श्रीरामचरितमानस
षष्ठ सोपान
[सुन्दर काण्ड /लंका काण्ड]
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 315: दोहा -33, 34,35]
>> अपने बल का आभास देने के लिए सभा में अपने पैर रोपने और अनेक योद्धाओं समेत रावण द्वारा उसे हिलाने का असफल प्रयत्न --
अपने बल का आभास देने के लिए रावण की सभा में अंगद ने पृथ्वी पर जो पैर रोपा, तो मेघनाद समेत अनेक योद्धाओं ने अपनी सारी शक्ति लगा दी, परन्तु उसे हिला तक नहीं सके। ये देख स्वयं रावण उठ खड़ा हुआ , जैसे ही वो अंगद का पैर पकड़ने लगा , अंगद बोल पड़े- अरे मूढ़ मेरा चरण पकड़ने में तेरा कल्याण नहीं , जाकर श्रीराम के चरण पकड़। पल भर में रावण के दम्भपूर्ण मुखमण्डल से कांति विलुप्त हो गयी। सकुचाकर वो सिंहासन पर वापस जा बैठा। उसका मुख वैसे ही निस्तेज हो गया जैसे सूर्य के प्रकाश में चन्द्रमा का प्रकाश लुप्त हो जाता है। पार्वती को ये वृतान्त सुनाते हुए शिवजी कहते हैं - हे उमा ! जिन प्रभु के भौहों के संकेत मात्र से विश्व की रचना और विनाश होता है , जो एक तिनके को वज्र के समान कठोर और वज्र को तिनके के सामान नगण्य बना देते हैं , उनके दूत के प्राण और निश्चय को भला कौन डिगा सकता है ? अंगद ने एक बार फिर नीतिपूर्ण वचन कहकर, रावण को सद्बुद्धि देनी चाही , किन्तु उसका कोई प्रभाव न होता देख , रणभूमि में उसका वध करने की धमकी देकर , श्रीराम की शिविर में वापस लौट गए। रात्रि में मन्दोदरी ने रावण को फिर समझाने का प्रयास किया - जो श्री राम के छोटे भाई द्वारा खींची गयी एक रेखा तक नहीं लाँघ सका , वो स्वयं जगदीश्वर से किस प्रकार पार पा सकेगा ? .....
चौपाई :
* कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥
भावार्थ:-अंगद
का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा।
जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमार अंगद ने कहा- मेरा चरण पकड़ने
से तेरा बचाव नहीं होगा!॥1॥
*गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥
भावार्थ:-अरे
मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में
बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया
जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है॥2॥
* सिंघासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई॥
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥3॥
भावार्थ:-वह
सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो।
श्री रामचंद्रजी जगत्भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख
रहने वाला शांति कैसे पा सकता है?॥3॥
* उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥4॥
भावार्थ:-(शिवजी
कहते हैं-) हे उमा! जिन श्री रामचंद्रजी के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से
विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है, जो तृण को वज्र और
वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यंत निर्बल को महान् प्रबल और महान् प्रबल
को अत्यंत निर्बल कर देते हैं), उनके दूत का प्रण कहो, कैसे टल सकता है?॥4॥
* पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥5॥
भावार्थ:-फिर
अंगद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना, क्योंकि उसका काल
निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके अंगद ने उसको प्रभु श्री
रामचंद्रजी का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल
दिया-॥5॥
* हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥6॥
भावार्थ:-रणभूमि
में तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बड़ाई करूँ। अंगद
ने पहले ही (सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद
सुनकर रावण दुःखी हो गया॥6॥
* जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥7॥
भावार्थ:-अंगद का प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यन्त ही व्याकुल हो गए॥7॥
दोहा :
* रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज॥35 क॥
भावार्थ:-शत्रु के बल का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अंगदजी ने हर्षित होकर आकर श्री रामचंद्रजी के चरणकमल पकड़ लिए। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल भरा है॥35 (क)॥
* साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरीं रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ॥35 ख॥
भावार्थ:- सन्ध्या हो गई जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मन्दोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा-॥35 (ख)॥
चौपाई :
* कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥
भावार्थ:- हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥1॥
* पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥
कौतुक सिंधु नाघि तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका॥2॥
भावार्थ:- हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्) आपकी लंका में निर्भय चला आया!॥2॥
* रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥3॥
भावार्थ:- रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?॥3॥
* अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥4॥
भावार्थ:- अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डींग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पति! आप श्री रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान् जानिए॥4॥
* बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥5॥
भावार्थ:- श्री रामजी के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था, परन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी थे॥5॥
* भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥6॥
भावार्थ:- वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर श्री रामजी ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता? इंद्रपुत्र जयन्त उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। श्री रामजी ने पकड़कर, केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया॥6॥
* सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥7॥
भावार्थ:- शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती!॥7॥
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दुनिया के रंगमंच पर रामलीला : जादूगर ही सत्य है - जादू सत्य नहीं है। रंगमंच के किसी अदाकार का नाम क्या होगा ? पात्र का नामकरण भी निर्देशक की इच्छानुसार उसकी माँ तय करती है -bSukhani ? बिहारी बुद्ध के राज्य का प्रबुद्ध नागरिक - यहाँ का व्यक्ति मैं नहीं 'हम' है -एक उसके शरीर का नाम, दूसरा स्वरुप का नाम ! तेरी इच्छा पूर्ण हो ! यह शरीर भी मेरा नहीं-तो मकान -दुकान की बात ही क्या ?
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