'विवेकज-आनन्द' का अधिकार प्राप्त कर लेने से जीवन सार्थक हो जाता है !"
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना बहुत कठिन है। किसी एक व्याख्यान को सुनकर, भले ही उसमें कितना भी ज्ञानवर्धक विश्लेषण क्यों न हो, स्वामीजी की विचारधारा के समस्त पहलुओं के विषय में सम्पूर्ण अवधारणा नहीं हो सकती। इसके लिये नियमित रूप से 'विवेकानन्द साहित्य ' को पढ़ने और समझने की चेष्टा करने के साथ साथ उन्हें आचरण में उतारने का अभ्यास करना भी बहुत आवश्यक है।
स्वामीजी के पास या तो इतना अवसर नहीं था, या उन्होंने इसकी कोई आवश्यकता महसूस नहीं की होगी कि एक ही स्थान पर बैठकर समस्त विषयों के उपर कुछ लिख पाते। किन्तु व्याख्यान देने के क्रम में, या पत्राचार करते समय, अथवा गुरु-शिष्य संवाद, वार्तालाप आदि के क्रम में उन्होंने समस्त गूढ़ विषयों के बिल्कुल जड़ में पहुंचकर, बहुत सुन्दर तरीके से और अत्यन्त स्पष्ट में रूप समझा दिया है। दूसरे विचारकों के द्वारा लिखित कई पुस्तकों को पढने से उन विषयों की स्पष्ट धारणा तो नहीं हो पाती, उल्टे हम लोग कई बार और अधिक दिगभ्रमित हो जाते हैं। किन्तु स्वामीजी के साथ परिचय क्रमशः बढ़ते जाने के साथ-साथ समस्त प्रकार की भ्रम और भ्रान्तियाँ दूर होती जाती हैं, और प्रत्येक विषय के आधारभूत तथ्य को जानकर, हम अपने मन में उन विषयों की स्पष्ट धारणा भी बना सकते हैं । तथा हम यदि प्रयत्न करें, जो हमें अवश्य करना भी चाहिये, तो उस धारणा को हम अपने आचरण में उतार भी सकते हैं।
हमें इस बात को अवश्य समझ लेना चाहिये कि कोई भी विद्या या ज्ञान, चाहे वह कितना भी महान या सुन्दर क्यों नहो, यदि उसे कार्यरूप नहीं दिया जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है। किसी भी ज्ञान, विद्या या सिद्धान्त का मूल्य उसका जीवन में प्रयोग करने और अच्छा फल प्राप्त करने के ऊपर निर्भर करता है। इस तरह के विचार को ही अनुभवजन्य (empirical) या प्रैग्मेटिक (Pragmatic) या प्रायौगिक कहा जाता है। प्रैग्मटिज़म, यथार्थवाद या व्यावहारिकता को तो एक दार्शनिक मतवाद के रूप में स्वीकार भी किया गया है।किन्तु आजकल गहराई से सोच-विचार किये बिना ही किसी भी व्यक्ति के लिये 'आदर्शवादी' (idealist),जैसे कुछ शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
सही अर्थ को समझे बिना ही किसी शब्द का व्यवहार करने की आदत बन जाने के कारण, कई बार विवेकानन्द के विषय में भी कह दिया जाता है कि वे एक आदर्शवादी अथवा कल्पना-लोक में विचरण करने वाले मनुष्य थे। किन्तु विवेकानन्द को कल्पनालोक या भावराज्य का मनुष्य, हमलोग तभी कह सकते हैं जब हमारे समझ में यह आ जाय; कि जिसको हमलोग 'भौतिक जगत' कहते हैं, जिसे हमलोग जीवन की वास्तविकता या व्यावहारिक पक्ष (Practical Side) समझते हैं,जीवन के वैसे समस्त कर्म-क्षेत्र तथा यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड भी केवल केवल एक मनःकल्पित वस्तु या भाव-राशी ही है ! और स्पष्ट विचारण-प्रक्रिया (श्रवण-मनन-निदिध्यासन) ही सबसे मूल्यवान वस्तु है।
स्वामी विवेकानन्द जी के मतानुसार, वैसा ज्ञान अथवा कोई सिद्धान्त जो हमारे वास्तविक या व्यावहारिक जीवन के लिये उपयोगी न हो, या उस ज्ञान का प्रयोग करने से कोई शुभ फल भी प्राप्त नहीं होता हो, तो वैसी विद्या या सिद्धान्त का मूल्य कुछ भी नहीं है। अतः हमलोग यह निश्चित रूप से समझ सकते हैं कि स्वामीजी की सम्पूर्ण विचारधारा ही पॉजिटिव या व्यावहारिक विचारधारा है, जिसका प्रयोग हमलोग केवल अपने वास्तविक जीवन या व्यावहारिक जीवन में ही कर सकते हैं। यदि हमलोगों के पास सत्यान्वेषी दृष्टि हो, तो हमलोगों यह समझ पाएंगे कि, स्वामीजी के जैसा व्यावहारिक और सकारात्मक सोच रखने वाले मनुष्य वास्तव में बहुत कम ही पैदा हुए हैं। किन्तु उनसे स्वयं परिचित हुए बिना, केवल दूसरों के मुख से सुन कर , यदि हमलोग भी यह कहने लगें कि स्वामीजी तो एक आदर्शवादी व्यक्ति थे (व्यावहारिक नहीं थे ?), और हर समय वे कल्पनालोक में ही विचरण करते रहते थे। तो इस कथन के द्वारा हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय देंगे।
क्योंकि स्वामीजी ने तो हमलोगों को बिल्कुल व्यावहारिकता या सत्य की कठोर बुनियाद पर खड़े हो जाने का उपदेश दिया है; यहाँ तक कि अपने पैरों पर खड़े होने का निर्देश दिया है। उनका उपदेश था- " अपने पैरों को यथार्थ के धरातल पर स्थापित कर लो , और जो अभी तुमसे निचले सोपान पर खड़े हैं, उन्हें अपने हाथों का सहारा देकर उपर खीँच लो ! " अतः इस बात में थोड़ा में भी सन्देह नहीं रहना चाहिये कि स्वामीजी उपयोग-बुद्धि या व्यावहारिक-बुद्धि से सम्पन्न महापुरुष थे।
इसीलिये, जो लोग अपने को व्यावहारिक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य या एक टेक्नोक्रेटिक व्यक्ति (या Technocracy में विश्वास रखने वाले) समझते हैं, स्वामी विवेकानन्द से प्रत्यक्ष संपर्क में आने के बाद-
वास्तव में वैसे ही लोग सर्वाधिक लाभान्वित भी हो सकते हैं। किन्तु उनके बारे में 'अमुक' व्यक्ति ने क्या कहा है, 'तमुक' व्यक्ति ने क्या कहा है... ? इन सब के ऊपर चर्चा करके स्वामीजी के साथ परिचय प्राप्त करने की चेष्टा करना- ' दूसरों के मुख से मिर्ची खाना ' जैसा कभी संभव नहीं होगा। हमलोगों को उनके विचारों को स्वयं समझने तथा उन्हें अपने आचरण में उतारने की चेष्टा करके स्वामीजी के साथ प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करना होगा।
स्वामीजी ने स्वयं जो कुछ कहा है या लिखा है, उसके अविकृत (undistorted) अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ कर, उसके उपर गहन चिन्तन-मनन करने से ही हमलोग उनका सही परिचय प्राप्त कर सकते हैं। और उनकी विचारधारा को समझने के लिये, ऐसा करना नितान्त आवश्यक भी है। स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है। किन्तु लोग उनको एक महान देशप्रेमी के नाम से भी जानते हैं। हाँ, कुछ लोग इसी विषय को लेकर उनकी निन्दा भी किया करते हैं। परन्तु स्वामीजी का देश-प्रेम वास्तव में अतुलनीय था। वे कहते हैं, चाहे वे भारत में हों या अमेरिका में उनके लिये सारे देश एक समान हैं। सही मायने में स्वामीजी सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करने में समर्थ थे। किन्तु इतना होने पर भी, जब पहली बार विदेश से वापस लौटे, तब उन्होंने कहा था- भारतवर्ष का प्रत्येक धूलि-कण मेरे लिये और भी अधिक महान हो गया है, भारत मुझको अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत हो रहा है। उन्होंने ऐसा क्यों कहा होगा ? इस बात पर बोलने से -कभी अन्त नहीं होगा।
जिस विचार-धारा [रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त (परमहंस) परम्परा] में प्रशिक्षित होने पर किसी व्यक्ति को ऐसी उपलब्धी हो जाती है, वैसे व्यक्ति हमारे अपने व्यक्ति-जीवन के लिये,तथा समस्त मानव जाति के लिये अत्यन्त मूल्यवान होते हैं। इतना स्वादिष्ट, ऐसा पौष्टिक इतना सर्वजन-हितकारी विचार एक साथ अन्य किसी व्यक्ति से मिल सकता होगा या नहीं, यह बात हम नहीं जानते। अन्य कई लोगों ने भी, अनेकों अच्छी बातें अवश्य कही हैं, किन्तु यदि किसी व्यक्ति के मुख से उसके सम्पूर्ण जीवन में, जो भी बात निकली है, वे केवल मनुष्य के कल्याण के लिए हो, ऐसा कोई दूसरा उदाहरण (स्वामी जी के आलावा) दिखाई नहीं देता (नवनी दा ?) है।
स्वामी विवेकानन्द सभी मनुष्यों के कल्याण के विचारों से भरे, एक ऐसा अक्षय भण्डार हैं, जो अतुलनीय है। इसलिये वे अनुपम हैं और उनका व्यक्तित्व अचम्भित कर देने वाला है, इसीलिये वे हमारे श्रद्धा के पात्र हैं। इसीलिये हमें उनको अपना आदर्श मान कर ग्रहण करना चाहिए।
सम्पूर्ण मानव-जाति के सार्वभौमिक कल्याण के लिये स्वामीजी ने कई विषयों पर अपने विचार विभिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। किन्तु उन्होंने जो कुछ कहा है, उसके भीतर सबों को जोड़ने वाली एक अद्भुत कड़ी, दिखाई देती है, एक प्रकार की तारतम्यता अवश्य देखि जा सकती है। जाति-प्रथा, नारी-कल्याण, शिक्षा से आरम्भ करके राष्ट्रिय-एकता, अन्तरराष्ट्रीय-एकता इत्यादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने बहुत कुछ कहा हैं। किन्तु एक- एक मुद्दों के उपर अलग से सोच-विचार करने बाद कुछ नहीं कहा है। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -(वन हैज बिकम दी मेनी ) क्या है, यह तथ्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। उन्होंने जगत और जीवन के भ्रम-रहित रूप का या इसके सच्चे स्वरुप का साक्षात् दर्शन किया था। क्योंकि वे विवेकज-ज्ञान के अधिकारी थे, और उसी अधिकार के बल पर वे ऐसा कर सके थे।
अतः हमलोगों को पहले ही यह समझ लेना होगा, कि अविवेकी की तरह अनुसन्धान करके हमलोग स्वामीजी का परिचय नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
उनका तो नाम ही था -' विवेकानन्द !', उन्होंने आनन्द के अधिकार को विवेक-प्रयोग के द्वारा प्राप्त किया था। हमलोग भी ज्ञान पाना चाहते हैं, आनन्द पाना चाहते हैं, सभी प्रकार के दुःखों से अत्यन्तिक निवृत्ति पाना चाहते हैं। किन्तु हमलोग विवेक का प्रयोग नहीं करते। विवेक क्या है, तथा इसका व्यव्हार जीवन में किस प्रकार किया जाता है, इसको सीख लेने से ही हमलोग अपने समस्त दुःखों के कारण को ही नष्ट कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक -सदसत विचार। इस विवेक ज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस संयम का उपदेश दीया गया है-
- क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।।52।।
क्षण का अर्थ है, काल का सूक्ष्तम अंश। एक क्षण के पहले जो क्षण बीत चूका है, और उसके बाद क्षण प्रकट होगा- इस लगातार सिलसिले को ' क्रम ' कहते हैं। अतः उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिये क्षण और उसके क्रम में संयम करना होगा। क्षणतत्क्रमयोः – क्षण और उसके क्रम में, संयमात् – संयम करने से, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान उत्पन्न होता है। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड 1/80)]
विवेक का अर्थ है- सद-असद विचार, कौन शाश्वत है और कौन नश्वर है-इसका परिक्षण करके अच्छे-बुरे का निर्णय करना। [ सत्य (निरपेक्ष -सत्य = ब्रह्म-आत्मा-अविनाशी-अपरिवर्तन शील=अव्यक्त शक्ति),
असत्य और मिथ्या (सापेक्षिक सत्य = शरीर-मन-आकाश-प्राण -परिवर्तनशील) के अन्तर को समझने की चेष्टा) इसी को सरल भाषा में या प्रचलित भाषा में शुभ-अशुभ या भला-बुरा में अन्तर करना भी कह सकते हैं।
किन्तु अच्छे और बुरे का निर्णय करने के समय अक्सर हमलोग भ्रम में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमलोगों की प्रकृति या इन्द्रियों को जो अच्छा प्रतीत होता है, हमलोग उसी को अपने लिए भी अच्छा मान कर ग्रहण करते हैं, और इन्द्रियों को जो अच्छा नहीं लगता, उसको खराब समझते हैं, और उसे त्याग देना चाहते हैं। मिठाई यदि मुख में जाता है तो अच्छा कहते हैं, किन्तु तीखा नहीं खाना चाहते हैं। विवेकानन्द के नाम का तात्पर्य को याद रखते हुए विवेक-प्रयोग करके स्वामीजी को जानने के लिये उन्हीँ के उपर मनोनिवेश करने का अभ्यास करना होगा। विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं? पातंजलि योगसूत्र विभुतिपाद में कहा गया है-
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।।54।।
तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है, सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं, अक्रमम् – बिना क्रम के, वह, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान है।इस ज्ञान का नाम तारक-ज्ञान इसीलिये है कि यह योगी को जन्म-मृत्यु के सागर से तारण करता है। समस्त प्रकृति (वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति दोनों) की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य हैं। इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है।
'विवेकज-ज्ञान ' ऐसा ज्ञान है- जो हमें समस्त विषयों, समस्त अवस्थाओं, समस्याओं से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। जो भूत, भविष्य और वर्तमान समस्त अवस्थाओं का ज्ञान हो उसे - ' अक्रमम ' बिना क्रम में गये, अर्थात एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय -वही है विवेकज ज्ञान। जैसे किसी कमरे में हजार वर्ष से अँधेरा हो तो माचिस जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है,(बिना क्रम में गये ) एक ही बार में चला जाता है। जैसे साधारण ढंग से ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में होता है, एक के बाद एक करके नहीं जानना पड़ता है।
अर्थात उसी ज्ञान को जान लेने की ज्वलन्त इच्छा लेकर, पूरी श्रद्धा रखते हुए स्वामीजी के सन्देशों को पढ़ना होगा, उसपर गहन चिन्तन करना होगा और जीवन में प्रयोग करना होगा। आम तौर से जो भी ज्ञान हमलोग प्राप्त करते हैं, उसे हम केवल अपनी बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। उस लौकिक ज्ञान या बौद्धिक ज्ञान के द्वारा किसी वस्तु या विषय की जितनी जानकारी मिलती है, वह क्षणिक और सामयिक होती है, अतः वह बौद्धिक जानकारी सापेक्षिक और परिवर्तनशील होती है।
ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक आकाशीय और तात्क्षणिक [স্থানিক ও তাৎক্ষণিক, स्पेस ऐंड इन्स्टन्टैनीअस-टाइम] प्रभावोत्पादक-सम्बन्ध स्थापित करने की घटना से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत के या मनुष्य-जीवन की निपट समस्या (मृत्युभय) के मूल कारण का परिचय नहीं मिलता। जिस दृष्टि में, जिस सत्यानुसन्धान की प्रक्रिया में, मात्र एक क्षण में समग्र जगत, समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड भास उठता है, उसी ज्ञानप्रसूत समस्या का स्वरुप और समाधान-सूत्र हमलोग एक साथ स्वामीजी से प्राप्त करते हैं।
ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक आकाशीय और तात्क्षणिक [স্থানিক ও তাৎক্ষণিক, स्पेस ऐंड इन्स्टन्टैनीअस-टाइम] प्रभावोत्पादक-सम्बन्ध स्थापित करने की घटना से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत के या मनुष्य-जीवन की निपट समस्या (मृत्युभय) के मूल कारण का परिचय नहीं मिलता। जिस दृष्टि में, जिस सत्यानुसन्धान की प्रक्रिया में, मात्र एक क्षण में समग्र जगत, समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड भास उठता है, उसी ज्ञानप्रसूत समस्या का स्वरुप और समाधान-सूत्र हमलोग एक साथ स्वामीजी से प्राप्त करते हैं।
इसीलिये निश्चित रूप से विवेकानन्द एक भविष्यद्रष्टा भी हैं। उन्होंने अपनी वैश्विक दृष्टिकोण के आधार पर ही भविष्य के मार्ग का संकेत दिया था। उन्होंने सब कुछ को (ज्ञाता-ज्ञेय और ज्ञान को) एक साथ देखने के बाद उसी सत्य को टुकड़ों टुकड़ों में करके जो कुछ कहा था,उनके उन्हीं संदेशों के द्वारा हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों जान पाते हैं, और इसीलिये हमें उनकी बातें इतनी मूल्यवान लगती हैं। जिस प्रकार गीता में श्रीकृष्ण ने कहा था -
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता: 10: 42।।
' अथवा हे अर्जुन ! तुम अनेक को जानने की चेष्टा कर रहे हो। -यह क्या है, वह क्या है- इस प्रकार अलग अलग रूप से जानने की क्या आवश्यकता है! केवल इतना ही जान लो की मेरे एक ही अंश में यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड अवस्थित है।
और स्वामीजी की विचार-धारा का वैशिष्ट भी यही है। उनके समस्त संदेशों के भीतर जो मूल बात है, वह है मनुष्य को मनुष्य के रूप में गढ़ लेना। वे कहते हैं, तुमलोग समाज का पुनर्गठन करो, समाज का नवीकरण करो, समाज की सेवा करो। तुम लोग राजनीती का उपयोग करो, विज्ञान का, आर्थिकनीति को उपयोग में लाओ -इन सभी चीजों की आवश्यकता है। किन्तु इतना समझ लो कि इन समस्त क्षेत्रों के जो भी विविध योजनायें है, वे सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए ही हैं। इसलिये यदि तुम मनुष्य को ही पूर्ण मनुष्य के रूप में नहीं गढ़ सको, उसकी अन्तर्निहित सत्ता को यदि सम्पूर्ण विकसित और प्रकाशित (अभिव्यक्त) नहीं करा सको, तो वैसे विज्ञान,प्रयोद्द्गिकी, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान, राजनीति, इतिहास, दर्शन - ये सभी किसी काम के न होंगे। यदि इस इस मूल को तुम जान लो, तो बाकी सब कुछ को जान लोगे। यही है सच्चा ज्ञान।
श्रीरामकृष्ण जैसा कहते थे, " एक को जानने का नाम है ज्ञान, और बहुत को जानने का नाम है अज्ञान।" हमलोगों की आकांक्षा यह होनी चाहिये कि हम सबकुछ को जान लेंगे, नहीं तो मूल सत्य हृदयंगम नहीं होगा। स्वामीजी के अनुसार इसी सब कुछ को जान लेने का अर्थ है- मनुष्य के (अपने) सच्चे स्वरूप को जान लेना एवं उसी ज्ञान की बुनियाद पर उससे संलग्न बाह्य विषयों को उचित रूप से अपने लिये उपयोगी बना लेना। स्वामीजी ने मनुष्य के स्वरुप का अन्वेषण करके, उसकी वास्तविक सत्ता का विकास और अभिव्यक्त करने की साधना को ही प्राथमिक कार्य कहकर, उन्होंने इसी कार्य को करने पर बार बार जोर दिया है।
सार्वभौमिक-कल्याण के महान तत्व (वसुधैव कुटुम्बकम) का अविष्कार पृथ्वी पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ था, इसीलिये विदेश से वापस लौट आने के बाद स्वामीजी भारत के प्रत्येक धूल-कणों को पहले से भी अधिक पवित्र कहकर और अधिक प्रेम किये थे। वे यह देख पाने में समर्थ थे, कि भारत का कल्याण (अर्थात समस्त जगत का कल्याण) करने के उद्देश्य से, जिस मौलिक तत्व (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म हैं-'एकं सत्य ' विप्रा: बहुधा वदन्ति ) को जानने की आवश्यकता होती है, उसका आविष्कार हजारों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में ही यहाँ के ऋषि-मुनियों ने अपने मनन-लोक में, प्रत्यक्ष आत्मानुभूति के लोक में अकस्मात
कर लिया था। तथा उन्होंने यह भी समझ लिया था कि यदि हृदय के आलोक में उद्भासित, उस महान तत्व को, भारतवर्ष समग्र विश्व के मनुष्यों तक वहन करके पहुँचा सके, केवल तभी जगत का यथार्थ कल्याण संभव होगा।
स्वामीजी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों, समस्त मानव-जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते थे, इसीलिये वे भारत वासियों से, विशेष कर युवाओं से यह अपेक्षा रखते थे कि हमलोग उस तत्व को जानने और अभिव्यक्त करने की साधना करेंगे, और स्वयं उसकी अनुभूति प्राप्त करके, एक दिन सम्पूर्ण विश्व में उस ज्ञानालोक को फैला देंगे ! और अपनी ऋषि दृष्टि से मानवजाति के उन भावी मार्गदर्शक नेताओं को भारत-भूमि से बाहर निकल कर सम्पूर्ण विश्व में 'BE AND MAKE' के आदर्श का प्रचार करता हुआ देखने से - भारत की धरती उनके नेत्रों के समक्ष एक पुण्यभूमि के रूप में प्रकट हो गयी थी। और इसीलिये जो तात्विक-ज्ञान (वेदान्त के महावाक्य) प्राचीन युग में हमलोगों के लिये जटिल भाषा में लिपिबद्ध था, जो अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं में छुपा हुआ था, जिसे केवल साधू-महात्माओं के चर्चा का विषय समझा जाता था, उसी महान तत्व को स्वामीजी ने हमलोगों के निकट, भारत के अपने क्रमानुयायीओं के निकट अति सरल भाषा में प्रस्तुत कर दिया था।
स्वामीजी ने अपने भावी संतानों से यह अपेक्षा की थी, कि उनकी भावी पीढ़ी उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य तक ले जाएगी। उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजार में, खेतों में, मैदानों में, कल-कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर देगी। और तब किसानों के हल से, कारखाने के श्रमिकों से, एक नया महान तेजस्वी भारत-एक महाशक्ति के रूप में, उठ खड़ा होगा।
वह तत्व क्या है ? हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, एक अनन्त प्रेम का महासागर, प्रेम-सिन्धु ठांठे मार रहा है। उसे जानना होगा, उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीनहीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमित प्रताप है। हमलोग मोह-वश, महाभ्रम के कारण अपने को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र (भेड़) समझ लिये हैं। इस असहनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर एक छोटा-मनुष्य,एक पशु-मानव में परिणत कर लिया है। जिस मनुष्य ने भ्रम के कारण, अज्ञान के कारण अपने को संकुचित कर लिया है, उसे एक बार पुनः बिराट स्वरुप (सिंह-स्वरुप ) में प्रतिष्ठित करा देना होगा। उसको ज्ञान आलोक से शक्ति-सम्पन्न करना होगा, और उसके जीवन को प्रेम-सिन्धु के रूप में गठित करना होगा।
स्वामीजी के द्वारा कथित उस विख्यात उपदेशसे हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।कर्म,उपासना,मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। "
वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं, और हमलोगों का लक्ष्य - अपनी प्रकृति को नियंत्रित करके, उसके उपर विजय प्राप्त करके,उस ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। और हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म के द्वारा, मन को वशीभूत करने की साधना के द्वारा, संयम के द्वारा, ज्ञान की चर्चा के द्वारा, सत्यानृत या सदसत विवेक-विचार द्वारा, तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में आत्मबलिदान के द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं।
आधुनिक मनुष्य, विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने मानो अपनी पराजय भी स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) का चित्र स्वामीजी के मानस-चक्षुओं के समक्ष स्पष्ट रूप से उभर आया था, इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा (ricochet) ठोकर-पर-ठोकर मारने का खेल, खेल रही है, और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है। ऐसी बेमिसाल, अनुपम वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) वृत्तियों में उलझकर, धूल-कीचड़ से सन कर, उपेक्षित होकर, मुरझाती जा रही है ! ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो, वशीभूत करो, आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके, बाह्य जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ। किन्तु उस शक्ति का घमण्ड मत करना। शक्तिवान होकर, स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जाग्रत करने के कार्य में, समर्पित कर दो। अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से-वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती; ऐसे जीवन को जीते रहने वाला मनुष्य अन्तः प्रकृति का (इन्द्रियों का) गुलाम बन जाता है।
स्वामीजी कहते हैं, 'सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है-बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है।' उनके इसी सन्देश में -शक्तिमान मनुष्य (नेता) बनने का आदर्श, सूत्र-रूप से सन्निहित है- जो हमें 'अपने पैरोंको जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ' मनुष्य बन जाने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हमलोग यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम सभी भारतवासी परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे, आपस में सहयोग का भाव रखेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, और देखने में भी सर्वांग-सुन्दर मनुष्य प्रतीत होता है। उसीके जीवन में विकास संभव है, कल्याणकारी नव-विप्लव और प्रगति का अग्रदूत वही बन सकता है,जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है।
इसीलिये हमलोगों को अपना चरित्र गढ़ना होगा, (हिन्दू-मुसलमान-ईसाई या ब्राह्मण-क्षत्रिय,वैश्य-शूद्र,बंगाली -बिहारी नहीं) यथार्थ 'मनुष्य' बनना होगा, महाजीवन के विवेकज आनन्द का अधिकार प्राप्त करने के महान लक्ष्य (मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त करके शाश्वत जीवन) पर पहुँचने के लिये अपने जीवन को महान रूप से गठित करना होगा। जीवन की सार्थकता इसी कार्य (विवेकज ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी) मनुष्य बन जाने पर निर्भर है ! अन्य जितने भी सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।
स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर यह आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकटित हो जाता है। उसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा।इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य-मिथ्या का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी के जीवन और सन्देश की ध्यान-जन्य विवेचना, एवं उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। और इसी से चरित्र गठित होगा, तथा जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा।
---------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें