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शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

🔱(7) महामण्डल के नेताओं का उत्तरदायित्व/ Responsibility of the leaders of the Mahamandal/ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

(7) 

महामण्डल के नेताओं का उत्तरदायित्व 

 [Responsibility of the leaders of the Mahamandal]  

क >>>1 .

          भारत को पुनरूज्जीवित करने के लिये स्वामीजी की शिक्षाओं को अपने आचरण में उतार लेना एक अत्यन्त ही कठिन दायित्व है जिसे पूरा करने का संकल्प महामण्डल ने लिया है। किसी बड़े कार्य को बहुत ताम-झाम के साथ भी आरंभ किया जा सकता है विशेषकर किसी सांसारिक समारोह को आयोजित करते समय बड़े ही ताम-झाम का सहारा लेना पड़ता है। सांस्कृतिक उत्सवों को भी अत्यन्त आडम्बरयुक्त प्रदर्शन के साथ आयोजित होते देखा जा सकता है किन्तु स्वामी विवेकानन्द तथा उनके सहकर्मियों ने अपने कार्य का प्रारंभ बहुत ही विनम्रता के साथ किया था, किन्तु समय के साथ-साथ उनका आन्दोलन विश्वसनीय और शक्तिसंपन्न होता चला गया। उसी प्रकार महामण्डल भी बहुत सामान्य स्तर से अपने कार्य को प्रारम्भ करके अपनी शक्ति को दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ाते रहने के लिये कृत संकल्प है। इसीलिये महामण्डल किसी प्रकार के प्रचार या लोक प्रसिद्धि से बचता है ।

>>>2. 

           महामण्डल के नेताओं को पहले अपने मनोभावों को जाँच लेना चाहिए। उन्हें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि मैं इस "Be and Make आन्दोलन" से क्यों जुड़ना चाहता हूँ? मैं कहीं नाम यश या अन्य किसी व्यक्तिगत स्वार्थ को पूरा करने के लिये तो इस आन्दोलन में अपना योगदान नहीं कर रहा हूँ ? यदि ऐसी ही कोई इच्छा किन्हीं भाई के मन में दबी हो तो उनसे अनुरोध है कि वे महामण्डल को अकेला छोड़ दें तथा केवल इस अभियान को कमजोर बनाने के लिये ही स्वयं को इस आन्दोलन से न जोड़ें। 

>>>3.  

          पर यदि उनके हृदय में त्याग का भाव है तथा केवल राष्ट्र की सेवा करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य हो, विशेष रूप से सदियों से प्रताड़ित और पददलित मनुष्यों के प्रति उनके हृदय में प्रेम और सेवा की इच्छा हो या स्वामीजी के प्रति तथा उनके आदशों के प्रति उनमें श्रद्धा का भाव हो तो वैसे सभी भाईयों का इस आन्दोलन में स्वागत है ।

>>>4. 

         चूँकि, यह एक निर्विवाद तथ्य है कि दो मनुष्य प्रत्येक दृष्टि से बिल्कुल एक जैसा या, कार्बन कॉपी की तरह कभी नहीं हो सकते, इसीलिये महामण्डल के नेताओं की समझ में भी भिन्नता होना स्वाभाविक है। [दुर्योधन 100 भाई सारे एक समान दुष्ट, पाण्डव 5 भाई कोई किसी की कार्बन कॉपी नहीं फिर भी उद्देश्य के प्रति एक। ] किन्तु, किसी भी स्थिति में ये भिन्नताएँ एक सीमा से अधिक नहीं बढ़नी चाहिए। अन्यथा वे महामण्डल गान को संघगीत की भावना से न गाकर केवल मुख से ही उच्चरित करते रहेंगे। "हमारे मन एक समान हों, हमारे विचार एक समान हों, इसी भावना के कारण प्राचीन काल में देवता लोग मनुष्यों से प्राप्त वस्तुओं को आपस में बाँट लिया करते थे" - संघबद्ध रहने की इस मूल भावना में कभी भटकाव नहीं आने देना चाहिए ।

      अतः महामण्डल के नेताओं को संघबद्ध रहते हुए मन, वचन एवं कर्मों में वांछनीय एकत्व बनाये रखने के लिये निम्नलिखित गुणों को अवश्य अर्जित करना चाहिए:-

(1) नेताओं को सर्वदा यही भावना रखते हुए नेतृत्व करना चाहिए कि "मैं इनका सेवक हूँ, मालिक नहीं ।" यदि वह यह चाहता हो कि दूसरे भी उसकी आज्ञा का पालन करें तो उसे भी दूसरों की आज्ञा का पालन करने के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिए ।

 (2) उसमें दूसरों के प्रति समुचित श्रद्धा का भाव रहना चाहिए तथा अपने सहकर्मियों के प्रति हार्दिक प्रेम रहना चाहिए। 

( 3 ) उसको अवश्य ही एक अति कर्मठ मनुष्य बनना चाहिए तथा लगातार अथक परिश्रम करने की क्षमता भी रखनी चाहिए।

(4) उसको बहुत ही धीर और शांतचित्त बनना चाहिए तथा किसी भी परिस्थिति में अपना सिर ठण्डा रखते हुए पूरे धैर्य के साथ निष्पक्ष निर्णय लेने में समर्थ होना चाहिए ।

( 5 ) उसमें किसी भी समस्या की तह में जाकर उसकी छुपी हुई जटिलता को स्पष्ट रूप से देखते हुए सोच-समझकर स्पष्ट निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए।

(6) इसी स्पष्ट निर्णय लेने की क्षमता को बिना एक क्षण भी विलंब किये तत्काल और सही समय पर उपयोग में लाना चाहिए।

 (7) उसका व्यवहार समय, स्थान तथा 'पात्र' (शठ के साथ ? टेरेरिस्ट के साथ) के अनुरूप उचित तथा संतुलित होना चाहिए। उसको भावावेश में आकर निर्णय नहीं लेना चाहिए ।

( 8 ) उसको आज्ञाकारी अवश्य होना चाहिए तथा संगठन के समस्त  नियमों- अधिनियमों का पालन उचित ढंग से करना चाहिए। इतना ही नहीं यदि वह यह चाहता हो कि उसके कनीय सहकर्मी उसके सभी निर्देशों का पालन करें तो उसको भी अपने से वरिष्ठ नेताओं की आज्ञा का पालन अविलंब तथा तत्परता के साथ करना चाहिए।

 (9 ) उसको सर्वदा महामण्डल का अनुशासन बनाये रखना चाहिए। उसका व्यवहार तथा वाणी हर समय संयमित रहना चाहिए ताकि महामण्डल के बाहर या भीतर उसके आचरण को देखकर लोग महामण्डल या उसके सदस्यों के प्रति कोई ओछी धारणा न बना लें

( 10 ) उसको स्वयं को आजीवन एक विद्यार्थी ही मानना चाहिए तथा सीखना ही उसका धर्म होन चाहिए । उसको हर परिस्थिति से कुछ-न-कुछ अवश्य सीखते रहने की चेष्टा करनी चाहिए।

(11) उसको महामण्डल के समस्त  क्रिया-कलापों की अद्यतन जानकारी रखने के साथ ही साथ स्थानीय, राज्यस्तरीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्रों की विस्तृत जानकारी भी रखनी चाहिए। [भू-राजनीतिक अनिश्चितता (Geopolitical uncertainties)  और भू-राजनीतिक घटनाओं (Geopolitical events) के साथ-साथ राष्ट्रीय सेंसेक्स (Bombay Sensex) , आज का रुपया-डॉलर मूल्य, सोना और पेट्रोल मूल्य का ज्ञान भी रखना चाहिए। 

(12) महामण्डल से जुड़ जाने के बाद उसे अपने समस्त पुराने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा सैद्धांतिक (फिलिस्तीन -हमास-इजराईल के बारे में) पूर्वाग्रहों को अवश्य त्याग देना चाहिए

(13) स्वच्छता का गुण एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है, सभी नेताओं को इसे अवश्य चरित्रगत करना चाहिए । उसको शरीर, वाणी, कर्म,रोकड़-बही तथा महत्वपूर्ण अभिलेखों को बिल्कुल स्वच्छ रखने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए ।

( 14 ) उसका जीवन सुव्यवस्थित होना चाहिए। यदि उसकी अपनी दिनचर्या ही सुव्यवस्थित न होगी तो वह कभी भी प्रभावोत्पादक नेता नहीं बन सकता ।

(15) एक सफल नेता के लिए मन, वचन और कर्म में एकत्व रखना आवश्यक है।

( 16 ) उसको दूसरों को किसी कार्य का आदेश देने के पहले स्वयं उस कार्य को दक्षता के साथ सम्पादित करने में सक्षम होना चाहिए ।

 ( 17 ) उसको सदैव यह विश्वास रखना चाहिए कि मैं अवश्य ही एक प्रभावी नेता बन सकता हूँ। उसको अपने पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए ।

(18) जब तक दूसरों को उसके नेतृत्व की आवश्यकता अनुभव न हो, उसे एक अनुयायी ही बने रहना चाहिए।

( 19 ) किन्तु जब कभी भी उसकी सेवाएँ आवश्यक हो जायें तो चाहे उसको कोई विभागीय पद दिया गया हो या नहीं, स्वतः आगे बढ़कर अपनी सेवा समर्पित करनी चाहिए ।

 🔱(20) महामण्डल का बिल्ला प्राप्त नेता चुन लिये जाने पर इठलाते हुए स्वयं के दूसरों से श्रेष्ठ होने के विचार को भी मन में उठने नहीं देना चाहिए। 

🔱(21) उसे जोशीला या अतिरिक्त ऊर्जावान् होने के साथ-साथ आत्मसंयमी और विनयशील भी होना चाहिए ।

(22) उसे वाक्पटु अवश्य होना चाहिए पर बातूनी नहीं बन जाना चाहिए ।

( 23 ) उसको दूरदर्शी अवश्य होना चाहिए तथा आगे आने वाली या संभावित घटनाओं को पहले ही भाँप लेने में सक्षम होना चाहिए।

( 24 ) उसको विवेक अवश्य रखना चाहिए अर्थात उसमें श्रेय - प्रेय का अन्तर समझने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए ।

(25) उसको किसी भी कार्य के लिए पहले से ही पूर्ण योजना बना लेने में कुशल होना चाहिए।

 (26) उसे समाज सेवा के पीछे छिपे यथार्थ उद्देश्य को सदैव याद रखने में सक्षम होना चाहिए। 

( 27 ) उसे यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि, बाकि सबों ने अपना काम कर लिया है , लेकिन अपनी मातृभूमि के प्रति जितनी सेवा समर्पित करने की जिम्मेदारी उसे सौंपी गई है उतनी निर्धारित सेवा उसे स्वयं ही करनी होगी ।

( 28 ) उसे इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रमों का कोई मूल्य नहीं है यदि उसका वास्तविक लक्ष्य मनुष्य निर्माण न हो।

(29) नेता को प्रतिदिन विवेकानन्द साहित्य का अध्ययन पूरी निष्ठा के साथ करनी चाहिए।

( 30 ) उसे 'विवेक जीवन को नियमित रूप से पढ़ना चाहिए तथा महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं को एक बार पढ़कर बैठ नहीं जाना चाहिए बल्कि बार-बार उसका अध्ययन करना चाहिए ।

( 31 ) उसे महामण्डल मुख्यालय से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना चाहिए तथा सर्वोपरि कार्य यही है कि स्वयं अपने हृदय को ही विशाल बनाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।


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गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

🔱(6)नेता भी बनाये जा सकते हैं /नेता केवल पैदा ही नहीं होते, बल्कि प्रशिक्षित भी किये जा सकते हैं ! (Leaders are not only born, but can be trained also ! ) / नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 (6)

नेता भी बनाये जा सकते हैं 

(नेता केवल पैदा ही नहीं होते, बल्कि प्रशिक्षित भी किये जा सकते हैं) 

(Leaders are not only born, but can be trained also !)

>>>1. नचिकेता वाली श्रद्धा ही चरित्रनिर्माण की आधारशिला है। 

        ऐसी मान्यता चल पड़ी है कि नेता बनाये नहीं जा सकते, नेता पैदा होते हैं, यदि कोई 'व्यक्ति' जन्मजात ही नेता न हो तो उसे नेता , बनाया नहीं जा सकता । परन्तु सच्चाई तो यह है कि नेता भी बनाये जा सकते हैं । चरित्र को लेकर भी जनमानस में इसी प्रकार का भ्रम फैला हुआ है। सामान्यतः लोग यही मानते हैं कि चरित्र भी हममें जन्म के साथ अन्तर्निहित रहता है । परन्तु चरित्र को भी गढ़ा जा सकता है। 

      तथापि यह बात भी सत्य है कि, 'कुछ नहीं' से 'कुछ' भी निर्मित नहीं किया जा सकता है। श्रद्धा (आस्तिक्य बुद्धि, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान) ही वह वस्तु है, वह 'कुछ है' जिसे चरित्र निर्माण की आधारशिला कही जा सकती है। नेताओं को निर्मित करने वाला नींव का पत्थर भी यह श्रद्धा ही है। सच तो यह है कि चरित्र गठन और नेता का निर्माण दोनों की प्रक्रिया में कई बातें समान हैं। इसीलिये केवल चरित्रवान मनुष्य ही सच्चे नेता हो सकते हैं, तथा सच्चे नेताओं का निर्माण कर सकते हैं।

>>>2. 

        यदि मैं स्वयं को सन्मार्ग पर रखने में समर्थ हो सकता हूँ, तभी मैं दूसरों को भी सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा दे सकता हूँ। नेतृत्व करने के लिए जिन लोगों का आह्वान किया जा रहा है उनमें पहले से ही नेतृत्व का यह मूलभूत भाव होना चाहिए । नेतृत्व का यह भाव मनुष्य में तब जन्म लेता है जब चरित्र के कुछ गुण जैसे आत्मविश्वास, आत्मश्रद्धा, प्रेम तथा सहानुभूति एवं दूसरों को कष्ट से मुक्त कर देने की अदम्य इच्छा उसकी अधिकृत सम्पत्ति हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों को अपना हृदय विशाल बनाने में हर संभव सहायता देने के पहले हमारे हृदय को विशाल होना चाहिए ।  नेता को स्पष्ट रूप से अपने उद्देश्य का ज्ञान होना चाहिए। तथा उस लक्ष्य को प्राप्त करने के उपायों को भी अवश्य जान लेना चाहिए । महामण्डल आन्दोलन का लक्ष्य अपने राष्ट्र को पुनरूज्जीवित करने एवं इसे आगे ले जाने में समर्थ नेताओं को तैयार करना है । हमें महामण्डल आन्दोलन की आत्मा को अवश्य समझ लेना चाहिए। 

    हम किसी बहुत ही चमत्कारी परिणाम पाने की इच्छा नहीं रखते हैं। बल्कि हमलोग स्वामीजी की शिक्षाओं को विनम्र ढंग से जन-जन तक पहुँचाना चाहते हैं। हमारे आन्दोलन का लक्ष्य है मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन लाकर, चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना और उसी प्रकार से पूरे समाज और राष्ट्र के चरित्र को उन्नत करना । निश्चित रूप से 'Be & Make' अर्थात 'मनुष्य बनो और बनाओ ' का यह अभियान, 'चरैवेति, चरैवेति' मंथर गति से चलेगा, इसमें समय लगना स्वाभाविक है

>>>3. 

     'आन्दोलन' शब्द के विषय में शिक्षित एवं प्रबुद्ध समाज में भी एक प्रकार की भ्रान्त धारणा घर कर गई है। अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं कि किसी भी आन्दोलन को प्रभावकारी बनाने के लिये उसकी गति में तीव्रता का होना आवश्यक है। यदि कोई आन्दोलन धीमी गति से, किन्तु निश्चित दिशा में आगे बढ़ रहा हो तो,  उस आन्दोलन का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य ही नहीं होता है। व्यवहारिक रूप से इस प्रकार का विचार किसी आन्दोलन के दिशा या उद्देश्य के प्रश्न से ही हमें विमुख कर देता है। 

      जबकि सच्चाई तो यह है कि यदि किसी आन्दोलन का कोई लक्ष्य या पूर्व निर्धारित दिशा ही नहीं रहे तो वैसे आन्दोलन की तीव्रता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। क्या किसी लक्ष्यविहीन, उन्मत्त आन्दोलन [जैसे नक्सल ?] का जिसकी कोई दिशा भी निर्धारित न हो उसका कुछ मूल्य हो सकता है?  इसीलिये किसी भी अच्छे और कल्याणकारी आन्दोलन के लिये एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य तथा सही दिशा में आगे बढ़ते रहना ही अधिक महत्वपूर्ण है, उसकी गति मंद हो या तीव्र उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता

>>>4. 

         अपने राष्ट्र भारतवर्ष को पुनरूज्जीवित करने के लिये पहली आवश्यकता- यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करने की है; अर्थात आज के भारत की प्रथम आवश्यकता  बहुत बड़ी संख्या में आत्मविद (ब्रह्मविद-मनुष्यों का निर्माण करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ) जीवनमुक्त शिक्षकों की ही है। जबकि आज हमारे विकास तथा नवनिर्माण की सभी योजनाएँ मनुष्य के बाहरी ढांचे को परिवर्तित करने के लिये ही बनाई जा रही हैं और मनुष्य के अन्तःकरण में परिवर्तन लाने की ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। 

      महामण्डल आन्दोलन का लक्ष्य 'मनुष्य' के बाह्य ढांचे में बदलाव लाने के बजाय उसके अन्तःकरण को सुसंस्कृत बनाना है । निःसन्देह यह प्रक्रिया कभी तीव्र गति से नहीं चलायी जा सकती । किन्तु, एक बहुत बड़ी शंका यहाँ यह उठ खड़ी होती है कि क्या हमलोग अपने वर्तमान सीमित साधनों के बल पर (अन्तःकरण को सुसंस्कृत करने यानि मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ सीमित संख्या में प्रशिक्षित और जीवनमुक्त शिक्षकों की बल पर देश के एक अरब चालीस करोड़ लोगों के अन्तःकरण को सुसंस्कृत करने के) अपने उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में थोड़ा भी आगे बढ़ पायेंगे ? इस स्थिति में हम अपने अन्दर नचिकेता जैसी श्रद्धा जाग्रत करने से बेहतर कुछ नहीं कर सकते। हमें भी नचिकेता के समान अपने अन्दर वह श्रद्धा सदैव जाग्रत रखना चाहिए कि "ठीक है हम सर्वश्रेष्ठ नेता (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ?) नहीं हैं परन्तु बिल्कुल ही निकृष्ट तो हम कभी भी नहीं हैं।"

 >>>5. 

          प्रत्येक युवा को अपनी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति को सुदृढ़ कर प्रचण्ड क्रियाशक्ति का पुंज बन जाना चाहिए | बिखरी हुई इच्छाशक्ति का समन्वय ही सफलता का रहस्य है। प्रत्येक युवा के भीतर अनन्त ऊर्जा सन्निहित है किन्तु उसे आवश्यकता उस चाबी की है (आत्मसाक्षात्कार की है) जिससे वह अपनी आन्तरिक ऊर्जा के द्वार को, बन्द हृदय के दरवाजे को खोलने में समर्थ हो जाये । सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए अनन्त ऊर्जा से भरपूर इन अलग-अलग हृदय केन्द्रों को एक समन्वयकारी सूत्र में पिरो देने की चेष्टा करनी होगी। अपने देशवासियों को शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक दुःखों से मुक्त कराने का तथा सम्पूर्ण राष्ट्र को पुनरूज्जीवित करने का यही एकमात्र उपाय है।

>>>6. 

        हमलोगों को निम्न कोटि की स्वाधीनता प्राप्त करके ही संतुष्ट नहीं बने रहना है। बल्कि अब हमें उच्च कोटि की स्वाधीनता प्राप्त करनी है । राजनैतिक स्वाधीनता से भी उच्चतर नैतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता (योग-एकाग्रता -समाधि परमानन्द)  प्राप्त करने के लिए इस आन्दोलन को आगे बढ़ाते रहना होगा । राजनीतिक दृष्टि से स्वाधीन भारत में हमलोगों ने अभी तक स्वामीजी के उपदेशों की उपेक्षा ही की है और इसी कारण हम आज भी उच्चतर कोटि की स्वाधीनता से वंचित हैं। वर्तमान भारत में कितने ऐसे नेता हुए हैं जिन्होंने भारत की जनता के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो ? शायद एक भी नहीं । परन्तुः स्वामी विवेकानन्द बिल्कुल एक ऐसे ही मनुष्य थे। इसीलिये स्वामीजी ही आज भी हमारे नेता हैं। अपने देशवासियों को उच्च श्रेणी की स्वाधीनता दिलाने के लिये महामण्डल स्वामीजी के उपदेशों को जीवन में उतार कर 'यथार्थ मनुष्य बनो और बनाओ' का यह आन्दोलन विगत 56 वर्षों से चला रहा है

          इतना सब कुछ समझ लेने के बाद भी, क्या हमलोग पने निजी स्वार्थपूर्ण क्षुद्र इन्द्रिय विषय- भोगों के पीछे ही दौड़ते रहेंगे ? क्या हमलोग इतने तुच्छ हैं कि क्षणिक भोग-वासनाओं को तुष्ट करने में ही पूरा जीवन बिता देंगे ? विषय भोगों से तो मन की परितृप्ति तो कभी हो ही नहीं सकती, राजा ययाति की कथा से यह सीख लेकर;  हमें यह समझ लेना होगा कि स्थायी सुख केवल तभी मिल सकता है जब हम अपने सुख-दुःख को उन करोड़ों देशवासियों की हताशा और पीड़ा के साथ एक करके देखने में सक्षम हो जायेंगे।

>>>7. Long term plan- (B) of Mahamandal:महामण्डल की दीर्घकालिक योजना

       क्या महामण्डल देश की दशा सुधारने के लिये संसद भवन या विधान सभा में अपने सदस्यों MP/MLA के रूप में  भेजना चाहता है ? नहीं, ऐसे विचारों से महामण्डल का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है ? महामण्डल का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। यह समाज के ताने-बाने में परिवर्तन लाकर समाज के चेहरे को ही बदल डालना चाहता है महामण्डल की दीर्घकालिक योजना है। सुचरित्रसंपन्न, सदाचार से युक्त कुछ वैसे नेताओं को गढ़ लेने में सफलता पाई जाये जो दूसरों को भी अपना चरित्र गठन करने के लिये अनुप्रेरित करने में समर्थ हों फिर यही प्रक्रिया कुछ वर्षों के बाद देश में परिवर्तन ला कर उसे महानता के शिखर पर पहुँचा देगी 

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🔱(5) भविष्य के नेताओं के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव। /Some important suggestions for Would be leaders ./ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 (5) 

भविष्य के नेताओं के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव

[Some important suggestions for Would be leaders.]

>>>1. The secret of Work : आत्मगोपन भाव से कर्म करने के उपाय। ( Ways to perform actions with self-discipline). कर्म का रहस्य : अच्छा महामण्डल कर्मी कौन ?] 

         आप में से प्रत्येक व्यक्ति को मन में यह विचार रखना चाहिए कि मैं नेता बन सकता हूँ, लेकिन जब तक दूसरे लोग आपको अपना नेता नहीं चुनते, तब तक आप अनुयायी ही बने रहिए । किन्तु जब आपको ऐसा अनुभव हो कि यहाँ मेरी आवश्यकता है, वहाँ स्वतः आगे बढ़कर अपनी सेवा समर्पित कीजिए। इस बात की गांठ बांध कर मत बैठे रहिए कि मुझे तो इस कार्य की जिम्मेदारी सौंपी ही नहीं गई है तो मैं वहाँ अपनी सेवाएँ क्यों दूँ ? यहाँ पर दो प्रकार की कठिनाईयाँ सामने आती हैं। 

     प्रत्येक संस्था में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो स्वयं को महत्वपूर्ण दिखाने की चेष्टा करते हैं तथा हर काम में दूसरों को पीछे धकेलकर स्वयं को ही आगे रखना चाहते हैं। मुझे ही सचिव के पद पर क्यों नहीं चुना गया, क्या मैं सचिव नहीं बन सकता था ? मुझे ही हाथ में माईक लेकर सभा संचालन करने वाला उद्घोषक क्यों नहीं बनना चाहिएलेकिन वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सबके आँखों के सामने स्वयं को हमेशा दिखाते रहने में विश्वास नहीं करते बल्कि वे स्वयं को हमेशा हर किसी से पीछे रखते हैं। उनकी यही मान्यता होती है कि मैं तो चुपचाप बिना किसी के जाने ही अपना काम करना चाहता हूँ, सबलोग मुझे देखें तथा मेरी सराहना करें - ऐसा मैं बिल्कुल नहीं चाहता । निश्चित रूप से ऐसी मनःस्थिति वाला व्यक्ति पहले वाले व्यक्ति से कहीं अधिक अच्छा कार्यकर्ता है। 

     इस संदर्भ में स्वामीजी की एक उक्ति स्मरणीय है, वे कहते हैं- "One who can work completely in hiding is the best worker" - अर्थात् जो स्वयं को सबकी दृष्टि से पूरी तरह छुपाकर कार्य कर सकता है, वही सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता #1  है। वे युक्ति - तर्क से स्पष्ट करते हुए कहते हैं- इस विश्व ब्रह्माण्ड में ईश्वर ही सबकुछ कर रहे हैं, किन्तु कोई भी उनको कहीं देख नहीं पाता। अच्छे कर्म का यही रहस्य है।

      आत्मगोपन भाव से ही कर्म कीजिए, हर समय मंच के ऊपर अपने ही चेहरे को आगे रखने की चेष्टा मत कीजिए । कागज पर अपना नाम लिखकर फाड़ने एवं रद्दी की टोकरी में फेंकने का अभ्यास कीजिए (Signing a paper and Tearing it- ठाकुर-माँ -स्वामजी की तस्वीर और उपदेशों के साथ भव्य-शोभायात्रा निकले किन्तु) कोई आपका चेहरा न देखने पाये, बाहर का कोई व्यक्ति यह जानने न पाये कि इस कार्य के पीछे कौन व्यक्ति था ? इस प्रकार कर्म करने में समर्थ बन जाना ही कर्म करने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है ।

>>>2.Always be true to your conscience.#  Remove Too much Humbleness : अत्यधिक विनम्रता दिखावा है-##2 अपनी अन्तरात्मा के प्रति सदैव ईमानदार रहिए। दादा के शब्दों में महामण्डल नेतृत्व साँप का खेल दिखाने के बाद -आठ आना , चार आना माँगने वाला कोई मदाड़ी नेतृत्व नहीं है ! ]   

     किन्तु यहाँ यह याद रखना होगा कि यदि समय की मांग हो तो आपको ही वह पहला व्यक्ति होना चाहिए, जो स्वतः आगे बढ़कर उस कर्म में अपने कंधों को लगा दे। वहाँ आपको नेतृत्व देने में इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि- मेरे सभी अग्रज /वरिष्ठ सहकर्मियों को यह पता है कि मेरी बुद्धि कितनी तीव्र है, वे सभी मेरी धारा प्रवाह भाषण क्षमता के साथ-साथ मेरे अध्ययन और लेखनी की तेज धार को भी जानते हैं फिर भी, -इन लोगों ने मंच-संचालन के लिए जब पहले से मेरे नाम का चयन पहले से नहीं किया, मुझे अपना नेता या उद्घोषक  नहीं बनाया;  तो अब क्यों नहीं इन्हें इसका मजा चखने दिया जाय ? यही तो अवसर है, इस समय निश्चित ही मेरे सिवा अन्य कोई ऐसा नहीं है जो मंच-संचालन कार्य को संभाल सके। अब, भला बिन बुलाये मैं वहाँ क्यों जाने लगा ?

     मुझमें इतनी प्रतिभा और सामर्थ्य है, फिर भी उन लोगों ने अभी तक मुझे नेतृत्व (सेक्रेटरी) की जिम्मेदारी क्यों नहीं सौंपी है ? नहीं; इस प्रकार के तुच्छ विचार महामण्डल के किसी नेता को अपने मन में उठने भी नहीं दना चाहिए। जहाँ कहीं भी आपको ऐसा लगे कि यहाँ मेरी आवश्यकता है तो बिना बुलाये ही उस कार्य में स्वयं को भिड़ा दीजिए । किन्तु इसके बाद पद या नाम - यश के पीछे मत दौड़िये न ही इसकी कुछ परवाह कीजिए । एक अच्छा नेता बनने का यही रहस्य है। आप अपनी अन्तरात्मा के प्रति सदैव ईमानदार रहिए कि मैं जो कुछ भी कार्य कर रहा हूँ वह - सचमुच दूसरों के कल्याणार्थ ही है, इसके पीछे मेरा कोई निजी क्षुद्र स्वार्थ नहीं है। ऐसा करने में आप केवल तभी समर्थ हो सकते हैं जब आप जिन भाईयों का नेतृत्व कर रहे हों, स्वयं को भी उन्हीं में से एक बना लें। आपमें स्वयं को उन्हीं में से एक बना लेने की क्षमता का होना अति आवश्यक है। 

>>>3. आप चतुर्भुज नहीं हैं, फिरभी आप धन्य हैं , क्योंकि ईश्वर ने दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करने में आपका चयन किया है !  

     स्वयं को कभी बहुत बड़ा मत मानो, ऐसा कभी मत सोचो कि मैं तो ढेर सारे आवश्यक गुणों से विभूषित हूँ, मुझमें दूसरों से अधिक कई विशिष्ट गुण हैं। अन्य किसी में तो ये सब गुण हैं ही नहीं । अतः मैं ही इन सबमें उत्कृष्ट हूँ । मैं तो एक विशिष्ट व्यक्ति हूँ । बिल्कुल नहीं, आप कोई अलग प्रकार के मनुष्य नहीं हैं। यदि आप में कोई विशिष्टता है तो केवल इतना ही है कि ईश्वर ने आपको दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवायें करने का विशेष अवसर प्रदान किया है। बस, इससे अधिक कुछ मत चाहो ।

>>>4. यौवनोचित जोश के साथ -साथ आत्मसंयम और विनम्रता रखना भी आवश्यक है।  

      आपके अन्दर यौवनोचित जोश अवश्य होना चाहिए किन्तु उसका उपयोग हमेशा आत्मसंयम के साथ करना चाहिए। अपने भीतर निरन्तर जोश बनाये रखिये परन्तु इसके साथ ही साथ यदि आपमें आत्मसंयम का गुण न रहे तो यही जोश आपको धक्के मार कर नीचे भी गिरा देगा। समझाने के लिये जितना अधिक हो सके उतना अवश्य बोलिये परन्तु बकवास मत कीजिए । नेताओं को अपने विचार दूसरों को समझाने के लिये कभी -कभी अधिक बोलना ही पड़ता है ताकि दूसरे लोग उनकी बातों को ठीक ढंग से समझकर सभी कार्यों को सही ढंग से कर सकें। किन्तु बहुत अधिक जोर से बोलने पर किसी भी बात का महत्व कम हो जाता है। ऐसा होना अच्छा नहीं है।

>>>5. नेतृत्व करने में 'Farsightedness- दूरदर्शिता का गुण' रहना अनिवार्य है। 

       नेताओं में दूर दृष्टि का गुण अवश्य होना चाहिए। किसी भी निर्णय को लेते समय उसके बाद एक-एक करके आने वाले सभी परिणामों को पहले ही जान लेने में सक्षम अवश्य होना चाहिए। उदाहरणार्थ, मैंने कोई निर्णय लिया किन्तु, यदि वह निर्णय आगे उत्पन्न होने वाली समस्या के निदान के विषय में बिना सोचे-समझे ही ले लिया ; तो वही एक गलत निर्णय कई अन्य समस्याओं को उत्पन्न करेगी। इन सब बातों के ऊपर बिना विचार किये ही यदि मैंने केवल नेता होने के मद में आकर कोई आदेश सुना दिया कि यह करो;  और सभी उसका पालन करने में लग गये । तथा कुछ ही समय बाद मैंने यह जान भी लिया कि उस समय मेरे द्वारा हड़बड़ी में जो निर्णय लिया गया था, वह तो गलत था, किन्तु तब तक जो क्षति होनी थी वह तो हो ही चुकी होती है। इसीलिये नेताओं को दूरदर्शिता का गुण अर्जित करने के लिये निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए। यह सब कुछ आपके श्रेय- प्रेय विवेक-प्रयोग क्षमता पर ही निर्भर करता है । अतः नेता को विवेक विचार किये बिना कोई तुगलकी फरमान नहीं सुनाना चाहिए ।

>>>6.  Short-term and long-term planning Both are essential/अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजना दोनों ही आवश्यक हैं।  

        किसी भी नेता में सटीक योजना बनाने की प्रतिभा भी अवश्य होनी चाहिए। किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये अल्पकालिक (Plan-A) और दीर्घकालिक (Plan-B) दोनों प्रकार की योजना पर ध्यान रखना आवश्यक है।  कभी-कभी विशेष परिस्थितियों के अचानक ही उपस्थित हो जाने पर तत्काल निर्णय लेकर एक अल्पकालिक योजना बनानी पड़ती है । उसी प्रकार से दीर्घकालिक योजना बना लेना भी आवश्यक है। मान लीजिए हम किसी संगठन के भविष्य की रूप रेखा तय करने के लिये कोई योजना बना रहे हैं। तो उस समय हमें  यह ध्यान रखना होगा कि हमारी वह योजना कम से कम आगामी पचास या सौ वर्षों तक कार्यकारी बनी रहे । 

      महामण्डल के 'Be and Make मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' के प्रारम्भिक काल में जब हमसे लोग यह पूछते थे कि आपके संगठन द्वारा चलाये जा रहे,  'मनुष्य बनो और बनाओ ' आन्दोलन के लिए 'चरैवेति, चरैवेति - अभियान' का प्रभाव समाज के ऊपर दृष्टिगोचर होने में कितना समय लगने की आप उम्मीद करते हैं ?  तब हम कहा करते थे कि मैं आपको अभी इसकी कोई निश्चित समय सीमा नहीं बता सकता। शायद इस संकल्प को पूरा होने में दस-पन्द्रह वर्ष या बीस-पच्चीस वर्ष अथवा पचास वर्ष भी लग सकता है । परन्तु इतना वर्ष बीत जाने के बाद अब हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि यदि हम लोग इसी प्रकार अपना कार्य चलाते रहें तो समाज के ऊपर इस अभियान का ठोस और प्रत्यक्ष परिणाम पचास से सौ वर्ष #3 के भीतर अवश्य ही दृष्टिगोचर होने लगेगा। भारत और महामण्डल का अमृतकाल :  #3  यह महामण्डल पुस्तिका दादा ने 1986 में लिखी थी तो - 1986 + 50 = 2036 से 2086 तक होगा ! )   इत..... ना, लं.......बा समय; तब तक तो शायद हम इस अभियान का फल देखने के लिये जीवित भी नहीं रहेंगे। 

>>>7 

      तब क्या, हमें इस अभियान को यहीं रोक देना चाहिए ? क्योंकि यह बात तो निश्चित है कि इसका परिणाम हम नहीं देख पायेंगे। (दादा 2016 में शरीर छोड़ दिए)  समाज सेवा/ फिल्म आदि क्षेत्र के कार्यों से जुड़ी संस्थाओं के कर्ता-धर्ताओं को कई प्रकार के राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार (2023 दादा साहेब फालके अवार्ड-वहीदा रहमान को)   प्राप्त होते हैं। क्या हमलोगों को भी इसी तरह के किसी पुरस्कार द्वारा सम्मानित होने की आशा नहीं रखनी चाहिए ? महामण्डल ने तो सर्वोत्कृष्ट समाज सेवा का कार्य किया है, जो लोग इस अभियान को सफल बनाने में इसके प्रारम्भ से ही जुड़े रहे हैं और अब 70 वर्ष की आयु को पार कर गये हैं, कम से कम उनको तो इस प्रकार का कोई पुरस्कार अवश्य ही मिलना चाहिए। ऐसी बेतुकी इच्छाएँ हमारे मन में भी उठ सकती हैं। परन्तु, नहीं, इस प्रकार के किसी इच्छा को हमें प्रश्रय भी नहीं देना चाहिए। हमें केवल निष्काम कर्म करने की इच्छा से कर्म करते रहना चाहिए, पुरस्कार या फल पाने की कोई इच्छा मन में नहीं उठने देनी चाहिए। 

      हमें इसी भावना के साथ इस अभियान 'Be & Make को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलाते जाना है। क्योंकि यदि हम अपने आदर्श स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' मुहावरे को ठीक से समझ चुके हों तो हमें यह स्वतः समझ में आ जायेगा कि यह अभियान निरन्तर चलने वाला है। क्योंकि 'कुत्ते की टेढ़ी पूँछ' को कभी सीधा नहीं किया जा सकता, इसलिये यह कभी न समाप्त होने वाला कार्य है । सर्वदा इसी अभियान को चलाते रहने के सिवा दूसरा कोई उपाय ही नहीं है नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । 

    परन्तु इतना सब जानकर भी हमलोग यदि इस जिद पर अड़ जायें कि नहीं, हम तो बस इसी समय इस समस्या -  का समूल अंत कर देंगे;  तो यह हमारी बच्चों जैसी जैद होगी। क्योंकि केवल बच्चों की कहानियों में ही कथा का अन्त निरपवाद रूप से 'उसके बाद वे सुखपूर्वक रहने लगे' जैसी पंक्तियों से होता है। इस प्रकार से जिस कहानी का अन्त होता है उसी को हम नानी-दादी की कहानियाँ कहते हैं। सांसारिक द्वंद्वों की उष्मा में भली भाँति तपे - तपाये मनुष्य कभी भी जीवन गाथा के ऐसे अन्त की बात सोच भी नहीं सकते। क्योंकि निरंतर चलने वाले संघर्ष को ही जीवन कहते हैं ।

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 [सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता #1  - जब हमारा अहंज्ञान नहीं रहता तभी हम अपना सर्वोत्तम कार्य कर सकते हैं , दूसरों को सर्वाधिक प्रभावित कर पाते हैं।  अहं को निकाल डालो , उसका नाश कर डालो , उसे भूल जाओ , अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो - यह उन्हीं का कार्य है , उन्हें करने दो। हमें और कुछ नहीं करना होगा - केवल स्वयं हटकर उन्हें काम करने देना होगा। हम जितना दूर हटते जायेंगे, ईश्वर उतना ही हमारे भीतर आएगा। Get rid of the little "I", and let only the great "I" live. कच्चा 'मैं' को नष्ट कर डालो - केवल पक्का 'मैं ' को रहने दो। जब हम 'मैं मैं ' कहते हैं , तब हम मूर्ख से बन जाते हैं , और कहते जाते हैं - मैंने 'ज्ञान' लाभ कर लिया है , किन्तु वास्तव में हम तो 'आँख बँधे बैल ' के समान कोल्हू में ही लगातार घूमते रहते हैं। भगवान खूब अच्छी तरह अपने को छिपाकर रखते हैं , इसीलिए उनका कार्य भी सर्वोत्तम है। इसी प्रकार जो अपने को सम्पूर्ण रूप से छिपाकर रख सकते हैं , वे ही सबकी अपेक्षा अधिक कार्य कर पाते हैं।  7/22  

"Our best work is done, our greatest influence is exerted, when we are without thought of self. Put out self, lose it, forget it; just let God work, it is His business. We have nothing to do but stand aside and let God work. The more we go away, the more God comes in. Get rid of the little "I", and let only the great "I" live. As soon as we say "I", we are humbugged all the time; and we call it "knowable", but it is only going round and round like a bullock tied to a tree. The Lord has hidden Himself best, and His work is best; so he who hides himself best, accomplishes most. To give up the world is to forget the ego, to know it not at all — living in the body, but not of it. This rascal ego must be obliterated. Bless men when they revile you." [ June 26, 1895./ Inspired Talks] 

##2Always be true to your conscience. #अपनी अन्तरात्मा के प्रति सदैव ईमानदार रहिए :स्वान्तः  सुखाय  तुलसी  रघुनाथ  गाथा, # #  श्री  रामायण  जी  सम्पूर्ण   करने   के  उपरांत, बाबा  तुलसीदास  जी  से  किसी  ने  पूछा, बाबा  इसमें  यह  कमी  रह  गई, आपको  वहाँ 'अमुक' व्यक्ति के चरित्र का  भी  चित्रण  करना चाहिए  था।  बाबा  यह  यह  प्रसंग  मुझे अपूर्ण  सा  लगता  है, इसे   थोड़ा  औऱ  रुचिकर  लिखते तो अच्छा होता।  बाबा  जी  ने  सभी  की  बातों  को  सुनकर  जो  उत्तर  दिया  वहः  ह्रदयंगम  करने  योग्य  है- " देखो  भाइयो  यह  रामचरित  मानस  ग्रन्थ/ ज्ञानमन्दिर -महामण्डल आन्दोलन हमने आपकी  किंतु- परन्तु सुनने या अनेकों की  समालोचनाओं  के  लिए  नहीं  लिखा/खड़ा किया  है !  यह  तो  हमने , " स्वान्तः  सुखाय "  अपने  अंतर  के   सुख , अपने  ह्र्दय के आनन्द  के  लिए  लिखा  है।  तुम  को इस संगठन में जो कुछ  अच्छा  लगे  तो  इसमें  से  ग्रहण  करो, अन्यथा  मत  करो ! "  स्वान्तः   सुखाय  तुलसी  रघुनाथ   गाथा" -  बोल  सियावर  रामचंन्द्र  की  जय !"  [(2023 हथिया नक्षत्र कैम्प, जानिबिघा, गया के 30 साला -MLA : चंद्रवंशी प्रेम कुमार /नितीश सरकार में कृषि एवं पशुपालन मंत्री के आने का रहस्य : मेरे ह्रदय में विद्यमान ठाकुर-माँ की इच्छा और आशीर्वाद से, ठाकुर-माँ को आनन्दित करने के लिए स्वामीजी ने स्वयं मुझे अपना यंत्र बनाकर 1985  'विवेकानन्द ज्ञान मंदिर ' खड़ा किया था, जो धनेश्वर पण्डित-दयानन्द -उपेन्द्र सिंह, राहुल सिंह, आनन्द सिंह, अनिल यादव, सचिन की माँ जेपी भोजन के सहयोग से चल रहा है  !]   

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🔱(4 ) नेतृत्व का रहस्य / The Secret of Leadership / नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 (4 ) 

नेतृत्व का रहस्य 

[The Secret of Leadership ]

>>>1. 

       किसी भी नेता में अपने चारित्रिक गुणों को उन्नत करने की क्षमता के साथ-साथ इस संबंध में दूसरों का मार्गदर्शन करने की प्रतिभा एवं सहायता करने का सामर्थ्य भी अवश्य रहनी चाहिए। महामण्डल के नेताओं का यही मुख्य कार्य है और निःसंदेह दीर्घकाल से हमलोग यही करते आ रहे हैं । किन्तु, अब इतने वर्ष बीत जाने के बाद [महामण्डल स्थापना के 56 वर्ष बीत जाने के बाद] हमारे समक्ष इसकी एक अपेक्षाकृत स्पष्ट छवि है तथा इस कार्य योजना को कार्यान्वित करने के लिये हमारा संकल्प पहले की अपेक्षा अधिक हुआ दृढ़ है।

      हमारा यह कार्य अन्य समाज सेवा के कार्यों की तरह कोई साधारण समाजसेवा नहीं है। हमारा लक्ष्य है 'मनुष्य निर्माण' तथा - हमारा ध्येय मंत्र या वाक्य है- 'Be and Make' अर्थात् "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो।" अतः हम सभी को अपना चरित्र उन्नत करने के लिये कठोर परिश्रम तो करना ही चाहिए साथ ही साथ दूसरों को भी अपना चरित्र गठित करने के लिये निरन्तर प्रोत्साहित करते रहना चाहिए एवं इसके लिए सहायता भी करनी चाहिए। यदि हम यह कार्य करने में समर्थ न हो सके तो अन्य प्रकार की समाज सेवा हम चाहे जिस परिमाण में भी करते रहें उसका कुछ परिणाम नहीं निकलेगा और हमारा सारा परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा। 

    अतः कोई भी सामाजिक परियोजना चाहे वह प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र हो, शिक्षण संस्थान हो, शिशुओं के विकास हेतु कोई कार्यक्रम हो, निःशुल्क औषधालय चलाना हो, छात्रावास संचालित करना हो या पोलियो ड्रॉप पिलाने जैसा अन्य कोई टीकाकरण अभियान चलाने में सहयोग देना हो, हमें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि किसी भी कार्य योजना से हमें कोई फल प्राप्त नहीं होगा यदि ये कार्य मौके पर कार्यरत सेवाकर्मियों के चारित्रिक गुणों को उन्नत करने में सहायता नहीं पहुँचाते हों। महामण्डल में समाज सेवा की यही विशिष्ट प्रणाली है 

>>>2. महामण्डल द्वारा की गयी समाजसेवा की विशिष्ट प्रणाली (Special System of Social Service) :

      स्वामीजी की यही इच्छा थी कि जो मनुष्य दुःख कष्ट में पड़े हैं। उनके लिए हम सबों को कुछ न कुछ सेवा कार्य अवश्य करना चाहिए परंतु; वे ऐसा कभी नहीं चाहते थे कि उस सेवा कार्य से हम कोई लाभ नहीं उठाएँ। हमलोग समाज सेवा के माध्यम से भी अपने लिए कुछ न कुछ अवश्य लाभ उठाना चाहते हैं। सामान्यतः लोग किसी भी कार्य के माध्यम से कुछ पैसा कमाना चाहते हैं, कुछ लोग नाम - यश पाने के लिए सत्कर्म किया करते हैं। परंतु महामण्डल में हम इस तरह की कोई तुच्छ वस्तु पाने की कामना मन में रखकर कभी सेवा कार्य नहीं करते। 

       किसी भी रूप में दूसरों की सेवा करते समय अपने अन्दर त्याग की भावना को विकसित करने का प्रयास कीजिए, यदि अन्य कोई सेवा का कार्य नहीं कर सकते तो कम से कम चरित्र के गुणों को ही अर्जित करने का प्रयास कीजिए, अपने हृदय को ही विशाल बनाने की चेष्टा कीजिए। यदि आपने दूसरों की थोड़ी भी सेवा की हो, थोड़ा भी त्याग किया हो तो उस कार्य से आप अपने लिये कुछ लाभ अवश्य उठाइये। यदि आप समाज सेवा से अपने लिये कोई लाभ नहीं उठा पाते तो इसका अर्थ यही है कि आपने सेवा के रहस्य को जाना ही नहीं है । आपमें इस सेवाकार्य के बदले कुछ अधिक ही मूल्यवान वस्तु पाने की योग्यता होनी चाहिए । इस कार्य के द्वारा आपको दूसरों के लिए अधिक त्याग करने की क्षमता, दूसरों की और अधिक सेवा करने का सामर्थ्य अवश्य प्राप्त होना चाहिए। यदि महामण्डल के सभी सहकर्मियों को यह सब प्राप्त हो रहा हो, तभी समझना चाहिए कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं

      परन्तु यदि यह दिखाई पड़े कि हमारे कार्यकर्ता कई तरह के समाज सेवा का कार्य तो कर रहे हैं किन्तु उससे उनकी कोई उन्नति नहीं हो रही है, दूसरों के प्रति विनम्र और उदार होने के बदले उनमें अहं और दिखावा का ही भाव आ रहा है तो नेताओं को सतर्क हो जाना चाहिए । महामण्डल के नेताओं को सदैव सतर्क रहकर यह देखते रहना चाहिए कि हम जिस विधि से सेवा कार्य चला रहे हैं उसमें कुछ दोष तो नहीं है। यदि इसी प्रकार से कार्य चलते रहने दिया गया तो वह कार्य तो व्यर्थ होगा ही साथ ही साथ इसको सम्पादित करने में लगे युवाओं की भी भारी क्षति होगी। वे मिथ्याचारी तथा अहंकारी बन जायेंगे। 

      ग्रामीण क्षेत्रों में रहकर सेवा कार्य चलाने वाले युवा कार्यकर्ताओं के सामने [JPBhS] तो अन्य कई प्रकार की कठिनाईयाँ भी खड़ी हो सकती हैं। किसी न किसी प्रलोभन में फँसने का खतरा भी हो सकता है। वे सेवा-भक्ति का प्रचार-प्रसार के नाम पर ऐसे दुष्चक्र में फंस सकते हैं या ऐसे अंधे कुएँ में  गिर सकते हैं कि जहाँ से उन्हें बाहर निकालना भी कठिन हो जायेगा।  कठिनाईयाँ विभिन्न - विभिन्न रूपों में गले पड़ सकती हैं। स्वतंत्रता से पूर्व भी जब हमारे कुछ राष्ट्रवादी नेता युवाओं को गाँव-देहात में जाकर अस्पताल चलाने या गृहस्थों के घर में रहकर जरूरतमंद ग्रामीणों की सेवा करने का आदेश देते थे तो वे यह जानते थे कि यह कार्य कितना कठिन है। इससे बहुत से कार्यकर्ताओं का तो चारित्रिक पतन ही हो जाता था और एक समय ऐसा भी आया था जब सभी कहने लगे थे, बस! बहुत हो चुकी समाज सेवाअब और कोई 'दूसरी' समाज सेवा करने की जरूरत नहीं है ।

>>>3. समाजसेवा या मानव-कल्याण कार्य का उसके कर्ता पर  'boomerang effect' या प्रत्यावर्ती बाण' की तरह अप्रत्याशित रूप से उल्टा असर भी होने की सम्भवना है।     

      इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि समाज सेवा अथवा उसी प्रकार की कोई अन्य कल्याण-कारी उद्यम या तो आपको सहायता पहुँचा सकता है या आपके साथ ही साथ सम्पूर्ण कार्य को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दे सकता है। उदाहरण के लिये संगीत एक अच्छी कला है। संगीत की साधना से आपको ईश्वरानुभूति भी हो सकती है, वहीं आप इससे स्वयं का नाश भी कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार समाज सेवा आपको उदार या उन्नत मनुष्य में परिणत कर सकता है, यह आपको चरित्रवान मनुष्य बना सकता है, इसके माध्यम से आप एक भद्र नागरिक बन सकते हैं, यह बहुत अच्छा है। किन्तु यदि आप सावधान नहीं रहे तो यही समाज सेवा आपका सर्वनाश भी कर सकता है। 

     अतः जब आप ऐसा सोच रहे हों कि मैं तो बड़ा अच्छा कार्य कर रहा हूँ (नारी जागरण का कार्य?) तो उस समय आपको अपने मन पर कड़ी दृष्टि रखनी चाहिए। एकदम निश्चिन्त कभी भी नहीं होना चाहिए। निरन्तर उचित सावधानी रखनी चहिए। इस बात को हर समय याद रखना चाहिए कि मैं जो सेवा कार्य कर रहा हूँ वह, किसी पर एहसान नहीं बल्कि अपने ही कल्याण लिये, अपने चरित्र को उन्नत बनाने के लिये ही कर रहा हूँ । मैं इसके माध्यम से अपने हृदय के प्रेम प्रवाह को सबके प्रति समान रूप से अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सकता हूँ; अब मेरा प्रेम अपने-पराये का भेद मिटाकर सबों को आत्मसात कर सकता है। समाज सेवा के प्रति यह नई दृष्टि मुझे सर्वग्रासी प्रेम, सहानुभूति, सेवापरायणता तथा आत्मत्याग के भाव से भर देगी।

     यह भी देखते रहिये कि अब तक आपने भय पर विजय प्राप्त किया है या नहीं, आपका आत्मविश्वास बढ़ा है या नहीं, आप निःस्वार्थी हुए हैं या नहीं, आपके मन से स्वार्थ की इच्छा का समूल नाश हुआ है या नहीं ? यदि समाज सेवा के कार्यों से आपमें यह सब सद्गुण बढ़ रहा हो तो बहुत अच्छी बात है। इसीलिये सेवा कार्य करते समय विशेष कर महामण्डल में तो इन सब बातों पर सतर्क दृष्टि रखनी ही चाहिए क्योंकि ऐसा 'नेता' (ब्रह्मविद) बनना और बनाना ही हमारा मुख्य कार्य है।

>>>4. प्रत्येक कार्य को (समाज-सेवा) ईश्वर की पूजा भाव से करने पर कर्म बाँधता नहीं है ! 

       प्रत्येक नेता को, विशेषकर हमारे संगठन के नेताओं को हर दृष्टि से शुद्ध और पवित्र बनना चाहिए तथा प्रत्येक कार्य को पूजा भाव से करना चाहिए । कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखनी चाहिए। जब हम किसी मंदिर में प्रवेश करते हैं तो अपने प्रत्येक कार्य में स्वच्छता और पवित्रता का ध्यान रखते हैं, जब हम वहाँ स्थापित मूर्ति या वेदी के ऊपर फूल चढ़ाते हैं तो हमलोग उन फूलों को बड़े ही आकर्षक ढंग से सजा-संवारकर रखने की चेष्टा करते हैं। उन फूलों को यूँ ही बेतरतीब ढंग से इधर-उधर बिखरा नहीं देते हैं । लेकिन सार्वजनिक पूजा के अवसरों पर हम अक्सर ऐसा ही करते हैं, यह अच्छी बात नहीं है। 

       आपको याद होगा कि प्रारंभ में श्रीरामकृष्णदेव की नियुक्ति दक्षिणेश्वर मंदिर में पुजारी के पद पर नहीं हुई थी बल्कि पहले वे वहाँ स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति के वेशकार थे। उनका कार्य पूजा की विविध सामग्रियों, कपड़ों, गहनों आदि से देवी का श्रृंगार करना तथा फूल-माला से सुन्दर सजावट करना था। प्रारंभ में वे केवल इतना ही कार्य करते थे।  पर इस कार्य को भी बहुत ही शुद्धता और पवित्रता के साथ करते थे कि, बाद में उनको पुजारी का कार्यभार सौंपा गया था।

        फिर पुजारी के रूप में वे अपने तथा निराकार की साकार प्रस्तर प्रतिमा के बीच की दूरी को तोड़ डालने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने जानना चाहा कि क्या माँ भवतारिणी एक प्रस्तर प्रतिमा मात्र हैं ? अब वह मूर्ति अधिक दिनों तक प्रस्तर प्रतिमा नहीं रह सकी, माँ जीवन्त हो उठी थीं, उसी मूर्ति में उन्होंने ईश्वर को खोज निकाला। यह पूजा की एक नवीन प्रणाली थी और उनका सम्पूर्ण जीवन ही पूजा बन गया।

 >>>5. नेतृत्व का रहस्य : प्रत्येक नर-नारी को भगवान समझकर उनसे निःस्वार्थ प्रेम करने की क्षमता।   

      मैं जब महामण्डल कार्यालय में जाता हूँ तो वहाँ मुझे (CINC नवनीदा को)  कई कार्य करने होते हैं। वहाँ की फाइलें देखता हूँ, कुछ पत्रों को टाईप करता हूँ तथा उसके ऊपर पता लिखकर डाक टिकटों को चिपकाता हूँ। मैं इन सभी कार्यों को मन में पूजा का भाव रखते हुए कर सकता हूँ। क्या आप भी इसी प्रकार की दृष्टि रखकर कार्य करने में सक्षम हैं ? यदि आप भी ऐसा ही कर सकते हैं तो आपको हर समय भाषण देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

    प्रत्येक कार्य या वस्तु में विद्यमान चैतन्य की अनुभूति कीजिए तथा उसी अनुभूति को संप्रेषित कीजिए। यह जान लीजिए की यह जगत् ज्यों का त्यों ईश्वर ही है- पूर्णमदः पूर्णमिदम् । सभी स्त्री-पुरूष तथा अन्य पदार्थ भी हमारे लिये ब्रह्म स्वरूप हैं । प्रत्येक मनुष्य के भीतर वही शुद्ध चैतन्य विद्यमान है, प्रत्येक रूप में पवित्रता ही साकार हो रही है। आपको प्रत्येक स्त्री-पुरुष में विद्यमान इस पवित्रता को अनुभव करने का अवश्य ही अभ्यास करना चाहिए। 

     आप अपने हृदय में दूसरों के प्रति इसी अनुभूति को जाग्रत करने में समर्थ होकर ही दूसरों को महान बना सकते हैं। नेतृत्व का वास्तविक गुण इसी क्षमता में सन्निहित है । हर समय उपदेश देते रहने से कुछ लाभ नहीं होगा, बस 'अनुभव' कीजिए । आप प्रत्येक वस्तु में उसी सत्ता की उपस्थिति का अनुभव करने में जितना अधिक सक्षम होते जायेंगे उतना ही अधिक आप अपनी अनुभूति को दूसरों में संप्रेषित भी कर सकेंगे तथा उसी परिमाण में वह अनुभूति दूसरों के हृदय में जाग्रत करा देने में भी समर्थ हो जायेंगे। जब आप यह जान जायेंगे कि सचमुच प्रत्येक मनुष्य के भीतर पहले से ही पूर्ण सत्य, पूर्ण पवित्रता, पूर्ण शक्ति तथा पूर्ण ज्ञान विद्यमान है, तब आप स्वयं यह मानने लगेंगे कि यह केवल शास्त्रों में लिखो बात ही नहीं है, यह बिल्कुल सत्य है, और तब आपके लिये प्रत्येक नर-नारी को भगवान समझकर प्रेम कर पाना संभव हो जायेगा । अपने हृदय में विद्यमान इसी अविभेदकारी प्रेम को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कीजिए। आप जैसे ही इस दृष्टि से दूसरों को देखना शुरू कर देंगे वैसे ही वही सत्ता आपमें तथा आपके द्वारा दूसरों में अभिव्यक्त होने लगेगी। यदि आप ऐसा कर पाने में सक्षम हैं तो आप एक सच्चे नेता हैं। 

      श्रीरामकृष्णदेव एक ऐसे ही नेता थे, स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे ही नेता थे तथा हममें से अनेक व्यक्ति (C-IN-C नवनीदा, पीदा, बिकास दा, तपनदा,.... )  निश्चित रूप से सच्चे नेता बन कर रहेंगे। केवल वे ही नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में ऐसा ही नेता बन सकने की संभावना है। जो भी दृढ़ संकल्प के साथ इस कार्य में लगेगा वह निश्चित ही नेता बन सकता है।

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🔱(3 ) सेवा करें और उच्च विचारों की प्रेरणा भरें / [Serve and inspire high thoughts] / नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

  (3 ) 

सेवा करें और उच्च विचारों की प्रेरणा भरें  

 Serve and Inspire 

[Serve and inspire high thoughts]

>>>1. महामण्डल के Be and Make आन्दोलन का नेता बनने का सौभाग्य -ठाकुर, माँ स्वामीजी की असीम कृपा से प्राप्त होता है।]  

         'नेता' बन जाने पर आप क्या चाहेंगे ? यदि आप यह चाहते हों कि दूसरे लोग आपकी सेवा करें तो जरा आप स्वयं से यह प्रश्न पूछ कर देखिए कि क्या आप स्वयं भी दूसरों की सेवा कर सकते हैं ? यदि 'हाँ', तो नेता बनने का पहला गुण आप में विद्यमान है। क्या आप दूसरों के सम्मान का ध्यान रखते हैं या दूसरों को सम्मान देते हैं ? क्या आप अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करते हैं ? यदि इसका उत्तर भी 'हाँ' है, तभी आपको दूसरों से सम्मान मिल सकता है और दूसरे भी आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करेंगे। महामण्डल के प्रत्येक नेता को इसी प्रकार  विनम्र, मधुरभाषी और 'अहंकार' रहित  बनने की चेष्टा करनी चाहिये। [अर्थात कच्चा 'मैं' को पक्का 'मैं ' में रूपान्तरित करने की चेष्टा करनी चाहिए।] हमलोगों को सदा श्रीरामकृष्ण, श्री श्री माँ सारदा एवं स्वामी विवेकानन्द के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए कि उन्होंने हम पर असीम कृपा करके हमें अपने अन्य युवा भाइयों का नेतृत्व करने का अवसर प्रदान किया है। यह हमारा सौभाग्य है कि उन्होंने हमें इस कार्य को करने का अवसर दिया है। लेकिन, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि केवल मैं ही दूसरों की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करूँगा, बल्कि हमें अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने अन्य भाइयों को भी नेता बन कर दूसरों की सेवा करने के लिए उत्साहित और अनुप्रेरित करना चाहिए। ताकि  वे भी अपना जीवन और चरित्र सुन्दर ढंग से गठित करें, अपनी भोगाकांक्षाओं और इन्द्रिय सुखों का त्याग करना सीखें तथा अपने जीवन को दूसरों की सेवा में समर्पित कर दें। आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है

>>>2. नेता को शब्दों से नहीं बल्कि अपने जीवन को ही जीवन्त उदाहरण स्वरूप गढ़कर, लोगों को अनुप्रेरित करना होगा।  

      महामण्डल के चरित्रनिर्माणकारी आन्दोलन से जुड़े हम सभी भाईयों में से जिन लोगों के अन्दर ये सभी गुण हों, और ऐसी इच्छा भी हो कि मैं स्वयं आगे बढ़कर इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिये नेतृत्व प्रदान करूंगा। और साथ ही साथ इस प्रकार का दृढ़ संकल्प भी हो कि मैं लोक-दिखावा करने या मंच पर 'boss' जैसा दिखने के लिए नहीं ; बल्कि  चुप-चाप केवल दूसरों से अधिक सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करने की इच्छा से मैं इस कार्य को करूँगा। तो वैसे सभी भाई महामण्डल आंदोलन के सच्चे और विनम्र नेता बन सकते हैं। [जैसे ईश्वर पूरे जगत-ब्रह्माण्ड का संचालन करते हैं , किन्तु हर जगह दिखाई नहीं देते ?]

       हमलोगों को इस प्रकार से विचार करना चाहिये कि ठीक है मैं सेवा कर सकता हूँ, मैं किसी की थोड़ी सी सहायता कर सकता हूँ किन्तु, मुझे उतना ही करके क्यों सन्तुष्ट हो जाना चाहिए ? मैं स्वयं तो दूसरों की सेवा करूंगा ही साथ ही साथ अपने आस-पास रहने वाले कुछ अन्य लोगों को भी इसी राह पर चलने के लिये उत्साहित भी करूंगा। एवं इस कार्य को मैं केवल  शब्दों से न करके  प्रेमपूर्ण नेतृत्व क्षमता का एक जीवंत उदाहरण (living example) बनकर अपने जीवन-गठन के माध्यम से दूसरों के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करूँगा जिससे वे स्वतः यह समझ लेंगे कि मैं किस पद्धति को अपनाकर अपना चरित्र गठित करने में सफल हुआ हूँ।   मैं अपने जीवन को ही उदाहरण स्वरुप बनाकर यह समझाने की चेष्टा करूंगा कि सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास को मैंने किस प्रकार अर्जित किया है, मैंने अपनी स्वार्थपरता का त्याग करना कैसे और कहाँ से सीखा ? सभी प्रकार के क्षुद्र भोगाकांक्षाओं की बलि चढ़ा देने की सामर्थ्य और क्षमता मुझे कैसे प्राप्त हुई ?  अब मैं अपने मन को कुछ हद तक ही सही पर नियंत्रित कर पाने में कैसे सफल हुआ हूँ ? दूसरों के दुःख-कष्टों को अपने दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करना मैंने कैसे सीख लिया ?

      अपने जीवन की व्यक्तिगत उपलब्धि को आचरण में उतार कर दूसरों को यह सब उपाय समझा पाने में सफल हो सकने वाले नेतृत्व की ही आज हमें आवश्यकता है।  ऐसे ही नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अर्जित करने के लिये हम सभी सदैव प्रयत्नशील रहेंगे। छोटी सी संख्या तक सीमित रहते हुए चन्द लोगों की सेवा करके ही हम संतुष्ट होकर बैठ नहीं जायेंगे, या दूसरे उपायों से रिलीफ-वर्क जैसी हल्की-फुल्की सहायता करके ही चुपचाप बैठे नहीं रहेंगे। 

>>>3. ठाकुर-माँ -स्वामीजी के जीवन और उपदेशों से प्रेरणा लेकर अपना जीवन-गठन करने से वैसा जीवन उदाहरण स्वरुप, विश्व मानव-कल्याण की बलिवेदी के लिए नैवेद्यस्वरूप बन जाता है।  

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।

वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥

गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जानते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है। किन्तु गुरु तो इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।

      हमलोगों को भी 'नेता' बनना चाहिए तथा जिस पद्धति #1 से स्वामीजी ने अपने अनुयायियों को 'शिष्य' नहीं बनाकर 'नेता' बना दिया उसी पद्धति का हमें भी अनुसरण करना चाहिए। सामान्यतः जिस तरह लोग दूसरों की सेवा करते हैं उस प्रकार की सेवा स्वामीजी ने भी बहुत 'से लोगों की थी। किन्तु इससे भी कई गुना अधिक महत्वपूर्ण सेवा उन्होंने दूसरों के मन में ऐसे सुन्दर - सुन्दर प्रेरक विचारों को संप्रेषित करके की थी जिससे कि उनका जीवन इस सीमा तक रूपान्तरित हो गया कि अब उनको पहचानना भी कठिन था । उन विचारों से बहुतों का जीवन मानव कल्याण की बलिवेदी के लिये नैवेद्यस्वरूप हो गया, उन विचारों ने उन्हें भारतमाता के लिये 'निवेदित' मनुष्य में परिणत कर दिया। हमलोगों में भी दूसरों के जीवन को इसी प्रकार नैवेद्यस्वरूप गढ़ देने की क्षमता होनी चाहिए । नेतृत्व का यही मौलिक सिद्धान्त है

[पद्धति #1 : जिस श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति (Be and Make 'Leadership' training method) द्वारा स्वामी जी ने अपने  अनुयायियों को (मारग्रेट नोबल) 'शिष्य' नहीं बनाकर "नैवेद्यस्वरूप नेता " (भगिनी निवेदिता) बना दिया था- कैप्टन सेवियर को 'C-IN-C नवनीदा बना' दिया था ;.....  उसी पद्धति का अनुकरण हमें भी करना चाहिये।]  

>>>4. 

       हमारे युग के एक  ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक  (British biologist) सर जुलियन हक्सले [1887- 1975 ) कहते हैं कि जिस प्रकार 'भौतिक जगत् का विज्ञान' (Science of Physical World) होता है ठीक उसी तरह 'अन्तर जगत् का विज्ञान' (Science of Internal World) भी होता है। जिस प्रकार भौतिक पदार्थों तथा प्राकृतिक ऊर्जा के कुशल उपयोग तथा प्रबन्धन के लिये 'यांत्रिकी विज्ञान' होता है, ठीक उसी प्रकार अन्तः प्रकृति की शक्तियों तथा आन्तरिक पदार्थों को भी संचालित करने तथा उपयोगी बना लेने की अभियांत्रिकी है। 

     जिस प्रकार हम बाह्य प्राकृतिक संसाधनों की अभियांत्रिकी सीखकर उसको अपने लिये उपयोगी बना लेते हैं उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान प्रचुर संसाधनों को उपयोगी बनाना भी हम सीख सकते हैं। जैसा कि आप सभी जानते हैं स्वामीजी ने भी "अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति दोनों के ऊपर विजय" प्राप्त करने का परामर्श दिया है। जिस प्रकार बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिये विज्ञान, तकनीकी और अभियांत्रिकी है उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान संसाधनों को मानवोपयोगी बना लेने वाला विज्ञान भी है,  जिसे सर जूलियन हक्सले ने 'Science of Human Development' कहा है। अतः 'पूर्ण मनुष्य' बनने के लिये हमलोगों को केवल बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने वाला विज्ञान ही नहीं पढ़ना होगा बल्कि हमें उस अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने वाले विज्ञान (Science of Human Development) को भी सीखना होगा जिसे 'हक्सले का ट्रांस-मानवतावाद' कहा जाता है। अल्बर्ट आइन्स्टीन ने इन दोनों विज्ञानों को Science न कहकर ''Two religions'' कहा है। 

>>>5 . मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने लिए विज्ञान (अपरा विद्या)  और धर्म (परा विद्या) दोनों जरुरी हैं 

       मुण्डकोपनिषद में एक प्रसंग आता है कि आज से हजारों सा पहले शौनक नाम के एक युवा महर्षि थे, जो एक बड़े विश्वविद्यालय (ऋषिकुल) के अधिष्ठाता भी थे । वे शास्त्रविधि के अनुसार हाथ में समिधा लिये श्रद्धापूर्वक अपने गुरू महर्षि अंगिरा के पास आये और उन्होंने विनयपूर्वक पूछा-

“कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति । "

(मुण्डकोपनिषद 1:1:3 ) 

अर्थात् हे भगवन्! क्या जान लेने पर 'इदं सर्वं' यह जगत-ब्रह्माण्ड सब कुछ (भी वही ब्रह्म है ! यह सत्य) निश्चयपूर्वक जाना हुआ हो जाता है ? कृपया बतलाईये कि उसे कैसे जाना जाये ? इस प्रकार का प्रश्न पूछे जाने पर उनके गुरू उत्तर में कहते हैं- "द्वे विद्येवेदितव्ये ।"

      "शौनक ! ब्रह्मविद/ ब्रह्मज्ञ महर्षियों का कहना है कि मनुष्य के लिये जानने योग्य दो विद्याएँ हैं- एक 'परा' और दूसरी 'अपरा' । तुम इस 'अपरा विद्या' (Science of External World) को सीखकर इस भौतिक जगत् के बारे में सब कुछ जान सकते हो तथा एक 'परा विद्या' है जिसके द्वारा तुम आन्तरिक जगत् के बारे में भी सब कुछ जान सकते हो। 

        हमारे प्राचीन युग के ऋषि दो प्रकार की विद्या या Science को सीखने का परामर्श देते हैं तो आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन दो विद्याओं की बात न कहकर दो धर्मों को जानने की बात कहते हैं। एक को वे 'Cosmic Religion' या ब्रह्माण्डीय धर्म कहते हैं जिसके द्वारा हमें इस अभिव्यक्त जगत् के बारे में पता चलता है और दूसरे को वे 'Religion of Internal World' या आन्तरिक जगत् का धर्म कहते हैं। 

       इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी का अन्त आते-आते विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) एक-दूसरे के बिल्कुल निकट आ पहुँचे हैं। जबकि लगभग 100 वर्ष पहले ही स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि भविष्य में विज्ञान तथा धर्म में कोई भी भेद नहीं रहेगा, दोनों एक समान ग्रहणीय माने जाएंगे और हाथ से हाथ मिलाकर दोनों आपस में सहयोगी होकर आगे बढ़ेंगे। ठीक ऐसा ही घटित होने वाला है। जब हम वैज्ञानिक संगोष्ठियों में प्रचलित आधुनिक शोध पत्रों से परिचित होने की चेष्टा करते हैं तो यही बात हमारे समक्ष और अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। 

       आधुनिक विज्ञान अब और अधिक दिनों तक सच्चे धर्म से (यानि एकत्व की अनुभूति से) संघर्ष नहीं कर पायेगा; और ठीक उसी तरह धर्म को भी विज्ञान का विरोधी नहीं रहना चाहिए । जिस प्रकार हमारे भौतिक जीवन को सुख-सुविधा पूर्ण बनाने के लिये- 'विज्ञान' जरुरी है उसी प्रकार हमारे आन्तरिक जीवन में सुख-शांति लाने के लिये 'धर्म' या अध्यात्म भी आवश्यक है।

>>>6.  

        हमलोग जैसा कि मानते/विश्वास करते  हैं, मनुष्य पंचतत्वों के मेल से बना, केवल एक भौतिक देह ही नहीं है, इसी मानव शरीर में पंचतत्वों से भिन्न कोई अन्य वस्तु भी है। उस अति मूल्यवान् 'अन्य वस्तु' को हम तभी जान सकते हैं जब हमारे पास 'आन्तरिक जगत्' को जानने का विज्ञान (Western Science) और धर्म (Eastern Mysticism-भारतीय योग-विद्या) दोनों में समन्वय हो ।

        इसी कारण हमारे नेतृत्व में इतनी क्षमता अवश्य रहनी चाहिए कि आधुनिक जीवन शैली में पले-बढ़े युवाओं को भी वह धर्म और विज्ञान के इस समन्वय से परिचित करा देने में समर्थ हो। क्योंकि इन दोनों विज्ञानों को जान लेने के बाद ही वे सच्चे शक्तिशाली कार्यकर्ता बन सकते हैं, जिनके पास शारीरिक क्षमता के साथ दूसरों के दुःखों को हृदय में अनुभव करने की संवेदना भी रहेगी, तथा इतना प्रखर मस्तिष्क भी होगा जिससे वे दूसरों के दुःखों को दूर करने का उपाय खोजकर उसको दूर करने में समर्थ होंगे। इस प्रकार की मानसिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ऐसे नेता जहाँ कहीं भी जायेंगे, वहाँ के कुछ युवाओं को एकत्र कर उनके भीतर इन्हीं सब प्रेरणादायी विचारों को भरेंगे।

>>>7.    

         सामान्यतः आजकल के युवाओं के जीवन का कोई निर्धारित उद्देश्य नहीं होता है, उन्हें अपने जीवन का एक उद्देश्य निर्धारित कर लेने के लिये उत्साहित करना चाहिए। उनके पास मनुष्य जीवन का कोई दर्शन या जीवन दृष्टि नहीं होता है । प्रायः अधिकांश युवा कभी यह जानने का प्रयास नहीं करते कि यह जीवन है क्या ? इसे महामूल्यवान् क्यों कहा गया है ? वे समझते हैं कि यह बना बनाया मिला है, इसको और कुछ बनाने - सँवारने की आवश्यकता नहीं है। वे ऐसा मानते हैं कि यह जीवन बस यूँ ही आकस्मिक संयोग से प्राप्त हो गया है और हमें इसका भरपूर उपयोग कर लेना चाहिए। उनमें से अधिकांश युवाओं के लिये जीवन का भरपूर उपयोग करने का अर्थ भी केवल इन्द्रियों के उपभोग तक ही सीमित रहता है। ये शरीर और इन्द्रियाँ हमें बहुत सुख देती हैं, अत: किन-किन विषयों से हमें बहुत सुख मिलता है, उसकी खोज की जाये और उनका भरपूर मजा लिया जाये! बस इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है ! किन्तु ऐसा सोचना निरा पागलपन है! अज्ञान है! मूर्खता है!

      महामण्डल के 'मनुष्य बनो और बनाओ वेदान्त नेतृत्व/शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा (Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) के प्रशिक्षण में प्रशिक्षित भविष्य में जो नेतृत्व उभर कर सामने आयेगा,  वह इस मूर्खता के मकड़जाल में फंसे इन युवाओं को उससे बाहर खींच निकालेगा। वह युवाओं का मार्गदर्शन करेगा, ज्ञान के आलोक में जीवन के महत्व को समझाने के लिये उन्हें मनुष्य जीवन के लक्ष्य के विषय में बतायेगा । वह युवाओं को बतलायेगा कि यह जीवन यूँ ही नष्ट करने के लिए नहीं मिला है। इसके पीछे एक महान उद्देश्य, महान संभावना छिपी हुई है। वह मनुष्य योनि में ही उपलब्ध होने वाली महान संभावनाओं का सही चित्र युवाओं के समक्ष रखेगा।

           स्वामीजी मोहनिद्रा में निमग्न युवाओं को झकझोरते हुए कहते हैं-" उठो ,जाग्रत हो जाओ। हे महान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, यह मोह तुम्हें नहीं भाता। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी समझते हो ? हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ , अपना स्वरुप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो , यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने दुर्बल समझते हो , यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है।"  तुम सबों के भीतर जो अनन्त संभावनाएँ छुपी हुई हैं, वे असीम हैं। एक बार यदि यह सत्य समझ में आ गया और यदि तुम उन संभावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये प्रयासरत हो गये तो तुम भी इस मनुष्य जीवन का अर्थ जान जाओगे । जब तुम मनुष्य जीवन की महिमा को जान जाओगे तब तुम्हें जीवन से प्रेम हो जाएगा। तब तुम सचमुच इस मानव जीवन का आनन्द उठाने में समर्थ हो जाओगे । यदि तुम पूर्ण मनुष्य बन सके तो उससे जो आनन्द प्राप्त होगा, उसकी तुलना में इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सारे आनन्द एकदम तुच्छ लगने लगेंगे।  उस परम आनन्द को प्राप्त करने का मार्ग बिल्कुल विज्ञान सम्मत प्रणाली पर आधारित है। यदि तुम आज से ही इस वैज्ञानिक पद्धति को सीखने का प्रयत्न प्रारंभ कर दो तो तुम भी उन्नत हो सकते हो, तुम स्वयं को विकसित कर सकते हो तथा अपने मानव जीवन का पूरा मूल्य प्राप्त कर सकते हो

>>>8

     अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल (1833-1899) ने एक बार स्वामीजी से कहा था- "हम पाश्चात्य वाले इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत् को छोड़कर अन्य किसी वस्तु जगत् को सत्य नहीं समझते, अतः हमारा विश्वास है कि इस से जितना अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है उसे प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। अतः हम इस संतरे (जगत्) को निचोड़कर जितना निकल सके उसका रस निकाल लेना चाहते हैं।" इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- "हाँ हम भारतीय भी संतरे को निचोड़कर उसका रस पीना चाहते हैं । किन्तु, हमलोग आपकी अपेक्षा इस जगत् रूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्कृष्ट प्रणाली जानते हैं जिससे हमलोग अधिक रस प्राप्त करते हैं। 

        क्योंकि हम भारतवासी यह अच्छी तरह जानते हैं कि हमलोग केवल यह नश्वर देहमात्र नहीं हैं, हम तो अजर, अमर, अविनाशी आत्मा हैं। चुँकि , हम जानते हैं कि हम मरणधर्मा शरीर मात्र नहीं हैं; इसीलिए हमें रस निचोड़ने की कोई जल्दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ कि भय का कोई कारण नहीं है अतएव आनन्दपूर्वक रस निचोड़ता हूँ ।  इसीलिये हमलोग सभी नर-नारियों से प्रेम कर सकते हैं। सभी हमारे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं। मनुष्य को भगवान समझकर उनके प्रति प्रेम का भाव रखने में कितना आनन्द है । जगत् रूपी संतरे को इस तरह से निचोड़कर देखिये- अन्य प्रकार से निचोड़ने पर आपको जितना रस प्राप्त होता होगा, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पायेंगे। रस की एक बूँद भी व्यर्थ न जाएगी।"

>>>9. 

        किसी अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था- "तुम पाश्चात्य अज्ञेयवादी संतरे को निचोड़ रहे हो और हम भारतीय आम को निचोड़ते हैं ।" परन्तु संतरे के साथ आम की तुलना करने का क्या अभिप्राय था, इस पर उन्होंने कहीं प्रकाश नहीं डाला है। शायद स्वामीजी के कथन का अभिप्राय यह रहा होगा कि प्रत्येक फल में कुछ सारहीन पदार्थ भी रहता है, जिसको हमें फेंक देना चाहिए। हम जानते हैं कि आम में एक कड़ी सी गुठली भी होती है। अतः आप आम को निचोड़कर आम का रस जरूर निकाल लीजिए, परन्तु; उसके भीतर जो गुठली बची रह गयी है, उससे रस निकालने की चेष्टा व्यर्थ है । अतः उस निस्सार पदार्थ को बाहर फेंक सकने का साहस भी आपमें अवश्य रहना चाहिए।

      इसी प्रकार हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा है जो सरस है, मधुर है, सुस्वादु है, अच्छा है तथा कल्याणकारी है। उस मधुर रस का पान अवश्य कीजिए । परन्तु इसी के साथ कुछ अन्य पदार्थ भी हैं जो कि कूड़े करकट की तरह निरर्थक हैं, तुच्छ हैं- उनको मुख में डालने का प्रयास मत कीजिए। यदि आप आम की तरह उसकी गुठली को भी दाँतों से काटने का प्रयास करेंगे तो उसका स्वाद अच्छा नहीं लगेगा, मुख कसैला हो जाएगा। उसी तरह आपको इतना जरूर जान लेना चाहिए कि इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के बाद इसके किस रस का पान करना है और किस रस को निस्सार समझकर सदा के लिये त्याग देना है । परन्तु; हममें से अधिकांश लोग तो अब भी आम की कड़ी गुठली को ही चबाने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि हमें आम के सच्चे स्वाद का कुछ पता ही नहीं है। हमें उसके वास्तविक रस को पीना चाहिए, परन्तु हमें उसका कुछ पता ही नहीं है। 

         अब, यहीं विवेक-विचार करना जरूरी हो जाता है। आपके सामने उपभोग के लिये जो भी वस्तु आ जाये, उसको वैसे ही निगलने मत लग जाइये। बल्कि उपभोग में लाने के पहले श्रेय - प्रेय का विवेक कर लीजिए, आपके समक्ष जो वस्तु रखी है, वह संपूर्ण रूप से आपके स्वास्थ्य के अनुकूल ही हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। अतः उसके केवल उसी अंश को ग्रहण कीजिए जो पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्द्धक हो। कुछ खाद्य पदार्थों में ऐसे-ऐसे विषाणु भी मिले हो सकते हैं जो शरीर के अन्दर पहुँचकर विष उत्पन्न करने लगें । अतः उन विषोत्पादक वस्तुओं का सेवन करना बंद कीजिए। जो स्वास्थ्यकर पदार्थ हैं, केवल उन्हें ही ग्रहण कीजिए।  जो पदार्थ केवल प्रारंभ में ही सुखकर लगते हों परन्तु, बाद में पीड़ादायक हों या कल्याणकारी न हों उनका त्याग करना चाहिए ।

       हम सभी लोग सुख पाना चाहते हैं, परन्तुः सच्चा सुख क्या है ? इसे नहीं जानने के कारण हम अक्सर 'सुख' के आवरण में छुपे घोर दुःख को ही पाते हैं। हमें इसी भूल से बचाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण गीता में परामर्श देते हैं कि हमलोगों को उपभोग करने से पहले ही जरा ठहर कर धैर्य के साथ विवेक का प्रयोग करके यह जान लेना चाहिए कि कौन सा सुख सच्चा सुख नहीं है। 

          सुख तीन प्रकार के होते हैं- सात्विक सुख, राजसिक सुख तथा तामसिक सुखसात्विक सुख प्रारम्भ में विष के सदृश लगता है परन्तु परिणाम में अमृत तुल्य है, अमृत तत्व को दिलाने वाला है। कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जो शुरू में चबाते समय स्वादिष्ट नहीं लगती या तो कसैली लगती हैं या उनका स्वाद अच्छा नहीं लगता परन्तु जब आप उन्हें चबाकर पचा लेते हैं तो आपको वही सच्ची पौष्टिकता भी प्रदान करती हैं, जैसे, आँवला और हर्रे/ईमली  । इनका नाम आपने अवश्य ही सुना होगा। जब आप इन्हें अपने मुख में डाल कर चबाना शुरू करते हैं तो पहले-पहल उनका स्वाद बिल्कुल अच्छा नहीं लगता किन्तु यदि थोड़ी देर चबा लेने के बाद एक गिलास पानी पी लिया जाये तो मुँह का स्वाद भी बदल जाता है और यह शरीर के लिये लाभकारी भी होता है। इस प्रकार से श्रेय- प्रेय का विवेक करके श्रेय को ही ग्रहण करने से सात्विक सुख प्राप्त होता है।

       उसी प्रकार राजसिक सुख, वह सुख है जो आरंभ में तो बड़ा ही स्वादिष्ट या सुखकर अनुभव होता है किन्तु, बाद में बहुत दुःखदायी होता है जैसे दाद-खुजली[ दाद- खुजाने का आनन्द परमानन्द की तरह होता पर बाद में महापीड़ा होती है।यह खुजलाते समय तो सुखकर लगता है किन्तु उसका अन्तिम परिणाम पीड़ादायक होता है। वैसे ही ईमली का नाम सुनते ही मुख में पानी आ जाता है किन्तु, खाने पर उसका परिणाम शरीर के लिये बिल्कुल अच्छा नहीं होता। जो सुख प्रारंभ और परिणाम दोनों में बुद्धि को मोहग्रस्त करता है जो सुख निद्रा, आलस्य और व्यर्थ की चेष्टाओं से उत्पन्न होता है वह सुख तामसिक सुख कहलाता है ।

        विवेक-प्रयोग के महत्व के बारे में कुछ नहीं जानने के कारण हममें से अधिकांश लोग सामान्यतः तामसिक सुखों में ही अपना सुख खोजते हैं। स्वार्थपरता को कम करते जाने से ही हमारा मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। अतः श्रेय-प्रेय का विवेक सीखकर अभ्यास करने से हमारी स्वार्थपरता दूर हो जाती है। केवल अपने क्षुद्र सुखों को पूरा करने के लिये जीवन धारण करना क्षुद्र स्वार्थपरता ही नहीं अपितु देवदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर उसको व्यर्थ में नष्ट करने जैसा भी है । महामण्डल के नेता अपने आस - पास रहने वाले भाईयों के बीच इन्हीं प्रेरणादायक सुन्दर तथा उदार विचारों को अपने जीवन को ही उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत कर समझाने का प्रयत्न करते हैं ।

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