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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

Bhakti Yoga - Class #6: "The Ishta" by Swami Vivekananda /इष्ट की परिकल्पना/ खण्ड ९/ पृष्ठ ५१-६०

Bhakti Yoga - Class #6: "The Ishta" by Swami Vivekananda 

इष्ट की परिकल्पना/ खण्ड ९/ पृष्ठ ५१-६०    

Swami Vivekananda's sixth Bhakti Yoga class for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday evening, 6 January 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.

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Bhakti Yoga class -5/The Chief Symbols/🔱🕊 🏹अनंत आनंद के प्रमुख प्रतीक 🔱🕊 🏹 खण्ड -९/पृष्ठ ४१

 [Swami Vivekananda's fifth Bhakti Yoga class -5 for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 6 January 1896. Narrated by Varun Narayan.]

🔱🕊 🏹अनंत आनंद के प्रमुख प्रतीक  🔱🕊 🏹 खण्ड -९/पृष्ठ ४१ 

( Class -5 :The Chief Symbols)   

 संस्कृत भाषा के दो शब्द हैं प्रतीक और प्रतिमा ! प्रतीक का अर्थ है - किसी विशेष भाव/विचार (जैसे Milestone) के समीप पहुँचना। [Pratika means coming towards, nearing.] सभी देशों में उपसना की कई श्रेणियाँ हैं। कुछ लोग साधु-महात्मा के छवि या अवतारों की छवियों  की पूजा करते हैं। कुछ लोग विभिन्न प्रकार के रूपों और प्रतीकों की पूजा करते हैं। भक्तियोग इन विभिन्न श्रेणी के छविओं में किसी भी छवि का तिरस्कार नहीं करता। भक्ति योग इन सबको एक नाम - 'प्रतीक' के अंतर्गत रखता है। ये लोग ईश्वर (आत्मा ,परम सत्य या इन्द्रियातीत सत्य) की ओर ले जाने वाले प्रतीक या सोपान के रूप की पूजा करते हैं। खंड ९/४१ 

Pratika (Book worship) cannot be worshipped as God. ईश्वर मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं, पर वेद या बाइबिल में उनका उल्लेख होना चाहिए। ग्रंथ आधारित धर्म का नाश नहीं होता। ९/४४ एकाग्रता के अभ्यास में मूर्ति आवश्यक है - छवि के बिना आप सोच नहीं सकते। हम सभी मनुष्य स्थूल-देहधारी आत्माएं हैं, और इसलिए हम अपने आप को इस धरती पर पाते हैं। (We are concreted spirits) ९/४६) यह स्थूल रूप में आसक्ति ही हमें यहाँ लाया है, और वही हमें यहाँ से बाहर निकालेगा। Concretization has brought us here, and it will take us out. क्या किसी साधारण M/F शरीर के प्रति आसक्ति रखने की अपेक्षा, अपने आदर्श और इष्टदेव ठाकुर-माँ स्वामीजी की छवि में आसक्ति रखना अधिक श्रेष्ठ नहीं है ? किसी स्त्री के सामने घुटने टेककर कहना, "तुम मेरी जान हो, मेरी आंखों की रोशनी हो, मेरी आत्मा हो।" यह तो मूर्तिपूजा से भी बदतर है। (To kneel before a woman and say, "You are my life, the light of my eyes, my soul." That is worse idolatry.) क्या यह बेहतर नहीं है कि बुद्ध या जितेंद्र-महावीर (जिन विजेता) की मूर्ति के सामने घुटने टेककर कहा जाए कि, "तुम ही मेरे जीवन हो"?(९/४६) 17 मिनट/ 


मनःसंयोग - अरुंधति नामक सुन्दर तारे को दिखाने की विधि, से आत्मा तक , method of showing the fine star known as Arundhati, मूर्ति को भूल जाओ और उसमें ईश्वर का दर्शन करो ! हम किसी भी वस्तु में भगवान को देखकर उसकी पूजा कर सकते हैं, बशर्ते हम मूर्ति को भूलकर उसमें भगवान (सच्चिदानन्द स्वरूप ठाकुर) को देख सकें। फिर ठाकुरदेव की मूर्ति को भूल जाओ -उसमें माँ जगदम्बा के सच्चिदानन्द स्वरुप का दर्शन करो ! उसी ईश्वर से जगत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। ठाकुर-माँ -स्वामीजी की प्रतिमा माँ जगदम्बा की प्रतीक मात्र है।(20 मिनट ) 

नाम शक्ति (the power of the name) : ईश्वर या आत्मा के नाम-रूप का गरुमुख से सुना हुआ सही उच्चारण है- 'रामोकृष्णो'! हम सभी का विश्वास है कि आत्मा निर्गुण निराकार है। उसका कोई नाम-रूप नहीं है। पर ज्यों ही हम उसके बारे में सोचते है -उसे नाम और रूप दोनों दे देते हैं। चित्त [=मन वस्तु] एक शांत सरोवर की समान है, और शब्द सुनकर उठने वाले विचार चित्त पर तरंग के सदृश्य है। आत्मा या ईश्वर चिंतन से परे है , ज्यों ही वह विचार्य विषय बन जाता है - उसका नाम और रूप होना अनिवार्य होता है। 'Name and Form' ठाकुरदेव का 'नाम और रूप' आत्मा रूपी विचार-तरंग के उठाने का उपाय है। नाम को हमलोग रूप से अलग नहीं कर सकते। 21m / ठाकुर का नाम -रामोकृष्णो, उनके रूप को अभिव्यक्त करने वाली शक्ति है, उनके भावों की स्थूल अवस्था ठाकुर देव का 'रूप' है और नाम उनकी सूक्ष्म अवस्था है।

3H - उसी एक वस्तु 'आत्मा' के अस्तित्व की तीन अवस्थायें हैं - सूक्ष्मतर, घनीभूत और अत्यंत घनीभूत। जहाँ एक रहता है , वहीँ शेष दोनों भी रहते हैं।      

यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे- The Universe is built upon the same plan as the Body, प्रक्षेपण और प्रलय : हमारे शरीर के पीछे के भाव को आत्मा कहा जाता है, और ब्रह्मांड के पीछे के भाव को ईश्वर कहा जाता है। उसके बाद आता है नाम। ॐ पूरे ब्रह्मांड या ईश्वर का नाम है।   

भगवान का नाम गुरु-शिष्य परम्परा में ही मिलना चाहिए। नाम जप से भक्ति की उच्चतम अवस्था प्राप्त होती है       

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Bhakti Yoga: Class #3 / आध्यात्मिक गुरु और शिक्षक (नेता) : आध्यात्मिक नेतृत्व की अवधारणा ('3P') / The Teacher of Spirituality :Every soul is destined to be perfect, /

 भक्ति योग :Class-3 : आध्यात्मिक गुरु और शिक्षक (नेता)   

 (The Teacher of Spirituality)

🔱आध्यात्मिक नेतृत्व की अवधारणा🔱 

(The concept of Spiritual Leadership) 

[स्वामी विवेकानन्द द्वारा भक्ति योग के प्रारंभिक साधकों के लिए 23 दिसंबर 1895 को सोमवार को सुबह में , 228 West 39th Street, New York में तीसरा क्लास लिया गया था, उसे श्री जोशिया जे. गुडविन द्वारा रिकॉर्ड किया गया था। यहाँ श्री वरुण नारायण उस प्रवचन को अंग्रेजी में सुना रहे हैं।  यह (1895-96 में) स्वामी विवेकानंद द्वारा न्यूयॉर्क शहर में भक्ति योग पर ली गई ग्यारह (11) कक्षाओं की श्रृंखला में यह तीसरी कक्षा है।] 

[Bhakti Yoga: Class-3 : 34.53 मिनट का प्रवचन ]

>>Every soul is destined to be perfect :... हर आत्मा का पूर्ण होना (100 % निःस्वार्थी होना) तय है। एक आत्मा केवल दूसरी आत्मा से ही ऐसी प्रेरणा प्राप्त कर सकती है, किसी अन्य उपाय से नहीं। जिस आत्मा से यह प्रेरणा आती है, उन्हें सद्गुरु (नेता -विष्णुसहस्रनाम वाला) कहते हैं, तथा वह आत्मा जिस तक यह प्रेरणा पहुँचती है, शिष्य (भावी नेता) कहलाती है।(भक्ति ही धर्म है इसलिए) "धर्म का वक्ता अद्भुत (wonderful) होना चाहिए, और श्रोता भी अद्भुत होना चाहिए।" [3.28 मिनट] 

(4.15 m) "प्रकृति का यह रहस्यमय नियम है-"दी सीकिंग सीनर मिटेथ दी सीकिंग सेवियर। (It is a Mysterious Law of Nature that - "The seeking sinner meeteth the seeking Saviour  जैसे ही खेत तैयार होता है, बीज अवश्य आना चाहिए, जैसे ही आत्मा को धर्म की आवश्यकता होती है, धार्मिक शक्ति का संचारक (The Transmitter of Religious force-SV) अवश्य आना चाहिए। [स्वामीजी का प्रण है - "I will not cease to work ! वे आज भी काम कर रहे हैं। और विभिन्न महामण्डल केंद्र इसके प्रमाण हैं।] 

क्या हमें वास्तव में सत्य या धर्म की पिपासा है ? सद्गुरु (नेता) को पहचाने कैसे ? सत्य स्वयंप्रकाश होता है। गुरु विवेकानन्द जैसे नेता (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) स्वयं प्रकाश (self-effulgent) हैं ! (खण्ड ९/२४)

आध्यात्मिक नेतृत्व की अवधारणा ('3P' The concept of spiritual leadership) : महामण्डल के भावी आध्यात्मिक नेता के आवश्यक गुण -पवित्रता (purity दुष्चरित से विरत-शास्त्र-निषिद्ध कर्मों से विरत), ज्ञान की सच्ची पिपासा (अर्थात आत्मा, ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य को जानने की सच्ची पिपासा -अनंत धैर्य , a real thirst after knowledge) तथा अध्यवसाय यानि अमृत मिलने तक समुद्रमंथन; अर्थात जब तक मन पर विजय प्राप्त न हो जाये, तब तक मन से निरंतर कुश्ती लड़ते रहने का नाम धर्म (=आध्यात्मिक नेता का धर्म है भक्त के रूप में जीवन-गठन।) है। (खण्ड-९/२४-२५)   

धर्म (अध्यात्म) क्या है ? धर्म तो मन के साथ एक सतत संघर्ष है। पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य बन जाने के लिए (तीनों ऐषणाओं : कामिनी,कंचन, नाम-यश में आसक्ति पर), विजय प्राप्त कर लेने तक अपने मन के साथ निरंतर कुश्ती लड़ते रहने का नाम है धर्म। यह (मल्ल्युद्ध यानि 5 अभ्यास कब तक करना है?) एक या दो दिन, महीनों; कुछ वर्षों या जन्मों का प्रश्न नहीं है, इसमें तो सैकड़ों जन्म बीत जायें, तो भी हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। अँधा  यदि अँधे को राह दिखाये तो दोनों गड्ढे में गिरते हैं ! जब तक हमलोग स्वयं अपना जीवन सुंदर ढंग से गठित नहीं कर लेते (अर्थात दुष्चरित से विरत नहीं हुए हैं ?), तब तक लड़कियों (बहनों -माताओं) के प्रति दूर से ही सम्मान दिखाना अच्छा है। उनको प्रशिक्षित और सन्मार्ग पर संचालित करने की बात सोचना भी ठीक नहीं है। महामण्डल आंदोलन एकमात्र युवा चरित्र-निर्माण के प्रति समर्पित आंदोलन  है , इसलिए लड़के-लड़कियों को (युवक-युवतियों को) एक साथ रखकर इसके प्रशिक्षण का कार्यक्रम करना स्वामीजी नहीं चाहते थे। इसलिए जब उन्होंने बेलुड़मठ का निर्माण किया था, उसी समय कह दिया था कि स्त्रियों के लिए अलग से मठ बनाने की आवश्यकता है, किन्तु उनके मठ संचालन में पुरुषों का कोई अधिकार या सम्पर्क नहीं रहेगा। स्वामी विवेकानन्द के निर्देशानुसार ही बाद में गंगानदी के दूसरे तरफ -दक्षिणेश्वर में स्त्रियों के लिए श्री सारदा मठ की स्थापना हुई। उस मठ का संचालन वे स्वयं ही करती हैं। ठीक उसी प्रकार महामण्डल में रहे बिना, इसके बाहर रहते हुए, किन्तु एक ही उद्देश्य -'जीवन-गठन' को प्राप्त करने (प्रवृत्ति से निवृत्ति प्राप्त करने) के लिए लड़कियाँ भी संगठित होकर 'सारदा नारी संगठन ' के झण्डे तले अपने जीवन-गठन के कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं तथा क्रमशः उनका संगठन बहुत सुंदर रूप ले रहा है। 

(अर्थात मन के साथ मल्लयुद्ध करते हुए उसे पूर्णतया अपने वश में कर लेने तक (या मिथ्या अहं को ठाकुर-माँ-स्वामीजी का दास 'मैं' बना लेने तक अपने अंतःप्रकृति के साथ grappling-कुश्ती लड़ने यानि 5 अभ्यास, यम-नियम-आसन -प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करते रहने का नाम धर्म है। एक गृहस्थ को प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने के लिए अपने मन के साथ यह कुश्ती कब तक लड़ना होगा ? प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में स्थित हो जाने तक लड़नाहोगा !!अर्थात मल्ल्युद्ध-या मनःसंयोग सहित पाँचो अभ्यास  कब तक करना होगा ? यह एक या दो दिन, महीनों; कुछ वर्षों या जन्मों का प्रश्न नहीं है, इसमें (प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने में) तो सैकड़ों जन्म बीत जायें, तो भी धैर्य के साथ हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। नारद की कथा -किस तपस्वी की मुक्ति कब होगी ? Religion is a continuous struggle, a grappling with our own nature, a continuous fight till the victory is achieved It is not a question of one or two days, of years, or of lives, but it may be hundreds of lifetimes, and we must be ready for that. It may come immediately, or it may not come in hundreds of lifetimes; and we must be ready for that. The student who sets out with such a spirit finds success.] जिसके पास अनंत धैर्य है -जिसको, दूसरों की मूर्खता (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति को देखकर) पर क्रोध नहीं आता- और जो साधक उसकी सेवा करने को निरंतर प्रस्तुत रहे वह अभी मुक्त है ! जिस साधु में इमली के पेड़ में जितने पत्ते लगे हैं, उतने जन्मों तक का धैर्य था -वह उसी समय मुक्त हो गया !! मानव मात्र की स्वाभाविक दुर्बलता -राग-'ईर्ष्या'- द्वेष, पंचक्लेश में फंसना फिर विवेकदर्शन करके  करके उससे बाहर निकलना (विवेक-श्रोत का उद्घाटित होना) ठाकुर-माँ-स्वामीजी की कृपा पर निर्भर है। (9.13m) 

>>खंड ९/२६ /A vision of God, a glimpse of the beyond never comes until the soul is pure. नेता को महावाक्य के मर्म का अनुभव होना चाहिए। मंत्रदीक्षा देने वाले सद्गुरु का  व्यक्तित्व धारण करने के लिए उसका निष्पाप (sinless) होना अनिवार्य है। एवं चरित्र-निर्माण की शिक्षा देने वाले - अच्छी आदतों का निर्माण करने की शिक्षा देने वाले आध्यात्मिक नेता  लिए 'सच्चा होना' (अपनी दुर्बलता नहीं छिपाना) एक अनिवार्य आवश्यकता है। /  (Therefore the necessary condition is that the teacher must be true.) (15.34 m) नेता का उद्देश्य क्या है ? कोई ऐषणा या नाम-यश की इच्छा तो नहीं है ? केवल प्रेम के माध्यम से ही शिक्षा दी जाती है। पैसा से धर्म नहीं मिलता - निःस्वार्थ भाव से प्रेम -भगवान श्रीकृष्ण अपने ग्वालबाल मित्रों से वृक्ष को देखकर कहते हैं - 

एतावत जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु।

प्राणेरर्थेर्द्धिया वाचा श्रेय आचरणं सदा।।

जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया केवल वही सद्गुरु हो सकता है। (17 m) This eye-opener of religion is the teacher. केवल सद्गुरु ही धर्म की आँखों को खोल सकते हैं। 

अपने जूते उतार दो, क्योंकि जहाँ तुम खड़े हो वह स्थान पवित्र है। इस दुनिया में ऐसे शिक्षकों की संख्या कम है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन दुनिया कभी भी उनके बिना नहीं रहती। (21-m) ये गुरु / मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-सद्गुरु ही संसार को चला रहे हैं।  पैगम्बर की पूजा मनुष्य रूप में ही करनी ही होगी।  

"Religion is realization (अर्थात 'सत्यानुभव' या किसी '1' महावाक्य का भी अनुभव होना धर्म है !) !"(24 m) - दादा कहते थे - Common Sense is Rare Sense. उभयनिष्ट ज्ञान अर्थात देह और आत्मा दोनों का विवेक होना, अर्थात व्यावहारिक निर्णय क्षमता, विवेक-प्रयोग की बात सोचना बड़ी दुर्लभ वस्तु है। स्वयं को जो सोचोगे नश्वर शरीर , या अविनाशी आत्मा -वही हो जाओगे !-Nothing is so uncommon as common sense ! ) जो व्यक्ति यह कहे कि ईश्वर की पूजा मैं मनुष्य (अवतार) के रूप में नहीं करता, तो उससे सावधान रहो - वह मूर्ख है, उच्च डिग्री होने से भी अविद्याग्रस्त है !  if anyone tells you he is not going to worship God as man, take care of him. He is an irresponsible talker, he is mistaken; (खंड-९/३१ /28 m) जब मनुष्य रूप में जन्में भगवान राम, श्री कृष्ण, बुद्ध,ईसा, मुहम्मद , नानक -या ठाकुर-माँ -स्वामीजी- नवनीदा  जैसे ईश्वर के महान अवतारों, आध्यात्मिक नेताओं, पैगम्बरों के बारे में चिंतन किया जाता है - अर्थात  उनके नाम,रूप , लीला ,धाम का चिंतन किया जाता है, तो वे हमारी आत्माओं में प्रकट होते हैं, और हमें उनके जैसा बनाते हैं। हमारा पूरा स्वभाव बदल जाता है, और हम उनके जैसे बन जाते हैं। ९/३३ लेकिन आपको ईसा मसीह या बुद्ध (जैसे नेता या पैगम्बर की शक्ति) को हवा में उड़ते भूत-प्रेतों और इस तरह की बकवास के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। But you must not mix up Christ or Buddha with hobgoblins flying through the air and all that sort of nonsense. 31 m  "Blessed are the pure in heart",(धन्य हैं वे जो हृदय से शुद्ध हैं- अर्थात जिनके ह्रदय में ठाकुर-माँ -स्वामीजी रहते हैं !", The power of purity; it is a definite power. अवतारों / नेताओं /पैगम्बरों के जीवन में निहित -पवित्रता (दिव्यता-एकत्व- माँ काली) की शक्ति ही यथार्थ  शक्ति है, जो उनके अनुयायियों को ऐषणाओं में आसक्ति की गुलामी - से मुक्त करके उसे ईश्वर का दर्शन (विवेक-दर्शन) करा देती है ; और उसका विवेकश्रोत उद्घाटित हो जाता है। (34.13 m) (खंड ९/३४) 

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THE TEACHER OF SPIRITUALITY

Every soul is destined to be perfect, and every being, in the end, will attain to that state. Whatever we are now is the result of whatever we have been or thought in the past; and whatever we shall be in the future will be the result of what we do or think now. But this does not preclude our receiving help from outside; the possibilities of the soul are always quickened by some help from outside, so much so that in the vast majority of cases in the world, help from outside is almost absolutely necessary.....  

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Bhakti Yoga - Class #2: The First Steps"/ प्रारम्भिक सोपान -अवतार वरिष्ठ का भक्त के जीवनगठन का पहला कदम: मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? इस बात को लेकर बड़ा मतभेद है। खण्ड ९/पृष्ठ १२ -२२/ Eng.Volume 4, Addresses on Bhakti-Yoga]

 🔱 भक्तियोग पर प्रवचन : Class -2: "पहला कदम : The First Steps" 🔱 [स्वामी विवेकानंद द्वारा न्यूयॉर्क में भक्तियोग के ऊपर ली गयी ग्यारह (11) कक्षाओं की श्रृंखला का सारांश]🔱 प्रारम्भिक सोपान - खण्ड ९/पृष्ठ १२ -२२/ भक्त के जीवनगठन का पहला कदम   

🔱Class-2 : भक्त के जीवन-गठन का पहला कदम : The First Steps" 🔱

मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? 

[स्वामी विवेकानन्द द्वारा भक्ति योग के प्रारंभिक साधकों के लिए 16 दिसंबर 1895 को सोमवार की संध्या में , 228 West 39th Street, New York में दूसरा क्लास लिया गया था, उसे श्री जोशिया जे. गुडविन द्वारा रिकॉर्ड किया गया था। यहाँ श्री वरुण नारायण उस प्रवचन को अंग्रेजी में सुना रहे हैं।  यह (1895-96 में) स्वामी विवेकानंद द्वारा न्यूयॉर्क शहर में भक्ति योग पर ली गई ग्यारह (11) कक्षाओं की श्रृंखला में यह दूसरी कक्षा है।]   

[Bhakti Yoga: Class-2 : 27.14 मिनट का प्रवचन ]

प्रथम कक्षा में हमने देखा कि भक्ति को "ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के प्रति गाढ़ी प्रीति या परम अनुराग" के रूप में परिभाषित किया गया है। किन्तु हमें ईश्वर से (अपने इष्टदेव से) प्रेम क्यों करना चाहिए ? जब तक हम इसका उत्तर नहीं पा लेते, हम इस विषय को बिल्कुल भी नहीं समझ पाएंगे। सभी धर्म के अनुयायी यह जानते हैं कि मनुष्य 'शरीर' (body) भी हैं और 'आत्मा' (spirit) भी। [हमारी दो पहचान है - एक शरीर (M/F) को लेकर-व्यावहारिक मनुष्य (Apparent man) और दूसरी आत्मा (spirit) को लेकर, वास्तविक मनुष्य (Real man)।] किन्तु मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? इस बात को लेकर बड़ा मतभेद है।   

पाश्चात्य शिक्षा में मनुष्य के शारीरिक पहलु पर बहुत बल दिया जाता है , और भारत में भक्ति शास्त्र के आचार्य मनुष्य के आध्यात्मिक पहलु पर बल देते हैं। जो पक्ष यह मानता है कि मनुष्य शरीर है और उसकी आत्मा होती है। वो शरीर पर ही सारा बल देता है , उसे मरने के बाद भी सुरक्षित रखने के लिए जमीन में दबा देता है। और भारतीय पक्ष मनुष्य को आत्मा मानता है, जिसके देह -मन होते हैं।  

यदि तुम उन्हें बताओ की देह-मन से परे भी कोई अविनाशी वस्तु होती है - तो वह उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। भावी जीवन के सम्बन्ध में उनकी धारणा 'Idea of a future life   would be a continuation of this enjoyment. ' मृत्यु के परे जीवन - (Life beyond Death) यही होती है कि - इन्द्रिय सुख, धन-दौलत, और हूर -शराब सतत बना रहे।  उसके जीवन का लक्ष्य है - इन्द्रिय विषय-भोग, और ईश्वर की पूजा इसलिए करता है कि -ईश्वर उसके उद्देश्य पूर्ति का साधन है। 

आत्म ज्ञान ही जीवन का लक्ष्य है - ईश्वर से परे और कुछ नहीं है। अज्ञेय वादी स्वर्ग नहीं जाना चाहता , क्योंकि वह स्वर्ग को मानता ही नहीं है। किन्तु ठाकुरदेव का भक्त भी स्वर्ग [इन्द्रलोक] नहीं जाना चाहता, क्योंकि उसकी दृष्टि में स्वर्ग बच्चों का खिलौना मात्र है। आत्मा या ईश्वर 100 % निःस्वार्थपरता से बढ़कर साध्य क्या है- संसार का कुछ नहीं चाहिए इससे बढ़कर साध्य क्या है?  ईश्वर का वैकुण्ठ या ब्रह्मलोक -रामकृष्णधाम पूर्ण स्वरुप है , क्योंकि वह ईश्वर का धाम है। बारम्बार हमें अपनी गलती सूझती है , एक दिन ठाकुर के पास पहुँच जाते हैं। 

[Bhakti is a religion. (18.50 मिनट)] जब हम संसार की हर चीज को बच्चों का खेल समझकर , इससे तृप्त होकर ऊब जाते हैं-तब ईश्वर भक्ति-धर्म (इन्द्रियातीत सत्य की भक्ति धर्म) पर पहला कदम उठता है। 

[Have done with this child's play of the world as soon as you can, and then you will feel the necessity of something beyond the world, and the first step in religion will come. (20.26 मिनट)]

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥

यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से 'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।"

तात्पर्य यह कि यहां आत्मा को पाने का अर्थ है आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना । धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है । तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥ (कठोपनिषद्,अध्याय-1,वल्ली-2/23-24)  

जिसने शास्त्र-निषिद्ध कर्मों का परित्याग नहीं किया, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं है, जो एकाग्रचित्त नहीं है तथा कामना से जिसका मन अशान्त है - ऐसा पुरुष केवल बुद्धि से या शास्त्रज्ञान द्वारा मुझे प्राप्त नहीं कर सकता ॥

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THE FIRST STEPS

The philosophers who wrote on Bhakti defined it as extreme love for God. Why a man should love God is the question to be solved; and until we understand that, we shall not be able to grasp the subject at all. There are two entirely different ideals of life. A man of any country who has any religion knows that he is a body and a spirit also. But there is a great deal of difference as to the goal of human life.

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Bhakti Yoga - Class #1: "The Preparation" by Swami Vivekananda /1. पूर्व साधना- भक्त के जीवनगठन की पूर्व साधना खण्ड-९/३-१२ / Eng. Volume 4, Addresses on Bhakti-Yoga :/

 भक्तियोग पर प्रवचन 

[विवेकानन्द साहित्य के दो खण्डों [खण्ड ९/पृष्ठ ३ -६०/ तथा खण्ड ४/ पराभक्ति पृष्ठ ४५-७६] में स्वामी विवेकानन्द द्वारा 228 West 39th Street,न्यूयॉर्क में 16 दिसंबर, 1895 से मार्च 1896 तक भक्तियोग पर अंग्रेजी में ली गयी 11 कक्षाओं की श्रृंखला को जेजे गुडविन ने रिकॉर्ड किया था। उसी प्रवचन श्रृंखला को यूट्यूब पर श्री वरुण नारायण के शब्दों में प्रकाशित किया है। स्वामीजी द्वारा भक्तियोग पर दिए गए सभी प्रवचनों को दोनों खंडों से निकाल कर भक्तियोग पर क्रमानुसार उन  11 कक्षाओं की श्रृंखला के सार संक्षेप का हिन्दी अनुवाद एक साथ मिलाकर-आचार्य रामानुज द्वारा निर्दिष्ट पराभक्ति प्राप्त करने के निमित्त आवश्यक साधनायें; लिखने की चेष्टा झुमरी-तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग द्वारा की जा रही है।

Swami Vivekananda’s first Bhakti Yoga class #1 for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 16 December 1895, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan. This is the first of a series of eleven (11) classes that Swami Vivekananda gave on Bhakti Yoga in New York City, 1895-96.]

 1. भक्त के जीवनगठन की पूर्व साधना :खण्ड-९/३-१२      

[The Preparation for getting 'that' Intense love for God.] 

 

[Bhakti Yoga - Class #1: 25.11 मिनट का प्रवचन ] 

भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा भक्त प्रह्लाद के द्वारा की गयी इस प्रार्थना में निहित है-  

या प्रीतिर् अविवेकानां विषयेष्व् अनपायिनी ।

त्वाम् अनुस्मरतः सा मे हृदयान् नापसर्पतु ॥

 (विष्णुपुराण :1-20-19)

‘‘हे नाथ ! अविवेकी पुरुषों की (अर्थात पंचक्लेश-ग्रस्त पुरुषोंकी) जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के नाशवान् भोग के पदार्थों पर रहती है,  वैसी ही प्रीति आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय में हो, और तेरी सतत कामना करते हुए वह गाढ़ी प्रीति मेरे हृदय से कभी दूर न होवे ।’’

हमलोग इन्द्रिय विषयों से, (या तीनों ऐषणाओं से) - गाढ़ी प्रीति किये बिना रह ही नहीं सकते, क्योंकि वे हमारे लिए, एकदम वास्तविक हैं!  ["How naturally we love objects of the senses! We cannot but do so, because they are so real to us.     क्योंकि  सदगुरुदेव (या अवतार वरिष्ठ) के आलावा हममें से किसी ने - इन्द्रियातीत सत्य का (ईश्वर, परम सत्य या माँ काली का) दर्शन नहीं किया है , इसीलिए इन्द्रिय-ग्राह्य क्षणिक सुख से भी उच्चतर आनन्द, भूमा या अनन्त आनन्द देने वाली कोई वस्तु हो सकती है, हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। ( the idea is that he can have a strong attachment, only it should be transferred to the object beyond the senses, which is God.)  पर जब कोई मनुष्य सद्गुरु की कृपा से (ठाकुर-माँ स्वामीजी की कृपा से) इन्द्रियों के ब्रह्माण्ड से परे - किसी अपरिवर्तनीय सत्य -परम् सत्य वस्तु (सच्चिदानन्द) को देख लेता है - (विवेक-श्रोत को उद्घाटित कर लेता है) तब वह यदि ऐषणाओं के प्रति अपनी गाढ़ी आसक्ति को, संसार से हटाकर उस इन्द्रियातीत वस्तु (शाश्वत चैतन्य, सच्चिदानन्द,-परम् सत्य) में लगा दे, जो एकमात्र भगवान हैं; तब वह भगवान से भी वैसी  ही गाढ़ी प्रीति करने में समर्थ हो जाता है , जैसी वह पहले- अज्ञानावस्था (अविवेक की अवस्था में) ऐषणाओं से करता था। और जब इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों से सम्बद्ध वह प्रेम- (ऐषणाओं वाली गाढ़ी प्रीति या आसक्ति) भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है, तब उसको भक्ति कहते हैं। 

हम जानते हैं कि हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं , उनके पांच विषय है - रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श। इन सभी इन्द्रिय-विषयों के प्रति सभी जीवों में - 'अली-मृग-मीन -पतंग -गज' जरै एक ही आँच ; एक -एक इन्द्रिय विषयों में कितनी स्वाभाविक प्रीति/ आसक्ति रहती है- क्योंकि पशुओं में विवेक नहीं होता। पशु की ही तरह अविवेकी मनुष्यों को भी इन्द्रिय विषयों में मिलने वाला क्षणभंगुर सुख- आहार, निद्रा , भय , मैथुन  एकदम वास्तविक लगता है ? 

किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र से, कामिनी -कांचन और नाम-यश आदि से विशेष प्रेम हो सकता है। इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है । किन्तु उतना तीव्र आसक्ति जितना तीनों ऐषणाओं में है, उस इन्द्रियातीत सत्य -या सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान से हो जाये, तो वही प्रेम या आसक्ति हमें मुक्त कर देता है।  यदि यही प्रेम/आसक्ति/ गाढ़ी प्रीति  परमात्मा से हो जाय तो वह आसक्ति भी मुक्तिदाता बन जाता है । ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव/प्रीति /आसक्ति बढ़ती है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से (तीनों ऐषणाओं से) लगाव कम होने लगता है। जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता । पराभक्ति ही भक्तियोग की परिधि के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती । भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए । वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है, और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है । 2.09m] 

The preparations for getting 'that' Intense love.(2.20) अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है-'That Intense love'- वैसी गाढ़ी प्रीति / पराभक्ति ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के सच्चिदानन्द स्वरुप के प्रति प्राप्ति के लिए भक्तिमार्ग के आधुनिक आचार्य नवनीदा द्वारा निर्दिष्ट आवश्यक साधनायें  

१.'विवेक'- (उचित -अनुचित विवेक, श्रेय-प्रेय विवेक , शाश्वत -नश्वर विवेक , सत -असत -मिथ्या विवेक, नाम-रूप मिथ्या विवेक , बुलबुला -जल विवेक होता है।) किन्तु आचार्य रामानुज के अनुसार खाद्य- अखाद्य विवेक (निर्णय) "Discrimination of Food"- ही प्रथम साधना है। हमारा स्थूल शरीर अन्नमय कोष है। आहार का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। उत्तेजक आहार, शराब आदि पीया जाये तो मन पर नियंत्रण नहीं रहता। हम जिन दुःखो को भोग रहे हैं, उनका अधिकांश हमारे द्वारा खाए जाने वाले भोजन के कारण होता है मांसाहार का अधिकार उन्हीं को है -जो बॉर्डर पर तैनात हैं , या कठिन परिश्रम करते हैं। या जिन्हें भक्त नहीं बनना है। निम्बू अँचार छोड़कर अन्य सड़ा भोजन ठीक नहीं है।  जब भोजन में इन चीजों का त्याग कर दिया जाता है, तो वह शुद्ध हो जाता है; शुद्ध भोजन से शुद्ध मन प्राप्त होता है, और शुद्ध मन में ईश्वर का निरंतर स्मरण होता है। "आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि: सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।" (छान्दोग्य उप. ७.२६.२) 'हाथ' (Hand)  हमेशा देने के लिए बना है। अपनी रोटी का आखिरी टुकड़ा भी दे दो, चाहे तुम खुद भूखे ही क्यों न हो। 

    आचार्य शंकर के अनुसार सभी पाँच इन्द्रियों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुद्ध रहने से मन ऐषणाओं से अनासक्त हो जाता है , तब ईर्ष्या-द्वेष रहित शुद्ध-मन में ईश्वर की स्मृति (इन्द्रियातीत सत्य-सच्चिदानन्द स्वरुप , प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है की स्मृति) जाग्रत रहती है। मन (Head) को प्रसन्नचित्त, लेकिन शांत रखें।  Let the mind be cheerful, but calm. Never let it run into excesses, because every excess will be followed by a reaction. मन को कभी भी राग-द्वेष के प्रति अति न करने दें, क्योंकि हर अति के बाद प्रतिक्रिया होगी। रामानुज के अनुसार, ये पराभक्ति प्राप्ति के निमित्त की जाने वाली साधनायें  हैं।मांसाहार का अधिकार उन्हीं को है -जिन्हें भक्त नहीं बनना है। 

हम सभी यहाँ पंचक्लेशों की जंजीरों से बन्धे है, उसको तोड़ने का उपाय है योगसूत्र के अनुसार क्रियायोग। शारीरिक-मानसिक साधना साथ साथ चलने से आध्यात्मिक शक्ति- आत्मा की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती है, और भौतिक प्रवृत्ति -आहार,निद्रा , भय और मैथुन -की इच्छा कम प्रभाव शील होती जाएगी। हम यहाँ पंचक्लेश की जंजीरों से बंधे हुए हैं, और हमें धीरे धीरे अपनी ही जंजीरों को तोडना है। इसका ही नाम है -विवेक। ९/पेज ७)         

[These are the preparations for Bhakti, according to Ramanuja : যা প্রীতির্ অবিবেকানাং বিষযেষ্ব্ অনপাযিনী । ত্বাম্ অনুস্মরতঃ সা মে হৃদযান্ নাপসর্পতু ॥ 

महामण्डल के प्रत्येक भावी नेता को विवेक-वाहिनी के उम्र से ही (बालक ध्रुव और भक्त प्रह्लाद से अनुप्रेरित होने की उम्र से ही) अपने जीवन को  यथासम्भव आचार्य नवनीदा (दादा) के साँचे में ढलकर एक भक्त-शिक्षक के रूप में गठित करना होगा। क्योंकि दादा (नवनीदा) का जीवन-गठन भी उनकी माताजी के निर्देशानुसार एक भक्त के रूप में -बालकध्रुव की भक्ति तथा भक्त प्रह्लाद की नृसिंह भक्ति के अनुरूप हुआ था। इसीलिए महामण्डल रूपी चरित्र-निर्माण की प्राथमिक पाठशाला में प्रत्येक नेता या भावी शिक्षक के जैसा  भक्त के रूप मेंअपना जीवन गठित करने के लिए शुरुआत में मछली -अंडा छात्रों की रूचि के अनुसार दिया जाता है,  तथा एक दिन 'हविष्यान्न' खिलाकर शाकाहारी भोजन के महत्व की शिक्षा भी दी जाती है। दादा का निर्देश कैम्प में बालक ध्रुव के अनुरूप जीवनगठन के लिए पहले बताओ श्रद्धा क्या है , विवेक या धर्म, पूर्णता निःस्वार्थपरता क्या है। 

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Volume 4, Addresses on Bhakti-Yoga :/अवतार वरिष्ठ के भक्त के रूप में अपने जीवन का गठन करने के लिए आवश्यक तैयारी। पहले यह जान लेना होगा कि योगसूत्र के आलोक में मनुष्य जीवन का उद्देश्य -ईश्वरलाभ या ईश्वर-भक्त बनने में 5 बाधक तत्व क्या हैं , और उन्हें दूर करने का उपाय क्या हैं ? (स्वप्न का निर्देश /शनिवार 22 फरवरी, 2025/piles)    
THE PREPARATION

The best definition given of Bhakti-Yoga is perhaps embodied in the verse: "May that love undying which the non-discriminating have for the fleeting objects of the senses never leave this heart of mine — of me who seek after Thee!" 
Bhakti does not kill out our tendencies, it does not go against nature, but only gives it a higher and more powerful direction. How naturally we love objects of the senses! We cannot but do so, because they are so real to us...... 
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Bhakti Yoga - Class #11: प्रेम के दिव्य आदर्श की मानवीय अभिव्यक्ति- खण्ड -४/६८/ (16.38 मिनट) / उपसंहार -(खंड ४/७५-७६) (20.50 मिनट) /

 Bhakti Yoga - Class #11: "Human Representations of the Divine Ideal of Love" by Swami Vivekananda

Swami Vivekananda's fourth and last advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 17 February 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]


प्रेम के दिव्य आदर्श की मानवीय अभिव्यक्ति- खण्ड -४/६८/ (16.38 मिनट) 

उपसंहार -(खंड ४/७५-७६) (20.50 मिनट)   

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Bhakti Yoga - Class 10 : परा विद्या और परा भक्ति एक हैं-खण्ड ४/६० /प्रेम का तिकोण खण्ड -४/६२ /प्रेममय ईश्वर स्वयं ही अपना प्रमाण है -खंड ४/६६: ]

Bhakti Yoga - Class 10: "The Higher Knowledge and the Higher Love are One..." by Swami Vivekananda

Swami Vivekananda's third advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 10 February 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.


सच्चे भक्त के लिए 

परा विद्या और परा भक्ति एक हैं - (4.13 मिनट) खण्ड ४/६० 

प्रेम का तिकोण खण्ड -४/६२  

प्रेममय ईश्वर स्वयं ही अपना प्रमाण है -खंड ४/६६ 

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Bhakti Yoga - Class #9: "भक्तियोग की स्वाभाविकता और केन्द्रीय रहस्य " गीता -१२/१-७] खण्ड ४/५२ / भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप-खण्ड ४/ ५४/ विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय-खण्ड ४/५६ ???? [ न्युयॉर्क में स्वामी विवेकानन्द द्वारा '3 फरवरी 1896' को पराभक्ति पर दिया गया 22 मिनट का व्याख्यान। [Bhakti Yoga - Class #9: THE NATURALNESS OF BHAKTI-YOGA AND ITS CENTRAL SECRET ]

 [Bhakti Yoga - Class #9: "The Naturalness of Bhakti Yoga and Its Central Secret" by Swami Vivekananda

Swami Vivekananda's second advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on  Monday morning, 3 February 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]

भक्तियोग की स्वाभाविकता और केन्द्रीय रहस्य /खण्ड ४/५२ 

[ गीता -१२/१-७] 

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

            येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।। 

भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं - " हे प्रभो, जो आपके सगुण रूप में सतत युक्त होकर आपकी उपासना करते हैं , और जो अव्यक्त, निर्गुण के उपासक हैं, उनदोनों में कौन श्रेष्ठ योगी है।" 
 क्या मूर्तिपूजा के द्वारा ईश्वर का ध्यान और साक्षात्कार किया जा सकता है ?  क्या कोई भी प्रतीक परमात्मा का सूचक हो सकता है क्या कोई "तरंग" समुद्र का प्रतीक या प्रतिनिधि बन सकती है ?
आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शन का इच्छुक अर्जुन एक उचित प्रश्न पूछता है कि सगुण और निर्गुण के इन दो उपासकों में कौन साधक श्रेष्ठ है ? सगुण और निर्गुण में श्रेष्ठता का प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है।
 भगवान् श्रीकृष्ण पहले सगुणोपासना का वर्णन करते हुए कहते हैं- हे अर्जुन, जो मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त होकर परम श्रद्धा के साथ मेरी उपासना करता है, वही श्रेष्ठ योगी है। 
और जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं। अव्यक्त (निर्गुण) में आसक्त चित्त वाले उन साधकों को (अपने साधन में) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनता से प्राप्त की जाती है। 
परन्तु जो कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोग से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं। हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें (मेरे सगुण रूप में) ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।
[ जब कोई भक्त अपने आप को पूर्णतः ईश्वर के चरणों में अर्पण कर देता है और फिर ईश्वर के दूत अथवा ईश्वरी संकल्प के प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है तब वह दैवी शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। उसे अपने प्रत्येक कार्य में ही परमात्मा की उपस्थिति और अनुग्रह का भान बना रहता है। सांस्कृतिक पूर्णत्व के उच्चतर शिखरों पर आरोहण करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन के सम्पर्कों,  व्यवहारों एवं अनुभवों का उपयोग उस परमात्मा की उपलब्धि के लिए करे जिसकी उपासना हम उसके सगुण साकार रूप में करते हैं।
जब निरन्तर साधना के फलस्वरूप विजातीय प्रवृत्तियों का सर्वथा त्यागकर सजातीय वृत्ति प्रवाह को बनाये रखने की क्षमता साधक में आ जाती है, तब उसका मन अनन्त ब्रह्मरूप ही बन जाता है। यह मन ही है जो हमारे जीवभाव के परिच्छेदों का आभास निर्माण करता है और यही मन अपने अनन्तत्व का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव भी करता है। मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण है। आत्मा तो नित्यमुक्त है कदापि बद्ध नहीं। बद्ध तो मन (अहं) है जो नवनीदा/महामण्डल का दासो मैं नहीं बनता। ] 
केवल अवतार या नेता ही ज्ञानयोग का अभ्यास करने के अधिकारी हैं। भक्ति योग स्वाभाविक है। गोपीप्रेम सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। पैसे का दुःख नहीं ईश्वर को नहीं प्राप्त करने का दुःख सही मार्ग है। (5.58 मिनट)

भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप-खण्ड ४/ ५४ 

[THE FORMS OF LOVE — MANIFESTATION]

भक्ति जिन विविध रूपों में प्रकाशित होती है, उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं :
पहला है Reverence  'श्रद्धा।' आस्तिक्य-बुद्धि। लोग मन्दिरों, नदियों और तीर्थस्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहाँ भगवान की पूजा होती है, ऐसे सभी स्थानों में उनकी सत्ता अधिक जाग्रत रहती है। शास्त्रों और आचार्यों (सदगुरुदेव और नवनीदा ) के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं ? क्योंकि शास्त्र और आचार्य उन्हें मनुष्य जीवन के लक्ष्य -ईश्वरप्राप्ति या भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं। नवनीदा के प्रति इस श्रद्धा 'Reverence'  का मूल है -प्रेम।  संसार माया है, उस परमात्मा की ही लीला, उसकी ही ऊर्जा। और संसार तुम्हारे लिए एक शिक्षण का अवसर है। सीखो। संसार प्रेम को निखारने की प्रक्रिया है।  फूलों के प्रति, चांद—तारों के प्रति, सूरज के प्रति, नदी—पहाड़ों के प्रति, क्योंकि यह सब उसी विराट की लीला है। इन सब मे वही एक —अनेक रूपों में आया है। सम्मान पैदा होगा। रिवरेंस-महापुरुषों के प्रति श्रद्धा इसलिए तुम्हें प्रेम इतने जोर से पकड़ता है। प्रेम से बड़ी कोई शक्ति है इस जगत में? आदमी प्रेम के लिए जीवन भी दे देता है।
दूसरा, बहुमान। शांडिल्य तृप्त नहीं हुए सिर्फ 'सम्मान'-श्रद्धा  से। सम्मान साधारण है। बहुमान भी पैदा होगा। अपार कृतज्ञता का भाव पैदा होगा। जितना करेगा उतना ही थोड़ा लगेगा। इतना दिया है परमात्मा ने, इतना दिए जाता है, कैसे उऋण हो सकता हूं। बहुमान पैदा होगा। भक्त सब जगह झुका होगा। देखा न, जैसे वृक्ष जब फलो से लद जाते हैं तो झुक जाते हैं। वृक्षों के चरण छू लेगा। नदियों की पूजा कर लेगा। पर्वतों की श्रद्धा करेगा। सूरज को नमस्कार करेगा। सारा जगत देवी—देवताओं मे परिवर्तित हो जाएगा—यही हुआ था। जो लोग इस सत्य को नहीं जानते हैं, नहीं पहचानते हैं, उन्हें बहुत हैरानी होती है कि क्यूं इस देश में लोग सूरज को पूजते हैं? सूरज भी कोई पूजने की बात है! सूरज कोई देवता है! चांद को पूजते हैं! चांद में क्या रखा है, अब तो आदमी भी उस पर चल लिया! उन्हें पता नहीं है कि भक्त सब तरफ भगवान को देखता है। प्रत्येक चीज दिव्य हो जाती है, देवता हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक चीज में परमात्मा का प्रतिफलन होने लगता है। प्रत्येक चीज दर्पण हो जाती है, उसी का रूप झलकता है।
3. प्रीति, अर्थात ईश्वर-चिंतन में आनंद - गहन प्रीति पैदा होगी। मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में कितना तीव्र आनंद अनुभव करता है। भक्त भगवान के प्रति उतनी ही तीव्रता से प्रेम करता है। उस व्यक्ति के जीवन में प्रीति ही प्रीति की तरंगें होंगी। उठेगा, बैठेगा, चलेगा, सोएगा, और तुम पाओगे उसके चारों तरफ प्रीति का एक सागर लहराता। तुम उसके पास भी आ जाओगे तो उसकी प्रीति से भर जाओगे। तुम उसके पास आ जाओगे, तुम्हारी हृदय—वीणा झंकार करने लगेगी। 
4. विरह -  उसके जीवन में, विरह पैदा होगा। और जितना—जितना भगवान की पहचान होगी, उतने ही विरह की भावदशा बनेगी। जितनी पहचान होगी, उतनी ही पाने की आकांक्षा जगेगी। जितने करीब आएगा, उतनी ही दूरी मालूम होगी—विरह का मतलब होता है, जितने करीब आएगा उतनी ही दूरी मालूम होगी। जब पता ही नहीं था तब तो दूरी भी नहीं थी। तब तो खोजते ही नहीं थे तो दूरी कैसे होती? अब जैसे—जैसे करीब आएगा, जैसे—जैसे झलक मिलेगी, वैसे—वैसे लगेगा—कितनी दूरी है! जैसे साधारण प्रेमी मे विरह होता है, वही विरह विराट होकर भक्त में प्रकट होगा। 
5. इतर विचिकित्सा -  अन्या वाचो विमुंचथ। —परमात्मा के अतिरिक्त उसे और सब चीजों में अरुचि हो जाएगी—स्वाभाविक अरुचि। विराग नहीं, अरुचि। चेष्टा नहीं होगी उसकी, लेकिन उसे और किसी चीज में रुचि नहीं रह जाएगी—कहीं लोग बैठकर धन की बात करते हैं, तो वह बैठा रहे वहा लेकिन उसे रुचि नहीं होगी। कहीं कोई किसी की बात करते हैं कि हत्या हो गई, वह बैठा भी रहे वहा तो उसे रुचि नहीं होगी। हा, कहीं कोई प्रभु का गुणगान करता हो तो वह एकदम सजग हो जाएगा, एकदम लपट आ जाएगी। 
6. महिमा कीर्तन (ख्याति)-  भक्त को बड़ा आनंद आता है प्रभु की महिमा गाने में। क्योंकि जब भी वह उसकी महिमा का गुणगान करता है तभी अपने को भूल जाता है। उसकी महिमा का गुणगान अपने अहंकार से मुक्त होने का उपाय है। तुमने देखा, लोग अपनी ही महिमा का गुणगान करते हैं। लोगों को बातें सुनो। जरा गौर करो उनकी सारी बातों का निचोड़ क्या है? वे यही कह रहे हैं कि मेरे जैसा आदमी दुनिया में कोई दूसरा नहीं; सारी बातों का निचोड़ यही है। कोई कह रहा है, मैं जंगल शिकार करने गया, ऐसा शेर मारा कि किसी ने क्या मारा होगा! कोई मछली पकड़ लाया है तो उसका वजन बढ़ा—चढ़ा कर बता रहा है कि उसका वजन इतना है। कोई चुनाव जीत लिया है, कोई ताश के पत्तों में जीत लिया है। लोग सारे खेल कर रहे हैं, बात सिर्फ एक है कि मेरा जैसा कोई भी नहीं। मैं विशिष्ट हूं मैं असाधारण हूं। सब दूसरों को छोटा करने में लगे हैं, अपने को बड़ा करने में लगे हैं। आदमी की सामान्य स्थिति क्या है? वह अहंकारी  आत्म—स्तुति में लगा है। 
 भक्त भगवान (गुरु-नेता) की स्तुति में लगता है। उस स्तुति में ही लगते—लगते भगवान हो जाता है। अपनी स्तुति में जो लगेगा, वह भगवान से छिटकता जाएगा और जो भगवान की स्तुति में लग जाएगा, एक दिन भगवान हो जाएगा। वह जो विशिष्ट होने की आकांक्षा  थी, उसी दिन पूरी होती है जब कोई बिलकुल सामान्य हो जाता है। प्रीतम के अर्थ जीना। भक्त फिर अपने लिए नहीं जीता। इसलिए जीता है कि थोड़ी देर और परमात्मा का गुणगान कर ले। थोड़ी देर और गीत गा ले, थोड़ी देर और प्रार्थना कर ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रह जाता है।  
7. तदर्थ प्राणसंस्थान : तुम्हारा रोआ—रोआ उसे पुकार सके, तुम्हारा कण—कण उसकी प्यास से भर सके, एक ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम्हारे भीतर उसकी प्यास के अतिरिक्त कुछ भी न बचे, ऐसी त्वरा हो, ऐसी तीव्रता हो, बस उसी तीव्रता में, उसी त्वरा में घटना घट जाती है। कुछ टूट जाता। कुछ यानी तुम्हारा अहंकार।और जहां तुम्हारा अहंकार टूटा कि तुम चकित होकर पाते हों—परमात्मा सदा से मौजूद था, तुम्हारी आंखों पर अहंकार का धुंध था, वह टूट गया है।
 परमात्मा कभी खोया नहीं था—मिला भी नहीं है, सिर्फ बीच में तुम सो गए थे, अहंकार की नींद में खो गए थे, नींद टूट गई है, संसार का सपना विदा हो गया है। तब भी यही वृक्ष होंगे, तब भी यही लोग होंगे, सब ऐसा ही होगा, और फिर भी सब नया हो जाएगा क्योंकि तुम नए हो गए। फिर पत्थर में वही सोया मालूम होगा। फिर तुम्हारी पत्नी में भी वही है और पति में भी वही है और बेटे में भी वही है और पिता में भी वही है। भक्त के लिए सारा अस्तित्व मंदिर हो जाता है।
प्रीतम के अर्थ जीना। भक्त फिर अपने लिए नहीं जीता। इसलिए जीता है कि थोड़ी देर और परमात्मा का गुणगान कर ले। थोड़ी देर और गीत गा ले, थोड़ी देर और प्रार्थना कर ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रह जाता है।
तदीयता। वह ही है, मैं नहीं हूं ऐसी भक्त की भावदशा होती है। सर्वं तदभाव। वही सब में है, सब में वही है, ऐसी उसकी प्रतीति होती है। इन्हीं तरंगों में वह रंगता जाता अपने को, इन्हीं भावों से भरता जाता अपने को।
अप्रातीकूल्य। और भगवान के प्रतिकूल आचरण का उसमें अभाव होता है। वह कुछ भी नहीं कर सकता जो भगवान के प्रतिकूल हो, विपरीत हो। ऐसी कोई बात उससे नहीं हो सकती जो इस विराट अस्तित्व के विपरीत जाती हो। होगी भी कैसे? तदीयता पैदा हो गई—तू ही है, मैं नहीं हूं। तदभाव पैदा हो गया—सब में तू ही है। जो कुछ है सो तू ही है
नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्चेति (Nri. Tap. Up.)
(साभार https://oshoganga.blogspot.com/2014/10/1-17_25.html/)
[सम्मान- बहुमान- प्रीति- विरह -इतर विचिकित्सा- महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान तदीयता सर्व तद्भावा प्रातिकूल्यादीनि स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।। ४४
 (अनवस्था-दोष): न एव श्रद्धा तु साधारण्यात्।।  तस्यां तत्वे च अनवस्थानात्।। २५
शंका : जैसे संसार को किसी (सृष्टिकर्त्ता) ने तो बनाया होगा! समाधान - यदि ऐसा हो तो प्रश्न उठता है कि फिर उस सृष्टिकर्त्ता को भी किसी न किसी ने बनाया होगा ? इसे ही तर्कशास्त्र में --"अनवस्था-दोष" कहा जाता है। इसलिए सृष्टि का अर्थ निर्माण नहीं, प्रकृति (जीव तथा जगत्) का अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करना और पुनः व्यक्त से अव्यक्त में लौट जाना है। इति महर्षि श्री शाण्डिल्य कृत भक्ति दर्शनम् ।।]

विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय-खण्ड ४/५६ ????
 

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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

भक्त का वैराग्य -प्रेमजन्य है ! प्रारम्भिक त्याग : (कर्मयोग/राजयोग/ ज्ञानयोग में त्याग) खण्ड ४/४५-५१ ) [Bhakti Yoga - Class #8: "The Preparatory Renunciation" by Swami Vivekananda.

[भक्ति योग - कक्षा #8: स्वामी विवेकानंद द्वारा "प्रारंभिक त्याग" (कर्मयोग/राजयोग/ ज्ञानयोग में त्याग)। 

[Swami Vivekananda's first advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 27 January 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]

Bhakti Yoga - Class #8: "The Preparatory Renunciation" 
by Swami Vivekananda. 

>>आत्मा की शुद्धि के लिए, (शुद्धबुद्धि की प्राप्ति के लिए) वैधी भक्ति पहली आवश्यकता है।  The repetition of names, the rituals, the forms, and the symbols, all these various things are for the purification of the soul. The greatest purifier among all such things, a purifier without which no one can enter the regions of this higher devotion (Para-Bhakti), is renunciation. 
नाम जप, अनुष्ठान, रूप, प्रतीक, ये सभी विभिन्न चीजें आत्मा की शुद्धि के लिए हैं (बुद्धि को शुद्धबुद्धि बनाने के लिए हैं।) इन सभी चीजों में सबसे बड़ा शोधक (purifier) , एक ऐसा शोधक जिसके बिना कोई भी इस उच्च भक्ति (रागानुराग भक्ति या परा-भक्ति) के क्षेत्रों में प्रवेश नहीं कर सकता, वह है त्याग। In all our Yogas this renunciation is necessary. This is the stepping-stone and the real centre and the real heart of all spiritual culture — renunciation. This is religion — renunciation.
यह बहुतों को भयभीत करता है; फिर भी, इसके बिना कोई आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। हमारे सभी चार योगों में यह त्याग आवश्यक है। यह त्याग ही सारी आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है, उसका यथार्थ केंद्र उसका सार है। यह त्याग ही वास्तविक धर्म है ।
" When the human soul draws back from the things of the world and tries to go into deeper things; when man, the spirit which has here somehow become concretised and materialised, understands that he is thereby going to be destroyed and to be reduced almost into mere matter, and turns his face away from matter — then begins renunciation, then begins real spiritual growth."  
जब किसी जीवात्मा का  'when Man, the Spirit' - [व्यावहारिक मनुष्य नहीं यथार्थ मनुष्य का विवेक जाग्रत हो जाता है; और वह अहंबुद्धि नहीं मानवात्मा (human soul=शुद्ध बुद्धि) जब संसार के समस्त भोगों की निस्सारता का अनुभव करके, उनसे विमुख होकर शाश्वत सत्य -(ईश्वर,परमात्मा या ब्रह्म) की खोज में लग जाती है; और वह यह समझ लेती है कि मोहनिद्रा में पड़कर,अविद्या-ग्रस्त (पंचक्लेश ग्रस्त) होकर, मैं  शाश्वत चैतन्य होकर भी नश्वर जड़ शरीर के साथ तादात्म्य करके - (सिंह शावक होकर भी स्वयं को भेंड़ मानने के कारण) क्रमशः विनष्ट होने की ओर बढ़ रही हूँ, और ऐसा समझकर जब वह नश्वर जड़पदार्थ की आसक्ति (या तीनो ऐषणाओं में आसक्त होने) से अपना मुँह मोड़ लेती है, तभी त्याग का प्रारम्भ होता है। और तभी आध्यात्मिकता का विकास प्रारम्भ होता है। " (2.05 m)
कर्मयोग में त्याग कर्मयोगी का त्याग उसके कर्म के सभी फलों को त्यागने के रूप में होता है; वह- not attached to the results of his labour अपने श्रम के परिणामों में आसक्त नहीं होता; वह इस लोक या परलोक में किसी पुरस्कार की परवाह नहीं करता 
राजयोग (स्वामीजी) में भोग के अनुभवों के बाद त्याग या ऐषणाओं से वैराग्य होता है  : राजयोगी जानता है कि सारी प्रकृति (देह-मन) का लक्ष्य आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव कराकर यह समझा देना है कि वह इस परिवर्तनशील प्रकृति (देह-मन -इन्द्रियों) से पृथक, स्वतंत्र निश्चल साक्षी तत्व है।  मानव आत्मा को यह भलीभाँति जान लेना होगा कि वह अनंतकाल से आत्मा (ब्रह्म-सच्चिदानन्द शाश्वत चैतन्य) ही रही है -तथा देह-मन-इन्द्रियों के साथ उसका संयोग (पंचभूतों के फंदे में फंसना) केवल सामयिक है, क्षणिक है (प्रारब्ध या इस शरीर के उम्र के क्षय होने तक है) राजयोगी प्रकृति के अपने अनुभवों से (देह-मन के साथ तादात्म्य करके सुख-दुःख के अपने अनुभवों से) वैराग्य की शिक्षा पाता है। 
[The Râja-Yogi knows that the whole of nature is intended for the soul to acquire experience, and that the result of all the experiences of the soul is for it to become aware of its eternal separateness from natureThe Raja-Yogi learns the lesson of renunciation through his own experience of nature.] 
ज्ञानयोगी (ठाकुरदेव) का त्याग/वैराग्य सबसे कठिनज्ञान-योगी (अवतार -गुरु )को सबसे कठोर त्याग/वैराग्य से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उसे शुरू से ही यह समझना पड़ता है कि यह ठोस दिखने वाली पूरी प्रकृति एक भ्रम (illusion-माया, मरीचिका)  है।  उसे प्रारम्भ में ही यह समझना होगा कि प्रकृति में जो भी शक्ति की अभिव्यक्ति (आकर्षण) है वह आत्मा की ही शक्ति है, प्रकृति की नहीं। He lets nature and all that belongs to her go, he lets them vanish and tries to stand alone! वह प्रकृति और उससे जुड़ी सभी चीज़ों की और देखता तक नहीं, वे सब सिनेमा के चलचित्र की तरह उसके सामने से गायब हो जाते हैं। और वह कैवल्य में स्थित रहने का प्रयत्न करता है। (3.50 m : 4/45-46)
भक्ति योग में त्याग और वैराग्य सबसे अधिक स्वाभाविक है :  वर्णाश्रम धर्म Be and Make में - यहाँ कोई कठोरता नहीं है, कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ता, बलपूर्वक किसी आसक्ति से अपने को अलग नहीं करना पड़ता।  M/F लव खुद समाप्त हो जाता है , अपने शहर का प्यार , देश प्रेम में दब जाता है। विश्वप्रेम में कट्टर देशभक्ति दब जाती है। पशुमानव इन्द्रियभोग से क्रमशः बौद्धिक आनंद में , फिर आध्यात्मिक आनंद -bliss में स्वतः स्थित होता जाता है।

यही ईश्वर-प्रेम क्रमशः बढ़ते हुए एक ऐसा रूप धारण कर लेता है जिसे पराभक्ति कहते हैं। तब उस प्रेमी के किये कर्मकाण्ड अनुष्ठान की और आवश्यकता नहीं रह जाती। शास्त्रों की जरूरत नहीं रहती। प्रतिमा, मंदिर, गिरजाघर, विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय, देश और राष्ट्रीयताएँ - ये सब छोटे-छोटे सिमित भाव और बंधन स्वतः चले जाते हैं। जो इस भगवद्प्रेम को जानता है। उसे बाँधने या उसकी स्वतंत्रता में बाधा डालने के लिए कुछ नहीं रहता। 
जिस प्रकार किसी चुंबक की चट्टान के पास एक जहाज के आने से, उस जहाज की सारी कीलें तथा लोहे की छड़ें खींचकर निकल जाती हैं, और जहाज के तख्ते आदि खुलकर पानी पर तैरने लगते हैं,उसी प्रकार ठाकुरदेव की कृपा से आत्मा के सारे बंधन दूर हो जाते हैं, और वह मुक्त हो जाती है। अतएव भक्ति-लाभ के उपाय स्वरुप इस वैराग्य-साधना में न तो कोई शुष्कता न जबरदस्ती है। भक्त को अपनी किसी भी भावना का दमन नहीं करता, बल्कि सब भावों को प्रबल करके उन्हें ठाकुर की ओर लगा देता है। (8.56m) ४/४७ 

भक्त का वैराग्य -प्रेमजन्य  है ! 
 
हम प्रकृति में हर जगह प्रेम देखते हैं। प्रेम ही दो व्यक्तियों को एकप्राण हो जाने के लिए प्रेरित करता है। oneness प्राप्त करने उस 'एक' आत्मा (सच्चिदानन्दमयी-माँ सारदा) जिससे सब कुछ निकला है, जिसमें स्थित है और अंत जिसमें सबकुछ विलीन हो जाता है, उसी माँ-सारदा के पास लौट जाने की इच्छा उत्तम या अधम रूप में सर्वत्र प्रकाशित है। 
भक्ति-योग [Be and Make] कुछ छोड़ने की शिक्षा नहीं देता वह केवल कहता है -ठाकुर माँ स्वामीजी में आसक्त होओ - पूर्ण निःस्वार्थी बनो और जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त करो !  
जिसने पराभक्ति के राज्य में प्रवेश किया है, उसे मनुष्य में मनुष्य नहीं दीखता, वरन सर्वत्र उसे अपना प्रियतम - इष्टदेव ही दिखाई देते हैं ! 
संस्कृत में 'प्रभु' का एक नाम 'हरि' है। इसका अर्थ है वह सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है। निर्जीव जड़ क्या कभी चेतन आत्मा को अपनी ओर खींच सकता है। मानलो एक सुंदर मुखड़ा देखकर कोई उन्मत्त हो गया। तो क्या कुछ जड़ परमाणुओं की समष्टि ने -(पंचभूतों की तन्मात्राओं की समष्टि ने) उसे पागल कर दिया है ? नहीं कभी नहीं , इन जड़ परमाणुओं के पीछे अवश्य ईश्वरीय शक्ति (divine influence) और ईश्वरीय प्रेम (divine love) का खेल चल रहा है। 
 [Behind those material particles there must be and is the play of divine influence and divine love.  So even the lowest forms of attraction derive their power from God Himself.] निम्नतम प्रकार के आकर्षण (तीनों ऐषणा) भी अपनी शक्ति स्वयं भगवान से ही पाते हैं। 
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति । 
न वा अरे जायायै कामाय जाया (भार्या-पत्नी)  प्रिया भवति, आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति । 
न वा अरे पूत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति, आत्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति । 
न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति, आत्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति ।
- बृहदारण्यक उपनिषद 2.4.5
कोई भी पति, पत्नी, बाप, बेटा आदि दूसरे के सुख के लिए प्रेम नहीं कर सकते, सभी अपने सुख के लिए ही केवल दूसरे से प्रेम करते हैं।  उपनिषदोंसे हमे मिलने वाले तत्व विचार यह भारत की चिरंतन संपत्ती हैं। 
भगवान मानो एक बड़ा चुंबक है और हमसब लोहे के कण के समान हैं, सतत उसके द्वारा खींचे जा रहे हैं। [तभी तो 56 करोड़ लोग प्रयागराज कुम्भ 2025 में स्नान करते हैं। 'The Lord is the great magnet, and we are all like iron filings; we are being constantly attracted by Him, and all of us are struggling to reach Him'] 
हम सभी उसे प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं -हमारे कठोर जीवनसंग्राम का अंतिम लक्ष्य केवल स्वार्थ नहीं हो सकता। भक्तियोगी इस जीवनसंग्राम का अर्थ भलभाँति जानता है। वह ऐसे संग्रामों की एक लम्बी श्रृंखला से पार हो चुका होता है। और वह जानता है कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है ? भारत कल्याण के सिवा ओर कुछ नहीं है,और वह सीधे समस्त आकर्षणों के मूलकारण-स्वरूप 'हरि' (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण-माँ -स्वामीजी) के निकट चला जाना चाहता है। यही भक्त का त्याग है। अब उसे प्रत्येक मुख में उसे 'हरि' की झलक दिखाई देती है। इसीको विश्वबन्धुत्व (universal brotherhood) में स्थित होना कहते हैं।  तब सारा इन्द्रिय ग्राह्य जगत की आसक्ति उनके लिए सदा के लिए लुप्त हो जाता है। (11.21m)   
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उपरोक्त बातों का सारांश यह है :
१. सन्त अपरा भक्ति (वैधी भक्ति)  को नकारते नहीं हैं पर वे इसे गौण मानते हैं और परा भक्ति पर ज़ोर देते हैं। 
२. पूजा, तीर्थयात्रा और इसी प्रकार की भक्ति के तौर-तरीके भक्त के इस विश्वास पर आधारित है कि परमात्मा पूजाघर, मदिरों और तीर्थस्थानों में निवास करता है।   उसे इस बात का ज्ञान नहीं है कि परमात्मा उसके अन्दर ही वास करता है।  यह भक्ति प्राय सांसारिक इच्छाओं और फल की आशा से की जाती है, इसलिए इस भक्ति को 'सकाम भक्ति' भी कहते हैं।  
३. 'अपरा भक्ति' या 'सगुण भक्ति' एक शुरुवात है जिसका उददेश्य प्रभु के लिए प्रेम जाग्रत करना है।  यह अंत में परा भक्ति या निर्गुण भक्ति का रूप ले सकती है जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 
४. अधिकतर भक्ति संप्रदाय धीरे-धीरे बढ़नेवाली भक्ति यानी अपरा भक्ति से परा भक्ति की ओर बढ़ने का सुझाव देते हैं।  परन्तु कुछ आध्यात्मिक विचारधारा के लोग इस बात पर बल देते हैं कि अध्यात्म के खोजी को आरम्भ में ही भक्ति के निचले रूपों में समय न गवाँकर एक गुरु के मार्गदर्शन में परा भक्ति का ही अभ्यास करना चाहिए।  
५. पूर्ण समर्पण अर्थात प्रपत्ति या शरणागति जिसमें व्यक्ति असहाय हो जाता है और उसके अहंकार का नाश हो जाता है, परमात्मा को प्रसन्न करने का निश्चित तरीका है। 
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बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

"निष्ठा पूर्ण भक्ति योग में दो खतरे -1. धर्मान्ध बन जाना 2. गहराई (निष्ठा) के बिना विस्तार " [Two Dangers in Nishthâ Bhakti : 1. 'Becoming fanatic ' 2.Becoming too Liberal (expansion without depth) BHAKTI-YOGA (New Discoveries, Vol. 3, pp. 543-54.)]

निष्ठा पूर्ण भक्ति-योग के दो खतरे 

[स्वामी विवेकानन्द द्वारा न्यू यॉर्क में सोमवार सुबह, 20 जनवरी, 1896 को दिया गया भक्ति-योग में निष्ठा विषय का क्लास श्री जोशिया जे. गुडविन द्वारा रिकॉर्ड किया गया]

[A bhakti-yoga class delivered in New York, Monday morning, January 20, 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin]

 Bhakti Yoga - Class #7: "Nishtha"  by Swami Vivekananda


हमने अपनी पिछली कक्षा में हमने वैधी भक्ति (preparatory Bhakti) के अन्तर्गत - प्रतिकों के बारे में विषय समाप्त कर लिया है। प्रारंभिक भक्ति का एक और भाव - 'निष्ठा' एक मात्र आदर्श के प्रति समर्पण पर चर्चा करने के बाद हम परा भक्ति, परम भक्ति ( Parâ, the Supreme) की ओर बढ़ेंगे।
[ महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पण रखना -इसे निष्ठा कहते हैं। पर इसमें दो खतरे भी हैं, जिसके प्रति सावधान रहना चाहिए। :  "This is Nishtha — knowing that all these different forms of worship are right, yet sticking to one and rejecting the others. We must not worship the others at all; we must not hate or criticize them, but respect them.
" यह जानते हुए कि पूजा के ये सभी अलग-अलग तरीके सही हैं, फिर भी एक पर अड़े रहना और बाकी को अस्वीकार करना- इसी को निष्ठा कहते हैं। हमें दूसरों की पूजा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए; परन्तु हमें उनसे नफरत या आलोचना भी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनका सम्मान करना चाहिए।"
उद्देश्य -'भारत का कल्याण' करने के कई उपाय हैं, सभी अलग अलग उपाय सही हैं , फिरभी महामण्डल के उपाय -चरित्रनिर्माण, आदर्श -स्वामी विवेकानन्द, आदर्श वाक्य -Be and Make, और अभियान-मंत्र 'चरैवेति, चरैवेति'  पर अड़े रहना और बाकी (राजीनीतिक, खिचड़ी भोज) को अस्वीकार करना, किन्तु किसी अन्य उपाय से घृणा नहीं करना, अन्य सभी उपाय और आदर्श के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना - इसे महामण्डल संगठन के प्रति निष्ठा कहते हैं।    

      इस विचार को 'निष्ठा ' कहा जाता है, एक (आदर्श और उद्देश्य)  विचार के प्रति समर्पण।  तथाकथित उदार सनातनी लोग जो कुम्भस्नान तो कर लेते हैं, किन्तु विवेकानन्द को राष्ट्रीय युवा आदर्श मानकर, उनके चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा के आलोक में - (Be and Make' परम्परा में) अपने जीवन का गठन नहीं करते, उनमें एक प्रवृत्ति आम तौर से दिखाई देती है - "वे हर काम में माहिर होने का दिखावा करते हैं, किन्तु किसी भी काम में माहिर नहीं होते "- (It is a great tendency among liberal people to become a jack-of-all-trades and master of none — nothing.) 
हमारे एक पुराने भक्त संत तुलसीदास जी कहा है-

सबसे बसिए सबसे रसिये, सबका लीजिये नाम। 
हाँ जी हाँ जी करते रहिये, बैठिये अपने  ठाम।।   

 "सभी फूलों से शहद लीजिये, सभी के साथ सम्मानपूर्वक घुलमिल जाएँ, सभी को हाँ, हाँ कहें, लेकिन अपना आदर्श कभी न छोड़ें"। अपना आदर्श न छोड़ना ही निष्ठा कहलाता है। ऐसा नहीं है कि किसी को दूसरों के आदर्शों से घृणा करनी चाहिए या उनकी आलोचना भी करनी चाहिए; वह जानता है कि वे सभी सही हैं। लेकिन, साथ ही, उसे अपने आदर्श पर बहुत सख्ती से अडिग रहना चाहिए।
हाथी के दो दाँत खाने के अलग , दिखाने के अलग। इसलिए सभी से घुल-मिल जाओ, सभी से हाँ-हाँ कहो, लेकिन किसी से न जुड़ो। अपने जीवन  के आदर्श (स्वामी विवेकानन्द) पर टिके रहो। जब तुम पूजा करो, तो भगवान के उस आदर्श की पूजा करो जो तुम्हारा अपना इष्ट (श्रीरामकृष्ण देव) है, तुम्हारा अपना चुना हुआ आदर्श है।
 [सोमवार, 4 जनवरी 2010/' विवेकानन्द की निवेदिता ' (Character Building Education)https://vivek-jivan.blogspot.com/2010/01/character-building-education.html]

एक बार हनुमानजी से भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा  परमपुरुष के तो अनेक नाम हैं, पर तुम केवल राम-राम क्यों करते हो। राम तुम्हारे इष्ट हैं, किन्तु और नामों का भी तो महत्व है। हनुमानजी ने उत्तर दिया, 
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि।

तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचनः॥

' यद्दपि परमात्मदृष्टि से लक्ष्मीपति और सीतापति दोनों एक हैं, तथापि मेरे सर्वस्व तो वे ही कमल लोचन श्री राम हैं।' 
अर्थात मैं जानता हूं कि दार्शनिक विचार के अनुसार श्रीनाथ अर्थात् लक्ष्मी -नारायण और जानकीनाथ अर्थात् राम इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, मगर मैं अनेक नामों के पीछे नहीं दौड़ना चाहता। मैं एक नाव पर रहना चाहता हूं और मेरे लिए दुनिया में सिर्फ राम ही हैं और कोई नहीं। साधना मार्ग में भी मनुष्य को एक आदर्श पर ही टिके  रहना है। एक अखण्ड अविनश्वर परमपुरुष (सच्चिदानन्द अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) से प्रेम करनी है। अगर परमपुरुष तुम्हें नहीं चाहते हैं, तब भी तुम उन्हें मत छोड़ो। अगर परमपुरुष कहते हैं, ' तुम दुश्चरित्र हो, मूर्ख व पतित हो, मैं तुमसे प्रेम करना नहीं चाहता तो तुम कहो, 'हाँ ठाकुरदेव (परमपुरुष), मैं हीन हूं, दुष्चरित से विरत नहीं हुआ हूँ , मैं पतित हूं मगर मैं तुम्हारा और माँ सारदा का बेटा हूं, स्वामीजी -नवनीदा का भाई हूँ । " 
 Two Dangers in Nishthâ Bhakti —1. Becoming fanatic: (पहला खतरा- धर्मान्ध या कट्टरपंथी बन जाना।)  भारत की धरती रत्नगर्भा है - यहाँ कई महापुरुष हर जाति -हर धर्म में आते रहते हैं ! अपने धर्म, भाषा, राज्य से या अपने आदर्श से प्रेम करने का अर्थ दूसरे राज्य के धर्म, भाषा या आदर्श से घृणा करना नहीं है। जब एक (परमात्मा) ही अनेक बन गया है, तब श्रीनाथ और जानकीनाथ में भेद कहाँ है ? कौन पराया है ? सभी को मेरा सादर नमन है, किन्तु  भारत साकार ने स्वामीजी को ही राष्ट्रीय युवा आदर्श घोषित किया है। अतः युवाओं को उन्हें ही अपना आदर्श मानकर अपना जीवन गठन और चरित्र-निर्माण  करना चाहिए। इस खतरे से बचने हेतु अपने आदर्श (आध्यात्मिक नेता) पर निष्ठा रखो, और दूसरों के आदर्श (पैगम्बर-मुनि-ज्ञानी ) का भी उचित सम्मान प्रदर्शित करते रहो।  
[ It is very easy to hate (other) . The generality of mankind gets so weak that in order to love one, they must hate another . This characteristic is in every part of our nature, and so in our religion. The ordinary, undeveloped weak brain of mankind cannot love one without hating another. This very [characteristic] becomes fanaticism in religion. Loving their own ideal is synonymous with hating every other idea.]
 -2nd-गहराई (गहरी निष्ठा) के बिना ह्रदय विस्तारBecoming too Liberal (expansion without depth) :You see that in these days religion has become to many merely a means of doing a little charity work, just to amuse them after a hard day's labour — they get five minutes religion to amuse them. 

'विस्तार ही जीवन है, और संकोच मृत्यु है। लेकिन ह्रदय के विस्तार के साथ आदर्श और उद्देश्य के प्रति ह्रदय की गहराई तक (निष्ठा) भी रहनी चाहिए। स्वामीजी ने कहा था - उदारवादियों के साथ खतरा यह है कि वे बहुत विस्तारवादी हैं और उनमें कोई गहराई (निष्ठा) नहीं है। आप देख रहे हैं कि आजकल धर्म बहुत से लोगों के लिए केवल थोड़ा दान-पुण्य करने का साधन बन गया है, दिन भर की मेहनत के बाद बस उन्हें मनोरंजन के लिए - उन्हें मनोरंजन के लिए पाँच मिनट का धर्म मिलता है। दूसरी ओर, कट्टरपंथियों (आतंकवादियों) में गहराई है, तीव्रता है, किन्तु विस्तार नहीं है, और तीव्रता बहुत संकीर्ण है। वे बहुत गहरे हैं, लेकिन उसमें कोई चौड़ाई नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यह हर किसी के लिए घृणा को जन्म देता है।  

"Stick to your own ideal of worship-. When you worship, worship that ideal of God which is your own Ishta, your own Chosen Ideal. If you do not, you will have nothing. 
(युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के आदेश- आदर्श वाक्य : Be and Make, और अभियान मंत्र - 'चरैवेति, चरैवेति' अर्थात संगठन का प्रचार-प्रसार करते समय शाम का अधिवेशन या सेमिनार में स्त्री-पुरुष दोनों शामिल हो सकते हैं , किन्तु प्रशिक्षण- देते समय नारी संगठन की आदर्श माँ सारदा रहेंगी, स्वामीजी के आदेश महिला कार्यक्रमों से महामण्डल बाहर से सहायता देगा , किन्तु प्रशिक्षण से अलग रहेगा, इस आदेश का पालन हर हाल में करना होगा।) 
>> पौधे के बढ़ते समय बाड़ लगाना क्यों आवश्यक होता है, नहीं तो पशु चर जायेंगे?  अपना जीवनगठन और चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण पूरा हो जाने तक - वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आग और घी को अलग रखें !-Nothing will grow. When a plant is growing, it is necessary that it should be hedged round lest any animal should eat it up. But when it has become strong and a huge gigantic tree, do not care for any hedges — it is perfect in itself.  
"जब कोई पौधा बढ़ रहा होता है, तो यह जरूरी है कि उसके चारों ओर बाड़ लगाई जाए, ताकि कोई जानवर उसे खा न जाए।" -श्रीरामकृष्ण 
Then, after a long course of training the mind in this Ishta — when this plant of spirituality has grown and the soul has become strong and you begin to realize that your Ishta is everywhere — [then] naturally all these bondages will fall down. 

फिर, जब अपने इस इष्ट (आदर्श) पर मन को लम्बे समय तक एकाग्र रखने का प्रशिक्षण के लंबे कोर्स के बाद - जब आध्यात्मिकता का यह पौधा बड़ा हो गया है और आत्मविश्वास और  आत्म-श्रद्धा मजबूत हो गया, M/F देह भाव कम हुआ है और तुमको यह एहसास होने लगा कि तुम्हारे इष्ट ही हर किसी में हैं - [तब] स्वाभाविक रूप से ये सभी बंधन टूट जाएँगे। जब फल पक जाता है, तो वह अपने वजन से गिरता है। अगर आप कच्चा फल तोड़ते हैं तो वह कड़वा होता है, खट्टा होता है। इसलिए हमें इस विचार को धीरे -धीरे क्रमशः बढ़ना होगा।
Take up one idea,... 'Be and Make' as your Ishta, and let the whole soul be devoted to it. Practise this from day to day until you see the result, until the soul grows.
एक विचार - आदर्श विवेकानन्द के साँचे में 'मनुष्य बनो और बनाओ' - इसी एक विचार को  अपना इष्ट बना लो, और पूरी आत्मा को उसमें समर्पित कर दो। इसका अभ्यास दिन-प्रतिदिन करो जब तक कि तुम परिणाम न देख लो, जब तक कि आत्मा विकसित न हो जाए। और अगर यह सच्चा और अच्छा है, तो यही विचार पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा। इसे अपने आप फैलने दो; यह सब अंदर से बाहर की ओर आएगा। तब तुम कहोगे कि तुम्हारा इष्ट सर्वत्र है (अग्रवाल-DN)  और वह सबमें है। बेशक, वचनामृत पाठ करने के साथ ही साथ, हमें हमेशा हमें बंगाली समिति के इष्टों को भी पहचानना (कविगुरु) चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए - भगवान की आराधना के दूसरे विचार - अन्यथा पूजा कट्टरता में बदल जाएगी।
Let it spread by itself; it will all come from the inside out. Then you will say that your Ishta is everywhere and that He is in everything. Of course, at the same time, we must always remember that we must recognize the Ishtas of others and respect them — the other ideas of God — or else worship will degenerate into fanaticism. 
"जहाँ वक्ता अद्भुत है, वहाँ श्रोता भी अद्भुत है। जब नेता (शिक्षक) अद्भुत है, तो शिष्य या भावी नेता भी अद्भुत होना जरुरी है। तभी यह आध्यात्मिकता आएगी"।
बहुत कम लोग समझते हैं कि वे शिष्य बनने (भावी नेता बनने) के योग्य नहीं हैं। शिष्य में सबसे पहले यह आवश्यक है: कि उसे चाहना चाहिए -ज्ञान पिपासु होना चाहिए , उसे वास्तव में आध्यात्मिकता चाहिए। 3P -पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय ! 

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।

 आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।

(कठोपनिषद्-1.2.7) 

"एक आत्मज्ञानी गुरु (स्वामी विवेकानन्द)  को पाना अत्यंत दुर्लभ है। आत्म ज्ञान के विषय में ऐसे गुरु का उपदेश सुनने का अवसर भी बहुत कम मिलता है। यदि परम सौभाग्य से ऐसा अवसर मिलता भी है तब ऐसे शिष्य बहुत कम मिलते हैं जो आत्मा के विषय को समझ सकें।
ऐसी अवस्था में महामण्डल को कभी निराश नहीं होना चाहिए , यदि उनके अथक प्रयासों के पश्चात् भी जब बहुसंख्यक लोग आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने या इसको समझने के इच्छुक न हो तब सिद्ध पुरुषों को कभी निराश नहीं होना चाहिए। 
क्यों ?  Religion is a necessary thing to very few; and to the vast mass of mankind it is a luxury. धर्म बहुत कम लोगों के लिए ज़रूरी चीज़ है; और ज़्यादातर लोगों के लिए यह एक विलासिता है। लेकिन अगर वे सोचते हैं कि वे भगवान/आत्मा  को मूर्ख बना सकते हैं तो वे पूरी तरह से गलत हैं। उन्हें मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। वे केवल खुद को मूर्ख बनाएंगे और नीचे और नीचे गिरेंगे जब तक कि वे पशुओं की तरह न हो जाएं।

भक्ति योग क्लास में दूसरी आवश्यकता गुरु की थी। The teacher (नेता-विवेकानन्द) is not a talker, but the transmitter of spiritual force which he has received from his teacher, and 'HE' ठाकुर देव from others, (जगतगुरु श्री रामकृष्ण की गुरु माँ जगदम्बा हैं !)गुरु केवल बात करने वाला नहीं होता, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति का संचारक होता है,  'transmitter of spiritual force' उसे अपने गुरु से, दूसरों से, और इसी तरह, एक अखंड धारा -in an unbroken current. में प्राप्त होती है। उसे उस आध्यात्मिक धारा को संचारित करने में सक्षम होना चाहिए।
जब शिक्षक और शिष्य दोनों तैयार हो जाते हैं, तब भक्ति-योग का पहला चरण आता है। भक्ति-योग का पहला भाग वह है जिसे प्रारंभिक भक्ति [-वैधी भक्ति !] कहा जाता है, जिसमें आप ईश्वर के मूर्त रूपों के माध्यम से काम करते हैं।
The next lecture was on the Name — भक्ति-योगी को हमेशा यह सोचना चाहिए कि नाम ही ईश्वर है - ईश्वर से अलग कुछ नहीं। नाम और ईश्वर एक हैं। नाम और नामी एक हैं !
इसके बाद, यह सिखाया गया कि भक्ति-योगी के लिए विनम्रता और श्रद्धा कैसे आवश्यक है। भक्ति-योगी को खुद को एक मृत व्यक्ति के रूप में रखना चाहिए। एक मृत व्यक्ति कभी अपमान नहीं सहता, कभी प्रतिशोध नहीं लेता; वह सभी के लिए मृत है। भक्ति-योगी को सभी अच्छे लोगों, सभी संत लोगों का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि भगवान की महिमा हमेशा उनके बच्चों के माध्यम से चमकती है।
For the Spiritual Leaderआध्यात्मिक नेता (भक्ति-योगी) के लिए विनम्रता (Humility) और श्रद्धा (Reverence) आवश्यक गुण है। Humility and Reverence are necessary For the Spiritual Leader (Bhakti-Yogi)

The next lesson was on the Pratikas. यदि बैल को भी ईश्वर (आत्मा) का प्रतीक मानकर पूजा करें, तो उससे भी सबकुछ मिलता है। Everything is in ourselves, and the external world and the external worship are the forms, the suggestions that call it out. When they become strong, the Lord within awakens. सब कुछ ब्रह्मत्व या दिव्यता  हमारे अंदर है, और बाहरी दुनिया और बाहरी पूजा वे रूप हैं, सुझाव हैं जो इसे अभिव्यक्त करने की प्रेरणा देते हैं। जब वे मजबूत हो जाते हैं, तो भीतर का भगवान जाग उठता है।
The external teacher is but the suggestion. When faith in the external teacher is strong, then the Teacher of all teachers within speaks; eternal wisdom speaks in the heart of that man. In every country great saints have been born, wonderful lives have been [lived] — coming out of the sheer power of love.Then alone comes spirituality — when one goes beyond these laws and bounds.
He lives in the temple of all temples, the Soul of man. So this is the goal towards which we are going — the supreme Bhakti — and all that leads up to this is but preparation.
Guru Nanak said, "Give the mullah a piece of the Koran [to swear on]. [In the mosque] when he was saying 'Allah, Allah', he was thinking of some chicken he had left at home".
 "And", said the magistrate [to the mullah], "don't go to the mosque again. It is better not to go at all than to commit blasphemy there and hypocrisy. 
मुसलमान अपनी प्रार्थनाओं में बहुत नियमित होते हैं। जब समय आता है, वे जहाँ भी होते हैं, वे बस शुरू हो जाते हैं, ज़मीन पर गिरते हैं और उठते हैं और गिरते हैं, और इसी तरह। "हाँ, मैं अपने सांसारिक प्रेमी से मिलने जा रही हूँ, और मैंने तुम्हें वहाँ नहीं देखा। लेकिन तुम अपने स्वर्गीय प्रेमी से मिलने जा रहे हो और तुम्हें यह नहीं पता होना चाहिए कि एक लड़की तुम्हारे शरीर के ऊपर से गुजर रही है।"
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इष्टनिष्ठा - खण्ड ४/३५-३६/ :

जो भक्त होना चाहते हैं, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि 'जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !' हम भगवत्प्राप्ति के विभिन्न मार्गों में से किसीके प्रति घृणा नहीं करें, किसी को भी अस्वीकार न करें। फिरभी, जबतक पौधा छोटा रहे , जबतक वह बढ़कर बड़ा पेड़ न हो जाये, तबतक उसे चारोओर से रुंध रखना आवश्यक है।          

[श्रीरामकृष्ण वचनामृत :  परिच्छेद ~ 59, बुधवार, 28 नवंबर, 1883]

आध्यात्मिक नेता को पहचाने कैसे ?  
NEIGHBOUR: "How can one recognize a holy man?"
श्रीरामकृष्ण – जिनका मन, जिनका जीवन, जिनकी अन्तरात्मा ईश्वर में लीन हो गयी है, वही महात्मा हैं। जिन्होंने कामिनी और कांचन का त्याग कर दिया है, वही महात्मा हैं । जो महात्मा हैं, वे स्त्रियों को संसार की दृष्टि से नहीं देखते । यदि स्त्रियों के पास वे कभी जाते हैं तो उन्हें मातृवत् देखते हैं और उनकी पूजा करते हैं । साधु-महात्मा सदा ईश्वर का ही चिन्तन करते हैं । ईश्वरीय प्रसंग के सिवाय और कोई बात उनके मुँह से नहीं निकलती । और सर्वभूतों में ईश्वर का ही वास है यह जानकर वे सब की सेवा करते हैं । संक्षेप में यही साधुओं के लक्षण हैं ।

पड़ोसी – क्या बराबर एकान्त में रहना होगा ?
NEIGHBOUR: "Must one always live in solitude?"
श्रीरामकृष्ण – फुटपाथ के पेड़ तुमने देखे हैं ? जब तक वे पौधे रहते हैं तब तक चारों ओर से उन्हें घेर रखना पड़ता है । नहीं तो बकरे और चौपाये उन्हें चर जाते हैं । जब पेड़ मोटे हो जाता हैं तब उन्हें घेरने की जरूरत नहीं रहती । तब हाथी बाँध देने पर भी पेड़ नहीं टूट सकता । तैयार पेड़ अगर बना ले सको तो फिर क्या चिन्ता है – क्या भय है ? विवेक लाभ करने की चेष्टा पहले करो। तेल लगाकर कटहल काटो, उससे दूध नहीं चिपक सकता
[MASTER: "Haven't you seen the trees on the foot-path along a street? They are fenced around as long as they are very young; otherwise cattle destroy them. But there is no longer any need of fences when their trunks grow thick and strong. Then they won't break even if an elephant is tied to them. Just so, there will be no need for you to worry and fear if you make your mind as strong as a thick tree-trunk. First of all try to acquire discrimination. Break the jack-fruit open only after you have rubbed your hands with oil; then its sticky milk won't smear them."
पड़ोसी – विवेक किसे कहते हैं ?
श्रीरामकृष्ण – ईश्वर (आत्मा) सत् है और सब (देह-मन) असत् – इस विचार का नाम विवेक है । सत् का अर्थ नित्य, असत् का अनित्य । जिसे विवेक हो गया है वह जानता है, ईश्वर ही वस्तु हैं, और सब अवस्तु है । विवेक के उदय होने पर ईश्वर को जानने की इच्छा होती है । असत् को प्यार करने पर – जैसे देहसुख, लोकसम्मान, धन इन्हें प्यार करने पर – सत्स्वरूप ईश्वर (आत्मा) को जानने की इच्छा नहीं होती । सत्-असत् विचार के आने पर ईश्वर (परम् सत्य आत्मा)  की ढूँढ़-तलाश की ओर मन जाता है ।
“सुनो यह एक गाना सुनो  -
'आय मन बेड़ाते जाबी। 
प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (ताते) निवृत्तिरे संगे नेबि |
(ओरे) विवेक नामे तार बेटा, तत्वकथा ताय सुनाबि |  
(भावार्थ) – “मन आ घूमने चलें । काली (सदगुरु)-कल्पतरु के नीचे, ऐ मन, चारों फल तुझे पड़े हुए मिलेंगे । प्रवृत्ति और निवृत्ति तेरी स्त्रियाँ हैं; उनमें से निवृत्ति को अपने साथ लेना । उसके आत्मज विवेक से तत्त्व की बातें पूछ लेना । शुचि-अशुचि को लेकर दिव्य घर में तू कब सोयेगा ? उन दोनों सौतों में जब प्रीति होगी, तभी तू श्यामा माँ को पाएगा । तेरे पिता माता ये जो अहंकार और अविद्या हैं, इन्हें दूर कर देना । अगर कभी मोहगर्त में तू खिंचकर गिर जाय तो धैर्य का खूँटा पकड़े रहना । 
[क्या अभी तक तेरे माता-पिता अहंकार और अविद्या हैं ? नहीं, ठाकुर देव पिता हैं, माँ सारदा माता है - और स्वामीजी न०दादा हैं !!! बंगाली समिति में सचिव - सपोन ? ठाकुर तिथि पूजा में नाच-गान के /साथ-साथ / या जगह पर श्रीरामकृष्ण वचनामृत : परिच्छेद ~ 59, बुधवार, 28 नवंबर, 1883 के पाठ का आयोजन करो।] 

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