कुल पेज दृश्य

शनिवार, 28 मई 2022

🔆🙏राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि ' - स्वामी विवेकानन्द

 राजयोग सप्तम अध्याय – ध्यान और समाधि

RAJA YOGA : CHAPTER VII  

[DHYANA AND SAMADHI-Swami Vivekananda]

अब तक हम राजयोग के अन्तरंग साधनों को छोड़ शेष सभी अंगों के संक्षिप्त विवरण समाप्त कर चुके हैं । इन अन्तरंग साधनों का लक्ष्य एकाग्रता की प्राप्ति है । इस एकाग्रता - शक्ति को प्राप्त करना ही राजयोग का चरम लक्ष्य हैं । हम मानव के नाते , देखते हैं कि हमारा समस्त तर्कसंगत ज्ञान अहंबोध के अधीन है । मुझे इस मेज का बोध हो रहा है , तुम्हारे अस्तित्व का बोध हो रहा है ; और इस अहंबोध के कारण ही मैं जान पा रहा हूँ कि मेज यहाँ है और तुम यहाँ हो ! यह तो हुई एक ओर की बात । फिर एक दूसरी ओर यह भी देख रहा हूँ कि मेरी 'सत्ता ' कहने से जो बोध होता है , उसका अधिकांश में अनुभव नहीं कर सकता । शरीर के भीतर के सारे यन्त्र, मस्तिष्क के विभिन्न अंश- इन सब के प्रति हम सचेत नहीं हैं । 

जब हम भोजन करते हैं , तब वह ज्ञानपूर्वक करते हैं , परन्तु जब हम उसका सारभाग भीतर ग्रहण करते हैं , तब हम वह अज्ञातरीति से करते हैं । जब वह खून के रूप में परिणत होता है , तब भी वह हमारे बिना जाने ही होता है । और जब इस खून से शरीर के भिन्न भिन्न अंश गठित होते हैं , तो वह भी हमारी जानकारी के बिना ही होता है । किन्तु यह सारा काम हमारे द्वारा ही होता है । इस शरीर के भीतर कोई अन्य दस - बीस लोग तो बैठे नहीं हैं , जो यह काम कर देते हों । पर यह किस तरह हमें मालूम हुआ कि हमीं इनको कर रहे हैं , दूसरा कोई नहीं ? इस सम्बन्ध में अनायास ही यह कहा जा सकता है कि आहार करना ही हमारा काम है और खाना पचाने और खाद्य से शरीर को पुष्ट करने का काम तो हमारे लिए दूसरा कोई कर दे रहा है

पर यह हो नहीं सकता क्योंकि यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अभी जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं , वे लगभग सभी साधना के बल से हमारे जाने साधित हो सकते हैं । ऐसा मालूम होता है कि हमारा हृदययन्त्र अपने आप ही चल रहा है , हममें से कोई उसको अपनी इच्छानुसार नहीं चला सकता , वह अपने ख्याल से आप ही चल रहा है । परन्तु  योगाभ्यास के बल से हृदय के कार्य को भी इस प्रकार इच्छाधीन किये जा  सकता है कि वह  इच्छा मात्र से शीघ्र या धीरे चलने लगे , या लगभग बन्द हो जाये ।  हमारे शरीर के प्रायः सभी अंश इसी प्रकार  वश में लाये जा सकते हैं । इससे क्या ज्ञात होता है ? यही कि इस समय जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं , उन्हें भी हमीं कर रहे हैं , पर हाँ , हम उन्हें अज्ञातरीति से कर रहे हैं , बस, इतना ही । 

अतएव हम देखते हैं कि मानव - मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है। पहली अवस्था को ( ज्ञान या चेतन भूमि ) कह सकते हैं । जिन कामों को करते समय साथ साथ , ' मैं कर रहा हूँ ' यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है , वे कार्य ( ज्ञान या चेतन भूमि ) से साधित हो रहे हैं , ऐसा कहा जा सकता है । दूसरी भूमि को अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं । जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं , जिसमें ‘ मैं ज्ञान नहीं रहता , उसे अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं।

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🔆🙏चेतन क्रिया, अचेतन क्रिया और जन्मजात प्रवृत्ति 🔆🙏

🔆Conscious work, Unconscious work and Instinct🔆

अतएव हम देखते हैं कि मानव - मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है। पहली अवस्था को ( ज्ञान या चेतन भूमि ) कह सकते हैं । जिन कामों को करते समय साथ साथ , ' मैं कर रहा हूँ ' यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है , वे कार्य ( ज्ञान या चेतन भूमि ) से साधित हो रहे हैं , ऐसा कहा जा सकता है । दूसरी भूमि को अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं । जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं , जिसमें ‘ मैं ज्ञान नहीं रहता , उसे अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं।

हमारे जिन कार्य - कलापों में ' अहं ' मिला रहता है, उन्हें ज्ञानयुक्त या चेतन क्रिया और जिनमें 'अहं ' का लगाव नहीं , उन्हें ज्ञानरहित या अचेतन क्रिया (unconscious work) कहते हैं । निम्न श्रेणी के पशुओं (lower animals) में यह ज्ञानरहित क्रिया जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) कहलाती है । पशुओं की अपेक्षा उच्चतर प्राणियों में और सब से उच्च कोटि का प्राणी- `मनुष्य ' में यह दूसरे प्रकार की क्रिया , जिसमें अहंबोध रहता है , अधिक दीख पड़ती है - इसी को ज्ञानयुक्त क्रिया (Conscious work) कहते हैं । 

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🙏सुषुप्ति और अतिचेतन अवस्था से जो कार्य होता है उसमें अहंबोध नहीं रहता🙏  

परन्तु मन के इन तीन भूमियों को समझ लेने से ही सारी भूमियों का उल्लेख नहीं हो जाता । मनुष्य का मन इन तीनों भूमियों से उच्च भूमि पर भी विचरण कर सकता है । मन ज्ञान की भी अतीत अवस्था में (beyond consciousness-अतिचेतन अवस्था में ) जा सकता है । जिस प्रकार अज्ञानभूमि से जो कार्य होता है , वह ज्ञान की निम्न भूमि का कार्य है , वैसे ही ज्ञान की उच्च भूमि से भी ज्ञानातीत भूमि से भी कार्य होता है । उसमें भी किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता । यह अहंबोध केवल बीच की अवस्था में रहता है । जब मन इस रेखा के ऊपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता , किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है । 

जब मन इस रेखा के ऊपर अर्थात् ज्ञानभूमि के अतीत प्रदेश में गमन करता है , तब उसे समाधि, अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि कहते हैं ।  (जन्मजात प्रवृत्ति से प्रेरित होकर कार्य करने की अवस्था और अतिचेतन अवस्था में पहुंचकर, पुनः शरीर में लौटकर कार्य करने की अवस्था) इन दोनों ही अवस्थाओं में तो अहंबोध नहीं रहता ! अब हम यह किस तरह समझें कि जो मनुष्य समाधि - अवस्था में पहुँच जाता है , वह ज्ञानभूमि के निम्न स्तर में नहीं चला जाता , बिलकुल हीन दशापन्न नहीं हो जाता , वरन् ज्ञानातीत भूमि में चला जाता है ?  इसका उत्तर यह है कि कौन ज्ञानभूमि के निम्न देश में और कौन ऊर्ध्व देश में गया , इसका निर्णय फल देखने पर ही हो सकता है । 

जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है , तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है । तब वह अज्ञात भाव से ही शरीर की सारी क्रियाएँ , श्वास - प्रश्वास , यहाँ तक कि शरीरसंचालन - क्रिया भी करता रहता है ; उसके इन सब कामों में अहंबोध का कोई लगाव नहीं रहता ; तब वह अज्ञान से ढका रहता है । वह जब नींद से उठता है , तब वह सोने के पहले जैसा था , वैसा ही रहता है , उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता । उसके सोने से पहले उसकी जो ज्ञानसमष्टि थी , नींद टूटने के बाद भी ठीक वही रहती है , उसमें कुछ भी वृद्धि नहीं होती । उसे कोई प्रकाश (ज्ञानोदीप्ति -enlightenment ) नहीं मिलताकिन्तु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है , तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो , अज्ञानी रहा हो , तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर (बुद्ध बनकर) व्युत्थित होता है । 

इस भिन्नता का कारण क्या है ? एक अवस्था से , मनुष्य जैसा गया था , वैसा ही लौट आया , और दूसरी अवस्था से लौटकर मनुष्य ने ज्ञानालोक प्राप्त किया - वह एक महान् साधु , एक सिद्ध पुरुष के रूप में परिणत हो गया , उसका स्वभाव बिलकुल बदल गया , उसके जीवन ने बिलकुल दूसरा रूप धारण कर लिया । दोनों अवस्थाओं के ये दो विभिन्न फल हैं अब बात यह है कि फल अलग अलग होने पर कारण भी अवश्य अलग अलग होगा । और चूँकि समाधि - अवस्था से लब्ध यह ज्ञानालोक , अज्ञानावस्था से लौटने के बाद की अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त होता है अथवा साधारण ज्ञानावस्था में युक्ति - विचार द्वारा जो ज्ञान उपलब्ध होता है , उन दोनों से अत्यन्त उच्चतर है , इसीलिए अवश्य वह ज्ञानातीत या अतिचेतन भूमि से आता है । इसीलिए समाधि को  ज्ञानातीत भूमि (superconscious state) के नाम से अभिहित किया जाता है । संक्षेप में समाधि का तात्पर्य यही है ।

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🔆🙏हमारे व्यावहारिक जीवन में समाधि की क्या उपयोगिता है ?🔆🙏

 हमारे जीवन में इस समाधि की उपयोगिता कहाँ है ? समाधि की विशेष उपयोगिता है । विचार का क्षेत्र में (field of reason ) या जिस क्षेत्र में हमारा मन ज्ञानपूर्वक कार्य करता है , वह संकीर्ण और सीमित है । मनुष्य का युक्ति - तर्क एक छोटे से वृत्त में ही भ्रमण कर सकता है , वह कभी उसके में बाहर नहीं जा सकता । हम जितना ही उसके बाहर जाने का प्रयत्न करते हैं , उतना ही वह असम्भव सा जान पड़ता है । ऐसा होते हुए भी , मनुष्य जिसे अत्यन्त कीमती और सब से प्रिय (most dear ) समझता है , वह तो उस युक्ति या तर्क के राज्य के बाहर ही है । 

कोई अविनाशी आत्मा ( immortal soul) है या नहीं , ईश्वर है या नहीं , इस जगत् के नियन्ता परम ' ज्ञानस्वरूप कोई ' (supreme intelligence guiding this universe) हैं या नहीं ? - इन सब तत्त्वों का निर्णय करने में तर्क असमर्थ है । इन सब प्रश्नों का उत्तर तर्क कभी नहीं दे सकता । तर्क क्या कहता है ? वह कहता है " मैं अज्ञेयवादी हूँ । मैं किसी विषय में ' हाँ ' भी नहीं कह सकता और ' ना ' भी नहीं । ” 

फिर भी इन सब प्रश्नों का समाधान तो हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है । इन प्रश्नों के ठीक ठीक उत्तर जाने बिना मानवजीवन उद्देश्यविहीन हो जाएगा । इस तर्करूप वृत्त के बाहर से प्राप्त हुए समाधान ही हमारे सारे नैतिक मत , सारे नैतिक भाव , यही नहीं , बल्कि मानव-स्वभाव में जो कुछ सुन्दर तथा महान् है , उस सब की नींव है । अतएव यह सब से आवश्यक है कि हम इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर पा लें । 

यदि मनुष्य-जीवन केवल पाँच मिनट की चीज हो , और जगत् कुछ परमाणुओं का आकस्मिक मिलन मात्र हो , तो फिर दूसरे का उपकार मैं क्यों करूँ ? दया , न्यायपरता या सहानुभूति दुनिया में फिर क्यों रहे ? तब तो हम लोगों का यही एकमात्र कर्तव्य हो जाता है कि जिसकी जो इच्छा हो, वही करे , सब अपना अपना देखें । तब तो यही कहावत चरितार्थ होने लगती है `यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् , ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।'  यदि हम लोगों के भविष्य अस्तित्व की आशा ही न रहे , तो मैं अपने भाई को क्यों प्यार करूँ , मैं उसका गला क्यों न काटूँ  ? यदि जगत् के परे कोई सत्ता न हो , यदि मुक्ति नामक कोई चीज न हो , यदि कुछ कठोर , अभेद्य , जड़ नियम ही सर्वस्व हों , तब तो हमें इहलोक में ही सुखी होने की प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए । 

आजकल बहुत से लोगों के मतानुसार उपयोगितावाद ( utility ) ही नीति की नींव है , अर्थात् जिससे अधिक लोगों को अधिक परिमाण में सुख - स्वाच्छन्द्य मिले , वही नीति की नींव है । इन लोगों से मैं पूछता हूँ , हम इस नींव पर खड़े होकर नीति का पालन क्यों करें ? क्यों ? यदि अधिक मनुष्यों का अधिक मात्रा में अनिष्ट करने से मेरा मतलब सधता हो , तो मैं वैसा क्यों न करूँ ? उपयोगितावादी इस प्रश्न का क्या जवाब देंगे ? कौन अच्छा है और कौन बुरा , यह तुम कैसे जानोगे ? मैं अपनी सुख की वासना से परिचालित होकर उसकी तृप्ति करता हूँ ; ऐसा करना मेरा स्वभाव है ; मैं उससे अधिक कुछ नहीं जानता । मेरी ये वासनाएँ हैं , और मैं उनकी तृप्ति करूँगा ही , तुम्हें उसमें आपत्ति करने का क्या अधिकार है ? मानवजीवन के ये सब महान् सत्य , जैसे- नीति , आत्मा का अमरत्व , ईश्वर , प्रेम , सहानुभूति , साधुत्व और सर्वोपरि , सब से महान् सत्य निःस्वार्थता - ये सब भाव हमें कहाँ से मिले हैं

सारा नीतिशास्त्र , मनुष्य के सारे काम , मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थता - रूप एकमात्र नींव पर आधारित हैं । मानवजीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थता - रूप एकमात्र भाव के अन्दर डाले जा सकते हैं । मैं क्यों स्वार्थशून्य होऊँ ? निःस्वार्थी होने की आवश्यकता क्या ? और किस शक्ति के बल से मैं निःस्वार्थी होऊँ ? तुम कहते हो , " मैं युक्तिवादी हूँ , मैं उपयोगितावादी हूँ ”,  लेकिन यदि तुम मुझे इस उपयोगिता की युक्ति न दिखला सको , तो मैं तुम्हें अयौक्तिक कहूँगा। मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ , कारण बताओ ; क्यों न मैं बुद्धिहीन पशु के समान आचरण करूँ? निःस्वार्थता कवित्व के हिसाब से अवश्य बहुत सुन्दर हो सकती है , किन्तु कवित्व तो युक्ति नहीं है । मुझे युक्ति दिखलाओ , मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ ? क्यों मैं भला बनूँ ? यदि कहो , " अमुक यह बात कहते हैं , इसलिए ऐसा करो " -तो यह कोई जवाब नहीं है , मैं ऐसे किसी व्यक्तिविशेष की बात नहीं मानता । मेरे निःस्वार्थी होने से मेरा कल्याण कहाँ ? 

यदि ' कल्याण 'से अधिक परिमाण में सुख समझा जाए , तो स्वार्थी होने में ही मेरा कल्याण है । उपयोगितावादी इसका क्या उत्तर देंगे ? वे इसका कुछ भी उत्तर नहीं दे सकते । इसका यथार्थ उत्तर यह है कि यह परिदृश्यमान जगत् अनन्त समुद्र में एक छोटा सा बुलबुला है - अनन्त शृंखला की एक छोटी सी कड़ी है । जिन्होंने जगत् में निःस्वार्थता का प्रचार किया था और मानवजाति को उसकी शिक्षा दी थी , उन्होंने यह तत्त्व कहाँ से पाया ? हम जानते हैं कि यह जन्मजात प्रवृत्तियों (Instincts) द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता । जन्मजात प्रवृत्तियों से युक्त पशु तो इसे नहीं जानते । विचार बुद्धि से भी यह नहीं मिल सकता - उससे इन सब तत्त्वों का कुछ भी नहीं जाना जाता । तो फिर वे सब तत्त्व उन्होंने कहाँ से पाये ?

इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है , संसार के सभी धर्मशिक्षक तथा धर्मप्रचारक कह गये हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाये हैं । उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया । किसी ने कहा , “ एक देवदूत ने पंखयुक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा , ' हे मानव , सुनो , मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ , ग्रहण करो । ” दूसरे ने कहा , “ तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है । ” तीसरे ने कहा , “ मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा , उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया । ” 

इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है , संसार के सभी धर्मशिक्षक तथा धर्मप्रचारक (पैगम्बर) कह गये हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाये हैं । उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया । किसी ने कहा , “ एक देवदूत ने पंखयुक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा , ' हे मानव , सुनो , मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ , ग्रहण करो । ” दूसरे ने कहा , “ तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है । ” तीसरे ने कहा , “ मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा , उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया । ” इसके आगे वे और कुछ न कह सके इस तरह विभिन्न उपायों से तत्त्वलाभ की बात कहने पर भी उन सभी का इस विषय में यही मत है कि उन्होंने यह ज्ञान युक्ति - तर्क से नहीं पाया , वरन् उसके अतीत प्रदेश से ही उसे पाया है । 

इसके बारे में योगशास्त्र ( science of Yoga) का मत क्या है ? उसका मत यह है कि वे जो कहते हैं कि युक्ति - तर्क के अतीत प्रदेश से (beyond reasoning)उन्होंने उस ज्ञान को पाया है , यह सही है ; किन्तु उनके अपने अन्तर से ही वह ज्ञान उनके पास आया है । योगी कहते हैं , इस मन की ही ऐसी एक उच्च अवस्था है , जो युक्ति तर्क के परे है , जो अतिचेतन (superconscious state)  है । उस उच्चावस्था में पहुँचने पर मनुष्य तर्क के अगम्य ज्ञान  को प्राप्त कर लेता है  ! और ऐसे मनुष्य को ही समस्त विषय - ज्ञान के अतीत पारमार्थिक ज्ञान (Metaphysical knowledgeया अतीन्द्रिय ज्ञान (transcendental knowledge)की प्राप्ति होती है। 

साधारण मानवी स्वभाव के परे , समस्त युक्ति तर्क के परे की यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है , जो उसका विज्ञान नहीं जानता । वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है । और जब इस प्रकार अचानक अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है , तो वह साधारणतः सोचता है कि वह ज्ञान कहीं बाहर से आया है । 

इसी से यह स्पष्ट है कि यह पारमार्थिक ज्ञान सारे देशों में वस्तुतः एक होने पर भी , किसी देश में वह देवदूत से , किसी देश में देवविशेष से , अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान् से प्राप्त हुआ सुना जाता है । इसका तात्पर्य क्या है ? यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है , किन्तु जिन्होंने उसे पाया है , उन्होंने अपनी अपनी शिक्षा और विश्वास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला । असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था (superconscious state) में अचानक जा पड़े थे । 

योगी कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी खतरे की आशंका रहती है अनेक स्थलों में तो दिमाग बिगड़ जाने या मस्तिष्क के बिलकुल नष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। और भी देखोगे , जिन सब मनुष्यों ने अचानक इस अतीन्द्रिय ज्ञान (transcendental knowledge) को पाया है, पर उसके वैज्ञानिक तत्त्व को नहीं समझा , वे कितने भी बड़े क्यों न हों , सच पूछा जाए , तो उन्होंने अँधेरे में टटोला है , और उनके उस ज्ञान के साथ कुछ न कुछ विचित्र अन्धविश्वास तो मिला हुआ है ही

कुछ पैगम्बरों ने तो मानो अपने आपको भ्रान्तियों (hallucinations) के लिए खोल रखा था। मुहम्मद ने घोषणा की कि एक दिन देवदूत गैब्रिल (Angel Gabriel ) पर्वत की गुफा में उनके पास आया और उन्हें स्वर्गीय अश्व हैरक (Harak) पर बिठा स्वर्गराज्य के दर्शन को ले गया। किन्तु , यह सब होते हुए भी , पैगम्बर मुहम्मद ने कई आश्चर्यजनक सत्यों (wonderful truths) का उद्घाटन किया । 

यदि तुम कुरान का अध्ययन करो , तो तुम पाओगे कि उसमें आश्चर्यजनक सत्यों के साथ ही कुछ अन्धविश्वास (superstitions) भी मिले - जुले हैं । इसकी व्याख्या तुम कैसे करोगे ? वे अवश्य ही दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे , किन्तु यह अन्तःप्रेरणा (inspiration) उन्हें अनजान में ही अचानक मिल गयी थी । "He was not a trained Yogi " --- अर्थात वे कोई ` गुरु--शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' -- में प्रशिक्षित और सिद्ध योगी न थे।  इसलिए , वे अपने मन के क्रिया - कलापों को न समझ ने सके । मुहम्मद ने संसार का क्या उपकार किया और उनके अनुयायियों  की धर्मान्धता (fanaticism) ने संसार की कितनी क्षति की - जरा इस पर विचार करो । उनकी कुछ शिक्षाओं पर गलत जोर देने के कारण लाखों की हत्याएँ हुईं , लाखों माताओं ने अपनी सन्तानें खोयीं , लाखों मातृ-पितृविहीन बने और कितने ही देशों का सर्वनाश ही हो गया- इन्हें जरा सोचो तो । 

जो हो , हम मुहम्मद तथा अन्य कई पैगम्बरों के जीवन-चरित्र का अध्ययन करने पर देखते हैं कि अचानक इन्द्रियातीत राज्य में जा पड़ने से उपर्युक्त प्रकार के खतरे की आशंका रहती है । किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे सभी दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे । जब कभी कोई पैगम्बर केवल भावुकता के बल से इस अतीन्द्रिय अवस्था में जा पड़े हैं , तो वे उस अवस्था से कुछ सत्य ही नहीं लाये , पर साथ ही अन्धविश्वास , धर्मान्धता , ये सब भी लेते आये । उनकी शिक्षा में जो उत्कृष्ट अंश है , उससे जगत् का जैसा उपकार हुआ है , उन सब धर्मान्धता और अन्धविश्वासों से वैसे ही क्षति भी हुई है । 

मानव-जीवन नाना प्रकार के विपरीत भावों से ग्रस्त होने के कारण- `incongruous' असंगत या  असामंजस्यपूर्ण है । `To get any reason out of the mass of incongruity, we have to transcend our reason, but we must do it scientifically, slowly, by regular practice, and we must cast off all superstition.' इस असामंजस्य में कुछ सामंजस्य और सत्य प्राप्त करने के लिए हमें युक्ति - तर्क के परे जाना पड़ेगा ।  पर वह धीरे धीरे करना होगा , मनःसंयोग या नियमित साधना के द्वारा ठीक वैज्ञानिक उपाय से उसमें पहुँचना होगा, और सारे अन्धविश्वास को भी हमें छोड़ देना होगा । 

अन्य कोई विज्ञान सीखने के समय जैसा हम लोग करते हैं , इस अतिचेतन अवस्था ( super-conscious state) के अध्ययन के लिए भी ठीक उसी धारा का अनुसरण करना होगा । युक्ति तर्क को ही अपनी नींव बनाना होगा युक्ति - तर्क हमें जितनी दूर ले जा सकता है , हम उतनी दूर जाएँगे और जब युक्ति - तर्क नहीं चलेगा , तब वही हमें उस सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति का रास्ता दिखला देगा । 

अतः यदि कोई अपने को दिव्य प्रेरणा से प्रेरित कहकर दावा करे , फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे , तो उसकी बात मत सुनना ।[When you hear a man say, “I am inspired,” and then talk irrationally, reject it. -- अर्थात  यदि कोई  दावा करे- “I am inspired,” मैं भी एक पैगम्बर/ ईश्वरकोटि का नेता हूँ , क्योंकि मैं मन की चहारदीवारी को पारकर अतीन्द्रिय अवस्था को जानकर  पुनः शरीर में वापस लौट आया हूँ! , फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे (मानवमात्र को प्रेम करने के बजाय काफिर/ जिहाद करने को कहता हो) , तो उसकी बात मत सुनना ।] क्यों ? इसलिए कि जिन तीन भूमियों की बात कही गयी है , जैसे - जन्मजात - प्रवृत्ति (instinct) , चेतन या तर्कजात ज्ञान (reason) और अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि (superconsciousness) - ये तीनों एक ही मन की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । एक मनुष्य के तीन मन नहीं हैं , वरन् उस एक ही मन की एक अवस्था दूसरी अवस्थाओं में परिवर्तित हो जाती है । जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) चेतन या तर्कजात ज्ञान (reason) में और तर्कजात ज्ञान अतिचेतन या जगदतीत ज्ञान (transcendental consciousness) में परिणत होता है । (Instinct develops into reason, and reason into the transcendental consciousness.)

अतः इन अवस्थाओं में से कोई भी अवस्था दूसरी अवस्थाओं की विरोधी नहीं है । `Real inspiration never contradicts reason, but fulfils it.' -- यथार्थ दिव्य प्रेरणा , कभी तर्कजात ज्ञान का खण्डन नहीं करती, बल्कि तर्कजात ज्ञान की अपूर्णता को पूर्ण मात्र करती है । पूर्वकालीन पैगम्बरों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) ने जैसा कहा है ,“I come not to destroy but to fulfil,”  " हम विनाश करने नहीं आये , वरन् पूर्ण करने आये हैं " , इसी प्रकार दिव्य प्रेरणा भी तर्कजात ज्ञान का पूरक है और उसके साथ उसका पूर्ण समन्वय है ।

ठीक वैज्ञानिक उपाय से उपर्युक्त अतिचेतन या समाधि अवस्था प्राप्तः करने के लिए ही पूर्वकथित सारे योगांग उपदिष्ट हुए हैं । यह भी समझ लेना विशेष आवश्यक है कि इस दिव्य प्रेरणा को प्राप्त करने की शक्ति प्राचीन पैगम्बरों के समान प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में है । वे पैगम्बर कोई अद्वितीय नहीं थे , वे हमारे तुम्हारे समान ही मनुष्य थे । वे अत्यन्त उच्च कोटि के योगी थे । उन्होंने पूर्वोक्त अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर ली थी , और प्रयत्न करने पर तुम और हम भी उसकी प्राप्ति कर ले सकते हैं । वे कोई विशेष प्रकार के अद्भुत मनुष्य नहीं हैं । यदि एक मनुष्य ने उस अवस्था की प्राप्ति की है , तो इसी से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त करना सम्भव है । 

यह केवल सम्भव ही नहीं , वरन् समय आने पर सभी इस अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे । इस अवस्था को प्राप्त करना ही धर्म है । केवल प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा यथार्थ शिक्षा प्राप्त होती है। हम लोग भले ही सारे जीवन भर तर्क - विचार करते रहें , पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझ सकेंगे । कुछ पुस्तकें पढ़ाकर तुम किसी मनुष्य से शल्यचिकित्सक (surgeon) बनने की आशा नहीं कर सकते । तुम केवल एक नक्शा दिखाकर किसी देश को देखने का मेरा कौतूहल पूरा नहीं कर सकते । स्वयं वहाँ जाकर उस देश को प्रत्यक्ष देखने पर ही मेरा कौतूहल पूरा होगा । 

नक्शा केवल इतना कर सकता है कि वह देश के बारे में और भी अधिक अच्छी तरह से जानने की इच्छा उत्पन्न कर देगा । बस , इसके अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं । सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानवमन अवनति की ओर जाता है । यह कहने की अपेक्षा और घोर ईशनिन्दा (horrible blasphemy) क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस ग्रन्थ या उस शास्त्र में आबद्ध है ? मनुष्य इधर तो भगवान् को अनन्त कहता है , और उधर एक छोटे से ग्रन्थ में उन्हें आबद्ध कर रखना चाहता है । क्यों अमुक ग्रन्थ पर विश्वास नहीं किया , इसलिए लाखों आदमी मार डाले गये ! 

किसी अमुक  ग्रन्थ में ही सारा ईश्वरीय ज्ञान निबद्ध है , इस पर विश्वास न करने से सहस्रों लोग मौत के घाट उतार दिये गये । भले ही आज उस हत्या आदि का समय नहीं रहा , पर फिर भी अभी तक जगत् इस ग्रन्थनिष्ठा में प्रबल रूप से आबद्ध है ! 

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🔆🙏 राजयोग के वैज्ञानिक उपाय से ध्यान और समाधि 🔆🙏

ठीक वैज्ञानिक उपाय से अतिचेतन अवस्था ( superconscious state ) को प्राप्त करने के लिए , मैं तुम्हें राजयोग के जो विविध साधन बतला रहा हूँ , उनके माध्यम से तुम्हें जाना पड़ेगा । प्रत्याहार और धारणा (Pratyâhâra and Dhâranâ) के बाद अब ध्यान (meditation)  के बारे में चर्चा करूँगा । 

जब मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में कुछ समय तक स्थिर रखने के निमित्त प्रशिक्षित किया जाता है , तब उसको उस दिशा में अविच्छिन्न गति से (unbroken current- तैलधारवत) -प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होती है । इस अवस्था का नाम है - ध्यान । जब ध्यान - शक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर एकाग्र हो जाता है , तब उस अवस्था को समाधि कहते हैं

 धारणा , ध्यान और समाधि , इन तीनों को एक साथ मिलाकर संयम कहते हैं । अर्थात् यदि किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है , फिर उस एकाग्रतां की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है , और उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यन्तरिक भाग पर , जिसका , ध्येय - वस्तु केवल कार्य है , अपने आपको लगाए रख सकता है , तो सभी कुछ ऐसे शक्तिसम्पन्न मन के वशीभूत हो जाता है । 

जीव की जितने प्रकार की अवस्थाएँ हैं , उनमें यह ध्यानावस्था (meditative state) ही सर्वोच्च है । जब तक वासना रहती है (जब तक कामिनी-कांचन में आसक्ति बनी रहती हैं)  , तब तक यथार्थ सुख नहीं आ सकता । केवल जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से , साक्षिभाव से सारी वस्तुओं का परिशीलन कर सकता है , तभी उसे यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है । 

पशुओं को इन्द्रिय विषय भोगों में सुख मिलता हैं , मनुष्य को बुद्धि में और देवमानव को आध्यात्मिक चिंतन में।  जो ऐसी ध्यानावस्था को (साक्षीभाव को) प्राप्त हो चुके हैं , उनके पास यह जगत् सचमुच अत्यन्त सुन्दर रूप से (ब्रह्ममय सरूप से) प्रतीयमान होता है । जिसमें वासना नहीं हैं , जो सर्व विषयों में निर्लिप्त है , उसके पास प्रकृति के ये विभिन्न परिवर्तन एक महान् सौन्दर्य और उदात्त भाव (माँ महामाया) की छवि मात्र हैं । 

इन तत्त्वों को (5 इन्द्रिय विषयों और पंचभूतों को ) ध्यान में जान लेना आवश्यक है । मान लो , मैंने एक शब्द सुना । पहले बाहर से एक कम्पन आया , उसके बाद स्नायविक गति उस कम्पन को मन के पास ले गयी , फिर मन से एक प्रतिक्रिया हुई और उसके साथ ही साथ मुझे बाह्य वस्तु का ज्ञान हुआ । यह बाह्य वस्तु ही आकाश - कम्पन से लेकर मानसिक प्रतिक्रिया तक सब भिन्न भिन्न परिवर्तनों का कारण है । 

योगशास्त्र में इन तीनों को क्रमशः शब्द , अर्थ और ज्ञान कहते हैं । भौतिक विज्ञान और शरीरशास्त्र की भाषा में उन्हें आकाश - कम्पन , स्नायु और मस्तिष्क में गति तथा मानसिक प्रतिक्रिया कहते हैं । ये तीनों प्रतिक्रियाएँ सम्पूर्ण अलग होने पर भी इस समय इस तरह मिली हुई हैं कि उनका भेद समझा नहीं जाता । हम यथार्थ में अभी उन तीनों में से किसी का भी अनुभव नहीं कर सकते ; अभी तो उनके सम्मिलन के फलस्वरूप केवल बाह्य वस्तु का अनुभव करते हैं। प्रत्येक अनुभवक्रिया में ये तीन व्यापार होते हैं । हम भला उन्हें अलग क्यों न कर सकेंगे ? 

प्रथमोक्त योगांगों के अभ्यास से मन जब दृढ़ और संयत हो जाता है । तथा सूक्ष्मतर अनुभव की शक्ति प्राप्त करता है , तब उसे ध्यान में लगाना चाहिए । पहले - पहल स्थूल वस्तु को लेकर ध्यान करना चाहिए । फिर क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ध्यान में हमारा अधिकार होगा , और अन्त में हम विषयशून्य अर्थात् निर्विकल्प ध्यान सफल हो जाएँगे । मन को पहले अनुभूति के बाह्य कारण अर्थात् विषय का , फिर स्नायुओं में होनेवाली गति का और उसके बाद उसकी अपनी प्रतिक्रियाओं का अनुभव करने के लिए नियुक्त करना होगा । 

जब मन अनुभूति के बाह्य उपकरणों अर्थात् विषयों को पृथक् रूप से जान सकेगा , तब उसमें समस्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थों , सारे सूक्ष्म शरीरों और सूक्ष्म रूपों को जानने की शक्ति आ जाएगी। जब वह भीतर होनेवाली गतियों को दूसरे सभी विषयों से अलग करके , उनके अपने स्वरूप में , जानने में समर्थ होगा , तब वह सारी चित्तवृत्तियों पर उनके भौतिक शक्ति के रूप में परिणत होने से पूर्व ही अधिकार चला सकेगा , फिर वे चित्तवृत्तियाँ चाहे स्वयं अपनी हों , चाहे दूसरों की ।

 और जब योगी केवल मानसिक प्रतिक्रिया का उसके अपने स्वरूप में अनुभव करने में समर्थ होंगे, तब वे सर्व पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे , क्योंकि इन्द्रियगोचर प्रत्येक वस्तु , यहाँ तक कि प्रत्येक विचार भी इस मानसिक प्रतिक्रिया का ही फल है । ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर योगी मानो अपने मन की नींव तक का अनुभव कर लेते हैं , और तब मन उनके सम्पूर्ण वश में आ जाता है। 

योगियों के पास तब नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ ( सिद्धियाँ ) आने लगती हैं , पर यदि वे इन सब शक्तियों को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठें , तो उनकी भविष्य की उन्नति का रास्ता रुक जाता है । भोग के पीछे दौड़ने से इतना अनर्थ होता है ! किन्तु यदि वे इन सब अलौकिक शक्तियों को भी छोड़ सकें , तो वे मनरूप समुद्र में उठनेवाले वृत्तिप्रवाहों को पूर्णतया रोकने में समर्थ हो सकेंगे । और यही योग का चरम लक्ष्य है । तभी , मन के नाना प्रकार के विक्षेप एवं नाना प्रकार की दैहिक गतियों से विचलित न होकर आत्मा की महिमा अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित होगी । तब योगी ज्ञानघन , अविनाशी और सर्वव्यापी रूप से अपने स्वरूप की उपलब्धि करेंगे , और जान लेंगे कि वे अनादि काल से ऐसे ही हैं । 

इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का , यही नहीं , प्रत्येक प्राणी का अधिकार है । सब से निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी , कभी न कभी , इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे , और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जाएगी , तभी और सिर्फ तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है । इससे पहले हम उसकी ओर जाने के लिए केवल संघर्ष करते हैं । जो धर्म नहीं मानता , उसमें और हममें अभी कोई विशेष अन्तर नहीं , क्योंकि हमें आत्म-साक्षात्कार नहीं हुआ । इस आत्मसाक्षात्कार तक हमें पहुँचाने के बिना एकाग्रता का और क्या शुभ उद्देश्य है ?

इस समाधि को प्राप्त करने के प्रत्येक अंग पर गम्भीर रूप से विचार किया गया है , उसे विशेष रूप से नियमित , श्रेणीबद्ध और वैज्ञानिक प्रणाली में सम्बद्ध किया गया है । यदि साधना ठीक ठीक हो और पूर्ण निष्ठा के साथ की जाए , तो वह अवश्य हमें अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचा देगी । और तब सारे दुःख - कष्टों का अन्त हो जाएगा , कर्म का बीज दग्ध हो जाएगा और आत्मा चिरकाल के लिए मुक्त हो जाएगी ।

=======













 



 


 








 






 













 

 




 






शुक्रवार, 27 मई 2022

🔆🙏 व्यावहारिक जीवन में वेदांत-स्वामी विवेकानंद: प्रथम व्याख्यान, 🔆🙏" [Imitation of Christ- पैगम्बर ईसा का अनुसरण"] - 'थॉमस आ केम्पिस (Thomas a Kempis) ]

 व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 1 

( 10 नवम्बर , 1896 ई ० को लन्दन में दिया हुआ भाषण )


PRACTICAL VEDANTA- PART I

(Delivered in London, 10th November 1896)

बहुत से लोगों ने मुझसे व्यावहारिक जीवन में वेदान्त - दर्शन की उपयोगिता पर कुछ बोलने के लिए कहा है । मैं आप लोगों से पहले ही कह चुका हूँ कि सिद्धान्त बिलकुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है । यदि उसे कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो बुद्धि - विलास के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं । अतएव , वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक बनना ही पड़ेगा। [The Vedanta, therefore, as a religion must be intensely practical.]
हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे [सार्वभौमिक धर्म ~ मनुष्य बनो और बनाओ ~ 'Be and Make' को] कार्यरूप में परिणत करना होगा । 

केवल यही नहीं , अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिटाना पड़ेगा  ; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है - वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है [fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish ; for the Vedanta teaches oneness — one life (Energy-प्राण) throughout.] 

धर्म  के सभी आदर्श जीवन के सभी अंशों के नींवरूप बनें , वे हमारी प्रत्येक विचार के भीतर प्रवेश करें और कार्य में भी उन्हीं का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता रहे । मैं क्रमश : व्यावहारिक जीवन [मनुष्य बनो और बनाओ ] पर वेदान्त  के प्रभाव के बारे में ही कहूँगा ।किन्तु यह व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं , अतः पहले हमें वेदान्त - सिद्धान्त की आलोचना करनी होगी । 
हमें यह जानना है कि ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्वतों की गुफाओं और घने जंगलों में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाज में भी कार्यान्वित हुए हैं । इन सिद्धान्तों में एक और भी विशेषता है , और वह यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फल स्वरूप उत्पन्न नहीं हुए , किन्तु जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं वे ही राजसिंहासन पर बैठनेवाले राज -राजर्षि  इनके प्रणेता हैं । 
श्वेतकेतु आरुणि ऋषि के पुत्र थे । ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे । श्वेतकेतु का लालन - पालन वन में ही हुआ , किन्तु वे पांचाल देश के राजा प्रवाहन जैवलि के पास गये । राजा ने उनसे पूछा " मरते समय प्राणी इस लोक से किस प्रकार गमन करता है , क्या यह तुम जानते हो ? "--- " नहीं। " “ किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है , जानते हो ? " --- " नहीं । ";  " पितृयान और देवयान ' के विषय में भी कुछ जानते हो ? " -आदि आदि ।

 इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये । श्वेतकेतु किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके । तब राजा ने कहा , “ तुम कुछ नहीं जानते । " बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया । पिता ने कहा , " मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता । अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता ? " तब पिता - पुत्र दोनों राजा के पास गये और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की । राजा ने कहा , " यह विद्या- यह ब्रह्मविद्या केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, ब्राह्मणों को इसका कभी ज्ञान न था ।" [ यह ब्रह्मविद्या अर्थात ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने और बनाने की विद्या,  अथवा व्यावहारिक वेदान्त 3H विकास के 5 अभ्यास की प्रशिक्षण-पद्धति, केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, ब्राह्मणों को इसका कभी ज्ञान न था ।]  जो हो इसके बारे में वे जो कुछ जानते थे इन दोनों को शिक्षा देने लगे । 
इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया , किन्तु उस के सर्वोत्कृष्ट भिन्न भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये । लाखों मनुष्यों के शासक स्वतन्त्र राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन  हो सकता है ? किन्तु साथ ही वे राजागण गम्भीर विचारशील भी होते थे
 इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि इस दर्शन के प्रकाश में हमारा जीवन गढ़ा तथा सुंदर ढंग से बिताया अवश्य जा सकता है [इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि इस व्यावहारिक वेदान्त ~ `Be and Make '  के प्रकाश में हमारा जीवन गढ़ कर तथा हमें एक चरित्रवान मनुष्य में  रूपांतरित करके  समाज और देश को अवश्य महान बनाया जा सकता है। ] जब हम परवर्ती काल की भगवद् गीता की आलोचना करते हैं ( शायद आप लोगों में से बहुतों ने इसे पढ़ा होगा , यह वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्य स्वरूप है ) तब यही देखते हैं और यह आश्चर्य की बात है। कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम - स्थल । 

यहीं श्रीकृष्ण अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दे रहे हैं और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर यही मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है- तीव्र कर्मण्यता , किन्तु उसी के बीच अनन्त शान्तभाव । इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है । हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता , पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता । यदि यह अकर्मण्यता ही आदर्श होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं , वे भी तो निश्चेष्ट हैं । मिटटी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते , क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं । 
और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं । वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है वह अनन्त स्थिरता साथ संयुक्त है । किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती -- चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता । हम लोग भी बहुत कुछ देखने - सुनने के बाद यही समझ पाये हैं कि कार्य करने के लिए इस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है। 

लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम कार्य के लिए जो एक प्रकार का आग्रह अनुभव करते हैं वह यदि न रहे ।तो हम कार्य कैसे करेंगे ? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है , जितनी अभिज्ञता बढ़ती जा रही है , उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है । कार्य के भीतर जितनी कम कामना रहती है (अर्थात जितना अधिक निःस्वार्थ भाव रहता है) उतनी ही सुन्दरता के साथ उसे पूर्ण किया जा सकता है । हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं । 

जब हम लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं , तब अपनी शक्ति का विशेष अपव्यय करते हैं , अपनी स्नायुमण्डली को विकृत कर डालते हैं , मन को चंचल बना डालते हैं , किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं । जिस शक्ति का कार्यरूप में परिणत होना उचित था वह वृथा भावुकता मात्र में समाप्त होकर क्षय हो जाती है । केवल जब मन खूब शान्त और स्थिर रहता है तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है । यदि तुम जगत् के बड़े बड़े कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी पढ़ो तो देखोगे कि वे अद्भुत शान्त प्रकृति के लोग थे । कोई भी वस्तु (दुर्घटना,धोखा, छल) उनके चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी । 

इसीलिए जो व्यक्ति बहुत जल्दी क्रोध में आ जाता है वह कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर पाता और जो किसी प्रकार भी क्रोध नहीं करता वह सबसे अधिक काम कर सकता है । जो व्यक्ति क्रोध , घृणा आदि किसी शत्रु के वश में हो जाता है वह अपने को खण्ड खण्ड कर डालता और कभी एक बड़ा कर्मठ व्यक्ति नहीं बन पाता । केवल शान्त , क्षमाशील , स्थिरचित्त व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है । 

वेदान्त आदर्श के सम्बन्ध में ही उपदेश देता है और जिसे हम वास्तव अर्थात् बोधगम्य कहते हैं उससे आदर्श कहीं अधिक उच्च होता है , यह भी हम जानते हैं । हम लोगों के जीवन में दो प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं । एक है अपने आदर्श को जीवनोपयोगी बनाना -- अपने वर्तमान जीवन के स्तर पर उसे खींच लाना और दूसरी है इसी जीवन को आदर्शोपयोगी बनाना अर्थात् आदर्श के अनुसार उच्च जीवन का गठन करना । 

इन दोनों का भेद भलीभाँति समझ लेना चाहिए -- कारण , अपने आदर्श को जीवनोपयोगी बनाते समय , अपने अनुसार बनाते समय हम लोग प्रायः प्रलुब्ध हो जाते हैं । मैं सोचता हूँ कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ , शायद उसका अधिकांश ही बुरा है और उसके पीछे शायद क्रोध , घृणा अथवा स्वार्थपरता ही विद्यमान है ।  अब मानो किसी व्यक्ति (गुरु या मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक) ने मुझे किसी विशेष आदर्श (स्वामी विवेकानन्द) के सम्बन्ध में उपदेश दिया -- निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि स्वार्थपरता तथा आत्मसुख का त्याग करो

में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है । किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ , ' यह है मेरा आदर्श ' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए व्यस्त हो जाता हूँ । इसी प्रकार ' शास्त्रीय ' बात को लेकर लोग आपस में झगड़ते रहते हैं और कहते हैं कि जो मैं समझता हूँ वही शास्त्रीय है तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है । ' व्यवहार्य ' (practical) शब्द को लेकर भी ऐसा ही अनर्थ होता रहता है । 

जिस बात को मैं कार्यरूप में परिणत करने योग्य समझता हूँ , जगत् में एकमात्र वही व्यवहार्य है , ऐसी मेरी धारणा होती है । उदाहरणार्थ , यदि मैं एक दूकानदार हूँ तो सोचता हूँ कि संसार में दूकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है । यदि मैं चोर हूँ तो चोरी के बारे में भी यही सोचता हूँ । आप लोग जानते ही हैं कि हम सब इस ' व्यवहार्य ' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए करते हैं जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है और जो हमसे किये जा सकते हैं । इसी कारण मैं तुम लोगों को यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यवहार्य है , तथापि साधारण अर्थ में नहीं , बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से । 

वेदान्त का आदर्श (चार महावाक्य) कितना ही उच्च क्यों न हो , वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यही आदर्श ठीक ठीक  आदर्श है । एक शब्द में इसका उपदेश है " तत्त्वमसि ' तुम्हीं वह ब्रह्म हो ' और इसके समुदय उपदेश की अन्तिम परिणति यही है । अनेक प्रकार के बौद्धिक वादविवाद के पश्चात् तुम्हें इसमें यही सिद्धान्त मिलेगा की मानवात्मा शुद्धस्वभाव और सर्वज्ञ है । आत्मा के सम्बन्ध में जन्म अथवा मृत्यु की बात करना भी कोरी विडम्बना मात्र है । आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु ; मैं मरूँगा अथवा मरने में डर लगता है यह सब केवल कुसंस्कार मात्र है । 

और मैं यह कर सकता हूँ , यह नहीं कर सकता , ये सब भी कुसंस्कार हैं । मैं सब कुछ कर सकता हूँ । वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से अतिरिक्त सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है , उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है । 

(अपनी आत्मा की महिमा ) में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि बहुत से लोग इसकी धारणा भी नहीं कर पाते और हम लोगों में से भी अधिकांश व्यक्ति यह सोचते हैं कि यह कभी अपरोक्ष ज्ञान का विषय नहीं होगा , किन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति ही इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है । इस विषय में स्त्री - पुरुष का भेद नहीं है , बालक बालिका का भेद नहीं है , जातिभेद नहीं है— आवाल - वृद्ध वनिता , जाति - धर्म - भेद के बिना ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं । - कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता , कारण , वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से वर्तमान भी है ।

हमारे भीतर ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति,सम्पूर्ण ऊर्जा (प्राण?) पहले से ही है । हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' 'अन्धकार' कहकर चीत्कार करते हैं । हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था । अन्धकार कभी था ही नहीं , दुर्बलता कभी थी ही नहीं , हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं , मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं । 

इस प्रकार वेदान्त , केवल ' आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है ' यही नहीं कहता , किन्तु यह भी कहता है कि वह आदर्श हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है । और जो कुछ हम देखते हैं (जन्म-मृत्यु) वह सम्पूर्ण मिथ्या है । जिस क्षण तुम कहते हो , ' मैं एक क्षुद्र मर्त्य जीव हूँ ' (मैं तो एक नश्वर शरीर मात्र हूँ !), तुम झूठ बोलते हो; तब तुम मानो आत्म सम्मोहन (auto suggestion) विद्या  का गलत दिशा में प्रयोग करके, जादू के जोर से अपने को तुम दुर्बल , दुर्भागी बना डालते हो

वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता , भ्रम स्वीकार करता है । और वेदान्त कहता है कि सब से बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल , पापी , हतभाग्य कहना – यह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदि आदि । कारण , जब तुम इस प्रकार नकारात्मक ढंग से सोचने लगते हो तभी तुम मानो बन्धन - शृंखला को और भी दृढ़ कर लेते हो , अपनी आत्मा को पहले से और भी अधिक मायाजाल में फँसा लेते हो । अतएव , जो कोई अपने को दुर्बल समझता है , वह भ्रान्त है ; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है ; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं । 

हमें सदा याद रखना चाहिए कि वेदान्त में हमारे इस वर्तमान सम्मोहित जीवन का --हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्या जीवन का (सिंह शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझकर मिमियाने का)   मायामय जीवन का -- , जिसमें आदर्श के साथ मिल जाने की कोई चेष्टा नहीं है- वहां तो कामिनी -कांचन में आसक्ति का परित्याग करने के लिए कहा गया है।  और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य - जीवन सदा वर्तमान है , वह प्रकाशित होगा । 

यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया , किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है — उसका वही  पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है । आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है । यह अनन्त पवित्रता , मुक्त स्वभाव , प्रेम और ऐश्वर्य पहले से ही हम लोगों में विद्यमान है । 

वेदान्ती यह भी कहते हैं कि ऐसा नहीं कि यह केवल वन अथवा पहाड़ी गुफाओं में ही उपलब्ध हो सकता है , वरन् हम यह पहले ही देख चुके हैं कि  जिन लोगों ने इस सत्यसमूह का आविष्कार किया था वे बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे। साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे , वरन् राजर्षि थे, वे लोग ऐसे थे जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे , जो सद्गुरु की कृपा से गृहस्थ होकर भी विदेह बन गए थे, किन्तु गुरु की आज्ञा से जिन्हें राजा के कर्तव्य का पालन करना पड़ता था ! जिन्हें सैन्य - परिचालन करना पड़ता था , जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजा वर्ग का हानि - लाभ देखना होता था । 

इसके अतिरिक्त उस समय के राजागण ही सर्वेसर्वा थे- आजकल जैसे रिमोट कट्रोल से चलने वाले कठपुतली नहीं । फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उसको जीवन में परिणत करने और मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे । अतएव , उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है , क्योंकि हमारा जीवन उन राजर्षि लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक कर्महीन है । 

अतः हम लोगों को जब उन राजर्षि लोगों की अपेक्षा इतना कम कामकाज है, और हम जब उनकी अपेक्षा अधिक स्वाधीन हैं; तो हम लोगों का इस पूर्ण सत्य का अनुभव न कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है । पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों या राजर्षियों के व्यस्तता की तुलना में हमारा समय-अभाव तो कुछ भी नहीं । 

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित कई अक्षौहिणी सेना के परिचालक अर्जुन का जितना अभाव था , हमारा अभाव उसकी तुलना में नगण्य है , तब भी इस युद्ध - कोलाहल के बीच में भी वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने को समय पा सके- इसीलिए हमारे इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में भी यह करना सम्भव और उचित है । हम लोग यदि ठीक प्रकार से समय बितायें तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं , उससे हम लोगों में से अनेक के पास अधिक समय है । 

हम लोगों को जितना अवकाश है , उसमें यदि हम सचमुच चाहें तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं , किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए । इसी में हमारे जीवन की सब से बड़ी विपत्ति की आशंका है । ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो हमारे व्यर्थ अभावों और वासनाओं के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं है , किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है ।

वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता । प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ एक करना पड़ेगा -- वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा । कारण , तुम्हें सदा स्मरण रखना होगा कि वेदान्त का मूल सिद्धान्त -- यह एकत्व अथवा अखण्ड भाव है । द्वित्व कहीं नहीं है दो प्रकार का जीवन अथवा जगत् भी नहीं है । तुम लोग देखोगे कि वेद पहले स्वर्गादि के विषय में कहते हैं , किन्तु अन्त में जब वे अपने दर्शन के उच्चतम आदर्श के विषय में कहना आरम्भ करते हैं तो वे उन सब बातों को बिलकुल त्याग देते हैं । 

एक मात्र जीवन है , एक मात्र जगत् है , एक मात्र अस्तित्व है । सब कुछ वही एक सत्तामात्र हैं ; भेद केवल परिमाण का है , प्रकार , का नहीं । भिन्न भिन्न जीवन के बीच में भेद प्रकारगत नहीं है। वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशुगण मनुष्यों से सम्पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है । 

कुछ व्यक्तियों ने दयावश `जीवच्छेदन- निवारणी सभा'(Anti Vivisection Society) स्थापित की है । मैंने एक दिन इस सभा के एक सदस्य से पूछा , " भाई , आप भोजन के लिए पशु हत्या को सम्पूर्णतया न्यायसंगत मानते हैं , किन्तु वैज्ञानिक परीक्षा के लिए दो - एक पशुओं की हत्या के इतने विरुद्ध क्यों हैं ? " उसने उत्तर दिया , " जीवित की चीरफाड़ बहुत भयानक कार्य है , किन्तु पशुगण हमारे भोजनार्थं ही बनाये गये हैं । " कैसी अजीब बात है! वास्तव में पशुगण भी तो उसी अखण्ड सत्ता के अंशरूप हैं । 

यदि मनुष्य का जीवन अनन्त है तो पशु - जीवन भी उसी प्रकार है । प्रभेद केवल परिमाणगत है , प्रकारगत नहीं , हम जिस प्रकार के हैं . क्षुद्र जीवाणु भी उसी प्रकार के हैं - प्रभेद केवल परिमाणगत है । और उस सर्वोच्च सत्ता की दृष्टि से देखने पर यह प्रभेद भी नहीं देखा जाता । मनुष्य एक तिनके और पौधे में बहुत प्रभेद देख सकता है , किन्तु यदि तुम खूब ऊँचे चढ़कर देखो तो यह घास तथा एक बड़ा वृक्ष दोनों ही समान दिखेंगे । 

इसी प्रकार उस उच्चतम सत्ता के दृष्टिकोण से ये समी समान हैं और यदि आप एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो आपको पशुओं से लेकर उच्चतम प्राणी तक समत्व मानना पड़ेगा; नहीं तो भगवान् एक महापक्षपाती व्यक्ति बन जायेंगे । जो भगवान् अपनी मनुष्य - सन्तान के प्रति इतने पक्ष पाती हैं और पशु नामक अपनी सन्तान के प्रति इतने निर्दय हैं , वे तो फिर दानवों से भी अधम हुए । इस प्रकार के ईश्वर की उपासना करने की अपेक्षा मुझे सैकड़ों बार मरना भी पसन्द है ।

मेरा समस्त जीवन इस प्रकार के ईश्वर के विरुद्ध युद्ध में ही बीतेगा । किन्तु वास्तविक ईश्वर ऐसे नहीं हैं । जो लोग ऐसा कहते हैं वे नहीं जानते कि वे दायित्व - बोधहीन और हृदयहीन व्यक्ति हैं ; वे क्या कह रहे हैं , यह नहीं जानते । यहाँ फिर ' व्यावहारिकता ' शब्द गलत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । वास्तविक बात यह है कि हम मांस खाना चाहते हैं , इसीलिए मांस खाते रहते हैं । मैं स्वयं एक शाकाहारी न भी होऊँ , किन्तु मैं शाकाहार का आदर्श समझता हूँ । 

जब मैं मांस खाता हूँ तब जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है । घटनाविशेष के कारण उसे खाने को बाध्य होने पर भी मैं यह जानता हूँ कि यह उचित नहीं । आदर्श नीचा करके अपनी दुर्बलता का समर्थन मुझे नहीं करना चाहिए । आदर्श यही है - मांस न खाया जाय ; किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाय , क्योंकि पशुगण भी हमारे भाई हैं- बिल्ली और कुत्ते भी हमारे भाई हैं । 

यदि उन्हें इस प्रकार से सोच सकते हो तो तुम सब प्राणियों में भ्रातृभाव की ओर बहुत कुछ अग्रसर हो गये -- केवल मनुष्यजाति के प्रति भाईचारा चिल्लाना वृथा है । तुम संसार में देखोगे कि इस प्रकार का उपदेश बहुत लोग पसन्द नहीं करते , क्योंकि उन्हें वास्तव को छोड़कर आदर्श की ओर जाने के लिए कहा जाता है । किन्तु यदि तुम एक ऐसी बात कहो जिससे उनके वर्तमान कार्य का -- वर्तमान आचरण का समर्थन होता हो तो वे कहेंगे , यही ' व्यावहारिक ' है । 

मनुष्यस्वभाव में बहुत भारी रक्षणशील प्रवृत्ति दीख पड़ती है । हम लोग सामने एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहते । जिस प्रकार बर्फ में जमे व्यक्तियों के सम्बन्ध में पढ़ा जाता है वैसा ही मनुष्यजाति के बारे में भी कहा जा सकता है । सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है । यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है , तो वह कहता है , ' मुझे सोने दो-- बर्फ में सोने से बड़ा आराम मिलता है ! " उसकी वही निद्रा महानिद्रा हो जाती है । हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है । 

हम लोग भी सारा जीवन यही कर रहे हैं- सिर से लेकर पैर तक समूचे बर्फ में जमे जा रहे हैं , तो भी हम लोग सोना चाहते हैं । अतएव , सदा आदर्श अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न करो और यदि कोई व्यक्ति आदर्श को तुम्हारी निम्न भूमि में खींच लाये , यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता , तो उसकी बात कानों में भी न जाने दो । इस प्रकार का धर्माचरण मेरे द्वारा असम्भव है , किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये जो कि जीवन का सर्वोच्च आदर्श दर्शाता है , तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ । 

इस विषय में खूब सावधान रहना चाहिए । जब कभी कोई व्यक्ति किसी प्रकार की दुर्बलता को पुष्ट करने का प्रयत्न करे तभी विशेष सावधान होने की आवश्यकता है । एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे बन जाते हैं , उस पर भी यदि कोई आकर हमें उस प्रकार की शिक्षा दे और यदि हम उस उपदेश का अनुसरण करें तो हम कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते । मैंने ऐसी बातें बहुत देखी हैं , जगत् के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है और हमारे देश में अनेक धर्म सम्प्रदाय रक्तबीज के समान बढ़ते रहते हैं । 

प्रतिवर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते है ; किन्तु एक बात मैंने विशेष रूप से देखी है कि जो सम्प्रदाय संसार और धर्म को एक साथ मिलाने की चेष्टा नहीं करते वे ही उन्नति करते हैं और जहाँ परमोच्च आदर्श का झूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्थ करने की – ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खींच लाने की चेष्टा रहती है , वहीं रोग घुस पड़ता है । मनुष्य जहाँ (पशु-अवस्था में) पड़ा है वहीं पड़े रहने से काम नहीं चलेगा – उसे 'ईश्वर' होना पड़ेगा मनुष्य को सांसारिक दासता, पशु के स्तर (0%Unselfishness) पर नहीं घसीट लाना चाहिए, उसे ईश्वर के स्तर (100% निःस्वार्थता,  Unselfishness) तक उठाना चाहिए

इस प्रश्न का एक और पहलू है । हमें दूसरों को घृणित दृष्टि से नहीं देखना चाहिए । हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं । दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है । प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत - पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत - जीवन और मृत्यु के बीच में भेद है केवल परिमाणगत , एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है , प्रकारगत नहीं ; कारण , वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं । 

सभी एक हैं , चाहे चिन्तनरूप हो , जीवनरूप हो , आत्मरूप हो , सभी एक हैं— प्रभेद केवल परिमाण और मात्रा के तारतम्य में है । जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करना ठीक नहीं है । किसी की भी निन्दा मत करो ; किसी की सहायता कर सकते हो तो करो , नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो , उन्हें आशीर्वाद दो , अपने रास्ते जाने दो । गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती । इस प्रकार से कभी किसी की उन्नति नहीं होती । 

दूसरे की निन्दा करने से केवल शक्ति - क्षय होता है । समालोचना और निन्दा हम लोगों के वृथा शक्ति - क्षय का उपाय मात्र है और अन्त में हम देखते हैं कि दूसरा जिस लक्ष्य की ओर जा रहा है हम भी उसी ओर जा रहे हैं । हम लोगों में से अधिकांश का मतभेद केवल भाषा का भेद मात्र है । उदाहरणार्थ ' पाप ' की बात लो । वेदान्त की पाप की धारणा तथा यह साधारण धारणा कि मनुष्य पापी है— दोनों वास्तव में एक ही बात हैं । दूसरी ' नहीं ' की दिशा में है और वेदान्त की ' हाँ ' की दिशा में । एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है किन्तु उस ओर ध्यान मत दो - हम लोगों को उन्नति करनी है ।

 जब मनुष्य पहले पहल जन्मा तभी उसका रोग क्या है , जान लिया गया । सभी अपना अपना रोग जानते हैं किसी दूसरे को कहना नहीं पड़ता । हम लोग बाह्य जगत् के सामने भले ही कपटाचरण करें , परन्तु अपने अन्दर ही अन्दर हम अपनी दुर्बलता जानते हैं । किन्तु वेदान्त कहता है , केवल दुर्बलता स्मरण कराने से अधिक उपकार नहीं होगा – उसका उपचार करो ।

यह कहते रहना कि ' मैं रोगग्रस्त हूँ ' – रोग की औषध या उपचार नहीं है । मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है , बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है । उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ । मनुष्य को पापी न बतलाकर वेदान्त ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है , " तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है ।

जिसे तुम ' पाप ' कहते थे वह तुम्हारा निम्नतम प्रकाश है ; अगर कर सको तो अपने को उच्चतर भाव में प्रकाशित करो । एक बात हम सब को सदैव याद रखनी चाहिए और वह यह कि हम सब कुछ कर सकते हैं । कभी ' नहीं ' मत कहना , " मैं नहीं कर सकता " यह कभी न कहना । ऐसा कभी नहीं हो सकता , क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो । तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश - काल भी कुछ नहीं हैं । तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो , तुम सर्वशक्तिमान हो । अब तक जो कुछ कहा गया है , अवश्य वह केवल नीति का मूल सूत्र है ।

हमें सिद्धान्त की कोटि से उतरकर जीवन की विशेष विशेष अवस्थाओं में इसका प्रयोग करना पड़ेगा । हमें देखना होगा कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में , नागरिक जीवन में , ग्राम्य जीवन में , प्रत्येक जाति के जीवन में प्रत्येक जाति के घरेलू कामकाजों में परिणत किया जा सकता है । कारण , यदि धर्म मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में (मनुष्य बंनने और बनाने में ) सहायता नहीं दे सकता तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं — फिर तो वह केवल कुछ व्यक्तियों के लिए मतवाद मात्र ही हुआ । 

धर्म यदि समग्र मानवजाति का कल्याण करना चाहता है तो वह इस प्रकार का होना उचित है कि मनुष्य हर समय उसका सहारा ले सके- गुलामी हो या आजादी , महा अपवित्रता हो या अत्यन्त पवित्रता , सभी समय वह मानवजाति की समान भाव से सहायता कर सके । केवल तभी वेदान्त के सब तत्त्व अथवा धर्म के सब आदर्श उन्हें आप किसी भी नाम से पुकारिये काम में आ सकेंगे ।

आत्मविश्वासरूप आदर्श ही मानवजाति के लिए सब से अधिक कल्याणप्रद हो सकता है । यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और वह कार्यरूप में परिणत हो जाता तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत् में जितना दुःख - कष्ट है उसका अधिकांश कट जाता । समग्र मानवजाति के इतिहास में सभी श्रेष्ठ नर - नारियों के बीच में यदि कोई भावविशेष फलीभूत हुआ है तो वह है यही आत्मविश्वास — वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे श्रेष्ठ बनेंगे और वे बने भी । 

मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न हो , एक समय ऐसा अवश्य आता हैं जब उसे इस अवस्था से विरक्त होकर उन्नति की चेष्टा करनी पड़ती है । उस समय वह अपने ऊपर विश्वास करना सीखता है । किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है । हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतना क्यों घूमते फिरें ? मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है , वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थित तथा अभाव के कारण ही है यह थोड़ी खोज करने से ही समझ में आ सकता है । 

इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है । मैंने अपने जीवन में ही इसे देखा है और अभी भी देखता हूँ और जितनी आयु बढ़ती जा रही है उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है । जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है । प्राचीन धर्म में कहा गया है , जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है । नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता वही नास्तिक है । 
किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र ' मैं ' को लेकर नहीं है , कारण वेदान्त एकत्ववाद की शिक्षा भी देता है । इस विश्वास का अर्थ है - सब के प्रति विश्वास, क्योंकि आत्मप्रीति का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम। समस्त पशु-पक्षियों से प्रेम , क्योंकि तुम सब एक हो।  इस महान विश्वास के बल पर ही समस्त जगत् की उन्नति होगी । यह मेरी ध्रुव धारणा है ।

वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है जो साहस के साथ कह सकता है , "मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ।" क्या तुम लोग जानते हो कि तुम्हारी इसी देह के भीतर कितनी शक्ति , कितनी ऊर्जा  कितने प्रकार की क्षमता अब भी छिपी पड़ी है ? मनुष्य के अन्दर जो जो वस्तुएँ छिपी पड़ी हैं , उन सबका ज्ञान किस वैज्ञानिक ने प्राप्त किया है ? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर रहता है , किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का अति सामान्य अंश ही प्रकाशित हुआ है । 

अतएव , तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो ? ऊपर से दिखनेवाली इस अवनति के पीछे क्या है , तुम यह जानते हो ? तुम्हारे अन्दर क्या है , क्या तुम जानते हो ? तुम्हारे पीछे है अनंत शक्ति और आनन्द का अपार सागर । “ आत्मा वा अरे श्रोतव्यः " - इस आत्मा के बारे में पहले सुनना चाहिए । दिनरात श्रवण करो कि तुम्हीं वह आत्मा हो ।

 दिनरात यही भाव तुम्हें व्याप्त किये रहे ; जब तक कि वह तुम्हारे रक्त की प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी प्रत्येक नस - नस में समा जाय । सम्पूर्ण शरीर को एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो " मैं अज , अविनाशी , आनन्दमय , सर्वज्ञ , सर्वशतिमान् , नित्य ज्योतिर्मय आत्मा हूं ” – दिनरात यही चिंतन करते रहो ; जब तक कि यह भाव तुम्हारे प्राणों में भिद नहीं जाता, तुम्हारे जीवन का अविच्छेद्य अंग नहीं बन जाता। इसी का ध्यान करते रहो - इस भाव में विभोर होने पर ही तुम प्रकृत कर्म करने में समर्थ हो सकोगे । 

' हृदय पूर्ण होने पर मुँह बात करता है हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते है ।' अतएव इस प्रकार की अवस्था में ही यथार्थ कार्य सम्पूर्ण हो सकेगा । अपने को इस आदर्श के भाव से ओतप्रोत कर डालो - जो कुछ करो , पहले , उसके सम्बन्ध में उत्तम रूप से सोचो । तब इस चिन्ताशक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म परिवर्तित होकर उन्नत देवभावापन्न हो जायेंगे । अगर ' जड़ ' शक्तिशाली है तो ' विचार ' सर्वशक्तिमान् है । 

इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो ,  उसी ध्यान को लेकर अपने को सर्वशक्तिमत्ता और महत्त्व के भाव से पूर्ण बना लो । ईश्वरेच्छा से यदि कुसंस्कार पूर्णभाव तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते तो अच्छा होता । ईश्वरकृपा से यदि हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव से परिवेष्टित न होते तो कैसा अच्छा होता ! ईश्वरेच्छा से यदि मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम , महत्तम सत्यसमुदाय में पहुँच सकता तो कैसा अच्छा होता

किन्तु उसे इन सब में से होकर ही जाना पड़ता है ; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं , उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ । जानता ये सब बातें मनुष्य को प्रायः भयानक प्रतीत होती हैं । बहुत से लोग ये सब उपदेश सुनकर भयभीत हो जाते हैं , किन्तु जो वास्तविक अभ्यास करना चाहते हैं उनके लिए यही पहला अभ्यास है । अपने को अथवा दूसरे को कभी दुर्बल मत कहना।  

यदि कर सको तो मनुष्य का कल्याण करो , पर किसी का अनिष्ट न करो । अपने हृदय के अन्दर से यह समझ लो कि तुम्हारे ये क्षुद्र क्षुद्र भाव एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्रार्थना करना केवल कुसंस्कार है । मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो । जो भी उत्तर पाते हो वह अपने हृदय से ही । तुम लोगों में से बहुतों का विश्वास है कि भूत नहीं है , किन्तु अन्धकार में जाते ही तुम लोगों का शरीर कछ काप-सा जाता है । इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह सब भय घुसा दिया गया है ।
  किन्तु हमें यह अभ्यास करना पड़ेगा कि समाज का भय ,संसार के कहने-सुनने का भय ,बन्धु-बान्धवों की घृणा का भय ,प्रिय अन्धविश्वासों के नष्ट होने का भय यह सब हम दूसरों के मस्तिष्क में नहीं घुसायेंगे। इस प्रवृत्ति को जीत लो । केवल विश्वब्रह्माण्ड का  एकत्व औरआत्मविश्वास छोड़ ,धर्म के विषय में और क्या सिखाना है ? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है । लाखों साल से मनुष्य यही चेष्टा करता आ रहा है और अभी भी कर रहा है । 

तुम लोग भी यही शिक्षा देते हो ,यह हम जानते हैं । सब ओर से हम यही  शिक्षा पाते हैं ।  केवल दर्शन और मनोविज्ञान ही नहीं , जड़  विज्ञान भी यही घोषणा करता है । क्या ऐसा एक वैज्ञानिक दिखा सकते हो जो आज जगत् का एकत्ववाद अस्वीकृत कर दे ? आज कौन जगत् के अनेकत्ववाद के प्रचार का साहस कर सकता है ? वह सब कुसंस्कार मात्र है । केवल प्राण ही विद्यमान है , एक ही जगत् विद्यमान है; और वही हम लोगों के सामने अनेकवत् प्रतीत होता है , जिस प्रकार स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है । 

स्वप्न में जो देखा जाता है वह सत्य तो नहीं है । एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखायी पड़ता है विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं । इसी प्रकार इस जगत् के सम्बन्ध में भी है ।इस समय यह पन्द्रह आने दुःखरूप और एक आना सुखरूप जान पड़ता है । शायद कुछ दिन बाद ही यह पन्द्रह आने सुखरूप प्रतीत होगा तब हम इसे स्वर्ग कहेंगे । किन्तु साधक को सिद्धावस्था प्राप्त होने पर उसकी एक ऐसी अवस्था आयेगी जब यह सम्पूर्ण जगत् - प्रपंच हम लोगों के सामने से अन्तर्हित हो जायेगा- वह ब्रह्मरूप में प्रतीत होगा और हमें आत्मा का भी ब्रह्मरूप में अनुभव होगा । 

अतएव , लोक अनेक नहीं हैं , जीवन अनेक नहीं हैं । यह बहुत्व उस एकत्व का ही विकास मात्र है । केवल वह ' एक '(प्राण) ही अपने को बहुरूप में प्रकाशित कर रहा है - जड़ अथवा चेतन में , मन या चिन्तन अथवा शक्ति केअन्य किसी भी रूप में । हमारा प्रथम कर्तव्य है- इस तत्त्व की अपने को तथा दूसरों को शिक्षा देना।

 जगत् इस महान् आदर्श की घोषणा से प्रतिध्वनित हो - 'सब कुसंस्कार दूर हों।'  दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो - लगातार सुनाते रहो- ' तुम शुद्धस्वरूप हो , उठो , जाग्रत हो जाओ। हे महान् , यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती । उठो , जागो ! यह मोह-निद्रा तुम्हें भाता नहीं । तुम अपने को दुर्बल और दुःखी समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। "  हे सर्वशक्तिमान् उठो , जागृत होओ , अपना स्वरूप प्रकाशित करो । तुम अपने को पापी समझते हो , वह तुम्हें शोभा नहीं देता । 

जगत् से यही कहते रहो , अपने से यही कहते रहो - देखो , इसका क्या शुभफल होता है ; देखो कैसी बिजली जैसी शक्ति से सम्पूर्ण तत्त्व प्रकाशित होता है , और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है मनुष्य जाति से यही कहते रहो - उसे उसकी शक्ति दिखा दो । ऐसा होने से ही हमारे दैनिक जीवन में उसका फल मिलता रहेगा । 

जिसे हम विवेक-प्रयोग या सदसत् - विचार कहते हैं उसका अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसोटी जान लेनी चाहिए--- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान । जिससे एकत्व की प्राप्ति हो , जिससे मिलन हो , वही सत्य है । प्रेम सत्य है , क्योंकि वह मिलन सम्पादक है ; घृणा असत्य है , क्योंकि वह बहुत्व विधायक - पृथक् - कारक है । घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है --तुमसे मुझे पृथक् करती है - अतएव , वह अन्याय और असत्य है ; यह एक विनाशिनी शक्ति है, यह अलग अलग करती है - नाश करती है ।

 प्रेम को मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है , मिलाता है , प्रेम एकत्व स्थापित करता है । सभी एक हो जाते हैं - माँ सन्तान के साथ एकत्व प्राप्त करती है , परिवार नगर के साथ एकत्व प्राप्त करता है , यहाँ तक कि सम्पूर्ण जगत् ही पशु - पक्षियों के साथ एकीभूत हो जाता है , क्योंकि प्रेम ही वास्तविक अस्तित्व है , प्रेम ही स्वयं भगवान् है और यह सभी कुछ प्रेम का ही विभिन्न विकास है - और यह प्रेम ही स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से विभिन्न नाम-रूपों में  प्रकाशित है प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है , किन्तु वास्तव में सभी कुछ उस एक प्रेम का ही प्रकट रूप है ।

अतएव हम लोगों को यह देखना चाहिए कि हमारे कर्म बहुत्व विधायक हैं अथवा एकत्व - सम्पादक । यदि वे बहुत्व - विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा और यदि वे एकत्व सम्पादक हैं तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए । इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए । देखना चाहिए कि वह बहुत्व विधायक है या एकत्व - सम्पादक ; विचारों को कार्यरूप देने से पहले उन्हें पहचानना चाहिए कि वे एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान् शक्ति उत्पन्न करती है या नहीं ? यदि करते हैं तो ऐसे विचारों  का पोषण करना चाहिए - यदि नहीं करती तो उसको पापचिन्ता कहकर उसका परित्याग करना पड़ेगा

वैदान्तिक नीतिविज्ञान किसी अज्ञेय वस्तु के ऊपर निर्भर नहीं है, वह किसी अज्ञात तत्व का उपदेश नहीं करता। वेदांत हमें यही शिक्षा देता है कि तुम जो कुछ जानते हो , वह आत्मा के द्वारा ही जानते हो ! सेन्ट पाल ने जिस प्रकार रोमवासियों से कहा था , उस प्रकार कहता हूँ “ जिस ईश्वर को तुम अज्ञेय मानकर उपासना करते हो मैं उसी के सम्बन्ध में तुम्हें शिक्षा दे रहा हूँ ।" मैं इस कुर्सी का ज्ञान पा रहा हूँ , किन्तु इस कुर्सी को देखने से पहले मुझे अपने (द्रष्टा) ' मैं ' का ज्ञान होता है , उसके बाद कुर्सी का । इस आत्मा के द्वारा ही इस कुर्सी का ज्ञान होता है । इस आत्मा के द्वारा ही मैं तुम्हारा ज्ञान पाता हूँ - सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान पाता हूँ । अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है । 

आत्मा को हटा लेने से, तो सम्पूर्ण जगत् ही विलुप्त हो जाता है ! सम्पूर्ण ज्ञान आत्म के द्वारा ही होता है , अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात है । यही  ' तुम ' वह हो जिसको तुम ' मैं ' कहते हो । तुम लोग यह सोचकर आश्चर्य करते हो कि मेरा ' मैं ' भला तुम्हारा ' मैं ' कैसे हो सकता है ? तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह सान्त ' मैं ' किस प्रकार अनन्त असीमस्वरूप हो सकता है

किन्तु वास्तव में यही बात सत्य है । सान्त ' मैं ' केवल भ्रम मात्र है , गल्पकथा मात्र है । उसी अनन्त के के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है और उसका कुछ अंश इस ' मैं ' रूप में प्रकाशित हो रहा है , किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त का अंश है । यथार्थ में असीम कभी ससीम नहीं होता ' ससीम ' केवल बात की बात है । अतएव यह आत्मा नर - नारी , बालक - बालिका , यहाँ तक कि पशु - पक्षी सभी को ज्ञात है । उसको बिना जाने हम क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते । 
उस सर्वेश्वर प्रभु (आत्मा ही परमात्मा है) को बिना जाने हम लोग एक क्षण भी श्वास - प्रश्वास तक नहीं ले सकते , हम लोगों की गति , शक्ति , चिन्ता , जीवन सब कुछ उसी के द्वारा परिचालित होता है । वेदान्त का ईश्वर (आत्मा) सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात है ; वह कभी कल्पनाप्रसूत नहीं है । 

यदि मनुष्यों में विद्यमान यह आत्मा ही यदि प्रत्यक्ष ईश्वर नहीं है, तो फिर प्रत्यक्ष ईश्वर और कौन हो सकता है ? - ईश्वर (आत्मा-प्राण)  , जो सब प्राणियों में विराजमान है , हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है ; मैं जिन्हें सम्मुख देख रहा हूँ , उनसे भी अधिक प्रत्यक्ष ईश्वर और क्या देखना चाहते हो ? कारण , तुम्हीं वह सर्वव्यापी , शक्तिमान् ईश्वर हो , और यदि यह हूँ कि तुम वह नहीं हो तो मैं झूठ बोलता हूँ । सारे समय में इसकी अनुभूति करू या न करूं , फिर भी वह सत्य ही है । वह एक, अखण्ड वस्तुस्वरूप ही,सर्ववस्तुओं की एकता,समस्त जीवन, सम्पूर्ण प्राणी और सम्पूर्ण अस्तित्व का सत्यस्वरूप है । 

वेदान्त का यह सब नीतितत्त्व और भी विस्तारित भाव से कहना पड़ेगा । अतएव थोड़ा सा  धैर्य रखना आवश्यक है । पहले ही कह चुका हूँ , हम लोगों को इसकी विस्तृत आलोचना करनी पड़ेगी- विशेष रूप से , जीवन की प्रत्यक्ष घटना में किस प्रकार उसे कार्य में परिणत किया जाय , यह विचार करना है।  और यह भी देखना है कि किस प्रकार यह आदर्श निम्नतर आदर्शसमूह से क्रमशः विकसित हो रहा है , किस प्रकार इस एकत्व का आदर्श धीरे धीरे विकसित होकर क्रमशः सार्वजनीन वैश्विक प्रेम में परिणत हो रहा है । और इन सब तत्त्वों की आलोचना से, हमारा यह उपकार होगा कि हम अब स्वयं अनेक प्रकार के भ्रमों में नहीं पड़ेंगे, (`Be and Make' का प्रचार प्रसार करने से) हम स्वयं मुक्त होकर विदेह बन जायेंगे !  

लेकिन प्रश्न यह है कि सारी दुनिया तो धीरे धीरे निम्नतम आदर्श से ऊपर उठने के लिए रुकी नहीं रह सकती ; हमारे ऊँचे सोपान पर चढ़ने का फल ही क्या , यदि हम यह सत्य अपनी आनेवाली पीढ़ियों को न दे सकें ? इसीलिए इसकी आलोचना हमें विशेष रूप से विस्तार पूर्वक करनी होगी और प्रथमतः उसका ज्ञानभाग - विचारांश विशेष रूप से समझना आवश्यक है , यद्यपि हम जानते हैं कि बौद्धिकता का विशेष मूल्य नहीं , हृदय की ही सब से बड़ी आवश्यकता है।  हृदय के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होता है , बुद्धि के द्वारा नहीं । 

बुद्धि केवल जमादार के समान रास्ता साफ कर देती है - वह गौण भाव से हम लोगों की उन्नति की सहायक हो सकती है । बुद्धि पुलिस के समान है - किन्तु समाज के सुन्दर परिचालन के लिए पुलिस का बहुत प्रयोजन नहीं है । उसे केवल गड़बड़ रोकना पड़ता है , अन्याय विवारण करना पड़ता है । विचार - शक्ति अर्थात् - बुद्धि का कार्य भी इतना ही होता है । 

जब इस प्रकार की विचारात्मक पुस्तक तम पढ़ते हो तब वह एक बार पूरी समझ में आने पर , तुम लोग यह सोचते हो कि ' ईश्वरेच्छा से हम बच गये । ' इसका कारण यही है कि बुद्धि अन्धी है, उसकी अपनी गति - शक्ति नहीं है , उसके हाथ पैर नहीं हैं । हृदय - भाव - ही वास्तव में कार्य करता है, वह बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगगामी पदार्थ की अपेक्षा शीघ्रगामी होता है । 

अब प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे हृदय है ? यदि है तो तुम उसके द्वारा ही ईश्वर को देखोगे । आज तुम्हारी जितनी भी भावना है, वही प्रबल होती जाएगी – उच्च से उच्चतर भावापन्न - देवभावापन्न होती रहेगी, जब तक कि उसे सम्पूर्ण विश्व के साथ एकत्व का अनुभव नहीं होगा । बुद्धि यह नहीं कर सकती । " विचित्र रूप से शब्दों की जोड़तोड़ , शास्त्र व्याख्या की विभिन्न शैलियाँ केवल पण्डितों के लिए हैं , हमारे लिए नहीं , आत्मा की मुक्ति के लिए नहीं । ”

तुम लोगों में से जिन्होंने थॉमस -आ -केम्पिस (Thomas a Kempis) की 'ईसा - अनुसरण '[Imitation of Christ- पैगम्बर ईसा का अनुसरण ] नामक पुस्तक पढ़ी है; वे जानते हैं कि प्रति पृष्ठ में किस प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया है । जगत् के प्रायः सभी महापुरुषों ने इसी पर जोर दिया है । विवेक-प्रयोग करना आवश्यक है, क्योंकि श्रेय-प्रेय विवेक न करने से हम लोग अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं, और गलतियाँ करते हैं । विवेक-प्रयोग शक्ति उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि  की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना । 
ह केवल एक गौण सहायक मात्र है , वह अधिक कुछ नहीं कर पाती – वास्तविक सहायता भाव से , प्रेम से होती है । तुम क्या किसी दूसरे के लिए हृदय के अन्तस्तल से अनुभव करते हो ? यदि तुम करते हो तो तुम्हारे हृदय में एकत्व का भाव बढ़ रहा है । यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम एक बहुत बड़े बुद्धिजीवी भले ही हो सकते हो , किन्तु तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं – केवल शुष्क बुद्धि का स्तूप बने रहोगे ; और यदि तुम्हारे हृदय है तो एक पुस्तक न पढ़ सकते पर भी कोई भाषा न जानने पर भी तम ठीक रास्ते पर चल जा रहे हो । ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे । 

क्या तुमने विश्व के इतिहास में पैगंबरों /मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की शक्ति की कथाएँ नहीं पढ़ीं ? यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली ? बुद्धि से ? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिख छोड़ गया है ? अथवा न्याय के कट विचार लेकर कोई पुस्तक लिख गया । है ? किसी ने ऐसी नहीं किया । वे केवल कुछ थोड़ीसी बातें कह गये हैं । ईसा के समान सहृदय बनो , तुम भी ईसा हो जाओगे , बुद्ध के समान सहृदय बनो , तुम भी बुद्ध बन जाओगे । 

भावना ही जीवन है , भाव ही बल है , भाव ही तेज है— भाव के बिना कितनी ही बद्धि क्यों न लगाओ , ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी । बुद्धि मानो चलनशक्ति - शून्य अंग - प्रत्यंग के समान है । जब भाव उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करता है , तभी वह दूसरे के हृदय को स्पर्श करती है । जगत् में सदा से ऐसा ही होता आया है , अतएव यह विषय तुम्हें खूब याद रखना चाहिए । वैदान्तिक नीतितत्त्व में यह एक विशेष काम की बात है , क्योंकि वेदान्त कहता है तुम सब पैगम्बर हो- तुम सब को पैगम्बर होना ही पड़ेगा । कोई शास्त्र तुम्हारे कार्यों का प्रमाण नहीं , किन्तु तुम्हीं शास्त्रों के प्रमाणस्वरूप हो । कोई शास्त्र वास्तव में सत्य की शिक्षा देता है , यह तुम किस प्रकार जानते हो ? क्योंकि तुम सत्य हो, और तुम भी ठीक वैसा ही अनुभव करते हो इसी लिए तो । वेदान्त भी यही कहता है ।

 जगत् के ईसा और बुद्धगणों (अवतारों या पैगंबरों) के वाक्यों का प्रमाण क्या है ? - यही कि हम - तुम भी वैसा ही अनुभव करते हैं।  इसी कारण हम तुम समझते हैं कि ये सब सत्य हैं। हम लोगों की पैगम्बर आत्मा ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है , यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही ईश्वर का भी प्रमाण है । 

यदि तम वास्तविक महापुरुष (पैगम्बर या ईश्वरकोटि) नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी कोई बात सत्य नहीं । तुम यदि ईश्वर नहीं हो , तो कोई ईश्वर भी नहीं है और कभी होगा भी नहीं । वेदान्त कहता है , इसी आदर्श का अनुसरण करना चाहिए । हम लोगों में से प्रत्येक को ही पैगम्बर बनना पड़ेगा --और तुम स्वरूपतः वही हो । केवल इतना ही है कि यह ' ज्ञात ' हो जाय। यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा सोचना ही भयानक नास्तिकता है । यदि पाप नामक कोई वस्तु है, तो यह कहना ही एकमात्र पाप है कि में दुर्बल हूँ अथवा अन्य कोई दुर्बल है ।
=======