⚜️️🔱 नये बुद्ध के प्रभामण्डल द्वारा आकर्षित ⚜️️🔱
स्वामी विवेकानंद के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पाश्चात्य महिलाओं में तीन ऐसी थीं, जिन्होंने अपने अलग-अलग जीवन पथ पर चलते हुए - स्वामी जी के प्रभामण्डल द्वारा स्वयं को आकर्षित पाया और उनके माध्यम से आजीवन उनकी घनिष्ठ मित्र बनीं रहीं। उनके बारे में सोचना महामानव स्वामी विवेकानन्द के बारे में चिंतन करना है; और जब तक यह दुनिया स्वामी ववेकानन्द के बारे में जानती रहेगी, उनके बारे में चिंतन करने से वे भी याद आती रहेंगी। सिस्टर निवेदिता , जोसेफिन मैकलियोड और सारा बुल प्रेरित-ईश्वरदूत थीं (मानवजाति की मार्गदर्शक नेता-पैगम्बर या Leader थीं), उनके जीवन और भाग्य स्वामी जी और एक-दूसरे के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे, और स्वामी जी के कार्य में सहयोग देने के प्रति, अपने-अपने तरीके से प्रत्येक महत्वपूर्ण थी। उनमें से प्रत्येक को यह अनुभव हुआ था कि स्वामी जी से उनकी मुलाक़ात कोई आकस्मिक घटना नहीं थी; यह उनकी नियति थी! वह मुलाक़ात जिसने न केवल उनके मनुष्य योनि में जन्म को अर्थ दिया, बल्कि वह मुलाकात उन्हें उनके जन्म का मूल उद्देश्य, लक्ष्य प्रतीत हुआ जिसकी ओर उनके प्रारंभिक जीवन ने उन्हें निर्देशित किया था।
और उन तीनों नारी पैगम्बरों (जीवनमुक्त शिक्षकों) में से प्रत्येक महिला नेत्री का व्यक्तित्व इतनी बारीकी से गढ़ा हुआ था कि प्रत्येक अपने- आप में अद्वितीय थीं। जोसेफिन मैकलियोड ने कहा था, 'स्वामी जी मुझे मुक्त करने के लिए अमेरिका आए थे, और यह उनके मिशन का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा था जितना कि निवेदिता को संन्यास (त्याग की शिक्षा) देना।' वे अक्सर कहा करती थीं कि - 'निवेदिता पूर्ण रूप से स्वामी विवेकानन्द की एक शिष्या थीं, लेकिन 'मैं कभी उनकी शिष्या नहीं रही, मैं सिर्फ़ उनकी एक मित्र थी'। अपने को 'सिर्फ़ एक मित्र' (Only a friend) कहना- सत्य पर परदा डालने जैसा इतिहास की सबसे बड़ी न्यूनोक्तियों (understatements) में से एक है। जोसेफ़िन मैकलियोड वास्तव में इस "नए बुद्ध " (#स्वामी विवेकानन्द) की एक ऐसी मित्र थीं, जो उनके प्रथम दर्शन के समय से ही- 'lifted from the first sight of him into his orbit forever' हमेशा के लिए उनकी कक्षा में (प्रभामण्डल के आवेग के द्वारा) खींच ली गईं थीं ।
[#.स्वामी विवेकानन्द को जोसेफिन मैकलियोड कभी-कभी 'आधुनिक बुद्ध' (the modern Buddha) या 'नए बुद्ध' (the new Buddha) के नाम से उद्धृत करती थीं, और कहती थीं कि उनके जीवन का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द (चूड़ामणि परम् सत्य) को आविष्कृत करना है!
जहाँ तक सिस्टर निवेदिता का प्रश्न है, इसमें कोई संदेह नहीं कि वे स्वामी जी की शिष्या थीं। स्वामीजी द्वारा दीक्षा के समय दिए गए उनके नाम- निवेदिता का अर्थ है 'समर्पित' (Dedicated-निष्ठावान) । शिष्यत्व उनके जीवन का केंद्रीय तथ्य बन गया। लेकिन वे केवल एक सामान्य शिष्या से कहीं बढ़कर थीं। वे स्वामी विवेकानन्द जैसे जगत गुरु (world teacher) के प्रभावलय से आविष्ट हो गयीं और इस तरह उनके जीवन ने भी , स्वामी जी के जीवन की तरह, एक ऐतिहासिक महत्व ग्रहण कर लिया। भगिनी निवेदिता स्वामी जी से मिलने वाले कई महत्वपूर्ण लोगों में से एक व्यक्ति नहीं हैं; बल्कि वे तो - न केवल पाश्चात्य देशों के साथ-साथ स्वयं भारत के लिए भी भारत की एक प्रारंभिक दुभाषिया (प्रथम अनुवादक -early interpreter) हैं। वह भारत में मुख्यतः कन्या विद्यालय या बालिका शिक्षा ( girls’ education) की अग्रदूत (pioneer -पथप्रदर्शक) नहीं हैं, और न भारतीय-राष्ट्रवाद (Indian nationalism) की उद्दीपना को आलोड़ित करने वाली एक और व्यक्तित्व हैं। हाँ, वह ये सब कुछ हैं, लेकिन ये सभी भूमिकाएँ केवल उनके वास्तविक महत्व को दर्शाने भर के लिए (merely ornament) हैं।
सही समय आने पर लोग यह देख पायेंगे कि भगिनी निवेदिता के माध्यम से महान शिक्षिका का विश्वव्यापी नाटक चल रहा है, क्योंकि वह विशुद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति से कहीं अधिक व्यापक, उस आयरिश महिला से कहीं अधिक व्यापक (जीवनमुक्त शिक्षक, मार्गदर्शक नेता) हैं, जिसने स्वामी जी से भेंट होने के बाद अपना जीवन भारत का कल्याण (welfare of India) के लिए समर्पित कर दिया था। और इसीलिए भगिनी निवेदिता की एक सौ पचासवीं जयंती मनाना बिल्कुल स्वाभाविक है; और उनका जन्मदिन आने वाले युगों-युगों तक मनाया जाता रहेगा।
भगिनी निवेदिता के जीवन-संगीत में तीन प्रमुख स्वर हैं, जिन्हें समझे बिना शायद हम उन्हें ठीक से समझ नहीं सकते। जोसेफिन मैकलियोड ने उनके जीवन-संगीत के तीन स्वरों में से दो प्रमुख स्वरों को- 1. त्याग (Renunciation) 2. शिष्यत्व (discipleship) के नाम से उल्लेखित किया है। तीसरे स्वर को स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट किया था -3. Dedication to the 'the Work'- कार्य के प्रति समर्पण, ‘the Work' अर्थात स्वामी विवेकानंद का कार्य,वह मिशन जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी श्री रामकृष्ण परम्परा ने अपने योग्यतम शिष्य 'नरेन्' पर छोड़ा था- " नरेन् शिक्षा देगा!"[स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर-निवेदिता-वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य बनो और बनाओ 'Be and Make' के द्वारा सत्ययुग स्थापन का कार्य]। उस 'कार्य' के प्रति समर्पण, अर्थात भगिनी निवेदिता का एक ऐसा कार्य के प्रति समर्पण जो स्वामी जी के मतानुसार कम से कम आगामी पंद्रह सौ वर्षों तक अपनी प्रगति की गति जारी रखेगा।
हममें से जो लोग रामकृष्ण आंदोलन 'Be and Make' को एक उभरते हुए वैश्विक धार्मिक/शैक्षणिक आंदोलन (a budding world religious movement) के रूप में देखते हैं, उनके लिए अपने आन्दोलन की वर्तमान अवस्था और भविष्य को यदि देखना हो तो उन्हें बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के इतिहास पर नज़र डालना बहुत लाभकारी सिद्ध होगा। बौद्ध और ईसाई इन दोनों 'गुरु-शिष्य परंपराओं' के आरंभ में, हम देखते हैं कि उनके गुरु (नेता) के देहांत हो जाने के बाद एक या दो शताब्दियों तक, इस नवजात आंदोलन (nascent movement) का जीवन, विचार और व्यवहार (practice) अपने -अपने गुरु के मानवीय पहलू ( human aspect of the Teacher) पर ही केंद्रित रहा। हम यह भी देखते हैं कि, हालाँकि बुद्ध और ईसा मसीह के शिष्य और फिर उनके भी शिष्य (जैसे श्रीरामकृष्ण के शिष्य , विवेकानन्द और फिर विवेकानन्द के शिष्य सेवियर दम्पति-निवेदिता आदि) यह जानते थे कि उनके गुरु कोई साधारण संत (ordinary saint) नहीं थे, फिर भी अधिकांश लोग अपने गुरु (नेता, अवतार) के जीवन और संदेश के ऐतिहासिक महत्व को पूर्णतः नहीं समझ सके थे। बुद्ध और ईसा मसीह द्वारा शुरू किये गए आंदोलन के गठन का अधिकांश प्रारंभिक कार्य उन दो ऐतिहासिक व्यक्ति के प्रति सच्चे रहने के प्रयास में, उनके बुनियादी जीवन और शिक्षाओं को संहिताबद्ध करने, अध्ययन करने और समझने के प्रयास में ही बीत गया। [ ठीक उसी प्रकार जैसे पूज्य श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा शुरू किये गए - मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शैक्षणिक आंदोलन 'Be and Make' के गठन का अधिकांश प्रारंभिक कार्य उस ऐतिहासिक व्यक्ति (नवनीदा के महामण्डल आंदोलन ) के प्रति सच्चे रहने के प्रयास में, उनके बुनियादी जीवन और शिक्षाओं को (महामण्डल केन्द्रीय कार्यालय , और उसके द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं और मासिक पत्रिका विवेक-जीवन को संहिताबद्ध करने, अध्ययन करने और समझने में चला गया।]
उदाहरण के लिए- ईसाई धर्म में आप यीशु की मृत्यु के बाद, संत पॉल और ईसामसीह प्रत्यक्ष शिष्यों (direct disciples) के बीच तनाव देखते हैं। संत पॉल ने सिवाय किसी दिव्य दर्शन (यीशु के चित्र पर मन को एकाग्र रख सच्चिदानन्द की अनुभूति) के, यीशु को कभी प्रत्यक्ष तौर से नहीं देखा था। लेकिन फिर भी ये संत पॉल ही थे जिन्होंने सबसे पहले यीशु के ऐतिहासिक महत्व—वैश्विक महत्व—को समझा था । ईसा के 12 प्रेरित शिष्य (The apostles) जो यीशु को जानते थे, उन्हें ईश्वरीय (अवतार) मानते थे, लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि सम्पूर्ण विश्व के लिए इसका क्या अर्थ है। वे अब भी (ईसामसीह के जाने के बाद) स्वयं को एक विश्वव्यापी आंदोलन के कर्मी होने बजाय अपने को महान गुरु के प्रति समर्पित एक यहूदी संप्रदाय के मतावलम्बी मानते थे। (Jewish sect-जैसे बंगाली/मद्रासी /हिन्दू संप्रदाय मानते थे।) जबकि St. Paul (संत पॉल) अपने पत्रों (epistles-धर्मपत्रों) में बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि उनके पास एक सार्वभौमिक खजाना (universal treasure-Be and Make!) है, जिसे यहूदी समाज की , (बंगाली समाज? -ब्राह्मण समाज ?-हिन्दू समाज?) कठोर जन-जातीय पहचान (strict tribal identity) और सांस्कृतिक कानूनों (cultural laws) की सीमा से परे, बाहर की बड़ी दुनिया के लिए- (सम्पूर्ण विश्व के लिए) अवश्य खोला जाना चाहिए।
हमारे अपने धार्मिक/शैक्षणिक आंदोलन, रामकृष्ण आंदोलन # के आरंभ में भी यही बात देखी जाती है। [# Ramakrishna Movement :श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- में '3H' विकसित करने का 'Be and Make' आन्दोलन]। जगतगुरु (the Great Teacher) श्रीरामकृष्ण के शिष्यों ने भी उनको एक अवतारी पुरुष (human-Divine Being -अवतार वरिष्ठ) के रूप में देखा, उसी रूप में उन्हें समझा था। उन्हें श्रीरामकृष्ण की वाणी, उनकी दिव्य (beatific) मुस्कान, उनके चुटकुले और हँसी, उनका अथाह प्रेम, दिन में कई बार उनके द्वारा अनुभव किया जाने वाला परमानंद (ecstasy-भावातिरेक), तथा उनके समक्ष बैठने से ही उनकी उपस्थिति में अनुभव किया जाने वाला परमानंद, वह सब उनके मानस-पटल पर तरोताजा था। श्रीरामकृष्ण की महासमाधि (शरीर-त्याग) के बाद भी उनके शिष्यों ने उन्हें एक जीवंत सत्य, वर्तमान वास्तविकता (present reality) या एक जीवित व्यक्ति के रूप में जाना और अनुभव किया, जो अभी भी उनका मार्गदर्शन कर रहा था, उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर रहा था, और उनकी अपनी मुक्ति (own liberation) हो जाने के बाद भी, अनंत ईश्वर और उसके अनंत प्रकटीकरणों (infinite Manifestations) को उनके समक्ष अधिकाधिक प्रकट कर रहा था।
श्री रामकृष्ण के शिष्य और उनके शिष्य के शिष्य श्री रामकृष्ण की दिव्यता के बारे में इतनी सहजता से सुनते हुए 'बड़े हुए' कि उनके ऊपर श्रीरामकृष्ण का गहरा प्रभाव पड़ा। यहाँ तक कि इस रचना के लेखक को जिसे बहुत विलम्ब से मठ और मिशन से जुड़ने का सौभाग्य मिला था; उसे भी, ऐसे महापुरुष से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो श्रीरामकृष्ण को जानते थे और उनकी सेवा किये थे; और जिसका विवाह भी ठाकुरदेव के द्वारा तय किया गया था। तथा मुझे (अर्थात इस लेखक के लेखक को) ऐसे पाँच व्यक्तियों से भी मिलने का सौभाग्य मिला जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को देखा था। और इस प्रकार जो वैसे ऐतिहासिक पुरुष (अवतार), जब आते हैं तब उनके शिष्य यह जानते हैं कि, उनके गुरु (जैसे नवनीदा) का पार्थिव शरीर तो चला गया है किन्तु वे अब भी एक मूर्त सच्चाई (tangible Reality) के रूप में जीवित हैं -और अपने प्रिय भक्तों का (जो विवाहित हों या अविवाहित हों, बिजनेसमैन हों या रिटार्ड कर्मचारी हों - सभी एक सामान) मार्गदर्शन कर रहे हैं, तथा उनके जीवन में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
संत पॉल और ईसा मसीह के अन्य शिष्यों के बीच जिस प्रकार तनाव (tension) देखा गया था, ठीक वैसा ही तनाव स्वामी विवेकानन्द तथा श्री रामकृष्ण के अन्य शिष्यों के बीच, और उनके (पूर्ण त्यागी संतानों या स्वामी ब्रह्मानन्द जैसे) मठवासी और गृहस्थ (गृही भक्तों) के बीच भी देखा गया था। स्वामीजी ने कई वर्षों तक अपने अन्य गुरुभाइयों को यह विश्वास दिलाने में खपा दिए कि श्री रामकृष्ण (जिनकी जन्मतिथि से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है) और उनका मिशन, उनके अन्य शिष्यों (संन्यासी और गृही-भक्तों) कल्पना से कहीं अधिक व्यापक है, कभी-कभी तो वे- ठाकुर देव के बारे में उनकी सीमित धारणाओं (limited conceptions) को एक ही झटके से तोड़ देते थे। हमलोग इस बात के लिए कृतज्ञ हैं कि श्री रामकृष्ण ने नरेंद्र और अपने अन्य शिष्यों (काली महाराज और राजा महाराज) के बीच इतना गहरा बंधन स्थापित कर दिया था कि उनके इस प्रेम बंधन से सभी प्रकार के तनाव स्वतः नियंत्रित हो जाया करते थे।
[" As generations pass in a new religious movement, stories of the continuing self-revelation of the Great Teacher accumulate in the collective mind of the movement, stories of people—who have never heard of the Teacher— being awakened by him, people transformed by him before they even know a name for him, stories of devotees seeing him come for them on their deathbed, stories of visions, intercessions, revelations, and examples of realization mediated through the repetition of his name and dwelling on his form. And thus the ever-present, ever-living, ever-active, omnipresent, and universal aspect of the Great Teacher comes to the fore, not by disconnecting from the historical (#4) but by seeing the historical in a much larger context: by seeing the historical as an expression of the universal.]
[#4. बौद्ध धर्म की महायान परम्परा में, भगवान बुद्ध का ऐतिहासिकता के साथ सम्बन्ध लगभग समाप्त हो गया था, जिससे 'बुद्धत्व प्राप्ति' का विचार इतना कल्पनाशील बना दिया गया कि , साधारण मनुष्य के लिए उस अवस्था तक पहुँचना अप्राप्य जैसा हो गया; दूसरी ओर थेरवाद में ऐतिहासिकता को इतनी कठोरता से रखा गया कि उसकी मूल भावना ही खो गई: दोनों में से कोई भी वांछनीय नहीं है। हीनयान, जिसे थेरवाद बौद्ध धर्म के नाम से भी जाना जाता है, व्यक्तिगत ज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति पर केंद्रित है, जबकि महायान बौद्ध धर्म बोधिसत्व के आदर्श पर जोर देता है, जो दूसरों को ज्ञान प्राप्त करने में मदद करने के लिए व्यक्तिगत निर्वाण को स्थगित कर देता है। 'थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'श्रेष्ठ जनों की बात'। बौद्ध धर्म की इस शाखा में पाली भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रंथों का पालन करने पर बल दिया जाता है। थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए तथागत बुद्ध एक महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई देवता नहीं। वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।
4. In the Mahayana tradition of Buddhism, the connection with the historical was all but lost, allowing the idea of Buddhahood to become so imaginative as to be unreachable, whereas in the Theravada the historical letter was kept so strictly that the spirit was lost: neither is desirable.]
जैसे-जैसे किसी नए धार्मिक/शैक्षणिक आंदोलन (उदाहरणार्थ महामण्डल आन्दोलन) में पीढ़ियाँ बीतती जाती हैं, आंदोलन के सामूहिक मन (collective mind) में जगत गुरु (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण या नवनीदा) के आत्म-प्रकटीकरण की कहानियाँ, ऐसे लोगों की कहानियाँ - जिन्होंने जगत गुरु (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा) के बारे में कभी नहीं सुना, फिरभी अचानक उनके द्वारा जागृत होने की, उनके नाम से परिचित होने से पहले ही उनके द्वारा रूपांतरित होने की, उनके
नाम के जप, प्रार्थनाओं और
उनके स्वरूप पर ध्यान के माध्यम से प्राप्त साक्षात्कारों, रहस्योद्घाटनों
और आत्मसाक्षात्कार के उदाहरणों की;भक्तों के द्वारा उन्हें अपनी
मृत्युशय्या पर आते देखने की, कहानियाँ निरंतर एकत्रित होती जाती हैं। [अनुप्रेरित होने-जैसे इस लेख के अनुवादक ने कभी स्वामी विवेकानन्द के चित्र को भी नहीं देखा था -पर 12 जनवरी 1985 को अचानक tv पर दिल्ली रामकृष्ण आश्रम में शिकागोपोज पर राजीवगाँधी को स्वामीजी पर माला चढ़ाते देख देखकर उनका दीवाना बन गया,और झुमरीतिलैया के माध्यम से बिहार-झारखण्ड में महामण्डल आंदोलन भी पहुँच गया !!] और इस प्रकार, ऐतिहासिक
से अलग होकर नहीं, बल्कि ऐतिहासिक को एक बहुत बड़े- विश्वव्यापी महत्वपूर्ण संदर्भ में
देखने से, ऐतिहासिक 'नेता ' को एक सार्वभौमिक की अभिव्यक्ति (expression of the universal) के रूप में देखने से उस महान शिक्षक (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, पैगम्बर, 'नए बुद्ध स्वामी विवेकानन्द' का नित्य-वर्तमान, नित्य-जीवित, सदा-सक्रिय, सर्वव्यापी (omnipresent) और सार्वभौमिक पहलू सामने आता है। ऐसा होने पर, ऐतिहासिक (historical) व्यक्तित्व, आध्यात्मिक (meta- historical) बन जाता है, और वह ऐतिहासिक छवि, मानवता की चेतना ( consciousness of humanity) में अंकित एक पौराणिक छवि (mythic Image-काल्पनिक छवि) बन जाती है। वह ऐतिहासिक व्यक्ति (ठाकुर देव परम्परा) प्रत्येक मनुष्य के हृदय-कमल में आसीन व्यक्ति बन जाता है, ऐतिहासिक घटनाएँ ब्रह्मांडीय महत्व (cosmic significance) ग्रहण कर लेती हैं, एक बार कहे गए शब्द- 'Be and Make !' अब 'एक बार कहे गए' नहीं रह जाते, बल्कि शाश्वत की वाणी ( voice of the Eternal) बन जाते हैं। नेता (नवनीदा के माध्यम से) चुने हुए शिष्यों को प्राप्त तात्कालिक रहस्योद्घाटन सभी लोगों के लिए सदैव के लिए रहस्योद्घाटन बन जाते हैं, एक साधारण दंतकथा (anecdote-उपाख्यान-सिंहशावक की कहानी) अंतहीन, कालातीत ज्ञान (timeless wisdom) को प्रकट करती है।
इससे पहले कि हम यह देखें कि सिस्टर निवेदिता से उपरोक्त कथनों का क्या संबंध है, आइए एक उदाहरण (इसी रचना के लेखक का उदाहरण) लेते हैं।
जब मैं बिल्कुल नया नौसिखिया (brand new novice :नवदीक्षित-प्रशिक्षणार्थी) था—हमारे एक अमेरिकी मठ (American monasteries) में शामिल हुए तीन हफ़्ते भी नहीं हुए थे—तब हमारे मंदिर में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर, प्रभु ईसा मसीह का वार्षिक जन्मोत्सव मनाया जाता था। पहले थोड़ा भजन -गायन हुआ, पाठ हुआ, और फिर वहाँ के मठ-प्रभारी संन्यासी (स्वामी) थे, जो भारतीय मूल के थे, उनका प्रवचन हुआ । (There was a little singing, a reading, and then the swami, who was from India, spoke.) सचिव महाराज - के प्रवचन के बाद जब हम विदा हो रहे थे, एक भक्त मेरे पास से गुज़रा और निराशा भरे स्वर से बोला, "देखो, स्वामी ने एक बार फिर हमारा क्रिसमस (Christmas) बर्बाद कर दिया!"
मठ में केवल तीन सप्ताह रहने के बाद, मैं इस भक्त को नकारात्मकता की एक विश्वसनीय आवाज़ (dependable voice of negativity) के रूप में पहचान गया था; और सचिव महाराज स्वामी ने प्रभु ईसा के जन्म की कथा बहुत अच्छे ढंग से और ईमानदारी से कही थी, फिर भी मैं तुरंत समझ गया कि उस अमेरिकी भक्त के कहने का अभिप्राय क्या था ? क्योंकि मैं भी सचिव-स्वामी की बात से निराश हो चुका था। क्यों? सचिव-महाराज (स्वामी) ने अपने प्रवचन में-'Sermon on the Mount' (शैलोपदेश) और ईश्वर के अवतार रूप में आने के विषय में बहुत अच्छी-अच्छी बातें कहीं थीं , बहुत सुंदर ढंग से बतलायी थीं, उसमें कुछ भी नकारात्मक नहीं था। फिर भी मेरे जैसे लोगों को उनका प्रवचन अच्छा क्यों नहीं लगा ? क्योंकि उन दिनों यहूदी घर-परिवारों (Jewish home) के लोगों के आलावा अन्य पाश्चात्य घर-परिवारों ( Christian home) या ईसाई समाज में पले बड़े लोगों के लिए इसमें प्रचलित क्रिसमस (ईसा जन्मोत्सव) के जैसा कुछ भी नहीं था।
क्रिसमस का त्यौहार उस कालातीत क्षण की असाधारण पवित्रता की यादगार की रूप में मनाया जाता है, जब एक 'शिशु', सड़क के किनारे अवस्थित सराय (inn) के अस्तबल में पैदा होता है, - जो वास्तव में अनन्त की खिड़की है (a window into the Infinite: श्रीरामकृष्ण की भाषा में बड़े-ऊँचे दीवाल में वह छेद है , जिससे उस दीवाल के परे का अनंत मैदान देखा जा सकता है) ! अर्थात वह शिशु एक ऐसा अवतार था जिसके जन्म लेने से- आने वाले युगों -युगों तक सम्पूर्ण मानवता के लिए- अनन्त का साक्षात्कार (आत्मसाक्षात्कार, सच्चिदानन्द या ब्रह्म का दर्शन) करने की एक खिड़की खुल गई थी ! यह कथा एक पवित्र युवती - माँ मेरी (माँ सारदा जैसी मेरी माँ) 'mother Mary' के बारे में है - जो यह जानती है, कि वह शिशु स्वयं ब्रह्म (ईश्वर का अवतार) है, फिर भी उस शिशु को नई माँ के झंकृत ह्रदय के साथ झूलना झुलाती हैं! किन्तु (माँ यशोदा के जैसा) झूलना झुलाते समय भी, अपने को उस शिशु -ईश्वर का भक्त ही समझती हैं- जो वात्सल्य भाव से ईश्वर की आराधना कर रहा है।
यह क्रिसमस त्यौहार उन चरवाहों (shepherds) की यादगार को ताजा करता है , जिन्होंने रात्रि में एक महान तारे (great star) को पास आते और निकटवर्ती शहर के ऊपर खड़ा होते हुए देखा। और वे आश्चर्य से और भर उठते हैं , जब देखते हैं कि देवदूतों (angels -फरिश्तों) का एक समूह , उनके निकट आता है और उन्हें उस महान घटना की जानकारी देता है। यह त्यौहार उन तीन ज्ञानी सन्तों ( three wise men) के विषय में है, जो बहुत दूर से आते हैं और जो जानते हैं कि -बेथलहम शहर के एक सराय के अस्तबल में अभी-अभी प्रभु यीशु का जन्म हो चुका है-और वे नवजात शिशु को उपहार देते हैं, तथा उस शिशु को सम्पूर्ण मानवजाति का उद्धारकर्ता (Saviour) घोषित करते हैं।। [ बाइबिल के अनुसार, प्रभु यीशु का जन्म बेथलहम शहर में हुआ था, जब यीशु के माता-पिता, मरियम और यूसुफ, बेथलहम पहुंचे, तो शहर में बहुत भीड़ थी और उन्हें रहने के लिए कोई जगह नहीं मिली, इसलिए उन्हें अस्तबल में रहना पड़ा। जन्म के बाद, माँ मेरी (मरियम) ने यीशु को चरनी (गाय को चारा देने वाला नाद या कड़ाही) में लिटाया, जो कि एक पत्थर लकड़ी का बर्तन होता है जिसमें जानवरों को चारा डाला जाता है. ]
किसी जन्मजात ईसाई (Christian) परिवार के लिए 'क्रिसमस' त्यौहार के उपलक्ष्य में ईसा मसीह के पर्वतीय उपदेश (Sermon on the Mount) सुनने या यीशु के बाद के कार्यों से कुछ लेना-देना नहीं होता। तो दूसरी ओर जो लोग जन्मजात रूप से ईसाई परिवार या समाज में नहीं पले -बढ़े हैं, (अन्य धर्मों के अनुयायी हैं) उनके लिये 'the story of the Nativity' -अर्थात प्रभु ईसामसीह के जन्म-स्थान (प्रसूति-Nativity-या क्रिसमस) की कहानी, बस एक साधारण कहानी है, जो बहुत रोचक नहीं है, और निश्चित रूप से इस पर प्रवचन देने कुछ नहीं है - एक तारा, कुछ देवदूतों का समूह, और एक शिशु ; बेचारे किसी (हिन्दू-परम्परा) के संन्यासी (स्वामी) का भी इस क्रिसमस से कुछ लेनादेना क्यों होना चाहिए था ? फिर भी विगत दो हज़ार सालों से साल दर साल, हर सदी के हर साल, सदी दर सदी, ईसाई लोग अब भी उसी कहानी को सुनना और उस पर विचार करना चाहते हैं। क्यों?
क्योंकि अस्तबल के नाँद (चरनी -manger) में जन्मे एक शिशु की कहानी, जिसके माता-पिता को सराय में कमरा देने से मना कर दिया गया था, अब से बहुत पहले घटित (2025 साल पहले घटित) अजीबोगरीब घटना की मात्र कोई साधारण कहानी नहीं रह गई है। यह कोई परी कथा भी नहीं है। इस रूपक की प्रत्येक छवि भक्तों के दिमाग में बहुत सुंदर नहीं, बल्कि एक जादुई लिपि में इस प्रकार से अंकित हो गई है, ताकि यह बहुत विस्तार से समझ में आ जाये, और हर क्रिसमस की पूर्व संध्या पर इस कथा का वर्णन उसी आश्चर्य-जनक दिव्य घटना को उजागर करती है। किन्तु इस कथा की यह भावोद्दीपक शक्ति रातोंरात प्रकट नहीं हुई हैं, यीशु की जन्मकथा कथा के प्रेरक शक्ति बनने में कई सदियाँ गुजर चुकी हैं। जैसे -जैसे लोगों का ध्यान इस महान शिक्षक के वास्तविक जीवन से हटकर, उनके सार्वभौमिक शिक्षक (Teacher Universal) के महत्व की ओर गया, वे नासरत (Nazareth) के यीशु से Logos (the ‘Word’ जैसे शब्दब्रह्म ॐ and Wisdom of God या परमेश्वर के प्रतीक चिन्ह जैसे Cross) परिणत हो गए। (उनका जन्म बेथलहम में हुआ था, लेकिन उनका पालन-पोषण नासरत में हुआ था, जो उत्तरी इज़राइल का एक ऐतिहासिक शहर है। जिसका उल्लेख सुसमाचारों में यूसुफ और मरियम के निवासस्थान के रूप में किया गया है।) और जैसे-जैसे उनका परिचय केवल पवित्र और विनम्र माँ मेरी का पुत्र से बदलकर 'वह द्वार जहाँ से जगत-प्रकाश उदित हुआ' ( ‘Portal Whence the Light of the World Has Arisen’) के रूप में दिया जाने लगा , शिशु रूप में जन्म से जुड़े इन चित्रों ने सार्वभौमिक महत्व (cosmic significance) का दर्जा प्राप्त कर लिया।
और इसलिए आज के हमलोग, जो श्रीरामकृष्ण के अनुयायी (जगतगुरु श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा के अनुयायी) हैं, जब नरेन्द्र और श्रीरामकृष्ण के बीच पहली मुलाक़ात के बारे में पढ़ते हैं, तो हमें वह घटना अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक प्रतीत होती है। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ (पीढ़ियाँ बीत जाने के साथ-साथ) हमलोग इस घटना के पीछे और भी बहुत कुछ देख सकेंगे।
नरेंद्र सिर्फ उन अंग्रेजी-शिक्षित युवा भारतीय में से मात्र एक अन्य व्यक्ति ही नहीं थे , जो लगभग अशिक्षित-एक ग्रामीण पुजारी (almost unlettered village priest) के पास आए थे। जैसा श्रीरामकृष्ण ने उनके विषय में कहा था - वे भारतीय पौराणिक कथाओं में वर्णित 'नर ऋषि' थे। [पौराणिक कथाओं में नर ऋषि, भगवान विष्णु के दो प्रसिद्ध अवतारों में से एक, नर-नारायण की जोड़ी का हिस्सा हैं। नर-नारायण को धर्म और मूर्ति के पुत्र माना जाता है। ये जुड़वां अवतार ऋषि बद्रीनाथ में तपस्या के लिए प्रसिद्ध हैं। महाभारत में, अर्जुन को नर ऋषि का पुनर्जन्म माना जाता है। ] 'नर' शब्द का अर्थ है - पुरुष या मनुष्य (man), किन्तु नरेन्द्र केवल एक पुरुष (man) ही नहीं थे, वे 'पुरुष' के प्रतीक थे (man with capital M)—iconic Man थे। वे अभिव्यक्त मनुष्य (manifest men -नरेन्द्रनाथ दत्त नामधारी मनुष्य) के पीछे नर ऋषि के साक्षात् अवतार थे, तथा वे नारायण के अवतार श्री रामकृष्ण से मिल रहे थे।
निःसन्देह, इस प्रकार का चिंतन एक रूढ़िवादी पौराणिक सोच जैसा लगता है। लेकिन, यह चिंतन पौराणिक (mythological) अवश्य है, पर रूढ़िवादी (primitive-आदिम या असभ्य) चिंतन कदापि नहीं है। बल्कि 'श्री रामकृष्ण से विवेकानन्द के प्रथम मुलाकात की कथा' एक जीवंत पौराणिक ( living mythology) कथा है, जो इस सुविचारित विश्वास पर आधारित है कि समय के साथ, दुनिया भर के लोग यह देख पायेंगे कि , स्वामी विवेकानंद किसी सार्वभौमिक (universal) तत्व (आत्मा) का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे कि श्री रामकृष्ण (अनंत परमात्मा का) प्रतिनिधित्व करते थे, उन्हें हम चाहे जो कहें—'नर' या 'नारायण', अवतार वरिष्ठ, या कुछ और कहें (कम से कम) विवेकानन्द के गुरु कहें ! इन दोनों को 'नर और नारायण ' कहने के पीछे तथ्य यह है कि दोनों 'सार्वभौमिक मानव' (universals -Human) तथा सार्वभौकिक ईश्वरीय (universals the Divine) का प्रतिनिधित्व करते हैं और समय के साथ उन्हें इसी रूप में (अर्जुन -श्रीकृष्ण रूप में) पहचाना जाएगा।
और इस प्रकार नरेंद्र और श्री रामकृष्ण की पहली मुलाकात की घटना - मनुष्य और ईश्वर का मिलन (योग) को, आधुनिक जगत (अंग्रेजी-हिन्दी भाषी जगत) और प्राचीन ज्ञान (बंगला में वेदान्त का सार -नवनीदा) के मिलन को, हममें से प्रत्येक के भीतर की सत्य-खोजी आत्मा (the seeking Soul-एथेंस के सत्यार्थी की परम् सत्य को देखने की चाह ) और ठाकुर के मुख से उपनिषदों के दिव्य प्रत्युत्तर ( महावाक्य "तत् त्वम् असि"- तुम वही 'नर' ऋषि हो जगत का दुःख दूर करने आये हो !) के मिलन को, भौतिकतावाद (materialistic) में खोए हुए जगत को उसके अपने दिव्य स्रोत (Inherent Divinity) से मिलन के मार्ग (चार -योग) को प्रकट करेगी। श्रीरामकृष्ण से नरेन्द्रनाथ के मुलाकात की यह घटना ही अपने आप में उच्च विचारों से समृद्ध और अनंत भावों को व्यक्त करेगी जो अनंत के एकत्व की अनुभूति में विलीन हो जाएँगे। श्री रामकृष्ण से नरेंद्र का पहला प्रश्न—‘महाराज, क्या आपने ईश्वर को देखा है?’—‘Have you seen God?'—हमारा प्रश्न होगा। और श्री रामकृष्ण का उत्तर, हमारे लिए उनका उत्तर होगा। आगे की समस्त छोटी-छोटी घटनाएँ- (Even small incidents :जैसे नरेन्द्र को देखने के लिए ठाकुर का ब्रह्मसमाज की सभा में जाना) भी अवतार लीला के महान सत्यों को उजागर करेंगी।
आगे चलकर 'सिस्टर निवेदिता' भी श्री रामकृष्ण की इस विश्वव्यापी लीला (Ramakrishna phenomenon : ठाकुर रूपी माँ काली के निर्देशन में चलने वाली इस विश्वव्यापी लीला-नाटक में) शामिल हो गईं और विश्व-रंगमंच के पर्दे पर एक उत्कृष्ट कलाकार के रूप में रूपान्तरित हो गईं। यदि बहुत सरल शब्दों में कहें तो, सर्वप्रथम पाश्चात्य जगत में और भारत में - वे कई वर्षों तक स्वामी विवेकानन्द की एक साक्षी (witness) के रूप में रहीं। बल्कि, स्वामीजी की एक साक्षी होने से बढ़कर, वे उनके भाषणों-वक्तव्यों को लिखने वाली एक (scribe) लेखिका थीं। उन्होंने स्वामीजी के सानिध्य में रहते हुए जो कुछ देखा और सुना था -उसे अन्य निकटस्थ साक्षियों की तुलना में कहीं अधिक विस्तार और व्यवस्थित रूप से अपनी डायरी में लिख कर रख लिया था।
स्वामी जी के ऐतिहासिक महत्व को भगिनी निवेदिता ने, संभवतः अपने समय के किसी भी अन्य व्यक्ति से अधिक, तथा हमारे समय के अन्य लोगों से भी अधिक स्पष्ट रूप में देखा और समझा था; क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने श्री रामकृष्ण के ऐतिहासिक महत्व को ( historical significance of Sri Ramakrishna: श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है' को) देख लिया था। ठाकुर देव के दूसरे शिष्य लोग श्री रामकृष्ण की आध्यात्मिक महानता ( spiritual greatness) को तो जानते थे, लेकिन स्वामी जी की तरह उनके जीवन के विशाल ऐतिहासिक संदर्भ को-(the vast historical context of his life.'Be and Make' आन्दोलन द्वारा सत्ययुग स्थापन कार्य को) कोई और नहीं देख पाया। स्वामी जी ने एक बार कहा था कि-‘He did not understand himself ... But he lived that great life—ind I read the meaning.” (#5सिस्टर निवेदिता की पुस्तक-'मेरे गुरुदेव जैसा मैंने उन्हें देखा') स्वयं श्री रामकृष्ण भी इस (सत्ययुग स्थापन कार्य) के प्रति सचेत नहीं थे, 'वे स्वयं को नहीं समझ पाए... लेकिन उन्होंने वह महान जीवन जिया—और मैंने उसका अर्थ समझ लिया।' लेकिन स्वामी विवेकानन्द अपने जीवन के ऐतिहासिक महत्व को जानते थे, और जिस दिन उनकी मृत्यु हुई, उस दिन उन्होंने कहा था - 'अगर कोई दूसरा विवेकानंद होता, तो वह समझ पाता कि विवेकानंद ने क्या किया है! फिर भी, आने वाले समय में कितने ही विवेकानंद पैदा होंगे!!’ इसके तात्पर्य को उन्होंने विस्तार से नहीं बताया, पर सिस्टर निवेदिता ने बता दिया। [(6) But he didn't elaborate. Sister Nivedita did. ‘If there were another Vivekananda, he would have understood what Vivekananda has done ! And yet, how many Vivekanand as shall be born in time !!’)]
जिस प्रकार श्री रामकृष्ण के ऐतिहासिक महत्व को समझने के लिए , स्वामीजी अद्वितीय रूप से योग्य थे, उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक महत्व (स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर परम्परा) को समझने के लिए भगिनी निवेदिता भी अद्वितीय रूप से योग्य (uniquely qualified) थीं। स्वामी विवेकानन्द की आध्यात्मिक महानता को माँ सारदा देवी के अतिरिक्त, उनके गुरुभाई लोग भी जानते थे, लेकिन उनके ऐतिहासिक महत्व को निवेदिता की तरह, वे भी नहीं समझ पाए। विवेकानन्द साहित्य (the Complete Works of Swami Vivekananda) के प्रथम खण्ड में, भगिनी निवेदिता ने जिन सरल शब्दों में उसकी 'प्रस्तावना' (Introduction)-लिखा है; उन शब्दों का मर्म समझने में मानवता की सदियाँ, कई पीढ़ियाँ बीत जायेंगी। इस प्रकार हम समझ सकते हैं निवेदिता केवल एक लेखिका ( scribe) ही नहीं, बल्कि उससे कहीं बढ़कर थीं। जिस प्रकार श्री रामकृष्ण के अवतरण में स्वामी जी की भूमिका अभूतपूर्व (आद्वितीय -unprecedented (8#) थी, उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द के जीवन और कार्य में भगिनी निवेदिता की भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण ही नहीं अभूतपूर्व थी।
[8 # : 8. 'अभूतपूर्व भूमिका' क्योंकि जगतगुरु श्री रामकृष्ण जैसे अन्य किसी महान शिक्षक को स्वामी विवेकानन्द के जैसा महान ध्वजवाहक दूत - उनके आंदोलन को फैलाने वाला दूसरा कोई सहायक नहीं मिला था। संत पॉल ईसा प्रति पूर्णतः समर्पित एक महान रहस्यवादी थे; बुद्ध के अनेक शिष्य थे जिन्होंने ज्ञान प्राप्त किया और बौद्ध धर्म की स्थापना में सहायता की। श्री चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी नित्यानंद भी, एक महान संत थे; लेकिन ये सभी संत थे, स्वयं विश्व-प्रवर्तक नहीं थे, स्वयं बुद्ध नहीं थे। किन्तु स्वामी विवेकान्द, जैसा कि अगले सौ वर्षों में स्पष्ट होगा स्वयं बुद्ध से कम नहीं थे, जिन्होंने, विश्व के इतिहास की दिशा ही बदल दी।
8. ’Unprecedented role’ because never has a great world teacher like Sri Ramakrishna had such a great soul as helpmate. St Paul was a great mystic, utterly dedicated; the Buddha had various disciples that attained enlightenment and helped in the establishment of Buddhism; Sri Chaitanya Mahaprabhu had Nityananda, a great saint; but all of these were saints, not themselves world-movers, not themselves Buddhas. Swami ji was not less than a Buddha himself who, as will be evident in another hundred years, redirected the course of world history.
जब तक स्वामी जी का नाम जनसाधारण के बीच, विशेषकर युवाओं के बीच लोकप्रिय रहेगा , तब तक श्री रामकृष्ण को किसी मन्दिर विशेष में बन्द रखने के सभी प्रयास, उन्हें किसी एक विशेष संप्रदाय की संपत्ति बनाए रखने के सभी प्रयास, श्रीरामकृष्ण देव एक संकीर्ण विचार के दायरे में रखने के सभी प्रयास, 'all efforts to turn him into one more image in the shrine' - रामकृष्णदेव को मन्दिरों में स्थापित मूर्तियों की श्रृंखला में एक अन्य मूर्ति की बढ़ोत्तरी के रूप में, सुरक्षित रूप से उनकी पूजा करने के सभी प्रयास विफल सिद्ध होंगे। ठीक उसी प्रकार भारत-कल्याण के लिए महान कार्यों के माध्यम से सिस्टर निवेदिता को जब तक, याद किया जाता रहेगा, तब तक स्वामी विवेकानन्द को 'as one more saint or yogi to be remembered in calendars and photos ' कैलेंडर और तस्वीरों में याद किए जाने वाले एक और 'हिन्दू संन्यासी' या 'योगी' के रूप में देखने के सभी प्रयास, या उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाने के सभी प्रयास - जिन्होंने पाश्चात्य जाति, जो कि वेद-उपनिषद को समझने योग्य ही नहीं थे, उनके लिए स्वादिष्ट बनाकर समझाने के प्रयास में वेदांत परंपरा (Vedanta tradition)-को ही कमजोर कर दिया, उन्हें एक ऐसे नवप्रवर्तक के रूप में प्रस्तुत करने के सभी प्रयास जिन्होंने एक तथाकथित नव-वेदांत (so-called neo-Vedanta) का गठन किया जो वेदान्त -परंपरा के लिए गलत है, उनके मिशन को सेंट पॉल के मिशन (ईसाई धर्म प्रचारक) समानांतर व्याख्या (interpret) करने के सभी प्रयास जिसके माध्यम से उन्होंने दुनिया भर में ईसाइयों को हिन्दू में धर्मांतरित करने के लिए वेदांत सोसायटी को स्थापित करने की कोशिश की, यह दिखाने के सभी प्रयास कि वे अतिशयोक्ति में माहिर थे , अतिशयोक्ति से भरे थे (कल्पना की दुनिया में खोये रहने वाले full of hyperbole थे), जिन्होंने अपने कमजोर अधिकार पर लापरवाह बयान दिए - ये सभी और अन्य छोटी सोच वाली व्याख्याएं, व्याख्याएं जो पहले से ही सुनी जाती हैं,विफल हो जाएंगी।( who made reckless statements on his own frail authority—all these and other small-minded interpretations,विफल हो जाएंगी।)
भगिनी निवेदिता के स्वामी विवेकानन्द की दीक्षित शिष्या बन जाने के बाद, किसी लेखिका (ascribe) का जीवन नहीं, बल्कि भगिनी निवेदिता का शिष्यत्व (discipleship)#ही उनके अस्तित्व को परिभाषित करता था। [# discipleship-It was discipleship, more than her life as ascribe that defined her very being after her initiation. "वाहे गुरूजी का खालसा, वाहे गुरूजी की फतह" (Waheguru Ji Ka Khalsa, Waheguru Ji Ki Fateh) एक सिख अभिवादन है जिसका अर्थ है "खालसा वाहेगुरु का है, और विजय वाहेगुरु की है". यह एक पारंपरिक अभिवादन है जो सिख समुदाय में एक-दूसरे का अभिवादन करने और एक-दूसरे को बधाई देने के लिए प्रयोग किया जाता है।] लेकिन यहाँ भी वे एक शिष्या से कहीं बढ़कर थीं।
हमने पहले ही कहा है कि नरेंद्र और श्री रामकृष्ण के प्रथम मुलाक़ात की घटना समय बीतने के साथ-साथ अपने वैश्विक महत्व (cosmic significance) को उजागर करेगी। और स्वामी विवेकानन्द के साथ सिस्टर निवेदिता के मुलाकात की घटना के साथ भी ऐसा ही होगा। हम यहाँ सिस्टर निवेदिता (निवेदिता दीदी) की तुलना 'नरेन्द्र दा' (स्वामी विवेकानन्द) से नहीं कर रहे हैं। किन्तु जो लोग माँ सारदा देवी, पिता श्रीरामकृष्ण और बड़े भैया विवेकानन्द (कैप्टन सेवियर या नवनीदा के जीवन) से इतने नजदीक से जुड़े रहे हैं, वे स्वतः पौराणिक कथाओं (mythic-मिथक) के पात्र बन जाते हैं।
भगिनी निवेदिता सिर्फ़ एक पवित्र संत महिला नहीं थीं जो दूसरों के कल्याण के लिए जीवित रहीं और मरी, दूसरों के लिए भी प्रेरणादायक कहानी छोड़ गईं, बल्कि श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द परम्परा की वैश्विक लीला (cosmic lila- Be and Make आन्दोलन) में एक ऐसी प्रमुख पात्र थीं, जिनसे मिलने के बाद स्वामी जी ने स्वयं पहचाना था। जैसे ईसा मसीह ने दो मछुआरों को मनुष्यों का मछुआरा #कहा था, वैसे ही स्वामी जी ने अंग्रेज़ी बच्चों के इस शिक्षक (teacher of English children) को मानवजाति का युगनायक (teacher of the ages.पैगम्बर, नेता -जीवनमुक्त शिक्षक) बना दिया। [मछुआरा # ईसा मसीह ने अपने कुछ शिष्यों को, जो मछुआरे थे, "मनुष्यों का मछुआरा" बनने के लिए कहा था। यह वाक्यांश बाइबल में मत्ती 4:19 और लूका 5:10 में पाया जाता है। जब ईसा मसीह गलील की झील के किनारे चल रहे थे, तो उन्होंने दो भाइयों, शमौन (जिसे बाद में पतरस कहा गया) और उसके भाई अन्द्रियास को देखा, जो मछली पकड़ रहे थे। उन्होंने उनसे कहा, "मेरे पीछे आओ, और मैं तुम्हें मनुष्यों का मछुआरा बना दूँगा ।" इस वाक्यांश का अर्थ है कि ईसा मसीह के अनुयायी, जो पहले मछली पकड़ने का काम करते थे, वे अब आध्यात्मिक रूप से मनुष्यों को "पकड़ने" का काम करेंगे, अर्थात उन्हें ईश्वर के मार्ग पर लाएंगे। यह एक रूपक है जो दर्शाता है कि ईसा मसीह के शिष्यों का काम अब मछली पकड़ना नहीं, बल्कि लोगों को उनके आध्यात्मिक जीवन में मार्गदर्शन करना है।]
मार्गरेट नोबल और स्वामी विवेकानन्द की मुलाक़ात पश्चिम के साथ और पूर्व की मुलाक़ात थी—दोनों सभ्यताएँ, बहुत ख़ुशी से तो नहीं, पर पहले ही भौतिक रूप से मिल चुकी थीं, और बाद में दोनों सभ्यताओं के मन (सेवियर दम्पति के माध्यम से) भी धीरे-धीरे एक-दूसरे से परिचित हो रहे थे; लेकिन यहाँ पश्चिम की आत्मा और पूर्व की आत्माओं का मिलन था।
बाद में निवेदिता ने स्वामीजी के शब्दों पर अपनी याद ताजा (reminisce) करते हुए कहा था, जब उन्होंने स्वामीजी को पहली बार लंदन में एक निजी बैठक में सुना था, तब उन्होंने ने भी उस वक्ता के बारे में ठंडेपन और गर्व के साथ अपने निजी फैसले दिए थे।' उन्होंने जो कुछ भी कहा -“It was not new” उसमें कुछ नया नहीं था -ये सारी बातें तो पहले भी कही जा चुकी थीं।’(9) यह हमारा आरोप था, क्योंकि जाने से पहले हम एक-एक करके अपने मेज़बान और hostess से ऐसा ही कह रहे थे। यह केवल निवेदिता और उनकी सहेलियों का ही अहंकार नहीं था, बल्कि यह अपने को महान सुसंस्कृत, और परिष्कृत पश्चिमी समाज समझने वाले पाश्चात्य लोगों का अहंकार था, जो यह समझते थे कि हमारा समाज पर ही ब्रह्माण्ड का केन्द्रबिंदु टिका हुआ है। जब निवेदिता स्वामीजी की शिष्या बनकर धीरे-धीरे उनके कार्य के प्रति समर्पित हो गईं, तो यह समर्पण विजयी और उपनिवेशवादी पश्चिम का भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति समर्पण था। इसे इस समय स्पष्ट रूप से समझा नहीं जा सकता, किन्तु सौ साल के बाद यह बात पूरी दुनिया पर स्पष्ट हो जायेगी।
भारत में स्वामी विवेकानन्द का कार्य करने के लिए भगिनी निवेदिता को अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करना आवश्यक था, इसलिए स्वामी जी ने उनसे आग्रह किया कि वे अपने छोटे-छोटे कार्यों में भी भारतीय हिन्दुओं के आचार -व्यवहार को अपनाने की आदत डाल लें, उदाहरण के हाथ (या चेहरा ?) धोने के लिए नींबू का रस और वाली मसूर दाल की पाउडर (बेसन) का उपयोग करें। लेकिन जब अपने काम के लिए धन एकत्र करने के लिए उनके साथ इंग्लैंड लौटीं, तो उन्होंने उनसे कहा कि वह भारत में सीखी गई बातों को भूलकर अपने पश्चिमी रीति-रिवाजों में लौट जाएँ। स्वामी विवेकानन्द का यह सन्देश (जैसा देश वैसा वेश और व्यवहार) समय बीतने के साथ, भारत से दूसरे देशों में जाकर -'Be and Make आंदोलन' का प्रचार करने वाले कर्मियों (नेताओं या जीवनमुक्त शिक्षकों) के लिए यह एक आदर्श बनेगा कि अफ्रीकियों को यूरोपीय नहीं बनाना है, अफ़गानियों को अमेरिकी नहीं बनाना है या जापानियों को भारतीय बनाने की कोशिश नहीं करनी है बल्कि —हमें प्रत्येक देश की संस्कृति की शुद्धता (integrity of each culture) का सम्मान करना होगा। भारत में निवेदिता के (बेसन और निम्बू रस से) हाथ धोने के तरीके को अपना लेने पर स्वामी जी के ध्यान से -'A new age of cultural respect ' वैश्विक सांस्कृतिक सम्मान के एक नये युग का प्रारम्भ होगा।
1900 में पेरिस भ्रमण के दौरान स्वामीजी ने जब निवेदिता को स्कॉटिश विचारक और समाज-शास्त्री पैट्रिक गेडेस (Patrick Geddes- टाउन प्लानर) के प्रति उनके अति उत्साह के बारे में चेतावनी दी; तब वे बहुत आहत हुई, और उन्हें लगा कि स्वामीजी ईर्ष्या कर रहे हैं— बेशक रोमांटिक अर्थ में नहीं, बल्कि प्रोफ़ेसर के प्रभाव के प्रति उसके नए उत्साह से ईर्ष्या कर रहे हैं।’ (10#) स्वामीजी उनके प्रति उदासीन रह रहे थे और दूरी बनाए हुए थे, तथा स्वयं भगिनी निवेदिता भी आगे नहीं आ रही थीं। [10 #. जो लोग हितों के इस टकराव के लिए निवेदिता की आलोचना करने में तत्पर रहते हैं, उन्हें हम स्वामी विवेकानन्द और पवहारी बाबा के बीच के प्रकरण की याद दिलाने से बेहतर कुछ नहीं कर सकते। 10. For those who have been quick to criticise Nivedita for this conflict of interests, we can do no better than remind them of the episode between Swami ji and Pavahari Baba. ]
इसी परेशानी में वे पेरिस से ब्रिटनी (पेरिस के ही दूसरे शहर Brittany) में भाग गईं। स्वामी विवेकानन्द ने 25 अगस्त, 1900 को निवेदिता को लिखित एक पत्र में कहा -" I never had any jealous about what friends you made , .... Only I do believe the Western People have the peculiarity of trying to force upon others whatever seems good to them, forgetting that what is good for you may not be that what is good for you may not be good for others.” तुमने जिनको अपना मित्र बनाया है , उनमें से किसी के प्रति मुझमें कभी कोई द्वेष-भाव उत्पन्न नहीं हुआ है। .... किन्तु मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पाश्चात्य लोगों में यह विशेषता है कि जिसे वे स्वयं अच्छा समझते हैं, उसे दूसरों पर लादने का प्रयत्न करते हैं - वे यह भूल जाते हैं कि जो एक लिए लाभदायक है, वह दूसरों के लिए लाभदायक नहीं भी हो सकता है। "
यह पत्र भी केवल निवेदिता को नहीं लिखा गया था, बल्कि उस समय के उनके अशांत मन को संबोधित करते हुए, एक निजी पत्र में एक बार पढ़े गए शब्दों को प्रति अपने उद्गार को व्यक्त किया गया था। इस पत्र के माध्यम से पाश्चत्य देशों के विषय में एक सार्वभौमिक सिद्धांत --को दर्शाया गया था और सम्पूर्ण विश्व को (रूस से तेल खरीदने पर ट्रम्प के टैरिफ़ लगाने की प्रवृत्ति को 125 साल पहले ही स्वामीजी द्वारा) बता दिया गया था। जो लोग निवेदिता के इंग्लैंड में बिताए आगामी डेढ़ साल को, स्वामी जी से खुद को उनसे अलग करने, या उनके द्वारा सौंपे गए कार्यों और विधियों से खुद को अलग करने का प्रयास समझते हैं, वे निवेदिता को ठीक से समझ नहीं पाए हैं, न ही यह समझ पाए हैं कि उनके जीवन की यह घटना किस बात का द्योतक है ? जितने भी पाश्चात्य व्यक्तियों से स्वामीजी मिले थे, जिनसे वे प्रेम करते थे और जिन्हें वे महत्व देते थे, उन सब में से स्वामी विवेकानन्द ने निवेदिता को ही भारत में काम करने हेतु क्यों चुना था? क्योंकि स्वामीजी उनकी 'inner strength' या चारित्रिक- शक्ति की गहराई को अच्छीतरह से जानते थे। जिस प्रकार श्री रामकृष्ण नरेंद्र के द्वारा अपने उपदेशों के प्रति प्रतिरोध को देखने से प्रसन्न होते थे, और उस प्रतिरोध में नरेंद्र की मानसिक शक्ति का प्रकाश देखते थे, उसी प्रकार स्वामी जी ने भी निवेदिता को उनके आंतरिक -शक्ति से प्रभावित होकर चुना था।
निवेदिता के पुराने को व्यक्तित्व को खंडित करके, जब स्वामीजी ने उनके व्यक्तित्व को फिर से गढ़ना शुरू किया, उस समय निवेदिता को बहुत कष्ट सहना पड़ा। नरेन्द्र के जीवन और व्यक्तित्व को नए सीरे से गठित करने की प्रक्रिया में श्री रामकृष्ण को पाँच साल लगाने पड़े थे; लेकिन श्रीरामकृष्ण द्वारा दी गयी जिम्मेदारी -या अपने मिशन यानि मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को धरातल पर कैसे उतारा जाये -इसी प्रयास में स्वामी जी अपने गुरुदेव के देहांत के बाद भी हिमालय में भटकते रहना पड़ा था। अतएव उसी प्रकार निवेदिता के जीवन को शिक्षक रूप में गढ़ने में समय लगना स्वाभाविक था। हमें इस पर न तो आश्चर्य करना चाहिए और न ही संदेह। जब उन्होंने स्वयं निवेदिता को अपने काम के लिए चुना था , तो स्वामी जी यह जानते थे कि वे क्या कर रहे थे।
The deeper the character, the more profound the reorientation'.-चरित्र जितना गहरा गठित हुआ होगा, उसका पुनर्निर्माण/ पुनर्निर्देशन भी उतना ही गहरा होगा। केवल वे ही जो पूर्ण सांस्कृतिक पुनर्निर्देशन के समान अनुभव से (बंगाली संस्कृति में ढल जाने के total cultural reorientation से) गुज़रे हैं, देख सकते हैं और पहचान सकते हैं कि उस समय निवेदिता के भीतर क्या चल रहा होगा।
जिस प्रकार अपने सभी गुरुभाइयों में स्वामी जी स्वयं एक अद्वितीय (अनूठे) व्यक्ति थे, तो उनके महान शिष्यों में निवेदिता भी स्वभाव से उन्हीं के जैसी ही थीं - संकल्प में दृढ़, स्वभाव से स्वतंत्र, बौद्धिक रूप से जीवंत और प्रतिभाशाली, 'a person of contrasting woods' विपरीत परिस्थितियों में भी अटल और निर्भीक एक व्यक्ति, जो परमानंद की विशाल लहर के शिखर से (crest of a giant wave of ecstasy से) निराशा के गर्त तक पहुँचकर, पुनः शीघ्रता से अपने स्वरुप में वापस लौट कर आ जाने में समर्थ रहती थी। निवेदिता को जो युद्ध (संघर्ष) लड़ने की आवश्यकता थी, वह उनका अस्तित्व ही था ; उनके अस्तित्व का कुछ ऐसा हिस्सा जो अंततः सत्य और सार्थक हो जिसमें वे स्वयं को आहुति के रूप में समर्पित कर सके, साथ ही उन्हें उस परम आत्म-आहुति के लिए आवश्यक शुद्धि ( purification) की भी आवश्यकता थी। स्वामी जी ने उन्हें दोनों ही दिए, और उसी से निवेदिता को शक्ति मिली।
अभी वह समय नहीं आया है जब हम भगिनी निवेदिता को पूरी तरह से समझ सकें। हमें समय के प्रवाह में और अधिक दूरी तय करने, तथा उनके संकेत को और अधिक गहराई की आवश्यकता है। हमें उसे भीतर से देखने की क्षमता की आवश्यकता है, न कि केवल बाहर से उसका अवलोकन करके यह देखने की कि उसने क्या किया और क्या नहीं, जिसे हम अपने मानकों से आंकते हैं। और अगर निवेदिता को समझना हो, वह समझ ऐसी होनी चाहिए जो उन्हें समग्र रूप से देखे, न कि एक सहज रूप से स्वीकार्य छोटा-सा व्यक्ति जो कृत्रिम रूप से सामंजस्यपूर्ण हो।
भगिनी निवेदिता के बारे में पूर्ण अवधारणा बनाने के लिए हमें इनके उन अंतर्विरोधों को भी शामिल करना होगा जिनका उन्होंने अपने भीतर और बाहर सामना किया—रचनात्मक अंतर्विरोध, न कि वे तुच्छ अंतर्विरोध जो सामान्य लोगों की जीवन-शक्ति को क्षीण कर देते हैं—क्योंकि उनके जीवन की नाटकीय तीव्रता के बीच वे एक ऐसी महान महिला थीं ,जो आधुनिक बुद्ध ( modern Buddha) की साक्षी थीं। निवेदिता उस आधुनिक बुद्ध की आशुलिपिक (steno) और दुभाषिया (interpreter) थीं, उनके चरणों में समर्पित एक शिष्या थीं, त्याग (renunciation) की प्रतिमूर्ति थीं, उनके मिशन की अग्नि में आत्मा की पूर्ण आहुति, एक 'वज्रधारिणी' या वज्रधारी जिसके प्रत्येक कार्य में शक्ति प्रकट होती थी, "A saint who had glimpsed the other shore' - एक संत जिसने- 'दूसरे किनारे की झलक' पा ली थी, और भावी युगों के लिए एक प्रकाश- a Light to future ages ! वे थीं रामकृष्ण-विवेकानंद की निवेदिता।
निवेदिता के जीवन को एक कार्यविधि (process या मनुष्य बनने और बनाने की प्रक्रिया) के रूप में देखा जाना चाहिए। स्वामीजी ने 1898 में उनकी दीक्षा के समय उन्हें इस प्रकार आशीर्वाद दिया था: ‘Go thou, and follow Him who was born and gave His life for others five hundred times before be attained the vision of the Buddha! (12) 'जाओ और उनका अनुसरण करो जिन्होंने बुद्ध के दर्शन प्राप्त करने से पहले पाँच सौ बार दूसरों के लिए जन्म लिया और अपना जीवन समर्पित किया!' (12) और उनके जीवन में आदर्श के लिए एक निरंतर संघर्ष, उसे साकार करने का एक निरंतर, आग्रहपूर्ण प्रयास दिखाई देता है; वे सदैव अपने त्याग और समर्पण को और गहरा करने का प्रयास करती रहीं, never feeling that she was yet worthy of Swami ji's trust. उन्हें कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि वे स्वामी जी के विश्वास के योग्य हैं।
इसका मतलब यह नहीं कि वह उन लोगों की तुलना में असफल थीं जिनका मार्ग इतना सुगम था, जैसे-extraordinary Josephine MacLeod, असाधारण जोसेफिन मैकलियोड।इसका अर्थ है कि वे इन सबसे अलग थीं, एक ऐसा अंतर जिसे स्वामीजी ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था: वह इस कार्य के लिए बनी थीं, और इसलिए उनका प्रशिक्षण अलग, विस्तृत और हठीला था। लेकिन स्वामी जी का कार्य- 'Be and Make'; अभी -अभी (1967 में) शुरू ही हुआ है, और निवेदिता का जीवन इसी की तैयारी के लिए था। इस लेखक का दृढ़ विश्वास है कि हमने निवेदिता के कार्यों का अंत नहीं देखा है; वे लौटकर आयेंगी और त्याग की ज्वाला से प्रज्वलित एक वज्र और समाज को विद्युतीकृत करने वाली एक शक्ति के रूप में मानवसमाज पर छा जाएँगी।अंतर्दृष्टि के बिना (without insight) हम निवेदिता के रूप में जानी जाने वाली उस व्यक्तित्व के साथ - उस प्रचंड भावी संबंध नहीं देख सकते, लेकिन केवल यही संबंध उनकी असाधारण शक्ति की व्याख्या कर सकता है। आधुनिक बुद्ध - 'स्वामी विवेकानन्द' के साथ बिताये हुए कुछ वर्षों में ही उन्होंने अपने जीवन को - अग्नि में अग्नि की आहुति, आत्मा में आत्मा की आहुति, प्रेम में प्रेम की शुद्ध आहुति के रूप में पांच सौ बार के बराबर समर्पित कर दिया !
[1896 ई० में स्वामी विवेकानन्द द्वारा शुरू किये गए अंग्रेजी मासिक पत्रिका प्रबुद्ध भारत (Prabuddha Bharata or Awakened India) के जनवरी, 2017 ई ० अंक में प्रकाशित- स्वामी आत्मरूपानन्द, द्वारा लिखित रचना का हिन्दी अनुवाद]
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Drawn into the Orbit of the New Buddha
(-by Swami Atmarupananda a monk at Ramakrishna Math, Belur Math.)
AMONG THE WESTERN WOMEN who played essential roles in the life of Swami Vivekananda,there were three who, following their different paths of life, found themselves drawn into the orbit of Swami ji, and who through him became intimate friends for life, To think of them is to think of the great Swami ji; and as long as Swami ji is known to the world, thinking of him will call them to mind as well.
Sister Nivedita, Josephine MacLeod, and Sara Bull were apostles (प्रेरित-ईश्वरदूत), their lives and destinies inextricably intertwined (बँधा हुआ) with Swami ji's and with each other, each important in her own individual way to Swami ji's work. They each felt that their meeting with Swami ji was anything but random; it was their destiny ! the meeting that not only gave meaning to their birth but which seemed to be the very purpose of their birth, the goal towards which their early lives had guided them.
And each of them was individual, so finely chiselled a personality. According to Josephine MacLeod, ‘It was to set me Free that Swami ji came, that was as much a part of his mission as it was to give Renunciation to Nivedita’. Nivedita, she said, was ‘very much the disciple’ but ‘I never was a disciple, only a friend’. ‘Only a friend’ is one of the great understatements of history; Josephine MacLeod was a Friend of the New Buddha, lifted from the first sight of him into his orbit forever. As for Sister Nivedita, there is no doubt that she was the disciple. her name, given by Swamiji at her initiation, means ‘the Dedicated’. Discipleship became the central fact of her life. But she was far more than just a disciple. She too was swept up into the orbit of this world teacher, and thus her life, like his, took on a historical significance. She is not one more of the many interesting people that met Swami ji. She is not just an early interpreter of India to the West and to India herself. She is not primarily a pioneer in girls’ education in India, nor one more figure in the stirrings of Indian nationalism. Yes, she is all of these, but these roles merely ornament her true importance.
In time it will be seen that she has become universalized; through her the cosmic drama of the Great Teacher continues to play out, because she represents something much larger than the strictly historical person, much more than the Irish woman who met Swam iji and dedicated her life to the welfare of India. And that is why it is natural to celebrate Nivedita's one-hundred and fiftieth birth anniversary. her birth will be celebrated for ages to come.
There are three dominant notes in the melody of her life, without understanding which we can't possibly understand her. Josephine Ma- cLeod mentions two of them above; Renunciation and discipleship. A third was made crystal clear by Swami ji himself; Dedication to ‘the Work' that is, the work of Swami Vivekananda, the mission which Sri Ramakrishna had left him to accomplish, a work which will continue its forward trajectory for at least fifteen hundred years, according to Swami ji.
For those of us who see the Ramakrishna Movement as a budding world religious movement, it is helpful to look at the history of Buddhism and Christianity to understand a little of the present and future of our own movement. At the beginning of these two traditions, we see that the life and thought and practice of the nascent movement centred around the human aspect of the Teacher for one or two centuries after the Teacher's passing. We also see that, though the disciples and their disciples knew that the Teacher was no ordinary saint, most didn't understand the full historical significance of the Teacher's life and message. Much of the early work of forming the movement went into codifying and studying and understanding the basic life and teachings, in an effort to be true to the historical Person.
In Christianity, for instance, you see a tension between St Paul and the direct disciples after the death of Jesus. St Paul never saw Jesus, except in vision, and yet he was the one who understood the historical importance—the world importance—of Jesus. The apostles who had known Jesus, knew him to be divine, but didn't know what that meant to the world at large. They still thought of themselves as a Jewish sect devoted to their great Teacher, not as a world movement. In his epistles, St. Paul repeatedly insists that they have a universal treasure that must be opened to the larger world outside of Jewish society, with its strict tribal identity and cultural laws.
The same is observed in the beginnings of our own religious movement, the Ramakrishna Movement. The disciples of the Great Teacher thought of him as they had known him, a Human-Divine- Being. They remembered his words, his beatific smile, his jokes and laughter, his unfathomable love, the ecstasy they witnessed in him multiple times a day, and the ecstasy that they felt in his presence. They also knew and experienced him to be a living, present reality even after his mahasamadhi, guiding them still, drawing them towards himself, revealing to them more and more of the Infinite and Its infinite Manifestations, even after their own liberation.
Their disciples and their disciples’ disciples ‘grew up’ hearing about Sri Ramakrishna with an immediacy that made a profound impression. Even a latecomer like the present author had the great blessing of meeting someone who had known and served Sri Ramakrishna, and whose marriage was arranged by him, and also the great blessing of knowing five people who had seen Swami ji. And thus the historical person remains very much in the fore, even as people recognize that the Teacher has entered a new phase of being, his body is gone but he remains—still living, a tangible Reality, active in the lives of devotees.
The tension seen between St Paul and the other disciples of Christ was seen between Swamiji and the other disciples of Sri Ramakrishna, monastic and lay. Swami ji spent years convincing the other disciples that Sri Ramakrishna and his mission were far larger than anything they had conceived, sometimes unceremoniously smashing their limited conceptions. Thankfully, Sri Ramakrishna had established such a deep bond between Narendra and the other disciples, that the tension was contained by this bond of love.
As generations pass in a new religious movement, stories of the continuing self-revelation of the Great Teacher accumulate in the collective mind of the movement, stories of people—who have never heard of the Teacher— being awakened by him, people transformed by him before they even know a name for him, stories of devotees seeing him come for them on their deathbed, stories of visions, intercessions, revelations, and examples of realisation mediated through the repetition of his name and dwelling on his form. And thus the ever-present, ever-living, ever-active, omnipresent, and universal aspect of the Great Teacher comes to the fore, not by disconnecting from the historical, but by seeing the historical in a much larger context, by seeing the historical as an expression of the universal.
As this happens, the historical becomes meta- historical, the historical image becomes a mythic Image burned into the consciousness of humanity, the person becomes the Person in the heart of every being, the historical happenings take on cosmic significance, the words once spoken are no longer ‘once spoken’ but become the voice of the Eternal, revelations to the immediate disciples become revelations to all people for all time, a simple anecdote reveals endless, timeless wisdom.
Let us take an example before we see what this has to do with Sister Nivedita.
When I was a brand new novice—less than three weeks after joining one of our American monasteries—we had the annual Christmas Eve celebration in the temple. There was a little singing, a reading, and then the swami, who was from India, spoke. As we were dispersing after the swami's talk a devotee passed me and said with dismay, Well, the swami ruined Christmas for us once again!’ After only three weeks in the monastery, I already knew this devotee as a dependable voice of negativity; and the swami had spoken well and sincerely; yet I immediately knew what the devotee meant, because I also had been disappointed in the swami's talk. Why?
The swami spoke to us about the Sermon on the Mount about the nature of an Incarnation of God, and so on; all good, all beautiful, not a negative note. But none of that is Christmas to one brought up in a Christian home and society, as in those days almost everyone was in our Western centres, other than those from a Jewish home. Christmas is about the extraordinary holiness of a timeless moment when a child is born in the stable of a wayside inn, a child who is a window into the Infinite, a window opened by his birth for humanity for all time to come; it's about a holy young woman, his mother Mary, who knows this, and rocks him with the heart of a new mother and yet with the adoration of one who is beholding God; it's about the shepherds out in the field at night seeing a great star coming and standing over the nearby town, and looking in wonder as a host of angels come and address them about the great event that has just happened; it's about three wise men coming from
afar and offering gifts to the newborn, recognising him to be Saviour of all.
Christmas for a Christian has nothing to do with the Sermon on the Mount and the later activities of Jesus. To one not brought up in a Christian home or society on the other hand, the story of the Nativity is just that, a story, very simple, not very interesting, certainly nothing there to talk about- a star, a bunch of angels, and a baby; what is a poor swami supposed to do with that ? Yet year after year, every year of every century, century after century for two thousand years, Christians still want to hear and dwell on the same story. Why ?
Because the story of a child born in a manger, his parents denied a room at the inn, is no longer just a simple story of strange events that happened long ago. It isn’t a fairy tale. Every image in the story has been etched in beautiful, nay, magical script into the minds of the devout, so that it speaks volumes, and the narration evokes the same wonder every Christmas Eve.
That evocative power didn’t manifest over- night. It took several centuries. As the focus shifted from the actual life of the Great Teacher to the Teacher Universal—from Jesus of Nazareth to the Logos (शब्द -ॐ ), the ‘Word’ and Wisdom of God—and as it shifted from the humble mother Mary to the ‘Portal Whence the Light of the World Has Arisen’ these images took on cosmic significance.
And so now, when we, the followers of Sri Ramakrishna, read about the first meeting between Narendra and Sri Ramakrishna, we find it beautiful and inspiring. But in time we will see in it so much more. Narendra was not just one more English-educated young Indian who came to the almost unlettered village priest. he was Nara, as Sri Ramakrishna said, the sage of Indian mythology. Nara means ‘man', and Narendra was not a man, but Man (capital M)—iconic Man, the incarnation of Man, the Ideal Man behind manifest men; and he was meeting Sri Ramakrishna, the incarnation of Narayana.
Admittedly, that sounds like primitive mythological thinking. It is mythological (पौराणिक) thinking, but not primitive (आदिम) ; it is living mythology, based on the considered belief that in time, people around the world will see that Swami Vivekananda represents something universal, as did Sri Ramakrishna, call them what one will—Nara and Narayana or something else. The idea is, they represent universals—the Human and the Divine —and will be recognized as such in time.
And so the meeting between Narendra and Sri Ramakrishna will reveal the meeting of Man with God, the meeting of the Modern World with Ancient Wisdom, the meeting of the seeking Soul within each of us with the Divine Response, the meeting of a world lost in materiality with its Divine Source. The meeting itself will convey rich and endless overtones which blend into the Irifinite. Narendra's first question to Sri Ramakrishna—‘Have you seen God?'—will be our question. Sri Ramakrishna's response will be his response to us. Even small incidents will reveal great truths.
Sister Nivedita also was lifted into this cosmic lila of the Ramakrishna phenomenon, transformed into one of the actors on stage.
First of all, and easiest to describe, she was a witness to Swami ji, in the West and in India, over several years. More than a witness, she was a scribe (लिपिक-लेखक -अनुवादक) who wrote down much of what she saw and heard, in far greater detail and more systematic ally than other close witnesses. More than a scribe, she gave a vast context within which to understand Swami ji. Therefore Swami Ramakrishnananda once said that Nivedita had understood Swami ji more than anyone else.
Sister Nivedita, perhaps more than anyone else of her time, more than those of our time, saw the historical significance of Swami ji, as he had been the one to see the historic at significance of Sri Ramakrishna. Other disciples knew Sri Ramakrishna's spiritual greatness, but no one else saw, as Swami ji did, the vast historical context of his life. Swami ji once said that even Sri Ramakrishna himself was not conscious of it,‘He did not understand himself ... But he lived that great life—ind I read the meaning.” (#5) Swamiji did know the significance of his own life, saying on the day that he died: ‘If there were another Vivekananda, he would have understood what Vivekananda has done ! And yet, how many Vivekanand as shall be born in time !!’ (6) But he didn't elaborate. Sister Nivedita did.
As Swamiji was uniquely qualified to understand the historical significance of Sri Ramakrishna, so Sister Nivedita was uniquely qualified to understand Swami ji. The Swami's brother-disciples knew his spiritual greatness better than anyone other than Sri Sarada Devi, but even they didn't understand his historic at significance as Nivedita did.’ It will take many centuries for humanity to unravel the meaning of her simple words in the ‘Introduction’ to the Complete Works of Swami Vivekananda.
Thus Nivedita was more than a scribe. As Swami ji had an unprecedented role (8) in the phenomenon of Sri Ramakrishna's incarnation, so Nivedita had an important role in the life and work of Swami ji. As long as Swami ji is known, all efforts to lock Sri Ramakrishna inside of a temple, all efforts to keep him the property of a sect, all efforts to contain him within a narrow understanding, all efforts to turn him into one more image in the shrine where he can safely be worshipped, will fail. And as long as Sister Nivedita is known, all efforts to see Swamiji as one more saint or yogi to be remembered in calendars and photos, all efforts to see him as someone who watered down the Vedanta tradition to make it palatable to Westerners who were fit for no more, all efforts to present him as an innovator who formed a so-called neo-Vedanta which is untrue to the tradition, all efforts to interpret his mission as parallel to St Paul's through which he travelled around the world trying to make Hindu converts and establish Vedanta Societies, all efforts to show that he was a master at exaggeration, full of hyperbole (अतिश्योक्ति) , who made reckless statements on his own frail authority—all these and other small-minded interpretations, interpretations which one already hears, will fail.
It was discipleship, more than her life as ascribe that defined her very being after her initiation. But here also she was much more than a disciple. We have mentioned how the meeting between Narendra and Sri Ramakrishna will reveal its cosmic significance in time. So with the life of Sister Nivedita. We are not equating her with Swami ji. But those so closely associated with Sri Ramakrishna, Sri Sarada Devi, and Swami ji are themselves lifted into the mythic. She was not just a saintly woman who lived and died and left an inspiring story for others to admire: she also had a role to play in the cosmic lila, as Swami ji himself saw after meeting her. As Christ called the fishermen to be fishers of men, so Swami ji called this teacher of English children to be a teacher of the ages.
The meeting of Margaret Noble with Swamiji was the meeting of the West with the East—the two civilizations had already met physically, and not too happily; even the minds of the two civilizations were gradually becoming acquainted; but here was a meeting between the Soul of the West and the Soul of the East. Later Nivedita reminisced about her initial reaction to Swamiji's words when she first heard him at a private gathering in London; she spoke of‘the coldness and pride with which we all gave our private verdicts on the speaker at the end of our visit. “It was not new”, was our accusation, as one by one we spoke with our host and hostess before leaving. All these things had been said before.’(9) Such was not just the hubris (घमण्ड) of Nivedita and her friends, it was the hubris of cultivated, sophisticated Western society, which sat, as they thought, at the centre of the universe.
When Nivedita gradually submitted to Swamiji as his disciple, it was the submission of the conquering and colonising West to the spiritual wisdom of India. This may not be evident now. In a hundred years it will be.
As she was to dedicate her life to Swami ji's work in India, he insisted that she become Indian Hindu even in her smallest actions, using, for example, lemon juice and powered lentils to wash her hands. And when she returned with him to England to raise money for her work, he told her to forget what she had learned in India and to return to her Western customs. This will in time also reverberate through the world, becoming the model for working in other countries—respecting the integrity of each culture, not trying to turn Africans into Europeans or Afghanis into Americans or Japanese into Indians. A new age of cultural respect will flow from Swami ji’s attention to the details of her handwashing in India.
In Paris in 1900 Swamiji warned Nivedita about her enthusiasm for the Scottish thinker and sociologist Patrick Geddes. She was deeply hurt, and felt that Swamiji was jealous of her new enthusiasm—not of course in a romantic sense of the word, but jealous of the professor's influence,’(10) Swamiji was cold and distant towards her, and she herself was nor forthcoming. She fled from Paris to Brittany in distress. He wrote to her, " I never had any jealous about what friends you made , .... Only I do believe the Western People have the peculiarity of trying to force upon others whatever seems good to them, forgetting that what is good for you may not be that what is good for you may not be good for others'” This also was not written just to Nivedita, words read once in the course of a private letter and addressed to her troubled mind of the time. It illustrates a universal principle and was spoken to the world.Those who see in Nivedita's subsequent year and a half in England a distancing of herself from Swamiji, a distancing of herself from the work and methods he had assigned her and nothing more, have not understood her not understood what she represents.
Why had Swami ji chosen her, from all the people he had met and loved and valued? It was the depth of her inner strength. As Sri Ramakrishna had delighted in the resistance of Narendra to his teachings, seeing in that very resistance Narendra's strength of mind, so Swami ji had chosen Nivedita for her inner substance.He worked hard, and she suffered terribly, as he took her personality apart and began to rebuild it. That process had taken Sri Ramakrishna five years with Narendra, and even afrer the Master passed away, Swamiji wandered through the Himalayas trying to throw off the burden that Sri Ramakrishna had given him: his mission. And so it took time with Nivedita.We shouldn't wonder at it, nor should we doubt that. Swami ji had known what he was doing when he chose her. The deeper the character, the more profound the reorientation. Those alone who have gone through a similar experience of total cultural reorientation can see and identify with what went on within her. Though Swami ji was in a class of his one, even among his great brother-disciples, Nivedita was similar in temperament: strong, independent by nature, intellectually alive and brilliant, a person of contrasting woods, moving from the crest of a giant wave of ecstasy to the trough of despair and back again in quick succession.War she needed was of her being, something of her being, something ultimately True and significant into which she could pour herself as an oblation, plus she needed the purification necessary for that ultimate self-oblation. Swami ji gave her both, and our of that came Nivedita the power. The time has not yet come when we can fully understand her. We need more distance in time, more depth of sign.
We need the ability to see her from within, not just to observe her from without to see what she did and didn't do, judged by our own standards. And if she is to be understood, it will have to be an understanding that sees her whole, not a comfortably truncated person that is artificially harmonious. It will have to include the contradictions she faced within herself and without—creative contradictions, not the petty contradictions that sap the life-force of ordinary people—for in the midst of the dramatic intensity of her life lived a great woman, a witness to the modern Buddha, his scribe and interpreter, a disciple dedicated at his feet, the very image of renunciation, a whole-souled oblation of self into the fire of his mission, a 'Vajradharini' or Holder of the Thunderbolt whose every act manifested power, a saint who had glimpsed the other shore, and a Light to future ages: Nivedita of Ramakrishna-Vivekananda.
And Nivedita's life has to be seen as a process. Swamiji blessed her at her initiation in 1898 thus: ‘Go thou, and follow Him who was born and gave His life for others five hundred times before be attained the vision of the Buddha! (12) And one sees in her life a constant struggle for the ideal, a constant, insistent effort to manifest it; she was always trying to deepen her renunciation and dedication, never feeling that she was yet worthy of Swami ji's trust. This doesn't mean that she was a failure compared to those whose path was so much smoother, like the extraordinary Josephine MacLeod. It means that she was different, a difference Swamiji made absolutely clear: She was meant for the work, and so her training was different and detailed and uncompromising. But Swami ji’s work has only started, and Nivedita's life was one of preparation. It is this writer's conviction that we haven't seen the end of Nivedita: she will return and burst upon society, a thunderbolt blazing with the flames of renunciation and a power that electrifies society. We without insight may not see the connection with the one known as Nivedita, but that connection alone will explain her extraordinary power. For in her years of association with Swamiji, she gave her life the equivalent of five hundred times, becoming a pure oblation of fire into Fire, self into Self, love into Love.
Notes and References
1. His Eastern and Western Admirers, Reminiscences of Swami Vivekananda (Calcutta: Advaita Ashrama, I983),
2. Josephine MacLeod sometimes referred to Swamiji as ’the modern Buddha’ or ’the new Buddha’, and said that her life's purpose was to discover him.
3.See Linda Prugh, Josephine MacLeod (Chennai: Sri Ramakrishna Math, ! 999) *-
4. In the Mahayana tradition of Buddhism, the connection with the historical was all but lost, allowing the idea of Buddhahood to become so imaginative as to be unreachable, whereas in the Theravada the historical letter was kept so strictly that the spirit was lost: neither is desirable.
5.Sister Nivedita, The Master As I Saw Him (Calcutta: Udbodhan Office, 97*). 97-
6. His Eastern and Western Disciples, be Life of Swami Vivekananda, 2 vols (Kolkata: Advaita Ashrama, 2oo1),
7. We know from various statements that the Holy Mother did fully understand it, though, like Sri Ramakrishna, she could not have described it in terms of a historical analysis.
8. ’Unprecedented role’ because never has a great world teacher like Sri Ramakrishna had such a great soul as helpmate. St Paul was a great mystic, utterly dedicated; the Buddha had various disciples that attained enlightenment and helped in the establishment of Buddhism; Sri Chaitanya Mahaprabhu had Nityananda, a great saint; but all of these were saints, not themselves world-movers, not themselves Buddhas. Swami ji was not less than a Buddha himself who, as will be evident in another hundred years, redirected the course of world history.
9. 'The Master As I Saw Him'
10. For those who have been quick to criticise Nivedita for this conflict of interests, we can do no better than remind them of the episode between Swami ji and Pavahari Baba.
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भगिनी निवेदिता (1867-1911) एक अंग्रेज-आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, शिक्षक एवं स्वामी विवेकानन्द की शिष्या थीं। उनका मूल नाम 'मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल' था।
रेंवरेंड सैमुअल रिचमंड नोबल और उनकी पत्नी 'मेरी' की तीन सन्तानों में मार्ग्रेट सबसे बड़ी थीं। 17 वर्ष की आयु में वह शिक्षिका बनीं और आयरलैण्ड तथा इंग्लैण्ड के विभिन्न विद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया।
अन्तत: उन्होंने 1892 में विंबलडन में अपने विद्यालय की शुरुआत की। वह एक
अच्छी पत्रकार तथा वक्ता थीं। उन्होंने 'सेसमि क्लब' में दाख़िला लिया,
जहाँ उनकी मुलाक़ात 'जॉर्ज बर्नाड शॉ' और 'टॉमस हक्सले' से हुई।
1895 में मार्ग्रेट स्वामी विवेकानन्द से उनकी इंग्लैण्ड यात्रा के दौरान मिलीं। वे अद्वैत वेदान्त के सार्वभौम सिद्धान्तों, विवेकानन्द की मीमांसा और वेदान्त दर्शन की मानववादी शिक्षाओं की ओर आकर्षित हुईं तथा उन्होंने विवेकानन्द के 1896 में भारत आने से पहले तक वह इंग्लैण्ड में वेदान्त आन्दोलन के लिए काम करती रहीं।
उनके सम्पूर्ण समर्पण के कारण विवेकानन्द ने उन्हें निवेदिता नाम दिया, जिसका अर्थ है- 'जो समर्पित है'। आरम्भ में वह एक शिक्षिका के रूप में भारत आई थीं, ताकि विवेकानन्द की स्त्री-शिक्षा की योजनाओं को मूर्त किया जा सके। उन्होंने कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के एक छोटे से घर में स्थित स्कूल में कुछ महीनों तक पश्चिमी विचारों को भारतीय परम्पराओं के अनुकूल बनाने के प्रयोग किए। 1899 में स्कूल बन्द करके धन इकट्ठा करने के लिए वह पश्चिमी देशों की यात्रा पर चली गईं। 1902 में लौटकर उन्होंने फिर से स्कूल की शुरुआत की। 1903 में निवेदिता ने आधारभूत शिक्षा के साथ-साथ युवा महिलाओं को कला व शिल्प का प्रशिक्षण देने के लिए एक महिला खण्ड भी खोला। उनके स्कूल ने शिक्षण और प्रशिक्षण जारी रखा।
नि:स्वार्थ सेवा
भारत में विधिवत दीक्षित होकर वह स्वामी जी की शिष्या बन गई और उन्हें
रामकृष्ण मिशन के सेवाकार्य में लगा दिया गया। इस प्रकार वह पूर्णरूप से
समाजसेवा के कार्यों में निरत हो गई और कलकत्ता में भीषण रूप से प्लेग फैलने पर भारतीय बस्तियों में प्रशंसनीय सुश्रुषा कार्य उसने एक आदर्श स्थापित कर दिया। उत्तरी कलकत्ता के उस भाग में एक बालिका विद्यालय की स्थापना उन्होंने की, जहाँ पर घोर कट्टरपंथी हिन्दू बहुसंख्या में थे। प्राचीन हिन्दू आदर्शों को शिक्षित जनता तक पहुँचाने के लिए अंग्रेज़ी में पुस्तकें लिखीं और सम्पूर्ण भारत में घूम-घूमकर अपने व्याख्यानों के द्वारा उनका प्रचार किया। वह भारत की स्वतंत्रता की कट्टर समर्थक थीं और अरविंदो घोष सरीखे राष्ट्रवादियों से उनका घनिष्ठ सम्पर्क था।
संघ से त्यागपत्र
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें जननी की संज्ञा दी। धीरे-धीरे निवेदिता का ध्यान भारत की राजनीतिक मुक्ति की ओर गया। विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास रामकृष्ण संघ परम्परा के शुद्ध आध्यात्मिक और मानवतावादी सिद्धान्तों और आदर्शों में था। जिनका राजनीति से कोई लेना-देना न था, उनके इस विश्वास का मान रखते हुए उन्होंने विवेकानन्द की मृत्यु के बाद संघ से त्यागपत्र दे दिया।
युवा-प्रेरणा
भारतीय कला के पुनरुद्धार से निवेदिता गहरे रूप से जुड़ी थीं और इसे वह राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का अभिन्न हिस्सा मानती थीं। भारतीय नेताओं द्वारा राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिशों को ब्रिटिश
सरकार द्वारा कुचले जाने से उन्हें बहुत नाराज़गी थी। निवेदिता ने प्रत्यक्ष रूप से कभी किसी आन्दोलन में भाग नहीं लिया, लेकिन उन्होंने भारतीय युवाओं को प्रेरित किया, जो उन्हें रूमानी राष्ट्रीयता और प्रबल भारतीयता का दर्शनशास्त्री मानते थे।
मृत्यु
निवेदिता की मृत्यु दार्जिलिंग में 44 वर्ष की आयु में हुई।
भारतीयों के साथ उनके घनिष्ठ सम्पर्क के दौरान यहाँ के लोगों ने अपनी
'सिस्टर' को पूज्य भावना के साथ श्रद्धापूर्ण प्रशंसा और प्रेम दिया। उनकी समाधि पर अंकित है- यहाँ सिस्टर निवेदिता का अस्थि कलश विश्राम कर रहा है, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत को दे दिया।
जोसेफिन मैकलियोड (1858 -1949) स्वामी विवेकानंद की एक अमेरिकी मित्र और भक्त थीं । उनका भारत से गहरा लगाव था और वे रामकृष्ण विवेकानंद आंदोलन में सक्रिय भागीदार थीं। विवेकानंद ने उन्हें "टेंटाइन" और "जो जो" उपनाम दिए थे। (टैंटाइन जिसका अर्थ है "आंटी") वे स्वामी विवेकानंद को अपना मित्र मानती थीं और उनके आर्थिक मामलों में उनकी मदद करती थीं। सिस्टर निवेदिता या सिस्टर क्रिस्टीन जैसी कई अन्य महिलाओं की तरह मैकलियोड संन्यासिन नहीं थीं । उन्होंने पश्चिम में वेदांत पर विवेकानंद के संदेश को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
जोसेफिन का जन्म शिकागो में जॉन डेविड मैकलियोड और मैरी एन लेनन के घर हुआ था। उनके पिता स्कॉटिश मूल के अमेरिकी थे। इस दंपति के तीन बेटे और तीन बेटियां थीं। उनकी दो बेटियां, बेट्टी (1852-1931) और जोसेफिन , स्वामी विवेकानंद की शिष्या बनीं। बेट्टी ने 1876 में शिकागो के श्री विलियम स्टर्गेस से शादी की और उनके बेटे का नाम हॉलिस्टर और एक बेटी का नाम अल्बर्टा था , जो वेदांत सोसायटी और रामकृष्ण संघ से भी घनिष्ठ रूप से जुड़े थे। खुद अविवाहित होने के कारण जोसेफिन, बेट्टी और उसके परिवार के साथ रहती थी। जोसेफिन और उनकी बहन बेट्टी ने पहली बार 29 जनवरी 1895 को न्यूयॉर्क शहर में वेदांत दर्शन पर स्वामी विवेकानंद का व्याख्यान सुना। उनके व्याख्यान ने उन्हें प्रभावित किया और व्याख्यान के अंत में उन्होंने देखा कि जिस तरह से उन्होंने सत्य को प्रस्तुत किया वह अनूठा था। मैकलियोड 35 वर्ष की थीं जब उनकी स्वामीजी से मुलाक़ात हुई। वह 29 जनवरी 1895 को, जिस दिन विवेकानंद से पहली बार मिलीं, अपना "आध्यात्मिक जन्मदिन" मानती थीं। उन्होंने कहा, "स्वामीजी में मैंने जो सत्य देखा, उसी ने मुझे मुक्त किया है; स्वामीजी मुझे मुक्त करने के लिए ही आए थे।" वेदांत पर उनके व्याख्यानों के दौरान विवेकानंद के साथ निरंतर संपर्क के परिणामस्वरूप, उनकी शिक्षाओं के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी गहरी हो गई कि वह उन्हें "नया बुद्ध" मानने लगीं और उन्हें "हमारा पैगंबर" (मार्गदर्शक नेता) भी कहने लगीं। फ्रांसीसी विद्वान और नोबेल पुरस्कार विजेता रोमेन रोलाँ ने मैकलियोड के बारे में लिखा, "(वह) विवेकानंद की सुंदरता, उनके आकर्षण, उनसे निकलने वाली आकर्षण शक्ति की चर्चा करते नहीं थकतीं।" हिंदू पुनर्जागरण में अग्रणी भूमिका निभाने वाले एक संगठन से निकटता से जुड़े होने के बावजूद, वह ईसाई धर्म में आस्था रखती रहीं। उनके अपने शब्दों में, विवेकानंद के प्रभाव से वे एक बेहतर ईसाई बन गई थीं।
मैकलियोड को यह पसंद नहीं था कि कोई उन्हें विवेकानंद की शिष्या कहे और वह तुरंत जवाब देतीं कि वह उनकी मित्र हैं। विवेकानंद उनका बहुत सम्मान करते थे और अपनी आंतरिक भावनाओं के बारे में उन्हें पत्र लिखते थे, जिसे वह किसी और के साथ साझा नहीं करते थे, चाहे वह उनके भाई भिक्षु हों या उनके " मद्रास बॉयज़ "। उन्होंने एक पत्र में लिखा था कि "मैं आपकी कृतज्ञता के उस अपार ऋण को कल्पना में भी नहीं चुका सकता।" भारत में अंग्रेजों और कलकत्ता के बेलूर मठ के बीच संघर्ष के मुद्दों पर , उन्होंने मुद्दों को सुलझाने के लिए इंग्लैंड में ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के साथ हस्तक्षेप किया । वह भारत गईं और जब उनसे पूछा गया कि वह उनके (स्वामी विवेकानंद) लिए क्या कर सकती हैं, तो स्वामी विवेकानंद ने गंभीरता से उत्तर दिया, "भारत से प्रेम करो।" 1898 में, उन्होंने भारत का दौरा किया और स्वामी विवेकानंद के साथ अल्मोड़ा, कश्मीर और पंजाब के कुछ हिस्सों सहित उत्तर भारत की यात्रा की। 1900 में, मैकलियोड ने स्वामी विवेकानंद के साथ यात्रा की। उन्होंने धर्मों के इतिहास पर आयोजित कांग्रेस में भाग लेने के लिए पेरिस का दौरा किया, उनके साथ एम्मा कैल्वे , पेरे हयासिंथे और जूल्स बोइस भी थे। यह दल दक्षिण-पश्चिम यूरोप से होते हुए कॉन्स्टेंटिनोपल, एथेंस और अंततः काहिरा पहुँचा, जहाँ से स्वामी भारत लौट आए। मैकलियोड स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता के भी बहुत करीब थीं, जिन्होंने अपना जीवन भारतीय महिलाओं की शिक्षा और भारतीय राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने जापान की यात्रा की और चित्रकार और कलाकार काकुसो ओकाकुरा और बौद्ध मठाधीश प्रिंस ओडा को विवेकानंद से मिलवाया। उन्होंने उदबोधन प्रेस की स्थापना के लिए 800 डॉलर की प्रारंभिक निधि प्रदान की, जिसका उपयोग रामकृष्ण संघ की मासिक बंगाली पत्रिका उदबोधन पत्रिका को प्रकाशित करने के लिए किया गया था। मैकलियोड ने राजनीतिक संकटों से निपटने में रामकृष्ण मिशन की भी मदद की । दिसंबर 1916 में, बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड कारमाइकल ने रामकृष्ण मिशन पर संदेह जताते हुए एक बयान दिया था।
मैकलियोड विवेकानंद द्वारा स्थापित वेदांत सोसाइटी की सदस्य बन गईं और वेदांत का अध्ययन और अभ्यास करने लगीं। इस बातचीत ने उन्हें "अनंत काल" में जीने का एक अलग नज़रिया दिया। विवेकानंद ने कहा, "मैं जो (जोसेफिन मैकलियोड) की चतुराई और शांत स्वभाव की बहुत प्रशंसा करता हूँ। वह एक स्त्री जैसी राजनेता या महिला हैं। वह एक राज्य का संचालन कर सकती हैं। मैंने किसी इंसान में इतनी मज़बूत और अच्छी सामान्य बुद्धि शायद ही देखी हो।" मैकलियोड पश्चिम में स्वामीजी के भारतीय आध्यात्मिकता के संदेश के प्रचार को एक ज़िम्मेदारी मानती थीं। मैकलियोड का 15 अक्टूबर 1949 को कैलिफोर्निया में निधन हो गया। अपनी मृत्यु के समय, वह हॉलीवुड में वेदांत सोसाइटी ऑफ साउथर्न कैलिफोर्निया के केंद्र में रह रही थीं ।
सारा बुल (1850 - 1911) जिन्हें संत सारा के नाम से भी जाना जाता है। एक अमेरिकी लेखिका और समाजसेवी थीं। वह स्वामी विवेकानंद की समर्पित शिष्या थीं और उनका विवाह नॉर्वे के वायलिन वादक ओले बुल से हुआ था । विवेकानंद सारा बुल को अपनी अमेरिकी माँ मानते थे। सारा की मुलाकात विवेकानंद से 1894 के वसंत में हुई। वह उनके आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई से प्रभावित हुईं, क्योंकि वह खुद भी आध्यात्मिक रूप से गहरी थीं। 1895 की गर्मियों में, उन्होंने विवेकानंद को अपने मेहमान के रूप में आमंत्रित किया। उन्होंने अपने मित्र, प्रोफेसर विलियम जेम्स को भी विवेकानंद से मिलने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने कई बार लंबी बातचीत की। सारा विवेकानंद की मासूमियत और सांसारिक तरीकों की कमी से प्रभावित हुईं, जो उनके दिवंगत पति के तरीके के समान था; विवेकानंद जल्द ही उनके भारतीय "पुत्र" और गुरु बन गए।
उन्होंने जगदीश चंद्र बोस को उनके वैज्ञानिक अनुसंधान में समर्थन दिया उन्होंने बोस को अपनी वनस्पति अनुसंधान प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए 4,000 अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता दी। सारा , श्री रामकृष्ण की आध्यात्मिक पत्नी शारदा देवी का बहुत सम्मान करती थीं और 1898 में उनकी भारत यात्रा के दौरान उनकी तस्वीर लेने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थीं।
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>>>क्रिसमस का इतिहास और महत्व- हर साल 25 दिसंबर को दुनियाभर में क्रिसमस बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. क्रिसमस का इतिहास ईसा मसीह के जन्म से जुड़ा है. ईसाई धर्म के अनुसार, 25 दिसंबर को यीशु मसीह का जन्म हुआ था. यह दिन प्रेम, दया और भाईचारे का संदेश देने के लिए मनाया जाता है।
यीशु मसीह ईसाई धर्म के प्रवर्तक और मानवता के लिए ईश्वर के पुत्र माने जाते हैं। उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से प्रेम, क्षमा और ईश्वर में विश्वास का संदेश दिया। उन्हें क्रूस पर चढ़ाया गया और उनके बलिदान को मानव जाति के लिए एक नई शुरुआत माना जाता है।
क्रिसमस का त्योहार पहली बार चौथी शताब्दी में रोम में मनाया गया था. इसे यीशु मसीह के जन्म के उपलक्ष्य में मनाया गया. हालाँकि, बाइबिल में यीशु के जन्म की तारीख स्पष्ट नहीं है, लेकिन 25 दिसंबर को उनका जन्मदिवस माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि इस दिन को इसलिए चुना गया ताकि इसे रोमन साम्राज्य के “सोल इन्विक्टस” त्योहार के साथ जोड़ा जा सके.सांता क्लॉज का असली नाम सेंट निकोलस था, जो चौथी शताब्दी में तुर्की में रहते थे. वे बच्चों और गरीबों की मदद करने के लिए जाने जाते थे. उनकी दयालुता की वजह से उन्हें बच्चों का संरक्षक माना गया. आधुनिक सांता क्लॉज की छवि लाल कपड़ों, सफेद दाढ़ी और तोहफे लेकर आने वाले व्यक्ति के रूप में उभरकर आई.
मदर मैरी यीशु मसीह की मां थीं. वे ईसाई धर्म में पवित्रता और करुणा की प्रतीक मानी जाती हैं. ऐसा माना जाता है कि भगवान ने स्वर्गदूत गेब्रियल के माध्यम से उन्हें यह संदेश दिया था कि वे यीशु को जन्म देंगी. ईसाई धर्म में मदर मैरी को बेहद आदर और सम्मान के साथ पूजा जाता है.
क्रिसमस ट्री की परंपरा जर्मनी से शुरू हुई. 16वीं शताब्दी में, लोग अपने घरों में देवदार के पेड़ सजाकर
रखते थे. ऐसा माना जाता था कि ये पेड़ बुरी आत्माओं को दूर रखते हैं.
धीरे-धीरे यह परंपरा पूरे यूरोप और फिर दुनिया में फैल गई.
क्रिसमस न
केवल एक त्योहार है, बल्कि यह प्रेम और सेवा का प्रतीक है. यीशु मसीह,
मदर मैरी और सांता क्लॉज की कहानियां इस पर्व को और भी खास बनाती हैं.
इतिहास और परंपराओं को जानकर हम इस पर्व को और गहराई से समझ सकते हैं. इस
क्रिसमस, इन बातों को अपने दोस्तों और परिवार के साथ साझा करें और इस खास
दिन को और भी यादगार बनाएं.
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