श्रीरामचरितमानस
षष्ठ सोपान
[ लंका काण्ड]
[ घटना - 326 : दोहा -62,63,64]
* कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
>>रावण-कुम्भकरण संवाद और विभीषण-कुम्भकरण मिलन का प्रसंग
रावण के मुख से सीताहरण तथा युद्ध का वृत्तांत सुनकर कुम्भकरण अत्यंत दुःखी हो गया। वो रावण को धिक्कारता है , जो जगतजननी का अपहरण करके अब अपना कल्याण चाहता है ? अब भी अगर अपना अभिमान त्याग कर श्रीराम की शरण में आये तो उसका कल्याण हो सकता है। नारदमुनि से मिला ज्ञान वो रावण को दे देता है। किन्तु अब बहुत देर हो चुकी है , अतः वो भाई से गले मिलकर युद्ध में जाने को तैयार हो जाता है , जहाँ उसके समस्त पापों का हरण करने वाले कमलनयन श्रीराम के दर्शन होंगे। असंख्य घड़े मदिरापान और भैसों का भोजन करके वज्रगर्जना करता हुआ कुम्भकरण युद्धभूमि में आ पहुँचा। वहाँ विभीषण उसके पैरों पर गिर पड़ा और अपने अपमान और निष्कासन की कथा कह सुनाता है। कुम्भकरण ने छोटे भाई विभीषण का साधुवाद किया फिर बोला -'रावण पर काल सवार है ,अब भला वो सदुपदेश क्या सुनेगा ? धन्य है तूँ जो अपने सत्कर्म से राक्षस कुल का भूषण हो गया। किन्तु अब मैं भी काल के वश में हूँ , मुझे अब अपना-पराया कुछ नहीं सूझ रहा, अतः तूँ प्रभु के पास वापस लौट जा।
दोहा :
* सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥
भावार्थ:- तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?॥62॥
चौपाई :
* भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥
भावार्थ:- हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा॥1॥
* हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2॥
भावार्थ:- हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥2॥
* कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥
भावार्थ:- हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥3॥
* अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥
भावार्थ:-हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥4॥
दोहा :
* राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥63॥
चौपाई :
* महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥1॥
भावार्थ:-भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली॥1॥
* देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥2॥
भावार्थ:-उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे॥2॥
* तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥3॥
भावार्थ:-(विभीषण ने कहा-) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा॥3॥
* सुनु सुत भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥4॥
भावार्थ:-(कुंभकर्ण ने कहा-) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥4॥
* बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥5॥
भावार्थ:-हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥5॥
दोहा :
* बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥64॥
भावार्थ:-मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ॥64॥
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