वह एक देहधारी संवेदनशील मनुष्य है, इसे भी भूल जाने की प्राण-पण चेष्टा करता है। परन्तु उसे अपने ह्रदय के अंतस्तल में सदा ही एक मृदु अस्फुट ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसके हृदयतंत्री में मानो सदा एक ही धुन गूंजती रहती है, न जाने कौन रात- दिन उसके कानों में मधुर स्वर में कहता रहता है- "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"।
इसी क्रम में आगे कहते हैं- " मातृभूमि से बाहर आने के पहले मैं भारत को प्यार करता था, अब तो भारत का प्रत्येक धुल-कण भी मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा मेरे लिए पावन है, अब भारत मेरे लिए तीर्थ है, मेरी पुण्यभूमि है।" सारे पश्चिमी जगत का परिभ्रमण करने के बाद उन्होंने स्पष्ट रूप में देख लिया था कि पूरे विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ सम्पूर्ण-मानवता का कल्याण करने में सक्षम- "आध्यात्म-तत्व" का बीज पूर्णरूप से विकसित हुआ था और आज तक सुरक्षित है। विदेश-यात्रा के पूर्व, परिव्राजक बन कर उन्होंने भारत के गौरवशाली विरासत तथा उसके प्राचीन वैभवपूर्ण दीर्घकालीन इतिहास का गंभीर अनुसन्धान किया था और "वर्तमान-भारत" के पतनावस्था के मूल कारण को ढूंढ़ निकाला था। उन्होंने केवल वर्तमान-भारत के पतनावस्था का वर्णन करने में ही, अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर दी थी, बल्कि इसके- " पुनरुत्थान -मंत्र" कि भी रचना किये थे, जिसे आज " स्वदेश-मंत्र " के नाम से जाना जाता है, जो इस प्रकार है :-
“হে ভারত, এই পরানুবাদ, পরানুকরণ, পরামুখাপেক্ষা, এই দসসুলভ দুর্বলতা, এই ঘৃণিত জঘন্য নিষ্ঠুরতা-এইমাত্র সম্বলে তুমি উচ্চাধিকার লাভ করিবে? এই লজ্জাকর কাপুরুষতাসহায়ে তুমি বীরভোগ্যা স্বাধীনতা লাভ করিবে? হে ভারত, ভুলিও না—তোমার নারীজাতির আদর্শ সীতা, সাবিত্রী, দময়ন্তী; ভুলিও না—তোমার উপাস্য উমানাথ সর্বত্যাগী শঙ্কর; ভুলিও না-তোমার বিবাহ, তোমার ধন, তোমার জীবন ইন্দ্রিয়সুখের-নিজের ব্যক্তিগত সুখের জন্য নহে; ভুলিও না—তুমি জন্ম হইতেই ‘মায়ের’ জন্য বলিপ্রদত্ত; ভুলিও না―তোমার সমাজ বিরাট মহামায়ার ছায়ামাত্র; ভুলিও না—নীচজাতি, মূর্খ, দরিদ্র, অজ্ঞ, মূচি, মেথর তোমার রক্ত, তোমার ভাই! হে বীর, সাহস অবলম্বন কর; সদর্পে বল—আমি ভারতবাসী, ভারতবাসী আমার ভাই। বল—মূর্খ ভারতবাসী, দরিদ্র ভারতবাসী, ব্রাহ্মণ ভারতবাসী, চণ্ডাল ভারতবাসী আমার ভাই; তুমিও কটিমাত্র-বস্ত্রাবৃত হইয়া, সদর্পে ডাকিয়া বল―ভারতবাসী আমার ভাই, ভারতবাসী আমার প্রাণ, ভারতের দেবদেবী আমার ঈশ্বর, ভারতের সমাজ আমার শিশুশয্যা, আমার যৌবনের উপবন, আমার বার্ধক্যের বারাণসী; বল ভাই—ভারতের মৃত্তিকা আমার স্বর্গ, ভারতের কল্যাণ আমার কল্যাণ; আর বল দিন-রাত, ‘হে গৌরীনাথ, হে জগদম্বে, আমায় মনুষ্যত্ব দাও; মা, আমার দুর্বলতা কাপুরুষতা দূর কর, আমায় মানুষ কর।”
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हिन्दी अनुवादक का मन्तव्य
[>>प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रनाथ मोदी के आने से पहले '10 मई 2013 से पहले का "वर्तमान भारत "(India After Independence and before Modi era) : इस निबंध के अनुवादक ने पहली बार 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' नामक महामण्डल पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद ('स्वामी जी का समकालीन भारत') 10 मई 2013 को किया था। 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' नामक बंगला पुस्तिका का अनुवाद आज 27 नवम्बर, 2023 (कार्तिक पूर्णिमा) को पुनः करवा रहे हैं, उस समय का वर्तमान भारत कैसा है ....... ? स्वामी विवेकान्द के जीवन और सन्देश से अनुप्रेरित एक चाय बेचने वाला लड़का (शूद्र) श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारत का प्रधान मंत्री बने हैं !
और जिसने अपने दूसरे टर्म में 2019 में, पुनः भारत का प्रधान मंत्री बनते ही 70 वर्षों से चला आ रहे भारत के माथे पर लगे कलंक - धारा 370 और 35 A समाप्त कर दिया हैं। सैंकड़ों वर्षों से चला आ रहा रामजन्मभूमि विवाद भी सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्मत निर्णय से सुलझाया जा चुका है, और मन्दिर बनकर तैयार है, बालक राम की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 को तपस्वी (11 दिनों का व्रत) श्री नरेन्द्रनाथ मोदी द्वारा हो चुका है। मोदी जी के सत्ता में आने से पहले जहाँ - प्रतिदिन अख़बार में अरबों रूपये के सरकारी घोटालों और भ्रष्टाचार की चर्चा ही दिखाई थी वहीँ अब सारे घोटालेबाज जेल जा रहे हैं , या उनकी सम्पत्ति ED द्वारा जब्त की जा रही है। अब यंग इंडिया और एजेएल की 752 करोड़ की संपत्ति को नेशनल हेराल्ड केस में ईडी ने जब्त कर लिया है। फलस्वरूप प्रत्येक भारतवासी को विदेशों में भी 'वन्दे मातरम' और 'भारत माता की जय' बोलने में गर्व का अनुभव कर रहा है। यद्यपि महामण्डल का राजनीती से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, तथापि राजनीति -निरपेक्ष दृष्टि से देखने पर भी -2013 ई० के पहले का भारत (मोदी युग से पहले का भारत) की कैसी अवस्था थी ? उसके ऊपर ..... के ऊपर विहंगम दृष्टि डालने से नजर पड़ना बिल्कुल स्वाभाविक है।
तब उसने देखा था कि इस - 2013 के पहले का वर्तमान भारत का ' तथाकथित ईमानदार' प्रधान-मंत्री, तो केवल नाईट-वाचमैन की भूमिका में है, और देश का वित्तमंत्री , गृहमंत्री , रेल-मंत्री, कानून-मंत्री, दूरसंचार मंत्री आदि महा-घोटाला और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, वह उनको दूर से टॉर्च दिखा रहा है। सुप्रीम कोर्ट सीबीआई को पिंजड़े का तोता कहता है। पार्लियामेन्ट सेसन के अंतिम दिन, एक 'तथाकथित सेक्युलर पार्टी' का एम.पी. जब हमारे राष्ट्र-गीत 'वन्दे मातरम' की अवमानना करके सदन से उठकर चला जाता है, तो पार्लियामेन्ट की स्पीकर उसे बिना कोई उचित सजा दिये ही पार्लियामेन्ट बन्द करने की घोषणा कर देती हैं !
इस महामण्डल पुस्तिका 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' (स्वामीजी का समकालीन भारत) के परिच्छेद 5 और 9 में युवाओं के द्वारा बार उच्चारित संघमन्त्र " संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् l देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ll " (10.191) की व्याख्या भी दीगयी है। ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त कहलाता है। - हम सब एक साथ चलें; एक साथ बोलें; हमारे मन एक हो ,(अर्थात प्रत्येक भारतवासी के मन में एक ही 'संकल्प' हो - समष्टि का कल्याण या भारत कल्याण हो l) प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा, इसी कारण वे सदैव वन्दनीय हैंl
अर्थात हमारे पूर्वज ऋषि लोग यह जानते थे कि समाज की क्रम-विकास धारा में (अभ्युदय-प्रवृत्ति) लौकिक उन्नति और (निःश्रेयस-निवृत्ति) आध्यात्मिक उन्नति दोनों महत्वपूर्ण हैं। समाज में 'त्यागेच्छा' के साथ -साथ 'भोगेच्छा' भी चलती है, और अधिकांश मनुष्यों के लिए चूँकि 'भोगेच्छा' ही प्रेरक शक्ति (motivational force) होती है। इसीलिए संघमन्त्र के माध्यम से हमारे वैदिक ऋषियों का सन्देश यही है कि 'समष्टि' के कल्याण में ही 'व्यष्टि' का कल्याण है।इसी बात को स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित 'स्वदेश मन्त्र' के मर्म की सच्ची व्याख्या करते हुए महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (15 अगस्त 1931 -26 सितम्बर 2016) द्वारा इस रचना के अंतिम परिच्छेद (12 वें) में समझाया गया है।
इस संक्षिप्त पुस्तिका का गहराई से अध्यन करके "मेरे समकालीन भारत " के थोड़े से हिन्दी-भाषी युवा भी वैराग्य पूर्वक विवेकानंद -दर्शन का अभ्यास करते हुए यदि' विवेकज-ज्ञान' प्राप्त कर सकें, तो इसके हिन्दी अनुवाद और प्रकाशन में लगे परिश्रम को सार्थक समझा जायेगा।
>>>"विज्ञान पर विश्वास और आस्था (आत्मा) पर भरोसा (आशा ,श्रद्धा) "[ Belief in science and hope on faith : मतलब आत्मविश्वास = अहंरहित पुरुषार्थ (egoless effort) में विश्वास आत्मा (ठाकुरदेव) पर भरोसा आशा ,श्रद्धा)]
>>सिल्क्यारा टनल : मनुष्य के (अहंकार रहित) पुरुषार्थ का साथ आस्था (श्रद्धा) से जोरदार मिलन है - दीपावली की सुबह 12 नवंबर को निर्माणाधीन टनल का एक हिस्सा ढह गया था, जिससे लगभग 60 मीटर तक सुरंग के भीतर मलबा भर गया था। इस दौरान सुरंग में काम कर रहे 41 मजदूर सुरंग के अंदर ही फंस गए थे। सुरंग से मलबा हटाने और अंदर फंसे 41 मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए रेस्क्यू अभियान शुरू हुआ, लेकिन जैसे-जैसे मलबा हटाने लगे, वैसे ही ऊपर से और मलबा गिरने लगा। देश-विदेश से मशीन सिल्क्यारा पहुंचायी और रेस्क्यू अभियान ने जोर पकड़ा। तमाम बाधाएं आयी और रूक-रुक कर रेस्क्यू अभियान चलता रहा। अंत में जब मजदूरों तक पहुंचने में कुछ मीटर का फासला रह गया तो ऑगर ड्रिलिंग मशीन भी दम तोड़ गई। जिसके बाद रैट माइनर्स की टीम ने मैनुअल खुदाई कर मजदूर तक पहुंचाने का रास्ता बनाया। इस रेस्क्यू अभियान में ऑस्ट्रेलिया के टनल विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स के पहुंचने के बाद तेजी आ गई थी। यहां तकनीक के साथ आस्था के आगे भी लोगों ने घुटने टेके। वहीं, टनल के बाहर स्थापित किए गए बाबा बौखनाग के मंदिर को देखकर अर्नोल्ड डिक्स खुद को नहीं रोक पाए और सिल्क्यारा के भूमियाल देवता बाबा बौखनाग के दर पर पहुंचे। अर्नोल्ड डिक्स की यह दैवीय शक्ति के प्रति आस्था ही है कि 17 दोनों के जटिल रेस्क्यू ऑपरेशन की सफलता के लिए बाबा बौखनाग को धन्यवाद करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए वे मंदिर पहुंचे।
यमुनोत्री NH में बन रहे सिल्क्यारा सुरंग : इलाके के प्रमुख लोक देवता होने के चलते सुरंग परियोजना के शुरू होने से पहले सुरंग के मुंह के पास एक छोटा-सा बाबा बौखनाग का मंदिर बनाया गया था। यहां की परम्परा को सम्मान देते हुए काम में लगे अधिकारी और मजदूर बाबा की पूजा करने के बाद ही सुरंग के अंदर दाखिल होते थे और काम करते थे। स्थानीय लोगों का कहना था कि दिवाली से कुछ दिन पहले निर्माण कंपनी प्रबंधन ने मंदिर को वहां से हटा दिया था। लोगों ने बताया कि टनल के ठीक ऊपर भी जंगल में बौखनाग देवता का मंदिर है। टनल बनाने वाली कंपनी ने 2019 में इसे छेड़कर टनल बनाना शुरू किया और बदले में सुरंग के पास बाबा का मंदिर बनाने का वादा किया था। चार वर्ष बीत गए लेकिन अभी तक मंदिर नहीं बनाया। स्थानीय लोगों ने कई बार इससे जुड़े अधिकारियों को इसकी याद भी दिलाई, लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसके उल्ट सुरंग बन रहे साइट पर कुछ दिन पहले स्थानीय लोगों द्वारा बनाया गया बाबा का छोटा-सा मंदिर भी तोड़ दिया। जैसे से बाबा के मंदिर को तोड़ा गया तो लोग कहने लगे कि ये देवता का ही प्रकोप है कि यह सुरंग ढह गई। उनकी बात सुनी गई होती तो यह हादसा नहीं होता।
>>>Arnold Dix : कौन हैं अर्नोल्ड डिक्स? टनल में फंसे 41 मजदूरों को बचाने के लिए सरकार, सुरक्षाबलों, अजेंसियों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय टनल एक्सपर्ट अर्नोल्ड डिक्स ने भी मदद की। अर्नोल्ड डिक्स परेशानियों में संयमित रहना जानते हैं। उनकी भाषा और बॉडी लैंग्वेज देखिए। वीडियो में अर्नोल्ड कह रहे हैं कि हम पहाड़ से अपने बच्चों को माँग रहे हैं, वो ऐन मौक़े पर हमसे खेल कर देता है, मगर हमें उम्मीद बनाए रखनी है कि वो हमें बच्चों सौंप देगा। प्रकृति और पर्यावरण से यही हमें सीखना भी होता है। रामायण में श्रीराम ने समुद्र देव से भी कुछ ऐसे ही मदद माँगी थी, जब बात नहीं बनी तब हिंसा चुनी है और नतीजा निकल आया। पर्वत राज (बाबा बौखनाग -भोले शंकर) को मशीन की नहीं,अहंकार रहित इंसान की हिम्मत नापनी थी, कुछ दृढ़ लोगों ने हौसला दिखाया। जो मशीन ना कर पाई, वो हाथों से कर दिखाया।
बता दें, अर्नोल्ड जिनेवा में इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन के चीफ हैं। CERN (यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन) एक नई 100 किमी लंबी सुरंग, तथाकथित फ्यूचर सर्कुलर कोलाइडर (FCC) बनाने का काम किया है। स्विस और फ्रांसीसी क्षेत्र में जिनेवा झील के तल पर फैली हुई हैं। 27 किमी की लंबाई के साथ, CERN सबसे बड़े कण त्वरक, लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (LHC) का संचालन करता है। उन्हें अंडरग्राउंड इन्फ्रास्ट्रक्चर, बिल्डिंग्स और ट्रांसपोर्ट रिस्क के मामले में एक बेहतरीन विशेषज्ञ के तौर पर जाना जाता है। अर्नोल्ड को अपने कार्य क्षेत्र में प्रशंसनीय प्रदर्शन के लिए कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स से भी सम्मानित किया गया है। इसके अलावा, अर्नोल्ड एक भूविज्ञानी, वकील और इंजीनियर और भी हैं। उन्होंने इन तीनों क्षेत्रों में भी डिग्रीयां हासिल की हुई हैं। उन्होंने अपनी पढ़ाई ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया से पूरी की है। हालांकि,अपने 30 सालों अधिक लंबे करियर में अर्नोल्ड डिक्स ने कई भूमिकाएं निभाई हैं, जिनमें अधिकतर भूमिगत सुरक्षा से जुड़े हुए हैं।
भारत एक धर्मप्रधान देश है ! यहाँ गुरु-शिष्य परम्परा (भगवान शिव - भगवान श्री राम परम्परा में) अहंकार का त्याग करके चार पुरुषार्थ करने का प्रशिक्षण दिया जाता है, इसको प्रमाणित करते हुए - दीपावली के दिन हुए सुरंग हादसे को लोग बाबा बौखनाग देवता का प्रकोप मान रहे थे। इस स्थानीय देवता बाबा बौखनाग (भगवान शिव) को यहां के लोग आराध्य के तौर पर पूजते हैं। जब उत्तरकाशी के सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकालने के लिए किए जा रहे प्रयास बार-बार विफल हो रहे थे तब स्थानीय लोगों ने कहा कि इस कारण से बौखनाग देवता नाराज हैं, अगर इस ऑपरेशन को सफल करना है तो पहले उनको मनाना होगा।
Nov 28, 2023 को उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने ट्वीटर पर लिखा - "बाबा बौख नाग जी की असीम कृपा, करोड़ों देशवासियों की प्रार्थना एवं रेस्क्यू ऑपरेशन में लगे सभी बचाव दलों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप श्रमिकों को बाहर निकालने के लिए टनल में पाइप डालने का कार्य पूरा हो चुका है। शीघ्र ही सभी श्रमिक भाइयों को बाहर निकाल लिया जाएगा।"
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