🔆शिक्षा का प्रथम सोपान है - 'मन या 3H ' का प्रशिक्षण 🔆
>>>भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा : के प्रतीक हैं कृष्ण और अर्जुन, वैसे ही रंगनाथ और रामानुज, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ,[ Be and Make परम्परा में C-in-C नवनीदा - Dy C-In-C , पूर्ण बनने और बनाने आये थे महामण्डल परम्परा में प्रशिक्षित नेता- चपरास प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर ] ऐसे सभी जोड़े यह सिद्ध करते हैं कि सिद्धांत (theory) और व्यवहार (practice) सह-अस्तित्व में रह सकते हैं और जब ये दोनों मिलते हैं, तभी =पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता या दिव्यता की अभिव्यक्ति) सुनिश्चित होती है। यही बात तो भगवद्गीता भी घोषित करती है:
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
(गीता 18.78)
जहाँ योगेश्वर (योग के भगवान) श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुष से सुसज्जित धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री (prosperity) , विजय ( victory), विभूति (happiness) और ध्रुव नीति (अचल नीति- firm policy) है, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास (conviction) है।।
योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है, जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी एक विधि (योग-पद्धति की साधना) से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।
>>> इस गीता में धनुर्धारी पार्थ पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित, परिच्छिन्न, असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है, तो निसन्देह वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता।
परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है, तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं, जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है। इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है, तो कोई भी शक्ति उसे (भक्त की शक्ति ) सफलता से वंचित नहीं रख सकती।
संक्षेप में गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है।
आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी आज का मानव जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है।
केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ है परन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। सम्पूर्ण गीता में व्याप्त समाञ्जस्य के इस सिद्धांत को मैंने यथाशक्ति एवं यथासंभव सर्वत्र स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है।
मनुष्य के चिरस्थायी सुख का यही एक मार्ग है। संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने, विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं (धनुर्धारी अर्जुन) और इसी के साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण) तो ऐसे राष्ट्र में समृद्धि, विजय, भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है।
>>>समृद्धि, विजय, विस्तार और दृढ़ नीति का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।
दृढ़ नीति और क्षमताओं के विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है वरन् सभी आत्मसंयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है।
गीता के अनेक व्याख्याकार हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म। मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है।
जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है, तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान, प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है।
[ संजय का कथन यह है कि, बहुत कहनेसे क्या ? समस्त योग और उनके बीज उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं अतः भगवान् योगेश्वर हैं। जिस पक्ष में ( वे ) सब योगों के ईश्वर श्रीकृष्ण हैं तथा जिस पक्षमें गाण्डीव धनुर्धारी पृथापुत्र अर्जुन है उस पाण्डवों के पक्षमें ही श्री उसी में विजय, उसीमें विभूति अर्थात् लक्ष्मी का विशेष विस्तार और वहीं अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।
The practice of Dharma is to meditate on what we read and learn and to apply the lessons learned in our daily behavior to realize their truth.
In our motherland religion and philosophy go hand in hand, unlike other places, where philosophy is merely a cerebral exercise, while religion is a dogma or a given code to follow.
>>>धर्म की साधना : धर्म की साधना करने (3H विकास के 5 अभ्यास करने) का अर्थ है - हमलोगों ने जो पढ़ा है और C-in-C नवनी दा के मुख से जो सुना है , सीखा है उस पर ध्यान करना; एवं उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन में व्यवहार में उतारकर उनमें निहित सच्चाई की अनुभूति करना !
अन्य देशों के विपरीत हमारी देश भारतवर्ष में धर्म (religion) और दर्शन (philosophy) साथ-साथ चलते हैं, जबकि अन्य देशों में दर्शन को केवल दिमागी कसरत (cerebral exercise) माना जाता है। और धर्म को केवल रूढ़िवादी हठधर्मिता (dogma) या दिनभर में 5 बार घुटनों की कवायद या कुछ नियमों का पालन करना है।
Krishna and Arjuna, Ranganatha and Ramanuja, Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda, all such pairs demonstrate that theory and practice co-exist and that when the two meet, fulfillment is assured.
>>> धर्मो रक्षति रक्षितः ॥
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नोधर्मोहतोऽवधीत्।
मनुस्मृतिः ८.१५॥
Dharma is a principle, which protects the humanity, if followed properly. If violated, it would turn out to be your nemesis.'
धर्म एक सिद्धांत है, जिसका अगर ठीक से पालन किया जाए तो यह मानवता की रक्षा करता है। यदि इसका उल्लंघन किया गया, तो यह आपके लिए अभिशाप बन जाएगा।'
Literally Dharma, (when regularly) conserved will protect mankind, and on the contrary, it will (ruin you) when it is ruined. Hence we should not ruin (violate) Dharma (and so that) Dharma itself ruining may not ruin us.
वस्तुतः धर्म, (नियमित रूप से) संरक्षित होने पर मानव जाति की रक्षा करेगा, और इसके विपरीत, नष्ट होने पर यह (आपको बर्बाद) करेगा। इसलिए हमें धर्म को बर्बाद (उल्लंघन) नहीं करना चाहिए (और ताकि) धर्म स्वयं हमें बर्बाद न कर दे।
>>>।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।। अर्थ :- वे भगवती महामाया देवी (अष्टभुजा कुष्मांडा देवी ?) ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींच कर मोह में डाल देती हैं ॥
अर्थात जो अपने स्थूल जड़ शरीर और सूक्ष्म-मन को स्वयं 'animate' ~ करता है, चेतनता या चैतन्य प्रदान करता है। लेकिन जन्मजन्मान्तरों के कर्म-बन्धनों के कारण या ' गहना कर्मणो गतिः ' से सम्मोहित रहने के कारण इसी भ्रम में (Hypnotized अवस्था में) रहता है कि वह मात्र एक नश्वर देह है ! जिसका अर्थ है ज्ञानी मनुष्य भी दैवी माया के वशीभूत होकर अपने शरीर से तादात्म्य करके, या स्वयं को सिर्फ एक M/F देह समझकर, यह भूल जाता है कि वह स्वयं ही वह अविनाशी ब्रह्म (आत्मा,ईश्वर) है, जो पूरे ब्रह्माण्ड के साथ-साथ पिण्ड को भी (अपने M/F देह को भी) जीवन्त करता है।
#ओमैक्स पामग्रीन सोसाइटी, ग्रेटर नोयडा के मन्दिर में अष्टभुजा माता - कूष्माण्डा देवी की मनोहारी और जाग्रत मूर्ति स्थापित है !
अष्टभुजा देवी # : मां दुर्गा का चौथा स्वरूप कूष्मांडा देवी के रूप में ख्यात है। देवी 'कुष्मांडा' को अष्टभुजा देवी भी कहा जाता है। जानिए क्यों देवी 'कुष्मांडा' को अष्टभुजा देवी भी कहा जाता है ? मान्यता है कि मां कूष्मांडा अपनी हंसी से संपूर्ण ब्रह्मांड को उत्पन्न करती है। इस कारण इन्हें कूष्मांडा देवी कहा गया। कुम्हड़े (एक फल) की बलि प्रिय होने के कारण भी इन्हें कूष्मांडा देवी कहा जाता है। सूर्यमंडल के भीतर निवास करने वाली कूष्मांडा देवी की कांति सूर्य के समान दैदीप्यमान है। मान्यता है कि इन्हीं के तेज से दसों-दिशाएं प्रकाशित होती हैं। आठ भुजाओं के कारण इन्हें अष्टभुजा देवी कहा जाता है।
मां के दिव्य स्वरूप के ध्यान में हमें यह प्रेरणा मिलती है कि सृजन में रत रहकर हम अपने मन को विकारों से बचा सकते हैं और अपने जीवन में हास-परिहास को स्थान दे सकते हैं। मां का ध्यान हमारी सृजन शक्ति को सार्थक कार्यों में लगाता है और हमें तनावमुक्त कर देश, समाज और परिवार के लिए उपयोगी बनाता है। हमें आत्मकल्याण की राह दिखाता है। मां कूष्मांडा का ध्यान हमारी कर्मेंद्रियों व ज्ञानेंद्रियों को नियंत्रण में रखकर हमें सृजनात्मक कार्यों में संलग्न रहने का संदेश प्रदान करता है। मां के दिव्य स्वरूप के ध्यान में हमें यह प्रेरणा मिलती है कि सृजन में रत रहकर हम अपने मन को विकारों से बचा सकते हैं और अपने जीवन में हास-परिहास को स्थान दे सकते हैं। मां का ध्यान हमारी सृजन शक्ति को सार्थक कार्यों में लगाता है और हमें तनावमुक्त कर देश, समाज और परिवार के लिए उपयोगी बनाता है। हमें आत्मकल्याण की राह दिखाता है। मां कूष्मांडा का ध्यान हमारी कर्मेंद्रियों व ज्ञानेंद्रियों को नियंत्रण में रखकर हमें सृजनात्मक कार्यों में संलग्न रहने का संदेश प्रदान करता है।सदैव प्रसन्न रहकर हम उदासी को अपने पास आने से रोक लेते हैं। सार्थक सृजन की प्रसन्नता सर्वश्रेष्ठ होती है। [साभार : पं अजय कुमार द्विवेदी]
>>>।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। कहने के बाद फिर इस बात की धारणा हुई कि - दादा एक पत्र में यह श्लोक लिखा था -निषादराज गुहक जब कैकेयी और मंथरा को दोष देता है तब लक्षमण जी की उक्ति है-
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
–अध्यात्मरामायण 2/6/6
" (जीवन में) सुख और दुःख देनेवाला कोई नहीं है । दूसरा आदमी हम को वह देता है यह विचार भी गलत है। "मैं करता हूँ" एसा अभिमान व्यर्थ है । सभी लोग ( समस्त जीवन और सम्पूर्ण सृष्टि ) अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । यही बात तुलसीकृत रामायण में भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
–मानस 2/92/2
हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत हम सब अपने किये हुए कर्मों के फल को भोगते हैं ।
पातञ्जलयोगदर्शन में लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात् पहले किये हुए कर्मों के फल से जन्म, आयु और भोग होता है । भोग नाम किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’ अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थिति का अनुभव हो जाय, उसमें अनुकूल-प्रतिकूल की मान्यता हो जाय, इसका नाम ‘भोग’ है ।
>>>सार >72 वर्ष की आयु पूर्ण हो चुके जीवन का सिंहावलोकन। : 29 April 1952 को पुण्यभूमि भारत में जन्म लेकर, 12 Jan 2024 को मेरी इच्छा के अनुसार राष्ट्रीय युवा दिवस झुमरीतिलैया में झण्डा चौक पर आयोजित हुआ, जिसमे राँची रामकृष्ण मिशन के कोई सचिव (स्वामी भावेशानन्द जी महाराज) दूसरी बार मुख्य अतिथि बने। किन्तु उनकी स्वागत के लिए मैं वहाँ उपस्थित न हो सका। उसी तरह 1987 में बेलघड़िया में आयोजित प्रथम कैम्प से लेकर 1922 तक लगातार 35 वर्षों तक वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेता रहा हूँ। किन्तु 2023 के कैम्प में मैं नहीं जा सका क्योंकि मुझे अपराजिता का 'knee replacement' करवाने के लिए 6 दिसम्बर 2023 को दिल्ली आना पड़ा।
(12.1.85 to 12 .1.224 विगत 39 वर्षों का लाईव टेलीकास्ट) : आज का युवा ही कल का राष्ट्र-निर्माता > राष्ट्रीय युवा दिवस को मनाने की शुरूआत UNO द्वारा साल 1984 में हुई थी। और तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारत की केंद्र सरकार ने 1984 में ही पहली बार घोषणा की थी कि विवेकानंद के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इसका उद्देश्य स्वामीजी के दर्शन और आदर्शों को देश के युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में फैलाना था। लेकिन 31 अक्टूबर 1984 श्रीमती गाँधी की हत्या हो गयी। इसलिए अगले वर्ष 12 जनवरी 1985 को तात्कालीन प्रधानमंत्री राजिव गाँधी द्वारा इस दिन की आधिकारिक शुरुआत की गई। लेकिन मेरी ऑंखें तभी खुल चुकी थीं जब मैंने तात्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी को दिल्ली रामकृष्ण मिशन में स्वामी विवेकानन्द की शिकागो पोज वाली छवि पर माल्यार्पण कर रहे थे और उस दृश्य को अपने tv पर मैं लाईव देख रहा रहा था। मैंने स्वामीजी के केले के बगान में हनुमान की रामभक्ति और राम और शिव के विवाहित जीवन की खोज के विषय में पहले भी पढ़ा था। राजीव गांधी के कार्यकाल में ही 1986 में राम मंदिर का ताला खुलते देखा। लेकिन 12 जनवरी 1985 को मुझे (मेरी आत्मा को ?) एक अद्भुत अनुभूति हुईं पता नहीं कैसे विवेकानन्द से ऑंखें उसी क्षण लड़ीं और 33 वर्ष की युवा अवस्था में वे मेरे जीवन आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। और 12 जनवरी 1985 को जब वे दिल्ली रामकृष्ण मिशन आश्रम में स्वामी विवेकानन्द की शिकागो पोज वाली छवि पर माल्यार्पण कर रहे थे , मैं उस कार्यक्रम को tv पर लाइव देख रहा था। .... स्वामीजी की प्रेरणा हुई और 14 जनवरी 1985 को झुमरीतिलैया में बेलाटांड़, दुर्गामण्डप झुमरीतिलैया (कोडरमा) में "विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर" की स्थापना हो गयी। और मेरे जीवन का U -टर्न हो गया। और उन्हीं की प्रेरणा से 14 जनवरी 1985 को, " विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर " की स्थापना युवा चरित्र -निर्माणकारी संस्था, के साईन बोर्ड लेटर-पैड के साथ मेरे -विवेकोन्मुख जीवन की भी प्राण-प्रतिष्ठा हो गयी।
>>>14 जनवरी (मकरसंक्रांति) 1985 : को 33 वर्ष की युवा जीवन में युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के स्वयं प्रतिष्ठित हो जाने के बाद, 5 फरवरी 1985 को झुमरीतिलैया में पहली बार राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया गया।
उसके मुख्य अतिथि पूज्य आनन्द महाराज (राँची रामकृष्ण मिशन आश्रम के सचिव स्वामी शुद्धव्रतानन्द जी ) थे विशिष्ट अतिथि बिहार के DIG रामछबीला सिंह थे। उस सभा को प्रबोध महाराज (स्वामी निखिलेश्वरानन्द , वर्तमान सचिव , राजकोट गुजरात , रामकृष्ण आश्रम) ने भी सम्बोधित किया था।
ब्रह्मचारी प्रबोध महाराज इंजीयरिंग और मैनेजमेन्ट करने के बाद संन्यासी बनने आये थे, तब तक मैं भी तारा प्लास्टिक्स में अच्छी तरह स्थापित हो चूका था और राजनीती में जाना चाहता था। इसलिए 1 जनवरी 1986 को - राँची क्लब में तलेजा के साथ न्यू ईयर पार्टी के बाद जब उनसे मिला तो उनसे मैंने युवा जीवन में राजनीती और नशा पर बहस किया , उसके बाद उनसे मेरी निकटता बढ़ गयी और वे मेरे गाईड बन गए। 14 अप्रैल 1986 में हरिद्वार कुम्भ में गुरु ढूँढ़ने में असफल रहने के बाद और उन्हीं के निर्देशन में- मेरी गुरु की खोज 27 मई 1987 को पूर्ण हुई और मुझे परम् पूज्य स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज का आश्रय प्राप्त हो गया। उनके और प्रमोद दा के सलाह से उसी वर्ष 25 से 30 दिसम्बर तक अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित युवा -प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया। और महामण्डल के प्रतिष्ठाता सचिव पूज्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (C-in-C नवनीदा) की कृपादृष्टि का आश्रय मिला।
>>जब तक जीना तबतक सीखना ! में और 12 जनवरी 1985 को दिल्ली रामकृष्ण मिशन आश्रम में राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर विवेकानन्द को माल्यार्पण का कार्यक्रम लाईव देखते हुए मेरे जीवन में युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के स्वतः प्रतिष्ठित हो जाने से लेकर 22 जनवरी 2024 को अयोध्या मन्दिर में रामलला की मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा हो जाने और 23 जनवरी को ऑपरेशन पूर्णतः कामयाब (कैथेटर हट गया !) हो जाने की सूचना मिल जाने तक - विगत 39 वर्षों का लाईव टेलीकास्ट देखने के बाद के बाद ; ठाकुर माँ स्वामी जी की इच्छा से " जब तक जीना , तब तक सीखना तथा अनुभव ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है!" का प्रशिक्षण शिविर 26 जनवरी 2024 को रावण और राम की साधना का उद्देश्य भिन्न-भिन्न था बिन्नी के उपदेश में बाद पूर्ण हुआ।
स्वामी विवेकानंद युवाओं को आह्वान करते समय अक्सर कठोपनिषद् से एक मंत्र को उद्धृत करते हुए कहते थे-स्वामी विवेकानंद युवाओं को आह्वान करते समय अक्सर कठोपनिषद् से एक मंत्र को उद्धृत करते हुए कहते थे -"तत्वमसि, 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।' - 'तुम वही ब्रह्म हो, उठो, जागो और लक्ष्य को प्राप्त किए बिना रुको मत'।"
कठोपनिषद् में बाजश्रवा ऋषि के पुत्र नचिकेता का मृत्युदेवता यम के साथ संवाद का विवरण है। नचिकेता ने अन्तिम वरदान के रूप में मृत्यु के देवता 'यम ' से मृत्यु के रहस्य को जानने की इच्छा से पूछता है - " कुछ लोग कहते हैं , मृत्यु के बाद शरीर नष्ट हो जाता है , कुछ नहीं बचता ; कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद भी आत्मा रहती है ! फिर आप तो मृत्यु के देवता हैं ; आप बताइये कि मृत्यु का रहस्य क्या है ?"
नचिकेता के ब्रह्मविद्या समझने की पात्रता को जाँच-परख लेने के बाद यम नचिकेता को सृष्टि के अंतिम सत्य परमात्मतत्त्व (राम, ब्रह्म, माँ कूष्माण्डा काली या आत्मा) के बारे में बताते हुए कहते हैं -
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
(कठोपनिषद् -1.3.14)
उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में ) उस परमात्म तत्व (राम या ब्रह्म) का ज्ञान प्राप्त करो । क्योंकि विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि (आध्यात्मिक) ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये 'तीक्ष्ण' धार पर चलना।
वैदिक चिंतकों की दृष्टि में मनुष्य देह भौतिक तत्त्वों से बना है, परंतु उसमें निहित चेतना शक्ति का स्रोत आत्मा है । आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन आत्मा के अस्तित्व के बारे में सुनिश्चित धारणा नहीं बना सका है । कदाचित् कई विज्ञानी कहेंगे कि आत्मा-परमात्मा जैसी कोई चीज होती ही नहीं है । तत्संबंधित सत्य वास्तव में क्या है यह रहस्यमय है, अज्ञात है । स्पष्ट है कि प्रकरण आध्यात्मिक ज्ञानार्जन से (परा विद्या से) संबंधित है न कि भौतिक स्तर के ऐहिक अर्थात् लौकिक विद्यार्जन (अपरा विद्या) से ।
स्पष्ट है कि उपरोक्त मंत्र में यम द्वारा नचिकेता को परमात्मा के अंशभूत - अविनाशी 'आत्मा' ; जो नश्वर देह और मन से भिन्न है , उस अविनाशी आत्मा (ह्रदय Heart) का ज्ञान अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त मनुष्य बनो और बनाओ का उपदेश निहित है ! न कि प्रचलित शिक्षा के केवल भौतिक स्तर के शरीर (Hand) और मन (Head) को विकसित करने वाली शिक्षा प्राप्त कर रुक जाने जाने को कहा गया है।
>>>[अध्यात्मरामायण #> सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनायी थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्वजन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह राम कथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होने यह कथा अपने शिष्यों को सुनायी। इस प्रकार राम कथा का प्रचार प्रसार हुआ। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से विख्यात है।
>>>।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। कहने के बाद -परगुण-परमाणु को पर्वताकार बनाने का कौशल सीखने की आवश्यकता समझ में आता है - >
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा:, त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्त: ॥
नीतिशतकम् (५३/२२१)
ऐसे सन्त (C-IN-C नवनीदा जैसे प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता या पैगम्बर) समाज में कितने हैं; जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत (पवित्रता ) से परिपूर्ण हैं, और जो सभी मनुष्यों का बहुत प्रकार से कल्याण करके त्रिभुवन को आनन्दित करते हैं? वे लोग त्रिभुवन को किस उपाय से आनन्दित करते हैं? किसी के भीतर यदि परमाणु के जितना छोटा भी गुण दिखता है, उसे वे पर्वत के जितना विशाल देखते और बखान करते हैं, और इस प्रकार अपने हृदय को सदैव विकसित करते रहते हैं। ऐसे भावी नेता (Dy C-in-C) जो दूसरों के परमाणु तुल्य या अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन (प्रेम-प्रयोग) करने में समर्थ हों, संसार में बहुत कम, याने उँगलियों पर गिनने योग्य ही पाये जाते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है।"
>>>।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। कहने के बाद यह समझ में आया ,...."मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्।।" ~ यह एक जागरण-उद्घोष ' (wake up call) है ! उसी प्रकार आचार्य शंकर ने भी महामण्डल का यथार्थ कर्मी या 'Be and Make' धर्म का प्रचारक (चरैवेति , चरैवेति ' आन्दोलन का नेता) बनने और बनाने की प्रक्रिया का का सूत्र देते हुए कहा है -
दुर्जन: सज्जनो भूयात, सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो, मुक्त: चान्यान् विमोच्येत् ॥
अर्थ - दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांत रस को प्राप्त हों । शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। पहली बार, जैसे ही मैंने यह प्रार्थना पूज्य नवनीदा के मुख से सुनी, मुझे इस प्रार्थना से प्रेम हो गया। यह हमारे देश भारत की उस प्राचीन संस्कृति को दर्शाता है, जहां आचार्य शंकर जैसे मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता दुष्टों (मुझ जैसे भटके हुए लोगों ?) के प्रति भी- करुणा का भाव रखते थे। अंतिम पंक्ति में कहा गया - महावाक्य "मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्।।"~ यह एक जागरण-उद्घोष ' (wake up call)है !
इसलिए ~ उत्तिष्ठत! जाग्रत ! मोहनिद्रा से उठो , जागो और दूसरों को जगाओ ! "So, Wake up and Awaken others!"वैसे दुर्जन से सज्जन बन चुके और चपरास प्राप्त लोगों को ‘विगत मान सम सीतल मन’ सज्जनों को अभिमान छू तक नहीं जाता। सज्जन पुरुष दूसरों का उपकार करते हुए भी अपने को ही उपकृत समझते हैं। ‘मन अभिमान न आणे रे’। वे अपने को निमित्त मात्र समझते हैं। वे अपने में कर्ता बुद्धि को आने नहीं देते।
>>>।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। कहने के बाद यह समझ में आया ,... वैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के विषय में उन्होंने अपने 'विवेक -चूड़ामणि' ग्रन्थ में भी कहा हैं -
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो, वसन्तवत् लोकहितं चरन्तः।
तीर्णाः स्वयं भीम-भवार्णवं , जनान् अहेतुना अन्यान् अपि तारयन्तः ॥३७।।
इस भयंकर संसार-सागर से स्वयं तरे हुए शांत और महान् सज्जन पुरुष वसंत ऋतू के समान लोक-हित करते हुए बिना कारण दूसरे लोगों को तारते हुए सदा निवास करते हैं। जब कोई मनुष्य इस नश्वर नाम-रूपात्मक जगत के पृष्ठभूमि में अवस्थित अविनाशी सत्य (अस्ति-भाति-प्रिय) का साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस जन्म-मृत्यु के सागर से तर जाते हैं।
हमारे प्राचीन शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है -इसीलिए ऐतरेय ब्राह्मण कहता है -
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन्।।
सोता हुआ निष्क्रिय व्यक्ति कलियुग है, जागृत व्यक्ति द्वापर है, उठा हुआ अर्थात् कार्य के लिए उद्यत व्यक्ति त्रेता है और कर्मपथ पर सतत चलता हुआ व्यक्ति सतयुग है।
🔥अग्निमन्त्र 🔥
" किसी भी राष्ट्र के अभ्युदय के लिए उसके पास एक आदर्श होना आवश्यक है।
असल में वह आदर्श है निर्गुण ब्रह्म।
लेकिन चूंकि तुम सब लोग किसी निराकार आदर्शसे प्रेरणा नहीं प्राप्त कर सकते, इसलिए तुम्हें साकार आदर्श चाहिए। "
~ स्वामी विवेकानन्द (७/२७१)
💥"तुम वही ब्रह्म हो ,उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको मत !" 💥
>>>।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। कहने के बाद यह समझ में आया ,... कि हमारी उसी गुणातीत श्रद्धा के अनुसार : प्रत्येक युग में देश-काल के अनुरूप परम तत्व (ब्रह्म) अवतार धारण करता है। (अर्थात इन्द्रियातीत सत्य, ब्रह्म -सच्चिदानन्द-माँ जगदम्बा काली, अष्टभुजा माँ कूष्माण्डा देवी ही अवतार (ब्रह्माण्ड) धारण करती हैं ! इसी पावनी परंपरा में प्रत्येक कल्प में, त्रेता युग में राम भगवान का अवतरण होता है, जो हम चैत्र शुक्ल नवमी को मनाते हैं, राम नवमी के रूप में।
इसलिये कहते हैं -चलते रहों, चलते रहो, कुछ करते रहों, आगे बढ़ो...सफलता आपका इंतजार कर रही है।
(Greater Noida : 7th February , 2024 )
🔱🙏 राम धर्म के विग्रह हैं ! मूर्ति नहीं! 🔱🙏
'रामः विग्रहवान् धर्मः' ~ अर्थात राम, धर्म के अवतार हैं ! कोई मूर्ति नहीं !
>>>।। ॐ श्रीमते रामानुजाय नमः।। रामानुज = रामानुज राम के छोटे भाई हैं। अर्थात वे श्री लक्ष्मण हैं। लक्ष्मण त्रेता युग में प्रकट हुए। रामानुज कलियुग में प्रकट हुए।एक हैं महाविष्णु और दूसरे हैं आदिशेष। शेषा और शेषि. नर और नारायण, राम और लक्ष्मण, कृष्ण और बलराम। रामानुज शब्द का महत्व एक साथ बहुत बड़ा और गहरा है। राम का अर्थ बलराम भी हो सकता है और रामानुज का अर्थ श्रीकृष्ण भी है। श्री रामानुज स्वयं में शेष और शेषि दोनों को समाहित करते हैं।
रामनुजाचार्य की एक कथा याद आती है- उन्हें 120 वर्ष की आयु मिली थी। कहते हैं कि रामानुज अपने जीवन के अंतिम वर्षों में श्री रंगनाथ के विग्रह की उपासाना करते थे। मूर्ति का अभिषेक करते हुए उन्हें दिखा कि रंगनाथ की पीठ पर घाव या फोड़ा हो गया है। रामानुजाचार्य को बड़ा कष्ट हुआ। ग्लानि के बीच रंगनाथ स्वप्न में आए। उन्होंने कहा कि यह घाव तुम्हारा ही दिया है। तुम धर्म की बात करने के बजाय अधर्म के खंडन पर अधिक ध्यान देते हो। धर्म मेरा हृदय और अधर्म मेरी पीठ है। इसलिए पीठ पर घाव हो गया। रामनुजाचार्य को बात समझ में आ गई। अधर्म, धर्म का विरोध नहीं है। यदि धर्म होगा तो अधर्म नहीं होगा। (धर्म का अभ्यास या साधना नेता के दैनन्दिन जीवन में होगा, तो अधर्म नहीं होगा। ) हमारे असंख्य संघर्ष सत्य को समग्रता में ग्रहण न करने के कारण शुरू होते हैं। राजनीतिक तो अर्ध सत्यों का अरण्य है। भारतीय सनातन ऋत पर केंद्रित है- यानि ऐसे सत्य पर (वेदान्त डिण्डिम >ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ... अतिन्द्रीय सत्य सच्चिदानन्द पर आधारित है) जो किसी का विरोधी हो ही नहीं सकता !! वह सबको जोड़ने समेटने वाला सत्य है।
राम ऐसे ही सनातन सत्य अर्थात 'ऋत ' की चेतना लेकर भारतीय संस्कृति के मन प्राण में स्थापित हैं। रामन्दिर (महामण्डल) नई पीढ़ी के युवाओं -भावी नेताओं के लिए भारतीय सानतन का अभिनव आशीर्वाद है। यह युगों युगों तक हमारी चेतना का सबसे जागृत प्रेरणा पुंज रहेगा। इसीलिए ~ " राम का गुणगान करिये , राम प्रभु की भद्रता का , सभ्यता का ध्यान धरिये ! " त्याग और बलिदान के लम्बे अतीत के बाद सनातन को अपने आदर्श का मंदिर भी लोकतंत्र की गरिमा के साथ , न्याय के माध्यम से मिला है !
[हम किसी को सुधार नहीं सकते हैं , लेकिन स्वयं को चरित्रवान मनुष्य बना सकते हैं ! यदि सुधारना सम्भव होता तो श्री कृष्ण दुर्योधन को समझाने जब गए तो वह समझ गया होता - युद्ध होता ही नहीं ?)]
>>>भाष्यकार रामानुज स्वामी ने विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन देकर हम वैष्णव भक्तों पर अनुपम कृपा की। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन 'विशिष्ट अद्वैत वेदान्त' लिखा था। उन्होंने सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचारों का आधार बनाया।
1017 ईसवी सन् में दक्षिण भारत के तमिल नाडु प्रान्त में जन्मे श्री रामानुज स्वामी ने 1137 ईसवी सन् में 120 वर्ष की अवस्था में यह शरीर छोड़ा। उन्होंने ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् (- श्रीभाष्य परिचय) की टीका कर सनातन परंपरा को और मजबूत किया। उन्हें शेष का अवतार माना जाता है।
[साभार : श्री सिद्धदाता आश्रम, (Shri Sidhdata Ashram, Shri laxmi Narayan Divyadham (Faridabad)]
भक्ति से शक्ति लाभ कहने के बाद 23 जनवरी 2024 ( catheter removal) दिल्ली प्रवास में का सबसे महत्वपूर्ण दिन को यह समझ में आया कि .... महर्षि वाल्मीकि ने क्यों कहा था -" राम धर्म के विग्रह हैं ! मूर्ति नहीं!
"रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानां मेघवानीव।।
(वाल्मिकी रामायण, अरण्यकांड 37 सर्ग 13।।)
13. रामः विग्रहवान् धर्मः = राम, धर्म के अवतार हैं (Rama, embodiment, of righteousness) साधुः = अर्थात समदर्शी ( equable person-धीर , स्थितप्रज्ञ, समबुद्धि- equanimous minded ) साम्यभाव में अवस्थित मन वाले व्यक्ति हैं ; सत्य पराक्रमः = सत्यता ही उनकी वीरता है (truthfulness, is his valour) !; देवानां वासवः इव = देवताओं के लिए ( for gods, Indra) इंद्र के समान हैं ; सर्वस्य लोकस्य राजा = संपूर्ण विश्व का वह राजा है ( for entire, world, he is king.)।
"Rama is the embodiment of righteousness, he is an equable person with truthfulness as his valour, and as with Indra to all gods he is the king of entire world (not just of Ayodhya). [3-37-13]
"राम धार्मिकता (righteousness- सच्चाई , पवित्रता, नेकी) के अवतार हैं, वे एक समदर्शी व्यक्ति हैं, उनकी सत्यता ही उनकी वीरता है, और सभी देवताओं को वे देवराज इंद्र की तरह प्रतीत होते हैं , क्योंकि वे (केवल अयोध्या के नहीं) पूरे विश्व के राजा हैं। [3-37-13]
राम की सत्यता (प्राण जाई पर वचन न जाई !) का सिद्धांत ही उन्हें विजयी बना देता हैं, क्योंकि वे धर्म के मार्ग से कभी नहीं हटते। और जो व्यक्ति कभी अपने धर्म से निचे नहीं गिरता हो , वही तो सच्चा वीरपुरुष है ! इसलिए उसके हारने का प्रश्न ही नहीं उठता , क्योंकि उन्होंने अपने मन की लगाम -मिथ्या अहं के नहीं बल्कि - 'विवेक-सम्पन्न बुद्धि ' के हाथों में सौंप रखी है। वे उभयतोवहिनी चित्तनदी के प्रवाह को निरन्तर विवेक का फाटक लगाकर , (बुद्धि को) उर्ध्वमुखी बनाये रखने में समर्थ हैं -वे हमेशा विवेक का पालन (वेदान्त डिण्डिम - ब्रह्म सत्य , जगत-मिथ्या का पालन) करते हैं।
वाल्मिकी ने कहा था राम धर्म के विग्रह हैं। मूर्ति नहीं। 'रामो विग्रहवान् धर्मः' - अर्थात मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम धर्म (=शीक्षा #) के साक्षात् साकार रूप हैं ! आज सुबह तक गर्भगृह में रामलला की मूर्ति थी। दोपहर बाद वह विग्रह हो गई। मूर्ति निष्प्राण होती है। विग्रह में प्राण होता है।
>> सृष्टि के अंतिम सत्य (परमात्मतत्त्व) के सगुण विग्रह श्री राम ! भगवान विष्णु के दस अवतारों में सातवें अवतार है श्री राम। 500 बरस के इंतजार के बाद अयोध्या में भव्य राम मंदिर के साथ-साथ राष्ट्र मन्दिर भी बन गया है। मूर्ति की चौड़ाई 3 फीट है। मूर्ति की उंचाई 51 इंच है। मूर्ति अद्भुत, अपूर्व, मनोहरी है। 16 करोड़ के सिर्फ आभूषणो से सज्जित रामलला अपने बाहरी और भीतरी स्वरूप में इक्ष्वाकु वंश के वैभव का गान कर रहे थे। बालसुलभ मुस्कान के साथ लोकाभिराम, नयनाभिराम। सगुण ब्रह्म स्वरुप सुन्दर, सुजन रंजन रूप सुखकर। यही रामलला का नया स्वरूप है। लगता है अभी बोल देंगे। पांच साल के भगवान की बालसुलभ मुस्कान को देखते ही वहां मौजूद लोग धन्य हुए।
मूर्ति अद्भुत , अपूर्व , मनोहारी है। 16 करोड़ के सिर्फ आभूषणों से सज्जित रामलला अपने बहरी और भीतरी स्वरुप में इच्छवाकु वंश के वैभव का गान कर रहे थे। बालसुलभ मुस्कान के साथ, नयनाभिराम। सगुण ब्रह्म स्वरुप सुन्दर , सूजन रंजन रूप सुखकर। यही रामलला का नया स्वरुप है। लगता है अभी बोल देंगे। पाँच साल के भगवान की बालसुलभ मुस्कान को देखते ही -वहां मौजूद लोग धन्य हुए ही - साथ में पूरा भारत और विश्व भी श्रद्धा से भर उठा। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि इस जीवन में उसे भारतीय चेतना के सबसे बड़े नायक राम का ऐसा मंदिर देखने को मिलेगा। इस मंदिर का निर्माण राजनितिक चुनाव से नहीं अदालत की निर्णय से हुआ। यही लोक तंत्र है - अदालतों ने न्याय की लाज रख ली ! भारतीय समाज ने अपने पुरुषोत्तम की प्रतिष्ठा प्रतीक को पूरी लोकतंत्रीय गरिमा के साथ स्थापित किया।
किसी को कल्पना भी नहीं थी कि इस जीवन में उसे भारतीय चेतना के सबसे बडे नायक राम का ऐसा मंदिर देखने को मिलेगा।.... जैसे ही पीएम मोदी ने रामलला के श्रीमुख से वस्त्र हटाया, समूचा देश " भय प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी " के स्वर से गूंज उठा।
23 को कैथेटर हट गया 25 -1-2024 को sdd आयी झंडा फहराने का नयोता देने। -इस पर डॉली को बधाई देने के बदले डराने लगी - यथार्थ में गलत दवा देकर मार देता है ! वेदान्त डिण्डिम : जब उस व्यक्ति को सृष्टि के इस परम् सत्य की धारणा पुस्तक पढ़कर नहीं , जीवन की पुस्तक से -अपने दैनन्दिन जीवन के अनुभव से इस बात की शिक्षा न मिल जाये - तब तक स्वयं को मूर्ख (गोपाल) समझकर माँ सर्वमंगला कुष्मांडा देवी द्वारा भेजे हुए -सामने आ गए प्रत्येक व्यक्ति से "जब तक जीना,तब तक सीखना ' और अनुभव ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक होता है " की शिक्षा (sdd-ssg etc-arb -bin केस कर दो यथार्थ पर !) या इस उपदेश की धारणा होते ही -गीत फूट पड़ता है - "त्वं प्रत्येकं देशे असि, त्वं प्रत्येकं वेषे असि।" -हर देश में तूँ हर भेष में तूँ की धरणा' हो जाने पर यह जगत आनन्द की कुटिया [विवेक + आनन्द की कुटिया] हो जाती है !इसीलिये स्वामी विवेकानन्द का सम्पूर्ण जीवन बाद वाले आदर्श - "विश्वमानवता के कल्याणार्थ समाधि या अमृतत्व का त्याग " के प्रति समर्पित जीवन था।
इसीलिये नरेन्द्रनाथ के गुरुदेव ने अपने हाथों से एक 'चपरास' लिखा था-" नरेन् शिक्षा देगा।" तथा सार्वजनिक रूप से घोषित किया था, " नरेन्द्रनाथ वास्तव में नर-रूपी नारायण है ! जीवों की दुर्गति को दूर करने के लिये ही इसने एक बार पुनः शरीर धारण किया है ! श्रीरामकृष्ण ने कहा था, " इस युग में सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में इतने उच्च कोटि का आधार और कभी नहीं आया था !" दार्शनिक राजा (Poet king) भर्तृहरि ने भी कहा था -'इस प्रकार के राजा और ऋषि (राजर्षि) इस विश्व में बहुत ही कम होते हैं।
"त्वं प्रत्येकं देशे असि, त्वं प्रत्येकं वेषे असि।"और तब : किसी व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण से पूछा -क्या आप मुझे एक लाईन में ब्रह्मज्ञान का उपदेश दे सकते हैं ? ठाकुरदेव ने कहा "तुम इस बात की धारणा करो कि - ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या " .... और चुप हो गए !"
अब एक बात बड़े रहस्य की है, बहुत मार्मिक और काम की है। आप ध्यान दें – आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मों की बात । किन्तु कर्म के वश आयी हुई परिस्थिति में अपने 'दासो अहं' से नीचे गिरकर, स्वयं को सुख-दुःख का भोक्ता अहं मान लेना और सचमुच सुखी-दुःखी होना (अपना BP इतना हाई कर लेना कि HDU में भर्ती होने की नौबत आ जाये ?) केवल मूर्खता है । वह (हॉस्पिटल में भर्ती होना) परमात्मा का विधान है, जो हमारे कर्मों का नाश करके हमें शुद्ध करने के लिये है । वह परमात्मा कैसे किसी को दुःख देगा ? और क्यों देगा ? उसके उत्तरदायी हम स्वयं ही हैं।
Ehlam Started from Mahamandal Blog : after Janibigha Camp : बुधवार, 27 सितंबर 2023, to 3.2.2024 under Yatharth , Greater Noda :🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏 RE-START Started on 4.2.2024 : YATHARTH Super Speciality Hospital, Greater Noida : This hospital has since become a super-specialty tertiary care hospital in Delhi NCR with 400 beds which include 112 critical care beds, nine modular and other operation theatres.
“I was admitted here on 27th January 2024 at 04.42 am in HDU (high dependency unit) block, after being diagnosed with Hyponatremia /D3/HTN. I was very stressed about my condition but the doctors and medical staff have been a great blessing. Since I'm getting discharged today- on 28, January, 2024 at 3.22 pm . I'd like to thank Dr. Rahul for making me feel better in such a short time. Thank you for your patience, professionalism, hard work, and commitment to excellent medical care. You're an amazing Doctor. The medical services I received from all of the staff of HDU including Mr. Yogendra + Dr Yogendra ?, Sister from Kerala ? a B.com Muslim girl working there as Sweeper . (All sisters and boy helpers Head Sister asked आपने फाइल में क्या क्या पढ़ लिया ?) during my stay in your hospital were exceptional. I felt at home throughout the whole recovery process. When it comes to answering questions, giving emotional support, you are the best. Thanks again for everything you all did, means a lot! "
# Also Go Through : Mahamandal Blog शुक्रवार, 19 मई 2017/"अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द के प्रति क्यों आकर्षित हो जाते हैं ?डिज़ोन 250 एमजी टैबलेट (Dizone 250Mg Tablet) मुख्य रूप से रोगियों में शराब के इलाज के लिए उपयोग की जाती है। यह परामर्श चिकित्सा के लिए भी निर्धारित है, जो शराब के टूटने और शराब के साथ आने वाले दुष्प्रभावों को रोकती है।