महामण्डल के विचार में बाल-विभाग
श्री दीपक रंजन मुखर्जी
(बंगला में) पहली बार प्रकाशित : दिसंबर, 2006
(बंगला में) पुनर्मुद्रण: अप्रैल 2014
(हिन्दी में) पहली बार प्रकाशित : दिसंबर, 2023
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भूमिका
(Introduction)
महामंडल का 'विवेक-वाहिनी' नामक बाल विभाग विगत तीन दशकों से अधिक समय से चल रहा है। आज के बच्चे भविष्य में सही 'मनुष्य' (इंसान) बन सकें और देश के निर्माण में योग्य भूमिका निभा सकें, इसके लिए बचपन से ही उस दिशा में ध्यान देना जरूरी है। इसी उद्देश्य से विवेक-वाहिनी में चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए खेल-कूद, पी.टी, परेड, जयघोष तुकबंदी, अभिनय गीत, कथा -कहानि आदि के माध्यम से बच्चों के जीवन की नींव को गढ़ने का प्रयास किया जाता है।
इस 'विवेक-वाहिनी ' या बाल विभाग को संचालित करने वाले निदेशकों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से महामण्डल केन्द्रीय, अन्तर्राजीय और क्षेत्रीय स्तर पर प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करता चला आ रहा है। 'केन्द्रीय विवेक-वाहिनी प्रशिक्षण शिविर' में पीटी, अभिनय गीत ( rhymes) , खेल-कूद के अलावा महामण्डल परिसंघ द्वारा संचालित मनुष्य-निर्माण आंदोलन को सामग्रीक रूप से मजबूत बनाने में बाल-विभाग की प्रयोजनीयता और महत्व, बाल मन की विशेषताएं (characteristics), बाल विभाग के लिए पाठ्-चक्र के संचालन की पद्धति आदि पर भी विस्तार से चर्चा की जाती है।
हालाँकि बच्चों के खेल-कूद, अभिनय गीत और जयघोष आदि पर पुस्तिकाएँ पहले भी प्रकाशित होती रही हैं, लेकिन उपरोक्त विषयों पर एक पुस्तिका की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही थी। आशा है कि वर्तमान पुस्तिका उस आवश्यकता को पूरा करने में सहायता करेगी।
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1.
महामंडल का कार्य
(Mahamandal work)
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल एक अखिल भारतीय युवा संगठन है।
महामंडल के आदर्श हैं - स्वामी विवेकानन्द।
महामण्डल का उद्देश्य है - भारत एवं विश्व का कल्याण।
विश्व-कल्याण का साधन (उपाय) है - व्यष्टि चरित्र निर्माण द्वारा समाज एवं देश का निर्माण।
महामण्डल का आदर्श वाक्य (Motto) है - Be and Make !
महामण्डल का अभियान मंत्र है- चरैवेति, चरैवेति। "
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य है , भारतीय संस्कृति में समाहित उन जीवनमूल्यों को, जो स्वामी विवेकानन्द के - "मनुष्यत्व (प्रभावकारी व्यक्तित्व) उन्मेषक **और चरित्रनिर्माणकारी" आदर्शों और शिक्षाओं में में कथित (perceived) हुए हैं उनका प्रचार-प्रसार करना। विशेष रूप से - भारत के राष्ट्रीय आदर्श - 'त्याग और सेवा' को निःस्वार्थ देशसेवा के माध्यम से युवाओं और तरुणों के बीच प्रसारित करना और युवाशक्ति कोअनुशासित करके राष्ट्र-निर्माण के कार्य में नियोजित करना। और इसका लक्ष्य है एक श्रेष्ठतर समाज का निर्माण करने के लिए श्रेष्ठतर मनुष्यों का (ब्रह्मविद मनुष्यों /नेताओं) बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना।
संगठन की इस विचारधारा और इसके विभिन्न केंद्रों में चल रहे कार्यक्रमों का संवाद प्रचार करने के लिए महामंडल एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगाली) मासिक मुखपत्र - "विवेक जीवन" भी प्रकाशित करता है।
[ "उन्मेषक" ***शब्द का अर्थ है- जैसे फूल का खिलना; आँख का खुलना -वैसे, खुलना, स्फुरण। आंखों का खुलना । समस्त चराचर में हृदय की सामान्य अनूभूति का जैसा तीव्र और पूर्ण उन्मेष करुणा में होता है वैसा किसी और भाव में नहीं होता । अशोक वाजपेयी अपनी कविता- 'आगमन' में कहते हैं - " (जैसे) दिगम्बर शाखा प्रतीक्षा करती है, कोमल हरी सुगबुगाहट की। (वैसे ही) तट की रेत प्रतीक्षा करती है, सब कुछ को भिंगोनेवाले- लहरों के #उन्मेष की ! ]
[অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের উদ্দেশ্য হল ভারতীয় সংস্কৃতি অনুসারী মূল্যবোধকে - যা স্বামী বিবেকানন্দের ' মনুষত্ব উন্মেষক ও চরিত্র গঠনকারী আদর্শে গ্রথিত - বিশেষ করে কিশোর ও যুবকদের মধ্যে ছড়িয়ে দেওয়া ও যুবশক্তিকে সুশৃঙ্খলভাবে নিঃস্বার্থ দেশসেবার মধ্যে দিয়ে জাতিগঠনে কাজে সংহত করা , যার লক্ষ্য হল একটি সুন্দরতর সমাজের জন্যে সুন্দরতর মানুষ গড়ে তোলা। মহামণ্ডল একটি দ্বিভাষিক (ইংরাজি ও বাংলা ) মাসিক মুখপত্র - " বিবেক জীবন " - এই আদর্শ ও সংস্থার সংবাদাদি প্রচারে জন্যে প্রকাশ করে থাকে।]
शिक्षा पर चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा है - " सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिए। परन्तु यह न करके, केवल हम बाहर को चमकाने की ही कोशिश किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ ? सारी शिक्षा का ध्येय है आदमी में मनुष्यत्व का उन्मेष अथवा विकास। वैसे मनुष्य का निर्माण जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू (magic) सा कर देता है, जो शक्ति का एक महान केन्द्र (dynamo) है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह [ब्रह्मविद] जो चाहे कर सकता है। उस नेता का व्यक्तित्व (मनुष्यत्व) चाहे जिस जीव पर अपना प्रभाव डालता है , उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है। " ४/१७२
'महामण्डल ध्वज : -
आयताकार (3X2) गेरुआ कपड़े के ऊपर नीले रंग में छपा, या नीले रंग के धागे की कढ़ाई (embroidery) द्वारा उकेरा गया वज्र निशान [ त्याग और शक्ति का प्रतीक।]
महामण्डल का प्रतीक चिन्ह :
भूमण्डल के ऊपर रेखांकित भारत भूमि के कन्याकुमारी पर दण्डायमान स्वामी विवेकानन्द की परिव्राजक मूर्ति। उसके ऊपर देव-नागरी अक्षर (lingua-franca) में लिखा ' चरैवेति चरैवेति ' एवं नीचे अंग्रेजी में ' BE AND MAKE ' लिखा गया है। वृत्त के शेष अंश को दोनों ओर सात-सात छोटे- छोटे वज्र से घेर दिया गया है।
[Mahamandal Flag: -
Rectangular (3X2) Vajra mark ['The Thunderbolt' symbol of Selflessness and Power.] printed in blue on ocher cloth, or embroidered with blue thread embroidery.
Mahamandal Symbol:
Parivrajak idol of Swami Vivekananda standing on Kanyakumari of the land of India outlined upon the globe. On top it is written 'Charaiveti Charaiveti' in Dev-Nagri alphabet (lingua-franca) and below- 'BE AND MAKE' is written in English . The remaining part of the circle is surrounded by seven small thunderbolts on both sides.]
स्वामीजी के शब्दों में - " मनुष्य निर्माण करना ही मेरा लक्ष्य है।" और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का व्रत है। " देश के कल्याण में युवाओं को चरित्रवान बनाकर समाज के सभी क्षेत्रों में नियोजित करने की जो योजना स्वामी विवेकानन्द ने बनाई थी और अपने उत्साहपूर्ण आह्वान से देश के युवा समाज को अनुप्रेरित करके स्वाधीनता संग्राम में नियोजित किया था, उसी भावना को वर्तमान युग में रूपायित करने के लिए सार्थक एक युवा आन्दोलन बना देना ही महामण्डल का कार्य है।
देश के पुनर्निर्माण में राजनीती, अर्थनीति , इतिहास, दर्शन, विज्ञान इत्यादि का अभ्यास, उन्नत्त प्रौद्योगिकी (Advanced technology), सब कुछ आवश्यक है। किन्तु इन सब की जरूरत मनुष्य के लिए है। मनुष्य यदि पूरी तरह से मनुष्य न बन सका, तो इन सब का कोई लाभ नहीं होगा। समाज का मूल घटक (constituent) है मनुष्य। इसलिए यदि सुन्दरतर समाज का निर्माण करना चाहते हों , तो सुन्दरतर मनुष्य निर्माण करना होगा। मनुष्य होने का तात्पर्य है - ऐसा मस्तिष्क जो चिंतनशील हो , ऐसा ह्रदय जो अनुभव करने में सक्षम हो, वैसे हाथ जो कर्मठ हों। इन तीनों का सुसमन्वित विकास करना ही मनुष्य निर्माण करना है।
व्यायाम करने और पौष्टिक आहार से शरीर सबल होता है। स्वस्थ और सबल शरीर सबल मन का आधार होता है। स्वाध्याय और ज्ञानचर्चा द्वारा मन को उच्च विचारों से भर कर , उचित-अनुचित , श्रेय-प्रेय विवेक के द्वारा कार्य को नियंत्रित किया जाता है। सेवा परायणता और सभी के प्रति प्रेम का भाव रखने से ह्रदय को विस्तारित किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप मनुष्य विवेक-प्रयोग शक्ति से सम्पन्न एक मजबूत और संतुलित मन , विस्तृत ह्रदय और सबल, कर्मठ शरीर का अधिकारी पूर्ण रूप से मनुष्य बनकर समाज के सभी क्षेत्र में कार्य करते हैं, तब समाज और देश भी सुन्दरतर बन जाता है।
इस प्रकार मनुष्यत्व में प्रतिष्ठित होने या व्यष्टि जीवन गठन में अनुप्राणित करने के लिए प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के बाहर चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रसार करना आवश्यक है। जिस शिक्षा के फलस्वरूप देश के लिए स्वार्थ-त्याग करने को तत्पर निःस्वार्थी युवाओं का एक दल तैयार हो जायेगा। व्यक्तिगत या पारिवारिक सभी कार्यों को करते हुए भी वे भारतवासियों को प्राण से प्रेम करेंगे। वे अपने समस्त प्रकार के सुखभोग [तीनों ऐषणाओं] में अनासक्त होकर देह-मन-वचन से करोड़ो अधोपतीत स्वदेशवासी नरनारियों के कल्याण के लिए चुपचाप अपने अपने क्षेत्र में कार्य करते जायेंगे। जीवनके सभी क्षेत्र में ऐसे चरित्रवान देशप्रेमी सर्वत्र एक प्रकार की उत्साह- गति उत्पन्न कर देंगे। बालक से लेकर युवा , सभी आयुवर्ग के नागरिकों के सामने जीवन को सकारात्मक दृष्टि से देखने और जीवन-निर्माण करने की पद्धति के अभ्यास की सम्भावना पर प्रकाश डालेंगे।
भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र (7th June, 1896) में स्वामी जी के कहते हैं -" मेरे आदर्श को अत्यन्त संक्षेप में कहा जा सकता है -वह है मनुष्यमात्र में अन्तर्निहित देवत्व का प्रचार करना , तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना। " (My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.) इसी बात को सरल शब्दों में कहें तो - " तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व प्राप्त करने (ब्रह्मविद बनने) में सहायता करो। "
प्रिय बन्धुओं, अपने परिव्राजक जीवन में स्वामी जी ने यह अनुभव किया था कि - भारतवर्ष में निवास करने वाली प्रजा तो ऋषि-मुनियों की संतानें हैं, इसीलिए इन युवाओं को ऐतेरेय ब्राह्मण के मन्त्र - " चरैवेति, चरैवेति। कलिः शयानो भवति... " को सुना-सुनाकर कलियुग की मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा।
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठम्स्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्।। चरैवेति, चरैवेति"
-ऐतरेय ब्राह्मण (7/15/4)
(शयानः कलिः भवति, संजिहानः तु द्वापरः, उत्तिष्ठः त्रेता भवति, चरन् कृतं संपाद्यते, चर एव इति।)
अर्थात्- जो मोहनिद्रा में सो रहा है वह कलियुग में है, निद्रा से उठने वाला द्वापर युग में है । उठकर खड़ा होने वाला त्रेता युग में है और श्रम करने वाला सतयुग बन जाता है। इसलिए श्रम करते रहे। चलते रहो।"
यही स्वामी विवेकानन्द जी की क्रन्तिकारी-योजना थी, और यही वह कार्य है, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के उपर सौंपा था। (और विवेकानन्द ने कैप्टन सेवियर पर, फिर अगले जन्म में नवनीदा रूपी सेवियर ने महामण्डल की " Be and Make C-IN-C प्रशिक्षण परम्परा" के उपर सौंपा था।
पाश्चात्य भ्रमण के दौरान स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से जान लिया था, कि "सभी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ उससे जुड़े मनुष्यों के सदाचार और सच्चरित्रता के उपर ही निर्भर करती हैं। कोई भी राष्ट्र केवल इसलिए महान और अच्छा नहीं बन जाता कि उसके पार्लियामेंट ने यह या वह बिल पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके नागरिक महान और अच्छे हैं।"
इसीलिए स्वामी विवेकानन्द जी ने भविष्य के गौरवशाली भारत का निर्माण-सूत्र दिया था - " Be and Make" अर्थात "तुम स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता करो।" यही वह पद्धति है जिसके द्वारा हमारे देश का 'राष्ट्रीय - चरित्र' (National-Character) भी पुनर्निर्मित हो सकता है। क्योंकि चरित्र मनुष्य को दो बड़े गुणों से विभूषित कर देता है, पहला - उसको यह समझ में आ जाता है कि उसे स्वयं के साथ कैसा व्यव्हार करना चाहिए और दूसरा - यह कि उसे दूसरों के साथ कैसा व्यव्हार करना चाहिए। पहला गुण है पवित्रता और दूसरा है नैतिकता या सदाचार।
2.
बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास
(Overall development of the child)
>>>Every tiny seed of a banyan tree is potentially a huge tree.>बाल विभाग का महत्व विषय पर अलग से चर्चा करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि महामण्डल के बाल विभाग का कार्य मूलतः 'बाल- शिक्षण का कार्य' है। बच्चों की शिक्षा के बारे में विचार करते समय सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि 'बच्चों का विकास ' कहने का तात्पर्य क्या है, और बच्चों का विकास होता कैसे है ? (स्वामीजी के शब्दों में " जैसे प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है" वैसे ही) किसी विशाल बरगद के पेड़ के प्रत्येक छोटे से बीज (tiny seeds) में भी विशाल वृक्ष में परिणत होने की सम्भावना छिपी रहती है। यदि इसे उचित मात्रा में जल, मिट्टी, वायु, खाद और प्रकाश मिले तो यह तय है कि यह छोटा सा बीज भी एक दिन विशाल वट वृक्ष बन जायेगा। उसी तरह प्रत्येक बच्चे के भीतर जो अनन्त सम्भावना छिपी हुई है, वह उपयुक्त परिवेश मिलने से विकसित होकर एक दिन प्रत्येक बच्चे को चरित्र के समस्त 24 गुणों से परिपूर्ण (Complete with values) और समस्त 12 दोषों से रहित एक चरित्रवान, बेहतर- श्रेष्ठतर मनुष्य या प्रबुद्ध नागरिक (enlightened citizens) में परिणत कर देगी। बच्चों के इस प्रकार चरित्रवान, श्रेष्ठतर या प्रबुद्ध नागरिक बन जाने को ही बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास कहा जाता है। शरीर, बुद्धि और ह्रदय का संतुलित विकास (balanced development of '3H's) को ही सर्वांगीण विकास कहा जाता है।
ऐसे सर्वांगीण विकास में मन की भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। विवेक-प्रयोग द्वारा अपने मन को नियंत्रण में रखते हुए, मन में उठने वाले विचारों की दिशा और वेग को जीवन-गठन (Life building) के लिए उपयोगी विचारों की ओर घुमा देने में समर्थ होना ही -इस 3H के संतुलित विकास का प्रारम्भ है ! किन्तु शिशु-मन कोमल पौधे की तरह होता है , वह स्वयं विवेक-प्रयोग नहीं कर सकता। इसीलिए एक ऐसे माहौल, परिवेश -वातावरण (घेरा डाल देना) का निर्माण करना आवश्यक है, जो बच्चे को एक निश्चित दिशा में - [श्रेष्ठतर ,चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की दिशा में] विकसित करेगा।
>>>meaning of imparting education, or teaching children : शिक्षा प्रदान करने , या बच्चों को पढ़ाने का अर्थ बातचीत करना नहीं है, बल्कि उसका तात्पर्य, बच्चे में उच्च भावों को संचारित कर देना है। और उचित दृष्टिकोण तथा मानसिकता वाले बच्चे के माता-पिता, अभिभावक, रिश्तेदार या शिक्षक ही इस प्रकार के उच्च भावों को, उनमें संचारित (transmit) कर सकते हैं। लेकिन, वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति के अनुसार स्थापित स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी में यह कार्य बहुत प्रभावशाली ढंग से वस्तुतः रूपायित नहीं हो रहा है। महामण्डल के शिशु विभाग के निदेशक ही इस कार्य में उचित मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं। शिशु-विभाग इसी प्रकार शिशु के सर्वांगीण विकास या जीवन-गठन में एक शिक्षा केंद्र की भूमिका निभाता है। इसीलिए कहा जाता है कि महामण्डल का शिशु विभाग प्रचलित शिक्षा व्यवस्था से भिन्न एक केन्द्र है जो स्कूलों, कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में प्राप्त शिक्षा का अनुपूरक (complementary) है।
शिक्षा की मूल बात मनरूपी यंत्र को पवित्र और निर्मल बनाकर उसे पूरीतरह से वशीभूत करना है। जो व्यक्ति अपनी वाणी में अपनी सत्ता या अपना जीवन उड़ेल सकते हों, उनकी वाणी ही फलप्रसू होती है। इसे करने में उस व्यक्ति के अपने जीवन में कुछ अच्छे भावों का आत्मसाती-करण आवश्यक होता है, केवल तथ्यों का संग्रह नहीं। इसे समझ लेना होगा कि - 'बच्चा अपने जीवन के धर्म - अस्तित्व के नियम से ही बड़ा होता है। शिक्षक का कार्य केवल इतना ही है कि उसकी स्वाभाविक विकास में कोई बाधक तत्व न आ जाये , उस पर उसका ध्यान रखे। एक उद्देश्यपूर्ण जीवन का निर्माण करने के लिए उपयुक्त विचारों को बच्चे के पास पहुँचा देना, ताकि वह उन भावों को अभ्यास द्वारा जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रयोग कर सके -उस ओर दृष्टि रखना। इसीलिए भारतीय संस्कृति में शिक्षा पद्धति को -श्रवण, मनन निदिध्यासन कहा जाता है। जीवन-गठन में उपयोगी विचारों को सबसे पहले सुनना, जानना या पढ़ना, बाद में पुनः पुनः चिंतन करके उन अच्छे भावों को अवचेतन मन में बैठा लेना। और सबसे अन्त में उन अच्छे विचारों को मन के भीतर में लगातार अभ्यास करते हुए इस प्रकार प्रयोग में लाना जिससे वे सदा प्रत्येक कार्य में अभिव्यक्त होने लगें।
महामण्डल के शिशु विभाग के दैनन्दिन कार्यक्रम में शिशु के शरीर, बुद्धि और ह्रदय का सन्तुलित विकास किस प्रकार हो सकता है , अब उस पर चर्चा की जाये।
शरीर का विकास : - मध्यम सीमा का व्यायाम (Moderate exercise), खेलकूद, अभिनय-गीत , जयघोष , परेड ,पी.टी आदि का अभ्यास बच्चे के शारीरिक विकास में सहायता करते हैं। मन (सूक्ष्म शरीर) का आधार है शरीर (स्थूल शरीर)। एक शक्तिशाली और सुगठित शरीर ही शक्तिशाली मन के भावों या आवेगों (emotions-लहर, चित्तवृत्ति) को धारण करने में समर्थ होता है। देह को स्वस्थ-सबल रखने में व्यायाम करना आवश्यक है। किन्तु व्यायाम नियमित और परिमित होना ठीक होता है। सभी कार्यों में मन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। व्यायाम के क्षेत्र में भी मन की भूमिका को अस्वीकार नहीं कर सकते। व्यायाम करते समय -मन में इस विचार को भरे रहने से अधिक फल मिलता है- कि व्यायाम करने से मेरा शरीर निरोग और बलिष्ठ बन गया है। बहुत से लोग सोचते हैं कि खेलकूद करना ही व्यायाम है। ऐसा सोचना ठीक नहीं है। व्यायाम का अर्थ व्यायाम करना ही होता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खाली हाथ का व्यायाम और आसन करना पर्याप्त है। प्रत्येक शिशु के लिए नियमित अल्प व्यायाम करना आवश्यक है।
पाँच, छः या सात वर्ष का शिशु बड़ों के जैसा व्यायाम नहीं कर सकते। उनके लिए अभिनयगीत और जयघोष के साथ व्यायाम उपयोगी होता है। अभिनयगीत आदि के छन्द, सुर और अंग-विन्यास शिशुमन को आकर्षित करते हैं। महामण्डल के शिशु विभाग में ठाकुर, माँ और स्वामीजी के जीवन की घटना , उनके उपदेश, या उनके मुख से कही कहानियों पर आधारित बहुतसे अभिनय गीत लयबद्ध (The rhythm of the rhymes) हुए हैं। इन जयघोषों को बार-बार दोहराने, और अभिनय-गीत के लय के साथ हाथ -पाँव हिलाने के साथ-साथ अभिनय गीत के कहानिमूलक या नीतिमूलक विचार बालक के मन पर एक स्थायी छाप (संस्कार) छोड़ते हैं। ये छाप सकारात्मक होने के फलस्वरूप, बच्चों के जीवनगठन में तथा मानसिक उन्नति में सहायता करते हैं।
जीवन गठन में अनुशासन अत्यंत आवश्यक है। अनुशासन कहने से बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार के अनुशासन महत्वपूर्ण हैं। बाहरी स्तर (शारीरक तौर) पर अनुशासन का पालन करने से वह आंतरिक अनुशासन में परिणत हो जाता है। और जब आंतरिक अनुशासन दृढ़ता के साथ स्थापित हो जाता है, यह बोध चाहे या अनचाहे शिशु मन को जीवन गठनकारी दिशा में ही चलने को प्रेरित करता रहता है।
पैरेड पर पीटी बालकों को बाहरी जीवन में अनुशासन का पालन करना सिखाता है। नियमित अभ्यास करने से एक साथ हाथ-पैर हिलाना, या साथ-साथ हाथ पैर के उठाने -गिराने से बाह्य जीवन में अनुशासन स्थापित हो जाता है। स्वामीजी जब इंग्लैण्ड में रह रहे थे, एक दिन स्वामी सारदानन्द जी ने स्वामीजी के मँझले भाई महेन्द्रनाथ दत्त के साथ लन्दन के सड़क पर चलते समय उनके आगे चल रहे दो-तीन अंग्रेजों को दिखलाते हुए कहा - " देखो महिन ! ये दो-तीन लोग जब पास-पास बातें करते हुए चल रहे हैं, फिर भी उनमें से प्रत्येक का पैर एक साथ मिलकर पड़ता है। बाएं पैर के साथ बायाँ , दायें पैर के साथ दाहिना, --इसी की आवश्यकता है। " अभ्यास के द्वारा ऐसे शारीरक अनुशासन में दृढ़ता से प्रतिष्ठित हो जाने के बाद, यह मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर आंतरिक अनुशासन में परिणत हो जाता है। इसीलिए महामण्डल के शिशु विभाग में पैरेड और पीटी का नियमित रूप से अभ्यास करवाया जाता है। और सभी लोग जब एक साथ मिलकर अभ्यास करते हैं, तो उसके फलस्वरूप भीतर में एकजूटता की भावना, सामुदायिक- साहचर्य का भाव, परस्पर के बीच भाईचारे का सम्बन्ध विकसित हो जाता है।
>>>development of intelligence : बुद्धि का विकास कहने से बुद्धि को तीक्ष्ण करना और विवेक-प्रयोग शक्ति को (श्रेय-प्रेय, उचित-अनुचित निर्णय क्षमता को) जाग्रत करना' - इन दोनों शक्तियों के विकास को समझना चाहिए। बुद्धि तीक्ष्ण हो जाने से किसी भी विषय की धारणा- शीघ्र, सही और स्पष्ट तरिके से हो जाती है। पशु और मनुष्य में मुख्य अन्तर मननशीलता और विवेक-प्रयोग क्षमता को लेकर ही है, शेष चार बातें ~ " आहार, निद्रा , भय और मैथुन" एक जैसी हैं । वैदिक निरुक्तकार यास्क मुनि ने मनुष्य को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति सः ’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी तक मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है।
[मननशील मनुष्य (ऋषि) की विशेषता यही है कि वह सत्य-असत्य और मिथ्या को पृथक-पृथक रूप से पहचान सकता है। उसी खोज पर आधारित एक महावाक्य है - 'एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति।' ऋग्वेद (164/ 46) -सत्ता एक है, एक ही सत्ता को अलग-अलग ऋषि भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। इस ऋचा के द्वारा जो सत्य प्रकट हुआ है, भारतीय संस्कृति (जीवन-पद्धति) पर उसके बड़े ही दूरगामी प्रभाव पड़े हैं। इस सत्य ने एक सांचे का काम किया है, जिसमें भारतवासी अपने जीवन को ढालने की चेष्टा करते रहे हैं। इसी ऋचा ने हमारी रगों में उदारता का रक्त -'सर्वे भवन्तु सुखिनः' और " वसुधैव कुटुंबकम"- यानि " One Earth, One Family, One Future. " दुनिया एक परिवार है -मानने की भावना को हमारे रक्त में भर दिया है। ऐसी उदारता, जो विश्व के अन्य किसी धर्म में हमें नहीं मिलती। विक्रम लैण्डर से चन्द्रयान -3 चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर जहाँ उतरा, उस स्थान का नाम शिव-शक्ति पॉइंट रखा गया - यानि हिमालय से कन्याकुमारी तक ब्रह्म और शक्ति अभेद्य है। ब्रह्मविद ही ब्रह्म है। इस दो प्रकार के सत्य- इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य को जानने की शिक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दू ने धर्म के नाम पर कभी खून-खराबी नहीं की।
>>>G-20 Summit In India: जी-20 की कामकाजी भाषा अंग्रेजी ही है। लेकिन चीन को संस्कृत के शब्द 'वसुधैव कुटुंबकम' से खासी दिक्कत है, जिसको लेकर उसने अपना विरोध भी दर्ज कराया है। दरअसल, इस बार जी-20 की मेजबानी भारत कर रहा है, ऐसे में जी-20 के दस्तावेज़ों में 'वसुधैव कुटुंबकम' शब्द का उपयोग किया गया है, जो हमारा सभ्यतागत लोकाचार (civilizational ethos) का प्रतीक है; जिसपर चीन ने आपत्ति दर्ज कराई है। चीन के इस विरोध पर भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि-"The theme of the G-20 being chaired by India is, 'One Earth, One Family, One Future.' It is based on our civilizational ethos of 'Vasudhaiva Kutumbakam .']
मनन की यही प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो चिन्तन- मनन किये बिना (अर्थात विवेक-प्रयोग किये बिना) जो कुछ देखता है उसी विषय को भोगने में प्रवृत्त हो जाता है। इसलिए मनुष्य के लिए धर्म का अर्थ है - विवेक-प्रयोग शक्ति और मननशीलता। विवेक-बुद्धि मनुष्य को सदसद्विवेक क्षमता प्रदान करती है। जिसके द्वारा मनुष्य - अच्छे-बुरे की या उचित-अनुचित की पहचान कर सकता है। साधारणतः सदसद्विवेक का अर्थ अच्छा और बुरा में अन्तर करना होने से भी, इसका वास्तविक अर्थ यही नहीं है। सत का अर्थ है - जो शाश्वत , चिरस्थाई हो ; और असत का अर्थ है क्षणभंगुर या क्षणस्थायी। जो दीर्घ स्थायी है, सभी के लिए कल्याणकर है, इसीलिए सत है। इसीलिए सत -असत विवेक का अर्थ हुआ जो सभी के लिए, देश के लिए, सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकर है वह है -आत्मा के एकत्व का बोध!
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह समाज मनुष्य की जरूरतों को पूर्ण करने के लिए, मनुष्य के द्वारा गढ़ा गया है। देश या समाज तभी सुन्दर और महान बन सकता है , जब प्रत्येक कार्य को विवेक-पूर्वक मनुष्य के कल्याण के लिए किया जाये। प्रत्येक कार्य के पीछे विचार होता है, यानि किसी भी कार्य को करने के पहले मन में उसका विचार उठता है। इसलिए समाज को बेहतर बनाने के लिए, देश को महान बनाने के लिए - अपने विचार को समष्टि मानवजाति के कल्याण में नियंत्रित रखना आवश्यक है।
और यहीं पर मननशीलता या विवेक-प्रयोग की आवश्यकता उत्पन्न होती है। विवेकी मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य के मन से यही विचार उठता है कि मेरा प्रत्येक बार स्वांस ग्रहण भी सामान्य मानवी (समष्टि मनुष्य -विश्वमानवता) के कल्याण के लिए हो। इसीलिए ज्ञान को बढ़ाने या विकसित करने के लिए , एवं श्रेय-प्रेय विवेक -प्रयोग की क्षमता में वृद्धि करने के लिए - बुद्धि को विकसित करना आवश्यक है। इसके लिए स्वाध्याय , चर्चा , मनन करके विषयों को आत्मसात करना होगा। यह कार्य महामण्डल के पाठचक्र से किया जाता है। इसलिए महामण्डल के शिशु विभाग में सप्ताह में एक दिन पाठचक्र का आयोजन किया जाता है। सरल भाषा में कहें तो पाठचक्र है मन का व्यायाम !
>>>Heart development: (ह्रदय का विकास) : देह और बुद्धि के विकास के साथ यदि ह्रदय के विकास को संयुक्त न किया जाये , अर्थात देह और बुद्धि बुद्धि के साथ साथ यदि किसी मनुष्य का ह्रदय भी विकसित न हुआ हो, तो वह मनुष्य मनुष्य न होकर, असुर या राक्षस में परिणत हो जाता है। रामायण में हमलोग पाते हैं कि रावण एक निष्ठावान ब्राह्मण था। कार्यक्षमता और शारीरिक शक्ति में दस मनुष्यों के बराबर अकेला था। उद्योग-धंधों से समृद्ध देश, सोने से बनी लंका का राजा था। बुद्धि की तीक्ष्णता की बात करें तो दशानन रावण दस मनुष्यों के बराबर बुद्धि रखता था। फिर भी रावण को राक्षस कहा जाता है। रावण के पास दस सिर और बीस भुजायें तो थीं , किन्तु ह्रदय एक ही था। इसीलिए स्वार्थपरता , असयंम , दम्भ और आचार -आचरण की दृष्टि से रावण मानवता का राक्षस था।
दूसरी ओर देह, बुद्धि और ह्रदय के सन्तुलित विकास होने से रामचन्द्र मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। पशु, मनुष्य , वृक्ष-लता सभी उनके प्रेम से आकृष्ट हो जाते थे , सभी को वे अपना समझते थे। छोटे से लेकर बड़े तक सभी के प्रति समदृष्टि, मित्रता का भाव था। प्रेम शत्रु और मित्र दोनों को आकर्षित करता है। वैसे सभी जन जो निम्नजाति के श्रेणी में गिनी जाती थीं, यहाँ तक कि अचेतन पत्थर भी उनके हृदय के प्रेम को अनुभव कर चैतन्य सजीव हो उठते थे। इसीलिए वे सभी के आराध्य देवता हैं। मनुष्य से देवता में उन्नत हो चुके पुरुषोत्तम की मौन वाणी है -['আমা হতে নাহি ভয় জীব-জগতের']" इस सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत में मुझसे किसी को भय करने की जरूरत नहीं " सभी के ह्रदय को स्पर्श करती है।
>>>Way to gain heart expansion? पशु-पक्षी और छोटे से लेकर बड़े मनुष्यों तक के प्रति अपने ह्रदय को विस्तृत करने का उपाय क्या है ? प्रतिदिन दो बार (प्रातः और संध्या में) थोड़ी देर तक सभी प्राणियों के मंगल की प्रार्थना - 'सर्वे भवन्तु सुखिनः', 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना करना चाहिए। और इसके साथ-साथ जिनका हृदय समुद्र जितना विशाल है, वैसे विवेकानन्द के जीवन और सन्देश का पाठ करके पहले स्वयं अनुप्राणित होना चाहिए, फिर उनकी शिक्षाओं को युवाओं तक पहुँचाने की समाज-सेवा करते हुए अपने ह्रदय को विस्तृत करने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वामीजी अपनी कविता -'सखा के प्रति ' में कहते हैं - हमें अपने प्राण, अर्थ, बुद्धि तथा वाणी को नरनारायण की सेवा में अर्थात मानवदेह रूपी देवालय में विराजित ईश्वर की सेवा में लगाना चाहिए -
'सखा के प्रति '
ब्रह्म ह'ते कीट -परमाणु, सर्वभूते सेई प्रेममय ,
मन प्राण शरीर अर्पण कर सखे, ए सबार पाय।
बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खूंजिछ ईश्वर ?
जीवे प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर।
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ब्रह्म से कीट-परमाणु तक, सब में झांके वही प्रेममय ,
भागवत कहे 'एतावत जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु'
प्राण,अर्थ, धिया, वाचा ~ सब जीवों को देदो अभय।
बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ है ईश ?
जीवों से प्रेम करता है जो जन, उसी की पूजा स्वीकारते जगदीश।
९/३२५
ব্রহ্ম হ'তে কীট-পরমাণু, সর্বভূতে সেই প্রেমময়,
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে, এ সবার পায়।
বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ?
জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর॥
सिद्धांत: यदि आप सृष्टिकर्ता से प्रेम पाना चाहते हैं, तो इसे प्राप्त करने का एकमात्र तरीका उसके सभी प्राणियों के प्रति प्रेम दिखाना है। अतएव हमें भी स्वामीजी की इस कविता में वर्णित मानसिकता के साथ समाज-सेवा करना होगा। मनुष्य शरीर रूपी देवालय में नरनारायण की पूजा करने का मनोभाव लेकर समाज-सेवा करने से ह्रदय का विस्तार घटित होता है। शिशु-विभाग के संचालन -प्रबंधन आदि कार्यों को इसी पूजा के मनोभाव से करने से उसका वास्तविक फल प्राप्त होगा।
इस प्रकार शरीर की शक्ति का विकास होने के साथ साथ ह्रदय का विस्तार और मन को नियंत्रण में रखते हुए संतुलित रूप में विकसित हुआ विवेक-वाहिनी का प्रत्येक शिशु सुन्दर मनुष्य में परिणत होकर समाज के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जायेंगे। जिसके फलस्वरूप सुंदरतर मनुष्यों का एक सुन्दरतर समाज निर्मित हो जायेगा।
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3.
🔱🙏महामंडल आंदोलन में शिशु -विभाग की आवश्यकता एवं उसका महत्व🔱🙏
[The necessity and importance of Vivek-Vahini in Mahamandal]
किसी भी कार्य के पहले विचार होता है। और उस विचार के अनुसार ही कार्य होता है। कार्य से परिवेश निर्मित होता है। फिर परिवेश विचारों को प्रभावित करता है। अतएव वर्तमान का जो असहनीय सामाजिक परिवेश या परिस्थिति है वह जानबूझकर या अनजाने में हमारे द्वारा ही बनाया गया है। हमलोगों ने जैसी शिक्षा प्राप्त की है, उस शिक्षा ने ही हमलोगों के विचार, व्यवहार तथा रूचि को विकसित किया है। अतएव यदि इस सामाजिक परिस्थिति में परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो परिवेश का निर्माण करने वाले मनुष्यों की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा। और वह केवल तभी सम्भव है जब इन मनुष्यों के चरित्र में परिवर्तन किया जाये। उपयुक्त शिक्षा ही चरित्र में परिवर्तन कर सकती है। जिसके फलस्वरूप लोगों के विचार और कार्य नियंत्रित होंगे। इसीलिए कहा जाता है -केवल स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माणकारी (व्यक्तित्व उन्मेषक) शिक्षा ही समाज, देश या राष्ट्र का कल्याण करने में समर्थ युवाओं के दल को गठित कर सकती है।
चरित्र निर्माण का कार्य युवा अवस्था में ही शुरू करने से, जिस प्रकार एक सुन्दर जीवन गठित हो जाता है, उसी प्रकार यदि बचपन से ही शुरू किया जाये तो और भी सुन्दतर जीवन गठित होने की सम्भावना रहती है। अंग्रेजी में एक प्रसिद्द कहावत है - 'The Child Is The Father Of The Man' -अर्थात “बच्चा मनुष्य का पिता होता है।” बंगला में भी कहावत है -(ঘুমিয়ে আছে শিশুর পিতা সব শিশুরই অন্তরে।) "घूमिये आछे शिशुर पिता सब शिशुरई अन्तरे"- वास्तव में यह मुहावरा अंग्रेजी के प्रसिद्द कवि विलियम वर्ड्सवर्थ द्वारा 1802 में लिखी गई कविता, “माय हार्ट लीप्स अप” से लिया गया है। कवि का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का व्यक्तित्व, उसके अपने बचपन की आदतों-संस्कारों से बना होता है। वर्ड्सवर्थ कहते हैं एक शिशु के रूप में जब वे इंद्रधनुष को देखते तो बहुत प्रसन्न हो जाते थे , और उनका ह्रदय रोमांचित होकर बल्लियों उछलने लगता था - और एक वयस्क के रूप में वह प्रकृति को देखकर अभी भी उसी प्रकार की खुशी का अनुभव करता है जैसे वह पहले करता था। [" My heart leaps up when I behold, A rainbow in the sky: So was it when my life began; So is it now I am a man; So be it when I shall grow old, Or let me die! The Child is the Father of the Man! ]
यह कहावत इस विचार को व्यक्त करता है कि एक बच्चे के रूप में हम जो चरित्र बनाते हैं वह हमारे वयस्क जीवन में भी हमारे साथ रहता है। यह स्वाभाविक है कि कोई व्यक्ति अपने बचपन के दिनों में जो सीखता है वही उसकी आदत और प्रवृत्ति बनकर बाद में उसके जीवन में प्रतिबिंबित होती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति बचपन के दौरान अच्छी आदतें विकसित करता है तो उसके एक अनुशासित जीवन जीने की संभावना है। इसी तरह एक बच्चे में जब बुरी आदतें पनपने लगती है तो उसके बढ़ती उम्र के साथ वह उनका आदी हो जाता है। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति के बचपन का व्यवहार और गतिविधियाँ उसके व्यक्तित्व के निर्माण में बहुत सहायक सिद्ध होती हैं। आज के बालक ही भविष्य के युवा हैं। इसीलिए युवा कल्याण का प्रारम्भ बालकों के कल्याण से होता है। और यहीं पर महामण्डल की कार्यपद्धति में शिशु-विभाग का महत्व स्पष्ट हो उठता है।
महामण्डल के शिशु विभाग का नाम 'विवेक वाहिनी ' होने से भी अखिल भारतीय या क्षेत्रीय स्तर पर बालकों के विकास के लिए देशभर में अलग-अलग नाम से कई संगठन पहले से कार्यरत हैं। तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, अलग से महामण्डल का शिशु-विभाग गठित करने की क्या आवश्यकता है ? उत्तर में कहना पड़ता है कि -जब कार्य उद्देश्यपूर्ण होगा तभी वह वांछित परिणाम देगा। बालक का जीवन, परिवार,समाज या देश के कल्याण में उपयोगी और सुंदर रूप से निर्मित होने का अर्थ है बालक का सर्वांगीण विकास। बालक के शरीर-बुद्धि -ह्रदय का सन्तुलित विकास के साथ ही साथ मन पर नियंत्रण , विवेक-प्रयोग द्वारा निर्णय लेने की क्षमता का जागरण, और दैनन्दिन समस्त कार्यों में केवल उसके प्रयोग की आदत और बाद में प्रवृत्ति बन जाने -की पद्धति से ही बालकों का सर्वांगीण विकास होना सम्भव है। और महामण्डल के शिशु-विभाग का यही उद्देश्य है।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए महामंडल के बाल विभाग की दैनिक कार्यपद्धति एवं प्रबंधन प्रणाली विकसित की गई है। महामण्डल में बालक के खेलकूद, पीटी -पैरेड , अभिनय-गीत और जयघोष तथा पाठचक्र -समस्त कार्यक्रम इसी प्रकार उद्देश्यपूर्ण ढंग से विकसित किया गया है। यहाँ तक कि प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण कार्य भी उसी प्रकार उद्देश्यपूर्ण है। प्रत्येक दिन के खेलकूद इत्यादि के माध्यम से बालकों के भीतर इन ऊंच भावों को प्रविष्ट करवा देना ही महामण्डल का लक्ष्य है। जिसके फलस्वरूप दैनन्दिन जीवन के प्रत्येक क्षण में बालकों के सभी काम , व्यवहार या चालचलन (behavior), बोलचाल (conversation), सोचने का तरीका (ideology) सब कुछ बालक के जाने या अनजाने इन्हीं भावों के द्वारा नियंत्रित होंगे। शिशु -विभाग के जयघोष के माध्यम से सीखा जाता है -'নিজেকে দিয়েই সমাজ-দেশ গড়ার শুরু বুঝেছি বেশ '; ' "समाज और देश के निर्माण की शुरुआत, मेरे स्वयं से है समझी है बेश"; ''পরের তরে বাঁচা মোদের ', 'স্বরূপ মোদের জানবো মোরা সেরা মানুষ হব ', 'সবার কথায় সত্য আছে , কেউ কিছু দূর কেউ বা কাছে ', 'পরের দোষ দেখব না ভাই , দেখবো নিজের দোষ ', अभिनय गीत के ये सभी शब्द, कीर्तन के ताल -बोल की तरह बालक के मन में सोते-स्वप्नदेखते -या जागरण में सदैव गूंजता रहेगा,एवं ये अनमोल शब्द ही एक मापदण्ड (criterion) का रूप लेकर बालकों के जीवन को हमेशा नियंत्रित करता रहेगा।
इसीलिए बाहर से देखने पर महामण्डल का शिशु-विभाग प्रत्येक दिन का केवल दो घंटे के लिए कार्यक्रम चलने वाला कोई बालक-मनोरंजन केंद्र नहीं है , बल्कि परिवार के बीच , स्कूल में , दोस्तों के साथ फुर्सत के पल बिताते समय - 'अरे लरेशवो चलमा लद्दी लहाइले ? " - सर्वत्र , मन के भीतर शिशु-विभाग का ही कार्यक्रम चलता रहेगा। और इस प्रकार एकदिन महामण्डल के शिशु-विभाग से प्रशिक्षित प्रत्येक बालक /शिशु पूर्ण मनुष्यत्व में प्रतिष्ठित होकर (नेता/पैगम्बर वाले व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित होकर भी) अपने को केवल एक चरित्रवान नागरिक समझते हुए देश के समस्त कार्यक्षेत्र में फ़ैल जायेंगे और समाज तथा देश को और भी श्रेष्ठतर /सुन्दरतर बना देंगे।
>>> जीवन का प्रत्येक क्षण अपने पैरों पर खड़ा मनुष्य बनने का प्रयास है : ( Every moment of life is an attempt to rise _to one's feet? জীবনের প্রত্যেকটি মুহূর্তে মানুষ হয় উঠার একটি প্রচেষ্টা ) :
अतएव महामंडल का शिशु- वर्ग, अन्य संगठनों द्वारा संचालित बाल वर्गों की तरह शारीरिक सौष्ठव प्रदर्शन (Bodybuilding display) , चार दिनों का सांस्कृतिक तमासा (four-day cultural extravaganza) अथवा केवल एक तयसीमा में समाप्त हो जाने वाला कोई 'खाली समय बिताने का मनोरंजन' (Leisure entertainment) नहीं है। बल्कि यहाँ जीवन का प्रत्येक क्षण ऊपर उठने का प्रयत्न है, पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवत्व में उन्नत होने का -प्रयास है। और यहीं दूसरे बाल -केंद्रों से महामण्डल के शिशु-विभाग का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द की भाषा में कहें तो -"मेरे बच्चों ~ 'अलवरी युवको', धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। जो केवल 'प्रभु, प्रभु ' की रट लगाता है, वह नहीं , किन्तु जो उस परम् पिता की इच्छानुसार कार्य करता है "- वही धार्मिक है। तुमलोग जितने भी हो सभी योग्य हो, और मैं आशा करता हूँ कि तुममें से अनेक व्यक्ति अविलम्ब ही समाज के भूषण तथा जन्मभूमि के कल्याण के कारण बन सकेंगे। १/३८०
[अर्थात सद्सद्विवेक (conscience-अन्तरात्मा की आवाज) = 'Good and Pleasant' विवेक का सिद्धान्त को जान लेना धर्म नहीं है, धर्म का रहस्य विवेक- प्रयोग करते हुए जीवन यापन करने से जाना जा सकता है।" - 'Good and Pleasant' विवेक या 'अच्छा (श्रेय-आँवला) और सुखद (प्रेय-ईमली) ' विवेक-सिद्धान्त को जान लेना नहीं विवेक-प्रयोग करके अच्छा मनुष्य बनना और अच्छा मार्ग यानि श्रेय मार्ग, -त्याग और सेवा के मार्ग पर चलना - इसमें ही समग्र धर्म निहित है।
(My children, You Alwaris,....... You are a nice band of young men, and I hope in no distant future many of you will be ornaments of the society and blessings to the country you are born in. the secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion. "Not he that crieth 'Lord', 'Lord', but he that doeth the will of the Father". 'তত্ত্বে নয়, তত্ত্বের প্রয়োগেই ধর্মের গোপন রহস্য।স্বার্থশূন্য , সেবাপরায়ণ ,সংযত , প্রেমী , শক্তিমান ও হৃদয়বান মানুষ ]
केवल सिद्धान्त नहीं, स्वार्थरहित (Selfless), सेवापरायण (service minded or helpful), आत्मानुशासित (restrained), विश्वमानव प्रेमी , शक्तिशाली और उदारहृदय (यानि बसुधैव कुटुंबकम' पर आस्था रखने वाला, wholehearted person) मनुष्य के रूप में बालको के विकसित होने में सहायता करके प्रत्येक बालक को एक अच्छा नागरिक, या एक आदर्श महा-मण्डल कार्यकर्ता के रूप ढाल देने के कार्य में अच्छी तरह से योजनाबद्ध, इस उद्देश्य के अनुसार एक परिवेश तैयार करने के कार्य को महामण्डल का शिशु-विभाग समझना चाहिए। जो आज के सन्दर्भ में और भी आवश्यक है।
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4.
🔱🙏जीवन गठन पर परिवेश का प्रभाव।🔱🙏
[The influence of surroundings on Life building]
(জীবন গঠনে পরিবেশের প্রভাব)
>>>Growth of a child is very similar to plant :
किसी बच्चे के संवृद्धि की प्रक्रिया बिल्कुल पौधों के संवृद्धि (growth) की प्रक्रिया (पैटर्न-arrangement) जैसी होती है। एक पौधा स्वयं ही बड़ा होकर वृक्ष बन जाता है। (A tree grows by itself- उसको खींचकर लम्बा नहीं करना पड़ता।) लेकिन कोमल अंकुरण (seedling) की अवस्था में पौधे को जानवरों से बचाने के लिए उसके चारों ओर बाड़ लगा देना अथवा घेरा डाल देना आवश्यक होता है। तथा इस ओर ध्यान रखना होता है कि पौधे को हवा, मिट्टी , धूप, खाद और जल भी आवश्यक्तानुसार उचित अनुपात में मिलता रहे। पौधा स्वयं अपने तरीके से अपना आहार तैयार करके स्वयं का पोषण (Nourishes) कर लेता है।
एक शिशु भी ठीक इसी प्रकार बड़ा हो जाता है। वह शिशु-सुलभ अवस्था में लेटे -लेटे ही अपने हाथ-पैर फेंककर शरीर की स्वस्थ संरचना में अपनी सहायता करता है। छोटा बच्चा सोये -सोये गर्दन घुमाकर चारों तरफ देखता रहता है, जो कुछ दिखाई पड़े उसी को छूना और पकड़ना चाहता है। कुछ झुनझुना आदि बजाने से सुनना चाहता है। इसी प्रकार वह ज्ञान संचित करता रहता है। ज्ञान संचित करने का कार्य बच्चे के जन्म लेने से पूर्व से या माँ के गर्भ में रहते समय से ही चलता रहता है। महाभारत में हमलोग पाते हैं कि अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रविष्ट होना जानते थे , किन्तु चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं जानते थे। (मन को लगाने और हटाने, यानि अनासक्ति का रहस्य नहीं जानने के कारण) इसीलिए उनको चक्रव्यूह के भीतर ही मृत्यु स्वीकार करना पड़ा था। युद्ध समाप्त होने के बाद, पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया था कि, आसन्न-प्रसवा सुभद्रा ने अर्जुन से जब चक्रव्यूह भेदन के विषय में प्रश्न किया, तब अर्जुन जमीन पर लकीर खींचते हुए चक्रव्यूह का चित्र बनाये, फिर उसमें प्रविष्ट होने और निकलने (Entry and exit) की पद्धति समझाने लगे थे। सुभद्रा ने चक्रव्यूह में प्रविष्ट करने की पद्धति तक मनोयोग पूर्वक सुना, फिर सुनते -सुनते वे अर्धतंद्रा (half sleep) में चली गयीं, और सो गयीं। किन्तु अर्जुन यह नहीं जान सके कि सुभद्रा कब नींद में चली गयीं, इसलिए उन्होंने अन्त तक चक्रव्यूह भेदन की पद्धति को समझाना जारी रखा। इसी कारण सुभद्रा के गर्भस्थ पुत्र (unborn child) चक्रव्यूह में प्रविष्ट होने पद्धति तक ही सीख सके थे। शिशु वास्तव में माँ के गर्भ में रहते समय से ही सीखना शुरू कर देता है , यह उसीका एक उदाहरण है। और आधुनिक युग में कई शोध -अध्यनों में इसे सत्य स्वीकृत किया गया है।
बालकों की शिक्षा में उनके परिवेश का प्रभाव भी अवश्य पड़ता है। परिवेश दो प्रकार का होता है। जन्मजात परिवेश (Congenital) और अर्जित (acquired) परिवेश। जन्मजात परिवेश का अर्थ वंशानुगत परिवेश (hereditary-राठौर आनुवांशिक) होता है। वंशानुगत परिवेश के साथ बालक के जन्मजात रूप से अर्जित उसके चारों ओर की परिस्थितियाँ, जिसके भीतर परिवार के दूसरे लोगों का आचार -व्यवहार, बात-चीत, क्रिया-कलाप जो परोक्ष रूप से बच्चे के विकास पर प्रभाव डालते हों , उनसब को भी हमलोग वंशानुगत परिवेश की बात समझ सकते हैं। क्योंकि उस परिवेश के भीतर बालक रहना चाहे या नहीं रहना चाहे, वह बच्चे की इच्छा या अनिच्छा पर निर्भर नहीं करता है। और बच्चे के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के प्रति चिंतन-मनन करके, बालक के लिए एक उपयुक्त और अनुकूल परिवेश में बच्चे को रखना, और उसके मित्रों, खेल के साथियों के निर्वाचन में सहायता करने से बालक को जो परिवेश प्राप्त होता है, उसको अर्जित परिवेश कहा जाता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि बालक के सर्वांगीण विकास के लिए किस प्रकार का वातावरण देना सबसे ज्यादा उपयुक्त रहेगा।
प्राचीन भारत में जीवन गठन के लिए जन्मगत से अर्जित परिवेश के प्रभाव को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था। इसीलिए हम देख सकते हैं कि वशिष्ठ, नारद, सत्यकाम जाबाल, व्यासदेव आदि में से प्रत्येक विभिन्न वंश में जन्म लेने से भी, जनसाधारण के द्वारा ऋषिश्रेष्ठ या ब्राह्मण के रूप में स्वीकृत और सम्मानित होते थे। उसी प्रकार अज्ञात पिता , कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और कर्ण आदि को भी वीरश्रेष्ठ एवं महान क्षत्रिय कहके प्रतिष्ठा दी जाती थी। यह तो बहुत बाद के समय में ब्राह्मण के पुत्र को ब्राह्मण या मोची के पुत्र को मोची के रूप में जाना जाने लगा; एवं आनुवांशिक परिवेश (वंश-वाद, भ्रष्टाचार आदि) को सामाजिक रूप से प्रधान मानने को प्रचारित किया गया।
लेकिन जीवन गठन के क्षेत्र में स्वामीजी वैसे अर्जित परिवेश को आनुवंशिक परिवेश की अपेक्षा अधिक महत्व दिए हैं। अपने इस तर्क के पक्ष में, उन्होंने शिकागो धर्म-महासभा के वक्ताओं में से एक नीग्रो युवा वक्ता का उल्लेख किया है। वह युवक अफ्रीका के एक नरभक्षी कबीले के मुखिया का लड़का था; बाल्यावस्था में ही उसे किसी कारणवश अमेरिका चला आना पड़ा था।
पुराणों में वर्णित रानी मदालसा की कहानी में भी बालक -चरित्र पर इसी अर्जित परिवेश के अधिक प्रभावी होने की बात देख सकते हैं। रानी मदालसा अपने पुत्रों को पालने (cradle ) में झुलाते समय लोरी गाती थीं - 'तत्वमसि निरंजनः। ' अर्थात ' मेरे बच्चे तुम क्यों रोते हो ? हमेशा याद रखना तुम वही शुद्ध, बुद्ध , नित्य मुक्त आत्मा हो' तुम्हारा यह पुकारू नाम तो अभी मिला है!" इस प्रकार रानी मदालसा के पालने में उपदेश सुन-सुन कर उनके तीन लड़के बड़े होने पर एक एक कर युवावस्था में ही संन्यासी होकर वन में चले गए। बाद में राजा ऋतुध्वज के बहुत अनुरोध करने पर कि उनके राजपाट को भी देखने वाला कोई होगा या नहीं ? चतुर्थ संतान को उन्होंने अलर्क नाम दिया और दूसरे ढंग से शिक्षादेकर बड़ा किया , और आगे चलकर उसने राज्य को चलाया। वंशानुगत रूप से राजकुमार लोग क्षत्रिय थे, किन्तु अर्जित परिवेश के प्रभाव से ही उनके जीवन का गठन हुआ।
एक बंगाली लोकोक्ति है -'जन्म होक यथा तथा - कर्म होक भालो।' अर्थात जन्म चाहे जहाँ कहीं हुआ हो, हर परिस्थिति में सादकर्म करने में सक्षम मनुष्य बना जा सकता है। [ ' জন্ম হােক যথা তথা' কর্ম হােক ভালাে. ] अर्थात सिद्धान्त यह हुआ कि मनुष्य के जाने के बाद, उसको संसार में उसके गुणों के कारण ही याद किया जाता है, सम्मान दिया जाता है। इसके साथ साथ इस जगत में भी कीर्ति और प्रतिष्ठा पाने के पीछे कारण रूप से सदकर्म की ही भूमिका होती है। अच्छे कर्म, प्यारभरा दिल और मीठी जुबान से ही कोई मनुष्य समाज और देश में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। यहाँ वंशानुगत परिवेश का कोई महत्व नहीं रह जाता है।
कबिरा जब हम पैदा हुए जग हंसा हम रोय।
ऐसी करनी कर चलो हम हंसे जग रोय।।
यदि आप बच्चे को 'लक्ष्योन्मुख जीवन गठन ' (Goal-oriented life building) करने के योग्य और उपयुक्त वातावरण बच्चों के सामने रखेंगे, तो बच्चे का विकास बेहतर तरीके से होगा। महामण्डल का शिशु विभाग बच्चों के समक्ष इसी प्रकार का अर्जित परिवेश प्रस्तुत करना चाहता है , जिससे बालक बचपन से ही मनुष्य जीवन को देवदुर्लभ क्यों कहा है, इसके महत्व को समझ ले। और यह कार्य केवल शिशु-विभाग के नेता /परिचालक /निदेशक ही कर सकते हैं। और इसके लिए परिचालक को स्वयं उपयुक्त मनुष्य [ब्रह्मविद मनुष्य] बनने की चेष्टा करनी होगी। और इसके साथ ही साथ शिशु के मन की विशेषता पर दृष्टि रखते हुए शिशु-विभाग का संचालन भी करना होगा।
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रानी मदालसा की कथा
स्वामी विवेकानन्द जी ने हमेशा परिवेश के निर्माण करने पर ही बल दिया है, तोड़ने पर नहीं। समस्या को तोड़ना या चीर-फाड़ करना ठीक नहीं है। जिस वर्ग के जीवन से जुड़ी हुई समस्या है, उस वर्ग के जीवन को उचित तरीके गढ़ना ही समस्या का स्थायी समाधान है। और स्वामीजी द्वारा प्रदत्त समस्त समस्याओं के समाधान का मूल सूत्र भी यही है।
वे कहते थे - " यदि मेरी कोई संतान होती तो मैं उसे जन्म से ही सुनाता- 'तत्वमसि निरंजनः।' तुमने अवश्य ही पुराणों में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके संतान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रखकर उसको लोरी सुनाते हुए गाती थी- 'तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप, तुम हो सर्व-शक्तिमान, तेरा है अमित प्रताप।' इस कहानी में एक महान सत्य छिपा हुआ है- 'अपने को बचपन से ही महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे!" (५/१३८)
एक मां कैसे अपने ज्ञान से बच्चों को सही दिशा दे सकती है, इतिहास में इसका एकमात्र उदाहरण है- रानी मदालसा। इन्होंने अपने पुत्रों को परम ज्ञान का उपदेश देकर जीवन जीने की दिशा दिखाई थी। (बबुआ तू सब कुछ कर सके ल, मन से कबो हार मत मनिह! ; तूँ जे चाह लेब ऊ जरूर हो जाई ! मन जीता जगजीत)
पुत्र से मां का मोह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन रानी मदालसा ने इस मोह से हटकर अपने चारों पुत्रों को ऎसी शिक्षा दी जिससे उनके कर्म के आधार पर उनकी पहचान हो। वे मानतीं थी कि संसार में नाम की महिमा कुछ नहीं है। व्यक्ति को उसके नाम से नहीं बल्कि उसके कर्मो से पहचाना जाता है। जब राजा ऋतध्वज अपने पुत्रों का नामकरण करते थे तो मदालसा को हंसी आती थी। पहले तीन पुत्रों के जन्म के बाद राजा ने उनका नामकरण किया तो वे हर बार हंसी। अपने तीनों पुत्रों को मदालसा ने यही सिखाया। उन्हें शरीर व भौतिक सुखों से मोह नहीं करने की शिक्षा दी।
उन्होंने बताया कि विद्वान वही है जो सुखों को भी दुख समझकर जीवनयापन करें। उनके तीन पुत्र हुए। बड़े का नाम विक्रांत, दूसरे का नाम सुबाहु और तीसरे का नाम शत्रुमर्दन था। मदालसा ने उन्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी।अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-
शुद्धोsसि रे तात न तेsस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
बचपन से ही वेदान्त सुनकर तीनों पुत्रों को वैराग्य हो गया और वे जंगल में तपस्या करने चले गए। तब मदालसा का चौथा पुत्र हुआ। तब राजा ने मदालसा से कहा कि कम से कम इस पुत्र को तो सांसारिकज्ञान की शिक्षा दो जिससे हमारा राजपाट चल सके।
उसका नाम अलर्क (पगला कुत्ता ) रखा गया। मदालसा की शिक्षा से वह बहुत ही शूरवीर, पराक्रमी राजा हुआ। कुछ समय बाद राजा ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा के साथ अलर्क को राज्य सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गए। हालांकि राजा के कहने पर चौथे पुत्र को धर्म, अर्थ और काम शास्त्रों की भी शिक्षा दी। लेकिन तपस्या के लिए वन में जाते समय उसे भी यही उपदेश दिया कि आत्मा निराकार है। अंतत: मां की दी हुई यही शिक्षा पाकर चौथे पुत्र को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई कि तू शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। इस प्रकार यह रानी मदालसा की ही शिक्षा थी कि जिससे सुबाहु, विक्रांत और शत्रुमर्दन जैसे ब्रह्मज्ञानी और अलर्क जैसे प्रतापी राजा हुए। मदालसा भारत की एक गौरवमयी माँ थीं।
কেউ কেউ ভাবেন, মানুষের প্রতিষ্ঠা ও গৌরব লাভের পেছনে বংশপরিচয় গুরুত্বপূর্ণ। প্রকৃতপক্ষে তা সঠিক নয়। কারণ মানুষ কোন বংশে জন্মগ্রহণ করেছে তা বিবেচনা না করে জীবনে সে কী অবদান রেখে গেছে সেটাই মানুষের মহিমাকে তুলে ধরে। সমাজের নীচু স্তরে জন্ম নিয়েও অনেক মানুষ কর্ম ও অবদানের মাধ্যমে বড় বলে পরিগণিত হয়েছে। মানবসমাজের ইতিহাসে এ রকম অজস্র উদাহরণ আছে। উঁচু বংশ বা নীচু বংশ বড় কথা নয়, মহৎ অবদানেই মানুষ বড় মাপের মানুষ হয়। কাজী নজরুল ইসলাম, বিশ্বকবি রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর, মাইকেল মধুসূদন দত্ত, বিজ্ঞানী জগদীশ চন্দ্র বসুসহ আরও অনেকে তাদের কর্মের অবদানের জন্যে স্মরণীয় ও বরণীয় হয়ে আছেন। এঁরা কেউ জন্মপরিচয় বা বংশগৌরবের কারণে বড় বলে পরিগণিত নন। পদ্মফুলের জন্মস্থান বড় নয়, এর সৌন্দর্য বড়। তেমনি মানুষের কর্মের সাফল্যই বড়, বংশ ও জন্মপরিচয় নয়। কর্মই জীবন। জীবনে কাজ না থাকলে জীবনই ব্যর্থ হয়। মানুষই বিভিন্ন কর্ম দ্বারা দেশ, সমাজ ও জাতির উন্নতি সাধন করে। বংশ বা জন্মপরিচয় দিয়ে দেশের উন্নতি করা যায় না।মানুষের জীবনের ব্রত হচ্ছে কর্ম কর্মের মধ্যে লুকিয়ে থাকে মানবজীবনের সাফল্য ও ব্যর্থতা। মানুষ কর্মের মাধ্যমে চেষ্টা চালায় জীবনে উন্নতি সাধনে, সাথে সাথে দেশ, জাতি ও সমাজের মঙ্গল সাধনে । মানুষের এ মহৎ কর্মগুণই তাকে অমরত্ব দান করে। জন্মপরিচয় বা বংশগৌরব কখনাে মহৎ গুণের মাপকাঠি নয় ।
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5.
बाल मन की विशेषताएँ एवं निर्देशक (C-IN-C) की भूमिका |
[Characteristics of child mind and role of Teacher.
শিশুমনের বৈশিষ্ট্য ও পরিচালকের ভূমিকা ]
बालक का मन अत्यन्त कोमल और संवेदनशील (प्रेम का भूखा) होता है। इसलिए शासन करते समय , या आदेश-निर्देश देते समय यह ध्यान रखना होगा कि जिससे बच्चे के मन पर चोट न पहुँचे।
बच्चे का मन ग्रहणशील (receptive -विचार या छाप ग्रहण करनेवाला) होता है। इसीलिए बालकों के सामने कोई भी बात रखने से पूर्व यह विचार करना आवश्यक है कि वह विषय बच्चों के लिए उपयोगी है या नहीं ; फिर वह चाहे अपना आचार -व्यवहार हो, बातचीत करने का तरीका हो , कोई शिक्षणीय विषय ही क्यों न हो।
बच्चे अत्यन्त अनुकरणप्रिय (imitative) होते हैं। यह बात हमेशा याद रखते हुए परिचालक/नेता या शिक्षक को हमेशा सतर्क रहना चाहिए। [कोई भी बुरी आदत प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए।]
शिशु मन (मूछों वाला बच्चा भी) प्रत्येक कार्य के बाद अपनी गतिविधियों के लिए सराहना के दो शब्द सुनना चाहते हैं, या अपनी पहचान चाहते हैं। बालक के खेलकूद , या किसी कार्य का स्तर जितना भी साधारण क्यों न हो , वे अपने बड़ों से उसकी बड़ाई सुनना चाहते हैं। इसलिए हमेशा याद रखना जरुरी है कि उसकी इस इच्छा को सीधा अस्वीकार नहीं करके, इस इच्छा को ही दूसरी तरफ मोड़ देना चाहिए। यही है कर्म का रहस्य !
शिशु मन में नवीनता के प्रति तीव्र आकर्षण रहता है। खेलकूद, पीटी या पैरेड कराते समय, कुछ दिनों के बाद सबकुछ में परिवर्तन लाते रहने से उसकी एकरसता चली जाती है , और बच्चे के लिए अधिक स्वीकार्य होता है। इसी लिए परिचालक को सिखाये जाने वाले विषयों की एक योजना पहले से बना लेनी चाहिए। महीने -दोमहीने के अन्तराल पर मैदान के दैनन्दिन कार्क्रम को छोड़कर गाँव या शहर के कुछ जगहों पर घुमा लाने से बच्चे नवनीता का स्वाद पाकर खुश हो जाते हैं।
नेतृत्व के प्रति आकर्षण : बच्चों को नेतृत्व करने का अवसर देना आवश्यक है। इसके द्वारा उनके व्यक्तित्व का विकास होता है।
बच्चे प्रेम चाहते हैं। प्रेम सभी को अपना बना लेता है, प्रेम से एकता आती है। सभी आदेश, निर्देश और शासन के साथ निःस्वार्थ निष्पक्ष प्रेम को जोड़ सकने में ही परिचालक की सार्थकता है। प्रेम के लिए गरीब बच्चा, प्रेम मिलने से परिचालक का गुलाम बन जाता है। अभिभावक लोग भी संघ के प्रति आकृष्ट होते हैं।
परिचालक की भूमिका : शिशु विभाग का उद्देश्य तभी सम्पूर्ण रूप से और सफलता पूर्वक कार्यान्वित होगा जब परिचालक शिशु-विभाग के उद्देश्य को सही रूप से अपने प्राणों से समझेंगे और शिशु-मन के इन विशेषताओं पर ध्यान रखते हुए शिशु-विभाग को संचालित करेंगे। इसके लिए चाहिए परिचालकों में धैर्य , पवित्रता, पवित्रता , अध्यवसाय और सर्वोपरि चाहिए - प्यार भरा दिल मीठी जुबाँ। प्रेम परस्पर के बीच एकता लाता है, प्रेम ही संघ की बुनियाद है। स्वामीजी से जब ठाकुर देव के विषय में बोलने को कहा गया तब उन्होंने कहा था, 'ठाकुर को यदि एक शब्द में व्यक्त करना हो, तो कहना पड़ेगा - घनीभूत प्रेम !' ठाकुर के प्रेम की बात याद करने से स्वामीजी भावविव्हल हो जाते थे। वे कहते थे - हम सभी गुरुभाई उनके प्रेम के कशिश -आकर्षण में बन्ध गए थे। यह उनका प्रेम ही था जो हमलोगों का सब कुछ दूर करके उनके पास खींच लाया था। उसी प्रकार स्वामीजी के प्रेम की बात कहते हुए स्वामी सदानन्द जी महाराज आँखों से अश्रु बहाते हुए कहते थे , उनका प्रेम माँ-बाप के प्रेम से बी ही कहीं ज्यादा ऊपर था। पैरों में दर्द के कारण चल नहीं पा रहा था, तब स्वामीजी ने मेरी मोटरी, जूते सबकुछ को अपने सिर पर रखकर पहाड़ी रास्तों पर चलते थे। ठाकुर गले में दर्द के कारण कुछ खा नहीं पा रहे हैं , फिर भी माँ से अपने कष्ट के विषय में कुछ कहते नहीं हैं। किन्तु नरेन् की दुःख-कष्ट की बात जानने के बाद जो उनके पास आता उससे ही नरेन् के लिए कुछ करने के लिए कहते हैं। यहां तक कि माँ काली के सामने खड़े होकर भी नरेन् का कष्ट दूर हो इसके लिए प्रार्थना करते हैं। इसी प्रेम ने श्रीरामकृष्ण मठ और मिशन को स्थायी बना दिया है।
महामण्डल शिशु-विभाग के परिचालक भी यदि प्रत्येक बच्चे को इसीप्रकार प्रेम दे सकें , कोई शिशु दूर नहीं जा सकेगा , परिचालक का दास हो जायेगा। परिचालक ह्रदय में यदि प्रेम हो , तो पद के लिए मोह , हिंसा या ईर्ष्या के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं होगा। सरल भाषा में कहें तो महामण्डल का शिशु विभाग तभी सफल होगा जब परिचालक लोग महामण्डल के भाव को आत्मसात करने की चेष्टा करेंगे। यही सफलता की कुंजी है और समस्त रोगों की रामबाण औषधि है।
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6.
शिशु-विभाग का पाठचक्र
किशोर विकास वाहिनी
[महामंडल का किशोर प्रभाग]
(नियम एवं संचालन पद्धति )
1967 में जब अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का गठन हुआ तो उस समय हमलोगों ने अपने कार्य क्षेत्र को केवल युवा वर्ग के बीच काम करने तक ही सीमित रखने का विचार किया था। लेकिन जैसे-जैसे महामण्डल के केंद्रों की संख्या में वृद्धि होती गयी, हमलोगों ने यह महसूस किया कि, मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता या दिव्यता (ब्रह्मत्व) को प्रस्फुटित करके सम्पूर्ण भारत में स्वामी जी के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा 'Be and Make ' का प्रचार प्रसार करते हुए आगे बढ़ने के लिए हमारे पास पर्याप्त संख्या में युवा नहीं हैं।
क्योंकि युवावस्था यानी 18 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले उनमें से अधिकांश शिशुओं को (बालक-बालिकाओं को) श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी या स्वामी विवेकानन्द, जैसे महान (जीवन्मुक्त) शिक्षक, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, आचार्य / या पैगम्बरों के संपर्क में आने का अवसर नहीं मिलता, फलस्वरूप बाहर से उनके जीवन पर कुछ आक्रमण आता है, जिसके कारण उनके जीवन में (चित्त में) गहराई तक कुछ विपरीत गुण या दुर्गुण प्रविष्ट हो जाती हैं, जिन्हें समझकर दूर करना अनिवार्य हो जाता है। नहीं तो इसके परिणामस्वरूप, तार्किक रूप से इस प्रकार के महान विचारों को- जैंसे 'ईमानदार और चरित्रवान नागरिक ही देश को महान बनाते हैं 'आदि को स्वीकार करने के बावजूद, उम्र बढ़ जाने के बाद इन्हें अपने जीवन में धारण करना अधिकांश लोगों को बहुत कठिन प्रतीत होता है। इसलिए वे महामण्डल से जुड़ने में कठिनाई महसूस करते हैं।
लड़कों के लिए विवेक वाहिनी की "नियमावली एवं संचालन पद्धति " पुस्तिका में कहा गया है कि 14 साल से अधिक उम्र के लड़के यदि चाहें तो महामण्डल के स्थानीय केंद्रों में शामिल हो सकते हैं, और यदि वहां के विवेक-वाहिनी प्रभारी (Vivek-Vahini Incharge) उचित समझें तो उन्हें विवेक वाहिनी संचालक की जिम्मेदारी उन्हें सौंप सकते हैं।
अतएव स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन का ध्रुवतारा मानकर आदर्शोन्मुख जीवन गठन (Ideal-oriented life building) की विचारधारा (Pole Star-"चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार। पर दृढ़ संकल्पी श्री हरिश्चन्द्र के टरै न सत्य विचार।। की विचारधारा" ) को बड़ी संख्या में युवाओं के जीवन में प्रविष्ट करवाने अथवा, शिशु नरेन्द्रनाथ (बिले) के जीवन के साँचे में अपने जीवन को ढालने के लिए बचपन से ही उनके जीवन और शिक्षाओं के सानिध्य में रहना आवश्यक होता है।
अतः 1978 से विभिन्न स्थानों के महामंडल केन्द्रों के कार्य में शिशु-विभाग (विवेक-वाहिनी) को भी सम्मिलित कर लिया गया। महामण्डल के शिशु वर्ग में शामिल होने की आयु सीमा लड़कियों के लिए 12 वर्ष और लड़कों के लिए 14 वर्ष निर्धारित किया गया है। 12 वर्ष से अधिक उम्र की बालिकायें जिन स्थानों पर महामण्डल भावधारा में आधारित 'सारदा नारी संगठन' के केन्द्र स्थापित हैं वहां के साप्ताहिक पाठचक्र आदि में शामिल हो सकती हैं।
यद्यपि 15 वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक के कम आयु के लड़कों के लिए जिन्हें आमतौर पर किशोर कहा जाता है, उनके के लिए पाठचक्र और जीवन-गठन में सहायता देने वाले कार्यक्रमों (Life-shaping accessory programs) के लिए अलग से कोई विशिष्ट दिशा-निर्देश नहीं दी गयी हैं। तथापि , महामण्डल कई केंद्रों में अब किशोरों के लिए भी अलग से पाठचक्र चलाने की व्यवस्था की जा रही है। और ताकि किशोर आयु वर्ग के लिए उपयुक्त विभिन्न कार्यक्रमों को अपनाकर इन्हें हर जगह समान रूप से संचालित किया जा सके और किशोरों पर विशेष जोर और ध्यान दिया जा सके।
अतएव महामण्डल के द्वारा एक अलग 'किशोर प्रभाग' की योजना बनाई गई है। उसी के तर्ज पर प्रत्येक महामण्डल केन्द्र में जैसा कि शिशु विभाग चलाने के लिये कहा जाता है, वैसे ही एक किशोर विभाग स्थापित करना भी आवश्यक है। क्योंकि यह किशोरावस्था [पौगंड या कैशोर / बालकृष्ण भट्ट - गद्य कोश] केवल शारीरिक कारणों से ही यौवन की दहलीज नहीं है -किन्तु यह मानसिक गठन और चरित्र निर्माण के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण समय है।
>>>Hormonal changes during adolescence. कैशोर अवस्था में शरीर में जो हार्मोनल चेंज होता है। उसके विषय में [ ‘चरित्र शोधन’ निबंध में भट्ट जी [श्री बालकृष्ण भट्ट (3 जून 1844 - 20 जुलाई 1914) ने लिखा है –
“चरित्र पालन सभ्यता का प्रधान अंग है। राष्ट्र की सच्ची तरक्की तभी कहलावेगी जब हर एक आदमी उस जाती या कौम के चरित्र संपन्न और भलमनसाहत की कसौटी में कसे हुए अपने को प्रकट कर सकते हों। भले (चरित्रवान) लोगों के चले हुए मार्ग पर चलने ही का नाम कानून, व्यवस्था या मोरालिटी है।” भट्ट जी सच्चे अर्थों में देश भक्त थे। भारतेंदु की तरह उनमें राजभक्ति और देशभक्ति का द्वन्द्व नहीं था। राजभक्ति और भय का अंश उनमें लेशमात्र भी न था। राजभक्ति को वे क्षणिक सुख मानते थे जबकि देशभक्ति उनका परम लक्ष्य था। राजभक्ति और देशभक्ति के बीच अंतर करते हुए उन्होंने कहा कि ‘जिस प्रकार हँसना और गाल फुलाना, बहुरी चबाना और शहनाई बजाना एक साथ संभव नहीं है' - ठीक उसी प्रकार राजभक्ति और देशभक्ति भी एक साथ संभव नहीं है।’ अपने विचार से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अपनी रचनाओं में वे धर्म और अर्थ के नाम पर होने वाले लूट का सदा विरोध करते थे। देश का धन विदेश जा रहा था। देशी विकासमान शिक्षा और कुटीर उद्योग धंधों को बंद किया जा रहा था। विकास के नाम पर देशी संस्कृति को नष्ट कर लाभ केन्द्रित संस्कृति स्थापित की जा रही थी। इन सभी समकालीन स्थितियों का बेबाक चित्रण भट्ट जी के साहित्य में है। इन विषयों पर उनकी लेखन शैली कबीर की तरह तिलमिला देने वाली थी। भट्ट जी के इस तेवर को उनके राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन से संबंध रखने वाले निबंधों में देखा जा सकता है।
किशोरावस्था के जरूरी बदलाव जिन्हें समझना है बहुत जरूरी है। हार्मोन के वजह से इस वक्त शरीर में कई तरह के बदलाव होते हैं। एडोलसेंस में होने वाले इन शारीरिक बदलावों को प्यूबर्टी कहते हैं। लड़के और लड़कियां दोनों ही इस बदलाव से गुज़रते हैं। लड़कियों में यह 12 और लड़कों में 13 साल की उम्र में शुरू हो जाती है। हार्मोन की वजह से बच्चे के शरीर में कई बदलाव हो रहे हैं और इन बदलावों का असर ना सिर्फ उसके शरीर में दिखता है बल्कि उसके व्यवहार में भी दिखता है।
पेरेंट्स के लिए भी ये वक्त बड़ा नाजुक है। इस वक्त बच्चों को समझने के साथ साथ उन्हें समझाना भी अहम हो जाता है । अपने बच्चों को समझाएं कि शरीर में हो रहे यो बदलाव सामान्य हैं और हर कोई इस अवस्था से गुजरता है। अपने एक्सपीरियंस भी उन्हें बताएं और समझाएं कैसे उन्हें इन बदलावों को एक्सेप्ट करना है। उनके दोस्तों को घर बुलाएं, उनसे उनके तरह की बातें जैसे- गेम्स, फोम, लेटेस्ट मूवी आदि पर बातें करें और एक दोस्ताना व्यवहार रखें। कोशिश करें कि बच्चा आपसे कुछ ना छुपाये। वो आपसे कहे या ना कहे, लेकिन आपको यह समझना होगा कि बच्चे को आपके साथ की बहुत ज़रूरत है। इस वक्त आपके बच्चे नए लोगों के संपर्क में आ रहे हैं और इसी स्टेज में उनका ओपोजि़ट सेक्स की तरफ आकर्षण भी बढ़ता है। बच्चे को सही और गलत का ज्ञान देना, उन्हें उनकी सेक्सुअलिटी के बारे में खुलकर समझाना और सभी परिणामों से अवगत कराना बहुत ज़रूरी है।
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परिशिष्ट
Appendix
विवेक वाहिनी के (37) अभिनय गीत तथा (16) जय घोष के तराने
1. बोड़ो होबो , बोड़ो होबो , बोड़ो होबो भाई > बड़े होंगे, बड़े होंगे , बड़े बड़े होंगे भाई
बड़े होंगे, बड़े होंगे , बड़े बड़े होंगे भाई।
बड़ा होने लिए आगे चरित्र ठीक चाई।।
चरित्र ठीक गढ़ना है , तो जायें हम कहाँ ?
विवेक-वाहिनी नाम वाला दल है जहाँ।।
छोटे-छोटे बच्चे सभी , चलें वहीँ भाई।
बड़े होने के लिए पहले चरित्र ठीक चाई।।
इस वाहिनी के पीछे खड़ा , बड़ों का एक दल।
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।।
स्वामीजी को आदर्श माने , नित्य करें कर्म।
वहीं जाकर युवा सीखें , चरित्र माने धर्म।।
जीवन सफल करने हेतु , विकल्प नहीं भाई।
बड़े होने के लिए पहले चरित्र ठीक चाई।।
বড় হবো বড় হবো বড় হবো ভাই ,
বড় হতে গেলে আগে চরিত্র ঠিক চাই।
চরিত্র ঠিক গড়তে হলে কোথায় জাবি বল ,
বিবেক-বাহিনী নাম রয়েছে এক দল।
ছোটরা আজ সবাই মিলে চলো সেথায় যাই ,
বড় হতে গেলে আগে চরিত্র ঠিক চাই।
এই বাহিনীর পিছে আছে বড়দের এক দল ,
অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল।
স্বামীজীর আদর্শে সেথায় নিত্য চলে কাজ ,
যুবকরা সব জড় হলো ভাইতো সেখায় আজ।
জীবন সফল করতে তার বিকল্প নাই ,
বড় হতে গেলে আগে চরিত্র ঠিক চাই।
2. सबार आगे स्वास्थ चाई , सबसे पहले स्वास्थ चाहिए
सबसे पहले स्वास्थ चाहिये ,
आध्यात्मिक शक्ति चाहिए।
उपासना ज्ञान से कर्म' मय जीवन चाई ,
पिता-माता-गुरु आज्ञा पालन करो भाई।
देश के काम में मरें भाई, देश सेवा में लगें भाई।।
अभीः मन्त्र से दीक्षा हमारी , बाधा -बिघ्नों से भय नाई।।
अल्ला गॉड भगवान एकई शक्ति जानी ताई।
स्वामीजी के आर्शीवाद से , मनुष्य हम सब होंगे भाई।।
সবার আগে স্বাস্থ্য চাই ,
আধ্যাত্মিক শক্তি চাই।
উপাসনা জ্ঞানে কর্মময় জীবন চাই।
পিতামাতা গুরুজনদের কথামত চলব ভাই।
দেশের কাজে মরতে চাই।।
দেশের সেবায় লাগতে চাই।।
অভিঃ মন্ত্রে দীক্ষা মোদের।
বাধা বিঘ্নে ভয় নাই।।
নিজের দোষ দেখবো মোরা ,
পরের দোষে নজর নাই।।
আল্লা গড ভগবান
একই শক্তি জানি ভাই।।
স্বামীজীর আশীর্বাদে
মানুষ আমরা হবই ভাই।
3. रविन्द्र संगीत - आमरा सबाई राजा आमादेर एई राजार राजत्वे > (Amra Sobai Raja, আমরা সবাই রাজা) | Rabindranath Tagore/ स्वदेश /दादरा >
हमारे इस राजा के शासनकाल में, हैं हम सभी राजा -
नहीं तो हम सब राजा संग मिलते किस हैसियत (शक्ति) से ?
जो हमें अच्छा लगता- हम वही हैं करते,
फिर भी हम उसकी इच्छा का ही पालन हैं करते !
राजा के आतंक की डर से हम गुलामी नहीं करते,
नहीं तो राजा संग हम सब मिलते किस हैसियत (शक्ति) से ?
राजा सेवा को महत्व देता है, वही मूल्य तुम्हें वापस मिलता है।
हमें कोई (अविद्या माया) भी स्वयं को छोटा(असत्य यानि क्षणभंगुर शरीर) मानने के भ्रम से 'hypnotized' नहीं कर सकती ।
नहीं तो राजा संग हम सब मिलते किस हैसियत (शक्ति) से ?
हम सब चलेंगे अपने -अपने मत से , और अन्त में पहुँचेंगे सभी परम् सत्य में ।
असफलता के दुष्चक्र में (पंचभूत के फन्दे में फंसने से भी) कोई नहीं मरेगा -
नहीं तो राजा संग हम सब मिलेंगे किस हैसियत (शक्ति) से ?
আমরা সবাই রাজা আমাদের এই রাজার রাজত্বে--
নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?।
আমরা যা খুশি তাই করি, তবু তাঁর খুশিতেই চরি,
আমরা নই বাঁধা নই দাসের রাজার ত্রাসের দাসত্বে--
নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?।
রাজা সবারে দেন মান, সে মান আপনি ফিরে পান,
মোদের খাটো ক'রে রাখে নি কেউ কোনো অসত্যে--
নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?
আমরা চলব আপন মতে, শেষে মিলব তাঁরি পথে,
মোরা মরব না কেউ বিফলতার বিষম আবর্তে--
নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?।
4.यदि तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे एकला चलो रे >
यदि तुम्हारी पुकार कोई न सुने, तो अकेले चलो रे ।
अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो। रे
यदि कोई तुमसे बात न करे , अरे,ओ-ओ बदकिस्मत ;
अगर हर कोई ले मुँह फेर, हर कोई करे भय -
तब मुँह खोल , जी भर कर
अपने मन की बात अरे तुम, अकेला बोलो रे।।
यदि सभी साथ छोड़ दें, अरे,ओ-ओ बदकिस्मत ;
यदि गहन मार्ग से जाते समय, कोई मुड़ के न देखे ;
और रस्ते में काँटे गड़े ;
तब तुम उसी रक्तरंजित पैरों से अकेला बढ़ो रे।
यदि अग्नि नहीं पकड़े, तो अरे,ओ-ओ बदकिस्मत ;
और घनी अँधेरी रात में तूफान दरवाजे पर दस्तक दे -
तब बज्राग्नि से पसलियों को जलाओ,
और अपने सीने को ताने , अकेले जलो रे ।
যদি তোর ডাক শুনে কেউ না আসে তবে একলা চলো রে।
একলা চলো, একলা চলো, একলা চলো, একলা চলো রে ॥
যদি কেউ কথা না কয়, ওরে ওরে ও অভাগা,
যদি সবাই থাকে মুখ ফিরায়ে সবাই করে ভয়--
তবে পরান খুলে
ও তুই মুখ ফুটে তোর মনের কথা একলা বলো রে ॥
যদি সবাই ফিরে যায়, ওরে ওরে ও অভাগা,
যদি গহন পথে যাবার কালে কেউ ফিরে না চায়--
তবে পথের কাঁটা
ও তুই রক্তমাখা চরণতলে একলা দলো রে ॥
যদি আলো না ধরে, ওরে ওরে ও অভাগা,
যদি ঝড়-বাদলে আঁধার রাতে দুয়ার দেয় ঘরে--
তবে বজ্রানলে
আপন বুকের পাঁজর জ্বালিয়ে নিয়ে একলা জ্বলো রে ॥
--রবীন্দ্রনাথ
5. शीर्षक: धन्-धान्य पूष्प भरा आमादेर एई वसुन्धरा > /कलाकार: समवेत स्वर /गीतकार: द्विजेंद्रलाल रॉय/ संगीतकार: द्विजेंद्रलाल रॉय
धन-धान्य पुष्प-परिपूर्ण, हमारी यह वसुन्धरा,
उसके भीतर एक देश है ऐसा, जो सभी देशों में सर्वश्रेष्ठ है।
और सपनों से बना वो देश गौरवशाली स्मृतियों से है घिरी हुई।
कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,
समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो है मेरी जन्मभूमि।।
चाँद, सूरज, ग्रह, तारे, इतने चमकीले और कहाँ चमकते हैं?
ऐसी दामिनी और कहाँ दमकती है ,
इतने काले बादल और कहाँ उमड़ते हैं?
चिड़ियों की चहचाहट सुनके उसकी नींद से उठा ! जागा आँखे खोले।
कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,
समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो है मेरी जन्मभूमि।।
ऐसी मीठी नदियाँ कहाँ है, कहाँ है ऐसे काले पहाड़,
ऐसा हरा-भरा मैदान कहाँ , जहाँ आकाश धरती से मिलता है,
दूसरा कोई देश ऐसा कहाँ , जहाँ पवन धान पर ऐसे लहरें खेलता है।
कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,
समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो है मेरी जन्मभूमि।।
ढेरों -ढेर पुष्पों-फूलों से भरी शाखाएँ हों, जहाँ बाग -बगीचे में पक्षी गाते हों,
जिसे देख गुँजन करते भँवरे (अली) आते हों ,
और उन पुष्पों का मधु पीकर उसी पर सो जाते हों -
कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,
समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो है मेरी जन्मभूमि।।
भाई- माँ 'ई से इतना प्यार -? - कोई कहाँ जाके देखे ?
हे भारत माँ ! तुम्हारे दो चरण मेरे हृदय में रहें।
वर दो मुझे , जन्म मेरा जिस देश में हुआ , उसी देश में मरुँ !
कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,
समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो है मेरी जन्मभूमि।।
द्विजेन्द्र गीति
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ধন ধান্য পুষ্প ভরা
-- দ্বিজেন্দ্রলাল রায়
ধনধান্য পুষ্প ভরা আমাদের এই বসুন্ধরা
তাহার মাঝে আছে দেশ এক সকল দেশের সেরা
ও সে স্বপ্ন দিয়ে তৈরি সে দেশ স্মৃতি দিয়ে ঘেরা
এমন দেশটি কোথাও খুঁজে পাবে নাকো তুমি
ও সে সকল দেশের রাণী সে যে আমার জন্মভূমি
সে যে আমার জন্মভূমি, সে যে আমার জন্মভূমি।।
চন্দ্র সূর্য গ্রহতারা, কোথায় উজল এমন ধারা
কোথায় এমন খেলে তড়িৎ এমন কালো মেঘে
তার পাখির ডাকে ঘুমিয়ে উঠি পাখির ডাকে জেগে।।
এত স্নিগ্ধ নদী কাহার, কোথায় এমন ধুম্র পাহাড়
কোথায় এমন হরিত ক্ষেত্র আকাশ তলে মেশে
এমন ধানের উপর ঢেউ খেলে যায় বাতাস কাহার দেশে ।।
পুষ্পে পুষ্পে ভরা শাখি কুঞ্জে কুঞ্জে গাহে পাখি
গুঞ্জরিয়া আসে অলি পুঞ্জে পুঞ্জে ধেয়ে
তারা ফুলের ওপর ঘুমিয়ে পড়ে ফুলের মধু খেয়ে।।
ভায়ের মায়ের এত স্নেহ কোথায় গেলে পাবে কেহ
ওমা তোমার চরণ দুটি বক্ষে আমার ধরি
আমার এই দেশেতে জন্ম যেন এই দেশেতে মরি।।
গীতিকারঃ দ্বিজেন্দ্রলাল রায়
6. विश्वसाथे योगे जेथाय विहारो , सेईखाने योग तोमार साथै आमारओ !
जहाँ कहीं आप विश्व के साथ एकता में हैं, वहीं पर आपके साथ मेरा योग भी है।
नहीं तो वन में, न अरण्य में, और नहीं मेरे अपने मन में ।
तुम जहाँ हो सबके प्रिय , उसी मूर्ति में तुम मेरे भी प्रिय हो।
हर किसी का आलिंगन करने के लिए , तुम अपने बाहु जब फैलाते हो,
उसी के भीतर प्रेम मेरा जागेगा , और मुझे भी उससे प्यार हो जाएगा।
प्यार गुप्त नहीं रहता, घर में हो - तो भी नहीं, रोशनी की तरह फैलता है -
तुम सबके लिए आनन्द की वस्तु हो - हे मेरे प्रिय,
तुम्हारे आनन्द में ही मेरा भी आनन्द है।
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বিশ্বসাথে যোগে যেথায় বিহারো
সেইখানে যোগ তোমার সাথে আমারও॥
নয়কো বনে, নয় বিজনে নয়কো আমার আপন মনে--
সবার যেথায় আপন তুমি, হে প্রিয়, সেথায় আপন আমারও॥
সবার পানে যেথায় বাহু পসারো,
সেইখানেতেই প্রেম জাগিবে আমারও।
গোপনে প্রেম রয় না ঘরে, আলোর মতো ছড়িয়ে পড়ে--
সবার তুমি আনন্দধন,হে প্রিয়, আনন্দ সেই আমারও॥
7. शुभ कर्मपथे धर' निर्भय गान। सब दुर्बल संशय होक अवसान।
शुभ कर्मों के पथ से, गाओ निर्भीक गान।
सब दुर्बल संशय , करो अवसान।
শুভ কর্মপথে ধর' নির্ভয় গান।
সব দুর্বল সংশয় হোক অবসান।
চির- শক্তির নির্ঝর নিত্য ঝরে
লহ' সে অভিষেক ললাট'পরে।
তব জাগ্রত নির্মল নূতন প্রাণ
ত্যাগব্রতে নিক দীক্ষা,
বিঘ্ন হতে নিক শিক্ষা--
নিষ্ঠুর সঙ্কট দিক সম্মান।
দুঃখই হোক তব বিত্ত মহান।
চল' যাত্রী, চল' দিনরাত্রি--
কর' অমৃতলোকপথ অনুসন্ধান।
জড়তাতামস হও উত্তীর্ণ,
ক্লান্তিজাল কর' দীর্ণ বিদীর্ণ--
দিন-অন্তে অপরাজিত চিত্তে
মৃত্যুতরণ তীর্থে কর' স্নান ॥