इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
बड़ोदरा रामकृष्ण मठ के जो हमारे प्रिय अध्यक्ष महाराज हैं , स्वामी ईष्टमयानन्द जी उनको मैं अपना आभार व्यक्त करता हूँ , कि उन्होंने मुझे यहाँ पर इस आध्यात्मिक शिविर में अपने वक्तव्य रखने के लिए उन्होंने मुझे निमंत्रित किया और मुझे एक अवसर दिया। मैं आज आपके सामने भगवान श्रीरामकृष्ण के जो मुख्य उपदेश हैं, जो मूल सन्देश हैं उसको आपके सामने मैं रखने का प्रयास करूँगा। (1:48)
हमलोग देखते हैं कि जीवन को जीने का तरीका , जीवन के प्रति हमारी जो दृष्टिकोण है वह दो प्रकार की हो सकती है। और ये जो दो प्रकार का दृष्टिकोण है, यह हमें स्वामी विवेकानन्द और राबर्ट इंगरसोल, इन दोनों के संवाद में देखने को मिलता है। एक घटना है , उसको पहले मैं आपके सामने रखता हूँ। स्वामी विवेकानन्द हम जानते हैं की 1893 में अमेरिका चले गए थे, और वहाँ पर जो विश्व-महाधर्म सभा जो हुई थी, शिकागो वक्तृता जो वहाँ पर उनका हुआ था। जिसको हमलोग युग-आरम्भिक वक्तृता मानते हैं !(2:33)
उस वक्तृता के बाद कई बार स्वामी विवेकानन्द का रॉबर्ट इंगरसोल के साथ मुलाकात हुआ। अब देखिये विवेकानन्द और रॉबर्ट इंगरसोल दोनों को अगर हम वैचारिक दृष्टि से देखें , या दर्शनशास्त्र के दृष्टिकोण से देखें, तो ये दोनों व्यक्ति बिल्कुल विपरीत छोरों पर खड़े हुए हम पाते हैं। क्योंकि रॉबर्ट इंगरसोल अमेरिका के तथाकथित वक्ताओं में से सबसे प्रसिद्द वक्ताओं में से एक वक्ता थे और वे अज्ञेयवादी थे। और इस दर्शन शास्त्र के अनुसार उनका मूल विचार ये है कि- यह जो इन्द्रियों से दिखने वाला जो जगत है, इसके अतीत कोई 'सत्ता' है या नहीं, कोई परम सत्य वस्तु है या नहीं ? इसको कोई भी नहीं जान सकता। हम नहीं जान सकते की वो सत्य क्या है? यही इस अज्ञेय वाद का मूल सोच (सिद्धात) है। वे इस इन्द्रियों से दिखने वाले जगत को ही परम् सत्य वस्तु मान करके चलते हैं।(3:52)
और इसके ठीक विपरीत हम स्वामी विवेकानन्द के विचारों को पाते हैं, जो हमारे हिन्दू वैदिक सनातन धर्म के मूर्त स्वरूप हैं, थे। और हमारे हिन्दू सनातन वैदिक धर्म का मूल विचार यह है कि यह जो इन्द्रियों से दिखने वाला जगत है, इसके अतीत और इसका आधारभूत एक चेतन सत्ता है, जो कि इस जगत में ओत-प्रोत व्याप्त है। और वही इस जगत को सत्ता प्रदान करती है। उस चेतन सत्ता या चैतन्य को हम भगवान भी कहते हैं , ईश्वर, परमेश्वर , परब्रह्म, आत्मा इन सारे शब्दों से हम उसको सम्बोधित करते हैं। और जो हम सभी का, प्रत्येक मनुष्य का और प्रत्येक जीव का भी स्वरुप है। (4:47)
तो स्वामी विवेकानद इस सनातन हिन्दू वैदिक विचारधारा के मूर्तमान स्वरुप थे। और रॉबर्ट इंगरसोल इस सनातन दर्शन के बिल्कुल बिपरीत इस इन्द्रिय जगत को ही सर्वस्व मानने वाले, एक दार्शनिक थे। तो इन दोनों में अक्सर ऐसे विचारों का, आदान-प्रदान हुआ करता था। शिकागो वक्तृता के बाद कई बार यह दो व्यक्ति एक दूसरे से मिले। और उनका वार्तालाप होता था। तो एक प्रसंग में हम देखते हैं रॉबर्ट इंगरसोल और स्वामी विवेकानन्द आपस में चर्चा कर रहे थे तो वहाँ रॉबर्ट इंगरसोल अपने वक्तव्य को रखते हैं, और कहते हैं कि - " मैं इस संसार का अत्यधिक उपभोग करना चाहता हूँ। कैसे उपभोग करूँगा ? जिस प्रकार से हम एक सन्तरे को निचोड़ करके , उसका पूरा रस निकालते हैं। बिल्कुल उसी प्रकार यह जो विश्व है, यह जो जगत है, यह जो संसार हम देख रहे हैं, उसका पूरी तरह से उपभोग करके उसके पूरे रस को मुझे निचोड़ लेना है। क्यों ? क्योंकि इन्द्रियों से दिखने वाला ये जो जगत है, यही सर्वस्व है। इसके अतीत कुछ है या नहीं, यह कोई भी नहीं जानता। तो इन्द्रियों से दिखने वाला ये जो जगत है , इसका अत्यधिक उपभोग करना - यही मेरे जीवन का परम लक्ष्य है। (6:31)
तो इसके उत्तर में सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, कि " मैं इस जगत का उपभोग करने का या इस जगत को निचोड़ने का, निचोड़ कर के इसमें से रस निकालने का और एक दूसरी प्रक्रिया जानता हूँ। और उस प्रक्रिया के द्वारा मैं इस जगत में से और भी अधिक रस मैं निचोड़ सकता हूँ। और वह प्रक्रिया है, प्रथमतः स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मैं जानता हूँ !"शब्द बहुत ही महत्व पूर्ण है -स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि-" मैं जानता हूँ " यह ज्ञान का विषय है ! विवेकानन्द कहते हैं कि " मैं जानता हूँ, कि मैं अमर हूँ !" कि मेरी मृत्यु नहीं है।और जब मैं जानता हूँ कि मेरी मृत्यु नहीं है, मृत्यु मझे ग्रास नहीं कर सकती। तो मुझमें कोई हड़बड़ी नहीं है, कोई जल्द-बाजी नहीं है। मैं आराम से मैं इस संसार का उपभोग कर सकता हूँ। बिल्कुल निश्चिन्त होकर के संसार का उपभोग कर सकता हूँ। (7:45)
दूसरी बात- 'मेरे अन्दर भय नहीं है, मैं भयमुक्त हूँ !' जब मृत्यु ही नहीं है, तो भय किसका?
सारा संसार तो मृत्युग्रस्त है, इसीलिए भयग्रस्त भी है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, कि मेरी मृत्यु नहीं है, इसलिए मेरे अंदर मृत्यु का भय भी नहीं है। और मृत्यु का भय न होने के कारण मैं आराम से इस संसार का उपभोग कर सकता हूँ। मैं निश्चिन्त होकर के। (8:19)
तीसरी बात स्वामी जी कहते हैं - कि मेरे सर के ऊपर पत्नी, सन्तान, सम्पत्ति इन सब चीजों का बोझ भी मेरे ऊपर नहीं है। मेरे ऊपर कर्तव्य का कोई भार नहीं है। और जब मेरे ऊपर इस प्रकार स्त्री, संतान और सम्पत्ति इन सब चीजों का जब मेरे ऊपर भार नहीं है। तो मैं सभी मनुष्यो को, प्रत्येक जीव को , प्रत्येक प्राणी को समभाव से 'प्रेम' कर सकता हूँ ! उनके अंदर भगवान , ईश्वर को, ('आत्मा' को) देखकर के मैं सबके प्रति समभाव से प्रेम का भाव रख सकता हूँ।"जरा सोच कर देखिये प्रत्येक जीव के अंदर प्रभु परमेश्वर को देखकर, उनसे समभाव से प्रेम करने में सक्षम हो पाना कितना आनंद-दायक हो सकता है ?जरा सोच करके देखिये।तो स्वामी जी कहते हैं ," तुम इस प्रकार से संसार को निचोड़ कर देखो, तुम जिस प्रकार से संसार को निचोड़ना चाहते हो उससे भी एक हजार गुना ज्यादा रस इस प्रकार संसार को निचोड़ने से तुम निकाल पाओगे। " (9:34)
तो इस संवाद में हम देखते हैं, दो प्रकार की बिल्कुल परस्पर विरोधी विचार धारायें हैं। रॉबर्ट इंगरसोल की जो विचारधारा है, जो कि संसार के सर्व साधारण मनुष्यों की विचारधारा भी बिल्कुल वही होती है। कि यह जो इन्द्रियों से दिखने वाला जगत है , बस यही सर्वस्व है। इतना ही सब कुछ है। तो हमें क्या करना है ? यहाँ पर अपनी इन्द्रियों के द्वारा या इन्द्रियों से दिखने वाली जो भी इष्ट वस्तुयें हैं, विषय हैं उसका सेवन करना, उसका उपभोग करके आनंद प्राप्त करने का प्रयास करते रहना। संसार के सर्वसाधारण मनुष्य की यही विचार धारा होती है। (10:25)
लेकिन इसमें एक त्रुटि है। इस प्रकार जब हम इस संसार में अपनी इन्द्रियों के द्वारा, अपने-आप को विषय-भोगों मेंडुबो देते हैं, तो उसकी अंतिम गति क्या होती है ? उसकी अंतिम गति यही होती है कि, 'जरा -व्याधि -मृत्यु -दुःख-हताशा -अपूर्णता और अतृप्ति का भाव !' और ऐसा होना अनिवार्य है। जो कोई भी व्यक्ति इस संसार रूपी सागर में अपने शरीर, मन और इन्द्रियों को डुबो देगा , तो वो सीधा मृत्यु के मुख में ही प्रवेश कर रहा है। कठोपनिषद का एक बहुत सुन्दर मंत्र है -
"पराचः कामान अनुयन्ति बालाः ते मृत्योः यान्ति वित तस्य पाशम्।"
जो अज्ञ पुरुष हैं (जिनका विवेक ढँका हुआ है) वे बाहर के विषयों के पीछे दौड़ते रहते हैं, और जब तक वे विषय-भोगों के पीछे दौड़ते रहते हैं, तो सीधे मृत्यु के मुख में प्रवेश करते हैं। ये सच्चाई है। तो इस प्रकार हम देखते हैं कि जो रॉबर्ट इंगरसोल की जो विचारधारा है, उसकी अंतिम परिणति, उसकी जो अंतिम गति है - उसका जो गंतव्य स्थान है, सिर्फ दुःख, हताशा, अपूर्णता, और अतृप्ति ही हो सकती है। (12:00)
और इसके ठीक विपरीत, स्वामी विवेकानन्द ने इंगरसोल से जिस प्रक्रिया का उल्लेख किया, वह है हमारी आध्यात्म की प्रक्रिया। उस प्रक्रिया के अनुसार स्वामी जी कहते हैं, कि 'पहले जानो' ! ये 'ज्ञान' का विषय है। क्या जानना है ?यह जानना है कि हम मृत्यु के परे हैं! हम सब। हम सभी मनुष्य मृत्यु के परे हैं। हमारा जो स्वरुप है, वह कभी नहीं मरता। मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है, हमारी जो आत्मा है, जो हमारा स्वरुप है-वह शरीर-इन्द्रिय और मन से परे है। इस जड़ देह और मन के भीतर और पीछे उसकी जो आधारभूत सत्ता है, वह चेतन सत्ता है, वह कभी नहीं मरती। इस बात को पहले जानना है, ज्ञान के द्वारा, अनुभूति के द्वारा- इसको पहचानना है।जब हम यह जान जायेंगे कि 'हम अमर हैं'! तब, पहले 'वह जानकर के', उस ज्ञान (आत्म -ज्ञान) को प्राप्त करके - फिर हम इस संसार के साथ सम्बन्ध बना सकते हैं। (12 :56)
और फिर, निर्लिप्त होकर के, मुक्त होकर के,बंधन-मुक्त होकर केकहने के लिए हम कह सकते हैं कि इस संसार का हम ठीक-ठीक आस्वादन ले सकते हैं। तो इस प्रकार पहले अपने स्वरुप को पहले पहचान करके, निर्लिप्त होकर के, मुक्त होकर के,बंधन-मुक्त होकर के, इस संसार का परिपूर्ण आनन्द लेना है।तो यह स्वामी विवेकानन्द की बताई हुई प्रक्रिया (शिक्षा) है, कि पहले निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान के द्वाराहमारे हृदय में बैठे हुए भगवान को जानना है। (आत्मा या ठाकुरदेव -जन्माद्यस्य यतः को जानना है।) पहले अपने आत्मस्वरूप को जान करके, फिर संसार के साथ निर्लिप्त होकर व्यवहार करना है। (13:57)
इसी बात को श्रीरामकृष्ण, भगवान श्रीरामकृष्ण एक सुंदर कहानी के माध्यम से हमारे सामने रखते हैं। बहुत ही सुन्दर ये कहानी है , जिसको हमलोग वचनामृत में पढ़ते हैं। वहाँ पर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, इसी विषय को हमारे सामने रखते हुए श्री रामकृष्ण कहते हैं, कि एक व्यक्ति था जो कि एक बार वह अपने गाँव से शहर की ओर चल पड़ा। उसको शहर में कुछ काम था। और शहर काफी दूर था तो अपने ग्राम से अपने गाँव से, अपना सामान लेकर के वो शहर की ओर चल पड़ा। क्योंकि उस शहर में उसको कई दिनों तक रुकने की बात थी, इसलिए उसके पास काफी सामान था , जिसे उसने सर के ऊपर उठा रखा था। तो बोझा लेकर के वो शहर की ओर चल पड़ा। काफी दिनों के सफर के बाद वो शहर पहूँचा। शहर पहुँच कर के, शहर का जो चकाचौंध , झकमक करने वाला जो दृश्य था, उस दृश्य को देखकर के वो मोहित होने लगा। (15:06)
लेकिन, उसके अंदर एक विचार आया ; कि पहले मैं अपना डेरा का व्यवस्था कर लूँ। पहले मैं अपना निवास स्थान खोज लूँ। पहले एक कमरे की व्यवस्था कर लूँ , जहाँ पर अपने सामान को मैं रख पाऊँ। और अपने आप को भी थोड़ा हाथ-पैर-मुँह धोकर के थोड़ा सा तजा होकर के फिर मैं इस शहर को देखने के लिए बाहर जाऊँगा। तो पहले ऐसे एक निवास स्थान को खोज लूँ। तो इस विचार से (उचित-अनुचित) यह व्यक्ति पहले यहाँ-वहाँ खोज करके, काफी प्रयास करके उसको एक डेरा मिल जाता है। एक निवास स्थान मिल जाता है; उस निवास स्थान में वह अपना सामान रख देता है। और तरोताजा होकर के , फिर दुबारा उस निवास स्थान से बाहर निकलता है, इस शहर के अच्छी- अच्छी चीजों को देखने के लिए। बिल्कुल मुक्त होकर के, उसके हाथ में जो सामान था , वो सब कुछ वह अपने निवास स्थान में रख चुका था। और अब बिल्कुल मुक्त होकर के, निश्चिन्त होकर के , निर्लिप्त होकर के उस शहर में वो घूमने लगा- शहर के अच्छे-अच्छे दृश्यों को देखने के लिए। (16:27)
तो इस प्रकार से जब वो शहर में घूम रहा था तब उसी समय उसका एक मित्र वहां पर मिला। वह मित्र भी अपने गाँव से वहाँ पर पहुँचा था, जिसके हाथ में काफी सामान था। और वह भी उसी दिन वहाँ पर आया था। लेकिन वो मित्र शहर के इन दृश्यों को देख रहा था ; सर के ऊपर सामान को ढोते हुए। काफी कष्ट में, काफी मुसीबत में वह एक निवास स्थान को पाये बगैर , इस सामान को अपने सर पर लिए हुए। उस शहर के विभिन्न दृश्यों को देखने में लगा हुआ था। तो उस वक्त ये जो पहला व्यक्ति है, वह इस मित्र से कहता है- 'अरे भाई ! पहले अपने डेरा का व्यक्स्था कर लो। पहले अपने निवास स्थान को खोज लो। सामान को वहाँ रख दो। और फिर ताजा होकर के इस शहर को देखने के लिए बाहर निकलो। ये सामान का जो बोझ अपने सर पर लेकर के जो तुम यहाँ वहाँ घूम रहे हो , कैसे तुम इस शहर का उपभोग कर पाओगे? तो पहले अपने निवास स्थान को खोज लो।' तो ये कहानी है। (17:45)
तो इस कहानी का मर्म क्या है ? इस कहानी के माध्यम से श्रीरामकृष्ण हम सभी को यह सन्देश देते हैं कि - देखिये, यह जो संसार है यह बिल्कुल उसी शहर के समान है। और यह जो शहर है। यह जो संसार है , यह जो विश्व है, यह हमारा स्थाई निवास स्थान नहीं है। हम यहाँ सिर्फ एक पर्यटक के समान हैं। थोड़ी देर के लिए हम यहाँ पर आये हैं। सिर्फ भ्रमण करने के लिए , यह हमारा स्थाई निवास स्थान नहीं है। हमारा जो स्थाई निवास स्थान है - वो बिल्कुल हमारे ह्रदय में है। जहाँ पर प्रभु परमेश्वर, भगवान, ईश्वर, आत्मा बसते हैं।(18:33)
तो श्रीरामकृष्ण कहते हैं , इस शहर में आये हो , तो पहले अपने हृदय में जो प्रभु का निवास स्थान है पहले, वहाँ पर डेरा जमा लो। वहाँ पर पहले प्रभु के चरण को स्पर्श कर लो।पहले अपने निवास स्थान को खोज लो। अपने हृदय के भीतर जो निवास स्थान है पहले उसको खोज लो।उसको खोजने के पश्चात् ; ईश्वर के चरण को स्पर्श करने के पश्चात्; फिर इस संसार रूपी शहर को देखने के लिए, या इससे व्यवहार करने के लिए तुम लग सकते हो। ईश्वर के चरणों को स्पर्श किये बगैर, अपने हृदय में, अपने उस स्थाई निवास स्थान को खोजे बगैर, अगर हम इस संसार के साथ व्यवहार शुरू कर देते हैं; इसके साथ अगर हम उलझना शुरू कर देते हैं , तो हम यहाँ पर खो जायेंगे। गुम हो जायेंगे। यही श्रीरामकृष्ण का मुख्य उपदेश है। (19:43)
तो वचनामृत में हम अक्सर हर दूसरे या तीसरे पन्ने पर श्री रामकृष्ण को ये कहते हुए देखते हैं कि, पहला भगवान फिर संसार। पहले भगवान, फिर संसार। भगवान को पहले पाना -श्रद्धा के द्वारा, भक्ति के द्वारा , ज्ञान के द्वारा। किसी भी तरीके से ; भगवान के साथ पहले संपर्क बना लेना, और उसके पश्चात् संसार के साथ व्यवहार करने से , हमें कोई चिंता नहीं है। लेकिन इस प्रभु परमेश्वर रूपी हमारी जो स्थाई निवास स्थान है, उस निवास स्थान को पाए बगैर अगर , हम संसार के साथ व्यवहार करना शुरू कर देते हैं, तो हमारा यहाँ परगुम हो जाना यह निश्चितहै। (20:37) तो ये श्रीरामकृष्ण का मुख्य उपदेश है, बार बार उनके वचनामृत में हम देखते हैं।
भग्वत गीता में एक श्लोक है, प्रसिद्द श्लोक है , यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या कहते हैं?
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।
9.18।।
कृष्ण कहते हैं - यह जो भगवान, प्रभु परमेश्वर हैं, वे कैसे हैं ? वे ही हमारी गति हैं। गति हैं , वो भर्ता हैं, वही हमारा भरण-पोषण करने वाले हैं। वो गति हैं, भर्ता हैं, फिर क्या हैं ? -वे ही हमारे प्रभु हैं। वही साक्षी हैं। वही हमारे अंदर बैठे हुए अन्तर्यामी साक्षी हैं। और वही हमारा निवास है, स्थाई निवास स्थान वही हैं। और शरणं सुहृत - वही हमारा शरण हैं ,और वही हमारा स्थाई मित्र हैं। और क्या ? ये भगवान जो हैं, वे प्रभव प्रलय स्थान हैं। वही प्रभव स्थान हैं , वहीं से ये पूरी जो जगत , संसार है , जो सृष्टि है , उसकी उत्पत्ति भी वहीं से होती है और उसका प्रलय भी वहीं पर होता है। प्रभवः प्रलयः स्थानं, और क्या ? यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है। निधानं- तथा पूरे सृष्टि का बीज वही है। तो पहले इस प्रकार का जो भगवत गीता में वर्णित प्रभु परमेश्वर, जो हमारे ह्रदय में बैठे हैं , पहले उसके साथ सम्पर्क बना लेना। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यही जीवन का मुख्य उद्देश्य है। (22:31)
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
केन उपनिषद में कहा गया है , 'यह' प्रभु परमेश्वर का ज्ञान अगर हम पा लेते हैं या उसके साथ हमारा अगर सम्बन्ध बन जाता है। तो मनुष्य जीवन का जो मुख्य उद्देश्य है , वह सफल हो गया। और अगर इसके साथ हम सम्बन्ध नहीं बना पाते हैं; सम्बन्ध न बनाकर के विश्व के साथ , जगत के साथ अगर हम उलझ जाते हैं, तो महती विनष्टि - तो महान विनाश हमारे सामने होगा। ये केन उपनिषद कहती है। (23:09)
इसी बात को भगवान शंकराचार्यजी भी बहुत ही सुन्दर तरीके से कहते हैं, उनका जो मोहमुद्गर बहुत सुन्दर है, वहाँ पर वे कहते हैं - यह जीवन कितना अल्प है , मनुष्य जीवन कितना छोटा है? इस छोटे से मनुष्य जीवन में अगर हम इस महत उद्देश्य को एक रूप न दें, तो बहुत गलती हमलोग कर रहे हैं। वे कहते हैं - ये जीवन कैसा है ?
नलिनी दल गत जलम अति तरलम् -
तद्वद जीवितम् अतिशय चपलम्।
- ये जो जीवन है -अतिशय चपलम्। ये अत्यंत ही चपल है - ये कभी भी खत्म हो सकता है। तो इसका उदाहरण वे देते हैं, जिस प्रकार से कमल का जो फूल होता है, और उसके जो पत्ते होते हैं, पत्तों पर पानी की जो छींटे होते हैं , पानी की जो बूँदें होती हैं, वह बिल्कुल कैसे चपल होता है। एक हल्की सी, एक मंद हवा भी अगर आ जाती है , तो वह बूँद जो है वह पत्ते पर से बिल्कुल फिसल करके गिर जाती है। उसी प्रकार है मनुष्य जीवन -अतिशय चपलम्। कब यह खत्म हो जाये यह कोई भी नहीं कह सकता। इसीलिए यह मनुष्य जीवन खत्म होने से पहले क्या करना है?भगवान श्रीशंकराचार्यजी कहते हैं -
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे ,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥
मृत्यु बिल्कुल सामने खड़ी हुई है , हमें और कोई भी नहीं बचा सकता , इसलिए भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, अर्थात भगवान को जान लो! भगवान के साथ सम्पर्क बना लो! यह जीवन खत्म होने पहले ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर लो। श्रद्धा के द्वारा , भक्ति के द्वारा और ज्ञान के द्वारा। तो ये है मूल सन्देश ! भगवान श्री रामकृष्ण का मूल सन्देश यही है, कि मनुष्य जीवन का जो मुख्य उद्देश्य वो है ईश्वर के साथ सम्बन्ध बना लेना।अपने 'ईश्वर स्वरूप' को पहचान लेना ! अपने भगवत स्वरुप को पहचान लेना। पहचान करके फिर इस संसार के साथ अगर हम व्यवहार करें, तब कोई चिंता की बात नहीं है।(25:37)
आज चारों और ये जो कोरोना का महामारी हम देख रहे हैं, सारा मानवजाति , सारा विश्व इससे ग्रस्त है। सभी पीड़ित हैं,कितने लोगों की जानें चली गईं हैं इसमें। लोग भयग्रस्त हैं, चारों ओर लोग चिंतित हैं। पीड़ित हैं। ऐसी परिस्थिति में एक दृष्टिकोण यह है कि हम यह जानें कि इस शरीर के अतीत, इस मन के अतीत, इस बुद्धि के अतीत, हमारे ही भीतर एक ऐसी सत्ता है, जो कि अमर है। हमारी जो भगवत सत्ता है, उस भगवत सत्ता पर श्रद्धा रखें , उसके प्रति हमारा प्रेम हो। और उसके दृष्टिकोण से अगर हम इस महामारी को देखें, तो हम इस महामारी को भयमुक्त होकर के हम इसका सामना कर पायेंगे।और वह तभी सम्भव होगा , जब हमें , हमारे भीतर बैठे हुए इस प्रभु परमेश्वर पर, श्रद्धा हो। भक्ति हो। और उस आत्मा की अमरता के विषय में हमारे पास ज्ञान हो। (26:45 )
तो भगवान श्रीरामकृष्णदेव का मुख्य सन्देश यही है। कि मनुष्य जीवन का जो मूल लक्ष्य है - वो भगवत प्राप्ति है। और प्राप्त करने का मार्ग - श्रद्धा , भक्ति, और ज्ञान ये मार्ग हैं। और मनुष्य जीवन जीवन इसी के लिए ही है। इसको भूलकर के अगर हम इससे उलझ जाते हैं , तो हम इस संसार में खो जाते हैं। (27:13)
तो मैं भगवान श्रीरामकृष्ण से यही प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारे अंदर उस प्रकार की श्रद्धा को निर्मित करें। हमें कृपाकर के हम सब के अंदर भक्ति का संचार करे, वह प्रेम भर दे -ईश्वर प्रेम भर दे! और हमारे अंदर और उसके स्वरुप का ज्ञान हमारे अंदर उस ज्ञान का उदय करा दे। यही हमारी उनसे प्रार्थना है ! धन्यवाद !! (27:40)
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“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
- अभिनंदन सम्बोधन
महामण्डल के पास न तो प्रचुर धनबल है, न ही जनबल है। किन्तु उसे तब तक इसकी चिन्ता नहीं है जब तक इसके कर्मियों की दृष्टि के सम्मुख महामण्डल का वास्तविक उद्देश्य - 'भारत का कल्याण', और उसका उपाय -'चरित्र-निर्माण', आदर्श -स्वामी विवेकानन्द,
ध्येयमंत्र-'Be and Make' (रॉबर्ट ब्राउनिंग) और अभियान मंत्र - 'चरैवेति, चरैवती' कहने का वास्तविक तात्पर्य बिल्कुल स्पष्ट है , तथा 3H -निर्माण की प्रक्रिया को उन्होंने हृदयंगम कर लिया है।
1. महामण्डल का उद्देश्य : भारत कल्याण ! और उसके माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण। भारत पहले विश्वगुरु था। हजार वर्षों की गुलामी में हमने अपने उस आध्यात्मिक ज्ञान को खो दिया हमें यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की प्रेरणा देता था। जिसके अनुसार मनुष्य शरीर में जन्म लेना दुर्लभ है। त्रय दुर्लभं - 'मनुष्य शरीर में जन्म मिलना दुर्लभ है '- इस विषय में कोई संदेह नहीं है। " इस प्रपंचमय जगत में मानव-योनि में जन्म सबसे ऊँचा है। "
2. महामण्डल के आदर्श - राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द ! क्यों ? अपने गुरु भगवान श्रीरामकृष्ण के देहत्याग के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अपने परिव्राजक जीवन (1886-1892) तक भारत के ऋषियों में भारत की अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला, वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'।
अपने गुरु, मार्गदर्शक नेता ,श्रीरामकृष्ण परमहंस का देहत्याग हो जाने के बाद परम राष्ट्रभक्त स्वामी विवेकानन्द, {जिन्होंने अपने गुरु के मार्गदर्शन में उस परम् सत्य, ईश्वर, भगवान, परब्रह्म परमेश्वर, सच्चिदानन्द या आत्मा कहते हैं की अनुभूति प्राप्त कर ली थी} ने अपने छः वर्षों (1886-1892) के दुःसाध्य परिव्राजक जीवन में,कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते हुए तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था। तथा उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे देशवासी दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं ! यथार्थ शिक्षा के आभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है। सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" तो दूसरी ओर इसीके प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'।
(i) >>श्रद्धा क्या है ? : संस्कृत शब्द का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि । 'अस्ति इति' का भाव आस्तिक्य बुद्धि है। आचार्य शङ्कर ने कहा है -गुरु और शास्त्र के वचनों पर सत्यत्व बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं, और यह श्रद्धा ही मोक्षसिद्धि का मार्ग है। गीता भी एक शास्त्र है, जो हमें उस अतीन्द्रिय वस्तु, जो मन और इन्द्रियों के परे जो भगवत तत्व है, उस भगवत तत्त्व का ज्ञान करा देने वाले गुरु के ही समान एक साधन है, इसलिए उस पर श्रद्धा ही मोक्षसिद्धि का मार्ग। गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है -" श्रद्धावान् लभते ज्ञानं ,तत्पर: संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां, शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।
>> मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? : उसका उपाय बताते हुए भगवान श्रीरामकृष्ण देव बहुत सरल भाषा में कहते हैं - "पहले उस 'एक' ईश्वर को जानो; उसे जानने से तुम सभी कुछ को जान जाओगे। 'एक' के बाद शून्य लगाते हुए सैकड़ों और हजारों की संख्या प्राप्त होती है, परन्तु 'एक' को मिटा डालने पर शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता। 'एक' ही के कारण शून्यों का मूल्य है। पहले 'एक' बाद में 'अनेक'! (अनेकता में एकता भारत की विशेषता।)
>>उस एक को जानने प्रक्रिया क्या है ?
- संतरे का रस निचोड़ने तथा आम का रस निचोड़ने की प्रक्रिया।
भारत सरकार के द्वारा घोषित राष्ट्रीय युवा आदर्श हैं-स्वामी विवेकानन्द ! इसलिए वे भारत के समस्त युवाओं के, या कहिये समस्त युवा हृदय व्यक्तियों के लिए एक 'मार्गदर्शक नेता' या गुरु के समान है। विष्णु-सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम भी -'नेता' ही है!
जिसको 'स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' कहते हैं उस Be and Make आध्यात्मिक शिक्षक या नेता -प्रशिक्षण की प्रक्रिया, लीडरशिप प्रशिक्षण प्रणालीक्या है ? उस 'Be and Make' लीडरशिप प्रशिक्षण प्रक्रिया के विषय में स्वामी जी कहते हैं कि- 'पहले जानो !' यह ज्ञान का विषय है। क्या जानो ? यह जानना है कि हम मृत्यु के परे हैं! हम सब। हम सभी मनुष्य मृत्यु के परे हैं। हमारा जो स्वरुप है, वह कभी नहीं मरता। मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है, हमारी जो आत्मा है, जो हमारा स्वरुप है-वह शरीर-इन्द्रिय और मन से परे है। इस जड़ देह और मन के भीतर और पीछे उसकी जो आधारभूत सत्ता है, वह चेतन सत्ता है, वह कभी नहीं मरती। इस बात को पहले जानना है, ज्ञान के द्वारा, अनुभूति के द्वारा- इसको पहचानना है। जब हम यह जान जायेंगे कि 'हम अमर हैं'! तब, पहले 'वह जानकर के', उस ज्ञान (आत्म -ज्ञान) को प्राप्त करके - फिर हम इस संसार के साथ सम्बन्ध बना सकते हैं। (12 :56)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिये कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो !"
"हम प्रभु के दास हैं, प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं - यही विश्वास दृढ़ कर कार्यक्षेत्र में उतर पड़ो ! (हिन्दू धर्म और श्रीरामकृष्ण : १०/१३९)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " सत्य के दो भेद हैं : पहला, जो मनुष्य के पंचेन्द्रियों से एवं उन पर आधारित तर्कों से ग्रहण किया जाय, और दूसरा, जो अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय।
इन्द्रियों के द्वारा संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं और दूसरे प्रकार से -अर्थात सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा संकलित ज्ञान को 'वेद' कहते हैं।
यह अतीन्द्रिय शक्ति, जिनमें आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उनका नाम ऋषि है , और उस शक्ति के द्वारा वे जिस 'इन्द्रियातीत सत्य' (अलौकिक सत्य) की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है।
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भगवान श्रीरामकृष्ण ने कहा है - " मनुष्य संसार में दो तरह की प्रवृतियाँ (चरित्र) लेकर जन्मता है-विद्या और अविद्या। विद्या मुक्ति के मार्ग में ले जाने वाली प्रवृत्ति है और अविद्या संसार-बंधन में डालने वाली।मनुष्य केजन्म के समय ये दोनों प्रवृत्तियाँ मानो खाली तराजू के पल्लों की तरह 'संतुलन' की स्थिति में रहती हैं। परन्तु शीघ्र ही मानोमनरूपी तराजू केएक पल्ले में संसार के भोग-सुखों का आकर्षण तथा दूसरे में भगवान का आकर्षण प्रतिष्ठित हो जाता है। यदि मन मेंसंसार का आकर्षण अधिक हो तो अविद्या का पल्ला भारी होकर झुक जाता है और मनुष्य संसार में डूब जाता है। परन्तु यदि मन में भगवान के प्रति अधिक आकर्षण हो तो विद्या का पल्ला भारी हो जाता है और मनुष्य भगवान की ओर खिंचता चला जाता है। " (जीवन का उद्देश्य - अमृतवाणी -४)
'चरित्र-निर्माण की तकनीक ' को या 'मनुष्य बनने और बनाने' की तकनीक का स्वाध्याय आरम्भ करने से पहले, हमारे लिए 'चरित्र-निर्माण' या 'मनुष्य निर्माण' की प्रक्रिया से जुड़े कुछ पारिभाषिक शब्दों -'Technical terms' जैसे श्रद्धा, विवेक, गुरु (नेता) आदि शब्दों के अर्थ पर चिंतन कर लेना चाहिए।
The Essence of Sri Ramakrishna's Gospel - Part 1,by Swami Shuddhidananda
🔱बन्धन क्या है- ये आया कहाँ से - हमारे जीवन में यह चल कैसे रहा है🔱
(शिष्य के सातो प्रश्नों के उत्तर)
(परम् पूज्य स्वामी शुद्धिदानन्दा जी महाराज, अध्यक्ष,
अद्वैत आश्रम, मायावती , हिमालय।)
Session 22| The Essence of Vivekachudamani |
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः हरिः ॐ
हमारी परम्परा में एक कहावत है - जिस दिन मौसम खराब रहता है , वह खराब दिन नहीं होता , लेकिन जिस दिन हमने ईश्वर का स्मरण नहीं किया वह दिन व्यर्थ चला जाता है , वह दिन खराब होता है। मौसम खराब है , अच्छा है -जैसा भी ठीक है। वास्तव में जिस दिन हमने आत्मचिंतन नहीं किया , जिस दिन हमने मन को ईश्वर में नहीं लगाया, वह दिन सचमें दुर्भाग्यपूर्ण है। इसलिए हमारे जीवन में एक भी ऐसा दिन नहीं होना चाहिए , जिस दिन हमने ईश्वर का स्मरण न किया हो।(अर्थात हमारे जीवन में एक भी ऐसा दिन नहीं होना चाहिए ,जिस दिन हमने ठाकुर श्रीरामकृष्ण, ज्ञानदायिनी माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द का स्मरण नहीं किया हो।) तो हमने session -11 में विवेक-चूड़ामणि (श्लोक 51) पर शास्त्र चर्चा करते हुएदेखा था कि शिष्य गुरु के पास आकर 7 प्रश्न करते हैं। वे सात प्रश्न कौन-कौन से हैं ?
पहला प्रश्न है -बन्धन क्या है ? दूसरा प्रश्न है - ये बंधन आया कहाँ से ? तीसरा है- हमारे जीवन में यह बंधन चल कैसे रहा है ? चौथा है - इस बंधन से मुक्त कैसे हों ? पाँचवाँ है - अनात्मा क्या है ? छठा है - आत्मा क्या है ? और सातवाँ है - इन दोनों आत्मा और अनात्मा का विवेक हम कैसे करें ? तो ये सात प्रश्न लेकर के शिष्य गुरु के पास आता है।
और गुरु पहले चतुर्थ प्रश्न का उत्तर देते हैं। चतुर्थ प्रश्न है -कथं विमोक्षः ? इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? और उसके बाद गुरुदेव पाँचवाँ प्रश्न ले लेते हैं ,कि अनात्मा क्या है ? तो हमने देखा कि स्थूल , सूक्ष्म और कारण ये तीनों शरीर अनात्मा ही हैं। और इससे हटकर जो छठवाँ प्रश्न था - आत्मा क्या है ? उसका उत्तर सबसे सरल है। अनात्मा ['मैं' और 'मेरा'] को लेकर के ही हमारे मन में सारी भ्रांतियाँ हैं। तो उसीको समझाने में सारी मशक्कत करनी पड़ती है। क्योंकि हमारे मन में जो भी गलत धारणायें हैं, वे तो अनात्मा को लेकर के ही हैं। (4:00)
इसलिए शास्त्र और गुरु पहले हमें यह बताते हैं कि अनात्मा क्या है ? क्योंकि आज अनात्मा (M/F शरीर) में ही हमारी आत्मबुद्धि हो गयी है। अर्थात स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर (Causal body) में ही हमारी आत्मबुद्धि हो गयी है, और यही मूल समस्या है।इसको समझाने में बहुत अधिक मिहनत करनी पड़ती है। और समझने में भी इतना आसान नहीं है। अतएव दोनों गुरु-शिष्य को बहुत अधिक मिहनत करनी पड़ती है। तो शास्त्र और गुरु हमें यहाँ पहले बताते हैं कि अनात्मा क्या है ? उसके बाद बताते हैं कि आत्मा क्या है ? और आत्मा क्या है यह बता देने के बाद, छठवें और सातवें प्रश्न का भी उत्तर हो गया। इन दोनों का विवेक -विवेचन इसी से हो गया। अब बचा क्या ? सिर्फ पहला , दूसरा और तीसरा प्रश्न। बाकि के चार, पाँच , छे, सात के उत्तर हम देख चुके हैं।
इस विवेक-चूड़ामणि शास्त्र पर आगे बढ़ने से पहले एक बात और समझ लेना चाहिए किविवेक-चूड़ामणि शास्त्र पर कुल 26 सत्रों की चर्चा में हमलोगों इन सातो प्रश्नों के उत्तर को सिर्फ स्पर्श भर किया है। लेकिन शंकरा-चार्यजी ने प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में उसका विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। जिनको सभी प्रश्नों उत्तर विस्तार में जानना हो , वे समय मिलने पर बाद में इस ग्रंथ का स्वयं अध्यन कर सकते हैं। वहाँ शिष्य के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर बहुत विस्तार बताया गया है। यदि आप सातो प्रश्नों का विस्तार से उत्तर जानना चाहते हों तो इस ग्रंथ में उन सभी को बहुत सुंदर ढंग से समझाया गया है। यहाँ विवेक-चूड़ामणि शास्त्र के केवल सारांश पर चर्चा की जा रही है।अब हमलोग विवेक-चूड़ामणि शास्त्र में शिष्य के पहले प्रश्न- वह बंधन क्या है ? को नाम बन्धः? ये बंधन क्या है ? इस पर चर्चा शुरू कर सकते हैं।
किन्तु इसके उत्तर पर पर चर्चा कर के पहले कुछ बिन्दु ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न रह गए हैं, हमारा 'मैं और मेरा'मन या अन्तःकरण भी जड़ है तो आत्मानुभूति होती कहाँ है , या आत्मानुभूति होती किसको है? और जब हमारा शरीर और अन्तःकरण दोनों नश्वर है, तो अविनाशी आत्मा या सच्चिदान्द ब्रह्मकी अनुभूति किसको हुई थी ? इसी प्रश्न का उत्तर शंकराचार्य जी ने विवेक-चूड़ामणि शास्त्र के 131 और 132 इन दो श्लोकों में बताया गया है कि आत्मानुभूति कहाँ होती है ? अगर इसकी व्याख्या कर भी दूँ , तो इसे नए लोग जिन्होंने अभी तक दीक्षा नहीं ली हो, और साधना में थोड़ा आगे नहीं बढे हों , वे इसे समझ नहीं पाएंगे। संक्षेप यह कहा जा सकता है कि आत्मानुभूति होती है ह्रदय-आकाश में । अब ये ह्रदय आकाश क्या है ? ये तो अभी उन साधकों के लिए सिर्फ एक शब्द मात्र है, जिन्होंने अभी तक प्रशिक्षण नहीं लिया है। जब तक हम साधना में नहीं उतरते तब तक इन सब चीजों को हम सिर्फ बुद्धि या logic मात्र से नहीं समझ सकते। क्योंकि यह आत्मानुभूति बुद्धि से भी परे की बातें हैं। (6:42) 131 और 132 श्लोकों को मैं छोड़ दे रहा हूँ। अच्छा 131 हम ले सकते हैं, 132 को छोड़ देते हैं। कल हमने देखा। अनात्मा क्या है ? यह देखने के पश्चात् हमने यह देखा कि आत्मा क्या है ?
आत्मा का विवरण हमलोग विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के 5 श्लोकों (128 से 132 तक) में देख सकते हैं। इसे समझ लेने पर हमें आत्मा-अनात्माविवेक-साधना की दिशा समझ में आ जाती है।आत्मा और कुछ नहीं जो साक्षी है। जो स्थूल शरीर का साक्षी है, जो सूक्ष्म शरीर का भी साक्षी है। और जो कारण शरीर का भी साक्षी है। जो सबका साक्षी है, जो सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का साक्षी है। आपके अंदर चलने वाला जो पूरा स्वप्न सृष्टि है -उसका भी जो साक्षी है ! स्वप्न सृष्टि में भी पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड रहता है। उसी प्रकार ये पूरा जागृत सृष्टि भी सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड है ।इन दोनों का जो साक्षी है , वही निद्रा का भी साक्षी है। वह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी है। ये तीनों अवस्थायें बस लहरों के समान उठती हैं , और गिरती है -आपका कुछ भी नहीं जाता ! आपका कुछ भी नहीं जाता -आप, अजर , अमर , अविनाशी आत्मा हो। आप अजन्मे हो , आपका न तो जन्म हुआ है , न तो आपकी मृत्यु है। ये सब से बड़ी सच्चाई है ! तो इस पर हमें बहुत ध्यान करना होगा। अगर आप साक्षी भाव में रहने का लगातार अनुशीलन करोगे -प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते रहोगे। तो धीरे धीरे ये सत्य अनुभूति में परिणत होगी। और वह आत्मानुभूति या आत्मज्ञान व्यक्ति को बहुत बल देता है। हमारा यह साक्षी भाव ही है जो हमारे दैनन्दिन जीवन के हर परिस्थिति में अविचलता 'Poise' बनाये रखता है। यही साक्षी भाव जीवन में स्थिरता लाती है। हमारे भीतर जितनी भी कमजोरियाँ हैं , उन सबसे ऊपर उठने का यह सर्वोत्तम प्रक्रिया है।इसी साक्षी भाव में मन का द्रष्टा बने रहना ज्ञान की (आत्मज्ञान की) प्रक्रिया है। यदि आप साक्षी भाव का अभ्यास करेंगे , तो देखोगे कि आपके व्यक्तित्व पर उसका कितना सुंदर प्रभाव पड़ेगा। आपके पूरे जीवन के ऊपर कितना सुंदर प्रभाव पड़ेगा। (9:09)
तो उसी आत्मा का विवरण देते हुएविवेक-चूड़ामणि शास्त्र के 133 वां श्लोक में कहा गया है -
ये जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, वही अन्तरात्मा है। है कि नहीं ? बाकि सब तो बाहर है। स्थूल शरीर बाहर है। सूक्ष्म शरीर भी आत्मा की दृष्टि से बाहर ही है। और कारण शरीर भी आत्मा की दृष्टि से बाहर ही है। सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का साक्षी जो आत्मा है वह अन्तरतम है। अतंरतम को यदि अंग्रेजी में कहें तो वह 'innermost' है। what we are looking for the treasure, the real treasure is innermost !हम जिस खजाने को ढूंढ रहे हैं, वह असली खजाना तो अंतरतम में है!
हमारे इस देह-इन्द्रिय संघात का जो अन्तरतम पहलू है -dimension है वह आत्मा है। हम वो हैं ! एषो अन्तरात्मा पुरुषः -उस साक्षी आत्मा को पुरुष भी कहते हैं। साक्षी आत्मा को जो पुरुष कहा जा रहा है, लिंग के दृष्टिकोण से नहीं कहा जा रहा है। स्त्री-पुरुष वाला पुरुष नहीं। आत्मा को जो पुरुष कहा जा रहा है। उसका तात्पर्य है -जो इस पुर में रहता है, वो पुरुष है। हमारा ये शरीर एक पुर है न ? ये एक शहर है, एक पूरी है। इस शरीर रूपी 'पूर' में कौन रहता है? आत्मा रहता है। इस शरीर रूपी पूरी में जो रहने वाला है, वो पुरुष है। स्त्री-पुरुष वाला पुरुष नहीं। ये कोई लिंग आधारित विशेषण नहीं है। इस पुर में जो रहने वाला है -वो पुरुष है। तो ऐसा जो अन्तरात्मा है , जो पुरुष है वह पुराण है। पुराण मतलब जो सनातन है। जो सब समय है , वही सत्य है। सत्य वो है -जो त्रिकाल अबाधित है। शरीर तो आयेगा जायेगा।किन्तु यह चैतन्य जो है , वह पुरातन है; पुराण है, सब समय है। और यह चैतन्य (सच्चिदानन्द) कैसा है ? यह निरंतर-अखण्ड सुखानुभूति है। ये शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं। आत्मा में सिर्फ आनंद की अनुभूति ही हो सकती है , वहाँ पर दुःख का स्पर्श सम्भव नहीं है। और इस सुख की अनुभूति कैसी है ? निरंतर अर्थात सब समय बना रहता है। अखण्ड है -वो कभी कभी खण्डित भी नहीं होता। ऐसा नहीं है -जो बीच बीच में थोड़ा टूट जाता है। ऐसा अखंड निरंतर बना रहने वाला सुखानुभूति। और शरीर में अनुभव होने वाला सीधा बिपरीत है। (12:11) शरीर का सुख निरन्तर अखण्ड दुःखानुभूति है? ये सच्चाई है, आप देखोगे शरीर का सुख क्षणिक है। लेकिन हम जैसे अविवेकी लोग (जिनका शिवत्व ढँका हुआ है)शरीर में ही सुख को ढूंढ़ रहे हैं ? शरीर के इन्द्रिय विषयों में सुख की ढूँढना बिल्कुल उसी प्रकार है , जैसे हम मगरमच्छ को लट्ठा समझकर, उस पर बैठकर नदी पार करने की आशा करते हैं।इसीलिए देह इन्द्रिय और इन्द्रिय भोगों में सुख ढूँढ़ते हैं , वे जीवन में कभी सुखी नहीं होते। अगर इन्द्रिय भोगों में सुख होता, तो फिर सभी प्राणियों को सुखी हो जाना चाहिए था ? यहाँ हम मनुष्य की बात कर रहे हैं, तो मनुष्यों को भी सुखी हो जाना चाहिए था ? यह एक बहुत बड़ा विचारणीय प्रश्न है न ? अगर शरीर और इन्द्रिय भोगों में सुख होता ? तो सभी प्राणियों को - विशेष रूप से हम मनुष्यों को तो सुखी हो जाना चाहिए था ? लेकिन होता है क्या ? हम शरीर और इन्द्रियों से चाहे जितना भी भोग कर लें, कोई सुखी होता है क्या ? वो उतना ही अतृप्त होता है , जितना वो इन्द्रियभोगों में डूबने से पहले अतृप्त था। इन्द्रिय-भोगों के शुरुआत में भी अतृप्ति है , और बाद में भी अतृप्ति है। अतृप्ति में ही इसका पर्यवसान है। जीवन की समाप्ति अतृप्ति में ही हो जाती है। भोगों से कभी तृप्ति होती नहीं है। सम्भव नहीं है। उल्टा हम जितना अधिक हम शरीर और इन्द्रिय भोगों में डूबे रहते हैं , उतना ही दुःख होता है। सारा दुःख शरीर और इन्द्रियों से तादात्म्य बना लेने के बाद ही उत्पन्न होती है। दुःखों का मूल है अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेना। दुःखों का मूल कारण क्या ? अनात्मा में आत्मबुद्धि करना यही सभी दुःखों का कारण है। [ऋषि पतंजलि के अनुसार अविद्या (अज्ञान), अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा) और अभिनिवेश (और अधिक जीने की इच्छा मृत्यु का भय) पंचक्लेश। ] क्योंकि आत्मा जो है वो अपने स्वरुप में सुखानुभूति है, वहाँ पर दुःख का स्पर्श भी सम्भव नहीं है। तो दुःख क्यों होता है ? दुःख हमेशा अनात्मा (शरीर-इन्द्रिय) के साथ तादातम्य करने के बाद ही व्यक्ति दुःखी होता है। (14:14) तो आत्मा कैसा है ? निरन्तर अखण्ड सुखानुभूतिः ! और कैसा है --सदैकरूपःतथा आत्मा सदा एकरूप है, उसमें कोई बदलाव नहीं है। शरीर में बदलाव होता रहता है। आज आप छोटे उम्र के हो, लेकिन शरीर में अभी भी बदलाव हो रहा है। देखते -देखते सब चला जा रहा है , आज हमको समझ में नहीं आ रहा है। एक-दो करके दस -बीस वर्ष क्या है ? सिर्फ दो मिनट की बात है। हमको 20 -50 वर्ष लम्बा लगता है। अनन्त काल की तुलना में 50 वर्ष तो सिर्फ 5 सेकण्ड की बात है। अनंत काल में हजार वर्ष भी एक क्षण मात्र ही है। अनंत काल में 100 वर्ष क्या है? एक क्षण मात्र ही है। चुटकी बजाते ही सब खत्म हो जाता है। जीवन कब शुरू हुआ कब खत्म भी हो गया ? किसी को समझ में नहीं आता है। इसलिए जीवन को क्षणिक कहते हैं। यह विवेकी मनुष्य को बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। देखिये ये सब विवेक -ही चल रहा है! एक बार दुबारा स्मरण करा देता हूँ , इस पूरे सत्र ,पाठचक्र या युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर हमलोग क्या सीख रहे हैं ? विवेक करना सीख रहे हैं।विवेक-दृष्टि (मातृदृष्टि) क्या है, इसमें स्पष्टता ला रहे हैं? इसको स्पष्ट रूप से समझने का हम प्रयास कर रहे हैं। हम यह समझने का प्रयास कर रहे हैं - कि इस जीवन का स्वरुप क्या है ? हमने एक चीज को दूसरा समझ लिया है। अनात्मा को आत्मा समझ लिया है ? इसीलिए हम सभी लोग यहाँ कष्ट में हैं। (15:33)
क्योंकि यहाँ जगत-संसार में सब कुछ बदल रहा है , सब कुछ क्षणिक हैं। सब क्षणभंगुर है। सब नाशवान है। आप देखोगे कल तक कोई अपना सगा सम्बन्धी या कोई गाढ़ा मित्र था ; आज नहीं है? क्या कहें, अभी परसों तक था ; आज नहीं है ? कहाँ गया ? कहाँ अदृश्य हो गया ?कौन था उस वक्त ? अब नहीं है वो , गायब ही हो गया ? इस शरीर की भी दशा वही है। आज दीखता है , कल बिल्कुल अदृश्य हो जायेगा। कहाँ चला गया ? अभी अस्तित्व में कौन है? बाहर से जो ढाँचा दिख रहा है , यह शरीर अपने आप में सत्य है क्या ? ये दृष्टिगोचर जीव -जगत सत्य है क्या ? इन प्रश्नों पर सभी को गहन चिंतन करना चाहिए। मनन करना चाहिए कि सत्य क्या है ? यह आत्मा ही एकमात्र ऐसी चीज है -जो सदा एक रूप है। जिसमें कोई परिवर्तन या कोई बदलाव नहीं है। आत्मा के अतिरिक्त, जो भी अनात्मा है वो सतत परिवर्तनशील है। यह सतत बदल रहा है , सतत नाशवान है। यह नष्ट हो रहा है -चला जा रहा है। फिर आत्मा कैसा है ? -प्रतिबोध मात्रो ! "प्रतिबोधमात्र" बहुत सुंदर शब्द है और बहुत महत्वपूर्ण है। आत्मा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह केवल "प्रतिबोधमात्र" है इसको आप अनुभव कर सकते हो। इसका अर्थ है - हमारे अन्तःकरण में उठने वाले प्रत्येक वृत्ति में ; मन के प्रत्येक वृत्ति में आत्मा प्रतिबिंबित हो रही है। आपके मन की हर दशा में -आत्मा का प्रकाश प्रतिबिंबित हो रहा है।In your every state of the mind, The light of the soul is getting reflected! प्रतिबोध मात्र यह बहुत सुन्दर विशेषण है।आप साक्षी भाव में आँख बन्द करके देख सकते हो ,कि जो द्रष्टा मन दृश्य मन को देख रहा था , उस द्रष्टा मन का साक्षी भी तो आत्मा ही है! मनःसंयोग का अभ्यास करते समय अर्थात मन को अनात्म वस्तुओं से खींचकर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करते समय, जब आप अपने मन को आत्मा में (अर्थात त्रिमूर्ति पर) नियोजित रखने का अभ्यास करते हो , उस समय आप स्वयं इसका परीक्षण करके देख भी सकते हो !
अगर हमलोग आँख बंद करके 1 -2 मिनट बैठें , तो आप देखोगे मन में तो विचार उठ रहे हैं। मन तो तरह तरह के विचार उठेंगे न ? मन में उठने वाले उन विचारों को आप कौन से प्रकाश में देख रहे हो ? (18:00) ये जो विचार उठ रहे हैं, आपके मन में विभिन्न प्रकार के रूप उठ रहे हैं। विभिन्न प्रकार के सोंच उठ रहे हैं। मन में उठने वाले इन सारे विचारों या रूपों को आप कौन से प्रकाश में देख रहे हैं ?आपके मन के विचार आपको आत्मप्रकाश में ही दिखाई देता है। इसीको प्रतिबोध मात्र कहते हैं। ये जो आत्मा का प्रकाश है, चैतन्य का प्रकाश ही अन्तःकरण के प्रत्येक वृत्ति में (द्रष्टा मन में भी) प्रतिबिंबित हो रही है। तो जिसको हम ईश्वर कहते हैं या आत्मा कहते हैं , जिसको सच्चिदानन्द ब्रह्म कहते हैं; वो हमारे कितना निकट है ; हम सिर्फ पहचान नहीं पा रहे हैं ! हमारे अन्तःकरण के प्रत्येक वृत्ति में ईश्वर प्रतिबिंबित हो रहे हैं। अभी इसी वक्त चल रहा है , हम उसको पकड़ नहीं पा रहे हैं। वह कितना निकट है !
Atman is the Ruler :फिर कहते हैं --येनेषिता वाग असवः चरन्ति । ईशन करना यानि Rule करना। शासन करना, Atman is the Ruler वह आत्मा ही शासक है,या जो नियम बनाने वाला है वही सभी नियम को बनाता है। उसी आत्मा के ईशन में, शासन में या आधिपत्य में -येनेषिता वाग असवः चरन्ति ! उसी आत्मा की उपस्थिति में ही ये वाग माने वाणी औरअसव यानि प्राण अर्थात हमारा सम्पूर्ण देह-इन्द्रिय संघात काम करती है। आत्मा की उपस्थिति के बगैर वाणी और प्राण युक्त यह शरीर-इन्द्रिय संघात कुछ भी नहीं कर सकता। तो यह प्रसंग (theme)- 'येनेषिता वाग असवः चरन्ति' अपने-आप में एक बहुत महत्वपूर्ण प्रकरण है।जिसके रहते हुए देखिये हमारा ये स्थूल शरीर काम कर रहा है। सूक्ष्म शरीर काम कर रहा है। कैसे काम कर रहा है? शरीर को ये सारी ऊर्जा कहाँ से आ रही है ?ऊर्जा (शक्ति) का मूल श्रोत क्या है ? आत्मा ही है। ईश्वर ही है। उसके शासन में ही ये स्थूल और सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर सब अपना -अपना काम कर रहा है। उस आत्मा की उपस्थिति के बिना यहाँ कुछ भी नहीं हो सकता। इसी बात को अगर भक्ति की भाषा में कहें तो अपने सुना होगा - " ईश्वर की इच्छा के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता।" अक्सर हमलोग कहते है। (20:41) ये सब ज्ञान की बातें हमारे बोलचाल की भाषा में हैं - ईश्वर की आज्ञा के बगैर एक पत्ता भी सृष्टि में नहीं हिलता। तो इसका मतलब क्या हुआ ? निष्कर्ष क्या निकला ? अब आप समझ सकते हैं इस सृष्टि के मूल में (सृष्टि-पालन -संहार या जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति के मूल में) ईश्वर ही है न?इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाला , कौन है ? विगत सत्रों में हमने देखा - वो जो अव्यक्त नाम वाली परमेश शक्ति है पूरी सृष्टि को संचालित करने वाली तो काली ही हैं न ? उसी काली का यहाँ पर सृष्टि, स्थिति और प्रलय रूपी नृत्य चल रहा है। सब कुछ को वे ही संचालित करती हैं। हर पत्ता जो हिल रहा है, यानि जो कुछ भी यहाँ पर चल रहा है , चल या अचल है ; यह स्वयं वह काली ही हैं। तो इसीको भक्ति-योग की भाषा में हम कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। और इसी बात को ज्ञान -योग की भाषा में हमलोग कहते हैं कि -" उस आत्मा की उपस्थिति में ही, यह देह-इन्द्रियों का संघात अपना कार्य करता है ; उसकी उपस्थिति के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते। "(21:45)
अब (जब तक हमने साधना शुरू नहीं की हैं- उस अवस्था में ) 134 श्लोक को हमलोग छोड़ भी सकते हैं। अभी हमलोग केवल इस श्लोक का अंग्रेजी अनुवाद 'English translation' हम लोग पढ़ लेते है।
134 . In this very body, in the mind full of Sattva, in the secret chamber of the intellect, in the Akasha known as the Unmanifested, the Ātman, of charming splendour, shines like the sun aloft, manifesting this universe through Its own effulgence.
Notes: This Sloka gives the hint where to look in for the Atman. First of all there is the gross body; within this there is the mind or “inner organ,” of which Buddhi or intelligence, characterised by determination, is the most developed form; within Buddhi again, pervading it, is the causal body known as the Unmanifested. We must seek the Atman inside this. The idea is that Atman transcends all the three bodies—in fact the whole sphere of duality and materiality. The word ‘Akasa’ often occurs in the Sruti in the sense of Atman or Brahman. The Vedanta Sutras (I. i. 22) discuss this question and decide in favour of this meaning.
134. इसी शरीर में, सत्व से परिपूर्ण मन में, बुद्धि के गुप्त कक्ष में, अव्यक्त नामक आकाश में, मनमोहक तेज वाला आत्मा, ऊपर सूर्य के समान चमकता है, अपने तेज से इस ब्रह्मांड को अभिव्यक्त करता है।
टिप्पणि: यह श्लोक संकेत देता है कि आत्मा को कहाँ खोजना है। सबसे पहले स्थूल शरीर है; इसके भीतर मन या "आंतरिक अंग" है, जिसका सबसे विकसित रूप बुद्धि या बुद्धि है, जो दृढ़ संकल्प से युक्त है; बुद्धि के भीतर, इसमें व्याप्त, कारण शरीर है जिसे अव्यक्त कहा जाता है। हमें इसके भीतर आत्मा की खोज करनी चाहिए।विचार यह है कि आत्मा तीनों शरीरों से परे है—वास्तव में द्वैत और भौतिकता के संपूर्ण क्षेत्र से। श्रुति में 'आकाश' शब्द प्रायः आत्मा या ब्रह्म के अर्थ में आता है। वेदांत सूत्र (I. 1.22) में इसी प्रश्न पर चर्चा दिया गया है और इस अर्थ के पक्ष में निर्णय देते हैं। ]
अर्थ:-इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परम प्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है।
यह कोई बाहरी प्रकाश नहीं है, न ही यह इन्द्रियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला सामान्य प्रकाश है, बल्कि यह आत्मा का स्वरूप है जो स्वयंप्रकाश है और जिसके कारण ही जगत का सम्पूर्ण ज्ञान और अनुभव संभव होता है।
"manifesting this universe through Its own effulgence.""ईश्वर ही अपने तेज से इस ब्रह्माण्ड को अभिव्यक्त कर रहे हैं।" इस श्लोक की अगर व्याख्या अभी मैं कर दूँ , तो भी कुछ पल्ले पड़ने वाला नहीं है। साधना करने पर ही यह धीरे धीरे समझ में आयेगा। इस श्लोक में विचारणीय बिंदु ये है कि आत्मा का ज्ञान कहाँ होता है ? उसके लिए एक शब्द दिया गया है - 'धीगुहायां' ! धी गुहा यानि बुद्धि गुहा ! इसका अंग्रेजी अनुवाद यहाँ पर-the secret chamber of the intellect! दिया हुआ है। अब ये बुद्धि गुहा क्या है ? ये शब्दों से समझाने वाली बात नहीं है। इसलिए अगर मैं कुछ कहूँ तो भी आपके द्वारा उसका तात्पर्य ठीक-ठीक ग्रहण नहीं होगा।जब हम सालों साल साधना करते हैं , तो ये सारी चीजें हमको अनुभूति में आती हैं। सालों- साल साधना करने के बाद हमको ये समझ में आएगा कि बुद्धि गुहा क्या है? तो हमलोग अभी इस श्लोक केवल chant कर लेते हैं, और छोड़ देते हैं।
और आत्मज्ञान कहाँ होता है? यही जो सत्वगुण प्रधानबुद्धि गुहा है (23:39) ऐसे सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि गुहा में यह आत्मा वहाँ पर हम अनुभव करते हैं। सत्त्वगुण प्रधान जो बुद्धि गुहा है वहाँ इस आत्मा का अनुभव हम कर पाते हैं ! [अर्थात- अर्थात आत्मा का अनुभव अहं बुद्धि को नहीं होता, सतगुणी बुद्धि या आत्मा ही सच्चिदानन्द रूपी परमात्मा का अनुभव कर पाते हैं।] अब ये बुद्धि गुहा क्या है ? इसको शब्दों से समझाना कठिन है , तो हम इसको छोड़ देते हैं, अभी की हमारी परिस्थिति में उसकी आवश्यकता भी नहीं है। (क्योंकि गुरु के मार्गदर्शन में हमने अभीतक साधना ही शुरू नहीं की है।)अभी हम साधन-चतुष्टय पर ही ध्यान दें; वही महत्वपूर्ण है ! अभी साधन-चतुष्टय को अपने जीवन में धारण करने पर ही हमें पूरा ध्यान देना है। जब हम साधना शुरू कर देंगे (या महामण्डल प्रशिक्षण-पद्धति के अनुरूपमनःसंयोग का अभ्यास शुरू कर देंगे) -तभी इस श्लोक में वर्णित सभी बातें अनुभव गम्य होंगी। हम तो अभी सिर्फ शुरुआत कर रहे हैं। शुरुआती दौर में इतना विस्तार में जानने की आवश्यकता नहीं है। जब हम साधन चतुष्टय को अपने आचरण और जीवन में धारण करना शुरू कर देंगे , तो हम अपने-आप यहाँ पर पहुंच जायेंगे। (24:24)
तो साक्षी आत्मा निरन्तर अखण्ड सुखानुभूतिः और सदैकरूप है, यह समझ लेने के बादअब देखा जाय कि शिष्य का पहला प्रश्न क्या था ? को नाम बन्धः ? बंधन क्या है ? अति सुंदर। अब देखिये ये जो पहला, दूसरा -बंधन आया कहाँ से ? और तीसरा प्रश्न है- ये बंधन हमारे जीवन में चल कैसे रहा है ? तो ये जो तीनों प्रश्न हैं -वो बिल्कुल उसी प्रकार है , जैसे हमने उस कहानी में पढ़ा था कि अंजाने में किसी शिकारी के तीर से घायल व्यक्ति को देखकर पहले क्या करना उचित है ?उस घायल व्यक्ति के प्राथमिक उपचार पर ध्यान न देकरयदि पाँचलोग यह विचार करने में लग जायें कि वह तीर किस दिशा से आयी होगी ? वह तीर किसने मारा होगा ? और ये तीर किस चीज से बना हुआ है? या इस तीर में विष लगा हुआ है या विष लगा हुआ नहीं है? ये उसी प्रकार के प्रश्न हैं।
हमारी मुख्य समस्या का समाधान तो गुरुदेव ने पहले ही कर दिया है। हमारी जो मुख्य समस्या थी, वो तो खत्म हो गयी है न? अब तो आपलोग वापस भी जा सकते हो।हमारी जो मुख्य समस्या थी- वो क्या थी ? बंधन (अज्ञान) और बंधन से मुक्ति। उसके समझने में जो सबसे कठिन विषय था - वह तो यह समझना है कि अनात्मा क्या है ? उस (तीनों शरीर) की खोज-बिन करनी जब हमने शुरू कर दी, तो हम पहुँच गए अन्तरतम साक्षी आत्मा में - जो निरंतर अखण्ड सुखानुभूति है और जो सदा एकरूप है, उसमें कोई बदलाव नहीं है ! अब ये तीन प्रश्न उसी प्रकार के छानबीन करने जैसा है- भाई ये तीर कहाँ से आया होगा ? किसने मारा होगा? ये तीर किस चीज से बना हुआ है ? These are all secondary matters ! ये सभी गौण बातें हैं।
फिर भी इसके उत्तर में सद्गुरु और शास्त्र क्या कहते हैं ? उसको एक बार पढ़ लेना अच्छा है। पढ़ लेने से सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। बंधन क्या है ? इसके उत्तर में विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के श्लोक 139 में कहते हैं -
इस श्लोक के पहले तीन शब्द ही, बंधन क्या है का उत्तर है - 'अत्र अनात्मनि अहं इति मति!' -'अनात्मा में मैं बुद्धि कर लेना' यही बंधन है। अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेना यही बंधन है। जो अनात्मा है उसमें हमने 'मैं बुद्धि' कर दी। अनात्मा क्या है ? यह शरीर। और शरीर में 'मैं बुद्धि' कर लेना, यही बंधन है। मगरमच्छ को लट्ठा समझ लेना यही बंधन है। इतना आप देखिये , अभी आप हिसाब लगा सकते हैं। 'अत्र अनात्मनि अहं इति मतिः बन्ध एषो अस्य पुंसः !"(27:36) हमारा या इस पुरुष का यानि इस जीव का यही बन्धन है। इस जीव ने क्या कर दिया है ? जीव ने अनात्मा में आत्मबुद्धि कर दी है। हम आत्मा होकर भी इस शरीर को ही मैं समझने के सम्मोहन में फंस गए हैं। आप यह हो ही नहीं सकते हो। हम स्वरूपतः अनात्मा हो ही नहीं सकते हैं। अनात्मा न होते हुए भी हमने अनात्मा में आत्मबुद्धि कर दी है। वहीं से फिर पूरा जाल फैल जाता है। संसार का (मोह-माया का) सारा जाल यहीं से फैलता है, और हम उसमें फँसते जाते हैं। फँसते जाते हैं -यहाँ वही बताया जा रहा है। मोह- माया का सारा जाल जो है -वो यहीं से फैलती है। और जब तक अविवेक है (अविद्या या अज्ञान है), हम उसी जाल में और भी फँसते जाते हैं। यही है उस गड्ढे में गिरना- जिसका तल है ही नहीं ! फिर हमलोग इसमें गिरते ही चले जाते हैं, गिरते ही जाते हैं। इसका अन्त नहीं है। You are falling into a pit , which has got no bottom ! आप एक ऐसे गड्ढे में गिर रहे हैं जिसका कोई तल नहीं है! It's a bottomless pit ! यदि आप सत्यार्थी होकर भी अनात्मा (शरीर) में मैं बुद्धि करके (3H विकास के बदले 3K की आसक्ति के) जाल में फँसते जा रहे हैं, तो कहना पड़ेगा - You are going into an endless pursuit ! It's a Dead End pursuit ! You reach no where ! आप दौड़ते रहोगे, दौड़ते रहोगे, दौड़ते रहोगे लेकिन पहुँचोगे कहीं नहीं। आप जहाँ पर खड़े थे , अपने आप को वहीँ पर पाओगे। आप एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रहे हो। ये स्वरुप है जीवन का। तो बन्धन क्या है ? अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेना।(29:30)
फिर दूसरा प्रश्न क्या था ? ये आती कहाँ से है ? 'प्राप्तो अज्ञानात्'!हमने अनात्मा में आत्मबुद्धि क्योंकि ? उसके मूल में है अज्ञान। अज्ञान क्या है ? हमने (श्लोक 110 में) हमने देखा कि माया है। (Session 17 :अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति: अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा।) विगत सत्र में हमने देखा था - वो जो 'माया शक्ति' है न जो सत्य को ढँक देती है। हमने देखा न वो काली जो है वो शिव को ढँक रही है। वो परमेशशक्ति-परमेश्वर की शक्ति-वही जो अज्ञान है, उसी अज्ञान के कारण हम अनात्मा में आत्मबुद्धि कर बैठते हैं। 'प्राप्तो अज्ञानात्'!
और यह फिर यह अज्ञान किस चीज का हेतु बन जाता है ? अज्ञान के कारण आप अनात्मा में आत्मबुद्धि कर देते हो ? तो अब इसमें से क्या निकलने वाला है ? जनन, मरण, क्लेश, संपात, हेतु। इसके कारण अब क्या होगा ? अज्ञान से जनन , मरण , क्लेश- यानि दुःख। यह जनन -मरण रूपी दुःखऔर उसका 'संपात' यानि प्रवाह। यानि अज्ञान से यह जनन-मरण रूपी दुःख का प्रवाह अब चलता ही रहेगा। एक बार अज्ञान के कारण, आपने अनात्मा में आत्मबुद्धि कर दी; तो उससे निकलने वाला परिणाम यह होगा कि जन्म-मृत्यु रूपी जो प्रवाह है, वह तो पूरा दुःख रूप ही है। इस दुःख रूपी जन्म-मृत्यु के चक्र में हम पड़ जाते हैं। यह अज्ञान ही जन्म-मृत्यु प्रवाह का हेतु बन जाता है। (31:00)
अनात्मा में आत्मबुद्धि करना - ये किस चीज का हेतु बन जाता है? जन्म-मृत्यु रूपी जो क्लेश है, उस क्लेश का प्रवाह है उस प्रवाह का हेतु अज्ञान बन जाता है। किन्तु जन्म और मृत्यु तो दो छोर है। लेकिन जन्म-मृत्यु के बीच में जितनी भी दशायें हैं , सब दुःखद ही है। जन्म और मृत्यु तो दो छोर हैं न ?They are the two points ! वे दो बिंदु हैं! The starting point and the end point . कोई बच्चा जब जन्म लेता है , तो जन्म और मृत्यु के बीच में कितनी दशायें हैं? आपलोगों ने षड्विकार के बारे में पढ़ा होगा " जन्म होता है - जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति । ‘जो उत्पन्न होता है, स्थित है, बढ़ता है, बदलता है, क्षीण होता है, और नाश हो जाता है!" (वो तू नहीं है !!) ये छः ऐसे षड्विकारहैं। जन्म मृत्यु के बीच में ये 6 अवस्थायें हैं। जन्म-मृत्यु के बीच आप देखोगे -जन्म में भी सुख है क्या ? आज हमको पता नहीं है, विस्मृति हो गयी है। ऋषि लोग कहते हैं -ये तोऋषियों की दृष्टि है, हम तो अज्ञान में हैं न? हमको तो इस स्थूल शरीर के अलावा और कुछ दीखता ही नहीं है। ऋषि लोगों की यह अनुभूति है कि बच्चा जब माँ की कोख में 9 महीने तक रहता है। वहाँ वो अत्यंत ही दुःखित अवस्था में होता है। It is very painful existence in mothers womb ! Today we have forgotten it . आज हम इसे भूल गए हैं ! हम सब माँ की कोख में रह चुके हैं, ये और बात है कि आज हमें उसका स्मरण नहीं है। It is a very painful stage of existence for the Jiva ! यह जीव के लिए अस्तित्व की एक बहुत ही कष्टदायक अवस्था है। उसमें क्या है? एक छोटी सी जगह में एक जीव कैद है। (33:14) अच्छा क्या वो सुख पूर्वक रहने की स्थिति है? आपको अगर छोटी सी जगह में कैद करके रख दें , तो उसमें कौन सी सुख की अनुभूति है? ये तो दुःख की अनुभूति है। इसलिए बच्चा जब माँ के कोख से बाहर निकलता है , तो क्या करता है ? रोता है , वो। रोकर के वो सोचता है कि मैं कहाँ आ गया भाई ? तो माँ के कोख में आने के समय से ही दुःख की अनुभूति शुरू होती है। और जब जन्म लेता है उसमें -तो बाल्यावस्था में भी दुःख है। लेकिन बाल्यावस्था को लेकर तो लोग कविता लिखते हैं। वो बचपन के दिन क्या थे ? वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी। बच्चा सब समय भयभीत रहता है। बच्चा यानि क्या ? जीव ही है न ? देखिये बाहर से देख करके हम क्या अनुमान लगाते हैं ? If you look into the child psychology ? बच्चा भी तो जीव है न ? वो जीव सब समय भयभीत है। बहुत छोटे उम्र का बच्चा भी, 3-4 या 5 -6 महीने का बच्चा कभी कभी लगातार रोता रहता है। उसको कुछ तो दर्द है , लेकिन बोल भी नहीं सकता है। अंदर से पीड़ा है , हो सकता है उसको कान अत्यधिक दर्द हो रहा हो। वो बोल नहीं सकता सिर्फ रोये जा रहा है। कहाँ उसमें सुख है ? वो बच्चा थोड़ा भी माँ से अलग हो , तो भयभीत हो जाता है। मैं जीव की बात कर रहा हूँ। आप जीव की दृष्टि से देखोगे, तो बाल्यावस्था में क्या इतना अच्छा है बताइये ? जीव की दृष्टि से देखो।The baby is completely dependent, on its another entity called a mother. माँ से अलग होते ही दुःखी हो जाता है। इसमें क्या सुख है ? और भय तो उसके अंदर चलता ही रहता है। सब समय वह भय ग्रस्त है। उसको अँधेरे से भय लगता है। हम सब बचपन में उस दौर से गुजरे हैं। थोड़ा सा examine करके देखिए। हमको भी बचपन में अँधेरे से भय लगता था। विभिन्न प्रकार कीटाणु है - किसी को Cockroach से भय लगता है। किसीको छिपकली से भय होता है। किसीको बहुत-प्रेत का कुछ -कुछ कल्पना चलता रहता है। इसमें क्या सुख है ? थोड़ा और बड़ा होकर स्कूल जाने लगेगा , तो फिर पिताजी से डांट -मार खाने का भय रहता है। माँ से तो उतना भय हो सकता है न हो ? स्कूल में टीचर लोगों से भय रहता है। घर में इनका भय , स्कूल में जाओ तो उनका भय। अच्छा याद कीजिये - बचपन में हम भय से नहीं जीते थे क्या ? स्कूल जाते समय , कितने प्रकार का संघर्ष मन में चलता रहता है। ये एक अवस्था है -और इस अवस्था पर आप कविता लिख दोगे!
लेकिन एक विवेकी क्या देखता है ? अनात्मा में आत्मा की बुद्धि करने के बाद उस जीव को किन परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ रहा है ? इसमें क्या सुख है , मुझे बता दीजिये। क्लास में जाओ यदि होमवर्क नहीं हुआ तो पनिशमेंट। फिर यदि परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुए तो रिपोर्टकार्ड पर साइन कराना पड़ेगा। नंबर कम आया या फेल हो गए तो घर में दण्ड मिलने का डर। पहले के जमाने में रिपोर्ट कार्ड लेकर पिताजी के सामने जाना भी भयानक क्षण होता था। मार पड़ने वाली है अभी। कहने का मतलब ये कि जीवन की किस अवस्था में आपको सुख दीखता है ? मूर्खों को ही इसमें सुख दीखता है। तो क्या निष्कर्ष निकला ? बाल्य अवस्था -दुःखं ! कहना यह है कि जीवन की कौन सी ऐसी अवस्था है , जिसमें सुख है ? मूर्खों को इसमें सुख दीखता है। वे बाल्यावस्था पर कविता लिख देते हैं ! बाल्यावस्था के बाद जैसे ही आप यौवन में आ जाते हैं , दूसरी परेशानी शुरू हो जाती है। (38:02) आपको पता है , वो क्या है ? मुझे बताने की जरूरत नहीं है। है न ? वो क्लासरूम से ही शुरू हो जाता है। और उसकी जो परेशानी है वो भयंकर है। नहीं, हम सभी लोग को, जीव गुजर रहा है। हमको पता है , इसमें सुख कहाँ है ? उस दौरान क्या क्या चलता है , हमें पता है। उस दौरान जीव के अन्तःकरण में क्या क्या होता है , हमें पता है। इसमें सुख कहाँ है ? मूर्ख लोग इस पर गाना लिखेंगे, कविता लिखेंगे। लेकिन विवेकी को दीखता है , ये जीव कितनी दैन्य परिस्थिति है ? जैसा कि शंकराचार्य का भजगोविंदम स्त्रोत्र में कहते हैं -
बालस्तावत् क्रीडासक्तः तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥
बच्चा तो खिलौने से खेलता है। फिर जैसे ही वह यौवन में आता है , तरुण हो गया तो तरुणी में आसक्त हो जाता है। - तरुण- तरुणी आसक्ति में सूख कहाँ है ?उस समय वो स्त्री हो या पुरुष हो ? उस समय वो मन की अजब दुविधाओं से गुजर रहा होता है। फिर एक बार बड़ा तो जाता तो घर-गृहस्थी की चिंता में फंसा रहता है। वो आपको पता ही है। फिर वृद्ध हो जाता है -यौवन चला गया , इन्द्रियाँ क्षीण हो गयीं , अब भोग करने की स्थिति में नहीं रहते तो depression कहो या darkness कहो, बस आश लगाकर बैठे रहते हो कि आगे चलकर कुछ होगा।
तो हमने देखा बाल्यावस्था दुःखं ! बाल्यावस्था क्या ? आप यहाँ से देखना शुरू कर दीजिये। जन्म दुःखं, बाल्यावस्था दुःखं , यवनं दुःखं, वार्धक्यं दुःखं , मृत्यु दुःखं , सर्वं दुःखं। ये विवेकी को स्पष्ट दिखाई देता है। इसमें सुख कहाँ है ? जीव जैसे ही अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेता है उसका परिणाम यही होता है। - जनन,मरण, क्लेश,संपात, हेतु । इस अविद्या या अज्ञान में फंस जाने के कारण अब क्या होगा ? अज्ञान से जनन , मरण , क्लेश- यानि दुःख, संपात यानि प्रवाह । यह जनन -मरण रूपी दुःख। और उसका 'संपात' यानि प्रवाह - यानि अज्ञान से यह जनन-मरण रूपी दुःख का प्रवाह अब चलता ही रहेगा। जन्म दुखद है , बाल्यावस्था दुःखद है , यौवन दुखद है , वार्धक्य दुःखद है , और मृत्यु दुखद है। और ये प्रवाह अब चलता ही रहता है। विवेको को समझ में आता है। अविवेकियों को समझ में नहीं आता , उनको लगता है कि इसीमें सुख है ? अविवेकी क्या करेगा ? वो दुःख में सुख देखेगा। जिस प्रकार वो मगरमच्छ में लट्ठा देखता है। सर्वत्र यही गोलमाल चल रहा है।
यहाँ पर शंकराचार्यजी बता रहे हैं - अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेना , यही बंधन है। और यही होती क्यों है ? अज्ञान के कारण। अज्ञान के कारण यह अनात्मा में आत्मबुद्धि करने का परिणाम क्या है ? अज्ञान से जनन , मरण , क्लेश- यानि दुःख, संपात यानि प्रवाह- यह हेतु बन जाती है। जन्म-मृत्यु की पीड़ा को अनुभव करना होता है। फिर क्या है ? --येनै वायं वपुः इदं सत्यं इति आत्म बुद्धि-येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या। ! इसके कारण -इस अनात्मा (स्थूल शरीर) में आत्मबुद्धि करने के कारण, क्या हो रहा है ? यह जो वपु है - यानि स्थूल शरीर है। यह वपु जो की सत्य नहीं है , इसको सत्य समझ करके हम क्या करते हैं ? इससे राग कर लेते हैं , इसके आकर्षण में फंस जाते हैं। स्थूल शरीर अपने आप में सत्य है क्या ? ये तो एक बुलबुले के समान है। (42:06) ये तो कभी भी टूट जायेगा। जो सत्य नहीं है , उसको सत्य मान लेने से हमारा व्यवहार कैसा होता है ? तीन सुन्दर शब्द शंकराचार्यजी यहाँ व्यवहार करते हैं। पुष्यत्युक्षत्यवति - पुष्यति, उक्ष्यति और अवति ! एक बार अपने इस असत्य शरीर को सत्य समझ लिया ; तो हम क्या करते हैं ? पुष्यति : मतलब आप दिनभर इस शरीर का पोषण करने में ही लगे रहते हैं। फिर उक्ष्यति : मतलब शब्दसः अर्थ है नहाना या सजना दिनभर शरीर का मेकप करने में ही हम लगे रहते हैं। एक बार इस शरीर को सत्य मान लेते हैं , और मैं यह शरीर हूँ , ऐसा हम मान लेते हैं - तो फिर स्वाभाविक रूप से हमारा आचरण ऐसा होगा कि हम हमेशा शरीर को सजाने और सवाँरने में ही लगे रहेंगे। सभी मनुष्यों की यही तो स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हम सभी कर रहे हैं। इसमें कोई दोष नहीं देख रहे हैं , ये सभी मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। आप जब अपने-आप को शरीर मानकर ही चल रहे हैं, तो आप दिनरात इस शरीर को ही सजाने -संवारने में लगे रहेंगे। आप फिर शरीर के पुष्यति, उक्ष्यति और अवतिमें ही लगे रहेंगे। अवति माने रक्षण करने में लगे रहेंगे। आप दिन भर शरीर को भरण-पोषण में सजाने-संवारने में लगे रहेंगे। यही है अविवेकी मनुष्यों का स्वभाव है - ये बिल्कुल उसी प्रकार है ; जैसे -तन्तुभिः कोष कृत वत्।कोषकृत का मतलब है कोष बनाने वाला। ये जो रेशम का कीड़ा या 'Silk worm' होता है - रेशम का कीड़ा वो अपने ही लार से - जो Saliva है , इसके द्वारा वह cocoon (सुरक्षा कवच) बना देता है -और उसी के अन्दर वह कैद हो जाता है, बद्ध हो जाता है। क्या सुंदर उदाहरण है !
इसी प्रकार शंकराचार्य जी कह रहे हैं , असत्य शरीर को सत्य समझने पर आप क्या करते हो ? दिनरात इस शरीर के पोषण में , इसको सजाने -सँवारने में लगे रहते हो। उस प्रकार के आचरण से आप खुद अपना एक cocoon बना देते हो, एक अलग कोष बना देते हो। और जिसके अंदर आप बद्ध हो गए हो। बंधन का कितना सुंदर उदाहरण है !We are creating our own Cocoon and we are trapped inside . ये बंधन है। बंधन का कितना सुंदर दृश्य शंकराचार्यजी प्रस्तुत करते हैं। अतिसुंदर दृश्य ! इसी प्रकार 'काबिल बनने' के चक्कर में हम सब यहाँ बँधे हुए हैं। और इस बंधन में बंधने 'काबिल बनने' की शुरुआत कहाँ है ? अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेना। जो अज्ञान के कारण होता है। जिसका परिणाम जन्म-मृत्यु रूपी पीड़ा का प्रवाह में गिरना। असत्य शरीर को सत्य समझकर इस शरीर के भरण-पोषण करने , इसको सजाने-संवारने में लगे रहते हैं। तो इससे होता क्या है ? जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने लार से खुद एक Cocoon बना कर अपने ही बनाये हुए कोष (जाल) के अन्दर हम फंस जाता है, उसी प्रकार हमलोग भी बद्ध हो जाते हैं। बंधन का कितना सुंदर विवरण है ! A beautiful description of what bondage is ? बंधन क्या है इसका सुन्दर वर्णन ? अतिसुंदर। (46:16)
इसी प्रकार स्थूल शरीर में सम्मोहन का शिकार होकर हर जीव यहाँ पर बंधा हुआ है। In the same way every living being is trapped here due to hallucination! हर जीव बंधा हुआ है ! ये जो हमने अभी चर्चा किया -जन्म-मरण -क्लेश : या जनन,मरण, क्लेश,संपात, हेतु । इसको बहुत ध्यान से समझने का प्रयास करना चाहिए। विवेक-चूड़ामणि का अध्यास शीर्षक १३९ वां श्लोक पर बहुत ध्यान देना चाहिए। क्योंकि- जन्म-मरण बंधन का हेतु क्या है ? इसका जन्म-मरण हेतु का अनुसन्धान केवल मनुष्य शरीर में ही किया जा सकता है ! That is what has to be investigated ? बताइये जीवन के कौन से stage या पड़ाव में सुख है ? शादी-विवाह में भी सुख का आभास हो रहा है , बिना कर्मयोग को समझे यह सही में सुख है क्या ? जीवन के कौन से अवस्था में सुख है ? चाहे बाल्यावस्था हो या तरुणावस्था हो ? यौवन हो , या वृद्धावस्था हो , किसी भी अवस्था में हो -सब दुःख पूर्ण है। इसीलिए भगवान बुद्ध की जो तीन प्रसिद्ध घोषणा हैं -सर्वं दुःखं दुःखं (सब कुछ दुःख है)। उन्होंने यह भी घोषणा की: सर्वं क्षणिकं क्षणिकं (सब कुछ क्षणभंगुर है) और सर्वं नास्यं नास्यं (सब कुछ नाशवान है )। ये सब महापुरुषों महापुरुषों की वाणी एक ही है।
उनको तो गहराई में दिखाई देता है , हमको गहराई में दिखाई नहीं देता है ; क्योंकि हम तो सिर्फ सतह में अटके हुए हैं न ? हमको तो अभी 2mm की चर्म दृष्टि से सिर्फ स्त्री-पुरुष ही दिखाई देता है , इसीलिए हम उसीमें सुख ढूँढ़ने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन इसमें दुःख ही, दुःख है। भगवान बुद्ध की घोषणा क्या है ? सर्वं दुःखं (सब कुछ दुःख है)। सर्वं क्षणिकं (सब क्षणिक है) -सब जा रहा है-यहाँ पर। यहाँ पर सब कुछ temporary है, अस्थायी है! महर्षि पतंजलि ने भी अविद्या या अज्ञान को ही क्लेश का कारण कहा है। विवेकी के लिए मोहग्रस्त -जीवन की सब अवस्था दुःख ही है -ये स्पष्ट दिखाई देता है। विवेकी को कोई Confusion या भ्रम नहीं होता है। हमलोग Confuse हैं। हमको लगता है कि शरीर के भोग वस्तुओं में सुख है। यही Confusion है भ्रम है ! अगर इसी में सारा जीवन बिता दोगे , तो बाद में सिर्फ पछतावा होता है। बुढ़ापा आने पर जब पीछे मुड़ कर देखते हैं , तब देखते हैं कि जीवन तो खत्म हो गया ! तब अफ़सोस होता है कि जीवनभर दौड़ते रहकर -क्या किया मैंने ? पहले से अगर मैं थोड़ा सा सावधान हो जाता , तब शायद मैं भी इस मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ पाता। तो इसी उम्र में युवा अवस्था में ही आपको सोचना होगा की जीवन की दिशा किधर होनी चाहिए ?
दूसरा प्रश्न क्या था ? कथमेष आगतः ? यह बंधन कहाँ से आया ? यानि ये तीर कहाँ से आया ? माने वेदान्त परम्परा में शिकारी वाली कहानी हमने सुनी थी - ये तीर कहाँ से आया ? उस उदाहरण को यदि देखें - तो यह तीर किस दिशा आया है ? तो ये बंधन आया कहाँ से ? इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए शंकराचार्यजी विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के १४१ वां श्लोक में आत्मा का अति सुन्दर विवरण देते हुएकहते हैं -
(49:26) शिष्य का दूसरा प्रश्न था ये बंधन आया कहाँ से ? उसका उत्तर देते हुए भगवान भाष्यकार शंकराचार्यजी उपरोक्त श्लोक के पहले दो पंक्तियों में उस परमात्मा (आत्मा) का विवरण करते हैं। ये आत्मा कैसा है ? पहली दो पंक्तियों में आत्मा का अति सुन्दर विवरण दिया गया है। आत्मा कैसा है - अखण्ड नित्य अद्वै बोध शक्त्या स्फुरन्तं आत्मानं अनंत वैभवं ! अर्थात ये आत्मा जो है वो अनंत वैभवशाली है ! और वो चमक रही है। वह आत्मा कैसे चमक रही है? अखण्ड नित्य अद्वय बोध शक्त्या स्फुरन्तं - अखण्ड,नित्य, अद्वै, बोध- शक्तिके द्वारा आत्मा चमक रही है। कहने का तात्पर्य है कि आत्मा उसी चैतन्य का प्रकाश है- जो शाश्वत है। अर्थात यह आत्मा 'अद्वै' है , उसके समान दूसरा नहीं है, वह एकमेवाद्वितीय है। ऐसा जो 'एकमेवाद्वितीय' जो चेतन है, जो चैतन्य है,Consciousness जो है, वो तो नित्य है , वो तो अनित्य नहीं है। यह आत्मा ही सत्य है, क्योंकि यह त्रिकाल अबाधित है या सब समय विद्यमान है ! आत्मा के अतिरिक्त , बाकि जितनी भी चीजें हैं; वह सब विद्यमान सा दीखता है लेकिन विद्यमान नहीं है। लेकिन यह आत्मा जो है नित्य है , नित्य विद्यमान है। (और बोध शक्त्या स्फुरन्तं) और उसकी जो बोधशक्ति है - उसको हम कैसे कहें, शाश्वत चैतन्य वस्तु। इस शाश्वत चैतन्य (सच्चिदानन्द ब्रह्म-परमात्मा) के प्रकाश से प्रकाशित ऐसा जो अनंत वैभव-शाली आत्मा है , उसके साथ क्या हो रहा है? ऐसा जो अनंत वैभवशाली आत्मा है, उसके साथ क्या हो रहा है ? वो ढँक जा रहा है ! अच्छा कौन ढँक रहा है इसको ? अब आप वो रूप देख लीजिये काली और शिवजी।शिवजी जो अनंत है ,उसको जैसे कि ढँका जा रहा है ! सम आवृणोति -मतलब आवृत्त कर देना, उसको ढँक देना। जैसे कि अनंत वैभवशाली जो आत्मा है, जैसेकि वो आवृत हो रही है, ढंक जा रही है। कैसे ढंक जा रही है ? ऐसी कौन सी शक्ति है , जो उस अनंत वैभवशाली आत्मा को भी ढँक देती है ? तो इसका उत्तर देते हुए (शास्त्र और गुरु) कहते हैं -आवृत्ति शक्ति एषा ! (51:34)
(उस अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका परमेश-शक्ति) माया की दो शक्तियाँ हैं - एक आवरण शक्ति है और दूसरी विक्षेप शक्ति है। है ना ? दो शक्तियाँ हैं। वो माँ भवतारिणी काली हैं जो हैं, जिन्हें उनके भक्त पगली माता भी कहते हैं ; वह क्या करती है ? वो पहले सत्य को ढँक देती है, और जो सत्य नहीं है उसको प्रकट कर देती है ! यही तो हमने देखा न ? वो माया शक्ति क्या कर रही है ? वो पहले सत्य को ढँक देती है , और जो सत्य नहीं है, जो केवल सत्य जैसा भासित हो रहा है, उसको प्रकट कर देती है। आपके पूरे स्वप्न-सृष्टि को देख लीजिये। स्वप्न-सृष्टि सत्य है क्या ? उस स्वप्न को सृष्ट कौन रही है ? वही परमेश शक्ति, माया शक्ति ही स्वप्न को सृष्ट कर रही है! माया शक्ति क्या करती है ? जो सत्य नहीं है , उसको सृष्ट कर देती है और जो सत्य है, उसको ढंक देती है। ये माया का काम है। तोसम आवृणोति आवृत्ति शक्तिः एषा ! माया की जो आवरण शक्ति है, वह ऐसी आत्मा जो अनन्त वैभवशाली है, उस अनन्त वैभवशाली आत्मा को,यह आवरण शक्ति युक्त जो माया है, उसको ढँक देती है।
>>तो जो माया शक्ति है उस अनंत वैभवशाली आत्मा को कैसे ढँक देती है ? (52:42)
वो माया जो है, वो तो तमोमयी है न ? मतलब अनादि अविद्या है। तमस मतलब अंधकार या अज्ञान से आत्मा को ढँक देती है।तमोमयी - मतलब और कुछ नहीं, अज्ञान। अज्ञान से उसको ढँक देती है। तो यहाँ पर उदाहरण क्या दिया गया है ? तमोमयी राहु इव अर्क बिम्बम्, अभी राहु इव अर्क बिम्बम् का मतलब है -जो सूर्यग्रहण लगता है न ? और कुछ नहीं सूर्य-ग्रहण की बात हो रही है यहाँ पर। Solar eclipse -की बात हो रही है। Solar eclipse में क्या होता है, सूरज और पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है ! तो देखिये चन्द्रमा के आने मात्र से जैसे कि इतना बड़ा जो सूर्य है, वह भी मानो थोड़ी देर के लिए ढंक जाती है। आप दूसरा उदाहरण भी ले सकते हो। अभी देखिये - अभी आपको सूरज दिखाई दे रहा है क्या ? अभी सूरज को क्या ढँक दिया है ? बादल ! अच्छा सूरज का जो परिमाण है उसकी तुलना में ये बादल है ही क्या? सूरज का जो dimension (परिमाप) है उसकी तुलना में ये बादल है ही क्या ? कुछ भी नहीं है। लेकिन ढँक देती है। इस समय सूरज नहीं है क्या ? होते हुए भी -सूरज दिखाई नहीं दे रहा है।उसी प्रकार ये आत्मा भी होते हुए नहीं दिखाई दे रही है। क्यों ? इस माया की जो आवरण शक्ति है उसके कारण , यह होते हुए भी हमको दिखाई नहीं दे रहा है।लेकिन आप अगर खोजना शुरू कर दें, तो धीरे-धीरे ये माया हटने लगती है।मतलब ये काली जो है , यह जान जाये , भाई अब ये सत्य को जानने का प्रयास कर रहा है। तो वह धीरे -धीरे स्वयं हट जाती है।और जब माया हट जाती है - तब सत्य जो है प्रकाशित हो जाता है। तो इस प्रकार (बादल से सूर्य के ढँकने जैसा) ये बन्धन हमारे ऊपर आ जाती है। तो दूसरा प्रश्न था ये बंधन आया कहाँ से ? तो इस प्रकार माया के कारण, यह बन्धन हमारे ऊपर आ जाते हैं। तो दूसरे प्रश्न का उत्तर भी बहुत सुन्दर ढंग से शास्त्र और गुरु दे देते हैं।
अब तीसरा प्रश्न क्या था ? (54:52 ) कथं प्रतिष्ठा अस्य ? ये बन्धन हमारे जीवन में चल कैसे रहा है? 'It is continuing' न ? It is continuing ! बन्धन लगातार चल कैसे रहा है ? तो इसका उत्तर क्या है ? अति सुंदर है। विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के १४७ वां श्लोक में कहते हैं -
प्रश्न ये है कि ये बंधन हमारे जीवन में चल कैसे रहा है ? चल ही रहा है न ? ये तो खत्म क्यों नहीं हो रहा है ? ये तब तक खत्म नहीं होगा जब तक हम गुरु की शरण में नहीं आयें ; और जब तक हम शास्त्र की शरण में न आयें ! शास्त्र और गुरु के माध्यम से ही बंधन का निर्मूलन सम्भव है। जो की ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होती है। या हम मूल कारण में जायें तो कहें कि ईश्वर की कृपा से ही व्यक्ति इस बंधन से मुक्त होता है। क्योंकि ईश्वर की कृपा गुरु और शास्त्र के माध्यम से ही प्रकट होती है। तो ये बंधन हमारे जीवन में चल कैसे रहा है ? तो यहाँ पर एक सुन्दर दृष्टान्त ये उपमा दी गयी है।
दृष्टान्त किस चीज का है ? बीज है और पेड़ है। मैं पहले ही आपको बता देता हूँ। पेड़ की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? बीज से ! बीज से पहला क्या निकलता है ? अंकुर निकलता है। है न? बीज तो अदृश्य है। मिट्टी के नीचे है। और मिट्टी को, पृथ्वी को तोड़ कर बीज अंकुर के रूप में बाहर प्रकट होती है। क्या अद्भुत है ?? कितनी शक्ति है उसमें ? उस बीज के अन्दर क्या अद्भुत शक्ति है !वो बीज मिट्टी को किसी न किसी तोड़ के बाहर आ जाएगी। चैतन्य है उसमें! अद्भुत है कि नहीं ? वो जो इतना छोटा सा बीज है , और मिट्टी के नीचे है। लेकिन वह किसी प्रकार से भी, किसी न किसी तरीके से उस मिट्टी को तोड़ कर के जब बाहर प्रकटित होती है,तो अंकुर के रूप में प्रकट होती है। अंकुर जब थोड़ा सा और बड़ा हो जाता है , तो उसमें से बहुत ही क्या कहते हैं उसको ? 'Tender leaves' -बहुत ही कोमल पत्तियाँ निकलती हैं। फिर उसी अंकुर को आप पानी देते रहोगे, तो थोड़ा सा बड़ा पौधा हो जायेगा। और भी पानी देते रहोगे तो पौधा अब क्या हो जायेगा ? वृक्ष का जो मूल शरीर है , उसको क्या कहें ? तना ! तना बन जाता है। तना में से फिर शाखायें निकलती हैं। शाखाओं से फिर टहनियाँ निकलती हैं। टहनियों से फिर पत्ते निकलते हैं। पत्तों से फिर फूल निकलता है। फूल से फिर फल निकलता है। बीज से पेड़ बनने की प्रक्रिया यही है न ?
(58:37) इसी ये बंधन भी हमारे जीवन में बढ़ता ही जाता है। यही उपमा दी गयी है। यहाँ पर वृक्ष की उपमा है। जिस प्रकार वृक्ष को हम जल देते रहें तो बीज जो है वो अंकुरित होकरके पौधा होता है। पौधा होकरके बड़ा पेड़ हो जाता है। और फूलता-फलता है। उसी प्रकार ये बन्धन हमारे जीवन में बिल्कुल फल रहा है, फूल रहा है ! इस बन्धन के मूल बीज को हमलोग खुद ही पानी दे रहे हैं। हमको यह समझ में भी नहीं आ रहा है। अविवेक के कारण हम इस बन्धन के बीज को अच्छी तरह से पानी दे रहे हैं। खाद्य-पदार्थ दे रहे हैं। और ये बंधन अच्छी तरह से फल रहा है और फूल रहा है। ये उदाहरण है। देखो यह एक बहुत बड़ा भयानक परिस्थिति है। हमको पता भी नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं ? हम इस प्रकार जीवन जी रहे हैं जैसे कि आप पेड़ को पानी दे रहे हो। तो पेड़ तो और भी फलेगा। सो बन्धन रूपी पेड़ को अनजाने में हम पानी दे रहे हैं। खाद्य पदार्थ दे रहे हैं। और ये बंधन रूपी पेड़ जो है अच्छी तरह से मजबूत हो रहा है। फल रहा है और फूल रहा है। क्या सुन्दर उदाहरण है।
(1:00:00)तो श्लोक में १४७ में देखो कहते हैं अब ये बीज क्या है ? बीजं संसृति भूमि जस्य तु तमः। संसृति का मतलब है जन्म-मृत्यु का जो बीज, तो जन्म-मृत्यु का जो चक्र है- जन्म है, मृत्यु है , जन्म-मृत्यु रूपी इस चक्र का बीज क्या है ?जन्म-मृत्यु चक्र का बीज है -'तमः' माने अज्ञान। अज्ञान ही बीज है। अब इस अज्ञान रूपी बीज से पहला अंकुरित क्या होता है ? -देहात्म धी अंकुरों ! शरीर में आत्मबुद्धि कर लेना। यह अज्ञान से उत्पन्न, अज्ञानरूपी बीज से उत्पन्न होने वाला पहला जो अंकुर होगा, वो होगा अनात्मा में आत्मबुद्धि कर लेना। यानि देह में आत्मबुद्धि कर लेना। ये उसका पहला अंकुर है।
और अंकुर से पहले निकलने वाली जो कोमल पत्तियाँ हैं , वे क्या हैं ?रागः पल्लवम - पल्ल्वं मतलब कोमल पत्ते। देहात्मबुद्धि में से निकलने वाला पहला कोमल पत्ते क्या हैं ? वह है -राग या attachment! एक बार जब आपने ये मान लिया मैं शरीर हूँ ; तब शरीर के प्रति राग हो जाती है। attachment हो जाती है। आसक्ति हो जाती है। तो रागः पल्लवम! फिर इस प्रकार अंकुरित हो गया। थोड़े से कोमल पत्ते जब आ गए। तो आप अब उसको पानी दोगे। तो पानी देना क्या है ? अम्बु कर्म तु वपुः। अम्बु मतलब पानी। अब इस प्रकार हम कर्म करते हैं, कि कर्म का मतलब यहाँ पर सकाम कर्म। आप जब कामना-युक्त कर्म करते हो, तो इस अज्ञान के बीज को आप अच्छी तरह से पानी दे रहे हो।
तो अब तक क्या हुआ ? अज्ञान बीज, अज्ञान बीज है। अज्ञान रूपी बीज में से पहला अंकुरित क्या हुआ ? देहात्मबुद्धि। उसमें से निकलने वाला पहला पहला पत्ता क्या है ?राग, आसक्ति या-attachment ! फिर आपको शरीर से राग हो जाता है। वह आपके कोमल पत्ते हैं। फिर उस पौधे को आप पानी दे रहे हो। जब आपको शरीर से राग हो गया, तो अब आप सकाम कर्म ही करोगे।सकाम स्वार्थ रूपी कर्म ही करोगे। ये सकाम स्वार्थ रूपी कर्म जो है , वो बिल्कुल उस पौधे को पानी देने के समान है। तो वो पौधा और भी बढ़ने वाला है। सकाम कर्म जो है ,स्वार्थ कर्म जो है, यह बिल्कुल ही उस अज्ञान रूपी बीज को पानी देने का काम करती है। इसीलिए देखिये आध्यात्म जीवन में सकाम और स्वार्थ कर्म का कोई स्थान नहीं है। आध्यात्म जीवन में निःस्वार्थता ही उसका मूल है। कर्मयोग (Be and Make) जो है , उसके मूल में निःस्वार्थता है। कर्मयोग -कर्म नहीं। सकाम कर्म नहीं लेकिन निःस्वार्थ कर्म या निष्काम कर्म उसके मूल में है। क्योंकि हम सकाम कर्म जब करते हैं, तो बिल्कुल इस अज्ञानरूपी बीज को जल देने का वह काम करती है। फिर इस प्रकार जब हम पानी देने से वो छोटा सा पौधा तना बन जाता है - वपुः स्कन्धो। वपु याने तना। जो छोटा सा पौधा था वो बड़ा हो गया स्कंध बन गया -तना बन गया।
असवः शाखिकाः - इस शरीर के अंदर जितने प्राण हैं वे बिल्कुल शाखाओं के समान हैं। प्राणवायु जो है , वो विभिन्न दिशाओं में फैलती है न ? हमारे अन्दर जो पंचप्राण हैं वे पंच दिशाओं में फैलती है। ये ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार तना में से शाखाएं विभिन्न दिशाओं में फैलती हैं।असवः शाखिकाः का हो गया।
और इन शाखाओं में से अग्राणीन्द्रियसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं-'अग्राणी इन्द्रिय संहति च ' और हमारे इस शरीर में जितनी इन्द्रियाँ (कर्ण -चक्षु आदि) हैं , वे बिल्कुल उन शाखाओं में से निकलने वाले टहनियों के समान है। अग्राणीन्द्रियसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि- जितने भी इन्द्रियों के विषय हैं वे फूल के समान हैं। और ऐसे विषयों के पीछे जाकर के व्यक्ति को मिलता क्या है?दुःखं फलं -इन्द्रिय विषयों के पीछे जाने का फल दुःख है।
इस प्रकार'नाना कर्मसमुद्भवः बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः -इस प्रकार ये जीव जो है एक पक्षी के समान - इस शरीर में बैठकर के अपने किये हुए कर्मों का दुःख रूपी फल खाता रहता है। पक्षी जैसे पेड़ में बैठकर फल खाता है। उसी प्रकार ये जीव, हम सब ये जीव हैं, शरीर रूपी इस पेड़ की डाल पर बैठकर ये जीव जो है, सच्चाई में विभिन्न प्रकार के दुःखद फल को ही खाता रहता है। आप कहोगे लेकिन स्वामीजी उसको सुख भी तो मिलता है ? अभी सुख मिलता है -या दुःख मिलता है ? आप सोच लीजिये इसको।सुख का आभास है , मूलतः दुःख ही है। वो तो यहाँ कैद है न ? जीव तो इस शरीर के अंदर कैद है। कहाँ से सुखी होगा ? यहाँ से हम कुछ भी कर लें, या कितना भी इन्द्रियों से विषयों का भोग कर लें ? विषयों का जितना भी सेवन कर लें, उसकी जो अनुभूति होगी -वो दुःख ही होगा। सुख नहीं हो सकता। तो इस प्रकार जो बंधन है, हमारे जीवन में यह निरंतर चल रहा है , फल रहा है। फूल रहा है। बन्धन अच्छी तरह से हमारे जीवन में फल रहा है। और फूल रहा है। ये चल रहा है।
तो हमारे सारे प्रश्न खत्म हो गए हैं! सात प्रश्न ! लेकिन मैं एक बात बता देता हूँ। हमने जो उत्तर देखे हैं, हमने मुख्य उत्तर को ही लिया है। लेकिन विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ में हर उत्तर के Wonderful Details are there ' अद्भुत विवरण हैं। यहाँ से लौटने के बाद समय मिलने पे आप पढ़ सकते हैं। वहाँ पर विस्तार पूर्वक हर प्रश्न का उत्तर दिया गया है। हमने सिर्फ एक श्लोक में जो उत्तर मिला है , उसे मैंने दे दिया है। लेकिन इसका details अगर आप चाहोगे , तो उसमें अति सुंदर उत्तर शंकराचार्यजी बहुत सुंदर ढंग से बताते हैं। आपलोग पढ़ के समझने का प्रयास कर सकते हो। जरूर कीजिये उसको। ॐ शांति।
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कामार कूमोर ताँति चाषि , आमरा सबाई विश्ववासी।
कर्म (निःस्वार्थ) बिना धर्म कि हय, जय बाबा विश्वकर्मा जय।।
কামার কুমোর তাঁতি চাষি, আমরা সবাই বিশ্ববাসী।
কর্ম বিনা ধর্ম কি হয়, জয় বাবা বিশ্বকর্মা জয়। ]
कर्म नहीं कर्मयोग ही कर्म का विज्ञान (Science of Work) है :
🔱 कर्मयोग (Science of work ~"We help ourselves, not the world.")
विचारणीय प्रश्न : यह एक विचारणीय प्रश्न है कि हमलोगों को 'व्यक्ति-निर्माण द्वारा राष्ट्र-निर्माण' के लिए स्वामी विवेकानन्द द्वारा उच्चारित महावाक्य (महा मंत्र)" चरैवेति, चरैवेति ~ Be and Make प्रशिक्षण पद्धति"का प्रचार-प्रसार करते हुए भारत माता को पुनः एक बार विश्वगुरु के आसन पर बैठाने के कार्य में अपना जीवन क्यों समर्पित कर देना चाहिए ? इसका उत्तर देते हुए क्योंकि इस कर्म विज्ञान के द्वारा, स्वामी विवेकानन्द ने कहा है
"हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं !"
"इस कर्मविज्ञान के और भी कई पहलू हैं। आश्चर्यचकित होना ही ज्ञान-लाभ की पहली सीढ़ी है। दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है- दूसरों की सहायता करना, संसार का भला करना।हम संसार का भला क्यों क्यों करें ? इसलिए कि देखने में तो हम संसार का उपकार करते हैं, परन्तु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं।" (३/५१)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मन में उठने वाले प्रत्येक विचार का एक अन्य समानुरूपी भी होता है, और वह है आकृति। इसे संस्कृत दर्शन में 'नाम -रूप' कहते हैं।संसार के कर्मकाण्डीय प्रतीकों में (मूर्तियों आदि में) हमें मानव जाति के धार्मिक विचारों (सृष्टि-स्थिति -प्रलय) की एक अभिव्यक्ति (माँ काली में) मिलती है। यह कह देना बहुत सरल है कि अनुष्ठानों, मन्दिरों तथा अन्य बाह्य आडम्बरों की कोई आवश्यकता नहीं, और यह बात तो आजकल के बच्चे तक कहा करते हैं। परन्तु, जो लोग मन्दिर में जाकर पूजा करते हैं, वे उन लोगों की अपेक्षा, जो ऐसा नहीं करते, उनसे कई मायनों में भिन्न होते हैं ' - इस सच्चाई को कोई भी आसानी से देख सकता है। विशिष्ट मंदिरों (काली मंदिर , शिव मंदिर, राममंदिर, श्री रामकृष्ण मंदिर, माँ सारदा मंदिर) के साथ जो कर्मकाण्डीय अनुष्ठान और अन्य स्थूल क्रिया-कलाप (खण्डन भव बंधन की आरती आदि) जुड़े हुए हैं, वे उन धर्मों के अनुयायियों के मन में उन सब भावों को जाग्रत कर देते हैं , जिनके ये मंदिर -अनुष्ठान आदि स्थूल प्रतीक स्वरुप हैं।अतएव अनुष्ठानों एवं प्रतीकों को एकदम उड़ा देना उचित नहीं। इन सब विषयों का अध्यन एवं अभ्यास स्वभावतः कर्मयोग का ही अंग है।"
इस कर्मविज्ञान के और भी कई पहलू हैं। इनमें से एक है -'विचार' तथा 'शब्द' के सम्बन्ध को जानना एवं यह ज्ञान भी प्राप्त करना कि शब्द-शक्ति से क्या प्राप्त किया जा सकता है। प्रत्येक धर्म में शब्द की शक्ति को मान्यता दी गई है, यहाँ तक कि किसी किसी धर्म में तो समस्त सृष्टि को ही शब्द से उत्पन्न बताया बताया गया है। ईश्वर के संकल्प (विचार) का बाह्य रूप 'शब्द' है और चूँकि ईश्वर ने सृष्टि-रचना के पूर्व संकल्प एवं इच्छा की थी, इसलिए समस्त सृष्टि 'शब्द'से ही निकली है। (ईश्वर ने इच्छा और संकल्प किया -'गाय' और गाय का चित्र आ गया, अल्लाह ने कहा - तू हो जा !) हमारे इस भौतिकवादी जीवन के तनाव और भागदौड़ में, हमारी तंत्रिकाएँ संवेदनशीलता खो देती हैं और जड़ हो जाती हैं। ज्यों ज्यों हम बूढ़े होते जाते हैं, उतना ही संसार की ठोकरें खाते जाते हैं, त्यों त्यों हममें अधिकाधिक जड़ता आती जाती है और फलस्वरूप हम उन घटनाओं की उपेक्षा कर देते हैं, जो हमारे आस-पास लगातार और प्रमुखता से घटित होती रहती हैं। 'Human nature, however, asserts itself sometimes ' परन्तु मानव स्वभाव (Human nature) कभी कभी अपने अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity-ब्रह्मत्व) को प्रकट करना चाहता है; 'and we are led to inquire into and wonder at some of these common occurrences' और हम इन साधारण घटनाओं के रहस्य को जानने तथा उन पर आश्चर्य करने के लिए प्रेरित होते हैं; 'wondering thus is the first step in the acquisition of light.'इस प्रकार आश्चर्यचकित होना ही ज्ञान-लाभ (acquisition of light-आत्मज्ञान) की पहली सीढ़ी है। " [कर्मयोग " हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं ! (३/४९)]
"Every thought in the mind has a form as its counterpart. This is called in Sanskrit philosophy Nâma-Rupa — name and form. In the world's ritualistic symbols (माँ भवतारिणी काली) we have an expression of the religious thought of humanity (सृष्टि-स्थिति -प्रलय) . It is easy to say that there is no use of rituals and temples and all such paraphernalia; every baby says that in modern times. But it must be easy for all to see that those who worship inside a temple are in many respects different from those who will not worship there. Therefore the association of particular temples, rituals, and other concrete forms with particular religions has a tendency to bring into the minds of the followers of those religions the thoughts for which those concrete things stand as symbols; and it is not wise to ignore rituals and symbology altogether. The study and practice of these things form naturally a part of Karma-Yoga.
There are many other aspects of this Science of Work. One among them is to know the relation between thought and word and what can be achieved by the power of the word. In every religion the power of the word is recognised, so much so that in some of them creation itself is said to have come out of the word. The external aspect of the thought of God is the Word, and as God thought and willed before He created, creation came out of the Word. In this stress and hurry of our materialistic life, our nerves lose sensibility and become hardened. The older we grow, the longer we are knocked about in the world, the more callous we become; and we are apt to neglect things that even happen persistently and prominently around us. Human nature, however, asserts itself sometimes, and we are led to inquire into and wonder at some of these common occurrences; wondering thus is the first step in the acquisition of light. (Volume 1, Karma-Yoga : CHAPTER V: WE HELP OURSELVES, NOT THE WORLD )
(" There are many other aspects of this science of work. ~ By Helping Others We Only Help Ourselves! "Our duty to others means helping others; doing good to the world. Why should we do good to the world? Apparently to help the world, but really to help ourselves.") साधना प्रारम्भ करने से पहले किसी भी व्यक्ति में यह साधन-चतुष्टय - विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता ' 100 % नहीं होती, लेकिन साधना का प्रारम्भ करने के लिए कम से कम 5,10 % भी होनी चाहिए। इतनी ही पूँजी हमलोग यदि स्वामी विवेकानन्द प्रदत्त " चरैवेति, चरैवेति तथा Be and Make' प्रशिक्षण पद्धति द्वारा व्यक्ति-निर्माण से राष्ट्र-निर्माण की साधना-" में लगे रहें तो ये षट्सम्पत्तियां क्रमशः स्वतः बढ़ती जाती हैं। इसीको स्वामी जी कर्मविज्ञान कहते हैं।]
{अर्थात एकमेवाद्वितीय जो चैतन्य आत्मा है वह स्थूल शरीर रूपी बुलबुला के जैसा नश्वर ,अनित्य या मिथ्या नहीं है वो तो शाश्वत है!'शरीर' माया का कार्य है, लेकिन 'आत्मा' स्वयंभू है!}
145. संसार रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, देह के साथ तादात्म्य उसका अंकुर है, राग या आसक्ति उसके कोमल पत्ते हैं, कर्म उसका जल है, शरीर उसका तना है, प्राण उसकी शाखाएँ हैं, इन्द्रियाँ उसकी टहनियाँ हैं, इन्द्रिय-विषय उसके फूल हैं, विविध कर्मों से उत्पन्न विविध दुःख उसके फल हैं, और जीवात्मा उस पर बैठा पक्षी ही इनका भोक्ता है।
टिप्पणी: इस श्लोक में संसार या सापेक्ष अस्तित्व की तुलना एक वृक्ष से की गई है, और उपमा को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। तुलनाओं की उपयुक्तता विचार करने पर स्पष्ट हो जाएगी। यह इस प्रकार की रचना है जो शंकर को न केवल एक महान दार्शनिक, बल्कि एक सच्चे कवि भी दर्शाती है। और पाठक देखेंगे कि ऐसे श्लोक वेदान्त साहित्य की इस उत्कृष्ट कृति में प्रचुर मात्रा में हैं।
आत्मा ही पक्षी है।—मुण्डक उपनिषद (III. i. 1-2) के सुंदर श्लोकों की तुलना करें—IlV”। ज्ञान के परिपक्व होने पर दोनों पक्षी एक हो जाते हैं, केवल आत्मा ही शेष रह जाती है, और जीवन एक स्वप्न के समान जान पड़ता है।
145. Of the tree of Samsara ignorance is the seed, the identification with the body is its sprout, attachment its tender leaves, work its water, the body its trunk, the vital forces its branches, the organs its twigs, the sense-objects its flowers, various miseries due to diverse works are its fruits, and the individual soul is the bird on it.
Notes: In this stanza Samsara or relative existence is likened to a tree, and the simile is brought out in detail. The appropriateness of the comparisons will be patent on reflection. It is this kind of Composition which shows Sankara not only to be a great philosopher but a true poet also. And such Slokas, as the reader will perceive, abound in this masterpiece of Vedantic literature.
Soul is the bird .—Compare the beautiful Slokas of the Mundaka Upanishad (III. i. 1-2)—ílV” . With the ripening of Knowledge the two birds coalesce into one, the Self alone remains, and life is known to be a dream.]
[ अहं ब्रह्मास्मि। एकोऽहं द्वितीयो नास्ति। स एकाकी न रमत। स अकामयत्। एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय।
1. खण्डन भवबंधन : बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? अनात्मा क्या है ~ अनात्मा ['मैं' और 'मेरा'] को लेकर के ही हमलोग अपने स्थूल शरीर के मोह से सम्मोहित हैं। सिंहशावक होकर भी अपने को भेंड़ समझ रहा है ? तो उसी भेंड़त्व को हटाने में सारी मशक्कत करनी पड़ती है। क्योंकि हमारे मन में जो भी गलत धारणायें हैं, वे तो अनात्मा को लेकर के ही हैं। वह क्या है जिसे हम ‘मैं’ समझ रहे हैं पर वास्तव में अहं है -आत्मा नहीं है।
-->1- या दुःख आर्य सत्य है। जन्म भी दुःख है ,जरा भी दुःख है ,व्याधि भी दुःख है ,मरण भी दुःख है ,अप्रिय लोगों से मिलना भी दुःख है ,प्रिय लोगों से बिछुड़ना भी दुःख है और इच्छा करने पर किसी चीज का नहीं मिलना भी दुःख है। जन्म दुःख है , वृद्धावस्था दुःखमय है , स्त्री , पुत्रादि कुटुम्बजन दुःखरुप है , और अन्तकाल भी बडा दुःखद है , इसलिए जागो - जागो । इस अंतकाल को रोज याद करो ।
{कोकून को काटने की प्रक्रिया माँ-पिता तारा-सूरज 1970-71, विवाह-बारात -बालबच्चा -नाती -पोता- मित्र -शत्रु -14 जनवरी 1985, स्वामी विवेकानन्द , 14 अप्रैल 1986, हरिद्वार कुम्भ -27 मई, 1987, सदगुरुदेव से दीक्षा , 25 दिसम्बर, 1987 से नबनीदा का सानिध्य। घो०पाड़ा से विवेक-चूड़ामणि बोध 16 सितम्बर, 2025 }
श्रीरामकृष्ण की एक शिक्षा बताती है कि कैसे कोई व्यक्ति अपने को स्थूल शरीर समझकर सांसारिक मोह-माया या भ्रम से बंधा रहता है, भले ही वह कितना भी प्रयास करे। लंगर डालकर रातभर नाव चलाने का मतलब है कि आप आध्यात्मिक कर्म तो करते रहते हैं, लेकिन अगर आपने संसार का बंधन नहीं काटा है, तो आप एक ही जगह पर अटके रहेंगे और सही अर्थों में आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पाएंगे।
यह दृष्टांत इस बात पर बल देता है कि आध्यात्मिक ज्ञान या सत्य की प्राप्ति के लिए सांसारिक बंधनों को पूरी तरह से तोड़ना आवश्यक है।
>>छः विकार :इस देह के विषय में छः उर्मी तथा छः भाव-विकार प्रतीत होते हैं सो तू नहीं है। किन्तु उनसे भिन्न और निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित है, तहां शिष्य आशंका करता है कि, हे गुरो! छः उर्मी और छः भावविकारोंको विस्तारपूर्वक वर्णन करो। तहां गुरु वर्णन करते हैं कि, हे शिष्य ! क्षुधा, पिपासा (भूख प्यास ) ये दो प्राण की ऊर्मी अर्थात् धर्म हैं और इसी प्रकार शोक तथा मोह ये दो मनकी ऊर्मी हैं। इसी प्रकार जन्म और मरण ये दो देह की ऊर्मी हैं, ये जो छः ऊर्मी हैं सो तू नहीं है। अब छः भाव विकारोंको श्रवण कर “जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति" ये छः भाव स्थूल देह के विषय रहते हैं सो तू नहीं है। तू तो उनका साक्षी अर्थात् जाननेवाला है। तब शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं कौन और क्या हूं ? सो कृपा करके कहिये। तब गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तू निर्भय अर्थात् सच्चिदानंद-घनरूप है, शीतल अर्थात् सुखरूप है। तू अगाध-बुद्धि अर्थात् जिसकी बुद्धि का कोई पार न पा सके। ऐसा है और अक्षुब्ध कहिये क्षोभरहित है। इस कारण तू क्रिया का त्याग करके चैतन्यरूप हो ॥१७॥
"श्रीमद् आदिशङ्करभगवत्पादाचार्यविरचित:"
नित्यशुद्धविमुक्तैकमखण्डानन्दमद्वयम्।
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेव तत् ।।३६ ।।
श्रीमदाद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित आत्मबोध का यह श्लोक आत्मस्वरूप की परम स्थिति का उद्घाटन करता है। साधक जब नेति-नेति द्वारा समस्त उपाधियों का अतिक्रमण करता है, तब वह अनुभव करता है - मैं वही परम ब्रह्म हूँ, जो नित्य, शुद्ध, मुक्त, अद्वय और अखण्डानन्दस्वरूप है।
आदि शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि आत्मा न तो शरीर है, न इन्द्रिय, न मन और न बुद्धि। ये सब परिवर्तनशील हैं, पर आत्मा अपरिवर्तनशील।
नित्य - जो कालत्रय से रहित है, जिसे उत्पत्ति और विनाश नहीं।
शुद्ध - जो अविद्या और कर्मों के मल से अप्रभावित है।
विमुक्त - जो जन्म-मरण के बन्धनों से परे है।
एकम् - जिसमें द्वैत का अंश भी नहीं, क्योंकि द्वैत अविद्या का परिणाम है।
अखण्डानन्द - जिसमें सुख-दुःख का भेद नहीं, केवल परमानन्द का अखण्ड प्रवाह है।
अद्वयम् - जो द्वैत से रहित है; जड़ और चेतन, जीव और ईश्वर की विभाजन-रेखा वहाँ लुप्त हो जाती है। शंकरभाष्य के अनुसार, यही आत्मस्वरूप "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" है, जिसका वर्णन तैत्तिरीयोपनिषद् में हुआ है। सत्य उसका अस्तित्व है, ज्ञान उसका स्वरूप है, और अनन्तता उसकी परिपूर्णता है।
अद्वैत वेदान्त का निष्कर्ष है कि जीव और ब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं। जीव उपाधियों (शरीर, मन, अहंकार) से बँधकर सीमित प्रतीत होता है, किन्तु इन उपाधियों का अतिक्रमण होते ही वही अनन्त ब्रह्म के रूप में प्रकट होता है। जीव का सीमितत्व अविद्या है, उसका स्वाभाविक स्वरूप ब्रह्म है। यही कारण है कि महावाक्य कहता है - “अहं ब्रह्मास्मि”।
यह श्लोक साधक के अन्तःकरण में वह दीप प्रज्वलित करता है, जहाँ से सारा अज्ञान छिन्न-भिन्न हो जाता है। यह केवल तर्क का विधान नहीं, अपितु अनुभूति का आलोक है। मानो गगन में मेघ हटते ही सूर्य का स्वप्रकाश प्रकट हो जाए - वैसे ही आत्मा का अद्वय स्वरूप, शुद्ध–नित्यमुक्त और अखण्डानन्दमय ब्रह्म के रूप में उदित होता है।
इस श्लोक का सन्देश है कि परम सत्य बाहर कहीं नहीं, बल्कि स्वयं में ही विद्यमान है। आत्मा का स्वरूप ब्रह्म ही है “नित्यशुद्धविमुक्तैकम् अखण्डानन्दमद्वयम्।” जब साधक इस सत्य को अनुभव करता है, तभी उसे मोक्ष की परमावस्था प्राप्त होती है। यह श्लोक अद्वैत वेदान्त का हृदय है। यह स्मरण कराता है कि आत्मा का सत्यस्वरूप नित्य, शुद्ध, मुक्त और अद्वितीय ब्रह्म ही है। जीव का परम लक्ष्य इस अनुभूति तक पहुँचना है।
>>सत्र 23 के लिए : सातो प्रश्नों का उत्तर देने के बाद गुरु शिष्य को आदेश देते है - विवेक-चूड़ामणि शास्त्र का श्लोक हिन्दी श्लोक संख्या १३८ / (अंग्रेजी 136)
नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमात्मन्य्
अयमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादात् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धुं
प्रतर भव कृतार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३६ ॥
136. संयमित मन और शुद्ध बुद्धि के द्वारा, शरीर में अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करो, जिससे तुम स्वयं को ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित कर सको, संसार के असीम सागर को पार कर सको, जिसकी लहरें जन्म और मृत्यु हैं, और ब्रह्म में अपने सारस्वरूप में दृढ़तापूर्वक स्थित हो जाओ, धन्य हो।
टिप्पणि: स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के बजाय ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करो।स्थापित...स्वभाव - स्वभाव से ही हम सदैव ब्रह्म से तादात्म्य रखते हैं, किन्तु अज्ञानतावश हम सोचते हैं कि हम सीमित हैं, इत्यादि।
136.By means of a regulated mind and the purified intellect (Buddhi), realise directly thy own Self in the body so as to identify thyself with It, cross the boundless ocean of Samsara whose waves are birth and death, and firmly established in Brahman as thy own essence, be blessed.
Notes: Identity………It—instead of with the gross, subtle and causal bodies.Established……nature—By our very nature we are ever identified with Brahman, but through ignorance we think we are limited and so forth.
भवानपीदं परतत्त्वमात्मनः
स्वरूपमानन्दघनं निचाय्य ।
विधूय मोहं स्वमनःप्रकल्पितं
मुक्तः कृतार्थो भवतु प्रबुद्धः ॥ ४७३ ॥
472. तू भी इस परम सत्य को, आत्मा के वास्तविक स्वरूप को, जो शुद्ध आनन्द है, पहचान और अपने मन द्वारा उत्पन्न मोह को दूर कर, मुक्त और प्रकाशित हो, और अपने जीवन की पराकाष्ठा को प्राप्त कर।
टिप्पणि: तू भी, .—गुरु शिष्य को संबोधित कर रहे हैं। शुद्ध—मिश्रित नहीं, अर्थात् पूर्ण। प्रकाशित—प्रकाशित। जागृत, अर्थात् द्वैत के इस अवास्तविक स्वप्न से।
472. Thou, too, discriminate this Supreme Truth, the real nature of the Self, which is Bliss undiluted, and shaking off thy delusion created by thy own mind, be free and illumined, and attain the consummation of thy life.
Notes: Thou, too, .—The Guru is addressing the disciple. Undiluted—unmixed, i. e. absolute. Illumined—lit. awakened, i. e. from this unreal dream of duality.