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गुरुवार, 21 अगस्त 2025

⚜️️⚜️️पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥⚜️️घटना - 332⚜️️मेघनाद वध से लंका में शोक और रावण का युद्धभूमि में आगमन ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #332 ||

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 332: दोहा -76,77,78]


>>मेघनाद वध से लंका में शोक और रावण का युद्धभूमि में आगमन 

        लक्षण का वाण सीधा मेघनाद की छाती में लगा। देह त्यागने से पहले उस महवीर ने - छलकपट का त्याग कर दिया ! और सच्चे ह्रदय से श्री राम और लक्ष्मण का स्मरण किया ; हनुमान और अंगद विह्वल स्वर में कह उठे- हे वीर धन्य है तेरी माता  जिसने अपने कोख में तुझे धारण किया। और धन्य है तूँ जिसे लक्ष्मण जी के हाथों सद्गति प्राप्त हुई। हनुमान मेघनाद का पार्थिव शरीर रावण के महल के द्वार पर रख आये। पुत्र की ये गति देख रावण मूर्क्षित हो गया। अन्य रानियों सहित मंदोदरी के विलाप से अंतःपुर द्रवित हो गया। बाहर नगर में शोकातुर प्रजाजन रावण को कोश रहे हैं। जिसने अपने अभिमान और हठ के कारण लंका को ये दिन दिखाया। लेकिन रावण अपनी स्त्रियों को एक दार्शनिक की भाँति उपदेश दे रहा है ,कि इस जगत के समान ही , शरीर भी नाशवान है। रात्रि बिट जाती है। वानरसेना एक बार फिर युद्धभूमि में आ डटी है, रावण ने पवनगति से दौड़ने वाला अपना रथ सजाया , और अपने विश्वस्त योद्धाओं को साथ ले , रणभूमि की ओर चलपड़ा। चारों ओर भयानक अपशकुन होने लगे। 

दोहा :
* रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान॥76॥

भावार्थ:- राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए। अंगद और हनुमान कहने लगे- तेरी माता धन्य है, धन्य है (जो तू लक्ष्मणजी के हाथों मरा और मरते समय श्री राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया।)॥76॥

चौपाई :
* बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा। चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥1॥

भावार्थ:- हनुमान्‌जी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए॥1॥

* बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनंत जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥2॥

भावार्थ:- वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं। हे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान्‌ विपत्ति से) उद्धार किया॥2॥

* अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिंधु पहिं आए॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥3॥

भावार्थ:-देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आए। रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥

* मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
रनगर लोग सब ब्याकुल सोचा।
सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥4॥

भावार्थ:-मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे॥4॥

दोहा :
* तब दसकंठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥

भावार्थ:- तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत्‌ का यह (दृश्य)रूप नाशवान्‌ है, हृदय में विचारकर देखो॥77॥

चौपाई :
* तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥

भावार्थ:- रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं॥1॥

* निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जाकर मन डोला॥2॥

भावार्थ:- रात बीत गई, सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लड़ाई में शत्रु के सम्मुख मन डाँवाडोल हो,॥2॥

* सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा॥3॥

भावार्थ:- अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा॥3॥

* अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥4॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान्‌ वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो॥4॥
दोहा :

*असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥5॥

भावार्थ:- उस समय असंख्य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है॥5॥

छंद :
* अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

भावार्थ:-अत्यंत गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों। (मृत्यु का संदेसा सुना रहे हों)। 

दोहा :
* ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥

भावार्थ:- जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के बस हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शांति हो सकती है?॥78॥  

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https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_61.html
  

 

 

 

 

 

 

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