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सोमवार, 20 जनवरी 2025

🔱पंचदशी-15 🔱 विषयानंद - बाह्य वस्तुओं से सुख [सांसारिक ऐषणाओं से प्राप्त क्षणिक सुख और हरिहर की उपासना से प्राप्त भूमानन्द !]

 ब्रह्मानन्दे विषयानन्दो नाम - पञ्चदशः परिच्छेदः । [35 -श्लोक]  


पंचदशी

अध्याय 15

[35 -श्लोक]  

विषयानंद - बाह्य वस्तुओं से सुख

   अथात्र विषयानन्दो ब्रह्मानन्दांशरूपभाक् ।

निरूप्यते द्वारभूतस्तदंशत्वं श्रुतिर्जगौ ॥ १॥

इस अध्याय में इन्द्रियों के बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क से प्राप्त होने वाले सुख का वर्णन किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि यह सुख ब्रह्म के आनन्द का एक कण मात्र है (ब्रह्म उपनिषद् 4.3.32)।

  शान्ता घोरास्तथा मूढा मनसो वृत्तयस्त्रिधा ।

वैराग्यं क्षान्तिरौदार्यमित्याद्याः शान्तवृत्तयः ॥ ३॥

मानसिक वृत्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं - शांत (सात्विक), उग्र (घोर या राजसिक) और मूढ़  (सुस्त -तामसिक)। सात्विक वृत्तियाँ वैराग्य, क्षमा और उदारता हैं। राजसिक वृत्तियाँ तृष्णा, आसक्ति, लोभ आदि हैं। तामसिक वृत्तियाँ मोह, भय आदि हैं।

वृत्तिष्वेतासु सर्वासु ब्रह्मणश्चित्स्वभावता ।

प्रतिबिम्बति शान्तासु सुखं च प्रतिबिम्बति ॥ ५॥

इन सभी वृत्तियों में ब्रह्म (=सच्चिदानन्द) का चेतना पहलू [चिद्रूपता]  प्रतिबिंबित होती है, लेकिन आनंद पहलू केवल सात्विक वृत्तियों में ही परिलक्षित होता है।

  एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः ।

एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ ७॥

एक ही परम आत्मा सभी शरीरों में निवास करती है। यद्यपि वह एक ही है, फिर भी वह अनेक रूपों में दिखाई देती है, जैसे पानी के विभिन्न बर्तनों में चंद्रमा का प्रतिबिंब। यदि पानी शुद्ध है तो चंद्रमा का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देता है और यदि पानी गंदा है तो धुंधला दिखाई देता है। इसी प्रकार, ब्रह्म भी मानसिक वृत्तियों में भिन्नता के आधार पर विभिन्न शरीरों में अलग-अलग रूप में दिखाई देता है।  

सत्ता चितिः सुखं चेति स्वभावा ब्रह्मणस्त्रयः ।

मृच्छिलादिषु सत्तैव व्यज्यते नेतरद्द्वयम् ॥ २०॥

     अस्तित्व,चेतना और आनंद (Existence-Consciousness-Bliss) ये तीनों ब्रह्म के स्वरुप हैं । मिट्टी, पत्थल आदि जड़ (निर्जीव) पदार्थों में ब्रह्म का केवल अस्तित्व (Existence)पहलू ही प्रकट होता है, अन्य दो चेतना और आनंद पहलू नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जड़ या निर्जीव पदार्थों में कोई सूक्ष्म शरीर ( subtle body- प्राणमय, मनोमय , विज्ञानमय) नहीं होता जो ब्रह्म के चेतना और आनंद पहलू को भी प्रतिबिंबित कर सके। 

सत्ता चितिर्द्वयं व्यक्तं धीवृत्त्योर्घोरमूढयोः ।

शान्तवृत्तौ त्रयं व्यक्तं मिश्रं ब्रह्मेत्थमीरितम् ॥ २१॥

सभी चेतन (animate-सजीव) प्राणियों में ब्रह्म का चेतना वाला पक्ष (consciousness aspect ) ब भी प्रकट होता है जब उसका मन अशांत होता है, क्योंकि हम देखते हैं कि दुःखी व्यक्ति भी सचेत (conscious) तो होता ही है। लेकिन ब्रह्म (सच्चिदान्द) का आनंद वाला पहलू तभी प्रकट होता है जब व्यक्ति का मन शांत होता है।

 एक संदेह उठता है कि जब ब्रह्म में चेतना और आनंद दोनों पहलू हैं, तो उनमें से केवल एक, चेतना, एक उत्तेजित मन में क्यों प्रतिबिंबित होती है। जब आप दर्पण में अपने चेहरे का प्रतिबिंब देखते हैं, तो आप पाते हैं कि चेहरा अपनी संपूर्णता में प्रतिबिंबित होता है, न कि केवल उसके कुछ पहलू। 

इस संदेह का उत्तर दो उदाहरण देकर दिया गया है। जब पानी आग के संपर्क में आता है, तो आग का केवल ताप पहलू ही पानी द्वारा अवशोषित होता है, आग का प्रकाश नहीं। लेकिन जब लकड़ी का एक लट्ठा आग के संपर्क में आता है, तो वह ताप और प्रकाश दोनों पहलुओं को अवशोषित कर लेता है। इसी प्रकार, अशान्त मन (agitated mind) में  ब्रह्म का केवल चेतना पहलू ही प्रतिबिंबित होता है, लेकिन जब मन शांत होता है तो चेतना और आनंद दोनों पहलू प्रतिबिंबित होते हैं

      मन में जब कोई इच्छा उठती है, तो मन में यह चिंता बनी रहती है कि इच्छित वस्तु मिलेगी या नहीं ? ऐसी स्थिति में आनंद नहीं मिल सकता। लेकिन जैसे ही इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाती है, मन शांत हो जाता है। तब मन में ब्रह्म का आनंद झलकने लगता है। उस समय मन को जो  सुख मिलता है, लोग उसको इच्छित वस्तु की प्राप्ति पर होने वाला सुख समझते हैं , किन्तु वह गलत समझ है, वास्तव में वह सुख  मन के शांत होने के कारण होता है। क्योकि यह सुख तभी तक बना रहता है जब तक कोई दूसरी इच्छा मन को आंदोलित करके उसे अशान्त नहीं कर देती। जब व्यक्ति सांसारिक सुखों (worldly pleasures : तीनो ऐषणाओं-कामिनी-कांचन -नामयश) के प्रति पूर्ण वैराग्य प्राप्त कर लेता है और इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, तब उसका मन बिल्कुल शांत हो जाता है और तब परम आनंद का अनुभव होता है।  

   ब्रह्म अस्तित्व, चेतना और आनंद है। पत्थरों जैसी निर्जीव वस्तुओं में केवल अस्तित्व का पहलू ही प्रकट होता है, क्योंकि उनके पास कोई सूक्ष्म शरीर नहीं होता जो अकेले चेतना को प्रतिबिंबित कर सके। सभी जीवित प्राणियों में अस्तित्व और चेतना दोनों ही प्रकट होते हैं। ब्रह्म के तीनों पहलू एक ऐसे मन में प्रकट होते हैं जो मुख्य रूप से सात्विक होता है

   ब्रह्म वस्तुतः सभी गुणों से रहित है। संसार में अनेक नाम और रूप माया द्वारा ब्रह्म पर आरोपित हैं। जो लोग निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करने में असमर्थ हैं, उनके लिए शास्त्रों में गुणयुक्त ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ का या उनके हरिहर रूप सदगुरुदेव) का ध्यान करने का विधान है।

निरुपाधिब्रह्मतत्त्वे भासमाने स्वयंप्रभे ।

अद्वैते त्रिपुटी नास्ति भूमानन्दोऽत उच्यते ॥ ३३॥

   जब अद्वैत, स्वयंप्रकाश, निर्गुण ब्रह्म को जान लिया जाता है, तब ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान  का कोई त्रिपुटी /त्रय नहीं रह जाता। तब भूमानन्द या अनंत आनंद होता है।

प्रीयाद्धरिहरोऽनेन ब्रह्मानन्देन सर्वदा ।

पायाच्च प्राणिनः सर्वान्स्वाश्रितां शुद्धमानसान् ॥ ३५॥

   इस ब्रह्मानन्द के द्वारा अभिन्नात्मा हरिहर भगवान जो हरि और हर दोनों हैं, अपने भक्तों पर सदा प्रसन्न रहें , तथा उन सबकी रक्षा करें जो शुद्ध मन से उनके आश्रित हैं या उनके प्रति समर्पित हैं।

अध्याय 15 का अंत 

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[ ब्रह्म के हरिहर रूप को देखकर  शिव और विष्णु के भक्तों को समझ में आया कि अवतार वरिष्ठ और देवतागण-(श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर) एक-दूसरे के पूरक हैं। ब्रह्म के हरिहर रूप [भगवान विष्णु और शिव का एकीकृत रूप- नवनीदा ???] को देखकर में शिव और विष्णु के भक्तों के बीच विवाद खत्म हो गया।]  

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🔱पंचदशी-14 🔱 विद्यानन्द प्रकरण

 ब्रह्मानन्दे विद्यानन्दोनाम - चतुर्दशः परिच्छेदः । [65 -श्लोक]  

पंचदशी

अध्याय 14

[65 -श्लोक ] 

विद्यानन्द - ज्ञान का आनंद

   योगेनात्मविवेकेन द्वैतमिथ्यात्वचिन्तया ।

ब्रह्मानन्दं पश्यतोऽथ विद्यानन्दो निरूप्यते ॥ १॥

इस अध्याय में उस व्यक्ति द्वारा अनुभव किये जाने वाले आनन्द का वर्णन किया गया है, जिसने पिछले तीन अध्यायों में वर्णित तीन मार्गों -- योग (practice of yoga : मनःसंयोग या राजयोग), आत्म-अनात्म विवेक [discriminative knowledge of the Self, 3H में मैं क्या हूँ ? या व्यावहारिक मनुष्य और वास्तविक मनुष्य के रूप स्वयं के दो पहचानों का विवेकपूर्ण ज्ञान।] तथा द्वैत-प्रपंच कल्पना (unreality of duality-सिंहशावक कथा - यदि 'मैं आत्मा हूँ' तो मरेगा कौन ?नेति-नेति मार्ग) का निरंतर चिंतन;में से किसी एक मार्ग का अनुसरण करके जिन्होंने 'ब्रह्मानन्द का साक्षात्कार' कर लिया हो, अब उनके लिए यहाँ विद्यानन्द का निरूपण-किया जा रहा है।  

विषयानन्दवद्विद्यानन्दोधीवृत्तिरूप्कः ।

दुःखाभावादिरूपेण प्रोक्त एष चतुर्विधः ॥ २॥    

   विषयानन्द (कामिनी-कांचन आदि से) मिलने वाले सुख की तरह विद्यानंद या ब्रह्म की अनुभूति से उत्पन्न आनन्द भी बुद्धि का ही एक रूप है। इस आनंद के चार पहलू हैं। ये हैं, १. दुःख का अभाव, २.सभी इच्छाओं की पूर्ति, ३.जो कुछ करना था, उसे कर लेने का संतोष और ४.जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लेने का एहसास।

जीवात्मा परमात्मा चेत्यात्मा द्विविध ईरितः ।

चित्तादात्म्यात्त्रिभिर्देहैर्जीवः सन्भोक्तृतां व्रजेत् ॥ ६॥

  वेदान्त में जीवात्मा और परमात्मा - इन्हीं दो प्रकार की आत्मा का उल्लेख मिलता है। जीव जब स्थूल, सूक्ष्म और कारण - इन तीन शरीरों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है -तब अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है।

परमात्मा सच्चिदानन्दस्तादात्म्यं नामरूपयोः ।

गत्वा भोग्यत्वमापन्नस्तद्विवेके तु नोभयम् ॥ ७॥

 सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा, नाम-रूप के साथ तादात्म्य स्थापित करके भोग की वस्तु (objects of enjoyment) बन गए हैं। किन्तु तीन शरीर और भोग्य रूपी जगत से आत्मा पृथक है, जब यह एहसास हो जाता है कि वह परम ब्रह्म है और शरीरों से अपनी पहचान छोड़ देता है, तो न तो भोक्ता रहता है और न ही भोग की वस्तुएँ।

 शरीरों के साथ अपनी तादात्म्य स्थापित कर लेना ही सभी इच्छाओं का कारण है, क्योंकि सभी इच्छाएँ शरीर के आराम के लिए होती हैं। जब कोई इच्छा पूरी नहीं होती, तो दुख होता है। ब्रह्म के ज्ञाता को यह एहसास हो जाता है कि सांसारिक वस्तुओं की कोई वास्तविकता नहीं है और इसलिए उसे उनकी कोई इच्छा नहीं होती।

यथा पुष्करपर्णेऽस्मिन्नपामश्लेषणं तथा ।

वेदनादूर्ध्वमागामिकर्मणोऽश्लेषणं बुधे ॥ १३॥

  जैसे कमल के पत्तों पर जल नहीं चिपकता, वैसे ही ज्ञान प्राप्ति के बाद किए गए कर्म ज्ञानी से नहीं चिपकते, क्योंकि कर्म शरीर द्वारा किए जाते हैं और ब्रह्मज्ञानी का शरीर से कोई तादात्म्य नहीं होता। संचित कर्म ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि द्वारा भस्म हो जाते हैं। J

ust as water does not stick to the leaves of the lotus, actions performed after realization do not attach to the knower, because actions are performed by the body and the knower of Brahman has no identification with the body.  The accumulated actions (sanchita karma) are burnt by the fire in the form of the knowledge of Brahman.

   वेदों के आदेश और निषेध ज्ञानी व्यक्ति पर लागू नहीं होते। ये तभी तक लागू होते हैं जब तक व्यक्ति खुद को शरीर और मन के साथ पहचानता है। आत्मज्ञानी आत्मा द्वारा किया गया कोई भी कार्य कर्म नहीं होता, क्योंकि उसमें कर्तापन की भावना नहीं होती।

 वह जो भी कार्य करता है, वह केवल संसार के कल्याण के लिए होता है, न कि अपने लिए किसी लाभ के लिए, क्योंकि वह शुद्ध आत्मा है, जिसकी कोई इच्छा नहीं होती। वह परम आनंद का आनंद लेता है। वर्तमान शरीर तब तक चलता है जब तक कि उसे अस्तित्व में लाने वाले प्रारब्ध कर्म समाप्त नहीं हो जाते। इस शरीर के गिरने पर उसका फिर से जन्म नहीं होगा क्योंकि उसे दूसरा जन्म देने के लिए कोई कर्म नहीं बचेगा।

   आत्मा का आनन्द मन और इन्द्रियों की समझ से परे है। यह ब्रह्मा और अन्य देवताओं द्वारा भोगी गयी खुशी से भी श्रेष्ठ है।

अध्याय 14 का अंत 

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✅ 🔱पंचदशी -13🔱✅ अद्वैतानंद - अद्वैत का आनंद [ The Bliss of Non-Duality ]

 ब्रह्मानन्देऽद्वैतानन्दोनाम - त्रयोदशः परिच्छेदः । [105 -श्लोक]  

पंचदशी

अध्याय 13

[103 -श्लोक ] 

अद्वैतानंद - अद्वैत का आनंद

 आकाशादि स्वदेहान्तं तैत्तिरीयश्रुतीरितम् ।

जगन्नास्त्यन्यदानन्दात्दद्वैतब्रह्मता ततः ॥ २॥

 तैत्तिरीय उपनिषद कहता है कि संसार आनंद से उत्पन्न हुआ है, यह आनंद में स्थित है और अंत में आनंद में विलीन हो जाता है। यह आनंद ब्रह्म के समान है। इस प्रकार ब्रह्म जगत का उपादान कारण है।

The Taittiriya Upanishad says that the world is born from bliss, it abides in bliss and finally merges in bliss. This bliss is the same as Brahman. Brahman is thus the material cause of the world.   

   उपादान कारण और कार्य (प्रभाव) के बीच के संबंध को विभिन्न मतों में अलग-अलग तरीकों से समझाया गया है। वैशेषिक के अनुसार, कार्य कुछ नया है और कारण से बिल्कुल अलग है। इसे आरंभवाद के नाम से जाना जाता है।

   सांख्यों का मानना ​​है कि कार्य, कारण का वास्तविक परिवर्तन है, जैसे दूध का दही परिणत हो जाना में, मिट्टी का घड़े में और सोने का आभूषण में बदलना। इसे परिणामवाद के नाम से जाना जाता है।

अवस्थान्तरभानं तु विवर्तो रज्जुसर्पवत् ।

निरंशेऽप्यस्त्यसौ व्योम्नि तलमालिन्यकल्पनात् ॥ ९॥

   रस्सी के साँप के रूप में दिखने की स्थिति में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता। साँप रस्सी का केवल एक विवर्त या प्रत्यक्ष रूप है। साँप का दिखना रस्सी के बारे में अज्ञानता के कारण है। इसी तरह, संसार ब्रह्म का ही एक विवर्त है। माया ब्रह्म को छिपाती है और संसार को प्रक्षेपित करती है।

   माया ब्रह्म की शक्ति है। शक्ति अपने स्वामी से अलग अस्तित्व में नहीं रहती। साथ ही, शक्ति अपने स्वामी के समान नहीं होती, क्योंकि जब शक्ति बाधित होती है, तब भी उसका स्वामी वही रहता है। शक्ति को सीधे तौर पर नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसके प्रभाव से ही उसका अनुमान लगाया जा सकता है। माया, ब्रह्म की शक्ति, क्रिया, ज्ञान और इच्छा के रूप में प्रकट होती है। सर्वोच्च अप्रतिबंधित ब्रह्म शाश्वत, अनंत और अद्वैत है। माया के साथ जुड़ने पर, ब्रह्म को सर्वशक्तिमान के रूप में वर्णित किया जाता है

   ब्रह्म सभी जीवों में चेतना के रूप में प्रकट होता है। इसकी शक्ति हवा में गति, पत्थर में कठोरता, पानी में तरलता और आग में गर्मी के रूप में प्रकट होती है।

क्वचित्कश्चित्कदाचिच्च तस्मादुद्यन्ति शक्तयः ।

देशकालविचित्रत्वात्क्ष्मातलादिव शालयः ॥ १८॥

** 'जिस प्रकार एक वृक्ष अपने फल, पत्ते, लताएँ, फूल, शाखाएँ, टहनियाँ और जड़ों के साथ बीज में निहित है, उसी प्रकार यह संसार ब्रह्म में स्थित है।' ✅

** ‘Just as a tree with its fruits, leaves, tendrils, flowers, branches, twigs and roots is latent in the seed, so does this world abide in Brahman’. 

जिस तरह एक पेड़ अपनी शाखाओं, पत्तियों, फूलों, फलों आदि के साथ बीज में निहित होता है, उसी तरह यह संसार ब्रह्म में (प्रकट होने से पहले) निहित है। 

मन की परिभाषा देते हुए गुरु वशिष्ठ जी कहते हैं  -

स आत्मा सर्वगो राम! नित्योदितमहावपुः ।

यन्मनाङ्मननीं शक्तिं धत्ते तन्मन उच्यते ॥ १९॥

** 'हे राम, जब सर्वव्यापी, शाश्वत और अनंत आत्मा अनुभूति की शक्ति (power of cognition-परोक्ष ज्ञान की शक्ति) ग्रहण करती है, तो हम इसे मन कहते हैं।' 

✅** ‘O Rāma, when the all-pervasive, eternal and infinite Self assumes the power of cognition, we call it the mind.’ ✅ 

जब ब्रह्म ज्ञान की शक्ति ग्रहण करता है तो उसे मन कहा जाता है। बंधन और मोक्ष की धारणाएँ मन में उत्पन्न होती हैं।

आदौ मनस्तदनुबन्धविमोक्षदृष्टी

     पश्चात्प्रपञ्चरचना भुवनाभिधाना ।

इत्यादिका स्थितिरियं हि गता प्रतिष्ठा-

     माख्यायिका सुभगबालजनोदितेव ॥ २०॥

धायमाँ ने राजकुमार को यह कहानी सुनाई थी - ** 'हे राजकुमार, सबसे पहले मन की उतपत्ति होती है, फिर बंधन और मुक्ति की धारणा और फिर कई संसारों से युक्त ब्रह्मांड। इस प्रकार यह सारी अभिव्यक्ति बच्चों के मनोरंजन के लिए सुनाई जाने वाली कहानियों की तरह (मानव मन में) स्थिर या बस गई है। 

✅** ‘O Prince, first arises the mind, then the notion of bondage and release and then the universe consisting of many worlds. Thus all this manifestation has been fixed or settled (in human minds), like the tales told to amuse children’. ✅

द्वौ न जातौ तथैकस्तु गर्भ एव हि न स्थितः ।

वसन्ति ते धर्मयुता अत्यन्तासति पत्तने ॥ २२॥

 योगवासिष्ठ में कहा गया है कि एक धायी माँ ने राजा के पुत्र को खुश करने के लिए यह कहानी सुनाई थी।**  एक बार की बात है, तीन सुंदर राजकुमार थे। 'उनमें से दो का कभी जन्म नहीं हुआ था और तीसरे ने कभी अपनी माँ के गर्भ में गर्भधारण भी नहीं किया था। वे एक ऐसे शहर में धर्मपूर्वक रहते थे जो कभी अस्तित्व में ही नहीं था।' ✅** ‘Two of them were never born and the third was never even conceived in his mother’s womb. They lived righteously in a city which never existed.’ ✅

   एक बार की बात है, तीन सुंदर राजकुमार थे। उनमें से दो कभी पैदा ही नहीं हुए और तीसरे का तो कभी गर्भ में भी नहीं आया। वे एक ऐसे शहर में धर्मपूर्वक रहते थे जो कभी अस्तित्व में ही नहीं था। 

स्वकीयाच्छून्यनगरान्निर्गत्य विमलाशयाः ।

गच्छन्तो गगने वृक्षान्ददृशुः फलशालिनः ॥ २३॥

** 'ये पवित्र राजकुमार अपने अस्तित्वहीन शहर से बाहर आए और घूमते हुए आकाश में फलों से लदे हुए पेड़ देखे।' ✅

** ‘These holy princes came out of their city of non-existence and while roaming saw trees, laden with fruits, growing in the sky’. ✅

शहर में घूमते समय राजकुमारों ने आकाश में फलों से लदे पेड़ों को उगते देखा। 

भविष्यन्नगरे तत्र राजपुत्रास्त्रयोऽपि ते ।

सुखमद्य स्थिता पुत्र! मृगयाव्यवहारिणः ॥ २४॥

** 'तब तीनों राजकुमार, मेरे बच्चे, एक ऐसे शहर में चले गए जो अभी तक नहीं बना था और वहां खुशी से रहने लगे, अपना समय खेल और शिकार में गुजारने लगे।' ✅

** ‘Then the three princes, my child, went to a city which was yet to be built and lived there happily, passing their time in games and hunting’. ✅

फिर वे एक दूसरे शहर में चले गए जो अभी तक अस्तित्व में नहीं आया था और वहाँ वे खुशी-खुशी रहने लगे, अपना समय खेल-कूद और शिकार में बिताने लगे।

धात्र्यैवं कथिता राम! बालकाख्यायिका शुभा ।

निश्चयं स ययौ बालो निर्विचारणया धिया ॥ २५॥

** हे राम! धाय ने इस प्रकार सुन्दर बाल कथा कही। बालक ने भी विवेक के अभाव में उसे सत्य मान लिया।**

 ‘O Rāma, the nurse thus narrated the beautiful children’s tale. The child too through want of discrimination believed it to be true’.  

जिस प्रकार विवेक की कमी के कारण बच्चे ने इन सभी बातों को सच मान लिया। इसी तरह इस दुनिया को वे ही लोग सच मानते हैं जिनमें विवेक नहीं है ऋषि वसिष्ठ ने ऐसी कहानियों के माध्यम से माया की शक्ति का वर्णन किया।

   ईश्वर की माया शक्ति अपने कार्य (effect) से भी भिन्न है और अपने आधार (substratum) से भी। इसका अनुमान केवल इसके प्रभाव से ही लगाया जा सकता है, जैसे अंगारे की दाहक शक्ति का अनुमान केवल उसके द्वारा उत्पन्न छाले से ही लगाया जा सकता है।

   कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता। मिट्टी का घड़ा मिट्टी से भिन्न नहीं है, क्योंकि मिट्टी से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है। साथ ही, घड़ा मिट्टी के समान नहीं है, क्योंकि वह बिना ढली मिट्टी में दिखाई नहीं देता। इसलिए घड़े को अनिर्वचनीय कहना होगा, जैसे उसे बनाने वाली शक्ति। इस कारण, छांदोग्य उपनिषद कहता है कि घड़ा वास्तविक नहीं है, केवल एक नाम है, वास्तविकता केवल मिट्टी को ही दी गई है (अध्याय 6.1.4)। तीन सत्ताओं में से, अर्थात् शक्ति का उत्पाद जो बोधगम्य है, स्वयं शक्ति जो बोधगम्य नहीं है, और वह आधार जिसमें वे दोनों विद्यमान हैं, केवल तीसरा ही बना रहता है; पहले दो बारी-बारी से अस्तित्व में रहते हैं। इसलिए केवल तीसरा ही वास्तविक है। घड़े का आरंभ और अंत होता है। इसलिए वह वास्तविक नहीं है। घड़ा बनने से पहले वह केवल मिट्टी था। जब घड़ा अस्तित्व में रहता है, तब भी वह केवल मिट्टी ही होता है। घड़े के नष्ट हो जाने के बाद केवल मिट्टी ही रह जाती है। इस प्रकार केवल मिट्टी ही वास्तविक है। (यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह वास्तविकता केवल अनुभवजन्य दृष्टिकोण से है)

   भ्रमात्मक साँप तब गायब हो जाता है जब आधार, रस्सी, ज्ञात हो जाती है। लेकिन एक बर्तन अपने आधार, मिट्टी, के ज्ञात होने के बाद भी वैसा ही दिखाई देता रहता है। तो सवाल यह है कि बर्तन को भ्रमात्मक कैसे कहा जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि बर्तन तो अभी भी दिखाई देता है, लेकिन यह महसूस होता है कि मिट्टी के अलावा उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस धारणा को प्रतिस्थापित करना कि बर्तन की अपनी एक वास्तविकता है, इस अहसास से कि यह एक विशेष नाम और रूप वाली मिट्टी के अलावा कुछ नहीं है, बर्तन का विनाश कहा जा सकता है।

   संसार ब्रह्म पर आरोपित है। ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है, यह बोध होने के बाद भी, बोध प्राप्त व्यक्ति को संसार का बोध होता रहता है, लेकिन वह इसे वास्तविक नहीं मानता। संसार के सुख-दुख से वह प्रभावित नहीं होता। इसी अर्थ में कहा जाता है कि ब्रह्म की अनुभूति होने पर संसार का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

वास्तविक परिवर्तन में, जैसे दूध के दही बनने की स्थिति में, मूल पदार्थ, दूध, गायब हो जाता है। लेकिन मिट्टी के बर्तन में या सोने के आभूषण में परिवर्तन होने पर, आधार, मिट्टी या सोना, वैसे ही रहता है।

एकमृत्पिण्डविज्ञानात्सर्वमृण्मयधीर्यथा ।

तथैकब्रह्मबोधेन जगद्बुद्धिर्विभाव्यताम् ॥ ५९॥

** केवल मिट्टी के एक ढेले को जानने से व्यक्ति मिट्टी से बनी सभी वस्तुओं को जान लेता है, उसी प्रकार एक ब्रह्म को जानने से व्यक्ति संपूर्ण अभूतपूर्व जगत के (वास्तविक तत्व को) जान लेता है। ✅

** Just by knowing a lump of clay one knows all objects made of clay, so by knowing the one Brahman one knows (the real element of) the whole phenomenal world.छांदोग्य उपनिषद कहता है कि मिट्टी के एक ढेले को जानने से मिट्टी से बनी हर चीज़ को जाना जा सकता है। इसी तरह, ब्रह्म को जानने से संपूर्ण दृश्य ब्रह्मांड को जाना जा सकता है। 

सच्चित्सुखात्मकं ब्रह्म नामरूपात्मकं जगत् ।

तापनीये श्रुतं ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥ ६०॥/62 

**ब्रह्म का स्वरुप अस्तित्व (existence), चेतना (consciousness)  और आनंद (bliss) है, जबकि संसार नाम और रूप से बना है

** The nature of Brahman is existence, consciousness and bliss, whereas the nature of the world is name and form.✅

   ब्रह्माण्ड के प्रकट होने से पहले माया ब्रह्म में अप्रकट थी। श्वेताश्वतर उपनिषद कहता है: "माया को प्रकृति (ब्रह्माण्ड का भौतिक कारण) जानो, और परम प्रभु को माया का शासक (या आधार) जानो"। 

विचिन्त्य सर्वरूपाणि कृत्वा नामानि तिष्ठति ।

अहं व्याकरवाणीमे नामरूपे इति श्रुतिः ॥ ६२॥/64

 ✅** नाम और रूप बनाने के बाद ब्राह्मण अपनी प्रकृति में स्थापित रहता है, यानी हमेशा की तरह अपरिवर्तनीय रहता है, ऐसा पुरुष सूक्त कहता है। एक अन्य श्रुति कहती है कि ब्रह्म स्वयं के रूप में नामों और रूपों को प्रकट करता है। ✅नाम और रूप तो ब्रह्म (पर्दे ?) पर आरोपित मात्र हैं

 ** After creating names and forms Brahman remains established in His nature, i.e., remains as immutable as ever, says the Puruṣa Sūkta. Another Śruti says that Brahman as the Self reveals names and forms.

 तदभ्यासेन विद्यायां सुस्थितायामयं पुमान् ।

जीवन्नेव भवेन्मुक्तो वपुरस्तु यथा तथा ॥ ८०॥

** ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) पर ध्यान के निरंतर अभ्यास से व्यक्ति ब्रह्मज्ञान में स्थित हो जाता है और फिर वह संसार से मुक्त हो जाता है। जब ध्यान के निरंतर अभ्यास से मनुष्य ब्रह्मज्ञान में स्थापित हो जाता है, तो वह जीवित रहते हुए भी तीनों ऐषणाओं में आसक्ति से मुक्त हो जाता है। फिर प्रारब्ध (उसके शरीर का भाग्य) कोई मायने नहीं रखता. ✅

When through the continuous practice of meditation a man is established in the knowledge of Brahman, he becomes liberated even while living. Then the fate of his body does not matter. ✅  

   निद्राशक्तिर्यथा जीवे दुर्घटस्वप्नकारिणी ।

ब्रह्मण्येषा तथा माया सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥ ८४॥

** जिस प्रकार निद्रावस्था में जीव में निहित शक्ति असंभव सपनों को जन्म देती है, उसी प्रकार ब्रह्म में निहित माया की शक्ति ब्रह्मांड का प्रक्षेपण, रखरखाव और विनाश करती है। ✅

** Just as in the sleeping state a power inherent in the Jīva gives rise to impossible dreams, so the power of Māyā inherent in Brahman, projects, maintains and destroys the universe. ✅

स्वप्न में मनुष्य असंभव चीजें घटित होते देखता है, लेकिन उस समय उसे यह भी एहसास नहीं होता कि वे असंभव हैं, बल्कि उन्हें सही मान लेता है। जब स्वप्न की शक्ति ऐसी है, तो माया की शक्ति के बारे में क्या आश्चर्य है जो इस ब्रह्मांड को प्रक्षेपित करती है और इसे वास्तविक दिखाती है?

 संपूर्ण ब्रह्मांड केवल माया द्वारा ब्रह्म में नामों और रूपों का प्रक्षेपण है। जब कोई यह समझ लेता है कि सभी नाम और रूप वास्तविकता नहीं हैं और उन्हें अस्वीकार कर देता है, तो वह शुद्ध ब्रह्म के रूप में रहता है। भले ही वह सांसारिक मामलों में व्यस्त रहता है, लेकिन उनसे उत्पन्न होने वाले सुख और दुखों से वह प्रभावित नहीं होता है।

प्रवहत्यपि नीरेऽधः स्थिरा प्रौढ शिला यथा ।

नामरूपान्यथात्वेऽपि कूटस्थं ब्रह्म नान्यथा ॥ ९८॥

**    जिस प्रकार नदी के तल में पड़ा हुआ एक विशाल पत्थर, पानी के निरंतर बहने पर भी अपरिवर्तित रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपरिवर्तित रहता है, जबकि नाम और रूप बदलते रहते हैं।  

जैसे नदी के तल में पड़ी हुई बड़ी चट्टान पानी के ऊपर से बहते रहने पर भी स्थिर रहती है, वैसे ही नाम और रूप निरंतर बदलते रहने पर भी अपरिवर्तनीय ब्रह्म अन्यथा नहीं बनता।

 ✅** As the big rock lying in the bed of a river remains unmoved, though the water flows over it, so also while names and forms constantly change, the unchanging Brahman does not become otherwise. ✅

  ब्रह्मानन्दाभिधे ग्रन्थे तृतीयेऽध्याय ईरितः ।

अद्वैतानन्द एव स्याज्जगन्मिथ्यात्वचिन्तया ॥ १०३॥

** 'ब्रह्म का आनंद' नामक खंड के इस तीसरे अध्याय में, अद्वैत के आनंद का वर्णन किया गया है जिसे जगत की मिथ्या होने (असत्य होने) पर ध्यान करके प्राप्त किया जा सकता है। ✅

** In this third chapter of the section called ‘the Bliss of Brahman’, is described the bliss of Non-duality which is to be obtained by meditating on the unreality of the world. ✅ 

ब्रह्म को अस्तित्व, चेतना और आनंद मानते हुए मनुष्य को अपने मन को ब्रह्म में स्थिर रखना चाहिए और उसे नाम और रूप (कामिनी -कांचन) में आसक्त होने से रोकना चाहिए। इस प्रकार अद्वैत का आनंद प्राप्त होगा।

अध्याय 13 का अंत

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https://upasanayoga.org/AKAruna/docs/PancD.htm/]

 

✅🔱पंचदशी-12 🔱आत्मानन्द - स्वयं का आनन्द [Atmananda :The Bliss of the Self]

 ब्रह्मानन्दे आत्मानन्दोनाम - द्वादशः परिच्छेदः । [90 -श्लोक]  


अध्याय 12

[87 or 90 -श्लोक]  

आत्मानन्द - स्वयं का आनन्द

   जैसा कि पिछले अध्याय में बताया गया है, योगी को ब्रह्मानंद का अनुभव होता है। इस अध्याय में अज्ञानी व्यक्ति द्वारा अनुभव किए जाने वाले आनंद का परीक्षण किया गया है।

नन्वेवं वासनानन्दाद्ब्रह्मानन्दादपीतरम् ।

वेत्तु योगी निजानन्दं मूढस्यात्रास्ति का गतिः ॥ १॥

** (प्रश्न): यह ठीक है कि पूर्वोक्त तरीके से कोई योगी [ब्रह्मानंद एवं वासनानन्द से भिन्न ] अपने वास्तविक स्वरुप के आनंद का अनुभव कर सकता है, जो सुषुप्ति अवस्था के मानसिक निष्क्रियता (mental quiescence) से भिन्न है, किन्तु इस जगत में अज्ञानी व्यक्ति की क्या गति होगी ? 

 ✅** (Question): A Yogī can enjoy the natural bliss of the Self which is different from the bliss of mental quiescence and the bliss of deep sleep; but what will happen to the ignorant man? ✅

   धर्माधर्मवशादेष जायतां म्रियतामपि ।

पुनः पुनर्देहलक्षैः किं नो दाक्षिण्यतो वद ॥ २॥

** (उत्तर): अज्ञानी प्राणी असंख्य शरीरों में पैदा होते हैं और वे बार-बार मरते रहते हैं - यह सब उनके धार्मिक या अधर्मी कर्मों के कारण होता है। बताओ ,तब उनके प्रति सहानुभूति रखने का क्या उपयोग है ? ✅ 

** (Reply): The ignorant are born in innumerable bodies and they die again and again – all owing to their righteous or unrighteous deeds. What is the use of our sympathy for them?

अस्ति वोऽनुजिघृक्षुवाद्दाक्षिण्येन प्रयोजनम् ।

तर्हि ब्रूहि स मूढः किं जिज्ञासुर्वा पराङ्मुखः ॥ ३॥

** (शंका) :क्यों ,सदगुरु अपने अज्ञानी शिष्यों की सहायता करने की इच्छा के कारण भी तो  उनके लिए कुछ कर सकता है। 

(उत्तर) : तब तो आपको यह बताना होगा कि क्या वे आध्यात्मिक सत्य सीखने के लिए इच्छुक हैं या अनिच्छुक हैं ?

** (Doubt): Because of the desire of the teacher to help his ignorant pupils he can do something for them. (Reply): Then you must tell whether they are willing to learn the spiritual truth or are averse to it. ✅

उपास्तिं कर्म वा ब्रूयाद्विमुखाय यथोचितम् ।

मन्दप्रज्ञं तु जिज्ञासुमात्मानन्देन बोधयेत् ॥ ४॥

** यदि वे अभी भी बाह्य वस्तुओं [ऐषणा -कामिनी-कांचन] में आसक्त हैं, तो उनके लिए कोई उपयुक्त प्रकार की पूजा या अनुष्ठान निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर, यदि वे आध्यात्मिक रूप से कमजोर होते हुए भी - सत्यार्थी हैं ! जिज्ञासु हैं, यानी परम् सत्य को जानने की तीव्र इच्छा रखते हैं, तो उन्हें आत्मानंद के ज्ञान में प्रशिक्षित किया जा सकता है।

** If they are still devoted to external objects, some suitable kind of worship or ritual can be prescribed for them. If, on the other hand, they, though spiritually dull, desire to learn the truth, they can be instructed in the knowledge of the bliss of the Self. ✅

बोधयामास मैत्रेयीं याज्ञवल्क्यो निजप्रियाम् ।

न वा अरे पत्युरर्थे पतिः प्रिय इतीरयन् ॥ ५॥

** याज्ञवल्क्य ने अपनी प्रिय पत्नी मैत्रेयी को यह निर्देश देते हुए कहा था कि ‘पत्नी अपने पति से उसके लिए प्रेम नहीं करती।’

** Yājñavalkya instructed this by pointing out to his beloved wife, Maitreyī, that ‘a wife does not love her husband for his sake’. ✅

पतिर्जाया पुत्रवित्ते पशुब्राह्मणबाहुजाः ।

लोका देवा वेदभूते सर्वं चात्मार्थतः प्रियम् ॥ ६॥

** पति, पत्नी या पुत्र, धन या पशु, ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व, विभिन्न लोक, देवता, वेद, तत्व और अन्य सभी वस्तुएँ व्यक्ति को अपने स्वयं के लिए प्रिय हैं। ✅

** The husband, wife or son, riches or animals, Brahmanahood or Kshatriyahood, the different worlds, the gods, the Vedas, the elements and all other objects are dear to one for the sake of one’s own Self. ✅

     बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि हर व्यक्ति दूसरों से केवल अपने सुख के लिए प्रेम करता है, न कि उस व्यक्ति के सुख के लिए जिससे प्रेम किया जाता है। पति, पत्नी, पुत्र, धन, पशु तथा अन्य सभी वस्तुओं से प्रेम केवल इसलिए किया जाता है क्योंकि वे सुख देती हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि जब किसी व्यक्ति की पत्नी या पुत्र उसकी इच्छा के विपरीत कार्य करते हैं, तो वह उन्हें पसंद नहीं करता। यहां तक ​​कि एक कट्टर कंजूस व्यक्ति भी अपने जीवन को खतरे में डालने वाली बीमारी से खुद को ठीक करने के लिए अपना सारा धन खर्च करने को तैयार हो जाता है, जिससे यह पता चलता है कि उसका अपने प्रति प्रेम धन के प्रति प्रेम से अधिक महत्व- पूर्ण है। अन्य सभी वस्तुएं तभी तक प्रिय होती हैं जब तक वे व्यक्ति के अपने सुख में योगदान करती हैं। इसलिए अन्य सभी व्यक्ति और वस्तुएं केवल व्यक्ति के अपने सुख के साधन हैं, और उन्हें अपने लिए नहीं चाहा जाता; लेकिन सुख की इच्छा अपने लिए होती है, न कि किसी अन्य चीज के साधन के रूप में। 

श्मश्रुकण्टकवेधेन बालो रुदति तत्पिता ।

चुम्बत्येव न सा प्रीतिर्बालार्थे स्वार्थ एव सा ॥ ९॥

जब कोई बच्चा अपने पिता द्वारा चूमा जाता है, तो वह पिता की दाढ़ी से चुभने के कारण दर्द महसूस करता है और रोता है, लेकिन पिता बच्चे को चूमता रहता है क्योंकि उसे ऐसा करने से खुशी मिलती है। - यह प्रेम बच्चे के लिए नहीं बल्कि अपने लिए है। ✅

** A child, when kissed by its father, may cry, being pricked by the latter’s bristly beard, still its father goes on kissing the child – it is not for its sake but for his own. ✅

यह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि सारा प्रेम केवल अपने सुख के लिए होता है। सुख के साधनों के प्रति प्रेम एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर स्थानांतरित होता रहता है, लेकिन स्वयं के प्रति प्रेम हमेशा एक जैसा रहता है। 

रोगक्रोधाभिभूतानां मुमूर्षा वीक्ष्यते क्वचित् ।

ततो द्वेषाद्भवेत्त्याज्य आत्मेति यदि तन्न हि । 26 

** (संदेह): जब लोग बीमारी या क्रोध से अभिभूत हो जाते हैं और मरने की इच्छा करते हैं तो वे क्या स्वयं से घृणा करने लगते हैं ? 

(उत्तर): ऐसा नहीं है. यहां तक ​​कि जब कोई व्यक्ति गरीबी, बीमारी, अपमान या किसी अन्य कारण से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है, तो वह शरीर से छुटकारा पाना चाहता है, स्वयं से नहीं। इसलिए स्वयं ही सभी के लिए सबसे प्रिय है।** (Doubt): People begin to hate the Self when they are overpowered by disease or anger and wish to die. (Reply): This is not so. ✅

  बाधमेतावता नात्मा शेषो भवति कस्य चित् ।

गौणमिथ्यामुख्यभेदैरात्मायं भवति त्रिधा ॥ ३६॥

** ठीक है, लेकिन ये ग्रंथ आत्मा को कम महत्वपूर्ण साबित नहीं करते। यह याद रखना चाहिए कि 'स्व' शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया जाता है, प्रतीकात्मक (figurative -गौण), भ्रामक, मायावी (illusory -मिथ्या, सम्मोहित) और मौलिक (fundamental-आधारभूत, मुख्य)। ✅

** All right, but these texts do not prove the Self to be less important. It is to be remembered that the word ‘Self’ is used in three senses, figurative (gauṇa), illusory (mithyā) and fundamental (mukhya). ✅ 

देवदत्तस्तु सिंहोऽयमित्यैक्यं गौणमेतयोः ।

भेदस्य भासमानत्वात्पुत्रादेरात्मता तथा ॥ ३७॥

** 'देव-दत्त एक सिंह है' (Deva-datta is a lion)कहने में, देवदत्त नामक व्यक्ति की पहचान सिंह के रूप में करना अलंकारिक है। इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि देवदत्त में भेंड़ के (जैसा में -में करने का?)  नहीं, बल्कि सिंह के कुछ गुण जैसे - साहस, ऐश्वर्य आदि विद्यमान हैं। क्योंकि भेंड़ और सिंह के बीच का अंतर भी स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। शास्त्रों में कभी-कभी पुत्र की पहचान उसके पिता की आत्मा के रूप में की जाती है। यह पहचान आलंकारिक है।

** In the expression ‘Deva-datta is a lion’, the identification is figurative, for the difference between the two is evident. Similar is the case of the son and others as the Self. ✅ 

  स्याद्व्याघ्रः संमुखो द्वेष्यो ह्युपेक्ष्यस्तु पराङ्मुखः ।

लालनादनुकूलश्चेद्विनोदायेति शेषताम् ॥ ५०॥ 

जब बाघ मनुष्य का सामना करता है, तो उससे घृणा की जाती है; जब वह दूर होता है, तो उसकी उपेक्षा की जाती है; और जब उसे वश में कर लिया जाता है और मित्रवत बना दिया जाता है, तो वह प्रसन्नता का कारण बनता है; इस प्रकार वह मनुष्य से संबंधित हो जाता है और उससे प्रेम किया जाता है।

When a tiger confronts man, it is hated; when it is away, it is disregarded; and when it has been tamed and made friendly, it causes joy; thus it is related to him and is loved. ✅

 जब किसी पद [post-BDO] को गलत तरीके से मनुष्य (व्यक्ति -पोस्टमास्टर) मान लिया जाता है तो उसकी पहचान भ्रामक होती है। शरीर और मन के साथ स्वयं की पहचान जो पाँच कोशों का निर्माण करती है, इसी श्रेणी में आती है।

When a post is wrongly taken to be a man the identification is illusory. The identification of the self with the body and mind which constitute the five sheaths falls under this category.

श्रौत्या विचारदृष्ट्यायं साक्ष्येवात्मा न चेतरः ।

कोषान्पञ्च विविच्यान्तर्वस्तुदृष्टिर्विचारणा ॥ ५४॥

** श्रुति का अनुसरण करने वाली विवेक-चक्षु से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षी-चेतना ही वास्तविक आत्मा है। विवेक का अर्थ है पांचों कोशों को अलग करना और भीतर के पदार्थ को देखना।    'आत्म' शब्द का प्राथमिक अर्थ शुद्ध, बिना शर्त साक्षी-चेतना या अद्वैत ब्रह्म है।

✅** Through the eye of discrimination following the Śruti it becomes clear that the witness-consciousness is the real Self. Discrimination means separating the five sheaths and seeing the inner substance. ✅

   जब कोई व्यक्ति स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से यज्ञ करता है, तो उसे पता होता है कि उसका सूक्ष्म शरीर ही स्वर्ग जाएगा, न कि उसका भौतिक शरीर। इस प्रकार वह अपने सूक्ष्म शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है।

   मुक्ति का आकांक्षी यह अनुभव करने का प्रयास करता है कि वह शुद्ध, निर्विकार आत्मा है। यहाँ 'आत्मा' शब्द का प्रयोग उसके मूल अर्थ में किया गया है।

साक्ष्येव दृश्यादन्यस्मात्प्रेयानित्याह तत्त्ववित् ।

प्रेयान्पुत्रादिरेवेमं भोक्तुं साक्षीति मूढधीः ॥ ५९॥

** बुद्धिमान व्यक्ति का मानना ​​है कि साक्षी-चेतना, सभी वस्तुओं से अधिक प्रिय है। मंदबुद्धि मनुष्य यह मानता है कि पुत्र तथा अन्य वस्तुएँ अधिक प्रिय हैं तथा साक्षी-चेतना इन वस्तुओं के कारण सुख भोगती है। ✅

** The wise man holds that the witness-consciousness, is dearer than all objects. The dull-witted man maintains that son and other objects are dearer and that the witness-consciousness enjoys the happiness caused by these objects. ✅

  सर्वोच्च प्रेम मूल आत्मा के प्रति महसूस किया जाता है। आत्मा से जुड़ी हर चीज़ से प्रेम किया जाता है, लेकिन उनके प्रति प्रेम सीमित होता है और उनके द्वारा खुशी देने पर निर्भर करता है। अन्य चीज़ों के लिए कोई प्रेम महसूस नहीं किया जाता।

   यस्तु साक्षिणमात्मानं सेवते प्रियमुत्तमम् ।

तस्य प्रेयानसावात्मा न नश्यति कदाचन ॥ ६८॥

** जो साक्षी आत्मा को सभी वस्तुओं में सबसे प्रिय मानता है, वह पाएगा कि इस प्रियतम आत्मा का कभी विनाश नहीं होता। ✅

** He who contemplates the witness Self as the dearest of all objects will find that this dearest Self never suffers destruction. ✅

विभिन्न भोग-पदार्थों के प्रति प्रेम की मात्रा उनकी आत्मा से निकटता के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। धन से अधिक प्रिय पुत्र है, पुत्र से अधिक प्रिय अपना शरीर है, शरीर से अधिक प्रिय इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से अधिक प्रिय प्राण हैं तथा अन्य सभी वस्तुओं से अधिक प्रिय आत्मा है।

   एक विवाहित दम्पति को पुत्र प्राप्ति की तीव्र इच्छा होती है तथा जब तक पत्नी गर्भवती नहीं हो जाती, तब तक वे बहुत दुखी रहते हैं। गर्भधारण के पश्चात सुरक्षित प्रसव की बड़ी चिंता रहती है। जब बच्चा पैदा होता है, तो उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंता रहती है तथा यह भी कि उसकी दृष्टि, श्रवण आदि सभी क्षमताएं स्वस्थ रहेंगी या नहीं। जब बच्चा बड़ा होता है, तो यह चिंता रहती है कि वह बुद्धिमान होगा या नहीं तथा पढ़ाई में मेहनती होगा या नहीं। इसके पश्चात यह चिंता रहती है कि वह अच्छा कमाएगा तथा धनवान बनेगा या गरीबी में रहेगा तथा यह भी कि वह अच्छा नैतिक जीवन जीएगा या नहीं। यह भी चिंता रहती है कि वह स्वस्थ रहेगा तथा दीर्घायु होगा या असमय मर जाएगा। इस प्रकार माता-पिता के दुःखों का कोई अंत नहीं है। 

   दुःखों से बचने का एकमात्र उपाय है कि व्यक्ति तथा वस्तुओं से आसक्ति न रखें तथा अपने प्रेम को स्वयं पर केन्द्रित करें। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि आसक्ति प्रेम से भिन्न है। आसक्ति व्यक्ति को उस व्यक्ति या वस्तु की दया पर छोड़ देती है, जिससे आसक्ति होती है। परन्तु प्रेम, जो परिभाषा के अनुसार किसी भी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से मुक्त होता है, व्यक्ति को प्रेम की वस्तु से स्वतंत्र कर देता है। सभी जीवों के प्रति समान रूप से किया गया प्रेम श्रेष्ठ बनाता है।

परम आत्मा के प्रति प्रेम वस्तुतः सभी प्राणियों के प्रति प्रेम है, क्योंकि वे परम आत्मा से भिन्न नहीं हैं।

   चूँकि आत्मा आनंद और चेतना दोनों की प्रकृति की है, इसलिए सवाल उठता है कि मन की सभी क्रियाओं में आनंद का अनुभव क्यों नहीं होता और केवल चेतना का अनुभव होता है। इसका उत्तर एक दीपक का उदाहरण लेकर दिया जा सकता है। जब एक दीपक जलता है तो वह गर्मी और प्रकाश दोनों उत्सर्जित करता है, लेकिन कमरे में केवल प्रकाश ही भरता है, गर्मी नहीं।

मैवमुष्णप्रकाशात्मा दीपस्तस्य प्रभा गृहे ।

व्याप्नोति नोष्णता तद्वच्चितेरेवानुवर्तनम् ॥ ७१॥

** (उत्तर): ऐसा नहीं है। एक कमरे में जलने वाला दीपक प्रकाश और गर्मी दोनों उत्सर्जित करता है, लेकिन केवल प्रकाश ही कमरे को भरता है, गर्मी नहीं; इसी तरह, यह केवल चेतना है जो वृत्ति को पूरा करती है (और आनंद को नहीं)। ✅

** (Reply): Not so. A lamp burning in a room emits both light and heat, but it is only the light that fills the room and not heat; similarly, it is only consciousness which accomplishes the Vṛttis (and not bliss).

   जब आत्मा आनंद और चेतना दोनों है, तो ऐसा कैसे है कि जब मानसिक परिवर्तन में चेतना प्रकट होती है तो आनंद भी उसी समय प्रकट नहीं होता? इसका उत्तर यह बताकर दिया जा सकता है कि यद्यपि किसी वस्तु में रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श होता है, लेकिन इनमें से केवल एक गुण को ही किसी विशेष इंद्रिय द्वारा पहचाना जाता है।

आद्ये गन्धादयोऽप्येवमभिन्नाः पुष्पवर्तिनः ।

अक्षभेदेन तद्भेदे वृत्तिभेदात्तयोर्भिदा ॥ ७४॥

** फूल की गंध, रंग और अन्य गुण फूल में एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं। यदि यह कहा जाए कि इन गुणों का पृथक्करण इंद्रियों द्वारा होता है, तो हम इस बात से सहमत होते हैं कि चेतना और आनंद के बीच स्पष्ट अंतर वृत्ति (रजस या सत्व की प्रधानता) द्वारा उत्पन्न होता है। ✅** The odour, colour and other properties of a flower are not separate from one another in the flower. If it be said that the separation of these properties is brought about by the sense-organs, we rejoin that the seeming difference between consciousness and bliss is produced by (the predominance of Rajas or Sattva in) the Vṛttis. ✅

 यह कहना सही नहीं है कि फूल के रंग, गंध और अन्य गुण एक दूसरे से भिन्न हैं और इसलिए दिया गया उदाहरण लागू नहीं होता क्योंकि आनंद और चेतना एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। फूल के गुण एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। यदि यह कहा जाए कि वे भिन्न हैं क्योंकि उन्हें विभिन्न इंद्रियों द्वारा पहचाना जाता है, तो यह बताना आवश्यक है कि इसी प्रकार मानसिक स्थिति की संरचना में अंतर के कारण आनंद और चेतना के बीच भी एक स्पष्ट अंतर होता है। जब मन में सत्वगुण प्रबल होता है, तो आनंद और चेतना दोनों प्रकट होते हैं, जबकि जब रजोगुण प्रबल होता है, तो केवल चेतना प्रकट होती है और आनंद अस्पष्ट हो जाता है।

यद्योगेन तदेवैति वदामो ज्ञानसिद्धये ।

योगः प्रोक्तो विवेकेन ज्ञानं किं नोपजायते ॥ ७८॥

** (उत्तर): जो लक्ष्य योग से प्राप्त होता है, वह विवेक से भी प्राप्त हो सकता है। योग ज्ञान का एक साधन है; क्या विवेक से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता? 

✅** (Reply): The goal which is reached by Yoga can also be reached by discrimination. Yoga is a means to knowledge; doesn’t knowledge arise from discrimination? ✅

यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

इति स्मृतं फलैकत्वं योगिनां च विवेकिनाम् ॥ ७९॥

** 'सांख्यों द्वारा प्राप्त स्थिति योगियों द्वारा भी प्राप्त की जाती है'। इस प्रकार गीता में योग और विवेक दोनों के फल की पहचान के बारे में कहा गया है। ✅

** ‘The state achieved by the Sāṅkhyas is also achieved by the Yogīs’. Thus it has been said in the Gītā about the identity of the fruit of both Yoga and discrimination (viveka). ✅

   भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि मोक्ष के दो मार्ग हैं। एक योग मार्ग और दूसरा ज्ञान मार्ग।    

   न प्रीतिर्विषयेष्वस्ति प्रेयानात्मेति जानतः ।

कुतो रागः कुतो द्वेषः प्रातिकूल्यमपश्यतः ॥ ८२॥

** जो स्वयं को सबसे प्रिय जानता है, उसे किसी भी भोग्य वस्तु से प्रेम नहीं होता। तो उसका मोह कैसे हो सकता है? और जो अपने लिए कोई शत्रु वस्तु नहीं देखता, उसे घृणा कैसे हो सकती है? ✅

** One who knows the Self as the dearest has no love for any object of enjoyment. So how can he have attachment? And how can he who sees no object inimical to himself have any aversion? ✅

जो मनुष्य अपने आपको सबसे प्रिय जानता है, वह किसी भी बाह्य भोग की वस्तु की इच्छा नहीं करता, न ही उसे किसी वस्तु से द्वेष होता है, क्योंकि वह किसी भी वस्तु को अपने लिए प्रतिकूल नहीं मानता।

द्वैतस्य प्रतिभानं तु व्यवहारे द्वयोः समम् ।

समाधौ नेति चेत्तद्वन्नाद्वैतत्वविवेकिनः ॥ ८४॥

** यह कहा जा सकता है कि यद्यपि सापेक्ष अनुभव की दुनिया में दोनों द्वैत की अवधारणा को स्वीकार करते हैं, योगी को यह लाभ होता है कि समाधि की स्थिति में उसके लिए कोई द्वैत नहीं होता है। 

हमारा उत्तर यह है कि जो अद्वैत का विवेक करता है, उसे उस समय द्वैत का अनुभव नहीं होता। ✅

** It may be said that though in the world of relative experience both accept the conception of duality, the Yogī has the advantage that there is no duality for him while in the state of Samādhi. Our reply is that he who practises discrimination about the non-duality does not experience duality at that time. ✅

अध्याय 12 का अंत  

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✅🔱पंचदशी-11 🔱योगानंद - योग का आनंद [Yogananda: The Bliss Of Yoga]

 ब्रह्मानन्दे योगानन्दोनाम - एकादशः परिच्छेदः । [134 -श्लोक]  

अध्याय 11

[134 -श्लोक] 

योगानंद - योग का आनंद

   अध्याय 11 से 15 तक उन विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है जिनमें आनंद अर्थात ब्रह्म स्वयं प्रकट होता है। 

    इस अध्याय में यह बताया गया है कि योगाभ्यास से प्राप्त आनंद, परम आनंद का एक पहलू है जो ब्रह्म के समान है।

ब्रह्मानन्दं प्रवक्ष्यामि ज्ञाते तस्मिन्नशेषतः ।

ऐहिकामुष्मिकानर्थव्रातं हित्वा सुखायते ॥ १॥

** अब हम ब्रह्म के आनंद का वर्णन करते हैं, जिसे जानकर व्यक्ति वर्तमान और भविष्य की बीमारियों से मुक्त हो जाता है और खुशी प्राप्त करता है। ✅** We now describe the bliss of Brahman, knowing which one becomes free from present and future ills and obtains happiness. ✅

   ब्रह्म-सुख की प्राप्ति होने पर मनुष्य समस्त वर्तमान और भविष्य के दुःखों से मुक्त हो जाता है।

प्रतिष्ठां विन्दते स्वस्मिन्यदा स्यादथ सोऽभयः ।

कुरुतेऽस्मिन्नन्तरं चेदथ तस्य भयं भवेत् ॥ ३॥

** जो स्वयं को अपनी आत्मा में स्थापित कर लेता है वह निर्भय हो जाता है, लेकिन जो स्वयं से कोई अंतर देखता है वह भय के अधीन हो जाता है। ✅

** He who establishes himself in his own Self becomes fearless, but he who perceives any difference from the Self is subject to fear. 

✅ जो यह जान लेता है कि मैं ही परम आत्मा हूँ और उसी में स्थित रहता है, वह समस्त भय से मुक्त हो जाता है; किन्तु जो आत्मा से किंचित भी भेद अनुभव करता है, वह भय से ग्रसित हो जाता है।

वायुः सूर्यो वह्निरिन्द्रो मृत्युर्जन्मान्तरेऽन्तरम् ।

कृत्वा धर्मं विजानन्तोऽप्यस्माद्भीत्या चरन्ति हि ॥ ४॥

** यहां तक ​​कि वायु, सूर्य, अग्नि, इंद्र और मृत्यु भी पूर्वजन्मों में धार्मिक अनुष्ठान करते हुए भी, उनसे अपनी एकता का बोध न कर पाने के कारण, उनसे भयभीत होकर ही अपने कार्य करते हैं।

** Even Wind, Sun, Fire, Indra and Death, having performed the religious practices in earlier lives, but failing to realise their identity with Him, carry out their tasks in fear of Him.

   तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है कि वायु, सूर्य, अग्नि, इंद्र   और यम देवता हमेशा ब्रह्म से डरते रहते हैं। पिछले जन्मों में किए गए बहुत ही पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप उन्हें ये पद प्राप्त हुए हैं, लेकिन चूँकि उन्हें ब्रह्म के साथ अपनी पहचान का एहसास नहीं हुआ है, इसलिए वे अभी भी भय के अधीन हैं

आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कुतश्चन ।

एतमेव तपेन्नैषा चिन्ता कर्माग्निसम्भृता ॥ ५॥

** जिसने ब्रह्म का आनंद प्राप्त कर लिया है उसे किसी भी चीज से डर नहीं लगता। अपने अच्छे और बुरे कर्मों की चिंता, जो आग की तरह दूसरों को भस्म कर देती है, अब उसे नहीं झुलसाती। ✅** One who has attained the bliss of Brahman experiences fear from nothing. Anxiety regarding his good and bad actions which consumes others like fire, no longer scorches him. ✅

   जिसने ब्रह्म के आनन्द को प्राप्त कर लिया है, उसे किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता और न ही उसे इस प्रकार के विचार परेशान करते हैं कि उसने पुण्य कर्म किए हैं या नहीं, क्योंकि उसके कर्म उसे कलंकित नहीं करते। 

एवं विद्वान्कर्मणि द्वे हित्वात्मानं स्मरेत्सदा ।

कृते च कर्मणि स्वात्मरूपेणैवैष पश्यति ॥ ६॥

** ऐसा ज्ञानी अपने ज्ञान के माध्यम से स्वयं को अच्छे और बुरे से परे ले जाता है और हमेशा आत्मा के ध्यान में लीन रहता है। वह अपने द्वारा किए गए अच्छे और बुरे कर्मों को अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति के रूप में देखता है।

** Such a knower through his knowledge takes himself beyond good and evil and is ever engaged in meditation on the Self. He looks upon good and bad actions done as the manifestations of his Self. ✅

तैत्तिरीय उपनिषद्, 2.9.1 में ऐसा कहा गया है। सभी कर्मों को त्यागकर और अच्छे-बुरे के सभी विचारों से परे जाकर, वह हमेशा आत्मा के ध्यान में लगा रहता है। वह सभी कर्मों को आत्मा के समान ही देखता है। 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्च्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ७॥

उसे बांधने वाली सभी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं, आत्मा के बारे में उसके सभी संदेह दूर हो जाते हैं और उसके सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि वे उसके लिए कोई बंधन नहीं बनते।

 तमेव विद्वानत्येति मृत्युं पन्था न चेतरः ।

ज्ञात्वा देवं पाशहानिः क्षीणैः क्लेशैर्न जन्मभाक् ॥ ८॥

** ‘उसे' जानकर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस को जानकर ?) मनुष्य मृत्यु को पार कर जाता है; इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है।’ ‘जब मनुष्य उस तेजोमय आत्मा को जान लेता है, तो उसके सारे बंधन कट जाते हैं, उसके क्लेश समाप्त हो जाते हैं; उसके लिए फिर कोई जन्म नहीं रहता।’ ✅ ’केवल ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) को जानने से ही व्यक्ति मृत्यु और भवसागर से परे हो जाता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने का कोई अन्य साधन नहीं है। जब तेजोमय आत्मा को जान लिया जाता है, तो सभी बंधन कट जाते हैं। सभी क्लेश समाप्त हो जाते हैं और वह फिर से जन्म नहीं लेता। 

** ‘Knowing Him, one crosses death; there is no other path than this’. ‘When a man has known the effulgent Self, all his bonds are cut asunder, his afflictions cease; there is no further birth for him.

देवं मत्वा हर्षशोकौ जहात्यत्रैव धैर्यवान् ।

नैनं कृताकृते पुण्यपापे तापयतः क्वचित् ॥ ९॥

इत्यादिश्रुतयो बह्व्यः पुराणैः स्मृतिभिः सह ।

ब्रह्मज्ञानेऽनर्थहानिमानन्दं चाप्यघोषयन् ॥ १०॥

** 'स्थिर ज्ञान वाला व्यक्ति, तेजस्वी आत्मा को जानने के बाद, इस जीवन में भी सभी सुखों और दुखों को पीछे छोड़ देता है।' 'वह उन अच्छे या बुरे कर्मों के विचारों से नहीं झुलसता जो उसने किए हों या करने से छोड़ दिए हों।'

जिसने यह जान लिया है कि वह कोई और नहीं बल्कि परम आत्मा ( supreme Self) है, वह इस संसार में रहते हुए भी सभी सांसारिक सुखों और दुखों से मुक्त हो जाता है। उसे अपने द्वारा किए गए या किए गए कार्यों के बारे में विचार परेशान नहीं करते।  श्रुतियाँ, स्मृतियाँ और पुराण बार-बार घोषणा करते हैं कि ब्रह्म की प्राप्ति से सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं और परम आनंद प्राप्त होता है। One who has realized that he is none other than the supreme Self becomes free from all worldly joys and sorrows even while living in this world.  Thus many texts in the Śruti, Smṛtis and Purāṇas declare that the knowledge of Brahman destroys all sorrows and leads to bliss. 

   आनन्द तीन प्रकार का है - ब्रह्म आनन्द, ज्ञानजन्य आनन्द तथा बाह्य विषयों से उत्पन्न आनन्द। इनमें से अब ब्रह्म आनन्द का वर्णन किया जा रहा है।

आनन्दस्त्रिविधो ब्रह्मानन्दो विद्यासुखं तथा ।

विषयानन्द इत्यादौ ब्रह्मानन्दो विविच्यते ॥ ११॥

** आनंद तीन प्रकार का होता है- ब्रह्मानन्द, विद्यानन्द और विषयानन्द , 'ब्रह्म का आनंद', दूसरा वह आनंद जो ज्ञान से उत्पन्न होता है और तीसरा वह आनंद जो बाहरी वस्तुओं के संपर्क से उत्पन्न होता है। 

यहाँ सबसे पहले ब्रह्म के आनंद का वर्णन किया जा रहा है। ✅

** Bliss is of three kinds: The bliss of Brahman, the bliss which is born of knowledge and the bliss which is produced by contact with outer objects. First the bliss of Brahman is being described. ✅

   भृगु ने अपने पिता वरुण से ब्रह्म की परिभाषा सुनी। उन्होंने अन्न, प्राण, मन और बुद्धि के आवरणों का निषेध करके आनंद-आवरण में प्रतिबिम्बित ब्रह्म को देखा।

भृगुः पुत्रः पितुः श्रुत्वा वरुणाद्ब्रह्मलक्षणम् ।

अन्नप्राणमनोबुद्धिस्त्यक्त्वानन्दं विजज्ञीवान् ॥ १२॥

** भृगु ने अपने पिता वरुण से ब्रह्म के लक्षणों का श्रवण किया, परिभाषा को समझा, फिर     अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष (बुद्धि) में ब्रह्मत्व सम्भव नहीं है , यह सोच-विचार कर उनके साथ अपने तादात्म्य का परित्याग कर दिया, और आनंदमय कोष में प्रतिबिंबित आनन्द को ब्रह्म समझकर स्वीकार कर लिया।  

** Bhṛgu learnt the definition of Brahman from his father Varuṇa and negating the food-sheath, the vital-sheath, the mind-sheath and the intellect-sheath as not being Brahman, he realised Brahman reflected in the bliss-sheath. ✅

आनन्दादेव भूतानि जायन्ते तेन जीवनम् ।

तेषां लयश्च तत्रातो ब्रह्मानन्दो न संशयः ॥ १३॥

** सभी प्राणी आनन्द से उत्पन्न होते हैं, उसी में जीते हैं, उसी में चले जाते हैं और अन्त में उसी में लीन हो जाते हैं; अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्रह्म आनन्द है।**

 All beings are born of bliss and live by It, pass on to It and are finally reabsorbed in it; there is therefore no doubt that Brahman is bliss.  

तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि सभी प्राणी आनंद से उत्पन्न होते हैं, आनंद से ही पोषित होते हैं और अंत में आनंद में ही लीन हो जाते हैं। प्राणियों के शरीर जन्म (प्रजनन) शारीरिक मिलन से प्राप्त सुख के कारण होता है, प्राणियों के जीवन का निर्वाह इंद्रिय-विषयों से प्राप्त सुख के कारण होता है, और सुख का अनुभव निद्रा में होता है, जब आत्मा अस्थायी रूप से परम आत्मा में लीन हो जाती है)। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है कि ब्रह्म आनंद है।

 प्राणियों की रचना से पहले ज्ञाता, ज्ञेय और जानने की क्रिया की त्रयी के बिना केवल अनंत ब्रह्म था। प्रलय में भी त्रयी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

भूतोत्पत्तेः पुरा भूमा त्रिपुटीद्वैतवर्जनात् ।

ज्ञातृज्ञानज्ञेयरूपा त्रिपुटी प्रलये हि न ॥ १४॥

** प्राणियों के निर्माण से पहले केवल अनंत था और ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का कोई त्रय नहीं था; इसलिए प्रलय के समय में त्रय का फिर से अस्तित्व समाप्त हो जाता है। ✅

** Before the creation of beings there was only the infinite and no triad of knower, known and knowing; therefore in dissolution the triad again ceases to exist. ✅

 जब सृष्टि अस्तित्व में है, तब बुद्धि-कोश ज्ञाता है, मन-कोश में प्रतिबिम्बित चेतना ज्ञान है तथा शब्द आदि ज्ञेय वस्तुएँ हैं। सृष्टि के पूर्व इन तीनों में से कोई भी अस्तित्व में नहीं था। 

विज्ञानमय उत्पन्नो ज्ञाता ज्ञानं मनोमयः ।

ज्ञेयाः शब्दादयो नैतत्त्रयमुत्पत्तितः पुरा ॥ १५॥

** निर्मित होने पर बुद्धि-कोश ज्ञाता है; मनःकोश ज्ञान का क्षेत्र है; ध्वनि आदि ज्ञात वस्तुएँ हैं। सृष्टि से पहले इनका अस्तित्व नहीं था। ✅

** When created, the intellect-sheath is the knower; the mind-sheath is the field of knowledge; sound etc., are the objects known. Before creation they did not exist. ✅

सृष्टि के निर्माण से पूर्व तथा समाधि, सुषुप्ति तथा मूर्च्छा की अवस्थाओं में भी आत्मा ही विद्यमान रहती है।

   भगवान सनत्कुमार ने नारद मुनि से कहा कि केवल अनंत आत्मा ही आनंद है। किसी भी सीमित वस्तु में सुख नहीं है। 

यो भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखं त्रेधा विभेदिनि ।

सनत्कुमारः प्राहैवं नारदायातिशोकिने ॥ १७॥

** अनंत आत्मा ही आनंद है; त्रय के सीमित दायरे में कोई आनंद नहीं है। यह सनत-कुमार ने दुःखी नारद को बताया। ✅

** The infinite Self alone is bliss; there is no bliss in the finite realm of the triad. This Sanat-kumāra told the grieving Nārada. ✅

(अ.उप.7.23.1) यद्यपि नारद ने वेद, पुराण तथा अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था, फिर भी वे दुःखी थे, क्योंकि उन्होंने आत्मा को नहीं जाना था। वेदों का अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व वे केवल तीन प्रकार के दुःखों से पीड़ित थे, जो सभी मनुष्यों में स्वाभाविक रूप से पाए जाते हैं - आध्यात्मिक, जो शारीरिक रोगों से उत्पन्न होते हैं, आधिभौतिक, जो अन्य प्राणियों के कारण होते हैं, तथा आधिदैविक, जो बाढ़, भूकंप आदि विपत्तियों के कारण होते हैं। किन्तु वेदों तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन करने के पश्चात् वे जो कुछ भी सीख चुके थे, उसे निरन्तर सुनाने की आवश्यकता से भी बोझिल हो गए, तथा जो कुछ उन्होंने सीखा था, उसे भूल जाने का भय, तर्क में पराजित होने का भय तथा विद्या के अभिमान से भी ग्रस्त हो गए। अतः वे भगवान सनत्कुमार के पास गए तथा उनसे उस ज्ञान के लिए प्रार्थना की, जो उन्हें सभी दुःखों से उबार सके।

 सनत्कुमार ने उनसे कहा कि दुख के सागर को केवल ब्रह्म को प्राप्त करके ही पार किया जा सकता है, जो शुद्ध आनंद है। बाह्य वस्तुओं से प्राप्त सुख हमेशा दुख के साथ होता है। सीमित क्षेत्र में कोई वास्तविक या अमिश्रित सुख नहीं है। यह सच है कि अद्वैत ब्रह्म में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञेय का कोई त्रय नहीं है और इसलिए इंद्रिय-विषयों से सुख का कोई अनुभव नहीं हो सकता है, लेकिन जिसने ब्रह्म को जान लिया है वह शुद्ध आनंद के रूप में रहता है। गहरी नींद में ब्रह्म का आनंद अनुभव किया जाता है, भले ही कोई विषय या त्रय न हो। इसलिए यह आनंद स्वयं प्रकट होता है।        गहरी नींद में व्यक्ति को अंधेपन, घाव और बीमारी के कारण जागृत अवस्था में अनुभव किए जाने वाले दुखों का सामना नहीं करना पड़ता है। गहरी नींद में व्यक्ति ब्रह्म के साथ एक हो जाता है और इसलिए वह स्वयं आनंद बन जाता है।

अद्वैतः प्रलयो द्वैतानुपलम्भेन सुप्तिवत् ।

इति चेत्सुप्तिरद्वैतेत्यत्र दृष्टान्तमीरय ॥ २९॥

** (आपत्ति): (यहां उदाहरण सहित तर्क दिया गया है)। विघटन में अद्वैत होता है, क्योंकि वहां द्वैत का अनुभव नहीं होता, जैसा कि गहरी नींद में होता है। (उत्तर): कृपया गहरी नींद में द्वैत की अनुपस्थिति की अपनी पुष्टि के समर्थन में एक उदाहरण दें। ✅** (Objection): (Here is the argument with illustration). In dissolution there is non-duality, since duality is not experienced there, as in deep sleep. (Reply): Please give an illustration to support your affirmation of the absence of duality in deep sleep

उपनिषदों में निद्रा में प्राप्त होने वाले आनन्द के अनेक उदाहरण दिए गए हैं। एक बाज़ एक लंबी रस्सी से खंभे से बंधा हुआ इधर-उधर उड़ता रहता है और अंत में जब थक जाता है और उसे विश्राम की आवश्यकता होती है, तो वह उसी खंभे पर वापस चला जाता है, जिससे वह बंधा होता है। इसी प्रकार मन भी जाग्रत और स्वप्न अवस्था में सुख-दुख भोगने के बाद सुषुप्ति की अवस्था में अपने कारण अविद्या में लीन हो जाता है। तब जीव परमसत्ता से एक हो जाता है और आनन्द का आनन्द लेता है (अध्याय 6.8.2 और ब्र.उपनिषद 4.3.19)। एक शिशु अपनी माता के स्तन से दूध पीकर, राग-द्वेष से मुक्त होकर, अपने बिस्तर पर लेटकर अपने स्वाभाविक आनन्द का आनन्द लेता है। 

एक सम्राट (राजर्षिजनक) जो विवेक से संपन्न है और जिसके पास मनुष्यों की पहुँच के भीतर सभी पुण्य सुख हैं, और फलस्वरूप वह किसी भी प्रकार की इच्छा से मुक्त है, वह आनन्द का साक्षात् स्वरूप रहता है। 

दृष्टान्ताः शकुनिः श्येनः कुमारश्च महानृपः ।

महाब्राह्मण इत्येते सुप्त्यानन्दे श्रुतीरिताः ॥ ४६॥

** शास्त्रों में नींद में प्राप्त होने वाले आनंद को दर्शाने के लिए निम्नलिखित उदाहरण दिए गए हैं: बाज़, चील, शिशु, महान राजा और ब्रह्मज्ञानी।

** The scriptures give the following examples to illustrate the bliss enjoyed in sleep: the falcon, the eagle, the infant, the great king and the knower of Brahman. ✅

ब्रह्म को प्राप्त करने वाला महान ब्राह्मण जीवनमुक्ति की अवस्था में आत्मज्ञान के परम आनंद में स्थित रहता है, तथा वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो प्राप्त किया जाना था। अबोध बालक, विवेकशील सम्राट तथा आत्मज्ञानी ब्राह्मण परम आनंद के उदाहरण हैं। अन्य लोग दुःखी होते हैं तथा पूर्णतः सुखी नहीं होते। तथापि, गहरी नींद में प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म के आनंद का आनंद लेता है।

 उस अवस्था में वह आंतरिक या बाह्य किसी भी चीज के प्रति सचेत नहीं रहता, जैसे कोई व्यक्ति अपनी प्रिय पत्नी के आलिंगन में होता है (ब्रह्म उपनिषद 4.3.21)। जाग्रत अवस्था के अनुभव बाह्य होते हैं तथा स्वप्न के अनुभव आंतरिक होते हैं। 

कुमारादिवदेवायं ब्रह्मानन्दैकतत्परः ।

स्त्रीपरिष्वक्तवद्वेद न बाह्यं नापि चान्तरम् ॥ ५४॥

** Like the infant and the other two, man pas** शिशु और अन्य दो की तरह, मनुष्य गहरी नींद में चला जाता है और केवल ब्रह्म के आनंद का आनंद लेता है। उस अवस्था में वह, अपनी प्यारी पत्नी द्वारा गले लगाए गए व्यक्ति की तरह, आंतरिक या बाहरी किसी भी चीज़ के प्रति सचेत नहीं रहता है।

 ✅ses into deep sleep and enjoys only the bliss of Brahman. In that state he, like a man embraced by his loving wife, is not conscious of anything either internal or external. ✅

बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि गहरी नींद की अवस्था में पिता, पिता नहीं रह जाता, माता, माता नहीं रह जाती, संसार संसार नहीं रह जाता, इत्यादि (4.3.22)। 

पितापि सुप्तावपितेत्यादौ जीवत्ववारणात् ।

सुप्तौ ब्रह्मैव नो जीव संसारित्वासमीक्षणात् ॥ ५६॥

** श्रुति कहती है: 'नींद में पिता भी पिता नहीं होता।' तब सभी सांसारिक विचारों के अभाव में जीवत्व नष्ट हो जाता है और शुद्ध चेतना की स्थिति कायम हो जाती है। ✅

** The Śruti says: ‘In sleep even a father is no father’. Then in the absence of all worldly ideas the Jivahood is lost and a state of pure consciousness prevails. ✅

इस प्रकार सभी सांसारिक विचार अनुपस्थित हो जाते हैं। तब जीवत्व समाप्त हो जाता है तथा केवल ब्रह्म ही शेष रह जाता है। 

दुःख, स्वयं को पिता, पुत्र आदि के रूप में पहचानने का परिणाम है। गहरी नींद में, जब ऐसी पहचान अनुपस्थित हो जाती है, तब दुःख नहीं होता। जो व्यक्ति नींद से जागा है, उसे याद आता है कि वह सुखपूर्वक सोया था और उसे कुछ भी पता नहीं था। स्मरण के लिए अनुभव की आवश्यकता होती है। गहरी नींद में आत्मा आनंद के रूप में प्रकट होती है और अज्ञान को भी प्रकट करती है। ब्रह्म स्वयं प्रकाशमान आनंद है। गहरी नींद में मन और बुद्धि अपने कारण अविद्या में सुप्त रहते हैं। जब व्यक्ति जागता है, तब वे प्रकट होते हैं। तब व्यक्ति को नींद के दौरान सुख और पूर्ण अज्ञान के अपने अनुभव की याद आती है।

विलीनघृतवत्पश्चात्स्याद्विज्ञानमयो घनः ।

विलीनावस्थ आनन्दमयशब्देन कथ्यते ॥ ६३॥

** जिस तरह पिघला हुआ मक्खन फिर से ठोस हो जाता है, उसी तरह गहरी नींद के बाद की अवस्था में दो कोश फिर से प्रकट हो जाते हैं। मन और बुद्धि जिस अवस्था में सुप्त रहते हैं उसे आनंद-कोष कहते हैं। ✅

** Just as melted butter again becomes solid, the two sheaths in the states following deep sleep again become manifest. The state in which the mind and intellect are latent is called the bliss-sheath. ✅

 गहरी नींद की वह अवस्था, जिसमें मन और बुद्धि सुप्त रहते हैं, आनंदमय -कोश कहलाती है। जब व्यक्ति जागता है, तो मन और बुद्धि के कोश पुनः प्रकट हो जाते हैं। आनंद का कोश ही भोक्ता है और ब्रह्म के आनंद का ही भोग होता है।

 जाग्रत अवस्था में बुद्धि की वृत्तियाँ, जो ज्ञान के साधन हैं, ज्ञान के विभिन्न विषयों को आच्छादित करती हैं, लेकिन गहरी नींद में वे चेतना का एक अविभाज्य पुंज बन जाती हैं। गहरी नींद में दुःख के रूप में कोई मानसिक वृत्तियाँ नहीं होती हैं। 

गहरी नींद की वह अवस्था, जिसमें आनंद का भोग होता है, समाप्त हो जाती है और व्यक्ति अपने कर्म के द्वारा प्रेरित होकर जागता है।नींद में प्राप्त आनंद की छाप जागने के बाद कुछ समय तक बनी रहती है। फिर, कर्मों से प्रेरित होकर, वह अपने कर्तव्यों का पालन करने लगता है और धीरे-धीरे ब्रह्म-आनंद को भूल जाता है।

   यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति नींद में आनन्द का अनुभव करता है, फिर भी वह उस आनन्द को ब्रह्म नहीं समझ पाता। ब्रह्म के बारे में केवल बौद्धिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है; ब्रह्म को स्वयं के रूप में समझना चाहिए।       

   जब कभी किसी बाह्य वस्तु या घटना के बिना भी सुख का अनुभव होता है, तो उसे ब्रह्मानंद की वासना समझना चाहिए। किसी भी इच्छा की पूर्ति पर जो सुख अनुभव होता है, वह मानसिक परिवर्तन (वृत्ति) में ब्रह्मानंद के प्रतिबिंब के कारण होता है। इस सुख को विषयानंद कहते हैं, अर्थात बाह्य वस्तुओं के भोग से मिलने वाला सुख। 

इस प्रकार सुख के केवल तीन प्रकार हैं: ब्रह्मानंद या ब्रह्मानंद, वासानंद या वह सुख जो ब्रह्मानंद की छाप है, और विषयानंद या मन में ब्रह्मानंद का प्रतिबिंब। ब्रह्मानंद स्वयं प्रकट होता है और यह अन्य दो प्रकार के सुखों को जन्म देता है।

शास्त्रों, तर्क और अनुभव से यह प्रमाणित होता है कि सुषुप्ति की अवस्था में ब्रह्म का आनन्द स्वयं प्रकट होता है। सुषुप्ति की अवस्था में जीव जब ब्रह्म के आनन्द का आनन्द लेता है, तब उसे आनन्दमय कहा जाता है। स्वप्न और जाग्रत अवस्था में जीव बुद्धि-कोश या विज्ञानमयकोश से तादात्म्य रखता है। 

नेत्रे जागरणं कण्ठे स्वप्नः सुप्तिर्हृदम्बुजे ।

आपादमस्तकं देहं व्याप्य जागर्ति चेतनः ॥ ९१॥

** श्रुति कहती है कि जाग्रत अवस्था में जीव नेत्र यानी स्थूल शरीर में रहता है; स्वप्न अवस्था में कण्ठ में और सुषुप्ति अवस्था में हृदय कमल में। जाग्रत अवस्था में जीव सिर से पैर तक संपूर्ण स्थूल शरीर में व्याप्त रहता है। ✅** The Śruti says that in the waking state the Jīva abides in the eye i.e., the gross body; in the dreaming state in the throat and in deep sleep in the lotus of the heart. In the waking state the Jīva pervades the whole gross body from head to foot. ✅

श्रुति कहती है कि जाग्रत अवस्था में जीव नेत्र में, स्वप्न अवस्था में कण्ठ में और सुषुप्ति में हृदय कमल में रहता है। जाग्रत अवस्था में जीव अपने को स्थूल शरीर से तादात्म्य रखता है और अपने को पुरुष, स्त्री आदि के रूप में देखता है। तब वह सुख और दुःख का अनुभव करता है। जब किसी समय वह चिन्ताओं से मुक्त होता है और साथ ही किसी बाह्य वस्तु से आनन्द का अनुभव नहीं कर रहा होता है, तब उसका मन शान्त होता है। तब वह आत्मा के स्वाभाविक आनन्द का अनुभव करता है।

 किन्तु यह आनन्द ब्रह्म का परम आनन्द नहीं है, क्योंकि इसमें अहंकार की धारणा भी विद्यमान है; यह परम आनन्द का आभास मात्र है। यह ऐसा ही है जैसे जल से भरे घड़े की बाहरी सतह बाहर जल न होने पर भी स्पर्श करने पर ठण्डी लगती है। जैसे घड़े के अन्दर जल की उपस्थिति बाहरी सतह की शीतलता से अनुमान की जा सकती है, वैसे ही निरन्तर अभ्यास से जब अहंकार अत्यन्त क्षीण हो जाता है, तब व्यक्ति अपने परम आनन्द के स्वरूप को समझ सकता है। जिस आनन्द में द्वैत का अनुभव नहीं होता तथा जो गहरी निद्रा की अवस्था नहीं है, वही ब्रह्म आनन्द है। 

भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य को धीरे-धीरे अपने मन को अन्य सभी विचारों से हटाकर ब्रह्म में स्थिर करना चाहिए। जब ​​कभी मन, जो स्वभाव से ही चंचल और चंचल है, भटक जाए, तो उसे रोककर पुनः आत्मा में स्थिर करना चाहिए। जिस योगी ने अपने मन को पूर्णतः शान्त और सभी कल्मषों से मुक्त कर लिया है, जो निष्पाप है और जिसने ब्रह्म के साथ अपनी एकता को अनुभव कर लिया है, वह परम आनन्द को प्राप्त करता है। योग के अभ्यास से जब मन अन्य विषयों से हटकर आत्मा पर केन्द्रित हो जाता है, तब इन्द्रियों से परे तथा बुद्धि से ही प्राप्त होने वाला परम आनन्द प्राप्त होता है। इस अवस्था से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। जो व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बड़ी से बड़ी विपत्ति से भी विचलित नहीं होता। 

  योग दुःख से सर्वथा मुक्त होने की अवस्था है। इस योग का अभ्यास दृढ़ निश्चय तथा वैराग्यपूर्वक करना चाहिए। जो योगी सब कल्मषों से मुक्त है तथा जिसका मन सदैव आत्मा में स्थिर रहता है, वह ब्रह्म से तादात्म्य का परम आनन्द अनुभव करता है।

उत्सेक उदधेर्यद्वत्कुशाग्रेणैकबिन्दुना ।

मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदतः ॥ १०९॥

** 'लंबे समय तक अथक अभ्यास से मन पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है, जैसे घास के एक तिनके से बूंद-बूंद करके समुद्र के पानी को सूखाया जा सकता है।' ✅

** ‘The control of the mind can be achieved by untiring practice over a long period, even as the ocean can be dried up by baling its waters out drop by drop with a blade of grass.’ ✅

 मन पर नियंत्रण अथक अभ्यास से प्राप्त किया जा सकता है, जैसा कि उस पक्षी की कथा में बताया गया है, जो अपनी चोंच से बूंद-बूंद करके समुद्र का जल सुखाने के लिए तत्पर हो गया था। कथा है कि समुद्र के किनारे एक पक्षी द्वारा दिए गए अंडे लहरों में बह गए। क्रोधित पक्षी ने समुद्र को सुखाकर अपने अंडे वापस लेने का निश्चय किया तथा घास की एक पत्ती से पानी निकालने लगा। ऋषि नारद वहां से गुजर रहे थे, उन्होंने पक्षी को देखा तथा उसके दृढ़ निश्चय से प्रभावित हुए।वह गरुड़ के पास गया और उसे अपनी प्रजाति के एक सदस्य को बचाने के लिए जाने को कहा जो शक्तिशाली समुद्र के खिलाफ खड़ा था। गरुड़ ने आकर समुद्र को कड़ी सजा देने की धमकी दी अगर उसने पक्षी को अंडे वापस नहीं किए। तब समुद्र ने पक्षी को अंडे वापस कर दिए। इस कहानी का नैतिक यह है कि यदि किसी के पास आवश्यक दृढ़ संकल्प है, तो ईश्वरीय सहायता आएगी और उसे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में सक्षम बनाएगी।

   जैसे ईंधन समाप्त हो जाने पर अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही जब सभी परिवर्तन समाप्त हो जाते हैं, तो मन अपने कारण में लीन हो जाता है। जब मन ब्रह्म पर स्थिर हो जाता है, तो परम सत्य, प्रारब्ध कर्म से उत्पन्न सभी सुख और दुःखों का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। यह एक प्राचीन सत्य है कि मन जिस विषय की ओर निर्देशित होता है, उसका रूप धारण कर लेता है।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ ११७॥

'मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। वस्तुओं में आसक्ति बंधन की ओर ले जाती है और उनसे आसक्ति से मुक्ति मोक्ष की ओर ले जाती है।'** 

‘The mind alone is the cause of bondage and release. Attachment to objects leads to bondage and freedom from attachment to them leads to release’

 मन ही आवागमन का कारण है। इसे अथक प्रयास से शुद्ध करना चाहिए। मन की शुद्धि से अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्मों द्वारा छोड़े गए सभी संस्कार नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध मन आत्मा में स्थित होकर अनंत आनंद का आनंद लेता है। यदि कोई व्यक्ति अपने मन को उसी तीव्रता से ब्रह्म पर स्थिर करे, जिस तीव्रता से लोग अपने मन को इंद्रिय-विषयों पर स्थिर करते हैं, तो सभी बंधन निश्चित रूप से मिट जाएंगे।

   जो मन कामनाओं से कलुषित है, वह अशुद्ध मन है और जो मन कामनाओं से मुक्त है, वह शुद्ध मन है। श्रुति कहती है कि मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। विषयों में आसक्ति बंधन की ओर ले जाती है और आसक्ति से मुक्ति ही मोक्ष का साधन है।

 जब मन सब अशुद्धियों से शुद्ध हो जाता है, तब आत्मा के चिंतन में लीन होने से जो आनंद मिलता है, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उसे केवल हृदय में ही अनुभव किया जा सकता है। 

एवं तत्त्वे परे शुद्धे धीरो विश्रान्तिमागतः ।

तदेवास्वादयत्यन्तर्बहिर्व्यवहारन्नपि ॥ १२३॥

** इसी प्रकार जिस बुद्धिमान व्यक्ति को सर्वोच्च वास्तविकता में शांति मिल गई है वह सांसारिक मामलों में लगे रहने पर भी हमेशा ब्रह्म के आनंद में आनंद लेता रहेगा। ✅

** Similarly the wise one who has found peace in the supreme Reality will be ever enjoying within the bliss of Brahman even when engaged in worldly matters. ✅

  ज्ञानी पुरुष बाह्य रूप से सांसारिक कार्यों में लगे रहने पर भी आंतरिक रूप से इस परम आनंद का आनंद लेता है। ज्ञानी पुरुष विषय-भोगों की सभी इच्छाओं को त्याग देता है और अपने मन को आत्मा में एकाग्र करता है, ताकि वह उस परम आनंद का आनंद ले सके। 

   जिस पुरुष का मन सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर ब्रह्म में स्थिर रहता है, वह अपने कर्मफल के कारण होने वाले किसी भी दुख से प्रभावित नहीं होता।

एकैव दृष्टिः काकस्य वामदक्षिणनेत्रयोः ।

यात्यायात्येवमानन्दद्वये तत्त्वविदो मतिः ॥ १२९॥

** कौवे की केवल एक ही दृष्टि होती है जो दायीं और बायीं आंख के बीच बदलती रहती है। इसी प्रकार सत्य के ज्ञाता की दृष्टि दो प्रकार के आनंद (ब्रह्म और संसार) के बीच बदलती रहती है। ✅** The crow has only a single vision which alternates between the right and left eye. Similarly the vision of the knower of Truth alternates between the two types of bliss (of Brahman and the world). ✅

 जब धर्म के विरुद्ध न होने वाले सांसारिक सुख उसके प्रारब्ध कर्म के कारण उसके पास आते हैं, तो वह उन्हें न चाहते हुए भी ब्रह्म के आनंद के रूप में ही देखता है। 

वह जाग्रत अवस्था में भी ब्रह्मानंद का अनुभव करता है और स्वप्न में भी, क्योंकि स्वप्न केवल जाग्रत अवस्था में हुए अनुभवों से उत्पन्न छापों से ही निर्मित होते हैं। 

इत्थं जागरणे तत्त्वविदो ब्रह्मसुखं सदा ।

भाति तद्वासनाजन्ये स्वप्ने तद्भासते तथा ॥ १३२॥

**तत्त्व का ज्ञाता जाग्रत अवस्था में ब्रह्म के आनन्द का अनुभव करता हुआ स्वप्न अवस्था में भी उसका अनुभव करता है, क्योंकि जाग्रत अवस्था में प्राप्त संस्कार ही स्वप्नों को जन्म देते हैं।** The knower of truth, experiencing the bliss of Brahman in the waking state experiences it also in the dreaming state, because it is the impressions received in the waking state that give rise to dreams. ✅  

ब्रह्मानन्दाभिधे ग्रन्थे ब्रह्मानन्दप्रकाशकम् ।

योगिप्रत्यक्षमध्याये प्रथमेऽस्मिन्नुदीरितम् ॥ १३४॥

** इस अध्याय में, ब्रह्म-आनन्द विषयक पाँच अध्यायों में से प्रथम अध्याय में, ब्रह्म-आनन्द को प्रकट करने वाले योगी के प्रत्यक्ष साक्षात्कार का वर्णन किया गया है।** 

In this Chapter, the first of the five dealing with the bliss of Brahman, is described direct realisation of the Yogī revealing the bliss of Brahman. ✅

   इस अध्याय में योगी द्वारा परम आनन्द की प्राप्ति का वर्णन किया गया है।

अध्याय 11 का अंत  

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