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मंगलवार, 22 जुलाई 2025

⚜️ बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥ 🔱घटना -299: गुप्तचर द्वारा रावण को लक्ष्मण का सन्देश देकर और पार जाने के लिए श्रीराम का अग्नि-बाण सन्धान करने का प्रसंग ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || सुन्दर काण्ड भाग #299⚜️🔱

  श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

 [ घटना - 299:  दोहा : 56(ख)-58] 

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #299 ||] 


⚜️🔱  गुप्तचर द्वारा रावण को लक्ष्मण का सन्देश देकर और पार जाने के लिए श्रीराम का अग्नि-बाण सन्धान करने का प्रसंग .......
        (लक्षणजी के पत्र में लिखा था -)  " अरे मूर्ख वाग्विलासिता से अपने मन को बहलाकर अपने कुल का सर्वनाश क्यों करता है ? श्रीराम के विरोधी की रक्षा ब्रह्मा -विष्णु -महेश,  कोई भी नहीं कर सकते। " - लक्ष्मण के पत्र में लिखा ये सन्देश सुनकर रावण भयभीत हुआ;  किन्तु सभासदों को दिखाने के लिये मुस्कुराता हुआ बोला- पृथ्वी पर खड़ा ये तुच्छ तपस्वी आकाश पकड़ने की डिंग मार रहा है। दूत शुक ने रावण को समझाने की भरसक चेष्टा की। श्रीराम से बैर न करने की प्रार्थना की , ये भी विश्वास दिलाना चाहा कि उनका स्वभाव अत्यंत कोमल है। शरणागत पर वे कृपा करते हैं। वे आपके अपराध भी क्षमा कर देंगे। हे स्वामी, जनक नन्दिनी उन्हें लौटा दीजिये। मेरी इतनी विनती मान लीजिये। शुक को इस अनुनय के लिये रावण ने लात मारी, और अपशब्दों के बौछार के साथ -उसे सभा से निकाल दिया। इधर तीन दोनों की अवधि बीत जाने पर भी जब समुद्र ने पार जाने देने की विनती नहीं मानी तो श्रीराम को क्रोध हो आया; उन्होंने अग्नि-बाण का सन्धान किया; जिससे सागर के ह्रदय में भीषण ज्वाला धधक उठी। सागर -ब्राह्मण का रूप धारण कर मस्तक झुकाये आ खड़ा हुआ ..... 

चौपाई 

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥

भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

भावार्थ:-पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

भावार्थ:-शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

भावार्थ:-यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥3॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

भावार्थ:-जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

भावार्थ:-वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध और समुद्र की विनती, श्री राम गुणगान की महिमा

दोहा 

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

चौपाई 

लछिमन बान सरासन आनू।

 सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।

 सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥

भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

ममता रत सन ग्यान कहानी। 

अति लोभी सन बिरति बखानी॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। 

ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा (भक्ति) , इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।

 यह मत लछिमन के मन भावा॥

संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। 

उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

भावार्थ:-मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥

दोहा 
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥

भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58
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