कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

⚜️️🔱आत्मज्ञान प्राप्त करने के साधन (उपरति और तितिक्षा) !⚜️️🔱 विवेकचूडामणि सार | Session 8 |⚜️️🔱

आत्मज्ञान प्राप्त करने के चार साधन 

 (स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती।)

      हमारा लक्ष्य है - मैं कौन हूँ ? यह जान लेना या आत्मज्ञान प्राप्त कर लेना। जिसके प्राप्ति मात्र से ही मनुष्य बंधन से मुक्त हो जाता है। चार साधनों के अभाव में लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। तो ये चार साधन हुए -विवेक, वैराग्य , षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता। विरज्य विषय व्राता :साधन चार हैं-विवेक, वैराग्य, षट-सम्पति और मुमुक्षता। 

१. विवेक.

सत्य-असत्य और नित्य-अनित्य वस्तु के विवेचन का नाम विवेक हैं| विवेक इसका भलीभांति पृथ्थकरण कर देता हैं| विवेक का अर्थ हैं, तत्व का यथार्थ अनुभव करना।  सव अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा-आनात्मा का विश्लेषण करते करते, यह सिद्धि प्राप्त होती हैं। 

२. वैराग्य.

विवेक के द्वारा सत-असत और नित्य-अनित्य का पृथ्थकरण हो जाने पर असत और अनित्य से सहज ही राग हट जाता हैं, इसी का नाम वैराग्य हैं।  मन में भोगो की अभिलाषायें बनी हुई हैं और वाह्य रूप में संसार से द्वेष और घृणा कर रहे हैं, इसका नाम वैराग्य नहीं हैं| वैराग्य में राग का सर्वथा आभाव होता हैं| वैराग्य यथार्थ में आभ्यंतरिक अनासक्ति का नाम हैं|

३. षट्-सम्पति.

इस विवेक और वैराग्य के फलस्वरूप साधक को छह विभागों वाली एक परिसंपति मिलती हैं, वह जब तक यह षट्सम्पत्ति पूरी (10 % से बढ़कर 100%) न मिले तब यह समझना चाहिए कि विवेक और वैराग्य में कसर हैं।  विवेक और वैराग्य से संपन्न हो जाने पर ही साधक को इस सम्पति का प्राप्त होना सहज हैं।  इस सम्पति का नाम षट-सम्पति हैं और इसके छह विभाग हैं:-

(१)-शम.
मन का पूर्ण रूप से निगृहीत, निश्चल और शांत हो जाना ही “शम” हैं। 

(२)-दम.
इन्द्रियों का पूर्णरूप से निगृहीत और विषयों के रसास्वाद से रहित हो जाना ही “दम” हैं। 

(३)-उपरति.
विषयों से चित्त का उपरत हो जाना ही “उपरति” हैं|

(४)-तितिक्षा.
तितिक्षा का अर्थ होता हैं “सहन-शक्ति”| द्वंदों का सहन करने का नाम तितिक्षा हैं| सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि का सहन करना भी तितिक्षा हैं परन्तु विवेक, वैराग्य और शम, दम. उपरति के अनन्तर प्राप्त होने वाली तितिक्षा तो इससे विलक्षण ही होनी चाहिए।  संसार में न तो द्वंदों का नाश हो सकता हैं और न ही कोई इससे बच सकता हैं।  किसी तरह इनको सह लेना ही उत्तम हैं, परन्तु सर्वोत्तम तो हैं-द्वंदों जगत से उपर उठकर साक्षी भाव होकर द्वंदों को देखना।  यही वास्तविक “तितिक्षा” हैं। 

(५-) श्रद्धा.
आस्तिक्यबुद्धि - अर्थात आत्मसत्ता में प्रत्यक्ष की भांति अखंड विश्वास का नाम श्रद्धा हैं।  पहले शास्त्र, गुरु और साधन में श्रद्धा होती हैं, उससे आत्म-श्रद्धा बढती हैं।  परन्तु जब तक आत्म-स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा नहीं होती, तब तक एक मात्र निष्कलंक, निरंजन, निराकार, निर्गुण ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर, उसमें बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती। 

(६)-समाधान.
मन और बुद्धि का परमात्मा में पूर्णतया समाहित हो जाना- जैसे अर्जुन को गुरु द्रोण के सामने परीक्षा देते समय वृक्ष पर रखे हुए नकली पक्षी का केवल गला ही दिख पड़ता था-वैसे ही मन और बुद्धि  को निरंतर एक मात्र लक्ष-वस्तु ब्रह्म के ही दर्शन होते रहना, यही “समाधान” हैं।  
 
४. मुमुक्षता -

इस प्रकार जब विवेक, वैराग्य और षट-सम्पति की प्राप्ति हो जाती हैं, तब साधक स्वाभाविक ही अविद्या के बंधन से सर्वथा मुक्त होना चाहता हैं और वह सभी विषयों की ओर से चित्त हटाकर किसी ओर भी न ताककर, एक मात्र परमात्मा की ओर ही दौड़ता हैं।  उसका यह अत्यंत वेग से दौड़ना अर्थात तीव्र साधन ही उसकी परमात्मा को पाने की तीव्रतम लालसा का परिचय देता हैं, यही “मुमुक्षत्व” हैं। 

 विवेक है सत्य और मिथ्या को mixup नहीं करना -स्पष्टतः अलग अलग देखना। आज हम अपने शरीर को ही सत्य समझकर , उसके साथ व्यवहार कर रहे हैं। यही हमारी समस्या है। हमारे जीवन में जितनी भी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं -सब इसके कारण ही उत्पन्न हो रही हैं। समस्या ये है कि हमने मगरमच्छ को लक्क्ड़ समझ लिया है।  यही सभी मनुष्यों के दैनन्दिन जीवन की वास्तविकता है। कुछ इने-गिने लोगों के अंदर ही, ईश्वर की कृपा से - माँ सारदा देवी की कृपा से ये  विवेक जो है -वो जग जाती है। सत्य-मिथ्या का विवेक जगजाने पर आपका व्यवहार स्वतः बदल जाता है। सभी इन्द्रियगोचर वस्तु नश्वर है। दृष्ट-नष्ट स्वभाव है ! जिस वस्तु से आप मोहित हो रहे हो , वो तो नष्ट हो रहा है। अविवेकी मनुष्य सुंदर सुंदर रूपों को देखकर मोहित हो जाता है। 

       विवेकी दृष्टि रहने से इन्द्रियगोचर विषयों के प्रति वैराग्य उत्पन्न होगा। It is a natural outcome-  It is a Natural blossoming of flowers- विवेकी जीवन-पुष्प का स्वाभाविक प्रस्फुटन - विवेकरूपी कली से जो खिलने वाला फूल है , वो है वैराग्य ! वैराग्य जोर- जबरदस्ती करके नहीं आता , ये इन्द्रिय विषयों का प्रचुर भोग करने से भी नहीं आता। विवेक का स्वाभाविक प्रतिफलन है वैराग्य। आप जोर-जबरदस्ती करके , ये गेरुआ वस्त्र पहना करके किसी को वैरागी नहीं बना सकते।  When Viveka Blossoms , it Blossoms in the form of Vairagya ! जब आप जानते हो कि मैं क्या देख रहा हूँ ? तब इस व्यक्ति को ब्रह्माण्ड का कोई भी चीज प्रभावित नहीं कर सकता। तो वैराग्य क्या है ? हमारे आचरण में एक अद्भुत बदलाव है। तद्वैराग्यं जिहसा य दर्शनश्रवनादिभिः | देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यानित्ये भोगवस्तुनि।।' अविवेक की दशा में इन्द्रिय विषयों को भोग करने की इच्छा होती है। इन्द्रिय विषयों को भोग करने की वासना कभी खत्म नहीं होगी। इन्द्रिय-भोगों प्रवृत्त रहने तक इसका कोई अंत नहीं है। वैराग्य होने से व्यक्ति भोग करने की लालसा छोड़ देता है , या लालसा ही उसको छोड़ देती है। भोग करने की Tendency को छोड़ देता है। वैराग्य होने षट्सम्पत्ति प्राप्त होती है। वैराग्य होने पहली सम्पत्ति शम -मन का निग्रह, वैराग्य होने से मन तो वश में ही रहेगा, लालसा ही नहीं हो क्या भोग करेगा ? ये सनातन सत्य है , 10,000 वर्ष पहले इकलाख वर्ष पहले भी यही सत्य था। दस लाख वर्ष पहले और बाद में भी यही सत्य होगा। विवेक होने से वैराग्य प्रस्फुटित हो जायेगा। इसीको सनातन धर्म कहते हैं। यह किसी व्यक्ति या ग्रन्थ पर निर्भर नहीं करता। ये सनातन सत्य किसी एक राष्ट्र या किसी एक मजहब के लिए नहीं है , यह सार्वभौमिक सत्य है। आप कोई भी भाषा बोलिये -ये सबके लिए लागु होता है। सभी ऋषियों की यही वाणी है। पूरे विश्व में सनातन जैसा दूसरा कोई सिस्टम नहीं है। मन की चंचलता को धनसम्पत्ति शांत कर सकती है क्या ? मन का निग्रह ही सुख है। हमारे साथ धोखा हो रहा है। वैराग्य के बाद शम को परिभाषित करते हैं - 

विरज्यविषयव्राताद्दोषदृष्टया मुहुर्मुहुः।
स्वलक्ष्ये नियस्थ मनसः शम् उच्यते
॥ 22 ॥  

 22. पाँचो इन्द्रिय-विषय भोगों बारम्बार दोषदृष्टि करने से, विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य - आत्मा, (अपने लक्ष्य -ब्रह्म या ह्रदय में विद्यमान ठाकुर देव की भक्ति में) में स्थिर हो जाना ही शम या शांति कहलाता है।  

विरज्य विषय व्राता  मनसः शम उच्यते

     'मनसः शम् उच्यते ' अपने मनुष्य जीवन के लक्ष्य में स्थिर हो जाने को ही मन का 'शम' कहते हैं। मन को वश में करने का कार्य दो चरण में होगा। पहला चरण है मन को विषयों से पीछे हटा लेना। दूसरा स्टेप है मन को सही स्थान में लगा देना। दो steps हैं। इस प्रकार मन निग्रहीत हो जाता है।  फिर 'विरज्य विषय व्राता'- विरज्य माने जितने भी भोग के विषय हैं, उससे मन को पीछे खींच लेना।  इन्द्रियों से दिखने वाले जितने भी भोग के विषय हैं , जिसके पीछे सर्वसाधारण अविवेकी मनुष्य दौड़ता रहता है। अविवेक का आचरण और विवेकी का आचरण अलग अलग होगा। विवेकी जानता है कि सत्य क्या है , मिथ्या क्या है ? (19 मिनट) पता हो ने पर  मिथ्या वस्तु से उसका मन अपने-आप हट जाता है। स्वाभाविक रूप से आता है। यही मनोविज्ञान है - सारे विषय रूप,रस आदि तो हमारे मन को खींच रहे हैं। यही Human behavior है , ऐसा सब के साथ होता है। यही खेल चल रहा है , हमें पता नहीं है - मन को विषयों में जाने से खींचे ? समाज में सुंदर -सुंदर वस्तु हैं, विषय हैं , और व्यक्ति हैं - सुंदर, सुंदर व्यक्ति हमारे मन को आकृष्ट कर लेते हैं। जब तक हम अविवेकी हैं , मन उस विषय में जाकर चिपक जाता है। अभी हम स्वतंत्र हैं , या मन के गुलाम हैं ?यही बंधन है।  और मोक्ष क्या है ? अपने ऊपर , या मन के ऊपर विजय प्राप्त कर लेना -यही मोक्ष है। जो मनुष्य 'विवेकी' हो जाता है, उसको तो सत्य-मिथ्या का भेद पता है - वो बड़ी आसानी से अपने मन को नश्वर विषयों से खींचकर, शाश्वत आत्मा में बैठा देता है ! मन को विषयों से पीछे खींचने - प्रत्याहार होता है -दोष दृष्टया मुहुर्मुहुः।' बार बार विषय-भोगों के परिणाम में दोष देखने से। जो विषय-भोग अगले ही क्षण नहीं रहेगा , यह जानकर मन को विषयों से खींच सकते हो। मानलो किसी व्यक्ति से आपका मन लगा हुआ है - पर उसका स्वाभाव तो प्रतिक्षण बदल रहा है ? लेकिन उन विषयों और व्यक्तियों से मन को खींचकर जब हम अपने अन्तर्निहित आत्मा में बैठाने का प्रयास या धारणा का अभ्यास करते रहेंगे हम में से प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन अपने स्वरुप का ज्ञान हो जायेगा। कितना सुंदर रूप है , अगर इसको मैं प्राप्त कर लूँ तो मैं सुखी हो जाऊँगा। 

      ज्ञानमयी दृष्टि : अविवेकी में सभी इन्द्रिय-विषयों के प्रति गुण दृष्टि होती है , दोषदृष्टि नहीं होती। विवेकी के लिए हर भोग विषयों के प्रति दोषदृष्टि रहता है। दोष देखना माने - प्रत्येक इन्द्रियविषय क्या है ? वस्तु या व्यक्ति मिथ्या है - क्षणभंगुर है , वो बदल रहा है ,यह स्थायी समझ हो जाना। जैसे कोई जादू की चीज है , जादूगर ही सत्य है - वो जिन चीजों को बना रहा है - वो दीखता है , पर वो होता नहीं है। विषयों के पीछे दौड़ना -उस गढ़े में गिरने के समान है ,जिसकी कोई तली है ही नहीं। वैरागी व्यक्ति का मन हर समय शांत ही होगा।  क्योंकि अब कोई चीज उसको प्रलोभित नहीं कर सकता। उसकी दृष्टि बदल गयी है , वह अब लहरें नहीं देखता , समुद्र देखता है। प्रत्येक मनुष्य में यह योग्यता है। इसलिए 'जंतुनाम नर जन्म दुर्लभं' ! मनुष्य शरीर में जन्म लेने पर इस ज्ञानमयी दृष्टि को प्राप्त करना ही दुर्लभ है। 'शम' सिद्ध होने पर जब मन विषयों के पीछे दौड़ना छोड़ देता है , तब उसकी इन्द्रियाँ भी अपने-आप निग्रहीत हो जाती हैं। इसीको 'दम' कहते हैं। 

         इन्द्रियों का मूल स्वभाव क्या है ? सब समय बाहर देखना। इन्द्रियों का प्रोग्रामिंग ही उस प्रकार का है। जिस प्रकार कोई मशीन प्रोग्राम किया होगा , वो उसी प्रकार काम करेगा। कठोपनिषद में इन्द्रियों का स्वभाव बताया गया है - 

पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्‌।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैषदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्‌ ॥

'स्वयंभू' ने- अर्थात स्वयं प्रगट होने वाले परमेश्वर ने  देह के द्वारों को बहिर्मुखी बनाया है, इसीलिए मनुष्य की आत्मा इंद्रियों के द्वारा बाहर की ओर देखती है, 'अन्तरात्मा' को नहीं ː यत्र-तत्र कोई विरला (माँ की कृपा से) ज्ञानी पुरुष (धीर पुरुष) होता है जो अमृतत्व की इच्छा (अमरपद को पाने की इच्छा) करते हुए,  दृष्टि को अन्तर्मुखी करके या अपनी  चक्षु आदि इंद्रियों को बाह्य विषयों की ओर से लौटाकर, 'अन्तरात्मा' को देखता है। 

[ The Self-born hath set the doors of the body to face outward, therefore the soul of a man gazeth outward and not at the Self within; hardly a wise man here and there desiring immortality turneth his eyes inward and seeth the Self within him.] 

उपनिषदों में ज्ञान का खजाना है -प्रत्येक युवक-युवतियों को पढ़ना चाहिए। हमारा शरीर एक अद्भुत मशीन है -इसके चेहरे पर दो गड्ढों में दो बटन को फिट कर दिया गया है, यह दैवी इंजीनियरिंग है। इन दो आँखों का प्रोग्राम ही ऐसा हुआ है कि बाहर के इन्द्रियविषयों को ही देखेंगी। कान में भी दो गड्ढे हैं , उसके अन्दर कर्णेन्द्रिय फिट है। नसिकाएँ भी दो गड्ढे हैं -उसके अंदर घ्राण इन्द्रिय फिट हैं। हमारे शरीर में 9 गड्ढे है - उपनिषद या गीता में उसको 9 द्वारा कहते हैं।

 सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।

(गीता 5.13)  

जिसकी सब इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी संयमी पुरुष नौ द्वारोंवाले शरीररूपी 'पुर' में या 'नगरी' में सुखपूर्वक रहता हुआ - 'नैव कुर्वन् न कारयन्' न कर्म करता है , न करवाता है। 

       लेकिन हमलोग अभी इन 9 द्वारों के अंदर से सब समय बाहर ही जा रहे हैं। हमारी सारी शक्ति या चेतना जो है वो कैसी है - बहिर्मुखी है। हमलोग हमेशा वाह्य इन्द्रियवस्तुओं के पीछे दौड़ते रहते हैं या नहीं ? आँखों से रूपों के पीछे भागना है , कानों से वेज -नॉनवेज गाने सुनना है, स्पर्श इन्द्रियाँ हैं तो मुलायम -गर्म छू कर देखना है , इन इन्द्रियों को चंचल कौन बनाता है ? विषय। जिन विषयों को हम सत्य मान रहे हैं - वही तो अविवेक है। और हमारी ऐसी धारणा है कि इन विषयों का उपभोग करके हम सुखी हो जायेंगे। जैसे ही कोई विषय दिखेगा -हमारी इन्द्रियों में खलबली शुरू हो जाएगी। सभी मानव-मशीनों को ऐसे ही प्रोग्राम किया गया है। हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और 5 कर्मेन्द्रियाँ हैं। 5 ज्ञानेन्द्रियाँ कौन कौन हैं ? आँख, कान , नाक, जिह्वा , और त्वचा। रूप-रास-शब्द-गंध और स्पर्श इन पांच विषयों को हम पाँच इन्द्रियों से हम अनुभव कर रहे हैं। 5 कर्मेन्द्रिय कौन कौन से है ? हाथ है , पैर हैं , फिर ये जो वाणी है - जो हम बोल रहे हैं , ये भी कर्म इन्द्रिय है। और जो हमारा उपस्थ Sexsual organ है , और जो मलत्याग करने organ है। हमारे ऋषियों इन इन्द्रियों की तुलना अश्वों के साथ घोड़ों के साथ की है। ऐसे बड़े-बड़े जंगली घोड़े जिसपर काबू नहीं पाया जा सकता। Untamed (अदम्य) wild Horses ! हमारे दसों इन्द्रियों की तुलना जंगली घोड़ों से की गयी है। छह छह फिट के अरेबियन घोड़े , उसको कोई काबू नहीं कर सकता। इन्द्रियों पर वश प्राप्त करना उतना ही कठिन कार्य है , जितना जंगली घोड़ों को वश में करना कठिन कार्य है। हमसभी इन्द्रियों के गुलाम हैं , और इन्द्रियाँ मन के माध्यम से विषयों की गुलाम हैं। हम समझ रहे हैं कि विषयों के पीछे पीछे घूम करके हम सुखी होने वाले हैं। ये उस गड्ढे में गिरने के समान है -जिसमें तली है ही नहीं।  ये इद्रियाँ  रूपी घोड़े दौड़ते रहते हैं , दौड़ते रहते हैं - लेकिन पहुँचते कहाँ हैं ? कहीं पहुँचते हैं क्या ?आप किसी 70-80 साल के वयोवृद्ध व्यक्ति से पूछिए - कहाँ पहुँचे हैं ? कहीं नहीं पहुँचे। 60 -70-80 वर्ष इस शरीर में रहकर जी लिए - पहुँचे कहाँ ? बाहर क्या मिला हमको ? बहुत बड़ा प्रश्न है। तो जगत मिथ्या है या सत्य ? इन सब प्रश्नों पर आपको मनन करके सच्चाई को समझना होगा। इन्द्रिय विषयों पर विजय कैसे प्राप्त करेंगे ? दम को परिभाषित करते हुए शंकराचार्यजी कहते हैं - 

विषयेभ्यः परावर्त्य  स्थापनं स्व-स्वगोलके |
उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः। 
बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेशोपरतिरुत्तमा || 23 ||

23. दोनों प्रकार की इंद्रियों को इंद्रियविषयों से हटाकर उनके अपने-अपने केंद्रों में स्थापित करना, दम या आत्म-संयम कहलाता है। सर्वोत्तम उपरति या आत्म-संयम वह है जिसमें मन बाह्य विषयों के माध्यम से कार्य करना बंद कर देता है। (नोट: दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ - अर्थात् ज्ञान इन्द्रियाँ और कर्म इन्द्रियाँ। )

      आचार्य शंकर कहते हैं -विषयेभ्यः परावर्त्य' -इन्द्रियों को विषयों से पीछे खींच करके परावर्तन करके। जैसे घोड़े दौड़ते हैं , वैसे इन्द्रियां भी विषयों के पीछे दौड़ती रहती हैं। जैसे आप लगाम को खींच करके, लगाम के द्वारा घोड़ों को रोक लेते हैं। उसी प्रकार इन इन्द्रियों को विषयों में जाने से खींच करके रोकना। और अपनी जगह पर ही उसको खड़ा करना - उस घोड़ों को आगे बढ़ने नहीं देना। 'विषयेभ्यः परावर्त्य  स्थापनं स्व-स्वगोलके।' उन इन्द्रियों को अपने अपने गोलक में ही स्थापित रखना। उभयेषामिन्द्रियाणां - दोनों प्रकार के इन्द्रियों को इस प्रकार उनके गोलकों में स्थापित रखने को ही दम कहते हैं। एक प्रश्न विचारणीय है -अगर आपका मन निग्रहीत नहीं हों , क्या इन्द्रियाँ निग्रहीत हो सकती हैं ? और वैराग्य के अभाव में मन निग्रहीत हो सकता है क्या ? और विवेक के अभाव में वैराग्य आ सकती है क्या ? दम या इन्द्रियों का निग्रह निर्भर है शम के ऊपर। और शम निर्भर करता है वैराग्य पर। और वैराग्य किस पर निर्भर करता है ? वैराग्य निर्भर करता है - विवेक पर। इसीलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि !! समझ रहे हैं ? विवेक से बढ़ कर कोई शिक्षा नहीं है ! विवेक जब आ जायेगा , तो हमारे व्यक्तित्व में ये सभी बदलाव आना शुरू हो जायेगा। चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा की शुरुआत विवेक से होती है। विवेक आ गया तो अपने-आप वैराग्य आ जायेगा। आपको यह समझ में आ जाता है की ये मिथ्या जगत है -इसके पीछे दौड़ना सबसे बड़ी बेवकूफी है।   

     जब वैराग्य आ गया तो , तो आप बहुत आसानी से मन को विषयों में जाने से पीछे खींच सकते हो , और सही जगह पर -आत्मा में बैठा सकते हो। मन शांत हो गया तो अब इन्द्रियाँ भी विचलित नहीं होंगी। इन्द्रियां भी बिल्कुल अपने अपने गोलकों में रहेंगी। देखो बच्चों व्यक्तित्व में कैसा सुंदर बदलाव आ रहा है? आपलोगों ने 'Personality Development'  (44.04 मिनट) के बारे में सुना होगा। Motivational Speaker ' लोग बड़ी लम्बी लम्बी लेक्चर देते है - चूड़ामणि की बात कोई नहीं करता। ये छोड़कर सब बातें करते हैं , असली चीज कोई नहीं बताता। ऐसा चरित्र गठन करने से ही सुंदर व्यक्तित्व बनता है। जो अविवेकी है -वो गुलाम है , जो विवेकी है वो स्वाधीन है। है की नहीं ? जैसे जैसे उत्तरोत्तर हम जो भी षट्सम्पत्ति पाते जाते हैं - वो हमको अधिक से अधिक स्वाधीन बनाता जा रहा या नहीं ? इसका उल्टा क्या - पूरा गुलामी है , पारधीनता है।  

     उदाहरण के लिए आप विवेकानन्द के व्यक्तित्व को ले लीजिये। उनके अंदर ये सारी चीजें दिखाई देतीं है या नहीं ? हम इन महापुरुषों का अनुसरण क्यों कर कर रहे हैं ? उनका जीवन देखिये। वे अमेरिका में कितने सुंदर -सुंदर रूपों के निकट सम्पर्क में रहते थे , पर किसी भी रूपसे प्रलोभित क्यों नहीं होते थे ? रमणमहर्षि को क्या कोई प्रलोभित कर सकता है ? रामकृष्ण परमहंस को क्या आप कोई सुंदर रूप दिखाकर प्रलोभित कर सकते हैं ? वो तो कामिनी-कांचन का स्पर्श भी नहीं करेंगे। क्यों - उनकी दृष्टि ही अलग है। हम तो प्रलोभन में पड़कर बिल्कुल इन विषयों के गुलाम हो जाते हैं। यही दो व्यक्तित्व का अंतर् है। यह किसी व्यक्ति को पूजा करने की बात नहीं है -हमलोग रामकृष्ण-विवेकानन्द की पूजा करने में लग जाते हैं। पूजा करने की बात नहीं है उन महापुरुषों के जीवन में जो गुण हैं , उन गुणों को अर्जित करना है। विवेकानन्द के नाम में ही विवेक है। विवेक से, विवेकदर्शन के अभ्यास से ,या विवेकज- ज्ञान से उत्पन्न होने वाला आनंद ही सही आनंद हैइस दृष्टि हम सबको विवेकानन्द होना है। उनका नकल करने की चेष्टा मत कीजिये -कालनेमि बनके रह जाइएगा। वो हम कभी नहीं हो पाएंगे। गुण की दृष्टि से विवेक तो हम सभी कर सकते हैं। इन गुणों को अर्जन करने से आपके अंदर भी विवेकानन्द की अनुभूति होगी - तो ये है विवेकानन्द। समझते हो भाई ? चूँकि विवेकानन्द ऐसे थे इसलिए हम उनको पूजते हैं। शंकराचार्य जो कुछ कह रहे है -वे उसके प्रतिमूर्ति हैं। रामकृष्ण के जीवन को आपलोग अवश्य पढ़िए -ऐसा एक अद्भुत जीवन था उनका। कोई श्रेष्ठ- कनिष्ठ की बात नहीं है - इनके जीवन में ये सब दीखता है। विवेक-वैराग्य -शम -दम षटसंम्पति वे उसमें पारंगत हैं। हमारे जीवन में अब तक ये शुरू नहीं हुआ है। होना चाहिए। इस साधन चतुष्टय में विकसित होना ही  'Personality Development' है। एक बलवान पुरुष एक बलवान स्त्री - गुलाम नहीं। महान जीवन गठन का यही रहस्य है। इसी से एक महान चरित्र बनता है - कोई शक ? उसीके लिए हमलोग इस शिविर में आये हैं। अब विवेक, वैराग्य , शम , दम हो गया तब और एक सुंदर विकास होगा - उपरति। उसकी परिभाषा है - 

बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा। 

वृत्ति का बाह्य विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति ' है। अब इस व्यक्ति के मन को कोई भी बाहरी व्यक्ति , विषय प्रभावित नहीं कर सकता । क्या सुंदर विकास है ! आज हमारा मन हर चीज से प्रभावित है - These Objects are ruling our mind -हमरा मन विभिन्न वस्तुओं का गुलाम है। गुलाम बने रहने का एकमात्र कारण है - अविवेक ! हर विषय हमारे मन को प्रभावित कर रहा है। चित्त पर छाप छोड़ रही है -आप मोबाईल में कोई वीडियो देख रहे हो , वो दृश्य चला गया, पर आपके मन पर उसका छाप पड़ गया या नहीं ? रूप चला गया लेकिन मन के अंदर वो वस्तु घुस गया। आपके मन को प्रभावित कर रहा है -दुबारा देखने को प्रलोभित कर रहा है। ये सत्य है कि नहीं ? अपने उस वस्तु को केवल दूर से देखा -किन्तु वो वस्तु आपके मन में प्रवेश कर गया। आपका मन तभी प्रभावित होगा जब उसमें अविवेक होगा। विवेकी मन को कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता। क्योंकि उसकी दृष्टि ही अलग है। क्या सुंदर चरित्र विकसित हुआ है ? आप और भी अधिक स्वतंत्र होते जा रहे हो। सारी गुलामी खत्म हो रही है। जब शम और दम होगा , तब अपने आप ही उपरति आ जाती है। ये मन की वैसी दशा है , जिसमें बाह्य किसी भी वस्तु वह प्रभावित नहीं होगा। बाह्य वस्तु की तरफ आसक्त हो जाने की जो एक पारधीनता थी -उस पराधीनता से व्यक्ति मुक्त हो जाता है। यह मन अब स्वाधीन हो गया - बाह्यानालम्बनं किसी भी बाह्य विषय पर आश्रित नहीं है। ये विवेकानन्द है - विवेकानन्द के जीवन में कभी अपने देखा है किसी चीज से प्रलोभित होते हुए ? विवेकग्नि में कुछ भी डालो वो भष्म हो जाता है। ऐसा हम बनें -यही जीवन का लक्ष्य है। इस स्वतंत्रता को प्राप्त करना है। बाह्य वस्तुएं हर कदम पर हमको प्रलोभित कर रही हैं और उस प्रलोभन में हम गिर भी जाते हैं। हमलोग हर समय विषयों के गुलाम हैं। इसके पीछे कारण सिर्फ अविवेक है - 1986 का हरिद्वार कुम्भ में सबसुखदास को बाबा रामसुखदास ने यही समझाया था , आज समझ में आया ? जब इन्द्रियाँ विषयों के संपर्क में आती हैं तो हमको उसमें से कुछ रस मिलता है। जो रस मिला था - वो क्या शाश्वत है ? विषयरस तो क्षणिक ही है। इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला रस नश्वर है -खत्म हो जाता है। जब तक हम कामिनी -कांचन में आसक्त हैं , ऊँट बबूल के काँटें को चबा रहा है - यही स्थिति है हमारी। इन्द्रियों के द्वारा विषयों से जुड़ने से जिस रस की अनुभूति होती है , उसका एक शुरुआत है और उसका एक अंत है। Human system का हम अध्यन कर रहे हैं - हर व्यक्ति को इन्द्रिय विषयों से जुड़ने पर एक रस की अनुभूति होती है। लेकिन वह रस शाश्वत नहीं है क्षणिक है। इन्द्रियों के विषय से जुड़ने पर रस का आभास होता है , फॉर जैसे ही इन्द्रियाँ विषय से  अलग होते ही खत्म हो जाती है। ये सिर्फ रस का आभास है , ये सही सुख नहीं है। सारे जीवजंतु प्राणी इसी क्षणभंगुर रस को भोगने के पीछे दौड़ रहे हैं। विषयरस (56 मिनट) मनुष्य को कभी भी तृप्त नहीं कर सकता। मनुष्य को पूर्णता नहीं दे सकता। आप इन्द्रियों को विषयों के साथ कितनी देर तक जुड़े रह सकते हो ? आपकी इन्द्रियां थक जाएँगी। आप एक सिनेमा को कितनी देर देखोगे ? 2 घंटा ? चलो एक साथ दो सिनेमा देख लोगे।  पर तीसरा सिनेमा में आपके सर में दर्द शुरू हो जायेगा। चौथे में आप भाग जाओगे। तो फिर उस सिनेमा में आनंद है क्या ?  प्रश्न है ? सिनेमा देखने में भी रस तो मिलता ही है। अगर उसमें सचमुच रस है - तो हम उससे चिपके ही रहते ? 6 घंटे देख लिए तो आपकी इन्द्रियाँ थक जाएँगी।  (मल्लेपुर का) पहला रसगुल्ला जब खाये थे तो आपको उसमें रस का आभास हुआ था। दूसरे में भी मिलेगा। 10 रसगुल्ला खा लो तो उल्टी हो जायेगा।  रसगुल्ला खाना एक Very Innocent joy है। रोज खाना। इसको नहीं छोड़ना है। शरीर strong होना चाहिए , हमारी बेटियों के लिए भी और हमारे बेटों के लिए भी। शरीर को मजबूत होना चाहिए। पौष्टिक अहार कीजिये , व्यायाम कीजिये और इस शरीर रूपी आश्चर्यजनक मशीन का सदुपयोग कीजिये। इसको गड्ढे में मत धकेलिए। आप कहीं नहीं पहुंचोगे।  इतना ही। इसका सदुपयोग करके परमानन्द ' जो हमारा गन्तव्यस्थान है , हम वहाँ तक पहुँच जायेंगे। पहला रसगुल्ला जब खाये थे तो आपको उसमें रस का आभास हुआ था। दूसरे में भी मिलेगा। 10 रसगुल्ला खा लो तो उल्टी हो जायेगा। इन्द्रियों से जिस ये रस की अनुभूति होती है , उसकी सीमा है। ये क्षणिक है , हमें रस का आभास होता है। इस आभासी रस पाने के चक्कर में ही हम इस गड्ढे में गिरते रहते हैं, जिसका अंत नहीं है।  असली रस तो इसमें है ही नहीं। ये एक प्रकार की वंचना है , हमें धोखा दिया जा रहा है। असली रस तो ह्रदय में है। रमणमहर्षि, विवेकानन्द जैसे महापुरुष भी रसगुल्ला खाते हैं -लेकिन उसके गुलाम नहीं हैं। देंगे तो एक खा लेंगे। लेकिन रसगुल्ला के बैगर भोजन होगा ही नहीं - ऐसा नहीं है। जगत में ऐसा कुछ नहीं है -जिसके बिना हमारा चलेगा नहीं। जिसके आप गुलाम हो जिसके बगैर आप रह नहीं सकते हो। "There should be nothing in this world without which you can not live and exist ." --इस दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए जिसके बिना आप जीवित न रह सकें। इस सृष्टि में ऐसा कोई चीज नहीं है , जिसके आप गुलाम हो, जिसके बिना आप रह नहीं सको। आप नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वतंत्र वस्तु हो - वो क्या है? उसकी ही खोज है।  आप किसी के भी इन्द्रिय-विषय के अधीन नहीं हो यही अब समझना है। 

       तो हमने देखा -विवेक होता है तो वैराग्य होता है। वैराग्य होता है तो क्या होता है ? मन निग्रहीत हो जाता है - शम होता है। मन निग्रहीत हो जाने पर इन्द्रियाँ निग्रहीत हो जाती हैं। 'दम' या इन्द्रियाँ हो जाने पर मन इस प्रकार का हो जाता है कि अब वह साधक बाहर की किसी भी वस्तु से प्रभावित नहीं होता। उसको कितनी स्वतन्त्रता हो जाती है ? अद्भुत स्वतन्त्रता है कि नहीं ? अगर आप समाज में - परिवार में , घूमफिर रहे हो पर किसी की बोली का , किसी भी दृश्य का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है ! बात और दृश्य से बिल्कुल अछूता रह जाते हो। वो व्यक्ति बाहर से देखने पर वो भी एक पुरुष है ,या एक स्त्री है -लेकिन उसका मन ऐसा बन गया है कि वो अब कालनेमियों से दूर रहने की कला सीख गया है। अपने किसी निकटम रिश्तेदार , या अन्य निकम्मे बुड्ढों द्वारा ईर्ष्या पूर्वक देखने से, जो कहीं भी नहीं पहुँचे - जिंदगी भर यूरोप-गोवा , चारधाम की यात्रा भी कर ली -पर पहुँचे कहीं नहीं- वैसे किसी निकम्मे अविवेकी के ताने ताने से भी , बचकर निकल जाते है , और अप्रभावित रहते हैं। किंतना सुंदर चरित्र बन गया ? यही असली व्यक्तित्व है।  Absolutely uninfluenced and untempted by the so called attractive objects  आप इस तथाकथित उच्च सोसाइटी में घूमिये पर बिल्कुल अप्रभावित और संसार के तथाकथित आकर्षक वस्तुओं से - तीनों ऐषणाओं से अप्रभावित रहिये। What a great Freedom it is - इसीको फ्रीडम या अनासक्ति कहते हैं। इसीको स्वतंत्रता कहते हैं , इसीको मोक्ष कहते हैं।  [अप्रलोभित रहिये,  लेकिन किसी प्रलुब्ध अविवेकी रिश्तेदार या कालनेमि गुरुगिरी करने वाले  स्त्री या पुरुष को- मंच पर खड़े होकर लेक्चर देते समय हिराकत से बेचारा समझकर मत देखिये-.' बल्कि अपनी निर्लिप्त पवित्रता में स्थित रहिये। ] आपके व्यक्तित्व में यह कितना सुंदर बदलाव है , कितना उत्तम विकास है !!What beautiful development it is ? इसी को व्यक्तित्व विकास कहते हैं।  उपरति वाली स्वतंत्रता ही असली व्यक्तित्व है। इसीको मोक्ष कहते हैं। व्यक्तित्व विकास आप जहाँ हो वहीँ से शुरू कर सकते हो। बाहर की परिस्थिति तो वही है -बदलाव सब हमारे भीतर होता है। 

   जब उपरति होगयी यो  उस व्यक्ति का मन इतना निर्लिप्त हो गया कि बाहर की परिस्थितियों से वो अछूता है। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल हो उससे जब व्यक्ति प्रभावित नहीं होता।   बाहर के अनुकूलता या प्रतिकूलता से जब आप प्रभावित नहीं होते हो , ऐसा होने के कारण अब वो सबकुछ आसानी से सहन कर सकेगा। इसी गुण को ,उसीको तितिक्षा कहते हैं। हमारे जीवन में यदि विवेक नहीं हो , और परिस्थिति प्रतिकूल हो जाये तो क्या होता है ? आप उत्तेजित हो जाते हैं, परेशान हो जाते हैं, आप पूरी तरह से पटरी से उतर जाते हैं,  जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाती हैं - जिसको महान ऋषि समझ रहे थे , जब वो कालनेमि निकलता है तो आप सहन नहीं कर पाते हो। परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो हम बड़े प्रसन्न हो जाते हैं। If the situation is not favorable to you ? You get agitated, disturbed, you are totally derailed, आप सहन नहीं कर पाते हो।जब परिस्थिति अनुकूल होती है तो हम बहुत खुश हो जाते हैं, और जब परिस्थिति अनुकूल नहीं होती तो हम उदास, दुखी और  हताश हो जाते हैं। When the situation is favourable we become eleted , and when it is not favorable we become depressed, moros, रोना धोना शुरू कर देते हैं।  जिसका मन उपरत है , बाहर की चीजों से प्रभावित नहीं होता है - वो सब उतार चढ़ाव को आसानी से सहन कर सकता है। सब परिस्थिति में समान रह सकता है। अब तितिक्षा की परिभाषा देखें - 

सहनं सर्वदुःखानाम, अप्रतिकारपूर्वकम् |
चिंताविलापरहितं स तितिक्षा निगद्यते || 24 ||

24. सभी दुःखों को बिना उनके निवारण की चिंता किए सह लेना, तथा उनके कारण होने वाली चिंता या शोक से मुक्त रहना, तितिक्षा या सहनशीलता कहलाती है। 

    जीवन में तो दुःख आते ही हैं।  कोई संदेह है ? है थोड़ा ? आप कहोगे जीवन में सुख भी तो है न ? लेकिन जीवन में सुख की मात्रा अगर 1 है तो दुःख की मात्रा 10 होती है। सुख कैसा है ? वो सुख का आभास भर है। जीव हमेशा दुखी ही है, अतृप्त ही है , क्योंकि वो तो सुख प्राप्त करने के चक्कर में हैं न ? अंदर से खाली है , तभी तो सुख प्राप्त करने के पीछे भाग रहा है। सुख प्राप्त करने की दिशा उसको ज्ञात ही नहीं है। विषयों के पीछे भाग करके उसको सुख प्राप्त होगा क्या  ? ये उसकी गलत धारणा है।

       दुःख हमारे अविवेकी जीवन का अभिन्न अंग है। कदम कदम पर देखोगे परिस्थिति प्रतिकूल होगी। कुछ लोग आपके पक्ष में होंगे , कुछ विरोध में होंगे। गुट बना लेंगे।  ये जीवन में चलता ही रहता है। जीवन में जितने भी दुःख आते हैं -उन सभी दुःखों को सहन करना तितिक्षा है।-सहनं सर्वदुःखानाम, सर्व कहने से सभी प्रकार के दुःख उसमें आ गया।  त्रिताप कहा गया है - सभी प्रकार के दुःख। वो हम सबको पता है। आधि भौतिक, माने दूसरे व्यक्तियों से आने वाला दुःख , सिर्फ मनुष्य से ही नहीं दूसरे प्राणियों से भी आ सकता है। कुत्ते के काटने का दुःख। अपने परिवार के व्यक्तियों से ही आने वाला दुःख तो चलता ही रहता है। 

    फिर आधि दैविक - यानि जो प्राकृतिक है , बाढ़ आना , भूकंप आना , जगत सत्य है या मिथ्या है ? धराली में पूरा गाँव ही बाह गया। आप इमारत बनाते हो प्रकृति उसको तोड़ देती है। फिर आध्यात्मिक दुःख - हमारे मन के अंदर जो काम, क्रोध , लोभ ,मद,  मोह , मात्सर्य- ईर्ष्या रूपी जो सबसे भयानक विष है , आदि षडरिपु रहते हैं - सबसे भयानक आध्यात्मिक दुःख है। उनसे मिलने वाला दुःख। हमारी जो मन और इन्द्रियाँ अगर निग्रहीत नहीं हैं - तो उससे मिलने वाला दुःख। 

       सब प्रकार के दुःखों को सहन करो - कैसे ? दुःखों को सहन करने की एक विधि है। कैसे सहन करोगे ? अप्रतिकारपूर्वकम् | ये विवेकी मनुष्य को कहा जा रहा है - जो विवेकी होगा वह दुःख के कारण को ठीक करने का प्रयास नहीं करेगा।  अप्रतिकारपूर्वकम्- उसके मन में कोई खीझ या प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होगी। मूल कारण को सामने रखेगा - क्योंकि जगत तो उसके लिए मिथ्या ही है। जिसके लिए जगत मिथ्या है , उसके लिए दुःख की ओर देखने की दृष्टि ही अलग है। वो तो चिंताविलापरहितं' हो गया है। न तो चिंता करता है , विलाप करता है। यही है तितिक्षा। 

       सर्वोत्तम तो हैं-द्वंदों जगत से उपर उठकर साक्षी भाव होकर द्वंदों को देखना। ऐसी मन की स्थिति - इसको तितिक्षा कहते हैं। तितिक्षा का आभाव होने से क्या होता है ? एक उदाहरण लें -किसीने आकर अजय को खरीखोटी सुना दिया। हमने एक का नाम लिया पर , ये सबके साथ होता है। किसी ने डाँट दिया पर अजय ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, चुप रहा। उसने सहन कर लिया। उसने किसी महापुरुष के उपदेश को सुना था की - श, स, ष होता है , इसलिए भाई सब सहन कर लो , सहन करो।  तो ठीक है, वो सहन कर रहा है , कुछ React नहीं कर रहा है। लेकिन भले ही वो React नहीं कर रहा हो , पर जिस व्यक्ति ने उसको डांट लगाई थी , वो चला भी गया पर उसके दिमाग में उसी की बात चल रही है। अरे उसने मुझे गाली दिया ? वो चिंता कर रहा है। और विलाप कर रहा है। तो ये सहन नहीं हुआ। आचार्य शंकर कह रहे हैं- सही तितिक्षा वो है जिसमें ये Process भी न हो - यह चिंता भी नहीं हो और विलाप भी नहीं हो। क्या अद्भुत होगी वैसे मन की दशा ? ये एक उच्च कोटि के नेता (विवेकानन्द) की मन दशा है ! जिसमें आप सभी प्रकार के अनुकूल -प्रतिकूल अनुभूतियों को लेकर के आप चिंता भी नहीं करते हो और विलाप भी नहीं करते हो। उस व्यक्ति का मन कितना कितना मुक्त हो जाता है ! ऐसे 'निहाई' जैसे  मन वाला व्यक्ति रात को आराम से सो जायेगा।  उसको कोई चिंता भी नहीं है -चाहे परिस्थिति प्रतिकूल हो या अनुकूल हो ? होगी ?  उसको कोई भी derail नहीं कर सकता। क्या अद्भुत गुण है ये तितिक्षा। ये सहन करने की विधि है। सहन करने की विधि क्या है ? अप्रतिकारपूर्वकम् | चिन्ताविलापरहितं - 

  तो हमने आज क्या क्या देखा ? विवेक , विवेक से उत्पन्न वैराग्य , वैराग्य हो तो फिर शम-मन का निग्रह। शम हो तो फिर दम इन्द्रियों का निग्रह , इन्द्रियों का निग्रह हो तो फिर उपरति , याने मन अब आकर्षण-विकर्षण की वस्तुओं से प्रभावित नहीं हो रहा है। अब वो मन और भी मुक्त हो गया। ऐसा मन जो परिस्थितियों से प्रभावित नहीं हो रहा है , उस व्यक्ति को तो सबकुछ सहन करना बड़ा आसान है। जब मन द्वन्दों से पभावित ही नहीं होरहा है , तब वो न चिंता करेगा न विलाप करेंगे -नारद का मन अब संतुलन में रहेगा ? जिसको विलाप करने के लिए कुछ है ही नहीं , इस व्यक्ति को कोई disturb नहीं कर सकता। सोचिये यह मुक्ति है -आप मुक्त हो रहे हो या नहीं ? नहीं तो हम कितने बँधे हुए हैं - जब परिस्थितियाँ कालनेमि को नहीं पहचानने के कारण कुछ प्रतिकूल हो जाती हैं , तो हम रात को सो नहीं पाते हैं, रात में ही B.P. इतना बढ़ जाता है कि सुबह 5 बजे ICU में भर्ती होना पड़ता है। तो हम सब बंधन में हैं ? हम बंधन में हैं या मुक्त हैं ? मुक्त कौन है यहाँ पर ? आप समझ रहे हो ? सृष्टि में सबकुछ बंधा हुआ है , सबकुछ प्रकृति के अधीन है। सब बंधन में हैं इस बंधन से मुक्त होना , ये सब मनुष्य मात्र ही कर सकता है। और वह कैसे करें ? इस प्रकार साधन चतुष्टय से। और अगर मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी यदि किसी व्यक्ति ने इस प्रकार जीवनगठन का प्रयास नहीं किया , तो वो एक बहुत बड़ी गलती कर रहा है , एक बहुत बड़ा अवसर खो रहा है। अभी हमलोग यहीं पर रुक जाते हैं।  ॐ शांति ! शांति ! शांति: हरिओम तत्सत

===========          

   

                            




 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें