विवेक-चूड़ामणि सार
(स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज -अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती)
(भाग - 1,2,3,4,5)
सनातन हिन्दू धर्म, क्या है ? यह अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहने वाला है। यह धर्म किसी व्यक्ति, या ग्रन्थ पर निर्भर नहीं है। जैसे ग्रंथ बाइबिल और व्यक्ति ईसा, बुद्ध और त्रिपिटक ग्रंथ के बाद बौद्ध धर्म का प्रारम्भ हुआ, कुरान ग्रन्थ पर इस्लाम धर्म का प्रारम्भ हुआ पर वैदिक धर्म ग्रंथ और किसी व्यक्ति पर आधारित नहीं है। लेकिन सनातन धर्म को ही वैदिक वैदिक धर्म भी कहा जाता है। वेद क्या है ? यह किसी व्यक्ति की रचना नहीं है। यह सत्य की खोज करने वाले ऋषियों द्वारा आविष्कृत संचित ज्ञान राशि है। सनातन सत्य वह सिद्धान्त है जो सृष्टि को चला रहा है। वह सनातन सत्य क्या है ? यह जगत एकमेवाद्वित्य ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। अपनी इन्द्रियों से जिस जगत को हम देख रहे हैं - वह परिवर्तनशील होने के कारण, दृष्टिगोचर होने पर भी मिथ्या है। पर हमको तो इसमें कहीं ब्रह्म नहीं दीखता है जगत ही दीखता है।
फिर उस ब्रह्म, आत्मा, को कैसे जाने ? उसका उपाय है श्रवण, मनन , निदिध्यासन। 'श्रवण' का अर्थ है गुरुमुख से या ऋषि के मुख से सुनना , और अपरिवर्तनीय सत्य, सनातन सत्य की धारणा या तात्पर्य समझने के लिए श्रवण करना। तुम जिसको खोज रहे हो वह तुम्हीं हो। तत्वमसि - हमलोग केवल स्त्री-पुरुष शरीर मात्र नहीं है। हमलोग नश्वर देहधारी -शाश्वत आत्मा या ब्रह्म हैं। दिल्ली के बारे में उस व्यक्ति से श्रवण करना जिसने दिल्ली देखा है। जिन ऋषियों ने उस इन्द्रियातीत का अनुभव किया है उनके मुख से श्रवण करना - तातपर्य समझने के लिए श्रवण करना, अपने जीवन में उतारने के लिए श्रवण करना। पाण्डित्य बघारने के लिए श्रवण करना व्यर्थ है। श्रवण करने से हमारे जीवन में परिवर्तन होना चाहिए। जगत को देखने के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी। श्रवण ठीक होने से -हमलोग मौन होना सीखेंगे। और वही श्रवण फिर मनन में रूपांतरित हो जायगी, बार बार गुरु वाक्यों का मनन करने से निदिध्यासन होगा - अर्थात ध्यान होने लगेगा की मैं देह नहीं आत्मा हूँ -मैं नश्वर देह नहीं शाश्वत आत्मा हूँ। यह ध्यान या निदिध्यासन जब समाधि में विकसित हो जायेगा तब हमे ज्ञान (अपने स्वरुप का ज्ञान) हो जायेगा। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है - यही वेद -वेदांत या उपनिषद का सार है। यह ज्ञान सार्वभौमिक होगा किसी खास देश या व्यक्ति को नहीं जो भी इस पद्धति का अनुसरण करेगा उसे सत्य की अनुभूति होगी। मुसलमान , ईसाई या बौद्ध सभी को होगा। सभी सुख प्राप्ति करना चाहते हैं, और दुःख से निवृत्ति चाहते हैं। पर सुख कहाँ है; इसे समझने के लिए विवेक चाहिए। विवेक क्या है ? उसीका यह ग्रन्थ है विवेक- चूड़ामणि। भगवान शंकराचार्य द्वारा लिखित यह अंतिम ग्रन्थ है - ऐसी मान्यता है। स्वामी विवेकानन्द भगवान शंकराचार्य को बालक शंकर - या boy शंकर कहते थे। क्योंकि उन्होंने अपनी सारी रचनायें 16 वर्ष की आयु में ही लिख डाली थीं। स्वामीजी ने आदि शंकराचार्य के बारे में कहा था - " जिसके बारे में यह घोषित किया गया है कि उसने सोलह वर्ष की उम्र में अपनी समस्त ग्रंथों की रचना समाप्त कर ली थी, उसी अद्भुत प्रतिभाशाली बालक शंकराचार्य का अभ्युदय हुआ। और जिस 16 वर्ष के बालक की रचनाओं को पढ़कर सभ्य जगत विस्मित हो रहा है, वह बालक भी उतना ही अद्भुत था। उसने संकल्प किया था कि समग्र भारत को उसके प्राचीन विशुद्ध मार्ग में ले जाऊँगा। " (भारत के महापुरुष/ऋषि -खंड 5, पेज -159)
Adi Shankara- " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose. The writings of this boy of sixteen are the wonders of the modern world, and so was the boy. He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity .(वे भारतीय जगत को उसकी प्राचीन शुद्धता पर वापस लाना चाहते थे।)He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity ."
["The greatest teacher of the Vedanta philosophy was Shankaracharya. India has to live, and the spirit of the Lord descended again. He who declared, “I will come whenever virtue subsides, came again and this time the manifestation was in the South, and up rose that young Brahmin of whom " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose."(The Sages Of India) ]
विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ में 580 श्लोक हैं हमलोग चुने हुए केवल 50 -60 श्लोकों पर चर्चा करेंगे। इस ग्रंथ के नाम चूड़ामणि - मुकुट मणि कहने का तात्पर्य है - Most Important ! हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - हमारा सिर, उस पर मुकुट पहना जाता है। लेकिन वह मुकुट ऐसा है जिसपर बहुत कीमिति मणि (कोहिनूर जैसा विवेक ) जड़ी हुई है ! जिस प्रकार मुकुट के शिखर पर स्थित रत्न किसी व्यक्ति के शरीर का सबसे विशिष्ट आभूषण होता है, उसी प्रकार यह ग्रंथ सत्, असत् और मिथ्या के बीच विवेक का अध्ययन करने वाली कृतियों में एक उत्कृष्ट कृति है। तो विवेक क्या है ? यह मनुष्य की वह योग्यता है - जिसके कारण उसे मनुष्य कहा जाता है। विवेक का अर्थ है स्पष्टता या स्पष्ट-समझ, या इसको प्रांजल दृष्टि भी कह सकते हैं। यह मनुष्य के अलावा अन्य किसी प्राणी के पास नहीं होता। इस समय विश्व में मनुष्यों की संख्या कितनी है, 8 अरब What is the number of humans? - 8 billion -इतनी बड़ी जनसंख्या में लेकिन 99 % मनुष्यों का विवेक सोया रहता है। इसे जगाना पड़ता है। तब यह इन्द्रियग्राह्य जगत जो अविवेकी को सत्य जैसा दीखता है , विवेकवान पुरुष को स्पष्ट रूप से यह दृश्य प्रपंच मिथ्या दीखता है। हमने इस जगत को वह समझ लिया है जैसा वो नहीं है। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है , किन्तु हमें ब्रह्म नहीं दीखता केवल जगत एकदम सत्य के जैसा दीखता है। इस विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ में ही भगवान शंकर ने विवेक-जगरण को एक रूपक से समझाया है।
कोई ग्रामीण किसान था जिसे संध्या के समय , जब अंधकार नहीं होता लेकिन प्रकाश बहुत थोड़ा रहता है, उस समय किसी अत्यन्त आवश्यक काम से दूसरे गाँव जाना पड़ता है। वह गाँव नदी के उस पार था। वह जल्दी-जल्दी नदी के निकट पहुँचता है - तो देखता है कि न तो वहाँ कोई नाव है, न नाविक है। उसे नदी के उस पार जाना बहुत आवश्यक था - वह उपाय ढूँढ़ने लगता है। तभी उसे नदी में कुछ लक्कड़ जैसा बहता हुआ दीखता है। उस समय शाम के धुँधलके में जिसे हम -dusk' कहते हैं - बहुत स्पष्ट नहीं दीखता तो एक वस्तु को हम दूसरी वस्तु समझ लेते हैं। तो वह किसान भी जब उस लट्ठे पर बैठ कर नदी पार करने की और बढ़ रहा होता है। तभी दूर से कोई व्यक्ति बोलता है , उधर मत जाओ - जिसे तुम लट्ठा समझ रहे हो ; वह लक्क्ड़ का लट्ठा नहीं - मगरमच्छ है। अब वो उधर जायेगा ? तो गुरु की आवाज सुनकर विवेक जाग उठता है। इन्द्रियों से जो जगत दिख रहा है , वो इन्द्रियाँ ही हैं। यदि इन्द्रियाँ न हों -तो भी आप रहोगे पर जगत नहीं होगा। इस प्रकार यह नाम रूपात्मक जगत जैसा दिख रहा है -वो वैसा नहीं है। कुछ सुन्दर -सुन्दर वस्तु देखते हैं , अत्यंत सुन्दर रूप देखकर, इससे कुछ पाने की आशा में आजीवन दौड़ते रहने से भी -तृप्ति नहीं होती। शरीर बूढ़ा हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं -मृत्यु का समय हो जाता है। इसको ऐसे समझें - कल्पना करें कि आप किसी कुँए में गिर रहे हैं , सच में नहीं गिर रहे हैं - पर कल्पना करें ,समझने के लिए तो उसमें क्या हर्ज है ? और वह कुँआ ऐसा है जिसकी तली ही नहीं है - आप गिरते जा रहे हैं , पता नहीं कितनी गहराई - कितने समय तक ?कई जन्मों से गिरते चले जा रहे हैं ? विशालाक्षी नदी का भँवर भी वैसा ही था -जिसमें गिरने से ठाकुर सावधान करते थे। उन गुरुओं के वचनों को सुनना ही श्रवण है , श्रवण करके मौन होकर उस पर मनन करने से - निदिध्यासन या ध्यान स्वतः होगा , फिर समाधि में विवेकज-ज्ञान हो जायेगा। जीवन बदल जायेगा , जगत को देखने की दृष्टि ही बदल जाएगी। श्रवण -मनन-निदिध्यासन से हमारे जीवन में परिवर्तन होने लगेगा।
आप हो लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं। उस अवस्था में हमें पहुँचना है। आज हम लोग अपने को इन्द्रियों से जोड़कर ही सब कुछ को सत्य समझ रहे हैं। इन्द्रियाँ हमें भ्रमित कर रहीं हैं। इन्द्रियों में ही डूबे रहना भी उसी प्रकार है जिस प्रकार कोई व्यक्ति का ऐसे कुँए में गिरना है जिसका कोई तल ही न हो। नव द्वारा वाले बहिर्मुखी इन्द्रियों के तलहीन गड्ढे में गिरने के समान है ,जिसमें गिरने वाला वो व्यक्ति कहीं पहुँचता ही नहीं है। ये जन्म खत्म हो जायेगा , दूसरा जन्म होगा - जीवन-मृत्यु का ये चक्र चलता ही रहता है। इस समय हमें विवेक में जग जाना होगा। नहीं तो बिना तली वाले गड्ढे में गिरने के समान -पुनरपि जननं पुनरपि मरणं चलता जायेगा। मोह मुद्गर भांजते रहो - भज गोविन्दं -भज गोविन्दं ! आजीवन दौड़ते रहते हो - पहुँचते कहीं नहीं हो। 70 -80 की उम्र में भी गोवा-यूरोप घूमने वाले से पूछो - क्या मिला ? ये सुंदर आल्प्स पर्वत श्रेणी सत्य सा दीखता है , सत्य है ही नहीं -हिमालय पर्वत श्रेणी पर बने 6000 फिट की ऊँचाई पर बसे अद्वैत आश्रम मायावती को देखकर जीवन की सच्चाई को समझो। जगत की वस्तुएं सत्य सी दिखती हैं - पर नश्वर हैं। इसको ठीक-ठीक श्रवण करें तो एक नई दृष्टि मिल जाएगी। बाल्य अवस्था जैसे खत्म हो गयी, ये यौवन है -पर यौवन को भी खत्म होने में कितना मिनट लगता है ? दो मिनट लगता है - फिर वार्धक्य आ जाता है -इसीप्रकार जीवन बीतता रहता है। इन्द्रियग्राह्य जगत को सत्य समझकर जीना उसी प्रकार के कुएँ में गिरने के समान है जिसका कोई तल है ही नहीं। मंगलाचरण में हम ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य का स्मरण कर रहे हैं, जो सचमुच विद्यमान है, हम उसका स्मरण कर रहे हैं। -इन्द्रियग्राह्य भोग की वस्तुओं का स्मरण नहीं करना है। ईश्वर क्या है ? जो सत्य वस्तु है , ये जो दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत हो रहा है -पर भ्रम है। छाया मात्र है। उस सत्य वस्तु या ईश्वर की प्राथना क्यों करें ? क्योंकि ईश्वर या परम् सत्य की अनुग्रह के बैगर सत्य वस्तु को अविष्कृत करने के प्रयास में सफल नहीं हो सकता।
सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं तमगोचरम |
गोविंदं परमानंदं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् || 1 ||
(45-48 मिनट) तो सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ! ये गुरु कौन हैं ? गोविन्दं परमानदं ! वो सत्य वस्तु कैसा है ?सच्चिदानन्द है , परमानन्द है। सत्य वस्तु को ही हम गोविन्द नाम से पुकारते हैं। इसका दूसरा अर्थ है आचार्य शंकर के गुरु का नाम भी गोविन्दपादाचार्य था। तो गोविन्द का दो अर्थ हुआ -एक ईश्वर और दूसरा गुरुदेव। इस आरंभिक श्लोक में, भगवान (गोविंद) या गुरु को उनके पूर्ण स्वरूप में नमस्कार किया गया है। यह जानना रोचक होगा कि आचार्य शंकर के गुरु का नाम आचार्य गोविंदपाद था, और यह श्लोक इस प्रकार रचा गया है कि दोनों अर्थों को स्वीकार किया जा सकता है। वास्तविक रूप में भी ईश्वर ही गुरु बन कर आते हैं। ईश्वर की गुरुशक्ति जब किसी मनुष्य के भीतर से कार्य करती है , तो उस मनुष्य को भी हम गुरु कहते हैं। किन्तु गुरु बनने की योग्यता सब में नहीं होती। यहाँ भगवान शंकर गोविन्द शब्द का प्रयोग करके, परम् सत्य सच्चिदानन्द को भी प्रणाम करते हैं और अपने गुरु को भी। हमलोगों को जगत ही सत्य दिखाई देता , ईश्वर या सत्य कहीं नहीं दीखता। इस सत्य को जानने के लिए जो श्रवण किया जाता है , उसीको स्वाध्याय कहते हैं। या आत्मविचार - मैं कौन हूँ ? या कहें मैं क्या हूँ ? इसीको Self Enquiry कहते हैं। मेरा असली स्वरुप क्या है , और इन्द्रियों से जो यह विश्व-प्रपंच दिखाई दे रहा है - इसका असली स्वरुप क्या है ? इसको जानना ही हमारे जीवन का परम उद्देश्य है।
उस परमसत्य को जानेंगे कैसे ? उसके लिए आचार्य शंकर एक अकाट्य सिद्धांत हमारे सामने रखते हैं --आत्मसाक्षातकर करना या ईश्वरलाभ करना इसका मतलब क्या है ? पहली ही पंक्ति में लिखते हैं - अगोचरं , "जो सत्य या ईश्वर सभी वेदान्त सिद्धांतों का विषय है, फिर भी वह अगोचर है - यानि इन्द्रियों से परे है। " उस सत्य वस्तु को , आत्मा या ईश्वर को उसको इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता। एथेंस का जो सत्यार्थी सत्य की खोज में - लगा हुआ है ; उसको आचार्य शंकर शुरू में ही बता देते हैं कि वह इन्द्रियों से परे है। तमगोचरम्:इसका अर्थ है कि वह (गोविन्द) इंद्रियों और मन की पहुँच से परे है, यानी उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव या व्यक्त नहीं किया जा सकता है।इसका अर्थ यह भी है कि इस परम सत्य को केवल सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही जाना जा सकता है। सत्य को हम जानेंगे कैसे ? उसका अनुभव कैसे करेंगे ? सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं - वेदांत या सभी उपनिषदों का जो सिद्धान्त- यानि सिद्ध अंत -Conclusion, निष्कर्ष ,chapter closed है ( (महावाक्य है-तत्वमसि ) उसके द्वारा गोचर है। ये ऋषियों का सिद्धान्त है - क्या सिद्धान्त है ? वो सिद्धान्त है तत्वमसि ! तुम जो अपने आप को समझ रहे हो - देहधारी स्त्री या पुरुष , वह तुम नहीं हो। तत्वमसि ! का तात्पर्य अवधारणं - इसको श्रवण कहते हैं ! अतीन्द्रिय प्रक्रिया है - श्रवण-मनन निदिध्यासन वाला मानसिक क्रिया , जो विषयों से विमुख होकर हमें मन के परे चले जाना है। सत्य इन्द्रियों का विषय नहीं गुरु के शब्दों के पीछे पीछे जब हमारा मन चलने लगता है - ध्यान के बाद समाधि में उस इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति हो जाती है। भगवान शंकर की एक दूसरी पुस्तक है -अपरोक्षानुभूति। मन और इन्द्रियों के अतीत जाने से उसकी उपलब्धि होती है - उसको अपरोक्षानुभूति कहते है। इन्द्रियों से जो कुछ हम देख रहे हैं वो छाया रूप है, आभास रूप ही है -पर्दे पर फिल्म चल रहा है पकड़ने जायेंगे तो पर्दा ही पकड़ाय गा। हम लोग जब तक मगरमच्छ को लक्क्ड़ का लट्ठा समझ रहे हैं तब तक खतरा बना हुआ है। आशा की पूर्ति कभी नहीं होती - पूर्णता या तृप्त इन्द्रियगोचर वस्तुओं से कभी हो नहीं सकती।
पहले ही दो श्लोकों में भगवान मानव शरीर की महिमा बता रहे हैं - जान लो कि तुम लोग कहाँ बैठे हो ? देवदुर्लभ मनुष्य-शरीर में बैठे हो। कुत्ते -बिल्ली के शरीर में बैठे रहते तो यह वेदान्त चर्चा का श्रवण करना सम्भव नहीं होता। गाय -भैंस के लिए जो इन्द्रियों से दिखाई देता है -वो घाँस ही सत्य है। 'चारा खा जाना' ही सत्य है। सिर्फ मनुष्य में ही यह गोग्यता या क्षमता है कि वो जान सकता है कि सत्य क्या है ? और सत्य के जैसा क्या भास रहा है ? ये विवेक केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। इसलिए बच्चों इस देवदुर्लभ मानवशरीर के महत्व को समझो। मानवशरीर का मिलना एक अवसर है - यदि परम् सत्य को नहीं खोज रहे हैं , तो हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं। अगले जन्म में कौन सा शरीर प्राप्त होगा ? इसके विषय में कोई नहीं कह सकता।
जंतुनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम् |
आत्मनात्मविवेकनं स्वानुभावो ब्रह्मात्मना संस्थितः
मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः पुण्यैर्विन लभ्यते || 2 ||
2. जीवों को प्रथम तो मनुष्य जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, और उससे भी अधिक कठिन है नर-देह का प्राप्त होना; उससे भी दुर्लभ है ब्राह्मणत्व; उससे भी दुर्लभ है वैदिक धर्म के मार्ग का अनुगामी होना; उससे भी अधिक दुर्लभ है शास्त्रों का ज्ञान ; आत्मा और अनात्मा का विवेक, जड़-चेतन या शाश्वत-नश्वर विवेक , आत्मसाक्षात्कार और ब्रह्म के साथ तादात्म्य में स्थित रहना - ये तो करोड़ों जन्मों में किये पुण्य से क्रमशः आते हैं। (इस प्रकार की) मुक्ति सौ करोड़ जन्मों के पुण्यों के बिना प्राप्त नहीं होती।
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः || 3 ||
3. तीन चीजें ऐसी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं - अर्थात् मानव जन्म, मोक्ष की लालसा और किसी सन्त, ऋषि या सिद्ध महात्मा (सदगुरुदेव) की संरक्षणात्मक देखभाल।
ये विवेक जग जाने से हम मगरमच्छ को लकड़ी का कुन्दा समझने का भूल नहीं करेंगे। इन्द्रियविषयों में सुख खोजने के पीछे और कभी नहीं भागेंगे।
⚜️️🔱विवेक-चूड़ामणि सार ⚜️️🔱Vivekachudamani Saar |Session-4 (स्वामी शुद्धिदानन्द, अद्वैत आश्रम , मायावती)
शास्त्र और गुरुवाक्य या श्रुति के पर श्रद्धा के साथ अनुसार जब श्रवण, मनन ,निदिध्यासन हम करते हैं तो हमारे चंचल मन को एक नई दिशा में कार्य करने की समझ मिल जाती है। शास्त्र के अनुसार चलने से पहले हमारे जीवन की वो दिशा नहीं थी। वो इन्द्रियों के पीछे-पीछे चल रहा था, अब हमारी युक्ति - आत्मानुभूति के द्वारा अपने स्वरुप को जानने की तरफ होती है। मन के लिए यह नया विकास है। हर दिन हमसे यही भूल होती है , दो को मिला देते हैं। एक चीज को दूसरा समझ लेना -उसका परिणाम दुखद ही होता है। कोई भी पूर्णता को प्राप्त क्यों नहीं होता ? मगरमच्छ को मोटी लकड़ी का कुन्दा समझ लेते हैं। जगत में पैसे वाले सुखी हैं क्या? जिनके पास अकूत धनसम्पत्ति है वे तृप्त और पूर्णता महसूस का रहे हैं क्या ? अब विवेक से समझ लेते है कि सत्य की दिशा में जाये मिथ्या को फिर से सत्य मानकर इन्द्रियों की पीछे दौड़ें ? सत्य को अनुभव करने की प्रक्रिया इन्द्रियातीत होने से होती है। शास्त्र और गुरु मुख से श्रवण , मनन और निदिध्यासन करना वह उपाय है जिससे हम जीव और आत्मा के एकत्व की अनुभूति करके अज्ञान के बंधन से मुक्त हो सकते हैं।
विवेकचूड़ामणि के प्रथम दो श्लोक बतलाते हैं कि मनुष्य जीवन में दुर्लभ क्या है ? (10.53 मिनट) -मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः पुण्यैर्विन लभ्यते- मुक्त होने की इच्छा इस ब्रह्माण्ड में सबसे दुर्लभ वस्तु है मुक्ति। जिसको बंधन में होने का पता ही नहीं है , वो क्या मुक्त होने का प्रयास करेगा ? 84 लाख योनियाँ है - ये सब प्रकृति के नियमों में (जन्म-मृत्यु से) बंधे हुए है। हमारा जो वास्तविक स्वरुप है , वो शरीर से बँधजाने के लिए नहीं है। पर आज हम अपने को इसी शरीर से बंधा समझ रहे हैं। हर जीवजंतु जन्म लेते ही मृत्यु के बंधन में हैं। हम कितने दुःखों से गुजर चुके हैं। शरीर का नियम है - बड़ा, बूढ़ा , रोगी -स्वस्थ हो रहा है। मृत्यु हुआ तो जन्म निश्चित है। ये जो बार बार मरने -जन्म लेने का चक्र इससे बाहर कैसे निकलें ? गाय को देखिये - कितना मासूम है ? पर वह भी शरीर में होने के कष्ट को अनुभव कर रही है। शरीर में अवस्थित सुंदर पक्षी भी प्रकृति के नियमों से बंधा हुआ है , वो भी कष्ट में हैं। हमेशा भयग्रस्त रहता है - आवाज करते ही भाग जाता है। इस सृष्टि में सब जीव-जन्तु भयग्रस्त है। अपने को असुरक्षित समझने का भाव हमेशा रहता है। यही बंधन है - पर हमारा सत्यस्वरूप नहीं है। जैसे ही हम M/F शरीर से बंधे होने का अनुभव करेंगे तब मुक्ति चाहेंगे ? कौन मुक्त है ? कुछ ब्रह्मज्ञानी पुरुषों को छोड़ कर सब बंधे हुए हैं। सब प्रकृति के गुलाम हैं। पर सृष्टि में मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है। आचार्य शंकर यह कह रहे हैं कि बच्चों तुम पहले यह देखो कि तुम किस महान मनुष्य शरीर को प्राप्त कर लिए हो ?
'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ' --गाय, भेंड़ , देवता के पास भी विकल्प नहीं है , मशीन की तरह चलना , खाना , पीना, सोना और संतान पैदा करना। विवेक जाग्रत होने तक हमारा जीवन भी पषुओं की तरह आहार , निद्रा , भय, मैथुन में नहीं बीत रहा है ? मनुष्य पशुओं से अलग कैसे है ? धर्मेण हिनः पशुरभिः समानः - जिसका विवेक जाग्रत नहीं हुआ हो , वो पशु के सामान है। विवेक ही वह योग्यता है जो मनुष्य को पशुओं से भिन्न बनाता है।
"आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥"
का अर्थ है कि आहार, नींद, भय- ये भय ही सबसे बड़ा बंधन है। इस जगत में सभी भयग्रस्त हैं कि नहीं ? हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित ही समझता है। पर ये हमारा वास्तविक स्वरुप नहीं है। वेद कहता है-
'भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥
( कठोपनिषद . 2-3-3 )
उस कालात्मा भगवान् (या माँ काली) के भय से अग्नि , सूर्य , इन्द्रादि अपना कार्य करते हैं । यमराज भी उसके भय से -कांपता है, माने दौड़ता है। और मैथुन और एक दिन मर जाना - ये चार चीजें मनुष्य और पशु दोनों में समान हैं। मनुष्य को पशुओं से अलग करने वाली चीज धर्म है, धर्म या विवेक के बिना मनुष्य पशु के समान है। पशुओं के अंदर विवेक नहीं होता , जबतक हमें विवेक नहीं हुआ ; हम भी पशुओं के समान ही हैं। अर्थात केवल मनुष्य की योग्यता है, सत्य क्या है ? और जो सत्य स्सा प्रतीत हो रहा है , वह क्या है ? मनुष्य वह है जो दोनों का विवेक कर सकता हो; और जो सत्य है उसको पकड़ सकता हो। रज्जु और सर्प का विवेक सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है , ये विवेक अन्य किसी प्राणी में नहीं है।
इस सृष्टि में मुक्ति सबसे दुर्लभ चीज है , कई जन्मों के पुण्य होने से यह मनुष्य शरीर मिला , इन्द्रियातीत सत्य। या परम सत्य को को खोजने की तीव्र इच्छा मिली, फिर एक बिहारी के जीवन में स्वामी विवेकानन्द कैसे आ गए !?? पहले माँ तारा , पिता सूर्य मिले - फिर स्वामीजी मिले गुरुदेव मिले , नवनीदा मिले - फिर माँ सारदा देवी मिली, फिर रामकृष्ण वचनामृत मिला !! अभी यूट्यब पर स्वामी शुद्धिदानन्द को सुनने का पर्याप्त अवसर माँ ने दिया।
प्रत्येक आने वाला अवस्था अभ्यास पहले से अधिक दुर्लभ है - 'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ' मनुष्य शरीर में जन्म दुर्लभ है, फिर उसके बाद मुक्ति की इच्छा अत्यंत दुर्लभ है। पुरुष शरीर को प्राप्त करना और भी दुर्लभ है कहने से, बेटियों के मन में ये प्रश्न उठेगा कि शंकर तो स्त्री-पुरुष में भेद देख रहे हैं। पर ऋषियों ने अपने अनुभव से यही कहा है। क्या आचार्य शंकर माँ की स्तुति नहीं किये थे ? सृष्टि सभी बंधे हुए हैं। प्रकृति के नियमों से सिर्फ मनुष्य ही ऊपर उठ सकता है। यह सामर्थ्य स्त्रियों में भी उतना ही है , जितना पुरुषों में है। जहाँ तक- मोक्ष प्राप्त करने या अपने आत्मस्वरूप को जानने की सामर्थ्य या योग्यता की बात है दोनों में कोई अंतर नहीं है। फिर यहाँ पुरुष शरीर को श्रेष्ठ क्यों कहते हैं ? मुक्ति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व उसमें लगा देना पड़ता है। या जो अविवाहित हो और अभी तुरंत मोक्ष चाहता हो-जगत की सुंदर-सुंदर वस्तुएं उसको इसी क्षण बेस्वाद लगती हों , पहले से ही विवेक और तीव्र वैरग्य जग गया हो और उसका उचित अधिकारी भी हो; अथवा कोई युवा अगर गृहस्थ हो तो कात्यायनी और मैत्रेयि दोनों में अनासक्त हो चुका चुका हो - क्योंकि यह कोई part-time job नहीं है !; गृहस्थ पुरुष को मुक्तिकेन्द्रित जीवन 24X7X365 जीवन जीने का अवसर मिल जाता है, लेकिन महिला की पात्रता उसकी विशिष्ट भूमिका क्या है ? मातृत्व - माँ ही संतान को जन्म देती है। 9 महीने कोख में रखना, जन्म से २५ साल तक माँ अपने बच्चे से जुड़ी रहती है। पुरुष लोग माँ की जिम्मेवारी को समझ ही नहीं सकते। यह लगाव प्राकृत्रिक है , पुरुष शरीर में ये बाधा नहीं है। संतान पैदा करने या पलने की बाधा नहीं है। और M/F कोई भेद नहीं है। रानी मदालसा जैसी ब्रह्मज्ञ महिला भी हैं - पर वे अपवाद हैं।
विवेक होने से वैराग्य उतपन्न हो जाता है। युवक और युवती जिस दिन स्पष्ट रूप से समझ लेंगे की इन्द्रियों का जगत निस्सार है , इसमें कोई सार नहीं है। वैराग्य होने इन्द्रियों के भोग को छोड़ देगा। ये मगरमच्छ है -आप उधर क्यों जयएंगे ? ये ऐसा कुआँ है , जिसमे तली ही नहीं है। हम दौड़ते रहते हैं , पहुंचते कहीं नहीं है। विवेक और वैराग्य हो जाने के बाद कोई युवक, तो संन्यास लेने के लिए कभी भी घर से निकल सकता है , पर युवती को घर से निकलने के लिए खतरा है या नहीं ? लेकिन पुरुष शरीर में सन्यास लेना सुविधाजनक है ? इद्रियों से भोग में सिर्फ रोग है - वो मगरमच्छ है , आप उधर नहीं जायेगे। 1200 साल पहले मनुष्य जैसा था , आज भी उसकी प्रकृति वैसी ही है। शंकर के समय में ही आक्रांताओं का आक्रमण शुरू हो गया था - उनका टारगेट स्त्री होती है , उसको बचाने के लिए हमें पर्दा प्रथा अपना लेना पड़ा। भारत में कोई भेद-भाव नहीं था। ये सब इस्लाम और अंग्रेज के बाद ही आया। मासिक बाधाएं भी उनको हो जाती हैं। प्रकृति ही यही है -बेटियों को ये समझ लेना चाहिए। बाकि दोनों में वीवेक-प्रयोग की योग्यता समान है। क्या मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने से ही जीवन धन्य होगा ? आज पृथ्वी पर कितने मनुष्य हैं ? 8 बिलियन - यानि आठ अरब मनुष्य हैं , क्या सभी मुक्त हैं ? अगला बहुत बड़ा पॉइंट है - विप्रता , ब्राह्मण का गुण अर्जित करना। विप्र और विप्रता - ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व अर्जित करना। समाज का आदर्श ब्राह्मण ही है - जातिव्यवस्था का सनातनधर्म से लेनादेना है ही नहीं। सनातन धर्म में वर्ण गुण आधारित था जन्मगत नहीं था। ब्राह्मण कहते है चरित्रवान मनुष्य को। जिसका सारा जीवन ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए समर्पित है। हर किसी को ब्रह्मण बनना होगा। ब्राह्मण के गुणों को अर्जित करना होगा। उसका जीवन तप केंद्रित है। व्यक्ति और समाज दोनों का क्रमविकास ब्राह्मण होने में है। इस पृथ्वी पर कितने ब्राह्मण हैं ? जिसका जीवन ही निःस्वार्थ है , यह दुर्लभ है या नहीं ? मनुष्य रूप में जन्म लेकर इसको ब्राह्मणत्व के गुणों से विभूषित रखना और भी दुर्लभ है या नहीं ? नरजन्म दुर्लभ है।
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता - उसमें वैदिक धर्म मार्ग पर चलना, उसमें निष्ठा होना और भी कठिन है। व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टि से मार्ग कौन सा है - मनुष्यों को पूर्णता की और ले जा सकती है - वो मार्ग कौन सा है ? कितने प्रकार ism हैं कि नहीं ? राजनितिक धार्मिक नेता को भी अनुयाई मिल जाते हैं - कम्युनिष्ट कहाँ पहुँचते है ? बुद्धिज्म से कम्युनिज्म -कैपटिलिज्म से लोग सुखी हैं क्या ? कम्युनिस्ट ब्लॉक पूरा खोखला है। वैदिक धर्म मार्ग सबको प्यारा है। हमने गुरुवाक्य पर श्रद्धा खो दिया तब हम गरीब हुए। त्याग और योग की भूमि होकर भी हमलोग विश्व में सबसे समृद्ध देश कैसे बन गए ? ऋषियों का बताया वैदिक मार्ग पर चलते हुए हमारा देश सोने की चिड़िया था। वर्णाश्रम धर्म हमे महान बनाता है। वैदिक धर्म मार्ग पर निष्ठा और भी दुर्लभ है कि नहीं ? हिन्दू हम सिर्फ नाम के हैं , हमलोग वेद -वेदांत मार्ग पर चल रहे हैं क्या ? ब्राह्मणों का गुण प्राप्त करना दुर्लभ है -उससे भी दुर्लभ जो वैदिक मार्ग में निष्ठा रखते हैं। इससे भी दुर्लभ है -शास्त्र का ज्ञान होना , कितने लोगों को शास्त्र का ज्ञान प्राप्त है ? इसका अनुशीलन करने वाले और भी दुर्लभ हैं। आत्मा-अनात्मा का विवेक हमें शास्त्र से मिलता है , ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या की विवेचना करना दुर्लभ है , आत्मा में प्रतिष्ठित भी कर लिया और उसीमे प्रतिष्ठित कितने लोग हैं ? मुक्ति उसी को मिलती है। अंत में पता लगता है कि मुक्ति सबसे दुर्लभ वस्तु है। उसकी शुरुआत मनुष्य शरीर में जन्म लेने से होता है।
मार्क्सिज्म से कोई सुखी हुआ है क्या ? कैप्टलिज्म से कोई सुखी हुआ क्या ? सभी मनुष्य दुःख से निवृत्त कैसे हों ? सुखी कैसे हों ? वह मार्ग है -वैदिक मार्ग। त्याग और योग के आदर्श पर चलने वाला समाज और राष्ट्र विश्व का सबसे धनी राष्ट्र कैसे बना ? 1000 साल में हमारा पतन हुआ , क्योंकि हमने सनातन वैदिक मार्ग को छोड़ दिया। त्याग और योग का रास्ता ही मनुष्य को सुखी बना सकता है। आत्मा क्या है अनात्मा क्या है ? ये जान लेना बहुत दुर्लभ है। जिसने आत्मा में अपने को प्रतिष्ठित कर लिया हूँ। मैं ब्रह्मबोध में प्रतिष्ठित हूँ ! ऐसा अनुभव करने वाला ही मुक्त है। अनंत जन्मों के पुण्य कर्म से यह दुर्लभ मुक्ति प्राप्त होती है। ये हमारा लक्ष्य है -अभी इसे हमलोग सुन रहे हैं। साधना से प्राप्त होता है।
तीसरे श्लोक में कहते हैं , तीन चीजें हैं जो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। मनुष्य शरीर में रहकर भी मुक्ति की इच्छा कितने लोगों में है ? 99 % लोगों में मुक्ति (मोक्ष) की इच्छा ही नहीं है। उनको भी चरित्रवान मनुष्य बनना होगा। सही दिशा में हमारा जीवन जायेगा - जब एक सतगुरु प्राप्त होना और दुर्लभ है मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः -- महापुरुष का आश्रय मिलना सबसे दुर्लभ है। यदि किसी को ये तीनो उपलब्ध है तो समझ लेना चाहिए कि ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो चुका है।
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Vivekachudamani Saar |Session-5|
हमारी चर्चा का मुख्य विषय है - आत्मा का ज्ञान ! मैं कौन हूँ ? या मैं क्या हूँ ?
-आत्मज्ञान होने से क्या लाभ है ? उसीसे व्यक्ति मुक्त होता है। हमलोग यहाँ -गणित या भूगोल नहीं पढ़ रहे हैं। आत्मा को जानने की इच्छा कितने लोगों में है ? आपके साथ जुड़े जितने भी लोग हैं -सभी इन्द्रियों के पीछे ही दौड़ रहे हैं कि नहीं ? विवेकी मनुष्य को जीवन ही सिखा देता है कि भोगों में छल है -वह कभी तृप्त नहीं होता। ऐसे गड्ढे में गिरने की कल्पना करो -जिसका कोई तल ही नहीं हो ? विवेक-विचार जगने से ही आप उस गड्ढे से बाहर निकलने का सोचोगे।
आप इस इच्छा से आये हों कि आप इस गड्ढे से निकलना चाहते हैं , तभी ये अध्यन गोष्ठी (P.C) प्रासंगिक है। गड्ढे से बाहर निकलने में त्याग का स्थान सर्वोपरि है। त्याग- वैराग्य ऐसे दो शब्द हैं -जिससे सभी लोग भयभीत हैं। त्याग का मतलब जंगल भागना नहीं है। गृहस्थ को अपने मिथ्या नामरूप-में आसक्ति का त्याग करना है, संन्यासी को भौतिक जीवन को पूर्णतः त्यागना है। हमलोग इसी क्षण नित्य-मुक्त -शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं। पर हमें इसकी अनुभूति नहीं है। भोगी के लिए यह त्याग की बात सुनना - गीता में पूरा त्याग ही है , कौन त्याग चाहते है? संसार के विषयों का भोग ही जीवन का लक्ष्य है पाश्चात्य संस्कृति का लक्ष्य है। अब तो भारत के गाँवों में भी दृश्य-संसार के विषयों का भोग ही लक्ष्य है। वेदांत कहता है जाँच कर देखो - ये लोग पहुँचते कहाँ हैं ? बाल्यावस्था चला गया , जवानी खत्म हो जाएगी , बुढ़ापा आ जायेगा , इन्द्रियां शिथिल हो जायेंगी पर पूर्णता -तृप्ति नहीं मिलेगा। आप जहाँ थे अपने को वहीँ पाओगे। वृद्ध लोगों के जीवन को देखो - पहुँचे कहाँ हैं ? वे अपूर्ण ही हैं। लंगर डालकर नाव खेने की चेष्टा - सारी रात नाव खेया -सवेरे देखा वहीँ है।
रज्जु-सर्प विवेक से भय समाप्त हो जायेगा। सर्प है नहीं रस्सी है, जो जगत इन्द्रियों से दिखाई दे रहा है वो क्या है ? जगत के भोगों में सुख है क्या ? हमने जगत की जो धारणा बना ली है , जगत वैसा नहीं है। ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। त्याग आधारित जीवन और योग आधारित जीवन देखो। विवेकानन्द बिना 10 रुपया जेब में रखे इतना आनंदित कैसे हैं ? अपने आस-पास जो 70, 80 के लोग हैं , उनसे पूछिए वे कहाँ पहुँचे हैं ?" ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।।
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बचपन में खेल में रूचि होती है, युवावस्था में युवति के प्रति आकर्षण होता है। वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं, किन्तु प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥ यौवन में बुढ़ापे का भय भी है। शरीर का अंतिम स्थान - श्मसान ही है।
बच्चा अपनी गुड़िया से आसक्त हो जाता है, हमलोग भी जगत में आसक्त हो गए हैं। तरुणावस्था सबसे खतरनाक अवस्था। लड़का का पूरा ध्यान लड़की पर , लड़की का ध्यान लड़के पर -हमसभी इस अवस्था से गुजरे हैं। ये प्राकृतिक खिँचाव है। उस वक्त सारी शक्ति उसी में चली जाती है। तरुणी से दिल भरा क्या ? बूढ़ा -बूढी की शक्ति क्षय हो गया - वो चिंता में ही डूबा रहता है , वासना अभी तक है , पर कुछ कर नहीं सकता और ऐसे ही मर जाता है। हर जन्म में ऐसा ही होता है। यही बंधन है - यह जाल है। इस जाल से बाहर निकलने का मार्ग सिर्फ गुरु के वचनों का पालन करने में है।
सभी त्यागी -वैरागी हो जायेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी ? इसकी चिंता आप मत कीजिये। दुनिया जैसे चल रही है वैसे ही चलते रहेगी -आप मुक्त हो जाओगे। यदि गुरु के बताये मार्ग पर चलते रहोगे। हमसभी अपूर्णता की अनुभूति कर रहे हैं -इसलिए यहाँ आये हैं। जितने ism हैं , सब उस कुँए के भीतर गिरने वाला मार्ग है। सच्चाई में एक ही मार्ग -वेद के बताये मार्ग में किस हिन्दू की निष्ठा है ? शास्त्र का ज्ञान कितने लोगों को है ? आत्मा और अनात्मा का विवेक कितने लोग करते हैं। सभी खिलौने से खेल रहे हैं। आधार कार्ड वाला पहचान -समाप्ति की ओर जा रहा है। विवेक-चूड़ामणि के 530 श्लोकों में से हमें - 50-60 श्लोक पढ़कर उसका सार समझ लेना है। अगला श्लोक (47 मिनट पर-सेसन 5) पर हम ले रहे हैं वो छठा श्लोक इस प्रकार है -
वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान, कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः।
आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिः, न सिध्यति ब्रह्मशान्तरेऽपि।। (6)
6. लोग चाहे शास्त्रों का उद्धरण दें, देवताओं को बलि चढ़ाएँ, अनुष्ठान करें और देवताओं की पूजा करें, लेकिन आत्मा के साथ अपनी पहचान के बिना, आत्मा के साथ जीव की एकत्वानुभूति (oneness की अनुभूति) के बिना मुक्ति नहीं मिलती, यहाँ तक कि सौ ब्रह्माओं के जीवनकाल# में भी नहीं। [नोट:# जीवनकाल। —अर्थात, समय की अनिश्चित अवधि। ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) का एक दिन मानव गणना के 432 मिलियन वर्षों के बराबर है, जो कि संसार की अवधि मानी जाती है। कालात्मा भगवान् (या माँ काली) "कालात्मा" शब्द का अर्थ है "समय का आत्मा" या "समय का सार। " भगवान शिव को कालात्मा के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि वह समय के अंत में ब्रह्मांड का संहार करते हैं। यह शब्द भगवान शिव से जुड़ा है, जो समय के नियंत्रक और ब्रह्मांड के संहारक माने जाते हैं।
इस श्लोक का भाव ये है - के माध्यम से भगवान शंकर कह रहे हैं - आप को जो कुछ कर्मकाण्ड करना है , तीर्थ-भ्रमण , दानपुण वो सबकुछ करके देख लीजिये। किन्तु जबतक जीव का आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती कोई भी इस गड्ढे से - जिसकी तली नहीं है, उस गड्ढे से कोई भी बाहर नहीं निकल सकता। जीव का आत्मा के साथ एकत्व का अनुभव क्या है ? अपने सत्य स्वरुप को जाने बगैर , किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। आज इस जीव की जो पहचान है- इसका मतलब क्या है ? , आधार कार्ड वाली -आज हमारी पहचान क्या है ? कोई धर्मेंद्र है , अजय अग्रवाल है -या पाण्डेय है ? वह नहीं , आत्मा के साथ जिस परमात्मा का एकत्व है , वह पहचान। वास्तव जो bks है -वो भी यह नहीं है। हमसबों की वास्तविक पहचान एक ही है, वो बड़ा आश्चर्यमय है। ये अहं क्या है ? जिसको हम अपना पहचान समझते हैं -वो क्या है ? इसको हम व्यावहारिक जीव कहते हैं - इसको हमलोग अंग्रेजी में आभासी जीव की पहचान, Fictional Identity- काल्पनिक पहचान कह सकते हैं। जो लम्बा-मोटा -पतला , गोरा -काला या M/F शरीर के नामरूप में है। ये बदल रहा है , यह काल्पनिक पहचान चला जायेगा। ये अभी भी जा रहा है। BKS के आधार कार्ड वाला Identity जाने वाला है। एक उदाहरण देखें - इसी एक घंटे के पाठचक्र में हम जब बैठे हैं। इतनी ही देर में जगत कितना बदल गया ? विश्व में कितने जीवों का जन्म हो गया मृत्यु भी हो गया। हम यहाँ आये हैं ये ईश्वर के अनुग्रह से हो रहा है। जैसे बुलबुले के जैसा कितना छोटे छोटे जीव , उत्तराखण्ड में बाह गए हम नहीं रो रहे , पर जिससे हमने अपना सम्बन्ध बना लिया है , वो जाने लगते हैं तो हम दुःखी हो जाते हैं। अहमदाबाद जो प्लेन क्रैश हुआ - कौन बुलबुला कह सकता है कि -अगले सन्डे तक मैं जीवित रहूंगा। पर हमको लगता है कि यही सत्य है। जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चित है। बुलबुले की सच्चाई -पानी है , हमारा सत्य स्वरूप नश्वर शरीर नहीं है हमलोग सब अविनाशी आत्मा है। आज का हमारा पहचान बुलबुला है , इसको खोजेंगे तो पानी ही मिलेगा। यही इस पूरे ब्रह्माण्ड की सच्चाई है। जगत हर क्षण बदल रहा है - जगत परिवर्तन का एक प्रवाह है। नाम-रूप गायब हो जायेगा - अस्ति, भाति, प्रिय प्रकट हो जायेगा। यहाँ आचार्य शंकर यही कह रहे हैं -आप कुछ भी कर लीजिये यदि आत्मा के साथ अपने स्वरुप के एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती तो 100 ब्रह्मा का शरीर पाकर भी गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाओगे।
'वदन्तु शास्त्राणि, यजन्तु देवान'--- आप शास्त्रों का उद्धरण देते रहिये -सब श्लोक कंठस्थ कर लीजिये। पढ़कर उसको अपने जीवन में उतारोगे नहीं , अनुशीलन नहीं करोगे तो मुक्ति नहीं होगी। आप गीता कंठस्थ कर सकते हैं , यदि नहीं किये हों तो इसको टास्क समझकर करना चाहिए। पर गीता के उल्टा त्याग और योग को जीवन में उतारे बिना- मुक्ति नहीं होगी। क्योंकि गीता जीवन का सम्पूर्ण दर्शन है। यजन्तु देवान'- आप विभिन्न प्रकार के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विभन्न प्रकार के शतकुंडि या हजारकुण्डि यज्ञ कर लीजिये , विभिन्न देवी देवता को भजकरके देख लीजिये -भजन्तु देवताः। जब तक आप अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान- Who am I? मैं कौन हूँ ? का ज्ञान , नहीं प्राप्त कर लेते आपकी मुक्ति नहीं होगी। इस गड्ढे में गिर करके आप जो कुछ भी कर लीजिये - इससे बाहर निकलने का एक मात्र मार्ग वो- आत्मज्ञान ही है। एक बहुत बड़ी सच्चाई हमारे सामने रख रहे हैं -आत्मज्ञान का महत्व हमारे सामने रख रहे हैं। आत्मजिज्ञासा - मैं कौन हूँ ? भौतिक दृष्टि से हमसबों को सारी सुख-सुविधा उपलब्ध है , पर तृप्ति नहीं है। आत्मजिज्ञासा - आत्मज्ञान के महत्व को पहले समझ तो जाएँ !
आत्मज्ञान की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। यहाँ से यदि दिल्ली जाना हो तो आपके पास एक गाड़ी होनी चाहिए, पेट्रोल भी होना चाहिए । पैदल जाने केलिए भी भोजन-पानी की व्यवस्था चाहोये। गड्ढे से बाहर निकलने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। आपको गड्ढे से बाहर निकलना भी है या नहीं ? ये प्रश्न है। सभी लोग अगर गड्ढे से बाहर निकल जाएँ , तो फिर गड्ढे में कौन होगा ? ये सृष्टि एक गड्ढे के समान है , यदि सब लोग इस गड्ढे से बाहर निकल गए टी ये सृष्टि समाप्त हो जाएगी। सभी बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हैं ? हम किस गुट में हैं ? घर में सबकुछ है , भोजन -वाहन मकान , जमीन ज्यादाद सब है , पर जीवन तो अतृप्त है न ? जीव तृप्त है या नहीं ? ये सोचने का विषय है , ये विचार करने का विषय है। विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी उतना ही असुरक्षित है -जितना कोई गाय है। ट्रम्प आपसे भी ज्यादा असुरक्षित है। अपने को देह समझने वाला जीव हमेशा असुरक्षित ही रहेगा , भले उसकी भौतिक समृद्धि कुछ भी हो। वो भयग्रस्त है , वो अतृप्त है। पहले हमे स्वयं से यह पूछना है कि हमें इस तली -विहीन गड्ढे से बाहर निकलना है यहीं ? बाहर निकलने वाले गुट को हमलोग साधक या मुमुक्षु कहते हैं। प्रश्न है - आप साधक हो क्या ? आप मुमुक्षु हो क्या ? अगर हो तो आए का विषय आता है -विवेकचूड़ामणि , उपनिषद या गीता आपको सांसारिक विषयभोग का मार्ग नहीं दिखायेगा। आपका रास्ता ही अलग है। दिल्ली में रेव पार्टी का परिणाम क्या है ? वो आपको तृप्त करता है क्या ? यदि गड्ढे से बाहर निकलना हो तो पाठचक्र लाभदायक लगेगा।
साधारण मनुष्यों प्रवृत्ति क्या है ? अधिकांश की प्रवृत्ति इन्द्रियों के पीछे दौड़ने का है। कितना भी भोग कर लें , यह कभी तृप्त होती ही नहीं है। ये उसी प्रकार के गड्ढे में गिरने के समान है , जिसका कोई तल है ही नहीं। मुक्त होने की इच्छा - आत्मा का ज्ञान - मैं कौन हूँ ? इसको प्राप्त करने से आदमी मुक्त होता है , अपने स्वरुप को पहचानता है। हमारी शिक्षापद्धति में ये शिक्षा कहीं नहीं है।
आप कल्पना में अपने रूप को एक गड्ढे में गिरते दिखिए और सोचिये कि उसका तल है ही नहीं। जब तक हमारे जीवन में विवेक-विचार शुरू नहीं होगा ये चलता ही रहेगा। जो भोगों के पीछे जाना चाहते हैं , उनके लिए ये अध्यन नहीं है। आपका जो दोस्त बंधन से मुक्त होना चाहता हो उसको ये पुस्तक दोगे तो यह उसका प्राण बन जायेगा। वेदांत (उपनिषद) अपने सिद्धांत किसी थोपना नहीं चाहता - वह मानवजाति को केवल सत्य बता देना चाहता है। आप देखोगे 99 % लोग इस पुस्तक को छुएंगे भी नहीं। उनको अभी भी संसार के विषयों का उपभोग ही चाहिए - तो वो बिल्कुल स्वतंत्र है , वेदांत यह कभी नहीं कहता कि सबको इसी समय स्वीकार कर लेना होगा ! हम यह मानकर चलते हैं , कि पाठचक्र में जो भी आता है , वो साधक और मुमक्षु है। इसमें त्याग -वैराग्य सबसे महत्वपूर्ण विकास है। आप अभी भी मुक्त ही हैं , बंधन का जो अनुभव हो रहा है , वो अज्ञान के कारण हो रहा है।
रज्जु में सर्प दिखने जैसा ब्रह्म ही जगत के रूप में दिख रहा है ? ये निरीक्षण का विषय है -आप इसको परखकर देखो। जगत है क्या ? जैसा दिखाई दे रहा है , ये वैसा नहीं है। आज हमें समझ नहीं आ रहा है। त्याग और योग आधारित व्यक्ति -स्वामी विवेकान्द को रखें या भोग मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को देखें कौन आनंद में है ? परिणाम को देखिये - 80 साल के बाद कहाँ पहुंचे ? खालीपन है।
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।ऐसा होना - teen age में ऐसा होना प्राकृतिक है , सारी शक्ति उसी में खर्च हो जाती है। कितने खिलौने से खेले ? तरुणावस्था में तरुणी से खेलते रहे -तृप्ति मिली क्या ? बूढ़ा व्यक्ति चिंता में डूबा हुआ रहता है , पर अभी भी वो अतृप्त ही मर जाता है। दुबारा माँ के कोख में हम पहुँच जाते है। हर जन्म में उसी गड्ढे में गिरने जैसा -एक बंधन है , एक जाल है। तब वो सत्य की खोज में निकल पड़ेगा। इससे बाहर निकलने का मार्ग गुरु-और शास्त्र वाक्य पर श्रद्धा से मिलेगा। अगर विवेक हो तब आप उपाय खोजेंगे। विश्वप्रपंच जैसा दीखता है -वैसा नहीं है। जिसको सत्य को खोजने की उत्सुकता हुई हो , उसको गुरु और शास्त्र की शरण में आ जाना चाहिए। शुरुआत है मनुष्य जन्म मिलने से , लेकिन अंतिम सोपान इस गड्ढे से बाहर निकल जाना दुर्लभ है।
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