राजयोग
[ पंचम अध्याय ]
" आध्यात्मिक प्राण का संयम "
CHAPTER- V
THE CONTROL OF PSYCHIC PRANA
[साभार @@@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/04/rajyog-chapter-fifth-restraint-of-the-spiritual-life.html]
>>>The first step is to control the motion of the lungs.अब हम प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे । हमने पहले ही देखा है कि योगियों के मत में साधना का पहला कदम फेफड़े की गति (motion of the lungs) को अपने अधीन करना है । हमारा उद्देश्य है - शरीर के भीतर जो सूक्ष्म गतियाँ हो रही हैं , उनका अनुभव प्राप्त करना । हमारा मन बिलकुल बहिर्मुखी हो गया है , वह भीतर की सूक्ष्म गतियों को बिलकुल नहीं पकड़ सकता । हम जब उनका अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होंगे , तो उन पर विजय पा लेंगे । ये स्नायविक शक्ति-प्रवाह (nerve currents) शरीर में सर्वत्र चल रहे हैं ; वे प्रत्येक पेशी में जाकर उसको जीवनी-शक्ति (life and vitality) दे रहे हैं; किन्तु हम उनका अनुभव नहीं कर पाते । योगियों का कहना है कि प्रयत्न करने पर हम उनका अनुभव प्राप्त करना सीख जाएँगे । कैसे ? पहले फेफड़े की गति पर विजय पाने की चेष्टा करनी होगी । कुछ काल तक यह कर सकने पर हम सूक्ष्मतर गतियों को भी वश में ला सकेंगे ।
>>>The exercises in Pranayama : अब प्राणायाम की क्रियाओं की चर्चा की जाए। पहले तो , सीधे होकर बैठना होगा । देह को ठीक सीधी रखना होगा । यद्यपि कशेरुक स्तंभ (vertebral column) मेरुदण्ड (spinal cord) से संलग्न नहीं है , फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर है । [मानव शरीर रचना में 'रीढ़ की हड्डी' (या मेरुदंड ) पीठ की हड्डियों का समूह है जो मस्तिष्क के पिछले भाग से निकलकर गुदा के पास तक जाती है।] इसमें ३३ खण्ड (रीढ़ का जोड़ vertebrae) होते हैं। मेरुदण्ड के भीतर ही मेरूनाल में मेरूरज्जु सुरक्षित रहता है। टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त - व्यस्त हो जाती है । अतएव देखना होगा कि वह स्वच्छन्द रूप से रहे । टेढ़े बैठकर ध्यान करने की चेष्टा करने से अपनी ही हानि होती है । शरीर के तीनों भाग- वक्ष , ग्रीवा और मस्तक - सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे। देखोगे , बहुत थोड़े अभ्यास से यह श्वास - प्रश्वास की तरह सहज हो जाएगा ।
इसके बाद स्नायुओं को वशीभूत करने का प्रयत्न करना होगा। हमने पहले ही देखा है कि मस्तिष्क में अवस्थित जो स्नायुकेन्द्र मेडुला (medulla oblongata) [नामक एक अण्डाकार पदार्थ जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है।] वही श्वास- प्रश्वास यन्त्र के कार्य को नियमित करता है, वह दूसरे स्नायुओं पर भी कुछ प्रभाव डालता है। इसीलिए साँस लेना और साँस छोड़ना लययुक्त (नियमित) रूप से करना आवश्यक है। हम साधारणतः जिस प्रकार साँस लेते और छोड़ते हैं, वह श्वास-प्रश्वास नाम के ही योग्य नहीं। वह बहुत अनियमित है। फिर स्त्री और पुरुष के श्वास- प्रश्वास में कुछ स्वाभाविक भेद भी के है।
प्राणायाम- साधना [जपध्यान] की पहली क्रिया यह है : भीतर निर्दिष्ट परिमाण में साँस लो और बाहर निर्दिष्ट परिमाण में साँस छोड़ो। इससे देह सन्तुलित होगी। कुछ दिन तक यह अभ्यास करने के बाद, साँस खींचने और छोड़ने के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का मन ही मन उच्चारण करने से अच्छा होगा। भारत में, प्राणायाम करते समय हम लोग श्वास के ग्रहण और त्याग की संख्या ठहराने के लिए एक, दो, तीन, चार इस क्रम से न गिनते हुए कुछ सांकेतिक शब्दों का व्यवहार करते हैं। इसीलिए मैं तुम लोगों से प्राणायाम के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का व्यवहार करने के लिए कह रहा हूँ। चिन्तन करना कि वह शब्द श्वास के साथ लययुक्त और सन्तुलित रूप से बाहर जा रहा है ओर भीतर आ रहा है। ऐसा करने पर तुम देखोगे की सारा शरीर क्रमशः मानो लययुक्त होता जा रहा है।
तभी तुम समझोगे, यथार्थ विश्राम क्या है। उसकी तुलना में निद्रा तो विश्राम ही नहीं। एक बार यह विश्राम की अवस्था आने पर अतिशय थके हुए स्नायु भी शान्त हो जाएँगे और तब तुम जानोगे कि पहले तुमने कभी यथार्थ विश्राम का सुख नहीं पाया। इस साधना का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है। मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ दूर हो जाएँगी। मन की शान्ति मुख से फूटकर बाहर निकलेगी। दूसरे, तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जाएगा। मैंने ऐसा एक भी योगी नहीं देखा, जिसके गले का स्वर कर्कश हो। कुछ महीने के अभ्यास के बाद ही ये चिह्न प्रकट होने लगेंगे।
>>>अनुलोम-विलोम प्राणायाम : इस पहले प्राणायाम का कुछ दिन अभ्यास करने के बाद प्राणायाम की एक दूसरी ऊँची साधना ग्रहण करनी होगी। वह यह है : इड़ा अर्थात् बायें नथुने द्वारा फेफड़े को धीरे धीरे वायु से पूरा करो। उसके साथ स्नायुप्रवाह में मन को एकाग्र करो, सोचो कि तुम मानो स्नायुप्रवाह को मेरुमज्जा के नीचे भेजकर कुण्डलिनी शक्ति के आधारभूत, मूलाधारस्थित त्रिकोणाकृति पद्म पर बड़े जोर से आघात कर रहे हो। इसके बाद इस स्नायुप्रवाह को कुछ क्षण के लिए उसी जगह धारण किये रहो। तत्पश्चात् कल्पना करो कि तुम उस स्नायविक प्रवाह को श्वास के साथ दूसरी ओर से अर्थात् पिंगला द्वारा ऊपर खींच रहे हो। फिर दाहिने नथुने से वायु धीरे धीरे बाहर फेंको।
इसका अभ्यास तुम्हारे लिए कुछ कठिन प्रतीत होगा। सहज उपाय है– अँगूठे से दाहिना नथुना बन्द करके बायें नथुने से धीरे धीरे वायु भरो। फिर अँगूठे और तर्जनी से दोनों नथुने बन्द कर लो, और सोचो, मानो तुम स्नायुप्रवाह को नीचे भेज रहे हो और सुषुम्ना के मूलदेश में आघात कर रहे हो। इसके बाद अँगूठा हटाकर दाहिने नथुने द्वारा वायु बाहर निकालो। फिर बायाँ नथुना तर्जनी से बन्द करके दाहिने नथुने से धीरे धीरे वायु पूरण करो और फिर पहले की तरह दोनों नासिकाछिद्रों को बन्द कर लो।
हिन्दुओं के समान प्राणायाम का अभ्यास करना इस देश (अमेरिका) के लिए कठिन होगा, क्योंकि हिन्दू बाल्य काल से ही इसका अभ्यास करते हैं, उनके फेफडे इससे अभ्यस्त हैं। यहाँ चार सेकन्ड से आरम्भ करके धीरे धीरे बढ़ाने पर अच्छा होगा। चार सेकन्ड तक वायु पूरण करो, सोलह सेकन्ड कुम्भक करो और फिर आठ सेकन्ड में वायु का रेचन करो। इससे एक प्राणायाम होगा। उस समय मूलाधारस्थ त्रिकोणाकार पद्म पर मन स्थिर करना भूल न जाना। इस प्रकार की कल्पना से तुमको साधना में बड़ी सहायता मिलेगी।
एक तीसरे प्रकार का प्राणायाम यह है : धीरे धीरे भीतर श्वास खींचो, फिर तनिक भी देर किये बिना धीरे धीरे वायु रेचन करके बाहर ही श्वास कुछ देर के लिए रुद्ध कर रखो, संख्या पहले की प्राणायाम की तरह है। पूर्वोक्त प्राणायाम और इसमें भेद इतना ही है कि पहले के प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है और इसमें बाहर। यह प्राणायाम पहले से सीधा है। जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है, उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं। उसका सबेरे चार बार और शाम को चार बार अभ्यास करो।
बाद में धीरे धीरे समय और संख्या बढ़ा सकते हो। तुम क्रमशः देखोगे कि तुम बहुत सहज ही यह कर रहे हो और इससे तुम्हें बहुत आनन्द भी मिल रहा है। अतएव जब देखो कि तुम यह बहुत सहज ही कर रहे हो, तब बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ संख्या चार से छह बढ़ा सकते हो। अनियमित रूप से साधना करने पर तुम्हारा अनिष्ट हो सकता है।
उपर्युक्त तीन प्रक्रियाओं में से पहली और अन्तिम क्रियाएँ कठिन भी नहीं और उनसे किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका भी नहीं। पहली क्रिया का जितना अभ्यास करोगे, उतना ही तुम शान्त होते जाओगे।उसके साथ ओंकार जोड़कर अभ्यास करो, देखोगे, जब तुम दूसरे कार्य में लगे हो, तब भी तुम उसका अभ्यास कर सकते हो। इस क्रिया के फल से देखोगे, तुम अपने को सभी बातों में अच्छा ही महसूस कर रहे हो। इस तरह कठोर साधना करते करते एक दिन तुम्हारी कुण्डलिनी जग जाएगी। जो दिन में केवल एक या दो बार अभ्यास करेंगे, उनके शरीर और मन कुछ स्थिर भर हो जाएँगे और उनका स्वर मधुर हो जाएगा। परन्तु जो कमर बाँधकर साधना के लिए आगे बढ़ेंगे, उनकी कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी, उनके लिए सारी प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेगी, उनके लिए ज्ञान का द्वार खुल जाएगा। तब फिर ग्रन्थों में तुम्हें ज्ञान की खोज न करनी होगी। तुम्हारा मन ही तुम्हारे निकट अनन्त ज्ञानविशिष्ट पुस्तक का काम करेगा।
मैंने मेरुदण्ड के दोनों ओर से प्रवाहित इड़ा और पिंगला नामक दो शक्ति प्रवाहों का पहले ही उल्लेख किया है, और मेरुमज्जा के बीच से जानेवाली सुषुम्ना की बात भी कही है। यह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। जिनके मेरुदण्ड है, उन सभी के भीतर ये तीन प्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाप्रणालियाँ मौजूद हैं। परन्तु योगी कहते हैं, साधारण जीव में यह सुषुम्ना बन्द रहती है, उसके भीतर किसी तरह की क्रिया का अनुभव नहीं किया जा सकता; किन्तु इड़ा और पिंगला नाड़ियों का कार्य, अर्थात् शरीर के विभिन्न भागों में शक्तिवहन करना, सभी प्राणियों में होता रहता है। केवल योगी में यह सुषुम्ना खुली रहती है। यह सुषुम्नाद्वार खुलने पर उसके भीतर से स्नायविक शक्तिप्रवाह जब ऊपर चढ़ता है, तब चित्त उच्च से उच्चतर भूमि पर उठता जाता है, और अन्त में हम अतीन्द्रिय राज्य में चले जाते हैं। हमारा मन तब अतीन्द्रिय, अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर लेता है। तब हम बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं; वहाँ तर्क नहीं पहुँच सकता।
इस सुषुम्ना को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। ऊपर जिन शक्तिवहन केन्द्रों का उल्लेख किया गया है, योगियों के मत में वे सुषुम्ना में ही अवस्थित हैं। रूपक की भाषा में उन्हीं को पद्म कहते हैं। सब से नीचेवाला पद्म सुषुम्ना के सब से निचले भाग में अवस्थित है। उसका नाम है मूलाधार। इसके बाद दूसरा है स्वाधिष्ठान। तीसरा मणिपूर। फिर चौथा अनाहत, पाँचवाँ विशुद्ध, छठा आजा और सातवाँ है सहस्रार या सहस्रदल पद्म। यह सहस्रार सब से ऊपर, मस्तिष्क में स्थित है।
अभी इनमें से केवल दो केन्द्रों (चक्रों) की बात हम लेंगे सब से नीचेवाले मूलाधार की और सब से ऊपरवाले सहस्रार की। सब से नीचेवाला चक्र ही समस्त इच्छा-शक्ति का अधिष्ठान है, और उस शक्ति को उस जगह से लेकर मस्तिष्कस्थ सर्वोच्च चक्र (मेडुला medulla oblongata) पर ले जाना होगा। योगी दावा करते हैं कि मनुष्यदेह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ओज सब से उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है। जिसके मस्तिष्क में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान् और आध्यात्मिक बल से बली होता है।
>>>[🙏Chastity is the highest virtue.🙏ब्रह्मचर्य अर्थात तन-मन-वचन से पवित्र रहना सबसे बड़ा धर्म है। ] एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भाव व्यक्त करता है, परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते। और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है, न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है, परन्तु फिर भी लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं। वह जो कुछ कार्य करता है, उसी में महाशक्ति का विकास देखा जाता है। ऐसी है ओज की शक्ति! यह ओज, थोड़ी बहुत मात्रा में, सभी मनुष्यों में विद्यमान है। शरीर में इच्छाशक्ति, कामशक्ति आदि जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं, उनका उच्चतम विकास है - यह ओज की शक्ति। यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि सवाल केवल रूपान्तरण का है- एक ही शक्ति दूसरी शक्ति में परिणत हो जाती है। बाहरी संसार में जो शक्ति विद्युत् अथवा चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रही है, वही क्रमशः आभ्यन्तरिक ओज शक्ति में परिणत हो जाएगी। आज जो शक्तियाँ पेशियों (muscle) में कार्य कर रही हैं, वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जाएँगी।
>>>Muladhara guides the willpower for chastity [मूलाधार ही चरित्रबल का (moral stamina का या विवेक-प्रयोग शक्ति का) नियामक है। The Yogis say that that part of the human energy which is expressed as sex energy, in sexual thought, when checked and controlled, easily becomes changed into Ojas, and as the Muladhara guides these, the Yogi pays particular attention to that center. ] :
योगी कहते हैं कि मनुष्य में जो शक्ति आज काम-चिन्तन (sexual thought), काम-क्रिया (sex energy) आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है, प्रबल इच्छाशक्ति (या विवेक-प्रयोग शक्ति) के द्वारा उसका दमन (check and control) करने पर वह सहज ही ओज शक्ति में रूपांतरित हो जाती है। और चूंकि हमारे शरीर का सबसे नीचेवाला केन्द्र -मूलाधार ही ब्रह्मचर्य (moral stamina ) के लिए दृढ-इच्छाशक्ति का नियामक है, इसलिए योगी इसकी ओर (मस्तक में अवस्थित उसके स्नायुकेन्द्र 'Medulla oblongata' की ओर) विशेष ध्यान देते हैं! वे अपनी सारी काम-शक्ति (sexual energy) को ओज में रूपान्तरित (convert) करने का प्रयत्न करते हैं। कामजयी स्त्री पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसीलिए ब्रह्मचर्य (chastity) ही सदैव सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है। मनुष्य यह अनुभव करता है कि अगर वह कामुक (unchaste) हो, तो उसका सारा धर्मभाव (spirituality) चला जाता है, चरित्रबल (moral stamina-नैतिक सहनशक्ति) और मानसिक तेज (या ओजस mental vigor) नष्ट हो जाता है।
>>>Giving up marriage. [पूर्ण ब्रह्मचर्य (मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने) के बिना राजयोग का अभ्यास खतरनाक है; इसीकारण विवाह-त्यागी नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) की आवश्यकता] : इसी कारण, देखोगे, संसार में जिन-जिन (religious orders) धार्मिक सम्प्रदायों अथवा महामण्डल जैसे मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी आध्यात्मिक संगठनों ( Spiritual organizations) में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं, उन सभी सम्प्रदायों और संगठनों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है। इसीलिए विवाह-त्यागी संन्यासियों की उत्पत्ति हुई है।ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है; [इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से, तन-मन -वचन से पालन करना नितान्त आवश्यक है।] क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क में विषम विकार पैदा हो सकता है। यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवनयापन करे, तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है?
[ अतएव इसीलिए महामण्डल में मनःसंयोग (विवेक-प्रयोग, आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास) का प्रशिक्षण देने में समर्थ विवाह-त्यागी गृहस्थ नेता/शिक्षक/ पैगम्बर वरिष्ठ "C-IN-C नवनीदा", (प्रमोद दा, सोमनाथ बागची, .... तुहीन भट्टाचार्य ?) जैसे संस्थापक सचिव या General Secretary (महासचिव) का, एवं प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने वाले 'Vice President' का आविर्भाव हुआ है !]
===========
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें