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गुरुवार, 14 अगस्त 2025

⚜️️⚜️️बोले बचन मनुज अनुसारी॥ मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥4॥⚜️️⚜️️घटना - 324⚜️️मनुज लीला ⚜️️भरतजी के बाण से हनुमान्‌ का मूर्च्छित होना, भरत-हनुमान्‌ संवाद ⚜️️श्री हनुमान और भरतजी के मिलने का प्रसंग : ⚜️️⚜️️

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]
   
[ घटना - 324: दोहा -58, 59,60]

>>श्री हनुमान और भरतजी के मिलने का प्रसंग .... 

  
⚜️️⚜️️मनुज लीला⚜️️⚜️️
  
 * तात कुसल कहु सुखनिधान की। 
सहित अनुज अरु मातु जानकी॥

          सुमेरु पर्वत को हाथों में लिए अयोध्या नगरी के ऊपर से जाते हुए हनुमान का विशाल रूप देखकर, भरत ने अनुमान किया कि ये कोई राक्षस है। उन्होंने धनुष की प्रत्यञ्चा को कान तक खींचकर बिना फल वाला वाण मारा। वाण लगते ही हे राम -राम, हे रघुनाथ ! कहते हुए हनुमान पृथ्वी पर आ गिरे। हे राम ! हे रघुनाथ ! की ध्वनि सुनकर , भरत दौड़ कर उनके पास आ पहुँचे। हतप्रभ होकर वो हनुमानजी से सबकुछ जान लेना चाहते हैं। किन्तु उनकी मूर्छा न टूटते देख उदास हो , उन्हें छाती से लगा लेते हैं। वो श्रीराम के प्रति अपने प्रेम और समर्पण की दुहाई देते हुए , कहते हैं - यदि श्रीराम के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो , और श्री रघुनाथ मुझपर प्रसन्न हों तो , ये वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाये !! कौशलपति श्रीरामचन्द्र की जय ! कहते हुए हनुमान उठ बैठते हैं। श्रीराम , सीता और लक्षण के कुशल की जिज्ञासा के उत्तर में हनुमान उन्हें सारी कथा संक्षेप में सुना देते हैं --  

दोहा :
*देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ, चाप श्रवन लगि तानि॥58॥

भावार्थ:- भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥58॥ 

चौपाई :
* परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥

भावार्थ:- बाण लगते ही हनुमान्‌जी 'राम, राम, रघुपति' का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्‌जी के पास आये॥1॥

* बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥2॥

भावार्थ:-हनुमान्‌जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले-॥2॥ 

* जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥
जौं मोरें मन बच अरु काया॥ प्रीति राम पद कमल अमाया॥3॥

भावार्थ:- जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो,॥3॥ 

* तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा॥4॥

भावार्थ:- और यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्‌जी 'कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो' कहते हुए उठ बैठे॥4॥

सोरठा :
* लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ
सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥

भावार्थ:- भरतजी ने वानर (हनुमान्‌जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी॥59॥

चौपाई :
* तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥

भावार्थ:- (भरतजी बोले-) हे तात (=पूज्य ,पिता ,आदरणीय व्यक्ति)! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी) ने संक्षेप में (समास) सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे॥1॥

* अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥

भावार्थ:- हा दैव! मैं जगत्‌ में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्‌जी से बोले-॥2॥

* तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥

भावार्थ:-हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं॥3॥

* सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥

भावार्थ:-भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्‌जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले-॥4॥

दोहा :
* तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥60 क॥ 

भावार्थ:- हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्‌जी चले॥60 (क)॥

* भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥60 ख॥

भावार्थ:-भरतजी के बाहुबल, शील (सुंदर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन ही मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति श्री हनुमान्‌जी चले जा रहे हैं॥60 (ख)॥ 

चौपाई :
* उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥

भावार्थ:- वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥

* सकहु न दुखित देखि मोहि काउ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥2॥

भावार्थ:- (और बोले-) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा, गरमी और हवा सब सहन किया॥2॥ 

*सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू।
पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥3॥

भावार्थ:-हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता॥3॥

* सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥4॥

भावार्थ:-पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार- ये जगत्‌ में बार-बार होते और जाते हैं, परन्तु जगत्‌ में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो॥4॥ 

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