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सोमवार, 17 जुलाई 2023

राजयोग [द्वितीय अध्याय] *साधना के प्राथमिक सोपान * ( Rajyog Chapter - 2 )

राजयोग 

[द्वितीय अध्याय] 

* साधना के प्राथमिक सोपान *

[साभार /@@@@ https://www.khabardailyupdate.com/2023/01/rajyog-chapter-2.html/ THE FIRST STEPS]

राजयोग आठ अंगों में विभक्त है। पहला है यम-अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है नियम - अर्थात् शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्रपाठ) और ईश्वरप्रणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्मसमर्पण। तीसरा है आसन - अर्थात् बैठने की प्रणाली । चौथा है प्राणायाम - अर्थात् प्राण का संयम। पाँचवाँ है प्रत्याहार - अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अन्तर्मुखी करना। छठाँ है धारणा - अर्थात् किसी स्थल पर मन का धारण । सातवाँ है ध्यान। और आठवाँ है समाधि (superconsciousness) -अर्थात् अतिचेतन अवस्था । 

हम देख रहे हैं, यम और नियम चरित्रनिर्माण के साधन हैं। इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योगसाधना सिद्ध न होगी। यम और नियम में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनीसाधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। योगी को चाहिए कि वे तन-मन-वचन से किसी के विरुद्ध हिंसाचरण न करें। दया मनुष्यजाति में ही आबद्ध न रहे, वरन् उसके परे भी वह जाए और सारे संसार का आलिंगन कर ले।

यम और नियम के बाद आसन आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अतएव जिससे दीर्घ काल तक एक ढंग से बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है परन्तु दूसरे के लिए, सम्भव है, वह बहुत कठिन जान पड़े। हम बाद में देखेंगे कि योगसाधना के समय शरीर के भीतर नाना प्रकार के कार्य होते रहते हैं। स्नायविक शक्तिप्रवाह की गति को फेरकर उसे नये साधना के प्राथमिक सोपान रास्ते से दौड़ाना होगा; तब शरीर में नये प्रकार के स्पन्दन या क्रिया शुरू होगी; सारा शरीर मानो नये रूप से गठित हो जाएगा। 

इस क्रिया का अधिकांश मेरुदण्ड (spinal column) के भीतर होगा। इसलिए आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदण्ड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है-ठीक सीधा बैठना होगा-वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। यह तुम सहज ही समझ सकोगे कि वक्ष यदि नीचे की ओर झुका रहे, तो किसी प्रकार का उच्च चिन्तन करना सम्भव नहीं।

 राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। हठयोग केवल स्थूल देह को लेकर व्यस्त रहता है। इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। हठयोग के सम्बन्ध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसकी क्रियाएँ बहुत कठिन हैं। एक दिन में उसकी शिक्षा भी सम्भव नहीं। फिर, उससे कोई आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं होती। डेलसर्ट और अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में इन क्रियाओं के अनेक अंश देखने को मिलते है। उन लोगों ने भी शरीर को भिन्न भिन्न स्थितियों में रखने की व्यवस्था की है। हठयोग की तरह उनका भी उद्देश्य दैहिक उन्नति है, आध्यात्मिक नहीं । शरीर की ऐसी कोई पेशी नहीं, जिसे हठयोगी अपने वश में न ला सके। हृदययन्त्र उसकी इच्छा के अनुसार बंद किया या चलाया जा सकता है-शरीर के सारे अंश वह अपनी इच्छानुसार चला सकता है।

मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यह दृढ़ संकल्प है कि हम अस्वस्थ न हों। और इस दृढ़ संकल्प के बल से वे कभी अस्वस्थ होते भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है। उनकी डेढ़ सौ वर्ष की आयु हो जाने पर भी, देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज हैं, उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ, किन्तु इसका फल बस, यहीं तक है। वटवृक्ष भी कभी कभी पाँच हजार वर्ष जीवित रहता है, किन्तु वह वटवृक्ष का वटवृक्ष ही बना रहता है। फिर वे लोग भी यदि उसी तरह दीर्घजीवी हुए, तो उससे क्या ? वे बस, एक बडे. स्वस्थकाय जीव भर रहते हैं। हठयोगियों के दो-एक साधारण उपदेश बड़े उपकारी हैं। सिर की पीड़ा होने पर, शय्यात्याग करते ही नाक से शीतल जल पियो, इससे सारा दिन मस्तिष्क ठीक और शान्त रहेगा और कभी सर्दी न होगी। नाक से पानी पीना कोई कठिन काम नहीं, बड़ा सरल है। नाक को पानी के भीतर डुबाकर गले में पानी खींचते रहो। पानी अपने आप ही धीरे धीरे भीतर जाने लगेगा।

>>>नाड़ी-शुद्धि प्राणायाम :  Purifying of the nerves. आसन सिद्ध होने पर, किसी किसी सम्प्रदाय के मतानुसार नाड़ी शुद्धि करनी पड़ती है। बहुत से लोग यह सोचकर कि यह राजयोग के अन्तर्गत नहीं है, इसकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करते। परन्तु जब शंकराचार्य जैसे भाष्यकार ने इसका विधान किया है, तब मेरे लिए भी इसका उल्लेख करना उचित जान पडता है। मैं श्वेताश्वतर उपनिषद् पर उनके भाष्य * से इस सम्बन्ध में उनका मत उद्धृत करूँगा - प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है। पहले नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है।  अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बायें नथुने से यथाशक्ति वायु अंदर खींचो, फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किये बिना बायाँ नथुना बंद करके दाहिने नथुने से वायु निकालो। फिर दाहिने नथुने से वायु ग्रहण करके बायें से निकालो। दिन भर में चार बार अर्थात् उषा, मध्याह्न, सायाह्न और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पाँच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ीशुद्धि हो जाती है। उसके बाद [अनुलोम-विलोम, कपालभाति,भ्रामरी, उद्गीत आदि के बाद] प्राणायाम पर अधिकार होगा। [ प्राणायामक्षपितमनोमलस्य चित्तं ब्रह्मणि स्थितं भवतीति प्राणायामों निर्दिश्यते । प्रथमं नाडीशोधनं कर्तव्यम्। ततः प्राणायामेऽधिकारः । दक्षिणनासिकापुटमङ्गुल्यावष्टभ्य वामेन वायुं पूरयेत् यथाशक्ति। ततोऽनन्तरमुत्सृज्यैवं दक्षिणेन पुटेन समुत्सृजेत्। सव्यमपि धारयेत्। पुनर्दक्षिणेन पूरयित्वा सव्येन समुत्सृजेत् यथाशक्ति । त्रिः पंचकृत्वो वा एवं अभ्यस्यतः सवनचतुष्टयमपररात्रे मध्याह्ने पूर्वरात्रेऽर्धरात्रे च पक्षान्मासात् विशुद्धिर्भवति । श्वेताश्वतरोपनिषद्, २१८ - शांकरभाष्य

>>>Practice is absolutely necessary. इस 3H विकास के 5 अभ्यास (नाड़ी-शुद्धि प्राणायाम आदि का अभ्यास) सदा आवश्यक है। तुम रोज देर तक बैठे हुए, मेरी बात सुन सकते हो,  परन्तु अभ्यास किये बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सब कुछ साधना पर निर्भर है। प्रत्यक्ष अनुभूति बिना ये तत्त्व कुछ भी समझ में नहीं आते। स्वयं अनुभव करना होगा, केवल व्याख्या और मत सुनने से न होगा। 

>>> स्व-परामर्श (Autosuggestion)  : फिर साधना में बहुत से विघ्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। शरीर स्वस्थ न रहे, तो साधना में बाधा पड़ती है। अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। किस प्रकार का खान-पान करना होगा, किस प्रकार जीवनयापन करना होगा, इन सब बातों की ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा। मन से सोचना होगा कि शरीर सबल हो - जैसा कि यहाँ के क्रिश्चियन-साइन्स मतावलम्बी करते हैं। [श्रीमती एडी द्वारा स्थापित संस्था के मतानुसार हमें अपने आप से कहना होगा कि -'हमें कोई रोग नहीं है !' और हम उसी समय रोगमुक्त हो जायेंगे। बस शरीर के लिए फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं। लेकिन यह हम कभी न भूलें कि स्वास्थ्य उद्देश्य के साधन का एक उपाय मात्र है। यदि स्वास्थ्य ही उद्देश्य होता, तो हम तो पशुतुल्य हो गये होते। पशु प्रायः अस्वस्थ नहीं होते।

 [इसका 'क्रिश्चियन साइन्स' (Christian Science ) नाम पड़ने का कारण यह है कि इसके मतावलम्बी कहते हैं, "हम ईसा का ठीक ठीक पदानुसरण कर रहे हैं। ईसा ने जो अद्भुत क्रियाएँ की थीं, हम भी वैसा करने में समर्थ हैं, और सब प्रकार से दोषशून्य जीवनयापन करना हमारा उद्देश्य है।" - सं.]

दूसरा विघ्न है सन्देह । हम जो कुछ नहीं देख पाते, उसके सम्बन्ध में सन्दिग्ध हो जाते हैं। मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करे, वह केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता। यही कारण है कि योगशास्त्रोक्त सत्यता के सम्बन्ध में सन्देह उपस्थित हो जाता है। यह सन्देह बहुत अच्छे आदमियों में भी देखने को मिलता है। परन्तु साधना का श्रीगणेश कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ कुछ अलौकिक व्यापार (भ्रूमध्य में बैंगनी रंग के गोले आदि ?) देखने को मिलेंगे, और तब साधना के लिए तुम्हारा उत्साह बढ़ जाएगा। योगशास्त्र के एक भाष्यकार ने कहा भी है, "योगशास्त्र की सत्यता के सम्बन्ध में यदि एक बिलकुल सामान्य प्रमाण भी मिल जाए, तो उतने से ही सम्पूर्ण योगशास्त्र पर विश्वास हो जाएगा"।

उदाहरणस्वरूप तुम देखोगे कि महीनों की साधना के बाद तुम दूसरों का मनोभाव समझ सक रहे हो, वे तुम्हार पास चित्र के रूप में आएँगे; यदि बहुत दूर पर कोई शब्द या बातचीत हो रही हो. तो मन एकाग्र करके सुनने की चेष्टा करने से ही तुम उसे सुन लोगे। पहले पहल अवश्य ये व्यापार बहुत थोड़ा थोड़ा करके दिखेंगे। परन्तु उसी से तुम्हारा विश्वास. बल और आशा बढ़ती रहेगी। मान लो, नासिका के अग्रभाग में तुम चित्त का संयम करने लगे, तब तो थोड़े ही दिनों में तुम्हें दिव्य सुगन्ध मिलने लगेगी; इसी से तुम समझ जाओगे कि हमारा मन कभी कभी वस्तु के प्रत्यक्ष संस्पर्श में न आकर भी उसका अनुभव कर लेता है।  

>>>We must not forget that the body is mine, and not I the body. पर यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि इन सिद्धियों का और कोई स्वतन्त्र मूल्य नहीं; वे हमारे प्रकृत उद्देश्य के साधन में कुछ सहायता मात्र करती हैं। हमें याद रखना होगा कि इन सब साधनों का एकमात्र लक्ष्य, एकमात्र उद्देश्य ‘आत्मा की मुक्ति' है। प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता। हम अवश्य ही प्रकृति के स्वामी होंगे, प्रकृति के गुलाम नहीं । शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी कभी नहीं हो सकते। हम यह कभी न भूलें कि 'शरीर हमारा है-हम शरीर के नहीं'

एक बार आत्मजिज्ञासु होकर ~  एक 'देवता' और एक 'असुर' किसी महापुरुष के पास (सद्गुरु -ब्रह्माजी के पास) गये। उन्होंने उन महापुरुष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की। कुछ दिन बाद उन महापुरुष ने उनसे कहा, “तुम लोग जिसको खोज रहे हो, वह तो तुम्हीं हो।” उन लोगों ने सोचा, "तो देह ही आत्मा है।" फिर उन लोगों ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, सन्तुष्ट चित्त से अपनी अपनी जगह को प्रस्थान किया। उन लोगों ने जाकर अपने अपने आत्मीय जनों से कहा, “जो कुछ सीखना था, सब सीख आये। अब आओ, भोजन, पान और आनन्द में दिन बिताएँ-हमीं वह आत्मा हैं ; इसके सिवा और कोई वस्तु नहीं।" उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने आगे अधिक अन्वेषण नहीं किया। अपने को ईश्वर समझकर वह पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गया; उसने 'आत्मा' शब्द से देह समझा । 

परन्तु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था। देवता भी पहले  इस भ्रम में पड़े थे कि 'मैं' का अर्थ यह शरीर ही है; यह देह ही ब्रह्म है, इसलिए इसे स्वस्थ और सबल रखना, सुन्दर वस्त्रादि पहनना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्तव्य है। परन्तु कुछ दिन जाने पर उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है; वरन् देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है। तब उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा, “गुरो, आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि देह ही आत्मा है ? परन्तु यह कैसे हो सकता है ? सभी शरीर तो नष्ट होते हैं, पर आत्मा का तो नाश नहीं।" आचार्य ने कहा, "तुम स्वयं इसका निर्णय करो, तुम वही हो - तत्त्वमसि।" तब शिष्य ने सोचा, शरीर में क्रियाशील जो प्राण हैं, शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वे वापस चले गये। परन्तु फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने पर मुरझाने लगते हैं। तब वे पुनः गुरु के पास आये और कहा, “गुरो, आपने क्या प्राणों को आत्मा कहा है?" गुरु ने कहा, “स्वयं तुम इसका निर्णय करो, तुम वही हो।" 

उस अध्यवसायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर सोचा, "तो शायद मन ही आत्मा होगा।" परन्तु वे शीघ्र ही समझ गये कि मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं; मन में कभी सद्वृत्ति, तो कभी असद्वृत्ति उठती है; अतः मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता। तब फिर से गुरु के पास आकर उन्होंने कहा, "मन आत्मा है, ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता। आपने क्या ऐसा ही उपदेश दिया है?" गुरु ने कहा, "नहीं, तुम्हीं वह हो, तुम स्वयं इसका निर्णय करो।”

 वे देवपुंगव फिर लौट गये ; तब उनको यह ज्ञान हुआ, “मैं समस्त मनोवृत्तियों के परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ। मेरा जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा सकती, जल नहीं गला सकता।  मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् पुरुष हूँ। आत्मा शरीर, प्राण या मन नहीं है , वह तो इन सब के परे हैं।" इस प्रकार वे देवता ज्ञानप्रसूत आनन्द से तृप्त हो गये। पर उस असुर बेचारे को सत्यलाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यन्त आसक्ति थी

इस जगत् में ऐसी असुर-प्रकृति के अनेक लोग हैं; फिर भी देवता- प्रकृतिवाले बिलकुल ही न हों, ऐसा नहीं। यदि कोई कहे, "आओ, तुम लोगों को मैं एक ऐसी विद्या सिखाऊँगा, जिससे तुम्हारा इन्द्रियसुख अनन्त गुना बढ़ जाएगा" तो अगणित लोग उसके पास दौड़ पड़ेंगे। परन्तु यदि कोई कहे, “आओ, मैं तुम लोगों को तुम्हारे जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा का विषय सिखाऊँगा" तो शायद उनकी बात की कोई परवाह भी न करेगा। ऊँचे तत्त्व की धारणा करने की शक्ति बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है; सत्य को प्राप्त करने के लिए अध्यवसायशील लोगों की संख्या- तो और भी बिरली है। 

>>>Yet the body must be kept strong and healthy : पर संसार में ऐसे महापुरुष भी हैं, जिनकी यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में परिणाम एक ही होगा। जिन शक्तियों के बल से देह कायम है, उनके चले जाने पर देह न रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। आखिर शरीर है क्या ? वह कुछ सतत परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि मात्र है। नदी के दृष्टान्त से यह तत्त्व सहज बोधगम्य हो सकता है। तुम अपने सामने नदी में जलराशि देख रहे हो, वह देखो, पल भर में वह चली गयी और उसकी जगह एक नयी जलराशि आ गयी। जो जलराशि आयी, वह सम्पूर्ण नयी है, परन्तु देखने में पहली ही जलराशि की तरह है। शरीर भी ठीक इसी तरह सतत परिवर्तनशील है। शरीर के इस प्रकार परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है।

सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से- यहाँ तक कि देवादि से भी - श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं। देवताओं को भी ज्ञानलाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञानलाभ का अधिकारी हैं, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार ईश्वर ने देवदूत और अन्य समस्त सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन कर आने के लिए कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान् सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सब जन्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु आदि हीन योनियाँ जड़ या मन्दबुद्धि की हैं, ये प्रधानतः तम से निर्मित हुई हैं। पशु किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। देवदूत या देवता भी मनुष्य-जन्म लिये बिना मुक्तिलाभ नहीं कर सकते। 

[ महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- 'कुमारसम्भव' में एक अनुपम बात लिखी- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' अर्थात् शरीर ही धर्म का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है। इस मनुष्य शरीर  में ही हम अपनी वास्तविकता को समझ सकते हैं कि हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना है? अब भला ऐसा क्यों कहा गया है, इसे समझने का प्रयास करेंगे.. धर्म का क्या अर्थ होता है? धर्म शब्द 'धृञ्' धातु से निकला है, जिसका मतलब होता है- धारण करना। 'धारणाद् धर्मं इति आहुः' अर्थात् जिसे धारण किया जाता है, वही धर्म है। शास्त्रों में कहा गया है- मनुष्यों में और पशुओं में यदि कुछ भेद है, तो वह है धर्म का। ऐसा क्या है धर्म में? किस धर्म को धारण कर मनुष्य मनुष्य बनता है? विवेकानंद जी ने खरे शब्दों में धर्म को परिभाषित किया- 'Religion is the Realization of God- धर्म परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति है।' आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उससे तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार कर लेना - यही वास्तविक धर्म है। इस शरीर के माध्यम से ही उस वास्तविक धर्म, ईश्वर व जीवन के वास्तविक लक्ष्य तक हम पहुँच सकते है। इसलिए हमारे शास्त्रों में मानव शरीर की इतनी महिमा गाई गई है।]

 इसी तरह मनुष्य-समाज में भी अत्यधिक धन अथवा अत्यधिक दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान् बाधक है। संसार में जितने महात्मा (धर्माचार्य या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) पैदा हुए हैं, सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुए थे। मध्यम वर्गवालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं।

अब हम अपने विषय पर आएँ। हमें अब प्राणायाम-श्वास-प्रश्वास के नियमन के सम्बन्ध में आलोचना करनी चाहिए। चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है ? श्वास-प्रश्वास मानो देहयन्त्र का गतिनियामक प्रचक्र (fly - wheel) है। एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि पहले प्रचक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यन्त्रों में संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यन्त सूक्ष्मतम यन्त्र तक गतिशील हो जाते हैं। श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक प्रचक्र है। वही इस शरीर के सब अंगों में जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है और उस प्रेरक-शक्ति को नियमित भी कर रहा है।

एक राजा के एक मन्त्री था। किसी कारण से राजा उस पर नाराज हो गया। राजा ने उसे एक बड़ी ऊँची मीनार की चोटी में कैद करके रखने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन किया गया। मन्त्री भी वहाँ कैद होकर मौत की राह देखने लगा। मन्त्री के एक पतिव्रता पत्नी थी।  रात को उस मीनार के नीचे आ उसने चोटी पर कैद हुए पति को पुकारकर पूछा,“मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ?” मन्त्री ने कहा, “अगली रात को एक लम्बा मोटा रस्सा, एक मजबूत डोरी, एक बंडल सूत, रेशम का पतला सूत, एक भृंग और थोड़ा-सा शहद लेती आना।" उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हो गयी। जो हो, वह पति की आज्ञानुसार दूसरे दिन सब वस्तुएँ ले गयी। मन्त्री ने उससे कहा, “रेशम का सूत मजबूती से भृंग के पैर में बाँध दो, उसकी मूँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे मीनार की दीवार पर छोड़ दो।" पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया। 

>>> lastly the rope of Prana, controlling which we reach freedom.तब उस कीडे ने अपना लम्बा रास्ता पार करना शुरू किया। सामने शहद की महक पाकर उसके लोभ से वह धीरे धीरे ऊपर चढ़ने लगा, और अन्त में मीनार की चोटी पर जा पहुँचा, मन्त्री ने झट उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सूत को भी। इसके बाद अपनी पत्नी से कहा, "बंडल में जो सूत है, उसे रेशम के सूत के छोर से बाँध दो।" इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया। इसी उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी पकड़ लिया। अब कोई कठिन काम न रह गया। रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग खड़ा हुआ। हमारी इस देह में श्वास-प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है। इसके धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्तिप्रवाहरूप (nerve currents) सूत का बंडल, फिर मनोवृत्तिरूप डोरी और अन्त में प्राणरूप रस्से को पकड़ सकते हैं। प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है

हम अपने शरीर के सम्बन्ध में बड़े अज्ञ हैं, कुछ जानकारी रखना भी हमें सम्भव नहीं मालूम पड़ता। बहुत हुआ, तो हम मृत देह को चीर-फाड़कर देख सकते हैं कि उसके भीतर क्या है और क्या नहीं; और कोई कोई इसके लिए किसी जीवित पशु की देह ले सकते हैं। पर इससे हमारे अपने शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं। हम अपने शरीर के सम्बन्ध में बहुत कम जानते हैं। इसका कारण क्या है ? यह कि हम मन को उतनी दूर तक एकाग्र नहीं कर सकते, जिससे हम शरीर के भीतर की अतिसूक्ष्म गतियों तक को समझ सकें। मन जब बाह्य विषयों का परित्याग करके देह के भीतर प्रविष्ट होता है और अत्यन्त सूक्ष्मावस्था प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों को जान सकते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न होने के लिए हमें पहले स्थूल से आरम्भ करना होगा। देखना होगा, सारे शरीरयन्त्र को चलाता कौन है, और उसे अपने वश में लाना होगा। वह प्राण है, इसमें कोई सन्देह नहीं। श्वास-प्रश्वास ही उस प्राणशक्ति की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। अब, श्वास-प्रश्वास के साथ धीरे धीरे शरीर के भीतर प्रवेश करना होगा। इसी हम देह के भीतर की सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और समझ सकेंगे कि स्नायविक शक्तिप्रवाह किस तरह शरीर में सर्वत्र भ्रमण कर रहे हैं।

 और जब हम मन में उनका अनुभव कर सकेंगे, तब उन्हें, और उनके साथ देह को भी हमारे अधिकार में लाने के लिए हम प्रारम्भ करेंगे। मन भी इन स्नायविक शक्तिप्रवाहों द्वारा संचालित हो रहा है। इसीलिए उन पर विजय पाने से मन और शरीर, दोनों ही हमारे अधीन हो जाते हैं, हमारे दास बन जाते हैं। ज्ञान ही शक्ति है, और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए हमें प्राणायाम-प्राण के नियमन से प्रारम्भ करना होगा। इस प्राणायाम-तत्त्व की विशेष आलोचना के लिए दीर्घ समय की आवश्यकता है - इसको अच्छी तरह समझाते बहुत दिन लगेंगे। हम उसका एक एक अंश लेकर चर्चा करेंगे।

हम क्रमशः समझ सकेंगे कि प्राणायाम के साधन में जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनका हेतु क्या है और प्रत्येक क्रिया से देह के भीतर किस प्रकार की शक्ति प्रवाहित होती है। क्रमशः यह सब हमें बोधगम्य हो जाएगा। परन्तु इसके लिए निरन्तर साधना आवश्यक है। साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण मिलेगा। मैं इस विषय में कितनी भी युक्तियों का प्रयोग क्यों न करूँ, पर तुम्हारे लिए वे प्रमाण नहीं होंगी, जब तक तुम स्वयं प्रत्यक्ष न कर लोगे। जब देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव करने लगोगे, तभी सारे संशय दूर होंगे। परन्तु इसके अनुभव के लिए प्रत्यह कठोर अभ्यास आवश्यक है। 

प्रतिदिन कम से कम दो बार -प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करना चाहिए, और उस अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं। जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्त होती है। ब्राह्ममुहूर्त और गोधूलि, ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल हैं। इन दोनों समयों में शरीर बहुत कुछ शान्त रहता है। इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफी सहायता करेगी, इसलिए इन्हीं दो समयों में साधना करनी आवश्यक है। यह नियम बना लो कि साधना समाप्त किये बिना भोजन न करोगे। ऐसा नियम बना लेने पर भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्ट कर देगा। भारतवर्ष में बालक यही शिक्षा पाते हैं कि स्नान-पूजा और साधना किये बिना भोजन नहीं करना चाहिए। कालान्तर में यह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है ;उनकी जब तक स्नान-पूजा और साधना समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उन्हें भूख नहीं लगती। 

तुममें से जिनको सुभीता हो, वे साधना (प्रत्याहार -धारणा ) के लिए  यदि एक स्वतन्त्र कमरा रख सकें, तो अच्छा हो। इस कमरे को सोने के काम में न लाओ। इसे पवित्र रखो। बिना स्नान किये और शरीर-मन को बिना शुद्ध किये इस कमरे में प्रवेश न करो। इस कमरे में सदा पुष्प और हृदय को आनन्द देनेवाले चित्र रखो । योगी के लिए ऐसे वातावरण में रहना बहुत उत्तम है। सुबह और शाम वहाँ धूप और चन्दनचूर्ण आदि जलाओ। उस कमरे में किसी प्रकार का क्रोध, कलह और अपवित्र चिन्तन न किया जाए। 

तुम्हारे साथ जिनके भाव मिलते हैं, केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो। [या अपना आसन बिल्कुल अलग रखो !!] ऐसा करने पर शीघ्र वह कमरा सत्त्वगुण से पूर्ण हो जाएगा; यहाँ तक कि, जब किसी प्रकार का दुःख या संशय आए अथवा मन चंचल हो, तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही तुम्हारा मन शान्त हो जाएगा। मन्दिर, गिरजाघर आदि के निर्माण का सच्चा उद्देश्य यही था। अब भी बहुत से मन्दिरों और गिरजाघरों में यह भाव देखने को मिलता है; परन्तु अधिकतर स्थलों में लोग इनका उद्देश्य भूल गये हैं। चारों ओर पवित्र चिन्तन के परमाणु सदा स्पन्दित होते रहने के कारण वह स्थान पवित्र ज्योति से भरा रहता है। जो इस प्रकार के स्वतन्त्र कमरे की व्यवस्था नहीं कर सकते, वे जहाँ इच्छा हो, वहीं बैठकर साधना कर सकते हैं । रीढ़  हड्डी को सीधा रखकर बैठो । 

संसार में पवित्र चिन्तन का एक स्रोत बहा दो । मन ही मन कहो, हे प्रभु ! संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शान्ति और आनन्द में रहें , सभी को ईश्वर की प्राप्ति हो !" इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों ओर पवित्र चिन्तन की धारा बहा दो। ऐसा जितना करोगे, उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे। बाद में देखोगे, 'दूसरे सब लोग स्वस्थ हों, ' यह चिन्तन ही स्वास्थ्य-लाभ का सहज उपाय है। 'दूसरे लोग सुखी हों, ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है। इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करें - अर्थ, स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् हृदय में ज्ञान और सत्यतत्त्व के उन्मेष के लिए। विवेक-वैराग्य, भक्ति और ज्ञान को छोड बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थभरी हैं

इसके बाद भावना करनी होगी, 'मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़ , सबल और स्वस्थ है। यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है। इसी की सहायता से मैं यह जीवनसमुद्र पार कर लूँगा।' जो दुर्बल है, वह कभी मुक्ति नहीं पा सकता। समस्त दुर्बलताओं का त्याग करो। देह से कहो, 'तुम खूब बलिष्ठ हो।' मन से कहो, 'तुम अनन्त शक्तिधर हो', और स्वयं पर प्रबल विश्वास और भरोसा रखो

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रविवार, 16 जुलाई 2023

राजयोग प्रथम अध्याय अवतरणिका (RajYog First Chapter-Avatarnika) / स्वामी विवेकानन्द का वेदान्त-विज्ञान (1886 में हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय लण्डन)

>>>साभार @@@ https://www.khabardailyupdate.com/2022/04/rajyog-patanjal-yogsutra-sutrath-vyakhyasahit.html

"सम्पूर्ण अष्टांग योग, व्याख्या सहित " 

व्याख्याकार ~ स्वामी विवेकानन्द !

राजयोग का यह संस्करण पाठकों के सम्मुख रखते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है। प्रस्तुत लेख में स्वामी विवेकानन्द जी ने न्यूयॉर्क में राजयोग पर जो व्याख्यान दिये थे, उनका संकलन किया गया है। साथ ही इसमें पातंजल योगसूत्र, उनके अर्थ तथा उन पर स्वामीजी द्वारा लिखी टीका भी सम्मिलित हैं। 

पातंजल योगदर्शन एक विश्वविख्यात दर्शन है जो हिन्दुओं के मनोविज्ञान की नींव है। इस पर स्वामीजी की टीका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का वास है राजयोग उन्हें जागृत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है। इसका एकमात्र उद्देश्य है मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे ' समाधि ' नामक पूर्ण एकाग्रता की अवस्था में पहुँचा देना। 

स्वभाव से ही मानव-मन अतिशय चंचल है। वह एक क्षण भी किसी वस्तु पर ठहर नहीं सकता। इस मन की चंचलता को नष्ट कर उसे किस प्रकार अपने वश में लाया जाए, किस प्रकार उसकी इतस्ततः बिखरी हुई शक्तियों को समेटकर उसे सर्वोच्च ध्येय में एकाग्र कर दिया जाए, यही राजयोग का विषय है। जो साधक प्राण का संयम कर, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा इस समाधि अवस्था की प्राप्ति करना चाहते हैं, उनके लिए यह राजयोग बड़ा उपादेय सिद्ध होगा।

इस लेख के आरम्भ से लेकर सम्पूर्ण अध्याय तक का अनुवाद- "पण्डित सूर्यकान्त त्रिपाठी ' निराला" ने किया है। अष्टम अध्याय से लेकर पुस्तक का शेष अंश ( पातंजल योगसूत्र सहित ) प्राध्यापक श्री दिनेशचन्द्रजी गुह, एम.ए . द्वारा अनूदित हुआ है। दोनों अनुवादकों के प्रति हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। हमें विश्वास है कि धर्म को व्यावहारिक जीवन में उतारने में प्रयत्नशील लोगों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होगी।


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" प्रत्येक आत्मा (जीव) अव्यक्त ब्रह्म है।
बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। 

कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ।

बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।"   

~ स्वामी विवेकानन्द" 

Each soul is potentially divine.
The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal.
Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy — by one, or more, or all of these — and be free.
This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details."

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भूमिका 

मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (ऋषियों, अवतारों या पैगम्बरों) के ऐतिहासिक प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल के मानव समाज तक में अनेक अलौकिक घटनाओं के उल्लेख देखने को मिलते हैं। आज भी, जो मानव -समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहा है, उनमें  भी ऐसी घटनाओं की (बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर -' स्वयंभू हनुमान'-श्री बालाजी महाराज के अनन्य भक्त, एवं संन्यासी बाबा के कृपापात्र पूज्य पण्डित धिरेन्द्र कृष्ण शास्त्री महाराज के विषय में) गवाही देनेवाले लोगों  की कमी नहीं है। पर हाँ, ऐसे प्रमाणों में अधिकांश विश्वासयोग्य नहीं क्योंकि जिन व्यक्तियों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं, उनमें से बहुतेरे अज्ञ हैं, अन्धविश्वासी हैं अथवा धूर्त हैं। बहुधा यह भी देखा जाता है कि लोग जिन घटनाओं को अलौकिक कहते हैं, वे वास्तव में नकल हैं। पर प्रश्न उठता है, किसकी नकल ? उचित जाँच-पड़ताल या अनुसन्धान किये बिना ही किसी अलौकिक घटना को झूठ समझकर बिलकुल उड़ा देना सत्यप्रिय वैज्ञानिक मन (scientific mind) का परिचायक नहीं है। 

जो वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी नहीं हैं, अर्थात जो सतही वैज्ञानिक (Surface scientists) हैं, वे  मनोराज्य की नाना प्रकार की असाधारण घटनाओं (extraordinary mental phenomena, दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि) की व्याख्या करने में असमर्थ हो उन सब का अस्तित्व ही उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं। अतएव वैसे सतही वैज्ञानिक तो उन भोले-भाले व्यक्तियों से अधिक दोषी हैं, जो सोचते हैं कि बादलों के ऊपर अवस्थित कोई एक पुरुष-विशेष या बहुत से देवगण उनकी प्रार्थनाओं को सुनते हैं और उनके उत्तर देते हैं– अथवा उन लोगों से, जिनका विश्वास है कि ये पुरुष-विशेष उनकी प्रार्थनाओं के कारण संसार का नियम ही बदल देंगे।  क्योंकि इन बाद के व्यक्तियों (सरल भक्तों) के सम्बन्ध में यह दुहाई दी जा सकती है कि वे अज्ञानी हैं, अथवा कम से कम यह कि उनकी शिक्षा-प्रणाली दूषित (defective) रही है, जिसने उन्हें ऐसे काल्पनिक  पुरुषों (देवों) का सहारा लेने की सीख दी और जो निर्भरता अब उनके अवनत स्वभाव का एक अंग ही बन गयी है। पर पूर्वोक्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो ऐसी किसी दुहाई की गुंजाइश नहीं। 

भारत वर्ष में हजारों वर्षों से हमारे ऋषियों-मुनियों  ने मनोराज्य की ऐसी अलौकिक घटनाओं का पर्यवेक्षण किया है, उनके सम्बन्ध में विशेष रूप से ~ (अर्थात गुरु-शिष्य परम्परा में) श्रवण-मनन  किया है,यहाँ तक कि मनुष्य की 'आध्यात्मिक क्षमता' (ह्रदय विकास की क्षमता) पर अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ विचार किया गया है।  और फिर उनमें से कुछ साधारण तत्त्व निकाले हैं; और उन्हीं समस्त चिन्तन और विचारों का फल यह राजयोग विद्या है। यह राजयोग आधुनिक वैज्ञानिकों की  आजकल के अक्षम्य धारा का अवलम्बन नहीं करता, वह उनकी भाँति उन अलौकिक घटनाओं के अस्तित्व को एकदम उड़ा नहीं देता, जिनकी व्याख्या दुरूह प्रतीत होती हो। प्रत्युत वह तो धीर भाव से, पर स्पष्ट शब्दों में, अन्धविश्वास से भरे व्यक्ति को बता देता है कि यद्यपि अलौकिक घटनाएँ, प्रार्थनाओं की पूर्ति और विश्वास की शक्ति, ये सब सत्य हैं, तथापि इनका स्पष्टीकरण ऐसी अन्धविश्वासपूर्ण व्याख्या द्वारा नहीं हो सकता कि ये सब व्यापार बादलों के ऊपर अवस्थित किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं।
 
राजयोग यह घोषणा करता है कि प्रत्येक मनुष्य, सम्पूर्ण मानवजाति के पीछे विद्यमान शक्ति और ज्ञान के अनन्त सागर की अभव्यक्ति का एक साधन मात्र है। वह शिक्षा देता है कि जिस प्रकार वासनाएँ और अभाव मानव के अन्तर में हैं, उसी प्रकार उसके भीतर ही उन अभावों को पूर्ण करने की शक्ति भी मौजूद है।  और जहाँ कहीं और जब कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा कि वह आत्मा के इस अनन्त शक्ति -भण्डार से ही पूर्ण होती है, किसी अलौकिक पुरुष से नहीं। 

अलौकिक प्राणियों की धारणा  मनुष्य में कार्य करने की शक्ति को कुछ हद तक जगा तो सकता है , लेकिन उससे आत्मविश्वास की क्षति भी होती है।  उससे मनुष्य की स्वाधीनता चली जाती है, भय और अन्धविश्वास हृदय पर अधिकार जमा लेते हैं तथा ' मनुष्य स्वभाव से ही दुर्बल-प्रकृति है', ऐसा भयंकर विश्वास हममें घर कर लेता है। योगी कहते हैं कि चमत्कार या अलौकिक नाम की कोई चीज नहीं है, पर हाँ, प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं- एक है स्थूल और दूसरी, सूक्ष्म। सूक्ष्म कारण है और स्थूल, कार्य; स्थूल सहज ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध की जा सकती है, पर सूक्ष्म नहीं। राजयोग के अभ्यास से सूक्ष्मतर अनुभूति अर्जित होती है। 

भारतवर्ष में जितने वेदमतानुयायी दर्शनशास्त्र हैं, उन सब का एक ही लक्ष्य है, और वह है– पूर्णता प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। ["liberation of the soul through perfection'- इसका उपाय है योग का प्रशिक्षण । सांख्य और वेदान्त उभय मत किसी न किसी प्रकार के योग का समर्थन करते हैं।  'योग' शब्द बहुभावव्यापी है।  [गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में पूर्णता/दिव्यता (100 % निःस्वार्थपरता) की अभिव्यक्ति के प्रशिक्षण द्वारा आत्मा को मुक्त कर लेना।] 
प्रस्तुत लेख का विषय है- राजयोग।  पातंजलसूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी किसी दार्शनिक विषय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी, वे सभी, निश्चित रूप से, उनकी साधनाप्रणाली का अनुमोदन करते हैं। लेखक ने न्यूयार्क में कुछ छात्रों को इस योग की शिक्षा देने के लिए जो व्याख्यान दिये थे, वे ही इस लेख के प्रथम अंश में निबद्ध हैं। और इसके दूसरे अंश में पतंजलि के सूत्र, उन सूत्रों के अर्थ और उन पर संक्षिप्त टीका भी सन्निविष्ट कर दी गयी है।

>>>Yoga can only be safely learnt by direct contact with a teacher. 
जहाँ तक सम्भव हो सका, पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग न करने और वार्तालाप को सहज और सरल भाषा में लिखने का यत्न किया गया है। इसके प्रथमांश में साधनार्थियों के लिए कुछ सरल और विशेष उपदेश दिये गये हैं, 'पर उन सबों को यहाँ विशेष रूप से सावधान कर दिया जाता है कि योग के कुछ साधारण अंगों को छोड़कर, निरापद योगशिक्षा के लिए गुरु का सदा पास रहना आवश्यक है। वार्तालाप के रूप में प्रदत्त ये सब उपदेश यदि लोगों के हृदय में इस विषय पर और भी अधिक जानने की पिपासा जगा दें, तो फिर गुरु का अभाव न रहेगा

पातंजल दर्शन सांख्य मत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अन्तर बहुत ही थोड़ा है। इनके दो प्रधान भेद ये हैं- पहला तो, पतंजलि आदिगुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जब कि सांख्य का ईश्वर लगभग पूर्णताप्राप्त एक व्यक्ति मात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टिकल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगी-गण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर सांख्यमत वाले नहीं। 
- ग्रन्थकर्ता ( स्वामी विवेकानन्द) 

[ >>>साभार @@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/04/rajyog-pratham-adhyay-avatarnika.html#google_vignette/ इसीलिए  महामण्डल का योग-प्रशिक्षण या लीडरशिप ट्रेनिंग - "स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित और 'Be and Make' युवा प्रशिक्षण शिविर के चपरास प्राप्त 'नेतावरिष्ठ' "C-IN-C नवनीदा" के निर्देशन में दिया जाता है। ]

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प्रथम अध्याय 

अवतरणिका 

1 >>>समस्त धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था: [गुरुओं, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, पैगम्बरों या जीवनमुक्त शिक्षकों ने ईश्वर को देखा था, आत्मदर्शन किया था, अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में अपने अनन्त स्वरुप का ज्ञान सभी अवतार/नेता वरिष्ठों को हुआ था !] 

 हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर आधारित हैं। जिसे हम आनुमानिक ज्ञान कहते हैं, और जिसमें हम सामान्य से सामान्यतर या सामान्य से विशेष तक पहुँचते हैं, उसकी बुनियाद स्वानुभूति है। जिनको निश्चित विज्ञान कहते हैं, उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है, क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं- "तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो।" वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को न कहेंगे। उन्होंने स्वयं कुछ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उन पर विचार करके कुछ सिद्धान्तों पर पहुँचे हैं। जब वे अपने उन सिद्धान्तों पर हमसे विश्वास करने के लिए कहते हैं, तब जनसाधारण की अनुभूति पर उनके सत्यासत्य के निर्णय का भार छोड़ देते हैं। प्रत्येक निश्चित विज्ञान की एक सामान्य आधारभूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ ले सकता है। अब प्रश्न यह है, धर्म की ऐसी सामान्य आधारभूमि कोई है भी या नहीं? हमें इसका उत्तर देने के लिए 'हाँ' और 'नहीं', दोनों कहने होंगे। 

संसार में धर्म के सम्बन्ध में सर्वत्र ऐसी शिक्षा मिलती है कि धर्म केवल श्रद्धा और विश्वास पर स्थापित है, और अधिकांश स्थलों में तो वह भिन्न भिन्न मतों की समष्टि मात्र है। यही कारण है कि धर्मों के बीच केवल लड़ाई-झगड़ा दिखाई देता है। ये मत फिर विश्वास पर स्थापित हैं। कोई कोई कहते हैं कि बादलों के ऊपर एक महान् पुरुष है, वही सारे संसार का शासन करता है, और वक्ता महोदय केवल अपनी बात के बल पर ही मुझसे इसमें विश्वास करने को कहते हैं। मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने के लिए मैं दूसरों से कहता हूँ; और यदि वे कोई युक्ति चाहें, इस विश्वास का कारण पूछें, तो मैं उन्हें युक्ति तर्क देने में असमर्थ हो जाता हूँ। इसीलिए आजकल धर्म और दर्शन-शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है। 

प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का मानो यही मनोभाव है — ‘अहो, ये धर्म कुछ मतों के गट्ठर  भर हैं। उनके सत्यासत्य विचार का कोई एक मापदण्ड नहीं; जिसके जी में जो आया, बस, वही बक गया!' किन्तु ये लोग चाहे जो कुछ सोचें, वास्तव में धर्मविश्वास की एक सार्वभौमिक भित्ति है – वही विभिन्न देशों के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न भिन्न मतवादों और सब प्रकार की विभिन्न धारणाओं को नियमित करती है। उन सब के मूल में जाने पर हम देखते हैं कि वे सभी सार्वजनिक अनुभूति पर प्रतिष्ठित हैं। 

पहली बात तो यह कि यदि तुम पृथ्वी के भिन्न भिन्न धर्मों का जरा विश्लेषण करो, तो तुमको ज्ञात हो जाएगा कि वे दो श्रेणियों में विभक्त हैं। कुछ धर्मों की शास्त्रभित्ति है, और कुछ की शास्त्रभित्ति नहीं। जो शास्त्रभित्ति पर स्थापित हैं, वे सुदृढ़ हैं, उन धर्मों के माननेवालों की संख्या भी अधिक है। जिनकी शास्त्रभित्ति नहीं है, वे धर्म प्रायः लुप्त हो गये हैं। कुछ नये उठे अवश्य हैं, पर उनके अनुयायी बहुत थोड़े हैं। फिर भी उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं। 

ईसाई तुमसे अपने धर्म पर, ईसा पर, ईसा के अवतारत्व पर, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की भविष्य उन्नति की सम्भवनीयता पर विश्वास करने को कहता है। यदि मैं उससे इस विश्वास का कारण पूछँ, तो वह कहता है, “यह मेरा विश्वास है।” किन्तु यदि तुम ईसाई धर्म के मूल में जाओ, तो देखोगे कि वह भी प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है। ईसा ने कहा है, "मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं।” उनके शिष्यों ने भी कहा है, "हमने ईश्वर का अनुभव किया है।” - आदि आदि।

बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। बुद्धदेव की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था। उन्होंने उन सब को देखा था, वे उन सत्यों के संस्पर्श में आये थे, और उन्हीं का उन्होंने संसार में प्रचार किया। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है; उनके शास्त्रों में कुछ सत्यों 'ऋषि' नाम से सम्बोधित किये जानेवाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं, "हमने कुछ सत्यों के अनुभव किये हैं।" और उन्हीं का वे संसार में प्रचार कर गये हैं। 

अतः यह स्पष्ट है कि संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव '— direct experience'  पर स्थापित हैं, जो ज्ञान की सार्वभौमिक और अभेद्य भित्ति (universal and adamantine foundation) है। सभी प्राचीन धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनन्त स्वरूप का ज्ञान सभी को हुआ था, सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं। 

>>>what once happened can happen always: लेकिन जो धर्म अपने नेता के नाम पर स्थापित हुए हैं, उनके आजकल के धर्मप्रचारक एक अद्भुत दावा पेश करते हैं कि, "जो हमारे धर्म के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ, ऐसे केवल कुछ व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा, इस समय वे अनुभूतियाँ असम्भव हैं। फलतः अब धर्म पर विश्वास भर कर लेना होगा।' इस बात को मैं पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ। 

>>>Uniformity is the rigorous law of nature; यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की हैं, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी (चार महावाक्यों की) उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी। एकरूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह सदैव घटित हो सकता है। 

इसीलिए योगविद्या (the science of Yoga) के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्वकालीन अनुभवों पर केवल स्थापित ही नहीं, वरन् इन अनुभवों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता।  जिस विज्ञान के द्वारा ये अनुभव (निर्विकल्प समाधि में) प्राप्त होते हैं, उसका नाम है योग। धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना ही वृथा है। भगवान् के नाम पर इतनी लड़ाई, विरोध और झगड़ा क्यों? भगवान् के नाम पर जितना खून बहा है, उतना और किसी कारण से नहीं। ऐसा क्यों? इसीलिए कि धर्म/भगवान के नाम पर झगड़ने वालों में से कोई भी व्यक्ति मूल-स्रोत (fountainhead-ब्रह्म,सच्चिदानन्द, अल्ला, राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद) तक नहीं गया। सब लोग पूर्वजों के कुछ आचारों का अनुमोदन करके ही सन्तुष्ट थे। वे चाहते थे कि दूसरे भी वैसा ही करें। [दूसरे भी उनकी पूजा-पद्धति और वेशभूषा  की नकल करें]  

>>>It is better to be an outspoken atheist than a hypocrite. जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वरसाक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है? यदि ईश्वर हो, तो उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई चीज हो, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी।अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है।  एक ओर, आजकल के "learned" अर्थात तथाकथित बुद्धिजीवी' उच्च डिग्री- धारी  मनुष्यों के मन का भाव यह है कि धर्म, दर्शन या किसी परम पुरुष का अनुसन्धान, यह सब व्यर्थ कार्य है।  और दूसरी ओर, जो अर्धशिक्षित (semi-educated) हैं, उनका मनोभाव ऐसा जान पड़ता है कि धर्म, दर्शन आदि की वास्तव में कोई बुनियाद नहीं उनकी इतनी ही उपयोगिता है कि वे संसार के मंगल-साधन की बलशाली प्रेरक शक्तियाँ भर हैं। यदि लोगों का ईश्वर की (ब्रह्म या परम् सत्य की) सत्ता में विश्वास रहेगा, तो वे सत् और नीतिपरायण बनेंगे और इसीलिए अच्छे नागरिक होंगे। 

जिनके ऐसे मनोभाव हैं, इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे धर्म के सम्बन्ध में जो शिक्षा पाते हैं, वह केवल सारशून्य, अर्थहीन अनन्त शब्द-समष्टि पर विश्वास मात्र है।  उन लोगों से शब्दों पर विश्वास करके रहने के लिए कहा जाता है; क्या ऐसा कोई कभी कर सकता है? यदि मनुष्य द्वारा यह सम्भव होता, तो मानवप्रकृति पर मेरी तिल मात्र श्रद्धा न रहती। मनुष्य चाहता है सत्य। वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, हृदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है। जीवनमुक्त नेता (शिक्षक) के विषय में वेद कहते हैं - 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। 

(मुण्डकोपनिषद् 2.2.8) 

परावर, परब्रह्म का दर्शन प्राप्त करने पर ही हृदय-ग्रंथि छिन्न होती है। (गुरु-शिष्य परम्परा में अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को  पहचान लेने पर, सनमुख होय जीव मोहि जबहीं,जन्म-कोटि-अघ नासहिं तबहीं॥ ~ तुलसी, सुन्दरकाण्ड)  'तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा तमोजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है।' तब वह जीवित रहते हुए भी किसी मोह में आबद्ध नहीं होता।  

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्थाः विद्यतेयनाय।। 

(-श्वेताश्वतरोपनिषद् 2-5,8)

अर्थ: ‘हे अमृत के पुत्रो, हे दिव्यधाम-निवासियो, तुम भी सुनो – मैंने अज्ञानान्धकार से (मृत्यु से) आलोक में (अमरत्व में) जाने का रास्ता पा लिया है। जो समस्त तम (मृत्यु) के पार है, उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है- मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं। 

>>>Each science must have its own methods. राजयोग का विज्ञान (The science of Râja-Yoga)  मानव के समक्ष, इस परम् सत्य को प्राप्त करने के लिए, एक यथार्थ व्यावहारिक और साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली रखने का प्रस्ताव करती है। पहले तो, विज्ञान की प्रत्येक शाखा में अनुसन्धान और जाँच-पड़ताल की प्रणाली (method of investigation) पृथक् पृथक् होती है। यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ (astronomer) होने की इच्छा करो और बैठे बैठे केवल "खगोल विज्ञान! खगोल विज्ञान!" कहकर चिल्लाते रहो, तो तुम कभी खगोलशास्त्र के अधिकारी न हो सकोगे। रसायनशास्त्र के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है; उसमें भी एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा; प्रयोगशाला में जाकर विभिन्न द्रव्यादि लेने होंगे, उनको एकत्र करना होगा, उन्हें उचित अनुपात में मिलाना होगा, फिर उनको लेकर उनकी परीक्षा करनी होगी, तब कहीं तुम रसायनवित हो सकोगे। यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होना चाहते हो, तो तुम्हें वेधशाला (observatory) में जाकर दूरबीन की सहायता से ताराओं और ग्रहों का पर्यवेक्षण करके उनके विषय में आलोचना करनी होगी, तभी तुम खगोलशास्त्रज्ञ हो सकोगे।  प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। 

सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव, 100 निःस्वार्थी नेता /पैगम्बर साधु महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। भारत का कल्याण (के माध्यम से संसार का कल्याण) छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी। उन सभी लोगों ने कहा है कि इन्द्रियाँ हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं, हमने उससे उच्चतर सत्य (अतीन्द्रिय सत्य को ) प्राप्त कर लिया है, और वे उसकी परीक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं। वे कहते हैं, "तुम एक निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो, और यदि यह उच्चतर सत्य प्राप्त न हो, तो फिर भले ही कह सकते हो कि इस उच्चतर सत्य (समाधि आदि) के सम्बन्ध की बातें केवल कपोल-कल्पित है। पर हाँ, इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिलकुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है।" अतएव (गुरु द्वारा) निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक हैं, और तब प्रकाश अवश्य आएगा।

कोई भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण (generalization) की सहायता लेते हैं। और साधारणीकरण घटनाओं के पर्यवेक्षण (observation) पर आधारित होते है। हम पहले घटनावली का पर्यवेक्षण करते हैं , फिर उनका साधारणीकरण करते हैं और फिर उनसे अपने सिद्धान्त या मतामत निकालते हैं~ (जैसे सेव टूट कर नीचे पृथ्वी पर क्यों गिरा ? उपर क्यों नहीं गया ?) 

>>>the means of Mental-observation : (मानसिक-पर्यवेक्षण के साधन) जब तक मनुष्य अपने मन के भीतर चल रहे तथ्यों को (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को) देखने की शक्ति न प्राप्त कर ले, तब तक वह अपनी आंतरिक प्रकृति के सम्बन्ध में, मानवोचित चिन्तन के  सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जान सकता। हमारे लिए बाह्य जगत ( external world) के तथ्यों का पर्यवेक्षण करना तुलनात्मक रूप से आसान है। क्योंकि इसके लिये कई प्रकार के उपकरण (Microscope-Telescope) आदि का आविष्कार हो चुका है। किन्तु अन्तर्जगत जगत (internal world) का पर्यवेक्षण करने के लिए (अर्थात मन के भीतर छुपे काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह -मात्सर्य आदि षडरिपुओं को देखने के लिए) हमारे पास कोई उपकरण नहीं है। फिर भी हम जानते हैं कि मन को वश में करने का वास्तविक विज्ञान पाने के लिए हमें उसका पर्यवेक्षण करना ही चाहिए। हम जानते हैं कि उचित विश्लेषण के बिना कोई भी विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल आधार-रहित  अनुमान में परिणत हो जाता है। इसी कारण, उन थोड़े से मनोवैज्ञानिकों (psychologists) को छोड़कर, जिन्होंने मन का पर्यवेक्षण करने के उपाय खोज लिये हैं, शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं। 

राजयोग का विज्ञान, सबसे पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण करने का एक साधन उपलब्ध करा देने का प्रस्ताव करता है। और कहता है कि मन खुद ही अपना पर्यवेक्षण करने का सर्वश्रेष्ठ उपकरण भी है। मनोयोग की शक्ति (power of attention) -का (द्रष्टा मन  या व्यक्तिपरक मन seer mind or subjective mind ) सही सही नियमन कर जब उसे अन्तर्जगत् (दृश्य मन या वस्तुनिष्ठ मन-Scene Mind or Objective mind )  की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है और तब उसके प्रकाश से हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है। मन की शक्तियाँ (The powers of the mind) इधर उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का हमारा एकमात्र उपाय है। बाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में, लोग इसी प्रणाली को काम में ला रहे हैं। 

>>>  most of us have nearly lost the faculty of observing the internal mechanism. कोई वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है, मनोवैज्ञानिक भी उसी शक्ति का प्रयोग  मन पर करते हैं। परन्तु इसके लिए काफी अभ्यास आवश्यक है। बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसी कारण हममें से अधिकांश आभ्यन्तरिक क्रिया विधि की निरीक्षणशक्ति खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ही ऊपर उनका प्रयोग करना, ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने आपको विश्लेषण करके देख सके एक अत्यन्त कठिन कार्य है। पर इस विषय में वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार अग्रसर होने के लिए यही एकमात्र उपाय है।

>>> Practicality (usefulness) of practicing mindfulness : (मनःसंयोग का अभ्यास करने की उपयोगिता~ Man will find that he never dies, and then he will have no more fear of death.) : 

इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है। दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। 

इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता- (concentration)। रसायनवित् अपनी प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत करके, जिन वस्तुओं का विश्लेषण करता है, उन पर प्रयोग करता है, और इस प्रकार वह उनके रहस्य जान लेता है। खगोलशास्त्री (astronomer) अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके दूरबीन (Telescope) के भीतर से आकाश में प्रक्षिप्त करता है, और बस, त्योंही सूर्य, चन्द्र और ताराएँ अपने अपने रहस्य उसके निकट खोल देती हैं। मैं जिस विषय पर बातचीत कर रहा हूँ, उस विषय में मैं जितना मनोनिवेश कर सकूँगा, उतना ही उस विषय का गूढ़ तत्त्व तुम लोगों के निकट प्रकट कर सकूँगा। तुम लोग मेरी बात सुन रहे हो । तुम लोग जितना इस विषय में मनोनिवेश करोगे , उतनी ही मेरी बात की स्पष्ट रूप से धारणा कर सकोगे । 

मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुए हैं? यदि प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए, -उस पर कैसे आघात देना चाहिए, केवल यह ज्ञात हो गया, तो बस, प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है, यही रहस्य है। 

>>>the mind studying the mind.

मन को बाहरी विषय पर स्थिर करना अपेक्षाकृत सहज है। मन स्वभावतः बहिर्मुखी है। किन्तु धर्म, मनोविज्ञान, अथवा आध्यात्मविज्ञान (metaphysics) के विषय में ऐसा नहीं है। यहाँ तो ज्ञाता (विषयी subject) और ज्ञेय (object विषय) एक हैं। यहाँ प्रमेय ( विषय ) एक अन्दर की वस्तु है -मन ही यहाँ 'प्रमेय' है- अर्थात अध्यन करने की वस्तु है। मनस्तत्त्व का अन्वेषण करना ही यहाँ प्रयोजन है, और मन ही यहाँ मनस्तत्त्व के अन्वेषण का कर्ता भी है। हमें मालूम है कि मन की एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ हो रहा है, उसे देख सकता है इसको अन्तः पर्यवेक्षण शक्ति (power of reflection) कह सकते हैं। 

मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ फिर साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति होकर बाहर खड़ा हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ; वह जान सुन रहा हूँ। तुम एक ही समय काम और चिन्तन दोनों कर रहे हो, परन्तु तुम्हारे मन का ही एक और अंश मानो बाहर खड़े होकर, तुम जो कुछ चिन्तन कर रहे हो, उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अन्धकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा। 

>>>the basis of belief, the real genuine religion. तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुँचेंगे। तभी हमको सही सही धर्मप्राप्ति होगी। तभी, आत्मा है या नहीं ? जीवन केवल इस सामान्य जीवितकाल तक ही सीमित है अथवा अनन्तकालव्यापी है ?  और संसार में कोई ईश्वर है या नहीं ? यह सब हम स्वयं देख सकेंगे। सब कुछ हमारे ज्ञानचक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा। राजयोग हमें यही शिक्षा देना चाहता है। इसमें जितने उपदेश हैं, उन सब का उद्देश्य, प्रथमतः, मन की एकाग्रता का साधन है, इसके बाद है- उसके गम्भीरतम प्रदेश में कितने प्रकार के भिन्न भिन्न कार्य हो रहे हैं, उनका ज्ञान प्राप्त करना; और तत्पश्चात् उनसे साधारण सत्यों को निकालकर उनसे अपने एक सिद्धान्त पर उपनीत होना। 

इसीलिए राजयोग की शिक्षा किसी धर्मविशेष पर आधारित नहीं है। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, यहूदी या बौद्ध या ईसाई इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, तुम मनुष्य हो, बस, यही पर्याप्त है। प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्त्व का अनुसन्धान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति का, किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है, और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने भीतर से ही उन प्रश्नों के उत्तर पा सके। पर हाँ, उसे इसके लिए कुछ कष्ट उठाना पड़ेगा। 

अब तक हमने देखा, इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं। जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास न करो- राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं। क्या तुम कहना चाहते हो कि जाग्रत् अवस्था की सत्यता के प्रमाण के लिए स्वप्न अथवा कल्पना की सहायता की जरूरत है? नहीं, कभी नहीं। इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का कुछ अंश शरीरसंयम (physical) विषयक है, परन्तु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है। 

>>> the mind is simply a finer part of the body : जैसे जैसे हम मन को एकाग्र करने के अभ्यास में आगे बढ़ेंगे, हम पायेंगे कि मन (अहं) शरीर के साथ कितनी गहराई से जुड़ा हुआ है।  यदि हम विश्वास करें कि मन शरीर की केवल एक सूक्ष्म अवस्थाविशेष है और मन शरीर पर कार्य करता है, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। शरीर के अस्वस्थ होने पर मन भी अस्वस्थ हो जाता है, शरीर स्वस्थ रहने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी रहता है। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसका मन अस्थिर हो जाता है। मन की अस्थिरता के कारण शरीर भी पूरी तरह अस्थिर हो जाता है। अधिकांश लोगों का मन शरीर के सम्पूर्ण अधीन रहता है। असल में उनके मन की शक्ति बहुत थोड़े परिमाण में विकसित हुई रहती है। 

अधिकांश मनुष्य पशु से बहुत थोड़े ही उन्नत हैं, क्योंकि अधिकांश स्थलों में तो उनकी संयम की शक्ति पशु-पक्षियों से कोई विशेष अधिक नहीं। हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत थोड़ी है। मन पर यह अधिकार पाने के लिए, शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है। शरीर जब पूरी तरह अधिकार में आ जाएगा, तब मन को हिलाने डुलाने का समय आएगा। इस तरह मन जब बहुत कुछ वश में आ जाएगा, तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगे, उसकी वृत्तियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेंगे। 

राजयोगी के मतानुसार यह सम्पूर्ण बहिर्जगत् अन्तर्जगत् या सूक्ष्म जगत् का स्थूल विकास मात्र है। सभी स्थलों में सूक्ष्म को कारण और स्थूल को कार्य समझना होगा। इस नियम से, बहिर्जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण। इसी हिसाब से स्थूल जगत् की परिदृश्यमान शक्तियाँ आभ्यन्तरिक सूक्ष्मतर शक्तियों का स्थूल भाग मात्र हैं। जिन्होंने इन आभ्यन्तरिक शक्तियों का आविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है, वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना इस बृहत् कार्य को ही योगी अपना कर्तव्य समझते हैं। वे एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं, जहाँ, हम जिन्हें ' प्रकृति के नियम ' कहते हैं, वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते, जिस अवस्था में वे उन सब को पार कर जाते हैं। तब वे आभ्यन्तरिक और बाह्य समस्त प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्यजाति की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति (मन) को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है। 

इस प्रकृति को (या मन को) वशीभूत करने के लिए भिन्न भिन्न जातियाँ भिन्न भिन्न प्रणालियों का सहारा लेती है। जैसे एक ही समाज के भीतर कुछ व्यक्ति बाह्य प्रकृति को और कुछ अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही भित्र भिन्न जातियों में कोई कोई जातियाँ बाह्य प्रकृति को, तो कोई कोई अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने का प्रयत्न करती हैं। किसी के मत से अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वशीभूत हो जाता है; फिर दूसरों के मत से, बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वश में आ जाता है। 

>>>The externalists (विज्ञान) and the internalist (अध्यात्म) are destined to meet at the same point :

इन दो सिद्धान्तों के चरम भावों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि दोनों ही सिद्धान्त सही है; क्योंकि यथार्थतः प्रकृति में बाह्य और आभ्यन्तर जैसा कोई भेद नहीं। यह केवल एक काल्पनिक विभाग विभाग का कोई अस्तित्व ही नहीं, और यह कभी था भी नहीं। बहिर्वादी (externalists या जड़वादी) और अन्तर्वादी (चैतन्यवादी-internalist) जब अपने अपने ज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जाएँगे। जैसे भौतिक विज्ञानी जब अपने ज्ञान को चरम सीमा पर ले जाएँगे, तो अन्त में उन्हें दार्शनिक होना होगा, उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे, वह वास्तव में कल्पना मात्र है वह एक दिन बिलकुल विलीन हो जाएगी। 

>>> mind and matter are but apparent distinctions, the reality being One : चरम सीमा तक दोनों सही हैं, क्योंकि प्रकृति में आंतरिक या बाह्य जैसा कोई विभाजन नहीं है। ये काल्पनिक सीमाएँ हैं जो कभी अस्तित्व में नहीं थीं। बाह्यवादियों और आंतरिकवादियों का एक ही बिंदु पर मिलना तय है, जब दोनों अपने ज्ञान के चरम पर पहुंच जाते हैं। जिस तरह एक भौतिक विज्ञानी (physicist) , जब वह अपने ज्ञान को उसकी सीमा तक धकेलता है, तो उसे आध्यात्मविज्ञान (metaphysics) में पिघलता हुआ पाता है, उसी तरह एक आत्मतत्व-ज्ञानी (metaphysician- तत्वज्ञानवेत्ता या ब्रह्मविद) को पता चलेगा कि जिसे वह मन और पदार्थ (mind and matter)  कहता है, वह केवल प्रातिभासिक अंतर ( apparent distinctions) हैं, वास्तविकता में दोनों एक ही हैं।

>>>that One existing as many : समस्त विज्ञान का लक्ष्य और उद्देश्य उस 'एक' वस्तु की खोज करना है, जिससे 'अनेकत्व' का निर्माण हो रहा है।  राजयोगी कहते हैं, हम पहले अन्तर्जगत का ज्ञान प्राप्त करेंगे, फिर उसी के द्वारा बाह्य और आन्तर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे। प्राचीन काल से ही लोग इसके लिए प्रयत्नशील रहे हैं। भारतवर्ष में इसकी विशेष चेष्टा होती रही है, परन्तु दूसरी जातियों ने भी इस ओर कुछ प्रयत्न किये हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या सोचते थे; जो लोग इसका अभ्यास करने जाते थे, उन पर अघोरी, जादूगर, ऐन्द्रजालिक आदि अपवाद लगाकर उन्हें जला दिया अथवा मार डाला जाता था। भारतवर्ष में अनेक कारणों से यह विद्या ऐसे व्यक्तियों के हाथ पड़ी, जिन्होंने इसका 90 प्रतिशत अंश नष्ट कर डाला और शेष को गुप्त रीति से रखने की चेष्टा की। आजकल पश्चिमी देशों में, भारतवर्ष के गुरुओं की अपेक्षा निकृष्टतर अनेक गुरु नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं। भारतवर्ष के गुरु फिर भी कुछ जानते थे, पर ये आधुनिक व्याख्याकार तो कुछ भी नहीं जानते। 

>>>The best guide in life is strength. जिससे बल मिलता हो, वही जीवन का मार्गदर्शक नेता है ! इन सारी योग-प्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है, उसी का अनुसरण करना चाहिए। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसा ही है- जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याज्य है। रहस्यस्पृहा मानव मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट सा हो गया है। 

किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है। चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था। तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि व्याख्याकार जितना आधुनिक है, उसका भ्रम भी उतना ही अधिक है; और लेखक जितना प्राचीन है, उसने उतनी ही अधिक युक्तियुक्त बात कही है। आधुनिक लेखकों में ऐसे अनेक हैं, जो नाना प्रकार की रहस्यात्मक और अद्भुत अद्भुत बातें कहा करते हैं। इस प्रकार, जिनके हाथ यह शास्त्र पड़ा, उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में कर रखने की इच्छा से इसको महागोपनीय बना डाला और युक्तिरूप प्रभाकर का पूर्ण आलोक इस पर नहीं पड़ने दिया। 

>>>There is neither mystery nor danger in it.मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ, उसमें रहस्य (mystery) नाम की कोई चीज नहीं है। मैं जो कुछ थोड़ा सा जानता हूँ, वही तुमसे कहूँगा। जहाँ तक यह युक्ति से समझाया जा सकता है, वहाँ तक समझाने की कोशिश करूँगा। परन्तु मैं जो नहीं समझ सकता, उसके बारे में कह दूँगा, “ शास्त्र का यह कथन है।" अन्धविश्वास करना ठीक नहीं। अपनी विचारशक्ति और युक्ति काम में लानी होगी। यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है, वह सत्य है या नहीं। भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं, किसी विपत्ति की भी आशंका नहीं। इसमें जहाँ तक सत्य है, उसका सब के समक्ष राजपथ पर प्रकट रूप से प्रचार करना आवश्यक है। इन तथ्यों को रहस्य-मय बनाने (mystify करने ) के किसी भी प्रयास से अनेक प्रकार की महान् विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। 

>>>The genesis of perception : कुछ और अधिक कहने के पहले मैं सांख्य दर्शन (Sânkhya philosophy) के सम्बन्ध में कुछ कहूँगा। इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है। सांख्य दर्शन के मत से 'दर्शन -क्रिया' या किसी विषय की धारणा की उत्पत्ति इस प्रकार होती है- प्रथमतः विषय के साथ चक्षु आदि बाह्य करणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि बाहरी करण फिर उसे मस्तिष्कस्थित अपने अपने केन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के पास भेजते हैं; इन्द्रियाँ मन के निकट, और मन उसे निश्चयात्मिका बुद्धि के निकट ले जाता है, तब पुरुष  (the soul) या आत्मा उसका ग्रहण करता है। फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अन्दर आया था, उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। 

पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ (material) हैं। पर आँख आदि बाहरी करणों की अपेक्षा मन सूक्ष्मतर भूत (finer matter) से निर्मित है। मन जिस उपादान (मनवस्तु -चित्त) से निर्मित है, उसी से तन्मात्रा नामक सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। उनके स्थूल हो जाने पर परिदृश्यमान भूतों की उत्पत्ति होती है। यही सांख्य का मनोविज्ञान है। अतएव बुद्धि और परिदृश्यमान स्थूल भूत में अन्तर केवल स्थूलता के तारतम्य में है। एकमात्र पुरुष या आत्मा ही चेतन है। मन तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है।

>>>The mind is divine eyes of Atman : मन का स्वभाव >  मन सतत परिवर्तनशील है, इधर से उधर दौड़ता रहता है, कभी सभी इन्द्रियों से लगा रहता है, तो कभी एक से, और कभी किसी भी इन्द्रिय से संलग्न नहीं रहता। मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिकटिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि मन जब श्रवणेन्द्रिय (acoustic nerve, ध्वनि-तंत्रिका) से लगा था, तो दर्शनेन्द्रिय (optic nerve,नेत्र - संबंधी तंत्रिका) से उसका संयोग न था। पर पूर्णताप्राप्त मन (perfected mind= 100 % unselfish mind) को सभी इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। उसकी अन्तर्दृष्टि की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सब से गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है। इस अन्तर्दृष्टि का विकास साधना ही योगी का उद्देश्य है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके भीतर की ओर मोड़कर वे जानना चाहते हैं कि भीतर क्या हो रहा है। इसमें केवल विश्वास की कोई बात नहीं; यह तो दार्शनिकों के मनस्तत्त्व विश्लेषण का फल मात्र है। 

>>>the eyes are not the organ of vision : आधुनिक शरीर-क्रिया विज्ञानी  (Modern physiologists) का कथन है कि आँखें यथार्थतः दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं; वह इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि मस्तिष्क जिस पदार्थ से निर्मित है, ये केन्द्र भी ठीक उसी पदार्थ से बने हैं। सांख्य भी ऐसा ही कहता है। अन्तर यह है कि सांख्य का सिद्धान्त मनस्तत्त्व पर आधारित है और वैज्ञानिकों का भौतिकता पर। फिर भी दोनों एक ही बात है। हमारे शोध के क्षेत्र इन दोनों के परे हैं।

योगी प्रयत्न करते हैं कि वे अपने को ऐसा सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न कर लें, जिससे वे विभिन्न मानसिक स्थाओं को प्रत्यक्ष कर सकें। समस्त मानसिक प्रक्रियाओं को पृथक् पृथक् रूप से मानस प्रत्यक्ष करना आवश्यक है। अभ्यास करने से योगी यह देख सकता है कि इन्द्रियगोलकों पर विषयों का आघात होते ही उससे उत्पन्न हुई संवेदनाएँ उसके स्नायुकेन्द्रों तक कैसे पहुँच जाती हैं, और मन उन्हें किस प्रकार ग्रहण करता है ; फिर वे निश्चयात्मिका बुद्धि के पास जाती हैं, तत्पश्चात् किस प्रकार वह पुरुष के पास उन्हें पहुँचाता है। प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो, पहले अपने आपको उसके लिए तैयार करना होगा, फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा, इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। राजयोग के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही है। 

>>>आहार शुद्धि : भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम आवश्यक हैं। जिससे मन खूब पवित्र रहे, ऐसा भोजन करना चाहिए। तुम यदि किसी चिड़ियाघर (zoological garden) में जाओ, तो भोजन के साथ जीव का क्या सम्बन्ध है, यह भलीभाँति समझ में आ जाएगा। हाथी बड़ा भारी प्राणी है, परन्तु उसकी प्रकृति बही शान्त है। और यदि तुम सिंह या बाप के पिंजड़े की ओर जाओ, तो देखोगे, वे बड़े चंचल हैं। इससे समझ में आ जाता है कि आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है। हमारे शरीर के अन्दर जितनी शक्तियाँ कार्यशील हैं, वे आहार से पैदा हुई है और यह हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते है ।

यदि तुम उपवास करना आरम्भ कर दो, तो तुम्हारा शरीर दुर्बल हो जाएगा, दैहिक शक्तियों का हरास हो जाएगा और कुछ दिनों बाद मानसिक शक्तियाँ भी क्षीण होने लगेंगी। पहले स्मृतिशक्ति जाती रहेगी, फिर ऐसा एक समय आएगा, जब सोचने के लिए भी सामर्थ्य न रह जाएगा किसी विषय पर गम्भीर रूप से विचार करना तो दूर की बात रही। इसीलिए साधना की पहली अवस्था में, भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होगा: फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा। जब तक पौधा छोटा रहता है, तब तक उसे घेरकर रखते हैं, नहीं तो जानवर उसे चर जाएँ। उसके बड़े वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता है। तब वह सारे आघात झेलने के लिए पर्याप्त समर्थ है। 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । 

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।

।।6.16।। नात्यश्नतः तु योगः अस्ति न च एकान्तम् अनश्नतः, न च अतिस्वप्नशीलस्य जाग्रतः न एव च अर्जुन ॥

परन्तु, हे अर्जुन ! यह योग उस पुरुष के लिए सम्भव नहीं होता, जो अधिक खाने वाला है या बिल्कुल न खाने वाला है तथा जो अधिक सोने वाला है या सदा जागने वाला है।। पेट का आधा भाग अर्थात् दो हिस्से तो शाकपात आदि व्यञ्जनों सहित भोजन से, और तीसरा हिस्सा जल से पूर्ण करना चाहिये।  तथा चौथा वायु के आने-जाने के लिये खाली रखना चाहिये इत्यादि। तथा हे अर्जुन न तो बहुत सोनेवालेका ही योग सिद्ध होता है और न अधिक जागनेवालेको ही योगसिद्धि प्राप्त होती है।

 युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । -गीता , ६।१६-७

पदच्छेदः> युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु युक्त- स्वप्न-अवबोधस्य योगः (समाधि) भवति दुःखहा॥

अर्थ -उस पुरुष के लिए योग (=समाधि) दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।।

 व्याख्या : स्वप्न और अवबोध का सामान्य अर्थ क्रमशः निद्रावस्था और जाग्रत अवस्था है। परन्तु इनमें एक अन्य गम्भीर अर्थ भी निहित है। उपनिषदों में पारमार्थिक सत्य के अज्ञान की अवस्था को निद्रा कहा गया है, तथा उस अज्ञान के कारण प्रतीति और अनुभव में आनेवाली अवस्था को स्वप्न कहा गया है।  जिसमें हमारी जाग्रत अवस्था और स्वप्नावस्था दोनों ही सम्मिलित हैं। इस दृष्टि से वास्तविक अवबोध की स्थिति तो तत्त्व के यथार्थ ज्ञान की ही कही जा सकती है।

अतः इस श्लोक में कथित स्वप्न और अवबोध का अर्थ है जीव की जाग्रत अवस्था तथा ध्यानाभ्यास की अवस्था। इन दोनों में युक्त रहने का अर्थ यह होगा कि दैनिक कार्यकलापों में तो साधक को संयमित होना ही चाहिये तथा उसी प्रकार प्रारम्भ में ही मन को बलपूर्वक शान्त करके दीर्घ काल तक ध्यानाभ्यास की स्थिति में रहने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से थकान के कारण ध्यान में मन की रुचि कम हो सकती है। 

इसीलिए भगवान् आहारविहारादि में संयम रखने पर विशेष बल देते हैं। अपना  कार्यक्षेत्र चुनने में विवेक का उपयोग करना ही चाहिए परन्तु तत्पश्चात् यह भी आवश्यक है कि हमारे (गृहस्थ और संन्यासी के ) प्रयत्न यथायोग्य हों। किसी श्रेष्ठ कर्म का चयन करने के पश्चात् यदि हम उसी मे उलझ जायँ तो वासनाक्षय के स्थान पर नवीन वासनाओं की निर्मिति की संभावना ही अधिक रहेगी। और तब हो सकता है कि कर्मों की थकान एवं विक्षेपों के कारण हम नीचे पशुत्व की श्रेणी में गिर सकते हैं। 

योगी को अधिक विलास और कठोरता, दोनों ही त्याग देने चाहिए। उनके लिए उपवास करना या देह को किसी प्रकार कष्ट देना उचित नहीं। गीता कहती है, जो अपने को अनर्थक क्लेश देते हैं, वे कभी योगी नहीं हो सकते। अतिभोजनकारी, उपवासशील, अधिक जागरणशील, अधिक निद्रालु अत्यन्त कर्मी अथवा बिलकुल आलसी- इनमें से कोई भी योगी नहीं हो सकता।"

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1886 में हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय लण्डन द्वारा आयोजित दर्शन-परिषद् के कार्यक्रम में सर्व धर्म सम्मेलन में व्याख्य़ान देते हुए स्वामीजी ने वेदान्त विषयक चिन्तन प्रस्तुत किया।  स्वामीजी की आध्यात्मिक यात्रा तत्त्वमसि इस महावाक्य से आरम्भ होकर अहं ब्रह्मास्मि इस अनुभव-वाक्य में पर्यवसित होती है। विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परम हंस द्वारा अध्यारोप से युक्त बालक नरेन्द्र को यह अनुभव कराया गया कि तुम्हारे भीतर ही परमात्मा है, तुम ही ईश्वर हो। 'तत्त्वमसि ' -- इस महावाक्य की अनुभूति से ही विवेकानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। इस आत्मसाक्षात्कार के अनन्तर ही स्वामीजी की वेदान्त-दृष्टि जाग्रत हुई। स्वामीजी के अनुसार सभी दर्शनों का आधार वेदान्त दर्शन ही है। सांख्यादि समग्र दर्शनों का पर्यवसान वेदान्त में ही होता है।  वस्तुतः आस्तिकता को परिभाषित करते हुए स्वामीजी कथन करते हैं कि स्वयं पर विश्वास रखना ही आस्तिकता है। अर्थात् स्वयं का अस्तित्व ही ईश्वर है।  स्वामीजी के अनुसार स्वात्मा की आवाज़ सुनो तथा स्वयं को जानो। इन कथनों की पुष्टि हेतु "आत्मानं रथिनं विद्धि" (कठोपनिषद् 3-1-3) यह श्रुति प्रमाण प्रस्तुत किया गया है। स्वामीजी का वेदान्त दर्शन माधवाचार्य के द्वैत से आरम्भ होता है, एवं अद्वैत पर पर्यवसित होता है

यद्यपि द्वैत और अद्वैत के बीच स्वामीजी ने रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत की चर्चा की है तथापि, उनका एकमात्र लक्ष्य जीव ब्रह्म ऐक्य से युक्त अद्वैतभाव को स्थापित करना ही रहा। आपने दर्शन की गूढ़ परिधि से निकाल कर व्यावहारिक वेदान्त को स्थापित किया है। वस्तुतः वेदान्त के सन्दर्भ में उपनिषदों को ग्रहण किया जाता है। श्रुति भी वेदान्त का एक पर्याय है। स्वामीजी का मानना है कि वेदान्त-दर्शन से वैज्ञानिकता एवं प्रगतिशीलता व्यक्त होती है।

वस्तुतः अनेकता से एकता की ओर बढ़ना तथा भेद-दृष्टि से अभेद-दृष्टि की ओर प्रवृत्त होना, यह मनुष्य की स्वाभाविक मनोवैज्ञानिकता है। व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ने (व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित करने) का यह क्रम मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द ने संम्पूर्ण मानव-समाज को दिया है। स्वामीजी का मानना है कि वेदान्त-दर्शन से वैज्ञानिकता एवं प्रगतिशीलता व्यक्त होती है। स्वामीजी कहते हैं कि वेदान्त तो गतिशीलता का वाचक है। विभिन्न दर्शनों का सृष्टि-क्रम स्वामीजी एक नवीन दृष्टि के साथ स्वीकार करते हैं। स्वामीजी  सांख्य की प्रकृति तथा पुरुष को भी स्वीकार करते हैं। स्वामीजी के अनुसार प्रकृति ही अव्यक्त आत्मतत्त्व हैं।

वेदान्त-दर्शन के आधार पर सर्वव्यापी अचेतन आकाश तथा चेतन प्राण से स्थूल शरीरोत्पत्ति होती है। तात्पर्य यह है कि आकाश अर्थात् अवकाश जिसे वैज्ञानिक स्पेस कहते हैं। वस्तुतः जहाँ रिक्त स्थान अर्थात् वेक्यूम रहेगा वहीं प्राणों का सञ्चरण सम्भव है। वस्तुतः चैतन्य स्वरूप प्राण में ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति अवस्थित रहती है। यही कारण है कि यदि कोई वस्तु ऊपर की ओर उछाली जाय तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के परिणाम स्वरूप वह नीचे की ओर ही आती हुई दिखायी देती है।  तात्पर्य यह है कि अचेतन आकाश में चेतन प्राण के सञ्चरण से पञ्चीकरण के अनन्तर पृथ्वी से ही स्थूल शरीर का निर्माण होता है। अतः समस्त आकाश, जल, अग्नि से युक्त चैतन्य स्वरूप प्राण पृथ्वी पर आकर गुरुत्वाकर्षण शक्ति के रूप में एकत्रित हो जाता है। स्वामीजी ने हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में यह स्पष्ट कर दिया था कि वेदान्त मात्र जीव और ब्रह्म को सम्बद्ध करने का दर्शन नहीं है, अपितु विज्ञान के सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी करता है। स्वामीजी सृष्टि के सन्दर्भ में पुनः विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि आकाश में प्राण के सञ्चरण के अनन्तर महत् तत्त्व लक्षित होता है। महत् के बाद यह सृष्टि क्रम इसी तरह बढ़ता रहता है। यथा अहङ्कार का निर्माण होता है। वस्तुतः शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध ये पाँच तन्मात्रायें सूक्षम भूत के रूप में लक्षित होती हैं।

स्वामीजी ने वेदान्त की सत्ताओं के सन्दर्भ में विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि पार्मार्थिक, प्रातिभासिक तथा व्यावाहारिक ये तीन सत्तायें स्थापित हैं। वस्तुतः पारमार्थिक सत्ता तो अध्यारोप के पश्चात् अपवाद की स्थिति में जीव को अनुभूत होती है। इस स्थिति में वह जान लेता है कि अज्ञानोपहित चैतन्य का आवरण हट चुका है, तथा शुद्ध चैतन्य ही शेष है।

प्रातिभासिक सत्ता में जगत् ब्रह्म का विवर्त है। विवर्त अर्थात् "सतत्त्वतोऽन्यथा प्रथा विवर्त इत्युदीर्यते" वेदान्त सार। रस्सी में सर्प का भ्रम ही रज्जु सर्प विवर्त कहलाता है। स्वामीजी के शब्दों में विवर्त अर्थात् भ्रम। विवर्त की स्थिति में जीव जगत् को ही ब्रह्म समझने लगता है। जगत् में ब्रह्म का आभास माया के कारण होता है। यही प्रातिभासिक सत्ता है। वस्तुतः माया ब्रह्म की वह शक्ति है, जो जगत् का निर्माण करती है

माया के सम्बन्ध में स्वामीजी के विचार इस प्रकार हैं। आकाश से प्राण, प्राण से महत् एवं महत् से अहङ्कार तथा अहङ्कार से मन आदि इन्द्रियों की उत्त्पत्ति होती है। आत्मा, बुद्धि और मन की त्रिवेणी के बिना चक्षु आदि इन्द्रियाँ कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकतीं। उदाहरण के लिए कोई वस्तु दृष्टि के सामने है किन्तु मन के संयोग के बिना नेत्र उस वस्तु को देख नहीं पाते। तात्पर्य यह है कि शारिरिक नेत्र केवल यन्त्र रूप हैं आत्मा से बुद्धि का और बुद्धि से मन का जब तक संयोग नहीं होता, तब तक नेत्रादि इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों की ओर प्रवृत्त नहीं होतीं।

इस सत्य का उद्घाटन मनोविज्ञान करता है। नेत्रों के सामने रखी गई कोई वस्तु आत्मा में प्रतिबिम्बित होती है, आत्मा से बुद्धि अर्थात् मस्तिष्क में उस वस्तु का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है अध्यवसायी बुद्धि से मन पर उसका प्रतिबिम्ब पडता है। भौतिक शास्त्र का यही सिद्धान्त है। अनन्त अर्थात् आत्मा में स्थित किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब फोकस अर्थात् स्थिर बुद्धि पर पड़ता है

जिस प्रकार कैमेरे से छायाचित्र लेते समय अलग-अलग किरणें एक साथ कैमेरे पर चित्र के रूप में अंकित होती हैं। उसी प्रकार विभिन्न जीवात्मायें अद्वैत रूप में एक साथ परमात्मा में व्यक्त होती हैं। वस्तुतः यह समष्टि दर्शन, शिकागो में आयोजित धर्म सभा में लक्षित होता है। यथा -जब विवेकानन्दजी ने शिकागो की जनता को सम्बोधित करते हुए कहा था कि  The Sister’s And Brother’s Of America इस सम्बोधन में ही वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना निहित है। समग्र सृष्टि में ऐक्य तथा अद्वैतत्व लक्षित होता है। यह वेदान्त का अन्तिम सत्य है। यही कारण है कि धर्मसभा में बैठी समस्त जनता यह सम्बोधन सुन कर मन्त्रमुग्ध हो गई। यही तो वास्तविक Globalization है।

स्वामीजी की शक्ति का केन्द्र युवा है। उन्होंने कहा था "युवाओ, जागो तुम में असीम शक्ति है, लक्ष्य की प्राप्ति तक कर्म करते रहो" इस सन्दर्भ में युवाओं को उद्बोधित करते हुए,स्वामीजी ने कहा था कि "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत" इससे यह प्रमाणित होता है कि कर्म से मनुष्य की आत्मशक्ति जाग्रत होती है। सारतत्त्व यही है कि स्वामी विवेकानन्द साक्षात् सत् चित् आनन्द रूप नियन्त्रक भगवान् शिव के अवतार हैं। स्वामीजी की तेजोमयी बुद्धि विश्व में अलौकिक ज्योति का सञ्चार करती है। इस सन्दर्भ में प्रो. राईट ने कथन किया है कि "हम सबकी बुद्धि का योग करने पर भी सब की बुद्धि से कहीं अधिक तीव्र स्वामीजी की बुद्धि है। भास्कर वत् उद्भासित होने वाले शिवस्वरूप विवेकानन्द जी के विचार मानवजाति को सदैव नूतनता का अनुभव कराते ही रहेंगे।

"मूर्त महेश्वरमुज्वलभास्करमीष्टममरनर वन्द्यम्,

वऩ्दे वेदतनुमुज्झितगर्हितकाञ्चनकामीनिबन्धम्।

को़टिभानुकरदीप्तसिंहमहोकटितटकौपीनवन्तम्

अभिरभिहुङ्कार नादित दिङ्मुख प्रचण्ड ताण्डव नृत्यम्।

नौमि गुरु विवेकानन्दम्।

(मूर्त महेश्वर-श्री विवेकानन्द गीति स्तोत्रम् शरद् चन्द्र चक्रवर्ती प्रणीत) 

(साभार, स्वामी विवेकानन्द का वेदान्त-विज्ञान/ आलेख | शोध निबन्ध  डॉ. पूर्णिमा केलकर/ https://m.sahityakunj.net/entries/view/swami-vivekanand-ka-vedant-viyan)

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