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रविवार, 17 अगस्त 2025

⚜️️🔱'देहो हम से शिवोहम की यात्रा ' के चार साधन ⚜️️🔱 विवेकचूडामणि सार | Session 9 |⚜️️🔱

 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।


यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः

       हे एकमात्र परमात्मा ! (शिव-आप जो नाम रख लीजिये ) आप ही जगत के मूल कारण है ! आप अहंकार एवं इच्छा रहित हैं,  आप समस्त बंधनों से परे हैं ! आप का कोई आकार नहीं है, आप निराकार रूप है आप का स्वरूप ॐकार के धयान मे जाना जाता है।  आप समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति करते है पालन करते हैं और इसे अपने मे लय कर लेते हैं। हे प्रभु ! मै सच्चे ह्रदय से आप का ही ध्यान स्मरण करता हुँ। 

[ वेदसार शिवस्तव स्तोत्र: - भगवान शिव की स्तुति है। जिसे भगवान शिव की प्रसन्नता हेतु आदिगुरु शंकराचार्य ने लिखा है। इस स्तुति में भगवान शिव के द्वारा ही संसार की उत्पत्ति होना और फिर इस संसार के शिव में ही समाए जाने का वर्णन दिया गया है। शिव देवों के भी देव हैं,इसलिए महादेव हैं। जो देवताओं के भी दुःखों को दूर करें ऐसे हैं महादेव। महादेव होने के बाद भी जो बाघंबर लपेटे और भस्म रमाए फिरते हैं। तब भी देवी पार्वती के मन को मोहने वाले हैं,ऐसे शिव हैं। तीनों लोकों के हितों को ध्यान में रखते हुए न चखे जाने वाले विष को भी गले में रखे हुए हैं, ऐसे हमारे नीलकंठ हैं। प्रस्तुत हैं शिवस्तव जिसमे योगी के अनूठे रूपों का वर्णन दिया हुआ है।]

      मनुष्य जीवन के लक्ष्य - आत्मज्ञान को प्राप्त करना हो, तो हमें साधन चतुष्टय को अपने आचरण में उतारना पड़ेगा। आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने से ही मनुष्य बंधन से मुक्त होता है। यही हमारा लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चार साधनों की आवश्यकता है , इसके अभाव में वह सम्भव नहीं है। तो ये चार साधन कौन-कौन से हैं ? पहला -विवेक, दूसरा -वैराग्य , तीसरा -षट्सम्पत्ति , चौथा - मुमुक्षता।

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः।
सोऽयं नित्यनित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः॥ 20 ॥

 20. मन की यह दृढ़ धारणा कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है, सत्य और मिथ्या के बीच विवेक कहलाती है।  

तद्वैराग्यं जिहासा या दर्शनश्रवणादिभिः।
देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि॥ 21 ॥  

 21.अवलोकन, उपदेश आदि से शरीर से लेकर ब्रह्मत्व तक के सभी क्षणभंगुर भोगों को, उनके दोषों को पहले से ही जानकर,  त्यागने की इच्छा को वैराग्य या त्याग कहा जाता है। 

षट्सम्पत्ति का पहला मुद्दा - शम - 

विरज्यविषयव्राताद्दोषदृष्टया मुहुर्मुहुः।
स्वलक्ष्ये नियतिस्थ मनसः शम् उच्यते ॥ 22 ॥  

 22. अनेक इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होकर उनके दोषों का निरन्तर अवलोकन करते हुए मन का अपने लक्ष्य (अर्थात ब्रह्म) पर स्थिर रहना, शम या शांति कहलाता है। 

विषयेभ्यः परवर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके।
उभयेषामिन्द्रियानं स दमः परिकीर्तितः
॥ 23॥  

 23. दोनों प्रकार की इंद्रियों को इंद्रियविषयों से हटाकर उनके अपने-अपने केंद्रों में स्थापित करना, दम या आत्म-संयम कहलाता है। सर्वोत्तम उपरति या आत्म-संयम वह है जिसमें मन-कार्य बाह्य विषयों के माध्यम से कार्य करना बंद कर देता है।

लुबना लुम्बनं वृत्तेरेशोप्रतिरुत्तमा।। 24।।

24 .वृत्ति का (ब्रह्माकार वृत्ति ? पुनः अविवेकी मन की आयु वाले किसी व्यक्ति या वस्तु में आसक्ति को त्याग कर) बाह्य विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है।

सहनं सर्वदुःखानामप्रतिकारकम्।
चिंताविलापराहितं स तितिक्षा निगद्यते ॥ 25॥ 

 25. सभी क्लेशों को बिना उनके निवारण की चिंता किए सह लेना, तथा उनके कारण होने वाली चिंता या शोक से मुक्त रहना, तितिक्षा या सहनशीलता कहलाती है।         


तो पिछले क्लास में हमने विवेक-वैराग्य हो जाने के बाद; षट्सम्पत्ति में हमने - विवेक-वैराग्य, शम, दम, उपरति, तितीक्षा तक देखा था। अब मन का पाँचवाँ  महत्वपूर्ण गुण है - श्रद्धा। श्रद्धायुक्त मन। और मन कभी कभी अश्रद्धा-युक्त मन भी हो सकता है। श्रद्धायुक्त अन्तःकरण का व्यवहार अलग प्रकार का होगा। श्रद्धा की परिभाषा क्या है - 

शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य, सत्यबुद्धि अवधारणम्।
      सा श्रद्धा कथिता सदभिः, यया वस्तु उपलभ्यते ॥ 26 ॥      

 25. शास्त्र और गुरु जो कहते हैं, उसे दृढ़ निश्चय से सत्य मान लेना, उसी को ऋषियों द्वारा श्रद्धा या विश्वास कहा गया है, जिसके द्वारा परम् सत्य का साक्षात्कार होता है। 

श्रद्धा क्या है ? "सत्यबुद्धि अवधारणम्।"हमारे अन्तःकरण की निश्चयात्मिका बुद्धि का विषय क्या है ? 'शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य' - शास्त्र जो कह रही है , या गुरु जो कुछ भी कह रहे हैं - उसके विषय में - 'यह सत्य है !' ऐसी निश्चयातिमका बुद्धि ! अभी तक हमलोगों ने साधन-चतुष्टय के बारे में जितना पढ़ा - विवेक-वैराग्य से लेकर शम, दम, उपरति, तितीक्षा तक; वो क्या था ? सत्य था या सत्य के विपरीत था ? हर बात अक्षरशः 'Verifiable' है या - निरीक्षण करके देखने योग्य है कि नहीं ? शास्त्र और गुरु दो अलग अलग -चीजें नहीं हैं। गुरु के शब्द ही शास्त्र हैं।  जिन्होंने सत्य का स्वयं अनुभव किया है , उन्हीं के शब्द ही शास्त्र है। जिन्होंने सत्य को देखा है - हमने तो अभी तक देखा नहीं है। लेकिन जिन्होंने देखा है उनके शब्द ही शास्त्र हैं। उनके शब्दों के विषय में ऐसी जो स्वीकृति है , उनके शब्दों को निश्चय पूर्वक सत्य मान लेना, सा श्रद्धा कथिता  इसको हम श्रद्धा कहते हैं। लेकिन ये श्रद्धा कैसी है ? इस श्रद्धा के रहने से ही - 'यया 'वस्तु' उपलभ्यते' ! श्रद्धा के रहने पर ही आत्मवस्तु की उपलब्धि होती है। यदि गुरु वाक्यों में श्रद्धा ही नहीं हो , तो उस आत्मवस्तु को आप कभी उपलब्ध नहीं कर सकते हैं। 

     जरा सोंचकर देखिये - शास्त्र आपको कहते हैं- 'ब्रह्मसत्यं जगत मिथ्या !' अब जिसके अन्तःकरण में श्रद्धा है , वो इसको स्वीकार करेगा। और जिसको इस शास्त्र वाक्य में श्रद्धा है , वो इसको सिर्फ स्वीकार ही नहीं करेगा; वो उसको परख कर भी देखेगा। इसको Verify करके -परखकर के भी सत्यापित करेगा। और जिसके अंदर श्रद्धा नहीं है ,वो शास्त्र के वाक्यों को ही काटेगा। [कैंची बुद्धि] एक व्यक्ति जो गुरु के वाक्य को स्वीकार करेगा , वो गुरु के निर्देशानुसार अपनी बुद्धि को चलाएगा। बुद्धि या तो गुरु के निर्देशानुसार चलेगी, नहीं तो अहंकार के अनुसार चलेगी। अधिकतर अहंकार से ही चलती है। दूसरा व्यक्ति जो अहंकारवश -गुरु के वाक्य को काटेगा वो -गुरु के अनुसार बुद्धि को न चलाकर, अपने अहंकार के अनुसार चलायेगा। अहंकार तो मिथ्या है - मिथ्या अहंकार वाला व्यक्ति अपनी बुद्धि को कैसे चलाएगा ? वो अपनी बुद्धि से शास्त्र के वाक्यों को ही काटेगा, गुरु के वाक्य को ही काटेगा। वो कहेगा ये कैसे सम्भव है ? वो परखकर देखने की कोशिश भी नहीं करेगा। वह यह सोचने का प्रयास भी नहीं करेगा कि -आखिर गुरु क्या कह रहे हैं? काटने से पहले थोड़ा स्वीकार करके परख करके देख तो लो। जब आप गुरु और शास्त्रों की बात सुनते हो तो अहंकारी बुद्धि क्या करेगी ? गुरु के वाक्य को ही काट देगी , और वो उसको लगता है कि बहुत समझदारी का काम कर रहा है। असल में वह मूर्खता का ही परिचय देता है। 

        लेकिन दूसरा जो श्रद्धा युक्त व्यक्ति होगा , जो साधक होगा वो शास्त्र और गुरुवाक्यों पर विश्वास करेगा। स्वामी विवेकनन्द ही गुरु हैं - उनके ही शब्दों को काटोगे तो -आत्मज्ञान लेने कहाँ जाओगे ? यदि आप शंकराचार्यजी की बातों को काटोगे , तो प्रकाश कहाँ से मिलेगा ? हमारे अन्तःकरण में अभी तक अंधकार हो तो था , प्रकाश कहाँ था ? अब शास्त्र के वाक्यों के द्वारा गुरु के शब्दों के द्वारा, थोड़ा-थोड़ा प्रकाश आने लगा है , क्योंकि हम उसको श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर रहे हैं। अगर स्वामीजी के वोरोध में बुद्धि को चलाओ तो फिर कहाँ पहुँचने वाले हो ? गीता में भगवान कहते हैं - 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्यु-संसार वर्त्मनि।।9.3।
।  

 हे परन्तप ! जो इस विवेक -वैराग्य रूपी साधन चतुष्टय पर या सनातन धर्मकी महिमापर श्रद्धारहित मनुष्य हैं , मुझे प्राप्त न होकर - मृत्युरूप संसार के -वर्त्मनि मार्ग में लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।।।9.3।।  

     तात्पर्य यह हुआ कि जिसके अन्दर अश्रद्धा रहती है वो तो अंधकार में ही पड़ा रहता है। उसके जीवन में कभी भी प्रकाश नहीं आ सकता। गीता कहती है - श्रद्धावान लभते ज्ञानं। जिसको श्रद्धा नहीं है , उसको कभी भी आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता। अश्रद्धा क मतलब है वो गुरु के वाक्य को ही काट देता है।  गुरु जब कहते हैं कि बेटा -" तूँ बुलबुला नहीं है , वह समुद्र है।" शास्त्र को तो इतना ही कहना है। अब आप इसको थोड़ा समझ रहे होंगे। शास्त्रों को , उपनिषदों को ऋषियों को सिर्फ इतना कहना है कि भाई तुम ये बुलबुला (नश्वर-शरीर) नहीं हो। तुम वह समुद्र हो जिसमें ये बुलबुला उठ रहा है , और खत्म हो रहा है। लेकिन तुम कभी खत्म हो ही नहीं सकते हो। तुम अजर-अमर -अविनाशी आत्मा हो , सच्चिदानन्द ब्रह्म हो। सच्चिदान्द ब्रह्म रूप  सागर की सतह पर ये बुलबुले उठ रहे हैं। प्रकट हो रहे हैं , और अदृश्य हो रहे हैं। तुम ये नश्वर शरीर नहीं हो - बुलबुला नहीं हो , उस बुलबुला के अंदर झाँक करके देखो। तुम अपने-आपको समुद्र रूप में पाओगे। अगर आप इस बात को अपने 'अहंकार ' से यहीं पर काट दोगे , तो बताओ कहाँ पहुँचने वाले हो ? यदि अपने बुलबुला रूपी अस्तित्व में ही डूबे रहोगे , और दूसरे बुलबुलों को सत्य समझकर उनके साथ व्यवहार करते रहोगे - मेरा शरीर , मेरा सहोदर भाई -मेरी पत्नी, या मेरा पति कहते रहोगे तो परिणाम क्या होगा ? दूसरे बुलबुलों को सत्य समझकर उनके साथ व्यवहार कर रहे हो - अंधकार ही अंधकार होगा। तो श्रद्धा क्या है ? शास्त्र के जो वचन हैं , गुरु के जो शब्द हैं -उसके विषय में निश्चयात्मिका बुद्धि- यह सत्य है ! यह सत्य है ! यह सत्य है ! 

      गुरुवाक्य कभी गलत नहीं हो सकता , विवेकानन्द के शब्द कभी गलत नहीं हो सकते। रामकृष्ण परमहंस के शब्द कभी गलत नहीं हो सकते। शंकराचार्यजी के शब्द कभी गलत नहीं हो सकते। श्रीकृष्ण के जो शब्द गीता में कहे गए हैं -वो कभी गलत नहीं हो सकते। उपनिषदों के ऋषियों के जो शब्द हैं , वो कभी गलत नहीं हो सकते। इसलिए अपनी बुद्धि को उसके अनुसार चलाना है , उसके विरोध में नहीं। इसको श्रुति आधारित युक्ति कहते हैं। आपकी युक्ति कैसे चलेगी? श्रुति आधारित होगी। आपकी बुद्धि के व्यवहार में श्रुति आधार होगी। क्योंकि आपकी बुद्धि में श्रद्धा है , क्योंकि आपने श्रुति के महावाक्यों को स्वीकार किया है। यह सत्य है। तब आपकी बुद्धि गुरु और शास्त्र के अनुरूप चलने लगेगी। और उसीके द्वारा मैं कौन हूँ ? आप खुद इस रहस्य का उद्घाटन कर लेंगे।

       श्रद्धा वह चीज है जिसके रहने से- 'यया वस्तु उपलभ्यते' आप सत्य वस्तु  उपलब्ध कर लेंगे। श्रद्धा के विषय में एक उपनिषद है - कठोपनिषद। कितने लोगों ने पढ़ा है? कठोपनिषद में एक प्रसीद्ध पात्र है। आपने नचिकेता का नाम सुना होगा। नचिकेता श्रद्धा के प्रतिरूप हैं। कहानी लम्बी है -मैं इतना ही कहूंगा। लेकिन आप कभी कभी पढ़ लीजिये। नचिकेता एक श्रद्धावान बालक है। जो सत्य की खोज में निकल पड़ता है। और वो बालक यमराज के दरबार में पहुँच जाते हैं। यमराज का नाम सुनने से ही हमारे मन में नकारात्मक रूप , भयानक रूप आते हैं। जानलीजिये यमराज ब्रह्मज्ञानी हैं -वे तो गुरु हैं। ब्रह्म का ज्ञान प्रदान करने वाले ऐसे गुरु हैं। हमारे फिल्मों में यमराज को बड़ा निगेटिव रूप में दिखाते हैं। जबकि यमराज तो सबसे बड़े सन्त महात्मा हैं। तो बालक नचिकेता यमराज तक पहुँच जाते हैं। बड़ी लम्बी कहानी है। लेकिन अत्यंत ही रोचक है -हमारे पास उतना समय नहीं है। इस बक को यमराज विभिन्न प्रकार से प्रलोभित करते हैं। इस बालक के अंदर जो श्रद्धा , विवेक और वैराग्य है ; ये नचिकेता इन्हीं गुणों की प्रतिमूर्ति हैं। बालक यमराज के पास जाकर अतिसुंदर प्रश्न करते हैं। क्या प्रश्न है ? 

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं वराणामेष वरस्तृतीयः
॥     

 (नचिकेता तीसरा वर मांगते हुए कहता हैː 
"प्रयाण किये हुए मनुष्य (मरे हुए मनुष्य)  के विषय में यह जो संशयात्मक विवाद है, कोई तो यों कहते  हैं कि मरने के बाद आत्मा रहता है, और कोई ऐसा कहते हैं कि नहीं रहता। आपके द्वारा उपदेश पाया हुआ मैं इसका निर्णय भलीभांति समझ लूं, यही तीनों वरों में से तीसरा वर है।।20।।अठदस वर्ष के बालक हैं - नचिकेता और यमराज जैसे गुरु के पास जाकर पूछ रहे हैं ! (15.33 मिनट) देखिये कितनी गहन जिज्ञासा है ! 

       कोई एक व्यक्ति अभी तक जीवित था , अब सामने उसका मृत शरीर पड़ा हुआ है।  अब प्रश्न ये है कि - इस मरे हुए शरीर  देखकरके लोगों के मन में भ्रान्ति है। क्या भ्रान्ति है ? कुछ लोग समझते है कि इस शरीर के मृत्यु से सबकुछ खत्म होगया। कुछ लोग समझते हैं कि नहीं ; शरीर मर गया लेकिन कुछ ऐसा है , जो इसके पीछे बचा हुआ है। शरीर के मरनेमात्र से क्या सबकुछ खत्म हो जाता है ? या इस मृत शरीर के पीछे अदृश्य रूप से कुछ बचा हुआ है ? मैं उस वस्तु के विषय में जानना चाहता हूँ , जो शरीर के नाश होने के बाद भी विद्यमान है। इस प्रश्न के उत्तर में यमराज जो आत्मज्ञान देते हैं - वही पूरा आत्मज्ञान है। शरीर बिल्कुल बुलबुला है - ये अभी प्रकट हुआ , अभी नष्ट हो गया। लेहै किन ये आता कहाँ से है ? इसके पीछे एक चैतन्य रूपी समुद्र है -the sea of consciousness है। और वास्तव में हम सभी लोग वही हैं। अभी हमको क्यों समझ में नहीं आ रहा है ? क्योंकि अभी हममें विवेक नहीं है , अज्ञान है। लेकिन जब शास्त्र की कृपा से गुरु की कृपा से जब इस अज्ञान की निवृत्ति होगी अविवेक की निवृत्ति होगी तब अआप अपने सत्यस्वरूप को जानोगे। आप जानोगे कि आप ये 'मनुष्य- शरीर' हो ही नहीं ! आप ये बुलबुले हो ही नहीं। आप इस बुलबुले के साक्षी हो। आप वो अजर , अमर , साक्षी है। सच्चिदानन्द रूपी साक्षी हो। यह ज्ञान उस व्यक्ति होगा। तो नचिकेता जब प्रश्न करते हैं - शरीर की मृत्यु के उपरांत भी जो बचा रहता है , उसको मैं जानना चाहता हूँ। तब यमराज तरह तरह से कोशिश करते हैं , इस बच्चे भटकाने की। विभिन्न प्रकार प्रलोभनों से प्रलोभित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे -ऐसे प्रलोभन जिसके लिए दुनिया पागल हो जाती है। वो प्रलोभन देकर कहते हैं वो सब लेलो पर यह प्रश्न मत पूछो। तुम्हें क्या चाहिए ? तुम खाली वह बता दो। मैं तुम्हें वह सब दे दूँगा। इस पूरी पृथ्वी का तुम्हें मैं राजा बना दूंगा। अप्सराओं के नृत्य-ज्ञान जिसके लिए लोग पागल हो जाते हैं , वो सब  मैं तुझे दे दूंगा। तुम्हारी सेवा के लिए सैंकड़ों दासियाँ देता हूँ। उनका सेवा ग्रहण करो, आनन्द में रहो , भोग में डूबे रहो। और तुम  जो माँगो देदूँगा -लेकिन आत्मा के संबन्ध में मत पूछो। तुम केवल भोग करो -मैंतुमको ऐसा शरीर दे दूंगा कि तुम कभी वृद्ध नहीं होंगे , बस केवल भोग करते रहो। ये कितना बड़ा प्रलोभन है , यही तो यही चाहते हैं। 

     हममें से कोई वृद्ध नहीं होना चाहते हैं , यदि हमें कोई यह वरदान तो हम झपट कर ले लेंगे। है न ? सर्वसाधारण व्यक्ति तो एकदम झपट पड़ेगा। लेकिन उस बालक का विवेक देखो ! वो जानता है कि ये सब नश्वर है , उसमें कुछ है ही नहीं। ये तो बुलबुला है कोई मूर्ख व्यक्ति ही इसको झपटेगा। यमराज कहते हैं -ये बालक अद्भुत बिवेकी है। ये बालक किसी भी चीज से प्रलोभित नहीं हो सकता। क्या उसकी श्रद्धा है , क्या उसका विवेक है , क्या उसका वैराग्य है ! पूरा ब्रह्माण्ड उसके लिए तुच्छ है। स्वामी विवेकानन्द कठोपनिषद को बहुत पसंद करते थे। हर सत्यान्वेषी - एथेंस का सत्यार्थी के लिए नचिकेता जो कठोपनिषद का एक पात्र है , वो हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए।  सत्यार्थी के लिए नचिकेता , महाबली हुनमानजी , विवेकानन्दजी जीवन का आदर्श होना चाहिए। इन सब पात्रों कहीं भी आपको दुर्बलता दिखाई देती है क्या ? वो बालक नचिकेता  किसी भी प्रलोभन के सामने दुर्बल पड़ा ? लेकिन हम तो थोड़ा से प्रलोभन से ही दुर्बल क्यों पड़ जाते हैं। क्यों ? अविवेक के कारण ! बालक नचिकेता - कोई दुर्बलता नहीं। ऐसा होना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। किसी भी प्रकार की दुर्बलता -कामिनिकांचन या नाम-यश को लेकर हमारे भीतर नहीं रहनी चाहिए। और ये तभी सम्भव होगा जब हममें विवेक होगा , इसलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि है ! कोई संदेह ? विवेक से बढ़कर कुछ नहीं है। पूरा ब्रह्माण्ड जैसा दीखता है , वैसा है ही नहीं। यहाँ सारे व्यक्ति और वस्तुएं बुदबुदा के समान प्रकट  हो रहे हैं , नष्ट हो रहे हैं। इसमें अपने आप को डूबा देना किस प्रकार है ? बिना तल के कुँए में गिरने के समान है। आप ऐसे गड्ढे में गिर रहे हो जहाँ  पहुँचोगे कहीं नहीं। जहाँ पर हो वहीँ रहोगे। treadmill exercise' करते हो न ? treadmill में चलते रहो -आप पहुँचते हो कहाँ ? आप 20 दौड़े , लेकिन जहाँ थे वहीँ पर हो। यही संसार है -आप एक treadmill -पाँवचक्की में हो ! विषयों के पीछे दौड़ना treadmill पर दौड़ने के समान है। विवेक और वैराग्य से क्या होता है ? हमारे अंदर की सारी दुर्बलायें खत्म हो जाती हैं। इससे बढ़कर क्या है ? हम  हर समय दुर्बल -दुर्बल होकर जी रहे हैं , बताओ इसमें क्या मेरिट है ? विवेक आनंद आने दीजिये फिर देखिये आपका चरित्र कितना बलवान बनता है ! सीताजी को कोई प्रलोभित कर सकता है ? रावण ने कितना प्रलोभित किया। पूरे इतिहास में सीताजी एक ही हैं। भारतीय संस्कृति की आदर्श हैं सीताजी। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं राम हजारों हो सकते हैं। लेकिन सीताजी की तुलना कोई है ही नहीं। इसीलिए हम उनको पूजते हैं। क्योंकि हमें वैसा बनना है। नचिकेता का किसी प्रकार  प्रलोभन से प्रलोभित न होना -इसके पीछे का कारण है विवेक। तो ये श्रद्धा हुआ।         

    (25 मिनट) श्रद्धा के पश्चात साधन-चतुष्टय के षट्सम्पत्ति में जो अंतिम गुण है वो है समाधान। समाधान क्या है ? उसकी परिभाषा में शंकराचार्य जी कहते हैं - 

सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्राह्मणि सर्वदा।
               तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥
27॥   

26. केवल विचार (जिज्ञासा) में लिप्त रहना नहीं, बल्कि बुद्धि (या पुष्टि क्षमता) का नित्य शुद्ध ब्रह्म पर निरंतर ध्यान केंद्रित करना ही समाधान या आत्म-स्थिरता कहलाता है। 

    हमारे दैनंदिन जीवन में हमारे घर में इस - समाधान शब्द का उपयोग होता है। समाधान कैसे आता है ? - सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्राह्मणि सर्वदा ।  परखकर देना होगा कि अपनी बुद्धि को यानि अन्तःकरण को वह हर समय --शुद्धे ब्राह्मणि सर्वथा।  शुद्ध ब्रह्म में, यानि साक्षी चेतना (ठाकुर देव) में लगाकर रखना होगा। कि हर समय समुद्र सत्य है -बुलबुला मिथ्या है। हर समय मन को समुद्र रूपी ब्रह्म में लगाकर रखना है। ऐसा नहीं होगा कि मन को सवेरे 5 मिनट ब्रह्म (ठाकुर) में लगा दिया फिर दिनभर संसार के भोगों में- मिथ्या बुलबुले हैं उसमें डुबो दिया -लगा दिया। उस सच्चिदानन्द आत्मा में ही अपने अन्तःकरण को रखना होगा। सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्राह्मणि सर्वदा अंतिम शब्द है -न तु चित्तस्य लालनम्। जैसे बच्चे को लाड़प्यार करते हैं - तो बिगड़ जाता है। Pampering- क्या है ? बच्चा जो डिमांड करे उसको देते रहना गलत है , उसको संयमित करना चाहिए।  हम अपने बच्चे से मोहित हो जाते हैं। बच्चा क्या है ? एक दूसरा बुलबुला है। माँ -बाप क्या है ? वो अपने-आप में एक बुलबुला हैएक बुलबुला दूसरे बुलबुले पे मोहित है।  उसको दुनिया में और कुछ दिखाई नहीं देता। मोह में हम अंधे हो जाते है। बच्चे की हर डिमांड पूरी करते रहते हैं। मोह को भी शंकराचार्यजी आगे परिभाषित करते हैं। मानलो जीवन में कुछ दुःखद घटना घट गयी - और जीवन में अधिकांशतः दुःखद ही घटता रहता है। खुश रहने के लिए - tv न्यूज़ या सिनेमा लगा दोगे। हम दुःख की समस्या का समाधान सिनेमा में ढूँढ रहे हैं। मन उस बिगड़े बच्चे के समान है जो सिर्फ डिमांड करता रहता है। शंकराचार्य जी -चेतावनी दे रहे हैं कि वो समाधान नहीं है। पर अक्सर हम इसी को समाधान समझ लेते हैं। सिनेमा देखकर मन को बहला लेना समाधान नहीं है। आप अपने आप को बेवकूफ बना रहे हो। चित्त का लाड़प्यार करना -ये समाधान नहीं है। समाधान क्या है ? सब समय मन को उस सत्यवस्तु में -(ब्रह्माकार वृत्ति में) प्रतिष्ठित रखना , यह समाधान है --न तु चित्तस्य लालनम् कोई भी समस्या आने पर , मनको भोग के विषयों में लगाकर रखना -ये समाधान नहीं है। क्योंकि भोग के वस्तु या व्यक्ति सब बुलबुले हैं , अभी दीखता है , अभी नहीं है। कितना सिनेमा देख लिया -कभी समाधान मिला ? कोई सिनेमा यदि अच्छा भी लगा - तो वो समाधान नहीं है। समाधान कैसे होगा ? सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्राह्मणि सर्वदा।  चित्त को ब्रह्म में लगाना है , जो कि सत्य है -मिथ्या में नहीं लगाना है। ये समाधान है। मिथ्या वस्तु में समाधान ढूँढना ये अविवेक-युक्त मन का स्वभाव है। विवेकयुक्त -मन कभी भी मिथ्या वस्तु में समाधान नहीं ढूंढेगा। अंतःकरण को सब समय सत्यवस्तु में लगाकर रखेगा। (34.45 मिनट

      अब देखिये साधन-चतुष्टय विवेक-चूड़ामणि के श्लोक संख्या - 17 से लेकर 27 तक में दिए गए परिभाषा अनुसार जितने भी अन्तःकरण के गुण (चरित्र के गुण) हैं - वे विवेक आधारित गुण हैं या नहीं ? एक तरफ सत्यवस्तु (सच्चिदानन्द) है दूसरी तरफ संसार की मिथ्या वस्तु -बुलबुले (व्यक्ति या भोग के विषय) हैं। जब हमारी बुद्धि में ये विवेक-जन्य स्पष्टता आ जाती है तो हमारे व्यवहार और सोंच में धीरे -धीरे परिवर्तन आने लगता है। ये परिवर्तन -या जीवन गठन एक दिन में नहीं होता -धीरे -धीरे ही होता है। हमारे चरित्र में बदलाव धीरे -धीरे ही होने वाला है। लेकिन बदलाव की शुरुआत कहाँ से हुई है ? विवेक से ! इसीलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि है !! कितना सुंदर नाम है -इस ग्रंथ का ? विवेक सभी शिक्षा का , सभी गुणों का , मुकुट मणि है। विवेक से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। विवेक आते ही हमारा सारा जीवन परिवर्तित होने लगता है। हम स्वतंत्र हो जाते है , सभी प्रकार की दुर्बलताओं से हम मुक्त हो जाते हैं। हम स्वाधीन हो जाते हैं। (36 मिनट स्वाधीनता -मुक्ति -मोक्ष

      अभी हमने छह सम्पत्तियों को देखा - पहला क्या था ? शम , दम , उपरति , तितिक्षा , श्रद्धा और समाधान। अब मुझे बताइये ये छह गुण सचमुच सम्पत्ति है या नहीं ? जीवन में असली सम्पति क्या है ? क्या हमारा बैंक बैलेंस असली सम्पत्ति है ? 'The Real Treasure' जो व्यक्ति को मुक्त बनाती है। शम क्या है ? मन का आपका निग्रहीत है - आपके वश में है ! कैसे ? मन आपका विषयों से हटा हुआ है। विषयों से कैसे हटा हुआ है ? विषयों में दोष देखते हुए , सारे बुलबुलों में दोष देखते हुए। ये जानते हुए कि ये मिथ्या बुलबुला है - इसमें पानी के सिवा कुछ है ही नहीं। सभी सुंदर-सुंदर भोग विषय युक्त बस्तु या व्यक्ति में दोष देखते हुए , मन को खींच लेना -पीछे हटा देना। और कहाँ रखना ? सत्यवस्तु में मन को रखना। कहाँ लगा हुआ है ? सही जगह में लगा हुआ है - सही जगह कहाँ है ? हृदय कमल पर विराजमान विवेकमूर्ति ठाकुर देव पर लगा हुआ है। इसको मन का निग्रह कहते हैं - जो दोचरणों का अभ्यास - प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास से होता है। मन जितना निग्रहीत हो रहा होगा । उतना आप बंधन से मुक्त हो रहे हो या नहीं

       जब मन निग्रहीत रहता है , उतना ही इन्द्रियों पर निग्रह सम्भव होता है।इन्द्रियों पर निग्रह कैसे होता है ? ये पंच कर्म इन्द्रिय हैं और पंच ज्ञानेन्द्रिय हैं -इन दसों इन्द्रियों को-जंगली घोड़ों को विषयों से खींच करके अपने -अपने गोलकों में रखना। अपने स्थान से बाहर निकलर विषयों के पीछे दौड़ने की अनुमति नहीं देना। लेकिन इन्द्रियों का निग्रह तभी सम्भव होता है , जब पीछे मन का निग्रह सम्भव हो जाता है। जब दसों इन्द्रियाँ और मन आपके वश में है -तो आप पहले से अधिक स्वतंत्र हुए या नहीं ? पहले तो ये इन्द्रियाँ दौड़ रही थी और आप भी दौड़ रहे थे। अब यह दौड़ बंद हो गया। विषयों की गुलामी बंद हो गयी आप स्वतंत्र हो गए। जब आप इन्द्रियों के पीछे नहीं दौड़ेंगे तो आपका मन इस प्रकार का हो जायेगा कि वह बाह्य विषयों से प्रभावित होगा ही नहीं। यही उपरति है। देखिये क्या सुंदर development हो रहा है ? शम और दम सध जाने के बाद -उपरति , आप समाज के हर प्रकार के लोगों के बीच हो , किन्तु इसका कोई भी चीज आपको प्रभावित नहीं कर रहा है। आप बिचबजार में हो , ऐसी जगह में हो जहाँ पार्टी चल रहा है - प्रलोभन की सभी वस्तुयें वहाँ भरी हुई हैं -फिर भी आपका अंतःकरण किसी भी चीज से प्रलोभित नहीं हो रहा है ? सोचकर देखो -कितनी बड़ी स्वतन्त्रता है ? नहीं तो हम हर क्षण विषयों से प्रलोभित होक जी रहे हैं -क्या यह गुलामी नहीं है ? जब आप सारे उतार -चढ़ाव में आप निर्लिप्त रहने में समर्थ हो जाते हैं - तो बड़ी आसानी से सभी दुःख-कष्टों को सहन कर लेते हैं। अपनेआप तितिक्षा आती है कि नहीं ? अब आप -'चिन्ता विलाप रहितम ' हैं ! इस आदमी का अंतःकरण ऐसा हो जाता है।  और जब ऐसा उपरति है , तितिक्षा है तो फिर श्रद्धा आ जाती है - शास्त्र की बातें सब सत्य है ! ऐसा जी निश्चयात्मक बुद्धि है - ये श्रद्धा आने से, व्यक्ति फिर सत्य वस्तु के और भी निकट पहुँच जाता है। और अंतिम गुण है समाधान। जिसका मन सब समय सत्य वस्तु में ही लगा हुआ है -मिथ्या वस्तु में नहीं। इसको समाधान कहते हैं। तो उत्तरोत्तर प्राप्त होने वाले ये जो छह गुण हैं -इन्हींको षट्सम्पत्ति कहा गया है। यही सुख का रहस्य है। (39 मिनट)  

     (39 .52 मिनट) आपको याद होगा कैम्प में आने से पहले हमलोग सुख कहाँ है -जिन व्यक्ति या विषयों में सुख है सोच रहे थे - अब हमारी दृष्टि बदल गयी या नहीं ? हम सोच बैठे थे कि विषय भोगों में ही सुख है। विवेक-दृष्टि नहीं रहने के कारण जिसमें दुःख ही दुःख है , उसको हमने सुख समझ लिया। सर्वसाधारण मनुष्य की धारणा यही तो होती है कि विषयों में सुख है। इन बुलबुलों में कभी सुख मिलेगा ? ये तो अभी है अगले क्षण अदृश्य हो जायेगा। तो यही है मगरमच्छ को लक्क्ड़ समझकर पकड़ना। इसका परिणाम क्या होगा ? आप कहाँ पहुँचोगे ? मगरमच्छ के पेट में। यानि दुःख की चपेट में पहुंचोगे आप। दुःख में पिसते जाते है। मगरमच्छ के पेट में पहुँचने का मतलब है दुःख के पेट में पहुँचना। दुःख में आप पचते रहते हो यही हमारे जीवन की कहानी है। 

        (41.28 मिनट)  तो सुख किसमें है ? विवेक में, वैराग्य में और षट्सम्पत्ति में - यह सम्पत्ति जिसमें जितना होगा, वह उतना ही सुखी होगा। वो व्यक्ति स्वभाव से ही , कुछ न होते हुए भी सब समय आनंद में है - परमानन्द में है , सच्चिदानन्द में है -उसको इस ब्रह्माण्ड का कोई भी वस्तु प्रभावित नहीं कर सकता , उसको Derail नहीं कर सकता। पटरी से उतार नहीं सकता। अब आप किसी आदर्श व्यक्ति के जीवन को देखिये। जैसे स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन को ले लीजिये। अब उनके जीवन में यही दीखता है कि नहीं ? रामकृष्ण परमहंस जी को ले लीजिये , रमण महर्षि जी को ले लीजिये , शंकराचार्यजी को ले लीजिये। क्या है ? ये ऐसे ही मुक्त पुरुष हैं -जिनको ब्रह्माण्ड की कोई भी वस्तु प्रभावित या प्रलोभित नहीं कर सकती। ऐसा होना हमारे जीवन का आदर्श है -लक्ष्य है। (42 मिनट) तो अब अंतिम साधन जो है - वो है , मुमुक्षुत्वं ! तो मुमुक्षुता या मुक्ति की लालसा परिभाषा क्या है? 

अहंकारादि देहान्तान बंधान अज्ञान कल्पितान। 
    स्वस्वरूप अवबोधेन मोक्षुमिच्छा मुमुक्षुता ॥ 28 ॥
 

 28.अहंकार से लेकर देहपर्यन्त (अंतःकरण से लेकर शरीर तक) जितने अविवेक या अज्ञान द्वारा आरोपित बंधन हैं, उनको अपने वास्तविक स्वरूप के ज्ञान द्वारा (आत्मसाक्षात्कार द्वारा) जानकर,  जो अज्ञान द्वारा आरोपित बंधन हैं, उन बंधनों स्वयं को मुक्त करने की इच्छा'मुमुक्षुता' (या मुक्ति की लालसा) है।                     

  मुमुक्षुता का मतलब है, अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर, सभी बंधनों से मुक्ति की इच्छा , या तीव्र इच्छा अथवा मुक्ति की लालसा, आप यदि यह समझ जाओ कि आपकी परिस्थिति अभी कैसी है? आप गड्ढे में गिरे हुए हैं-जिसका तल ही नहीं है । बंधन से मुक्ति की इच्छा तो तभी न होगी जब आप जानोगे कि आप बंधन में पड़े हुए हो। आप जान रहे हैं कि स्वयं को देह-मन संघात के M/F समझने कारण मैं पिछले चौरासी लाख जन्मों से जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ था ? इस जन्म में विवेकानन्द मिले - तो क्या 'हम ???' साक्षी चैतन्य और उसकी मनुजलीला को अलग -अलग नहीं देख सकते ? इस बुलबुला रूप देहमन के साथ हमारा जो तादात्म्य हो गया है ,कि मैं आधारकार्ड वाला परिचय ही मेरा वास्तविक परिचय है। यह अहंकार इस बुलबुले में अपने को सीमित पाता है। मैं BKS, DKS, MKS, मैं अमुक पाण्डे, यादव , आदि हूँ - इस अहंकार को बुलबुले में डुबो देना उस गड्ढे में गिरने के समान है - जिसका तली ही नहीं है। ये बुलबुला तो टूटने वाला है , ये प्रति क्षण बदल रहा है। ये शरीर दीखता है- लेकिन वास्तव में नहीं है। 

       तो कहते हैं बंधन क्या है?  'अहंकारादि देहान्तान' सूक्ष्म अहंकार से लेकर के यह जो हमारा स्थूल देह है - इसके साथ हमारा एक तादात्म्य बन गया है। कि 'मैं' 'ये' हूँ ! मैं लक्षण जी का बड़ा भाई राम हूँ , या राम जी का छोटा भाई लक्ष्मण हूँ ! इस मनुजदेह को ही अपना असली स्वरूप मान लेना। यही तो बंधन हैं। सूक्ष्म अहंकार से लेके इस स्थूल शरीर तक - सिर्फ एक बुलबुला है। इस बुलबुले के प्रति आपकी 'मैं' बुद्धि हो गयी है ! इस देह के परिचय के साथ -आपकी जो 'मैं' -बुद्धि हो गयी है। यही बंधन है। इस बंधन से मुक्त होने की इच्छा -को मुमुक्षता कहते हैं। आप कैसे मुक्त होंगे ? जब आप अपने सत्य स्वरूप को जान जाओगे - 'स्वस्वरूप अवबोधेन'! स्वस्वरूप का अवबोध ! अच्छा बुलबुले का अपना स्वरुप क्या है ? बुलबुले का असली स्वरुप समुद्र है। उस बुलबुले का या लहर का समुद्र से भिन्न कोई अस्तित्व है क्या ? है ही नहीं। बुलबुले को जब अपने स्वरुप का ज्ञान होगा -तो क्या ज्ञान होगा ? 'मैं समुद्र हूँ ! ' यही ज्ञान तो होगा। (46.04 मिनट) तो उस बुलबुले को पता लगेगा ? यही उस सीमित बुलबुले में (व्यष्टि नाम-रूप में) जो उसका अहंकार अटका हुआ था , अब वो अहंकार समुद्र के साथ जुड़ गया। यही है 'स्वस्वरूप अवबोधेन'! का मतलब। इस प्रकार हम अपने बंधन से मुक्त होते हैं। इस प्रकार अपने 'समुद्र स्वरुप' को जानकर बुलबुले में जो मुक्त होने की इच्छा होती है -उसको मुमुक्षता कहते हैं। कितना सुंदर परिभाषा है -हम आसानी से क्षणभंगुर बुलबुले से मुक्त अवस्था में अपने अनंत समुद्र रूप में पहुँचने की कल्पना कर सकते हैं। हम सब छोटे-छोटे बुलबुले है -इसके नामरूप के साथ हमारा तादात्म्य हो गया है। हम सबका तादाम्य हो गया है। पर जब उस बुलबुले की गहराई में प्रवेश कर जाओगे , इस नामरूप के अंदर खोजोगे तो -नामरूप मिथ्या हो जायेगा , और 'अस्तिभाँति प्रिय ' स्वरूप की अनुभूति हो जाएगी। नश्वर बुलबुले के 'अहं' का असली अर्थ तो अविनाशी समुद्र है ! लेकिन अविवेक के कारण या अज्ञान के कारण हम इस देहमन संघात के बुलबुले अंदर हम अपने को सीमित  (M/F) के रूप में पाते हैं। यही हमारे बंधन की दशा है। इससे मुक्त होने की इच्छा को मुमुक्षता कहते हैं। हम मुक्त कैसे होंगे ? 'स्वस्वरूप अवबोधेन'! जब आप अपने स्वरुप को जानोगे तो क्या जानोगे ? अपनेआप को सच्चिदानन्द चैतन्य ब्रह्म ही जानोगे ! आप यह बुलबुला नहीं रह जायेंगे।

         (47 मिनट) तो आध्यात्मिक जीवन क्या है ? इस मनुष्य जीवन की जो असली यात्रा है , हमारी Actual journey- कहीं बाहर जाना नहीं है ,आप कहोगे मैं यहाँ नहीं , स्विट्जरलैंड -यूरोप की यात्रा कर आया हूँ ! भाई आप कहीं चले जाओ , जाने लायक कुछ है ही नहीं। पता है -असली यात्रा Actual journey-कहाँ से शुरू होती है ? हमारी आध्यात्मिक यात्रा -Actual journey' 'देहो अहं से लेकर शिवो अहं ' तक की यात्रा है। 'देहो हम से लेके शिवो हम ' तक की यात्रा है।  'देहो अहं से लेकर शिवो अहं ' तक की यात्रा है। आज हमारी धारणा क्या है? अभी हम अपने आप को क्या मान रहे हैं ? अभी हम स्वयं को 'देहो हम' मैं यह देह हूँ ! मैं यह बुलबुला हूँ। ये समझकरके बैठे हैं। अब यहाँ से - इस देह से शुरू करके ये यात्रा खत्म कहाँ होगी ? जिस दिन आपको यह अनुभव होगा कि ' मैं देह नहीं , मैं शिवोहम,शिवोहम, शिवोहम ! ये आपकी यात्रा का अंतिम स्थान है , हमें यहाँ पहुँचना है। यही मनुष्य जीवन को सार्थक बनाती है। सार्थक = स +अर्थक - this is what makes human life meaningful ! दादा कहते थे -सबको बताओ! विवेक क्या है ? श्रद्धा क्या है ? मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? सार्थक का मतलब क्या है ? अन्यथा मानव जीवन का क्या अर्थ है? सार्थक का मतलब है-meaningful ! Otherwise what is the meaning of human life ?  बताइये - आहार , निद्रा , भय , मैथुन यदि जीवन का यही अर्थ है - खाना, पीना , सन्तान उतपत्ति करना , और एकदिन मर जाना। यही तो होता है न ? नहीं तो इस मनुष्य शरीर को लेकरके हम क्या करते हैं ? ये तो पशु भी कर लेता है। लेकिन मनुष्य शरीर में हमारा उद्देश्य क्या है ? 'देहो अहं से लेकर शिवो अहं ' तक की यात्रा पूरी कर लेनी है। आप कहीं रहिये , दिल्ली रहिये , कि बनारस रहीये - या मुंबई रहिये ,बंगलुरु में रहिये , सिडनी में रहिये आपके भीतर की यात्रा वहीँ से चलती रह सकती है। आप कहाँ रह रहे हैं ? आपको रहना तो आत्मा में है। हमारा असली वासस्थान कहाँ है ? आत्मा ! समुद्र ही हमारा असली वासस्थान है। समुद्र के बाहर जो कुछ भी है न -वो सब मिथ्या है। शरीर दीखता है लेकिन ये तो बुलबुला है -वास्तव में ये है ही नहीं। हमारा जो असली वासस्थान है वो हमारी आत्मा या समुद्र रूपी जो आत्मा है , सच्चिदानन्द चैतन्य जो ब्रह्म है, परब्रह्म , परमेश्वर या ईश्वर -ये सभी शब्द हम आत्मा के लिए ही प्रयोग करते हैं। नहीं ईश्वर कहीं ऊपर है क्या ? बादलों के पार ये सब जो कल्पना है , ये जो ईश्वर है उसका हम अनुभव कर सकते हैं , और जो सातवें आसमान में बैठा है , वह केवल कल्पना है। उसका कोई Verification नहीं हो सकता। लेकिन सारी दुनिया उसी को पकड़कर चलती है। इसीलिए यह अद्वैत सनातन धर्म की श्रेष्ठता है। इसीलिए इसको सनातन कहते हैं। this is Expirinical this is verifiable, यह प्रयोग-सिद्ध है, यह सत्यापन योग्य है ! अभी तक हमने जितना कुछ पढ़ा है -उसमें कोई ऐसा मुद्दा है जो verifiable नहीं है ? एक भी चीज ? यह शुद्ध विज्ञान है, यह आत्म-खोज का विज्ञान है। 'It is pure science, it is a science of self-discovery !'  अपने स्वरुप को खोजने का एक विज्ञान है। ये एक science है। इसमें कुछ काल्पनिक नहीं है। ऐसे थे हमारे उपनिषदों के ऋषि। जिसने पूरे मानवसमाज को यह विज्ञान उपलब्ध करवा दिया।

    आगे बढ़ने से पहले, हमने अभी तक क्या देखा , इसको थोड़ा Revise कर लेते हैं। इस ग्रन्थ के शुरू ही में भगवान शंकराचार्य जी हमें याद दिलाते हैं कि पहले यह समझलो की मनुष्य-शरीर आसानी से प्राप्त नहीं होता है। अनगिनत जीवजंतुओं में मनुष्यों की संख्या बहुत कम है। कितनी है 8 बिलियन -8 अरब, हमको बहुत बड़ी संख्या लग सकता है , किन्तु इस सृष्टि में कीड़ेमकोड़े -मच्छर कितने होंगे ? कितने ऐसे जीवजंतु जिनकी उतपत्ति होती और मरते जाते हैं। मनुष्य योनि में जन्म लेना बड़े सौभाग्य की बात है। मनुष्यों के परिवार में प्रवेश पाना बड़े ही सौभाग्य की बात है। क्यों ? क्योंकि इस मनुष्य शरीर में ही - मैं कौन हूँ ? इस सत्य की खोज सम्भव है। मनुष्य शरीर में जन्म लेने का मुख्य उद्देश्य मोक्षप्राप्ति या आत्मज्ञान की प्राप्ति है। हम जो अपनेआपको बुलबुला समझ रहे हैं -और दूसरे बुलबुले में अपने को डूबा रहे हैं यही बंधन में फंसना है। रात भर में कुछ भी हो सकता है -देह का कोई गारंटी नहीं है। हम खुद इस बुलबुले में डूबे हैं , और इस बुलबुले को सत्य समझकर दूसरे बुलबुले से सम्बन्ध बना लेते हैं। जो मिथ्या है उसको सत्य समझकर जीवन बिता रहे हैं। कोई मनुष्य बुलबुला दूसरे बुलबुले से सम्बन्ध बनाकर सुखी हो सकता है क्या ? इससे बाहर निकलना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है जिसको हमलोग मोक्ष कहते हैं। मोक्ष की प्राप्ति में कुछ साधनों की प्राथमिकता है। 'देहोंहम से शिवहं की यात्रा' में साधन-चतुष्टय आवश्यक है - चार साधन में विवेक है , वैराग्य है , षट्सम्पत्ति है , और मुमुक्षता है। जितना इन गुणों की वृद्धि होती है , उतना हमारा जीवन बदल जाता है। मनुष्य जीवन में इससे कोई अच्छा बदलाव संभव है क्या ? आप अरबपति हो सकते हो , किन्तु इन चार गुणों के आभाव में कुछ भी नहीं हो। हो सकता विष्णु या भास्कर अरबपति हो गया , या खरबपति हो गया , होना नहीं चाहता  ?  तो ख़ुशी की बात है। कल्पना कर लो थोड़ी देर के लिए कि तुम अरबपति हो ! कितने भी बड़े हो जाओ , यदि बुलबुले में डूबे हुए हो , तो कुछ भी नहीं हो। और दूसरा कोई लंगोटधारी रमणमहर्षि या श्रीरामकृष्ण परमहंस है , या विवेकानन्द के पास कुछ भी नहीं है , लेकिन जो इन गुणों से ओतप्रोत है , चित्त में कोई दुर्बलता ही नहीं है , कोई पारधीनता ही नहीं है।  कौन सा चित्र सुंदर है ? रामकृष्ण परमहंस या विवेकानन्द की अपने जीवनकाल में ही जो मुक्त अवस्था है, जीवनकाल में ही ये लोग मुक्त हैं। उस जीवनमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना हो तो इन चार साधनों की आवश्यकता है। यह स्पष्ट रूप से समझलेना चाहिए कि आपके अंदर ये चारों साधन 100 % आ जायेंगे। शुरुआत ये योग्यता बहुत कम मात्रा में 5 % या 10 % भी हो तो आप अपनी यात्रा शुरू कर सकते हैं। षट्सम्पत्ति 0 % हो तब भी ये यात्रा शुरू नहीं हो सकती। 5 % भी हो तो यात्रा शुरू हो सकती है। परमसत्य की खोज में , मैं कौन हूँ की खोज में सच हमें बोलना पड़ता है - बहुत प्रामाणिक होना पड़ता है ?  कि नहीं मेरे अंदर उतना वैराग्य नहीं है , लेकिन थोड़ा सा है। वो जो थोड़ा सा है न वही आपका धन है। उस धन को यहीं से बढ़ाना है , आप धनी होने का मतलब समझ रहे हो न ? आपके व्यक्तित्व में ये चीजें जितना बढ़ती हैं , आप उतने धनी हो रहे हो। जितना आप विवेकी होंगे , जितना आप वैरग्य-सम्पन्न  होंगे , जितना अधिक आपके अंदर षट्सम्पत्ति होगी , आप सुखी हो जाओगे , व्यक्ति और विषयों की पारधीनता समाप्त हो जाएगी। इसके आगे कल।                        

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['राम जी' को हर समय यह होश रखना है कि राम जी, वास्तव में आत्मा हैं , या ब्रह्म हैं, जो  लक्ष्मणजी  के सहोदर बड़े भाई होने की मनुजलीला कर रहे हैं। रामजी मनुष्य शरीर धारण किये हैं , मनुष्य नहीं हैं -आत्मा हैं। हमलोग अपने को बड़े समझदार समझते हैं -पर असली भूमिका करते समय -असली बड़ा भाई , या असली मामा बन जाते हैं , मामा की लीला करना है -मनुज लीला और असली भूमिका को  मिक्सअप कर देते हैं।DNM -के यहाँ गए, लक्ष्मणजी की बाउण्ड्री देख आये , बलराम-स्वर्ग सिधारे , आशा-उषा -अजय-बबलू -कमलेश को मिलने आना है -फिर से मनुजलीला का मँजा हुआ कलाकार बनना है। स्कूटर से लुढ़कना नहीं है . 

https://shlokam-org.translate.goog/texts/Vivekachudamani-18-30/?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc                      

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