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रविवार, 31 अगस्त 2025

⚜️️रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥⚜️️घटना - 340⚜️️रावण के साथ विभीषण और हनुमान के युद्ध का वर्णन ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #340 || ⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_16.html⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 340: दोहा -94,95] 


रावण के साथ विभीषण और हनुमान के युद्ध का वर्णन 

        श्रीराम की सेना के चुने हुए योद्धा बारी बारी से रावण से युद्ध कर रहे हैं। प्रस्तुत प्रसंग में रावण के साथ विभीषण और हनुमान के युद्ध का वर्णन है। रावण को विभीषण पर शक्तिवाण छोड़ते हुए देख , श्रीराम ने उन्हें पीछे हटाकर उसे अपनी छाती पर ले लिया। क्षणभर को उन्हें मूर्छित होता देख , विभीषण ने दुगने क्रोध के साथ रावण को गदा प्रहार से रावण को पृथ्वी पर गिरा दिया। उसके दसों मुखों से रक्त प्रवाहित होने लगा। दोनों भाई फिर मल्ल्युद्ध में भीड़ गए। विभीषण को थकते देख कर हनुमान बीच में आ कूदे , उन्होंने रावण के रथ , घोड़ों तथा सारथि सबका संहार कर दिया। लेकिन मायावी रावण ने तब अन्य युक्ति अपनाई , दोनों वीर पृथ्वी से आकाश तक एक दूसरे से गूँथ गए -... 

चौपाई :

* आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥

तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥

भावार्थ:- अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली॥1॥

* लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥

देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥2॥

भावार्थ:-शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े॥2॥

* रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥

सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥3॥

भावार्थ:-(और बोले-) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिवजी को सिर चढ़ाए। इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाए॥3॥

* तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥

राम बिमुख सठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥4॥

भावार्थ:-उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किन्तु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी॥4॥

छंद :

* उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्‌यो।

दस बदन सोनित स्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर्‌यो॥

द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।

रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥

भावार्थ:-बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान्‌ योद्धा भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। श्री रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासंग के बराबर भी नहीं समझते।

दोहा :

* उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।

सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥

भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥94॥

चौपाई :

* देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥

रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥

भावार्थ:- विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी॥1॥

* ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥

पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥2॥

भावार्थ:- रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अत्यंत काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक श्री रामजी थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान्‌जी को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए॥2॥

* गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥

लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥3॥

भावार्थ:-रावण ने पूँछ पकड़ ली, हनुमान्‌जी उसको साथ लिए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान्‌ हनुमान्‌जी उससे भिड़ गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लड़ते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे॥3॥

* सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥

बुधि बल निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु संभार्‌यो॥4॥

भावार्थ:-दोनों बहुत से छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड़ रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति श्री हनुमान्‌जी ने प्रभु को स्मरण किया॥4॥

छंद :

* संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।

महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥

हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।

रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले॥

भावार्थ:-श्री रघुवीर का स्मरण करके धीर हनुमान्‌जी ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लड़ते हैं, देवताओं ने दोनों की 'जय-जय' पुकारी। हनुमान्‌जी पर संकट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौड़े, किन्तु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचण्ड भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।

दोहा :

* तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड।

कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥95॥

भावार्थ:-तब श्री रघुवीर के ललकारने पर प्रचण्ड वीर वानर दौड़े। वानरों के प्रबल दल को देखकर रावण ने माया प्रकट की॥95॥

चौपाई :

* अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥

रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥

भावार्थ:- क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गए॥1॥

* देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥

भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥2॥

भावार्थ:-वानरों ने अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं धरते। हे लक्ष्मणजी! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं॥2॥

* दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥

डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥3॥

भावार्थ:-दसों दिशाओं में करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गए और ऐसा कहते हुए भाग चले कि हे भाई! अब जय की आशा छोड़ दो!॥3॥

* सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥

रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥4॥

भावार्थ:-एक ही रावण ने सब देवताओं को जीत लिया था, अब तो बहुत से रावण हो गए हैं। इससे अब पहाड़ की गुफाओं का आश्रय लो (अर्थात्‌ उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शम्भु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे, जिन्होंने प्रभु की कुछ महिमा जानी थी॥4॥

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