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गुरुवार, 8 मार्च 2018

श्रीमाँ सारदा देवीमहात्म्य


प्रकाशक का निवेदन 
श्रीमाँ सारदा देवी की १५० वीं जन्मजयन्ती के अवसर (२००३-२००४) पर अमेरिका के सेंट् लुईस वेदान्त सोसाइटी के अध्यक्ष परमपूज्य स्वामी चेतनानन्द जी महाराज ने बंगला भाषा में ' या देवी सा सारदा ' शीर्षक एक अत्यन्त उपयोगी निबन्ध लिखा था। महामण्डल के हिन्दी मासिक पत्रिका के सम्पादक को यह निबन्ध हिन्दी पाठकों के लिए भी बहुत उपयोगी प्रतीत हुआ। अतः इस निबन्ध का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। यह पूरा निबन्ध श्रीचण्डी  के आधार पर (जिसे हिन्दी में श्रीदुर्गासप्तशती और देवीमाहात्म्यम् के नाम से जाना जाता है) लिखा गया है। 
इस निबन्ध का शीर्षक है- " या देवी सा सारदा " - अर्थात जो माँ जगदम्बा हैं वे ही माँ श्रीसारदा-सरस्वती  हैं! [या देवी='जो माँ जगदम्बा हैं', 'सा सारदा'=वे सारदा सरस्वती हैं !] स्वामी चेतनानन्द जी महाराज आगे लिखते हैं - " दैत्यराज शुम्भ देवी दुर्गा के बोललो : 'तुमि गर्व कोरो ना। तुमि अन्यान्य देवीर शक्ति आश्रय कोरे युद्ध कोरछो।' तखन देवी बोललेन,“एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा ”- ए-जगते एकमात्र आमिई विराजिता। आमि छाड़ा द्वितीय आर के आछे ? ए-सकल देवी आमारई अभिन्ना शक्ति। एई देखो, एरा आमातेई विलीन होय गेलो।  
अर्थात दैत्यराज शुम्भ ने (कुपित होकर) देवी दुर्गा से कहा - ' तू बलके अभिमान में आकर झूठ-मूठ का घमण्ड न दिखा। तू बड़ी माननी बनी हुई है, किन्तु दूसरी देवियों के बल का सहारा लेकर युद्ध कर रही हो।' तब माँ जगदम्बा ने अपना स्वरुप उद्घाटित करते हुए कहा - 'देख, इस सम्पूर्ण जगत में एकमात्र मैं ही विराजित हूँ-"एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।"- (देवी बोलीं-एक एव अहम् जगति अत्र, द्वितीय का मम अपरा ) ओ दुष्ट ! मैं अकेली ही हूँ । इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये सब, मेरी ही विभूतियाँ हैं, अत: मुझ में ही प्रवेश कर रही हैं। " 
[माँ भगवती ने अपना स्वरूप बतलाते हुये स्वयं कहा है- ‘मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे गुण तर्क से परे हैं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य-कारण रूपिणी हूं।’ अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें। माँ ममता की मूरत है। इतना तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है। यह बात भी स्मरण रहे कि शक्तिमान् की शक्ति अभिन्नरूप से रहती है, सम्पूर्ण पदार्थों में – जैसे –अग्नि में दाहिका शक्ति होती है, विद्वानों के अन्दर विद्याशक्ति, धनवानों में धनशक्ति, ब्रह्मचारियों में ब्रह्मचर्यशक्ति इत्यादि। शक्ति एक होकर भी अनेकरूप में व्यक्त होती है। जीवमात्र में अविद्या शक्ति बनकर रहने वाली माँ जगज्जनी भगवती पराम्बा, विश्वजन-मोहिनी (मनुष्य को हिप्नोटाइज्ड करने वाली शक्ति ?) कहलाती है।]
'शाक्त सम्प्रदाय' हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख सम्प्रदायों में से एक है, यद्यपि सम्प्रदाय कई हैं किन्तु प्रमुखता शैव, वैष्णव और शाक्त की ही है।  ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब एक हैं तथा धर्म के नाम पर हिंसा सिर्फ गलत ही नहीं विवेकहीनता भी है। आपसी वैमनस्य हटा कर धार्मिक एकता स्थापित करना ही सभी पंथों की मूलभूत लक्ष्य रहा है। हजारों साल पहले शिव को मानने वालों ने अपना अलग पंथ ‘शैव-सम्प्रदाय’ बना लिया था, तो विष्णु में आस्था रखने वालों ने ‘वैष्णव-सम्प्रदाय’ या अलग पंथ। किंतु शिव और विष्णु अलग होकर भी एक ही हैं,हालांकि दोनों के काम बंटे हुए हैं। शिव और विष्णु ने अपनी एकरूपता दर्शाने के लिए ही ‘हरिहर' का रूप धरा था, जिसमें शरीर का एक हिस्सा विष्णु यानी हरि और दूसरा हिस्सा शिव यानी हर का है। विष्णु (=हरि) तथा शिव (=हर) का सम्मिलित रूप हरिहर कहलाता है। (प्रसिद्द होली गीत है -'बाबा हरिहरनाथ -खेले होली सोनपुर में') स्वयं विष्णु शिव को अपना भगवान कहते हैं, दोनों में परस्पर मैत्री और आस्था भाव है। विष्णु के अवतार भगवान राम शिवलिंग की स्थापनाएं और पूजा करते हैं। शिव प्रत्यक्ष रूप में किसी की आराधना नहीं करते, बल्कि सबसे मैत्री-भाव रखते हैं। हां, वह शक्ति की आराधना ज़रूर करते हैं, जो कि उन्हीं के भीतर समाई हुई है। शिव विष्णु के विभिन्न अवतारों की लीलाओं को देखकर मुग्ध रहते हैं और शिव के अवतार वीर हनुमान आदिशक्ति माँ सीता के भक्त (हीरो) के रूप में उनकी आराधना करते हैं।शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त-सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया।
शाक्त संप्रदाय को शैव संप्रदाय के अंतर्गत ही माना जाता है। दुनिया के सभी धर्मों में 'प्रेमस्वरूप ईश्वर' की जो कल्पना की गई है वह पुरुष के रूप में की गई है। अर्थात ईश्वर पुरुष जैसा हो सकता है किंतु शाक्त सम्प्रदाय दुनिया का एकमात्र सम्प्रदाय है जो सृष्टि रचनाकार को जननी (पुरुष नहीं, स्त्री) या स्त्री-शक्ति मानता है। शाक्त सम्प्रदाय में सर्वशक्तिमान को देवी माना जाता है। शाक्त सम्प्रदाय में कई देवियों की मान्यता है जो सभी एक ही देवी के विभिन्न रूप हैं।
शक्तिमान (ब्रह्म) और शक्ति वस्तुतः एक ही तत्व है। तथापि शक्तिमान की अपेक्षा शक्ति की ही प्रमुखता रहती है। जगन्नियन्ता को उसकी जगत्कर्त्री शक्ति से ही जाना जाता है।  'वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण आदि में शक्ति शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूलप्रकृति आदि नामों से ब्रह्म के लिये ही किया गया है। यह बात भी स्मरण रहे कि शक्तिमान् की शक्ति अभिन्नरूप से रहती है, सम्पूर्ण पदार्थों में – जैसे – विद्वानों के अन्दर विद्याशक्ति, धनवानों में धनशक्ति, ब्रह्मचारियों में ब्रह्मचर्य-शक्ति इत्यादि। शक्ति एक होकर भी अनेकरूप में व्यक्त होती है। पुरुषों के शरीर में पौरुष शक्ति स्त्रियों में स्त्रीत्व – शक्ति, जीवमात्र में अविद्या शक्ति बनकर रहने वाली माँ जगज्जनी भगवती पराम्बा, विश्वजनमोहिनी कहलाती है। 

शाक्तों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रैण है इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। शाक्त मत के अन्तर्गत भी कई परम्पराएँ मिलतीं हैं जिसमें लक्ष्मी से लेकर भयावह काली तक हैं। सृष्टि का उद्भव व विकास शिव व शक्ति के संयोग से हुआ है । शक्ति से प्रेरित होने पर ही शिव में गति उत्पन्न हुई । इस कारण शिव के साथ उनकी पत्नी पार्वती की कल्पना, शक्ति के रूप में की गई । शक्ति सत्ता जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती हुई जीव को बद्ध भी कराती है और मुक्त भी। मां पार्वती को आदिशक्ति भी कहते हैं। एक ओर जहाँ यही ब्रह्मशक्ति 'अविद्या माया' बनकर जीव को बन्धन में बाँधती है, वहीं दूसरी ओर यही शक्ति 'विद्या माया' बनकर जीव को ब्रह्म साक्षात्कार करा कर उस बन्धन से मुक्त भी कराती है। शक्ति उपासना वस्तुतः यह ज्ञान कराती है कि यह समस्त दृश्य प्रपंच ब्रहम शक्ति का ही विलास है।  इसी कारण शक्ति उपासना का उपयोग और महत्व शास्त्रों में स्वीकार किया गया है। वेद, उपनिषद और गीता में शक्ति को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति कहने से अर्थ वह प्रकृति नहीं हो जाती। हर माँ प्रकृति है। जहां भी सृजन की शक्ति है, वहां प्रकृति ही मानी गई है इसीलिए मां को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति में ही जन्म देने की शक्ति है। इस दर्शन के अनुसार नारी मात्र पूजनीय समझी जाती है। माताओं तथा कुमारी बालिकाओं (वुड बी मदर्स-लीडर्स) का शाक्त मत में अत्यंत ऊंचा और पवित्र स्थान है। 
शक्ति के समस्त प्रकार के अनुयायियों को अक्सर 'शाक्त' कहा जाता है। शाक्त धर्म का उद्देश्य भी मोक्ष है। फिर भी शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है। शक्ति ही धर्म है। शक्ति ही सत्य है। शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की हम सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते हैं, बल्कि उसके शक्ति–आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास भी करते हैं। विशेष रूप से माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है। जटिल प्राणायाम, ध्यान एवं यौन–यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये यह कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। किन्तु बिना किसी योग्य गुरु के सानिध्य में रहे इसका अभ्यास नहीं करना चाहिये। दिमाग बिगड़ जाने की सम्भावना रहती है। क्योंकि इस अवस्था में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई, जब तक सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश नहीं करती और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर नहीं मिलती। भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी–रहस्यात्मक समाधि के रूप में मनों–दैहिक रूप से किया जाता है, जिसको विस्फोटी परमानन्द कहा जाता है।
 ऐसा कहा जाता कि यह 'विस्फोटी परमानन्द' कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानन्द की बाढ़ के रूप में नीचे की ओर पूरे शरीर में बहता है। शक्तिवाद का पहला और प्रमुख सिद्धान्त ही यह है कि- शक्ति सर्वस्याद्या है। अर्थात् शक्ति ही सबकी आदिरूपा है। वही एक शक्ति है, अन्य किसी प्रकार की शक्ति है ही नहीं। जगत की सम्पूर्ण शक्तियों के दो रूप माने गये है -संचित शक्ति (Accumulated,अव्यक्त या तुरीया शक्ति potential energy) और क्रियात्मक शक्ति (kinetic energy, व्यक्त, कार्यात्मक ऊर्जा (functional energy) तुरीया शक्ति – या अव्यक्त, यह प्रकार ब्रह्म में सदा लीन रहने वाली शक्ति का नाम है। यही ब्रह्मशक्ति स्व-स्वरूप प्रकाशिनी होती है। वह तुरीया शक्ति (अव्यक्त) जब स्व-स्वरूप में प्रकट होकर सत् और चित् को अलग अलग दिखाती हुई,जब  'आनन्द विलास' (सृष्टि) को उत्पन्न करती है तब वह पराशक्ति 'क्रियात्मक शक्ति' (kinetic energy) कहलाती है। सृष्टि, अवस्थाओं के लगातार परिवर्तन का नाम है, एवं परिवर्तन का मापक है, काल या समय। काल के बिना परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। 
सृष्टि की मूल शक्ति महाकाली ही प्राणियों का दु:ख दूर करने के लिए अलग-अलग रूपों में अवतार लेती हैं।  सत्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का संकलन और समायोजन की शक्ति भी मां भगवती के पास ही है। मां अपनी इन्हीं शक्तियों के माध्यम से संपूर्ण विश्व का सृजन, पालन और संहार करती हैं।यह निर्गुण स्वरूप देवी ही जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुण भावों को प्राप्त होकर ब्रह्मा विष्णु और महेश रूप से सृष्टि की उतपत्ति, पालन और संहार करती है  क्रमश: तमोगुणी और रजोगुणी ये दोनों अतिवादी शक्तियाँ विकास के लिए संकट है। इसलिए देवी की जिस भूमिका को दुर्गा सप्तशती के प्रथम चरित्र में रेखांकित किया है, वह मोहनिद्रा (हिप्नोटाइज्ड अवस्था-कलियुग) से जगाने वाली भूमिका है। भ्रम में भटक जाने (आत्मस्वरूप को भूल जाने) के कारण, मनुष्य जब अपने जीवन के उद्देश्य को भूल जाता है, और पाशविक-वृत्ति (आहार-निद्रा-भय -मैथुन) को ही मनुष्य जीवन का धर्म समझकर) वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं करता। तब उसमें एक प्रकार की अपराध-भावना, आत्मग्लानि और कुंठा विकसित हो जाती है, तब उसका मानो कलियुग चल रहा होता है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है - युगपरिवर्तन मनुष्य के विचारजगत में होता है। कली शयानो भवति........  
कलियुग में कृष्णवर्ण [काले रंग] के देवी-देवताओं की पूजा को ही शास्त्रों में अभीष्ट-सिद्धिदायक बताया गया है, क्योंकि कलियुग की अधिष्ठात्री महाशक्ति काली स्वयं इसी वर्ण [रंग] की हैं। उनकी त्वचा का काला (या गहरा नीला) रंग उस सृष्टि-गर्भ (डार्क एनर्जी) का प्रतीक है, जिससे सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है, और अंततः उसीमे विलीन हो जाती है। देवी काली को श्वेत त्वचा वाले शिव पर खड़ी मुद्रा में चित्रित किया जाता है, जो उनके चरणों के नीचे लेटे हुए हैं। उनकी श्वेत त्वचा माँ काली की काली त्वचा या गहरी नीली त्वचा के विपरीत है। तथा उनके चेहरे पर एक निर्लिप्त आनन्दमय भाव दृष्टिगोचर होता है। शिव जी शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरुप निराकार शाश्वत चैतन्य हैं, और देवी काली उस शुद्ध शाश्वत चैतन्य [एग्जिस्टेंस (being)-नॉलेज (consciousness)-ब्लिस (bliss)] का प्रतिनिधित्व सगुण-साकार रूप में कर रही हैं। 
माना जाता है कि काली का रूप रौद्र है। वे अपनी चार भुजाओं में क्रम से खड्ग, नरमुण्ड, वर और अभय धारण करती हैं। मूर्ति पर दृष्टिपात करते ही यह दिखलाई देता है कि वे अपने हाँथों में नरमुण्ड धारण किये हुए हैं -जिसे देखते ही प्रत्येक व्यक्ति का 'अहंकार' काँप उठता है, और मन में शरीर की नश्वरता का बोध जाग्रत हो जाता है। क्योंकि अहंकार को उस नरमुण्ड में अपनी संभावित मृत्यु का एहसास हो जाता है। माँ काली (भवतारिणी) की इस मूर्ति-आकृति का उद्देश्य मृत्यु को महिमामण्डित करना नहीं है, बल्कि 'मैं केवल शरीर मात्र हूँ !' ( I-am-the-body idea) इस अज्ञानता को नष्ट करके अपने अविनाशी आत्म-स्वरूप का स्मरण करवाना है। तथा माँ काली की बाहर की ओर निकली जिह्वा, विहँसती हुई दन्त-पंक्तियाँ मानव-अज्ञानता (human ignorance) की हँसी उड़ाती हुई प्रतीत होती है। कोई व्यक्ति जब तक अपने स्त्री/पुरुष होने के अहंकार से जुड़ा रहेगा, वह माँ काली का दर्शन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा, और माँ काली उसको भयोत्पादक "क्रोधी" रूप में ही दिखायी देगी।
सर जॉन वुडरोफ अपने ग्रंथ 'गारलैण्ड ऑफ़ लेटर्स' (५२ अक्षरों की माला ?) में कहते हैं-काली वह देवी है जो काल (समय) को अपने भीतर खींच लेती हैं। काली को यह नाम इसीलिए मिला है कि वे काल को निगल लेती हैं। और निराकारिता (formlessness) की प्रतीक अपनी 'काली त्वचा' से पुनः सृष्टि का प्रारम्भ करती हैं। माँ काली ५२ खोपड़ियों की माला धारण करती हैं,तथा कमर पर कटे हुए भुजाओं का घाघरा पहनती हैं। यह इस बात का प्रतिक है कि वास्तविक मनुष्य शारीरिक नहीं एक आध्यात्मिक प्राणी है,और अहंकार का जन्म "Identification with the body" अथवा देहाध्यास, या स्वयं शरीर मानने से ही  होता है। अतः भ्रम से मुक्ति (मोक्ष) केवल तभी सम्भव हो सकती है जब शरीर-मन के साथ हमारा जुड़ाव समाप्त हो जाता है। इसलिये माँ काली के गले में नरमुण्ड माला और कटे हुए भुजाओं का घाघरा उस जयचिन्ह (trophies ) की प्रतीक हैं जो उनके सन्तानों को नश्वर शरीर के साथ आसक्ति का त्याग कर देने के बाद प्राप्त होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि शिव और काली श्मशान भूमि में रहते हैं, श्मशान-भूमि इस विचार को पुष्ट करती है कि शरीर तो नश्वर और क्षणस्थायी है।  क्योंकि अपने को शरीर मान लेने से ही अहंकार का जन्म होता है। काली और शिव अहंकार के भ्रम को भंग करके मुक्ति (डीहिप्नोटाइज्ड कर देते हैं) देते हैं। तब हमें अपने अविनाशी आत्मस्वरूप का अपरोक्ष अनुभव हो जाता है। 
शक्तिवाद का दूसरा सिद्धान्त यह है कि माया बड़ी बलवान है। अहंकारी व्यक्ति उस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता –दैवी वी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। -अर्थात यह अलौकिक अति अद्भुत मेरी त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो केवल मुझको निरंतर भजते हैं, वे बड़ी सुलभता से इस माया से तर जाते हैं।
गुणों का यह सारा जड़ दृश्य प्रपंच इस माया में ही है।  इसीलिये इसे गुणमयी कहा गया है।  यह माया भगवान् की अत्यन्त असाधारण तथा विचित्र जादुई शक्ति है।  इसीलिये इसे 'दैवी' बताया गया है। भगवान् स्वयं ही इसके स्वामी हैं। अतः उनकी शरण में जाए बिना कार्य और कारणरूपा इस माया के रहस्य को पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। अहंकार रूपी इस दानव की जादुई शक्ति यह है कि जब भी इसके खून की एक बून्द धरती पर गिरती है, तो उससे एक नया राक्षस उतपन्न हो जाता है, जो इसके आध्यात्मिक गर्व का स्मरण कराता है। 'तथाकथित आध्यात्मिक प्रगति' होने पर अहंकार का बैलून और अधिक फुल जाता है। इसलिये साधना के फलस्वरूप जैसे ही साधक को थोड़ी बहुत आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है, या कुछ अनुभव होता है, और जैसे ही अहंकार थोड़ा मिटता है, तो फिर से वह एक नए राक्षस - 'मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूँ ' का रूप धारण कर लेता है। कथा में जब देवी किसी एक राक्षस को मार डालने का प्रण करती हैं, तब सभी राक्षस अपना रूप बदल लेते हैं। उसी प्रकार अहंकार भी आश्चर्यजनक चालाकी दिखलाता हुआ, तर्कसंगतता की शक्ति अपनी स्थिति में बदलाव कर लेता है। अहंकार हमारे कानों में धीमे से फुसफुसाकर कहता रहता है - "देखो, तुम इन मूर्ख लोगों की अपेक्षा कितने महान आध्यात्मिक साधक हो!" जब तक अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने का अहंकार पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता, सच्ची आध्यात्मिक प्रगति होना असम्भव है ! राक्षस राज महिषासुर अपनी ताकत और सत्ता के नशे में चूर होकर एक भैंसे का रूप धारण कर लेता है। अहंकार हमेशा अपने 'व्यक्तिगत महत्व' (self-importance) के नशे में चूर रहता है।(किसी को पहले प्रणाम करना नहीं चाहता !) 
 यही कारण है कि देवी को अबला समझकर बल के अहंकार से अन्ध चण्ड मुंड और शुम्भ निशुम्भ उन पर विजय नहीं पा सके। देवी की कठिन माया से पार पाने का एक ही मार्ग है – माँ जगदम्बा के श्री चरणों में  अनन्य व विनम्र शरणागति। यही वह योगशक्ति है जिससे भगवान् समस्त जगत् को धारण किये हुए हैं।  जिससे वे नाना प्रकार के रूप धारण करके मनुष्यों के सम्मुख प्रकट होते हैं, तथा इसी में आवृत्त रहने के कारण मनुष्य इन्हें पहचान नहीं पाते। इसी महाशक्ति का नाम योगमाया है। 
भगवान् जब किसी रूप में अवतीर्ण होते हैं तो अपनी उस योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयम् उसमें छिपे रहते हैं। वास्तव में भगवान् का माया से आवृत्त हो जाना सूर्य का बादलों से ढक जाने के जैसा ही होता है।  सूर्य का बादलों से ढक जाना कहा तो जाता है, लेकिन वास्तव में सूर्य नहीं ढकता बल्कि लोगों की दृष्टि पर ही बादलों का आवरण आ जाता है। यदि सूर्य वास्तव में ढक ही जाए तो ब्रह्माण्ड में कहीं उसका प्रकाश न हो। इसी प्रकार भगवान् माया से आवृत्त नहीं होते वरन् श्रद्धा व प्रेम के अभाव के कारण अज्ञानी मनुष्य इसी भ्रम में रहते हैं कि भगवान् भी हमारी तरह ही जन्मते व मरते हैं। इस प्रकार वास्तविकता तो यह है कि मूल प्रकृति को अपने अधीन करके अपनी योगशक्ति के द्वारा भगवान् अवतीर्ण होते हैं
साभार https://purnimakatyayan.wordpress.com] 
पूज्य नवनी दा अपने ग्रन्थ 'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [31-जीवात्मा और धर्म] ' प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार होने की सम्भावना है' में कहते हैं - " किसी नई वस्तु या विषय को समझने के लिए जब हम उसे, उसी प्रकार के किसी पूर्व-परिचित वस्तु या विषय के साथ तुलना करके समझने की चेष्टा करते हैं, तब उसे समझने में आसानी हो जाती है। किसी बाह्य वस्तु या विषय को समझने की चेष्टा हमलोग पहले अपनी इन्द्रियों के माध्यम से ही करते हैं। इन्द्रियज-ज्ञान की सहायता से हमलोग भौतिक जगत के ' रूप-रस-शब्द-गंध-स्पर्श' आदि पाँच विषयों की अनुभूति करते हैं। किन्तु जो वस्तु बाह्य जगत में नहीं है - (उच्चतर सत्य-इन्द्रियातीत सत्य-यथार्थ स्वरुप) उस वस्तु या विषय की धारणा करने में हमलोगों को थोड़ी कठिनाई होती है। तब हमलोग बाह्यजगत की वस्तु के जैसा किसी विचार को लेकर उसको समझने की चेष्टा करते हैं। मूर्ति की कल्पना यहीं से उत्पन्न हुई है। (जैसे अशुभ की अध्यक्षता कौन शक्ति करती है ? इस विचार पर चिंतन करने से माँ काली, कृष्ण या किसी अवतार की मूर्ति की कल्पना जन्म लेती है।) क्योंकि हमलोग किसी निर्गुण-निराकार वस्तु की कल्पना नहीं कर सकते हैं, इसीलिये समस्त गुणों (शुभ और अशुभ) से युक्त किसी वस्तु (मातृमूर्ति-माँ काली) की कल्पना करके, उसके भीतर देश-काल-पात्र आदि विभिन्न गुणों को आरोपित करने के बाद हमलोग उसे समझने की चेष्टा करते हैं। यदि ऐसा नहीं करें तो किसी गुणातीतभाव (सर्वव्यापी मातृभाव या विराट अहं-बोध) की अवधारणा कर पाना हमलोगों के लिये लगभग असम्भव हो जाता है। चाणक्य-नीति में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है -
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदिदैवतम् । 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः 
जो लोग वैदिक ब्राह्मण हैं, उनके आराध्य-देव अग्नि हैं । पूजा होने के बाद अंत में जो होम किया जाता है, वह प्राचीन काल के अग्नि पूजा का ही साक्ष्य है। होमाग्नि को प्रज्ज्वलित करके, जिस देवता का आह्वान करना चाहते हों, उसके नाम का मन्त्र पढ़ कर आहूति दिया जाता है। (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का जन्म दो बार होता है—एक बार माता के गर्भ से और दूसरी बार गुरु द्वारा ज्ञान दिए जाने पर। इसलिए इन्हें द्विजाति कहा जाता है। इनका आराध्य देव अग्नि है।) इसके विपरीत, जो लोग मुनि अर्थात मननशील-विज्ञ व्यक्ति हैं, उनके देवता बाहर में नहीं हैं; उनके देवता उनके हृदय में ही विद्यमान हैं। किन्तु जो मनुष्य अल्प-बुद्धि वाले हैं, वे देवता के वस्तु-प्रतीकों (Object-symbol/ महाकाली -महालक्ष्मी -महासरस्वती आदि) की कल्पना करके प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। क्योंकि, जो देवता (ब्रह्म या विराट सर्वव्यापी शक्ति माँ जगदम्बा) कल्पनातीत हैं, जो वाक्य और मन के भी अगोचर हैं, जिनके विस्तार (Volume), आकर (size), सीमा (limit) या गुणवत्ता (quality) को बोलकर नहीं समझाया जा सकता, उनको समझने में सुविधा के लिये किसी रूप की कल्पना कर ली जाती है। किन्तु जो समदर्शी हैं (विवेकज -ज्ञान सम्पन्न मनुष्य) हैं, उनके देवता (माँ जगदम्बा) केवल उनके हृदय में ही नहीं रहते, वे चराचर विश्व में जितने भी जीव-जन्तु, जड़, वृक्ष, लता, नदी, पर्वत, समुद्र आदि हैं, सर्वत्र अपने ईष्टदेव को ही विद्यमान देखते हैं। [ इस दृष्टि से शूद्र भी गुरु से ज्ञान प्राप्त करके (मातृहृदय का विस्तार प्राप्त करके) चरित्रवान मनुष्य बनकर ब्राह्मण में रूपांतरित हो सकते हैं। जातिप्रथा जन्मगत ही नहीं है, इसका उद्देश्य प्रत्येक मनुष्य को चरित्रवान मनुष्य में अर्थात ब्राह्मण में रूपांतरित करना है।]   
हमलोग सामान्य-बुद्धि के मनुष्य हैं,इसीलिये किसी वस्तु-प्रतीक (Object-symbol/महाकाली -महालक्ष्मी -महासरस्वती आदि प्रर्तिमा की) कल्पना किये बिना आगे नहीं बढ़ सकते, या पूर्णत्वप्राप्ति की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकते। इसीलिये कहा गया है- ' उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रुपकल्पना।' भगवान् अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करते हैं। प्रश्न उठता है कि वह कौन (कवि या चित्रकार) है जो इन रूपों की कल्पना करता है? क्या  मनुष्य अपनी कल्पना से इन अवतारों के रूपों की कल्पना कर लेता है ? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि स्वयं ब्रह्म (अनंत-असीम) ही उपासक की धारणा में अपने को प्रकट करने के लिये ससीम रूप धारण कर लेते  हैं ? तंत्र-शास्त्रों में कहा गया है- " मनुष्य भी कल्पना नहीं करता और ब्रह्म भी कल्पना नहीं करते। बल्कि 'शक्ति' (माँ जगदम्बा) ही कल्पना करती हैं। वे जिस प्रकार अविद्या-माया का रूप धारण करके जीव के बंधन का कारण होती हैं, उसी प्रकार जीवात्माओं को मुक्ति प्रदान करने के लिये विद्या-माया बनकर विभिन्न रूपों (सीता, राधा,माँसारदा-सरस्वती आदि रूपों को) को धारण करतीं हैं।" इसीलिये कहा गया है- ' साधकानां हितार्थाय अरुपा रूप धारिणी।' - अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं।
['ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये अर्चावतार आते रहते हैं। क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है। यह अवतार मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण अर्चावतार शब्द से अभिहित होता है। कृष्ण-बुद्ध- ईसा और मोहम्मद तो पुरुष थे किन्तु, ईश्वर -गॉड-अल्ला-पुरुष है या स्त्री ?... को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये, निराकार-निर्विकार-शुद्ध-बुद्ध-परमानंदस्वरूप परब्रह्म भक्तों की हितकामना से मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि अवतारों के अतिरिक्त राम, कृष्ण,बुद्ध, ईसा,आदि विविध रूपों में अवतार ग्रहण करते हैं। अर्चा का अर्थ प्रतिमा अथवा मूर्ति होता है। ] 
स्वामी विवेकानन्द (माँ काली को पहले नहीं मानते थे ?) ने एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से किसी कवि जैसी कमाल की कल्पना के द्वारा 'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप
को व्याख्यायित किया है। श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र  (२० जनवरी, १८९५) में अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- कहते हैं, "प्रत्येक आत्मा एक एक स्टार है (सितारे की तरह है)। और ये सभी सितारे ईश्वररूपी उस अनन्त नीले आकाश में विन्यस्त (पहुँचे हुए) हैं। और वही ईश्वर (अजियोर/azure/अनन्त तक विस्तृत नीलाकाश या मातृहृदय ईश्वर) समस्त सितारों (भक्तों, वीरों,हीरोज) का स्वाभाविक व्यक्तित्व है। सर्वव्यापी  मातृहृदय ईश्वर ही प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप या यथार्थ स्वरुप है इन जीवात्मा-रूप सितारों में से कुछ अविस्मरणीय (मातृहृदय) सितारों का जब हम पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं, जो हमारी दृष्टि से परे चले गए हैं, तभी हमारे जीवन में धर्म का प्रारम्भ होता है, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हो जाता है, जब हम पाते हैं कि उन सब (विभिन्न व्यक्तित्वों) की अवस्थिति ईश्वर (माँ जगदम्बा) में ही है,
और हमलोग भी उसी ईश्वर में अवस्थित हैं।"  
[अर्थात जब हम कुछ मातृहृदय अविस्मरणीय सितारों जैसे-नवनीदा, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमाँ सारदा-सरस्वती, भगवान श्रीरामकृष्णदेव, मोहम्मद, चैतन्य, नानक, बुद्ध, ईसा,राम,कृष्ण, सितारों का पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं; तो स्वयं भी उसी सर्वव्यापी मातृहृदय के अहं-बोध में रूपान्तरित हो जाते हैं।]  
( Each soul is a Star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place.) 

अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और अभी वे वहीँ अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। इस लोक या किसी अन्य लोक (सप्त लोक चौदह भुवन) में क्या वे फिर ऐसा कोई एक वस्त्र पहनेंगे ? मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे ऐसा पूरे ज्ञान (होशोहवास) के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हुआ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाय।  मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड-सिंह) हो जायें, अर्थात वे यह जान लें कि वे तो मुक्त ही हैं !  (अर्थात केवल इतना जान लें कि अब वे हिप्नोटाइज्ड-भेंड़ नहीं हैं! ) और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना भी चाहें, तो वे सब आनन्द और शान्ति के स्वप्न हों। "]              

(I pray that all may be free, that is to say, may know that they are free. And if they are to dream again, let us pray that their dreams be all of peace and bliss. . . .)
प्रत्येक जीवात्मा मानो एक एक तारे के जैसा है। जैसे प्रत्येक तारा (सूर्य-चन्द्रमा आदि) बहुत बड़े आकार के होते  हैं, किन्तु दूर से देखने के कारण हमलोग उनको बहुत छोटे से आकर में देखते हैं। उसी प्रकार आत्मा (ब्रह्म या बृहद) भी अनन्त-असीम जितना बड़ा है। किन्तु जीव-शरीर की साढ़े तीन हाथ की छुद्र सिमा में रहते हुए अपने को प्रकट करते हैं, इसीलिये हमलोग मनुष्य-देह आत्मा आत्मा को भी छुद्र समझ लेते हैं। किन्तु कोई जीवात्मा छुद्र या छोटा नहीं है,और एक-दूसरे से भिन्न भी नहीं है। सभी जीवात्माएं एक वृहत एकता के सूत्र में बंधीं हैं, किन्तु यह बात समझ में आसानी से नहीं आती। 
इस नीले आकाश को देखें - उसके ओर-छोर का कुछ पता नहीं चलता, हमलोग कल्पना के द्वारा यह नहीं समझ पाते कि इसका प्रारंभ कहाँ से हुआ होगा या अन्त कहाँ है ? सितारों को असमान में टिमटिमाते देख कर हमें लगता है ये सभी असमान में ही टंगे हुए हैं। इसी प्रकार अनंत नीले आकाश (मातृहृदय का अनन्त विस्तार) के साथ आत्मा की तुलना की जा सकती है। समस्त प्राणियों के शरीर उसी आत्मा की घनीभूत अभिव्यक्तियाँ हैं। किन्तु केवल जीव और जगत के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर देने के बाद आत्मा समाप्त नहीं हो जाता है। इन सब में परिव्याप्त होने के बाद भी आत्मा की अभिव्यक्ति अनन्त शून्य तक सुविस्तृत रहती है। 
पुरुषसूक्त में कहा गया है -'पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।' -(ऋ. १०. ९०. ३ )  [अस्य = इन सर्वनियन्ता भगवान् का, विश्वाभूतानि = अनन्तानन्त जीव तथा अनन्त लोक, पादः = सम्पूर्ण ऐश्वर्य का चतुर्थ भाग है । और, अस्य = इन भगवान श्रीरामकृष्ण का, त्रिपादः = तीनो पाद अर्थात् तीनो भाग हैं- अहंकार आदि से युक्त 'बद्ध जीव और मुमुक्षु' , दूसरा पाद नित्यमुक्त = जो कभी संसार में फँसे ही नहीं-नारद आदि, और तीसरे हैं मुक्त जीव = डीहिप्नोटाइज्ड, भ्रममुक्त, जो भवबन्धन से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे अमृतं =अविनाशी हैं।
ब्रह्म का विशिष्ट-वैभव बतलाते हुए कह रहे हैं- 'इस पुरुष/(प्रकृति या शक्ति?) की इतनी महिमा है कि यह सम्पूर्ण चराचर विश्व, यह सारा ब्रह्माण्ड (मन जहाँ तक जा सकता है) परमेश्वर (ब्रह्म या परमात्मा/परमेश्वरी-माँ जगदम्बा) के केवल एक चौथाई अंश में ही स्थित है। और उसका अधिकांश भाग (शेष तीन-चौथाई भाग) इस मन (या दृष्टिगोचर जगत) के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। आत्मा हमलोगों के इन्द्रियग्राह्य जगत को (अपने मन को ) परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग (तीनचौथाई भाग) अवस्थित है। अर्थात् वह ईश्वर/  इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन पाद (भाग) तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है और सर्वत्र विद्यमान है उसको हम किसी एक ही स्थान पर, या किसी एक ही 'नाम-रूप' में अवस्थित नहीं कह सकते।”-ये तीनो पाद कहां हैं? इसका उत्तर देते हैं -दिवि।  दिव् शब्द का अर्थ है परमाकाश,स्वर्ग, भगवद्धाम! गीता ११/१२ में कहा गया है -'दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।' भगवान के विराट्-रूप [चिन्मय भगवद्धाम ='विस्फोटी परमानन्द' कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानन्द की बाढ़ की उपमा; या माँ जगदम्बा के विराट रूप=सर्वव्यापी मातृहृदय का 'अहं'-बोध] की जो प्रभा -- प्रकाश है; उसकी उपमा कहते हैं - अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट्-रूप परमात्मा या विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध रूपिणी माँ जगदम्बा) विश्वरूप के प्रकाश के समान शायद ही हो। अथवा सम्भव है कि न भी हो अर्थात् उससे भी विश्वरूप का प्रकाश ही अधिक हो सकता है।

गीता (१०.४२) में भी कहा गया है-  अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।  विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।-जगत का किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ। वे सभी स्थानों में व्याप्त हैं, किन्तु जीवात्मा में उनका विशेष प्रकाश है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मैं जीवन भर ईश्वर को ढूँढ़ता रहा, किन्तु अन्त में मैंने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर को देखा है।"  

अन्यान्य जड़ वस्तुओं की तुलना में मनुष्य (जीव) शरीर में ही ब्रह्मचैतन्य सर्वाधिक अभिव्यक्त हुए हैं। जो लोग सम-दर्शी होते हैं, वे सर्वत्र उनका अनुभव करते हैं। किन्तु हमलोग तो सर्वदर्शी नहीं हैं, इसीलिये जीवों के भीतर, विशेष तौर से मनुष्य के भीतर ही उनको स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। असीमित आकाश में परिव्याप्त ब्रह्मवस्तु [शुद्ध चैतन्य या माँ जगदम्बा ने या एग्जिस्टेंस (being)-नॉलेज (consciousness)-ब्लिस (bliss)] हमलोगों की धारणा से परे हैं। किन्तु जिस आकृति में घनीभूत होकर ब्रह्म ने स्थूल रूप धारण किया है, वहाँ हमलोग उनके अस्तित्व का अनुभव कर सकते है। 

एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं, " यदि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार होने की सम्भावना (मातृहृदय-प्राप्त मनुष्य बन जाने की सम्भावना)  नहीं हो, तो फिर कहना होगा कि अवतार कभी हुए ही नहीं थे। " इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार (मातृहृदय वाला व्यक्तित्व या स्टार)  होने की सम्भावना अवश्य विद्यमान है।  " बाइबिल कहती है -'नो मैन कैन सी गॉड बट थ्रू दी सन' - अर्थात " पुत्र (ईसा,अवतार, कृष्ण या काली) को अपनाये बिना कोई ईश्वर को देख नहीं सकता। इसके पहले कि हम परमपिता (माँ जगदम्बा) से एकाकार हो सकें 'पुत्रत्व (या मातृत्व -सर्वव्यापी मातृहृदय का अहं बोध या अवतार का व्यक्तित्व) का आना आवश्यक है।" 
[Bible says, "No man can see God but through the Son."'The sonship must come before we become one with the Father.' "Our Father who art in heaven"  "I and my Father are one." The gulf between God and man is thus bridged.
किसी अवतार पुरुष के जीवन और सन्देश की विवेचना तथा उनके जीवन का अध्यन और अनुशीलन (श्रवण-मनन-निदिध्यासन) करने से प्रत्येक व्यक्ति अपने संकीर्ण जीवन-चक्र (जन्म-मृत्यु ) का अतिक्रमण करके, देशकालातीत ब्रह्म की अनुभूति (विवेकज ज्ञान प्राप्त) कर सकता है। महर्षि पतंजली कहते हैं, " ईश्वरप्रणिधानम् - पवित्र-जीवन में उपनीत महापुरुषों (श्रीरामकृष्ण) के जीवन और सन्देश का चिन्तन करने वाला मनुष्य, पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत-अवश्य हो जाता है। और (मुण्ड उ ३ । २ । ९ ) में कहा गया है -ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति  शंकराचार्य कहते हैं, ' त्रय-दुर्लभं ' -' मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रय'- इन तीन चीजों को एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है। कितने जन्मों तक साधना करने (विभिन्न योनियों -८४ लाख में भटकने के बाद) के बाद मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है। किन्तु मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी अधिकांश लोगों को ' नाम-यश, तथा कामुकता और कमाई  की आसक्ति' में बन्ध जाने (कामिनी -कांचन के द्वारा हिप्नोटाइज्ड कर लिए जाने कारण),  मुक्ति की इच्छा (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने की इच्छा) नहीं होती। फिर किसी में यदि इन्द्रिय-भोगों में आसक्ति से मुक्त होने की इच्छा हो भी जाय तो किसी महापुरुष (पहुँचे हुए संत) की सहायता प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। यह तीन दुर्लभ संसाधन एक साथ प्राप्त हो जायें, केवल तभी मुक्ति की सम्भावना है, नहीं मिला तो मुक्ति की सम्भावना बहुत कम है। 
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देवी पुराण के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कृष्ण, विष्णु के नहीं बल्कि माँ काली के अवतार थे।  ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं; इसिलये कहा गया है काली के साथ कृष्ण (अवतार तत्व) को भी समझें "कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। " कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में अर्थात कलयुग में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैंऐसा माना जाता है कि माँ काली ही कलियुग की प्रधान देवी है 'कालिका मोक्षदा देवि कलौ शीघ्र फलप्रदायिनी' जो भक्तों को शीघ्र फल प्रदान करती हैं। माँ ममता की मूरत है। उनकी साधना करने वाले के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता है। काली माता का ध्यान करने से उनके मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो (-अर्थात मैं सिंह नहीं भेंड़ हूँ के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो) तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें। इतना तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है। 
इसी वैष्णव और शाक्त मत के अभेद को स्पष्ट करने के लिये पूज्य नवनीदा अपनी 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' नामक पुस्तक के निबंध संख्या [13-15] में  कहते हैं - "बचपन में पितामह मुझे बहुत सी क़िस्से- कहानियाँ सुनाया करते थे। उन अद्भुत कथाओं को सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह जाता था, और कभी कभी मन में अविश्वास भी होता था कि क्या यह कहानी सच्ची भी हो सकती है ? उन्होंने कहा -" कृष्णनगर के जो राजा थे, उनके राज्य में एक धार्मिक परिवार रहता था जिसमे दो भाई रहते थे और दोनों ही बड़े भले थे। वे दोनों भाई ईश्वर के बड़े भक्त थे और अपने-अपने इष्टदेव की पूजा अपने-अपने मन्दिरों में किया करते थे। 
किन्तु उनमे से एक भाई वैष्णव, और दूसरा शाक्त था। 
पहले के ज़माने में जिस शैली में घर बनाये जाते थे, प्रवेश द्वार से घुसते ही बीच में आँगन था जिसके ओर जिसके एक ओर एक भाई का घर, दूसरी ओर दूसरे भाई का घर था। दोनों भाई अपने-अपने घरों में रहते थे, एक भाई के घर में माँ काली प्रतिष्ठित थीं, और दूसरे भाई के घर में गोपाल प्रतिष्ठित थे। उनके आँगन में एक आम का गाँछ उग आया, फिर वह थोड़ा बड़ा हो गया उसमे ढेर सारे मंजर भी लगे| किन्तु उसमे आम का टिकोला एक ही लग पाया ! धीरे वह आम बड़ा होने लगा| प्रतिदिन सुबह-सुबह उठ कर दोनों भाई अलग अलग से देखा करते कि आम कितना बड़ा हुआ है? बड़े भाई सोंच रहे हैं- जैसे ही आम और थोड़ा बड़ा हो जायेगा, थोड़ा सा पकते ही इसे तोड़ कर माँ को दूंगा ! और छोटा भाई सोचता है- यह आम जैसे ही थोड़ा और बड़ा होकर पकना शुरू करेगा मैं इसे तोड़ कर गोपाल को दूंगा ! रोज प्रातः काल उठते ही दोनों कि नजर आम पर ही रहती थी। एकदिन सुबह में उठ कर दोनों भाई देखे कि आम तो है ही नहीं। दोनों का मन बहुत खिन्न हो गया, सोचने लगा आम गया तो कहाँ गया ? बड़े भाई ने सोचा ओह मैं वह आम माँ को न दे सका, छोटा भाई बोला ओह मै गोपाल को न दे सका ! 
तब दोनों भाईयों ने एक दूसरे से पूछा- क्या रे तूने आज आम को देखा था ? दोनों ही बोले- नहीं मैंने तो नहीं देखा। तब बड़े भाई ने कहा, चलो तो जरा पूजा के कमरे में चल कर देखा जाये। जब वे पूजा के कमरे में गए तो देखा, कि माँ काली, वही आम गोपाल को अपनी गोद में बैठा कर खिला रहीं हैं! उस समय मैंने सोचा था, मुझे बहलाने के लिये इन्होने अपने मन से गढ़ कर इस कहानी को सुनाया होगा। किन्तु बाद में मैंने इसी कहानी को बंगला ' विश्वकोष ' में भी लिखा देखा है। इसी प्रकार उनके द्वारा कथित कई कथाओं को मैंने बाद में भी मिला मिला कर देख लिया है। मेरे मन में यह सन्देह होता था कि, बड़े-बुजुर्ग तो अक्सर क़िस्से-कहानियाँ सुनाते ही रहते हैं। जैसे वे यह भी कहा करते थे कि प्रभु ईशा मसीह भारतवर्ष में आये थे, अब यह सच हो या नहीं। 
सच चाहे जो कुछ भी क्यों न हो, परन्तु इस कथा का उल्लेख वे अक्सर किया करते थे। एक दिन मेरे पितामह उनके बड़े भाई से आपसी वार्तालाप के क्रम में कहते हैं -" कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। " - कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में अर्थात कलयुग में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं! पितामह के अग्रज (श्रीयतीशचन्द्र मुखोपाध्याय) भी वैसे ही थे, वे भी संस्कृत के विद्वान् पण्डित थे- उनको ' विद्यार्नव ' की उपाधि मिली हुई थी। तो पितामह के श्लोक को सुन कर उनके बड़े भाई कहते हैं, गोपाल और काली तो दो अलग अलग सत्ता हैं, इसलिये यहाँ 'गोपालकालीका' कहना व्याकरण की दृष्टि से उचित नहीं लगता।  यहाँ द्विवचन लगेगा अतः 'गोपालकालिके' कहना उचित होगा।  इसपर छोटे भाई बोले, 'ना, ता हबे ना, दादा; गोपाल आर काली एखाने तो आलादा नन, काजेई द्विवचन ना हये एकवचनई भाल।' - अर्थात नहीं, भैया वैसा नहीं होगा; क्योंकि यहाँ पर गोपाल और काली तो भिन्न नहीं हैं, इसीलिये द्विवचन न होकर एकवचन लगाना ही ठीक होगा |" 
माँ काली का नाम विध्वंश का पर्याय है,किन्तु माँ काली की पूजन विधि बहुत सरल और आसान है। माँ काली बहुत थोड़े फलों और साधारण भोग चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाती हैं। मा काली को संतुष्ट करने के लिए छप्पन भोग पकाने की आवश्यकता नहीं होती। कुछ लोग तो माँ काली को भोग के रूप में 'सोमरस' या शुद्ध देसी शराब भी चढ़ाते हैं। (विशाखापत्तनम में एक ऐसा मन्दिर है जहाँ देवी केवल शुद्ध देशी शराब ही चढ़या जाता है।) मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता (The great spiritual leader) आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने एक बार कहा था -'माँ काली तो मानवमात्र की देवी हैं, क्योंकि जो कुछ मानव खाते हैं, वे वह सब कुछ खाती हैं।' शायद यही कारण है कि आम जनता का प्रत्येक तबका (जनता का क्रॉस-सेक्शन) माँ काली की पूजा करता है। 
|•|| श्रीमाँ सारदा||•|| स्वयं देवी जगदम्बा (भवतारिणी) थीं, किन्तु श्रीरामकृष्ण अवतार लीला में मनुष्यों के विचार जगत में युगपरिवर्तन करने हेतु वे लोगों को बिल्कुल अपनी जननी के रूप में ही मिली थीं। भारत के आध्यात्मिक इतिहास में यह एक बहुत महत्वपूर्ण घटना है। श्रीरामपूर्वतापनीय उपनिषद (१/७) में कहा गया है– 
चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिण: ।
 उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना  ।। 
"ब्रह्म चिन्मय ,अद्वैत,निष्कल और अशरीर है । उपासकों की प्रयोजन-सिद्धि के लिए निर्गुण, निराकार ब्रह्म अपनी माया शक्ति से निज भक्तों के लिये अपनी इच्छा के अनुसार नाना रूप धारण करते हैं। क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है। यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है। उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है। क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है। 
श्रीमद्भगवतगीता (४/११) में कहा गया है - ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। ... तब क्या आप में भी राग-द्वेष हैं ? जिसके कारण आप किसी-किसी को ही आत्मभाव प्रदान करते हैं, सबको नहीं करते ? इस पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो भक्त जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छासे मुझे भजते हैं उनको मैं उसी प्रकार भजता हूँ अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उनपर अनुग्रह करता हूँ। क्योंकि उन्हें मोक्ष की इच्छा नहीं होती ( भ्रममुक्त हो जाने की या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने की इच्छा नहीं होती)। एक ही पुरुषमें मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व (कामिनी-कांचन रूपी फलकी इच्छा करना ) यह दोनों (राम और काम / रवि -रजनी) एक साथ नहीं हो सकते। इसलिये जो फल की इच्छावाले हैं उन्हें फल देकर जो फलको न चाहते हुए शास्त्रोक्त प्रकार से कर्म करनेवाले और मुमुक्षु हैं उनको ज्ञान देकर जो ज्ञानी संन्यासी और मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष देकर तथा आर्तोंका दुःख दूर करके इस प्रकार जो जिस तरहसे मुझे भजते हैं उनको मैं भी वैसे ही भजता हूँ। श्रीदुर्गासप्तशती (१२/३६) में ऋषि भी कहते हैं - 
 एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः। 
 सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ॥
-हे राजन, वही माँ जगदम्बा जन्मादि से रहित होने पर भी बार-बार इसी तरह आविर्भूत होकर जगत का पालन करती हैं। 
इस प्रकार अति प्राचीन काल से ही इस देश में देवी के विविध विग्रह अथवा प्रतिक (महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती आदि) प्रचलित हैं, और पूजे जाते हैं। देवी की स्तुतियाँ भी अगणित हैं, देवी को हम विविध रूपों- श्रीकाली-चण्डी,लक्ष्मी, सरस्वती, शीतला, मनसा, दुर्गा इत्यादि विविध भावों में पाते हैं।  वे असुर-संहारिणी, धनदात्री, विद्यादात्री, निरामय-कर्त्री, आदि भावों में पूजित होती हैं। श्रीदुर्गासप्तशती में उन्हें समस्त- विद्यारूपिणी और समस्त-नारीरूपिणी कहा गया है। तुष्ट होकर वे मुक्ति प्रदान करती हैं, और रुष्ट होकर अधर्मियों के लिये दण्डविधान करती हैं। फिर रामप्रसाद, कमलाकान्त,श्रीरामकृष्ण आदि की भक्ति से मुग्ध होकर स्वर्ग की विभूतियाँ छोड़कर मरणशील मनुष्य की कुटी में पदार्पण करती हैं। शोक और दुःख में वे ही कन्या या जननी का वेश धारण कर सान्त्वना प्रदान करती हैं। 
स्वर्ग की देवी के साथ (तुरिया शक्ति के साथ) मनुष्यों ने इस प्रकार बहुत से नाते जोड़े हैं, तो भी देवी -'देवी'-(माँ भवतारिणी की मूर्ति) के रूप में रह गयी हैं। अब तक मनुष्यों की तरह 'विशुद्ध जननी ' के रूप में उसने शरीर ग्रहण नहीं किया था। श्रीमाँ के जीवन में हम देवी के इस तरह के अवतरण (विराट सर्वव्यापी मातृहृदय 'अहं' -बोध) को अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ देख पाते हैं। यहाँ पर देवी साक्षात् सचला, रक्त-मांस के शरीर से युक्त होकर भी श्रीरामकृष्ण की अराधिता देवी माँ भवतारिणी तथा उनकी गर्भधारिणी जननी से अभिन्ना जीवन्त ज्ञानदायिनी श्रीमाँ सारदा - सरस्वती के रूप में (सरस्वती पूजा के दिन,अपने वीर भक्तों- 'हीरो' लोगों को) दर्शन देती हैं। 
प्रश्न उठता है कि मनुष्यों ने देवी चण्डी को जीवन्त ज्ञानदायिनी श्रीमाँ सारदा - सरस्वती के रूप में,-देखना क्यों चाहा ? और माँ जगदम्बा (विराट सर्वव्यापी मातृहृदय 'अहं' -बोध) ने भी उनकी इस अभिलाषा को पूर्ण क्यों कर दिया ? क्योंकि देवी का आविर्भाव साक्षात् मातृरूप में न होने से आध्यात्मिक जगत में एक बहुत बड़ा अभाव बना ही रह जाता। 
क्योंकि सामान्य मनुष्य (मेरे समान अल्पबुद्धि-Bhउच्चतर सत्य (इन्द्रियातीत सत्य या निःस्वार्थ परम-प्रेम) का परिचय भी पूर्वज्ञात वस्तुओं (पंचेन्द्रीयग्राह्य वस्तुओं), भाषा और भावों के सहारे ही प्राप्त करना चाहता है। [पूज्य नवनी दा अपने ग्रन्थ 'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' के (31-जीवात्मा और धर्म) नामक निबंध में कहते हैं - " किसी नई वस्तु या विषय को समझने के लिए जब हम उसे, उसी प्रकार के किसी पूर्व-परिचित वस्तु (या विषय (Bh) के साथ तुलना करके समझने की चेष्टा करते हैं, तब उसे समझने में आसानी हो जाती है।"] 
माँ सन्तान को गर्भ में धारण करती है और प्रसव के पश्चात् गोद में उठाकर स्तनपान कराती है। ऑंखें खोलते ही शिशु माँ को स्नेह, पुष्टि, तुष्टि, सौन्दर्य, पालिका आदि सात्विक गुणों की एकमात्र खजाने (खदान या (मिल्क-टॉफी-mine) के रूप में पाता है। इसीलिये आत्मविकास की साधना के क्षेत्र में (५ अभ्यास के द्वारा अन्तर्निहित दिव्यता या सर्वव्यापी मातृहृदय का विराट 'अहं'-बोध की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में) साधक माँ जगदम्बा को उन्हीं गुणों की पराकाष्ठा की जीवन्त मूर्ति (पूज्य नवनीदा) के रूप में देखना चाहता है। श्रीरामकृष्ण ने कहा है -" मातृभाव साधना की अंतिम बात है। " 
कर्म का रहस्य निबंध में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन मैं ही जगत का एकमात्र प्रभु हूँ-फिर भी मैं कर्म क्यों करता हूँ ? -इसलिए कि मुझे संसार से प्रेम है। " ईश्वर (माँ जगदम्बा) अनासक्त है। क्यों ? इसलिए कि वह सच्चा प्रेमी है। उस सच्चे प्रेम से ही हम अनासक्त हो सकते हैं। जहाँ कहीं सांसारिक वस्तुओं (कामिनी -कांचन) के प्रति आसक्ति है, वहाँ जान लेना चाहिए कि वह केवल भौतिक आकर्षण है -केवल कुछ जड़ कणों का दूसरे कुछ जड़ कणों के प्रति आकर्षण हो रहा है-मानो कोई एक चीज (चुंबक ?) दो वस्तुओं को लगातार निकटतर खींचे ला रही है। और यदि वे दोनों वस्तुएं काफी निकट नहीं आ सकतीं, तो फिर कष्ट (मन मुटाव) उत्पन्न होता है। परन्तु जहाँ 'सच्चा' प्रेम है, वहाँ भौतिक आकर्षण बिलकुल नहीं रहता। ऐसे प्रेमी चाहे हजारों मील दुरी पर क्यों न रहें , उनका प्रेम सदैव वैसा ही रहता है; वह प्रेम कभी नष्ट नहीं होता, उससे कभी कोई क्लेशदायक प्रतिक्रिया नहीं होती। " ३/३४       
 " जगत में माँ का स्थान (मातृहृदय का 'अहं'-बोध) सबसे ऊँचा है, क्योंकि केवल इसी अवस्था में पहुँचकर मनुष्य (अवतार या पैगम्बर) परम् निःस्वार्थपरता का पाठ पढ़कर उसे कार्यरूप में परिणत कर सकता है।" [मातृपद ही संसार में सबसे श्रेष्ठ पद है, क्योंकि यही एक स्थिति है, जहाँ पूर्ण निःस्वार्थपर मनुष्य बनने की महत्तम शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। ३/४२ ] साधक चाहता है कि उसके इष्टदेव (या गुरुदेव रूपी माँ -नवनीदा) कृपालु होकर उसकी सारी दुर्बलताओं और अक्षमताओं को देखे बिना पूर्ण स्नेह से उसे अपनी गोद में उठा लें। वह ध्येय इष्टदेव की मूर्ति के मुख पर इस अहेतुक स्नेहपूर्ण मुस्कुराहट को देखकर अपने भविष्य के बारे में निश्चिन्त होना चाहता है। क्योंकि बचपन से वह अपनी माँ मुख पर इसी उच्च भाव को देखने का अभ्यस्त है। अतः साधना के क्षेत्र में भी वह इससे वंचित क्यों रहे ? 
अहेतुक-करुणामय गुरु शिष्य को उच्चतर-सत्य का परिचय और उपदेश देकर उसके मन में निम्नतर-सत्य (कामिनी-कांचन) के प्रति वैराग्य उत्पन्न करते हैं। और इष्टदेवी (माँ सारदा -सरस्वती) साधक के सम्मुख एक अत्यन्त प्रलोभक शाश्वत आदर्श रखते हुए उसे प्राप्त करने के लिए,साधक को निरन्तर अनुप्रेरित करती रहती है। कृपा-सुमुखि, सदा हास्यवदना माँ अपने प्रबल आकर्षण से सन्तान के हृदय को स्नेह से सींचकर, उसको एक अनिवर्चनीय परमानन्द के समुद्र में स्थित करा देती हैं। विशेषकर इस पवित्र भाव में मलिनता या स्वार्थपरता का लवलेश भी नहीं है। इस 'संयम की मूर्ति और प्रसन्नतामयी माँ' की कोई तुलना नहीं है। माँ के आँचल का सहारा ले उसकी गोद में निर्भयता से बैठ, साधक भवसागर को आसानी से पार कर सकता है।फिर इन्द्रिय-लोलुप संसार (कामिनी -कांचन) को ही सर्वस्व समझने वाले, देहात्मवादी मानव-समाज को उच्चर सत्य की अनुभूति के राज्य में उठा लेने के लिए, इस युग में माँ जगदम्बा का मातृरूप में अवतीर्ण होना अत्यन्त आवश्यक था। इन्हीं सब कारणों से इस अपूर्व 'जीवन्त मातृ-विग्रह' को भारत अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर आज धन्य हुआ है। 
श्रीमाँ के जीवन के इस रहस्य को श्रीरामकृष्ण जानते थे और श्रीमाँ से उसे कह भी गए थे। महासमाधि से पहले अपने असमाप्त (अधूरे) कार्य को ध्यान में रखकर ठाकुर ने जिस प्रकार नरेन्द्रनाथ को सम्पूर्ण जगत को शिक्षा देने का चपरास दिया था, उसी प्रकार श्रीमाँ सारदा देवी से भी कहा था -'हाँ गो, तुमि कि किछु करबे ना ? (निजेर शरीर देखिये) एई सब करबे ?' -'अच्छा, (अपने शरीर की ओर इंगित करते हुए) क्या सिर्फ यही करेगा, तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है ?  श्री माँ ने कहा "मैं तो स्त्री हूँ, मैं कैसे कर सकती हूँ ?" श्रीरामकृष्ण ने कहा,"आखिर इसने (अपने शरीर की ओर इंगित करते हुए) क्या किया है? तुम्हें इससे बहुत अधिक करना होगा।" और एक दिन श्रीरामकृष्णदेव ने श्रीमाँ से कहा था - " देखो, कलकत्ते के लोग मानो अँधरे में कीड़ों की कुलबुला रहे हैं। तुम उनको देखना।" श्री रामकृष्णदेव के निर्देशानुसार सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को  आत्मविकास की शिक्षा देने के लिए जिस प्रकार नरेन्द्रनाथ ने रामकृष्ण मिशन को जिस प्रकार 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च' और अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को -'BE AND MAKE' का आदर्शवाक्य दिया था; उसी प्रकार श्री माँ ने भी  श्री रामकृष्णदेव के निर्देशानुसार समस्त 'वुड बी लीडर्स' या मानवजाति के समस्त भावी मार्गदर्शक नेताओं (भावी लोक-शिक्षकों) को 'सत -असत सब की माँ' बनकर दूसरों को भी सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के विकास करने के लिए अनुप्रेरित करने वाली अपूर्व मातृ-लीला को करके दिखलाया था ! श्रीरामकृष्ण गया करते थे....  "किस से कहूँ उस दायित्व को, जिसने घेरा (बाध्य कर दिया ?) यहाँ आने पर, जिसका दर्द वही जाने, दूसरों को भला उसकी क्या खबर?"   
[भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने कहा है - " मातृभाव अति शुद्ध भाव है। तन्त्र में वामाचार की बात भी है, परन्तु वह ठीक नहीं, उससे पतन होता है। भोग की इच्छा रहने से ही पतन का भय है। मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है; किसी भोग की गंध नहीं है। दूसरी है फल-मूल खाकर एकादशी, और तीसरी, पूरी-मिठाई खाकर एकादशी। मेरी निर्जला एकादशी है, मैंने मातृभाव से षोड़सी पूजा की थी। देखा स्तन मातृस्तन हैं, योनि मातृयोनि है। यह मातृभाव साधना की अन्तिम बात है। 'तुम माँ हो, मैं तुम्हारा बालक हूँ।' यही अन्तिम बात है। संन्यासी की निर्जला एकादशी है; यदि सन्यासी भोग रखता है; तभी भय है। संन्यासी का स्त्रीभक्त के साथ बैठना या वार्तालाप करना भी ठीक नहीं है। संसारियों की अलग बात है। वे दो-एक पुत्र होने पर भाई-बहन की तरह रहें। उनके लिए अन्य सात प्रकार के रमण में उतना दोष नहीं है।" २५/फरवरी/१८८५/ पेज ८२८/ 
"जो कहता है 'मेरा नहीं होगा' उसका नहीं होता। मुक्त-अभिमानी मुक्त ही हो जाता है और बद्ध-अभिमानी बद्ध ही रह जाता है। जो मन-प्राण लगाकर जोर से कहता है -'मैं मुक्त हूँ', वह मुक्त ही हो जाता है ! पर जो दिनरात कहता है 'मैं बद्ध हूँ ' वह बद्ध ही हो जाता है। "पेज/८३४/  फिर गृहस्थ के लिए क्या उपाय है ? श्रीठाकुरदेव, " गुरुवाक्य में विश्वास। उनकी वाणी का सहारा लेकर, उनके महावाक्य का खम्भा पकड़कर घूमो,गृहस्थी का काम करो। गुरु जो नाम दें, विश्वास करके उस नाम को लेकर साधन-भजन करना चाहिये। जिस सीप में मुक्ता तैयार होता है, वह सीप स्वाति नक्षत्र का जल लेने के लिए प्रस्तुत रहती है। उसमें वह जल गिर जाने पर फिर एकदम अथाह जल में डूब जाती है, और वहीं चुपचाप पड़ी रहती है। तभी मोती बनता है। "पेज- ११९१/              
মাতৃভাব অতি শুদ্ধভাব।“মাতৃভাব যেন নির্জলা একাদশী;কোন ভোগের গন্ধ নাই। আর আছে ফলমূল খেয়ে একাদশী; আর লুচি ছক্কা খেয়ে একাদশী। আমার নির্জলা একাদশী; আমি মাতৃভাবে ষোড়শীর পূজা করেছিলাম। দেখলাম স্তন মাতৃস্তন, যোনি মাতৃযোনি।“এই মাতৃভাব -- সাধনের শেষ কথা -- ‘তুমি মা, আমি তোমার ছেলে’। এই শেষ কথা।” “সন্ন্যাসীর নির্জলা একাদশী; সন্ন্যাসী যদি ভোগ রাখে, তা হলেই ভয়। “সংসারীদের আলাদা কথা; দু-একটি ছেলে হলে ভাই-ভগ্নীর মতো থাকবে; তাদের অন্য সাতরকম রমণে দোষ নাই।“যে বলে আমার হবে না, তার হয় না। মুক্ত-অভিমানী মুক্তই হয়, আর বদ্ধ-অভিমানী বদ্ধই হয়। যে জোর করে বলে আমি মুক্ত হয়েছি, সে মুক্তই হয়। যে রাতদিন ‘আমি বদ্ধ’ ‘আমি বদ্ধ’ বলে, সে বদ্ধই হয়ে যায়।” “গুরু যে নামটি দেবেন বিশ্বাস করে সে নামটি লয়ে সাধন-ভজন করতে হয়।”“যে শামুকের ভেতর মুক্তা তয়ের হয়, এমনি আছে, সেই শামুক স্বাতী-নক্ষত্রের বৃষ্টির জলের জন্য প্রস্তুত হয়ে থাকে। সেই জল পড়লে একেবারে অতল জলে ডুবে চলে যায়, যতদিন না মুক্তা হয়।”“ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ। তাঁকে মা বলে ডাকলে শীঘ্র ভক্তি হয়, ভালবাসা হয়।] 
यीशु और निकुदेमुस संवाद : नीकुदेमुस एक फरीसी था और उसके पास धर्म बहुत था। लेकिन उसके पास कोई आत्मिक जीवन नहीं था। उससे यीशु ने (यूहन्ना 3: 3) में कहा था - " Thou Shalt be born again " यदि इस कथन के केवल शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो उसे नए सीरे से जन्म लेने के लिए उसे अपनी माँ के गर्भ में पुनः जाना होगा।“कोई आदमी बूढ़ा हो जाने के बाद फिर जन्म कैसे ले सकता है? निश्चय ही वह अपनी माँ की कोख में प्रवेश करके दुबारा तो जन्म ले नहीं सकता!”(जिस शब्द का अनुवाद यहाँ 'नए सिरे से  जन्म' के रूप में किया जा रहा है वह ग्रीक शब्द है - एनोथेन।) 
नीकुदेमुिस से यीशु यह कह रहा है कि एक व्यक्ति को न केवल मनुष्य योनि में शारीरिक जन्म लेने की आवश्यकता है, बल्कि  आध्यात्मिक जन्म या आत्मिक जन्म लेने की भी आवश्यकता है। नया जन्म में जो होता है, वो मात्र यीशु में अलौकिकता का समर्थन नहीं है, अपितु, अपने स्वयँ के अन्दर अलौकिकता का अनुभव है। दूसरे शब्दों में वह आत्मिक सत्यता के आगे अन्धा है और इन्हें समझ नहीं सकता है। 
‘‘मैं तुझ से सच सच कहता हूँ,यदि कोई नए सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता। (यहुन्ना 3:3) यदि कोई नये सिरे से न जन्मे (सही अनुवाद: नया जन्म न ले) तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता।’’और लोग यीशु (या स्वामी विवेकानन्द) के उपदेश को सुनकर चकित हो जाते थे, क्योंकि वे  शास्त्र-पंडितों की तरह नहीं, बल्कि एक अधिकारी व्यक्ति (गुरु-शिष्य परम्परा में माँ जगदम्बा  से चपरास प्राप्त श्रीरामकृष्ण और रामकृष्ण से चपरास प्राप्त नरेन्द्रनाथ) की तरह उपदेश देते थे।'(मरकुस 1:22) (ठाकुर कहते थे - 'मन के मोड़ को घुमा देना' यीशु कहते थे -'मन का फिराव' -(लूका 13:3-5 "मन फिराव" शब्द का बाइबिल में ७५ बार प्रयोग किया गया है, जो इस बात को दर्शाता है कि यह एक कितना महत्वपूर्ण विषय है।) गुरु से दीक्षा या बपतिस्मा लेने के बाद व्यक्ति अपने मन को फेर लेता है, अर्थात अपने पुराने जीवन के प्रति मृत हो जाता है।     
क्योंकि वे अपने अनुभव से जानते थे कि रक्तमांस का शरीर लेकर जो जीवात्मा जन्म लेता है, वह माया (नाम-रूप का देहाध्यास) के द्वारा हिप्नोटाइज्ड या सम्मोहित होकर स्वयं को केवल मरणधर्मा शरीर मात्र समझने लगता है। और बद्ध जीव ही बना रहता है। जब वेदान्त के चार महावाक्य या गुरुवाक्य (स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों) द्वारा ब्रह्म का अर्थ और नाम को सुनकर,मनन और निदिध्यासन करने से, उसी मनुष्य का जब जीतेजी पुनर्जन्म, या आध्यात्मिक जन्म प्राप्त हो जाता है -तब उस व्यक्ति का मनुष्य-शरीर में जन्म लेना सार्थक हो जाता है।   
प्रत्येक मानव, एक जीवित शरीर है। किन्तु प्रत्येक मानव, एक जीवित आत्मा (=जीवन्त हृदय) नहीं है। एक जीवित आत्मा बनने के लिए या एक आत्मिक जीवन पाने के लिए, यीशु कहते हैं कि हमें ‘‘आत्मा से जन्मा’’ होना अवश्य है। शरीर एक प्रकार का जीवन उत्पन्न करता है। ‘आत्मा’ एक अन्य प्रकार का जीवन उत्पन्न करता है। जब हम कहते हैं कि एक नया आत्मा, या एक नया हृदय हमें दिया गया है, हमारा ये अर्थ नहीं कि हम मानव रहना समाप्त कर देते हैं-पत्थर के हृदय का अर्थ है मृत हृदय जो आत्मिक वास्तविकता के प्रति संवेदनहीन और प्रतिक्रियाहीन था। यदि हमारे पास ये दूसरे प्रकार का जीवन नहीं है, हम परमेश्वर का राज्य नहीं देख पायेंगे। ‘‘मैं तुम को नया मन दूँगा, और तुम्हारे भीतर नई आत्मा उत्पन्न करूँगा; और तुम्हारी देह में से पत्थर का हृदय निकालकर तुम को मांस का हृदय दूंगा। और मैं अपना ‘आत्मा’ तुम्हारे भीतर देकर ऐसा करूंगा कि तुम मेरी विधियों पर चलोगे और मेरे नियमों को मानकर उनके अनुसार करोगे।’’
[तुम्हें नए सिरे से जन्म लेने की आवश्यकता है ! यहुन्ना 3:1-12/http://groupbiblestudy.com/]
बाइबिल हमें शिक्षा देती है कि मनुष्य के अस्तित्व के तीन अवयव (3H)  हैं, मतलब वह शरीर,मन और आत्मा से बना है।  (१ थिस्सलुनीकियों 5:23)। " Sell that thou hast, and give it to the poor and follow me," यदि गृहस्थ हो तो 'कामिनी-कांचन' में आसक्ति को त्याग कर 'चरित्रनिर्माणकारी' -BE AND MAKE '-आंदोलन से जुड़ जाओ। यदि 'निर्जला एकादशी की रखने के पात्रता है'- संन्यासी बनने की पात्रता है, तो जिस 'राज्य और खजाने' को तुम अपना समझते थे, उसको बेचकर गरीब दुःखियों में दान कर दो। और मात्र एक कम्बल का सम्बल लेकर मेरा (मनुष्य जाति के मार्गदर्शक नेता -नवनीदा का) अनुसरण करो, तभी तुमलोगों को भी मानवमात्र में ईश्वर (माँ जगदम्बा) का दर्शन होगा। अर्थात तुम्हारा शुष्क हृदय मातृहृदय में रूपान्तरित हो जायेगा। असीम त्याग और वैराग्य लेकर ही श्रीरामकृष्ण का भक्त/दास/ नेता बना जा सकता है।                    
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" यह जगत सुख और दुःख में एक समान माँ जगदम्बा की लीला है। पर हम इस सच्चाई को अक्सर इस भूल जाते हैं। जब स्वार्थ नहीं रहता, जब हम स्वयं अपने जीवन के साक्षी बन जाते हैं, तब दुःख का भी आनन्द लिया जा सकता है।....  इस अशुभ (मृत्यु) की अध्यक्षता कौन करता है ?.... यदि यह शक्ति (माँ जगदम्बा ) हमारे जीवन का कारण है, तो वह हमारी मृत्यु का भी कारण है। ईश्वर के पितृत्व का पुरातन विचार सुख की अध्यक्षता करने वाले ईश्वर की मधुर कल्पना से सम्बद्ध है। सूर्य भले और बुरे, दोनों पर चमकता है। वह दीपक, जिसकी ज्योति में कोई व्यक्ति जाली हस्ताक्षर बनाता है और दूसरा अकाल-निवारण (या महामण्डल के बिल्डिंग फंड) के लिये हजार डॉलर का चेक लिखता है, दोनों पर प्रकाश डालता है, वह उसमें भेद नहीं करता। प्रकाश अशुभ को नहीं जानता। इस विचार के लिए एक नाम चाहिए। इसे माँ कहते हैं। जिसे देवी का पद दिया गया। सांख्य दर्शन माँ जगदम्बा की परिकल्पना के बाद आया, उसके अनुसार सभी शक्तियाँ स्त्री हैं। चुम्बक निश्चेष्ट है और लोहे के कण दौड़ रहे हैं। यह माँ जगदम्बा है, जिसकी छाया जीवन और मृत्यु है।  हम माँ जगदम्बा के लीलासखा हैं। एक मच्छर एक बैल के सींग पर बैठा था ; ... आपको कष्ट हो रहा होगा ....मैं चला जाऊँ ? बैल ने उत्तर दिया - "अरे बिल्कुल नहीं,पूरे परिवार के साथ मेरे सींग पर बैठो।  वीर होने का अर्थ है माँ काली में विश्वास रखना। "  " मातृ-पूजा३ /२०५-२०९/२१०]    
बाइबिल में एक स्थान पर पहले कहा गया  -'आवर फादर/(मदर?) हू आर्ट इन हेवेन' यह ऐसे ईश्वर (माँ जगदम्बा) की कल्पना है, जो अपने बच्चों को छोड़कर वैकुण्ठ में रहता/रहती है ! आगे चलकर यह उपदेश मिलता है कि ईश्वर कण-कण में विद्यमान है। इसके बाद हम 'नन-डूअलिस्टिक-स्टेट' अद्वैतावस्था की कल्पना करते हैं,यहाँ पहुँचकर भक्त यह अनुभव करता है कि  - 'आई ऐंड माई फादर/(मदर?) आर वन।' वह अपनी अन्तरात्मा में यह अनुभव करता है कि वह स्वयं ईश्वर (माँ जगदम्बा ?) है , किन्तु अभी वह ईश्वर की निम्नतर अभिव्यक्ति है।(किन्तु पूर्ण मातृहृदय के अभिव्यक्त होने पर स्वयं भी माँ जगदम्बा/या अवतार में रूपांतरित हो सकता है!२/२३३)     
" इस शताब्दी के प्रारम्भ में .....वैज्ञानिक अनुसन्धानों के हथौड़ों के प्रबल प्रहारों से पुराने अन्धविश्वास चीनी मिट्टी के ढेरों की तरह चकनाचूर हो रहे थे। .... कुछ समय के लिये तो ऐसा लगा कि अज्ञेयवाद और भौतिकवाद के उमड़ते ज्वार में सब कुछ विलीन हो जायेगा। किन्तु समय ने पलटा खाया और इसके उद्धार के लिये आया -क्या ? तुलनात्मक धर्माध्ययन 'The study of comparative religions.'  By the study of different religions we find that in essence they are one.(भगवान श्रीरामकृष्ण का अवतार ही तुलनात्मक धर्माध्ययन के लिए हुआ था।) " जब मैं तरुण था, तो इस संशयवाद (scepticism/स्केप्टिसिज़म या माँ काली पर अविश्वास) से मेरा परिचय हुआ और कुछ समय के लिए ऐसा लगा, जैसे धर्म संबन्धी सभी आशाओं को मैं छोड़ ही दूँ। किन्तु सौभाग्य से मैंने ईसाई, इस्लाम, बौद्ध तथा अन्य धर्मों का (वैष्णव-शैव -शाक्त आदि सम्प्रदायों का ?) अध्यन किया। और यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि जो मौलिक सिद्धान्त हमारे सनातन -धर्म में सिखाये जाते हैं; वे ही अन्य धर्मों में भी हैं।" आत्मा ,ईश्वर और धर्म'२/२२७ / 
पाश्चात्य शिक्षा में पले-बढ़े होने के कारण पहले तरुण नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) भी  माँ काली पर विश्वास नहीं करते थे। उन दिनों मूर्तिपूजा-विरोधी पाश्चत्य शिक्षा से प्रभावित पढ़ेलिखे अधिकांश युवा या तो 'आर्यसमाज' के सदस्य बन जाते थे या 'ब्रह्मसमाज' के। वे भी ब्रह्मसमाज के सदस्य थे, इसलिये घोर निराकारवादी थे और ईश्वर के साकार रूप में उनकी थोड़ी भी निष्ठा नहीं थी। सर्वव्यापी निर्गुण निराकार ईश्वर मनुष्य के रूप अवतरित हैं, या असीम अनन्त ईश्वर ही ससीम साकार रूप धारण कर सकते हैं- इस बात को लेकर वे अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव से तर्क-वितर्क भी किया करते थे, जिसको सुनकर ठाकुरदेव हँसा करते थे। (आज भी डी.ए. वि. स्कूल में सरस्वती-पूजा नहीं होती है - किन्तु स्वामी 
दयानन्द सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण करना उचित माना जाता है ?
नरेन्द्रनाथ की बी.ए. की परीक्षा समाप्त होने के बाद एक दिन उनके पिता हृदयरोग से  एकाएक परलोक सिधार गए। घर में खाद्य द्रव्य की कमी हो गयी। अधिकांश दिन आधापेट खाकर या उपवास करके दिन बिताना पड़ता था। एक दिन ठाकुरदेव के पास आकर उन्होंने प्रार्थना किया - " महाराज, मेरी माँ और भाईबहनों को दो समय खाने को मिल सके, इसके लिए आप अपनी माँ (काली माता) से कुछ अनुरोध कर दीजिये।"  
स्नेह के साथ श्रीरामकृष्णदेव ने कहा - 'अरे, मैंने तो कितनी ही बार कहा है, माँ नरेन्द्र का दुःख-कष्ट दूर कर दो। लेकिन तू तो माँ को मानता ही नहीं है, इसलिए माँ नहीं सुनतीं। अच्छा, आज मंगलवार है, मैं कहता हूँ, आज रात को कालीमंदिर में जाकर माँ को प्रणाम करके तू जो कुछ माँगेगा, वही माँ तुझे देंगी। मेरी माँ चिन्मयी ब्रह्मशक्ति हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से इस संसार का प्रसव किया है। वे जगतजननी हैं, वे चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं ? " 
नरेन्द्रनाथ प्रबल उत्कण्ठा से रात्रि की प्रतीक्षा करने लगे। रात आयी। एक पहर बीत जाने के बाद मन्दिर में उपस्थित होकर देखा, यथार्थ में ही माँ चिन्मयी हैं,प्रतिमा यथार्थ में जीवन्त हैं, और अनन्त प्रेम तथा सौन्दर्य की आधाररूपिणी हैं। भक्ति और प्रेम से उनका हृदय उछलने लगा। माँ के चरणकमलों में बारम्बार प्रणाम करते हुए प्रार्थना किये -" माँ, मुझे विवेक दो, वैराग्य दो, ज्ञान दो, भक्ति दो; जिससे मैं तुम्हारा अबाध दर्शन नित्य प्राप्त कर सकूँ -वैसा कर दो। "  माँ से सांसारिक सुख नहीं माँग सके। आर्थिक उन्नति नहीं माँग सके, जगतजननी से पारमार्थिक उन्नति का ही वरदान माँग बैठे। 
ठाकुर के पास लौटकर आते ही उन्होंने पूछा, 'क्यों रे, गृहस्थी का अभाव दूर करने के लिये माँ से रूपये -पैसे तो माँग लिये हैं न ? ' उनके प्रश्न को सुनकर नरेन्द्र चौंक पड़े और कहा -" नहीं महाराज, मैं तो भूल गया था, अब क्या करूँ ?' ठाकुर ने कहा -'जा जा, फिर जाकर प्रार्थना कर आ।' नरेन्द्र पुनः मन्दिर की ओर चले, किन्तु माँ के सामने उपस्थित होकर पुनः मुग्ध हो गए और सबकुछ भूलकर बारम्बार प्रणाम करते हुए ज्ञान और भक्ति लाभ के लिये प्रार्थना करके लौट आये। 
हँसते हुए ठाकुर ने पूछा, 'क्यों रे, अबकी बार तो कह आया न ? ' नरेन्द्रनाथ फिर चौंक पड़े - 'नहीं महाराज, माँ को देखते ही एक दैवी शक्ति के प्रभाव से सब बातें भूलकर केवल ज्ञान-भक्ति लाभ की बात ही कही है। अब क्या होगा ?' ठाकुर ने कहा, 'यह क्या रे , अपने को सँभालकर वैसी प्रार्थना क्यों नहीं कर सका ? जाओ जाकर माँ से कहो, माँ मुझे रूपये-पैसे दो मेरे परिवार के दुःख-कष्टों को दूर कर दो। जल्दी जाओ।' नरेन्द्रनाथ फिर चल पड़े किन्तु मंदिर में प्रवेश करते ही लज्जा ने हृदय को व्याप्त कर लिया। वे सोचने लगे, यह कैसी तुच्छ बात मैं जगतजननी को कहने आया ! ठाकुर कहते हैं राजराजेश्वरी माँ जगदम्बा की प्रसन्नता प्राप्त करके भी यदि कोई उनसे कद्-दू -कोंहड़ा माँगने लगे -यह भी वैसी ही मूर्खता की बात है। मेरी भी ऐसी ही हीन बुद्धि हुई है। लज्जा से माँ जगदम्बा के चरणों में प्रणाम करते हुए नरेन्द्रनाथ ने पुनः कहा, ' मैं और कुछ नहीं माँगता माँ, केवल ज्ञान और भक्ति दो।  
इस प्रकार तीन-बार पुनः पुनः माँ से माँगने में असफल होने के बाद जब  लौटकर ठाकुर के पास पहुँचे तब उनका रूपान्तरण घटित हो चुका था। माँ जगदम्बा में विश्वास, या वेदान्त के चार महावाक्यों में विश्वास, या श्रद्धा-अर्थात आस्तिक्य-बुद्धि, अथवा धर्म- वह वस्तु है जिसका पालन करने से पशु मनुष्य में और मनुष्य देवता में रूपान्तरित हो जाता है। पहले वाला तार्किक नरेन्द्रनाथ (अहंयुक्त संशयी नरेन्) भी माँ काली का भक्त अथवा वीर या 'हीरो' नरेन्द्रनाथ में रूपान्तरित हो गया था। अश्रुपूरित नेत्रों से उन्होंने ठाकुर से प्रार्थना किया ' आप मुझे माँ का एक गाना सिखा दीजिये। ' ठाकुर ने नरेन्द्रनाथ को (আমার মা ত্বং হি তারা .....) शीर्षक श्यामा संगीत सिखा दिया .....  
'आमार माँ त्वं हि तारा। तुमि त्रिगुणधरा परात्परा। 
तोरे जानी माँ ओ दीनदयामयी, तुमि दुर्गमेते दुःखहरा।।'  
फिर उन्मत्त की तरह नरेन्द्रनाथ रात भर मधुर कण्ठ से श्यामासांगित का गायन करते रहे थे,इसलिये दूसरे दिन दोपहर होने तक उनको बरामदे में सोते हुए देखकर किसी आगंतुक ने ठाकुर से पूछा कि वहाँ कौन सो रहा है ? तब ठाकुर बालक के समान हँसते हुए कहा- " वो नरेन्द्रनाथ है, बहुत अच्छा लड़का है पहले माँ काली पर विश्वास नहीं करता था, किन्तु अब नरेन्द्र ने माँ को मान लिया; बहुत अच्छा हुआ -क्यों ?'नरेन्द्र काली मेनेछे, वेश हयेछे ना ?' निद्रा भंग होने के बाद लगभग दिन के चार बजे  नरेन्द्र कमरे में आकर ठाकुर के पास बैठ गए। 
परन्तु उन्हें देखते ही ठाकुर एकदम भावाविष्ट हो गए और उनसे सटकर -प्रायः उनकी गोद में बैठकर कहने लगे ( अपना शरीर और नरेन्द्र का शरीर क्रमशः दिखलाकर) --सच कहता हूँ कुछ भी भेद नहीं देख पा रहा हूँ। " ठकुरेर नरेन ओ नरेनेर ठाकुर" -अर्थात देखता हूँ कि यह मैं हूँ फिर वह भी मैं हूँ।  जैसे गंगा के जल में एक लाठी का आधा भाग डुबा देने से दो भाग दिखाई पड़ते हैं। -पर यथार्थ में दो भाग नहीं हैं, एक ही है। समझा ? माँ के सिवाय दूसरा और कुछ है ही क्या -क्यों ? इसी प्रकार बात करते हुए एकाएक बोल उठे, 'तम्बाकू पिऊँगा। ' जब चिलम में तम्बाकू सुलगाकर उनका हुक्का उनके हाथ में दिया गया, तो दो-एक कश खींचकर उन्होंने हुक्का लौटाते हुए कहा - 'चिलम में पियूँगा।' इतना कहकर चिलम हाथ में लेकर कश लगाने लगे। 
दो-चार बार खींचकर चिलम को नरेन्द्रनाथ के मुख के पास ले जाकर कहा ," खा, आमार हातेई खा" -अर्थात 'पी' मेरे हाथ से ही पी ले।' नरेन्द्र इस बात से बहुत संकोच में पड़ गये। यह देखकर उन्होंने पुनः कहा -'तेरी बुद्धि तो बड़ी छोटी है, क्या तू और मैं भिन्न हैं ? यह भी मैं हूँ, वह भी मैं हूँ' -इतना कहकर नरेन्द्रनाथ को तम्बाकू पिलाने के लिये फिर से अपना हाथ उनके मुख के पास ले गए। गुरुभक्त नरेन्द्रनाथ बड़े संकुचित हुए, किन्तु लाचार होकर उन्होंने ठाकुर के हाथ में मुख लगाकर दो-तीन कश खींचकर मुख हटा लिया। ठाकुर उन्हें मुख हटाते देखकर पुनः स्वयं तम्बाकू पीने लगे। नरेन्द्र व्यस्त होकर तुरन्त ही बोल उठे , 'महाराज, हाथ धोकर तम्बाकू पीजिये। ' परन्तु वह बात सुनता कौन है ? बोले तुझ में तो भारी भेदबुद्धि है- " धत मूर्ख तोर तो भारी हीनबुद्धि -तुई आमि कि आलादा ? एटाओ आमि, ओटाओ आमी। "-  इतना कहकर ठाकुर उस जूठे हाथ से ही तम्बाकू पीने और भावावेश में बातें करने लगे। जो ठाकुर खाद्यवस्तु में से यदि कुछ अंश पहले ही किसी को दे दिया जाय, तो बाकी अंश को जूठा समझकर खा नहीं सकते थे, उन्हीं ठाकुर को नरेन्द्र के प्रति आज इस प्रकार का व्यवहार करते देखकर लोग आश्चर्यचकित होकर यह सोचने लगे कि नरेन्द्रनाथ को ये कहाँ तक अपना समझते हैं। 
प्रेम की मूर्ति माँ काली पर विश्वास कर लेने के बाद संशयी नरेन्द्रनाथ धार्मिक (आस्तिक, भक्त, वीर या हीरो) नरेन्द्रनाथ में रूपांतरित हो गए थे, और कहा था, "अकेले ठाकुर ही ऐसे व्यक्ति हैं, जो उस प्रथम दिन के भेंट ('त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि' -कहने के बाद से ?) से लेकर हर समय समान भाव से मेरे ऊपर विश्वास करते आये हैं, अन्य कोई नहीं -अपने माँ-भाई भी नहीं। उनके इस प्रकार विश्वास ने ही मुझे जन्मभर के लिए बांध लिया है। केवल वे ही प्यार करना जानते हैं और कर सकते हैं-संसार के दूसरे लोग केवल अपने स्वार्थसाधन के लिए ही प्यार का बहाना मात्र करते हैं।" 
[" वे " अर्थात घनीभूत प्रेम माँ काली के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ही सब कुछ बने हैं। इसीलिए उन्होंने विवेकानन्द को ' परिव्राजक या चलायमान' बनाकर, या अपना यंत्र बनाकर अपने प्रेम को ही गाँवों में, कुटियों में, शहरों में, नगरों में जनपद से होते हुए दिग्दिगंत में प्रसृत कर दिया है ! इसीलिए उन्होंने 'विवेकानन्द के सब कुछ हो उठने के' बीच में ही उनको ध्यान के आसन से बलपूर्वक खींचकर जनारण्य में भेज दिया था। वास्तव में विवेकानन्द  'घनीभूत प्रेमस्वरुप अवतरवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव' के केवल शिष्य नहीं हैं, बल्कि वे एक नए रूप में उनकी ही आत्म-अभिव्यक्ति (self-expression) हैं, या नए रूप में उनका ही आत्मोद्‍घाटन (self-revelation) हैं। विवेकानन्द के सत्य-स्वरुप के इस रहस्य को जान लेने के बाद ही गिरीश बाबू ने कहा था- " जो व्यक्ति विवेकानन्द को रामकृष्ण से अलग समझते हैं -वे अज्ञानी (ignorant) हैं। विवेकानन्द यदि रामकृष्ण से सचमुच भिन्न होते, तब तो उनके लिए पहाड़ की गुफाओं में ध्यान लीन रहना सम्भव हो सकता था। किन्तु वे रामकृष्ण से भिन्न नहीं थे, इसीलिए उनको परिव्राजक बनना पड़ा।] 
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माँ काली के अवतार भगवान श्रीरामकृष्णदेव और नरेन्द्रनाथ लीला के इस मनमोहक नाटकीय प्रसंग को पढ़ने के बाद, सभी पाठकों के मन में यह जानने की इच्छा तीव्र हो जाती है कि माँ जगदम्बा ने अपने स्वरुप के इस गूढ़ रहस्य को श्रीचण्डी या श्रीदुर्गासप्तशती के किस चरित्र में उद्घाटित किया है ? इस भूमिका को पढ़ लेने के बाद हमलोग जब स्वामी चेतनानन्द जी द्वारा लिखित निबन्ध का शेष अनुवाद को पढ़ेंगे तभी उसका तात्पर्य स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे। इसी जिज्ञासा को शान्त करने के लिये यहाँ पहले श्रीदुर्गासप्तशती या देवीमाहात्म्यम् में वर्णित माँ भगवती के चरित्र-कथाओं का सारांश दिया जा रहा है। 
देवीमाहात्म्यम् मार्कण्डेय पुराण का अंश है। इसमें कुल १३ अध्यायों में  ७०० श्लोक होने के कारण इसे 'श्रीदुर्गासप्तशती' भी कहते हैं। इस ग्रन्थ में सृष्टि के युगपरिवर्तन की प्रतीकात्मक व्याख्या की गई है। दुर्गा सप्तशती में देवी की तीनों चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध और उनकी समस्त सेना के सहित शुम्भ निशुम्भ का वध - की कथाओं का पाठ किया जाता है। 

सुरथ नाम के एक राजा का राज्य छिन जाने और जान पर संकट आ जाने पर भाग कर जंगल चला जाता है! ज्ञानी राजा को अपनी परिस्थति का सही ज्ञान है। वह निश्चित रूप से समझता है कि उसे पुनः अपना राज्य अथवा कोई सम्पति वापस नहीं मिलने वाली है! किन्तु फिर भी उसका मोह समाप्त नहीं होता, उसे बार-बार उन्ही वस्तुओं, अपने स्वजनों और खजाने अदि की चिंता सताती रहती है। राजा जिसे निरर्थक समझता है और मुक्त रहना चाहता है, उसके विपरीत उसका मन उसके ज्ञान की अवहेलना कर बरबस उन्ही बस्तुओ की ओर क्यों खीचा चला जा रहा है ? ज्ञानी राजा सुरथ अपनी असाधारण शंका को लेकर परम ज्ञानी मेघा ऋषि के पास जाते है। ऋषि उन्हें बताते है की वह विशेष शक्ति भगवान की क्रियाशील शक्ति से परे महामाया (अव्यक्त शक्ति) हैं, जो सारे संसार को जोड़ती है, पूरी सृष्टि को संचालित, संघृत और नियंत्रित करती है। सारे जीव-जन्तु उसी की प्रेरणा से कार्य करते हैं । वास्तव में सगुण और निर्गुण का जो भेद है वह केवल ब्रह्म-शक्ति की महिमा के ही लिये है। परब्रह्म को सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा अभिव्यक्त किया  जाता है। जब तक महाशक्ति (महामाया) स्वरूप के अंक में छिपी रहती है तब तक सत् चित् और आनन्द का अद्वैत रूप से एक रूप में अनुभव होता है। जिस प्रकार 'कारण-ब्रह्म' में तीन भाव हैं उसी प्रकार 'कार्य-ब्रह्म' भी त्रिभावात्मक है।  इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है। 
श्रीदुर्गासप्तशती में भी तीन चरित्र हैं, प्रथम चरित्र (प्रथम अध्याय), मध्यम चरित्र (२-४अध्याय) और उत्तम चरित्र (५-१३ अध्याय)।  ये तीनो चरित्र सृष्टि में युगपरिवर्तन के अलग अलग काल खण्डों का वर्णन करते है; जिसमे आद्य शक्ति माँ दुर्गा रूप में अवतरित हुई और तमोगुणी बुरी शक्तियों का नाश किया और आगे  भी जब जब धर्म की हानि होगी स्वयं अवतरित होने का वचन दिया है। पहली अवस्था में मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस-जो तमोगुण और रजोगुण के प्रतीक हैं, और सृष्टि के रचयिता ब्रम्हा जी को मार डालाना चाहते थे। सृष्टि के प्रथम युगपरिवर्तन (कलियुग में) में तमोगुण और रजोगुण का प्राधान्य रहता है तथा संतुलन-शक्ति (Satogun) सतोगुण गौण रहता है। यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है।  प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवी महाकाली हैं। क्योंकि तमोमय अवस्था में में क्रिया नही  होती। इसलिए पहली अवस्था में यही (काल की) महाकाली शक्ति के रूप में महामाया सृष्टि को गति देती है।
प्रथम चरित्र में ब्रह्मा जी ने महामाया से रक्षा की गुहार की। महामाया की प्रेरणा से विष्णु योग्निन्द्रा त्याग कर आए और राक्षसों को मार डाला। वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई। प्रथम चरित्र में महामाया स्वयं युद्ध नहीं करतीं बल्कि भगवान् विष्णु को योग निद्रा से जगा कर मधु-कैटभ को मारने को प्रेरित कर इस हेतु योग्य बनाती हैं।और ब्रह्मा की सृष्टि-रचना का कार्य फिर से आगे बढ़ जाता है। जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है। जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस (विषयरस)। नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से साधक को तमोगुण में पहुँचा देता है। यही नाद मधु है। समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है। जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्प समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यही नादरस है कैटभ। क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है।
मध्यम चरित्र की देवी महालक्ष्मी और उत्तम चरित्र की देवी महासरस्वती है। महाकाली की स्त‍ुति मात्र एक अध्याय में, महालक्ष्मी की स्तुति तीन अध्यायों में और महासरस्वती की स्तुति नौ अध्यायों में वर्णित है, जो सरस्वती की वरिष्ठता, काली (शक्ति) और लक्ष्मी (धन) से अधिक सिद्ध करती है। परिवर्तन की निरंतरता में काल के किसी विशेष बिन्दु पर सृष्टि का एक स्वरूप और केवल एक वही स्वरूप बनता है। उसका संघारण और संपोषण वह महालक्ष्मी के रूप में करती है। मध्यम चरित्र और उत्तर चरित्र में देवी भगवती स्वयं सैन्य-संघर्ष में उलझी हैं। जब वे महालक्ष्मी हैं तो सिर्फ एक रूप में हैं, लेकिन जब वे महासरस्वती हैं तो कई रूपों में युद्ध कर लेती हैं। वे स्त्रियों की ही एक सेना ही तैयार कर लेती हैं। सृष्टि की तीसरी अवस्था विकास की अग्रिम अवस्था है, जब चेतना का बहुआयामी विकास होता है। इस अवस्था का संचालन और नियंन्त्रण वे महासरस्वती के रूप में करती है। 
श्रीदुर्गासप्तशती के मध्यम चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है। इस चरित्र में महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया।  तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी।तमोगुण को परास्त करने के लिये इस चरित्र में  शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज (पवित्रता) ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है। यहाँ हम पाते हैं कि महिषासुर मर्दिनी का रूप सभी देवताओं के अलग-अलग तत्वों से आकार लेता है। शंकर का तेज मुख के प्राकट्य में काम आता है। यमराज के तेज से केश मिलते हैं। ‘बाहवो विष्णुतेजसा’ - श्री विष्णु भगवान के तेज से उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं। चन्द्रमा, इन्द्र, वरुण, पृथ्वी, ब्रह्मा, सूर्य, वसु, प्रजापति, कुबेर, प्रजापति, अग्नि, संध्या, वायु सभी ने,समस्त देवताओं ने अपना अलग-अलग योगदान किया भेंट किये, साथ ही हिमवान ने अपना सिंह सवारी के लिये भेंट कर दिया। जिससे देवी ‘संभव’ हुई। “समस्त देवानां तेजोराशि समुद्भवा” दुर्गा और भी अधिक शक्तिशाली हो गई थीं। इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं। यह इस बात का भी प्रतीक है की जब सज्जन या चरित्रवान मनुष्य का समूह संगठित होकर एक ही उद्देश्य (भारत का कल्याण) को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है, तब पराशक्ति जन्म लेती है। पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है। तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूप-धारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया। दुर्गासप्तशती  का विशेष संदेश यह है कि विकास-विरोधी, देश-द्रोही, दुष्ट, आतंकवादी शक्तियों को तभी परास्त किया जा सकता है, जब देश के समस्त सभ्य और चरित्रवान मनुष्य (देवगण) अपने अलग अलग व्यक्तित्व में मिथ्या अहं का त्याग कर अपनी शक्तियों को एक सम्मिलित शक्ति या सांगठनिक- शक्ति में परिणत कर लें। क्योंकि भारत के सभी धर्मों और जातियों के चरित्रवान मनुष्यों की बिखरी हुई शक्तियों में समन्वय लाने से ही अजेय राष्ट्रीय-एकता को स्थापित किया जा सकता है। समस्त देवताओं की सम्मिलित शक्ति-जो रास्ट्रीय एकता का प्रतीक है; से उत्पन्न महिषासुरमर्दिनि को देवी दुर्गा इसी लिए कहा जाता है -कि संघशक्ति में गमन करना (इसका भेदन करना -या एक उद्देश्य 'भारत का कल्याण ' को प्राप्त करने के लिए संगठित युवा शक्ति को तोड़ पाना) अत्यंत दुष्कर कार्य है ! इसलिए यह 'दुर्गा' है। यह अतिवादियों के ऊपर संतुलन-शक्ति (Satogun) 
सभ्यता के विकास की सही पहचान है।
तीसरे चरित्र में सभ्यता की विकसित अवस्था का चित्रण किया गया है, जहाँ सज्जनों की सम्मिलित शक्ति या संगठित शक्ति को शुंभ और निशुंभ के रूप में दो अतिवादी शक्तियों - राग और द्वेष अथवा प्रगतिवादी और प्रतक्रियावादी (राष्ट्रद्रोही-आतंकवादी) शक्तियों का सामना सदा करना पड़ता है। पंचक्लेशों में तीन- 'राग, द्वेष और अभिनिवेश' जनित वासना रस एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है। यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है। निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना इसी भाव का प्रकाशक है। निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है। देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है। अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है (निर्विकल्प समाधि से व्युत्थान की दशा में आता है) तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ! उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है। (आत्मा को ही परमात्मा का साक्षत्कार हुआ था इस अहं को नहीं इसे भलीभाँति समझ लेना पड़ता है) तभी आत्मस्वरूप या स्व-स्वरूप की स्मृति का उदय हो पाता है। इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है। इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुण-युक्त महासरस्वती बताई गई हैं। इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है। और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है। यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है। 


मानव-शरीर देवताओं और असुरों दोनों के ही लिये एक दुर्ग के सामान है। आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर देवता इस मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करना चाहते हैं, तो इन्द्रियोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर असुर मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करने को उत्सुक होते हैं। जब जब मनुष्य इन्द्रियोन्मुख होकर पाप के गर्त में फँसता जाता है तब तब उस महाशक्ति की कृपा (विवेक-प्रयोग शक्ति) से दैवबल से (विवेकदर्शन के अभ्यास से) ही वह आत्मोन्मुखी बनकर उस दलदल से बाहर निकल सकता है। जो लोग अपने अंहकार में घोर आसक्त हैं, उनकी तुलना दुर्गासप्तशती में राक्षसों से की गयी है। जब असुरों ने माँ काली को पहली बार देखा तो वे आवेशित हो गए। अन्धेरा प्रकाश को देखता है किन्तु उसे समझ नहीं पाता। अहंकार उस प्रत्येक वस्तु पर आक्रमण करता है, जिसे वह समझ नहीं पाता, या जिसको वह अपने अस्तित्व के लिए खतरा समझता है।  
सुर और असुर दोनों में भेद केवल इतना ही है कि देवताओं में (उर्ध्वमुखी) आत्मोन्मुख वृत्ति की प्रधानता होती है और असुरों में (अधोमुखी) इन्द्रियोन्मुख वृत्ति की। इस प्रकार वास्तव में सूक्ष्म देवलोक में प्रायः होता रहने वाला देवासुर संग्राम आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का ही संग्राम है। आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता के ही कारण देवता कभी भी असुरों का राज्य छीनने की इच्छा नहीं रखते, वरन् अपने ही अधिकार क्षेत्र में तृप्त रहते हैं। जबकि असुर निरन्तर देवराज्य छीनने के लिये तत्पर रहते हैं। क्योंकि उनकी इन्द्रियोन्मुख वृत्ति उन्हें विषयलोलुप बनाती है। जब जब देवासुर संग्राम में असुरों की विजय होने लगती है तब तब ब्रह्मशक्ति महामाया (माँ जगदम्बा) की कृपा से ही असुरों का प्रभव होकर पुनः शान्ति स्थापना होती है। मनुष्य के मन में भी जो पाप-पुण्य रूप कुमति और सुमति का युद्ध चलता है वास्तव में वह भी इसी देवासुर संग्राम का ही एक रूप है। 
वास्तव में यह युद्ध 'विद्या' और 'अविद्या' का युद्ध है। अपने प्राणों के समान प्यारे भाई निशुम्भ को मारा गया देख तथा सारी सेना का संहार होता जान,जब शुम्भ (अर्थात अहंकार या अस्मिता) ने यह समझ लिया कि वह माँ से कभी जीत नहीं सकता तब वह आत्मदया  (self-pity आत्मतुष्टि) की सहायता से माँ को बहलाने की चेष्टा करता है। दैत्यराज शुम्भ ने (कुपित होकर) देवी दुर्गा से कहा - ' तू बलके अभिमान में आकर झूठ-मूठ का घमण्ड न दिखा। तू बड़ी माननी बनी हुई है, किन्तु दूसरी देवियों के बल का सहारा युद्ध कर रही हो। ' आरोप लगाता है कि तुम जो कई स्त्रियों का रूप धारण करके युद्ध कर रही हो, यह तो युद्ध-क्षेत्र में अनुचित लाभ उठाने जैसा कार्य है।  तब देवी (माँ जगदम्बा) ने उसकी आत्मदया को नष्ट करते हुए कहा - देख यहाँ केवल एक ही माँ है - "एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।" देवी बोलीं-ओ दुष्ट ! मैं अकेली ही हूँ । इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? (एक एव अहम् जगति अत्र, द्वितीय का मम अपरा )  देख, ये सब, मेरी ही विभूतियाँ हैं, अत: मुझ में ही प्रवेश कर रही हैं। और तब शुम्भ का अहंकार नष्ट हो गया और उसकी आत्मा माँ काली के तेज और करुणा में लीन हो गयी। राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है। इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं।
तृतीय चरित्र में देवताओं द्वारा की गई वह स्तुति में कहा गया है कि स्त्रियः समस्ताः सकला जगस्तु त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्- जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं इसका अर्थ यह है कि सप्तशती एक ‘स्त्रियों का एक सार्वभौम बहिन-बोध" स्थापित कर रही थी। श्रीदुर्गासप्तशती का मुख्य संदेश यह है कि सभ्य मानवसमाज स्त्री को सिर्फ एक शरीर या वस्तु ना समझे। जगत की समस्त स्त्रियाँ देवी काली की विविध मूर्तियाँ हैं जिनके माध्यम से वह प्रेम जगत में प्रवाहित होता है। काली के पुरुष भक्तों के बारे में कहा जाता है कि वे 'प्रत्येक स्त्रि में माँ जगदम्बा को देखते हुए, उन्हें ही अपना वास्तविक  शिक्षक' 
समझकर उनके चरणों में सिर को झुकाते हैं। पाश्चत्य जगत में महाकाली को सिर्फ विनाश की देवी के रूप में देखा जाता है, किन्तु वास्तव में वे हर प्रकार के प्रेम की मूर्ति हैं। दुर्गा सप्तशती का उत्तर-चरित्र वस्तुतः स्त्री को वस्तु समझने की मानसिकता के लोगों के राक्षसीपन को उजागर करता है। दुर्गा केवल एक विशिष्ट देवी नहीं हैं वह स्त्री-शक्ति की प्रतिनिधि हैं। 
[ऐसा कहा जाता है कि, (शायद इसीलिये) प्राचीन काल में कृष्णनगर (पश्चिम बंगाल-जहाँ मायापुर, नवद्वीप और शांतिपुर जैसे धार्मिक स्थल हैं) के राजा कृष्णचन्द्र राय ने आदेश दे दिया था कि नवद्वीप राज्य में बसने वाले सभी नागरिकों के लिये माँ काली की पूजा करना अनिवार्य होगा। जो आदेश का उलंघन करेंगे वे दण्ड के भागी होंगे। इसलिए उनके राज्य में १०,००० से भी अधिक काली की मूर्तियों की पूजा होने लगी। 
कृष्णानगर (बांग्ला: কৃষ্ণনগর) पश्चिम बंगाल के नदिया जिला का मुख्यालय है। पहले यहां पर राजा कृष्ण चन्द्र राय का शासन था।  यहाँ प्रसिद्द आनन्दमयी कालीमाता मंदिर है के ऊपर शक्ति का प्रतिक त्रिशूल लगा हुआ है। इस मन्दिर के प्रांगण में शिव और कृष्ण भी विराजमान हैं। प्रवेशद्वार पर ॐ माँ लिखा है।
साभार -https://hi.wikipedia.org/wiki/]  
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बुधवार, 24 जनवरी 2018

सारदा -रामकृष्ण

दृश्य १ :
[सारदा तालाब से एक घड़े में जल लेकर आ रही है। उसके पीछे पीछे दो अन्य लड़कियाँ घड़े को काँधे पर रखकर बातचीत कर रही हैं।]
पहली लड़की : सारदा दिनों-दिन थोड़ी उदास जैसी नहीं होती जा रही है रे ?
दूसरी लड़की : कैसे उदास न होगी ? सुना है कि उसका पति बिल्कुल पागल हो गया है। 
पहली लड़की : लेकिन,हमने तो सुना है कि उसका पति कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में पुरोहित का कार्य करता है। 
दूसरी लड़की : हाँ, कहने को तो पुरोहित ही है ! किन्तु सुनी हूँ कि आजकल पूजा-टूजा कुछ नहीं करता है -केवल माँ -माँ करता है; कभो रोता है, कभी हँसता है ! पहनने के वस्त्र तक का होश नहीं रहता है। 
पहली लड़की : क्या तुम ठीक से जानती हो ? क्योंकि सारदा ने तो मुझे यह बतलाया था कि उसका पति एक बहुत अच्छा मनुष्य  है !
दूसरी लड़की : अच्छा मनुष्य ! यदि सचमुच अच्छा मनुष्य होता, तो क्या ८ वर्ष में एक बार भी सारदा से मिलने नहीं आता ? 
पहली लड़की : तब तो सारदा के लिए यह बड़े दुःख की बात है रे ? मैं सोंच रही हूँ कि एक बार सारदा से बात करूँ, अभी उसके मन को थोड़ा शांति देना आवश्यक है। 
दूसरी लड़की : यदि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो, तो यतिन चाचा, पिनू चाचा लोग से पूछ लो। वे लोग कोलकाता गए थे, वहीँ सब कुछ सुने हैं। 
पहली लड़की : कोशिश करुँगी कि आज ही सारदा से बात करूँ -लेकिन वो तो बड़ी शर्मीली लड़की है.
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २ :
[ रामचन्द्र मुखर्जी रास्ते से जा रहे हैं, पीछे से सारदा की सहेली (पहली लड़की) पुकारेगी]
सहेली : ओ चाचा जी , ओ चाचा जी !
रामचन्द्र : कौन रे ?अच्छा, अवनी की बेटी हो ! बताओ क्यों बुला रही थी ?
सहेली : मैं तो सारदा की 'सखी' हूँ। उसकी तरफ से एक बात मैं आपसे कहना चाहती हूँ; उसको आपसे कहने में लाज आती है , इसीलिए !
रामचन्द्र : तो -बताओ न, लगता है कि उसने तुमसे बोलने को कहा है। 
सहेली : हाँ चाचा जी, फाल्गुन की पूर्णिमा [को श्रीचैतन्य देव का जन्म हुआ था इसलिए] को गाँव के सभी लोग गंगा स्नान करने के लिए कोलकाता जा रहे हैं। सारदा के मन में भी गंगास्नान के लिए जाने की बड़ी इच्छा है। वह गंगास्नान के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर जाकर अपने पति का कुशल समाचार भी जानना चाहती है। 
रामचन्द्र : ठीक तो है, मैं स्वयं उसको अपने साथ ले कर जाऊँगा, और दामाद जी का समाचार भी लेता आऊंगा। 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ३ : 
[ सारदा घर में झाड़ू दे रही है .../ थोड़ी देर बाद झाड़ू रख कर बैठ जाएगी/ गाल पर हाथ रखकर सोचने लगेगी,  ....... फ्लैश बैक, .....विवाह के घर में बजने वाली शहनाई की धीमी-धीमी धुन बज रही है,...]
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ४ : 
[ विवाह का घर है, बैकग्राउंड में शहनाई की धुन जोर से बज रही है, गदाई की माँ उसको पुकार रही हैं।]
चन्द्रामणि: गदाई , ओ गदाई.. सुनते हो ?
गदाई : जी माँ , आता हूँ। ... बोलो माँ , क्यों बुला रही थी? तुम को तो बड़ी चिन्ता थी कि गदाई की शादी कैसे होगी ? ..... अब तो कोई चिंता नहीं है ?
चंद्रमणि : हैं, वह तो हो गया। किन्तु इधर एक बहुत बड़ी समस्या भी आ गयी है। 
गदाई : समस्या ? अब कौन सी समस्या आ गयी ? उसको भी बता डालो !
चन्द्रमणि : अरे , शादी में गुरहत्थी के समय लहबाबू के परिवार से गहना लाकर सारदा को पहनाया गया था,.... किन्तु अभी वो छोटी बच्ची है; गहना उतारना चाहेगी न ? 
गदाई : ओ , तो अब गहना वापस करना होगा -यही तो, (सिर पर थोपी लगाकर) .... तुम उसकी चिंता मत करो माँ, उसकी जवाबदेही मेरी है। जब वो सो जाएगी ,  तब धीरे से मैं उसका एक एक गहना उतार लूँगा, और उसे पता भी नहीं चलेगा। 
चन्द्रमणि : लेकिन यदि सुबह में जागने पर रोने लगी तब ?
गदाई : हाँ, यह बात तो ठीक है ! (सिर पर थोपा देकर) उस समय तुम उसको अपनी गोद में लेकर आश्वासन देते हुए कहना कि -'बेटी चुप हो जाओ, गदाई (गदाधर) बादमें तुम्हारे लिए इन से भी सुन्दर गहने बनवा देगा !' [लीला १/२६८]
चन्द्रमणि : ठीक है, तब वैसा ही करना। 
[बत्ती बुझेगी]
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 दृश्य ५ :
 [गदाई , गहरी नींद में सोई हुई छोटी लड़की सारदा के शरीर से उन आभूषणों को इतनी कुशलतापूर्वक खोल लेगा कि उस बालिका को कुछ भी पता नहीं चलेगा , ....लेकर चला जायेगा/ .... शहनाई की धुन रुक जाएगी।]

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दृश्य ६: 
[गदाई एक मोढ़ा पर बैठा हुआ है, छोटी लड़की सारदा चरण स्पर्श करने के बाद, गमछे से पैर पोछेगी। हाँथ -पंखे से हवा करेगी, ...  ]
गदाई :" देखो, चन्दा मामा जैसे सभी शिशुओं के मामा हैं, वैसे ही ईश्वर भी सभी लोगों के लिए अपने हैं। उनको पुकारने का सभी को अधिकार है। जो कोई भी उनको प्रेम से पुकारता है, वो उसको दर्शन देते हैं , तुम अगर उन्हें पुकारोगी तो वे तुम्हें भी दर्शन देंगे।" किन्तु, .... (इसी समय एक लड़की वहाँ आकर यह दृश्य -पंखा हाँकती हुई माँ सारदा ! को देखती है। ...) 
लड़की : ओ माँ , इस छोटी सी लड़की सारदा को अपने पति (समस्त मानवजाति वुड बी लीडर या भावी मार्गदर्शक नेता) में कितनी श्रद्धा है, जरा आकर देखो तो ! 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ७ : 
[पुनः दृश्य ३ फ़्लैश बैक में आएगा, सारदा झाड़ू रखकर गाल पर हाथ रखकर बैठी हुई हैं ,.... रामचन्द्र का प्रवेश ] 
रामचन्द्र : ओ सारदा ! 
(सारदा ध्यान से चौंककर वापस लौटेगी, और झाड़ू लेकर पुनः झाड़ू देने लगेगी )
रामचन्द्र : अवनि की लड़की बोल रही थी कि तुम गंगास्नान के लिए जाना चाहती हो ? ठीक ही तो है, हमलोग भी गंगास्नान कर आएंगे, और दक्षिणेश्वर जाकर दामादजी का हालचाल भी देख लेंगे। 
सारदा : पिताजी, यदि आपके दामाद सचमुच पागल हो गए हों, तब तो मेरे लिए यहाँ और रहना उचित नहीं है, उनके समीप रहकर उनकी सेवा में नियुक्त रहना मेरा कर्तव्य है, न पिताजी ?
रामचन्द्र : तुम अधिक चिन्ता मत करो -बेटी ! जाकर ही क्यों नहीं देख लिया जाय ? मैं केवल सोच रहा था कि तुम इतनी दूर पैदल चल सकोगी की नहीं ?
सारदा : मैं तो अभी बड़ी हो चुकी हूँ पिताजी, क्यों नहीं चल सकूँगी ? उतना तो आराम से चल लूँगी !
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ८ : 
[रास्ते पर चलते हुए, रामचन्द्र , सारदा , और दो साथी , सारदा पीछे बहुत कष्ट से चल पा रही हैं ... इसलिए पीछे छूट रही हैं। .... ]
रामचन्द्र : ओ सारदा , फिर से पीछे रह गयी क्या ? कहीं पैरों में छाले तो नहीं हो गए ?
सारदा : नहीं , पिताजी -वैसी कोई बात नहीं है !
रामचन्द्र : जरा अपना पैर दिखाओ तो ? अरे , यह क्या फोंका पड़ कर तो फूट भी गया है! इस प्रकार पैदल चलना मुश्किल होगा बेटी, अरे यह क्या तुम्हारा शरीर तो तप रहा है ! बहुत तेज बुखार लग रहा है , इस अवस्था में आगे बढ़ना असम्भव है। नजदीक के किसी चट्टी में विश्राम लेना आवश्यक है। इसीलिए तुम लोग आगे बढ़ो, मैं सारदा को लेकर किसी चट्टी में शरण लेता हूँ। जब शरीर में तेज बुखार है, तो पैदल चलना मुश्किल है। 
१ साथी : हाँ , यह तो बिल्कुल सही बात है !
२ साथी : तब चलो भाई, हमलोग आगे बढ़ते हैं ! (साथियों का प्रस्थान)
सारदा : (दुविधाग्रस्त हैं ) पिताजी, मुझे लगता है, मैं अब दक्षिणेश्वर नहीं जा पाऊँगी , और लगता है उनकी सेवा भी नहीं कर पाऊँगी। 
रामचन्द्र : नहीं बेटी नहीं , इतना मत सोंचो ! थोड़ा सा बुखार कम होते ही हमलोग फिर से चल पड़ेंगे। आओ बेटी आओ -(कन्धा पकड़ कर ले जायेंगे)
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ९ : 
[ कुटिया में सारदा दरी पर सोयी हुई है, रामचन्द्र हाथ में एक ग्लास दूध लेकर प्रवेश ,.... ] 
रामचन्द्र : तुम थोड़ा ये दूध तो पीलो बेटी। 
सारदा : (बैठकर , ग्लास रखते हुए ) जानते हैं पिताजी, मैं अब पैदल चल सकती हूँ। कल रात में एक काली लड़की मेरे बिछावन पर आकर बैठ गयी थी। मैंने पूछा , तुम कौन हो ? उसने कहा मैं तुम्हारी ही बहन हूँ।  दक्षिणेश्वर में रहती हूँ। मैंने कहा, मुझे भी दक्षिणेश्वर जाने की बड़ी इच्छा थी कि उन्हें देखूंगी और उनकी सेवा करुँगी। किन्तु बुखार आ जाने के कारण मेरी इच्छा पूर्ण न हो सकी। वह बोली ,' इसमें निराश होने की क्या बात है ? बुखार ठीक हो जाय तब चली जाना,  तुम्हारे लिए ही तो मैंने उन्हें वहाँ रोक रखा है।
रामचन्द्र : अच्छा , ऐसी बात है ? (सारदा दूध का घूँट लेकर,.... ) 
सारदा : फिर बैठकर वह मेरे शरीर और सिर को सहलाने लगी, उसका स्पर्श इतना स्निग्ध और कोमल था कि, उसीके बाद से मेरा बुखार उतर गया है। 
रामचन्द्र : तो फिर चलो , हमलोग इसी समय यात्रा शुरू करते हैं; देखता हूँ कहीं से पालकी का इंतजाम हो पाता है या नहीं ? 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य १० : 
[दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण का कमरा, दो सेवक (भगना हृदय और भतीजा रामलाल), हृदय बिछावन ठीक कर रहे हैं, रामलाल झाड़ू दे रहा है। रामलाल झाड़ू दे रहा है। रामकृष्ण का प्रवेश। हाथ में गमझा है, बदना रखते हुए। .... ] 
रामकृष्ण : अरे , हृदु -ले थोड़ा गमछा निचोड़ कर पसार देना तो !
रामकृष्ण : देखो, रामনেলো,जब इस कमरे में झाड़ू देना तब , मन बहुत पवित्र रखना। अपने चाचा का काम कर दे रहा हूँ, ऐसा मत सोंचना। ऐसा सोंचना कि , यहाँ जो भक्त लोग आ रहे हैं, उनकी सेवा करके तू धन्य हो रहा है। ऐसा समझना कि यह कमरा  'भगवान का ड्राइंग रूम (स्वागत कक्ष)' है! 
(हृदय का प्रवेश )
हृदय : ओ मामा , चाँदनी घाट पर एक नाव आयी है, देखा की कुछ लोग उतर कर इधर ही आ रहे थे ,लगता था कालीमन्दिर ही आ रहे हैं । (हृदय बिछावन चादर सब ठीक-ठाक करेगा ) 
रामकृष्ण : अरे राम लाल , देखोतो -इतनी रात गए इधर कौन आ रहा है ?
(रामलाल का प्रस्थान -शीघ्र लौटना )
रामलाल : चाची जी आयी हैं, साथ में मुखर्जी महाशय भी हैं। 
रामकृष्ण : अच्छा, ये बात है ! जा जा उन लोगों को यहीं ले आ। (प्रस्थान के लिए कदम बढ़ाते ही, रामलाल से। ... ) देखो, उनलोग को सीधा इसी कमरे में ले आना! अरे हृदु देखतो शुभ घड़ी है या नहीं ? पहली बार आ रही है। 
(रामलाल के पीछे पीछे सारदा प्रवेश करेगी, रामलाल के हाथ में टीन का सूटकेश है, सारदा रामकृष्ण को भूमिष्ट होकर प्रणाम करेगी। )
रामकृष्ण : तुम आयी हो, अच्छा की हो। अरे दरी तो बिछा दो। (रामलाल दरी बिछा देगा) बैठो, तुम इतने दिनों के बाद आयी ? अब क्या मेरे 'सेजो बाबू' (मथुर बाबू) जीवित हैं, कि तुम्हारा आदरसत्कार होगा?उनके जाने से मानो मेरा दाहिना हाथ ही टूट गया है। यदि वह आज होता तो तुम्हारी कितनी सेवासत्कार  करता। वैसे , तुम्हारा शरीर तो ठीक है न ? 
सारदा : मार्ग में थोड़ा बुखार हो गया था -अभी भी है। 
रामकृष्ण : क्या बुखार है ? (लिलार पर हाथ रखेंगे, उद्विग्न होकर) अरे हृदु तुम्हारी मामी को बुखार हुआ है, जाओ जाकर दवा का इंतजाम करो। 
हृदय : ठीक है -जाता हूँ , लेकिन मामा; मामी के लिए सोने की व्यवस्था कहाँ कर दूँ ? नौबतखाने मे दीदी वाले कमरे में करने से ही ठीक रहेगा। 
रामकृष्ण : नहीं रे, ठण्ढ लगने से बुखार बढ़ सकता है। डॉक्टर -बैद्य को दिखलाना पड़ेगा। वो इसी कमरे में सोयेगी। बाद में जैसा होगा देखा जायेगा। तुम इसी कमरे में एक पृथक चौकी पर उसके सोने की व्यवस्था कर दो। 
{बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ११ : 
[श्रीरामकृष्ण का कमरा - दरी पर ६ भक्त बैठे है / मास्टर, अधर, मारवाड़ी, चुनीलाल, योगेन युवा है, रामलाल ]
रामकृष्ण : अच्छा बताओ , नाव कहाँ रहती है ?
योगेन : नाव ! नाव पानी में रहती है। 
रामकृष्ण : नाव में पानी घुस जाने से क्या होगा ?
अधर : नाव डूब जाएगी। 
रामकृष्ण : हाँ , नाव में पानी घुस जाने से वह डूब जाती है। अब मानलो कि तुम सभी लोग एक एक नाव हो; और संसार रूपी पानी में तैर रहे हो। यदि संसार तुम लोगों के भीतर घुस जाये, तो क्या होगा ? 
अधर : महाशय , डूब जायेंगे। (सहास्य) 
रामकृष्ण : नाव पानी में रहे , किन्तु नाव पानी न घुस सके तो सब ठीक है ! तुम संसार में रहो, लेकिन संसार तुम में न घुसे तो तुम ठीक हो। 
चुनीलाल : महाशय, क्या ऐसा होना सम्भव है ? क्या गृहस्थाश्रम में भगवान लाभ हो सकता है ? (वचनामृत/ पेज/२३७)
रामकृष्ण : क्यों नहीं हो सकता ? पाँकाल मछली (ईलिश?) कहाँ रहती है ? पाँकाल मछली कीच के भीतर रहती है न ? लेकिन कीच से बाहर निकालो तो उसके शरीर पर कीचन हीं रहता। उसका शरीर एकदम साफ चमचम चमकता है। उसी तरह माँ जगदम्बा (सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध)  का भक्त ही वीर या 'हीरो' होता है, जो पूणतः अनासक्त होकर संसार में रह सकता है। किन्तु वीर बनने के लिए पहले  कभी कभी संसार से दूर निर्जन में (अर्थात महामण्डल कैम्प, साप्ताहिक पाठचक्र आदि में) जाकर ईश्वरचिन्तन करने पर उनमें भक्ति होती है। तब निर्लिप्त होकर संसार में संसार में रह सकोगे। वचनामृत/३६९/  
चुनीलाल : लेकिन महाशय , ऐसा कैसे हो सकता है ?
रामकृष्ण : देखो दूध और पानी है, एक साथ मिला दो क्या होगा ?
योगेन : मिल जायेगा। 
रामकृष्ण : "थैंक यू ! यह संसार पानी है, और मन मानो दूध है। साधना करके मन में ज्ञान -भक्ति रूपी मक्खन प्राप्त करना होगा। उसके बाद जितना भी परिवार में रहो, कोई हानी नहीं। यदि वैसा नहीं किये, तो विपत्ति की आशंका, शोक, दुःख इस सब से अधीर हो जाओगे।  ज्ञान हो जाने पर संसार में रहा जा सकता है। परन्तु पहले तो ज्ञानलाभ करना चाहिये। संसाररूपी जल में मनरूपी दूध (पृथक 'अहं;-बोध) रखने पर दोनों मिल जायेंगे। इसीलिये दूध को निर्जन में (महामण्डल ऐनुअल कैम्प में) दही बनाकर उससे मक्खन निकाला जाता है। जब निर्जन में साधना करके मनरूपी दूध से 'ज्ञान-भक्ति-रूपी-मक्खन' निकल गया, तब वह मक्खन अनायास ही संसार-रूपी पानी में रखा जा सकता है। वह मक्खन कभी संसार-रूपी जल से मिल नहीं सकता -संसार के जल पर निर्लिप्त होकर उतराता रहता है ! इससे यह स्पष्ट है कि साधना  (५ अभ्यास) चाहिए। पहली अवस्था में निर्जन (कैम्प) में रहना जरुरी है।  वचनामृत- ३३८/
मारवाड़ी : जी एक बात है। 
रामकृष्ण : क्या बात ?
मारवाड़ी : आपके पास बहुत से आदमी आते हैं, रहते हैं। आपका बहुत खर्च होता है। इसलिए मैंने १०,००० रूपये एक चेक लाया है , मेहरबानी करके आप इस चेक को स्वीकार कीजिये। 
रामकृष्ण : अरे , रुपया तो हम बिल्कुल नहीं लेते। 
मारवाड़ी : लेकिन ये तो आपके लिए नहीं दे रहा हूँ, यह तो आपके भक्तों के लिए है। फिर आपकी पत्नी भी हैं न ?
रामकृष्ण : ठीक है, तो पत्नी को पूछो। योगेन , इनको थोड़ा नौबतखाने में लेकर जाओ तो। 
मारवाड़ी : हाँ , ठीक है, ये भी ठीक है (योगेन के पीछे पीछे मारवाड़ी का प्रस्थान )
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १२ : 
[श्रीषोड़शी-पूजन के बाद श्रीमाताजी ने लगभग ५ महीने तक श्रीरामकृष्ण देव के समीप रहकर अवस्थान किया था। पहले की भाँति दिन का समय नौबतखाने में बिताकर, रात में श्रीरामकृष्णदेव की शय्या में ही शयन करती थीं। यह जानकर कि नित्यप्रति निर्विकल्प समाधि में जाने पर उनके शरीर पर मृतक के लक्षण प्रकट होने लगते थे, यह देखकर श्रीमाँ की निद्रा में विघ्न हो जाता है, उनके सोने की व्यवस्था नौबतखाने में करवा दी। ....  रामकृष्ण छोटी सी खाट के पास खड़े होकर माँ (माँ जगदम्बा  या विराट शक्ति, जो जगत रूप में प्रकट है) के साथ बातचीत कर रहे हैं। ] 
रामकृष्ण : माँ , तुमने कहा था कि 'भावमुख ' होकर रहो। [भावमुख अवस्था में रहने का तात्पर्य है-"मैं वही सर्वव्यापी विराट् 'अहं' हूँ !" लिलाप्रसंग /९५तुमने तो कहा था भक्ति और भक्त को लेकर रहो। ये सभी तो गृहस्थ भक्त हैं माँ। तुमने तो कहा था कि त्यागी युवक लोग आएंगे। अब उनलोगों को भेज न माँ। यदि वे लोग नहीं आएंगे , तो तुम्हारा काम कौन करेगा माँ ? (इसीबीच सारदा हाथ में तकिया लेकर कमरे में घुसकर बिछावन ठीक ठाक करने लगेगी। दो तकिया को आसपास रखेगी। )
रामकृष्ण : आज लक्ष्मीनारायण नामक मारवाड़ी आया था। १० हजार के चेक देना चाह रहा था। मैंने उसको तुम्हारे पास जाने को कहा था।  गया था क्या ?
सारदा : हाँ , मुझसे भी लेने के लिए बोला था, पर मैंने नहीं लिया। मैंने पूछा कि आपने क्या कहा ? जब मैंने सुना कि तुम लेना नहीं चाहते थे, तब मैंने कहा कि क्या वे और मैं अलग अलग हैं ? (इसी समय रामकृष्ण - कहेंगे बहुत अच्छा बहुत अच्छा) मेरा लेना भी तो उन्हीं का लेना हो जायेगा !
रामकृष्ण : तब उसने क्या कहा ?
सारदा : कह रहा था आपलोगों का हृदय एक है। आपलोग बहुत त्यागी मनुष्य हैं। 
रामकृष्ण : अरे समँझी ! माँ जगदम्बा हमलोगों की परीक्षा ले रही थीं। परीक्षा में तुम भी पास और मैं भी पास हो गया। 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १३ : 
[ रामकृष्ण भोजन कर रहे हैं , माँ भोजन करवा रही हैं, पंखा झल रही है। ]
सारदा : सब्जी तो लक्ष्मी ने बनाया है, और सूक्तो (विशेष बंगाली सब्जी) मैंने बनाया है। 
रामकृष्ण : हाँ जीभ से छुआते ही, समझ में आ गया कि कौन मधूबैद्य है और कौन श्रीनाथसेन। ....ता हाँ-गो, तुमि कि आमाय आबार संसारेर पथे टेने निते एले ना कि ?  लेकिन यह बताओ कि क्या तुम मुझे फिर से संसार के रास्ते में खींच लेने के लिए तो नहीं आयी हो ?
सारदा : नहीं ठाकुर देव, मैं आपको भला संसार के रास्ते में खींचना चाहूँगी ? मैं तो आपको आपके ईच्छित रास्ते पर आगे बढ़ने में सहायता करने के लिए आयी हूँ !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १४ : 
[रामकृष्ण बड़े चौकी पर बैठे हैं। लाटू जमीन पर एक 'वर्ण परिचय ' किताब -स्लेट लेकर बैठे हैं। ]
रामकृष्ण : बोलो क 
लाटू : का 
रामकृष्ण : बोलो ख 
लाटू : खा 
रामकृष्ण : अच्छा ये बताओ कि -मैं तुमको 'क' कहने के लिये कहते हूँ, तो तुम 'का' कहते हो, मैं 'ख' कहता हूँ -तुम 'खा' कहते हो ! इसके बाद जब तुमको आकार सिखाने के लिए 'का' बोलने के लिए कहूँगा -तब तुम क्या बोलोगे ? 
लाटू : जी , वो तो हमने जानते नहीं !
रामकृष्ण : तो अब ठीक से बोल - , बोलो क 
लाटू : का 
रामकृष्ण : ख 
लाटू : खा 
रामकृष्ण : ना , तुमको मैं पढ़ना लिखना नहीं सिखा पाउँगा। 
लाटू : ठाकुर, तब जिससे हमको लाभ हो , वही कर दीजिये। 
रामकृष्ण : (स्नेहपूर्वक। ... ) नजदीक आओ, जीभ बाहर निकाल। ॐ अंग अहः ! जा ! (जीभ पर मंत्र लिख देंगे) तुमको और कुछ नहीं करना पड़ेगा ! तुम केवल मेरा ध्यान करते रहना (बी ऐंड मेक करते रहो), यही करने से तुम्हारा सबकुछ हो जायेगा, मुक्त हो जाओगे ! 
(सारदा का प्रवेश )
रामकृष्ण : (सारदा को देखकर ) ओ तुम आयी हो ? बताओ क्या बात है ? 
सारदा : कुछ बोलने के लिए नहीं आयी , यह देखने के लिए आयी हूँ -कि आप किसे पढ़ा रहे हैं ?
रामकृष्ण : इसी लड़के को , देखो यह लड़का बहुत अच्छा है, इसका आधार एकदम शुद्ध है ! (जेपी मन में कोई खोंट नहीं है ?) राम दत्त के घर में काम करता है। कहता है मैं यहीं रहना चाहता हूँ। तो, अगर तुम चाहो तो अपने 'मयदा ठेसार काजे ' अर्थात आंटा सानने के काम पर रख सकती हो। -की रे लाटू, ३/४ सेर आंटार रुटी -माखते बोलते पारबि तो ? रोटी -बनाने सकेगा न ?
लाटू : वो सब हमने खूब पारबो ! 
रामकृष्ण : तब जा , तेरी नौकरी पक्की हो गयी ! 
(लाटू दौड़ कर माँ सारदा को प्रणाम करेगा !) 
सारदा : ठीक है बेटे- जीयो ! 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १५ :
 [रामकृष्ण चौकी पर लेटे हुए हैं -सारदा चरणसेवा कर रही हैं ]
रामकृष्ण : अच्छा , तुम ये बताओ कि इस कमरे में जो चन्द्रमा का बाजार लगता है, इतना कीर्तन -भजन होता है, तुम वह सब कुछ सुन पाती हो, या नहीं ?
सारदा : बहुत आराम से सुनती रहती हूँ। मैं और लक्ष्मी तो खड़े खड़े नहबत के दरवाजे के छेद से देखकर सब सुनते हैं। 
रामकृष्ण : इसीलिए तो मैं भी उत्तर दिशा वाले दरवाजे को खुला रखने के लिए कह देता हूँ। 
सारदा : लक्ष्मी कहती है, चाची यदि तुम्हारी इच्छा सुनने की है, तो जाकर सुनो न। 
रामकृष्ण : तब तुम क्या कहती हो ?
सारदा : मैं कहती हूँ , मेरे लिए इतना ही बहुत है !
रामकृष्ण : डरता हूँ कि नहबत के इतने छोटे से कमरे में रहते रहते कहीं तुमको गठिया न हो जाये। थोड़ा मोहल्ले में घूमने-फिरने जाओगी तो कुछ बातें सीख पाओगी। लेकिन यह याद रखना कि यह मोहल्ला गाँव नहीं है, यहाँ थोड़ा सावधान रहना चाहिये। 
सारदा : अच्छा , यह बताओ -तुम मुझे किस दृष्टि से देखते हो ?
रामकृष्ण : तुमको !!! जो माँ मन्दिर में हैं, उन्होंने ही तुम्हारे इस शरीर में जन्म लिया है,तथा इस समय वे नौबतखाने में रह रही है, और वे ही अभी मेरे पैरों को दबा रही हैं। सच कहता हूँ , मैं सर्वदा तुमको साक्षात् आनन्दमयी के रूप में देखाता हूँ ! 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १६ : 
[ रामकृष्ण का कमरा / रामकृष्ण श्रीषोड़शी-महाविद्या की पूजा (२५ मई १८७३ अमवस्या की रात्रि में) की तैयारी कर रहे हैं, हृदय उसका सब इंतजाम ठीक ठाक कर रहे हैं ]
हृदय : मामा , अब मैं चलता हूँ , आज मंदिर की पूजा में मुझे रहना होगा। 
रामकृष्ण : जाते समय मामी को यहाँ बुला कर ले आना।
(सारदा का प्रवेश , वेदी पर बैठेगी , पहले आँखों को खोलकर , .... धीरे धीरे ऑंखें मूँदकर ध्यानस्थ हो जाएँगी। रामकृष्ण पूजा करेंगे , शांति जल छींटते समय का मंत्रोच्चारण होगा 
रामकृष्ण : 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता , नमःतस्यै नमःतस्यै नमःतस्यै नमो नमः !
(तीन बार -शक्ति रूपेण , शान्तिरुपेण, मातृरूपेण)
(हाथ जोड़ कर ) " हे बाले ! हे सर्वशक्ति अधीश्वरी माते ! त्रिपुरसुंदरी !  सिद्धि द्वार खोल दो, इनके (श्री माँ के) शरीर-मन को पवित्र कर,इनके अन्दर आविर्भूत हो सर्वकल्याण साधन करो ! [दोनों ध्यानस्थ हो जायेंगे]
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १७ :
 [रामकृष्ण अपने कमरे में चौकी पर बैठकर जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं। हृदय का प्रवेश,... ] 
हृदय : यह लो मामा , देखो तुम्हारा कंगना सीतादेवी के जैसा गढ़ा हुआ है , या नहीं ? (रामकृष्ण सोने के कंगन को घुमा फिरा कर देखेंगे !)
हृदय : मामा, मेरे बैंक में तुम्हारे ३०० रूपये रखे हुए थे। दोनों कंगन बनवाने में २०० रूपये खर्च हुए हैं, इस प्रकार आपके १०० रूपये बचे हुए हैं। 
रामकृष्ण : जाओ , जाकर तुम्हारी मामी को यहाँ बुला लाओ !
(हृदय का प्रस्थान , पुनः प्रवेश , पीछे पीछे सारदा का प्रवेश, रामकृष्ण अपने हाथों से कंगन पहनायेंगे, और बोलेंगे -जरा हाथ दिखाओ तो !..... )
हृदय : क्या मामी , तुमको पसन्द आया न ? लेकिन मामी -मामा इतने बड़े त्यागी मनुष्य हैं, और तुम ये सब क्या कंगन-फंगन पहन रही हो ?
रामकृष्ण : तुम रुको तो, तुम क्या समझोगे ? वो है सारदा -ज्ञान दायिनी सरस्वती , इसीलिये थोड़ा सजना भी उसको अच्छा लगता है। 
सारदा : तुम्हारे इस भगना ने एक दिन क्या किया था जानते हो ? मैं और लक्ष्मी वर्ण परिचय किताब लेकर अक्षर सीख रहे थे, तब तुम्हारे भगना ने गुस्सा करके वर्णपरिचय किताब को ही गंगाजी में फेंक दिया। 
रामकृष्ण : क्या ??
हृदय : क्यों नहीं फेंकूँगा ? अभी वर्णपरिचय पढ़ रही हो- बाद में नाटक-नॉवेल भी पड़ेगी -!
रामकृष्ण : अरे हृदय , ऐसा क्रोध फिर मत दिखाना। समझ लेना इसके भीतर (अपने को दिखाकर ) जो हैं, वह यदि नाराज हो गया , और तू उससे बचना चाहे तो बच भी सकता है; किन्तु उसके भीतर जो है, (सारदा दिखा कर) यदि कहीं वह नाराज हो गयी -तब ब्रह्मा ,विष्णु ,महेश भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते! ... याद रखना इस बात को !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १८ : 
[चाँदनी रात है, सारदा नौबतखाने के महराब (Roach) पर बैठकर ध्यानरत हैं ; ध्यान टूटने पर हाथ जोड़कर चाँद की तरफ देख रही हैं , अँधेरे मंच पर नीले रंग की रौशनी सारदा के चेहरे पर पड़ेगी।] 
सारदा : हे ठाकुर देव, तुम अपनी इसी चाँदनी (ज्योत्स्ना) के जैसा मेरे मन को निर्मल कर दो भगवान !
मेरे भीतर ताकि कोई कामना न रहे ठाकुर। चाँद पर भी दाग  है,किन्तु मेरे मन पर कोई दाग न रहे भगवान! 
[बत्ती बुझेगी ] 
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दृश्य १९ : 
[रामकृष्ण चौकी पर बैठे हैं। जमीन पर सारदाप्रसन्न, मास्टर , अधर , बाबूराम , पूर्ण , चुनीलाल, लाटू आदि बैठे हैं ]
मास्टर : महाशय , इस समय काबुल में बड़ा युद्ध चल रहा है। एक साजिश में याकूब खां (काबुल के अमीर)का राजसिंहासन से उतार दिये गये हैं। राजपरिवार के सभी लोग अभी बड़ी आतंक में पड़े हैं। 
रामकृष्ण : अच्छा? लेकिन याकूब खां कैसा राजा था ?
मास्टर : हमलोग तो उसको एक अच्छे राजा के रूप में ही जानते हैं। सुना था कि वे बड़े भक्त मनुष्य थे। 
पूर्ण : अच्छा, उसके जैसे मनुष्य पर इतना बड़ा संकट क्यों आया ?
रामकृष्ण : बात यह है कि प्रारब्ध कर्मों का भोग होता ही है। जब तक वह है, तबतक देह धारण करना ही पड़ेगा। और सुख-दुःख देह के धर्म हैं। शरीर धारण करने पर सुख-दुःख दोनों लगे रहते हैं। कविकंकण-चण्डी में लिखा है कि -कालूबीर राजा को कैद की सजा हुई थी और उसकी छाती पर पत्थर रखा गया था। जबकि राजा कालूबीर भगवती का वरपुत्र था, फिर भी उसे दुःख भोगना पड़ा। श्रीमन्त भी तो बड़ा भक्त था । उसकी माँ खुल्लना को भगवती कितना अधिक चाहती थीं । पर देखो, उस श्रीमन्त पर कितनी विपत्ति पड़ी! यहाँ तक कि वह श्मशान में काट डालने के लिए ले जाया गया ।
(वचनामृत /पेज २८१ 1883,अगस्त 19) कृष्ण के माता-पिता कारागार में रहते हुए शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण (भगवान विष्णु) के  दर्शन हुए, पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा।  
मास्टर : केवल कारावास ही क्यों ? शरीर ही तो सारे अनर्थों की मूल है, उसी को छूट जाना चाहिए था।
श्रीरामकृष्ण : देह का सुख-दुःख जो होने का है, वो हो; पर भक्त (हीरो/रीयल पर्सनैलिटी) का ऐश्वर्य कभी जाता ही नहीं है। भक्त को ज्ञान-भक्ति का ऐश्वर्य बना ही रहता है, वह ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता। देखो न स्वयं भगवान जिसके साथ हैं, उन पाण्डवों के संकट की सीमा नहीं है।  हाँ, किन्तु यह बात है कि भगवान के साथ रहने के कारण वे लोग एकबार भी 'चैतन्य' (आत्मबोध) को नहीं खोये थे ! ये सब शरीर के दुःख-सुख जो भी रहें, भक्त का ज्ञान, भक्ति का ऐश्वर्य -ये सब एकदम ठीक रहता है ! 
सारदाप्रसन्न : महाशय,अब मुझे जाना पड़ेगा। (सरदाप्रसन्न रामकृष्ण की पदधूलि लेंगे)
रामकृष्ण : ठीक है, फिर आना। जब स्कूल में छुट्टी रहे तो १/२ दिन यहाँ आकर रहो न। (सारदा जाते जाते फिर से लौटकर आयेगा) क्यों रे क्या बात है, फिर क्यों लौट आया ? ओ समझा , लगता है जाने का भाड़ा नहीं है ? (सारदा गर्दन हिलाकर सहमति जतायेगा) जाओ, नहबत में जाकर माँ ठकुरानी को पुकार कर चार पैसे माँग लेना। जाओ। (सारदा के जाने के बाद )
रामकृष्ण : अरे तुम समझे , उसके पिता उसको यहाँ आने देना नहीं चाहते हैं। यह कहने से कि दक्षिणेश्वर जाना है, वो इसको भाड़ा नहीं देता। 
(नरेन् का प्रवेश / प्रवेश करके दूर ही खड़ा रहेगा।)
रामकृष्ण : (नरेन को देखकर ) अरे बाबूराम , जाओ नहबत जाकर माँ ठकुरानी को समाचार पहुँचा दो तो, कि नरेन आया है, और रात में यहीं रुकेगा। (बाबूराम उठ कर चला जायेगा ,... ) नरेन् से --'क्या रे, वहाँ क्यों खड़ा है , इधर आओ -बैठो !
नरेन्द्र : नहीं महाशय , लोग जिसको अखाद्य कहते हैं, आज होटल में जाकर वही खा आया हूँ। 
रामकृष्ण : अरे हविष्यान्न खाकर भी जिसका मन कामिनी -कांचन में लगा रहता है, तो उसपर धिक्कार है, और यदि सूअर का मांस खाकर भी जिसका मन ईश्वर में रहता है -उसका जीवन धन्य है -रे धन्य है। अरे भगवान केवल मन देखते हैं, आओ एक बार मेरे निकट बैठो तो देखें !
(नरेन् नीचे बैठने लगेंगे , रामकृष्ण उसको पकड़ कर कहेंगे -अरे इधर मेरे पास बैठ ऊपर !)
(बाबूराम का पुनः प्रवेश)
बाबूराम : नरेनदा को आते देखकर माँ ने चने का दाल चढ़ा दिया है। आज नरेन के लिए मोटी मोटी रोटी और चने की दाल बनेगी। 
रामकृष्ण : 
अनन्त राधार माया कहले न जाय।
 कोटि कृष्ण कोटि राम होय-जाय-रय !
"অনন্ত রাধার মায়া কহনে না যায়। 
কোটি কৃষ্ণ কোটি রাম হয় যায় রয়।"
 -बोलो तो मैंने जो कहा उसका अर्थ क्या है ? (सभी लोगों को एक-दूसरे का चेहरा देखते हुए देख कर, अंत में नरेन्द्र ---)
नरेन्द्र : मैं बोलूँ ?
रामकृष्ण : जरा बोलो तो देखें ?
नरेन्द्र : आपने कहा - कृष्ण से बड़ी राधा हैं ! और आप से बड़ी माँ ठकुरानी हैं !
रामकृष्ण : (पूरे उत्साह से )-थैंक यू !! 
[बत्ती बुझेगी]
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                                                     दृश्य २० : 
[रामकृष्ण चावल खाने के लिए आसन पर बैठ रहे हैं, लोटा के जल से हाथ धोकर गिलास में ढालेंगे। एक घुँघटा काढ़े स्त्री आकर चावल की थाल रख जाएँगी। रामकृष्ण एक बार थाली की ओर और एक बार स्त्री की ओर देखते हैं। स्त्री के चले जाने पर भात को सान कर खाने की चेष्टा करेंगे, पर खाएंगे बिल्कुल नहीं, बाद में उठकर हाथ धोकर चौकी पर बैठ जायेंगे। ]
(सारदा का प्रवेश) 
सारदा : क्या हुआ , आप बिना कुछ बैठे हुए क्यों हैं ?
रामकृष्ण : (बिस्फोट के साथ ) तुमने यह क्या किया ? तुम तो जानती हो, मैं सबके हाथ का दिया खाना नहीं खा सकता ! उसके हाथों क्यों भिजवाया ? उसको क्या तुम नहीं जानती हो ? अब उसका छूआ खाना कैसे खाऊं ?
सारदा : सो तो जानती हूँ, लेकिन कोई चारा न था, आज भर खा लो। 
रामकृष्ण : आज भर खा लो '- ठीक है , तब वादा करो कि फिर किसी दिन और किसी के हाथों खाना नहीं भिजवाओगी। 
सारदा : (दृढ़ आवाज में ) मैं ऐसा कोई वचन नहीं दे सकती ठाकुर। तुम्हारा खाना मैं स्वयं लेकर आऊँगी, किन्तु कोई यदि माँ कहकर जिद कर बैठे तो मैं ना नहीं कह पाऊँगी! और तुम तो केवल मेरे ठाकुर ही नहीं हो, तुम तो सबों के ठाकुर हो !
रामकृष्ण : अच्छा, ठीक है -ठीक है, मैं सभी का ठाकुर हूँ और तुम सबकी माँ हो ! (रामकृष्ण खाने के लिए बैठेंगे , बैठकर गदगद स्वर में बोलेंगे) वाह एकदम ठीक -' मैं सबका ठाकुर , तुम सबकी माँ '! 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २१ : 
[रामकृष्ण का कमरा, सारदा भोजन लाकर , खाने का आसन जल तैयार कर रही है। ]
रामकृष्ण : हाँ जी, क्या थोड़ी देर पहले तुम कमरे में आयी थी ?
सारदा : हाँ , आप सो रहे थे, इसीलिए उठाया नहीं। 
रामकृष्ण: अरे देखो, मैंने तुमको लक्ष्मी समझकर तू कह दिया ? तुम उसका बुरा न मानना। 
सारदा ; नहीं नहीं , इसमें भला बुरा मानने की क्या बात है , आईये भोजन के लिए बैठिये !
रामकृष्ण : क्या तुम केवल रसोई पकाने का काम ही करती रहोगी ? और कुछ नहीं करोगी ? यही सब करती रहोगी। 
सारदा : अभी खाने के लिए बैठिये !
रामकृष्ण : देखो , कोलकाता के लोग मानो अँधेरे में रहने वाले कीड़ा-मकोड़ा जैसा बिल-बिल कर रहे हैं, तुम थोड़ा उन लोगों को भी देखो। 
सारदा : लेकिन ,वैसा कैसे होगा ?
रामकृष्ण : नहीं -अभी तक क्या की हो ? अभी तो बस यही १०-११ लड़के आये हैं, बाद में और भी कितने लड़के लड़कियाँ , सभी आएंगे। तुमको इससे बहुत अधिक काम करना होगा। 
सारदा : वह जब होगा , तब होगा। (रामकृष्ण आसन पर बैठेंगे)
रामकृष्ण : क्या सारी जिम्मेवारी अकेले मेरी ही है ? तुम्हारी भी जिम्मेदारी है।
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २२ :
 [ सारदा रामकृष्ण के कमरे में झाड़ू लगा रही हैं, रामकृष्ण लेटे अवस्था से उठकर बैठ जायेंगे] 
रामकृष्ण : हाँ सुनो , मैंने किस लड़के को कितनी रोटियाँ देने को कहा था, तुम्हें याद है ? 
सारदा : हाँ अच्छी तरह से याद है, -यही तो राखाल को ६ रोटी, लाटू को ५ रोटी, बूढ़ागोपाल और बाबूराम को ४ -४ करके ?
रामकृष्ण : लेकिन मैं तो सुन रहा हूँ कि रात में लाटू कभी ७ रोटी, कभी ८ रोटी भी खा रहा है ? इतना खाने के बाद वो सबेरे उठ सकेगा तो ? वो लोग यहाँ खाने के लिए रह रहा है, या जप-ध्यान करने के लिए रह रहा है ?
सारदा : देखो ठाकुर , तुम्हारी सब बातों को मानती ही हूँ, लड़कों को कितना करके रोटी देना है, उसके बारे में तुम्हें जो कहना था तुमने कह दिया है; अब इसके बाद मुझे अपने अनुसार जैसा करना है, करने दो। रामकृष्ण : तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम मेरी बात नहीं सुनोगी ? तब लड़का तो सब देर तक खर्राटे ले कर सोया रहेगा- तुम ऐसा ही चाहती हो ? यदि तुम उनकी क्षति चाहती हो, तब तुम वही चाहो। 
सारदा : उनलोगों का कोई नुकसान मैं नहीं चाहती हूँ ठाकुर, यह बात तुम अच्छी तरह से जानते हो। और यदि कोई २ रोटी अधिक खा लेगा तो उसका नुकसान होगा, तो जो भी नुकसान होगा, वह मैं खुद संभाल लूँगी। उनलोगों का भविष्य मैं अच्छी तरह से देखूंगी। उसके लिए अगर तुम नहीं सोचो तब भी चलेगा। 
(झाड़ू रखकर तेज कदमों से सारदा का प्रस्थान) 
रामकृष्ण : (हावभाव का परिवर्तन / अन्तर्मुखी भाव) उनका भविष्य मैं अच्छी तरह से देखूंगी ! उनके लिए अगर तुम कुछ न सोंचो तब भी चलेगा। ..... जय माँ जगदम्बे, .... ले लिया है, माँ तुमने बच्चों का उत्तरदायित्व स्वयं ले लिया है !! नहीं लेगी, ... माने ? क्या सारा उत्तरदायित्व मेरे अकेले का है ? जय माँ, जय माँ, ... जय माँ।  (स्ट्रोक रौशनी रहेगी )
[बत्ती बुझेगी ] 
[ बत्ती बुझने के बाद पुनः बत्ती जलेगी, मंच पर चौकी है। टेबल पर श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा का बड़ा फ्रैंक डोरा के द्वारा बनाये चित्र पर माला पड़ा दिखेगा। नैपथ्य में संगीत 'सारदा रामकृष्णेर नामेर बान डेकेछे रे भाई ', चौकी के सामने नाटक में भाग लेने वाले सभी कलाकार दर्शकों की तरफ हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में बैठेंगे। ] 
आलोकित मंच पर धीरे धीरे पर्दा गिरेगा !
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