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मंगलवार, 18 जुलाई 2023

राजयोग [चतुर्थ अध्याय] प्राण का आध्यात्मिक रूप

  राजयोग 

[चतुर्थ अध्याय] 

[Rajyog Chapter-4 : THE PSYCHIC PRANA]

प्राण का आध्यात्मिक रूप 

[साभार @@@https://www.khabardailyupdate.com/2023/01/rajyog-chapter-4.html]

योगियों के मतानुसार मेरुदण्ड (spinal cord) के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह और मेरुदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नली है। इस शून्य नली के सब से नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है। योगियों का कहना है कि वह त्रिकोणाकार है। योगियों की रूपक भाषा में कुण्डलिनी शक्ति उस स्थान पर कुण्डलाकार हो विराज रही है। जब यह कुण्डलिनी शक्ति जगती है, तब वह इस शून्य नली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है, और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान ऊपर उठती जाती है, त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं और योगी को अनेक प्रकार के अलौकिक दर्शन होने लगते हैं तथा अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। जब वह कुण्डलिनी मस्तक पर चढ़ जाती है, तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक् हो जाते हैं और उनकी आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है। 

हमें मालूम है कि मेरुमज्जा एक विशेष प्रकार से गठित है। अंग्रेजी के है आठ अंक (8) को यदि आड़ा (∞)  कर दिया जाए, तो देखेंगे कि उसके दो अंश हैं और वे दोनों अंश बीच से जुड़े हुए हैं। इस तरह के अनेक अंकों को एक पर एक रखने पर जैसा दीख पड़ता है, मेरुमज्जा बहुत कुछ वैसी ही है। उसके बायीं ओर इड़ा है और दाहिनी ओर पिंगला; और जो शून्य नली मेरुमज्जा के ठीक बीच में से गयी है, वही सुषुम्ना है। 

कटिप्रदेशस्थ मेरुदण्ड की कुछ अस्थियों के बाद ही मेरुमज्जा समाप्त हो गयी है, परन्तु वहाँ से भी तागे के समान एक बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ बराबर नीचे उतरता गया है। सुषुम्ना नली वहाँ भी अवस्थित है, परन्तु वहाँ बहुत सूक्ष्म हो गयी है। नीचे की ओर उस नली का मुँह बन्द रहता है। उसके निकट ही कटिप्रदेशस्थ नाडीजाल (sacral plexus) अवस्थित है, जो आजकल के शरीरशास्त्र (physiology) के मत से त्रिकोणाकार है। इन विभिन्न नाड़ीजालों के केन्द्र मेरुमंज्जा के भीतर अवस्थित हैं; वे नाड़ीजाल योगियों के भिन्न भिन्न पद्मों या चक्रों के तौर पर लिये जा सकते हैं। 

योगियों का कहना है कि सब से नीचे मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार या सहस्रदल पद्म तक कुछ चक्र हैं। यदि हम उन पद्मों को पूर्वोक्त नाड़ीजाल के प्रतिरूप समझें, तो आजकल के शरीरशास्त्र के द्वारा बहुत सहज ही योगियों की बात का मर्म समझ में आ जाएगा। हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं; उनमें से एक को अन्तर्मुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्रगामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। उनमें से एक मस्तिष्क की ओर संवाद ले जाता है, और दूसरा मस्तिष्क से बाहर, समस्त अंगों में। परन्तु अन्त में ये प्रवाह मस्तिष्क से संयुक्त हो जाते हैं। आगे आनेवाले विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ और बातें ध्यान में रखनी होंगी। 

यह मेरुमज्जा (spinal cord) मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में मेडुला (medulla oblongata medulla ~ मेडुला ऑब्लान्गेटा) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में समाप्त हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। अतः यदि सिर पर कोई आघात लगे, तो उस आघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में बिखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है, जो हमें स्मरण रखनी चाहिए। दूसरे, हमें यह भी जान लेना होगा कि इन सब चक्रों में से सब से नीचे स्थित मूलाधार, मस्तिष्क में स्थित सहस्रार और नाभिदेश में स्थित मणिपूर– इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी। 

अब भौतिकविज्ञान का एक तत्त्व हमें समझना है। हम लोगों ने विद्युत् और उससे संयुक्त अन्य बहुविध शक्तियों की बातें सुनी हैं। विद्युत् क्या है, यह किसी को मालूम नहीं। हम लोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। जगत् में और भी अनेक प्रकार की गतियाँ हैं; विद्युत् से उनका भेद क्या है? मान लो, यह मेज चल रहा है और उसके परमाणु विभिन्न दिशाओं में जा रहे हैं। अब यदि उन परमाणुओं को एक ही दिशा में चलाया जाए, तो वह विद्युत् के माध्यम से ही किया जा सकता है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसी को विद्युत् गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाए, तो यह कमरा एक प्रचण्ड बैटरी (battery) के रूप में परिणत हो जाएगा।

प्राणायाम करने का कारण को समझना क्यों महत्वपूर्ण है ?

"शरीरशास्त्र की एक और बात हमें स्मरण रखनी होगी। वह यह है कि जो स्नायुकेन्द्र (मेडुला ऑब्लान्गेटा) मस्तिष्क में अवस्थित तो है किन्तु उससे संयुक्त नहीं है, वही  हमारे श्वास- प्रश्वास और ह्रदय के ब्लडपंपिंग यन्त्रों को नियमित करता है, एवं उसका सारे स्नायुप्रवाहों के नियमन पर भी कुछ अधिकार है।" [वि ० सा ० खंड-१, पृष्ठ ७३/ इस बात को हमें हर समय स्मरण रखना चाहिए कि यह 'बल्ब' या 'मेडुला ऑब्लान्गेटा'  हमारे मस्तिष्क का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है; क्योंकि इसमें श्वास-प्रश्वांस यंत्र और ह्रदय के कामकाज को (दूर से ही) नियंत्रित करने वाले केंद्र होते हैं। "the medulla oblongata (मेडुला ऑब्लान्गेटा) is the most vital part of the brain because it contains centers controlling breathing and heart functioning."]

अब हम प्राणायाम करने का कारण समझ सकेंगे। पहले तो, यदि श्वास प्रश्वास की गति लयबद्ध या नियमित की जाए, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगेजब विभिन्न दिशाओं में दौड़नेवाला मन एकमुखी होकर एक दृढ़ इच्छाशक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायुप्रवाह भी परिवर्तित होकर एक प्रकार की विद्युत् प्रवाह जैसी गति प्राप्त करते हैं, क्योंकि स्नायुओं पर विद्युत् क्रिया करने पर देखा गया है कि उनके दोनों प्रान्तों में धनात्मक और ऋणात्मक, इन विपरीत शक्तिद्वय का उद्भव होता है। इसी से यह स्पष्ट है कि जब इच्छाशक्ति स्नायुप्रवाह के रूप में परिणत होती है, तब वह एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छाशक्ति का एक प्रबल विद्युदाधार बन जाता है। यह प्रबल इच्छाशक्ति *^प्राप्त करना ही योगी ... का उद्देश्य है। इस तरह, शरीरशास्त्र की सहायता से प्राणायाम क्रिया की व्याख्या की जा सकती है। वह शरीर के भीतर एक प्रकार की एकमुखी गति (विद्युत्) पैदा कर देती है और श्वास- प्रश्वास स्नायुकेन्द्र (मेडुला ऑब्लान्गेटा) पर आधिपत्य करके शरीर के अन्यान्य केन्द्रों को भी वश में लाने में सहायता पहुँचाती है। यहाँ पर प्राणायाम का लक्ष्य मूलाधार में कुण्डलाकार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति (प्रबल इच्छाशक्ति ?) को उद्बुद्ध करना है। 

[प्रबल इच्छाशक्ति *^प्रत्येक सीधीरीढ़-धारी मनुष्य के शरीर में जन्म से ही एक सूक्ष्म तंत्र होता है। जिसमें तीन नाड़ियां, सात चक्र और परमात्मा की दी हुई प्रबल-इच्छाशक्ति विद्यमान है।  जिसे हम लोग सदा-शिव की शक्ति, इच्छाशक्ति या आदि शक्ति कहते हैं, जिसका प्रतिबिम्ब हमारे भीतर कुण्डलिनी के रूप में अवस्थित रहती है। परमात्मा की यही शक्ति जो कि कुंडलिनी शक्ति के नाम से जानी जाती है। यही कुंडलिनी शक्ति हमारी रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग में सुप्त अवस्था में रहती है। दुष्ट आदमी के यहाँ और किसी गलत होटल में खाना खाने से आपको बहुत तकलीफ हो सकती है, लीवर की खराबी से गुरू तत्व खराब होता है। एक तो हमारे अंदर जो चेतना है इसको संभालने वाला हमारा liver (यकृत) है, जब तक हमारा यकृत ठीक रहेगा, हमारी चेतना ठीक रहेगी और जैसे ही हमारा liver खराब हो जाता है, हमारा पित्त खराब हो जाता है। शरीररचना-विज्ञान तथा पाचन के सन्दर्भ में, पित्त (Bile या gall) गहरे हरे या पीले रंग का द्रव है जो पाचन में सहायक होता है। यह केवल कशेरुक प्राणियों के यकृत (लीवर) में बनता है। मानव के शरीर में liver द्वारा पित्त का सतत उत्पादन होता रहता है जो पित्ताशय में एकत्र होता रहता है।]

>>> महाकाश (elemental space),चित्ताकाश  (the mental space) और चिदाकाश (knowledge space) हम जो कुछ देखते हैं, कल्पना करते हैं, या जो कोई स्वप्न देखते हैं, सारे अनुभव हमें आकाश में करने पड़ते हैं। हम साधारणतः जिस परिदृश्यमान आकाश को देखते हैं उसका नाम है महाकाश। योगी जब दूसरों का मनोभाव समझने लगते हैं या अलौकिक वस्तुएँ देखने लगते हैं, तब वे सब दर्शन चित्ताकाश में होते हैं। और जब अनुभूति विषयशून्य हो जाती है (अर्थात जब चित्तवृत्ति का निरोध और योग घटित होता है?), जब आत्मा अपने स्वरूप में प्रकाशित होती है, तब उसका नाम है चिदाकाश। जब कुण्डलिनी शक्ति (प्रबल इच्छाशक्ति)  जागकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, तब जो सब विषय अनुभूत होते हैं, वे चित्ताकाश (the mental space) में ही होते हैं। जब वह उस नाड़ी की अन्तिम सीमा मस्तिष्क के 'बल्ब' ('Medulla Oblongata') के छोर में पहुँचती है; तब चिदाकाश (knowledge space) में एक विषयशून्य ज्ञान (objectless perception -सच्चिदानन्द) अनुभूत होता है।

अब विद्युत् की उपमा (analogy of electricity) फिर से ली जाए । हम देखते हैं कि मनुष्य केवल तार के योग से एक जगह से दूसरी जगह विद्युत् प्रवाह चला सकता है , परन्तु प्रकृति अपने महान् शक्तिप्रवाहों को भेजने के लिए किसी तार का सहारा नहीं लेती । इसी से अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि किसी प्रवाह को चलाने के लिए वास्तव में तार की कोई आवश्यकता नहीं । किन्तु हम तार के बिना काम करने में असमर्थ हैं , इसीलिए हमें उसकी आवश्यकता पड़ती है । (पाठक को याद रखना चाहिए कि यह व्याख्यान स्वामी विवेकानन्द ने  बेतार का तार (wireless telegraphy ) की खोज से पहले दिया था ।)

जैसे विद्युत् प्रवाह तार की सहायता से विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होता है , ठीक उसी तरह शरीर की समस्त संवेदनाएँ और गतियाँ (sensations and motions of the body) मस्तिष्क में और मस्तिष्क से स्नायुतन्तु-रूप तार ( wires of nerve fibres)  की ही सहायता से वह  बहिर्देश में प्रेषित की जाती हैं।  मेरुमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगुच्छ-स्तम्भ (sensory and motor fibres in the spinal cord ) ही योगियों की इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ है । उन दोनों प्रधान नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्तिप्रवाह-द्वय संचारित हो रहे हैं । 

>>> How can we transcend the bondage of matter? परन्तु प्रश्न अब यह है कि इस प्रकार के 'तार' जैसे किसी पदार्थ की सहायता लिए बिना अपने मस्तिष्क से चारों दिशाओं में संवाद भेजना, तथा भिन्न भिन्न स्थानों मस्तिष्क में उठने वाले विचारों के विभिन्न संवादों को ग्रहण करना सम्भव क्यों नहीं हो सकता? जबकि प्रकृति में तो ऐसे व्यापार घटते देखे जाते हैं । योगियों का कहना है कि इसमें कृतकार्य होने पर ही भौतिक बन्धनों (bondage of matter) को लाँघा जा सकता है। तो अब इसमें कृतकार्य होने का उपाय क्या है? यदि मेरुदण्ड-मध्यस्थ सुषुम्ना के भीतर से (the canal in the middle of the spinal column) स्नायुप्रवाह चलाया जा सके, तो यह समस्या मिट जाएगी । 

हमारे मन ने ही इस  स्नायुजाल ( network of the nervous system) का निर्माण किया है, और अब उसी को इस  जाल को तोड़कर बिना किसी तंत्रिका तंतुओं के तार (wires of nerve fibres)की सहायता के अपना काम करना होगा । तभी सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आएगा , देह का बन्धन (bondage of body)  फिर न रह जाएगा । 

>>>मनःसंयोग का दूरगामी उद्देश्य है -सुषुम्ना पर नियंत्रण: The Yogi proposes a practice by which we can have full control of Sushumna : इसीलिए सुषुम्ना नाड़ी पर विजय पाना हमारे लिए इतना आवश्यक है । यदि तुम इस शून्य नली के भीतर से , स्नायुजाल की सहायता के बिना भी मानसिक प्रवाह (mental current ) चला सको , तो बस , इस समस्या का समाधान हो गया । योगी कहते हैं कि यह सम्भव है । 

साधारण मनुष्यों में सुषुम्ना निम्नतर छोर में बन्द रहती है; उसके माध्यम से कोई कार्य नहीं होता। योगियों का कहना है कि इस सुषुम्ना का द्वार खोलकर उसके माध्यम से स्नायुप्रवाह चलाने की एक निर्दिष्ट साधना [राजयोग या मनःसंयोग] है।  बाह्य विषय के संस्पर्श से उत्पन्न संवेदना जब किसी केन्द्र में पहुँचती है, तब उस केन्द्र में एक प्रतिक्रिया होती है। स्वयंक्रिय केन्द्रों (automatic centres) में उन प्रतिक्रियाओं का फल केवल गति होता है, पर सचेतन केन्द्रों (conscious centres) में पहले अनुभव (perception) , और फिर बाद में गति (motion) होती है। 

>>>sensations are coiled up somewhere : सारी अनुभूतियाँ बाहर से आयी हुई क्रियाओं की प्रतिक्रिया मात्र है। तो फिर स्वप्न में अनुभूति किस तरह होती है? उस समय तो बाहर की कोई क्रिया नहीं रहती। अतएव स्पष्ट है कि विषयों के अभिघात से पैदा हुई स्नायविक गतियाँ शरीर के किसी न किसी स्थान पर अवश्य अव्यक्त भाव से रहती हैं। मान लो, स्वप्न में मैंने एक नगर देखा। 'नगर' नामक बाह्य वस्तु के आघात की जो प्रतिक्रिया है, उसी से उस नगर की अनुभूति होती है। अर्थात् उस नगर की बाह्य वस्तु द्वारा हमारे अन्तर्वाही स्नायुओं में जो गतिविशेष उत्पन्न हुई है, उससे मस्तिष्क के भीतर के परमाणुओं में एक गति पैदा हो गयी है। आज बहुत दिन बाद भी वह नगर मेरी स्मृति में आता है। 

इस स्मृति में भी ठीक वही व्यापार होता है, पर अपेक्षाकृत हल्के रूप में। किन्तु जो क्रिया मस्तिष्क के भीतर उस प्रकार का मृदुतर कम्पन ला देती है, वह भला कहाँ से आती है? यह तो कभी नहीं कहा जा सकता कि वह उसी पहले के विषय अभिघात से पैदा हुई है। अतः स्पष्ट है कि विषय अभिघात से उत्पन्न गतिप्रवाह या संवेदनाएँ शरीर के किसी स्थान पर कुण्डलीकृत होकर विद्यमान हैं और उनकी क्रिया के फलस्वरूप ही स्वप्न अनुभूतिरूप मृदु प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है।  

जिस केन्द्र में विषय - अभिघात से उत्पन्न संवेदनाओं के अवशिष्ट अंश या संस्कार (residual sensations) मानो संचित से रहते हैं , उसे मूलाधार कहते हैं।  और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी “the coiled up” कहते हैं । सम्भवतः गतिशक्तियों का अवशिष्ट अंश  (residual motor energy) भी इसी जगह कुण्डलीकृत होकर संचित है ; क्योंकि हम देखते हैं कि गम्भीर अध्ययन और बाह्य वस्तुओं पर मनन के बाद शरीर के जिस स्थान पर यह मूलाधार चक्र ( सम्भवतः sacral plexus ) अवस्थित है , वह तप्त हो जाता है ।

अब यदि इस कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर उसे ज्ञातभाव से सुषुम्ना नली में से प्रवाहित करते हुए एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को ऊपर लाया जाए, तो वह ज्यों ज्यों विभिन्न केन्द्रों पर क्रिया करेगी, त्यों त्यों प्रबल प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होगी। जब कुण्डलिनी शक्ति का बिलकुल सामान्य अंश किसी स्नायुतन्तु के भीतर से प्रवाहित होकर विभिन्न केन्द्रों में प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है , तब वही स्वप्न अथवा कल्पना (dream or imagination) के नाम से अभिहित होता है । किन्तु जब मूलाधार में संचित विपुलायतन शक्ति-पुंज दीर्घकालव्यापी तीव्र ध्यान के बल से उद्बुद्ध होकर सुषुम्ना मार्ग में भ्रमण करता है और विभिन्न केन्द्रों पर आघात करता है, तो उस समय एक बड़ी प्रबल प्रतिक्रिया होती है, जो स्वप्न अथवा कल्पनाकालीन प्रतिक्रिया से तो अनन्तगुनी श्रेष्ठ है ही, पर जाग्रत् कालीन विषयज्ञान की प्रतिक्रिया से भी अनन्तगुनी प्रबल है। यही अतीन्द्रिय अनुभूति है। फिर जब वह इच्छाशक्ति-पुंज समस्त ज्ञान के, समस्त संवेदनाओं के केन्द्रस्वरूप मस्तिष्क में [ 'बल्ब' में मेडुला (medulla oblongata ~ मेडुला ऑब्लान्गेटा) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में] पहुँचता है, तब सम्पूर्ण मस्तिष्क मानो प्रतिक्रिया करता है, और इसका फल है ज्ञान का पूर्ण प्रकाश या (full blaze of illumination-perception of the Self) आत्मसाक्षात्कार। 

कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को जाती है, वैसे ही वैसे मन का मानो एक एक परदा खुलता जाता है और तब योगी इस जगत् की सूक्ष्म या कारणरूप (causal form) में उपलब्धि करते हैं। और तभी विषयस्पर्श से उत्पन्न हुई संवेदना और उसकी प्रतिक्रियारूप जो जगत् के कारण है, उनका यथार्थ स्वरूप हमें ज्ञात हो जाता है। अतएव तब हम सारे विषयों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं; क्योंकि कारण (cause) को जान लेने पर कार्य (effect) का ज्ञान अवश्य होगा। 

इस प्रकार हमने देखा कि कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्त्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्म-साक्षात्कार (योग -realization of the spirit -चित्तवृत्ति निरोध) का एकमात्र उपाय है। कुण्डलिनी को जागृत करने के अनेक उपाय हैं। किसी की कुण्डलिनी भगवान् के प्रति प्रेम के बल से ही जागृत हो जाती है, किसी की सिद्ध महापुरुषों की कृपा से और किसी की सूक्ष्म ज्ञानविचार द्वारा। लोग जिसे अलौकिक शक्ति या ज्ञान कहते हैं, उसका जहाँ कहीं कुछ प्रकाश दीख पड़े, तो समझना होगा कि वहाँ कुछ परिमाण में यह कुण्डलिनीशक्ति सुषुम्ना के भीतर किसी तरह प्रवेश पा गयी है। तो भी इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं में से अधिकतर स्थलों में देखा जाएगा कि उस व्यक्ति ने बिना जाने एकाएक ऐसी कोई साधना कर डाली है, जिससे उसकी कुण्डलिनी शक्ति अज्ञातभाव से कुछ परिमाण में स्वतन्त्र होकर सुषुम्ना के भीतर प्रवेश कर गयी है। 

समस्त उपासना, ज्ञातभाव से हो अथवा अज्ञातभाव से, उसी एक लक्ष्य पर पहुँचा देती है अर्थात् उससे कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। जो सोचते हैं कि मैंने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया, उन्हें मालूम नहीं कि प्रार्थनारूप मनोवृत्ति के द्वारा वे अपनी ही देह में स्थित अनन्त शक्ति के एक बिन्दु को जगाने में समर्थ हुए हैं। अतएव योगी घोषणा करते हैं कि मनुष्य बिना जाने जिसकी विभिन्न नामों से, डरते डरते और कष्ट उठाकर उपासना करता है, उसके पास किस तरह अग्रसर होना होगा, यह जान लेने पर समझ में आ जाएगा कि वह प्रत्येक व्यक्ति में कुण्डलीकृत यथार्थ इच्छाशक्ति है -जो चिरन्तन सुख की जननी है। अतएव राजयोग यथार्थ धर्मविज्ञान है। वह सारी उपासना, सारी प्रार्थना, विभिन्न प्रकार की साधनपद्धति और समस्त अलौकिक घटनाओं की युक्तिसंगत व्याख्या है।

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[साभार@@@@https://sanskritdocuments.org/doc_z_misc_major_works/sAMkhyasAra.html  

साङ्ख्यसारः 

यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।

स्नेहाद्द्वेषाद्भयाद्वाऽपि याति तत्तत्सरूपताम् ॥

घटद्रष्टा घटाद्भिन्नः सर्वथा न घटो यथा ।

देहद्रष्टा तथा देहो नाहमित्यादिरूपतः ॥

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।

कुर्वतोऽकुर्वतो वाऽपि स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ११॥

निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी ।

वाचामतीतविषमो विषयाशादृशेक्षितः ॥ २०॥

शिष्य : " महाराज,  क्या किसी को भी (प्रवृत्ति से होकर) निवृत्ति में आये बिना ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता ? (C-IN-C ) नवनीदा : जिसके मन में तीनो ऐषणायें- अर्थात स्त्री,  पुत्र,  धन,  मान प्राप्त करने का संकल्प बचा हुआ है,उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे होगी?  भोग-स्पृहा का त्याग न होने पर , ' वैराग्य ' न आने पर -  क्या कुछ होना सम्भव है ? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो ।  जो सभी उपाधियों (कामिनी -कांचन)  से अपनी आसक्ति को त्याग देने के लिये कमर -कसकर प्रस्तुत है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है,  वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है ।  वही  'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  -  महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल आता है । 

 साभार @@@@@@#$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना। [18 A]স্বামীজির দেওয়া আদর্শ / विवेक-जीवन ब्लॉग :शनिवार, 15 अगस्त 2020/" ब्रह्मरूपी सिंह-शावक की धुन - 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी " ]





 

 


  



  












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