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रविवार, 24 अगस्त 2025

⚜️️🔱 स्थूल शरीर और विषयों में बांधने वाली अदृश्य रस्सी है राग ! ⚜️️🔱 || Session 13|| The Essence of Vivekachudamani⚜️️🔱विवेक-चूड़ामणि श्लोक ७४,७५,७६, ७७, ७८, ७९ 🔱⚜️️https://www.sadhanapath.in/2025/08/79.html🔱https://sreegurukrupa.blogspot.com/2020/10/vivekachudamani-shlokas-71-to-80.html⚜️️🔱

 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥

(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र) 

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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः  

      अब तक हमने देखा कि इस ग्रन्थ की शुरुआत होती है मनुष्य शरीर में जन्म लेना दुर्लभ क्यों है? इसका महत्व क्या है ? अब देखिये धीरे -धीरे हमलोगों को अब यह समझ में भी आ रहा है। हमलोग जो पढ़ रहे हैं , चिंतन-मनन, और श्रवण कर रहे हैं और उससे यह जो हमारा 'विवेक' जाग्रत हो रहा है , यह केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। किसी अन्य शरीर में - इस प्रकार से विवेक का जगना सम्भव नहीं है। और मनुष्य शरीर में जन्म लेने का जो मुख्य उद्देश्य है , वो है - मोक्ष प्राप्ति। देखिये जो हमलोग पढ़ रहे हैं वो कैसे हमारे अन्तःकरण को मुक्त कर रहा है ! बहुत सारे भ्रमों से हमे मुक्त करा रही है , और अंत में हमें अज्ञान से भी मुक्त करा देगी।   

तो हमने देखा मनुष्य शरीर में जन्म लेने का जो मुख्य उद्देश्य है , वो है - मोक्ष प्राप्ति। जो की आत्मज्ञान से होता है ! और इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए , या मैं कौन हूँ ? यह जानने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता होती है। वे चार साधन हैं - विवेक , वैराग्य षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता। अब ऐसा भी नहीं है कि ये सारी चीजें हमारे पास 100 % होनी चाहिए। ऐसा कभी नहीं होता है , लेकिन थोड़ी मात्रा में इसकी अपेक्षा है। कम-सेकम 5 % या 10 % भी होनी चाहिए। बिल्कुल विवेक -वैराग्य न हो , तो हमारी यात्रा शुरू भी नहीं हो सकती है। ऐसा जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न एक मोक्षार्थी है ; या जो सत्य की खोज में निकल पड़ा है , या जो एक सत्यार्थी है; वह गुरु के पास जाता है। तो एक आदर्श शिष्य की मनोभूमिका कैसी होती है - ये हमने देखा। उसकी विशेषता ये है कि वो अत्यंत ही व्याकुल है। [दुर्वारसंसार दावाग्नि  तप्तं, दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः ।
भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः, शरण्यमन्यद्यदहं न जाने
॥ ३८॥ ] 
 और उसका मन एकाग्र है। संसार के दूसरे चीजों को प्राप्त करने की इच्छा अब उसमें नहीं है। वो अब सिर्फ सत्य को ही जानना चाहता है? मैं कौन हूँ ? या क्या हूँ ? बस यही जानना चाहता है। ऐसी मनोभूमिका को लेकर वो गुरु के पास जाता है। (4.35 मिनट

        फिर हमने एक आदर्श गुरु को देखा। आदर्शगुरु कौन है ? और इन दोनों के बीचमें एक संवाद भी होता है। यह सत्यान्वेषी जो है , या योग्य शिष्य है -वो गुरु के समक्ष कुछ मूलभूत गंभीर प्रश्नों को रखता है। और वे सारे प्रश्न 'बंधन-केंद्रित ' हैं। क्योंकि ये योग्य शिष्य वह है , जो अपने आप को बंधन में पा रहा है। और बंधन का उसको कष्ट हो रहा है, दुःख हो रहा है। वो यह देख रहा है कि -वो एक ऐसे गड्ढे में गिरा हुआ है , जिसका कोई तल ही नहीं है। वो ऐसे समुद्र में गिरा हुआ है, जहाँ से बाहर निकलना उसके लिए स्वयं के प्रयास से असम्भव है ; क्योंकि उसको बाहर निकलने का रास्ता पता नहीं है। वो ऐसे संसार में है , जहाँ चारों-ओर उसको अग्नि ही दिखाई दे रही है। और उस संसार अग्नि में वो तप रहा है। तो ऐसे संसार-बंधन से मुक्त होने की तीव्र इच्छा को लेकरके यह शिष्य गुरु के पास आता है। और गुरु के सामने जो सात प्रश्न रखता है , वो सब बंधन केंद्रित है - [को नाम बन्धः कथमेष आगतः, कथं प्रतिष्ठास्य कथं विमोक्षः ।
कोऽसावनात्मा परमः क आत्मा, तयोर्विवेकः कथमेतदुच्यताम् ॥ ५१ ॥ तो पहला प्रश्न क्या था ? 1.बन्धन क्या है? 2. यह कैसे हुआ? 3.हमारे जीवन में ये Continue कैसे कर रहा है, या इसकी स्थिति कैसे है? 4. और इस बंधन से मोक्ष कैसे मिल सकता है? 5.अनात्मा क्या है? 6.परमात्मा किसे कहते हैं? और 7. उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? ये सब मूलभूत प्रश्न हैं -बहुत ही गंभीर प्रश्न ये योग्य शिष्य अपने गुरु से करते हैं !  अब पूरा विवेक- चूड़ामणि इन्हीं सात प्रश्नों का उत्तर है। इस विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ में कुल 580 श्लोक हैं ,और सब श्लोकों में इन 7 प्रश्नों का उत्तर है। इसलिए हम लोग केवल कुछ चुने हुए श्लोकों को ही पढ़ेंगे। 

    गुरु चौथे प्रश्न का उत्तर सबसे पहले  क्यों देते हैं ? उसका क्या कारण है ? ये हमने देखा।  [ ये शिष्य जब गुरु के पास में आया था तब अत्यंत दर्द में आया था या नहीं ? भयभीत था , भयग्रस्त था , कष्ट में था , मैं संसार सागर में डूब रहा हूँ , दावाग्नि में जल रहा हूँ , इस ताप से मुझे बचाइए। ऐसी परिस्थिति में यह बंधन क्या है ? बंधन आया कहाँ से ? ये बंधन हमारे जीवन में Continue कैसे हो रहा है ? ये सब प्राथमिक प्रश्न नहीं था। प्राथमिक प्रश्न ये है कि इस बंधन से बाहर कैसे निकलें ? इस कष्ट से बाहर कैसे निकलें ? (भाग -11 :40.34 मिनट) इसलिए गुरुदेव इस चतुर्थ प्रश्न का उत्तर पहले देते हैं। क्योंकि यदि मुख्य समस्या का समाधान निकल गया तो बाकि चर्चा हमलोग बाद में भी कर लेंगे। इसलिए तो उनको गुरु कहते हैं , उन्हें पता है कि हमारी प्राथमिकता क्या है ? Let's be focused- बहुत से प्रश्नों का उत्तर न देखकर मुख्य को अभी लेते हैं। आपका दिमाग भी इसी प्रश्न पर केंद्रित रहना चाहिए की सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? मैं कौन हूँ ?... सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? मैं कौन हूँ ? घूम-फिर कर हमारे मन में भी यही मंथन , यही प्रश्न चलना चाहिए।] 

     चतुर्थ प्रश्न था -कथं विमोक्षः ? इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? इसके उत्तर में गुरु ने प्रथम चरण कहा , वो है -वैराग्यम् अत्यन्तम् अनित्य वस्तुषु ! अनित्य वस्तुओं से तीव्र वैराग्य की अपेक्षा है। क्योंकि जब तक संसार के विषयों के प्रति आपका मोह है ,आकर्षण है, तब तक तो आप इस तलहीन गड्ढे से बाहर निकल ही नहीं सकते हो। आत्मज्ञान प्राप्ति का पहला मुद्दा है - वैराग्य ! और जब वैराग्य हो जाता है , तब शम, दम , उपरति , सभी षट्सम्पत्ति आ जाती है। मतलब पूरा साधन-चतुष्टय आ जाता है। तो आप यह समझ लीजिये कि मोक्ष का पहला हेतु - यानि आत्मज्ञान का पहला हेतु है : साधन-चतुष्टय का होना अनिवार्य है! (7.31 मिनट) इसमें विवेक और वैराग्य प्रधान है। विवेक-वैराग्य अगर हो जाता है , तो वहाँ सारे षट्सम्पत्ति वहां इकट्ठे हो जाते हैं। इस प्रकार साधन-चतुष्टय सम्पन्न साधक केवल निष्काम ही करता है , अब वो सकाम कर्म नहीं करेगा। ऐसी मनोस्थिति में जब वो गुरु को शब्दों को श्रद्धा के साथ श्रवण करेगा , और ऐसी मनःस्थिति होने पर ही वो जब शास्त्र के वाक्यों को (उपनिषदों के महावाक्यों को)  श्रद्धा-भक्ति पूर्वक सुनेगा , ग्रहण करेगा, मनन करेगा , और जब उसपर ध्यान करेगा। इस प्रकार वो अपने सत्यस्वरूप को पहचाने गा , अनुभव करेगा। और जीवित अवस्था में ही वह उस निर्वाण सुख को अनुभव करेगा। मरणोपरान्त नहीं जीवितावस्था में ही वह जो मुमुक्षु शिष्य था अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जायेगा। उसे पता चल जायेगा कि मैं कौन हूँ ? और इस 'मैं' का अर्थ क्या है ? (8.44) मैं अपने इन्द्रियों से अपने सामने जो कुछ देख रहा हूँ , जिसको जगत-जगत कह रहा हूँ , इसका असली स्वरुप क्या है? मेरी इन्द्रियाँ इस जगत को मुझे जैसा दिखाती है , इससे हटकर के इस बिल्कुल सत्य सत्यस्वरूप उसके लिए बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। तब वह इस जगत के पंजे से , जगत के चपेट से वो मुक्त हो जाता है। हम अभी जिसको जगत ,जगत , जगत कह रहे हैं , पर हम उसके पंजे में जकड़े हुए हैं। हम इसके बंधन में हैं , हम इस जगत को देखकर के मोहित हो जाते हैं। लेकिन जिस व्यक्ति ने अपने सत्य स्वरुप को जान लिया है वो , इसके आकर्षणों और मोह से इसके बन्धनों से वह छूट जाता है। और यही मुक्ति है - जीवनमुक्ति है ! वह छूटता कैसे है ? क्योंकि उसको ये ज्ञान हो जाता है कि ये क्या है ? हम आज जिसको जगत ,जगत , जगत कह रहे हैं , वो वास्तविक रूप से क्या है? और हम लोग भी इसी को समझने का प्रयास कर रहे हैं। अभी हमलोग धीरे धीरे उसी ओर प्रस्थान कर रहे हैं। तो यहाँ तक था शिष्य के चतुर्थ प्रश्न का उत्तर कि इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ?  चतुर्थ प्रश्न था -कथं विमोक्षः ? इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ?  पिछले दो श्लोकों में गुरु ने हमलोगों के लिए मार्ग दिखला दिया। यदि आप इस भवबन्धन से मुक्त होना चाहते हो , तो आपको इस विवेक- वैराग्य आदि साधन-चतुष्टय के रास्ते पर चलना होगा। इसके बाद गुरुदेव पाँचवे प्रश्न को ले लेते हैं कि - अनात्मा क्या है ? (10.24) क्योंकि अनात्मा के कारण ही हमारे मन में सारे भ्रम हैं। हम अनात्मा को देखकर के ही पूरी तरह से भ्रमित हैं। जिस प्रकार हमने मगरमच्छ को लक्क्ड़ समझ लिया , उसी प्रकार इन्द्रियगोचर अनित्य वस्तुएं , जिनमें से एक हमारा अपना शरीर भी एक सबसे नजदीकी अनात्मा है। तो पहले इसी अनात्मा की जाँचपड़ताल करके देखते हैं -इस स्थूल शरीर को ही Investigate (इन्वेस्टिगेट) करते हैं ! भाई ये अनात्मा क्या चीज है ? जब अनात्मा क्या है ? ये इन्वेस्टिगेट हो जायेगा ; तब आत्मा को जानना तो एकदम सरल है। Actually आत्मा तो एकदम सरल चीज है। अनात्मा बहुत ही Complicated है , उलझा हुआ है। अनात्मा हमारा स्थूल शरीर और मन ही सबसे Complicated चीज है, जो हमें भ्रमित कर देती है। आत्मा तो सर्वोच्च सत्य है - बहुत सरल है। 

       इसीलिए गुरदेव अब पहले पाँचवें प्रश्न को उठाते हैं कि अनात्मा क्या है ? हमारा स्थूल शरीर से ही अनात्मा की खोज होनी चाहिए। बाह्य में हम जोकुछ भी अनित्य को नित्य जैसा  देख रहे हैं -वो अपने स्थूल शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से ही तो देख रहे है ? अनात्मा की पहली अभिव्यक्ति यह हमारा स्थूल शरीर है , तो चलो Investigate करके देखते हैं कि यह स्थूल शरीर क्या है ? हमारे स्थूल शरीर के विषय में शास्त्र जैसा कहते हैं ,वैसा हम लोग सच नहीं समझते हैं। साधारण मनुष्य तो बस ऐसे ही जी रहा है , जो कुछ सामने M/F दिखाई दिया वही सत्य है।  सतह पर हमको जो चीज जैसा दिखाई देता है , उसी से हमलोग मोहित होकर संचालित हो रहे हैं। अपने आपको या M/F को कभी भी हमने आज तक Skeleton के रूप देखने की चेष्टा नहीं की होगी। स्थूल को वर्णित करते हुए यहाँ क्या कहा गया था - इस चमड़ी के थैले में थोड़ा सा अगर हम झांककर के देखें , 2mm चमड़े के पीछे क्या है ? लेकिन चमड़ा तो बड़ा आकर्षक है , और इसी चमड़े के पीछे सारा विश्वप्रपंच पागल है।

     चमड़े के पीछे देखने का कदम बहुत साहसी कदम है , और हर सत्यान्वेषी के अंदर इतना साहस होना ही चाहिए। हम देखें कि हमारे शरीर के अंदर क्या है ? अस्थि , मज्जा है मज्जा -अस्थि-मेद: पल-रक्तचर्म-त्वक् -आह्वयै: एभि: धातुभि:  अन्वितं/ पादोरुवक्षो-भुजपृष्ठ-मस्तकै: अङ्गै: उपांगै: उपयुक्तम्।  हमने अंग-उपांग तक देख लिया था। अब हम अपने को और थोड़ा सा गहराई में जाकर देखने का प्रयत्न कर रहे हैं , और पाते हैं कि इस प्रकार गहराई से देखने पर मोह टूटने लगता है। इस शरीर के प्रति हमारा जो मोह है , उस मोह का टूटना अच्छा है। उस मोह को टूटना चाहिए। उसी के लिए प्रस्तुति चल रही है। सतह पर M/F देखकर हम जो मोहित हो जाते हैं ,  आकृष्ट हो जाते हैं , उससे हम ऊपर हो जाते हैं। अब यह साहसी सत्यान्वेषी भ्रमित नहीं होगा। अब आगे देखिये शंकराचार्यजी क्या कहते हैं ? (14.44)  

मज्जास्थिमेदः पलरक्तचर्म-त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम्
पादोरुवक्षोभुजपृष्ठमस्तकै -रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत्
॥ ७४ ॥अहंममेति प्रथितं शरीरं मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।

 अहं मम इति प्रथितं शरीरं, मोहास्पदं स्थूलम् इति ईर्यते बुधैः।७४ 

अर्थ:-मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा-इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त, 'मैं और मेरा' रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रय रूप देह को विद्वान् लोग 'स्थूल शरीर' कहते हैं
यह श्लोकवे आत्मा और अनात्मा के विवेक के माध्यम से आत्मबोध की ओर साधक को निर्देशित करते हैं। इस श्लोक में उन्होंने 'स्थूल शरीर' की यथार्थ पहचान कराई है, जिससे मनुष्य सामान्यतः 'मैं' और 'मेरा' की भावना जोड़ता है। यह देह वास्तव में सात धातुओं—मज्जा (गूदा), अस्थि (हड्डियाँ), मेद (चर्बी), मांस (मांसपेशियाँ), रक्त (खून), चर्म (त्वचा), और त्वक् (बाहरी चमड़ी)—से बना हुआ है। ये सभी तत्व प्रकृति के ही अंग हैं और निरंतर परिवर्तनशील हैं।

इस शरीर में जो अंग-प्रत्यंग हैं—पाँव, जाँघें, वक्षःस्थल, भुजाएँ, पीठ और मस्तक आदि—ये सब केवल शरीर की रचना के बाह्य और आंतरिक अवयव हैं। इन सबका सम्मिलित रूप, जिसमें अनेक जीव-विकार, विकृति और विनाश की प्रवृत्ति अंतर्निहित होती है, वही यह स्थूल शरीर है। परंतु अज्ञानवश जीव इस शरीर को ही 'मैं' समझ बैठता है और इसके संबंधों को 'मेरा' मानता है। यही 'अहं' और 'मम' की भ्रांति का मूल कारण है। 'अहं शरीर हूँ' और 'यह मेरा है'—इन दोनों मिथ्या विचारों का केन्द्र यही शरीर है।

शंकराचार्य इसे 'मोहास्पदं' कहते हैं—अर्थात यह शरीर अज्ञान से उत्पन्न मोह का आश्रय है। यह मोह ही जीव को बंधन में डाल देता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप—शुद्ध, अच्युत, निरपेक्ष आत्मा—को भूलकर इस नश्वर शरीर से अपनी पहचान जोड़ लेता है। यही जीव की सबसे बड़ी त्रुटि है, क्योंकि शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा, और आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है।

इस श्लोक का उद्देश्य साधक को यह स्मरण कराना है कि जब तक वह शरीर को ही 'स्वरूप' मानता रहेगा, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहेगा। विद्वान लोग—'बुधाः'—इस देह को केवल एक 'स्थूल शरीर' मानते हैं, न कि आत्मा। वे जानते हैं कि यह शरीर पंचमहाभूतों और सप्तधातुओं से बना है, नाशवान है, और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। इसलिए वे इससे अपनी पहचान नहीं जोड़ते।

इस विवेचन का मर्म यही है कि साधक को चाहिए कि वह इस देह को मात्र एक उपकरण की भाँति देखे, जिससे आत्मसाधना की जा सकती है, न कि अपने स्वरूप के रूप में। देह के प्रति इस दृष्टिकोण का विकास ही विवेक है, जो साधना के पथ पर आरूढ़ होने की प्रथम आवश्यकता है। जब 'मैं शरीर नहीं हूँ' का अनुभव भीतर दृढ़ होता है, तब ही आत्मज्ञान की यात्रा प्रारंभ होती है। यही विवेकचूडामणि की शिक्षाओं का सार है। ] 

नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः 

सूक्ष्माणि, भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा,
 स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः।
मात्रास्तदीया विषया भवन्ति,
 शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥ 

 अब कहते हैं -यह जो स्थूल शरीर है, यहाँ से और भी गहराई में जा रहे हैं -ध्यान से सुनिए हमारे साथ यही हो रहा है। गुरु हमसे कह रहे हैं कि स्थूल शरीर के विषय में हमारी धारणा क्या है ? 'अहं मम' ये मैं हूँ और यह मेरा है ! हमारा सारा दैनंदिन व्यवहार जो कुछ भी चलता है , ये सब अहं पर ही टिकी हुई है कि नहीं ? अहं को छोड़ करके तो कोई व्यवहार होता नहीं है। अहं मतलब मैं ! मैं मायावती जाऊँगा , मैं Retreat (आश्रय-स्थल)  attain करूँगा। मैं ध्यान करूँगा , मैं वहाँ जाऊँगा। सारा जगत व्यवहार तो मैं और मेरा को लेकर ही है। और आज हमने अहं का मतलब लगा लिया है , मेरा स्थूल शरीर। मैं शब्द का व्यवहार करते समय हमारी क्या धारणा होती है ? यह M/F शरीर ही तो मेरी पहचान है। मैं कहते ही हमारा रूप हमारी आँखों के सामने आ जाता है। आंख बंद करके 'मैं' कहते ही आपका रूप आँखों के सामने आ जाता है। आपका ही यह स्थूल शरीर वाला M/F रूप। इस स्थूल शरीर को लेकर ही मैं और मेरा चलता है। 

    यहाँ शास्त्र कह रहे हैं - अहं मम इति प्रथितं शरीरं , यह स्थूल शरीर वह चीज है जिसको लेकर के मैं और मेरा भाव रहता है। और क्या है ? मोहास्पदं - यह शरीर मोह का आस्पद है , यानि स्थान या आश्रय है ! यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा गुरुदेव बता रहे हैं। ये स्थूल शरीर ही मोह का स्थान है। जिसके विषय में मैं मेरा का भाव है -वह स्थूल शरीर ही मोह का अधिष्ठान है ,आश्रय है। अच्छा मोह क्या है ? मोह को अंग्रेजी में Delusion कहते हैं, हिंदी में क्या कहें ? तो मोह के फल से हम उसे समझे - मोह वह चीज है , जो हमें अँधा बना देती है। हम जब किसी से मोहित हो जाते हैं , तो क्या होता है ? हम अंधे हो जाते हैं। आसक्ति भी बात की है। पहले तो हम अंधे हो जाते हैं। मोह क्या है ? वह जो आपको अँधा बना देती है। मोह कई प्रकार के हो सकते हैं -जो आपको सत्य देखने ही नहीं देती। जैसे पुरुषों को स्त्री के प्रति एक प्रकार की मोह हो जाती है। स्त्री को पुरुषों के प्रति मोह हो जाती है। और जब ऐसा मोह हो जाता है तो व्यक्ति पूरी तरह से अँधा# हो जाता है या नहीं ? उसको फिर दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता है। [Delusion माया या मतिभ्रम से अँधा# संत तुलसी दास का रत्नावली के प्रति मोह : गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी पत्नी रत्नावली से अत्यधिक प्रेम करते थे।  ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ।  तुलसीदास जी व रत्नावली दोनों का बहुत सुन्दर जोड़ा था, दोनों विद्वान थे, दोनों का सरल जीवन चल रहा था। परन्तु दोंगा या गौना नहीं हुआ था -विवाह के कुछ समय बाद रत्नावली अपने भाई के साथ मायके चलीं गई तब उनका वियोग तुलसी के लिए असहनीय हो गया था। एक दिन तुलसीदास के सब्र का बांध टूटा और वह रत्नावली से मिलने निकल पड़े।  रत्नावली मिलन की चाह ऐसी की तेज वर्षा और अंधेरी रात का  सुध-बुध भी नहीं रहा। जब वह एक उफनती नदी के किनारे पहुंचे, तो उनको एक लाश भी लकड़ी का लट्ठा दिखाई दे रहा था। शव को लट्ठा समझकर उफनती हुई नदी, सहारे पार कर लिया। जब वे रत्नावली के घर के पास पहुंचे तो, घर से सटा एक वृक्ष जिससे एक सर्प लटक रहा था| उस समय वह सर्प भी उन्हें रस्सी दिखाई दे रहा था। वह सर्प को रस्सी समझ कर ऊपर चढ़ गए जब वह  रत्नावली के कमरे में दाख़िल हुए तब उनकी पत्नी उन्हें देख उन्हें लोक-लाज की दुहाई देते हुए उन्हें जाने को कहा, परंतु तुलसीदास रत्नावली को अपने साथ चलने के लिए निरंतर आग्रह करते रहे, बाद में रत्नावली बेहद क्रोधित मन से धिक्कारते हुए बोली -

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
  नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत। 
 

                    
      अर्थात् कि तुम मेरे इस हड्डी मांस के शरीर के प्रति जितना तुम्हारा प्रेम है, उसका आधा भी स्नेह तुम्हारा प्रभु राम के लिए होता तो तुम भवसागर पार कर लेते। तुलसीदास की इस प्रकार से अवहेलना ने उनकी दशा और दिशा दोनों ही बदल कर रख दी। इस अवेहलना के तत्पश्चात वह प्रभु श्री राम की भक्ति में ऐसे लीन हुए कि वह प्रभु राम के ही हो गए।]

      उसी तरह धन का मोह होता है। सन्तान का मोह होता है। अच्छा पुत्र-मोह भयंकर होता है। पुत्रमोह का सबसे प्रसिद्द उदाहरण कौन है ? धृतराष्ट्र। धृतराष्ट्र शरीर से भी अंधे थे और बुद्धि से भी अंधे थे। तो क्या है ? पुत्र से मोहित थे। मेरा दुर्योधन , मेरा दुर्योधन , मेरा दुर्योधन कहते रहे , यह जानते हुए भी कि दुर्योधन सब अधर्म कर्म कर रहा है। सब अनैतिक कर्म कर रहा है। सब जान रहा है , पर मान नहीं पा रहा है। क्यों ? पिता पुत्र से मोहित है। मोह से जब हम अंधे हो जाते हैं तब हम सत्य को देख नहीं पाते हैं। हम घर-गृहस्थी में रहते हैं , हमको पता है। कैसे माता -पिता संतान के मोह में मोहित होकर बिल्कुल अंधे हो जाते हैं। ऐसे में उस संतान का लालन -पालन ठीक से नहीं होता है। सही लालन-पालन तो विवेक से ही होता है। जब आप स्पष्ट रूप से देख्नेगे तभी उसका लालन -पालन ठीक होगा। तो कितने प्रकार के मोह होते हैं - जैसे कि ये Gender Attraction लैंगिक अट्रैक्शन। स्त्री-मोह है, पुरुष मोह है , धन मोह है , संतान मोह है , या फिर नाम-यश में भी मोह हो सकता है !! यह मोह गर्दन में माला पहनने में आसक्ति या ऐषणा सबसे खतरनाक है , यह भी एक सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति को बिल्कुल अँधा बना देता है। यहाँ शास्त्र हमसे कह रही है - यह शरीर मोह का आस्पद है। यह मोह के उत्पन्न होने का स्थान है। पहले तो आप अपनेआप से ही मोहित हो गए हैं। आप अंधे हो गए हो , आप सत्य को नहीं देख रहे हो- जब आप यह कहते हो कि यह शरीर मैं हूँ और ये मेरा शरीर है ! इसका सम्मान मेरा सम्मान है , और इसका अपमान मेरा अपमान है ? अपने ही स्थूल शरीर के ऊपर आप इतने मोहित हो गए हो , कि आपको सत्य दिखाई ही नहीं दे रहा है। इसलिए सत्य के अन्वेषण में यह शरीर का मोह बहुत बड़ी बाधा बन जाती है। हम इस आधार कार्ड वाली पहचान को ही सत्य मानकर चल रहे हैं कि - मैं का मतलब यह शरीर ही है। प्रश्न यह है कि इस 'मैं ' का मतलब स्थूल शरीर है क्या ? हमने देखा था कि यह शरीर तो एक बुलबुले के समान है , जो कभी भी फूट सकता है। इस बुलबुले के अंदर क्या है ? ये हमने देखा - -मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा- आदि से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त है। जो की सतत बदल रहा है। उसका रूप बदल रहा है , कभी भी टूटने वाला है। इसके अंदर अपना मैं इससे सटकर बैठा है। जैसे ही हम शरीर को मैं मान लेते हैं - यही से सारा व्यवहार शुरू हो जाता है। हम कभी यह प्रश्न नहीं करते कि क्या मैं यह शरीर हूँ ? M/F शरीर का देहाध्यास ही क्या मेरी असली पहचान है ?  विपरीत लिंग के प्रति प्राकृतिक रूप से - स्वाभाविक आकर्षण हो जाता है। और वहीँ से सारा संसार फैलता है। हम अपने स्थूल शरीर को मैं मान कर , दूसरे प्रकार के स्थूल शरीर के साथ अपना सम्बन्ध बना लेते हैं। और वहीँ से पूरा जाल फैलता जाता है।  ये मेरा पति है , ये मेरी पत्नी है - ये मेरे बच्चे हैं। मेरा घर-गृहस्ती मेरी सम्पत्ति। ये सब मैं और मेरा यहाँ से फैलता है। इसका शुरुआत इस स्थूल शरीर से ही है। ये सारा जाल फ़ैल रहा है।  पहले हम इस स्थूल शरीर को मैं मान लेते हैं , कभी प्रश्न नहीं करते हैं। फिर दूसरा भी हमको वैसा ही दिखाई देता है। दूसरे को भी हम स्थूल दृष्टि से ही देखते हैं। मोहित हो जाते हैं। संबंध बन जाता है। विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध बन जाते हैं - सारे जो रिश्ते-नातों का जो जाल है - मेरा बेटा -पुतोह, बेटी -दामाद , पोता -पोती , नाती -नतिनी , वाला जाल यहीं से फैलता है। कोई कोई आशिक और माशूक भी बन जाते हैं। इसीलिए स्थूल शरीर को मोहास्पद कहा गया है। यह मोह का अधिष्ठान है , आस्पद है। तो शास्त्र में कहा गया - 'अहं मम इति प्रथितं शरीरं' मोहास्पदं स्थूलम् इति ईर्यते बुधैः !' इसीको स्थूल शरीर कहा गया है , सभी लोग इस स्थूल शरीर पर मोहित है। एक बार मोहित हो जाते हो , तो आप अंधे हो जाते हो। उसके बाद हमको सत्य दिखाई नहीं देता। 

    (25.36 मिनट) ये स्थूल शरीर किन चीजों से बनी हुई है ? आपने पंच तन्मात्रा का नाम सुना होगा। पंचतन्मात्राएँ परस्पर मिलकर पंचभूत हो जाते है। पंचतन्मात्रएँ कौन-कौन से हैं ? आकाश है , वायु है , अग्नि है , जल है , और पृथ्वी है। ये पंचतन्मात्राएँ है , ये सूक्ष्म तन्मात्राएँ जो हैं , वे परस्पर मिलकरके स्थूल हो जाते हैं। फिर वो पंचभूत बन जाते हैं , और पंचभूत से ही सबकुछ यहाँ पर बना हुआ है। तो ये स्थूल शरीर किससे बना हुआ है ?  नभः -नभस्वत्-दहन-अंबु-भूमयः  सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि,  परस्परांशैः  मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः। नभो मतलब आकाश ,नभस्वत् वायु है -दहन माने अग्नि , अम्बु है - माने जल है। और भूमि है -पृथ्वी है। 'सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि' - ये जो पाँच सूक्ष्मतन्मात्राएँ हैं - वे  'परस्परांशैः  मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः' ये एक दूसरे से मिल जाती हैं। अगर अंग्रेजी में कहें तो जो Simple- सरल हैं वे Compound या यौगिक बन जाती हैं। उनके मिलने की कुछ Technical Ratios- तकनीकी अनुपात हैं। इस प्रकार तन्मात्राएँ परस्पर मिलकर करके इस स्थूल शरीर का कारण बन जाती हैं। ये स्थूल शरीर पंचभूतों से बना हुआ है। ये सारे जितने भी स्थूल शरीर हमको दिखाई देता है , सब पंचभूतों से बना हुआ है। तो इस स्थूल शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से बनाहुआ ये जो सम्पूर्ण विश्व प्रपंच जो सामने दिखाई देता है। ये सब किन चिजों से बनी हुई है ? ये टेबल है , ये बिल्डिंग हैं - पेड़-पौधे हैं ये भी पंचभूतों से बने हुए हैं। 

नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः ।

"मात्रास्तदीया विषया भवन्ति,
 शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥   
 

[मात्रा: तदीया: विषया: भवन्ति शब्दादय: पंच सुखाय भोक्तुः। 

अर्थ:-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी- ये सूक्ष्म भूत हैं। इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूल शरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएँ भोक्ता जीव के भोग रूप सुख के लिये शब्दादि पाँच विषय हो जाती हैं।
विवेकचूडामणि के श्लोक ७५ और ७६ में आदि शंकराचार्य जीव और शरीर की रचना को अत्यंत सूक्ष्म और दार्शनिक दृष्टिकोण से स्पष्ट करते हैं। यहाँ पर पंचमहाभूतों और उनकी तन्मात्राओं के माध्यम से स्थूल शरीर की उत्पत्ति की व्याख्या की गई है, जो वेदान्त दर्शन के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है।
श्लोक ७५ में कहा गया है कि आकाश (नभ), वायु (नभस्वत्), अग्नि (दहन), जल (अम्बु) और पृथ्वी (भूमि) — ये पाँच सूक्ष्म भूत होते हैं। 'सूक्ष्म' का अर्थ यहाँ यह है कि ये इन्द्रियगोचर नहीं होते, अर्थात् इन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से देख या छू नहीं सकते, परंतु इनसे उत्पन्न होने वाले प्रभावों को अनुभव किया जा सकता है। आकाश से शब्द, वायु से स्पर्श, अग्नि से रूप, जल से रस और पृथ्वी से गंध — ये पाँच विषय उत्पन्न होते हैं। ये पंचमहाभूत पहले सूक्ष्म रूप में रहते हैं और फिर इनकी रचनात्मक प्रक्रिया के द्वारा वे स्थूल रूप में परिवर्तित होते हैं। इनका यह सूक्ष्म स्वरूप समस्त भौतिक जगत की आधारशिला है।

फिर श्लोक ७६ में बताया गया है कि ये पंचमहाभूत परस्पर मिलकर, एक-दूसरे के अंशों से युक्त होकर स्थूल रूप ग्रहण करते हैं। इस प्रक्रिया को 'पंचीकरण' कहते हैं। पंचीकरण का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक स्थूल भूत में अन्य चार भूतों के अंश भी रहते हैं, जिससे यह भौतिक जगत की विविधता और स्थूलता उत्पन्न होती है। इन स्थूल पंचमहाभूतों के मेल से जो शरीर बनता है, वही स्थूल शरीर कहलाता है। यह स्थूल शरीर ही जीव के कर्मों का क्षेत्र बनता है, जहाँ वह भोग और अनुभव करता है। यही शरीर सुख-दुख, शीत-उष्ण, राग-द्वेष आदि का अनुभव करने का साधन बनता है।

आगे कहा गया है कि इन पंचमहाभूतों से उत्पन्न होने वाली तन्मात्राएँ — शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — जीव के भोग के विषय बनती हैं। शब्द आकाश का गुण है, स्पर्श वायु का, रूप अग्नि का, रस जल का और गंध पृथ्वी का। ये विषय जब इन्द्रियों से संयोग करते हैं, तब जीव को सुख और दुःख का अनुभव होता है। जीव की चित्तवृत्तियाँ इन विषयों की ओर आकर्षित होती हैं, और यह आकर्षण ही बन्धन का कारण बनता है। सुख की कामना और दुःख से बचने की प्रवृत्ति ही संसार में जीव को बार-बार जन्म लेने को बाध्य करती है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि शंकराचार्य इन श्लोकों के माध्यम से केवल स्थूल शरीर की भौतिक रचना का वर्णन नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे इसके पीछे छिपी हुई आत्मज्ञान की गूढ़ दृष्टि को भी सामने ला रहे हैं। वे यह दिखाना चाहते हैं कि यह स्थूल शरीर भी अंततः पंचमहाभूतों से बना है, जो स्वयं परिवर्तनशील और नश्वर हैं। जिस सुख के लिए जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों में आसक्त होता है, वह भी पंचभौतिक तत्वों से उत्पन्न है और इसलिए क्षणिक और असत्य है। इस प्रकार, इस ज्ञान से साधक के भीतर वैराग्य उत्पन्न होता है और वह जानने लगता है कि सत्य स्वरूप आत्मा इन पंचभूतों से परे है।

इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि स्थूल शरीर, विषय, इन्द्रियाँ, और उनका पारस्परिक संबंध सभी माया के अधीन हैं। माया पंचमहाभूतों की रचना करती है, और जीव को इस पंचभौतिक शरीर से तादात्म्य करके संसार में बाँध देती है। परन्तु जब जीव यह जान लेता है कि ये सब क्षणिक हैं और आत्मा इनसे भिन्न है, तब वह इस शरीर और विषयों को साधन रूप में देखता है, भोग के साधन के रूप में नहीं।
इस प्रकार इन श्लोकों का उद्देश्य साधक को यह बोध कराना है कि शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है, और इसके विषय भी उन्हीं से उत्पन्न होते हैं। अतः न तो शरीर सत्य है और न ही इन्द्रियजन्य सुख। जो वस्तु नित्य नहीं है, वह आत्मा नहीं हो सकती। इस विवेक से ही आत्मज्ञान का आरम्भ होता है। यही विवेकचूडामणि का लक्ष्य है — जीव को आत्मा और अनात्मा के बीच भेद का स्पष्ट बोध कराना, ताकि वह आत्मा को जानकर मोक्ष प्राप्त कर सके। ]  

(28.06 मिनट) वही पंचतन्मात्राएँ फिर विषयों में भी होते हैं। तो हमारा स्थूल शरीर पंचभूतों से बना है , हमारी इन्द्रियाँ जो हैं वे भी पंचभूतों से ही बनी हुई हैं। इन्द्रियाँ जिन विषयों को ग्रहण कर रही हैं, वह भी पंचभूतों का बना हुआ है। मात्रास्तदीया विषया भवन्ति,शब्दादयः ' हमारी ज्ञानिन्द्रियों के शब्दादि जो पाँच विषय हैं, -रूप , रस, शब्द , स्पर्श और गंध। इन्हीं पाँच विषयों के अतिरिक्त हम कुछ भी अनुभव नहीं कर रहे हैं। हम जिसको जगत कह रहे हैं - येभी पांच इन्द्रियों तक सीमित है। हमारी पांच इन्द्रियां जो दिखा रही हैं -हम उतना ही देख रहे हैं। पाँच इन्द्रियों की सीमा के बाहर हमें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। अपने अप्प में यह एक बहुत विचारणीय प्रश्न है। उस दायरे के बाहर कुछ है या नहीं ? ये किसीको पता नहीं है। इसीको हम भौतिकवाद -Materialism कहते हैं। भौतिकवाद शब्द कहाँ से आया ? संस्कृत शब्द है - ये सब कुछ पंचभूतों से बना है। जो आधुनिक Modern Physical Science है -या आधुनिक भौतिक विज्ञान है ; और जितने भौतिक विज्ञानी हैं , उनकी धारणा में जो भी आँखों से दिखाई देता है , वही जगत है। जो इन्द्रियों के परे है -उसको वे मानते ही नहीं हैं। इन्द्रियों से जिस चीज की अनुभति नहीं होती पाश्चात्य वैज्ञानिक उसको मानते ही नहीं है। लकिन क्या सचमुच ये विश्वब्रह्माण्ड इन्द्रियों से दिखने वाला जितना जगत है, उतने तक ही सीमित है ? नहीं ! यहाँ ऐसे अनेक स्तर हैं -जिनका हमको ज्ञान ही नहीं है। वो सब है लेकिन वे इन्द्रियों से बाहर हैं। सूक्ष्म स्तरों में कितने ऐसे लोक हैं - जो हमें इन इन्द्रियों दिखाई देने वाली नहीं हैं। तो आधुनिक भौतिक विज्ञान जो बहुत गर्व करता है कि हमलोग बड़े rational -तर्क-संगत हैं। क्या आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की सोच सचमुच में - Scientific है ? जो कहते है कि मुझे इन्द्रियों से जितना दिखाई देता है - बस उतना ही सत्य है। स्वामी विवेकानन्द इसीको -वैज्ञानिक अंधविश्वास Scientific superstition' कहते थे। ऐसा कहना कि जगत सिर्फ उतना ही है जितना इन्द्रियों से दीखता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इन्द्रियों से परे जो सत्य है , जिसकी अनुभूति हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले कर ली थी - उस इन्द्रियातीत सत्य को आधुनिक भौतिक विज्ञानी सत्य नहीं मानते। कारण क्या है ? वे साधन चतुष्टय जो - 10 % होना भी आत्मज्ञान की अनिवार्य शर्त है। उतना भी संयम पालन करने का साहस उनमें नहीं है। वहीँ वेदांत कहता है, ये इन्द्रियाँ जो दिखा रही हैं -वे सत्य नहीं मिथ्या हैं। असत भी नहीं हैं -लेकिन मिथ्या हैं। (32.22 मिनट) क्या इन इन्द्रिय जगत के परे , कितने ऐसे लोक विद्यमान हैं , जिसका पता आधुनिक विज्ञान को नहीं है। स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य वैज्ञानिकों के गर्व को ही Scientific superstition' कहते हैं। आप विज्ञान के विद्यार्थियों ने सुना होगा Reductionism ? You reduce everything to matter, you reduce everything to sense, this itself is a biggest superstition , ये मान लेना की जगत बस इतना ही है - ये अपनेआप में एक अन्धविश्वास है। सत्य नहीं है। हमारे ऋषियों की अनुभूति है , कितने ऐसे लोक हैं - जो इन्द्रियातीत हैं। हमारे वेदांत में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को 'चतुर्दश भुवनानि' कहते हैं। Fourteen Planes of Existence- या अस्तित्व के चौदह स्तर कहते हैं। और उन 24 स्तरों वाले अस्तित्व में मानव-चेतना का स्तर भी अस्तित्व का एक स्तर है। मनुष्य-लोक केवल एक लोक है। भौतिक विज्ञान की दौड़ अभी मनुष्य-लोक तक ही है , वह भी जो इन्द्रियों के सिमा के भीतर है। वेदों में कहे -बाकी 23 स्तरों की उनको धारणा ही नहीं है। यह बहुत बड़ा अंधविश्वास है कि नहीं ? यह सोचना कि इन्द्रियों से जितना दिखाई दे रही है उतना मात्र ही जगत है।जबकि इन्द्रियां जो हमें दिखा रही हैं -वे तो केवल बून्द मात्र हैं। ये विषय Reductionism यहाँ आया कहा से ? इन्द्रियों से जिस जगत को हम देख रहे हैं वह भी पंचभूतों से बना हुआ है। तो ये जगत क्या हुआ ? ये पंचभौतिक जगत है। जो भी हम इन्द्रियों से अनुभव कर रहे हैं , ये सब पंचभौतिक हैं। ये पंचभूत ही हमको विभिन्न -विभन्न आकृति में दिखाई दे रहा है। ये पंचभूत अभी अजय के रूप में मेरे सामने खड़ा है। ये एक रूप बन गया है , फिर ये रूप पिघल जायेगा। ये रूप चला जायेगा। (35.22 मिनट) लेकिन पंचभूत अपनी जगह पर है। They form into different configuration- वे अलग-अलग विन्यास में भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करते हैं। नाम-रूप का आना और जाना लगातार चल रहा है। पंचभूत ही अलग अलग रूप ग्रहण कर रहे हैं। forms are appearing and disappearing' रूप प्रकट और अदृश्य हो रहे हैं, रूप बन रहे हैं और गायब हो रहे हैं।  रूप प्रकट और अदृश्य हो रहे हैं, रूप प्रकट और अदृश्य हो रहे हैं। अनादि -अनंत काल तक ये सतत चल रहा है। ये पूरा-सृष्टि चक्र सतत चल रहा है। एक एक बुलबुले के समान ये प्रकट हो रहा है अदृश्य हो रहा है। प्रकट हो रहा है अदृश्य हो रहा है.प्रकट हो रहा है अदृश्य हो रहा है। तो इस प्रकार का ये स्थूल शरीर पंचभूतों से बना हुआ है। पंचतन्मात्राएँ एक दूसरे से मिलकर स्थूल होकर , पंचभूत हो जाते हैं।  और ये पंचभूत इस स्थूल शरीर का कारण बन जाती है। स्थूल शरीर से दिखने वाले जितने विषय हैं , वे भी सब पंच भौतिक हैं। यहाँ तक हम आ गए। (36.46 मिनट) अब जो दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा आने वाला है ,देखिये - हमारे सारी समस्यायों का मूल यहीं पर है। ध्यान से सुन लीजिये। 

   य एषु मूढा विषयेषु बद्धा रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन ।
आयान्ति निर्यान्त्यध ऊर्ध्वमुच्चैः स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः ॥ ७७ ॥ 
 

[ ये एषु मूढा: विषयेषु बद्धा: रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन। आयान्ति निर्यान्ति अध: ऊर्ध्वम् उच्चै: स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः।   

अर्थ:-जो मूढ इन विषयों में रागरूपी सुदृढ़ एवं विस्तृत बन्धन से बँध जाते हैं, वे अपने कर्मरूपी दूत के द्वारा वेग से प्रेरित होकर अनेक उत्तमाधम योनियों में आते-जाते हैं।

यह श्लोक विवेकचूडामणि का ७७वाँ श्लोक है, जिसमें श्री आदि शंकराचार्य ने संसार में रत, अविवेकी जीवों की दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। इस श्लोक में कहा गया है कि जो मूढ़ – अर्थात अज्ञान के कारण विवेकहीन, भेद न कर सकने वाले व्यक्ति – इन्द्रिय विषयों में आसक्त हो जाते हैं, वे रागरूपी एक अत्यंत सुदृढ़ और कठिनता से छूटने वाले बन्धन में जकड़े हुए होते हैं। यह बन्धन इतना गहरा होता है कि मनुष्य स्वयं उसकी पकड़ से बाहर निकलने में असमर्थ होता है। ‘राग’ अर्थात विषयों के प्रति आसक्ति ही वह सूक्ष्म परंतु शक्तिशाली डोरी है, जो जीव को बार-बार जन्म और मरण के चक्र में घसीटती रहती है।

यहाँ 'सुदुर्दमेन रागेन' कहा गया है – अर्थात यह राग इतना दुर्दान्त है कि इसे जीतना सामान्य मनुष्य के लिए अत्यंत कठिन है। यह राग इन्द्रियों के द्वारा मन को विषयों की ओर खींचता है – रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इन पांच विषयों में लिप्त होकर जीव स्वयं को उनसे एकीकृत कर लेता है। जैसे मकड़ी अपने ही जाले में उलझ जाती है, वैसे ही यह जीव भी अपनी राग-आसक्ति से निर्मित संसार-जाल में फँस जाता है।
शंकराचार्य कहते हैं कि ऐसे जीव अपने ही कर्मों के अनुसार – 'स्वकर्मदूतेन' – यानि कर्मरूपी दूत द्वारा – गति प्राप्त करते हैं। कर्म ही उन्हें ऊँची या नीची योनियों में ले जाता है। यह गति 'जवेन नीताः' – तीव्रता से होती है, जैसे कोई दूत बलपूर्वक किसी को पकड़कर कहीं ले जाए। यह दर्शाता है कि कर्म का फल टालने योग्य नहीं होता – जीव की गति उसी के अनुसार निर्धारित होती है।

‘आयान्ति निर्यान्ति’ – अर्थात वे बार-बार जन्म लेते हैं और मरते हैं। यह जन्म-मरण का चक्र अनादि है और जब तक राग रूपी बन्धन नहीं टूटता, तब तक यह क्रम चलता रहता है। 'अध ऊर्ध्वमुच्चैः' – इसका तात्पर्य है कि जीव कभी अधम योनियों में गिरता है, जैसे तामसिक प्रवृत्तियाँ युक्त जीवन, पशुयोनि, नरक आदि, और कभी ऊर्ध्व – अर्थात श्रेष्ठ योनियाँ, जैसे मनुष्य योनि या स्वर्गादि। लेकिन यह उन्नयन या पतन स्थायी नहीं होता, क्योंकि दोनों ही कर्माधीन हैं।
इस प्रकार यह श्लोक हमें यह बोध कराता है कि जब तक राग की शृंखला नहीं टूटती, तब तक आत्मा संसार के प्रवाह में बहती रहती है। केवल विवेक, वैराग्य और आत्मज्ञान ही इस राग को छिन्न कर सकता है। इसलिए उपदेश है कि विषयों में रत न होकर, अपने चित्त को आत्मदर्शन की ओर मोड़ो, अन्यथा कर्म के दास बनकर तुम्हारी गति कभी स्थिर नहीं होगी। यही शाश्वत सत्य है, और यही आत्मकल्याण का मार्ग है। ] 

    शंकराचार्य जी इस 'मूढ़' शब्द का प्रयोग अक्सर करते हैं , उनको यह मूढ़ शब्द क्या बहुत प्रिय था? मूढ़ मनुष्य से अभिप्राय यह है कि जो मगरमच्छ को (या लाश को) लकड़ी का लट्ठा समझकर उस पर चढ़कर नदी पार करने की चेष्टा करता है। जो एक को दूसरा समझ लेता है - रज्जु को सर्प समझ लेता है - वो बेवकूफ नहीं है , वो मूढ़ है ; उसकी मत मारी गयी है ?  उसी प्रकार भज गोविंदम स्त्रोत्र में क्या है -भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते । प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥ भज गोविन्दं मूढमतेअर्थात हे भज गोविन्दं- हे मूढ़ सत्य को जान ,सत्य को जान, सत्य को जान, सत्य को जान ! समय निकला जा रहा है , सत्य को जान ले। ईश्वर को खोजो मत - उसको पहचान लो। श्रद्धा का अर्थ है -आत्मविश्वास ! और आत्मविश्वास का अर्थ है , ईश्वर में विश्वास ! " जब मैं था , तब हरि नहीं , अब हरि हैं - मैं नाहीं। प्रेमगली अति शांकरी , ता में दो न समाहीं। "

      समय रहते -सत्य को जान ले , ये मनुष्य शरीर मिला ही है इस सत्य को जान लेने के लिए। हे मूर्ख ! सत्य को जानले ! ये मूढ़ शब्द उनको बहुत प्रिय है। यहाँ पर शंकराचार्य जी कहते हैं - ये एषु मूढा:, ये जो मूर्ख व्यक्ति है - मनुष्य को ही मूर्ख व्यक्ति क्यों कह रहे हैं ? क्योंकि वह  'विषयेषु बद्धाः' - विषयों से बंधा हुआ है ! यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है। मूढ़ व्यक्ति वो है -जो विषयों में आबद्ध है। जो विषयों के साथ (ऐषणाओं के साथ) बंध गया है ! देखिये ये हमारी ही परिस्थिति है। ये हमारी ही वर्णन चल रहा है कि -हम कैसे विषयों में बंधे हुए हैं। 'ये एषु मूढा: विषयेषु बद्धाः' मूर्ख व्यक्ति विषयों में बंधा हुआ है। सिर्फ विभिन्न प्रकार के विषयों में ही नहीं बंध गया है , व्यक्तियों में भी बंध गया है। जब हमारी दृष्टि साफ नहीं होती , जब हमारे दृष्टि स्पष्ट नहीं होती अविवेक के कारण -हम कालनेमि को भी महात्मा समझने की भूल कर बैठते हैं। और उस परिस्थितयों और व्यक्तियों के साथ हम बंध जाते हैं। इसके मूल में सिर्फ अविवेक ही कारण है। (40.36 मिनट

        जीवन की सबसे बड़ी भूल : अविवेक या अज्ञान के कारण पहले मनुष्य अपने-आपको को ही स्थूल शरीर समझ लेता है। और इन्द्रिय भोग के विषयों के साथ वो बंध जाता है। उसके मूल में क्या है ? पहले ह, अपने-आप को स्थूल शरीर (M/F ) मानकर ही चलते हैं। जब अपने को पुरुष स्थूल शरीर मान लेते हैं, तो दूसरे स्त्री -शरीर के आकर्षण या मोह में बंध जाता है। इसलिए शंकराचार्यजी कहते हैं - 'ये एषु मूढाः विषयेषु बद्धाः !' अब दूसरा मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है - एक चीज को दूसरा समझ लेने पर - एक चीज को दूसरे से बांधने के बंधन क्या हैं ? अगर किसी को किसी के साथ बांधना हो तो आपको किस चीज की आवश्यकता होगी। रस्सी की ? गाय को अगर खूँटे से बांधना हो तो क्या आवश्यक है ? रस्सी के बगैर तो आप गाय को नहीं बांध सकते हैं। तो किसी चीज को जब दूसरे के साथ बांधना हो तो , रस्सी की आवश्यकता होती है। तो ये कौन सा रस्सी है -जिसके द्वारा मनुष्य विषयों से बंध जाता है ? जिसके कारण वो इन्द्रिय विषयों के साथ और व्यक्तियों (विपरीत लिंगी-opposite sex) के साथ वो बंध जाता है ? वो कौन रस्सी है - तो वो रस्सी है -राग ! राग ! राग ! ये राग ही वह रस्सी है , जिसको हमलोग अंग्रेजी में attachment ' लगाव , आसक्ति , बंधन कहते हैं। मोह होने से ही लगाव (attachment-को संस्कृत में राग कहते हैं। ) हो जाता है। यह राग ही वह अदृश्य रस्सी है - जिससे हम विषयों से बंध जाते हैं। आसक्ति वह अदृश्य रस्सी है जिसके माध्यम से आप विभिन्न वस्तुओं और व्यक्तियों से बंध जाते हैं।attachment is the invisible rope/ attachment is the invisible rope through which you get tied down to the different objects and persons. लिख कर रख लीजिये यही हमारी दैनंदिन जीवन की समस्या है।हर मनुष्य विभिन्न प्रकार के विषयों से और व्यक्तियों से और परिस्थितियों-परिवेश से बंधा हुआ है। लेकिन कैसे बंधा हुआ है ? राग रूपी अदृश्य रस्सी के साथ बंधा हुआ है। किसी ने इस रस्सी को देखा है ? गाय को खूँटे से बांधने वाला रस्सी तो हमको दिखाई देता है। लेकिन ये रस्सी ऐसा है , जो हमको दीखता भी नहीं है लेकिन है।   राग वह अदृश्य रस्सी है जिसके द्वारा हम दूसरे व्यक्ति , दूसरे विषयों और विभिन्न प्रकार के परिवेश के साथ हम बंध जाते हैं। और ये रस्सी कैसी है ? शंकराचार्य जी बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं - रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन ! -रागोरुपाशेन - राग-उरु-पाशेन, सुदुर्दमेन - अतिदु:खेन दमयितुं शक्येन। ये राग जो पाश है - पाश मतलब है रस्सी। राग या attachment रस्सी के समान है। ये पाश यानि रस्सी कैसा है ? 'ऊरु पाश' अत्यंत बलवान रस्सी है। रस्सी इतनी मजबूत है कि इसको काटना बड़ा -सुदुर्दम या बहुत कठिन है।  स्थूल रस्सी यदि बहुत मोटा भी है - तो उसको हम काट सकते हैं ; लेकिन यह रागरूपी जो अदृश्य रस्सी है यह इतना मजबूत है कि इसको काटना बड़ा -सुदुर्दम है - बड़ा कठिन है। (44.12 मिनट) और ये ऊरु है - मतलब बड़ा मजबूत है। राग रूपी अदृश्य रस्सी इतना मजबूत है - इसको काटना बड़ा ही कठिन है। ये आसानी नहीं कटता। हमारे दैनंदिन जीवन समस्या का मूल यहाँ पर आता है। शास्त्र यहाँ यह बता रही है कि मूढ़ व्यक्ति जो है -अपने अविवेक के कारण , मोह के कारण , अंधेपन के कारण अपनेआप को जो यह मान बैठा - कि मैं यह स्थूल शरीर (M/F) हूँ , और अपनेआप को स्थूल शरीर मानकर दूसरे व्यक्तियों के आकर्षण में बंध जाता है , मोह में फंस जाता है। कैसे बंध जाता है - राग रूपी अदृश्य रस्सी से बंध जाता है। [अविद्या -अस्मिता -राग-द्वेष -अभिनिवेश ' पंचक्लेश।]  और एक बार जब आप इस अदृश्य रस्सी से बँधजाते हो तो क्या होता है ?  

        'आयान्ति निर्यान्ति अध: ऊर्ध्वम् उच्चै: स्वकर्मदूतेन जवेन नीता:' (45.33 मिनट) ये जो राग रूपी रस्सी से हम इस संसार में बंध जाते हैं ; तो उसका परिणाम क्या होता है ? आना-जाना,आना-जाना,आना-जाना ! मतलब ? पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् । इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥ भज …ये चलता ही रहता है। जब तक आप बंधे हुए हैं , एक शरीर गया फिर दूसरा शरीर , तीसरा गया तो चौथा शरीर। ये चक्र फिर चलता ही रहता है - 'अधः ऊर्ध्वं ' का मतलब क्या है ? कभी आप निचले शरीर को प्राप्त करते हो कभी , श्रेष्ठ शरीर को प्राप्त करते हो। किस कारण ? 'स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः।' अपने कर्म और उसके फल के अनुसार हमें उच्च या अधः शरीर की प्राप्ति होती है। किसी ने इस जन्म में यदि पशुतुल्य कर्म क्या तो पशु योनि में जन्म बन जाता है। किसी ने अच्छा काम किया हो तो ऊँचे योनियों में - जैसे देव, गंधर्व, यक्ष ऐसे ऊँचे योनियों में जन्म होता है। सभी योनियों में मनुष्य शरीर सबसे महत्वपूर्ण है। ' जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं ' जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है। (यह सब कुछ होने पर भी) आत्मा और अनात्माका विवेक सम्यक् अनुभव –ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते। (आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति- र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।। 2 ।।) मनुष्य योनि छोड़करके तो कितनी योनियाँ है - अपने अपने कर्मों के अनुसार योनियों की प्राप्ति होती है। इसके मूल में क्या है ? राग !

         राग के द्वारा हम इस संसार में बंध जाते हैं। राग एक ऐसा अदृश्य रस्सी है जो दीखता नहीं है , किन्तु इसके द्वारा ही हम दूसरे व्यक्तियों और विषयों के साथ बंध जाते हैं ; और यह बहुत ही मजबूत रस्सी है जिसको काटना बहुत कठिन है। इस राग के कारण ही हमलोग जीवन में सभी दुखों का अनुभव करते हैं। सभी दुःखों का मूल ये राग रूपी अदृश्य रस्सी ही है। हमलोग एक बार राग रूपी बीमारी या attachment की बीमारी से ग्रस्त हो जाएँ ? ये कहना गलत है - हम तो अपने स्थूल शरीर को ही मैं मानकर उससे पहले से ही ग्रस्त हैं। और इसीलिए हम त्रस्त भी हैं। हम ग्रस्त भी हैं। राग के कारण ही हम विभिन्न व्यक्तियों , वस्तुओं , परिस्थितियों से हम बंधे हुए हैं। और अब वो व्यक्ति , परिस्थितयां और वस्तु हमें नचा रहे हैं। क्योंकि हमें अपने स्थूल शरीर के नाम-रूप से attachment राग हो गया है। इस राग रूपी रस्सी के द्वारा हम बंध गए हैं। और बंध जाने से जन्म-मृत्यु का चक्र अनवरत चलता ही रहता है। यह 'राग रूपी' बीमारी या 'रोग' कितना भयावह है- इसको समझाने के लिए शंकराचार्यजी कुछ उदाहरण दे रहे हैं - क्योंकि यह राग ही हमारे सारे दुखों का कारण है - हमारी मृत्यु का कारण है ! हमारे सर्वनाश का कारण है। ये समझाने के लिए गुरु और शास्त्र हमको पांच उदाहरण दे रहे हैं - (50.19 मिनट)  

शब्दादिभि: पंचभिरेव पंच,

 पंचत्वमापु: स्वगुणेन बद्धा: ।

कुरंगमातंगपतंगमीन भृंगा नर:,

 पंचभिरंचित: किम् ॥७८॥

[शब्दादिभि: पंचभि: एव पंच पंचत्वम् आपु: स्वगुणेन बद्धाः।  कुरंग-मातंग-पतंग-मीन-भृंगा: नर: पंचभि: अंचित: किम्।। 

अर्थ:-अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से बँधे हुए हरिण, हाथी, पतंग, मछली और भौर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, फिर इन पाँचों से जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है?

[शंकराचार्य कृत विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत प्रभावशाली और गहन उपदेश से युक्त है। इसमें पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों की आसक्ति द्वारा होने वाले पतन को अत्यंत सूक्ष्म और मार्मिक उदाहरणों के माध्यम से समझाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — ये पाँच विषय हैं, जो क्रमशः कान, त्वचा, आँख, जिह्वा और नाक की इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किए जाते हैं। हर एक प्राणी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के कारण इनमें से किसी एक विषय की ओर इतना आकर्षित हो जाता है कि वह उसके कारण अपने जीवन का अंत कर बैठता है।  

हरिण का उदाहरण लें। वह मधुर शब्द को सुनकर आकर्षित होता है, विशेषकर वीणा या मृदंग की ध्वनि उसे मोहित कर लेती है। शिकारी इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर मधुर संगीत बजाते हैं, और हरिण उस ओर खिंचा चला आता है — परिणामतः उसकी मृत्यु होती है। इस प्रकार ‘शब्द’ विषय ने उसे बाँध दिया। 

 
हाथी की प्रवृत्ति ‘स्पर्श’ में होती है। वह मादा हाथी के शरीर के स्पर्श को पाने की लालसा में जाल में फँस जाता है। इस प्रकार ‘स्पर्श’ ने उसे बाँध लिया और उसी की परिणति मृत्यु में हुई।

पतंगा दीपक की लौ के ‘रूप’ अर्थात् दृश्य सौंदर्य की ओर आकर्षित होकर उसमें समा जाता है और जलकर मर जाता है। केवल नेत्रों से देखे जाने वाले रूप के मोह में पड़कर वह अपने प्राण गंवा बैठता है।

मछली ‘रस’ अर्थात् स्वाद की लोभी होती है। काँटे में लगे चारे का स्वाद पाने की लालसा में वह उस चारे को निगल लेती है, और उसी के साथ जीवन भी समाप्त हो जाता है।

भौंरा ‘गंध’ के मोह में पड़ता है। वह फूल की सुगंध से मोहित होकर उसके अंदर समा जाता है, वहीं पर रात हो जाती है और फूल बंद हो जाता है, जिससे वह उसी में बंद होकर मर जाता है।

इन पाँचों उदाहरणों में देखा जाए तो प्रत्येक प्राणी केवल एक-एक विषय के मोह में पड़कर ही अपने जीवन का अंत कर बैठता है। शंकराचार्य यहाँ पर अत्यंत मार्मिक प्रश्न उठाते हैं — जब इन प्राणियों में से प्रत्येक एक ही विषय की आसक्ति से नष्ट हो जाता है, तो मनुष्य जो इन पाँचों विषयों से एक साथ आसक्त है, वह कैसे बच सकता है? मनुष्य के मन में सभी विषयों की अत्यंत गहरी आसक्ति होती है। वह मधुर संगीत, कोमल स्पर्श, सुंदर रूप, स्वादिष्ट भोजन और मनोहर गंध — इन सभी के प्रति आकर्षित होता है। उसकी इन्द्रियाँ इन विषयों की प्राप्ति के लिए निरंतर चेष्टा करती रहती हैं।

यह श्लोक हमें गहराई से यह सिखाता है कि यदि इन विषयों की ओर हम असावधानीपूर्वक आकर्षित होते हैं, तो हमारा अंत भी निश्चित है। अतः विवेकपूर्वक इन्द्रियों का संयम और विषयों के प्रति वैराग्य ही मुक्ति का मार्ग है। यही इस श्लोक का मर्म है।] 

यहाँ गुरु उदाहरण दे रहे हैं किबचा  केवल एक विषय के प्रति ही है , पर उसी एक विषय में राग होने से उसका जीवन नष्ट हो जाता है। हिरण केवल शब्द में आसक्त होकर बंध जाता है। पर उसकी एक कमजोरी से बंधन में फंस जाता है।  कुरंग है हिरण -हिरण की कमजोरी sound . मतङ्ग है हाथी स्पर्श सुख का गुलाम है। हथिनी के स्पर्श सुख -इस राग के कारण वो पकड़ा जाता है। पतंग को दिया की रौशनी या रूप में इतना राग है कि उसमें बंधकर मर जाता है। मीन -मछली का राग स्वाद में है। मछलियों को आप कुछ भी फेंकिए वो खाती रहती हैं। वो स्वाद को Resist  - प्रतिरोध नहीं कर पाती हैं। मछली केवल एक विषय-सुख की अदृश्य रस्सी से बंधा हुआ है। और उसके कारण यह प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। भृङ्गा -है भँवरा ! भँवरा की कमजोरी है गंध। ये जो पाँच पशुओं का उदाहरण दिया गया , ये पशु केवल एक विषय में आसक्ति के कारण मृत्युग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य तो पाँचो विषय-सुख में आसक्त है - इसको कौन बचा सकता है ? (1:01: 21) मनुष्य पांचों विषयों में आसक्त है - इस राग के बंधन में मनुष्य बंधा हुआ है। अगर आपको यहाँ चीटियों को बुलाना हो , तो क्या करोगे ? गुड़ रख दो। बड़ा आसान है कि नहीं ? सिर्फ इन पशुओं की कमजोरी क्या है ? ये पता होना चाहिए। पशुओं को पकड़ना कितना आसान है ? लेकिन मनुष्य को पकड़ना तो सबसे आसान है ! क्योंकि मनुष्यों की कमजोरी तो पशुओं से भी जयादा है। जितने पशुओं का उदाहरण दिया गया - तो पशुओं की कमजोरी किसी एक विषय के प्रति है। मनुष्य की कमजोरी तो पाँचो विषयों में है। शब्दादिभि: पंचभि: एव पंच पंचत्वम् आपु: स्वगुणेन बद्धा:;  
कुरंगमातंगपतंगमीनभृंगा: नर: पंचभि: अंचित: किम्।  पंचत्वमापु: माने मृत्यु को प्राप्त करते हैं। मनुष्य पाँचों विषयों से कैसे बँधा हुआ है ? राग रूपी अदृश्य रस्सी से बंधा हुआ है। This is a very profound observation-This is a very deep observation of the birth-death cycleजन्म-मृत्यु चक्र का यह एक बहुत ही गहन अवलोकन है ! अगला श्लोक और भी महत्व पूर्ण हो जाता है - 

दोषेण तीव्रो विषय: कृष्णसर्पविषादपि ।
विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ॥७९॥   

[दोषेण तीव्र: विषय: कृष्णसर्पविषात् अपि , विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषा अपि अयम्। ]

अर्थ:-दोष में विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, परन्तु विषय तो आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते

विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत गहन और मार्मिक उपदेश देता है। इसमें विषयासक्ति की तुलना काले सर्प के विष से की गई है, और स्पष्ट रूप से यह दिखाया गया है कि विषयों की तृष्णा और उनमें रत रहने की प्रवृत्ति साधक के आत्मकल्याण के मार्ग में कितनी घातक हो सकती है। शंकराचार्य कहते हैं कि विषय अर्थात संसारिक भोगों की लालसा, काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र और विनाशकारी है। सामान्यतः हम यह समझते हैं कि सर्प का विष केवल उस व्यक्ति को मारता है जो उसके काटने का शिकार होता है, परन्तु विषयों का विष केवल उनका भोग करने वाले को ही नहीं, बल्कि मात्र देखने वाले को भी हानि पहुँचाता है।

यहाँ "दोषेण तीव्रो विषयः" वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है। इसका अभिप्राय है कि विषय inherently दोषयुक्त हैं — अर्थात् उनमें जन्मजात दोष है। वे नित्य नहीं हैं, क्षणभंगुर हैं, और उनमें आनंद का भ्रम मात्र है। फिर भी जीव उनके प्रति आसक्त रहता है, और इस आसक्ति से ही जन्म-जन्मांतर के बंधन उत्पन्न होते हैं। विषयों की तृष्णा शांत नहीं होती; जैसे अग्नि में घी डालने से वह और प्रज्वलित होती है, वैसे ही विषयों का सेवन मन को और अधिक व्याकुल करता है। यह एक ऐसा चक्र है जो अंतहीन दुःख का कारण बनता है।

"कृष्णसर्पविषादपि" — यहाँ काले सर्प का विष प्रतीक है अत्यंत घातकता का। यह दर्शाता है कि सांसारिक विषयों का प्रभाव कितना गहरा हो सकता है। परंतु यहाँ जो बात विशेष रूप से चौंकाने वाली है, वह यह कि विष तो केवल उस व्यक्ति को हानि पहुँचाता है जो उसे शरीर में ग्रहण करता है, परन्तु विषय तो इतने घातक हैं कि वे केवल देखने मात्र से भी चित्त को कलुषित कर देते हैं। "द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम्" — यह वाक्य बताता है कि विषयों की आक्रामकता इतनी अधिक है कि वे देखने वाले को भी भ्रमित कर देते हैं और साधना से विमुख कर देते हैं।

इस श्लोक का गूढ़ संकेत यही है कि साधक को विषयों के प्रति अत्यंत सतर्क रहना चाहिए। मात्र इंद्रिय संयम ही पर्याप्त नहीं है, अपितु मन का भी निग्रह आवश्यक है। यदि मन विषयों की ओर आकर्षित हुआ, तो भले ही इंद्रियाँ नियंत्रित हों, भीतर का वैराग्य खंडित हो जाता है। इसलिए साधना की प्रथम अवस्था में विषयों से दूर रहना और अंततः उनके प्रति उदासीनता उत्पन्न करना अत्यंत आवश्यक है। यह श्लोक न केवल विषयासक्ति की घातकता को उजागर करता है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर चलने वाला साधक यदि विषयों के जाल में फँस गया, तो उसका पतन निश्चित है। अतः विषयों से पूर्ण वैराग्य ही आत्मकल्याण की दिशा में प्रथम और अनिवार्य कदम है।] 

  [दोषेण तीव्र: विषय: कृष्णसर्पविषात् अपि , विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषा अपि अयम्। ] 

कहते हैं - जितने भी विषय हमें इन्द्रियों से दिखाई देते हैं - इसमें तीव्र दोष है , ये सब अत्यंत ही दोषयुक्त है। या हम कह सकते हैं ये अत्यंत ही भयानक हैं ,खतरनाक विष जैसे हैं। आप सोचोगे कि शंकराचार्य जी ऐसा क्यों कह रहे हैं ? रूप-रस-गंध -शब्द-स्पर्श जो पाँच विषय हैं -इसमें खतरा क्या है ? ये बड़े मासूम हैं। बड़ा महत्व पूर्ण अवलोकन है -'दोषेण तीव्र: विषय: कृष्णसर्पविषात् अपि' कृष्ण -सर्प यानि काला नाग ! जो सबसे ज्यादा जहरीला होता है , जिसको हमलोग अंग्रेजी में King Cobra कहते हैं। तो कहते हैं नाग का जो विष है , उससे भी तीव्र विष  इन पाँचो विषय रूपी विष का विष है। क्यों ? हम कोई रूप देख रहे हैं - तो उसमें विष कहाँ है ? तो कारण कहते हैं - विषं निहन्ति भोक्तारं, द्रष्टारं चक्षुषा अपि अयम्।' काळा नाग का विष हमारे लिए घातक कब होगा ? जब वो हमें डस लेगा ? उसका विष जब हमारे रक्त में प्रवाहित होगा - तभी हम मरेंगे। इसके पहले नहीं। दूर पर कोई नाग घूमता हो तो उससे क्या हम मरने वाले हैं ? लेकिन ऋषि यहाँ कह रहे हैं , ये जितने विषय हैं न ये ऐसे हैं कि दूर से उसको देखकर ही - मलवा ! रे मलवा ! वो विषय हमें मार देती हैं। दूर से दिखाई देते ही मोह से अँधा या राग से अँधा बना देती है। एक सांसारिक उदाहरण से समझें - आप सबने सुना होगा ? LOVE at first sight ! पहली नज़र में प्यार !! उनसे नजरें मिलीं और जिगर लुट गया ? क्या हुआ ? कोई एक व्यक्ति दूर में खड़ा या खड़ी है ! और आपका उसके प्रति वही सतही दृष्टि का '2 mm व्यू है ' 'दो मिमी का दृष्टिकोण'  2 mm View ' पुरुष के लिए कोई स्त्री हो सकती है , स्त्री के लिए कोई पुरुष हो सकता है। कोई पुरुष दूर से खड़ी महिला को 2 mm वाली दृष्टि से देखा। मोहित हो गया। अभी बात भी नहीं किया। सिर्फ देखने मात्र ये व्यक्ति घायल हो गया , मर गया !! Is this not a fact ? क्या यह सच नहीं है ? उस महिला से बात भी नहीं हुई , वो महिला चली गयी। लेकिन उस 'महिला का 2mm रूप' इसके मन में प्रविष्ट हो गया है। अभी उसका घातक प्रभाव न भी दिखे -पर मौका मिलते ही वह राग में बंध जायेगा। इसकी अब नींद उड़ गयी है , ये अब सो नहीं पा रहा है ? इसका चयन चला गया है , अंतःकरण की शांति चली गयी है। Is this not a fact ? tell me ! क्या यह सच नहीं है? मुझे बताओ! It Is a profound psychological observation ! यह एक गहन मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण -निरीक्षण है ! ये विषय कैसे हमें दूर से देखने मात्र से हमें मार देती है ! होता है कि नहीं ? कितना बड़ा- psychological observation' मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण है इस ऋषि दृष्टि का ? इस व्यक्ति ने उस व्यक्ति से बात भी नहीं किया है , कुछ भी नहीं हुआ है ; सिर्फ देखा मात्र है।  '2 mm व्यू' उसका मुख्य कारण है।  लेकिन क्या हुआ है ? इस व्यक्ति के मन का अपहरण हो गया है।  आप ऐसा सोच लीजिये। This person's mind has been hijacked ! इस व्यक्ति का दिमाग हाईजैक कर लिया गया है। उसका मन अपहृत कैसे हो गया ? उसने दूर से ही कोई रूप देख लिया था ? उस विषय के पास भी नहीं गया है। उससे बात भी नहीं किया है - लेकिन उस विषय ने व्यक्ति के मन का अपहरण कर लिया है। This is how the sense objects kill us ! इस प्रकार इंद्रिय विषय हमें मार डालते हैं! इस शख्स का दिमाग हाईजैक कर लिया गया है। पहली नजर में प्यार ? ये केवल समझने के लिए उदाहरण है , लेकिन कीतनि ही प्रकार की वस्तुएं हैं जो हमारे मन पर हावी हो जाती हैं। देखने मात्र से हमारे मन में वही घूमता रहता है या नहीं ? लोग कहते हैं - दादा मन एकाग्र नहीं होता है ? कैसे होगा ध्यान ? विद्यार्थी है तो मन लगाकर पढ़ नहीं पाता है , मन पढाई में लगेगा भी कैसे ? उसने तो किसी को देख लिया है ? या कोई पुराना प्रेम-प्रसंग है ? सभीलोग इस दौर से गुजरते हैं। ये प्राकृतिक Human Behavior  है। हम किसी पुराने सदस्य को Judge नहीं कर रहे हैं ? हम सिर्फ मानव- स्वभाव का अध्यन कर रहे हैं।सभी मनुष्यों के साथ ऐसा होता है। हमलोग उसकी समस्या के तहतक जाकर उसे समझने का प्रयास कर रहे हैं। पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है ? तो उसका कारण यही है कि मन में कुछ और घुसा हुआ है। मन में कोई भी चीज घुसी हुई रहे तो मन एकाग्र कैसे होगा ? क्योंकि मन का तो अपहरण हो गया है।  कोई एक व्यक्ति है , कोई एक विषय है जिसने उसके मन का अपहरण कर लिया है। उसका मन उसके हाथ में ही नहीं है।  अब वो अपने मन को एकाग्र कैसे करेगा ? तो ऋषि शंकराचार्यजी की ये कितनी दृष्टि गहन निरीक्षण दृष्टि है ? तो दिखिए ये इन्द्रियविषय ऐसे हैं -जो दूर से ही हमें मार देती हैं। सर्प का जो विष है , वो काटने से मारता है। लेकिन विषय ऐसे हैं जो दूर से देखने पर ही मार देते हैं। मार देने का मतलब क्या हुआ ? उसके मन का अपहरण कर लेती हैं। फिर उसकी शांति चली जाती है , वो बेचैन रहने लगता है , उसकी नींद चली जाती है। अपने दूर से किसी के व्यवहार को देखा - और वो व्यवहार आपको घण्टों परेशान किये रहता है। मन में घंटों यही चलता रहता है। हो रहा है कि नहीं ? यह सब क्यों हो रहा है ? इसके मूल में अविवेक (अविद्या) है ! अपने स्थूल शरीर को ही मैं समझ लेना और उसमें आसक्त हो जाना इसका मुख्य कारण है। इसके मूल में अविवेक है। एक विवेकी के साथ ऐसा नहीं होगा। विवेकी जिस किसी विषय को देखेगा वो उसके मन पर प्रभाव नहीं डाल सकता। अपने को स्थूल शरीर समझने वाले अविवेकी का मन सब समय प्रभावित है , प्रलोभित है। विषयों को दूर से देखने मात्र से ये विषय हमारे मन का अपहरण कर लेते हैं। विषय हमको तभी मार सकता है , जब हम अविवेकी हों। शरीर को सत्य और आत्मा को मिथ्या समझते हों। अभी हमारे पास '2 mm व्यू' वाला अविवेकी दृष्टिकोण है। इसको हमेशा याद रखिये क्योंकि -इसका हमें निरंतर अभ्यास करना है। As long as you have 2 mm view of human beings- you are gone !  -जब तक आपके पास मनुष्यों को देखने की क्षमता मात्र "2 मिमी है" -तो आप विषयों में चले गए! केवल मनुष्य ही नहीं अगर Sunset देखने का भी गहरी दृष्टिकोण होगा , तो दृश्य कुछ और ही होगा। और तब इन किसी भीचीजों से मोहित नहीं होते हैं। यहीं हमलोग रुक जाते हैं - !! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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