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शनिवार, 3 अगस्त 2024

🔱🙏“अधीतिबोधाचरण प्रचारणैः शिक्षण-पद्धति " से गठित 'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय (1906 -1987) के जीवन की कई अनजानी बातें' 🔱🙏: श्री विश्वजीत चंद द्वारा लिखित बंगाली पुस्तिका - " एक महाजीवनेर नाना अजाना कथा " का हिन्दी अनुवाद - (এক মহাজীবনের নানা অজানা কথা -শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ ) 🔱🙏

 

"एक महान जीवन की कई अनजानी बातें"

लेखक 

श्री विश्वजीत चन्द 

 

प्रकाशक 

श्री विश्वनाथ बेरा 

सचिव 

अखिल भारत विवेकानन्द युव महामण्डल 

आन्दुल -मौड़ी शाखा 

गढ़मिर्जापुर, माशिला, हावड़ा -711302

फोन : 9433816641

E-mail : andulmourivym@gmail.com

प्रथम बंगाली संस्करण: 3 जून, 2022

प्राप्तिस्थान : महामण्डल ब्रांच सेन्टर 

प्रूफ संशोधन तथा परिमार्जन : श्री चित्तरंजन मल्लिक 


आवरण :

श्री दिव्येन्दु भण्डारी 


मुद्रण :

आर्ट टच , उत्तर मौड़ी , पाल पाड़ा , 

आन्दुल -मौड़ी , हावड़ा 

फोन -91233334779

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Thakur maa o swamiji | Facebook

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समर्पण: 

आप तीनो के श्रीचरणों में सादर प्रणाम

Dedication: 

Obeisance to your feet

উৎসর্গ : 

তোমার রাতুল চরণে সশ্রদ্ধ প্রণাম 

      विश्वजीत चंद महाशय की बहुमूल्य ग्रंथसूची (bibliography) एक जिज्ञासु मन की उपज है। प्रचलित बंगाली कहावत 'केचा खुड़ते साप' (Snake digging for earthworms-केंचुओं के लिए खुदाई करते हुए साप मिले।) को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि विचारशील पाठकों के लिये यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह एक रोचक निबन्ध है, एवं प्रत्यक्षदर्शियों की नजदीकी से इस पुस्तक की गुणवत्ता में वृद्धि हुई है। विषयवस्तु (Content) का सन्निवेश अच्छा हुआ है, और लेखन शैली (style) भी संतुलित है। यदि असावधानी के कारण कोई त्रुटि रह गयी हो,तो आशा है पाठक उसे क्षमाशील दृष्टि से लेंगे। यह पुस्तिका दूरदर्शी पाठकों एवं शोधकर्ताओं को प्रेरणा तथा अंतर्दृष्टि का स्रोत प्रदान करेगी। मैं उसके (लेखक के) निरन्तर विकास की कामना करता हूं।

श्री रवींद्रनाथ पाल,

बंगाला भाषा के शिक्षक,

पाँचारुल श्रीहरि विद्या मंदिर

Shri Rabindranath Pal,

Bengali teacher,

Pancharul Srihari Vidya Mandir

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प्रकाशक का निवेदन 

-श्री विश्वनाथ बेरा 

       'एक महान जीवन की कई अनजानी बातें' नामक पुस्तिका श्री विश्वजीत चन्द के द्वारा लिखी गयी है। इस पुस्तिका में आन्दुल -मौरी के एक प्रख्यात व्यक्ति भवदेव बंदोपाध्याय महाशय के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं एवं प्रसंगोचित उक्तियों को अभिलिखित किया गया है। 

    महामण्डल के भाई विश्वजीत 'अखिल भरत विवेकानंद युवा महामण्डल' के आन्दुल -मौरी शाखा के पूर्व सदस्य हैं, तथा  वर्तमान में महामण्डल की विचारधारा द्वारा निर्देशित 'पाँचारुल विवेकानन्द युवा पाठचक्र' के अध्यक्ष हैं।

अंग्रेजी में एक सरल सी कहावत प्रसिद्द है-' A man is known by the company he keeps.' - अर्थात किसी व्यक्ति की पहचान उसकी संगति में रहने वाले लोगों को देखकर की जा सकती है। अतएव भवदेव बाबू किस तरह के लोगों से संयुक्त थे, यह जानकर हम अनुमान कर सकते हैं कि वे किस तरह के व्यक्ति थे। स्वामीजी ने भी कहा है कि किसी व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाले छोटे- छोटे कार्यों को देखकर ही उसके चरित्र को समझा जा सकता है।  

      जिस प्रकार सुबह के ओस की बूँदें विभिन्न फूलों की कलियों को अनायास ही प्रस्फुटित कर उन्हें खिला देती हैं, ठीक उसी प्रकार पूज्य भवदेव बाबू भी आन्दुल- मौरी विवेकानन्द युवा महामण्डल के युवाओं को जीवनपुष्प के प्रस्फुटन के लिए अनुप्रेरित करते थे। जब हम उनके जीवन-प्रवाह का अन्वेषण करते हैं तो हमें कई मणियों-रत्नों का पता चलता है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों के प्रति विशेष श्रद्धावान इस व्यक्ति के सम्बन्ध में अभीतक किसी ने कुछ लिखा नहीं है। स्वेच्छा से इस उपेक्षित कार्य का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने के लिये हम विशेष रूप से अपने भाई श्री विश्वजीत चन्द के आभारी हैं। पुस्तक के प्रकाशन का कार्य अखिल भारत विवेकानन्द  युवा महामण्डल की 'अंदुल-मौरी शाखा' को सौंपने के लिए हम उनके और भी आभारी हैं। 

        परम पूज्यपाद श्रीमत स्वामी आत्मप्रियानन्द महाराज ने इतिहास को भी दार्शनिक दृष्टि से देखने की आवश्यकता पर बल दिया है। (उद्बोधन पत्रिका-बैशाख 1427, पृ.-267) विश्वजीत के लेखन में भी वही प्रयास दिखाई देता है। 

अंत में, रवींद्रनाथ की भाषा का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार घर के बगल वाले धान के खेत में गिरती हुई ओस की बूंदों के भीतर हम शाश्वत सौन्दर्य (timeless beauty) की अनुभूति करते हैं, उसी प्रकार इस अनजाने व्यक्ति में भी महान मानवीय गुणों को देख कर हम महामानव दर्शन के आनंद का अनुभव करते हैं।    

 अनुसार हम कह सकते हैं कि जिस तरह हम घर के पास चावल की भूसी पर पड़ने वाली ओस की बूंदों में असीम सुंदरता पाते हैं, उसी तरह इस कुख्यात व्यक्ति में महान मानवीय गुणों को देखने का आनंद भी महसूस करते हैं।


- श्री विश्वनाथ बेरा

सचिव 

अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल

अंदुल-मौरी शाखा

- Shri Vishwanath Bera

Secretary,

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal,

Andul-Mauri branch .

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मुद्रक के उद्गार  

        ठाकुर- माँ- स्वामी जी को कोटि-कोटि नमन करते हुए, मैं पुस्तक के मुद्रक (printer) के रूप में कुछ शब्द कहना चाहूंगा। इस पुस्तक को छापने का दायित्व आन्दुल-मौरी विवेकानंद युवा महामण्डल के पुस्तक प्रकाशक के द्वारा मुझे सौंपा गया है। किन्तु महामारी के कारण पुस्तकों छपाई में काफी विलम्ब हो रहा है; अतएव हम सभी को बहुत धैर्य रखना होगा।

     इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि भवदेव बन्दोपाध्याय महाशय के सबसे छोटे पुत्र आदरणीय श्री सुशान्त बन्दोपाध्याय मेरे गृह शिक्षक थे। इसी के चलते उनके घर पर रोज मुझे जाना पड़ता था। वहाँ परम पूज्य भवदेव बन्दोपाध्याय जी को अक्सर उनके वाचनालय में बैठकर, पढ़ने-लिखने में तल्लीन देखता था। यद्यपि वे अल्पभाषी थे, तथापि उनका अकृत्रिम स्नेह हमें प्राप्त हुआ था। वे अपने गाम्भीर्य को त्यागकर किसी बालक की तरह, हमारे स्तर पर उतरकर हमलोगों से मिला करते थे। उस समय मेरी उम्र काफी कम थी, इसलिए उनके व्यक्तित्व की गहराई को नापने की क्षमता मुझमें नहीं थी। लेकिन इस पुस्तक को छापने की जिम्मेदारी सौंपे जाने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना भाग्यशाली था कि मुझे छोटी उम्र में ही एक ऐसे व्यक्ति के दर्शन हुए - जिन्हें स्वयं माँ सारदा देवी, स्वामी शिवानन्द, स्वामी अभेदानन्द, (श्री 'म')  आदि महापुरुषों के दर्शन हुए थे

         अब महान चित्रकार स्वर्गीय शैल चक्रवर्ती के प्रसंग पर। मैं उनसे संभवत: 1979 में कलकत्ता पुस्तक मेले में मिला था। मुझे उनके चरणों में प्रणाम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । मेरे साथ उनका परिचय भवदेव बंदोपाध्याय महाशय के ज्येष्ठ पुत्र और मेरे शिक्षक स्वर्गीय विश्वनाथ बन्दोपाध्याय ने कराया था।

     मैं यह जानकर बहुत रोमांचित हुआ था कि श्रीरामकृष्ण वचनामृत ग्रन्थ में जिस 'अण्डे को सेती हुई चिड़िया' का जो चित्र छपा हुआ है , वह चित्र श्रीम के निर्देशानुसार पूजनीय भवदेव बन्दोपाध्याय महाशय ने ही शैल चक्रवर्ती के माध्यम से बनवाया था। अतएव स्वयं को मैं अत्यन्त भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे श्रद्धेय भवदेव बंदोपाध्याय एवं शैल चक्रवर्ती महाशय-दोनों के चरण स्पर्श करने का सौभाग्य मिला है

श्री विश्वजीत चन्द के लेखों को पुस्तक रूप में छापते समय मुझे यह पता ही नहीं चला कि उनके शब्द मेरी जानकारी के बिना कब  मेरे चित्त पर अंकित हो गए हैं। 

विनीत  -

श्री दिव्येन्दु भण्डारी 

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|| भूमिका ||  

     'भारत का भविष्य' विषय पर दिये अपने भाषण में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -"अतीत के गर्भ से ही भविष्य का जन्म होता है।" अर्थात अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। और क्योंकि मैं इतिहास का छात्र रहा हूँ, इसलिये मैं भी अपनी लेखनी की शुरुआत अतीत से ही करना चाहूँगा। 

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की आन्दुल -मौरी शाखा के श्री सुशान्त बन्दोपाध्याय के साथ मेरा परिचय वर्ष 1989 से है। निजी बातचीत के दौरान वे अंदुल-मौरी के अतीत की कई कहानियां मुझे सुनाया करते थे। उन कहानियों में अक्सर उनके स्वर्गीय पिता भवदेव बन्दोपाध्याय महाशय का उल्लेख हुआ करता था। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि अनेक घटनाओं के मुख्य गवाह (साक्षी) मानो भवदेवबाबू ही हों। उन सभी चर्चाओं में, सबसे पहले मैंने पूज्य नवनीदा के छात्र जीवन के बारे में सुना, फिर नवनीदा के सुविख्यात पितामह आचार्य शीरीष चन्द्र मुखोपाध्याय (1873-1966) के जीवन की विभिन्न घटनाओं तथा स्वामी विवेकानन्द के परिवार के साथ आन्दुल का सम्बन्ध के बारे में सुना। 

     यह जानकर मैं बहुत प्रभावित हुआ कि भवदेव बाबू ने देश की आजादी के लिए,अपनी प्यारी मातृभूमि की मुक्ति के लिए, कैसे एक क्रन्तिकारी कार्यकर्ता (revolutionary activists) की भूमिका निभाई थी ; मैं उनके श्रीश्री माँ सारदा देवी के दर्शन करने, स्वामीजी की भाषा में-'जीवन्त दुर्गा' (জ্যান্ত দূর্গা) के दर्शन करने की स्मृति की बात सुनकर और भी रोमांच से भर गया। परम पूज्य महापुरुष महाराज (स्वामी शिवानन्द) एवं स्वामी अभेदानन्द जी महाराज के साथ भवदेव बाबू के सम्बन्ध की बातें तथा श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्री 'म' (मास्टर महाशय) का स्नेह-पात्र बन जाने, इत्यादि घटनाओं को सुनने मात्र से, आन्दुल भ्रमण द्वारा मन में किसी पुण्य तीर्थ यात्रा का भाव उत्पन्न हो जाता है। मन की इसी भावना ने मुझे भवदेव बाबू के जीवन की कुछ अज्ञात घटनाओं को अभिलिखित करने के लिए प्रेरित कर दिया - जिसके परिणामस्वरूप यह पुस्तिका तैयार हो गयी।

      परम्- पूज्य नवनीदा (प्रेममय श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) ने अपने - "छोटे-छोटे कर्मों का महत्व" (Greatness in Small Deeds) शीर्षक निबंध में लिखा है कि "महान लोग अपने छोटे-छोटे कार्यों (जैसे धोती समेटना या कागज फाड़ना जैसे तुच्छ कार्यों) के द्वारा जिस महानता (पूर्णता या दिव्यता) का परिचय देते हैं, वे अक्सर हम जैसे साधारण लोगों की नजरों से चूक जाती हैं, या 'skip' कर जाती हैं। किन्तु वास्तव में वे ही सच्चे महात्मा होते हैं। सम्भव है कि इतिहास के पन्नों में इन लोगों के नाम अलग से न लिखे जाएं। लेकिन राष्ट्र का भावी इतिहास इन्हीं जैसे महापुरुषों के सम्मिलित प्रयासों की बुनियाद पर निर्मित होता है।" भवदेव बाबू के जीवन की कुछ घटनाओं को अभिलिखित करते समय मुझे श्रद्धेय नवनिदा के शब्द विशेष रूप से याद आ गए थे। 

          भवदेव बाबू का जन्म 2 मार्च, 1906 को हावड़ा जिले के आन्दुल-मौरी के निकट पुइला नामक ग्राम में हुआ था और 21 जनवरी, 1987 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी। उनके पिता हरिपद बंदोपाध्याय एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे, और माँ हरिदासी देवी एक समर्पित गृहिणी थीं।

       अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के उपाध्यक्ष श्रद्धेय श्री रनेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय महाशय की सलाह और आशीर्वाद ने मुझे इस पुस्तक-लेखन कार्य में विशेष रूप से प्रेरित किया है । तथा अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के महासचिव (General Secretary) श्री वीरेंद्र कुमार चक्रवर्ती तथा सहायक महासचिव (Assistant General Secretary) माननीय श्री दीपक कुमार सरकार द्वारा लिखित दो आशीर्वाद पत्र (blessing letters) इस पुस्तिका की विशेष संपत्तियां हैं। साथ ही साथ महामण्डल के केन्द्रीय संगठन के सदस्य माननीय श्री मिंटू पद दास एवं श्री तपन प्रसाद चट्टोपाध्याय था आन्दुल-मौरी शाखा के समस्त सदस्यों ने भी विभिन्न प्रकार से मेरी सहायता की है। मैं उन सभी का बहुत आभारी हूं।

      पुस्तक लेखन का कार्य जुलाई 2017 से शुरू हुआ था। इस लेखन कार्य में जिन्होंने गणेश जी की भूमिका निभाई थी, वे थे बन्धुवर स्वर्गीय उत्तप्ल कांडार। स्वयं गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद उन्होंने इस काम में मेरी मदद की थी। उनकी आत्मा की शान्ति के लिये मैं श्रीश्री ठाकुरदेव से प्रार्थना करता हूँ। पांडुलिपि में संशोधन करने के लिए, मैं अपने अग्रज-तुल्य श्रद्धेय शिक्षक श्री रवींद्रनाथ पाल महाशय एवं महामण्डल के भाई श्री सतीनाथ पाल का ऋणी हूँ। जो कोई व्यक्ति श्रीश्री ठाकुर-माँ-स्वामीजी के प्रति श्रद्धाशील हैं मैं इस रचना को उन्हें समर्पित करता हूँ। यदि यह रचना उन्हें अच्छी लगती है, तो मैं अपने परिश्रम को साथक समझूँगा। मुझे आशा है कि इस लेख में एकत्रित जानकारी से शोधकर्ताओं की रुचि में भी वृद्धि होगी।

अंत में मैं अपनी गर्भधारिणी माता गौरीरानी चन्द के चरणों में प्रमाण करता हूँ। इस पुस्तक को लिखने के पीछे वे ही मेरी मुख्य प्रेरणा-स्रोत हैं।

अलमिति विस्तरेण -

श्री विश्वजीत चंद,

आन्दुल-मौरी, हावड़ा

मो.सं.-700381079

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

(1) 

एक महान जीवन की अज्ञात कहानी

[प्रत्यक्षदर्शी के परिपेक्ष्य में] 

[ In the eyewitness context]

        जिस प्रकार असंख्य अनाम पुष्प हिमालय पर्वत की अपार शोभा को प्रकट करते हैं, उसी हम देखते हैं कि प्रकार भाव जगत में भी मानव-समाज उन समस्त चरित्रवान महापुरुषों से समृद्ध हुआ है, जिन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए, राम-सेतु निर्माण में गिलहरी की भाँति (जैसे एक गिलहरी बार-बार शरीर पर बालू लपेटकर उसे पुल पर गिराती थी।) पूर्णतया निःस्वार्थ भाव से अपने-आप को समर्पित कर दिया है।

       हमारी चर्चा के केन्द्रबिन्दु पुइलया, आन्दुल-मौड़ी निवासी भवदेव बंदोपाध्याय महाशय हैं। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों के लिए अपने प्राणों को संकट में डाल कर भी देश कल्याण के कार्यों में भाग लिया था। केवल इतना ही नहीं, वे कुछ ऐसे महान लोगों के संपर्क में भी आए थे  जिन्होंने उनके जीवन को -" अग्निशामक यंत्र के भाँति " (Like a fire extinguisher') परिवर्तित कर दिया था। उन लोगों में "विवेकानन्द युवा महामण्डल के C-IN-C" श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय" के पितामह आचार्य शिरीष चंद्र मुखो-पाध्यायश्रीरामकृष्ण -वचनामृत के लेखक श्री 'म', स्वामी विवेकानन्द के भाई भूपेंद्रनाथ दत्त, स्वामी अभेदानन्द आदि जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति शामिल हैं। 

      वह समय था 1967 ई० जब कोलकाता के एंटाली अद्वैत आश्रम के कुछ संन्यासियों की प्रेरणा, एवं श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के समर्पित प्रयास से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना हुई थी। उस समय महामण्डल संगठन की स्थापना के शुभ अवसर पर श्री भवदेव बंदोपाध्याय भी उपस्थित थे। महामण्डल का प्रथम युवा प्रशिक्षण शिविर 8 जनवरी, 1968 को दक्षिणेश्वर के आड़ियादह में  आयोजित हुआ था, तब उस शिविर में उन्होंने अपने पुत्र तथा आन्दुल के दो युवकों को शिविर-प्रशिक्षणार्थी के रूप में भेजा था। उस शिविर के बाद वे हर साल नए-नए युवाओं को महामंडल द्वारा आयोजित शिविर में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। तथा उन युवाओं के शिविर से लौटने के बाद, शिविर के विभिन्न अनुभवों को जानने के लिए उनसे  पुइलय निवासी सूर्य नारायण कल्याणी के घर पर मिला करते थे।

     इस तरह लगभग एक दशक के भीतर-भीतर बिना किसी के ध्यान में आये, भावी आन्दुल -मौड़ी विवेकानन्द युवा महामण्डल की नींव तैयार हो गई। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि जैसे दीया जलाने से पहले, उसकी बत्ती तैयार करने का भी एक अध्याय रहता है, उसी प्रकार श्री भवदेव बंदोपाध्याय के पास स्वामीजी के आदर्शों पर युवा संगठन तैयार करने का पर्याप्त अनुभव था। क्योंकि 1940 के दशक से ही भवदेव बाबू आन्दुल-मौड़ी के दो संगठनों - " आन्दुल-मौड़ी विवेकानन्द पाठचक्र " तथा " बोधानन्द स्मृति संघ " के सचिव थे तथा आचार्य शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय " आन्दुल-मौड़ी विवेकानन्द पाठचक्र " के अध्यक्ष थे तथा "बोधानन्द स्मृति संघ"अध्यक्ष थे  -'उद्बोधन' पत्रिका के सम्पादक स्वामी वासुदेवानन्द।  

      आचार्य शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय स्वामीजी के सीधे स्पर्श से अनुप्रेरित थे। 7 मार्च, 1897 को दक्षिणेश्वर में आयोजित ठाकुरदेव की जयंती के अवसर पर स्वामीजी के संक्षिप्त भाषण के वे प्रत्यक्ष श्रोता थे। ये आचार्यदेव भक्त भैरव गिरीशचन्द्र घोष के भी बेहद करीबी थे। आचार्यदेव  जौहरी की नज़र वाले एक सर्व सम्मानित शिक्षक थे, एवं भवदेव बंदोपाध्याय आचार्य शिरीष चंद्र के पसंदीदा छात्रों में से एक थे। अपने प्रिय छात्र की सांगठनिक प्रतिभा को देखकर ही उन्होंने उसे युवा पाठचक्र के सचिव का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा था। नवनीदा के पितामह आचार्य शिरीषचन्द्र ने 10 जून 1960 को भवदेव बाबू को लिखित अपने आशीर्वाद पत्र में उन्हें 'भक्ति भूषण' की उपाधि प्रदान की थी।  यह स्मृति पत्र और भवदेव बाबू को लिखित दिनांक 10 बैसाख 1366 (अप्रैल 1968) का एक व्यक्तिगत पत्र हमारे हाथ लगा है। हमने दोनों पत्रों की फोटोकॉपी बंगला पुस्तक के पेज 4 और 5 पर छापकर पाठकों को उपलब्ध करा दी है। आचार्य शिरीष चंद्र अपने शिष्य भवदेव के प्रति कैसा स्नेह रखते थे, और उनके गुरु-शिष्य सम्बन्ध की गहराई और विस्तार के स्तर को शुधि  पाठक उन पत्रों पर थोड़ा मनोनिवेश # करने से ही समझ सकते हैं। 

      अन्दुल मौरी के इस सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय की स्मृति पर उपेक्षा की जो धूल पड़ी हुई थी , उस धूल को हटाना तथा स्वामी विवेकानन्द के चरित्रनिर्माण और मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा - "Be and Make " के प्रचार-प्रसार में उनके (भवदेव बाबू के) योगदान को उजागर करना हमारा उद्देश्य है यदि यह पुस्तक सभी को स्वीकार्य हुई, तो मैं यह समझूंगा की यह प्रयास सार्थक हुआ है। 

NB #[2 letters photocopy : स्वामी विवेकानन्द की चरित्रनिर्माण और मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा - "Be and Make " के प्रचार-प्रसार में अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय के योगदान को उजागर करना ही हमारा उद्देश्य है।] 

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

[2.]

"सावधान हो जाओ कोई तुम पर नजर रख रहा है"

"Be careful someone is watching you"

" সাবধান তোকে কেউ নজরে রাখছে " 

          महापुरुषों का मिलन स्थल (बैठक स्थान) : 'दक्षिण का नवद्वीप' आन्दुल न केवल आचार्यदेव (शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय) के लिए बल्कि हमारे प्रिय नवनीदा के लिए भी एक बहुत ही पवित्र स्थान था यही  आन्दुल प्रेमिक महाराज की साधनास्थली भी थी।न्हीं प्रेमिक महाराज द्वारा रचित 'काली कीर्तन' श्रीश्री माँ सारदा देवी, स्वामी ब्रह्मानन्द, स्वामी शिवानन्द तथा अन्य सभी पूज्यपाद महाराज जी को अत्यन्त प्रिय था पूज्यपाद प्रेमिक महाराज स्वामीजी की माता भुवनेश्वरी देवी के दीक्षा-गुरु भी थे 

      ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी के पिता विश्वनाथ दत्त के शरीर त्यागने के बाद नरेंद्रनाथ दत्त भी सूतक (अशौच) की अवस्था में यहां आए थे इसके अतिरिक्त यह आन्दुल महाप्रभु श्री चैतन्य देव के जीवन के साथ भी जुड़ा हुआ है। जगन्नाथधाम की पैदल यात्रा करते समय श्री चैतन्य देव ने हुए इस पवित्र भूमि पर जो हरिनाम संकीर्तन किया था, उसके परिणामस्वरूप उस समय बहुत धूल उड़ रही थी, उसे देखकर महाप्रभु बोल उठे यही है 'आनंदधूलि।' और समय के प्रवाह में इस स्थान का नाम 'आनंद धूलि से आन्दुल ' हो गया

       यह आन्दुल न केवल एक आध्यात्मिक स्थान ही था बल्कि अग्नि युग के क्रांतिकारियों की ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का केंद्रबिन्दु भी बन गया था। क्रांतिकारी लोग यहां अपनी गुप्त कार्य योजना के संबंध में परस्पर चर्चा करने के लिये यहाँ आते थे। आचार्य शिरीषचन्द्र ने विद्यालय में पढ़ते समय किशोर भवदेव के हृदय में देशभक्ति की आग जला दी थी । बंग-भंग आन्दोलन के दौरान उन्होंने अपने छात्रों के मन में देश प्रेम की भावना का संचार कर दिया था। सरकारी सजा की धमकियों को नजरअंदाज करते हुए स्कूली छात्रों ने स्कूल में 'बंदे मातरम' (जी० नदी० के ह०-पृष्ठ 18) गीत गाया था। विदेशी कपड़ों को एकत्र करके यहाँ उसकी होली जलाई गयी थी। इसका समाचार इंग्लैण्ड के समाचार-पत्र में प्रकाशित हो गया। यह समाचार मिलने पर आचार्यदेव को गिरफ्तार करने के लिए तात्कालीन ब्रिटिश सरकार ने लालबाजार से एक पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी वारंट के साथ आन्दुल भेजा था। लेकिन वह पुलिस अधिकारी आचार्यदेव के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। तथा स्कूल की सराहनीय अनुशासन देखकर और सरकार विरोधी गतिविधियों का कोई सबूत नहीं होने के कारण उन्हें गिरफ्तार किए बिना वापस लौट गया। वापस लौटते समय उस पुलिस अधिकारी ने कहा था, "मैं ब्रिटिश विरोधी आंदोलनकारियों के प्रति कभी कोई कमजोरी नहीं दिखाता, लेकिन यहाँ के मामले में न जाने क्यों मुझे ऐसा करना पड़ रहा है ।"

        इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि यह विद्यालय अभी भी यहाँ घटित विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं की गवाही देने के लिये सिर उठाये खड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि 1857 के (सिपाही-विद्रोह: ब्रिटिश सेना द्वारा कानपुर पर फिर से कब्ज़ा करने के बाद, नाना साहब गायब हो गए थे।) प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के नेता नाना साहब पेशवा आन्दुल के 'गुलाब -बाग़' में छुप कर रहे थे।  उनको गिरफ्तार करने के लिए यहाँ कंपनी के एक पुलिस अधिकारी आये थे। लेकिन रात हो जाने के कारण उन्होंने इस विद्यालय में प्रधानाध्यापक का आतिथ्य स्वीकार किया था।  वह अधिकारी जब वापस इंग्लैंड गया तो वहाँ के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र में उसने इस विद्यालय की प्रशंसा करते हुए एक पत्र लिखा था ।

      किशोर भवदेव भी अपने आदर्श आचार्य देव की देशभक्ति से प्रेरित हुए, तथा क्रांतिकारी आंदोलन में यथासम्भव कूद पड़े थे । उनका काम क्रांतिकारियों के साथ गुप्त पत्राचार का आदान-प्रदान करना था और उन्हें इस काम के लिए इसलिए चुना गया था ताकि पुलिस को उनपर किसी प्रकार का सन्देह न हो। इसी क्रम में एक बार किशोर भवदेव पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ गई। यह तय हुआ था कि जब क्रांतिकारी बिपिन बिहारी उन्सानी स्टेशन (अब मौड़ीग्राम स्टेशन) पर ट्रेन के आखिरी डिब्बे से उतरेंगे, तब वे अपने सामने एक किशोर उम्र के युवा लड़के को खड़ा पाएंगे। जब लड़का चलना शुरू करेगा तो वे बिना कुछ बोले थोड़ी दुरी रखते हुए लड़के के पीछे चलते हुए अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जायेंगे। किशोर भवदेव ने बड़ा खतरा उठाते हुए उस कार्य को सही ढंग से पूरा कर दिया

      इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि उस समय ब्रिटिश पुलिस बाज की तरह बिपिन बिहारी गांगुली का पीछा कर रही थी। स्वाभाविक रूप से हम कल्पना कर सकते हैं कि किशोर भवदेव किस तरह अपनी जान जोखिम में डाल कर भी अपने कार्य को पूरा कर दिखाते थे। यदि वे पकड़े जाते, तो ब्रिटिश पुलिस द्वारा उन्हें यातनाएँ तो दी ही जाती, और यह भी खतरा था कि निश्चित रूप से उन्हें कठोर जेल की सजा काटते हुए, अपने छात्र जीवन को समय से पहले समाप्त करना पड़ता। युवा भवदेव अपने कर्मजीवन में प्रवेश करने बावजूद, बाद के जीवन में भी भावी खतरे की परवाह किये बिना देश के कार्यों में भाग लेते देखे गए थे

        क्रांतिकारी लोग भी आशीर्वाद लेने के लिए कई बार ठाकुर माँ स्वामीजी के मंदिर में  गुप्त रूप से बेलुड़ मठ जाते थे। क्रांतिकारियों से मिलने के लिए युवा भवदेव भी वहाँ  जाया करते थे। एक बार स्वामीजी के मंदिर के पीछे  गंगा की ओर मुख करके बैठा युवा भवदेव अपने एक मित्र के साथ गुप्त मंत्रणा में लगा हुआ था। उस समय एक Undercover CID अधिकारी मंदिर के दक्षिण की ओर से उनकी सारी बातें सुन रहा था। यह अधिकारी इस प्रकार खड़ा था कि भवदेव बाबू उसे देख  नहीं सकते थे,लेकिन वह उनकी सब बातें सुन सकता था। उस समय उद्बोधन के संपादक स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज मैदान में टहल रहे थे। उन्हें पूरा माजरा समझ में आ गया। भवदेव बाबू महाराज के अत्यंत प्रिय थे। उन्हें उसके खतरे में पड़ने की आशंका उत्तपन्न हुई। संध्या आरती के बाद, मठ से निकलते समय जब भवदेव बाबू  महाराज को प्रणाम करने गए तो महाराज ने उनसे कहा- 'सावधान कोई तुम पर नजर रख रहा है। ' यह कहकर उन्होंने शाम वाली घटना उसे बता दी। और इसके अलावा, महाराज ने भवदेव बाबू को जल्द से जल्द अपना  स्थानांतरण करवाकर कलकत्ता से बाहर जाने का परामर्श दिया। उनकी सलाह कितनी सही थी, इस घटना के कुछ दिनों के भीतर ही पुलिस ने उनकी तलाश में रेलवे कार्यालय में उनके कार्यस्थल पर छापा मारा था ।  उसके बाद अपने बड़ों के कहने पर भवदेव बाबू तबादला लेकर जमालपुर चले गए

        वास्तव में किसी समय सादे कपड़ों वाली पुलिस बेलुड़ मठ में रहती थी, यह कोई अफवाह नहीं है, बल्कि सरकारी खुफिया रिपोर्ट और इतिहासकारों द्वारा जुटाई गई जानकारी से भी इसकी पुष्टि होती है। Sedition Committee के रिपोर्ट में क्रांतिकारियों पर श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा और अन्य धार्मिक ग्रंथों के प्रभाव की बात पायी जाती है

      भारत के स्वतंत्रता संग्राम में श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा का प्रभाव अप्रत्यक्ष होते हुए भी बहुत व्यापक था। स्वतंत्रता सेनानियों को वहाँ के परिवेश से एवं उनके जीवन और उपदेशों से प्रेरणा मिलती थी। श्री रामकृष्ण देव ने 'शक्ति साधना' में सिद्धि प्राप्त की थी, इसलिए क्रांतिकारियों को श्री रामकृष्ण के जीवन और संदेशों में बहुत रुचि थी। जब हम उस समय की खुफिया रिपोर्टों को देखते हैं, तो उसमें पाते हैं कि 'अनुशीलन समिति ' की कार्य-पद्धति में विवेकानन्द साहित्य का पठन-पाठन अनिवार्य रूप से होता था। 

      उस समय के विशेषज्ञ ब्रिटिश प्रशासकों और माहिर गुप्तचरों द्वारा इस बात का विश्लेष किया जाता था कि क्रान्तिकारी लोग आखिर श्री रामकृष्ण वचनामृत और गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों का अध्यन क्यों करते हैं और अपने पुस्तकालयों में उन ग्रंथों को क्यों रखते हैं ? स्वयं स्वामीजी ने 'Bengal Volunteers' के महानायक, महान क्रांतिकारी हेमचन्द्र घोष से कहा था कि ठाकुरदेव ने उनसे कहा था' - "याद रखना कि अंग्रेजों ने ही इस देश का सर्वनाश किया है।" सरकार द्वारा दर्ज की गई खुफिया रिपोर्टों में इस तथ्य का बार-बार उल्लेख किया गया है कि 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' क्रांतिकारियों की पसंदीदा पुस्तक थी।  

ब्रिटिश प्रशासक JAMES CAMPBELL ने अपनी पुस्तक "Political troubles in India (1907-1917) में लिखा है, "....यह देखना आसान था कि इन किताबों को पढ़ने से कोई युवक धर्म और दर्शन की धार्मिक पुस्तकों को पढ़ते हुए बड़ी आसानी से और सीधे कैसे रिवाल्वर और बम तक पहुंच सकता था । " अर्ल ऑफ़ रॉलैंड्स ने भी अपनी पुस्तक -"The Heart of Aryavarta" (आर्यावर्त का ह्रदय)  में युवा क्रांतिकारियों पर रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा के प्रभाव का उल्लेख किया है। 

     धुरन्धर जासूस 'Charles Taggart' ने  अपनी गोपनीय रिपोर्ट में क्रांतिकारियों और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों पर रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भावधारा और रामकृष्ण मिशन के प्रभाव पर एक गुप्त रिपोर्ट (24/04/1918) को लिखा था कि श्रीरामकृष्ण वचनामृत और विवेकानन्द के कर्मयोग पुस्तक से पाठ करने के बाद क्रन्तिकारी सदस्यों की भर्ती की जाती थी। टैगगार्ट की एक  रिपोर्ट में कहा गया है कि बारिशाल षड़यंत्र मामले के प्रमुख क्रांतिकारियों  में से एक देबेंद्रनाथ घोष के घर में एक विवेकानन्द पुस्तकालय था। उनकी रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि श्री रामकृष्ण, विवेकानंद भावधारा और रामकृष्ण मिशन ने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी क्रांतिकारियों को प्रभावित किया था ।

      प्रथम विश्व युद्ध (1914) से पहले, श्री रामकृष्ण के आदर्श से अनुप्राणित होकर, श्री रामकृष्ण विचारधारा का प्रचार करने के लिए पूर्वी बंगाल में कई आश्रम स्थापित किए गए थे। यद्यपि उन आश्रमों को बेलुड़ मठ से स्वीकृति प्राप्त नहीं थी, फिर भी वहाँ श्री रामकृष्ण देव की पूजा श्रद्धा से पूजा की जाती थी और श्रीरामकृष्ण के आदर्शों को सामने रखते हुए युवक लोग मातृभूमि की जंजीरों को तोड़ने की शपथ लिया करते थे। टैगगार्ट की रिपोर्ट के अनुसार यह जानकारी प्राप्त होती है कि क्रन्तिकारी लोग वहाँ संन्यासी के वेश में सरकार के विरुद्ध संग्राम करने के लिए तैयार किये जाते थे। 1913 ई. के  बारिशाल षडयंत्र मामले की खुफिया जाँच से पता चलता है कि पूर्वी बंगाल के कई प्राइवेट रामकृष्ण आश्रम ऐसे थे जो सरकार के विरुद्ध सीधे  संघर्ष के लिए तैयारी में लगे हुए थे ।

         एक समय में रामकृष्ण मिशन के साथ क्रांतिकारियों के संबंध इतने घनिष्ठ हो गए थे कि उस समय सरकार ने रामकृष्ण मिशन को गैरकानूनी घोषित करने और बेलुड़ मठ को बंद करने के निर्णय पर विचार-विमर्श होने लगा था। जाने-माने इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार ने लिखा है, "एक दिन मैंने एक गोपनीय फाइल पर 'रामकृष्ण मिशन' लिखा देखा। मैं थोड़ा हैरान हुआ और उस फाइल को अपने कमरे में ले जाकर पढ़ने लगा। मैंने पाया कि फाईल के सबसे पिछले पन्ने पर एक रिपोर्ट है -जिसमें विस्तार से कहा गया है कि रामकृष्ण मिशन के 8/10 संन्यासी अपने  पूर्वाश्रम में किस क्रांतिकारी और गुप्त समिति के सदस्य थे तथा वहाँ उनके वर्तमान और पूर्वाश्रम के नाम भी दिए गए हैं।  इन विवरणों को पढ़ने के बाद कुछ उच्च पदस्थ अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी टिप्पणी भी अंकित की हुई है। सबसे अन्त में विभागीय सचिव ने बड़े लाट साहेब को फाइल भेजते समय  इन सभी टिप्पणियों को सारांशित करते हुए, अपना मन्तव्य किया है कि बेलुड़ मठ को अवैध घोषित कर देना चाहिये। इन तमाम टिप्पणियों को पढ़ने के बाद बड़े लाट साहेब ने फाइल पर नोट में लिखा है कि- " अगर बेलूर मठ को प्रतिबंधित किया जाता है तो इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खासकर अमेरिका की नाराजगी झेलनी होगी। इसलिए बेलुड़ मठ पर प्रतिबंध लगाने के बजाय वहां सादे पोशाक में कुछ पुलिस अधिकारियों को नियुक्त किया जाना चाहिए।" बताने की आवश्यकता नहीं कि मिस मैक्लाउड को जब एक गुप्त स्रोत से इसकी जानकारी मिली तो वे बड़े लाट के पास समझाने के लिए गई; और कहा कई अगर बेलुड़ मठ पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तो पूरे यूरोप में, विशेष रूप से अमेरिका में, इसकी कड़ी प्रतिक्रिया होगी, जो ब्रिटिश सरकार के हित के लिए बहुत हानिकारक होगी।

      क्रांतिकारी नेता हेमचंद्र कानूनगो ने स्वीकार किया है कि पुलिस की नजर  से बचने के लिए बंगाल में क्रांतिकारियों ने रामकृष्ण मिशन की शाखाओं को 'Revolutionary Agency" के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था ।  हेमचंद्र कानूनगो ने यह भी स्वीकार किया है कि क्रांतिकारियों ने रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय बेलुड़ मठ को अपने सुचना सम्पर्क  और संघ के केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया था। स्वामीजी के लेखन (विवेकानन्द साहित्य) और उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन का प्रभाव लगातार बढ़ता गया। खुफिया रिपोर्ट बताती है कि स्वामीजी की पत्रावली को ज़ब्त करने का प्रस्ताव भी सरकार को भेजा गया था। लेकिन Standing Counsel (सरकारी वकील) एस.आर. दास ने जब  इसे जब्त करने पर आपत्ति जताई तो ब्रिटिश सरकार ने पुस्तक को जब्त नहीं किया।  चार्ल्स टैगगार्ट ने अपनी खुफिया रिपोर्ट (22/04/1918) में कहा है कि कलकत्ता अभिनंदन के उत्तर में स्वामीजी के भाषण का युवा स्वतंत्रता सेनानियों पर गहरा प्रभाव पड़ा था । खुफिया रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि 29 जनवरी, 1912 ई ० को स्वामीजी की 50 वीं जयंती पर बेलुड़ मठ में क्रांतिकारियों ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। सरकार की खुफिया रिपोर्ट में स्वामी ब्रह्मानन्द के विरुद्ध स्वराज प्रचार के गंभीर आरोप लगाए गए थे। 

        सिस्टर निवेदिता ने भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए छद्म नामों (pseudonyms-कूट नाम)  और छद्म वेश का इस्तेमाल किया था । देश-विदेश में प्रवास के दौरान उनका भेष इतना उत्तम था कि अंग्रेज गुप्तचर उन्हें पकड़ न सके। वे केवल इसलिए गिरफ्तारी से बचने में कामयाब रहीं क्योंकि उन्हें छद्म नाम और भेष बदलने कर चकमा देने का कौशल मालूम था। इसके अलावा सरकार के उच्च पदों पर आसीन अधिकारीयों तक भी उनकी  गहरी पैंठ थी। इसलिए खुफिया एजेंसियों को गतिविधियों की जानकारी उन्हें पहले ही मिल जाती थी। उदाहरण के तौर पर, ब्रिटिश सरकार अरविंद घोष को गिरफ्तार करने आ रही है, यह सूचना मिलते ही उन्होंने अरविन्द घोष को चंदननगर भेज दिया था क्योंकि चंदननगर फ्रांसीसियों के कब्जे में था। इसलिए वहां ब्रिटिश कानून लागू नहीं होते थे । गुप्तचरों की पहचान से बचने के लिए निवेदिता क्रांतिकारियों को सीधे पत्र भेजने के बजाय बैंकों या अन्य एजेंटों के माध्यम से पत्र भेजती थी। उन्होंने अलग-अलग नामों और पतों पर पत्र भेजे थे । पत्र में "कोड" (code-गुप्त भाषा) का प्रयोग किया जाता है और कभी-कभी वे "कोड" को बदल भी दिया करती थीं। बड़ी चतुराई के साथ वे व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करती थीं।  

      हम देखते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस बर्मा में जहाँ एक तरफ तो आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति [Commander-in-Chief] के रूप में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध मौत के घाट पहुँचाने की लड़ाई में लगे होते हैं, तो दूसरी तरफ बीच -बीच में देर रात को  रंगून रामकृष्ण मिशन आश्रम भी जा रहे होते हैं। वहाँ नेताजी बंद कमरे में सिल्क की धोती पहने, नंगे बदन अपने 'जीवन देवता' स्वामी विवेकानन्द की तस्वीर के सामने बैठकर कुछ समय के लिए ध्यानमग्न हो जाया करते थे। रंगून आश्रम के अध्यक्ष स्वामी भास्करानन्द जी को कभी-कभी वे गाड़ी भेजकर बुलवा लेते थे और उनके साथ बैठकर धार्मिक प्रसंग पर चर्चा करते थे। 

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

[3.]

मैं आन्दुल का राजा बन जाता ! 

      जैसे मधुमक्खी केवल शहद की खोज में रहती है, उसी प्रकार भवदेव भी युवावस्था में केवल विभिन्न क्षेत्रों के 'दिकपालों'** (मार्गदर्शक व्यक्तियों) के ही संग में रहते थे। [ ** पुराणों के अनुसार दसों दिशाओं का पालन करनेवाला देवता। यथा-पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, इत्यादि]  फिर वे चाहे आध्यात्मिक व्यक्ति हों या अन्य किसी लोक के व्यक्ति -युवक भवदेव केवल सदाचारी लोगों के संगत में ही रहा करते थे।

     पचास के दशक में स्वामी विवेकानन्द के भाई, प्रसिद्ध क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट नेता  डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त लगभग हर दिन हेदुवा-पुष्करणी (तालाब) की परिक्रमा किया करते थे। यह वही सुप्रसिद्ध पुष्करणी है,जिसके समीप युवक नरेंद्रनाथ ने भी अपना बहुत समय बिताया था;  जब युवक नरेन्द्रनाथ को अपने गुरु श्री रामकृष्ण देव की कृपा से अद्वैतविज्ञान के जीव-जगत और ब्रह्म के एकत्व 'Oneness' की दिव्य अनुभूति हुई थी। तब वे पुनः विवेचना करने लगे कि क्या यह भी सम्भव है कि किसी व्यक्ति को सचमुच सम्पूर्ण अस्तित्व में एकत्व की अनुभूति हो जाये?  क्या यह जो कुछ दिखाई पड़ रहा है -जैसे लोटा -कटोरा आदि सबकुछ ब्रह्म है ? तथा हम सब भी ब्रह्म हैं? तब नरेन्द्रनाथ ने एकत्व की अपनी दिव्य अनुभूति का परीक्षण इसी पुष्करणी की रेलिंग से अपने सिर को टकरा कर  किया था कि -जो कुछ दीखता है वह सब स्वप्न की वस्तुएं है या सत्य हैं

      इसी पुष्करणी के समीप क्रांतिकारी डॉ. भूपेंद्रनाथ प्रतिदिन अपराह्न में लगभग दो घंटे व्यतीत करते थे। उनके अनुयायियों का एक समूह भी उन्हें घेरे रहता था। भूपेंद्रनाथ उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे। युवा भवदेव भी इस उनके सायंकालीन 'chat platform' या अड्डे पर भूपेंद्रनाथ के नियमित संगी थे। 

      एक दिन  (1952-1953) के दौरान पुष्करणी परिक्रमा करते समय उन्होंने अचानक श्री भवदेव से पूछा, "तुम्हारा घर तो आन्दुल में ही है न ?  क्या तुम आन्दुल के राजाओं के इतिहास से परिचित हो? तुम्हारे काली -कीर्तन के रचयिता प्रेमिक महाराज मेरी माँ (भुवनेश्वरी देवी) के गुरुदेव थे। मैं तुमलोगों के आन्दुल का राजा होने वाला था। " उन्होंने यह बात अपनी माँ भुवनेश्वरीदेवी से सुनी थीं।   

       स्वामीजी की वंश के साथ आन्दुल का एक गहरा ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा है। एक समय में स्वामीजी की माता भुवनेश्वरी देवी के लिये आन्दुल गुरुबाड़ी (गुरु का निवास स्थान) हुआ करता था। तो दूसरी ओर, उनके पिता विश्वनाथ दत्त का आन्दुल के राजाओं के साथ जदीकी  सम्बन्ध रहा था। दरअसल आन्दुल -मौड़ी के साथ कोलकाता के सिमला वाले दत्त परिवार का बहुत पुराना नाता रहा है। 19 वीं शताब्दी में आन्दुल के राजबाड़ी द्वारा प्रकाशित - ["Kāyastha kaustav" (Publication date 1766)] "कायस्थ-कौस्तव" नामक पुस्तक में उस समय के कुलीन कायस्थ व्यक्तियों की जो सूची प्रकाशित हुई थी उसमें नरेंद्रनाथ के परपितामह  राममोहन दत्त का उल्लेख है।

       स्वामीजी के पिता विश्वनाथ दत्त आन्दुल के राजबाड़ी-दरबार (या शाही महल ) में आयोजित होने वाले संगीत - समारोह के नियमित श्रोता थे। आन्दुल राजबाड़ी के वकील निमाई चरण बोस, विश्वनाथ दत्त के स्थायी संगी थे। इसी समय यानी 1879 ई. में आन्दुल के राजा विजय केशव राय  (1836-79) की मृत्यु हो गई, जिससे उनकी दो रानियाँ दुर्गासुन्दरी और नवदुर्गा-सुन्दरी निःसंतान हो गईं। 'Privy. Council' के निर्णय के अनुसार, 1880 में दोनों रानियों को दो अलग-अलग दत्तक पुत्रों को गोद लेने की अनुमति प्राप्त हुई ।

        इस समाचार को सुनकर राजबाड़ी के वकील निमाई चरण बोस ने विश्वनाथ दत्त को सलाह दी कि वे अपने दोनों पुत्रों को आन्दुल के राजबाड़ी को दत्तक-पुत्र बनाने की सहमति दें। युवा नरेंद्रनाथ उस समय बी.ए. प्रथम वर्ष में अध्ययनरत थे। इस खबर को सुनकर नरेंद्रनाथ ने अपनी माँ भुवनेश्वरी देवी से कड़ी आपत्ति जताई। लेकिन विश्वनाथ दत्त ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि परिस्थितियाँ और परिवेश ही 'मनुष्य' का निर्माण करती हैं। उन्होंने नरेन्द्रनाथ की जन्मकुण्डली पर ज्योतिषों से चर्चा करके देखा था कि नरेंद्रनाथ या तो संन्यासी बनेंगे, या फिर राजा होंगे । ऐसी परिस्थिति में 4 सितंबर 1880 को भूपेंद्रनाथ का जन्म हुआ। तब भुवनेश्वरी देवी ने अपने पति से राजबाड़ी से मिले पहले के प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया। इसके परिणामस्वरूप, वे नरेंद्रनाथ के बजाय भूपेंद्रनाथ को दत्तक पुत्र के रूप में देने पर राजी हो गए। 

     यही वह समय था जब नरेंद्रनाथ किसी चिन्तामुक्त पर्यटक तरह चारों ओर घूम रहे थे। कुछ ही दिनों पहले वे सिमला के मित्र -महाशय के घर जाकर श्री रामकृष्णदेव को एक गाना सुना आये थे। और तब से ही नरेन थोड़े अन्यमनस्क से हो गए थे।  यानि जिसका चित्त कहीं और हो -ऐसे हो गए थे ऐसी मनःस्थिति में, एक दिन भुवनेश्वरी देवी नरेन से कहती हैं, " अरे नरेन, तुमने नहीं सुना; भूपेन राजा होगा। आन्दुल की रानियाँ उसे गोद लेनेवाली हैं। पहले, तुम्हारे और माहिम दोनों के गोद लेने की बात चल रही थी।"

         यह सुनकर श्रीरामकृष्ण के-'unsheathed sword Naren' -अर्थात म्यान से निकली तलवार नरेन के मन में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। म्यान से निकली तलवार नरेन के मन में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। वे बारूद की तरह फट पड़े, जैसे तनबदन में आग लग गयी हो, और जोर से चिल्ला उठे । इससे पहले नरेन का ऐसा रौद्र रूप किसी ने नहीं देखा था। दहाड़ते हुए बोले, " आपलोग क्या सोंचते हैं, खासकर बाबूजी ? क्या सोचते हैं, मैं नहीं जानता। किन्तु आपलोग यह निश्चित रूप से जान लीजिये हमलोगों में से कोई भी भाई किसी का 'पोषपूत' बनने और भाग्यान्वेषी होने का तकदीर लेकर जन्म ग्रहण नहीं किये हैं।" इतना कहने के बाद,भूपेंद्रनाथ तालाब के पानी पर पड़ते अपराह्न की धुप को थोड़ी उचाट दृष्टि से देखते रहे। सुनहरी यादों की चर्चा को सुनकर युवा भवदेव बड़े प्रभावित हुए।  

        क्रांतिकारी भूपेंद्रनाथ के साथ भवदेव बाबू का परिचय 1928 से ही था। 21 जुलाई, 1928 को शनिवार दोपहर में भूपेंद्रनाथ शरतचंद्र चटर्जी द्वारा स्थापित 'हावड़ा युवक संघ' की आन्दुल -मौड़ी शाखा का उद्घाटन करने आए थे। उस दिन डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त मौड़ीग्राम रेलवे स्टेशन और उतरे थे , उस समय उसका नाम 'Unsani' था। तब उन्होंने ऊबड़खाबड़ दुर्गम रास्तों को पालकी पर चढ़ कर पार किया था । इस संघ के साथ कई क्रन्तिकारी नेता- जैसे बिपिन बिहारी गांगुली, डोमजुड़ बमकाण्ड के फरार वीरेन्द्रनाथ मुखपध्याय इत्यादि जुड़े हुए थे।   

     इसके बाद 1931 में आन्दुल के जमींदार मल्लिक बाबू के बगीचे में (वर्तमान में वेलिंगटन सिनेमा हॉल परिसर) राजनीतिक कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन का उद्घाटन देशप्रिय  जतिन्द्र मोहन सेनगुप्ता ने किया था । और "मेरठ षड़यन्त्र कांड" के अभियुक्तों में से एक, कॉमरेड बंकिम मुखर्जी ने भाषण दिया था। इस सभा में डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त मौजूद थे। सभा के अंतिम दिन की संध्या में चारण कवि (balladist-गाथा गीत के गवैया) मुकुंद दास के यात्रा -अभिनय ने जनमानस को विशेष रूप से हर्षित और प्रोत्साहित किया था । पुनः एक दूसरी सभा में भी डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त आए थे। तारीख थी 30/10/1938,  इस दिन उन्होंने आन्दुल -मौड़ी पुस्तकालय की प्रशंसा करते हुए पुस्तकालय की 'विजिटर्स बुक' में प्रशंसात्मक टिप्पणी की थी। 1942 में स्थानीय अंग्रेजी हाई स्कूल (अब MKCI) के शताब्दी समारोह के अवसर पर वे फिर से आन्दुल आए थे। तथा भारत की आजादी के बाद भी वे कई बार आन्दुल आए थे। 

       भूपेन्द्रनाथ वैज्ञानिक समाजवाद (scientific socialism) में विश्वास करते थे। यद्यपि वे स्वामीजी के छोटे भाई थे, तथापि सभा-समिति में स्वामीजी के नाम के साथ, उनके नाम को जोड़ना, वे बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे । उनके लिए स्वामी विवेकानन्द 'भारत के अजेय, अद्वितीय स्वतंत्रता सेनानी' ,सामाजिक लोकतंत्र के अग्रदूत तथा एक असाधारण मानवतावादी थे।           भूपेन्द्रनाथ से पहले इनके बड़े भाई, विवेकानन्द के दूसरे भाई महेन्द्रनाथ, के साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में भवदेव का परिचय हुआ था। वे (महेन्द्रनाथ) विश्वनाथ दत्त की नौवीं संतान थे। इन दोनों विचारकों के प्रति भवदेव के मन में अटूट आकर्षण था, जिसके कारण भवदेव 3 नंबर, गौर मुखर्जी स्ट्रीट जाने के लिए अक्सर दौड़ पड़ते थे। 1934-35 से लेकर 1956-57 तक, शिमुलिया के दत्त परिवार के घर पर भवदेव का अक्सर आना-जाना लगा रहता था। निर्वासित क्रान्तिकारी (Exiled revolutionary) भूपेन्द्रनाथ 1925 ई० में अमेरिका, जर्मनी, रूस आदि देशों में 17 वर्ष तक शिक्षा पूरी करने के बाद कलकत्ता लौट आए। रूसी कम्युनिस्ट नेता लेनिन (Lenin) के साथ उनकी व्यक्तिगत घनिष्ठता थी।

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

[4.]

'मन' भेड़ों के झुंड में भेड़ की तरह है

['Mind' is like a sheep in a flock of sheep]

       युवा भवदेव एक अन्य महापुरुष के प्रति अत्यधिक आकर्षित थे। वे थे श्री रामकृष्ण के प्रिय सन्तान काली महाराज (स्वामी अभेदानन्द)। अपने ऑफिस छुट्टी मिलते ही यह व्यक्ति अक्सर वेदान्त मठ में इस वृद्ध तपस्वी का संगत करता था। उनके साथ रहते समय वह सब कुछ बड़े ध्यान से सुनता था। 

     विभिन्न भक्तों के लिए उनके उपदेश उसे विशेष रूप से प्रिय थी। क्योंकि इसी वार्तालाप को सुनते हुए कभी-कभी उन्हें अपने मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाया करते थे। एक दिन उन्होंने स्वामी अभेदानन्द जी से एक प्रश्न पूछा, जो हममें से कई लोग पूछते हैं, "महाराज, मेरा मन बहुत चंचल है, मैं अपने मन को कैसे नियंत्रित कर सकता हूं?"

     वास्तव में यही प्रश्न तो अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से किया था। अध्यात्म जगत में विचरण करने वाले किसी भी साधक के मन में यह प्रश्न तो उठता ही है। स्वामी अभेदानन्द ने युवा भवदेव को एक प्यारी सी मुस्कान के साथ देखा और कहा, "अरे, इसमें नया क्या है? अर्जुन ने, जिसके साथ स्वयं भगवान् उपस्थित हैं, वही बात कही थी। क्या तुमने भेड़ों के झुंड को सड़क पर चलते हुए देखा है ? जब सड़क मार्ग से उन्हें ले जाया जाता है, उस समय कोई भेंड़ यदि दल से भटक जाती है, तब उसे एक डंडे से दल में वापिस लाना पड़ता है।" मन को भी  ऐसे ही अनुशासन के द्वारा वापस लाना पड़ता है। फिर धीरे-धीरे मन चंचलता  को छोड़कर वश में आ जाएगा।" 

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[5.]

"आप स्वामीजी की जीवनी लिखिए "

       एक दम शुरुआती दिनों में (1968-69) महामंडल में O.T.C. (त्रैमासिक दो दिवसीय विशेष प्रशिक्षण शिविर, जिसे अब Sp.T. C. कहा जाता है।) नहीं होता था। उस समय तीन महीने के अंतराल पर जो बैठकें होती थीं - उसे 'शिक्षा और समीक्षा बैठक ' (''Education and Review Meeting)'' या बंगाली में ' शिक्षा और समीक्षार आसर') कहा जाता था। और इस 'शिक्षा और समीक्षा बैठक ' में भाग लेने के लिए भवदेव बाबू को नियमित रूप से निमंत्रण पत्र भेजा जाता था। भवदेव बाबू महामंडल के एक 'Individual Member' (a single entity that cannot be divided-अविभाज्य सदस्य) थे। 

            जब महामंडल का 'All India Youth Training Camp' (अखिल भारत युवा -प्रशिक्षण शिविर) प्रारम्भ हुआ था, उस समय भवदेव बाबू क्षेत्र के युवाओं तथा उनके माता-पिता को शिविर में शामिल होने की आवश्यकता के बारे में विस्तार से प्रकाश डालते थे। विभिन्न क्षेत्र के दिकपालों (मार्गदर्शक नेताओं) की संगति में रहने का जो दुर्लभ गुण भवदेव बाबू में था, उससे अनुप्रेरित होकर वे अक्सर नवनीदा के ऑफिस जाकर उनकी संगति करते थे। यद्यपि उम्र में वे नवनीदा से 25 वर्ष बड़े थे, तथा नवनीदा के पिता इन्दीवर मुखोपाध्याय को वे 'दादा' कहकर बुलाते थे। 

            विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्वामीजी के बारे में तरह-तरह के लेख प्रकाशित होते रहते थे। उन सब को वे रुचिपूर्वक पढ़ा करते थे। और यदि उसमें कहीं गलती नजर आती तो उसका खंडन करते हुए सम्पादक के पास पत्र लिखा करते थे। फिर उसे नवनीदा को दिखाया करते थे।एक दिन नवनिदा ने उनसे कहा, " सबसे अच्छा तो यह होगा कि आप स्वयं स्वामीजी की जीवनी लिखिए, ताकि स्वामीजी के बारे में आपका दृष्टिकोण तथा विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त हो सकें।" नवनीदा से प्रेरित होकर भवदेव बाबू ने अंग्रेजी में स्वामीजी की जीवनी लिखनी शुरू की। उनके कुछ अंश " He was Born " शीर्षक से 'विवेक जीवन' पत्रिका के जनवरी 1985 के अंक में प्रकाशित हुए थे इसके अतिरिक्त बंगाली भाषा में लिखित 'महामिलन' नामक एक लेख भी  प्रकाशित हुआ था

        भवदेव बाबू ने नवनिदा को तब से देखा है जब वे बहुत कम उम्र के थे। क्योंकि नवनिदा के घर 'भुवन-भवन' में आयोजित प्रत्येक समारोह उन्हें निमंत्रित किया जाता था। एक बार भवदेव बाबू नवनीदा के दफ्तर गए, तो बात-चित करने में बहुत देर हो गयी थी। तब नवनिदा ने भवदेव बाबू को महामण्डल के लिए खरीदी गयी जीप पर बैठाया, तथा उसे स्वयं चलाते हुए हावड़ा स्टेशन तक पहुँचाया था । दर असल भवदेव बाबू और नवनीदा के बीच घनिष्ठ संबंध एवं आत्मीयता के  सेतु के रूप में काम करने वाली पवित्र संस्था थी आन्दुल -मौड़ी स्कूल। नवनीदा ने इस स्कूल की पवित्र स्मृति को अक्सर 'रोमांचक यादें' कहकर उल्लेख किया है। इसी विद्यालय के संस्कृत - मुहावरों के पंडित क्षेत्रमोहन चट्टोपाध्याय महाशय ने नवनीदा के मुख से छह साल की उम्र में ही संस्कृत के एक श्लोक को सुनकर उन्हें 'वाकसिद्धि' ** का आशीर्वाद दिया था 

[वाक सिद्धि **: जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये,  वाक्- सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है। वाक सिद्धि के लिए कोई भी मंत्र नहीं होता जब आप स्वयं को भगवान की ओर लगाएंगे तो आपकी वाणी को भगवान पूरा कर देंगे। जब आप उस स्तर पर पहुंच जाएंगे तब जो बोल देंगे वह हो जाएगाl]

          एक बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की एक सभा में उपस्थित राज्यपाल की पत्नी ने उनसे पूछा था कि आपने इतनी अच्छी अंग्रेजी किस विश्वविद्यालय से सीखी है ? नवनीदा ने उत्तर में कहा था, "मेरी अंग्रेजी शिक्षा हावड़ा जिले के एक गाँव में स्थित एक 'अप्रसिद्ध' स्कूल में हुई है।' इसी स्कूल में जब वे सातवीं कक्षा के छात्र थे, तब एक दिन अंग्रेजी कक्षा के एक अंग्रेजी शिक्षक ने उन्हें 'Fatal ' शब्द का उच्चारण करने के लिए कहा। आचार्य शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय की निगरानी  में शिक्षाप्राप्त नवनीदा ने उस शब्द का उच्चारण 'फेटाल' कहकर किया। अंग्रेजी के शिक्षक महाशय ने उससे कहा कि उच्चारण 'फैटोल' होगा। [নবনীদা শব্দটি উচ্চারণ করেন 'ফেটাল।' ইংরেজি শিক্ষক মহাশয় তাঁকে বলেন উচ্চারনটি 'ফ্যাটল' হবে। ] लेकिन नवनिदा विनम्रता पूर्वक पुनः उसी प्रकार से उच्चारण करते रहे। तब अंग्रेजी शिक्षक को गुस्सा आ गया। उस समय आचार्यदेव स्कूल में राउंड लगा रहे थे। उन्हें शोर सुनाई दिया तब वे शिक्षक की अनुमति लेकर क्लास में प्रविष्ट हुए। सब कुछ सुनने के बाद उन्होंने शिक्षक की गरिमा (dignity) को बनाए रखते हुए शिक्षक की गलतियों को मैत्रीपूर्ण ढंग से दिखला दिया। किन्तु शिक्षक महोदय इस घटना को स्वीकार नहीं कर सके, स्कूल से इस्तीफा दे दिया, और स्कूल छोड़ कर चले गए।  

     नवनीदा और भवदेव बाबू के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध आजीवन बने रहे थे। 'নবনীদার দাদু' - 'नवनीदा के पितामह' श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) के 52 साल के 'प्रधानाध्यापक दायित्व- वहन' (हेडमास्टरशिप) में रत दीर्घकालीन के जीवन को 'Guinness book of World records'  में सूचीबद्ध किया गया था यह समाचार नवनिदा ने भवदेव बाबू को एक पत्र के माध्यम से दिया था । ('गिनीज़ विश्व कीर्तिमान पुस्तिका-प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली एक सन्दर्भ पुस्तक है जिसमें विश्व कीर्तिमानों (रिकॉर्ड्स) का संकलन होता है।) 

       भवदेव बाबू ने नवनीदा की प्रतिभा को किसी अनुभवी जौहरी की तरह, उनके बचपन में ही पहचान लिया था। और उनकी उच्च सम्भावना को अपने करीबी लोगों के सामने  दृढ़ता पूर्वक व्यक्त करते थे। 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' इस बात का प्रमाण है कि उनकी भविष्यवाणियां सच हुईं। वास्तव में, नवनिदा द्वारा भवदेव बाबू को स्वामीजी की जीवनी लिखने के लिए कहने के पीछे एक कारण यह था कि नवनिदा को कम उम्र से ही भवदेव बाबू की ज्ञान-पिपासा तथा उनकी लेखन की प्रतिभा के बारे में पता था। भवदेव बाबू के शोध का एक अन्य पसंदीदा विषय था- 'रविन्द्रनाथ नाथ और विवेकानन्द' के बीच संबंध

        वैसे, स्वामीजी के बारे में रवीन्द्रनाथ के कुछ उद्गारों का स्मरण करना अप्रासंगिक न होगा। रवींद्रनाथ ठाकुर एक जगह लिखते हैं,"विवेकानन्द ने कहा था -'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है'; वे कहते हैं-'दरिद्र देवो भवः' - दरिद्र के रूप में नारायण ही हमारी सेवा लेना चाहते हैं !' - इसी को कहते हैं सन्देश (message-सुसमाचार ) ! ऐसे शक्तिदायी संदेश ही मनुष्य की आत्मचेतना को स्वार्थ की सीमा का अतिक्रमण करके असीम मुक्ति में पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।" 

    रवींद्रनाथ और विवेकानंद के रिश्ते की मजबूती संगीत में निहित थी।  रविवार 23 जनवरी 1881 को, रवींद्रनाथ ने ब्रह्म समाज उत्सव के अवसर पर जिन सात ब्रह्म संगीतों की रचना की थी। उनमें से एक था 'महासिंहासने बसी शुनिछो हे विश्वपिता' इस गीत को सीखने के बाद, नरेंद्रनाथ ने इसे कई बार श्री रामकृष्ण को गाकर सुनाया था ।


'महासिंहासने बसी शुनिछो हे विश्वपिता'

[তাঁর মধ্যে একটি ছিল 'মহাসিংহাসনে বসি শুনিছে হে বিশ্বপিতা। ' এই গানটি শিখে নিয়ে নরেন্দ্রনাথ শ্রীরামকৃষ্ণে কে বহুবার গেয়ে শোনান। ]

       संजीवनी पत्रिका के संस्थापक कृष्ण कुमार मित्रा के विवाह में रवींद्रनाथ ने नरेंद्रनाथ को तीन नये ध्रुपद राग का गीत सिखाकर गाने के लिए कहा था। गाने के बोल थे 'दुई हृदयेर नदी', 'जगतेर पुरोहित तुमि ' और 'शुभदिन ऐसेछे दोंहे। ' उस संगीत कार्यक्रम की रिहर्सल में रवींद्रनाथ हारमोनियम, और नरेंद्रनाथ पखवाज बजा रहे थे। न केवल संगीत के माध्यम में, बल्कि नाटक के माध्यम से भी दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध विकसित हुआ था। भवदेव बाबू ने बंगाली पत्रिका 'देश' में प्रकाशित एक पत्र के माध्यम से रवींद्रनाथ और नरेंद्रनाथ के संबंधों की एक अचर्चित घटना (Undisclosed event) को सामने रखा है । जोड़ासांको के टैगोर निवास पर रवींद्रनाथ द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक 'वाल्मीकि प्रतिभा' का मंचन हुआ था, उस नाटक में नरेन्द्रनाथ ने भी अभिनय किया था। वींद्रनाथ ने स्वयं 'डाकू रत्नाकर ' की भूमिका निभाई थी। और नरेन्द्रनाथ रत्नाकर के गिरोह के अन्य डाकू की भूमिका में थे

       1961 में रवींद्रनाथ की जन्म शताब्दी के अवसर पर जो कविंद्र-रचनावली प्रकाशित हुई थी उसमें  'वाल्मीकि प्रतिभा' नाटक में अभिनय करते हुए रवींद्रनाथ और नरेंद्रनाथ को एक साथ सामूहिक चित्र में दिखलाया गया था। वहाँ अभिनेता नरेन्द्रनाथ को देखा जा सकता है। उस चित्र में रवीन्द्रनाथ ने नरेन्द्रनाथ का परिचय देते हुए लिखा था 'ज्योति: प्रकाश' यानि जो 'निज ज्योति' से प्रकट होते हैं।

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

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 अगर महामंडल न होता तो मैं नवनी के इतने करीब न होता।  

         1967 में स्वामीजी की जन्म -शताब्दी मनाई गई थी । उस दिनों नवनीदा "गोलपार्क संस्कृति संस्थान " (Golpark Institute of Culture) के साथ जुड़े हुए थे। उन्हें विदेशी मेहमानों के आवभगत की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

      इसी दौरान अमेरिका में रह रहे संन्यासी स्वामी भाष्यानन्द जी से उनकी बातचीत हुई। वे उन्हें अमेरिका ले जाना चाहते थे। उनका मानना था कि अमेरिका में ठाकुर-माँ-स्वामीजी के सन्देशों का प्रचार-प्रसार करने में नवनीबाबू अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। विशेष रूप से शताब्दी समारोह के दौरान उनकी कर्तव्य-निष्ठा और सहृदयता को देखकर महाराज बहुत प्रभावित हुए थे। लेकिन ईश्वरीय इच्छा से नवनीदा का जाना टल गया। शायद स्वामीजी की यही इच्छा थी कि वे महामण्डल का निर्माण करने में नवनीदा ही 'मुख्य पुरोहित' (महायाजक) की भूमिका निभायें, इसलिए उनका जाना नहीं हो सका। क्योंकि नवनिदा ने कई बार कहा है कि महामण्डल की स्थापना- ठाकुरदेव की इच्छा, श्रीश्री माँ के आशीर्वाद और स्वामीजी की प्रेरणा " से हुई है। [ठीक उसी प्रकार जैसे 'झुमरीतिलैया -विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' साईनबोर्ड झुमरीतिलैया से जानिबीघा, गया में स्थान्तरित हो गया?]

      इसीलिए भवदेव बाबू ने अपने एक करीबी विश्वासपात्र से कहा था "यदि महामण्डल का निर्माण नहीं हुआ होता, तो देवमानव नवनीदा को हमलोग अपने बीच नहीं देख पाते, वे भाष्यानन्द जी के साथ अमेरका चले जाते और एक विख्यात संन्यासी बन जाते।" भवदेव बाबू के खून में ही अभिनय करने की अगाध शक्ति थी। उनकी काया दुबली-पतली थी और शरीर का रंग गोरा था, इसीलिए मुहल्ला नाटकों में उन्हें स्त्री-चरित्र निभाने की भूमिका दी जाती थी। 

     उनकी माँ के दो मामा शौकिया यात्रा पार्टी में शामिल थे। एक दिन उन्होंने दक्षिणेश्वर नाट्य मंदिर में फलहारिणी काली पूजा की रात में 'विद्यासुन्दर यात्रापाला' में भाग लिया था। स्वयं श्री रामकृष्ण देव ने कुछ समय तक उनके यात्रापाला के अभिनय को देखा था । अगले दिन विदा होने से पहले दोनों भाई जब श्री रामकृष्ण देव को प्रणाम करने गए थे । तब ठाकुरदेव ने उन्हें उपदेश दिया था कि दोनों भाई परस्पर मिलजुल कर रहना। उनके साथ ठाकुरदेव की बातचीत का विवरण 'श्री रामकृष्ण वचनामृत-(24.05.1884) ' में वर्णित है।

[फोटो -बंगला पुस्तक के पेज 28 पर छपा 21 जनवरी 1999 को महामंडल की आन्दुल-मौड़ी शाखा के नवनिर्मित भवन के उद्घाटन समारोह में श्रद्धये नवनीदा संगठन पर चर्चा करते हुए।]

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"ठीक है उसे दीक्षा के लिए ले आओ"

[भवदेव बाबू की मंत्र-दीक्षा स्वामीजी के गुरुभाई स्वामी शिवानन्द जी से हुई थी]

     भवदेव बाबू जब कभी बेलुड़ जाते तो महापुरुष महाराज (स्वामी शिवानन्द) को प्रणाम करने अवश्य जाते थे स्वाभाविक रूप से, महापुरुष महाराज के सेवक महाराज के साथ उनकी अन्तरंगता भी विकसित हो गई थी । एक बार, एक 'दीक्षा- दिवस' पर, वे अप्रत्याशित रूप से महापुरुष महाराज को प्रणाम करने के लिए उपस्थित हो गए

       दीक्षा-आयोजन की बात सुनकर युवक भवदेव ने सेवक महाराज से दीक्षा लेने की अपनी  इच्छा के बारे में बताया। महापुरुष महाराज ने कहा, "जिनको तुमने पहले आने के लिए कहा था, पहले उनकी दीक्षा हो जाय, उसके विषय में बाद में देखेंगे। " 

         जब पूर्वनिर्धारित व्यक्तियों की दीक्षा समाप्त हो गई, तो सेवक महाराज ने महापुरुष महाराज से कहा, "जिस लड़के से आपने प्रतीक्षा करने के लिए कहा था, वह अभी भी प्रतीक्षा कर रहा है ?" महाराज ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया," क्या मैंने उसे कहा था? फिर उसे ले आओ।" इस प्रकार युवा भवदेव को महापुरुष महाराज का आश्रय प्राप्त हो गया ! 

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"माँ का रंग काला था, लेकिन चमकीला था।"

       स्वदेशी-आन्दोलन **से जुड़े आन्दुल के कुछ युवक बागबाजार स्थित 'मायेर बाड़ी', अर्थात श्रीश्री माँ के घर पर, उनका दर्शन करने के लिए गए थे। वे किशोर भवदेव को भी अपने साथ लेकर आए थे । श्रीश्री माँ सारदा का दर्शन करने की स्मृति, किशोर भवदेव के चित्त में हमेशा के लिए बस गयी थी। उनकी स्मृति में माँ के शरीर का रंग उस समय काला जान पड़ा था।

       बाद के दिनों में वे अपने नजदीकी सगे -सम्बन्धियों से अपनी माता का वर्णन करते हुए कहते थे, "माँ काली थी, परन्तु मैंने ऐसा चमकीला काला रंग मैंने और कहीं नहीं देखा।" साधक कवि रामप्रसाद के गीत में कहा गया है   -

" मायेर भाव कि? भेवे प्राण गैलो ,

जार नामे हरे काल, पदे महाकाल, 

तार केनो कालोरूप होलो ?  

कालो रूप अनेक आछे, ए बोड़ो आश्चर्य कालो,

जार हृदयमाझे राखले, पोरे हृदयपद्म कोरे आलो।। ... 

        प्रथम अविस्मरणीय उस अग्निमुख के अमोघ आकर्षण में में माता के पास कितने ही क्रान्तिकारी दौड़े आये होंगे। यह सोचने से आश्चर्य होता है कि माँ कैसे देश ही नहीं विश्व की किसी भी घटना का गहन बुद्धि से विश्लेषण कर लेती थीं। तथा माँ की यह विश्लेषण करने की क्षमता, अर्थात किसी समस्या के तह तक देख लेने की क्षमता, किसी भी विख्यात इतिहासकार से कम नहीं थी। 

       एक दृष्टान्त देखिये - प्रथम विश्व युद्ध थमने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) ने 'Fourteen Points ' की घोषणा की थी। जब माँ के सामने एक भक्त ने इस बात का उल्लेख किया तो माँ ने उससे पूछा कि वे 'Fourteen Points ' क्या हैं ? उस भक्त ने बताया कि इसके भीतर विश्व के विभिन्न देशों के बीच परस्पर शान्ति और सहयोग की कामना की गयी है। माँ थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोल पड़ीं- " बेटे, ये केवल रटे-रटाय शब्द हैं,  ह्रदय की बातें नहीं हैं।" हमलोग जानते हैं कि प्रसिद्ध इतिहासकार E.H. Car ने भी उन्हीं की तरह द्वितीय विश्व युद्ध के मूल कारण के रूप में " 'Fourteen Points ' के भीतर अंदरूनी ह्रदय-शून्यता को जिम्मेदार ठहराया था।" यहाँ यह स्मरणीय है कि जो बात इतिहासकार  E.H. Car ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कही थी, वही बात माँ सारदा ने प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद भावी युद्ध कारणों का विश्लेषण करते हुए कह दिया है।

      फिर एक भक्त ने माँ से पूछा, "माँ, हमारा देश कब स्वाधीन होगा? माँ ने स्पष्ट भाषा में कहा, " बेटे , क्या तुमलोग उन्हें (अंग्रेजों को) देश से बाहर निकाल सकोगे ? तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। जब वे आपस में ही लड़ने लगेंगे, तब तुमलोग स्वाधीन हो जाओगे।" इतिहास ने साबित कर दिया है कि मां ने बहुत पहले जो कहा था, वही सत्य सिद्ध हुआ है। यदि द्वितीय विश्वयुद्ध न हुआ होता, और उसी सुअवसर पर नेताजी के नेतृत्व में यदि आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों के विरुद्ध यदि लड़ाई न छेड़ी होती , तो हमलोगों को स्वतंत्रता प्राप्त करने में बहुत समय लग जाता।

     हमलोग देखते हैं कि  1915 में  माँ जब रेल गाड़ी से उड़ीसा के कोठार जा रही होती हैं, तो उस समय उसी ट्रेन से क्रन्तिकारी बाघा जतिन भी बड़ी सावधानी से ,  छद्मवेश में  यात्रा कर रहे होते हैं। तब वे अपने प्राणों को जोखिम में डालकर, एक चादर से अपना चेहरा ढंक कर माँ को प्रणाम करने आये हैं। हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि जो बघाजतिन दुर्दान्त ब्रिटिश को चकमा दे सकता था , वह चादर से मुख छिपाकर माँ को चकमा नहीं दे पाता है। मां ने जैसे ही उसकी ओर देखा तो बोल पड़ी थीं , 'लड़के के दोनों नेत्रों से मानों आग निकल रही है।' मुझे याद है कि  सबसे पहले बाघाजतिन एक बार स्वामीजी से मिलने आये थे। कमरे के प्रवेश द्वार पर बाघजतिन खड़ा है और स्वामी जी बैठे हुए हैं। दोनों एक दूसरे को एकटक देख रहे हैं। 

       स्वामी अखण्डानन्द जी इस दृश्य को बाहर से देख रहे थे, और बाद में इस घटना का उल्लेख करते हुए कहते थे, जैसे आग आग को निगल रही थी ? तो क्या उस समय स्वामीजी बाघाजतिन के भीतर शक्ति का संचार कर रहे थे ? ठीक उसी तरह जैसे एकदिन ठाकुरदेव ने स्वामीजी में शक्ति का संचार किया था ? नहीं तो स्वामी जी ने स्वामी अखंडानंद को कमरे से चले जाने को क्यों कहा? क्या आप इसका उदाहरण दे सकते हैं कि क्रन्तिकारी लोग माँ सारदा को किस दृष्टि से देखते होंगे ? ब्रिटिश पुलिस द्वारा पकड़ी गई ननीबालादेवी को अकथनीय यातना देने के बाद इंस्पेक्टर गोल्डी उनसे (सहानुभूति का नाटक करते हुए) पूछते हैं कि उनकी क्या इच्छा है? ननीबालादेवी ने उत्तर दिया था कि वे बागबाजार में माँ सारदा के समीप रहना चाहती हैं।  फिर जब यही बात उनसे अर्जी में लिखने को कहा गया तो उन्होंने लिख दिया। तब गोल्डी ने उसके सामने ही अर्जी फाड़ दी। तब एक घायल शेरनी की तरह ननिबालादेवी गोल्डी के गाल पर तड़ाक से एक तमाचा जड़ देती हैं। वास्तव में ननीबालादेवी ब्रिटिश राज की प्रथम महिला कैदी थीं। 

      उस समय कई क्रांतिकारी मिशन के संन्यासी बन गए थे, इसलिए ब्रिटिश सरकार मिशन को बड़े संदेह की दृष्टि से देखने लगी थी। इसी डर से कुछ लोग उन्हें मिशन से निकाल देने की बात करने लगते हैं। लेकिन मां इन क्रांतिकारियों के साथ खड़ी हो जाती हैं, और दृढ़ स्वर में कहती हैं, "अगर उन्हें आश्रय देने के लिए मिशन को बन्द भी करना पड़े, उसे बन्द कर दो ; किन्तु मिशन कभी सच्चाई के रास्ते से विचलित नहीं होगा।" यह याद रखना चाहिए कि ये वही माँ थी जिसने प्लेग के इलाज की लागत खर्च निकालने के लिए मठ को बिक्री करने से मना कर दिया था। 

     उसी समय जब अरविंद घोष अपनी माँ से मिलने आए तो माँ ने कहा, ''इस छोटे से दिखने वाले व्यक्ति में कितनी क्षमता है। अंग्रेजी सरकार इसके भय से काँप रही है। " जब अलीपुर बमकांड में अरविंद घोष को फांसी पर लटकने की साजिश रची जा रही थी, तब उनकी पत्नी मृणालिनी देवी मां के पास आईं और उनकी रिहाई की गुहार लगाई थी। यह याद रखना चाहिए कि उस समय देशबंधु चितरंजन के विख्यात प्रश्न शुरू नहीं हुए थे।  कहा जाता है कि जिस समय देशबन्धु अरविन्द के तरफ से जिस प्रश्न कर रहे थे,तब पहले वे थोड़ा विचलित हुए थे। उस वक्त कोर्ट में मौजूद एक शख्स ने उन्हें एक नोट थमा दिया था। नोट में कुछ ऐसी जानकारी थी जो उन्हें इस मामले में बिल्कुल दोषी नहीं ठहराती थी।  पत्र देने वाला व्यक्ति बाद में पुरी के शंकराचार्य बन गए थे।

    बंगाल-भंग के समय जब ब्रिटिश सरकार बड़े पैमाने पर अत्याचार कर रही थी, तब माँ ने कहा था , "यदि मेरा बेटा नरेन आज जीवित होता, तो वे नरेन को अवश्य जेल में डाल देते।" भूपेंद्रनाथ दत्त ने इस विषय पर कुछ दिलचस्प बातें बताई हैं। पुरी के तत्कालीन जगतगुरु शंकराचार्य क्रांतिकारियों के आह्वान का जवाब दे रहे थे।  भूपेंद्रनाथ दत्त उनसे कई बार मिले थे । और बाद में उन्होंने शंकराचार्य की कटक के कुछ क्रांतिकारी नेताओं से बात भी कराई थी। स्वामीजी ने एक बार कहा था, " भारत का शासक वर्ग आज तक सन्यासी से इसीलिए डरता है, कहीं कोई दूसरा शिवाजी तो गैरिक वस्त्र के पीछे छिपा नहीं है। " 

   स्वामी जी से पहले भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई सन्यासियों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। आर्य समाज के स्वामी दयानन्द ने भी 1857 के महाविद्रोह में सक्रीय भूमिका निभाई थी। सरकारी अभिलेखों और दस्तावेजों में सिपाही विद्रोह के पूर्व संध्या पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध  संन्यासियों और फकीरों द्वारा किए गए प्रचार कार्य का प्रमाण प्राप्त होता है। मेरठ के कमीशनर सर विलियम ने अपने नोट में लिखा है कि संन्यासियों और फकीरों का मन विद्रोह करने के लिए ही तैयार होता है। ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि दिल्ली में योगमाया मंदिर के त्रिशूलबाबा ने 1857 के सशस्त्र विद्रोह की तैयारी में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों की हार होने के बाद, स्वामी दयानन्द रामेश्वर गए थे । वहां उनकी मुलाकात कुछ सन्यासियों से हुई, जो दिल्ली के योगमाया मंदिर से आए थे। प्रकाश,  आदि के बीच दयानन्द छद्मवेशी नाना साहेब पेशवा को भी देख पाते हैं। बाद में उनका नाम हुआ स्वामी दिव्यानन्द। 

      मेरठ के कमिश्नर विलियम के नोटों से यह भी पता चलता है कि मेरठ की 20वीं नेटिव इन्फैंट्री के साथ गांव में एक साधु रहता था। हाथी पर सवार होने के कारण उन्हें हाथी  बाबा के नाम से जाना जाता था। बंगाल के Inspector General (पुलिस महानिरीक्षक) सर हेनरी की अक्टूबर 1893 की आधिकारिक रिपोर्ट में साधुओं और सन्यासियों  की राजनीतिक गतिविधियों का उल्लेख मिलता है। सितंबर 1896 में कलकत्ता पुलिस के एक सर्कुलर में कहा गया था कि संन्यासी लोग स्वतंत्र रूप से हिंदू पुनरुत्थान के लिए अभियान चला रहे थे। इस फाइल से यह भी पता चलता है कि संन्यासियों ने भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत पैदा करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी।उत्तर प्रदेश और पूर्वी कमान में भारतीय सैनिकों की संख्या में कमी करने का प्रचार किया था। इस समय, सरकार ने रेजिडेंट लाइन में साधुओं के प्रवेश को रोकने के उपाय किए थे । उस समय के सैनिक लोग छुट्टी मिलने पर संन्यासियों से मिलने के लिए  अमृतसर और हरिद्वार जाते थे।

महाफेजखाना ** में संग्रहीत फाइलों से पता चलता है कि 'आर्य समाज' उस समय लाहौर और हरिद्वार के संन्यासियों को राजनीतिक प्रशिक्षण दिया करता था [**सरकारी अभिलेखों को महाफेजखाना या अभिलेखागार के रूप में जाना जाता है। इसमें सामान्य और (पुलिस, खुफिया और गृह विभाग के) गुप्त दस्तावेज  होते हैं।] अंग्रेजों के खिलाफ भाषण देने के लिए  प्रसिद्ध राजनीतिक साधु स्वामी राजेश्वरानंद बिहार और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों में घूम घूम कर उत्तेजना पूर्ण भाषण देते थे। एक आधिकारिक नोट के अनुसार, उत्तरी भारत में धार्मिक मिशनों के लिए भारतीय रेजिमेंटों के लिए सैनिकों की भर्ती बाधित कर दी गई थी।

       भूपेंद्रनाथ दत्त के एक पुराने परिचित क्रांतिकारी ने उन्हें बताया था कि एक बार हरिद्वार में कुंभ मेले में विजयकृष्ण गोस्वामी ने उन्हें कुछ भिक्षुओं को दिखाया और उन्हें बताया कि इन लोगों ने सिपाही विद्रोह में भाग लिया था। जो भी हो, श्रीश्री माँ को प्रणाम करते समय, बालक भवदेव ने देखा कि वहां चार महारथी ( stalwart) युवक एक छोटी सी बेंच पर पालथी मारकर बैठे हैं,स्वदेशी-आन्दोलन के युवकों के साथ उन्हें भी प्रणाम करके उनके स्पर्श की दिव्य अनुभूति भवदेव ने प्राप्त की। प्रणाम करते समय भवदेव उनका परिचय नहीं जान सके थे। बाद में, घर लौटते समय साथी क्रांतिकारियों ने उनकी पहचान के बारे में विस्तार से बताया। वे स्वामी ब्रह्मानंद, स्वामी सारदानन्द , स्वामी त्रिगुणातितानन्द और संभवत: स्वामी अखण्डानन्द जी थे

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[** 'स्वदेशी' का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति का लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।

अलीपुर बम काण्ड : (या, मुरारीपुकुर षड्यंत्र, या मणिकटोला बम काण्ड) सन 1908 में अंगरेजी शासन द्वारा चलाया गया एक आपराधिक मुकद्दमा जिसमें अनुशीलन समिति के कई भारतीय राष्ट्रवादियों पर "ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध" के आरोप में मुकदमा चला। यह मुकदमा मई १९०८ से मई १९०९ के बीच कोलकाता के अलीपुर सेसन न्यायालय में चला जिसमें अरविन्द घोष, उनके भाई बारिन घोष एवं ३७ अन्य बंगाली राष्ट्रवादियों को आरोपी बनाया गया था।]

" यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है। " --श्रीश्री माँ सारदा। 

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

[9]

"ये सारी घटनाएँ हमारी आँखों के सामने घटित हुईं हैं"

       1 अक्टूबर 1966 को भवदेव बाबू ने श्रद्धये नवनिदा को एक (अपने द्वारा संकलित?) पुस्तक भेंट की थी। उस  किताब का नाम था -'What Vedanta means to me ?" वह पुस्तक सर्वप्रथम Rider & Company , London से प्रकाशित हुई थी। बाद में इसे कलकत्ता के अद्वैत आश्रम से भारतीय संस्करण के रूप में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक एल्डस हक्सले(Aldous Huxle) क्रिस्टोफर इशरवुड  (Christopher Isherwood)  जैसे 15-16 विश्व प्रसिद्ध विचारकों के लेखन से समृद्ध है।

     पुस्तक के पहले पन्ने पर भवदेव बाबू ने नवनीदा के लिए कुछ शब्द लिखे थे । भवदेव बाबू का उस लिखावट को खोज लिया गया है। हम इसे पाठकों को निवेदित कर रहे हैं। इस संक्षिप्त पाठ में हमें कुछ आभास मिल जाता है कि भवदेव बाबू नवानी दा को किस दृष्टि से देखते थे, और उन्हें नवनीदा से क्या उम्मीद थी आदि। इसके साथ ही साथ हमलोग यह भी जान पाते हैं कि  उस समय भवदेव बाबू के मन में क्या-क्या विचार उठ रहे होंगे।  

       'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की स्थापना 25 अक्टूबर, 1967 को हुई थी। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि भवदेव बाबू का वह संक्षिप्त पाठ, 1 अक्टूबर, 1966 को, महामण्डल स्थापित होने से 1 वर्ष पहले लिखा गया था। श्रद्धेय नवानीदा के 'sterling qualities ' (उत्कृष्ट गुणों) को देखकर क्या भवदेव बाबू यह पहले ही समझ चुके थे कि उनके स्नेह-पात्र  'Sriman Nabani ' अवश्य कोई छाप छोड़ जायेंगे ? 

         श्रद्धेय नवनीदा अपने एक सहपाठी से मिलने,रविवार 16 फरवरी 1967 को, आन्दुल झोड़हाट स्थित उनके घर पर आये थे। उस दिन उनके पुराने सहपाठियों के संगठन 'सतीर्थ मिलन' मेले की विशेष बैठक आयोजित हुई थी। बैठक शुरू होने से पहले आचार्य शिरीष चंद्र के पुराने छात्रों की आपसी बैठक में भवदेव बाबू की चर्चा उठी थी । उस समय श्रद्धेय नवनीदा ने सहपाठियों से कहा - "अचिंत्य कुमार सेनगुप्ता (प्रसिद्ध लेखक और अधिवक्ता) ने श्री रामकृष्ण की जीवनी पर एक पुस्तक लिखी है - 'परमपुरुष श्री रामकृष्ण।' जब भवदेव बाबू को कोई मन के मुताबिक पुस्तक मिलती थी तो वे पहले अपने हेडमास्टर महाशय आचार्य शिरीष बाबू को पढ़ने के लिए देते थे।  उन्होंने यह पुस्तक भी उन्हें (शिरीष चंद्र) को पढ़ने के लिए दी थी । पूरी किताब पढ़ने के बाद, उसके आखिरी पन्ने पर उन्होंने एक छोटी सी टिप्पणि लिखीं थी । उन टिप्पणियों में वे एक स्थान पर लिखते हैं -

 "अपारे  काव्य संसारे  कविरेक प्रजापतिः" - ऐतरेय ब्राह्मण। 

    अर्थात इस संसार में तुम जिस किसी को भी देखते हो, वह उनका ही काव्य है, और विधाता ही उसके कवि हैं। भवदेव बाबू ने वह टिप्पणी अचिन्त्य बाबू को दिखाई थी । अचिन्त्य बाबू ने जो अगली पुस्तक लिखी थी उसका नाम था - "कवि श्री रामकृष्ण।" ये समस्त घटनाएं हमारी आंखों के सामने हुईं हैं।

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[10 ]

क्या तुम मेरे लिए अंडे को सेती हुई माँ चिड़िया की तस्वीर ला सकते हो ?

    युवा भवदेव की  साधु-संग करने की आदत ने ही उनके भाग्य को एक और महापुरुष के चरणों में ले आई। वे महापुरुष थे श्रीरामकृष्ण वचनामृत प्रणेता श्री 'म'। उन दिनों श्रीरामकृष्ण वचनामृत को प्रकाशित करने का कार्य चल रहा था। 

     श्रीरामकृष्ण देव ने दक्षिणेश्वर में श्रीम से वार्तालाप करते हुए अंडे को सेती हुई पक्षी के आँखों के उदाहरण से योगी के मन की तुलना करते हुए कहा था-  " योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है- सदा आत्मस्थ रहता है । शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है कि चिड़िया अण्डे को से रही है । सारा मन अण्डे ही की ओर हैऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है । अच्छा, ऐसा चित्र क्या मुझे दिखा सकते हो?

MASTER (to M.): "The mind of the yogi is always fixed on God, always absorbed in the Self. You can recognize such a man by merely looking at him. His eyes are wide open, with an aimless look, like. the eyes of the mother bird hatching her eggs. Her entire mind is fixed on the eggs, and there is a vacant look in her eyes." Can you show me such a picture?"

 मणि- जैसी आज्ञा । चेष्टा करूँगा यदि कहीं मिल जाय । [परिच्छेद ~ 9,( 24 अगस्त 1882)] 

'उद्बोधन' पत्रिका के 36 वें वर्ष के प्रथम अंक में एक प्रसंग प्रकाशित हुआ था, जिसमें श्रीम कह रहे हैं - "ठाकुरदेव के भाव के ऊपर मैंने एक चित्र बनवाया था। मैं वह चित्र भक्तों को एकाग्रता के समय अण्डे सेती हुई पक्षी की तन्मयता को अपने मन पर आरोपित करने के लिए वहाँ कभी -कभी दिखलाता हूँ। " दरअसल, स्वामी चेतनानन्द द्वारा संपादित पुस्तक 'श्रीम के पास ' के पृष्ठ 131 पर स्वामी धर्मेशानन्द  जी "श्रीम की स्मृतियों का तर्पण" अध्याय में कह रहे हैं कि 'रवि' (भवदेव को यह उपनाम उद्बोधन पत्रिका के सम्पादक स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज ने दिया था) अर्थात भवदेव 13 अप्रैल 1932 को श्रीम के दर्शन करने के लिए जब गए थे । उस समय भवदेव ने ही श्रीम के आदेशानुसार 'अंडे सेने वाली माँ पक्षी (mother bird) की आँखों की तन्मयता ' का जो चित्र बनवाकर श्री 'म' को दी थी। वर्तमान में वही चित्र 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' के कुछ भागों के आवरण पृष्ठ पर दृष्टान्त चित्र (illustration picture) के रूप में उपयोग की जाती है। 

     भवदेव बाबू ने 'मन की तन्मयता का वह दृष्टान्त चित्र' अपने मित्र और सहपाठी तथा आन्दुल के ही प्रख्यात चित्रकार श्री शैल चक्रवर्ती के माध्यम से तैयार करवाया था।  श्री शैल चक्रवर्ती के द्वारा बनाई गयी उसी छवि को और उनके द्वारा लिखित एक प्रबन्ध को 70 के दशक में महामण्डल के द्विभाषी मुखपत्र 'विवेक-जीवन' में प्रकाशित किया गया था। महामंडल द्वारा बंगाली में प्रकाशित पुस्तिका 'मनः संयोग' के कवर पृष्ठ पर भी इसी चित्र का उपयोग किया जाता  है। 

[N.B.  पहली बार जब मैंने 🔱 मनःसंयोग का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया था तो उसके 'कवर छवि' के रूप में, कहीं से नकल कर ' बाँसुरी बजाते श्रीकृष्ण और तन्मयता के साथ सुनती हुई गायों का चित्र' छपवाया था, जिसे देखकर नवनीदा ने कहा था, क्या एकाग्रता का कोई दृष्टान्त चित्र 'अंडे सेने वाली माँ पक्षी (mother bird) की आँखों की तन्मयता ' से भी उत्तम हो सकता है ? इसके अलावा उस छवि का उपयोग करने के लिए तुम्हें उसके चित्रकार से भी अनुमति लेनी चाहिए थी।]

[2 Photos ? ? पृष्ठ 40 पर - एक चित्र श्री 'म' का / दूसरा श्री भवदेव बंदोपाध्याय अपने सहपाठी और चित्रकार शैल चक्रवर्ती के साथ।]   

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 🔱भावी लेखक को परामर्श : अच्छा साहित्य कैसे लिखा जाता है ? 🔱

[How to write good literature?]

        'हावड़ा युवा संघ' के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध उपन्यासकार शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय। एक बार वे 'युवक संघ ' के आन्दुल शाखा के द्वारा उत्तर-मौड़ी के खटी अंचल में आयोजित किसी समारोह में शामिल हुए थे।

      उस समारोह -सभा में आमंत्रित शरतचन्द्र की निजी सुविधा-असुविधा की देखभाल करने की जिम्मेदारी किशोर भवदेव को सौंपी गयी थी। शरतचंद्र भवदेव के हार्दिक व्यवहार और साधन-सम्पन्नता (resourcefulness) से बहुत प्रभावित हुए और उनके साथ स्नेह करने लगे। हिम्मत आने पर भवदेव के मन में एक प्रश्न उठा। उसने अपने आचार्यदेव शिरीष चंद्र से यह सीखा था कि - " जो व्यक्ति जिस विषय में निपुण हो, उससे उसी विषय पर प्रश्न करना चाहिये। " इसी को प्रश्न पूछना कहते हैं । और इसके परिणामस्वरूप प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों समृद्ध होते हैं। किशोर भावदेव ने उपन्यासकार शरतचन्द्र से पूछा कि 'मैं अच्छा साहित्य कैसे लिख सकता हूँ ?' उत्तर में शरतचंद्र ने जो कहा था, वह न केवल किशोर भवदेव के लिए बल्कि किसी भी भावी लेखक के लिए बहुत मूल्यवान सलाह है। 

       उन्होंने (मशहूर उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय) कहा- " मन में जैसे ही कोई नया विचार कौंध उठता हो , उसे उसी समय लिखने की चेष्टा करनी चाहिए। कुछ दिनों के बाद उसी लेख को निकाल कर जब पढोगे, तब देखोगे कि पुनः मन में और भी कई नए विचार आ रहे हैं। उन सभी को भी लिख लेना। इसी प्रकार लिखित पाठ को कईबार पढ़कर देखोगे कि उनके बीच कोई कड़ी (link) मिलती है या नहीं, अथवा उन विचारों को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है या नहीं ? " यदि उन्हें सूत्र में पिरोने लायक देखोगे, तब यह विचार करके देखना कि वे सर्वजन उपयोगी हैं या नहीं ? यदि उपयोगी लग रहे हों , तब उन्हें लिख लेना। उन्हें पढ़ने पर देखोगे कि एक सुन्दर साहित्य की रचना हो गयी है। " 

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🏹'नवनीहरण नाम ही माखनचोर है - तो आप मूर्तिमान चोर हैं '🏹

'You are thief Personified ' 

        1950 के अन्तिम दिनों की बात रही होगी।  एक दिन भवदेव बाबू श्रद्धेय नवनीदा के घर गए थे। आचार्य शिरीषचन्द्र से बातचीत करने के बाद वे श्रद्धेय नवनीदा के कमरे में गए हैं। कुशल-क्षेम की शुरुआती बातचीत हो जाने के बाद, आइये देखते हैं-आगे उनके बीच किस प्रकार से बातचीत चल रही है  - 

भवदेव बाबू- " नवनी मैंने सुना है कि तुमने नौकरी के लिए एक जगह Interview दिया था; तो बताओ कि वह Interview कैसा रहा ?

नवनीदा - इंटरव्यू तो काफी अच्छा गया, लेकिन अंत में एक मजेदार बात भी हो गयी। 

भवदेव बाबू - इंटरव्यू है, फिर उसमें मजेदार बात क्या हो सकती है ? बताओ तो ठीक-ठीक हुआ क्या था ?  

नवनीदा - Interview के अंत में, साक्षात्कार लेने वाले वरिष्ठ अधिकारी ने अचानक गंभीरता से पूछा - " हो सकता है तुम्हारी नौकरी लग जाये। लेकिन तुम कहीं, चोरी-वोरि तो नहीं करोगे ? मैं तो मानो आसमान से गिरा। शुरुआती झटके से स्वयं को सम्भालते हुए मैंने पूछा - "क्यों, क्या मुझे देखने से, मैं चोर जैसा दीखता हूँ ? " 

     तब उस अधिकारी ने कहा, "देखो, भाई, किसी को देखने से क्या सब कुछ समझ में आ जाता है ? तुमको देखने से तो अच्छे ही लगते हो , किन्तु तुम्हारे नाम को देखकर मेरे मन में विचार आया कि, तुम्हारा नाम तो है -'नवनीहरन'; जिसका अर्थ होता है - " माखन चोर !" इसलिए तुम तो ठहरे साक्षात् चोर -  'You are thief Personified ', क्योंकि जो माखन की चोरी कर सकता है, वह अन्य सबकुछ भी चुरा सकता है। " यह कहते हुए वे ठठाकर हँस पड़े।" 

  यह सब सुनकर नवनिदा और भवदेव बाबू दोनों हँसने लगे।  

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🔱🙏नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते ।🔱🙏

(स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी )

" Leader is born , not made ."

 (An abridged portrait of Swami Vivekananda) 

  हमें बताया जाता है कि महापुरुष क्रांति के परिणाम होते हैं, क्रांति को पूर्ण करते हैं , और आने वाले युगों के निर्माता होते हैं। ऐसे ही महापुरुष धरती माता की सेवा के लिए श्रेष्ठतम योग्यता रखने वाले होते हैं। और उन्हीं में से एक हैं स्वामी विवेकानन्द। और यदि सच पूछा जाये, तो अभी तक जन्म लेने वाली समस्त लब्ध -प्रतिष्ठ चमकीले तारों की आकाश-गंगा में (प्रख्यात मनुष्यों की मण्डली में) - स्वामी विवेकानन्द अतुलनीय हैं। 

     (आधुनिक युग में उनके सिवा अन्य  किसी महापुरुष ने दूसरों की मुक्ति लिए अपनी मुक्ति का त्याग नहीं किया है।)  वे तीव्र कर्म, दुर्गम चिंतन और गहन भक्ति, दृढ़ विश्वास और अद्भुत तितिक्षा के अद्वितीय नमूना है या ' शरीर से कर्मठ, मन से ज्ञानवान और ह्रदय से प्रेममय' मनुष्य जाति एकत्व या Oneness के प्रतीक रूपी पूर्ण और व्यापक आदर्श हैं। सर्वप्रथम वे ईश्वर की खोज में समर्पित सत्यार्थी है , और अन्त में लौकिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की  आरजकता से मानवता की रक्षा करने वाले - 'एक आकारहीन आवाज' हैं ! 

        उनका जन्म विश्वनाथ दत्त (1834-84) और भुवनेश्वरी देवी (1841-1911) के दूसरे पुत्र के रूप में हुआ था। उन्होंने अपने पहले पुत्र को शैशव अवस्था में ही खो दिया था, फिर समय के साथ उनकी एक के बाद दूसरी चार बेटियाँ होती हैं। ऐसी अवस्था में माता-पिता को पुत्र-प्राप्ति के लिए भगवान शिव से निःसन्देह प्रार्थना करनी पड़ती है, जो अपने भक्त की प्रार्थना के अनुसार वरदान देने के लिए प्रसिद्द हैं। टेनीसन ने भी लिखा है -" यह जगत के सपनों की तुलना में प्रार्थना के द्वारा अधिक गढ़ा हुआ है।' (More things are wrought by prayer than this world dreams of.)  

       भुवनेश्वरी देवी बहुत ही धार्मिक और कुलीन महिला थीं। एक बड़े संयुक्त-परिवार के विविध कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को एक गृहिणी के रूप में अपने निभाते हुए, चुपचाप भगवान शिव से अपने मनोकामना को पूर्ण करने के लिए प्रार्थना करती थीं। बाद में पुत्र-मुख देखने की लालसा से देवाधिदेव की संतुष्टि के लिए वे कठोर व्रतों का पालन करने लगीं। कोई माँ ही, एक बेटे के लिए किसी माँ लालसा को समझ सकती है। बाइबिल  में भी कहा गया है - "Watch and pray"  (Matthew 26:41, The spirit is willing, but the flesh is weak.) इस प्रकार लगभग एक दशक की लंबी प्रतीक्षा के बाद वह सौभाग्यशाली घड़ी उपस्थित होती है। 

    एक शुभ मुहूर्त में - 'ब्रह्म मुहूर्तम' में 12 जनवरी, 1863 ई० को भुवनेश्वरी देवी ने एक विश्वविजयी पुत्र को जन्म दिया। उस समय सूर्य और चन्द्रमा क्रमशः धनु राशि (Sagittarius)-और  कन्या राशि (Virgo ) पर थे। कृपालु भगवान शिव के द्वारा उनकी प्रार्थना को शानदार ढंग से स्वीकार किया गया था। दत्त-परिवार में असीम आनंद का आगमन हुआ। आनंदोल्लास और हर्ष कोलाहल से दत्तभवन मुखरित हो उठा। नारिगण मंगल-शंख बजाकर मांगलिक ध्वनि करने लगीं।

        बच्चे के जन्म के समय की अवधि का एक अतिरिक्त अभिव्यंजक महत्व था, यह मकर-संक्रांति के वार्षिक उत्सव का एक पवित्र दिन था। बंगाल के घर घर में मकर -संक्रान्ति का पर्व मनाया जा रहा था। हर घर में गृहस्थ सुगंधित धूप और चंदन-लेप, प्रज्वलित दीवट, संगीत के एक सुखद वातावरण के बीच अपनी निर्धारित प्रार्थना और अनुष्ठान शुरू कर चुके थे, जिसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी थी वह एक नवजात शिशु,पारलौकिक ही नहीं, बल्कि अलौकिक स्वागत भी था। लेकिन दक्षिणेश्वर में श्री श्री रामकृष्ण उस नवजात शिशु के गरिमापूर्ण आगमन के बारे में पूरी तरह से अवगत थे, जिसे 19 वीं शताब्दी की अंतिम तिमाही के दौरान पूरे विश्व में अपने दिव्य प्रवचनों से धर्म-प्रचार करने का जबरदस्त काम करना था। 

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥  

     जल्द ही पूरे इलाके में यह समाचार फ़ैल गया कि सिमुलिया के दत्त परिवार में एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ है। बालक को देखने के लिए लोगों का आना शुरू हो गया। नवजात बच्चे को देखने के लिए पड़ोसी महिला और पुरुष दोनों इकट्ठे हो गए। उनमें से एक वृद्ध सज्जन थे। जो बच्चे को देखते ही आश्चर्य से बोले, " अरे , यह बच्चा तो  दुर्गा प्रसाद 2 की लघु प्रतिकृति (miniature replica) प्रतीत होता है, शायद वे ही इस शरीर में फिर से पैदा हुए हैं।"

      अगले दिन, एक प्रौढ़ विधवा ब्राह्मण महिला आयीं, और उन्होंने अपनी खुली बाहों में प्यारे बच्चे को उठा लिया। वे विस्मय से भर उठी और जोर से बोली : 'कितना प्यारा बच्चा हैं ! ओह ! भुवनेश्वरी! तुम वास्तव बहुत भाग्यशाली हो।' कितना रूपवान है , उसके अंगों का गठन बहुत स्पष्ट और आकर सुंदर है। निश्चित रूप से तुम्हारे घर में समर्पित आत्मा से पैदा हुआ है। वह सर्वशक्तिमान माँ की इच्छा के अनुसार काम करेगा! वे अपने दृढ़ विश्वास और उत्साह में कहती जा रहीं थीं -  "नवजात शिशु ईश्वर के दुर्लभ उपहारों का स्रोत है, देखो ! बच्चे की मुखाकृति कितनी सूक्ष्म बनावट में गढ़ी गयी है।

      घुंघराले, चमकदार काले बालों के साथ चौड़ा आयताकार ललाट तो सुंदरता में प्रेम के देवता को मात दे रहा है।  बड़े चमकदार क्रिस्टल जैसे केंद्र में स्पष्ट शानदार नेत्रगोलक गहरे गहरे नीले रंग के साथ चमकदार-शांत और उदात्त हैं। इन नेत्रों से ज्वालामुखी अग्नि जैसी चिंगारियों में सभी के लिए प्रेम और दया , घुमन्तु साहसी आत्मा, भारी और कमल की पँखुड़ियों जैसी आकर्षक पलकें।    

        पावन माँ भुवनेश्वरी देवी स्वर्गिक आनन्द से परिपूर्ण थीं। बल्कि वे एक उलझन में थी! अपने पुत्र को लेकर अंतहीन रंग-बिरंगी उच्च आशाओं में डूबी थीं ..... इसीलिए जाहिर तौर पर 'दुर्गा दास ' नाम   को त्याग कर उन्होंने अपने बच्चे का नाम रखा - वीरेश्वर। 3 (यह भगवान शिव के एक सौ आठ नामों में से एक नाम है।) लेकिन बच्चे का लोकप्रिय उपनाम, बिलु और / या बिलेह रखा गया था।4

     विश्वनाथ दत्ता लंबे समय से पुत्र प्राप्ति की इच्छा को पोषित कर रहे थे, जब वह पूरी हो गयी तब उन्होंने अपने दान करने की आदत को विशालता प्रदान की। वे कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध अटॉर्नी-एट-लॉ थे और उन्होंने न केवल पर्याप्त धन अर्जित किया था, बल्कि अंतर-प्रान्तीय प्रसिद्धि भी प्राप्त की थी। उनके पास अपने  कार्यालय जाने के लिए एक सुन्दर बग्घी और एक जोड़ी घोड़े थे। एक दिन दोपहर के बाद वे परिवार के साथ अपनी बग्घी में बैठकर नगर भ्रमण के लिए निकले थे।  घोड़ागाड़ी का चालक (coachman) और साईस (stableman) दोनों ने चमकदार पोशाकें पहन रखी थीं और उनके सिर शानदार पगड़ी भी थी।  वे लोग बिहार के रहने वाले थे  और बड़े ही हँसमुख व्यक्ति थे, वे अपने प्यारे बिलू-बाबू के मनमौजी व्यवहार से बंध चुके थे। प्रतिउत्तर में नरेन्द्रनाथ भी उन्हें बहुत पसंद करने लगे थे। वे उनलोगों के सहयोग और प्रोत्साहन से जीवन्त घोड़ों के निकता का आनन्द लेने के लिए अस्तबल के भीतर जब कभी जा सकते थे।  

    बालक बिले को जानवरों और पक्षियों के अलावा घोड़ों के लिए एक विशेष प्रकार का जुनून था। उसे कहानियाँ सुनने का भी बहुत शौक था; और बग्घी का चालक विशेष रूप से पंखों वाले घोड़ों की, शारीरिक सुंदरता और राजसी चालढाल  - घर की छतों पर और यहां तक कि आकाश में बादलों के ऊपर उड़ने में को स्पष्ट रूप से चित्रित करते हुए नई-नई काल्पनिक कहानियों के साथ उनका मनोरंजन किया करते थे ! उसी तरह के उड़ने वाले घोड़े की सवारी करने की उम्मीद में नरेंद्रनाथ भी विस्मयकारी रुचि के साथ उनकी गंभीर और शानदार गपशप सुनते रहते थे।

                 कार्नवालिस स्ट्रीट (अब विधान सारनी) से होते हुए गाड़ी चौरंगी इलाके की ओर बड़ी तेजी से दौड़ रही थी। नरेंद्र, मुश्किल से चार साल के थे। अपनी माँ की गोद में बैठकर रास्ते  के किनारे वाले मनोरम दृश्यों को प्रसन्नता के साथ देख रहे थे। लेकिन गाड़ीवान के द्वारा घोड़ों को नियंत्रण में रखने के लिए दिए जा रहे निर्देश,....  और गाड़ी चलाने में उसकी निपुणता ने उनके ध्यान को पहले ही आकर्षित कर लिया था। विश्वनाथ अपने प्यारे बेटे को प्रफुल्ल देखकर बहुत प्रसन्न हुए, और एक स्नेह भरी नज़र से उन्हें देखते हुए अचानक पूछा; "ठीक है, बिलेह! तुम्हें किस बात से आनन्द मिलता है ? .... ..... तुम जीवन में क्या बनना चाहोगे ? " नरेंद्रनाथ ने अत्यंत प्रसन्न होकर सीधा उत्तर दिया," ओह! पिताजी , मैं बग्घी चलाने वाला एक साईस बनूँगा, और बलवान और चुस्त घोड़ों को चलाऊँगा। "   

"सेब की कली में खिलने की संभावना पहले से रहती है।"

 [THE APPLE ALREADY LIES POTENTIALLY IN THE BLOSSM .]

    नरेंद्रनाथ (भावी नेता स्वामी विवेकानन्द) के जीवन की पहली महत्वाकांक्षा साईस या कोचवान  (Coachman) बनने की थी। और यदि गहराई से देखें तो, वे सचमुच विभिन्न तरीकों और विविध रूपं में स्वयं को परिवर्तित करते हुए सम्पूर्ण विश्व को पशुत्व से मनुष्यत्व में, मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाने वाले कोचवान हैं। शारीरिक रूप से प्यार भरे देखभाल और सेवाओं के द्वारा सभी को आलिंगन में लेने वाली लम्बी भुजायें , चौकसी करने वाले प्रशिक्षक , और  तर्कसंगत दृष्टिकोणों के साथ धर्मपरायणता, सत्यनिष्ठा और व्यक्तित्व विकास के अनिवार्य आध्यात्मिक जनादेश के माध्यम से युवाओं को देवत्व की और संचालित करने वाले साईस हैं विवेकानन्द। 

         उनके इन दिव्य गुणों निरूपण करते हुए उनके कुछ श्रद्धालु उन्हें- 'एक चमत्कारी रहस्यवादी' (miraculous Mystic), कोई उन्हें ' एक विस्मयकारी नेता', कोई ' एक चक्रवाती हिन्दू संन्यासी'('a Cyclonic Hindu Monk') , 'ईश्वर का आधिकारीक प्रवक्ता', कोई उन्हें 'एक वेदान्तिक सिंह' ,  कोई ' प्रेम और एकत्व के नववेदान्तवादी (Neologist)' , " त्याग और सेवा मंत्र के पुनरुज्जीवनवादी '['a Revivalist (पुनरुज्जीवनवादी) of Renunciation and Service '), 'वेदान्त-वादियों के आदर्श ' ('the paragon of Vedantists') और अन्ततोगत्वा 'वह'  - जो उन्होंने स्वयं के बारे महसूस करते हुए कहा था - 'a condensed India ' या  'एक घनीभूत भारत !', "एक सिद्ध आचार्य (जीवनमुक्त शिक्षक) श्रीमत स्वामी विवेकानन्द। -An accomplished Acharya  Srimat Swami Vivekananda ! 

"ॐ नमो श्री- ज्योतिरालय  विवेकानन्द सूर्ये ! "--------"Om Namo Shri-Jyotiralaya Vivekananda Surye!"

Bhavadev Banerjee,

12 th Dec, '84

Andul-Mauri (Unsani), Howrah.

N.B. (notes been-नोट किया गया) : - स्वामीजी के पुण्य जन्मतिथि के उपलक्ष्य में इस निबन्ध को 12-1-1985 को क्षेत्र के 'पाठचक्र पुस्तकालय ' [विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय ] के अध्यक्ष श्री गंगाशंकर मुखर्जी द्वारा पूरी गंभीरता के साथ पढ़ा गया था। 

Cf, (विकल्पी सूचि) :

1. " मेरे पिता और माता ने वर्षों तक उपवास रखा और प्रार्थना की थी ताकि मैं उनके पुत्र के रूप में जन्म ले सकूँ !"-"('भारतीय नारी' -१/३१२ स्वामी विवेकानंद, जनवरी, 1900.]

[ "My father and mother fasted and prayed , for years and years , so that I would be born". -Swami Vivekananda, January,1900.]  

[भारत में माता-पिता प्रत्येक बालक के जन्म लिए ईश्वर से प्रार्थना -याचना करते हैं।"   माता की पूजा का मूल स्रोत क्या है ? ... मुझे इस संसार में लाने के लिए उसे कितनी तपस्यायें करनी पड़ीं, कितना आत्म-त्याग करना पड़ा, उसने मुझे जन्म देने के लिए उसने अपने शरीर, को , मन को , भोजन को , वस्त्रों को , यहाँ तक कि अपनी कल्पनाओं को वर्षों तक शुद्ध और पवित्र रखा। यही कारण है कि हम माता को पूज्य मानते हैं। "  १/३१४ 

"She was a saint to bring me into the world; she kept her body pure, her mind pure, her food pure, her clothes pure, her imagination pure, for years, because I would be born. Because she did that, she deserves worship."]  

2. वे विश्वनाथ दत्त के पिता थे, जो उनके इकलौते पुत्र थे, पहले वाले ने एक संन्यासी के रूप में गृहस्थ जीवन का उस समय त्याग कर दिया जब बाद वाले लगभग छह महीने के थे। 

3. भुवनेश्वरी देवी के कुल मिलाकर चार बेटे और छह बेटियां थीं। अंतिम दो संतानें पुत्र थीं जिनका नाम था महेन्द्रनाथ (1869-1956) और भूपेन्द्रनाथ (1880-1961)।

4. बाद में 1871 में 'मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूशन' के कक्षा 9वीं (वर्तमान कक्षा -VI) के अंग्रेजी विभाग में दाखिला लेने के लिए गए थे, तब उन्हें नए नाम 'नरेंद्रनाथ'  के साथ संस्थान के रजिस्टर में घोषित और नामांकित किया गया था। लेकिन संस्थान की प्रवेश रसीद में उनके नाम की वर्तनी या हिज्जे (spelling) में लिखा था-  "Norendor" - नोरेनदोर  बड़ी बिचित्र लगती है, जो अपना बृहत्तर ऐतिहासिक महत्व भी रखता है।  भारत में हाल के दिनों में अकेले विवेकानन्द ही थे जिन्होंने दिव्यता के गहरे संदेश का प्रचार किया था ।

रवींद्रनाथ टैगोर ने 1929 में कहा था - " विवेकानन्द के संदेशों ने बड़े व्यापक तौर पर युवाओं के ह्रदय-तंत्रिका को झंकृत किया है, इसीलिए उनके सन्देश देश की सेवा में इतने फलदायी हुए हैं।"  

" विवेकानंद के संदेश मनुष्य की समग्रता को जागृत करने का आह्वान है, और इसीलिए इसने हमारे युवाओं को 'त्याग और सेवा' के विविध तरीकों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया है।"- रवींद्रनाथ टैगोर, 1929।

 " यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानंद का अध्ययन करें। उनमें कुछ भी नकारात्मक नहीं है, सब कुछ सकारात्मक है।" --- रवींद्रनाथ टैगोर, 1929।

      उपरोक्त निबंध सरकार द्वारा घोषित महत्वपूर्ण जनादेश का भी स्वागत करते हुए स्वामी विवेकानंद के 123 वें जन्मदिन (12 जनवरी, 1985 ) की पूर्व संध्या पर प्रकाशित हुआ। अब से (12 जनवरी) को अपनी तरह का पहला दिन, 'राष्ट्रीय युवा दिवस' के रूप में मनाया जाएगा, इतना ही नहीं इस दिन (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा सप्ताह के रूप में मनाया   जाएगा। सप्ताह भर चलने वाले समारोहों के साथ अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष के साथ शुरू होने के लिए माना जाता है। 

संतोष कुमार मुखर्जी,

अंदुल-मौरी, हावड़ा।

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

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भव्य पुनर्मिलन

grand reunion

মহামিলন 

       जनसाधारण के दुखों के प्रति निर्विवाद दयालु, अथक परिश्रमी, सर्वजन शिक्षण के नेता, नव वेदान्त के प्रतिपादक, परिव्राजक विवेकानंद का व्यक्तित्व में उनका ह्रदय था सर्वदा सरल, शान्त और प्रेममय। उन्होंने नदियों के समुद्र की ओर तेज गति से बहने वाले प्रवाह  को 'बृहद ध्वनि तरंग' की संज्ञा दी थी। उन्होंने जब कल-कल कल्लोलिनी अलकनंदा की आवाज सुनी, तब उन्होंने कहा था, 'अलकनंदा' के प्रवाह में 'राग केदारा' की धुन सुनाई देती है।   
    'संगीत' ही उनके जीवन-साधना का प्रथम सोपान और अभिन्न अंग था; और था 'श्रेय और प्रेय' दोनों प्रकार की कामनाओं का एकमात्र बगीचा। संगीत विद्या में निपुण होने के बाद, वह पूर्णता के सौंदर्य से मण्डित होकर सभी के लिए प्रिय हो गए थे; और परम पुरस्कार के रूप में उन्हें प्राप्त हुई थी 'अवतार वरिष्ठ' श्रीश्री रामकृष्ण की अन्तरंगता और निकटतम सानिध्य। और अंत में, जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, इन सबका एक विशिष्ट परिणाम प्राप्त होता है-' A tremendous upheaval of the whole life '  " पूरे जीवन में एक आश्चर्यजनक क्रान्तिकारी परिवर्तन'! 
     नरेंद्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) थे 'नित्यसिद्ध श्रेणी' के महापुरुष थे, इसलिए प्राकृतिक नियम के अनुसार इसलिए बचपन से ही वे संगीत के प्रति एक सहज आकर्षण महसूस करते थे। जैसे संगीत विद्या का अभ्यास करना उनके लिए सहज था, वैसे ही संगीत की प्रस्तुति देने में भी वे हिचकिचाहट नहीं करते थे। संगीत समागम में उनके सहज आत्म-सुधार की प्रवृत्ति ने उन्हें सदैव प्रबुद्ध बनाए रखा था, और 'अनन्त के अधिकारी', इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति का अधिकारी बना दिया था।  
       ''अनायास दयासिंधु' श्रीश्री ठाकुरदेव ने कलकत्ता स्थित उनके मुहल्ले में जाकर पहली बार अक्टूबर 1880, बंगाब्द  1287 के हेमंत के अंतिम भाग में एक संध्या समागम के शुभ अवसर पर नरेंद्रनाथ का गीत सुना था । उस समय नरेंद्रनाथ प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र थे और 'साधारण ब्रह्म समाज' के सदस्य थे । 'अतीन्द्रिय सत्य' के प्रबल जिज्ञासु, सत्यं, शिव और सुन्दर के उपासक, एक  आदर्शवादी आस्तिक, और तीक्षबुद्धि की प्रखरता से दीप्तिमान युवा। निष्कलंक चरित्र, वीर ह्रदय, सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति। लेकिन अभिजात्य बोध से अल्हड़, किसीका care नहीं करने वाला। उनकी  वाक्पटुता (eloquence-बोलने की शक्ति) असाधारण थी , किन्तु ज्यादातर समय उनकी बातें व्यंगात्मक रहती थीं, लेकिन उनका आंतरिक दृष्टिकोण वास्तव में हमेशा हृदववत्ता और करुणा की बाहरी अभिव्यक्ति ही कटाक्ष में रूपांतरित होती थीं। 
        अपने मित्र-मण्डली में, सभी मामलों के नेता - आलोच्य विषय पर अकाट्य तर्क देने वाले, उनकी चर्चा के शब्द आनन्द और उत्साह से भरे होते थे। आशा और भरोसा का संचार करने वाले पारस मणि , बेपरवाह हठी स्वाभाव, सदा आनन्द पूर्ण मधुर कण्ठ के गायक। लेकिन उन्हें अपने 
 जीवन के भीतर एक बहुत बड़े परिवर्तन का सामना करना पड़ रहा है। उनके मन प्रश्नों की झड़ी लग जाती है - यदि ईश्वर ह्रदय की गुफा में निर्वात-निष्कंप दीप शिखा की भाँति अवस्थित हैं , तो वे व्यक्त जगत में कहाँ मिलेंगे ? ईश्वर कहाँ हैं ? उनको कैसे देखा जा सकता है ? उनको देखा भी जा सकता है या नहीं ?  
       लिखने-पढ़ने में, संगीत साधना करने में, एकाग्रता (प्रत्याहार धारणा) का अभ्यास आदि करने के लिए उपयुक्त स्थान मानकर, उस समय से नरेन्द्रनाथ अपनी नानी के घर, 7 नंबर,  रामतनु बसु की  गली (7 No. Ramtanu Basu Street) के दूसरे मंजिल पर बने एक छोटे कमरे में अकेले रहना शुरू कर देते हैं। दिन में दो बार केवल केवल भोजन आदि करने के लिए ही वे अपने पैतृक निवास पर जाते हैं। जिस कमरे में वे रहते थे, उसकी सीढ़ी के नीचे बने स्थान को वे बोलचाल की भाषा में वे 'tong' -टन्न की आवाज कहते थे, उनके जीवन की जिज्ञासा, सत्य की खोज आदि का यही यज्ञ क्षेत्र है।  परमहंसदेव (1882-83) के बीच यहाँ कई बार आए थे ।

         परमहंस श्री रामकृष्णदेव 3 मार्च से 1880 से 10 अक्टूबर तक लगातार आठ महीने -कामारपुकुर क्षेत्र में ही रह गए थे । ... परमहंसदेव की अपनी जन्म- भूमि से वापसी की खबर सुनकर, , उनके सबसे प्रमुख भक्तों में से एक, सुरेंद्रनाथ मित्र (1850-90)  दशमी के बाद शारदीय विजया के दिन ऑफिस के काम को अधूरा छोड़ कर - व्याकुल ह्रदय एक दोपहर दक्षिणेश्वर पहुंचे। उनका असली नाम सुरेश चंद्र था; ठाकुर ने उन्हें प्यार से 'सुरेंद्र' या 'सुरिंदर' कहकर पुकारते थे।  दिव्य भाव में अवस्थित श्री रामकृष्ण उन्हें देखते ही, स्नेहपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए बोले - " यह देखो सुरेन्द्र खुद पहुँच गया ! मैं तुम्हें ही याद कर रहा था, मैं सोंच रहा था तुम्हारे यहाँ जाने के लिए मुझे इसी समय निकल जाना चाहिए। " 
     सुरेन्द्रनाथ इस अप्रत्याशित स्वागत और अभूतपूर्व सुसंयोग को देखकर आश्चर्य चकित हुए। और इस आनन्द में स्वयं को भूलकर ठाकुर से बोले -" बहुत अच्छा ! यह तो मेरा परम् सौभाग्य है, चलिए आपको हमलोग इसी समय बग्घी से ले चलते हैं। " मंगलमय प्रभु श्री रामकृष्णदेव, महानन्द से भरे हुए सुरेन्द्रनाथ के सिमुलिया स्ट्रीट पर अवस्थित निवासस्थान पर पहुँच गए।  ईश्वरीय इच्छा से इस शुभागमन के अवसर पर उस दिन सुरेन्द्रनाथ के लिए अपने घर पर विशाल भक्त सभा, या कोई उत्सव आयोजित कर पाना सम्भव नहीं हो सका। केवल डॉ. रामचंद्र दत्त जैसे, पड़ोस में रहने वाले कुछ ठाकुर देव के भक्तों ने ठाकुर देव की आवभगत करने में उनका सहयोग किया। 
      ठाकुर को संगीत सुनना बहुत प्रिय था, लेकिन इतने कम समय में किसी नामी गवैये को ढूंढ़ पाना सम्भव नहीं था। अचानक सुरेंद्रनाथ को याद आया,  नरेन तो अच्छा गाता हैं! उसकी आवाज बहुत मधुर है। बिना एक पल की देरी किये वे उनकी खोज में निकल पड़े। सुरेन्द्रनाथ की एक पुकार सुनते ही नरेन्द्रनाथ 'टोंग' से नीचे उतरे।  बिना कोई बहाना बनाए, उन्होंने खुशी-खुशी उनके प्रस्ताव पर हामी भर दी। क्योंकि संगीत चर्चा के लिए वे भी हमेशा उत्सुक रहते थे। संगीत में विशेष रूचि होने के कारण ही उनके पडोसी और संभ्रांत मित्र महाशय ने अपने गुरुदेव को संगीत सुनाने के लिए उन्हें आमंत्रित किया है। आमतौर से उनके अक्खड़ स्वभाव, 'बोहेमियन' व्यवहार के कारण मुहल्ले के पड़ोसी बड़े-बुजुर्ग लोग  नरेंद्रनाथ को पसंद नहीं करते थे। नरेंद्रनाथ के संगीत के प्रति भी वे  उदासीन रहते थे।
       क्योंकि नरेन्द्रनाथ उस समय ज्यादा करके  हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी भाषा में रचित सहज-सरल भक्तिमूलक गजल, टप्पा , ठुमरी , हिन्दी में ध्रुपद, खयाल आदि शास्त्रीय संगीत गाना पसंद करते थे और दो-चार ब्रह्मसमाज में गाये जाने वाले बंगाली गीत भी गए लेते थे। जो हो, लेकिन सुरेन्द्रनाथ के बुलावे पर वे उनके साथ ही साथ उनके आवास पर पहुँच गए। पवित्र -ह्रदय नरेन्द्रनाथ को देखते ही श्रीरामकृष्ण किसी कुशल आविष्कारक की तरह, आश्चर्य से अधीर हो उठे। बहुत आनन्द और प्रेम से भरकर उनका परिचय जानने के लिए व्याकुल हो गए।  
       'Who ever loved that loved not a first sight ?' - जिस किसी ने कभी प्यार किया है, तो क्या वह प्यार पहली नजर में ही नहीं हो जाता ? वे एकटक होकर नरेन्द्रनाथ के सौम्य, शान्त, कोमल, शरत के चाँद जैसे कान्तियुक्त मुखड़े का अवलोकन करने लगे।  ....असाधारण गुरु,अद्भुत शिष्य, में चमत्कारी प्रेम संचार।....ध्यानसिद्ध, मुक्त-स्वभाव नरेन्द्रनाथ अविलम्ब, तानपुरा के साथ आसन में बैठकर, तेजोदीप्त करुणाद्र कण्ठ से पूरे मन-प्राण के साथ,  गाते हुए सबों को मोहित कर दिया। उस गंभीर, अर्थपूर्ण, प्रश्नों से परिपूर्ण मार्मिक गीत को सुनकर भावग्राही भगवान श्रीरामकृष्णदेव मंत्रमुग्ध हो गए।     
      उस दिन नरेंद्रनाथ ने पहला गीत सुनाया  था ब्रह्मसमाज के नेता 'अयोध्यानाथ पाकराशि   (Ayodhyanath Pakrashi) द्वारा सूरत-मल्हार धुन- एकताल में- रचित बंगाली भक्ति गीत, 
'मन चल निज निकेतने' -
মন চলো নিজ নিকেতনে 
সংসার বিদেশে বিদেশীর বেশে 
ভ্রম কেন অকারণে
মন চলো নিজ নিকেতনে। 

और दूसरा गीत बेचाराम चट्टोपाध्याय द्वारा रचित - 'जाबे के दिन आमार  बिफले चलिये?" 'যাবে কি হে দিন আমার বিফলে চলিয়ে। আছি নাথ দিবানিশি আশাপথ নিরখিয়ে । राग 'मुल्तानी -आड़ठेका ' में  गाया था -

जब गीत समाप्त हुआ, तब परमहंसदेव, जो असाधारण संगीत के प्यासे थे, ने ऊँचे स्वर में और प्रशंसनीय भाव से कहा, 'वाह ! वाह ! एक दम किशोर बालक है, हाँ, ऐसा ही आधार तो मुझे चाहिए था , ... बोले तब क्या वहाँ -दक्षिणेश्वर में किसी दिन नहीं आओगे ? कहो, तुम जरूर आओगे न ? देखना कभी भूल मत जाना। " नरेंद्रनाथ ने एक सामान्य शिष्टाचार दिखाते हुए अपनी गर्दन को हिलाकर सहमति जताते हुए वहां से विदा हुए। 'श्रीरामकृष्णलोक' से आये एक अलौकिक आध्यात्मिक निमंत्रण से अनजान और उदासीन नरेन्द्रनाथ शुभ्र शरत ऋतू की चाँदनी में अपने घर लौट गए। और उनका विशाल महान महिमापूर्ण भविष्य अभी छुपा हुआ था स्वर्ण के ढक्क्न से। 
        देखते -देखते 10-11 महीने बीत गए। 1881 का वर्ष समाप्त होने वाला था। नरेंद्रनाथ ने एफ.ए की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। रिश्तेदार लोग खुश थे कि  जल्द ही उनका विवाह उत्सव होगा। लेकिन इस प्रस्ताव को सुनने के बाद नरेंद्रनाथ ने स्पष्ट रूप से अपनी असहमति जता दी। ऊपर से देखकर लगता कि वे पढाई में मग्न हैं , ब्रह्मसमाज के सभा-समितियों में भाग लेने के लिए आतुर रहते था, अपने मित्रों के साथ खेल-कूद और संगीत चर्चा में निरंतर व्यस्त रहते थे किन्तु ह्रदय में हमेशा एक ही प्रश्न वहलता था - ईश्वर को एकदम प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है या नहीं ? 
     ईश्वर से निर्विवाद पहचान ही 'उनकी एकमात्र -ऐषणा है! तीव्र अभिलाषा है। बचपन से ही उनका मन बेचैन है इसी शंका के समाधान की तलाश में। धरती में पड़ा बीज जैसे अंकुरित होने की इच्छा से भरा होता है , उनका ह्रदय उसी बीज की वेदना का अनुभव कर रहा था। वे समस्त  सांसारिक ऐषणाओं (वित्त-ऐषणा, पुत्र ऐषणा और लोक-ऐषणा)  के प्रति उदासीन और निर्लिप्त रहते हुए ; मनुष्य जीवन के उद्देश्य की खोज में -बुद्ध की प्रतिज्ञा की तरह - "शरीरं वा पातयामि, मन्त्रम् वा साधयामि " की अपनी प्रतिज्ञा पर अटल और दृढ़ थे।  
         ऐसी परिस्थितियों में नरेंद्रनाथ के पिता के कहने पर उनके सम्बन्धी  डॉक्टर रामचंद्र दत्त (1851-99) ने नरेंद्रनाथ से उनके घर-गृहस्थी बसाने की इच्छा के बारे में खुलकर सवाल किया।डाक्टर रामचंद्र दत्त, वे नारकेल भाँगा ग्राम के निवासी नरसिंह प्रसाद दत्त के पुत्र और  नरेंद्रनाथ की माता के दूर के रिश्ते में मामा लगते थे। बचपन में ही उनकी माँ का देहान्त हो जाने के बाद, बिकट परिस्थितियों में Campbell Medical School' में पढ़ाई करते समय थोड़े दिन (लगभग 1871-72 तक) नरेन्द्रनाथ के पैतृक निवास में रहकर अध्यन करते थे।  प्रियदर्शन नरेंद्रनाथ उनके सबसे विश्वासपात्र व्यक्ति थे । नरेन्द्रनाथ के हृदय की अदम्य इच्छा और उनकी दिनचर्या  
के कठोर नियम तथा उसे पूरा करने के लिए अकाट्य युक्तियुक्त निर्णय को सुनकर रामचन्द्र दृढ़ विश्वास के साथ बोले, 'भाई, तुम्हारी  बात से मैं पूरीतरह सहमत हूँ। और मैं तो तुम्हें तुम्हारे जन्म से  देख रहा हूं। कि तुम एक प्रबल सत्यार्थी हो ! लेकिन यदि तुम इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हो , तो ब्रह्मसमाज आदि स्थानों में  इधर-उधर दौड़ने के बजाय दक्षिणेश्वर में ठाकुर  रामकृष्ण के पास चलो ।"
     जैसे ही नरेंद्रनाथ ने 'रामदा ' के मुख से श्री रामकृष्णदेव  के बारे में सुना, वे चौंक गए! और एक साथ होने वाली समस्त घटनाएँ - सुरेंद्रनाथ मित्र की उनसे मुलाकात; ब्रह्म समाज और अखबारों में उनकी अकल्पनीय भक्ति और आस्था की चर्चा; अपने कॉलेज के प्रोफेसर हेस्टिंग्स के कथन - 'समाधि देखनी है तो दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण के पास जाओ', एक क्षण में समस्त घटनाओं की समीक्षा करने और सामाजिक परिवेश तथा परिस्थितियों के दबाव को हटाते हुए वे दक्षिणेश्वर जाने का निर्णय लिए । श्री रामकृष्ण के यहाँ जाने का दिन तय हुआ '1881, दिसंबर का अंत' - वर्ष 1288, 'पौषमास' का पहला भाग।
     नरेंद्रनाथ के साथ रामचंद्र दत्त, सुरेंद्रनाथ मित्र और उनके दो दोस्त भी पहुंचे थे। ठाकुर  श्री रामकृष्ण अपने ह्रदय के धन  'नव-ऋषि' नरेंद्रनाथ की ओर देख कर उनके स्वागत में व्यस्त हो गए। यह दूसरा साक्षात्कार या महामिलन था दोनों के ह्रदय को- एक अवर्णनीय आकर्षण - अनंत आनंद की ओर उन्मुख कर देता है। एक दूसरे के अंदर प्रेम दिखा। नरेंद्रनाथ तो एकतरफा प्यार - असंतुष्ट गतिशीलता के जुनून से अभिभूत थे ! उनका हृदय आशा से जगमगा उठता है, लेकिन संदेह से मुक्त नहीं हुआ । ... उन्होंने नरेंद्रनाथ का हाथ पकड़ लिया और खुशी के आंसू बहाते हुए , प्यार भरे स्वर में उनसे कहा - 'क्या इतनी देर के बाद मिलने आया जाता है ? मैं कितने दिनों से तुम्हारे इंतजार कर रहा हूँ , यह भी नहीं सोचे ? मेरे निमंत्रण को तुम आसानी से भूल कैसे गए ? - आदि। कितना स्नेह - उत्सुकता - गैर-रचनात्मक व्यवहार और अकृत्रिम अपनापन देखकर नरेंद्रनाथ चकित और हैरान रह गए ! श्रीश्रीठाकुर ने नरेंद्रनाथ से बड़े प्यार और स्नेह से गहरी आवाज में अनुरोध किया, 'कहो कि एक दिन यहां जल्दी आओगे ? लेकिन अकेले आओगे  - किसी को साथ मत लाना । क्या तुम समझ रहे हो भाई ? ' बचने का कोई उपाय न देखकर नरेन्द्रनाथ ने 'हाँ जल्दी आऊंगा ' कहने को बाध्य होना पड़ा और 'इस बार केन्द्र है भारतवर्ष ' का बीज अंकुरित हो गया!
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N. B. 
1. (ए) डॉ रामचंद्र दत्त और मनमोहन मित्र की सलाह और आग्रह पर, उन्होंने 1880 के शुरुआती भाग में दक्षिणेश्वर में परमहंसदेव का सानिध्य प्राप्त किया था ।

(बी) रामचंद्र और मनमोहन और ब्राह्म नेता केशवचंद्र के द्वारा उन्हें अपने मन का  'परमहंस' कहने और उनके द्वारा प्रकाशित अख़बार 'The Indian Mirror' में 'धर्म तत्व ' आदि लेखों को पढ़ने के बाद , उत्साह के साथ 1879 में श्यामा पूजा के दिन, गुरुवार दोपहर में श्री रामकृष्णदेव के सम्मुख  उपस्थित हुए थे। 

(सी)  रामचंद्र दत्त के साथ परमहंसदेव की पहली मुलाकात 15 मार्च 1875 को हुई थी।

2. उक्त भवन 'विवेकानंद रोड' का निर्माण करते समय अब निशचिन्ह हो गया है, पहले यह मकान 'दत्त-बाड़ी ' के दक्षिण-पश्चिम में अवस्थित था।

3.  'The Indian Mirror ', ' The Theistic Quarterly Review ' , 'धर्मतत्व', सुलभ समाचार इत्यादि में प्रकाशित।  
[बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है,जागृत होना, सतर्क होना तथा जितेन्द्रिय होना। वस्तुतः बुद्ध एक व्यक्ति विशेष का परिचायक न होकर स्थितिविशेष का परिचायक है। वर्तमान समय में बुद्ध शब्द का व्यापक प्रयोग राजकुमार सिद्धार्थ के परिव्राजक रूप के लिए किया जाता है जो सत्य नहीं है। सहस्रों बुद्धों का आगमन हो चुका है, तथा सहस्रों बुद्ध आयेंगे। इसीलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में बौद्ध को चोरों की भांति दंड देने कि बात आई है। इससे सिद्ध होता है कि वाल्मीकि के आगमन से पूर्व भी बौद्ध मत था। वस्तुतः बुद्ध एक नहीं बहुत हैं। जैसे कि पूर्व में बताया गया कि बुद्ध मात्र एक स्थिति विशेष का नाम है, तो उस स्थिति में पहुँचने वाला हर प्राणी बुद्ध कहलाया। कृष्णावतार के बाद बुद्धावतार की भविष्यवाणी भगवान वेदव्यास जी ने की है। विडंबना है कि लुम्बिनी में जन्म लिए युवराज गौतमबुद्ध को ही इतिहासकारों ने भगवान बुद्ध बना दिया और सनातन हिन्दू वैदिक अवतार के रूप में जो मूल पुरातन भगवान बुद्ध हुए उनके बारे में प्रर्याप्त प्रचार प्रसार नहीं हुआ। 

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🔱🙏'एक महान जीवन" ~ अन्दुल मौरी के सपूत श्री भवदेव बंदोपाध्याय🔱🙏 

[15] 

“अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” 

अधीति, बोध, आचरण और प्रचार  

[অধীতি বোধাচরণ প্রচারনে] 

(অধ্যন বোধ ও আচরণের দ্বারা প্রচার )
     
“अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” - अर्थात 'बोध' को आचरण में उतारने से ही पढ़ी हुई विद्या पूर्णता को प्राप्त होती है ! (The knowledge that is read (रटी हुई विद्या या पुस्तकीय ज्ञान), attains perfection by putting the knowledge into practice.)  गुरु (तीन पीढ़ियों के आचार्यदेव शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय) -शिष्य (महामण्डल के संस्थापक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय) वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा "Be and Make" में छात्र जिस प्रक्रिया से अच्छा नागरिक और नेता (पैगम्बर) बनने का ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी शिक्षण पद्धति कह सकते हैं। ]
महान शिक्षाविद शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) एवं तत्वदर्शी पत्रिका 'उद्बोधन' के सम्पादक श्रीमत स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज (1891-1956)- दोनों भवदेव बाबू के हृदय में श्रद्धा के आसन पर अधिष्ठित थे, उनके लिए पूजनीय व्यक्तित्व थे। दोनों का भवदेव बाबू से विशेष स्नेह था, आचार्य शिरीषचन्द्र भवदेव बाबू को 'देव' कहकर पुकारते थे। इसका प्रमाण शिरीष चन्द्र  द्वारा भवदेव बाबू को लिखे पत्र में मिलता है। 
     दूसरी ओर, स्वामी वासुदेवानन्द जी महाराज भवदेव बाबू को 'रवि' कहकर बुलाते थे। उद्बोधन पत्रिका के एक अंक में स्वामी वासुदेवानन्द ने एक ऐतिहासिक कल्पित कथा प्रकाशित की थी । उस कल्पित ऐतिहासिक कहानी (Historical fiction) में 'रवि' नाम का एक पात्र था। "श्री रामकृष्ण -वासुदेवानन्द संघ" के माध्यम से स्वामी वासुदेवानंद की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं थीं । उनमें से कुछ उल्लेखनीय पुस्तकें हैं - 'दिव्य वाणी की प्रतिध्वनि' , 'अंतर राग में आलापन', 'श्री रामकृष्ण स्मृति साधुकरी। ' भवदेव बाबू इन सभी प्रकाशनों से विशेष रूप से जुड़े हुए थे ।

       आन्दुल-मौड़ी में 'विवेकानंद पाठचक्र ' के अलावा 'बोधानंद स्मृति संघ' नामक एक संगठन था।  भवदेव बंदोपाध्याय इस संगठन के सचिव थे और श्रद्धेय स्वामी वासुदेवानंद जी अध्यक्ष थे। भवदेव बाबू की विशेष अनुरोध से स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज ने  कई बार  आन्दुल-मौड़ी में पदार्पण किया था। मौड़ियाडी पब्लिक लाइब्रेरी की 'विजिटर्स बुक' से संकलित करके भवदेव बाबू ने हमारे लिए बहुत मूल्यवान तत्व और जानकारी छोड़ी है। हम भवदेव बाबू के स्वयं के हस्तलिखित संग्रह की फोटो कॉपी सम्मानित पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जिसका अपार ऐतिहासिक महत्व है। भवदेव बाबू को स्वामी विवेकानंद के संन्यासी  शिष्य स्वामी बोधानंद और स्वामी विमलानंद का विशेष स्नेह प्राप्त था। स्वामी विवेकानन्द के साक्षात् शिष्य स्वामी बोधानंद की स्मृति में आन्दुल-मौड़ी में बोधानंद स्मृति संघ की स्थापना हुई थी। हमें उस संघ के Letter Pad का एक पेज प्राप्त हुआ है। 
       हमें स्वामी बोधानंद का आन्दुल के साथ कुछ विशेष संबंधों का पता चला है। हम इसे विस्तार से पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं- जिससे उनका आन्दुल से संबंध सिद्ध होता है। उद्बोधन में प्रकाशित 'स्वामीजी के पदचिह्न' नामक पुस्तक से हमें पता चलता है कि स्वामी विवेकानन्द के दो संन्यासी  शिष्य, स्वामी बोधानंद और स्वामी विमलानंद, पूर्वाश्रम में पहले चचेरे भाई थे। दोनों का जन्म हावड़ा जिले के जगत बल्ल्भपुर  थाने के बाग-गंगा गांव में हुआ था। दोनों भाई बहुत मिलनसार थे और अपने चरित्र की मधुरता के कारण सभी के प्रिय थे। स्वामी बोधानंद के पिता का नाम शिव नारायण चट्टोपाध्याय और स्वामी विमलानंद के पिता का नाम बेनीमाधव चट्टोपाध्याय था । वेणीमाधव जो शिवनारायण के छोटे भाई थे। बेनीमाधव चट्टोपाध्याय महाशय बाद में आन्दुल में रहने लगे थे और कभी-कभी कलकत्ता के पातालवांगा में कैथेड्रल मिशन लेन स्थित अपने घर में भी रहते थे । स्वामी बोधानंद और विमलानंद मानों 'हरि-हर की आत्मा'  के समान थे। अतः यह कहा जा सकता है कि अपने भाई विमलानंद के साथ बोधानंद जी भी आन्दुल के आकर्षण में बंध गए थे।   
         दूसरी ओर, भवदेव बंदोपाध्याय के द्वारा लिखित 'बेलूड़ मठ में आन्दुल का काली-कीर्तन' नामक लेख पढ़ने से हमें पता चलता है कि - "उन्होंने (स्वामीजी).....ने प्रेमिक कीर्तन समिति के सदस्यों द्वारा गाये  उनके युवा संन्यासी -शिष्य स्वामी विमलानंद (खगेन महाराज अपने पूर्वाश्रम में प्रेमिक महाराज के गोत्र में नाती थे ) के प्रयासों से  28 फरवरी 1898 को बेलूड़ के ठाकुर घर में प्रेमिक की गीतावली को सुना था। वह दिन था - श्री रामकृष्ण जन्मोत्सव का दिन। ' इस ग्रन्थ से बहुत कुछ जानने के साथ-साथ हमें यह भी पता चलता है कि स्वामी विमलानंद और आन्दुल के श्रीश्री प्रेमीक महाराज के बीच एक पारिवारिक संबंध था

       ऐसा प्रतीत होता है कि इन सभी कारणों से आन्दुल के साथ उनका घनिष्ट संबंध स्थापित हो गया था। और इसी कारण से भवदेव बाबू  तथा अन्य बोधानंद- भक्तों ने आन्दुल -मौड़ी  में बोधानंद स्मृति संघ को स्थापित करने में पहल की होगी । आन्दुल -मौड़ी का गौरव वर्तमान शताब्दी में प्राचीन मोहियाड़ी Public Library के साथ भवदेव बाबू का लम्बा जुड़ाव रहा है। इस पुस्तकालय को सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिए, इसके संचालन नियमों को लिखना आवश्यक था । यह जिम्मेदारी भवदेव बाबू को सौंपी गयी थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि भवदेव बाबू  ने इस कर्तव्य को अत्यंत निष्ठा के साथ निभाया था । 
       महामंडल की स्थापना के बाद 1969 में इसके संविधान और नियमों को लिखना भी आवश्यक हो गया था। तब भवदेव बाबू ने श्रद्धेय नवनी हरन  मुखोपाध्याय महाशय को उनके काम में सुविधा के लिए आन्दुल -मौड़ी पुस्तकालय के Constitution (संविधान) की एक  copy प्रति भेंट की थी । भवदेव बाबू कई वर्षों तक आन्दुल -मौड़ी पुस्तकालय के सचिव  और बाद में अध्यक्ष रहे थे ।
       बोधानंद स्मृति संघ का आदर्श वाक्य या 'motto' था “अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ”-अर्थात पढ़ी हुई विद्या,पूर्णता को प्राप्त होती है 'बोध' को आचरण में उतारने से । इस संदर्भ में  बहुत अच्छी तरह से ब्याख्या करते हुए पूज्य नवनी दा ने कहा है - इस बोध में (अद्वैत बोध या बुद्धत्व) में क्रमशः विकसित होते रहना, यही है धर्म का वास्तविक अर्थ है।
       स्वामी चेतनानन्द द्वारा संकलित पुस्तक  'कल्पतरु श्री रामकृष्ण'  में स्वामी बुद्धानंद का एक निबंध है। उसी लेख से हम श्रीश्री माँ के बारे में कहे गए उनके शब्दों के साथ हम इस प्रबंध को समाप्त करेंगे। उस प्रबंध में स्वामी बुद्धानंद लिखते हैं - "ऐसा कौन है जिसने हमारी माँ को देखा है और जिसकी दृष्टि पवित्र नहीं हुई हो ? जिसके भीतर की सोई हुई शुभ शक्ति जाग्रत नहीं हो उठी हो ? जिसके ह्रदय में एक शिव-संकल्प सक्रिय नहीं हो उठा हो ? " [ऐसा कौन है जिसने नवनीदा को देखा है और...... उसका अन्तर्निहित सिंहत्व (Oneness) जाग्रत न हो उठा हो ?] 
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श्रीश्रीरामकृष्णो अधीति ।  

'अधीति बोध आचरण प्रचारणैर। '  

अधीति, बोध, आचरण और प्रचार  

Bodhananda Smriti -Sangha 

ANDUL -MAURI , HOWRAH , WEST BENGAL 

SWAMI BODHANANDA 

"ठाकुरदेव की इच्छा, श्रीश्रीमाँ के आशीर्वाद और स्वामीजी की प्रेरणा से महामण्डल की स्थापना हुई है। " --नवनीहरन मुखोपाध्याय।     

" ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রীমায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় 

মহামন্ডলের  সৃষ্টি হয়েছে। "--নবনীহরন মুখোপাধ্যায়   

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  “कोई चलता पद चिह्नों पर, कोई पद चिह्न बनाता है।” वर्तमान में भी हम अंग्रेजों द्वारा प्रदत हरबर्ट की शिक्षण पद्धति के अनुरूप शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। स्वामी विवेकानंद जी का कथन है कि-  शिक्षा और धर्म में कोई विशेष अन्तर नहीं है। शिक्षा को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है - "Education is a manifestation of perfection already in man! " शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है! और धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है - "Religion is manifestation divinity already in man."- धर्म मनुष्य में पहले से विद्यमान देवत्व (निःस्वार्थपरता) की अभिव्यक्ति है। स्वामी जी कहते हैं - “मनुष्य के अंतर में समस्त ज्ञान अवस्थित है। आवश्यकता है उसे जागृत करने के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण करने की। इसी वातावरण का निर्माण करना शिक्षण है।” स्वामी विवेकानन्द से अनुप्रेरित श्री लज्जाराम तोमर जी (विद्याभारती -सरस्वती शिशु मंदिर)  का स्पष्ट मानना था कि एक शिक्षक को माली की तरह होना चाहिए। जैसे कोई माली पौधे की देखभाल करता है, उसे सींचता है, उसी प्रकार एक शिक्षक भी छात्र के लिए शिक्षण का वातावरण निर्मित करें, उसका मार्गदर्शन करें। इसी को ध्यान में रखते हुए वह अपनी कक्षा का कार्यक्रम, अपने विद्यालय की कार्य योजना व कक्षा कक्ष की तैयारी करें। यही पंचपदी शिक्षण पद्धति का आधार है। लज्जाराम तोमर जी ने पंचपदी शिक्षण पद्धति के पांच सोपान बताये हैं-1. अधिति 2. बोध ('ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या की समझ') 3. अभ्यास 4. आचरण (में विवेक-प्रयोग करके सबसे प्रेम करना। ) 5. प्रचार। 

अपने दीर्घ अनुभव के आधार पर लज्जाराम तोमर जी ने पाया कि शिक्षण प्रक्रिया में तीन कारक निहित रहते हैं। प्रथम-बालक, द्वितीय-विषयवस्तु, तृतीय-शिक्षण। बालक जन्म से अपरिपक्व होता है अतः उसे पथ प्रदर्शन की आवश्यकता होती है। यह पथ प्रदर्शन संस्कारयुक्त व व्यवस्थित शिक्षण प्रक्रिया से ही संभव है।  विद्या भारती (लज्जराम तोमर जी) द्वारा कृत पंचपदी शिक्षण पद्धति हरबर्ट की वह पद्धति नहीं है जिसका प्रशिक्षण हम B.Ed में प्राप्त करते हैं। हरबर्ट की शिक्षण पद्धति का केंद्र जहां शिक्षण (अध्यापन) है वहीं लज्जाराम तोमर जी की पंचपदी शिक्षण पद्धति बाल केंद्रित है। 

>> चतुष्पदी शिक्षण पद्धति (tetrapody teaching method)सर्वप्रथम कवि श्रीहर्ष के नैषधिचरित नामक महाकाव्य में  चतुष्पदी शिक्षण का उल्लेख आता है। इस महाकाव्य का मूल आधार है "महाभारत" का "नलोपाख्यान"। इस ग्रन्थ के दो भाग हैं- पूर्व और उत्तर। दोनों में 11-11 सर्ग हैं (कुल 22 सर्ग) इस ग्रन्थ के अन्त में यह निर्दिष्ट नहीं है कि 'ग्रन्थ समाप्त हुआ' - इस कारण संशय होता है कि यह ग्रन्थ कहीं अपूर्ण तो नहीं है। यह काव्य कठिन है क्योंकि कहा गया है- नैषधं विद्वदौषधम् (नैषध विद्वानों के लिये औषध है।) राजा नल जब गुरुकुल में पढ़ते थे तब उनका 'अध्ययन'  [वेदांत या 'अन्तर्निहित दिव्यता तथा Oneness को अभिव्यक्त करने की शिक्षा] जिस पद्धति से चलता था  उसे 4 पदों में बताया गया है। ये चार पद है अधीति, बोध, आचरण और प्रचार ।  

      बाद में हर्बर्ट के शिक्षण का नकल करते हुए एक और पद अभ्यास (Practice) को भी जोड़ दिया गया। इसलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति की गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी शिक्षण पद्धति कह सकते हैं। पंचपदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया। पाँच पद इस प्रकार हैं- अधीति, बोध, अभ्यास, आचरण और प्रसार  पहला पद है -अधीति यानि अध्यन । अध्येता (student या छात्र) किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगोंं की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण (hearing), दर्शन (seeing), निरीक्षण (observing) । परीक्षण (testing) अधीति है। परंतु अधीति (अध्यन)  मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है ।

 अध्यन का दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना (understanding-ज्ञान) जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है । इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह बोध अध्ययन का दूसरा पद है । लेकिन अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ ।

अध्ययन का तीसरा पद है-अभ्यास या practice।  सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा एक सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी क्रिया को पुनः पुनः दोहराते रहना इसे ही पुनरावृत्ति (repetition-दुहराते रहना) कहते  हैं । पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का [अर्थात आदत या प्रवृत्ति का निर्माण] हो जाता है और वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । 

अभ्यास (practice) करने से पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि विषय का बोध ठीक से नहीं हुआ और अभ्यास (आदत -practice) पक्का हो गया,  तो गलत बात पक्की हो जाती है । उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि गाने का अभ्यास (practice) चलता रहा तो गीत का गलत स्वर ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्र जीवन में यह दोष तो हम कई बार होते हुए देखते हैं। अतः किसी विषय का अभ्यास करने से पूर्व उसका बोध ठीक होना चाहिए। फिर यदि बोध तो ठीक हो गया परंतु अभ्यास नहीं किया गया तब भी वह विषय जल्दी भूल जाता है । अतः अभ्यास अत्यंत आवश्यक है। किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है (Knowledge becomes harmonious with the personality.)

 उदाहरण के लिए जिसने बचपन में पहाड़ों (multiplication tables) का रोज रोज अभ्यास किया है, तो वह बड़ी आयु में भी उसे भूलता नहीं है  । नींद से उठाकर भी कोई आठ गुने आठ का पहाड़ा पूछे तो हम झट से,अपनी मातृभाषा में सीखा हुआ पहाड़ा अठम-अठी चौंसठ बोल सकते हैं, किन्तु अंग्रेजी में टेबल कहना उतना सरल नहीं होता है। और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने, तैरने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है । अभ्यास से ही  (सद -प्रवृत्ति) की परिपक्वता आती है-(Maturity comes only from practice.)

      अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है- ज्ञान (सत-असत -मिथ्या की समझ) का प्रयोग (Use-उपयोग या आचरण)। ज्ञान (विवेकज ज्ञान) यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और- "happiness of the mind is reflected on the face." ~ चित्त की प्रसन्नता (अनिवर्चनीय समता का भाव) मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ प्रतिदिन ॐकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का वातावरण ही ओमकार की तरंगों से भर जाता है । किसी को कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओमकार का उच्चारण होता है । धार्मिक शास्त्रीय संगीत (religious classical music) का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । 

     प्रयोग (Use या स्वयं पर Experiment)  के बाद पाँचवा पद है प्रसार (propagation) । प्राप्त किए हुए ज्ञान (acquired knowledge) को अन्य लोगोंं तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय (self-study) और दूसरा है प्रवचन (discourse)। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना। स्वाध्याय (Self-study) करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत (शोधन) करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात (assimilated) होता जाता है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है।चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता (छात्र ) अपने आप यह समझने लगता है कि  ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस संदर्भ के अनुसार किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना है । यही अनुसंधान (research) है । इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है ।  स्वाध्याय का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह उन्नत अध्ययन (​​advanced study) का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने अध्यन के विषय को लेकर  अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना । 

Chew and Digest the Knowledge :ज्ञान के प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता (छात्र ) को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ? गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें उडेलती है । बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता है और बछड़े को वह दूध पिलाती है ।                यह घास से दूध बनने की प्रक्रिया (Chew and Digest the Knowledge) अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है । यही वास्तव में शिक्षा है । अध्यापक का प्रवचन अध्येता के लिए अधीति/अध्यन  है । एक ओर प्रवचन और दूसरी ओर अधीति के रूप में अध्यापक और अध्येता तथा अध्यापन और अध्ययन जुड़ते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का हस्तांतरण होता है। ज्ञानप्रवाह की शुंखला बनती है। इस शृंखला की एक कड़ी अध्यापक है और दूसरी कड़ी अध्येता । पीढ़ी दर पीढ़ी यह देना और लेना चलता रहता है और ज्ञानधारा अविरल बहती रहती है ।

       हमारा अनुभव है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले सबके सब अध्यापन नहीं करते । सबके सब पढ़ाते नहीं हैं । वे अन्यान्य कार्यों में जुड़ते हैं । तब प्रवचन का स्वरूप कैसा होगा? अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों के भले के लिए प्रयुक्त करना भी प्रवचन है । ज्ञान का केवल अपने लिए उपयोग करना किसी भी प्रकार से समर्थनीय नहीं है। अपने ज्ञान का यदि किसी के लिए उपयोग नहीं हुआ तो एक प्रकार का सांस्कृतिक अपराध होगा ।

      प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वज ऋषियों के ऋण से मुक्त होता है । जब उसने स्वयं  अधीति से प्रारंभ किया था तब वह पूर्वजों के ऋण को स्वीकार कर चुका था । अब उसने जब दूसरे को ज्ञान दिया या दूसरों के लिए ज्ञान का उपयोग किया तब वह प्रवचन के माध्यम से उस ऋण से मुक्त हुआ । साथ ही उसने अध्येता को अपना ऋणी बनाया । इस प्रकार अध्यापक और अध्येता के मध्य अधीती, बोध, अभ्यास, प्रयोग (आचरण) और प्रसार, और प्रसार से फिर अधीती के रूप में ज्ञानधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है और आवश्यकता के अनुसार समय समय पर परिष्कृत भी होती रहती है । इसे ही चिरपुरातन नित्यनूतन (ancient and eternal) कहते हैं । यही सनातनता का भी अर्थ है ।

         पंचपदी की यह प्रक्रिया अत्यंत सहज होनी चाहिए । परंतु आज उसका जरा भी आकलन नहीं हो रहा है । आज कक्षा-कक्षा में अधिकांश देखा जाता है कि अधीति से सीधे प्रवचन के पद पर अध्यापक पहुँच जाता है। मध्य के बोध, अभ्यास और प्रयोग की कोई चिंता ही नहीं करता ।अध्यापक स्वयं जब अपने लिए चिंता नहीं करता तो छात्र से भी अपेक्षा नहीं करता । इसी कारण से-knowledge becomes useless and unusable.' ज्ञान निर्र्थक और निष्प्रयोज्य बन जाता है । हम देखते हैं कि कौशल हो, विवेक हो या चरित्र  हो, इन मामलों में शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति में लगभग कोई अंतर दिखाई नहीं देता । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त शिक्षाप्रक्रिया में और विशेष रूप से आचार्यों की शिक्षा में (Be and Make) नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा में पंचपदी शिक्षण पद्धति को आग्रह पूर्वक अपनाएँ । विद्यालयों के कक्षाकक्षों में होने वाला अध्ययन अध्यापन पंचपदी के रुप में चले इस प्रकार से वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करने की अति आवश्यकता है । 

यहाँ बहुत संक्षेप में पंचपदी के पाँच पदों का विवरण किया गया है । पढ़ने में तो वह बहुत ही सरल लगता है परंतु समझने में अनेक प्रकार से कठिनाई हो सकती है क्योंकि इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन की कल्पना भी आज लगभग कहीं नहीं की जाती है । ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाता है ।

लेख का उदाहरण (Example of an article) : इस लेख का ही उदाहरण लें। जो भी पाठक इसे पढ़ रहे हैं उनके लिए यह अधीति है । पढ़ने के बाद पाठक जब उस पर मनन, चिंतन, चर्चा करेंगे तब वह बोध के पद से गुजर रहा है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्मेंद्रिय से होने वाली क्रियाओं के संबंध में पांच पद किस प्रकार व्यवहार में आते हैं यह सरलता से समझ में आता है परंतु अध्ययन केवल कर्मेन्द्रियों से ही नहीं होता है। वह सदा क्रिया ही नहीं होता है। उदाहरण के लिए इतिहास, मनोविज्ञान या तत्त्वज्ञान का अध्ययन कर्मेन्द्रियों का विषय नहीं है। विज्ञान और तंत्रज्ञान (science and technology) के सिद्धांत समझना केवल कर्मेन्द्रियों का विषय नहीं है इनके बारे में पंचपदी का सिद्धांत किस प्रकार लागू होता है?

इन विषयों में अधीति और बोध तो समझ में आता है परंतु अभ्यास (practice) और प्रयोग (experiment) का पद कैसा होगा ? उत्तर यह है कि बुद्धि से और मन से ग्रहण किए जाने वाले विषयों में पंचपदी का सिद्धांत किस प्रकार काम करता है? यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है ।अभी हमने देखा कि अधीति और बोध के पद को समझना कठिन नहीं है।  अब हम देखें कि एक सिद्धांत हमारे सामने रखा जा रहा है। प्रथम तो हमने पूरा विवेचन आँखों से, मन से, बुद्धि से ग्रहण किया । हमारा ग्रहण करना निर्दोष है, प्रामाणिक है । हमें स्वयं को ही यह बात समझ में आती है। पढ़ लेने के बाद भी वह हमारे मन में रहता है और धीरे धीरे बोध परिपक्व होता है

      यदि हमने ठीक समझा कि नहीं, तो उसे परखने के लिए हम अन्य किसीसे प्रश्न भी पूछेगे। हमारा विचार प्रस्तुत भी करेंगे। इस प्रकार अपने अंतःकरण की सहायता से और अन्य लोगोंं की सहायता से या अन्य ग्रंथों की सहायता से हम सुने हुए सिद्धांतों को ठीक से समझेंगे । 

     (रटना और बुद्धि से समझने में अन्तर है) इसके बाद अभ्यास का पद आरम्भ होगा। कर्मेन्द्रियों से होने वाली क्रिया का अभ्यास - और अंतःकरण से होने वाले अभ्यास में अंतर है। कर्मेन्द्रियों की क्रियाएं देखी जाती हैं, उनका पुनरावर्तन प्रत्यक्ष होता है। अंतःकरण से होने वाला अभ्यास सूक्ष्म होता है। पंचपदी की प्रक्रिया को हम अनेक विषयों को लागू करने का अभ्यास करते हैं ।हम अनेक उदाहरण ढूंढते हैं । केवल सिद्धांत समझने का ही नहीं तो प्रक्रियाओं को समझने का कार्य भी हमारी बुद्धि कर रही है। इसके अभ्यास के द्वारा हमारा मन एकाग्र होता है और बुद्धि परिष्कृत होती रहती है। यह भी अभ्यास का ही परिणाम है। एक विषय को या मुद्दे को समझते समझते हमारी बुद्धि सक्षम, निर्दोष और परिपक्व बनती जाती है। यह हमारी उपलब्धि है।

I am best taught by teaching ! हमारे द्वारा अध्यापन का कार्य अपने अध्ययन के  कार्य को और अधिक समर्थ और अधिक प्रभावी बनता है । Our teaching makes the work of study more capable and more effective. हम भी अध्यापन का कार्य इस सिद्धांत के प्रकाश में करते हैं । छात्र अध्ययन के किस पद से गुजर रहा है इसका भी पता हमें चलता है । छात्र का बोध का पद ठीक हुआ कि नहीं इसकी और हमारा विशेष ध्यान रहता है । हमारा अध्यापन छात्रों को भी ठीक लगता है । सामान्य भाषा में इसे ही अनुभवी अध्यापक कहते हैं । यह हमारे लिए प्रयोग का पद है । 

 हम देख रहे हैं कि पंचपदी के सिद्धांत को लेकर लेखक के लिए प्रसार का पद है । लेखक प्रवचन कर रहा है। अर्थात उसने जो समझा है वह पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास वह कर रहा है जब हम भी वैसा ही करेंगे तब वह हमारे लिए प्रसार का पद होगा । परंतु केवल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही प्रसार नहीं है । वह उसका एक आयाम है । यह प्रवचन है । पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते समय लेखक स्वयं का परीक्षण करता है । वह देखता है कि उसे ठीक से प्रस्तुत करना आया कि नहीं । लेखक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के अन्य सिद्धांतों के साथ पंचपदी के सिद्धांत की तुलना करता है । वह यह प्रक्रिया किस प्रकार होती है इसका भी चिंतन करता है । पाठक भी यह करेंगे । तब लेखक और पाठक सबके लिए यह स्वाध्याय का पद होगा । इसी प्रकार से अन्य विषयों को भी समझा जाता है ।

 Herbert's Panchpadi : हर्बर्ट की पंचपदी मूल रूप से अध्यापन की पंचपदी है । Herbert's Panchpadi is basically the Panchpadi of teaching.  अध्यापक को कक्षाकक्ष में विषय किस प्रकार प्रस्तुत करना है उसका मार्गदर्शन यह पंचपदी करती है । व्यापक संदर्भ में कहे तो - "teaching-learning process of the western world" पाश्चात्य जगत की सारी अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया यांत्रिकता से ग्रस्त हो गई है। 

 दोनों पद्धतियों की तुलना शिक्षक प्रशिक्षण (teacher training) के कई पाठ्यक्रमों में हमने हर्बर्ट की पंचपदी के विषय में सुना है और पढ़ा भी है । यहाँ जो पंचपदी प्रस्तुत हुई है उसमें और हर्बर्ट की पंचपदी में क्या अंतर है ? क्या दोनों का समन्वय किया जा सकता है ? अध्यापन को कालांश (period) नामक समयसीमा में बद्ध करती है । अध्यापन कौशल को छोटे छोटे हिस्सों में बांटती है । जिस प्रकार एक यंत्र के छोटो छोटे हिस्से बनते हैं उसी प्रकार एक विषय को उपपविषयों में विभाजित किया जाता है उस के मुद्दे बनाए जाते हैं और एक 35 या 45 मिनट की समय सीमा में क्या पढ़ाना है यह तय किया जाता है । उस समय सीमा के भी हिस्से किए जाते हैं और उन हिस्सों में क्या क्या करना है किस प्रकार करना है यह निश्चित किया जाता है । हमारे पंचपदी के सिद्धांत और हर्बर्ट की पंचपदी में जो मौलिक अंतर है वह है हर्बर्ट की पंचपदी, अध्यापक की पंचपदी (Panchpadi of teachers) है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन की पंचपदी (Panchpadi of study) है । 

हर्बर्ट की पंचपदी क्रिया (action) है और हमारी पंचपदी प्रक्रिया (process) है । क्रिया कौशल (skill) के साथ जुड़ी हुई है और प्रक्रिया अर्जन (acquisition) के साथ । हर्बर्ट की पंचपदी अध्यापन कौशल को विकसित करती है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन के मनोविज्ञान को दर्शाती है । मुझे लगता है कि इस मूल अंतर को समझने से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं ।

  कवि श्रीहर्ष के नैषधिचरित नामक महाकाव्य में एक प्रकार से इसका उल्लेख आता है । नल राजा गुरुकुल में पढ़ते हैं तब उनका अध्ययन जिस पद्धति से चलता है उसे 4 पदों में बताया गया है। ये चार पद है अधीति, बोध, आचरण और प्रचार ।  हमारे देश में शिक्षा क्षेत्र में अभी विद्याभारती नामक एक अखिल भारतीय धार्मिक संगठन कार्यरत हैं। इस संगठन के प्रथम संगठन मंत्री थे श्री लज्जाराम जी तोमर । उन्होंने नैषधिचरित नामक महाकाव्य में उल्लेखित चार पदों में अपनी ओर से एक पद और जोड़ दिया । वह पद था अभ्यास का । उसके साथ यह पांच पद हुए । इस पद्धति का उन्होंने विस्तार भी किया । हम अपनी पंचपदी को उनका नाम जोड़ सकते हैं । 

अतः एक पद्धति है हर्बर्ट की पंचपदी और दूसरी है तोमर की पंचपदी । एक पाश्चात्य है एक धार्मिक । एक अध्यापक की पंचपदी है दूसरी अध्येता की । एक क्रिया है दूसरी प्रक्रिया है । एक कौशल है दूसरी अर्जन । एक का संबंध कक्षा कक्ष की गतिविधि के साथ है दूसरे का संबंध छात्र के स्वयं के प्रयास के साथ है । यह प्रयास कक्षाकक्ष तक सीमित नहीं है। यह एक निरंतर - पीढ़ी दर पीढ़ी चलनेवाली प्रक्रिया है । पूर्व का अभ्यास नए विषय के अध्ययन के लिए अधिती कार्य भी कर सकता है । पूर्व प्रयोग से नए विषय का बोध अधिक सुगमता से होता है । ज्ञानार्जन निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है इसी बात को पंचपदी दर्शाती है ।

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भारत शब्द की व्याख्या: ‘भा’ में रत है वह भारत है। भा का अर्थ है ज्ञान का प्रकाश (अर्थात बुद्धत्व या आत्मज्ञान का प्रकाश)। अर्थात ज्ञानाधारित समाज । वेद सत्य ज्ञान के ग्रन्थ हैं । वैदिक परम्परा ही भारत की परम्परा है । समाज की भी वैदिक परम्परा छोड़ अन्य कोई परम्परा नहीं है। अतः भारत और हिन्दुस्तान, धार्मिक (भारतीय) और हिन्दू, भारतीयता और हिंदुत्व यह समानार्थी शब्द हैं ।

हमें नैतिक या चरित्रवान मनुष्य क्यों बनना चाहिए ? सम्पूर्ण विश्व में शान्ति सौहार्द से भरे जीवन के लिए परस्पर प्रेम, सहानुभूति, विश्वास की आवश्यकता होती है । लेकिन ऐसा व्यवहार कोई क्यों करे इसका कारण- केवल अद्वैत वेदान्त (Oneness of Existence) और अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity-ब्रह्मत्व, पूर्णता, सिंहत्व) की अनुभूति सम्पन्न भयशून्य मनुष्य बनने और बनाने के शिक्षण से ही प्राप्त हो सकता है। अन्य किसी भी तत्वज्ञान से नहीं । सभी चर और अचर, जड़़ और चेतन पदार्थ एक परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । यही भारतीय (हिन्दू या सनातन धर्म की पहचान है । यह भारतीयता (हिन्दू) की श्रेष्ठता भी है और इसीलिये विश्व बन्धु और विश्वगुरु पद प्राप्ति का कारण भी है। यही एकात्मकता (Oneness) का सिद्धान्त निरपवाद रूप से भिन्न भिन्न जातियों के और सम्प्रदायों के सभी हिन्दू संतों ने समाज को दिया है। 

     यह परमात्मा अनंत चैतन्यवान है । यह छ: दिन विश्व का निर्माण करने से थकने वाला गॉड या जेहोवा या अल्लाह नहीं है । हिन्दू/भारतीय  विचारधारा ज्ञान के फल को खाने से ‘पाप’ होता है ऐसा मानने वाली नहीं है । या पुरूष की पसली से बनाए जाने के कारण स्त्री में रूह नहीं होती ऐसा मानकर स्त्री को केवल उपभोग की वस्तू माननेवाली विचारधारा नहीं है । यह ज्ञान के प्रकाश से विश्व को प्रकाशित करनेवाली विचारधारा है । इसमें स्त्री और पुरूष दोनों का समान महत्त्व है । इसीलिये केवल हिन्दू ही जैसे ब्रह्मा, विष्णू, महेश, गणेश, कार्तिकेय आदि पुरूष देवताओं के सामान ही सरस्वती (विद्या की देवी), लक्ष्मी (समृद्धि की देवी) और दुर्गा (शक्ति की देवी) हैं इन्हें भी पुरुष देवताओं  के ही रूप में पूजता है। भारतीय/हिंदू जन्म से ही भारतीय/हिन्दू ‘होता’ है, बनाया नहीं जाता । हिन्दू तो जन्म से होता है । सुन्नत या बाप्तिस्मा जैसी प्रक्रिया से बनाया नहीं जाता ।

[साभार https://dharmawiki.org/index.php/]-https://rashtriyashiksha.com/panchapadi-teaching-method-by-lajjaram-tomar/

[" ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রীমায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় ১৯৮৫ সালে ১৪ জানুয়ারি 'বিবেকানন্দ জ্ঞান মন্দিরের' সৃষ্টি হয়েছিল ???? ]   

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हिन्दी अनुवादक :

-विजय कुमार सिंह  

उपाध्यक्ष 

अखिल भारत विवेकान्द युवा महामण्डल 

From Bijay Kumar Singh, 

Vice President,

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, 

To,

Sri Vishwajit Chand,

Andul-Mauri, Howrah

Mobile No.-700381079

Dear brother Shri Vishwajit Chand,
Andul-Mauri, Howrah.

         I have translated the book written by you in the Bengali language - 'Ek Mahajibaner Nana Ajana Katha' into Hindi at the request of brother Shri Sushant Bandopadhyay of Andul-Mauri branch of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. Through this, I was pleasantly surprised to learn many unknown things about Acharya Shirish Chandra Mukhopadhyay, grandfather of Pujya Navnida and Bhakti-Bhushan  Bhavdev Bandopadhyay ji, a great patriot of Andul-Mauri and one of the founders of the Mahamandal. Now I feel blessed that, along with brother Jitendra Singh of Vadodara Yuva Mahamandal Gujarat, I have visited almost all the major places of Andul-Mauri mentioned in the book.

I feel extremely blessed to know the following unknown facts about Bhakti -Bhusan Bhavdev Bandopadhyay ji collected in this book, which I would like to share with you : 

1.The first youth training camp of the Mahamandal was organized on January 8, 1968, at Ariadaha in Dakshineswar, where he sent his son and two youths from Andul as camp trainees.

2. Since the 1940s, Bhavdev Babu has been the secretary of  "Andul-Mauri Vivekananda Pathchakra". And Navnida's grandfather-acharya Shirish Chandra Mukhopadhyay was the president of "Andul-Mauri Vivekananda Pathchakra".

3. This Andul city was also the place of worship of Premik Maharaj. The 'Kali Kirtan' composed by Premik Maharaj was very dear to Shri Shri Ma Sarada Devi, Swami Brahmananda, Swami Shivananda, and Pujyapad Maharaj Ji. Pujyapad Premik Maharaj was also the initiation guru of Swami Ji's mother Bhuvaneshwari Devi.

4. As a result of the Harinam Sankirtan done by Sri Chaitanya Deva on this holy land, a lot of dust was flying at that time. Seeing this, Mahaprabhu said that this is 'Anand-dhuli'. And with time, the name of this place changed from 'Anand Dhuli' to 'Andul'.

5. In India's freedom struggle, the influence of Shri Ramakrishna-Vivekananda ideology, though indirect, was very widespread. Freedom fighters were inspired by the environment there and their lives and teachings.

6. We see that while on the one hand Netaji Subhash Chandra Bose, as the Commander-in-Chief of the Azad Hind Fauj, is engaged in a battle to the death against the Allied nations in Burma, on the other hand, he is also visiting the Rangoon Ramakrishna Mission Ashram late at night.

7. Sptc was called 'Education and Review Meeting' or 'Shiksha aur Samikshar Asar' in Bengali. And Bhavdev Babu was regularly sent invitation letters to participate in this 'Education and Review Meeting'. Bhavdev Babu was an 'Individual Member' of the Mahamandal.

8 .Bhakti-Bhushan Bhavdev Bandopadhyay was initiated by Swami Shivananda Ji (Mahapurush Maharaj) One of the direct disciples of Sri Ramakrishna Paramhansa. 

9. I was very thrilled to know that the picture of 'Bird incubating an egg' printed in the Sri Ramakrishna Vachanamrit book was made by the revered Bhavadev Bandopadhyaya through Shail Chakravarti as per the instructions of Sri 'M'.

10. Whenever Bhavdev Babu used to get a book of his liking, he would first give it to his headmaster Acharya Shirish Babu to read. He also gave this book to him to read. After reading the entire book, he wrote a small note on its last page. In those notes, he writes in one place - "Apaare Kavya Sansare Kavireka Prajapatih"

11. The motto of Bodhanand Smriti Sangh was “अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” – that is, knowledge attains perfection by putting it into practice. Explaining this context very well, Pujya Navni Da has said – “Gradually developing in this realization (or enlightenment), this is the real meaning of religion.” and many more such qualities .

A person becomes pure by remembering God, saints, and great men, therefore they are called to be remembered in the morning. I hope by remembering 'Bhakti- Bhusan Bhavdev Bandopadhyay ji' we will also attain Guru-Bhakti like him .

Yours in service 

Bijay Kumar Singh  

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মূল বাঙালি পুস্তিকা : 

"এক মহাজীবনের নানা অজানা কথা "

লেখক - শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ, 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল , আন্দুল - মৌড়ি শাখা। 

উৎসর্গ : 

তোমার রাতুল চরণে সশ্রদ্ধ প্রণাম 

বিশ্বজিৎ চন্দ মহাশয়ের উক্ত মহামূল্যবান তথ্যপঞ্জী সমণ্বিত গ্রন্থখানি অনুসন্ধিৎসু মনের ফসল। ' কেঁচা খুঁড়তে সাপ ' - এমন প্রচলিত প্রবচনকে মনে রেখে বলা যায় গ্রন্থখানি মননশীল পাঠকের কাছে অত্যান্ত তাৎপর্যপূর্ণ । এই মনোগ্রাহী রচনা প্রত্যক্ষদর্শীর সানিধ্যলাভের ফলে গ্রন্থটির উৎকর্ষ বৃদ্ধি পেয়েছে ।  বিষয়বস্তুর সন্নিবেশ সুশোভন , রচনারবীতি (style)  সুষম।  অনঃবধান বশত ভুল থাকলে ক্ষমাসুন্দর দৃষ্টিতে নেবেন পাঠকরাই। অনাগত পাঠক গবেষকদের কাছে বইটি অনুপ্রেরণার ও সুগতির অন্বেষাগার পরিচয় দেবে। তাঁর উত্তরোত্তর শ্রীবৃদ্ধি কামনা করি। 

শ্রী রবীন্দ্রনাথ পাল, 

বাংলা শিক্ষক ,

পাঁচারুল শ্রীহরি বিদ্যা মন্দির 

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প্রকাশকের  নিবেদন

 - শ্রী বিশ্বনাথ বেরা 

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ ' এক মহা জীবনের নানা অজানা কথা ' শীর্ষক এক খানি পুস্তিকা রচনা করেছেন। এই পুস্তিকায় আন্দুল -মৌড়ির একজন বিশিষ্ট ব্যক্তি ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের জীবনের কয়েকটি ঘটনা ও প্রাসঙ্গিক কিছু কথা লিপিবদ্ধ হয়েছে। মহামন্ডলের ভাই বিশ্বজিৎ অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার প্রাক্তন সদস্য এবং বর্তমান মহামন্ডলের ভাবাদর্শে পরিচালিত প্যাঁচারুল বিবেকানন্দ যুব পাঠচক্রের সভাপতি। 

ইংরেজিতে একটি সহজ কথা প্রচলিত আছে - ' A man is known by the company he keeps, and the books he reads .' ভবদেব বাবু কেমন মানুষ ছিলেন তা আমরা অনুমান করতে পারি তিনি কি রকম মানুষদের সঙ্গ লাভ করেছেন , তা জেনে। স্বামীজীও বলেছেন একজন মানুষের ছোট ছোট কাজের মাধ্যমেই তাঁর চরিত্র সম্বন্ধে ধারণা করা যায়।   

ভোরের শিশিরবিন্দু যেমন সকলের অলক্ষ্যে নানা ফুলের কুঁড়িগুলিকে প্রস্ফুটিত করে তোলে, ঠিক তেমন ভাবে শ্রদ্ধেয় ভবদেব বাবু ভাবি আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের কিশোর যুবকদের অনুপ্রাণিত করতেন। তাঁর জীবনের ধারা অন্বেষণ করলে অনেক মাণিক্যের সন্ধান পাওয়া যায়। কিন্তু স্বামীজীর আদর্শে বিশেষ শ্রদ্ধাশীল এই মানুষটি সম্বন্ধে এ যাবৎকালে কোন লেখনী ধারণ করা হয়নি। আমরা আমাদের ভাই শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ কাছে বিশেষ ভাবে কৃতজ্ঞ এই জন্যে যে তিনি অবহেলিত এই কাজটির গুরুদায়িত্ব স্বেচ্ছায় নিজে স্কন্ধে তুলে নিয়েছেন। আমরা তাঁর কাছে আর কৃতজ্ঞ এইজন্যে যে তিনি পুস্তকটি প্রকাশনার দায়িত্ব অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার উপর অর্পণ করেছেন।   

পরম পূজ্যপাদ শ্রীমৎ স্বামী আত্মপ্রিয়ানন্দ মহারাজ ইতিহাসকে দার্শনিক ভাবে দেখার প্রয়োজনীয়তার কথা বলেছেন। (উদ্বোধন , বৈশাখ ১৪২৭,পৃ -২৬৭)বিশ্বজিৎ -এর লেখার মধ্যে সেই প্রচেষ্টা পরিলক্ষিত হয়।

পরিশেষে রবীন্দ্রনাথের ভাষাকে অনুসরণ করে বলতে পারি ঘরের পাশে ধানের শিয়ের উপর ঝরে পড়া শিশির বিন্দুর মধ্যে যেমন অনাবিল সৌন্দর্যের সন্ধান পাই , তেমনি এই অখ্যাত মানুষটির মধ্যেও মহামানব সুলভ গুণাবলী দেখে আমরা মহামানব দর্শনের আনন্দ অনুভব করি। 

- শ্রী বিশ্বনাথ বেরা 

সম্পাদক ,

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল 

আন্দুল -মৌড়ি শাখা

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অনুভূতি 

ঠাকুর মা স্বামীজিকে প্রণাম জানিয়ে বইয়ের মুদ্রক হিসাবে সামান্য দুই এক কথা বলতে চাই। বইয়ের প্রকাশক আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডের পক্ষ থেকে আমাকে এই বইটি ছাপাবার দায়িত্ব দেওয়া হয়। কিন্তু অতিমারীর কারনে বই ছাপার কাজে অনেক দেরি হয়। এই জন্যে আমাদের সবাইকে অনেক ধৈর্য ধরতে হয়।  

প্রসঙ্গত বলা যায় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের কনিষ্ঠ পুত্র শ্রদ্ধেয় শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় আমার গৃহ শিক্ষক ছিলেন। সেই সূত্রে তাঁর বাড়িতে রোজই যেতে হত। সেখানে দেখতাম পরমপূজনীয় শ্রদ্ধেয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় তাঁর পড়ার ঘরে বসে তাঁর লেখা -পড়ার কাজে মগ্ন হয় থাকতেন। তিনি অল্পভাষী হলেও তাঁর অকৃত্তিম স্নেহ আমরা পেয়েছি। নিজের গাম্ভীর্য়কে সরিয়ে শিশুর মতই আমাদের স্তরে নেমে এসে আমাদের সঙ্গে মিশতেন। 

তখন অল্প বয়স বলে তাঁর ব্যক্তিত্বকে পরিমাপ করার ক্ষমতা আমার ছিলনা। কিন্তু বই ছাপার দায়িত্ব নিয়ে আমি বুঝতে পারলাম আমার সৌভাগ্য কতটা ছিল যে , কিশোর বয়সেই এমন এক মানুষের দর্শন পেয়েছি - যিনি স্বয়ং মা সারদাদেবী , স্বামী শিবনান্দ , স্বামী অভেদানন্দ প্রমুখ মহাপুরুষের দর্শন পেয়েছেন।   

এবার আসি শ্রদ্ধেয় বিশিষ্ট চিত্র শিল্পী স্বর্গীয় শৈল চক্রবর্তীর কথায়। তাঁর সঙ্গে আমার দেখা হয়েছিল খুব সম্ভবত ১৯৭৯ সালে কলকাতা বইমেলায়। তাঁকে আমার প্রণাম করার সৌভাগ্য হয়ে ছিল। তাঁর সাথে আলাপ করিয়ে দিয়েছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের জ্যেষ্ঠ পুত্র আমার শিক্ষক স্বর্গীয় বিশ্বনাথ বন্দোপাধ্যায়। আমি জেনে অত্যন্ত রোমাঞ্চিত হলাম যে , শ্রীশ্রী রামকৃষ্ণ কথামৃত গ্রন্থের প্রচ্ছেদে 'পাখির ডিমে তা দেওয়া ' ছবিটি পূজনীয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয় শ্রীমর নির্দেশে শৈল চক্রবর্তীকে দিয়েই আঁকিয়ে ছিলেন। সুতরাং আমি অত্যন্ত সৌভাগ্যবান যে আমি পূজনীয় ভবদেব বন্দোপাধ্যায় ও শৈল চক্রবর্তী মহাশয়ের পাদস্পর্শ করার সৌভাগ্য লাভ করেছি।   

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দের লেখাগুলিকে বইয়ের আকারে মুদ্রণ করতে করতে বুঝতেও পারিনি, যে কখন মনের অজান্তে ওই কথাগুলি আমার মনের মধ্যে মুদ্রিত হয়ে গেছে। 

বিনীত -

শ্রী দিব্যেন্দু ভাণ্ডারী  

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।।ভূমিকা।। 

স্বামী বিবেকানন্দ তাঁর 'ভারতের ভবিষ্যৎ ' শীর্ষক বক্তৃতায় বলেছেন - " অতীতের গর্ভেই ভবিষ্যতের জন্ম "। আর অতীত কথা থেকেই আমার কলম ধরার ইচ্ছা জাগে কারন , আমি ইতিহাসের ছাত্র।  

সেই ১৯৮৯ সাল থেকে অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের আন্দুল -মৌড়ি শাখার শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় সঙ্গে পরিচয়। ব্যক্তিগত আলাপ চারিতায় তাঁর কাছে আন্দুল -মৌড়ির অতীত দিনের অনেক কাহিনী শুনতাম। অনেক কাহানির সঙ্গে তাঁর স্বর্গত পিতৃদেব ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়ের কথা এসে পড়ত। মাঝে মাঝে মনে হত অনেক ঘটনার প্রধান সাক্ষী যেন ভবদেববাবু-ই।  

ঐ সমস্ত আলোচনার মধ্যেই প্রথম শুনি শ্রদ্ধেয় নবনীদার ছাত্র জীবনের কথা , নবনীদার পিতামহ প্রবাদপ্রতিম আচার্য শিরিশচন্দ্রের জীবনের নানা ঘটনা এবং স্বামী বিবেকানন্দের পরিবারের সঙ্গে আন্দুলের যোগাযোগের কথা। মুগ্ধ হয়েছি জেনে -কিভাবে ভবদেব বাবু , দেশমাতৃকার মুক্তির জন্য বিপলবীদের কাজে ' কাঠ বিড়ালীর ভূমিকা ' নিয়েছিলেন , আরও শিহরিত হয়েছি - শ্রীশ্রী মা সারদাদেবীর দর্শনের স্মৃতি অর্থাৎ স্বামীজীর কথায় জ্যান্ত দূর্গা দর্শনের কথা জেনে , পরম পূজনীয় মহাপুরুষ মহারাজ স্বামী শিবানন্দ , স্বামী অভেদানন্দ মহারাজের সঙ্গে ভবদেব বাবুর সম্পর্কের কথা, কথামৃত প্রণেতা শ্রীম (মাস্টার মশাই) এর স্নেহভাজন হয়ে ওঠার কাহিনী ইত্যাদি মনে যেন তীর্থ ভ্রমনের পুন্য অনুভূতি এনে দেয়। মনের এই অনুভূতিই ভবদেব বাবুর জীবনের কিছু অজানা ঘটনা লিপিবদ্ধ করার প্রেরণা যোগায় - যার ফলশ্রুতি এই পুস্তিকা। 

শ্রী নবনীহরণ মুখোপাধ্যায় মহাশয় তাঁর লেখা প্রবন্ধ - ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র কার্যে মহত্ব - এ মন্তব্য করেছেন " ছোট ছোট কাজের মধ্যে দিয়ে যে মহাপ্রাণ মানুষেরা মহত্বের পরিচয় দেন তাঁরা হয়তো আমাদের মতো সাধারণ মানুষদের দৃষ্টি এড়িয়ে যান।  কিন্তু প্রকৃত বিচারে তাঁরাই সত্যিকারের মহৎ। এইসব মানুষদের নাম হয়তো পৃথক ভাবে ইতিহাসের পাতায় লেখা থাকে না। কিন্তু তাঁদেরই মিলিত কর্ম সাধনায় গড়ে ওঠে জাতির ভবিষ্যৎ ইতিহাস। " ভবদেব বাবুর জীবনের কয়েকটি ঘটনার কথা লিপিবদ্ধ করার সময় শ্রদ্ধেয় নবনীদার উক্ত কথাগুলো আমার বিশেষ ভাবে মনে পড়ছিল।

ভবদেব বাবুর জন্ম হাওড়া জেলার  আন্দুল -মৌড়ি পাশেই পুইঁল্ল গ্রামে ১৯০৬ সালের ২রা মার্চ এবং তিনি শেষ নিঃশ্বাস ত্যাগ করেন ১৯৮৭ সালের ২১শে জানুয়ারি।  তাঁর পিতা হরিপদ বন্দোপাধ্যায় ছিলেন নিষ্ঠাবান ব্রাহ্মণ , মাতা হরিদাসী দেবী ছিলেন ভক্তিমতী স্নেহপরায়না গৃহবধূ।  

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের সহ সভাপতি শ্রদ্ধেয় শ্রী রনেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় মহাশয়ের উপদেশ ও আশীর্বাদ আমাকে বিশেষ ভাবে অনুপ্রাণিত করেছে। এবং অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের সাধারণ সম্পাদক শ্রী বীরেন্দ্র কুমার চক্রবর্তী মহাশয় ও সহ -সাধারণ সম্পাদক শ্রদ্ধেয় শ্রী দীপক কুমার সরকার মহাশয়ের আশীর্বাদ পত্র দুটি এই পুস্তিকার বিশেষ সম্পদ।  এছাড়া মহামন্ডলের কেন্দ্রীয় সংগঠনের সদস্য শ্রদ্ধেয় শ্রী মিন্টু পদ দাস শ্রী তপন প্রসাদ চট্টোপাধ্যায় এবং আন্দুল -মৌড়ি শাখার সকল সদস্যবৃন্দ আমাকে নানা ভাবে সাহায্য করেছেন। আমি তাঁদের সকলের কাছে বিশেষ কৃতজ্ঞ।  

বই লেখার কাজ শুরু হয়েছিল ২০১৭ সালের জুলাই মাস থেকে। এই লেখায় যিনি গনেশের ভূমিকা পালন করেছিলেন - তিনি হলেন বন্ধুবর স্বর্গীয় উৎপল কাঁড়ার। গুরুতর অসুস্থ হওয়া সত্ত্বেও তিনি এই কাজে সাহায্য করেছিলেন। শ্রীশ্রী ঠাকুরের কাছে তাঁর আত্মার শান্তি কামনা করি। পাণ্ডুলিপি সংশোধন করে দিয়ে ঋণী করেছেন শ্রদ্ধেয় অগ্রজপ্রতিম শিক্ষক শ্রী রবীন্দ্রনাথ পাল মহাশয় এবং মহামন্ডলের ভাই শ্রী সতীনাথ পাল

শ্রীশ্রী ঠাকুর -মা-স্বামীজীর প্রতি শ্রদ্ধাশীল ব্যক্তিদের উদ্দেশ্যে এই লেখা উৎসর্গ করলাম। তাঁদের ভাল লাগলেই আমার এই শ্রম সার্থক মনে করবো। এই লেখার মধ্যে সংগ্রহীত তথ্যাদি ভাবি গবেষকদের আগ্রহ বৃদ্ধি করবে এই আশারাখি। 

পরিশেষে আমার গর্ভধারিনী মা গৌরীরানী চন্দের শ্রীচরণে প্রণাম জানাই। এই বই লেখার পিছনে তিনি আমার প্রধান প্রেরণা দাত্রী।

অলমিতি বিস্তরেন-

শ্রী বিশ্বজিৎ চন্দ  

আন্দুল -মৌড়ি, হাওড়া 

মো নম্বর -৭০০৩৮১০৭৯   

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[1.]

এক মহাজীবনের অজানা কথা 

The unknown story of a great life

       প্রত্যক্ষদর্শীর প্রেক্ষাপটে 

[ In the eyewitness context]

যেমন নাম না জানা অসংখ্য ফুল হিমালয়ের অপরিসীম সৌন্দর্যকে ফুটিয়ে তোলে তেমনই ভাবের জগতে আমরা দেখি , যে সমস্ত মহান চরিত্রবান মানুষের দ্বারা মানব সমাজ সমৃদ্ধ হয়েছে , রামচন্দ্রের সেতু বন্ধনে কাঠবেড়ালির ন্যায় তারা সম্পূর্ণ নিঃস্বার্থভাবে তাদের ব্রতপালনে নিজেদের বিলিয়ে দিয়েছেন।  

আমাদের আলোচনার যিনি কেন্দ্রবিন্দু তিনি হলেন পুঁইলয়া আন্দুল -মৌড়ি নিবাসী ভবদেব বন্দোপাধ্যায় মহাশয়। তিনি স্বামী বিবেকানন্দের আদর্শে জীবনের ঝুঁকি নিয়ে দেশের কাজে অংশগ্রহণ করেছিলেন , কেবল শুধু তাই নয় , তিনি এমন কিছু মহান জীবনের সংস্পর্শে এসেছিলেন যা আগুনের পরশমনির মতো তাঁর জীবনকে আলোকিত করেছিলো : এঁদের মধ্যে ছিলেন আচার্য শিরিষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়, কথামৃত প্রণেতা শ্রীম , স্বামীজীর ভ্রাতা ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত , স্বামী অভেদানন্দ মত প্রমুখ বিশিষ্ট ব্যক্তিবর্গ।   

সময়টা ছিলো ১৯৬৭ সাল। কলকাতার এন্টালী অদ্বৈত আশ্রমের কতিপয় সন্যাসীর অনুপ্রেরণায় ও শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়ের একান্তিক প্রচেষ্টায় তৈরি হল অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল।  

এই প্রতিষ্ঠানের শুভ সূচনার দিনটিতে উপস্থিত ছিলেন শ্রী ভবদেব বন্দোপাধ্যায়। ১৯৬৮ সালের ৮ই জানুয়ারি দক্ষিনেশ্বরের আড়িযাদহে আয়োজিত মহামন্ডলের প্রথম শিবিরে নিজের পুত্রকে এবং আন্দুলের দুই যুবককে শিবির শিক্ষার্থী হিসাবে পাঠান। এরপর তিনি প্রতি বছরই সচেষ্ট থাকতেন যাতে নতুন নতুন যুবকরা মহামন্ডল আয়োজিত শিবিরে যোগদান করে। শিবির থেকে ফিরে আসার পর যুবকদের নিয়ে শিবিরের নানা অভিজ্ঞতা জানার জন্যে পুঁইলয়া নিবাসী সূর্য নারায়ন কল্যাণীর বাড়িতে মিলিত হতেন। এভাবে প্রায় বছর দশেকের মধ্যে মহামন্ডলের ভাবের সাথে পরিচিত বেশ কিছু যুবক তৈরী হল এবং সবার অলক্ষ্যে তৈরী হল ভাবি আন্দুল -মৌড়ি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের ভিত্তিভূমি। 

প্রসঙ্গতঃ বলা যায় যেমন প্রদীপ জ্বালানোর পূর্বে সলতে পাকানোর এক অধ্যায় থাকে , ঠিক তেমনই স্বামীজীর আদর্শে যুব সংঠন তৈরির অভিজ্ঞতা ছিল ভবদেব বাবুর। ১৯৪০ এর দশকে আন্দুল -মৌড়িতে আন্দুল-মৌড়ি বিবেকানন্দ পাঠচক্র ' ও 'বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ ' নামে দুটি সংগঠনের সম্পাদক ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় এই বিবেকানন্দ পাঠচক্রের সভাপতি ছিলেন আচার্য শিরিষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়। আবার বোধানন্দ স্মৃতি সংঘের সভাপতি ছিলেন উদ্বোধন পত্রিকার সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দ। 

আচার্য শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায় ছিলেন স্বামীজীর প্রত্যক্ষ স্পর্শে অনুপ্রাণিত ১৮৯৭ সালে ৭ই মার্চ ঠাকুরের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজি দক্ষিণেশ্বরে যে সংক্ষিপ্ত ভাষণ দেন শিরীষ চন্দ্র ছিলেন তার প্রত্যক্ষ শ্রোতা। এই আচার্যদেব ছিলেন ভক্ত ভৈরব গিরিশচন্দ্র ঘোষের অত্যন্ত ঘনিষ্ঠ। 

আচার্য শিরীষ চন্দ্রের অন্যতম প্রিয় ছাত্র ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় , আচার্যদেব ছিলেন এমন এক সর্বজন শ্রদ্ধেয় শিক্ষক যার ছিল জুহরীর চোখ। তিনি তাঁর প্রিয় ছাত্রের সাংগঠনিক প্রতিভাকে অনুধাবন করে তাকে  যুব পাঠচক্রের সম্পাদকের গুরুদায়িত্ব দেন।   

আচার্য শিরীষ চন্দ্র ভবদেব বাবুকে বিশেষ আশীর্বাদ পত্র দেন ১০ই জুন ১৮৬০। এই পত্রে তিনি ভবদেব বাবুকে 'ভক্তিভূষণ ' উপাধি প্রদান করেন। এই স্মারক পত্র এবং ১০ই বৈশাখ ১৩৬৬ তারিখে (এপ্রিল ১৯৬৮) ভবদেব বাবু কে লেখা একটি ব্যক্তিগত পত্র আমাদের হাতে এসেছে। পত্রদুটির ফোটোকপি আমরা পাঠকের উদ্দেশ্যে নিবেদন করলাম। আচার্য শিরীষ চন্দ্র তাঁর ছাত্র ভবদেব কে কিরূপ স্নেহ করতেন তাঁদের শিক্ষক-ছাত্র সম্পকের গভীরতা ও ব্যাপ্তি কোন স্তরের ছিল তা পাঠক একটু মনোনিবেশ করলেই বুঝতে পারবেন। 

অবহেলার ধুলো এই মহান মানুষটির স্মৃতির উপর পড়েছিল। সেই ধুলো সরিয়ে তাঁর অবদানকে তুলে ধরাই হল আমাদের উদ্দেশ্য। যদি সকলের কাছে এই বই গ্রহণীয় হয় তাহলে এই প্রচেষ্টা সার্থক হয়েছে বলে মনে করবো। 

NB[2 letters photocopy ]

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[2.]

" সাবধান তোকে কেউ নজরে রাখছে " 

"Be careful someone is watching you"

মহাপুরুষদের সঙ্গমস্থল 

'Nabadwip of the South' Andul : 

[Meeting place of great men]

'দক্ষিণের নবদ্বীপ ' আন্দুল কেবল আচার্যদেবের কাছে নয় , আমাদের প্রিয় নবনীদার কাছেও এক অত্যন্ত পবিত্র স্থান ছিল।এই আন্দুল ছিল প্রেমিক মহারাজের সাধনাস্থল। এই প্রেমিক মহারাজের রচিত 'কালী কীর্তন ' -ই শ্রীশ্রী মা সারদাদেবী , স্বামী ব্রহ্মানন্দ , স্বামী শিবানন্দ প্রমুখ পূজ্যপাদ মহারাজদের কাছে অত্যন্ত প্রিয় ছিলো। 

পূজ্যপাদ প্রেমিক মহারাজ ছিলেন স্বামীজীর মা ভুবনেশ্বরী দেবীর দীক্ষাগুরু। কথিত আছে স্বামীজীর বাবা বিশ্বনাথ দত্তের দেহ ত্যাগের পর অশৌচ অবস্থায় নরেন্দ্রনাথ এখানে এসেছিলেন। আবার , এই আন্দুলের সাথে মহাপ্রভু শ্রী চৈতন্য দেবের জীবনও জড়িত। শ্রী চৈতন্যদেব পদব্রজে জগন্নাথধামে যাবার সময় এই পবিত্র ভূমিতে হরিনাম সংকীর্তন করেন এবং ফলে ওই সময় খুব ধুলো ওড়ে, তা লক্ষ্য করে মহাপ্রভু বলে ওঠেন এতো 'আনন্দধূলি।' কালে এই 'আনন্দধূলি' থেকেই এই স্থানের নাম হয় আন্দুল।  

এই আন্দুল কেবল আধ্যাত্মিকতার স্থানই ছিলো না , অগ্নিযুগের বিপ্লবীদের ব্রিটিশ বিরোধী কার্যকলাপের কেন্দ্রস্থলে পরিণত হয়েছিলো। বিপ্লবীরা এখানে তাদের গোপন কাজ-কর্ম পরিকল্পনার ব্যাপারে আলোচনা করতে আসতেন। স্কুলে পড়ার সময় কিশোর ভবদেবের মনে দেশপ্রেমের আগুন জ্বলে দেন আচার্য শিরীষ চন্দ্র। তিনি তাঁর ছাত্রদের মনে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলনের কালে স্বদেশ প্রেমের চেতনা জাগিয়ে তোলেন।  সরকারি শাস্তির হুমকি অগ্রাহ্য করে স্কুলের ছাত্রদের নিয়ে 'বন্দে মাতরম' সঙ্গীত গাওয়াতেন। বিলেতি কাপড় এনে স্কুলে পোড়ানো হয়েছিল।  

এই খবর ইংল্যান্ডের সংবাদপত্রে প্রকাশিত হয়। পূর্ব ব্রিটিশ সরকার এই খবর পেয়ে লালবাজার থেকে আচার্যদেবকে গ্রেপ্তারের জন্যে আরেস্ট ওয়ারেন্ট নিয়ে এক পুলিশ অফিসারকে  পাঠায়। কিন্তু সেই পুলিশ অফিসার আচার্যদেবের ব্যক্তিত্বে মুগ্ধ হন। এছাড়া, বিদ্যালয়ের প্রশংসনীয়  শৃক্ষলা এবং কোনো সরকার বিরোধী কার্য-কলাপের প্রমান না পেয়ে তিনি তাঁকে গ্রেপ্তার না করে ফিরে আসেন। ফিরে আসার সময়ই ই পুলিশ অফিসার বলেছিলেন , " আমি ব্রিটিশ বিরোধী আন্দোলনকারীদের সম্পর্কে কোন দুর্বলতা দেখাই না, অথচ এক্ষেত্রে আমাকে দেখাতেই হচ্ছে। "  

প্রসঙ্গতঃ বলা যায় এই বিদ্যালয় এখনও নানা ঐতিহাসিক ঘটনাপঞ্জির সাক্ষ্য বহন করে চলেছে। কথিত আছে ১৮৫৭ সালে মহাবিদ্রোহের সময় বিদ্রোহীদের নেতা নানা সাহেব আন্দুলের গোলাপবাগে আত্মগোপন করেছিলেন। তাঁকে ধরতে কোম্পানির এক পুলিশ অফিসার এসেছিলেন। কিন্তু রাত্রি হয়ে যাওয়ায় তিনি এই বিদ্যালয়েই প্রধান শিক্ষকের আতিথ্য গ্রহণ করেন। সেই অফিসার ইংলেন্ড ফিরে গিয়ে সেখানকার এক নামি পত্রিকায় এই বিদ্যালয়ের প্রশংসা করে এক পত্র লেখেন। 

কিশোর ভবদেবও তাঁর রোল মডেল আচার্য দেবের দেশপ্রেমের আদর্শে অনুপ্রাণিত হয়ে তার সাধ্যমত বিপ্লবী আন্দোলনে ঝাঁপিয়ে পড়েন। তাঁর কাজ ছিল বিপ্লবীদের গোপন চিঠি -পত্রের আদান-প্রদান করা এবং এই কাজের জন্যে তাকে নির্বাচিত করা হয় যাতে পুলিশের কোনোরূপ সন্দেহ না হয়। 

        এই রকমই একবার এক গুরুদাইয়িত্ব পড়ে কিশোর ভবদেবের উপর। ঠিক ছিল সেই সময় উনসানি স্টেশন (বর্তমান মৌড়িগ্রাম স্টেশন) থেকে বিপ্লবী বিপিন বিহারি ট্রেনের শেষ কামরায় থাকবেন ট্রেন থেকে নামা পর দেখবেন একটি অল্প বয়সী কিশোর বালক দাঁড়িয়ে আছে। ছেলেটি হাঁটা শুরু করলে কোনো কথা না বলে একটু দূরত্ব বজায় রেখে তিনি ছেলেটিকে অনুসরণ করবেন এবং নির্দিষ্ট স্থানে পৌঁছে যাবেন। কিশোর ভবদেব অত্যন্ত ঝুঁকি নিয়ে সেই কাজটি সুসম্পন্ন করেন। প্রসঙ্গত বলা যায় বিপিন বিহারী গাঙ্গুলিকে সেই সময় ব্রিটিশ পুলিশ বাজ পাখির মতো হন্যে হয় খুঁজে বেড়াচ্ছিল। স্বাভাবিক ভাবেই আমরা অনুমান করতে পারি কিশোর ভবদেব কতটা জীবনের ঝুঁকি নিয়ে কাজটি করেন। ধরা পড়লে ব্রিটিশ পুলিশের নির্যাতন তো ছিলোই , উপরন্ত নিশ্চিত সশ্রম কারাদণ্ডের মাধ্যমে তার ছাত্রজীবনের অকাল যবনিকা পড়ার আশঙ্কাও ছিল।পরবর্তী জীবনে তরুণ ভবদেব কে কর্মজীবনে প্রবেশ করার পরেও বিপদকে অগ্রাহ্য করে দেশের কাজে অংশগ্রহণ করতে দেখা গেছে। 

অনেক সময় বিপ্লবীরা বেলুড় মঠে গোপনে ঠাকুর-মা -স্বামীজীর মন্দিরে আশীর্বাদ নিতে আসতেন। তরুণ ভবদেবও বিপ্লবীদের সাথে দেখা করতে সেখানে যেতেন। একবার স্বামীজীর মন্দিরের পিছনে বসে গঙ্গার দিকে মুখ করে তরুণ ভবদেব তাঁর এক বন্ধুর সাথে গোপন পরামর্শে ব্যস্ত ছিলেন।  

সেই সময় এক ছদ্মবেশী সি.আই.ডি অফিসার মন্দিরের দক্ষিণ দিক থেকে তাদের সমস্ত কথা শুনছিলেন। এ অফিসার এমনভাবে দাঁড়িযে ছিলেন যাতে ভবদেব বাবু তাঁকে দেখতে না পান , অথচ তাঁর কথা সমস্ত শুনতে পাচ্ছিলেন। সেই সময় মাঠে পায়চারি করছিলেন উদ্বোধনের সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দজী মহারাজ। তাঁর কাছে সমস্ত ব্যাপারটিই পরিষ্কার হয় গেল। মহারাজের কাছে ভবদেব বাবু ছিলেন অত্যন্ত প্রিয়। তিনি তার বিপদের আশঙ্কা করলেন। সন্ধ্যা আরতির পর মঠ থেকে চলে আসার সময় ভবদেব বাবু মহারাজকে প্রণাম করতে গেলে , মহারাজ তাকে বললেন -'সাবধান তোর উপর কেউ নজর রাখছে। ' এই বলে তাকে বিকালের ঘটনাটা বললেন।  এছাড়া ভবদেব বাবুকে মহারাজ নির্দেশ দিলেন যত তাড়াতাড়ি সম্ভব ট্রান্সফার নিয়ে কলকাতার বাহিরে চলে যেতে। তাঁর উপদেশে কতটা ঠিক ছিল তা বোঝা যায় এই ঘটনার কয়েক দিনের মধ্যেই , পুলিশ তার খোঁজে তার কর্মস্থল রেলের অফিসে হানা দিয়েছিল। এরপরই ভবদেব গুরুজনদের নির্দেশে ট্রান্সফার নিয়ে জামালপুর চলে যান। বস্তুত সাদা পোশাকের পুলিশ যে বেলুড় মঠে থাকতেন , তা শুধু জনশ্রুতিই নয় , গোয়েন্দা রিপোর্টে , ঐতিহাসিকদের সংগৃহিত তথ্যেও তা স্বীকৃত। বিপ্লবীদের উপর শ্রীরামকৃষ্ণের ভাবধারা ও অন্যান্য ধর্মীয় গ্রন্থের প্রভাব সিডিসন কমিটির রিপোর্টে পাই। 

        ভারতের মুক্তি সংগ্রামে শ্রীরামকৃষ্ণের প্রভাব পরোক্ষ হলেও অপরিসীম। মুক্তি সংগ্রামীরা তাঁর পরিমন্ডল থেকে প্রেরণা পেয়েছেন , অনুপ্রাণিত হয়েছেন তাঁর জীবন ও বাণী থেকে। শ্রীরামকৃষ্ণ ছিলেন শক্তি সাধনায় সিদ্ধ , সেজন্যে বিপ্লবীরা আগ্রহী ছিলেন শ্রীরামকৃষ্ণের জীবন ও বাণী সম্বন্ধে তৎকালীন গোয়েন্দা রিপোর্ট থেকে উদাহরণ তুলে দিলে বোঝা যাবে অনুশীলন সমিতির কর্ম পদ্ধতিতে সদস্য ভুক্তির জন্যে বিবেকানন্দের রচনাবলী অবশ্য পাঠ্য রূপে বিবেচিত হত। 

কথামৃত, গীতার মত ধর্মীয় গ্রন্থ কেন বিপ্লবীরা পড়তেন , তাঁদের লাইব্রেরিতে রাখতেন দক্ষ ব্রিটিশ প্রশাসক এবং ঝানু গোয়েন্দারা সে সম্পর্কে বিশ্লেষণ করতেন।  বেঙ্গল ভলেন্টিয়ার্স -এর মহানায়ক মহাবিপ্লবী হেমচন্দ্র ঘোষকে স্বামীজী নিজে বলেছিলেন , 'ঠাকুর তাঁকে বলেছেন ' - " মনে রাখিস ইংরেজরাই এদেশের সর্বনাশ করেছে। " কথামৃত যে বিপ্লবীদের প্রিয় গ্রন্থ ছিল তা সরকারি নথিভুক্ত গোয়েন্দা রিপোর্টে বার বার উল্লেখ করা হয়েছে। ব্রিটিশ প্রশাসক জেমস ক্যাম্বেলকার তাঁর " Political troubles in India (1907-1917) "    গ্রন্থে লিখছেন -- " ..... সহজেই দেখা যেত , এসব পুস্তক পাঠে কিভাবে একজন যুবককে সহজে ও সরাসরি ধর্ম ও দর্শনের ধর্মীয় গ্রন্থ পাঠ থেকে রিভলবর ও বোমায় নিয়ে যেত। "  

আর্ল অফ রোলান্ডস তাঁর " দা হার্ট অফ আর্যাবর্ত " গ্রন্থে তরুণ বিপ্লবীদের উপর রামকৃষ্ণ-বিবেকানন্দের প্রভাব উল্লেখ করেছেন। ধুরন্ধর গোয়েন্দা কর্তা চার্লস টেগার্ট বিপ্লবী ও অন্যান্য স্বাধীনতা সংগ্রামীদের উপর রামকৃষ্ণ -বিবেকানন্দের ও রামকৃষ্ণ মিশনের প্রভাব সম্পর্কে এক গোপন রিপোর্ট দেন (২৪/০৪/১৯১৮) শ্রীশ্রী রামকৃষ্ণ কথামৃত ও বিবেকানন্দের কর্মযোগ থেকে পাঠ করে কিভাবে সদস্য সংগ্রহ করা হত সে ব্যাপারেও তিনি রিপোর্ট দেন। বরিশাল ষড়যন্ত্রের মামলার অন্যতম নেতা দেবেন্দ্রনাথ ঘোষের বাড়িতে একটি বিবেকানন্দের পাঠাগার ছিল বলে টেগার্ট রিপোর্ট দিয়েছেন। তাঁর রিপোর্টে আরো পাওয়া যায় যে শ্রীরামকৃষ্ণ , বিবেকানন্দ এবং রামকৃষ্ণ মিশন শুধু ভারতে নয় , বিদেশেও বিপ্লবীদের উপর প্রভাব বিস্তার করেছিল। 

প্রথম মহাযুদ্ধের (১৯১৪) আগে শ্রীরামকৃষ্ণ ভাবধারা প্রচারের জন্যে পূর্ববঙ্গে শ্রীরামকৃষ্ণদেবের আদর্শে অসংখ্য আশ্রম গড়ে ওঠে। এদের বেলুড় মঠের অনুমোদন না থাকলেও এখানে শ্রদ্ধার সাথে পূজিত হতেন শ্রীরামকৃষ্ণ এবং তাঁর আদর্শকে সামনে রেখেই তরুণরা মাতৃভূমি শৃঙ্খল মোচনের শপথ নিত। টেগার্টের রিপোর্ট থেকে জানা যায় বিপ্লবীরা সন্ন্যাসীর ছদ্মবেশ ধারণ করে সরকারের বিরুদ্ধে সংগ্রামের প্রস্তুতি নিত। ১৯১৩ খ্রিস্টাব্দে বরিশাল ষড়যন্ত্র মামলার গোয়েন্দা তদন্ত থেকে জানা যায় বিপ্লবীরা সন্ন্যাসীর ছদ্মবেশ ধারণ করে সরকারের বিরুদ্ধে সংগ্রামের প্রস্তুতি নিত। ১৯১৩ খ্রিষ্টাব্দ বরিশাল ষড়যন্ত্র মামলার গোয়েন্দা তদন্ত থেকে জানা যায় পূর্ববঙ্গে বহু প্রাইভেট রামকৃষ্ণ আশ্রমের কথা যাঁরা বৈপ্লিবীক কাজের সঙ্গে সরাসরি যুক্ত।  

রামকৃষ্ণ মিশনের সাথে বিপ্লবীদের সম্পর্ক একসময় এত ঘনিষ্ঠ হয়ে ওঠে যে , সরকার এই সময় রামকৃষ্ণ মিশনকে বে -আইনি ও বেলুড় মঠকে বন্ধ করে দেওয়ার কথা ভাবেন। প্রখ্যাত ঐতিহাসিক রমেশচন্দ্র মজুমদার লিখেছেন " একদিন একটি গোপনীয় ফাইলের উপর লেখা আছে দেখলাম , 'রামকৃষ্ণ মিশন। ' আমি একটু আশ্চর্য বোধ করে ফাইলটি আমার ঘরে নিয়ে গিয়ে পড়তে লাগলাম। ফাইলের সর্বনিম্ন তলে একটি রিপোর্ট আছে -তাতে বিস্তৃত ভাবে বর্ণিত হয়েছে যে , রামকৃষ্ণ মিশনের ৮/১০ জন সাধু পূর্বাশ্রমে বিপ্লবী ও গুপ্ত সমিতির সদস্য ছিলেন এদের বর্তমান ও আগেকার নাম দেওয়া আছে। এইসব বিবরণের পড়ে কয়েকজন পদস্থ ইংরেজ কর্মচারী মন্তব্য করেছেন। সর্বশেষে এই সব মন্তব্যের সংক্ষিপ্ত বিবরণ দিয়ে সেক্রেটারি বড়লাটের কাছে এই ফাইল পাঠাবার সময় প্রস্তাব করলেন যে, বেলুড় মঠ কে বে -আইনি ঘোষণা করা হোক। এই সব মন্তব্য পড়ে বড়লাট ফাইলে নোট দিলেন যে , বেলুড় মঠ কে নিষিদ্ধ করলে আন্তর্জাতিক স্তরে বিশেষ করে আমেরিকার বিরাগভাজন হতে হবে। তাই বেলুড়মঠ কে নিষিদ্ধ না করে সেখানে সাদা পোশাকের কয়েকজন পুলিশ কর্মচারীকে নিযুক্ত করা হোক। "   বলাবাহুল্য মিস মাইক্লাউড গোপন সূত্রে খবর পেয়ে বড়লাটকে গিয়ে বোঝান - বেলুড়মঠকে নিষিদ্ধ করলে গোটা য়ুরোপ বিশেষ করে আমেরিকায় তীব্র প্রতিক্রিয়া হবে , যা ব্রিটিশ সরকারের স্বার্থের পক্ষে অত্যন্ত ক্ষতিকর হবে। 

পুলিশের নজর এড়াতে বাংলার বিপ্লবীরা রামকৃষ্ণ মিশনের শাখা গুলিকে " রিভ্যুলুশনরী এজেন্সি " হিসাবে ব্যবহার করতে শুরু করেন , বিপ্লবীরা রামকৃষ্ণ মিশনের সদর দপ্তর বেলুড়মঠকে তাদের যোগাযোগ ও মেলামেশার কেন্দ্র হিসাবে ব্যবহার করেন বলে বিপ্লবী নেতা হেমচন্দ্র কানুনগো স্বীকার করেছেন। 

স্বামীজী লেখার ও তাঁর প্রতিষ্ঠিত রামকৃষ্ণ মিশনের প্রভাব ক্রমশই বাড়তে থাকে। গোয়েন্দা রিপোর্টে দেখা যায় স্বামীজীর পত্রাবলী বাজেয়াপ্ত করার প্রস্তাবও উঠে ছিল। কিন্তু স্ট্যান্ডিং কাউন্সেল এস.আর. দাস বইটির বাজেয়াপ্ত করার বিরুদ্ধে মত দিলে ইংরেজ সরকার বইটি বাজেয়াপ্ত করেন নি। চার্লস টেগার্ট তাঁর গোয়েন্দা রিপোর্টে (২২/০৪/১৯১৮) জানিয়েছেন যে , স্বামীজী কলকাতা অভিননন্দের উত্তরে যে ভাষণ দিয়ে ছিলেন , তা তরুণ মুক্তি সংগ্রামীদের উপর গভীর প্রভাব বিস্তার করে ছিল। 

১৯১২ খ্রিস্টাব্দে ২৯শে জানুয়ারি স্বামীজীর ৫০তম জন্ম তিথিতে বেলুড়মঠে বিপ্লবীরা সক্রিয় ভাবে অংশ নিয়ে ছিলেন বলে গোয়েন্দা রিপোর্টে উল্লেখ আছে। সরকারের গোয়েন্দা রিপোর্টে স্বামী ব্রাহ্মানন্দের বিরুদ্ধে স্বরাজ প্রচারের গুরুতর অভিযোগ আনা হয়েছে। 

ভগিনী নিবেদিতা বিপ্লবের কাজে সক্রিয়ভাবে অংশ নেওয়ার জন্যে ছদ্মনাম ও ছদ্মবেশের সাহায্য নিতেন। তখন দেশে বিদেশে থাকার সময় তাঁর ছদ্মবেশ এত নিখুঁত করে ছিলেন যে, ধুরন্ধর ব্রিটিশ গোয়েন্দারা তা ধরতে পারেনি। তিনি কেবল গ্রেপ্তার এড়াতে পেরেছেন ছদ্মনাম ও ছদ্মবেশ ধরনের কৌশল জানতেন বলেই। এছাড়াও সরকারি উচ্চ মহলে তাঁর গভীর যোগাযোগ ছিল। এছাড়াও গোয়েন্দা দপ্তর কাজকর্ম সম্বন্ধে আগাম খবর পেতেন।  উদাহরণ হিসাবে বলা যায় , ব্রিটিশ সরকার যে অরবিন্দ ঘোষকে গ্রেপ্তার করতে আসছে  সে খবর পেয়ে তিনি অরবিন্দ ঘোষকে চন্দননগর পাঠিয়ে দেন। কারন চন্দননগর ছিল ফরাসি অধিকৃত। ব্রিটিশ আইন সেখানে কার্যকর হবে না। নিবেদিতা গোয়েন্দাদের নজর এড়াবার জন্যে সরাসরি চিঠি না পাঠিয়ে ব্যাঙ্ক বা অন্য্ এজেন্টে মারফত চিঠি পাঠাতেন। ভিন্ন নাম ও ভিন্ন ঠিকানায় তিনি চিঠি পাঠিয়েছেন। চিঠিতে "কোড " ব্যবহার করেছেন আবার মাঝে মাঝে "কোড " ও বদল করেছেন। অত্যন্ত বুদ্ধিমত্তার সাথে হেঁয়ালি ভাষা ব্যবহার করেছেন। 

নেতাজিকে দেখব আজাদ হিন্দ বাহিনীর সর্বাধিনায়ক হিসাবে যখন রেঙ্গুনে মিত্র পক্ষের বিরুদ্ধে মরন পন সংগ্রামে লিপ্ত ছিলেন , তখন মাঝে মাঝেই গভীর রাত্রে রেঙ্গুনে রামকৃষ্ণ মিশনে চলে যেতেন। সিল্কের ধুতি পরে , খালি গায়ে নেতাজি বন্ধ ঘরে তাঁর জীবন দেবতা স্বামীজীর ছবির সামনে কিছুক্ষনের জন্যে ধ্যান মগ্ন থাকতেন। কখনও বা আশ্রম অধ্যক্ষ স্বামী ভাস্করানন্দকে গাড়ি পাঠিয়ে আশ্রম থেকে  আনিয়ে ধর্মপ্রসঙ্গ করতেন।  

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[3.]

আমি আন্দুলের রাজা হতাম 

তরুণ ভবদেব মধু সন্ধানী মৌমাছির মত বিভিন্ন দিকপাল ব্যক্তিদের সঙ্গ করতেন। তিনি আধ্যাত্মিক বা যে কোন জগতের মানুষ হোন না কেন -গুণবান মানুষ হলেই তাঁর সঙ্গ করতেন। পঞ্চাশের দশকে স্বামীজীর ভাই প্রখ্যাত বিপ্লবী ও কম্যুনিষ্ট নেতা ডঃ ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত প্রায় প্রতিদিন হেদুয়ার পুষ্করণীর ধারে পরিক্রমা করতেন। এই বিখ্যাত পুষ্করণী যার ধারে তরুণ নরেন্দ্রনাথ বহু সময় কাটিয়েছেন।  ঠাকুরের কাছে যখন তার অদ্বৈতজ্ঞানের দিব্য অনুভূতি লাভ হয় , তখন এই পুষ্করণীর রেলিং-এ মাথা ঠুকে তাঁর দিব্য অনুভূতি সত্যতা পরীক্ষা করেছিলেন।  

এখানেই বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ প্রত্যহ বিকালে প্রায় দুঘন্টা অতিবাহিত করতেন। তাঁকে ঘিরে থাকতো একদল অনুগামী। এঁদের কাছে ভূপেন্দ্রনাথ বিভিন্ন প্রসঙ্গে আলোচনা করতেন। তরুণ ভবদেব ভূপেন্দ্রনাথের এই বৈকালিক আড্ডার নিয়মিত সঙ্গী ছিলেন। 

     হঠাৎ একদিন বেড়াতে বেড়াতে (১৯৫২-১৯৫৩ সাল) শ্রী ভবদেব কে তিনি প্রশ্ন করলেন , " তোর তো আন্দুলে বাড়ি ? তুই আন্দুলের রাজাদের ইতিহাস জানিস ? তোদের কালীকীর্তনের প্রেমিক ছিলেন আমার মার গুরুদেব। আমি তোদের আন্দুলের রাজা হতাম। " তিনি এটা শুনেছিলেন তাঁর মাতা ভুবনেশ্বরীদেবীর কাছ থেকে। 

        আন্দুলের সাথে স্বামীজীর বংশের এক ঘনিষ্ঠ ঐতিহাসিক সম্পর্ক আছে। একদিন স্বামীজীর মা ভুবনেশ্বরী দেবীর কাছে আন্দুল ছিল গুরুবাড়ি। অন্যদিকে আন্দুলের রাজাদের সাথে ঘনিষ্ঠ যোগাযোগ তৈরী হয় বিশ্বনাথ দত্তের। বস্তুতঃ আন্দুল -মৌড়ির সাথে কলকাতার সিমলার দত্ত পরিবারের যোগাযোগ বহুদিনের। ঊনবিংশ শতকে আন্দুল রাজবাড়ি থেকে প্রকাশিত " কায়স্থ -কৌস্তব " বইতে তখনকার অভিজাত কায়স্থ ব্যক্তিদের যে তালিকা প্রকাশিত হয় তাতে নরেন্দ্রনাথের প্রপিতামহ রামমোহন দত্তের উল্লেখ আছে। 

স্বামীজীর বাবা বিশ্বনাথ দত্ত আন্দুলের রাজবাড়িতে গানের আসরে নিয়মিত শ্রোতা ছিলেন। রাজবাড়ির উকিল নিমাই চরণ বসু নিয়মিত ভাবে বিশ্বনাথ দত্তের সঙ্গী হতেন। এই সময় অর্থাৎ ১৮৭৯ সালে আন্দুলের রাজা বিজয় কেশব রায় (১৮৩৬-৭৯ সাল) তাঁর দুই রানী দুর্গাসুন্দরী ও নবদুর্গাসুন্দরীকে নিঃসন্তান রেখে মারা যান। ১৮৮০ সালে প্রি. ভি. কাউন্সিলের রায় অনুসারে দুই রানী পৃথক ভাবে দুই পোষ্যপুত্র অনুমতি পান।

এই খবর শুনে রাজবাড়ির উকিল নিমাইচরণ বসু বিশ্বনাথ দত্তকে তাঁর দুই পুত্রকে আন্দুলের রাজবাড়িতে দত্তক দেওয়ার পরামর্শ দেন। তরুণ নরেন্দ্রনাথ তখন বি.এ. প্রথমবর্ষে পড়াশোনা করছেন। এই খবর পেয়ে নরেন্দ্রনাথের মাতা ভুবনেশ্বরী দেবী কে তীব্র আপত্তি জানান। কিন্তু বিশ্বনাথ দৃঢ়ভাবে জানান পরিবেশ মানুষকে তৈরি করে। তিনি জ্যোতিষ চর্চা করে দেখেছেন নরেন্দ্রনাথ সন্ন্যাসী হবে , নতুবা রাজা হবেন। এই পরিস্তিতিতে ১৮৮০ সালে ৪ঠা সেপ্টেম্বরে ভূপেন্দ্রনাথের জন্ম হয়। তখন ভুবনেশ্বরী দেবী তাঁর স্বামীকে আগের প্রস্তাব পুনর্বিবেচনার অনুরোধ জানান। ফলে নরেন্দ্রনাথের পরিবর্তে ভূপেন্দ্রনাথকে দত্তক দেওয়ার ব্যাপারে তাঁরা একমত হন। 

এই সময় নরেন্দ্রনাথ উদাসীন উদ্ভ্রাতের মতো ঘুরে বেড়াচ্ছেন। কয়েকদিন আগেই তিনি সিমলার মিত্রদের বাড়িতে শ্রীরামকৃষ্ণদেব কে গান শুনিয়ে এসেছেন। এরপর থেকেই নরেন অন্যমনস্ক। এই পরিস্থিতিতে ভুবনেশ্বরী দেবী নরেনকে বলেন ," ও নরেন তুই শুনিস নি ; ভূপেন রাজা হবে। আন্দুলের রানীরা ওকে পুষি নেবেন। প্রথমে তোর আর মহিমের কথা হয়েছিলো। " একথা শুনে শ্রীরামকৃষ্ণের খাপখোলা তরোয়াল নরেনের মনে তীব্র প্রতিক্রিয়া হলো। তিনি বারুদের মতো দাউ দাউ করে জ্বলে ওঠে তীব্র চিৎকার করে উঠলেন। নরেনের এই উগ্রচন্ডী রূপ আগে কেউ এরকম ভাবে দেখেনি। তিনি গর্জে বললেন , " তোমরা বিশেষ করে বাবা , কি ভাবেন ? কি ভাবেন জানি না ? কিন্তু তোমরা স্থির জেনো আমরা কোনো ভাই কারো পুষিপুত্র হয়ে ভাগ্যান্বেষী হয়ে ভবিতব্য নিয়ে জন্ম গ্রহণ করিনি। "  

একথা বলা শেষ হলে ভুপেন্দ্রনাথ কিছুটা আনমনা হয়ে পড়ন্ত বিকালের রোদে লোকের জলের দিকে তাকিয়ে রইলেন। তরুণ ভবদেব মুগ্ধ হয়ে গেলেণ , এই অপরূপ স্মৃতিচারণ শুনে। তাঁর সাথে বিপ্লবী ভূপেন্দ্রনাথের ১৯২৮ সাল থেকেই পরিচয়। ১৯২৮ সালের ২১শে জুলাই এক শনিবারের অপরাহ্ন ভূপেন্দ্রনাথ এসেছিলেন শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় স্থাপিত হাওড়া যুবক সংঘের আন্দুল-মাউরি শাখার উদ্বোধন করতে। সেই  দিন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত মৌড়িগ্রাম (তৎকালীন উনসানি) রেলস্টেশনে নেমে দুর্গম পথে পালকি যোগে এসেছিলেন। এই সংঘের সাথে বহু বিপ্লবী যুক্ত ছিলেন। যেমন বিপিন বিহারি গাঙ্গুলি , ডোমজুড় ব্যোমকেসের ফেরার বীরেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় প্রমুখরা।     

এর পর ১৯৩১ সালে আন্দুলের জমিদার মল্লিকবাবুদের বাগানে (বর্তমান ওলিংটন সিনেমা হলের চত্বর) এক রাজনৈতিক কর্মী সম্মেলন হয়। সেই সম্মেলনের উদ্বোধন করেন দেশপ্রিয় যতীন্দ্র মোহন সেনগুপ্ত। ভাষনপাঠ করেন " মেরঠ ষড়যন্ত্র মামলার " অন্যতম অভিযুক্ত কমরেড বঙ্কিম মুখোপাধ্যায়। এই সভাতে উপস্থিত ছিলেন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। সমাবেশের শেষের দিন সন্ধ্যায় চারণ কবি মুকুন্দ দাসের যাত্রাভিনয় জনসাধারণকে বিশেষভাবে আনন্দ ও উৎসাহ দেয়। আবার অন্য্ এক সভায় এসে ছিলেন ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। তারিখটি ছিল ৩০/১০ /১৯৩৮। এদিন তিনি আন্দুল-মুড়ি গ্রামের প্রশংসা করে গ্রন্থাগারের 'ভিজিটর্স বুকে ' প্রশংসাসূচক মন্তব্য করেন। আবার তিনি আন্দুলে এসেছিলেন ১৯৪২ সালে স্থানীয় উচ্চ ইংরেজি বিদ্যালয়ের (বর্তমান MKCI) শতবার্ষিকী অনষ্ঠান উপলক্ষে।  ভারত স্বাধীন হবার পরেও তিনি কয়েকবার আন্দুলে এসেছিলেন। 

ভুপেন্দ্রনাথ ছিলেন বৈজ্ঞানিক সমাজতন্ত্রে বিশ্বাসী। স্বামীজীর কনিষ্ঠ ভাই হওয়া সত্ত্বেও সভা -সমিতিতে স্বামীজীর নামের সাথে তাঁর নাম যুক্তকরা একদমই পছন্দ করতেন না। স্বামীজী তাঁর কাছে ছিলেন 'ভারতের অদম্য , অদ্বিতীয় মুক্তিকামী যোদ্ধা -সামাজিক গণতন্ত্রের অগ্রদূত।  এক অভূতপূর্ব অনান্যতান্ত্ৰ মানবতাবাদী। ' 

ভুপেন্দ্রনাথের পূর্বে তাঁর অগ্রজ স্বামী বিবেকানন্দের আরেক ভাই মাহেন্দ্রনাথের সাথে ভবদেবের পরিচয় ঘটে বিংশ শতকের প্রথম দিকে। ইনি ছিলেন বিশ্বনাথ দত্তের নবম সন্তান। এই দুই মনীষীর অলঙ্ঘনীয় আকর্ষনে প্রায়শই ভবদেব ছুটে যেতেন ৩নম্বর গৌর মুখার্জি স্ট্রিট। ১৯৩৪-৩৫ সাল থেকে ১৯৫৬ -৫৭ সাল পর্যন্ত খুবই আসা যাওয়া ছিল ভবদেবের শিমুলিয়ার দত্ত বাড়িতে। সুদীর্ঘ ১৭ বছর আমেরিকা , জার্মানি , রাশিয়া প্রভৃতি দেশে শিক্ষা -দীক্ষা শেষ করে নির্বাসিত বিপ্লবী ভুপেন্দ্রনাথ ১৯২৫ সালে কলিকাতা ফেরেন। রাশিয়ার কম্যুনিষ্ট নেতা লেনিনের সাথে তার ব্যক্তিগত ঘনিষ্ঠতা ছিল।   

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[4.]   

'মন' হচ্ছে ভেড়ার পালের ভেড়ার মতো 

         তরুণ ভবদেব কে আর এক মহাপুরুষ তীব্র আকর্ষণ করতেন। তিনি হলেন শ্রীরামকৃষ্ণের প্রিয় সন্তান কালী মহারাজ (স্বামী অভেদানন্দ।) অফিস ছুটির পর প্রায়ই এই মানুষটি হাজির হতেন বেদান্ত মঠের এই বৃদ্ধ তাপসের সঙ্গ করতে। খুব মনোযোগ দিয়ে সব কিছু শুনতেন। বিশেষ করে বিভিন্ন ভক্তদের দেওয়া তাঁর উপদেশগুলি তার কাছে খুবই প্রিয় ছিল। আবার এই সমস্ত কথোপকথন থেকেই কখনও কখনও তাঁর মনের প্রশ্নের উত্তর পেয়ে যেতেন। একদিন তিনি স্বামী অভেদানন্দকে প্রশ্ন করেছিলেন , যা আমাদের অনেকের প্রশ্ন , " মহারাজ , আমার মন খুব চঞ্চল , কি করে আমার মন কে নিয়ন্ত্রণ করবো ? " 

বস্তুতঃ এই প্রশ্নই করেছিলেন অর্জুন ভগবান শ্রীকৃষ্ণ কে।  অধ্যাত্ম জগতে বিচরণকারী যে কোন সাধকের মনে এই প্রশ্ন জাগে। স্বামী অভেদানন্দ একটু মিষ্টি হেসে তরুণ ভবদেবের দিকে তাকিয়ে বলে উঠলেন , " এ আর নতুন কথা কিরে ? যার সঙ্গে স্বয়ং ভগবান রয়েছেন সেই অর্জুনও একই কথা বলেছেন। ভেড়ার পাল দেখেছিস ? রাস্তা দিয়ে যখন নিয়ে যাওয়া হয় তখন যদি একটা ভেড়া দলছুট হয়ে যায় , তখন তাকে লাঠি দিয়ে দলে ফেরাতে হয়। মনকেও এ রকম শাসন করে ফিরিয়ে আনতে হয়। তাহলে আস্তে আস্তে মন চঞ্চলতা ছেড়ে বশে এসে যাবে। "  

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[5.]     

"আপনি একটা স্বামীজীর জীবনী লিখুন "

    একদম শুরুর দিকে (১৯৬৮-৬৯) মহামন্ডলের কোনো O.T.C. হত না। সে সময় তিন মাস অন্তরে এক সাথে বসা হত - যার নাম ছিল ' শিক্ষা ও সমীক্ষার আসর। ' ('Education and Study Sessions'. ) এই অনুষ্ঠানে যোগ দেওয়ার নিয়মিত আমন্ত্রণ পত্র যেত ভবদেব বাবুর কাছে। তিনি ছিলেন মহামন্ডলের ইন্ডিভিজুয়াল মেম্বার (individual member') মহামন্ডলের যখন সর্বভারতীয় শিবির হত এলাকার যুবকদের কাছে এবং তাদের অভিভাবকদের কাছে শিবিরে যোগদেবার প্রয়োজনীয়তার কথা ভবদেব বাবু বুঝিয়ে বলতেন। বিভিন্ন মহৎ মানুষদের সঙ্গ করা ভবদেবের যে দুর্লভ গুন্ ছিল সেই অনুসারে তিনি নবনীদার অফিসে গিয়ে প্রায়ই তার সঙ্গ করতেন। যদিও বয়সের পরিমানে তিনি নবনীদার চেয়ে ২৫ বছরের বড় ছিলেন। নবনীদার বাবা ইন্দীবর মুখোপাধ্যায় কে তিনি দাদা বলে ডাকতেন।  

       বিভিন্ন পত্রিকায় স্বামীজীর ব্যাপারে বিভিন্ন প্রবন্ধ প্রকাশিত হত। সেগুলি তিনি আগ্রহ সহকারে পড়তেন। ভুল-ভ্রান্তি দেখলে সমালোচনা করে চিঠি লিখতেন পত্রিকার সম্পাদকদের।  এগুলি আবার নবনীদা কে দেখাতেন। একদিন নবনীদা তাঁকে বললেন , " সব চেয়ে ভালো হয় যদি আপনি স্বামীজীর জীবনী লেখেন -যাতে স্বামীজী সম্পর্কে আপনার দৃষ্টিভঙ্গি এবং মতামত স্বাধীনভাবে প্রকাশিত হবে। " নবনীদার অনুপ্রেরণায় ভবদেব বাবু স্বামীজীর একটি জীবনী ইংরেজিতে লিখতে শুরু করেন। তার কিছু অংশ বিবেক জীবন পত্রিকায় ১৯৮৫ সালে জানুয়ারি সংখ্যায় প্রকাশ পায় -" He was Born " শিরোনাম। এছাড়া বাংলাতে লেখা 'মহামিলন ' নাম একটি প্রবন্ধ প্রকাশিত হয়।  

নবনীদাকে তিনি খুব ছোটো থেকেই দেখেছেন। যেহেতু নবনীদার বাড়ি 'ভুবন -ভবনের ' প্রতিটি অনুষ্ঠানে তিনি নিমন্ত্রিত থাকতেন। একবার নবনীদার অফিসে ভবদেব বাবু গেলে কথা বলতে অনেক দেরি হয় যায়। নবনীদা তখন মহামন্ডলের জন্যে কেনা জীপ গাড়িতে করে ভবদেব বাবুকে বসিয়ে সেই গাড়ি চালিয়ে হাওড়া স্টেশনে পৌছে দেন। 

বস্তুতঃ ভবদেব বাবু নবনীদার মধ্যে নিবিড় সম্পর্ক সূত্রতার ঘনিষ্ঠতার সেতুরূপে যে পবিত্র প্রতিষ্ঠানটি ছিল তা হল আন্দুল-মুড়ি স্কুল। নবনীদা প্রায়ই এই বিদ্যালয়ের পবিত্র স্মৃতি রোমন্হন করে এসেছেন। এই বিদ্যালয়ের সংস্কৃতের প্রবাদ প্রতিম পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় ছয় বছর বয়সে নবনীদার মুখে সংস্কৃতের শ্লোক শুনে তাঁকে বাকসিদ্ধির আশীর্বাদ দিয়েছিলেন।   

একবার কুরুক্ষেত্র ইউনিভার্সিটি এক সভায় তাঁর ইংরেজি বক্তৃতা শুনে উপস্থিত রাজ্যপালের স্ত্রী তাঁকে জিজ্ঞাসা করেছিলেন তিনি কোন ইউনিভার্সিটি থেকে এত সুন্দর ইংরেজি শিখেছেন। উত্তরে নবনীদা বলেছেন , " তাঁর ইংরেজি শিক্ষা হাওড়া জেলার এক গ্রামের এক অখ্যাত স্কুলে। " এই স্কুলেই ইংরেজি ক্লাসে যখন তিনি ক্লাস সেভেনের ছাত্র , একজন ইংরেজি শিক্ষক তাঁকে Fatal শব্দটি উচ্চারণ করতে বলেন। আচার্য শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায়ের কাছে শিক্ষাপ্রাপ্ত নবনীদা শব্দটি উচ্চারণ করেন 'ফেটাল।' ইংরেজি শিক্ষক মহাশয় তাঁকে বলেন উচ্চারনটি 'ফ্যাটল' হবে। কিন্তু নবনীদা বিনম্রভাবে তাঁর উচ্চারণটিই করে যান। শিক্ষক ক্রুদ্ধ হয় ওঠেন। এই সময় আচার্যদেব বিদ্যালয়ে রাউন্ড দিচ্ছিলেন। তিনি চিৎকার শুনে শিক্ষকের অনুমতি নিয়ে ক্লাস ঢোকেন। সব শুনে শিক্ষকের মর্যাদা বজায় রেখেই স্বস্নেহভাবে শিক্ষকের ভুল ধরিয়ে দেন। কিন্তু শিক্ষক মহাশয় সেই ঘটনা মেনে না নিতে পেরে চাকুরী থেকে ইস্তফা দিয়ে স্কুল ছেড়ে চলে যান। 

নবনীদা ও ভবদেব বাবুর মধ্যে আজীবন সুমধুর সম্পর্ক ছিল। নবনীদার দাদু ৫২ বছরের প্রধান শিক্ষকতার জীবন রেকর্ড হিসাবে জিনিসবুকে স্থান পেয়েছিল। এই খবরটি নবনীদা একটি চিঠির মাধ্যমে ভবদেব বাবুকে জানিয়ে ছিলেন। একজন পাকা জুহরীর মতই নবনিদাকে তিনি ছোট বেলাতেই চিনতে পেরে ছিলেন  এবং ঘনিষ্ঠ জনদের কাছে নবনীদার উচ্চ সম্ভাবনার কথা দৃঢ়ভাবে প্রকাশ করতেন। তাঁর ভবিষ্যৎবাণী যে নির্ভুল হয়েছিল তার প্রমান হচ্ছে 'অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল। ' বস্তুতঃ নবনীদার ভবদেব বাবু -কে স্বামীজীর জীবনী লিখতে বলার পেছনে একটি অন্যতম কারন ছিল যে নবনীদা ছোটবেলা থেকেই ভবদেব বাবুর জ্ঞানতৃষ্ণা এবং লেখার প্রতিভা সম্পর্কে অবহিত ছিলেন। ভবদেব বাবুর আবার একটি গবেষণার প্রিয় বিষয় ছিল রবীন্দ্রনাথ ও বিবেকানন্দের সম্পর্ক। (relationship between Rabindranath and Vivekananda. )  

প্রসঙ্গতঃ স্বামীজীর সম্বন্ধে রবীন্দ্রনাথের দু-একটি কথা স্মরণ অপ্রাসঙ্গিক হবে না। রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর লিখেছেন " বিবেকানন্দ বলেছিলেন প্রত্যেক মানুষের মধ্যে ব্রহ্মের শক্তি ; বলেছেন দারিড্র্যের  মধ্যে দিয়ে নারায়ন আমাদের সেবা পেতে চান ,একে বলে বাণী। এই বাণী স্বার্থ বোধের সীমার বাহিরে মানুষের আত্মবোধকে অসীম মুক্তির পথ দেখালেন। " রবীন্দ্রনাথ ও বিবেকানন্দের সম্পর্কের দৃঢ়তা সংগীতের মধ্যে দিয়ে গেড়ে ওঠে ১৮৮১ সালের ২৩ শে জানুয়ারি রবিবার ব্রাহ্মসমাজের উৎসব উপলক্ষে রবীন্দ্রনাথ সাতটি ব্রাহ্ম সঙ্গীত রচনা করেন। তাঁর মধ্যে একটি ছিল 'মহাসিংহাসনে বসি শুনিছে হে বিশ্বপিতা। ' এই গানটি শিখে নিয়ে নরেন্দ্রনাথ শ্রীরামকৃষ্ণে কে বহুবার গেয়ে শোনান। সঞ্জীবনী পত্রিকার প্রতিষ্ঠাতা কৃষ্ণকুমার মিত্রের বিয়েতে রবীন্দ্রনাথ নরেন্দ্রনাথকে দিয়ে তিনি খানি  ধ্রুপদাঙ্গের গান শিখিয়ে গাওয়ান। গানগুলি হল 'দুই হৃদয়ের নদী ' , 'জগতের পুরোহিত তুমি ', 'শুভদিনে এসেছ দোঁহে। ' ঐ সংগীতানুষ্ঠানের মহড়ায় রবীন্দ্রনাথ অর্গান বাজিয়ে ছিলেন , আর নরেন্দ্রনাথ পাখোয়াজ বাজিয়ে ছিলেন। শুধু সঙ্গীত নয় , নাটকের মধ্যেও উভয়ের মধ্যে ঘনিষ্ঠ সম্পর্ক গেড়ে ওঠে।    

ভবদেব বাবু দেশ পত্রিকায় প্রকাশিত একটি চিঠির মাধ্যমে রবীন্দ্রনাথ ও নরেন্দ্রনাথের মধ্যে সম্পর্কের একটি অপ্রকাশিত ঘটনা তুলে ধরেন। নরেন্দ্রনাথ জোড়াসাঁকোর ঠাকুর বাড়িতে রবীন্দ্রনাথ  রচিত ও পরিচালিত 'বাল্মীকি প্রতিভা ' নাটকে অভিনয় করেন। এই নাটকে রত্নাকরের ভূমিকায় অভিনয় করেন স্বয়ং রবীন্দ্রনাথ। আর নরেন্দ্রবাথ অভিনয় করেন রত্নাকরের দস্যু দলের এক দস্যুর চরিত্রে। ১৯৬১ সালে রবীন্দ্রনাথের জন্মশতবার্ষিকী উপলক্ষ্যে যে কবীন্দ্র-রচনাবলী প্রকাশিত হয় তাতে 'বাল্মীকি প্রতিভা ' নাটকে রবীন্দ্রনাথ ও নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে সেদিন যাঁরা অভিনয় করেছিলেন তাঁদের দলবদ্ধ ছবি দেখা যায়। এখানে অভিনেতা নরেন্দ্রনাথের ছবি পাওয়া যায়। রবীন্দ্রনাথ এই ছবিতে তাঁর নরেন্দ্রনাথের পরিচয় হিসাবে 'জ্যোতিঃ প্রকাশ 'নাম দেন অর্থাৎ তিনি নিজের জাতিতে প্রকাশিত।  

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[6]  

মহামন্ডল না হলে নবনীকে এত কাছে পেতাম না।  

১৯৬৭ সালে স্বামীজীর শতবর্ষ উদযাপন হয়েছিল নবনীদা ' গোলপার্ক ইনস্টিটিউট অফ কালচারের '('Golpark Institute of Culture'.) সাথে যুক্ত ছিলেন। তাঁকে বিদেশী অতিথিতিদের আপ্যায়নের দায়িত্ব দেওয়া হয়েছিল। এই সময় তাঁর সাথে আলাপ হয় আমেরিকা প্রবাসী সন্ন্যাসী স্বামী ভাষ্যানন্দের সাথে। তিনি তাঁকে আমেরিকা নিয়ে যেতে চান। তাঁর ধারণা ছিল আমেরিকায় ঠাকুর-মা-স্বামীজীর ভাবপ্রচারে নবনীবাবু অত্যন্ত গুরুত্বপূর্ণ ভূমিকা নেবেন। বিশেষ করে শতবার্ষিকী উৎসবে তাঁর নিষ্ঠা ও ভাবতনময়তা দেখে মহারাজ মুগ্ধ হন। কিন্তু দৈব ইচ্ছায় নবনীদার  পাওয়া হয়নি। হয়তো স্বামীজীর ইচ্ছায় তাঁকে মহামামণ্ডল সৃষ্টিতে প্রধান পুরোহিতের ভূমিকা নিতে হবে বলে তাঁর যাওয়া হয়নি। কেননা নবনীদা বহুবার বলেছেন 'ঠাকুরের ইচ্ছা , শ্রীশ্রী মায়ের আশীর্বাদ ও স্বামীজীর প্রেরণায় ' মহামন্ডল ('विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का जानिबीघा जाना) সৃষ্টি হয়েছে। তাই ভবদেব বাবু একজন ঘনিষ্ঠ ব্যক্তির কাছে মন্তব্য করেন " মহামন্ডল না হলে নবনীকে আমাদের মধ্যে পেতাম না -সে ভাষ্যনন্দর সাথে আমেরিকায় চলে যেত এবং একজন বিখ্যাত সন্নাসী হয় যেত। " 

ভবদেব বাবু রক্তে ছিল অভিনয়ের অন্যায়সলব্ধ ক্ষমতা। যেহেতু তিনি ছোটোখাটো চেহারার ছিলেন ও তাঁর গায়ের রঙ ফরসা ছিল , তাঁকে পাড়ার নাটকে স্ত্রী চরিত্রে অভিনয় করতে দেওয়া হত। তাঁর মায়ের দুই মামা শখের যাত্রা দলে যুক্ত ছিলেন। তাঁরা একদিন দক্ষিনেশ্বর নাট মন্দিরে ফলহারিণী কালী পূজার রাত্রে 'বিদ্যাসুন্দর যাত্রাপালা ' টি করেন। স্বয়ং শ্রীরামকৃষ্ণ সেই যাত্রাপালাটি কিছুক্ষন দেখেন। পরের দিন দুই ভাই চলে আসার আগে শ্রীরামকৃষ্ণ কে প্রণাম করতে গেলেন। ঠাকুর তাঁদের উপদেশ দেন দু-ভাই মিলে -মিশে থাকবেন। তাদের সাথে ঠাকুরের কথপকথনের বিবরণ 'কথামৃতে ' আছে। (২৪.০৫.১৮৮৪)'কথামৃত ' /মহামণ্ডলের আন্দুল -মুড়ি শাখার নবনির্মিত গৃহের দ্বারোদ্ঘাটন -২১শে বানভেম্বর ১৯৯৯ অনুসগঠনে আলোচনারত শ্রদ্ধেয় নবনীদা।

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[7]   

" ঠিক আছে ওকে দীক্ষার জন্যে নিয়ে এসো "

ভবদেববাবু যখনই বেলুড় যেতেন মহাপুরুষ মহারাজকে প্রণাম করতে যেতেন। স্বাভাবিক ভাবেই তাঁর সাথে মহাপুরুষ মহারাজের সেবকের ঘনিষ্ঠতা গেড়ে ওঠেছিলো। একবার এক দীক্ষার দিনে তিনি অপ্রত্যাশিত ভাবে মহাপুরুষ মহারাজকে প্রণাম করতে উপস্থিত হন।  দীক্ষার কথা শুনে তরুণ ভবদেবের দীক্ষা নেবার আকাঙ্ক্ষার কথা জানান। মহাপুরুষ মহারাজ বলেন , " আগে যাদের আসতে বলেছো আগে তাদের হোক , পরে দেখা যাবে। " 

           নির্ধারিত ব্যক্তিদের দীক্ষা গ্রহণ শেষ হলে সেবক মহারাজ মহাপুরুষ মহারাজকে বলেন , " যে ছেলেটিকে আপনি অপেক্ষা করতে বলেছিলেন সে কিন্তু এখনও অপেক্ষা করছে। " " ও বলেছিলাম নাকি ? তাহলে নিয়ে এসো তাকে। " স্মিত হেসে মহারাজ উত্তর দিলেন। এইভাবে তরুণ ভবদেবের মহাপুরুষ মহারাজের আশ্রয় লাভ করলেন।

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[8] 

" মায়ের রঙটা ছিল কালো , কিন্তু উজ্জ্বল " 

       আন্দুলের কয়েকজন স্বদেশী যুবক শ্রীশ্রী মাকে দর্শন করতে বাগবাজারে মায়ের বাড়ি এসেছিলেন। তাঁরা সাথে এনেছিলেন কিশোর ভবদেবকে। মাকে দর্শন করার স্মৃতি আজীবন তাঁর মনের মধ্যে ছিল। ভবদেবের স্মৃতিতে মার্ গায়ের রঙটা মনে হয়েছিলো কালো। পরবর্তীকালে অত্যন্ত আপনজনদের কাছে মায়ের বর্ননা নিতে গিয়ে বলতেন , " মা ছিলেন কালো , কিন্তু এমন উজ্জ্বল কালো আর কোথাও দেখিনি। " সাধক কবি রামপ্রসাদের গানে আছে - 

" মায়ের ভাব কি ভেবে প্রাণ গেল ,

যাঁর নামে হরে কাল , পদে মহাকাল ,

তাঁর কেন কালোরূপ হল।

কালো রূপ অনেক আছে এ বড় আশ্চর্য কালো ,

যাঁর হৃদয়মাঝারে রাখলে পরে হৃদয়পদ্ম করে আলো।। 

প্রথমতঃ স্মরণীয় অগ্নিমুখে অনেক বিপ্লবী মায়ের কাছে অমোঘ আকর্ষনে ছুটে আসত। ভাবলে আশ্চর্য হতে হয় মা দেশের শুধু নয় , বিশ্বের যে কোন ঘটনাকে গভীর প্রজ্ঞা নিয়ে বিশ্লেষণ করতেন।  আর মায়ের এই বিশ্লেষণ করার ক্ষমতা কোন খ্যাতিমান ঐতিহাসিকের থেকে কম ছিলোনা।  

উদাহরণ দেওয়া যাক -প্রথম বিশ্বযুদ্ধ থেমে যাওয়ার পর আমেরিকার প্রেসিডেন্ট উড্রো উইলসন (Woodrow Wilson) ফর্টিন পয়েন্টস ঘোষণা করেন।  মা সারদাকে একজন ভক্ত একথা জানার পর , মা তাঁকে ফর্টিন পয়েন্টস সম্বন্ধে জানতে চান।  সেই ভক্ত মধ্যে থাকা পারস্পরিক শান্তি , সহযোগিতার কথা বলেন।  মা একটু চুপ করে থেকে বলে ওঠেন " বাবা এ শুধুই মুখস্থ কথা , অন্তস্থ নয়। " আমরা জানি বিখ্যাত ঐতিহাসিক E.H.Carও একইভাবে দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের কারন হিসাবে ফর্টিন পেইন্টসের অন্তঃসার শূন্যতাকেই দায়ী করেছেন। একথা মনে রাখতে হবে ঐতিহাসিক  E.H. Car একথা বলেছেন দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধের পরে , আর মা সারদা এই বিশ্লেষণ করেছেন প্রথম বিশ্বযুদ্ধের শেষের সঙ্গে সঙ্গেই।  

      এবার এক ভক্ত মাকে জিজ্ঞাসা করলেন , " মা , আমাদের দেশ কবে স্বাধীন হবে ? মা স্পষ্ট ভাষায় বলে দিলেন , " বাবা , তোমরা কি তাদের (ব্রিটিশদের) দেশ থেকে তাড়াতে পারবে ? তা পারবে না। যখন ওদের নিজেদের মধ্যে লড়াই লাগবে তখন তোমরা স্বাধীন হবে। " ইতিহাস প্রমান করে দিয়েছে, বহুদিন আগে মা যা বলে ছিলেন তাই সত্য হয়েছে। দ্বিতীয় বিশ্বযুদ্ধ যদি না হত , এবং সেই সুযোগ নিয়ে নেতাজির নেতৃত্বে আজাদ হিন্দ ফৌজ যদি ব্রিটিশদের বিরুদ্ধে লড়াই না করত , তাহলে স্বাধীনতা পেতে আমাদের বহু দিন লাগত। 

আমরা দেখবো ট্রেনে মা ওড়িষার কোঠরে যাচ্ছেন ১৯১৫ সালে , সেই সময় বুড়িবালামে যুদ্ধের প্রস্তুতি নিতে অতি সাবধানে ছদ্মবেশে বাঘাযতীন সেই ট্রেনেই যাচ্ছিলেন। তিনি ভয়ঙ্কর ঝুঁকি নিয়ে চাদরমুড়ি দিয়ে মাকে প্রণাম করতে আসেন। স্তম্ভিত হতে হইয়েই জেনে বাঘাযতীন দুর্ঘষ ব্রিটিশ পুলিশদের ফাঁকি দিতে পারলেও মাকে ফাঁকি দিতে পারেন নি। মা তাঁকে প্রথম দেখলেও বলে ওঠে ছিলেন ছেলেটার চোখ দুটি দিয়ে যেন আগুন বেরোচ্ছে।  প্রথমতঃ মনে পরে একবার বাঘাযতীন স্বামীজীর সঙ্গে দেখা করতে এসেছিলেন। বাঘাযতীন ঘরের প্রবেশের দরজায় দাঁড়িয়ে , আর স্বামীজী বসে আছেন। দুজনই দুজনের দিকে অপলক দৃষ্টিতে দেখছেন। স্বামী অখণ্ডানন্দ বাইরে থেকে এই দৃশ্য দেখে পরবর্তী কালে এই ঘটনার কথা উল্লেখ করে - বলতেন যেন আগুন আগুন কে গিলছে ? তবে কি তিনি বাঘাযতীনের মধ্যে শক্তি সঞ্চার করছিলেন ? যেমন ঠাকুর তার মধ্যে করেছিলেন ? না হলে কেনই বা স্বামীজী স্বামী অখণ্ডানন্দ কে ঘর থেকে চলে যেতে বলে ছিলেন ? মা সারদা কে বিপ্লবীরা কি চোখে দেখত এর একটি উদাহরণ দেওয়া যায় ? ব্রিটিশ পুলিশের হাতে ধৃত ননীবালাদেবীকে অকথ্য অত্যাচারের পর ইন্সপেক্টর গোল্ডি তাঁকে জিজ্ঞাসা করে (কৃত্রিম সহানুভূতি দেখিয়ে) তাঁর কি ইচ্ছা ? ননীবালাদেবী উত্তরে বলেন তাঁর ইচ্ছা বাগবাজারে মা সারদা কাছে থাকা। এরপর তাঁকে একটা দরখাস্ত লিখতে বলা হলে তিনি তা লিখেন। গোল্ডি সেই দরখাস্ত তাঁর সামনে ছিঁড়ে ফেলেন। আহত সিংহীর মত ননীবালাদেবী গোল্ডির গালে সপাট চড় কষিয়ে দেন। বস্তুতঃ ননীবালাদেবী ছিলেন প্রথম মহিলা স্টেট্ প্রিজনার। 

      বহু বিপ্লবী মিশনে সন্ন্যাসী হলে ব্রিটিশ সরকার মিশন কে অত্যন্ত সন্দেহের চোখে দেখতে থাকে।  ভীত হয়ে অনেকেই এদেরকে মিশন থেকে বিতাড়িত করার কথা বলেন। কিন্তু মা এইসব বিপ্লবীদের পাশে দাঁড়িয়ে দৃপ্ত কণ্ঠে বলে ওঠেন , এদের আশ্রয় দেওয়ার জন্যে যদি মিশন ওঠে যায় উঠে যাক , কিন্তু মিশন সত্যের পথ থেকে সরে যাবে না। মনে রাখতে হবে এই মা-ই কিন্তু স্বামীজিকে প্লেগের চিকিতসার খরচ তোলার জন্যে মঠ বিক্রিকরা থেকে নিবৃত্ত করেন।  এই সময় অরবিন্দ ঘোষ তাঁর মাকে দেখা করতে এলে মা বলে ওঠেন "এই ছোটখাট চেহারার লোকটার কত ক্ষমতা। ইংরেজ সরকার এর ভয়ে কাঁপছে। " আলিপুর বোমার মামলায় অরবিন্দ ঘোষকে ফাঁসিতে ঝোলাবার যখন ষড়যন্ত্র হচ্ছে , সেই সময় তাঁর স্ত্রী মৃণালিনী দেবী মার কাছে এলে মা তাঁর মুক্তির কথা বলেন।  মনে রাখতে হবে তখন ও দেশবন্ধু চিত্তরঞ্জনের সেই বিখ্যাত সওয়াল শুরু হয় নি।

 কথিত আছে দেশবন্ধু যখন অরবিন্দের হয়ে সওয়াল করেছিলেন প্রথমদিকে কিছুটা দিশাহারা হয়ে পড়েন। সেই সময় কোর্টের মধ্যে উপস্থিত এক ব্যক্তি তাঁকে একটি চিরকুট এগিয়ে দেন। সেই চিরকুটে এমন কিছু তথ্য ছিল যা তাঁকে সেই মামলায় খুব সহ্য করে। চিরকুটে সরবরাহকারী সেই ব্যক্তিই পরবর্তীকালে পুরীর শঙ্করাচার্য হন। বঙ্গভঙ্গ সময় ইংরেজ সরকার যখন ব্যাপক নির্যাতন করছে তখন মা বলেছিলেন " বাবা নরেন বেঁচে থাকলে ওরা নরেনকে নিশ্চয়ই জেলে পুরত। "  

ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত এই বিষয়ে কয়েকটি চিত্তাকর্ষক সংবাদ দিয়েছেন। পুরীর তৎকালীন জগৎগুরু শঙ্করাচার্য বিপ্লবদের ডাকে সাড়া দিয়ে ছিলেন। ভুপেন্দ্রনাথ দত্ত তাঁর সঙ্গে কয়েকবার দেখাও করেন।  পরে কটকের কয়েকজন বিপ্লবী নেতার সঙ্গে তিনি শঙ্করাচার্যের আলাপ করিয়ে দেন। 

স্বামীজী একবার বলেছিলেন , " আজ পর্যন্ত ভারতের শাসক শ্রেণী সন্ন্যাসী কে ভয় করেন, পাছে গৈরিক বসনের নীচে আর একজন শিবাজী লুকিয়ে থাকেন। " ভারতের স্বাধীনতা সংগ্রামে স্বামীজীর পূর্বেও অনেক সন্ন্যাসী সক্রিয় ভূমিকা নেন। ১৮৫৭ সালে মহাবিদ্রোহে আর্যসমাজের স্বামী দোয়ানন্দের সক্রিয় ভূমিকা ছিল। সিপাহী বিদ্রোহের প্রাককালে ইংরেজ সরকারের বিরুদ্ধে সন্ন্যাসী ও ফকিররা যে প্রচার কাজ চালান তার প্রমান আছে সরকারের নথিপত্র ও দলিলে। মিরাটের কমিশনের স্যার উইলিয়ামের নোট জানা যায় যে , সন্ন্যাসী ও ফকিরদের মন বিদ্রোহের জন্যে তৈরি হয়। এমনও তথ্য আছে যে , ১৮৫৭ সালের সশত্র  অভ্যূথানের ক্ষেত্রে প্রস্তুতের প্রধান ভূমিকা ছিল দিল্লির যোগমায়া মন্দিরের ত্রিশূলবাবার। ব্রিটিশের কাছে মুক্তিযোদ্ধাদের পরাজয়ের পর স্বামী দয়ানন্দ রামেশ্বরে যান। সেখানে তিনি কয়েকজন সাধুর দেখা পান , যাঁরা দিল্লির যোগমায়া মন্দির থেকে এসেছেন। প্রকাশ , দয়ানন্দ এঁদের মধ্যে ছদ্মবেশী নানা সাহেবকে দেখতে পান। পরে তাঁর নাম হয় স্বামী দিব্যানন্দ।   

মিরাটের কমিশনার উইলিয়ামের নোট থেকে আরো জানা যায় যে , মিরাটের ২০তম নেটিভ ইনফেন্ট্রি সঙ্গে একজন সাধু সদলে থাকতেন। তিনি হাতি চড়ে ঘুরে বেড়াতেন বলে তাঁকে হাতি বাবা বলা হত। 

বাংলার ইন্সপেক্টর জেনারেল অফ পুলিশ স্যার হেনরি ১৮৯৩ সালের অক্টোবরের সরকারি রিপোর্টে সাধু ও সন্ন্যাসীদের রাজনৈতিক তৎপরতা কথা বলা হয়েছে। ১৮৯৬ সালের সেপ্টেম্বরে কলকাতা পুলিশের সার্কুলারে বলা হয়েছে যে , হিন্দু পুনরুত্থানের জন্যে সন্ন্যাসীরা অবাধে প্রচার কার্য চলেছেন।  এই ফাইল থেকে আরো জানা যায় যে , সেনাবাহিনীর মধ্যে ইংরেজদের বিরুদ্ধে বিদ্বেষ জাগিয়ে ভুলতে সাধুদের সক্রিয় ভূমিকা ছিল। উত্তরপ্রদেশ ও ইস্টার্নকমান্ড ভারতীয় সেনাদের সংখ্যা হ্রাস সাধুরা প্রচার করেন। এই সময় রেসিডেন্ট লাইনে সাধুদের প্রবেশ রোধে সরকার ব্যবস্থা নেয়। তখন সৈন্যরা ছুটিতে অমৃতসর ও হরিদ্বার গিয়ে সাধুদের সঙ্গে দেখা করতেন। মহাফেজখানের সংরক্ষিত ফাইল থেকে জানা যায় যে , আর্যসমাজ লাহোর ও হরিদ্বার সাধুদের রাজনৈতিক তালিম দেয়। বিখ্যাত রাজনৈতিক সন্ন্যাসী স্বামী রাজেশ্বরানন্দ বিহার ও উত্তরপ্রদেশের নানা স্থানে ঘুরে ইংরেজদের বিরুদ্ধে উত্তেজনা পূরণ বক্তৃতা দিতেন। 

এক সরকারি নোট বলা হয় , উত্তর ভারতে ধর্মীয় মিশনগুলি কার্যকলাপের জন্যে ভারতীয় রেজিমেন্টগুলির জন্যে সৈন্য সংগ্রহ ব্যাহত হয়। ভুপেন্দ্রনাথ দত্তের পরিচিত এক প্রবীণ বিপ্লবী তাঁকে বলেন যে , একবার হরিদ্বারের কুম্ভ মেলায় বিজয়কৃষ্ণ গোস্বামী তাঁকে কয়েকজন সন্ন্যাসী দেখিয়ে বলেন যে এঁরা সিপাহী বিদ্রোহে অংশগ্রহণ করেছিলেন। 

যাই হোক , শ্রীশ্রী মা কে প্রণাম করে নীচে নামার সময় বালক ভবদেব দেখলেন একটি ছোট বেঞ্চিতে গা ঘেঁসাঘেসি করে বসে আছেন চারজন stalwart (মহারথী) স্বদেশী যুবকদের সাথে ভবদেব তাঁদের প্রণাম করে তাঁদের দিব্যস্পর্শ লাভ করলেন। বালক ভবদেব প্রণাম করার সময় তাঁদের পরিচয় অতোটা বুঝতে পারেন নি। পরে বাড়ি ফেরার পথে তাঁদের পরিচয় সম্পর্কে বিস্তারিত বলেন সহযাত্রী বিপ্লবীরা। এঁরা হলেন স্বামী ব্রহ্মানন্দ, স্বামী সারদানান্দ , স্বামী ত্রিগুণাতীতনান্দ এবং খুব সম্ভবতঃ স্বামী অখণ্ডানন্দ। 

" যদি শান্তি চাও , মা , কারও দোষ দেখো না।  .......শ্রীশ্রী মা সারদা।  

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[9] 

" এসব ঘটনা আমাদের চোখের সামনে ঘটেছে " 

        ১৯৬৬ সালের ১লা অক্টোবর ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনিদাকে একটি বই উপহার দেন। বইটির নাম What Vedanta means to me ? বইটি Rider & Company , London প্রথম প্রকাশ করে। পরে সদ্বেত আশ্রমে কলকাতা থেকে Indian Edition রূপে প্রকাশিত হয়। বইটি Aldous Huxley, Christopher Isherwood প্রভৃতি ১৫-১৬ জন জগৎ বিখ্যাত মনীষীদের লেখায় সমৃদ্ধ। ভবদেব বাবু বইটি প্রথমে নবনীদার উদ্দেশ্যে কয়েকটি কথা লিপিবদ্ধ করেছেন। ভবদেব বাবুর সেই লেখা উদ্ধার করা গেছে। তা আমরা পাঠকের কাছে নিবেদন করছি। এই সংক্ষিপ্ত লেখায় আমরা কিছুটা আভাস পাই ভবদেব বাবু নবনী দাকে কি চোখে দেখতেন , তিনি নবনীদার কাছে কি আশা করেন ইত্যাদি। একই সঙ্গে এটাও কিছুটা জানতে পারি ভবদেব বাবুর মন তখন কি কি ভাবে আন্দোলিত হচ্ছিলো। 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল ' সংগঠিত হয় ১৯৬৭সালের ২৫ শে অক্টবর।  এটা লক্ষণীয় যে ভবদেব বাবুর লেখাটি তার এক বছর আগে লেখা। শ্রদ্ধেয় নবনীদার 'sterling qualities ' দেখে ভবদেব বাবু কি বুঝতে প্রেরেছিলেন যে তাঁর স্নেহের 'sriman nabani ' একটা দাগ রেখে যাবেন ?  ১৯৬৭ সালের ১৬ই ফেব্রুয়ারি রবিবার , শ্রদ্ধেয় নবনীদা আন্দুল ঝোড়হাটে তাঁর এক সহপাঠী বাড়ি আসেন। সেইদিন তাঁদের সহপাঠীদের সংঠন 'সতীর্থ মিলন ' মেলার বিশেষ বৈঠক ছিল। বৈঠক শুরু হবার আগে তাঁদের নিজেদের মধ্যে আচার্য শিরীষ চন্দ্রের বয়স্ক ছাত্রদের মধ্যে ভবদেব বাবুর কথা ওঠে। 

সেই সময় শ্রদ্ধেয় নবনীদা সহপাঠীদের বলেন - " অচিন্ত্য কুমার সেনগুপ্ত (বিখ্যাত সাহিত্যিক ও উকিল ) শ্রীরামকৃষ্ণের জীবনীর উপর একটি বই লেখেন - 'পরমপুরুষ শ্রীরামকৃষ্ণ।  ' ভবদেব বাবু মনোমত বই পেলে আগে হেডমাস্টার মশাই শিরীষ বাবুকে পড়তে দিতেন। এই এই বইটি ও তিনি তাঁকে (শিরীষ চন্দ্র ) পড়তে দেন। তিনি বইটি পড়ে বইটির শেষের পাতায় সংক্ষিপ্ত মন্তব্য লেখেন। এই মন্তব্যের মধ্যে এক জায়গায় লেখেন - " অপারে কাব্যসংসারে কবিরেক প্রজাপতিঃ " - ঐতরেয় ব্রাহ্মণ -জগতে যা কিছ দেখছো তা তাঁর কবিতা , তিনিই কবি ! ভবদেব বাবু সেই মন্তব্য অচিন্ত্য বাবুকে দেখান। অচিন্ত্য বাবু পরের বই লেখেন - 'কবি শ্রীরামকৃষ্ণ।  ' এসব ঘটনা আমাদের চোখের সামনে ঘটেছে। "  

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[10] 

তুমি আমাকে একটা ডিমের তা দেওয়া পাখির 

ছবি এনে দিতে পার ? 

     তরুণ ভবদেবের সাধুসঙ্গ করার অভ্যাসই তাঁর ভাগ্যবিধাতা হাজির করলো আর এক মহাপুরুষের চরণতলে। তিনি হলেন কথামৃত প্রণেতা শ্রীম। তখন কথামৃত প্রকাশের কাজ চলছে। 

১৮৮২-এর ২৪ শে আগস্ট দক্ষিণেশ্বরে ঠাকুর শ্রীম কে যোগীর মনের উদাহরণ দিতে গিয়ে বলেছিলেন ডিমে তা দেওয়া পাখির উদাহরনের কথা।  " যেমন পাখি ডিমে তা দিচ্ছে সব মনটা সেই ডিমের দিকে, উপরে নাম মাত্র চেয়ে রয়েছে ! আচ্ছা আমায় সেই ছবি দেখাতে পারো ? "  

মনি - যে আজ্ঞা।  আমি চেষ্টা করবো যদি কোথাও পাই। (কথামৃত ) শ্রীম - " ঠাকুরের ভাবটির উপর আমি একটি ছবি তৈরী করিয়ে ছিলাম। পাখির একাগ্রতা তন্ময় ভাব নিজের মনে আরোপ করার জন্য ওখানে মাঝে মাঝে ভক্তদের দেখাই। " বস্তুত স্বামী চেতনানন্দের সম্পাদিত 'শ্রীম সমীপে ' গ্রন্থটি তে ১৩১ পাতায় স্বামী ধর্মেশানন্দ 'শ্ৰীমর স্মৃতি তর্পনে ' বলছেন, রবি ( ভবদেব কে উদ্বোধন পত্রিকার সম্পাদক স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজের দেওয়া নাম ) অর্থাৎ ভবদেব শ্রীমকে ১৯৩২ সালের ১৩ই এপ্রিল দর্শন করতে গেছেন। সেখানে ভবদেব শ্ৰীমর আদেশে একটি ডিমে তা দেওয়া ছবি তৈরী করে শ্রীমকে দেন। এই ছবিটি বর্তমানে কথামৃতের প্রচ্ছেদ চিত্র রূপে ব্যবহৃত হচ্ছে। 

এই ছবিটি ভবদেব বাবু তাঁর বন্ধু ও সহপাঠী বিশিষ্ঠ চিত্রশিল্পী শ্রী শৈল চক্রবর্তীকে দিয়ে আঁকান।  শ্রী শৈল চক্রবর্তী আঁকা ও লেখা ৭০ -এর দশকে মহামন্ডলের মুখপত্র 'বিবেক জীবন ' -এ প্রকাশিত হয়েছে।  মহামন্ডল প্রকাশিত 'মনঃসংযোগ ' পুস্তিকার প্রচ্ছেদ চিত্রেও এই ছবি ব্যবহৃত হয়।   

2 Photos 

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[11]  

কি করে ভালো সাহিত্য রচনা করবো ? 

হাওড়া যুব সংঘের সভাপতি ছিলেন বিখ্যাত কথাশিল্পী শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়। একবার তিনি যুবক সংঘের আন্দুলের শাখায় উত্তর -মুড়ি খটির অঞ্চলে কোন একটি অনুষ্ঠান উপলক্ষে উপস্থিত হন। সেই সভায় শরৎচন্দ্রের ব্যক্তিগত সুবিধা -অসুবিধা দেখাশোনার ভার পড়ে কিশোর ভবদেবের উপর , শরৎচন্দ্র সপ্রতিভ ভবদেবের আন্তরিক ব্যবহারে মুগ্ধ হন এবং তার সঙ্গে সস্নেহ ব্যবহার করেন। 

সাহস পেয়ে ভবদেবের মনে একটি প্রশ্ন ওঠে , তিনি তাঁর আচার্যদেব শিরীষ চন্দ্র কাছে শিখে ছিলেন -যে মানুষ যে বিষয়ে গুণী তাঁকে সেই বিষয়ে প্রশ্ন করতে হয়।এটাই প্রশ্ন। এর ফলে প্রশ্নকর্তা ও উত্তরদাতা দুজনই সমৃদ্ধ হন। কিশোর ভবদেব কথাশিল্পীকে প্রশ্ন করল কেমন করে আমি ভাল সাহিত্য রচনা করব। 

উত্তরে শরৎচন্দ্র যা বললেন তা শুধু কিশোর ভবদেবের কাছে নয় , যে কোন লেখকের কাছে অত্যন্ত মূল্যবান পরামর্শ। তিনি বলেছিলেন -' মনে যখন কোন ভাব আসবে চেষ্টা করবে সেটা লিখে রাখতে। কিছুদিন পরে সেই লেখা বারকরে পড়বে।  দেখবে মনে অনেক নতুন ভাব আসছে।  সেন্তুলোকেও লিখে রাখবে।  এভাবে কয়েকবারের লেখা দেখবে তাদের মধ্যে কোন সংযোগসূত্র পাওয়া যায় কি না বা সেগুলো একসূত্রে গাঁথা যায় কিনা ? যদি গাঁথা যায় ভেবে দেখবে সেটা পরিবেশন যোগ্য কিনা ? যদি পরিবেশন যোগ্য হয় তাহলে সেটা লিখে ফেলবে। পড়ে দেখবে সেটাই একটা সুন্দর সাহিত্য সৃষ্টি হয়েছে। 

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[12]  

'You are thief Personified ' 

পঞ্চাশের দশকের শেষের দিকের কথা।  একদিন ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনীদার বাড়িতে গেছেন। আচার্য শিরীষ চন্দ্র সঙ্গে কথাবার্তা পর তিনি শ্রদ্ধেয় নবনীদার ঘরে গেছেন। প্রার্থমিক কথাবার্তার পর তাঁদের মধ্যে কি কথা হচ্ছিলো আসুন আমরা শুনি - 

ভবদেব বাবু -নবনী 'শুনেছিলাম তুমি চাকুরীর জন্যে একটা ইন্টারভিউ দিয়েছিলে ' তা কেমন ইন্টারভিউ হল ? 

নবনীদা - ইন্টারভিউ মোটামুটি ভালোই হয়েছে কিন্তু শেষকালে একটা মজার ব্যাপার হয়েছে। 

ভবদেব বাবু - ইন্টার্ভিউয়ে মজার ব্যাপার সে আবার কি ? ব্যাপারটা কি বল দেখি ? 

নবনীদা -ইন্টারভিউয়ের শেষে যে অফিসার ইন্টারভিউ নিচ্ছিলেন , তিনি হঠাৎ গম্ভির ভাবে বললেন " চাকুরীটা তোমার হয়তো হবে। কিন্তু তুমি চুরি-টুরি করবে নাতো ? 

আমিতো আকাশ থেকে পড়লাম।  প্রাথমিক ধাক্কা সামলে আমি জিজ্ঞাসা করলাম - " কেন , আমাকে দেখে কি চোর বলে মনে হয় ? ' তখন সেই অফিসার বললেন " দেখ বাপু দেখে কি সব বোঝা যায় ? দেখে তোমায় তো ভালোই মনে হয়। কিন্তু আমায় ভাবাচ্ছে তোমার নাম , তোমার নাম নবনীহরন , যার অর্থ দাঁড়ায় 'ননীচোর ' সুতরাং ' 'You are thief Personified ' যে ননী চুরি করতে পারে , সে অন্য কিছুও চুরি করতে পারে। বলেই তিনি অট্টহাসিতে ফেটে পড়লেন। এটা বলে নবনীদা ও ভবদেব বাবু দুজনই হাস্তে লাগলেন।  

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[13]

" Leader is born , not made ."

"নেতারা জন্মায়, তৈরি হয় না।"

"नेता पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते ।"

(स्वामी विवेकानन्द का संक्षिप्त चित्रण )

 (An abridged portrait of Swami Vivekananda) 

We are told that a great man is the outcome of revolution, fulfills the revolution and is father of the future ages. Such a great man is suprim most worthy to the mother Earth. And here Swami Vivekananda is the one, and 'indeed he is without a parallel ' in the galaxy of the illustrious souls ever born ! A peerless ideal : a complete and comprehensive specimen of intense action, inaccessible contemplation and deep- seated devotion -firm faith and wonderful forbearance. Over and above , firstly he is a dedicated self to the search for God, and at last is the saviours of humanity both from its mundane and spiritual  chaos - ' a voice without form .'  

He was born as the second son of Biswanath Dutta (1834-84) and Bhubaneshwari Devi (1841-1911) . They lost their first male child that died in infancy ; and in course of time they got ,one after another four daughters ! Evidently the parents had to pray for a son to the Lord Shiva who confers boon according to the prayer of  his devotee .Alfred, Lord Tennyson wrote these powerful words:  

        "More things are wrought by prayer

 than this world dreams of."

       Bhuvaneshwari Devi was a very pious and noble lady. In the midst of her multifarious duties and responsibilities as a housewife of a big joint-family , she prayed silently and in-consistently with severe  austerities  , giving her whole soul over to constant collectedness in the Lord Shiva for the fulfilment of her hearts desire, -so that a son would be born .....Mother alone knows better a mothers heart , and her longing for a son ! " Watch and pray ." [ “Watch and pray so that you will not fall into temptation. The spirit is willing, but the flesh is weak.” ( Matthew 26:41) ]

       Thus after a long expectation , over a decade, the fortunate event took place !  In an auspicious moment - 'brahma muhurtam' Bubaneshwari Devi gave birth to a male child (Jan 12, 1863), while the Sun and the Moon were in the sign of the Zodiac Dhanu (Sagittarius) and Kenya (Virgo ) respectively . Her prayer was brilliantly granted by the Gracious Lord Shiva ! Unbounded joy ushered  into the Dutta-family !

        The period of the birth time of the child had an additional expressive importance , It was a holy day of the annual  festival of Makar -Sankranti. The householder in every house has commenced their scheduled prayers and rituals amidst an agreeable atmosphere of fragrant fumes and  sandal-paste  , enkindled lamp-stand , blowung conches and timely music , -tantamounting to be not only a transcendental  welcome but also a supersensible ovation to a new born child of whom very little was known to the people . 

      But Sri Sri Ramakrishna at Dakshineswar was fully aware of the August advent of the child, who was to carry on the tremendous task to preach the world of his divine discourses during the last quarter of the 19 th Century .

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥  

        Soon it came to pass -the blessed birth of a son in the Datta -house  was heralded in all directions across the locality of Simulia . The neighbours both male and female assembled to see the new -born child . One of them was an aged gentleman. At the very sight of the baby he cried aloud in a state of starting surprise: " Lo ! the baby seems to be a miniature replica of Durga  Prasad 2 probably he is born again in this body . " 

On a subsequent day, an elderly widow Brahmin lady appeared and took up the child endearing with her open arms . She was stunned with amazement and said emphatically : ' How lovely ! Oh ! Bhubaneshwari ! You are really the favourite  of Fortune ! The baby having such a beautiful appearance , and with the very neat and nice shape and size of his limbs , is certainly born of a consecrated soul. He would work in obedience to the will of the Almighty Mother ! ' 

         She continued further exuberantly with her strong belief that the new -born child was source of rare endowments : 'Here you are ! See ! The physiognomy (मुखाकृति)  of the child is superfine . The broad and bright rectangular forehead with glossy black stuff of curling hair seems surpassing the god of love in beauty. The large lustrous crystal clear magnificent eyeballs with deep dark blue consentrated in the center glwoing -serene and sublime . Emitting piercing sparks of fire-volcanic agencies  of courage and profound love and mercy to one and all - a moving Spirit , The heavy and wide lids thereon recall a classic composition of the lotus -petals are amazingly attractive .......

        The hallowed mother Bhuvaneshwari Devi was full of heavenly happiness. Rather she was in a maze ! Indulging endless colorful high hopes ...... Obviously discarding Durgadas , She gave a name to her child - Vireshvar . 3 (It is another name of the Lord Shiva , out of his one hundred and eight denominations.) But the child was popularly known by his nick -name , Bilu and /or Bileh.4 

      On the eve of the long-cherished expectation of a son being fulfilled Biswanath Dutta did bestow the largeness of his charity . He was a renowned Attorney -at -Law of the Calcutta High Court and earned not only enough fortune but also inter -provincial fame. He had a fine coach and pair to drive to his office. One afternoon he was out with the family in his carriage for wandering about the city. 

        Both the coachman and the saice of the carriage were dressed in glistening livery, and gorgeous turbans on their head .They were very amiable fellows of Bihar , and were entrapped  in the handsome appearance with frolicsome behavior of their dearly loving Bilu-Babu. 

          Counterwise Narendranath did also like them very much . He could have his easy access , now and then inside into the stable with their help and cooperation to enjoy the close association of the living horses .He had a  particular passion for the horses besides other per animals and birds. He was also much inclined to hear stories ; and the coachman used to entertain him with fanciful stories , specially of the winged horses , - depicting vividly their physical beauties and majestic movements in flying over the roofs of the house , and even beyond the clouds in the sky !  Narendranath would listen to the grave and fabulous gossips with awe -inspiring interests hoping for a horse of the type to ride on .

        The carriage was running towards the Chowringhee area through the Cornwallis Street (Now the Bidhan Sarni) at a great speed. Narendra, aged hardly about four .was on the lap of his mother looking around the panoramic sights of the Street merrily. But the attention was already arrested by the coachman for his commanding style and dexterity to drive the horses ....... 

Biswanath took much delight over the hilariousness of his beloved son, and burst upon all on a sudden with a caressing look ; " Well , Bileh ! What is your pleasure ! ..... What would you like to be in life ? " All at once Narendranath replied most cheerfully ; " Oh ! a Coachman , father . I would drive strong and smart Horses ."  

" THE APPLE ALREADY LIES POTENTIALLY IN THE BLOSSM ." 

Narendranath's (the would be -Swami Vivekananda's ) primery ambition in life was to become a Coachman ! And in fact he is the Coachman to drive Humanity towards Divinity by transforming himself into diverse forms and divers ways -physically with his all -embrassing prolongoted arms of loving care and services , careful coaches and rational approches ; and spiritually through his mandatory mandates and maxims of piety , probity and personality . 

All these have been ridiculously demonstrate as ' a miraculous Mystic', ' a bewildering Meistersinger', 'a Cyclonic Hindu Monk', 'an orator by Divine right', ' the greatest figure in the Pariyament of Religions'- 'vast lerning, speaking English like a webster', ' the Lion of the day', 'a Neologist of Love and Unity ', 'a Rivivalist of Sevice and Renunciation', 'the paragon of Vedantists', and finally he who has has feelingly asserted himself as 'a condensed India ', An accomplished Acharya  Srimat Swami Vivekananda .   

"ॐ नमो श्री- ज्योतिरालय  विवेकानन्द सूर्ये ! "

भवदेव बनर्जी ,

12 th Dec, '84

Andul-Mauri (Unsani), Howrah.

N.B. - In observance of the hallowed Birthday of the Swamiji it was read out on 12-1-1985 with due solemnity by Sri Gangasankar Mukherjee , President , Pathachakra Library of the locality. 

1. Cf, My father and mother fasted and prayed , for years and years , so that I would be born. -Swami Vivekananda, January,1900. 

2. He was the father of Biswanath Datta , who was his only son, The former renounced the world as a monk when the latter was aged about six months .

3. In all Bhubaneshwari Devi begot four sons and six daughters . The last two issues were sons : Mahendranath (1869-1956) and Bhupendranath (1880-1961).

4.Later on in 1871 at the time of his admission into the Metropoliton Institution , Class 9th (Present Class -VI.) Eng.Department , he was declared by and enrolled in the register of the Institution with the new name Narendranath . But the spelling of it appeared in the admission Reciept of the Institution seems to be very peculior having some allied impotant significance in the greater context of the history : Norendor .In recent times in India , it was Vivekananda alone who preached a geart message . This messeage has roused the heart of the youths in a most pervasive way .That is why this message has borns fruit in service of the nation. " - Rabindranath Tagore , 1928. 

The Message of Vivekananda is a Clarion call of awakening to the totality of Man and that is why it inspired our Youth to the divers course of liberation through service and sacrifices. " - Rabindranath Tagore , 1929.

If you want to know India , study Vivekananda . In him there is nothing negative , everything positive."  Rabindranath Tagore , 1929.

Published on the eve of the 123rd Birthday of Swami Vivekananda, and in welcoming also the momentous mandate declared by the Govt. of India , first of its kind that the Day will be observed as the Natioal Youth Day is reckoned to begin with the International YouthYear, with week-long celebrations. Not only this the Day (the 12 th Jan) wil be featured as the National Youth Week. 

Santosh Kumar Mukherjee, 

Andul-Mauri , Howrah.


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[14] 

মহামিলন 

জনমানসে অবিসংবাদী আর্ত দরদী অক্লিষ্ট কর্ম জনশিক্ষা অধিনায়ক নব নব বেদান্তের প্রবক্তা পরিব্রাজক বিবেকান্দের ব্যক্তিসত্তা অন্তঃস্থলে ছিল চিরশ্যামল অনিন্দ্যসুন্দর সারল্য - চিরভাস্বর চিত্তরঞ্জনী বৃত্তি ও সর্বোপরি চিরপ্রবাহিনী হ্লাদিনী সুরসারিত।  তিনি নদ-নদীর মহাবেগে সমুদ্রাভিমুখী প্রধাবন কে - 'বিশাল সুর তরঙ্গ প্রবাহ ' আখ্যা দেন।  কল-কল্লোলিনী অলকনন্দার কুলুধ্বনি শুনে তিনি বলে উঠলেন , 'অলকনন্দা এখন কেদারা রাগে প্রবাহিত হচ্ছে। ' সংগীত ছিল তাঁর জীবন-সাধনার প্রথম সোপান ও অবিচ্ছেদ্য অঙ্গ ; শ্রেয়ঃ ও প্রেয়ঃ উভয়বিধ অভীষ্টের একমাত্র উপবন। সঙ্গীত বিদ্যায় চরমোৎকর্ষ লাভে তিনি হয়েছিলেন পরিপূর্নতার সৌন্দর্যে সৌন্দর্যবান ও সর্বজন প্রিয় ; পেয়েছিলেন পরমতম পুরস্কারস্বরূপ 'আউটরবৃষ্ঠ ' শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণদেবের নিবিড়তম নৈকট্য -অন্তঃরঙ্গতম সঙ্গ। পরিশেষে ঘটে সুনির্দিষ্ট পরিণীতি -' A tremendous upheaval of the whole life '- এ তাঁর নিজেরই স্বতঃস্ফূর্ত স্বীকারোক্তি। 

'নীতিসিদ্ধের থাক ' নরেন্দ্রনাথ (স্বামী বিবেকানন্দ)নৈসর্গিক নিয়মে শৈশব হতেই সঙ্গীতের প্রতি- বিলক্ষণ আকর্ষণ অনুভব করতেন। সঙ্গীত অনুশীলন করাও যেমন ছিল তাঁর পক্ষে অনায়াসসাধ্য , তেমনই তো পরিবেশনেও তিনি ছিলেন স্বতঃপ্রবৃত্ত। সঙ্গিতালাপন প্রবুদ্ধ করে রাখতো তাঁর সহজাত -সংস্কার -'অনন্তের অধিকারী ' -অতীন্দ্রিয় সত্যের অপরোক্ষানুভূতি। 'অহেতুক দয়াসিন্ধু ' শ্রীশ্রী ঠাকুর নরেন্দ্রনাথের গান শোনেন সর্বপ্রথম কলকতার তাঁর পল্লীতে -এক ঘটনাঘন সন্ধ্যা সমাগমের শুভ সন্ধিক্ষনে -'সন ১২৮৭ সালের হেমন্তের শেষভাগে '-ইং ১৮৮০ অক্টবর। 

নরেন্দ্রনাথ প্রেসিডেন্সি কলেজের ছাত্র -সাধারন -ব্রহ্ম সমাজের সদস্য। সকল বিষয়ে অনুসন্ধিৎসু -সত্যসন্ধ ; শিব সুন্দরের পূজারী বুদ্ধির প্রখরতায় সমুজ্জ্বল ; আস্তিক্যপ্রবণ -আদর্শবাদী। নিষ্কলুষ চরিত্র -সুদৃঢ় চিত্ত ; সহিষ্ণুতার মূর্ত প্রতীক। আভিজাত্য বোধের দন্ত বিদ্রজিৎ মিশুক। 'কাহাকেও care করে না। ' অসাধারন বাকপটু -তা অধিকাংশ সময়ে তিক্ত শ্লেষপূর্ন হলেও অন্তগুঁড় মনোভাবটি আসলে মহাহৃদয়তা ও সহানুহুতির রূপান্তরিত বহিঃ প্রকাশ ! বন্ধু মহলে সর্ব বিষয়ে অগ্রণী -বাগ্বিতণ্ডা , আলাপ আলোচনা আনন্দ-উচ্ছাস , আশাভরসার পরশমনি ; বেপরোয়া জেদি , সদানন্দ মধুকন্ঠ গায়ক। কিন্তু অন্তরে তাঁর জীবন এক মহাপরিবর্তনের সম্মুখীন। নিভৃত হৃদয় গুহায় নিবাত -নিষ্কম্প দীপশিখা -ঈশ্বর কোথায় ! কেমন ! তাঁকে দেখা যায় কি -না ?  

পড়াশোনা , সংগীত চর্চা, ধ্যান-ধারণা ইত্যাদির উপযুক্ত স্থান বিবেচনায় , নরেন্দ্রনাথ মাতামহীর বাড়ি (৭নুং রামতনু বসুর গলি) -র দোতালায় একখানি অল্প পরিসর গৃহে একা থাকেন। দু-বেলা আহারাদির সময় কেবল নিজ আলয়ে যান। যে গৃহে তিনি থাকতেন তার সিঁড়িটি বাড়ির সুমুখে বাইরের দিকে একচালু -নাম দিয়েছিলেন 'টঙ'; তাঁর জীবন জিজ্ঞাসার আদি যজ্ঞ ক্ষেত্র। এখানে পরমহংসদেব পদার্পন করেছিলেন কয়েক বার (১৮৮২-৮৩)

পরমহংস শ্রীরামকৃষ্ণদেব একাদিক্রমে আটমাস যাবৎ কামারপুকুর অঞ্চলে অবস্থান করেন -ইং ১৮৮০ , ৩রা মার্চ হতে ১০ই অক্টবর পর্যন্ত। ... লোকপারম্পরায় পরমহংসদেবের স্বদেশ হতে পুনরাগমনের বার্তা শুনে তাঁর অন্যতম চিহ্নিত ভক্ত সুরেন্দ্রনাথ মিত্র (১৮৫০-৯০)১ দক্ষিনেশ্বরে উপস্থিত হন আসন্ন এক অপরাহ্ণ ; ব্যাকুল অন্তঃকর্ণে -অফিসের অসমাপ্ত কাজকর্ম ফেলে -শারদীয়া বিজয়া দশমী পর। এঁর প্রাকৃত নাম -সুরেশ চন্দ্র ; ঠাকুর স্নেহভরে তাঁকে 'সুরেন্দ্র ' বা 'সুরিন্দর ' বলে সম্ভাষণ করতেন। দিব্যভাবরুধ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁকে দেখেই স্নিগধ হাসি হেসে বললেন , 'এই যে , সুরেন্দ্র ! তোমার কথাই ভাঙছিলুম ! আমি যে তোমার ওখানে যাবো বলে এক্ষণে যেওনা হচ্ছি। '

অপ্রত্যাশিত এ হেন সম্ভাষণ ও অভূতপূর্ব সুযোগ সুরেন্দ্রনাথ আশ্চর্যান্বিত , তেমনই আনন্দে আত্মহারা হয়ে শ্রীশ্রী ঠাকুরকে জানান , 'বেশ তো ! এ তো আমার পরম সৌভাগ্যর কথা। চলুন , আপনাকে আমরা গাড়িতে করে এখুনি নিয়ে যাব। ' 

মহানন্দে মঙ্গলময় শ্রীরামকৃষ্ণদেব পাইছিলেন সুরেন্দ্রনাথের মনলালয়ে -সিমলা স্ট্রিট। ২ দেব বশে তাঁর এই শুভাগম উপলক্ষে সেদিন সুরেন্দ্রনাথের গৃহে বিশেষ ভক্তসমাগম বা কোন উৎসবের আয়োজন সম্ভবপর হয় নি। প্রতিবেশী বন্ধু ও ঠাকুরের ভক্ত -গোষ্ঠীর বিশিষ্ট মুখপাত্র ডাঃ রামচন্দ্র দত্ত প্রমুখ দু-একজন মাত্র শ্রীশ্রী ঠাকুরের আদর -আপ্যায়নে সহযোগিতা করেন। ঠাকুর গান ভালোবাসেন , কিন্তু তার কোন ব্যবস্থার সম্ভাবনা সুদূর পরাহত। 

সহসা সুরেন্দ্রনাথ মনে পড়লো : নরেন তো বেশ গায় ! গলাটি তার ভারী মিষ্টি। তিলার্ধ বিলম্ব না করে তিনি দ্রুত চলে গেলেন তাঁর অন্বেষনে। সুরেন্দ্রনাথৰ ডাক শোনামাত্র নরেন্দ্রনাথ নেমে এলেন 'টঙ' হতে। তাঁর প্রস্তাবও তিনি সানন্দে সম্মতি জ্ঞাপন করলেন কোনরূপ অজুহাতের অবতারণা না করে। সঙ্গীত আলাপনে তিনি সততই উৎসুক। তার উপর বিশেষ আগ্রহ সহকারে তাঁকে আহবান করেছেন তাঁর প্রতিবেশী সম্ভ্রান্ত মিত্র মহাশয় -তাঁর গুরুদেব কে গান শোনাতে।  সদাহারনতাঃ প্রতিবেশী বয়োজ্যেষ্ঠ বনেদি কুলতিলকগন নরেন্দনাথকে খুব ভালো চোখে দেখতেন না - তাঁর আপাতবিরুদ্ধ 'বোহেমিয়ান ' -সুলভ হাবভাব দরুন। নরেন্দ্রনাথের সঙ্গীত সম্বন্ধেও তাঁরা ছিলেন অনুৎসাহী। তখন তিনি গাইতেন বেশির ভাগই হিন্দি-উর্দু -ফার্সি ভাষায় রচিত গান -সহজ-সরল ভবোজ্জ্বল (ভক্তিমূলক ) গজল -টপ্পা ঠুমরি , অল্পসল্প ক্লাসিকাল (হিন্দি ধ্রুপদ খেয়াল)এবং 'দু-চার খানি ' ব্রাহ্মসমাজের বাংলা গান। যাই হোক -তিনি সুরেন্দ্র-নাথের সঙ্গেই এলেন তাঁর আলয়ে। 

' শুদ্ধসত্ব '  নরেন্দ্রনাথকে নয়নগোচর হওয়া মাত্রই সুদক্ষ আবিষ্কারকের ন্যায় শ্রীরামকৃষ্ণদেব অধীর হয় ওঠেন বিস্ময়ে ; মহা আনন্দে -ভাবে -প্রেমে। ব্যস্ত হন তাঁর পরিচয় লওয়ার জন্যে।  'Who ever loved that loved not a first sight ?' -একদৃষ্টে তিনি অবলোকন করতে থাকেন তাঁরা সৌম্য-শান্ত-কোমল কান্তি, নির্মল শরচন্দ্রসম মুখশ্রী ! .... আলাউকিক , গুরু -অলৌকিক শিষ্য -অলৌকিক যোগাযোগ। 'ধ্যানসিদ্ধ ' মুক্ত-স্বভাব নরেন্দ্রনাথ আসরে বসে কালক্ষেপ না করে গান গাইতে আরাম্ভ করলেন তানপুরা সহযোগে -সমস্ত প্রাণ-মন টেলে ; তেজোদ্দীপ্ত করুণাদ্র কণ্ঠে -সুরের সস্মহনা -মূর্ছনায় ! সেই উদাস ভাবব্যাঞ্জক পরিপ্রশ্নের আকুতিতে ভরা গান শুনে ভাবগ্রাহী ভগবান শ্রীকরামকৃষ্ণদেব আবিষ্ট হয় পড়েন।  

নরেন্দ্রনাথ প্রথম গান গাইলেন অযোধ্যানাথ পাকড়াশীর রচিত -'মন চল নিজ নিকেতনে '- সুরট -মল্লার সুরে একতালে ; দ্বিতীয় গান গাইলেন , রাগিনী 'মুলতান -আডাঠেকা', রচনা বেচারাম চট্টোপাধ্যায় -'যাবে কি দিন আমার বিফলে চলিয়ে ? '  

গান শেষ হলে অনান্যসাধারন সংগীত -পিয়াসী পরমহংসদেব মহাপুলকভরে ও প্রশংসমান আবেগে বললেন , 'বাঃ ! বাঃ ! খাসা ছেলে ! হ্যাঁ -এমনটিই তো চাই। ... তা একদিন ওখানে , দক্ষিনেশ্বরে যেওনা।  যাবে তো ? যেও কিন্তু !' 

নরেন্দ্রনাথ নিতান্ত সাধারণ সৌজন্য বোধেই ঈষৎ গ্রীবা সঞ্চালনে সস্মতি জানিয়ে বিদায় নিলেন -দুর্জ্ঞেয় এক ভাবাবেশ ! শ্রীরামকৃষ্ণ -লোকের আলাউকিক আধ্যাত্মিক আবেদন অজ্ঞ ও উদাসীন নরেন্দ্রনাথ বাড়ি ফেরেন শুভ্র -শরৎ -শশীর আলোছায়ার আবর্তে ! সুবিশাল মহা গৌরবোজ্জ্বল ভবিতব্য রয়ে গেল অদূর ভবিষ্যতের হিরন্ময় গর্তে !  

দেখতে দেখতে বহু ঘটনা পরম্পরার মধ্যে দশ -এগার মাস অতিবাহিত হয় গেল।  ১৮৮১ সাল শেষ হতে চলল। এফ.এ পরীক্ষায় নরেন্দ্রনাথ দ্বিতীয় বিভাগে পাশ করলেন। আত্মীয় স্বজন সকলেই আনন্দে উৎফুল্ল -উৎসবমুখর ; শীঘ্রই তাঁর বিবাহও সুসম্পন্ন হবে। নরেন্দ্রনাথ এ প্রস্তাব শুনে পরিষ্কার ভাবে অসাম্মতি জানান। আপাদৃষ্টিতে তাঁকে পড়াশুনায় মগ্ন , ব্রাহ্মসমাজে ও সভা-সমিতিতে যোগদান অনুরক্ত , বন্ধু -বান্ধবদের সঙ্গে ক্রীড়াকৌটিকে ও সংগীত চর্চায় মশগুল মনে হলেও -তাঁর অন্তঃকরণের অভ্যন্তরে ছিল নিরন্তর এক নিদারুন অস্বস্তি -দুশ্চর আকাক্ঙ্খা ঈশ্বর প্রত্যক্ষীভূত হয় কি না ? ঈশ্বরিক সত্তার নিঃসন্দিগ্দ্ধ স্বীকৃতিই তাঁর একমাত্র কাম্য। আবাল্য এই সংশয় ও নোৱাশ্যের নিস্পত্তিকরনে ব্যর্থতার পর ব্যর্থতার নরেন্দ্রনাথ অধিকতর অস্থির -চিত্ত ! বসুন্ধরা বক্ষে উপ্ত বীজ কালচক্রের গন্ডিতে আবদ্ধ -অব্যক্ত বেদনায় নির্জিত ! জাগতিক ঈষণীয় সকল বিষয়ে তিনি নিঃস্পৃহ ও নির্লিপ্ত ; জীবনের উদ্দেশ্য সাধনে -আদর্শগত সিদ্ধান্তে অটল ও অনমনীয় -'শরীরং বা পাতয়ামি , মন্ত্র্যং  বা সাধযামি। '

এতাদৃশ পরিস্থিতির মাঝে নরেন্দ্রনাথের পিতার নির্দেশানুক্ৰমে পূর্বোল্লিকঘিত ডাক্তার রামচন্দ্র দত্ত (১৮৫১ -৯৯) নরেন্দ্রনাথ কে খোলাঝুঁকিভাবে জিজ্ঞাসাবাদ করেন তাঁর পারিবারিক মনোভাবের বিষয়। রামচন্দ্র ছিলেন নরেন্দ্রনাথের মাতা ঠাকুরানীর দূরসম্পর্কীয় মাতুল; নারকেল ভাঙ্গা নিবাসী নৃসিংহ প্রাসাদ দত্তের পুত্র। শৈশবে মাতৃহীন ও আবস্থা বিপর্যয়ে রামচন্দ্র ক্যাম্পবেল মেডিক্যাল স্কুলে অধ্যান কালব্ধি (আনুমানিক ১৮৭১-৭২পর্যন্ত ) নরেন্দ্রনাথের পিত্রালয় অবস্থান করেন। অশেষ গুণান্বিত প্রিয়দর্শন নরেন্দ্রনাথ তাঁর খুবই প্রিয় অনুগত।   

নরেন্দ্রনাথের অন্তরের ঐকান্তিক বাসনা এবং তা পূরণে কঠোর জীবনযাত্রার আচরণবিধি ও অকাট্য যুক্তিপূর্ন সিদ্ধান্ত সমূহ শুনে ও মর্মার্থ হৃদয়ঙ্গম করে রামচন্দ্র দৃঢ় প্রত্যেযে বললেন , ' ভাই , আমি তোমার সঙ্গে একমত। আর আমি তো তোমাকে তোমার ভূমিষ্টকাল হতে সবিশেষ লক্ষ্য করে আসছি। তবে , প্রাকৃত সত্যলাভ করতে হলে ব্রাহ্মসমাজে -এখানে -ওখানে ছুটাছুটি না করে দক্ষিনেশ্বরে ঠাকুর রামকৃষ্ণের নিকট চল।

 রামদার মুখে শ্রীরামকৃষ্ণদেবের কথা শোনামাত্রই নরেন্দ্রনাথ সবিস্ময়ে চমকে উঠলেন ! যুগপৎ সমস্ত ঘটনা -সুরেন্দ্রনাথ মিত্রের বাড়িতে তাঁকে দর্শন ; ব্রাহ্মসমাজে ও পত্র-পত্রিকায় ৩ তাঁর অকল্পনীয় ভক্তি বিশ্বাসের আলোচনা ; কলেজে অধ্যাপক হেস্টিংস সাহেবের নিকট তাঁর সমাধির কথা এক মুহূর্তে গভীর মনোনিবেশ সহকারে পর্যালোচনা করে এবং পারিপার্শ্বিক পরিবেশের পরিবর্ধমান পীড়নের বাধ্যবোধকতায় তিনি সমস্ত হলেন দক্ষিনেশ্বরে যেতে। তমিস্র ঝঞ্ঝাক্ষুব্ধ তাঁর অন্তর উৎসাহিত হল দিগন্ত প্রসারী প্রশান্ত অরুণোদয়ের যানবদ্যি আভায় !

সময় -সুযোগমত সত্বর শ্রীরামকৃষ্ণ সকাশে যাবার দিন স্থির হল : '১৮৮১ , ডিসেম্বরের শেষাশেষি ' -সন ১২৮৮, 'পৌষমাস ' -এর প্রথমার্ধ। নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে ছিলেন রামচন্দ্র দত্ত , সুরেন্দ্রনাথ মিত্র ও তাঁর দু-জন বন্ধু।ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শশ ব্যস্তে হর্যাটফুল নয়নে নয়নাভিরাম 'নব -ঋষি ' নরেন্দ্রনাথ কে আদর অভ্যথনায় আকুল। এই দ্বিতীয় সাক্ষাৎকার বা মহামিলন দুজনকেই করে ভূতল উন্মুখ -এক অনির্বচনীয় আকর্ষনে -অনাবিল আনন্দে ! পরস্পর একে অন্যের ভিতর করলেন এক সুবহিত মকরনদের অঘ্রান ! নরেন্দ্রনাথ অন অনাহুত পূর্ব প্রীতির পরিশীলনে - অনাস্বাদিত দ্ব্যানুভূতি আবেশে অভিভূত ! তাঁর হৃদয় আশার আলোকে আলোকিত -পুলকিত , কিন্তু দ্বিধামুক্ত নয়। ... যাত্রটি নরেন্দ্রনাথের সঙ্গে ঠাকুরের অভিনব বিস্ময় -বিমিশ্র সুদীর্ঘ সন্তোষনের দু -একটি যুক্তিবিশেষ সবিশেষ স্মর্তব্য : তিনি পূর্ব পরিচিটের ন্যায় নরেন্দ্রনাথের হাত ধরে আনন্দাশ্রু বিসর্জন করতে করতে স্নেহগলিত কণ্ঠে তাঁকে বলেছিলেন -'এতদিন পরে আস্তে হয় ? আমি তোমার জন্যে কিরূপ প্রতীক্ষা করে রয়েছি তা একবার ভাবতে নেই। ... আমার কথা কি এমনিভাবে ভুলে থাকতে হয় ! ' -ইত্যাদি কত অনুযোগ -আকুলতা - অনাসৃষ্টি আচরণ ও অভিনব আত্মীয়তা।  নরেন্দ্রনাথ বিস্ময়াবিষ্ট -হতবাক ! ......  

শ্রীশ্রীঠাকুর অত্যন্ত প্রীতি ও সাশ্রুনয়নে গাঢ়তর কণ্ঠে নরেন্দ্রনাথকে অনুরোধ জানালেন , ' বল শিগগির একদিন এখানে আসবি ? কিন্তু আসবি একা -সঙ্গে কাউকে আনিস না।  বুঝলি ? '    

এড়ানোর কোন উপায় না দেখে অগত্যা নরেন্দ্রনাথ 'এসব ' -বলে অঙ্গীকার বোধ হলেন এবং এবার কেন্দ্র ভারতবর্ষ 'এর বীজও হল অঙ্কুরিত !

NB. 

1 . (ক) ইনি ডাঃ রামচন্দ্র দত্ত ও মনমোহন মিত্রের পরামর্শে ও পীড়াপীড়ি তে ১৮৮০ সালের প্রথম ভাগে দক্ষিনেশ্বর পরমহংসদেবের সানিধ্যলাভ করেন। (খ) রামচন্দ্র ও মনমোহন ব্রহ্মানন্দ কেশবচন্দ্র মনের 'পরমহংসের উক্তি সহ তাঁর ' The Indian Mirror ' ও 'ধর্ম্যতত্ত্ব ' পাঠে উৎসকতা প্রবেশ হয় শ্রীরামকৃষ্ণদেবের সামিপে উপস্থিত হন শ্যামাপূজার দিন ইং ১৮৭৯ , বৃহস্পতিবার অপরাহ্ন। (গ) রামচন্দ্র দত্ত এর সঙ্গে পরমহানদেবের প্রথম মিলন হয় ১৫ ই মার্চ ১৮৭৫। 

২. উক্ত ভবন টি 'বিবেকানন্দ রোড ' নির্মাণে নিশ্চিন্হ ; উহার অবস্থিতি ছিল 'দত্তবাড়ি ' দক্ষিণ-পশ্চিম করে। 

৩. 'The Indian Mirror ', ' The Theistic Quaterly Review ' ধর্মতত্ত্ব' 'সুলভ সমাচার' ইত্যাদি।   

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[অধীতি বোধাচরণ প্রচারনে] 

“अधीतिबोधाचरण  प्रचारणैः ” 

(अध्ययन- बोध एवं व्यवहार द्वारा प्रचार)

(অধ্যন বোধ ও আচরণের দ্বারা প্রচার )

স্বনামধন্য় শিক্ষণব্রতী শিরীষ চন্দ্র মুখোপাধ্যায় (১৮৯১-১৯৬৬) এবং তত্ত্বদর্শী 'উদ্বোধন ' সম্পাদক শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ (১৮৯১-১৯৫৬) মহারাজ -দুজনই ছিলেন ভবদেব বাবুর হৃদয়ে বিশেষ শ্রদ্ধার আসনে অধিষ্ঠিত , পূজনীয় ব্যক্তিত্ব। 

তাঁরা দুজনই ভবদেব বাবুকে বিশেষ স্নেহ করতেন , আচার্য শিরীষ চন্দ্র ভবদেব বাবুকে 'দেব ' বলে ডাকতেন। ভবদেব বাবুকে লেখা শিরিশচন্দ্রের চিঠি পত্রে এর প্রমান পাওয়া যায়। অপর দিকে স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজ ভবদেব বাবুকে 'রবি ' বলে ডাকতেন। উদ্বোধনের একটি সংখ্যায় স্বামী বাসুদেবানন্দ একটি ইতিহাস নির্ভর কল্প কাহিনী প্রকাশ করেছিলেন। সেই কাহিনীতে একটি চরিত্র ছিল যার নাম 'রবি।' স্বামী বাসুদেবানন্দ এর বেশ কয়েকটি পুস্তক শ্রীরামকৃষ্ণ বাসুদেবানন্দ সংঘের উদ্যোগে প্রকাশিত হয়। কয়েকটি উল্লেখযোগ্য পুস্তক হল - দিব্য বাণীর প্রতিধ্বনি ', অন্তর রাগে আলাপন ', শ্রীরামকৃষ্ণ স্মৃতি সাধুকরী। ', এই সকল প্রকাশনের সঙ্গে ভবদেব বাবু বিশেষভাবে যুক্ত ছিলেন।

'বিবেকানন্দ পাঠচক্র ' ছাড়া আন্দুল -মুড়ি তে 'বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ ' নামে একটি সংগঠন ছিল। এই সংগঠনের সম্পাদক ছিলেন ভবদেব বন্দোপাধ্যায় এবং সভাপতি ছিলেন পূজনীয় শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ। ভবদেব বাবুর বিশেষ আগ্রহে স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজ বহুবার আন্দুল -মুড়ি তে পদার্পন করেন। মহিয়াড়ি সাধারণ পুস্তকালয়ের ' Visitors Book ' থেকে সংগ্রহ করে ভবদেব বাবু আমাদের জন্যে রেখে গেছেন তত্ত্ব ও তথ্য যা খুবই মূল্যবান। ভবদেব বাবু নিজের হাতের লেখা সেই সংগ্রহটির Photo Copy আমরা শ্রদ্ধাশীল পাঠকের কাছে নিবেদন করলাম , যার ঐতিহাসিক মূল্য অপরিসীম। ভবদেব বাবু স্বামী বিবেকানন্দের সন্ন্যাসী শিষ্য স্বামী বোধানন্দ ও স্বামী বিমলানন্দ বিশেষ স্নেহ ধন্য ছিলেন। 

আন্দুল মৌড়িতে স্বামীজীর প্রত্যক্ষ শিষ্য স্বামী বোধানন্দের স্মরণে বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ প্রতিষ্ঠিত হচ্ছিলো। সেই সংঘের Letter Pad এর একটি পাতা আমরা পেয়েছি। আন্দুলের সঙ্গে স্বামী বোধানন্দের কয়েকটি যোগসূত্র আমরা জানতে পেরেছি। পাঠকের কাছে আমরা তা সবিনয়ে নিবেদন করছি - যা আন্দুলের সাথে তাঁর যোগসূত্রের প্রমান দে।

উদ্বোধন থেকে প্রকাশিত 'স্বামীজীর পদপ্রান্তে ' শীর্ষক পুস্তক থেকে আমরা জানতে পারি যে স্বামীজীর দুই সন্ন্যাসী শিষ্য স্বামী বোধানন্দ ও স্বামী বিমলানন্দ ছিলেন পূর্বাশ্রমে জাঠতুতো -খুড়তুতো ভাই। তাঁদের উভয়ের জন্মস্থান হাওড়া জেলার জগৎ বলভ পুর থানার বাগঙ্গা গ্রামে। দুই ভাইয়ের মধ্যে খুবই সদ্ভাব ছিল এবং তাঁদের চরিত্র মাধুর্যের জন্যে তাঁরা সকলেরই বিশেষ আদরণীয় হয় ওঠেছিলেন। স্বামী বোধানন্দের পিতার নাম শিব নারায়ন চট্টোপাধ্যায় ও স্বামী বিমলানন্দের পিতার নাম বেণীমাধব চট্টোপাধ্যায়। শিবনারায়নের কনিষ্ঠ ভ্রাতা বেণীমাধব। বেণীমাধব চট্টোপাধ্যায় মহাশয় পরে আন্দুলে বাস করতেন এবং কলিকাতার পটলভাঙ্গায় ক্যাথিড্রাল মিশন লেনেও নিজের বাড়িতে মাঝে মাঝে থাকতেন। স্বামী বোধানন্দ ও বিমলানন্দ ছিলেন যেন হরিহর আত্মা। সুতরাং একথা বলা যায় ভাই বিমলানন্দের সঙ্গে বোধানন্দ ও আছরাবস্থায় আন্দুলের আকর্ষনে ধরা পড়েন।   

অপর দিকে ভবদেব বন্দোপাধ্যায় লিখিত 'বেলুড় মঠ  আন্দুলের কালীকীর্তন ' শীর্ষক প্রবন্ধ থেকে আমরা জানতে পারি - " তিনি (স্বামীজী )....... শ্রমিক সমিতির সভ্যগনের সমাদর গীত প্রেমিকের গীতাবলী প্রথম শোনেন তাঁহার তরুণ সন্ন্যাসী -শিষ্য স্বামী বিমলানন্দ (খগেন মহারাজ পূর্বাশ্রমের সম্বন্ধে প্রেমিক বংশীয় দৌহিত্র ) এর প্রচেষ্টায় ১৮৯৮ সালের ২৮ শে ফেব্রুয়ারি বেলুড় দাঁয়েদের ঠাকুর বাড়িতে। দিনটি ছিল -শ্রীরামকৃষ্ণ জন্ম মহোৎসবের দিন।  ' এই লেখা থেকে অনেক কিছু জানার সঙ্গে আমরা ওটাও জানতে পারি যে স্বামী বিমলানন্দ ও আন্দুলের শ্রীশ্রী প্রেমিক মহারাজ -এর মধ্যে একটি পারিবারিক সম্পর্ক ছিল। মনে হয় এই সমস্ত কারনে আন্দুলের সাথে তাঁর গভীর যোগাযোগ গড়ে ওঠেছিল , এবং এই কারণেই ভবদেব বাবু ও প্রমুখ বোধানন্দ অনুরাগীবৃন্দ আন্দুল-মৌড়িতে বোধানন্দ স্মৃতি সংঘ স্থাপন করতে উদ্যোগী হয়েছিলেন। 

আন্দুল-মৌড়ির গর্ব বর্তমান শতাব্দী প্রাচীন মহিয়াড়ি পাবলিক লাইব্রেরির সঙ্গে ভবদেব বাবুর অনেক দিনের সম্পর্ক। এই লাইব্রেরি যাতে সরকারি অনুদান পায় তার জন্যে এর পরিচালন নিয়মাবলী লেখার প্রয়োজন হয়। এই গুরুদাযিত্ব হয় ভবদেব বাবুর উপর। বলাবাহুল্য , ভবদেব বাবুর একান্তিক নিষ্ঠা সহকারে এই দায়িত্ব পালন করেন। ১৯৬৯ সালে মহামন্ডল প্রতিষ্ঠিত হবার পর এর গঠনতন্ত্র ও নিয়মাবলী লেখার প্রয়োজন হয়। ভবদেব বাবু শ্রদ্ধেয় নবনী হরণ মুখোপাধ্যায় মহাশয়কে তাঁর কাজের সুবিধার জন্যে মুড়ি  লাইব্রেরির Constitution এর একটি copy প্রদান করেছিলেন। ভবদেব বাবু বেশ  কয়েক বছর মুড়ি লাইব্রেরির সম্পাদক ও পরে সভাপতির দায়িত্বভার বহন করেন। 

বোধানন্দ স্মৃতি সংঘের একটি motto ছিল ' অধীতি বোধাচরণ প্রচারন ' অধীত বিদ্যা পূর্নতা পায় বোধের মধ্যে। এই বোধ প্রসঙ্গে শ্রদ্ধেয় নবনীদা অপূর্ব ব্যাখ্যা করেছেন - ' এই বোধের ক্রমোন্নতি -এটাই হল ধর্মের আসল কথা। "   

স্বামী চেতনানন্দ সংকলিত 'কল্পতরু শ্রীরামকৃষ্ণ ' পুস্তকে স্বামী বুদ্ধানন্দএর একটি প্রবন্ধ আছে। সেই প্রবন্ধ থেকে শ্রীশ্রী মা সম্বন্ধে তাঁর কথা দিয়ে আমাদের লেখা শেষ হবে। স্বামী বুদ্ধানন্দ লিখছেন - " এমন লোক কে আছে চরাচরে একজন , যে আমাদের মা কে দেখেছে অথচ যার দৃষ্টি পরিচ্ছিন্ন হয়নি ? জেগে ওঠেনি ভিতরে একটি ঘুমন্ত শুভ শক্তি ? ক্রিয়াশীল হয়নি অন্তরে একটি শিব -সঙ্কল্প ? " 

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