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रविवार, 10 सितंबर 2023

🔱🙏 सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) की सार्वभौमिकता और श्री रामकृष्ण 🔱🙏Universality of Sanatan Dharma (Hinduism) and Sri Ramakrishna

 सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) की सार्वभौमिकता और श्री रामकृष्ण 

[Universality of Sanatan Dharma (Hinduism) and Sri Ramakrishna]

भूमिका  

[এই প্রবন্ধটি ‘হিন্দুধর্ম কি ?’ নামে ১৩০৪  সালে ভগবান শ্রীরামকৃষ্ণ দেবের পঞ্চষষ্টিতম জন্মোৎসবের সময় পুস্তিকাকারে প্রথম প্রকাশিত হয়।

" एई प्रबन्धटी 'हिन्दू धर्म कि ? ' नामे 1304 ?  साले भगवान श्री रामकृष्ण देवेर पैसठवें (पँच-सष्ठीतम= -65 th, 1242 + 65 = 1307) जन्मोत्सवेर समय पुस्तिकाकारे प्रथम प्रकाशित होय। " 

अब प्रश्न उठा कि अंग्रेजी वर्ष से बांग्ला वर्ष (बंगाब्द) ज्ञात करने का सरल नियम क्या है ? 

नियम-01: यदि वर्ष 1 जनवरी से 13 अप्रैल के बीच है तो अंग्रेजी वर्ष में से 594 घटाने पर बांग्ला वर्ष प्राप्त होगा। 

जैसे: श्रीरामकृष्ण ठाकुर देव की जन्मतिथि -फाल्गुन शुक्ल द्वितीया तदनुसार 18 फरवरी, 1836 है, तो उनका उस साल उनका बंगाली जन्मवर्ष क्या हुआ ? समाधान: 1836 — 594 = ठाकुर देव का जन्म हुआ '1242 बंगाब्द' । 

नियम-02: और यदि वर्ष 14 अप्रैल से बाद शुरू होता हो तो अंग्रेजी वर्ष में 593 घटाने पर बांग्ला वर्ष प्राप्त किया जाएगा। 

उदाहरण के लिए, यदि काजी नजरूल इस्लाम का जन्म 24 मई, 1899 को हुआ था, तो उनका बंगाली जन्म वर्ष क्या है? समाधान: 1899 — 593 = 1306 बंगाब्द।]

>>>श्री रामकृष्ण की पैसठवीं जयंती का महत्व (Significance of Sri Ramakrishna's sixty-fifth birth anniversary) : स्वामी विवेकानन्द द्वारा मूल बंगला में लिखित यह रचना भगवान श्री रामकृष्ण देव की "पैंसठवीं जयंती"  (পঞ্চ ষষ্টিতম ) के अवसर पर पहली बार 1304 बंगाब्द अर्थात 1897 ई० (या 1900 ?) में 'हिन्दू धर्म क्या है?' (Hinduism and Shri Ramakrishna) शीर्षक एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई थी । 

 भगवान श्री रामकृष्ण की पैसठवीं जयंती का वास्तविक महत्व इसी बात के लिए है कि, इसी शुभ अवसर पर भारत की तात्कालीन राजधानी कोलकाता की प्रबुद्ध जनता ने पहली बार इस विषय पर चिंतन-मनन करना शुरू किया कि -सनातन वैदिक धर्म का नाम हिन्दू-धर्म कैसे हुआ ? भारत वर्ष का INDIA नाम कब से हुआ ? क्या युग की आवश्यकता के अनुसार, विश्व-कल्याण के लिए अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव -स्वयं सनातन धर्म या अद्वैत के मूर्त विग्रह के रूप में आविर्भूत हुए हैं ?  क्योंकि तब 1000 वर्षों की गुलामी के कारण धर्मभूमि, पुण्यभूमि भारत विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा नरक भूमि  INDIA में परिणत हो गया था और वेदों का सनातन धर्म [Eternal Religion of the Vedas (Sanâtana Dharma)] हिन्दू धर्म में परिणत हो गया था। 

स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि श्री रामकृष्ण देव की जन्मतिथि से ही सत्ययुग का प्रारम्भ हुआ है। क्योंकि -

कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन् ।।

जो अविद्यारूपी मोह निद्रा में सो रहा है अर्थात् जो अत्यन्त मूढ़ पुरुष है, वही कलि है। जो कुछ-कुछ कल्याण की बातों को देखता और समझता है, जो उस अज्ञान-निद्रा से  (hypnotized अवस्था से ) आधा जग गया है, उस पुरुष को द्वापर कहते हैं। जो कल्याण की प्राप्ति के लिये सदा सजग रहकर प्रयत्न करता है, वह साधक त्रेता कहलाता है। जो भगवान् का अत्यन्त भक्त है, (अर्थात गुरु विवेकानन्द की कृपा से युगावतार श्री रामकृष्ण और माँ सारदा देवी को पहचानकर उनका अत्यन्त भक्त है), सदा ठाकुर-माँ -स्वामीजी (महामण्डल मार्ग  )  भक्ति के पथ पर ही चलता है,  तब कृतकृत्य होने के कारण उसके जीवन में कृत अथवा सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है।

श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने से पहले का भारत मानो गहरी सुषुप्ति में था, अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। तभी श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति- " श्रीरामकृष्ण -विवेकानंद  'Be and Make' वेदान्त लीडरशिप प्रशिक्षण-परम्परा" में प्रशिक्षित मनुष्य के जीवन में आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने का संघर्ष शुरू हो जाता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर चलना प्रारंभ कर देता है-इसी प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है।

अधिकांश युवाओं का मन अपने यथार्थ स्वरूप के प्रति अचेत रहता है, या सोया रहता है, उस समय उसका कलिकाल चल रहा होता है। वे श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द के सन्देश - " मान-हूश तो मानुष !" तथा उनकी प्रतिध्वनि ' उठो, जागो!' को सुनकर, जब जाग उठते हैं, वह द्वापर युग है। जब कोई व्यक्ति उठ कर खड़ा हो जाता है- तो त्रेता युग में वास करता है। उसके बाद जब वह मन को एकाग्र करने के लिये मन के साथ संघर्ष करना प्रारंभ कर देता है, तो उसके लिये सतयुग प्रारंभ हो जाता है। सतयुग के लोग (पाशविक प्रवृत्ति में ) न तो सोये रहते हैं और न हाथ पर हाथ देकर बैठे रहते हैं। निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। जो चलता है, अर्थात पुरुषार्थ करता है, वही लक्ष्यसिद्धि (मनुष्य जीवन को सार्थक) कर के  अपने यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसलिए श्रुति में कहा गया है- "आगे बढ़ो, आगे बढो !"

ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने स्वयं उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) को अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि कलि,द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा व्यक्ति की मानसिक अवस्था को निर्धारित करने के उद्देश्य से दी गयी है। चार युगों की व्याख्या उनमें जीने वाले मनुष्य के आन्तरिक जीवन में जो परिवर्तन आता है, उसके संदर्भ में की गई है। 

[$$@$$देखें "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना"- 73 (10.विश्वमानव के कल्याण में),` भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण ! ']

स्वामीजी ने मानो ठाकुरदेव से मिलने के पहले की अपनी अवस्था का वर्णन करते हुए एक निबन्ध में लिखा है - “The modern young Hindu is lost in the maze of various sects of Sanatan Dharma.... 

 "वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म "Religion Eternal" के अनेक मतों  (जैसे द्वैत-अद्वैत-विशिष्टाद्वैत आदि) की भूलभुलैया और विभाजन (mazes and divisions) में भटका हुआ है। ईश्वर (मूर्तिपूजा) के सम्बन्ध में पने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के मर्म - 'अणोरणीयान् महतो महीयान्।' [God is Smaller than the smallest, greater than the greatest.-(Kathopanishad 1/2/20) ] के सम्बन्ध में स्वयं अपनी कोई स्पष्ट धारणा बना पाने में असमर्थ हो जाता है। इसलिये उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना,  (those Western countries - who have never known anything except pure materialism) आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक पैमाना उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म (चार महावाक्य) को समझने का व्यर्थ कष्ट उठाता हुआ, अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है। और या तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है, या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त  को अवतार कहकर पूजने लगता है, और श्रुति की भविष्यवाणी - 'परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः'  (Kathopanishad 1/2/5) - को चरितार्थ करता है। इस दुर्गति से केवल वे युवा ही बच पाते हैं, जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति (अन्तर्निहित दिव्यता) सद्गुरु के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो चुकी है।" भगवान भाष्यकार श्री शंकराचार्य की कैसी सुन्दर उक्ति है - 

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुशसंश्रयः॥

वहाँ तीन चीजें हैं जो वास्तव में दुर्लभ हैं और भगवान की कृपा से प्राप्त होती है -मानव जन्म, मुक्ति की लालसा और महापुरुषों की संगति।⁣

ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं -(अर्थात अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द की कृपा से ही प्राप्त होते हैं ? ) -मनुष्य -जन्म, मोक्ष की इच्छा और किसी महापुरुष (जीवनमुक्त शिक्षक /नेता या गुरु -विवेकानन्द/ C-in-C नवनी दा) का आश्रय। [मद्रास के अभिनन्दन का उत्तर /खंड -९,३६१)]

इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।

दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम।।

दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ साधना में ( जीवन के परमस्वार्थ अर्थात आत्मानुभूति के संदर्भ में) प्रमाद करता है, उससे अधिक मूर्ख भला और कौन होगा? 

भारत में लार्ड मैकाले वाली पाश्चात्य शिक्षा बंगाब्द 1242 (सन 1836 ई०) से  प्रचलित हुई और ठीक उसी वर्ष श्रीरामकृष्ण देव ने जन्मग्रहण किया। ठाकुरदेव के जन्म के समय उनके पिता जी की आयु -62 वर्ष थी, उनके अग्रज श्री रामकुमार जी उनसे 32 वर्ष बड़े थे। " ठाकुरदेव के पिता शास्त्र कुशल क्षुदिराम जी ने गणना करके देखा कि, बंगला फाल्गुन 6, 1242 बंगाब्द, शकाब्द 1757  के फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, बुधवार दिनांक 17 फरवरी, 1836 ई० रात्रि की 31 घड़ी व्यतीत होने के बाद मात्र अर्धघटिका अवशिष्ट काल के पवित्र गंभीर ब्रह्ममुहूर्त में-बालक का जन्म हुआ है।  बालक के जन्मलग्न में सूर्य,चन्द्र तथा बुध एक ही स्थान में विद्यमान हैं, और शुक्र, मंगल तथा शनि तुंग दशा को प्राप्त कर उसके जीवन की विशेषता का परिचय दे रहे हैं। ततपश्चात नवजात बालक के जन्म-नक्षत्र पर विचार करके विशिष्ट ज्योतिषियों ने उन्हें बतलाया कि जिस उच्च लग्न में बालक ने जन्म लिया है, उस लग्न के विषय में भृगुसंहिता में स्पष्ट लिखा है कि - 

धर्मस्थानाधिपे तुंगे धर्मस्ते तुंगखेचरे। 

गुरुणा दृष्टीसंयोगे लग्नेशे धर्मसंस्थिते।।

केन्द्रस्थानगते सौम्ये गुरुउ चैवतु कोणभे। 

स्थिरलग्ने यदाजन्म सम्प्रदाय प्रभुहि सः।।

धर्म विन्माननीयस्तु पुण्यकर्मरतः  सदा। 

देवमंदिरवासी च बहुशिष्यसमन्वितः।। 

महापुरुषसंज्ञोऽयम् नारायणमसंभवः। 

सर्वत्र जनपूज्यश्च भविष्यति न संशयः।।

इति भृगुसंहितायाम् सम्प्रदायप्रभुयोगम् तत्फलम् च

ऐसे लग्न में जन्मलेने वाले व्यक्ति , धर्मवेत्ता तथा सम्माननीय होंगे और सर्वदा पुण्यकर्म के अनुष्ठान में रत रहेंगे। अनेक शिष्यों से घिरे रहकर वे किसी देवमन्दिर में निवास करेंगे। उसके शरीर पर महापुरुष के चिन्ह होंगे या संसार उसे महापुरुष (जगतगुरु या नेता वरिष्ठ, C-IN-C )  कहेगा। तथा नवीन धर्म-सम्प्रदाय का प्रवर्तन कर श्रीनारायण के अंशभूत अर्थात -भगवान विष्णु के अवतार या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के रूप में संसार में सर्वत्र प्रसिद्धि लाभ करके सभी सम्प्रदायों के पूज्य बनेंगे। वह भगवान विष्णु के अवतार हैं यह कहकर  सभी उनकी प्रशंसा करेंगे। ऐसा अवश्य ही होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

क्षुदिराम जी यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। सोचने लगे गयाधाम में उन्होंने जो स्वप्न देखा था, वह सचमुच सत्य प्रमाणित हुआ। इसलिए बालक का नाम गदाधर रखने का निर्णय किया।

[श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग : महापुरुष का जन्मवृत्तान्त :पृष्ठ 56 -59] 

हम देख सकते हैं कि भृगु संहिता की भविष्यवाणियाँ श्री रामकृष्ण के जीवन में बिल्कुल सटीक रूप से घटित हुईं।  अपने जीवन को ही उदाहरण स्वरुप गढ़कर श्रीरामकृष्ण  यह प्रदर्शित करके एक नई परंपरा के स्वामी बने कि - " निष्काम कर्म,  योग, भक्ति, और ज्ञान ' इन चारो मार्गों का पालन देश, काल, पात्र भेद से रहित सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। यही वर्णन हमें स्वामी विवेकानन्द द्वारा श्री रामकृष्ण पर रचित एक स्तुति में भी मिलता है जो इस प्रकार है-

 ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥

 ॐ जो (संसार में) में सत्य सनातन धर्म (-अर्थात आध्यात्मिकता Spirituality, प्रदान करने वाले चार मार्ग - निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान के मार्ग ) की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए, जो सभी आस्थाओं और धर्मों के साकार स्वरुप हैं , और जो अवतारों में सर्वश्रेष्ठ हैं, ऐसे हे रामकृष्ण ! तुम्हें प्रणाम है।

 'वह सर्व-धर्म के अवतार हैं  और जिन्होंने हमेशा आध्यात्मिकता का प्रचार करने जैसा अच्छे कर्म किए हैं' ये शब्द श्री रामकृष्ण के जीवन का बहुत सटीक वर्णन करते हैं। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में बिताया। स्वामी विवेकानन्द और कई अन्य लोग उनके शिष्य हैं। उन्होंने अपने कई करीबी शिष्यों के सामने घोषणा की कि वह विष्णु के अवतार हैं। वह अपने करीबी शिष्य बलराम बोस और अन्य लोगों को चार भुजाओं वाले विष्णु के रूप में दिखाई दिए। कई अन्य शिष्यों के अनुभव भी इसी बात की पुष्टि करते हैं। दुनिया भर में कई लोगों द्वारा उन्हें भगवान के अवतार के रूप में पूजा जाता है।

श्री रामकृष्ण देव के जीवन की अलौकिक घटनाओं को उनके जन्मपत्री के साथ मिलाकर देखने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि - सनातन धर्म की तरह , भारतीय ज्योतिषशास्त्र भी वास्तव में सत्य पर प्रतिष्ठित हैं।     

स्वामी जी के गुरुभाई स्वामी सारदानन्द जी अपने ग्रन्थ 'श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग' के प्रथम खण्ड में (महापुरुष का जन्म वृत्तान्त के) पृष्ठ ५४ पर  'God Particle'  -a particle of cosmic bliss"  ईश्वर कण या ब्रह्मानन्द (ब्रह्मांडीय आनंद) का एक कण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मानन्द का एक कण सबके अन्दर विद्यमान रहकर उसने उन्हें सरस बना रखा है। " - 

यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह। 

 आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्, न बिभेति कदाचन।।

(तैत्तिरीयोपनिषद्-२/९, ब्रह्मानन्द वल्ली)  

"ईश्वर कण (a particle of cosmic bliss) या ब्रह्मानन्द के एक कण की अनुभूति वह घटना है जिसका वर्णन शब्द नहीं कर सकते और मन जिसकी थाह नहीं ले सकता"। 

'ब्रह्म' का वह परमानन्द,  जहाँ से कुछ भी प्राप्त किए बिना वाणी वापिस लौट आती है तथा मन भी जहाँ पहुँच कर विस्मय से चकित होकर लौट आता है, 'ब्रह्म' के उस आनन्द को जानने वाला आत्मा (मन या अहं नहीं) वह चाहे इस जगत् में, चाहे अन्यत्र, कहीं भी, भयभीत नहीं होता। वास्तव में उसको कोई सन्ताप (दुःख) नहीं होता। यही आत्म-विसम्मोहन है !

गीता में भगवान कहते हैं ....."न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||

अर्थात् उस तेजोमय धाम यानि परमपद को सूर्य प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही शशाङ्क (चन्द्रमा) और पावक (अग्नि) भी प्रकाशित नहीं कर सकते।  जिस परमधाम यानी वैष्णवपद को पाकर मनुष्य पीछे नहीं लौटते, और जिस को सूर्यादि ज्योतियाँ प्रकाशित नहीं कर सकतीं, वह मुझ विष्णु का परमधाम परमपद है। 

जहाँ भी मेरे परमप्रेममय प्रियतम है, वहीं परम शान्ति और आनंद है।  परमप्रेम का अभाव ही दुःख और अशांति है। मेरे प्रियतम स्वयं ही साधक, साध्य और साधना हैं।  पृथक "मैं" एक मिथ्या भ्रम है।  वे ही एकमात्र सत्य हैं। वे मुझ अकिंचन से प्रसन्न हैं या नहीं, इसका कोई महत्त्व नहीं है।  प्रसन्न होने के सिवाय उनके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है।  मेरा हृदय ही उनका हृदय है। 

हम कौन हैं ? मूल बात तो यही है कि हम किसी के नहीं हैं और कोई हमारा नहीं है, अतएव सभी को मित्र दृष्टि से देखो  .....

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं,

 न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः।  

अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता,

 चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।। 

 (निर्वाण-षटकम- ४) 

'मेरे न कोई पुण्य हैं, न पाप ; न सुख है, न दुःख , मेरे लिए मंत्र , तीर्थ, वेद या यज्ञ कुछ भी नहीं है। मैं भोजन , भोज्य या भोक्ता कुछ भी नहीं हूँ - मैं तो चिदानन्दरूप शिव हूँ ,मैं ही शिव (कल्याण-मंगल स्वरुप हूँ !)   - हमलोग सम्मोहन-विद्या के सारे तत्व जानते हैं !  ( १०/३८८ ) 

 " पाश्चात्य देश में जिसे सम्मोहन-विद्या (hypnotism) कहते हैं, हिन्दू लोग उसे ही 'आत्म-विसम्मोहन' (self-de-hypnotism) कहते हैं। वे कहते हैं, आप तो पहले से ही सम्मोहित (Hypnotized)     

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं,

 नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं ,

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ 

(कठोपनिषद्/२/२/१५).

वहाँ सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्र ,तारक , विद्युत् भी नहीं - तो फिर इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! उन्हीं के प्रकाश से समस्त प्रकाशित हो रहा है।  

यह तो सम्मोहन विद्या (hypnotism) नहीं है। हम कहते हैं कि वह प्रत्येक धर्म , जो इस मायामय जगत-प्रपंच को सत्य मानने की शिक्षा देता है , एक प्रकार से सम्मोहन का प्रयोग कर रहा है। केवल अद्वैतवादी ही ऐसे हैं, जो सम्मोहित होना नहीं चाहते हैं। 

एक मात्र अद्वैतवादी ही समझते हैं कि सभी प्रकार के द्वैतवाद से सम्मोहन या मोह उत्पन्न होता है। इसीलिए अद्वैतवादी कहते हैं - 'वेदों को भी अपरा विद्या समझकर उसके अतीत हो जाओ। सगुण ईश्वर के भी परे चले जाओ , सारे विश्वब्रह्माण्ड को भी दूर फेंक दो , इतना ही नहीं अपने शरीर-मन (मिथ्या अहं) आदि को भी पार कर जाओ - कुछ भी आसक्ति शेष न रहने पाए , तभी तुम सम्पूर्ण रूप से -मोह से मुक्त या de -Hypnotized हो जाओगे। १०/३८८ ) 

[ >>>Post-Corona World [G-20, 9/9 2023] and India : [कोरोना के बाद की दुनिया [G-20] और भारत)] 25 मार्च, 1896 को  अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (अर्थात विदेश विश्वविद्यालय) यू.एस. ए. की ग्रेजुएट फिलॉसॉफिकल सोसायटी में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए 'वेदांत दर्शन' (Vedanta Philosophy ) विषय पर एक भाषण माला की समाप्ति होने के बाद सभा में उपस्थित श्रोताओं/कैंपर्स के लिये आयोजित हुआ था, जिसे अमेरिका के समाचार पत्र से संग्रहित किया गया है। यह भाषणमाला वि० सा० खण्ड ९/में प्रकाशित हुई है, और निम्नोक्त प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम खण्ड १० में प्रकाशित हुई है। ] 

प्र.- G-20(विश्व-मानवता या विश्व की आबादी का 85 % में वसुधैव कुटुंबकम-G21= 100 देश) शिखर सम्मेलन के बाद का भारत यदि अपने 'वसुधैव कुटुंबकम' अर्थात  'एक धरा एक परिवार एक भविष्य' (One Earth, One Family, One Future) की ओर अग्रसर है, तो अब मैं यह जानना चाहूँगा कि महामण्डल कार्यकारिणी के सदस्यों के बीच आजकल - 'वसुधैव कुटुंबकम' के विषय में क्या चर्चा होती है ? महामण्डल के, 24 Sept, 2023 को 56 वें AGM में भाग लेने वाले 'P.R' के दार्शनिक चिन्तन (philosophic thought) की अवस्था कैसी है ?

उत्तर : स्वामीजी कहते हैं - " हमारा आवागमन का सिद्धान्त, या परिणामवाद तथा आकाश और प्राण तत्व ठीक आपके आधुनिक डार्विन के सिद्धान्त [E=Mc2] की तरह है। पतंजलि ने बतलाया है -जब एक किसान अपने खेत में पानी देने के लिए पास के जलाशय से पानी लेना चाहता है तो वह बस , खेत के मेड़ को काट भर देता है -निमित्तं प्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभे‌दस्तु ‌ततः‌ ‌क्षेत्रिकवत्‌ ॥ ४.३ ॥  

निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान आदि जो निमित्त साधन होते हैं वे उपादान कारण-प्रकृति के प्रेरक या संचालक नहीं होते हैं, अपितु किसान के समान अवरोध को दूर करते हैं । प्रकृति अपने स्वभाव से ही जात्यन्तर रूपी परिणाम में परिवर्तित होती है। 

उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य पहले से ही अनन्त है, केवल इन सब विभन्न अवस्था-चक्ररूपी द्वारों या प्रतिबन्धों ने उसे बद्ध कर रखा है। इन प्रतिबन्धों के हटाने मात्र से ही उसकी वह अनन्त शक्ति बड़े वेग के साथ अभिव्यक्त होने लगती है। तिर्यक योनि में मनुष्यत्व गूढ़ भाव से निहित है; अनुकूल परिस्थिति उपस्थित होने पर वह तत्क्षण ही मानव रूप में अभिव्यक्त हो जाता है। उसी प्रकार उपयुक्त सुयोग तथा अवसर उपस्थित होने पर मनुष्य के भीतर जो ईश्वरत्व विद्यमान है , वह अपने को अभिव्यक्त कर देता है। 

प्रश्न - महामण्डल की भ्रममुक्त ( de -Hypnotized) मनुष्य-निर्माण की पद्धति (method) क्या है ? 

उत्तर - हमारा दावा है- 'We claim' - कि मन की समस्त शक्तियों को एकाग्र करना ही ज्ञान-लाभ का एकमात्र उपाय है। बाह्य जगत के विज्ञान के नियमों को जानने के लिए, जैसे मन को बाह्य जगत के विषयों पर एकाग्र करना होता है—उसी प्रकार अन्तर्जगत के नियमों को जानने के लिए मन के बहिर्मुखी प्रवाह को विवेकदर्शन के अभ्यास द्वारा आत्माभिमुखी करना पड़ता है।(अर्थात गुरु-शिष्य परम्परा में प्रत्याहार -धारणा के प्रशिक्षण द्वारा 'आत्माभिमुखी' या ठाकुर-माँ स्वामीजी की मूर्ति पर एकाग्र करना पड़ता है।) मन की इस एकाग्रता को (समाधि या चित्तवृत्ति निरोध को) हम योग कहते हैं।

प्र.—एकाग्रता की अवस्था (समाधि-In the state of concentration) में क्या इन आध्यात्मिक-सिद्धांतों की सत्यता (चार मवाक्यों की सत्यता) स्पष्ट हो जाती है?

उ.—योगी उससे भी अच्छे सौदे का दावा करते हैं। उनका दावा है कि, मन को मन पर ही एकाग्र करने से (by concentrating on the mind on the mind) ,ब्रह्मांड का प्रत्येक सत्य, बाहरी और आंतरिक दोनों सत्य, मन के सामने स्पष्ट हो जाता है।

प्र.—अद्वैतवादी (महामण्डल के नेता) ब्रह्माण्ड विज्ञान (cosmology-सृष्टि तत्व, elements of creation) के बारे में क्या सोचते हैं?

[उपनिषदों का कहना है कि ब्रह्म (A) ही माया (C -देश,काल,पात्र ) से होकर आने के कारण नामरूपात्मक जगत (B) के रूप में केवल भास रहा है। दूध का दही बन जाने जैसा यह जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है -विवर्त है। जहाँ मेरे प्रियतम हैं वहाँ तिमिर नहीं हो सकता . मैं भी उन्हीं के साथ जब एक हूँ तब फिर यह तिमिर (मृत्यु) का भ्रम और भय क्यों ??? अज्ञान ही कारण है।] 

उ.-अद्वैतवादी कहते हैं कि यह सारा सृष्टि रचना का विज्ञान, सृष्टि-तत्व (आकाश और प्राण) तथा इस संसार में जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है , सब कुछ माया के कारण इस प्रातिभासिक प्रपंच (आपात-प्रतीयमान प्रपंच -phenomenal world) के अन्तर्गत भास रहा है। वास्तव में इस सबका कोई अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन जब तक हम बद्ध हैं, तब तक हमें यह दृष्टिगोचर जगत देखना पड़ेगा। इस दृश्य जगत में घटनायें कुछ निर्दिष्ट क्रम (नामरूप या देश-काल -निमित्त) के अनुसार घटती रहती है। परन्तु उसके परे ( Beyond them देह-मन के परे) न कोई नियम है, न क्रम। वहाँ सम्पूर्ण मुक्ति -सम्पूर्ण स्वाधीनता है।

इस संसार में घटित होने वाली घटनाओं का  एकमात्र उद्देश्य है-मनुष्य पूर्णता की ओर अग्रसर है ' (Man is marching towards perfection)  इसके सिवा इस जगत्प्रपंच का अन्य  कोई वास्तविक उद्देश्य नहीं है।  क्योंकि यह माया का सृजन है और ब्रह्म के द्वारा मिथ्या माना जाता है। यह सपने देखने वाले के समान है, जो सपने की दुनिया बनाता है और सपने में खुद को एक शरीर के रूप में देखता है और सपने की दुनिया को वास्तविक मानता है।

प्र.—क्या सगुण ईश्वर (ठाकुर,माँ, स्वामीजी) भी माया-राज्य से सम्बन्धित हैं? 

उत्तर - हाँ, किन्तु वह सगुण ईश्वर (Personal God- श्री रामकृष्ण, माँ सारदा देवी, स्वामीजी, गुरुदेव, C-IN-C नवनीदा) मायारुपी आवरण (देश-काल-पात्र) के भीतर से परिदृश्यमान उस निर्गुण ब्रह्म (सच्चिदानन्द-Absolute, पूर्ण, निःस्वार्थपरता-माँ काली) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 

माया या प्रकृति के अधीन होने पर वही निर्गुण ब्रह्म जीवात्मा (human soul) कहलाता है, और मायाधीश या प्रकृति के नियन्ता (त्रिगुण ऐषणा के नियन्ता) के रूप में वही ईश्वर या सगुण ब्रह्म (Personal Godकहलाता है। यदि कोई व्यक्ति सूर्य को देखने के लिये यहाँ से ऊपर की ओर यात्रा करे, तो जबतक वह असल सूर्य तक नहीं पहुँच जाता , तबतक वह सूर्य को क्रमशः अधिकाधिक बड़ा ही देखता जाएगा। वह जितना ही आगे बढ़ेगा , उसे ऐसा मालूम होगा कि वह भिन्न -भिन्न सूर्यों को देख रहा है , परन्तु वास्तव में वह उसी एक सूर्य को देख रहा है , इसमें सन्देह नहीं। इसी प्रकार... हम जो कुछ देख रहे हैं [नाम-रूप JPAJRMJI, सूर्य-चंद्र आदि], सभी उसी निर्गुण ब्रह्मसत्ता के विभिन्न रूप मात्र हैं, इसलिए उस दृष्टि से ये सब (सापेक्षिक) सत्य हैं। इनमें से कोई भी मिथ्या नहीं है, परन्तु यह कहा जा सकता है कि ये निम्नतर सोपान मात्र हैं।   

[अर्थात तीन ऐषणा का दास जब स्वामी विवेकानन्द की कृपा से Be and Make परम्परा में अपने गुरुदेव के मुख से ठाकुर-माँ -स्वामीजी को 'श्री रामोकृष्णो' (और बंगला में बंगाब्द ) उच्चारण करने का अनिवार्य प्रशिक्षण प्राप्त कर लेता है, तब वह सगुण ईश्वर (Personal God-'अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण परमहंस देव', माँ श्री सारदा देवी स्वामीजी या ठाकुर-माँ -स्वामीजी के दास, अपने गुरु/ प्रेममय पूज्य स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज/ और प्रेममय पूज्य 'CINC नवनीदा' का दास बन जाता है, तब वह पशु से मनुष्य हो जाता है। ]

प्र—उस पूर्ण सत्य (अतीन्द्रिय सत्य -Absolute Truth) को जानने की विशेष प्रणाली (special process) कौन सी है?    

उत्तर - उस पूर्ण निरपेक्ष सत्ता को जानने की दो प्रणालियाँ हैं। उनमें से एक तो अस्तित्व-भावद्योतक या प्रवृत्ति (positive) मार्ग है और दूसरी नास्ति-भावद्योतक या निवृत्ति (negative) मार्ग है। प्रथमोक्त मार्ग-  से सारा विश्व चलता है -इसी पथ से हम प्रेम के द्वारा उस पूर्ण वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। यदि प्रेम की परिधि अनन्त गुनी बढ़ा दी जाये , तो हम उसी -सार्वभौमिक प्रेम (the one universal love-cosmic bliss) में पहुँच जायेंगे। 

दूसरे पथ में 'नेति , नेति' अर्थात 'यह नहीं ', 'यह नहीं '-इस प्रकार की साधना करनी पड़ती है। इस साधना में चित्त की जो कोई तरंग मन को बहिर्मुखी बनाने की चेष्टा करती है , उसका निवारण करना पड़ता है। 'at last the mind dies'  अन्त में मन (ज्ञाता अहं) ही मानो मर जाता है , तब 'the Real discloses Itself - सत्य (ब्रह्मानन्द) स्वयं अनावृत हो जाता है।' हम इसीको समाधि या या ज्ञानातीत अवस्था या "पूर्ण ज्ञानावस्था -वसुधैव कुटुंबकम' की अवस्था" कहते हैं। 

[महेश्वरी भवन कैम्प में राँची के महाराज और नवनीदा की वार्ता , के बाद महाराज के साथ काली मंदिर जाना , समझ आया मन मर जाने का अर्थ क्या है? अर्थात काली काल को यानि समय को खा जाती है ! प्रेम की परिधि को अनन्त गुनी बढ़ा दी जाये -कोई शत्रु है ही नहीं - सभी से प्रेम !  विवाह से व्यक्ति का परिवार हुआ, परिवार से ससुराल वाले , नानाघर -दादाघर, समाज, देशप्रेम से होते हुए हम अनन्त प्रेम, अनन्त आनन्द, सार्वभौम प्रेम-ब्रह्मानन्द का एक कण से (a particle of cosmic bliss'वसुधैव कुटुंबकम' तक पहुँच जायेंगे।] 

प्र—तब तो यह विषयी (subject-ज्ञाता या द्रष्टा) को विषय (object, ज्ञेय या दृश्य) में विलीन कर देने की अवस्था हुई ? 

उत्तर — विषयी (ज्ञाता-अहं या मन) को विषय (ज्ञेय-ईष्टदेव) में नहीं, वरन विषय (ईष्टदेव) को ही विषयी (मैं) में विलीन कर देने की अवस्था है। वास्तव में यह जगत विलीन हो जाता है, केवल 'मैं' रह जाता है -'I am the only one that remains' एकमात्र 'मैं' ही वर्तमान रहता है। 

 (१०/३८२-८४)   

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हिन्दू धर्म और श्री रामकृष्ण 

HINDUISM AND SHRI RAMAKRISHNA

(Translated from Bengali)

"शास्त्र" शब्द से अनादि अनन्त 'वेदों' (उपनिषदों) का तात्पर्य है। धार्मिक क्रियाओं  के विषय में मतभेद होने पर एकमात्र वेद ही सर्वमान्य प्रमाण है।  

पुराण आदि  अन्य धार्मग्रंथों को "स्मृति" कहते हैं। वे भी प्रमाण के रूप में ग्रहण किये जाते हैं , किन्तु तभी तक , जब तक वे श्रुति के अनुकूल कहें , अन्यथा नहीं। 

" सत्य दो प्रकार के होते हैं- पहला जो मनुष्य की  पंचेन्द्रियों के माध्यम से एवं उस पर आधारित तर्कों द्वारा - 'by reasonings based thereon ' ग्रहण किया जाय ,और दूसरा जो ' योग' [ चित्तवृत्ति निरोध] की अतीन्द्रिय-सूक्ष्म शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय।

प्रथम उपाय से संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं; और दूसरे साधन से संकलित ज्ञान को 'वेद' कहा जाता है।

अनादि, अननन्त और अलौकिक वेद-नामधारी ज्ञानराशि (समस्त महावाक्य) सदा विद्यमान है।सृष्टिकर्ता स्वयं इसीकी सहायता से इस जगत की सृष्टि, संरक्षण और विनाश करते हैं।

जिस व्यक्ति में यह अतीन्द्रिय शक्ति (spiritual power ) प्रकट होती है, उसे ऋषि कहते हैं, और इस सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा वह जिन अलौकिक सत्यों का अनुभव करता है उन्हें वेद (महावाक्य) कहते हैं।

यह ऋषित्व और वेद- दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि-अद्वैत दृष्टि या साम्य भाव) को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। और जब तक वह प्राप्त न हो, [अर्थात ब्रह्मत्व या गुरु परम्परा ( प्रेममय CINC परम्परा, 3H विकास के 5 अभ्यास) में प्रशिक्षित किसी व्यक्ति  के जीवन में  इसका विकास नहीं हो], तब तक 'धर्म' केवल बात की बात है, और यही मानना पड़ेगा कि धर्मराज्य की प्रथम सीढ़ी पर भी हमने पैर नहीं रखा है। 

समस्त देश, काल और पात्र में व्याप्त होने के कारण वेदों के शासन का (निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान का ) का प्रभाव, केवल एक विशेष देश (climes-भूखण्ड , जम्बूद्वीपे भारत खण्डे तक), समय  (ages) और पात्र (persons, व्यक्तियों) तक ही सीमित नहीं है, सार्वभौमिक है। अतएव यह कहा जा सकता है कि सार्वजनीन धर्म की व्याख्या करने वाला एकमात्र धर्म - सनातन धर्म या वेद ही है। 

The Vedas are the only exponent of the universal religion.

अर्थात वेदों के (चार महावाक्य) ही सार्वभौम धर्म के एकमात्र प्रतिपादक हैं।

 यद्यपि हमारे देश के इतिहास -पुराणादि में तथा म्लेच्छादि देशों की धर्मपुस्तकों में भी इस अलौकिक ज्ञान-प्राप्ति का साधन  थोड़ा बहुत अवश्य वर्तमान है, फिर भी , अलौकिक ज्ञानराशि का सर्वप्रथम पूर्ण और अविकृत संग्रह होने के कारण, आर्य जाति में प्रसिद्द वेद-नामधारी , चार भागों में विभक्त अक्षर समूह ही सब प्रकार से सर्वोच्च स्थान का अधिकारी है , पृथ्वी के सभी देशों को 'वसुधैव कुटुंबकम' के परम् उदार  दृष्टि से देखने में समर्थ है तथा आर्य और म्लेच्छ (इब्राहीमी धर्मों की) सबके धर्मग्रंथों की प्रमाणभूमि है।  

आर्य जाति द्वारा आविष्कृत उक्त वेद नामक शब्दराशि  (चार मार्ग) के संबंध में यह भी समझना होगा कि उसका जो अंश लौकिक, भौतिकवाद (অর্থবাদ, सांसारिक, materialism, Secular) अथवा इतिहास-पुराण (Sacred) सम्बन्धी बातों की विवेचना (विरोध) नहीं करता, वही अंश वेद है। [१०/१४०] 

ये वेद ज्ञान-काण्ड (knowledge portion) और कर्म-काण्ड (ritual portion) दो भागों में विभक्त हैं कर्म-काण्ड में वर्णित क्रिया-अनुष्ठान और उसके फल मायाधिकृत जगत (world of  Mâyâ, - 'illusion') ** में ही सीमित होने के कारण देश (space), काल (time) और पात्र (causation, व्यक्ति-अहं या personality) तक सीमित होने के कारण परिवर्तन के नियम (कार्य-कारण के नियम) के अनुसार परिवर्तन से गुजर रहे हैं और गुजरते रहेंगे। सामाजिक रीति-रिवाज भी इसी कर्मकाण्ड के ऊपर प्रतिष्ठित हैं, इसीलिये समय समय पर बदलते रहे हैं और आगे भी बदलते रहेंगे। लोकाचार भी वहीं तक मान्य है , जहाँ तक वे सतशास्त्र और सदाचार के प्रतिकूल नहीं हो। शास्त्र-निन्दित  और सदाचार विरोधी लोकाचार (अत्यधिक खर्चीला -मुण्डन, जनेऊ, श्राद्ध आदि कर्मकाण्ड पद्धति, या तिलक-दहेज़, छुआ-छूत आदि) की अन्धभक्ति करना ही आर्य जाति के अधः पतन का एक प्रधान कारण है। 

"निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान " की सहायता से मुक्ति दिलानेवाला (आत्मा को देह-भ्रम से मुक्ति दिलाने वाला) होने के कारण, तथा मायाधिकृत जगत समुद्र को पार कराने में नेता (केवट) के पद पर प्रतिष्ठित होने और देश-काल-पात्र  के द्वारा अप्रतिहत (असंग) रहने के कारण ज्ञान-काण्ड अथवा वेदान्त (गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र) भाग ही सार्वलौकिक, सार्वभौमिक एवं सनातन  धर्म का एकमात्र उपदेष्टा है।       

यद्यपि मनु स्मृति आदि अन्य तन्त्र-शास्त्रों ने भी कर्म-काण्ड आश्रय ग्रहण कर देश (स्थान) -काल (समय) -पात्र (व्यक्ति) भेद से सामाज का  कल्याण करने वाले कर्मों की ही शिक्षा दी है। एवं पुराणों ने अवतार आदि के महान चरित्रों का वर्णन करते हुए वेदांत में छिपे हुए तत्वों को प्रकाश में लाकर,  इन तत्वों के प्रयोग की विस्तार से व्याख्या की है। इसके अलावा, उनमें से प्रत्येक ने भारत के राष्ट्रीय आदर्श (त्याग और सेवा) को प्रधान मानकर अनन्त भावमय भगवान  की लीला द्वारा उन्हीं आदर्श भाव का उपदेश दिया है। 

तथापि समय के प्रवाह में ...... भारतीय आर्य -सन्तान, [नेता] भी जब  त्याग-वैराग्य की भावना (spirit of renunciation) से रहित हो गये, सच्चे 'मुष्य' के उच्च आदर्शों और आचरण के नियमों से च्युत हो गये, तब अल्पबुद्धि मनुष्य सनातन धर्म के मर्म को समझे बिना, केवल सतनारायण कथा आदि में उसके कुछ मंत्रों के मर्म को समझे बिना तोते जैसा रटने लगे। और उन मंत्रों के अन्ध प्रयोगों (blind usages) के आदी हो गये , इसके फलस्वरूप आर्यों के वंशज इन पुराणों में वर्णित अवतार-लीला की मूल भावना (आध्यात्मिक आदर्श के विशेष पहलू) को भी समझने में असफल रहे। और एक वेद रूपी अनन्त भावसमष्टि अखण्ड सनातन धर्म ( one Eternal Religion of the Vedas) को शत शत खण्डों में विभक्त कर, परस्पर विरोधी संप्रदायों की सांप्रदायिक घृणा और असहिष्णुता (sectarian hatred and intolerance) की आग में एक दूसरे की आहुति देने की कोशिश करते हुए धर्मभूमि, पुण्यभूमि भारत को लगभग नरक -भूमि 'INDIA' में परिणत कर दिया। 

उस समय 1000 वर्षों की गुलामी के कारण, जब एक सनातन धर्म ही सतही दृष्टि से  शाक्त, वैष्णव, शैव या हिन्दू और मुसलमान आदि जैसे असंगत संप्रदायों की ऐसी बड़ी संख्या में परिणत हो गया, जो अपनी-अपनी प्रतिद्वन्द्वी धार्मिक मान्यता को लेकर एक दूसरे के साथ लगातार झगड़ते रहते हैं। इसके कारण पुनर्जन्म होता है या नहीं ? जन्म-मृत्यु संस्कार, श्मशान -कब्रिस्तान को लेकर लड़ते रहने वाले स्वदेशियों के बीच भ्रान्ति-स्थान एवं विदेशियों के लिए (इब्राहीमी धर्म मानने वाले देशों के लिए) घृणास्पद हिन्दू धर्म के बीच यथार्थ एकता कहाँ है , यह दिखलाने के लिए कि आर्यजाति का वास्तविक धर्म - सनातन धर्म क्या है, स्थायी मानव-कल्याण के लिए, सनातन धर्म के सजीव उदाहरणस्वरूप अपने को प्रदर्शित करते हुए लोक-कल्याण के लिए श्री भगवान रामकृष्ण अवतीर्ण हुए। 

अनादि-वर्तमान (नित्य नूतन , चिर पुरातन- भारतीय संस्कृति के अनुसार) नामरूप-मय जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार में, सृष्टिकर्ता ईश्वर के सहयोगी वैदिक सत्य (इन्द्रियातीत सत्य-चार महावाक्य Vedic truths — eternally existent as the instrument with the Creator in His work of creation, preservation, and dissolution] प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी [अर्थात कामिनी -कांचन में अनासक्त] सद्गृहस्थ ऋषि ह्रदय में  खुद को किस प्रकार अनायास प्रकट करते हैं, यह दिखलाने के लिए और इसलिए कि इस प्रकार शास्त्रोक्त सत्यों के प्रमाणित होने या पुष्टि होने पर सनातन धर्म का पुनरुद्धार, पुनर्स्थापन और पुनः प्रचार होगा, वेदमूर्ति (the very embodiment of the Veda) भगवान श्री रामकृष्ण ने अपने नूतन अवतार में बाह्य-शिक्षा (अर्थकरि विद्या - या रट्टू शिक्षा) की प्रायः सम्पूर्ण रूप से उपेक्षा की है।  

स्मृति शास्त्रों और पुराणों आदि में यह सिद्धान्त (doctrine) अच्छी तरह से स्थापित है कि 'वेदों' यानि सच्चा-धर्म और ब्राह्मणत्व अर्थात धर्मशिक्षा के तत्व या गुरु-परम्परा की रक्षा के लिए श्री भगवान बारम्बार शरीर धारण करते हैं। 

[বেদ অর্থাৎ প্রকৃত ধর্মের এবং ব্রাম্মণত্ব অর্থাৎ ধর্মশিক্সকত্বের রক্ষার জন্য ভগবান বারংবার শরীর ধারণ করেন, ইহা স্মৃত্যাদিতে প্রসিদ্ধ আছে।

That the Lord incarnates again and again in human form for the protection of the Vedas or the true religion, and of Brahminhood or the ministry of that religion — is a doctrine well established in the Puranas etc.]

जिस प्रकार ऊँचाई से गिरती हुई नदी के पानी का वेग जितना अधिक होता है, उदीयमान लहर  (resurgent wave) भी इसके फलस्वरूप उतनी ही ऊँची उठती है। उसी प्रकार -इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्येक पतन के बाद आर्य समाज (the Aryan society) भी श्री भगवान के करुणापूर्ण मार्गदर्शन (3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण द्वारा) निरोग होकर,  पहले से भी अधिक यशस्वी और वीर्यवान हुआ है । 

जिस प्रकार प्रत्येक पतन के बाद, पुनरुज्जीवित  समाज (revivified society) अपनी अन्तर्निहित सनातन पूर्णत्व (100 निःस्वार्थपरता) को और भी अधिक व्यक्त करता है ; उसी प्रकार सभी जीवों में अवस्थित अन्तर्यामी प्रभु भी अपने प्रत्येक क्रमिक अवतार में (in each successive incarnation ) स्वयं को अधिकाधिक अभिव्यक्त करते हैं।

बार-बार यह भारतभूमि मूर्छापन्न हुई है - अर्थात धर्म से च्यूत हुई है (यानि वसुधैव कुटुंबकम के सनातन धर्म या 'त्याग और सेवा' के सनातन आदर्श' से नीचे गिरी है।) और बारम्बार भारत के भगवान  (India's Lord - ठाकुर-माँ -स्वामीजी) ने अपने आविर्भाव द्वारा इसे पुनरुज्जीवित कर दिया  है। [ या दादा के अनुसार भारत के भगवान ने 1967 में महामण्डल संगठन के आविर्भाव द्वारा इसे (revivified) पुनरुज्जीवित कर दिया है। ] 

किन्तु वर्तमान गहरी निराशाजनक रात्रि (अंग्रेजों की गुलामी), जो अब लगभग समाप्त हो चुकी है,  हमारी इस पुण्यभूमि को अन्य किसी विषादपूर्ण रात्रि की काली छाया ने अब तक कभी इतना अधिक आछन्न नहीं किया था। इस पतन की गहराई की तुलना में, पहले के सब पतन गाय के छोटे खुर के निशान (hoof-marks) की तरह दिखाई देते हैं।

इसलिए, इस बार की जो नई जागृति (new awakening- आत्मजागृति या स्वरुप की जाग्रति) की चमक (effulgence-प्रभा या दीप्ती) होगी उसके सम्मुख इतिहास में सभी पिछले पुनरुत्थानों की महिमा उसी तरह फीकी पड़ जाएगी, जिस प्रकार उगते सूरज के सामने प्रभात तारा की चमक फीकी पड़ जाती है । और इस नवीनीकृत शक्ति के पुनरुत्थान की तुलना में, प्राचीन काल के समस्त उत्थान बच्चों के खेल-child's play के समान प्रतीत होंगे।

[शुक्र ग्रह को ही प्रभात तारा (सुबह का तारा), या शाम का तारा कहा जाता है। शुक्र शाम को आकाश में दिखाई देने वाला पहला तारा है और सुबह तारे के रूप में गायब हो जाता है। शुक्र सूर्य से दूसरा ग्रह है और पृथ्वी से निकटतम ग्रह है।] 

अपनी इस वर्तमान पतनावस्था के दौरान सनातन धर्म के विभिन्न 'भाव-आदर्श', जैसे निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान आदि उन्हें साकार करने का प्रशिक्षण देने योग्य व्यक्तियों के अभाव में (competent men to realise them) या मार्गदर्शक 'नेता' गणों के अभाव से इधर-उधर बिखरे पड़े हैं - कुछ तो छोटे छोटे संप्रदायों के रूप में संरक्षित हैं, और कुछ पूरी तरह से लुप्त हो गए हैं।

लेकिन इस नए आध्यात्मिक पुनर्जागरण की नयी शक्ति से बलि मानव-सन्तान, अपनी विखण्डित और बिखरे हुए आध्यात्मिक आदर्शों को पुनर्गठित करने के बाद, न केवल उन्हें अपने जीवन में धारण और अभ्यास करने में समर्थ होगी, बल्कि अपनी लुप्तविद्या को भी पुनः आविष्कृत करने में सक्षम होगी। और इस गौरवशाली भविष्य के निश्चित संकेत के रूप में, परम्-दयालु श्री भगवान पूर्व सभी युगों की अपेक्षा अधिक पूर्णता प्रकाशित करते हुए , सर्वभाव -समन्वित एवं सर्वविद्या युक्त होकर युगावतार (अवतार वरिष्ठ) के रूप में अवतीर्ण हुए हैं।

इसीलिए इस भावी महत्वपूर्ण युग के उषाकाल में सभी धार्मिक आदर्शों का मिलन प्रचारित हो रहा है, और वही असीम, अनन्त सभी को गले लगाने वाला 'वसुधैव कुटुंबकम' का भाव-  जो सनातन  धर्म और उसके शास्त्रों में निहित होते हुए भी, लंबे समय से छिपा हुआ था, (G-20, 9/9 2023 को) भारत के ही द्वारा पुनः आविष्कृत होकर उच्च स्वर से विश्व-मानवता  के समक्ष उद्घोषित हो रहा है। 

यह युगांतरकारी नई व्यवस्था- 'वसुधैव कुटुंबकम' का भाव "One Earth, One family , One future" का भाव --पूरी दुनिया के लिए, विशेषकर भारत के लिए महा कल्याणकारी है ; और इस युगधर्म के प्रवर्तक श्री भगवान रामकृष्ण, पहले अवतरित सभी युगधर्म -प्रवर्तकों के पुनः संशोधित और  पुनःप्रतिरुपित (reformed and remodeled) वरिष्ठतम अभिव्यक्ति हैं। हे मानव, इस पर विश्वास करो, और इसे हृदय में धारण करो ! "হে মানব, ইহা বিশ্বাস কর ও ধারণ কর।" [O man ! have faith in this, and lay to heart.]

मृत व्यक्ति फिर से नहीं जीता। बीती हुई रात फिर से नहीं आती; विगत उच्छ्वास फिर नहीं लौटता। जीव दो बार एक ही शरीर धारण नहीं करता। हे मानव, मृत अतीत की पूजा करने के बदले, हम जीवित वर्तमान की पूजा के लिए तुम्हारा आह्वान करते हैं ; बिती हुई बातों पर पछतावा करने के बदले , हम तुम्हें वर्तमान [ऋषि सुनक] को अपने लिए मंगलकारी बनाने का अनुरोध करते हैं। मिट चुके मार्ग की खोज में अपनी शक्ति -क्षय करने के बदले, तुरन्त निर्मित प्रशस्त और सन्निकट राजमार्गों   पर वापस बुलाते हैं। (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा से, 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make' C-IN-C लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा' पर वापस बुलाते हैं।)  बुद्धिमान, समझ लो । বুদ্ধিমান, বুঝিয়া লও। He that is wise, let him understand.

जिस शक्ति के उन्मेष मात्र से दिग्दिगन्त व्यापी प्रतिध्वनि जाग्रत हुई है, उसकी पूर्णवस्था को कल्पना से अनुभव करो ; और व्यर्थ सन्देह , दुर्बलता  और दासजाति सुलभ ईर्ष्या-द्वेष का परित्याग कर, इस महायुग -रथचक्र - परिवर्तन में सहायक बनो।  

हम प्रभु के दास हैं , प्रभु की लीला के सहायक हैं -यही विश्वास दृढ़ कर कार्यक्षेत्र में कूद पड़ो !!

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>>>श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, भारत में जब भी कोई व्यक्ति कुछ नया काम का प्रारम्भ करता है , उस समय  वह भारतीय पूजन विधि  से उसका संकल्प लेकर  ईश्वर की आराधना (अवतार लीला या सत्यनारायण कथा) करता है। उस समय अनुष्ठान के पूर्व वह जिस संकल्प मंत्र का उच्चारण करता है जिसमें भारत के वर्णन को प्रदर्शित किया गया है - वह इस प्रकार है - "श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य क्षेत्रे (अपने नगर/गांव का नाम लें) '  मासानां मासोत्तमे ……. मासे …… पक्षे …….. तिथौ ……. वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें)  मन्वन्तर एक संस्कॄत शब्द है, जिसका संधि-विच्छेद करने पर = मनु+अन्तर मिलता है। इसका अर्थ है मनु की आयु।   प्रत्येक मन्वन्तर एक विशेष मनु द्वारा रचित एवं शासित होता है, जिन्हें ब्रह्मा द्वारा सॄजित किया जाता है।. उन मनु की मॄत्यु के उपरांत ब्रह्मा फ़िर एक नये मनु की सृष्टि करते हैं, जो कि फ़िर से सभी सृष्टि करते हैं। इसके साथ साथ विष्णु भी आवश्यकता अनुसार, समय समय पर अवतार लेकर इसकी संरचना और पालन करते हैं। इनके साथ ही एक नये इंद्र और सप्तर्षि भी नियुक्त होते हैं। चौदह मनु और उनके मन्वन्तर को मिलाकर एक कल्प बनता है। हजारों वर्ष की गुलामी में अपने ऋषि पूर्वजों के इन शिक्षाओं को भूल जाने से- समय के प्रवाह में .......]  

[मायाधिकृत जगत (world of  Mâyâ, - 'illusion') ** माया अर्थात 'देश, काल, निमित्त' [C] से होकर आने के कारण निश्चल अविनाशी 'ब्रह्म' [A] ही परिवर्तन-शील (नश्वर) जगत [B] के रूप में भास रहा है। और निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान' - ये चारों वैदिक मार्ग, बिना देश, काल या पात्र भेद किये सम्पूर्ण मानवजाति को ही , इस मायाधिकृत जगत समुद्र से परे (illusion-भ्रम, मरीचिका, इंद्रजाल से परे-for leading men across Maya and bestowing salvation on them through the practice of Yoga, Bhakti, Jnana, or selfless work) ले जाने में समर्थ नेता या खेवैया होने होने के कारण सदैव सार्वभौमिक और सनातन धर्म ( universal and eternal religion) का एकमात्र उपदेष्टा है। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सूत्र , या ज्यामिति का सूत्र- यदि किसी त्रिकोण के भुज बराबर हों, तो उसके कोण भी बराबर होंगे- एक सार्वभौमिक सत्य है । उसी प्रकार ज्ञानमयी दृष्टि से -'सियाराम मय सब जग जानि' यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश, काल और पात्र का भेद उनके सत्य होने से असंगत/अप्रतिहत  है। ]

यद्यपि 'सत्य की अतीन्द्रिय दृष्टि' प्राप्त करने की वैज्ञानिक -प्रणाली  ~ 'शरीर से परे देखने वाली दृष्टि, अर्थात जीवन-मृत्यु से परे देखने वाली दृष्टि, या दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को ब्रह्ममय देखने वाली दृष्टि, या सम्पूर्ण विश्व को वसुधैव कुटुंबकम मानकर 'सियाराममय' देखने वाली दृष्टि' प्राप्त करने की वैज्ञानिक -प्रणाली। [Supersensuous Vision of Truths i.e. to 'Gaze Beyond the Body']

 कुछ मात्रा में हमारे देश के इतिहास - पुराणों या  सनातन धर्म शास्त्रों (गीता,उपनिषद, ब्रह्मसूत्र , योग-सूत्र या अष्टांग योग) आदि में, तथा अब्राहम या इब्राहिमी धर्मों को मानने वाले देशों की धर्म -पुस्तकों में भी अवश्य मिलती है। [अर्थात यहूदी धर्म (Judaism) , ईसाई और इस्लामिक या इब्राहिमी धर्म मानने वाले म्लेच्छादि देशों की धर्म -पुस्तकों (बाईबिल -कुरान आदि) में भी अवश्य मिलती है।] किन्तु सनातन धर्म में जीवन और मृत्यु के विषय में अवधारणा; अब्राहम धर्मों (यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम) से बहुत अलग है। अब्राहमिक धर्मों की मान्यताओं में पुनर्जन्म की कोई अवधारणा नहीं है,  केवल एक जीवन की अवधारणा है। और इसलिए एक “जीवन” के अन्त  या 'मृत्यु ' को ईसाई और मुसलमान “RIP” या “शांति” के रूप में मानते हैं।  

उनकी मान्यता के अनुसार, जब शरीर की मृत्यु हो जाती है, तो भगवान या अल्लाह द्वारा उसका तुरंत  न्याय किया जाता है, और मृत व्यक्ति का  ‘पुण्य’ और ‘शापित’ शरीर और आत्मा दोनों या तो स्वर्ग में अनन्त सुख या नरक (दोजख में) अनन्त दुख का अनुभव करेंगे।  जब ‘समय का अंत’, “ जजमेंट डे (judgement day)” अथवा “क़यामत का दिन” आयेगा , तब  शरीर का एक ‘पुनरुत्थान’ होगा और उस दिन कब्र में पड़े ये सभी मृत शरीर (शव) दोबारा जीवित हो जायेंगे। आत्मा इसके साथ फिर से एकजुट हो जाएगी और फिर से मानव बन जाएगी। यही कारण है कि वे मृत व्यक्ति के लिए “RIP” अभिव्यक्ति का उपयोग करते हैं - अर्थात  उस दिन के इंतज़ार में सभी मृत शरीर “शान्ति" से आराम करो।

इन मान्यताओं के अनुसार यदि वह व्यक्ति इस्लाम या ईसाइयत में विश्वास करता है, तो मरने के बाद शरीर शांति में रहेगा, अन्यथा अनन्त दर्द और तकलीफ में रहेगा। जजमेंट डे (judgement day) के अंत में, भगवान / अल्लाह सभी शरीरों को अपनी कब्र से उठकर उन पर निर्णय पारित करेंगे। इसलिए, इस्लाम और ईसाइयत (ईसाई धर्म में विश्वास करने वाला) कयामत तक असीम शांति, में चीर शांति में रहे (RIP) की  अवधारणा है।

"(RIP) - रेस्ट इन पीस” मतलब शान्ति से आराम करो होता है, और ये शब्द ईसाई या मुस्लिम समुदाय मृत व्यक्ति के आत्मा कि शांति के लिए प्रार्थना करते समय प्रयोग में लाते हैं। ईसाई समुदाय में मनुष्य के मरने के बाद इन्हें दफना दिया जाता है और इनके कब्र के ऊपर Rest in Peace लिख देते हैं। प्रारम्भ में ईसाईयों की कब्रों पर “RIP” (रेस्ट इन पीस) जैसे संकेत का मतलब यह नहीं था कि वे “शांतिपूर्वक” मर गए, बल्कि यह था कि वे चर्च के असीम शांति में चले गए, यानी चर्च में मसीह में मिल गए और इसके अलावा कुछ नहीं

 [इसे वेटिकन की आधिकारिक वेबसाइट, विशेष रूप से भाग एक- द प्रोफेशन ऑफ फेथ (Part One- The Profession of Faith) की आधिकारिक वेबसाइट पर, “कैथोलिक चर्च के केटिज़्म” (Catechism of the Catholic Church) पर विस्तार से पढ़ा जा सकता है। ]

>>>Man: the best creature 'मनुष्य - श्रेष्ठतम जीव' : स्वामी विवेकानन्द 'साधना के प्राथमिक सोपान' शीर्षक निबंध के (खण्ड १/पृष्ठ-५३) में कहते हैं - " इन सब साधनों का (यानि 3H विकास के 5 अभ्यास का ) एकमात्र उद्देश्य है -'आत्मा की मुक्ति। ' शरीर या मन इन दोनों में से कोई हमारा (यानि आत्मा का) स्वामी कभी नहीं हो सकता। हम यह कभी नहीं भूलें कि 'शरीर और मन हमारा यंत्र है' - इसलिए 'हम शरीर -मन के यंत्र नहीं है।' [कुत्ता पूँछ हिला सकता है , या पूँछ कुत्ते को हिला सकता है ?] शरीर और मन सतत परिवर्तनशील होने पर भी उन्हें स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर और मन की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। "यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है। सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है, मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से - यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मुनष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं। देवताओं को भी ज्ञानलाभ के लिए मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञानलाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, (दादा कहते थे -आर्य और इब्राहीमी दोनों धर्म-ग्रंथों के अनुसार ) ईश्वर ने देवदूत और अन्य प्रकार के छोटे-बड़े, उड़ने और डंक मरने वाले समुदय प्राणियों की सृष्टियों की, किन्तु उन्हें आनन्द नहीं हुआ। सबसे अन्त में मनुष्य की सृष्टि की -तब उन्हें बहुत आनन्द हुआ। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनंदन कर आने के लिए कहाँ इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु (sniffer dog-रूमाल सूंघ कर चोर का पता लगाने वाला कुत्ता) किसी ऊँचे तत्त्व (आत्मा-विवेक) की धारणा नहीं कर सकते। इसी तरह अत्यधिक धन अथवा अत्यधिक दरिद्रता आत्मा उच्चतर विकास में बाधक है। संसार में जितने महात्मा पैदा हुए हैं , सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुए थे।" ]

>>>Scientific education system of being 'de-hypnotized' or achieving perfection: भ्रम-मुक्त होने,'De-hypnotized' होने या पूर्णत्व प्राप्त करने की वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली 'इब्राहिमी' धर्मों या म्लेच्छादि देशों की धर्म-पुस्तकों में भी कुछ मात्रा में अवश्य मिलती है, तथापि 'आध्यात्मिक सत्यों' (देश-काल-पात्र से परे या नाम-रूप से परे के सार्वभौमिक सत्य-सिद्धान्तों) का सबसे पूर्ण,और सबसे अविकृत (undistorted) संग्रह होने के कारण, आर्य जाति में चार नाम वाले 'वेदों ' (चार महावाक्य का प्रतिनिधित्व करने वाले धर्मग्रन्थ) के रूप में जाना जाने वाला अक्षर-समूह ही सब प्रकार से सर्वोच्च स्थान पाने का अधिकारी है, पृथ्वी के सभी देशों को 'वसुधैव कुटुंबकम' के परम् उदार  दृष्टि से देखने में समर्थ है तथा आर्य और इब्राहिमी (म्लेच्छ) सबके धर्मग्रंथों की प्रमाणभूमि है। 

[आप हिन्दू, मुसलमान और इसाई सभी पुराणों में यह कहानी पाएंगे -" परमेश्वर या अल्ला ने सभी फरिश्तों को बुलाया और हुक्म दिया कि मनुष्य के सामने सिर झुकाओ ! सबों ने झुकाया, लेकिन एक फ़रिश्ते -इब्लीस ने नहीं झुकाया उसको ईश्वर ने कहा दूर हटो शैतान ! क्योंकि इब्लीस के पास शरीर से परे घूरने वाली दृष्टि नहीं थी , यानि जगत को ब्रह्ममय देखने वाली दृष्टि नहीं थी। (जुलाई 2018 में वैंकूवर में विश्व संस्कृत सम्मेलन में दिया गया एक भाषण (वर्तमान शोध को प्रतिबिंबित करने के लिए, ज़ोए स्लैटॉफ़ द्वारा कुछ अंश संपादित) Supersensuous Vision of Truths-ie to 'Gaze Beyond the Body'- That gaze (dṛṣṭi), Iblis did not have the vision to stare beyond the body, that is, he did not have the vision to see the world as divine. "Yoga and Advaita Vedānta in the Aparokṣānubhūti)" A talk given at the World Sanskrit Conference in Vancouver, in July 2018 (Slightly edited to reflect current research) by Zoë Slatoff/शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010 को प्रकाशित सम्पादकीय/ महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी संवाद पत्रिका - "विवेक अंजन" /https://इब्लीस-कथा pdfmaza.com/main-kaun-hoon-book-pdf-download-free/] 

>>>Sanatan Dharma: सनातन धर्म के अनुयायियों को दिवंगत आत्मा (महामण्डल के महासचिव स्वर्गीय सोमनाथ बागची) को श्रद्धांजलि देने के लिये “ॐ सद्गति (SADGATI)” कहना चाहिए? और RIP (रिप) क्यों नहीं कहना चाहिए?

वास्तव में, RIP की अवधारणा प्रेत बन जाने की अवधारणा जैसी है, जब हम रेस्ट इन पीस कहते हैं, तो हम प्रार्थना कर रहे हैं कि एक व्यक्ति अपने शरीर को छोड़ने के बाद उसकी आत्मा पृथ्वी पर एक जगह ठहर जाये और यह अनंत काल के लिए प्रेत बन जाये। जबकि सनातन धर्म (हिन्दू) में जीवन और मृत्यु की अवधारणा बिलकुल अलग है। (इसीलिए पहले सात समन्दर पार म्लेच्छ देशों में जाना मना था )

 भगवद् गीता, कठोपनिषद, शिवागमों, पुराणों सहित सभी प्रमुख हिंदू पवित्र ग्रंथों में दोहराया गया है कि लौकिक नियमों के अनुसार, जीवात्मा या व्यक्तिगत चेतना नष्ट नहीं हो सकती, यह अनश्वर है। यह ब्रह्मांडीय चेतना या परमात्मा का प्रतिबिंब है। यह कर्म और माया से बंधा हुआ है, और अंतिम मुक्ति की या मोक्ष की प्राप्ति तक एक जन्म से दूसरे जन्म तक अपनी यात्रा जारी रखता है। इसीलिए -सनातन धर्म या हिंदू जीवन शैली में तेरहवीं (13 दिन) की अवधारणा है। जिसके अनुसार मृतक के परिवार के सदस्य 13 दिनों के लिए हर दिन प्रेतों को इस पृथ्वी को छोड़ने और अपने अगले गंतव्य- जो अवतार या मोक्ष (मोक्ष) हो सकता है; पर जाने का अनुरोध  विभिन्न आह्वान और प्रसाद के साथ  करते हैं। और “ॐ सद्गति (SADGATI)”  कहकर हम आत्मा को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।  और उसी नश्वर शरीर में शान्ति से रहने, यानि उसी मृत शरीर में चिपककर ‘शांति’ में रहने के लिए नहीं कहते हैं।

जैसा कि वेदों और उपनिषदों में कहा गया है, "एकोहं बहुस्याम:" मैं एक अनेक रूप में हुआ हूँ। (छान्दोग्य उपनिषद -6.2.3. उस अस्तित्व ने निर्णय लिया: 'मैं अनेक हो जाऊंगा। मैं जन्म लूंगा।' फिर उसने आग पैदा कर दी. उस आग ने यह भी तय कर दिया: 'मैं बहुत हो जाऊंगी।' मैं जन्म लूंगा।' फिर अग्नि से जल उत्पन्न हुआ। इसीलिए जब भी या जहां भी कोई व्यक्ति शोक मनाता है या पसीना बहाता है, तो वह जल उत्पन्न करता है।)  अर्थात ब्रह्मांडीय चेतना स्वयं को मनाने के लिए कई जीवों के रूप में प्रकट होती है। रास्ते में, वह बहक जाता है और यह भूल जाता है, और पीड़ित होने लगता है। यही वह बंधन है जिससे खुद को (आत्मा को भ्रम से) मुक्त करना है और मोक्ष को प्राप्त करना है। 

महर्षि कपिल ने कहा कि सृष्टि पूर्व की जो अवस्था है उसमें जब प्रकृति अव्यक्तावस्था में रहती है, तब सभी गुण साम्यावस्था में रहते हैं। यह साम्यावस्था टूटती है मूल तत्व के संकल्प से, जिसका वर्णन उपनिषदों ने किया- एकोऽहं बहुस्याम - यह संकल्प ही इच्छाशक्ति है। इससे गुणों की साम्यावस्था भंग होती है तथा उस अव्यक्त प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा इसी के साथ सृष्टि व्यक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसका प्रथम विकास महत्‌ अथवा विराट्‌ बुद्धि शक्ति के रूप में होता है, यही ज्ञान शक्ति है। 

एक मूलभूत ज्ञान शक्ति सूक्ष्म परमाणु से लेकर संपूर्ण व्रह्माण्ड तक का नियमन कर रही है, इसकी पुष्टि निम्न तथ्यों से प्रतीत होती है- भगवान बुद्ध कहते हैं सम्पूर्ण जगत शाश्वत प्रकम्पन है- ‘सब्बोप्रज्जालितो लोको, सब्बो लोको प्रकम्पितो‘। जगत में ठोस जैसा कुछ नहीं है, केवल प्रकम्पन ही है। आदि शंकराचार्य कहते हैं- परमाणु से लेकर व्रह्मलोक तक तथा सामान्य शक्ति से लेकर प्राणशक्ति तक सब स्पन्दन है। स्वामी विवेकानंद भी कहते थे, ‘संपूर्ण जगत कम्पन है, स्पन्दन है। इतना ही है कि मन तीव्र कम्पन है तथा स्थूल या जिसे जड़  कहा जाता है, वह मंद कम्पन है।‘ ब्रह्माण्ड (आत्मशक्ति) का सृजन और लोप (मन-शरीर,E=Mc2 ) कम्पन का ही परिणाम है।  कम्पन समुद्र की लहरों के समान है। जैसे समुद्र की सतह के ऊपर हलचल रहती है पर नीचे का आधार शांत रहता है, उसी प्रकार जगत्‌ का मूलाधार ब्रह्म कूटस्थ है, कम्पन तो ऊपरी सतह पर है।

[श्री सुरेश जी सोनी हिन्दी साप्ताहिक पांचजन्य : /http://vaigyanik-bharat.blogspot. com /2010/06/blog-post.html']

[दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत् ।सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ॥ (अपरोक्षानुभूतिः ११६) -ज्ञानमयी दृष्टि के द्वारा जगत् को ब्रह्ममय देखने वाली दृष्टि ही परम् उदार दृष्टि है। Having made one’s gaze full of knowledge, One should see the universe as full of brahman. That gaze (dṛṣṭi) is the most exalted, Not the one that looks at the tip of the nose.या सत्य की अतीन्द्रिय दृष्टि प्राप्ति का साधन-चार योग मार्ग। अहं ब्रह्मास्मि: "मैं ब्रह्म हूँ।" (बृहदारण्यक उपनिषद यजुर्वेद)/तत्त्वमसि - "वह ब्रह्म तू है।" (छान्दोग्य उपनिषद सामवेद)/ प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है।"(ऐतरेय उपनिषद - ऋग्वेद)-सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है।" (छान्दोग्य उपनिषद सामवेद)/अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ही ब्रह्म है।" (माण्डूक्य उपनिषद  अथर्ववेद।) ]   


Truth is of two kinds: 

(1) that which is cognizable by the five ordinary senses of man, and by reasonings based thereon; 

(2) that which is cognizable by the subtle, supersensuous power of Yoga.

Knowledge acquired by the first means is called science, and knowledge gained by the second is called the Vedas.

The whole body of supersensuous truths, having no beginning or end, and called by the name of the Vedas, is ever-existent. The Creator Himself is creating, preserving, and destroying the universe with the help of these truths.

बालक नचिकेता यम से चार प्रश्न पूछता है - " आत्मा कुत्रास्ति ? कथमस्ति ? तस्य अवगतिः कथम् ? तस्य ज्ञानेन किं वा फलं भवति ?  Where does the soul reside? How it works? How is that understood? What is the fruit of his knowledge? ~ आत्मा रहता कहाँ है? यह काम किस प्रकार करता है? उसे  कैसे जाना (पहचाना) या समझा जा सकता है? उसको जान लेने का अर्थात आत्मज्ञान/आत्मसाक्षात्कार का फल क्या है? इन चारो प्रश्नों का बहुत सुन्दर यम ने इस श्लोक में दिया है - 

अणोरणीयान् महतो महीयान्, आत्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः

तमक्रतुं पश्यति वीतशोको, धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ 

(कठोपनिषद् १/२/२०)

[* यह मंत्र श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/२० में भी है।

[अन्वय - अणोः अणीयान् महतः महीयान्, आत्मा अस्य जन्तोः गुहायां निहितः धातुः प्रसादात् वीतशोकः अक्रतुः तम् महिमानम् ईशं पश्यति॥

आत्मा अणोः अणीयान्, महतो महीयान् सन् सर्वेषां प्राणिनां गुहायां वसति । परमात्मनः अनुग्रहेण आत्मानं विज्ञाय दुःखरहितो भवति ॥ 

 वह सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, बड़े से भी बहुत बड़ा, परमात्मा, इस जीव की हृदयरूप गुफा में छिपा हुआ है। सबकी रचना करने वाले उस परमेश्वर की कृपा से, जो मनुष्य उस संकल्परहित परमेश्वर को, और उसकी महिमा को देख लेता है, वह सब प्रकार के दुःखों से रहित होकर, उन परम आनंदस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।]

~ अर्थात आत्मा परमाणु से भी छोटी और  'महतो महीयान्' - महान पृथ्वी से भी बड़ी  (बृहद्) है ओर सभी प्राणियों की हृदय -गुफा में निवास करती है। परमात्मा (माँ सारदा देवी) की कृपा से जब किसी व्यक्ति को (उसके 'अहं ' को नहीं आत्मा को) जब आत्मज्ञान /आत्मसाक्षात्कार (अपने शाश्वत स्वरुप का ज्ञान) हो जाता है तब उसे यह प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि वह सभी प्रकार के शोक और दुःख से मुक्त हो गया है।

व्याख्या - इस मंत्र में नित्य-शुद्ध-बुद्ध जीवात्मा को 'जन्तु ' नाम देकर उसकी बद्धावस्था - सम्मोहित अवस्था (Hypnotized) का वर्णन किया है। भाव यह कि यद्यपि परब्रह्म पुरुषोत्तम (अवतार वरिष्ठ - भगवान श्रीरामकृष्ण देव) उस जीवात्मा के अत्यन्त समीप है , जहाँ यह स्वयं रहता है , वहीं ह्रदय में छिपे हुए हैं , तो भी यह उनकी ओर नहीं देखता। मोहवश भोगों में भूला रहता है। इसी कारण यह 'जन्तु ' है - मनुष्य शरीर पाकर भी कीट-पतङ्ग आदि तुच्छ प्राणियों की भाँति अपना दुर्लभ जीवन व्यर्थ नष्ट कर रहा है। जो साधक अपने स्वरुप को शाश्वत चैतन्य आत्मा समझकर सब प्रकार के भोगों की कामना से रहित और शोक रहित हो जाता है , वह परमात्मा की कृपा से यह अनुभव करता है कि परब्रह्म पुरुषोत्तम अणु से भी अणु और बृहद से भी बृहद -सर्वव्यापी है। और इस प्रकार उनकी महिमा को समझकर उनका साक्षात्कार कर लेता है। 'धातु ' का अर्थ सर्वाधार परमात्मा माना गया है। विष्णुसहस्रनाम में भी -अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। 5 ।। 'धातु ' को भगवान का एक नाम माना गया है।       

[परमात्मा सर्वप्राणिनां हृदये वसति । सः सूक्ष्मः स्थूलश्च भवति । आत्मा परमाणोरपि सूक्ष्मः।  पृथिव्याः अपि महान् । ईदृशम् आत्मानम् अवगन्तुं साधकः भगवद्भक्तः भवेत्, ततः भगवतः अनुग्रहं लभेत्  जिज्ञासुर्हि शमदमादिसाधनसम्पन्नो भवेत् । अस्य आत्मनः ज्ञानेन साधकः सर्वदुःखानि अत्येति ।

परमात्मा सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता है। वह सूक्ष्म भी है और स्थूल भी। आत्मा परमाणु से भी सूक्ष्म और पृथ्वी से भी बृहद है। ऐसे आत्मा को जानने के लिए साधक को भगवान का भक्त (अवतार वरिष्ठ को पहचानकर, उनका भक्त) बनना होगा, और तभी उसे भगवान की कृपा प्राप्त होगी। सत्यार्थी या आत्म -जिज्ञासु व्यक्ति को चित्त को स्थिर करने और आत्मसंयम की साधना से सम्पन्न होना चाहिए।इस आत्मा को जान लेने  से साधक सभी प्रकार के दुःख कष्टों पर विजय प्राप्त कर लेता है।आत्मनः महिमानं ज्ञात्वा आत्मवित् सर्वान् तापान् अतीत्य मुक्तो भवति ॥एक यथार्थ मनुष्य (ब्रह्म-विद, आत्म-विद या आत्म-साक्षात्कारी व्यक्ति) जो स्वयं की महिमा (अपने अविनाशी स्वरुप की महिमा ) को समझता है, वह सभी दुःख -कष्टों से परे हो जाता है और मुक्त (जीवनमुक्त या De -hypnotized) हो जाता है।

The Supreme Soul resides in the hearts of all living beings. He is both subtle and gross. The soul is subtler than an atom and greater than the earth. To understand such a self, the seeker must become a devotee of the Lord, and then he will attain the grace of the Lord.  A person who is inquisitive should be endowed with the means of calmness and self-control. By knowing this Self, the seeker overcomes all sufferings.  A self-conscious person who understands the glories of the Self transcends all suffering and becomes liberated. 

>>>SOUL, NATURE, AND GOD : (आत्मा , प्रकृति तथा ईश्वर : खंड ८/८४) 

"वेदान्त दर्शन के अनुसार मनुष्य के प्रमुख अवयव हैं -देह, मन और आत्मा। तीन सत्तायें हैं। कारण ही कार्य के रूप में अभिव्यक्त होता है। कारण ने कार्य का रूप धारण किया है। यदि ईश्वर सृष्टि का कारण है और सृष्टि कार्य है , तो ईश्वर ही सृष्टि बन गया है। अतः प्रत्येक आत्मा ईश्वर का अंश है।  "Just as the human soul is the soul of the human body and minds so God is the Soul of our souls. All of you have heard this expression in every religion, “Soul of our souls”. That is what is meant by it.  जिस प्रकार मनुष्य की आत्मा उसके देह और मन की आत्मा है , उसी प्रकार ईश्वर हमारी आत्माओं के आत्मा हैं। तुम सभी लोगों ने - प्रत्येक धर्म के अनुयायिओं से इस उक्ति को सुना होगा - " हमारी आत्माओं की आत्मा। " इसका आशय यही है। मानो वह (परमात्मा) ही उनमें (आत्माओं) में रमता है, उन्हें निर्देश देता है और उन सबका शासक है। प्रथम दृष्टि -द्वैतवाद के अनुसार हम सभी ईश्वर और प्रकृति से शाश्वत रूप से पृथक [अर्थात सनातन- each one of us is an individual, eternally separate from God and nature.]  व्यक्ति हैं। द्वैतवाद यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु में द्रष्टा और दृश्य (विषय और विषयी ) एक दूसरे के विपरीत होते हैं। जब मनुष्य प्रकृति को देखता है, तब वह द्रष्टा (विषयी) है और प्रकृति दृश्य (विषय) है। वह द्रष्टा और दृश्य के बीच द्वैत देखता है। जब वह ईश्वर (आत्मा) की ओर देखता है, तब वह ईश्वर को दृश्य (माँ काली) के रूप में देखता है और स्वयं को द्रष्टा के रूप में। वे (माँ -बेटा दोनों ) पूर्णरूपेण पृथक हैं। यह ईश्वर और मनुष्य के बीच का द्वैत है। साधारणतः यही धर्म के प्रति पहला दृष्टि कोण है। 

[Dualism holds that the subject and the object are opposed to each other in everything. When man looks at nature, he is the subject and nature the object. He sees the dualism between subject and object. When he looks at God, he sees God as an object and himself as the subject. They are entirely separate. This is the dualism between man and God. This is generally the first view of religion. ]  

इसके बाद जिज्ञासु -मुमुक्षु मनुष्य धर्म को दूसरे दृष्टिकोण से देखता है। मनुष्य यह समझने लगता है कि यदि ईश्वर विश्व का कारण है और विश्व उसका कार्य, तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर स्वयं ही विश्व की अनन्त आत्मायें बन गया है और मनुष्य (जीव) उस सम्पूर्ण ईश्वर का अंश मात्र है। हमलोग छोटे छोटे जीव हैं, उस अग्नि-पिण्ड के स्फुलिंग हैं , और समस्त सृष्टि ईश्वर की साक्षात् अभिव्यक्ति है। यह दूसरी सीढ़ी है। संस्कृत में इसे 'विष्टाद्वैतवाद' कहते हैं। 

 [We are but little beings, sparks of that mass of fire, and the whole universe is a manifestation of God Himself. This is the next step. In Sanskrit, it is called Vishishtâdvaita.] 

प्रथम दृष्टि , द्वैतवाद के अनुसार हम सभी ईश्वर और प्रकृति से शाश्वत रूप से पृथक व्यक्ति हैं। दूसरी दृष्टि के अनुसार हम व्यक्ति हैं , परन्तु ईश्वर के साथ एक हैं। हम सब उसीमें हैं। हम सब उसीके अंश हैं, हम सब एक हैं। फिर भी मनुष्य और मनुष्य में , मनुष्य और ईश्वर में एक कठोर व्यक्तिता है , जो पृथक है और पृथक नहीं भी।   

[In the first view, that of dualism, each one of us is an individual, eternally separate from God and nature. In the second view, we are individuals, but not separate from God. We are like little particles floating in one mass, and that mass is God. We are individuals but one in God. We are all in Him. We are all parts of Him, and therefore we are One. And yet between man and man, man and God there is a strict individuality, separate and yet not separate.]  

अब इससे भी सूक्ष्मतर प्रश्न उठता है। प्रश्न है - क्या अनन्त के अंश हो सकते हैं ? अनन्त के अंशों से क्या तात्पर्य है ? यदि तुम इसपर विचार करो तो देखोगे कि यह असम्भव है। अनन्त के अंश नहीं हो सकते , वह हमेशा अनन्त ही रहता है , और दो अनन्त भी नहीं हो सकते। अनन्त केवल एक तथा अविभाज्य ही हो सकता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला कि अनन्त एक है -अनेक नहीं ! और वही एक अनन्त आत्मा, पृथक आत्माओं के रूप में प्रतीत होनेवाले असंख्य दर्पणों में प्रतिबिम्बित हो रही है। यह वही अनन्त आत्मा है , जो विश्व का आधार है , जिसे हम ईश्वर कहते हैं। वही अनन्त आत्मा (3rd 'H' ह्रदय) मनुष्य के मन (2nd-'H' Head -अहं का आधार) भी है, जिसे हम जीवात्मा कहते हैं।  ८/९१/ 

[Thus the conclusion will be reached that the infinite is one and not many and that one Infinite Soul is reflecting itself through thousands and thousands of mirrors, appearing as so many different souls. It is the same Infinite Soul, which is the background of the universe, that we call God. The same Infinite Soul also is the background of the human mind which we call the human soul.]           

>>>वेदों और उपनिषदों के विषय में विचार। ९/१३०> (Thoughts On The Vedas And Upanishads: Volume 6).

> वैदिक यज्ञ-वेदी (sacrificial altar) से ज्यामिति (Geometry) का उद्भव हुआ।

>>> ज्ञान-यज्ञ (युवा प्रशिक्षण शिविर ) का उद्देश्य : 

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता /3.11।। 

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं [देव-मानवों (100 निःस्वार्थपरता)] की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए ( तुमलोग ) ज्ञान-प्राप्ति द्वारा  'मोक्षरूप (de-hypnotized) परम् श्रेय' को प्राप्त करोगे। 

व्याख्या : वैदिक सिद्धान्त  के अनुसार सर्वशक्तिमान् ईश्वर एक है। उसकी यह सर्वशक्ति प्रकृति में अनेक प्रकार से व्यक्त होकर सदैव कार्य करती है। जो विभिन्न प्रकार से व्यक्त परिच्छिन्न शक्तियों के विभिन्न नियामक हैं उन्हें देवता कहते हैं। इन सबके नाम भी वेदों में बताये हैं जैसे अग्नि, वायु, इन्द्र आदि। 

इस श्लोक के सर्वमान्य और सर्वत्र उपयुक्त होने के लिये देव शब्द का अर्थ यह समझना चाहिये कि वे किसी भी कर्म क्षेत्र का वह अधिष्ठाता देवता जो कर्म करने वाले कर्मचारी या कर्त्ता को फल प्रदान करता हो। वह देवता और कोई नहीं उस कर्म क्षेत्र की उत्पादन क्षमता ही होगी। जब हम किसी क्षेत्र विशेष में पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करते हैं तब उस क्षेत्र की उत्पादन क्षमता प्रगट होकर हमें फल प्रदान करती है। इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है यदि हम समझने का प्रयत्न करें कि अपने देश के लिए 'भारतमाता की जय ' कहने का हमारा क्या तात्पर्य है। अपने देश भारत की शक्ति को एक रूप देने में हमारा तात्पर्य हमारे देश के सभी प्रकार के कर्मक्षेत्रों (खेती, उद्योग, रॉकेट विज्ञान, astronomy) की उत्पादन क्षमता से ही होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कहीं पर भी निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। इस अव्यक्त क्षमता को कहते हैं देव। इन देवों को यज्ञ कर्म से प्रसन्न कर उनका आह्वान किये जाने पर वे 'देव ' प्रगट होकर यज्ञकर्ता को फल प्रदान कर प्रसन्न करेंगे। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने सृष्टि के पीछे ब्रह्माजी का यही दिव्य उद्देश्य बताया कि इस प्रकार परस्पर उन्नति कर मनुष्य परम श्रेय (जीवनमुक्त शिक्षक की अवस्था) को प्राप्त करेगा। इस सेवाधर्म का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता दिखाई देता है। एक मात्र मनुष्य ही है जिसे स्वेच्छा से (श्रेय-प्रेय विवेक पूर्वक) कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है।  इस सार्वभौमिक- सेवा धर्म-यज्ञ, 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' की भावना का पालन करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है।  परन्तु जिस सीमा तक कोई मनुष्य (शरीर भोग -सुख में आसक्त जन्तु) अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है।

इस प्रकार देव-मानवों (100 निःस्वार्थपरता- अर्थात केवल अपने देशवासियों के कल्याण के लिए परिश्रम की पराकष्ठा करने वाले नेता ) या महापुरुषों की स्तुति उपासना की नींव बनी। धारणा यह है कि जिस-जिस नेता का आह्वान कैम्प कार्यों में किया जाता है, उस-उस नेता को स्वयं मोक्ष रूपी परम् श्रेय प्राप्त होता है , और वह दूसरों को भी 'श्रेय ' (योग) प्राप्त करने दूसरों की सहायता करता है।  ] 

ऋचाएं = श्रीरामकृष्ण स्त्रोत्र आदि ( 'कृपा कटाक्षं कुरु देव नित्य ' एवं  'जय जय रामकृष्ण भूवन मंगल')  ठाकुर देव एवं उनके लीला पार्षदों की केवल प्रशस्तियां ही नहीं हैं; वरन शक्तिसम्पन्न मंत्र हैं , जिनका उच्चारण मन की आध्यात्मिक भावना (right attitude of mind) के साथ किया जाता है। 

>>स्वर्ग केवल सत्ता की अन्य अवस्थायें हैं , जिनमें इन्द्रियभोगों और उच्चतर सिद्धियों की वृद्धि  हो जाती है। 

स्थूल शरीर की भाँति सभी उच्चतर इतर शरीर नश्वर हैं। इस जीवन तथा अन्य जीवनों में सभी शरीर मरणधर्मा हैं। देव भी मर्त्य हैं। और वे केवल भोग दे सकते हैं। 

इन सभी देव-शरीरों के पीछे एक एक सत्ताधारी इकाई है - ईश्वर , ठीक वैसे ही जैसे इस शरीर के पीछे कोई उच्चतर वस्तु (आत्मा-ह्रदय) है, जो अनुभव करती है और जो देखती है। 

पृथ्वी पर हम मरते हैं।  स्वर्गलोक में मरते हैं, सर्वोच्च स्वर्ग में भी हम मरते हैं। जब हम ईश्वर (माँ जगदम्बा-ठाकुर और स्वामीजी) तक पहुंचते हैं तभी हमें जीवन मिलता है और हम अमर हो जाते हैं। 

>>>सनातन (हिन्दू धर्म) की सार्वभौमिकता : [Hindu Dharma By Swami Vivekananda. 19 सितम्बर, 1893 को धर्म-महासभा में पठित।]

अतएव सनातन (हिन्दू) का यह विश्वास है कि वह आत्मा है। उसको शस्त्र काट नहीं सकते , अग्नि दग्ध नहीं कर सकती , जल भिगो नहीं सकता और वायु सूखा नहीं सकती। " 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।। 

इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।

व्याख्या : किस कारण से आत्मा सदा निर्विकार रहती है, भगवान श्रीकृष्ण सो कहते हैं- इस उपर्युक्त आत्मा को शस्त्र नहीं काटते अभिप्राय यह कि अवयवरहित होने के कारण तलवार आदि शस्त्र इसके अङ्गों के टुकड़े नहीं कर सकते। वैसे ही  अग्नि भी इसको भस्मीभूत नहीं कर सकता। जल इसको भिगो नहीं सकता क्योंकि सावयव वस्तु को ही भिगो कर उसके अङ्गों को पृथक्पृथक् कर देने में जलकी सामर्थ्य है। निरवयव आत्मामें ऐसा होना सम्भव नहीं। उसी तरह वायु आर्द्र द्रव्य का गीलापन शोषण करके उसको नष्ट करता है अतः वह वायु भी इस स्वस्वरूप आत्माका शोषण नहीं कर सकता।

>>> जगत के सृजन, पालन और संहार की जिसमें शक्तियाँ हैं और सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान - आदि जिसकी उपाधियाँ हैं - वे 'देवों के भी देव' परमेश्वर [अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ] हैं। 

यह आत्मा सनातन किस प्रकार है इसे सनातन स्वरूप से क्यों और कैसे पहचाना जा सकता है ? 

स्वामीजी कहते हैं - सनातनी हिन्दूओं की यह धारणा है कि आत्मा सनातन है , अर्थात अनादि और अनन्त है , अर्थात शाश्वत , पूर्ण और अमर है। और मृत्यु का अर्थ है - एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र -परिवर्तन। [ आत्मा एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है , किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है ; और मृत्यु का अर्थ है , इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थनानान्तरित हो जाना। ] आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती है , कभी पशु के स्तर में गिरती है। प्रश्न उठता है - क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफ़ान में ग्रस्त एक छोटी सी नौका है ? .... जो अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता है , पर यही प्रकृति का नियम है। तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं है ? क्या  इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है?–यही करुण पुकार निराशा-विह्वल हृदय के अन्तस्तल से ऊपर उठी और उस करुणानिधान विश्वपिता के सिंहासन तक जा पहुँची। वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और एक वैदिक ऋषि के अन्तःकरण में प्रेरणा रूप में आविर्भूत हुई। ईश्वरी शक्ति द्वारा अनुप्राणित इस महर्षि ने संसार के सामने खड़े होकर घन-गम्भीर स्वर से इस आनन्द-संदेश की घोषणा की–

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।

आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्।

आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्॥

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति।

नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय॥

 (–श्वेताश्वतर उपनिषद्, २-५, ३-८) 

'हे अमृत पुत्रों ! सुनो , हे द्युलोकवासी देवताओं ! सुनो , मैंने एक ऐसी रौशनी देख ली है , जो सभी अँधकारों और सभी संशयों के उस पार है। वह पुरातन पुरुष (ब्रह्म) मुझे मिल गया है। इसका मार्ग उपनिषदों में सन्निहित है।  

"ऐ अमृत के पुत्रगण, ऐ दिव्य धामवासी देवगण, सुनो–मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को पहिचान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अंधकार और माया के परे है, केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्कर से छूट सकते हो। अन्य कोई पथ नहीं है। 

"अमृत के अधिकारी!" –कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है! बन्धुओ! उसी मधुर नाम से मुझे आपको पुकारने दो। 'ऐ अमृत के अधिकारीगण!' सचमुच ही हिन्दू तुम्हें पापी कहना अस्वीकार करता है। तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनंद के अधिकारी हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो। 

" तुम भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है। वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा -अजर, अमर , अविनाशी मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ (परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर शरीर और मन) नहीं हैं , जड़ तो आपका दास है , न कि आप दास हैं जड़ के। " १/१२ /    

उपनिषद अमरत्व प्राप्त करने का मार्ग बतलाते हैं। उपनिषदों का मार्ग शुद्ध मार्ग है। बहुत से व्यवहार, रीति-रिवाज और लोकाचार आज समझ में नहीं आ सकते। हालाँकि, उनके माध्यम से सत्य स्पष्ट झलकने लगता है। शाश्वत जीवन के प्रकाश में आने के लिए स्वर्ग और पृथ्वी सभी को तिलांजलि दे दी जाती है। 

॥अथ ईशोपनिषद् ~॥शांति पाठ ॥

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण (जगत) कारणात्मक पूर्ण (ईश्वर या ब्रह्म) से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो।

अर्थात वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है। हम कह सकते है कि भगवान कण-कण में पूर्ण रूप से व्याप्त है।

और वेदों के इस कथन को किसी वैज्ञानिक आधार की कोई आवश्यकता नहीं है जब विज्ञान सक्षम होगा वह इस सत्य को स्वयं ही जान लेगा।

एक बात अवश्य है विश्व की प्रत्येक रचना (पदार्थ) अपने आप में पूर्ण है - [प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है ! ] भले ही फिर वह ब्रह्माण्ड की आकाश गंगा हो या एक छोटा सा परमाणु।

और प्रत्येक रचना या पदार्थ की अपनी ऊर्जा (E=Mc2)  होती है ; और कहीं न कहीं यही ऊर्जा (जीवन) ही ईश्वर है। और कण-कण में व्याप्त है। और एक -दूसरे या यूं कहें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से जुड़ी हुई भी है।   

कण - कण में जीवन व्याप्त है। यही सबसे बड़ा प्रमाण है। अभी दो साल पहले भौतिशास्त्र (physics) का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) इसी शोध पर दिया गया कि एक अणु में इलेक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रॉन के साथ एक god पार्टिकल भी होता है, पर वो दिखता नहीं लेकिन होता है। यही god पार्टिकल कण - कण में जीवन का source है। 

[एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को व्यक्त करना चाह रही है - See Swamiji’s conversations with Ranada Babuयानि त्रिभुजाकार भारत ही सनातन धर्म की तरह पूर्ण है, अनन्त है - "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"अनन्त से अनन्त निकालने पर अनन्त ही बचता है ! भारत को INDIA की तरह तीन टुकड़ों में काटा नहीं जा सकता ! और 'coordinate geometry' के अनुसार त्रिभुज का क्षेत्रफल = 1/2 × आधार × शीर्षलंब, (Area of triangle) = 1/2 × base (आधार=कन्याकुमारी) × altitude (शीर्षलंब=हिमालय = विष्णु पुराण कहता है कि उसी देश का नाम भारतवर्ष है जो समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है, 'उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संतति:। ' (2,3,1))इसमें खास बात यह है कि इसमें जहां भारत राष्ट्र का वर्णन है वहां हम भारतीयों को ‘भारती’ कहकर पुकारा गया है- INDIAN' नहीं । कवि कहता है कि हजारों जन्म पा लेने के बाद, जब कोई व्यक्ति  सदाचा-सद्कर्म करके पुण्यों का ढेर संचय कर लेता है , तब वह भारत में जन्म लेता है,  स्वर्ग में बैठे देवता भी गा रहे हैं कि- अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि संततम्। कदाचिद् लभते जन्तुर्मानुषं पुण्यसंचयात् वे धन्य हैं जो भारत भूमि के किसी भी हिस्से में जन्म पा जाते हैं-गायन्ति देवा: किल गीतकानि,धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय:,  पुरूषा सुरत्वात् (वि.पु. 2,3) भारत का गुणगान करना तो एक तरह से अपना ही गुणगान करना हुआ। तो भी क्या हर्ज है? गुणगान इसलिए करना है क्योंकि उनको, उन पश्चिमी विद्वानों को जो हमें सिखाने का गरूर लेकर इस देश में आए थे, उन विदेशियों को यह बताना है कि हमारे देश का जो नाम है-'भारत' वह वही क्यों है- हिन्दुस्तान क्यों नहीं ? ऋषभ-पुत्र भरत [जड़ भरत ?] में ऐसी खास बात क्या थी कि उनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया?  भरत को अपने पूर्व जन्म का पूरा ज्ञान रहा और दो, हर अगले जन्म में वे पूर्व की अपेक्षा ज्ञान और वैराग्य की ओर ज्यादा से ज्यादा बढ़ते चले गए। इनमें दूसरा जन्म हिरण का बताया गया है।  पर उनके नाम के साथ ‘जड़’ शब्द जुड़ा होने और उनके नाम पर इस देश का नाम पड़ जाने में जरूर कोई रिश्ता रहा है जिसे हम भूल चुके हैं और जिसे और ज्यादा खंगालने की जरूरत है। शायद राजा भरत ने मोदी की तरह खुद को भुलाकर, जड़ बनाने की हद तक भुलाकर , देश और आत्मोत्थान के लिए कोई विलक्षण काम किया कि इस देश को ही उनका नाम मिल गया।

>>> उपनिषद घोषणा करते हैं: 

"वह भगवान या ईश्वर जो 'अणोरणीयान् महतो महीयान् है।' वही सम्पूर्ण ब्रह्मांड के कण-कण में व्याप्त है। यह सब (जगत) उसका है।"

"He the Lord has interpenetrated the universe. It is all His."

ॐ ईशा वास्यमिदं৶ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ १॥

हे मनुष्यो ! ये सब जो कुछ संसार में चराचर वस्तु हैं, ईश्वर से ही व्याप्त हैं। अर्थात् ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, उसी ईश्वर के दिए हुए पदार्थों से भोग करो, किसी के भी धन का लालच मत करो। अर्थात् किसी के भी धन को अन्याय पूर्वक लेने की इच्छा मत करो। ॥१॥

जिस ब्रह्म के ज्ञान से शोक मोहादि की निवृत्ति हो जाती है। उसके स्वरूप का अब प्रतिपादन करते हैं:

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्‌।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्‌ व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥

॥ ‘ईशावास्योपनिषद’८॥ 

अन्वय - सः स्वयम्भुः पर्यगात् अकायम् अस्नाविरम् अपापविद्धं शुक्रम् अव्रणं शुद्धं कविः मनीषी परिभुः। सः याथातथ्यतः शाश्वतीभ्यः समाभ्यः अर्थान् व्यदधात् ॥

"He the Omnipresent, the One without a second, the One without a body, pure, the great poet of the universe, whose meter is the suns and stars, is giving to each what he deserves" (Isha Upanishad, 8, adapted).

वह पुरुषोत्तम --जो सर्वव्यापी , अप्रमेय , निर्गुण , निर्विकार और जगत का महाकवि है - सूर्य , चन्द्र तथा नक्षत्र आकाशगंगा जिसके छन्द है - वह प्रत्येक को उसका उचित भाग देता है।  

 ही सर्वत्र व्याप्त है-वह तत् जो ज्योतिर्मय, शरीर-रहित, अपूर्णता के चिह्न या दाग से शून्य, स्नायु एवं नस-नाड़ी से रहित और शुद्ध है एवं पाप से बिधा नहीं है। सर्वदर्शी, मनीषवान् वह एकमेव जो सर्वत्र सब कुछ हो जाता या बन जाता है, उस स्वयंसत् पुरुष ने ही सनातन वर्षों से, अनादि काल से सभी पदार्थों को उनके स्वभाव के अनुरूप पूर्णतया ठीक-ठीक, यथातथ रूप में व्यवस्थित कर रखा है।

वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, वह सर्व शक्तिमान् और शुक्र अर्थात् सकल जगत का उत्पादक है, वह अकाय अर्थात् स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित अतएव अत्रण अर्थात् शारीरिक विकार रहित तथा नाड़ी और नस के बन्धन से रहित है। शुद्ध अर्थात् पवित्र और पापों से रहित है, सूक्ष्मदर्शी सर्व द्रष्टा और उपदेष्टा तथा मनीषी अर्थात् सब जीवों की मनोवृत्तियों का ज्ञाता, परिभू: सर्वोपरि वर्तमान, स्वयंभूः अर्थात् अजन्मा है वही अनादि काल से सब पदार्थों को रचता है अथवा अनादि जीवों के लिये यथावत् उपदेश करता है। ॥८॥

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥

॥ ‘ईशावास्योपनिषद’९॥ 

"They are groping in utter darkness who try to reach the Light by ceremonials. And they who think this nature is all are in darkness. They who wish to come out of nature through this thought are groping in still deeper darkness" (Isha, 9).

'जो व्यक्ति कर्मकाण्ड द्वारा ज्ञानालोक को प्राप्त करना चाहते हैं , वे घोर अंधकार में टटोल रहे हैं। जो यह सोचते हैं कि प्रकृति ही सबकुछ है , वे सब भी अँधकार में हैं। जो लोग गुरु-शिष्य परम्परा में माँ के अवतार को पहचानकर उनकी भक्ति किये बिना स्वयं इस विचार के बलपर प्रकृति के आकर्षण से बाहर आना चाहते हैं, वे उससे भी गहन अन्धकार में टटोल रहे हैं।   

' जो मनुष्य ज्ञान काण्ड की उपेक्षा करके केवल कर्म का सेवन करते हैं वे गहरे अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो लोग कर्म की उपेक्षा करके केवल (विद्यायाम् ) अर्थात् ज्ञान में ही रमण करते हैं वे उससे भी अधिक अन्धकार को प्राप्त होते हैं। इस लिये ठाकुरदेव के उपासक को ज्ञान पूर्वक ही कर्म करने चाहिये। ॥९॥

तो क्या कर्मकाण्ड- यज्ञ आदि करना बुरे हैं ? [क्या बिजनेस-व्यापार से धन कमाना गलत है ? ] नहीं , वे उनके लिए श्रेयस्कर हैं , जो हमसे अभी एक सोपान पिछड़े हैं। 

अब विद्या और अविद्या की उपासना एक साथ करने से ही अमृत लाभ होता है। इसका वर्णन करते हैं:

Are then ceremonials bad? No, they will benefit those who are coming on.

विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥

॥ ‘ईशावास्योपनिषद’११॥ 

अन्वय -यः विद्यां च अविद्यां च तत् उभयं सह वेद अविद्यया मृर्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥

जो 'तत् ' को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।

जो मनुष्य विद्या को और अविद्या को अर्थात् ज्ञान और कर्म दोनों को साथ साथ जानता है, वह अविद्या अर्थात् कर्म करने से चित्तशुद्धि होती है , निर्मलान्तः करण वाला पुरुष कर्म काण्ड के अनुष्ठान से मृत्यु को तर कर विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है। ॥११॥

In one of the Upanishads (i.e. Katha), this question is asked by Nachiketa, a youth: "Some say of a dead man, he is gone; others, he is still living. You are Yama, Death.

कठोप उपनिषद में नचिकेता वाजश्रवस् का पुत्र है। वाजश्रवा का अर्थ है जिसने वाज अर्थात अन्न का दान करने से ‘श्रव ‘ अर्थात यश को प्राप्त कर लिया है। वाजश्रवा ने स्वर्ग प्राप्ति के लिए विश्वजित नामक यज्ञ किया।  

नचिकेता यम के यहाँ पहुँचकर उनसे यह प्रश्न पूछता है कि - ' मरे हुए मनुष्य के विषय में कोई तो कहते हैं - 'रहता है ' और कोई कहते हैं, 'नहीं रहता है। ' 'आप यम , मृत्यु हैं , आप सत्य जानते हैं। आप इसका उत्तर दें।   

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥

(कठोपनिषद १.१.२०)

अन्वय - मनुष्य प्रेते या इयं विचिकित्सा एके अयं अस्ति इति आहुः एके अयं न सति इति च आहुः । त्वया अनुशिष्टः एतत् अहं विद्याम् एषः वराणाम् तॄतीयः वरः। 

शब्दार्थ: प्रेते मनुष्ये या इयं विचिकित्सा = मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है; एके अयम् अस्ति इति = कोई तो (कहते हैं) यह आत्मा (मृत्यु के बाद) रहता है; च एके न अस्ति इति = और कोई (कहते हैं) नहीं रहता है; त्वया अनुशिष्ट: अहम् = आपके द्वारा उपदिष्ट मैं; एतत् विद्याम् =इसे भली प्रकार जान लूं; एष वराणाम् तृतीय: वर: = यह वरों में तीसरा वर है।

(नचिकेता कहता हैː)

"प्रयाण किये हुए मनुष्य के विषय में यह जो संशयात्मक विवाद है, कोई कहता है 'वह 'यह' नहीं है' और कोई कहता है कि 'वह है'। इसे आपसे शिक्षा लेकर मैं जान लूँ; वरों में यह मेरा तृतीय वर है।''

यम ने उत्तर दिया "  हे नचिकेता, इस विषय में पहले भी देवताओं द्वारा सन्देह किया गया था, क्योकि यह विषय अत्यन्त् सूक्ष्म है और सुगमता से जानने योग्य् नहीं है। तुम कोई अन्य वर मांग लो। मुझ पर बोझ मत डालो। इस आत्मज्ञान संबंधी वर को मुझे छोड़ दो। (१.१.२१)

लेकिन नचिकेता अपने प्रश्न पर दृढ़ रहा। फिर यम ने उत्तर दिया ,   हे नचिकेता, जो-जो भोग मृत्युलोक में दुर्लभ हैं, उन सबको इच्छानुसार मांग लो-रथोंसहित श्याम कर्ण घोड़े को माँग लो,  वाद्योंसहित इन अप्सराओं को (मांग लो), मनुष्यों द्वारा निश्चय ही ऐसी स्त्रियां अलभ्य हैं। इनसे अपनी सेवा कराओ, लेकिन - हे नचिकेता, जो-जो भोग मृत्युलोक में दुर्लभ हैं, उन सबको इच्छानुसार मांग लो-रथोंसहित श्याम कर्ण घोड़े को माँग लो,  वाद्योंसहित इन अप्सराओं को (मांग लो), मनुष्यों द्वारा निश्चय ही ऐसी स्त्रियां अलभ्य हैं। इनसे अपनी सेवा कराओ, लेकिन -' नचिकेतो मरणं मरणं मा अनुप्राक्षी:!' ॥२५॥ - हे नचिकेता, मरण (के संबंध में प्रश्न को) मृत्यु के संबंध में मत पूछो।

परन्तु नचिकेता चट्टान की भाँति अटल रहा। तब मृत्यु देव ने कहा , " मेरे पुत्र, तुमने तीसरी बार भी धन, प्रभुता, दीर्घ जीवन, ख्याति और कुटुम्ब के सुखों को ठुकरा दिया। तुम उस परम् सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के निर्भय 'पराक्रमी' अधिकारी हो। मैं तुमको ज्ञान दूँगा। दो मार्ग हैं, एक श्रेय मार्ग है और दूसरा प्रेय मार्ग है।  तुमने प्रथम का वरण किया है।      

 Then the god of death said, "My boy, you have declined, for the third time, wealth, power, long life, fame, family. You are brave enough to ask the highest truth. I will teach you. There are two ways, one of truth, and one of enjoyment. You have chosen the former."

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।

श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥

अन्वय - श्रेयः च प्रेयः च मनुष्यम् एतः। धीरः तौ सम्परीत्य विविनक्ति। धीरः हि प्रेयसः श्रेयः अभिवृणीते। मन्दः योगक्षेमात् प्रेयः वृणिते ॥

शब्दार्थः श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यम् एतः=श्रेय और प्रेय मनुष्य को प्राप्त होते हैं, मनुष्य के सामने आते हैं; धीरः = श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; तौ = उन पर; सम्परीत्य = भली प्रकार विचार करके; विविनक्ति = छानबीन करता है, पृथक्-पृथक् समझता है; धीरः= श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; प्रेयसः = प्रेय की अपेक्षा; श्रेयः हि अभिवृणीते= श्रेय को ही ग्रहण करता है, श्रेय का ही वरण करता है; मन्दः= मन्द मनुष्य; योगक्षेमात्= सांसारिक योग (अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त की रक्षा) से; प्रेयः वृणीते = प्रेय का वरण करता है।

''श्रेय और प्रेय (योग और भोग दोनों ) मनुष्य के पास आते हैं; विचारशील (धीर) पुरुष सब ओर से उनको परखता है और उनमें विवेक करता है। वह ज्ञानी पुरुष प्रेय की अपेक्षा श्रेय का ही वरण करता है, किन्तु मन्दबुद्धि व्यक्ति अपने श्रेय ['योग' अर्थात समाधि और क्षेम)] की प्राप्ति एवं उसको बनाये रखने  की अपेक्षा प्रेय (भोग) का चयन करता है

व्याख्या-श्रेयमार्ग और प्रेयमार्ग दोनों ही मनुष्य को प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठबुद्धिसम्पन्न पुरुष विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला मनुष्य प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही ग्रहण करता है। मन्दबुद्धिवाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम (धनादि ही को सुख समझकर) से प्रेय का ग्रहण करता है।

अब इस बात पर ध्यान दो कि 'सत्य' सिखाने के लिये [जगत = देह-मन की क्षणभंगुरता या मृत्यु का रहस्य सिखाने के लिए] कौन सी शर्त रखी गयी है ? पहली शर्त है - निष्कपटता - मानो एक बालक , पवित्र , शुद्ध आत्मा जगत के रहस्य के विषय में प्रश्न पूछ रहा है। दूसरी, सत्य के लिए ही उसे सत्य को ग्रहण करना चाहिए।

जब तक उस सत्य [अवतार वरिष्ठ] का ज्ञान किसी ऐसे व्यक्ति से (CINC परम्परा से) प्राप्त नहीं होता, जिसने सत्य का साक्षात्कार स्वयं किया है , उसे स्वयं हृदयंगम किया है , तब तक वह फलदायक नहीं हो सकता। किसी ग्रन्थ से वह ज्ञान नहीं मिलता , तर्क उसे सिद्ध नहीं कर सकते। सत्य उसको मिलता है , जिसने उसके रहस्य को समझ लिया है। (अर्थात परमात्मा का दर्शन आत्मा को मिलता है , तुमको या तुम्हारे अहं को नहीं ?)     

Now note here the conditions of imparting the truth. First, the purity—a boy, a pure, unclouded soul, asking the secret of the universe. Second, that he must take truth for truth's sake alone. Until the truth has come through one who has had the realization, from one who has perceived it himself, it cannot become fruitful. Books cannot give it, argument cannot establish it. Truth comes unto him who knows the secret of it.

जब मिल जाय , तो मौन रहें ! [भावमुख रहें ?]  कूतर्कों से विचलित न हों। आत्मज्ञान स्वयं प्राप्त करो। इसे तुम स्वयं ही कर सकते हो। 

After you have received it, be quiet. Be not ruffled by vain argument. Come to your own realization. You alone can do it.

"जो सच्चे ह्रदय से पुकारता है, हे प्रभो ! मैं बस तुझे चाहता हूँ " उसको प्रभु स्वयं दर्शन देता है। निर्मल रहो , शान्त रहो। अशान्त मन प्रभु को प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। 

जिसका गुणगान वेद करते हैं , जिसके पास पहुँचने के लिए स्तुति और यज्ञ से हम सेवा करते हैं, उस वर्णनातीत का वाचक पवित्र ॐ है। " 

सभी शब्दों में यह सर्वाधिक पवित्र है। जो इस शब्द का रहस्य जान गया , उसको वे सभी वस्तुयें प्राप्त होती हैं , जिबके लिए वह मनोरथ करता है। इस शब्द की शरण में जाओ। जो कोई इस शब्द के शरण में जाता है , उसके लिए मार्ग खुल जाता है। 

He who cries out with his whole heart, "O Lord, I want but Thee"—to him the Lord reveals Himself. Be pure, be calm; the mind when ruffled cannot reflect the Lord. "He whom the Vedas declare, He, to reach whom, we serve with prayer and sacrifice, Om is the sacred name of that indescribable One. This word is the holiest of all words. He who knows the secret of this word receives that which he desires." Take refuge in this word. Whoso takes refuge in this word, to him the way opens.

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥

अन्वय - सर्वे वेदाः यत् पदम् आमनन्ति सर्वाणि तपांसि च यत् वदन्ति यत् इच्छन्तः ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् पदं ते सङ्ग्रहेण ब्रवीमि ॐ इति एतत् ॥

शब्दार्थ: सर्वे वेदा: यत् पदम् आमनन्ति = सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं, जिस लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं; च सर्वाणि तपांसि यत् वदन्ति = और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, वे जिसकी प्राप्ति के साधन हैं; यत् इच्छन्त: ब्रह्मचर्यं चरन्ति = जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; तत् पदम् ते संग्रहेण ब्रवीमि = उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप से कहता हूँ; ओम् इति एतत् = ओम् ऐसा यह (अक्षर) है।

यम कहते हैं ː''जिस (परम) पद का सभी वेद महिमागान करते हैं तथा सभी तपस्याएं जिसके विषय में बताती हैं, जिसकी इच्छा करते हुए मनुष्य ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, 'उसे' मैं तुम्हें संक्षेप से बताता हूँ। हे नचिकेता! वह परम पद है 'ॐ'।

व्याख्या- सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् ऐसा यह अक्षर है।

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>>> सनातन धर्म में जीवन और मृत्यु के विषय में अवधारणा > 

अब्राहम धर्मों (यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम) से बहुत अलग है। अब्राहम धर्मों ने “रेस्ट इन पीस (RIP)” की अभिव्यक्ति की है। अब्राहमिक धर्मों में केवल एक जीवन की अवधारणा है, और इसलिए एक “जीवन” के अन्त को ईसाई और मुसलमान “शांति” के रूप में मानते हैं। ईसाई और इस्लाम कि मान्यताओं में पुनर्जन्म की कोई अवधारणा नहीं है। यही कारण है कि वे “RIP” अभिव्यक्ति का उपयोग करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार, जब शरीर की मृत्यु हो जाती है, तो उसका तुरंत भगवान या अल्लाह द्वारा या तो स्वर्ग में अनंत जीवन या नरक के पतन का न्याय किया जाता है।

 ‘पुण्य’ और ‘शापित’, दोनों ही शरीर और आत्मा दोनों में अनन्त सुख या अनन्त दुख का अनुभव करेंगे। जब ‘समय का अंत’, “ जजमेंट डे (judgement day)” अथवा “क़यामत का दिन” आता है, तो शरीर का एक ‘पुनरुत्थान’ होगा और उस दिन कब्र में पड़े ये सभी मृत शरीर (शव) दोबारा जीवित हो जायेंगे, तब तक उस दिन के इंतज़ार में सभी मृत शरीर “शान्ति से आराम करो। आत्मा इसके साथ फिर से एकजुट हो जाएगी और फिर से मानव बन जाएगी। इसे वेटिकन की आधिकारिक वेबसाइट, विशेष रूप से भाग एक- द प्रोफेशन ऑफ फेथ (Part One- The Profession of Faith) की आधिकारिक वेबसाइट पर, “कैथोलिक चर्च के केटिज़्म” (Catechism of the Catholic Church) पर विस्तार से पढ़ा जा सकता है। 

इन मान्यताओं के अनुसार यदि वह व्यक्ति इस्लाम या ईसाइयत में विश्वास करता है, तो मरने के बाद शरीर शांति में रहेगा, अन्यथा अनन्त दर्द और तकलीफ में रहेगा। समय के अंत में, भगवान / अल्लाह सभी शरीरों को अपनी कब्र से उठकर उन पर निर्णय पारित करेंगे। इसलिए, इस्लाम और ईसाइयत में चीर शांति (RIP) की (असीम शांति, यदि ईसाई धर्म में विश्वास किया जाता है) अवधारणा है।

>>>क्यों “ॐ सद्गति (SADGATI)” कहना चाहिए?  सनातन धर्म (हिन्दू) में मृत्यु की अवधारणा बिलकुल अलग है। भगवद् गीता, कठोपनिषद, शिवागमों, पुराणों सहित सभी प्रमुख हिंदू पवित्र ग्रंथों में दोहराया गया है कि लौकिक नियमों के अनुसार, जीवात्मा या व्यक्तिगत चेतना नष्ट नहीं हो सकती, यह अनश्वर है। यह ब्रह्मांडीय चेतना या परमात्मा का प्रतिबिंब है। यह कर्म और माया से बंधा हुआ है, और अंतिम मुक्ति की या मोक्ष की प्राप्ति तक एक जन्म से दूसरे जन्म तक अपनी यात्रा जारी रखता है।

जैसा कि वेदों और उपनिषदों में कहा गया है, "एकोहं बहुस्याम:" मैं एक अनेक रूप में हुआ हूँ। (छान्दोग्य उपनिषद -6.2.3. उस अस्तित्व ने निर्णय लिया: 'मैं अनेक हो जाऊंगा। मैं जन्म लूंगा।' फिर उसने आग पैदा कर दी. उस आग ने यह भी तय कर दिया: 'मैं बहुत हो जाऊंगी।' मैं जन्म लूंगा।' फिर अग्नि से जल उत्पन्न हुआ। इसीलिए जब भी या जहां भी कोई व्यक्ति शोक मनाता है या पसीना बहाता है, तो वह जल उत्पन्न करता है।)  अर्थात ब्रह्मांडीय चेतना स्वयं को मनाने के लिए कई जीवों के रूप में प्रकट होती है। रास्ते में, वह बहक जाता है और यह भूल जाता है, और पीड़ित होने लगता है। यही वह बंधन है जिससे खुद को मुक्त करना है और मोक्ष को प्राप्त करना है।

वेद: अर्थात सत्य को जानना।    

उपनिषद: सद्गुरु के पास नीचे बैठकर सत्य का अनुभव करना।

गुरु - साक्षात् परब्रह्म: सद्गुरु ही परमात्मा है। (गुरुगीता) 

सदगुरु: अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जानेवाली ईश्वरीय शक्ति।

विष्णु : 'नेता ' जिसमें विश्वचेतना व्याप्त है।  

शिव: कल्याणकारी तत्त्व 

योगमाया: ब्रह्म की शक्ति 

त्वं आत्मासि नित्यं: मूलाधार में स्थित आत्मशक्ति यानी भगवान गणेश  (गणपति अथर्वशीर्ष)    

शिवलिंग: ब्रह्मांड का प्रतीक  

" एकं सत बहुधा वदन्ति विप्रा: " --सत्य एक है, उसे ज्ञानी अपने अनुभव अनुसार व्यक्त करते हैं। (ऋग्वेद)

'वयं अमृतस्य पुत्रा:'  वेद कहते हैं कि हम सब अमृत-पुत्र हैं - मृत्यु से रहित अविनाशी ईश्वर की संतान हैं। (श्वेताश्वर उपनिषद)

'संभवामि युगे युगे:' हरेक मनुष्य के जीवनकाल में ईश्वरलीन महामानव होते ही हैं। (भगवद गीता)

" अवतारा ही अनन्तश्चा: " -ईश्वर के अवतार अनंत हैं जिस पर ईश्वरीय शक्ति अवतरित होती है , ऐसे दुनिया के अनंत महामानव हैं। (श्रीमद भागवत)

>>>गीता के अनुसार, मृत्यु :  जीवात्मा के लिए कपड़ों के बदलाव की तरह है। यह एक शरीर और मन से दूसरे स्थान की यात्रा करता है, और अपनी यात्रा जारी रखता है। यह हिंदू धर्म में पुनर्जन्म की अवधारणा है। जिस तरह पुरुष पुराने और घिसे-पिटे कपड़ों को त्याग देते हैं और नए कपड़े हासिल करते हैं, उसी तरह जब शरीर पुराना और मुरझाया हुआ हो, तो जीवात्मा इस जीर्ण और पुराने शरीर को त्याग देता है और एक नया शरीर प्राप्त कर लेता है। मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है। मृत्यु और कुछ नहीं, बल्कि काल-चक्र के घूमते हुए पहियों में आत्मा की एक अबाधित अनन्त यात्रा में पोशाक का परिवर्तन है!

[सनातन: परंपरागत उपासना पद्धति / ये मात्र संपादन है, कृपया इसे समझें।] 

‘संचित कर्म’ के आधार पर, आत्मा (Aatma) एक विशेष ‘योनी’ में एक नए निकाय में प्रवेश करता है। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा एक सामान्य ज्ञान है और मुझे यकीन है, हर सनातन धर्मी को इसके बारे में जानता है या उन्हें जानना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण भगवद गीता के अध्याय 2 के श्लोक 22 में कहते हैं - 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।

अर्थात जैसे संसार में मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं , वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरों को प्राप्त करता है। अभिप्राय यह कि पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये धारण करनेवाले मनुष्य की भाँति जीवात्मा सदा निर्विकार ही रहता है।

यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दृढ़ करता है। अनुपयोगी वस्त्रों को बदलना किसी के लिये भी पीड़ा की बात नहीं होती और विशेषकर जब पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करने हों तब तो कष्ट का कोई कारण ही नहीं होता। इसी प्रकार जब जीव यह पाता है कि उसका वर्तमान शरीर उसके लिये अब कोई प्रयोजन नहीं रखता तब वह उस जीर्ण शरीर का त्याग कर देता है। 

किसी शरीर के जीर्णत्व का निश्चय, उस शरीर विशेष  को धारण करने वाला ही कर सकता/सकती  है।  क्योंकि जीर्णत्व का सम्बन्ध न धारणकर्त्ता की आयु से है और न उसकी शारीरिक अवस्था से है। कोई धनी व्यक्ति जो प्रतिवर्ष या कुछ ही वर्षों में अपना पुराना भवन या वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे कोई न कोई क्रय करने वाला भी मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह भवन या वाहन पुराना या अनुपयोगी हो चुका है परन्तु ग्राहक की दृष्टि से वही घर नये के समान उपयोगी है। इसी प्रकार शरीर जीर्ण हुआ या नहीं इसका निश्चय उसको धारण करने वाला जीव ही कर सकता है।

इस दृष्टांत के द्वारा अर्जुन को यह बात निश्चय ही समझ में आ गयी होगी कि मृत्यु केवल उन्हीं को भयभीत करती है जिन्हें उसका ज्ञान नहीं होता है। परन्तु मृत्यु के रहस्य एवं संकेतार्थ को समझने वाले व्यक्ति को कोई पीड़ा या शोक नहीं होता। जैसे वस्त्र बदलने से शरीर को कोई कष्ट नहीं होता और न ही एक वस्त्र के त्याग के बाद हम सदैव विवस्त्र अवस्था में ही रहते हैं। 

इसी प्रकार विकास की दृष्टि से जीव का भी देह का त्याग होता है और वह नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नवीन देह को धारण करता है। उसमें कोई कष्ट नहीं है। यह विकास और परिवर्तन जीव के लिये है [उस शरीर के नाम-रूप में आसक्त मिथ्या अहं के लिए है]  न कि चैतन्य स्वरूप आत्मा के लिये। आत्मा सदा परिपूर्ण है उसे विकास की आवश्यकता नहीं।

जीर्ण शब्द के तात्पर्य को न समझकर अनेक आलोचक इस श्लोक का विरोध करते हैं। उनकी मुख्य युक्ति यह है कि जगत् में अनेक बालक और युवक मरते देखे जाते हैं जिनका शरीर जीर्ण नहीं था। शारीरिक दृष्टि से यह कथन सही होने पर भी जीव की विकास की दृष्टि से देखें तो यदि जीव के लिये वह शरीर अनुपयोगी हुआ तो उस शरीर को जीर्ण ही माना जायेगा। 

दादा कहते थे - 'जेखोन जेमोन , तोखन तेमन ' - अर्थात जैसे मनुष्य व्यावहारिक जीवन में भिन्नभिन्न अवसरों पर समयोचित वस्त्रों को धारण करता है।  वैसे ही जीवात्मा एक देह को त्यागकर अन्य प्रकार के अनुभव प्राप्त करने के लिये किसी अन्य देह को धारण करता है। कोई भी व्यक्ति night gown पहन कर  अपने कार्यालय नहीं जाता और न ही कार्यालय के वस्त्र पहनकर टेनिस खेलता है। वह अवसर और कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनता है। यही बात मृत्यु के विषय में भी है। भगवद गीता के अध्याय 2 के श्लोक 23 में आत्मा सदा निर्विकार किस कारण से है सो कहते हैं

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।

इस उपर्युक्त आत्मा को शस्त्र नहीं काटते अभिप्राय यह कि अवयव रहित होने के कारण तलवार आदि शस्त्र इसके अङ्गों के टुकड़े नहीं कर सकते। वैसे ही अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको भिगो नहीं सकता है और वायु इसको सूखा नहीं सकता है।  अभिप्राय यह कि अवयवरहित होने के कारण तलवार आदि शस्त्र इसके अंगों के टुकडे़ नहीं कर सकते। 

अदृष्ट वस्तु को सदैव दृष्ट वस्तुओं के उदाहरण द्वारा ही समझाया जा सकता है। परिभाषा मात्र से वह वस्तु अज्ञात ही रहेगी। यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अविकारी नित्य आत्मतत्त्व का वर्णन अर्जुन को और हमको परिचित विकारी नित्य परिवर्तनशील जगत् के द्वारा करते हैं।  'शस्त्र इसे काट नहीं सकते'- क्योंकि एक कुल्हाड़ी से वृक्ष आदि को काटा जा सकता है, परन्तु उसके द्वारा जलअग्नि वायु या आकाश को किसी प्रकार की चोट नहीं पहुँचायी जा सकती। सिद्धांत यह है कि स्थूल साधन अपने से सूक्ष्म वस्तु का नाश नहीं कर सकता ।

अतएव हमें अपने दिवंगत मित्रों -शुभचिंतकों के प्रति श्रद्धांजलि (shraddhaanjali) अर्पित करनी चाहिए, और उनकी अत्मा के अच्छे पुनर्जन्म और अनंत यात्रा लिए प्रार्थना करनी चाहिए।  स्वामी जी की तरह प्रार्थना - “It may be that I shall find it good to get outside my body, to cast it off like a worn out garment. But I shall not cease to work. I shall inspire men everywhere until the whole world shall know that it is one with God.” " हो सकता है जीर्ण वस्त्र की तरह मुझे अपने शरीर को त्याग देना पड़े , किन्तु मैं तब तक काम करना नहीं छोड़ूँगा जब तक वह मोक्ष को प्राप्त नहीं करते, जब तक वो परमात्मा के साथ एक नहीं हो जाते हैं। जब आप “ओम सद्गति” कहते हैं, तो आप दिव्य से प्रार्थना कर रहे हैं कि जीवात्मा को अपने अगले जन्म में एक उच्च चेतना की ओर मार्गदर्शन करें। 

यही कारण है कि किसी के सनातनी के शरीर छोड़ने के बाद भगवद् गीता अध्याय 14 और कठोपनिषद का जप  किया जाता है, ताकि जीव को उसके वास्तविक स्वरूप के  याद दिलाया जा सके, जो कि दिव्य है। ये ग्रंथ जीवन और मृत्यु के बारे में सबसे महत्वपूर्ण सत्य और जीवात्मा के वास्तविक स्वरूप और परमात्मा के बारे में बताते हैं। जीव जितना याद करता है कि वह परमात्मा का सूक्ष्म रूप आत्मा है, उतना ही बेहतर अगले जन्म को वह मिल सकता है।

[गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्। 

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।14.20।।

देहधारी ( विवेकी मनुष्य) जीवितावस्था में ही  देहोत्पत्ति के बीजभूत  इन मायोपाधिक पूर्वोक्त तीनों गुणों का उल्लंघन करके  जन्म मृत्यु, बुढ़ापे और दुःखों से मुक्त होकर अमृत (अमरत्व ) का अनुभव करता है। अभिप्राय यह कि इस प्रकार वह मेरे भावको प्राप्त हो जाता है।

यहाँ सत्त्वादि गुणों को शरीर की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। वेदान्त की भाषा में आत्मस्वरूप के अज्ञान को कारण शरीर कहते हैं , जिसका अनुभव हमें अपनी निद्रावस्था में होता है। इन तीनों गुण से भिन्न यह अज्ञान कोई वस्तु नहीं है। इस कारण अवस्था से ये त्रिगुण  सूक्ष्म शरीर अर्थात् अन्तकरण की विभिन्न वृत्तियों और भावनाओं के रूप में व्यक्त होते हैं। विचाररूप में परिणत ये गुण शुभ या अशुभ कर्मों के रूप में व्यक्त होने के लिये स्थूल शरीर का रूप ग्रहण करते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को प्रगट करने के लिए एक उपयुक्त माध्यम की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ चित्रकार को एक पट, तूलिका और रंगों की,  तो संगीतज्ञ को वाद्यों की आवश्यकता होती है। चित्रकार को वाद्य देने और संगीतज्ञ के हाथ में तूलिका देने से दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। इसी प्रकार पशु की वृत्तियों वाले जीव को पशु का देह धारण करना,  मनुष्य शरीर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होगा।  यह सब कार्य इन तीन गुणों का ही है।इससे स्पष्ट हो जाता है कि त्रिगुणों से परे पहुँचा हुआ व्यक्ति सूक्ष्म और कारण शरीरों के दुखों से भी मुक्त हो जाता है।

विकार और परिवर्तन जड़ पदार्थ के धर्म हैं। अत भौतिक तत्त्वों से बने हुये सभी स्थूल शरीर विकारों को प्राप्त होते हैं।  जिनका क्रम है जन्म, वृद्धि, व्याधि, जरा (क्षय) और मृत्यु। इनमें से प्रत्येक विकार दुखदायक होता है। जन्म में पीड़ा है वृद्धि व्यथित करने वाली है, वृद्धावस्था विचलित करने वाली है, व्याधि अत्यन्त क्रूर है तो मृत्यु अत्यन्त भयंकर।  परन्तु ये समस्त दुख देहाभिमानी अज्ञानी जीव को ही होते हैं, आत्म स्वरूप में स्थित आत्मज्ञानी को नहीं।  क्योंकि वह अपने उपाधियों से परे स्वरूप को पहचान लेता है। बाढ़, अकाल, युद्ध, महामारी, अन्त्येष्टि, विवाह एवं अन्य सहस्र घटनाओं को सूर्य प्रकाशित करता है,  किन्तु सूर्य में इनमें से एक भी घटना का अस्तित्व नहीं है।

हम अपनी उपाधियों में क्रीड़ा कर रहे तीन गुणों के साथ तादात्म्य करके सांसारिक जीवन के बन्धनों और दुखों को भोग रहे हैं। इनसे अतीत हो जाने पर इनकी क्रूरता का अन्त हो जाता है।  क्योंकि परिपूर्ण सच्चिदानन्द आत्मा में इन सबका कोई अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार आत्मचैतन्य हमारी उपाधियों को तथा तत्संबंधित अनुभवों को प्रकाशित करता है, परन्तु उसका इन सबके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। 

अत आत्मवित् (ब्रह्मविद ?) पुरुष इन सभी संघर्षों से मुक्त हो जाता है। और वह अमृतत्त्व को प्राप्त होता है आत्मज्ञान का फल केवल दुख निवृत्ति ही नहीं वरन् परमानन्द प्राप्त भी है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि अमृतत्त्व अर्थात् मोक्ष की इस स्थिति को इसी जगत् में, इसी जीवन में और इसी देह में रहते हुये प्राप्त किया जा सकता है। इस पृथ्वी पर ईश्वरीय पुरुष बनने का अनुभव वास्तव में विरला है।

हम अपनी संवेदना निचे दिए गए शब्दों में– दिवंगत आत्मा को भावभीनि श्रद्धांजलि,  प्रकट कर सकते हैं: (divangat aatma ko bhavbhini shradhanjali)-

किसी भी परिचित व्यक्ति के मृत होने की खबर सुनने  पर एक बार- "ॐ शांति " का उच्चारण किया जाता है। इस शब्द से आप अपनी संवेदना के साथ जीवात्मा की सद्गति की प्रार्थना भी करते हैं।

– दिवंगत आत्मा को सद्गति प्राप्त हो। (Divangat Aatma ko sadgati prapt ho)

– आत्मा की अनन्त यात्रा में भगवान मार्गदर्शन प्रदान करें, ऐसी प्रार्थना है। (aatma ki anant yatra me bhagwan margdarshan pradan karien, aisi prarthana hai)

– ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति और सद्गति दे।ॐ शांति। (ishwar divangat aatma ko shanti aur sadgati de. aum shanti)

साभार https://infojankari.com/hindi/ved-upanishad-puran-shruti-smriti/

[अर्थात -नवनीदा की स्मृति (तुहिन चटर्जी के लिए वर्तमान मनुस्मृति)] के अनुसार गीता और उपनिषद में आधारित महामण्डल द्वारा संचालित मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण-कारी आन्दोलन 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग, या 3H विकास के 5 अभ्यास' का प्राथमिक विद्यालय है।  इसीलिए महामण्डल के कार्यक्षेत्र में अष्टांग योग के तीन अंग ~  "प्राणायाम,  ध्यान -समाधि " का निषेध रहेगा, क्योंकि ठाकुरदेव ने स्वामीजी को निर्विकल्प समाधि में जाने से मना किया था ! और स्वामीजी ने बिना योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से मना किया था। इसलिए इसका प्रशिक्षण महामण्डल में नहीं दिया जायेगा। अतएव  महामण्डल में किसी को (C-IN-C नवनीदा द्वारा) गुरु-शिष्य परम्परा में मंत्र-दीक्षा नहीं दी जाएगी , उसके लिए श्री रामकृष्ण -मठमिशन रूप यूनिवर्सिटी से संपर्क करें। और जो कोई भी व्यक्ति पूरी निष्ठा के साथ महामण्डल के मनुष्य-निर्माण आंलोलन का प्रचार-प्रसार करने में लगा रहेगा वो मुक्त हो जायेगा , उसे अलग से कोई साधना- जपध्यान इत्यादि नहीं करनी पड़ेगी ! क्योंकि महामण्डल में ध्यान नहीं सिखाया जाता है , दादा कहते थे ध्यान कोई करने की चीज नहीं है , ध्यान किया नहीं जाता है हो जाता है, और हाँ यहाँ खुली आँखों से ध्यान -'सब में मैं ही हूँ !' करने की सीख दी जाती है। ] 

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>>>अंग्रेजी कैलेंडर और बंगाब्द का अन्तर : अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार विश्वरभर में 1 जनवरी के दिन को नए साल के रूप में धूमधाम के साथ मनाया जाता है। लेकिन इसके अलावा भारत के विभिन्न राज्यों और समुदाय के लोग अपनी-अपनी संस्कृति व परपंराओं के अनुसार नया साल मनाते हैं।

बंगाली समुदाय के लोगों के लिए पोइला बोइशाख (पहला बैशाख) बहुत ही खास दिन होता है , इस दिन से बंगाली नववर्ष की शुरुआत होती है। इस साल पोइला बोइशाख या बंगाली नववर्ष शनिवार 15 अप्रैल 2023 को मनाया गया था।  इस दिन लोग पवित्र नदी में स्नान कर पूजा-पाठ करते हैं।  घर की साफ-सफाई कर अल्पना बनाया जाता है।  मंदिर जाकर नए साल के पहले दिन भगवान का आशीर्वाद लिया जाता है।  इसके बाद विशेष व्यजंन तैयार किए जाते हैं। इस दिन गौ पूजन, नए कार्य की शुरुआत, अच्छी बारिश के लिए बादल पूजा आदि का भी महत्व होता है। पोइला बोइशाख पर लोग सुख-समृद्धि के लिए सूर्य देव के साथ ही भगवान गणेश और माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं।  घर पर रिश्तेदार और दोस्तों का आना-जाना होता है और लोग एक दूसरे को "शुभो नोबो बोरसो" (नए साल की शुभकामनाएं) कहकर नए साल की बधाई देते हैं।आइये  जानते हैं इस दिन का इतिहास और महत्व। 

बांग्ला कैलेंडर या बंगाली कैलेंडर (Bengali Calendarमें 12 महीने होते हैं और यह एक चंद्र-सौर (lunisolar) कैलेंडर है।  जिसका उपयोग पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में किया जाता है। इसे बंगाब्द (বঙ্গাব্দ), या बंगला साल (বাংলা সাল), या  बंगला पोंजिका ( Bangla Ponjika পঞ্জিকা ) भी कहा जाता है। 

बांग्ला वर्ष और ईसाई वर्ष के बीच का अंतर ठीक 593 वर्ष का होता है।  "बांग्ला वर्ष की गणना या बांग्ला कैलेंडर बंगालियों द्वारा स्वयं तैयार की गई वस्तु है, परंतु कुछ लोग इसका श्रेय भी मुगलों को देना पसंद करते हैं। साठ के दशक में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला कैलेंडर में सुधार के लिये डॉ मुहम्मद शाहिदुल्ला की अध्यक्षता में पाकिस्तानी सरकार द्वारा गठित समिति का भी स्पष्ट फैसला था कि सम्राट अकबर ने 1585 ई में बांग्ला वर्ष की गणना की शुरुआत की थी। लेकिन यह वास्तव में ऐतिहासिक रूप से सच नहीं है। वास्तव में, फसल के आधार पर वर्ष गिनने की प्रथा, जिसे 'फसली' कहा जाता है, भारत में लगभग हर जगह प्रचलित थी, और बंगाल कोई अपवाद नहीं था। " 

जैसे बिसुआ या सतुआनी (Satuani) पर्व : बैसाखी को कई जगहों पर सतुआन कहा जाता है।  हर साल 14 अप्रैल को लोग गंगा स्नान के बाद नई फसल कटने की खुशी में सत्तू और आम का टिकोला (छोटे कच्चे आम) खाते हैं। इस दिन ही सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं।  बिहार और झारखंड के कई इलाकों में भी सूर्य के मीन से मेष राशि में प्रवेश करने के मौके पर यह पर्व मनाया जाता है। सूर्य के मेष में पहुंचने से सौरवर्ष शुरू हो जाता है। ज्योतिष शास्त्र में मेष राशि को अग्नि तत्व की राशि माना गया है।  वहीं सूर्य भी अग्नि तत्व के ग्रह हैं। इस दिन सत्तू खाने की परंपरा है।  आज के दिन सत्तू खाने और इसका दान करने से सूर्य देव की कृपा बरसती है। साथ ही इसी दिन खरमास की समाप्ति होती है और शादी-विवाह के लिए मुहूर्त शुरू हो जाते हैं। इस दिन दान करने की बड़ी महत्ता है। सतुआनी के दिन गंगा स्नान के बाद पूजा-अर्चना की जाती है। कई गंगा घाटों पर मेले भी सजते हैं। पूजा-अर्चना के बाद लोग सत्तू, गुड़ और कच्चे आम को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इससे पहले पांच तरह के अनाज दान करने की भी परंपरा है। इस दिन लोग घर में सिर्फ सत्तू का ही सेवन करते हैं। इससे सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिलती है।

>>>बांग्ला कैलेंडर की शुरुआत मुगल सम्राट अकबर ने की थी या गौड़ हिंदू राजा शशांक ने ?  (शुभज्योति घोष, बीबीसी संवाददाता की रिपोर्टिंग) : आरएसएस (अर्थात प्राचीन भारतीय संस्कृति) से प्रभावित 'बंगीय सनातनी संस्कृति परिषद' ने इस बयान के साथ विभिन्न जिलों में प्रचार अभियान शुरू किया है कि बांग्ला वर्ष की शुरुआत एक गौड़ राजवंश के प्राचीन  हिंदू राजा शशांक ने की थी। राजा शशांक की राजधानी वर्तमान बहरमपुर शहर के पास कर्णसुवर्ण में थी। शशांक छठी शताब्दी के अंत में गुप्त साम्राज्य के अधीन एक सामंती शासक थे।  हालांकि, बाद में उन्होंने अपने को गौड़ भूमि का स्वतंत्र और संप्रभु शासक घोषित कर लिया था। हमलोग जानते हैं कि मुर्शिदाबाद क्षेत्र में शैव शासक शशांक के समय से ही लगातार एक धार्मिक उत्सव (शिव-चंडी मेला) चलता चला आ  रहा है। यदि शशांक द्वारा शुरू किया गया एक शैव-तांत्रिक उत्सव बंगाल में लगातार चौदह सौ वर्षों तक जारी रह सकता है, तो क्या उसके द्वारा शुरू की गई वर्ष की गणना नहीं जारी रह सकती? "संगठन ने कोलकाता में भारतीय विदेश मंत्रालय की सांस्कृतिक शाखा, (ICCR) के सभागार में इस अवसर पर नव वर्ष के दिन एक प्रदर्शनी का भी आयोजन किया है। प्रदर्शनी का शीर्षक 'शशांक से वर्तमान तक' ['From Shashank to the Present'.] रखा गया है। 

पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेता और जाने-माने चेहरे जिष्णु बसु ने बीबीसी बांग्ला से कहा, "ऐसी धारणा प्र​चलित है कि अकबर ने ही बांग्ला वर्ष की शुरुआत की थी।"लेकिन वैज्ञानिकों और इतिहासकारों के आधुनिक शोध से पता चलता है कि विभिन्न कारणों से अकबर के लिए बांग्ला के वर्ष या बांग्ला कैलेंडर की शुरुआत करना संभव ही नहीं था। उन्होंने कहा, "अबुल फजल के प्रशासनिक ग्रंथ 'आइन-ए-अकबरी' में भी साल दर साल की अनेक घटनाओं का जिक्र है, लेकिन वहां भी बांग्ला वर्ष की गणना का कोई जिक्र नहीं है।" अकबर के जीवनकाल में कभी भी बंगाल पर उनका पूर्ण नियंत्रण नहीं हुआ. सन 1576 में राजमहल की लड़ाई जीतकर मुगलों ने पहली बार बंगाल के एक हिस्से पर विजय प्राप्त की थी, लेकिन उसके बाद भी कई वर्षों तक युद्ध जारी रहा।  और ऐसे में अकबर ने उस समय के अशांत बंगाल में अपनी पसंद से एक नया साल शुरू किया होगा, यह सोचना ही बड़ी उटपटांग कल्पना है। " राजा शशांक 593 ई. में सत्ता में आए थे और तभी से ही बांग्ला वर्ष की गणना या बांग्ला कैलेंडर शुरू हुआ। ये मान लेने से उनकी बात मेल खा जाती है। क्योंकि बांग्ला वर्ष और ईसाई वर्ष के बीच का अंतर भी ठीक 593 वर्ष का है। आज भी बांग्ला नव वर्ष पर कोलकाता में  दुकान पर नये बही खाते की शुरुआत का समारोह आयोजित होता है। 

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>>>Sruti aur Smriti me antar : सनातन धर्म में श्रुति और स्मृति में क्या अंतर है?  

 मनुस्मृति के अनुसार श्रुति ईश्वर (ब्रह्मा) रचित है और स्मृति मानव रचित।

“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।” (मनुस्मृतिः २|१०) 

अर्थात, श्रुति कहने से ‘वेद’ समझा जाना चाहिए, स्मृति कहने से ‘धर्मशास्त्र’ समझा जाना चाहिए। सरल शब्दों में श्रुति का अर्थ सुना गया और स्मृति का अर्थ याद रखा गया होता है।

श्रुति (Sruti):  श्रुति का अर्थ है ऐसी चीज जो परंपरा के द्वारा (गुरु-शिष्य परम्परा में) आगे बढ़ी हो और जिसका कोई उद्गम स्थान पता ना हो;  उदाहरण के तौर पर वेद और उपनिषद। 

स्मृति (Smriti): स्मृति (Memory) का अर्थ है किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा अपनी यादाश्त के बल पर लिखित। पीढ़ियों से सुने हुये ज्ञान और अनुभव को याद करके रखना स्मृति है। प्रमुख स्मृति शास्त्र हैं: वेदांग, उपवेद, उपंग, धर्म-सूत्र, शास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि।

>>>  वेद क्या हैं - श्रुति है या स्मृति ? (Vedas Kya Hain?)  वेद (vedas) एक ‘श्रुति’ है। ऐसा माना जाता है कि वेदों के लेखक कोई ऋषि मुनि नहीं थे, बल्कि वेद परमात्मा के मुख से निकले हुए वाक्य हैं; इसीलिए  इसीलिए वेदों को अपौरुषेय या अलौकिक कहा जाता है। वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु  से निकला है जिसका अर्थ होता है ‘जानना’, इसीलिए वेदों को  ज्ञान ग्रंथ कहा जाता है।

चार वेद (four vedas) हैं: ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद, और अथर्ववेद। प्रत्येक वेद को दो भागों में विभक्त किया गया है कर्मकाण्ड  (यानि अनुष्ठानों और यज्ञ बलिदानों के बारे में ) और ज्ञानकाण्ड (उपनिषद, दर्शन और आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित ग्रंथ)। 

ऋग्वेद (Rigveda) : ऋग्वेद ‘ऋच्’ (जिसका अर्थ प्रशंसा होता है) और ‘वेद’ से मिलकर बना हुआ है। ऋग्वेद 10 पुस्तकों (दस मंडलों) का संग्रह है। संपूर्ण ऋग्वेद को आठ अष्टक में विभाजित किया गया है। हरेक अष्टक में 8 अध्याय हैं इस तरह संपूर्ण ऋग्वेद 64 अध्यायों में विभाजित है। 

संहिता (मन्त्र-भाग) के प्रत्येक मंत्र में ऋषि, देवता, छंद और विनियोग का उल्लेख है। ऋषि का तात्पर्य है - मंत्र के द्रष्टा या निर्माता। देवता का अर्थ विषय है (यह देवता शब्द के वर्तमान प्रचलित अर्थ से बिल्कुल अलग है।), छंद से तात्पर्य उस सांचे से हैं जिसमें वह मंत्र निर्मित है, तथा विनियोग का तात्पर्य है- प्रयोग जो मंत्र समय-समय पर जिस जिस काम में आता रहा वही उसका विनियोग रहा। वैदिक मंत्रों का अर्थ समझने के लिए विषय अत्यंत आवश्यक है।

यजुर्वेद (Yajurveda) - ऋग्वेद के मंत्र जहां पद्यात्त्मक हैं,  वही यजुर्वेद के गद्यत्मक हैं। यजुर्वेद को यज्ञ कर्मों से संबद्ध माना गया है। यज्ञ आदि कर्मों से संबंधित होने के कारण यजुर्वेद अधिक जनप्रिय रहा है।  यजुर्वेद की मुख्यतः दो शाखाएं ही प्रसिद्ध है – कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद,  जिन्हें क्रमशः  तैतरीय एवं वाजसनेयी संहितायें भी कहा जाता है। 

सामवेद (Samved)- छांदोग्य उपनिषद में कहा भी गया है जो ऋग् है वही साम है।ऋग्वेद की तरह सामवेद से तत्कालीन समाज का और उसकी उन्नति का पता चलता है। चुकी सामवेद ऋग्वेद के बाद की रचना है, इसलिए सामवेद से और ऋग्वेद काल के पश्चात विकसित सभ्यता और संस्कृति का पता चलता है। सामवेद ऋग्वेद का एक तरीके से पूरक है। सामवेद के आचार्य जैमिनी माने जाते हैं। 

अथर्ववेद (Atharvaveda)- अथर्ववेद की रचना अन्य तीनो वेदो से बाद में हुयी है और बाकि तीनो वेदो से इसकी भाषा सरल भी है। अथर्ववेद की विषयवस्तु अन्य तीनो वेदो से भिन्न हैं। जहाँ अन्य तीन वेदो में यज्ञों, देवस्तुति और स्वर्ग को महत्ता दी गयी हैं वही अथर्ववेद में औषधि (दवाइयां), जादू-टोना, लौकिक जीवन अदि को महत्व दिया गया है। पतंजलि के समय (लगभग 200 ईसा पूर्व) अथर्ववेद की नौ संहितायें उपलब्ध थी जो अब सिर्फ तीन रह गयी हैं – पिप्लाद, मोद, और शौनक। 

पुराण (Puranas) क्या हैं? पुराण स्मृति ग्रंथों का हिस्सा हैं। वेदो की भाषा जटिल होने के कारण आम आदमियों को समझाना कठिन था।  इसलिए रोचक कथाओं के द्वारा वेदो के ज्ञान के जानकारी देने की प्रथा चली, जिनके संकलन को पुराण कहा जाता है। पुराणों का मुख्य उद्देश्य है अवतार-चरित्र की भक्ति और भक्ति -मार्ग को जनता के बीच फैलाना था।

उपनिषद (Upanishads) क्या हैं? उपनिषदों को आत्म ज्ञान (self-knowledge) देने के लिए बनाया गया है, इसलिए उपनिषद वेदांत दर्शन के लिए मुख्य ग्रंथ हैं। वेदांत दर्शन, जो मानता है कि आत्मा को इस भौतिक शरीर और संसार के स्रोत और निर्माता के रूप में जानने से मुक्ति मिल सकती है।

उपनिषदों की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य 'व्यक्ति' अर्थात 'शरीरी' (M/F नहीं-अविनाशी-आत्मा)  का शरीर (नश्वर नाम-रूप या जगत) के साथ तादातम्य या 'जीव पहचान' को नकारना है । [क्षेत्र के साथ क्षेत्रज्ञ के पहचान को नकारना है ।] उपनिषद का अर्थ - उपनिषद शब्द का संधिविग्रह ‘उप + नि + षद’ है। उप मतलब निकट, नि का अर्थ नीचे, तथा षद का मतलब बैठना होता है। अर्थात् शिष्यों का गुरु के निकट उनके चरणों के नीचे बैठ कर ज्ञान प्राप्ति ही उपनिषद का पूर्णार्थ है। 

[১৩০১ बंगाब्द =1894/ ১৩০২ बंगाब्द =1895/ ১৩০৩ बंगाब्द =1896/ ১৩০৪ बंगाब्द =1897/ ১৩০৫ बंगाब्द =1898/ ১৩০৬ बंगाब्द =1899/ ১৩০৭बंगाब्द =1900/  https://usingha.com/1301.html ]

[नवनीदा के अनुसार 1967 में क्या ठाकुर, माँ और स्वामी विवेकनन्द के निर्देशन में प्रशिक्षित सनातन धर्म अद्वैत का मूर्तविग्रह के रूप में महामण्डल नेता [C-IN-C नवनीदा] की अनिवार्य पहचान --साम्य भाव, अविर्भूत नहीं हुआ है ? शुक्रवार  8.9.2023 को प्रबाल के फोन से तपन दा का संकेत-24.9. 2023 को होने वाले "AGM एकाऊंट में मिन्टू दा को जोड़ना है", रनेन दा,दीपक दा, प्रमोद दा, -सिहरन, आलेख चंद्र द्वारा समर्थन ? में से कौन अकबर या / सनातन बंगाब्द के अनुसार ठाकुर की पैसठवीं जन्मजयंती का महत्व जानते हैं ? ]  

নিয়ম-০১: যদি সালটি ১লা জানুয়ারি থেকে ১৩এপ্রিলের মধ্যে হয় তাহলে ইংরেজি সাল থেকে ৫৯৪ বিয়োগ করলেই বাংলা সন বের হবে। যেমন:১৯৫২ সালের ২১ এ ফেব্রুয়ারি বাংলা কোন সন ছিল? নির্ণয়: ১৯৫২ — ৫৯৪ = ১৩৫৮ বঙ্গাব্দ।

নিয়ম-০২: আর যদি সালটি ১৪ এপ্রিল থেকে বাকি মাস হলে ৫৯৩ বাদ দিলে বাংলা সন বের হবে। যেমন—কাজী নজরুল ইসলামের জন্ম সাল ১৮৯৯ সালের ২৪ মে মাসে তাহলে তাঁর বাংলা জন্ম সন কত?

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 जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य: खुशी या भोगसुख पाना नहीं, ब्रह्मानन्द की प्राप्ति है ! 

(ईश्वर कण : "God Particle> a particle of Cosmic Bliss" की प्राप्ति है ! ] 

कभी अपने बहुमूल्य समय का छोटा सा हिस्सा निकालकर, किसी नवजात शिशु के निकट बैठिये और उसे ध्यान से देखिएगा। उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं होता जिस पर वह गर्व कर सके। यहां तक की कई बार नवजात शिशु के शरीर में कपडे का एक टुकड़ा भी नहीं होता, लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर आपको असीम प्रसन्नता दिखाई देगी। कई बार उसके रोने अथवा मुस्कुराने का कोई कारण नहीं होता फिर भी वह रोता एवं मुस्कुराता है। 
  यदि हम ख़ुशी एवं आनंद में स्पष्ट अंतर देखें तो "ख़ुशी वह है जो -क्षणभंगुर है , जो आपको अपने शरीर के बाहरी वस्तुओं को हासिल करके प्राप्त होती है, जबकि आनंदित होने के लिए आपको किसी भी अन्य वस्तु अथवा व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती। आनंद का सागर तो हमारे भीतर ही मौजूद है और "आनंद ही सच्ची ख़ुशी है "। हम बच्चों को मुस्कुराते देख कर , पहली नज़र में यह सोच लेते हैं की वह खुश है, लेकिन वास्तव में अबोध बच्चों की प्रसन्नता के लिए हमें "ख़ुशी" के बजाय "आनंद" शब्द का प्रयोग करना चाहिए
बढ़ती उम्र के साथ जीवन में नीरसता अथवा उदासीनता आने का सबसे बड़ा कारण यही है की, हम ख़ुशी को किसी वस्तु की कीमत अथवा व्यक्ति से हमारे संबंध के आधार पर तय करने लगते हैं। बड़े होकर हम अपना अतीत ढोने लगे। जब आप अपने अतीत का बोझ लेकर चलते हैं, तो आपका चेहरा लटक जाता है, खुशी गायब हो जाती है, उत्साह खत्म हो जाता है। 
वास्तव में बढ़ती उम्र के साथ मनुष्य में सबसे बड़ी गलतफहमी यह विकसित होने लगती है कि , "कोई वस्तु जितनी महँगी होगी, ख़ुशी उतनी अधिक होगी"। लेकिन जब हम अबोध बच्चे थे तो संभवतः केवल किसी रंगीन तितली को देखकर भी आनंदित हो जाते थे। उस समय हमारे लिए उस तितली का पीछा करने से बड़ा कोई आनंद ही नहीं होता था। जब हम बड़े होते हैं तो हम अधिक क्षमतावान होने लगते हैं, किंतु इसके बावजद, जीवन अधिक आनंदित होने के बजाय नीरस होने लगता है, जबकि होना इसके विपरीत चाहिए।
>>>मशीनीकरण, वैश्वीकरण, और शहरीकरण को वास्तविक विकास समझने से पूर्व हमें खुद से पूछना चाहिए कि, वह क्या है जो हमें वास्तव में खुश करता है? क्या भौतिक संपत्ति जैसे कार, बंगला, गैजेट्स, प्रसिद्धि, शक्ति, पैसा आदि ही सच्ची ख़ुशी है। यदि धन ही सब कुछ होता, तो ऐसा क्यों है कि दुनिया के सबसे अमीर देशों में आत्महत्या, हत्या की दर सबसे अधिक है! और तनाव संबंधी विकारों से इतना अधिक पीड़ित हैं? 
भारत की प्राचीनतम पुस्तकें, वैदिक साहित्य, उपरोक्त विषयों के बारे में बहुत विस्तार से बात करते हैं। वैदिक साहित्य '(उच्च) सादा जीवन और उच्च विचार' पर जोर देते हैं और दर्शाते हैं कि हम मूल रूप से आध्यात्मिक प्राणी हैं जो भौतिक शरीरों में फंस गए हैं।

>>>भगवद गीता : गीता के अनुसार हमें सच्चे आनंद की अनुभूति धरती पर पुनर्जन्म चक्र के अंत के अनुभव होने के साथ-साथ प्राप्त होती है।भगवद गीता में भगवान कृष्ण द्वारा योग "(योग' शब्द का अर्थ है स्वयं को ईश्वर से जोड़ना)" प्रक्रिया से गुजरने वाले व्यक्ति की विशेषताओं का वर्णन किया गया है -"कोई व्यक्ति जब वह अर्जित ज्ञान और प्राप्ति के आधार पर पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता है, तो उसे योगी कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठता में स्थित होता है और आत्म-नियंत्रित होता है। वह सब कुछ चाहे वह कंकड़ हो, पत्थर हो या सोना - एक ही रूप में देखता है। असीमित संपत्ति होने के बावजूद यदि हम सच्चे आनंद से वंचित है, तो संभवतः हम उस नग्न नवजात शिशु से भी अधिक निर्धन हैं।
सनातन हिंदू विचार के विभिन्न विद्यालयों के भीतर, आनंद प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग और तरीके हैं। मुख्य चार मार्ग हैं - निष्काम कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान। भारतीय दर्शन की जितनी शाखाएं हैं, सबका निचोड़ उपनिषदों में मिलता है। उपनिषदों में सबसे प्राचीन तथा आकार में सबसे बड़ा उपनिषद बृहदारण्यक है। 

ज्ञानमार्गी श्री रमण महर्षि: अनुसार, आनंद हमारे भीतर ही मौजूद है, जिसकी मौजूदगी किसी के सच्चे स्व की खोज (स्वयं की खोज) के माध्यम से ही जानी जा सकती है। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि- '3H' में  "मैं कौन हूं?"- 'नेति, नेति'-  विचार' का उपयोग करते हुए, आंतरिक जांच से आनंद प्राप्त किया जा सकता है।
मान लीजिए अगर आप पर किसी तरह कोई बोझ नहीं है तो आप बिल्कुल एक छोटे बच्चे की भांति आनंद में होते हैं। अतः इसे किसी वस्तु अथवा व्यक्ति में तलाशने के बजाय आनंद अथवा सच्ची खुशी की खोज अपने भीतर करें
द्वैत वेदांत:  द्वैत वेदांत में आनंद को भगवद गीता के आधार पर,  अच्छे विचारों और अच्छे कर्मों के माध्यम से प्राप्त खुशी के रूप में वर्णित किया जाता है, जो मनुष्य के मन की स्थिति और प्रत्येक व्यक्ति मन को नियंत्रण करने की क्षमता पर निर्भर करता है।
अद्वैत वेदांत: हिंदू दर्शन के वेदांत स्कूल के अनुसार, आनंद उस परम आनंद की स्थिति है, जब जीव सभी पापों, सभी संदेहों, सभी इच्छाओं, सभी कार्यों, सभी पीड़ाओं, सभी कष्टों और सभी शारीरिक और मानसिक सामान्य सुखों से मुक्त हो जाता है। उपनिषद बार-बार आनंद शब्द का उपयोग ब्रह्म, अंतरतम स्व, आनंदमय व्यक्ति को निरूपित करने के लिए करते हैं।
विशिष्टाद्वैत वेदांत: विशिष्टाद्वैत वेदांत के अनुसार, जिसे रामानुजाचार्य ने प्रस्तावित किया था, सच्चा सुख केवल दैवीय कृपा के माध्यम से हो सकता है, जिसे केवल अपने अहंकार को परमात्मा को समर्पित करने से ही प्राप्त किया जा सकता है
विशिष्टाद्वैत के अनुयायी स्वामी विवेकानन्द के नाम में 'आनन्द'- का तात्पर्य है 'विवेकज-ब्रह्मानन्द ! ' : स्वामी विवेकानंद के अनुसार आनंद के विभिन्न अर्थ और इसे प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग, सनातन हिंदू दर्शन - वेदान्त और उपनिषद में मौजूद हैं।  क्योंकि '3H' की दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य एक समान होने पर भी, प्रत्येक मनुष्य की रूचि [नचिकेता वाली विवेक-प्रयोग क्षमता के अनुसार] -प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से भिन्न हैं, और प्रत्येक अपने लिए आनंद के लिए सबसे उपयुक्त मार्ग चुनता है।
>>>[साभार @@@/https://prarang.in/meerut/posts/6697/aananda-is-the-biggest-goal-of-life] 

 >>>तैत्तिरीय उपनिषद 'आनंद' शब्द की व्याख्या पर सबसे व्यापक ग्रंथ है :
 जिसका वर्णन इस उपनिषद के आनंद वल्ली में मिलता है, जहां सुख, खुशी और आनंद की एक ढाल को "परम आनंद" (ब्रह्मानंद) से अलग किया गया है। ध्यान दें कि आनंदमय कोष भी सच्चा स्व नहीं है। सच्चा आत्मा (ब्रह्म) इससे परे है। लेकिन वेदांत इस पर चुप है।  ऐसा इसलिए है क्योंकि ब्रह्म को अनुभव किया जाना है, उसे  जाना नहीं जा सकता । 
विद्वान पण्डित विद्यारण्य लिखते हैं कि चीजों को जानने या अज्ञात रहने के लिए एक ज्ञाता की आवश्यकता होती है। ब्रह्म ज्ञाता ज्ञात या अज्ञात नहीं है क्योंकि ज्ञाता ज्ञान का विषय नहीं है, बल्कि ज्ञाता वह विषय है जो जाना जाता है। जो कुछ भी अनुभव किया जाता है वह सच्चा स्व नहीं हो सकता। जब भृगु ने यह समझ लिया कि ब्रह्म आनंदमय कोष से भी परे है, तभी वरुण ने भृगु को बताया कि परम की उनकी खोज समाप्त हो गई है।

तैतरीय उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद के अंतर्गत है। इस उपनिषद में तीन वल्लियाँ है- 'शिक्षा' = शीक्षावल्ली, ब्रह्मान्दवल्ली और भृगुवल्ली। तैतरीय उपनिषद में पंचकोशो के बारे में बताया गया है।

 तैतरीय उपनिषद में 4 व्याहृतियाँ हैं-   भूः  - अग्नि ,   भुवः  - वायु,   स्वः   -  आदित्य ,    महः  - चन्द्रमा।  इनमें प्रारँभिक तीन महाव्याहृति कही गई है।  व्याहृति का अर्थ होता है -  कथन, उक्ति या उच्चारण। अथवा उच्चारण मंत्र - भुः, भुवः, स्वः इन तीनों का मंत्र । विशेष—कहते हैं, जहाँ और कोई मंत्र न हो, वहाँ इसी व्याहृति मंत्र से काम लेना चाहिए । कुछ विद्बानों के मतानुसार व्याहृतियाँ सात है—भूः, भुवः, स्वः, महः जनः, तपः और सत्यम् । और ये सवितृ और पृश्नि की कन्या मानी जाती हैं ।

1.शीक्षावल्ली- में 'शिक्षा' को दीर्घ 'ई' लिखने से तात्पर्य है - पराविद्या और अपरा विद्या दोनों प्रकार की शिक्षा-या पूर्ण शिक्षा।  इसे "सांहितो उपनिषद" भी कहते हैं। इसमें  ब्रह्मज्ञान प्राप्ति  के साधनों का वर्णन है। शिक्षावल्ली मे साधन रूप में ऋत, सत्य, स्वाध्याय, प्रवचन, शम, दम, अग्निहोत्र, अतिथि सेवा, श्रद्धामय दान, माता-पिता, गुरुजन सेवा, आदि कर्मोनुष्ठानों का वर्णन है। शिक्षावल्ली में 6 अंग है:- वर्ण, स्तर, मात्रा, बल, साम सन्‍तान।

शिक्षावल्ली में ब्रह्म प्राप्ति के साधनों का वर्णन है। ईश्वर को अर्यमा, वरुण, रुद्र, महादेव, मेघ आदि कहा है। "शान्ति" शब्द से भीतर सुख व समता होना बताया गया है। तीन प्रकार के दुःख है आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक, इसलिए शांति: का उच्चारण तीन बार होता है। शिक्षावल्ली आरण्यक का 7 प्रपाठक हैं।

विद्या के लिए -पूर्वरूप - आचार्य, उत्तररूप - शिष्य। अध्यात्मविद्या का केंद्र  सिर में स्थित है वही अन्त: करणों का केंद्र है। ईश्वर मेधावी बुद्धि दे, शारीरिक बल, वाणी में मधुरता, बहुश्रुत और कीर्ति प्राप्त करना, गृहस्थ व समाजगत जीवन उच्च बनाने के लिए, अच्छे वस्त्र, पशुओं, खाद्य, धन, वस्तुओं का होना। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने पहले चरित्र-निर्माण या शील अनिवार्य, ब्रह्मचारी, इन्द्रियों पर अधिकार हो। बुद्धि व ईश्वर परायणता हो।

पंच प्राण-  i. उदान   ii. प्राण iii. समान  iv. अपान   v. व्यान। /पंच इन्द्रियाँ- i. आंख (चक्षु)   ii. कान (श्रोत्र)  iii. मन (मनः)   iii. वाणी (वाक)  v. त्वचा।/पंच धातु-  i. चर्म  ii. माँस  iii. नाड़ी    iv. हड्डी  v. चर्बी

स्वाध्याय- शास्त्रों का नियमपूर्ण अध्ययन व मनन, आत्मध्ययन (आत्मनिरिक्षण) या विवेक-प्रयोग। 

11वें अनुवाक मे समावर्तन संस्कार के अवसर पर सत्य भाषण, गुरुजनों के सत्याचरण के अनुकरण और असदाचरण के परित्याग इत्यादि नैतिक धर्मों की शिष्य को आचार्य द्वारा दी गई शिक्षाएँ शाश्वत मूल्य रखती हैं।

2 ब्रह्मानन्दवल्ली- ब्रह्मानन्दवली और भृगुवल्लियों का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌' मंत्र से होता है। ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है। इस निर्गुण ब्रह्म का बोध उसके अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद इत्यादि सगुण प्रतीकों के माध्यम से  क्रमश: चिंतन द्वारा वरुण ने भृगु को करा दिया है। 

ब्रह्मानन्दवली में इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है। प्रजोत्पत्ति द्वारा बहुत होने की अपनी ईश्वरींय इच्छा से सृष्टि की रचना कर ब्रह्म उसमें जीवरूप से अनुप्रविष्ट होता है।

ब्रह्मानंदवल्ली के सप्तम अनुवाक में जगत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से बतलाई गई है, किंतु -ब्रह्म रस अथवा आनंद स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर समस्त सृष्टि पर्यंत जितना आनंद है उससे निरतिशय आनंद को वह श्रोत्रिय प्राप्त कर लेता है जिसकी समस्त कामनाएँ उपहत हो गई हैं और वह अभय हो जाता है। 'असत्‌' इस उपनिषद् का पारिभाषिक शब्द है जो अभावसूचक न होकर अव्याकृत ब्रह्म का बोधक है, एवं जगत्‌ को सत्‌ नाम देकर उसे ब्रह्म का व्याकृत रूप बतलाया है। 

 ब्रह्मानन्दवली में ही पंचकोशों का वर्णन है। ब्रह्मा से सृष्टि या पुरुष उत्पत्ति क्रम ब्रह्मा (परमात्मा)-आकाश- वायु- अग्नि- जल- पृथ्वी-औषधियाँ- अन्न- पुरुष ( प्रज्ञा) प्रज्ञा की उत्पत्ति अन्न से हुई है। इसी को 'सर्व औषधि' कहा गया है जो अन्नमय कोष भी है।

पंचकोष-आनन्दमय - कारण शरीर/विज्ञानमय - कारण शरीर/मनोमय  -   सुक्ष्मशरीर/प्राणमय  -   सुक्ष्मशरीर/अन्नमय -  स्थूल शरीर/" पुरूष विध:" शब्द कोशो के लिए प्रयोग होता है। ब्रंह्म के दो रूप हैं सत्‌ और व्यत्त इनको सत्य कहा है। पंच कोषों द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति होती है। 

3. भृगुवल्ली- भृगु ॠषि अपने पिता वरूण देव के पास जाते है तथा उनसे प्रश्न करते है-प्रश्न- भृगु अपने पिता वरूण से सवाल करते  है कि आप मुझे ब्रह्म का उपदेश दे। 

उत्तर- अन्न, प्राण, आँखें, श्रोत्र और मन, वाणी जिससे यह उत्पन्न होते हैं जीते हैं और अन्त में जिसमें विलीन हो जाते हैं वहीं ब्रह्म है।

ज्ञान के स्तर- अन्न ही ब्रह्मा है-  पहले स्तर का ज्ञान, प्राण ही ब्रह्मा है-  दूसरे स्तर का ज्ञान,  मन ही ब्रह्मा है-   तीसरे स्तर का ज्ञान, विज्ञान ही ब्रह्म है- .  चौथे स्तर का ज्ञान, आनन्द भी ब्रह्म है - पाँचवे स्तर का ज्ञान। अन्त में आनन्द ही ब्रह्म हैं। अर्थात्‌ ये सभी ब्रह्मा हैं।

शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानन्दवली व भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से "वारुणी विद्या " या उपनिषद् भी कहते हैं। वारुणी उपनिषद् में विशुद्ध ब्रह्मज्ञान का निरूपण है जिसकी उपलब्धि के लिये प्रथम शिक्षावल्ली में साधनरूप में ऋत और सत्य, स्वाध्याय और प्रवचन, शम और दम, अग्निहोत्र, अतिथिसेवा श्रद्धामय दान, मातापिता और गुरुजन सेवा और प्रजोत्पादन इत्यादि कर्मानुष्ठान की शिक्षा प्रधानतया दी गई है। इस में त्रिशंकु ऋषि के इस मत का समावेश है कि संसाररूपी वृक्ष का प्रेरक ब्रह्म है।  तथा रथीतर के पुत्र सत्यवचा के सत्यप्रधान, पौरुशिष्ट के तप:प्रधान एवं मुद्गलपुत्र नाक के स्वाध्याय प्रवचनात्मक तप विषयक मतों का समर्थन हुआ है।  

तैत्तिरीय उपनिषद का नाम "तित्तिरी" से लिया गया है, जो एक प्रकार का तीतर है। ऐसा माना जाता है कि तैत्तिरीय संहिता व तैत्तिरीय उपनिषद की रचना वर्तमान में हरियाणा के कैथल जिले में स्थित गाँव तितरम के आसपास हुई थी। पुराणों में कहा गया है कि महर्षि याज्ञवल्क्य जी वेदाचार्य महर्षि वैशंपायन के शिष्य थे, जिनसे उन्हें वेद आदि शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। एक पौराणिक कथा के अनुसार, उनका अपने गुरु महर्षि वैशंपायन से कुछ विवाद हो गया। गुरुजी ने नाराज होकर कहा- मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मंत्रों का उपदेश दिया है, उनका वमन कर दो। तो याज्ञवल्क्य ने अपना सारा ज्ञान उगल दिया। अन्य छात्र जो याज्ञवल्क्य का सम्मान करते थे, वे टिट्टिरी/तीतर बन गए और उल्टी में ज्ञान का उपभोग किया। यजुर्वेद की उस शाखा को तैत्तिरीय शाखा के नाम से जाना गया।आज रुद्राष्टाध्यायी नाम से जिन मंत्रों से रुद्र (भगवान शिव) की आराधना होती है, वे इसी संहिता में हैं। इस संहिता में शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यकोपनिषद भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा प्राप्त है। 

विष्णुपुराण के अनुसार,  वेदों के ज्ञान से शून्य हो जाने के बाद याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद को सूर्य से प्राप्त किया था, और शुक्ल यजुर्वेद की समस्त शाखाएं याज्ञवल्क्य द्वारा ही प्रवर्तित की गई हैं।तैत्तिरीय उपनिषद में याज्ञवल्क्य का ज्ञान समाहित है अतएव सूर्य से प्राप्त शुक्ल यजुर्वेद संहिता के मुख्य आचार्य याज्ञवल्क्य हैं। उन्होंने राजा जनक के दरबार में तत्कालीन समस्त महान दार्शनिकों से शास्त्रार्थ करके अपने दर्शन को सर्वोच्च सिद्ध किया था।  राजा जनक अपनी सभा में शास्त्रार्थ का आयोजन किया करते थे। गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी आदि विदुषी नारियों से उनके ज्ञान-विज्ञान एवं ब्रह्म संबंधी शास्त्रार्थ हुए थे। याज्ञवल्क्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ है, वह अज्ञान पर आधारित है। बृहदारण्यक उपनिषद में ये संवाद हैं, जिनसे उनका दर्शन अभिव्यक्त होता है। अद्वैत वेदांत का शास्त्रीय रूप उन्हीं से आरंभ होता है। 

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तैत्तिरीयोपनिषद् की कथा : 

तैत्तिरीय उपनिषद् एक दीर्घ ग्रन्थ है । तथापि इसमें केवल एक कथा प्राप्त होती है । उसका विवरण मैं इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं । सम्भवतः यह कथा किसी ऐतिहासिक घटना को कहती है । साथ-ही-साथ इस उपनिषद् के कुछ नीतिवचन भी प्रस्तुत कर रही हूँ

 यह उपनिषद् शिक्षा देने की शैली में लिखा हुआ है, जिसमें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले योगी और सांसारिक व्यक्ति – दोनों के लिए शिक्षाएं (शीक्षा) पाई जाती हैं । इसमें अनेकों प्रसिद्ध वाक्य भी पाए जाते हैं, जैसे कि “मातृदेवो भव” “अतिथिदेवो भव”, आदि, जिनसे प्रायः सभी परिचित हैं । कई सीखें सरल हैं और कुछ जटिल – जिनके अर्थ काल के कपाल में लीन हो गए हैं । तथापि इसके समझ में आने वाले उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । मैं उनका भी थोड़ा-सा दिग्दर्शन कराऊंगी, परन्तु पहले कथा…

पुरातन काल में भृगु नामक एक ऋषि हुए थे, जिन्होंने ब्रह्मविद्या को प्राप्त किया था । यह उनकी खोज की कहानी है । उनके पिता वरुण थे, जो पूर्ण ज्ञानी थे । एक बार भृगु पिता के पास गया और उनसे बोला, “पिताजी, मुझे ब्रह्मोपदेश करिए ।” पिता जैसे पहेलियों में बोले, “अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वाणी (इन के द्वारा ही यह विद्या प्राप्त होगी) ।” आगे वे बोले, “जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते है, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिससे ये (इस लोक से) प्रयाण करते हैं और जिसमें (मरणोपरान्त) प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा (=प्रयत्न) कर क्योंकि वही ब्रह्म है ।”

भृगु ने तप आरम्भ किया । उस तप से उसने जाना कि अन्न ही वह वस्तु है जिससे प्राणी उत्पन्न होते हैं, जीते हैं, जिसके बिना वे मृत्यु को प्राप्त करते हैं और, मरणोपरान्त, अन्न में ही समाविष्ट हो जाते हैं । उन्होंने पिता को अपनी खोज का परिणाम बताया । पिता ने कहा कि ठीक है, परन्तु यह अन्तिम उत्तर नहीं है । उन्होंने भृगु को और तप करने को कहा ।

भृगु ने पुनः घोर तपस्या की और जाना कि पिता ने जो पहला विचित्र वाक्य कहा था, उसी में पुनः उत्तर छुपा है, क्योंकि प्राण ही तो वह वस्तु है जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिसके निकल जाने पर इस लोक से वे प्रयाण कर देते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु पिता फिर भी सन्तुष्ट नहीं हुए और उससे और तप करने को कहा

अब की बार भृगु को ब्रह्म के रूप में मन ज्ञात हुआ, जिससे भी सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसकी सहायता से जीते हैं, जिसके न रहने पर मरते हैं, और अन्तकाल में उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु इस उत्तर से भी पिता सन्तुष्ट नहीं हुए । तब भृगु को ब्रह्म के रूप में विज्ञान जान पड़ा, जिससे भी सब उपर्युक्त कार्य होते हैं ।

जब पिता ने और आगे, मन ,बुद्धि, चित्त और अहंकार के भी परे  ढूढ़ने की प्रेरणा दी, तो भृगु को ब्रह्मानन्द (COSMIC BLISS) -रूपी ब्रह्म जान पड़ा । अब की बार वरुण सन्तुष्ट हुए । इन दोनों के तप से जानी गई यह विद्या भार्गवी-वारुणी विद्या कहलाई ।

भृगु की खोज के विभिन्न चरणों को देखकर, सम्भवतः आप अब तक जान गए हों कि वह वास्तव में क्या ढूढ़ रहा था और क्या पा रहा था । वस्तुतः, भृगु ने ध्यान-रूपी तप से शरीर के पंच कोशों का रहस्य ढूढ़ निकाला । ये पंच कोश हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश । ये जैसे शरीर की स्थूल से सूक्ष्मतर परते हैं, जो एक के अन्दर एक बैठी हैं

अन्नमय कोश स्थूल शरीर है, जो कि पंच महाभूतों का बना हुआ है । इसी को हम अधिकतर अनुभव करते हैं – भूख-प्यास, चोट, बल, आदि, स्थूल शरीर के लक्षण होते हैं ।

प्राणमय कोश में श्वास-निःश्वास ही नहीं, अपितु शरीर की सभी चेष्टाएं सम्मिलित हैं । प्राणों से ही रक्त को गति मिलती है और आंतों से शरीर में रस बहता है । ध्यान करते समय, पहले भौतिक शरीर के किसी अंश के बाद, हमें अपने प्राणों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । बृहदारण्यक में कहा गया है कि सभी इन्द्रियां, और मन भी, पाप-युक्त हो सकती हैं, परन्तु प्राण पाप से परे रहता है । प्राणों पर ध्यान लगाने से, हमारा मस्तिष्क पवित्र हो जाता है ।

और अन्दर जाने पर, योगी को मन का रूप स्पष्ट होता है – वह मन जो इन्द्रियों से बाह्य विषयों का ग्रहण करता है और फिर शरीर में चेष्टा उत्पन्न करने का संकल्प-विकल्प करता है ।

मनोमय कोश से भी सूक्ष्मतर होता है विज्ञानमय कोश, जो कि बुद्धि का पर्याय है । यहां हमारे गहन विचार स्थित होते हैं । जब हम किसी विचार में लीन होते हैं, तो अपने शरीर की सुध-बुध भूल जाते हैं, हमारा शरीर शिथिल पड़ जाता है, हमें अपने आस-पास की सुध भी नहीं रहती, हम किसी और ही संसार में होते हैं । वह विज्ञानमय कोश होता है । योगी भी इसमें प्रवेश करके शरीर और इन्द्रियों को भूल जाता है ।

इस कोश के अन्दर स्थित होता है आनन्दमय कोश । यह वह कोश है जहां आत्मा अपने को देखने लगता है, परमात्मा की झलक पाने लगता है । जैसे-जैसे वह इसमें प्रवेश करता जाता है, वैसे-वैसे प्रकृति का अंकुश उसपर से उठता जाता है, और वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होने लगता है । इस अवस्था में जिस आनन्द की अनुभूति उसे होती है, वह वर्णनातीत है, क्योंकि वर्णन में तो शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख ही आते हैं । योगदर्शन में इसी स्थिति को आनन्द समाधि कहा गया है, जिसके आगे अस्मिता समाधि में वह अपने में स्थित हो जाता है । यहीं पहुंच कर ब्रह्मलोक के द्वार खुलने लगते हैं और मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है । 

तैत्तिरीय उपनिषद् में और भी सुन्दर शिक्षाएं हैं, जैसे शीक्षा-वल्ली के एकादश अनुवाक में आचार्य गुरुकुल से स्नातक हो, उसे छोड़ते हुए अन्तेवासी को अन्तिम शिक्षा देते हैं कि सांसारिक जीवन-निर्वाह कैसे करना चाहिए –

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं  वद । धर्मं  चर । स्वाध्यायान्मा  प्रमदः । आचार्याय  प्रियं धनमाहृत्य  प्रजातन्तुं  मा  व्यवछेत्सीः । सत्यान्न  प्रमदितव्यम्  । धर्मान्न  प्रमदितव्यम्  । कुशलान्न  प्रमदितव्यम्  । भूत्यै  न  प्रमदितव्यम्  । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां  न  प्रमदितव्यम्  । देवपितृकार्याभ्यां  न  प्रमदितव्यम्  । 

अर्थात् वेदों को भली-भांति पढ़ाकर, आचार्य अन्तेवासी को शिक्षा देते हैं – सत्य बोलना । धर्म करना । (गृहस्थ-जीवन प्रारम्भ करने पर भी) स्वाध्याय बिना प्रमाद के करते रहना । (जाते-जाते) आचार्य के प्रिय धन से उसको तृप्त करके, गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके प्रजा के धागे को मत तोड़ना, अर्थात् सन्तति उत्पन्न करके कुल को बढ़ाना (उस समय यह भय होता था कि स्नातक इतना निर्मोही कहीं न हो जाए, कि विवाह ही न करे । आजकल तो यह भय ही हास्यास्पद है !) । सत्य से कभी मत डिगना । धर्म से कभी मत डिगना । शुभ, कल्याणकारी कर्मों में आलस्य कभी मत करना । भौतिक उन्नति के प्रयास से मत विरत होना । स्वाध्याय और प्रवचन – अपनी और अन्यों की धर्म में शिक्षा – से कभी विरत मत होना । देव = ज्ञानियों और पितृ = परिवार के वृद्धों की सेवा में कभी चूक मत करना ।

मातृदेवो  भव । पितृदेवो  भव । आचार्यदेवो  भव । अतिथिदेवो  भव । यान्यवद्यानि  कर्माणि  तानि सेवितव्यानि  नो  इतराणि । यान्यस्माकँ  सुचरितानि  तानि  त्वयोपास्यानि  नो  इतराणि । ये  के  चास्मच्छ्रेयाँसो  ब्राह्मणाः  तेषां  त्वयासनेन  प्रश्वसितव्यम् । श्रद्धया  देयम् । अश्रद्धयादेयम् । श्रिया  देयम् । ह्रिया  देयम् । भिया  देयम् । संविदा  देयम् ।

अर्थात् माता तेरे लिए देव-तुल्य हो । एवमेव पिता, आचार्य और घर आए साधु-सन्त रूपी अतिथि को देव मान । (उनके सत्कार और सेवा में कमी न होने पाए ।) जो हमारे प्रशंसित कर्म हैं, उनका अनुसरण कर, हमारे अन्य (दुष्कर्मों) का नहीं । जो हमारे गुण हैं, उनको प्राप्त कर, अन्यों (दुर्गुणों) को नहीं । हममें जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, उनकी आसन आदि से सेवा-सत्कार कर । दान करते समय ध्यान रखना कि – श्रद्धा (पूर्ण मनोभाव) से देना । अश्रद्धा से मत देना (यहां ’अश्रद्धया देयम्’ पाठ भी उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ किया जाता है कि सुपात्र को, श्रद्धा-भाव न होने पर भी, देना) । अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार दान करना । अहंकार-शून्य होकर देना । परमात्मा के भय से देना । सुपात्र जानकर, विवेकपूर्वक देना ।

अथ  यदि  ते  कर्मविचिकित्सा  वा  वृत्तचिकित्सा  वा  स्यात् । ये  तत्र  ब्राह्मणाः  सम्मर्शिनः । युक्ता  आयुक्ताः । अलूक्षा  धर्मकामाः  स्युः । यथा  ते  तत्र  वर्तेरन् । तथा  तत्र  वर्तेथाः । अथाभ्याख्यातेषु । ये  तत्र  ब्राह्मणाः  सम्मर्शिनः । युक्ता  आयुक्ताः । अलूक्षा  धर्मकामाः  स्युः । यथा  ते  तेषु  वर्तेरन् । तथा  तेषु  वर्तेथाः । एष  आदेशः । एष  उपदेशः । एषा  वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् । एवमु  चैतदुपास्यम् ।

अर्थात् तुझे किसी कर्म में कोई शंका हो, या किसी आचार के विषय में शंका हो, तो तेरे आसपास जो विचारशील, स्वयं उस कार्य में लगे हुए, अथवा नियुक्त किए हुए, स्नेहमय, धर्म की कामना करने वाले ब्राह्मण हों, वे उस आचरण में जैसे वर्तें, वैसे ही तू भी वर्तना । इसी प्रकार किसी विवादास्पद कार्य और मनुष्य में भी तू उनके समान वर्तना । (अर्थात् जो ज्ञानी, आचारनिपुण और धार्मिक व्यक्ति हों, उनसे सीख लेकर अपना आचार सुधारना । आचार ऐसा विषय है जिसमें कभी भी पूर्णतया सब स्थितियां नहीं बताई जा सकतीं । जो हमने न बताया हो, जिसमें तुझे शंका हो, उसे अन्य विद्वानों के आचरण से सीखना ।) यह ही हमारी आज्ञा है । यही हमारा तुमको परामर्श है । यही वेद का गूढ़ उपदेश है । यही परम्परागत सीख है । इस प्रकार ही करने योग्य है । निश्चय से इसी प्रकार करने योग्य है ।

तैत्तिरीय की कुछ अन्य सूक्तियां हैं –

अद्यतेऽत्ति च भूतानि । तस्मादन्नं तदुच्यते ॥ २।२ ॥ – खाया जाता है और खाता है प्राणियों को, इसलिए ’अन्न’ कहा जाता है । भर्तृहरि ने भी कुछ ऐसा ही कहा था – भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः – भोग नहीं भोगे जाते, वे ही हमको खा जाते हैं । आशय यह है कि जितना हम भोगों में विलासिता से आचरण करेंगे, उतना ही अपने जीवन को नष्ट करेंगे । वास्तव में, तो भोगों से दूर जाने के लिए यह जीवन मिला है !

दूसरी ओर उपनिषद् कहता है – अन्नं न निन्द्यात् । तद्व्रतम् ॥ ३।७ ॥ – अन्न ही जीवन का आधार है, इसलिए अन्न की निन्दा कभी न करना । यह तुम्हारा व्रत हो । आजकल हम पाते हैं कि होटलों आदि में प्रचुर मात्रा में अन्न फेंका जाता है । यह पाप है । यह पाप हम सभी के सर लगता है । यह भी एक कारण है जिससे कि प्राकृतिक आपदाएं दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही हैं । अभी भी भारत में (महामण्डल के बंगाली सदस्यों में) पुरानी रीति के फिर भी कुछ लोग मिल जाते हैं, जो अपनी थाली में एक कण भी नहीं छोड़ते । यही प्रथा सही है । सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥ २।१ ॥ – ब्रह्म सत्यस्वरूप (सत्ता वाला), ज्ञानस्वरूप (सर्वज्ञ) और अनन्त (काल और दिशा के परे) है ।आनन्द की भी मीमांसा प्रस्तुत की गई है । ये सभी पठनीय हैं ।

साभार-@@@@उत्तरा नेरूर्कर-वे आइ०आइ०टी-कानपुर से बी०टैक्० हैं /https://www.indianvedas.net/article/upanishads/]