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शनिवार, 4 जनवरी 2025

विवेकानन्द : एक शक्ति ! "Vivekananda -The Power"

 विवेकानन्द : विवेक-प्रयोग शक्ति का आनन्द !   

["Vivekananda -The Power" का हिन्दी अनुवाद] 

        आज से एक सौ बासठ वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 को, भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में  नरेन्द्रनाथ दत्त नामक एक बालक का जन्म हुआ था। लेकिन अपने जीवन के मात्र तीसवें वर्ष में ही उन्होंने स्वामी विवेकानंद के रूप में प्रेम और ज्ञान (Wisdom) के बल पर, सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर लिया था, तथा चालीस वर्ष की आयु पूर्ण होने से पूर्व ही अपने नश्वर शरीर का त्याग भी कर दिया था। 

    How did he conquer the world? जिज्ञासा होती है कि मात्र 30 वर्ष के युवा नरेन्द्रनाथ दत्त विश्वविजयी विवेकानन्द कैसे बन गए ? प्रसिद्द राष्टवादी चिंतक और प्रोफेसर बिनय कुमार सरकार (Benoy Kumar Sarkar) लिखते हैं कि अंग्रेजी के केवल 5 वाक्य कहकर ही उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था। 1893 की विश्व-धर्म महासभा (PoWR) में जब महिलाओं और पुरुषों को सम्बोधित करते हुए - उन्होंने कहा था -"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!" [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." ]  

आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है।  आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं,  जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप  जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]  

प्रथमोक्त चार पंक्तियों में उन्होंने भारत के गीता और उपनिषदों के ज्ञान को उद्धृत करते हुए सम्पूर्ण मानव जाति को जहाँ आनन्द, आशा, पौरुष, शक्ति और मुक्ति का संदेश दिया था।   वहीँ अंतिम पंक्ति में - " मनुष्य को पापी कहना ही सबसे बड़ा पाप है, और मानव के यथार्थ स्वरूप पर घोर लांछन है।' का कटाक्ष करके मनुष्य के आत्म-विश्वास को कम करने, तथा डरपोकपन (भेंड़त्व-cowardice) एवं नकारात्मक और निराशावादी विचारों को बढ़ावा देने वाले -'Original Sin' या 'मूल पाप' के सिद्धान्त को उन्होंने पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। आश्चर्य चकित दुनिया पर उनकी पाँच पंक्तियों वाला यह छोटा सा सूत्र मानो किसी बम के गोले की तरह फूट पड़ा। प्रथमोक्त चार पंक्तियों को उन्होंने पूरब की वैदिक संस्कृति से लिया था, और अंतिम पंक्ति को उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति में बार-बार दोहराए जाने वाले सिद्धान्तों से लिया था।मानवीय चिंतन के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द से पहले पूरब और पश्चिम के सिद्धान्तों का ऐसा तुलनात्मक प्रयोग पहले किसीने नहीं किया था। जबकि विवेकानंद ने इन दोनों सिद्धान्तों का ऐसे  विस्फोटक तरीके से प्रयोग किया कि उन्हें तत्काल ही विश्व- धर्म-महासभा में विश्व विजेता के रूप में स्वीकार कर लिया गया।"

['Original Sin' या मूल पाप, ईसाई धर्म का एक सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार आदम और हव्वा ने ईडन गार्डन में निषिद्ध फल खाया था और अपने पापी (गुनाहगार) स्वभाव को अपने वंशजों में भी सम्प्रेषित कर दिया। यह सिद्धांत कहता है कि हर मनुष्य पापी पैदा होता है और ईश्वर की आज्ञा की अवज्ञा करके, बुरे काम करने की इच्छा के साथ पैदा होता है।]

How did he acquire the power with which he accomplished it ? प्रश्न उठता है कि स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान और प्रेम की इतनी अगाध शक्ति कैसे प्राप्त हुई जिसके बल पर उन्होंने इतना सब कुछ किया? उनका जीवन कठोर संघर्ष की एक ऐसी लंबी कहानी है; जिसके बारे में यह कल्पना करना भी कठिन है - उनका संघर्ष कितना कठिन रहा होगा ! उनके संघर्ष की तुलना अशान्त समुद्र सतह पर लगातार  उछलते-डूबते उस छोटी सी नौका से की जा सकती है, जो तूफानों से जूझते हुए भी उसके विशाल विस्तार को पार करके, उस किनारे पर पहुँच जाती है - जहाँ सूर्य हमेशा हमेशा के लिए चमकता रहता है।

वेदों, उपनिषदों, गीता आदि भारत के प्राचीन शास्त्रों में वर्णित आध्यात्मिक ज्ञान की रहस्यमय गहराइयों की उपलब्धि उन्होंने अपनी विद्व्ता और हजारों शक्ति-शाली सूर्यों के समान प्रखर बुद्धि की सहायता से, तथा सर्वोपरि एक ऐसे अद्वितीय जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव के अतुलनीय मार्गदर्शन में किया था, जो उनके भीतर केवल 'नारायण ' का ही दर्शन करते थे। इसके साथ ही साथ उन्होंने अपने देश के वर्तमान दयनीय दशा और पतनोन्मुख आध्यात्मिक जीवन का वस्तुनिष्ठ अध्ययन और सर्वेक्षण न केवल एक आर्थिक विशेषज्ञ या राजनीतिक दार्शनिक की दृष्टि से किया था, बल्कि एक ऐसे करुणा सम्पन्न हृदय से किया था जो किसी भी प्राणी के थोड़े से भी दुःख को देखकर रो पड़ता था। इन्हीं तीन तत्वों ने उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान की कि उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए उसका उपयोग आसानी से कर दिखाया तथा वे वह बन गए जो वे वास्तव में थे। 

    इसी बात पर प्रकाश डालते हुए भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती है-स्वामी विवेकानन्द की कीर्तियों का संगीत शास्त्र, गुरु तथा मातृभूमि - इन तीन स्वर-लहरियों से  निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है, जिसे उन्होंने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव से उस 'Be and Make गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्राप्त किया था; जिसके अनुसार यह माना जाता है कि मनुष्य नहीं मरता , बल्कि उसका शरीर मरता है। मनुष्य कभी नहीं मरता, वह अमर है, वह "अमरता का पुत्र" है। मनुष्य मात्र को "अमरता की संतान" के रूप में महिमामण्डित करते हुए भारत के प्राचीन उपनिषदों में सनातन हिन्दू धर्म का परम् आह्वान और उसकी मधुरतम प्रतिज्ञा इस प्रकार है -   

"शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥'

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः प्रस्तात्।। 

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ 

(-श्वेताश्वतर उपनिषद) 

-हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! उच्चतर लोकों में रहने वालो, तुम भी सुनो; मैंने उस पुराण पुरुष को,अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) को  जान लिया है जो सभी अंधकार, समस्त भ्रान्ति के परे सूर्य की तरह चमकती है। उसे जानने पर ही व्यक्ति मृत्यु से पार हो जाता है। और तुम भी उसको जानकर मृत्यु से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। मृत्यु से बचने का कोई और रास्ता नहीं है।     

इसलिए उन्होंने कुमारी मेरी हेल को अल्मोड़ा से 9 जुलाई, 1897 को लिखित एक पत्र में लिखा था -"समस्त सांसारिक प्रेम [आसक्ति ?] स्वयं को देह मानने से ही उपजते हैं। काम -कांचन को त्याग दो।  इनके जाते ही ऑंखें खुल जाएँगी और जब आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा , तभी आत्मा अपनी अनन्त शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगी।"....  भारत में मैंने मानवजाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती। अब मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लूँ और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एकमात्र ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसका सचमुच अस्तित्व है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर, सभी जातियों और वर्णों के पापी, तापी और दरिद्र रूपी देवता ही मेरे विशेष उपास्य हैं।  [६/३४४]     

निरंतर उपासना रूपी कर्म  करने की इसी तीव्र अभिलाषा के कारण पाश्चात्य देशों पर विजय प्राप्त करने के बाद भी उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई। जैसा कि शंकराचार्य ने अपने - विवेकचूडामणि ग्रंथ में कहा है कि कुछ महान आत्माओं के साथ ऐसा कभी-कभी घटित होता है - 

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।

तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान् अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।

‘37. इस जगत में कुछ ऐसे शांतचित्त महात्मा और उदार संत या मानवजाति के कुछ नेता या  पैगम्बर होते हैं जो वसंत ऋतु की तरह-हमेशा मानवता की भलाई करने में लगे रहते हैं। वे अनेक नाम-रूपों से बने इस जन्म और मृत्यु के इस भयानक सागर को स्वयं तो पार कर लेते हैं, फिर बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के वसंत ऋतु की तरह दूसरों को भी इसे पार करने में मदद करते हैं। 

इसलिए विवेकानन्द ने दासता और उसके बोझ तले दबी मानवता की पीड़ा को गहराई से महसूस किया और पुकार कर कहा ---" आप तो ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं , पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है। " आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर , आत्मा मुक्त , आनन्दमय और नित्य ! और फिर मनुष्य के यथार्थ स्वभाव को उन्होंने अपने जीवन और उपदेशों के माध्यम से अभिव्यक्त करके दिखा दिया

उन्होंने अपने जीवन द्वारा जो उपदेश दिया - वह किस प्रकार का था ? जब स्वामी विवेकानंद 1900 में ओकलैंड गए थे तो कई लोगों में से एक सज्जन ने भी उनकी बातें सुनी थी। वे सज्जन जब भाषण सुनकर वापस लौटे तो वे बहुत उत्साहित थे और अपने उत्साह को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा, "मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ जो मनुष्य नहीं है; वह भगवान है! और उसने सत्य कहा था!"

जोसेफिन मैकलियोड अपने बीमार भाई से मिलने गई जब वह मृत्युशैया पर थे । उनकी परिचारिका का उनसे कोई संबंध नहीं था। जोसेफिन ने उसके बिस्तर पर स्वामी विवेकानंद का फोटो देखा। उसने परिचारिका से पूछा, 'वह आदमी कौन है जिसका चित्र मेरे भाई के बिस्तर पर है? उस परिचारिका ने अपने सत्तर साल की गरिमा के साथ खुद को तैयार किया और कहा, "अगर धरती पर कभी कोई भगवान था, तो वह यही आदमी है।"

एक महिला जो नास्तिक थी, उसने एक बार विवेकानंद को सुना और फिर एक कमरे में जाकर रोने लगी। किसी ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने जवाब दिया, 'उस आदमी ने मुझे अनंत जीवन दिया है। मैं उसे फिर कभी नहीं सुनना चाहती।'

सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा है, 'एक दिन (न्यूयॉर्क में) फिफ्थ एवेन्यू पर चलते हुए, दो बुजुर्ग निराश्रित समर्पित प्राणी आगे चल रहे थे, उन्होंने कहा, 'क्या तुम नहीं देखते, जीवन ने उन्हें जीत लिया है!' उनके स्वर में पराजितों के लिए दया, करुणा थी! हाँ, और कुछ और भी था - क्योंकि जिसने भी सुना, उसने प्रार्थना की और प्रतिज्ञा की कि जीवन कभी भी उसे नहीं जीतेगा, तब भी नहीं जब उम्र, बीमारी और गरीबी आए। और ऐसा ही हुआ। उनका मौन आशीर्वाद शक्ति से भरा था।'

श्री रामकृष्ण के देहांत के बाद भारत में अपने परिव्राजक जीवन के दौरान उन्हें भूख की पीड़ा झेलनी पड़ी - कभी-कभी इसलिए क्योंकि उस समय उन्होंने भोजन न मांगने और जो कुछ उन्हें न दिया जाए उसे न खाने की शपथ ली हुई थी। अन्य समयों में, जब वे ऐसी शपथ नहीं लेते थे, विभिन्न प्रकार के विचार उन्हें परेशान करते थे और वे बिना भोजन के रहते थे - सबसे लंबी अवधि, जैसा कि उन्होंने एक बार सिस्टर निवेदिता को बताया था, पांच दिन की थी - और वे मृत्यु के कगार पर थे। एक बार उनके मन में प्रश्न उठा कि क्या उन्हें गरीबों से भोजन मांगने का अधिकार है, क्योंकि उनका मानना ​​था कि बदले में उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया है। किसी भी मामले में, उन्होंने सोचा, यदि वे भोजन का एक अतिरिक्त निवाला बचा सकते हैं, तो उनके बच्चों का उस पर उनसे बेहतर अधिकार है। एक दिन, ऐसी ही मनोदशा में, वे बिना भोजन के एक जंगल में चलते रहे रात में उसने एक बाघ को अपनी ओर आते देखा और वह उस पशु को अपना शरीर देने की संभावना से खुश हुआ, जैसा कि कहा जाता है कि बुद्ध ने एक जीवन में किया था और मन ही मन कहा, "हम दोनों भूखे हैं, मैं तुम्हें नहीं खा सकता , पर तुम मुझे खा सकते हो, कम से कम हममें से एक को तो खाना मिल जाए।" हालांकि, बाघ वहां से चला गया।

सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा था, 'किसी को यह बताने की जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्हें देखकर ही पता चल जाता था कि वे भूखे व्यक्ति को खाने के लिए अपना मांस और पीने के लिए अपना खून स्वेच्छा से दे सकते थे।' 

दूसरे दिन जब स्वामी विवेकानंद हिमालय के एक मैदान में सूखी टहनियों की एक कच्ची छत के नीचे मृत्यु के कगार पर लेटे थे, तब उन्होंने एक आवाज़ सुनी, 'तुम नहीं मरोगे। तुम्हें दुनिया में बहुत बड़ा काम करना है।' एक बार रेलवे से लंबी यात्रा के दौरान उनकी मुलाक़ात एक ऐसे युवक से हुई जो तंत्र-मंत्र के प्रभाव में था। स्वामीजी भूखे थे और चुपचाप बैठे थे। लेकिन लड़का उनके पास आया और बातचीत करने लगा। स्वामीजी के मुँह से निकले शब्दों के साथ ही उसके दिमाग के सामने का कोहरा छंटने लगा। स्वामीजी ने कहा, आध्यात्मिकता का चमत्कारों से कोई लेना-देना नहीं है। मानसिक भ्रम की सनक भारतीय राष्ट्र का मनोबल गिरा रही थी। उन्होंने अन्यत्र कहा था "हमें तो एक ऐसे धर्म और दर्शन की आवश्यकता है जो अपने सामान्य ज्ञान और दृढ़ सामाजिक भावना से प्रेरित मनुष्य बना सके। " उस लड़के ने भी मनुष्य बनने की प्रेरणा महसूस की और स्वामीजी को भोजन दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।" 

जब वे भारत के सुदूर दक्षिणी छोर कन्याकुमारी पहुँचे, तो उन्हें समुद्र के उस पार चट्टान पर ध्यान लगाने का प्रलोभन हुआ, जहाँ पार्वती ने कन्या के रूप में शिव के लिए तपस्या की थी। उनके पास पैसे नहीं थे, इसलिए वे तैर कर समुद्र पार कर लिए और उस चट्टान तक पहुँच गए। लेकिन उनका यह पराक्रम अलक्षित (unnoticed) न रह सका और जब वे वापस आए, तो लोगों ने उनसे उत्सुकता से उनके और उनके ध्यान के बारे में जानना चाहा। उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि वे श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य हैं, जिनके बारे में पूरी दुनिया ने जल्द ही जान जाएगी। चट्टान पर अपने अनुभव के बारे में उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि जिस चीज़ की तलाश में वे वर्षों से शारीरिक और मानसिक रूप से भटक रहे थे, उसे उन्होंने मौके पर ही हासिल कर लिया।

और फिर अप्रैल 1902 में, अपने निधन से लगभग तीन महीने पहले, उन्होंने कहा, 'मेरे पास दुनिया में कुछ भी नहीं है। मेरे पास खुद के लिए एक पैसा भी नहीं है। मुझे जो कुछ भी दिया गया था, मैंने वह सब कुछ दे दिया है।'

और उनके पास पैसे आए कैसे थे? बस एक उदाहरण। 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानंद श्रीमती जॉन बी. लियोन के घर पर मेहमान थे। उनकी पोती कॉर्मेलिया कॉन्गर ने बहुत बाद में लिखा, 'जब उन्होंने (विवेकानंद) व्याख्यान देना शुरू किया, तो लोगों ने उन्हें भारत में उनके द्वारा किए जाने वाले काम के लिए पैसे देने की पेशकश की। उनके पास कोई पर्स नहीं था। इसलिए वे इसे एक रूमाल में बांधकर लाते थे और एक गर्वित छोटे बच्चे की तरह इसे मेरी दादी की गोद में रख देते थे। उन्होंने उन्हें अलग-अलग मूल्य के सिक्कों को पहचानना और उन्हें गिनकर व्यवस्थित तरीके से रखना सिखाया।'

पीड़ित मानवजाति के प्रति दिव्य करुणा से प्रेरित होकर, अनंत सूर्य के तट से जब वे अकेले ही अपनी छोटी नाव में सवार होकर, दुबारा समुद्र पार कर रहे थे, तो वह उस समय भी वह उतना ही अशांत था और कई ऊँची लहरों ने उन्हें गिराने का प्रयास भी किया था। उनके लिए न केवल स्नेह और प्रशंसा, आतिथ्य और सम्मान के साथ लोग प्रतीक्षा कर रहे थे , बल्कि कई जगह उन्हें विभिन्न नीच और दुष्ट प्रकृति के शत्रुओं का भी सामना करना पड़ा था, किन्तु उन्होंने ज़रा भी प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने उन सभी पर प्रेम से विजय प्राप्त की थी । उन्होंने कभी नाम, शोहरत, धन आदि की परवाह नहीं लेकिन वे स्वतः उनके पैरों को चूमते हुए उनके पास आते गए, और कई प्रलोभन उनके इर्द-गिर्द लटके रहे। कॉर्नेलिया कांगर ने अपने संस्मरणों में लिखा है: 'स्वामीजी इतने गतिशील और आकर्षक व्यक्तित्व के थे कि कई महिलाएँ उनसे पूरी तरह प्रभावित थीं और अपनी तरफ उनका ध्यान खींचने के लिए उनको चापलूसी करने का हर संभव प्रयास करती थीं। वे उस समय भी युवा ही थे और अपनी उच्च आध्यात्मिक अनुभूति तथा अपने प्रखर बुद्धि की चमक के बावजूद, बहुत ही अलौकिक रूप से आकर्षक प्रतीत होते थे। और यही बात मेरी दादी को परेशान करती थी, उन्हें डर था कि उन्हें लोग किसी गलत या असुविधाजनक स्थिति में तो नहीं डाल देंगे, इसलिए उन्होंने उन्हें थोड़ा सावधान करने की कोशिश की। अपने प्रति उनकी चिंता ने उनके ह्रदय को छू लिया और उन्हें आश्वस्त करते हुए उनके हाथ को थपथपाते हुए उन्होंने कहा, "प्रिय श्रीमती लियोन, आप मेरी प्यारी अमेरिकी माँ हैं, मेरे लिए डरो मत। यह सच है कि मैं अक्सर किसी बरगद के पेड़ के नीचे सोता रहा हूँ, जहाँ कोई दयालु किसान भूख मिटाने के लिए मुझे एक कटोरा भात दे दिया करता था; किन्तु यह भी उतना ही सच है कि मैं उसी प्रकार अक्सर बड़े-बड़े राजा - महाराजाओं के महल में मेहमान भी होता रहा हूँ जहाँ, किसी  दासी को पूरी रात मेरे ऊपर मोर पंखा झलने के लिए नियुक्त किया जाता था !  इस प्रकार के प्रलोभनों से निर्लिप्त रहने की मुझे आदत है, अतएव आपको मेरे लिए डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।'

क्या हमें खेतड़ी की घटना याद नहीं है, जहाँ उन्होंने एक पेशेवर नृत्यांगना (nauch girl) के गीत -प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो ! ' सुनकर आशीर्वाद दिया था और 'जिसने उस दिन से अपना पेशा छोड़ दिया और पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग पर चल पड़ी थी ?'

मैडम कैल्वे ने अपने संस्मरण में लिखा है, 'एक दिन काहिरा में हम अपना रास्ता भूल गए। मुझे लगता है, हम बहुत ध्यान से बात कर रहे थे। किसी भी तरह, हम खुद को एक गंदी, बदबूदार सड़क पर पाते हैं, जहाँ आधी नंगी महिलाएँ खिड़कियों से और दरवाजों की चौखटों पर लेटती रहती हैं। उन मातृशक्तियों की दुर्दशा को देखकर वे (स्वामीजी)  रोने लगे। महिलाएँ चुप हो गईं और शर्मिंदा हो गईं। उनमें से एक महिला ने आगे की ओर झुककर उनके गेरुआ वस्त्र के किनारे को चूमा और टूटे-फूटे स्पैनिश में कहा-होमब्रे डी डिओस, होमब्रे डी डिओस!'- अर्थात अरे ! ये तो ईश्वर का आदमी है ! ईश्वर का आदमी है।) (Hombre de dios, Hombre de diosman of God, man of God-देवदूत है !) उनके तेज को देखकर एक दूसरी स्त्री अपने चेहरे के सामने अपनी बाँहों को रखकर अचानक विनम्रता और भय के भाव के साथ उसे छुपाने की चेष्टा करने लगी मानो वह स्त्री अपनी सिकुड़ती आत्मा को विवेकानंद की उन पवित्र आँखों से सचमुच छिपाना चाहती हो।'

और नाम और यश के बारे में क्या? धर्म-संसद की पहली बैठक के बाद जब वे रात को अपने होटल लौटे, तो उनके भव्य आतिथ्य के देखकर उन्हें अपने देशवासियों की भीषण गरीबी याद आई,और वे एक बालक की तरह रो पड़े। जब । एक रात उनकी पीड़ा इतनी तीव्र हो गई कि वे कराहते हुए फर्श पर लोटने लगे: "हे माँ, जब मेरी मातृभूमि घोर गरीबी में डूबी हुई है, तो मैं नाम और यश की क्या परवाह करूँ? हम गरीब भारतीय किस दुखद स्थिति में पहुँच गए हैं, हमारे लाखों देशवासी जहाँ मुट्ठी भर चावल के लिए मर रहे हैं, वहीँ यहाँ के लोग अपने निजी सुख-सुविधाओं पर लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं! भारत के लोगों का पालन-पोषण कौन करेगा? उन्हें रोटी कौन देगा? हे माँ, मुझे रास्ता दिखाओ कि मैं उनकी कैसे मदद कर सकता हूँ।"

विश्व धर्म संसद में अपना खुला आक्रमण शुरू करने से पहले ही उन्होंने श्री आलासिंगा पेरुमल को एक पत्र (दिनांक 20 अगस्त, 1893) में लिखा था-

     " कमर कस कर खड़े हो जाओ , वत्स ! प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। ... आशा तुम लोगों से है - जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपारायण हैं। दुःखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो - वह अवश्य मिलेगी। मैं 12 वर्षों तक ह्रदय  पर बोझ लादे और सिर में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर दर घुमा। ह्रदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया।  परन्तु ईश्वर सर्व शक्तिवान है - मैं जानता हूँ , वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ , परन्तु युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों, और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (भगवान श्रीकृष्ण) के मन्दिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे -...    उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो , अपने समस्त जीवन की बलि दो - उन दीन -हीनों और उत्पीड़ितों के लिए , जिनके लिए भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे , जो दोनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।  .... प्रभु की जय हो , हम अवश्य सफल होंगे।  इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे , पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। .. विश्वास, सहानुभूति - दृढ़ विश्वास और ज्वलंत सहानुभूति चाहिए ! जीवन तुच्छ है , मरण भी तुच्छ है , भूख तुच्छ है  और जाड़ा भी तुच्छ है।  जय हो प्रभु की ! आगे कूच करो ! प्रभु ही हमारे सेनानायक हैं।  पीछे मत देखो कौन गिरा, पीछे मत देखो - आगे बढ़ो, बढ़ते चलो ! " ( १/ ४०४-४०५)  

उपरोक्त बातों का पुनरावलोकन करने से वह व्यक्तित्व-जो उनके नाम विवेकानन्द के चारों तरफ विकसित हुआ है; स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आ जाता है। उनकी विराट छवि के विस्तृत रुपरेखा को देख पाना तो कठिन है, फिर भी कल्पना में उनकी जिस छवि को देखा जा सकता है, वह किसी भी गंभीर मन को विस्मय और प्रशंसा से भर देती है। उनके विषय में हम निश्चित रूप से उनके अपने शब्दों का ही उपयोग कर सकते हैं और कह सकते हैं: "विवेकानंद एक शक्ति हैं। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि उनका सिद्धांत यह या वह है। लेकिन वे एक शक्ति हैं, जो अभी भी जीवित हैं और दुनिया में काम कर रहे हैं। हमने उन्हें अपने विचारों में बढ़ते हुए देखा है, और वे अभी भी बढ़ रहे हैं।' क्योंकि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी " हो सकता है कि एक जीर्ण (पुराने) वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ। लेकिन मैं तब तक काम करना नहीं छोड़ूँगा, जब तक सम्पूर्ण विश्व यह नहीं जान जाये कि वह ईश्वर के साथ एक है- मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा " [सूक्तियाँ एवं सुभाषित /खंड १०/२१७-[44. It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God. (Volume 5, Sayings and Utterances)]  

स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी यह प्रतिज्ञा हमें बीती हुई बातों को याद करने के बजाये, भविष्य की सम्भावना ' Vivekananda- The Power' का अनुसरण करने का निर्देश देती है जो जड़ को भी गतिशील बना सकती है ! वही 'विवेक-प्रयोग शक्ति' इस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में छठी शक्ति (The Sixth Force in Cosmos)  के रूप में हर जगह क्रियाशील है, तथा भविष्य में यह शक्ति और भी अधिक तीव्रता से कार्य करेगी, तथा क्रमशः प्रत्येक मन के भीतर प्रविष्ट हो जाएगी; और तब हमारे देश में एक ऐसा महत्वपूर्ण परिवर्तन घटित होगा ! [जिसके बारे में पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक -'Ignited Minds' में लिखा है -" Dream, Dream, Dream/ Dreams transform into thoughts, And thoughts result in action!"  (साभार https://crpf.gov.in/writereaddata/images/pdf/Ignited_Minds.pdf)]

शायद सभी या शायद कोई भी नहीं इस विवेक-प्रयोग शक्ति (या परा शक्ति) को स्वामी विवेकानन्द के नाम के साथ जोड़कर नहीं देख पाएंगे; फिर भी यह शक्ति मनुष्य जाति को अपना भाग्य स्वयं बनाने का प्रयास करने के लिए अनुप्रेरित करती रहेगी। और मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए दिशात्मक सुधार ( directional corrections) के द्वारा यह कार्य अलक्षित रूप से (Unnoticed) जारी रहेगा। रात में गिरने वाली ओस की बूंदों की तरह अदृश्य और अनसुनी रहते हुए भी विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रचार-प्रसार में लगे रहने का कार्य, उन अनेकों व्यक्तियों के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित कर देगा, जो गाँव -गाँव तक इस शिक्षा को पहुँचा देने के कार्य में लगे रहेंगे। [दादा कहते थे इस Be and Make आन्दोलन से जुड़े रहो, तब तुम्हें कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ऐसे ही मुक्त हो जाओगे !] 

स्वामी विवेकानन्द की दो सौवीं जयंती (=2063 तक) और दो सौ पचासवीं जयंती (=2113)  के बीच पारस्परिक और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मौलिक परिवर्तन हो चुके  होंगे, हर विचार एक ही छलनी (filter) से छनकर निकलेगा- 'मैं नहीं, बल्कि तू !' और यही एकमात्र नीति होगी जिसकी सर्वत्र प्रसंशा की जाएगी, और उससे कई लोगों का कल्याण होगा । इस विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रभाव से मतभेदों की क्षुद्र भावना धीरे-धीरे कुंद होती जाएगी और सार्वभौमिक एकात्मकता (Universal Oneness) का विचार उभरेगा। मनुष्य की गरिमा को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त होगी। सुसंयोग (opportunities) के मामले में विशेषाधिकार और भेदभाव की बातें -भूतकाल की बातें हो जाएंगी। भौतिकवादी विचार धरती में दफन हो जाएंगे और ऐतिहासिक अनुसन्धान का विषय बन जाएंगे। आध्यात्मिकता की धड़कन का स्पन्दन हर जगह महसूस होगा।

उन्नीसवीं सदी के अंत में एक दिन भविष्यवाणी करते हुए विवेकानंद ने अपने आस-पास के लोगों को यह कहकर चौंका दिया कि, 'अगला महान उथल-पुथल जो एक नए युग का सूत्रपात करेगा, वह रूस या चीन से आएगा।' और रूस और चीन दोनों देशों में ऐसा परिवर्तन हुआ, जिससे नये  सामाजिक सिद्धांतों के प्रस्तावकों की अन्य सभी गणनाएं विफल हो गईं।

रूस में एक बार फिर से एक नई उथल-पुथल मची है। भौतिकवादी बौद्धिक दिग्गज चाहे जो भी कहें, वर्तमान पेरेस्त्रिका (या पुनर्गठन-restructuring) और उस्कोरेनी (या त्वरण-acceleration) के पीछे के विचारों का यदि मौलिक रूप से जांच करें बुद्धिमान दिमागों को पता चल जाएगा कि वे जिस शक्ति का मानव समाज परअनुप्रयोग कर रहे हैं, वह विवेकानंद के ,या  वेदांत के विचार ही हैं। रूस में हुए परिवर्तन के बाद, उससे भी अधिक स्पष्ट परिवर्तन अब चीन में आयेगा, फिर धीरे-धीरे अन्य देशों में भी आएगा। यह बदलाव भारत में भी आएगा, लेकिन बाद में, क्योंकि यहाँ जड़ता बहुत गहरी है।

हमारी उदासीनता के बावजूद यह विवेक-प्रयोग शक्ति दुनिया में मनुष्य और उसके भाग्य को बदलने के लिए काम करेगी। लेकिन किसी भी शक्ति द्वारा किया गया कार्य उस प्रतिरोध के व्युत्क्रमानुपाती होता है जिसे उसे दूर करना होता है। सकारात्मक प्रतिरोध का सवाल ही नहीं उठता, हमारी आधी-अधूरी स्वीकृति और विवेक-प्रयोग शक्ति पर शब्दाडंबरपूर्ण प्रशंसा भी प्रतिरोध के रूप में काम करती है; और वे केवल इसके काम को धीमा करते हैं। हम अपनी स्वेच्छा से स्वीकृति और जानबूझकर की गई कार्रवाई के माध्यम से अपनी भागीदारी सुनिश्चित करके इस प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं।

हममें से प्रत्येक को मार्था ब्राउन फिंके के स्वर से स्वर मिलाकर यह कहने की ईमानदारी और साहस हासिल करना चाहिए: 'मैं अक्सर उस समय के बारे में सोचती हूँ जो मैंने खो दिया है, उस रास्ते के बारे में जो मैं टटोलते हुए आयी हूँ, जबकि ऐसे विवेक-शक्ति के मार्गदर्शन के तहत मैं सीधे लक्ष्य पर पहुँच सकती थी ।'  लेकिन एक अमर आत्मा के लिए समझदारी की बात तो यह है कि पछतावे में समय बर्बाद न किया जाए, क्योंकि विवेक-प्रयोग के रास्ते पर चलते रहना ही महत्वपूर्ण बात है।' 

    हम लोग भी कब सिस्टर देवात्मा के जैसा यह कहने में सक्षम होंगे कि- 'अब विवेकानन्द के उपदेशों को श्रवण का समय समाप्त हो गया है, अब उनके उपदेशों पर मनन करने और उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन के अभ्यास में उतारने करने का समय आ गया है।'

स्वामीजी ने कहा था " अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है।  " (मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२०)   

- " मेरी आशा , विश्वास तुम्हीं लोग हो। मेरी बातों को ठीक ठीक समझकर उसीके काम में लग जा। ... उपदेश तो तुझे अनेक दिए ; कम से कम एक उपदेश  को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बात सुनना सार्थक हुआ है। " 

यही इस विवेकानन्द -शक्ति की संभावना है, जिसमें मनुष्य का सुप्त भाग्य निहित है। हे मानव! उठो ! जागो!  और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए!

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Vivekananda -The Power 

A hundred and twenty-six years ago on the twelfth of January was born in Calcutta, then the capital of India, in an aristocratic family, a lad, Narendranath Datta, who in the thirties of his life conquered the world with love and wisdom as Swami Vivekananda, and left the mortal coil before he reached forty.

How did he conquer the world? Benoy Kumar Sarkar writes: With five words he conquered the world, so to say, when he addressed men and women as, "Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature! Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." 

 The first four words summoned into being the gospel of joy, hope, virility, energy , and freedom for the races of men . And yet with the last word , embodying as it did a sarcastic question he demolished the whole structure of soul -degenerating, cowardice-promoting, negative, pessimistic thoughtsOn the astonished world, the little five-word formula fell like a bomb shell. 

The first four words he brought from the East, and the last word he brought from the West. All these are oft-repeated expressions, copy-book phrases both in the East and the West. And never in the annals of human thought was the juxtaposition accomplished before Vivekananda did it in the  dynamic manner and obtained instantaneous recognition as a world's champion."   

How did he acquire the power with which he accomplished it? It is a long story of a hard struggle; it is difficult to imagine how hard it was. It was like a small boat tossing all the while on the bosom of a turbulent sea, yet crossing the vast span and reaching the shore, where the sun shins for ever and ever. 

Mysterious depths of knowledge thoroughly surveyed through incomparable erudition with the brilliance of intellect as that of a thousand mighty suns, matchless guidance of a peerless Master , who saw in him only Narayana, meticulous objective study of the mundane and decadent spiritual life of his nation, not merely with the eye of an economic or political philosopher, but with a heart which bled at the sight of the least suffering of any being - all these three elements  went to make  what he was and endowed  him with power that he wielded with ease for the good of one and all .  

So he said, " May I be born again and again, and suffer thousands  of miseries so that I may worship the only God that exists , the only God I believe in , the sum total of all souls - and above all , my God the poor of all races , pf all species , is the special object of my worship."  

Having planted his feet on the safe soil of sunshine across the sea, he could not feel satisfied . 

It so happens rarely with some great souls only , as observed by Shankaracharya :  

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान्
अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।

- विवेकचूडामणिः- 37 ||

37. There are good souls, calm and magnanimous, who do good to others as does the spring, and who, having themselves crossed this dreadful ocean of birth and death, help others also to cross the same, without any motive whatsoever.
So he deeply felt for the suffering of humanity in bondage and under the weight of its concomitants and cried out calling: 'Ye, divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature.' And he manifested true human nature in his life and teachings
What sort was it ? When Swami Vivekananda went to Oakland in 1900 one gentleman among many listened to him . 'When he returned, he was very much excited and could scarcely contain his enthusiasm. He said, " I have met a man who is not a man ; he is a God ! And he spoke the truth !"   
josephine Macleod went to see her ailing brother when he was in his death bed. His hostess was in no way related to them. Josephine found a portrait of Swami Vivekananda over his bed. She asked the hostess , ' Who is the man whose portrait is over my brother's bed ? She drew herself up with all the dignity of her seventy years and said , " If ever there was a God on earth , this is the man ." 
A lady, an agnostic, heard Vivekananda once and then went into a room and was weeping. Someone Asked her the reason and she replied , ' The man has given me eternal life. I never wish to hear him again . 
Sister Christine wrote ,' Walking along the Fifth Avenue (in New York) one day , with two elderly forlorn devoted creature walking in front , he said , ' Don't you see, life has conquered them ! " The pity, the compassion for the defeated in his tone ! Yes, and something else, - for then and there the one who heard , prayed and vowed that never life should conquer her , not even when age, illness, and poverty should come . And so it has been . His silent blessing was fraught with power .'/

During his itinerant life in India , after the passing away of Sri Ramakrishna, he suffered the pangs of hunger- certain times because he was during the times under a vow not to ask for food and not to eat anything that was not offered to him. At other times, when not under such a vow , various kinds of  ideas sized him and he went without food - the longest such period , as he once told Sister Nivedita , being five days - and was on the verge of death. Once question arose in his mind whether he had a right to beg for food from the poor , for he thought he did nothing for them in return .In any case, thought he , if they could save an extra morsal of food , their children had a better claim upon it than he. One day , being in a mood like this , he walked on through a forest without food till he sank to the ground , fixing his mind on God. At night he saw a tiger approaching him and he felt happy at the prospect of giving his body to the animal, as Buddha is said to have done in one life and said within himself , " We are both hungry, let one of us at least be fed ." The beast , however , walked away. 
Sister Christine wrote , ' One did not need be told , but seeing him one knew that he would willingly have offered his flesh for food and his blood for drink to the hungry.'  
Another day as Swami Vivekananda lay at the point of death in a Himalyan glade under a rude thatch of a dry branches,' he heard a voice say, ' You will not die. You have a great work to do in the world.'  Once during a long journey by railway he came  across a young man, who was under the spell of occultism. Swamiji was hungry and sat quietly. But the boy approached him and started conversation. The mists before his mind started shifting as words poured out from Swamiji's mouth. Swamiji said, spirituality had nothing to do with miracle mongering. The craze for psychic illusions was demoralizing the Indian nation. He went on : " What we need is strong common sense, a public spirit, and a philosophy and religion which will make us men ." The boy felt inspired and offered food to Swamiji which he accepted.
When he reached the southernmost tip of India at Kanykumari , he felt tempted to meditate on the rock across the sea, where Parvati as Kanya did her tapasya for Shiva. Not having a pie with him he swam across the sea to reach the rock. This was not unnoticed and when he came back , people asked him eagerly about himself and his meditation. He only said that he was a disciple of Sri Ramakrishna Parmhamsa , about whom the  whole world soon hear .As regards his experience on the rock he only said that the thing in the search of which he had been wandering both physically and mentally for years he had achieved on the spot . 
And again in April 1902, about three months before he passed away , he said , ' I have nothing in the world . I haven't  a penny to myself. I have given away everything that has ever been given to me. '     
And how did money come to him ? Just an instance . In 1893 at Chicago Swami Vivekananda was the guest at the home of Mrs John B. Lyon . Her granddaughter, Cornelia Conger, wrote long after, 'When he (Vivekananda) began to give lectures, people offered him money for the work he hoped to do in India. He had no purse. So he used to tie it up in a handkerchief and bring it back -like a proud little boy- pour it into my grandmother's lap to keep for him. She made him learn the different  coins and to stack them up neatly to count them .' 
From the shore of eternal sunshine when he re-crossed the ocean in his small boat all alone driven by a divine compassion for suffering mankind, it was no less turbulent, and many a crest attempted to throw him off. Not only affection and admiration, hospitality and honour were in store for him, he had to face hostility of various mean and malign nature , to which he did not offer the least resistance, but he overcame them all.

He did not seek any, but name , fame , money came to him kissing his feet, and temptations dangled about. Cornelia Conger wrote in her reminiscences : ' Swamiji was such a dynamic and attractive personality that many women were quite  swept away by him and made every effort by flattery to gain his interest. He was still young and in spite of his great spirituality and his brilliance of mind, seemed to be very unworldly.  
This used to trouble my grandmother who feared he might be put in a false or uncomfortable position, and she tried to caution him a little. Her concern touched and amused him, and he patted her hand and said , " Dear Mrs Lyon, you dear American mother of mine , don't be afraid for me. It is true I often sleep under a banyan tree with a bowl of rice given me by a kind peasent , but it is equally true that I also am sometimes the guest in the palace of a great Maharaja and a slave girl is appointed to wave a peacock fan over me all night long ! I am used to temptation, and you need not fear for me. '  
Do we not remember the incident at Khetri, where he blessed the singer (a nautch -girl) 'who from that day gave up her profession and entered the path leading to perfection?' Madame Calve wrote in her reminiscence, 'One day we lost our way in Cairo. I suppose , we had been talking too intently. At any rate , we found ourselves in a squalid , ill-smelling street, where half-clad women lolled from windows and sprawled on doorsteps.
The Swami noticed nothing until a particularly noisy group of women on a bench in the shadow of a dilapidated building began laughing and calling to him. One of the ladies of our party tried to hurry us along , but the Swami detached himself gently from our group and approached the women on the bench.
 " Poor children !" he said . " Poor creatures ! they have put the divinity in their beauty. Look at them now ! " 
He began to weep. The women were silenced and abashed . One of them leaned forward and kissed the hem of the robe, murmuring broken in Spanish, " Hombre de Dios, Hombre de Dios! (Man of God !) Another, with a sudden gesture of modesty and fear, threw her arm in front of her face as though she would screen her shrinking soul from those pure eyes. ' 
And of name and fame ? When he returned to his hotel the night after the first meeting of the parliament , he wept like a child. Their lavish hospitality made him sick at heart when he remembered the crushing poverty of his own people. His anguish became so intense one night that he rolled on the floor , groaning : " O Mother , what do I care for name and fame when my motherland remains sunk in outmost poverty?  To what a sad pass have we poor Indians come when millions of us die for want of a handful of rice , and here they spend millions of rupees upon their personal comfort ! Who will raise the masses of India ? Who will give them bread ? Show me, O Mother , how I can help them ."  

Even before he launched his open offensive at the Parliament of Religions, he wrote in a letter (dated :20th August, 1893.)- " Grid up your loins , my boys ! I am called by the Lord for this . The hope lies in you - in the meak, the lowly , but the faithful . Feel for the miserable and look up for help - it shall come. I have travelled 12 years with this load in my heart and this idea in my head. I have gone from door to door of the so-called ' rich and great ', With a bleeding heart I have crossed half the world to this strange land , seeking help . 
The Lord is great. I know He will help me. I may perish of cold and hunger in this land, but I bequeath to you young men this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed. Vow, then to devote your whole lives to the cause of these three hundred millions , going down and down every day. Glory unto the Lord! We will succeed. Hundreds will fall in the struggle - hundreds will be ready to take it up. Faith - sympathy, fiery faith, and fiery sympathy!  Life is nothing , death is nothing , -hunger nothing , cold nothing . Glory unto the Lord ! March on , the Lord is our General . Do not look back to see who falls - forward - onward !  
The retrospect brings forth in dotted lines the personality that grew around the name Vivekananda. It is difficult to view the detailed outline, but the image that can be visualized fills any serious mind with awe and admiration. We may certainly use his own words in his own case and say: " Vivekananda is a force. You should not think that his doctrine is this or that . But he is a power, living even now and working in the world. ' We 'saw him growing in his ideas. He is still growing .' And he said , " I will not cease to work .' 
This takes us from the retrospect to the prospect of ' Vivekananda, The Power .' This has been working and will work more vigorously in the future gradually entering into all minds and bringing about a vital transformation . It is and will be working everywhere as the Sixth Force in the universe . Not all or none will perhaps be able to identify this power with Vivekananda , yet it will work for invigorating man to strive for his destiny.  Unnoticed it will work for directional corrections for the march of man. Unseen and unheard like the dew drops that fall at night, it will bring into blossom lives that will find fruition of their efforts in the happiness of the many. Between his two hundredth and two hundred -fiftieth birth anniversaries interpersonal and international relations will have undergone fundamental changes , every thought will pass through the filter - ' Not I , but thou ' - and the only policy that will be applauded will be good of the many .  
The mean sense of differences will gradually get blunted and the idea of universal unity will be ascending in the sway of this power. Recognition of the dignity of man will be supreme. Special privileges and differentiation in the matter of opportunities will become things of the past. Materialistic ideas will be buried in the earth and will become a subject for historical probe. The pulse of spirituality will be felt everywhere
Towards the end of the nineteenth century one day in a prophetic mood Vivekananda startled those around him by saying, ' The next great upheaval which is to bring about a new epoch will come from Russia or China .' And it came both in Russia and China to the discomfiture of other calculations by propounders of social theories.   
Again a new upheaval has now come in Russia. Whatever materialistic intellectual giants might say, a radical examination of the thoughts behind the present perestrika ( or restructuring) and uskorenie (or acceleration) would reveal to intelligent minds that they are application in human society of this power , call it Vivekananda , Vedanta , or anything , if you like. It will next come more conspicuously in China and then gradually in other countries. It will also come in India, but later , for the inertia is deep here.
The power will work in the world to remold man and his destiny in spite of our lukewarmness. But work done by a force is inversely proportional to the resistance it has to overcome. The question of positive resistance does not arise , our half-hearted acceptance and wordy eulogies on the power work as resistance; they only slow down its working. We can accelerate the process by our willing acceptance and through deliberate action ensuring our own involvement.  
Each of us should acquire the honesty and courage to say with Martha  Brown Fincke: ' I often think of the time I have lost , of the round about way I have come, groping my way , when under such guidance I might have aimed directly for the goal. But for an immortal soul it is wiser not to spend time in regrets, since to be on the way is the importeant thing .' When shall we be able to say with Sister Devatma ? ' The time of hearing was over , the time of pondering and practicing had come. '  

Said Swami Vivekananda : ' I have given you advice enough ; now put at least something in practice. Let the world see that your listening to me has been a success.'    
This is the prospect of this power , in which lies the dormant destiny of man . O Man ! ' Arise , awake , and stop not till the goal is reached ! ' 
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" शक्ति क्या है ? शक्ति वह है जो जड़ को गति देती है। और जड़ क्या है ? जड़ क्या है ? जड़  [2H -देह और मन] वह है जो शक्ति द्वारा गतिशील होता है। यह तो गोल-मोल बात हुई। इस वस्तुस्थिति का नाम ही 'माया' है।  न तो वह विद्यमान है और न अविद्यमान ही। इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है ; और वह देश, काल तथा कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है। मनुष्य का सच्चा स्वरुप वह है जो अनादि, अनन्त , आनंदमय तथा नित्यमुक्त है ; वही देश , काल और परिणाम के फेर में फंसा है।  " (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/११८)  

 हमारी साधना का पहला भाग है- अचेतन (unconscious) को अपने अधिकार में लाना।  दूसरा है चेतन के परे जाना।  जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है , उसी तरह चेतन के ऊपर - उसके अतीत भी एक अवस्था है।  जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था को पहुँच जाता है , तब वह मुक्त हो जाता है। ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लोह जंजीरें मुक्ति बन जाती है।  अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। ... अतएव महत्वपूर्ण बात है , पूरे मनुष्य को पुनरुज्जीवित जैसा कर देना , जिससे कि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाये। ' (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/१२१)           

विवेकानन्द के निकट जो कुछ सत्य (अपरिवर्तनीय) है, वह सब वेद है ! वे कहते हैं, वेदों का अर्थ कोई ग्रन्थ नहीं है। वेदों का अर्थ है विभिन्न समयों में विभिन्न व्यक्तियों (ऋषियों) द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक नियमों (सूत्रों या महावाक्यों) का संचित कोष। प्रसंगवश वे सनातन धर्म के सम्बन्ध में भी अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहते हैं - 'जिस प्रकार सनातन हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक लक्ष्य - ईश्वर की प्राप्ति है, उसी प्रकार  इसका आध्यात्मिक नियम है प्रत्येक आत्मा (अव्यक्त ब्रह्म) की स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की पूर्ण स्वतन्त्रता ।"

एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है -" My Master's message to mankind is: "Be spiritual and realize truth for Yourself." मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह संदेश है कि - "Be spiritual and realize truth for Yourself." -अर्थात  प्रथम स्वयं सत्य की  उपलब्धि करो और आध्यात्मिक व्यक्ति (ऋषि) बनो!" वे कहते थे - 'प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सारवस्तु अर्थात आत्मतत्व (दिव्यता या ब्रह्मत्व) अन्तर्निहित है, उसकी तुलना में विभिन्न प्रकार के मतवाद, आचार -अनुष्ठान, पन्थ, गिरजाघर या मन्दिर आदि अत्यन्त तुच्छ हैं। और जिस व्यक्ति के अंदर यह ब्रह्मत्व (Oneness) जितना अधिक अभिव्यक्त होता है, वह व्यक्ति (नेता) जगतकल्याण के लिए उतना अधिक सामर्थ्यवान हो जाता है। - 'Earn that first, acquire that, and criticise no one, for all doctrines and creeds have some good in them.'

   -अतएव पहले इसी आध्यात्मिक धन का, (एकात्मकता -Oneness) उपार्जन करो, और किसी सम्प्रदाय में दोष मत ढूँढ़ो, क्योंकि सभी मत, सभी पथ अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति (spiritual realization)। ' Only those can understand who have felt. Only those who have attained to spirituality can communicate it to others,'  जिन्हें अनुभव हुआ है वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने स्वयं धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्यजाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं - 'They alone are the powers of light.' - 'केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं !'   

 यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत् वि-जानतः।

तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वम् अनुपश्यतः।

(ईशोपनिषद : श्लोक ७)

 जब  किसी व्यक्ति को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, कि  एक परमात्मा ही सभी प्राणियों के रूप में प्रकटित हुआ है, तब उस  एक परम तत्व को सर्वत्र  देख रहे उस व्यक्ति के लिए न कोई मोह और न कोई शोक ही रह जाता है॥] 

Let people praise you or blame you, let fortune smile or frown upon you, let your body fall today or after a Yuga, see that you do not deviate from the path of Truth. How much of tempest and waves one has to weather, before one reaches the haven of Peace! The greater a man has become, the fiercer ordeal he has had to pass through.  
[Volume 7, Conversations And Dialogues/III /Swamiji has removed the Math from Alambazar to Nilambar Babu's garden at Belur. /खंड 7, वार्तालाप और संवाद / III / स्वामीजी ने मठ को आलमबाजार से हटाकर बेलूर में नीलाम्बर बाबू के बगीचे में स्थापित कर दिया है। 
खण्ड ६/ पेज 88 / 
" लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा , लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हों या न हों , तुम्हारा देहांत आज हो या एक युग में , तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न होना। कितने ही तूफान पार करने पर मनुष्य शांति के राज्य में पहुँचता है। जो जितना बड़ा हुआ है , उसके लिए उतनी ही कठिन परीक्षा रखी गयी है। "  ]
Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such & the world becomes  revolutionized. {#CWSV-3 : Lectures from #Colombo to #Almora : My Plan of Campaign}
" मनुष्य , केवल मनुष्य भर चाहिए। बाकी सबकुछ अपनेआप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान , तेजस्वी , श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की।  ऐसे सौ मिल जाएँ , तो संसार का कायाकल्प हो जाये। " मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/११८ /
" अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है।  " मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२० /  
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The quote “For what is force? — that which moves matter. And what is matter? — that which is moved by force” .... This state of things has been called Maya. It has neither existence nor non-existence. You cannot call it existence, because that only exists which is beyond time and space, which is self-existence. Yet this world satisfies to a certain degree our idea of existence. Therefore it has an apparent existence. appears in The Complete Works of Swami Vivekananda/वॉल्यूम 2/Hints on Practical Spirituality

" This is the first part of the study, the control of the unconscious. The next is to go beyond the conscious. Just as unconscious work is beneath consciousness, so there is another work which is above consciousness. When this superconscious state is reached, man becomes free and divine; death becomes immortality, weakness becomes infinite power, and iron bondage becomes liberty. That is the goal, the infinite realm of the superconscious." 

  
             
 
     


       

शनिवार, 7 सितंबर 2024

"এক মহাজীবনের নানা অজানা কথা " লেখক - শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ, ["Unknown Stories of Ek Mahajivan" Author - Shri Biswajit Chand,]

 মূল বাঙালি পুস্তিকা : 


"এক মহাজীবনের নানা অজানা কথা "

লেখক - শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ, 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল , আন্দুল - মৌড়ি শাখা। 

উৎসর্গ : 

তোমার রাতুল চরণে সশ্রদ্ধ প্রণাম 

বিশ্বজিৎ চন্দ মহাশয়ের উক্ত মহামূল্যবান তথ্যপঞ্জী সমণ্বিত গ্রন্থখানি অনুসন্ধিৎসু মনের ফসল। ' কেঁচা খুঁড়তে সাপ ' - এমন প্রচলিত প্রবচনকে মনে রেখে বলা যায় গ্রন্থখানি মননশীল পাঠকের কাছে অত্যান্ত তাৎপর্যপূর্ণ । এই মনোগ্রাহী রচনা প্রত্যক্ষদর্শীর সানিধ্যলাভের ফলে গ্রন্থটির উৎকর্ষ বৃদ্ধি পেয়েছে ।  বিষয়বস্তুর সন্নিবেশ সুশোভন , রচনারবীতি (style)  সুষম।  অনঃবধান বশত ভুল থাকলে ক্ষমাসুন্দর দৃষ্টিতে নেবেন পাঠকরাই। অনাগত পাঠক গবেষকদের কাছে বইটি অনুপ্রেরণার ও সুগতির অন্বেষাগার পরিচয় দেবে। তাঁর উত্তরোত্তর শ্রীবৃদ্ধি কামনা করি। 

শ্রী রবীন্দ্রনাথ পাল, 

বাংলা শিক্ষক ,

পাঁচারুল শ্রীহরি বিদ্যা মন্দির 

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প্রকাশকের  নিবেদন

 - শ্রী বিশ্বনাথ বেরা 

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ ' এক মহা জীবনের নানা অজানা কথা ' শীর্ষক এক খানি পুস্তিকা রচনা করেছেন। এই পুস্তিকায় আন্দুল -মৌড়ির একজন বিশিষ্ট ব্যক্তি ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের জীবনের কয়েকটি ঘটনা ও প্রাসঙ্গিক কিছু কথা লিপিবদ্ধ হয়েছে। মহামন্ডলের ভাই বিশ্বজিৎ অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার প্রাক্তন সদস্য এবং বর্তমান মহামন্ডলের ভাবাদর্শে পরিচালিত প্যাঁচারুল বিবেকানন্দ যুব পাঠচক্রের সভাপতি। 

ইংরেজিতে একটি সহজ কথা প্রচলিত আছে - ' A man is known by the company he keeps, and the books he reads .' ভবদেব বাবু কেমন মানুষ ছিলেন তা আমরা অনুমান করতে পারি তিনি কি রকম মানুষদের সঙ্গ লাভ করেছেন , তা জেনে। স্বামীজীও বলেছেন একজন মানুষের ছোট ছোট কাজের মাধ্যমেই তাঁর চরিত্র সম্বন্ধে ধারণা করা যায়।   

ভোরের শিশিরবিন্দু যেমন সকলের অলক্ষ্যে নানা ফুলের কুঁড়িগুলিকে প্রস্ফুটিত করে তোলে, ঠিক তেমন ভাবে শ্রদ্ধেয় ভবদেব বাবু ভাবি আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের কিশোর যুবকদের অনুপ্রাণিত করতেন। তাঁর জীবনের ধারা অন্বেষণ করলে অনেক মাণিক্যের সন্ধান পাওয়া যায়। কিন্তু স্বামীজীর আদর্শে বিশেষ শ্রদ্ধাশীল এই মানুষটি সম্বন্ধে এ যাবৎকালে কোন লেখনী ধারণ করা হয়নি। আমরা আমাদের ভাই শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ কাছে বিশেষ ভাবে কৃতজ্ঞ এই জন্যে যে তিনি অবহেলিত এই কাজটির গুরুদায়িত্ব স্বেচ্ছায় নিজে স্কন্ধে তুলে নিয়েছেন। আমরা তাঁর কাছে আর কৃতজ্ঞ এইজন্যে যে তিনি পুস্তকটি প্রকাশনার দায়িত্ব অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার উপর অর্পণ করেছেন।   

পরম পূজ্যপাদ শ্রীমৎ স্বামী আত্মপ্রিয়ানন্দ মহারাজ ইতিহাসকে দার্শনিক ভাবে দেখার প্রয়োজনীয়তার কথা বলেছেন। (উদ্বোধন , বৈশাখ ১৪২৭,পৃ -২৬৭)বিশ্বজিৎ -এর লেখার মধ্যে সেই প্রচেষ্টা পরিলক্ষিত হয়।

পরিশেষে রবীন্দ্রনাথের ভাষাকে অনুসরণ করে বলতে পারি ঘরের পাশে ধানের শিয়ের উপর ঝরে পড়া শিশির বিন্দুর মধ্যে যেমন অনাবিল সৌন্দর্যের সন্ধান পাই , তেমনি এই অখ্যাত মানুষটির মধ্যেও মহামানব সুলভ গুণাবলী দেখে আমরা মহামানব দর্শনের আনন্দ অনুভব করি। 

- শ্রী বিশ্বনাথ বেরা 

সম্পাদক ,

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল 

আন্দুল -মৌড়ি শাখা

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অনুভূতি 

ঠাকুর মা স্বামীজিকে প্রণাম জানিয়ে বইয়ের মুদ্রক হিসাবে সামান্য দুই এক কথা বলতে চাই। বইয়ের প্রকাশক আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডের পক্ষ থেকে আমাকে এই বইটি ছাপাবার দায়িত্ব দেওয়া হয়। কিন্তু অতিমারীর কারনে বই ছাপার কাজে অনেক দেরি হয়। এই জন্যে আমাদের সবাইকে অনেক ধৈর্য ধরতে হয়।  

প্রসঙ্গত বলা যায় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের কনিষ্ঠ পুত্র শ্রদ্ধেয় শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় আমার গৃহ শিক্ষক ছিলেন। সেই সূত্রে তাঁর বাড়িতে রোজই যেতে হত। সেখানে দেখতাম পরমপূজনীয় শ্রদ্ধেয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় তাঁর পড়ার ঘরে বসে তাঁর লেখা -পড়ার কাজে মগ্ন হয় থাকতেন। তিনি অল্পভাষী হলেও তাঁর অকৃত্তিম স্নেহ আমরা পেয়েছি। নিজের গাম্ভীর্য়কে সরিয়ে শিশুর মতই আমাদের স্তরে নেমে এসে আমাদের সঙ্গে মিশতেন। 

তখন অল্প বয়স বলে তাঁর ব্যক্তিত্বকে পরিমাপ করার ক্ষমতা আমার ছিলনা। কিন্তু বই ছাপার দায়িত্ব নিয়ে আমি বুঝতে পারলাম আমার সৌভাগ্য কতটা ছিল যে , কিশোর বয়সেই এমন এক মানুষের দর্শন পেয়েছি - যিনি স্বয়ং মা সারদাদেবী , স্বামী শিবনান্দ , স্বামী অভেদানন্দ প্রমুখ মহাপুরুষের দর্শন পেয়েছেন।   

এবার আসি শ্রদ্ধেয় বিশিষ্ট চিত্র শিল্পী স্বর্গীয় শৈল চক্রবর্তীর কথায়। তাঁর সঙ্গে আমার দেখা হয়েছিল খুব সম্ভবত ১৯৭৯ সালে কলকাতা বইমেলায়। তাঁকে আমার প্রণাম করার সৌভাগ্য হয়ে ছিল। তাঁর সাথে আলাপ করিয়ে দিয়েছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের জ্যেষ্ঠ পুত্র আমার শিক্ষক স্বর্গীয় বিশ্বনাথ বন্দোপাধ্যায়। আমি জেনে অত্যন্ত রোমাঞ্চিত হলাম যে , শ্রীশ্রী রামকৃষ্ণ কথামৃত গ্রন্থের প্রচ্ছেদে 'পাখির ডিমে তা দেওয়া ' ছবিটি পূজনীয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয় শ্রীমর নির্দেশে শৈল চক্রবর্তীকে দিয়েই আঁকিয়ে ছিলেন। সুতরাং আমি অত্যন্ত সৌভাগ্যবান যে আমি পূজনীয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় ও শৈল চক্রবর্তী মহাশয়ের পাদস্পর্শ করার সৌভাগ্য লাভ করেছি।   

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দের লেখাগুলিকে বইয়ের আকারে মুদ্রণ করতে করতে বুঝতেও পারিনি, যে কখন মনের অজান্তে ওই কথাগুলি আমার মনের মধ্যে মুদ্রিত হয়ে গেছে। 

বিনীত -

শ্রী দিব্যেন্দু ভাণ্ডারী  

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।।ভূমিকা।। 

স্বামী বিবেকানন্দ তাঁর 'ভারতের ভবিষ্যৎ ' শীর্ষক বক্তৃতায় বলেছেন - " অতীতের গর্ভেই ভবিষ্যতের জন্ম "। আর অতীত কথা থেকেই আমার কলম ধরার ইচ্ছা জাগে কারন , আমি ইতিহাসের ছাত্র।  

সেই ১৯৮৯ সাল থেকে অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় সঙ্গে পরিচয়। ব্যক্তিগত আলাপ চারিতায় তাঁর কাছে আন্দুল -মৌড়ির অতীত দিনের অনেক কাহিনী শুনতাম। অনেক কাহানির সঙ্গে তাঁর স্বর্গত পিতৃদেব ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের কথা এসে পড়ত। মাঝে মাঝে মনে হত অনেক ঘটনার প্রধান সাক্ষী যেন ভবদেববাবু-ই।  

ঐ সমস্ত আলোচনার মধ্যেই প্রথম শুনি শ্রদ্ধেয় নবনীদার ছাত্র জীবনের কথা , নবনীদার পিতামহ প্রবাদপ্রতিম আচার্য শিরিশচন্দ্রের জীবনের নানা ঘটনা এবং স্বামী বিবেকানন্দের পরিবারের সঙ্গে আন্দুলের যোগাযোগের কথা। মুগ্ধ হয়েছি জেনে -কিভাবে ভবদেব বাবু , দেশমাতৃকার মুক্তির জন্য বিপলবীদের কাজে ' কাঠ বিড়ালীর ভূমিকা ' নিয়েছিলেন , আরও শিহরিত হয়েছি - শ্রীশ্রী মা সারদাদেবীর দর্শনের স্মৃতি অর্থাৎ স্বামীজীর কথায় জ্যান্ত দূর্গা দর্শনের কথা জেনে , পরম পূজনীয় মহাপুরুষ মহারাজ স্বামী শিবানন্দ , স্বামী অভেদানন্দ মহারাজের সঙ্গে ভবদেব বাবুর সম্পর্কের কথা, কথামৃত প্রণেতা শ্রীম (মাস্টার মশাই) এর স্নেহভাজন হয়ে ওঠার কাহিনী ইত্যাদি মনে যেন তীর্থ ভ্রমনের পুন্য অনুভূতি এনে দেয়। মনের এই অনুভূতিই ভবদেব বাবুর জীবনের কিছু অজানা ঘটনা লিপিবদ্ধ করার প্রেরণা যোগায় - যার ফলশ্রুতি এই পুস্তিকা। 

শ্রী নবনীহরণ মুখোপাধ্যায় মহাশয় তাঁর লেখা প্রবন্ধ - ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র কার্যে মহত্ব - এ মন্তব্য করেছেন " ছোট ছোট কাজের মধ্যে দিয়ে যে মহাপ্রাণ মানুষেরা মহত্বের পরিচয় দেন তাঁরা হয়তো আমাদের মতো সাধারণ মানুষদের দৃষ্টি এড়িয়ে যান।  কিন্তু প্রকৃত বিচারে তাঁরাই সত্যিকারের মহৎ। এইসব মানুষদের নাম হয়তো পৃথক ভাবে ইতিহাসের পাতায় লেখা থাকে না। কিন্তু তাঁদেরই মিলিত কর্ম সাধনায় গড়ে ওঠে জাতির ভবিষ্যৎ ইতিহাস। " ভবদেব বাবুর জীবনের কয়েকটি ঘটনার কথা লিপিবদ্ধ করার সময় শ্রদ্ধেয় নবনীদার উক্ত কথাগুলো আমার বিশেষ ভাবে মনে পড়ছিল।

ভবদেব বাবুর জন্ম হাওড়া জেলার  আন্দুল -মৌড়ি পাশেই পুইঁল্ল গ্রামে ১৯০৬ সালের ২রা মার্চ এবং তিনি শেষ নিঃশ্বাস ত্যাগ করেন ১৯৮৭ সালের ২১শে জানুয়ারি।  তাঁর পিতা হরিপদ বন্দোপাধ্যায় ছিলেন নিষ্ঠাবান ব্রাহ্মণ , মাতা হরিদাসী দেবী ছিলেন ভক্তিমতী স্নেহপরায়না গৃহবধূ।  

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের সহ সভাপতি শ্রদ্ধেয় শ্রী রনেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় মহাশয়ের উপদেশ ও আশীর্বাদ আমাকে বিশেষ ভাবে অনুপ্রাণিত করেছে। এবং অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের সাধারণ সম্পাদক শ্রী বীরেন্দ্র কুমার চক্রবর্তী মহাশয় ও সহ -সাধারণ সম্পাদক শ্রদ্ধেয় শ্রী দীপক কুমার সরকার মহাশয়ের আশীর্বাদ পত্র দুটি এই পুস্তিকার বিশেষ সম্পদ।  এছাড়া মহামন্ডলের কেন্দ্রীয় সংগঠনের সদস্য শ্রদ্ধেয় শ্রী মিন্টু পদ দাস  শ্রী তপন প্রসাদ চট্টোপাধ্যায় এবং আন্দুল -মৌড়ি শাখার সকল সদস্যবৃন্দ আমাকে নানা ভাবে সাহায্য করেছেন। আমি তাঁদের সকলের কাছে বিশেষ কৃতজ্ঞ।  

বই লেখার কাজ শুরু হয়েছিল ২০১৭ সালের জুলাই মাস থেকে। এই লেখায় যিনি গনেশের ভূমিকা পালন করেছিলেন - তিনি হলেন বন্ধুবর স্বর্গীয় উৎপল কাঁড়ার। গুরুতর অসুস্থ হওয়া সত্ত্বেও তিনি এই কাজে সাহায্য করেছিলেন। শ্রীশ্রী ঠাকুরের কাছে তাঁর আত্মার শান্তি কামনা করি। পাণ্ডুলিপি সংশোধন করে দিয়ে ঋণী করেছেন শ্রদ্ধেয় অগ্রজপ্রতিম শিক্ষক শ্রী রবীন্দ্রনাথ পাল মহাশয় এবং মহামন্ডলের ভাই শ্রী সতীনাথ পাল

শ্রীশ্রী ঠাকুর -মা-স্বামীজীর প্রতি শ্রদ্ধাশীল ব্যক্তিদের উদ্দেশ্যে এই লেখা উৎসর্গ করলাম। তাঁদের ভাল লাগলেই আমার এই শ্রম সার্থক মনে করবো। এই লেখার মধ্যে সংগ্রহীত তথ্যাদি ভাবি গবেষকদের আগ্রহ বৃদ্ধি করবে এই আশারাখি। 

পরিশেষে আমার গর্ভধারিনী মা গৌরীরানী চন্দের শ্রীচরণে প্রণাম জানাই। এই বই লেখার পিছনে তিনি আমার প্রধান প্রেরণা দাত্রী।

অলমিতি বিস্তরেন-

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ  

আন্দুল -মৌড়ি, হাওড়া 

মো নম্বর -৭০০৩৮১০৭৯   

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[1.]

এক মহাজীবনের অজানা কথা 

The unknown story of a great life

       প্রত্যক্ষদর্শীর প্রেক্ষাপটে 

[ In the eyewitness context]

যেমন নাম না জানা অসংখ্য ফুল হিমালয়ের অপরিসীম সৌন্দর্যকে ফুটিয়ে তোলে তেমনই ভাবের জগতে আমরা দেখি , যে সমস্ত মহান চরিত্রবান মানুষের দ্বারা মানব সমাজ সমৃদ্ধ হয়েছে , রামচন্দ্রের সেতু বন্ধনে কাঠবেড়ালির ন্যায় তারা সম্পূর্ণ নিঃস্বার্থভাবে তাদের ব্রতপালনে নিজেদের বিলিয়ে দিয়েছেন।  

আমাদের আলোচনার যিনি কেন্দ্রবিন্দু তিনি হলেন পুঁইলয়া আন্দুল -মৌড়ি নিবাসী ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়। তিনি স্বামী বিবেকানন্দের আদর্শে জীবনের ঝুঁকি নিয়ে দেশের কাজে অংশগ্রহণ করেছিলেন , কেবল শুধু তাই নয় , তিনি এমন কিছু মহান জীবনের সংস্পর্শে এসেছিলেন যা আগুনের পরশমনির মতো তাঁর জীবনকে আলোকিত করেছিলো : এঁদের মধ্যে ছিলেন আচার্য শিরিষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়, কথামৃত প্রণেতা শ্রীম , স্বামীজীর ভ্রাতা ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত , স্বামী অভেদানন্দ মত প্রমুখ বিশিষ্ট ব্যক্তিবর্গ।   

সময়টা ছিলো ১৯৬৭ সাল। কলকাতার এন্টালী অদ্বৈত আশ্রমের কতিপয় সন্যাসীর অনুপ্রেরণায় ও শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়ের একান্তিক প্রচেষ্টায় তৈরি হল অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল।  

এই প্রতিষ্ঠানের শুভ সূচনার দিনটিতে উপস্থিত ছিলেন শ্রী ভবদেব বন্দোপাধ্যায়। ১৯৬৮ সালের ৮ই জানুয়ারি দক্ষিনেশ্বরের আড়িযাদহে আয়োজিত মহামন্ডলের প্রথম শিবিরে নিজের পুত্রকে এবং আন্দুলের দুই যুবককে শিবির শিক্ষার্থী হিসাবে পাঠান। এরপর তিনি প্রতি বছরই সচেষ্ট থাকতেন যাতে নতুন নতুন যুবকরা মহামন্ডল আয়োজিত শিবিরে যোগদান করে। শিবির থেকে ফিরে আসার পর যুবকদের নিয়ে শিবিরের নানা অভিজ্ঞতা জানার জন্যে পুঁইলয়া নিবাসী সূর্য নারায়ন কল্যাণীর বাড়িতে মিলিত হতেন। এভাবে প্রায় বছর দশেকের মধ্যে মহামন্ডলের ভাবের সাথে পরিচিত বেশ কিছু যুবক তৈরী হল এবং সবার অলক্ষ্যে তৈরী হল ভাবি আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের ভিত্তিভূমি। 

প্রসঙ্গতঃ বলা যায় যেমন প্রদীপ জ্বালানোর পূর্বে সলতে পাকানোর এক অধ্যায় থাকে , ঠিক তেমনই স্বামীজীর আদর্শে যুব সংঠন তৈরির অভিজ্ঞতা ছিল ভবদেব বাবুর। ১৯৪০ এর দশকে আন্দুল -মৌড়িতে আন্দুল-মৌড়ি বিবেকানন্দ পাঠচক্র ' ও 'বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ ' নামে দুটি সংগঠনের সম্পাদক ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় এই বিবেকানন্দ পাঠচক্রের সভাপতি ছিলেন আচার্য শিরিষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়। আবার বোধানন্দ স্মৃতি সংঘের সভাপতি ছিলেন উদ্বোধন পত্রিকার সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দ। 

আচার্য শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায় ছিলেন স্বামীজীর প্রত্যক্ষ স্পর্শে অনুপ্রাণিত ১৮৯৭ সালে ৭ই মার্চ ঠাকুরের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজি দক্ষিণেশ্বরে যে সংক্ষিপ্ত ভাষণ দেন শিরীষ চন্দ্র ছিলেন তার প্রত্যক্ষ শ্রোতা। এই আচার্যদেব ছিলেন ভক্ত ভৈরব গিরিশচন্দ্র ঘোষের অত্যন্ত ঘনিষ্ঠ। 

আচার্য শিরীষ চন্দ্রের অন্যতম প্রিয় ছাত্র ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় , আচার্যদেব ছিলেন এমন এক সর্বজন শ্রদ্ধেয় শিক্ষক যার ছিল জুহরীর চোখ। তিনি তাঁর প্রিয় ছাত্রের সাংগঠনিক প্রতিভাকে অনুধাবন করে তাকে  যুব পাঠচক্রের সম্পাদকের গুরুদায়িত্ব দেন।   

আচার্য শিরীষ চন্দ্র ভবদেব বাবুকে বিশেষ আশীর্বাদ পত্র দেন ১০ই জুন ১৮৬০। এই পত্রে তিনি ভবদেব বাবুকে 'ভক্তিভূষণ ' উপাধি প্রদান করেন। এই স্মারক পত্র এবং ১০ই বৈশাখ ১৩৬৬ তারিখে (এপ্রিল ১৯৬৮) ভবদেব বাবু কে লেখা একটি ব্যক্তিগত পত্র আমাদের হাতে এসেছে। পত্রদুটির ফোটোকপি আমরা পাঠকের উদ্দেশ্যে নিবেদন করলাম। আচার্য শিরীষ চন্দ্র তাঁর ছাত্র ভবদেব কে কিরূপ স্নেহ করতেন তাঁদের শিক্ষক-ছাত্র সম্পকের গভীরতা ও ব্যাপ্তি কোন স্তরের ছিল তা পাঠক একটু মনোনিবেশ করলেই বুঝতে পারবেন। 

অবহেলার ধুলো এই মহান মানুষটির স্মৃতির উপর পড়েছিল। সেই ধুলো সরিয়ে তাঁর অবদানকে তুলে ধরাই হল আমাদের উদ্দেশ্য। যদি সকলের কাছে এই বই গ্রহণীয় হয় তাহলে এই প্রচেষ্টা সার্থক হয়েছে বলে মনে করবো। 

NB[2 letters photocopy ]

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[2.]

" সাবধান তোকে কেউ নজরে রাখছে " 

"Be careful someone is watching you"

মহাপুরুষদের সঙ্গমস্থল 

'Nabadwip of the South' Andul : 

[Meeting place of great men]

'দক্ষিণের নবদ্বীপ ' আন্দুল কেবল আচার্যদেবের কাছে নয় , আমাদের প্রিয় নবনীদার কাছেও এক অত্যন্ত পবিত্র স্থান ছিল।এই আন্দুল ছিল প্রেমিক মহারাজের সাধনাস্থল। এই প্রেমিক মহারাজের রচিত 'কালী কীর্তন ' -ই শ্রীশ্রী মা সারদাদেবী , স্বামী ব্রহ্মানন্দ , স্বামী শিবানন্দ প্রমুখ পূজ্যপাদ মহারাজদের কাছে অত্যন্ত প্রিয় ছিলো। 

পূজ্যপাদ প্রেমিক মহারাজ ছিলেন স্বামীজীর মা ভুবনেশ্বরী দেবীর দীক্ষাগুরু। কথিত আছে স্বামীজীর বাবা বিশ্বনাথ দত্তের দেহ ত্যাগের পর অশৌচ অবস্থায় নরেন্দ্রনাথ এখানে এসেছিলেন। আবার , এই আন্দুলের সাথে মহাপ্রভু শ্রী চৈতন্য দেবের জীবনও জড়িত। শ্রী চৈতন্যদেব পদব্রজে জগন্নাথধামে যাবার সময় এই পবিত্র ভূমিতে হরিনাম সংকীর্তন করেন এবং ফলে ওই সময় খুব ধুলো ওড়ে, তা লক্ষ্য করে মহাপ্রভু বলে ওঠেন এতো 'আনন্দধূলি।' কালে এই 'আনন্দধূলি' থেকেই এই স্থানের নাম হয় আন্দুল।  

এই আন্দুল কেবল আধ্যাত্মিকতার স্থানই ছিলো না , অগ্নিযুগের বিপ্লবীদের ব্রিটিশ বিরোধী কার্যকলাপের কেন্দ্রস্থলে পরিণত হয়েছিলো। বিপ্লবীরা এখানে তাদের গোপন কাজ-কর্ম পরিকল্পনার ব্যাপারে আলোচনা করতে আসতেন। স্কুলে পড়ার সময় কিশোর ভবদেবের মনে দেশপ্রেমের আগুন জ্বলে দেন আচার্য শিরীষ চন্দ্র। তিনি তাঁর ছাত্রদের মনে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলনের কালে স্বদেশ প্রেমের চেতনা জাগিয়ে তোলেন।  সরকারি শাস্তির হুমকি অগ্রাহ্য করে স্কুলের ছাত্রদের নিয়ে 'বন্দে মাতরম' সঙ্গীত গাওয়াতেন। বিলেতি কাপড় এনে স্কুলে পোড়ানো হয়েছিল।  

এই খবর ইংল্যান্ডের সংবাদপত্রে প্রকাশিত হয়। পূর্ব ব্রিটিশ সরকার এই খবর পেয়ে লালবাজার থেকে আচার্যদেবকে গ্রেপ্তারের জন্যে আরেস্ট ওয়ারেন্ট নিয়ে এক পুলিশ অফিসারকে  পাঠায়। কিন্তু সেই পুলিশ অফিসার আচার্যদেবের ব্যক্তিত্বে মুগ্ধ হন। এছাড়া, বিদ্যালয়ের প্রশংসনীয়  শৃক্ষলা এবং কোনো সরকার বিরোধী কার্য-কলাপের প্রমান না পেয়ে তিনি তাঁকে গ্রেপ্তার না করে ফিরে আসেন। ফিরে আসার সময়ই ই পুলিশ অফিসার বলেছিলেন , " আমি ব্রিটিশ বিরোধী আন্দোলনকারীদের সম্পর্কে কোন দুর্বলতা দেখাই না, অথচ এক্ষেত্রে আমাকে দেখাতেই হচ্ছে। "  

প্রসঙ্গতঃ বলা যায় এই বিদ্যালয় এখনও নানা ঐতিহাসিক ঘটনাপঞ্জির সাক্ষ্য বহন করে চলেছে। কথিত আছে ১৮৫৭ সালে মহাবিদ্রোহের সময় বিদ্রোহীদের নেতা নানা সাহেব আন্দুলের গোলাপবাগে আত্মগোপন করেছিলেন। তাঁকে ধরতে কোম্পানির এক পুলিশ অফিসার এসেছিলেন। কিন্তু রাত্রি হয়ে যাওয়ায় তিনি এই বিদ্যালয়েই প্রধান শিক্ষকের আতিথ্য গ্রহণ করেন। সেই অফিসার ইংলেন্ড ফিরে গিয়ে সেখানকার এক নামি পত্রিকায় এই বিদ্যালয়ের প্রশংসা করে এক পত্র লেখেন। 

কিশোর ভবদেবও তাঁর রোল মডেল আচার্য দেবের দেশপ্রেমের আদর্শে অনুপ্রাণিত হয়ে তার সাধ্যমত বিপ্লবী আন্দোলনে ঝাঁপিয়ে পড়েন। তাঁর কাজ ছিল বিপ্লবীদের গোপন চিঠি -পত্রের আদান-প্রদান করা এবং এই কাজের জন্যে তাকে নির্বাচিত করা হয় যাতে পুলিশের কোনোরূপ সন্দেহ না হয়। 

        এই রকমই একবার এক গুরুদাইয়িত্ব পড়ে কিশোর ভবদেবের উপর। ঠিক ছিল সেই সময় উনসানি স্টেশন (বর্তমান মৌড়িগ্রাম স্টেশন) থেকে বিপ্লবী বিপিন বিহারি ট্রেনের শেষ কামরায় থাকবেন ট্রেন থেকে নামা পর দেখবেন একটি অল্প বয়সী কিশোর বালক দাঁড়িয়ে আছে। ছেলেটি হাঁটা শুরু করলে কোনো কথা না বলে একটু দূরত্ব বজায় রেখে তিনি ছেলেটিকে অনুসরণ করবেন এবং নির্দিষ্ট স্থানে পৌঁছে যাবেন। কিশোর ভবদেব অত্যন্ত ঝুঁকি নিয়ে সেই কাজটি সুসম্পন্ন করেন। প্রসঙ্গত বলা যায় বিপিন বিহারী গাঙ্গুলিকে সেই সময় ব্রিটিশ পুলিশ বাজ পাখির মতো হন্যে হয় খুঁজে বেড়াচ্ছিল। স্বাভাবিক ভাবেই আমরা অনুমান করতে পারি কিশোর ভবদেব কতটা জীবনের ঝুঁকি নিয়ে কাজটি করেন। ধরা পড়লে ব্রিটিশ পুলিশের নির্যাতন তো ছিলোই , উপরন্ত নিশ্চিত সশ্রম কারাদণ্ডের মাধ্যমে তার ছাত্রজীবনের অকাল যবনিকা পড়ার আশঙ্কাও ছিল।পরবর্তী জীবনে তরুণ ভবদেব কে কর্মজীবনে প্রবেশ করার পরেও বিপদকে অগ্রাহ্য করে দেশের কাজে অংশগ্রহণ করতে দেখা গেছে। 

অনেক সময় বিপ্লবীরা বেলুড় মঠে গোপনে ঠাকুর-মা -স্বামীজীর মন্দিরে আশীর্বাদ নিতে আসতেন। তরুণ ভবদেবও বিপ্লবীদের সাথে দেখা করতে সেখানে যেতেন। একবার স্বামীজীর মন্দিরের পিছনে বসে গঙ্গার দিকে মুখ করে তরুণ ভবদেব তাঁর এক বন্ধুর সাথে গোপন পরামর্শে ব্যস্ত ছিলেন।  

সেই সময় এক ছদ্মবেশী সি.আই.ডি অফিসার মন্দিরের দক্ষিণ দিক থেকে তাদের সমস্ত কথা শুনছিলেন। এ অফিসার এমনভাবে দাঁড়িযে ছিলেন যাতে ভবদেব বাবু তাঁকে দেখতে না পান , অথচ তাঁর কথা সমস্ত শুনতে পাচ্ছিলেন। সেই সময় মাঠে পায়চারি করছিলেন উদ্বোধনের সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দজী মহারাজ। তাঁর কাছে সমস্ত ব্যাপারটিই পরিষ্কার হয় গেল। মহারাজের কাছে ভবদেব বাবু ছিলেন অত্যন্ত প্রিয়। তিনি তার বিপদের আশঙ্কা করলেন। সন্ধ্যা আরতির পর মঠ থেকে চলে আসার সময় ভবদেব বাবু মহারাজকে প্রণাম করতে গেলে , মহারাজ তাকে বললেন -'সাবধান তোর উপর কেউ নজর রাখছে। ' এই বলে তাকে বিকালের ঘটনাটা বললেন।  এছাড়া ভবদেব বাবুকে মহারাজ নির্দেশ দিলেন যত তাড়াতাড়ি সম্ভব ট্রান্সফার নিয়ে কলকাতার বাহিরে চলে যেতে। তাঁর উপদেশে কতটা ঠিক ছিল তা বোঝা যায় এই ঘটনার কয়েক দিনের মধ্যেই , পুলিশ তার খোঁজে তার কর্মস্থল রেলের অফিসে হানা দিয়েছিল। এরপরই ভবদেব গুরুজনদের নির্দেশে ট্রান্সফার নিয়ে জামালপুর চলে যান। বস্তুত সাদা পোশাকের পুলিশ যে বেলুড় মঠে থাকতেন , তা শুধু জনশ্রুতিই নয় , গোয়েন্দা রিপোর্টে , ঐতিহাসিকদের সংগৃহিত তথ্যেও তা স্বীকৃত। বিপ্লবীদের উপর শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবধারা ও অন্যান্য ধর্মীয় গ্রন্থের প্রভাব সিডিসন কমিটির রিপোর্টে পাই। 

        ভারতের মুক্তি সংগ্রামে শ্রীরামকৃষ্ণের প্রভাব পরোক্ষ হলেও অপরিসীম। মুক্তি সংগ্রামীরা তাঁর পরিমন্ডল থেকে প্রেরণা পেয়েছেন , অনুপ্রাণিত হয়েছেন তাঁর জীবন ও বাণী থেকে। শ্রীরামকৃষ্ণ ছিলেন শক্তি সাধনায় সিদ্ধ , সেজন্যে বিপ্লবীরা আগ্রহী ছিলেন শ্রীরামকৃষ্ণের জীবন ও বাণী সম্বন্ধে তৎকালীন গোয়েন্দা রিপোর্ট থেকে উদাহরণ তুলে দিলে বোঝা যাবে অনুশীলন সমিতির কর্ম পদ্ধতিতে সদস্য ভুক্তির জন্যে বিবেকানন্দের রচনাবলী অবশ্য পাঠ্য রূপে বিবেচিত হত। 

কথামৃত, গীতার মত ধর্মীয় গ্রন্থ কেন বিপ্লবীরা পড়তেন , তাঁদের লাইব্রেরিতে রাখতেন দক্ষ ব্রিটিশ প্রশাসক এবং ঝানু গোয়েন্দারা সে সম্পর্কে বিশ্লেষণ করতেন।  বেঙ্গল ভলেন্টিয়ার্স -এর মহানায়ক মহাবিপ্লবী হেমচন্দ্র ঘোষকে স্বামীজী নিজে বলেছিলেন , 'ঠাকুর তাঁকে বলেছেন ' - " মনে রাখিস ইংরেজরাই এদেশের সর্বনাশ করেছে। " কথামৃত যে বিপ্লবীদের প্রিয় গ্রন্থ ছিল তা সরকারি নথিভুক্ত গোয়েন্দা রিপোর্টে বার বার উল্লেখ করা হয়েছে। ব্রিটিশ প্রশাসক জেমস ক্যাম্বেলকার তাঁর " Political troubles in India (1907-1917) "    গ্রন্থে লিখছেন -- " ..... সহজেই দেখা যেত , এসব পুস্তক পাঠে কিভাবে একজন যুবককে সহজে ও সরাসরি ধর্ম ও দর্শনের ধর্মীয় গ্রন্থ পাঠ থেকে রিভলবর ও বোমায় নিয়ে যেত। "  

আর্ল অফ রোলান্ডস তাঁর " দা হার্ট অফ আর্যাবর্ত " গ্রন্থে তরুণ বিপ্লবীদের উপর রামকৃষ্ণ-বিবেকানন্দের প্রভাব উল্লেখ করেছেন। ধুরন্ধর গোয়েন্দা কর্তা চার্লস টেগার্ট বিপ্লবী ও অন্যান্য স্বাধীনতা সংগ্রামীদের উপর রামকৃষ্ণ -বিবেকানন্দের ও রামকৃষ্ণ মিশনের প্রভাব সম্পর্কে এক গোপন রিপোর্ট দেন (২৪/০৪/১৯১৮) শ্রীশ্রী রামকৃষ্ণ কথামৃত ও বিবেকানন্দের কর্মযোগ থেকে পাঠ করে কিভাবে সদস্য সংগ্রহ করা হত সে ব্যাপারেও তিনি রিপোর্ট দেন। বরিশাল ষড়যন্ত্রের মামলার অন্যতম নেতা দেবেন্দ্রনাথ ঘোষের বাড়িতে একটি বিবেকানন্দের পাঠাগার ছিল বলে টেগার্ট রিপোর্ট দিয়েছেন। তাঁর রিপোর্টে আরো পাওয়া যায় যে শ্রীরামকৃষ্ণ , বিবেকানন্দ এবং রামকৃষ্ণ মিশন শুধু ভারতে নয় , বিদেশেও বিপ্লবীদের উপর প্রভাব বিস্তার করেছিল। 

প্রথম মহাযুদ্ধের (১৯১৪) আগে শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবধারা প্রচারের জন্যে পূর্ববঙ্গে শ্রীরামকৃষ্ণদেবের আদর্শে অসংখ্য আশ্রম গড়ে ওঠে। এদের বেলুড় মঠের অনুমোদন না থাকলেও এখানে শ্রদ্ধার সাথে পূজিত হতেন শ্রীরামকৃষ্ণ এবং তাঁর আদর্শকে সামনে রেখেই তরুণরা মাতৃভূমি শৃঙ্খল মোচনের শপথ নিত। টেগার্টের রিপোর্ট থেকে জানা যায় বিপ্লবীরা সন্ন্যাসীর ছদ্মবেশ ধারণ করে সরকারের বিরুদ্ধে সংগ্রামের প্রস্তুতি নিত। ১৯১৩ খ্রিস্টাব্দে বরিশাল ষড়যন্ত্র মামলার গোয়েন্দা তদন্ত থেকে জানা যায় বিপ্লবীরা সন্ন্যাসীর ছদ্মবেশ ধারণ করে সরকারের বিরুদ্ধে সংগ্রামের প্রস্তুতি নিত। ১৯১৩ খ্রিষ্টাব্দ বরিশাল ষড়যন্ত্র মামলার গোয়েন্দা তদন্ত থেকে জানা যায় পূর্ববঙ্গে বহু প্রাইভেট রামকৃষ্ণ আশ্রমের কথা যাঁরা বৈপ্লিবীক কাজের সঙ্গে সরাসরি যুক্ত।  

রামকৃষ্ণ মিশনের সাথে বিপ্লবীদের সম্পর্ক একসময় এত ঘনিষ্ঠ হয়ে ওঠে যে , সরকার এই সময় রামকৃষ্ণ মিশনকে বে -আইনি ও বেলুড় মঠকে বন্ধ করে দেওয়ার কথা ভাবেন। প্রখ্যাত ঐতিহাসিক রমেশচন্দ্র মজুমদার লিখেছেন " একদিন একটি গোপনীয় ফাইলের উপর লেখা আছে দেখলাম , 'রামকৃষ্ণ মিশন। ' আমি একটু আশ্চর্য বোধ করে ফাইলটি আমার ঘরে নিয়ে গিয়ে পড়তে লাগলাম। ফাইলের সর্বনিম্ন তলে একটি রিপোর্ট আছে -তাতে বিস্তৃত ভাবে বর্ণিত হয়েছে যে , রামকৃষ্ণ মিশনের ৮/১০ জন সাধু পূর্বাশ্রমে বিপ্লবী ও গুপ্ত সমিতির সদস্য ছিলেন এদের বর্তমান ও আগেকার নাম দেওয়া আছে। এইসব বিবরণের পড়ে কয়েকজন পদস্থ ইংরেজ কর্মচারী মন্তব্য করেছেন। সর্বশেষে এই সব মন্তব্যের সংক্ষিপ্ত বিবরণ দিয়ে সেক্রেটারি বড়লাটের কাছে এই ফাইল পাঠাবার সময় প্রস্তাব করলেন যে, বেলুড় মঠ কে বে -আইনি ঘোষণা করা হোক। এই সব মন্তব্য পড়ে বড়লাট ফাইলে নোট দিলেন যে , বেলুড় মঠ কে নিষিদ্ধ করলে আন্তর্জাতিক স্তরে বিশেষ করে আমেরিকার বিরাগভাজন হতে হবে। তাই বেলুড়মঠ কে নিষিদ্ধ না করে সেখানে সাদা পোশাকের কয়েকজন পুলিশ কর্মচারীকে নিযুক্ত করা হোক। "   বলাবাহুল্য মিস মাইক্লাউড গোপন সূত্রে খবর পেয়ে বড়লাটকে গিয়ে বোঝান - বেলুড়মঠকে নিষিদ্ধ করলে গোটা য়ুরোপ বিশেষ করে আমেরিকায় তীব্র প্রতিক্রিয়া হবে , যা ব্রিটিশ সরকারের স্বার্থের পক্ষে অত্যন্ত ক্ষতিকর হবে। 

পুলিশের নজর এড়াতে বাংলার বিপ্লবীরা রামকৃষ্ণ মিশনের শাখা গুলিকে " রিভ্যুলুশনরী এজেন্সি " হিসাবে ব্যবহার করতে শুরু করেন , বিপ্লবীরা রামকৃষ্ণ মিশনের সদর দপ্তর বেলুড়মঠকে তাদের যোগাযোগ ও মেলামেশার কেন্দ্র হিসাবে ব্যবহার করেন বলে বিপ্লবী নেতা হেমচন্দ্র কানুনগো স্বীকার করেছেন। 

স্বামীজী লেখার ও তাঁর প্রতিষ্ঠিত রামকৃষ্ণ মিশনের প্রভাব ক্রমশই বাড়তে থাকে। গোয়েন্দা রিপোর্টে দেখা যায় স্বামীজীর পত্রাবলী বাজেয়াপ্ত করার প্রস্তাবও উঠে ছিল। কিন্তু স্ট্যান্ডিং কাউন্সেল এস.আর. দাস বইটির বাজেয়াপ্ত করার বিরুদ্ধে মত দিলে ইংরেজ সরকার বইটি বাজেয়াপ্ত করেন নি। চার্লস টেগার্ট তাঁর গোয়েন্দা রিপোর্টে (২২/০৪/১৯১৮) জানিয়েছেন যে , স্বামীজী কলকাতা অভিননন্দের উত্তরে যে ভাষণ দিয়ে ছিলেন , তা তরুণ মুক্তি সংগ্রামীদের উপর গভীর প্রভাব বিস্তার করে ছিল। 

১৯১২ খ্রিস্টাব্দে ২৯শে জানুয়ারি স্বামীজীর ৫০তম জন্ম তিথিতে বেলুড়মঠে বিপ্লবীরা সক্রিয় ভাবে অংশ নিয়ে ছিলেন বলে গোয়েন্দা রিপোর্টে উল্লেখ আছে। সরকারের গোয়েন্দা রিপোর্টে স্বামী ব্রাহ্মানন্দের বিরুদ্ধে স্বরাজ প্রচারের গুরুতর অভিযোগ আনা হয়েছে। 

ভগিনী নিবেদিতা বিপ্লবের কাজে সক্রিয়ভাবে অংশ নেওয়ার জন্যে ছদ্মনাম ও ছদ্মবেশের সাহায্য নিতেন। তখন দেশে বিদেশে থাকার সময় তাঁর ছদ্মবেশ এত নিখুঁত করে ছিলেন যে, ধুরন্ধর ব্রিটিশ গোয়েন্দারা তা ধরতে পারেনি। তিনি কেবল গ্রেপ্তার এড়াতে পেরেছেন ছদ্মনাম ও ছদ্মবেশ ধরনের কৌশল জানতেন বলেই। এছাড়াও সরকারি উচ্চ মহলে তাঁর গভীর যোগাযোগ ছিল। এছাড়াও গোয়েন্দা দপ্তর কাজকর্ম সম্বন্ধে আগাম খবর পেতেন।  উদাহরণ হিসাবে বলা যায় , ব্রিটিশ সরকার যে অরবিন্দ ঘোষকে গ্রেপ্তার করতে আসছে  সে খবর পেয়ে তিনি অরবিন্দ ঘোষকে চন্দননগর পাঠিয়ে দেন। কারন চন্দননগর ছিল ফরাসি অধিকৃত। ব্রিটিশ আইন সেখানে কার্যকর হবে না। নিবেদিতা গোয়েন্দাদের নজর এড়াবার জন্যে সরাসরি চিঠি না পাঠিয়ে ব্যাঙ্ক বা অন্য্ এজেন্টে মারফত চিঠি পাঠাতেন। ভিন্ন নাম ও ভিন্ন ঠিকানায় তিনি চিঠি পাঠিয়েছেন। চিঠিতে "কোড " ব্যবহার করেছেন আবার মাঝে মাঝে "কোড " ও বদল করেছেন। অত্যন্ত বুদ্ধিমত্তার সাথে হেঁয়ালি ভাষা ব্যবহার করেছেন। 

নেতাজিকে দেখব আজাদ হিন্দ বাহিনীর সর্বাধিনায়ক হিসাবে যখন রেঙ্গুনে মিত্র পক্ষের বিরুদ্ধে মরন পন সংগ্রামে লিপ্ত ছিলেন , তখন মাঝে মাঝেই গভীর রাত্রে রেঙ্গুনে রামকৃষ্ণ মিশনে চলে যেতেন। সিল্কের ধুতি পরে , খালি গায়ে নেতাজি বন্ধ ঘরে তাঁর জীবন দেবতা স্বামীজীর ছবির সামনে কিছুক্ষনের জন্যে ধ্যান মগ্ন থাকতেন। কখনও বা আশ্রম অধ্যক্ষ স্বামী ভাস্করানন্দকে গাড়ি পাঠিয়ে আশ্রম থেকে  আনিয়ে ধর্মপ্রসঙ্গ করতেন।  

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[3.]

আমি আন্দুলের রাজা হতাম 

তরুণ ভবদেব মধু সন্ধানী মৌমাছির মত বিভিন্ন দিকপাল ব্যক্তিদের সঙ্গ করতেন। তিনি আধ্যাত্মিক বা যে কোন জগতের মানুষ হোন না কেন -গুণবান মানুষ হলেই তাঁর সঙ্গ করতেন। পঞ্চাশের দশকে স্বামীজীর ভাই প্রখ্যাত বিপ্লবী ও কম্যুনিষ্ট নেতা ডঃ ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত প্রায় প্রতিদিন হেদুয়ার পুষ্করণীর ধারে পরিক্রমা করতেন। এই বিখ্যাত পুষ্করণী যার ধারে তরুণ নরেন্দ্রনাথ বহু সময় কাটিয়েছেন।  ঠাকুরের কাছে যখন তার অদ্বৈতজ্ঞানের দিব্য অনুভূতি লাভ হয় , তখন এই পুষ্করণীর রেলিং-এ মাথা ঠুকে তাঁর দিব্য অনুভূতি সত্যতা পরীক্ষা করেছিলেন।  

এখানেই বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ প্রত্যহ বিকালে প্রায় দুঘন্টা অতিবাহিত করতেন। তাঁকে ঘিরে থাকতো একদল অনুগামী। এঁদের কাছে ভূপেন্দ্রনাথ বিভিন্ন প্রসঙ্গে আলোচনা করতেন। তরুণ ভবদেব ভূপেন্দ্রনাথের এই বৈকালিক আড্ডার নিয়মিত সঙ্গী ছিলেন। 

     হঠাৎ একদিন বেড়াতে বেড়াতে (১৯৫২-১৯৫৩ সাল) শ্রী ভবদেব কে তিনি প্রশ্ন করলেন , " তোর তো আন্দুলে বাড়ি ? তুই আন্দুলের রাজাদের ইতিহাস জানিস ? তোদের কালীকীর্তনের প্রেমিক ছিলেন আমার মার গুরুদেব। আমি তোদের আন্দুলের রাজা হতাম। " তিনি এটা শুনেছিলেন তাঁর মাতা ভুবনেশ্বরীদেবীর কাছ থেকে। 

        আন্দুলের সাথে স্বামীজীর বংশের এক ঘনিষ্ঠ ঐতিহাসিক সম্পর্ক আছে। একদিন স্বামীজীর মা ভুবনেশ্বরী দেবীর কাছে আন্দুল ছিল গুরুবাড়ি। অন্যদিকে আন্দুলের রাজাদের সাথে ঘনিষ্ঠ যোগাযোগ তৈরী হয় বিশ্বনাথ দত্তের। বস্তুতঃ আন্দুল -মৌড়ির সাথে কলকাতার সিমলার দত্ত পরিবারের যোগাযোগ বহুদিনের। ঊনবিংশ শতকে আন্দুল রাজবাড়ি থেকে প্রকাশিত " কায়স্থ -কৌস্তব " বইতে তখনকার অভিজাত কায়স্থ ব্যক্তিদের যে তালিকা প্রকাশিত হয় তাতে নরেন্দ্রনাথের প্রপিতামহ রামমোহন দত্তের উল্লেখ আছে। 

স্বামীজীর বাবা বিশ্বনাথ দত্ত আন্দুলের রাজবাড়িতে গানের আসরে নিয়মিত শ্রোতা ছিলেন। রাজবাড়ির উকিল নিমাই চরণ বসু নিয়মিত ভাবে বিশ্বনাথ দত্তের সঙ্গী হতেন। এই সময় অর্থাৎ ১৮৭৯ সালে আন্দুলের রাজা বিজয় কেশব রায় (১৮৩৬-৭৯ সাল) তাঁর দুই রানী দুর্গাসুন্দরী ও নবদুর্গাসুন্দরীকে নিঃসন্তান রেখে মারা যান। ১৮৮০ সালে প্রি. ভি. কাউন্সিলের রায় অনুসারে দুই রানী পৃথক ভাবে দুই পোষ্যপুত্র অনুমতি পান।

এই খবর শুনে রাজবাড়ির উকিল নিমাইচরণ বসু বিশ্বনাথ দত্তকে তাঁর দুই পুত্রকে আন্দুলের রাজবাড়িতে দত্তক দেওয়ার পরামর্শ দেন। তরুণ নরেন্দ্রনাথ তখন বি.এ. প্রথমবর্ষে পড়াশোনা করছেন। এই খবর পেয়ে নরেন্দ্রনাথের মাতা ভুবনেশ্বরী দেবী কে তীব্র আপত্তি জানান। কিন্তু বিশ্বনাথ দৃঢ়ভাবে জানান পরিবেশ মানুষকে তৈরি করে। তিনি জ্যোতিষ চর্চা করে দেখেছেন নরেন্দ্রনাথ সন্ন্যাসী হবে , নতুবা রাজা হবেন। এই পরিস্তিতিতে ১৮৮০ সালে ৪ঠা সেপ্টেম্বরে ভূপেন্দ্রনাথের জন্ম হয়। তখন ভুবনেশ্বরী দেবী তাঁর স্বামীকে আগের প্রস্তাব পুনর্বিবেচনার অনুরোধ জানান। ফলে নরেন্দ্রনাথের পরিবর্তে ভূপেন্দ্রনাথকে দত্তক দেওয়ার ব্যাপারে তাঁরা একমত হন। 

এই সময় নরেন্দ্রনাথ উদাসীন উদ্ভ্রাতের মতো ঘুরে বেড়াচ্ছেন। কয়েকদিন আগেই তিনি সিমলার মিত্রদের বাড়িতে শ্রীরামকৃষ্ণদেব কে গান শুনিয়ে এসেছেন। এরপর থেকেই নরেন অন্যমনস্ক। এই পরিস্থিতিতে ভুবনেশ্বরী দেবী নরেনকে বলেন ," ও নরেন তুই শুনিস নি ; ভূপেন রাজা হবে। আন্দুলের রানীরা ওকে পুষি নেবেন। প্রথমে তোর আর মহিমের কথা হয়েছিলো। " একথা শুনে শ্রীরামকৃষ্ণের খাপখোলা তরোয়াল নরেনের মনে তীব্র প্রতিক্রিয়া হলো। তিনি বারুদের মতো দাউ দাউ করে জ্বলে ওঠে তীব্র চিৎকার করে উঠলেন। নরেনের এই উগ্রচন্ডী রূপ আগে কেউ এরকম ভাবে দেখেনি। তিনি গর্জে বললেন , " তোমরা বিশেষ করে বাবা , কি ভাবেন ? কি ভাবেন জানি না ? কিন্তু তোমরা স্থির জেনো আমরা কোনো ভাই কারো পুষিপুত্র হয়ে ভাগ্যান্বেষী হয়ে ভবিতব্য নিয়ে জন্ম গ্রহণ করিনি। "  

একথা বলা শেষ হলে ভুপেন্দ্রনাথ কিছুটা আনমনা হয়ে পড়ন্ত বিকালের রোদে লোকের জলের দিকে তাকিয়ে রইলেন। তরুণ ভবদেব মুগ্ধ হয়ে গেলেণ , এই অপরূপ স্মৃতিচারণ শুনে। তাঁর সাথে বিপ্লবী ভূপেন্দ্রনাথের ১৯২৮ সাল থেকেই পরিচয়। ১৯২৮ সালের ২১শে জুলাই এক শনিবারের অপরাহ্ন ভূপেন্দ্রনাথ এসেছিলেন শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় স্থাপিত হাওড়া যুবক সংঘের আন্দুল-মাউরি শাখার উদ্বোধন করতে। সেই  দিন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত মৌড়িগ্রাম (তৎকালীন উনসানি) রেলস্টেশনে নেমে দুর্গম পথে পালকি যোগে এসেছিলেন। এই সংঘের সাথে বহু বিপ্লবী যুক্ত ছিলেন। যেমন বিপিন বিহারি গাঙ্গুলি , ডোমজুড় ব্যোমকেসের ফেরার বীরেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় প্রমুখরা।     

এর পর ১৯৩১ সালে আন্দুলের জমিদার মল্লিকবাবুদের বাগানে (বর্তমান ওলিংটন সিনেমা হলের চত্বর) এক রাজনৈতিক কর্মী সম্মেলন হয়। সেই সম্মেলনের উদ্বোধন করেন দেশপ্রিয় যতীন্দ্র মোহন সেনগুপ্ত। ভাষনপাঠ করেন " মেরঠ ষড়যন্ত্র মামলার " অন্যতম অভিযুক্ত কমরেড বঙ্কিম মুখোপাধ্যায়। এই সভাতে উপস্থিত ছিলেন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। সমাবেশের শেষের দিন সন্ধ্যায় চারণ কবি মুকুন্দ দাসের যাত্রাভিনয় জনসাধারণকে বিশেষভাবে আনন্দ ও উৎসাহ দেয়। আবার অন্য্ এক সভায় এসে ছিলেন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। তারিখটি ছিল ৩০/১০ /১৯৩৮। এদিন তিনি আন্দুল-মুড়ি গ্রামের প্রশংসা করে গ্রন্থাগারের 'ভিজিটর্স বুকে ' প্রশংসাসূচক মন্তব্য করেন। আবার তিনি আন্দুলে এসেছিলেন ১৯৪২ সালে স্থানীয় উচ্চ ইংরেজি বিদ্যালয়ের (বর্তমান MKCI) শতবার্ষিকী অনষ্ঠান উপলক্ষে।  ভারত স্বাধীন হবার পরেও তিনি কয়েকবার আন্দুলে এসেছিলেন। 

ভুপেন্দ্রনাথ ছিলেন বৈজ্ঞানিক সমাজতন্ত্রে বিশ্বাসী। স্বামীজীর কনিষ্ঠ ভাই হওয়া সত্ত্বেও সভা -সমিতিতে স্বামীজীর নামের সাথে তাঁর নাম যুক্তকরা একদমই পছন্দ করতেন না। স্বামীজী তাঁর কাছে ছিলেন 'ভারতের অদম্য , অদ্বিতীয় মুক্তিকামী যোদ্ধা -সামাজিক গণতন্ত্রের অগ্রদূত।  এক অভূতপূর্ব অনান্যতান্ত্ৰ মানবতাবাদী। ' 

ভুপেন্দ্রনাথের পূর্বে তাঁর অগ্রজ স্বামী বিবেকানন্দের আরেক ভাই মাহেন্দ্রনাথের সাথে ভবদেবের পরিচয় ঘটে বিংশ শতকের প্রথম দিকে। ইনি ছিলেন বিশ্বনাথ দত্তের নবম সন্তান। এই দুই মনীষীর অলঙ্ঘনীয় আকর্ষনে প্রায়শই ভবদেব ছুটে যেতেন ৩নম্বর গৌর মুখার্জি স্ট্রিট। ১৯৩৪-৩৫ সাল থেকে ১৯৫৬ -৫৭ সাল পর্যন্ত খুবই আসা যাওয়া ছিল ভবদেবের শিমুলিয়ার দত্ত বাড়িতে। সুদীর্ঘ ১৭ বছর আমেরিকা , জার্মানি , রাশিয়া প্রভৃতি দেশে শিক্ষা -দীক্ষা শেষ করে নির্বাসিত বিপ্লবী ভুপেন্দ্রনাথ ১৯২৫ সালে কলিকাতা ফেরেন। রাশিয়ার কম্যুনিষ্ট নেতা লেনিনের সাথে তার ব্যক্তিগত ঘনিষ্ঠতা ছিল।   

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[4.]   

'মন' হচ্ছে ভেড়ার পালের ভেড়ার মতো 

         তরুণ ভবদেব কে আর এক মহাপুরুষ তীব্র আকর্ষণ করতেন। তিনি হলেন শ্রীরামকৃষ্ণের প্রিয় সন্তান কালী মহারাজ (স্বামী অভেদানন্দ।) অফিস ছুটির পর প্রায়ই এই মানুষটি হাজির হতেন বেদান্ত মঠের এই বৃদ্ধ তাপসের সঙ্গ করতে। খুব মনোযোগ দিয়ে সব কিছু শুনতেন। বিশেষ করে বিভিন্ন ভক্তদের দেওয়া তাঁর উপদেশগুলি তার কাছে খুবই প্রিয় ছিল। আবার এই সমস্ত কথোপকথন থেকেই কখনও কখনও তাঁর মনের প্রশ্নের উত্তর পেয়ে যেতেন। একদিন তিনি স্বামী অভেদানন্দকে প্রশ্ন করেছিলেন , যা আমাদের অনেকের প্রশ্ন , " মহারাজ , আমার মন খুব চঞ্চল , কি করে আমার মন কে নিয়ন্ত্রণ করবো ? " 

বস্তুতঃ এই প্রশ্নই করেছিলেন অর্জুন ভগবান শ্রীকৃষ্ণ কে।  অধ্যাত্ম জগতে বিচরণকারী যে কোন সাধকের মনে এই প্রশ্ন জাগে। স্বামী অভেদানন্দ একটু মিষ্টি হেসে তরুণ ভবদেবের দিকে তাকিয়ে বলে উঠলেন , " এ আর নতুন কথা কিরে ? যার সঙ্গে স্বয়ং ভগবান রয়েছেন সেই অর্জুনও একই কথা বলেছেন। ভেড়ার পাল দেখেছিস ? রাস্তা দিয়ে যখন নিয়ে যাওয়া হয় তখন যদি একটা ভেড়া দলছুট হয়ে যায় , তখন তাকে লাঠি দিয়ে দলে ফেরাতে হয়। মনকেও এ রকম শাসন করে ফিরিয়ে আনতে হয়। তাহলে আস্তে আস্তে মন চঞ্চলতা ছেড়ে বশে এসে যাবে। "  

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[5.]     

"আপনি একটা স্বামীজীর জীবনী লিখুন "

    একদম শুরুর দিকে (১৯৬৮-৬৯) মহামন্ডলের কোনো O.T.C. হত না। সে সময় তিন মাস অন্তরে এক সাথে বসা হত - যার নাম ছিল ' শিক্ষা ও সমীক্ষার আসর। ' ('Education and Study Sessions'. ) এই অনুষ্ঠানে যোগ দেওয়ার নিয়মিত আমন্ত্রণ পত্র যেত ভবদেব বাবুর কাছে। তিনি ছিলেন মহামন্ডলের ইন্ডিভিজুয়াল মেম্বার (individual member') মহামন্ডলের যখন সর্বভারতীয় শিবির হত এলাকার যুবকদের কাছে এবং তাদের অভিভাবকদের কাছে শিবিরে যোগদেবার প্রয়োজনীয়তার কথা ভবদেব বাবু বুঝিয়ে বলতেন। বিভিন্ন মহৎ মানুষদের সঙ্গ করা ভবদেবের যে দুর্লভ গুন্ ছিল সেই অনুসারে তিনি নবনীদার অফিসে গিয়ে প্রায়ই তার সঙ্গ করতেন। যদিও বয়সের পরিমানে তিনি নবনীদার চেয়ে ২৫ বছরের বড় ছিলেন। নবনীদার বাবা ইন্দীবর মুখোপাধ্যায় কে তিনি দাদা বলে ডাকতেন।  

       বিভিন্ন পত্রিকায় স্বামীজীর ব্যাপারে বিভিন্ন প্রবন্ধ প্রকাশিত হত। সেগুলি তিনি আগ্রহ সহকারে পড়তেন। ভুল-ভ্রান্তি দেখলে সমালোচনা করে চিঠি লিখতেন পত্রিকার সম্পাদকদের।  এগুলি আবার নবনীদা কে দেখাতেন। একদিন নবনীদা তাঁকে বললেন , " সব চেয়ে ভালো হয় যদি আপনি স্বামীজীর জীবনী লেখেন -যাতে স্বামীজী সম্পর্কে আপনার দৃষ্টিভঙ্গি এবং মতামত স্বাধীনভাবে প্রকাশিত হবে। " নবনীদার অনুপ্রেরণায় ভবদেব বাবু স্বামীজীর একটি জীবনী ইংরেজিতে লিখতে শুরু করেন। তার কিছু অংশ বিবেক জীবন পত্রিকায় ১৯৮৫ সালে জানুয়ারি সংখ্যায় প্রকাশ পায় -" He was Born " শিরোনাম। এছাড়া বাংলাতে লেখা 'মহামিলন ' নাম একটি প্রবন্ধ প্রকাশিত হয়।  

নবনীদাকে তিনি খুব ছোটো থেকেই দেখেছেন। যেহেতু নবনীদার বাড়ি 'ভুবন -ভবনের ' প্রতিটি অনুষ্ঠানে তিনি নিমন্ত্রিত থাকতেন। একবার নবনীদার অফিসে ভবদেব বাবু গেলে কথা বলতে অনেক দেরি হয় যায়। নবনীদা তখন মহামন্ডলের জন্যে কেনা জীপ গাড়িতে করে ভবদেব বাবুকে বসিয়ে সেই গাড়ি চালিয়ে হাওড়া স্টেশনে পৌছে দেন। 

বস্তুতঃ ভবদেব বাবু নবনীদার মধ্যে নিবিড় সম্পর্ক সূত্রতার ঘনিষ্ঠতার সেতুরূপে যে পবিত্র প্রতিষ্ঠানটি ছিল তা হল আন্দুল-মুড়ি স্কুল। নবনীদা প্রায়ই এই বিদ্যালয়ের পবিত্র স্মৃতি রোমন্হন করে এসেছেন। এই বিদ্যালয়ের সংস্কৃতের প্রবাদ প্রতিম পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় ছয় বছর বয়সে নবনীদার মুখে সংস্কৃতের শ্লোক শুনে তাঁকে বাকসিদ্ধির আশীর্বাদ দিয়েছিলেন।   

একবার কুরুক্ষেত্র ইউনিভার্সিটি এক সভায় তাঁর ইংরেজি বক্তৃতা শুনে উপস্থিত রাজ্যপালের স্ত্রী তাঁকে জিজ্ঞাসা করেছিলেন তিনি কোন ইউনিভার্সিটি থেকে এত সুন্দর ইংরেজি শিখেছেন। উত্তরে নবনীদা বলেছেন , " তাঁর ইংরেজি শিক্ষা হাওড়া জেলার এক গ্রামের এক অখ্যাত স্কুলে। " এই স্কুলেই ইংরেজি ক্লাসে যখন তিনি ক্লাস সেভেনের ছাত্র , একজন ইংরেজি শিক্ষক তাঁকে Fatal শব্দটি উচ্চারণ করতে বলেন। আচার্য শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়ের কাছে শিক্ষাপ্রাপ্ত নবনীদা শব্দটি উচ্চারণ করেন 'ফেটাল।' ইংরেজি শিক্ষক মহাশয় তাঁকে বলেন উচ্চারনটি 'ফ্যাটল' হবে। কিন্তু নবনীদা বিনম্রভাবে তাঁর উচ্চারণটিই করে যান। শিক্ষক ক্রুদ্ধ হয় ওঠেন। এই সময় আচার্যদেব বিদ্যালয়ে রাউন্ড দিচ্ছিলেন। তিনি চিৎকার শুনে শিক্ষকের অনুমতি নিয়ে ক্লাস ঢোকেন। সব শুনে শিক্ষকের মর্যাদা বজায় রেখেই স্বস্নেহভাবে শিক্ষকের ভুল ধরিয়ে দেন। কিন্তু শিক্ষক মহাশয় সেই ঘটনা মেনে না নিতে পেরে চাকুরী থেকে ইস্তফা দিয়ে স্কুল ছেড়ে চলে যান। 

নবনীদা ও ভবদেব বাবুর মধ্যে আজীবন সুমধুর সম্পর্ক ছিল। নবনীদার দাদু ৫২ বছরের প্রধান শিক্ষকতার জীবন রেকর্ড হিসাবে জিনিসবুকে স্থান পেয়েছিল। এই খবরটি নবনীদা একটি চিঠির মাধ্যমে ভবদেব বাবুকে জানিয়ে ছিলেন। একজন পাকা জুহরীর মতই নবনিদাকে তিনি ছোট বেলাতেই চিনতে পেরে ছিলেন  এবং ঘনিষ্ঠ জনদের কাছে নবনীদার উচ্চ সম্ভাবনার কথা দৃঢ়ভাবে প্রকাশ করতেন। তাঁর ভবিষ্যৎবাণী যে নির্ভুল হয়েছিল তার প্রমান হচ্ছে 'অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল। ' বস্তুতঃ নবনীদার ভবদেব বাবু -কে স্বামীজীর জীবনী লিখতে বলার পেছনে একটি অন্যতম কারন ছিল যে নবনীদা ছোটবেলা থেকেই ভবদেব বাবুর জ্ঞানতৃষ্ণা এবং লেখার প্রতিভা সম্পর্কে অবহিত ছিলেন। ভবদেব বাবুর আবার একটি গবেষণার প্রিয় বিষয় ছিল রবীন্দ্রনাথ ও বিবেকানন্দের সম্পর্ক। (relationship between Rabindranath and Vivekananda. )  

প্রসঙ্গতঃ স্বামীজীর সম্বন্ধে রবীন্দ্রনাথের দু-একটি কথা স্মরণ অপ্রাসঙ্গিক হবে না। রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর লিখেছেন " বিবেকানন্দ বলেছিলেন প্রত্যেক মানুষের মধ্যে ব্রহ্মের শক্তি ; বলেছেন দারিড্র্যের  মধ্যে দিয়ে নারায়ন আমাদের সেবা পেতে চান ,একে বলে বাণী। এই বাণী স্বার্থ বোধের সীমার বাহিরে মানুষের আত্মবোধকে অসীম মুক্তির পথ দেখালেন। " রবীন্দ্রনাথ ও বিবেকানন্দের সম্পর্কের দৃঢ়তা সংগীতের মধ্যে দিয়ে গেড়ে ওঠে ১৮৮১ সালের ২৩ শে জানুয়ারি রবিবার ব্রাহ্মসমাজের উৎসব উপলক্ষে রবীন্দ্রনাথ সাতটি ব্রাহ্ম সঙ্গীত রচনা করেন। তাঁর মধ্যে একটি ছিল 'মহাসিংহাসনে বসি শুনিছে হে বিশ্বপিতা। ' এই গানটি শিখে নিয়ে নরেন্দ্রনাথ শ্রীরামকৃষ্ণে কে বহুবার গেয়ে শোনান। সঞ্জীবনী পত্রিকার প্রতিষ্ঠাতা কৃষ্ণকুমার মিত্রের বিয়েতে রবীন্দ্রনাথ নরেন্দ্রনাথকে দিয়ে তিনি খানি  ধ্রুপদাঙ্গের গান শিখিয়ে গাওয়ান। গানগুলি হল 'দুই হৃদয়ের নদী ' , 'জগতের পুরোহিত তুমি ', 'শুভদিনে এসেছ দোঁহে। ' ঐ সংগীতানুষ্ঠানের মহড়ায় রবীন্দ্রনাথ অর্গান বাজিয়ে ছিলেন , আর নরেন্দ্রনাথ পাখোয়াজ বাজিয়ে ছিলেন। শুধু সঙ্গীত নয় , নাটকের মধ্যেও উভয়ের মধ্যে ঘনিষ্ঠ সম্পর্ক গেড়ে ওঠে।    

ভবদেব বাবু দেশ পত্রিকায় প্রকাশিত একটি চিঠির মাধ্যমে রবীন্দ্রনাথ ও নরেন্দ্রনাথের মধ্যে সম্পর্কের একটি অপ্রকাশিত ঘটনা তুলে ধরেন। নরেন্দ্রনাথ জোড়াসাঁকোর ঠাকুর বাড়িতে রবীন্দ্রনাথ  রচিত ও পরিচালিত 'বাল্মীকি প্রতিভা ' নাটকে অভিনয় করেন। এই নাটকে রত্নাকরের ভূমিকায় অভিনয় করেন স্বয়ং রবীন্দ্রনাথ। আর নরেন্দ্রবাথ অভিনয় করেন রত্নাকরের দস্যু দলের এক দস্যুর চরিত্রে। ১৯৬১ সালে রবীন্দ্রনাথের জন্মশতবার্ষিকী উপলক্ষ্যে যে কবীন্দ্র-রচনাবলী প্রকাশিত হয় তাতে 'বাল্মীকি প্রতিভা ' নাটকে রবীন্দ্রনাথ ও নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে সেদিন যাঁরা অভিনয় করেছিলেন তাঁদের দলবদ্ধ ছবি দেখা যায়। এখানে অভিনেতা নরেন্দ্রনাথের ছবি পাওয়া যায়। রবীন্দ্রনাথ এই ছবিতে তাঁর নরেন্দ্রনাথের পরিচয় হিসাবে 'জ্যোতিঃ প্রকাশ 'নাম দেন অর্থাৎ তিনি নিজের জাতিতে প্রকাশিত।  

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[6]  

মহামন্ডল না হলে নবনীকে এত কাছে পেতাম না।  

১৯৬৭ সালে স্বামীজীর শতবর্ষ উদযাপন হয়েছিল নবনীদা ' গোলপার্ক ইনস্টিটিউট অফ কালচারের '('Golpark Institute of Culture'.) সাথে যুক্ত ছিলেন। তাঁকে বিদেশী অতিথিতিদের আপ্যায়নের দায়িত্ব দেওয়া হয়েছিল। এই সময় তাঁর সাথে আলাপ হয় আমেরিকা প্রবাসী সন্ন্যাসী স্বামী ভাষ্যানন্দের সাথে। তিনি তাঁকে আমেরিকা নিয়ে যেতে চান। তাঁর ধারণা ছিল আমেরিকায় ঠাকুর-মা-স্বামীজীর ভাবপ্রচারে নবনীবাবু অত্যন্ত গুরুত্বপূর্ণ ভূমিকা নেবেন। বিশেষ করে শতবার্ষিকী উৎসবে তাঁর নিষ্ঠা ও ভাবতনময়তা দেখে মহারাজ মুগ্ধ হন। কিন্তু দৈব ইচ্ছায় নবনীদার  পাওয়া হয়নি। হয়তো স্বামীজীর ইচ্ছায় তাঁকে মহামামণ্ডল সৃষ্টিতে প্রধান পুরোহিতের ভূমিকা নিতে হবে বলে তাঁর যাওয়া হয়নি। কেননা নবনীদা বহুবার বলেছেন 'ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রী মায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় ' মহামন্ডল ('विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का जानिबीघा जाना) সৃষ্টি হয়েছে। তাই ভবদেব বাবু একজন ঘনিষ্ঠ ব্যক্তির কাছে মন্তব্য করেন " মহামন্ডল না হলে নবনীকে আমাদের মধ্যে পেতাম না -সে ভাষ্যনন্দর সাথে আমেরিকায় চলে যেত এবং একজন বিখ্যাত সন্নাসী হয় যেত। " 

ভবদেব বাবু রক্তে ছিল অভিনয়ের অন্যায়সলব্ধ ক্ষমতা। যেহেতু তিনি ছোটোখাটো চেহারার ছিলেন ও তাঁর গায়ের রঙ ফরসা ছিল , তাঁকে পাড়ার নাটকে স্ত্রী চরিত্রে অভিনয় করতে দেওয়া হত। তাঁর মায়ের দুই মামা শখের যাত্রা দলে যুক্ত ছিলেন। তাঁরা একদিন দক্ষিনেশ্বর নাট মন্দিরে ফলহারিণী কালী পূজার রাত্রে 'বিদ্যাসুন্দর যাত্রাপালা ' টি করেন। স্বয়ং শ্রীরামকৃষ্ণ সেই যাত্রাপালাটি কিছুক্ষন দেখেন। পরের দিন দুই ভাই চলে আসার আগে শ্রীরামকৃষ্ণ কে প্রণাম করতে গেলেন। ঠাকুর তাঁদের উপদেশ দেন দু-ভাই মিলে -মিশে থাকবেন। তাদের সাথে ঠাকুরের কথপকথনের বিবরণ 'কথামৃতে ' আছে। (২৪.০৫.১৮৮৪)'কথামৃত ' /মহামণ্ডলের আন্দুল -মুড়ি শাখার নবনির্মিত গৃহের দ্বারোদ্ঘাটন -২১শে বানভেম্বর ১৯৯৯ অনুসগঠনে আলোচনারত শ্রদ্ধেয় নবনীদা।

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[7]   

" ঠিক আছে ওকে দীক্ষার জন্যে নিয়ে এসো "

ভবদেববাবু যখনই বেলুড় যেতেন মহাপুরুষ মহারাজকে প্রণাম করতে যেতেন। স্বাভাবিক ভাবেই তাঁর সাথে মহাপুরুষ মহারাজের সেবকের ঘনিষ্ঠতা গেড়ে ওঠেছিলো। একবার এক দীক্ষার দিনে তিনি অপ্রত্যাশিত ভাবে মহাপুরুষ মহারাজকে প্রণাম করতে উপস্থিত হন।  দীক্ষার কথা শুনে তরুণ ভবদেবের দীক্ষা নেবার আকাঙ্ক্ষার কথা জানান। মহাপুরুষ মহারাজ বলেন , " আগে যাদের আসতে বলেছো আগে তাদের হোক , পরে দেখা যাবে। " 

           নির্ধারিত ব্যক্তিদের দীক্ষা গ্রহণ শেষ হলে সেবক মহারাজ মহাপুরুষ মহারাজকে বলেন , " যে ছেলেটিকে আপনি অপেক্ষা করতে বলেছিলেন সে কিন্তু এখনও অপেক্ষা করছে। " " ও বলেছিলাম নাকি ? তাহলে নিয়ে এসো তাকে। " স্মিত হেসে মহারাজ উত্তর দিলেন। এইভাবে তরুণ ভবদেবের মহাপুরুষ মহারাজের আশ্রয় লাভ করলেন।

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[8] 

" মায়ের রঙটা ছিল কালো , কিন্তু উজ্জ্বল " 

       আন্দুলের কয়েকজন স্বদেশী যুবক শ্রীশ্রী মাকে দর্শন করতে বাগবাজারে মায়ের বাড়ি এসেছিলেন। তাঁরা সাথে এনেছিলেন কিশোর ভবদেবকে। মাকে দর্শন করার স্মৃতি আজীবন তাঁর মনের মধ্যে ছিল। ভবদেবের স্মৃতিতে মার্ গায়ের রঙটা মনে হয়েছিলো কালো। পরবর্তীকালে অত্যন্ত আপনজনদের কাছে মায়ের বর্ননা নিতে গিয়ে বলতেন , " মা ছিলেন কালো , কিন্তু এমন উজ্জ্বল কালো আর কোথাও দেখিনি। " সাধক কবি রামপ্রসাদের গানে আছে - 

" মায়ের ভাব কি ভেবে প্রাণ গেল ,

যাঁর নামে হরে কাল , পদে মহাকাল ,

তাঁর কেন কালোরূপ হল।

কালো রূপ অনেক আছে এ বড় আশ্চর্য কালো ,

যাঁর হৃদয়মাঝারে রাখলে পরে হৃদয়পদ্ম করে আলো।। 

প্রথমতঃ স্মরণীয় অগ্নিমুখে অনেক বিপ্লবী মায়ের কাছে অমোঘ আকর্ষনে ছুটে আসত। ভাবলে আশ্চর্য হতে হয় মা দেশের শুধু নয় , বিশ্বের যে কোন ঘটনাকে গভীর প্রজ্ঞা নিয়ে বিশ্লেষণ করতেন।  আর মায়ের এই বিশ্লেষণ করার ক্ষমতা কোন খ্যাতিমান ঐতিহাসিকের থেকে কম ছিলোনা।  

উদাহরণ দেওয়া যাক -প্রথম বিশ্বযুদ্ধ থেমে যাওয়ার পর আমেরিকার প্রেসিডেন্ট উড্রো উইলসন (Woodrow Wilson) ফর্টিন পয়েন্টস ঘোষণা করেন।  মা সারদাকে একজন ভক্ত একথা জানার পর , মা তাঁকে ফর্টিন পয়েন্টস সম্বন্ধে জানতে চান।  সেই ভক্ত মধ্যে থাকা পারস্পরিক শান্তি , সহযোগিতার কথা বলেন।  মা একটু চুপ করে থেকে বলে ওঠেন " বাবা এ শুধুই মুখস্থ কথা , অন্তস্থ নয়। " আমরা জানি বিখ্যাত ঐতিহাসিক E.H.Carও একইভাবে দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের কারন হিসাবে ফর্টিন পেইন্টসের অন্তঃসার শূন্যতাকেই দায়ী করেছেন। একথা মনে রাখতে হবে ঐতিহাসিক  E.H. Car একথা বলেছেন দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের পরে , আর মা সারদা এই বিশ্লেষণ করেছেন প্রথম বিশ্বযুদ্ধের শেষের সঙ্গে সঙ্গেই।  

      এবার এক ভক্ত মাকে জিজ্ঞাসা করলেন , " মা , আমাদের দেশ কবে স্বাধীন হবে ? মা স্পষ্ট ভাষায় বলে দিলেন , " বাবা , তোমরা কি তাদের (ব্রিটিশদের) দেশ থেকে তাড়াতে পারবে ? তা পারবে না। যখন ওদের নিজেদের মধ্যে লড়াই লাগবে তখন তোমরা স্বাধীন হবে। " ইতিহাস প্রমান করে দিয়েছে, বহুদিন আগে মা যা বলে ছিলেন তাই সত্য হয়েছে। দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধ যদি না হত , এবং সেই সুযোগ নিয়ে নেতাজির নেতৃত্বে আজাদ হিন্দ ফৌজ যদি ব্রিটিশদের বিরুদ্ধে লড়াই না করত , তাহলে স্বাধীনতা পেতে আমাদের বহু দিন লাগত। 

আমরা দেখবো ট্রেনে মা ওড়িষার কোঠরে যাচ্ছেন ১৯১৫ সালে , সেই সময় বুড়িবালামে যুদ্ধের প্রস্তুতি নিতে অতি সাবধানে ছদ্মবেশে বাঘাযতীন সেই ট্রেনেই যাচ্ছিলেন। তিনি ভয়ঙ্কর ঝুঁকি নিয়ে চাদরমুড়ি দিয়ে মাকে প্রণাম করতে আসেন। স্তম্ভিত হতে হইয়েই জেনে বাঘাযতীন দুর্ঘষ ব্রিটিশ পুলিশদের ফাঁকি দিতে পারলেও মাকে ফাঁকি দিতে পারেন নি। মা তাঁকে প্রথম দেখলেও বলে ওঠে ছিলেন ছেলেটার চোখ দুটি দিয়ে যেন আগুন বেরোচ্ছে।  প্রথমতঃ মনে পরে একবার বাঘাযতীন স্বামীজীর সঙ্গে দেখা করতে এসেছিলেন। বাঘাযতীন ঘরের প্রবেশের দরজায় দাঁড়িয়ে , আর স্বামীজী বসে আছেন। দুজনই দুজনের দিকে অপলক দৃষ্টিতে দেখছেন। স্বামী অখণ্ডানন্দ বাইরে থেকে এই দৃশ্য দেখে পরবর্তী কালে এই ঘটনার কথা উল্লেখ করে - বলতেন যেন আগুন আগুন কে গিলছে ? তবে কি তিনি বাঘাযতীনের মধ্যে শক্তি সঞ্চার করছিলেন ? যেমন ঠাকুর তার মধ্যে করেছিলেন ? না হলে কেনই বা স্বামীজী স্বামী অখণ্ডানন্দ কে ঘর থেকে চলে যেতে বলে ছিলেন ? মা সারদা কে বিপ্লবীরা কি চোখে দেখত এর একটি উদাহরণ দেওয়া যায় ? ব্রিটিশ পুলিশের হাতে ধৃত ননীবালাদেবীকে অকথ্য অত্যাচারের পর ইন্সপেক্টর গোল্ডি তাঁকে জিজ্ঞাসা করে (কৃত্রিম সহানুভূতি দেখিয়ে) তাঁর কি ইচ্ছা ? ননীবালাদেবী উত্তরে বলেন তাঁর ইচ্ছা বাগবাজারে মা সারদা কাছে থাকা। এরপর তাঁকে একটা দরখাস্ত লিখতে বলা হলে তিনি তা লিখেন। গোল্ডি সেই দরখাস্ত তাঁর সামনে ছিঁড়ে ফেলেন। আহত সিংহীর মত ননীবালাদেবী গোল্ডির গালে সপাট চড় কষিয়ে দেন। বস্তুতঃ ননীবালাদেবী ছিলেন প্রথম মহিলা স্টেট্ প্রিজনার। 

      বহু বিপ্লবী মিশনে সন্ন্যাসী হলে ব্রিটিশ সরকার মিশন কে অত্যন্ত সন্দেহের চোখে দেখতে থাকে।  ভীত হয়ে অনেকেই এদেরকে মিশন থেকে বিতাড়িত করার কথা বলেন। কিন্তু মা এইসব বিপ্লবীদের পাশে দাঁড়িয়ে দৃপ্ত কণ্ঠে বলে ওঠেন , এদের আশ্রয় দেওয়ার জন্যে যদি মিশন ওঠে যায় উঠে যাক , কিন্তু মিশন সত্যের পথ থেকে সরে যাবে না। মনে রাখতে হবে এই মা-ই কিন্তু স্বামীজিকে প্লেগের চিকিতসার খরচ তোলার জন্যে মঠ বিক্রিকরা থেকে নিবৃত্ত করেন।  এই সময় অরবিন্দ ঘোষ তাঁর মাকে দেখা করতে এলে মা বলে ওঠেন "এই ছোটখাট চেহারার লোকটার কত ক্ষমতা। ইংরেজ সরকার এর ভয়ে কাঁপছে। " আলিপুর বোমার মামলায় অরবিন্দ ঘোষকে ফাঁসিতে ঝোলাবার যখন ষড়যন্ত্র হচ্ছে , সেই সময় তাঁর স্ত্রী মৃণালিনী দেবী মার কাছে এলে মা তাঁর মুক্তির কথা বলেন।  মনে রাখতে হবে তখন ও দেশবন্ধু চিত্তরঞ্জনের সেই বিখ্যাত সওয়াল শুরু হয় নি।

 কথিত আছে দেশবন্ধু যখন অরবিন্দের হয়ে সওয়াল করেছিলেন প্রথমদিকে কিছুটা দিশাহারা হয়ে পড়েন। সেই সময় কোর্টের মধ্যে উপস্থিত এক ব্যক্তি তাঁকে একটি চিরকুট এগিয়ে দেন। সেই চিরকুটে এমন কিছু তথ্য ছিল যা তাঁকে সেই মামলায় খুব সহ্য করে। চিরকুটে সরবরাহকারী সেই ব্যক্তিই পরবর্তীকালে পুরীর শঙ্করাচার্য হন। বঙ্গভঙ্গ সময় ইংরেজ সরকার যখন ব্যাপক নির্যাতন করছে তখন মা বলেছিলেন " বাবা নরেন বেঁচে থাকলে ওরা নরেনকে নিশ্চয়ই জেলে পুরত। "  

ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত এই বিষয়ে কয়েকটি চিত্তাকর্ষক সংবাদ দিয়েছেন। পুরীর তৎকালীন জগৎগুরু শঙ্করাচার্য বিপ্লবদের ডাকে সাড়া দিয়ে ছিলেন। ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত তাঁর সঙ্গে কয়েকবার দেখাও করেন।  পরে কটকের কয়েকজন বিপ্লবী নেতার সঙ্গে তিনি শঙ্করাচার্যের আলাপ করিয়ে দেন। 

স্বামীজী একবার বলেছিলেন , " আজ পর্যন্ত ভারতের শাসক শ্রেণী সন্ন্যাসী কে ভয় করেন, পাছে গৈরিক বসনের নীচে আর একজন শিবাজী লুকিয়ে থাকেন। " ভারতের স্বাধীনতা সংগ্রামে স্বামীজীর পূর্বেও অনেক সন্ন্যাসী সক্রিয় ভূমিকা নেন। ১৮৫৭ সালে মহাবিদ্রোহে আর্যসমাজের স্বামী দোয়ানন্দের সক্রিয় ভূমিকা ছিল। সিপাহী বিদ্রোহের প্রাককালে ইংরেজ সরকারের বিরুদ্ধে সন্ন্যাসী ও ফকিররা যে প্রচার কাজ চালান তার প্রমান আছে সরকারের নথিপত্র ও দলিলে। মিরাটের কমিশনের স্যার উইলিয়ামের নোট জানা যায় যে , সন্ন্যাসী ও ফকিরদের মন বিদ্রোহের জন্যে তৈরি হয়। এমনও তথ্য আছে যে , ১৮৫৭ সালের সশত্র  অভ্যূথানের ক্ষেত্রে প্রস্তুতের প্রধান ভূমিকা ছিল দিল্লির যোগমায়া মন্দিরের ত্রিশূলবাবার। ব্রিটিশের কাছে মুক্তিযোদ্ধাদের পরাজয়ের পর স্বামী দয়ানন্দ রামেশ্বরে যান। সেখানে তিনি কয়েকজন সাধুর দেখা পান , যাঁরা দিল্লির যোগমায়া মন্দির থেকে এসেছেন। প্রকাশ , দয়ানন্দ এঁদের মধ্যে ছদ্মবেশী নানা সাহেবকে দেখতে পান। পরে তাঁর নাম হয় স্বামী দিব্যানন্দ।   

মিরাটের কমিশনার উইলিয়ামের নোট থেকে আরো জানা যায় যে , মিরাটের ২০তম নেটিভ ইনফেন্ট্রি সঙ্গে একজন সাধু সদলে থাকতেন। তিনি হাতি চড়ে ঘুরে বেড়াতেন বলে তাঁকে হাতি বাবা বলা হত। 

বাংলার ইন্সপেক্টর জেনারেল অফ পুলিশ স্যার হেনরি ১৮৯৩ সালের অক্টোবরের সরকারি রিপোর্টে সাধু ও সন্ন্যাসীদের রাজনৈতিক তৎপরতা কথা বলা হয়েছে। ১৮৯৬ সালের সেপ্টেম্বরে কলকাতা পুলিশের সার্কুলারে বলা হয়েছে যে , হিন্দু পুনরুত্থানের জন্যে সন্ন্যাসীরা অবাধে প্রচার কার্য চলেছেন।  এই ফাইল থেকে আরো জানা যায় যে , সেনাবাহিনীর মধ্যে ইংরেজদের বিরুদ্ধে বিদ্বেষ জাগিয়ে ভুলতে সাধুদের সক্রিয় ভূমিকা ছিল। উত্তরপ্রদেশ ও ইস্টার্নকমান্ড ভারতীয় সেনাদের সংখ্যা হ্রাস সাধুরা প্রচার করেন। এই সময় রেসিডেন্ট লাইনে সাধুদের প্রবেশ রোধে সরকার ব্যবস্থা নেয়। তখন সৈন্যরা ছুটিতে অমৃতসর ও হরিদ্বার গিয়ে সাধুদের সঙ্গে দেখা করতেন। মহাফেজখানের সংরক্ষিত ফাইল থেকে জানা যায় যে , আর্যসমাজ লাহোর ও হরিদ্বার সাধুদের রাজনৈতিক তালিম দেয়। বিখ্যাত রাজনৈতিক সন্ন্যাসী স্বামী রাজেশ্বরানন্দ বিহার ও উত্তরপ্রদেশের নানা স্থানে ঘুরে ইংরেজদের বিরুদ্ধে উত্তেজনা পূরণ বক্তৃতা দিতেন। 

এক সরকারি নোট বলা হয় , উত্তর ভারতে ধর্মীয় মিশনগুলি কার্যকলাপের জন্যে ভারতীয় রেজিমেন্টগুলির জন্যে সৈন্য সংগ্রহ ব্যাহত হয়। ভুপেন্দ্রনাথ দত্তের পরিচিত এক প্রবীণ বিপ্লবী তাঁকে বলেন যে , একবার হরিদ্বারের কুম্ভ মেলায় বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামী তাঁকে কয়েকজন সন্ন্যাসী দেখিয়ে বলেন যে এঁরা সিপাহী বিদ্রোহে অংশগ্রহণ করেছিলেন। 

যাই হোক , শ্রীশ্রী মা কে প্রণাম করে নীচে নামার সময় বালক ভবদেব দেখলেন একটি ছোট বেঞ্চিতে গা ঘেঁসাঘেসি করে বসে আছেন চারজন stalwart (মহারথী) স্বদেশী যুবকদের সাথে ভবদেব তাঁদের প্রণাম করে তাঁদের দিব্যস্পর্শ লাভ করলেন। বালক ভবদেব প্রণাম করার সময় তাঁদের পরিচয় অতোটা বুঝতে পারেন নি। পরে বাড়ি ফেরার পথে তাঁদের পরিচয় সম্পর্কে বিস্তারিত বলেন সহযাত্রী বিপ্লবীরা। এঁরা হলেন স্বামী ব্রহ্মানন্দ, স্বামী সারদানান্দ , স্বামী ত্রিগুণাতীতনান্দ এবং খুব সম্ভবতঃ স্বামী অখণ্ডানন্দ। 

" যদি শান্তি চাও , মা , কারও দোষ দেখো না।  .......শ্রীশ্রী মা সারদা।  

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[9] 

" এসব ঘটনা আমাদের চোখের সামনে ঘটেছে " 

        ১৯৬৬ সালের ১লা অক্টোবর ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনিদাকে একটি বই উপহার দেন। বইটির নাম What Vedanta means to me ? বইটি Rider & Company , London প্রথম প্রকাশ করে। পরে সদ্বেত আশ্রমে কলকাতা থেকে Indian Edition রূপে প্রকাশিত হয়। বইটি Aldous Huxley, Christopher Isherwood প্রভৃতি ১৫-১৬ জন জগৎ বিখ্যাত মনীষীদের লেখায় সমৃদ্ধ। ভবদেব বাবু বইটি প্রথমে নবনীদার উদ্দেশ্যে কয়েকটি কথা লিপিবদ্ধ করেছেন। ভবদেব বাবুর সেই লেখা উদ্ধার করা গেছে। তা আমরা পাঠকের কাছে নিবেদন করছি। এই সংক্ষিপ্ত লেখায় আমরা কিছুটা আভাস পাই ভবদেব বাবু নবনী দাকে কি চোখে দেখতেন , তিনি নবনীদার কাছে কি আশা করেন ইত্যাদি। একই সঙ্গে এটাও কিছুটা জানতে পারি ভবদেব বাবুর মন তখন কি কি ভাবে আন্দোলিত হচ্ছিলো। 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল ' সংগঠিত হয় ১৯৬৭সালের ২৫ শে অক্টবর।  এটা লক্ষণীয় যে ভবদেব বাবুর লেখাটি তার এক বছর আগে লেখা। শ্রদ্ধেয় নবনীদার 'sterling qualities ' দেখে ভবদেব বাবু কি বুঝতে প্রেরেছিলেন যে তাঁর স্নেহের 'sriman nabani ' একটা দাগ রেখে যাবেন ?  ১৯৬৭ সালের ১৬ই ফেব্রুয়ারি রবিবার , শ্রদ্ধেয় নবনীদা আন্দুল ঝোড়হাটে তাঁর এক সহপাঠী বাড়ি আসেন। সেইদিন তাঁদের সহপাঠীদের সংঠন 'সতীর্থ মিলন ' মেলার বিশেষ বৈঠক ছিল। বৈঠক শুরু হবার আগে তাঁদের নিজেদের মধ্যে আচার্য শিরীষ চন্দ্রের বয়স্ক ছাত্রদের মধ্যে ভবদেব বাবুর কথা ওঠে। 

সেই সময় শ্রদ্ধেয় নবনীদা সহপাঠীদের বলেন - " অচিন্ত্য কুমার সেনগুপ্ত (বিখ্যাত সাহিত্যিক ও উকিল ) শ্রীরামকৃষ্ণের জীবনীর উপর একটি বই লেখেন - 'পরমপুরুষ শ্রীরামকৃষ্ণ।  ' ভবদেব বাবু মনোমত বই পেলে আগে হেডমাস্টার মশাই শিরীষ বাবুকে পড়তে দিতেন। এই এই বইটি ও তিনি তাঁকে (শিরীষ চন্দ্র ) পড়তে দেন। তিনি বইটি পড়ে বইটির শেষের পাতায় সংক্ষিপ্ত মন্তব্য লেখেন। এই মন্তব্যের মধ্যে এক জায়গায় লেখেন - " অপারে কাব্যসংসারে কবিরেক প্রজাপতিঃ " - ঐতরেয় ব্রাহ্মণ -জগতে যা কিছ দেখছো তা তাঁর কবিতা , তিনিই কবি ! ভবদেব বাবু সেই মন্তব্য অচিন্ত্য বাবুকে দেখান। অচিন্ত্য বাবু পরের বই লেখেন - 'কবি শ্রীরামকৃষ্ণ।  ' এসব ঘটনা আমাদের চোখের সামনে ঘটেছে। "  

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[10] 

তুমি আমাকে একটা ডিমের তা দেওয়া পাখির 

ছবি এনে দিতে পার ? 

     তরুণ ভবদেবের সাধুসঙ্গ করার অভ্যাসই তাঁর ভাগ্যবিধাতা হাজির করলো আর এক মহাপুরুষের চরণতলে। তিনি হলেন কথামৃত প্রণেতা শ্রীম। তখন কথামৃত প্রকাশের কাজ চলছে। 

১৮৮২-এর ২৪ শে আগস্ট দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুর শ্রীম কে যোগীর মনের উদাহরণ দিতে গিয়ে বলেছিলেন ডিমে তা দেওয়া পাখির উদাহরনের কথা।  " যেমন পাখি ডিমে তা দিচ্ছে সব মনটা সেই ডিমের দিকে, উপরে নাম মাত্র চেয়ে রয়েছে ! আচ্ছা আমায় সেই ছবি দেখাতে পারো ? "  

মনি - যে আজ্ঞা।  আমি চেষ্টা করবো যদি কোথাও পাই। (কথামৃত ) শ্রীম - " ঠাকুরের ভাবটির উপর আমি একটি ছবি তৈরী করিয়ে ছিলাম। পাখির একাগ্রতা তন্ময় ভাব নিজের মনে আরোপ করার জন্য ওখানে মাঝে মাঝে ভক্তদের দেখাই। " বস্তুত স্বামী চেতনানন্দের সম্পাদিত 'শ্রীম সমীপে ' গ্রন্থটি তে ১৩১ পাতায় স্বামী ধর্মেশানন্দ 'শ্ৰীমর স্মৃতি তর্পনে ' বলছেন, রবি ( ভবদেব কে উদ্বোধন পত্রিকার সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজের দেওয়া নাম ) অর্থাৎ ভবদেব শ্রীমকে ১৯৩২ সালের ১৩ই এপ্রিল দর্শন করতে গেছেন। সেখানে ভবদেব শ্ৰীমর আদেশে একটি ডিমে তা দেওয়া ছবি তৈরী করে শ্রীমকে দেন। এই ছবিটি বর্তমানে কথামৃতের প্রচ্ছেদ চিত্র রূপে ব্যবহৃত হচ্ছে। 

এই ছবিটি ভবদেব বাবু তাঁর বন্ধু ও সহপাঠী বিশিষ্ঠ চিত্রশিল্পী শ্রী শৈল চক্রবর্তীকে দিয়ে আঁকান।  শ্রী শৈল চক্রবর্তী আঁকা ও লেখা ৭০ -এর দশকে মহামন্ডলের মুখপত্র 'বিবেক জীবন ' -এ প্রকাশিত হয়েছে।  মহামন্ডল প্রকাশিত 'মনঃসংযোগ ' পুস্তিকার প্রচ্ছেদ চিত্রেও এই ছবি ব্যবহৃত হয়।   

2 Photos 

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[11]  

কি করে ভালো সাহিত্য রচনা করবো ? 

হাওড়া যুব সংঘের সভাপতি ছিলেন বিখ্যাত কথাশিল্পী শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়। একবার তিনি যুবক সংঘের আন্দুলের শাখায় উত্তর -মুড়ি খটির অঞ্চলে কোন একটি অনুষ্ঠান উপলক্ষে উপস্থিত হন। সেই সভায় শরৎচন্দ্রের ব্যক্তিগত সুবিধা -অসুবিধা দেখাশোনার ভার পড়ে কিশোর ভবদেবের উপর , শরৎচন্দ্র সপ্রতিভ ভবদেবের আন্তরিক ব্যবহারে মুগ্ধ হন এবং তার সঙ্গে সস্নেহ ব্যবহার করেন। 

সাহস পেয়ে ভবদেবের মনে একটি প্রশ্ন ওঠে , তিনি তাঁর আচার্যদেব শিরীষ চন্দ্র কাছে শিখে ছিলেন -যে মানুষ যে বিষয়ে গুণী তাঁকে সেই বিষয়ে প্রশ্ন করতে হয়।এটাই প্রশ্ন। এর ফলে প্রশ্নকর্তা ও উত্তরদাতা দুজনই সমৃদ্ধ হন। কিশোর ভবদেব কথাশিল্পীকে প্রশ্ন করল কেমন করে আমি ভাল সাহিত্য রচনা করব। 

উত্তরে শরৎচন্দ্র যা বললেন তা শুধু কিশোর ভবদেবের কাছে নয় , যে কোন লেখকের কাছে অত্যন্ত মূল্যবান পরামর্শ। তিনি বলেছিলেন -' মনে যখন কোন ভাব আসবে চেষ্টা করবে সেটা লিখে রাখতে। কিছুদিন পরে সেই লেখা বারকরে পড়বে।  দেখবে মনে অনেক নতুন ভাব আসছে।  সেন্তুলোকেও লিখে রাখবে।  এভাবে কয়েকবারের লেখা দেখবে তাদের মধ্যে কোন সংযোগসূত্র পাওয়া যায় কি না বা সেগুলো একসূত্রে গাঁথা যায় কিনা ? যদি গাঁথা যায় ভেবে দেখবে সেটা পরিবেশন যোগ্য কিনা ? যদি পরিবেশন যোগ্য হয় তাহলে সেটা লিখে ফেলবে। পড়ে দেখবে সেটাই একটা সুন্দর সাহিত্য সৃষ্টি হয়েছে। 

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[12]  

'You are thief Personified ' 

পঞ্চাশের দশকের শেষের দিকের কথা।  একদিন ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনীদার বাড়িতে গেছেন। আচার্য শিরীষ চন্দ্র সঙ্গে কথাবার্তা পর তিনি শ্রদ্ধেয় নবনীদার ঘরে গেছেন। প্রার্থমিক কথাবার্তার পর তাঁদের মধ্যে কি কথা হচ্ছিলো আসুন আমরা শুনি - 

ভবদেব বাবু -নবনী 'শুনেছিলাম তুমি চাকুরীর জন্যে একটা ইন্টারভিউ দিয়েছিলে ' তা কেমন ইন্টারভিউ হল ? 

নবনীদা - ইন্টারভিউ মোটামুটি ভালোই হয়েছে কিন্তু শেষকালে একটা মজার ব্যাপার হয়েছে। 

ভবদেব বাবু - ইন্টার্ভিউয়ে মজার ব্যাপার সে আবার কি ? ব্যাপারটা কি বল দেখি ? 

নবনীদা -ইন্টারভিউয়ের শেষে যে অফিসার ইন্টারভিউ নিচ্ছিলেন , তিনি হঠাৎ গম্ভির ভাবে বললেন " চাকুরীটা তোমার হয়তো হবে। কিন্তু তুমি চুরি-টুরি করবে নাতো ? 

আমিতো আকাশ থেকে পড়লাম।  প্রাথমিক ধাক্কা সামলে আমি জিজ্ঞাসা করলাম - " কেন , আমাকে দেখে কি চোর বলে মনে হয় ? ' তখন সেই অফিসার বললেন " দেখ বাপু দেখে কি সব বোঝা যায় ? দেখে তোমায় তো ভালোই মনে হয়। কিন্তু আমায় ভাবাচ্ছে তোমার নাম , তোমার নাম নবনীহরন , যার অর্থ দাঁড়ায় 'ননীচোর ' সুতরাং ' 'You are thief Personified ' যে ননী চুরি করতে পারে , সে অন্য কিছুও চুরি করতে পারে। বলেই তিনি অট্টহাসিতে ফেটে পড়লেন। এটা বলে নবনীদা ও ভবদেব বাবু দুজনই হাস্তে লাগলেন।  

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[13]

" Leader is born , not made ."

"নেতারা জন্মায়, তৈরি হয় না।"

"नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते ।"

(स्वामी विवेकानन्द का संक्षिप्त चित्रण )

 (An abridged portrait of Swami Vivekananda) 

We are told that a great man is the outcome of revolution, fulfills the revolution and is father of the future ages. Such a great man is suprim most worthy to the mother Earth. And here Swami Vivekananda is the one, and 'indeed he is without a parallel ' in the galaxy of the illustrious souls ever born ! A peerless ideal : a complete and comprehensive specimen of intense action, inaccessible contemplation and deep- seated devotion -firm faith and wonderful forbearance. Over and above , firstly he is a dedicated self to the search for God, and at last is the saviours of humanity both from its mundane and spiritual  chaos - ' a voice without form .'  

He was born as the second son of Biswanath Dutta (1834-84) and Bhubaneshwari Devi (1841-1911) . They lost their first male child that died in infancy ; and in course of time they got ,one after another four daughters ! Evidently the parents had to pray for a son to the Lord Shiva who confers boon according to the prayer of  his devotee .Alfred, Lord Tennyson wrote these powerful words:  

        "More things are wrought by prayer

 than this world dreams of."

       Bhuvaneshwari Devi was a very pious and noble lady. In the midst of her multifarious duties and responsibilities as a housewife of a big joint-family , she prayed silently and in-consistently with severe  austerities  , giving her whole soul over to constant collectedness in the Lord Shiva for the fulfilment of her hearts desire, -so that a son would be born .....Mother alone knows better a mothers heart , and her longing for a son ! " Watch and pray ." [ “Watch and pray so that you will not fall into temptation. The spirit is willing, but the flesh is weak.” ( Matthew 26:41) ]

       Thus after a long expectation , over a decade, the fortunate event took place !  In an auspicious moment - 'brahma muhurtam' Bubaneshwari Devi gave birth to a male child (Jan 12, 1863), while the Sun and the Moon were in the sign of the Zodiac Dhanu (Sagittarius) and Kenya (Virgo ) respectively . Her prayer was brilliantly granted by the Gracious Lord Shiva ! Unbounded joy ushered  into the Dutta-family !

        The period of the birth time of the child had an additional expressive importance , It was a holy day of the annual  festival of Makar -Sankranti. The householder in every house has commenced their scheduled prayers and rituals amidst an agreeable atmosphere of fragrant fumes and  sandal-paste  , enkindled lamp-stand , blowung conches and timely music , -tantamounting to be not only a transcendental  welcome but also a supersensible ovation to a new born child of whom very little was known to the people . 

      But Sri Sri Ramakrishna at Dakshineswar was fully aware of the August advent of the child, who was to carry on the tremendous task to preach the world of his divine discourses during the last quarter of the 19 th Century .

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥  

        Soon it came to pass -the blessed birth of a son in the Datta -house  was heralded in all directions across the locality of Simulia . The neighbours both male and female assembled to see the new -born child . One of them was an aged gentleman. At the very sight of the baby he cried aloud in a state of starting surprise: " Lo ! the baby seems to be a miniature replica of Durga  Prasad 2 probably he is born again in this body . " 

On a subsequent day, an elderly widow Brahmin lady appeared and took up the child endearing with her open arms . She was stunned with amazement and said emphatically : ' How lovely ! Oh ! Bhubaneshwari ! You are really the favourite  of Fortune ! The baby having such a beautiful appearance , and with the very neat and nice shape and size of his limbs , is certainly born of a consecrated soul. He would work in obedience to the will of the Almighty Mother ! ' 

         She continued further exuberantly with her strong belief that the new -born child was source of rare endowments : 'Here you are ! See ! The physiognomy (मुखाकृति)  of the child is superfine . The broad and bright rectangular forehead with glossy black stuff of curling hair seems surpassing the god of love in beauty. The large lustrous crystal clear magnificent eyeballs with deep dark blue consentrated in the center glwoing -serene and sublime . Emitting piercing sparks of fire-volcanic agencies  of courage and profound love and mercy to one and all - a moving Spirit , The heavy and wide lids thereon recall a classic composition of the lotus -petals are amazingly attractive .......

        The hallowed mother Bhuvaneshwari Devi was full of heavenly happiness. Rather she was in a maze ! Indulging endless colorful high hopes ...... Obviously discarding Durgadas , She gave a name to her child - Vireshvar . 3 (It is another name of the Lord Shiva , out of his one hundred and eight denominations.) But the child was popularly known by his nick -name , Bilu and /or Bileh.4 

      On the eve of the long-cherished expectation of a son being fulfilled Biswanath Dutta did bestow the largeness of his charity . He was a renowned Attorney -at -Law of the Calcutta High Court and earned not only enough fortune but also inter -provincial fame. He had a fine coach and pair to drive to his office. One afternoon he was out with the family in his carriage for wandering about the city. 

        Both the coachman and the saice of the carriage were dressed in glistening livery, and gorgeous turbans on their head .They were very amiable fellows of Bihar , and were entrapped  in the handsome appearance with frolicsome behavior of their dearly loving Bilu-Babu. 

          Counterwise Narendranath did also like them very much . He could have his easy access , now and then inside into the stable with their help and cooperation to enjoy the close association of the living horses .He had a  particular passion for the horses besides other per animals and birds. He was also much inclined to hear stories ; and the coachman used to entertain him with fanciful stories , specially of the winged horses , - depicting vividly their physical beauties and majestic movements in flying over the roofs of the house , and even beyond the clouds in the sky !  Narendranath would listen to the grave and fabulous gossips with awe -inspiring interests hoping for a horse of the type to ride on .

        The carriage was running towards the Chowringhee area through the Cornwallis Street (Now the Bidhan Sarni) at a great speed. Narendra, aged hardly about four .was on the lap of his mother looking around the panoramic sights of the Street merrily. But the attention was already arrested by the coachman for his commanding style and dexterity to drive the horses ....... 

Biswanath took much delight over the hilariousness of his beloved son, and burst upon all on a sudden with a caressing look ; " Well , Bileh ! What is your pleasure ! ..... What would you like to be in life ? " All at once Narendranath replied most cheerfully ; " Oh ! a Coachman , father . I would drive strong and smart Horses ."  

" THE APPLE ALREADY LIES POTENTIALLY IN THE BLOSSM ." 

Narendranath's (the would be -Swami Vivekananda's ) primery ambition in life was to become a Coachman ! And in fact he is the Coachman to drive Humanity towards Divinity by transforming himself into diverse forms and divers ways -physically with his all -embrassing prolongoted arms of loving care and services , careful coaches and rational approches ; and spiritually through his mandatory mandates and maxims of piety , probity and personality . 

All these have been ridiculously demonstrate as ' a miraculous Mystic', ' a bewildering Meistersinger', 'a Cyclonic Hindu Monk', 'an orator by Divine right', ' the greatest figure in the Pariyament of Religions'- 'vast lerning, speaking English like a webster', ' the Lion of the day', 'a Neologist of Love and Unity ', 'a Rivivalist of Sevice and Renunciation', 'the paragon of Vedantists', and finally he who has has feelingly asserted himself as 'a condensed India ', An accomplished Acharya  Srimat Swami Vivekananda .   

"ॐ नमो श्री- ज्योतिरालय  विवेकानन्द सूर्ये ! "

भवदेव बनर्जी ,

12 th Dec, '84

Andul-Mauri (Unsani), Howrah.

N.B. - In observance of the hallowed Birthday of the Swamiji it was read out on 12-1-1985 with due solemnity by Sri Gangasankar Mukherjee , President , Pathachakra Library of the locality. 

1. Cf, My father and mother fasted and prayed , for years and years , so that I would be born. -Swami Vivekananda, January,1900. 

2. He was the father of Biswanath Datta , who was his only son, The former renounced the world as a monk when the latter was aged about six months .

3. In all Bhubaneshwari Devi begot four sons and six daughters . The last two issues were sons : Mahendranath (1869-1956) and Bhupendranath (1880-1961).

4.Later on in 1871 at the time of his admission into the Metropoliton Institution , Class 9th (Present Class -VI.) Eng.Department , he was declared by and enrolled in the register of the Institution with the new name Narendranath . But the spelling of it appeared in the admission Reciept of the Institution seems to be very peculior having some allied impotant significance in the greater context of the history : Norendor .In recent times in India , it was Vivekananda alone who preached a geart message . This messeage has roused the heart of the youths in a most pervasive way .That is why this message has borns fruit in service of the nation. " - Rabindranath Tagore , 1928. 

The Message of Vivekananda is a Clarion call of awakening to the totality of Man and that is why it inspired our Youth to the divers course of liberation through service and sacrifices. " - Rabindranath Tagore , 1929.

If you want to know India , study Vivekananda . In him there is nothing negative , everything positive."  Rabindranath Tagore , 1929.

Published on the eve of the 123rd Birthday of Swami Vivekananda, and in welcoming also the momentous mandate declared by the Govt. of India , first of its kind that the Day will be observed as the Natioal Youth Day is reckoned to begin with the International YouthYear, with week-long celebrations. Not only this the Day (the 12 th Jan) wil be featured as the National Youth Week. 

Santosh Kumar Mukherjee, 

Andul-Mauri , Howrah.


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[14] 

মহামিলন 

জনমানসে অবিসংবাদী আর্ত দরদী অক্লিষ্ট কর্ম জনশিক্ষা অধিনায়ক নব নব বেদান্তের প্রবক্তা পরিব্রাজক বিবেকান্দের ব্যক্তিসত্তা অন্তঃস্থলে ছিল চিরশ্যামল অনিন্দ্যসুন্দর সারল্য - চিরভাস্বর চিত্তরঞ্জনী বৃত্তি ও সর্বোপরি চিরপ্রবাহিনী হ্লাদিনী সুরসারিত।  তিনি নদ-নদীর মহাবেগে সমুদ্রাভিমুখী প্রধাবন কে - 'বিশাল সুর তরঙ্গ প্রবাহ ' আখ্যা দেন।  কল-কল্লোলিনী অলকনন্দার কুলুধ্বনি শুনে তিনি বলে উঠলেন , 'অলকনন্দা এখন কেদারা রাগে প্রবাহিত হচ্ছে। ' সংগীত ছিল তাঁর জীবন-সাধনার প্রথম সোপান ও অবিচ্ছেদ্য অঙ্গ ; শ্রেয়ঃ ও প্রেয়ঃ উভয়বিধ অভীষ্টের একমাত্র উপবন। সঙ্গীত বিদ্যায় চরমোৎকর্ষ লাভে তিনি হয়েছিলেন পরিপূর্নতার সৌন্দর্যে সৌন্দর্যবান ও সর্বজন প্রিয় ; পেয়েছিলেন পরমতম পুরস্কারস্বরূপ 'আউটরবৃষ্ঠ ' শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণদেবের নিবিড়তম নৈকট্য -অন্তঃরঙ্গতম সঙ্গ। পরিশেষে ঘটে সুনির্দিষ্ট পরিণীতি -' A tremendous upheaval of the whole life '- এ তাঁর নিজেরই স্বতঃস্ফূর্ত স্বীকারোক্তি। 

'নীতিসিদ্ধের থাক ' নরেন্দ্রনাথ (স্বামী বিবেকানন্দ)নৈসর্গিক নিয়মে শৈশব হতেই সঙ্গীতের প্রতি- বিলক্ষণ আকর্ষণ অনুভব করতেন। সঙ্গীত অনুশীলন করাও যেমন ছিল তাঁর পক্ষে অনায়াসসাধ্য , তেমনই তো পরিবেশনেও তিনি ছিলেন স্বতঃপ্রবৃত্ত। সঙ্গিতালাপন প্রবুদ্ধ করে রাখতো তাঁর সহজাত -সংস্কার -'অনন্তের অধিকারী ' -অতীন্দ্রিয় সত্যের অপরোক্ষানুভূতি। 'অহেতুক দয়াসিন্ধু ' শ্রীশ্রী ঠাকুর নরেন্দ্রনাথের গান শোনেন সর্বপ্রথম কলকতার তাঁর পল্লীতে -এক ঘটনাঘন সন্ধ্যা সমাগমের শুভ সন্ধিক্ষনে -'সন ১২৮৭ সালের হেমন্তের শেষভাগে '-ইং ১৮৮০ অক্টবর। 

নরেন্দ্রনাথ প্রেসিডেন্সি কলেজের ছাত্র -সাধারন -ব্রহ্ম সমাজের সদস্য। সকল বিষয়ে অনুসন্ধিৎসু -সত্যসন্ধ ; শিব সুন্দরের পূজারী বুদ্ধির প্রখরতায় সমুজ্জ্বল ; আস্তিক্যপ্রবণ -আদর্শবাদী। নিষ্কলুষ চরিত্র -সুদৃঢ় চিত্ত ; সহিষ্ণুতার মূর্ত প্রতীক। আভিজাত্য বোধের দন্ত বিদ্রজিৎ মিশুক। 'কাহাকেও care করে না। ' অসাধারন বাকপটু -তা অধিকাংশ সময়ে তিক্ত শ্লেষপূর্ন হলেও অন্তগুঁড় মনোভাবটি আসলে মহাহৃদয়তা ও সহানুহুতির রূপান্তরিত বহিঃ প্রকাশ ! বন্ধু মহলে সর্ব বিষয়ে অগ্রণী -বাগ্বিতণ্ডা , আলাপ আলোচনা আনন্দ-উচ্ছাস , আশাভরসার পরশমনি ; বেপরোয়া জেদি , সদানন্দ মধুকন্ঠ গায়ক। কিন্তু অন্তরে তাঁর জীবন এক মহাপরিবর্তনের সম্মুখীন। নিভৃত হৃদয় গুহায় নিবাত -নিষ্কম্প দীপশিখা -ঈশ্বর কোথায় ! কেমন ! তাঁকে দেখা যায় কি -না ?  

পড়াশোনা , সংগীত চর্চা, ধ্যান-ধারণা ইত্যাদির উপযুক্ত স্থান বিবেচনায় , নরেন্দ্রনাথ মাতামহীর বাড়ি (৭নুং রামতনু বসুর গলি) -র দোতালায় একখানি অল্প পরিসর গৃহে একা থাকেন। দু-বেলা আহারাদির সময় কেবল নিজ আলয়ে যান। যে গৃহে তিনি থাকতেন তার সিঁড়িটি বাড়ির সুমুখে বাইরের দিকে একচালু -নাম দিয়েছিলেন 'টঙ'; তাঁর জীবন জিজ্ঞাসার আদি যজ্ঞ ক্ষেত্র। এখানে পরমহংসদেব পদার্পন করেছিলেন কয়েক বার (১৮৮২-৮৩)

পরমহংস শ্রীরামকৃষ্ণদেব একাদিক্রমে আটমাস যাবৎ কামারপুকুর অঞ্চলে অবস্থান করেন -ইং ১৮৮০ , ৩রা মার্চ হতে ১০ই অক্টবর পর্যন্ত। ... লোকপারম্পরায় পরমহংসদেবের স্বদেশ হতে পুনরাগমনের বার্তা শুনে তাঁর অন্যতম চিহ্নিত ভক্ত সুরেন্দ্রনাথ মিত্র (১৮৫০-৯০)১ দক্ষিনেশ্বরে উপস্থিত হন আসন্ন এক অপরাহ্ণ ; ব্যাকুল অন্তঃকর্ণে -অফিসের অসমাপ্ত কাজকর্ম ফেলে -শারদীয়া বিজয়া দশমী পর। এঁর প্রাকৃত নাম -সুরেশ চন্দ্র ; ঠাকুর স্নেহভরে তাঁকে 'সুরেন্দ্র ' বা 'সুরিন্দর ' বলে সম্ভাষণ করতেন। দিব্যভাবরুধ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁকে দেখেই স্নিগধ হাসি হেসে বললেন , 'এই যে , সুরেন্দ্র ! তোমার কথাই ভাঙছিলুম ! আমি যে তোমার ওখানে যাবো বলে এক্ষণে যেওনা হচ্ছি। '

অপ্রত্যাশিত এ হেন সম্ভাষণ ও অভূতপূর্ব সুযোগ সুরেন্দ্রনাথ আশ্চর্যান্বিত , তেমনই আনন্দে আত্মহারা হয়ে শ্রীশ্রী ঠাকুরকে জানান , 'বেশ তো ! এ তো আমার পরম সৌভাগ্যর কথা। চলুন , আপনাকে আমরা গাড়িতে করে এখুনি নিয়ে যাব। ' 

মহানন্দে মঙ্গলময় শ্রীরামকৃষ্ণদেব পাইছিলেন সুরেন্দ্রনাথের মনলালয়ে -সিমলা স্ট্রিট। ২ দেব বশে তাঁর এই শুভাগম উপলক্ষে সেদিন সুরেন্দ্রনাথের গৃহে বিশেষ ভক্তসমাগম বা কোন উৎসবের আয়োজন সম্ভবপর হয় নি। প্রতিবেশী বন্ধু ও ঠাকুরের ভক্ত -গোষ্ঠীর বিশিষ্ট মুখপাত্র ডাঃ রামচন্দ্র দত্ত প্রমুখ দু-একজন মাত্র শ্রীশ্রী ঠাকুরের আদর -আপ্যায়নে সহযোগিতা করেন। ঠাকুর গান ভালোবাসেন , কিন্তু তার কোন ব্যবস্থার সম্ভাবনা সুদূর পরাহত। 

সহসা সুরেন্দ্রনাথ মনে পড়লো : নরেন তো বেশ গায় ! গলাটি তার ভারী মিষ্টি। তিলার্ধ বিলম্ব না করে তিনি দ্রুত চলে গেলেন তাঁর অন্বেষনে। সুরেন্দ্রনাথৰ ডাক শোনামাত্র নরেন্দ্রনাথ নেমে এলেন 'টঙ' হতে। তাঁর প্রস্তাবও তিনি সানন্দে সম্মতি জ্ঞাপন করলেন কোনরূপ অজুহাতের অবতারণা না করে। সঙ্গীত আলাপনে তিনি সততই উৎসুক। তার উপর বিশেষ আগ্রহ সহকারে তাঁকে আহবান করেছেন তাঁর প্রতিবেশী সম্ভ্রান্ত মিত্র মহাশয় -তাঁর গুরুদেব কে গান শোনাতে।  সদাহারনতাঃ প্রতিবেশী বয়োজ্যেষ্ঠ বনেদি কুলতিলকগন নরেন্দনাথকে খুব ভালো চোখে দেখতেন না - তাঁর আপাতবিরুদ্ধ 'বোহেমিয়ান ' -সুলভ হাবভাব দরুন। নরেন্দ্রনাথের সঙ্গীত সম্বন্ধেও তাঁরা ছিলেন অনুৎসাহী। তখন তিনি গাইতেন বেশির ভাগই হিন্দি-উর্দু -ফার্সি ভাষায় রচিত গান -সহজ-সরল ভবোজ্জ্বল (ভক্তিমূলক ) গজল -টপ্পা ঠুমরি , অল্পসল্প ক্লাসিকাল (হিন্দি ধ্রুপদ খেয়াল)এবং 'দু-চার খানি ' ব্রাহ্মসমাজের বাংলা গান। যাই হোক -তিনি সুরেন্দ্র-নাথের সঙ্গেই এলেন তাঁর আলয়ে। 

' শুদ্ধসত্ব '  নরেন্দ্রনাথকে নয়নগোচর হওয়া মাত্রই সুদক্ষ আবিষ্কারকের ন্যায় শ্রীরামকৃষ্ণদেব অধীর হয় ওঠেন বিস্ময়ে ; মহা আনন্দে -ভাবে -প্রেমে। ব্যস্ত হন তাঁর পরিচয় লওয়ার জন্যে।  'Who ever loved that loved not a first sight ?' -একদৃষ্টে তিনি অবলোকন করতে থাকেন তাঁরা সৌম্য-শান্ত-কোমল কান্তি, নির্মল শরচন্দ্রসম মুখশ্রী ! .... আলাউকিক , গুরু -অলৌকিক শিষ্য -অলৌকিক যোগাযোগ। 'ধ্যানসিদ্ধ ' মুক্ত-স্বভাব নরেন্দ্রনাথ আসরে বসে কালক্ষেপ না করে গান গাইতে আরাম্ভ করলেন তানপুরা সহযোগে -সমস্ত প্রাণ-মন টেলে ; তেজোদ্দীপ্ত করুণাদ্র কণ্ঠে -সুরের সস্মহনা -মূর্ছনায় ! সেই উদাস ভাবব্যাঞ্জক পরিপ্রশ্নের আকুতিতে ভরা গান শুনে ভাবগ্রাহী ভগবান শ্রীকরামকৃষ্ণদেব আবিষ্ট হয় পড়েন।  

নরেন্দ্রনাথ প্রথম গান গাইলেন অযোধ্যানাথ পাকড়াশীর রচিত -'মন চল নিজ নিকেতনে '- সুরট -মল্লার সুরে একতালে ; দ্বিতীয় গান গাইলেন , রাগিনী 'মুলতান -আডাঠেকা', রচনা বেচারাম চট্টোপাধ্যায় -'যাবে কি দিন আমার বিফলে চলিয়ে ? '  

গান শেষ হলে অনান্যসাধারন সংগীত -পিয়াসী পরমহংসদেব মহাপুলকভরে ও প্রশংসমান আবেগে বললেন , 'বাঃ ! বাঃ ! খাসা ছেলে ! হ্যাঁ -এমনটিই তো চাই। ... তা একদিন ওখানে , দক্ষিনেশ্বরে যেওনা।  যাবে তো ? যেও কিন্তু !' 

নরেন্দ্রনাথ নিতান্ত সাধারণ সৌজন্য বোধেই ঈষৎ গ্রীবা সঞ্চালনে সস্মতি জানিয়ে বিদায় নিলেন -দুর্জ্ঞেয় এক ভাবাবেশ ! শ্রীরামকৃষ্ণ -লোকের আলাউকিক আধ্যাত্মিক আবেদন অজ্ঞ ও উদাসীন নরেন্দ্রনাথ বাড়ি ফেরেন শুভ্র -শরৎ -শশীর আলোছায়ার আবর্তে ! সুবিশাল মহা গৌরবোজ্জ্বল ভবিতব্য রয়ে গেল অদূর ভবিষ্যতের হিরন্ময় গর্তে !  

দেখতে দেখতে বহু ঘটনা পরম্পরার মধ্যে দশ -এগার মাস অতিবাহিত হয় গেল।  ১৮৮১ সাল শেষ হতে চলল। এফ.এ পরীক্ষায় নরেন্দ্রনাথ দ্বিতীয় বিভাগে পাশ করলেন। আত্মীয় স্বজন সকলেই আনন্দে উৎফুল্ল -উৎসবমুখর ; শীঘ্রই তাঁর বিবাহও সুসম্পন্ন হবে। নরেন্দ্রনাথ এ প্রস্তাব শুনে পরিষ্কার ভাবে অসাম্মতি জানান। আপাদৃষ্টিতে তাঁকে পড়াশুনায় মগ্ন , ব্রাহ্মসমাজে ও সভা-সমিতিতে যোগদান অনুরক্ত , বন্ধু -বান্ধবদের সঙ্গে ক্রীড়াকৌটিকে ও সংগীত চর্চায় মশগুল মনে হলেও -তাঁর অন্তঃকরণের অভ্যন্তরে ছিল নিরন্তর এক নিদারুন অস্বস্তি -দুশ্চর আকাক্ঙ্খা ঈশ্বর প্রত্যক্ষীভূত হয় কি না ? ঈশ্বরিক সত্তার নিঃসন্দিগ্দ্ধ স্বীকৃতিই তাঁর একমাত্র কাম্য। আবাল্য এই সংশয় ও নোৱাশ্যের নিস্পত্তিকরনে ব্যর্থতার পর ব্যর্থতার নরেন্দ্রনাথ অধিকতর অস্থির -চিত্ত ! বসুন্ধরা বক্ষে উপ্ত বীজ কালচক্রের গন্ডিতে আবদ্ধ -অব্যক্ত বেদনায় নির্জিত ! জাগতিক ঈষণীয় সকল বিষয়ে তিনি নিঃস্পৃহ ও নির্লিপ্ত ; জীবনের উদ্দেশ্য সাধনে -আদর্শগত সিদ্ধান্তে অটল ও অনমনীয় -'শরীরং বা পাতয়ামি , মন্ত্র্যং  বা সাধযামি। '

এতাদৃশ পরিস্থিতির মাঝে নরেন্দ্রনাথের পিতার নির্দেশানুক্ৰমে পূর্বোল্লিকঘিত ডাক্তার রামচন্দ্র দত্ত (১৮৫১ -৯৯) নরেন্দ্রনাথ কে খোলাঝুঁকিভাবে জিজ্ঞাসাবাদ করেন তাঁর পারিবারিক মনোভাবের বিষয়। রামচন্দ্র ছিলেন নরেন্দ্রনাথের মাতা ঠাকুরানীর দূরসম্পর্কীয় মাতুল; নারকেল ভাঙ্গা নিবাসী নৃসিংহ প্রাসাদ দত্তের পুত্র। শৈশবে মাতৃহীন ও আবস্থা বিপর্যয়ে রামচন্দ্র ক্যাম্পবেল মেডিক্যাল স্কুলে অধ্যান কালব্ধি (আনুমানিক ১৮৭১-৭২পর্যন্ত ) নরেন্দ্রনাথের পিত্রালয় অবস্থান করেন। অশেষ গুণান্বিত প্রিয়দর্শন নরেন্দ্রনাথ তাঁর খুবই প্রিয় অনুগত।   

নরেন্দ্রনাথের অন্তরের ঐকান্তিক বাসনা এবং তা পূরণে কঠোর জীবনযাত্রার আচরণবিধি ও অকাট্য যুক্তিপূর্ন সিদ্ধান্ত সমূহ শুনে ও মর্মার্থ হৃদয়ঙ্গম করে রামচন্দ্র দৃঢ় প্রত্যেযে বললেন , ' ভাই , আমি তোমার সঙ্গে একমত। আর আমি তো তোমাকে তোমার ভূমিষ্টকাল হতে সবিশেষ লক্ষ্য করে আসছি। তবে , প্রাকৃত সত্যলাভ করতে হলে ব্রাহ্মসমাজে -এখানে -ওখানে ছুটাছুটি না করে দক্ষিনেশ্বরে ঠাকুর রামকৃষ্ণের নিকট চল।

 রামদার মুখে শ্রীরামকৃষ্ণদেবের কথা শোনামাত্রই নরেন্দ্রনাথ সবিস্ময়ে চমকে উঠলেন ! যুগপৎ সমস্ত ঘটনা -সুরেন্দ্রনাথ মিত্রের বাড়িতে তাঁকে দর্শন ; ব্রাহ্মসমাজে ও পত্র-পত্রিকায় ৩ তাঁর অকল্পনীয় ভক্তি বিশ্বাসের আলোচনা ; কলেজে অধ্যাপক হেস্টিংস সাহেবের নিকট তাঁর সমাধির কথা এক মুহূর্তে গভীর মনোনিবেশ সহকারে পর্যালোচনা করে এবং পারিপার্শ্বিক পরিবেশের পরিবর্ধমান পীড়নের বাধ্যবোধকতায় তিনি সমস্ত হলেন দক্ষিনেশ্বরে যেতে। তমিস্র ঝঞ্ঝাক্ষুব্ধ তাঁর অন্তর উৎসাহিত হল দিগন্ত প্রসারী প্রশান্ত অরুণোদয়ের যানবদ্যি আভায় !

সময় -সুযোগমত সত্বর শ্রীরামকৃষ্ণ সকাশে যাবার দিন স্থির হল : '১৮৮১ , ডিসেম্বরের শেষাশেষি ' -সন ১২৮৮, 'পৌষমাস ' -এর প্রথমার্ধ। নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে ছিলেন রামচন্দ্র দত্ত , সুরেন্দ্রনাথ মিত্র ও তাঁর দু-জন বন্ধু।ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শশ ব্যস্তে হর্যাটফুল নয়নে নয়নাভিরাম 'নব -ঋষি ' নরেন্দ্রনাথ কে আদর অভ্যথনায় আকুল। এই দ্বিতীয় সাক্ষাৎকার বা মহামিলন দুজনকেই করে ভূতল উন্মুখ -এক অনির্বচনীয় আকর্ষনে -অনাবিল আনন্দে ! পরস্পর একে অন্যের ভিতর করলেন এক সুবহিত মকরনদের অঘ্রান ! নরেন্দ্রনাথ অন অনাহুত পূর্ব প্রীতির পরিশীলনে - অনাস্বাদিত দ্ব্যানুভূতি আবেশে অভিভূত ! তাঁর হৃদয় আশার আলোকে আলোকিত -পুলকিত , কিন্তু দ্বিধামুক্ত নয়। ... যাত্রটি নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে ঠাকুরের অভিনব বিস্ময় -বিমিশ্র সুদীর্ঘ সন্তোষনের দু -একটি যুক্তিবিশেষ সবিশেষ স্মর্তব্য : তিনি পূর্ব পরিচিটের ন্যায় নরেন্দ্রনাথের হাত ধরে আনন্দাশ্রু বিসর্জন করতে করতে স্নেহগলিত কণ্ঠে তাঁকে বলেছিলেন -'এতদিন পরে আস্তে হয় ? আমি তোমার জন্যে কিরূপ প্রতীক্ষা করে রয়েছি তা একবার ভাবতে নেই। ... আমার কথা কি এমনিভাবে ভুলে থাকতে হয় ! ' -ইত্যাদি কত অনুযোগ -আকুলতা - অনাসৃষ্টি আচরণ ও অভিনব আত্মীয়তা।  নরেন্দ্রনাথ বিস্ময়াবিষ্ট -হতবাক ! ......  

শ্রীশ্রীঠাকুর অত্যন্ত প্রীতি ও সাশ্রুনয়নে গাঢ়তর কণ্ঠে নরেন্দ্রনাথকে অনুরোধ জানালেন , ' বল শিগগির একদিন এখানে আসবি ? কিন্তু আসবি একা -সঙ্গে কাউকে আনিস না।  বুঝলি ? '    

এড়ানোর কোন উপায় না দেখে অগত্যা নরেন্দ্রনাথ 'এসব ' -বলে অঙ্গীকার বোধ হলেন এবং এবার কেন্দ্র ভারতবর্ষ 'এর বীজও হল অঙ্কুরিত !

NB. 

1 . (ক) ইনি ডাঃ রামচন্দ্র দত্ত ও মনমোহন মিত্রের পরামর্শে ও পীড়াপীড়ি তে ১৮৮০ সালের প্রথম ভাগে দক্ষিনেশ্বর পরমহংসদেবের সানিধ্যলাভ করেন। (খ) রামচন্দ্র ও মনমোহন ব্রহ্মানন্দ কেশবচন্দ্র মনের 'পরমহংসের উক্তি সহ তাঁর ' The Indian Mirror ' ও 'ধর্ম্যতত্ত্ব ' পাঠে উৎসকতা প্রবেশ হয় শ্রীরামকৃষ্ণদেবের সামিপে উপস্থিত হন শ্যামাপূজার দিন ইং ১৮৭৯ , বৃহস্পতিবার অপরাহ্ন। (গ) রামচন্দ্র দত্ত এর সঙ্গে পরমহানদেবের প্রথম মিলন হয় ১৫ ই মার্চ ১৮৭৫। 

২. উক্ত ভবন টি 'বিবেকানন্দ রোড ' নির্মাণে নিশ্চিন্হ ; উহার অবস্থিতি ছিল 'দত্তবাড়ি ' দক্ষিণ-পশ্চিম করে। 

৩. 'The Indian Mirror ', ' The Theistic Quaterly Review ' ধর্মতত্ত্ব' 'সুলভ সমাচার' ইত্যাদি।   

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[অধীতি বোধাচরণ প্রচারনে] 

“अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” 

(अध्ययन- बोध एवं व्यवहार द्वारा प्रचार)

(অধ্যন বোধ ও আচরণের দ্বারা প্রচার )

স্বনামধন্য় শিক্ষণব্রতী শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায় (১৮৯১-১৯৬৬) এবং তত্ত্বদর্শী 'উদ্বোধন ' সম্পাদক শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ (১৮৯১-১৯৫৬) মহারাজ -দুজনই ছিলেন ভবদেব বাবুর হৃদয়ে বিশেষ শ্রদ্ধার আসনে অধিষ্ঠিত , পূজনীয় ব্যক্তিত্ব। 

তাঁরা দুজনই ভবদেব বাবুকে বিশেষ স্নেহ করতেন , আচার্য শিরীষ চন্দ্র ভবদেব বাবুকে 'দেব ' বলে ডাকতেন। ভবদেব বাবুকে লেখা শিরিশচন্দ্রের চিঠি পত্রে এর প্রমান পাওয়া যায়। অপর দিকে স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজ ভবদেব বাবুকে 'রবি ' বলে ডাকতেন। উদ্বোধনের একটি সংখ্যায় স্বামী বাসুদেবানন্দ একটি ইতিহাস নির্ভর কল্প কাহিনী প্রকাশ করেছিলেন। সেই কাহিনীতে একটি চরিত্র ছিল যার নাম 'রবি।' স্বামী বাসুদেবানন্দ এর বেশ কয়েকটি পুস্তক শ্রীরামকৃষ্ণ বাসুদেবানন্দ সংঘের উদ্যোগে প্রকাশিত হয়। কয়েকটি উল্লেখযোগ্য পুস্তক হল - দিব্য বাণীর প্রতিধ্বনি ', অন্তর রাগে আলাপন ', শ্রীরামকৃষ্ণ স্মৃতি সাধুকরী। ', এই সকল প্রকাশনের সঙ্গে ভবদেব বাবু বিশেষভাবে যুক্ত ছিলেন।

'বিবেকানন্দ পাঠচক্র ' ছাড়া আন্দুল -মুড়ি তে 'বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ ' নামে একটি সংগঠন ছিল। এই সংগঠনের সম্পাদক ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় এবং সভাপতি ছিলেন পূজনীয় শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ। ভবদেব বাবুর বিশেষ আগ্রহে স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজ বহুবার আন্দুল -মুড়ি তে পদার্পন করেন। মহিয়াড়ি সাধারণ পুস্তকালয়ের ' Visitors Book ' থেকে সংগ্রহ করে ভবদেব বাবু আমাদের জন্যে রেখে গেছেন তত্ত্ব ও তথ্য যা খুবই মূল্যবান। ভবদেব বাবু নিজের হাতের লেখা সেই সংগ্রহটির Photo Copy আমরা শ্রদ্ধাশীল পাঠকের কাছে নিবেদন করলাম , যার ঐতিহাসিক মূল্য অপরিসীম। ভবদেব বাবু স্বামী বিবেকানন্দের সন্ন্যাসী শিষ্য স্বামী বোধানন্দ ও স্বামী বিমলানন্দ বিশেষ স্নেহ ধন্য ছিলেন। 

আন্দুল মৌড়িতে স্বামীজীর প্রত্যক্ষ শিষ্য স্বামী বোধানন্দের স্মরণে বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ প্রতিষ্ঠিত হচ্ছিলো। সেই সংঘের Letter Pad এর একটি পাতা আমরা পেয়েছি। আন্দুলের সঙ্গে স্বামী বোধানন্দের কয়েকটি যোগসূত্র আমরা জানতে পেরেছি। পাঠকের কাছে আমরা তা সবিনয়ে নিবেদন করছি - যা আন্দুলের সাথে তাঁর যোগসূত্রের প্রমান দে।

উদ্বোধন থেকে প্রকাশিত 'স্বামীজীর পদপ্রান্তে ' শীর্ষক পুস্তক থেকে আমরা জানতে পারি যে স্বামীজীর দুই সন্ন্যাসী শিষ্য স্বামী বোধানন্দ ও স্বামী বিমলানন্দ ছিলেন পূর্বাশ্রমে জাঠতুতো -খুড়তুতো ভাই। তাঁদের উভয়ের জন্মস্থান হাওড়া জেলার জগৎ বলভ পুর থানার বাগঙ্গা গ্রামে। দুই ভাইয়ের মধ্যে খুবই সদ্ভাব ছিল এবং তাঁদের চরিত্র মাধুর্যের জন্যে তাঁরা সকলেরই বিশেষ আদরণীয় হয় ওঠেছিলেন। স্বামী বোধানন্দের পিতার নাম শিব নারায়ন চট্টোপাধ্যায় ও স্বামী বিমলানন্দের পিতার নাম বেণীমাধব চট্টোপাধ্যায়। শিবনারায়নের কনিষ্ঠ ভ্রাতা বেণীমাধব। বেণীমাধব চট্টোপাধ্যায় মহাশয় পরে আন্দুলে বাস করতেন এবং কলিকাতার পটলভাঙ্গায় ক্যাথিড্রাল মিশন লেনেও নিজের বাড়িতে মাঝে মাঝে থাকতেন। স্বামী বোধানন্দ ও বিমলানন্দ ছিলেন যেন হরিহর আত্মা। সুতরাং একথা বলা যায় ভাই বিমলানন্দের সঙ্গে বোধানন্দ ও আছরাবস্থায় আন্দুলের আকর্ষনে ধরা পড়েন।   

অপর দিকে ভবদেব বন্দোপাধ্যায় লিখিত 'বেলুড় মঠ  আন্দুলের কালীকীর্তন ' শীর্ষক প্রবন্ধ থেকে আমরা জানতে পারি - " তিনি (স্বামীজী )....... শ্রমিক সমিতির সভ্যগনের সমাদর গীত প্রেমিকের গীতাবলী প্রথম শোনেন তাঁহার তরুণ সন্ন্যাসী -শিষ্য স্বামী বিমলানন্দ (খগেন মহারাজ পূর্বাশ্রমের সম্বন্ধে প্রেমিক বংশীয় দৌহিত্র ) এর প্রচেষ্টায় ১৮৯৮ সালের ২৮ শে ফেব্রুয়ারি বেলুড় দাঁয়েদের ঠাকুর বাড়িতে। দিনটি ছিল -শ্রীরামকৃষ্ণ জন্ম মহোৎসবের দিন।  ' এই লেখা থেকে অনেক কিছু জানার সঙ্গে আমরা ওটাও জানতে পারি যে স্বামী বিমলানন্দ ও আন্দুলের শ্রীশ্রী প্রেমিক মহারাজ -এর মধ্যে একটি পারিবারিক সম্পর্ক ছিল। মনে হয় এই সমস্ত কারনে আন্দুলের সাথে তাঁর গভীর যোগাযোগ গড়ে ওঠেছিল , এবং এই কারণেই ভবদেব বাবু ও প্রমুখ বোধানন্দ অনুরাগীবৃন্দ আন্দুল-মৌড়িতে বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ স্থাপন করতে উদ্যোগী হয়েছিলেন। 

আন্দুল-মৌড়ির গর্ব বর্তমান শতাব্দী প্রাচীন মহিয়াড়ি পাবলিক লাইব্রেরির সঙ্গে ভবদেব বাবুর অনেক দিনের সম্পর্ক। এই লাইব্রেরি যাতে সরকারি অনুদান পায় তার জন্যে এর পরিচালন নিয়মাবলী লেখার প্রয়োজন হয়। এই গুরুদাযিত্ব হয় ভবদেব বাবুর উপর। বলাবাহুল্য , ভবদেব বাবুর একান্তিক নিষ্ঠা সহকারে এই দায়িত্ব পালন করেন। ১৯৬৯ সালে মহামন্ডল প্রতিষ্ঠিত হবার পর এর গঠনতন্ত্র ও নিয়মাবলী লেখার প্রয়োজন হয়। ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনী হরণ মুখোপাধ্যায় মহাশয়কে তাঁর কাজের সুবিধার জন্যে মুড়ি  লাইব্রেরির Constitution এর একটি copy প্রদান করেছিলেন। ভবদেব বাবু বেশ  কয়েক বছর মুড়ি লাইব্রেরির সম্পাদক ও পরে সভাপতির দায়িত্বভার বহন করেন। 

বোধানন্দ স্মৃতি সংঘের একটি motto ছিল ' অধীতি বোধাচরণ প্রচারন ' অধীত বিদ্যা পূর্নতা পায় বোধের মধ্যে। এই বোধ প্রসঙ্গে শ্রদ্ধেয় নবনীদা অপূর্ব ব্যাখ্যা করেছেন - ' এই বোধের ক্রমোন্নতি -এটাই হল ধর্মের আসল কথা। "   

স্বামী চেতনানন্দ সংকলিত 'কল্পতরু শ্রীরামকৃষ্ণ ' পুস্তকে স্বামী বুদ্ধানন্দএর একটি প্রবন্ধ আছে। সেই প্রবন্ধ থেকে শ্রীশ্রী মা সম্বন্ধে তাঁর কথা দিয়ে আমাদের লেখা শেষ হবে। স্বামী বুদ্ধানন্দ লিখছেন - " এমন লোক কে আছে চরাচরে একজন , যে আমাদের মা কে দেখেছে অথচ যার দৃষ্টি পরিচ্ছিন্ন হয়নি ? জেগে ওঠেনি ভিতরে একটি ঘুমন্ত শুভ শক্তি ? ক্রিয়াশীল হয়নি অন্তরে একটি শিব -সঙ্কল্প ? " 

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श्रीश्रीरामकृष्णो अधीति ।  

'अधीति बोध आचरण प्रचारणैर। '   

Bodhananda Smriti -Sangha 

ANDUL -MAURI , HOWRAH , WEST BENGAL 

SWAMI BODHANANDA 

"ठाकुरदेव की इच्छा, श्रीश्रीमाँ के आशीर्वाद और स्वामीजी की प्रेरणा से महामण्डल की स्थापना हुई है। " --नवनीहरन मुखोपाध्याय।     

" ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রীমায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় 

মহামন্ডলের  সৃষ্টি হয়েছে। "--নবনীহরন মুখোপাধ্যায়   

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पंचपदी शिक्षण पद्धति (Panchpadi teaching method): प्राचीन भारतीय संस्कृति की गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी शिक्षण पद्धति कह सकते हैं। पंचपदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया। पाँच पद इस प्रकार हैं- अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । पहला पद है -अधीति यानि अध्यन । अध्येता (student या छात्र) किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगोंं की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण (hearing), दर्शन (seeing), निरीक्षण (observing) । परीक्षण (testing) अधीति है। परंतु अधीति (अध्यन)  मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है

 अध्यन का दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना (understanding-ज्ञान) जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है । इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह बोध अध्ययन का दूसरा पद है । लेकिन अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ ।

अध्ययन का तीसरा पद है-अभ्यास या practice।  सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा एक सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी क्रिया को पुनः पुनः दोहराते रहना इसे ही पुनरावृत्ति (repetition-दुहराते रहना) कहते  हैं । पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का [अर्थात आदत या प्रवृत्ति का निर्माण] हो जाता है और वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । 

अभ्यास (practice) करने से पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि विषय का बोध ठीक से नहीं हुआ और अभ्यास (आदत -practice) पक्का हो गया,  तो गलत बात पक्की हो जाती है । उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि गाने का अभ्यास (practice) चलता रहा तो गीत का गलत स्वर ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्र जीवन में यह दोष तो हम कई बार होते हुए देखते हैं। अतः किसी विषय का अभ्यास करने से पूर्व उसका बोध ठीक होना चाहिए। फिर यदि बोध तो ठीक हो गया परंतु अभ्यास नहीं किया गया तब भी वह विषय जल्दी भूल जाता है । अतः अभ्यास अत्यंत आवश्यक है। किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है (Knowledge becomes harmonious with the personality.)

 उदाहरण के लिए जिसने बचपन में पहाड़ों (multiplication tables) का रोज रोज अभ्यास किया है, तो वह बड़ी आयु में भी उसे भूलता नहीं है  । नींद से उठाकर भी कोई आठ गुने आठ का पहाड़ा पूछे तो हम झट से,अपनी मातृभाषा में सीखा हुआ पहाड़ा अठम-अठी चौंसठ बोल सकते हैं, किन्तु अंग्रेजी में टेबल कहना उतना सरल नहीं होता है। और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने, तैरने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है । अभ्यास से ही  (सद -प्रवृत्ति) की परिपक्वता आती है-(Maturity comes only from practice.)

      अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है- ज्ञान (सत-असत -मिथ्या की समझ) का प्रयोग (Use-उपयोग या आचरण)। ज्ञान (विवेकज ज्ञान) यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और- "happiness of the mind is reflected on the face."चित्त की प्रसन्नता (अनिवर्चनीय समता का भाव) मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ प्रतिदिन ॐकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का वातावरण ही ओमकार की तरंगों से भर जाता है । किसी को कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओमकार का उच्चारण होता है । धार्मिक शास्त्रीय संगीत (religious classical music) का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । 

     प्रयोग (Use या स्वयं पर Experiment)  के बाद पाँचवा पद है प्रसार (propagation) । प्राप्त किए हुए ज्ञान (acquired knowledge) को अन्य लोगोंं तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय (self-study) और दूसरा है प्रवचन (discourse)। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना। स्वाध्याय (Self-study) करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत (शोधन) करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात (assimilated) होता जाता है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है।चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता (छात्र ) अपने आप यह समझने लगता है कि  ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस संदर्भ के अनुसार किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना है । यही अनुसंधान (research) है । इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है ।  स्वाध्याय का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह उन्नत अध्ययन (​​advanced study) का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने अध्यन के विषय को लेकर  अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना । 

Chew and Digest the Knowledge :ज्ञान के प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता (छात्र ) को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ? गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें उडेलती है । बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता है और बछड़े को वह दूध पिलाती है ।                यह घास से दूध बनने की प्रक्रिया (Chew and Digest the Knowledge) अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है यही वास्तव में शिक्षा है । अध्यापक का प्रवचन अध्येता के लिए अधीति/अध्यन  है । एक ओर प्रवचन और दूसरी ओर अधीति के रूप में अध्यापक और अध्येता तथा अध्यापन और अध्ययन जुड़ते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का हस्तांतरण होता है। ज्ञानप्रवाह की शुंखला बनती है। इस शृंखला की एक कड़ी अध्यापक है और दूसरी कड़ी अध्येता । पीढ़ी दर पीढ़ी यह देना और लेना चलता रहता है और ज्ञानधारा अविरल बहती रहती है

       हमारा अनुभव है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले सबके सब अध्यापन नहीं करते । सबके सब पढ़ाते नहीं हैं । वे अन्यान्य कार्यों में जुड़ते हैं । तब प्रवचन का स्वरूप कैसा होगा? अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों के भले के लिए प्रयुक्त करना भी प्रवचन है । ज्ञान का केवल अपने लिए उपयोग करना किसी भी प्रकार से समर्थनीय नहीं है। अपने ज्ञान का यदि किसी के लिए उपयोग नहीं हुआ तो एक प्रकार का सांस्कृतिक अपराध होगा ।

      प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वज ऋषियों के ऋण से मुक्त होता है । जब उसने स्वयं  अधीति से प्रारंभ किया था तब वह पूर्वजों के ऋण को स्वीकार कर चुका था । अब उसने जब दूसरे को ज्ञान दिया या दूसरों के लिए ज्ञान का उपयोग किया तब वह प्रवचन के माध्यम से उस ऋण से मुक्त हुआ । साथ ही उसने अध्येता को अपना ऋणी बनाया । इस प्रकार अध्यापक और अध्येता के मध्य अधीती, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार, और प्रसार से फिर अधीती के रूप में ज्ञानधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है और आवश्यकता के अनुसार समय समय पर परिष्कृत भी होती रहती है । इसे ही चिरपुरातन नित्यनूतन (ancient and eternal) कहते हैं । यही सनातनता का भी अर्थ है ।

         पंचपदी की यह प्रक्रिया अत्यंत सहज होनी चाहिए । परंतु आज उसका जरा भी आकलन नहीं हो रहा है । आज कक्षा-कक्षा में अधिकांश देखा जाता है कि अधीति से सीधे प्रवचन के पद पर अध्यापक पहुँच जाता है। मध्य के बोध, अभ्यास और प्रयोग की कोई चिंता ही नहीं करता ।अध्यापक स्वयं जब अपने लिए चिंता नहीं करता तो छात्र से भी अपेक्षा नहीं करता । इसी कारण से-knowledge becomes useless and unusable.' ज्ञान निर्र्थक और निष्प्रयोज्य बन जाता है । हम देखते हैं कि कौशल हो, विवेक हो या चरित्र  हो, शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति में लगभग कोई अंतर दिखाई नहीं देता । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त शिक्षाप्रक्रिया में और विशेष रूप से आचार्यों की शिक्षा में (Be and Make) नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा में पंचपदी शिक्षण पद्धति को आग्रह पूर्वक अपनाएँ । विद्यालयों के कक्षाकक्षों में होने वाला अध्ययन अध्यापन पंचपदी के रुप में चले इस प्रकार से वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करने की अति आवश्यकता है । 

यहाँ बहुत संक्षेप में पंचपदी के पाँच पदों का विवरण किया गया है । पढ़ने में तो वह बहुत ही सरल लगता है परंतु समझने में अनेक प्रकार से कठिनाई हो सकती है क्योंकि इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन की कल्पना भी आज लगभग कहीं नहीं की जाती है । ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाता है ।

[" ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রীমায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় ১৯৮৫ সালে ১৪ জানুয়ারি 'বিবেকানন্দ জ্ঞান মন্দিরের' সৃষ্টি হয়েছিল ???? ]   

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