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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

🔆🙏 शिक्षा ही समाधान (শিক্ষাই সমাধান) 🔆🙏(चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ही भारत की समस्त समस्यायों का समाधान है) [ (SVHS-4.4 )] 🔆🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ] शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है "

शिक्षा ही समाधान 

(चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ही भारत की समस्त समस्यायों का समाधान है)  

(1) 

 शिक्षा क्या है ? 

[What is education?]

       श्री रामकृष्ण के इस उपदेश - "जावत बाँची तावत सीखी" (जब तक जीना तब तक सीखना) को हमें अपने अपने जीवन के प्रत्येक मुहूर्त में स्मरण रखना आवश्यक है। शिक्षा क्या है? कुछ उच्च (पवित्र) विचारों को चरित्रगत करना या उन्हें आत्मसात कर अपने आचरण द्वारा प्रकट करना; इसीका नाम है शिक्षा। हमलोगों के भीतर जो पूर्णता (intelligence, चैतन्य) पहले से विद्यमान है, उसको अपने आचरण द्वारा प्रकट (reveal) करना, इसीका नाम है शिक्षा। हमलोगों ने स्वामी जी से सुना है (23 दिसंबर, 1898 को देवघर से श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखा गया पत्र ।७/३५८-३५९)-- " बहुत शक्तिशाली जहाज या रेल का इंजन यंत्रचालित है इसलिए वे चलते और दौड़ते हैं, परन्तु वे जड़ हैं, उनमें बुद्धिमत्ता (intelligence) नहीं है। और रेल को आता देखकर जो नन्हा सा कीड़ा अपनी जीवनरक्षा के लिए रेल की पटरी से हट गया - क्योंकि वह चैतन्य (intelligent) है, उसमें अपनी बुद्धिमत्ता है। यंत्र में इच्छाशक्ति या संकल्प (will) का कोई प्रस्फुटन (manifestation) नहीं है। यंत्र कभी नियम का अतिक्रमण (transgress) करने की कोई इच्छा नहीं रखता।   (अर्थात यंत्र कभी जन्म-मृत्यु के चक्र से परे जाने का कोई संकल्प/इच्छा नहीं रखता।) कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है,और नियम के विरुद्ध जाता है , चाहे अपने प्रयत्न में वह सफल हो या नहीं; इसलिए वह चेतन है। (Greater is the happiness, higher is the Jiva, in proportion as this will is more successfully manifest.) जिस अंश में संकल्प /इच्छा-शक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है [अर्थात नचिकेता की तरह  जन्म-मृत्यु के चक्र का अतिक्रमण करने में सफलता होती है], उसी अंश में आनन्द (happiness-परमानन्द) अधिक होता है जीव उतना ही ऊँचा (ब्रह्मविद'मनुष्य') होता है। परमात्मा की इच्छा-शक्ति पूर्णतया सफल होती है , इसलिए वह सर्वोच्च है। शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस (मनःसंयोग के) प्रशिक्षण द्वारा इच्छाशक्ति (संकल्प) का प्रवाह (current) और प्रकटन (expression) वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , वह शिक्षा कहलाती है। " --इसको सीखने का नाम है शिक्षा। 
     [ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) का संकल्प (will-  इच्छाशक्ति'एकोहं बहुस्याम।' या 'नरेन शिक्षा देगा') पूर्णरूप से सफल होता है , इसलिए वह सर्वोच्च है।  " The huge steamer, the mighty railway engine — they are non-intelligent; they move, turn, and run, but they are without intelligence. And yonder tiny worm which moved away from the railway line to save its life, why is it intelligent? There is no manifestation of will in the machine, the machine never wishes to transgress law; the worm wants to oppose law — rises against law whether it succeeds or not; therefore it is intelligent. Greater is the happiness, higher is the Jiva, in proportion as this will is more successfully manifest. The will of God is perfectly fruitful; therefore He is the highest. What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education. (Written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar , on 23rd December, 1898.) ] शिक्षा का अर्थ है उपयुक्त (मनुष्योचित) चरित्र का अधिकारी होना। शिक्षा उसी को कहते हैं। स्वामीजी कहते हैं, " हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े , बुद्धि विकसित हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे।" ताकि हमलोग यथार्थ मनुष्य बनकर अपने कर्तव्यबोध के प्रति जागरूक हो सकें। और एक सामर्थ्यवान (competent) मनुष्य बनकर अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन कर सकें। इस प्रकार कर्तव्यपरायण मनुष्य बन जाना ही शिक्षा है। स्वामी जी ने कहा था , " शिक्षा का मतलब यह नहीं है की तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें कि अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें , वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है , जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है। ... यदि बहुत तरह की जानकारियों/ खबरों का संचयन करना ही शिक्षा है , तब तो ये पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनि और विश्वकोश (इन्साइक्लोपीडीआ) ही ऋषि हैं। " (भारत का भविष्य -५/१९५ ) ( If education is identical with information, the libraries are the greatest sages in the world, and encyclopaedias  are the Rishis.)            
      सिर्फ इसलिए नहीं कि स्वामी जी ऐसा कहते हैं। यदि शान्तचित्त हो कर  उपरोक्त सभी बातों पर हमलोग स्वयं विचार करके देखें तो इन बातों हमलोग स्वयं भी समझ सकते हैं। सचमुच ही, क्या वास्तव में इसको शिक्षा कहा जा सकता है ? क्या शिक्षा का मतलब स्कूल या कॉलेज जाना है? क्या शिक्षा का अर्थ विभिन्न विषयों के कुछ प्रमेय (theorem) आदि को रट लेना भर है ? इसको तो शिक्षा नहीं कह सकते। मैंने कुछ प्रमेयों को रटकर याद कर लिया और परीक्षा -हॉल में बैठकर उन सब को उत्तरपुस्तिकाओं में लिख दिया- क्या इसको शिक्षा कह सकते हैं। हाँ, उस प्रकार हम कुछ डिग्री- सर्टिफिकेट्स आदि अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। उन सर्टफिकेट्स के कुछ बाजार मूल्य हैं। इन्हें बाजार में दिखाकर नौकरी पा लिये या उन्हें भुना कर और कुछ कर लिए।किन्तु  इसको तो शिक्षा नहीं कह सकते। शिक्षा उसे ही कहा जाता है,जैसा पहले बताया गया, 
'जिस प्रशिक्षण के द्वारा हमलोग अपनी आंतरिक शक्ति (इच्छाशक्ति -willpower)को संयमित और नियंत्रित रखते हुए उसे प्रभावकारी तरीके से कार्य में लगा सकते हों, वह शिक्षा कहलाती है। " --इसको सीखने का नाम है शिक्षा। 
मेरी इच्छाशक्ति फलदायी तरीके से कार्य में लगी है या नहीं - इस बात को मैं कैसे समझूँगा ? उसकी परख इस बात से होगी कि हमारा अपना जीवन मंगलमय और कल्याणकारी प्रतीत होगा, अच्छा बन जायेगा। हम लोगों का जीवन सुन्दर होगा। असहनीय नहीं लगेगा।  
         हम लोग विभिन्न शिक्षा-पद्धतियों के परीक्षण के दौर से गुजर रहे हैं, और स्वयं को शिक्षित समझ रहे हैं। लेकिन क्या हमारा जीवन कई बार कष्टदायक नहीं बन जाता है ? क्या हमलोग स्वयं अपने मनोभाव, विचारों और कार्यों के द्वारा इस प्रकार के परिवेश का निर्माण नहीं कर रहे हैं, जो देखने में बहुत अच्छा प्रतीत नहीं होता है ? हमलोग आज जैसे समाज में रह रहे हैं, वहाँ जिन परस्थितियों को हम देख रहे हैं , उसके लिए कौन उत्तरदायी है ? हमलोग ही तो हैं। जो परिस्थितियाँ और सामाजिक वातावरण अक्सर हमें असहनीय लगता है , उसे भी हमने ही तो बनाया है। हमलोगों को जैसी शिक्षा मिली है, या हमने जैसी शिक्षा प्राप्त की है उसी के अनुरूप हमारे विचार बन रहे हैं, और वे विचार ही इस प्रकार से कार्यरूप में परिणत हो रहे हैं कि सामाजिक परिवेश भी वैसा ही बन रहा है। 
       हमलोगों के पारस्परिक सम्बन्ध कैसे हैं, हम एक दूसरे के साथ संवाद कैसे करते हैं। विचारों तथा अन्य विषयों का आदान-प्रदान किस प्रकार हो रहा है ? जब हम विभिन्न लोगों (भाई-भाई या मित्रों) के बीच विचारों का आदान-प्रदान करते हैं अथवा अन्य वस्तुओं का विनमय करने की बात करते हैं, तब हमलोग एक दूसरे पर अविश्वास या सन्देह कर रहे होते हैं। हम सभी इस प्रयत्न में लगे रहते हैं कि अपनी बुद्धि या चालाकी द्वारा कैसे दूसरों की आँखों में धूल झोंककर या दूसरों को उसके अधिकारों से वंचित करके - 'मैं' कैसे अधिक मुनाफा कमा सकता हूँ ? हमलोगों ने बचपन से जो शिक्षा प्राप्त की है, यह उसीका तो परिणाम है। क्या इस पाशविक स्वार्थपरता की तरफ गिरने को शिक्षा कहा जा सकता है ? निश्चित रूप से यह शिक्षा नहीं है। 
       यदि हमलोग सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकें, तो हमलोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के ऊपर उतना ही ध्यान देंगे जिससे मेरा कल्याण हो तथा मेरे और मेरे समाज के दूसरे अन्य व्यक्तियों के बीच जो कुछ भी आदान-प्रदान हो, वह दोनों के लिये समानरूप से (win- win situation में) कल्याणकारी हो। पारस्परिक श्रद्धा द्वारा प्रेरित होकर एक दूसरे की सहायता अथवा कल्याण -यही हमारा लक्ष्य होगा। ऐसा कहा जाता है कि इन दिनों अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध (या अन्तर-राजकीय सम्बन्ध) भी इसी आदर्श की बुनियाद पर गढ़े जा रहे हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ की इच्छा द्वारा अभिप्रेरित (motivated) होकर हमलोग कभी समाज का यथोचित कल्याण नहीं कर सकते। इसलिए यदि हम सर्व समाज के हितों का ध्यान रखना चाहते हैं, तो हमें स्वयं निःस्वार्थी होना  होगा। स्वार्थपरता को कम करना होगा। और इस स्वार्थपरता को कम करते हुए, स्वार्थ-शून्य बन जाना ही सीखने योग्य वस्तु (अर्थात 'शीक्षा') है। जो शिक्षा हमें स्वार्थशून्य नहीं बना सके, वह शिक्षा ही नहीं है। इसलिये पूर्णतः निःस्वार्थ बन जाने की प्रक्रिया (Unselfishness tending to hundred %) को समझना और सीखना होगा।  
[ गीता में इसकी पद्धति बतलाते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं , "परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ" (३/११) -कैसे तुमलोग इस यज्ञद्वारा इन्द्रादि देवों को बढ़ाओ अर्थात् उनकी उन्नति करो। वे देव वृष्टि आदि द्वारा तुमलोगों को बढ़ावें अर्थात् उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए ( तुमलोग ) ज्ञानप्राप्ति द्वारा मोक्ष रूप परमश्रेय को प्राप्त करोगे। अथवा स्वर्गरूप परमश्रेय को ही प्राप्त करोगे।
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[व्याख्या : वैदिक सिद्धान्त के अनुसार सर्वशक्तिमान् ईश्वर एक है। उसकी यह सर्वशक्ति प्रकृति में अनेक प्रकार से व्यक्त होकर सदैव कार्य करती है। विभिन्न प्रकार से व्यक्त परिच्छिन्न शक्तियों के विभिन्न नियामक हैं उन्हें देवता कहते हैं। इन सबके नाम भी वेदों में बताये हैं जैसे अग्नि, वायु,  इन्द्र आदि। स्वर्ग के देवता आधिकारिक रूप से ब्रह्मांड का संचालन करते हैं। देवतागण भगवान (ईश्वर या ब्रह्म) नहीं हैं अपितु वे भी हमारे जैसी आत्माएँ हैं। उन्हें संसार के संचालन से संबंधित दायित्वों का निर्वाहन करने हेतु पद सौंपे गये हैं। अपने देश की शासन व्यवस्था पर ध्यान दें जहाँ गृह मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा सचिव, अटॉर्नी जनरल और अन्य पद हैं। इन पदों पर जिन लोगों का चयन होता है, वे निश्चित समयावधि तक अपने पद पर बने रहते हैं। समयावधि समाप्त होने पर या सत्ता का हस्तान्तरण होने पर सभी पदों पर नियुक्त लोगों को हटा दिया जाता है। 
वह देवता और कोई नहीं उस कर्म क्षेत्र की उत्पादन क्षमता ही होगी। जब हम किसी क्षेत्र विशेष में पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करते हैं तब उस क्षेत्र की उत्पादन क्षमता प्रगट होकर हमें फल प्रदान करती है। यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है यदि हम समझने का प्रयत्न करें कि अपने देश को भारतमाता कहने का हमारा क्या तात्पर्य है। राष्ट्र की शक्ति को एक रूप देने में हमारा तात्पर्य उस राष्ट्र के सभी प्रकार के कर्मक्षेत्रों की उत्पादन क्षमता से ही होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कहीं पर भी निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। इस अव्यक्त क्षमता को कहते हैं देव। इन देवों को यज्ञ कर्म से प्रसन्न कर उनका आह्वान किये जाने पर वे प्रगट होकर यज्ञकर्ता को फल प्रदान कर प्रसन्न करेंगे। इस प्रकार परस्पर उन्नति कर मनुष्य परम श्रेय को प्राप्त करेगा।  इस सेवाधर्म का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता दिखाई देता है। एक मात्र मनुष्य ही है जिसे स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है इस सार्वभौमिक सेवाधर्मयज्ञ भावना का पालन करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है।  परन्तु जिस सीमा तक अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है
 पूर्वजन्म के संस्कारों, गुणों और पाप-पुण्यमय कर्मों के आधार पर जीवात्मा को इन पदों पर नियुक्त किया जाता है। ये पद दीर्घकाल के लिए निश्चित होते हैं और इन पदों पर आसीन लोग ब्रह्मांड के शासन का संचालन करते हैं। ये सब देवता हैं।  जब हम अपने यज्ञ कर्म भगवान (अवतार वरिष्ठ) की संतुष्टि के लिए करते हैं तब स्वर्ग के देवता भी स्वतः संतुष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार जब हम किसी वृक्ष की जड़ को पानी देते है तब वह स्वतः उसके पुष्पों, फलों, पत्तियों शाखाओं और लताओं तक पहुँच जाता है। 
[इस स्वार्थपरता को कैसे कम किया जाता है, " अन्तर्निहित दिव्यता अर्थात स्वार्थ शून्यता की ओर कैसे प्रवृत्त हुआ जाता है ?" (Unselfishness tending to hundred %)  इसे समझ लेना ही सीखने योग्य वस्तु है।]
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(2) 

🔆शिक्षा और नैतिकता🔆

[️Education and Ethics]
 
        हमलोग यदि नैतिक बनना चाहते हैं, नैतिकता को यदि कोई महत्व देना चाहते हैं, तो हमें स्वयं नीतिपरयाण होना होगा। और शिक्षा को ऐसा करने में सक्षम होना चाहिए। नीति क्या है ? नैतिकता का आधार क्या है ? इस विषय में बहुत वाद-विवाद है, बहुत सारे सैद्धान्तिक मतभेद हैं। यहाँ तक कि 'Ethics' (नैतिकता का विज्ञान) काहै  भी कहना है कि 'Absolute Morality' अपरिवर्तनशील नीति जैसी कोई चीज नहीं होती। 
     नैतिक या 'Moral' जिससे (Morality) शब्द बना है यह शब्द लैटिन भाषा के 'Mores'  शब्द से निकला है; और Mores का अर्थ होता है-Customs and traditions' - यानि वह प्रथा या रीति-रिवाज जो प्रचलन में हो। तब तो जो प्रथा जहाँ प्रचलन में हो, जहाँ जैसी रीति-नीति  प्रचलित हो, उसीको moral (नीति-संगत ) मान लेना पड़ेगा।  क्योंकि यही चलता-चला आ रहा है। 
        उसी प्रकार Ethics शब्द ग्रीक भाषा के 'ethos' (इथॉस) शब्द से निकला है। Ethics का अर्थ है 'character' चरित्र या आचारण संहिता । इसी सिद्धान्त को कई देशों में - लगभग सार्वभौमिक रूप से, अलिखित सामाजिक दर्शन-तत्व के रूप में समाज में स्वीकार भी किया जाता रहा है। क्योंकि आपसी सम्बन्धों की रूढ़िगत व्यवस्थाओं में या नातों-रिश्तों के बीच व्यवहार का प्रचलित मानदण्ड है या -'behavioral standards ' है, अथवा mores या customs हैं, वे  सभी देशों में एक समान नहीं होते, हमेशा एक जैसे नहीं होते।  
      दो हजार वर्ष पहले जो रीति-रिवाज और सामाजिक प्रथायें (सती प्रथा ,चोर का हाथ काटना। ....इत्यादि) प्रचलन में थीं,आज प्रचलित नहीं हैं। अथवा जो प्रथायें इस देश में प्रचलित हैं, वैसी प्रथाएं अन्य देशों में प्रचलित नहीं हैं। अतएव, अब हमलोगों ने यह भी मान लिया है कि सभी देशों की नीति एक जैसी नहीं हो सकती। हो सकता है कि अपने नातों-रिश्तों के बीच प्रचलित व्यवहार के जिस मानदण्ड को हमलोग अपने देश में moral या नीति संगत व्यवहार समझते हैं, अन्य किसी देश में उसी व्यवहार को नीतिविरुद्ध समझा जाता हो। इसी प्रकार हो सकता है कि जिस व्यवहार को (जैसे मौसेरी बहन से विवाह करने को) हमलोग अपने देश में  बिल्कुल अनैतिक (unethical) समझते हैं; उसी व्यवहार को अन्य किसी देश में अनैतिक (immoral) -नहीं समझा जाता हो ! इस आधार पर नैतिकता का कोई एक सामान्य मानदण्ड होना सम्भव नहीं है।
          ऐसा मान लेने के बाद, किन्तु अंतिम निष्कर्ष क्या निकला ? इसका निष्कर्ष तो यही हुआ कि नैतिकता का वैसा कोई खास अर्थ नहीं है, मोटे तौर पर जहाँ जैसा रीति-रिवाज प्रचलन में है उसका पालन करना ही पर्याप्त है।  तो फिर हमलोग किस प्रकार के आचरण को सही मानकर, जीवन में उसका पालन करेंगे ? "यही कि जब जैसा तब तैसा" (जेखन जेमन तखन तेमन) की नीति का पालन करना पर्याप्त है। किन्तु, क्या ' जब जैसा तब तैसा' - के आचरण को नीति कहना उचित होगा ? नहीं, हम इसे नैतिकता नहीं कह सकते। इसीलिये नैतिकता की कोई एक परिभाषा खोज पाना बहुत कठिन है।