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नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका जीवन्त उदाहरण
[Concept of Leadership and its living example ]
[>>>1. राजनीति के क्षेत्र में दिखाई देने वाले नेता, क्या आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं?
नेतृत्व के सम्बन्ध में हमें स्वयं अपनी एक धारणा बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व की आवश्यकता होती है, यहाँ तक कि (संयुक्त) परिवार के अन्दर भी । यदि हमारा नेता अर्थात घर का मुखिया योग्य होता है तो पूरा परिवार शांति और आनन्द से एकजुट रहता है तथा हर दृष्टि से समृद्ध होता रहता है। और ठीक यही स्थिति योग्य नेता के नेतृत्व में किसी समाज, कॉरपोरेट जगत या संगठन की भी होती है। राजनीति के क्षेत्र में दिखाई पड़ने वाले नेता इस प्रकार के योग्य या आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व नहीं करते। किन्तु, आजकल प्रायः सभी देशों में यह भ्रान्त धारणा प्रचलित है कि नेता केवल राजनीति के क्षेत्र में ही होते हैं।
किन्तु यदि हम विश्व -इतिहास का सिंहावलोकन करें, तो पायेंगे कि केवल वैसे ही व्यक्तियों को मानव समाज का सच्चा नेता माना गया है जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी थी। वह विशिष्ट योग्यता थी , उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति। विशेषकर भारत में तो यही नेतृत्व की कसौटी रही है। यहाँ केवल उन्हीं को मानव समाज का पथ-प्रदर्शक नेता (Guide) माना गया है जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी अनिवार्य रूप से थी। वह विशिष्ट योग्यता थी, उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति। विशेषकर भारत में तो यही नेतृत्व की कसौटी रही है। यहाँ केवल उन्हीं को मानव समाज का नेता माना जाता है, जिनके पास आध्यात्मिक शक्ति (वेदान्तिक साम्यभाव) अनिवार्य रूप से हो। भारत भूमि पर मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही इस प्रकार के असंख्य नेता अवतरित होते रहे हैं, जिन्होंने न केवल भारत का, अपितु पूरी मानव जाति का मार्गदर्शन किया है।
[>>>2.आदर्श नेतृत्व (Love Light-house) की कसौटी है- सांसारिक ज्ञान के साथ-साथ अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक शक्ति -समत्व बुद्धि या 'एकत्व की अनुभूति' (feeling of oneness) का होना।
आज न्यूनाधिक हर जगह यह स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में, उसकी सच्ची उन्नति के लिये मानव सभ्यता को समृद्धि प्रदान करने में भारत का अंशदान प्रचुर रहा है। यह अंशदान भारत केवल इसी कारण कर सका है कि विगत कुछ हजार वर्षों में, भारत भूमि पर ऐसे महापुरुष अवतरित होते रहे हैं जो मानवजाति के सच्चे नेता थे। उन समस्त महापुरुषों में जो विशेषता अनिवार्य रूप से थी वह यह कि वे सभी आध्यात्मिक महापुरुष थे।
परन्तु, इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि भारत केवल अध्यात्मविद्या में ही आगे था; अपितु भारत ने विभिन्न प्रकार के लौकिक विद्या जैसे विज्ञान, खगोल विद्या (Astronomy या ज्योतिष-शास्त्र) औषधि, गणित, शिल्प-कौशल , अभियांत्रिकी आदि में तो कम से कम 5000 वर्ष पहले ही यथेष्ट ज्ञानार्जन कर लिया था। इन सभी लौकिक विषयों का ज्ञान भारत के पास यथेष्ट था तथा दैनंदिन जीवन के हर कार्य क्षेत्र में उनका उपयोग भी किया जाता था। किन्तु, इन सबके अतिरिक्त भारत की जो सनातन विशिष्टता # है, वह यही है कि भारत वर्ष सदा से परा विद्या या आध्यात्मिक ज्ञान-सम्पन्न नेताओं की जन्मस्थली भी रहा है।
यही वह कारण है जिसके चलते उन महापुरुषों ने अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा मानव जाति की न केवल भौतिक उन्नति के लिए ही मार्गदर्शन किया, वरन उचित दिशा में जीवनपुष्प के प्रस्फुटन में भी सच्चे पथ-प्रदर्शक बने रहे हैं। तथा स्वामीजी यह विश्वास करते थे कि यह प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हो गयी है। यह "Be and Make" प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी और भारत सदैव मानव जाति का सच्चा पथ-प्रदर्शक नेता बना रहेगा।
आलासिंगा पेरुमल को 31 अगस्त 1894 को लिखित पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " समग्र जगत ज्ञानालोक के लिये लालायित है, उस ज्ञानालोक को प्राप्त करने के लिये उत्सुकतापूर्ण दृष्टि से जगत हमारी ओर देख रहा है। एकमात्र भारत के पास ही ऐसा ज्ञानालोक विद्यमान है जिसकी कार्य शक्ति न तो इन्द्रजाल में है और न छल ही में , वह तो सच्चे धर्म के मर्मस्थल -उच्चतम आध्यात्मिक सत्य (योग-विद्या, राजयोग) के अशेष महिमामन्वित उपदेशों में प्रतिष्ठित है। जगत को इस तत्व की शिक्षा प्रदान करने के लिए ही प्रभु ने इस जाति को विभिन्न दुःख-कष्टों के भीतर भी आज तक जीवित रखा है। अब उस वस्तु को देने का समय उपस्थित हुआ है। हे वीरहृदय युवको, तुम यह विश्वास रखो कि अनेक महान कार्य करने के लिये तुम लोगों का जन्म हुआ है। कुत्तों की आवाज से न डरो, यहाँ तक कि यदि आकाश से प्रबल वज्रपात भी हो तो भी न डरो , उठो -कमर कसकर खड़े होओ - कार्य करते चलो। "]
[अन्यत्र उन्होंने कहा था - "भारतवर्ष का पुनरुत्थान होगा, पर वह शारीरिक शक्ति से नहीं , वरन आत्मा की शक्ति द्वारा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं , वरन शान्ति और प्रेम की ध्वजा से ... मैं अपने सामने यह एक सजीव दृश्य अवश्य देख रहा हूँ कि हमारी यह वृद्ध माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवन-पूर्ण और पूर्व की अपेक्षा अधिक महामहिमान्वित होकर विराजी है शान्ति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो !.....एक नवीन भारत निकल पड़े -निकले हल पकड़कर , किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ ,मोची, मेहतरों की झपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से , हाट से, बाजार से । निकले झाड़ियों, जंगलों , पहाड़ों पर्वतों से। " [एक नवीन भारत एक साथ निकल पड़े Sensex market के 1200 करोड़ डीमैट अकाउंट से और हथिया नक्षत्र में गया के कहाँर-माँझी, कुम्हार-यादव, महतो-भुइयाँ की झोप-ड़ियों से।]
[>>>3.] एमाउरी डी रेनकोर्ट के ' The Eye of Shiva' और फ्रिटजॉफ कॉपरा की पुस्तक The Tao of Physics के अनुसार पाश्चात्य विज्ञान (western science, Modern Physics या Quantum Physics) अब पूर्वी रहस्यवाद (eastern mysticism-ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या वेदान्तडिण्डिम) के निकट आता जा रहा है।
आज यदि हमलोग सभी देशों के तथा भारत के प्रबुद्ध वर्ग के मस्तिष्क में तरंगायित होने वाले विचार -प्रवाहों का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि प्राचीनकाल की ही तरह आज भी पूरी मानव जाति ज्ञान, प्रकाश तथा मार्गदर्शन के लिए भारत की ओर ही निहार रही है। यहाँ तक कि सामान्य जनों की अपेक्षा बीसवीं सदी के वैज्ञानिकगण शायद इस बात पर अधिक विश्वास करने लगे हैं कि केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों का समन्वय कर ही विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है और उसे अक्षुण्ण रखा जा सकता है।
एक आधुनिक फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट [Amaury De Riencourt ( 1918- 2005)] की पुस्तक ' The Eye of Shiva' # का अध्यन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक भारत के महान आध्यात्मिक सिद्धान्तों से लेखक कितना अधिक अभिभूत है। इस पूरी पुस्तक में उन्होंने बार-बार श्रीरामकृष्ण के उस अत्यन्त सरल पर अद्भुत जीवन तथा सन्देश का उल्लेख किया है , जिसको स्वामी विवेकानन्द ने अपने पराक्रम और शौर्य के द्वारा पूरे विश्व भर में फैला दिया है।
एक अन्य परमाणु वैज्ञानिक फ्रिटजॉफ कॉपरा हैं जिन्होंने पूर्व के समस्त आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर शोध करते हुए भगवान बुद्ध के उन सिद्धान्तों का मानवता के प्रति योगदान का विशेष अध्यन किया है, जो वेदान्त के सिद्धान्तों से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। यही वैज्ञानिक कॉपरा अपनी अद्भुत पुस्तक The Tao of Physics #2 में स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक ज्ञानयोग की कुछ उक्तियों को यह दिखाने के लिए उद्धृत करते हैं कि आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) अब बहुत स्पष्ट रूप से (Eastern mysticism , योग-विद्या) या पूर्व के रहस्यवादी सिद्धान्तों निकटतर होता जा रहा है।
स्वामी विवेकानन्द जी तो अत्यन्त ही उच्च स्वर में यह घोषणा करते हैं कि यहाँ धर्म के क्षेत्र में भी प्राचीन युग से ही विज्ञान सम्मत प्रणाली का उपयोग होता आया है। वे जोर देकर कहते हैं - " जब हम धार्मिक सिद्धान्तों को परखने के लिए विज्ञान-सम्मत प्रणाली का उपयोग करें और यदि विज्ञान की कसौटी पर परखते हुए किसी धर्म की बुनियाद/स्तम्भ ही धाराशायी होने लगें तो मानव जाति के लिये अच्छा यही होगा कि उस धर्म को ही अलविदा कह दिया जाये। " उन्होंने तो यह भी कहा है कि " और यह जितनी शीघ्रता से हो सके उतना ही अच्छा है; क्योंकि कोई भी सिद्धान्त यदि विज्ञान-सम्मत प्रणाली और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित न हो तो वह अधिक दिनों तक न तो टिक सकता है और न उसके द्वारा मानव जाति का सच्चा कल्याण ही हो सकता है। " वे पुनः कहते हैं कि भारत में धर्म का प्रादुर्भाव जगत में क्रियाशील नियमों का वैज्ञानिक पद्धति से निरीक्षण, परीक्षण और तुलनात्मक विश्लेषण करने से ही हुआ है। इस कसौटी पर खरा सिद्ध होने के बाद ही इन नियमों का दैनन्दिन जीवन में उपयोग किया जाता है। अतः ये नियम या धर्म पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस प्रकार गवेषणा करने को ही वैज्ञानिक प्रणाली कहते हैं। वे कहते हैं - " इस धर्म की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हमें सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण के जीवन में ही देखने को मिलती है। और इसको वे एक वैज्ञानिक धर्म की संज्ञा देते हैं। "
[>>>5.] आत्मसाक्षात्कार की विज्ञानसम्मत प्रणाली :
श्रीरामकृष्णदेव एवं नरेन्द्रनाथ (बाद के स्वामी विवेकानन्द) के बीच जब पहली बार वार्तालाप हुआ था तब , आपस में विचारों का आदान -प्रदान करते समय स्वामी विवेकानन्द (उस समय के नरेन्द्रनाथ दत्त) ने प्रश्न किया था - " महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? " और इस सीधे प्रश्न का उत्तर भी बहुत ही सरलता से और पूरी दृढ़ता के साथ देते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा था - " हाँ, मैंने देखा है और जिस प्रकार मैं तुम को देख रहा हूँ उससे भी स्पष्टता से मैं ईश्वर को देखता हूँ। और केवल इतना ही नहीं ; यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ। " यह बिल्कुल एक विज्ञान-सम्मत प्रस्ताव है। गुरु के द्वारा अपने जिज्ञासु शिष्य को दिया गया यह प्रस्ताव - यही प्रकट करता है कि ईश्वर को देखने की कोई न कोई विज्ञानसम्मत प्रणाली अवश्य है ; जो भी व्यक्ति उस प्रणाली का अनुसरण करेगा उसको भी वही परिणाम प्राप्त होगा ! उसमें कभी अन्तर नहीं हो सकता। यदि तुम स्वयं भी उसी लक्ष्य का संधान करो तो तुम्हें भी वही वैज्ञानिक प्रणाली प्राप्त होगी , यहाँ पर वह लक्ष्य है (इन्द्रियातीत-ऊर्ध्वमूल) सत्य का साक्षात्कार, जो कि ईश्वर दर्शन करने के सामान है।
[>>>6.] आत्मा का अनुसन्धान प्रयोगशाला में सम्भव नहीं है, पाश्चात्य विज्ञान को भी [Eastern Mysticism] की शरण में आना ही पड़ेगा !]
हमें अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता के महत्व को अवश्य समझ लेना चाहिये, क्योंकि मनुष्य केवल दो पैरों वाला एक बुद्धिमान पशु ही नहीं है, अथवा मनुष्य केवल आर्थिक जीव या केवल एक राजनीतिक कीट भी नहीं है , वास्तव में मनुष्य तो एक आध्यात्मिक प्राणी है। इसीलिए यदि मनुष्य को उन्नत होना है, तथा अपनी अनन्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करना है, अपने वास्तविक स्वरुप को प्रकट करना है तो उसे 'आध्यात्मिक प्रणाली' के आश्रय में जाना ही पड़ेगा। अन्य कोई रास्ता नहीं है।
जिसको हमलोग अभी धर्मनिरपेक्ष या सांसारिक ज्ञान [ अपरा विद्या ] कहते हैं, वह भी आध्यात्मिक विद्या [ परा विद्या ] का ही एक अंग है। इस विषय को हमें भली-भाँति समझ लेने का प्रयास अवश्य करना चाहिये। क्योंकि एक ही आध्यात्मिक सत्ता हर वस्तु में परिव्याप्त है जिसे हम आत्मा या ब्रह्म कहते हैं। विज्ञान उस सत्ता का अनुसन्धान अपनी प्रयोगशाला में कभी नहीं कर सकता , किन्तु; आधुनिक विज्ञान भी क्रमशः इस सत्य के निकट आता जा रहा है। यह एक दिन इसके अत्यन्त निकट तक भी पहुँच सकता है किन्तु; उस सत्य का साक्षात्कार करने के लिये विज्ञान को अपने पंचेन्द्रिय ग्राह्य माध्यम से इसका संधान करने की जिद छोड़कर अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक प्रणाली के आश्रय में आना ही पड़ेगा। [आत्मा तक पहुँचने के लिये ?] विज्ञान को अपनी गाड़ी (चन्द्रयान) का त्याग करके 'आध्यात्मिक यान' में कूदना ही पड़ेगा। विज्ञान और धर्म अर्थात अध्यात्म निकटतर होते जा रहे हैं।
>>>7. आत्मा में विद्यमान अनन्त प्रेम या परम्'आनन्द के उत्स को उद्घाटित कर साम्यावस्था प्राप्त होने पर ही आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता प्राप्त होती है।
बीसवीं शताब्दी के अन्त तक तो ये एक दूसरे के बिल्कुल निकट आ ही चुके हैं , किन्तु; इक्कीसवीं शताब्दी में घटित होने वाली सर्वाधिक महान घटना , जिसका पूर्वानुमान स्वामीजी ने बहुत पहले ही कर लिया था, यही होगी कि अब विज्ञान और धर्म यानि आध्यत्मिकता के बीच एक अत्यन्त प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा। हममें से प्रत्येक मनुष्य को अपने यथार्थ स्वरुप पर (अन्तर्निहित आत्मा या ब्रह्म की पूर्णता और दिव्यता पर) श्रद्धा और अटूट विश्वास रखना ही होगा। हम कोई क्षुद्र पदार्थ नहीं हैं। स्वरूपतः हम सभी अत्यन्त महान हैं, हम सबों में अनन्त/अत्यन्त सम्भावनायें अन्तर्निहित हैं , उसे/ उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये हम सबों को अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये।
हमारी यथार्थ सत्ता में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम/आनन्द (Bliss) का एक स्रोत (source-उत्स) विद्यमान है। हमें अपने इसी जीवन में उस स्रोत को अवश्य उद्घाटित कर लेना चाहिये। क्योंकि पथ-प्रदर्शक नेताओं का जीवन उनके उनके आस-पास रहने वाले लोगों को प्रेरणा, उत्साह और शक्ति से भर देने में सक्षम /समर्थ होना चाहिए।
इसीलिए हमें नेतृत्व के सम्बन्ध में इस अनिवार्य क्षमता को ठीक से आत्मसात कर लेना चाहिये। यदि हम नेतृत्व के इस क्षमता को ठीक से आत्मसात कर लेते हैं, तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति ऐसे नेतृत्व को कार्यरूप देने में समर्थ हो जायेंगे। (ऐसा हो जाने के बाद ही) इस आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता में उन्नत हो जाने के बाद ही हम अपने आस-पास रहने वाले भाइयों की सेवा करने के योग्य हो सकते हैं , और समाज के प्रति हमारी सच्ची सेवा भी यही होगी।
>>> 8. नेतृत्व के लिये हमें The Holy Trio के जीवन से अपना जीवन-गठन करके उनके ही जैसे 'ब्रह्मविद' या प्रेम-स्वरुप जीवनमुक्त- शिक्षक बन जाने की शिक्षा प्राप्त करनी होगी।]
अतः [आध्यात्मिक] नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता अर्जित करने के लिये सबसे प्रमुख आवश्यकता यही है कि हमें स्वयं में अन्तर्निहित सारवस्तु [शाश्वत-नश्वर विवेक, विवेकज- आनन्द, विवेकानन्द या अजर-अमर अविनाशी आत्मा] के बारे में अनुभूतिजन्य धारणा अवश्य रखनी चाहिए। हमें इस देव-दुर्लभ 'मानव-शरीर' का मूल्य अवश्य समझ लेना चाहिये। तथा अपने चरित्र के उत्तम गुणों को अभिव्यक्त करने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहते हुए ऐसा जीवन जी कर दिखाना चाहिए जो दूसरों के लिए उदाहरण स्वरुप हो ! "हम अपना ऐसा सुन्दर जीवन किस प्रकार गठित करें कि, हमसे मिलने के बाद प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा लगे कि - आज इनसे मिलकर मेरा जीवन तो धन्य हो गया !" ऐसा जीवन भला हम किस प्रकार गठित कर सकते हैं ? हमें इसकी शिक्षा मानव जाति के सच्चे पथ-प्रदर्शक नेताओं के जीवन से (बेलपत्र जैसे पवित्र त्रिमूर्ति -ठाकुर, माँ, स्वामीजी के जीवन से) ही ग्रहण करनी होगी। या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के जीवन से हम इस विद्या को सीख सकते हैं - या इसकी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। अतः यदि हम लोग भी उनके जैसे पथ-प्रदर्शक नेता (Guide) बनना चाहते हों, तो हमलोगों को भी अपने भीतर -'3P' ('3P' -Purity, Patience and Perseverance) प्रेम, पवित्रता और धैर्य जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए अवश्य ही विशेष ध्यान देना होगा।
>>>9. वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण (अनुभवजन्य विवेकज-ज्ञान के आलोक में) देने के लिए : दुर्गा-पूजा के अवसर पर आयोजित मेले में आसक्ति के परे जाया जा सकता है, किन्तु माँ के राज्य में रहने तक , यानि शरीर के जीवित रहने तक अहं का नाश संभव नहीं है किन्तु माँ दुर्गा की कृपा से उस अहं को दास मैं बनाकर रखा जा सकता है। ]
सर्वप्रथम हमें अपने मन को अवश्य नियंत्रण में रखना पड़ेगा, अपनी इन्द्रियों को अवश्य वशीभूत करना होगा , लालच को कम करते हुए , भोगाकांक्षाओं को /भोगों में आसक्ति को अवश्य सीमित कर लेना होगा। इसके साथ ही साथ हमारे ह्रदय में (निःस्वार्थ) प्रेम की भी अवश्य ही वृद्धि होनी चाहिए, अपने ह्रदय का विस्तार करना चाहिए । ... "ह्रदयवान व्यक्ति 'मक्खन' पा लेते हैं और कोरे बुद्धिमानों के लिए सिर्फ 'छाछ' बच जाती है।" अतएव हमें अपने मन से समस्त स्वार्थपूर्ण विचारों, समस्त घृणा , सारी ईर्ष्या को दूर हटा देना होगा। (अर्थात सर्वेभवन्तुः सुखिनः की प्रार्थना, मनःसंयोग और स्वाध्याय की सहायता से हमारे ह्रदय में -कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं 'वसुधैवकुटुम्बकम की भावना' का विकास होना चाहिए।) इसी प्रकार (3P से प्रेरित) पवित्र जीवन-गठन करते हुए, अपने सद्गुणों को विकसित करते हुए , जब हम उन्हें अपने विचारों, वचनों तथा कर्मों के द्वारा अपने दैनन्दिन जीवन और आचरण में अभिव्यक्त करने लगेंगे; केवल तभी हमलोग भी अच्छे पथ-प्रदर्शक नेता बन पायेंगे और अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी - जीवनगठन के लिए अनुप्रेरित करने में सक्षम हो पायेंगे।
>>>10.Foresight and Farsighted Leadership: पूर्वाभास (Premonition) और दूर दृष्टि-सम्पन्न, दिव्य या अतीन्द्रियदर्शी नेतृत्व Clairvoyant Leadership !]
हमारे अन्दर चिन्तन द्वारा स्पष्ट धारणा बनाने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। जो दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हैं, उनके लिए यह गुण अत्यन्त आवश्यक है। उनको दूर-दृष्टि रखनी चाहिये। उन्हें यह देखने में समर्थ होना चाहिए कि हमारा भविष्य कैसा हो सकता है, हमलोग एकजुट होकर सभी कार्यों को किस प्रकार सम्पादित कर सकते हैं। हम आज अपने लिए जैसा भविष्य चाहते हैं , उसको पाने के लिए हमारी योजनायें कैसी हों ; जिससे कि हम अपनी समस्त ऊर्जा और शक्ति लगाकर उस स्वप्न को साकार कर सकें। हमें केवल अपने व्यक्तिगत भविष्य को ही उज्ज्वल बनाने का प्रयास न करके अपने देश के भविष्य को भी उज्ज्वल बनाने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्यवश आज हमारे समक्ष विशेष कर भारत में ऐसा नेतृत्व कहीं नहीं दिखाई दे रहा है।
जबकि स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार यह कहा था कि- भारत अतीत में बहुत महान था , किन्तु निश्चित तौर उसका भविष्य और भी महान होने वाला है। " वे कहते थे -" मेरा यह दृढ़-विश्वास है कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा , जिसको उसने अभीतक स्पर्श भी नहीं किया है। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की उन्नति को देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट होंगे। " भारत का भविष्य ऐसी अपूर्व महिमा से मण्डित होगा कि उसकी तुलना में भूतकाल के सारे गौरव फीके पड़ जायेंगे तथा उसके सामने तुच्छ जान पड़ेंगे। भविष्य के महिमामण्डित भारत के समक्ष पूर्वकाल के सारे गौरव गायों के खुर से बने निशान जितने छोटे दिखाई पड़ेंगे ! "
विशेष तौर से भारत युवाओं के मन में भविष्य के भारत का ऐसा ही स्वप्न रहना चाहिए। स्वामीजी ने कहा था - " तुम जड़ (Matter) नहीं हो , जड़ तो तुम्हारा सेवक है। " इस कथन के मर्म से हम सभी (भावी नेताओं -Would Be Leaders) को अवश्य परिचित हो जाना चाहिए। हमें अपनी यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति की ओर सतत ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि हमें सर्वप्रथम स्वयं यथार्थ मनुष्य [ब्रह्मविद मनुष्य] बनने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि केवल तभी हमलोग अपनी आन्तरिक ऊर्जा स्रोत की सहायता से समाज की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकेंगे।
>>>11 . राष्ट्रीय-चरित्र का निर्माण करने के लिये हजारों ब्रह्मविद (जीवन-मुक्त, प्रेम-स्वरूप) नेताओं की आवश्यकता देश के कोने-कोने में है।
समाज [के चरित्र] का वैसा रूपान्तरण केवल भारत के भावी सच्चे और चरित्रवान नेताओं के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है, और ऐसे ही [ब्रह्मविद ] नेताओं की आवश्यकता हमें हजारों की संख्या में है। ऐसे नेताओं की आवश्यकता केवल केवल देश या राज्य के राजधानियों में ही नहीं है, वरन हजारों की संख्या में इनकी आवश्यकता छोटे-बड़े शहरों, गाँवों, मुहल्लों तथा देश के कोने में है।
इसी प्रकार के प्रेममय जीवनमुक्त नेताओं को उत्पन्न करना ही महामण्डल का उद्देश्य है, तथा छोटे पैमाने पर ही सही ; यह इसी दिशा में अग्रसर भी है। यदि भारत के कोने-कोने तक ये विचार फ़ैल जायें कि युवाओं चारित्रिक गुणों को विकसित कर, उन्हें शुद्ध और पवित्र जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित/ प्रशिक्षित किया जा सकता है। और वैसे प्रशिक्षित युवा केवल एक लक्ष्य " भविष्य का गौरव मण्डित भारत" के निर्माण के लिए एक मन-प्राण होकर यदि अपना चरित्र गठित करने के प्रयास में स्वयं लग जायें और दूसरों को भी इसके लिये प्रोत्साहित करने में समर्थ हों, केवल तभी भारत की सच्ची प्रगति हो सकती है !
अभी तो हमने मशीनों को ही अपना भगवान बना लिया और स्वयं मशीनों के [यानि जड़ के] दास बन गये हैं। इतना ही नहीं, हमने स्वयं को भी एक हृदयशून्य मशीन के रूप में ढाल लिया है। हमने अपने यूनिवर्सिटियों में इस प्रकार के हृदयशून्य मशीनी मानवों का निर्माण किया है जो केवल लेना ही जानते हैं , किन्तु; देना नहीं जानते। हम सभी इस प्रकार के मशीनी मानव अर्थात 'रोबोट' बन चुके हैं , जो बड़े ही स्वार्थी हैं तथा भविष्य में घोर स्वार्थी होकर सर्वभक्षक राक्षस बन जाने की कामना रखते हैं।
यही कारण है कि आजादी के 61 वर्षों / 75 वर्षों के बाद भी भारत की सामान्य जनता दुःख और दारिद्रय से त्रस्त है। अब तो कम से कम उस कवि के करून -क्रन्दन को चारों ओर फ़ैल जाना चाहिए -" Make no more giants, God! But elevate the race. " - अर्थात हे ईश्वर ! अब और अधिक राक्षसों को पैदा मत करो बल्कि मानवता को उन्नत करो। पर केवल प्रार्थना करने से ही काम नहीं चलेगा; यह कार्य केवल तभी संभव हो सकता है , जब हम देश के कोने-कोने में, गाँव -देहातों में रहने वाले युवाओं को उसी प्रकार के 'नेता' [ विवेकानन्द जैसे Clairvoyant Leadership ' दिव्यदृष्टि -सम्पन्न ब्रह्मविद नेता] के रूप में गढ़ सकें, जिसकी हमने पहले चर्चा की है।
मोहनिद्रा में निमग्न, दुःख-दारिद्रय में पड़े करोड़ों नागरिकों वाले -[एक अरब 40 करोड़ की विशाल जनसंख्या वाले] इस महान राष्ट्र को केवल वैसे नेता ही उठा सकते हैं जो स्वयं जाग चुके हों। तथा 'महान लक्ष्य'- [ विश्व-कल्याण के लिए भारत के कल्याण का लक्ष्य] पाने के लिये दूसरों को प्राणों को न्योछावर कर देने की आज्ञा - देने के पहले ये नेता अपनी प्यारी मातृभूमि भारत माता की चरणों में अपना शीश [मिथ्या अहं] चढ़ा चुके हों। केवल रटे-रटाये शब्दों द्वारा दूसरों को अनुप्रेरित करने की चालाकी छोड़कर वे अपने जीवन को उदाहरण स्वरुप बनाकर दूसरों को भी वैसा ही नेता बनने के लिए प्रेरित करेंगे।
वे प्रत्येक व्यक्ति में छुपी हुई शक्ति (?) को जगा देंगे। उनके ह्रदय से सभी प्रकार के भय (मृत्यु भय) और शंका को दूर हटाकर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने पैरों पर खड़ा होने का सामर्थ्य प्रदान करेंगे। जिससे कि वे जिन्होंने स्वयं को विभिन्न समस्याओं [ ऎषणाओं की दरिद्री] में उलझा लिया है , उस पर वे स्वयं निर्णय कर उससे बाहर निकल आयेंगे। इसके लिए जो सबसे आवश्यक है, वह है पहले स्वयं को यथार्थ मनुष्य (पूर्ण-ह्रदय ? ब्रह्मविद ?100 % निःस्वार्थी ?) बना लेना तथा दूसरों को भी मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करना।
इसी प्रकार क्रमशः हम उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह 'मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' आधारित है। हमें महामण्डल के आदर्श वाक्य Be and Make, अर्थात " मनुष्य बनो और बनाओ " को अपने ह्रदय में सर्वोच्च स्थान देना होगा। शायद अपने देश और सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए इससे बढ़कर और कोई दूसरा कार्य हम कर भी नहीं सकते हैं।
किन्तु, इस 'मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' को भली-भाँति समझ लेना भी आसान नहीं है। इसे सम्पूर्णता में देखने पर ही हमलोग यह समझ सकते हैं कि - हमारा यह आन्दोलन किस प्रकार हमें [पशुत्व से मनुष्यत्व में] उन्नत कराता हुआ, पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करा रहा है, इसका सारांश समझने के लिए अभी मानवता के इतिहास को लम्बी यात्रा करनी होगी। क्योंकि मनुष्य की 'सम्भावना' ही (मानवमात्र में अन्तर्निहित सम्भावना ही), सामान्य रूप से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती जा रही है और वह स्वतः ही #4 पूर्णत्व की ओर आगे बढ़ रही है।
[#4 Man is marching towards perfection! अर्थात विभिन्न भूराजनैतिक अनिश्चितता और भूराजनैतिक घटनाओं के माध्यम से मनुष्य स्वतः ही पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होता जा रहा है। (Geopolitical uncertainty and Geo-political events : का तात्पर्य -रूस-यूक्रेन, हमास -इस्राइल युद्ध का कारण पूर्वी एशिया आर्थिक गलियारा? East Asia Economic corridor' के साथ हथिया नक्षत्र शिविर में गया के सेंट्रल मिनिस्टर का आगमन, बेलूरमठ में गंगा-आरती और सिनेमा-जगत में Guide की वहीदा रहमान को दादा-साहब फालके अवार्ड आदि घटनाओं से है।)]
>>>12. बिना ईश्वर की कृपा के 'पूर्णत्व'/या 'दिव्यता' के मर्म को नहीं समझ सकते: [ अवतार वरिष्ठ ठाकुर-माँ की कृपा के बिना, कोई भी जिज्ञासु या सत्यार्थी इस परम् सत्य या पूर्णत्व -पद के मर्म को स्वयं नहीं समझ सकता। इसीलिए गुरु-परम्परा में प्रशिक्षित विवेकानन्द से (प्रलयंकर शिवजी, या C-IN-C नवनीदा से)- "मृत्योर्मा अमृतं गमय्" की प्रार्थना, शिव के तीसरे नेत्र को खोल कर 'मृत्युंजय' पद देने की प्रार्थना करना अनिवार्य है !]
'पूर्णत्व' का अर्थ क्या है , इसके अभिप्राय को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत कठिन है। हमारे शास्त्रों में 'पूर्णता' # 5 शब्द आया है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
कहा गया है 'पूर्णमदः' अर्थात् वह (अद:) ब्रह्म पूर्ण है। अर्थात् उस ब्रह्म के बाहर कोई वस्तु नहीं है; फिर उसके साथ ही कहा गया है - 'पूर्णमिदम्'; यहाँ इदम् का अर्थ है यह अभिव्यक्त जगत् अर्थात् यह जगत् भी पूर्ण है। कैसे ? क्योंकि वही पूर्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड में भी परिव्याप्त है। और 'पूर्णस्य पूर्णमादाय' कहने का तात्पर्य यह है कि यदि तुम स्वयं इस सत्य की अनुभूति कर सको कि वही 'पूर्ण' इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में ओत-प्रोत है तो फिर उस पूर्ण के बाहर शेष बचा क्या ? इसी को कहा गया - 'पूर्णमेवावशिष्यते'; अर्थात् तुम अब हृदय से यह अनुभव करो कि यहाँ जो कुछ भी जगत् के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है वह भी ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है।
[#5 = यह मंत्र ईशावास्योपनिषद का शांति पाठ है, तथा बृहदारण्यक उपनिषद के पांचवें अध्याय में भी दिया गया है। (Coordinate Geometry) या निर्देशांक ज्यामिति का एक सूत्र भी है : infinity subtracted from infinity is undefined. because infinity is not a Real Number.
( ∞ - ∞ = ∞ )
अर्थ: यहाँ पूर्ण से तात्पर्य अनंत (infinite) या अथाह (immeasurable) से है। वह (अद:) परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से पूर्ण है। यह जगत भी पूर्ण है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है। ॐ त्रिविध ताप की शांति हो। अंत में तीन बार ‘शान्तिः’ का उच्चारण त्रिविध तापों के शमन हेतु किया गया है । साधारण गणित में हमे पढाया जाता है की शून्य से शून्य का जमा, घटा, भागाकार आदी सब का शून्य फल मिलता है ।
0+0 = 0 ; 0-0=0 ; 0÷0 = 0
बीजगणित मे समीकरण लिख सकते है । लेकिन शून्य की अनंतता की संकल्पना समझायी नही जाती। इसीलिए अनंतता का प्रतिक चिन्ह " ∞ " इस प्रकार लिखा जाता है ।]
मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी पूर्णता की अनुभूति कर लेना है। हममें से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में जितने सारे दुःख और थोड़ी सी खुशियों की अनुभूति करता है वे सभी समग्ररूप से इसी दिशा में अग्रसर होने में सहायता करती हैं। इसी 'पूर्णता' के लक्ष्य तक पहुँच जाना ही मनुष्य के जीवन की सच्ची कहानी है, यही मानव जीवन का इतिहास है । परन्तु; हम इस सच्चाई से अनभिज्ञ हैं /यह जानते ही नहीं । इसीलिये प्रत्येक मनुष्य को सचेत रहकर, अपनी पूरी शक्ति से इसी पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। साधारणतया मनुष्य अज्ञान की अवस्था में ही रहता है, क्योंकि उसके हृदय में (बिना ठाकुर-माँ-स्वामीजी की कृपा के) सच्चे ज्ञान की ज्योति नहीं प्रकाशित हो सकती है। इसीलिए तो हम प्रार्थना करते हैं-
तमसो मा ज्योतिर्गमय् ,
असतो मा सद्गमय,
मृत्योर्मा अमृतं गमय् ।
अर्थात् हे ईश्वर ! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें अविद्या या अज्ञान से निकाल कर सत्य के जगत् में ले चलो। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। ऐसा 'मृत्युंजय' ('मृत्यु को जीतने वाला'-शिव) हमें स्वयं बनना है तथा प्रत्येक व्यक्ति को इसी प्रगति के पथ पर (मृत्युंजय बनने और बनाने के पथ पर) अग्रसर होने में सहायता करनी है।
[मृत्युंजय पद में 'बहुव्रीहि' समास है। "अन्य पद प्रधानम् सः बहुव्रीहि’’ अर्थात् जिस समास में दोनों पद प्रधान नहीं होते हैं, और दोनों पद मिलकर किसी अन्य विशेष अर्थ की ओर संकेत कर रहे होते हैं। 'मृत्युंजय' का समास विग्रह 'मृत्यु को जीतने वाला' अर्थात शिव है।]
समय - समय पर धरती पर ऐसे मनुष्य (प्रलयंकर – प्रलय को करने वाला, मृत्युंजय शिव जिसे तीसरा नेत्र खोलने में समर्थ नेता) आते रहे हैं, जिन्होंने मनुष्यों को इसी शाश्वत प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराने के लिये ही अपना नेतृत्व प्रदान किया है। ऐसे देवमानवों को ही मानव जाति का सच्चा नेता कहा जाता है । परन्तु आज 'नेता' शब्द सुनने मात्र से ही हमारे भीतर वितृष्णा का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसका कारण यही है कि 'नेता' शब्द सुनते ही हमारे मन में किसी राजनीतिक नेता का चित्र उभर आता है, जिनका दर्शन हमें सभी समाजों में अक्सर होता रहता है। ऐसे नेता एक अलग प्रकार के झुण्ड का [भेंड़ों के झुण्ड का?] प्रतिनिधित्व करते हैं ।
>>>13. अवतारी नेतृत्व की अवधारणा (Concept of embodied leadership) :
परन्तु जब हम महामण्डल-आन्दोलन के 'नेता' के ऊपर चर्चा करते हैं तो हमारी आँखों के सामने वैसे नर- पशुओं का चेहरा नहीं उभरता है। जब यहाँ हमलोग 'नेता' या 'नेतृत्व' शब्द के वास्तविक व्याख्या को ठीक से समझ लेते हैं तो हमारी आँखों के समक्ष एक 'नर-देव' रूपी नेता का चित्र (The Holy Trio का चित्र ) उभरता है जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। 'विष्णु सहस्त्रनाम' में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है ।
निःसंदेह श्रीरामकृष्ण एक 'नेता' थे, बल्कि महान नेता (अवतार वरिष्ठ) थे! स्वामी विवेकानन्द मानव जाति के महान नेताओं में से एक थे। यीशु क्राईस्ट, पैगम्बर मोहम्मद आदि भी मानव जाति के महान नेता थे। इसी श्रृंखला में भगवान बुद्ध, श्रीचैतन्य, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि नेता थे। इसीलिये जब हमलोग महामण्डल में नेतृत्व या नेता के ऊपर चर्चा करते हैं तो हमारी आँखों के सामने ऐसे ही नेताओं की छवि रहती है। हम सबों के मन में इन्हीं महान नेताओं के छोटे से अंश जैसा भी, बन पाने की आकांक्षा अवश्य रहनी चाहिए। यही है नेतृत्व की अवधारणा।
नेतृत्व की इसी अवधारणा को हममें से प्रत्येक को अपने हृदय में अवश्य धारण करना चाहिए तथा इसके एक छोटे अंश के रूप में ही सही, पर वैसा ही बन जाने की इच्छा को अपने भीतर पुष्ट और बलवती बना लेना चाहिए। हममें से जिन लोगों ने भी स्वामी विवेकानन्द के साहित्य से थोड़ा भी परिचय प्राप्त किया है उन्हें यह ज्ञात होगा कि स्वामीजी बार-बार कहते हैं कि न तो घोर दरिद्र मनुष्य, और न अत्यधिक धनी मनुष्य ही समाज की कोई सच्ची भलाई कर सकता है। उसी प्रकार न तो खूब पढ़े-लिखे तथाकथित 'उच्च शिक्षित' मनुष्य, न ही अज्ञानी मनुष्य समाज की सच्ची भलाई कर सकते हैं।
>>>14. दोनों अतियों के मध्य-बिन्दु पर स्थित मनुष्य ही पूर्ण निःस्वार्थी नेता बन सकता है :
हर स्थान पर विवेकानन्द जी ने यही कहा है कि धन और शिक्षा की दृष्टि से न तो समाज के निम्नतम स्तर पर रहने वाले और न ही उच्चतम स्तर पर रहने वाले - मनुष्य ही कभी समाज की कोई सच्ची भलाई कर सकते हैं; बल्कि हर स्थान पर उन्होंने इन दोनों अतियों के मध्य रहने वाले मनुष्यों पर ही विशेष जोर दिया है। क्योंकि अतियों में जीनेवाले मनुष्य कभी भी पूर्णतया निःस्वार्थी (ईश्वर या देव-मानव) नहीं बन सकते हैं। वे कभी दूसरों के कल्याण के लिये अपने-आप को समर्पित करने के लिये आगे नहीं आ सकते हैं। क्योंकि दुर्भाग्यवश जो लोग बिल्कुल अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं [अपने को केवल शरीर (M/F) समझते हैं] , वे कभी भी मनुष्य या समाज की भलाई के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर देने के महान विचार को अपने अन्तःकरण में धारण ही नहीं कर सकते हैं। इस तथ्य को ठीक से समझ लेने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमारे इस चरित्र निर्माण आन्दोलन को सफल बनाने में केवल मध्यमस्तर पर रहनेवाले व्यक्ति ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं ।
मध्यम स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की गणना हमें इसी दृष्टिकोण को अपने समक्ष रखते हुए करनी चाहिए। सामान्य तौर पर अत्यधिक धन-सम्पत्ति तथा शिक्षा (ऊँची डिग्री, ऊँचा-पद) किसी भी मनुष्य में अहंकार या 'मद' उत्पन्न कर देता है। जिनको यथार्थ शिक्षा [गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में ] प्राप्त हो गयी है, केवल वे ही जानते हैं कि 'मद' को किस प्रकार 'दम' में परिवर्तित किया जाता है। महाभारत में कहा गया है कि 'मद' या भोगाकांक्षा को आत्मसंयम में रूपान्तरित करने में समर्थ होने पर ही लोक-कल्याण के लिये हृदय में शक्ति या प्रेम प्रवाहित होने लगता है।
>>> 15. स्वामीजी की क्रान्तिकारी योजना महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में अंकित है- 'Be and Make ' (अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ) और 'चरैवेति, चरैवेति।'
यदि हमारे हृदय में भी अनन्तज्ञान और अनन्त प्रेम का एक भी स्फुलिंग उपस्थित न हो तो हमारे मन में कभी दूसरों की सहायता करने की शुभ और महान इच्छा का उदय हो ही नहीं सकता है । स्वामी विवेकानन्द द्वारा मद्रास के विक्टोरिया हॉल में दिये गये भाषण का शीर्षक है 'My Plan of Campaign ' ( मेरी क्रान्तिकारी योजना।) स्वामीजी के मन में एक कार्य योजना थी और महामण्डल प्रारंभिक तौर पर भारत के युवाओं के बीच उसी योजना को क्रियान्वित करने के लिये विगत 41/ 56 वर्षों से प्रयत्न कर रहा है।
आखिर वह योजना है क्या ? वह है समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नत मनुष्य बनाना । प्रत्येक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, तथा आर्थिक दृष्टि से उन्नत करने के साथ ही साथ उसके हृदय को इतना उदार बना देना कि उसमें निजी सुख भोग की इच्छा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी भी जगह न रहे। भोगाकांक्षा की गंध भी उस हृदय में शेष नहीं बचे। वहाँ केवल एक अति विशाल सहानुभूतिसम्पन्न उदार हृदय के साथ एक प्रखर मस्तिष्क भी हो ।
हृदय स्वस्थ और दृढ़ होने के साथ-साथ फूलों जैसा कोमल भी होना चाहिये । "वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि" - अर्थात् अपने संकल्प को पूरा करने के लिये हृदय वज्र की तरह कठोर, किन्तु, अन्य व्यक्तियों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का अनुभव करने के लिये पुष्प के समान कोमल भी होना चाहिये । बिल्कुल इसी तरह का पूर्ण हृदय मनुष्य (Heart Whole Man) हमलोगों को बनना होगा । यदि हमलोग चरित्र के विशुद्ध गुणों से विभूषित मनुष्य बन सकें तो हम भी अपने समाज में नेता के कर्त्तव्य को किसी न किसी रूप में निभा सकते हैं।
🔱>>>16. मनुष्य-जीवन सार्थक कैसे होता है ? सनातन धर्म का रहस्य :
हमलोग जिस समाज में रहते हैं वहीं, अन्य लोगों के साथ-साथ युवाओं का एक बड़ा वर्ग भी रहता है, जिन्हें इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ रखा गया है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा संभावनाओं को समझ लेने से उनको कितना बड़ा लाभ हो सकता है। उनके पास जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, मनुष्य जीवन के बारे में कोई निजी दृष्टिकोण भी नहीं है, जीवन का कोई उद्देश्य भी नहीं है । अतः हमलोग उन्हें नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं।
हम उनके पास जाकर उनसे ( मध्यम वर्ग के कुछ इच्छुक और जिज्ञासु भाइयों से) कहेंगे-भाईयों, आओ देखो, यह मनुष्य जीवन अति मूल्यवान् है । शायद आप नहीं जानते हैं कि इस मानव शरीर को प्राप्त करके अपने जीवन का सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जाय? आप अपने जीवन को थोड़ा-थोड़ा करके सुन्दर ढंग से गठित कर लेने को बिल्कुल उत्सुक नहीं हैं। यदि आप भी अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का प्रयास करते तो यह जीवन अत्यन्त सुन्दर हो जाता। सुन्दर ढंग से गठित मनुष्य जीवन से बढ़कर महामूल्यवान सम्पदा इस जगत् में और कुछ भी नहीं है, जिसके स्वामी आप भी बन सकते हैं। आपको तो पहले से ही यह देव दुर्लभ मानव तन प्राप्त हो चुका है। यदि आप इसको सुन्दर ढंग से गठित करने के प्रति जागरूक होकर इसे विकसित करते हैं तथा इसे क्रमशः दिन पर दिन निर्मित करते हैं तो आप इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ या फल प्राप्त कर सकते हैं।
इस मानव तन से प्राप्त किया जा सकने वाला वह सर्वश्रेष्ठ लाभ या उपयोग क्या है ? वह यही है कि हमलोग अपने पूरे जीवन को दूसरों के कल्याण के लिये न्यौछावर कर दे सकते हैं। इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ इस मानव तन से नहीं उठाया जा सकता है। यही वह 'परम वस्तु' (जन्मसाफल्यं) है जिसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है ।
श्रीमद्भागवत् में श्रीकृष्ण के मुख से एक अत्यन्त ही सुन्दर श्लोक निकला है। तरूण श्रीकृष्ण अपने गोप मण्डली के बीच नेता की भूमिका की लीला कर रहे थे। वे लोग गौएँ चराते हुए जंगल में बहुत दूर तक चले गए थे। दोपहर के समय एक वृक्ष की छाया में विश्राम करती हुई गायों की ओर इंगित करते हुए श्रीकृष्ण अपने मित्रों से कहते हैं-
पश्यैतान् महाभागान् परार्थेकान्त जीवितान् ।
वात- वर्षा- ताप- हिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ।।
मेरे प्रिय मित्रों! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं; इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई के लिये ही होता है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप, पाला सब कुछ सहते हैं, परन्तु हमलोगों की इन सबसे रक्षा करते हैं।
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥
अहो मैं तो कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन धन्य है, सार्थक है, क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को अपना जीवन निर्वाह करने में सहायता मिलती है । जिस प्रकार किसी सज्जन व्यक्ति (धन्या महीरुहा #6) के घर से कोई याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ न कुछ अवश्य प्राप्त होता है ।
पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥
ये वृक्ष तो इतने महान हैं कि कामना करने पर अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी गन्ध, गोन्द, राख, कोयला तथा कोपलों से भी लोगों की कामनाओं को पूर्ण करते हैं।
एतावत् जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणार्थैधियावाचा श्रेयं आचरणं सदा ।।
इस प्रकार वृक्ष की उपमा द्वारा श्रीकृष्ण अपने मित्रों को अत्यन्त सरल और सुन्दर ढंग से मानव जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है, इसको समझाते हुए कहते हैं- मनुष्य जीवन की सार्थकता हमारे द्वारा अपने वचन से धन-सम्पत्ति से, विवेक विचार से, आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राण की आहुति देकर भी; प्रत्येक शरीरधारी का कल्याण करने को तत्पर रहने पर निर्भर करती है। यही तो है सभी धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, धर्मों का वास्तविक रहस्य । धर्मों का सार तत्व भी यही है। इसी तथ्य को उजागर करते हुए महाभारत में भी कहा गया है-
वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम् ।
सर्वभूतहितं मैत्रयं पुराणं यतू जना विदुः । ।
- मुझे सनातन धर्म के सारतत्व का पता चल गया है ! वह क्या है ? वह है सब जीवों का कल्याण, सबों के प्रति प्रेम ! यही तो है सनातन धर्म ! जो लोग यथार्थ धर्म का अनुभव कर चुके हैं या जिनको सच्चे धर्म का ज्ञान हो जाता है उनके लिये धर्म की परिभाषा यही होती है।
सनातन धर्म के इस रहस्य को स्वयं अच्छी तरह से समझ लेने के बाद हमें अपने आस-पास रहने वाले भाई-बन्धुओं के हृदय में भी धर्म की इसी महान ज्योति को प्रज्वलित करने का प्रयत्न करना चाहिए । विशेष रूप से जो भाई महामण्डल आन्दोलन के सम्पर्क में आ चुके हों उन तक तो अवश्य ही ज्ञान के इस प्रकाश को पहुँचा देना चाहिए।
किन्तु यह कार्य हर किसी के द्वारा हो पाना संभव नहीं है हालाँकि ऐसा करने की इच्छा हर किसी के मन में रहनी चाहिए। किन्तु हर व्यक्ति विभिन्न कारणों से वैसा करने में समर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि हर व्यक्ति की मानसिक तैयारी तथा सच्ची शिक्षा द्वारा स्वयं की आध्यत्मिक उन्नति इस प्रकार की नहीं होती कि वह दूसरों को इस विषय में मार्गदर्शन दे सकने में सक्षम हो सके। कभी-कभी विभिन्न परिस्थितियाँ भी ऐसा करने में बाधक बन जाती हैं।
>>>17. रिलीफ-वर्क नहीं रुग्ण मन को स्वस्थ मन में बदलना सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा है।
इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति पथप्रदर्शक नेता की भूमिका को उचित तरीके से सम्पादित नहीं कर पाता है। किन्तु वे व्यक्ति, जिनके मन में नेता की भूमिका निभाने की व्याकुलता हो और परिस्थितियाँ भी इसकी अनुमति देती हों तथा वे जो इस भूमिका को निभाने में सक्षम हैं, यदि अपना जीवन उचित तरीके से गठित कर लें, यदि स्वयं मानव जाति के किसी सच्चे नेता के सांचे में ढल जायें तो निश्चित ही वे भी दूसरों के 'मन' को बदल डालने का कार्य कर सकते हैं। यह समाज - सेवा अन्य किसी भी सेवा से अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि सच्चे नेता का कार्य रूग्ण मन को स्वस्थ मन में परिवर्तित करने का ही होता है। नेता का कार्य मुख्यतः दूसरों के मन पर कार्य करना ही होता है।
साधारण ढंग की समाज-सेवा जैसे भोजन, वस्त्र आदि को जरूरतमन्दों तक पहुँचा देने का कार्य तो सामान्य लोग भी करते ही रहते हैं। मैं भी चन्दा माँग कर दान सामग्रियों का संग्रह कर सकता हूँ, या मैं स्वयं भी धन अर्जित कर अपने धन और अन्य सामग्रियों को दूसरों में बाँट सकता हूँ। ऐसा करना अवश्य ही अच्छा है परन्तु, इससे भी बढ़कर अच्छा कार्य है- लोगों के 'मन' को ही उन्नत करने का कार्य, ताकि दूसरे लोग भी अपने मन में कुछ उच्च, महान तथा कल्याणकारी विचारों को धारण करने में समर्थ हो जायें। स्वामी विवेकानन्द ने इसी ढंग से कार्य करने की प्रेरणा दी है। उन्होंने कहा था -" जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र -प्रवर्तन कर दूँ. जो कि उच्च और श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वार द्वार पर पहुँचा दे। फिर स्त्री-पुरुषों को अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करने दो। " स्वामीजी ने एक बार कहा था- "मेरे उपदेशों को उसके सच्चे अर्थ में समझो और उसी के आलोक में काम में लग जाओ । ... उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर लो। बड़ा कल्याण जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ है।"
महामण्डल भी यही चाहता है कि स्वामीजी देखें कि हमने उनके उपदेशों/परामर्शों को सुना है। उनके उपदेशों को हम व्यवहारिक धरातल पर लायेंगे, हम अपने जीवन जीने के ढंग को परिवर्तित कर लेंगे। जगत् के कल्याण के लिये, भारत के उन करोड़ों दोन-दुखियों के प्रति जिनके लिये स्वामीजी आँसू बहाया करते थे, हम अपने जीवन को समर्पित कर देंगे। यह कोई हँसी-खेल में लिया गया संकल्प नहीं है । यह एक अति आवश्यक पुकार है, जिसे सुनकर प्रत्येक युवा के हृदय में पीड़ा की लहर उठनी चाहिए |
स्वामीजी ने पहले भी हमें पुकारा था, वे अब भी हमें पुकार रहे हैं और तब तक पुकारते रहेंगे जब तक हम उनकी पुकार को सुन कर समझ न लें। उनकी पुकार को क्या हमें अनसुना करना चाहिए ? उन्होंने हमारा आह्वान करते हुए कहा था - "Let me be happy to see that you embrace death for the good of man" –"मुझे यह देखकर प्रसन्न होने दो कि तुमने लोगों के कल्याण के लिये मृत्यु का भी वरण कर लिया है।" इसी से स्पष्ट हो जात है कि केवल साहसी व्यक्ति ही स्वामीजी के निकट पहुँच सकते हैं, उनकी पुकार सुन सकते हैं तथा उन्हें आश्वस्त करते हुए कह सकते हैं कि हाँ स्वामीजी ! हम आपका अनुसरण करने के लिये तैयार हैं।
>>>18 . पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बन जाना ही आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न नेतृत्व का रहस्य है।
स्वामीजी का अनुयायी होने का यह मतलब नहीं है कि हम उनका जन्मदिन धूम-धाम से मनाते रहें। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम जगह-जगह पर स्वामीजी की प्रतिमा या उनका मंदिर स्थापित करते रहें । इसका यह भी अर्थ नहीं है कि उनके जन्म दिवस के अवसर पर तथाकथित बड़े लोगों को बुलवाकर जनता को भाषण पिलवा दिया जाये। उनके अनुयायी बन का मतलब है हम अपने जीवन जीने के ढंग को ही परिवर्तित कर लेंगे। बिना कोई लोक-दिखावा किये, चुप-चाप अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करग लेंगे। अर्थात् स्वयं को चरित्र के गुणों से विभूषित करने का कार्य किसी पुरस्कार पाने के लोभ वश या धन्यवाद के दो शब्द सुनने की आशा से भी नहीं करेंगे। बल्कि अपना जीवन गठित करने का हमारा एकमात्र उद्देश्य होगा कि यह दूसरों के काम आ सके।
दूसरों के लिये सर्वोत्तम कार्य जो हम कर सकते हैं वह है लोगों के मन को उदार और सुन्दर विचारों से परिपूर्ण कर देना। स्वामीजी के विचारों को अभी तक हम ठीक से समझ नहीं सके हैं ; यह एक ऐसा सत्य है जिसे स्वीकार कर लेना कोई आसान काम नहीं है। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द जी को कोई व्यक्ति केवल अपनी बुद्धि के द्वारा ही नहीं समझ सकता है। स्वामीजी को समझना चाहते हों तो हमें अपने हृदय के द्वार को खोलना ही पड़ेगा । स्वामीजी यही तो चाहते थे कि हम सभी 'पूर्णहृदय मनुष्य' बनें।
वैज्ञानिक कथा-कहानियों में भविष्य के मानव की रुप-रेखा के बारे में ऐसा चित्रण अक्सर देखने को मिल जाता है कि भविष्य का मानव अपने मन के विकास की गति के कारण छाती की तुलना में काफी बड़े सिर वाला होगा । परन्तु; यदि स्वामीजी की दृष्टि से भविष्य के मानवों की आकृति देखने की चेष्टा करें तो भविष्य का मानव बड़े सिर के साथ एक चौड़ी छाती वाला मनुष्य होगा, जिसकी छाती में एक विशाल हृदय भी होगा । भविष्य के मानव पूर्ण हृदयवान होंगे, जिनके हृदय में संसार के सभी मनुष्यों के प्रति सच्ची सहानुभूति होगी, जिसका कोई शत्रु नहीं होगा, सभी उसके मित्र ही होंगे। भविष्य के मानव अपने तथा जगत् के अन्य सभी वस्तुओं के बीच एकात्मकता का अनुभव करने में समर्थ होंगे।
हमें उसी तरह का मनुष्य अवश्य बनना है। वैसे यथार्थ मनुष्य ही मनुष्य जाति के नेता होंगे। मानव जाति को इसी तरह के नेतृत्व की आवश्यकता है और आज के भारत में भी इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नेताओं की आवश्यकता है। महामण्डल इस प्रकार के नेताओं का निर्माण करने का आन्दोलन है। इस आन्दोलन को प्रारंभ हुए अभी मात्र 56 वर्ष ही हुए हैं, तथा किसी राष्ट्र के जीवन में 56 वर्षों की क्या गणना है। भारत को यदि पुनरूज्जीवित होना है तो इसे केवल अध्यात्म की शक्ति से ही पुनरूज्जीवित किया जा सकता है, और एक बार पुनः आध्यात्मिकता के प्रचण्ड ज्वार के फाटक को भगवान श्रीरामकृष्ण देव ने खोल दिया है। हम सबों को अध्यात्म के इस तीर्थ-क्षेत्र में अवगाहन करना चाहिए , क्योंकि अपने हृदय को उदार बना लेने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है। स्वार्थपरता से दूर रहने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है । भोगाकांक्षा, इन्द्रिय भोगों से बचे रहने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है। इस विश्व के सभी मनुष्यों के प्रति प्रेम तथा परहित में सर्वस्व न्यौछावर कर देने की क्षमता के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है ।
अतः आइये, हम सभी आध्यात्मिक मनुष्य बनें, हम सभी पूर्ण हृदयवान् मनुष्य बनें। आइये हमलोग प्रत्येक मनुष्य को इसी प्रकार से आध्यात्मिक मनुष्य | बनने के लिये अनुप्रेरित करें। हमलोगों को चाहिए कि हम विश्व के प्रत्येक मनुष्य तक इन्हीं महान् उदार तथा कल्याणकारी विचारों को पहुँचा दें। हमलोगों को भी इसी कार्य को सम्पादित करने में समर्थ नेता अवश्य बनना है।
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[2]
नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका जीवन्त उदाहरण
[Concept of Leadership and its living example ]
[>>>1. क्या राजनीति के क्षेत्र नेता आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं ?
[>>>2. सांसारिक ज्ञान के साथ-साथ अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक शक्ति -समत्व बुद्धि या 'एकत्व की अनुभूति' (feeling of oneness), का होना आदर्श नेतृत्व (Love Light-house) की कसौटी है !
>>>3.आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न (अर्थात ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥ विवेकज-ज्ञान सम्पन्न, समत्वबुद्धि या ब्रह्माण्डीय एकत्व के अनुभूति सम्पन्न) नेता को अपना जीवन अपरा विद्या (Western Science) और परा विद्या (Eastern Mysticism) में समन्वय का जीवन्त उदाहरण स्वरुप गठित करना होगा। फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट की पुस्तक ' The Eye of Shiva' एवं फ्रिटजॉफ कॉपरा की पुस्तक 'The Tao of Physics' - में भी कहा गया है कि -"क्वांटम भौतिकी ब्रह्मांड की मौलिक एकत्व को प्रकट करती है।" (Quantum Physics reveals the fundamental unity of the universe) और आधार पर (Western Science) के साथ (Eastern Mysticism) पूर्व की योगविद्या अर्थात पूर्णमदः वाद >>" मृत्युंजय -मृत्युञ्जय = मृत्युंजय ", या आत्मा का रहस्य-वाद, ऊर्ध्वमूल अधोशाखा वाद, या सूफिज़्म में समानता का अनुसन्धान किया जा सकता है। और इसी विश्वब्रह्माण्ड के साथ एकत्व की अनुभूति के आधार पर विश्व में स्थायी शान्ति स्थापित की जा सकती है। ]
>>>5. विवेक-दर्शन या आत्मसाक्षात्कार की विज्ञानसम्मत प्रणाली :
>>>6. आत्मा का अनुसन्धान प्रयोगशाला में सम्भव नहीं है, पाश्चात्य विज्ञान को भी [Eastern Mysticism] की शरण में आना ही पड़ेगा !]
>>>7. आत्मा में विद्यमान अनन्त प्रेम या परम्'आनन्द के उत्स को उद्घाटित कर साम्यावस्था प्राप्त होने पर ही आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता प्राप्त होती है।
>>> 8. नेतृत्व के लिये हमें The Holy Trio के जीवन के साँचे में अपना जीवन-गठन करके उनके ही जैसे 'ब्रह्मविद' या प्रेम-स्वरुप जीवनमुक्त- शिक्षक बन जाने की शिक्षा प्राप्त करनी होगी।]
>>>9. वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण (अनुभवजन्य विवेकज-ज्ञान के आलोक में) देने के लिए : दुर्गा-पूजा के अवसर पर आयोजित मेले में आसक्ति के परे जाया जा सकता है, किन्तु माँ के राज्य में रहने तक , यानि शरीर के जीवित रहने तक अहं का नाश संभव नहीं है किन्तु माँ दुर्गा की कृपा से उस अहं को दास मैं बनाकर रखा जा सकता है। ]
>>>10.Foresight and Farsighted Leadership: पूर्वाभास (Premonition) और दूर दृष्टि-सम्पन्न, दिव्य या अतीन्द्रियदर्शी नेतृत्व Clairvoyant Leadership !]
>>>11 . राष्ट्रीय-चरित्र का निर्माण करने के लिये हजारों ब्रह्मविद (जीवन-मुक्त, प्रेम-स्वरूप) नेताओं की आवश्यकता देश के कोने-कोने में है।
>>>12. बिना ईश्वर की कृपा के 'पूर्णत्व'/या 'दिव्यता' के मर्म को नहीं समझ सकते: [ अवतार वरिष्ठ ठाकुर-माँ की कृपा के बिना, कोई भी जिज्ञासु या सत्यार्थी इस परम् सत्य या पूर्णत्व -पद के मर्म को स्वयं नहीं समझ सकता। इसीलिए गुरु-परम्परा में प्रशिक्षित विवेकानन्द से (प्रलयंकर शिवजी, या C-IN-C नवनीदा से)- "मृत्योर्मा अमृतं गमय्" की प्रार्थना, शिव के तीसरे नेत्र को खोल कर 'मृत्युंजय' पद देने की प्रार्थना करना अनिवार्य है !]
>>>13. अवतारी नेतृत्व की अवधारणा (Concept of embodied leadership) :
>>>14. दोनों अतियों के मध्य-बिन्दु पर स्थित मनुष्य ही पूर्ण निःस्वार्थी नेता बन सकता है :
>>> 15. स्वामीजी की क्रान्तिकारी योजना महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में अंकित है- 'Be and Make ' (अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ) और 'चरैवेति, चरैवेति।'
🔱>>>16. मनुष्य-जीवन सार्थक कैसे होता है ? सनातन धर्म का रहस्य :
>>>17. रिलीफ-वर्क नहीं रुग्ण मन को स्वस्थ मन में बदलना सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा है।
>>>18 . पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बन जाना ही आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न नेतृत्व का रहस्य है।
[भारत की सनातन विशिष्टता #
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥
स्रोत - ब्रह्मज्ञानावलीमाला
ब्रह्म सत्य है, ब्रह्माण्ड मिथ्या है (क्योंकि इसे सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता )। सच्चिदानन्द स्वरुप जीव भी स्वरूपतः ब्रह्म ही है और भिन्न नहीं। इसको सभी शास्त्रों का सही निचोड़ समझा जाना चाहिए। वेदान्त इसी सत्य की घोषणा करता है।
Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.
ब्रह्म सत्य है । जगत मिथ्या है । तथा जीव ब्रह्म ही है । कोई अन्य नहीं । दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है । इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर गूढ़ संबंध है । इन सृष्टि में अनुस्यूत है - ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो - ब्रह्म है । " सत्य नाम " से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है । यहां मिथ्या शब्द " असत " से भिन्न है ! मिथ्या शब्द का अर्थ यहां भासने वाली प्रतीति है।
यह कोई एक श्लोक मात्र नहीं है। आचार्य शंकर के माध्यम से जगत को दिया गया भारत की गुरु -शिष्य परम्परा का एक कल्याणकारी उपहार है। इसकी आधी पंक्ति अपने आप में एक पूर्ण और व्यापक विचार देती है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत जिसे आप वास्तविक मान बैठे हैं, वो मिथ्या है।
पाश्चात्य विज्ञान यही सवाल उठाता है कि चौबीस घंटे जो संसार हमारे अहसास में खड़ा नजर आता है, जिसे हम ठोस रूप में महसूस करते हैं, उसको मिथ्या कहें, तो व्यवहार कैसे करेंगे? वास्तव में यह दृष्टिगोचर संसार सत्य तो है किन्तु सापेक्षिक सत्य है, सतत परिवर्तनशील होने के कारण यह नाशवान है , अविनाशी नहीं है। एक विद्वान ने जगत के मिथ्या होने का अंग्रेजी में बड़ा खूबसूरत अनुवाद किया है: "दुनिया पल-पल बदलने वाली सच्चाई है ! ‘World Is Passing Reality.’
एक फिल्म 'आपकी कसम' में किशोर कुमार का गीत में लाइन है - ‘ज़िन्दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते। ........, एक बार चले जाते हैं जो दिन-रात, सुबहो-शाम वो फिर नहीं आते… आदमी ठीक से देख पाता नहीं और परदे पर मंजर बदल जाता है।’ संसार के परदे पर बिजली की रफ्तार से बदलता मंजर/दृश्य मनुष्य के अंदर मतिभ्रम (Hypnotization-सम्मोहन ) की स्थिति पैदा करता है। कभी यह सच लगता है… कभी वो सच लगता है। आज जो सच है, वो कल झूठ भी लगता है। अधिकांश लोगों ने अपनी अधिकांश शक्ति या ऊर्जा मिथ्या के पीछे भागने में लगा दी है। [मैं यह लिख रहा था और अभी अभी 25. 10. 2023 को 4.30 pm पर सुदीप ने रनेन दा के नाती के ऐक्सिडेंट का न्यूज दिया .....]
फिर सत्य क्या है? जगत सत्य होता तो इसका कभी बाध नहीं होता और असत्य होता तो इसकी कभी प्रतीति नहीं होती। अतः सत्य तथा असत्य से विलक्षण अनिर्वचनीय कोटि की यह प्रकृति है , स्वयं परमात्मा की ही अचिन्त्य शक्ति है जो जगत के रूप में भासित हो रही है। देवस्य शक्तिर्स्वगुणैर्निगूढाम् ||
मनःसंयोग और निरंतर विवेक-प्रयोग आदि कठोर साधनाएँ जितना ही अधिक करते रहे रहोगे, उतनी ही अधिक बार यह विचार मन में उठेगा कि- वास्तव में यह जगत एक चित्रमाला के सदृश्य है:
नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम ।
एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ।।
मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्ता तु वर्तते ।
पश्यामः केवलं तद्धि न्रनिर्माणं कथं भवेत ।।
{ श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय रचित : ' विवेकानन्द दर्शनम ' }
इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- "यह जगत बदलते हुए चित्रों की श्रृंखला मात्र है। इसकी सतरंगी छटा एक ही उद्देश्य को अभिव्यक्त कर रही है-'मनुष्य अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ क्रमशः पूर्णत्व-प्राप्ति (देव-मानव में रूपांतरित होने) की ओर अग्रसर हो रहा है।
' After all this world is a series of pictures. ' this colorful conglomeration expresses one idea only- " Man is marching towards perfection. " that is " the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone. "
[हमलोग अभी ' माइंड-बॉडी काम्प्लेक्स ' बद्ध जीव की अवस्था में जिसे जाग्रत अवस्था मानते हैं, वह अतीन्द्रिय या तुरीय ज्ञान की अपेक्षा एक विराट स्वप्न ही तो है ! जब जीवात्मा सच्चिदानन्द से साक्षात्कार की अवस्था में' ऐक्य' की अनुभूति प्राप्त कर लेती है, तब यह ठोस सा दिखने वाला संसार असत साबित हो जाता है। -गीता 2/16.] साभार- " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या " ? कैसे? [***24] परिप्रश्नेन / https://vivek-jivan.blogspot.com/2012/05/24.html/शनिवार, 26 मई 2012]
[ 19 मार्च, 1897 को अपने शिष्य शरत चन्द्र चक्रवर्ती को दार्जलिंग से संस्कृत में लिखित पत्र में स्वामीजी कहते हैं - [जो बेड़ियों में बन्धे हैं उन्हें मुक्त करो..... " हे वीराः, पश्यत इमान् लोकान् मोहग्राहग्रस्तान्। शृणुत अहो तेषां हृदयभेदकरं कारुण्यपूर्णं शोकनादम्। बद्धपरिकराः भवत्; सम्मुखे शत्रव: महामोह-रूपा:। भव चिराधिष्ठित ओजसि। वीराणामेव करतलगता मुक्ति: न कापुरुषाणाम्। "श्रेयांसि बहुविघ्नानि" इति निश्चितेऽपि समधिकतरं कुरुत यत्नम्। अग्रगा भवत्, अग्रगा, हे वीरा, मोचयितुं पाशं बद्धानांम्......। अभीः अभीः इति घोषयति वेदान्तडिण्डिमः। भूयात् स भेदाय हृदग्रन्थे: सर्वेषां जगन्निवासिनामिति।"]
"हे वीर आत्माओं, (हे अमृत के पुत्रों), जरा इन मायामुग्ध (Hypnotized) लोगों की देखो; हाय उनके हृदयविदारक आर्तनाद को सुनो। हे वीरों, अपनी कमर कसकर खड़े हो जाओ ; क्योंकि तुम्हारे सामने त्रिगुणमयी माया (Bh) की भीषण सेना खड़ी है। 'भव चिराधिष्ठित ओजसि'-- वत्स तुम "वीर हो धीर बनो " ओजस्विता के साथ दीर्घायु होओ। मुक्ति (देह-मन की गुलामी से मुक्ति) केवल वीरों का गहना है, कायरों का नहीं। "श्रेयांसि बहुविघ्नानि"-- श्रेय-प्राप्ति में अनेक विघ्न आते है ' -यद्यपि यह निश्चित है, तथापि "समधिकतरं कुरुत यत्नम् !" --फिर भी अधिकाधिक प्रयत्न करते रहो। हे वीरों, जो अभी तक देह-और मन की गुलामी में बन्धे हुए हैं उनको माया की बेड़ियों से मुक्त करने के लिये आगे बढ़ो! और भी आगे बढ़ो ! - सुनो, "अभीः अभीः इति घोषयति वेदान्तडिण्डिमः।" वेदान्त -दुंदुभि बजाकर भयरहित बनने की कैसी उद्घोषणा कर रहा है। "Be fearless and Make others Fearless "- May that solemn sound remove the heart's knot of all denizens of the earth. "तुम स्वयं भयमुक्त मनुष्य बनो और दूसरों को भी भयमुक्त मनुष्य बनने में सहायता करो" --वेदान्त का यह दुन्दुभि घोष सम्पूर्ण मानवजाति के (पृथ्वी के सभी धर्मों के मनुष्यों के) ह्रदय-ग्रन्थियों का भेदन करने में समर्थ हो। "
शिष्य - महाराज, इस उद्दाम उन्मत्त बन्दर के सामान मन को ब्रह्म में डुबो देना बहुत ही कठिन है ।
स्वामीजी - वीर के सामने फिर कठिन नाम की कोई भी चीज है क्या ? कापुरूष ही ऐसी बातें कहा करते हैं ! 'वीराणामेव करतलगता मुक्तिः, न पुनः कापुरूषाणाम्'*। अभ्यास और वैराग्य के बल से मन को संयत कर । गीता में कहा है, *'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते' । चित्त मानों एक निर्मल तालाब है । रूपरस आदि के आघात से उसमें जो तरंग उठ रही है, उसी का नाम है मन । इसलिए मन का स्वरूप संकल्प-विकल्पात्मक है । उस संकल्प-विकल्प से ही वासना उठती है । उसके बाद मन ही क्रियाशक्ति के रूप में परिणत होकर स्थूल देहरूपी यन्त्र के द्वारा कार्य करता है । फिर कर्म भी जिस प्रकार अनन्त है कर्म का फल भी वैसा ही अनन्त है । अतः अनन्त असंख्य कर्मफलरूपी तरंग में मन सदा झूला करता है । उस मन को वृतिशून्य बना देना होगा - और उसे स्वच्छ तालाब में परिणत करना होगा । जिससे उसमें फिर वृतिरूपी एक भी तरंग न उठ सके । तभी ब्रह्मतत्त्व प्रकट होगा । शास्त्रकार उसी स्थिति का आभास इस रूप में दे रहे हैं - 'भिद्यते हृदयग्रन्थिः' आदि - समझा ?
शिष्य - जी हाँ, परन्तु व्युत्थान ध्यान तो विषयावलम्बी होना चाहिए न ?
स्वामीजी - तू स्वयं ही अपना विषय बनेगा । तू सर्वव्यापी आत्मा है इसी बात का मनन और ध्यान किया कर । मैं देह नहीं हूँ - मन नहीं हूँ - बुद्धि नहीं हूँ - स्थूल नहीं हूँ - सूक्ष्म नहीं हूँ - इसी प्रकार 'नेति नेति' करके प्रत्यक् चैतन्यरूपी अपने स्वरूप में मन को डुबो दे । इसी प्रकार मन को (मिथ्या अहं को ?) बार बार डुबो डुबो कर मार डाल । तभी ज्ञानस्वरूप का बोध या स्वस्वरूप में स्थिति होगी । उस समय ध्याता-ध्येय-ध्यान एक बन जायेंगे, ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान एक बन जायेंगे । सभी अध्यासों की निवृत्ति हो जायेगी ।
इसी को शास्त्र में 'त्रिपुटिभेद' कहा है । इस स्थिति में जानने, न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता । आत्मा ही जब एकमात्र विज्ञाता है, तब फिर उसे जानेगा कैसे ? आत्मा ही ज्ञान -आत्मा ही चैतन्य - आत्मा ही सच्चिदानन्द है । जिसे सत् या असत् कुछ भी कहकर निर्देश नहीं किया जा सकता, उस अनिर्वचनीय मायाशक्ति के प्रभाव से जीवरूपी ब्रह्म के भीतर ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भाव आ गया है । इसे ही साधारण मनुष्य चैतन्य या ज्ञान की स्थिति ( Conscious state ) कहते हैं । जहाँ तक द्वैतसंघात शुद्ध ब्रह्मतत्त्व में एक बन जाता है, उसे ही शास्त्र में समाधि या साधारण ज्ञान की भूमि से अधिक उच्च स्थिति ( Superconscious state ) कहकर इस प्रकार वर्णन किया है - 'स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम्' ! इन बातों को स्वामीजी मानों ब्रह्मानुभव के गम्भीर जल में मग्न होकर ही कहने लगे ।
स्वामीजी - इस ज्ञाता-ज्ञेय रूप साक्षेप भूमिका से ही दर्शन, शास्त्र-विज्ञान आदि निकले हैं; परन्तु मानव मन का कोई भी भाव या भाषा जानने या न जानने की वस्तु को सम्पूर्ण रूप से प्रकट नहीं कर सकती है । दर्शन, विज्ञान आदि आंशिक रूप से सत्य हैं; इसलिए वे किसी भी तरह परमार्थ तत्त्व के सम्पूर्ण प्रकाशक नहीं बन सकते । अतएव परमार्थ की दृष्टि से देखने पर भी सभी मिथ्या ज्ञात होता है - धर्म मिथ्या - कर्म मिथ्या, मैं मिथ्या हूँ, तू मिथ्या है, जगत् मिथ्या है । उसी समय देखता है कि मैं ही सब कुछ हूँ, मैं ही सर्वगत आत्मा हूँ; मेरा प्रमाण मैं ही हूँ । मेरे अस्तित्व के प्रमाण की आवश्यकता कहाँ है ? मैं - जैसा कि शास्त्रोंमें कहा है 'नित्यमस्मत्प्रसिद्धम्' हूँ । मैंने वास्तव मे ऐसी स्थिति को प्रत्यक्ष किया है - उसका अनुभव किया है । तुम लोग भी देखो, अनुभव करो और जीवों को यह ब्रह्मतत्त्व सुनाओ जाकर । तब तो शान्ति पायेगा ।
ऐसा कहते कहते स्वामीजी का मुख गम्भीर बन गया और उनका मन मानों किसी अज्ञात राज्य में जाकर थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया। कुछ समय बाद वे फिर कहने लगे - "इस 'सर्वमतग्रासिनी, सर्वमतसमंजसा' ब्रह्मविद्या का स्वयं अनुभव कर और जगत् में प्रचार कर, उससे अपना कल्याण होगा, जीवों का भी कल्याण होगा। तुझे आज सार बात बता दी । इससे बढ़कर और कोई दूसरी बात नहीं है ।"
[वि ० सा ० खण्ड 6 पृष्ठ 166 -167 ]
[ #1 प्रसिद्द फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट [Amaury De Riencourt (1918- 2005)] अपनी प्रसिद्द पुस्तक ' The Eye of Shiva' में कहते हैं कि पूर्व का रहस्यवाद (Eastern mysticism- योगविद्या , ऊर्ध्वमूल अधोशाखा', 'ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या या चार महावाक्य के बातें) कोई इन्द्रजाल या स्वप्न अवस्था (dream state) नहीं है, बल्कि पाश्चात्य विज्ञान (Western science) के 'New Physics' या क्वाण्टम भौतिकी (Quantum Physics) की तरह ही दोनों एक ही 'परम् सत्य'- जिससे सब कुछ निकला है के अनुसन्धान की दो अलग अलग वैज्ञानिक प्रणाली (scientific method of investigation) है। जिसके द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि किसी ध्यानस्थ योगी की चेतना का ब्रह्माण्डीय एकत्व की अनुभूति में पहुँच जाना इन्द्रियातीत सत्य के साथ एकत्व का सच्चा वर्णन है।
[ >>>#4. Geopolitical uncertainty, Geo-political events: भूराजनीतिक अनिश्चितता और भूराजनीतिक घटनाओं के बीच आलासिंगा पेरुमल को 31 अगस्त 1894 को लिखित पत्र : समिति का असाम्प्रदायिक नाम 'प्रबुद्ध भारत' रखने से बौद्ध लोग भी हमारी ओर आकृष्ट होंगे। प्रबुद्ध शब्द की ध्वनि का अर्थ है, "प्र + बुद्ध = बुद्ध के सहित " अर्थात गौतम बुद्ध के साथ भारत को जोड़ने पर, हिन्दूधर्म के साथ बौद्धधर्म का सम्मिलन के मर्म को जगत समझ जायेगा। इस बारे में अपने सब मित्रों (SuV>AA<DS) के साथ परामर्श करना - उनकी राय से काम लेना। विभिन्न दुःख-कष्टों के भीतर # एक ओर जहाँ: रूस-यूक्रेन वार , इस्राइल- हमास वार के भीतर वसुधैवकुटुंबकं के थीम पर G20 or P20 का आयोजन 'यशोभूमि भारत' की राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित हो रहा है। भारत का चन्द्रयान अब चन्द्रमा के ठीक शिव-शक्ति बिन्दु पर लैण्ड हो चुका है, वहीं दूसरी ओर (अवतार-वरिष्ठ परम्परा : प्रेममय 'C-IN-C नवनीदा परम्परा में महामण्डल के अवतरित होने के बाद अब अखिल भारत स्तर पर युवा-प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से उस मनुष्य-निर्माण चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार करने का समय उपस्थित हुआ है !) ]
[धन्या महीरुहा #5 येभ्यो निराशां यान्ति नार्थिनः ॥/ https://vivek-anjan.blogspot. com/2018/12/2.html/शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2] [https://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/2.html/शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2]
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