विवेकानन्द : विवेक-प्रयोग शक्ति का आनन्द !
["Vivekananda -The Power" का हिन्दी अनुवाद]
आज से एक सौ बासठ वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 को, भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में नरेन्द्रनाथ दत्त नामक एक बालक का जन्म हुआ था। लेकिन अपने जीवन के मात्र तीसवें वर्ष में ही उन्होंने स्वामी विवेकानंद के रूप में प्रेम और ज्ञान (Wisdom) के बल पर, सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर लिया था, तथा चालीस वर्ष की आयु पूर्ण होने से पूर्व ही अपने नश्वर शरीर का त्याग भी कर दिया था।
How did he conquer the world? जिज्ञासा होती है कि मात्र 30 वर्ष के युवा नरेन्द्रनाथ दत्त विश्वविजयी विवेकानन्द कैसे बन गए ? प्रसिद्द राष्टवादी चिंतक और प्रोफेसर बिनय कुमार सरकार (Benoy Kumar Sarkar) लिखते हैं कि अंग्रेजी के केवल 5 वाक्य कहकर ही उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था। 1893 की विश्व-धर्म महासभा (PoWR) में जब महिलाओं और पुरुषों को सम्बोधित करते हुए - उन्होंने कहा था -"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!" [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." ]
" आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं, जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]
प्रथमोक्त चार पंक्तियों में उन्होंने भारत के गीता और उपनिषदों के ज्ञान को उद्धृत करते हुए सम्पूर्ण मानव जाति को जहाँ आनन्द, आशा, पौरुष, शक्ति और मुक्ति का संदेश दिया था। वहीँ अंतिम पंक्ति में - " मनुष्य को पापी कहना ही सबसे बड़ा पाप है, और मानव के यथार्थ स्वरूप पर घोर लांछन है।' का कटाक्ष करके मनुष्य के आत्म-विश्वास को कम करने, तथा डरपोकपन (भेंड़त्व-cowardice) एवं नकारात्मक और निराशावादी विचारों को बढ़ावा देने वाले -'Original Sin' या 'मूल पाप' के सिद्धान्त को उन्होंने पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। आश्चर्य चकित दुनिया पर उनकी पाँच पंक्तियों वाला यह छोटा सा सूत्र मानो किसी बम के गोले की तरह फूट पड़ा। प्रथमोक्त चार पंक्तियों को उन्होंने पूरब की वैदिक संस्कृति से लिया था, और अंतिम पंक्ति को उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति में बार-बार दोहराए जाने वाले सिद्धान्तों से लिया था।मानवीय चिंतन के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द से पहले पूरब और पश्चिम के सिद्धान्तों का ऐसा तुलनात्मक प्रयोग पहले किसीने नहीं किया था। जबकि विवेकानंद ने इन दोनों सिद्धान्तों का ऐसे विस्फोटक तरीके से प्रयोग किया कि उन्हें तत्काल ही विश्व- धर्म-महासभा में विश्व विजेता के रूप में स्वीकार कर लिया गया।"
[# 'Original Sin' या मूल पाप, ईसाई धर्म का एक सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार आदम और हव्वा ने ईडन गार्डन में निषिद्ध फल खाया था और अपने पापी (गुनाहगार) स्वभाव को अपने वंशजों में भी सम्प्रेषित कर दिया। यह सिद्धांत कहता है कि हर मनुष्य पापी पैदा होता है और ईश्वर की आज्ञा की अवज्ञा करके, बुरे काम करने की इच्छा के साथ पैदा होता है।]
How did he acquire the power with which he accomplished it ? प्रश्न उठता है कि स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान और प्रेम की इतनी अगाध शक्ति कैसे प्राप्त हुई जिसके बल पर उन्होंने इतना सब कुछ किया? उनका जीवन कठोर संघर्ष की एक ऐसी लंबी कहानी है; जिसके बारे में यह कल्पना करना भी कठिन है - उनका संघर्ष कितना कठिन रहा होगा ! उनके संघर्ष की तुलना अशान्त समुद्र सतह पर लगातार उछलते-डूबते उस छोटी सी नौका से की जा सकती है, जो तूफानों से जूझते हुए भी उसके विशाल विस्तार को पार करके, उस किनारे पर पहुँच जाती है - जहाँ सूर्य हमेशा हमेशा के लिए चमकता रहता है।
वेदों, उपनिषदों, गीता आदि भारत के प्राचीन शास्त्रों में वर्णित आध्यात्मिक ज्ञान की रहस्यमय गहराइयों की उपलब्धि उन्होंने अपनी विद्व्ता और हजारों शक्ति-शाली सूर्यों के समान प्रखर बुद्धि की सहायता से, तथा सर्वोपरि एक ऐसे अद्वितीय जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव के अतुलनीय मार्गदर्शन में किया था, जो उनके भीतर केवल 'नारायण ' का ही दर्शन करते थे। इसके साथ ही साथ उन्होंने अपने देश के वर्तमान दयनीय दशा और पतनोन्मुख आध्यात्मिक जीवन का वस्तुनिष्ठ अध्ययन और सर्वेक्षण न केवल एक आर्थिक विशेषज्ञ या राजनीतिक दार्शनिक की दृष्टि से किया था, बल्कि एक ऐसे करुणा सम्पन्न हृदय से किया था जो किसी भी प्राणी के थोड़े से भी दुःख को देखकर रो पड़ता था। इन्हीं तीन तत्वों ने उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान की कि उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए उसका उपयोग आसानी से कर दिखाया तथा वे वह बन गए जो वे वास्तव में थे।
इसी बात पर प्रकाश डालते हुए भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती है-स्वामी विवेकानन्द की कीर्तियों का संगीत " शास्त्र, गुरु तथा मातृभूमि - इन तीन स्वर-लहरियों से निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है, जिसे उन्होंने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव से उस 'Be and Make गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्राप्त किया था; जिसके अनुसार यह माना जाता है कि मनुष्य नहीं मरता , बल्कि उसका शरीर मरता है। मनुष्य कभी नहीं मरता, वह अमर है, वह "अमरता का पुत्र" है। मनुष्य मात्र को "अमरता की संतान" के रूप में महिमामण्डित करते हुए भारत के प्राचीन उपनिषदों में सनातन हिन्दू धर्म का परम् आह्वान और उसकी मधुरतम प्रतिज्ञा इस प्रकार है -
"शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥'
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः प्रस्तात्।।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥
(-श्वेताश्वतर उपनिषद)
-हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! उच्चतर लोकों में रहने वालो, तुम भी सुनो; मैंने उस पुराण पुरुष को,अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) को जान लिया है जो सभी अंधकार, समस्त भ्रान्ति के परे सूर्य की तरह चमकती है। उसे जानने पर ही व्यक्ति मृत्यु से पार हो जाता है। और तुम भी उसको जानकर मृत्यु से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। मृत्यु से बचने का कोई और रास्ता नहीं है।
इसलिए उन्होंने कुमारी मेरी हेल को अल्मोड़ा से 9 जुलाई, 1897 को लिखित एक पत्र में लिखा था -"समस्त सांसारिक प्रेम [आसक्ति ?] स्वयं को देह मानने से ही उपजते हैं। काम -कांचन को त्याग दो। इनके जाते ही ऑंखें खुल जाएँगी और जब आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा , तभी आत्मा अपनी अनन्त शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगी।".... भारत में मैंने मानवजाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती। अब मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लूँ और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एकमात्र ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसका सचमुच अस्तित्व है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर, सभी जातियों और वर्णों के पापी, तापी और दरिद्र रूपी देवता ही मेरे विशेष उपास्य हैं। [६/३४४]
निरंतर उपासना रूपी कर्म करने की इसी तीव्र अभिलाषा के कारण पाश्चात्य देशों पर विजय प्राप्त करने के बाद भी उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई। जैसा कि शंकराचार्य ने अपने - विवेकचूडामणि ग्रंथ में कहा है कि कुछ महान आत्माओं के साथ ऐसा कभी-कभी घटित होता है -
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान् अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।
‘37. इस जगत में कुछ ऐसे शांतचित्त महात्मा और उदार संत या मानवजाति के कुछ नेता या पैगम्बर होते हैं जो वसंत ऋतु की तरह-हमेशा मानवता की भलाई करने में लगे रहते हैं। वे अनेक नाम-रूपों से बने इस जन्म और मृत्यु के इस भयानक सागर को स्वयं तो पार कर लेते हैं, फिर बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के वसंत ऋतु की तरह दूसरों को भी इसे पार करने में मदद करते हैं।
इसलिए विवेकानन्द ने दासता और उसके बोझ तले दबी मानवता की पीड़ा को गहराई से महसूस किया और पुकार कर कहा ---" आप तो ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं , पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है। " आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर , आत्मा मुक्त , आनन्दमय और नित्य ! " और फिर मनुष्य के यथार्थ स्वभाव को उन्होंने अपने जीवन और उपदेशों के माध्यम से अभिव्यक्त करके दिखा दिया।
उन्होंने अपने जीवन द्वारा जो उपदेश दिया - वह किस प्रकार का था ? जब स्वामी विवेकानंद 1900 में ओकलैंड गए थे तो कई लोगों में से एक सज्जन ने भी उनकी बातें सुनी थी। वे सज्जन जब भाषण सुनकर वापस लौटे तो वे बहुत उत्साहित थे और अपने उत्साह को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा, "मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ जो मनुष्य नहीं है; वह भगवान है! और उसने सत्य कहा था!"
जोसेफिन मैकलियोड अपने बीमार भाई से मिलने गई जब वह मृत्युशैया पर थे । उनकी परिचारिका का उनसे कोई संबंध नहीं था। जोसेफिन ने उसके बिस्तर पर स्वामी विवेकानंद का फोटो देखा। उसने परिचारिका से पूछा, 'वह आदमी कौन है जिसका चित्र मेरे भाई के बिस्तर पर है? उस परिचारिका ने अपने सत्तर साल की गरिमा के साथ खुद को तैयार किया और कहा, "अगर धरती पर कभी कोई भगवान था, तो वह यही आदमी है।"
एक महिला जो नास्तिक थी, उसने एक बार विवेकानंद को सुना और फिर एक कमरे में जाकर रोने लगी। किसी ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने जवाब दिया, 'उस आदमी ने मुझे अनंत जीवन दिया है। मैं उसे फिर कभी नहीं सुनना चाहती।'
सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा है, 'एक दिन (न्यूयॉर्क में) फिफ्थ एवेन्यू पर चलते हुए, दो बुजुर्ग निराश्रित समर्पित प्राणी आगे चल रहे थे, उन्होंने कहा, 'क्या तुम नहीं देखते, जीवन ने उन्हें जीत लिया है!' उनके स्वर में पराजितों के लिए दया, करुणा थी! हाँ, और कुछ और भी था - क्योंकि जिसने भी सुना, उसने प्रार्थना की और प्रतिज्ञा की कि जीवन कभी भी उसे नहीं जीतेगा, तब भी नहीं जब उम्र, बीमारी और गरीबी आए। और ऐसा ही हुआ। उनका मौन आशीर्वाद शक्ति से भरा था।'
श्री रामकृष्ण के देहांत के बाद भारत में अपने परिव्राजक जीवन के दौरान उन्हें भूख की पीड़ा झेलनी पड़ी - कभी-कभी इसलिए क्योंकि उस समय उन्होंने भोजन न मांगने और जो कुछ उन्हें न दिया जाए उसे न खाने की शपथ ली हुई थी। अन्य समयों में, जब वे ऐसी शपथ नहीं लेते थे, विभिन्न प्रकार के विचार उन्हें परेशान करते थे और वे बिना भोजन के रहते थे - सबसे लंबी अवधि, जैसा कि उन्होंने एक बार सिस्टर निवेदिता को बताया था, पांच दिन की थी - और वे मृत्यु के कगार पर थे। एक बार उनके मन में प्रश्न उठा कि क्या उन्हें गरीबों से भोजन मांगने का अधिकार है, क्योंकि उनका मानना था कि बदले में उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया है। किसी भी मामले में, उन्होंने सोचा, यदि वे भोजन का एक अतिरिक्त निवाला बचा सकते हैं, तो उनके बच्चों का उस पर उनसे बेहतर अधिकार है। एक दिन, ऐसी ही मनोदशा में, वे बिना भोजन के एक जंगल में चलते रहे रात में उसने एक बाघ को अपनी ओर आते देखा और वह उस पशु को अपना शरीर देने की संभावना से खुश हुआ, जैसा कि कहा जाता है कि बुद्ध ने एक जीवन में किया था और मन ही मन कहा, "हम दोनों भूखे हैं, मैं तुम्हें नहीं खा सकता , पर तुम मुझे खा सकते हो, कम से कम हममें से एक को तो खाना मिल जाए।" हालांकि, बाघ वहां से चला गया।
सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा था, 'किसी को यह बताने की जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्हें देखकर ही पता चल जाता था कि वे भूखे व्यक्ति को खाने के लिए अपना मांस और पीने के लिए अपना खून स्वेच्छा से दे सकते थे।'
दूसरे दिन जब स्वामी विवेकानंद हिमालय के एक मैदान में सूखी टहनियों की एक कच्ची छत के नीचे मृत्यु के कगार पर लेटे थे, तब उन्होंने एक आवाज़ सुनी, 'तुम नहीं मरोगे। तुम्हें दुनिया में बहुत बड़ा काम करना है।' एक बार रेलवे से लंबी यात्रा के दौरान उनकी मुलाक़ात एक ऐसे युवक से हुई जो तंत्र-मंत्र के प्रभाव में था। स्वामीजी भूखे थे और चुपचाप बैठे थे। लेकिन लड़का उनके पास आया और बातचीत करने लगा। स्वामीजी के मुँह से निकले शब्दों के साथ ही उसके दिमाग के सामने का कोहरा छंटने लगा। स्वामीजी ने कहा, आध्यात्मिकता का चमत्कारों से कोई लेना-देना नहीं है। मानसिक भ्रम की सनक भारतीय राष्ट्र का मनोबल गिरा रही थी। उन्होंने अन्यत्र कहा था "हमें तो एक ऐसे धर्म और दर्शन की आवश्यकता है जो अपने सामान्य ज्ञान और दृढ़ सामाजिक भावना से प्रेरित मनुष्य बना सके। " उस लड़के ने भी मनुष्य बनने की प्रेरणा महसूस की और स्वामीजी को भोजन दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।"
जब वे भारत के सुदूर दक्षिणी छोर कन्याकुमारी पहुँचे, तो उन्हें समुद्र के उस पार चट्टान पर ध्यान लगाने का प्रलोभन हुआ, जहाँ पार्वती ने कन्या के रूप में शिव के लिए तपस्या की थी। उनके पास पैसे नहीं थे, इसलिए वे तैर कर समुद्र पार कर लिए और उस चट्टान तक पहुँच गए। लेकिन उनका यह पराक्रम अलक्षित (unnoticed) न रह सका और जब वे वापस आए, तो लोगों ने उनसे उत्सुकता से उनके और उनके ध्यान के बारे में जानना चाहा। उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि वे श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य हैं, जिनके बारे में पूरी दुनिया ने जल्द ही जान जाएगी। चट्टान पर अपने अनुभव के बारे में उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि जिस चीज़ की तलाश में वे वर्षों से शारीरिक और मानसिक रूप से भटक रहे थे, उसे उन्होंने मौके पर ही हासिल कर लिया।
और फिर अप्रैल 1902 में, अपने निधन से लगभग तीन महीने पहले, उन्होंने कहा, 'मेरे पास दुनिया में कुछ भी नहीं है। मेरे पास खुद के लिए एक पैसा भी नहीं है। मुझे जो कुछ भी दिया गया था, मैंने वह सब कुछ दे दिया है।'
और उनके पास पैसे आए कैसे थे? बस एक उदाहरण। 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानंद श्रीमती जॉन बी. लियोन के घर पर मेहमान थे। उनकी पोती कॉर्मेलिया कॉन्गर ने बहुत बाद में लिखा, 'जब उन्होंने (विवेकानंद) व्याख्यान देना शुरू किया, तो लोगों ने उन्हें भारत में उनके द्वारा किए जाने वाले काम के लिए पैसे देने की पेशकश की। उनके पास कोई पर्स नहीं था। इसलिए वे इसे एक रूमाल में बांधकर लाते थे और एक गर्वित छोटे बच्चे की तरह इसे मेरी दादी की गोद में रख देते थे। उन्होंने उन्हें अलग-अलग मूल्य के सिक्कों को पहचानना और उन्हें गिनकर व्यवस्थित तरीके से रखना सिखाया।'
पीड़ित मानवजाति के प्रति दिव्य करुणा से प्रेरित होकर, अनंत सूर्य के तट से जब वे अकेले ही अपनी छोटी नाव में सवार होकर, दुबारा समुद्र पार कर रहे थे, तो वह उस समय भी वह उतना ही अशांत था और कई ऊँची लहरों ने उन्हें गिराने का प्रयास भी किया था। उनके लिए न केवल स्नेह और प्रशंसा, आतिथ्य और सम्मान के साथ लोग प्रतीक्षा कर रहे थे , बल्कि कई जगह उन्हें विभिन्न नीच और दुष्ट प्रकृति के शत्रुओं का भी सामना करना पड़ा था, किन्तु उन्होंने ज़रा भी प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने उन सभी पर प्रेम से विजय प्राप्त की थी । उन्होंने कभी नाम, शोहरत, धन आदि की परवाह नहीं लेकिन वे स्वतः उनके पैरों को चूमते हुए उनके पास आते गए, और कई प्रलोभन उनके इर्द-गिर्द लटके रहे। कॉर्नेलिया कांगर ने अपने संस्मरणों में लिखा है: 'स्वामीजी इतने गतिशील और आकर्षक व्यक्तित्व के थे कि कई महिलाएँ उनसे पूरी तरह प्रभावित थीं और अपनी तरफ उनका ध्यान खींचने के लिए उनको चापलूसी करने का हर संभव प्रयास करती थीं। वे उस समय भी युवा ही थे और अपनी उच्च आध्यात्मिक अनुभूति तथा अपने प्रखर बुद्धि की चमक के बावजूद, बहुत ही अलौकिक रूप से आकर्षक प्रतीत होते थे। और यही बात मेरी दादी को परेशान करती थी, उन्हें डर था कि उन्हें लोग किसी गलत या असुविधाजनक स्थिति में तो नहीं डाल देंगे, इसलिए उन्होंने उन्हें थोड़ा सावधान करने की कोशिश की। अपने प्रति उनकी चिंता ने उनके ह्रदय को छू लिया और उन्हें आश्वस्त करते हुए उनके हाथ को थपथपाते हुए उन्होंने कहा, "प्रिय श्रीमती लियोन, आप मेरी प्यारी अमेरिकी माँ हैं, मेरे लिए डरो मत। यह सच है कि मैं अक्सर किसी बरगद के पेड़ के नीचे सोता रहा हूँ, जहाँ कोई दयालु किसान भूख मिटाने के लिए मुझे एक कटोरा भात दे दिया करता था; किन्तु यह भी उतना ही सच है कि मैं उसी प्रकार अक्सर बड़े-बड़े राजा - महाराजाओं के महल में मेहमान भी होता रहा हूँ जहाँ, किसी दासी को पूरी रात मेरे ऊपर मोर पंखा झलने के लिए नियुक्त किया जाता था ! इस प्रकार के प्रलोभनों से निर्लिप्त रहने की मुझे आदत है, अतएव आपको मेरे लिए डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।'
क्या हमें खेतड़ी की घटना याद नहीं है, जहाँ उन्होंने एक पेशेवर नृत्यांगना (nauch girl) के गीत -प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो ! ' सुनकर आशीर्वाद दिया था और 'जिसने उस दिन से अपना पेशा छोड़ दिया और पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग पर चल पड़ी थी ?'
मैडम कैल्वे ने अपने संस्मरण में लिखा है, 'एक दिन काहिरा में हम अपना रास्ता भूल गए। मुझे लगता है, हम बहुत ध्यान से बात कर रहे थे। किसी भी तरह, हम खुद को एक गंदी, बदबूदार सड़क पर पाते हैं, जहाँ आधी नंगी महिलाएँ खिड़कियों से और दरवाजों की चौखटों पर लेटती रहती हैं। उन मातृशक्तियों की दुर्दशा को देखकर वे (स्वामीजी) रोने लगे। महिलाएँ चुप हो गईं और शर्मिंदा हो गईं। उनमें से एक महिला ने आगे की ओर झुककर उनके गेरुआ वस्त्र के किनारे को चूमा और टूटे-फूटे स्पैनिश में कहा-होमब्रे डी डिओस, होमब्रे डी डिओस!'- अर्थात अरे ! ये तो ईश्वर का आदमी है ! ईश्वर का आदमी है।) (Hombre de dios, Hombre de dios" man of God, man of God-देवदूत है !) उनके तेज को देखकर एक दूसरी स्त्री अपने चेहरे के सामने अपनी बाँहों को रखकर अचानक विनम्रता और भय के भाव के साथ उसे छुपाने की चेष्टा करने लगी मानो वह स्त्री अपनी सिकुड़ती आत्मा को विवेकानंद की उन पवित्र आँखों से सचमुच छिपाना चाहती हो।'
और नाम और यश के बारे में क्या? धर्म-संसद की पहली बैठक के बाद जब वे रात को अपने होटल लौटे, तो उनके भव्य आतिथ्य के देखकर उन्हें अपने देशवासियों की भीषण गरीबी याद आई,और वे एक बालक की तरह रो पड़े। जब । एक रात उनकी पीड़ा इतनी तीव्र हो गई कि वे कराहते हुए फर्श पर लोटने लगे: "हे माँ, जब मेरी मातृभूमि घोर गरीबी में डूबी हुई है, तो मैं नाम और यश की क्या परवाह करूँ? हम गरीब भारतीय किस दुखद स्थिति में पहुँच गए हैं, हमारे लाखों देशवासी जहाँ मुट्ठी भर चावल के लिए मर रहे हैं, वहीँ यहाँ के लोग अपने निजी सुख-सुविधाओं पर लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं! भारत के लोगों का पालन-पोषण कौन करेगा? उन्हें रोटी कौन देगा? हे माँ, मुझे रास्ता दिखाओ कि मैं उनकी कैसे मदद कर सकता हूँ।"
विश्व धर्म संसद में अपना खुला आक्रमण शुरू करने से पहले ही उन्होंने श्री आलासिंगा पेरुमल को एक पत्र (दिनांक 20 अगस्त, 1893) में लिखा था-
" कमर कस कर खड़े हो जाओ , वत्स ! प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। ... आशा तुम लोगों से है - जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपारायण हैं। दुःखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो - वह अवश्य मिलेगी। मैं 12 वर्षों तक ह्रदय पर बोझ लादे और सिर में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर दर घुमा। ह्रदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया। परन्तु ईश्वर सर्व शक्तिवान है - मैं जानता हूँ , वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ , परन्तु युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों, और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (भगवान श्रीकृष्ण) के मन्दिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे -... उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो , अपने समस्त जीवन की बलि दो - उन दीन -हीनों और उत्पीड़ितों के लिए , जिनके लिए भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे , जो दोनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। .... प्रभु की जय हो , हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे , पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। .. विश्वास, सहानुभूति - दृढ़ विश्वास और ज्वलंत सहानुभूति चाहिए ! जीवन तुच्छ है , मरण भी तुच्छ है , भूख तुच्छ है और जाड़ा भी तुच्छ है। जय हो प्रभु की ! आगे कूच करो ! प्रभु ही हमारे सेनानायक हैं। पीछे मत देखो कौन गिरा, पीछे मत देखो - आगे बढ़ो, बढ़ते चलो ! " ( १/ ४०४-४०५)
उपरोक्त बातों का पुनरावलोकन करने से वह व्यक्तित्व-जो उनके नाम विवेकानन्द के चारों तरफ विकसित हुआ है; स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आ जाता है। उनकी विराट छवि के विस्तृत रुपरेखा को देख पाना तो कठिन है, फिर भी कल्पना में उनकी जिस छवि को देखा जा सकता है, वह किसी भी गंभीर मन को विस्मय और प्रशंसा से भर देती है। उनके विषय में हम निश्चित रूप से उनके अपने शब्दों का ही उपयोग कर सकते हैं और कह सकते हैं: "विवेकानंद एक शक्ति हैं। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि उनका सिद्धांत यह या वह है। लेकिन वे एक शक्ति हैं, जो अभी भी जीवित हैं और दुनिया में काम कर रहे हैं। हमने उन्हें अपने विचारों में बढ़ते हुए देखा है, और वे अभी भी बढ़ रहे हैं।' क्योंकि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी " हो सकता है कि एक जीर्ण (पुराने) वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ। लेकिन मैं तब तक काम करना नहीं छोड़ूँगा, जब तक सम्पूर्ण विश्व यह नहीं जान जाये कि वह ईश्वर के साथ एक है- मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा " [सूक्तियाँ एवं सुभाषित /खंड १०/२१७-[44. It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God. (Volume 5, Sayings and Utterances)]
स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी यह प्रतिज्ञा हमें बीती हुई बातों को याद करने के बजाये, भविष्य की सम्भावना ' Vivekananda- The Power' का अनुसरण करने का निर्देश देती है जो जड़ को भी गतिशील बना सकती है ! वही 'विवेक-प्रयोग शक्ति' इस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में छठी शक्ति (The Sixth Force in Cosmos) के रूप में हर जगह क्रियाशील है, तथा भविष्य में यह शक्ति और भी अधिक तीव्रता से कार्य करेगी, तथा क्रमशः प्रत्येक मन के भीतर प्रविष्ट हो जाएगी; और तब हमारे देश में एक ऐसा महत्वपूर्ण परिवर्तन घटित होगा ! [जिसके बारे में पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक -'Ignited Minds' में लिखा है -" Dream, Dream, Dream/ Dreams transform into thoughts, And thoughts result in action!" (साभार https://crpf.gov.in/writereaddata/images/pdf/Ignited_Minds.pdf)]
शायद सभी या शायद कोई भी नहीं इस विवेक-प्रयोग शक्ति (या परा शक्ति) को स्वामी विवेकानन्द के नाम के साथ जोड़कर नहीं देख पाएंगे; फिर भी यह शक्ति मनुष्य जाति को अपना भाग्य स्वयं बनाने का प्रयास करने के लिए अनुप्रेरित करती रहेगी। और मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए दिशात्मक सुधार ( directional corrections) के द्वारा यह कार्य अलक्षित रूप से (Unnoticed) जारी रहेगा। रात में गिरने वाली ओस की बूंदों की तरह अदृश्य और अनसुनी रहते हुए भी विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रचार-प्रसार में लगे रहने का कार्य, उन अनेकों व्यक्तियों के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित कर देगा, जो गाँव -गाँव तक इस शिक्षा को पहुँचा देने के कार्य में लगे रहेंगे। [दादा कहते थे इस Be and Make आन्दोलन से जुड़े रहो, तब तुम्हें कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ऐसे ही मुक्त हो जाओगे !]
स्वामी विवेकानन्द की दो सौवीं जयंती (=2063 तक) और दो सौ पचासवीं जयंती (=2113) के बीच पारस्परिक और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मौलिक परिवर्तन हो चुके होंगे, हर विचार एक ही छलनी (filter) से छनकर निकलेगा- 'मैं नहीं, बल्कि तू !' और यही एकमात्र नीति होगी जिसकी सर्वत्र प्रसंशा की जाएगी, और उससे कई लोगों का कल्याण होगा । इस विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रभाव से मतभेदों की क्षुद्र भावना धीरे-धीरे कुंद होती जाएगी और सार्वभौमिक एकात्मकता (Universal Oneness) का विचार उभरेगा। मनुष्य की गरिमा को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त होगी। सुसंयोग (opportunities) के मामले में विशेषाधिकार और भेदभाव की बातें -भूतकाल की बातें हो जाएंगी। भौतिकवादी विचार धरती में दफन हो जाएंगे और ऐतिहासिक अनुसन्धान का विषय बन जाएंगे। आध्यात्मिकता की धड़कन का स्पन्दन हर जगह महसूस होगा।
उन्नीसवीं सदी के अंत में एक दिन भविष्यवाणी करते हुए विवेकानंद ने अपने आस-पास के लोगों को यह कहकर चौंका दिया कि, 'अगला महान उथल-पुथल जो एक नए युग का सूत्रपात करेगा, वह रूस या चीन से आएगा।' और रूस और चीन दोनों देशों में ऐसा परिवर्तन हुआ, जिससे नये सामाजिक सिद्धांतों के प्रस्तावकों की अन्य सभी गणनाएं विफल हो गईं।
रूस में एक बार फिर से एक नई उथल-पुथल मची है। भौतिकवादी बौद्धिक दिग्गज चाहे जो भी कहें, वर्तमान पेरेस्त्रिका (या पुनर्गठन-restructuring) और उस्कोरेनी (या त्वरण-acceleration) के पीछे के विचारों का यदि मौलिक रूप से जांच करें बुद्धिमान दिमागों को पता चल जाएगा कि वे जिस शक्ति का मानव समाज परअनुप्रयोग कर रहे हैं, वह विवेकानंद के ,या वेदांत के विचार ही हैं। रूस में हुए परिवर्तन के बाद, उससे भी अधिक स्पष्ट परिवर्तन अब चीन में आयेगा, फिर धीरे-धीरे अन्य देशों में भी आएगा। यह बदलाव भारत में भी आएगा, लेकिन बाद में, क्योंकि यहाँ जड़ता बहुत गहरी है।
हमारी उदासीनता के बावजूद यह विवेक-प्रयोग शक्ति दुनिया में मनुष्य और उसके भाग्य को बदलने के लिए काम करेगी। लेकिन किसी भी शक्ति द्वारा किया गया कार्य उस प्रतिरोध के व्युत्क्रमानुपाती होता है जिसे उसे दूर करना होता है। सकारात्मक प्रतिरोध का सवाल ही नहीं उठता, हमारी आधी-अधूरी स्वीकृति और विवेक-प्रयोग शक्ति पर शब्दाडंबरपूर्ण प्रशंसा भी प्रतिरोध के रूप में काम करती है; और वे केवल इसके काम को धीमा करते हैं। हम अपनी स्वेच्छा से स्वीकृति और जानबूझकर की गई कार्रवाई के माध्यम से अपनी भागीदारी सुनिश्चित करके इस प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं।
हममें से प्रत्येक को मार्था ब्राउन फिंके के स्वर से स्वर मिलाकर यह कहने की ईमानदारी और साहस हासिल करना चाहिए: 'मैं अक्सर उस समय के बारे में सोचती हूँ जो मैंने खो दिया है, उस रास्ते के बारे में जो मैं टटोलते हुए आयी हूँ, जबकि ऐसे विवेक-शक्ति के मार्गदर्शन के तहत मैं सीधे लक्ष्य पर पहुँच सकती थी ।' लेकिन एक अमर आत्मा के लिए समझदारी की बात तो यह है कि पछतावे में समय बर्बाद न किया जाए, क्योंकि विवेक-प्रयोग के रास्ते पर चलते रहना ही महत्वपूर्ण बात है।'
हम लोग भी कब सिस्टर देवात्मा के जैसा यह कहने में सक्षम होंगे कि- 'अब विवेकानन्द के उपदेशों को श्रवण का समय समाप्त हो गया है, अब उनके उपदेशों पर मनन करने और उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन के अभ्यास में उतारने करने का समय आ गया है।'
स्वामीजी ने कहा था " अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है। " (मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२०)
- " मेरी आशा , विश्वास तुम्हीं लोग हो। मेरी बातों को ठीक ठीक समझकर उसीके काम में लग जा। ... उपदेश तो तुझे अनेक दिए ; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बात सुनना सार्थक हुआ है। "
यही इस विवेकानन्द -शक्ति की संभावना है, जिसमें मनुष्य का सुप्त भाग्य निहित है। हे मानव! उठो ! जागो! और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए!
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Vivekananda -The Power
A hundred and twenty-six years ago on the twelfth of January was born in Calcutta, then the capital of India, in an aristocratic family, a lad, Narendranath Datta, who in the thirties of his life conquered the world with love and wisdom as Swami Vivekananda, and left the mortal coil before he reached forty.
How did he conquer the world? Benoy Kumar Sarkar writes: With five words he conquered the world, so to say, when he addressed men and women as, "Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature! Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."
The first four words summoned into being the gospel of joy, hope, virility, energy , and freedom for the races of men . And yet with the last word , embodying as it did a sarcastic question he demolished the whole structure of soul -degenerating, cowardice-promoting, negative, pessimistic thoughts. On the astonished world, the little five-word formula fell like a bomb shell.
The first four words he brought from the East, and the last word he brought from the West. All these are oft-repeated expressions, copy-book phrases both in the East and the West. And never in the annals of human thought was the juxtaposition accomplished before Vivekananda did it in the dynamic manner and obtained instantaneous recognition as a world's champion."
How did he acquire the power with which he accomplished it? It is a long story of a hard struggle; it is difficult to imagine how hard it was. It was like a small boat tossing all the while on the bosom of a turbulent sea, yet crossing the vast span and reaching the shore, where the sun shins for ever and ever.
Mysterious depths of knowledge thoroughly surveyed through incomparable erudition with the brilliance of intellect as that of a thousand mighty suns, matchless guidance of a peerless Master , who saw in him only Narayana, meticulous objective study of the mundane and decadent spiritual life of his nation, not merely with the eye of an economic or political philosopher, but with a heart which bled at the sight of the least suffering of any being - all these three elements went to make what he was and endowed him with power that he wielded with ease for the good of one and all .
So he said, " May I be born again and again, and suffer thousands of miseries so that I may worship the only God that exists , the only God I believe in , the sum total of all souls - and above all , my God the poor of all races , pf all species , is the special object of my worship."
Having planted his feet on the safe soil of sunshine across the sea, he could not feel satisfied .
It so happens rarely with some great souls only , as observed by Shankaracharya :
" शक्ति क्या है ? शक्ति वह है जो जड़ को गति देती है। और जड़ क्या है ? जड़ क्या है ? जड़ [2H -देह और मन] वह है जो शक्ति द्वारा गतिशील होता है। यह तो गोल-मोल बात हुई। इस वस्तुस्थिति का नाम ही 'माया' है। न तो वह विद्यमान है और न अविद्यमान ही। इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है ; और वह देश, काल तथा कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है। मनुष्य का सच्चा स्वरुप वह है जो अनादि, अनन्त , आनंदमय तथा नित्यमुक्त है ; वही देश , काल और परिणाम के फेर में फंसा है। " (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/११८)
" हमारी साधना का पहला भाग है- अचेतन (unconscious) को अपने अधिकार में लाना। दूसरा है चेतन के परे जाना। जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है , उसी तरह चेतन के ऊपर - उसके अतीत भी एक अवस्था है। जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था को पहुँच जाता है , तब वह मुक्त हो जाता है। ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लोह जंजीरें मुक्ति बन जाती है। अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। ... अतएव महत्वपूर्ण बात है , पूरे मनुष्य को पुनरुज्जीवित जैसा कर देना , जिससे कि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाये। ' (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/१२१)
विवेकानन्द के निकट जो कुछ सत्य (अपरिवर्तनीय) है, वह सब वेद है ! वे कहते हैं, वेदों का अर्थ कोई ग्रन्थ नहीं है। वेदों का अर्थ है विभिन्न समयों में विभिन्न व्यक्तियों (ऋषियों) द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक नियमों (सूत्रों या महावाक्यों) का संचित कोष। प्रसंगवश वे सनातन धर्म के सम्बन्ध में भी अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहते हैं - 'जिस प्रकार सनातन हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक लक्ष्य - ईश्वर की प्राप्ति है, उसी प्रकार इसका आध्यात्मिक नियम है प्रत्येक आत्मा (अव्यक्त ब्रह्म) की स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की पूर्ण स्वतन्त्रता ।"
एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है -" My Master's message to mankind is: "Be spiritual and realize truth for Yourself." मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह संदेश है कि - "Be spiritual and realize truth for Yourself." -अर्थात प्रथम स्वयं सत्य की उपलब्धि करो और आध्यात्मिक व्यक्ति (ऋषि) बनो!" वे कहते थे - 'प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सारवस्तु अर्थात आत्मतत्व (दिव्यता या ब्रह्मत्व) अन्तर्निहित है, उसकी तुलना में विभिन्न प्रकार के मतवाद, आचार -अनुष्ठान, पन्थ, गिरजाघर या मन्दिर आदि अत्यन्त तुच्छ हैं। और जिस व्यक्ति के अंदर यह ब्रह्मत्व (Oneness) जितना अधिक अभिव्यक्त होता है, वह व्यक्ति (नेता) जगतकल्याण के लिए उतना अधिक सामर्थ्यवान हो जाता है। - 'Earn that first, acquire that, and criticise no one, for all doctrines and creeds have some good in them.'
-अतएव पहले इसी आध्यात्मिक धन का, (एकात्मकता -Oneness) उपार्जन करो, और किसी सम्प्रदाय में दोष मत ढूँढ़ो, क्योंकि सभी मत, सभी पथ अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति (spiritual realization)। ' Only those can understand who have felt. Only those who have attained to spirituality can communicate it to others,' जिन्हें अनुभव हुआ है वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने स्वयं धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्यजाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं - 'They alone are the powers of light.' - 'केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं !'
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत् वि-जानतः।
तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वम् अनुपश्यतः।
(ईशोपनिषद : श्लोक ७)
जब किसी व्यक्ति को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, कि एक परमात्मा ही सभी प्राणियों के रूप में प्रकटित हुआ है, तब उस एक परम तत्व को सर्वत्र देख रहे उस व्यक्ति के लिए न कोई मोह और न कोई शोक ही रह जाता है॥]
The quote “For what is force? — that which moves matter. And what is matter? — that which is moved by force” .... This state of things has been called Maya. It has neither existence nor non-existence. You cannot call it existence, because that only exists which is beyond time and space, which is self-existence. Yet this world satisfies to a certain degree our idea of existence. Therefore it has an apparent existence. appears in The Complete Works of Swami Vivekananda/वॉल्यूम 2/Hints on Practical Spirituality.
" This is the first part of the study, the control of the unconscious. The next is to go beyond the conscious. Just as unconscious work is beneath consciousness, so there is another work which is above consciousness. When this superconscious state is reached, man becomes free and divine; death becomes immortality, weakness becomes infinite power, and iron bondage becomes liberty. That is the goal, the infinite realm of the superconscious."