श्रीरामचरितमानस
षष्ठ सोपान
[सुन्दर काण्ड /लंका काण्ड]
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 316: दोहा -35,36,37]
>>राजसभा में रावण को अंगद का पराक्रम का आभास और मन्दोदरी द्वारा उसे समझाने का प्रयास , और अंगद के बल के प्रति श्री राम की जिज्ञासा ---
राजसभा में रावण अंगद का पराक्रम का आभास पा चुका था, फिरभी मन्दोदरी के समझावन का उसपर कोई असर नहीं पड़ा। वह कहती रही - जिन्होंने विरार , खर -दूषण और कबन्ध को अपनी लीला से मार डाला , जिसके एक ही बाण से बाली का वध हो गया , हे स्वामी आप उनकी महिमा को समझने की चेष्टा कीजिये। उन्होंने आपकी भलाई के लिए ही अपना दूत भेजा था। उसने आकर आपकी सभा में आपके सभी योद्धाओं की वीरता को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया जैसे एक सिंह हाथियों की झुण्ड को तितर-बितर कर देता है। आप ऐसे शक्तिमान को मनुष्य समझने की भूल कर रहे हैं। आपका मान और मद सब व्यर्थ है , आप काल के वश में हो गए हैं ; इसी कारण आपको वास्तविकता का ज्ञान नहीं हो रहा है। मन्दोदरी के अनुनय को अनसुना कर रावण सवेरा होते ही अभिमानपूर्वक सिंहासन पर जा बैठा, और एक बार फिर वही हठ किया। इधर सुबेल पर्वत पर अंगद श्री राम के समक्ष उपस्थित होते हैं। जो रावण राक्षस कुल का शिरोमणि है , और जिसके बल से सारा जगत परिचित है , उसके चार-चार मुकुट अंगद ने किस प्रकार यहाँ तक फेंके ? श्री राम के इस जिज्ञासा के उत्तर में अंगद का निवेदन है - " हे सर्वज्ञ ! वे चार मुकुट राजा के चार गुणों , साम -दान- दण्ड और भेद के प्रतीक हैं; जिनका राजा के ह्रदय में निवास होता है। किन्तु रावण राजा के धर्म से विचलित हो गया है, अतः वे उसे छोड़ आपके शरण आ गए ....
दोहा :
* बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध।
बालि एक सर मार्यो तेहि जानहु दसकंध॥36॥
भावार्थ:- जिन्होंने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकन्ध! आप उन्हें (उनके महत्व को) समझिए!॥36॥
चौपाई :
* जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥
भावार्थ:-जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान् ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1॥
* सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2॥
भावार्थ:- जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है) रण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान् जिनके सेवक हैं,॥2॥
* तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3॥
भावार्थ:- हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥3॥
* काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4॥
भावार्थ:- काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है॥4॥
दोहा :
* दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37॥
भावार्थ:- आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37॥
चौपाई :
* नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥
भावार्थ:- स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा॥1॥
* इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा॥
अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥2॥
भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) श्री रामजी ने अंगद को बुलाया। उन्होंने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बड़े आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसकर बोले॥2॥
* बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥3॥
भावार्थ:- हे बालि के पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगत्भर में धाक है,॥3॥
* तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी॥4॥
भावार्थ:-उसके चार मुकुट तुमने फेंके। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अंगद ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं॥4॥
* साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥
भावार्थ:- हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं॥5॥
दोहा :
* धर्महीन प्रभु पद बिमुख, काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए, सुनहु कोसलाधीस॥38 क॥
भावार्थ:- दशशीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है, इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं॥ 38 (क)॥
* परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार॥38 ख॥
भावार्थ:- अंगद की परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार श्री रामचंद्रजी हँसने लगे। फिर बालि पुत्र ने किले के (लंका के) सब समाचार कहे॥38 (ख)॥
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रामायण की युद्धनीति : युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए, और उससे पहले चार उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए — साम, दाम (दान ?), दंड और भेद। चाणक्य की पहली सलाह दुश्मन की ताकत और कमजोरी को समझो। उनका मानना था कि दुश्मन की कमियों को सही समय पर भुनाकर उसे हराया जा सकता है। साम, या अनुनय, प्रभावी संचार और बातचीत के महत्व को रेखांकित करता है। शांति से बात करना (साम), दाम या दान ? , जो प्रोत्साहन और पुरस्कार का प्रतीक है, मान्यता और प्रशंसा के लिए मूलभूत मानवीय प्रेरणा का उपयोग करता है। बोनस, पदोन्नति, या यहाँ तक कि साधारण आभार व्यक्त करके, नेता असाधारण प्रदर्शन को प्रोत्साहि को प्रोत्साहित कर सकते हैं और एक सकारात्मक कार्य वातावरण को बढ़ावा दे सकते हैं। आर्थिक प्रलोभन देना (दाम-दान) , दंड, जो दंड और अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रतिनिधित्व करता है, व्यवस्था बनाए रखने और मानकों को बनाए रखने के लिए अंतिम उपाय के रूप में कार्य करता है। कदाचार या कम प्रदर्शन के परिणामों का विवेकपूर्ण अनुप्रयोग जवाबदेही को सुदृढ़ कर सकता है और एक उत्पादक वातावरण सुनिश्चित कर सकता है। सजा देना (दंड) और शत्रु में फूट डालना (भेद) — ये चारों उपाय किसी भी संघर्ष को जीतने के लिए चाणक्य की नीति के केंद्र में हैं। — जब तक संभव हो, समझौते से काम लिया जाए, लेकिन जब कोई रास्ता न बचे, तभी युद्ध की ओर बढ़ा जाए। दुश्मन की सेना में आंतरिक कलह को बढ़ावा दिया जाए और अपनी योजना को पूरी तरह गुप्त रखा जाए, ताकि शत्रु कभी पूर्वानुमान न लगा सके।युद्ध जीतने के लिए केवल ताकत नहीं, बल्कि धैर्य और समय की सही समझ जरूरी है। चाणक्य की ये नीतियां आज भी शासन, सैन्य संचालन, कूटनीति और नेतृत्व में गहराई से प्रासंगिक हैं।
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