परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र)
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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
(स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैताश्रम मायावती।)
(1.53मिनट) पिछले सत्र में हमने देखा कि एक योग्य शिष्य कौन है ? और एक योग्य गुरु कौन है ? ये शिष्य अब गुरु के पास आता है और गुरु के शरणापन्न होके, गुरु से वो याचना करते है कि उसे इस संसार सागर में डूबने से बचायें। शिष्य के शब्द बड़े सुंदर हैं - मैं भयभीत हूँ, इस संसार रूपी दावाग्नि से मैं तप्त हो रहा हूँ ,आपकी शरण में आया हूँ। कृपा करके मुझे इस बंधन से बचाइए।
ये शिष्य अपने गुरु से 7 प्रश्न करते हैं , और ये सम्पूर्ण विवेक-चूड़ामणि उन 7 प्रश्नों का उत्तर है। ये प्रश्न ऐसे गहन और गंभीर हैं , जो सामान्य किसी मनुष्य की बुद्धि में ही नहीं आएगी। क्योकि ये प्रश्न एक साधक के प्रश्न हैं , एक मुमुक्षु के प्रश्न हैं। ऐसा एक मनुष्य है -जो बंधन को महसूस कर रहा है , और बंधन से मुक्त होना छह रहा है। दिखिए वे कितना गंभीर प्रश्न उठा रहे हैं - [https://www.sadhanapath.in/2025/07/51.html] (3.56 मिनट )
को नाम बन्धः कथमेष आगतः
कथं प्रतिष्ठास्य कथं विमोक्षः ।
कोऽसावनात्मा परमः क आत्मा
तयोर्विवेकः कथमेतदुच्यताम् ॥ ५१ ॥
अर्थ:-बन्ध क्या है? यह कैसे हुआ? इसकी स्थिति कैसे है? और इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है? अनात्मा क्या है? परमात्मा किसे कहते हैं? और उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? कृपया यह सब कहिये।
[ यह श्लोक विवेकचूडामणि का ५१वाँ श्लोक है, जिसमें शिष्य गुरु से अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न पूछता है। शिष्य जानना चाहता है कि यह बन्धन क्या है, जो जीव को संसार में बाँधे हुए है। यह बन्धन किस प्रकार उत्पन्न हुआ? इसकी सत्ता कैसे बनी रहती है? और इससे छूटकर मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? इसके अतिरिक्त, वह यह भी जानना चाहता है कि अनात्मा कौन है – वह क्या है जिसे हम ‘मैं’ समझ रहे हैं पर वास्तव में आत्मा नहीं है। फिर वह परमात्मा – जो साक्षात् आत्मा है – कौन है? और अनात्मा तथा परमात्मा के बीच भेदबुद्धि या विवेक कैसे किया जाता है?
शिष्य के ये प्रश्न आत्मज्ञान की प्राप्ति की दिशा में आवश्यक आधार तैयार करते हैं। क्योंकि जब तक साधक यह नहीं जानता कि किससे छुटकारा पाना है और किसका साक्षात्कार करना है, तब तक उसके प्रयास लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते।
बन्धन का अर्थ है – जीवात्मा की असली स्वतंत्र, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, नित्य स्वरूप से विमुख होकर देह आदि उपाधियों से तादात्म्य। यह तादात्म्य ही बन्धन का मूल कारण है। यह कैसे उत्पन्न हुआ? शास्त्र कहते हैं कि यह अज्ञान या अविद्या के कारण ही हुआ। जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेता है, वैसे ही आत्मा को न जानने के कारण जीवात्मा अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन, अहंकार से एक मान बैठता है। यह अज्ञान कालातीत है – अर्थात् प्रारम्भरहित है – परन्तु इसका अन्त ज्ञान के उदय से ही हो सकता है। अज्ञान से ही यह मिथ्या सत्ता प्रकट होती है और उसी से यह बन्धन टिकता है। इसीलिए इसकी प्रतिष्ठा केवल अज्ञान में ही है – जैसे स्वप्न केवल स्वप्नवस्था में ही यथार्थ प्रतीत होता है।
मोक्ष का अर्थ है – इस अज्ञान का पूर्ण नाश। जब यह अज्ञान मिट जाता है, तब आत्मा का स्वतः प्रकाश हो जाता है। तब यह भान होता है कि आत्मा सदा मुक्त ही थी, नित्य शुद्ध बुद्ध स्वरूप है। मोक्ष किसी कर्म से उत्पन्न होने वाली कोई नवीन अवस्था नहीं है। यह तो ज्ञान का प्रकट होना है – जैसे बादल हट जाने पर सूर्य का प्रकाश स्वयं ही दिखने लगता है। शास्त्र में कहा गया है – ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते – ज्ञान की अग्नि सब अज्ञानजन्य कर्मों को भस्म कर देती है।
यहाँ ‘अनात्मा’ से तात्पर्य है – वह सब जो आत्मा नहीं है। शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, सुख-दुःख आदि सब अनात्मा हैं। ये पंचकोशों में व्यवस्थित रहते हैं – अन्नमय कोश (भौतिक शरीर), प्राणमय कोश (जीवन-शक्ति), मनोमय कोश (मन), विज्ञानमय कोश (बुद्धि) और आनन्दमय कोश। यह सब आत्मा नहीं है, पर इनके कारण आत्मा सीमित और बन्धनयुक्त प्रतीत होता है।
‘परमात्मा’ वह चैतन्य तत्व है, जो अनादि, अनन्त, नित्य, साक्षी स्वरूप, अकर्ता और सदा मुक्त है। वह अद्वितीय है – उसमें कोई भेद नहीं है। वही वस्तुत: जीवात्मा का असली स्वरूप है। उसका साक्षात्कार ही मोक्ष है। अनात्मा और आत्मा के विवेक का उपाय शास्त्र-श्रवण, मनन और निदिध्यास ही है। पहले शास्त्र के प्रमाण से सुनना, फिर तर्क से शंका निवारण करना और अन्त में ध्यानपूर्वक निरन्तर आत्मा में ही स्थित होना – यह क्रम विवेक उत्पन्न करता है।
गुरु से यह सब पूछकर शिष्य यह दर्शाता है कि उसमें मुक्ति की तीव्र लालसा है। क्योंकि ये प्रश्न किसी साधारण जिज्ञासा से नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की उत्कट आकांक्षा से उपजे हैं। यही प्रश्न और उनका समाधान साधक को अज्ञान के तिमिर से परम ज्ञान के सूर्य की ओर ले जाते हैं।]
पहला प्रश्न है 'को नाम बन्धः ?' ये बंधन क्या है ? दूसरा प्रश्न है - 'कथमेष आगतः?' ये बंधन आया कहाँ से ? तीसरा प्रश्न है -कथं प्रतिष्ठास्य ?--यह कैसे हमारे जीवन में चल रहा है ? How is it Continuing ? यह हमारे जीवन में चल कैसे रहा है ? और चौथा प्रश्न है -कथं विमोक्षः । इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? पाँचवा प्रश्न है -कोऽसावनात्मा ? - यह अनात्मा क्या है ? फिर छटवाँ प्रश्न है -परमः क आत्मा? परम का आत्मा क्या है ? सातवाँ प्रश्न है - तयोर्विवेकः कथमेतदुच्यताम्? इन दोनों का विवेक हम कैसे करें ? कृपा कर के मुझे बता दोजिये। तो ये सात प्रश्न हैं।
पहला प्रश्न - बंधन क्या है ? दूसरा प्रश्न है -ये बंधन आया कहाँ से ? तीसरा प्रश्न है -ये बंधन हमारे जीवन में चल कैसे रहा है ? चौथा प्रश्न है इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? पंचम प्रश्न है -अनात्मा क्या है ? षष्ठ प्रश्न है -आत्मा क्या है ? सप्तम प्रश्न है - आत्मा और अनात्मा के बीच में विवेक कैसे करें ? ये प्रश्न पूरे मानव-समाज का प्रश्न है। ये सम्पूर्ण मानवजाति का प्रश्न है। इसलिए हिन्दू सनातन धर्म किसी एक जाति या राष्ट्र का धर्म नहीं है। किसी एक सम्प्रदाय या मजहब की बात नहीं है। किसी एक गुट की बात नहीं है। हम लोग यहाँ मनुष्य -जाति के सार्वभौमिक समस्याओं की बात कर रहे हैं। Its relate to everybody - ये प्रश्न हर मनुष्य से जुड़े हुए हैं। कोई अमेरिका में रहने वाला (ट्रम्प) हो वह भी उतना ही बंधन में है , जितना यहाँ मायावती में रहने वाला है। जो यहाँ मायावती में रहता है , सब बंधन में ही हैं मुक्त यहाँ पर कोई नहीं है। लेकिन अगर मुक्ति का मार्ग हम खोजना शुरू करें - तो हमें यहीं (अद्वैत आश्रम प्रशिक्षण पद्धति) पर आना होगा !
(7.51 मिनट) अब देखिये इन प्रश्नों को सुनने के पश्चात उस गुरु की प्रतिक्रिया क्या है ? किसी भी कक्षा में किसी अध्यापक को जब कोई योग्य विद्यार्थी मिल जाता है ; तो उसे बड़ी ख़ुशी होती है। यहाँ भी कोई शिक्षक उपस्थित हैं क्या ? हमने अपने स्कूलों में देखा है - जब हम अंग्रेजी ग्रामर में 'Remove Too' कैसे होता है ? तो हमारे अंग्रेजी के शिक्षक बड़े खुश हो जाते थे। अच्छा विद्यार्थी मिलना बहुत मुश्किल है - वो भी दुर्लभ है।
तो यहाँ भी गुरु एक योग्य मोक्षार्थी (एथेंस का सत्यार्थी) को देख रहे हैं। ये कैसा विद्यार्थी है ? ये ऐसा मोक्षार्थी है जो ब्रह्म विद्या को प्राप्त करने का इच्छुक है। ये सचमुच बंधन से मुक्त होना चाहता है। कितने लोग अपने समाज और परिवार में रहते हैं -उनमें से कितने लोग बंधन से मुक्त होना चाहते हैं ? कोई नहीं ! वैसे तो बहुत लोग गुरु के पास जाते हैं , आश्रमों में जाते हैं। लेकिन आश्रमों में जाने वाले कितने लोगों में से कितने लोग -इस योग्य शिष्य की मनोभूमिका को लेकर आने वाले है ? कोई नहीं आता। क्योंकि बंधन क्या है ? यह भी पता नहीं है कि हम बंधन में हैं। उनका दोष नहीं है। ये अलग ही योग्यता है। ऐसा कोई योग्य मोक्षार्थी मिलना विरल है। इसलिए गुरु जब ऐसे किसी मोक्षार्थी को देखते हैं -तो उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। आने वाले दो श्लोकों उनकी प्रतिक्रिया है-
धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि, पावितं ते कुलं त्वया।
यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ।॥ ५२ ॥
(10.48 मिनट) अर्थ:-गुरु-तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया, क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धन से छूट कर ब्रह्मभाव को प्राप्त होना चाहता है।
गुरु ऐसे शिष्य को देखकर बहुत खुश हो जाते हैं जो सत्य को जानने के लिए व्याकुल है। वह जानना चाहता है कि - मैं जिसको 'मैं' अपना 'मैं' समझ रहा हूँ , इस 'मैं ' का मतलब क्या है ? और वो यह भी जानना चाहता है कि यह विश्व-प्रपंच क्या है ? हम सब इसके बारे में भ्रमित हैं। इन्द्रियों जो कुछ दिखाई दे रहा है , उसके विषय में हमारी आज की जो धारणा (M/F) है , यह भ्रम है। तो सही वस्तु क्या है ? मैं कौन हूँ ? मेरा सत्य स्वरुप क्या है ? इसी विषय पर आगे चर्चा होगी। हम ईश्वर , भगवान आदि शब्द बोलते तो रहते हैं ; परन्तु ये भगवान कहाँ हैं ? हम उनको मन्दिरों में ढूँढ़ते रहते हैं। तीर्थों में ढूँढ़ते हैं ; ये सब खोज गलत नहीं है , ठीक है। लेकिन वास्तव में ईश्वर तत्व क्या है ? वो सत्य वस्तु क्या है? इस योग्य शिष्य को देखकर गुरु के मुख से जो शब्द निकलता है , वो है - धन्योऽसि ! बेटा तूँ धन्य है, तू धन्य है! -और कृतकृत्योऽसि ! (12.38 मिनट)
जिसके पास धन हो, उसको हम क्या कहते हैं ? उसको आप धनी कहते हैं , और जो धनी है वो धन्य है। लेकिन गुरुदेव इस शिष्य को धन्य कह रहे हैं , क्योंकि इसके पास एक विशेष धन है। कौन सा धन है ? साधन चतुष्टय रूपी असली धन उसके पास है -केवल षट्सम्पत्ति नहीं। असली धन साधन-चतुष्टय रूपी धन इसके पास है। साधन-चतुष्टय सम्पन्न मोक्षार्थी , ऐसा सत्यार्थी है जो सत्य को जानना चाहता है। ये मेरे ही समान एक साधारण मनुष्य है , लेकिन वो साधन-चतुष्टय सम्पन्न है और वो सत्य को जानना चाहता है। 100 % साधन चतुष्टय तो नहीं है - लेकिन कुछ हद तक है। लेकिन उसके पास यदि ये धन 10 % भी है तो वो, धनी है और वह धन्य है। प्रश्न उठेगा अभी मेरे पास वो साधन चतुष्टय रूपी धन है क्या ? 100 % नहीं है - तो कोई बात नहीं जितना भी है क्रमशः वो जितना बढ़ेगा। उतना हम स्वभाव से ही सुखी हो जायेंगे। आनंदित हो जायेंगे। यही साधन-चतुष्टय सम्पन्न मनुष्य के आनंद का रहस्य है। जीवन में सुख -शांति, या तृप्ति बोलिये या पूर्णता बोलिये , यदि हम जीवन में यह पाना चाहते हैं , तो ये सब साधन-चतुष्टय से ही प्राप्त होता है। इन्द्रियों से जितनी भी भोग करने की वस्तुयें हैं , उसको भोग करने की कामना को त्याग करना ही वैराग्य कहा जाता है। (15.11 मिनट) वैराग्य की परिभाषा में हमने देखा था - 'तद्वैराग्यं जिहासा या दर्शनश्रवणादिभिः । देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि ॥ २१ ॥ ' कामिनी-कांचन आदि ऐषणाओं का त्याग क्यों करना है ? क्योंकि ये सब भोग वस्तु अनित्य हैं। बुलबुलों के समान हैं। अभी दीखता है , अगले क्षण अदृश्य हो जायेगा। हमारा शरीर भी वैसा ही-अनित्य है। इसीलिए कामना या काम को वैरी कहा गया है। गीता में भगवान ने नरक के तीन द्वारा बताये हैं - काम, क्रोध और लोभ। (16.19 मिनट)
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।।
।।16.21।।काम, क्रोध और लोभ -- ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे हैं - (जो मनुष्य को बर्बाद कर देते हैं) जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।
काम और क्रोध को यदि देखा जाये तो एक ही है। जब आपकी कामना पूरी नहीं होती है , तब आप क्रोधित हो जाते है। तो दो द्वार हुए - काम और लोभ। इसलिए रामकृष्ण वचनामृत के हर पन्ने में आपको मिलेगा, अपने सत्य स्वरुप को जानना हो तो -'काम और कांचन', 'काम और कांचन', 'काम और कांचन', इसका त्याग करना ही पड़ता है ! 'कांचन' का मतलब है धन का लोभ, और काम है भोग। ये दोनों हमारे जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है - वैरी है। लेकिन हमें यह समझ में नहीं आता है। सारा मानव-समाज तो इन्हीं को सुख का केंद्र समझ लेता है। पूरा मानवसमाज यही मान कर के बैठा है कि काम में ही सुख है। सारा विश्व उसके पीछे है , उसमें अपने को डुबो रहे हैं -पहुँचेंगे कहीं नहीं।
जो विवेकी है उसको तो यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि- काम,क्रोध और लोभ तो सचमुच नरक के द्वार हैं-'तस्मात् एतत् त्रयं त्यजेत्।' इसलिए इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए। काम और धन का लोभ हमारे जीवन को सर्वनाश की ओर ले जाता है। देखिये समाज कैसे-कैसे अपराध की खबरें सुनाई देती हैं , जिसको देखसुन कर हमें ऐसा लगता है कि -ये क्राइम करने वाले मनुष्य हैं ? या पशु है ? अब यदि विश्लेषण करें तो पाएंगे कि जितने भी अपराध होते हैं -उनका मूल या काम है , या धन का लोभ है ! 99 % अपराध अनियंत्रित काम के कारण ही होते हैं। अविवेकी मनुष्य अपने काम की पूर्ति के लिए अक्सर लक्ष्मणरेखा का -अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर देते हैं। काम की पूर्ति के लिए आदमी क्या -क्या अपराध नहीं करता। यदि हर व्यक्ति आत्मसंयमी हो तो क्या कभी अपराध हो सकता है ? काम ऐसा एक चीज है जो एक देवतुल्य मनुष्य को भी पशु बना देती है। जब मनुष्य अपनी सीमाओं को लाँघना शुरू कर देता है तो पशु ही नहीं राक्षस बन जाता है। अतएव काम पर नियंत्रण रखना पहला सोपान है , फिर उस काम पर विजय प्राप्त करना अंतिम लक्ष्य है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य का बहुत बड़ा महत्व है। काम का सीधा उल्टा शब्द है ब्रह्मचर्य। जितना आप काम पर नियत्रण प्राप्त करते हो , उतना आप शक्तिशाली होते हो। ब्रह्मचर्य से अनंत बल और वीर्य का लाभ होता है। हमारे आदर्श हैं -महावीर हनुमान , स्वामी विवेकानन्द कहते थे हर युवक -युवती के टेबल पर हनुमानजी की एक मूर्ति होनी ही चाहिए। आपके पूजा घरों में हनुमान जी का चित्र होना चाहिए। (21.43 मिनट)
तो गुरुदेव कह रहे हैं , तुम तो धन्य हो, साधन-चतुष्टय रूपी धन है तुम्हारे पास। और तुम कृत-कृत्य हो अर्थात जीवन में एक मनुष्य को जो करना चाहिए, जो करणीय है -उसने यह कर लिया है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने के बाद जो सबसे करणीय कार्य है - वो ये है ! सत्य की खोज - मैं कौन हूँ ? इसकी खोज ! मनुष्य जन्म का यही तो कृत्य है -करणीय है। और क्या - पावितं ते कुलं त्वया'- तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया। किसी एक व्यक्ति के सत-निश्चय से -सत्य की खोज करने के निश्चय से उसका पूरा कुल पवित्र हो जाता है। क्यों पूरा कुल पवित्र हो जाता है ? यद अविद्या बन्ध मुक्त्या ब्रह्मीभवितुम इच्छसि' -- क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धन को नष्ट करके अपने सत्यस्वरूप को जानने की इच्छा कर रहे हो !! तुम इस अविद्या रूपी बंन्धन से मुक्त होकर अपने सत्यस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की कामना कर रहे हो। यह बहुत बड़ी बात है। तूँ अविद्या से छूट कर ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होना चाहता है, इसके कारण तेरा पूरा कुल पवित्र हो गया , तुम कृत-कृत्य हो गए , तुम धन्य हो गए।
[यह श्लोक विवेकचूडामणि में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें गुरु अपने शिष्य को आशीर्वाद स्वरूप कह रहे हैं कि हे शिष्य, तू वास्तव में धन्य है, तेरा जीवन सफल हो गया है। तूने अपने प्रयत्न से, अपने सत्संकल्प से न केवल स्वयं को गौरवशाली बनाया है, बल्कि अपने पूरे कुल को भी पवित्र कर दिया है। यह कथन केवल प्रशंसा नहीं है, बल्कि इस गहरे सत्य का संकेत है कि जब कोई व्यक्ति आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है, तो उसकी साधना का पुण्य उसकी कुल परम्परा को भी उच्चीकृत करता है। शिष्य की यह महत्त्वाकांक्षा कि वह अविद्या रूपी बन्धन से मुक्त होकर ब्रह्मरूप हो जाए, उसकी साधना की महानता को सिद्ध करती है।
यहाँ 'अविद्या-बन्ध' का अर्थ है अज्ञान का वह कठोर जाल, जिसमें जीव आत्मा अनादिकाल से फँसा हुआ है। अज्ञान ही संसार का मूल कारण है, जो आत्मा को अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप से विचलित करके अनेक जन्म-मरण के चक्र में डालता रहता है। शिष्य जब इस अज्ञान से मुक्ति पाने का संकल्प करता है और अपने जीवन का लक्ष्य ब्रह्मभाव की प्राप्ति बना लेता है, तभी उसका जीवन वास्तव में कृतकृत्य हो जाता है। संसार के असंख्य प्रलोभन और विकर्षणों से हटकर ऐसा पावन निर्णय लेना बहुत कठिन होता है। इसलिए गुरु उसे 'धन्य' कहकर उसके इस अभूतपूर्व पुरुषार्थ की प्रशंसा करते हैं।
'कृतकृत्य' शब्द यह बताता है कि जीवन में प्राप्त करने योग्य सबसे महत्वपूर्ण साध्य, आत्मज्ञान की प्राप्ति, ही है। भौतिक उपलब्धियां, मान-प्रतिष्ठा, और सुख सभी अल्पकालिक हैं। लेकिन अविद्या से मुक्ति और ब्रह्मभाव में स्थित होना स्थायी समाधान है, जो सारे दुःखों का नाश करता है। गुरु यह भी कहते हैं कि तेरे इस महान प्रयास से तेरा कुल पवित्र हो गया, क्योंकि परिवार में यदि कोई एक भी आत्मज्ञानी या आत्मसाधक हो जाता है, तो वह पूरे वंश का कल्याण कर देता है। ऐसी मान्यता है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने वाला साधक अपने परिवार की सात पीढ़ियों तक का उद्धार कर देता है। इसलिए इस श्लोक में शिष्य की साधना के प्रभाव का व्यापक स्वरूप भी व्यक्त किया गया है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि गुरु इस वक्तव्य में शिष्य का उत्साहवर्धन कर रहे हैं। साधक का पथ कभी सरल नहीं होता। अज्ञान की जड़ें गहरी होती हैं और साधना के मार्ग में निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। गुरु के इस प्रकार के शब्द शिष्य में दृढ़ता और निष्ठा उत्पन्न करते हैं। आत्मज्ञान की तीव्र आकांक्षा ही मुक्ति की सर्वप्रथम सीढ़ी है। जब तक मनुष्य को ब्रह्मभाव को प्राप्त करने की उत्कट प्यास न हो, तब तक वह इस पथ पर चल ही नहीं सकता। इस श्लोक में गुरु ने उसी उत्कट इच्छा की प्रशंसा की है। उन्होंने शिष्य को यह भी अनुभव कराया कि उसका प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा, उसका जीवन सार्थक और सफल होगा।
अंततः यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि आत्मसाक्षात्कार की यात्रा केवल साधक का निजी प्रयास न होकर, सम्पूर्ण मानवता और वंश की उन्नति का कारण भी बनती है। गुरु का यह आशीर्वाद और प्रशंसा शिष्य के लिए एक अमूल्य प्रेरणा बन जाती है, जो उसे साधना के अंतिम सोपान तक ले जाती है।]
(24.35 मिनट) अब देखिये, बहुत सुंदर - गुरुदेव शिष्य से क्या कहते हैं -
मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः।
संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः,
येनैव याता यतयोऽस्य पारं।
तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ॥ ४५ ॥
[अन्वय: - हे विद्वन् मा भैष्ट । तव अपाय: नास्ति । संसारसिन्धो: तरणे उपाय: अस्ति। यतय: येन एव अस्य पारं याता: तं मार्गं एव तव (तुभ्यं) निर्दिशामि ।]
अर्थ:-गुरु- हे विद्वन् ! तू डर मत, तेरा नाश नहीं होगा। संसार-सागर से तरने का उपाय है। जिस मार्ग से यतिजन इस के पार गये हैं, वही मार्ग मैं तुझे दिखाता हूँ।
इन पवित्र शब्दों में सद्गुरु अपने शिष्य को प्रेमपूर्वक धैर्य और सांत्वना प्रदान कर रहे हैं। शिष्य के अंतःकरण में संसार के भयंकर बंधनों के प्रति गहन भय उत्पन्न हो गया है। उसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह जन्म-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होगा, और वह इस महासागर से पार नहीं जा सकेगा। ऐसे विषम क्षण में गुरु उसकी दुर्बलता और हताशा को देखकर अत्यंत करुणा से कह रहे हैं – “मा भैष्ट,” अर्थात् हे विद्वान! भय मत कर। तेरा कोई अपाय, कोई विनाश नहीं होगा। यह वचन शिष्य के चित्त में तुरंत आशा का संचार करता है। जैसे कोई बालक घोर अंधकार में भयभीत होकर रोता है और माता का हाथ पकड़ लेता है, उसी प्रकार गुरु का यह वचन शिष्य को भयमुक्त करता है।
गुरु कहते हैं कि संसार-सागर से पार जाने का उपाय निश्चित रूप से है। यह संसार-दावानल जितना भी विकराल हो, इससे तरने के साधन पूर्व में भी साधकों ने अपनाए हैं और वे सफल हुए हैं। इसी मार्ग से अतीत में अनेक महान यती, मुमुक्षु और सच्चे साधक इस भवसागर के पार गए हैं। जब तक किसी कठिनाई से समाधान का उपाय अज्ञात होता है, तब तक उसका भय असह्य प्रतीत होता है। पर जैसे ही कोई सक्षम व्यक्ति समाधान बताता है, तत्काल मन में शांति और साहस का संचार होता है। गुरु इसी गहन करुणा से प्रेरित होकर कहते हैं – “जिस उपाय से यतीजन पार हुए हैं, वही उपाय मैं तुझे बताता हूँ।” यह आश्वासन मात्र उपदेश नहीं, अपितु अनुभवजन्य सत्य का प्रतिफलन है। गुरु स्वयं भी इसी मार्ग पर चले हैं, उसी अनुभव से उनके वचनों में इतनी दृढ़ता और करुणा प्रकट होती है।
यह श्लोक गुरु-शिष्य परंपरा की मूलभूत आत्मीयता को उजागर करता है। गुरु केवल एक उपदेशक नहीं, बल्कि आत्मा की अंतरंग पीड़ा के साक्षी और उसे दूर करने वाले सखा होते हैं। वे शिष्य को आश्वस्त करते हैं कि यह भय निराधार है, क्योंकि उपाय न होता तो समस्त यतीजन कैसे पार जाते? विवेक, वैराग्य, शम, दम आदि साधन -चतुष्टय आत्मबोध, के वही सुनिश्चित उपाय हैं, जो प्राचीन काल से परम अनुभूतिमूलक मार्ग के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यही मार्ग शिष्य को निर्दिष्ट किया जाता है।
इस श्लोक में गुरु शिष्य को साहस देते हुए यह भी स्मरण कराते हैं कि जिस पथ पर साधक दृढ़ता से चलेंगे, उसमें कोई असफलता नहीं होगी। संसार सागर में नाश उन लोगों का होता है जो प्रयास से विमुख हो जाते हैं, किंतु जिन्हें गुरु का अनुग्रह प्राप्त होता है और जो दिखाए गए मार्ग पर चलने का निश्चय करते हैं, उनके लिए यह समुद्र सरल हो जाता है। यह श्लोक भक्त और साधक दोनों के लिए अमूल्य प्रेरणा है कि गुरु के वचनों पर अडिग श्रद्धा रखकर साधना में लगना ही मुक्ति का सुनिश्चित उपाय है।]
(25.19 मिनट) जब ये शिष्य गुरु के पास आया था , उस समय उसकी मनोभूमिका क्या थी ? उस समय वो कह रहा था हे गुरुदेव मैं भयभीत हूँ। (श्लोक संख्या -३८ देखें ) इस संसार सागर में मैं डूब रहा हूँ। इस संसार दावाग्नि में मैं तप रहा हूँ। आप कृपा करके मुझे इस बंधन से मुक्त कीजिये। मुझे मृत्यु से बचाइए , इस संसारसागर में डूबने से मुझे बचाइए। हम सब के अंदर -कहीं न कहीं मृत्यु का भय है , लेकिन हम उस भय को भुलाने के लिए सिनेमा चले जाते हैं , या गोवा-यूरोप घूमने चले जाते हैं। इसको कहते हैं - चित्तस्य लालनं ! हम मन को भुलावे में डालने की चेष्टा कर रहे हैं। यह एक प्रकार का, उबटन लगाने जैसा cosmetic treatment है , अंदर भय बना हुआ है। अंदर अतृप्ति है , अंदर अनिश्चितता है , उस को भुलाने के प्रयास में कोई -cosmetic Social Service, भी करते हैं , या यूरोप या अन्य किसी Foreign Trip में चल देते हैं। लेकिन वो भय जाता है क्या ? सिनेमा से लौटने के बाद फिर वही भय पकड़ लेता है।
अब गुरु की प्रतिक्रिया देखिये - विद्वन् मा भैष्ट । बेटा डरो मत ! ये केवल इस शिष्य के लिए नहीं है ये हम सबके लिए है। इसमें डरने की कोई बात नहीं है। 'There is nothing to be afraid of' -विद्वन् मा भैष्ट ! संसारसिन्धो: तरणे उपाय: अस्ति।यह हम सबके लिए कितना बड़ा आश्वासन है ! पूरा मानवसमाज आज भयग्रस्त है , असुरक्षतता से ग्रस्त है। अतृप्ति से ग्रस्त हैं , अपूर्णता से ग्रस्त हैं , लेकिन तुम डरना मत ! इससे बाहर निकले का रास्ता है। सभी मनुष्यों के लिए ये कितना बड़ा आश्वासन है।
गुरुदेव यहाँ शिष्य को विद्वान् कह रहे है - मा भैष्ट विद्वन्' क्योंकि ये कोई साधारण मनुष्य नहीं है, यह विद्वान् है -क्योंकि यह सत्य की खोज कर रहा है। जो सत्य की खोज में है , वही विद्वान् है। तव नास्ति अपायः - तेरा नाश नहीं हो सकता। तव अपाय: नास्ति । तूँ जो कह रहा है कि मैं इस कुँए में गिर रहा हूँ - ऐसा कुआँ जिसका तल ही नहीं है। तूँ जो यह कह रहा है कि मैं इस संसार दावाग्नि में जल कर राख हो रहा हूँ , तूँ डर मत तेरा नाश नहीं है। सभी महापुरुषों की यही वाणी है।भगवान कृष्ण भी गीता में इसी प्रकार के आश्वासन देते हैं -
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।
।।12.7।। हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।।
जन्म-मृत्यु के चक्र से या जाल से बाहर निकलने का एक रास्ता है। This is the positive message of our Sanatan Dharma! गीता में एक और सुंदर श्लोक है - जिसमें भगवान श्रीकृष्ण समस्त मानवजाति को आश्वासन देते हैं -
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
।।18.66।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।। 'मा शुचः' डर मत , शोक मत कर! अर्जुन इस समस्या बाहर निकलने का एक रास्ता है।
सभी महापुरुषों की वाणी एक समान है , यहाँ भी गुरु कह रहे हैं -' मा भैष्ट विद्वन् नास्ति तव अपायः' हम सब -आप किसी का नाश नहीं है। कितना सकारात्मक उपदेश -Positive ! आज कितनी भी समस्या के बीच हम हों, हर समस्या से बाहर निकला जा सकता है। "संसारसिन्धो: तरणे अस्ति उपाय:" संसार सागर को पार करने का एक उपाय है। शंकराचार्यजी की यह उक्ति कितनी सुंदर कविता जैसी लगती है-' मा भैष्ट विद्वन् नास्ति तव अपायः' -संसारसिन्धो: तरणे अस्ति उपायः । वो रास्ता क्या है ? अगली पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है -येन एव याताः यतयोः अस्य पारं ! तं मार्गं एव तव (तुभ्यं) निर्दिशामि। मैं तुम्हें वही मार्ग दिखाने वाला हूँ , जिस मार्ग से अतीत में महापुरुषों ने गमन किया था। मैं वही मार्ग तुम्हें दिखानेवाला हूँ। कोई नया मार्ग नहीं दिखाने वाला हूँ। समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं - जो कहेंगे -"मैं तुम्हें एक नया मार्ग दिखाने वाला हूँ।" जो ऐसा कहे उनसे सावधान रहिये। सनातन में एक ही मार्ग है - कुछ अन्य मार्ग नहीं है ; इसलिए सनातन में परम्परा है। कोई shortcut नहीं होता - उस पर विश्वास न करें। आध्यात्मिक जीवन में कोई shortcut नहीं है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने जिस मार्ग का अवलंबन करके सत्य को देखा था , या अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचे थे। ये वही मार्ग है। यति माने संन्यासी या सत्यान्वेषी लोग - येन एव अस्य याताः पारं तं मार्गं एव तव (तुभ्यं) निर्दिशामि । भगवान कृष्ण भी गीता के-चौथे अध्याय में बार बार कहते हैं -मैं वही पुरातनमार्ग तुम्हें बता रहा हूँ अर्जुन।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।
।।4.3।। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है। परन्तु जिनमें विवेक-वैराग्य षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता बिल्कुल भी नहीं थी- 10 % या 5 % भी नहीं थी, कुछ ऐसे ही अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्यों (ढोंगी कान फुँकवा गुरु) के हाथ में पड़कर- यह योग नष्ट हो गया था यह देखकर और साथ ही लोगों को पुरुषार्थरहित हुए देखकर वही यह पुराना योग यह सोचकर कि तू मेरा भक्त और मित्र है अब मैंने तुझको सिखाया है क्योंकि साधन चतुष्टय से प्राप्त होने वाला आत्मज्ञान रूप योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है। सद्गुरु कबीर साहब एक साखी में कहते हैं....
कन फूका गुरु हद का ,बेहद का गुरु और ।
बेहद का गुरु जब मिले ,लहै ठिकाना ठौर ।।
अर्थात् कान फूंक देने वाले गुरु हद के हैं । केवल मंत्र दे देने से कुछ नहीं होता है । गुरु का अर्थ ही होता है ,साधन चतुष्टय में पारंगत गुरु जो अंधकार से हमें प्रकाश की ओर ले चले -- तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
आचार्य शंकर -कुछ नया बताये हैं क्या ? स्वामी विवेकानन्द कोई नया मार्ग बताये हैं क्या ? सब वही पुरातन 'योग मार्ग ' है।
(33.32 मिनट) अब यहाँ से गुरु-शिष्य संवाद शुरू होगा। अभी तक हमने देखा कि शिष्य गुरु के पास आकर सात प्रश्न करते हैं। पहला प्रश्न क्या था ? -1.बन्धन क्या है? 2. यह कैसे हुआ? 3.झमारे जीवन में ये Continue कैसे कर रहा है, या इसकी स्थिति कैसे है? 4. और इस बंधन से मोक्ष कैसे मिल सकता है? 5.अनात्मा क्या है? 6.परमात्मा किसे कहते हैं? और 7. उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? अब पूरा विवेक- चूड़ामणि इन्हीं सात प्रश्नों का उत्तर है।हम लोग कुछ चुने हुए शल्कों को ही पढ़ेंगे। यहाँ गुरु क्या कर रहे हैं ? जिस क्रम से शिष्य ने प्रश्न किया था ; गुरु उसी क्रम से उत्तर नहीं देते हैं। गुरु पहले चौथे प्रश्न को उठाते हैं - और चौथे प्रश्न का उत्तर देते हैं। क्या था चौथा प्रश्न ? इस बंधन से मुक्त कैसे होंगे ? गुरु चाहते तो जिस क्रम से शिष्य ने प्रश्न किया था उसी क्रम से उत्तर देते। पहला प्रश्न था कि बंधन क्या है ? ये बंधन आया कहाँ से ? गुरुदेव ने प्रथम तीन प्रश्नों को छोड़ दिया और चतुर्थ प्रश्न को उठाया - इसके पीछे क्या कारण है ? इसके पीछे एक बहुत महत्वपूर्ण कारण है। गुरु तो गुरु ही हैं; उन्हें पता है कि क्या Most Important है ?
तो हमारी गुरु-परम्परा में - 'Hunter की कहानी' बताई जाती है। Hunter को क्या कहते हैं ? शिकारी या व्याध की कहानी -एक शिकारी जंगल में शिकार करने गया हुआ था। उसको जंगल की झाड़ियों में बहुत दूर कुछ दिखाई दिया। कुछ हलचल हुआ , उसको लगा कि वहाँ एक हिरण है। दूर से बहुत स्पष्ट नहीं था , उसने ऐसा अनुमान लगाया कि जरूर हिरण होगा। इस अनुमान से उसने तीर छोड़ा , तीर सीधे जाकरके अपने लक्ष्य को वेध दिया। और वो गिर गया। लेकिन शिकारी जब पास गया तो देखा (36.40 मिनट) ये हिरण नहीं है , ये तो एक मनुष्य है। बहुत गहरा घाव हो गया था और वो मनुष्य वेदना से बहुत रो रहा था , मदद के लिए चिल्ला रहा था। ये देखकर शिकारी तो बहुत भयभीत हो गया। शिकारी वहाँ से भाग गया , क्योंकि उसके सिर पर आरोप आ जायेगा।
वो घायल आदमी रो रहा है , लेकिन आसपास कोई सुनने वाला नहीं था। उसी समय उस रस्ते से जाने वाले कुछ लोग वहाँ पहुँच जाते हैं। और चार-पाँच लोग उस घायल मनुष्य के पास खड़े होकर चर्चा करना शुरू कर देते है। क्या चर्चा करते हैं ? एक आदमी पूछता है - भाई ये तीर किस दिशा से आया होगा ? दूसरा कहता है -मुझे लगता है उस दिशा से आया होगा। तीसरा कहता है -नहीं वहाँ झाड़ियाँ कम हैं उसी दिशा से आया होगा। चौथा पूछता है तीर बन हुआ है किस चीज से ? हमको पहले वह देखना चाहिए। सभी अपने- अपने अनुमान से चर्चा कर रहे हैं। एक व्यक्ति कहता है -पहले ये पता करो कि ये तीर कहीं विषाक्त तो नहीं है ? वो घायल आदमी क्रंदन कर रहा है , मदद की गुहार लगा रहा है , और ये लोग वहाँ बैठकर चर्चा कर रहे हैं। इतने में एक दूसरा व्यक्ति वहाँ पहुंचा - वो समझदार था। वो देखते ही समझ गया कि यहाँ पर क्या चल रहा है ? तो उसने उनलोगों को डाँटा , और कहा की महामूर्खों पहले उस तीर को निकालो और कुछ दवाइयाँ उसको दो। उसके दर्द को कम करने का उपाय सोंचो। ये तीर कहाँ से आया ? किसने मारा ? ये तीर किस चीज का बना हुआ है ? ये सब चर्चा हम बाद में भीम कर सकते हैं , तो अभी प्राथमिकता की बात की है ? पहले वो जिस कष्ट में है , दुःख में है , उसे दूर करो बाकि चर्चा हमलोग बाद में भी कर सकते हैं। ये पुलिस जैसे पंचनामा करती है - चोर किधर से आया ? वही काम कर रहे हैं ?
उसी प्रकार ये शिष्य जब गुरु के पास में आया था तब अत्यंत दर्द में आया था या नहीं ? भयभीत था , भयग्रस्त था , कष्ट में था , मैं संसार सागर में डूब रहा हूँ , दावाग्नि में जल रहा हूँ , इस ताप से मुझे बचाइए। ऐसी परिस्थिति में यह बंधन क्या है ? बंधन आया कहाँ से ? ये बंधन हमारे जीवन में Continue कैसे हो रहा है ? ये सब प्राथमिक प्रश्न नहीं था। प्राथमिक प्रश्न ये है कि इस बंधन से बाहर कैसे निकलें ? इस कष्ट से बाहर कैसे निकलें ? (40.34 मिनट) इसलिए गुरुदेव इस चतुर्थ प्रश्न का उत्तर पहले देते हैं। क्योंकि यदि मुख्य समस्या का समाधान निकल गया तो बाकि चर्चा हमलोग बाद में भी कर लेंगे। इसलिए तो उनको गुरु कहते हैं , उन्हें पता है कि हमारी प्राथमिकता क्या है ? Let's be focused- बहुत से प्रश्नों का उत्तर न देखकर मुख्य को अभी लेते हैं। आपका दिमाग भी इसी प्रश्न पर केंद्रित रहना चाहिए की सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? मैं कौन हूँ ?... सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? मैं कौन हूँ ? घूम-फिर कर हमारे मन में भी यही मंथन , यही प्रश्न चलना चाहिए। चतुर्थ प्रश्न है -कथं विमोक्षः ? इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ?
आने वाले दो श्लोकों में गुरुदेव हमारे लिए एकदम मुक्ति का मार्ग खोल देते हैं। सभी मनुष्यों के लिए यही एक मार्ग है। ये मनुष्य रूपी जो बुलबुला है , उस बुलबुला रूपी बंधन से अगर उसको बाहर निकलना हो , श्रीरामकृष्णदेव की आरती के पहले तीन शब्द क्या हैं ? कोई बता सकते हैं ?" खण्डन भव बंधन " (42.48 मिनट) श्रीरामकृष्ण किसकी प्रतिमूर्ति हैं ? भव बंधन को खण्डित करना या उस बंधन को नष्ट कर देना। इस बंधन को नष्ट करना ही मोक्ष है। श्रीरामकृष्ण इस मोक्ष रूपी अनुभूति के प्रतिमूर्ति हैं। उस बंधन को खंडित कैसे करें ? श्रीरामकृष्ण वही बताते हैं , और सभी महापुरुष की वाणी में यही मार्ग दिखाई देगा। अगले दो श्लोकों में गुरुदेव उसी मोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं -
मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते
वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु ।
ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा
न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ ७१ ॥
ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-
ध्यानं चिरं चित्यनिरन्तरं मुनेः।
ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा-
निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति॥
(विवेक-चूडामणि - ७२)
[अर्थ:- मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यन्त वैराग्य का होना बताया गया है। तत्पश्चात शम, दम, तितिक्षा तथा समस्त आसक्ति युक्त कर्मों का सर्वथा त्याग कहा गया है। तदुपरांत
मुनि को श्रवण, मनन और चिर काल तक नित्य निरन्तर आत्म तत्व का ध्यान करना
चाहिए। तब वह विद्वान परम निर्विकल्पावस्था को प्राप्त होकर निर्वाण सुख
(मोक्ष) को प्राप्त कर पाता है।
मोक्ष
की प्राप्ति मानव जीवन का परम लक्ष्य है, और इसके लिए आचार्य शंकराचार्य
विवेकचूडामणि में अत्यंत स्पष्ट और क्रमबद्ध मार्ग प्रस्तुत करते हैं।
श्लोक ७१ और ७२ में मोक्ष प्राप्ति के हेतु को विस्तार से बताया गया है। ये
श्लोक न केवल आत्मा की स्वतंत्रता के साधन बताते हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट
करते हैं कि साधक को किस प्रकार की अन्तर्दृष्टि, मनोवृत्ति और आचरण अपनाना
चाहिए ताकि वह ब्रह्म-तत्त्व को जान सके और संसार के बन्धनों से मुक्त हो
सके।
सबसे पहले आचार्य कहते हैं—मोक्ष का प्रथम कारण "वैराग्य" है।
यह वैराग्य सामान्य नहीं, बल्कि "अत्यन्तमनित्यवस्तुषु" — अत्यन्त अनित्य
वस्तुओं के प्रति तीव्र वैराग्य होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि जो वस्तुएँ
नश्वर हैं, क्षणिक हैं, जो सदा बदलती रहती हैं—जैसे शरीर, सुख-दुःख, भोग,
सम्मान, पद, परिवार आदि—उन इन्द्रिय भोग की वस्तुओं से मन को पूर्णतया हटाकर आत्मा की ओर एकाग्र करना
आवश्यक है। जब तक मन इन अनित्य वस्तुओं में आसक्त रहता है, तब तक वह शुद्ध
नहीं होता और आत्मज्ञान के योग्य नहीं बनता। इसलिए वैराग्य को सभी साधनों
में प्रथम बताया गया है। लेकिन यह वैराग्य थोपने की चीज नहीं है। सत्य -मिथ्या का स्पष्ट विवेक होने से स्वाभाविक रूप वैराग्य होता है। वैराग्य आने से षट्सम्पत्ति ( शम, दम, उपरति,तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) भी स्वाभाविक रूप से बढ़ने लगती है -इसलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि है !! शम का अर्थ है—मन को विषयों से
हटाकर आत्मा में स्थिर करना। यह आन्तरिक शांति और एकाग्रता का अभ्यास है।
दम का अर्थ है—इन्द्रियों को विषयों से हटाकर वश में रखना। जब इन्द्रियाँ
विषयों की ओर दौड़ती हैं, तो मन भी चंचल हो जाता है और ध्यान नहीं लग पाता।
तितिक्षा का अर्थ है—ताप, शीत, सुख, दुःख, अपमान आदि द्वन्द्वों को बिना
क्षुब्ध हुए सहना। यह साधक की मानसिक दृढ़ता को दर्शाता है।
इसके
साथ ही "प्रसक्ताखिलकर्मणां न्यासः"—जो समस्त कर्म नरक के द्वार तीनो ऐषणाओं की आसक्ति से किए जाते हैं,
उनका पूर्ण त्याग भी आवश्यक है। केवल ईश्वर को
अर्पित भाव से कर्म करना चाहिए, जिससे कर्म बन्धन उत्पन्न न हो। जब यह सब
अभ्यास में आता है, तब साधक आन्तरिक रूप से मुक्त होने लगता है।
इसके
बाद अगले श्लोक में कहा गया है—इन साधनों के पश्चात साधक को श्रवण, मनन और
ध्यान करना चाहिए। श्रवण का अर्थ है—वेदान्त शास्त्रों और गुरु के उपदेशों
को श्रद्धा से सुनना। यह श्रवण केवल श्रुति के शब्द सुनना नहीं, बल्कि उन
बातों को पूरी भावना, विवेक और लगन से समझना है। इसके बाद आता है "मनन"—जो
सुना है, उस पर गम्भीरता से विचार करना, सभी शंकाओं का समाधान प्राप्त करना
और स्पष्ट रूप से आत्मा-ब्रह्म का ज्ञान अर्जित करना। यह ज्ञान केवल
शास्त्रीय या बौद्धिक न होकर अनुभव की ओर ले जाने वाला होना चाहिए।
श्रवण
और मनन के बाद अत्यंत आवश्यक है "सतत्त्व-ध्यानं चिरं
नित्यनिरन्तरं"—अर्थात आत्म-तत्त्व का निरन्तर, दीर्घकाल तक ध्यान। यह
ध्यान केवल समय-समय पर किया गया ध्यान नहीं है, बल्कि यह निरन्तर, गम्भीर
और अखण्ड भावना से किया गया अभ्यास है जिसमें साधक का मन विषयों से हटकर
पूर्णतः आत्मा में लीन हो जाता है। इस प्रकार ध्यान के द्वारा साधक का
चित्त शुद्ध और एकाग्र होता है, जिससे वह "अविकल्प अवस्था"—अर्थात द्वैत से
रहित, निर्भेद ब्रह्मज्ञान की अवस्था को प्राप्त करता है।
यह
निर्विकल्प अवस्था वही स्थिति है जिसमें ज्ञानी जानता है कि वह शरीर, मन,
बुद्धि नहीं है, बल्कि केवल आत्मा है—सद्, चित्, आनन्द स्वरूप। यह अविकल्प
अवस्था साधक को संसार के समस्त दुःखों और बन्धनों से मुक्त कर देती है। तब
वह विद्वान "निर्वाणसुखं समृच्छति"—अर्थात पूर्ण शान्ति, आनन्द और
आत्मतृप्ति को प्राप्त करता है। यह सुख कोई इन्द्रियजन्य सुख नहीं, बल्कि
आत्मस्वरूप में स्थित होने से प्राप्त शाश्वत, अचल, अद्वितीय आनन्द है।
इस
प्रकार शंकराचार्य ने इन दो श्लोकों में मोक्ष के सम्पूर्ण साधन-चक्र को
संक्षेप में बताया है—वैराग्य से प्रारम्भ, फिर शम, दम, तितिक्षा आदि के
द्वारा चित्तशुद्धि, फिर श्रवण, मनन, ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान और अन्त
में निर्विकल्प अवस्था में प्रतिष्ठित होकर मोक्ष की प्राप्ति। यह पथ
स्पष्ट, विवेकपूर्ण और अनुभव-सिद्ध है, जिससे प्रत्येक मुमुक्षु को प्रेरणा
मिलती है कि वह आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अपने जीवन को ले जा सके।]
इन दो श्लोकों में गुरुदेव शिष्य के चतुर्थ प्रश्न कथं विमोक्षः ? का उत्तर देते हैं। प्रश्न ये है कि कैसे हम इस बंधन से मुक्त हों ? कहते हैं -मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते ' इस भवबंधन से मुक्त होने का जो प्रथम चरण है - वो है "वैराग्यम् अत्यन्तम् अनित्य वस्तुषु।" इन्द्रियों से दिखने वाले जितने भी भोग के वस्तु हैं -उनसे प्राप्त होने वाला सुख क्षणिक है , दृष्ट -नष्ट स्वभाव है ; फिर भी साधारण मनुष्य जिसके लिए पागल हो जाता है। such objects of enjoyment, जिसके पीछे-पीछे साधारण मनुष्य दौड़ते रहते हैं। ऐसे जो भोग वस्तु हैं , उनके प्रति अत्यंत वैराग्य। वैराग्य के बगैर इस संसार -चक्र बाहर निकलना , एकदम असम्भव है;It is Impossible. -आप इस बंधन से बाहर नहीं निकल सकते हो। किसके प्रति वैराग्य ? जितने भी अनित्य भोग वस्तु- बुलबुलों के समान हैं, अभी दीखता है -फिर अदृश्य होता है। ऐसे अनित्य वस्तुओं के प्रति हमारे अंदर तीव्र वैराग्य की भावना होनी चाहिए। वैराग्य कोई थोपने से आने वाली चीज नहीं है।
ये वैराग्य आती कैसे है ? विवेक से -भूल गए ? विवेक का स्वाभाविक फल है वैराग्य। जब ये स्पष्ट हो जाता है कि सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? जब आपके रोम रोम ये बस जाये कि संसार के भोग पदार्थ से प्राप्त होने वाला सुख (M/F प्रेमी-प्रेमिका का सुख) मिथ्या है, क्षणिक है। ये सिर्फ छाया है। आप जब धूप में खड़े होते हो , तो आपकी छाया होती है न ? आप छाया के पीछे -पीछे भागते रहोगे , तो क्या कभी छाया को पकड़ पाओगे ? या दूसरों की छाया को भी पकड़ने का प्रयास कीजिये। कुछ हाथ आने वाला है ?संसार कोई भी बुलबुला छाया मात्र है , आभास मात्र है। बुलबुलों के पीछे या व्यक्तियों के पीछे दौड़ने की कामना। क्यों ? इसको प्राप्त करूँ , तो मई सुखी हो जाऊँगा। इन सारे चीजों का त्याग स्वाभाविक थोपा नहीं। जब स्पष्ट रूप से जगत मिथ्या समझ में आ जायेगा। वैराग्य के बिना मुक्ति नहीं , और विवेक के बिना वैराग्य नहीं , इसलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि।
"खण्डन भव बंधन " खंडन बड़ा मधुर शब्द नहीं है , लगता काटने की बात है। ऐसे ही हमारे उपनिषदों में कठोर सत्यों का वर्णन मिलता है - कठोपनिषद में है - मुक्ति में क्या होता है -सारी ग्रंथियाँ कट जाती हैं।
भिद्यते हृदय ग्रन्थि छिद्यन्ते सर्व संशयाः।
क्शीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥
हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' है।
इस भवबंधन का खंडन करना इस मनुष्य जीवन का परम् लक्ष्य है। भवबंधन का खंडन कैसे करोगे ? तो इसके बाद आता है - वंचन काम कांचन अति निन्दित इन्द्रिय राग ! वहाँ मुक्ति के लिए क्या- Prescription है ? क्या निर्धारित औषधि है ? क्या नुस्खा है ? काम भोग के प्रति जो राग है और धन- सम्पत्ति की ओर जो लोभ है -ये अति निन्दित है। विवेक-सम्पन्न मनुष्य के लिए अशोभनीय है। क्योंकि कोई मूर्ख व्यक्ति ही इन छाया समान वस्तुओं के पीछे दौड़ेगा। मुक्ति का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं से वैराग्य है।
वैराग्य होते ही क्या होता है ? ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा- वैराग्य होने से फिर क्या हुआ ? शम, आ गया , दम आ गया। उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा , समाधान आदि सबआ गया। वैराग्य आते ही व्यक्ति स्वतंत्र और आत्मसंयमित हो जाता है। जहाँ विवेक और वैराग्य होता है , वहाँ षट्सम्पत्ति आकर एकत्रित हो जाते हैं। जिस प्रकार जहाँ राजा होता है -सारे मंत्रीगण वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। तो विवेक राजा के आते ही सारे मंत्रीगण वहाँ आ जायेंगे। मोक्ष का प्रथम हेतु क्या है ? वैराग्य हुआ। जो कि विवेक से उत्पन्न होता है। और क्या मिला ? न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ सब प्रकार के सकाम कर्म का त्याग हो गया। सकाम कर्मों का त्याग होने का मतलब ये है कि , अब ये व्यक्ति स्वार्थी कार्यों को नहीं कर सकता। अपने स्वार्थ के लिए अब ये व्यक्ति काम नहीं कर सकता। स्व के लिए या स्वार्थ के लिए काम करने का अर्थ क्या है ?
अब ये बुलबुला जो है -अगर अपने स्वार्थ के लिए कोई काम करता है - तो उसी जगह में (किसी पुराने मित्र/मित्रणी में) अटका रहेगा या नहीं ? यदि वो बुलबुला अपने सकाम भोग के लिए कामना-वासना से प्रेरित होकर कोई काम कर रहा है , अपने स्वार्थपूर्ति के लिए , तो क्या वह कभी भी उस बुलबुला रूपी बंधन से बाहर निकल पायेगा ? मतलब अपने को वह M/F के देहाध्यास में फंसा रहकर - बुरे चरित्र वाला व्यक्ति ही बना रहेगा। उस बुलबुले को ये ज्ञान कभी होगा ? कि - मैं समुद्र हूँ ! कभी सम्भव नहीं है। इसलिए अगर मैं बुलबुला नहीं , यहाँ तक पहुँचना हो ; और अपने उसी ब्रह्म स्वरुप में प्रतिष्ठित रहना हो। तो वो अब 'स्व' मतलब आधारकार्ड वाले M/F पहचान के स्वार्थ के लिए काम नहीं कर पायेगा। अब उसका काम निःस्वार्थ होगा, निष्काम होगा। बहुत ही मत्वपूर्ण मुद्दा है। इसलिए कोई भी मोक्षार्थी है , या सत्यार्थी है , साधक है , वह निःस्वार्थ कर्म ही करेगा। स्वामी विवेकानन्द के जीवन में , रमण महर्षि के जीवन में - ये लोग क्या कभी अपने स्वार्थ के लिए कोई काम किये हैं क्या ? इनके जीवन में कोई कामना कोई स्वार्थ दिखाई नहीं देता। व्यक्ति जितना निःस्वार्थ बनता है , वह उतना ही शक्तिशाली बनता है। स्वार्थ व्यक्ति को पराधीन बनाता है ,शक्तिशाली नहीं बनाता है। व्यक्ति जितना कामना मुक्त होता है , जितना निःस्वार्थ होता है, उतना वह स्वाधीन होता है , मुक्त होता है। मुक्ति के लिए बड़ी योग्यता है -निःस्वार्थता , निष्कामता। सभी लोग तो अपनी सुखभोग के लिए ही तो पागलों की तरह दौड़ रहे हैं। यही पराधीनता है , यही गुलामी है। स्वार्थी लोग ही , अगर कामना की पूर्ति न हो Depression में चले जाते हैं। फिर उनको Psychiatrist की जरूरत पड़ती है। व्यक्ति जितना निष्काम होगा, निःस्वार्थ होगा , वो भी महावीर हनुमान की तरह सारा कर्म किस लिए कर रहे हैं ? प्रभु श्री राम के लिए। देखो ये आदर्श हैं। उनका सारा काम जो राम के अतिरिक्त कुछ नहीं जानते। और राम क्या है ? हमारा सत्यस्वरूप ! अब आप ये जान लीजिये राम जी कौन हैं ? आत्मा हैं ! परम् ब्रह्म हैं। राम जी और कुछ नहीं है -मनुजलीला करते हैं ! लक्ष्मण के बड़े भाई , और सीताजी के पति हैं ? हनुमान जी अपने सुखभोग के लिए कुछ भी करते हैं क्या ? वे सबकुछ राम के लिए करते हैं। तो देखो हनुमान जी कितने स्वाधीन हैं , कितने बलशाली हैं। उनके अंदर कोई पराधीनता है , कोई गुलामी है ? ये गुण हमारे अंदर भी आ सकती है , (58.43 मिनट) ये कोई सिद्धांत की बात या Theory नहीं है - इसको कोई भी परख कर देख सकता है। हम अपने जीवन में जितने भी निःस्वार्थ होंगे। जितना आप कामना मुक्त होते हैं , आप देखोगे आपका व्यक्तित्व ही बदल जायेगा। अद्भुत शक्तियाँ आपके अंदर आएंगी। वो वर्णन करने से परे है। वो इ अनुभूति है। ये सब परख कर देखना होगा। अब देखना होगा आप कितना Interested हैं ? आपको त्याग -वैराग्य का रास्ता दिखाया जा रहा है। ये महापुरुष हमें रास्ता दिखा रहे हैं - बेटा तुम ऐसा कर के देखो , तुम दो साल ऐसे जी कर देखो। कैसा तुम्हारा व्यक्तित्व और जीवन ही बदल जाता है।
तो यहाँ मोक्ष का पहला हेतु है , वह अनित्य वस्तुओं के प्रति तीव्र वैराग्य। और जब वैराग्य आ जाती है तो षट्सम्पत्ति भी अपने आप आ जाती है। फिर ऐसा व्यक्ति निष्काम कर्म ही कर पायेगा , सकाम कर्म वो नहीं कर पायेगा। इस दशा में वो गुरु के चरणों में बैठकर श्रवण करेगा , मनन करेगा और निदिध्यासन करके वो , अपने सत्यस्वरूप को जानेगा। और मुक्त हो जायेगा। वो दूसरे पैराग्राफ में कहा है - ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-ध्यानं ' श्रुति मतलब गुरुमुख से श्रवण , मनन फिर तत्व-ध्यानं ! और निदिध्यासन जो हमलोग कर रहे हैं। ये श्रवण-मनन -निदिध्यासन तब सार्थक होगा -जब इसके पीछे विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति , मुमुक्षता या साधन चतुष्टय, यदि 100 % कम से कम 10 % तो होगा। साधन चतुष्टय युक्त होकर के जब हम श्रवण, मनन , निदिध्यासन करते है , वही वह मार्ग है इस बंधन से मुक्त होने का। अब कोई एथेंस का सत्यार्थी है , सत्यान्वेषी है ,जो सत्य को जानना चाहता है। उसके अंदर कुछ हद तक विवेक-वैराग्य - षट्सम्पत्ति अवश्य होगा। नहीं तो वो अपने गुरु के पास जाकर ऐसे सात प्रश्न कर ही नहीं सकता था। साधन-चतुष्टय युक्त व्यक्ति अगर गुरु के सानिध्य में बैठकर श्रवण करता है ,मनन करता है और निदिध्यासन करता है, तो क्या होता है - ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वान' वो विद्वान् श्रवण करेगा तो श्रवण में क्या सुनेगा ? वो शास्त्र और गुरु के मुख से यही सुनेगा कि तेरा असली स्वरुप क्या है ? और इस जगत का स्वरुप क्या है ? फिर उसपर वो मनन करेगा। मन में जितने भी विपरीत या प्रतिकूल चिंताएं जो पहले चल रही थीं। वो सब दूर हो जाएँगी। अब मन की दशा ऐसी हो जाएगी। कि बिल्कुल शास्त्र के सुने हुए शब्द के अनुकूल उसके मन का व्यापर चलेगा। ऐसी दशा में श्रवण , मनन करके फिर ध्यान करेगा तब वो अपने सत्य स्वरुप को अनुभव करेगा। ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वान' ये विद्वान् फिर अपने सत्यस्वरुप का अनुभव करेगा। और फिर - इहैव निर्वाणसुखं समृच्छति ' वो विद्वान् यहीं पर -इसी शरीर में रहते हुए , मरणोपरान्त नहीं ; यहीं पर मरने के बाद - वेदांत यहाँ वहाँ जाने की बात नहीं है। जो भी अपना हिसाब-किताब है सब यही पर क्लियर करना है। मरने के बाद यहाँ जाना , वहाँ जाना ये भी है ,लेकिन प्राथमिकता इसी जीवनमुक्ति की है। जीवनमुक्ति में क्या होता है ? इस जीवित अवस्था में ही हमलोग, अपने सत्य स्वरुप को जानकर उस मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। तो यह है भवबंधन से मुक्त होने का मार्ग। तो शिष्य का जो चतुर्थ प्रश्न था -उसका उत्तर यही है। सभी मनुष्यो के लिए यही मार्ग है। तल रहित गड्ढे से बाहर निकलने का रास्ता यह है। अगर आपको उस गड्ढे में दिखाई देने वाले वस्तुओं के बारे में आसक्ति हो जाये , तो आप कभी उस गड्ढे से कभी बाहर निकल पाएंगे ? गड्ढे में बहुत सी प्रलोभित करने वाली वस्तुएं दिखाई देती हैं। और उससे आपका लगाव हो जाये , विपरीत लिंग के शरीर में आप आसक्त हो जाओं - क्या आप उस गड्ढे से बाहर निकल पाएंगे ? तो पहले तीव्र वैराग्य की आवश्यकता है। वैराग्य कैसे आता है ? विवेक से आता है। जब आप यह जानते हो कि यह सिर्फ बुलबुला मात्र है। इसमें कुछ मिलना नहीं है। इसके पीछे जाना नहीं है। उसके पीछे जाना माने उस तलरहित गड्ढे में गिरते रहना है। बस गिरते ही रहना है -पहुँचोगे कहीं नहीं। जब व्यक्ति को यह समझ में आ जायेगा तो वह अपने आप सावधान हो जायेगा। और उस गड्ढे से बाहर निकलने का प्रयास करेगा। तब षट्सम्पत्ति आ जाएगी। उस अवस्था में जब वह गुरु से श्रवण करेगा कि बेटा तूँ यह शरीर नहीं है। ये तो सिर्फ एक बुलबुला है। तू यह शरीर नहीं है - अगला प्रश्न वही आने वाला है - तूँ क्या है ? से वह सुनेगा , उसके अनुकूल मनन करेगा , फिर उसके द्वारा यहीं पर जीतेजी निर्वाण सुख का अनुभव करेगा। हमलोग यहाँ रुक जाते हैं -!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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