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सोमवार, 21 जुलाई 2025

⚜️🔱राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥⚜️🔱 घटना -298: गुप्तचरों द्वारा रावण को श्री राम की सेना की विशालता का विवरण देने का प्रसंग। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || सुन्दर काण्ड भाग #298 ⚜️🔱

 श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

 [ घटना - 298:  दोहा : 54-57] 

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #298 ||] 


[⚜️🔱 गुप्तचरों द्वारा रावण को श्री राम की सेना की विशालता का विवरण देने का प्रसंग

       रावण का दूत शुक; जिसको उसने विभीषण के पीछे-पीछे श्री राम की सेना का भेद लेने के लिए भेजा था, लौटकर रावण को वानर सेना की विशालता और बल का विवरण देता है। उसने द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, शठ और जामवन्त आदि वीरों के अतुलनीय बल की झलक देखि थी, और सहज ही परिणाम का अनुमान लगा लिया था। शुक ने रावण को वास्तविकता से परिचित कराने का भरसक प्रयत्न किया ; वे करोड़ों शूरवीर रावण को सहज ही परास्त कर देंगे, सभी वानर समुद्र को शोख लेने या पर्वतों से उसे पाट देने पर उतारू हैं। केवल राम की आज्ञा उन्हें नहीं मिल रही है। स्वयं शुक तथा अन्य गुप्तचरों की भी उन्होंने मारपीट कर दुर्गति कर दी थी। वह तो श्रीराम की सौगंध सुनकर उन्हें छोड़ दिया। शुक-संवाद को रावण हँसकर टाल देता है। किन्तु उसने जब लक्ष्मण का पत्र उसे दिया , तो रावण एक बार भय से काँप गया ...... 

दोहा 

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।

दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥

भावार्थ:-द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

चौपाई 

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

भावार्थ:-ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

भावार्थ:-हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। 

आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। 

पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

भावार्थ:-सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
 
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। 

मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥

भावार्थ:-और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥

दोहा 

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।

रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥55॥

भावार्थ:-सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं। हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

चौपाई 

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। 

सेष सहस सत सकहिं न गाई॥

सक सर एक सोषि सत सागर।

 तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। 

मागत पंथ कृपा मन माहीं॥

सुनत बचन बिहसा दससीसा। 

जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

भावार्थ:-उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!॥2॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

भावार्थ:-स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। 

बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। 

समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

भावार्थ:-सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

रामानुज दीन्हीं यह पाती। 

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥

बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।

 सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

भावार्थ:-(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥

दोहा 

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥56क॥

भावार्थ:-(पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥56 (क)॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥56ख॥

भावार्थ:-या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 (ख)॥ 

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