Bhakti Yoga - Class #6: "The Ishta" by Swami Vivekananda
इष्ट की परिकल्पना/ खण्ड ९/ पृष्ठ ५१-६०
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इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
Bhakti Yoga - Class #6: "The Ishta" by Swami Vivekananda
इष्ट की परिकल्पना/ खण्ड ९/ पृष्ठ ५१-६०
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[Swami Vivekananda's fifth Bhakti Yoga class -5 for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 6 January 1896. Narrated by Varun Narayan.]
🔱🕊 🏹अनंत आनंद के प्रमुख प्रतीक 🔱🕊 🏹 खण्ड -९/पृष्ठ ४१
( Class -5 :The Chief Symbols)
संस्कृत भाषा के दो शब्द हैं प्रतीक और प्रतिमा ! प्रतीक का अर्थ है - किसी विशेष भाव/विचार (जैसे Milestone) के समीप पहुँचना। [Pratika means coming towards, nearing.] सभी देशों में उपसना की कई श्रेणियाँ हैं। कुछ लोग साधु-महात्मा के छवि या अवतारों की छवियों की पूजा करते हैं। कुछ लोग विभिन्न प्रकार के रूपों और प्रतीकों की पूजा करते हैं। भक्तियोग इन विभिन्न श्रेणी के छविओं में किसी भी छवि का तिरस्कार नहीं करता। भक्ति योग इन सबको एक नाम - 'प्रतीक' के अंतर्गत रखता है। ये लोग ईश्वर (आत्मा ,परम सत्य या इन्द्रियातीत सत्य) की ओर ले जाने वाले प्रतीक या सोपान के रूप की पूजा करते हैं। खंड ९/४१
Pratika (Book worship) cannot be worshipped as God. ईश्वर मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं, पर वेद या बाइबिल में उनका उल्लेख होना चाहिए। ग्रंथ आधारित धर्म का नाश नहीं होता। ९/४४ एकाग्रता के अभ्यास में मूर्ति आवश्यक है - छवि के बिना आप सोच नहीं सकते। हम सभी मनुष्य स्थूल-देहधारी आत्माएं हैं, और इसलिए हम अपने आप को इस धरती पर पाते हैं। (We are concreted spirits) ९/४६) यह स्थूल रूप में आसक्ति ही हमें यहाँ लाया है, और वही हमें यहाँ से बाहर निकालेगा। Concretization has brought us here, and it will take us out. क्या किसी साधारण M/F शरीर के प्रति आसक्ति रखने की अपेक्षा, अपने आदर्श और इष्टदेव ठाकुर-माँ स्वामीजी की छवि में आसक्ति रखना अधिक श्रेष्ठ नहीं है ? किसी स्त्री के सामने घुटने टेककर कहना, "तुम मेरी जान हो, मेरी आंखों की रोशनी हो, मेरी आत्मा हो।" यह तो मूर्तिपूजा से भी बदतर है। (To kneel before a woman and say, "You are my life, the light of my eyes, my soul." That is worse idolatry.) क्या यह बेहतर नहीं है कि बुद्ध या जितेंद्र-महावीर (जिन विजेता) की मूर्ति के सामने घुटने टेककर कहा जाए कि, "तुम ही मेरे जीवन हो"?(९/४६) 17 मिनट/
मनःसंयोग - अरुंधति नामक सुन्दर तारे को दिखाने की विधि, से आत्मा तक , method of showing the fine star known as Arundhati, मूर्ति को भूल जाओ और उसमें ईश्वर का दर्शन करो ! हम किसी भी वस्तु में भगवान को देखकर उसकी पूजा कर सकते हैं, बशर्ते हम मूर्ति को भूलकर उसमें भगवान (सच्चिदानन्द स्वरूप ठाकुर) को देख सकें। फिर ठाकुरदेव की मूर्ति को भूल जाओ -उसमें माँ जगदम्बा के सच्चिदानन्द स्वरुप का दर्शन करो ! उसी ईश्वर से जगत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। ठाकुर-माँ -स्वामीजी की प्रतिमा माँ जगदम्बा की प्रतीक मात्र है।(20 मिनट )
नाम शक्ति (the power of the name) : ईश्वर या आत्मा के नाम-रूप का गरुमुख से सुना हुआ सही उच्चारण है- 'रामोकृष्णो'! हम सभी का विश्वास है कि आत्मा निर्गुण निराकार है। उसका कोई नाम-रूप नहीं है। पर ज्यों ही हम उसके बारे में सोचते है -उसे नाम और रूप दोनों दे देते हैं। चित्त [=मन वस्तु] एक शांत सरोवर की समान है, और शब्द सुनकर उठने वाले विचार चित्त पर तरंग के सदृश्य है। आत्मा या ईश्वर चिंतन से परे है , ज्यों ही वह विचार्य विषय बन जाता है - उसका नाम और रूप होना अनिवार्य होता है। 'Name and Form' ठाकुरदेव का 'नाम और रूप' आत्मा रूपी विचार-तरंग के उठाने का उपाय है। नाम को हमलोग रूप से अलग नहीं कर सकते। 21m / ठाकुर का नाम -रामोकृष्णो, उनके रूप को अभिव्यक्त करने वाली शक्ति है, उनके भावों की स्थूल अवस्था ठाकुर देव का 'रूप' है और नाम उनकी सूक्ष्म अवस्था है।
3H - उसी एक वस्तु 'आत्मा' के अस्तित्व की तीन अवस्थायें हैं - सूक्ष्मतर, घनीभूत और अत्यंत घनीभूत। जहाँ एक रहता है , वहीँ शेष दोनों भी रहते हैं।
यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे- The Universe is built upon the same plan as the Body, प्रक्षेपण और प्रलय : हमारे शरीर के पीछे के भाव को आत्मा कहा जाता है, और ब्रह्मांड के पीछे के भाव को ईश्वर कहा जाता है। उसके बाद आता है नाम। ॐ पूरे ब्रह्मांड या ईश्वर का नाम है।
भगवान का नाम गुरु-शिष्य परम्परा में ही मिलना चाहिए। नाम जप से भक्ति की उच्चतम अवस्था प्राप्त होती है
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भक्ति योग :Class-3 : आध्यात्मिक गुरु और शिक्षक (नेता)
(The Teacher of Spirituality)
🔱आध्यात्मिक नेतृत्व की अवधारणा🔱
(The concept of Spiritual Leadership)
[स्वामी विवेकानन्द द्वारा भक्ति योग के प्रारंभिक साधकों के लिए 23 दिसंबर 1895 को सोमवार को सुबह में , 228 West 39th Street, New York में तीसरा क्लास लिया गया था, उसे श्री जोशिया जे. गुडविन द्वारा रिकॉर्ड किया गया था। यहाँ श्री वरुण नारायण उस प्रवचन को अंग्रेजी में सुना रहे हैं। यह (1895-96 में) स्वामी विवेकानंद द्वारा न्यूयॉर्क शहर में भक्ति योग पर ली गई ग्यारह (11) कक्षाओं की श्रृंखला में यह तीसरी कक्षा है।]
[Bhakti Yoga: Class-3 : 34.53 मिनट का प्रवचन ]
>>Every soul is destined to be perfect :... हर आत्मा का पूर्ण होना (100 % निःस्वार्थी होना) तय है। एक आत्मा केवल दूसरी आत्मा से ही ऐसी प्रेरणा प्राप्त कर सकती है, किसी अन्य उपाय से नहीं। जिस आत्मा से यह प्रेरणा आती है, उन्हें सद्गुरु (नेता -विष्णुसहस्रनाम वाला) कहते हैं, तथा वह आत्मा जिस तक यह प्रेरणा पहुँचती है, शिष्य (भावी नेता) कहलाती है।(भक्ति ही धर्म है इसलिए) "धर्म का वक्ता अद्भुत (wonderful) होना चाहिए, और श्रोता भी अद्भुत होना चाहिए।" [3.28 मिनट]
(4.15 m) "प्रकृति का यह रहस्यमय नियम है-"दी सीकिंग सीनर मिटेथ दी सीकिंग सेवियर। (It is a Mysterious Law of Nature that - "The seeking sinner meeteth the seeking Saviour जैसे ही खेत तैयार होता है, बीज अवश्य आना चाहिए, जैसे ही आत्मा को धर्म की आवश्यकता होती है, धार्मिक शक्ति का संचारक (The Transmitter of Religious force-SV) अवश्य आना चाहिए। [स्वामीजी का प्रण है - "I will not cease to work ! वे आज भी काम कर रहे हैं। और विभिन्न महामण्डल केंद्र इसके प्रमाण हैं।]
क्या हमें वास्तव में सत्य या धर्म की पिपासा है ? सद्गुरु (नेता) को पहचाने कैसे ? सत्य स्वयंप्रकाश होता है। गुरु विवेकानन्द जैसे नेता (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) स्वयं प्रकाश (self-effulgent) हैं ! (खण्ड ९/२४)
आध्यात्मिक नेतृत्व की अवधारणा ('3P' The concept of spiritual leadership) : महामण्डल के भावी आध्यात्मिक नेता के आवश्यक गुण -पवित्रता (purity दुष्चरित से विरत-शास्त्र-निषिद्ध कर्मों से विरत), ज्ञान की सच्ची पिपासा (अर्थात आत्मा, ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य को जानने की सच्ची पिपासा -अनंत धैर्य , a real thirst after knowledge) तथा अध्यवसाय यानि अमृत मिलने तक समुद्रमंथन; अर्थात जब तक मन पर विजय प्राप्त न हो जाये, तब तक मन से निरंतर कुश्ती लड़ते रहने का नाम धर्म (=आध्यात्मिक नेता का धर्म है भक्त के रूप में जीवन-गठन।) है। (खण्ड-९/२४-२५)
धर्म (अध्यात्म) क्या है ? धर्म तो मन के साथ एक सतत संघर्ष है। पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य बन जाने के लिए (तीनों ऐषणाओं : कामिनी,कंचन, नाम-यश में आसक्ति पर), विजय प्राप्त कर लेने तक अपने मन के साथ निरंतर कुश्ती लड़ते रहने का नाम है धर्म। यह (मल्ल्युद्ध यानि 5 अभ्यास कब तक करना है?) एक या दो दिन, महीनों; कुछ वर्षों या जन्मों का प्रश्न नहीं है, इसमें तो सैकड़ों जन्म बीत जायें, तो भी हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। अँधा यदि अँधे को राह दिखाये तो दोनों गड्ढे में गिरते हैं ! जब तक हमलोग स्वयं अपना जीवन सुंदर ढंग से गठित नहीं कर लेते (अर्थात दुष्चरित से विरत नहीं हुए हैं ?), तब तक लड़कियों (बहनों -माताओं) के प्रति दूर से ही सम्मान दिखाना अच्छा है। उनको प्रशिक्षित और सन्मार्ग पर संचालित करने की बात सोचना भी ठीक नहीं है। महामण्डल आंदोलन एकमात्र युवा चरित्र-निर्माण के प्रति समर्पित आंदोलन है , इसलिए लड़के-लड़कियों को (युवक-युवतियों को) एक साथ रखकर इसके प्रशिक्षण का कार्यक्रम करना स्वामीजी नहीं चाहते थे। इसलिए जब उन्होंने बेलुड़मठ का निर्माण किया था, उसी समय कह दिया था कि स्त्रियों के लिए अलग से मठ बनाने की आवश्यकता है, किन्तु उनके मठ संचालन में पुरुषों का कोई अधिकार या सम्पर्क नहीं रहेगा। स्वामी विवेकानन्द के निर्देशानुसार ही बाद में गंगानदी के दूसरे तरफ -दक्षिणेश्वर में स्त्रियों के लिए श्री सारदा मठ की स्थापना हुई। उस मठ का संचालन वे स्वयं ही करती हैं। ठीक उसी प्रकार महामण्डल में रहे बिना, इसके बाहर रहते हुए, किन्तु एक ही उद्देश्य -'जीवन-गठन' को प्राप्त करने (प्रवृत्ति से निवृत्ति प्राप्त करने) के लिए लड़कियाँ भी संगठित होकर 'सारदा नारी संगठन ' के झण्डे तले अपने जीवन-गठन के कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं तथा क्रमशः उनका संगठन बहुत सुंदर रूप ले रहा है।
(अर्थात मन के साथ मल्लयुद्ध करते हुए उसे पूर्णतया अपने वश में कर लेने तक (या मिथ्या अहं को ठाकुर-माँ-स्वामीजी का दास 'मैं' बना लेने तक अपने अंतःप्रकृति के साथ grappling-कुश्ती लड़ने यानि 5 अभ्यास, यम-नियम-आसन -प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करते रहने का नाम धर्म है। एक गृहस्थ को प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने के लिए अपने मन के साथ यह कुश्ती कब तक लड़ना होगा ? प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में स्थित हो जाने तक लड़नाहोगा !!) अर्थात मल्ल्युद्ध-या मनःसंयोग सहित पाँचो अभ्यास कब तक करना होगा ? यह एक या दो दिन, महीनों; कुछ वर्षों या जन्मों का प्रश्न नहीं है, इसमें (प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने में) तो सैकड़ों जन्म बीत जायें, तो भी धैर्य के साथ हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। नारद की कथा -किस तपस्वी की मुक्ति कब होगी ? Religion is a continuous struggle, a grappling with our own nature, a continuous fight till the victory is achieved. It is not a question of one or two days, of years, or of lives, but it may be hundreds of lifetimes, and we must be ready for that. It may come immediately, or it may not come in hundreds of lifetimes; and we must be ready for that. The student who sets out with such a spirit finds success.] जिसके पास अनंत धैर्य है -जिसको, दूसरों की मूर्खता (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति को देखकर) पर क्रोध नहीं आता- और जो साधक उसकी सेवा करने को निरंतर प्रस्तुत रहे वह अभी मुक्त है ! जिस साधु में इमली के पेड़ में जितने पत्ते लगे हैं, उतने जन्मों तक का धैर्य था -वह उसी समय मुक्त हो गया !! मानव मात्र की स्वाभाविक दुर्बलता -राग-'ईर्ष्या'- द्वेष, पंचक्लेश में फंसना फिर विवेकदर्शन करके करके उससे बाहर निकलना (विवेक-श्रोत का उद्घाटित होना) ठाकुर-माँ-स्वामीजी की कृपा पर निर्भर है। (9.13m)
>>खंड ९/२६ /A vision of God, a glimpse of the beyond never comes until the soul is pure. नेता को महावाक्य के मर्म का अनुभव होना चाहिए। मंत्रदीक्षा देने वाले सद्गुरु का व्यक्तित्व धारण करने के लिए उसका निष्पाप (sinless) होना अनिवार्य है। एवं चरित्र-निर्माण की शिक्षा देने वाले - अच्छी आदतों का निर्माण करने की शिक्षा देने वाले आध्यात्मिक नेता लिए 'सच्चा होना' (अपनी दुर्बलता नहीं छिपाना) एक अनिवार्य आवश्यकता है। / (Therefore the necessary condition is that the teacher must be true.) (15.34 m) नेता का उद्देश्य क्या है ? कोई ऐषणा या नाम-यश की इच्छा तो नहीं है ? केवल प्रेम के माध्यम से ही शिक्षा दी जाती है। पैसा से धर्म नहीं मिलता - निःस्वार्थ भाव से प्रेम -भगवान श्रीकृष्ण अपने ग्वालबाल मित्रों से वृक्ष को देखकर कहते हैं -
एतावत जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु।
प्राणेरर्थेर्द्धिया वाचा श्रेय आचरणं सदा।।
जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया केवल वही सद्गुरु हो सकता है। (17 m) This eye-opener of religion is the teacher. केवल सद्गुरु ही धर्म की आँखों को खोल सकते हैं।
अपने जूते उतार दो, क्योंकि जहाँ तुम खड़े हो वह स्थान पवित्र है। इस दुनिया में ऐसे शिक्षकों की संख्या कम है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन दुनिया कभी भी उनके बिना नहीं रहती। (21-m) ये गुरु / मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-सद्गुरु ही संसार को चला रहे हैं। पैगम्बर की पूजा मनुष्य रूप में ही करनी ही होगी।
"Religion is realization (अर्थात 'सत्यानुभव' या किसी '1' महावाक्य का भी अनुभव होना धर्म है !) !"(24 m) - दादा कहते थे - Common Sense is Rare Sense. उभयनिष्ट ज्ञान अर्थात देह और आत्मा दोनों का विवेक होना, अर्थात व्यावहारिक निर्णय क्षमता, विवेक-प्रयोग की बात सोचना बड़ी दुर्लभ वस्तु है। स्वयं को जो सोचोगे नश्वर शरीर , या अविनाशी आत्मा -वही हो जाओगे !-Nothing is so uncommon as common sense ! ) जो व्यक्ति यह कहे कि ईश्वर की पूजा मैं मनुष्य (अवतार) के रूप में नहीं करता, तो उससे सावधान रहो - वह मूर्ख है, उच्च डिग्री होने से भी अविद्याग्रस्त है ! if anyone tells you he is not going to worship God as man, take care of him. He is an irresponsible talker, he is mistaken; (खंड-९/३१ /28 m) जब मनुष्य रूप में जन्में भगवान राम, श्री कृष्ण, बुद्ध,ईसा, मुहम्मद , नानक -या ठाकुर-माँ -स्वामीजी- नवनीदा जैसे ईश्वर के महान अवतारों, आध्यात्मिक नेताओं, पैगम्बरों के बारे में चिंतन किया जाता है - अर्थात उनके नाम,रूप , लीला ,धाम का चिंतन किया जाता है, तो वे हमारी आत्माओं में प्रकट होते हैं, और हमें उनके जैसा बनाते हैं। हमारा पूरा स्वभाव बदल जाता है, और हम उनके जैसे बन जाते हैं। ९/३३ लेकिन आपको ईसा मसीह या बुद्ध (जैसे नेता या पैगम्बर की शक्ति) को हवा में उड़ते भूत-प्रेतों और इस तरह की बकवास के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। But you must not mix up Christ or Buddha with hobgoblins flying through the air and all that sort of nonsense. 31 m "Blessed are the pure in heart",(धन्य हैं वे जो हृदय से शुद्ध हैं- अर्थात जिनके ह्रदय में ठाकुर-माँ -स्वामीजी रहते हैं !", The power of purity; it is a definite power. अवतारों / नेताओं /पैगम्बरों के जीवन में निहित -पवित्रता (दिव्यता-एकत्व- माँ काली) की शक्ति ही यथार्थ शक्ति है, जो उनके अनुयायियों को ऐषणाओं में आसक्ति की गुलामी - से मुक्त करके उसे ईश्वर का दर्शन (विवेक-दर्शन) करा देती है ; और उसका विवेकश्रोत उद्घाटित हो जाता है। (34.13 m) (खंड ९/३४)
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THE TEACHER OF SPIRITUALITY
Every soul is destined to be perfect, and every being, in the end, will attain to that state. Whatever we are now is the result of whatever we have been or thought in the past; and whatever we shall be in the future will be the result of what we do or think now. But this does not preclude our receiving help from outside; the possibilities of the soul are always quickened by some help from outside, so much so that in the vast majority of cases in the world, help from outside is almost absolutely necessary.....
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🔱 भक्तियोग पर प्रवचन : Class -2: "पहला कदम : The First Steps" 🔱 [स्वामी विवेकानंद द्वारा न्यूयॉर्क में भक्तियोग के ऊपर ली गयी ग्यारह (11) कक्षाओं की श्रृंखला का सारांश]🔱 प्रारम्भिक सोपान - खण्ड ९/पृष्ठ १२ -२२/ भक्त के जीवनगठन का पहला कदम
🔱Class-2 : भक्त के जीवन-गठन का पहला कदम : The First Steps" 🔱
मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ?
[स्वामी विवेकानन्द द्वारा भक्ति योग के प्रारंभिक साधकों के लिए 16 दिसंबर 1895 को सोमवार की संध्या में , 228 West 39th Street, New York में दूसरा क्लास लिया गया था, उसे श्री जोशिया जे. गुडविन द्वारा रिकॉर्ड किया गया था। यहाँ श्री वरुण नारायण उस प्रवचन को अंग्रेजी में सुना रहे हैं। यह (1895-96 में) स्वामी विवेकानंद द्वारा न्यूयॉर्क शहर में भक्ति योग पर ली गई ग्यारह (11) कक्षाओं की श्रृंखला में यह दूसरी कक्षा है।]
[Bhakti Yoga: Class-2 : 27.14 मिनट का प्रवचन ]
प्रथम कक्षा में हमने देखा कि भक्ति को "ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के प्रति गाढ़ी प्रीति या परम अनुराग" के रूप में परिभाषित किया गया है। किन्तु हमें ईश्वर से (अपने इष्टदेव से) प्रेम क्यों करना चाहिए ? जब तक हम इसका उत्तर नहीं पा लेते, हम इस विषय को बिल्कुल भी नहीं समझ पाएंगे। सभी धर्म के अनुयायी यह जानते हैं कि मनुष्य 'शरीर' (body) भी हैं और 'आत्मा' (spirit) भी। [हमारी दो पहचान है - एक शरीर (M/F) को लेकर-व्यावहारिक मनुष्य (Apparent man) और दूसरी आत्मा (spirit) को लेकर, वास्तविक मनुष्य (Real man)।] किन्तु मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? इस बात को लेकर बड़ा मतभेद है।
पाश्चात्य शिक्षा में मनुष्य के शारीरिक पहलु पर बहुत बल दिया जाता है , और भारत में भक्ति शास्त्र के आचार्य मनुष्य के आध्यात्मिक पहलु पर बल देते हैं। जो पक्ष यह मानता है कि मनुष्य शरीर है और उसकी आत्मा होती है। वो शरीर पर ही सारा बल देता है , उसे मरने के बाद भी सुरक्षित रखने के लिए जमीन में दबा देता है। और भारतीय पक्ष मनुष्य को आत्मा मानता है, जिसके देह -मन होते हैं।
यदि तुम उन्हें बताओ की देह-मन से परे भी कोई अविनाशी वस्तु होती है - तो वह उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। भावी जीवन के सम्बन्ध में उनकी धारणा 'Idea of a future life would be a continuation of this enjoyment. ' मृत्यु के परे जीवन - (Life beyond Death) यही होती है कि - इन्द्रिय सुख, धन-दौलत, और हूर -शराब सतत बना रहे। उसके जीवन का लक्ष्य है - इन्द्रिय विषय-भोग, और ईश्वर की पूजा इसलिए करता है कि -ईश्वर उसके उद्देश्य पूर्ति का साधन है।
आत्म ज्ञान ही जीवन का लक्ष्य है - ईश्वर से परे और कुछ नहीं है। अज्ञेय वादी स्वर्ग नहीं जाना चाहता , क्योंकि वह स्वर्ग को मानता ही नहीं है। किन्तु ठाकुरदेव का भक्त भी स्वर्ग [इन्द्रलोक] नहीं जाना चाहता, क्योंकि उसकी दृष्टि में स्वर्ग बच्चों का खिलौना मात्र है। आत्मा या ईश्वर 100 % निःस्वार्थपरता से बढ़कर साध्य क्या है- संसार का कुछ नहीं चाहिए इससे बढ़कर साध्य क्या है? ईश्वर का वैकुण्ठ या ब्रह्मलोक -रामकृष्णधाम पूर्ण स्वरुप है , क्योंकि वह ईश्वर का धाम है। बारम्बार हमें अपनी गलती सूझती है , एक दिन ठाकुर के पास पहुँच जाते हैं।
[Bhakti is a religion. (18.50 मिनट)] जब हम संसार की हर चीज को बच्चों का खेल समझकर , इससे तृप्त होकर ऊब जाते हैं-तब ईश्वर भक्ति-धर्म (इन्द्रियातीत सत्य की भक्ति धर्म) पर पहला कदम उठता है।
[Have done with this child's play of the world as soon as you can, and then you will feel the necessity of something beyond the world, and the first step in religion will come. (20.26 मिनट)]
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से 'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।"
तात्पर्य यह कि यहां आत्मा को पाने का अर्थ है आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना । धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है । तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ (कठोपनिषद्,अध्याय-1,वल्ली-2/23-24)
जिसने शास्त्र-निषिद्ध कर्मों का परित्याग नहीं किया, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं है, जो एकाग्रचित्त नहीं है तथा कामना से जिसका मन अशान्त है - ऐसा पुरुष केवल बुद्धि से या शास्त्रज्ञान द्वारा मुझे प्राप्त नहीं कर सकता ॥
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THE FIRST STEPS
The philosophers who wrote on Bhakti defined it as extreme love for God. Why a man should love God is the question to be solved; and until we understand that, we shall not be able to grasp the subject at all. There are two entirely different ideals of life. A man of any country who has any religion knows that he is a body and a spirit also. But there is a great deal of difference as to the goal of human life.
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भक्तियोग पर प्रवचन
[विवेकानन्द साहित्य के दो खण्डों [खण्ड ९/पृष्ठ ३ -६०/ तथा खण्ड ४/ पराभक्ति पृष्ठ ४५-७६] में स्वामी विवेकानन्द द्वारा 228 West 39th Street,न्यूयॉर्क में 16 दिसंबर, 1895 से मार्च 1896 तक भक्तियोग पर अंग्रेजी में ली गयी 11 कक्षाओं की श्रृंखला को जेजे गुडविन ने रिकॉर्ड किया था। उसी प्रवचन श्रृंखला को यूट्यूब पर श्री वरुण नारायण के शब्दों में प्रकाशित किया है। स्वामीजी द्वारा भक्तियोग पर दिए गए सभी प्रवचनों को दोनों खंडों से निकाल कर भक्तियोग पर क्रमानुसार उन 11 कक्षाओं की श्रृंखला के सार संक्षेप का हिन्दी अनुवाद एक साथ मिलाकर-आचार्य रामानुज द्वारा निर्दिष्ट पराभक्ति प्राप्त करने के निमित्त आवश्यक साधनायें; लिखने की चेष्टा झुमरी-तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग द्वारा की जा रही है।
Swami Vivekananda’s first Bhakti Yoga class #1 for beginners, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 16 December 1895, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan. This is the first of a series of eleven (11) classes that Swami Vivekananda gave on Bhakti Yoga in New York City, 1895-96.]
1. भक्त के जीवनगठन की पूर्व साधना :खण्ड-९/३-१२
[The Preparation for getting 'that' Intense love for God.]
भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा भक्त प्रह्लाद के द्वारा की गयी इस प्रार्थना में निहित है-
या प्रीतिर् अविवेकानां विषयेष्व् अनपायिनी ।
त्वाम् अनुस्मरतः सा मे हृदयान् नापसर्पतु ॥
(विष्णुपुराण :1-20-19)
‘‘हे नाथ ! अविवेकी पुरुषों की (अर्थात पंचक्लेश-ग्रस्त पुरुषोंकी) जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के नाशवान् भोग के पदार्थों पर रहती है, वैसी ही प्रीति आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय में हो, और तेरी सतत कामना करते हुए वह गाढ़ी प्रीति मेरे हृदय से कभी दूर न होवे ।’’
हमलोग इन्द्रिय विषयों से, (या तीनों ऐषणाओं से) - गाढ़ी प्रीति किये बिना रह ही नहीं सकते, क्योंकि वे हमारे लिए, एकदम वास्तविक हैं! ["How naturally we love objects of the senses! We cannot but do so, because they are so real to us. क्योंकि सदगुरुदेव (या अवतार वरिष्ठ) के आलावा हममें से किसी ने - इन्द्रियातीत सत्य का (ईश्वर, परम सत्य या माँ काली का) दर्शन नहीं किया है , इसीलिए इन्द्रिय-ग्राह्य क्षणिक सुख से भी उच्चतर आनन्द, भूमा या अनन्त आनन्द देने वाली कोई वस्तु हो सकती है, हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। ( the idea is that he can have a strong attachment, only it should be transferred to the object beyond the senses, which is God.) पर जब कोई मनुष्य सद्गुरु की कृपा से (ठाकुर-माँ स्वामीजी की कृपा से) इन्द्रियों के ब्रह्माण्ड से परे - किसी अपरिवर्तनीय सत्य -परम् सत्य वस्तु (सच्चिदानन्द) को देख लेता है - (विवेक-श्रोत को उद्घाटित कर लेता है) तब वह यदि ऐषणाओं के प्रति अपनी गाढ़ी आसक्ति को, संसार से हटाकर उस इन्द्रियातीत वस्तु (शाश्वत चैतन्य, सच्चिदानन्द,-परम् सत्य) में लगा दे, जो एकमात्र भगवान हैं; तब वह भगवान से भी वैसी ही गाढ़ी प्रीति करने में समर्थ हो जाता है , जैसी वह पहले- अज्ञानावस्था (अविवेक की अवस्था में) ऐषणाओं से करता था। और जब इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों से सम्बद्ध वह प्रेम- (ऐषणाओं वाली गाढ़ी प्रीति या आसक्ति) भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है, तब उसको भक्ति कहते हैं।
हम जानते हैं कि हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं , उनके पांच विषय है - रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श। इन सभी इन्द्रिय-विषयों के प्रति सभी जीवों में - 'अली-मृग-मीन -पतंग -गज' जरै एक ही आँच ; एक -एक इन्द्रिय विषयों में कितनी स्वाभाविक प्रीति/ आसक्ति रहती है- क्योंकि पशुओं में विवेक नहीं होता। पशु की ही तरह अविवेकी मनुष्यों को भी इन्द्रिय विषयों में मिलने वाला क्षणभंगुर सुख- आहार, निद्रा , भय , मैथुन एकदम वास्तविक लगता है ?
किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र से, कामिनी -कांचन और नाम-यश आदि से विशेष प्रेम हो सकता है। इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है । किन्तु उतना तीव्र आसक्ति जितना तीनों ऐषणाओं में है, उस इन्द्रियातीत सत्य -या सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान से हो जाये, तो वही प्रेम या आसक्ति हमें मुक्त कर देता है। यदि यही प्रेम/आसक्ति/ गाढ़ी प्रीति परमात्मा से हो जाय तो वह आसक्ति भी मुक्तिदाता बन जाता है । ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव/प्रीति /आसक्ति बढ़ती है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से (तीनों ऐषणाओं से) लगाव कम होने लगता है। जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता । पराभक्ति ही भक्तियोग की परिधि के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती । भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए । वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है, और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है । 2.09m]
The preparations for getting 'that' Intense love.(2.20) अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है-'That Intense love'- वैसी गाढ़ी प्रीति / पराभक्ति ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के सच्चिदानन्द स्वरुप के प्रति प्राप्ति के लिए भक्तिमार्ग के आधुनिक आचार्य नवनीदा द्वारा निर्दिष्ट आवश्यक साधनायें।
१.'विवेक'- (उचित -अनुचित विवेक, श्रेय-प्रेय विवेक , शाश्वत -नश्वर विवेक , सत -असत -मिथ्या विवेक, नाम-रूप मिथ्या विवेक , बुलबुला -जल विवेक होता है।) किन्तु आचार्य रामानुज के अनुसार खाद्य- अखाद्य विवेक (निर्णय) "Discrimination of Food"- ही प्रथम साधना है। हमारा स्थूल शरीर अन्नमय कोष है। आहार का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। उत्तेजक आहार, शराब आदि पीया जाये तो मन पर नियंत्रण नहीं रहता। हम जिन दुःखो को भोग रहे हैं, उनका अधिकांश हमारे द्वारा खाए जाने वाले भोजन के कारण होता है। मांसाहार का अधिकार उन्हीं को है -जो बॉर्डर पर तैनात हैं , या कठिन परिश्रम करते हैं। या जिन्हें भक्त नहीं बनना है। निम्बू अँचार छोड़कर अन्य सड़ा भोजन ठीक नहीं है। जब भोजन में इन चीजों का त्याग कर दिया जाता है, तो वह शुद्ध हो जाता है; शुद्ध भोजन से शुद्ध मन प्राप्त होता है, और शुद्ध मन में ईश्वर का निरंतर स्मरण होता है। "आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि: सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।" (छान्दोग्य उप. ७.२६.२) 'हाथ' (Hand) हमेशा देने के लिए बना है। अपनी रोटी का आखिरी टुकड़ा भी दे दो, चाहे तुम खुद भूखे ही क्यों न हो।
आचार्य शंकर के अनुसार सभी पाँच इन्द्रियों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुद्ध रहने से मन ऐषणाओं से अनासक्त हो जाता है , तब ईर्ष्या-द्वेष रहित शुद्ध-मन में ईश्वर की स्मृति (इन्द्रियातीत सत्य-सच्चिदानन्द स्वरुप , प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है की स्मृति) जाग्रत रहती है। मन (Head) को प्रसन्नचित्त, लेकिन शांत रखें। Let the mind be cheerful, but calm. Never let it run into excesses, because every excess will be followed by a reaction. मन को कभी भी राग-द्वेष के प्रति अति न करने दें, क्योंकि हर अति के बाद प्रतिक्रिया होगी। रामानुज के अनुसार, ये पराभक्ति प्राप्ति के निमित्त की जाने वाली साधनायें हैं।मांसाहार का अधिकार उन्हीं को है -जिन्हें भक्त नहीं बनना है।
हम सभी यहाँ पंचक्लेशों की जंजीरों से बन्धे है, उसको तोड़ने का उपाय है योगसूत्र के अनुसार क्रियायोग। शारीरिक-मानसिक साधना साथ साथ चलने से आध्यात्मिक शक्ति- आत्मा की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती है, और भौतिक प्रवृत्ति -आहार,निद्रा , भय और मैथुन -की इच्छा कम प्रभाव शील होती जाएगी। हम यहाँ पंचक्लेश की जंजीरों से बंधे हुए हैं, और हमें धीरे धीरे अपनी ही जंजीरों को तोडना है। इसका ही नाम है -विवेक। ९/पेज ७)
[These are the preparations for Bhakti, according to Ramanuja : যা প্রীতির্ অবিবেকানাং বিষযেষ্ব্ অনপাযিনী । ত্বাম্ অনুস্মরতঃ সা মে হৃদযান্ নাপসর্পতু ॥
महामण्डल के प्रत्येक भावी नेता को विवेक-वाहिनी के उम्र से ही (बालक ध्रुव और भक्त प्रह्लाद से अनुप्रेरित होने की उम्र से ही) अपने जीवन को यथासम्भव आचार्य नवनीदा (दादा) के साँचे में ढलकर एक भक्त-शिक्षक के रूप में गठित करना होगा। क्योंकि दादा (नवनीदा) का जीवन-गठन भी उनकी माताजी के निर्देशानुसार एक भक्त के रूप में -बालकध्रुव की भक्ति तथा भक्त प्रह्लाद की नृसिंह भक्ति के अनुरूप हुआ था। इसीलिए महामण्डल रूपी चरित्र-निर्माण की प्राथमिक पाठशाला में प्रत्येक नेता या भावी शिक्षक के जैसा भक्त के रूप मेंअपना जीवन गठित करने के लिए शुरुआत में मछली -अंडा छात्रों की रूचि के अनुसार दिया जाता है, तथा एक दिन 'हविष्यान्न' खिलाकर शाकाहारी भोजन के महत्व की शिक्षा भी दी जाती है। दादा का निर्देश कैम्प में बालक ध्रुव के अनुरूप जीवनगठन के लिए पहले बताओ श्रद्धा क्या है , विवेक या धर्म, पूर्णता निःस्वार्थपरता क्या है।]
Bhakti Yoga - Class #11: "Human Representations of the Divine Ideal of Love" by Swami Vivekananda
Swami Vivekananda's fourth and last advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 17 February 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]
प्रेम के दिव्य आदर्श की मानवीय अभिव्यक्ति- खण्ड -४/६८/ (16.38 मिनट)
उपसंहार -(खंड ४/७५-७६) (20.50 मिनट)
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Bhakti Yoga - Class 10: "The Higher Knowledge and the Higher Love are One..." by Swami Vivekananda
Swami Vivekananda's third advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 10 February 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.
[Bhakti Yoga - Class #9: "The Naturalness of Bhakti Yoga and Its Central Secret" by Swami Vivekananda
Swami Vivekananda's second advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 3 February 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]
भक्तियोग की स्वाभाविकता और केन्द्रीय रहस्य /खण्ड ४/५२[ गीता -१२/१-७]
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।
[भक्ति योग - कक्षा #8: स्वामी विवेकानंद द्वारा "प्रारंभिक त्याग" (कर्मयोग/राजयोग/ ज्ञानयोग में त्याग)।
[Swami Vivekananda's first advanced Bhakti Yoga class, delivered at 228 West 39th Street, New York, on Monday morning, 27 January 1896, and recorded by Mr. Josiah J. Goodwin. Narrated by Varun Narayan.]
निष्ठा पूर्ण भक्ति-योग के दो खतरे
Bhakti Yoga - Class #7: "Nishtha" by Swami Vivekananda