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>>>अशोक वाटिका में सीता को रावण वध का समाचार और सीता को वापस ले आने का आदेश
युद्ध समाप्ति पर विभीषण का राजतिलक हो चुका है। श्रीराम ने वानर भालुओं को साधुवाद दिया। कहा तुम्हारे ही बल पर रावण जैसे प्रबल शत्रु का वध हुआ, और विभीषण ने लंका का राज्य पाया। वानर-भालू ऐसा वचन सुन कृत -कृत्य हो गए। जनक नन्दिनी का कुशल समाचार ले आने का प्रभु का आदेश पाकर हनुमान एक बार फिर अशोक वाटिका में पहुँचते हैं। उन्हें रावण तथा अन्य राक्षसों के वध का समाचार सुनाते हैं। हनुमान को आशीष कर सीताजी स्वामी के दर्शनों के लिए अपनी आकुलता प्रकट करती हैं। कहती हैं अब कुछ ऐसा उपाय करो कि मुझे प्रभु के दर्शन अविलम्ब प्राप्त हों। वापस लौटकर हनुमान ने श्रीराम लक्ष्मण को जनक नन्दिनी का कुशल समाचार सुनाया। लंकापति विभीषण तथा अंगद को आदेश मिला कि हनुमान के साथ जाकर वे शीघ्र सीता को सदर लिवा लाएं। उधर राक्षसियों ने सीता का अद्भुत श्रृंगार किया। विभीषण द्वारा प्राप्त वस्त्र -आभूषणों से उन्हें सजाया, और सुन्दर पालकी में बिठाया। किन्तु श्रीराम की आज्ञा है कि जनक नन्दिनी पाँव -पैदल चलकर आयें ; ताकि वानर सेना माता को भलीभाँति देख सकें-
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥
भावार्थ:-फिर प्रभु ने हनुमान्जी को बुला लिया। भगवान् ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥
* तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥
भावार्थ:-तब हनुमान्जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए) दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान्जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी को दिखला दिया॥2॥
* दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
भावार्थ:-हनुमान्जी ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥
भावार्थ:-(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने संग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान्जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा गया॥4॥
छंद-
* अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥
भावार्थ:-श्री जानकीजी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत् का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री रामजी को देख रहा हूँ।
दोहा :
सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥
भावार्थ:-(जानकीजी ने कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥
भावार्थ:-हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी के पास जाकर हनुमान्जी ने जानकीजी का कुशल समाचार सुनाया॥1॥
* सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥
भावार्थ:-सूर्य कुलभूषण श्री रामजी ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और कहा-) पवनपुत्र हनुमान् के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥
* तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
भावार्थ:-वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥
* बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥
भावार्थ:-बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं॥4॥
बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥
भावार्थ:-चारों ओर हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े॥5॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥
भावार्थ:-श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥7॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए।सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान् उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥
दोहा :
* तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥
भावार्थ:-इसी कारण करुणा के भंडार श्री रामजी ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥108॥
रावण का वध हो चुका है। उसके कटे सिर और भुजायें मन्दोदरी के सामने धूल में लिपटी पृथ्वी पर पड़ी हैं। वो विलाप कर रही है। श्रीहरि को तुमने मनुष्य मान लिया ? जन्म से ही तो परद्रोही और पाप में रहे। किन्तु श्रीरघुनाथ ने अपने हाथों तुम्हारा वध करके तुम्हें वो गति प्रदान की जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है। ऋषि मुनि तथा देवता प्रभु का रूप निरख सुख और सन्तोष प्राप्त कर रहे हैं। स्त्रियों का विलाप सुनकर विभीषण विचलित हो जाते हैं, तो लक्ष्मण उन्हें धीरज बँधाते हैं। प्रभु का आदेश पाकर विभीषण अपने अग्रज की अन्त्येष्टि करते हैं। क्रियाकर्म के विधिपूर्वक समाप्त हो जाने के बाद , लंका -नरेश के रूप में विभीषण का राजतिलक सम्पन्न होता है -
भावार्थ:-दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात् श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान् को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।
दोहा :
* अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥
भावार्थ:-अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान् ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥
भावार्थ:-मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥1॥
* भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मनु दुख भारी॥2॥
भावार्थ:- वे सभी श्री रघुनाथजी को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषणजी के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु श्री रामजी ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए॥3॥
* कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥4॥
भावार्थ:-प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा-) सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषणजी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की॥4॥
दोहा :
* मंदोदरी आदि सब देह तिलांजलि ताहि।
भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥
भावार्थ:- मंदोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलांजलि देकर मन में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥105॥
चौपाई :
* आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥
भावार्थ:-सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया। श्री रघुनाथजी ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान् और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजी के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ॥1-2॥
भावार्थ:- प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥3॥
भावार्थ:-सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए। तदनन्तर विभीषणजी सहित सब प्रभु के पास आए। तब श्री रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया॥4॥
छंद- :
* किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥
भावार्थ:- भगवान् ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे।
दोहा :
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥106॥
भावार्थ:- प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकड़ते हैं॥106॥
विगत सत्र में 'अनात्मा ' को लेकर विचार करते समय हमने देखा था कि स्थूल शरीर की तरह ही सूक्ष्म शरीर भी नश्वर है। फिर स्थूल शरीर को लेकर विचार करते समय हमने पंचकोष की दृष्टि से ऊपरी अन्नमय कोष है किन्तु उसके भीतर और काफी पीछे आनंदमय कोष पर विचार किया था। हमने देखा था कि हम जितना स्थूल शरीर के साथ अपने तादात्म्य को हटाते जाते हैं -उतना सूक्ष्म स्तर पर पहुँचते है। बाहर जो दिखाई देता है वो स्थूल है। उसके पीछे और उसके भीतर जाते ही हम सूक्ष्म स्तर पर पहुँच जाते हैं। और स्थूल की तुलना में सूक्ष्म ज्यादा व्यापक होता है। जो सूक्ष्म है , वो भीतर भी होता है , व्यापक भी होता है और ज्यादा शक्तिशाली भी होता है। ये एक सरल नियम है। क्योंकि स्थूल शरीर की सारी शक्ति सूक्ष्म से ही आती है , आप इस स्थूल शरीर के जितना भी भीतर और पीछे सूक्ष्म स्तर पर जाओगे आपका व्यक्तित्व उतना ही व्यापक और प्रभावशाली होता जायेगा। स्थूल शरीर का व्यक्तित्व एक सीमा में सीमित है, सूक्ष्म शरीर व्यापक और शक्तिशाली होता है।
फिर हमने देखा की सूक्ष्म शरीर किन 8 चीजों या अंगों से मिल कर बनी है-जिसे 'पुर्यष्टक' आठ अंग का पुर यानि शहर ; कहा जाता है ? सूक्ष्म शरीर के ये आठ अंग कौन-कौन हैं ? 1 -पाँच कर्मेन्द्रिय 2- पाँच ज्ञानेन्द्रिय , 3 -पाँच प्राण, 4 - पांच तन्मात्रयें, 5 - अंतःकरण चतुष्टय, 6 -अविद्या (Ignorance : अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है।) , 7 -काम (All types of desires: काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है। ) , 8 -कर्म (Action:और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है।यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। ) ।
प्रश्न उठता है - तो हम स्थूल शरीर M/F नहीं हैं, लेकिन तब सूक्ष्म शरीर हैं क्या ? नहीं हम यह सूक्ष्म शरीर भी नहीं हैं। लेकिन हमारा स्थूल शरीर पूर्णतः सूक्ष्म शरीर के द्वारा संचालित है। स्थूल सब समय सूक्ष्म से संचालित है। आप कह सकते हो कि सारा Programming सूक्ष्म शरीर में होता है , और स्थूल सिर्फ एक Hardware मात्र है। Software के बिना Hardware कोई कार्य नहीं कर सकता। लेकिन आप Software या 8 अंगों वाला सूक्ष्म शरीर भी नहीं हो। क्योंकि सूक्ष्मशरीर भी बदल रहा है , परिवर्तनशील है। मन निरंतर बदल रहा है , मन के अंदर के विचार बदलते रहते हैं , कभी अच्छे , कभी बुरे विचार चलते रहते हैं। कभी मन खुश है , कभी उदास है। कभी -कभी बिना किसी कारण के मन भयभीत हो जाता है। ये सब परिवर्तन सूक्ष्म-शरीर में ही हो रहा है। स्थूल और सूक्ष्म दोनों पर एक ही चीज लागु होता कि वे -प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव हैं! जो भी हम अनुभव कर रहे हैं -वो हर क्षण बदल रहा है। जैसे जादूगर नयी नयी चीजे निकालता है - मन से भी कई तरह के विचार निकलते मिटते रहते हैं। और 'दृष्ट नष्ट स्वभाव" है। इस प्रकार सूक्ष्म शरीर केवल इन्द्रियों और प्राणों का समूह नहीं है, बल्कि वह समग्र ढांचा है जिसके द्वारा जीव संसार को जानता है, भोग करता है और कर्मों के फल भोगने हेतु नए–नए शरीर धारण करता है। जब साधक आत्मचिंतन द्वारा समझ लेता है कि यह सूक्ष्म शरीर भी नश्वर है - मिथ्या है। और आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सूक्ष्म शरीर का ज्ञान आत्म–विवेक की नींव है और यह स्पष्ट करता है कि जीव का बंधन वास्तव में देह (स्थूल शरीर) और अन्तःकरण (सूक्ष्म शरीर) के साथ तादात्म्य के कारण है, न कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप में।
अब इस सूक्ष्म शरीर (Subtle body) के भी भीतर और पीछे एक और शरीर है , जिसको -Causal Body या कारण शरीर कहते हैं। अब यहाँ से हमलोग एक ऐसे क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं , जिसको समझना , और समझाना बहुत कठिन है। इस कारण शरीर के विषय में कहना , समझाना और समझना भी कठिन है। क्यों कठिन है ? जब हम स्थूल शरीर के बारे में चर्चा करते हैं , तो किसी व्यक्ति के स्थूल शरीर की बात करते हैं। उस नाम -रूप वाले स्थूल शरीर या व्यक्ति के पीछे आठ अंगों का एक सूक्ष्म शरीर है , जिसमें अंतःकरण भी एक अंग है या घटक है। अन्तःकरण में मन , बुद्धि , अहंकार और चित्त है। यह भी किसी खास व्यक्ति के अन्तःकरण की बात है। लकिन जैसे ही हम कारण शरीर में प्रवेश कर जाते हैं -हम सृष्टि के मूल में पहुँच जाते हैं। (8.01)
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो कारण शरीर है, वही इस पूरे सृष्टि का भी कारण है। यह विषय बहुत कठिन अतः ,इसको बहुत ध्यान से सुनने और समझने की चेष्टा करनी होगी। अब हम उस चौखट पर खड़े हैं - अब हम उस दहलीज पर खड़े हैं। जहाँ से सिर्फ एककदम पीछे सत्य मिल जाता है। We are now standing on the threshold . कारण शरीर के विषय में कहना , समझना कठिन है , लेकिन यही इस सृष्टि की सबसे बड़ी सच्चाई है। यह सच्चाई बुद्धि के द्वारा नहीं समझी जा सकती है। क्योंकि बुद्धि तो पीछे छूट गयी , बुद्धि कहाँ है ? सूक्ष्म शरीर में। कारण शरीर सूक्ष्म शरीर के भी पीछे और भीतर है - इसलिए सूक्ष्म शरीर कारण शरीर को कैसे समझेगा? कारण शरीर वह चीज है जो तथाकथित तर्कसंगत और तार्किक स्तर से परे है।Causal body is something which transcends, the so called rational and logical plane . जिसके विषय में हमसब को बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत वैज्ञानिक सोच रखते हैं -तर्कसंगत चीजों पर ही विश्वास करते हैं। जिसको हम बुद्धि का तर्कसंगत क्षेत्र समझते हैं - सत्य वस्तु उसके परे है - सत्य इन्द्रियातीत है ! सत्य को बुद्धि से नहीं समझा जा सकता , इसको बुद्धि के परे जाकर -ह्रदय से अनुभव करना पड़ता है। हम उस क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं जो मानवीय तर्क और बुद्धि से परे है। यहाँ हर चीज आपको -Paradoxical, परस्पर विरोधी मिलेगा। ये कारण शरीर बड़ा विचित्र है।
चलिए देखते हैं , शंकराचार्य जी अनुसार यह कारण शरीर क्या है ? किसी भी अन्वेषण के क्षेत्र में एक 'Critical dimension' महत्वपूर्ण आयाम आता है। जहाँ से सिर्फ एक कदम की दूरी पर हमारा लक्ष्य होता है। जैसे हमलोग अनित्य से नित्य में पहुँचने के लिए सिर्फ एक कदम का फासला है। ये सारा चर्चा शुरू हुआ था - 'नित्य-अनित्य वस्तु विवेक' से , आत्मा और अनात्मा का विवेक करते हुए , हमलोग स्थूल, सूक्ष्म शरीरों को अनात्मा समझ लेने के बाद कारण शरीर पर विचार कर रहे हैं - कि कारण शरीर भी अनात्मा है या नहीं ? तो ये अनात्मा का अंतिम छोर है - इसके बाद हम सीधे आत्मा , सत्य ये ईश्वर में पहुँच जाते हैं। इसलिए बहुत ध्यान से हम समझने का प्रयास करेंगे कि इसकी परिभाषा में शंकराचार्य जी क्या कहते हैं -ये कारण शरीर क्या है ? कहते हैं -
अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति:
अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।
कार्यानुमेया सुधियैव माया,
यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११०॥
सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो,
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गा ह्युभयात्मिका नो,
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥
अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥
(13:39) अभी हमलोग जो पढ़ने जा रहे हैं -उसको कारण शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर के पीछे और भीतर सूक्ष्म शरीर है। और सूक्ष्म शरीर के पीछे और भीतर एक कारणात्मक शरीर है , जो सबका कारण है। जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर व्यक्ति का हो गया। लेकिन उसी व्यक्ति का जो कारण शरीर है , उस कारण शरीर में प्रवेश करते ही आप पूरे सृष्टि के मूल में पहुँच जाते हैं। जैसे कि एक कमरे से आप ऐसी जगह पर पहुँच जाते हो जो पूरे सृष्टि का कारण है। please understand that we are now studying the very seed of this mysterious thing called world .कृपया समझें कि हम अब इस रहस्यमयी चीज़ जिसे दुनिया कहा जाता है, के मूल बीज का अध्ययन कर रहे हैं। यह जो अत्यंत ही विस्मयकारी जगत प्रपंच हमको दिखाई दे रहा है। उसकी जो बीजावस्था है , जो हर व्यक्ति के भीतर है। कोई भी जब ध्यान में इस कारण शरीर तक पहुँचता है , तो सृष्टि के कारण में ही पहुँच जाता है। इसलिए वेदांत में ये सिद्धांत है कि हर व्यक्ति अंदर पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है। जो ब्रह्माण्ड में है वो पिण्ड में हैं। ये सिद्धांत है। सूर्य,चंद्र , पृथ्वी जितने भी गोले बाह्य जगत में दिख रहे हैं उन सबका कारण आप स्वयं हो। वेदांत प्रारम्भ से ही यही कहता है कि जीव को यह पता ही नहीं है कि उसके भीतर क्या है ? स्थूल शरीर के भीतर और पीछे सूक्ष्म शरीर में पहुंचने पर -तब भी वो व्यक्ति ही नजर आएगा। और सूक्ष्म शरीर के भीतर जैसे ही पहुँचता है , वो सीधा सृष्टि के मूल में पहुँच जाता है। उसके अंदर अनंत शक्ति है। सृष्टि की शुरुआत वहीँ से होती है। बड़ी अद्भुत बात है , हमारे अंदर क्या है ? इसकी हमें तनिक भी भनक नहीं है। यह योग (राज योग या अष्टांग योग) हमें वहाँ लेजाती है , और समझाती है कि देखो आपके अंदर क्या है ? तो जो कारणात्मक दशा है , जो बीजावस्था है। जो व्यक्ति की बीजावस्था है वही पूरी सृष्टि की बीजावस्था है। क्या है ? देखते हैं एक एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। हर शब्द को समझना होगा। इस बात को समझने का प्रयास करेंगे कि आपका जो कारण शरीर है वह पूरे सृष्टि का कारण है। हम सबों का कारणशरीर एक ही है। हम सभी दरवाजों से एक जगह पर आकर पहुँचते हैं।
जैसे पहिया होता है , साइकिल के पहिये में सारे स्पोक्स अलग -अलग हैं , लेकिन पहिये की धुरी या नाभि पर मिल जाते हैं। ये कारण शरीर ही वो नाभि है /धूरि है -जहाँ हम सभी लोग जुड़े हुए हैं। बाहर से हमसब अलग अलग लग रहे हैं , दिख रहे हैं , लेकिन हम सब का कारण शरीर एक ही है। समझ रहे हो ? हमलोग एक अद्भुत जगह पर पहुँच रहे हैं , जहाँ से सारी सृष्टि की उत्पत्ति होती है। शुरू होती है। जितना व्यक्ति स्थूल शरीर के भीतर जाता है, सूक्ष्म में जाता है ,वह सृष्टि के उस अवस्था को प्राप्त कर लेगा जहाँ से सबकी उतपत्ति होती है। अनंतशक्ति का वो स्थान है। तो ये कारण शरीर कैसा है ? [अनादी अविद्या परमेश्वर कि त्रिगुणात्मक अव्यक्त शक्ति (Undifferentiated) है। (सर्व निर्माण) कार्य कि वह कारण होनेसे श्रेष्ठ है। बुद्धिमान पुरुष कार्य देखकर उसका अनुमान करते है, ऐसी है यह माया ! जिसके कारण चर-अचर जगत् निर्माण होता है।]
इसको अव्यक्त कहते हैं। कारण शरीर क्या है ? अव्यक्तनाम्नी - इसको अव्यक्त कहते हैं। एक एक शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है ध्यान से सुनिए। स्थूल के पीछे सूक्ष्म , सूक्ष्म के भीतर कारण-शरीर, इसको अव्यक्त कहते हैं। अव्यक्त क्यों ? क्योंकि वो व्यक्त नहीं है। स्थूल शरीर तो हमको दिखाई दे रहा है , सूक्ष्म शरीर को हम अनुभव से जानते हैं, कि मन है। मेरा मन , मेरी बुद्धि , मेरी भावनायें , मेरी सोच -ऐसा हम कहते रहते हैं। लेकिन कारण शरीर अव्यक्त है , वो व्यक्त नहीं है। अभिव्यक्त नहीं है , प्रकट नहीं है। अप्रकट है , अदृश्य है !
अव्यक्त जब व्यक्त होगा वहाँ -जो कुछ अव्यक्त से व्यक्त या प्रकट होगा, वह अनेक होगा-भिन्न भिन्न दिखेगा। Whatever is manifested , it will be differentiated.Whatever is unmanifested , it will be undifferentiated .विभेदित होगा। जो भी अव्यक्त है, वह अभेद -एकत्व होगा। अनेकता की अनुभूति व्यक्त दशा में होती है। बहुत्व की अनुभूति व्यक्त दशा में होती है। The feeling of multiplicity is felt in the expressed state. अव्यक्त में बहुत्व का अभाव है। In a manifested state , everything is differentiated. ये जो विश्व-प्रपंच है दिख रहा है-इसमें बहुत्व या अनेकता दीखता है , इसमें पेंड़ है, पौधे हैं , पर्वत हैं , नदियाँ हैं , आप हैं हम हैं। यहां पर सब कुछ पृथक -पृथक दीखता है। लेकिन अव्यक्त अवस्था में सब -undifferentiated है एक-सा है, वहाँ बहुत्व हमको दिखाई नहीं देता है।
(20:30) एक उदाहरण से देखें पेंड़ व्यक्त कहाँ से हुआ ? बीज में से। तो बीज अव्यक्त है -और बीज जो व्यक्त दशा है , वो पेंड़ है। और पेंड़ बिल्कुल differentiated - है। उसमे तना , शाखा है , फूल है , फल है पत्ते हैं। व्यक्त अवस्था में बहुत्व आ जाता है। बीजावस्था में कोई पेड़ नहीं है। बहुत्व वहाँ व्यक्त अवस्था में है -और पर बीजावस्था में बहुत्व नहीं दीखता है। हमारा कारण शरीर , माने हमारी बीज अवस्था सम्पूर्ण सृष्टि की बीजावस्था है। तो कारण शरीर जो है , वो अव्यक्त है।
अब शंकराचार्यजी एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग कर रहे हैं - परमेशशक्तिः ! कारणशरीर एक शक्ति है। अद्भुत शक्ति की बात कह रहे हैं। लेकिन ये बहुत बड़ी सच्चाई है। ये किसकी शक्ति है ? ये परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। अभी आप ध्यान से सुन लीजिये बाद में धीरे -धीरे यह और भी स्पष्ट होगा। ये जो कारण शरीर है -वह शक्ति है ! यह किसकी शक्ति है?
कारण-शरीर उस सच्चिदानन्द, परब्रह्म , परमात्मा की अपनी ही शक्ति है।और ये शक्ति कैसी है? मैं शक्ति के विषय में बता रहा हूँ। जैसे अग्नि की जो उष्णता है , वह अग्नि से अलग है क्या?
जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से अभिन्न होती है। दाहिका शक्ति के बिना आप अग्नि की कल्पना नहीं कर सकते। (22.32) उसी प्रकार परमात्मा और परमात्मा की अपनी शक्ति है। ये परमेश शक्ति बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। ये जो कारण शरीर है वो शक्ति है। किसकी शक्ति है ? ये परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। अब इसके आगे कहते कि -ये कारण शरीर -अनादि अविद्या है। अविद्या यानि अज्ञान - Ignorance, darkness ! यह ऐसी अविद्या है -जिसकी आदि यानि शुरुआत कभी हुई ही नहीं। इसकी शुरुआत का निर्णय कोई कर ही नहीं सकता। ये कब शुरू हुई ? इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता। लेकिन वह अविद्या या अज्ञान अनादि है -कब शुरू हुई यह हम नहीं कह सकते। इसकी शुरुआत का निर्णय कोई कर ही नहीं सकता। हम कारण शरीर को बुद्धि से समझने की कोशिश कर रहे हैं , किन्तु ये चीजें बुद्धि से परे जा रही है। इस अविद्या के आदि का निर्णय कोई नहीं कर सकता। हमारे logical framework के अंदर वो फिट नहीं होती। तो ये अनादि अविद्या है , इसके आदि का निर्णय कोई कर ही नहीं सकता।
और ये कारण शरीर कैसा है - त्रिगुणात्मिका है। तीन गुणों से बनी हुई है। सत्व , रजस और तमस - इन तीन गुणों से बनी है। और यह कारण शरीर 'परा' है यानि श्रेष्ठ है। किससे श्रेष्ठ है ? कारण शरीर अपने ही कार्य से श्रेष्ठ है। Cause and Effect होता है। और कार्य की तुलना में कारण सब समय श्रेष्ठ होता है। कारण के बिना कार्य नहीं होता। Because effect cannot exist without cause .सरल फिजिक्स है। कारण शरीर को श्रेष्ठ कहा गया है- परा कहा गया है। किसकी तुलना में परा कहा गया है ? अपने ही कार्य की तुलना में वो कारण शरीर श्रेष्ठ है। अच्छा इस कारण शरीर का कार्य क्या है ? यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर इस कारण शरीर के कार्य है- effect है। ये कारण श्रेष्ठ है। किससे श्रेष्ठ है ? कारण शरीर अपने ही कार्य स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से श्रेष्ठ है।
फिर क्या है ? कार्यानुमेया और यह कारण शरीर अनुमेय है , इसका हम अनुमान लगा सकते हैं। कार्य को देखकर हम कारण का अनुमान लगा सकते हैं। यह 'कार्यानुमेया' है पेंड़ को देखकर हम बीज का अनुमान लगा सकते हैं। बीज हमें दिखाई नहीं दे रहा है -पेंड़ दिखाई दे रहा है, लेकिन हम बीज का अनुमान लगा सकते हैं। पेड़ तो कार्य है , इसका कारण बीज है। कार्य को देखकर हम इसके कारण का अनुमान लगा सकते हैं।
कारण शरीर फिर क्या है सुधियैव माया 'सुधिया एव माया'!, हमारे पूर्वज ऋषियों -मनीषियों ने इस कारण शरीर को ही माया कहा है ! (27.16) अब हम वेदांत के एक बहुत बड़े सिद्धान्त को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। इस सृष्टि की सबसे बड़े सिद्धान्त - माया को हम समझने का प्रयास कर रहे हैं। इसीको सुधिया लोग - यानि ऋषिगण माया कहते हैं। सुधिया एव माया यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते। ---यया मतलब जहाँ से इस सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच की प्रसूति होती है। जगत प्रपंच की प्रसूति इस कारणत्मक शरीर से होती है, जिसको ऋषियों ने माया कहा है। अभी केवल इतना परिभाषित किया गया कियह कारण शरीर माया है। और हर व्यक्ति का जो कारण शरीर है , वो पूरी सृष्टि का भी कारण है। इस कारण शरीर से ही -यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते।
प्रश्न बाद में लेंगे। अभी एक एक एक शब्द को फिर से revise कर लिया जाये। ये कारण शरीर कैसा है? - उसको अव्यक्त कहते हैं ! बीज जैसे अव्यक्त होता है , पेड़ दीखता है। तो जैसे पेंड़ दीखता है , लेकिन बीज अव्यक्त होता है , वैसे ही कारण शरीर भी अव्यक्त है। और ये जो हमारा अव्यक्त कारण शरीर है , वह परमात्मा परमेश्वर की अपनी ही शक्ति है। सच्चिदानंद ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है , जिसके लिए एक सुंदर शब्द का व्यवहार हुआ है - परमेश शक्तिः ! यहीं पर- परमेश शक्तिः सुंदर विशेषण में सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का रहस्य उद्घाटित हो जाता है ! तो यह कारण शक्ति अव्यक्त है , और सच्चिदानन्द पर ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। और वह अनादि अविद्या है। वह परमेश शक्ति ऐसी अविद्या है -अज्ञान है - जो सत्य को ढँक दे रही है! ये कारण शरीर एक ऐसी शक्ति है , जो सत्य को ढँक रही है। सत्य है , सत्य हमारे भीतर ही है , लेकिन कोई भी इस सत्य को जान नहीं पा रहा है। क्योंकि कारणात्मक माया शक्ति रूपी यह अविद्या उस सत्य को ढँक देती है। वो अज्ञान है , अविद्या है। और ये अज्ञान , अविद्या कैसी है ? वो अनादि है ! ये कब शुरू हुई इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता। और यह अविद्या -त्रिगुणात्मिका है। ये सत्व, रजस , तमस से बना हुआ है। और यह कारण शरीर , जिसको हम माया कहते है, वह परा है। माने अपने ही कार्य से श्रेष्ठ है। कार्य की तुलना में कारण तो श्रेष्ठ होता ही है। और कार्यानुमेय है -कार्य को देखकर हम कारण का अनुमान लगा सकते हैं। पेंड़ को देखकर आप बीज का अनुमान लगा सकते हैं। मतलब इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को देखकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि इसके मूल में कोई तो एक शक्ति है ! देखिये अब ईश्वर के बारे में हमारी जो धारणा होती है , ईश्वर कहीं न कहीं बादलों में बैठकर इसे संचालित कर रहा होगा ? हम ईश्वर के संबंध में कल्पनायें करते रहते हैं। अब हमलोग एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। इस चाँद -सूरज को देखकर एक बच्चा भी अपनी माँ से पूछेगा - माँ इसको किसने बनाया है ? बचपन ये प्रश्न हम सबने अपनी माताओं से किया है। कोई तो है जो इन चाँद-सितारों की सृष्टि कर रहा है। तो कार्य को देखकर हमलोग ये अनुमान लगा रहे हैं कि यह जो अभिव्यक्त जगत-प्रपंच है इसके मूल में कोई तो है -जो इसकी रचना कर रहा है? कोई कारण है। इसलिए इस कारण शरीर को कार्यानुमेय कहते हैं। कार्य के द्वारा हम कारण का अनुमान लगा रहे हैं। 'सुधियैव माया'इसी कारण शरीर को महापुरुषों ने ऋषियों ने माया कहा है। ये माया कैसी है ? --यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते ! जहाँ इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की प्रसूति होती है। जैसे कोई माता अपने गर्भ से सन्तान का प्रसव करती है। देखो अभी हम उस शक्ति की बात कर रहे हैं -जहाँ से इस सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की प्रसूति होती है। इसी शक्ति को हमलोग जगतमाता, जगत्धात्री, जगदम्बा , दुर्गा-पूजा में दुर्गा की पूजा होती है न ? हमारे देश में इस मातृशक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा होती है। हमारे दैनंदिन जीवन में किसकी पूजा होती है ? (33:04) यह पूरे जगत को धारण करने वाली शक्ति, जगत का प्रसव करने वाली शक्ति , की बात कर रहे हैं - और वही शक्ति, आपके -आपके , और मेरे हम सबों के भीतर है। हमारा कारण शरीर ही विश्व-ब्रह्माण्ड का भी कारण है। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की प्रसूति वहीं से होती है , ऐसा है हमारा कारण शरीर। और इस परमेश शक्ति को ही माया कहते हैं। यह माया परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। माया शब्द हम सबों ने सुना होगा - जगत तो माया है , हम कहते रहते हैं। बोलचाल की भाषा में हम कहते रहते हैं कि जगत तो माया है। लेकिन ये माया क्या है ? किसीको पता है ? बोलचाल की भाषा में हम बोलते रहते हैं -सब माया है। पर माया का मतलब क्या है ? किसी को पता है ? माया का अर्थ हमलोग विभिन्न प्रकार से लगाते रहते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - पूरे इतिहास में माया की सर्वश्रेष्ठ जो परिभाषा है , वह शंकराचार्यजी ने दिया है। ये वही परिभाषा है - परमेश शक्ति। इससे सुंदर परिभाषा माया की और कहीं नहीं है। The best definition of Maya was given once and for all time by this great mahapurush Sri Shankaracharya ji .Amazing definition ! माया की सर्वोत्तम परिभाषा इस महान महापुरुष श्री शंकराचार्य जी ने हमेशा के लिए दी थी। अद्भुत परिभाषा देते हैं! आप देखेंगे ये माया चीज क्या है ? ये जो कारण शरीर है , जिसको हमलोग माया कहते हैं ,
पर यही हमारा कारण-शरीर है -ये किसी को याद नहीं रहता है। क्योंकि यह सत्य को ढँक देती है। इस माया का जो 'status' होगा वही इस जगत का भी status होगा। मैं दुबारा कहता हूँ। एक एक शब्द को ध्यान से सुनिए। कारण शरीर या माया की जो अवस्था होगी , वही इस जगत की अवस्था होगी। (34.57) क्यों ऐसा होगा ? क्योंकि विश्वप्रपंच जो है , वह तो माया का ही कार्य है। माया कारण है , और जगत-ब्रह्माण्ड उसका कार्य है। कारणात्मक माया का जो भी स्थिति या अवस्था होगी , वही जगत की वस्तुस्थिति होगी। क्योंकि यह विश्व ब्रह्माण्ड माया के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह माया का ही तो कार्य है। माया अगर माँ है , तो यह विश्व-ब्रह्माण्ड उसकी प्रसूति है। और हम सब उसी के अंतर्गत हैं। जितने भी मनुष्य नामक जीव है - हम सभी जीव उसी माया की सृष्टि है, माया -जाल हैं। तो माया की जो वस्तुस्थिति होगी वही इस विश्वब्रह्माण्ड की वस्तुस्थिति होगी। क्योंकि कार्य और कारण अलग नहीं हैं। बीज की जो वस्तुस्थिति होगी , वही पेंड़ की भी वस्तुस्थिति होगी। क्योंकि बीज और पेंड़ अलग नहीं हैं। बीज जब अभिव्यक्त हुआ पेंड़ बन गया। या पेंड़ की जो अप्रकट अवस्था है वो बीज है। बीज प्रधान है , बीज के बिना पेंड हो नहीं सकता। तो माया की जो वस्तुस्थिति होगी वही पूरे जगत की वस्तुस्थिति होगी। पूरा विश्व ब्रह्माण्ड बुलबुलों जैसी अवस्था वाला है। माया की जो वस्तुस्थिति होगी वही इस बुलबुलों की होगी। माया की वस्तुस्थिति कैसी है -माया का स्वरूप क्या है? क्या कोई माया का वर्णन कर सकता है? इसको परिभाषित करते हुए शंकराचार्यजी कहते हैं -
सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो,
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गा ह्युभयात्मिका नो,
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥
वह(माया) न सत् है, न असत् है और न ही [ सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है, न अभिन्न है और न [ भिन्नाभिन्न ] उभयरुप है; न अंगसहित है, न अंगरहित है और न [ सांगानंग ] उभयात्मिका है; किन्तु अत्यंत अद्भुत और अनिर्वचनियरूपा [ शब्दों से परे है जिसका वर्णन, जो कही न जा सके ऐसी ] है।
अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥
[अव्यक्तम् एतत् त्रिगुणै: निरुक्तम्/ तत् कारणम् नाम शरीरम् आत्मन:/ सुषुप्ति: एतस्य विभक्त्यवस्था/ प्रलीन सर्व इन्द्रिय बुद्धि वृत्तिः। यह जो तीनों गुणों से संयुक्त बताया गया अव्यक्त हैं, वह कारण शरीर हैं। इस की एक विशेष अवस्था सुषुप्ति हैं, जिसमें सभी इंद्रियों और बुद्धि का अस्तित्व लीन हो जाता हैं।]
विवेकचूडामणि पुस्तक में आदि शंकराचार्य कहते हैं - ये जो कारण शरीर है , ये है; आप ऐसा नहीं कह सकते। उसका मतलब ये नहीं है क्या ? ये नहीं है , आप ऐसा भी नहीं कह सकते। सन्नापि -मतलब ये है , सचमुच ही कारणशरीर है - आप ऐसा नहीं कह सकते। इसका मतलब नहीं है ? नहीं है - आप ऐसा भी नहीं कह सकते। उभ्यात्मिका है ? है भी ,नहीं भी है - आप ऐसा भी नहीं कह सकते हो। ये माया है , ऐसा आप नहीं कह सकते, यह नहीं है -आप ऐसा भी नहीं कह सकते। तो क्या कहें ? अंतिम लाइन को पहले देखें -महा अद्भुत अनिर्वचनीयरूपा। ये महा अद्भुत एक ऐसी अनुभूति है , जो अनिर्वचनीय है। उसको हम यह नहीं कह सकते कि है, यह भी नहीं कह सकते कि नहीं है। लेकिन हम अनुभव कर रहे हैं। सुन लीजिये अभी इसको। बहुत गहन चिंतन करने पर थोड़ा सा समझ आ सकेगा। ये ऋषियों की अनुभूति है - मन से सोची हुई कल्पना नहीं है। ये सम्पूर्ण सृष्टि माया का कार्य है। जगत- प्रपंच रूपी माया अद्भुत है - अनिर्वचनीय है। माने निर्वचनं। आप इसके विषय में कुछ कह ही नहीं सकते हो। यह जो विश्व-ब्रह्माण्ड हमको दिखाई दे रहा है - इसकी वस्तुस्थिति क्या है ? शुरुआत से ही यह प्रश्न है कि क्या है यहाँ पर ? ये जो इन्द्रियगोचर बिश्व ब्रह्माण्ड हमको दिखाई दे रहा है , उसकी वस्तुस्थिति क्या है? यह बहुत बड़ा पश्न है। हम प्रथम दिन से ही कह रहे हैं - कि दो चीजें है। दो चीजें हैं - एक जो सचमुच है , और दूसरा जो होता हुआ सा दिखाई दे रहा है। One thing is that which actually real and other thing is appearing to be real. One thing is actually existing , other thing is appearing to exist . एक चीज वास्तव में विद्यमान है, दूसरी चीज ऐसी अद्भुत चीज है - जो विद्यमान सी प्रतीत होती है। (यथार्थ मनुष्य और व्यावहारिक मनुष्य?) विद्यमान सा जो लग रहा है , ऐसा जो विश्व प्रपंच है - इसीको हम माया सृष्टि कहते हैं। इसके विषय में आप नहीं कह सकते हो कि यह है। तो फिर क्या आप कहोगे कि ये नहीं है ? ऐसा भी आप नहीं कह सकते हो। तो क्या कह सकते हो ? सिर्फ यही कह सकते है ,बड़ा अद्भुत अनिर्वचनीय है। दूसरा मुद्दा है - भिन्नपि -अभिन्नापि ? उभ्यात्मिकानो। ये माया जो है क्या भिन्न है ? किस्से भिन्न होने की बात कर रहे हैं हमलोग ? ब्रह्म से ! क्या यह माया ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न है ? अब देखिये महापुरुषों , ऋषियों की अनुभूति में अंतिम सत्य क्या है?
'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म -न द्वितीयो अस्ति कश्चिद्! ये 'अद्वैत' -यही अंतिम सत्य है। ये जो अद्वैत आश्रम है। सभी ऋषियों की एक ही घोषणा है - ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या। ऋषियों की अनुभूति में वह परमसत्य क्या है ? तो ऋषियों की अनुभूति है कि - वह परम् सत्य एक ही है। तो फिर माया क्या है ? क्या ये माया ब्रह्म से भिन्न कोई द्वितीय वस्तु है ? ऐसा है क्या कि दो चीजें अस्तित्व में हैं ? एक ब्रह्म भी है , और एक माया भी है ? माया ब्रह्म से भिन्न कोई दूसरी वस्तु है क्या ? माया और ब्रह्म अभिन्न हैं -ऐसा भी नहीं कह सकते हो। क्यों नहीं कह सकते हो ? क्योंकि माया एक ऐसी चीज है -जो चली जाती है। माया क्या है ? अज्ञान है -एक पर्दा है जो सत्य को ढँक लेती है। और यह चली भी जाती है। अगर वो ब्रह्म के साथ एक रूप है , तो ब्रह्म को छोड़कर कैसे जा सकती है? तो हम माया के विषय में क्या कह सकते हैं ? महा अद्भुत अनिर्वचनीयरूपा। माया यानि ये जगत जो है -महा अद्भुत है। अनिर्वचनीय है।
माया क्या अंग युक्त है ?-ये नहीं कह सकते। जो अनादि है -जिसकी शुरुआत ही नहीं हुई है -वो अंगयुक्त कैसे होगा ? लेकिन माया का जो कार्य है -वो अंगयुक्त है। जो कार्य में होगा वो कारण में भी होना चाहिए। अगर कोई पूछे कि क्या तुम्हें यह समझ में आया कि माया क्या है? अगर तुमने यह कहा कि मुझे समझ में आ गया , इसका मतलब तुम्हें समझ में नहीं आया। क्योंकि ये बुद्धि से समझने वाली बात ही नहीं है। मानव-तर्क की सीमा के परे है। परन्तु हमें बहुत गर्व है। पर इन्द्रियों के माध्यम से जो दृश्य आपको दीखता है , आप उतने को ही प्रयाप्त ज्ञान समझ लेते हो। लेकिन इन्द्रियातीत सत्य को युक्ति-तर्क की धरातल पर अनुभव नहीं किया जा सकता। परम् सत्य मनुष्य की बुद्धि के परे की स्थिति है। सत्य को जानने के लिए हमें बुद्धि के परे जाना पड़ता है। उसको हमलोगIntuition' अन्तर्ज्ञान कहते हैं , वही योग है। आपको कुछ समझ में आया क्या ? बिल्कुल समझ में नहीं आया ? मतलब आपको कुछ समझ में आया है। क्योंकि आपको इतना तो समझ में आया है कि माया को बुद्धि से समझा सकता। क्योंकि बुद्धि टी सूक्ष्म शरीर में है। जो पीछे छूट गयी है। पाश्चत्य सभ्यता तो अभी तक बुद्धि पर ही अटकी हुई है - मन, बुद्धि से परे का सत्य सिर्फ भारत में ही मिलेगा।
विवेक चूड़ामणि के प्रथम श्लोक में ही शंकराचार्यजी बता देते हैं - तम अगोचरं ! सर्व वेदांत सिद्धांत गोचरं- माने ऋषियों के बताये हुए मार्ग के अनुसार जब हम साधना करते है - तब हम मन वाणी के परे पहुँच जाते हैं ! ये परम् सत्य गोचर कैसे होता है ? ये मन बुद्धि से समझने वाली बात नहीं है , ये अगोचर है। तब इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति होती है। और हमलोग उसी को समझना चाहते हैं , इसीलिए कारणशरीर को समझना कठिन है। लेकिन ये आपके और मेरे भीतर का सत्य है , किन्तु बुद्धि उसको पकड़ नहीं सकती। किन्तु समस्त कार्यों का कारण वही है।
कुछ मुद्दा समझ लीजिये - माया की जो स्थिति होगी वही स्थिति जगत की भी होगी। माया और जगत का क्या सम्बन्ध है ? कारण और कार्य का सम्बन्ध है। माया कारण है , जगत उसका कार्य है। और हम सब भी जगत के अंतर्गत हैं। देखिये अहंकार को समर्पित किये बिना हम कभी सत्य को नहीं समझ सकते हैं। जो भी वस्तुस्थिति इस माया की होगी वही वस्तुस्थिति इस जगत की भी होगी। क्यों ? क्योंकि जगत माया का ही कार्य है। और माया एक अद्भुत सच्चाई है - जिसके विषय में हम न यह कह सकते हैं कि वो है , न ही हम ऐसे कह सकते कि वो नहीं है। (52.07) आपको शायद पता नहीं होगा , इसी कारण शरीर या माया की बात को समझाने के लिए - स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका में माया पर तीन व्याख्यान दिए हैं। शंकराचार्य जी के माया पर दिए दो श्लोकों को समझाने के लिए स्वामीजी ने तीन प्रवचन दिए हैं। ज्ञानयोग में माया पर स्वामीजी के तीन प्रवचन हैं। इस माया को समझाना बहुत कठिन है। इसे समझाया नहीं जा सकता , फिर भी ऋषियों का कार्य ही समझाना है। जैसे शंकराचार्यजी प्रयास कर रहे हैं , वैसे ही स्वामीजी भी बुद्धि के परे की बात को समझाने का प्रयास किये हैं। ये ज्यादा स्पष्ट होगा उदाहरण के माध्यम से।
तो स्वामी विवेकानन्द और शंकराचार्य जी भी अपने सभी भाष्यों में इस उदाहरण का उल्लेख करते हैं। ये ऐसा उदाहरण है , जो स्वामी विवेकानन्द के जीवन में घटित हुई है। स्वामी जी के लिए येFirst hand experience है प्रत्यक्ष अनुभव है। स्वामी विवेकानन्द एक ऋषि हैं , वे आप और हम जैसे साधारण अज्ञानी नहीं हैं , परम् ज्ञानी हैं -जिन्होंने सत्य को देखा है !! माया को समझाने के लिए स्वामी विवेकानंद का प्रसिद्द उदाहरण क्या था ? अपने स्वामीजी की जीवनी पढ़ी है , उनके गुरुदेव थे श्रीरामकृष्ण परमहंस देव, जो कि एक अद्भुत महापुरुष हैं ! 1886 में उनका महा समाधि हुआ , उनके महा समाधि के पश्चात् 1893 में स्वामी विवेकानन्द अमेरिका जाते हैं। उनके महा समाधि के कुछ समय ७ वर्ष पश्चात तब स्वामी विवेकानन्द , विवेकानन्द नहीं हुए हैं। नरेन्द्रनाथ दत्त ही हैं। नरेन्द्रनाथ 1888 से पूरे भारतवर्ष का परिभ्रमण करते हैं। कलकत्ते से निकल कर पहले उत्तर भारत जाते हैं , फिर पश्चमी भारत जाते हैं। फिर दक्षिणी भारत में कन्याकुमारी वाली घटना है। वहाँ विवेकानन्द मेमोरियल रॉक है। उस समय पश्चिमी भारत में आज का जो राजस्थान है , उसको तब 1888 में राजपुताना कहते थे। स्वामीजी ये अपने जवन में घटित इस कहानी को न्यूयार्क के श्रोताओं को सुना रहे हैं; देखो " एक बार मैं पश्चिमी भारत में हिन्द महासागर के तटवर्ती मरुस्थल में भ्रमण कर रहा था। बहुत दिनों तक निरंतर पैदल भ्रमण करता रहा। किन्तु प्रतिदिन मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता था कि चारों और सुन्दर झीलें हैं -जो वृक्षों से घिरी हुई हैं और वृक्षों की जो परछाई जल में पड़ रही है-वह झिलमिल करके कम्पन भी पैदा कर रही हैं । मैं अपने मन में कहने लगा , 'कैसे अद्भुत दृश्य हैं ये ! और लोग इसे रेगिस्तान कहते हैं ! ' एक मास तक वहाँ मैं घूमता रहा और प्रतिदिन मुझे वे सुन्दर दृश्य दिखाई देते रहे। एक दिन मुझे बड़ी प्यास लगी। मैंने सोचा कि चलूँ, वहां सामने दिख रही एक झील पर जाकर प्यास बुझा लूँ। अतएव मैं इन सुंदर निर्मल झीलों में से एक की ओर अग्रसर हुआ। जैसे मैं आगे बढ़ा कि वह सब दृश्य न जाने कहाँ लुप्त हो गया? और तब मेरे मन में एकदम यह ज्ञान हुआ कि 'जीवन भर जिस 'मरु-मरीचिका' की बात पुस्तकों में पढ़ता रहा हूँ , यह तो वही मरीचिका है !'और उसके साथ- साथ यह ज्ञान भी हुआ कि 'पिछले मास भर से प्रतिदिन मैं इसी मरीचिका को देखता रहा था, पर कभी जान न पाया कि यह मिरीचिका है।'
दूसरे दिन मैंने पुनः चलना प्रारम्भ किया। फिर से वही सुंदर दृश्य दिखने लगे , पर अब साथ साथ यह ज्ञान भी रहने लगा कि यह सचमुच की झील नहीं है , यह मरीचिका है। बस , इस जगत के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है। हम प्रतिदिन , प्रतिमास , प्रतिवर्ष इस जगत रूपी मरुस्थल में भ्रमण कर रहे हैं , पर मरीचिका को मरीचिका नहीं समझ पा रहे हैं। एक दिन यह मरीचिका अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी- क्योंकि शरीर को पूर्व जन्म के कर्मों के अधीन रहना पड़ता है, अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी। जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं (प्रारब्ध कर्म भोग कर ही क्षय होता है) , तब तक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। M/F- नर, नारी,पशु , उद्भिद , आसक्ति , कर्तव्य -सब कुछ आएगा, पर वे पहले की भाँति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जायेगा , उसके विष के दाँत टूट जायेंगे ; जगत हमारे लिए एकदम बदल जायगा ; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा वैसे ही उसके साथ उसका स्वरूप और सत्य तथा मरीचिका का भेद ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। "
तब यह जगत पहले का सा जगत नहीं रह जायेगा। किन्तु इसमें एक भय की आशंका है। हम देखते हैं कि प्रत्येक देश में लोग इस वेदान्त मत को अपना कर कहते हैं - " मैं धर्माधर्म से अतीत हूँ , मैं नैतिकता के किसी नियम से नहीं बँधा हूँ, अतः मेरी जो इच्छा होगी , वही करूँगा। " इस देश में आजकल देखोगे , अनेक मूर्ख कहते रहते हैं , " मैं बद्ध नहीं हूँ, मैं स्वयं ईश्वर हूँ; मेरी जो इच्छा होगी , वही करूँगा। " यह ठीक नहीं है , यद्यपि यह बात सच है कि आत्मा भौतिक , मानसिक और नैतिक, सभी प्रकार के नियमों के परे है। नियम के अंदर बंधन है और नियम के बाहर मुक्ति। ....तब कौन सी बात सत्य मानी जाय ? 'हम मुक्त हैं ' क्या यह धारणा ही भ्रमात्मक है ? एक पक्ष कहता है कि 'मैं मुक्त हूँ ' , यह धारणा भ्रमात्मक है , और दूसरा पक्ष कहता है कि 'मैं बद्ध हूँ ' - यह धारणा भ्रमात्मक है। दोनों कैसे सत्य होंगे ? वास्तव में, मनुष्य मुक्त है ; मनुष्य परमार्थतः जो है , (जो वास्तविक मनुष्य है) -वह मुक्त के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में प्रवेश करता है (जैसे कारण शरीर की अवस्था में पहुँचता है ?), ज्यों ही नाम-रूप (M/F-स्थूल शरीर को मैं समझने लगता है ?) के भीतर पड़ जाता है , त्यों ही वह बद्ध हो जाता है। 'स्वाधीन इच्छा' कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती। होगी कैसे ? जो प्रकृत मनुष्य है , वह जब बद्ध हो जाता है -(अर्थात उसके सत्यस्वरूप को कारणशरीर या माया जब ढँक लेती है ?), तभी उसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है , उससे पहले नहीं।मनुष्य की इच्छा बद्ध है , किन्तु जो इसका आधार है (आत्मा या ब्रह्म), वह तो सदा ही मुक्त है।" (वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य -२/३६-३७ )
[Swami Vivekananda says - "What is true then? Is this idea of freedom a delusion? One party holds that the idea of freedom is a delusion; another says that the idea of bondage is a delusion. How does this happen? Man is really free, the real man cannot but be free. It is when he comes into the world of Maya, into name and form, that he becomes bound. Free will is a misnomer. Will can never be free. How can it be? It is only when the real man has become bound that his will comes into existence, and not before. The will of man is bound, but that which is the foundation of that will is eternally free. "(THE REAL AND THE APPARENT MAN : Delivered in New York)]
[लंदन में दिया गया -'माया और मुक्ति' नामक भाषण में स्वामी जी नेनारद का माया दर्शन की कहानी (२/७५) को उद्धृत किया है। स्वामी जी कहते हैं - " अपवित्रता की कोई पुरानी बात मन में उठने मत दो , अपवित्रता की कोई बात मन में न लाओ , बल्कि मन से कहते रहो - मैं तो नित्य, शुद्ध-बुद्ध , पवित्रतास्वरूप आत्मा हूँ ! हम क्षुद्र स्थूल शरीर हैं , हमारा जन्म हुआ है - हम बर्थ डे मनाते हैं। हम मरेंगे , इन्हीं विचारों से हमने अपने आप को एकदम सम्मोहित कर रखा है। इसलिए हम सर्वदा भय से काँपते रहते हैं। सिंह-शावक की कथा के अनुसार तुम सब सिंह हो -तुम आत्मा हो , शुद्ध , अनंत और पूर्ण हो। विश्व की महा शक्ति तुम्हारे भीतर है। (मनुष्य का यथार्थ /सत्य स्वरूप २/१८ एवं २/२३६) अनात्मा या अद्भुत अनिवर्चनीय कार्य-कारण रूपी दीवार द्वारा सीमा बद्ध हैं। क्योंकि शरीर को पूर्व जन्म के कर्मों के अधीन रहना पड़ता है। ऊँच , बनारस के निकट 14, अप्रैल 1992 को घटित विवेकज-ज्ञान होने के बाद पुनः बहुत्व दिखाई देगा, पुराने ब्यॉय क्लास-मेट, गर्ल क्लासमेट , मित्र-शत्रु , अपना -पराया, सब कुछ दिखाई देगा , भेद दिखाई देगा, किन्तु वे पहले के भाँति हम पर प्रभाव नहीं डाल सकेंगे। --लेकिन स्त्री जाति के प्रति मातृबुद्धि रखनी होगी, और भूलकर भी विपरीत लिंगी स्पर्श करने या चिपकने से बचना होगा, नहीं तो सत्य स्वरूप ढँक जायेगा और - परमेश शक्ति माँ जगदम्बा पुनः भेंड़ बना देगी।]
(59.02) जो झील स्वामी विवेकानन्द को मरुभूमि में दिखाई दिया था , उस झील के विषय में आप क्या यह कह सकते हो कि झील सचमुच है ? झील है -ऐसा क्यों नहीं कह सकते ? जब स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान हो गया - तो झील कहाँ गया ? जायेगा कहाँ ? वह तो था ही नहीं। लेकिन ज्ञान होने से पहले आप यह कह सकते हो -कि झील नहीं है ? जब तक स्वामी विवेकानन्द को ये ज्ञान नहीं हुआ कि ये झील रूपी सुंदर दृश्य मरु-मरीचिका है -या Mirage मृगतृष्णा है। तब तक तो वो झील उनको सत्य सा ही प्रतीत हो रहा था। वो एक ऐसी वस्तु की अनुभूति है -जो सच्चाई में वहाँ नहीं है। लेकिन उसकी अनुभूति हो रही है। "Mirage is an experience of something , which is not actually existing ."मृगतृष्णा किसी ऐसे चीज की अनुभूति है, जो वास्तव में मौजूद ही नहीं है।But you can't deny the experience ! तो उस मरू-मरीचिका के विषय में हम यह नहीं कह सकते कि वह है। और यह भी नहीं कह सकते कि वो नहीं है। आप क्या कहोगे ? यही कि वह ऐसी कोई अद्भुत अनिर्वचनीय अनुभूति है , जो न होते हुए भी हमको दिखाई देती है। ये ऐसा अनुभूति है जो न होते हुए भी सब को अनुभव हो रहा है। यह उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण है। अज्ञान में हमको M/F भेद सत्य सा प्रतीत हो रहा है। (नारद जी को 12 साल एक दम सच में बीता था ?) लेकिन ज्ञान होने के बाद भी हमको वह झील दिखाई देगी - लेकिन उस झील के बारे में उस व्यक्ति की जो भ्रान्ति थी वो चली गयी। अब वो समझ गया कि एक झील सामने दिख रहा है, किन्तु वहाँ झील तो क्या एक बूंद भी पानी नहीं है। अगर पानी नहीं है -यदि सामने झील नहीं है , तो वहाँ पर क्या विद्यमान है? ये दूसरा प्रश्न है। वहाँ मात्र रेत या बालू ही है। वहाँ झील न होने के बावजूद वहाँ जो झील की अनुभूति हो रही थी -ये माया क्या काम है। (1:01:41) इस जगत प्रपंच की भी यही वस्तुस्थिति है। इस विश्व-प्रपंच को जिसकी हमें अनुभूति हो रही है , उसको आप नहीं कह सकते हो कि यह नहीं है। या फिर यह भी नहीं कह सकते की वह है। तो अब उसको आप क्या कहोगे ? यही कि वह एक महा अद्भुत अनिर्वचनीय है।
एक दूसरा उदाहरण है -रज्जु-सर्प का। अद्वैत आश्रम के 2 km की पगडण्डी पर सुबह के कम प्रकाश में घूमते समय -पेंड़ की जड़ को देखकर सर्प का भ्रम हो जाता है। घूमते समय भी अगर मन सत्य-स्वरुप से जुड़ा रहे तो - मॉर्निंग वॉक भी ध्यान बन जाता है। तुरंत मुझे लगा कि ये साँप है। सचमुच ये अनुभूति होती है। हम कुछ देख रहे हैं , और उसके प्रति हमारी धारणा तुरंत यह हो जाती है कि यह तो साँप है ! We are studying the human-responses to what we are seeing .हम इस विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में जो कुछ देख रहे हैं, उसके प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं का हम लोग अध्ययन कर रहे हैं। मैंने कुछ देखा और उसके विषय में मेरी यह धारणा पहले से बनी हुई है - उस समय मैं विचार नहीं कर रहा हूँ। कि ये सर्प है या कुछ और है ? ये उदाहरण उस मगरमच्छ के समान ही है। वहाँ पानी पर कुछ तैर रहा है - उस धुंधले प्रकाश में उस व्यक्ति ने कुछ तैरता हुआ देखा। और उसके विषय में उसकी धारणा तुरंत यह हो जाती है कि ये तो लट्ठा है। यद्यपि गलत धारणा है -किन्तु धारणा है न ? इसीको अज्ञान कहते हैं। जो किसी वस्तु के सत्य स्वरूप को ढँक देती है। ये मगरमच्छ को लट्ठा समझ लेना ज्ञान है कि अज्ञान ? आप कुछ जान रहे हो , पर एकदम गलत जान रहे हो ! और जैसे ही सर्पबोध होता है - हमारे अंदर भय मिश्रित प्रतिक्रिया उतपन्न होने लगती है। फिर थोड़ा सा ध्यान देखिये - यही विवेक पूर्वक देखना हो जाता है। विवेक क्या है ? -जगत को ध्यान से देखना ! मित्र-शत्रु , अपना -पराया की दृष्टि से नहीं देखना। अभी हम जगत को ध्यान से नहीं देख रहे हैं। पर जब हम जगत को थोड़ा सा ध्यान से देखते हैं , तो पाते हैं कि सर्प तो है ही नहीं -माँ जगदम्बा शरणागति की भक्ति समझा रही थी ! जो सर्प (Bh) दिखाई दिया , क्या आप कह सकते हैं कि वो है ? क्योंकि जब ज्ञान होता है -तब अज्ञान चला जाता है। ब्रह्ममय जगत - सियाराम मय जगत देखता है ? लेकिन जब तक यह ज्ञान नहीं हुआ - कि हम राग रूपी अदृश्य रस्सी बंधे हुए हैं - तब तक तो हम अपने को स्थूल , सूक्ष्म शरीर मात्र ही सोच रहे थे क्योंकि विपरीत लिंगी आकर्षण को प्रेम समझ रहे थे ? तो वह नहीं है , न है - वह महा अद्भुत अनिवर्चनीय अनुभूति है। प्रेम न होते हुए भी काम को प्रेम समझ लेना। आप उसको ध्यान से देखों , विवेक के प्रकाश में देखो तो मोह चला गया। जब तक विवेक प्रकाश नहीं डालते हो तबतक वो है।
रज्जुसर्प के बाद और एक उदाहरण (1:06:44) ले लीजिये - जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति का उदाहरण। हम सभी लोग सपना देखते हैं। अदिति ने कल रात में कोई तो सपना देखा होगा ? कुछ कुछ सपना बहुत ही स्पष्ट होता है -जो याद रह जाता है। कुछ सपने हम सालों -साल तक भूल नहीं पाते हैं। स्वप्न में हम सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उसी प्रकार देखते हैं जैसा हम अभी जाग्रत में देख रहे हैं। स्वप्न चलते समय क्या किसी को पता होता है कि ये सपना है ? उस समय के लिए वही सत्य होता है। सपने में भी सबकुछ ऐसा ही होता है। पूरा विश्वब्रह्माण्ड रहता है और आप भी होते हो उसमें। पीछे शेर पड़ा है -अभिषेक भाग रहा है ? सपने अच्छे -बुरे सभी प्रकार के हो सकते हैं। आप अपने पुराने क्लासमेट से मिल रहे हैं - बहुत आनंददायक सपने भी हो सकते हैं। जो भी हो , जब तक सपना चलता है , उस समय के लिए वही परम् सत्य प्रतीत होता है। लेकिन क्या आप कह सकते हो कि स्वप्न-सृष्टि वास्तविक रूप में है ? जब हम जग जाते हैं -तो कहाँ चला गया वो पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड ? स्थूल रूप से स्वप्न में भी हम स्पर्श कर रहे थे। जगने पर कहाँ चला गया ? स्वप्न में जो जगत देख रहे थे ,उस जगत के विषय में क्या आप कह सकते हो कि वो जगत है ? क्योंकि जगने पर पूरी सृष्टि गायब हो जाती है। जब तक आप जगे नहीं हो -उस समय वो सत्य है ? जो विश्वब्रह्माण्ड स्वप्न में दिख रहा था , जग जाने के बाद उसको क्या कहोगे ? महाद्भुतं अनिर्वचनीयं ! जगने के बाद स्वप्न सृष्टि को तो हम स्वप्न मान लेते हैं , किन्तु हमको ये समझ में नहीं आता कि यहाँ बैठकर हमलोग जो व्यवहार - पाठचक्र कर रहे हैं ये भी सपना ही चल रहा है ? (1:10:43) We are not understanding that this is another dream which is going on .हम यह नहीं समझ रहे हैं कि यह एक और सपना है जो -खुली आँखों में चल रहा है। ये एक ऐसी अनुभूति है - वास्तविक में नहीं है -लेकिन अनुभूति हो रही है। वही नारद का माया दर्शन ही चल रहा है ? जब तक अज्ञान है - यह जगतव्यावहार सत्य सा प्रतीत होता है , पर जब ज्ञान हो जाता है - तब 'जगत' (भेदभाव का जगत) कहाँ गया ? तब व्यक्ति कुछ और ही देखता है। जब तक आपकी नींद टूटी नहीं है , तबतक स्वप्न सत्य सा लगता है। उसी प्रकार यह जीवन-स्वप्न भी चल रहा है , जिस दिन ये स्वप्न टूटेगा- आप आश्चर्यचकित होकर सोचोगे -हम जिस जगत को -सूर्य, चंद्र , पृथ्वी को एकदम सत्य समझ रहे थे -कहाँ गया ? तो ऋषियों अनुभूति यह है कि हमको जो जगत दिख रहा है - वो माया सृष्टि है। जिसके अंदर हम सभी हैं। और ये माया एक ऐसी शक्ति है जो हमें ऐसी चीजों की अनुभूति करा देती है , जो वास्तव नहीं है। यहाँ पर सच्चाई में कुछ और ही विद्यमान है। क्या विद्यमान है ? ब्रह्म ही यहाँ पर विद्यमान है। जैसे रेगिस्तान में एक बून्द पानी नहीं है - वास्तविकता में रेत ही विद्यमान है। बिल्कुल उसी प्रकार ऋषि लोग कहते हैं - हम जिसको जगत-जगत कहते हैं , ये दीखता है ; लेकिन जैसे दीखता है ये वैसा नहीं है। ये आ रहा है - जा रहा है। हम हर रोज स्वप्न देखते हैं , एक स्वप्न खत्म होता है -दूसरा स्वप्न चलने लगता है। It is play of consciousness which is going on!'यह चेतना का खेल है जो चल रहा है। इसके मूल अधिष्ठान में परब्रह्म बैठे हुए हैं। तो पर ब्रह्म रूपी समुद्र में यह लहर समान स्वप्न-सृष्टि की उतपत्ति हो रही है -और नष्ट हो रही है। समुद्र रूपी सच्चिदानंद ब्रह्म में सम्पूर्ण सृष्टि स्वप्न तुल्य छोटा सा लहर है। लहर उठ रही है , लहर गिर रही है ,बुलबुले बन रहे हैं बुलबुले टूट रहे हैं। स्वप्न सृष्टि भी बुलबुले की तरह टूट गया था कि नहीं ? उस प्रकार गोचर जगत भी भी नींद में कहाँ चला जाता है ? आप रहते हो लेकिन जगत अदृश्य जाता है। रोज हमारे साथ यह हो रहा है , हम सत्य को देख नहीं रहे हैं। नींद में ये पाठचक्र वाला बुलबुला टूट जायेगा , फिर स्वप्न का एक दूसरा बुलबुला प्रकट होगा। स्वप्न का जगत क्या सत्य में है ? आप नहीं कह सकते वो है। स्वप्न में कह सकते हो की वह नहीं है ? नहीं - तो क्या कहोगे ? महा अद्भुत अनिर्वचनीयं माया है। जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति ये तो हर रोज ही हो रहा है। जाग्रत एक बुलबुला है , प्रकट हुआ टूट गया। स्वप्न एक दूसरा बुलबुला है - प्रकट हुआ टूट गया। निद्रा तीसरा बुलबुला है - वह भी प्रकट हुआ टूट गया। ये तीनों बुलबुले कहाँ प्रकट हो रहे हैं कहाँ अदृश्य हो रहे हैं ? ब्रह्म रूपी समुद्र में जो आप हो , आप हो , You are That ! ये तत्वमसि की परिभाषा है। आप वो ब्रह्म सच्चिदानन्द रूपी समुद्र हो जिसमें ये तीन अवस्थाएं जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति,जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, उठ रही हैं गिर रही हैं। एक एक अवस्था -एक एक बुलबुले के एक एक सृष्टि के समान है। You are That Infinite consciousness which is like an ocean, in which these three states , is just like a entire creation . यह जाग्रत अवस्था भी तो स्वप्न के जैसे सच्ची रही है ? तो इसमें जाग्रत सत्य है ? या स्वप्न सत्य है ? तो वेदांत में एक कहानी बताई जाती है। (1:16:11) एक किसान था उस किसान के तीन बच्चे थे। तीन बच्चो में से एक की मृत्यु हो गयी। लेकिन किसान ज्ञानी था। वो किसान हमलोगों जैसे मूर्ख नहीं थे। ज्ञानी किसान के घर में उसके एक जवान सन्तान की मृत्यु हो गयी। कितना गंभीर दुर्घटना है। किसी भी घर में अगर एक जवान बेटा अगर मृत्युग्रस्त होता है , तो उस घर की क्या दशा हो जाती है ? तो उस किसान की अपनी पत्नी रो रही है , चिल्ला रही है। उसका जवान बेटा चला गया है , हाहाकार मचा हुआ है घर में। लेकिन किसान चुपचाप बैठा हुआ है ! तो ये देखकर उसकी पत्नी को और भी गुस्सा आ गया। पत्नी कहती है , तुम कैसे पिता हो ? तुम्हारा जवान बेटा मर गया , लेकिन तुम्हारी आँखों में एक बून्द आँसू नहीं है? बाकि घर वाले भी किसान देखकर और नाराज हो रहे हैं। क्यों वो चुपचाप बैठा है ? किसान कहता है - मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या कहूं ? कल रात स्वप्न में मैंने देखा कि मेरे 7 बेटे थे। सात बेटों में से मेरा तीन बेटा मर गया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा है ,मेरे वो जो तीन बेटे मरे उसके लिए रोऊँ या इस एक बेटे के लिए रोऊँ ? ये एक कहानी है। प्रश्न यह है कि सत्य क्या है ? ये उद्धरण क्यों दिया ? प्रश्न है कि सत्य क्या है ? वो किसान बोल रहा है रात का स्वप्न देखा उसे सत्य क्यों नहीं मानु ? उसमें तीन संतानों की मृत्यु हो गयी। सत्य क्या है ? आज हमारे भीतर जगत को लेकर एक सत्यत्व बुद्धि है। A sense of realism-about what we are seeing ? है इसके यथार्थ होने की भावना है। जिसको हम देख रहे हैं क्या वह परम् सत्य है ? वेदांत हमें इस ओर ले जाता है। जगत हमको जैसा दिखाई दे रहा है ये वैसा नहीं है। हर रोज यही दृष्टिभ्रम हम सबके साथ हो रहा है। जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति ,जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति की अवस्था में हर रोज यही हो रहा है। हमलोग यहीं समाप्त करते हैं। कोई प्रश्न अभी नहीं पूछिए। जो सुने हैं - उसी पर चीनत्म-मनन निदिध्यासन कीजिये। जितने भी उदाहरण दिए हैं - उन सब पर आपको ध्यान करना होगा। हमलोग अपनी खोज के बहुत Critical Dimension तक पहुँच चुके हैं , अगला सोपान सत्य पहुँचना ही बाकि है। इस चर्चा के माध्यम से हमने सत्य स्पर्श कर भी लिया है। अगर आप समझ सकते हों तो ? सत्य क्या है - हम उसके बिल्कुल कगार पर खड़े हैं। आपको सारे उदाहरण को लेकर ध्यान करना होगा। मृग तृष्णा के उदाहरण में झील सचमुच है क्या ? वो है ऐसा नहीं कह सकते , नहीं है ऐसा भी नहीं कह सकते हों। क्या आप कह सकते हो कि वह झील रेत से भिन्न है ?नहीं। तो क्या झील रेत से अभिन्न है ? नहीं , तो आप केवल यही कह सकते हो महा अद्भुत अनिर्वचनीयम। स्वप्न के दृष्टान्त को लेलो , हर रोज हमारे साथ ऐसा हो रहा है। हमने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है। अभी हम जाग्रत जगत में बैठे हैं। पर कुछ ही घंटों के बाद यह खत्म होने वाला है। उस वक्त कुछ और ही सत्य हो जाता है। प्रश्न उठता है कि कौन सा सत्य है ? अभी प्रश्न मत करो , अभी ध्यान करो। इस विषय पर आगे हमलोग और चर्चा करेंगे। हम जो देख रहे हैं - ये क्या है ? इस पर गहन चिंतन करना है। ये वास्तव में है क्या ? विशेष करके स्वप्न के दृष्टान्त पर ध्यान दो । किसी भी स्वप्नानुभूति को आप ले लीजिये। फिर उसका अगला प्रश्न आएगा -स्वप्न है या कुछ और ? इस स्वप्न के बारे हमने कभी सोचा ही नहीं। यह हमें एकदम सत्य सा प्रतीत हो रहा है।
अर्थ:-जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की परा शक्ति है, वही माया है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है। बुद्धिमान् जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के सबसे गहन सिद्धांतों में से एक ‘माया’ का रहस्य प्रकट करता है। यहाँ कहा गया है कि माया को ‘अव्यक्त’ कहा जाता है, अर्थात् जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती, जिसे इन्द्रियाँ नहीं पकड़ सकतीं। यह सदा अप्रकट रहती है, परन्तु इसके प्रभाव और कार्यों से जगत में विविधता और प्रपंच अनुभव होता है। इसे ‘अनाद्यविद्या’ कहा गया है, अर्थात् इसका कोई आरम्भ नहीं है। जबसे जीव और जगत का अनुभव है, तबसे यह अज्ञान भी है। यद्यपि इसका आरम्भ नहीं है, किन्तु यह शाश्वत भी नहीं है, क्योंकि ज्ञान के प्रकाश से इसका नाश हो जाता है। यही इसकी अद्भुत विशेषता है कि यह अनादि होते हुए भी अंत्य है।
माया को ‘परमेश्वर की परा शक्ति’ कहा गया है। ब्रह्म निराकार, अकर्ता और निष्क्रिय है, वह साक्षी मात्र है। परन्तु सृष्टि के विविध प्रपंच और संचालन के लिए उसकी यह शक्ति सक्रिय होती है। जैसे सूर्य केवल प्रकाश देता है, किन्तु उस प्रकाश के कारण ही मरीचिका जैसी भ्रांति दिखती है, वैसे ही ब्रह्म के सान्निध्य से माया जगत का निर्माण करती है। इसीलिए माया को ईश्वर की अधीन शक्ति कहा गया है, जो स्वतंत्र नहीं है, बल्कि ब्रह्म की उपस्थिति से ही कार्य करती है।
माया की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता है—‘त्रिगुणात्मिका’। इसका अर्थ है कि यह सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से बनी है। यही तीन गुण सृष्टि की विविधता का मूल हैं। सत्त्व से प्रकाश, शांति और ज्ञान उत्पन्न होते हैं; रज से गति, चेष्टा, इच्छा और कर्म प्रवृत्ति आती है; और तम से अज्ञान, जड़ता और मोह उत्पन्न होता है। जब ये गुण परस्पर मिलते-जुलते हैं, तभी संसार का यह विविध रूप दिखाई देता है। वास्तव में जीव का अनुभव—सुख-दुःख, राग-द्वेष, ज्ञान-अज्ञान—सब इन्हीं गुणों की कार्यप्रणाली है।
यहाँ श्लोक कहता है कि माया ‘कार्यानुमेया’ है, अर्थात् इसे सीधे नहीं जाना जा सकता। इसे केवल इसके कार्यों से पहचाना जा सकता है। जिस प्रकार धुआँ देखकर आग का अनुमान होता है, उसी प्रकार इस जगत की उत्पत्ति और संचालन देखकर बुद्धिमान व्यक्ति माया का अनुमान करते हैं। संसार की विविधता, परिवर्तनशीलता और अनुभवों का आधार माया ही है। यदि माया न होती तो यह जगत अस्तित्व में न होता, क्योंकि ब्रह्म स्वयं निराकार और अपरिवर्तनशील है, वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन या क्रिया में संलग्न नहीं हो सकता।
माया का स्वरूप बड़ा ही विचित्र और अगम्य है। शास्त्रों में इसे ‘अनिर्वचनीय’ कहा गया है—न यह पूर्णतः सत्य है, न ही असत्य। यदि यह पूर्णतः असत्य होती तो जगत का अनुभव कैसे होता? और यदि यह पूर्णतः सत्य होती तो ज्ञान के उदय से इसका नाश कैसे हो जाता? अतः यह न सत् है, न असत्, बल्कि ‘सदसद्विलक्षणा’ है। यही इसकी शक्ति है कि यह जीव को भ्रमित करके वास्तविक आत्मस्वरूप को ढक देती है और उसे शरीर, मन और इन्द्रियों के साथ अपनी पहचान करवा देती है।
श्लोक का सार यही है कि यह सम्पूर्ण जगत माया की उपाधि से ही उत्पन्न होता है। ब्रह्म के साक्षात् ज्ञान से माया का यह आवरण हट जाता है और तब आत्मा का नित्य, शुद्ध और मुक्त स्वरूप प्रकट होता है। बुद्धिमान जन समझते हैं कि माया के कार्य से ही उसका अनुमान किया जा सकता है, और उसका अंत केवल ब्रह्मज्ञान से ही संभव है। यही विवेकचूड़ामणि का केंद्रीय संदेश है।
अर्थ:- वह न सत् है, न असत् है और न [ सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है, न अभिन्न है और न [ भिन्नाभिन्न] उभयरूप है; न अंगसहित है, न अंगरहित है और न [ सांगानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीय रूपा (जो कही न जा सके ऐसी) है।
यह श्लोक माया के स्वरूप का गहन विवेचन करता है और उसके अनिर्वचनीय चरित्र को प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ स्पष्ट करते हैं कि माया को हम किसी भी सामान्य तर्क या दार्शनिक श्रेणी में नहीं रख सकते। यह एक ऐसी सत्ता है जो न पूरी तरह वास्तविक है, न पूरी तरह अवास्तविक और न ही इन दोनों का कोई मेल। इसी कारण उपनिषदों और अद्वैत वेदांत में इसे "अनिर्वचनीया" कहा गया है। साधारण शब्दों में माया को समझना कठिन है क्योंकि यह हमारी इंद्रियों और बुद्धि के स्तर पर अनुभव होती है, किन्तु जब हम उसे विवेक की दृष्टि से देखते हैं, तो पाते हैं कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
सबसे पहले, शंकराचार्य कहते हैं कि माया न सत् है, न असत् है और न ही सत-असत् दोनों का मेल है। यदि इसे सत् माना जाए तो सत् का अर्थ है – वह जो कभी नष्ट नहीं होता, जो शाश्वत और अविनाशी है। ब्रह्म ही ऐसा तत्व है जो वास्तव में सत् है। माया तो परिवर्तनशील है, उसका कार्य है निरंतर जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय करना। अतः उसे सत् नहीं कहा जा सकता। यदि उसे असत् कहा जाए, तो असत् का अर्थ है – जिसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे आकाश में सींग। किन्तु माया को हम अनुभव करते हैं, जगत की रूपरेखा और विविधता उसके कारण ही दिखती है, इसलिए उसे असत् भी नहीं कह सकते। और यदि कोई कहे कि माया सत्-असत् दोनों है, तो यह भी तर्कसम्मत नहीं होगा, क्योंकि परस्पर विरोधी धर्म एक ही वस्तु में स्थायी रूप से नहीं रह सकते। अतः माया इन तीनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आती।
दूसरा बिंदु यह है कि माया न भिन्न है, न अभिन्न है और न ही भिन्नाभिन्न। यदि माया को ब्रह्म से भिन्न मान लें, तो अद्वैत सिद्धांत टूट जाएगा, क्योंकि तब ब्रह्म के अतिरिक्त एक और सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि इसे अभिन्न मान लें, तो ब्रह्म का स्वरूप ही विकारी और परिवर्तनशील मानना पड़ेगा, जो कि शुद्ध चेतन और निर्विकार ब्रह्म के सिद्धांत के विरुद्ध है। और यदि कहें कि माया भिन्नाभिन्न है, तो यह विरोधाभास उत्पन्न करता है, क्योंकि किसी वस्तु का एक ही समय भिन्न और अभिन्न होना संभव नहीं। इस प्रकार माया इस दृष्टि से भी किसी निश्चित परिभाषा में नहीं आ सकती।
तीसरा पहलू यह है कि माया न सांग है, न अनंग है और न ही सांग-अनंग दोनों का मेल है। सांग का अर्थ है – अंगों सहित। यदि माया सांग है तो उसके निश्चित अंग-प्रत्यंग होने चाहिए, किन्तु उसका कोई ठोस या निश्चित रूप नहीं है। यदि माया को अनंग कहें तो वह ब्रह्म के समान निराकार और निर्गुण हो जाएगी, जबकि उसका कार्य है विविध रूपों में जगत को प्रकट करना। और यदि इसे सांग-अनंग दोनों कहें, तो फिर वही तर्कगत असंगति सामने आती है। इस प्रकार माया को सांग, अनंग या दोनों में से किसी भी रूप में नहीं रखा जा सकता।
इन सभी अस्वीकृतियों के बाद शंकराचार्य यह निष्कर्ष निकालते हैं कि माया का स्वरूप महाद्भुत और अनिर्वचनीय है। यह न तो तर्क से समझी जा सकती है, न ही शब्दों में बाँधी जा सकती है। इसका स्वरूप अद्भुत है क्योंकि यह ब्रह्म से शक्ति प्राप्त कर जगत की रचना करती है और हमें वास्तविक जैसा अनुभव कराती है, जबकि उसका स्वयं का कोई स्वतंत्र सत्य नहीं है। जैसे स्वप्न में देखे गए दृश्य जागने पर मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं, वैसे ही माया से उत्पन्न यह जगत भी ब्रह्म के साक्षात्कार होने पर मिथ्या सिद्ध हो जाता है।
शंकराचार्य का उद्देश्य यहाँ यह नहीं है कि साधक माया के तर्क में उलझ जाए और उसकी श्रेणीबद्ध परिभाषा खोजता रहे। उनका संदेश यह है कि माया के विषय में जितना तर्क किया जाएगा, उतना ही साधक भ्रमित होगा, क्योंकि वह कभी भी पूरी तरह किसी श्रेणी में नहीं आएगी।इसलिए उपनिषद कहते हैं कि यह "अनिर्वचनीया" है—इसे न पूरी तरह कहा जा सकता है, न ही तर्क से पकड़ जा सकता है। इसका सच्चा बोध केवल तब होता है जब साधक अपने भीतर ब्रह्म का अनुभव करता है। उस समय यह जगत, यह माया, सब कुछ स्वप्न के समान प्रतीत होने लगता है।
अतः यह श्लोक माया के बारे में साधक को यह समझाने का प्रयास करता है कि माया के स्वरूप पर अधिक विवाद या तर्क न करे, बल्कि यह स्वीकार करे कि माया एक अनिर्वचनीय शक्ति है, जो ब्रह्म के बिना कोई अस्तित्व नहीं रखती। उसका काम केवल आभासी जगत को प्रस्तुत करना है। जब तक अज्ञान है, तब तक माया वास्तविक प्रतीत होती है। लेकिन ज्ञान प्राप्त होते ही यह समझ में आता है कि न तो माया की कोई स्वतंत्र सत्ता है और न ही इस जगत की। केवल ब्रह्म ही शाश्वत सत्य है। यही विवेक की दृष्टि है जो साधक को बंधन से मुक्त कर आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है।
रावण ने अपनी नाभि में अमृत छिपा रखा था। उसका वध करने के लिए श्रीराम ने कालसर्पों के समान 31 वाण छोड़े। एक वाण ने उसकी नाभि का अमृत सोख लिया , तथा बाकि 30 ने उसके सिर और भुजायें काट डालीं। बिना सिर भुजाओं वाले धड़ को प्रचण्ड वेग से दौड़ते देख , श्रीराम ने एक और वाण से उस रुण्ड के दो टुकड़े कर दिए। जो जाकर मन्दोदरी के सामने आ गिरे।
भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा॥1॥
* धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥
भावार्थ:- धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥2॥
* डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥
भावार्थ:- रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥
* मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई॥4॥
भावार्थ:- रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए॥4॥
* तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥5॥
भावार्थ:-रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो॥5॥
* बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥6॥
भावार्थ:- देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!॥6॥
छंद :
* जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥1॥
भावार्थ:- हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचंद्रजी के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की॥1॥
* सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥
भावार्थ:- सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान् सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥2॥
दोहा :
* कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुंद॥103॥
भावार्थ:- प्रभु श्री रामचंद्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥103॥
भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥
* पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
भावार्थ:- पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥2॥
* तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥
भावार्थ:- (वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥3॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥
भावार्थ:-वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥4॥
* जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥5॥
भावार्थ:-तुम्हारी प्रभुता जगत् भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥5॥
* तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥6॥
भावार्थ:-हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात् उचित ही है)॥6॥
* काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥7॥
भावार्थ:- हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥7॥