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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

" हृदय में सोना दबा पड़ा है"ड्रिलिंग की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं।

 [1.5 मिनट] भारत के समस्त समस्याओं की एक दवा (Panacea) या सर्व रोग नाशक औषधी है,आत्मश्रद्धा 'Drilling पद्धति द्वारा 'विवेक-प्रयोग को ही वृत्ति (आँधी) बना लेना।     
                " हृदय में सोना दबा पड़ा है"- उसको निकालने की ड्रिलिंग प्रक्रिया (Drilling Process) या ड्रिलिंग की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं। अतः किसी भी प्रयोजनीय कार्य को कुशलता-पूर्वक सम्पन्न करने या किसी भी प्रयोजनीय विषय का ज्ञान अर्जित करने के लिए एकाग्रता के अभ्यास में सिद्ध  होना अर्थात ' मनः संयोग'  की 'विद्या' को सीख लेना अत्यन्त आवश्यक है। 'सा विद्या या विमुक्तये।' = वह विद्या कहाती है जो मुक्तिदायक होती है। कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति रूपी 'वृत्ति' की 'आँधी' (सहज प्रवृत्ति या Instinct ) से पार होकर  हृदय में दबा सोना को ड्रिलिंग करके निकाल लेने के लिये 'मनः संयोग' की पद्धति (विवेक-प्रयोग शक्ति को ही वृत्ति की आँधी बना लेने की पद्धतिस्वयं सीखना और दूसरों को भी यह पद्धति सीखने में सहायता करना आधुनिक युग की सर्वोत्तम धार्मिक साधना  है। 
                  किन्तु 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' (लीडरशिप ट्रेनिंग) में  मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या माँ जगदम्बा से 'चपरास' प्राप्त कोई  'धारणासिद्ध-योगी' ( 'मनः संयोग' या एकाग्रता के अभ्यास में सिद्ध प्रशिक्षक) ही 'वुड बी लीडर्स' को विवेक-प्रयोग द्वारा अपनी वृत्ति को बुद्धि में; फिर बुद्धि को 'सहज-विवेक-सामर्थ्य' में परिणत करने का प्रशिक्षण दे सकता है!  (अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने और 'मानवमात्र को शिव ज्ञान से देखने और उसकी सेवा करने का प्रशिक्षण दे सकता है! )  
 श्रीरामकृष्णवचनामृत (२४ अगस्त १८८२ ): श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। 'मास्टर' से कह रहे हैं - " ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलने की आवश्यकता है। मूर्तिकार को जब मूर्ति गढ़नी होती है, तो वह पहले उसका एक खाका (blueprint) तैयार कर लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा गढ़ने के लिये पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ाई जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रंगी जाती है। विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। वह कुछ अच्छे काम (शिक्षा -समाज-सेवा आदि ) तो करता है, परन्तु स्वयं अपने हृदय में क्या है, इस बात की उसे कोई खबर नहीं है। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं यह जान लेने के बाद, सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। "
             .... श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण : "हृदय (Heart) में क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ साधना आवश्यक है। (अन्तरे कि आछे जानबार जन्ये एकटू साधन चाई।)
मास्टर: 'साधना'  क्या बराबर करते ही रहना चाहिये ?
[अर्थात भ्रममुक्त होने या डीहिप्नोटाइज्ड होने की औषधि (विवेकदर्शन का अभ्यास और लालचत्याग) क्या ता-उम्र या आजीवन खानी पड़ेगी ?]
             श्रीरामकृष्ण : " नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक जीवन नदी में ' हिलोरा (surge), चक्रवात (storm),आँधी चल रही होती है, और नौका नदी के तीखे मोड़ों से होकर गुजर रही होती है, तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है।  उतने से पार हो जाने पर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बंदोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। 'कामिनी और कांचन' की आँधी (वृत्ति) से निकल (विवेक-प्रयोग-वृत्ति में)  जाने पर शान्ति मिलती है ! 
                " तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग है। (अर्थात 'मनः संयोग' है अर्थात एकाग्रता के अभ्यास में सिद्ध होना है (Proven in concentration practice !)
                "धारणा-सिद्ध योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि ( zero in on/गहराई से निशाने पर सधी हुई दृष्टि/ लक्ष्यवस्तु में तल्लीन दृष्टि/ লক্ষ্যবস্তুর দিকে তাক করা/কোনো কিছুর প্রতি মনোযোগ নিবদ্ধ করা) , देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र (दी मदरबर्ड हैचिंग हर एग्स) क्या मुझे दिखा सकते हो ? " 
मणि- जैसी आज्ञा। चेष्टा करूँगा, यदि कहीं मिल जाय।"
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[2.5 मिनट:]   कार्य और ज्ञान क्या है ? 
मनः संयोग किये बिना अर्थात मन को एकाग्र किये बिना, हम न तो किसी प्रयोजनीय कार्य को अच्छी तरह कर सकते हैं, न किसी ज्ञातव्य विषय का सम्यक ज्ञान ही अर्जित कर सकते हैं। प्रातः काल में सूर्य उदित होता है,फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। प्रत्येक मनुष्य को जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है। इसीलिये हम देखते हैं, कोई किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है। कोई वैज्ञानिक किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने में लगा है, और न्यूटन की तरह किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर रहा है! कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! 
 मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन मन ही है। जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि। इच्छाशक्ति , विवेक-प्रयोग द्वारा 'प्रयोजनीय कार्य' विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। 
ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति। अपनी आँखों से मैं जब कोई फूल, या कोई पक्षी,भूखे व्यक्ति, बिच्छू या बिल्ली को देखता हूँ; तो पहले साहचर्य के नियमानुसार उन्हें वगीकृत कर लेता हूँ , फिर आसानी से पहचान लेता हूँ। इस जगत में अनगिनत वस्तुएँ एवं विषय जानने योग्य हैं। अद्वैतवादी कहते हैं, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? लघु (पिण्ड) से क्रमशः बृहद (ब्रह्म) का ज्ञान भी मन की शक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के पहले 'मनःसंयोग' का ज्ञान प्राप्त करना ही सबसे ज्यादा जरुरी है।
[3.15 मिनट:] (i) मन क्या है (ii) बंदर का रूपक (iii) मन बनता कैसे है ? (iv) हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? (v) मन का गुणस्वभाव (property, विशेष धर्म) (vi) 'अहं' को मिटा देना है, एक दाग के रूप में रखना है ? (vii) शिक्षा क्या है ?   
मन क्या है : मन एक ऐसा 'अद्भुत कम्प्यूटर' है, जो केवल सूचनाओं और संवादों को एकत्र करता है, बल्कि कई प्रकार से उनका विश्लेषण भी करता है, उन्हें वर्गीकृत कर उनकी व्याख्या करता है और उनमें से सार अर्थ ढूंढ़ निकालता है। यह एक ऐसा 'अद्भुत लेंस' है, जो एक साथ टेलिस्कोप (telescope,दूर-वीक्षणयंत्र) और माइक्रोस्कोप (Microscope,अणु -वीक्षणयंत्र) दोनों के सम्मिलित रूप जैसा कार्य करता है। फिर वही मन कल्पना करता है, इच्छा करता है, उद्यम भी करता है। वस्तुतः मन कि शक्ति के द्वारा ही हमलोग सब कुछ जानने और करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मन की शक्ति अनन्त है। इतना सब कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? 
क्योंकि वह स्थूल नहीं एक सूक्ष्म पदार्थ है। इतना अधिक सूक्ष्म है कि उसे न तो देखा जा सकता है, और न उसे मुट्ठी में ही पकड़ा जा सकता है; तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि 'मन' है । वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। वृक्ष की पत्तियाँ या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है । वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि मेरा 'मन' है। 
बन्दर का रूपक :  अत्यन्त चंचल है, प्रचण्ड गति से दौड़ता है। मन के दौड़ने/उड़ने की गति ध्वनि ही नहीं प्रकाश की गति से भी अधिक वेगवान है। सर्वदा विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओ या कल्पनाओं के उधेड़-बुन में डूबा ही रहता है।   मनुष्य का मन उस बन्दर के ही सदृश्य है। मन तो स्वभावतः सतत चंचल है ही, फ़िर वह वासनारूप मदिरा से मत्त है।  इससे उसकी अथिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर इर्ष्या रूपी बिच्छू डंक मारता ही है, जिससे मन और तड़पने लगता है। (वह अतिरिक्त चंचल हो जाता है) उसके ऊपर भी जब अहंकार रूपी भूत मन पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। अहंकाररूपी भूत का क्या कहना, जो सर्वदा उस पर सवार रहता है। (मैं क्या कम हूँ? दिखा दूंगा) जरा विचार तो करो, इस प्रकार के मन वाले मनुष्य की दशा कैसी होती होगी ? और ऐसे मन को नियंत्रित करना कितना कठिन होगा ?
मन बनता कैसे है: मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं ।मन की तुलना प्रायः किसी शान्त सरोवर से की जाती है। चित्त-सरोवर में पंचेंद्रियों के विषय रूपी कंकड़  गिरते रहते हैं,इसीसे वह सदैव उद्वेलित और दोलायमान बना रहता है। 'मन' का कार्य है प्रश्न करना। 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार'। अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार (नेता अथवा दैत्य विवेक? का कार्य) करता है। मन रूपी बंदर पर चढ़ा अहंकार का भूत (दैत्य )हमें कहीं खा नहीं जाय, इसके लिये कोई अन्य शिक्षा लेने के पहले मन को अपने वश में करने  की विद्या अवश्य सीखनी होगी।
हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ?  शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते  ? अतः  हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है। इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा  की संज्ञा दी गयी है। इनमें से आत्मा (ब्रह्म) ही हमारी वास्तविक सत्ता है। स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है।  इस स्थूल शरीर और समग्र जगत् को जानने, समझने और देखने के लिए मन मानो एक दिव्य चक्षु है जिसे हमारी आत्मा के समक्ष रख दिया गया है।  दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।। 
मन का गुणस्वभाव (property):मन को दोष देते हुए कहा जाता है कि, यह मन बन्दर के समान चंचल है, किन्तु मनुष्यों का मन यदि चंचल नहीं होता, सर्वदा स्थिर ही रहता, तो उसे भले और कुछ संज्ञा दी जा सकती थी पर उसे मन नहीं कहा जाता। पारा यदि ठोस होता, यदि उसमें गाढ़ापन, सांद्रता (viscosity) और विशिष्ट गुरुत्व (Specific gravity) आदि गुणस्वभाव  (property-विशेष धर्म) नहीं होते तो  थर्मामीटर (Thermometer, ताप-मापक यंत्र)  या बैरोमीटर (Barometer,वायुमंडलीय-दबाव  मापी यंत्र) कैसे बनता ? मनुष्य के दैनंदिन जीवन में प्रकृति द्वारा निर्मित रासायनिक धातु पारा का उपयोग करने के लिए यह गुण उसके आपेक्षिक गुरुत्व तथा सांद्रता का रहना आवश्यक था। उसी तरह हृदय में दबे सोना को ड्रिल करके निकालने की विद्या सीखने के लिये मन का गुणस्वभाव (property) चंचल और गति का प्रचण्ड रहना भी आवश्यक था।अतः मन की स्वाभाविक चंचलता और द्रुत-गतिशीलता उसके दोष नहीं, बल्कि विशिष्ट गुण-धर्म हैं ! हमें केवल 'विवेकानन्द-सिस्टर निवेदिता वेदान्त लीडर प्रशिक्षण परम्परा' में मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति के 'उभयतोवहिनी -तीव्र प्रवाह' एकोन्मुखी बनाकर, उसका मोड़ घुमा देने की विद्या सीखना आवश्यक है।
'अहं' को मिटाना नहीं, एक दाग के रूप में रखना है:  (बरही के संदीप ने पूछा है)-" अगर कोई व्यक्ति अपने अहंकार को मिटाना चाहता है, तो वह अहंकार को कैसे मिटा सकता है? यह अहंकार या 'अहं' अन्तःकरण का एक पार्ट है, यह आत्मा के एक एजेंसी के रूप में सर्वदा साथ ही लगा रहता है। क्योंकि यह अहंकार दैवी माया (ब्रह्म की शक्ति) है; इसीलिये कभी मिटता  ही नहीं। शक्ति (माँ काली-भवतारिणी) की आराधना (दे माँ निज चरणों का ज्ञान ! की प्रार्थना) के द्वारा इस 'अहं रूपी वृत्ति' की आंधी (घोर-स्वार्थपरता) को, इच्छाशक्ति का विकास करके (पूर्णतः निःस्वार्थपरता) 'माँ का भक्त', वीर या हीरो के रूप में रूपान्तरित कर लेना आवश्यक है। और इसी कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिये 'मनः संयोग' द्वारा [ मानसिक-व्यायाम अर्थात 'प्रत्याहार-धारणा अथवा विवेक-दर्शन अभ्यास का प्रशिक्षण' और स्वाध्याय रूपी पौष्टिक आहार  के द्वारा]  चेतना की वृत्ति (आँधी) को बुद्धि में, फिर विवेक-प्रयोग क्षमता को ही सहज-वृत्ति आँधी में परिणत करके 'इच्छाशक्ति' के 'उभयतो-मुखी' प्रवाह और विकास को नियंत्रण में लाना अनिवार्य है।
शिक्षा क्या है: धारणासिद्ध योगी स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं, " शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं ! जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति के (उभयतोवहिनी) प्रवाह और विकास को वश में लाया जाता है (अर्थात उसे एकोन्मुखी बना लिया जाता है) और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। ... शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है।"  मन में केवल कल्याणकारी विचार (मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी विचार) भरने होंगे। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (अटलता) (3P -'Purity, Patience, Perseverance ) ये सभी मन के गुण हैं, और सर्वोपरि है- हृदय - विकसित या 'मातृहृदय-स्थित 'प्रेम' (Love) ! प्रेम में वह शक्ति है कि वह पत्थर को भी पानी बना सकती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने 'मन की एकाग्रता' को ही शिक्षा की आधारभूत सामग्री कहा है।
[4.5 मिनट] एकाग्रता (Convex lens) की सहायता से मन को विषयों से खींचकर हृदय में दबा सोना पर धारण करना। जीवन के खेल में हार-जीत। जीवन और जीवनपुष्प का प्रस्फुटन।   
अत्यन्त आवश्यक कार्य है प्रत्याहार: जैसे उन्नत ताल (Convex lens) की सहायता से सूर्य की किरणों को जब कागज पर केन्द्रीभूत किया जाता है, तब कागज जल जाता है। उसी तरह  मन की शक्ति की अदृश्य रश्मियों को अकारण चारों ओर बिखर कर नष्ट नहीं होने देकर, अर्थात   इन्द्रिय-विषयों से खींचकर उन्हें एकीकृत या संघटित करके अपने प्रयोजनीय विषय में नियोजित करने को ही मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) या 'मनः संयोग' कहते है। प्रत्याहार के अभ्यास द्वारा मन की शक्ति-रश्मियों को एकोन्मुखी (Unidirectional) करके 'हृदय में दबा सोना' पर केन्द्रीभूत करते करते एक दिन १००० वर्षों से कमरे में भरा अँधेरा क्षणभर में प्रकाशित हो उठता है। अतः विवेक-प्रयोग के द्वारा प्रत्याहार के कौशल को सीखना ही सबसे आवश्यक कार्य है। 
जीवन के खेल में हार-जीत: मनुष्य जीवन की सार्थकता सबकुछ विवेक-प्रयोग और आत्मश्रद्धा को अपनी सहज प्रवृत्ति बना लेने पर ही निर्भर करता है।  अपनी यह कार्य बहुत कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं है। मनुष्य के लिये कुछ भी करना असंभव  नहीं है, क्योंकि मनुष्य अनन्त शक्ति का अधिकारी है। हमारा पूरा जीवन भी एक महान खेल की तरह ही है। जीवन के इस खेल में विजयी होने से जिस आनन्द और गर्व की अनुभूति होती है, वैसा आनन्द क्या अन्यत्र कहीं उपलब्ध है ? जो  सही समय पर (युवा काल में ही) सही दाँव चलता है, वही विजयी होता है। यह निर्णय हमें स्वयं करना है कि क्या हम जीवन को व्यर्थ में (आहार,निद्रा,भय, मैथुन में) नष्ट होने देंगे ?  
जीवनपुष्प का प्रस्फुटन : एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए- अविराम चेष्टा कर रही है,और बाह्य परिवेश या परिस्थितियाँ उसको दबाये  रखने के लिए प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने के इस प्रयत्न (महान-खेल) का नाम ही जीवन है। 
[5.10 मिनट] प्रारंभिक कार्य : ५ यम-५ नियम 24 X 7- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्" 
कार्य मन की अतिरिक्त चंचलता को के द्वारा संयम में रखना।  कुछ गुणों (यम-नियम) को जानकर उन्हें सदैव याद रखना, तथा उन्हें अपने जीवन में (मन-वचन-कर्म)  धारण करने का अभ्यास निरंतर करते रहना आवश्यक है।  ' ईश्वर-प्रणिधान' ब्रह्म, ईश्वर, या उनके अवतार, जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, चैतन्य और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द/ या किसी महापुरुष  में विश्वास रखते हुए उनका -स्मरण -मनन करने से मन सहजता से शांत और संयत हो जाता है।
[6.5 मिनट] चित्तवृत्ति निरोध का नुस्खा क्या है ? 
मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। व्यासदेव मानो  ५००० वर्ष पहले ही  जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा ! इसलिये मन की चंचलता और द्रुत गति की वृत्ति आँधी पर विजय-प्राप्ति  का नुस्खा दिया- दो बातों पर निर्भर है :  
                   " इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः"  (i) 'विवेकदर्शनाभ्यासेन' यह दवा प्रतिदिन दो बार-ब्रह्ममुहूर्त में और गोधूलि बेला में।(ii) 'वासना और धन' के प्रति घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का  त्याग। ('विवेकदर्शनाभ्यासेन'-यह दवा 2 बार सुबह-शाम; तथा 'विवेक-प्रयोग' या 'Lust and Lucre' में आसक्ति का त्याग/ 'How much land a man needs ?' यह दवा 24 X 7 X 365/लेनी है। )  
            "चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" = चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में (उभयतः /ऊपर -नीचे) प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है।  
             "विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' (सा=वह) 'कैवल्यप्राग्भारा': कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है। अर्थात चित्तनदी की धारा की तली, या इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास के धारा की तली जब विवेकविषय-निम्ना बन जाती है, और विवेक-प्रयोग शक्ति ही जब सहज-प्रवृत्ति (Instinct,आँधी) बन जाती है, तब बुद्धि भी सहज रूप से (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देती है; इसीलिये वह धारा " कैवल्य" मुक्ति की ओर (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड करने की ओर)  ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है।              "अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'-वह 'संसारप्राग्भारा" = संसार की ओर ले जाने वाली अविवेक से युक्त वह पाप के लिए बहती है। संसार या देहान्तर-गमन  (Transmigration) की ओर (अवनति की ओर) ले जाने वाली धारा पाप-वहा है।  
             "तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते "  = उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या 'विषयस्रोतः' अर्थात विषयस्रोत की ओर बहने वाली, इन्द्रिय विषयों (रूप, रस, गंध,शब्द,स्पर्श) की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य का फाटक लगाकर, उस धारा  को मन्द बनाते हुए अर्थात 'वासना और धन में' घोर आसक्ति या लालच को कम करते हुए " खिलीक्रियते " अर्थात शक्तिहीन किया जाता है।
               "विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।"= और तब  विवेक-दर्शन के नियमित अभ्यास द्वारा बुद्धि या चित्त-नदी के प्रवाह कल्याण की दिशा में मोड़ने का अभ्यास  करते-करते (शाश्वत-नश्वर विवेकशील ज्ञान पर चिंतन-मनन करते-करते) एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है और विवेकस्रोत (विवेक-प्रयोग शक्ति का श्रोत अर्थात आत्मा या अपना सच्चिदानन्द स्वरुप 'ब्रह्म-स्वरूप') उद्घाटित हो जाती है। 
               "इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।  इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः" = इस  प्रकार  चित्तवृत्तिनिरोधः -अर्थात  चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी वृत्ति (आँधी) पर नियंत्रण, या विवेक-प्रयोग शक्ति को ही अपनी सहज-वृत्ति [Instinct] बना लेने का सामर्थ्य, १. विवेक-दर्शन का अभ्यास सुबह-शाम दो बार और २. 'वासना और धन' के प्रति Lust and Lucre) में घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का  त्याग How much land a man needs ?  इस कथा के चिंतन-मनन की दवा घंटे-घंटे के अंतराल से (24 X 7 X 365) लेने पर निर्भर करता है।                  
अब हमलोग ' मनः  संयोग ' के महत्व को जानकर मन ही मन निश्चित रूप से संकल्प ले रहे होंगे कि हम 'मनः संयोग ' अवश्य सीखेंगे और इसका अभ्यास किस तरह किया जाता है, इसकी भी  जानकारी प्राप्त करेंगे। 
[7.मिनट] सम्यक आसन:[अर्धपद्मासन,मेरुदण्ड सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज,सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती।] 
 'अर्धपद्मासन'  में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा। सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है।शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! 
[8.3 मिनट] प्रत्याहार (i) 'मन को देखना'।  प्रत्याहार (ii) 'मन को आदेश देना।' 
 मन को देखना: 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) शक्ति से : अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mind) की गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ? किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ? 
मन को आदेश देना: मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा। उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा। [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र] 
[9.मिनट] मनः संयोग,'Concentration' धारणा (i) मन को एकमुखी बना कर हृदय में धारण करने के लिये पवित्र मूर्त-आदर्श का चयन। धारणा (ii)-तल्लीनता (Engrossment)  धारणा (iii) तल्लीनता-परीक्षा और परिणाम। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' 'या मति सा गतिर्भवेत।'  
धारणा (i) पवित्र मूर्त-आदर्श का चयन: 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो।भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द  या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर 'श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य  या परिक्रमा करने योग्य मानते हैं। प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। "धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है।
 मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा  या एकाग्रता कहते हैं।  किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ? मनः संयोग का अर्थ है मात्र मनमाने ढंग से किसी भी व्यक्ति या विषय के चिंतन में तल्लीन (engrossed) हो जाना (जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....) नहीं है! मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं।उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से हममें भी इसी प्रकार का आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे। कोई चाहे तो अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न-तल्लीन करने का प्रयत्न कर सकते हैं। किन्तु किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं। 
धारणा (ii):तल्लीनता (Engrossment) किन्तु वैसी नहीं जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....।  'धारणा' के अभ्यास को -अर्थात बार बार मन को इन्द्रियविषयों से खींच कर,थोड़ी देर तक पूर्व-निर्धारित मूर्त आदर्श में तल्लीन रखने की चेष्टा- प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिये  पौष्टिक आहार होते हैं, उसी प्रकार मन को भी शक्तिशाली बनाने का आहार होता है। निरंतर पवित्र विचार या शुभ-संकल्प से मन को भरे रखना वह मानसिक पुष्टि है, जो  मन को हृष्ट-पुष्ट बनाये रखता है।इस प्रकार मनः संयोग का अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द का अधिकारी बन सकता है। प्रतिदिन दो बार, प्रातः और संध्या में 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार मन को किसी भी वस्तु या विषय पर एकाग्र किये रखने की क्षमता बढ़ती जाती है। "धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति (इच्छाशक्ति) बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है।  
धारणा (iii) परीक्षा और परिणाम:  हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि उसी ध्येय वस्तु (आराध्य-आदर्श) पर पड़ रही है? इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है, या तल्लीन (engrossed) हो जाता है, तो उस समय मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है।अभी आँखों से विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा हूँ, या विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयोग कर रहा हूँ। जब तक यह विचार मन में रहता है कि मैं विवेक-दर्शन कर रहा हूँ, तब तक यह समझना चाहिए कि मन अपने आराध्य-देव का दर्शन करने में ही लगा हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नेत्रों कि दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि भी उसी वस्तु के ऊपर केन्द्रीभूत है। 
तल्लीनता की परीक्षा यह है कि उस समय प्रयोजनीय कार्य, लक्ष्य के सिवा मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है। धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति (इच्छाशक्ति) बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। 
ठाकुर कहते हैं - "धारणा-सिद्ध योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि ( zero in on/गहराई से निशाने पर सधी हुई दृष्टि/ लक्ष्यवस्तु में तल्लीन दृष्टि/ লক্ষ্যবস্তুর দিকে তাক করা/কোনো কিছুর প্রতি মনোযোগ নিবদ্ধ করা) , देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र (दी मदरबर्ड हैचिंग हर एग्स) क्या मुझे दिखा सकते हो ?" "एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है।
"एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है।"
" जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) "  ---स्वामी विवेकानन्द 
[102 मिनट] सीपियों की तरह होना होगा : 'Be' like the Shells:
 विवेकानन्द जी कहते हैं - भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है।ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और  वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"
हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा।
[11.2 मिनट] प्रैक्टिकल-' हृदय में सोना दबा पड़ा है ' उसको निकालने की ड्रिलिंग प्रक्रिया (Drilling Process):अभी जो कुछ सुना है, उन्हीं बातों पर २ मिनट मन को एकाग्र कर के देखो। 
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'Two- Day Inter-District Youth Training Camp' of ABVYM arranged by Hazaribag Vivekananda Yuva Pathchakra, at Gautam Buddha Private ITI, Hazaribag, Jharkhand from 14 April evening to 15 April afternoon 1018 .Before the camp started Sri Ajay Pandeya conducted a meeting to distribute duties .   
: Saturday Evening to Sunday Afternoon [दो दिवसीय अन्तर्जिला युवा प्रशिक्षण कैंप: शनिवार शाम से रविवार दोपहर] 
Saturday Evening Program (शनिवार का कार्यक्रम):  
4:00                                : Reporting at Camp site 
5:45                                : Flag Hoisting (Srimat Swami Bhaveshananda,                                                 Secretary,Ramakrishna Mission Ashrama,                                                        Morabadi, Ranchi.)                                                                                                                               
6:00 - 6:10                      : Auditorium prayer (सभागार प्रार्थना-मूर्तमहेश्वर)
6:10 - 6:20                      : Welcome Address  (स्वागत सम्बोधन-Sri Ghjananda                                                                                    Pathak)
6:20 - 6:50                      : Aims and Objectives of Mahamandal                                                        (महामण्डल  का  उद्देश्य और कार्यक्रम : सर्वरोगनाशक औषधि :                                              विवेक-प्रयोग द्वारा आत्मश्रद्धा का जागरण! श्री रामचन्द्र मिश्र।,                                                  उपाध्यक्ष, झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल।)                                                         
6:50 - 7:50                       : Inaugural Speech 
                                              (3H or 4H ? विकास द्वारा मनुष्य-                                                                              निर्माणकारी शिक्षा, Swami Bhaveshananda)
7:50 - 8:10                        : Address by Central Camp Observer (Sri                                                        Arunabh Sen Gupta , Kalyani (W.B)
8:10 - 8:30                        : Patriotic and Youth Inspiring Song (Sri                                                        Subodh Dubey)
8:30 - 8:45                        : Instruction by Camp Commandant ( Sri                                                            Subodh Pnadit  शिविर कमांडेंट द्वारा निर्देश) 
9:00                                   : Dinner (रात्रिभोज )   
10:30                                  : Go to bed  
10:35                                   : switch off 
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Sunday Program

04:40                                    : Waking up /Chanting 
05:40                                    : Flag Hoisting  
05:50                                     : Prayer (सभागार प्रार्थना : विश्वस्यधाता) 
06:00 -6:58                           : Mental Concentration [Theory] (Sri Bijay                                                      Singh- मनः संयोग विद्या" )
[1.सारे रोगों की एक दवा, आत्मश्रद्धा-हृदय में सोना दबा पड़ा है, विवेक-प्रयोग ड्रिलिंग- 05 मिनट] 
2.कार्य और ज्ञान क्या है ?-05 मिनट ] 
3.(i) मन क्या है (ii) बंदर का रूपक (iii) मन बनता कैसे है ? (iv) हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? (v) मन का गुणस्वभाव (property, विशेष धर्म) (vi) 'अहं' को मिटा देना है, एक दाग के रूप में रखना है ? (vii) शिक्षा क्या है ? -15 मिनट] 
4. एकाग्रता (Convex lens) की सहायता से मन को विषयों से खींचकर हृदय में दबा सोना पर धारण करना। जीवन के खेल में हार-जीत। अत्यन्त आवश्यक कार्य जीवन और जीवनपुष्प का प्रस्फुटन-05 मिनट] 
5.प्रारंभिक कार्य :यम नियम 24 X 7- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्-05 मिनट ] 6. चित्तवृत्ति निरोध का नुस्खा-इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः -08 मिनट ] 
7. सम्यक आसन -02 मिनट ]
8. प्रत्याहार (i) 'मन को देखना'।  प्रत्याहार (ii) 'मन को आदेश देना।' -05 मिनट ] 
9. धारणा (i) मन को एकमुखी बना कर हृदय में धारण करने के लिये पवित्र मूर्त-आदर्श का चयन। धारणा (ii) तल्लीनता (Engrossment) धारणा (iii) तल्लीनता-परीक्षा और परिणाम। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' 'या मति सा गतिर्भवेत।'05 मिनट]
10.'Be' like the Shells: 02 मिनट सीपियों की तरह होना।  
6:58 - 7:00                            : Mental Concentration [Practical :" मनः संयोग                                                   विद्या: प्रयोगात्मक-कक्षा " 
[Mental Concentration " Theory + Practical"  Total Time Required 58+2=60 मिनट।मनः संयोग विद्या : सिद्धान्त-कक्षा एवं  प्रयोगात्मक-कक्षा के लिए कुल अपेक्षित समय - 58+2 =60 मिनट।]  
07:00-7:05                            : Jay Jay Ramakrishna 
07:10 -7:40                           : Physical Fitness ( Sri Jayprakash Mehta) 
07:40 -8:30                           : Break Fast 
08:30 - 8:40                          : Mahamandal Song 
08:40- 9:20                           : Character Building [part -I]                                                                               (Sri Dharemendra  Singh)                         09:20 -10:00                          : Take up the Challenge, [Character Building                                                     part -II- Sri Apurva Das संकल्प उठाना]
10:00 - 10:05                          : Mahamandal Song 
10:05 - 10:35                         : Quiz & Quizmaster : [Sri Ajay Agarwal :on 
                                                 Atmshraddha, Vivek, Habit, Yama-Niyma                                                         Propensity, Prtyahar, Dharna.
                                                 कूटप्रश्न तथा कूटप्रश्न-कर्ता: आत्मश्रद्धा, 'जवानी क्या जो                                                       रोया नहीं बुढ़ापा क्या जो हँसा नहीं ! मन और अहं,आदत-                                                     प्रवृत्ति-चरित्र, वृत्ति-बुद्धि-विवेक,यम-नियम,प्रत्याहार,धारणा       
10:35 -10:40                            :Announcement [Camp Commandant] 
10:40                                       :Bathing and Lunch 
01:00 -01:10                            :Mahamandal Song 
01:10 -01:50                            :Character Qualities (Sri Pintu Kumar) 
01:50 -02:40                            :Question & Answer (Sri Bijay Singh)
02:40 -03:10                            :Camp Experience (Sri Jayprakash Mehta) 
03:10                                       :Flag Down 
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Two-day Vizag (Visakhapatnam) Interstate Preparatory Youth Training Camp of ABVYM:
दो दिवसीय विजाग (विशाखापत्तनम) अंतरराज्यीय तैयारी युवा प्रशिक्षण शिविर: लक्ष्मीनारायण से बात करके शिविर तिथि का निर्धारण, वेन्यू,सभी आगंतुक शिविरार्थियों तथा भावप्रचार के लोगों को भी शनिवार संध्या ४ बजे तक रेजिस्ट्रेशन करवा लेना होगा। हज़ारीबाग़ शिविर के सभी वक्ताओं को अपना अपना विषय 'मोदी -अंग्रेजी' में बोलने का अभ्यास करके जाना होगा। इन्दौर,देवास, मंगलिया, छत्तीसगढ़, नागपुर, जयपुर, दिल्ली, जामनगर,बड़ौदा तथा समस्त राज्यों के प्रतिनिधियों को निमंत्रण भेजना है ,  मुख्य अतिथि-वेंकट महाराज, से ऐड्रेस पूछकर 'आन्ध्रा, केरला, तमिलनाडु, बैंगलोर' के रामकृष्ण मिशन में कैम्प का ऐप्लिकेशन फॉर्म भेजना है। साथ झुमरीतिलैया, जानीबीघा, फुलवरिया, हजारीबाग, बरही,जमशेदपुर, बहरागोड़ा, राँची, उड़ीसा,का पूरा टीम जायेगा।           

                                                                                                                                        

                          



                                                  
















गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

या देवी सा सारदा -4

अमेरिका के सेंट् लुईस वेदान्त सोसाइटी के अध्यक्ष परमपूज्य स्वामी चेतनानन्द जी महाराज लिखते हैं - 'आत्म-तत्व' का निरूपण करने के लिये वेदान्तशास्त्रों में जिस प्रकार- श्रुति, युक्ति और स्वसंवेद्य तथा परसंवेद्य अनुभूति आदि विभिन्न प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।  [अर्थात " इस  संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका (3H) का मूल स्रोत्र एक मात्र ‘परब्रह्म’ (हृदय) ही है।" इस रहस्य को समझाने के लिए, अन्नमय कोष से आनन्दमय कोष तक की उर्ध्वमुखी यात्रा करने के लिये जिस प्रकार वेदान्त शास्त्रों में -  'श्रुति,युक्ति और अनुभूति' आदि प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।] उसी प्रकार- 'या देवी' अर्थात  'जो माँ जगदम्बा हैं', 'सा सारदा'- वे सारदा सरस्वती हैं!" इस उच्चतर सत्य का निरूपण,अथवा माँ सारदा के देवीत्व का निर्धारण करने के लिये भी, (अर्थात माँ जगदम्बा ही श्रीमाँ सारदा के रूप में अवतरित हुई हैं-का निर्धारण  करने के लिये भी) हमलोग यहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव उक्तियों  का, माँ के द्वारा स्वयं अपने मुख से उच्चारित स्वरुप को प्रकाशित करने वाले कथनों का, तथा विभिन्न सन्यासियों और भक्तों के दर्शन एवं अनुभवों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे। अब ..... ... गतांक से आगे,
१९.या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता: 
तुष्टि या सन्तुष्टि का अर्थ है सन्तोष। 'तस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं जगत् ।'  कमल नयन भगवान विष्णु यज्ञ (=ज्ञानयज्ञ) से प्रसन्न होते हैं, उनके संतोष में जगत् संतुष्ट है उनकी प्रसन्नता में जगत् प्रसन्न होता है। एकमात्र परमात्मा ही ऐसा है कि यदि वह प्रसन्न हो गया तो  " यस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टं " कोई कुछ नहीं कर सकता और यदि वह प्रसन्न नहीं है तो सब मिलकर भी हमें नहीं बचा सकते। 
[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत में कहा गया है  हाजरा श्रीरामकृष्ण की पद-रेणु ले रहे हैं। श्रीरामकृष्ण :- (संकुचित होकर) यह सब क्या है? हाजरा - जिनके पास मैं हूँ उनके श्रीचरणों की धूलि न लूँ? श्रीरामकृष्ण:- “ईश्वर को तुष्ट करो, सब तुष्ट हो जायेंगे। ‘तस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टम्’। ठाकुरजी ने जब द्रौपदी का शाक खाकर कहा, मैं तृप्त हो गया हूँ, तब संसार भर के जीव तृप्त हो गये थे – गले तक भर गये थे – डकार लेने लगे थे। मुनियों के खाने से क्या संसार तुष्ट हुआ था – डकारें ली थीं?" 
कुछ लोग, भौतिक पदार्थों (कामिनी -कांचन) को हम अपना इष्ट मान लेते हैं और परम् लाभकारी समझते हैं, तथा कुछ पदार्थों (श्रद्धा,धर्म, विवेक, वैराग्य आदि) को अनिष्ट मानते हैं और अहितकारी समझते हैं। इसीलिए कुछ लोग ऐसे भगवान की कल्पना करते हैं जो उनकी शुभाशुभ सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति करे। उनका मानना है कि  'खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान' ऐसा ... हम पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की धारणा बनाते हैं। 
चरित्रनिर्माण के दो मार्ग हैं -प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति ही निवृत्ति की साधिका है। राग से ही वीतरागता की ओर प्रयाण होता है। अन्नमय कोष से ही आनन्दमय कोष तक की आध्यात्मिक-आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ होता है। फूल ना हो तो फल की प्राप्ति नहीं होगी। निवृत्ति पुण्य का फल है किंतु इसके  लिये पुण्य कार्य रूपी फूल (=निःस्वार्थ कर्म, बनो और बनाओ) पहले होना चाहिये।  किन्तु कुछ पौधे ऐसे भी होते हैं जिसमें पहले फल होता है, बाद में फूल निकलते हैं ! अर्थात कुछ कृपा-प्राप्त संतान ऐसे भी होते हैं जिन्हें इष्टप्राप्ति पहले हो जाती है, साधना उसके बाद होती है,जैसे स्वयं भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव। इसीलिये  श्री रामकृष्ण अपने प्रथम श्रेणी के सन्तानों को- ' ईश्वरकोटि ' का  कहा करते थे। वे कहते थे- ' ये सभी आजन्म सिद्ध हैं। इनलोगों को फल (आत्म-साक्षात्कार) पहले मिला बाद में फूल (साधना) लगा। ठीक वैसा जैसे कद्दू और कोंहड़ा के पौधों में फल पहले लगता है और फूल बाद में लगता है। वशिष्ठजी बोले,”हे रामजी! शूरवीर (अर्थात हीरो) और कोई नहीं, जो आत्मपद में स्थित हुए हैं वे ही शूरवीर-हैं और संसार-सागर से पार होना उसके लिए अति सुगम है। हीरो,और कोई नहीं हैं, जो माँ जगदम्बा की कृपा से  निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर अपनी अनभूति से आत्मपद में स्थित हुए हैं, और समाधि उतरने के बाद, पुनः  माँ सारदा देवी या माँ जगदम्बा के पुत्र या भक्त, नेता, लोकशिक्षक या आचार्य  बने रहते हैं वे ही असली 'हीरो'-शूरवीर हैं !]
देवी (माँ जगदम्बा) तुष्टिरूपिणी हैं !  इष्टप्राप्ति (getting what one wants) अनिष्ट-निवृत्ति (getting rid of what is unwanted) हो जाने के बाद क्षणभर के लिये, जीवों के हृदय में जिस भाव का उदय होता है, वही देवी भगवती की तुष्टिमूर्ति है। रोग,शोक, ज्वाला, यंत्रणा, क्षुधा, पिपासा, आदि संसार के तापों का निवारण- 'तुष्टि' के द्वारा होता है। मनुष्य जाने अनजाने इसी तुष्टि की सेवा करता है, पूजा करता है और तुष्टि की खोज में ही दौड़ता रहता है। गीता १२ /१४ में कहा गया है, 'सन्तुष्टः सततं योगी' जो सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे ही भगवान का श्रेष्ठ भक्त कहे जाते है।" 
माँ सारदा देवी कहती थीं -" सन्तोष के समान कोई धन नहीं है, और सहनशीलता के समान कोई गुण नहीं है।" इसी अनमोल धन और अनन्त गुण ने (सन्तोष एवं सहनशीलता ने) श्रीमाँ की प्रज्ञा (=आत्मस्वरूप की स्मृति ?) को सर्वदा अविचल रखा था। माँ के जीवन में आत्मसंयम, सहिष्णुता और सन्तुष्टि  के अनेक उदहारण ऐसे हैं जिन पर चिंतन करने से मन में अनुप्रेरणा और शान्ति प्राप्त होती है।
[वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! स्वप्नसृष्टि में अगर किसी को कोई खजाना दिखे तो वह उसको पाने के लिए पूर्ण यत्न करता है, परन्तु जब जागता है तो उसको स्वप्नमात्र जानकार पुनः उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता। इसी प्रकार आत्मबोध होने पर इस संसार में सत्य-बुद्धि नहीं रह जाती। हे रामजी! ज्ञानी महापुरुष भी भोग भोगते हैं परन्तु उनकी उसमें भोगबुद्धि नहीं होती बल्कि सहज ही जो कुछ भी प्रारब्धवश प्राप्त होता है, उसे ही भोगते हैं। वे भलीभांति जानते हैं कि गुणों में ही गुण बरत रहे हैं। वे इन्द्रियों समेत सभी प्रकार के भोगों को भ्रममात्र जानते हैं। जो अज्ञानी जीव हैं वे आसक्त होकर भोग भोगते हैं और तृष्णारूपी आग में जलते हैं। इसे ही तो बंधन कहते हैं।जैसे चक्रवात में उड़ा हुआ तिनका स्थिर नहीं हो पाता, वैसे ही देह में अभिमान करने वाले को कभी शांति नहीं मिलती। जिसको अपने आत्मस्वरूप का बोध हुआ है, उसे शारीरिक और मानसिक दुःख स्पर्श नहीं कर सकते। जिस तरह पर्वत को चूर्ण करने में चूहे समर्थ नहीं, उसी तरह बोधवान को दुःख स्पर्श नहीं कर सकता। जिसको आत्मबोध नहीं, उसको आत्मशांति की प्राप्ति भी नहीं होती। हे रामजी! आत्मस्वभाव में मन, बुद्धि, अहंकार आदि अंतःकरण और इन्द्रियाँ कल्पित हैं वास्तव में कुछ है ही नहीं। जैसे रस्सी में भ्रमवश सांप दीखता है , उसी प्रकार आत्मारूपी रस्सी के अज्ञान से ही अहंकाररूपी सांप प्रकट दिखता है और उसे दूर करने के निमित्त ही शास्त्र के उपदेश हैं जो आत्मा को क्षणमात्र में जगा देते हैं। जैसे अंजन लगाने से जब नेत्रों का मैल साफ हो जाता है तब नेत्र पूर्व की तरह ही निर्मल और स्वच्छ होते हैं, वैसे ही अज्ञानरूपी मैल गुरु और शास्त्र के उपदेशरूप अंजन से सहज ही दूर हो जाता है। हे रामजी! ज्ञानी भी इन्द्रियों और चारों अंतःकरण से युक्त दिख पड़ता है परन्तु उनमें कुछ भी सत्यता नहीं, ठीक उसी तरह जैसे भुना हुआ बीज दिखाई तो देता है परन्तु उसमें उगने की सत्यता नहीं होती।(इसलिए श्रीमाँ की  प्रज्ञा सर्वदा अचल रहती थी।) ]
श्रीमाँ की आत्मकथा है (उन्होंने अपने श्रीमुख से स्वयं कहा है)- " मेरे रामेश्वरम पहुँचने का समाचार सुनकर रामनाद के राजा ने अपने दिवान को आदेश दिया "मेरे गुरु की गुरु -परमगुरु -जा रही हैं, उनको मन्दिर के रत्नागार को खोलकर दिखाया जाये। और यदि उनको वहाँ की कोई भी वस्तु पसंद आ जाये, तो उसी समय उपहार स्वरुप उन्हें दे दी जाये। " कर्मचारी से यह सुनकर श्रीमाँ सोच ही न सकीं कि आखिर भण्डार में उनके लायक क्या हो सकता है ... वे क्या कहती ? कुछ समझ में नहीं आया तो श्रीमाँ ने कहा-'बेटे, मुझे किस चीज की आवश्यकता हो सकती है ? जो कुछ मेरे लिए आवश्यक होता है, उसकी व्यवस्था तो शशि (स्वामी सारदानन्द) ही कर देता है।' फिर मेरे मन में विचार आया कि कहीं उनको बुरा न लगे, इसीलिए बोली -' अच्छा यदि राधू को किसी चीज की आवश्यकता हो, तो वह अभी ले सकती है। ' मैंने राधू से कहा -' देखो,तुम्हें यदि किसी चीज की जरूरत हो, तो अभी ले सकती हो। ' श्रीमाँ ने शिष्टाचार के ख्याल से ऐसा कहा तो सही,पर रत्नागार के चमकते हीरे -जवाहरात पर नजर पड़ते ही उनका हृदय धड़कने लगा, और वे व्याकुल हो श्रीरामकृष्ण के श्रीचरणों में  प्रार्थना करने लगीं-" ठाकुर, राधू में कोई वासना न आये। " श्रीरामकृष्ण ने उनकी विनती सुन ली-सब देखकर राधू बोली, " यह क्या लूँ ? यह सब मुझे नहीं चाहिये। अपनी लिखने की पेन्सिल मैंने खो दी है, बस एक पेंसिल खरीद दो। " श्रीमाँ यह सुन आराम की साँस ले बाहर आयीं, और रास्ते की दुकान से उन्होंने दो पैसे की एक पेंसिल खरीद राधू को दे दी। (श्रीमाँ सारदा देवी -दक्षिण में -३०७) 
२०.या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता: 
मातृ का अर्थ है -माता, धात्री, देवी। असुरों का विध्वंश करते समय ब्रह्मा आदि देवताओं की अष्टशक्तियों के नाम हैं -ब्राह्मी,माहेश्वरी, ऐन्द्री, वाराही, वैष्णवी, कौमारी, चामुण्डा, चर्चिका। और फिर हैं षोड़श मातृका (एक वर्ग-विशेष) में देवियों के नाम हैं गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, माताएँ, लोक माताएँ, धृति, पुष्टि, तुष्टि तथा अपनी कुल देवी ('बंदी मइया'-बिंध्यवासिनी देवी) ; ये सोलह पूजनीया मातृकाएँ गणेश से भी अधिक वृद्धि प्रदान करने वाली हैं। देवी (माँ भगवती) माता के रूप में समस्त जीवको गर्भ में धारण करती हैं। वे ही सृष्टि करती हैं, पालन करती हैं, फिर समस्त प्राणियों को अपने भीतर खींच लेती हैं। यही है माँ की लीला-खेला। 
माँ सारदा देवी ही माँ जगदम्बा हैं ! (दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में स्वामी विवेकानन्द ने माँ जगदम्बा को अवश्य माँ सारदा के रूप में ही देखा होगा !!) वे रामकृष्ण-संघजननि, महामण्डल-जननी या भक्त जननी हैं,लोक-जननी हैं। उनका मातृरूप सर्वदा,सर्वत्र और समस्त जीवों के प्रति प्रकाशित हुआ था। एक दिन रासबिहारी महाराज ने (स्वामी अरुपानन्द ने?) श्रीमाँ से पूछा , " तुम क्या सब की माँ हो ?" माँ ने उत्तर दिया, "हाँ।" फिर प्रश्न हुआ- "इन जीव-जन्तुओं की भी ?" माँ ने कहा - "हाँ,उन सबकी भी !" (श्रीमाँ सारदा देवी -४४८) 
माँ सारदा ने अपने मुख से कहा था, " आमी माँ, जगतेर माँ, सकलेर माँ। " -अर्थात मैं माँ हूँ, माँ जगदम्बा हूँ, मैं सभी जीवों की माँ हूँ !' (किसी बछड़ा के 'हम्बा....हम्बा' पुकार को सुनकर अधीर हो गयी )और बोली- " आती हूँ बेटे, आती हूँ - मैं इसी समय तुमको छोड़ दूँगी। " माँ के घर में गंगाराम नाम का एक तोता था। वे उसे नित्य अपने हाथों से नहलातीं और दाना-पानी देतीं, उसके पिंजरे को साफ करतीं, उसे एक जगह से हटाकर रखतीं तथा प्रेम से उससे बातें करतीं। सुबह-शाम उसके पास आकर कहतीं,"बेटा गंगराम, पढ़ो तो। " पक्षी इतना सुनते ही बोलने लगता -" हरे कृष्ण, हरे राम , कृष्ण कृष्ण, राम राम। " कभी-कभी वह चिल्ला उठता, " माँ, ओ माँ। " यह सुनते ही माँ उत्तर देतीं, "आई, बेटा, आई।" और चना, पानी ले जाकर उसे देतीं। (श्रीमाँ सारदा देवी -४६५)   
" श्रीमाँ के इस सर्वव्यापी मातृत्व, उनकी उदार दृष्टि और सप्रेम मनोभाव में देश,जाति या साम्प्रदायिकता का संकीर्ण भाव का कोई स्थान नहीं था। स्वदेशी आन्दोलन के समय जब बहुतों के हृदय में अंग्रेजों के प्रति घोर विद्वेष-भावना भरी हुई थी, उस समय भी उनके मुख से निकला करता था, "बाबा, ताराओ (विदेशिराओ) तो आमार छेले।" " वे भी (इसाई-मुस्लिम आदि भी) तो मेरी सन्तान हैं।आमि सतेरओ माँ असतेरओ माँ। ' -मैं अच्छे लोगों की भी माँ और बुरे लोगों की भी माँ हूँ। 
" पगली मामी के मुख में तो माँ के प्रति गालियाँ लगी ही रहती थी; पर माँ उसकी उपेक्षा करती थीं। एक दिन मामी कह बैठीं, "सर्वनाशी!" श्रीमाँ ने तुरन्त उन्हें सावधान कर दिया, " और जो कहती हो, सो कहो, पर मुझे सर्वनाशी न कहना; दुनिया भर में मेरे लड़के हैं। उनका अकल्याण होगा। " (" आर जा बोलिस, आमाय सर्वनाशी बोलिस ने; जगत जुड़े आमार छेलेरा रयेछे, तादेर अकल्याण होबे। सकलेर मंगलेर जोन्ने आमि ठकुरेर काछे प्रार्थना कोरछी, तीनि सकलेर मंगल करुन।" (श्रीमाँ भक्तजननी-४७८ )  
एक बार गिरीश चन्द्र ने माँ से पूछा था - " तुम कैसी माँ हो ? " माँ ने तत्क्षण उत्तर दिया -"मैं सच्ची माँ हूँ। गुरुपत्नी नहीं, मुँहबोली माँ नहीं, कहने की माँ नहीं, सत्य जननी हूँ !" ( श्रीमाँ सारदा देवी -२७१ " आमि सत्यिकारेर माँ ,गुरुपत्नी नय, पातानो माँ नय, कथार कथा माँ नय - सत्य -सत्य जननी।"

किसी भटके हुए गृहस्थ युवक-किन्तु माँ का भक्त (सत्यान्वेषी हीरो ?) के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए  माँ ने कहा था, "माँ के पास लड़का लड़का ही है ";  मायेर काछे छेले -छेले। " उस स्नेह के स्पर्श  से अभिभूत होकर युवक भक्त का हृदय पिघल गया और उसने कहा -"हाँ, माँ; पर इसलिये कि तुम्हारी इतनी कृपा मुझपर है, तुम्हारा  इतना स्नेह मुझे मिला है, यह सब याद करके कभी मैं यह न समझ बैठूँ कि तुम्हारी कृपा को प्राप्त कर लेना बहुत आसान है, तुम्हारी दया बड़ी सुगम है। " (श्रीमाँ सारदा देवी -४५१) 
माँ ने प्रफुल्लचंद्र घोष को कहा था -" जखन दुःख पाबे, आघात पाबे, विफलता आसबे तखन निश्चित जेनो आमी तोमार संगे रयेछी। भय पेयो ना। हताश हयो ना, बाबा। आमि थाकते तोमादेर भय कि ? आमि तोमादेर माँ -सात्यिकारेर माँ। जेनो, बिधातारओ साध्य नेई जे, आमार सन्तानदेर कोन क्षति करेन। आमार ऊपर भार दिये निश्चिन्त होये थाको। .... आमि तोमादेर इहकालेर माँ, तोमादेर परकालेर माँ। आमि तोमादेर जन्मजन्मान्तरेर माँ। आमि माँ थाकते तोमादेर भय कि ? "  (चिरंतनी सारदा -१८३ )
[हम सबका अस्तित्व मां के कारण ही है। मां न होती तो हम न होते। मां स्वाभाविक ही दिव्य हैं, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। हम मां का विस्तार हैं इसलिए मां के निकट होना आनंददायी है। संसार के सभी सम्बन्धियों मे माता का स्थान सर्वोपरि है। विश्व का कोई भी सम्बन्धी उसकी बराबरी नहीं कर सकता है। इसीलिए माता को सर्वपूज्य माना गया है।] 
२१. या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता : 
भ्रान्ति का अर्थ है भ्रम- illusion, delusion : माया, मोह, प्रपंच। देवीमाहात्म्यम् - अर्थात देवी का महात्म्य ग्रंथ 'Glory of the Goddess'- में वर्णित 'मातृरूपेण और भ्रान्तिरूपेण' -ये दोनों श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। 
चैतन्यरूपिणी मातृरुपा देवी ही इस (जड़ या पंचभौतिक) जीव -जगत को वास्तविकता (Authenticity) प्रदान करती हैं ! फिर मायरूपिणी भ्रान्तिरूपा देवी इस जीव-जगत को किसी जादू के जैसा मिथ्यात्व (Falsehood) भी प्रदान करती हैं ! ठाकुरदेव कहते थे - " बाजीकर आर तांर भेल्कि। जीवजगत, बाड़ी-घर-द्वार, छेले-पिले, एसब बाजीकरेर भेल्कि। बाजीकरई सत्य, आर सब अनित्य।" (श्रीरामकृष्ण वचनामृत-)  
वेदान्त शास्त्रों में कहा गया है -अध्यासो नाम 'अतस्मिन् तद् बुद्धिः '- जो वस्तु जो नहीं है, उसको वही समझ लेना ही भ्रान्ति [भ्रान्त या हिप्नोटाइज्ड हो जाना] या जादू को सत्य समझ लेना है। रज्जु में सर्प के भ्रम होने जैसा निर्गुण निरुपाधिक ब्रह्म में जगत की भ्रान्ति होती है। 'रजौ श्रहिः इव' जैसे रज्जु में सर्प कल्पित है (तस्मिन्) तैसे ही इस सत् रूप ब्रह्म में (निखिलं अपि जगत् कल्पितम्) संपूर्ण जगत् भी कल्पित है। 
वेदान्त शास्त्रों में असत और मिथ्या इन दो शब्दों का प्रयोग अक्सर किया जाता है। असत का अर्थ है जो नहीं है और जो दिखाई भी नहीं देता है -जैसे 'आकाशकुसुम', खरहे का सींग, बंध्यापुत्र। मिथ्या का अर्थ है जो वास्तव में नहीं है, किन्तु दिखाई देता है जैसे -मृगमरीचिका। यह जगत मरीचिका के जैसा है। परमार्थिक दृष्टि से "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" नेह नानास्ति किंचन॥
[...अर्थ यह है कि जगत् में अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप ये पांच अंश हैं। इनमें तीन अंश ब्रह्मरूप हैं और दो अंश माया रूप हैं।रज्जु मे सर्प का भ्रम उसी को हो सकता है, जो रज्जु के साथ-साथ सर्प को भी देखा हो। इस भ्रम के लिए भ्रम-भंजक की बुद्धि को सर्प-ज्ञान से संस्कारित होना आवश्यक है। इसीलिये सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्मवस्तु पर अज्ञान के कारण जगद् रूपी अवस्तु का आभास होता है। वेदान्त दर्शन में सच्चिदानंदरूप ब्रह्म का निर्देश “वस्तु” शब्द से और अज्ञान तथा अज्ञानजन्य जगत् का “अवस्तु” शब्द से  होता है। अज्ञान सत् नही और असत् भी नही। वह सत् इसलिए नही की सत्य ज्ञान का उदय होने पर वह नष्ट होता है,और असत् इसलिए नही कि रज्जु पर सर्प  का आभास अज्ञान के ही कारण होता है। सत्य वस्तु पर असत्य या मिथ्या अवस्तु (जगत्) के आभास का वही प्रमुख कारण है। इस प्रकार अज्ञान या माया को  सत् एवं असत् दोनो प्रकार का न होने के कारण वह “अनिर्वचनीय ” (जिसका यथार्थ स्वरूप बताना असंभव है) माना गया है। इसी अनिर्वचनीय अज्ञान को श्री शंकराचार्य “माया” कहते है। यह अज्ञान ज्ञानविरोधी, त्रिगुणात्मक,भावरूप ,अनिर्वचनीय किन्तु स्वभावगम्य है। उसमें दो प्रकार की शक्ति होती है(१) आवरण शक्ति और (२) विक्षेप शक्ति।] 
वेदान्त के मतानुसार भ्रम (हिप्नोटाइज्ड अवस्था) भी दो प्रकार की है - “ संवादिभ्रम और विसंवादिभ्रम।' संवादीभ्रम (लाभकारी-भ्रम) वह भ्रम  है, जिस भ्रम के होने पर भी प्रवृत्ति सफल हो जाये-  अर्थात मनुष्य यदि अपने अभीष्ट वस्तु (सच्चिदानन्द -अखण्ड ज्ञान) को प्राप्त कर ले, तो उस भ्रम को संवादी कहते है। जैसे मणि की प्रभा से वहाँ मणि हो सकता है का भ्रम होने से कोई व्यक्ति मणि की खोज करे और निकट जाने से मणि को प्राप्त कर ले, तो उसका भ्रम संवादी है। दूर से झिलमिलाते हुए दीपक की ज्योति को देखकर उसे कोई मणि की ज्योति समझकर खोज करे, तो निकट जाने पर उसे दीपक मिलेगा मणि नहीं मिलेगी। दीपक में मणिका भ्रम हो तो निकट जाने पर भी मणिलाभ न होने से भ्रम विसंवादी है। वेदान्त वाक्यों में अध्यास या आरोप करके मन को एकाग्र करने से, उपासना सफल होती है, इसीलिए अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव की मूर्ति पूजा-या उपासना  को संवादिभ्रम कहा जाता  है।  
[जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है। परमः आत्मा परमात्मा, परमः अंतः करणादि संबंधवर्जितः आत्मा-परमात्मा परम माने अंतःकरणादि के संबंध से रहित जो आत्मा है उसको परमात्मा बोलते हैं। जो सबका पालन-पोषण करें, सबको पुष्टि दें, उसको परमात्मा बोलते हैं। कोई कैसे गया उसके पास वह परमात्म-वस्तु सत्य यह नहीं देखता कि यह किस बुद्धि से उसके पास आया है। इसलिए जार-बुद्धि से भी गोपी जब कृष्ण के पास गयी तो कृष्णरूप हो गयी। उसका गुणमय शरीर छूट गया और बन्धनमुक्त हो गयी। पञ्चदशी में एक प्रकरण है ‘ध्यानदीप’। जैसे- संस्कृत में व्याकरण शब्द का अर्थ होता है वैसे वे ही वेदान्त में प्रकरण शब्द का अर्थ होता है। प्रक्रिया बताने वाले ग्रंथभाग को प्रकरण कहते हैं- प्रक्रियते अनेन।
तो ध्यानदीप में ऐसे बताया कि दो आदमी थे, दोनों ने देखा कि दूर से चमक आ रही है, कोई चीज झिलमिल-झिलमिल झलक रही है। दोनों को शंका हुई कि वहाँ कोई चीज झिलमिल-झिलमिल झलक रही है। दोनों को शंका हुई कि वहाँ कोई हीरा पड़ा हुआ है, निश्चय हो गया कि वहाँ कोई हीरा ही है। दोनों ने बँटवारा कर लिया कि उस हीरा को तुम ले लो और वह हीरा हम ले लें। दोनों के मन में हीरा-बुद्धि हो गयी लेकिन एक आदमी जब उस चमक के पास पहुँचा तो वहाँ दीया जल रहा था। उस दीपक की प्रभा में उसको हीरा की भ्रान्ति हो गयी थी। वहाँ हीरा नहीं मिला। दूसरा भी चमक ही देख रहा था और चमक देखकर गया लेकिन वहाँ तो दर-असल हीरा था। 
दोनों को चमक देखकर हीरा की पहले भ्रान्ति ही हुई थी परंतु एक पहुँच गया हीरे के पास और एक पहुँच गया दीपक के पास। वहाँ चमक में हीरे की भ्रान्ति होना एक के लिए लाभकारक हो गया और एक के लिए लाभकारक नहीं हुआ। जिसको हीरा मिला उसके भ्रम को वहाँ संवादी भ्रम बताया है; दूसरे को विसंवादी भ्रम के रूप में बताया गया है। 
वहाँ बात यह बतायी कि एक बिना जाने यह ध्यान करे कि आत्मा ब्रह्म है और एक जानकर ध्यान करे तो बोले- 'अनजान में भी कोई ध्यान करेगा कि आत्मा ब्रह्म है तो उसको भी वही अनुभव होगा जो जानकर ध्यान करने वाले को होगी।'   क्योंकि यह तो सत्य ही है कि आत्मा ब्रह्म है। जब ध्यान करने से झूठी चीज भी मिल जाती है तब सच्ची चीज को तो बात ही क्या है। ध्यान में (एकाग्रता के अभ्यास में) बड़ा बल है। साभार krishnakosh.org/तो उसको भी वही अनुभव होगा जो जानकर एकाग्रता का अभ्यास करेगा। क्योंकि सत्य यही है कि श्रीरामकृष्ण ही ब्रह्म हैं, और प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है,उनकी जन्मतिथि -१७ फरवरी १८३६ से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है;।  ]
ब्रह्मरूपिणी माँ सारदा देवी इस धरती पर अवतरित होकर सगुण और साकार रूप धारण करके लीला कर गयी हैं ! भ्रान्ति नहीं रहने से जगत-लीला का खेल नहीं चल सकता। माँ सारदा देवी अपने शरणागत भक्तों के भ्रान्तिज्ञान (जगत-ज्ञान, अपना-पराया भेद-ज्ञान) को दूर करके अपना यथार्थ सर्वयापी -विराट, आत्म-स्वरूप दिखला देती हैं। श्रीमाँ ने भी लीला के जगत में कई संन्यासियो द्वारा पूछे जाने पर कहा था - "निःसन्देह माया हूँ। माया नहीं रहने से मेरी यह दशा क्यों होती ? मैं बैकुण्ठ में नारायण के साथ लक्ष्मी बनकर रहती। "
२२.इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या: 
ब्रह्मशक्तिरूपा देवी समस्त प्राणियों में १४ इन्द्रियों की (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, चार अंतरेन्द्रिय) अधिष्ठात्री रूप में व्याप्त रहती हैं और पंचभूतों को संचालित करती हैं। यह देवी की व्याप्ति मूर्ति हैं। पंचेन्द्रिय के माध्यम से मन का जिस किसी विषय से संयोग होता है, मनुष्य उससे प्रभावित हो जाता है। गीता (२/६७) में कहा गया है, ' जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है वैसे ही विषयों में विरचती हुई इन्द्रियों के बीच में मन जिस किसी इन्द्रिय का अनुगमन करता है, वह इन्द्रिय ही मन की प्रज्ञा (आत्मस्वरूप की स्मृति) का हरण करके उसका नाश कर देती हैं। अली-मृग-मीन-पतंग-गज जरै एक ही आँच, तुलसी वे कैसे जियें जिन्हे जरावे पाँच। (कुरंग,मातंग, पतंग, मीन, भृंग)-हिरन गाने (शब्द)से, हाथी कामोपभोग (स्पर्श)से, पतंग 'रूप ' पर मोहित होने से, भ्रमर 'गंध' से और मछलियाँ जिह्वा के स्वाद में आसक्त होकर अपने प्राण खोते हैं। 
श्रीमाँ ने किसी भक्त से एक दिन कहा था, " जप-तप करने से क्या होता है, जानते हो ? इसके द्वारा इन्द्रियों का प्रभाव कट जाता है। " किसी सन्तान ने एक बार माँ से कहा -" माँ, मेरे मन में अब बुरे विचार नहीं उठते हैं। " माँ यह सुनकर चौंक पड़ी और तुरंत कहा - " बलो ना, बलो ना, ओ कथा बलते नेई। " एक भक्त ने माँ से कहा, " माँ, काम नहीं जा रहा है, मुझे तो शान्ति नहीं मिलती, मन हमेशा चंचल ही बना रहता है।" माँ ने कुछ नहीं कहा और एकटक दृष्टि से भक्त के चेहरे की तरफ देखते रहीं। माँ के चेहरे को देखकर भक्त को आत्मग्लानि हुई। माँ के चरणों की धूल लेकर भक्त मास्टर महाशय के पास चला आया और कहा - " आपने ठाकुर देव की अनेकों बार चरणसेवा की है, मेरे सिर पर थोड़ा हाथ घुमा दीजिये-मेरा सिर गरम लगता है।" (लगता है किसी दूसरे का सिर है ?) उन्होंने कहा - " यह क्या कहते हाँ ? आप तो माँ के बेटे हैं, माँ आपको बहुत स्नेह करती हैं। क्या माँ ने आपको एकटक दृष्टि से नहीं देखा था ? " भक्त बोला-' हाँ, बहुत देरी तक अपलक दृष्टि से देखा था। " मास्टर महाशय -" तबे आर कि ? सदानन्द सूखे भासे श्यामा यदि फिरे चाय। " इन्द्रियधिष्ठात्री सारदेश्वरी के चकित दृष्टिपात से उस भक्त के मन की  कामाग्नि सदा के लिये बुझ गयी थी।  
२३.चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्: 
सर्वव्यापी चितशक्ति के रूप में देवी माँ भगवती ही इस सम्पूर्ण जगत में अवस्थित हैं। पूर्वोक्त दूसरे श्लोक में देवी माँ भगवती को 'चेतनारूप' में प्रणाम किया गया है। वह चेतना एक प्रकार की विशिष्ट चेतना है, जिसके माध्यम से शरीर के १४ इन्द्रियों का जो करण-समूह है वे चैतन्य जैसे प्रतीत होते हैं। और इस मंत्र में निर्गुणचैतन्य को लक्ष्य बनाकर 'चिति' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार पानी ठंढ से जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार सर्वव्यापी चितिशक्ति भी सन्तानों की भक्ति से घनीभूत होकर अवतार (या माँ सारदा) की मूर्ति धारण करती हैं। 
"देवीमाहात्म्य में कहा गया है कि देवी चण्डी समस्त देवताओं की शक्ति की समष्टिस्वरूपा हैं। इसका अर्थ यह है कि असुरों का विध्वंश करने के लिए जब समस्त देवताओं-इन्द्र,वायु,अग्नि आदि ने अपने-अपने पृथक पृथक 'नाम-रूपों' से संबन्धित व्यक्तित्व में अहंकार या अभिमान को विसर्जित कर दिया, और सभी देवता एक मन-प्राण हो गए। ...... तब  समस्त देवताओं की अलग अलग सत्वशक्ति के समष्टिभूत हो जाने से जिस शुद्ध-सत्वरूपा अभेद-दर्शनकारिणी विद्याशक्ति का आविर्भाव हुआ था -देवगणों के उसी 'संगठित शक्ति' (संघ-शक्ति) को ही- माँ जगदम्बा या चण्डी कहते हैं ! [अमूल्यपदचटोपाध्याय,अद्वैतामृतवर्षिणी-२१६); दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र में महिषासुर मर्दिनी का रूप सभी देवताओं के अलग-अलग तत्वों से आकार लेता है। शंकर का तेज मुख के प्राकट्य में काम आता है। यमराज के तेज से केश मिलते हैं। ‘बाहवो विष्णुतेजसा’ - श्री विष्णु भगवान के तेज से उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं। चन्द्रमा, इन्द्र, वरुण, पृथ्वी, ब्रह्मा, सूर्य, वसु, प्रजापति, कुबेर, प्रजापति, अग्नि, संध्या, वायु सभी ने अपना अलग-अलग योगदान किया जिससे देवी ‘संभव’ हुई। यह इस बात का प्रतीक है की सज्जन या अच्छे लोग जब  'एक मन एक प्राण'  जाते हैं,तब अभेद-दर्शनकारिणी विद्याशक्ति का आविर्भाव होता है।इसीलिए वेदों में कहा है -'संगछ्ध्वं संवदध्वं'] 
माँ की की कृपा से ज्ञानचक्षु खुल जाने के बाद ही कोई व्यक्ति  मा जगदम्बा के इस विश्वव्यापी विश्वरूप को देख सकता है। (मातृहृदय के अहं-बोध को विकसित कर सकता है।) श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के ध्याना-लोक से उद्भासिता चैतन्यमयी जगन्माता (माँ काली) ही जगत के कल्याण के लिए रक्तमांस से बनी हुई साक्षात् माँ सारदा देवी की मूर्ति बनकर आविर्भूत हुई थीं। 
अद्वैत-विज्ञान में सुप्रतिष्ठित श्रीमाँ ने अपने निकटवर्ती भक्तों से कहा था -" साधन करते करते (अर्थात महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ साधनो का अभ्यास करते करते अपने अनुभव से) एक दिन देखोगे कि  मेरे भीतर जो हैं, तुम्हारे भीतर भी वे ही हैं; दुले बागदी डोम के भीतर भी वे ही हैं !"
('साधन करते करते देखबे आमार माझे जिनि, तोमार माझेउ तीनि, दूले बागदी डोमेर माझेउ तिनि।'शतरूपे सारदा -४२४  

वर्ष २००३ अपने आप में एक महत्वपूर्ण शुभ वर्ष था। सम्पूर्ण विश्व में श्रीमाँ सारदा देवी की १५० वीं जन्मजयंती समारोहपूर्वक मनायी गयी थी । इस निबंध में हमलोगों ने दुर्गाशप्तसती के आलोक में देवी सारदा की २३ रूपों के ऊपर मनन और ध्यान का चित्र पाठकों को उपहार स्वरुप देने का प्रयत्न किया  है।
माँ को अनेक रूप में देखने की इच्छा किसके मन में जाग्रत नहीं होती? सत्यान्वेषी श्रीरामकृष्ण ने भी माँ काली का दर्शन करने के बाद (परमसत्य सत्य का दर्शन करने के बाद ) उनको अनेक रूपों में देखने की इच्छा की थी। उन्होंने कहा था - "जो व्यक्ति समुद्र-तट पर निवास करता है, तो उसके मन में जैसे कभी कभी यह इच्छा उत्पन्न होती है कि -जरा यह देखें कि रत्नाकर के गर्भ में कितने प्रकार के रत्न (मणि) हैं ? ठीक उसी प्रकार, माँ को प्राप्त कर लेने के बाद (परमसत्य को प्राप्त कर लेने के बाद), सर्वदा माँ के निकट रहते हुए भी, उस समय मेरे मन में इच्छा होती थी कि-'अनन्तभावमयी, अनन्तरूपिणी माँ को अनेक प्रकार से और अनेक रूपों में देखूँगा। " (रत्नाकर गर्भे कत प्रकारेर रत्न आछे देखि -तेमनी माँके पेयेउ, माँर काछे सर्वदा थेकेउ आमार तखन मने हतो, अनंतभावमयी, अनन्तरूपिणी तांके नानाभावे उ नानारूपे देखबो।) (श्रीश्रीरामकृष्णलीला प्रसंग -२/१६०)
{विश्व का मूल स्रोत एक (ब्रह्म) ही है पर वह जगत-निर्माण के लिये २ रूपों में बंट जाता है, चेतन तत्त्व पुरुष है,पदार्थ रूप श्री या शक्ति है। शक्ति माता है। इसीलिए  पदार्थ को मातृ (matter) कहते हैं। } 
[" हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रीमाँ सारदा देवी के शरीर-मन (2H) के सहारे जो विश्वव्यापी मातृत्व-भाव (3rd'H हृदय का अनंत विस्तार) प्रकाशित होता है, वह एक ही अखंड महाशक्ति (माँ जगदम्बा या आत्मा या ब्रह्म) के विविध रूप हैं। इस अखंड शक्ति का वास्तव में विश्लेषण नहीं किया जा सकता, क्योंकि असीम को हमारी ससीम बुद्धि जान नहीं सकती है
 अपनी धारणाशक्ति की अक्षमता के कारण हम श्रीमाँ को जननी, गुरु, देवी, आदि विभिन्न रूपों में सोचने की चेष्टा करते हैं। परन्तु थोड़ा चिंतन करने से ही हम समझ जाते हैं कि इस अलौकिक जीवन में (माँ सारदा सरस्वती अवतार मूर्ति में ), 'गुरु-देवी और माता' का त्रिविध रूप एक दूसरे के साथ हिलमिल कर जुड़े हुए हैं। जैसे ही हम उनको जननी के रूप में पाते हैं, वैसे ही हमारे सामने उनकी अमोघ ज्ञानदायिनी गुरु-शक्ति फूट उठती है। और जब हम उन्हें गुरु के रूप में देखना चाहते हैं, तभी वे हमें माता के रूप में अपने अंक में खींच लेती हैं; फिर जब हम उन्हें गुरु और जननी के रूप में पकड़ने की चेष्टा करते हैं, तब देखते हैं वे इन सबसे परे 'देवीरूप' -में अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हैं!
वास्तव में श्रीमाँ के परस्पर-सापेक्ष इस त्रिविध विकास में किस रूप का कहाँ अन्त और कहाँ आदि है, यह हम समझ नहीं पाते। हमारे लिए वे स्नेहमयी माता, ज्ञानदात्रि श्रीसारदा सरस्वती हैं, तथा अलौकिक शक्ति तथा ऐश्वर्यादि (हरिद्वार-कुम्भ, बेलघड़िया -पातिपुकुर ? -कोआलपाड़ा के दर्शन) से विभूषिता, शुद्ध-सत्वा मोक्षदात्री 'विद्यामाया-देवी-सरस्वती हैं !' (श्रीमाँ सारदा -ज्ञानदायिनी -४८३) ]           
(তিনি বলেছিলেন : "সমুদ্রের তীরে যে বাস করে, তার মনে যেমন কখন কখন বাসনার উদয় হয় - রত্নাকরের গর্ভে কত প্রকারের রত্ন আছে দেখি - তেমনি মাকে পেয়েও, মার কাছে সর্বদা থেকেও আমার তখন মনে হত, অনন্তভাবময়ী, অনন্তরূপিণী তাঁকে নানাভাবে ও নানারূপে দেখব।" 
देवीमहात्मय में देवताओं की स्तुति से सन्तुष्ट होकर देवी ने शुम्भ-निशुम्भ का वध कर दिया था। उसके बाद विपदमुक्त जाने के बाद देवताओं ने पुनः देवी से व्याकुल होकर प्रार्थना की थी -'देवी आप हमलोगों पर प्रसन्न हो। हे निखिल विश्वजननी आप प्रसन्न हो जायें। हे विश्वेश्वरि, आप प्रसन्न होकर विश्व का पालन करें। हे देवी आप चराचर जगत की अधीश्वरी हैं।' 
उन्हीं देवगणों के जैसा हमलोग भी माँ सारदा देवी को प्रणाम और प्रार्थना करते हुए इस निबंध को समाप्त करेंगे -
" जननी, हमलोगों का प्राण ब्याभिचारी है, चित्त चंचल है, बुद्धि अहंकार से आच्छन्न है।

"माँ, हमें मनुष्य बना दो, अपनी संतान बना लो ! हमलोग तुमसे बहुत कुछ पाना चाहते हैं, क्योंकि हमलोग सर्वगुण हीन जो हैं।

"माँ हमलोगों को शौर्य दो, वीर्य दो, स्थायित्व दो, ज्ञान-विवेक-वैराग्य दो ,संयम दो तपस्या दो,तथा कार्य में सफल होने तक लगे रहने का अध्यवसाय दो। 

"हमने सुना है कि तुम्हारा नाम 'कपालमोचन' है, तुम अपना आशीष देकर हमलोगों के ललाट की समस्त कूकर्म -रेखाओं को साफ करके मिटा दो। ताकि हमलोग भी विश्व के समक्ष अपना सिर उठाकर खड़े हो सकें। 
शुनेछि, तोमार नाम कपालमोचन, तुमि आशिस करे आमादेर ललाटेर सब कूकर्मरेखा मुछिया घुचाइया दाओ। आमरा विश्वेर माझे माथा तुलिया दाँड़ाई।    
*"জননীং সারদাং দেবীং রামকৃষ্ণং জগদ্‌গুরুম্।*
*পাদপদ্মে তয়ো শ্রিত্বা প্রণমামি মুহুর্মুহুঃ।।"*
(श्रोत : जन्मजन्मान्तरेर माँ, श्री सारदा मठ, दक्षिणेश्वर/"जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा नहीं रह सकती, वह किसी से  द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती, स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती. उसके भीतर की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है. ('प्रलय या गहरी समाधि '- Saturday, May 26, 2012) 
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- दुर्गा सप्तशती का उत्तरचरित्र वस्तुतः स्त्री को वस्तु समझने की मानसिकता के लोगों के राक्षसीपन को उजागर करता है। दुर्गा केवल एक विशिष्ट देवी नहीं हैं वह स्त्री की प्रतिनिधि हैं. तृतीय चरित्र में देवताओं द्वारा की गई वह स्तुति में कहा गया है कि जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं - स्त्रियः समस्ताः सकला जगस्तु त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्- इसका अर्थ यह है कि सप्तशती एक ‘स्त्रियों का एक सार्वभौम बहिन-बोध" स्थापित कर रही थी। सप्तशती का संदेश यह है कि स्त्री को सिर्फ एक शरीर या वस्तु ना समझे। साभार -https://hi.wikipedia.org/wiki/]
नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द, 1836-1902 ई.) के मुख्य प्रेरक स्वामी रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.) थे।स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव कलकत्ता के एक मन्दिर में पुजारी थे। उन्होंने भारतीय विचार एवं संस्कृति में अपनी पूर्ण निष्ठा जताई। वे धर्मों में सत्यता के अंश को मानते थे। रामकृष्ण जी ने मूर्तिपूजा को ईश्वर प्राप्ति का साधन अवश्य माना, किन्तु उन्होंने चिह्न एवं कर्मकाण्ड की तुलना में आत्मशुद्धि पर अधिक बल दिया। रामकृष्ण की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार का श्रेय उनके योग्य शिष्य विवेकानन्द जी को मिला।रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई, 1897 ई. में की थी।उनका उद्देश्य ऐसे साधुओं और सन्न्यासियों को संगठित करना था, जो रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखें, उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकें और संतप्त, दु:खी एवं पीड़ित मानव जाति की नि:स्वार्थ सेवा कर सकें। स्वामी विवेकानन्द ने 1896 ई. में न्यूयार्क वेदान्त सोसाइटी का गठन किया। अपनी दो पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अपने विचारों को प्रचारित किया। निवृत्ति मार्गी लोकशिक्षकों का निर्माण करने वाली संस्था रामकृष्ण  मठ एवं मिशन का आदर्श वाक्य है 'आत्मनॊ मोक्षार्थम् जगद्धिताय च' (अपने मोक्ष और संसार के हित के लिये) it means For one's own salvation, and for the good of the world. ] श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने अपने प्रमुख शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त को भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित कर उन्हें सम्पूर्ण विश्व में 'वेदान्त विद्या' का प्रचार-प्रसार करने के लिए 'लिखित चपरास' प्रदान करते हुए लिखा था -"जय राधे, नरेन शिक्षा देबे -जखन गहरे बाइरे हुंकार देबे, जय राधे प्रेममयी!' रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  ब्रह्मचर्य एवं संन्यास दीक्षा देने में समर्थ महामण्डल द्वारा आयोजित 'स्वामी विवेकानन्द -सत्यअन्वेषिका भगिनी निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन'  में प्रशिक्षित और 'चपरास प्राप्त लोकशिक्षकों का कार्य'  है - कुछ वुड बी लीडर्स  या भावी लोक-शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत पद्धति -'BE AND MAKE ' में  प्रशिक्षण देकर उनके आत्मस्वरूप की सम्यक-स्मृति या सुरति को वापस लौटा देना। और इसी प्रकार  भ्रममुक्त मनुष्य या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति का प्रचार-प्रसार करना।  ताकि भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी भी, भावी युवा पीढ़ी को  उनके 'खुद' से उनका परिचय करवा देने में सक्षम नेता बनne  और बनायें! ]
Swami Vivekananda forbade his organisation from taking part in any political movement or activity, on the basis of the idea that holy men are apolitical.[23]almost 95 per cent of the monks are forced to seek a voter ID card. But they use it only for identification purpose and not for voting. As individuals, the monks may have political opinions, but these are not meant to be discussed in public.[24]The Mission, had, however, supported the movement of Indian independence, with a section of the monks keeping close relations with freedom fighters of various camps. A number of political revolutionaries later joined the Ramakrishna Order.[25]