कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

⚜️️🔱 मुख्य विषय है -आत्मा का ज्ञान ! मैं कौन हूँ ? ⚜️️🔱⚜️️🔱Vivekachudamani Saar |Session- 1,2,3,4,5,] 🔱 https://www.sadhanapath.in/2025/08/79.html🔱https://sreegurukrupa.blogspot.com/2020/10/vivekachudamani-shlokas-71-to-80.html⚜️️🔱विवेक-चूड़ामणि सार (स्वामी शुद्धिदानन्द, अद्वैत आश्रम , मायावती)

 विवेक-चूड़ामणि सार 

(अद्वैत अमृतं Spiritual Retreat : The Nectar of Adwaita) 

 स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज  

अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती)

(भाग - 1,2,3,4,5)  

        आचार्य शंकर द्वारा रचित इस  विवेक-चूड़ामणि नामक प्रकरण ग्रंथ का अध्यन केवल पांडित्य प्रदर्शन के लिए न करके इस प्रकार करना चाहिए जिससे हम इसके अध्यन से जो सीख सकें, वह  विषय हमारे और आपके जीवन और व्यवहार में परिवर्तन ला सके। [वेदान्त विज्ञान (परम ब्रह्म) के सिद्धांत और तकनीक की व्याख्या करने वाली पाठ्यपुस्तकों को 'शास्त्र' कहा जाता है, और शास्त्रों में प्रयुक्त शब्दों और पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने वाली पाठ्यपुस्तकों को 'प्रकरण' कहा जाता है।] यदि इसके अध्यन का प्रभाव हमारे विचारों और व्यवहार न दिखे , तो उस अध्यन का कोई लाभ नहीं है। इस ग्रंथ की चर्चा का मुख्य विषय है - सत्यानुसाधन , आत्मानुसंधान , आत्मजिज्ञासा , आत्मज्ञान या मैं कौन हूँ ? हमारे विद्यालय -विश्वविद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा पद्धति में बाकि सब विषय पढ़ाये जाते हैं , लेकिन मेरा सत्य-स्वरूप क्या है ? उसको जानने के विषय कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता है। अद्वैत वेदान्त का मुख्य विषय ही अपने सत्य स्वरूप हमारा परिचय करवा देना है। "Who am I' is the biggest mystery in this creation! 'मैं कौन हूँ' इसको जान लेना ही - इस सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है ! हमारे ऋषियों का निर्णय है कि यदि तुम दुनिया के हर विषय को जानते हो , पर यदि तुम स्वयं को नहीं जानते हो, तो तुम अज्ञानी हो। आत्मज्ञान के अतरिक्त बाकि सभी जानकारी अज्ञान की श्रेणी में आती है। आत्मज्ञान ही ज्ञान है बाकिसब अज्ञान है ! हमलोग अभी जो कुछ अध्यन करने जा रहे हैं , वह पुस्तकीय ज्ञान नहीं है , इसका समापन आत्मानुभूति में ही होना चाहिए। इस चर्चा के प्रारम्भ में या भूमिका में हम पुस्तकों की सहायता लेंगे। 

 

The Essence of Vivekachudamani | Session 1

        आप कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? इसके जानने के लिए एक भारत की Time Tested method है , वह सनातन प्रशिक्षण पद्धति तीन चरणों वाली है -श्रवण, मनन और निदिध्यासन। इसका गुरु-निर्दिष्ट विधि से अभ्यास करने पर सभी मनुष्य आत्मानुभूति कर सकता है। हमारे उपनिषद ही आध्यात्मिक ज्ञान और सत्यों के भंडार हैं। प्रत्येक सत्यार्थी को यही पद्धति - श्रवण, मनन , निदिध्यासन की पद्धति अपनानी पड़ती है। 'I'- factor stands for personality, इस 'मैं' के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते , लेकिन जिसको हम 'मैं' कह रहे हैं वह 'मैं' क्या है ? जो हमारा आधार कार्ड वाला परिचय है , क्या वही हमारा वास्तविक परिचय है। क्या शरीर और मन के अलावा मेरा और कोई परिचय नहीं है ? हम सभी लोग सत्यान्वेषी हैं , सत्य को जानने के लिए ही हम यहाँ आये हैं। सत्य को जानने की प्रक्रिया में तीन चरण हैं - श्रवण , मनन , निदिध्यासन। जो कोई व्यक्ति सत्य की खोज करेगा , उसको एक दिन अद्भुत आनंद जन्य सत्य की अनुभूति होगी। हमलोग क्या श्रवण करने जा रहे हैं ? शास्त्र वाक्य और गुरु-वाक्यों का श्रवण करना है। मनन का अर्थ जो सुना है - उस पर चिंतन-मनन करना। साधारण मनुष्य के मन की चिंतन करने की दिशा सही नहीं होती , या आम तौर से मनुष्य दिशाहीन चिंतन करता रहता है। इसके चिंतन की दिशा हर क्षण बदलती रहती है। अब हमारा मन जो शास्त्र और गुरुमुख से सुना है - उसी दिशा के सत्यों पर विचार करेगा। और वह एक मात्र दिशा का चिंतन होगा - मैं कौन हूँ ? एक सूत्री खोज मैं कौन हूँ ? क्या मैं मरण धर्मा शरीर हूँ ? या अविनाशी आत्मा हूँ ? फिर जो सुना है मौन के अभ्यास के द्वारा, Practice of Silence के द्वारा जीवन में उतारना। अनावश्यक बक बक करने से बचना है। आचार्य शंकर ने खुद विवेक चूड़ामणि में कहा है - योगस्य प्रथमं द्वारं वाङ्निरोधोSपरिग्रह: । यह सूत्र एक ऐसा बीज है जिसको जीवन में बुआई कर देने से - जीवन बदल जायेगा। आपके मन में जितने विचार चलते हैं , उन्हीं को वाणी से प्रकट करते हो। आपकी भावनाएं वाणी में अभिव्यक्त होती हैं। वाणी पर संयम करने से ही मन को भी वश में किया जा सकता है। योग का अर्थ है अपने सत्य स्वरुप से जुड़ जाना। मेरा सत्य स्वरुप क्या है , हम अभी उससे अनभिज्ञ हैं। The silence of Mayawati is so loud that, it is something to be experienced . श्रवण, मनन, निदिध्यासन का अभ्यास करने के लिए पहले मौन रहना सीखें। मोबाईल को भी 10 दिनों तक मौन रहने दें। 

        अद्वैत आश्रम की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1899 में की थी , आचार्य शंकर ने जो कार्य 1200 वर्ष पहले किया था , स्वामी विवेकानन्द ने वही कार्य इस आधुनिक युग में किया है। वे आज के शंकराचार्य हैं। क्योंकि अद्वैत वेदांत ही एक मात्र रास्ता है जो सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकता है। इसको अप्प कृपया अतिश्योक्ति मत समझियेगा। जो मनुष्य आज जगत विभिन्न धर्मों का पालन भी कर रहे हों , पर वे यह काम नहीं कर सकते। अद्वैत ही मानवता की रक्षा कर सकता है , क्योकि यह विशुद्ध विज्ञान है। संसार के जितने भी धर्म अभी प्रचलित हैं - वे सब मान्यता पर -Belief system' पर टिके हुए हैं। इसमें कहा जाता है , सातवें आसमान पर बैठा कोई ईश्वर है , जो स्वर्ग में बैठकर जगत चला रहा है। कयामत के दिन वो आपको स्वर्ग या नरक में भेजेगा , आपका इंसाफ होगा और 72 हूर देगा। स्वामीजी बोलते थे - ये किंडरगार्टन #के बच्चे को बहलाने की बात है। किंडरगार्टन या शिशूद्यान या बालवाड़ी (जर्मन:) छोटे बच्चों के लिए शिक्षा का एक रूप है जो घरेलू शिक्षा से बदल कर अधिक औपचारिक स्कूली शिक्षा में संक्रमित हो गया है। यदि आपकी ईश्वर सम्बन्धी मान्यता Verifiable - नहीं हो, सत्यापन के योग्य नहीं हो , ग़ालिब के दिल को बहलाने का ख्याल हो , तो कोई समझदार मनुष्य उसे स्वीकार नहीं करेगा। अद्वैत वेदान्त जिस सत्य बात करता है , वह कोई कल्पना नहीं है , इसको प्रत्येक व्यक्ति सत्यापित करके देख सकता है। वेदान्त के प्रत्येक संदेश को सत्यापित करके देखा जा सकता है। उसका सत्यापन किसी भी धर्म को मानने वाला कर सकता है। हिन्दू, जैन , पारसी , मुसलमान , इसाई कोई भी कर सकता है। किसी को अपना धर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है। कोई चाइनीज कर सकता है , अमेरकी कर सकता है , क्योंकि यह शुद्ध विज्ञान है। यह एक सत्य की बात करता है जो प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में बैठकर -धड़क throbbing रहा है। और यह सत्य ऐसा है जो कल्पना पर आधारित नहीं है , इसको जाँच-परख कर देखा जा सकता है। हम जब वैज्ञानिक युग में वास कर रहे हैं , तो हमारा धर्म भी विज्ञान सम्मत होना होगा, अन्यथा आधुनिक मानव उसको स्वीकार नहीं करेगा। स्वामी जी ने कहा था अद्वैत धर्म (Be and Make) ही एकमात्र धर्म होगा जिसे सम्पूर्ण मानवता स्वीकार करेगी। स्वामीजी ने 1899 में इस आश्रम की स्थापना की थी। आप सभी जानते हैं कि 1893 में वे अमेरिका गए थे। इस आधुनिक युग में सनातन धर्म या वैज्ञानिक धर्म के गौरव को जगत के समक्ष रखा , सारे ब्रह्माण्ड में भारत जितना गौरवशाली और अनूठा अन्य कोई देश नहीं है। पर हमलोगों ने अपना आत्मविश्वास , आत्मश्रद्धा को खो दिया था। हम कौन है ? हम यही भूल गए थे , स्वामीजी ने आकर भारत को मोहनिद्रा से जगा दिया। स्वामी जी 1897 में भारत लौटे , लेकिन 1896 में जब वे भारत लौटने की राह में थे , तो यूरोप के भ्रमण पर गए थे। स्विट्जरलैंड में आल्प्स पर्वत शृंखला को देखकर उनके मन में विचार उठा - उन्होंने देखा की बर्फ से ढँके हिमालय पर उनका एक अद्वैत आश्रम होगा। 1896 में देखा गया स्वप्न 1899 में साकार हो गया। यहाँ से आप 380 KM में फैले बर्फ से ढंके हिमालय श्रृंखला को देख सकते हैं। इस आश्रम को स्वामी जी ने केवल वेदान्त के अभ्यास के लिए समर्पित किया था। इसलिए इस आश्रम में कोई मूर्ति नहीं है , कोई मंदिर नहीं है। कोई अचार-अनुष्ठान नहीं होते हैं। यहाँ सिर्फ ॐ की पूजा होती है। इस एक मात्र शब्द - ॐ कार में सृष्टि का सम्पूर्ण सत्य समाहित है। विगत 127 वर्षों से यहाँ केवल ओमकार की उपासना हो रही है। कल्पना कीजिये आप जिस आश्रम में बैठे हो , यह 127 वर्ष पहले का बना हुआ है।  

=======

ऋषि ने जिस सत्य को देखा है , उसके अनुभव हम पढ़ने जा रहे हैं।  

The Essence of Vivekachudamani | Session 2|

   आगामी 10 दिनों तक हमारे मन की भूमिका यहाँ पर ये होनी चाहिए हमलोग सभी सत्यार्थी हैं , सत्य की खोज में हम मायावती आश्रम की 10 दिवसीय 'साधना सत्र' भाग ले रहे हैं। ये बड़ा रोचक विषय है। सत्य, भगवान , ईश्वर एक शब्द है जो प्रचण्ड आस्था का विषय है। कल्पना चाहे जो करें , पर सच्चाई में ये ईश्वर क्या है ? क्या ईश्वर कोई व्यक्ति है ? ईश्वर कहाँ है ? हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार ईश्वर की कल्पना करता है। कोई ईश्वर को देवी रूपों में देखता है , कोई देव रूप में देखता है। अनगिणत रूपों में ईश्वर की धारणा होती है। इन्द्रियगोचर जो विश्वप्रपंच दिख रहा है , इसके पीछे की सच्चाई क्या है ? जब से हमारा जन्म हुआ तब से इस जगत के प्रति हमारे भीतर सत्यत्व बुद्धि है। हमारी इन्द्रियों को ये जैसा दिखाई दे रहा है , ये वैसा है क्या ? हम ईश्वर को जगत का निर्माता मानते हैं। सृष्टि को देखते हैं - तो सृष्टिकर्ता की कल्पना होती है। किसी ने तो इसको बनाया होगा ? उस ईश्वर का अपना स्वरुप क्या है ? जितने भी जीवजंतु हैं , उसमें भी जो मनुष्य हैं -उसके पीछे की सच्चाई क्या है ? इस 'मैं' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ? 

        ईश्वर, जगत और जीव या 'मैं' क्या है ? मैं कौन हूँ ? ये तीन बिन्दु जिन्हें हम connect करना चाहते हैं। इन तीनों चीजों के विषय में हमारी जो आज की समझ है , वो ठीक है क्या ? आज तो हम अपने को एक स्त्री-पुरुष देहधारी मनुष्य ही समझ रहे हैं। M/F शरीर के पीछे की सच्चाई क्या है ? तो यह साथी की खोज है। हम जिसको वेदांत सनातन हिन्दू धर्म कहते हैं , उस सनातन धर्म का सार वेदांत है। वेदांत का मतलब है उपनिषद। उपनिषद ही वेदांत है जो पूरे वेदों का सार है। Vedanta is not a belief system it is a seeking system .वेदांत एक विश्वास प्रणाली नहीं है, यह एक खोज प्रणाली है। वेदांत के सिद्धान्तों को परखा जा सकता है, इसके महावाक्यों को स्वयं सत्यापित करके देखा जा सकता है। महावाक्यों का स्वयं अनुभव किया जा सकता है , इसलिए वह अन्धविश्वास नहीं है। इसका तीन सोपान है -श्रवण, मनन , निदिध्यासन। यह खोज, सत्य की खोज केवल साहसी मनुष्य ही कर सकता है। इसकी तैयारी में जो कुछ छोड़ने की अनिवार्यता है - उसके लिए पहले साहस चाहिएयदि मैं अविनाशी आत्मा हूँ तो, अभी मरेगा कौन ? साधन-चतुष्टय का पालन करने के लिए छोड़ने की तैयारी करनी है।     

     सनातन हिन्दू धर्म, क्या है ? यानि वेद ! वेद कोई किताब नहीं है।  किसी व्यक्ति ने इसको रचा नहीं है।  यह अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहने वाला है। यह धर्म किसी व्यक्ति, या ग्रन्थ पर निर्भर नहीं है। जैसे ग्रंथ बाइबिल और व्यक्ति ईसा, बुद्ध और त्रिपिटक ग्रंथ के बाद बौद्ध धर्म का प्रारम्भ हुआ, कुरान ग्रन्थ पर इस्लाम धर्म का प्रारम्भ हुआ पर वैदिक धर्म ग्रंथ और किसी व्यक्ति पर आधारित नहीं है। लेकिन सनातन धर्म को ही वैदिक वैदिक धर्म भी कहा जाता है। वेद क्या है ? यह किसी व्यक्ति की रचना नहीं है। यह सत्य की खोज करने वाले ऋषियों द्वारा आविष्कृत संचित ज्ञान राशि है। सनातन सत्य वह सिद्धान्त है जो सृष्टि को चला रहा है। वह सनातन सत्य क्या है ? यह जगत एकमेवाद्वित्य ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। अपनी इन्द्रियों से जिस जगत को हम देख रहे हैं - वह परिवर्तनशील होने के कारण, दृष्टिगोचर होने पर भी मिथ्या है। पर हमको तो इसमें कहीं ब्रह्म नहीं दीखता है जगत ही दीखता है। जगत संचालन के शाश्वत नियमों, सिद्धांतों  को वेद कहते हैं। यह व्यक्ति पर नहीं सत्य सिद्धांतों पर आधारित है। ऋषि लोग इन सत्य-सिद्धांतों को अनुभव करते हैं। उन ऋषियों की अनुभूति सनातन है - कोई भी व्यक्ति- हिन्दू , मुसलमान, इसको सत्यापित कर सकता है। विज्ञानसम्मत है। किसी दृष्टि से - रूस, अमेरिका , यूक्रेन के मनुष्य अलग नहीं है - ये बात सिर्फ सनातन धर्म ही कहता है।    

      फिर उस ब्रह्म, आत्मा, को कैसे जाने ? उसका उपाय है श्रवण, मनन , निदिध्यासन। 'श्रवण' का अर्थ है गुरुमुख से या ऋषि के मुख से सुनना , और अपरिवर्तनीय सत्य, सनातन सत्य की धारणा या तात्पर्य समझने के लिए श्रवण करना। तुम जिसको खोज रहे हो वह तुम्हीं हो। तत्वमसि - हमलोग केवल स्त्री-पुरुष शरीर मात्र नहीं है। हमलोग नश्वर देहधारी -शाश्वत आत्मा या ब्रह्म हैं। दिल्ली के बारे में उस व्यक्ति से श्रवण करना जिसने दिल्ली देखा है। (24.42 मिनट)   जिन ऋषियों ने उस इन्द्रियातीत का अनुभव किया है उनके मुख से श्रवण करना - तातपर्य समझने के लिए श्रवण करना, अपने जीवन में उतारने के लिए श्रवण करना।

      पाण्डित्य बघारने के लिए श्रवण करना व्यर्थ है। श्रवण करने से हमारे जीवन में परिवर्तन होना चाहिए। जगत को देखने के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी। श्रवण ठीक होने से -हमलोग मौन होना सीखेंगे। और वही श्रवण फिर मनन में रूपांतरित हो जायगी, बार बार गुरु वाक्यों का मनन करने से निदिध्यासन होगा - अर्थात ध्यान होने लगेगा की मैं देह नहीं आत्मा हूँ -मैं नश्वर देह नहीं शाश्वत आत्मा हूँ। यह ध्यान या निदिध्यासन जब समाधि में विकसित हो जायेगा तब हमे ज्ञान (अपने स्वरुप का ज्ञान) हो जायेगा। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है - यही वेद -वेदांत या उपनिषद का सार है। यह ज्ञान सार्वभौमिक होगा किसी खास देश या व्यक्ति को नहीं जो भी इस पद्धति का अनुसरण करेगा उसे सत्य की अनुभूति होगी। मुसलमान , ईसाई या बौद्ध सभी को होगा। सभी सुख प्राप्ति करना चाहते हैं, और दुःख से निवृत्ति चाहते हैं। पर सुख कहाँ है; इसे समझने के लिए विवेक चाहिए। संस्कृत में कुछ परिभाषा सुनिए -(32.28 मिनट)

श्रवण की परिभाषा

श्रवणं नाम षड्विध-लिङ्गैः अशेष-वेदान्तानाम् अद्वितीय-वस्तुनि तात्पर्य-अवधारणम्।।

     सरल भाषा में कहे तो श्रवण का अर्थ सिर्फ सुनना मात्र नहीं है। अद्वितीय वस्तु कहने का तात्पर्य क्या है ? आप उसके निष्कर्ष की अवधारणा करते हैं , सिर्फ सुनना नहीं है , आप सुनकरके उस विषय की अवधारणा कर रहे हैं । आप किसकी अवधारणा कर रहे हैं ?- 'अशेष वेदांतानाम अद्वितीय वस्तुनि' वेद का सार, उपनिषदों के सार उपदेश की अवधारणा करनी है। सनातन धर्म माने वेद , वेद-उपनिषद को पूरे मानव-समाज से केवल इतनामात्र ही कहना है - बच्चों आज जो हम ईश्वर, जीव और जगत को अलग अलग समझ रहे हैं , भेदबुद्धि से जगत प्रपंच को देखते हैं , मैं और तुम के भेदभाव से हम जगत को देख रहे हैं। लेकिन वास्तव में भेद है ही नहीं, एक ही अनेक बन गया है !! एकमेवाद्वितीय परम् ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है- इस निश्चय पर पहुँच जाना ही श्रवण है । उपनिषद के ऋषि कहते हैं -'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' , पर हमको तो जगत ही दीखता है , ब्रह्म तो दीखता ही नहीं है ? यही सत्य की खोज है ! श्रवण करने के बाद हमारी अपनी अवधारणा, यह होनी चाहिए कि - सचमुच आत्मतत्व से भिन्न यहाँ कुछ भी विद्यमान नहीं है।  मनन की परिभाषा क्या है - 

" मननं तु श्रुतस्य अद्वितीयवस्तुनः वेदान्तानुगुणयुक्तिभिः अनवरतम् अनुचिन्तनम्।" 

मनन क्या है ? जिस अद्वितीय वस्तु के विषय में आपने जो अवधारणा कर लिया -की सचमुच गुरुदेव ने जो कहा वही सत्य है। अब उस श्रवण के पश्चात् मन हर समय उसीका अनुचिंतन करेगा। मन में हर समय ब्रह्मचिन्तन ही चलेगा।  हमारे मनोराज्य में अद्भुत परिवर्तन होना शुरू होगा।  निदिध्यासन की परिभाषा :

विजातीय-देहादि-प्रत्यय-रहित-अद्वितीय-वस्तु-सजातीय प्रत्यय-प्रवाहो निदिध्यासनम्।।

 देहादि ब्रह्मके विजातीय विषयसे चित्तवृत्ति को उठाकर अद्वितीयवस्तु (ब्रह्म)मे चित्तवृत्ति प्रवाहित् करने का नाम निदिध्यासन है ।अद्वय ब्रह्म वस्तु के विजातीय (विपरीत) देह (मन) आदि की वृत्तियों से रहित, उस (ब्रह्म) के सजातीय (समान) वृत्तियों के प्रवाह को 'निदिध्यासन’ कहते हैं। जब अपने यह धारणा कर ली की आत्मा से या ब्रह्म से भिन्न कुछ है ही नहीं ! आप अब हर समय आत्मचिंतन ही कर रहे हो। अब और भी आगे बढिये - मानो मन में सतत एक ही धारा बाह रही है - तैल धारवत ! 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है,मैं देह नहीं हूँ , मैं आत्मा हूँ ! आज हम मैं का मतलब शरीर (M/F) ही समझ रहे हैं , पर अब श्रवण , मनन , निदिध्यासन से मेरी समझ विराट हो रही है। अब मेरे सिर्फ यही धारा नहीं चलेगी कि मैं -शरीर हूँ , मैं पुरुष हूँ ! मैं ब्रह्म हूँ , मैं आत्मा एक ही प्रत्यय की धारा चलेगी। ये तीन स्टेप्स - एक के बाद दूसरा चला आता है ! उत्तरोत्तर समझ स्पष्ट होती जा रही है। तीसरा चरण जो है - निदिध्यासन , उसकी समाप्ति स्वतः समाधि में हो जाती है ! समाधि माने आत्मज्ञान में हो जाती है। इसी प्रक्रिया से हम सभी जीव मैं कौन हूँ ? इस सच्चाई को जान जायेंगे। अपने सत्य स्वरुप को जानने , या सृष्टि के पीछे क्या है ? इसको जानने की प्रक्रिया यही है। (51.35 मिनट) पर यह अनुभूति 10 दिनों में ही हो जाएगी -ऐसा नहीं होगा। बहुत धैर्य चाहिए। देवर्षि नारद की कथा ? तपस्या और ईश्वर का अनुग्रह दोनों चाहिए ! वेद उपनिषद को केवल इतना ही बताना है - तत्वमसि ! तत्वमसि !  तत्वमसि !  तत्वमसि ! इसी को खोज करने की प्रक्रिया है -श्रवण , मनन , निदिध्यासन।           

विवेक क्या है ? उसीका यह ग्रन्थ है विवेक- चूड़ामणि। भगवान शंकराचार्य द्वारा लिखित यह अंतिम ग्रन्थ है - ऐसी मान्यता है। स्वामी विवेकानन्द  भगवान शंकराचार्य को बालक शंकर - या boy शंकर कहते थे। क्योंकि उन्होंने अपनी सारी रचनायें 16 वर्ष की आयु में ही लिख डाली थीं। स्वामीजी ने आदि शंकराचार्य के बारे में कहा था - " जिसके बारे में यह घोषित किया गया है कि उसने सोलह वर्ष की उम्र में अपनी समस्त ग्रंथों की रचना समाप्त कर ली थी, उसी अद्भुत प्रतिभाशाली बालक शंकराचार्य का अभ्युदय हुआ। और जिस  16 वर्ष के बालक की रचनाओं को पढ़कर सभ्य जगत विस्मित हो रहा है, वह बालक भी उतना ही अद्भुत था। उसने संकल्प किया था कि समग्र भारत को उसके प्राचीन विशुद्ध मार्ग में ले जाऊँगा। " (भारत के महापुरुष/ऋषि  -खंड 5, पेज -159)      

Adi Shankara- " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose. The writings of this boy of sixteen are the wonders of the modern world, and so was the boy. He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity .(वे भारतीय जगत को उसकी प्राचीन शुद्धता पर वापस लाना चाहते थे।)He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity ."

["The greatest teacher of the Vedanta philosophy was Shankaracharya.  India has to live, and the spirit of the Lord descended again. He who declared, “I will come whenever virtue subsides, came again and this time the manifestation was in the South, and up rose that young Brahmin of whom " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose."(The Sages Of India)  ]           

व्याकरण के नियम आपको मरने से नहीं बचा सकते - भज गोविन्दं !भज गोविन्दं !भज गोविन्दं ! का अर्थ है -सत्य को जानो !  सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! भज गोविन्दं ! यहीं रुक जाते हैं !

=============== 

विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ में 580 श्लोक हैं हमलोग चुने हुए केवल 50 -60 श्लोकों पर चर्चा करेंगे। इस ग्रंथ के नाम चूड़ामणि - मुकुट मणि कहने का तात्पर्य है - Most Important ! हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - हमारा सिर, उस पर मुकुट पहना जाता है। लेकिन वह मुकुट ऐसा है जिसपर बहुत कीमिति मणि (कोहिनूर जैसा विवेक ) जड़ी हुई है ! जिस प्रकार मुकुट के शिखर पर स्थित रत्न किसी व्यक्ति के शरीर का सबसे विशिष्ट आभूषण होता है, उसी प्रकार यह ग्रंथ सत्, असत् और मिथ्या के बीच विवेक का अध्ययन करने वाली कृतियों में एक उत्कृष्ट कृति है। तो विवेक क्या है ?  

 Viveka is Clarity: मगरमच्छ है या लट्ठा है ?

      विवेक मनुष्य की वह विशेष योग्यता है - जिसके कारण उसे मनुष्य कहा जाता है। विवेक का अर्थ है स्पष्टता या स्पष्ट-समझ, या इसको प्रांजल दृष्टि भी कह सकते हैं। यह मनुष्य के अलावा अन्य किसी प्राणी के पास नहीं होता। इस समय विश्व में मनुष्यों की संख्या कितनी है, 8 अरब  What is the number of humans? - 8 billion -इतनी बड़ी जनसंख्या में लेकिन 99 % मनुष्यों का विवेक सोया रहता है। इसे जगाना पड़ता है। तब यह इन्द्रियग्राह्य जगत जो अविवेकी को सत्य जैसा दीखता है , विवेकवान पुरुष को स्पष्ट रूप से यह दृश्य प्रपंच मिथ्या दीखता है। हमने इस जगत को वह समझ लिया है जैसा वो नहीं है। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है , किन्तु हमें ब्रह्म नहीं दीखता केवल जगत एकदम सत्य के जैसा दीखता है। इस विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ में ही भगवान शंकर ने विवेक-जगरण को एक रूपक से समझाया है।

        कोई ग्रामीण किसान था जिसे संध्या के समय , जब अंधकार नहीं होता लेकिन प्रकाश बहुत थोड़ा रहता है, उस समय किसी अत्यन्त आवश्यक काम से दूसरे गाँव जाना पड़ता है। वह गाँव नदी के उस पार था। वह जल्दी-जल्दी नदी के निकट पहुँचता है - तो देखता है कि न तो वहाँ कोई नाव है, न नाविक है। उसे नदी के उस पार जाना बहुत आवश्यक था - वह उपाय ढूँढ़ने लगता है। तभी उसे नदी में कुछ लक्कड़ जैसा बहता हुआ दीखता है। उस समय शाम के धुँधलके में जिसे हम -dusk' कहते हैं - बहुत स्पष्ट नहीं दीखता तो एक वस्तु को हम दूसरी वस्तु समझ लेते हैं। तो वह किसान भी जब उस लट्ठे पर बैठ कर नदी पार करने की और बढ़ रहा होता है। तभी दूर से कोई व्यक्ति बोलता है , उधर मत जाओ - जिसे तुम लट्ठा समझ रहे हो ; वह लक्क्ड़ का लट्ठा नहीं - मगरमच्छ है। सत्य क्या है ? और जो सत्य सा दिख रहा है - वो क्या है ? 

       अब वो उधर जायेगा ? तो गुरु की आवाज सुनकर विवेक जाग उठता है। इन्द्रियों से जो जगत दिख रहा है , वो इन्द्रियाँ ही हैं। यदि इन्द्रियाँ न हों -तो भी आप रहोगे पर जगत नहीं होगा। इस प्रकार यह नाम रूपात्मक जगत जैसा दिख रहा है -वो वैसा नहीं है। कुछ सुन्दर -सुन्दर वस्तु देखते हैं , अत्यंत सुन्दर रूप देखकर,  इससे कुछ पाने की आशा में आजीवन दौड़ते रहने से भी -तृप्ति नहीं होती।  शरीर बूढ़ा हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं -मृत्यु का समय हो जाता है। इसको ऐसे समझें - कल्पना करें कि आप किसी कुँए में गिर रहे हैं , सच में नहीं गिर रहे हैं - पर कल्पना करें ,समझने के लिए तो उसमें क्या हर्ज है ? और वह कुँआ ऐसा है जिसकी तली ही नहीं है - आप गिरते जा रहे हैं , पता नहीं कितनी गहराई - कितने समय तक ? कई जन्मों से गिरते चले जा रहे हैं ? विशालाक्षी नदी का भँवर भी वैसा ही था -जिसमें गिरने से ठाकुर सावधान करते थे। उन गुरुओं के वचनों को सुनना ही श्रवण है , श्रवण करके मौन होकर उस पर मनन करने से - निदिध्यासन या ध्यान स्वतः होगा , फिर समाधि में विवेकज-ज्ञान हो जायेगा। जीवन बदल जायेगा , जगत को देखने की दृष्टि ही बदल जाएगी। श्रवण -मनन-निदिध्यासन से हमारे जीवन में परिवर्तन होने लगेगा। इसलिए विवेक सबसे प्रधान योग्यता है , लेकिन जो सोया हुआ है ? 

     आप हो लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं। उस अवस्था में हमें पहुँचना है। आज हम लोग अपने को इन्द्रियों से जोड़कर ही सब कुछ को सत्य समझ रहे हैं। इन्द्रियाँ हमें भ्रमित कर रहीं हैं। इन्द्रियों में ही डूबे रहना भी उसी प्रकार है जिस प्रकार कोई व्यक्ति का ऐसे कुँए में गिरना है जिसका कोई तल ही न हो नव द्वारा वाले बहिर्मुखी  इन्द्रियों के तलहीन गड्ढे में गिरने के समान है ,जिसमें गिरने वाला वो व्यक्ति कहीं पहुँचता ही नहीं है। ये जन्म खत्म हो जायेगा , दूसरा जन्म होगा - जीवन-मृत्यु का ये चक्र चलता ही रहता है। इस समय हमें विवेक में जग जाना होगा। नहीं तो बिना तली वाले गड्ढे में गिरने के समान -पुनरपि जननं पुनरपि मरणं चलता जायेगा। मोह मुद्गर भांजते रहो - भज गोविन्दं -भज गोविन्दं ! आजीवन दौड़ते रहते हो - पहुँचते कहीं नहीं हो। इन्द्रियाँ ही तो जगत है। यदि इन्द्रियाँ नहीं हों , तो जगत रहेगा क्या ? पर आप हमेशा हो ! विवेकी बनो , सत्य को जानो , जन्म-मृत्यु चक्र से बाहर निकलो।  (44.31)

     70 -80 की उम्र में भी गोवा-यूरोप घूमने वाले से पूछो - क्या मिला ? ये सुंदर आल्प्स पर्वत श्रेणी सत्य सा दीखता है , सत्य है ही नहीं -हिमालय पर्वत श्रेणी पर बने 6000 फिट की ऊँचाई पर बसे अद्वैत आश्रम मायावती को देखकर जीवन की सच्चाई को समझो। जगत की वस्तुएं सत्य सी दिखती हैं - पर नश्वर हैं। इसको ठीक-ठीक श्रवण करें तो एक नई दृष्टि मिल जाएगी। बाल्य अवस्था जैसे खत्म हो गयी, ये यौवन है -पर यौवन को भी खत्म होने में कितना मिनट लगता है ? दो मिनट लगता है - फिर वार्धक्य आ जाता है -इसीप्रकार जीवन बीतता रहता है। इन्द्रियग्राह्य जगत को सत्य समझकर जीना उसी प्रकार के कुएँ में गिरने के समान है जिसका कोई तल है ही नहीं।

     (45.33)  मंगलाचरण में हम ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य का स्मरण कर रहे हैं, जो सचमुच विद्यमान है, हम उसका स्मरण कर रहे हैं। -इन्द्रियग्राह्य भोग की वस्तुओं का स्मरण नहीं करना है। ईश्वर क्या है ? जो सत्य वस्तु है , ये जो दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत हो रहा है -पर भ्रम है। छाया मात्र है। उस सत्य वस्तु या ईश्वर की प्राथना क्यों करें ? क्योंकि ईश्वर या परम् सत्य की अनुग्रह के बैगर सत्य वस्तु को अविष्कृत करने के प्रयास में सफल नहीं हो सकता। 

सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं तमगोचरम |
गोविंदं परमानंदं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् || 1 ||  

 (45-48 मिनट) तो सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ! मैं उस गुरु को प्रणाम करता हूँ। ये गुरु कौन हैं ? गोविन्दं परमानदं ! वो सत्य वस्तु कैसा है ? सच्चिदानन्द है , परमानन्द है। सत्य वस्तु को ही हम गोविन्द नाम से पुकारते हैं। इसका दूसरा अर्थ है आचार्य शंकर के गुरु का नाम भी गोविन्द-पादाचार्य था। तो गोविन्द का दो अर्थ हुआ -एक ईश्वर और दूसरा गुरुदेव। इस आरंभिक श्लोक में, भगवान (गोविंद) या गुरु को उनके पूर्ण स्वरूप में नमस्कार किया गया है। 

      यह जानना रोचक होगा कि आचार्य शंकर के गुरु का नाम आचार्य गोविंदपाद था, और यह श्लोक इस प्रकार रचा गया है कि दोनों अर्थों को स्वीकार किया जा सकता है। वास्तविक रूप में भी ईश्वर ही गुरु बन कर आते हैं। ईश्वर की गुरुशक्ति जब किसी मनुष्य के भीतर से कार्य करती है , तो उस मनुष्य को भी हम गुरु कहते हैं। किन्तु गुरु बनने की योग्यता सब में नहीं होती। यहाँ भगवान शंकर गोविन्द शब्द का प्रयोग करके, परम् सत्य सच्चिदानन्द को भी प्रणाम करते हैं और अपने गुरु को भी। हमलोगों को जगत ही सत्य दिखाई देता , ईश्वर या सत्य कहीं नहीं दीखता। इस सत्य को जानने के लिए जो श्रवण किया जाता है , उसीको स्वाध्याय कहते हैं। या आत्मविचार - मैं कौन हूँ ? या कहें मैं क्या हूँ ? इसीको Self Enquiry कहते  हैं। मेरा असली स्वरुप क्या है , और इन्द्रियों से जो यह विश्व-प्रपंच दिखाई दे रहा है - इसका असली स्वरुप क्या है ? इसको जानना ही हमारे जीवन का परम उद्देश्य है। 

   उस परमसत्य को जानेंगे कैसे ? उसके लिए आचार्य शंकर एक अकाट्य सिद्धांत हमारे सामने रखते हैं --आत्मसाक्षातकर करना  या ईश्वरलाभ करना इसका मतलब क्या है ? पहली ही पंक्ति में लिखते हैं, पहला सिद्धांत है - अगोचरं , "जो सत्य या ईश्वर सभी वेदान्त सिद्धांतों का विषय है, फिर भी वह अगोचर है - यानि इन्द्रियों से परे है। " उस सत्य वस्तु को , आत्मा या ईश्वर को उसको इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता। एथेंस  का जो सत्यार्थी सत्य की खोज में - लगा हुआ है ; उसको आचार्य शंकर शुरू में  ही बता देते हैं कि वह इन्द्रियों से परे है। तमगोचरम्:इसका अर्थ है कि वह (गोविन्द) इंद्रियों और मन की पहुँच से परे है, यानी उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव या व्यक्त नहीं किया जा सकता है।इसका अर्थ यह भी है कि इस परम सत्य को केवल सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही  जाना जा सकता है। 

     फिर प्रश्न उठता है - उस सत्य को हम जानेंगे कैसे ? उसका अनुभव कैसे करेंगे ?  सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं - वेदांत या सभी उपनिषदों का जो सिद्धान्त- यानि सिद्ध अंत -Conclusion, निष्कर्ष ,chapter closed  है ( (महावाक्य है-तत्वमसि ) उसके द्वारा गोचर है। ये ऋषियों का सिद्धान्त है - ऋषियों की अनुभूति क्या सिद्धान्त है ? वो सिद्धान्त है तत्वमसि ! (55.47) तुम जो अपने आप को समझ रहे हो - देहधारी स्त्री या पुरुष , वह तुम नहीं हो। आप जब अपने गुरु के मुख से यह वाक्य सुनोगे -  तत्वमसि ! श्रवण किसे कहते हैं ? हमने सुना था - तात्पर्य अवधारणं - इसको श्रवण कहते हैं

        अतीन्द्रिय सत्य की अनुभूति करने की प्रक्रिया है -  श्रवण-मनन निदिध्यासन !गुरु और शास्त्र के निर्देश के अनुसार जब हमारे मन का व्यापर चलता है ,साधारण मन का व्यापार क्या है ? वो विषयों के पीछे पीछे दौड़ता है। कभी कामिनी के बारे में सोचेगा , कभी कांचन के बारे में सोचेगा , तो कभी नाम-यश के बारे में सोचेगा। लेकिन अतीन्द्रिय सत्य को अनुभव करने की प्रक्रिया एक विशिष्ट प्रकार के मन का व्यापार है , जिसके द्वारा साधक बाह्य इन्द्रिय विषयों से विमुख होकरके -अंतर्निहित सत्य वस्तु की ओर प्रस्थान करता है। अब वो साधक उसी मन के व्यापार द्वारा - उसी मन के अतीत चला जाता है , क्योंकि वो सत्य वस्तु जो है - वो मन के भी अतीत है ! कब ? इसी  श्रवण-मनन निदिध्यासन वाला मानसिक क्रिया , सतत प्रवाह : सोहं -सोहं - सोहं -सोहं - सोहं -सोहं - सोहं -सोहं -यह ध्यान जब तैल धारवत हो जाएगी, तब समाधि में जाकर आप अपने स्वरुप को जान जाओगे। (58.07) इस गुरु-निर्दिष्ट पद्धति से और ईश्वर के अनुग्रह से जो सत्य वस्तु मन के भी अतीत है , वो गोचर होता है - अनुभव गम्य होता है।

       तो मंगलाचरण की पहली ही पंक्ति में भगवान शंकराचार्य जी एक बहुत बड़े आध्यात्मिक सिद्धांत को हमारे सामने रख देते हैं। वे कहते हैं देखो भाई वो जो सत्य वस्तु है , उसको कभी भी इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता है। गुरु और शास्त्र के शब्दों के पीछे -पीछे जब हमारा मन चलने लगता है , तब वह धीरे धीरे मन के भी अतीत जाकर उस वस्तु को अनुभव किया जाता है। ये सिद्धांत है - सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं - गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥" अर्थात यह समझ लो कि जो परमसत्य , ईश्वर या भगवान है - जो नाम दो , वो हमारी इन्द्रियों द्वारा जानने का विषय नहीं है। इन्द्रियातीत है , मन के भी अतीत है - गुरु के शब्दों के पीछे -पीछे चलकर सतत चिंतन प्रवाह में चलते -चलते जब हम गुरु के ही शब्दों से परे चले जाते हैं -इन्द्रियों के अतीत चले जाते हैं , मन के भी अतीत चले जाते हैं , तब अपरोक्ष रूप में हम उस सत्य वस्तु -सच्चिदानन्द  की अनुभूति होती है। इस प्रकार सत्य की उपलब्धि होती है।  भगवान शंकर की एक दूसरी पुस्तक है -अपरोक्षानुभूति। आपने सुना होगा ? (59.32)  मन और इन्द्रियों के अतीत जाने से उसकी उपलब्धि होती है - उसको अपरोक्षानुभूति कहते है।होती  इन्द्रियगत जो भी अनुभूतियाँ होती हैं , वो सब प्रत्यक्ष अनुभूति ही होती है। जिसको हमलोग परोक्ष कहते हैं। इन्द्रियों से हम कुछ भी समझ रहे हैं , वह सब इन्द्रियों से जो कुछ हम देख रहे हैं वो छाया रूप है, आभास रूप ही है -पर्दे पर फिल्म चल रहा है पकड़ने जायेंगे तो पर्दा ही पकड़ाय गा। इस विषय पर आपको गहराई से सोचना होगा। क्यूंकि आज तो हमको यह जगत एक दम सत्य जैसा ही प्रतीत हो रहा है ? हम इसको छाया कैसे समझें ?  हम लोग जब तक मगरमच्छ को लक्क्ड़ का लट्ठा समझ रहे हैं तब तक खतरा बना हुआ है। आशा की पूर्ति कभी नहीं होती - पूर्णता या तृप्त इन्द्रियगोचर वस्तुओं से कभी  हो नहीं सकती। 

निष्कर्षतः, यह श्लोक न केवल एक असाधारण स्तुति है, बल्कि यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति में गुरु का क्या स्थान है। गुरु वही हैं जो शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को जानते हैं और अपने अनुभव द्वारा शिष्य को भी उसी आत्मबोध में स्थित करते हैं। ऐसे सद्गुरु को प्रणाम कर शिष्य ज्ञान-मार्ग पर आगे बढ़ता है — यह वेदांत की परंपरा की मूल भावना है।  

जो विषयों से विमुख होकर हमें मन के परे चले जाना है। सत्य इन्द्रियों का विषय नहीं गुरु के शब्दों के पीछे पीछे जब हमारा मन चलने लगता है - ध्यान के बाद समाधि में उस इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति हो जाती है।

"तमगोचरं सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं।

 गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥"


       यह मंगलाचरण आदि शंकराचार्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ विवेकचूडामणि का प्रथम श्लोक है, जो उन्होंने अपने गुरु भगवान गोविन्दपाद को समर्पित किया है। इस श्लोक के माध्यम से वे केवल अपने गुरु को प्रणाम नहीं करते, बल्कि उस परम सत्य के स्वरूप का भी वर्णन करते हैं, जिसे वेदांत शास्त्रों के मर्म के रूप में जाना जाता है।

"तमगोचरम्" — यह शब्द दर्शाता है कि वह परमात्मा या गुरु सामान्य ज्ञानेंद्रियों द्वारा जानने योग्य नहीं हैं। "तम" का अर्थ है अंधकार या अज्ञान, और "गोचर" का अर्थ है जो ज्ञेय हो। अर्थात, वह परम तत्व ऐसा है जिसे इंद्रियों, मन या बुद्धि के माध्यम से जाना नहीं जा सकता। वह हमारे लौकिक अनुभवों की सीमा से परे है। इस संसार में जो कुछ भी हम देखते, सुनते, छूते, सूंघते या स्वाद लेते हैं, वह सब इंद्रियगोचर है, परंतु परमात्मा उन सबसे परे है। इसलिए वह "तमगोचर" — अज्ञेय है।

"सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरम्" — यद्यपि वह अज्ञेय है, फिर भी वह वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से जाना जा सकता है। इसका अर्थ है कि वेदांत, विशेषतः उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों द्वारा जिस परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है, वही तत्व है जिसे गुरु के माध्यम से जाना जा सकता है। उपनिषदों में बताया गया "सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म", "नेति नेति", "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" आदि महावाक्य उसी ब्रह्म की ओर संकेत करते हैं।

"गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं" — आदि शंकराचार्य यहाँ अपने गुरु गोविन्दपाद की स्तुति करते हैं, जो उस परमानन्द स्वरूप ब्रह्म के साक्षात् प्रतिनिधि हैं। "परमानन्द" का तात्पर्य उस आनन्द से है जो आत्मा के ज्ञान में स्थायी रूप से स्थित होता है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं करता। गुरु न केवल उपदेशक हैं, बल्कि वे स्वयं उस परमानन्द के मूर्तिमान स्वरूप हैं। वे स्वयं ब्रह्मनिष्ठ होकर शिष्य को उस ज्ञान की ओर ले जाते हैं।

"प्रणतोऽस्म्यहम्" — इस वाक्य में श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता की चरम अभिव्यक्ति है। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि मैं उन गुरु को प्रणाम करता हूँ। यह प्रणाम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि अंतरात्मा से किया गया आत्मसमर्पण है। गुरु के प्रति यह कृतज्ञता उस परंपरा का भी स्मरण कराती है, जिसके माध्यम से ब्रह्मविद्या जीवित रही है।

       (1:01: 20 मिनट) पहले ही दो श्लोकों में भगवान मानव शरीर की महिमा बता रहे हैं - जान लो कि तुम लोग कहाँ बैठे हो ? हमलोग यह समझते ही नहीं है कि मनुष्य शरीर में जन्म लेने का क्या महत्व है ? मनुष्य शरीर अन्य जीवजंतुओं के शरीर से भिन्न क्यों है ? हमें पता ही नहीं है।  देवदुर्लभ मनुष्य-शरीर में बैठे हो। कुत्ते -बिल्ली के शरीर में बैठे रहते तो यह वेदान्त चर्चा का श्रवण करना सम्भव नहीं होता। गाय -भैंस के लिए जो इन्द्रियों से दिखाई देता है -वो घाँस ही सत्य है। 'चारा खा जाना' ही सत्य हैसुन मैया मैया मेरी मैं नहीं चारा खायो ! सिर्फ मनुष्य में ही यह गोग्यता या क्षमता है कि वो जान सकता है कि सत्य क्या है ? और सत्य के जैसा क्या भास रहा है ? ये विवेक केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। इसलिए बच्चों इस देवदुर्लभ मानवशरीर के महत्व को समझो मानवशरीर का मिलना एक अवसर है - यदि परम् सत्य को नहीं खोज रहे हैं , तो हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं। अगले जन्म में कौन सा शरीर प्राप्त होगा ? इसके विषय में कोई नहीं कह सकता। मनुष्य जीवन का उद्देश्य जानो , और उसी कार्य के लिए उसका उपयोग करो। अगला शरीर क्या मिलेगा -कोई नहीं जानता। (1:05:00)

जंतुनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता,
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता, विद्वत्त्वमस्मात्परम् |
आत्मनात्मविवेकनं स्वानुभावो,  ब्रह्मात्मना संस्थितः
मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः, पुण्यैर्विन लभ्यते || 2 |
|

 दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः || 3 ||

2. जीवों को प्रथम तो मनुष्य जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, और उससे भी अधिक कठिन है नर-देह का प्राप्त होना; उससे भी दुर्लभ है ब्राह्मणत्व; उससे भी दुर्लभ है वैदिक धर्म के मार्ग का अनुगामी होना; उससे भी अधिक दुर्लभ है शास्त्रों का ज्ञान ; आत्मा और अनात्मा का विवेक, जड़-चेतन या शाश्वत-नश्वर विवेक , आत्मसाक्षात्कार और ब्रह्म के साथ तादात्म्य में स्थित रहना - ये तो करोड़ों जन्मों में किये पुण्य से क्रमशः आते हैं। (इस प्रकार की) मुक्ति सौ करोड़ जन्मों के पुण्यों के बिना प्राप्त नहीं होती।  

 दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः || 3 ||

3. तीन चीजें ऐसी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं - अर्थात् मानव जन्म, मोक्ष की लालसा और किसी सन्त, ऋषि या सिद्ध महात्मा (सदगुरुदेव) की संरक्षणात्मक देखभाल। 

      ये विवेक जग जाने से हम मगरमच्छ को लकड़ी का कुन्दा समझने का भूल नहीं करेंगे। इन्द्रियविषयों में सुख खोजने के पीछे और कभी नहीं भागेंगे।  ये दोनों श्लोक बहुत ही महत्वपूर्ण है , हम लोग अगले स्तर में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। अब नए नए विचार से आप अवगत होने वाले हो। इस शरीर का उपयोग दो तरह से हो सकता है। विवेक का अर्थ है - सत्य -मिथ्या को स्पष्ट समझ लेना। साधरण मनुष्य इन्द्रियों के भोग में ही सुखी हैं। पर भोगों से कभी सुख हुआ क्या ? अतृप्ति से ऊपर कैसे ऊपर उठेगा ? विवेक का जीवन - लट्ठा नहीं है मगरमच्छ है। तब आपका आचरण बदल जायेगा। इसीलिए विवेक को मुकुटमणि या चूड़ामणि कहा गया है।  

================== 

⚜️️🔱विवेक-चूड़ामणि सार ⚜️️🔱Vivekachudamani Saar |Session-4 (स्वामी शुद्धिदानन्द, अद्वैत आश्रम , मायावती) https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-05-29

शंकराचार्य कहते हैं कि इस अज्ञान को केवल आत्मज्ञान के प्रकाश से ही समाप्त किया जा सकता है। यह ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन (श्रवण), चिंतन (मनन), और ध्यान (निदिध्यासन) से प्राप्त होता है। गुरु की कृपा से जब शिष्य का मन एकाग्र होता है, तब उसे अपनी असली पहचान का बोध होता है—"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ)।


 

        शास्त्र और गुरुवाक्य या  श्रुति के पर श्रद्धा के साथ अनुसार जब श्रवण, मनन ,निदिध्यासन हम करते हैं तो हमारे चंचल मन को एक नई दिशा में कार्य करने की समझ मिल जाती है। निदिध्यासन की अंतिम परिणति आत्मानुभूति में होती है। (3.42) आत्मस्वरूप को जानने की प्रक्रिया यही है -श्रवण, मनन ,निदिध्यासन। फिर विवेक ही मनुष्य की विशिष्ट पहचान है - जगत (मगरमच्छ) को हम जैसा समझ रहे हैं कि -वो लट्ठा है , इसके सहारे भवसागर पार हो जायेंगे तो -हम भ्रम हैं , मोहग्रस्त हैं। रज्जु को सर्प समझ लेते हैं - एक चीज को दूसरा समझ लेते हैं। 

 शास्त्र के अनुसार चलने से पहले हमारे जीवन की वो दिशा नहीं थी। वो इन्द्रियों के पीछे-पीछे चल रहा था, अब हमारी युक्ति - आत्मानुभूति के द्वारा अपने स्वरुप को जानने की तरफ होती है। मन के लिए यह नया विकास है।  हर दिन हमसे यही भूल होती है , दो को मिला देते हैं। एक चीज को दूसरा समझ लेना -उसका परिणाम दुखद ही होता है। कोई भी भी मनुष्य पूर्णता को प्राप्त क्यों नहीं होता ?  मगरमच्छ को मोटी लकड़ी का कुन्दा समझ लेते हैं। जगत में पैसे वाले सुखी हैं क्या? जिनके पास अकूत धनसम्पत्ति है तो वे तृप्त और पूर्णता महसूस का रहे हैं क्या ? अब विवेक से स्पष्टता आती है , जब हम मगरमच्छ को जान लेते हैं , लट्ठा नहीं है - समझ लेते है कि सत्य की दिशा में जाये मिथ्या को फिर से सत्य मानकर इन्द्रियों की पीछे दौड़ें ? सत्य को अनुभव करने की प्रक्रिया इन्द्रियातीत होने से होती है। विवेक ही मनुष्य को जीने की सही दिशा प्रदान करता है।  शास्त्र और गुरु मुख से श्रवण , मनन और निदिध्यासन करना वह उपाय है जिससे हम जीव और आत्मा के एकत्व की अनुभूति करके अज्ञान के बंधन से मुक्त हो सकते हैं। परमसत्य इन्द्रियातीत है , जब हम मन से भी अतीत चले जाते हैं , तब सत्य की अनुभूति होती है। 

         विवेकचूड़ामणि के प्रथम दो श्लोक बतलाते हैं कि मनुष्य जीवन में दुर्लभ क्या है ? इस सृष्टि में सबसे दुर्लभ चीज क्या है ?

 जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः,

 पुंस्त्वं ततो विप्रता,

 तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता , विद्वत्त्वमस्मात्परम् । 

आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो,

 ब्रह्मात्मना संस्थिति-

र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः'

 पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥

"दुर्लभं त्रयमेवैत, द्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥3।। 


'ब्रह्मनिष्ठा' अर्थात् ब्रह्म में दृढ़ स्थिति—आध्यात्मिक साधना की चरम अवस्था मानी जाती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक आत्मा और ब्रह्म की एकता को केवल शास्त्रों और गुरुवाक्य से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव से जान लेता है और उसी में स्थिर हो जाता है। ऊपर दिए गए श्लोक में शंकराचार्यजी इस ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति को अत्यंत दुर्लभ बताते हैं और इसकी ओर पहुँचने के क्रमिक सोपानों को दर्शाते हैं।

श्लोक के अनुसार सबसे पहले नरजन्म ही दुर्लभ है। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जब जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, तब वह धर्म, ज्ञान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है। पशु, पक्षी, कीट-पतंगों में ऐसा विवेक या साधना संभव नहीं। इसलिए मनुष्य जन्म को एक अत्यंत दुर्लभ अवसर माना गया है।

इसके पश्चात मनुष्य में भी पुंस्त्व अर्थात पुरुषत्व प्राप्त करना विशेष माना गया है, क्योंकि प्राचीन भारत में पुरुषों को वेदाध्ययन और तपस्या की अधिक सुविधा प्राप्त थी। इसके बाद आता है विप्रता अर्थात ब्राह्मणत्व। यहाँ ब्राह्मणत्व का आशय केवल जाति से नहीं, अपितु उस शुद्ध, सात्त्विक, धर्मनिष्ठ जीवनशैली से है जो वैदिक धर्म के पालन और आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करती है।

ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाने के बाद भी वैदिक धर्म में श्रद्धा और निष्ठा होना आवश्यक है। केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि शास्त्रों का पालन, यज्ञ, तप, जप, और स्वाध्याय में तत्परता आवश्यक है। फिर भी यह सब कुछ होना भी केवल प्रारंभिक योग्यता है। अगला चरण है विद्वत्ता—शास्त्रों का गहरा ज्ञान, विवेकशील चिंतन और गुरुसेवा के द्वारा आत्मज्ञान की तैयारी।

किन्तु श्लोक यह स्पष्ट करता है कि इतना सब कुछ भी हो जाए तो भी आत्मा और अनात्मा का विवेक, स्वानुभव, ब्रह्म में स्थित रहना और मोक्ष प्राप्त करना सहज नहीं है। यह तो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैः—असंख्य जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही संभव होता है। यहाँ शंकराचार्यजी हमें यह समझाते हैं कि ब्रह्मनिष्ठा केवल बाह्य आचरण से नहीं, अपितु गहन तपस्या, पूर्ण वैराग्य, गुरु की कृपा और भगवत्कृपा से ही प्राप्त होती है

ब्रह्मनिष्ठ साधक उस परम तत्त्व में स्थित हो जाता है जहाँ से कोई भ्रम नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। वह जानता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही ब्रह्म हूँ। इस स्थिति में वह न केवल संसार के दुःख-सुखों से परे हो जाता है, अपितु शुद्ध साक्षीभाव में स्थित होकर पूर्ण तृप्ति को प्राप्त करता है।

अतः यह स्पष्ट है कि ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति एक अत्यंत दुर्लभ, किन्तु सर्वोत्तम उपलब्धि है। यह मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसके लिए हमें निरंतर साधना, आत्मविचार और गुरुसेवा में लगे रहना चाहिए। यही वास्तविक मोक्ष का द्वार है।] 

"दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥3।।


अर्थात् यह तीन बातें अत्यंत दुर्लभ हैं और केवल ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होती हैं — (1) मनुष्यत्व, अर्थात् मनुष्य का जन्म, (2) मुमुक्षुत्व, अर्थात् मोक्ष की तीव्र इच्छा और (3) महापुरुषसंश्रय, अर्थात् किसी महान आत्मज्ञानी पुरुष का संग या उनके सान्निध्य में रहना।

(1) मनुष्यत्व:
संस्कृत साहित्य और वेदांत में मनुष्य-जन्म को अत्यंत दुर्लभ कहा गया है। अन्य योनियों में जैसे पशु, पक्षी, कीट आदि में चेतना तो होती है, परंतु उनमें आत्मचिंतन और विवेक की क्षमता नहीं होती। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की खोज करने की क्षमता प्राप्त है। अतः आत्मा की मुक्त अवस्था को प्राप्त करने का अवसर केवल मनुष्य जीवन में ही मिलता है। इसलिए मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताया गया है।

(2) मुमुक्षुत्व:
मनुष्य-जीवन मिलने के बाद भी यदि उसमें मोक्ष की आकांक्षा न हो, तो वह जीवन व्यर्थ हो जाता है। संसार में अधिकतर लोग केवल भोग-विलास, धन, पद और परिवार में ही उलझे रहते हैं। जो व्यक्ति इन क्षणभंगुर वस्तुओं में स्थायित्व नहीं खोजता, और इनसे ऊपर उठकर “मैं कौन हूँ?”, “मुझे जन्म क्यों मिला है?” जैसे प्रश्न करता है, और इनका उत्तर पाने के लिए सच्चे हृदय से प्रयास करता है — वही मुमुक्षु कहलाता है। यह स्वभाव भी किसी पूर्व जन्म की साधना और ईश्वर की विशेष कृपा से ही विकसित होता है।

(3) महापुरुषसंश्रय:
चाहे मनुष्य-जन्म हो और मुमुक्षुत्व हो, परंतु यदि किसी सद्गुरु या आत्मज्ञानी महापुरुष का मार्गदर्शन नहीं मिले, तो आत्मज्ञान की यात्रा में बाधाएँ आ सकती हैं। गुरु के बिना यह मार्ग अंधकारमय और भ्रमपूर्ण हो सकता है। एक महापुरुष न केवल साधक की अंतर्यात्रा को दिशा देता है, बल्कि उसे अपने जीवन के उदाहरण से प्रेरित भी करता है। यह संग भी पूर्व जन्मों के पुण्य और भगवत्कृपा का फल होता है।

इस प्रकार यह श्लोक हमें बताता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए तीन प्रमुख बातों की प्राप्ति अनिवार्य है: मनुष्य का जन्म, मोक्ष की तीव्र इच्छा और आत्मज्ञानी गुरु का संग। ये तीनों ही दुर्लभ हैं और ईश्वर की विशेष अनुकंपा से ही मिलते हैं। इसलिए यदि ये तीनों जीवन में प्राप्त हो जाएँ, तो साधक को चाहिए कि वह इस अवसर को व्यर्थ न जाने दे और अपने आत्मकल्याण की दिशा में सच्चे मन से प्रयास करे। यही सच्चा जीवन है और यही मानव-जन्म का परम उद्देश्य भी। ]

  (10.53 मिनट) भगवान शंकराचार्यजी कह रहे हैं -मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः पुण्यैर्विन लभ्यते- मुक्त होने की इच्छा इस ब्रह्माण्ड में सबसे दुर्लभ वस्तु है मुक्ति। मोक्ष अत्यंत दुर्लभ है ! जो बंधन में है वही तो मुक्त होने का प्रयास करेगा। जिसको बंधन में होने का पता ही नहीं है , वो क्या मुक्त होने का प्रयास करेगा ? 84 लाख योनियाँ है - ये सब प्रकृति के नियमों में (जन्म-मृत्यु से) बंधे हुए है।  कोई मुक्त नहीं है। हमारा शरीर धारण करना ही बंधन है। हमारा जो वास्तविक स्वरुप है , वो शरीर से बँधजाने के लिए नहीं है। पर आज हम अपने को इसी शरीर से बंधा समझ रहे हैं। हर जीवजंतु जन्म लेते ही मृत्यु के बंधन में हैं। हम कितने दुःखों से गुजर चुके हैं। शरीर का नियम है - बड़ा, बूढ़ा , रोगी -स्वस्थ हो रहा है। गाय के अंदर जो जीव बैठा हुआ है , वो कष्ट में है। पशु - पक्षी सब समय भयग्रस्त है।  मृत्यु हुआ तो जन्म निश्चित है। ये जो बार बार मरने -जन्म लेने का चक्र इससे बाहर कैसे निकलें ? गाय को देखिये - कितना मासूम है ? पर वह भी शरीर में होने के कष्ट को अनुभव कर रही है। शरीर में अवस्थित सुंदर पक्षी भी प्रकृति के नियमों से बंधा हुआ है , वो भी कष्ट में हैं। हमेशा भयग्रस्त रहता है - आवाज करते ही भाग जाता है। इस सृष्टि में सब जीव-जन्तु भयग्रस्त है। अपने को असुरक्षित समझने का भाव हमेशा रहता है। यही बंधन है - पर हमारा सत्यस्वरूप नहीं है। जैसे ही हम M/F शरीर से बंधे होने का अनुभव करेंगे तब मुक्ति चाहेंगे ? कौन मुक्त है ? कुछ ब्रह्मज्ञानी पुरुषों को छोड़ कर सब बंधे हुए हैं। सब प्रकृति के गुलाम हैं। पर सृष्टि में मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है।  आचार्य शंकर यह कह रहे हैं कि बच्चों तुम पहले यह देखो कि तुम किस महान मनुष्य शरीर को प्राप्त कर लिए हो

     'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ' --गाय, भेंड़ , देवता के पास भी विकल्प नहीं है , मशीन की तरह चलना , खाना , पीना, सोना और संतान पैदा करना। विवेक जाग्रत होने तक हमारा जीवन भी पषुओं की तरह आहार , निद्रा , भय, मैथुन में नहीं बीत रहा है ? मनुष्य पशुओं से अलग कैसे है ? धर्मेण हिनः पशुरभिः समानः - जिसका विवेक जाग्रत नहीं हुआ हो , वो पशु के सामान है। विवेक ही वह योग्यता है जो मनुष्य को पशुओं से भिन्न बनाता है। 

का अर्थ है कि आहार, नींद, भय- ये भय ही सबसे बड़ा बंधन है। इस जगत में सभी भयग्रस्त हैं कि नहीं ? हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित ही समझता है।  पर ये हमारा वास्तविक स्वरुप नहीं है। वेद कहता है- 

'भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः । 

भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥

( कठोपनिषद . 2-3-3 ) 

उस कालात्मा भगवान् (या माँ काली) के भय से अग्नि , सूर्य , इन्द्रादि अपना कार्य करते हैं । यमराज भी उसके भय से -कांपता है, माने दौड़ता है। और मैथुन और एक दिन मर जाना - ये चार चीजें मनुष्य और पशु दोनों में समान हैं। मनुष्य को पशुओं से अलग करने वाली चीज धर्म है,  धर्म या विवेक के बिना मनुष्य पशु के समान है। पशुओं के अंदर विवेक नहीं होता , जबतक हमें विवेक नहीं हुआ ; हम भी पशुओं के समान ही हैं। अर्थात केवल मनुष्य की योग्यता है, सत्य क्या है ? और जो सत्य स्सा प्रतीत हो रहा है , वह क्या है ? मनुष्य वह है जो दोनों का विवेक कर सकता हो; और जो सत्य है उसको पकड़ सकता हो। रज्जु और सर्प का विवेक सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है , ये विवेक अन्य किसी प्राणी में नहीं है।   

    इस सृष्टि में मुक्ति- मोक्ष सबसे दुर्लभ चीज है , कई जन्मों के पुण्य होने से यह मनुष्य शरीर मिला , इन्द्रियातीत सत्य।  या परम सत्य को को खोजने की तीव्र इच्छा मिली, फिर एक बिहारी के जीवन में स्वामी विवेकानन्द कैसे आ गए !?? पहले माँ तारा , पिता सूर्य मिले - फिर स्वामीजी मिले गुरुदेव मिले , नवनीदा मिले - फिर माँ सारदा देवी मिली, फिर रामकृष्ण वचनामृत मिला !! अभी यूट्यब पर स्वामी शुद्धिदानन्द को सुनने का पर्याप्त अवसर माँ ने दिया। ब्रह्मज्ञानी के अतिरिक्त सभी मनुष्य प्रकृति के गुलाम हैं। 

"आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। 

धर्मो (विवेक धर्म) हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥" 

     प्रत्येक आने वाला अवस्था अभ्यास पहले से अधिक दुर्लभ है -   'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ' मनुष्य शरीर में जन्म दुर्लभ है, फिर उसके बाद मुक्ति की इच्छा अत्यंत दुर्लभ है। प्रत्येक उत्तरवर्ती मुद्दा पहले वाले से मुद्दे दुर्लभ है।  'पुंस्त्वं ततो विप्रता'  उसमें भी  पुरुष शरीर को प्राप्त करना और भी दुर्लभ है कहने से, बेटियों के मन में ये प्रश्न उठेगा कि शंकर तो स्त्री-पुरुष में भेद देख रहे हैं। पर ऋषियों ने अपने अनुभव से यही कहा है। केवल मनुष्य ही मुक्ति का प्रयास कर सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी मशीन हैं। प्रकृति का नियम क्या है ?  खाना -सोना -डरना और प्रजनन ;  खाना -सोना -डरना और प्रजनन,  खाना -सोना -डरना और प्रजनन, जब तक विवेक की उतपत्ति नहीं होती , मनुष्य पशु ही है - केवल मनुष्य ही सत्य -मिथ्या विवेक कर सकता है। सामर्थ्य में कोई अंतर् नहीं है। मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता दोनों में विद्यमान है। 

        क्या आचार्य शंकर माँ की स्तुति नहीं किये थे ? सृष्टि सभी बंधे हुए हैं। प्रकृति के नियमों से सिर्फ मनुष्य ही ऊपर उठ सकता है। यह सामर्थ्य स्त्रियों में भी उतना ही है , जितना पुरुषों में है। जहाँ तक- मोक्ष प्राप्त करने या अपने आत्मस्वरूप को जानने की  सामर्थ्य या योग्यता की बात है दोनों में कोई अंतर नहीं है। फिर यहाँ पुरुष शरीर को श्रेष्ठ क्यों कहते हैं ? मुक्ति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व उसमें लगा देना पड़ता है।  (34.59) या जो अविवाहित हो और अभी तुरंत मोक्ष चाहता हो-जगत की सुंदर-सुंदर वस्तुएं उसको इसी क्षण बेस्वाद लगती हों , पहले से ही विवेक और तीव्र वैरग्य जग गया हो  और उसका उचित अधिकारी भी हो; अथवा कोई युवा अगर गृहस्थ हो तो कात्यायनी और मैत्रेयि दोनों में अनासक्त हो चुका चुका हो - क्योंकि यह कोई  part-time job नहीं है !; गृहस्थ पुरुष को मुक्तिकेन्द्रित जीवन 24X7X365 जीवन जीने का अवसर मिल जाता है, लेकिन महिला की पात्रता उसकी विशिष्ट भूमिका क्या है ? स्त्री या महिला की विशेष भूमिका है मातृत्व - माँ ही संतान को जन्म देती है। 9 महीने कोख में रखना, जन्म से २५  साल तक माँ अपने बच्चे से जुड़ी रहती है, लालनपालन भी करती है। पुरुष लोग माँ की जिम्मेवारी को समझ ही नहीं सकते। यह लगाव प्राकृत्रिक है , पुरुष शरीर में ये बाधा नहीं है। संतान पैदा करने या पलने की बाधा नहीं है। और M/F कोई भेद नहीं है। कई ब्रह्मज्ञानी माताएँ है - रानी मदालसा जैसी ब्रह्मज्ञ महिला भी हैं - पर वे अपवाद हैं। तुलनात्मक दृष्टि से पुरुषों में माता बनने की बाधा नहीं है। 

      युवक -युवती में तीव्र वैराग्य कब होता है ? जब आपको (41.22) विवेक हो जायेगा कि ये संसार जैसा दीखता है , सच में वैसा नहीं है। तब आप में वैराग्य की अग्नि धधकने लगेगी।  विवेक होने से वैराग्य उतपन्न हो जाता है। युवक और युवती जिस दिन स्पष्ट रूप से समझ लेंगे की इन्द्रियों का जगत निस्सार है , इसमें कोई सार नहीं है। वैराग्य होने इन्द्रियों के भोग को छोड़ देगा।  ये मगरमच्छ है -आप उधर क्यों जयएंगे ? ये ऐसा कुआँ है , जिसमे तली ही नहीं है। हम दौड़ते रहते हैं , पहुंचते कहीं नहीं है। अपने 'Alice in Wonderland' (एक अद्भुत दुनिया में एलिस)  की कथा पढ़ी होगी। स्वामीजी उसको उद्धृत करते हुए कहते थे - हमारा जीवन भी उसी तरह है। "एलिस इन वंडरलैंड" लुईस कैरोल द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध बच्चों की पुस्तक है, जो 1865 में प्रकाशित हुई थी, और इसमें एलिस नाम की एक लड़की की कहानी है, जो एक खरगोश के बिल से एक जादुई दुनिया में पहुंच जाती है। वह इस अतार्किक और विचित्र दुनिया में कई अजीब पात्रों से मिलती है, जिनमें चेशायर बिल्ली, मैड हैटर और पान की रानी शामिल हैं, और उसे अपने आस-पास की तर्कहीन दुनिया से जूझना पड़ता है।  हम लोग भी दौड़ते रहते हैं ,  दौड़ते रहते हैं , दौड़ते रहते हैं पर पहुंचते कहीं नहीं है। क्योंकि यहाँ पर -व्यक्त जगत में पहुँचने के लिए कुछ है ही नहीं।  

    यदि इस प्रकार का विवेक-जन्य वैराग्य किसी युवक को होजाये , और किसी युवती को हो जाये ; तो, जगत में आसक्ति त्यागने पर दोनों के निर्णय में आसानी किसे होगी ? इन्द्रियों के भोग में सुख नहीं केवल रोग है।  विवेक और वैराग्य हो जाने के बाद कोई युवक, तो संन्यास लेने के लिए कभी भी घर से निकल सकता है , पर कम उम्र की युवती को घर से बाहर निकलने के लिए खतरा है या नहीं ? लेकिन पुरुष शरीर में सन्यास लेना सुविधाजनक है ? इद्रियों से भोग में सिर्फ रोग है - वो मगरमच्छ है , आप उधर नहीं जायेगे। 

     1200 साल पहले मनुष्य जैसा था , आज भी उसकी प्रकृति वैसी ही है। शंकर के समय में ही आक्रांताओं का आक्रमण शुरू हो गया था - उनका टारगेट स्त्री होती है , उसको बचाने के लिए हमें पर्दा प्रथा अपना लेना पड़ा। भारत में कोई भेद-भाव नहीं था। ये सब इस्लाम और अंग्रेज के बाद ही आया। लेकिन स्त्रियों की सामाजिक भूमिका -संतान को उतपन्न करना- मासिक बाधाएं भी स्त्रियों को ही हो जाती हैं। मुक्ति सभी के लिए है-लैंगिक भेदभाव नहीं है, पुरुष शरीर में मासिक बाधा नहीं है। (51.33)।  प्रकृति ही यही है -बेटियों को ये समझ लेना चाहिए। बाकि दोनों में वीवेक-प्रयोग की योग्यता बिल्कुल एक समान है। 

      क्या मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने से ही जीवन धन्य होगा ? आज पृथ्वी पर कितने मनुष्य हैं ? 8 बिलियन - यानि आठ अरब मनुष्य हैं , क्या सभी मुक्त होने की इच्छा कर रहे हैं ? अगला बहुत बड़ा पॉइंट है - विप्रता , ब्राह्मण का गुण अर्जित करना। विप्र और विप्रता  - ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व अर्जित करना समाज का आदर्श ब्राह्मण ही है - जातिव्यवस्था का सनातनधर्म से लेनादेना है ही नहीं। सनातन धर्म में वर्ण गुण आधारित था जन्मगत नहीं था। ब्राह्मण कहते है चरित्रवान मनुष्य को। जिसका सारा जीवन ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए समर्पित है। हर व्यक्ति को किसी को ब्राह्मण - यानि चरित्रवान मनुष्य बनना होगा। तप-केंद्रित जीवन जीता है। चरित्रवान -मनुष्य हर व्यक्ति होना होगा ! ब्राह्मण के गुणों को - उच्च कोटि का चरित्र अर्जित करना होगा।  उसका जीवन तप केंद्रित है। व्यक्ति और समाज दोनों का क्रमविकास ब्राह्मण होने में है। इस पृथ्वी पर कितने ब्राह्मण हैं ? जिसका जीवन ही निःस्वार्थ है , यह दुर्लभ है या नहीं ? तो नरजन्म दुर्लभ है।  उससे भी दुर्लभ है - ब्राह्मण जैसा चरित्रवान मनुष्य बन जाना !  मनुष्य रूप में जन्म लेकर इसको ब्राह्मणत्व के गुणों से विभूषित रखना और भी दुर्लभ है या नहीं ?

      उससे भी कठिन है -तस्माद् वैदिक-धर्ममार्गपरता - उसमें वैदिक धर्म मार्ग पर चलना, उसमें निष्ठा होना और भी कठिन है। व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टि से वह मार्ग कौन सा है -जो  मनुष्यों को पूर्णता की और ले जा सकती है - वो मार्ग कौन सा है ? कितने प्रकार isms हैं कि नहीं ? राजनितिक धार्मिक नेता को भी अनुयाई मिल जाते हैं - कम्युनिष्ट कहाँ पहुँचते है ? बुद्धिज्म से कम्युनिज्म -कैपटिलिज्म से लोग सुखी हैं क्या ? (1:01:00) कम्युनिस्ट ब्लॉक, कैपिटलिस्ट ब्लॉक  का हाल है ? पूरा खोखला है।           

      अभी चाइना चरित्र-निर्माण के लिए विवेकानन्द की पद्धति सीखना छह रहा है। वैदिक धर्म मार्ग सबसे श्रेष्ठ है , इसलिए सबसे प्यारा है हमने गुरुवाक्य पर श्रद्धा खो दिया तब हम गरीब हुए।  त्याग और योग की भूमि होकर भी हमलोग विश्व में सबसे समृद्ध देश कैसे बन गए ? कौन से ism से हुआ ? भारत प्राचीन युग में कम्युनिज्म से सोने की  चिड़िया बना था? ये सोसिअलिज्म से बना था था ? वैदिक धर्म मार्ग पर चलकर ही बना था।  ऋषियों का बताया वैदिक मार्ग पर चलते हुए हमारा देश सोने की चिड़िया था। (1:04: 00) वर्णाश्रम धर्म हमे सोने की चिड़िया -महान बनाता है। वैदिक धर्म मार्ग पर निष्ठा और भी दुर्लभ है कि नहीं ? हिन्दू हम सिर्फ नाम के हैं , हमलोग वेद -वेदांत मार्ग पर चल रहे हैं क्या ? ब्राह्मणों का गुण प्राप्त करना दुर्लभ है -उससे भी दुर्लभ जो वैदिक मार्ग में निष्ठा रखते हैं। तस्माद् वैदिकधर्ममार्गपरता और भी दुर्लभ है। वेद - निष्ठा आप में है , पर कितने लोगों को शास्त्र का ज्ञान है ? ये और भी दुर्लभ है। आचरण में ज्ञान उतरा है क्या ?   इससे भी दुर्लभ है -शास्त्र का ज्ञान होना , कितने लोगों को शास्त्र का ज्ञान प्राप्त है ? इसका अनुशीलन करने वाले और भी दुर्लभ हैं। आत्मा-अनात्मा का विवेक हमें शास्त्र से मिलता है , ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या की विवेचना करना दुर्लभ है , आत्मा में प्रतिष्ठित भी कर लिया और उसीमे प्रतिष्ठित कितने लोग हैं ? मुक्ति उसी को मिलती है। अंत में पता लगता है कि मुक्ति सबसे दुर्लभ वस्तु है। उसकी शुरुआत मनुष्य शरीर में जन्म लेने से होता है। मार्क्सिज्म से कोई सुखी हुआ है क्या ? कैप्टलिज्म से कोई सुखी हुआ क्या ? सभी मनुष्य दुःख से निवृत्त कैसे हों ? सुखी कैसे हों ? वह मार्ग है -वैदिक मार्ग।  त्याग और योग के आदर्श पर चलने वाला समाज और राष्ट्र विश्व का सबसे धनी राष्ट्र कैसे बना ? 1000 साल में हमारा पतन हुआ , क्योंकि हमने सनातन वैदिक मार्ग को छोड़ दिया। त्याग और योग का रास्ता ही मनुष्य को सुखी बना सकता है। आत्मा क्या है अनात्मा क्या है ? ये जान लेना बहुत दुर्लभ है। जिसने आत्मा में अपने को प्रतिष्ठित कर लिया हूँ। मैं ब्रह्मबोध में प्रतिष्ठित हूँ ! ऐसा अनुभव करने वाला ही मुक्त है। अनंत जन्मों के पुण्य कर्म से यह दुर्लभ मुक्ति प्राप्त होती है। ये हमारा लक्ष्य है -अभी इसे हमलोग सुन रहे हैं। साधना से प्राप्त होता है। जिस दिन हम यह यह जान लेँगे कि मैं कौन हूँ ? जब हम अपने आत्मस्वरूप को जान लेंगे तब हम मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे। यही हमारा लक्ष्य है। अभी इसको केवल सुन लीजिये। स्त्री-पुरुष दोनों यह आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।   

  तीसरे श्लोक में कहते हैं , तीन चीजें हैं जो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। मनुष्य शरीर में रहकर भी मुक्ति की इच्छा कितने लोगों में है ? 99 % लोगों में मुक्ति (मोक्ष)  की इच्छा ही नहीं है। उनको भी चरित्रवान मनुष्य बनना होगा।  सही दिशा में हमारा जीवन जायेगा - जब एक सतगुरु प्राप्त होना और दुर्लभ है मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः  -- महापुरुष का आश्रय मिलना सबसे दुर्लभ है। यदि किसी को ये तीनो उपलब्ध है तो समझ लेना चाहिए कि ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो चुका है।

================== 

Vivekachudamani Saar |Session-5| 

बहुत ही कम लोगों में बंधन से मुक्त होने की इच्छा दिखाई देती है।   हमारी चर्चा का मुख्य विषय है - आत्मा का ज्ञान ! मैं कौन हूँ ? या मैं क्या हूँ ? आत्मज्ञान होने से ही व्यक्ति मुक्त होता है। 


 -आत्मज्ञान होने से क्या लाभ है ? उसीसे व्यक्ति मुक्त होता है। हमलोग यहाँ -गणित या भूगोल नहीं पढ़ रहे हैं। आत्मा को जानने की इच्छा कितने लोगों में है ? सभी लोगों की प्रवृत्ति क्या है ?  आपके साथ जुड़े जितने भी लोग हैं -सभी इन्द्रियों के पीछे ही दौड़ रहे हैं कि नहीं ? जीवन के एक पड़ाव पर खुद यह इच्छा जाग उठती है।  विवेकी मनुष्य को जीवन ही सिखा देता है कि भोगों में छल है -वह कभी तृप्त नहीं होता। भोग से तो अग्नि और भी भड़कती है। उसीके लिए मनुष्य पागल हो रहा है। इस ओर मैं जितना भी जाऊ उसका कोई अंत है ही नहीं। ऐसे गड्ढे में गिरने की कल्पना करो -जिसका कोई तल ही नहीं हो ? विवेक-विचार जगने से ही आप उस गड्ढे से बाहर निकलने का सोचोगे। 

      आप इस इच्छा से आये हों कि आप इस गड्ढे से निकलना चाहते हैं , तभी ये अध्यन गोष्ठी (P.C) प्रासंगिक है। गड्ढे से बाहर निकलने में त्याग का स्थान सर्वोपरि है। त्याग- वैराग्य ऐसे दो शब्द हैं -जिससे सभी लोग भयभीत हैं। (9.43)  त्याग का मतलब जंगल भागना नहीं है। गृहस्थ को अपने मिथ्या नामरूप-में आसक्ति का त्याग करना है, संन्यासी  को भौतिक जीवन को पूर्णतः त्यागना है। अज्ञान के कारण ही हम अपने को बंधन में पाते हैं। 

      हमलोग इसी क्षण नित्य-मुक्त -शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं। पर हमें इसकी अनुभूति नहीं है। भोगी के लिए यह त्याग की बात सुनना अच्छा नहीं लगेगा।  - गीता में पूरा त्याग ही है , कौन त्याग -वैराग्य चाहते है? संसार के विषयों का भोग ही जीवन का लक्ष्य है पाश्चात्य संस्कृति का लक्ष्य- भौतिकवाद है। अब तो भारत के गाँवों में भी सर्वत्र 99 % मनुष्यों की दशा - दृश्य-संसार के विषयों का भोग ही लक्ष्य है। 

        वेदांत कहता है जाँच कर देखो - जो इन्द्रिय भोगों का जीवन जीते हैं , ये लोग पहुँचते कहाँ हैं? बाल्यावस्था चला गया , जवानी खत्म हो जाएगी , बुढ़ापा आ जायेगा , इन्द्रियां शिथिल हो जायेंगी पर पूर्णता -तृप्ति नहीं मिलेगा। आप जहाँ थे अपने को वहीँ पाओगे। वृद्ध लोगों के जीवन को देखो - पहुँचे कहाँ हैं ? वे अपूर्ण ही रह जाते हैं। लंगर डालकर नाव खेने की चेष्टा - सारी रात नाव खेया -सवेरे देखा वहीँ है। यह अध्यन करने लिए भी योग्यता की आवश्यकता है। जो त्याग-वैराग्य नहीं चाहते उनके लिए यह अध्यन नहीं है। आपको जिधर दौड़ना है , दौड़ के देख लीजिये। आप अपने को वहीं पर पाएंगे। 

        रज्जु-सर्प विवेक से भय समाप्त हो जायेगा। सर्प है नहीं रस्सी है, जो जगत इन्द्रियों से दिखाई दे रहा है वो क्या है ? जगत के भोगों में सुख है क्या ? हमने जगत की जो धारणा बना ली है , जगत वैसा नहीं है। ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। त्याग आधारित जीवन और योग आधारित जीवन देखो।  विवेकानन्द बिना 10 रुपया जेब में रखे इतना आनंदित कैसे हैं ? अपने आस-पास जो60 - 70, 80 के लोग हैं , उनसे पूछिए वे कहाँ पहुँचे हैं ?" ये दीखता पर सच्चाई में है जी नहीं। रास्ते पर रस्सी देखकर सर्प का भय उत्पन्न हो जाता है। सर्प है ही नहीं - रज्जु है। इन्द्रियों से जो दिक् रहा है - उसको परख कर देखोगे -कुछ और ही निकलेगा। सत्यापित करके जगत को देखों। जगत जिसको मान लिया वो है क्या ? यदि जगत नहीं है , तो फिर क्या है ? ऋषि है जो भी कह रहे हैं वही सत्य है। योग आधारित जीवन और भोग आधारित जीवन की तुलना कीजिये। 

 बचपन की स्मृतियाँ सभी को हैं -  ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।। (24.10

बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥ 

भजगोविंदम --- 

बचपन में खेल में रूचि होती है, युवावस्था में युवति के प्रति आकर्षण होता है। वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं, किन्तु प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥ यौवन में बुढ़ापे का भय भी है। शरीर का अंतिम स्थान - श्मसान ही है। बच्चा मासूम दिखाई दे रहा है , पर वह पारधीन है। बाल्यावस्था भयभीत जीव की अवस्था है। सभी लोग खिलौने से खेलने व्यस्त हैं।  कोई सत्य को जानना नहीं चाहता। खिलौने से कहकर किसी का मन भर है क्या ?  बच्चा अपनी गुड़िया से आसक्त हो जाता है, हमलोग भी जगत में आसक्त हो गए हैं। 

       तरुणावस्था सबसे खतरनाक अवस्था। तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः । लड़का का पूरा ध्यान लड़की पर , लड़की का ध्यान लड़के पर -हमसभी इस अवस्था से गुजरे हैं। ये खिंचाव प्राकृतिक खिँचाव है। उस वक्त सारी शक्ति उसी में चली जाती है। तरुणी से दिल भरा क्या ? बूढ़ा -बूढी की शक्ति क्षय हो गया - वो चिंता में ही डूबा रहता है , बूढ़ा स्मृतियों में ही डूबा रहता है। वासना अभी तक है , पर कुछ कर नहीं सकता और ऐसे ही मर जाता है। कितनी बार हम माँ की कोख प्रवेश कर चुके हैं ? हर जन्म में ऐसा ही होता है। यही बंधन है - यह जाल है। जिसमें हमलोग फँसे हुए हैं। यह विवेक-चूड़ामणि अध्यन उसी के लिए प्रासंगिक है। इस जाल से बाहर निकलने का मार्ग सिर्फ गुरु के वचनों का पालन करने में है। असुरक्षा भाव हमें काटता रहता है। यौवन में बुढ़ापे का भय है। एक भविष्वाणी गलत नहीं होगा - हम सभी का शरीर मरने वाला ही है। शरीर रहते उद्देश्य को प्राप्त कर लो। आदर्श ब्राह्मण का गुण धारण कर लो। कितना दुर्लभ है जो निःस्वार्थ  भाव से  ज्ञान बाँटता है ? वैदिक मार्ग के यात्री कितने हैं ? कितने लोगों को इस मार्ग पर निष्ठां है ? हम केवल नाम के हिन्दू रह गए हैं ? शास्त्र का ज्ञान कितने लोगों को है ? सत्य-मिथ्या विवेक का मार्ग ही शास्त्र बताते है। अनात्मा -आत्मा का विवेक करने वाला आत्मा में प्रतिष्ठित होकर मुक्त हो जायेगा। अनात्मा मतलब खिलौना ?  मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा और सद्गुरु का आश्रय ईश्वर के अनुग्रह से ही होता है। 

     सभी त्यागी -वैरागी हो जायेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी ? इसकी चिंता आप मत कीजिये। दुनिया जैसे चल रही है वैसे ही चलते रहेगी -आप मुक्त हो जाओगे। यदि गुरु के बताये मार्ग पर चलते रहोगे।  हमसभी अपूर्णता की अनुभूति कर रहे हैं -इसलिए यहाँ आये हैं। जितने ism हैं , सब उस कुँए के भीतर गिरने वाला मार्ग है। सच्चाई में एक ही मार्ग -वेद के बताये मार्ग में किस हिन्दू की निष्ठा है ? शास्त्र का ज्ञान कितने लोगों को है ? आत्मा और अनात्मा का विवेक कितने लोग करते हैं। सभी खिलौने से खेल रहे हैं।  आधार कार्ड वाला पहचान -समाप्ति की ओर जा रहा है। विवेक-चूड़ामणि के 530 श्लोकों में से हमें - 50-60 श्लोक पढ़कर उसका सार समझ लेना है।  अगला श्लोक (47 मिनट पर-सेसन 5) पर हम ले रहे हैं वो छठा श्लोक इस प्रकार है -

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान,  

कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः।  


आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिः,

 न सिध्यति ब्रह्मशान्तरेऽपि।। (6)  

      6. लोग चाहे शास्त्रों का उद्धरण दें, देवताओं को बलि चढ़ाएँ, अनुष्ठान करें और देवताओं की पूजा करें, लेकिन आत्मा के साथ अपनी पहचान के बिना, आत्मा के साथ जीव की एकत्वानुभूति (oneness की अनुभूति) के बिना  मुक्ति नहीं मिलती, यहाँ तक कि सौ ब्रह्माओं के जीवनकाल# में भी नहीं। [नोट:# जीवनकाल। —अर्थात, समय की अनिश्चित अवधि। ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) का एक दिन मानव गणना के 432 मिलियन वर्षों के बराबर है, जो कि संसार की अवधि मानी जाती है। कालात्मा भगवान् (या माँ काली) "कालात्मा" शब्द का अर्थ है "समय का आत्मा" या "समय का सार। " भगवान शिव को कालात्मा के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि वह समय के अंत में ब्रह्मांड का संहार करते हैं।  यह शब्द भगवान शिव से जुड़ा है, जो समय के नियंत्रक और ब्रह्मांड के संहारक माने जाते हैं। 

         इस श्लोक का भाव ये है - के माध्यम से भगवान शंकर कह रहे हैं - आप को जो कुछ कर्मकाण्ड करना है , तीर्थ-भ्रमण , दानपुण  वो सबकुछ करके देख लीजिये। किन्तु जबतक जीव का आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती कोई भी इस गड्ढे से - जिसकी तली नहीं है, उस गड्ढे से कोई भी बाहर नहीं निकल सकता। जीव का आत्मा के साथ एकत्व का अनुभव क्या है ? अपने सत्य स्वरुप को जाने बगैर , किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। आज इस जीव की जो पहचान है- इसका मतलब क्या है ? , आधार कार्ड वाली -आज हमारी पहचान क्या है ? कोई XYZहै , ABCD है -या EFGH है ? वह नहीं , आत्मा के साथ जिस परमात्मा का एकत्व है , वह पहचान। वास्तव जो bks है -वो भी यह नहीं है। हमसबों की वास्तविक पहचान एक ही है, वो बड़ा आश्चर्यमय है।  ये अहं क्या है ? 

        जिसको हम अपना पहचान समझते हैं -वो क्या है ? इसको हम व्यावहारिक जीव कहते हैं - इसको हमलोग अंग्रेजी में आभासी जीव की पहचान, Fictional Identity- काल्पनिक पहचान कह सकते हैं। जो लम्बा-मोटा -पतला , गोरा -काला या M/F शरीर के नामरूप में है। ये बदल रहा है , यह काल्पनिक पहचान चला जायेगा। ये अभी भी जा रहा है। BKS के आधार कार्ड वाला Identity जाने वाला है। 

      एक उदाहरण देखें - इसी एक घंटे के पाठचक्र में हम जब बैठे हैं। इतनी ही देर में जगत कितना बदल गया ? विश्व में कितने जीवों का जन्म हो गया मृत्यु भी हो गया।  हम यहाँ आये हैं ये ईश्वर के अनुग्रह से हो रहा है। जैसे बुलबुले के जैसा कितना छोटे छोटे जीव , उत्तराखण्ड में बादल फट गया, हम नहीं रो रहे , पर जिससे हमने अपना सम्बन्ध बना लिया है , वो जाने लगते हैं तो हम दुःखी हो जाते हैं। अहमदाबाद जो प्लेन क्रैश हुआ - कौन बुलबुला कह सकता है कि -अगले सन्डे तक मैं जीवित रहूंगा। पर हमको लगता है कि यही सत्य है। जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चित है। बुलबुले की सच्चाई -पानी है , हमारा सत्य स्वरूप नश्वर शरीर नहीं है हमलोग सब अविनाशी आत्मा है। आज का हमारा पहचान बुलबुला है , इसको खोजेंगे तो पानी ही मिलेगा। यही इस पूरे ब्रह्माण्ड की सच्चाई है। लहर में समुद्र ही मिलेगा। 

     जगत हर क्षण बदल रहा है - जगत परिवर्तन का एक प्रवाह है। नाम-रूप गायब हो जायेगा - अस्ति, भाति, प्रिय प्रकट हो जायेगा। यहाँ आचार्य शंकर यही कह रहे हैं -आप कुछ भी कर लीजिये यदि आत्मा के साथ अपने स्वरुप के एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती तो 100 ब्रह्मा का शरीर पाकर भी गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाओगे।  'वदन्तु शास्त्राणि, यजन्तु देवान'--- आप शास्त्रों का उद्धरण देते रहिये -सब श्लोक कंठस्थ कर लीजिये। पढ़कर उसको अपने जीवन में उतारोगे नहीं , अनुशीलन नहीं करोगे तो मुक्ति नहीं होगी।  आप गीता कंठस्थ कर सकते हैं , यदि नहीं किये हों तो इसको टास्क समझकर करना चाहिए। पर गीता के उल्टा त्याग और योग को जीवन में उतारे बिना- मुक्ति नहीं होगी। क्योंकि गीता जीवन का सम्पूर्ण दर्शन है।  यजन्तु देवान'- आप विभिन्न प्रकार के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विभन्न प्रकार के शतकुंडि या हजारकुण्डि यज्ञ कर लीजिये , विभिन्न देवी देवता को भजकरके देख लीजिये -भजन्तु देवताः। जब तक आप अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान- Who am I? मैं कौन हूँ ? का ज्ञान , नहीं प्राप्त  कर लेते आपकी मुक्ति नहीं होगी। इस गड्ढे में गिर करके आप जो कुछ भी कर लीजिये - इससे बाहर निकलने का एक मात्र मार्ग वो- आत्मज्ञान ही है। एक बहुत बड़ी सच्चाई हमारे सामने रख रहे हैं -आत्मज्ञान का महत्व हमारे सामने रख रहे हैं। आत्मजिज्ञासा - मैं कौन हूँ ? भौतिक दृष्टि से हमसबों को सारी सुख-सुविधा उपलब्ध है , पर तृप्ति नहीं है। आत्मजिज्ञासा - आत्मज्ञान के महत्व को पहले समझ तो जाएँ ! 

       आत्मज्ञान की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। यहाँ से यदि दिल्ली जाना हो तो आपके पास एक गाड़ी होनी चाहिए, पेट्रोल भी होना चाहिए । पैदल जाने केलिए भी भोजन-पानी की व्यवस्था चाहोये। गड्ढे से बाहर निकलने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। आपको गड्ढे से बाहर निकलना भी है या नहीं ? ये प्रश्न है। सभी लोग अगर गड्ढे से बाहर निकल जाएँ , तो फिर गड्ढे में कौन होगा ? ये सृष्टि एक गड्ढे के समान है , यदि सब लोग इस गड्ढे से बाहर निकल गए टी ये सृष्टि समाप्त हो जाएगी। सभी बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हैं ? हम किस गुट में हैं ? घर में सबकुछ है , भोजन -वाहन मकान , जमीन ज्यादाद सब है , पर जीवन तो अतृप्त है न ? जीव तृप्त है या नहीं ? ये सोचने का विषय है , ये विचार करने का विषय है। विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी उतना ही असुरक्षित है -जितना कोई गाय है। ट्रम्प आपसे भी ज्यादा असुरक्षित है। अपने को देह समझने वाला जीव हमेशा असुरक्षित ही रहेगा , भले उसकी भौतिक समृद्धि कुछ भी हो। वो भयग्रस्त है , वो अतृप्त है। पहले हमे स्वयं से यह पूछना है कि हमें इस तली -विहीन गड्ढे से बाहर निकलना है यहीं ? बाहर निकलने वाले गुट को हमलोग साधक या मुमुक्षु कहते हैं। प्रश्न है - आप साधक हो क्या ? आप मुमुक्षु हो क्या ? अगर हो तो आए का विषय आता है -विवेकचूड़ामणि , उपनिषद या गीता आपको सांसारिक विषयभोग का मार्ग नहीं दिखायेगा। आपका रास्ता ही अलग है। दिल्ली में रेव पार्टी का परिणाम क्या है ? वो आपको तृप्त करता है क्या ?  यदि गड्ढे से बाहर निकलना हो तो पाठचक्र लाभदायक लगेगा। 

 साधारण मनुष्यों प्रवृत्ति क्या है ? अधिकांश की प्रवृत्ति इन्द्रियों के पीछे दौड़ने का है। कितना भी भोग कर लें , यह कभी तृप्त होती ही नहीं है। ये उसी प्रकार के गड्ढे में गिरने के समान है , जिसका कोई तल है ही नहीं।  मुक्त होने की इच्छा - आत्मा का ज्ञान - मैं कौन हूँ ? इसको प्राप्त करने से आदमी मुक्त होता है , अपने स्वरुप को पहचानता है। हमारी शिक्षापद्धति में ये शिक्षा कहीं नहीं है।    

     आप कल्पना में अपने रूप को एक गड्ढे में गिरते दिखिए और सोचिये कि उसका तल है ही नहीं। जब तक हमारे जीवन में विवेक-विचार शुरू नहीं होगा ये चलता ही रहेगा। जो भोगों के पीछे जाना चाहते हैं , उनके लिए ये अध्यन नहीं है। आपका जो दोस्त बंधन से मुक्त होना चाहता हो उसको ये पुस्तक दोगे तो यह उसका प्राण बन जायेगा। वेदांत (उपनिषद) अपने सिद्धांत किसी थोपना नहीं चाहता - वह मानवजाति को केवल सत्य बता देना चाहता है। आप देखोगे 99 % लोग इस पुस्तक को छुएंगे भी नहीं। उनको अभी भी संसार के विषयों का उपभोग ही चाहिए - तो वो बिल्कुल स्वतंत्र है , वेदांत यह कभी नहीं कहता कि सबको इसी समय स्वीकार कर लेना होगा ! हम यह मानकर चलते हैं , कि पाठचक्र में जो भी आता है , वो साधक और मुमक्षु है। इसमें त्याग -वैराग्य सबसे महत्वपूर्ण विकास है। आप अभी भी मुक्त ही हैं , बंधन का जो अनुभव हो रहा है , वो अज्ञान के कारण हो रहा है। 

      रज्जु में सर्प दिखने जैसा ब्रह्म ही जगत के रूप में दिख रहा है ? ये निरीक्षण का विषय है -आप इसको परखकर देखो। जगत है क्या ? जैसा दिखाई दे रहा है , ये वैसा नहीं है। आज हमें समझ नहीं आ रहा है। त्याग और योग आधारित व्यक्ति -स्वामी विवेकान्द को रखें या भोग मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को देखें कौन आनंद में है ? परिणाम को देखिये - 80 साल के बाद कहाँ पहुंचे ? खालीपन है।      

बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
 

 तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।ऐसा होना - teen age में ऐसा होना प्राकृतिक है , सारी शक्ति उसी में खर्च हो जाती है। कितने खिलौने से खेले ? तरुणावस्था में तरुणी से खेलते रहे -तृप्ति मिली क्या ? बूढ़ा व्यक्ति चिंता में डूबा हुआ रहता है , पर अभी भी वो अतृप्त ही मर जाता है। दुबारा माँ के कोख में हम पहुँच जाते है। हर जन्म में उसी गड्ढे में गिरने जैसा -एक बंधन है , एक जाल है। तब वो सत्य की खोज में निकल पड़ेगा। इससे बाहर निकलने का मार्ग गुरु-और शास्त्र वाक्य पर श्रद्धा से मिलेगा। अगर विवेक हो तब आप उपाय खोजेंगे। विश्वप्रपंच जैसा दीखता है -वैसा नहीं है। जिसको सत्य को खोजने की उत्सुकता हुई हो , उसको गुरु और शास्त्र की शरण में आ जाना चाहिए। शुरुआत है मनुष्य जन्म मिलने से , लेकिन अंतिम सोपान इस गड्ढे से बाहर निकल जाना दुर्लभ है।

[ इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने एक अत्यंत गूढ़ और मूलभूत सिद्धांत को स्पष्ट किया है — कि केवल शास्त्रों का अध्ययन, यज्ञ, पूजा-पाठ, और धार्मिक अनुष्ठानों का संपादन, बिना आत्मा और ब्रह्म की एकता के बोध के, मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते। [https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-06-05 T06:]  

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः ।

आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति-र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि ॥ ६ ॥


अर्थ:- भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करें, देवताओं का यजन करें, नाना शुभ कर्म करें अथवा देवताओंको भजें, तथापि जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी [ अर्थात् सौ कल्पमें भी ] मुक्ति नहीं हो सकती।

   श्लोक कहता है: “वदन्तु शास्त्राणि” — कोई व्यक्ति चाहे जितनी शास्त्रों की व्याख्या कर ले, विद्वत्ता प्राप्त कर ले, वह केवल बौद्धिक ज्ञान तक सीमित रहेगा यदि आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव नहीं हुआ हो। “यजन्तु देवान्” — कोई चाहे जितने यज्ञ कर ले, अग्निहोत्र, हवन, देवताओं की उपासना कर ले, फिर भी वह परम सत्य को नहीं प्राप्त कर सकता जब तक आत्मा-ब्रह्म का एकत्व नहीं समझा।

“कुर्वन्तु कर्माणि”
— नाना शुभकर्म, दान, व्रत, तीर्थ, तपस्या आदि सत्कर्म किए जाएँ, ये सब मन की शुद्धि के साधन हो सकते हैं, परंतु अपने आप में मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं हैं। “भजन्तु देवताः” — देवताओं की भक्तिपूर्वक सेवा, नामस्मरण, स्तोत्रपाठ आदि भी यदि द्वैतभाव में किए जा रहे हैं, अर्थात् ईश्वर को मुझसे अलग समझकर, तो वे अंततः मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग नहीं बन सकते।

फिर श्लोक कहता है: “आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्तिः न सिध्यति” — जब तक आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का प्रत्यक्ष बोध नहीं होता, तब तक मुक्त होना असंभव है। यह बोध केवल तर्क या श्रवण के माध्यम से नहीं होता, अपितु यह एक आंतरिक, प्रत्यक्ष अनुभव होता है — ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का स्पष्ट, निर्विकल्प ज्ञान।

शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि केवल बाह्य धार्मिकता, चाहे वह कितनी भी बड़ी हो, व्यक्ति को अंतिम लक्ष्य यानी मोक्ष तक नहीं पहुँचा सकती। जब तक मन में ‘मैं’ और ‘ईश्वर’ दो बनें रहते हैं, तब तक द्वैत बना रहता है, और द्वैत में बंधन होता है। मोक्ष का अर्थ है — इस बंधन से मुक्ति। और यह तभी संभव है जब ज्ञाता (जीव), ज्ञेय (ब्रह्म), और ज्ञान — ये तीनों एक हो जाएँ।

श्लोक के अंतिम शब्द अत्यंत प्रभावशाली हैं: “ब्रह्मशतान्तरेऽपि” — अर्थात् सौ ब्रह्माओं के अंतःकाल तक भी यदि आत्मबोध नहीं हुआ, तो मुक्ति नहीं होगी। यहाँ ‘ब्रह्मा’ एक कल्प का प्रतीक है — एक ब्रह्मा का जीवन अरबों वर्षों का होता है। अतः शंकराचार्य यह कह रहे हैं कि यदि अनेक कल्पों तक भी धार्मिक कर्म और उपासना करते रहो, तब भी जब तक आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान नहीं होगा, तब तक मुक्ति नहीं मिलेगी।

इस प्रकार यह श्लोक वेदांत के मूल सार को अत्यंत संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करता है। यह हमें यह शिक्षा देता है कि साधन और कर्म आवश्यक हैं, परंतु वे साध्य नहीं हैं। वे केवल मन को शुद्ध और योग्य बनाते हैं आत्मबोध के लिए। अंतिम लक्ष्य आत्मा और ब्रह्म के अभेद का ज्ञान है, जो कि अद्वैत वेदांत का सर्वोच्च सत्य है। यही आत्मज्ञान ही वास्तविक मुक्ति का मार्ग है।] 

कुछ चीजें अनिवार्य हैं - साधन चतुष्टय की आवश्यकता है। 10 % कम से कम रहना चाहिए। आपको सोचना पड़ेगा कि आप अपने को गड्ढे में देख पा रहे हो या नहीं ? सृष्टि में सभी बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।  

=============== 


 


 

     


  



  

 


      

                

                   

         

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें