भ्रांतियों का निर्मूलन केवल शास्त्र और गुरु के माध्यम से ही सम्भव है !
(स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैताश्रम मायावती।)
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र)
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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
यह सिद्धान्त है कि जितना हमारा अंतःकरण विवेक-वैराग्य-सम्पन्न होगा न, उतना आप आनन्द से रहोगे। स्वाभाविक आनंद से ! आपके पास चीजें हों , या न हों ; आपका जो आनंद और सुख है न , बाह्य किसी भी वस्तुपर निर्भर नहीं करता। यह सिद्धान्त है - इसी सिद्धान्त को हमलोग समझने का प्रयास कर रहे हैं। आपका सुख और आनंद बाह्य किसी व्यक्ति पर या वस्तु पर निर्भर नहीं करता। आपका सुख और आनंद 'वस्तु' और 'व्यक्ति' दोनों में से किसी के ऊपर भी निर्भर नहीं करता। हमलोग अपने सुख के लिए और आनंद के लिए कभी कभी व्यक्तियों पर बहुत ज्यादा निर्भर करने लगते हैं। है न ? यह एक बहुत बड़ी गलती हैं। आपका आनंद और सुख निरपेक्ष है,और इसको किसी की भी आवश्यकता नहीं है। कितनी बड़ी बात है -इस लिए जितना हम विवेक-वैराग्य सम्पन्न होते हैं , उतना हम स्वाभाविक रूप से आनंद में रहेंगे। जीवनको आनंद से बिताना है , स्वाभाविक आनंद से बिताना है। साधन चतुष्टय ही वो विद्या है जिसको सीखकर हम अपना जीवन आनंद से बिता सकते हैं। आपको तो अभी त्याग-वैराग्य की बात सुनने से ही डर लगता है। पर यही सबसे सुंदर और मूलयवान चीज है। मनुष्यजीवन में त्याग-वैराग्य रूपी जो Development' है यह जो विवेक का फल है , सबसे सुंदर Development है !
विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही शंकराचार्य जी हमें मनुष्य-शरीर में जन्म लेने का महत्व बता देते हैं। साधारण व्यक्ति इससे प्रायः अनभिज्ञ ही है। हम तो अपने आधारकार्ड वाले परिचय से अपने को M/F मानकर ही चल रहे हैं। और किसी ने अभी बताया भी नहीं कि वास्तव में हम क्या हैं ? हमको लगरहा है कि संसार के विषयों के पीछे दौड़ने से हम सुखी हो जायेंगे। या और अधिक भोग करके हम तृप्त हो जायेंगे। ये सारी भ्रांतियाँ हमारे अंदर हैं। इन भ्रांतियों का निर्मूलन किया जा सकता है - शास्त्र और गुरु के माध्यम से।
तो पहला यह कहा गया मनुष्य शरीर में जन्म लेना ही दुर्लभ है , चाहे पुरुष शरीर हो या स्त्री शरीर हो। सब समान हैं इसमें कोई भेद नहीं है। मनुष्य शरीर का परम् उद्देश्य है , इस बंधन से मुक्त होना। या मनुष्य जीवन का परम् उद्देश्य है - आनंद में रहना ! साधन चतुष्टय आनंद में रहने की विद्या है। आनंद में आप तभी रह पाओगे जब आप अपने सत्यस्वरूप को जान लोगे। 'मैं आत्मा हूँ !' जब ऐसा जानोगे तभी आप बंधन से मुक्त होंगे; और तब आप स्वाभाविक रूप से आनंद में रहोगे। सभी सन्तों में यही गुण दिखाई देता है न ? उनके पास कौन सी आर्थिक सम्पत्ति है ? कोई भी आर्थिक सम्पत्ति नहीं है। कोई भी इन्द्रियभोग नहीं , फिरभी वो परमानन्द में हैं। दुःख उनको स्पर्श क्यों नहीं करता ? कारण क्या है ?
ये आत्मानुभूति ही वह चीज है , जो हमें हर हाल में आनंद उपलब्ध कराते रहती है। मनुष्य जीवन का सर्वोच्च पुरुषार्थ है - 'मोक्ष लाभ' करना जो आत्मज्ञान के माध्यम से प्राप्त होता है। आत्मज्ञान के द्वारा जब हम मोक्ष लाभ की बात करते हैं , तो कुछ साधनों की आवश्यकता होती है। इसके चार प्रधान साधन हैं , जिसको साधनचतुष्टय कहते हैं। चार साधन क्या क्या है ? विवेक, वैराग्य , शमदमादि षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता। षट्सम्पत्ति में क्या -क्या हैं ? शम, दम, उपरति , तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान। हमारे सुख का रहस्य भी यही है -ये सब सम्पत्ति हमारे पास जितनी अधिक मात्रा में विद्यमान होगा , हमारा जीवन भी उतना सुखमय होगा। और उतना ही हम स्वाधीन होते हैं। साधन चतुष्टय के अभाव में हम पराधीन हैं , हम गुलामों की तरह जीवन को जीते हैं। और गुलामी में कभी भी सुख नहीं हो सकता। स्वाधीनता में ही सुख है , पराधीनता में सिर्फ दुःख ही दुःख है। मनु स्मृति में कहा गया है -
"सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥"
अर्थात - "जो कुछ अन्यों के वश में होता है, वह दुःख है । परवशता ही दुःख है , परवशता कितने प्रकार की है ? हम परिस्थितियों के परवश हैं , वस्तुओं के परवश हैं , व्यक्तियों के परवश हैं , कितने प्रकार की परवशता है। सर्वमात्मवशं सुखम्। मन को आत्मा के वश में रखना यही सुख का रहस्य है। जब तक हम पारधीन हैं , मन के गुलाम हैं दुःख होगा। जब मन और इन्द्रियां अपने वश में होता है, वह सुख है। यही संक्षेप में सुख एवं दुःख के लक्षण हैं ।" स्वाधीन होना ही सुख का रहस्य है।
वेदांत मनुष्य को स्वाधीन होने का मार्ग दिखाती है। जिससे हर मनुष्य स्वाधीन हो जाये , उसकी सब प्रकार की पराधीनता ,का अंत हो जाये। उसके ही ये चार साधन हैं। इन साधनों के रहने से ही कोई सत्यान्वेषी -अपने सत्यस्वरूप को जान सकता है ! हमसभी लोग सत्य को जानने के लिए ही यहाँ बैठे हैं। हमसब सत्य को जानना चाहते हैं। जो सत्य को नहीं जानना चाहते हैं , उनके लिए ये सारी चीजें लागु नहीं होतीं। जिन्हे उस तरफ जाना है - जाने दीजिये। लेकिन कभी न कभी जब उसका भी विवेक जगेगा , तो उसको भी यहीं पर आना पड़ेगा। हम सबोंकी मनोभूमिका यही होनी चाहिए कि मैं सत्यान्वेषी हूँ। मैं सत्य को जानना चाहता हूँ। मेरा अपना सत्य क्या है ? इस जगत का सत्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? और जो जगत मुझे दिखाई दे रहा है , ये क्या है ? मुझे इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करना है। ये हमारी Mental State ' है, मैं एथेंस का सत्यार्थी हूँ - मैं उस सत्य को जानना चाहता हूँ। जिसको देखकर देवकुलिश अँधा हो गया था। एक आदर्श सत्यान्वेषी या योग्य साधक की मानसिक अवस्था क्या है ? साधक वो है जो इस भव-बंधन से मुक्त होना चाहता है। सत्य को जानकर वह मोक्ष को प्राप्त करना चाहता है। उसके मन की स्थिति कैसी है ? आने वाले दो श्लोकों में सत्यान्वेषी की मनोभूमिका कैसी हो ? इसके बारे में बताया जा रहा है। योग्य शिष्य कैसा हो यह बताने के बाद बताया जायेगा की योग्य गुरु कैसा होना चाहिए। (11.34 मिनट-https://shlokam-org.translate.goog/texts/Vivekachudamani-32-40/)
स्वामिन्नमस्ते नतलोकबन्धो
कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ।
मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्ट्या
ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या॥
(॥ श्रीशङ्कराचार्यकृतं विवेकचूडामणि ३७॥)
अर्थ:- हे शरणागतवत्सल, करुणासागर, प्रभो! आपको नमस्कार है। संसार-सागर में पड़े हुए मेरा आप अपनी सरल तथा अतिशय कारुण्यामृतवर्षिणी कृपा कटाक्ष से उद्धार कीजिये।
दुर्वारसंसार दावाग्नि तप्तं
दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः ।
भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः
शरण्यमन्यद्यदहं न जाने ॥ ३८॥
जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है उस संसार -दावानल से दग्ध तथा दुर्भाग्यरूपी प्रबल आँधी से अत्यंत कम्पित और भयभीत हुए मुझ शरणागत की आप मृत्यु से रक्षा कीजिये। क्योंकि इस समय मैं और किसी शरण देनेवाले को नहीं जानता।
इन दो श्लोकों में साधक की भूमिका हमारे सामने रखी जा रही है। इसकी मनःस्थिति देखिये। आप अपने मन में ऐसी कल्पना करके देखिये कि कोई योग्य साधक , जो आत्मज्ञान के माध्यम से मोक्ष को प्राप्त करना चाहता है , इस भवबंधन से मुक्त होना चाहता है। वो भवबंधन से पीड़ित है। एक बार अगर हमारे समझ में आ जाये कि हम बंधन में हैं। तो आप बंधन में रहना पसंद करोगे क्या ? कोई भी जीवजन्तु बंधन में रहना पसंद नहीं करेगा।
अर्थात यह समझ में आने लगे कि मैं स्वयं को एक बुलबुला समझकर दूसरे बलबूलों में कैसे फँस गया हूँ ? यह देह-इन्द्रिय संघात अपनेआप में एक बुलबुला है। मैं ये समझके बैठा हूँ कि मैं ये हूँ और मैं दूसरे बुलबुलों के साथ ऐसा संबन्ध बना लिया है - जैसे वो सब कोई ऐसा मोहजाल हो, जिसमें मैं डूबता ही जा रहा हूँ ? जब सत्यान्वेषी इस बंधन को देखने लगता है , तब उसका दम घुटने लगता है। यह छटपटाहट भले आज हमारे अंदर नहीं है , लेकिन एक न एक दिन आएगा। वो व्यक्ति व्याकुल होकर इस बंधन से छूटने का प्रयास करेगा। जो योग्य मुमुक्षु है , जो मुक्ति को प्राप्त करना चाहता है , तो वह जायेगा कहाँ ? इस बंधन से मुक्त होने का मार्ग कौन दिखला सकता है ? गुरु ही दिखा सकता है , शास्त्र ही दिखा सकता है। हमारे स्वयं मातापिता भी हमें मुक्त होने का मार्ग नहीं दिखा सकते हैं। हमारे जो स्कूल के शिक्षक हैं वे भी नहीं कर सकते। हमारे शास्त्र और गुरु ही हमारी भ्रान्तियों का उन्मूलन कर सकते हैं। ऐसे कोई योग्य साधक गुरु के पास जाकर नतमस्तक -दण्डवत गिरकर याचना करता है। इन दो श्लोकों में मुमुक्षु की याचना है।
आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसे कोई आदर्श गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस हैं , और योग्य साधक शिष्य नरेन है, यानि विवेकानन्द। वे भी बिल्कुल इसी प्रकार आये थे। गुरु के पास जाकर कह रहे हैं - स्वामिन नमस्ते ! नत लोकबन्धो! हे गुरुदेव , आप तो उन सभी लोगों के बँधु हैं जो आपके सामने नतमस्तक होते हैं। फिर आप कारुण्यसिन्धो -करुणा के सागर हो। जो भी आदर्श गुरु होगा वो अत्यंत करुणामय ही होगा। फिर कहते हैं - पतितं भवाब्धौ माम उद्धर' मैं इस संसार-सागर में गिरा हुआ हूँ। अर्थात मैं उस कुएं में गिरा हुआ हुआ हूँ जिसका कोई तल है नहीं। साधक को ये पता है कि वो भवसागर में गिर गया है ; किन्तु सर्वसधारण आदमी को ये पता होता है क्या ? अंत में बुढ़ापा आ गया , वो खाली का खाली ही रहा। विषयों , वस्तुओं , व्यक्तियों के पीछे सिर्फ दौड़ते ही रहे , मिला कुछ नहीं। जिसको ये साँझ में आ गया कि मेरे दौड़ की दिशा गलत है - बहिर्मुखी है ?? हमलोग अथाह संसार सागर में गिरते जा रहे हैं। पतितं भवाब्धौ - अब्धि मतलब भव समुद्र में गिरते जा रहे हैं। माम उद्धर ! मेरा उद्धार कीजिये। मुझे इस संसार-सागर से बाहर निकलने का मार्ग दिखाइए। कैसे ? 'आत्मीय कटाक्ष दष्टया' - आपकी जो स्नेहपूर्ण कृपादृष्टि है , इन महापुरुषों की एक दृष्टि मात्र ही पर्याप्त है। रमणमहर्षि की दृष्टि , स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि ? उनकी आँखों में कैसा तेज भरा हुआ है ! क्योंकि वे स्वयं सत्य में प्रतिष्ठित हैं। आप जितना सत्य के नजदीक पहुँचियेगा आपका चेहरा बदल जायेगा। ब्रह्मबोध से निकलने वालो दृष्टि का तेज है - विवेकानंद की आँखों में। शिष्य कह रहे हैं - आपकी 12 जनवरी 1985 वाली कृपादृष्टि मुझपर पड़े। क्योंकि सत्यान्वेषी पर यदि स्वामी जी की दृष्टि पड़ गयी तो उतने से ही उसका काम हो गया ?!! अब वो शिष्य उस अंधे कुँए से बाहर निकलने ही वाला है। वो दृष्टि कैसी है - ऋज्व्यातिक- रिजु , रिजु बिल्कुल सीधी दृष्टि है! कारुण्य सुधाभिवृष्टि' -सुधा यानि अमृत , अमृत रूपी करुणा से भरी है -उनकी दृष्टि। ऐसे करुणा की वर्षा करके मुझे संसार -चक्र बाहर निकालिये !
शिष्य आगे कहते हैं - दुर्वारसंसारदावाग्नितप्तं' हे गुरुदेव मैं इस संसार दावाग्नि में तप रहा हूँ जल रहा हूँ। यहाँ संसार को दावाग्नि कह रहे हैं- जिसको हमलोग 'Forest Fire' कहते हैं - एक बार कोडरमा रेंजर के ऑफिस में मैंने देखा था !! उसको बुझाना बहुत कठिन काम है। उस आग के फैलाव को रोकना बड़ा कठिन है। ऊपर से अगर हवा भी बहने लगे , तबतो हमारे नियंत्रण से बिल्कुल बाहर चली जाती है। उसी संसारसागर को अगले श्लोक में दावाग्नि कह रहे हैं। कहने का मतलब है कि बंधन की परिस्थिति ऐसी ही है। दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः। माने मैं दुःख रूपी हवा से काँप रहा हूँ। बंधन, ये मोह-जाल कितना दुःखदायी है एक बार यदि आप समझ जाओ, तो आप चुप नहीं बैठोगे। भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः शरण्यमन्यं यदहं न जाने॥ भितं माने भयभीत हूँ।-मैं आपके चरणों में शरणागत हूँ , मुझे मृत्यु से बचाइए। शरण्यमन्यं यदहं न जाने- आपके आलावा कोई दूसरा स्थान मैं नहीं जानता , जहाँ मुझे शरण मिल सकती हो। इस संसारसागर से बाहर निकलने का जो मार्ग है मुझे बचाइए। योग्य मुमुक्षु की मानसिक दशा यही है।
इसीको ठाकुर व्याकुलता कहते थे। हमारी परम्परा में एक कहानी है। कोई शिष्य अपने गुरु के पास जाकर पूछता है , भगवान मुझे भगवान का दर्शन कब होगा ? गुरुदेव उसको हाथ पकड़ कर आश्रम के बाहर एक तालाब के पास ले जाते हैं। डुबकी लगाने पर गुरुदेव उसकी गर्दन को पानी के भीतर दबाये रखते हैं। फिर थोड़ी देर बाद जब सिर ऊपर निकालते हैं , तब शिष्य से पूछा - अभी तुम्हें कैसा लग रहा था ? मेरे तो प्राण निकलने वाले हों -इतना व्याकुल हो रहा था। तब गुरुदेव कहते है जब तुम्हारे अंदर ईश्वर को देखने, या सत्य को देखने के लिए इस प्रकार की छटपटाहट होगी , व्याकुलता होगी, उस दिन तुम सत्य को जान पाओगे। हम इसको स्वीकार करें कि हमारे अंदर वो व्याकुलता नहीं है। अगर व्याकुलता शुरू हो जाएगी -आपका जीवन परिवर्तित हो जायेगा। ये तीव्र व्याकुलता ही मुमुक्षता है। ऐसी मुमुक्षता भी दुर्लभ है - विवेकचूड़ामणि के शुरुआत में ही शंकराचार्य तीन चीजों को दुर्लभ कहे हैं। तीसरी बात महापुरुष की शरणागति दुर्लभ है। यदि किसी के जीवन में ये तीनों हों -तो ऐसा ईश्वर के अनुग्रह से ही होता है।
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ आदर्श गुरु कैसे होते हैं ? उसकी परिभाषा क्या है -
अयं स्वभावः स्वत एव यत्पर-
श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम् ।
सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कश-
प्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल ॥ ४० ॥
अर्थ:-महात्माओं का यह स्वभाव ही है कि वे स्वतः ही दूसरों का श्रम दूर करने में प्रवृत्त होते हैं। सूर्य के प्रचण्ड तेज से सन्तप्त पृथ्वीतल को चन्द्रदेव स्वयं ही शान्त कर देते हैं।
महामण्डल के 'नेता ' का स्वभाव (नवनीदा का स्वभाव या, महात्माओं का स्वभाव) इस श्लोक में अत्यंत सुंदर उपमा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। जैसे चन्द्रमा की शीतल किरणें सूर्य के प्रचंड ताप से तप्त पृथ्वी को स्वतः ही शांति प्रदान करती हैं, वैसे ही महापुरुष अपने सहज स्वभाव से दूसरों के कष्ट और श्रम को हरने में संलग्न रहते हैं। उनका यह आचरण किसी बाहरी प्रेरणा या स्वार्थ से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उनकी अंतःकरण की करुणा और अहेतुक दया का स्वाभाविक परिणाम होता है।
जो व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त कर चुका होता है, उसकी दृष्टि में समस्त प्राणी अपने ही स्वरूप में अभिन्न प्रतीत होते हैं। विवेकचूडामणि में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि इस अभिन्नता की अनुभूति से उनमें स्वार्थ का लेशमात्र भी नहीं रहता और वे अनायास ही लोककल्याण में प्रवृत्त हो जाते हैं।
श्लोक में “अयं स्वभावः स्वत एव” कह कर स्पष्ट किया गया है कि यह प्रवृत्ति किसी बाहरी कारण या प्रलोभन से नहीं होती। जैसे सूर्य का ताप देना उसका स्वभाव है, वैसे ही चन्द्रमा का शीतल करना भी उसका सहज स्वभाव है। इसी प्रकार महात्माओं की करुणा, उनकी सेवा भावना और दूसरों की पीड़ा को देखकर उनके हृदय में उत्पन्न होने वाला द्रवित भाव उनके आध्यात्मिक विकास और आत्मज्ञान का सहज प्रसाद होता है। उन्हें किसी से प्रशंसा या प्रतिफल की अपेक्षा नहीं होती। वे संसार में वसन्त ऋतु के समान अमृतवर्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।
यहाँ सूर्य और चन्द्रमा की उपमा अत्यंत सार्थक है। सूर्य अपने तेज से संसार को ऊर्जा देता है, किंतु कभी-कभी उसकी अधिकता से कष्ट भी होता है। चन्द्रमा उस कष्ट को दूर करता है। इसी प्रकार संसार में अनेक प्रकार की पीड़ाएं, संघर्ष और श्रम हैं, जिन्हें महात्मा अपनी सहज उपस्थिति से शमन करते हैं। उनके समागम से ही जीवन में शांति, स्थैर्य और संतोष की भावना उत्पन्न होती है।
विवेकचूडामणि में महात्माओं की भूमिका एक पथ-प्रदर्शक दीपक के रूप में भी बताई गई है। वे स्वयं संसार-सागर से पार उतर चुके होते हैं और दूसरों को भी पार लगाने में तत्पर रहते हैं।
उनके आचरण में किसी प्रकार की बनावट या दंभ नहीं होता। वे अनायास ही प्रेम और करूणा के स्रोत होते हैं। उनकी उपस्थिति से ही व्यक्ति के अंतर्मन में आत्मज्ञान के बीज अंकुरित होते हैं।
यह श्लोक हमें यह भी स्मरण कराता है कि यदि हम भी अपने भीतर करुणा और निस्वार्थ सेवा का भाव विकसित करें, तो हम अपने जीवन में महात्माओं के गुणों की कुछ झलक प्राप्त कर सकते हैं। संसार की पीड़ा को कम करना, दूसरों को सुकून देना और बिना किसी स्वार्थ के उनके श्रम का बोझ हल्का करना ही सच्ची आध्यात्मिकता का परिचायक है। इस प्रकार यह श्लोक केवल महात्माओं की महिमा ही नहीं, बल्कि हमारे लिए भी प्रेरणा का स्रोत है कि हम अपने हृदय को निर्मल कर दूसरों के हित में स्वतः प्रवृत्त हों।
शांता महान्तो निवसन्ती संतो
वसंतवल्लोकहितं चरन्त:।
तीर्णा: स्वयं भीमभवार्णवं जना-
नहेतुनान्यानपि तारयन्त:।।39।
भयंकर संसार-सागर से स्वयं उत्तीर्ण हुए और अन्य जनों को भी बिना कारण ही तारते तथा लोकहित का आचरण करते अति शांत महापुरुष ऋतुराज वसंत के समान निवास करते हैं।
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकाम हतो यो ब्रह्मवित्तमः ।
ब्रह्मण्युपरतः शान्तो निरिन्धन इवानलः
अहेतुकदयासिन्धुर्बन्धुरानमतां सताम् ॥ (33)
इन तीन श्लोकों में आदर्श गुरु का चरित्र हमारे सामने रखा गया है। स्वामी विवेकानन्द अपने व्याख्यानों में शंकराचार्य के विचारों को उद्धृत करते रहते हैं। इसी श्लोक को पहले लेते हैं कि आदर्श गुरु कैसे होते हैं ? श्रोत्रिय का अर्थ है -श्रुतियों में बताये गए जो सिद्धान्त हैं - चार महावाक्य हैं -उनमें प्रतिष्ठित ! श्रुति यानि उपनिषद। उपनिषदों में जो सिद्धान्त हैं -उनमें प्रतिष्ठित। उपनिषद का मूल सिद्धांत क्या है ? " सर्वं खल्विदं ब्रह्म" ये ऋषियों की अनुभूति है। भले ही आज हम जगत को ब्रह्ममय नहीं देख रहे हों , लेकिन सच्चाई यही है। एकमेवाद्वितीय ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है। सच्चिदानंद ब्रह्म से भिन्न द्वितीय वस्तु और गुरु नहीं है। ये सिद्धान्त है। और गुरु वे हैं जो इस सिद्धांत में प्रतिष्ठित हैं। गुरु का बोध इसमें प्रतिष्ठित है। आप उन्हें नींद से भी उठाके पूछो -तो नींद में भी वे यही बोलेंगे। फिर क्या ?
'अवृजिनो'- यानि गुरु निष्पाप हैं। वो चरित्र में प्रतिष्ठित है कि वो कोई भी गलत काम नहीं कर सकता। उनके अंदर पाप करने की प्रवत्ति पूरी तरह से क्यों खत्म हो गयी ? क्यों ? क्योंकि वे - अकाम हतो ! क्योंकि वे कामना शून्य हैं। उनके अंदर कामनायें नहीं हैं। हम पाप करते क्यों हैं ? सारे अनैतिक काम -कामना के वश में होकर ही किये जाते हैं। जो करना नहीं है , हम उसको कर बैठते हैं। पापाचरण के मूल में अनियंत्रित काम है। गुरु के अंदर कोई कामना ही नहीं -तो पाप वे कर ही नहीं सकते। क्योंकि उनकी दृष्टि में संसार कहाँ है - वो तो ब्रह्म में ही प्रतिष्ठित हैं। आप कल्पना कर सकते हैं , रमणमहर्षि या रामकृष्ण परमहंस -उनके अंदर कोई कामना ही नहीं है। सत्य में प्रतिष्ठित गुरु के लिए -संसार नाम की कोई चीज है ही नहीं। और गुरु क्या हैं ? वो ब्रह्मवित्तमः हैं - जितने ब्रह्मविद हैं , ब्रह्म को जानने वाले हैं, उनमें से उत्तम ब्रह्म वेत्ता हैं। फिर क्या ? ब्रह्मणि उपरतः ' ब्रह्म में ही उनका वासस्थान बन गया है। वे सब समय ब्रह्म में ही रहते हैं। हम संसार में रहते हैं , गुरु सब समय ब्रह्म में रहते हैं। इसीलिए शान्त हैं , हमलोग सब समय संसार में डूबे हुए हैं , इसलिए अशांत हैं। उनकी शांति कैसी है ? निरिन्ध्न इवा अनल ' जिस प्रकार ईंधनरहित अग्नि है। संसार रूपी अग्नि अब इनके अंतःकरण में नहीं है। फिर 'अहेतुक दया सिन्धु', उनकी दया अहेतुकी है। उनकी कृपा सब पर है। बंधू अनाम सतां - जो भी अच्छे लोग उनके शरण में आते हैं , उनके लिए वे बंधु के समान हैं। वैसे तो हमारे बहुत से मित्र बंधु हैं , लेकिन हमारे असली बंधु गुरु हैं। जिसको हम बंधु या दोस्त समझते हैं -वो पारमार्थिक दृष्टि से दुश्मन का कार्य देता है। अनजाने में ? जो व्यक्ति आपको संसार में और भी डुबोने का कार्य करेगा , वो जानबूझकर नहीं कर रहा है। (42.29 मिनट) वो उसको पता नहीं है -इसलिए आपको संसार में डूबने की सलाह देता रहता है। हमारे परिवार वाले भी उसमें आ जाते हैं। सही हित किसमें है ? ये किसको पता है ? आप कह सकते हो हमारा असली मित्र विवेकानन्द है। हमारे असली मित्र शंकराचार्यजी हैं। जो हमारे Role Model हैं -या जो हमारे प्रेरणा-श्रोत हैं वही हमारे असली बंधु हैं। जो विवेकानंद के शरण में आते हैं - वे उसके बंधु हैं। गुरु माँ के समान जिससे आप सबकुछ बात कर सकते हैं। ऐसे गुरुओं का स्वभाव क्या है ? यत्पर- श्रम अपनोद प्रवणं !
नेता के स्वभाव की प्रवणता - inclination है 'पर श्रम आपनोदनं' दूसरों के दुःख कष्ट को हरना इनकी प्रवणता है। जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है। नेता का एक सुंदर उदाहरण दिए हैं शंकराचार्य जी - सुधांशुरेष स्वयम अर्क कर्कश -सूर्य के प्रचण्ड तेज से संतप्त पृथ्वीतल को चन्द्रदेव स्वयं ही शांत कर देते हैं। मई के महीने में पृथ्वी तप्त हो रही है। हमारे गाँव पटना में - गर्मीं में केवाल मिट्टी फट जाती है ! सारा दिन सूरज इस पृथ्वी को तप्त करता रहता है , सूर्यास्त के बाद जब पूर्ण चन्द्रोदय हो जाता है - तो क्या होता है ? पृथ्वी चन्द्रमा से याचना नहीं कर रही है , फिर भी चन्द्रमा स्वयं अपने शीतल किरणों को पृथ्वी पर बिखेर देती है। जली हुई पृथ्वी को शांति प्रदान करती है -क्या सुंदर उदाहरण है। चन्द्रमा का स्वभाव है -शीतलता प्रदान करना। गुरु ऐसे ही होते हैं। तप्त जीवों के अन्तःकरण में शांति प्रदान करते हैं। ऐसे महापुरुष के सानिध्य में बैठने से ही हमारा अंतःकरण शांत हो जाता है। काम. क्रोध, मद ,मोह,लोभ और मात्सर्य से -या षडरिपुओं के प्रभाव से जीव का अंतःकरण जो तप रहा था, वहाँ जाते ही शांत हो जाता है। स्वामी जी को गुरु की ये परिभाषा बहुत पसंद थी- शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्त:। तिरानाः स्वयं भीमभावार्णवं जनान अहेतुनां यानापि तारयन्तः। ऐसे नेता लोग हैं - जो सब समय शांत हैं ! पतझड़ के बाद जब वसंत ऋतू आती है तो क्या होता है ? सब पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। हरियाली छ जाती है , बगीचे में फूल खिलने लगते हैं। संत, नेता 'नवनीदा' के आते ही सबके हृदयकमल में अध्यात्म का फूल खिलने लगता है। उनके सानिध्य में जो भी आते हैं -उनके जीवन में आध्यात्म का फूल खिलने लगता है। हमारा हृदय जो अभी तक बंजर था , वहाँ पर आध्यात्म अर्थात आत्मान्द रूपी फूल धीरे से अंकुरित होने लगता है , ये लोग बस लोकहित करने के लिए चलते रहते हैं , चलते रहते हैं। पुराने जमाने की बात है -अब संन्यासी पैदल नहीं चलते। पर दादा गाँव -गाँव जाते थे। वे जिस किसी गाँव में जाते थे वहाँ आध्यात्मिकता का फूल खिलने लगता था। ये उनका स्वभाव था। और क्या ? तिरानाः स्वयं भीमभावार्णवं जनान अहेतुनां यानापि तारयन्तः। जो स्वयं इस संसार सागर से पार कर चुके हैं -वे बिना हेतु अब दूसरों को भी पार करने -कराने का मार्ग बता देते हैं। इन तीन श्लोकों में एक आदर्श गुरु का चित्र हमारे सामने रखा गया, उसके पहले योग्य शिष्य का चित्र रखा गया। जो संसार सागर को पार करने के लिए व्याकुल है , गुरु का स्वभाव ही है उसके कष्ट को दूर करना।
हमारी गुरु-शिष्य परम्परा का एक सुंदर उदाहरण - श्री रामकृष्ण -नरेन् वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा -Be and Make ! (57.21 मिनट) कितने लोगों ने विवेकानन्द की जीवनी को पढ़ा है ? लगभग सभी लोगों ने पढ़ा है। नरेन् जो परवर्ती काल में स्वामी विवेकानन्द बनते हैं। नरेंद्र का जन्म एक अत्यंत ही धार्मिक परिवार में हुआ था। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी अत्यंत ही धार्मिक महिला थीं। जैसा अक्सर हमलोग अपने घरों माँ या फुआ आदि को देखते हैं। वे रामायण , भागवत , पुराणों में अत्यंत ही पारंगत थीं। उनका जीवन धर्मकेन्द्रित जीवन था व्रतों से भरा हुआ था। बचपन से ही वे रामायण -महाभारत की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। राम , सीता ,हनुमान, राधा -कृष्ण , शिव-पार्वती पुराणों की कहानियाँ सब कुछ सुना था। बड़ा होकर नरेन् स्कूल जाने लगा , फिर कॉलेज में प्रवेश किया। जैसे ही कॉलज में प्रवेश किया - कॉलेज में प्रवेश करते ही जैसे ही वे पाश्चात्य विचार धारा से परिचित हुए। आज की विडंबना यही है - पाश्चात्य विचारधारा से अवगत होते ही - Western philosophy, Western psychology, Western History ,Western Logic , Western Science, Physical Science, आदि क्या है ? पूरा भौतिक वाद है। पाश्चत्य जगत की दृष्टि में सबकुछ matter ही है ! देखिये यह जानकर बहुत बड़ी समस्या आ जाती है , बहुत बड़ी चुनौती आती है। दो विभिन्न संस्कृतियाँ हैं - भारत की संस्कृति आध्यात्ममूलक है। इसमें सिद्धांत क्या है ? सबकुछ चैतन्य ही है , और पाश्चात्य संस्कृति भौतिकवाद मूलक है -जिसका सिद्धांत ये है - ये सबकुछ matter है। ये दो 'Paradigm' प्रतिमान या आदर्श हैं। Two world Views - दो विश्व दृष्टिकोण हैं। विडंबना ये है कि हमारे बच्चों को आध्यात्मिक दृष्टिकोण तो मिलता ही नहीं है। बचपन से ही उनको स्कुल -कॉलेज में केवल भौतिक दृष्टिकोण ही दिया जाता है। इसके चलते उसमें आध्यात्मिक दृष्टिकोण- 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या' के प्रति संदेह पैदा होता है। होता है कि नहीं ? ये आज भारतवर्ष की नई पीढ़ी की बहुत भयानक समस्या है। अंग्रेजी शिक्षापद्धति शुरू होने के पहले ये समस्या हमारे देश में नहीं थी। स्वामी विवेकानन्द कहते थे हमें हमारी पुरानी गुरुगृह वास वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति -Be and Make ! को फिर से लाना होगा। आज की हमारी जो शिक्षा पद्धति है , यह अपूर्ण है। स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति को गलत नहीं कहते हैं - भौतिक विज्ञान तो होना ही चाहिए , गलत नहीं है। लेकिन अपूर्ण है। (1:00:56 मिनट ) ये पूर्ण शिक्षण नहीं है। ये शिक्षण पूर्ण तब होगा , जब इस 'भौतिक विज्ञान' को 'आध्यात्मिक -विज्ञान' का आधार प्रदान किया जायेगा। इस पाश्चात्य शिक्षा रूपी भौतिक-विज्ञान का मूलभूत आधार आध्यात्मिक विज्ञान का होना अनिवार्य है।
आप अगर अपने 'स्व ' को न जानकर , मैं कौन हूँ ? मेरा सत्य-स्वरुप क्या है ? यह न जानकर यदि सारे भौतिक विज्ञान को प्राप्त भी कर लो - रॉकेट विज्ञान, परमाणु विज्ञान'Rocket science , Atomic Science में पारंगत भी हो जाओ ; तब भी आपने कुछ भी नहीं जाना ! लेकिन हमारे भारत की जो 'गुरुगृहवास शिक्षा-पद्धति' है, वो इस प्रकार की थी जहाँ बाह्य-विज्ञान और अन्तर्विज्ञान (outer science and inner science) दोनों पढ़ाये जाते थे। हमारी गुरु-परम्परा में आध्यात्मिक विज्ञान भी होता था , और भौतिक विज्ञान भी होता था। (*श्री रामकृष्ण जी का उदाहण देखिये वे दूरबीन से खगोल-विज्ञान, ज्वार -भाटा , म्यूजियम के जीवन को भी समझने जाते थे।) यही पूर्ण शिक्षण पद्धति है। लेकिन वर्तमान युग या आधुनिक युग में, फिर से गुरुकुल पद्धति की शिक्षा में लौटना उचित नहीं होगा, या सम्भव भी नहीं होगा। इसलिए अन्तर्विज्ञान या आध्यात्मिक विज्ञान की शिक्षा द्वारा भैतिक-विज्ञान शिक्षा को पूर्ण करने के लिए- स्वामीजी की (पूर्ण ) मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति Be and Make' का प्रचार-प्रसार करने के लिए 1967 ई ० में महामण्डल को भी बंगाल में ही आविर्भूत होना पड़ा। (या नवनीदा की आत्मकथा - " जीवन नदी के हर मोड़ पर " के अनुसार स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा को- महिमाचरण चक्रवर्ती के घर में जन्म लेकर अन्दुल मौरी स्कूल में विद्या-अध्यन करने के लिए आविर्भूत होना पड़ा।)
तो जैसे ही बालक नरेन् कॉलेज में गया और पाश्चात्य जगत की भसौतिकवादी विचारधारा से वो अवगत हुआ , समस्या शुरू हो गयी। उसके मन में सन्देह उत्पन्न होने लगा। ये लोग तो कहते हैं -सबकुछ पदार्थ ही है - ये भौतिक जगत ही सत्य है। क्योंकि हमलोग इसको छूकर देख सकते हैं , या इन्द्रियों से अनुभव कर सकते हैं। लेकिन इसमें भगवान कहाँ हैं ? ईश्वर कहाँ है ? ये सारे प्रश्न उनके मन में उठने लगे और उनके मन एक प्रकार का द्वंद्व चलने लगा। ये एक Conflict बन गया और ये संघर्ष इतना तीव्र हो गया कि वे शंकराचार्य की के शिष्य परिभाषा के अनुसार बिल्कुल ब्याकुल हो गए , और उनके कॉलेज के जमाने में ये नरेन् एक आदर्श शिष्य में रूपांतरित हो गए। कैसे ? अब ये आदर्श शिष्य सत्य को जानने के लिए अत्यंत व्याकुल रहने लगे। सत्य को जानने की ऐसी व्याकुलता - जिसने विवेकानन्द चरित पढ़ा है , वो देखा होगा कि यह समय उनके जीवन का एक ऐसा कालखण्ड था , मानो हर समय उनके मन में केवल एक ही विचार चल रहा हो = सत्य क्या है ? (वो सत्य क्या है -जिसको देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ? यही प्रश्न मेरे मन में क्लास 9 से, (1966 से) लेकर 14 अप्रैल, 1992 तक चलता रहा ?) बचपन से वे अपनी माँ से ईश्वर की बात सुनते आये हैं , रामायण, बालक ध्रुव , प्रह्लाद , कृष्ण-कंस ये सब सुनते आये हैं। लेकिन ईश्वर सच में है क्या ? या सिर्फ एक कल्पना मात्र है ? यह प्रश्न किसी भी युवक या युवती के मन में आ सकती है , विशेषकर आज के परिपेक्ष्य में। हमारी शिक्षण-पद्धति ही ऐसी है -जिसमें आध्यात्म के लिए कोई स्थान ही नहीं है। इसलिए अधिकतर वर्तमान पीढ़ी के युवाओं में आध्यात्मिकता और भारतीय संस्कृति के ऊपर एक सन्देह है। वे चलते हैं एकदम पाश्चात्य दृष्टिकोण से , है ना ? वर्तमान पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति और विचारधारा से इतना प्रभावित है - कि उनको अपने राष्ट्र की प्राचीन सनातन संस्कृति के ऊपर संदेह होता है। अपने धर्म और मूर्ति-पूजक संस्कृति को एक प्रकार से तुच्छ नजर से देखते हैं। [ऐसे 'आंग्ल वैदिक विद्यालय' या भा जिसे DAV (Dayanand Anglo-Vedic) एंग्लो-वैदिक स्कूलों के रूप में जाना जाता है, भी हैं जो पाश्चात्य शिक्षा का नकल करते हुए बचपन से ही बच्चों को ईश्वर का निराकार स्वरुप समझाने में पिल कर पड़े हुए हैं। वहाँ के छात्र और शिक्षक मूर्तिपूजक श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द को तुच्छ दृष्टि से देखते हैं। क्षद्म मूर्ति पूजक पाश्चत्य शिक्षण पद्धति को Superior मानते हैं , जबकि सच्चाई ठीक इसके उल्टा है। यही विडंबना है , सच्चाई सीधा उल्टा है। भारतीय संस्क्रृति की शिक्षण-पद्धति के सामने वो कुछ भी नहीं है। आज वहाँ के लोग आध्यात्मिक शिक्षा लेने हमारे यहाँ आ रहे हैं , हमारे लोग वहाँ जा रहे हैं। ये ऐसा सम्मोहन (hypnotism) हैं , कि इससे हम सभी लोग सम्मोहित हो गए हैं। पाश्चात्य देशों के भौतिक विचारधारा से हमलोग बिल्कुल सम्मोहित हो गए हैं। We have become Hypnotized ! इस हिप्नोटिज्म को पहला तोड़ने वाले व्यक्ति थे स्वामी विवेकानंद !(या उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ?) पूरे विश्व के सामने उन्होंने यह उद्घाटित कर दिया कि सर्वश्रेष्घ्ठ धर्म है सनातन धर्म - क्योंकि यही सनातन शिक्षा भी है !! सनातनधर्म ही पूरे मानवसमाज को बचा सकती है। और भारतवर्ष कितना अपनी धर्म पूर्णता देता है और इस लिए पूर्णता देने वाली शिक्षा को अभिन्न मानने के शिक्षा-पद्धति के बलपर गौरवशाली राष्ट्र है - यह बात पूरे विश्व के सामने रखते हैं। दुनिया की सबसे महान भूमि, पुण्य भूमि यह देश है, हमारी मातृभूमि, हर भारतीय को गर्व होना चाहिए कि, हम भारतीय हैं और हम सनातनी हैं!Greatest Land in the world is this country , our Motherland , every Indian should be proud that, We are Indians and We are Sanatani! इस गर्व की भावना प्रत्येक युवक और युवतियों में होनी चाहिए। इस कार्य को करने वाले - सनातनी होने के गर्व को विश्व में उजागर करने वाले महापुरुष, युगनायक , युगाचार्य हैं स्वामी विवेकानन्द।
जो आज के शंकराचार्य हैं। इस युगाचार्य के जीवन में वह भी एक दौर रहा, जब उनके मन भी संदेह , या द्वंद्व उतपन्न हुआ कि क्या ईश्वर है ? या सिर्फ एक कल्पना है ? पाश्चात्य विचारधारा का जो दुष्प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है कि हम भी भटक जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में नरेंद्र कलकत्ते के हर जो बुद्धिजीवी थे उस जमाने के , बड़े -बड़े शिक्षाविद, बुद्धिजीवी, Academicians, Intellectuals , उनके पास जाकर पूछते हैं। आज भी हमलोग Academicians, और Intellectuals , को ही बहुत ज्ञानी मान लेते हैं। वे जानते कुछ नहीं हैं - कोई Intellectual क्या जनता है ? जानने वाला तो ऋषि है। आज भी अगर कोई यह कहे कि शंकराचार्य जी ने यह कहा है-तो हम उसकी ओर ध्यान नहीं देंगे। लेकिन कोई यह कहे कि Elon Musk ने ,Steve Jobs पुतिन या ट्रम्प ने ऐसा कहा है , तो तुरंत हमलोग उस पर विश्वास कर लेंगे। क्योंकि अंग्रेजी के गुलाम हमलोग अंग्रेजों से आज भी सम्मोहित हैं। अगर आप कहें कि भगवान कृष्ण ने ये कहा तो हमको लगता है कि चलो ये कहा होगा। ऐसे हमलोग भ्रमित हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - तो हमको लगता है इसमें क्या है ? पाश्चात्य देश के किसी बिद्धिजीवी ने कुछ कहा तो हम तुरंत उसको कोट करना शुरू कर देते हैं। वे बुद्धिजीवी लोग कुछ भी नहीं जानते हैं। बुद्धिजीवी क्या जानता है ? सत्य को जानने वाला तो ऋषि है। तो पहले हमें ऋषि और बुद्धिजीवी की श्रेष्ठता के बारे में जो भरम है , पहले हमको इस भ्रम से बाहर निकलना होगा।
जो हो बालक नरेन् तत्कालीन कलकत्ते के जो भी बड़े बड़े बुद्धिजीवी थे , Academicians, और Intellectuals थे उनके पास जाकर पूछते हैं - क्या आपने ईश्वर को देखा है ? बिल्कुल व्याकुलता - आपने क्या देखा ? पागलों की तरह घूमघूम कर पूछ रहे हैं। उस समय के नरेन का जो चित्रीकरण है ,वो ऐसा ही था। बाल बढ़ गए हैं , दाढ़ी बढ़ गयी है , जैसे की व्यक्ति कभी कभी दुर्लक्ष्य कर लेता है न ? जब मन में कोई द्वंद्व उछलता रहता है , तब वह उहापोह की स्थिति में पड़ जाता है ; न छोड़ते बनता है , न पकड़ते बनता है। नींद में भी बड़बड़ाने लगता है। पर यह उद्वेलित चित्त की अवस्था है। मन को तुरंत विवेक-वैराग्य समझने की जरूरत पड़ जाती हैं। जब आप किसी दुर्लभ वस्तु की खोज में जुट जाते हो , तब आपनेआप के ऊपर से ही ध्यान हट जाता है। कपड़े ठीक नहीं है , रहन -सहन ठीक नहीं है ; बिल्कुल पागलों जैसे दशा हो गयी थी। तो विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के ३८ वें श्लोक में शिष्य की जैसी मनोदशा को देखा था न हमने -
दुर्वारसंसार दावाग्नि तप्तं , दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः ।
भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः, शरण्यमन्यद्यदहं न जाने ॥ ३६॥
मैं तप रहा हूँ , मैं सत्य को जानना चाहता हूँ , मैं इस बंधन से मुक्त होना चाहता हूँ। ऐसा सत्य की खोज करने वाला व्यक्ति - उसका जीवन शुरू में ऐसा ही हो जाता है। वो फिर किसी भौतिक चीज या इन्द्रियभोग से वो तृप्त नहीं होता। वो सत्य को जानना चाहता है , इस प्रकार नरेन जो है , कलकत्ते के बड़े विद्वान् माने हुए लोगों के घरों में जा जाकर उनके दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं , उनसे पूछ रहे हैं कि महाशय क्या आपने ईश्वर को देखा है ? तो उनको कहीं से भी उत्तर नहीं मिलता। क्योंकि राजाराम मोहन से लेकर , ईश्वरचंद्र विद्यासागर या देवेन्द्रनाथ टैगोर , या आचार्य केशवसेन तात्कालीन सभी प्रसिद्द विद्वान् पुस्तकीय विद्या को जानते थे , किताबों को पढ़ पढ़ कर भाषण देते रहते थे। किताबों को रटने से क्या मिलने वाला है ? अंत में उनके कॉलेज के एक प्राध्यापक प्रो ० हेस्टी ने कहा भाई नरेन् दक्षिणेश्वर का जो मंदिर है न ; वहाँ पर एक पागल रहता है।दुनिया में ऐसा ही होता है -जो महापुरुष हैं , उनको तो हम पागल कहते हैं। और जो कामीनि-कांचन, नाम-यश , के पीछे पूरे पागल हैं, माटी -टाका का अर्थ नहीं समझने वाले ;अर्थात असली पैसा जमीन की खरीद-बिक्री में है - वैसे जमीन के दलालों को तो हम महात्मा मानते हैं। सब जगह देखिये उल्टा हो रहा है। मगरमच्छ को हमने ? लकड़ा समझ लिया है। जो सचमुच ही विद्वान् है यानि ब्रह्मविद या आत्मज्ञानी हैं -उनको तो हम पागल बोल देते हैं। और जो कुछ भी नहीं जानते उनको हम बहुत बड़ा विद्वान् बोल देते हैं।
विवेक की उपयोगिता सर्वत्र आ जाती है। सर्वत्र हम एक चीज को दूसरा समझ रहे हैं। मगरमच्छ को हम लकड़ा समझ रहे हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस देव विख्यात थे - कि वे पागल हैं। क्योंकि उनको तो मुहुर्मुहुः समाधि होती थी। बिल्कुल उनका अद्भुत जीवन है -क्योंकि अधिकांश मनुष्य तो योग -समाधि के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। कहते थे एक ऐसा अद्भुत पगला है , जो हर समय मर कर फिर जी उठता है ! लेकिन एक व्यक्ति मिलते हैं - जो बोलते हैं यदि तुमको कवि कहाँ खो गया ? समझना है तो दक्षिणेश्वर जाओ। तो देखिये ये नरेन जो एक आदर्श शिष्य है , आदर्श गुरु के पास पहुँच जाता है। वे रामकृष्ण के पास आकर पहला प्रश्न यही करते हैं -महाशय आपने क्या ईश्वर को देखा है ? और तुरंत उत्तर आता है - हाँ बेटा , मैंने देखा है ! जैसे मैं तुमको देख रहा हूँ , उससे भी 1000 गुना अधिक स्पष्ट रूप से उसको मैंने देखा है ! "
यह बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा है। जिस प्रकार मैं तुम्हें देख रहा हूँ ! यानि तुम्हें मैं इन्द्रियों से देख रहा हूँ ! और वो जो सच्चिदानन्द वस्तु है , या परम् सत्य है -वो इन्द्रियों से दिखने वाली चीज नहीं है। उसकी जब अनुभूति होती है तो इससे भी 1000 गुना intense, तीव्र होती है। ' I am seeing Ishwar thousand times more Intense than I am seeing you !' मैं ईश्वर को तुमको जैसे देख रहा हूँ उससे भी हजार गुना अधिक तीव्रता से देख रहा हूँ! विवेक चूड़ामणि के मंगलाचरण एवं ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व ( श्लोक 1 एवं 2) में ठीक यही उत्तर है, जैसा श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का भी। इसलिए कहते हैं - ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ विवेकचूड़ामणि ग्रंथ की मंगलाचरण की पहली और दूसरी पंक्ति क्या है ? तम् अगोचरं!
"तमगोचरं सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं।
गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥"
"तमगोचरम्" — यह शब्द दर्शाता है कि वह परमात्मा या गुरु सामान्य ज्ञानेंद्रियों द्वारा जानने योग्य नहीं हैं। "तम" का अर्थ है अंधकार या अज्ञान, और "गोचर" का अर्थ है जो ज्ञेय हो। अर्थात, वह परम तत्व ऐसा है जिसे इंद्रियों, मन या बुद्धि के माध्यम से जाना नहीं जा सकता। वह हमारे लौकिक अनुभवों की सीमा से परे है। इस संसार में जो कुछ भी हम देखते, सुनते, छूते, सूंघते या स्वाद लेते हैं, वह सब इंद्रियगोचर है, परंतु परमात्मा उन सबसे परे है। इसलिए वह "तमगोचर" — अज्ञेय है।
"सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरम्" — यद्यपि वह अज्ञेय है, फिर भी वह वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से जाना जा सकता है। इसका अर्थ है कि वेदांत, विशेषतः उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों द्वारा जिस परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है, वही तत्व है जिसे गुरु के माध्यम से जाना जा सकता है। उपनिषदों में, महावाक्यों में बताया गया "सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म", "नेति नेति", "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" आदि महावाक्य उसी ब्रह्म की ओर संकेत करते हैं।
"गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं" — आदि शंकराचार्य यहाँ अपने गुरु गोविन्दपाद की स्तुति करते हैं, जो उस परमानन्द स्वरूप ब्रह्म के साक्षात् प्रतिनिधि हैं। "परमानन्द" का तात्पर्य उस आनन्द से है जो आत्मा के ज्ञान में स्थायी रूप से स्थित होता है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं करता। गुरु न केवल उपदेशक हैं, बल्कि वे स्वयं उस परमानन्द के मूर्तिमान स्वरूप हैं। वे स्वयं ब्रह्मनिष्ठ होकर शिष्य को उस ज्ञान की ओर ले जाते हैं।
"प्रणतोऽस्म्यहम्" — इस वाक्य में श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता की चरम अभिव्यक्ति है। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि मैं उन गुरु को प्रणाम करता हूँ। यह प्रणाम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि अंतरात्मा से किया गया आत्मसमर्पण है। गुरु के प्रति यह कृतज्ञता उस परंपरा का भी स्मरण कराती है, जिसके माध्यम से ब्रह्मविद्या जीवित रही है।
निष्कर्षतः, यह श्लोक न केवल एक असाधारण स्तुति है, बल्कि यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति में गुरु का क्या स्थान है। गुरु वही हैं जो शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को जानते हैं और अपने अनुभव द्वारा शिष्य को भी उसी आत्मबोध में स्थित करते हैं। ऐसे सद्गुरु को प्रणाम कर शिष्य ज्ञान-मार्ग पर आगे बढ़ता है — यह वेदांत की परंपरा की मूल भावना है।
इस प्रथम श्लोक को उन्होंने अपने गुरु भगवान गोविन्दपाद को समर्पित किया है। इस श्लोक के माध्यम से वे केवल अपने गुरु को प्रणाम नहीं करते, बल्कि उस परम सत्य के स्वरूप का भी वर्णन करते हैं, जिसे वेदांत शास्त्रों के मर्म के रूप में जाना जाता है।
ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व:
श्लोक:-
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम् ।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-
र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥
'ब्रह्मनिष्ठा' अर्थात् ब्रह्म में दृढ़ स्थिति—आध्यात्मिक साधना की चरम अवस्था मानी जाती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक आत्मा और ब्रह्म की एकता को केवल शास्त्रों और गुरुवाक्य से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव से जान लेता है और उसी में स्थिर हो जाता है। ऊपर दिए गए श्लोक में शंकराचार्यजी इस ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति को अत्यंत दुर्लभ बताते हैं और इसकी ओर पहुँचने के क्रमिक सोपानों को दर्शाते हैं।
श्लोक के अनुसार सबसे पहले नरजन्म ही दुर्लभ है। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जब जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, तब वह धर्म, ज्ञान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है। पशु, पक्षी, कीट-पतंगों में ऐसा विवेक या साधना संभव नहीं। इसलिए मनुष्य जन्म को एक अत्यंत दुर्लभ अवसर माना गया है।
इसके पश्चात मनुष्य में भी पुंस्त्व अर्थात पुरुषत्व प्राप्त करना विशेष माना गया है, क्योंकि प्राचीन भारत में पुरुषों को वेदाध्ययन और तपस्या की अधिक सुविधा प्राप्त थी। इसके बाद आता है विप्रता अर्थात ब्राह्मणत्व। यहाँ ब्राह्मणत्व का आशय केवल जाति से नहीं, अपितु उस शुद्ध, सात्त्विक, धर्मनिष्ठ जीवनशैली से है जो वैदिक धर्म के पालन और आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करती है। ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाने के बाद भी वैदिक धर्म में श्रद्धा और निष्ठा होना आवश्यक है। केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि शास्त्रों का पालन, यज्ञ, तप, जप, और स्वाध्याय में तत्परता आवश्यक है। फिर भी यह सब कुछ होना भी केवल प्रारंभिक योग्यता है।
अगला चरण है विद्वत्ता—शास्त्रों का गहरा ज्ञान, विवेकशील चिंतन और गुरुसेवा के द्वारा आत्मज्ञान की तैयारी। किन्तु श्लोक यह स्पष्ट करता है कि इतना सब कुछ भी हो जाए तो भी आत्मा और अनात्मा का विवेक, स्वानुभव, ब्रह्म में स्थित रहना और मोक्ष प्राप्त करना सहज नहीं है। यह तो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैः—असंख्य जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही संभव होता है। यहाँ शंकराचार्यजी हमें यह समझाते हैं कि ब्रह्मनिष्ठा केवल बाह्य आचरण से नहीं, अपितु गहन तपस्या, पूर्ण वैराग्य, गुरु की कृपा और भगवत्कृपा से ही प्राप्त होती है।
ब्रह्मनिष्ठ साधक उस परम तत्त्व में स्थित हो जाता है जहाँ से कोई भ्रम नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। वह जानता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही ब्रह्म हूँ। इस स्थिति में वह न केवल संसार के दुःख-सुखों से परे हो जाता है, अपितु शुद्ध साक्षीभाव में स्थित होकर पूर्ण तृप्ति को प्राप्त करता है।
अतः यह स्पष्ट है कि ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति एक अत्यंत दुर्लभ, किन्तु सर्वोत्तम उपलब्धि है। यह मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसके लिए हमें निरंतर साधना, आत्मविचार और गुरुसेवा में लगे रहना चाहिए। यही वास्तविक मोक्ष का द्वार है।
इसके बाद की बाकि कहानी आप विवेकानन्द चरित या श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग में पढ़ सकते हैं। यहाँ यह बतलाया गया कि कैसे एक योग्य शिष्य या आदर्श शिष्य -विवेकानन्द अपने आदर्श गुरु श्रीरामकृष्ण के पास आते हैं। सत्य को जानने के लिए उनकी व्याकुलता कितनी तीव्र थी ? आज हमारे अंदर नरेंद्र जितनी व्याकुलता भले ही न हों। लेकिन आदर्श शिष्य और आदर्श गुरु कैसा होता है इसे जान लेना चाहिए क्योंकि आप सभी, जीव के जीवन में कभी न कभी एक पड़ाव ऐसा आएगा -जब यह व्याकुलता उतपन्न होगी। आज नहीं , कल नहीं , 10 वर्षों के पश्चात , 50 वर्षों के पश्चात् , अगले जन्म में ! कभी न कभी ऐसी व्याकुलता आएगी , अभी इसको केवल सुनके रख लेना भी अच्छा है। अभी हमने भ्रान्ति निर्मूल करने में आदर्श गुरु और आदर्श शिष्य कैसे होते हैं ? अब इसके बाद बहुत सुंदर गुरु-शिष्य संवाद के माध्यम से Real Investigation ' शुरू होने वाला है। अभी तक वास्तविक अन्वेषण या Investigation, सत्य की खोज शुरू नहीं हुई है। ये सब सिर्फ प्राथमिक बातें हैं - Basics -बुनियादी बातें हैं। अब यहाँ से गुरु-शिष्य संवाद शुरू होगा। शिष्य कुछ गहन प्रश्न करेंगे , गुरु के सामने प्रश्न रखेंगे , और गुरु उन प्रश्नों का उत्तर देते हैं। वही पूरा विवेक-चूड़ामणि है। अब Real Investigation शुरू होने वाला है। Penetrating Investigation ' शुरू होता है जो हमें बिल्कुल सत्य के दरवाजे तक लाके छोड़ देती है। ऐसी गहन परख मानो माँ अपने बच्चों का हाथ पकड़ कर ले जाती है न ? चल बेटा चल , ऐसे चल, तूँ गिर मत। माँ कितने प्यार से बच्चे की ऊँगली पकड़के ले जाती है। चल ! उसी प्रकार गुरु किसी शिष्य को हाथ पकड़कर ले जाते हैं। और सत्य के दरवाजे तक छोड़ देते हैं। यह अगले सत्र में आने वाला है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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