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शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

⚜️️⚜️️उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥⚜️️⚜️️घटना - 325⚜️️⚜️️मनुज लीला⚜️️⚜️️मूर्छित अनुज लक्ष्मण को लेकर श्रीराम का विलाप और लंका में कुम्भकरण को जगाने का प्रसंग ⚜️️⚜️️|| श्री रामचरितमानस गायन || भाग #325⚜️️⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]
   
[ घटना - 325: दोहा -60,61]

उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥

⚜️️⚜️️मनुज लीला⚜️️⚜️️

  उमा एक अखंड रघुराई। 

नर गति भगत कृपाल देखाई॥9

मूर्छित अनुज लक्ष्मण को लेकर श्रीराम का विलाप और लंका में कुम्भकरण को जगाने का प्रसंग -

        आधी रात बीत गयी है , शक्तिवाण लगने से लक्ष्मण मूर्छित अवस्था में पड़े हुए है। संजीवनी लेकर हनुमान अभी तक नहीं आये , लक्ष्मण को ह्रदय से लगाकर श्रीराम विलाप कर रहे हैं - (या विलाप करने का रियल ड्रामा कर रहे हैं ?) हे भाई ! तुम तो मुझे कभी भी दुःखी नहीं देख सकते थे, मेरे लिए तुमने माता-पिता तक को छोड़ दिया , वन-वन भटकते हुए शीत , घाम , वर्षा , आँधी सभी कष्ट सहे। अब तुम्हारे उस प्रेम को क्या हो गया ? तुम उठते क्यों नहीं ? यदि मैं जानता कि एक दिन मुझे अपने प्रिय भाई का वियोग सहना पड़ेगा , तो मैं पिता के वचन की मर्यादा को भी भुला देता। पुत्र, स्त्री , धन , घर-परिवार - इस जगत में सबकुछ मिल जाते हैं , नहीं मिलता तो वो है -सहोदर भाई ! स्त्री के लिए ऐसे भाई को खोकर , मैं कौन सा मुँह लेकर अयोध्या वापस जाऊँगा ? मुझे परम् हितकारी जानकर माता ने प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्र को मेरे हाथों में सौपा था। अब मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा ? श्रीराम के कमल सरीखे नयन से अश्रु प्रवाहित हो रहे हैं। पार्वती को ये कथा सुनाते हुए शिवजी कहते हैं - हे उमा ! श्री रघुनाथ तो अद्वितीय और वियोग रहित हैं (अखण्ड- अवतार) हैं , किन्तु अपने प्रिय भाई के लिए विलाप करते हुए मनुष्यों की दशा दिखा रहे हैं !(मनुष्य होने का स्वाभाविक अभिनय कर रहे हैं।) ये भी उनकी एक लीला है - [मनुज लीला है ?] तभी वहाँ संजीवनी लेकर हनुमान आ पहुँचते हैं। उधर अनेक उपाय करके अपने भाई कुम्भकरण को जगाकर रावण उसे सारी कथा सुना रहा है -

* जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥5॥

भावार्थ:- जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा॥5॥

* जैहउँ अवध कौन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥6॥

भावार्थ:- स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत्‌ में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई विशेष क्षति नहीं थी॥6॥

* अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥7॥

भावार्थ:- अब तो हे पुत्र! मेरे निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो॥7॥

* सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥8॥

भावार्थ:- सब प्रकार से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?॥8॥

* बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥

भावार्थ:-सोच से छुड़ाने वाले श्री रामजी बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान्‌ ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है॥9॥

सोरठा :
* प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥

भावार्थ:-प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। (इतने में ही) हनुमान्‌जी आ गए, जैसे करुणरस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो॥61॥
चौपाई :

* हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥

भावार्थ:-श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे॥1॥

* हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥2॥

भावार्थ:-प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान्‌जी ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे॥2॥

चौपाई :
* यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥3॥

भावार्थ:- यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया॥3॥

* जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥4॥

भावार्थ:- कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?॥4॥

* कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे॥5॥

भावार्थ:-उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा कही। (फिर कहा-) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला॥5॥

* दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥6॥

भावार्थ:-दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए॥6॥

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