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सेवा करें और उच्च विचारों की प्रेरणा भरें
Serve and Inspire
[Serve and inspire high thoughts]
>>>1. महामण्डल के Be and Make आन्दोलन का नेता बनने का सौभाग्य -ठाकुर, माँ स्वामीजी की असीम कृपा से प्राप्त होता है।]
'नेता' बन जाने पर आप क्या चाहेंगे ? यदि आप यह चाहते हों कि दूसरे लोग आपकी सेवा करें तो जरा आप स्वयं से यह प्रश्न पूछ कर देखिए कि क्या आप स्वयं भी दूसरों की सेवा कर सकते हैं ? यदि 'हाँ', तो नेता बनने का पहला गुण आप में विद्यमान है। क्या आप दूसरों के सम्मान का ध्यान रखते हैं या दूसरों को सम्मान देते हैं ? क्या आप अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करते हैं ? यदि इसका उत्तर भी 'हाँ' है, तभी आपको दूसरों से सम्मान मिल सकता है और दूसरे भी आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करेंगे। महामण्डल के प्रत्येक नेता को इसी प्रकार विनम्र, मधुरभाषी और 'अहंकार' रहित बनने की चेष्टा करनी चाहिये। [अर्थात कच्चा 'मैं' को पक्का 'मैं ' में रूपान्तरित करने की चेष्टा करनी चाहिए।] हमलोगों को सदा श्रीरामकृष्ण, श्री श्री माँ सारदा एवं स्वामी विवेकानन्द के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए कि उन्होंने हम पर असीम कृपा करके हमें अपने अन्य युवा भाइयों का नेतृत्व करने का अवसर प्रदान किया है। यह हमारा सौभाग्य है कि उन्होंने हमें इस कार्य को करने का अवसर दिया है। लेकिन, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि केवल मैं ही दूसरों की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करूँगा, बल्कि हमें अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने अन्य भाइयों को भी नेता बन कर दूसरों की सेवा करने के लिए उत्साहित और अनुप्रेरित करना चाहिए। ताकि वे भी अपना जीवन और चरित्र सुन्दर ढंग से गठित करें, अपनी भोगाकांक्षाओं और इन्द्रिय सुखों का त्याग करना सीखें तथा अपने जीवन को दूसरों की सेवा में समर्पित कर दें। आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है।
>>>2. नेता को शब्दों से नहीं बल्कि अपने जीवन को ही जीवन्त उदाहरण स्वरूप गढ़कर, लोगों को अनुप्रेरित करना होगा।
महामण्डल के चरित्रनिर्माणकारी आन्दोलन से जुड़े हम सभी भाईयों में से जिन लोगों के अन्दर ये सभी गुण हों, और ऐसी इच्छा भी हो कि मैं स्वयं आगे बढ़कर इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिये नेतृत्व प्रदान करूंगा। और साथ ही साथ इस प्रकार का दृढ़ संकल्प भी हो कि मैं लोक-दिखावा करने या मंच पर 'boss' जैसा दिखने के लिए नहीं ; बल्कि चुप-चाप केवल दूसरों से अधिक सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करने की इच्छा से मैं इस कार्य को करूँगा। तो वैसे सभी भाई महामण्डल आंदोलन के सच्चे और विनम्र नेता बन सकते हैं। [जैसे ईश्वर पूरे जगत-ब्रह्माण्ड का संचालन करते हैं , किन्तु हर जगह दिखाई नहीं देते ?]
हमलोगों को इस प्रकार से विचार करना चाहिये कि ठीक है मैं सेवा कर सकता हूँ, मैं किसी की थोड़ी सी सहायता कर सकता हूँ किन्तु, मुझे उतना ही करके क्यों सन्तुष्ट हो जाना चाहिए ? मैं स्वयं तो दूसरों की सेवा करूंगा ही साथ ही साथ अपने आस-पास रहने वाले कुछ अन्य लोगों को भी इसी राह पर चलने के लिये उत्साहित भी करूंगा। एवं इस कार्य को मैं केवल शब्दों से न करके प्रेमपूर्ण नेतृत्व क्षमता का एक जीवंत उदाहरण (living example) बनकर अपने जीवन-गठन के माध्यम से दूसरों के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करूँगा जिससे वे स्वतः यह समझ लेंगे कि मैं किस पद्धति को अपनाकर अपना चरित्र गठित करने में सफल हुआ हूँ। मैं अपने जीवन को ही उदाहरण स्वरुप बनाकर यह समझाने की चेष्टा करूंगा कि सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास को मैंने किस प्रकार अर्जित किया है, मैंने अपनी स्वार्थपरता का त्याग करना कैसे और कहाँ से सीखा ? सभी प्रकार के क्षुद्र भोगाकांक्षाओं की बलि चढ़ा देने की सामर्थ्य और क्षमता मुझे कैसे प्राप्त हुई ? अब मैं अपने मन को कुछ हद तक ही सही पर नियंत्रित कर पाने में कैसे सफल हुआ हूँ ? दूसरों के दुःख-कष्टों को अपने दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करना मैंने कैसे सीख लिया ?
अपने जीवन की व्यक्तिगत उपलब्धि को आचरण में उतार कर दूसरों को यह सब उपाय समझा पाने में सफल हो सकने वाले नेतृत्व की ही आज हमें आवश्यकता है। ऐसे ही नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अर्जित करने के लिये हम सभी सदैव प्रयत्नशील रहेंगे। छोटी सी संख्या तक सीमित रहते हुए चन्द लोगों की सेवा करके ही हम संतुष्ट होकर बैठ नहीं जायेंगे, या दूसरे उपायों से रिलीफ-वर्क जैसी हल्की-फुल्की सहायता करके ही चुपचाप बैठे नहीं रहेंगे।
>>>3. ठाकुर-माँ -स्वामीजी के जीवन और उपदेशों से प्रेरणा लेकर अपना जीवन-गठन करने से वैसा जीवन उदाहरण स्वरुप, विश्व मानव-कल्याण की बलिवेदी के लिए नैवेद्यस्वरूप बन जाता है।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥
गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जानते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है। किन्तु गुरु तो इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।
हमलोगों को भी 'नेता' बनना चाहिए तथा जिस पद्धति #1 से स्वामीजी ने अपने अनुयायियों को 'शिष्य' नहीं बनाकर 'नेता' बना दिया उसी पद्धति का हमें भी अनुसरण करना चाहिए। सामान्यतः जिस तरह लोग दूसरों की सेवा करते हैं उस प्रकार की सेवा स्वामीजी ने भी बहुत 'से लोगों की थी। किन्तु इससे भी कई गुना अधिक महत्वपूर्ण सेवा उन्होंने दूसरों के मन में ऐसे सुन्दर - सुन्दर प्रेरक विचारों को संप्रेषित करके की थी जिससे कि उनका जीवन इस सीमा तक रूपान्तरित हो गया कि अब उनको पहचानना भी कठिन था । उन विचारों से बहुतों का जीवन मानव कल्याण की बलिवेदी के लिये नैवेद्यस्वरूप हो गया, उन विचारों ने उन्हें भारतमाता के लिये 'निवेदित' मनुष्य में परिणत कर दिया। हमलोगों में भी दूसरों के जीवन को इसी प्रकार नैवेद्यस्वरूप गढ़ देने की क्षमता होनी चाहिए । नेतृत्व का यही मौलिक सिद्धान्त है ।
[पद्धति #1 : जिस श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति (Be and Make 'Leadership' training method) द्वारा स्वामी जी ने अपने अनुयायियों को (मारग्रेट नोबल) 'शिष्य' नहीं बनाकर "नैवेद्यस्वरूप नेता " (भगिनी निवेदिता) बना दिया था- कैप्टन सेवियर को 'C-IN-C नवनीदा बना' दिया था ;..... उसी पद्धति का अनुकरण हमें भी करना चाहिये।]
>>>4.
हमारे युग के एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक (British biologist) सर जुलियन हक्सले [1887- 1975 ) कहते हैं कि जिस प्रकार 'भौतिक जगत् का विज्ञान' (Science of Physical World) होता है ठीक उसी तरह 'अन्तर जगत् का विज्ञान' (Science of Internal World) भी होता है। जिस प्रकार भौतिक पदार्थों तथा प्राकृतिक ऊर्जा के कुशल उपयोग तथा प्रबन्धन के लिये 'यांत्रिकी विज्ञान' होता है, ठीक उसी प्रकार अन्तः प्रकृति की शक्तियों तथा आन्तरिक पदार्थों को भी संचालित करने तथा उपयोगी बना लेने की अभियांत्रिकी है।
जिस प्रकार हम बाह्य प्राकृतिक संसाधनों की अभियांत्रिकी सीखकर उसको अपने लिये उपयोगी बना लेते हैं उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान प्रचुर संसाधनों को उपयोगी बनाना भी हम सीख सकते हैं। जैसा कि आप सभी जानते हैं स्वामीजी ने भी "अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति दोनों के ऊपर विजय" प्राप्त करने का परामर्श दिया है। जिस प्रकार बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिये विज्ञान, तकनीकी और अभियांत्रिकी है उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान संसाधनों को मानवोपयोगी बना लेने वाला विज्ञान भी है, जिसे सर जूलियन हक्सले ने 'Science of Human Development' कहा है। अतः 'पूर्ण मनुष्य' बनने के लिये हमलोगों को केवल बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने वाला विज्ञान ही नहीं पढ़ना होगा बल्कि हमें उस अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने वाले विज्ञान (Science of Human Development) को भी सीखना होगा जिसे 'हक्सले का ट्रांस-मानवतावाद' कहा जाता है। अल्बर्ट आइन्स्टीन ने इन दोनों विज्ञानों को Science न कहकर ''Two religions'' कहा है।
>>>5 . मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने लिए विज्ञान (अपरा विद्या) और धर्म (परा विद्या) दोनों जरुरी हैं
मुण्डकोपनिषद में एक प्रसंग आता है कि आज से हजारों सा पहले शौनक नाम के एक युवा महर्षि थे, जो एक बड़े विश्वविद्यालय (ऋषिकुल) के अधिष्ठाता भी थे । वे शास्त्रविधि के अनुसार हाथ में समिधा लिये श्रद्धापूर्वक अपने गुरू महर्षि अंगिरा के पास आये और उन्होंने विनयपूर्वक पूछा-
“कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति । "
(मुण्डकोपनिषद 1:1:3 )
अर्थात् हे भगवन्! क्या जान लेने पर 'इदं सर्वं' यह जगत-ब्रह्माण्ड सब कुछ (भी वही ब्रह्म है ! यह सत्य) निश्चयपूर्वक जाना हुआ हो जाता है ? कृपया बतलाईये कि उसे कैसे जाना जाये ? इस प्रकार का प्रश्न पूछे जाने पर उनके गुरू उत्तर में कहते हैं- "द्वे विद्येवेदितव्ये ।"
"शौनक ! ब्रह्मविद/ ब्रह्मज्ञ महर्षियों का कहना है कि मनुष्य के लिये जानने योग्य दो विद्याएँ हैं- एक 'परा' और दूसरी 'अपरा' । तुम इस 'अपरा विद्या' (Science of External World) को सीखकर इस भौतिक जगत् के बारे में सब कुछ जान सकते हो तथा एक 'परा विद्या' है जिसके द्वारा तुम आन्तरिक जगत् के बारे में भी सब कुछ जान सकते हो।
हमारे प्राचीन युग के ऋषि दो प्रकार की विद्या या Science को सीखने का परामर्श देते हैं तो आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन दो विद्याओं की बात न कहकर दो धर्मों को जानने की बात कहते हैं। एक को वे 'Cosmic Religion' या ब्रह्माण्डीय धर्म कहते हैं जिसके द्वारा हमें इस अभिव्यक्त जगत् के बारे में पता चलता है और दूसरे को वे 'Religion of Internal World' या आन्तरिक जगत् का धर्म कहते हैं।
इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी का अन्त आते-आते विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) एक-दूसरे के बिल्कुल निकट आ पहुँचे हैं। जबकि लगभग 100 वर्ष पहले ही स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि भविष्य में विज्ञान तथा धर्म में कोई भी भेद नहीं रहेगा, दोनों एक समान ग्रहणीय माने जाएंगे और हाथ से हाथ मिलाकर दोनों आपस में सहयोगी होकर आगे बढ़ेंगे। ठीक ऐसा ही घटित होने वाला है। जब हम वैज्ञानिक संगोष्ठियों में प्रचलित आधुनिक शोध पत्रों से परिचित होने की चेष्टा करते हैं तो यही बात हमारे समक्ष और अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।
आधुनिक विज्ञान अब और अधिक दिनों तक सच्चे धर्म से (यानि एकत्व की अनुभूति से) संघर्ष नहीं कर पायेगा; और ठीक उसी तरह धर्म को भी विज्ञान का विरोधी नहीं रहना चाहिए । जिस प्रकार हमारे भौतिक जीवन को सुख-सुविधा पूर्ण बनाने के लिये- 'विज्ञान' जरुरी है उसी प्रकार हमारे आन्तरिक जीवन में सुख-शांति लाने के लिये 'धर्म' या अध्यात्म भी आवश्यक है।
>>>6.
हमलोग जैसा कि मानते/विश्वास करते हैं, मनुष्य पंचतत्वों के मेल से बना, केवल एक भौतिक देह ही नहीं है, इसी मानव शरीर में पंचतत्वों से भिन्न कोई अन्य वस्तु भी है। उस अति मूल्यवान् 'अन्य वस्तु' को हम तभी जान सकते हैं जब हमारे पास 'आन्तरिक जगत्' को जानने का विज्ञान (Western Science) और धर्म (Eastern Mysticism-भारतीय योग-विद्या) दोनों में समन्वय हो ।
इसी कारण हमारे नेतृत्व में इतनी क्षमता अवश्य रहनी चाहिए कि आधुनिक जीवन शैली में पले-बढ़े युवाओं को भी वह धर्म और विज्ञान के इस समन्वय से परिचित करा देने में समर्थ हो। क्योंकि इन दोनों विज्ञानों को जान लेने के बाद ही वे सच्चे शक्तिशाली कार्यकर्ता बन सकते हैं, जिनके पास शारीरिक क्षमता के साथ दूसरों के दुःखों को हृदय में अनुभव करने की संवेदना भी रहेगी, तथा इतना प्रखर मस्तिष्क भी होगा जिससे वे दूसरों के दुःखों को दूर करने का उपाय खोजकर उसको दूर करने में समर्थ होंगे। इस प्रकार की मानसिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ऐसे नेता जहाँ कहीं भी जायेंगे, वहाँ के कुछ युवाओं को एकत्र कर उनके भीतर इन्हीं सब प्रेरणादायी विचारों को भरेंगे।
>>>7.
सामान्यतः आजकल के युवाओं के जीवन का कोई निर्धारित उद्देश्य नहीं होता है, उन्हें अपने जीवन का एक उद्देश्य निर्धारित कर लेने के लिये उत्साहित करना चाहिए। उनके पास मनुष्य जीवन का कोई दर्शन या जीवन दृष्टि नहीं होता है । प्रायः अधिकांश युवा कभी यह जानने का प्रयास नहीं करते कि यह जीवन है क्या ? इसे महामूल्यवान् क्यों कहा गया है ? वे समझते हैं कि यह बना बनाया मिला है, इसको और कुछ बनाने - सँवारने की आवश्यकता नहीं है। वे ऐसा मानते हैं कि यह जीवन बस यूँ ही आकस्मिक संयोग से प्राप्त हो गया है और हमें इसका भरपूर उपयोग कर लेना चाहिए। उनमें से अधिकांश युवाओं के लिये जीवन का भरपूर उपयोग करने का अर्थ भी केवल इन्द्रियों के उपभोग तक ही सीमित रहता है। ये शरीर और इन्द्रियाँ हमें बहुत सुख देती हैं, अत: किन-किन विषयों से हमें बहुत सुख मिलता है, उसकी खोज की जाये और उनका भरपूर मजा लिया जाये! बस इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है ! किन्तु ऐसा सोचना निरा पागलपन है! अज्ञान है! मूर्खता है!
महामण्डल के 'मनुष्य बनो और बनाओ वेदान्त नेतृत्व/शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा (Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) के प्रशिक्षण में प्रशिक्षित भविष्य में जो नेतृत्व उभर कर सामने आयेगा, वह इस मूर्खता के मकड़जाल में फंसे इन युवाओं को उससे बाहर खींच निकालेगा। वह युवाओं का मार्गदर्शन करेगा, ज्ञान के आलोक में जीवन के महत्व को समझाने के लिये उन्हें मनुष्य जीवन के लक्ष्य के विषय में बतायेगा । वह युवाओं को बतलायेगा कि यह जीवन यूँ ही नष्ट करने के लिए नहीं मिला है। इसके पीछे एक महान उद्देश्य, महान संभावना छिपी हुई है। वह मनुष्य योनि में ही उपलब्ध होने वाली महान संभावनाओं का सही चित्र युवाओं के समक्ष रखेगा।
स्वामीजी मोहनिद्रा में निमग्न युवाओं को झकझोरते हुए कहते हैं-" उठो ,जाग्रत हो जाओ। हे महान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, यह मोह तुम्हें नहीं भाता। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी समझते हो ? हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ , अपना स्वरुप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो , यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने दुर्बल समझते हो , यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है।" तुम सबों के भीतर जो अनन्त संभावनाएँ छुपी हुई हैं, वे असीम हैं। एक बार यदि यह सत्य समझ में आ गया और यदि तुम उन संभावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये प्रयासरत हो गये तो तुम भी इस मनुष्य जीवन का अर्थ जान जाओगे । जब तुम मनुष्य जीवन की महिमा को जान जाओगे तब तुम्हें जीवन से प्रेम हो जाएगा। तब तुम सचमुच इस मानव जीवन का आनन्द उठाने में समर्थ हो जाओगे । यदि तुम पूर्ण मनुष्य बन सके तो उससे जो आनन्द प्राप्त होगा, उसकी तुलना में इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सारे आनन्द एकदम तुच्छ लगने लगेंगे। उस परम आनन्द को प्राप्त करने का मार्ग बिल्कुल विज्ञान सम्मत प्रणाली पर आधारित है। यदि तुम आज से ही इस वैज्ञानिक पद्धति को सीखने का प्रयत्न प्रारंभ कर दो तो तुम भी उन्नत हो सकते हो, तुम स्वयं को विकसित कर सकते हो तथा अपने मानव जीवन का पूरा मूल्य प्राप्त कर सकते हो।
>>>8 .
अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल (1833-1899) ने एक बार स्वामीजी से कहा था- "हम पाश्चात्य वाले इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत् को छोड़कर अन्य किसी वस्तु जगत् को सत्य नहीं समझते, अतः हमारा विश्वास है कि इस से जितना अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है उसे प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। अतः हम इस संतरे (जगत्) को निचोड़कर जितना निकल सके उसका रस निकाल लेना चाहते हैं।" इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- "हाँ हम भारतीय भी संतरे को निचोड़कर उसका रस पीना चाहते हैं । किन्तु, हमलोग आपकी अपेक्षा इस जगत् रूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्कृष्ट प्रणाली जानते हैं जिससे हमलोग अधिक रस प्राप्त करते हैं।
क्योंकि हम भारतवासी यह अच्छी तरह जानते हैं कि हमलोग केवल यह नश्वर देहमात्र नहीं हैं, हम तो अजर, अमर, अविनाशी आत्मा हैं। चुँकि , हम जानते हैं कि हम मरणधर्मा शरीर मात्र नहीं हैं; इसीलिए हमें रस निचोड़ने की कोई जल्दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ कि भय का कोई कारण नहीं है अतएव आनन्दपूर्वक रस निचोड़ता हूँ । इसीलिये हमलोग सभी नर-नारियों से प्रेम कर सकते हैं। सभी हमारे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं। मनुष्य को भगवान समझकर उनके प्रति प्रेम का भाव रखने में कितना आनन्द है । जगत् रूपी संतरे को इस तरह से निचोड़कर देखिये- अन्य प्रकार से निचोड़ने पर आपको जितना रस प्राप्त होता होगा, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पायेंगे। रस की एक बूँद भी व्यर्थ न जाएगी।"
>>>9.
किसी अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था- "तुम पाश्चात्य अज्ञेयवादी संतरे को निचोड़ रहे हो और हम भारतीय आम को निचोड़ते हैं ।" परन्तु संतरे के साथ आम की तुलना करने का क्या अभिप्राय था, इस पर उन्होंने कहीं प्रकाश नहीं डाला है। शायद स्वामीजी के कथन का अभिप्राय यह रहा होगा कि प्रत्येक फल में कुछ सारहीन पदार्थ भी रहता है, जिसको हमें फेंक देना चाहिए। हम जानते हैं कि आम में एक कड़ी सी गुठली भी होती है। अतः आप आम को निचोड़कर आम का रस जरूर निकाल लीजिए, परन्तु; उसके भीतर जो गुठली बची रह गयी है, उससे रस निकालने की चेष्टा व्यर्थ है । अतः उस निस्सार पदार्थ को बाहर फेंक सकने का साहस भी आपमें अवश्य रहना चाहिए।
इसी प्रकार हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा है जो सरस है, मधुर है, सुस्वादु है, अच्छा है तथा कल्याणकारी है। उस मधुर रस का पान अवश्य कीजिए । परन्तु इसी के साथ कुछ अन्य पदार्थ भी हैं जो कि कूड़े करकट की तरह निरर्थक हैं, तुच्छ हैं- उनको मुख में डालने का प्रयास मत कीजिए। यदि आप आम की तरह उसकी गुठली को भी दाँतों से काटने का प्रयास करेंगे तो उसका स्वाद अच्छा नहीं लगेगा, मुख कसैला हो जाएगा। उसी तरह आपको इतना जरूर जान लेना चाहिए कि इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के बाद इसके किस रस का पान करना है और किस रस को निस्सार समझकर सदा के लिये त्याग देना है । परन्तु; हममें से अधिकांश लोग तो अब भी आम की कड़ी गुठली को ही चबाने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि हमें आम के सच्चे स्वाद का कुछ पता ही नहीं है। हमें उसके वास्तविक रस को पीना चाहिए, परन्तु हमें उसका कुछ पता ही नहीं है।
अब, यहीं विवेक-विचार करना जरूरी हो जाता है। आपके सामने उपभोग के लिये जो भी वस्तु आ जाये, उसको वैसे ही निगलने मत लग जाइये। बल्कि उपभोग में लाने के पहले श्रेय - प्रेय का विवेक कर लीजिए, आपके समक्ष जो वस्तु रखी है, वह संपूर्ण रूप से आपके स्वास्थ्य के अनुकूल ही हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। अतः उसके केवल उसी अंश को ग्रहण कीजिए जो पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्द्धक हो। कुछ खाद्य पदार्थों में ऐसे-ऐसे विषाणु भी मिले हो सकते हैं जो शरीर के अन्दर पहुँचकर विष उत्पन्न करने लगें । अतः उन विषोत्पादक वस्तुओं का सेवन करना बंद कीजिए। जो स्वास्थ्यकर पदार्थ हैं, केवल उन्हें ही ग्रहण कीजिए। जो पदार्थ केवल प्रारंभ में ही सुखकर लगते हों परन्तु, बाद में पीड़ादायक हों या कल्याणकारी न हों उनका त्याग करना चाहिए ।
हम सभी लोग सुख पाना चाहते हैं, परन्तुः सच्चा सुख क्या है ? इसे नहीं जानने के कारण हम अक्सर 'सुख' के आवरण में छुपे घोर दुःख को ही पाते हैं। हमें इसी भूल से बचाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण गीता में परामर्श देते हैं कि हमलोगों को उपभोग करने से पहले ही जरा ठहर कर धैर्य के साथ विवेक का प्रयोग करके यह जान लेना चाहिए कि कौन सा सुख सच्चा सुख नहीं है।
सुख तीन प्रकार के होते हैं- सात्विक सुख, राजसिक सुख तथा तामसिक सुख । सात्विक सुख प्रारम्भ में विष के सदृश लगता है परन्तु परिणाम में अमृत तुल्य है, अमृत तत्व को दिलाने वाला है। कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जो शुरू में चबाते समय स्वादिष्ट नहीं लगती या तो कसैली लगती हैं या उनका स्वाद अच्छा नहीं लगता परन्तु जब आप उन्हें चबाकर पचा लेते हैं तो आपको वही सच्ची पौष्टिकता भी प्रदान करती हैं, जैसे, आँवला और हर्रे/ईमली । इनका नाम आपने अवश्य ही सुना होगा। जब आप इन्हें अपने मुख में डाल कर चबाना शुरू करते हैं तो पहले-पहल उनका स्वाद बिल्कुल अच्छा नहीं लगता किन्तु यदि थोड़ी देर चबा लेने के बाद एक गिलास पानी पी लिया जाये तो मुँह का स्वाद भी बदल जाता है और यह शरीर के लिये लाभकारी भी होता है। इस प्रकार से श्रेय- प्रेय का विवेक करके श्रेय को ही ग्रहण करने से सात्विक सुख प्राप्त होता है।
उसी प्रकार राजसिक सुख, वह सुख है जो आरंभ में तो बड़ा ही स्वादिष्ट या सुखकर अनुभव होता है किन्तु, बाद में बहुत दुःखदायी होता है जैसे दाद-खुजली । [ दाद- खुजाने का आनन्द परमानन्द की तरह होता पर बाद में महापीड़ा होती है।] यह खुजलाते समय तो सुखकर लगता है किन्तु उसका अन्तिम परिणाम पीड़ादायक होता है। वैसे ही ईमली का नाम सुनते ही मुख में पानी आ जाता है किन्तु, खाने पर उसका परिणाम शरीर के लिये बिल्कुल अच्छा नहीं होता। जो सुख प्रारंभ और परिणाम दोनों में बुद्धि को मोहग्रस्त करता है जो सुख निद्रा, आलस्य और व्यर्थ की चेष्टाओं से उत्पन्न होता है वह सुख तामसिक सुख कहलाता है ।
विवेक-प्रयोग के महत्व के बारे में कुछ नहीं जानने के कारण हममें से अधिकांश लोग सामान्यतः तामसिक सुखों में ही अपना सुख खोजते हैं। स्वार्थपरता को कम करते जाने से ही हमारा मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। अतः श्रेय-प्रेय का विवेक सीखकर अभ्यास करने से हमारी स्वार्थपरता दूर हो जाती है। केवल अपने क्षुद्र सुखों को पूरा करने के लिये जीवन धारण करना क्षुद्र स्वार्थपरता ही नहीं अपितु देवदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर उसको व्यर्थ में नष्ट करने जैसा भी है । महामण्डल के नेता अपने आस - पास रहने वाले भाईयों के बीच इन्हीं प्रेरणादायक सुन्दर तथा उदार विचारों को अपने जीवन को ही उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत कर समझाने का प्रयत्न करते हैं ।
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