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मंगलवार, 25 जून 2019

महामण्डल आंदोलन का स्वरुप एवं कार्य : कर्म-रहस्य ( धर्म रहस्य)

 महामण्डल आंदोलन: मनुष्य निर्माण का आंदोलन है !
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था --- " मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये ! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी ---'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न, दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की! ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। पहले उनके जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा।  
 " जब हमारे देश में सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' ( चरित्रवान नागरिक ) तैयार हो जायेंगे, तो अपने देश से आकाल-बाढ़ आदि दैवी विपत्तियों तथा सर्वोपरि ' भ्रष्टाचार ' को दूर करने में -कितना समय लगेगा ?
" शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा (स्वार्थपरता के त्याग द्वारा) इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है, और वह फलदायक होता है - वह शिक्षा कहलाती है।  " 
" हमें ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति बढ़े, बुद्धि का विकास हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे !"
"संसार चाहता है चरित्र ! संसार को आज ऐसे लोगों कि आवश्यकता है, जिनके ह्रदय में निःस्वार्थ प्रेम की अग्नि प्रज्वलित हो रही हो । उस प्रेम से निःसृत प्रत्येक शब्दका प्रभाव 'वज्रवत' पड़ेगा। 
" कोई भी राष्ट्र इसलिए महान या अच्छा नहीं होता कि उसकी पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल पासकर दिया है, बल्कि वह इसलिए महान या अच्छा होता कि उस राष्ट्र के नागरिक महान और अच्छे (अर्थात चरित्रवान ) हैं।"  
" भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - 'त्याग और सेवा (आध्यात्मिकता)' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सब अपने आप ठीक हो जायेगा।" 
" अतएव --- "Be and Make !  अर्थात तुम स्वयं ' मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने' में सहायता करो ! "
" मेरी आशा,मेरा विश्वास नविन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा, वे सिंहविक्रम से देश कि यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्याओं का समाधान करेंगे।" .....वे एक केन्द्र से दुसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे ,और इस प्रकार हम समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।    
स्वामी विवेकानन्द जी के ऐसे ही विचारों से प्रेरणा लेकर,१९६७ ई० में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल' की स्थापना कलकत्ते में हुई। यह मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन मनुष्य के तीन प्रधान अवयवों (components 3-H's ) के विकास पर आधारित हैं:-ये हैं शारीरिक शक्ति का विकास (Hand), मानसिक शक्ति का विकास (Head), तथा आत्मिक शक्ति का  विकास (Heart)।जिन्हें हम क्रमशः अपने हाथ,मस्तिष्क और ह्रदय के द्वारा व्यक्त करते हैं।महामण्डल युवाओं के इन तीन अवयवों का समुचित विकास करने के लिए, "साप्ताहिक युवा पाठ-चक्र"  (Study Circle) तथा "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर" आदि (Youth Training Camps) में विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करता है।
[ महामण्डल आंदोलन स्वामी विवेकानन्द के व्यावहारिक वेदान्त,"The Secret of Work" या 'कर्मरहस्य' अर्थात ‘कर्मों में अनासक्ति’ या “non-attachment to work." के माध्यम से जिस अवस्था को बुद्ध ने ध्यान से, और ईसा ने प्रार्थना से प्राप्त किया था -उसी अवस्था में पहुँचे हुए  अनासक्त कान्हा (unattached'-'ख़ुदमुख़्तार- कान्हा) या शिशुवत नेताओं, शिक्षकों के निर्माण का आंदोलन है ! वस्तुतः महामण्डल आंदोलन  ("स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make'-में  प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में  विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से) अनासक्त शिक्षकों (unattached-ख़ुदमुख़्तार कान्हा या शिशुवत शिक्षकों), एवं  भ्रममुक्त नेताओं (de-hypnotized, प्रधान सेवकों) के  निर्माण की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।  
महामण्डल का आह्वान --'अद्वैत वेदान्त से विश्वकल्याण की ओर !':  
 वैसे युवा, जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में विश्वास रखते हैं, मनुष्य-जाती के प्रति उनके अमर संदेशों में तथा राष्ट्र के नाम उनके आत्मझंकिर्त कर देने वाली उनकी पुकार में आस्था रखते हैं; महामण्डल वैसे युवाओं का आह्वान करता है-कि वे महामण्डल से जुड़ कर " मनुष्य-निर्माणऔर चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन " को भारत के गाँव-गाँव तक ले जा कर , भारत का पुनर्निमाण करने के महान उद्देश्य में जुट जाएँ।
महामण्डल का---- 
उद्देश्य : भारत का कल्याण।  
                  उपाय : 'मनुष्य' निर्माण एवं चरित्र-निर्माण ! 
          आदर्श  : चिर-युवा  स्वामी विवेकानन्द !
                ध्येयमन्त्र (Motto):  " Be and Make "
         अभियान-मन्त्र : 'चरैवेति, चरैवेति"  
महामण्डल युवा प्रशिक्षण-शिविर एवं साप्ताहिक पाठचक्र का लक्ष्य है,  राष्ट्र-निर्माण के लिए युवा वर्ग में, 'निःस्वार्थ-सेवा' की भावना को जाग्रत करा कर युवाशक्ति  का अनुशासित सदुपयोग करना। जिसकी प्रेरणा हमें गीता, उपनिषद की शिक्षाओं में आधारित स्वामी विवेकानन्द के  'कर्म रहस्य'–नामक व्याख्यान से प्राप्त होती है। स्वामी विवेकानन्द कृत “कर्मयोग” पुस्तक का यह तीसरा अध्याय है। इसमें स्वामी जी समझा रहे हैं कि--किसी मानवजाति के मार्गदर्शक नेता,ब्रह्मविद जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर द्वारा किये जाने वाले अनासक्ति और निष्काम कर्म का क्या रहस्य है। हमलोग किस तरह से कर्म करें, कि कोई भी कर्म हमें  बांध न सके ?
                 अतः हमलोगों को पहले यह समझना होगा कि कार्य क्या है ? इस जगत में सर्वत्र एवं सर्वदा वभिन्न प्रकार की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि- प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं, फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
 फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है।मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,चेष्टा, श्रम या प्रयत्न करता है।
              इनमे से कोई स्वेच्छा से कार्य कर रहा होता है, तो कोई दूसरे की इच्छा से प्रेरित हो कर। क्योंकि सबको जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है।  इसीलिये हमें अपनी या दूसरों की इच्छा से कार्य करना पड़ता है, किन्तु दोनों ही अवस्थाओं में जो कार्य कर रहा है, उसे पहले अपने मन में कार्य विषयक चिन्तन तो करना ही पड़ेगा। और जो कार्य करना है उसके विषय में योजना बनानी होगी, कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लेना होगा, फिर उसे पूर्ण करने के लिये चेष्टा, प्रयत्न या श्रम भी करना पड़ेगा। और इस चेष्टा तथा श्रम में  थोड़ी शक्ति भी खर्च करनी पड़ेगी। कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। 
               अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि। इसी प्रकार मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं !  
                              जो करने से किसी वस्तु में कोई रूपान्तरण, परिवर्तन या स्थानान्तरण हो जाता है, तथा जिसमें शक्ति भी खर्च करनी पड़ती है, और जिसे करने में मनुष्य का मन अनिवार्य रूप से लगा होता है, कार्य कहलाता है। मनुष्य के मन में ही वह कल्पना-शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी वस्तु का रूपांतरण या स्थानान्तरण होता है। मनुष्य का मन ही यह जनता है कि किस प्रकार किस प्रकार किसी वस्तु से सर्वाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है, फिर उसी लाभ को प्राप्त करने के लिये वह शक्ति की खोज करता है। चेष्टा, धैर्य, अध्यवसाय, उद्यम, निष्ठा आदि प्रवृत्तियाँ मनुष्य के मन से ही संबन्धित हैं। मन की इच्छा, संकल्प आदि को पूरा करने के लिये ही उसका शरीर चेष्टा, प्रयत्न या श्रम करता है और उसके मन की कल्पना को साकार रूप दे देता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला-  कि मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन 'मन' ही है। 
           अब प्रश्न उठेगा कि' मन' क्या है ?  उसे तो देखा नहीं जा सकता, उसे मुट्ठी में पकड़ा भी नहीं जा सकता तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि 'मन' है । 'मन' नहीं है  - ऐसा कोई नहीं कहता। 'यहाँ मेरा मन नहीं लग रहा है', मन घबरा रहा है', 'मन प्रसन्न है' अथवा  'दुःखी'  है- ऐसी कितनी ही बातें मन के विषय में हमलोग निरंतर कहते रहते हैं। अर्थात हम भली-भाँति जानते हैं कि मन है ; किन्तु ये मन है क्या चीज ? मन के बारे में इतना कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि 'मन' है। 
         हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? बिना सोंचे-समझे अकस्मात् हमारे मन में विचार कौंध जाता है कि-क्यों यह शरीर ही तो है ! परन्तु अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते ? हमारा स्थूल-शरीर तो जगत की कई जड़ पदार्थों (नश्वर पंचभूतों) द्वारा निर्मित है, मन भी सूक्ष्म जड़ पदार्थ (तन्मात्राओं matter) द्वारा निर्मित है और आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म।  किन्तु आत्मा को शरीर अथवा मन के सदृश अन्य कोई  स्थूल या सूक्ष्म भौतिक (जड़) वस्तु नहीं समझना चाहिये। बहुधा हमलोग ऐसा भी कहते हैं कि आज 'मुझे' अच्छा नहीं लग रहा है- इस पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि मेरा मन उदास हो गया था। इस प्रकार ये शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अतः  हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है।  इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा (ब्रह्म) की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार विचार-विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य तीन अनिवार्य अवयवों -शरीर, मन और आत्मा का सम्मिलित रूप है, जिसे स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे।  इनमें से आत्मा ही हमारी वास्तविक (अविनाशी) सत्ता है। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है।  
सामान्यतः स्थूल भौतिक पदार्थ  तीन प्रकार के होते हैं- ठोस, तरल और गैस।  ठोस पदार्थ को आसानी से देखा जा सकता है एवं तरल पदार्थों को सर्वदा देखते हुए भी आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता है।  पानी से पूरे भरे ग्लास को भी दूर से देख कर नहीं कहा जा सकता की वह भरा है कि खाली है?  वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। वायु के अस्तित्व का ज्ञान हमें उसके कार्यों को देखकर होता है। जैसे वृक्ष की पत्तियों  या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। उसी प्रकार मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है । 
मन बनता कैसे है ? मन अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है, अतः उसके कार्यों को समझने के लिए उसकी तुलना किसी शान्त सरोवर से की जाती है। मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं। जैसे किसी शान्त सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है। उसी प्रकार चित्त-सरोवर में पाँच विषयों -रूप,शब्द,गंध, रस आदि के ढेले पड़ने से वह तरंगायित होकर मन बन जाता है। 'मन' का कार्य है प्रश्न करना - क्या है, क्या है ?...करना। वह कैसी आवाज ? कैसा रूप? कैसा गंध -? चित्त की गहराई में बसे उस गंध के स्मृति-कोष से विश्लेषण कर मन ने देखा, और बुद्धि ने तत्क्षण निर्णय कर लिया कि यह तो 'गुलाब' का गंध ही है ! 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है- और व्यक्ति कहता/ कहती है - मैं जान गया /गई कि यह गुलाब का गंध है। जिसको हम 'मन' कहते हैं वह हमारा 'अन्तःकरण' है, जिसके द्वारा हम कोई कार्य करते हैं या ज्ञान अर्जित करते हैं। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार।' अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार करता है।  यहाँ प्रश्न था कि मन क्या है ? उत्तर है - जिसकी सहायता से हमें सब कुछ उपलब्ध होता है, अनुभव करते हैं तथा किसी भी वस्तु या विषय को समझ सकते हैं, उसको ही मन कहते हैं। 
यदि हमारे पास मन नहीं रहे तो किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं हो सकती। हमलोग वाह्य जगत् को अपनी पंचेन्द्रिय- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा के माध्यम से ही जान पाते हैं। यह जगत् पंचेन्द्रिय ग्राह्य है। इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से हम-  रूप, रस (स्वाद), गंध, शब्द एवं स्पर्श आदि विषयों का अनुभव करते हैं। हमारी इन्द्रियाँ इन्हीं पाँचों विषयों का संवाद हम तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। लेकिन इन संवादों का विश्लेषण कर उस वस्तु या विषय को वर्गीकृत कर उनके बारे में स्पष्ट धारणा बनाने का कार्य केवल मन ही करता है।
हम जानते हैं कि किसी भी कार्य को- अविवेकपूर्ण ढंग से (indiscreetly) पहली बार अपनी इच्छा से या दूसरों की बहकावे में आकर करते हैं, और यदि हमारा भ्रमित मन (अहं) इन्द्रिय विषयों (रूप-रस आदि) को अपने लिए अच्छा समझ कर उस विषय में अपनी स्पष्ट धारणा बना लेता है; तो फिर वह उसी कार्य को पुनः पुनः करने की इच्छा करता है। और एक ही कार्य को बार बार दोहराते रहने से वह हमारी आदत बन जाती है, और परिपक्व हो जाने के बाद वही आदतें हमारी प्रवृत्ति (inherent tendency, स्वाभाविक रुझान या सहज प्रवृत्ति) बन जाती हैं। और उन्हीं सहज -प्रवृत्तियों की  एक गहरी लकीर या छाप हमारे चित्त पर पड़ जाती है, उसीको संस्कार कहते हैं। जैसे बैलगाड़ी के पहिये से जो गहरी लकीर बन जाती, बैल स्वाभाविक रुझ   से उन्हीं लकीरों से होकर जाते रहती है,  उस प्रकार मनुष्य भी अपनी गहरी आदतों या प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यवहार करने को बाध्य होता है !" 
(नवनीदा द्वारा लिखित पुस्तक मनःसंयोग से)
'कर्म का रहस्य' (3/29) नामक अपने व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं--" भगवद्गीता में हमें इस बात का बारम्बार उपदेश मिलता है कि हमें निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म स्वभावतः ही सत्-असत् से मिश्रित होता है। हम ऐसा कोई भी कर्म नहीं कर सकते, जिससे कहीं कुछ भला न हो; और ऐसा भी कोई कर्म नहीं है, जिससे कहीं-न-कहीं कुछ हानि न हो। प्रत्येक कर्म अनिवार्य रूप से गुण-दोष से मिश्रित रहता है। परन्तु फिर भी शास्त्र हमें सतत कर्म करते रहने का ही आदेश देते हैं। सत् और असत् दोनों का अपना अलग अलग फल होगा। सत् कर्मों का फल सत् होगा और असत् कर्मों का फल असत्। परन्तु सत् और असत् दोनों ही आत्मा के लिए बन्धनस्वरूप हैं। इस सम्बन्ध में गीता का कथन है कि यदि हम अपने कर्मों में आसक्त न हों तो हमारी आत्मा पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं पड़ सकता।
[कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47--तेरा कर्म में ही अधिकार है ज्ञान निष्ठा में नहीं। कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।  यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफल प्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल प्राप्ति का कारण तू मत बन।  क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है। यदि कर्मफल की इच्छा भी न करें तो फिर दुःखरूप कर्म करने की आवश्यकता भी क्या है? इस प्रकार सोंचकर ---कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति-प्रीति नहीं होनी चाहिये।]
" गीता का मूल सूत्र- यह है कि निरन्तर कर्म करते रहो, परन्तु उसमें आसक्त मत होओ। (We shall try to understand what is meant by this “non-attachment to work)- अब हम यह समझने की चेष्टा करेंगे कि ‘कर्मों में अनासक्ति’ या “non-attachment to work."  का तात्पर्य क्या है? 
किसी व्यक्ति की जन्मजात-प्रवृत्ति (inherent tendency) को ही उस व्यक्ति का 'संस्कार' भी कहा जाता है। जिस ओर मन का विशेष झुकाव (propensity-सहजप्रवृत्ति) होता है, स्थूल रूप से उसे ही ‘संस्कार’ कह सकते हैं। यदि मन को एक सरोवर मान लिया जाय, तो उसमें उठने वाली प्रत्येक लहर जब शान्त हो जाती है तो वास्तव में वह बिलकुल नष्ट नहीं हो जाती। वरन हमारे चित्त (mind-stuff) में एक प्रकार का चिह्न (छाप) छोड़ जाती है, तथा ऐसी सम्भावना का निर्माण कर जाती है, जिससे वह लहर (40 वर्षों बाद भी ?) दुबारा फिर से उठ सके। इस चिह्न तथा इस लहर के, (40 वर्षों बाद भी) दुबारा उठने की सम्भावना को मिलाकर हम ‘संस्कार’ कह सकते हैं।(Every work that we do, every movement of the body, every thought that we think, leaves such an impression on the mind-stuff)
हमारा प्रत्येक कार्य, हमारा प्रत्येक अंग-संचालन, हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर इसी प्रकार का एक संस्कार छोड़ जाता है; और यद्यपि ये संस्कार ऊपरी दृष्टि से स्पष्ट न हों, तथापि ये अवचेतन रूप से अन्दर-ही-अन्दर कार्य करने में पर्याप्त समर्थ होते हैं। हम प्रतिमुहूर्त जो कुछ हैं, वह सब चित्त की गहराई में (अवचेतन-अचेतन मन में) बैठे इन्ही संस्कारों की समष्टि के द्वारा ही निर्देशित होता है। ( What we are every moment is determined by the sum total of these impressions on the mind.) मैं इस मुहूर्त जो कुछ हूँ, वह मेरे अतीत जीवन के समस्त संस्कारों का प्रभाव है।  (This is really what is meant by character; each man's character is determined by the sum total of these impressions.) यथार्थतः इसे ही ‘चरित्र’ कहते हैं। और प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही निर्देशित होता है। यदि शुभ संस्कारों का प्राबल्य रहे, तो मनुष्य का चरित्र अच्छा होता है और यदि अशुभ संस्कारों का, तो बुरा।  
 यदि कोई व्यक्ति 'विवेक-प्रयोग ' करने के बाद अपने मन में केवल अच्छे विचार रखे और केवल सत्कार्य ही करता रहे , तब सद्कर्म करने की यही आदत (Habit) परिपक्व होने के बाद उसकी प्रवृत्ति (propensity-रुझान या धुन) बन जायेगी। तथा उन सद्प्रवृत्तियों से उत्पन्न गहरी लकीर या संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा, और उसकी इच्छा न होते हुए भी अपने अच्छे संस्कारों की समष्टि द्वारा निर्देशित रहने के कारण,वह व्यक्ति केवल सत्कार्य (स्वाध्याय आदि 5 अभ्यास ) करने के लिए ही बाध्य हो जायेगा। जब वह व्यक्ति इतने सत्कार्य एवं सतचिन्तन कर चुकता है, तब उसकी इच्छा न होते हुए भी उसमें सत्कार्य करने की एक अप्रतिरोध्य प्रवृत्ति ( irresistible tendency) उत्पन्न हो जाती है।  तब फिर यदि वह दुष्कर्म करना भी चाहे तो इन सब संस्कारों की समष्टिस्वरूप उसका मन उसे ऐसा करने से फौरन रोक देगा।  इतना ही नहीं, वरन् उसके ये संस्कार उसे उस मार्ग पर से हटा देंगे। तब वह अपने सत्संस्कारों के हाथ एक कठपुतली-जैसा हो जायेगा। जब ऐसी स्थिति हो जाती है, तभी उस मनुष्य का चरित्र गठित कहलाता है।
जिस प्रकार कछुआ अपने सिर और पैरों को खोल (shell) के अन्दर समेट लेता है और तब उसे चाहे हम मार ही क्यों न डालें, उसके टकड़े टुकड़े ही क्यों न कर डालें, पर वह बाहर नहीं निकलता।  इसी प्रकार जिस मनुष्य ने अपने मन एवं इन्द्रियों ---(the sense-organs, the nerve-centres और मन तीनों को ) को वश में कर लिया है, उसका चरित्र भी सदैव स्थिर रहता है।  वह अपनी आभ्यन्तरिक शक्तियों को वश में रखता है और उसकी इच्छा के विरुद्ध संसार की कोई भी वस्तु (🍬-🍼) उसके मन और इन्द्रियों को बहिर्मुख होने के लिये विवश नहीं कर सकती। ....  तभी हमारा चरित्र स्थिर होता है, तभी हम सत्यलाभ के अधिकारी हो सकते हैं। 3/31 ऐसा ही मनुष्य "safe forever" सदा के लिए सुरक्षित हो जाता है ! अब उसके द्वारा चाहकर भी किसी प्रकार के बुरे कार्य नहीं नहीं हो सकते। उसको तुम कैसे भी लोगों के साथ रख दो, उसके लिये कोई खतरा नहीं रहता। इसी अवस्था में पहुँचकर सूफ़ी सन्त कबीर ने लिखा है -
" जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग , 
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग। "
--अर्थात उत्तम प्रकृति के पुरुषों पर कुसंगति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि उनका चरित्र विकारहीन होता है। जैसे चंदन के वृक्षों पर साँप लिपटे रहते हैं, लेकिन उन पर उनके विष का कोई असर नहीं पड़ता। [जैसे देखना भी एक कार्य है, किन्तु यह दर्शनक्रिया कैसे होती है ? दर्शन-क्रिया केवल बाह्य नेत्र-गोलकों से ही नहीं होतीं-आँख, ब्रेन के पीछे स्थित ऑप्टिक नर्भ और मन-तीनों का संयुक्त होना अनिवार्य है; अन्यथा मनुष्य आँखें खोल कर सोया रहता है। कर्मेन्द्रिय, इन्द्रिय-गोलकों  (the sense-organs), तथा  उन इन्द्रियों के समतुल्य मस्तिष्क में अवस्थित स्नायु-केंद्रों ( the corresponding nerve-centres) तथा मन इन तीनों को एक ही लक्ष्य पर एकाग्र रखना पड़ता है।  जब मन, कर्मेन्द्रियाँ और उसके समतुल्य स्नायुकेन्द्र तीनों  पूरी तरह से वशीभूत हो जाती हैं; तभी कोई व्यक्ति (एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश) - इन्द्रियातीत सत्य (निरपेक्ष सत्य) का साक्षात्कार कर सकता है! और सत्यलाभ के बाद ही कोई व्यक्ति-- नेता/जीवनमुक्त शिक्षक के  चरित्र में प्रतिष्ठित रह सकता है। वह माँ काली का भक्त HERO बन जाता है ! Such a man is safe for ever; he cannot do any evil. When such is the case, a man's good character is said to be established. इसका तात्पर्य यह हुआ कि - ' भोग और त्याग'---अर्थात प्रवृत्ति (carnal pleasure में आसक्ति या रुझान) और  निवृत्ति (renunciation-त्याग के प्रति रुझान) में से जिस ओर मन का विशेष झुकाव (propensity) होता है उसी ‘संस्कार’ के अनुसार व्यवहार करने को मनुष्य बाध्य होता है।] 
इन शुभ संस्कारों से सम्पन्न हो जाने की इच्छा के बाद, एक और भी अधिक उच्चतर अवस्था है और वह है–'मुमुक्षुत्व'---'desire for liberation' या मुक्तिलाभ की इच्छा ! तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि -सभी योग-मार्गों का लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है। और प्रत्येक योग समान रूप से उसी लक्ष्य की ओर ले जाता है। (freedom of the soul is the goal of all Yogas'  , 'and each one equally leads to the same result.)
 भगवान् बुद्ध ने ध्यान से, तथा ईसा मसीह ने प्रार्थना के द्वारा जिस अवस्था की प्राप्ति की थी, मनुष्य उसी अवस्था को केवल कर्म द्वारा भी प्राप्त कर सकता है। बुद्ध ज्ञानी थे और ईसा मसीह भक्त; पर वे दोनों एक ही लक्ष्य पर पहुँचे थे।
 [ उसी प्रकार महामण्डल आन्दोलन का कोई साधारण निष्काम- कर्मी भी यदि स्वयं को प्रधान-सेवक (C-in-C) समझकर, अपने आप को आध्यात्मिक चक्षु-दान यज्ञ में समर्पित कर दे, उसको भी वही अवस्था प्राप्त होगी जो बुद्ध को ध्यान से और ईसा को प्रार्थना से प्राप्त हुई थी।]  
 मुक्ति का अर्थ है सम्पूर्ण स्वाधीनता–शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पा जाना। इसे समझना जरा कठिन है। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है और सोने की जंजीर भी एक जंजीर है। यदि हमारी ऊँगली में एक काँटा चुभ जाय तो उसे निकालने के लिए हम एक दूसरा काँटा काम में लाते हैं, परन्तु जब वह निकल जाता है तो हम दोनों को ही फेंक देते हैं। हमें फिर दूसरे काँटे को रखने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि दोनों आखिर काँटे ही तो हैं। 
 इसी प्रकार पुराने कुसंस्कारों (bad tendencies) का नाश-नये शुभ संस्कारों (good tendencies) के निर्माण द्वारा करना चाहिए। तथा चित्त की गहराई में बैठे हुए बुरे विचारों को अच्छे विचारों द्वारा तब तक दूर करते रहना चाहिए, जब तक कि समस्त कुविचार लगभग नष्ट न हो जाय अथवा पराजित न हो जायें या वशीभूत होकर मन में कहीं एक कोने में न पड़े रह जाय। 'but after that, the good tendencies have also to be conquered.' ----परन्तु उसके उपरान्त शुभ संस्कारों पर भी विजय प्राप्त करना आवश्यक है। इस प्रकार जो ‘आसक्त’ था, वह ‘अनासक्त’ हो जाता है। 
[Thus the "attached" becomes the "unattached". इस प्रकार स्वयं को M/F शरीर मानकर कर्म करने में कर्तापन के अभिमान में आसक्त व्यष्टि 'अहं' था, वह माँ जगदम्बा के मातृहृदय के कर्म में अनासक्त सर्वव्यापी विराट 'अहं' में रूपान्तरित हो जाता है।]  
कर्म करो, अवश्य करो, पर उस कर्म अथवा विचार को अपने मन के ऊपर कोई गहरा प्रभाव न डालने दो। लहरें आयें और जायें, माँसपेशियों और मस्तिष्क से बड़े बड़े कार्य होते रहें, पर वे आत्मा पर किसी प्रकार का गहरा प्रभाव न डालने पाएं। 
[ but let them not make any deep impression on the soul. जीवनमुक्त शिक्षक/ प्रधान सेवक/dehypnotized नेता/ (C-in-C) को कहीं bossism करने का अहंकार न हो जाय। और वह सिंह-शावक (अविनाशी आत्मा) अपने को कहीं फिर से भेंड़-शिशु या नश्वर M/F शरीर न समझने लगे। अब प्रश्न है कि हम सदैव नेता/प्रधानसेवक/जीवन्मुक्त शिक्षक के चरित्र में निरापद रूप से कैसे प्रतिष्ठित रह सकते हैं ?]  

अब प्रश्न यह है कि यह हो कैसे सकता है ? हम देखते हैं कि हम जिस किसी कर्म में लिप्त हो जाते हैं, उसका संस्कार हमारे मन में रह जाता है। मान लो, सारे दिन में मैं सैकड़ों आदमियों से मिला और उन्हीं में एक ऐसे व्यक्ति से भी मिला, जिससे मुझे प्रेम है। तब यदि रात को सोते समय मैं उन सब लोगों को स्मरण करने का प्रयत्न करूं, तो देखूंगा कि मेरे सम्मुख केवल उसी व्यक्ति का चेहरा आता है जिसे मैं प्रेम करता हूँ, भले ही उसे मैंने केवल एक ही मिनट के लिए देखा हो। उसके अतिरिक्त अन्य सब व्यक्ति अन्तर्हित हो जायेंगे। ऐसा क्यों?–इसलिए कि इस व्यक्ति के प्रति मेरी विशेष आसक्ति ने मेरे मन पर अन्य सभी लोगों की अपेक्षा एक अधिक गहरा प्रभाव डाल दिया था। शरीरविज्ञान की दृष्टि से तो सभी व्यक्तियों का प्रभाव एक-सा ही हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा नेत्रपट पर उतर आया था और मस्तिष्क में उसके चित्र भी बन गये थ। परन्तु फिर भी मन पर इन सब का प्रभाव एक-समान न था। सम्भवतः अधिकतर व्यक्तियों के चेहरे एकदम नये थे, जिनके बारे में मैंने पहले कभी विचार भी न किया होगा; परन्तु वह एक चेहरा, जिसकी मुझे केवल एक झलक ही मिली थी, भीतर तक समा गया ! शायद इस चेहरे का चित्र [छाप ] मेरे मन में [40] वर्षों से रहा हो और मैं उसके बारे में सैकड़ों बातें जानता होऊँ; अत: उसकी इस एक झलक ने ही मेरे मन में उन सैकड़ों सोती हुई यादगारों को जगा दिया। और इसलिए शेष अन्य सब चेहरों को देखने के समवेत फलस्वरूप मन में जितने सब संस्कार पड़े, इस एक चेहरे को देखने से मेरे मानसपटल पर उन सब की अपेक्षा सौगुना अधिक संस्कार पड़ गया। इसी कारण उसने मन के ऊपर सहज ही इतना प्रबल प्रभाव जमा दिया। 
अतएव अनासक्त (unattached) होओ ! क्योंकि 'अनासक्त' अर्थात 'de-hypnotized' व्यक्ति को ही -"खुदमुख़्तार"- या अपने पैरों पर खड़ा मनुष्य कहा जाता है ! अतः तुम महामण्डल आंदोलन (निष्काम-कर्म) के माध्यम से स्वयं एक अनासक्त शिक्षक /नेता बनो और दूसरों को भी अनासक्त शिक्षक/नेता बनने में सहायता करो ! 'Be and Make' - Let this be our Motto ! कार्य होते रहने दो–मस्तिष्क के केन्द्र अपना अपना कार्य करते रहें–निरन्तर कार्य करते रहें, परन्तु एक लहर को भी अपने मन पर प्रभाव मत डालने दो। 
" Work as if you were a stranger in this land, a sojourner; work incessantly, but do not bind yourselves; bondage is terrible. This world (घर-गृहस्थी) is not our habitation, it is only one of the many stages through which we are passing." 
"संसार में इस प्रकार कर्म करो, मानो तुम एक विदेशी पथिक हो, दो दिन के लिए यहाँ आये हो।"3/32  /  संसार में रहते हुए भी (गृहस्थ आश्रम रहते हुए भी) महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़ कर इस प्रकार कर्म करो, मानो तुम एक 'विदेशी पथिक' हो (प्रधान सेवक-CinC) हो, दो दिन के लिए यहाँ आये हो। अनासक्त-शिक्षक/नेता के चरित्र में प्रतिष्ठित होकर कर्म तो निरन्तर करते रहो, परन्तु अपने को बन्धन में मत डालो; बन्धन बड़ा भयानक है। संसार (गृहस्थी या संन्यास आश्रम भी) हमारी स्थायी निवासभूमि नहीं है; यह तो उन सोपानों में से एक है, जिनमें से होकर हम जा रहे हैं। सांख्यदर्शन के उस महावाक्य को मत भूलो, “समस्त प्रकृति आत्मा के लिए है, आत्मा प्रकृति के लिए नहीं। ”
प्रकृति (माया -माँ जगदम्बा) के अस्तित्व का प्रयोजन- 'Education of the Soul' आत्मा की शिक्षा के निमित्त ही है (अविद्या माया का अस्तित्व भी आत्मा को de -hypnotized करने के लिए ही है),इस कार्य को करने के अतिरिक्त इस प्रकृति (ignorance या माया) का और कोई प्रयोजन नहीं है। उसका (विद्या और अविद्या माया का) अस्तित्व इसीलिए है कि आत्मा को ज्ञानलाभ हो जाय तथा ज्ञान द्वारा आत्मा अपने को मुक्त कर ले। यदि हम यह बात निरन्तर ध्यान में रखें, तो हम प्रकृति में कभी आसक्त न होंगे; हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि प्रकृति हमारे लिए एक पुस्तकसदृश है जिसका हमें अध्ययन करना है; और जब हमें उससे आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जायगा तो फिर वह पुस्तक हमारे लिए किसी काम की नहीं रहेगी। 
 हम देखते भी हैं कि जिन व्यक्तियों (नेता,पैगम्बर, जीवन्मुक्त शिक्षक) ने मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता की है, वे ही वास्तव में महान् शक्तिशाली थे । आध्यात्मिक सहायता से नीचे है–बौद्धिक विकास में सहायता करना। पर साथ ही यह “ज्ञान-दान” भोजन तथा वस्त्र के दान से कहीं श्रेष्ठ है; इतना ही नहीं, वरन् प्राणदान से भी उच्च है, क्योंकि ज्ञान ही मनुष्य का प्रकृत जीवन है।  अज्ञान (माया के फन्दे में आसक्त रहना) ही मृत्यु है, और ज्ञान (भ्रममुक्त हो जाना) जीवन।
Leadership Training :   
 इस दुःख-समस्या की केवल एक ही मीमांसा है और वह है–समस्त मानवजाति को पवित्र (भ्रममुक्त)  कर देना। अपने चारों ओर हम जो दुःख-क्लेश देखते हैं, उन सब का केवल एक ही मूल कारण हैं–अज्ञान,ignorance,माया ! [अपने चारों ओर जो अशुभ तथा क्लेश देखते हैं, उन सबकी जननी माया (Ignorance अविद्या माया -जो ब्रह्म वस्तु में आवरण और विक्षेप उत्पन्न करने वाली शक्ति) है। " Ignorance is the mother of all the evil and all the misery we see." ]
तुम मनुष्य को ज्ञानालोक दो, उसे आध्यात्मिक-बलसम्पन्न करो। [अतः तुम स्वयं मानवजाति के मार्गदर्शक नेता/भ्रममुक्त या जीवनमुक्त (dehypnotized ) शिक्षक बनो, प्रकाश-स्तम्भ बनो (lighthouse-जिसमें जहाज वालों को रास्ता दिखाने के लिये ऊंचे पर रोशनी होती है) और मनुष्य को ज्ञानालोक दो, उसे आध्यात्मिक-बलसम्पन्न करो।]  
 यदि हम यह करने में समर्थ हों–यदि सभी मनुष्य पवित्र, आध्यात्मिक-बलसम्पन्न और सुशिक्षित हो जाएँ, केवल तभी संसार में से दुःख का अन्त हो सकेगा, अन्यथा नहीं। [अर्थात यदि हम पहले स्वयं अनासक्त शिक्षक या भ्रममुक्त नेता /प्रधान सेवक (C- in-C) बन जाएँ–और महामण्डल द्वारा -" विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"-Be and Make ' --में भावी अनासक्त नेताओं/शिक्षिकों को प्रशिक्षित किया जाय -ताकि सम्पूर्ण विश्व के सभी मनुष्य पवित्र, आध्यात्मिक-बलसम्पन्न और सुशिक्षित हो जाएँ, केवल तभी संसार में से दुःख का अन्त हो सकेगा, अन्यथा नहीं।]
 देश के प्रत्येक घर को हम सदावर्त में भले ही परिणत कर दें, देश को अस्पतालों से भले ही भर दें, परन्तु जब तक मनुष्य का चरित्र परिवर्तित नहीं होता, तब तक दुःख-क्लेश बना ही रहेगा। केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा है, जो हमारे दुःखों को सदा के लिए नष्ट कर दे सकता है; अन्य किसी प्रकार के ज्ञान से तो हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अल्प समय के लिए ही होती है। अतएव किसी मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता करना ही उसकी सब से बड़ी सहायता करना है और जो कोई व्यक्ति साधारण मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान (spiritual knowledge ) दे सकता है, वही अनासक्त-शिक्षक/नेता मानवसमाज का सब से बड़ा हितैषी है।
"कर्मफल की लालसा तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति (नेता/प्रधान सेवक बनने) के मार्ग में बाधक है; इतना ही नहीं अन्त में उससे क्लेश भी उत्पन्न होता है। जिस प्रकार पानी कमल के पत्ते को नहीं भिगो सकता, उसी प्रकार कोई कर्म भी फलासक्ति उत्पन्न करके निःस्वार्थी पुरुष को बन्धन में नहीं डाल सकता।  
यदि अहं-शून्य और अनासक्त शिक्षक/नेता किसी जनपूर्ण और पापमय नगर के बीच ही क्यों न रहें, पर पाप उन्हें स्पर्श तक न कर सकेगा।"
निम्नलिखित कहानी सम्पूर्ण स्वार्थत्याग का एक दृष्टान्त है। कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद पाँचों पाण्डवों ने एक बड़ा भारी यज्ञ किया। उसमें निर्धनों को बहुत-सा दान दिया गया। सभी लोगों ने उस यज्ञ की महत्ता एवं ऐश्वर्य पर आश्चर्य प्रकट किया और कहा कि ऐसा यज्ञ संसार में इसके पहले कभी नहीं हुआ था। यज्ञ के बाद उस स्थान पर एक छोटा-सा नेवला आया। नेवले का आधा शरीर सुनहला था और शेष आधा भूरा। वह नेवला उस यज्ञभूमि की मिट्टी पर लोटने लगा। थोड़ी दर बाद उसने दर्शकों से कहा, “तुम सब झूठे हो। यह कोई यज्ञ नहीं है।” 
लोगों ने कहा, “क्या! तुम कहते क्या हो! यह कोई यज्ञ ही नहीं है? .... परन्तु नेवले ने कहा, “सुनो, एक छोटे-से गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था, साथ थी उसकी स्त्री, पुत्र और पुत्र-वधू। वे लोग बड़े ग़रीब थे।  एक बार उस गाँव में तीन साल तक अकाल पड़ा,....  एक बार तो सारे कुटुम्ब को पाँच दिन तक उपवास करना पड़ा। छठे दिन वह ब्राह्मण भाग्यवश कहीं से थोड़ा-सा जौ का आटा ले आया। ज्यों ही वे उसे खाने बैठे कि किसी ने दरवाजे पर खटखटाया।बाहर एक अतिथि खड़ा है। भारतवर्ष में अतिथि बड़ा पवित्र माना जाता है। वह तो उस समय के लिए ‘नारायण’ ही समझा जाता है।  ....गृहस्थ की हैसियत से हमारा यह धर्म है कि हम उसे भोजन करायें। यह देखकर कि आप उसे अधिक नहीं दे सकते, पत्नी के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उसे अपना भी भाग दे दूं।” ... पुत्र का यह धर्म है कि वह पिता के कर्तव्यों को पूरा करने में उन्हें सहायता दे।”...अतएव बहू ने भी उसे अपना भाग दे दिया। अब यह पर्याप्त हो गया और अतिथि ने उनको आशीर्वाद दे विदा ली।
“उसी रात वे चारों बेचारे भूख से पीड़ित हो मर गये। उस आटे के कुछ कण इधर उधर जमीन पर बिखर गये थे और जब मैंने उन पर लोट लगायी, तो मेरा आधा शरीर सुनहला हो गया, जैसा कि तुम अभी देख ही रहे हो। उस समय से मैं संसार भर में भ्रमण कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि किसी दूसरी जगह भी मुझे ऐसा ही यज्ञ देखने को मिले; परन्तु वैसा यज्ञ मुझे कहीं देखने को नहीं मिला। मेरा शेष आधा शरीर किसी दूसरी जगह सुनहला न हो सका। इसीलिए तो कहता हूँ कि यह कोई यज्ञ ही नहीं है।”....त्याग का यह भाव भारतवर्ष से धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है; जीवन्मुक्त शिक्षकों की संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही है। 
अब तुमने देखा, कर्मयोग का अर्थ क्या है। उसका अर्थ है मौत के मुंह में भी बिना तर्क-वितर्क के सब की सहायता करना। भले ही तुम लाखों बार ठगे जाओ, पर मुँह से एक बात तक न निकालो; और तुम जो कुछ भले कार्य कर रहे हो, उनके सम्बन्ध में सोचो तक नहीं निर्धन के प्रति किये गये उपकार पर गर्व मत करो और न उससे कृतज्ञता की ही आशा रखी; बल्कि उलटे तुम्हीं उसके कृतज्ञ होओ–यह सोचकर कि उसने तुम्हें दान देने का एक अवसर दिया है। अतएव यह स्पष्ट है कि एक आदर्श संन्यासी होने की अपेक्षा एक आदर्श गृहस्थ होना अधिक कठिन है। 
यथार्थ कर्ममय जीवन (प्रवृत्ति मार्ग) यथार्थ त्यागमय जीवन (निवृत्ति मार्ग) की अपेक्षा यदि अधिक कठिन नहीं, तो कम से कम उसके बराबर कठिन तो अवश्य है।
यदि तुम सदैव ऐसा ही भाव रख सको कि तुम केवल दाता ही हो, जो कुछ तुम देते हो, उससे तुम किसी प्रकार के प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते, तो उस कर्म से तुम्हें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होगी। आसक्ति तभी आती है, जब हम बदले की आशा रखते हैं
99 % (९९ प्रतिशत) लोग तो दासों की तरह कार्य करते रहते हैं और उसका फल होता है दुःख; ये सब कार्य स्वार्थपर होते हैं। मुक्तभाव से कर्म करो, प्रेमसहित कर्म करो। प्रेम शब्द का यथार्थ अर्थ समझना बहुत कठिन है। जब हम संसार के लिए दासवत् कर्म करते हैं, तो उसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता और इसलिए वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता। हम अपने बन्धु-बान्धवों के लिए जो कर्म करते हैं, यहाँ तक कि हम अपने स्वयं के लिए भी जो कर्म करते हैं, उसके बारे में भी ठीक यही बात है।
उदाहरणार्थ, मान लो कोई व्यक्ति किसी  स्त्री से प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह स्त्री केवल उसी के पास रहे; अन्य पुरुषों के प्रति उस स्त्री के प्रत्येक व्यवहार से उसमें ईर्ष्या का उद्रेक होता है। वह चाहता है कि वह स्त्री उसी के पास बैठे, उसी के पास खड़ी रहे तथा उसी की इच्छानुसार खाये-पिये और चले-फिरे। वह स्वयं उस स्त्री का गुलाम हो गया है और चाहता है कि वह स्त्री भी उसकी ग़ुलाम होकर रहे। यह तो प्रेम नहीं है। यह तो ग़ुलामी का एक प्रकार का विकृत भाव है, जो ऊपर से प्रेम-जैसा दिखायी देता है। यह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि यह क्लेशदायक है; यदि वह उस मनुष्य की इच्छानुसार न चले, तो उससे उस मनुष्य को कष्ट होता है। वास्तव में सच्चे प्रेम की प्रतिक्रिया दुःखप्रद तो होती ही नहीं। उससे तो केवल आनन्द ही होता है। और यदि उससे ऐसा न होता हो, तो समझ लेना चाहिए कि वह प्रेम नहीं है, बल्कि वह और ही कोई चीज है, जिसे हम भ्रमवश प्रेम कहते हैं। जब तुम अपने पति, अपनी स्त्री, अपने बच्चों, यहाँ तक, कि समस्त विश्व को इस प्रकार प्रेम करने में सफल हो सकोगे कि उससे किसी भी प्रकार दुःख, ईर्ष्या अथवा स्वार्थपरता रूप कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, केवल तभी तुम ठीक ठीक अनासक्त हो सकोगे।
स्वार्थ के लिए किया गया कार्य दास का कार्य है। और कोई कार्य स्वार्थ के लिए है अथवा नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य आनन्ददायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शान्ति और आनन्द न आये। प्रकृत सत्ता, प्रकृत ज्ञान तथा प्रकृत प्रेम–ये तीनों चिरकाल के लिए परस्पर सम्बद्ध हैं। असल में ये एक ही में तीन हैं। ये उस अद्वितीय सच्चिदानन्द के ही त्रिविध रूप हैं। जब वह सत्ता सान्त तथा सापेक्ष रूप में प्रतीत होती है, तो हम उसे विश्व के रूप में देखते हैं। वह ज्ञान भी सांसारिक वस्तु विषयक ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है, तथा वह आनन्द मानव-हृदय में विद्यमान समस्त प्रकृत प्रेम की नींव हो जाता है। अतएव सच्चे प्रेम से प्रेमी अथवा उसके प्रेमपात्र को भी कष्ट नहीं हो सकता
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन,मैं ही जगत् का एकमात्र प्रभु हूँ–फिर भी मैं कर्म क्यों करता हूँ?–इसलिए कि मुझे संसार से प्रेम है।” ईश्वर अनासक्त है। क्यों?–इसलिए कि वे सच्चे प्रेमी हैं। उस सच्चे प्रेम से ही हम अनासक्त हो सकते है। जहाँ कहीं आसक्ति है, वहाँ जान लेना चाहिए कि वह केवल भौतिक आकर्षण है–केवल कुछ जड़ कणों के प्रति आकर्षण हो रहा है–मानो कोई एक चीज दो वस्तुओं को लगातार निकटतर खींचे ला रही है; और यदि वे दोनों वस्तुएँ काफी निकट नहीं आ सकतीं, तो फिर कष्ट उत्पन्न होता है। परन्तु जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ भौतिक आकर्षण बिलकुल नहीं रहता। ऐसे प्रेमी चाहे सहस्रों योजन दूर पर क्यों न रहें, उनका प्रेम सदैव वैसा ही रहता है; वह प्रेम कभी नष्ट नहीं होता, उससे कभी कोई क्लेशदायक प्रतिक्रिया नहीं होती।
इस प्रकार की अनासक्ति प्राप्त करना (निष्काम कर्म) लगभग सारे जीवन भर का कार्य (साधना) है। परन्तु इसका लाभ होते ही हमें अपनी प्रेमसाधना (निष्काम प्रेम) का लक्ष्य (साध्य -ब्रह्मत्व) प्राप्त हो जाता है और हम मुक्त हो जाते हैं। तब हम प्रकृति (माया) के बन्धन से छूट जाते हैं और उसके (अविद्या माया के) असली स्वरूप को जान लेते हैं। फिर वह हमें बन्धन में नहीं डाल सकती। तब हम बिलकुल स्वाधीन हो जाते हैं और कर्म के फलाफल की ओर ध्यान ही नहीं देते। फिर कौन परवाह करता है कि कर्मफल क्या होगा? 
 स्वाधीनता प्राप्त करने से  पहले -गाँधी, सुभाष, लाल-बाल-पाल  जैसे अनेकों अंग्रेजी पढ़ेलिखे (बुद्धिमान) युवाओं ने स्वामी विवेकानन्द के इसी  -'कर्म-रहस्य ' को समझने के बाद स्वाधीनता आंदोलन से जुड़कर भारतमाता  को स्वाधीन करने में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया था।  
स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद- अद्वैत वेदान्त के द्वारा केवल -'विश्व-कल्याण' करने के उद्देश्य से, भारत की  राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा (National Ambition) या भारत की विदेश नीति (Foreign Policy) है - 'भारत माता को विश्वगुरु के आसन पर प्रतिष्ठित करना !' तथा भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं -'त्याग और सेवा'; इन दोनों धाराओं में तीव्रता उत्पन्न करने से ही भारत को विश्व-गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित करना सम्भव है। इसीलिये महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर या Leadership Training का लक्ष्य-  'Bossism' या साहबी करने वाले नेताओं का निर्माण करना नहीं है; बल्कि भावी युवा पीढ़ी को 'त्याग और सेवा ' का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करना है। और इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए, समर्पित भाव से जनता जनार्दन की और अधिक सेवा, अर्थात भावी नेताओं को सत्यलाभ में सहायता करने के लिए, ही महामण्डल को संगठित शक्ति या 'Organized power' की आवश्यकता है। इसी महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए  भारत की क्षेत्रीय आकांक्षा (Regional Aspiration), भारत की गृह-नीति (Domestic Policy), अंतरराज्यीय नीति (Interstate Policy) अथवा शिक्षा नीति ऐसी होनी चाहिये ----जिससे  भारत का युवा वर्ग  " रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक (नेता) प्रशिक्षण परम्परा", अथवा महामण्डल के ---[विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा]-- 'Be and Make Leadership Training Tradition ' में प्रशिक्षित शिक्षक (नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक, पैगम्बर ) " बनने और बनाने " के लिए मानो ~ "as if " दीवाने (moonstruck) हो जायें !   
इसलिए  स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज चाहते थे कि इसी महान कार्य को (विश्वगुरु बनने की भारत की विदेशनीति को)  धरातल पर उतारने के लिए, 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' की शाखायें विश्व के प्रत्येक देश में स्थापित हो जायें। और इसी कार्य को पूरा कर दिखाने के लिए महामण्डल भारत के प्रत्येक राज्य में -'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न, दृढ़ विश्वासी, निष्कपट (De-hypnotized) शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करने के लिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन विगत 52 वर्षों से करता चला आ रहा है-तथा आगे भी हमारे लिए यही करनीय है !
[https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-rahasya-hindi/] 
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महामण्डल शिविर संचालन समिति का 'कर्म-रहस्य' : महामण्डल के प्रधान सेवक--- नेतावरिष्ठ (C-in-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय [15अगस्त 1931 -26सितम्बर 2016 ] के नेतृत्व में विगत 52 वर्षों से प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर" के लिए, सर्व प्रथम एक 'शिविर आयोजन समिति' (Camp Organizing Committee) का गठन किया जाता है। महामण्डल के " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर -'Be and Make'अद्वैत वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" ('Vivekananda- Captain Sevier Vedanta 'Be and Make' Vedanta ~Leadership Training Tradition')  में आयोजित होने वाले इस वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में सर्व प्रथम इस  'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आध्यात्मिक आन्दोलन के प्रति समर्पित वरिष्ठ कार्य-कर्ताओं के जनादेश द्वारा, जनता-जनार्दन की सेवा करने में  प्रशिक्षित होने का चपरास प्राप्त (insignia-बिल्ला, अधिचिन्ह, तमगा प्राप्त) एक प्रधान सेवक या नेतावरिष्ठ  (C-in-C) का चयन/निर्वाचन किया जाता है। फिर उसी क्रम में शिविर के कुशल संचालन हेतु कुछ अन्य प्रशिक्षित शिक्षकों /नेताओं/ सेवकों का चयन/निर्वाचन भी किया जाता है। प्रधान सेवक या नेतावरिष्ठ (C-in-C नवनीदा ) से लेकर गार्ड ड्यूटी तक तैनात जिन महामण्डल कर्मियों को पदाधिकारी होने का बिल्ला (निवेदिता वज्र -पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य होने का चपरास-या डेमोक्रेटिक जनादेश) जिन व्यक्ति को प्राप्त होता है, उन्हीं के माध्यम से -ठाकुर-माँ -स्वामी जी की शक्ति इस आध्यात्मिक शिविर को संचालित करती है । 
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