इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
>>वानर सेना का लंका में उत्पात और रावण से विषय -भोग छोड़कर प्रभु के शरण में जाने के लिए मन्दोदरी की प्रार्थना।
लंका में वानर सेना के सेनानियों ने उत्पात मचा दिया है, मन्दोदरी की अपने पति रावण से प्रार्थना है कि वो विषय-भोग छोड़कर उन प्रभु की शरण में चला जाए। कोशलाधीश की दया उसे प्राप्त हो जाएगी .....
* सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं॥4॥
भावार्थ : सेतुबन्ध पर बड़ी भीड़ हो गई, इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उड़ने लगे और दूसरे (कितने ही) जलचर जीवों पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं॥4॥
चौपाई :
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥
भावार्थ: - कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गए। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती॥1॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए॥2॥
भावार्थ: - प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुंदर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े॥2॥
सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥ खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलावहिं॥3॥
भावार्थ: - श्री रामजी के हित (सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु- समय की गति को छोड़कर फल उठे। वानर-भालू मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लंका की ओर फेंक रहे हैं॥3॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥ दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥4॥
भावार्थ: - घूमते-घूमते जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं॥4॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥ सुनत श्रवन बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥5॥
भावार्थ: - जिन राक्षसों के नाक और कान काट डाले गए, उन्होंने रावण से सब समाचार कहा। समुद्र (पर सेतु) का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखों से बोल उठा-॥5॥
" महामण्डल का आविर्भाव होना- क्या सत्ययुग के आने का संकेत नहीं है ? "
-श्रीमत स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज
.... ब्रह्मसमाज के केशवचन्द्र सेन जब ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंस) के पास आना प्रारम्भ किये , तब ठाकुर ने उनके विषय में सुना था कि वे ब्रह्मसमाज के आचार्य हैं। वे वहाँ भाषण देते हैं। ठाकुर देव (श्रीरामकृष्ण) भी ब्रह्मसमाज में गए थे , स्वामी विवेकानन्द भी ब्रह्मसमाज में जाते थे और वहाँ ब्रह्मसंगित गाया करते थे। इनके बीच परस्पर एक सम्बन्ध जैसा बन गया था। केशव सेन बीच बीच में दक्षिणेश्वर जाते रहते थे। एक दिन पंचवटी के पास ठाकुर बैठे हुए थे। केशवसेन वहाँ आये, और ठाकुर से बोले - ' मैं आपसे एक अनुमति माँगने के लिए आया हूँ। ' ठाकुर ने पूछा, बताइये - आप किस बात की अनुमति चाहते हैं? उन्होंने (केशव सेन ने) कहा मैं आपका प्रचार करना चाहता हूँ। उनके पास एक पत्रिका थी। और केशव सेन एक बहुत प्रसिद्ध वक्ता भी थे, केवल भारतवर्ष में ही नहीं विदेश तक भी प्रसिद्द थे। वे भाषण देने के कई बार इंग्लैण्ड भी गए थे। इंग्लैण्ड के लोग केशवसेन की वक्तृता सुनकर आश्चर्य चकित हो जाते थे।
वहाँ तो अक्सर प्रोफेसनल वक्ता (पेशेवर वक्ता) लोगों का भाषण होता ही रहता है , आज- कल यहाँ भी शुरू हुआ है, पहले नहीं था। इन दिनों यहाँ भी भाषण देने पर हजार, दो हजार , लेकर भाषण देने वाले अनेकों वक्ता लोग हैं, तथा इस प्रकार के भाषण भी अक्सर आयोजित होते रहते हैं। लेकिन केशव सेन ने जब इंग्लैण्ड में भाषण देना आरम्भ किया तब वहाँ के पेशेवर वक्ता लोग उनपर खिन्न हो गए। ये आदमी भारतवर्ष आकर यहाँ लेक्चर देगा ? यहाँ के अंग्रेज भी उनके अंग्रेजी में दिए भाषण को सुनकर मोहित हो जा रहे हैं ? और हमलोगों का भाषण छोड़कर , उसका भाषण सुनने जा रहे हैं; ऐसा तो चलने नहीं दिया जा सकता। उनलोगों ने एक षड्यंत्र रचा।
भाषण तो कितने ही प्रकार के विषयों पर दिए जा सकते हैं। मेरे ऊपर भी उसका दबाव आ रहा है, उसीकी मुझे याद हो आयी। वहाँ (इंग्लैण्ड में) किसी स्थान पर पेशेवर वक्ताओं ने उन्हें कहा कि -'आपके ऐसा वक्ता तो यहाँ कोई नहीं है , आपको अमुक स्थान पर , अमुक दिन भाषण देने के लिए आना पड़ेगा। ' और प्रतीत होता है , वे भी थोड़े सरल व्यक्ति रहे होंगे ; भाषण देने के लिए सहमत /रजामंद हो गए। किस विषय (subject) पर भाषण देना है, ये सब कुछ नहीं बताया। केशवचन्द्र सेन उनके छल को समझ नहीं सके। उनके मन की बात तो मैं बता नहीं सकता , हो सकता है उन्होंने सोचा हो , मैं तो यहाँ कई बार भाषण दे चुका हूँ ; हो सकता है ये लोग भी उन्हीं बातों को सुनना चाहते हों। अच्छा चलो , चलता हूँ। वहाँ पहुँचकर स्टेज पर बैठाने के पहले कुछ नहीं बताया , लेकिन जब बैठ गए तो - अनांउस करते समय बोल पड़ा, ' केशवचन्द्र सेन भारत के एक धार्मिक संगठन के हेड - (प्रमुख व्यक्ति) हैं-अब वे आपके समक्ष 'कुछ नहीं' (Nothing या 'शून्य') के विषय में भाषण देंगे !' He will speak on Nothing !' (उनके भाषण का विषय होगा - Nothing !) केशवचन्द्र सेन सोचने लगे- ऐसा कोई विषय तो मैंने सुना ही नहीं है ; 'Nothing' (कुछनहीं ) पर क्या भाषण हो सकता है? किन्तु केशवसेन सचमुच एक बड़े कुशल और मँजे हुए वक्ता थे, उन्होंने उसी समय खड़े होकर कहा - " इंग्लैण्ड में बोल रहे हैं; जहाँ अधिकांश क्या - लगभग सभी श्रोता Christian (ईसाई) थे ; उन्होंने कहा -I am very happy ,that I have been asked to speak on Nothing ! I will speak on 'Trinity' of Nothing !-'आई विल स्पीक ऑन ट्रिनिटी ऑफ़ नथिंग' मुझे बहुत खुशी है कि मुझे शून्य ('कुछ नहीं') पर बोलने के लिए कहा गया है! मैं अभी 'कुछ नहीं (शून्य) की त्रिमूर्ति' के विषय पर बोलूँगा! 'Christian Trinity' के सिद्धान्त या ईसाई त्रिदेव सिद्धान्त के अनुसार - 'God the Father, God the Son and God the Holy Ghost ' ऊपर आसमान में ईश्वर (परम् पिता परमेश्वर) हैं, धरती पर ईश्वर के सन्तान हैं यीशु मसीह, और ईसा-मसीह का शरीर चले जाने के बाद, वे पुनः उठ खड़े हुए थे या उनकापुनरुत्थान (Resurrection-पुनरुज्जीवन) हुआ था- ये हुए 'होली घोस्ट' या पवित्र आत्मा हुए । इसी को ईसाइयत में त्रिदेव कहा जाता है। एक ही ईश्वर तीन व्यक्तियों के रूप में !
जिन लोगों ने षड्यंत्र किया था , वे लोग पूरा घबड़ा गए। सोचे - जो योजना हमने बनाई थी , वह सब तो इनके एक शब्द से चौपट हो गया ! ये क्या बोलेंगे - ट्रिनिटी के ऊपर ? केशवसेन ने कहा - " I am nothing, I know nothing , I have Nothing !" -अर्थात "मैं कुछ भी नहीं हूं, मैं कुछ नहीं जानता, मेरे पास कुछ भी नहीं है!" (4.40 मिनट) - तो मैं भी आपलोगों से आन्तरिक भाव से कहता हूँ -ह्रदय से कहता हूँ ; इस समय मुझे भी ठीक वैसा ही अनुभव हो रहा है..." I am nothing, I have Nothing,I know nothing !" मैं क्या बोल सकता हूँ ?
तो केशवसेन ने जब ठाकुर से कहा - 'आप मुझे अनुमति दीजिये , मैं आपका प्रचार करूँगा ! ' तो जवाब उन्होंने क्या कहा था ? बहुत दिन पहले पढ़ा था, मैं बहुत अधिक पढ़ता भी नहीं हूँ, फिर भूल भी जाता हूँ। जहाँ तक मुझे याद है - जब ठाकुर से उन्होंने यह बात कही तब , ठाकुर ने थोड़ा हँसकर कहा - " केशव ! केशव ! केशव ! तीन बार कहा -' तुमि आमाके प्रचार कोरबे ? एखाने जे आचे; तार ऊपर हिमालय पहाड़ चापा दिले ओ चापा थाकबे ना , से बेरिये पड़बे ! " - अर्थात "केशव, तुम मेरा प्रचार करेगा ? यहाँ जो है उसको हिमालय पहाड़ रखकर भी दबा दिया जाय , तो वो दबेगा नहीं ; वह अपने को अभिव्यक्त तो करेगा ही करेगा ! तुम मेरा प्रचार करेगा ? " हमलोग क्या बोलकर उनका प्रचार करेंगे ? किस प्रकार करेंगे ? - खुद वैसा आचरण करने से उनका प्रचार होगा। जैसे अभी एक लड़का अपने शिविर अनुभव को सुनाते समय कहा था - " यहाँ रहकर मैंने स्वयं जो सीखा है, यहाँ से लौट कर उसका अभ्यास करूँगा। और फिर अगर सम्भव हुआ तो मैं उस अभ्यास को करने के लिए अपने अन्य मित्रों को भी बोलने या प्रेरित करने की चेष्टा करूँगा; तभी यह कार्य होगा !" - 'Let Life must speak, not words!' लच्छेदार भाषण देने से कोई कार्य नहीं होता , जीवन-गठन करने से, वैसा जीवन बनाने से ही काम होता है। ठाकुर का जीवन , माँ का जीवन और स्वामी जी का जीवन -आज भी उन तीनों का जीवन ज्वलंत उदाहरण स्वरुप है ! आज भी उन तीनों का जीवन ही उपदेश दे रहा है ! आज भी उनका जीवन अधिक से अधिक संख्या में मनुष्यों को प्रभावित कर रहा है , लोगों को प्रेरित कर रहा है, उनके ध्यान को अपनी ओर खींच रहा है। अभी एक छात्र ने कहा था , जो बिल्कुल सत्य है - " भारतवर्ष में अभी एक प्रतिशत (1 %) लोग भी स्वामी विवेकानन्द को ठीक से जानते हैं , या नहीं इसमें सन्देह है ! " बिल्कुल सही बात है ; मैंने स्वयं भी इसका अनुभव किया है।
एक बार इन्दौर या उधर ही और कहीं से ट्रेन में वापस लौट रहा था। मैं ट्रेन में या बस से यात्रा करते समय सहयात्रियों से अधिक बातचीत नहीं करता। क्योंकि बात करते समय कई प्रकार की बातें मुख से निकल जाती हैं- जिन्हें सार्वजनिक रूप से कहना अच्छा नहीं होता। लेकिन उस समय मेरे साथ एक व्यक्ति (attendant-सहायक) भी थे। मैं बाथरूम गया हुआ था ; इसी बीच उस सज्जन के साथ उनकी बहुत बातचीत हुई , उन्होंने साथ महामण्डल तथा अन्य विषय पर बातचित हुई होगी। लेकिन साधारणतः मैं सफर के दौरान अधिक बातचीत नहीं करता। बहुत हुआ तो यह पूछने पर की आप कहाँ जा रहे हैं ? बता देता हूँ कि मैं अमुक जगह जाऊँगा। क्या करने जा रहा हूँ ? इन सब विषयों पर मैं बहुत ज्यादा बातचीत नहीं करता। जब मैं बाथरूम से वापस लौटा तो, वे सज्जन अपने ऊपर वाले बर्थ से नीचे उतरकर मेरे पास बैठ गए। बोले, नमस्कार मैं आपके साथ थोड़ा बातचीत करना चाहता हूँ। (7.19 मिनट) इतना कहकर वे ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) के सम्बन्ध में, स्वामीजी (स्वामी विवेकानन्द) के सम्बन्ध में बातचीत करना प्रारम्भ किये। थोड़ी देर तक ही बातचीत हुई होगी ; शायद वह AC two tier का कम्पार्टमेंट होगा -सामने एक पर्दा टंगा हुआ था। पर्दा के पीछे से देखता हूँ ,पर्दा हटाकर गेरुआ वस्त्र पहने हुए एक सज्जन हाथ जोड़कर पूछ रहे थे - क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ? उनके चेहरे की ओर देखा तो उन्होंने कहा - 'मुझे सुनाई दिया कि यहाँ आध्यात्मिक विषय पर बातचीत हो रही है।' तो मैं क्या बोलता ? संन्यासी के वेश में एक सज्जन खड़े थे , मैंने कहा - आइये बैठिये ! वे भी बैठ गए बातचीत कुछ देर हुई होगी, कि वे एक बार थोड़ा उत्तेजित होकर बोले - 'स्वामी विवेकानन्द ! बापरे ! क्या आदमी थे !! उनके साथ एक बार क्या हुआ था , आप जानते हैं ?वे कुछ बताना चाह रहे थे। मैंने पूछा - क्या हुआ था ? मैं श्रोता के रूप में था- विनम्र होने के सिवा चारा न था। यहाँ भी कई दिनों से चर्चा चल रही है, श्रोता होकर बैठे रहने में -मुझे क्या आनन्द मिल रहा है ! पहले ही दिन से जो परिचर्चा (Discussion) यहाँ हो रही थी , वैसी चर्चा अक्सर नहीं होती। हमलोगों का कैम्प तो प्रति वर्ष -30, 40, 50 कैम्प भी आयोजित होते रहते हैं, उनमें डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, शिक्षक, नौकरी पेशा वाले , व्यवसायी , किसान , खेतिहर , कारखाना में काम करने वाले श्रमिक , बेरोजगार युवक से लेकर , विभिन्न स्तर के छात्र उपस्थित रहते हैं। इस समय भी - भारत के विभिन्न राज्यों से हजार से अधिक -1100, 1200, 1300 तक प्रशिक्षणर्थी भी रहते हैं।
लेकिन सभी कैम्पों में जो परिचर्चा होती है , वह एक जैसी गुणवत्ता वाली नहीं होती; और वैसा होना सम्भव भी नहीं है। लेकिन इस बार मैं यहाँ एक श्रोता के रूप में बैठा रहा हूँ , और प्रथम दिन से ही व्याख्यान सुनकर बहुत आनंद प्राप्त किया है। कितनी अद्भुत परिचर्चा हुई है ! अक्सर ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता , और सुनने में जो आनन्द हुआ, बोलने में वह आनंद नहीं होता-यह मैं खूब समझता हूँ , और अब भी यह सोच समझकर कह रहा हूँ। क्योंकि बोलते समय हमारा ध्यान श्रोता लोगों का मनोरंजन करने या उन्हें खुश करने की चेष्टा पर रहता है- कि क्या बोलने से अच्छा प्रभाव पड़ेगा, कौन वाला उद्धरण (quotation-ग्रन्थ प्रमाण) कहना अच्छा होगा ? किस भाषा में कहने का प्रभाव अधिक पड़ेगा , लोगों का ध्यान अपनी ओर कैसे खींच सकता हूँ ? इन बातों में मन चला जाता है। इस प्रकार बोलने से -बयानबाजी करने से कोई फल नहीं होता।
केशवचन्द्र सेन जैसा वक्ता भी एक बार यह तय किये कि वे दक्षिणेश्वर में आकर भक्तों को धार्मिक प्रवचन सुनाएंगे। और लोगों ने ठाकुर से अनुरोध किया -क्या आप भी चलेंगे ? केशवबाबू आये हैं धर्म पर प्रवचन देने के लिए ? ठाकुर वहाँ जाकर थोड़ी देर बैठे थे, थोड़ी ही देर में उठ गए। पूछा क्या हुआ ? कोलकाता के लोग केवल लेक्चर देकर लोगों को तत्व-ज्ञान समझाने की चेष्टा करते हैं। ये सब भाषण सुनते समय भी , मेरे मन में ठाकुर की बातों का स्मरण चलता रहता है। कि सचमुच तो लेक्चर देने से कोई असर नहीं होता है - जीवन यदि वैसा गठित हो जाये; तो अपने जीवन से दूसरों के जीवन को जोड़ लेने से ही काम होता है -(अर्थात आध्यात्मिकता प्राप्त होती है)है नहीं तो -तो अपना अमूल्य जीवन - संगीत # व्यर्थ में ही नष्ट हो जाता है।"जीवने जीवन योग कोरा , ना होले कृत्रिम पण्ये व्यर्थ होय गानेर पसरा।" [दादा ने यहाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर को उद्धृत करते हुए कहा है -' विपुला ऐ पृथ्वीर कोतोटूकू जानी ? जीवने जीवन योग कोरा , ना होले कृत्रिम पण्ये व्यर्थ होय गानेर पसरा। ' अर्थात मैं इस विशाल दुनिया के बारे में कितना जानता हूँ? अपने जीवन में दूसरों के जीवन को जोड़ो, वरना तुम्हारा जीवन-संगीत जगत में एक कृत्रिम उत्पाद बनकर रह जाएगा। How much do I know about this vast world? Add life to life, otherwise the music scene fails as an artificial product. --Rabindranath Tagore.]
यदि हमलोग भी अपना जीवन वैसा गठित कर सके , तो हमारे जीवन के स्पर्श से ही परिवर्तन आ जाता है - स्पर्श भी नहीं करना पड़ता ; दूर से ही काम हो जाता है। नजर पड़ते ही -उसी समय अगले व्यक्ति का जीवन जागृत हो उठता है !(कलुयग से सतयुग में चला जाता है)। (10.25 मिनट) अतीत की अनेक बातों को स्मरण में रखने की आवश्यकता नहीं होती, बहुत सी बातों को भूल जाना ही श्रेयस्कर होता है। ठीक उसी प्रकार - व्याख्यान सुनने में जो 'आनंद' है , मजा है ! वैसे हमलोग भी कह सकते हैं वाह , भाषण सुनकर बड़ा अच्छा लगा। किन्तु उससे कुछ कार्य नहीं होगा। वही केशवसेन जैसे प्रसिद्द वक्ता जो इंगलैण्ड में अपने भाषण से इतना रंग जमा कर आये थे, उनका व्याख्यान ठाकुर सुन भी नहीं सके !! तो हमलोग भला क्या भाषण दे सकते हैं ? क्या व्याख्यान देंगे ? हमलोग महामण्डल -महामण्डल करते हैं, फिर भी जो प्रशिक्षणार्थी अभी यहाँ आकर अभी बोल गए हैं , उनमें से कुछ के वक्तव्य को सुनकर आनंद होता है। इसलिए आनंद होता है कि स्वामी विवेकानन्द ने जो सन्देश युवाओं को देना चाहा था , ठीक वही सन्देश सभी को सीखना और सिखाना आवश्यक है।
तथा आज के ऐसे विपरीत परिस्थिति और सामाजिक वातावरण में भी यह जो कार्य हो रहा है - पूरे भारत वर्ष में या पश्चिम बंगाल में जैसी परिस्थिति है - वैसे वातावरण में यहाँ मात्र चार-दिन पाँच रहकर यहाँ के भाव को जिस प्रकार ग्रहण कर रहे हैं , उसे देखकर कितना उत्साह होता है , कितना आनंद होता है ! कितना शुद्ध और पवित्र विचार वे ग्रहण कर पाए हैं। इसलिए एक दिन विचार कर रहा था - ऐसे वातावरण में भी महामण्डल जो कुछ कर रहा है , वह सब क्या ऐसे ही हो रहा है ? ऐसी विपरीत परिस्थिति में महामण्डल की स्थापना कैसे हो गयी ? इसका आविर्भाव कैसे सम्भव हो सका ? या किस प्रकार यह चल रहा है ? मैं खुद भी समझ नहीं पाता हूँ। महामण्डल के आविर्भाव के विषय पर उर्दू के एक प्रसिद्द शायर मजाज लखनवी का एक शेर याद आ रहा है -(..... जिस तरफ नजर अब तक न था, उस तरफ देखा है !11.52 मिनट)
" कुछ नहीं तो- कम से कम, ख्वाब-ए -सहर देखा तो है।
जिस तरफ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है।। "
यदि महामण्डल के आविर्भूत होने के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं हो सका हो , तो कम से कम इतना तो हुआ कि -हमलोगों ने एक नई सुबह का - अरुणोदय का (सत्ययुग के आगमन का) - एक स्वप्नतो देखा है! अर्थात महामण्डल के आविर्भूत होने से पहले जिस विषय के ऊपर चर्चा भी नहीं थी कि- "मनुष्य बनना पड़ेगा और मनुष्य बनाना पड़ेगा !!" (स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित जिस महावाक्य -'Be and Make ' की तरफ अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था , किसी की नजर भी नहीं पड़ी थी।) महामण्डल के आविर्भूत होने के बाद लोगों ने उस तरफ (मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन की तरफ) देखा तो है।यदि महामण्डल के आविर्भूत होने के 58 वर्षों बीत जाने के बाद भी कुछ नहीं हुआ, तो कम से कम इतना तो हुआ कि हमने एक नई सुबह का - अरुणोदय का स्वप्न तो देखा है ! जिस तरफ अब तक किसी ने देखा न था, महामण्डल के आविर्भूत होने के बाद लोगों ने उस तरफ (मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन की तरफ) देखा तो है। कम से कम सबों का ध्यान इस तरफ आकृष्ट तो हुआ है कि- केवल मनुष्य का ढाँचा मिला जाना ही काफी नहीं है , 'मनुष्य' बनना पड़ता है; और मनुष्य बनाना पड़ता है। [ रॉबर्ट ब्राउनिंग की इन पंक्तियों पर चर्चा तो हो रही है - “Progress, man’s distinctive mark alone, Not God’s, and not the beasts’: God is, they are, Man partly is and wholly hopes to be” – Robert Browning’s “A Death in the Desert”-] स्वयं यथार्थ मनुष्य, पूर्ण मनुष्य (पूर्णतः निःस्वार्थी -देवमानव) बनना होगा, और यथार्थ मनुष्य बनाना होगा !
कई लोगों ने, कई बार मुझसे प्रश्न किया है - कि महामण्डल के गठन के समय से ही इसका जो एक प्रतीक चिन्ह है - उसका अर्थ क्या है ? उसमें दो बातें लिखी हुई हैं - एक ऊपर में लिखा है - 'चरैवेति, चरैवेति। ' कई लोग पूछते हैं - यह कहाँ लिखा है , किस शास्त्र से लिया गया है ? यह श्लोकांश जिस शास्त्र (ऐतरेय ब्राह्मण) में है -वहाँ अद्भुत तरीके पाँच श्लोकों में सबके अन्त में लिखा है - 'चरैवेति, चरैवेति।' स्वामीजी भी 'चरैवेति, चरैवेति' कहते थे। वहाँ कहा गया है -
' कलिः शयानो भवति,
संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति,
कृतं संपद्यते चरन्।।
.... चरैवेति। चरैवेति।।‘
जो लोग अपने स्वरूप के प्रति सो रहे हैं, उनका अभी कलि काल चल रहा है। स्वामी जी का आह्वान सुनकर जिनकी मोहनिद्रा टूट गयी है, जो निद्रा से उठकर बैठ गए हैं, उनके लिए द्वापर चल रहा है। जो मनुष्य उठकर खड़ा हो गया है , वह त्रेता युग में वास कर रहा है ; लेकिन श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से जब साधारण युवा ?? (नहीं लिला-सहचर) नरेन्द्रनाथ दत्त भी पूर्ण मनुष्य (स्वामी विवेकानन्द) बनने और बनाने की दिशा में चल पड़ता है वह कृतयुग, सतयुग या स्वर्ण-युग में वास करने लगता है। इसलिए- 'चलते रहो, चलते रहो।’
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ-ही -साथ, सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है ! " बहुत से लोग उनके इस कथन के मर्म को समझ नहीं पाते हैं। परम पूजनीय भूतेशानन्द जी महाराज, मुझको अत्यंत प्यार करते थे। उनके साथ जब मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी, उस समय की घटना याद आती है। वे वह साधु थे जो मठ के वरिष्ठ साधुओं में सेहमलोगों के कैम्प में, सबसे अधिक बार आये हैं - आठ- दस बार, बारह बार आये थे। शिविर का उद्घाटन करने आये हैं , वक्ता के रूप में आये हैं , ऐसे केवल शिविर कैसा चल रहा है -यह देखने के लिए भी आये हैं। मैं जब अंतिम बार उनसे मिलने गया था, तब सुबह 10 बजे मठ में पहुँचा था। मठ पहुँचकर जितनी जल्दी पहुँच सकता था - प्रेसिडेन्ट महाराज के पास चला गया। मैं जैसे ही उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ सेवक महाराज ने, कहा 10 बज गए हैं, समय नहीं है दरवाजा बन्द कर दिया। और किसी को उनके पास जाने का अवसर नहीं था। लेकिन मैं तो उनके बरामदा के प्रवेश द्वारा में प्रविष्ट हो चुका था। बरामदा से उनके कमरे में जाने का जहाँ मोड़ है, वहाँ से देखा कि महाराज के उपदेश समाप्त हो गए थे। उनके 'hearing aid' को सेवक महाराज ने खोल रहे थे, और भक्तों से बोल रहे थे - मिलने का समय समाप्त हो चुका है , आप लोग पीछे के बगान तरफ वाले दरवाजे से चले जाइये। किन्तु यह सब बोलते -बोलते ही मैं तो महाराज के कमरे में प्रविष्ट हो चुका था ! भूतेशानन्द जी महाराज मेरी ओर देखकर बोले - 'की नवनी अनेक दिन पोरे एले ? ' अर्थात 'क्या नवनी, बहुत दिनों बाद आये हो ?' ठीक ऐसे ही बोले। मैंने कहा- हाँ, महाराज मैं बहुत दिनों से मैं आ नहीं पा रहा था। ' ये कहते कहते मैंने उनको प्रणाम किया, लेकिन उधर सेवक महाराज ने भक्तों से कह दिया था कि अब आपलोग जाइये; -'आर प्रसंग होबे ना ' ,अर्थात अब और आगे चर्चा नहीं होगी। बिल्कुल यही शब्द थे। मेरे मन में मानो रिकॉर्डिंग के जैसा छप गया है। यह सुनकर कई लोग उठ चुके थे , तो कुछलोग उठने का उपक्रम कर रहे थे। किन्तु मैंने जब उन्हें प्रणाम किया तो , प्रेसिडेन्ट महाराज ने भक्तों की ओर देखकर कहा - भक्तों ने सोचा महाराज कुछ कहना चाह रहे हैं, सभी भक्त लोग फिर से बैठ गए।
उनके बैठने पर महाराज ने कहा - स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि- 'श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है।' लेकिन भाई कहाँ है -स्वर्णयुग ? मारा-मारी, काटा -काटी, खून-खराबा -ये सब तो बदस्तूर जारी है ! क्या ये ही सत्ययुग के लक्षण हैं ? और इसीलिए मैं कह रहा था - भाषण देना बहुत बुरी चीज है। बोलते -बोलते ऐसा हो गया था कि- जहाँ भूतेशानन्द जी महाराज भक्तों से कह रहे थे -और मैं उनके बीच में ही बोल पड़ा - ' महाराज यह जो गंगा बहती जा रही हैं , इसमें ज्वार-भाटा तो आते रहते हैं; सभी नदियों में ज्वार भाटा नहीं आते, लेकिन जब नदी समुद्र के नजदीक पहुँचने को होती है -तब उसमें ज्वार -भाटा आते हैं। (16.22 मिनट) जिस समय भाटा खत्म होकर ज्वार को आना होता है , उस समय जो ज्वार आता है वह जल के की निचली परत से आता है। लेकिन उस समय भी ऊपर से देखने पर प्रतीत होता है कि जल की परत नीचे जा रही है - अर्थात भाटा ही चल रहा होगा। उसी प्रकार इस समय हमलोग जो ऐसा देख रहे हैं कि सबकुछ तो अधोपतन की ओर चला जा रहा है ! - यही अवस्था गंगा नदी में भाटा के समाप्त होने की अंतिम अवस्था है। किन्तु वास्तव में इस समय जल के निचली परत में ज्वार आना शुरू हो चुका है !"
भूतेशानन्द जी महाराज के बोलने के समय -उनके बीच मैं भी बोल पड़ा ? इसलिए भाषण देना अच्छी चीज नहीं है , बोलते -बोलते बकबक करने की आदत हो जाती है। बकबक करने की ऐसी आदत हो जाती है कि -स्थान, काल , पात्र का भी कोई ध्यान नहीं रहता। बकने की आदत ही पड़ जाती है। किन्तु ऐसी गलती किसी दूसरे महाराज के पास होने से पता नहीं क्या होता ? किन्तु भूतेशानन्द जी महाराज मुझको इतना प्यार करते थे - सभी भक्तों को वैसे ही प्यार करते थे। यह बात आप में से कई लोग जानते होंगे। वे बिना खिन्न हुए , उल्टा बहुत प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहे - एक बार मेरी ओर देखने के बाद , भक्तों से कहा - " नवनी ठीक बोलेचे ! एई जे विवेकानन्द युवा महामण्डल' -- का आविर्भाव हुआ है - यह क्या सत्ययुग के आने का संकेत नहीं है ? "
तो हमलोगों के लिए यह महामण्डल गठित होना ही सबसे मूल्यवान वस्तु है। और यहाँ आने पर ऐसा लगता है कि हमलोगों ने महामण्डल में आकर अगर कुछ सीखा है - तो वह सीखा है - To cut the 'I' - अर्थात अपने मिथ्या अहं को (M/F वाले नामरूप के देहाध्यास को) काटना सीखा है ! डॉ राधाकृष्णन एक बार ईसाई धर्म पर कुछ व्याख्यान देने गए थे, वहाँ उन्होंने ईसाई धर्म के विषय में जो अद्भुत बात कही थी , वैसा मैंने अभी तक किसी christian को ऐसा बोलते नहीं सुना है। उन्होंने कहा था था कि christian धर्म का प्रतीक चिन्ह के रूप में यह जो Cross है उसका अर्थ क्या है ? वहाँ जो कैपिटल 'I' है उसको काटने का प्रतीक है।अहं (I) को काटने से Cross का चिन्ह बन जाता है। हमलोगों का जो अपना- अपना व्यष्टि 'अहं' होता है; यह उस मिथ्या अहं को काटने का प्रतीक है।
तो स्वामीजी की प्रेरणा से , ठाकुर देव के आशीर्वाद से और माँ की कृपा से , और कई लोग बीच में बोलना शुरू किये थे - पिछले कुछ वर्षों से लड़कों में यह चर्चा हो रही थी कि - हमलोगों के आध्यात्मिक जीवन का क्या होगा ? उस विषय में महामण्डल के सदस्यों को क्या कुछ करने की जरूरत नहीं है? आध्यात्मिकता किसे कहते हैं ? आध्यात्मिकता का अर्थ क्या यह है - क्या कुछ कर्मकाण्ड की पुनरावृत्ति को आध्यात्मिकता कहा जा सकता है ? वह भी उस पर पूरा मनोनिवेश किये बिना -बार बार उसी कर्मकाण्ड को दुहराते रहना ? अमना होकर , मन को लगाए बिना कुछ भी करना क्या आध्यात्मिकता है ? वास्तविक आध्यात्मिकता प्राप्त करने के लिए स्वयं को मिटाना /काटना पड़ेगा। अर्थात अपने अहंभाव को काटना होगा - (या उस मिथ्या अहं को दासोअहं में रूपांतरित करना होगा) और इसीलिए, कमसे कम अब मैं व्याख्यान देना पूरी तरह से पसंद नहीं करता हूँ। ठाकुर , माँ और स्वामीजी जितना उपदेश दे गए हैं , उसीको पुनरावृत्ति करना होता है।
कल शाम को महाराज के पास कुछ लोग आये थे , उन्होंने शाम को आने कहा था। उनके कहने पर -मैंने उन दो सज्जनों के साथ बातचीत की थी। कि हमलोगों को ठाकुर , माँ और स्वामीजी के थोड़ा और समीप जाना उचित होगा। ठाकुर और माँ के उपदेशों को और अधिक ध्यान से सुनना उचित है। दिन भर में कमसेकम दो बार ठाकुर , माँ और स्वामीजी के बारे में थोड़ा चिंतन करना चाहिए। उनके जीवन और सन्देश को थोड़ा पढ़ने की चेष्टा करना होगा। यदि कोई व्यक्ति ऐसा प्रतिदिन करें , तब उनकी थोड़ी आध्यात्मिक उन्नति न हो - ऐसा कभी हो ही नहीं सकता ! (20.03 मिनट) हम नहीं चाहते हैं - इसीलिए हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती है। हमलोग ठाकुर , माँ और स्वामीजी के उपदेशों को जानने के लिए इच्छुक रहते हैं - किन्तु इस लिए; ताकि ठाकुर -माँ -स्वामीजी के ऊपर एक लेक्चर दे दिया जाये। ताकि लोग समझें की ये तो ठाकुर-माँ -स्वामीजी के बारे में बहुत कुछ जानते हैं - बड़े धाकड़ वक्ता हैं। उससे कोई काम नहीं होगा , उनके कुछ पवित्र भाव -एक या दो विचार हमारे दिल को छू लेते हों - हमने क्या अपने ह्रदय में उन्हें बैठा लिया है ?
कुछ वर्षों पहले कोलकाता के यादवपुर यूनिवर्सिटी में एक 'symposium' (संगोष्ठी या विचार-गोष्ठी) आयोजित हुई थी। वहाँ के Philosophy Head of Department (दर्शनशास्त्र के विभागाध्यक्ष) ने मुझे फोन किया - उनके साथ मेरा कोई परिचय भी नहीं था। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के ऊपर , यूनिवर्सिटी के दर्शनशास्त्र विभाग की तरफ से एक सेमिनार आयोजित करना चाहते हैं। इसमें थोड़ी आपसे सहायता चाहिए थी। मैंने पूछा आप मुझसे कैसी सहायता चाहते हैं? यही कि उस सेमिनार में स्वामीजी के सम्बन्ध में कौन -कौन से विषय को रखा जा सकता है, तथा किस विषय पर किस वक्ता से व्याख्यान दिलवाना अच्छा होगा ? यदि आप इस सम्बन्ध सोच-विचार कर कोई subject तय कर देंगे तो अच्छा होगा। इसमें सोचविचार करने की आवश्यकता नहीं है , आप अभी ही लिख लीजिये। मैंने तीन-चार विषय बताया और दो -तीन प्रोफेसर्स का नाम बोला कि ये लोग विषय पर बोल सकते हैं , या आपके यहाँ के जो प्रोफेसर हों वे यदि बोलना चाहें तो वे भी बोल सकते हैं। उन्होंने कहा कि आपको भी एक विषय पर बोलना होगा। मैंने कहा ठीक है। हुआ -दस बजे सेमिनार प्रारम्भ हुआ और पूरे दिन चला। स्वामी लोकेश्वरानंद जी ने उस सेमिनार का उद्घाटन किया था। एक के बाद दूसरा निबन्ध पढ़ना शुरू हुआ। दोपहर में lunch break हुआ, उसके बाद फिर से सत्र चलने लगा। चार बजे से प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम रखा गया था। प्रश्नोत्तरी के कार्यक्रम में मुझे और एक अन्य दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक को उत्तर देने के लिए कहा गया। प्रश्नोत्तरी का कार्क्रम चलते -चलते एक उम्रदराज (बुजुर्ग) व्यक्ति ने मेरी तरफ ऊँगली दिखाते हुए कहा - यह प्रश्न मैं आपसे कर रहा हूँ, आप इसका उत्तर दीजियेगा। उनका चेहरा देखकर मैं समझ गया कि वे जरूर दर्शनशास्त्र के अवसरप्राप्त प्राध्यापक होंगे। मैंने कहा पूछिए। तब उन्होंने कहा यहाँ जो चर्चा स्वामी विवेकानन्द के ऊपर चल रही है, सुबह 10 बजे से अबतक वह तो मोटेतौर पर वेदान्त के ऊपर ही हो रही है। इसमें तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं , लेकिन बहुत सरल भाषा में यदि वेदान्त का सार कहना पड़े तो क्या कहना चाहिए ? बड़ा गंभीर प्रश्न था , और जिसका उत्तर भी इस मूर्ख को देने के लिया कहा गया था।
जो लोग इस मूर्ख को चला रहे हैं , जो इस महामण्डल संगठन को चला रहे हैं। वह लड़का जो ट्रेन में मेरे साथ था और आध्यात्मिकता के बारे में चर्चा कर रहा था , तो मैंने कहा था - देखो , ठाकुर देव की इच्छा , माँ का आशीर्वाद और स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा - इन तीनों के एकत्र होने से महामण्डल आविर्भूत हुआ है। यह हमलोगों का आंतरिक विश्वास है -हमारे जीवन से जुड़ा विश्वास है। यहाँ पर भी चर्चा हो रही थी कि महामण्डल की स्थापना कैसे हुई , और किसने इसकी स्थापना की ? महामण्डल की स्थापना हुई थी , कोलकाता के अद्वैत आश्रम में। उस समय महामण्डल के पास कुछ भी नहीं था। वहीं पर महामण्डल की मीटिंग हुआ करती थी , और शाम को उनका ऑफिस बंद होने के बाद महामण्डल का काम चलता था। उसके बाद में महामण्डल का एक अलग ऑफिस बन सका था।
जिस दिन महामण्डल का formation हुआ था, उस समय की बात स्मरण में है -अद्वैत आश्रम में जो भाषण कक्ष था , वह बहुत विशाल नहीं था , छोटा सा हॉल था। उस हॉल में स्वामी विवेकानंद का एक विशाल तैल चित्र (oil painting) लगा हुआ था। महामण्डल का गठन-कार्य आदि सब कुछ हो जाने के बाद -स्वामी जी के चित्र की ओर देखने से, इस मूर्ख को ऐसा महसूस हुआ था कि स्वामीजी मानों बहुत प्रसन्न हो रहे हैं -चेहरे पर जैसे मुस्कुराहट बिखर रही थी। तब इसी प्रकार जब उस सेमिनार में यह प्रश्न उन्होंने किया कि -सरल भाषा में वेदांत का सार क्या है ? तब इस मूर्ख के मुख से माँ ने कहलवा दिया - वेदांत के सार को अगर सरल भाषा में कहना हो , और किसी अशिक्षित ग्रामीण महिला की ग्राम्य भाषा में कहा जाये - उस उत्तर को यहाँ उपस्थित विद्व्त समाज सुनने को तैयार होंगे ? ठीक इसी लहजे में मैंने कहा -' यदि किसी अशिक्षित ग्रामीण महिला की ग्राम्य भाषा में वेदांत का सारांश कहा जाये, तो यहाँ उपस्थित आप लोग , यह विद्वतमण्डली उस उत्तर को सुनने के लिए सहमत होंगे ? वे तो सहमत थे ही , बाकि लोग भी कहने लगे -हाँ हाँ , क्यों नहीं आप बोलिये। इस मुख से माँ ने कहलवाया - सचमुच माँ ने ही कहा है , माँ अगर न कहवायें तो कुछ नहीं कह सकता। माँ जैसा कहवना चाहती हैं , वही बोल सकता हूँ -यदि उनकी इच्छा न हो तो कुछ नहीं कह सकता। बहुत विद्या रहने से भी कुछ नहीं होता।
मुख से निकला , उन्हीं ग्रामीण अशिक्षित महिला की वाणी थी -जिनका नाम श्री श्री सारदा देवी है। जिनको हमलोग श्रीरामकृष्णदेव के धर्मपत्नी के रूप में जानते हैं। उनके द्वारा दिए उपदेश में वेदांत का सारांश कहा जा सकता है , और इससे सरल भाषा में वेदांत के सार को कहा भी नहीं जा सकता है। वेदांत के सार स्वरूप उनका उपदेश है -" जगत तुम्हारा अपना है, यहाँ कोई भी पराया नहीं है ![श्री श्री माँ का पूरा उपदेश इस प्रकार है - " তবে একটি কথা বলি, ‘যদি শান্তি চাও মা, কারও দোষ দেখো না। দোষ দেখবে নিজের। জগৎকে আপনার করে নিতে শেখ। কেউ পর নয়, মা জগৎ তোমার।’ तोबे एकटी कोथा बोली , " यदि शान्ति चाउ माँ , कारो दोष देखो ना। दोष देखबे निजेर। जगत के आपनार करे निते शेखो। केउ पर नय , माँ जगत तोमार। " पर एक बात कहदूँ -यदि शान्ति चाहती हो, बेटी , तो किसी का दोष मत देखना (क्योंकि 'वह' -'वही' करने के लिए आया है।) दोष केवल अपना ही देखना। जगत-संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं है , बेटी संसार तुम्हारा अपना है। "जिन मनुष्यों के दुःख से कातर होकरदेवी अभया ने मानवशरीर धारण कर स्वयं अशेष यंत्रणाएँ भोगीं , उन आर्तजनों (दुखिया मनुष्यों) के प्रति उनका यही अंतिम उपदेश है!]
... 'जगत तुम्हारा अपना है -कोई पराया नहीं है' ऐसी अनुभूति वाली आध्यात्मिकता किसी को कैसे प्राप्त हो सकती है ? ह्रदय को खोलदेने से मिलती है , मुख बंद करने से आती है। माथा में बुद्धि हो तो भाषा जानने की जरूरत नहीं होती। ह्रदय से अनुभव होता है - मुख बंद करने पर। स्वामीजी ने मुख बंद करने के ऊपर सीपियों की कहानी सुनाई थी। - " भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि वर्षा हो और उस वर्षा की एक बून्द सीपियों के मुख में चला जाये , तो उसका मोती बन जाता है। अतएव , कोई कोई सीपी जिसको ये बात मालूम रहता है ,वे सीपियाँ पानी के ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और मुख खोल कर उस समय की अनमोल बूँद की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्योंही वर्षा की एक बूँद उसके पेट में जाती है , त्योंही वह मुख बंद करके समुद्र की अथाह गहराई चली जाती हैं और वहां बड़े धैर्य के साथ मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा , फिर समझना होगा , अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की बिक्षेपकारी बातों से दूर रहकर अपनी अंर्तनिहित दिव्यता (Inherent Divinity-सत्य तत्व- Oneness) के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके , उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नए भाव का आश्रय लेना - इस प्रकार बारम्बार करते रहने से तो हमारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जाएगी। एक भाव को पकड़ो , उसीको लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं , उन्हीं के ह्रदय में दिव्यता (सत्य तत्व आत्मा या ब्रह्म-ठाकुर , माँ स्वामीजी का) उन्मेष होता है। और जो लोग यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ , इस तरह खटाइयाँ चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं , वे कभी कोई चीज (माँ वाली आध्यात्मिकता या वेदांत-सार) नहीं पा सकते। कुछ देर के लिए नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल तक प्रकृति के (मन और इन्द्रियों) के दास बने रहेंगे , कभी अतीन्द्रिय सत्य के राज्य में (सत्ययुग में?) विचरण न कर सकेंगे। जो सचमुच योगी होने की इच्छा करते हैं , (अपने जीवन को दूसरों के जीवन से जोड़ने की इच्छा करते हैं), उन्हें इस प्रकार के थोड़ा थोड़ा हर विषय को पकड़ने का भाव सदैव के लिए छोड़ देना होगा। एक विचार को लो ; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ -उसीका चिंतन करो , उसीका स्वप्न देखो , और उसी में जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क , स्नायु , शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है ; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो बातें करने वाले मशीन मात्र हैं। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा। इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन को किसी भीतरह से चंचल न होने दिया जाये ! ---सिद्ध होना हो तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए , मन में अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसायशील साधक कहता है , " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छामात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे। " इस प्रकार का तेज , इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे। " (राजयोग -प्रत्याहार और धारणा: 1 /89-90) हमलोग भी यदि ह्रदय के पट खुला रखें , मनुष्य के दुःख को देखकर ठाकुर -माँ -स्वामी जी के आँखों से निश्रित जल की बूंदें यदि उसमें प्रविष्ट हो जाये और हम निर्जन में , एकांत में जाकर उसका मोती बनाने की चेष्टा करें , तो इस मूर्ख को ऐसा प्रतीत होता है कि अधिक साधना करने की जरूरत नहीं होगी। इतना ही यथेष्ट है ! जय माँ , जय माँ ! जय ठाकुर ! जय ठाकुर ! जय स्वामीजी ! जय स्वामी जी !
>>सागर पार जाने के लिए वानर सेना द्वारा सेतु निर्माण और श्रीराम द्वारा शिव की स्थापना का संकल्प ........
वानर सभी दिशाओं से ऊँचे ऊँचे पर्वत भारी शिलाखण्ड तथा बृक्ष खेल ही खेल में उखाड़ लाते हैं ; नल और नील उन्हें गढ़कर सेतु का निर्माण करते हैं। ये सुन्दर रचना देख श्रीराम अति प्रसन्न हैं। उस स्थल को अत्यंत रमणीय और उपयुक्त देखकर वे वहाँ शिव की स्थापना करने का संकल्प करते हैं ...
दोहा :
अति उतंग गिरि पादप,
लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि,
रचहिं ते सेतु बनाइ॥1॥
भावार्थ : बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर (सुंदर) सेतु बनाते हैं॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥
भावार्थ : वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले-॥1॥
परम रम्य उत्तम यह धरनी।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना।
मोरे हृदयँ परम कलपना॥2॥
भावार्थ : यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान् संकल्प है॥2॥
* सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥3॥
भावार्थ : श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥3॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥4॥
भावार्थ : जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥4॥
दोहा :
संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥
भावार्थ : जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥2॥
चौपाई :
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।
सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥
भावार्थ : जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा)॥1॥
* होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही
। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥
भावार्थ : जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥2॥
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥3॥
भावार्थ : श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥3॥
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥4॥
भावार्थ : चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले) हो गए॥4॥
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥5॥
भावार्थ : यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥5॥
दोहा :
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥
भावार्थ : श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं॥3॥
चौपाई :
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥
भावार्थ : नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान श्री रामजी के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरों के समुदाय गरज रहे हैं॥1॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा॥2॥
भावार्थ : कृपालु श्री रघुनाथजी सेतुबन्ध के तट पर चढ़कर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकन्द (करुणा के मूल) प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गए (जल के ऊपर निकल आए)॥2॥
* मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥3॥
भावार्थ : बहुत तरह के मगर, नाक (घड़ियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बड़े विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जन्तु थे, जो उनको भी खा जाएँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे थे॥3॥
* प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥4॥
भावार्थ : वे सब (वैर-विरोध भूलकर) प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं, सब सुखी हो गए। उनकी आड़ के कारण जल नहीं दिखाई पड़ता। वे सब भगवान् का रूप देखकर (आनंद और प्रेम में) मग्न हो गए॥4॥
चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥5॥
भावार्थ : प्रभु श्री रामचंद्रजी की आज्ञा पाकर सेना चली। वानर सेना की विपुलता (अत्यधिक संख्या) को कौन कह सकता है?॥5॥
>>देवादिदेव महादेव से अपने कल्याण के विस्तार की तुलसीदास की मंगल कामना और सागर तट पर जामवंत और हनुमान द्वारा प्रभु श्रीराम की महिमा .....
भगवान शिव शंख और चन्द्रमा की सी कांति वाले, काल के समान भयानक सर्पों का आभूषण धारण करने वाले, गंगा और चन्द्रमा के प्रिय, काशीपति कल्याणकारी कल्पवृक्ष , गुणों की राशि और कामदेव को भष्म करने वाले हैं ; जो सत्कर्मियों को अत्यंत दुर्लभ मुक्ति दे डालते हैं। इन देवादिदेव महादेव से तुलसीदास जी ने अपने कल्याण के विस्तार की मङ्गलकामना की है। सागरतट पर वानर सेना समुद्र लाँघने को तत्पर खड़ी है। श्रीराम अपने सहयोगियों से पूछते हैं - अब विलम्ब क्यों हो रहा है ?जामवंत तथा हनुमान प्रभु राम की महिमा का बखान करते हैं .....
भावार्थ : कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुंदर श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्॥2॥
भावार्थ : शंख और चंद्रमा की सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीर वाले,व्याघ्रचर्म के वस्त्र वाले, काल के समान (अथवा काले रंग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले, पार्वती पति वन्दनीय श्री शंकरजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥
श्लोक :
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥3॥
भावार्थ : जो सत् पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं, वे कल्याणकारी श्री शम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥3॥
लव निमेष परमानु जुग,
बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को,
कालु जासु कोदंड॥
भावार्थ : लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन श्री रामजी को क्यों नहीं भजता?
नल-नील द्वारा पुल बाँधना, श्री रामजी द्वारा श्री रामेश्वर की स्थापना
सोरठा :
सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंबु केहि काम, करहु सेतु उतरै कटकु॥
भावार्थ : समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी ने मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलंब किसलिए हो रहा है? सेतु (पुल) तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।॥
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु, नर चढ़ि भव सागर तरहिं॥
भावार्थ : जाम्बवान् ने हाथ जोड़कर कहा- हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।
चौपाई :
यह लघु जलधि तरत कति बारा।
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥1॥
भावार्थ : फिर यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्री हनुमान्जी ने कहा- प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था,॥1॥
तव रिपु नारि रुदन जल धारा।
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥2॥
भावार्थ : परन्तु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया। हनुमान्जी की यह अत्युक्ति (अलंकारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर श्री रघुनाथजी की ओर देखकर हर्षित हो गए॥2॥
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥
भावार्थ : जाम्बवान् ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥3॥
बोलि लिए कपि निकर बहोरी।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
कौतुक एक भालु कपि करहू॥4॥
भावार्थ : फिर वानरों के समूह को बुला लिया (और कहा-) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में श्री रामजी के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए॥4॥
धावहु मर्कट बिकट बरूथा।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा।
जय रघुबीर प्रताप समूहा॥5॥
भावार्थ : विकट वानरों के समूह (आप) दौड़ जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड़ लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और श्री रघुनाथजी के प्रताप समूह की (अथवा प्रताप के पुंज श्री रामजी की) जय पुकारते हुए चले॥5॥
>>>अग्निबाण सन्धान करने पर भयभीत समुद्र देवता का श्रीराम के समक्ष प्रगट होने का प्रसंग......
भयभीत सागर ने ब्राह्मण का रूप धारण कर , श्रीराम के समक्ष घुटने टेक दिये। अपनी उदण्डता के लिए क्षमायाचना करता हुआ बोला- हे नाथ, आकाश-वायु -अग्नि-जल और पृथ्वी, ये पाँच तत्त्व स्वभाव से ही जड़ होते हैं। आपकी प्रेरणा से माया ने सृष्टि करने के लिये इन्हें उत्पन्न किया है। जिसके लिए ,स्वामी की जैसी आज्ञा है , वह उसी प्रकार रहने में सुख पाता है। आप जैसा आदेश करें, मैं वैसा ही करूँगा। सागर का निवेदन सुनकर, कृपालु श्रीराम प्रसन्न हुए। बोले- तुम वो उपाय बताओ जिससे हमारी सेना पार उतर जाये। हे नाथ !वानर सेना में नल और नील ऐसे दो भाई हैं , जिन्हें बचपन में ही ऋषि से आशीर्वाद प्राप्त हुआ था , कि उनके स्पर्श मात्र से भारी -भारी पत्थर और पहाड़ जल में तिरते रहेंगे, डूबेंगे नहीं; अगर आप इनसे सेतु निर्माण कराइये, और उस पार जाकर पापियों का विनाश कीजिये .....
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥
भावार्थ:-समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥
भावार्थ:-आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥
भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी,किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है।ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥
भावार्थ:-प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ॥4॥
दोहा
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥
भावार्थ:-समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥59॥
चौपाई
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥
भावार्थ:-(समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥1॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥
भावार्थ:-मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए॥2॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥
भावार्थ:-इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥
भावार्थ:-श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया। फिर चरणों की वंदना करके समुद्र चला गया॥4॥
छंद
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
भावार्थ:-समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन।
दोहा
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥60॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥
कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।
(सुंदरकाण्ड समाप्त)
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षड्ज शिव है, ऋषभ गिरिजा, गणपति गंधार है...
रिद्धि मध्यम, सिद्धि पंचम, त्रिशूल में धैवताकार है...
निषाद नंदी, शिवचरण में, सात स्वर संसार है...
ताल डमरू, गीत गंगा, लय में ही ओंकार है...
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रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि़, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥
विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं -
अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड़ गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा।अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदास जी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है।
⚜️🔱 गुप्तचर द्वारा रावण को लक्ष्मण का सन्देश देकर और पार जाने के लिए श्रीराम का अग्नि-बाण सन्धान करने का प्रसंग .......
(लक्षणजी के पत्र में लिखा था -) " अरे मूर्ख वाग्विलासिता से अपने मन को बहलाकर अपने कुल का सर्वनाश क्यों करता है ? श्रीराम के विरोधी की रक्षा ब्रह्मा -विष्णु -महेश, कोई भी नहीं कर सकते। " - लक्ष्मण के पत्र में लिखा ये सन्देश सुनकर रावण भयभीत हुआ; किन्तु सभासदों को दिखाने के लिये मुस्कुराता हुआ बोला- पृथ्वी पर खड़ा ये तुच्छ तपस्वी आकाश पकड़ने की डिंग मार रहा है। दूत शुक ने रावण को समझाने की भरसक चेष्टा की। श्रीराम से बैर न करने की प्रार्थना की , ये भी विश्वास दिलाना चाहा कि उनका स्वभाव अत्यंत कोमल है। शरणागत पर वे कृपा करते हैं। वे आपके अपराध भी क्षमा कर देंगे। हे स्वामी, जनक नन्दिनी उन्हें लौटा दीजिये। मेरी इतनी विनती मान लीजिये। शुक को इस अनुनय के लिये रावण ने लात मारी, और अपशब्दों के बौछार के साथ -उसे सभा से निकाल दिया। इधर तीन दोनों की अवधि बीत जाने पर भी जब समुद्र ने पार जाने देने की विनती नहीं मानी तो श्रीराम को क्रोध हो आया; उन्होंने अग्नि-बाण का सन्धान किया; जिससे सागर के ह्रदय में भीषण ज्वाला धधक उठी। सागर -ब्राह्मण का रूप धारण कर मस्तक झुकाये आ खड़ा हुआ .....
चौपाई
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥
भावार्थ:-पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥
भावार्थ:-शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥3॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥
भावार्थ:-जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥
भावार्थ:-वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥
भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥
समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध और समुद्र की विनती, श्री राम गुणगान की महिमा
दोहा
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥
भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥
चौपाई
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥
भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥
भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा (भक्ति) , इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥
भावार्थ:-मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥
दोहा
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए,चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥