प्रकृति हमें उकसाती है , प्रलोभित करती है , चिढ़ाती है!
मैंने सवेरे अपने कमरे में एक मकड़ी को देखा थ - जो शाम को देखता हूँ मरा पड़ा था। एक फूल जो सवेरे बिल्कुल ताजा था, देखने में क्या सुंदर , सबके मन को मोह लेने वाला है , जो खिला हुआ है , धीरे -धीरे मुरझाने लगता है ; सूखने लगता है - फिर बिखर कर गिर जाता है। शाम को मेरी आँखों के सामने डाली से टूटकर नीचे गिर जाती है। ये उदाहरण मैं इसलिए दे रहा हूँ कि ऐसा सब समय हमारी आँखों के सामने हो रहा है। लेकिन हम ध्यान नहीं देते हैं। ये प्रक्रिया सबके साथ हो रही है। प्रकृति हमको सिखा रही है। हमारे पास सिर्फ देखने का नजरिया होना चाहिए। प्रकृति हमसे कह रही है - बेटा आ मुझे पकड़ ! .... बेटा आ मुझे पकड़ ! तुम मुझे कभी पकड़ ही नहीं पाओगे। आपको इन्द्रियों से जो भी दिखाई दे रहा है , वह सब कह रही है , आओ मुझे पकड़ो, आओ मुझे पकड़ो। और जब तुम पकड़ने जाओगे , तो पकड़ ही नहीं पाओगे , सभी इन्द्रियगोचर वस्तुयें देखते -देखते नजरों से गायब हो जाती है। ये सत्य है कि नहीं ? आप किसी भी इन्द्रियगोचर वस्तु को पकड़ने जाओ , वो गायब हो जाती है। किसी व्यक्ति को पकड़ने जाओ - गायब हो जायेगा। यहाँ पर कुछ भी हाथ नहीं आना है। प्रकृति जैसे हमको देखकर हँसती है , जैसे कि हमें Tease कर रही है , उकसा रही है, चिढ़ा रही है।
Tempt कर रही है - प्रकृति कह रही है , आओ मुझे पकड़ो। वो कोई फूल हो सकता है। कोई व्यक्ति या पदार्थ हो सकता है पर यदि पकड़ने जाओ , तो देखोगे वो आपके हाथों से फिसल जाएगी। हर चीज फिसल जाती है या नहीं ? स्वयं आपका शरीर ही फिसलता जा रहा है। और सब वस्तुओं की बात तो छोड़िये , आपका शरीर स्वयं आपके पकड़ में आनेवाला नहीं है। कोई शंका ? यह शरीर इस समय भी आपकी पकड़ से फिसलता जा रहा है। आप रोक सकते हो इसको ? आज जो एक फूल खिला हुआ है , एक सुंदर फूल की तरह युवा लोग खिले हुए दिख रहे हैं। ये तो बस समय की बात है , ये फूल धीरे -धीरे मुरझाने लगेगा। सूखने लगेगा और एक दिन बिखरकर गिर जायेगा। आप रोक सकते हो ? प्रकृति स्वयं हमें इस सच्चाई को बता रही है। इस लिए हम शरीर को अनित्य कहते हैं। ये सत्य नहीं है , ये सत्य के समान दीखता है। ये भी स्थूल स्तर की बात है , अब क्रमश हम सूक्ष्म स्तरों पर चलेंगे। हमारा मनन और भी प्रखर होगा। जैसे जैसे हमलोग आगे बढ़ेंगे उसमें और भी स्पष्टता आयेगी। हम संसार की चीजों को और भी सही रूप में देख पाएंगे।
(6. 55 मिनट) इसके पहले वाले सत्र में हमने देखा कि एक योग्य शिष्य गुरु के पास आकर सात प्रश्न करता है। प्रथम प्रश्न क्या है ? -बन्धन क्या है? दूसरा ? -यह कैसे हुआ? तीसरा ? इसकी स्थिति कैसे है? चौथा ?-और इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है? पाँचवाँ ?अनात्मा क्या है? छठा ?परमात्मा किसे कहते हैं? सातवाँ ? और उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? फिर हमने देखा की गुरु पहले चौथे प्रश्न को उठाते हैं। उसका कारण हमने उस 'शिकारी की कहानी' की माध्यम से समझा - क्योंकि वही सबसे जरुरी है। क्योंकि इस समय हम सभी लोग बंधन में हैं- हमारा दम घुट रहा है। हमसभी लोग कष्ट में हैं। तो उस बंधन से बाहर आना , उस शिष्य की प्राथमिकता है। इसलिए गुरु पहले इस चतुर्थ प्रश्न को लेते हैं। और चतुर्थ प्रश्न उत्तर उन्होंने क्या दिया ? इस बंधन से मुक्त होने के प्रयास में सबसे प्रमुख चीज क्या है ? अत्यन्त वैराग्य ! तीव्र वैराग्य ! किसके प्रति ? इस प्रकार के सुंदर-सुंदर लेकिन अनित्य वस्तुओं के प्रति। आप उस फूल को पकड़ने के लिए जाओगे तो वो हाथ से निकल जायेगा। वो फूल , या मकड़ी तो एक उदाहरण हुआ। आप किसको पकड़ सकते हो ? किसी भी व्यक्ति को-नवनीदा को ? या किसी भी व्यक्ति को आप पकड़ने जाओगे - तो आपके हाथ से वह चला जायेगा। यह जान लेने के बाद - जब इस विवेक से इस जगत की हर वस्तु के प्रति आपके अंदर एक वैराग्य का भाव होना चाहिए। मोक्ष का मुख्य रहस्य -'वैराग्य' उत्पन्न होता ही है -विवेक से !!' विवेक जब होता है -तो स्वाभाविक रूप से वैराग्य आ जाता है। और वैराग्य होने के बाद बाकि जितनी षट्सम्पत्ति आदि चीजें हैं वे अपने आप वहाँ एकत्रित हो जाते हैं। और फिर जो व्यक्ति साधन -चतुष्टय से धनी हो चुका हो; वो फिर कभी स्वार्थपूर्ण कर्म या सकाम कर्म , नहीं कर सकता है। चौथे प्रश्न के उत्तर में गुरु देव कहते हैं कि वो व्यक्ति कभी स्वार्थकर्म नहीं कर सकता। अपने इन्द्रिय-सुख के पीछे पागल के समान दौड़ नहीं सकता , अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता। फिर वो जो भी करेगा निष्काम भाव से करेगा , निःस्वार्थ भाव से करेगा।
(8.37 मिनट) फिर ऐसी मनःस्थिति में- 'शिकारी की कहानी ' सुन लेने के बाद जब वो शास्त्र के शब्दों का श्रवण करेगा, गुरु के शब्दों को ग्रहण करेगा , तो क्या होगा ? पहले मनन होगा -पहले शास्त्र के शब्दों को श्रवण करेगा , ग्रहण करेगा , मनन करेगा , फिर ध्यान करेगा। उन शब्दों पर ध्यान करने के फलस्वरूप उसको अपने सत्यस्वरूप का अनुभव होगा। और इसी जीवित अवस्था में ही वो निर्वाण सुख को प्राप्त करेगा। उस ध्यान से लौटने के बाद वो छोटा सा बुलबुला यह जान जायेगा कि मैं वो बुलबुला नहीं हूँ मैं वही अनंत सच्चिदानन्द सागर हूँ ! मैं यह नश्वर शरीर नहीं हूँ , मैं वही अजर, अमर , अविनाशी , नित्य, शुद्ध , बुद्ध - मुक्त वही सच्चिदानन्द ब्रह्म ही हूँ। यह अनुभूति उसको हो जाएगी। इसप्रकार वह 'अहं ' जो बुलबुला में फँसा हुआ था , अब उस अहं ने जान लिया कि मैं बुलबुला नहीं हूँ ! मैं तो वह अनंत सागर हूँ। [दादा कहते थे -बुलबुला का 'अहं ' वहाँ नहीं पहुँच सकता -आत्मा ही जान लेती कि वह सच्चिदानन्द परमात्मा या ब्रह्म के साथ एक और अभिन्न है। ] इस प्रकार हम उस M/F वाले नाम-रूप वाले बुलबुले के बंधन से हम मुक्त हो जाते हैं। तो ये प्रक्रिया गुरु ने बता दी। अब देखिये जिस प्रकार गुरुदेव ने चतुर्थ प्रश्न का उत्तर पहले दे दिया। उसके बाद भी गुरुदेव अपने क्रम से उत्तर दे रहे हैं। शिष्य ने क्रम से प्रश्न किया था , उस क्रम के अनुसार नहीं दे रहे हैं। अब वो पंचम प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। पंचम प्रश्न क्या था ?- अनात्मा क्या है ? अच्छा अनात्मा को पहले क्यों ले लेते हैं ? क्योंकि हमारे अंदर जितनी भी भ्रांतियाँ हैं , सब अनात्मा को लेकर ही हैं। अनात्मा मतलब ये जो भी चीजें दिखाई दे रही हैं -इनको लेकर इतने प्रश्न हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। सारे प्रश्न इस अनित्य अनात्मा को लेकर ही हैं। अनात्मा को लेकर ही हमारे मन में सारी भ्रांतियाँ हैं। इसीलिए देखा जाय की -अनात्मा क्या है ? थोड़ा हम इसमें प्रवेश करके देखें , थोड़ा Investigation करके देखें। अब यहाँ से Penetrating Investigation- गहन जाँच की प्रक्रिया शुरू होती है। जो कुछ हमको जगत के रूप में दिख रहा है उसकी Real Nature क्या है ? गहन जाँच अब शुरू होती है। बहुत रोचक है अनात्मा के जाँच की प्रक्रिया -Very Interesting Investigation !
(11.40 मिनट ) जब अनात्मा की बात करते हैं - तो उसमें सबसे स्वभाविक चीज है , हमारा अपना स्थूल M/F शरीर। इस अनात्मा सबसे स्वाभाविक यह शरीर ही है , हमलोग सब इसी में फंसे हुए हैं कि नहीं ? मैं का अर्थ तो हमने ये लगा लिया ! हमारा शरीर जो अनात्मा है , जड़ है नश्वर है , उसीको हमलोग आत्मा मानकर चल रहे हैं। अभी हमारी दशा यही है - अनात्मा को ही हमलोग आत्मा मानकर चलरहे हैं। ये स्थूल शरीर अनात्मा है। क्यों ? ये तो निरंतर चला जा रहा है। अभी हमलोग इस स्थूल शरीर को ही आत्मा मानकर बैठे हैं , अभी हमलोग मगरमच्छ को ही लक्क्ड़ समझकर बैठे हैं। मगरमच्छ को लकड़ा समझकर उसके पीठ पर बैठोगे तो क्या होगा ? उसके पेट में जाओगे। बिल्कुल यही हो रहा है। जब हम मगरमच्छ को लकड़ा समझकर उसके पीठ पर बैठेंगे - तो दुःख ही होगा। जब तक आप अनात्मा को आत्मा समझकर बैठे रहोगे , ये दुःख कभी खत्म नहीं होगा। इसलिए पहले हम अनात्मा को ही जानने का ही प्रयास करेंगे , ये क्या चीज है जिसको हम 'मैं' समझकर बैठे हुए हैं। थोड़ा इस मैं के अंदर झाँक कर देखें , तब धीरे धीरे स्पष्टता आने लगेगी। सही Investigationअब यहाँ से शरू हो रही है। अब भगवान शंकराचार्यजी बहुत सुंदर बात कहते हैं -
यद्बोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम् ।
तदुच्यते मया सम्यक् श्रुत्वात्मन्यवधारय ॥ ७३ ॥
[पदविभाग:-यत् बोद्धव्यं तव इदानीम् आत्मानात्मविवेचनम्। तत् उच्यते मया सम्यक् श्रुत्वा आत्मनि अवधारय।
तात्पर्यम्- तव मोक्षहेतु-ज्ञानबोधात्प्राक् यत् ज्ञातव्यं तत् आत्म-अनात्म-भेदज्ञान-अनुकूलव्यापार: मया सम्यक् उच्यते । तत् सम्यक् , श्रुत्वा मनसि अवधारय ।]
अर्थ:-जो आत्मानात्मविवेक अब तुझे जानना चाहिये वह मैं समझाता हूँ, तू उसे भलीभाँति सुन कर अपने चित्त में स्थिर कर।
[विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मानात्मविवेक की महत्ता को उद्घाटित करता है। इसमें आत्मा और अनात्मा का भेद करना—यानी यह जानना कि वास्तव में "मैं कौन हूँ"—इस
ज्ञान के मार्ग का मूल उद्देश्य है। शंकराचार्य शिष्य से कहते हैं कि अब
जो ज्ञान तुझे प्राप्त करना है, वह है आत्मा और अनात्मा के बीच का विवेक,
जिसे जानना अत्यावश्यक है। यह विवेक न केवल शास्त्रों के अध्ययन से, बल्कि
गुरु के उपदेश, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के माध्यम से स्पष्ट होता है।
श्लोक
में शंकराचार्य कहते हैं: "यद्बोद्धव्यं तवेदानीम्" अर्थात् अब तुझे जो
जानना आवश्यक है, वह है "आत्मानात्मविवेचनम्"—आत्मा और अनात्मा का विवेक।
‘आत्मा’ वह है जो सदा है, जो चेतन है, जो साक्षी रूप से समस्त अनुभवों का
अवलोकन करता है, और ‘अनात्मा’ वह है जो बदलता है, जो जड़ है, जो नश्वर
है—जैसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि इत्यादि। मनुष्य की भूल यह होती है
कि वह अनात्मा को आत्मा समझ बैठता है और उसी में अपनी पहचान बना लेता है।
यह
भ्रम ही संसार में बन्धन और दुःख का कारण बनता है। जब तक यह भेद नहीं
स्पष्ट होता, तब तक आत्मा के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए
शंकराचार्य कहते हैं कि "तदुच्यते मया सम्यक्"—मैं अब इसे तुझे सम्यक् रूप
से, अर्थात् पूर्ण स्पष्टता और सम्यक् तर्क के साथ बताने जा रहा हूँ। यहाँ
गुरु की कृपा और मार्गदर्शन का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि आत्मा और
अनात्मा का विवेक कोई सतही विचार नहीं, बल्कि गहन चिंतन और अनुभूति का विषय
है।
श्लोक का अंतिम भाग कहता है: "श्रुत्वात्मन्यवधारय"—इस विवेक
को सुनने के बाद तू अपने अंतःकरण में इसे दृढ़ता से धारण कर। इसका तात्पर्य
यह है कि केवल श्रवण से काम नहीं चलेगा; इस ज्ञान को हृदय में उतारकर
उसमें स्थिर होना पड़ेगा। जैसे किसी बीज को धरती में रोपने के बाद उसकी
निरंतर देखभाल करनी होती है, वैसे ही आत्मानात्मविवेक को जीवन में स्थिर
करने के लिए नित्य चिंतन और अभ्यास करना आवश्यक है।
यह श्लोक शिष्य
को आत्मज्ञान की दिशा में प्रवेश कराने वाला एक द्वार है। यहाँ शंकराचार्य
यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मानात्मविवेक ही वह आरम्भिक बिन्दु है जहाँ से
ज्ञान की यात्रा प्रारंभ होती है। यही विवेक भवबन्धन से मुक्ति का माध्यम
है। जब साधक इस विवेक को अपने हृदय में स्थिर कर लेता है, तब वह शरीर, मन,
बुद्धि आदि को अनात्मा समझते हुए स्वयं को उनके साक्षी आत्मा के रूप में
अनुभव करने लगता है। यही अनुभव उसे परम शान्ति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
इस
प्रकार, यह श्लोक आत्मबोध की दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत है जो साधक को
अपनी साधना के मार्ग पर एकाग्रता, श्रद्धा और स्थिरता के साथ आगे बढ़ने की
प्रेरणा देता है। ]
अब गुरु कह रहे हैं - देखो भई ! 'यत् बोद्धव्यं' - माने जिसके विषय में हमें जानना है ; किसके विषय में हमें जानना है ? यही कि आत्मा क्या है ? और अनात्मा क्या है ? इन दोनों को लेकर ही गोलमाल हो गया है। एक शब्द कहने जाओ -गोलमाल ! सब उल्टा हो गया है। एक चीज को दूसरा समझ लेना इसीको गोलमाल कहते हैं। आत्मा और अनात्मा के बीच गोलमाल हो गया है। अब इन दोनों को अलग करके देखना है -आत्मा क्या है , अनात्मा क्या है ? ये स्पष्टता आनी चाहिए। देखिये यहाँ भी विवेक ही चल रहा है। 'यत् बोद्धव्यं' -जिसके विषय, किं वेद्धव्यं ? क्या जानना है ? 'आत्मा अनात्म विवेचनं' आत्मा क्या है ? अनात्मा क्या है ? इन दोनों को अलग करके स्पष्ट रूप से हमें देखना है।
तत् उच्यते मया सम्यक् ' मैं इस विषय में अब तुमसे मैं स्पष्ट रूप से कहने वाला हूँ। अभी गुरु-शिष्य संवाद चल रहा है न , शिष्य ने गुरु के पास आकर जिन प्रश्नों को पूछा था उसी का उत्तर दिया जा रहा है। ये पाँचवे प्रश्न का उत्तर है। अब मैं तुम्हें बताने वाला हूँ कि आत्मा क्या है ? अनात्मा क्या ? तूँ ध्यान से सुन और खुद इसके निश्चय पर पहुँच। श्रुत्वा आत्मनि अवधारय ! श्रुत्वा - तूँ ध्यान से सुन। ये बात हमारे लिए ही है। गुरुदेव का ये निर्देश हम सभी पर लागु होता है कि बेटा अब तूँ ध्यान से सुन। मैं जो बोल रहा हूँ कि आत्मा क्या है ? अनात्मा क्या है ? इस विषय को बहुत ध्यान पूर्वक - पूर्ण सचेतन होकर सुन। और सुन करके तूँ खुद अपनी अवधारणा कर ले। You come to your own conclusion ! सनातन धर्म का विशेषता भी यही है। इसमें किसी पर कुछ थोपा नहीं जाता है। गुरु शिष्य पर अपने विचार को थोप नहीं रहे हैं। आप को बता दे रहे हैं -आप खुद निर्णय कीजिये। इसमें अंध्विश्वास के लिए कोई स्थान ही नहीं है। everything is Verifiable-सब कुछ सत्यापन करने योग्य है। हर चीज को आप परखकर देख सकते हो। गुरु कहरहे हैं -मैं जो बता रहा हूँ तूँ उसको खुद परखकर देख ले। और खुद अपने निर्णय पर पहुँच। ये बात गुरु हमसब से कह रहे हैं -तूँ खुद अपने निर्णय पर पहुँच। मैं जो बता रहा हूँ , वो ध्यान से सुन और खुद परख कर देख। और स्वयं अपने निर्णय तक पहुँचो। ये पद्धति है हमारे सनातन धर्म में ब्रह्म-विद्या सिखाने वाली गुरु परम्परा की पद्धति यही है।
(16.49 मिनट) जब हम अनात्मा की बात करते हैं , तो उसमें प्रथम अनात्म या जड़ वस्तु हमारा यह स्थूल शरीर ही आता है। है न ? स्थूल शरीर ही हमरे लिए सबसे स्वाभाविक अनात्मा है। इसीको लेकर के हम सबसे ज्यादा भ्रमित हैं , बाहर के अनित्य वस्तुओं की बात को तो अभी छोड़ो। अभी तक जितनी मनन की प्रक्रिया हो रही थी , उसमें हम बाहर की वस्तुओं के बारे में हम विचार कर रहे थे सूर्य , चंद्र , तारे ब्रह्माण्ड ये सब नित्य हैं या अनित्य है ?
अरे भाई आने इस शरीर की बात करो। यह शरीर क्या है ? इसको लेकर हमारे अंदर कहीं न कहीं हमारी बुद्धि में यह बात निश्चय पूर्वक बैठी हुई है कि - ये सत्य है , बाकि सब मिथ्या है। हमको कभी ऐसा नहीं लगता कि मेरा शरीर भी मिथ्या है। है कि नहीं ? (श्रोता -मरना नहीं चाहते हैं ?) कहीं न कहीं हमारे मन में यह बात बैठ गयी है कि ये शरीर भी अनित्य है। आप यह तो सोच लेते हो कि जो कुछ दिख रहा है , वो सब अनित्य है। लेकिन यह जो 'मैं'- देह के नामरूप में जो अहं बुद्धि है , ये भी अनित्य है। लेकिन बुद्धि ये बात घुसती ही नहीं है। तो हम यहीं से शुरुआत करें। देखो हमलोग इसी 'मैं' को लेकर तो भ्रमित हैं। तो फिर यहीं से शुरू करते हैं - ये शरीर क्या मैं हो सकता है क्या ? ये शरीर भी अनात्मा है। यह भी उतना ही अनित्य है जितना बाहर की वस्तु अनित्य है। तो गुरु यहीं से शुरू करते हैं कि ये स्थूल शरीर क्या है ?
आपलोग सोच सकते हो कि स्थूल शरीर का वर्णन करने की क्या जरूरत है ? स्थूल शरीर तो हम जानते ही हैं। ये महापुरुष लोग जब कोई बात कहते हैं -तो उसके पीछे कोई बहुत बड़ा कोई कारण होगा। ऋषि लोग हैं न , वे ऐसे ही मन से गढ़कर कोई बात नहीं बताते हैं। ऋषि सत्य को जानते हैं , असत्य को भी जानते हैं ; हमलोग तो अंधकार में हैं। लेकिन अंधकार में रहकर भी हम ऐसा सोचते हैं कि हम बहुत कुछ जानते हैं। ये सच्चाई से उल्टा है , हम कुछ भी नहीं जानते हैं। ऋषि लोग जब कुछ बताते हैं तो उसके पीछे एक मुख्य कारण होता है। स्थूल शरीर का वर्णन करते हुए ऋषि आचार्य, लेकिन बालक शंकर ? कह रहे हैं -
मज्जास्थिमेदः पलरक्तचर्म-त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम्
पादोरुवक्षोभुजपृष्ठमस्तकै -रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत्
॥ ७४ ॥
अहंममेति प्रथितं शरीरं मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।
[पदविभाग:-मज्जा अस्थि मेद: पल-रक्तचर्म/-त्वगाह्वयै: धातुभि: एभि: अन्वितम् /पादोरुवक्षो-भुजपृष्ठ-मस्तकै:/अङ्गै: उपांगै: उपयुक्तम् एतत्/ अहं मम इति प्रथितं शरीरं/ मोहास्पदं स्थूलम् इति ईर्यते बुधै:]
अन्वय:- मज्जा -अस्थि-मेद: पल-रक्तचर्म-त्वक् -आह्वयै: एभि: धातुभि: अन्वितं/ पादोरुवक्षो-भुजपृष्ठ-मस्तकै: अङ्गै: उपांगै: उपयुक्तम् अहं मम इति प्रथितं/ मोहास्पदं एतत् शरीरं स्थूलम् इति बुधै: ईर्यते ।
तात्पर्यम्-आस्मिन् श्लोके भगवान् श्रीआदिशङ्कराचार्य: स्थूलशरीरस्य निर्वचनं वदति । मज्जा -अस्थि-मेद: माम्स-रक्तचर्म-त्वक् -आह्वयै: एभि: सप्तधातुभि: अन्वितं/पादोरुवक्षो-भुजपृष्ठ-मस्तकै: अङ्गै: उप-अङ्गै: उपयुक्तम् अहं मम इति/ प्रथितं मोह-आस्पदं एतत् शरीरं स्थूलम् इति बुधै: कथ्यते ।
अर्थ:-मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा-इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त, 'मैं और मेरा' रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रय रूप देह को विद्वान् लोग 'स्थूल शरीर' कहते हैं।
यह श्लोक आदिशंकराचार्य के प्रसिद्ध ग्रंथ विवेकचूडामणि का है, जिसमें वे आत्मा और अनात्मा के विवेक के माध्यम से आत्मबोध की ओर साधक को निर्देशित करते हैं। इस श्लोक में उन्होंने 'स्थूल शरीर' की यथार्थ पहचान कराई है, जिससे मनुष्य सामान्यतः 'मैं' और 'मेरा' की भावना जोड़ता है। यह देह वास्तव में सात धातुओं—मज्जा (गूदा), अस्थि (हड्डियाँ), मेद (चर्बी), मांस (मांसपेशियाँ), रक्त (खून), चर्म (त्वचा), और त्वक् (बाहरी चमड़ी)—से बना हुआ है। ये सभी तत्व प्रकृति के ही अंग हैं और निरंतर परिवर्तनशील हैं।
इस शरीर में जो अंग-प्रत्यंग हैं—पाँव, जाँघें, वक्षःस्थल, भुजाएँ, पीठ और मस्तक आदि—ये सब केवल शरीर की रचना के बाह्य और आंतरिक अवयव हैं। इन सबका सम्मिलित रूप, जिसमें अनेक जीव-विकार, विकृति और विनाश की प्रवृत्ति अंतर्निहित होती है, वही यह स्थूल शरीर है। परंतु अज्ञानवश जीव इस शरीर को ही 'मैं' समझ बैठता है और इसके संबंधों को 'मेरा' मानता है। यही 'अहं' और 'मम' की भ्रांति का मूल कारण है। 'अहं शरीर हूँ' और 'यह मेरा है'—इन दोनों मिथ्या विचारों का केन्द्र यही शरीर है।
शंकराचार्य इसे 'मोहास्पदं' कहते हैं—अर्थात यह शरीर अज्ञान से उत्पन्न मोह का आश्रय है। यह मोह ही जीव को बंधन में डाल देता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप—शुद्ध, अच्युत, निरपेक्ष आत्मा—को भूलकर इस नश्वर शरीर से अपनी पहचान जोड़ लेता है। यही जीव की सबसे बड़ी त्रुटि है, क्योंकि शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा, और आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है।
इस श्लोक का उद्देश्य साधक को यह स्मरण कराना है कि जब तक वह शरीर को ही 'स्वरूप' मानता रहेगा, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहेगा। विद्वान लोग—'बुधाः'—इस देह को केवल एक 'स्थूल शरीर' मानते हैं, न कि आत्मा। वे जानते हैं कि यह शरीर पंचमहाभूतों और सप्तधातुओं से बना है, नाशवान है, और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। इसलिए वे इससे अपनी पहचान नहीं जोड़ते।
इस विवेचन का मर्म यही है कि साधक को चाहिए कि वह इस देह को मात्र एक उपकरण की भाँति देखे, जिससे आत्मसाधना की जा सकती है, न कि अपने स्वरूप के रूप में। देह के प्रति इस दृष्टिकोण का विकास ही विवेक है, जो साधना के पथ पर आरूढ़ होने की प्रथम आवश्यकता है। जब 'मैं शरीर नहीं हूँ' का अनुभव भीतर दृढ़ होता है, तब ही आत्मज्ञान की यात्रा प्रारंभ होती है। यही विवेकचूडामणि की शिक्षाओं का सार है।]
नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः सूक्ष्माणि,
भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा,
स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः।
मात्रास्तदीया विषया भवन्ति,
शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥
[पदविभाग:-नभ:-नभस्वत्-दहन-अंबु-भूमय: /सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि/
परस्परांशै: मिलितानि भूत्वा/ स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतव:/ मात्रा: तदीया: विषया: भवन्ति/ शब्दादय: पंच सुखाय भोक्तु:/
अर्थ:-आकाश,
वायु, तेज, जल और पृथिवी- ये सूक्ष्म भूत हैं। इनके अंश परस्पर मिलने से
स्थूल होकर स्थूल शरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएँ भोक्ता
जीव के भोग रूप सुख के लिये शब्दादि पाँच विषय हो जाती हैं।
विवेकचूडामणि
के श्लोक ७५ और ७६ में आदि शंकराचार्य जीव और शरीर की रचना को अत्यंत
सूक्ष्म और दार्शनिक दृष्टिकोण से स्पष्ट करते हैं। यहाँ पर पंचमहाभूतों और
उनकी तन्मात्राओं के माध्यम से स्थूल शरीर की उत्पत्ति की व्याख्या की गई
है, जो वेदान्त दर्शन के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है।
श्लोक
७५ में कहा गया है कि आकाश (नभ), वायु (नभस्वत्), अग्नि (दहन), जल (अम्बु)
और पृथ्वी (भूमि) — ये पाँच सूक्ष्म भूत होते हैं। 'सूक्ष्म' का अर्थ यहाँ
यह है कि ये इन्द्रियगोचर नहीं होते, अर्थात् इन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से
देख या छू नहीं सकते, परंतु इनसे उत्पन्न होने वाले प्रभावों को अनुभव किया
जा सकता है। आकाश से शब्द, वायु से स्पर्श, अग्नि से रूप, जल से रस और
पृथ्वी से गंध — ये पाँच विषय उत्पन्न होते हैं। ये पंचमहाभूत पहले सूक्ष्म
रूप में रहते हैं और फिर इनकी रचनात्मक प्रक्रिया के द्वारा वे स्थूल रूप
में परिवर्तित होते हैं। इनका यह सूक्ष्म स्वरूप समस्त भौतिक जगत की
आधारशिला है।
फिर श्लोक ७६ में बताया गया है कि ये पंचमहाभूत परस्पर
मिलकर, एक-दूसरे के अंशों से युक्त होकर स्थूल रूप ग्रहण करते हैं। इस
प्रक्रिया को 'पंचीकरण' कहते हैं। पंचीकरण का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक
स्थूल भूत में अन्य चार भूतों के अंश भी रहते हैं, जिससे यह भौतिक जगत की
विविधता और स्थूलता उत्पन्न होती है। इन स्थूल पंचमहाभूतों के मेल से जो
शरीर बनता है, वही स्थूल शरीर कहलाता है। यह स्थूल शरीर ही जीव के कर्मों
का क्षेत्र बनता है, जहाँ वह भोग और अनुभव करता है। यही शरीर सुख-दुख,
शीत-उष्ण, राग-द्वेष आदि का अनुभव करने का साधन बनता है।
आगे कहा
गया है कि इन पंचमहाभूतों से उत्पन्न होने वाली तन्मात्राएँ — शब्द,
स्पर्श, रूप, रस और गंध — जीव के भोग के विषय बनती हैं। शब्द आकाश का गुण
है, स्पर्श वायु का, रूप अग्नि का, रस जल का और गंध पृथ्वी का। ये विषय जब
इन्द्रियों से संयोग करते हैं, तब जीव को सुख और दुःख का अनुभव होता है।
जीव की चित्तवृत्तियाँ इन विषयों की ओर आकर्षित होती हैं, और यह आकर्षण ही
बन्धन का कारण बनता है। सुख की कामना और दुःख से बचने की प्रवृत्ति ही
संसार में जीव को बार-बार जन्म लेने को बाध्य करती है।
यहाँ ध्यान
देने योग्य बात यह है कि शंकराचार्य इन श्लोकों के माध्यम से केवल स्थूल
शरीर की भौतिक रचना का वर्णन नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे इसके पीछे छिपी हुई
आत्मज्ञान की गूढ़ दृष्टि को भी सामने ला रहे हैं। वे यह दिखाना चाहते हैं
कि यह स्थूल शरीर भी अंततः पंचमहाभूतों से बना है, जो स्वयं परिवर्तनशील
और नश्वर हैं। जिस सुख के लिए जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों में आसक्त होता
है, वह भी पंचभौतिक तत्वों से उत्पन्न है और इसलिए क्षणिक और असत्य है। इस
प्रकार, इस ज्ञान से साधक के भीतर वैराग्य उत्पन्न होता है और वह जानने
लगता है कि सत्य स्वरूप आत्मा इन पंचभूतों से परे है।
इस विवेचन से
यह स्पष्ट होता है कि स्थूल शरीर, विषय, इन्द्रियाँ, और उनका पारस्परिक
संबंध सभी माया के अधीन हैं। माया पंचमहाभूतों की रचना करती है, और जीव को
इस पंचभौतिक शरीर से तादात्म्य करके संसार में बाँध देती है। परन्तु जब जीव
यह जान लेता है कि ये सब क्षणिक हैं और आत्मा इनसे भिन्न है, तब वह इस
शरीर और विषयों को साधन रूप में देखता है, भोग के साधन के रूप में नहीं।
इस
प्रकार इन श्लोकों का उद्देश्य साधक को यह बोध कराना है कि शरीर
पंचमहाभूतों से बना हुआ है, और इसके विषय भी उन्हीं से उत्पन्न होते हैं।
अतः न तो शरीर सत्य है और न ही इन्द्रियजन्य सुख। जो वस्तु नित्य नहीं है,
वह आत्मा नहीं हो सकती। इस विवेक से ही आत्मज्ञान का आरम्भ होता है। यही
विवेकचूडामणि का लक्ष्य है — जीव को आत्मा और अनात्मा के बीच भेद का स्पष्ट
बोध कराना, ताकि वह आत्मा को जानकर मोक्ष प्राप्त कर सके। ]
(20.14 मिनट ) इन तीन श्लोकों में स्थूल शरीर का वर्णन किया गया है। स्थूल शरीर क्या है ? ऊपर से देखोगे तो आपको लगेगा , ये तो बहुत सरल बात है। इसके विषय में शास्त्र को बताने की क्या जरूत है ? क्यों ये बताया जा रहा है , इसके पीछे भी एक कारण है। हमलोग अपने ही स्थूल शरीर के विषय में कभी इस प्रकार सोचते नहीं हैं। अब हमे सोचना होगा। यह एक खोज है कि स्थूल शरीर के अंदर क्या है ? Its a bold Investigation ! यह एक साहसिक जांच है ऐसे जाँच करना बड़े हिम्मत की बात है। जो भी सत्यान्वेषी होगा , जो भी सत्य को जानना चाहता है - वह पूरे साहस के साथ , पूरी प्रमाणिकता के साथ इस खोज में लगेगा। इसमें अभी अच्छा-बुरा , उचित -अनुचित की बात नहीं हो रही है। हमलोग इस सच्चाई को देखेंगे कि ये शरीर क्या है ? हमने शायद आज तक , अपने शरीर के विषय में ऐसा कभी सोचा नहीं होगा। अब थोड़ा झांककरके देखते हैं कि इस शरीर के अंदर है क्या ? तो कहते हैं देखो ये शरीर किस चीज से बना हुआ है ? इसमें मज्जा है। मज्जा तो आपलोग जानते ही हो , जो हड्डी के अंदर होता है , जिसको हमलोग अंग्रेजी में 'marrow' हड्डी के अंदर का जो सारभूत अन्तर्वस्तु , या मौलिक content, Substantive content, होता है। उसको अस्थि मज्जा या Bone marrow' या सिर्फ marrow' भी कहते हैं। अब थोड़ा से आपको Visualize करना होगा , कल्पना करें , हमलोग अभी तक तो आईने में सिर्फ अपने बाहर का चेहरा देख रहे थे। आपके अंदर , मेरे अंदर , इस ढाँचे के अंदर क्या ? इसकी कल्पना कीजिये , अंदर प्रवेश कीजिये। आप जिस स्थूल शरीर को मैं , मैं , मैं, मैं कहते हो इसके अंदर क्या है ?
शुरुआत करते हैं हड्डियों के अंदर रहने वाले मज्जा से , marrow हैं , फिर अस्थियाँ हैं , हड्डियों का पूरा मानव-कंकाल आप कल्पना कर सकते हो ? करो। कीजिये boldly कीजिये , आईने में या फोटोग्राफ में आपका जो मैं है , वह नहीं थोड़ा अपना कंकाल भी देखिये। ये क्यों करें ? इससे हमारे अंदर वैराग्य उत्पन्न होगा। आज जो अपने बाहर के रूप से हम स्वयं सम्मोहित हैं; हर व्यक्ति अपने ही बाहर के रूप से सम्मोहित है कि नहीं ? ये वास्तविकता है कि नहीं बताइये। आप कभी भी स्वयं को कंकाल के रूप में देखोगे ? लेकिन ये सच्चाई है। -It's a bold simple truth ! मज्जा है , हड्डियाँ है , फिर क्या है ?
मेद ? मेद क्या है ? चर्बी-fat ! तो चर्बी की बात पर मुझे एक घटना याद आ गयी। मायावती में हमारा अस्पताल है। आपलोग उस अस्पताल को देखे है? वहाँ से ड्रिप भी लेना पड़ा ? पिछले साल हमारे यहाँ Laparoscopy प्रोसेस से पहली बार एक ऑपरेशन किया गया। Laparoscopic Surgery यहां पर हुई , Appendix की नहीं Gallbladder, या पित्ताशय की थैली का एक ऑपरेशन हुआ एक महिला के ऊपर। तो विदेश एक डॉक्टर आये थे , London से आये थे। तो पहली बार जब Laparoscopic machine लाया गया।
उसमें पेट चीरने की जरूरत नहीं होती , एक छोटा सा छेद कर देते हैं। फिर बाकि सब स्क्रीन में दिखाई देता है। हमारे हॉस्पिटल में पहली बार हो रहा था , तो डॉक्टर ने कहा स्वामीजी आपको आना चाहिए। पहली बार लेप्रोस्कोपिक सर्जरी हो रही है , तो आप कृपा करके एक बार देखने आइये। तो मैं भी गया। करीब डेढ़ घंटा ये ऑपरेशन चला , मगर सच पूछिए तो 'It was an Education' ! इस शरीर के अंदर क्या है ? यह जानना भी एक शिक्षा है।
डॉक्टर पहले एक छिद्र करते हैं। छिद्र करके कैमरा को उसके अंदर घुसा देते हैं - कैमरा को घुसाते ही Screen पर सब दिखने लगता है। तो पहले ये जो चमड़ा है , चमड़ा का स्तर पार करते ही इतना मोटा चर्बी का , एक लेयर है। वो डॉक्टर मुझे सबकुछ बता रहे थे। इसी को Facts या तथ्य कहते हैं। Now we are crossing the layer of fats and we are going deeper .अब हम चर्बी (वसा) की परत को पार कर रहे हैं और हम और गहराई में जा रहे हैं। This is Intestine, this is the Liver, यह आंत है, यह यकृत है। This is what is called Gallbladder .इसे ही पित्ताशय कहते हैं। सब कुछ मुझे स्क्रीन पर दिखा रहे हैं। क्या अद्भुत शिक्षा है ? ये जो हमलोग अभी पढ़ रहे हैं ? हमारे शरीर के अंदर क्या है ? हमलोग कभी भी उस दृष्टिकोण से कभी भी स्व के विषय में सोचते नहीं हैं। स्व के विषय में जब सोचते हैं , तो हमारा सुंदर जो चेहरा आईने में दीखता है , वही देखते हैं। वही देखना चाहते हैं। वही दिखाना चाहते हैं। कोई शंशय ? इसमें अच्छा -बुरा लगने का प्रश्न नहीं है। आप सत्य को जानना चाहते हो। [लेकिन ऑपरेशन के बाद रेकवरी रूम का कष्ट ? एनेस्थीसिया का असर खत्म होने के बाद का दर्द कैसा महसूस होता है ?] आप सत्य को जानना चाहते हो , भ्रम में रहना नहीं चाहते , इसीलिए इतना वर्णन करते हैं। ताकि आप सोचिये कि जिस बुलबुले में आपका 'मैं' अटका हुआ है , वो क्या है ? ये विचारणीय है , देखिये मनन सिर्फ बाहर का नहीं है। सही मनन तो अब शुरू होता है। इसका जो प्रतिफलन होगा , हम अभी देखेंगे। तो डॉक्टर हमें सब दिखा रहे थे , कितना अद्भुत था वो ?
वो डॉक्टर बड़े एक्सपर्ट थे , बड़े आराम से जैसे कि खेल रहे हों -बड़े आराम से ये intestine है , वो गॉलब्लडर जो किडनी से चिपका हुआ है , उसको काट देते हैं , उसके अंदर से पित्त निकल रहा है , उसके अंदर गॉलब्लडर स्टोन है। उसका पूरा काट करके निकाल देते हैं। पूरा डेढ़ घंटे का सर्जरी था। It was real education, to see that ! (27. 37 मिनट) इस स्थूल शरीर के अंदर क्या है ? हम कभी सोचते नहीं हैं। तो ये शरीर कैसे बना है ? अस्थि है, मज्जा है , मेद है। यानि चर्बी है। फिर हमारा पल याने मांस है। अंदर चर्बी है , मांस है। फिर क्या रक्त है। बहुत बड़ो मात्रा में जल ही है। फिर क्या है ? चर्म है। चर्म का ही एक लेयर और है जिसको अंग्रेजी में Cuticle - उपत्वचा कहते हैं। जो नाखूनों के नीचे होता है। र्धातुभिरेभिरन्वितम् ' इन सारे चीजों से बना हुआ है ये स्थूल शरीर। अंदर के गठन में क्या क्या हुआ ? उसमें मज्जा है , अस्थि है , मेद है , पल है मांस है ,रक्त है , चर्म है ,जिसको वगाह वय Cuticle - उपत्वचा, इन सरे चीजों से ये स्थूल शरीर बना हुआ है।फिर उसके विभिन्न अंग हैं और उपांग है। The main limbs and subsidiary limbs. फिर पैर हैं। उरु का मतलब जंघा - वक्ष , छाती , भुजा , पीठ , मस्तक , सिर , आदि इसके अंग और उपांग हैं। अगर हम अंदर झाँकने लगेंगे तो हमारी सुंदरता की परिभाषा ही बदल जाएगी। जैसे एक लौकिक उदाहरण दिखिए - कोई Miss Universe है , कोई Mister Universe है। जो बाहर से खूबसूरत दिख रहे हैं , उनको हमलोग सम्मानित कर देते हैं। कितना तामझाम होता है दुनिया में , बड़े बड़े फंक्शन होते हैं ,खूबसूरती क्या है ? चमड़े के पीछे कोई भी आकर्षक वस्तु है ? तो बताइये। चमड़े क thickness 2 mm भी नहीं होगा। उसके नीचे कोई एक भी वस्तु है जो आकर्षक है ? तो हम किससे आकृष्ट हो रहे हैं ? बहुत बड़ा प्रश्न है। देखिये ये सब मनन रहा है , हम सत्य को खोजने का प्रयास कर रहे हैं। हमलोग अटके हुए कहाँ हैं ? हमलोग सभी कोई इस 2 mm चमड़े ही सभी लोग अटके हुए हैं। कोई शंका ? सभी लोगों की बुद्धि या Attention कहाँ पर फँसा हुआ है ? 2mm के चमड़े तक ही हमारी दृष्टि सीमित है। इस चमड़े को देखकर ही सब मोहित हैं ,M/ F से मोहित है , स्त्री पुरुष से मोहित है। इस 2mm के चमड़े के पीछे कोई भी वस्तु आकर्षक है ? अगर थोड़ी से गहरी दृष्टि हो , तो आपको ये सारी चीजें मोहित ही नहीं कर सकती हैं। ये सब विवेक चल रहा है। हम फंस कहाँ जाते है ? चलो एक एक्सपेरिमेंट कर लेते हैं -मानलो कोई Miss Universe है , दुनिया की सबसे सुंदर महिला। और एक बिल्कुल साधारण सी दिखने वाली महिला। या बाहर से बिल्कुल सुंदर नहीं है। आप उस Miss Universe की एक हड्डी को टेबल पर रख दीजिये। और सुंदर न दिखने वाली महिला के हड्डी को टेबल प रख दीजिये। आप किस हड्डी को अधिक सुंदर कहोगे ? लेकिन सारा दुनिया इस 2mm के चमड़े पर ही अटका हुआ है।
(34. 30) तो हम किस चीज से मोहित हैं ? देखिये जगत का मिथ्यत्व हमें सोचना पड़ेगा ,आपकी ऑंखें खुल जाएगी। अभी तो ये केवल शुरुआत है। सुंदरता क्या है ? अंग्रेजी में कहें तो ये स्थूल शरीर केवल गंदगी की एक पोटली है। इसके अंदर कोई भी चीज अच्छा है ? गंदगी की एक पोटली को सुंदर सा कवर लगा कर पैक किया हुआ है। आजकल मार्केटिंग ऐसे होता है , अंदर सब बेकार की चीजों को सुंदर तरीके से पैक कर दिया जाता है। उसी तरह हमारे इस स्थूल शरीर रूपी गंदगी की पोटली को चमड़े से पैक किया है , पर इसी पर मोहित हो जाते हैं। हम अक्सर सुनते हैं -Don't get carried away by this 2mm view of human beings ! अभी मनुष्य के दृष्टि की गहराई क्या है - मरे 2mm ! इसी में सारे मनुष्य बंधे हुए हैं। हम वैज्ञानिक दृष्टि से बंधन और मुक्ति को Investigate कर रहे हैं। यदि इससे गहराई में देखने की दृष्टि मिल जाये तो आप फिर भ्रमित होंगे क्या ? कोई भी व्यक्ति जो सामने दीखता है - उससे मोहित होगा क्या ? इस मनन करने से देखिये आपका मन कितना मुक्त हो रहा है ? जैसे ही यह दृष्टी आती है , आपका मन मुक्त होने लगता है - विसम्मोहित होने लगता है। ताकि हमारे अंदर वैराग्य उत्पन्न हो और सत्य प्रकट हो। ये जो लिंग भेद है -आप जितना भीतर जाओगे ; देखोगे लिंग का कोई मतलब ही नहीं है।
(37.04) लिंग सिर्फ सतह पर है। जिसको Gender distinction ' लिंग भेद कहते हैं। आपका रक्त पुरुष है या स्त्री है ? आपका जो कंकाल है , वो स्त्री है या पुरुष है ? स्त्री-पुरुष का भेद सिर्फ सतह पर है। आपके प्राण स्त्री लिंगी है पुरुष लिंगी ? भीतर जाओ तो - स्त्री कहाँ है ? पुरुष कहाँ है ? देखिये इन सब भ्रांतियों से मन मुक्त हो रहा है। हमारी दृष्टि अगर सतह से ही सीमित होगी -हम बंधन में रहेंगे। हम अभी पुरुष या स्त्री शरीरों को देखते हैं ,जब आप इस 2mm view से पार जाकर , भीतर जाकर देखने का अभ्यास करेंगे तो , आपकी दृष्टि मनुष्य को गहराई तक देखने में विकसित हो जाएगी। तब आपकी व्यक्तियों से व्यवहार करने का तरीका ही बदल जायेगा। अब आप किसी भी रूप से सम्मोहित नहीं हो। अब आप भ्रमित नहीं हो सकते। सामने जो दिखाई देता है , उससे आप मूर्ख नहीं बन सकते। अच्छा 2mm view से पुरुष कितना दुर्बल हो जाता है , और महिला भी उसी 2mm view के कारण कितनी दुर्बल हो जाती है। आप थोड़ा सा डीपर विजन आप प्राप्त करते हो। तो ये कमजोरी वहीँ से जाने लगती है। आगे और देखेंगे अभी केवल परिचय कहा गया। आपकी दृष्टि जब गहन होगी सतह पर नहीं। तो आप मुक्त होने लगते हो। ऐसा विवेक आते ही आप बंधन से मुक्त होने लगते हो।
हमने आज तक मुष्यों के विषय में ऐसा सोचा था क्या ? स्थूल शरीर क्या है ? अगर अँगरेजी में कहें तो - It is bag of filth Beautifully packaged by 2mm packing material of 2mm thickness known as skin! इस चमड़े से ही सभी लोग सम्मोहित हैं। चमड़े के भीत जाकर देखो तो इसमें कुछ बह आकर्षक है क्या ? स्थूल शरीर का वर्णन करने के पीछे का कारण यह कि हमारे अंदर वैराग्य उतपन्न हो। सही दृष्टिकोण उत्पन्न हो। आत्मा में प्रतिष्ठित होना तो दूर की बात है। यदि आप शरीर से वैराग्य में पहुँच गए तो बहुत है। आप 24 घंटा इसको प्रैक्टिस करके देखिये। आप कितना स्वाधीन महसूस करने लगेंगे ? हमारे सर में M/F शरीर का एक भूत घुसा हुआ है। पुरुषों के मन में हर समय स्त्री-स्त्री , स्त्री के मन में हर समय पुरुष -पुरुष। भीतर जाकर देखो -कहाँ है स्त्री ? पुरुष कहाँ है ? मन कितना मुक्त हो जाता है। स्वाधीन हो जाता है। सारे भ्रम टूट जाते हैं। व्यक्ति अब बंधन में नहीं फंसेगा। अभी हम आत्मा तक नहीं पहुँचे हैं , सिर्फ स्थूल शरीर क्या है - यही समझ रहे हैं। यह अत्यंत गहन चिंतन और मनन का विषय है। आपकी एक दूसरे को देखने की दृष्टि ही बदलनी चाहिए। हर छह महीने में हर कोष बदल जाता है। पकड़ने जाओगे तो गायब हो जायेगा। उसका स्वभाव भी बदल रहा है। मनन चल रहा है - आपकी दृष्टि ही बदलनी चाहिए -एकदूसरे को देखने की जो दृष्टि है ,
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्॥६॥
नारीस्तनभर्नाभिदेशं
दृष्ट्वा मा गा मोहावेषम्।
एतन्मानसवासदिविकारं
मनसि विचिन्तय वरं वरम् ॥ 3॥
वासनाओं में बहकर भ्रम में मत डूबो और स्त्री की नाभि और छाती देखकर वासना। ये और कुछ नहीं,मांस का एक रूपान्तरण। इसे दोबारा याद न करें और फिर से आपके दिमाग में.
वयसि गते कः कामविकारः
शुष्के नीरे काः कसाराः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥ 10॥
ये बुलबुला तो अभी फूटने वाला है , मरने के समय व्याकरण के नियम काम नहीं आएंगे। भज गिविंदम,भज गिविंदम बार बार कहने का मतलब है - सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! क्योंकि यह कार्य केवल मनुष्य मात्र ही कर सकता है।
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चर्पट पञ्जरिका स्तोत्र-
आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र का पद्यानुवाद -आदिशंकराचार्य द्वारा लिखी गई चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् । जनमानस में रचाबसा है । हालाकि पूरा स्त्रोत ज्यादतर लोग नहीं जानते किन्तु इनका धुर पद ‘भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।’ प्राय: सभी लोग गुनगुनाते हैं । चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् में चर्पट का शाब्दिक तात्पर्य है चपत अर्थात् चांटा, पञ्जरिका का पिंजड़ा और स्तोत्र का स्तुति । इस स्त्रोत से मनुष्य को देहाभिमान त्याग कर ईश्वर अराधना को प्रेरित किया गया है । इस स्त्रोत में कुल सत्रह पद हैं। उनके अतिरिक्त एक स्थायी ध्रुव छंद है जो हर एक के बाद दुहराया जाता है। इस भावपूर्ण चर्पट पञ्जरिका स्त्रोत का सरल भावानुवाद करते हुये श्री अवधेश कुमार सिन्हाजी ने पद्यबद्ध किया है । मूल चर्पट पञ्जरिका स्तोत्र, जो 17 श्लोकों (पदों) में है, का श्री अवधेश सिन्हाजी ने 17 काव्यपदों में पद्यबद्ध किया है ।
आदि शङ्कराचार्यरचित चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र मूल पाठ
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥भज …
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥२॥ भज …
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति को॓ऽपि न गेहे॥३॥ भज …
जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायांबरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोक: ॥४॥ भज …
भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥५॥ भज …
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्॥६॥ भज …
बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥७॥ भज …
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥ भज …
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥९॥ भज …
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥१०॥ भज …
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् ॥११॥ भज …
कस्त्वं कोऽहं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥१२॥ भज …
गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥१३॥ भज …
यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१४॥ भज …
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१५॥ भज …
रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥ भज …
कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥ भज …
श्री अवधेश कुमार सिन्हा द्वारा अनुदित एवं पद्यबद्ध
(1)
प्रात: संध्या दिवस और रात,शिशिर-वसंत अनुपम सौगात,
समय-रथ-चक्र – घर्घर नाद,कहीं आह्लाद– कहीं विषाद।
आत्म-विभोर-मन दंभी रोर, समस्त जग में वैभव का शोर,
प्रिया-परिजन-सर्व-जग-विनश्वर,नर-नारीरूप -अर्द्धनारीश्वर।
रति-राग मद जीवन -वसंत, सुरम्य वितान – परिणय प्रसंग,
जीवन के ये, मोहक आयाम ;पर अस्थायित्व-मय,ये दु:ख-धाम,
दस्तक दी सहसा एक छाया,
अपरिचित रूप देख जी घबराया।
‘बोली वह ! मैं जीवन- सत्य —
क्षणभंगुर दुनिया नहीं अमर्त्य;
समय अति अल्प करो तैयारी,
भज गोविन्द ! जाने की बारी.
त्यागूँ कैसे -कनकाभ-प्रासाद ? प्रिय-परिजनों से शेष -संवाद !
साथ दुर्दम्य विकारों की बोझ, बंध-ग्रंथियां देतीं, जन्म कुरोग।
(2)
उर समक्ष कर, अग्नि- सेवन ,पार्श्व-भाग से, रवि-रश्मि लेहन,
धरा लिपटी, ओढ़े शीत-वितान, चिबूक-ठेहुना पे रख, निद्रा-ध्यान।
हस्त-तल श्रेष्ठ,यति -भीक्षा-पात्र;तरु -सघन तल, आश्रय दिन-रात,
अतृप्त-इच्छाओं का,नर्तन -घर्षण-देतीं मोहमाल,क्षरण होते शांति-क्षण,
रे मन ! सर्व भूल, भजो घनश्याम,
भव-भय-हारक, दायक दुर्लभ धाम।
(3)
हे प्यारे ! सदा भज ! कृष्ण ललाम-
जग के परम-आश्रय; पूरण-सर्वकाम !
मत भूल ! परिजन -इष्ट-मित्र अपार –
करते संबंधों का, सर्वदा क्षुद्र- व्यापार,
जब समर्थ-वित्त-अर्जन, था प्रिय-जन;
पूजित-पुरूष-महिमामय,सर्व गुण-रत्न।
अशक्त क्षीण-काय, जर्जर निरूपाय-
जग-दृष्टि बदली : अब अपूत काय ?
(4)
जटा- जूट सुशोभित-भाल : या मुंचित-केश;
गेरुआ-परिधान -म्लान वदन या शोक की रेख।
जग-बीच या जग से बाहर,बूंदें सम पद्म पर्ण पर
जठराग्नि -ज्वाल, भर-मुठ्ठी-अन्न के लिये बेहाल.
हे प्यारे ! भजो : गोपाल ! गोपाल !
भजो गोपाल ! गोपाल ! दीनदयाल ! २
(5)
तनिक भी गीता-ज्ञान, गंगा-जल के बूंदों का पान –
ब्रजबिहारी- हे मुरारि ! कह करता- करूण पुकार :
सुन मृत्युदेव ठमक जाते, करना कार्य-अनिवार,
क्षण में श्रीकृष्ण प्रकट हो- हरते दु:ख अपार.
अभय-मन सदा भजो प्यारे !
गोविन्द बारंबार। २
(6)
गलित-अंग-पलित-मुंड -दशन-विहीन विवर तुंड;
वार्द्धक्य की भार प्रचंड, ढोते कम्पित हस्त-दंड।
आशा-लता -प्रबल बाढ़, वृद्ध अभी रहा दहाड़,
अनश्वर- संसार-पाश,समक्ष देख यम- त्रास।
भूल संसार ओ मूढ-मति,
सदा जपो मधुराधिपति। २
(7)
क्रीड़ा-मय बाल- काल, युवक रति- राग निहाल.
बृद्ध शोक-चिन्ता-मग्न, तनिक नहीं -ब्रह्म-लग्न।
त्याग धन-संसार–बंध, सदा जपो प्यारे यशोदानंद।
त्याग धन-संसार-बंध,
जपो प्यारे सदा यशोदानंद।।
(8)
बार- बार मातृ- कुक्षि- निवास, असह्य वेदना पुन: जन्म- त्रास,
मरण- दुसह दु:ख -हाहाकाऱ, पुनर्जनम की व्यथा -कथा-अपार।
त्राहि माम् हे श्रीपति- ज्योति साकार, हे नाथ ! करो भव पार।।
भज गोविन्द-गोविन्द ! नर सरल-चित्त !
करो आश ईश -सर्व निमित्त !
(9)
पुन: दिवस पुनश्च रात, पुन: पक्ष पुनश्च मास.
पुन: अयन पुनश्च वर्ष, तदपि न विगत आशामर्ष.
ममता आशा जीवन-बंध,
भज प्यारे केवल गोकुलानंद.
भज-भज प्यारे राधा-श्याम!
सद्गति दायक श्रीघनश्याम।
(10)
गत-आयु -नहीं काम-शैलाब, वारि विहीन -कैसा तालाब ?
बिना वित्त -कैसा परिवार, सत्य-दर्शन फिर क्या संसार ?
जीवन के ये मंत्र अमोल –
शोधि-शोधि सदा मुरारि बोल।
सदा जपिये जय गोकुलनाथ,
वे अनाथों के सर्वदा नाथ।
(11)
वक्ष-उरोज नाभि चारू चितवन, मांस-वसादि विकार भवन.
वाह्य चर्म सुघर मनोहर रूप, रक्त-मल-मूत्रादि-तन–बदरूप
प्रति- पल कीजिये सोच- विचार,
सतत भजिये नंदकुमार .
माया – मोह के संहारक नाथ,
बार- बार कहिये -श्रीयदुनाथ !२
(12)
आये कहाँ से इस जगत में, क्या तेरी- मेरी पहचान ?
तात-मात हैं कौन हमारे -क्या जग का अनुपम-अवदान?
संसार है –यह छल-छद्म असार,
यह सत्य जीवन का सार।
जपिये पल-पल गोविंद नाम,
परम आश्रय श्रीकृष्ण ललाम.२
(13)
गाइये गीता-नाम-सहस्त्र-बार,ध्यान में रखिये सदा नंदकुमार !
सुधी-संत-संग सदा श्रेयस्कर, दरिद्र- तोषन-पोषन अघहर.
श्रीगोविन्द सम मानते इन्हें सुजान, करते सदा इनका सम्मान.
गोविन्द – गोविन्द गोविन्द का ध्यान,
है महामंत्र -मुक्तिगान !२
(14)
प्राण- वायु जबतक शरीर में, स्नेह कुशल-क्षेम पृच्छक गेह में।
विगत प्राण- वायु शव भयंकर, नही प्रिया लगाती अंक भर।
यह जीवन का शाश्वत सत्य, प्रति पल गोविन्द भजो हे मर्त्यं !
पल-पल गोविन्द भजो हे मर्त्य !
केवल गोविन्द भजो हे मर्त्य ! २
(15)
काम-क्रीड़ा रति -समागम, आरंभिक सुख बाद में दु:ख -आगम।
मृत्यु पथ पर नर सदा आसीन, तदपि क्यों पापाचार में लीन ?
संसार नश्वरता का परम आगार, नही स्थायित्व नहीं आधार.
हर पल जपिये करूणानिधान,
सर्व सशक्त -सबसे बलवान !
(16)
चिथड़ों से विरचित-कन्था-माल, डाल गले में यति- निहाल।
जान पुण्यापुण्य का परम रहस्य, नहीं मैं- नहीं तू है सत्य.
परम प्रकाश सर्व समाहित, सोऽहम समष्टि भेद अनुचित.
लब्ध परम तत्त्व -फिर कैसा शोक,
भज गोविन्द बनो विशोक।
(17)
होता अफलित गंगा- सागर-स्नान, व्रत का पालन अथवा दान;
जब तक गोविन्द का नहीं आदेश, व्यर्थ कोटि दान- तप- कलेश.
साज्ञा सफल होता सर्व कर्म, स्मरण : गोविन्द, मनुज का धर्म;
सतत भजन गोविन्द का नाम,
कुंठा- मुक्त विगत संचित काम !
[साभार https://www.surta.in/charpat-panjarika-stotram-in-hindi/
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