>>>धर्म एवं संस्कृति पर प्राय: होने वाली बहस में यह भुला दिया जाता है कि भारत की पहचान सदा से धर्म एवं संस्कृति ही रही है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां धर्म (आध्यात्मिकता आत्मविश्वास या ईश्वरभक्ति) संस्कृति का आधार है, वहीं संस्कृति धर्म की संवाहिका है। वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास करने वाली भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। हमारे विचारकों की ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम’ के सिद्धांत में गहरी आस्था रही है। भारतीय दार्शनिक, ऋषि-मुनि आदिकाल से ही संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में मानते रहे हैं इसका कारण उनका उदार दृष्टिकोण है। परिणाम स्वरूप भारत की सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक व्यवस्था मजबूत थी। इस तरह भारतीय का जीवन शांत एवं सुखी था। प्राचीन भारत के धर्म, दर्शन, शास्त्र, विद्या, कला, साहित्य, राजनीति, समाजशास्त्र इत्यादि में भारतीय संस्कृति के सच्चे स्वरुप को देखा जा सकता है।
मानवता के सिद्धांतों पर स्थित होने के कारण ही तमाम आघातों के बावजूद भी यह संस्कृति अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकी है। यूनानी, पार्शियन, शक आदि विदेशी जातियों के हमले, मुगलों और अंग्रेजी साम्राज्यों के आघातों के बीच भी यह संस्कृति नष्ट नहीं हुई। अपितु प्राणशीलता के अपने स्वभावगत गुण के कारण और अधिक पुष्ट एवं समृद्ध हुई। प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति अत्यंत उदात्त, समन्वयवादी, सशक्त एवं जीवंत रही हैं, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का अद्भुत समन्वय पाया जाता है।
भारतीय संस्कृति में जीवन चार पड़ाव वाली एक तीर्थ यात्रा है -ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इसके चार पड़ाव हैं। इस आश्रम व्यवस्था के अनुसार एक एक पड़ाव के लिए हमारे पूर्वजों ने चार पुरुषार्थो --धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति की व्यवस्था की थी। भारतीय संस्कृति में धर्म को पहला पुरुषार्थ या मनुष्य के जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने का पहला साधन माना जाता था। धर्म मात्र प्रतीक नहीं होकर समग्र चेतना का स्तंभ था।
भले ही कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के कर्तव्यों का, अथवा वह ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास धर्म का ठीक से पालन करता हो, लेकिन यदि वह अवतार वरिष्ठ को पहचानकर उनका भक्त नहीं बनता, तो उसका धर्म -अर्थात 'अस्तित्व का नियम' (कृष्ण-तत्व, चैतन्य-आत्मा-सुप्त ह्रदय की शक्ति-100 % निःस्वार्थपरता) उसमें अंतर्निहित -दिव्यता और पूर्णता, को अभिव्यक्त करके यथार्थ मनुष्य बनने में, जीवन को सार्थक करने में उसकी सहायता नहीं कर सकता।
>>>भारतीय संस्कृति की विश्व को दी गयी सबसे अद्भुत देन है योगदर्शन'- महर्षि पतंजलि जैसा अद्भुत पुरुष कभी इस भारत भूमि पर रहा था, और उससे भी आश्चर्यजनक यह है कि उनकी अंतः प्रज्ञा से निसृत अमृत #योगदर्शन के रूप में आज भी ज्यों का त्यों उपलब्ध है।
तदा द्रष्टुः: स्वरूपेऽवस्थानम् ।। योगदर्शन : समाधिपाद -3 ।।
शब्दार्थ :- तदा ( तब ) द्रष्टु ( द्रष्टा, जीवात्मा की ) स्वरूपे ( अपने वास्तविक स्वरूप में ) अवस्थानम् ( अवस्थिति, स्थिति होती है )
सूत्रार्थ :- जब योगी अपनी सभी चित्त वृतियों का सर्वथा निरोध कर देता है तो उसे समाधि की प्राप्ति होती है। तब उस समाधि की अवस्था में जीवात्मा अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उसमें प्रतिष्ठित अथवा स्थित हो जाता है।
इस प्रकार पतंजलि घोषणा करते हैं कि योग के माध्यम से आप अपनी #आत्मा (धर्म) को जान लेंगे, अपने स्वरूप में ठहर जाएंगे। लेकिन योगाभ्यास शुरू करने के बाद और चरम पर पहुंचने से पहले कुछ अलग तरह का प्रसाद भी साधक को मिलेगा। और फिर वे योग से प्राप्त होने वाली सिद्धियों के बारे में बताने लगते हैं।
ग्रन्थ के जिस अध्याय में वे सिद्धियों का फल बता रहे उस तीसरे पाद का नाम ही उन्होंने #विभूतिपाद रक्खा है ! उसमें जब सिद्धियों की विभूतियों की चर्चा करने लगते हैं तो एक सूत्र में कहते हैं-
-मैत्र्यादिषु बलानि ।। योगदर्शन 3.23 ।।
शब्दार्थ :- मैत्री ( मित्रता ) आदिषु ( आदि भावनाओं में संयम करने से ) बलानि ( बल की प्राप्ति होती है )
[@@@@साभार### /https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-3-23/]
सूत्रार्थ :- मित्रता आदि चित्त प्रसादन के उपायों में संयम करने से योगी को मित्रता आदि विषयों में बल की प्राप्ति होती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में मित्रता आदि भावनाओं में संयम करने का फल बताया गया है ।
अर्थात समाधि द्वारा अपने धर्म को या अस्तित्व के नियम को 'आत्मा' समझ लेने के बाद, जगत की अन्य आत्माओं या जीवों को भी अपने ही जैसे सच्चिदानन्द मानकर उनके प्रति मन में मित्रता-भाव बढ़ाने - ह्रदय का विस्तार करने का फल बताया जा रहा है। ] महर्षि पतंजलि योगसूत्र ने समाधिपाद के सूत्र संख्या- 33 में चित्त प्रसादन के उपायों का वर्णन किया है । वहाँ पर चित्त प्रसादन के चार उपायों की बात कही गई है जो मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा नाम से हैं ।
[ “(33) सुखी के प्रति मित्रता, दुःखी के प्रति करुणा, सज्जन के प्रति आनंद और दुष्ट के प्रति उदासीनता का भाव विकसित करने से मन शांत होता है। संयम करने का अर्थ है -प्राणायाम या सांस को रोकना है। आमतौर पर, दूसरों के सुख, दुख आदि के समय में हमारी प्रतिक्रिया ,ईर्ष्या, द्वेष घृणा, और क्रोध की होती है। यह मन को परेशान करता है और उसे एकाग्रता (समाधि ) प्राप्त करने से रोकता है। इस प्रकार, मैत्री, करुणा, उदासीनता आदि की भावनाओं को विकसित करके मन को शांत और एकाग्र बनाया जा सकता है। सांस पर नियंत्रण के हर प्रयास के लिए, हर सांस के साथ एक विशेष विचार के प्रति अपने मन को एकाग्र करना चाहिए। श्वास को शून्य की अवधारणा के अनुरूप होना चाहिए। ऐसे विचार के साथ सांस छोड़ने से मन शांत हो जाता है।]
योगसूत्र के भाष्यकार (महर्षि व्यास) ने इन सभी भावनाओं में से इस सूत्र में 'उपेक्षा' को हटा दिया है । क्योंकि उपेक्षा को त्यागने योग्य माना गया है । इसलिए उसमें सयंम न करने की बात कही गई है । केवल मैत्री, करुणा और मुदिता को ही संयम करने के लिए उपयुक्त माना गया है।
मैत्री का अर्थ होता है मित्रता अर्थात दोस्ती करना या साथी बनाना । मित्रता की भावना हमें अच्छे व सम्पन्न व्यक्तियों के साथ करनी चाहिए । इस प्रकार योगी द्वारा मित्रता में संयम करने से उसे मैत्री बल की प्राप्ति होती है । जिसके कारण अच्छे से अच्छे व्यक्तियों के साथ उसकी मित्रता होती है ।
करुणा का अर्थ है बिना सोच- विचार किए किसी (असहाय व्यक्ति ?) को सहायता प्रदान करना । यह दया का --(शिवज्ञान से जीव सेवा - या स्वामीजी की शिव ज्ञान से जीव पूजा !)का अत्यंत उन्नत स्वरूप है । जिसमें हम किसी भी असहाय, दुःखी व मुसीबत में पड़े व्यक्ति की सहायता के लिए अग्रसर ( हमेशा तैयार ) रहते हैं । जब योगी करूणा में संयम कर लेता है तो उसे करूणा बल की प्राप्ति होती है । जिससे वह अधिक से अधिक दुःखी व असहायों की निःस्वार्थ भाव से सहायता करता है ।
तीसरी भावना है मुदिता अर्थात प्रसन्नता । विद्वान, गुरु, आचार्य व अपने माता- पिता को देखकर उनके प्रति प्रसन्नता की या सुख की भावना रखना ।जब योगी मुदिता में संयम करता है तो उसे मुदिता नामक बल की प्राप्ति होती है । और वह अपने सभी आदरणीय नेताओं /गुरुओं का सम्मान करते हुए सुख का अनुभव करता है ।
इस प्रकार ऊपर वर्णित चित्त प्रसादन की तीनों भावनाओं मैत्री, करूणा और मुदिता में संयम करने से योगी को क्रमशः मैत्री, करूणा और मुदिता नामक बलों की प्राप्ति होती है ।
यहाँ महर्षि पतंजलि हमें सावधान करते हुए कहते हैं : - हे साधक ! तुम्हें अतुलित बल प्राप्त होने जा रहे हैं लेकिन सचेत हो जा; कि उन बलों के आदि में यानी उनको प्राप्त करने से पहले ; तुझमें #मित्रता की भावना (ह्रदय का विस्तार) जरूर हो। क्योंकि योग अभ्यास के फलस्वरूप तुमको यदि #शारारिक बल मिल जाएगा लेकिन निर्बलों को सताओगे। यदि # आर्थिक #आर्थिक बल प्राप्त हो जायेगा, लेकिन ह्रदय में यदि मित्रता की भावना नहीं है तो धन को मानवता के कल्याण में न लगाकर विनाश में लगाओगे। उल्टे सीधे कामों में--जमीन-जायदाद बटोरने में लगाओगे। यदि तुम्हें #सामाजिक नेतृत्व का बल तो मिल जाएगा, तुम्हारी एक आवाज़ पर लाखों लोग घरों से निकलेंगे, लेकिन अगर मैत्री की भावना तुम्हारे अंदर नहीं है तो तुम उस सामाजिक बल से सड़कों पर उपद्रव करवाओगे। बस, ट्रेनों में आग लगवाओगे,रोड जाम करोगे। और भी कुछ उपद्रव कर सकते हो, जैसे काले कपड़े पहनकर रोड पर बैठना आदि।
ध्यान रखना, योग से #शारारिक बल, # मानसिक बल, # आध्यात्मिक बल - आर्थिक बल, बौद्धिक बल, चारित्रिक बल, नैतिक बल सारे बल मिल सकते हैं , लेकिन अगर तुम्हारे ह्रदय में जीवमात्र के प्रति मित्रता की भावना नहीं है, तो # '3H' प्रचण्ड बलों का समूह' अनिष्ट का हेतु ही बनेगा ! इसीलिये #यजुर्वेद की तो प्रार्थना ही यही है--
‘मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।’ (यजुर्वेद 36/18 )
प्रभो! कृपा करके आप हमें ऐसी सद्बुद्धि प्रदान कीजिये कि ‘विश्व के सारे प्राणी हमें नित्य-निरन्तर मित्र की दृष्टि से ही देखें, और हमलोग भी सभी जीवों की समीक्षा मित्रवत दृष्टि से करें। या सम्पूर्ण जगत मित्रचक्षु हो जाये यही वरें हमको भगवान।’
अर्थात- विश्व के समस्त प्राणियों से हम आत्मवत् व्यवहार करें। प्राणी मात्र के प्रति करुणा ही धर्म की संसिद्धि का मूल है। मनुष्य की भांति अन्य सभी प्राणी, पशु-पक्षी भी प्रेम-करुणा, अपनत्व व सुख और दुख को समान रूप से अनुभूत करते हैं। पशु पक्षियों की निरीह आंखों से स्पंदित वेदनाओं के मर्म को समझने का प्रयत्न आप में दैवत्व की प्रतिष्ठा करेगा। प्राणी मात्र के प्रति आत्मवत व्यवहार से ही धर्म की संसिद्धि संभव है । पशु या अन्य किसी भी देहधारी के प्रति क्रूरता संवेदनहीनता एवं नैतिक पतन की पराकाष्ठा है ! आओ हमलोग मिलजुल कर सृष्टि के सभी प्राणियों के प्रति प्रेम जगाएँ ! सभी मुझे मित्र की निगाह से देखें। मैं सभी को मित्र की निगाह से देखूं। हम सभी एक दूसरे को मित्र की निगाह से देखें। परस्पर मानव सम्मान में सभी अधिकारों का सार निहित है।
सम्पूर्ण जगत मेरा मित्र हो, सब प्राणियों को हम मित्र की आंख से देखें, क्योंकि मित्रता ही एकमात्र ऐसा भाव है जो कभी किसी को #चोट नहीं पहुंचाना चाहेगा। और आश्चर्य की बात तो यह कि जिनके यशस्वी पूर्वज, जिनके आदि ऋषि लगातार मित्रता के गीत गा रहे हैं, वहां से बहुत दूर सात समन्दर पार यूरोप की धरती से #सनातन भारतीय संस्कृति का यह उद्दात भाव - 'वसुधैव कुटुंबकम’ उठ खड़ा हुआ; और जुकरबर्ग ने Facebook जैसी app बनाकर विश्व के सामने रख दी, जबकि बनानी हमें चाहिए थी।
खैर, इसमें आप # ताई रिक्वेस्ट, #फूफा-फुआ रिक्वेस्ट, # बड़ी मम्मी- बड़े पापा या # मौसी-मौसा रिक्वेस्ट # बहन रिक्वेस्ट भेज ही नहीं सकते। मित्रता अनुरोध के सिवाय कुछ अन्य भेज ही नहीं सकते, आप सिर्फ एक अनुरोध, कर सकते हैं कि अपने जैसे शौक (Hobby) रखने वाले लोगों को ढूंढो और मित्रता निवेदन भेजो या स्वीकारो।
जो हो #'वसुधैव कुटुंबकम’ में आधारित "friend request" एक शुद्ध सनातन भारतीय संस्कृति से प्रेरित आइडिया है। अगर कोई ब्रह्मविद (भक्त) विश्व के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझकर किसी दूसरे देश या जाति के व्यक्ति को अपना समझकर "friend request" भेजे और जागरूक होकर इसपर कार्य करता हो,तो आप सभी मित्रों को अनंत शुभकामनाएं !
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। इन्हीं मंगलकामनओं के साथ आपका दिन मंगलमय हो ! परमात्मा सबके जीवन में आनंद मंगल दे अगर उसने वैसे कर्म भी किए हों तो, भी सबों का सुख स्वास्थ्य बना रहे,ॐ श्री परमात्मने नमः। {*साभार : @स्वामी सूर्यदेव*https://aneela-daduji.blogspot.com/2023/08/}
वस्तुतः किसी संस्कृति की कसौटी -शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास (3H विकास) ही है। इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से खरी उतरती है। इसका सर्वाधिक व्यवस्थित रूप हमें सर्वप्रथम वैदिक युग में प्राप्त होता है। वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं। प्राचीन भारत में शारीरिक विकास के लिये व्यायाम, यम, नियम, प्राणायाम, आसन, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा शरीर को पुष्ट किया जाता था । लोग दीर्घ जीवी होते थे। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को सच्चे अर्थ में मानव संस्कृति कहा जा सकता है।
किन्तु 1000 वर्षों के गुलामी के कारण हममें से अधिकांश भारतीय इससे अनजान थे। स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य देशों में वैदिक धर्म का प्रचार- कार्य के बाद विश्वभर में प्रसिद्धि प्राप्त कर 15 जनवरी, 1897 को जहाज से कोलम्बो में उतरे। और वहाँ से अल्मोड़ा तक कि यात्रा करते हुए उन्होंने भोगवादी पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध से अनेक भारतियों को मुक्त कर, उन्हें अपने देश की महान वेदों में आधारित सांस्कृतिक परम्परा से परिचित करवाते हुए कहा -
>>>ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 164वें सूक्त की 46वीं ऋचा -हिन्दुओं के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद के अध्ययन से प्राय: यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उसमें इन्द्र, मित्र, वरुण आदि विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है । किन्तु बहुदेववाद की अवधारणा का खण्डन करते हुए ऋग्वेद (१-१६४-४६) स्वयं ही कहता है-
"इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥
इसका अर्थ है- 'जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।'
इस ऋचा के द्वारा जो सत्य प्रकट हुआ है, भारतीय जीवन-पद्धति या 'गुरु-परम्परा में 3H विकास के प्रशिक्षण पद्धति' का उसकी संस्कृति पर उसके बड़े ही दूरगामी प्रभाव पड़े हैं। इस सत्य ने एक सांचे का काम किया है, जिसमें भारतवासी अपने जीवन को ढालने की चेष्टा करते रहे हैं। इस ऋचा ने हमारी रगों में उदारता का रक्त बहाया है- ऐसी उदारता, जो विश्व के अन्य किसी धर्म में हमें नहीं मिलती। इस सत्य की शिक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दू ने धर्म के नाम पर कभी खून-खराबी नहीं की।
ऊपरी तौर पर यह लगता है कि हिन्दू वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य आदि सम्प्रदायों में बँटा हुआ है किन्तु सत्य यही है कि कर्ता ब्रह्म के किसी विशेषण जैसे विष्णु (सर्वव्यापी ईश्वर), शिव (कल्याणकर्ता ईश्वर), दुर्गा (सर्वशक्तिमान ईश्वर),गणेश (परम बुद्धिमान या सामूहिक बुद्धि का द्योतक ईश्वर) की उपासना ही होती है । इसीलिए हिन्दू विष्णु, शिव, दुर्गा, काली आदि के नाम से बने मन्दिरों में समान श्रद्धा से जाता है ।
>>>श्रीमद्भागवत महापुराण एक अपूर्व धार्मिक ग्रंथ है । भागवत एक ही साथ समन्वयपरक दर्शन-ग्रंथ, उत्कृष्ट भक्तिरस-ग्रंथ और अद्वितीय काव्य-ग्रंथ भी है। दशम स्कन्ध जहां श्रीकृष्ण-लीलाओं का अनुपम रसार्णव है, वहाँ एकादश स्कन्ध भागवत-सिद्धांतों का अद्भुत निचोड़ है । अद्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत-सिद्धांतों का असामान्य समन्वय तो हम भागवत में पाते ही हैं । सांख्यदर्शन को भी हम एक निराले ही रूप में इस ग्रंथ में देखते हैं । यद्यपि श्रीमद्भागवत की सभी कथाएं भक्तियोग का उत्तम उपदेश देनेवाली एवं श्रद्धा बढ़ानेवाली हैं, तथापि भगवान कपिल का माता देवहूति को उपदेश, जड़भरत, अजामिल, प्रह्लाद-चरित्र, वामनावतार एवं महाराजा बलि की कथाओं ने मेरे हृदय को विशेषतया आकृष्ट किया है ।
वास्तविक पुराण तो विभिन्न पन्थों के निर्माण में कहीं खो गया है । किन्तु वास्तविक पुराण के कुछ श्लोक ईश्वर के एकत्व को स्पष्ट करते हैं । यथा (श्रीमद्भागवत महापुराण-»SB 1.2.23) :-
सत्त्वं राजस्तम इति प्रकृतिर्गुणास्तै-
रयुक्त: पर: पुरुष एक इहास्य धत्ते।
स्थितयाद्ये हरिविरिंचिहरति गान:
श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोर्नृणां स्यु: ॥
[सत्त्वम् – सात्विक गुण ; रजः – राजसिक गुण ; तमः – तामसिक , अज्ञान का अंधकार; इति - इस प्रकार; प्रकृतेः – भौतिक प्रकृति का; गुणः – गुण; तैः – उनके द्वारा; युक्तः – सम्बंधित; परः – दिव्य; पुरुषः – व्यक्तित्व; एकः – एक; इह अस्य - इस भौतिक संसार का; धत्ते – स्वीकार करता है; स्थिति - अदाये - सृजन, पालन और संहार आदि के विषय में; हरि - विष्णु, भगवान का व्यक्तित्व;विरिचि – ब्रह्मा; हर - भगवान शिव; इति - इस प्रकार; संज्ञाः – विभिन्न लक्षण; श्रेयांसि – परम लाभ; तत्र – उसमें; खलू – अवश्य; सत्त्व – अच्छाई; तनोः – रूप; नृणाम् - मनुष्य का; स्युः – व्युत्पन्न.]
प्रकृति के तीन गुण हैं :- सत्त्व, रज और तम; इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिए एक ही अद्वितीय परमात्मा (ब्रह्म) ही विष्णु ,ब्रह्मा और रुद्र - ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। इन तीनों गुणों में से, सभी मनुष्य सत्वगुण के रूप विष्णु की भक्ति रूपी परम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
उपनिषदों में एकत्व की खोज के लिए विशेष प्रयत्न किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जीवात्मा और परमात्मा में अग्नि की लपट और उसकी चिनगारी जैसा सम्बन्ध है । ईश्वर अलग किसी स्थान पर नहीं बैठा है । उसका वास हमारे हृदय में है, सर्वत्र है । वही सत्य रूप में सर्वत्र प्रकाशित है । परमात्मा ही सब कुछ है; तभी तो उससे प्रार्थना की जाती है :-
तेजोऽसि तेजो मयि धेहि,
वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि,
बलमसि बलं मयि धेहि
ओजोऽसि ओजो मयि धेहि।
(यजुर्वेद १९-९)
हे भगवन्! आप तेजस्वरूप हैं, मुझमें तेज स्थापित कीजिए; आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान् कीजिए; आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाइए; आप ओज स्वरूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए।
मन्युः असि। मन्युम् मयि धेहि। सहः असि सहः मयि धेहि॥>९ : आप मन्यु रूप हैं , हमें भी अनीति का प्रतिरोध करने की क्षमता दीजिये । आप कठिनाइयों को सहन करने वाले हैं , हमें भी कठिनाइयों में अडिग रहने की , उन पर विजय पाने की शक्ति दीजिये । मन्युरसि मन्युम मयि धेहि । सहोसि सहो मयि धेहि ।
महामण्डल गान है - " ओज तुम ओज दो ! बल तुम करो बलवान, अन्याय सहते न तुम अन्याय विरोधी करो हमें >
वैश्वीकरण पर बल देते हुए कहा गया है :-
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।
(यह अपना है या यह पराया है, यह विचार छोटे मन वालों का है । उदार चरित्र वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब है।)
सामाजिक एकता का सन्देश देते हुए कहा गया है :-
सह नाववतु सह नौ भुनुक्तु । सह वीर्य करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै । शान्ति: शान्ति: शान्ति: ।
प्रभु हम परस्पर रक्षा करें, साथ-साथ उपभोग करें, परस्पर सामर्थ्य बढ़ाकर तेजस्वी बनें । विद्या-बुद्धि बढ़ाकर विद्वेष से दूर रहें । इस प्रकार परमशान्ति का वरण करें ।
[महामण्डल गाना है - हे ईश्वर आमादेर रक्षा करो , आमादेर के उभय भावे रक्षा करो !]
सार्वभौम भ्रातृत्व के साथ सार्वभौम कल्याण की कामना की गयी है :-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ।
सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु:ख से ग्रसित न हो ।
महामण्डल गीत >>कोतो ना क्लेशे दोहिच्चे , जगत ! आर कि घुमानो साजे ?
" वेद नामक शब्दराशि किसी पुरुष के मुँह से नहीं निकली है।" वेद शब्द 'विद' धातु से निकला है, जिसका अर्थ है जान लेना। (क्या जान लेना? ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद हो जाना।) अर्थात यह जान लेना कि 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' -वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।' मेरे स्वदेशवासी भाइयो, यही वह सर्वोच्च सत्य है जिसकी शिक्षा हमें संसार को देनी है।" 5/13
"यह वेद नामक ग्रथराशि प्रधानतः दो भागों में विभक्त है - कर्मकाण्ड अर्थात संस्कार पक्ष, और ज्ञानकाण्ड अर्थात अध्यात्म पक्ष। कर्मकाण्ड की अधिकांश क्रियाएं वर्तमान युग में अनुपयोगी होने के कारण त्याग दिए गए। और कुछ महत्वपूर्ण संस्कार आज भी किसी न किसी रूप में मौजद हैं। कर्मकाण्ड के मुख्य भाव - वर्णाश्रमधर्म के कर्तव्य आज भी यथासम्भव माने जा रहे हैं। वेद ज्ञान के आध्यात्मिक अंश को वेदान्त या उपनिषद कहते हैं -समस्त सम्प्रदायों को - द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, अद्वैतवादी, शैव हो या वैष्णव -चाहे जिस मत के हों उन्हें यदि भारतीय संस्कृति में समाहित होना हो - तो उन्हें वेदों के इस उपनिषद अंश को मानना पड़ेगा। उनकी अपनी व्याख्याएं हो सकती हैं, और वे अपनी रूचि के अनुसार व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन जो सनातनी दार्शनिक हैं उन्हें उपनिषदों का प्रामाण्य स्वीकार करना पड़ेगा। इसिलए हमें अपने को हिन्दू कहने के बदले वेदान्ती कहना चाहिए।
" चाहे जिस नाम से अथवा चाहे जिस रूप से उनकी उपासना क्यों न की जाये, चाहे नामपर, चाहे जिस मूर्ति को उद्देश्य बनाकर और चाहे जिस भाव से ही पुष्पांजलि क्यों न चढ़ाई जाये, वह उन्हीं चरणों में पहुँचती है। क्योंकि वे ही [अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ही] सबके एकमात्र प्रभु हैं, सब आत्माओं के अन्तरात्मा स्वरुप हैं। संसार में किस बात की कमी है, इस बात को वे हमारी- तुम्हारी अपेक्षा बहुत अच्छी तरह जानते हैं। सब तरह की विभिन्नताओं का दूर होना असम्भव है। विभिन्नतायें तो रहेंगी ही; उनके बिना जीवन (सृष्टि) असम्भव है। विचारों का यह पारस्परिक संघर्ष और विभिन्नता ही ज्ञान की अभिव्यक्ति [इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति] और गति का कारण है। संसार में अनन्त प्रकार के परस्पर विरोधी विभिन्न भाव अवश्य विद्यमान रहेंगे, परन्तु इसीके लिए एक दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखें अथवा परस्पर लड़ें, यह आवश्यक नहीं। "- उसी मूल सत्य की शिक्षा - ब्रह्मविद -मनुष्य बनो और बनाओ की शिक्षा, हमें फिर से ग्रहण करनी होगी, जो हमारी इसी मातृभूमि से प्रचारित हुआ था। और पुनः विश्वभर में इसी मूल तत्व का - इसी सत्य का प्रचार करना होगा। --इसलिए नहीं कि यह सत्य हमारे शास्त्रों में लिखा है , बल्कि इस लिए कि केवल भारत में ही - हमारे दैनिक जीवन में इसका अनुष्ठान होता है। और कोई भी व्यक्ति , जिसकी आँखें खुली हैं , यह स्वीकार करेगा कि यहाँ के सिवा और कहीं भी इसका अभ्यास नहीं किया जाता। इसी भाव से हमें धर्म की शिक्षा [ वैदिक धर्म -विद धातु से निकले ब्रह्मविद बनने और बनाने की शिक्षा] देनी होगी।" 5 /15
हमारी संस्कृति के अनुसार 'सृष्टि' शब्द अंग्रेजी में ठीक से अनुवाद किया जाये तो वह Creation नहीं, projection होना चाहिए। सारी प्रकृति सदा विद्यमान रहती है, देश, काल निमित्त तथा अन्यान्य सब कुछ इसी प्रकृति के अंतर्गत है। इसीलिए यह कहना कि सृष्टि का आदि है -बिल्कुल निर्थक है। जहाँ कहीं भी हमारे शास्त्रों में सृष्टि के आदि- अन्त का उल्लेख हुआ हो, वहां यह स्मरण रखना होगा कि वह किसी कल्प-विशेष के आदि-अन्त के परिप्रेक्ष्य में कहा जा रहा है। >>>"यह सृष्टि किसने की ? ईश्वर ने ? अंग्रेजी में God शब्द का जो प्रचलित अर्थ है, उससे मेरा मतलब नहीं। अंग्रेजी में ईश्वर के लिए और कोई उपयुक्त शब्द है ही नहीं। सृष्टि के रचयिता ईश्वर के लिए संस्कृत 'ब्रह्म' शब्द का प्रयोग करना ही सबसे अधिक युक्तिसंगत है। वही इस जगत-प्रपंच का सामान्य कारण हैं।
>>>ब्रह्म क्या है ? बृहद ! वह सर्वशक्तिमान ,परम् दयामय, सर्वव्यापी, निराकार, अखण्ड है। लेकिन जगत में तो पक्षपात है। कोई धनी है, तो दूसरा गरीब। यहाँ एक का जीवन दूसरे की मृत्यु पर निर्भर करता है। हरेक मनुष्य अपने भाई का गला दबाने की चेष्टा करता है। वास्तव में ब्रह्म ही जगत के रूप में प्रतिभासित हो रहे हैं। पर हाँ कल्प का नियम है और कल्पान्त में प्रलय का सिद्धान्त भी है। " 5 /23
वेदान्त कहता है की यह सब जो पक्षपात, प्रतिद्वन्तिता आदि जगत में दिख रहा है, उसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं है। तो ऐसी पक्षपाती सृष्टि किसने की ? स्वयं हमीं ने ! यह वैषम्य पूर्व जन्म के कर्मों के कारण ही हुआ है। हमीं कार्य हैं और हमीं कारण। अतः हम स्वतंत्र हैं। यदि मैं किसी बात को लेकर दुःखी हूँ, तो यह अपने किये का फल है, और उसी से पता चलता है कि यदि मैं चाह लूँ , मन में ठान लूँ तो सुखी हो सकता हूँ ! यदि मैं अपवित्र हूँ, तो वह भी मेरा अपना ही किया हुआ है, और उसीसे ज्ञात होता है कि - यदि मैं चाह लूँ , अर्थात अपने मन में ठान लूँ तो पवित्र भी हो सकता हूँ। मनुष्य की इच्छाशक्ति किसी भी परिस्थिति के अधीन नहीं। इसके सामने - मनुष्य की प्रबल, विराट, अनन्त इच्छाशक्ति और स्वतंत्रता के सामने -सभी शक्तियां, यहाँ तक कि प्राकृतिक शक्तियाँ भी झुक जाएँगी, दब जायेंगी और इसकी गुलामी करेंगी। यही कर्मविधान का फल है। "
🔱🙏हमीं कार्य हैं और हमीं कारण। अतः हम स्वतंत्र हैं। मनुष्य की इच्छाशक्ति किसी भी परिस्थिति के अधीन नहीं। " 🔱🙏
We are the effects, and we are the causes. We are free, therefore. The human Willpower stand beyond all circumstances.]
>>>आत्मा क्या है ? केवल अन्तर्जगत के अन्वेषण से ही उसका पता चल सकता है। इस आत्मतत्व के अन्वेषण तथा उसके विश्लेषण द्वारा ही परमात्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होना सम्भव है। प्रत्येक प्राणी में , चाहे वो कितना भी बड़ा या छोटा हो , वही सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान , अविनाशी आत्मा विराजमान है। अन्तर आत्मा में नहीं उसकी बाह्य अभिव्यक्ति में है। प्रत्येक जीव के तीन प्रमुख अवयव हैं - शरीर , मन और आत्मा। यह हमारा बाह्य स्थूल शरीर है , इसके पीछे मन है। किन्तु यह मन आत्मा नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर है , पंचभूतों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से बना हुआ है। यही (मन या अहं ) जन्म और मृत्यु के चक्र में पड़ा हुआ है। परन्तु मन के पीछे है -आत्मा - हमारी यथार्थ सत्ता। स्वामीजी इसको समझाने के लिए - शरीर (Hand) , मन (Head)और ह्रदय (Heart) = '3H' कहते थे। परिवर्तनशील और नश्वर स्थूल शरीर तथा मन, दोनों से अविनाशी आत्मा पृथक है। लेकिन शरीर और मन के साथ तादात्म्य कर लेने के कारण , [आपमें को M/F शरीर मान लेने के कारण], मन या सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि, चित्त अहंकार) के साथ जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। और जब समय आता है -गुरुकृपा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी की कृपा) तथा पूर्णत्व (100 % निःस्वार्थपरता) प्राप्त होता है। और तब यह जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।
फिर वह स्वतन्त्र होकर -[ इसी देह में दुबारा जन्म लेकर -'Born Again'], चाहे तो मन या सूक्ष्म शरीर को (श्रीरामकृष्णस्य दासो अहं को) रख सकता है, अथवा उसका भी त्याग कर चिरकाल के लिए स्वाधीन और मुक्त रह सकता है। जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति है। जब तक तुम्हारा शरीर रहेगा , तबतक तुम सुख के दास रहोगे। जब तक तुम पर देश और काल का तुम पर प्रभुत्व है , तब तक तुम दास ही हो। इसीलिए हमें बाह्यप्राकृति (स्थूल शरीर -इन्द्रिय) और अन्तःप्रकृति (सूक्ष्म शरीर -मन,बुद्धि चित्त अहंकार)-दोनों पर विजय प्राप्त करनी होगी। प्रकृति [आसक्ति] को तुम्हारे पैरों तले रहना चाहिए , और इसे पददलित कर इससे बाहर निकल कर तुमको आत्मगौरव (श्रीरामकृष्णस्य दासो अहं) में प्रतिष्ठित रहना चाहिए !
>>>यह आत्मा संसार में [देह भाव, M/F भाव में ] बद्ध किस प्रकार हो गयी ? अज्ञान ही समस्त बन्धनों (अविद्या -मन आदि इन्द्रियों की गुलामी ) का कारण है। ज्ञान से अज्ञान दूर होगा [कर्म-बंधन भस्म हो जायेगा !], यही ज्ञान हमें उस पार ले जायेगा [माया के उस पार -देश-काल, निमित्त के उस पार ले जायेगा। ]
>>>इस ज्ञान-प्राप्ति का उपाय क्या है ? --प्रेम और भक्ति से , ईश्वर की आराधना करने से [अवतार वरिष्ठ को पहचानकर, गुरु से सीखकर उपासना -मनःसंयोग करने से] और सर्वभूतों को परमात्मा का मन्दिर समझ कर प्रेम करने से ज्ञान होता है। सभी के प्रति मैत्री -का भाव रखने से, इस प्रकार अनुराग की प्रबलता से ज्ञान का उदय होगा, और अज्ञान दूर होगा, सब बन्धन टूट जायेंगे, [विवेकज-ज्ञान का उदय होगा वैराग्य से ? नहीं अनुराग की प्रबलता से] और आत्मा भ्रममुक्त हो जाएगी ! अतएव तुम्हें समझ लेना चाहिए कि अन्यान्य सभी कर्म आध्यात्मिक ज्ञानदान से निकृष्ट हैं। अतः तुम्हारे लिए यह समझना और स्मरण रखना आवश्यक है कि-'Be and Make 'यानि अध्यात्म -ज्ञान के प्रचार से अन्य सभी काम कम मूल्यवान हैं। और तुम देखोगे कि जितना अधिक तुम दूसरों को मदद पहुँचाने के लिए कर्म करते हो , उतना ही अधिक तुम अपना कल्याण करते हो। यदि सचमुच तुम अपने वैदिक धर्म से प्रेम करते हो, और उसकी जन्मभूमि और अपने देश भारत को प्यार करते हो, तो दुर्बोध शास्त्रों में से रत्नराशि ले -लेकर उसके सच्चे उत्तराधिकारोयों को देने के लिए, जी खोलकर इस महान व्रत की साधना में लग जाओ ! पहले सर्वदा दास होना सीखो, तभी तुम प्रभु हो सकोगे।" 5 /२३-३३]
[ 🔱🙏घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥🔱🙏
~ श्री रामजी सीताजी की खोज के लिए सुग्रीव को निर्देश देकर प्रवर्षण पर्वत पर विराज रहे हैं। वर्षा ऋतू है , उनका कवि ह्रदय गाने लगता है _
घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥
( हे भाई लक्ष्मण देखो ) आकाश में बादल घमंड से घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं। प्रिया (सीता जी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥1॥ (बोल रे पपीहरा ----)
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥
बादल पृथ्वी के समीप आकर ऐसे बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट को पर्वत कैसे सहते हैं ? जैसे दुष्टों के वचनों को संत सहा करते हैं।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ॥
छोटी छोटी नदियाँ वर्षा की अधिकता के कारण भर गई हैं और उन्होंने अपने किनारों को इस तरह तोड़ दिया है, जिस तरह थोडा सा ही धन पाकर दुष्ट जन इतरा कर अभिमानी होजाते हैं. वर्षा का शुद्ध पानी मलिन स्थल पर पड़ते ही इस तरह गंदा हो गया है, जैसे शुद्ध जीव माया के फंदे में पड़ते ही मलिन हो जाता है।
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई । होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ॥
जल इकठ्ठा होकर तालाबों में ऐसे भर रहा है, जैसे सद्गुण धीरे धीरे सज्जन मनुष्य के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल व स्थिर हो जाता है।
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥
पृथ्वी घास से ढककर हरित हो गई है, जिससे रास्ते समझ में नहीं आते, यह कुछ ऐसा है कि जैसे पाखंड के प्रचार से सदग्रन्थ लुप्त हो जाते हैं।
कोई जीव जब इसी इच्छाशक्ति और स्वतंत्रता के बल पर], इस प्रलय पयोधि के मीन अवस्था से क्रमविकास करते हुए जब जीव का जीवन पशु अवस्था से क्रमविकास करता हुआ का सभ्य रूप- 'मनुष्य रूप' में विक्सित हो जाता है, तब स्वधर्म, अर्थात् अपने कर्म तथा गुणों के अनुसार उसमें सामाजिक श्रेणियाँ होनी चाहिए (स्वधर्मनिष्ठ: )। भगवद्गीता (४.१३) में इसका संकेत है—'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:',मनुष्य का जीवन-गठन उसके अपने मन में उठने वाले विचारों के अनुरूप ही होता है। लेकिन हिन्दुओं के पतनोन्मुखी काल में ब्राह्मणों के कुछ चालाक वर्ग को इस श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्ध भाग अत्यन्त अनुकूल लगा और वे इसे दोहराने लगे मैंने चातुर्र्वण्य की रचना की। इसका उदाहरण दे-देकर समाज के वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण, दलित-मुस्लिम, M-Y विभाजन, अगड़ा-पिछड़ा विभाजन को दैवी प्रमाणित करने का प्रयत्न किया गया। जिन लोगों ने ऐसे प्रयत्न किये उन्हें ही भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म का [एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति का] विरोधी समझना चाहिये। जबकि वेदव्यासजी ने इसी श्लोक की प्रथम पंक्ति में ही इसी प्रकार के वर्गीकरण का आधार भी बताया कि गुणकर्म विभागश अर्थात् गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्र्वण्य बनाया हुआ है।
दो व्यक्तियों के विचारों में कुछ साम्य होने पर भी दोनों के स्वभाव में सूक्ष्म अन्तर देखा जा सकता है। अध्यात्म की दृष्टि से अध्ययन करने के लिए , इन स्वभावों की भिन्नता के आधार पर मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया जाता है इसको ही वर्ण कहते हैं। वर्ण शब्द का अर्थ है रंग। योगशास्त्र में प्रकृति के तीन गुणों सत्त्व (सादा) रज (लाल) और तम को (काला) तीन रंगों से सूचित किया जाता है। जैसाकि पहले बता चुके हैं इन तीन गुणों का अर्थ है मनुष्य के विभिन्न प्रकार के स्वभाव। सत्त्व रज और तम का संकेत क्रमश श्वेत रक्त और कृष्ण वर्णों से किया जाता है।
रजोगुणप्रधान विचारों तथा कर्मों का व्यक्ति क्षत्रिय कहलाता है। जिसके केवल विचार ही तामसिक नहीं बल्कि जो अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन शारीरिक सुखों के लिए ही जीता है उस पुरुष को शूद्र समझना चाहिये। गुण और कर्म के आधार पर किये गये इस वर्गीकरण से इस परिभाषा की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है।
जैसे किसी बड़े नगर अथवा राज्य में व्यवसाय की दृष्टि से लोगों का वर्गीकरण, चिकित्सक, वकील, प्राध्यापक, व्यापारी, राजनीतिज्ञ, ताँगा चालक, आदि के रूप में करते हैं। उसी प्रकार विचारों के भेद के आधार पर प्राचीन काल में मनुष्यों को वर्गीकृत किया जाता था। किसी राज्य के लिये चिकित्सक और तांगा चालक उतने ही महत्व के हैं जितने कि वकील और इंजीनियर। इसी प्रकार स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिये भी इन चारों वर्णों अथवा जातियों को आपस में प्रतियोगी बनकर नहीं वरन् परस्पर सहयोगी बनकर रहना चाहिये। एक वर्ण दूसरे का पूरक होने के कारण आपस में द्वेषजन्य प्रतियोगिता का कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिये।
तदोपरान्त भारत में मध्य युग की सत्ता लोलुपता के कारण जातिवाद और साम्प्रदायिकता की भावना उभरने लगी जिसने आज अत्यन्य कुरूप और भयंकर रूप धारण कर लिया है। उस काल में शास्त्रीय विषयों में सामान्य जनों के अज्ञान का लाभ उठाते हुए अर्धपण्डितों ने शास्त्रों के कुछ अंशों को बिना किसी सन्दर्भ के उद्घृत करते हुए अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया।
वर्ण शब्द की यह सम्पूर्ण परिभाषा न केवल हमारी वर्तमान विपरीत धारणा को ही दूर करती है बल्कि उसे यथार्थ रूप में समझने में भी सहायता करती है। जन्म से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता। शुभ संकल्पों एवं श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया जा सकता है। केवल शरीर पर तिलक चन्दन आदि लगाने से अथवा कुछ धार्मिक विधियों के पालन मात्र से हम ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकते। परिभाषा के अनुसार उसके विचारों एवं कर्मों का सात्त्विक होना अनिवार्य है।
सत्त्व (ज्ञान) रज (क्रिया) और तम (जड़त्व) इन तीन गुणों से युक्त है जड़ प्रकृति अथवा माया। चैतन्य स्वरूप आत्मा के इसमें व्यक्त होने पर ही (प्रलय पयोधि के बाद) सृष्टि उत्पन्न होकर उसमें ज्ञान क्रिया रूप व्यवहार सम्भव होता है। उसके बिना जगत् व्यवहार संभव ही नहीं हो सकता। इस चैतन्य स्वरूप (आत्मा या ह्रदय) के साथ तादात्म्य करके श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चातुर्र्वण्यादि के कर्ता हैं क्योंकि उसके बिना जगत् का कोई अस्तित्व नहीं है और न कोई क्रिया संभव है।
जैसे समुद्र, तरंगों लहरों फेन आदि का कर्त्ता है। जैसे स्वर्ण सब आभूषणों का कर्त्ता है। वैसे ही भगवान् (ब्रह्म) का कर्तृत्व (जगत) भी समझना चाहिये। इसी श्लोक में भगवान् स्वयं को कर्त्ता कहते हैं परन्तु दूसरे ही क्षण कहते हैं कि वास्तव में वे अकर्त्ता हैं। कारण यह है कि अनन्त सर्वव्यापी चैतन्य आत्मा में किसी प्रकार की क्रिया नहीं हो सकती। देशकाल से परिच्छिन्न वस्तु ही क्रिया कर सकती हैं। आत्मस्वरूप की दृष्टि से भगवान् अकर्त्ता ही है।
यहाँ कल्प की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के उपदेश से परब्रह्म के साथ एकरूप हो जाता है अर्थात् मुक्त हो जाता है। इस ब्रह्मलोक में भी मुक्ति का अधिकारी बनने के लिए उसे आत्मसंयम ब्रह्मा जी के उपदेश का पालन तथा आत्मविचार करना आवश्यक होता है। तभी अज्ञान जनित बन्धन से उसकी पूर्ण मुक्ति हो सकती है। जो जीव ब्रह्मलोक तक नहीं पहुँच पाते वे मोक्ष का आनन्द नहीं अनुभव कर सकते। कल्प की समाप्ति पर उन्हें अवशिष्ट कर्मों के अनुसार पुनः किसी देह विशेष को धारण करना पड़ता है।
>>>'Born Again' ~ परन्तु वर्तमान जीवन में ही जिन्होंने अपने वास्तविक नित्य स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लिया है वे एक सर्वव्यापी आत्मस्वरूप मुझे प्राप्त होकर पुनः संसार को प्राप्त नहीं होते। जैसे स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आने पर जाग्रत पुरुष पुनः स्वप्न में प्रवेश नहीं करता।जागने का अर्थ है सदा के लिए स्वप्न में अनुभव किये सुख और दुःख से मुक्त हो जाना। जाग्रत पुरुष को प्राप्त होकर साधक स्वप्न (संसार) को पुनः लौटता नहीं। [(मुक्ति का अनुभव नित्य मुक्त आत्मा को हुआ यथा, तुमको यानि M/F अहं को नहीं ! इस समझ को ~ प्राप्त होकर साधक स्वप्न (संसार-M/F शरीर में) पुनः लौटता नहीं।]
>>>विकास-प्रक्रम (Evolution :Unfoldment and development) : तीन दिवसीय महामण्डल शिवर में प्रथम दिन का (Morning chanting) में बताना है कि प्रलय के बाद पुनः जीव-जगत के रूप में ब्रह्म से सृष्टि नहीं जो प्रक्षेपण होता है, उसमे इच्छाशक्ति के बलपर जीव का क्रम-विकास (Unfoldment and development or Evolution) -कहाँ तक हो सकता है ?
श्री दशावतार स्तोत्र:
प्रलय पयोधि-जले धृतवान् असि वेदम्।
विहित वहित्र-चरित्रम् अखेदम्।
केशव धृत-मीन-शरीर, जय जगदीश हरे।।
अनुवाद – हे जगदीश्वर! हे हरे! जैसे नौका (जलयान) बिना किसी खेद के सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तु का उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्यरूप में अवतीर्ण होकर वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो।। श्रीमद्भागवत में उस विकास-प्रक्रम को प्रलय से प्रारम्भ करके, जिस समय सारा ब्रह्माण्ड जल से पूरित था- से मत्स्यरूप से शुरू करते हुए श्रीरामकृष्ण लोक तक पहुँचा दिया है।
श्रीमद् भागवतम (श्लोक-4.24.29) में कहा गया है -
स्वधर्मनिष्ठ: शतजन्मभि: पुमान्
विरिञ्चतामेति तत: परं हि माम् ।
अव्याकृतं भागवतोऽथ वैष्णवं
पदं यथाहं विबुधा: कलात्यये ॥ २९ ॥
[साभार /https://bhagavatam.in/sb/4/24/29/#gsc.tab=0]
शब्दार्थ
स्व-धर्म-निष्ठ:—जो अपने धर्म या वृत्ति पर स्थित रहता है; शत-जन्मभि:—एक सौ जन्मों तक; पुमान्—जीवात्मा; विरिञ्चताम्—ब्रह्मा का पद; एति—प्राप्त करता है; तत:—पश्चात्; परम्—ऊपर; हि—निश्चय ही; माम्—मुझको प्राप्त करता है; अव्याकृतम्—बिना विचलित हुए; भागवत:—भगवान् को; अथ—अत:; वैष्णवम्—भगवान् का शुद्ध भक्त; पदम्—पद; यथा—जिस तरह; अहम्—मैं; विबुधा:—देवतागण; कला-अत्यये—संसार के संहार के बाद।
अनुवाद- जो व्यक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को समुचित रीति से एक सौ जन्मों तक निबाहता है, वह ब्रह्मा के पद को प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। और इससे अधिक योग्य होने पर वह शिवजी के पास पहुँच सकता है। किन्तु जो व्यक्ति अनन्य भक्तिवश सीधे (अवतार वरिष्ठ भगवान् श्री रामोकृष्णो) या विष्णु (नेता) की शरण में जाता है, वह तुरन्त वैकुण्ठलोक (श्रीरामकृष्ण लोक) में पहुँच जाता है। शिवजी तथा अन्य देवता इस संसार के संहार के बाद ही इन लोक को प्राप्त कर पाते हैं।
व्याख्या - तात्पर्य - इस श्लोक में क्रमविकास वाद (विकास-प्रक्रम) की चरम परिणति सम्बन्धी विचार प्रस्तुत हुआ है। जैसाकि वैष्णव कवि जयदेव गोस्वामी ने कहा है—प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम्। आइये, हम (डार्विन के) क्रमविकास की खोज को प्रलय से प्रारम्भ करें। जिस समय सारा ब्रह्माण्ड जल से पूरित था। उस समय अनेक मछलियाँ तथा अन्य जलचर थे, इनसे ही लताओं तथा वृक्षों का विकास हुआ। फिर इनसे कीड़े-मकोड़े तथा सरीसृपों का विकास हुआ, जिनसे पक्षी, पशु तथा मनुष्य और अन्त में सभ्य मानव का विकास हुआ।
अब सभ्य मानव ऐसे चौराहे पर है जहाँ से वह आध्यात्मिक जीवन में आगे विकास कर सकता है। यहाँ यह कहा गया है कि जब जीव को जीवन का सभ्य रूप प्राप्त होता है, तो स्वधर्म, अर्थात् अपने कर्म तथा गुणों के अनुसार उसमें सामाजिक श्रेणियाँ होनी चाहिए (स्वधर्मनिष्ठ: )। भगवद्गीता (४.१३) में इसका संकेत है—चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: “प्रकृति के तीनों गुणों तथा उनके कार्यों के अनुसार मैंने मानव-समाज के चारों वर्णों की सृष्टि की।” सभ्य मानव-समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र—ये चार वर्ण होने चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने वर्ण के अनुसार कर्म करना चाहिए। यहाँ यह कहा गया है (स्वधर्मनिष्ठ: ) कि ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य या शूद्र होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। यदि कोई अपने पद पर अटल रहे और अपने विशिष्ट कार्य को करे तो वह सभ्य मनुष्य समझा जाता है। अन्यथा वह पशु तुल्य है।
यहाँ यह भी कहा गया है कि जो भी स्वधर्म को एक सौ जन्मों तक सम्पन्न करता है (उदाहरणार्थ, ब्राह्मण एक ब्राह्मण की तरह कर्म करता रहता है) वह ब्रह्मलोक में जाने का अधिकारी बन जाता है। इसी तरह शिवलोक या सदाशिवलोक भी है, जो आध्यात्मिक तथा भौतिक (मर्त्य) जगत की सीमा पर स्थित है। यदि ब्रह्मलोक में स्थित रहने के बाद कोई अधिक योग्य बन जाता है, तो वह सदाशिवलोक को भेज दिया जाता है। इसी प्रकार यदि कोई और भी योग्य हो जाता है, तो वह वैकुण्ठलोक जा सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति का, यहाँ तक कि देवताओं का भी, लक्ष्य वैकुण्ठलोक प्राप्त करना रहता है और एक निष्काम भक्त यदि भौतिक लाभ की इच्छा न रखता हो, तो इसे पा लेता है। जैसाकि भगवद्गीता (8.16) में संकेत है, कोई भले ही ब्रह्मलोक को क्यों न प्राप्त कर ले, किन्तु भौतिक कष्टों से उसे छुटकारा नहीं मिल पाता (आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन-भगवद्गीता (8.16) इसी प्रकार शिवलोक तक पहुँच कर भी मनुष्य सुरक्षित नहीं रहता, क्योंकि शिवलोक तटस्थ है।
प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि ब्रह्मलोक तक के सब लोक पुनरावर्ती हैं। इसके विपरीत जो पुरुष आत्मा का साक्षात अनुभव करते हैं वे मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। वेदान्त में क्रममुक्ति का एक सिद्धांत प्रतिपादित है। इसके अनुसार जो पुरुष वैदिक कर्म एवं उपासना का युगपत् (एक साथ) अनुष्ठान करता है वह कर्म और उपासना के इस समुच्चय के फलस्वरूप ब्रह्मलोक अर्थात् सृष्टिकर्त्ता के लोक को प्राप्त करता है।
किन्तु यदि कोई वैकुण्ठलोक को प्राप्त कर लेता है, तो उसे जीवन की परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है और उसका विकास-प्रक्रम समाप्त हो जाता है (मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते )-भगवद्गीता (8.16) । दूसरे शब्दों में, यहाँ इसकी पुष्टि की गई है कि मानव-समाज में जिस व्यक्ति ने चेतना विकसित कर ली है उसे कृष्ण-भक्ति करनी चाहिए जिससे वह इस शरीर को त्यागने के बाद तुरन्त वैकुण्ठलोक या कृष्णलोक को जा सके। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन (भगवद्गीता ४.९)। जो भक्त कृष्णभक्ति करता है और जो ब्रह्मलोक या शिवलोक जैसे किसी भी लोक से आकृष्ट नहीं होता वह कृष्णलोक (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण लोक) को भेज दिया जाता है (मामेति ) यही जीवन की, तथा विकास-प्रक्रम [Evolution - or Unfoldment] की चरम परिणति है।
[।।4.9।। अवतार कैसे होता है तथा उसका प्रयोजन भी बताने के पश्चात् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं, आज निसन्देह ही हम एक पशु के समान जी रहे हैं, परन्तु जब कभी हम पूर्णतः निस्वार्थ इच्छा से प्रेरित हुए कर्म --' Be and Make ' करते हैं उस समय परमात्मा की ही दिव्य क्षमता हमारे कर्मों में झलकती है। जो पुरुष (जो ब्रह्मविद) उनके दिव्य जन्म और कर्म को तत्त्वतः जानता है वह सब बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मस्वरूप (ब्रह्म) बन जाता है। तत्त्वतः शब्द से यह स्पष्ट किया गया है कि इसे केवल बुद्धि के स्तर पर जानना नहीं है वरन् यह अनुभव करना है कि अपने ही हृदय में किस प्रकार परमात्मा का अवतरण होता है। ]
स्वामीजी ने जाफना, कोलम्बो में 'वेदान्त' शीर्षक भाषण में कहा था - " धर्म बातों में नहीं रहता। तोता बोलता है , आजकल तो मशीनें भी बोल सकती हैं। परन्तु मुझे ऐसा जीवन दिखाओ जिसमे त्याग हो, आध्यात्मिकता हो, तितिक्षा हो, अनन्त प्रेम हो। आध्यात्मिक मनुष्य का जीवन इसका उदाहरणस्वरूप होता है। " ५/३२ [मेरे गुरुदेव का, नवनी दा, प्रमोद दा जैसे नेता वरिष्ठ या पैगम्बर का जीवन नेता का उदाहरण है।]
स्वामी विवेकानन्द महर्षि वेदव्यास और पतंजलि के बाद के उत्तरकालीन भारत में संस्कृति के सबसे बड़े ध्वजवाहक स्वामी रामानुजाचार्य (1017-1137 ई.) को मानते थे। उन्होंने -स्टार थियेटर, कोलकाता में 'सर्वांग वेदान्त' (The Vedanta in all its phases- अपने समस्त सोपानों में वेदांत विषय) -पर दिए अपने भाषण में कहा था - " अपने जीवन से मैं यह दिखाने की कोशिश करूँगा कि वैदान्तिक सम्प्रदाय [ शाक्त, शैव, वैष्णव,गाणपत्य, द्वैत-विशिष्टाद्वैत-अद्वैत? जो उपनिषद को प्रमाण मानते हैं।] एक दूसरे के विरोधी नहीं , वे एक दूसरे के अवश्यम्भावी परिणाम हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। वे एक सीढ़ी से दूसरे पर चढ़ने के सोपान हैं, जब तक कि वह अद्वैत - तत्वमसि -लक्ष्य को प्राप्त न हो जाये ! " ५/२१७
"रामानुजाचार्य 11वीं सदी के (उत्तरकालीन भारत या 'later India 'के) प्रधान द्वैतवादी संत (दार्शनिक) और समाज सुधारक (नेता) हैं। अन्य द्वैतवादियों ने प्रत्यक्षतः या परोक्षतः अपने तत्त्व-प्रचार में और अपने सम्प्रदायों के संगठन की छोटी छोटी बातों में भी उन्हींका अनुसरण किया है। रामानुज तथा उनके तत्व-प्रचार कार्य के साथ भारत के दूसरे द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदायों की तुलना करो ; तो आश्चर्य होगा कि उनके आपस के उपदेशों , साधना-प्रणालियों और साम्प्रदायिक नियमों में बड़ा सादृश्य है। अन्य वैष्णव आचार्यों में दक्षिण के आचार्य मध्व मुनि और उनके बाद हमारे बंगाल के श्री चैतन्य महाप्रभु का नाम भी उल्लेखनीय है। जिन्होंने मध्वाचार्य के दर्शन का बंगाल में प्रचार किया था। दक्षिण में कई सम्प्रदाय और हैं , जैसे विशिष्टाद्वैतवादी शैव-सम्प्रदाय। शैव-पंथी लोग प्रायः अद्वैतवादी होते हैं। सिंहल और दक्षिण के कुछ स्थानों को छोड़कर भारत में सर्वत्र शैव-पंथी लोग अद्वैतवादी होते हैं। विशष्टाद्वैतवादी शैव लोगों ने 'विष्णु ' नाम की जगह सिर्फ 'शिव' नाम बैठाया है और आत्मा विषयक सिद्धान्त को छोड़कर अन्य सब विषयों में रामानुज के मत को ही ग्रहण किया है।
रामानुज के अनुयायी आत्मा को 'अणु' (particle) अर्थात अत्यन्त छोटा कण कहते हैं , परन्तु शंकराचार्य के मतानुयायी आत्मा को विभु (omnipresent) अर्थात सर्वव्यापी स्वीकार करते हैं। प्राचीन काल में अद्वैत मत के कई सम्प्रदाय थे। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में ऐसे अनेक सम्प्रदाय थे, जिन्हें शंकराचार्य के सम्प्रदाय ने पूर्णतया आत्मसात कर अपने में मिला लिया था। "( 5/217-18)
" रामानुज उत्तरकालीन भारत के प्रधान द्वैतवादी दार्शनिक हैं।... मौलिक तत्त्व के आविष्कार करने का दावा न शंकराचार्य ने किया है और न रामानुज ने। रामानुज ने तो अपने 'श्री भाष्य ' के आरम्भ में साफ कहा है कि हमने बोधायन के भाष्य का अनुसरण करके तदानुसार ही वेदान्त सूत्रों की व्याख्या की है। "भगवद् बोधायनकृतां विस्तीर्णां ब्रह्मसूत्रवृत्तिं पूर्वाचार्याः संचिक्षिपुः तन्मतानुसारेण सूत्राक्षराणि व्याख्यास्यन्ते।" —अर्थात भगवान बोधायन ने ब्रह्मसूत्र पर विस्तारपूर्वक भाष्य लिखा था,जिसे पूर्व आचार्यों ने संक्षिप्त कर दिया। उनके मतानुसार मैं सूत्र के शब्दों की व्याख्या कर रहा हूँ। ..... रामानुज ने जिस प्रकार बोधायन भाष्य के सहारे अपना भाष्य लिखा था , अपनी भाष्यरचना में शंकर ने भी वैसा ही किया था। जिन दर्शनों को तुमने पढ़ा है, या नाम सुने हैं, वे सब के सब उपनिषद के प्रमाण पर आधारित हैं। (५/२१९)
- एक छोटा सा बालक नचिकेता के ह्रदय में श्रद्धा का आविर्भाव - मृत्यु के देवता यम से क्या जानना चाहता है ? - मृत्युरहस्य, का रहस्य ! ५/२२४)
" किन्तु वेदान्त दर्शन या उपनिषद भी कपिल के सांख्य-दर्शन का ही विकसित रूप हैं। वेदान्त सूत्र या व्यास रचित ब्रह्मसूत्र सभी प्रामाणिक ग्रंथों में श्रेष्ठ है। व्यास सूत्रों के बाद ही विश्वप्रसिद्ध गीता का प्रामाण्य है। मनुस्मृति और पुराणों में जितना अंश उपनिषदों से मेल खाता है , उतना ही ग्रहणीय है। सभी वेदान्ती सम्प्रदाय पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं , और सभी का मनोविज्ञान भी एक प्रकार का है। सभी मानते हैं कि, पहले यह स्थूल शरीर , इसके पीछे सूक्ष्म शरीर या मन और इसके भी परे है आत्मा या जीव ! मन या अन्तःकरण -आत्मा का दिव्य चक्षु है , जीवात्मा इसकी सहायता से शरीर या बाह्यजगत के साथ व्यवहार करता है।
>>> Difference between the Indian and the Western mind:
(भारतीय और पाश्चात्य चिंतन प्रणाली में मौलिक तथा महत्वपूर्ण अन्तर : भारतीय चिंतन परम्परा जीवात्मा में ही समस्त शक्तियों की अवस्थिति स्वीकार करती है। अंग्रेजी में इंस्पिरेशन या 'इन्स्पायर्ड ' (inspiration,या inspired) शब्द से यह बोध होता है कि मानो शक्ति और प्रेरणा कहीं बाहर से भीतर आ रही हो। लेकिन हमारे शास्त्रों के अनुसार सारी शक्ति, सारी महानता और पवित्रता आत्मा में ही निवास करती है। [‘ইন্স্পিরেশন’ (inspiration)- শব্দ দ্বারা ইংরেজীতে যে ভাব প্রকাশিত হয়, তাহাতে বুঝায় যেন বাহির হইতে কিছু আসিতেছে; কিন্তু আমাদের শাস্ত্রানুসারে সকল শক্তি, সর্ববিধ মহত্ত্ব ও পবিত্রতা আত্মার মধ্যেই রহিয়াছে। .....] हमारे योगी तुमसे कहेंगे कि अणिमा , लघिमा आदि सिद्धियाँ जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं , वास्तव में वे प्राप्त करने की नहीं , वे पहले से ही आत्मा में मौजूद हैं , सिर्फ उन्हें व्यक्त करना होगा। पतंजलि के अनुसार पशुओं को भी जब उत्कृष्टतर शरीर मिल जायेगा , तब वे शक्तियां अभिव्यक्त हो जायेंगी, किन्तु प्रत्येक जीवात्मा में वे पहले से ही विद्यमान होती हैं। उन्होंने अपने एक सूत्र (कैवल्य पाद:- अध्याय चार) में कहा है -
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु तत: क्षेत्रिकवत्।। 4. 3 ।।
सूत्रार्थ :- शुभाशुभ कर्म [वर्णाश्रम धर्म का पालन ] प्रकृति में परिवर्तन के प्रत्यक्ष कारण नहीं हैं। वर्ण प्रकृति के विकास की बाधाओं को दूर करने वाले निमित्त कारण हैं। ' [चित्त शुद्धि के उपाय है ?] जैसे किसान को यदि अपने खेत में पानी लाना है, तो सिर्फ मेड़ काटकर पास के भरे खेत से जल का योग कर देता है , और पानी स्वाभाविक प्रवाह से आकर खेत को भर देता है।
ठीक उसी प्रकार जीवात्मा की सारी शक्ति , पूर्णता और पवित्रता (मातृत्व 100 %निःस्वार्थपरता) पहले ही भरी है , केवल माया का परदा (अविद्या देश-काल- निमित्त से तादात्म्य वाला अहं का पर्दा, जिससे वे प्रकट नहीं होने पातीं।) पड़ा हुआ है जिससे वे प्रकट नहीं होने पातीं। एक बार आवरण को हटा देने पर आत्मा अपनी स्वाभाविक पवित्रता प्राप्त करती है- उसकी सारी शक्ति व्यक्त हो जाती है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि प्राच्य और पाश्चात्य चिंतन-प्रणाली में यही सबसे बड़ा भेद है। " (सर्वांग वेदान्त ५/ २२६)
पाश्चात्य शिक्षा सिखलाती है -'Original-sin' मनुष्य जन्म से ही महापापी है। वे कभी यह नहीं सोचते कि यदि हम जन्मजात रूप से बुरे हों, तो हमारे भले होने कि [चरित्रवान मनुष्य बन जाने की] आशा नहीं, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति कभी बदल नहीं सकती। " मनुष्य की प्रकृति या स्वभाव में परिवर्तन"- यह वाक्य ही स्वविरोधी है ! यदि स्वभाव बदल सकता हो, तो उसे स्वभाव [nature-निसर्ग, स्वरुप, स्वभाव, फितरत ] नहीं कहना चाहिए। { — for how can nature change? If it changes, it contradicts itself; it is not nature.) यह विषय हमें स्मरण रखना चाहिए। इस पर भारत के द्वैतवादी, अद्वैतवादी और सभी सम्प्रदाय एकमत हैं। ५/२२७
" द्वैतवादी केवल सगुण ईश्वर पर ही विश्वास करते हैं। लेकिन , अद्वैत वादी इस सगुण ईश्वर के बारे में और भी कुछ ज्यादा मानते हैं। वे इस सगुण ईश्वर की एक उच्चतर अवस्था के विश्वासी हैं, जिसे सगुण -निर्गुण नाम दिया जा सकता हैं ! शंकर ने ईश्वर को 'सच्चिदानन्द' (Existence, Consciousness, and Bliss Absolute.) विशेषण से पुकारा है। परन्तु उपनिषदों में ऋषियों ने इससे भी बढ़कर कहा है - 'नेति नेति ' अर्थात 'यह नहीं, यह नहीं। ' इस विषय में सभी सम्प्रदाय एकमत हैं।
अब मैं द्वैतवादियों के मत के पक्ष में कुछ कहूँगा। जैसा कि मैंने कहा है ,"रामानुज को मैं भारत का प्रसिद्द द्वैतवादी तथा वर्तमान समय के द्वैतवादी सम्प्रदायों का सबसे बड़ा प्रतिनिधि मानता हूँ। खेद की बात है कि (पूर्वी भारत के लोग, विशेषकर) हमारे बंगाल के लोग भारत के उन बड़े बड़े धर्माचार्यों के विषय में जिनका जन्म दूसरे प्रान्तों में हुआ है , बहुत कम जानकारी रखते हैं। मुसलमानों के राज्य काल में एक चैतन्य को छोड़कर बड़े बड़े और सभी धार्मिक नेता दक्षिण भारत में पैदा हुए थे। और इस समय भी दक्षिण भारतियों का मस्तिष्क ही वास्तव में भारत पर शासन कर रहा है। यहाँ तक कि चैतन्य भी दक्षिण भारत के (गुरु /नेता) मध्वाचार्य सम्प्रदाय * के अनुयायी थे। [(५/२२७ ) सर्वांग वेदान्त -स्टार थियेटर, कोलकाता में दिया गया भाषण। *^श्रीमध्वाचार्य का जन्म दक्षिण भारत, कर्नाटक के उडुपी जिले के निकट तुलुव क्षेत्र के वेलीग्राम नामक स्थान पर विजया दशमी (1199 ई.) को हुआ था।]
>>>रामानुज का मत है : तीन तत्व (entities,अस्तित्व -सत्ता ) सनातन / नित्य/शाश्वत (eternal) हैं - ईश्वर,जीवात्मा और प्रकृति (God, soul, and nature)। परमात्मा सर्वत्र अन्तर्निहित और आत्मा का सार तत्व है। उनके मतानुसार प्रलय के समय सम्पूर्ण प्रकृति संकुचित अवस्था (contracted), सूक्ष्म अवस्था में रहती है, दूसरे कल्प के आरम्भ में वे अपने पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार पुनः अभिव्यक्त होती हैं, और अपना कर्मफल भोगती हैं। अन्त में ईश्वर के अनुग्रह से उसे मुक्ति मिलती है। [माँ जगदम्बा के युगावतार, अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव और युवा आदर्श विवेकानन्द की कृपा 'grace of God' से सिंह-शावक खुद को भेंड़ समझने के भ्रम से de-hypnotized हो जाता है। ] रामानुज कहते हैं - वे सभी व्यक्ति जिनकी चित्तशुद्धि हो गयी हो ,ईश्वर की कृपा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी की कृपा) को पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे ही उसे पाते हैं। ५/२२८ )[(যাহারা শুদ্ধস্বভাব এবং ঐ ঈশ্বরের কৃপালাভ করিতে চেষ্টা করে, তাহারা সকলেই কৃপা লাভ করে। --अर्थात महामण्डल द्वारा निर्देशित मनःसंयोग आदि 3H विकास के 5 अभ्यास से जिसका मन निर्मल पवित्र 'pure ' हो चुका हो, वे सभी ईश्वर की कृपा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी की कृपा) को प्राप्त करते हैं।]
>>>सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है । भोजन (आहार) की भी तीन श्रेणियां हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने रुचि वा प्रवृत्ति के अनुसार भोजन करता है । श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता में कहा है –आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः " (गीता 17. 7)
सभी मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार तीन प्रकार के भोजन को प्रिय मानकर भक्षण करते हैं । अर्थात् सात्त्विक वृत्ति के लोग सात्त्विक भोजन को श्रेष्ठ समझते हैं । राजसिक वृत्ति वालों को रजोगुणी भोजन रुचिकर होता है । और तमोगुणी व्यक्ति तामस भोजन की ओर भागते हैं । किन्तु सर्वश्रेष्ठ भोजन सात्त्विक भोजन होता है । श्रुति में (छान्दोग्य उपनिषत् में) एक प्रसिद्द वाक्य है -
"आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।"
(छान्दोग्य उपनिषत् - 7.26.2.)
--आहार के शुद्ध होने पर सत्व भी शुद्ध हो जाता है , अर्थात अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार शुद्ध हो जाते हैं । और 'सत्व शुद्ध होने पर ' यानि अन्तःकरण की शुद्धि होने पर स्मृति अर्थात ईश्वर- स्मरण (अद्वैतवादियों के लिए अन्तर्निहित स्वरुप से पूर्णत्व या मातृत्व की स्मृति) ध्रुव, अचल और स्थायी हो जाता है। स्मृति के दृढ़ होने से हृदय की सब गांठें खुल जाती हैं । अर्थात् जन्म-मरण के सब बन्धन ढीले हो जाते हैं । अविद्या, अन्धकार मिटकर मनुष्य दासता की सब श्रृंखलाओं से छुटकारा पाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी बनता है ।
इस वाक्य को लेकर भाष्यकारों में घोर विवाद हुआ - कि इस 'सत्व ' शब्द का अर्थ क्या है ? सांख्य के अनुसार इस देह का निर्माण तीन प्रकार के उपादानों से हुआ है , -गुणों से नहीं। साधारण मनुष्यों की धारणा है कि सत्त्व,रज और तम तीनों गुण हैं, परन्तु वास्तव में वे गुण नहीं जगत के उपादान कारण (materials of this universe=universe stuff-मनवस्तु या चित्त ? अन्तःकरण ?) हैं। और आहार शुद्ध होने पर सत्त्वपदार्थ निर्मल , अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है [अर्थात 'मन का मोहजनित मल' - मैल आसानी से धूल जाता है] [भोजन से तत्काल ही शरीर का पोषण और धारण होता है, बल्कि वृद्धि होती है तथा स्मरणशक्ति आयु, सामर्थ्य, शरीर का वर्ण, कान्ति, उत्साह, धैर्य और शोभा बढ़ती है । आहार ही हमारा जीवन है । गौ का घी हव्यतम अर्थात् हवन करने के लिये सर्वश्रेष्ठ है और बहु-गुण युक्त है, यह बड़े सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही खाने को मिलता है ।]
>>>theme of the Vedanta is to get this Sattva. सत्त्व को पाना= यानि अन्तःकरण को शुद्ध करना वेदान्त का मूलविषय (theme) या थीम है। जीवात्मा स्वभावतः पूर्ण और शुद्धस्वरूप है; लेकिन वह रज और तम के तन्मात्राओं (fragrance-like tanmatra) से ढंका हुआ है। सत्त्व तन्मात्रा (The Sattva particles) अत्यन्त प्रकाशमान (luminous) है, और उसके भीतर से आत्मा की दीप्ती या ओजस (effulgence-प्रभा वलय) उसी प्रकार निकलती है, जिस प्रकार ललटेन के शीशे के भीतर से आलोक। लेकिन ललटेन के शीशे पर धूल या धुआँ का कालापन चढ़ा हो तो ज्योति नहीं दिखेगी। अतएव यदि रज और तम पदार्थ या उनकी की तन्मात्रा दूर हो जाये केवल सत्व रह जाये, तो आत्मा की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित हो जाएगी, और वह अपने को पहले से अधिक व्यक्त कर सकेगी। रामानुज के मतानुसार यह आहार शुद्धि हमारे जीवन का एक मुख्य अवलम्ब है। निष्कर्ष यह निकला कि शुद्धाहार से मनुष्य के लोक और परलोक दोनों बनते हैं ।
प्रश्न उठता है कि, यदि वैसा भोजन किया जाये जो तीनों प्रकार के दोषों से मुक्त है - [जातिदोष (प्याज-लहसुन), आश्रय दोष (दुष्ट के हाथ का भोजन) और निमित्त दोष (भोजन में कीड़ा, बाल, धूल)] तब क्या निश्चित रूप से सत्त्व शुद्धि हो जाएगी ? अगर इतना आसान हो , तब तो धर्म बायें हाथ का खेल हो गया। अगर पाक-साफ भोजन ही धर्म होता, तबतो हर मनुष्य धर्मात्मा नहीं बन जाता ? अगर केवल खाद्यपदार्थ ही मन को पवित्र करता है , बन्दर और हिरण भी धर्मात्मा होते। अतएव शंकर कहते हैं -शेष चार इन्द्रियों से मिलने वाले आहार भी शुद्ध होना चाहिए, उसके पहले नहीं। एक प्रसिद्द गीत है -
'साधन करना चाहिए मनवा भजन करना चाहिए -
नित नहाने से हरि मिले ? फलमूल खाके हरि मिले ?
तीरन भखन से हरि मिले तो बहुत हैं मृगी अजा।
नारी छोड़न से हरि मिले तो बहुत रहे हैं खोजा !
'साधन करना चाहिए - .......
‘নিত নহ্নেসে হরি মিলে তো জলজন্তু হোই,
ফলমূল খাকে হরি মিলে তো বাদুড় বান্দরাই,
তিরন ভখনসে হরি মিলে তো বহুত মৃগী অজা।’৩৬ ইত্যাদি
इस समस्या का समाधान शंकर मत और रामानुज के सिद्धान्त दोनों के समन्वय में है। आजकल भोजन का नियम और वर्णाश्रम धर्म पर बड़ा जोर दिया जा रहा है। लेकिन मैं तो बंगाल के हिन्दुओं में वर्णचतुष्टय - ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य, शूद्र का पालन होते नहीं देखता। यहाँ मैं केवल ब्राह्मण और शूद्र देखता हूँ। [बंगाल के , যদি ক্ষত্রিয় ও বৈশ্যজাতি থাকে, তবে তাহারা কোথায়? बंगाल के क्षत्रिय और वैश्य कहाँ गए? यदि हैं तो क्यों तुम उन्हें हिन्दूधर्म के नियमानुसार जनेऊ-संस्कार की आज्ञा नहीं देते ? और हे ब्राह्मणों, तुम आचार्य के आसन पर बैठना चाहते हो, परन्तु कपटाचरण नहीं छोड़ते ? क्या उसका प्रायश्चित तुम्हें मालूम है ? प्रायश्चित है - तुषानल। (५-२३१ )
>>>The universe is not, and God is.>ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ! >"भारत के द्वैतवादी सम्प्रदायों के अनुसार सभी जीवात्मायें सदैव जीवात्मा ही रहेंगी। ईश्वर जगत का निमित्त कारण (efficient cause) है, और उसने पहले से ही अवस्थित उपादान कारण (material cause) से संसार की सृष्टि की। शंकर के अद्वैतवाद के अनुसार, माया [C- time, space, and causation] के माध्यम से देखने के कारण ही ब्रह्म (A), जगत (B) का निमित्त और उपादान दोनों कारण प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में है नहीं। ईश्वर यह जगत नहीं बना , बल्कि जगत है ही नहीं , केवल ईश्वर ही है -ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। God has not become this universe, but the universe is not, and God is. अद्वैत वेदान्त का यह मायावाद (विवर्तवाद) समझना बहुत कठिन है। उनके मत में सत्ता (अस्तित्व) केवल ब्रह्म ही की है, और आत्मा (जीवात्मा) तथा ब्रह्म में, यह जो भेद (बिंब-प्रतिबिम्ब भेद) दृष्टिगोचर हो रहा है, वह केवल माया के कारण। यह एकत्व, यह 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' ही हमारा चरम लक्ष्य है। ५/२३२)
[ब्रह्मसूत्र का पहला श्लोक है - अथातो ब्रह्मजिज्ञासा - अब हमें परम सत्य के विषय में जिज्ञासा करनी चाहिए।” दूसरे ही श्लोक में इसका उत्तर है — जन्माद्यस्य यतः — “परम सत्य ही सबके मूल स्रोत हैं।” इस श्लोक — जन्माद्यस्य यतः का यह अर्थ नहीं है कि आदि पुरुष रूपान्तरित हो गये हैं ; प्रत्युत यह स्पष्ट इंगित करता है कि वे अपनी अचिन्त्य शक्ति द्वारा इस विराट् जगत् को उत्पन्न करते हैं। भगवद्गीता (10.8) में इसकी व्याख्या स्पष्ट रूप से की गई है, जहाँ कृष्ण कहते हैं — मत्तः सर्वं प्रवर्तते — “मुझ से ही सब उद्भूत होता है।” तैत्तिरीय उपनिषद् (3.1.1) से भी इसकी पुष्टि होती है — यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।” परम सत्य वे हैं, जिनसे प्रत्येक वस्तु उद्भूत होती है। इसी प्रकार मुण्डक उपनिषद् (1.1.7) में कहा गया है — यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च — “भगवान् इस भौतिक जगत् का उसी प्रकार सृजन तथा संहार करते है, जिस प्रकार एक मकड़ी जाल बुनती है और बाद में उसे अपने में समेट लेती है।” ये सारे सूत्र भगवान् की शक्ति के रूपान्तर के सूचक हैं। ऐसा नहीं है कि स्वयं भगवान् में प्रत्यक्ष रूपान्तर होता है, जो परिणामवाद कहलाता है। किन्तु वह दूध का दही बन जाने जैसा परिणाम नहीं है -विवर्त है।]
>>>The old Indian theme-This world is a delusion, that it is all Maya, -"विश्वगुरु भारत की यही घोषणा है कि - संसार भ्रम है, इंद्रजाल है, माया है। चाहे तुम भिखारी हो या राजा हो , परिणाम सभी का एक है ,और वह है मृत्यु। गति सभी की एक है, सभी माया है। यही भारत की प्राचीन सूक्ति है। बारम्बार विभिन्न जातियाँ सिर उठाती हैं -इसके खण्डन की चेष्टा करती हैं। भोगसाधन को वे अपना ध्येय बनाती हैं, भोग की चरम सीमा को पहुँचती है, और दूसरे ही क्षण वे विलुप्त हो जाती हैं। हम चिर काल से खड़े हैं , क्योंकि हम देखते हैं कि हर वस्तु माया है। महामाया [माँ काली ] के बच्चे सदा बचे रहते हैं , परन्तु भोग रूपी अविद्या के लाड़ले देखते देखते ही देखते कूच कर जाते हैं। " ५/२३३
>>>Ay, you the mighty cause of this universe, The Alpha and Omega is renunciation. "Give up, give up." --" हे संसार के सर्वशक्तिशाली कारणस्वरूप ! तुम छोटी छोटी कीचड़ की गड़ही (M/F शरीर में, mud puddles में ) अपना स्वरुप देखने का वृथा प्रयत्न करते हो ! कुछ दिनों तक यह सब प्रयत्न करने के बाद समझोगे कि - सम्पत्तिशाली, नामी -गिरामी, नेता बनने के सभी प्रयत्न व्यर्थ थे। और जहाँ से तुम आये हो , मन में वहीँ लौट चलने का संकल्प ठान लोगे। यही वैराग्य है , और यही से धर्म का प्रारम्भ होता है। बिना त्याग या वैराग्य के धर्म या नैतिकता (religion or morality) उदय कैसे हो सकता है ? वेद कहते हैं-न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः — त्याग करो ! त्याग करो ! इसके सिवा और दूसरा पथ नहीं है।
>>>If you can give up, you will have religion. यदि तुम त्याग कर सको तो तुम्हें धर्म (=अमृतत्व) मिल सकता है। केवल त्याग के द्वारा ही इस अमृतत्व की प्राप्ति होती है। त्याग ही महाशक्ति है। जिसके भीतर इस महाशक्ति का आविर्भाव होता है, वह और की तो बात ही क्या विश्व की ओर भी नजर उठाकर नहीं देखता। तभी सारा ब्रह्माण्ड /संसार उसे गाय के खुर से बनाये हुए गढ़े के समान नजर आता है - ब्रह्माण्डम् गोष्पदायते। त्याग ही भारत की [महामण्डल की] पताका है। त्याग का आदर्श अत्यन्त महान है। यह त्याग ही भारत के आदर्शों में अब भी सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च है। ५/२३४)
>>>Religion is to be realized. यह विचार केवल भारतीय संस्कृति में ही पाया जाता है कि - " धर्म का साक्षात्कार करना चाहिए ! " [अर्थात अमृतत्व, आत्मा या ब्रह्म का साक्षात्कार करके ब्रह्मविद बनना और बनाना चाहिए !]
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।।3।।
(मुण्डकोपनिषद्, मुंडक 3, खंड 2)
(न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन, यम् एव एषः वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम् ।)
अर्थ - (केवल हमारे उपनिषदों में ही कहा गया है कि) यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती है और न ही बौद्धिक क्षमता से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी ही इच्छा करता है उसे यह प्राप्त होता है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है ।
[Qualities and Characteristics of a 'Leader' trained in the Guru-Shishya Vedanta teacher training tradition~ 'Be and Make' : > नित्यमुक्तजीव स्वामी विवेकानन्द (गुरु) - मुमुक्षुजीव (शिष्य) कैप्टन सेवियर ~ वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा के ~'Be and Make' योजना एवं `चरैवेति -चरैवेति' अभियान-मंत्र के अनुसार प्रशिक्षित - नेता (मुक्तजीव, ब्रह्मविद,जीवनमुक्त शिक्षक C-IN-C नवनीदा) के गुण एवं वैशिष्ट्य को स्पष्ट रूप से प्रकट करनेवाला श्लोक इस प्रकार है -
जिसके मन में केवल उस परम् सत्य को जाने की लालसा शेष रह गयी जिसको देखने के बाद एथेन्स का सत्यार्थी अंन्धा हो गया था ! वही उस ज्ञान का (आत्मसाक्षात्कार का) हकदार/ पात्र है ।बशर्ते उसे CINC -नवनीदा जैसा मार्गदर्शक नेता मिल जाये ! जो ठाकुर के ऐसा कह सके - একমাত্র রামকৃষ্ণ পরমহংসই (नेता वरिष्ठ नवनीदा) আমাকে বলিয়াছিলেন, ‘আমি ঈশ্বর দর্শন করিয়াছি।’ শুধু তাহাই নহে, তিনি আরও বলিয়াছিলেন, ‘আমি তোমাকে তাঁহার দর্শন-লাভ করিবার পথ দেখাইয়া দিব।’]
[तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का (आत्मसाक्षात्कार का) हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है । ]
>>>"I will put you in the way of seeing Him too".यह पद्धति (आत्मसाक्षात्कार की पद्धति) उस गुरु से सीखनी पड़ती है जो श्रीरामकृष्ण परमहंस की तरह अपने शिष्य से कह सकता हो -
" जब मैं इस कलकत्ता शहर में एक तरुण था , तब धर्म की शिक्षा के लिए जहाँ-तहाँ जाया करता था। और एक लम्बा व्याख्यान सुनकर वक्ता महोदय से पूछता था - `क्या आपने ईश्वर को देखा है? ' ईश्वर-दर्शन के नाम से ही उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता। और एकमात्र श्रीरामकृष्ण परमहंस ही थे , जिन्होंने मुझसे कहा, " हाँ हमने ईश्वर को देखा है। " और इतना ही नहीं यदि तुम उनका दर्शन करना चाहो तो तो तुम्हें भी उसका मार्ग दिखा सकता हूँ ! ५/२३६ )
[श्रीरामकृष्ण देव ने " Qualities and Characteristics of Leader" मार्गदर्शक नेता का वर्णन करते हुए कहा है - " सृष्टि में सभी मनुष्य अलग अलग प्रकृति के अवश्य होंगे। उनमें भी कितने ही दर्जे हैं - नित्यजीव (eternally free) , मुक्तजीव (who have attained liberation) , मुमुक्षुजीव (struggling for liberation) , बद्धजीव (entangled in the world) अनेक तरह के आदमी हैं। नारद, शुकदेव नित्य जीव हैं; जैसे Steam boat (कलवाला जहाज)। खुद भी पार जाता है और बड़े बड़े जीवों को - हाथियों को भी ले जाता है । नित्य जीव नायबों ( superintendent-अधीक्षक) की तरह हैं, एक स्थान का शासन कर दूसरे का शासन करने के लिए जाते हैं। [ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो, वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान्, अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।
(- विवेकचूडामणि-३७ )
37. ऐसी शांत और उदार निःस्वार्थी आत्माएं हैं, ( CINC -नवनीदा जैसा मार्गदर्शक नेता द्वारा स्थापित महामण्डल के नेता हैं) , —जो इस भीषण भवसागर के उस पार स्वयं भी चले गए हैं, जो वसंत ऋतु की तरह बिना किसी निजी स्वार्थ के दूसरों का भला करती हैं और बिना किसी लाभ की आशा किये दूसरों को भी पार करते हैं। "ऐसे ही मनुष्य (C-IN-C नवनीदा ) गुरु (मार्गदर्शक नेता) हैं ; और ध्यान रखो कि दूसरा कोई गुरु नहीं कहा जा सकता।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः, स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा, अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥
(–कठोपनिषद् ,1.2.5)
(जंघन्यमाना:/ –मुण्डकोपनिषद् ,1/2/8)
[अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः दन्द्रम्यमाणाः मूढाः परियन्ति यथा अन्धेन एव नीयमानाः अन्धाः । दन्द्रम्यमानाः = अंग्रेजी में beating own drums। -मुण्डकोपनिषद् में जंघन्यमानाः है जिसका अर्थ विद्या की हत्या करना है। अपने निर्मित वृत्त में चक्कर लगाने को उपनिषद् में परियन्ति कहा है। ]
---अविद्या के भीतर ही रहते हुए, स्वयं को धीर और पण्डित माननेवाले मूढजन, भटकते हुए चक्रवत् घूमते रहते हैं, जैसे अन्धे से ले जाते हुए अन्धे मनुष्य।
।।श्रीमते रामानुजाय नमः।। जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला भी अंधा मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता-भटकता है, वैसे ही उन मूर्खों को भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध दु:ख पूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो (अपने गुरु से चपरास प्राप्त किये बिना, उनकी अवहेलना कर) अपने मन से अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान समझते हैं, विद्या-बुद्धि के मिथ्याभिमान में (या लोकेषणा के चक्कर में) 'अपरा विद्या' को सब कुछ समझ कर और 'परा विद्या' की कुछ भी परवाह नहीं करते। उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोग (नाम-यश) का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते हैं।
अविद्या के अंधकार में डूबे हुए भी अपने को अहंकारवश सुधि और महापंडित समझने वाले ये- मूर्ख (अंग्रेज शासक) दूसरों की सहायता करना चाहते हैं , परन्तु स्वयं कुटिल मार्ग पर ही भ्रमण किया करते हैं। (अर्थात आचार्य के आसन पर बैठना चाहते हैं, परन्तु कपटाचरण, गुरुगिरि करने की आदत नहीं छोड़ते ?) अंधे का हाथ पकड़कर चलने वाले अंधे की तरह ये गुरु और शिष्य (पाकिस्तान -इंग्लैण्ड) दोनों ही गड्ढे में गिरते हैं।' (५/२३७ )
[कुछ धूर्त अंग्रेजों ने 1831 ई. में ऑक्सफोर्ड की संस्कृत बोडेन पीठ (Oxford Sanskrit Bowden Chair,1831 ई.) की स्थापना प्राचीन भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के उद्देश्य से किया था, संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से नहीं । कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में साम्यवाद का प्रचार केन्द्र था, जो पहले जर्मनी के उद्योग को नष्ट करने के लिए था, बाद में इसका रूस में प्रचार किया गया। ब्रिटिश दलाल लेनिन हमेशा जार से बचने के लिए ब्रिटेन में ही शरण लेता था। वेद-नाशक तथा साम्यवादी साहित्य दोनों का प्रकाशन विदेशों के लिए ही था, स्वयं ब्रिटेन में इनका कभी व्यवहार नहीं हुआ। साभार@@@@/✍🏻अरुण उपाध्याय /https://www.ugtabharat.com/33064/]
" अद्वैतवादियों के मत में हमलोगों का व्यक्तित्व, जो इस समय विद्यमान है , भ्रम मात्र है। समग्र संसार के लिए इस बात को ग्रहण कर पाना बहुत कठिन है। जैसे ही तुम किसी से कहो कि वह 'व्यक्ति' नहीं है, वह इतना डर जाता है कि उसका अपना व्यक्तित्व, चाहे वह कैसा ही क्यों न हो-(दीखने में अष्टावक्र , नकचपटा, काना ही क्यों न हो ?) -कहीं मिट तो नहीं जायेगा ? परन्तु अद्वैतवादी कहते हैं कि व्यक्तित्व जैसी वस्तु कभी रहती ही नहीं। विचार करो तुम जीवन में प्रतिक्षण - मुहुर्मुहुः परिवर्तित हो रहे हो या नहीं ? कभी तुम बालक थे , तब तुम एक तरह से विचार करते थे। इस समय तुम युवक हो , अब अपने विषय में दूसरी तरह से सोचते हो। और जब तुम वृद्ध हो जाओगे , तब दूसरी ही तरह सोचोगे। हरेक व्यक्ति परिवर्तित हो रहा है। यदि यह सच है तो तुम्हारा निजी व्यक्तित्व कहाँ रह गया ?
यह 'मैं-पन' या निजी व्यक्तित्व, न शरीर के सम्बन्ध में रह जाता है, न मन के सम्बन्ध में अथवा तरुण देवकुलिश के परमसत्य से सम्बंधित विचारों के सम्बन्ध में। प्रत्येक जीव इस स्थूल (नश्वर-जड़ ) देह-और मन से परे आत्मा (अविनाशी, चेतन, ईश्वर या ब्रह्म) ही है ! इनके परे वह आत्मा (अव्यक्त ब्रह्म) ही है। और अद्वैतवादी कहते हैं , दो अनन्त कदापि नहीं रह सकते। केवल एक ही व्यक्ति है - 'तुम ' ? जो अनन्त स्वरुप है। अस्तित्व केवल इसी अनन्त (अविनाशी आत्मा) का है और सब माया है। [नाम-रूप, M/F जो दृष्टिगोचर जो पतिपत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-भतीजा, माता-मौसी,फूआ -फूफा -सब माया है।] किसी भी सम्बन्ध या नामरूप की कोई तात्विक सत्ता नहीं। कोई भी जड़ वस्तु [वृक्ष -घास] क्यों न हो , उसमें जो यथार्थ सत्ता है - वह ब्रह्म ही है ! और नाम-रूप आदि जितने हैं सब माया है। नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम हो जायेंगे।
तुम्हें इस 'अहम' (मैं) शब्द को अच्छी तरह समझना चाहिए। प्रायः लोग कहते हैं - 'यदि मैं ब्रह्म हूँ तो 'मैं' स्वतंत्र हूँ , और जो मेरे जी में आया उसे मैं क्यों नहीं कर सकता ? ' पूज्य दादा ने कहा था - ब्रह्म का अनुभव तुम्हारी आत्मा को हुआ था , तुम्हारे 'अहं ' को नहीं !! जब तुम समाधि से शरीर में लौटने पर, पुनः अपने (M/F शरीर से तादातम्य करके) बद्ध ही समझ रहे हो, तब तुम आत्मस्वरूप ब्रह्म (सिंह -शावक), जिसे कोई अभाव नहीं , जो अन्तर्ज्योति हैं, नहीं रह गए। यह अन्तराराम है, आत्मतृप्त है , वह कुछ भी नहीं चाहता , उसकी कोई कामना नहीं है, वह सम्पूर्ण निर्भय और सम्पूर्ण स्वाधीन है। वही ब्रह्म है। उसी ब्रह्मस्वरुप में हम सभी एक हैं। ५/२३८)
" शंकराचार्य और रामानुज जैसे भाष्यकार लोग अपने अपने मत की पुष्टि के लिए शास्त्रों का इस प्रकार अर्थ लगाया है जो मेरी समझ में समीचीन नहीं है। यद्यपि वे यह जानते हैं कि "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।" सत्ता एक ही है, परन्तु मुनियों ने भिन्न भिन्न नामों से उसका वर्णन किया है। " और वह शिक्षा है, वह अद्भुत भाव है जिसकी शिक्षा अभी हमें सम्पूर्ण विश्व को देनी है। हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूलमंत्र यही है - और इसी मूलमंत्र "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।" को चरितार्थ करने में ही हमारी समस्त राष्ट्रीय जीवन-समस्यायों का समाधान छिपा हुआ है ! किन्तु हमारी बनारस वाली समस्या- है , जिसके कारण भारत में कुछ थोड़े से ज्ञानियों के अतिरिक्त [गुरु परम्परा में समाधि से लौटे नेताओं के अतिरिक्त] अधिकांश पण्डित - लगभग 98 % पण्डित लोग , इसी बात को लेकर बनारस की सीढ़ियों पर बैठकर कर झगड़ते हैं कि या तो अद्वैतवाद सत्य है , अथवा विशिष्टा द्वैतवाद , अथवा द्वैतवाद।
जब हमारे समाज में विद्वानों की अवस्था इतनी भ्र्मपूर्ण थी, उसी समय एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ [15th, अगस्त 1931 में नवनीदा का और 1967 में नेतावरिष्ठ C-IN-C परम्परा में महामण्डल का Be and Make' आंदोलन का आविर्भाव हुआ] जिनका अपना जीवन उस सामंजस्य की व्याख्या थी , जो सभी सम्प्रदायों की आधारशिला थी। जिसको उन्होंने कार्यरूप में (राष्ट्रभाषा हिन्दी में आध्यात्मिक शिक्षा देने वाले, 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' ) परिणत कर दिखाया। मेरा मतलब "श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा, और महामण्डल का "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्ती लीडरशिप परम्परा," CINC- Dy-CINC " परम्परा से है।
>>> Geocentric (भूकेन्द्रीक) and Heliocentric (सूर्य केन्द्रिक) theories in astronomy.
नवनीदा के जीवन से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये दोनों मत - प्रवृत्ति मार्गी (Geocentric) और निवृत्ति मार्गी (Heliocentric) मत आवश्यक हैं। ये ज्योतिषविज्ञान की शिक्षा की तरह है। पहले उन्हें भूकेन्द्रीक मत ही सिखलाया जाता है, जब उसे सूक्ष्मविषयों के बारे में बताया जाता है तब उन्हें सूर्य केन्द्रिक मत की शिक्षा दी जाती है।
रामानुज कहते हैं - " जब तक तुम अपने को देह , मन या जीव (M/F) सोचोगे तबतक जीव -जगत और इन दोनों के कारणस्वरूप वस्तुविशेष का ज्ञान रहेगा। " परन्तु मनुष्य के जीवन में ऐसा भी समय आता है , जब शरीर- ज्ञान बिल्कुल चला जाता है , जब मन भी क्रमशः सुक्ष्मतिसूक्ष्म होते हुए प्रायः लूप्त हो जाता है , जब देहबुद्धि में डालदेने वाली घटनाएं , भय, मोह -दुर्बलता सभी मिट जाते हैं। तभी -केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है। वह उपदेश क्या है ?
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥
।।5.19।। जिनका अन्तःकरण समता में अर्थात् सब भूतों के अन्तर्गत ब्रह्मरूप समभाव में स्थित यानी निश्चल हो गया है, उन समदर्शी पण्डितों ने यहाँ जीवितावस्था में ही सर्ग को यानी जन्म (canto, सृष्टि-चक्र) को जीत लिया है अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष ( और सम ) है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं। और चूँकि वे समदर्शी पुरुष (ब्रह्मविद) ब्रह्म में ही स्थित हैं इसी कारण, उनमें से देहादि संघात को आत्मारूप से देखने का अभिमान जाता रहा है, इसलिए उनको दोष की गन्ध भी स्पर्श नहीं कर पाती।
यद्यपि मूर्ख लोगों को दोषयुक्त चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोषयुक्त सा प्रतीत होता है, तो भी वास्तवमें वह (आत्मा) उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। चेतन आत्मा निर्गुण होने के कारण अपने गुण के भेद से भी भिन्न नहीं है।
पुराणों तथा यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति ही बताया गया है। एक बुद्धिमान् एवं विचारशील पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त में स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जीव का संसार यहीं पर समाप्त होकर वह अपने अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है। जीवभाव की परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर मनुष्य ईश्वरानुभूति में स्थित रह सकता है।
भगवान् यहाँ कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में स्थित है वे ब्रह्म में स्थित हैं। परम् सत्य या ब्रह्म सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि का स्वभाव है नित्य परिवर्तनशीलता। इसी बात- 'इहैव तैर्जितः सर्गो को ' महर्षि पतंजलि दूसरे शब्दों में कहते हैं - योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें 'व्यक्त चैतन्य' - (M/F जीव पति-पत्नी भाव या) अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अतः मन के नष्ट होने पर 'अहंकार' और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है।
भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में समभाव में स्थित रहता है वह पुरुष निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है। समदर्शनरूप पूर्णत्व कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। सांसारिक दुखों (जन्म-जरा-मृत्यु] से मुक्त जीव- इस शरीर में रहते हुए भी अनुभव करता है कि वह परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं। इस स्वरूपानुभूति के बिना पूर्व श्लोक में कथित समदर्शित्व प्राप्त नहीं हो सकता।
ब्रह्म सर्वत्र समानरूप से व्याप्त है। सब घटनाएं उसमें ही घटती हैं परन्तु उसको कोई विकार प्राप्त नहीं होता।जीव देहादि के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है। जो व्यक्ति मनुष्य को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और समभाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान (ब्रह्म) में स्थिति प्राप्त कर ली है। [उसने निश्चय ही नारद का माया दर्शन की कहानी जैसा- "poise", संतुलन -आत्मविश्वास अर्थात अधिष्ठान (ब्रह्म) में स्थिति प्राप्त कर ली है।]
समुद्र की लहरों पर बहती हुई लकड़ी, या नौका भी इतस्तः (इधर-उधर, यहाँ वहाँ) भटकती रह सकती है, लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ (जैसे मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त योगी -ब्रह्मविद) अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।
।।13.29।।क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने-आप से अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगति को प्राप्त हो जाता है।
>>>all ignorant are suicides> सभी अज्ञानी आत्महत्यारे हैं >>लेकिन अज्ञानी लोग स्वयं अपना तिरस्कार करते ही रहते हैं। कैसे ? सभी अज्ञानी अत्यन्त प्रसिद्ध साक्षात् -- प्रत्यक्ष आत्मा का तिरस्कार करके अनात्मा (जड़) शरीरादि को आत्मा (चेतन) मानकर, फिर धर्म और अधर्म का आचरण कर उस प्राप्त किये हुए इस (शरीररूप) आत्मा का नाश करके दूसरे नये (शरीररूप) आत्मा को प्राप्त करते हैं। फिर उसका भी इसी प्रकार नाश करके अन्य को और उसका भी वैसे ही नाश करके (पुनः) अन्य को पाते रहते हैं। इस प्रकार बारंबार शरीररूप आत्मा को प्राप्त करके उसकी हिंसा करते जाते हैं ? अतः सभी अज्ञानी आत्महत्यारे हैं। परंतु जो इनसे अन्य उपर्युक्त आत्मस्वरूप को जाननेवाला है वह दोनों प्रकार से ही अपनेद्वारा अपना नाश नहीं करता है। इसलिये वह परमगति प्राप्त कर लेता है।
>>>Vedanta does not teach us to escape from the world: वेदान्त हमें जगत् से पलायन नहीं सिखाता, बल्कि वह इस दृश्यमान जगत् का पुनर्मूल्यांकन करने का उपदेश देता है। इस अविद्या माया के कारण मनुष्य न केवल अपने स्वरूप को नहीं जानता, वरन् स्वरूप से सर्वथा भिन्न देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप मान लेता है। जब वह विवेक वैराग्यादि साधनों से सम्पन्न होकर आत्मबोध प्राप्त करता है तब अज्ञानसहित मिथ्याज्ञान की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है, और वह परम गति को प्राप्त होता है।
उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव को प्राप्त आत्मा जब देखता है, तब उसे नानाविध सृष्टि दिखाई देती है। भ्रान्तिजनित यह जगत् कभी उसे खिसियाते और नृत्य करते हुए तो कभी चीखते और हुंकारते हुए प्रतीत होता है। मिथ्या प्रेत के अधिष्ठान स्तम्भ को पहचान लेने पर पूर्व का भय और दुख समाप्त हो जाता है।
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>>>`हिन्दू धर्म के सामान्य आधार'-[3H] : लाहौर के आर्य समाज और सनातन धर्म सभा के संयुक्त तत्वाधान में दिए अपने भाषण `हिन्दू धर्म के सामान्य आधार'-[3H] स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हिन्दू मात्र का यह विश्वास है कि मनुष्य केवल यह स्थूल जड़ शरीर ही नहीं है , न ही उसके अभ्यन्तरस्थ यह 'मन ' नामक सूक्ष्म शरीर ही प्रकृत मनुष्य है। वरन मनुष्य का यथार्थ स्वरुप तो इन दोनों से परे और अत्यन्त श्रेष्ठ है !! कारण, स्थूल शरीर परिणामी (परिवर्तनशील-विवर्त ?) है और मन का भी वही हाल है। परन्तु इन दोनों से परे 'आत्मा ' नामक अनिवर्चनीय वस्तु है जिसका न आदि है , न अन्त। मैं इस 'आत्मा ' शब्द का अंग्रेजी अनुवाद नहीं कर सकता , क्योंकि इसका कोई भी पर्याय गलत होगा। यह आत्मा 'मृत्यु ' नामक अवस्था से परिचित नहीं ! और एक विशिष्ट बात यह है कि आत्मा एक शरीर (भोगायतन) का अन्त होने पर , दूसरा शरीर धारण करती है। ऐसा करते करते वह एक ऐसी अवस्था में पहुँचती , जब उसे फिर शरीर धारण करने की इच्छा या आवश्यकता नहीं रह जाती , तब वह मुक्त हो जाती है, और फिर कभी जन्म नहीं लेती। यहाँ मेरा तात्पर्य अपने शास्त्रों के पुनर्जन्मवाद (जन्म-मृत्यु चक्र या संसारवाद) तथा आत्मा के नित्यत्ववाद से है। ...यह पुनर्जन्मवाद एक ऐसा मौलिक प्रभेद है, जो पाश्चात्य मानसिकता को एक ही आघात में भारतीय मानसिकता से पृथक कर देता है। (५/२६५)
" जब हम पूजा उपासना करते हैं , तब ऑंखें बंद कर ईश्वर को अपने ह्रदय में ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं, और पाश्चात्य अपने बाहर ही ईश्वर को ढूँढ़ता फिरता है। पाश्चात्यों के धर्म ग्रन्थ प्रेरित हैं , जबकि हमारे धर्मग्रन्थ अन्तःप्रेरित हैं , निःश्वास की तरह वे निकले हैं , ईश्वर निःश्वसित हैं ^* , मन्त्रद्रष्टा ऋषियों के हृदयों से निकले हैं। [^* inspire का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - श्वास का बाहर से अंदर आना और expire का - श्वास का भीतर से बाहर निकलना ! ] ( ५/२६७ )
"यह एक प्रधान बात है , जिसे अच्छीतरह समझ लेने की आवश्यकता है । प्यारे भाइयो ! मैं तुम लोगों को यह बताये देता हूँ कि यही तथ्य भविष्य में हमें (भावी नेताओं को ), विशेष रूप से बार बार बतलानी और समझानी पड़ेगी। ... जो अपने को दिनरात `कुछ नहीं' समझता है तो वह `कुछ नहीं' ही बन जाता है। हम तो उसी अनन्त ब्रह्माग्नि की चिनगारियाँ हैं -भला हम `कुछ नहीं ' क्योंकर हो सकते हैं ? हम सबकुछ हैं , हम सबकुछ कर सकते हैं , और मनुष्य को सबकुछ करना ही होगा , हमारे पूर्वजों में ऐसा ही दृढ़ आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वास रूपी प्रेरणा शक्ति ने उन्हें सभ्यता की उच्च से उच्चतर सीढ़ी पर चढ़या था। ५/२६७)
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>>>प्रश्न : नेता का वह वैशिष्ट्य क्या है, जिसके बल पर वे अपने मन की चहारदीवारी को लांघकर परमशान्ति को प्राप्त होते हैं ?
उत्तर : जीवनमुक्त शिक्षक (भ्रममुक्त नेता) ने आत्मसाक्षात्कार कर लिया है , उसे (उसकी आत्मा को अहं को नहीं ) सर्वोच्च सत्य -इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान होता है। वह अपने अनुभव से जानता है कि शरीर- मन-बुद्धि से युक्त M/F का व्यक्तित्व मिथ्या है - प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है -अतः नश्वर है। इसके विपरीत हमारा स्वरूप्प (Self) या आत्मा अपरिवर्तनशील और अविनाशी है। शाश्वत आत्मा ही परमात्मा (सच्चिदानन्द) है, यह ज्ञान होने के बाद नेता (महात्मा या जीवनमुक्त शिक्षक) सुख-दुख , अपना -पराया के द्वैतवाद (dualityया द्वंद्व) से परे हो जाते हैं ।
वह संसारिकता की उग्र लहरों -थपेड़ों के मध्य भी निर्विकार बना रहता है। चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो -वह शांत और संतुलित (poised-पानी लाये नारद ?) रहता है। नेता (महात्मा या जीवनमुक्त शिक्षक) के चित्त की यह आंतरिक अवस्था है। चित्तशुद्धि हो जाने से उसकी स्मृति ध्रुव रहती है - उसे हमेशा स्मरण रहता है कि वह कौन है , और (दुबारा उसने) शरीर क्यों धारण किया है !
नेता/जीवनमुक्त शिक्षक स्वयं भवसागर को पार कर मानवजीवन के उस परम् लक्ष्य को प्राप्त कर चुका होता है , जिसे पाकर मनुष्य कोई भी प्रतिकलू परिस्थिति में घिर जाने पर निर्विकार रह सकता है। उदार (benevolent) या परोपकारी और करुणामय प्रकृति का होने के कारण वह हमेशा सहज और स्वाभाविक रूप से दूसरों के दुःख और व्याकुलता के मूल कारण -'आत्मविस्मृति' को दूर करने का प्रयास करता है।
वह जानता है कि मन को वश में करके वहां, लक्ष्य (समाधि) तक पंहुचा जाता है। इसलिए वह अपने हाथों को बढ़ा कर, आत्मज्ञान प्रदान करके मुमुक्षु को परमानन्द और सच्चिदानन्द के लक्ष्य का मार्गदर्शन करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। जब नेता/जीवनमुक्त शिक्षक किसी मुमुक्षु को सांसारिकता की चपेट में (जन्म-मृत्यु के चपेट में) पीड़ित देखता है, तो वह ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग का निर्देश करके उसे बचाने का प्रयास करता है। वह ऐसा नेतृत्व बिना किसी निजी स्वार्थ या या अपेक्षा के, अपनी मर्जी से ऐसा करता है। इसलिए अहेतुना (अहेतुना) शब्द का प्रयोग किया गया है। वसंत के समान के वह दूसरों के जीवनपुष्प को खिलाने में , अर्थात भवसागर पार कराने में इसीलिए मदद करता है , क्योंकि मदद किये बिना वह रह ही नहीं सकता। मनुष्य बनने और बनाने में मदद करना नेता /जीवनमुक्त शिक्षक का सबसे स्वाभाविक गुण है।
स्वामी ब्रह्मानन्द को १८९५ में लिखित पत्र के प्रमुख अंश (खण्ड ४/३०५)/ प्रिय राखाल, जय श्रीरामकृष्ण ! यह जो सारे देश में खलबली मची हुई है, इसी के आधार पर तुम लोग चारों ओर फ़ैल जाओ अर्थात जगह जगह महामण्डल केन्द्र स्थापित करने की चेष्टा करो। विवेक-अंजन त्रैमासिक पत्रिका के विषय में क्या हुआ ? मैंने सुना था कि सही समय पर प्रकाशित नहीं हो रही है, इसको चलाने में तुमलोग इतना घबड़ा क्यों रहे हो? आगे बढ़ो ! अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति नहीं मिली, तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े, तो हानि ही क्या है ? क्या यह बात असत्य है ?
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः,
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥
(भर्तृहरि नीतिशतकम्)
ऐसे सन्तजन कितने हैं, अर्थात विरले हैं -- जिनके मन, वचन व कार्य पुण्यरूपी अमृत से पूर्ण हैं, और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन में परोपकार की भावना का संचार कर, दूसरों के परमाणु तुल्य अर्थात किंचित सद्गुणों को भी पर्वतप्रमाण बढ़ाकर निरन्तर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं।।
बद्ध जीवों के लक्षण- -मरने के समय भी भगवान का नाम नहीं लेते। `पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे' सन्निपात (delirium-चित्तभ्रम, भेंड़त्व या ) मनोक्षेप की अवस्था में~ ओह ! ब्रह्म को भी पंचभूतों के चक्कर में फंस कर रोना पड़ता है। >>>`पंचभूतों के फंदे में फंस कर रोते हुए ब्रह्म -'Hamlet' की कथा :डेनमार्क के राजकुमार का नाम Hamlet था। डेनमार्क में यह बातें चल रही थी कि डेनमार्क के राजा और Hamlet के पिता की सांप के काटने से मृत्यु हो गई है। डेनमार्क के राजा के मरने के बाद Hamlet की मां ने राजा के भाई Claudius से शादी कर ली।
प्रश्न : हम इस श्लोक से क्या सीखते हैं?----- इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि किसी (शिष्य , मुमुक्षु या भावी नेता को) अपने गुरु / या मार्गदर्शक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक He -महापुरुष, C-IN-C नवनीदा) के महान गुणों और विशेषताओं पर सदैव मन को एकाग्र रखना (ध्यान केंद्रित) चाहिए। और मानव जाति के लिए उनके ह्रदय की उस पवित्रता और प्रेम को महसूस करना चाहिए जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं ! हमें चरित्रवान -नेतृत्व के गुणों से प्रेम करना चाहिए , और दृढ़ संकल्प लेकर उन्हें अर्जित करने प्रयास करना चाहिए।
हमारे शास्त्र कहते हैं - `Whatever are the characteristics of a 'Knower', are the pursuits for a seeker.' ~ एक नेता (ब्रह्मविद-Leader) की जितनी भी विशेषताएँ (characteristics) हैं, किसी मुमुक्षु (भावी नेता) के लिए वे विशेषताएँ ही अनुसरण करने योग्य (pursuits या लक्ष्य ) हैं !
अतः स्वपरमर्श पद्धति (Autosuggestion) से इस श्लोक -"शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तः, वसन्तवत् लोकहितं चरन्तः' की बार -बार पुनरावृत्ति करते समय , हमें मानवजाति के मार्गदर्शक नेता (C-IN-C नवनीदा) के गुणों से प्रेम करना चाहिए और यह चिंतन करना चाहिए कि-“When will I be able to imbibe these values ” ` मैं नेतृत्व के इन मूल्यों को कब आत्मसात कर पाउँगा? '
मानव जन्म (निर्विकल्प से दुबारा शरीर में लौटना) तो संसार के अन्य प्राणियों को नई दिशा देने के लिये मिलता है। कर्म योनि में उत्पन्न मात्र मानव ही तो -'विवेक-प्रधान जीव' है। इसे अपने ह्रदय में अवस्थित भगवान् की भक्ति - (विवेकदर्शन का अभ्यास) करनी है। सन्त सत्पुरूषों (C-IN-C नवनीदा) की संगति में जाना है। उन से निर्मल ज्ञान की संजीवनी बुट्टी प्राप्त करके मोह रूपी मदिरा पीकर मूर्च्छित हुए जगत् के दूसरे प्राणियों को सचेत करना है। ईश्वर के ध्यान में, उनकी महिमा का गान करने में एवं विमल योगाभ्यास द्वारा अपने चित्त की वृत्तियों को समाहित करने में समय व्यतीत करना है। -सन्त सत्पुरूष तो बसन्त ऋतु के समान संसार के बगीचे की कली कली को चटकाते हैं-फूलों में रस भरते हैं और प्राणिमात्र के कल्याण में अपने को धन्य समझते हैं।
>>>आत्मनिरीक्षण के बिन्दु (Points for Introspection) :
विवेक चूड़ामणि का यह श्लोक मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के चारित्रिक गुणों तथा विशेषताओं का वर्णन करता है।
1. A leader is one who lives only for others : मानवजाति का मार्गदर्शक नेता वह है जो केवल दूसरों के हित के लिए ~ 'बहुजन हिताय ' जीता है। वह सभी में ईश्वर को देखता है, प्रत्येक जीव में शिव को देखता है , इसलिए वह अपने सम्पूर्ण जीवन को देशवासियों की सेवा में (जनताजनार्दन की सेवा में) खपा देना चाहता है। उसका पूरा जीवन बिना किसी स्वार्थ या अपेक्षा (रुपया , नाम-यश प्राप्त करने) के दूसरों की सेवा में सदैव समर्पित रहता है।
2. Spring follows winter : इस श्लोक में, एक नेता (महात्मा या उच्च श्रेष्ठ आत्मा) की तुलना वसंत ऋतु से की गयी है। वर्षा, ग्रीष्म, शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत. सर्दी के बाद वसंत आता है। सर्दियों के दौरान, प्रकृति में जीवन की अभिव्यक्ति (expression of life-लालटेन की रौशनी ) मंद हो जाती है ; पृथ्वी उदास और बीहड़ (रूखी-सुखी) लगने लगती है। सर्दी के बाद बसंत के आगमन के साथ ही पूरी प्रकृति नए जीवन, नए उत्साह और प्रेरणा से जाग उठती है- ` Nature wakes up with new life, new enthusiasm and inspiration.' वे पेड़ जिसके सारे पत्ते झड़ गए थे ; पेड़, जो पत्तों से रहित हो गए थे, नए कोमल पत्तों से भर जाते हैं। विभिन्न प्रकार के फल - फूल पृथ्वी को सुशोभित करने लगते हैं।
3. The Moderate weather of spring season, soothes the body as well as the mind. जहां प्रकृति के ये सब मनोरम दृश्य आंखों के लिए दावत बन जाते हैं, वहीं वसंत ऋतु का मध्यम मौसम भी मानव जाति को भीषण ठंड (सर्दी) और गर्मी (पसीने) से राहत देता है। शीतल वासंती पवन शरीर (Hand) के साथ-साथ मन (Head) को भी शांत करती है। मानव सहित पृथ्वी पर रहने वाले अन्य जीवन तितली -कोयल आदि भी आनंद से परिपूर्ण हो जाते हैं। वसंत इस परिपूर्णता और खुशी को चारों ओर स्वाभाविक रूप से प्रदान करता है। यही इसकी प्रकृति है। किसी कवि (गौरीशंकर वैश्य 'विनम्र' , लखनऊ) ने कहा है -("शुभागमन ऋतुराज का, करता प्रेम विभोर ।सजे पेड़-पौधे खड़े, जैसे युवा-किशोर।। ठंड सिमटती जा रही, हुई गुनगुनी धूप। वासंती छायी छटा, खिला प्रकृति का रूप ।। रंगबिरंगी तितलियाँ, करें पुष्प रस पान। प्रेम भाव का दिख रहा, शुभ आदान-प्रदान।। सोशल साइट्स पर नहीं, मिल सकता मधुमास। खेत बाग तक जाइये, होगा मृदु आभास।। गंध नहीं, पर रंग है, हँसते युवा पलाश। मिला प्रकृति से बहुत कुछ, होते नहीं हताश।।")
4. most natural and spontaneous way to help others ~ 'You are good and be better': मानवजाति के मार्गदर्शक नेता भी इसी ऋतुराज वसंत के जैसे पवित्र लोग होते हैं। वे सबसे स्वाभाविक और सहज तरीके से - 'तुम अच्छे हो और अच्छे बनो' कहकर बिना किसी की भर्त्स्ना किये --दूसरों का भला करते हैं ;क्योंकि उनका स्वभाव दूसरों की मदद करना और उनकी सेवा करना है। क्योंकि नेता पूर्णतः निःस्वार्थी होते हैं , दूसरों का हित करने में ही अपना हित समझते हैं, वे दूसरों से उपकार के बदले कुछ भी पाने की अपेक्षा नहीं रखते।
5.selfish desires are the root cause of agitation in the mind. निजी स्वार्थ की इच्छा ही मन में सभी प्रकार की हलचल का मूल कारण है। कामनाओं के अभाव के कारण ऐसे पवित्र नेताओं /महात्माओं/ जीवनमुक्त शिक्षकों का मन सदा शान्त और स्थिर रहता है।
>>>गुरु परम्परा की महिमा > स्वामीजी अपने गुरुभाइयों को लिखित पत्र में कहते हैं - " गुरु-परम्परा के बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता -क्या यह बच्चों का खेल है ? गुरु-परम्परा अर्थात जो शक्ति गुरु से शिष्य में आती है , तथा उनसे उनके शिष्यों में संक्रमित होती है --उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। वैसे ही अपने को श्रीरामकृष्ण देव का शिष्य कह देना -क्या यह तमाशा है ? ... मेरे बच्चे घर घर जाकर भगवन्नाम का प्रचार करो। दूसरों की भलाई से ही अपनी भलाई होती है , अपनी मुक्ति तथा भक्ति भी दूसरों की मुक्ति तथा भक्ति से ही सम्भव है , अतः उसीमें संलग्न हो जाओ, तन्मय रहो तथा उन्मत्त बनो ! जैसे कि श्रीरामकृष्ण देव तुमसे प्रीति करते थे , मैं तुमसे प्रीति करता हूँ , आओ , वैसे ही तुम भी जगत से प्रीति करो। .... जगत के कल्याण के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस देव का आविर्भाव हुआ था। अपनी अपनी भावना के अनुसार उनको तुम मनुष्य , ईश्वर, अवतार - जो कुछ कहना चाहो -कह सकते हो। और जो कोई उनको प्रणाम करेगा , तत्काल ही वह स्वर्ण बन जायेगा ! " (खंड ४/३००-३०१)
स्वामीजी अपने गुरु भाई ब्रह्मानन्द जी को (1894-खंड २/पृष्ठ ३६३) में लिखित एक पत्र में कहते हैं - " धर्म क्या अभी भारत में रह गया है , भाई ? ज्ञान मार्ग , भक्ति मार्ग , योग मार्ग, सबका पलायन। और अब बचा है केवल 'छुआछूत मार्ग' (Don't touchism) | सारा संसार अपवित्र है , मैं ही केवल शुद्ध हूँ ! सहज ब्रह्मज्ञान (Lucid Brahmajnâna)!... पहले नेता (सन्त ,जीवनमुक्त शिक्षक, C-IN-C नवनीदा) का लक्षण था - त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः-'सेवा के अनेक कामों द्वारा तीनों लोकों को प्रसन्न रखना ', परन्तु अब है - मैं तुम लोगों से अधिक पवित्र हूँ और सब संसार अपवित्र, ---रूपये लाओ, अर्पित करो मेरे चरणों पर ! ..... मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है ,"वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ---ऋतुराज वसंत की तरह लोक हित करते हुए ( लोक-जीवन-पुष्प का प्रस्फुटन करते हुए- चरैवेति -चरैवेति !) आगे बढ़ते रहना --- यही मेरा धर्म है ! मैं आलसी , निष्ठुर , निर्दय और स्वार्थी मनुष्यों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। जिसके भाग्य में होगा , वह इस महाकार्य में सहायता कर सकता है। ..... भाई तुम लोग मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनाने में सहायता करो ! (खंड २/३६३)
[`मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः, त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ (भर्तृहरि नीतिशतकम्) भावार्थ - अपने मन से , वचनो से तथा अमृत के समान गुणकारी विभिन्न प्रकार के परोपकार के कार्यों को करने के लिये सदैव तत्पर रहने वाले , तथा अन्य लोगों के अणुवत् (क्षुद्र) गुणों को भी एक पर्वत के समान विशाल समझने वाले (गुणग्राही ) तथा जो अपना ह्रदय खुद विकसित करते हैं, वैसे सहृदय संत पुरुष इस संसार में कितने हैं ? (अर्थात दुर्लभ होते हैं )
` कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्:।।
चरैवेति। चरैवेति।।'
जो सो रहा है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है, लेकिन जो चल पडता है, वह कृतयुग, सतयुग, स्वर्ण —युग बन जाता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।
'हमारा प्रस्तुत कार्य' नामक भाषण में विवेकानन्द कहते हैं " जब तक शरीर है और जब तक हम इस शरीर से ही अपनी तद्रूपता स्थापित करने के विभ्रम में पड़े रहेंगे ,जब तक हमारी पांच इन्द्रियाँ हैं और जब तक हम इस स्थूल जगत को देखते हैं, हमारे लिए व्यक्तिविशेष ईश्वर या सगुण ईश्वर आवश्यक है। यदि हमारे ये सभी भाव हैं , तो जैसा कि 'समता की मूर्ति - महामनीषी रामानुज' ने प्रमाणित किया है , हमको ईश्वर , जीव और जगत इनमें से एक को भी स्वीकार करने पर शेष सबको स्वीकार करना ही पड़ेगा। अतएव जबतक हम बाह्य जगत देख रहे हैं , तब तक सगुण ईश्वर और जीवात्मा को स्वीकार न करना नीरा पागलपन है। परन्तु महापुरुषों के जीवन में वह समय आ सकता है , जब हमारा मन अपनी चाहार दीवारी को लांघकर उसके परे इन्द्रियातीत अवस्था में पहुँच जाता है , जहाँ अहं का कोई निशान नहीं मिलता ,`when the human mind transcends as it were its own limitations' जब जीवात्मा अपने सब बंधनों से अतीत होकर, प्रकृति के परे , उस सर्वातीत प्रदेश में चला जाता है , जिसके बारे में श्रुति कहती है --( ५/१७५ )
तभी जीवात्मा सारे बंधनों को पार कर जाता है , तभी, केवल तभी उसके ह्रदय में अद्वैतवाद का यह मूल तत्व प्रकाशित होता है कि --समस्त संसार और मैं एक हूँ , मैं और ब्रह्म एक हूँ !...जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए .... हर एक गोपी अपनी देह को भूल गयी और सोचने लगी वही श्रीकृष्ण है , और अपने को सज्जित करके उसी तरह क्रीड़ा करने लगी , जिस तरह श्रीकृष्ण करते थे। अतएव हमने यह समझ लिया कि उस एकत्व का अनुभव प्रेम से भी होता है। .... कौन है ? उत्तर दिया `मैं हूँ ' द्वार न खुला। .... दुबारा वही ध्वनि -कौन है ? मने कहा - ' मैं तुम हूँ प्यारे। ' द्वार खुल गया। " (५/१७६ )
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति।(तैत्तरीय उप० २.९)
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्। (केनोपनिषद १/३)
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च। यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च। (कठोपनिषद २/२)
`नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन — इस आत्मा को न कोई वाग्बल से प्राप्त कर सकता है (ऑन लाइन पाठचक्र करके प्राप्त कर सकता है), न बुद्धि-कौशल से और न अधिक शास्त्राध्यन से।' बल्कि आत्मा का साक्षात्कार होना चाहिए। यह गुरु/नेता की कृपा से शिष्य को मिलता है।
[ईसा ने कहा था - "This Atman is not to be reached by too much talking, nor is it to be reached by the power of intellect, nor by much study of the scriptures."] (५/ २३५ )
निडरता/निर्भीकता के लिए महाराजा परीक्षित को श्री सुकदेव गोस्वामी का अंतिम निर्देश :श्रीशुकदेवजी महाराज (श्रीमद्भागवत ) में राजा परीक्षित से कहते हैं‒मनुष्य शरीर विवेक प्रधान है । अतः ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह विवेक केवल मनुष्य शरीर में ही हो सकता है । शरीर को ‘मैं’ मानना मनुष्यता नहीं है, प्रत्युत पशुता है ।
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥
(श्रीमद्भागवत १२/५/२)
हे राजन् ! ` मैं मरने वाला हूँ ’ इस पशु-बुद्धि का तुम त्याग कर दो। जो आदमी सोचता है कि मैं मरने वाला हूँ वह मूढ़-बुद्धि, पशु-बुद्धि वाला है। जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जायगा, ऐसे ही तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगे‒यह बात नहीं है ।’
शरीर कभी एकरूप रहता ही नहीं और हमारा स्वरूप कभी अनेकरूप होता ही नहीं । शरीर जन्मसे पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी यह प्रतिक्षण मर रहा है । वास्तवमें गर्भमें आते ही शरीरके मरनेका क्रम शुरू हो जाता है । बाल्यावस्था मर जाय तो युवावस्था आ जाती है । युवावस्था मर जाय तो वृद्धावस्था आ जाती है । वृद्धावस्था मर जाय तो देहान्तर-अवस्था अर्थात् दूसरे शरीर की प्राप्ति हो जाती है‒
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
(गीता २/१३)
🔆🙏नेता /गुरु / जीवनमुक्त शिक्षक कौन हो सकते हैं ? 🔆🙏
[`The Work Before Us' / (Delivered at the Triplicane Literary Society, Madras) ]" श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन जैसा उज्ज्वल और महिमान्वित है , वैसा मेरे विचार में और किसी महापुरुष का नहीं। ...यदि तुम्हारे पास ऑंखें हैं तो तुम उसे अवश्य देखोगे ,यदि तुम्हारा हृदयद्वार खुला है तो तुम उसे अवश्य ग्रहण करोगे। यदि तुम में सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है , [एथेंस का सत्यार्थी -देवकुलिश हो ?] तो तुम उसे अवश्य प्राप्त करोगे। अँधा , बिल्कुल अंधा है वह , जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है , नहीं समझ रहा है। ... उसे वे पूजते हैं , जो शताब्दियों से मूर्तिपूजा के विरोध में आवाज उठाते आये हैं। यह किसकी शक्ति है ?... जो शक्ति (माँ काली) यहाँ श्री रामकृष्ण परमहंस के रूप में आविर्भूत हुई थी , यह वही शक्ति है और मैं , तुम , साधु , महापुरुष , यहाँ तक कि .... अवतार वरिष्ठ और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी न्यूनाधिक रूप में उसी पुंजीभूत शक्ति की लीला मात्र हैं ! ... भारत के पुनरुत्थान के लिए इस शक्ति का आविर्भाव ठीक ही समय पर हुआ है। ... उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे लिए परम सौभाग्य और गौरव की बात है।.... या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे या मिट जायेंगे। (कलकत्ता अभिनन्दन का उत्तर -५/२०७-२१० )
>>> 'भारत के प्रेमोन्मत्त महापुरुष !' (नेता, जीवनमुक्त योगी या पैगम्बर) > कृष्ण , बुद्ध ,शंकर , रामानुज , चैतन्य , रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा Be and Make में प्रशिक्षित आचार्य, 'विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदांत लीडरशिप परम्परा' से प्रेमोन्मत्त महापुरुष (C-IN-C)नवनीदा- Dy-CINC प्रमोद दा तक ! के विषय में विक्टोरिया हॉल, मद्रास में दिए गए भाषण - 'मेरी क्रन्तिकारी योजना ' (My Plan of Campaign) में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " भारत के प्राचीन समाज- सुधारक (मार्गदर्शक नेता) आधुनिक समाज-सुधारकों की तरह दम्भी [infatuated, fanfaronade-, इन्फैचूऐटेड-मोहान्ध या फैनफॉरनेड --शेखी बघारनेवाले या डिंग हांकने वाले] नहीं थे; वे इनके समान अपने मुख से कभी अभिशाप नहीं उगलते थे। उनके मुँह से केवल आशीर्वाद ही निकलता था। उन्होंने अपने देशवासियों की कभी भर्तस्ना नहीं की। उन्होंने लोगों से कहा कि जाति को सतत उन्नतिशील होना चाहिए।
उन्होंने अतीत में दृष्टि डालकर कहा , " हे हिन्दुओं , तुमने अभी तक जो किया अच्छा ही किया , पर भाइयो, तुम्हें अब इससे भी अच्छा करना होगा। " उन्होंने यह नहीं कहा, " पहले तुम दुष्ट थे , और अब तुम्हें अच्छा होना होगा। " उन्होंने यही कहा , " पहले तुम अच्छे थे , अब और भी अच्छे बनो। " इससे जमीन-आसमान का फर्क पैदा हो जाता है। हम लोगों को अपनी प्रकृति के अनुसार उन्नति करनी होगी।
विदेशी संस्थाओं (colonial mindset-औपनिवेशिक मानसिकता) ने बलपूर्वक जिस कृत्रिम प्रणाली को हममें प्रचलित करने की चेष्टा की है , उसके अनुसार काम करना वृथा है। वह असम्भव है। जय हो प्रभु ! मैं दूसरी कौमों की सामाजिक प्रथाओं की निंदा नहीं करता। वे उनके लिए अच्छी हैं , पर हमारे लिए नहीं। उनके लिए जो कुछ अमृत है , हमारे लिए वही विष हो सकता है। पहले यही बात सीखनी होगी।
अन्य प्रकार के विज्ञान , अन्य प्रकार के परम्परागत संस्कार और अन्य प्रकार के आचारों से (colonial mindset से) वर्तमान सामाजिक प्रथा गठित हुई है। और हम लोगों के पीछे है हमारे अपने परम्परागत संस्कार और हजारों वर्षों के कर्म। अतएव हमें स्वभावतः अपने संस्कारों के अनुसार ही चलना पड़ेगा ; और यह हमें करना ही होगा।
तब फिर मेरी योजना क्या है ? मेरी योजना है - प्राचीन महान आचार्यों के उपदेशों का अनुसरण करना ! मैंने उनके कार्य का अध्यन किया है , और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया, उनके आविष्कार करने का सौभाग्य मुझे मिला। वे सब महान समाज-संस्थापक (originator-प्रणेता, आरम्भक) थे ! (गुलामी की मानसिकता से प्रेरित परमुखापेक्षी समाज -सुधारक नहीं ?) उन्होंने सबसे अद्भुत कार्य (most marvellous work) किया --समाज में बल , पवित्रता और जीवन-शक्ति संचारित की। हमें भी सबसे अद्भुत कार्य (most marvellous work) करना है।" (५/११४ )
[ `My Plan of Campaign' अभियान की मेरी योजना ; मेरे 'महामण्डल युवा आन्दोलन ' की अभियान योजना है - ` चरैवेति -चरैवेति ' ~ अर्थात 3H विकास के 5 व्यावहारिक अभ्यास करते हुए मनुष्य बनना और बनाना। अर्थात ' विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make' में आयोजित महामण्डल शिविर में (C-IN-C) नवनीदा के उपदेशों के अनुसार > 3H विकास के 5 अभ्यास करते हुए मनुष्य बनना और बनाना।]
" हमारे उपनिषद शक्ति की विशाल खान (mine-खदान) है। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी (invigorate) बना सकते हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनरज्जिवित (vivify) , सशक्त और वीर्यसम्पन्न हो सकता है। समस्त प्रजातियों के , समस्त वर्गों के , भिन्न -भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल , दुःखी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त होने के लिये वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता --दैहिक स्वाधीनता , मानसिक स्वाधीनता , आध्यात्मिक स्वाधीनता ( पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे -3'H' के फंदे में फंसे ब्रह्म के रोदन से मुक्ति ) यही उपनिषदों का मूल मंत्र है। दुनिया भर में उपनिषद ही ऐसे एकमात्र शास्त्र हैं , जिनमें उद्धार (salvation) का वर्णन नहीं , किन्तु मुक्ति (de-Hypnotized होने) का वर्णन है। और उपनिषद तुमको यह भी बतलाते हैं कि यह मुक्ति तुममें पहले से विद्यमान है। " ( भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (५/१३३-३४ )
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