श्रीरामचरितमानस
षष्ठ सोपान
[सुन्दर काण्ड /लंका काण्ड]
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 313: दोहा -30,31,32]
>> अंगद की चेतावनी और रावण के प्रति क्रोध का वर्णन
हे राक्षसराज, तू बड़ा अभिमानी (घमण्डी) है , मैं तो रघुनाथ के सेवक का सेवक हूँ। यदि प्रभु के अपमान का विचार न होता , तो मैं तुझे धरती पर पटक कर तेरी सेना का संहार करके तेरी स्त्रियों सहित सीताजी को यहाँ से ले जाता ; किन्तु ऐसा करना मेरी मर्यादा के अनुकूल नहीं है। जो जीतेजी मृतक के समान है , उसे मारने से क्या लाभ? -"उल्टे दिशा में चलने वाले , काने , कंजूस, मूर्ख, दरिद्र , बदनाम , अत्यन्त वृद्ध, चिरंतन रोगी , हर पल क्रोधी, भगवत विद्रोही, वेद और सन्तों का विरोध करनेवाले, केवल अपना पेट भरने वाले, परनिन्दक और महापापी,"- ये चौदह प्रकार के प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान होते हैं। बस यही सोंचकर मैं तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। तूँ अब ऐसे वचन न बोल जिससे मेरा क्रोध और भड़क उठे। अंगद के ये वचन सुनकर रावण क्रोध से काँपने लगता है। सोचता है -इस वानर का काल आ पहुँचा है। श्रीराम के प्रति अवमानना के शब्द सुनकर अंगद ने दाँत किटकिटाकर घोर गर्जन के साथ अपने हाथ धरती पर पटके तो भूचाल सा आ गया। रावण के सभासद एकदूसरे पर गिर पड़े। रावण के जो मुकुट धरती पर गिर पड़े , उन्हें अंगद ने उठाकर उस दिशा में फेंक दिया जिधर श्रीराम थे। ......
दोहा :
* तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥30॥
भावार्थ:- तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊँ॥30॥
चौपाई :
* जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥
भावार्थ:- यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥1॥
* सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥
भावार्थ:-नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान् विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान् पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥
* अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा॥3॥
भावार्थ:- अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अंगद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला-॥3॥
* रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी॥
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥4॥
भावार्थ:- अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख बंदर! तू जिसके बल पर कड़ुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है॥4॥
दोहा :
* अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥31 क॥
भावार्थ:-उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥31 (क)॥
* जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक॥31 ख॥
भावार्थ:-जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ़! जिद्द छोड़कर समझ (विचार कर)॥ 31 (ख)॥
चौपाई :
* जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥
हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥
भावार्थ:-जब उसने श्री रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान् विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है॥1॥
* कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥2॥
भावार्थ:-वानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोर से) अपने दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद् गिर पड़े और भय रूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले॥2॥
* गिरत सँभारि उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे॥3॥
भावार्थ:-रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यंत सुंदर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधाकर रख लिए और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी के पास फेंक दिए॥3॥
* आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए॥4॥
भावार्थ:- मुकुटों को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बड़े धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं?॥4॥
* कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकंधर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥5॥
भावार्थ:- प्रभु ने (उनसे) हँसकर कहा- मन में डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट हैं, जो बालिपुत्र अंगद के फेंके हुए आ रहे हैं॥5॥
दोहा :
* तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥32 क॥
भावार्थ:-पवन पुत्र श्री हनुमान्जी ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्य के समान था॥32 (क)॥
* उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ॥32 ख॥
भावार्थ:- वहाँ (सभा में) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि- बंदर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुस्कुराने लगे॥32 (ख)॥
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[वासुदेवस्य ये भक्ताः शान्तास्तद्गतचेतसः ।
तेषां दासस्य दासोऽहं भवेयं जन्मजन्मनि ॥ 21 ॥
विदुरने कहा - भगवान् कृष्ण के जो भक्त 'शम'-गुण से सम्पन्न हैं, और जिन्होंने निरन्तर अपने मन को उनमें लगा रखा है, उन भक्तों का जो दास है, उस 'दास' का मैं प्रत्येक जन्म में दास बनूँ ! '---ऐसी मेरी अभिलाषा है।
---- (पाण्डवगीता अथवा प्रपन्नगीता-("शम" का अर्थ है मन को नियंत्रित करना और "दम" का अर्थ है इंद्रियों को नियंत्रित करना) ]
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