दृश्य १ :
[सारदा तालाब से एक घड़े में जल लेकर आ रही है। उसके पीछे पीछे दो अन्य लड़कियाँ घड़े को काँधे पर रखकर बातचीत कर रही हैं।]
पहली लड़की : सारदा दिनों-दिन थोड़ी उदास जैसी नहीं होती जा रही है रे ?
दूसरी लड़की : कैसे उदास न होगी ? सुना है कि उसका पति बिल्कुल पागल हो गया है।
पहली लड़की : लेकिन,हमने तो सुना है कि उसका पति कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में पुरोहित का कार्य करता है।
दूसरी लड़की : हाँ, कहने को तो पुरोहित ही है ! किन्तु सुनी हूँ कि आजकल पूजा-टूजा कुछ नहीं करता है -केवल माँ -माँ करता है; कभो रोता है, कभी हँसता है ! पहनने के वस्त्र तक का होश नहीं रहता है।
पहली लड़की : क्या तुम ठीक से जानती हो ? क्योंकि सारदा ने तो मुझे यह बतलाया था कि उसका पति एक बहुत अच्छा मनुष्य है !
दूसरी लड़की : अच्छा मनुष्य ! यदि सचमुच अच्छा मनुष्य होता, तो क्या ८ वर्ष में एक बार भी सारदा से मिलने नहीं आता ?
पहली लड़की : तब तो सारदा के लिए यह बड़े दुःख की बात है रे ? मैं सोंच रही हूँ कि एक बार सारदा से बात करूँ, अभी उसके मन को थोड़ा शांति देना आवश्यक है।
दूसरी लड़की : यदि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो, तो यतिन चाचा, पिनू चाचा लोग से पूछ लो। वे लोग कोलकाता गए थे, वहीँ सब कुछ सुने हैं।
पहली लड़की : कोशिश करुँगी कि आज ही सारदा से बात करूँ -लेकिन वो तो बड़ी शर्मीली लड़की है.
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २ :
[ रामचन्द्र मुखर्जी रास्ते से जा रहे हैं, पीछे से सारदा की सहेली (पहली लड़की) पुकारेगी]
सहेली : ओ चाचा जी , ओ चाचा जी !
रामचन्द्र : कौन रे ?अच्छा, अवनी की बेटी हो ! बताओ क्यों बुला रही थी ?
सहेली : मैं तो सारदा की 'सखी' हूँ। उसकी तरफ से एक बात मैं आपसे कहना चाहती हूँ; उसको आपसे कहने में लाज आती है , इसीलिए !
रामचन्द्र : तो -बताओ न, लगता है कि उसने तुमसे बोलने को कहा है।
सहेली : हाँ चाचा जी, फाल्गुन की पूर्णिमा [को श्रीचैतन्य देव का जन्म हुआ था इसलिए] को गाँव के सभी लोग गंगा स्नान करने के लिए कोलकाता जा रहे हैं। सारदा के मन में भी गंगास्नान के लिए जाने की बड़ी इच्छा है। वह गंगास्नान के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर जाकर अपने पति का कुशल समाचार भी जानना चाहती है।
रामचन्द्र : ठीक तो है, मैं स्वयं उसको अपने साथ ले कर जाऊँगा, और दामाद जी का समाचार भी लेता आऊंगा।
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ३ :
[ सारदा घर में झाड़ू दे रही है .../ थोड़ी देर बाद झाड़ू रख कर बैठ जाएगी/ गाल पर हाथ रखकर सोचने लगेगी, ....... फ्लैश बैक, .....विवाह के घर में बजने वाली शहनाई की धीमी-धीमी धुन बज रही है,...]
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ४ :
[ विवाह का घर है, बैकग्राउंड में शहनाई की धुन जोर से बज रही है, गदाई की माँ उसको पुकार रही हैं।]
चन्द्रामणि: गदाई , ओ गदाई.. सुनते हो ?
गदाई : जी माँ , आता हूँ। ... बोलो माँ , क्यों बुला रही थी? तुम को तो बड़ी चिन्ता थी कि गदाई की शादी कैसे होगी ? ..... अब तो कोई चिंता नहीं है ?
चंद्रमणि : हैं, वह तो हो गया। किन्तु इधर एक बहुत बड़ी समस्या भी आ गयी है।
गदाई : समस्या ? अब कौन सी समस्या आ गयी ? उसको भी बता डालो !
चन्द्रमणि : अरे , शादी में गुरहत्थी के समय लहबाबू के परिवार से गहना लाकर सारदा को पहनाया गया था,.... किन्तु अभी वो छोटी बच्ची है; गहना उतारना चाहेगी न ?
गदाई : ओ , तो अब गहना वापस करना होगा -यही तो, (सिर पर थोपी लगाकर) .... तुम उसकी चिंता मत करो माँ, उसकी जवाबदेही मेरी है। जब वो सो जाएगी , तब धीरे से मैं उसका एक एक गहना उतार लूँगा, और उसे पता भी नहीं चलेगा।
चन्द्रमणि : लेकिन यदि सुबह में जागने पर रोने लगी तब ?
गदाई : हाँ, यह बात तो ठीक है ! (सिर पर थोपा देकर) उस समय तुम उसको अपनी गोद में लेकर आश्वासन देते हुए कहना कि -'बेटी चुप हो जाओ, गदाई (गदाधर) बादमें तुम्हारे लिए इन से भी सुन्दर गहने बनवा देगा !' [लीला १/२६८]
चन्द्रमणि : ठीक है, तब वैसा ही करना।
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ५ :
[गदाई , गहरी नींद में सोई हुई छोटी लड़की सारदा के शरीर से उन आभूषणों को इतनी कुशलतापूर्वक खोल लेगा कि उस बालिका को कुछ भी पता नहीं चलेगा , ....लेकर चला जायेगा/ .... शहनाई की धुन रुक जाएगी।]
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दृश्य ६:
[गदाई एक मोढ़ा पर बैठा हुआ है, छोटी लड़की सारदा चरण स्पर्श करने के बाद, गमछे से पैर पोछेगी। हाँथ -पंखे से हवा करेगी, ... ]
गदाई :" देखो, चन्दा मामा जैसे सभी शिशुओं के मामा हैं, वैसे ही ईश्वर भी सभी लोगों के लिए अपने हैं। उनको पुकारने का सभी को अधिकार है। जो कोई भी उनको प्रेम से पुकारता है, वो उसको दर्शन देते हैं , तुम अगर उन्हें पुकारोगी तो वे तुम्हें भी दर्शन देंगे।" किन्तु, .... (इसी समय एक लड़की वहाँ आकर यह दृश्य -पंखा हाँकती हुई माँ सारदा ! को देखती है। ...)
लड़की : ओ माँ , इस छोटी सी लड़की सारदा को अपने पति (समस्त मानवजाति वुड बी लीडर या भावी मार्गदर्शक नेता) में कितनी श्रद्धा है, जरा आकर देखो तो !
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ७ :
[पुनः दृश्य ३ फ़्लैश बैक में आएगा, सारदा झाड़ू रखकर गाल पर हाथ रखकर बैठी हुई हैं ,.... रामचन्द्र का प्रवेश ]
रामचन्द्र : ओ सारदा !
(सारदा ध्यान से चौंककर वापस लौटेगी, और झाड़ू लेकर पुनः झाड़ू देने लगेगी )
रामचन्द्र : अवनि की लड़की बोल रही थी कि तुम गंगास्नान के लिए जाना चाहती हो ? ठीक ही तो है, हमलोग भी गंगास्नान कर आएंगे, और दक्षिणेश्वर जाकर दामादजी का हालचाल भी देख लेंगे।
सारदा : पिताजी, यदि आपके दामाद सचमुच पागल हो गए हों, तब तो मेरे लिए यहाँ और रहना उचित नहीं है, उनके समीप रहकर उनकी सेवा में नियुक्त रहना मेरा कर्तव्य है, न पिताजी ?
रामचन्द्र : तुम अधिक चिन्ता मत करो -बेटी ! जाकर ही क्यों नहीं देख लिया जाय ? मैं केवल सोच रहा था कि तुम इतनी दूर पैदल चल सकोगी की नहीं ?
सारदा : मैं तो अभी बड़ी हो चुकी हूँ पिताजी, क्यों नहीं चल सकूँगी ? उतना तो आराम से चल लूँगी !
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ८ :
[रास्ते पर चलते हुए, रामचन्द्र , सारदा , और दो साथी , सारदा पीछे बहुत कष्ट से चल पा रही हैं ... इसलिए पीछे छूट रही हैं। .... ]
रामचन्द्र : ओ सारदा , फिर से पीछे रह गयी क्या ? कहीं पैरों में छाले तो नहीं हो गए ?
सारदा : नहीं , पिताजी -वैसी कोई बात नहीं है !
रामचन्द्र : जरा अपना पैर दिखाओ तो ? अरे , यह क्या फोंका पड़ कर तो फूट भी गया है! इस प्रकार पैदल चलना मुश्किल होगा बेटी, अरे यह क्या तुम्हारा शरीर तो तप रहा है ! बहुत तेज बुखार लग रहा है , इस अवस्था में आगे बढ़ना असम्भव है। नजदीक के किसी चट्टी में विश्राम लेना आवश्यक है। इसीलिए तुम लोग आगे बढ़ो, मैं सारदा को लेकर किसी चट्टी में शरण लेता हूँ। जब शरीर में तेज बुखार है, तो पैदल चलना मुश्किल है।
१ साथी : हाँ , यह तो बिल्कुल सही बात है !
२ साथी : तब चलो भाई, हमलोग आगे बढ़ते हैं ! (साथियों का प्रस्थान)
सारदा : (दुविधाग्रस्त हैं ) पिताजी, मुझे लगता है, मैं अब दक्षिणेश्वर नहीं जा पाऊँगी , और लगता है उनकी सेवा भी नहीं कर पाऊँगी।
रामचन्द्र : नहीं बेटी नहीं , इतना मत सोंचो ! थोड़ा सा बुखार कम होते ही हमलोग फिर से चल पड़ेंगे। आओ बेटी आओ -(कन्धा पकड़ कर ले जायेंगे)
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ९ :
[ कुटिया में सारदा दरी पर सोयी हुई है, रामचन्द्र हाथ में एक ग्लास दूध लेकर प्रवेश ,.... ]
रामचन्द्र : तुम थोड़ा ये दूध तो पीलो बेटी।
सारदा : (बैठकर , ग्लास रखते हुए ) जानते हैं पिताजी, मैं अब पैदल चल सकती हूँ। कल रात में एक काली लड़की मेरे बिछावन पर आकर बैठ गयी थी। मैंने पूछा , तुम कौन हो ? उसने कहा मैं तुम्हारी ही बहन हूँ। दक्षिणेश्वर में रहती हूँ। मैंने कहा, मुझे भी दक्षिणेश्वर जाने की बड़ी इच्छा थी कि उन्हें देखूंगी और उनकी सेवा करुँगी। किन्तु बुखार आ जाने के कारण मेरी इच्छा पूर्ण न हो सकी। वह बोली ,' इसमें निराश होने की क्या बात है ? बुखार ठीक हो जाय तब चली जाना, तुम्हारे लिए ही तो मैंने उन्हें वहाँ रोक रखा है।
रामचन्द्र : अच्छा , ऐसी बात है ? (सारदा दूध का घूँट लेकर,.... )
सारदा : फिर बैठकर वह मेरे शरीर और सिर को सहलाने लगी, उसका स्पर्श इतना स्निग्ध और कोमल था कि, उसीके बाद से मेरा बुखार उतर गया है।
रामचन्द्र : तो फिर चलो , हमलोग इसी समय यात्रा शुरू करते हैं; देखता हूँ कहीं से पालकी का इंतजाम हो पाता है या नहीं ?
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य १० :
[दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण का कमरा, दो सेवक (भगना हृदय और भतीजा रामलाल), हृदय बिछावन ठीक कर रहे हैं, रामलाल झाड़ू दे रहा है। रामलाल झाड़ू दे रहा है। रामकृष्ण का प्रवेश। हाथ में गमझा है, बदना रखते हुए। .... ]
रामकृष्ण : अरे , हृदु -ले थोड़ा गमछा निचोड़ कर पसार देना तो !
रामकृष्ण : देखो, रामনেলো,जब इस कमरे में झाड़ू देना तब , मन बहुत पवित्र रखना। अपने चाचा का काम कर दे रहा हूँ, ऐसा मत सोंचना। ऐसा सोंचना कि , यहाँ जो भक्त लोग आ रहे हैं, उनकी सेवा करके तू धन्य हो रहा है। ऐसा समझना कि यह कमरा 'भगवान का ड्राइंग रूम (स्वागत कक्ष)' है!
(हृदय का प्रवेश )
हृदय : ओ मामा , चाँदनी घाट पर एक नाव आयी है, देखा की कुछ लोग उतर कर इधर ही आ रहे थे ,लगता था कालीमन्दिर ही आ रहे हैं । (हृदय बिछावन चादर सब ठीक-ठाक करेगा )
रामकृष्ण : अरे राम लाल , देखोतो -इतनी रात गए इधर कौन आ रहा है ?
(रामलाल का प्रस्थान -शीघ्र लौटना )
रामलाल : चाची जी आयी हैं, साथ में मुखर्जी महाशय भी हैं।
रामकृष्ण : अच्छा, ये बात है ! जा जा उन लोगों को यहीं ले आ। (प्रस्थान के लिए कदम बढ़ाते ही, रामलाल से। ... ) देखो, उनलोग को सीधा इसी कमरे में ले आना! अरे हृदु देखतो शुभ घड़ी है या नहीं ? पहली बार आ रही है।
(रामलाल के पीछे पीछे सारदा प्रवेश करेगी, रामलाल के हाथ में टीन का सूटकेश है, सारदा रामकृष्ण को भूमिष्ट होकर प्रणाम करेगी। )
रामकृष्ण : तुम आयी हो, अच्छा की हो। अरे दरी तो बिछा दो। (रामलाल दरी बिछा देगा) बैठो, तुम इतने दिनों के बाद आयी ? अब क्या मेरे 'सेजो बाबू' (मथुर बाबू) जीवित हैं, कि तुम्हारा आदरसत्कार होगा?उनके जाने से मानो मेरा दाहिना हाथ ही टूट गया है। यदि वह आज होता तो तुम्हारी कितनी सेवासत्कार करता। वैसे , तुम्हारा शरीर तो ठीक है न ?
सारदा : मार्ग में थोड़ा बुखार हो गया था -अभी भी है।
रामकृष्ण : क्या बुखार है ? (लिलार पर हाथ रखेंगे, उद्विग्न होकर) अरे हृदु तुम्हारी मामी को बुखार हुआ है, जाओ जाकर दवा का इंतजाम करो।
हृदय : ठीक है -जाता हूँ , लेकिन मामा; मामी के लिए सोने की व्यवस्था कहाँ कर दूँ ? नौबतखाने मे दीदी वाले कमरे में करने से ही ठीक रहेगा।
रामकृष्ण : नहीं रे, ठण्ढ लगने से बुखार बढ़ सकता है। डॉक्टर -बैद्य को दिखलाना पड़ेगा। वो इसी कमरे में सोयेगी। बाद में जैसा होगा देखा जायेगा। तुम इसी कमरे में एक पृथक चौकी पर उसके सोने की व्यवस्था कर दो।
{बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ११ :
[श्रीरामकृष्ण का कमरा - दरी पर ६ भक्त बैठे है / मास्टर, अधर, मारवाड़ी, चुनीलाल, योगेन युवा है, रामलाल ]
रामकृष्ण : अच्छा बताओ , नाव कहाँ रहती है ?
योगेन : नाव ! नाव पानी में रहती है।
रामकृष्ण : नाव में पानी घुस जाने से क्या होगा ?
अधर : नाव डूब जाएगी।
रामकृष्ण : हाँ , नाव में पानी घुस जाने से वह डूब जाती है। अब मानलो कि तुम सभी लोग एक एक नाव हो; और संसार रूपी पानी में तैर रहे हो। यदि संसार तुम लोगों के भीतर घुस जाये, तो क्या होगा ?
अधर : महाशय , डूब जायेंगे। (सहास्य)
रामकृष्ण : नाव पानी में रहे , किन्तु नाव पानी न घुस सके तो सब ठीक है ! तुम संसार में रहो, लेकिन संसार तुम में न घुसे तो तुम ठीक हो।
चुनीलाल : महाशय, क्या ऐसा होना सम्भव है ? क्या गृहस्थाश्रम में भगवान लाभ हो सकता है ? (वचनामृत/ पेज/२३७)
रामकृष्ण : क्यों नहीं हो सकता ? पाँकाल मछली (ईलिश?) कहाँ रहती है ? पाँकाल मछली कीच के भीतर रहती है न ? लेकिन कीच से बाहर निकालो तो उसके शरीर पर कीचन हीं रहता। उसका शरीर एकदम साफ चमचम चमकता है। उसी तरह माँ जगदम्बा (सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध) का भक्त ही वीर या 'हीरो' होता है, जो पूणतः अनासक्त होकर संसार में रह सकता है। किन्तु वीर बनने के लिए पहले कभी कभी संसार से दूर निर्जन में (अर्थात महामण्डल कैम्प, साप्ताहिक पाठचक्र आदि में) जाकर ईश्वरचिन्तन करने पर उनमें भक्ति होती है। तब निर्लिप्त होकर संसार में संसार में रह सकोगे। वचनामृत/३६९/
चुनीलाल : लेकिन महाशय , ऐसा कैसे हो सकता है ?
रामकृष्ण : देखो दूध और पानी है, एक साथ मिला दो क्या होगा ?
योगेन : मिल जायेगा।
रामकृष्ण : "थैंक यू ! यह संसार पानी है, और मन मानो दूध है। साधना करके मन में ज्ञान -भक्ति रूपी मक्खन प्राप्त करना होगा। उसके बाद जितना भी परिवार में रहो, कोई हानी नहीं। यदि वैसा नहीं किये, तो विपत्ति की आशंका, शोक, दुःख इस सब से अधीर हो जाओगे। ज्ञान हो जाने पर संसार में रहा जा सकता है। परन्तु पहले तो ज्ञानलाभ करना चाहिये। संसाररूपी जल में मनरूपी दूध (पृथक 'अहं;-बोध) रखने पर दोनों मिल जायेंगे। इसीलिये दूध को निर्जन में (महामण्डल ऐनुअल कैम्प में) दही बनाकर उससे मक्खन निकाला जाता है। जब निर्जन में साधना करके मनरूपी दूध से 'ज्ञान-भक्ति-रूपी-मक्खन' निकल गया, तब वह मक्खन अनायास ही संसार-रूपी पानी में रखा जा सकता है। वह मक्खन कभी संसार-रूपी जल से मिल नहीं सकता -संसार के जल पर निर्लिप्त होकर उतराता रहता है ! इससे यह स्पष्ट है कि साधना (५ अभ्यास) चाहिए। पहली अवस्था में निर्जन (कैम्प) में रहना जरुरी है। वचनामृत- ३३८/
मारवाड़ी : जी एक बात है।
मारवाड़ी : जी एक बात है।
रामकृष्ण : क्या बात ?
मारवाड़ी : आपके पास बहुत से आदमी आते हैं, रहते हैं। आपका बहुत खर्च होता है। इसलिए मैंने १०,००० रूपये एक चेक लाया है , मेहरबानी करके आप इस चेक को स्वीकार कीजिये।
रामकृष्ण : अरे , रुपया तो हम बिल्कुल नहीं लेते।
मारवाड़ी : लेकिन ये तो आपके लिए नहीं दे रहा हूँ, यह तो आपके भक्तों के लिए है। फिर आपकी पत्नी भी हैं न ?
रामकृष्ण : ठीक है, तो पत्नी को पूछो। योगेन , इनको थोड़ा नौबतखाने में लेकर जाओ तो।
मारवाड़ी : हाँ , ठीक है, ये भी ठीक है (योगेन के पीछे पीछे मारवाड़ी का प्रस्थान )
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १२ :
[श्रीषोड़शी-पूजन के बाद श्रीमाताजी ने लगभग ५ महीने तक श्रीरामकृष्ण देव के समीप रहकर अवस्थान किया था। पहले की भाँति दिन का समय नौबतखाने में बिताकर, रात में श्रीरामकृष्णदेव की शय्या में ही शयन करती थीं। यह जानकर कि नित्यप्रति निर्विकल्प समाधि में जाने पर उनके शरीर पर मृतक के लक्षण प्रकट होने लगते थे, यह देखकर श्रीमाँ की निद्रा में विघ्न हो जाता है, उनके सोने की व्यवस्था नौबतखाने में करवा दी। .... रामकृष्ण छोटी सी खाट के पास खड़े होकर माँ (माँ जगदम्बा या विराट शक्ति, जो जगत रूप में प्रकट है) के साथ बातचीत कर रहे हैं। ]
रामकृष्ण : माँ , तुमने कहा था कि 'भावमुख ' होकर रहो। [भावमुख अवस्था में रहने का तात्पर्य है-"मैं वही सर्वव्यापी विराट् 'अहं' हूँ !" लिलाप्रसंग २/९५] तुमने तो कहा था भक्ति और भक्त को लेकर रहो। ये सभी तो गृहस्थ भक्त हैं माँ। तुमने तो कहा था कि त्यागी युवक लोग आएंगे। अब उनलोगों को भेज न माँ। यदि वे लोग नहीं आएंगे , तो तुम्हारा काम कौन करेगा माँ ? (इसीबीच सारदा हाथ में तकिया लेकर कमरे में घुसकर बिछावन ठीक ठाक करने लगेगी। दो तकिया को आसपास रखेगी। )
रामकृष्ण : आज लक्ष्मीनारायण नामक मारवाड़ी आया था। १० हजार के चेक देना चाह रहा था। मैंने उसको तुम्हारे पास जाने को कहा था। गया था क्या ?
सारदा : हाँ , मुझसे भी लेने के लिए बोला था, पर मैंने नहीं लिया। मैंने पूछा कि आपने क्या कहा ? जब मैंने सुना कि तुम लेना नहीं चाहते थे, तब मैंने कहा कि क्या वे और मैं अलग अलग हैं ? (इसी समय रामकृष्ण - कहेंगे बहुत अच्छा बहुत अच्छा) मेरा लेना भी तो उन्हीं का लेना हो जायेगा !
रामकृष्ण : तब उसने क्या कहा ?
सारदा : कह रहा था आपलोगों का हृदय एक है। आपलोग बहुत त्यागी मनुष्य हैं।
रामकृष्ण : अरे समँझी ! माँ जगदम्बा हमलोगों की परीक्षा ले रही थीं। परीक्षा में तुम भी पास और मैं भी पास हो गया।
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १३ :
[ रामकृष्ण भोजन कर रहे हैं , माँ भोजन करवा रही हैं, पंखा झल रही है। ]
सारदा : सब्जी तो लक्ष्मी ने बनाया है, और सूक्तो (विशेष बंगाली सब्जी) मैंने बनाया है।
रामकृष्ण : हाँ जीभ से छुआते ही, समझ में आ गया कि कौन मधूबैद्य है और कौन श्रीनाथसेन। ....ता हाँ-गो, तुमि कि आमाय आबार संसारेर पथे टेने निते एले ना कि ? लेकिन यह बताओ कि क्या तुम मुझे फिर से संसार के रास्ते में खींच लेने के लिए तो नहीं आयी हो ?
सारदा : नहीं ठाकुर देव, मैं आपको भला संसार के रास्ते में खींचना चाहूँगी ? मैं तो आपको आपके ईच्छित रास्ते पर आगे बढ़ने में सहायता करने के लिए आयी हूँ !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १४ :
[रामकृष्ण बड़े चौकी पर बैठे हैं। लाटू जमीन पर एक 'वर्ण परिचय ' किताब -स्लेट लेकर बैठे हैं। ]
रामकृष्ण : बोलो क
लाटू : का
रामकृष्ण : बोलो ख
लाटू : खा
रामकृष्ण : अच्छा ये बताओ कि -मैं तुमको 'क' कहने के लिये कहते हूँ, तो तुम 'का' कहते हो, मैं 'ख' कहता हूँ -तुम 'खा' कहते हो ! इसके बाद जब तुमको आकार सिखाने के लिए 'का' बोलने के लिए कहूँगा -तब तुम क्या बोलोगे ?
लाटू : जी , वो तो हमने जानते नहीं !
रामकृष्ण : तो अब ठीक से बोल - , बोलो क
लाटू : का
रामकृष्ण : ख
लाटू : खा
रामकृष्ण : ना , तुमको मैं पढ़ना लिखना नहीं सिखा पाउँगा।
लाटू : ठाकुर, तब जिससे हमको लाभ हो , वही कर दीजिये।
रामकृष्ण : (स्नेहपूर्वक। ... ) नजदीक आओ, जीभ बाहर निकाल। ॐ अंग अहः ! जा ! (जीभ पर मंत्र लिख देंगे) तुमको और कुछ नहीं करना पड़ेगा ! तुम केवल मेरा ध्यान करते रहना (बी ऐंड मेक करते रहो), यही करने से तुम्हारा सबकुछ हो जायेगा, मुक्त हो जाओगे !
(सारदा का प्रवेश )
रामकृष्ण : (सारदा को देखकर ) ओ तुम आयी हो ? बताओ क्या बात है ?
सारदा : कुछ बोलने के लिए नहीं आयी , यह देखने के लिए आयी हूँ -कि आप किसे पढ़ा रहे हैं ?
रामकृष्ण : इसी लड़के को , देखो यह लड़का बहुत अच्छा है, इसका आधार एकदम शुद्ध है ! (जेपी मन में कोई खोंट नहीं है ?) राम दत्त के घर में काम करता है। कहता है मैं यहीं रहना चाहता हूँ। तो, अगर तुम चाहो तो अपने 'मयदा ठेसार काजे ' अर्थात आंटा सानने के काम पर रख सकती हो। -की रे लाटू, ३/४ सेर आंटार रुटी -माखते बोलते पारबि तो ? रोटी -बनाने सकेगा न ?
लाटू : वो सब हमने खूब पारबो !
रामकृष्ण : तब जा , तेरी नौकरी पक्की हो गयी !
(लाटू दौड़ कर माँ सारदा को प्रणाम करेगा !)
सारदा : ठीक है बेटे- जीयो !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १५ :
[रामकृष्ण चौकी पर लेटे हुए हैं -सारदा चरणसेवा कर रही हैं ]
रामकृष्ण : अच्छा , तुम ये बताओ कि इस कमरे में जो चन्द्रमा का बाजार लगता है, इतना कीर्तन -भजन होता है, तुम वह सब कुछ सुन पाती हो, या नहीं ?
सारदा : बहुत आराम से सुनती रहती हूँ। मैं और लक्ष्मी तो खड़े खड़े नहबत के दरवाजे के छेद से देखकर सब सुनते हैं।
रामकृष्ण : इसीलिए तो मैं भी उत्तर दिशा वाले दरवाजे को खुला रखने के लिए कह देता हूँ।
सारदा : लक्ष्मी कहती है, चाची यदि तुम्हारी इच्छा सुनने की है, तो जाकर सुनो न।
रामकृष्ण : तब तुम क्या कहती हो ?
सारदा : मैं कहती हूँ , मेरे लिए इतना ही बहुत है !
रामकृष्ण : डरता हूँ कि नहबत के इतने छोटे से कमरे में रहते रहते कहीं तुमको गठिया न हो जाये। थोड़ा मोहल्ले में घूमने-फिरने जाओगी तो कुछ बातें सीख पाओगी। लेकिन यह याद रखना कि यह मोहल्ला गाँव नहीं है, यहाँ थोड़ा सावधान रहना चाहिये।
सारदा : अच्छा , यह बताओ -तुम मुझे किस दृष्टि से देखते हो ?
रामकृष्ण : तुमको !!! जो माँ मन्दिर में हैं, उन्होंने ही तुम्हारे इस शरीर में जन्म लिया है,तथा इस समय वे नौबतखाने में रह रही है, और वे ही अभी मेरे पैरों को दबा रही हैं। सच कहता हूँ , मैं सर्वदा तुमको साक्षात् आनन्दमयी के रूप में देखाता हूँ !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १६ :
[ रामकृष्ण का कमरा / रामकृष्ण श्रीषोड़शी-महाविद्या की पूजा (२५ मई १८७३ अमवस्या की रात्रि में) की तैयारी कर रहे हैं, हृदय उसका सब इंतजाम ठीक ठाक कर रहे हैं ]
हृदय : मामा , अब मैं चलता हूँ , आज मंदिर की पूजा में मुझे रहना होगा।
रामकृष्ण : जाते समय मामी को यहाँ बुला कर ले आना।
(सारदा का प्रवेश , वेदी पर बैठेगी , पहले आँखों को खोलकर , .... धीरे धीरे ऑंखें मूँदकर ध्यानस्थ हो जाएँगी। रामकृष्ण पूजा करेंगे , शांति जल छींटते समय का मंत्रोच्चारण होगा
रामकृष्ण : 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता , नमःतस्यै नमःतस्यै नमःतस्यै नमो नमः !
(तीन बार -शक्ति रूपेण , शान्तिरुपेण, मातृरूपेण)
(हाथ जोड़ कर ) " हे बाले ! हे सर्वशक्ति अधीश्वरी माते ! त्रिपुरसुंदरी ! सिद्धि द्वार खोल दो, इनके (श्री माँ के) शरीर-मन को पवित्र कर,इनके अन्दर आविर्भूत हो सर्वकल्याण साधन करो ! [दोनों ध्यानस्थ हो जायेंगे]
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १७ :
[रामकृष्ण अपने कमरे में चौकी पर बैठकर जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं। हृदय का प्रवेश,... ]
हृदय : यह लो मामा , देखो तुम्हारा कंगना सीतादेवी के जैसा गढ़ा हुआ है , या नहीं ? (रामकृष्ण सोने के कंगन को घुमा फिरा कर देखेंगे !)
हृदय : मामा, मेरे बैंक में तुम्हारे ३०० रूपये रखे हुए थे। दोनों कंगन बनवाने में २०० रूपये खर्च हुए हैं, इस प्रकार आपके १०० रूपये बचे हुए हैं।
रामकृष्ण : जाओ , जाकर तुम्हारी मामी को यहाँ बुला लाओ !
(हृदय का प्रस्थान , पुनः प्रवेश , पीछे पीछे सारदा का प्रवेश, रामकृष्ण अपने हाथों से कंगन पहनायेंगे, और बोलेंगे -जरा हाथ दिखाओ तो !..... )
हृदय : क्या मामी , तुमको पसन्द आया न ? लेकिन मामी -मामा इतने बड़े त्यागी मनुष्य हैं, और तुम ये सब क्या कंगन-फंगन पहन रही हो ?
रामकृष्ण : तुम रुको तो, तुम क्या समझोगे ? वो है सारदा -ज्ञान दायिनी सरस्वती , इसीलिये थोड़ा सजना भी उसको अच्छा लगता है।
सारदा : तुम्हारे इस भगना ने एक दिन क्या किया था जानते हो ? मैं और लक्ष्मी वर्ण परिचय किताब लेकर अक्षर सीख रहे थे, तब तुम्हारे भगना ने गुस्सा करके वर्णपरिचय किताब को ही गंगाजी में फेंक दिया।
रामकृष्ण : क्या ??
हृदय : क्यों नहीं फेंकूँगा ? अभी वर्णपरिचय पढ़ रही हो- बाद में नाटक-नॉवेल भी पड़ेगी -!
रामकृष्ण : अरे हृदय , ऐसा क्रोध फिर मत दिखाना। समझ लेना इसके भीतर (अपने को दिखाकर ) जो हैं, वह यदि नाराज हो गया , और तू उससे बचना चाहे तो बच भी सकता है; किन्तु उसके भीतर जो है, (सारदा दिखा कर) यदि कहीं वह नाराज हो गयी -तब ब्रह्मा ,विष्णु ,महेश भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते! ... याद रखना इस बात को !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १८ :
[चाँदनी रात है, सारदा नौबतखाने के महराब (Roach) पर बैठकर ध्यानरत हैं ; ध्यान टूटने पर हाथ जोड़कर चाँद की तरफ देख रही हैं , अँधेरे मंच पर नीले रंग की रौशनी सारदा के चेहरे पर पड़ेगी।]
सारदा : हे ठाकुर देव, तुम अपनी इसी चाँदनी (ज्योत्स्ना) के जैसा मेरे मन को निर्मल कर दो भगवान !
मेरे भीतर ताकि कोई कामना न रहे ठाकुर। चाँद पर भी दाग है,किन्तु मेरे मन पर कोई दाग न रहे भगवान!
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १९ :
[रामकृष्ण चौकी पर बैठे हैं। जमीन पर सारदाप्रसन्न, मास्टर , अधर , बाबूराम , पूर्ण , चुनीलाल, लाटू आदि बैठे हैं ]
मास्टर : महाशय , इस समय काबुल में बड़ा युद्ध चल रहा है। एक साजिश में याकूब खां (काबुल के अमीर)का राजसिंहासन से उतार दिये गये हैं। राजपरिवार के सभी लोग अभी बड़ी आतंक में पड़े हैं।
रामकृष्ण : अच्छा? लेकिन याकूब खां कैसा राजा था ?
मास्टर : हमलोग तो उसको एक अच्छे राजा के रूप में ही जानते हैं। सुना था कि वे बड़े भक्त मनुष्य थे।
पूर्ण : अच्छा, उसके जैसे मनुष्य पर इतना बड़ा संकट क्यों आया ?
रामकृष्ण : बात यह है कि प्रारब्ध कर्मों का भोग होता ही है। जब तक वह है, तबतक देह धारण करना ही पड़ेगा। और सुख-दुःख देह के धर्म हैं। शरीर धारण करने पर सुख-दुःख दोनों लगे रहते हैं। कविकंकण-चण्डी में लिखा है कि -कालूबीर राजा को कैद की सजा हुई थी और उसकी छाती पर पत्थर रखा गया था। जबकि राजा कालूबीर भगवती का वरपुत्र था, फिर भी उसे दुःख भोगना पड़ा। श्रीमन्त भी तो बड़ा भक्त था । उसकी माँ खुल्लना को भगवती कितना अधिक चाहती थीं । पर देखो, उस श्रीमन्त पर कितनी विपत्ति पड़ी! यहाँ तक कि वह श्मशान में काट डालने के लिए ले जाया गया ।
(वचनामृत /पेज २८१ 1883,अगस्त 19) कृष्ण के माता-पिता कारागार में रहते हुए शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण (भगवान विष्णु) के दर्शन हुए, पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा।
मास्टर : केवल कारावास ही क्यों ? शरीर ही तो सारे अनर्थों की मूल है, उसी को छूट जाना चाहिए था।
श्रीरामकृष्ण : देह का सुख-दुःख जो होने का है, वो हो; पर भक्त (हीरो/रीयल पर्सनैलिटी) का ऐश्वर्य कभी जाता ही नहीं है। भक्त को ज्ञान-भक्ति का ऐश्वर्य बना ही रहता है, वह ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता। देखो न स्वयं भगवान जिसके साथ हैं, उन पाण्डवों के संकट की सीमा नहीं है। हाँ, किन्तु यह बात है कि भगवान के साथ रहने के कारण वे लोग एकबार भी 'चैतन्य' (आत्मबोध) को नहीं खोये थे ! ये सब शरीर के दुःख-सुख जो भी रहें, भक्त का ज्ञान, भक्ति का ऐश्वर्य -ये सब एकदम ठीक रहता है !
सारदाप्रसन्न : महाशय,अब मुझे जाना पड़ेगा। (सरदाप्रसन्न रामकृष्ण की पदधूलि लेंगे)
(वचनामृत /पेज २८१ 1883,अगस्त 19) कृष्ण के माता-पिता कारागार में रहते हुए शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण (भगवान विष्णु) के दर्शन हुए, पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा।
मास्टर : केवल कारावास ही क्यों ? शरीर ही तो सारे अनर्थों की मूल है, उसी को छूट जाना चाहिए था।
श्रीरामकृष्ण : देह का सुख-दुःख जो होने का है, वो हो; पर भक्त (हीरो/रीयल पर्सनैलिटी) का ऐश्वर्य कभी जाता ही नहीं है। भक्त को ज्ञान-भक्ति का ऐश्वर्य बना ही रहता है, वह ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता। देखो न स्वयं भगवान जिसके साथ हैं, उन पाण्डवों के संकट की सीमा नहीं है। हाँ, किन्तु यह बात है कि भगवान के साथ रहने के कारण वे लोग एकबार भी 'चैतन्य' (आत्मबोध) को नहीं खोये थे ! ये सब शरीर के दुःख-सुख जो भी रहें, भक्त का ज्ञान, भक्ति का ऐश्वर्य -ये सब एकदम ठीक रहता है !
सारदाप्रसन्न : महाशय,अब मुझे जाना पड़ेगा। (सरदाप्रसन्न रामकृष्ण की पदधूलि लेंगे)
रामकृष्ण : ठीक है, फिर आना। जब स्कूल में छुट्टी रहे तो १/२ दिन यहाँ आकर रहो न। (सारदा जाते जाते फिर से लौटकर आयेगा) क्यों रे क्या बात है, फिर क्यों लौट आया ? ओ समझा , लगता है जाने का भाड़ा नहीं है ? (सारदा गर्दन हिलाकर सहमति जतायेगा) जाओ, नहबत में जाकर माँ ठकुरानी को पुकार कर चार पैसे माँग लेना। जाओ। (सारदा के जाने के बाद )
रामकृष्ण : अरे तुम समझे , उसके पिता उसको यहाँ आने देना नहीं चाहते हैं। यह कहने से कि दक्षिणेश्वर जाना है, वो इसको भाड़ा नहीं देता।
(नरेन् का प्रवेश / प्रवेश करके दूर ही खड़ा रहेगा।)
रामकृष्ण : (नरेन को देखकर ) अरे बाबूराम , जाओ नहबत जाकर माँ ठकुरानी को समाचार पहुँचा दो तो, कि नरेन आया है, और रात में यहीं रुकेगा। (बाबूराम उठ कर चला जायेगा ,... ) नरेन् से --'क्या रे, वहाँ क्यों खड़ा है , इधर आओ -बैठो !
नरेन्द्र : नहीं महाशय , लोग जिसको अखाद्य कहते हैं, आज होटल में जाकर वही खा आया हूँ।
रामकृष्ण : अरे हविष्यान्न खाकर भी जिसका मन कामिनी -कांचन में लगा रहता है, तो उसपर धिक्कार है, और यदि सूअर का मांस खाकर भी जिसका मन ईश्वर में रहता है -उसका जीवन धन्य है -रे धन्य है। अरे भगवान केवल मन देखते हैं, आओ एक बार मेरे निकट बैठो तो देखें !
(नरेन् नीचे बैठने लगेंगे , रामकृष्ण उसको पकड़ कर कहेंगे -अरे इधर मेरे पास बैठ ऊपर !)
(बाबूराम का पुनः प्रवेश)
बाबूराम : नरेनदा को आते देखकर माँ ने चने का दाल चढ़ा दिया है। आज नरेन के लिए मोटी मोटी रोटी और चने की दाल बनेगी।
रामकृष्ण :
' अनन्त राधार माया कहले न जाय।
कोटि कृष्ण कोटि राम होय-जाय-रय !
"অনন্ত রাধার মায়া কহনে না যায়।
কোটি কৃষ্ণ কোটি রাম হয় যায় রয়।"
-बोलो तो मैंने जो कहा उसका अर्थ क्या है ? (सभी लोगों को एक-दूसरे का चेहरा देखते हुए देख कर, अंत में नरेन्द्र ---)
नरेन्द्र : मैं बोलूँ ?
रामकृष्ण : जरा बोलो तो देखें ?
नरेन्द्र : आपने कहा - कृष्ण से बड़ी राधा हैं ! और आप से बड़ी माँ ठकुरानी हैं !
रामकृष्ण : (पूरे उत्साह से )-थैंक यू !!
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य २० :
दृश्य २० :
[रामकृष्ण चावल खाने के लिए आसन पर बैठ रहे हैं, लोटा के जल से हाथ धोकर गिलास में ढालेंगे। एक घुँघटा काढ़े स्त्री आकर चावल की थाल रख जाएँगी। रामकृष्ण एक बार थाली की ओर और एक बार स्त्री की ओर देखते हैं। स्त्री के चले जाने पर भात को सान कर खाने की चेष्टा करेंगे, पर खाएंगे बिल्कुल नहीं, बाद में उठकर हाथ धोकर चौकी पर बैठ जायेंगे। ]
(सारदा का प्रवेश)
सारदा : क्या हुआ , आप बिना कुछ बैठे हुए क्यों हैं ?
रामकृष्ण : (बिस्फोट के साथ ) तुमने यह क्या किया ? तुम तो जानती हो, मैं सबके हाथ का दिया खाना नहीं खा सकता ! उसके हाथों क्यों भिजवाया ? उसको क्या तुम नहीं जानती हो ? अब उसका छूआ खाना कैसे खाऊं ?
सारदा : सो तो जानती हूँ, लेकिन कोई चारा न था, आज भर खा लो।
रामकृष्ण : आज भर खा लो '- ठीक है , तब वादा करो कि फिर किसी दिन और किसी के हाथों खाना नहीं भिजवाओगी।
सारदा : (दृढ़ आवाज में ) मैं ऐसा कोई वचन नहीं दे सकती ठाकुर। तुम्हारा खाना मैं स्वयं लेकर आऊँगी, किन्तु कोई यदि माँ कहकर जिद कर बैठे तो मैं ना नहीं कह पाऊँगी! और तुम तो केवल मेरे ठाकुर ही नहीं हो, तुम तो सबों के ठाकुर हो !
रामकृष्ण : अच्छा, ठीक है -ठीक है, मैं सभी का ठाकुर हूँ और तुम सबकी माँ हो ! (रामकृष्ण खाने के लिए बैठेंगे , बैठकर गदगद स्वर में बोलेंगे) वाह एकदम ठीक -' मैं सबका ठाकुर , तुम सबकी माँ '!
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २१ :
[रामकृष्ण का कमरा, सारदा भोजन लाकर , खाने का आसन जल तैयार कर रही है। ]
रामकृष्ण : हाँ जी, क्या थोड़ी देर पहले तुम कमरे में आयी थी ?
सारदा : हाँ , आप सो रहे थे, इसीलिए उठाया नहीं।
रामकृष्ण: अरे देखो, मैंने तुमको लक्ष्मी समझकर तू कह दिया ? तुम उसका बुरा न मानना।
सारदा ; नहीं नहीं , इसमें भला बुरा मानने की क्या बात है , आईये भोजन के लिए बैठिये !
रामकृष्ण : क्या तुम केवल रसोई पकाने का काम ही करती रहोगी ? और कुछ नहीं करोगी ? यही सब करती रहोगी।
सारदा : अभी खाने के लिए बैठिये !
रामकृष्ण : देखो , कोलकाता के लोग मानो अँधेरे में रहने वाले कीड़ा-मकोड़ा जैसा बिल-बिल कर रहे हैं, तुम थोड़ा उन लोगों को भी देखो।
सारदा : लेकिन ,वैसा कैसे होगा ?
रामकृष्ण : नहीं -अभी तक क्या की हो ? अभी तो बस यही १०-११ लड़के आये हैं, बाद में और भी कितने लड़के लड़कियाँ , सभी आएंगे। तुमको इससे बहुत अधिक काम करना होगा।
सारदा : वह जब होगा , तब होगा। (रामकृष्ण आसन पर बैठेंगे)
रामकृष्ण : क्या सारी जिम्मेवारी अकेले मेरी ही है ? तुम्हारी भी जिम्मेदारी है।
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २२ :
[ सारदा रामकृष्ण के कमरे में झाड़ू लगा रही हैं, रामकृष्ण लेटे अवस्था से उठकर बैठ जायेंगे]
रामकृष्ण : हाँ सुनो , मैंने किस लड़के को कितनी रोटियाँ देने को कहा था, तुम्हें याद है ?
सारदा : हाँ अच्छी तरह से याद है, -यही तो राखाल को ६ रोटी, लाटू को ५ रोटी, बूढ़ागोपाल और बाबूराम को ४ -४ करके ?
रामकृष्ण : लेकिन मैं तो सुन रहा हूँ कि रात में लाटू कभी ७ रोटी, कभी ८ रोटी भी खा रहा है ? इतना खाने के बाद वो सबेरे उठ सकेगा तो ? वो लोग यहाँ खाने के लिए रह रहा है, या जप-ध्यान करने के लिए रह रहा है ?
सारदा : देखो ठाकुर , तुम्हारी सब बातों को मानती ही हूँ, लड़कों को कितना करके रोटी देना है, उसके बारे में तुम्हें जो कहना था तुमने कह दिया है; अब इसके बाद मुझे अपने अनुसार जैसा करना है, करने दो। रामकृष्ण : तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम मेरी बात नहीं सुनोगी ? तब लड़का तो सब देर तक खर्राटे ले कर सोया रहेगा- तुम ऐसा ही चाहती हो ? यदि तुम उनकी क्षति चाहती हो, तब तुम वही चाहो।
सारदा : उनलोगों का कोई नुकसान मैं नहीं चाहती हूँ ठाकुर, यह बात तुम अच्छी तरह से जानते हो। और यदि कोई २ रोटी अधिक खा लेगा तो उसका नुकसान होगा, तो जो भी नुकसान होगा, वह मैं खुद संभाल लूँगी। उनलोगों का भविष्य मैं अच्छी तरह से देखूंगी। उसके लिए अगर तुम नहीं सोचो तब भी चलेगा।
(झाड़ू रखकर तेज कदमों से सारदा का प्रस्थान)
रामकृष्ण : (हावभाव का परिवर्तन / अन्तर्मुखी भाव) उनका भविष्य मैं अच्छी तरह से देखूंगी ! उनके लिए अगर तुम कुछ न सोंचो तब भी चलेगा। ..... जय माँ जगदम्बे, .... ले लिया है, माँ तुमने बच्चों का उत्तरदायित्व स्वयं ले लिया है !! नहीं लेगी, ... माने ? क्या सारा उत्तरदायित्व मेरे अकेले का है ? जय माँ, जय माँ, ... जय माँ। (स्ट्रोक रौशनी रहेगी )
[बत्ती बुझेगी ]
[ बत्ती बुझने के बाद पुनः बत्ती जलेगी, मंच पर चौकी है। टेबल पर श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा का बड़ा फ्रैंक डोरा के द्वारा बनाये चित्र पर माला पड़ा दिखेगा। नैपथ्य में संगीत 'सारदा रामकृष्णेर नामेर बान डेकेछे रे भाई ', चौकी के सामने नाटक में भाग लेने वाले सभी कलाकार दर्शकों की तरफ हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में बैठेंगे। ]
आलोकित मंच पर धीरे धीरे पर्दा गिरेगा !
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