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सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

मनःसंयोग-2 [27 -12 -2018 ] [ गंगाधरपुर युवा प्रशिक्षण शिविर]

कार्य-कारण सम्बन्ध:  पिछले क्लास में हमने देखा कि किसी भी काम में सफलता प्राप्त करने के लिए, या किसी कार्य को बेहतर ढंग से करने के लिए, 'मनः संयोग' सीखना कितना आवश्यक है ! किन्तु कोई यह पूछ सकता है, कि जब हम मनःसंयोग नहीं जानते थे, तब भी क्या हमारा काम नहीं चल रहा था ? नहीं तो, 12 या इण्टर तक सफलता कैसे मिला ? इसका उत्तर यह है कि उस समय भी हम मनःसंयोग ही कर रहे थे, किन्तु अनजाने में कर रहे थे। यदि मन को एकाग्र करने की पद्धति को सीखकर पढाई करते तो रिजल्ट और भी अच्छा हो सकता था। क्योकि मन लगाकर पढ़ाई करते समय मन पढाई में इतना लीन हो जाता है, कि उस समय सामने से कोई चला गया या किसी ने कुछ कहा -तो उसका भी पता नहीं चलता। अब हमलोग  मन लगाकर पढ़ने के कार्य  को  एक उदहारण के द्वारा समझने का प्रयास करेंगे। तुमने ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम सुना होगा। वे बड़े गरीब किन्तु मेधावी छात्र थे, एग्जाम के समय फुटपाथ पर एक लैंप पोस्ट के नीचे बैठ कर पढने में तल्लीन थे। उनके सामने रोड से एक बारात गुजर गई , थोडी ही देर के बाद एक व्यक्ति आकर उनसे पूछता है, क्या आप बता सकते हैं कि अभी-अभी इधर से जो बारात गुजरा वह किस ओर मुड़ा था ? वे मानो नींद से चौंक कर उठे हों, कहते हैं- ' sorry, no ? ' वे बारात को क्यों नहीं देख सके ? आँखें खुलीं थीं, मस्तिष्क भी जाग्रत और क्रियाशील था किन्तु तब उनका मन सड़क देखने में नहीं लगा था, तब उनका मन अध्यन में तल्लीन था ! इसीलिये पूरी बारात गुजर गई पर वे उसे देख नहीं सके। किन्तु हमारी समस्या यह कि हम मन को उसकी चंचलता के कारण एक क्षण के लिए भी किसी एक ही विषय पर केन्द्रीभूत नहीं रख सकते। 
कार्य क्या है ? हम सभी लोग जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं,एक सफल और महान मनुष्य (बुद्ध जैसा) बनना चाहते हैं। परन्तु यदि हमने मनःसंयोग की पद्धति नहीं सीखा हो, तो जीवन में सफलता कैसे मिल सकती है? यदि हमलोग मन को अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार किसी एक ही कार्य या विषय में लगाने की तकनीक को सीख जायें, तो सफलता की सम्भावना निश्चित हो जाएगी। अतः हम समझ सकते हैं कि सफल मनुष्य या महान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर उसका निष्ठापूर्वक 'अभ्यास करना' आवश्यक है। अब प्रश्न है कि 'कार्य' कहने से हम क्या समझते हैं ? आगे हम इसी बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की चेष्टा करेंगे अर्थात इसी विषय पर मनःसंयोग करेंगे। 
प्राकृतिक कार्य: जगत में प्राकृतिक रूप से कई प्रकार की घटनायें घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि ऋतुपरिवर्तन होता है, प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं। फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं।  बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
आवश्यक कार्य :  फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। मनुष्य कोई भी कार्य इच्छा और विचार से प्रेरित होकर ही करता है। किसी आवश्यक /अनावश्यक कार्य को करने का विचार जब मनुष्य के मन में उठता है, तब वह अपने शरीर, या अन्य किसी उपकरण या दूसरी चीज की सहायता से अपनी इच्छा को रूप देने की चेष्टा करता है। कार्य करते समय मनुष्य अपनी कल्पना को रूपायित करना चाहता है। पहले हम मन में कल्पना करते हैं, फिर इच्छा-शक्ति (will power) का प्रयोग करते हुए किसी आवश्यक कल्पना को साकार रूप देते हैं। इसी को कार्य करना कहते है।  किन्तु उस कार्य का जनक कौन है ? कार्य का कारण कहाँ है ? कार्य का कारण मन में है, विचार में है। मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,प्रयत्न, श्रम या पुरुषार्थ करता है।
किसी वस्तु पर कार्य करने से उसके स्वरूप में रपान्तरण हो जाता है:  जैसे मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि।
दैहिक शक्ति की सीमा है, मानसिक शक्ति असीम है: कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति (will power )कहते हैं।  जबकि प्रयत्न करने में या कार्य करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। महर्षि कणाद 'मूसल' के उदाहरण द्वारा प्रयत्न या कार्य की उत्पत्ति के क्रम को समझाते हुए  वैशेषिक सूत्र 5.1.2 में कहते हैं - 'तथा हस्तसंयोगाच्च मुसले कर्म । ' - और वैसे ही ( कर्म वाले ) हाथ के संयोग से मूसल में क्रिया (होती है)। यहाँ 'मूसल' का उदाहरण देते हुए ऋषि बतलाते है, प्रयत्न आदि की उत्पत्ति का क्रम यह है- ' आत्म जन्या भवदिच्छा इच्छाजन्या भवेद  कृतिः । कृतिजन्या भवेचेष्टा तज्जन्यैव क्रिया भवेत्।'  आत्मा के साथ मन का संयोग होने से मन में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से प्रयत्न उत्पन्न होता है। प्रयत्न  से ( सारे  शरीर में या  किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है। चेष्टा से  क्रिया-उत्पन्न होती है। आत्मा (pure consciousnessके साथ मन का संयोग होने पर स्वाभाविक रूप से पहले मन में (प्रतिबिंबित चेतना reflected consciousness या अन्तःकरण में) मूसल उठाने की इच्छा उत्पन्न होती है। फिर आत्मा के साथ मन का संयोग रहने से हाथ में (मूसल को ऊपर की ओर उठाने की) चेष्टा-उत्पन्न हुई। उस चेष्टा से मूसल में 'उत्क्षेपण ' क्रिया उत्पन्न हुई। इसी क्रम मे नीचे लाते समय 'अवक्षेपण' क्रियाः उत्पन्न होती है। जिस प्रकार आत्मा के संयोग और प्रयत्न से हाथ में क्रिया होती है, उसी प्रकार हाथ के संयोग से ऊखल में धान कुटने वाले -मूसल में, धान कूटते समय क्रिया उत्पन्न होती है। यहाँ  महर्षि कणाद सूत्र में ‘‘च’’ से बतला रहे हैं कि मूसल के गिरने में उसका भारी होना भी एक कारण है। ऋषि अगले सूत्र में कहते हैं - अभिघातजे मुसलादौ कर्मणि व्यतिरेकादकारणं हस्तसंयोगः । वैशेषिक-५,१.३ ।अर्थ : जब मूसल नीचे गिरता है, यद्यपि उस समय हाथ का भी संयोग होता है, परन्तु गिरने में भारी होने के अतिरिक्त पृथ्वी की जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति उसे नीचे की ओर खींचती है, उसमें हाथ की शक्ति (दैहिक शक्ति) नहीं लगानी पड़ती। इसीलिए मूसल के गिरते समय आत्मा को प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । उसकी युक्ति यह है कि चाहे हाथ का संयोग हो या न हो, भारी होने के कारण गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से वह नीचे अवश्य ही गिरेगा। जब हाथ के बिना उसका गिरना आवश्यकीय है क्योंकि यदि गिरते समय प्रयत्न होता है तो वह उसको नीचे गिरने से रोकता न कि गिराता। क्योंकि प्रयत्न हमेशा प्राकृतिक शक्ति के विरूद्ध ही किया जाता है।  या प्राकृतिक आकर्षण को उपने बल से चलाने में उसका प्रयोग होता है। इस मूसल के उदाहरण से यह परिणाम भी निकलता है, कि मनुष्य को उन्नति करने में प्रयत्न करने की आवश्यकता है। और यदि उन्नत मनुष्य बनने का यत्न न किया जाये,  तो अवनति स्वयं ही हो जाती है।  क्योंकि जिस प्रकार भारी वस्तुओं को पृथ्वी की गुर्त्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर खींच ही लेती है,उसे गिराने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।  इसी प्रकार विषयों की आकर्षण शक्ति इन्द्रियों को बराबर अपनी ओर खींचती है, यदि आत्मा इन्द्रियों को विषय से रोकने का काम न करे तो बलात् आत्मा का विषयों की ओर ले जायेगी। जिस प्रकार भारी वस्तुओं में गुरूत्व पृथ्वी पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से है, इसलिए वह वस्तुओं को अपने कारण पृथ्वी की ओर ले जाता है, इसी प्रकार इन्द्रियां और मन पंचभूतों से उत्पन्न होते हैं और वह प्रत्येक वस्तु को भौतिक विषयों की आर ले जाते हैं। 
इसलिए जो लोग ऐसा मानते हैं कि यदि हम बुरा काम न करें तो हमको संध्या अग्नि-होत्र आदि शुभ कर्म अथवा महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 दैनन्दिन अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? तो वह बड़ी भारी भूल करते हैं क्योंकि बुराई उनको अवश्य अपनी ओर खींच लेगी। यदि हमलोग मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग सीखकर अपने मन को वश में करके मनुष्य बनने और बनाने का अभ्यास न करें तो, हम नीचे गिर कर मानव-पशु ही नहीं मानव-राक्षस भी बन सकते हैं। अतः मानसिक ऊर्जा (mental energy) को पूरी तरह से निवेशित करके कार्य करने से -कोई भी कार्य कम समय में पूर्णता के साथ सम्पन्न हो सकता है। जिस क्रिया के पीछे 'कामना-वासना' नहीं केवल निःस्वार्थपरता हो उनके संस्कार हमें कर्म-बन्धन में नहीं बांधते। इसलिये हमें निःस्वार्थ Be and Make आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में घोर परिश्रम करना चाहिये। 'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'! हमें परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करना चाहिए। जब तक विवेक-प्रयोग द्वारा - " चेतन, अवचेतन, अचेतन, तुरीय "  को पूरी तरह से जगा नहीं दिया जाता, तब तक मन को वश में नहीं लाया जा सकता। यदि कर्म पूरे मन से किया गया होगा, तो उसका अच्छा फल मिलना निश्चित है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कर्म उत्कृष्ट हो। इससे चित्तशुद्धि हो जाती है। 
कपटधार्मिकः बकः छद्म-धर्मी बगुला" बाहरी वेशभूषा नहीं, मन में शिव-संकल्प रहना आवश्यक है,  कोई सहचारी या संगत में रहने वाला ही सहचारी के व्यवहार को देखकर उसके चरित्र को ठीक ठीक पहचान सकता है।  श्री राम और लक्ष्मण एकबार स्नान करने के लिए पंपा सरोवर पहुंचे। श्री राम ने सरोवर में मंथर गति से चलते हुए बगुलों की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मण को कहा कि-“पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकोयंपरमधार्मिकः। शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥” अर्थात लक्ष्मण, देख इस पम्पा सरोवर में बगुला कितना धार्मिक है। कहीं मेरे पांवों से जीवों का वधन न हो जाए, इसीलिए कैसा धीरे-धीरे पैर रखते हुए चल रहा है। श्री राम की इस बात को सरोवर में रहने वाली एक मछली सुन लेती है। और वह भगवान राम से कहती है - "सहवासी विजानाति सहवासी विचेष्टितम्।बकोऽयं वर्ण्यते राय तेनाहं निष्कुलीकृतः॥ नहीं नहीं रामजी, आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं ? जिस बगुले की प्रशंसा की जा रही है। उसने हमारा कुल उजाड़ दिया, सारा कुल नष्ट कर दिया। और जब शुद्ध-पवित्र मन केवल शिव-संकल्पों से ही भरा रहता है तब उसकी शक्ति अनन्त गुना बढ़ जाती है। और ऐसे शक्तिशाली उपकरण के तैयार हो जाने के बाद; इसे जिस कार्य में लगा दिया जायेगा वह कार्य भी बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न होगा,और उसमें निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। 
ज्ञान क्या है ? इस जगत-ब्रह्माण्ड के सुदूर अपरिमेय अंतरिक्ष में खचित विशालकाय ग्रह-नक्षत्र से लेकर सूक्ष्म अणु-परमाणु के मध्य असंख्य ज्ञातव्य या जानने योग्य वस्तुएँ एवं विषय बिखरे हुए हैं। इनमें से जिन वस्तुओं या विषयों  की जानकारी (information-आँकड़ा ) हमें प्राप्त है, उसको ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है। किन्तु इनमें से किसी भी वस्तु या विषय का ज्ञान हमें मन की सहायता से ही प्राप्त होता है। बचपन में एक सुन्दर सुगंधित फूल को देखा, तो पिता जी से पूछा -ये कौन सा फूल है ?... ये कमल का फूल, उड़हुल का फूल है; पिता जी ने बता दिया इस फूल को गुलाब कहते हैं। तो उस फूल का रूप और विशिष्ट सुगन्धि मन के खाँचे में संचित हो गया। अब फूलों की प्रदर्शनी में गुलाब के फूल को आसानी से पहचान सकता हूँ। 
उसी प्रकार कुछ बड़े होने पर रात्रि के समय चाँद और चाँदनी के प्रकाश को देखा तो पिताजी से पूछा -क्या यह चन्द्रमा का अपना प्रकाश है ? पिताजी ने बता दिया, नहीं यह भी सूर्य का ही प्रकाश है, जो चन्द्रमा से परावर्तित होकर धरती पर उजियाला फैला रहा है। अर्थात चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित हो रहे हैं। फिर पूछा सूर्य किससे प्रकाशित होते हैं ? उन्होंने समझा दिया कि सूर्य -किसी से प्रकाशित नहीं है, वह एक गर्म आग का गोला है, और उसका यह अपना प्रकाश है। सूर्य स्थिर है, न उगता है न डूबता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक चक्र पूरा करती है, जिससे दिन-रात आते जाते हैं। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, जिसके कारण पेड़ से फल टूटने पर नीचे गिरता है,ऊपर नहीं जाता आदि आदि। इस प्रकार जगत-ब्रह्माण्ड के विषय के बारे में हमारे ज्ञान का क्षेत्र क्रमशः बढ़ता जाता है। यह सब ज्ञान आता कहाँ से है ? बाहर से? नहीं यह ज्ञान हमारे भीतर ही था। जब जिस वस्तु या विषय का ज्ञान प्राप्त करना होता है, उस पर मन को एकाग्र करने से उस विषय या वस्तु का ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है। समस्त मानवजाति एक है -इसको पहचान लेना और प्रत्येक मनुष्य के सामने श्रद्धापूर्वक अपने सिर को झुकाना, उसकी कदर करना ही सच्चा ज्ञान है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने मन को एकाग्र करने की तकनीक सीखने को ही शिक्षा का प्रधान तत्व  कहा है। 
मन क्या है ? सूक्ष्म वस्तु को हम देख नहीं सकते: इसीलिए हमें मन के विषय में स्पष्ट अवधारणा नहीं है। परन्तु हम अनुभव करते हैं, कि मन है। पर वह कार्य कैसे करता है ? हम कहते हैं -मेरा शरीर परिवर्तनशील है,बच्चा-जवान बूढ़ा होता है, लम्बा-नाटा, मोटा-दुबला होता रहता है। मेरी आँखों में नंबर लगेगा या नहीं ? मै बायें कान से कम सुन पाता हूँ - इसकी अवस्था को जानने वाला (knower-ज्ञाता ) कौन है? मेरा मन ही तो है ! इस शरीर और इन्द्रियों की अवस्था को मन जानता है। फिर हम देखते हैं कि मेरा मन भी परिवर्तनशील है, कभी तो यह खुश रहता है, कभी उदास हो जाता है। तो मन की अवस्थाओं को कौन जानता है ? हमलोग कहते हैं -हमलोग मैच जीत गए, मेरा मन आज बहुत प्रसन्न है। मन का भी कोई ज्ञाता है -तो वह कौन है ? मन का भी कोई द्रष्टा है - जो मन को भी देख सकता है -वही हमारी सत्ता है। 
 जिसको हम अपना वास्तविक 'मैं' कहते हैं, जो कभी नहीं बदलता-पर शरीर का ज्ञाता कहलाने वाले मन की अवस्था को भी जो जानता है, वह कौन है -क्या है ? हमारे देश में उसको आत्मा (existence- consciousness-bliss, सच्चिदानन्द या ब्रह्म) कहा जाता है। भले इस समय उस सत्ता स्पष्ट रूप से नहीं समझ पा रहे हों,फिर भी हमें उस सत्ता पर श्रद्धा रखनी चाहिए। जैसे विज्ञान के भी बहुत से फैक्ट्स को एक्सपेरिमेंट करके हमने अभी स्वयं नहीं देखा है। जल का सूत्र है H2O,अर्थात दो भाग हाइड्रोजन 1 भाग ऑक्सीजन को मिलाने से जल बनाकर हमने नहीं देखा है, किन्तु वैज्ञानिक-खोज से उत्पन्न इस सिद्धान्त पर हममें अधिकांश लोग विश्वास करते हैं।
 उसी प्रकार हमलोगों को आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिकों अपने पूर्वज ऋषियों (स्वामी विवेकानन्द) द्वारा भारत निर्माण का आविष्कृत सूत्र 3'H'-विकास पद्धति पर  विश्वास करना चाहिए कि हम वास्तव में आत्मा हैं। और यह मन अपरिवर्तनशील आत्मा और परिवर्तनशील जगत के बीच एक पूल के जैसा काम करता है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - Hand, Head और Heart (3rd H) भी हैं। मनुष्य केवल 2H नहीं 3H है ! इन तीनो शक्तियों को विकसित करने की पद्धति को सीखकर मनुष्य बना जा सकता है। इसीको मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा कहते हैं।
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[नवनी दा 27-12-2005 कैम्प :धर्मलाभ -पहला पुरुषार्थ "मनोतीर्थ में स्नान !" सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम/ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु]
स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग वेदों-उपनिषदों को shepherd song (गड़ेरिया का गीत-चरवाहा गीत) कह कर इसका उपहास किया करते थे। परन्तु 2003 में UNESCO  ने  वेदों उपनिषदों की मौखिक परम्परा को 'मनुष्यजाति की मौखिक और अमूर्त विरासत' " Oral and Intangible Heritage of Humanity." [ दूसरे शब्दों में यूनेस्को के द्वारा 2003 में " आगम -निगम अर्थात शिव-पार्वती संवाद (अथवा उससे निकले जैनिज्म, बुद्धिज्म, सिखिज्म में) या वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  प्रचलित - मौखिक दीक्षा-परम्परा को "मानवता की मौखिक और अमूर्त विरासत"  कहकर सम्मानित किया गया है। संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि प्राचीन समय में पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी। 
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में  संस्कृत चेयर के  'बोडेन चेयर' पद पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहले व्यक्ति थे-संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन(Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०)। वे  भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आये  तथा १८३२ तक यहाँ रहे थे। एक भारतीय विद्वान के पत्र के उत्तर में विल्सन साहब  ने संस्कृत के माधुर्य के बारे में, संस्कृत के अनुष्टप छन्द में लिखा था-'अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोऽधिकं |देव भोग्यमिदम् यस्माद् देव भाषेती कथ्यते || '' अमृत बहुत मीठा होता है। संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। यह देववाणी कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक कि भारतवर्ष में विन्ध्य तथा हिमालय है,.....यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। "  जब तक गंगा तथा गोदावरी है,तब तक संस्कृत है।' 
एक जनश्रुति प्रसिद्द है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ देखकर परदुःख-कातर हो उससे संस्कृत में पूछा-  "किम ते भारं बाधति?" तुम्हें यह बोझ कहीं कष्ट तो नहीं पहुंचा रहा है ? और 'बाधति ' क्रिया का प्रयोग किया। इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया --"भारं न बाधते राजन यथा बाधति बाधते।। "महाराज ! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा है जितना ' बाधते ' के  स्थान पर आपके बोले हुए 'बाधति ' पद से हो रहा है।' जबकि भारतीय समाज का मेरुदण्ड है - ग्रहस्थाश्रम ; अन्य आश्रमों की स्थिति ग्रहस्थाश्रम के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिये संस्कृत साहित्य में गार्हस्थ्य धर्म का सांगोपांग वर्णन पूर्ण तथा हृदयावर्जक रूप से उपलब्ध होता है। संस्कृत साहित्य का आदिमहाकाव्य वाल्मीकिरामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी पर घूमता है। दशरथ का आदर्श पितृत्व ,  कौशल्या का आदर्श मातृत्व ,सीता का आदर्श पत्नीत्व ,भारत का आदर्श भातृत्व ,सुग्रीव का आदर्श बन्धुत्व ,तथा सबसे अधिक रामचन्द्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गार्हस्थ्य धर्म के ही विभिन्न अन्गों के आराधनीय आदर्शों की मधुमय मनोरम अभिव्यक्ति है। भारतीय साहित्य में संस्कृत वाङ्गमय का विशेष महत्त्व है। संस्कृत वाङ्गमय जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष से संबद्ध सभी विषयों का  साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है। जीवन का एसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका सूक्ष्म विवेचन संस्कृत वाङ्गमय में ना हो। 
वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा के प्रति यही भाव मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों, या जीवन्मुक्त शिक्षकों में पाया जाता है। मानवजाति के जितने भी मार्गदर्शक नेता आते रहे हैं -उन सबों ने गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में अपने जीवन पुष्प को (चरित्र को) कमल - पुष्प की तरह प्रस्फुटित करने का मार्ग दिखलाया है। स्वामी जी के भाषण को सुनने के बाद वहाँ की एक महिला ने पूछा -Swami ji are you Buddhist? स्वामी जी थोड़ा विनोदी स्वभाव के थे, उन्होंने उत्तर में कहा था - No, I am not a Buddhist, but I am bud'ist ! नहीं, मैं बुद्धिष्ट नहीं हूँ, बल्कि मैं कली को फूल में विकसित होने की शिक्षा देता हूँ। उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है। हमलोगों का जीवन  भी अभी कली के रूप है, इस जीवन पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति हमें भी सीखना है। 
सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ? इसके उत्तर में आचार्य शंकर ने कहा है- इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति। दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं।। ( इतः कः  नु अस्ति मूढात्मा  यः  तु स्वार्थे प्रमाद्यति,  दुर्लभं मानुषं  देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम्। विवेक-चूड़ामणि ) - "देव- दुर्लभ मनुष्य देह और पौरुष को पाकर भी जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है - अर्थात अपने जीवनपुष्प को प्रस्फुटित करने में प्रमाद करता है, उससे अधिक और मूढ कौन होगा ? जो मनुष्य मन को वश करने का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है !  सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ? 
को दरिद्रः ? दरिद्र कौन है ?  जिसकी तृष्णा  विशाला (असीम) होती है वही दरिद्र (निर्धन) होता है ,मन में  सन्तोष हो तो कौन धनवान है और कौन निर्धन है? स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। मनसि तु परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥ वैराग्यशतक /45 जिसके मन में जितनी अधिक तृष्णा है वह उतना बड़ा दरिद्र है। और जब मन में सन्तोष आ जाता है, तब धनी-गरीब का अपने मन में कोइ भेद नहीं होता ।  विषयों को भोगने की तृष्णा के कारण ही हमलोग सम्मोहित (hypnotized) हो जाते हैं, हमारी बुद्धि मोहित हो जाती है। जन्म लेते ही प्रत्येक मनुष्य सम्मोहित हो जाता है, इसलिए उच्चतम डिग्री प्राप्त मनुष्य की बुद्धि भी मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है। सन्त तुलसी दास जी कहते हैं - 'सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहि जग बारहिं बारा।अर्थात पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार आदि तो इस संसार में बार बार प्राप्त होते रहते हैं।विवेक-प्रयोग तथा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प-ग्रहण किये बिना हम कभी विसम्मोहित (Dhypnotized या भ्रममुक्त) नहीं हो सकते; हमारी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ?शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है।  वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है। 
भ्रूण हत्या क्यों ? प्रकृति का कोमल उपहार,भोर की उजली किरण,जीवन की प्रथम कलि,खिलने से पहले ही मुरझाने ko विवश क्यूँ ?' कन्या' ही माँ, बेटी, बहन है जन्मदायिनी माँ की आंख में आंसू क्यूँ ? संकल्प ग्रहण (आत्मसुझाव-Autosuggestion) तथा विवेक-प्रयोग की शिक्षा (प्रशिक्षण)  देने से - भ्रूण में पल रही बेटी या बेटा दोनों - Would be Leader of the mankind. भावी सारदादेवी, मीराबाई, सहजोबाई या लक्ष्मी बाई, श्रीरामकृष्ण,बुद्ध ईसा भी बन सकती/सकता है।  इसीलिए सहजोबाई कहती हैं -राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं। हरि ने जन्म दियो जग माहीं, गुरु ने आवागमन छुड़ाही॥सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है, तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई । बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।। भगवान तथा गुरु (विवेकानन्द ) की कृपा के  बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता। सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥ भावार्थ:-हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥41॥
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को आतंकवाद से नष्ट नहीं किया जा सकता। प्रेम के आधार पर ही नया विश्व बनाना चाहिए। यह काम केवल भारत से होगा। पहले सबके हृदय में परस्पर कितना प्रेम था ! " भूल न जाना हर भारतीय मेरा भाई है !" Forget not every Indian is my brother' - 'वसुधैव कुटुम्ब्कं'- अब ऐसा कौन कहता है ?अब तो केवल अधिक से अधिक धन जमा करने की होड़ मची है। इस गला-काट प्रतियोगिता और आतंकवाद का अंत कैसे होगा ? मनुष्य बनकर और को भी मनुष्य बनने में सहायता करने से होगा। स्वाधीन भारत के किसी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना है। 
स्वामी जी कहते थे -" जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है। इसलिए मैं अपने लिए अब हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा।" -५/१९ (क्योंकि पंचानन मिश्रा को पेंचो कहना उसका अपमान करना है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । क्योंकि हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। हम अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था में पले -बढ़े लोग स्वामी विवेकानन्द के परामर्श के अनुसार, " गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतवासी (भारतीय) मेरा भाई है ! कहने के बजाये  महामण्डल के अंग्रेजी स्वदेशमन्त्र में भी भारत को India क्यों कहना चाहिए ? [अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया। स्वामी जी के समय में भारत अंग्रेजों का गुलाम था, तब उन्हें 'O India Forget not " कहा था। "every Indian is my brother" कहना भी मजबूरी रही होगी। स्वाधीनता के 70 वर्षों बात भारतियों को अपना परिचय 'Indian' या हिन्दुस्तानी कहकर क्यों देना चाहिए ? क्या यह भी अंग्रेजी परस्ती नहीं है ?]  
श्री रामकृष्ण कहते थे -जितने भी 'branded religion' (  ट्रेड-मार्क या बाहरी छाप वाले) जितने भी धर्म हैं, वैसे सभी साम्प्रदायिक धर्म जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये तो उतनी ही शीघ्रता से मानवजाति का कल्याण सम्भव हो जायेगा। धर्म तो एक ही होता है -[जिसके रहने से पाशविक मानसिकता नष्ट होकर आदमी से इंसान या मनुष्य कहा जाता है।] धर्म कभी दो-चार नहीं हो सकता। देश-काल परिस्थिति के अनुसार पैगंबर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता लोग आविर्भूत होते हैं, और अलग -अलग पद्धति से उसी एक धर्म [अभ्युदय और निःश्रेयस] को अपने आचरण में उतार कर उसका प्रचार करते हैं। " श्री रामकृष्ण देव इस्लामधर्म के सूफ़ी-सम्प्रदाय के औलिया (सन्त) गोविन्द राय से दीक्षा लेकर 'अल्ला' के मंत्र का जप (99 नाम का) किया करते थे। प्रसिद्द सूफी संत (धार्मिक विद्वान) जलालुद्दीन रूमी "आदमी की तरक़्क़ी" नामक नज़्म में कहते हैं,  - 
" बेजान चीज़ों (खनिज आदि) से मर गया, पौधा बन गया। 
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया। 
हैवानों (पशु -मानव) से मर गया और आदमी (इंसान -चरित्रवान मनुष्य)  हो गया। 
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया? 
अगली दफ़े आदमियों (इंसानों)  के बीच से मर जाऊँ। 
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ। 
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना कि सिवा उसके; हर शै को है -फ़ना हो जाना। 
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा। फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा!
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 "द्वार पर दस्तक तो दो सही- देखो फिर वो द्वार अपने खोल देगा; 
तुम 'ना कुछ' हो जाओ [100 % unselfish हो जाओ !]  
, - ओर वो तुम्हे सबकुछ बना देगा।" 
एक बार फिर रूमी अपनी प्रेमिका के दरवाजे पर गए और दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई - ‘कौन है?’ इस बार रूमी ने कहा, ‘तुम, सिर्फ तुम। रूमी अब कहीं नहीं है।’ दरवाजा खुल गया..." 
माशूक़ ही है सब कुछ, आशिक़ है बस परदा।
माशूक ही बस जी रहा है, आशिक़ तो एक मुरदा॥  
सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर गिरती हैं, और चन्द्रमा  चमकने लगता है. पर वास्तव में यह उसकी अपनी चमक नहीं है, ठीक इसी प्रकार इस दुनिया में हर चीज़ की अपनी खुद की कोई खूबी नहीं है।  इसलिए तुम उस स्रोत (विवेक-श्रोत) की तलाश करो, जो की हमेशा अपनी खुद की रौशनी से चमकता है । 
[जलालुद्दीन रूमी के मज़ार पर ये पंक्तियाँ लिखी हैं ” जब में मर जाऊ तो मेरे मकबरे को ज़मीन में मत खोजना, उसे लोगों के दिलों में खोजना” रूमी की दो रचनाये बहुत मशहूर हुई, एक “मसनवी” और “दीवान ए शम्स तबरेज़”। ] 
रूमी के प्रसिद्द नज्म "आदमी की तरक़्क़ी" का तात्पर्य डार्विन के Evolution (क्रम-विकासवाद) को आगे बढ़ाना है। वे कहते हैं विभिन्न योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। किन्तु यहीं पर  क्रम-विकास का अन्त नहीं हो जाता है। क्रमविकास अब भी चलना चाहिए, मनुष्य को देवता में उन्नत होना चाहिए। जो घोर स्वार्थपर है- वह पशुमानव की अवस्था में है, जब धर्म (विवेक-प्रयोग) सीखकर वह सहानुभूति (sympathyसम्पन्न होता है, तब वह क्रमशः निःस्वार्थपर (unselfish) मनुष्य होने लगता है। जब कोई व्यक्ति पूर्णतः निःस्वार्थपर (100 % unselfish) हो जाता है, वह विकसित हृदय वाला मनुष्य -अर्थात समानुभूति (empathyसम्पन्न हृदय वाला मनुष्य [Empowered heart] या देवता बन जाता है। देवता होने के लिए मनुष्य को स्वर्ग-नरक में जाना नहीं पड़ता। देवता (ईश्वर) होने के बाद भी मनुष्य धरती पर ही रहते हैं। यदि हमारे मन में ईर्ष्या-द्वेष या "असूया" (दूसरे के गुण में भी दोष निकालना) के भाव अधिक मात्रा में भरे हुए हों, तो दूसरों के दुःख में भीतर से खुश रहकर बाहर से सहानुभूति का दिखावा करना आसान है। (राहुल बीमार परिकर को देखने जाते हैं ?) पर दूसरों की उन्नति देखकर, ठीक उन्हीं के जैसा आनन्द का अनुभव करने को Empathy -समानुभूति, हमदर्दी (दूसरे की भावनाओं को समझने और साझा करने की क्षमता।) कहते हैं। यह गुण (संवेदना) यदि हममें बिल्कुल नहीं हो, तो ईर्ष्या का बिच्छू बहुत डंक मारेगा, और (अहंकार का भूत भी सिर पर सवार हो जायेगा।) हम नरकवास (कलयुग) करने लगेंगे। परन्तु यदि दूसरों की उन्नति सुनकर मन में सच्चा आनन्द होता है, तो हमारा स्वर्गवास (स्वर्णयुग-सत्ययुग) 
चल रहा है। 
पर यह भी विकासवाद का अन्त नहीं है ! शास्त्रों में कहा गया है कि यह स्वर्ग का सुख भी सच्चा सुख नहीं है, पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से भी गिरना पड़ता है। गीता 9 /21 में कहा गया है - 'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (enter) |' जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घ जीवन तथा विषय-सुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता।  पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है। जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है, (जन्माद्यस्य यतः) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण (माँ जगदम्बा के अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) को नहीं समझता, वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वी-लोक को जाता-आता रहता है,मानो वह किसी चक्र-हिण्डोले पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है। सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक (रामकृष्णलोक) न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है। अच्छा तो यह होगा कि इसी जीवन में, दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत या 'दृष्टिं भगवानमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत'  देखने और सच्चिदानन्द-मय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति (= रामकृष्ण-लोक, महामण्डल कर्मी का जीवन) की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता। वह रामकृष्ण-लोक जिस उपाय से प्राप्त होता है, उसीका नाम है -मनःसंयोग। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा किस प्रकार मन को वश में लाया जाता है, उसी पद्धति को सीखना चाहिए। 
Function of Heart: 3'H' विकास का प्रशिक्षण का अर्थ है जिस अवयव का जो function है, उसे विकसित करने की चेष्टा करते रहना ! मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं- शरीर,मन और आत्मा। परन्तु आत्मा क्या है, अभी हमलोग आत्मा कहने से उसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। इसलिए सरलता से समझाने के लिए स्वामी जी आत्मा नहीं कहकर -Heart कहते हैं, और मनुष्य की तरक्की के लिए 3'H' विकास - अर्थात Hand, Head, Heart के विकास का सूत्र देते हैं। प्रश्न उठता है कि स्वामी जी आत्मा को Heart क्यों कहते हैं ? हम सभी जानते हैं कि मर्माहत होने पर, या सुख-दुःख की संवेदना (परानुभूति) होने पर हाथ अपने आप यहाँ जाता है। क्योंकि ह्रदय में केवल sympathy ही नहीं  empathy को भी विकसित करना चाहिये। अर्थात दूसरों के दुःख सहानुभूति का दिखावा तो कोई भी कर सकता है, परन्तु हृदय को विकसित करने का अर्थ है-दूसरों के सुख-सम्पत्ति को देखकर, अपने हृदय में भी बिल्कुल उसके ही जैसा सुखी और आनन्द की उत्फुल्लता का अनुभव, करने में सक्षम होना चाहिए। 
Function and nature of Hand: शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' - शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन (Instrument)  है। body is tool to carry the work of soul (existence-consciousness-bliss)]   -अर्थात शरीर आत्मा के कार्य को करने के लिए एक उपकरण है। इसीलिए  शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। शरीर को निरोगी, स्वस्थ और कर्मठ बनाये रखना पहला धर्म है।  इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर पर ही दिनरात मन को लगाये रखना होगा ।  ठाकुर (श्रीरामकृष्ण देव) कहते थे, "दिन में ढूंस-ढूंसकर खा लो, रात में कम खाना। दिन में पेट भरकर खाओ, सब हजम हो जाएगा। रात में कम खाने से शरीर हल्का रहेगा, ध्यान-भजन की भी खासी सुविधा रहेगी। " शरीर को हमलोग अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाकर, नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमलोग निरोग और स्वस्थ रहना सीखते हैं। यहाँ इसके लिये प्रशिक्षण भी दिया जाता है. इसके लिए पौष्टिक आहार , व्यायाम और दिनचर्या को नियमित करके हमलोग स्वस्थ और निरोग रह सकते हैं। कैसे आहार संयम और व्यायाम के द्वारा कर्मठ बने रह सकते हैं। इसके लिए भी यहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है।
Function of Mind and nature of Mind : कहा गया है Healthy mind in healthy body -स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि हम मन के गुलाम न हों, मन तो हमारा यंत्र है, उसे हमारे इच्छा और आज्ञा का पालन करना चाहिए।  मन को अपनी मुट्ठी में करने की क्षमता को ही पुरुषार्थ कहते हैं। परन्तु अभी मेरे मन की हालत, उसकी उदण्डता तो इतनी बढ़ी हुई कि वह बिना मुझसे अनुमति लिए, मेरे चाहे बिना ही -इसी क्षण मुझे किसी दूसरे ग्रह में, बुरे स्थानों में, इंटरनेट वीडियो-बार में या डांसबार में ले जा सकता है; या मन्दिर में भी ले जा सकता है। क्योंकि अभी यह मर्कट की तरह चंचल है। हमेशा इधर-उधर उछल-कूद मचाता रहता है। कामिनी-कांचन का अत्यधिक लालच, इन्द्रियविषयों को भोगने की इच्छा रूपी मदिरा को पीकर मन मर्कट उन्मत्त हो गया है।  क्योंकि हृदय का विस्तार नहीं होने से हमलोग empathy नहीं कर पाते और दूसरों की उन्नति सुख-सम्पत्ति को देखकर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारता रहता है। फिर जब दूसरों को नीचा दिखा देने का अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता है, तब वैसे मन को शान्त करना , मन को अपने से दूर हटाकर उसे देखना और संयम में रखना बहुत कठिन हो जाता है। किन्तु असम्भव नहीं है, 'अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उसको वश में लाया जा सकता है।' मन को वश में करने का यही उपाय- गीता, भागवत और योगसूत्र में कहा गया है। यह यम-नियम का अभ्यास हर रोज 24 घंटे (24 X 7) करते रहना चाहिए। 
मनःसंयोग (दृग-दृश्य विवेक): अर्थात मन को अपने से अलग  हटाकर उसे देखने का अभ्यास : The practice of seeing the person apart from his mind. आसन-प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार सुबह और शाम करना चाहिये। आसन पर बैठकर जब हम मन से अपने को थोड़ा दूर हटाकर उसको देखने का प्रयास करते हैं, बहिर्मुखी मन को खींच कर अपने सामने लाने का प्रयास करते हैं, तब मालूम पड़ता है कि मन कितना चंचल है, कहाँ कहाँ न दौड़ता रहता है ! जैसे किसी चंचल बालक को शान्त करने के लिये उसको प्यार से अपने सामने बैठाकर समझा-बुझाकर शान्त करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी सामने बैठाकर साधना पड़ता है। 
उपनिषदों में मन को बन्दर की तरह नहीं कहा गया है। 'लालयेत चित्त बालकम' उसको प्रेम के साथ धीरे -धीरे समझा-बुझाकर शान्त करो, जबरदस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है।[मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देह-मन भाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव (देहाध्यास)से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। चाणक्य नीति में लिखा है - लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् । प्राप्तेषु षोडषे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत् ॥ पुत्र को [ यह उक्ति संतान मात्र के लिए है वो चाहे पुत्र हो या पुत्री )जन्म से लेकर पांच वर्ष तक सिर्फ दुलारते हुए ही पालन करना चाहिए ,पांच वर्ष से दश वर्ष की अवस्था बच्चो के सीखने की अवस्था होती है अत; पूर्ण से अनुशाषित रखना चाहिए और  जब सन्तान सोलह वर्ष की अवस्था को प्राप्त हो जाए तब हर तरह से हमें  मित्रवत व्यवहार करना चाहिए।] 
 इसलिए मन को प्रेम से समझाते हुए कहो - " यहाँ मेरे सामने आओ, बैठो -देखो हर समय इतना दौड़ते रहना अच्छा नहीं है। तुम्हारे बिना कोई कार्य नहीं कर पाउँगा, अतः तुम मेरा साथ दो, मेरा कहना मानो। तुम्हारी सहायता से मैं दुनिया को अच्छा बना सकता हूँ, उसका विध्वंश भी कर सकता हूँ। Atom Bomb का विस्फोट करके दुनिया में 'धर्म' का राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता। प्रेम के द्वारा ही सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँधा जा सकता है। आज देश की अवस्था इतनी खराब इसीलिए लग रही है कि हम सभी लोग स्वार्थी बन गए हैं। आपस में प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति, समानुभूति नहीं है। मन को वशीभूत करने से यह सब हो सकता है। घर के अभिभावक लोग सोचते हैं, धन कमा लेने से सबकुछ मिल जायेगा। परन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है, घरों में सुख-शांति तभी आएगी जब हमारा मन हमारे वश में रहेगा। किसी की प्रशंसा या कटुवचन को सुनकर प्रतिक्रिया दिखाना -सुखी-दुःखी होना छोड़ देगा। इसलिए  महाभारत (विदुरनीति 2.56-57)  में कहा गया है -  
                                 अविजित्य य आत्मानममात्यान् विजिगीषते। 
अमित्रान् वाऽजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते। 
जो राजा अपनी इंद्रियों और मन को जीते बिना अपने मंत्रियों को जीतना चाहता है तथा मंत्रियों की जीते बिना अपने शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है। 
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण यो जयेत्। 
ततोऽमात्यानमित्रांशच न मोघं विजिगीषते।। 
जो राजा अपनी इंद्रियों व मन को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु समझकर पहले उन्हें जीत लेता है, फिर अपने मंत्रियों और शत्रुओं को जीतने का प्रयास करता है, तो उसे अवश्य सफलता मिलती है।  
ट्रेरिस्टों पर बम गिराने के लिए इराक -अफगानिस्तान कहाँ जा रहे हो ? पाश्चात्य देश अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दानव हो गए है, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? किन्तु जब तुम्हारा सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जायेगा, तब तुम यह समझ जाओगे कि हमारे हृदय में ही प्रेमस्वरूप ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) जगत्जननि माँ सारदा देवी, जगतबन्धु स्वामी विवेकानन्द (प्रेम का समुद्र) ज्वार मार रहा है। उसी माँ जगदम्बा के विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध से निसृत जगतग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। जब उस प्रेम को अभिव्यक्त होने की बाधा व्यष्टि अहं से (reflected consciousness या देहाध्यास के अहं-मन से) शुद्ध चेतना (pure consciousness) को विवेक के द्वारा पृथक -पृथक कर लिया जायेगा, तो वह प्रेम सम्पूर्ण विश्व को अपना समझने में समर्थ बना देगा। सभी केवल भाई ही नहीं हैं, सारी मानवजाति एक है ! 'अनेकता में एकता'  भारत की विशेषता-Unity in diversity, Oneness of humankind, कोई अलग नहीं है; तुम और मैं एक हूँ ! 
परीक्षा और परिणाम : वेदान्ती साम्यवाद, सनातन धर्म के अनुसार सारी मानवजाति एक है!  वेदान्त दर्शन की भाषा में इसी Oneness को अद्वैत कहा जाता है। यही सनातन धर्म में है जिसके अनुसार -देश में उत्पादित अन्न से लेकर कल-कारखानों में जो कुछ भी उत्पादन होता है (GDP सकल घरेलू उत्पाद) को सब मनुष्यों में उनकी जरूरत के हिसाब से बँटवारा कर देना चाहिए।  सबों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण करो, किन्तु उनको अपना इष्टदेव समझकर वितरण करना। अपने भाई-बहनों में पारिवारिक संपत्ति का बँटवारा करते समय भी उनकी जरूरतों के मुताबिक ही बँटवारा करना चाहिए। क्योंकि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा की आत्मा -मेरे इष्टदेव के स्वरूप हैं !  भागवत (7. 11. 10)  में सनातन धर्म को परिभाषित करते हुए जहाँ कहा गया है - 'तेष्वात्मदेवताबुद्धिः' अर्थात 'तेषु आत्मदेवता बुद्धिः' को मार्क्स के साम्यवाद में स्वीकार नहीं किया गया। सभी देशवासियों को अपनी आत्मा समझकर कर वितरण करने वाले 'सनातन धर्म' को भी अफीम कह दिया गया। इसीलिए यह आध्यात्मिक साम्यवाद दुनिया में कहीं नहीं आ सका है। 
[क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान। मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान। बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध नही होता और बिना अज्ञान के द्वैत बुद्धि नही हो सकती। माया के बशीभूत जड़ जीव क्या कभी ईश्वर के समानहो सकता है।] 
सम्पूर्ण भारतियों को जिस 'आत्मदेवता-बुद्धि' से देखते हुए GDP (1947 3 लाख से 2019 98 लाख) को भारतियों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण की बात सनातन धर्म में कही गयी है, स्वामी जी की ऋषि दृष्टि भी उसी प्रकार की थी। स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, स्वामीजी निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है।  वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी सप्तर्षियों में से विवेकदर्शर्न का अभ्यास करने कहा गया है। उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है। स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं।  
ब्रह्मा जी ने जब इतने सुन्दर सृष्टि की रचना की तो सोचने लगे, इतने सुन्दर जगत को देखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। उन्होंने सोचा प्रजा की रचना करने से वे इस सुन्दर सृष्टि को देखकर खुश हो जाएँगी। तब उन्होंने अपनी इच्छा से प्रवृत्ति-मार्ग के सप्त-ऋषियों की रचना की. किन्तु उन्होंने सोचा कि यदि ये लोग भी प्रवृत्ति में फँस कर अपने स्वरुप को ही भूल गए, तो उनको फिर सही मार्ग पर कौन लायेगा ? इसीलिये सभी लोगो को सही मार्ग दिखलाने के लिये उन्होंने निवृत्ति-मार्ग के सप्त ऋषियों की रचना की. इस पूरी कहानी को समझ लेना बहुत कठिन है। भगवान क्या है ? मेरे मन में जो विचार उठ रहा है, वह भी भगवान का ही विचार है. भगवान भी शरीर-धारी चैतन्य ही हैं. ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्न्म '! यहाँ कुछ भी जड़ नहीं है, सबकुछ चैतन्य ही है। इस सत्य की धारणा करने के लिये विषय-भोग की इच्छा, कामना-वासना का त्याग करना होगा, पवित्र होने के लिये गंगा-सागर तीर्थ या केदारनाथ धाम नहीं जाना होगा। 

उस मनुष्य का मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है, जिसमें वह अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण -माँ सारदादेवी -स्वामी विवेकानन्द का निरंतर दर्शन करता रहता है, एक ऐसे अवतार का - जिसके दर्शन मात्र से प्राणियो के, घट घट के संताप, दु:ख, पाप मिट जाते है। 'यस्मिन वेदश्च देवश्च '- जहाँ समस्त वेदों और देवताओं की सब पवित्रता मिलकर एक हो गया हो, उस मन के सरोवर में स्नान करने से तुम अमृत हो जाओगे। -दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार। जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।  
कर्मयोग में स्वामीजी एक कहानी कहते थे, - किसी गाँव में एक साधू झोपड़ी बनाकर रहते थे. उसी गाँव में एक बहुत भयंकर डकैत भी रहता था. किन्तु साधुसंग करने से उसके मन में पाश्चाताप उत्पन्न हुआ. वह साधू के पास रहकर उनकी सेवा करने की अनुमति मांगता है, कुछ दिनों तक वह रहने के बाद एक रोज साधू से कहता है, ' आप तो सब पर कृपा करते हैं, मुझे भी तीर्थ जाने की अनुमति दीजिये। मैंने सुना है कि तीर्थों में जाने से सारे पाप चले जाते हैं. ' किन्तु मैं यह कैसे समझूंगा कि मेरे सारे पाप चले गये हैं ? तब उस साधू ने कहा कि तुम एक गज साफ धुल हुआ श्वेत कपड़ा ले आओ. उसे काले रंग की स्याही में डुबो दो. इस काले कपड़े को सदा अपने साथ रखना, जब तुम किसी तीर्थ से स्नान कर के लौटना तो उस काले कपड़े को देखना कि उसका काला रंग अभी गया है या नहीं ? वह डकैत कई तीर्थों में भटका किन्तु कपड़ा जस-का तस ही रहा. वह बहुत दुखी मन से अपने गाँव की तरफ लौट रहा था. तभी उसे एक जंगल के भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई देती है. कोई डकैत उस औरत को अकेली पाकर उसका गहना लूट रहा था. यह देखकर उस डकैत को बहुत गुस्सा आ गया. तुरन्त उसने एक फरसे से उस डकैत का सिर उसके धड़ से अलग करते हुए कहा- ' जैसा बावनवां वैसा तिरपनवाँ ' फिर डकैत से उस युवती को बचाकर वह डकैत उसके गाँव तक छोड़ आया. फिर साधू के आश्रम में लौट आया.साधू ने पूछा - क्या तुम्हारा पाप चला गया ? उस डकैत ने कहा नहीं महाराज कई तीर्थों में नहा  कर मैंने देख लिया, पर जब खोला  तो वह काला का काला ही था. तब साधू ने पूछा रस्ते में तुमने क्या किसी असहाय स्त्री को बचाया भी था ? डकैत ने जब पूरी रामकहानी सुना दी, तो साधू ने कहा तू एकबार उस कपड़े को निकाल कर देखो। देखता है- तो कपड़ा सफ़ेद हो चूका था ! तब आश्चर्य से उस नवसाधु  ने कहा कि मैंने तो सिर काटा था, ऐसा कैसे हुआ ? तब साधू बोले, नहीं तुमने उस औरत को बचाने के लिये वैसा किया था, उसमे तुम्हारा अपना कुछ स्वार्थ नहीं था। तुम्हारे ह्रदय में जो निःस्वार्थ प्रेम रूपी धर्म का झरना  फूट पड़ा था, उसी धर्म के कारण तुम्हारे सारे पाप धुल गये हैं। '
ये जो मानस-सरोवर है, हमारा मन है, इस मन को वैसा ही तीर्थ बना लेना चाहिये और उसमें स्नान करके अमृत बन जाना चाहिये। यही स्वामीजी का आह्वान है, सभी मनुष्य उस मनोतीर्थ में स्नान करके अमृत हो सकते हैं। उस मनोतीर्थ के घाट पर हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं रहता, नास्तिक भी अलग नहीं है. सभी धर्म यही कहते हैं, कि मन को पवित्र रखना चाहिये तथा उसे प्रेम से भर देना चाहिये। यही धर्म है, इस धर्म का लाभ हो जाने पर, यहाँ से जाते समय हम भी कह सकेंगे कि - वास्तव में यह जगत ईश्वर की सुन्दर रचना है ! यह तभी संभव होगा जब हमलोग उस आह्वान का अनुसरण करेंगे जो जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द ने दिया था कि -आओ हम अपने मन के स्वामी बने, आओ हम यथार्थ मनुष्य बनें ! इसीलिए स्वामी जी कहते थे - " तुम्हारी पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते. इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। अपने तन-मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो. तुमने पढ़ा है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अपनी माता को ईश्वर समझो, पिता को ईश्वर समझो- परंतु मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’- गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुखी को ईश्वर मानो।" 
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शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

मनःसंयोग-1 [ 26 -12 -2018] [गंगाधरपुर युवा प्रशिक्षण शिविर]

महामण्डल द्वारा आयोजित सर्व भारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर का उद्घाटन प्रतिवर्ष 25 दिसम्बर को होता है। किन्तु 'Be and Make वेदान्त शिक्षक -परम्परा' में युवाओं को प्रशिक्षण देने का कार्य 26 दिसम्बर को प्रातः 6 बजे 'मनःसंयोग' की कक्षा से ही प्रारम्भ होता है। क्योंकि प्रतिदिन अपने मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से ही जीवन-गठन हो सकता है। मनुष्य बनने और बनाने का मुख्य तकनीक है मन को वश में लाना। हम देखते हैं कि कुछ लोग जीवन में बहुत सफल हुए हैं, कुछ लोग सफल नहीं हो सके-इसका क्या कारण है ? सफलता और असफलता का कारण मन को एकाग्र करने की क्षमता किसमें कितनी है ~ उस पर निर्भर करता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए चरित्रवान मनुष्य बनना अनिवार्य है, और चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए युवावस्था में ही मन को वश में करने की तकनीक सीख लेना आवश्यक है। ब्रह्मबिन्दुपनिषद् श्लोक २ में कहा गया है -
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । 
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (कामिनी- कांचन की कामना-संकल्प से रहित मन ही भ्रममुक्ति-डीहिप्नोटाइज्ड होने) का कारण कहा गया है
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" मैं तुमसे कहता हूँ कि हमको शक्ति , केवल शक्ति ही चाहिये। और उपनिषद शक्ति (शिक्षा) की विशाल खान है। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति (मन की असीम शक्ति को विकसित करने की शिक्षा) विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकती हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनरुज्जीवित, और वीर्यसम्पन्न हो सकता है। समस्त जातियों को, सकल मतों को, भिन्न भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल, दुःखी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) होने के लिए वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रही है। मुक्ति अथवा स्वाधीनता - दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता; यही उपनिषदों के मूल मंत्र हैं [Hand,Head, Heart-3'H' शक्ति का विकास यही उपनिषदों का मूल मंत्र है। ]
Quantum Physics : (क्वांटम भौतिकी) का सिद्धांत भी कहता है- कि यह भौतिक जगत ऊर्जा का एक वृहत सागर है ! यहाँ 'concrete' (ठोस,मूर्त, साकार या यथार्थ रूप) बोलकर कुछ भी नहीं है। यह क्वांटम भौतिकी का जगत है। प्रत्येक मनुष्य विशाल नाभकीय ऊर्जा (Nuclear energy) विशाल परमाणु शक्ति से सम्पन्न है। यदि किसी मनुष्य को एक शक्तिशाली इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी (Electron Microscope) के नीचे रखकर देखा जाय तो पता चलेगा वह असंख्य electrons, neutrons, photons के रूप में सतत परिवर्तनशील ऊर्जा क्षेत्र (continuous variable energy fieldद्वारा निर्मित हैं। आप और हम सभी मनुष्य शुद्ध ऊर्जा (pure energy या pure consciousness) की ज्योति हैं, इस मानव-शरीर को पाने के लिए देवता लोग भी तरसते हैं, क्योंकि सभी जीवों में मनुष्य को ही सबसे सुन्दर और बुद्धिमान आकृति (intelligent configuration-ताजमहल जैसी आकृति) में सुशोभित है। फिर भी शारीरिक शक्ति की एक सीमा होती है [जैसे ईरान के ओलंपिक चैंपियन सोहराब मोरदी (29) शरीर की भारोत्तोलन क्षमता का विश्व रिकॉर्ड 189 किलो है।]  किन्तु मनुष्य के मन की शक्ति असीम है।मानसिक शक्ति की कोई सीमा नहीं है। मन की शक्ति दैहिक शक्ति से अनन्त गुना बड़ी होती है। यह अलग बात है कि हमें इसका भान ही नहीं है। आपको पता ही नहीं है कि आप क्या क्या कर गुजरे हैं और क्या क्या करते जा रहे हैं। इस दृष्टिगोचर स्थूल-शरीर की सतह (अन्नमय कोष-स्थूल शरीर) के नीचे यह शुध्द चेतना (pure consciousness) प्रतिबिंबित चेतना के रूप में सतत परिवर्तनशील है, जिसका नियंत्रण हमारे शक्तिशाली मन (mind) के माध्यम से हो रहा है।
 क्वांटम भौतिकी का यह भी कहना है कि दिखाई देने वाली वस्तु (object M/F) वैसी ही दिखाई देती है, जैसी हम देखना चाहते हैं। एक वस्तु 'object' (seenका अपने पर्यवेक्षक 'observer' या द्रष्टा (seerसे पृथक कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है ! इस प्रकार कहा जा सकता है कि किसी 'वस्तु' (M/F) के प्रति आपका पर्यवेक्षण (supervision) , आपका ध्यान (attention-मनोयोग), और आपका इरादा (intentions)ही उस वस्तु को निर्मित कर देता है । यह वैज्ञानिक भी है और सिद्ध भी किया जा चुका है। 
यह भौतिक जगत (पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों) 3'H' से, आत्मा (soul-Heart), मन (Head) और शरीर (body या Hand) से बना हुआ है। किन्तु मनुष्य के  इन तीनों components  - आत्मा, मन और शरीर का कार्य (functions) अपने आप में अलग अलग है, जिसे एक दूसरे से साझा नहीं किया जा सकता। (functions of the soul, mind and body are different)| जो कुछ आप अपनी आँखों से देखते हैं, और अपने शरीर-इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव (experience) करते हैं, वह भौतिक जगत है। उस बाह्य भौतिक जगत (अन्नमय कोष) को हम शरीर (Hand) कहते हैं। शरीर (आकृति) का निर्माण नहीं किया जा सकता, यह अपने आप में अनूठा कार्य (unique work) है। उसे व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा स्वस्थ रखा जा सकता है, और इन्द्रिय विषयों का अनुभव कराया जा सकता है। हमारे पास 5 विषयों-रूप,रस, गंध, शब्द और स्पर्श  का अनुभव करने के लिए 5 भौतिक इंद्रियों हैं - आँख, कान, नाक,जिह्वा और त्वचा। इन इंद्रियों में से प्रत्येक के पास विभिन्न विषयों के विशिष्ट frequency को ग्रहण करने का एक 'spectrum' है, अर्थात विशिष्ट के तरंग के घटकों को ग्रहण करने की एक क्रमबद्ध श्रेणी है। उदाहरण के लिए, एक कुत्ता आपकी तुलना में एक भिन्न sound wave (ध्वनि तरंग) को अधिक महसूस करता है। आपको दुनिया 'colorful' रंगीन दिखाई देती है तो शायद कुत्ते को  Blake and White। क्या हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि world is colorful or black and white? कुत्ते को अशरीरी प्राणी भी दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर वो रात को भोंकता है, आपको वे दिखाई नहीं देते। अब यह तर्क का विषय है कि वे होते हैं अथवा नहीं? इसी प्रकार सबके साथ होता है।
 किन्तु यह आत्मा (ह्रदय Heart) ही वह power-house बिजलीघर है जो शरीर(Hand) को जीवन और मन (Head)को विचार प्रदान करता है। शरीर (body-Hand) के पास कुछ निर्माण करने की शक्ति नहीं है, किन्तु कुछ करने की शक्ति का भ्रम (कर्तापन का भ्रम या illusion अवश्य है। यह भ्रम ही अत्याधिक हताशा (frustration-कुण्ठा)  का कारण होता है । शरीर विशुद्ध रूप से एक कार्य (जड़ है) है, जिसके पास अपना कोई उद्देश्य या निर्माण की शक्ति नहीं है । शरीर एक कार्य (effect-प्रभावहै, जिसे एक कारण-शरीर (cause body) ने निर्मित किया है। और वह कारण है विचार (thought-इरादा या संकल्प)।विचार (idea, अवधारणा या thought) को अनुभव नहीं किया जा सकता .... इसे केवल निर्मित किया जा सकता है और इसकी व्याख्या की जा सकती है। इसे अनुभव करने के लिए सापेक्ष जगत (relative world) या शरीर (physical worldकी आवश्यकता होती है। 
नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों ने बड़े आश्चर्यजनक रूप से (incredibly- असंदिग्ध) रूप से यह भी सिद्ध कर दिया है, कि वह सतत परिवर्तनशील अदृश्य ऊर्जा क्षेत्र (invisible Energy field) जो हमें चारो ओर से घेरे रहता है, जिसे आभा-मण्डल ('aura'ओजसभी कहा जाता है, उसे हमारे विचारों ने ही एक साथ जकड़ कर रखा है, जिसे हम 'वस्तु' (object,नाम-रूप, M/F) के रूप में देख रहे हैं। प्रश्न उठता है कि यदि हमारे चारों ओर जो कुछ भी है वह ऊर्जा द्वारा ही निर्मित है; तो क्या कारण है कि हमें एक व्यक्ति (M/F) के स्थान पर एक ऊर्जा का चमकता गुच्छा (flashing cluster of energy) 
दिखाई नहीं देता 
 इसी बात को केनोपनिषद (3/2) में एक रूपक के द्वारा समझाया गया है - एक बार देवासुर संग्राम में देवता लोग जीत गए और असुर हार गए। देवताओं को अपनी विजय परअभिमान हुआ कि यह हमारी ही महिमा है कि हम विजयी हुए और असुर पराजित हुए। देवराज इन्द्र की सभा में बैठकर सभी देवता डींगे हाँकने लगे। देवों के इस अहंकार को दूर करने के लिए, सभा के एक कोने में भगवान् यक्षरूप में प्रकट होते हैं। पर अग्नि और वायु देवता भी उनको पहचान नहीं सके। क्योंकि जिसे जाति ,विद्या , महत्त्व,रूप आदि का अभिमान है । वह ईश्वर को नही जान सकता । - "तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति ॥2।।" [तत् ह एषाम् विजज्ञौ तेभ्यः ह प्रादुर्बभूव तत् न व्यजानत किम् इदम् यक्षम् इति।] अर्थः - वह (ब्रह्म) इन (देवों) का (भाव) जान गया और उनके समक्ष प्रकट हुआ | (परन्तु) वे देव न जान सके कि यह यक्ष* कौन है ? तद्धैषां उस सर्वज्ञ जगन्नियन्ता ने ,एषां --अपनी ही शक्ति से 'हम ' विजयी हुए हैं ऐसे अहंकार से युक्त उन देवताओं का ,तद् --उस अहंकार को ,विजज्ञौ--पूर्णतया जान लिया ।तत्पश्चात् वे परमात्मा ,देवेभ्यः --देवानां कृते --देवताओं के लिए, ह--निश्चयार्थक अव्यय । अर्थात् इस तथ्य में सन्देहग्रस्त मत होना --इसे ह शब्द से भगवती श्रुति बतला रहीं हैं । प्रादुर्बभूव --अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने के लिए भगवान् अनुग्रह करके यक्षरूप में सहसा प्रकट हुए। पर अपनी शक्ति (अहं भाव) आदि के अभिमान से दूषित अन्तःकरण वाले देवगण यक्षरूप में प्रकट, तत् --उस परमात्मा को ,न व्यजानन्त -- नही जान सके ।यक्षमिति --- यक्ष को लक्ष्य करके इस प्रकार, विचार रहे हैं कि ,किमिदं -- यह क्या है ?यक्षरूप में ब्रह्म सामने है किन्तु उसे अभिमान के कारण देवता क्या देवराज इन्द्र भी नही समझ पाये कि ये परमात्मा हैं ।
ठीक इसी तरह हम लोगों के सामने जगत् की समस्त वस्तुओं के रूप में परमात्मा विराजमान हैं किन्तु हमारा हृदय नाना प्रकार के अभिमान से दूषित होने के कारण हमे उनका वास्तविक रूप नही दिख रहा है।यह सब जानकारी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे ब्रह्मांड को देखने के प्रति आपका नजरिया बदल जाता है, और तब आप अपनी वास्तविक इच्छाशक्ति (actual will power)  के अनुसार अपने जीवन का लक्ष्य, और उसे सार्थक करने की योजना बना सकते हैं गीता और उपनिषदों की शिक्षा सम्पूर्ण मानवजाति को ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न मनुष्यों में रूपान्तरित होने के लिए~ उच्च स्वर में आह्वान कर रही है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "उपनिषदों में यदि कोई ऐसा शब्द है जो वज्र-वेग से अज्ञान राशि के ऊपर पतित होता है, उसे तो बिल्कुल उड़ा देता है, वह है 'अभीः' -निर्भयता। संसार को यदि किसी एक धर्म की शिक्षा देनी चाहिए तो वह है 'निर्भीकता।' उठो, जागो - निर्बलता के इस व्यामोह से जाग जाओ। वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म (Existence-consciousness-bliss, अनन्त अस्तित्व-चैतन्य -आनन्द) है। इस लिए उठो, अपने वास्तविक रूप को प्रकट करो। तुम्हारे अन्दर में जो भगवान है, उसकी सत्ता को उँचे स्वर में घोषित करो, उसे अस्वीकार मत करो। हमारी जाति के ऊपर घोर आलस्य, दुर्बलता, और व्यामोह छाया हुआ है। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरुप की शिक्षा दो। और घोरतम मोह -निद्रा में पड़ी हुई जीवात्मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्हारी जीवात्मा (साक्षी चेतना - witness consciousness) प्रबुद्ध होकर सक्रिय हो उठेगी , तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे, महिमा और महत्ता पाओगे, साधुता आएगी, पवित्रता भी चली आयेगी -मतलब यह कि जो कुछ अच्छे गुण हैं, वे सभी तुम्हारे पास आ पहुँचेंगे। " भगवान गीता 6.5में कहते हैं ...
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
 मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अधः पतन नहीं करना चाहिये।  क्योंकि आत्मा (वशीभूत मन)  ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (अवशिभूत मन ) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है। 

किन्तु किसी कार्य में असफल होने पर हमलोग उसका सारा दोष किसी दूसरे व्यक्ति पर या भाग्य पर लगा देते हैं। परन्तु किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने का सारा रहस्य मन को एकाग्र करने की शक्ति पर निर्भर करता है।इस लिए विद्यार्थी जीवन में प्रवेश करने के पहले ही यदि मन और इन्द्रियों को जीत लेने की विद्या सीख ली जाय तो एकाग्र होकर पढ़ते समय हमारा मन अन्य किसी जगह पर -क्रिकेट या इन्टरनेट की ओर नहीं जायेगा। हम सभी लोग परीक्षा में अच्छा रिजल्ट पाना चाहते हैं, किन्तु मन और इन्द्रियों को जीते बिना अच्छा रिजल्ट नहीं पाया जा सकता है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य है -उनको शिक्षा देना, उनमें उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता ~ 'आत्मश्रद्धा ' का विकास करना। उनमें उच्च विचारों को उत्पन्न कर दो -उन्हें उसी एक सहायता की जरूरत है, और इसके फलस्वरूप बाकी सबकुछ अपने आप ही हो जायेगा। अर्जुन जब श्रीकृष्ण से कहते हैं- ' हे कृष्ण मन बड़ा ही चञ्चल प्रमथनशील दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।' तब भगवान श्रीकृष्ण गीता (६:३५) में कहते हैं-
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।  
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। 
और पुनरुज्जीवन का उपाय भी यही है ! हमलोगों ने दैहिक,मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों या 3'H' की शक्तियों को विकसित करने के विषय में सुना है। मनुष्य सर्वश्रष्ठ प्राणी है, क्योंकि वह प्रशिक्षण प्राप्त करके इन तीनों शक्तियों को विकसित कर सकता है। इतना ही, नहीं वह यदि चाहे तो, अपनी मन की शक्ति के द्वारा अनन्त (ब्रह्म या परम सत्य) को भी जान सकता है ! किन्तु अभी हमारा मन एकाग्र नहीं हैं, मन की शक्तियाँ विभिन्न विषयों में बिखरी हुई हैं। इसलिए हम उसकी शक्तियों को सही रूप से इस्तमाल नहीं कर पाते हैं। जैसे हम जानते है कि सूर्य में अनन्त heat energy या ताप ऊर्जा रहती है। यदि एक-दो घंटे तक धूप में कागज को छोड़ दिया जाय तो कागज गर्म हो जाता है। किन्तु जलता नहीं है। परन्तु सूर्य की बिखरी हुई किरणों को यदि एक (convex lens उत्तल ताल के द्वारा एक बिन्दु पर केन्द्रीभूत करवाया जाय, तो उस बिन्दु से पहले धुँआँ निकलता है, फिर कागज जल उठता है। उसी प्रकार मन की जो शक्ति इन्द्रिय विषयों में बिखरी हुई है, यदि उन्हें एकाग्र बनाकर हृदय के भीतर किसी विन्दु (या ब्रह्म-अवतार वरिष्ठ) पर केन्द्रीभूत किया जाय तो, मानसिक शक्ति के साथ साथ, आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास या आध्यात्मिक शक्ति में भी वृद्धि होने लगेगी। और दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक तीनों शक्तियों को विकसित करके, उनकी सहायता से जीवन गठन या अन्य किसी कार्य हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं। 
अतः इस कक्षा में हमलोग पहले यह सीखेंगे कि मन का स्वभाव कैसा है, तथा उस चंचल मन को अपनी इच्छानुसार अप्रयोजनीय विषयों से खींचकर प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र करने की क्षमता कैसे अर्जित की जाती है ? इसी तकनीक या एकाग्रता- शक्ति प्राप्त करने की वैज्ञानिक प्रणाली को इस कक्षा में हमलोग सीखेंगे। आप पूछ सकते हैं, कि युवा-प्रशिक्षण के लिए मनःसंयोग सीखने पर ही इतना जोर क्यों दिया जाता है ? इसका उत्तर यह कि मन ही हमारे जीवन को संचालित करता है, मन लगाकर कोई भी कार्य करने से वह सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाता है। 
मन स्वाभाविक रूप से चंचल है। पर उसका चंचल होना खराब नहीं है, बल्कि उसके इसी गुण के कारण हमलोग विभिन्न विषयों का ज्ञान भी प्राप्त कर पाते हैं। किन्तु कुछ कारणों से वह अतिरिक्त चंचल बन गया है, उन कारणों को तथा मन के स्वभाव के विषय में हमलोग आगे सुनेंगे। इस चंचल मन को अपनी इच्छानुसार ज्ञातव्य विषयों में लगाने या जोड़ने को ही 'मनोयोग' करना कहते हैं। जब ज्ञातव्य वस्तु या विषय के साथ मन का योग सम्यक रूप से होने लगता है, तो उसको मनःसंयोग कहते हैं। मन की इस अवस्था को प्राप्त करना ही हमारा लक्ष्य है।  
इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते थे -" मेरे विचार से मन को वश में लाना ही शिक्षा का सार है, विषयों को रट कर डिग्री प्राप्त कर लेना शिक्षा नहीं है। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करनी हो, और मुझे इतनी स्वत्रंता मिले कि पढाई का सिलेबस मैं खुद तैयार कर सकूँ; तो सबसे पहले मैं अपने चंचल मन को अप्रयोजनीय विषयों से खींचकर, केवल प्रयोजनीय विषय में एकाग्र रखने के सामर्थ्य में वृद्धि करने का अभ्यास करता। और एकाग्रता शक्ति से सम्पन्न इस उपकरण का निर्माण कर उसकी सहायता से इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। " 
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" मेरे विचार से शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्यन कदापि न करूँ। मैं पहले मन को एकाग्र करने की क्षमता और अनासक्ति के सामर्थ्य को (अर्थात अप्रयोजनीय विषयों से मन को खींचने के सामर्थ्य को) बढ़ाता और ज्ञानार्जन के इस उपकरण के पूर्णतया तैयार होने पर उससे इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। " ~ स्वामी विवेकानन्द (व्याख्यान-भगवान बुद्ध का सन्देश)  
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[Quantum Physics:This physical world is a big ocean of Energy. There is nothing concrete here. This is a world of quantum  physics.], 
(क्वांटम भौतिकी) का सिद्धांत कहता है- कि यह पंचभौतिक जगत ऊर्जा का एक वृहत सागर है ! यहाँ कुछ भी concrete (ठोस,मूर्त, साकार या यथार्थ रूप) नहीं है। यह क्वांटम भौतिकी का जगत है। प्रत्येक मनुष्य विशाल नाभकीय ऊर्जा (Nuclear energy) विशाल परमाणु शक्ति से सम्पन्न है। यदि किसी मनुष्य को एक शक्तिशाली इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी (Electron Microscope) के नीचे रखकर देखा जाय तो पता चलेगा वह असंख्य electrons, neutrons, photons के रूप में सतत परिवर्तनशील ऊर्जा क्षेत्र (continuous variable energy fieldद्वारा निर्मित हैं।नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों ने बड़े आश्चर्यजनक रूप से (incredibly- असंदिग्ध) रूप से यह भी सिद्ध कर दिया है, कि वह सतत परिवर्तनशील अदृश्य ऊर्जा क्षेत्र (invisible Energy field) जो हमें चारो ओर से घेरे रहता है, जिसे ओजस/आभा/ प्रभामण्डल 'aura' भी कहा जाता है, उस नाम-रूप के परिवर्तनशील ऊर्जा क्षेत्र (या आभामण्डल) को हमारे विचार ही एक साथ जकड़ कर रखते हैं, जिसे हम 'वस्तु' (object -M/F) के रूप में देखते हैं। यदि हमारे चारों ओर जो कुछ भी है वह ऊर्जा द्वारा ही निर्मित है; तो क्या कारण है कि हमें एक व्यक्ति (M/F) के स्थान पर एक ऊर्जा का चमकता गुच्छा (flashing cluster of energy) दिखाई नहीं देता ? 
Just imagine a movie reel.जरा एक फिल्म रील की कल्पना करें। एक चलचित्र में एक सेकिंड में 24 फ्रेम का संग्रह एक के बाद एक आँखों के सामने से गुजरता है। कहने को तो प्रत्येक फ्रेम अलग अलग होते हैं वे निश्चित अंतराल के बाद सामने से गुजरते हैं, किन्तु उनकी गति के कारण हमारी आँखों को भ्रम हो जाता है,आँखें धोखा खा जाती हैं तथा हमें एक चलचित्र दिखाई देता हैं। टेलीवीजन देखते समय भी लगभग ऐसा ही होता है। एक TV tube एक सामान्य ट्यूब है, किन्तु जब इलेक्ट्रॉनों का पुंज ( mass of electrons ) स्क्रीन पर एक निश्चित तरीके से आघात करता है तो गतिशील चित्र का भ्रम (illusion) पैदा होता है। 
क्वांटम भौतिकी का कहना है कि दिखाई देने वाली वस्तु (object - M/F) वैसी ही दिखाई देती है, जैसी हम देखना चाहते हैं। एक वस्तु 'object' (seenका अपने पर्यवेक्षक 'observer' या द्रष्टा (seerसे पृथक कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है ! इस प्रकार कहा जा सकता है कि किसी 'वस्तु' (M/F) के प्रति आपका पर्यवेक्षण (supervision) , आपका ध्यान (attention-मनोयोग), और आपका इरादा (intentions) उस वस्तु को निर्मित कर देता है । यह वैज्ञानिक भी है और सिद्ध भी किया जा चुका है। 
हमारे पास 5 विषयों-रूप,रस, गंध, शब्द और स्पर्श  का अनुभव करने के लिए 5 भौतिक इंद्रियों हैं - आँख, कान, नाक,जिह्वा और त्वचा। इन इंद्रियों में से प्रत्येक के पास एक विशिष्ट spectrum (एक उत्सर्जन या तरंग के घटकों का एक क्रमबद्ध श्रेणी) है। उदाहरण के लिए, एक कुत्ता आपकी तुलना में एक भिन्न sound wave (ध्वनि तरंग) को अधिक महसूस करता है। आपको दुनिया 'colorful' रंगीन दिखाई देती है तो शायद कुत्ते को  Blake and White। क्या हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि world is colorful or black and white? कुत्ते को अशरीरी प्राणी भी दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर वो रात को भोंकता है, आपको वे दिखाई नहीं देते। अब यह तर्क का विषय है कि वे होते हैं अथवा नहीं? इसी प्रकार सबके साथ होता है। 
दूसरे शब्दों में, हमारी भिन्न भिन्न इंद्रियों की अनुभूति का दायरा सीमित है। और वे अपनी क्षमता के अनुसार ही ऊर्जा के अथाह समुद्र में से ग्रहण कर एक छवि का निर्माण करते है ।इसीलिए भारतीय मनीषियों ने भी बार बार यही उद्घोष किया है – 'नेति नेति। ' यह अंत नहीं है, यह अंत नहीं है- सत्य की मंजिल अभी दूर है। यह महज अनुभूति का विषय है। जो जितना डूब पाए। जिन खोजा तीन पाईयां, गहरे पानी पैठ। जैसा आप सोचते हैं, अमूमन बैसे ही बन जाते हैं । या मति  सागति भवेत। आपकी जिन्दगी बैसी ही हो जाती है, जैसी आप कल्पना करते हैं अथवा जैसे जीवन पर आस्था रखते हैं। क्वांटम भौतिकी का सिद्धांत हमें बताता है कि यह दुनिया उतनी कठोर और अपरिवर्तनीय (irreversible) नहीं है, जैसी कि मानी जाती है । इसके बजाय, यह हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक विचारों (collective ideas)के अनुरूप सतत प्रवाहमान हो रही है । हमें जो सत्य लगता है, वस्तुतः वह भ्रम होता है, एक मैजिक ट्रिक के समान ।
मानव शरीर के ये ऊतक (tissues-मांस,तन्तु,त्वचा) और अंग (organs) किससे बने हैं? कोषाणुओं (Cells) से। कोषाणु किस चीज से बने हैं ? अणुओं से। अणु (molecules) किससे बने हैं? परमाणुओं से (From atoms)। How are atoms made? परमाणु कैसे बने हैं? सूक्ष्माणु से -subatomic particle से। Subatomic कण किसके बने हैं ? ऊर्जा (energy) से ! 
आप और हम सभी प्राणी शुद्ध ऊर्जा (pure energy- pure consciousness या existence-consciousness-bliss) की ज्योति हैं, जो अपने सबसे सुन्दर (ताजमहल जैसा) और बुद्धिमान आकृति (intelligent configuration) में सुशोभित है। सतह (अन्नमय कोष-स्थूल शरीर) के नीचे यह शुध्द चेतना (pure consciousness) प्रतिबिंबित चेतना के रूप में सतत परिवर्तनशील है, जिसका नियंत्रण हमारे शक्तिशाली मन (mind) के माध्यम से हो रहा है। यह अलग बात है कि हमें इसका भान ही नहीं है। आपको पता ही नहीं है कि आप क्या क्या कर गुजरे हैं और क्या क्या करते जा रहे हैं। 
यह भौतिक जगत (पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों) 3'H' से, आत्मा (soul-Heart), मन (Head) और शरीर (body या Hand) से बनी है। functions of the soul, mind and body are different ये तीनों - आत्मा, मन और शरीर का कार्य अपने आप में अलग अलग है, जिसे एक दूसरे से साझा नहीं किया जा सकता । 
जो कुछ आप अपनी आँखों से देखते हैं, और अपने शरीर-इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव (experience) करते हैं, वह भौतिक जगत है। उस बाह्य भौतिक जगत (अन्नमय कोष) को हम शरीर (Hand) कहते हैं। शरीर एक कार्य (effect-प्रभावहै, जिसे एक कारण-शरीर (cause body) ने निर्मित किया है।और वह कारण है बिचार (thought-इरादा या संकल्प) या विज्ञानमय कोष।  शरीर (आकृति) का निर्माण नहीं किया जा सकता, यह अपने आप में अनूठा कार्य (unique work) है। उसे व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा स्वस्थ रखा जा सकता है, और इन्द्रिय विषयों का अनुभव कराया जा सकता है। विचार (idea, अवधारणा या thought) को अनुभव नहीं किया जा सकता .... इसे केवल निर्मित किया जा सकता है और इसकी व्याख्या की जा सकती है। इसे अनुभव करने के लिए सापेक्ष जगत (physical world) या शरीर (relative world) की आवश्यकता होती है।आत्मा वह power-house बिजलीघर है जो शरीर को जीवन और विचार प्रदान करता है । शरीर (body-Hand) के पास कुछ निर्माण करने की शक्ति नहीं है, किन्तु कुछ करने की शक्ति का भ्रम (कर्तापन का भ्रम या illusion अवश्य है। यह भ्रम ही अत्याधिक हताशा (frustration-कुण्ठा)  का कारण होता है । शरीर विशुद्ध रूप से एक कार्य (जड़ है) है, जिसके पास अपना कोई उद्देश्य या निर्माण की शक्ति नहीं है । यह सब जानकारी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे ब्रह्मांड को देखने का आपका नजरिया बदल जाता है, और तब आप अपनी वास्तविक इच्छाशक्ति (actual will power)  के अनुसार अपने जीवन का लक्ष्य, और उसे सार्थक करने की योजना बना सकते हैं
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साभार http://www.krantidoot.in/अनुवाद - http://peacefulwarriors.net/nothing-is-solid-this-is-the-world-of-quantum-physics/
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[ नवनी दा 26 -12-2005 कैम्प :Morning class : सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम/ॐ भद्रं कर्णेभिः/कोऽयं सनातनोधर्म: ? सनातन धर्म क्या ? GDP से सनातन धर्म का सम्बन्ध।] 
कल उद्घाटन सत्र में हमने सुना था महामण्डल का आदर्श वाक्य है - "Be and Make." क्या बनना है ? हमलोग स्वरूपतः जो हैं वही बनना है। जब हम मनुष्य शरीर को प्राप्त कर लिए हैं तो अब पशु के जैसा नहीं रहना है। पशु लोग जिस अवस्था में जन्म लेते हैं, बूढ़ा होकर उसी अवस्था में मर जाते हैं। परन्तु मनुष्य जिस अवस्था में जन्म लेता है, बूढ़ा होने तक उसी अवस्था में नहीं रहता। वह मनःसंयम की विद्या ग्रहण करके, मन को वश में करने की तकनीक सीखकर सुंदर चरित्रवान या उच्चकोटि का मानव बनकर अपना शरीर त्याग सकता है। Robert Browning (1812-1889)  की एक प्रसिद्ध कविता है-" Progress, man’s distinctive mark alone, Not God’s, and not the beasts’;God is, they are, man partly is and wholly hopes to Be." -अर्थात विकास (Progress-उन्नति, प्रगति), केवल मनुष्य का विशिष्ट लक्षण है, या विशेष गुण है। यह सुस्पष्ट विशेषता न ईश्वर में है, और न पशुओं में। ईश्वर (तो पूर्ण) हैं, पशु हैं (उनको पशु बनने के लिये स्कूल जाने की जरूरत नहीं है।) मनुष्य अपूर्ण है और पूर्ण (ब्रह्म-बृहद) बन जाने की आशा करता है। "पशु से मनुष्य में अन्तर कहाँ आता है ? मनुष्यों को एक विशेष वस्तु ईश्वर की ओर से प्राप्त है जिसको 'धर्म' कहा जाता है. यह धर्म जिस मनुष्य के जीवन में नहीं उतरा है, वह तो पशु के समान ही है। किन्तु यह 'धर्म' क्या है ? " आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुर्भी नराणाम। एको ही तेषाम अधिको विशेषो धर्मेण हीनः पशुर्भी समानः।।   
यदि एक लाख मनुष्यों में से एक मनुष्य भी यह समझ लेता है कि धर्म क्या है, तो बहुत कहा जायेगा।  अधिकांश लोग मनमाने ढंग से धर्म की कोई परिभाषा य़ा धारणा गढ़ लेते हैं; तथा ' धर्मावलम्बी होना' को  'मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची मान कर धर्म के नाम पर एक दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते हैं, दंगा-फसाद करने पर भी उतारू हो जाते हैं। आप स्वयं ही विचार कर सकते हैं कि धर्म कैसे खून-खराबियों के लिये जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? यह आजकल का एक ओछा तर्क है कि धर्म ही समस्त दोषों का कारण है। पर वस्तुतः धर्म दोषी नहीं है। दोष तो हमारा है और वह यह कि हम धर्म के निर्देशों को जीवन में नहीं उतारते। 
सभी मनुष्यों में स्वाभाविक रूप से विभाजन की प्रवृत्ति रहती है,और धर्म इस प्रवृत्ति को नियंत्रण में रखता है। प्रत्येक मनुष्य में 'मैं और मेरा ' की समझ के अनुसार (व्यष्टि अहं-बोध और माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरण के तारतम्य के अनुसार) ही समाज को 'अपना और पराया ' में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति रहती है। मनुष्यों में रंगरूप, जाती,भाषा, वेशभूषा, सम्प्रदाय के आधार पर समाज का अपना -पराया में वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति रहती है। धर्म इस प्रवृत्ति पर रोक लगाता है। महाभारत में कहा गया है- धर्म क्या है ? ' धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।' अर्थात्—‘जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एक सूत्रता में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ महाभारत में यह भी कहा है -श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः,नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां ,महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥अर्थ- वेद और धर्मशास्त्र अनेक प्रकार के हैं । कोई एक ऐसा मुनि नहीं है जिसका वचन प्रमाण माना जाय । अर्थात् श्रुतियों,स्मृतियों, और मुनियों के मत भिन्न-भिन्न हैं । धर्म का तत्व अत्यंत गूढ है- वह साधारण मनुष्यों की समझ में नही आ सकता । ऐसी दशा में,महापुरूषों (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा -स्वामी विवेकानन्द) ने - जिस मार्ग का अनुकरण किया हो , वहीं धर्म का मार्ग है, उसी को अपनाना चाहिए 
शब्द “धर्म” क्रिया “धारणा” से ली गई है। “धर्म” वह  है जो  समाज को एक साथ रखती है।  इसलिए अगर कोई संगठन कुछ लोगों को एक साथ करने / रखने में सक्षम है, तो इसमें कोई शक नहीं है कि यह धर्म है।हम आज के परिपेक्ष्य में धर्म को परिभाषित करें,  तो कह सकते हैं कि मानवता या ‘इंसानियत’ ही एकलौता धर्म या मजहब है। सच्चा धर्म या आध्यात्मिकता चेतना ही वह वस्तु है, जो किसी समुदाय या राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधे रख सकती है। राष्ट्र के परिपेक्ष्य में “राष्ट्रवाद” ही राष्ट्र धर्म है। धर्म को परिभाषित करते हुए  वैशेषिक-सूत्र में कहा गया है - 'यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।' मुख्यधर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें (मनुष्य के आध्यात्मिक उद्देश्यसाधक) – आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मा के उपकारक, निःश्रेयसिद्धि अर्थात मोक्ष प्राप्ति करने के उद्देश्य से अपना पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।
यही धर्म सार्वभौमिक,सार्वकालिक एवं सार्वजनीन है, जो त्याज्य नहीं है। इसी का प्रतिपादन सब धर्म शास्त्रों का मुख्य उद्देश्य है। दार्शनिकों ने धर्म के दो रूप कहे हैं- 1. सहज धर्म 2. कर्तव्य धर्म। सहज धर्म का अर्थ होता है-  'भूत वैशिष्ट' अर्थात प्राणियों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ। जैसे- अग्नि का धर्म है- ऊर्जा का प्रसारण, जल का धर्म है- शीतलता प्रदान करना, प्यास बुझाना आदि। इस आधार पर मनुष्य का धर्म होता है- 'निःस्वार्थपरता' जो मनुष्य की गरिमा को धारण करती हैधर्म का दूसरा स्वरूप मनुष्यों के आदर्श कर्तव्यों से जुड़ा है। जैसे- राजा का धर्म प्रजा की रक्षा, पोषण और न्याय की व्यवस्था प्रदान करना। शिक्षक का धर्म जन- जन को शिक्षित बनाने की योग्यता एवं कुशलता अर्जित करके उसे मूर्त रूप देना है। इसी तरह विद्यार्थी का धर्म विद्या -अविद्या (निःश्रेयस प्राप्ति और लौकिक उन्नति) की दोनों धाराओं को अभ्यास- अनुभव में लाना होता है।यदि कोई सफाई निरपेक्ष हो जाये, तो वहाँ गन्दगी ही फैलेगी। कोई स्वर निरपेक्ष हो जाये, तो बेसुरा ही रह जायेगा। इसी तरह यदि धर्मनिरपेक्षता के आधार पर मनुष्य अपने सहज धर्म और कर्तव्य धर्मों के प्रति उदासीन हो जाये, तो जीवन अनगढ़- अनुशासनहीन ही रह जायेगा।
 धर्म की यह परिभाषा देश-काल एवं परिस्थिति के अनुसार विवेक-सम्मत ढंग से अपने -अपने उन कर्तव्यकर्मों को करने पर (प्रवृत्ति-निवृत्ति या वर्णाश्रम धर्म पर) भी निर्भर करती है, जो मनुष्य को अपने आध्यात्मिक उद्देश्य -मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर ले जाती है।(अर्थात भ्रममुक्ति -सिंहशावक होकर स्वयं को भेंड़ समझने के भ्रम से मुक्ति प्राप्त करने के मार्ग पर ले जाती हो।) परन्तु किसी भी परिस्थिति में इसका प्रयोग किसी भी जीवात्मा को हानि पहुँचाने या निषिद्ध कर्मों के लिए नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ऐसा करना धर्म के मूल भावना के विरूद्ध है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " उस धर्म की नीति में किसी के प्रति शत्रुता या या उत्पीडन का स्थान नहीं हो सकता। उसमें प्रत्येक नर-नारी देवस्व्भाव स्वीकृत होंगे। और उसकी समस्त शक्ति मनुष्यजाति को उसके अन्तर्निहित देवस्वभाव की अनुभूति करने में सहायता करने में ही व्यय होगी।"
धर्म को जीवन में धारण करने य़ा ' धर्मावलम्बी ' होने का अर्थ- त्रिपुण्ड धारण करना अथवा रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर-मन्दिर मत्था टेकते रहना, य़ा हर शुक्रवार को मस्जिद जाकर नमाज पढ़ लेना अथवा सन्डे-सन्डे गिरिजा में जाना और - अपने अपने घर वापस आने के बाद फिर वैसा पशुओं जैसा ही जीवन जीते रहना नहीं है। महामण्डल का कार्यकर्ता होने (या धार्मिक मनुष्य होने) का दावा करने के बाद भी, यदि हम निषिद्ध कर्मों का त्याग नहीं करते हैं, अपने क्षुद्र स्वार्थों (पाशविक इच्छाओं) को पूर्ण करने के लिये यदि हम शास्त्र-सम्मत कर्मों के विरुद्ध आचरण करते हुए दूसरों को धोखा देते या देश की क्षति करते हैं, तो ऐसे व्यक्ति को महामण्डल का कार्यकर्ता या धार्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " यदि धार्मिक कर्म-कांडों में (या rituals- घुटनों की कवायद में ही) जीवन भर अटके रहने को धर्म समझते हो, तो उससे अच्छा यह होगा कि घड़ी-घन्टा को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगोपसागर में डुबो दो। " 
हमलोग आज जो गली-गली में इतने सारे मन्दिर देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था। उस युग में इतने अधिक मन्दिर और मूर्तियाँ आदि नहीं हुआ करते थे, यह सब तो बाद में आ गये हैं। पूर्व काल में भारत के लोग अपने ह्रदय-गुम्फा  में ही 'भगवान' को प्रतिष्ठित करने की विद्या जानते थे, इसीलिये उन दिनों भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर-मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी। मैत्रेय्युपनिषत् १.१॥ के अनुसार  सभी शरीरों को ही देवालय कहा जाता था- ' देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः । त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहम्भावेन पूजयेत् ॥ अर्थात तत्त्व दर्शियों द्वारा इस देह को ही देवालय कहा गया है और उसमें स्थित जीवात्मा शिवरुप है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसके ऊपर पड़े अविद्या रूपी फूलों के ढेर को त्याग दे (अविद्या जनित मलीनता का परित्याग कर दे) और सोऽहं भाव से (अर्थात मैं वही शिव हूँ इस भाव से) शिव का पूजन (ध्यान) करे। सभी शरीरों में ब्रह्म (भगवान श्री रामकृष्ण) ही 'अन्तर्यामी' (आत्मा -witness consciousness) होकर बैठे हैं।  कण-कण में राम ही परिव्याप्त हैं. कोई भी वस्तु जड़ नहीं है सबकुछ चैतन्य ही है। इसी बात को आज का विज्ञान इस तरह कहता है, 'E = M' (energy-matter equation ) य़ा पदार्थ (matter) भी ऊर्जा (energy) का ही रूपान्तरण है ! निकोला टेस्ला से स्वामी जी की मुलाकात के बाद, और आइन्स्टीन से पहले यह बोध किन्तु विज्ञान को भी नहीं हुआ था। दूसरे मतावलम्बियों में भी यह बोध- (आत्मवत सर्वभूतेषु) बहुत देर के बाद, श्री रामकृष्ण परमहंसदेव के द्वारा ' सर्वधर्म समन्वय' की साधना को सम्पन्न कर लेने के बाद ही आया था। 
 स्वामीजी कहते हैं- ' Be and Make ' ! क्या बनना है? जो हम यथार्थ में हैं, वही 'मनुष्य ' बनना है। जब हम मनुष्य शरीर प्राप्त कर लिये हैं तो विवेक-विचार रहित पशुओं के समान जीवन बीता कर मर नहीं जाना है, इसी जीवन में यथार्थ मनुष्य बन जाने के बाद ही इस शरीर का त्याग करना है। किन्तु अज्ञानता वश हमलोग 'मनुष्य बनने और बनाने ' के बजाय, मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा को गाँव गाँव तक फ़ैलाने के बजाय; मन्दिर- मस्जिद का निर्माण करने के लिये आपस में मुकदमा लड़ते हैं य़ा दंगा-फसाद करते हैं, और सोंचते हैं हम धर्म कर रहे हैं। मन्दिर-मस्जिद बनाने में कोई खराबी नहीं है, यदि हमलोग वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य ही बने रहें तथा दूसरे मतावलम्बियों को भी अपने ही जैसा एक मनुष्य समझ कर उनसे घृणा नहीं करें, तथा मन,वचन, कर्म से दूसरों की थोड़ी भी क्षति पहुँचाने की चेष्टा न करें।  इंग्लैण्ड में अभी केवल 16 % लोग ही चर्च में जाते हैं, बाकी बचे 84 % धर्म क्या है इसे समझने के लिये भारत की तरफ देख रहे हैं। जो व्यक्ति वास्तव में धर्म क्या है इसे जान जायेगा, फिर वह विभिन्न मतावलम्बियों से अपने के बीच कोई भेदभाव नहीं देख पायेगा। तब उसे यह ज्ञात हो जायेगा कि सभी तरह की क्षूद्र संकीर्णता, स्वार्थपरता, असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण (ब्रह्म) हो जाना ही धर्मावलम्बी होना है। ' अंश ' से पूर्ण हो जाना, बिन्दु से सिन्धु बन जाना (व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित कर लेना) यही धर्म का सार है। " अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्|" (महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१) " वसुधा एव कुटुम्बकम्" अर्थात धरती ही परिवार है ! 
यह (महा) वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है। यही वाक्य सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचार-धारा है, जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। 
नवनी दा कहते थे -हमलोगों का धर्म सनातन या वैदिक धर्म है। हिन्दू-धर्म का उल्लेख वेदों, उपनिषदों, पुराणों में या रामायण -महाभारत में भी कहीं नहीं है। कुछ उपनिषद तो आधुनिक काल के मुगल शाशकों द्वारा भी लिखवाये गए थे। उन्हीं में से एक फर्जी उपनिषद अल्लोपनिषद पढ़ने का अवसर मिला था। इस पुस्तक का वेदों से कोई सम्पर्क नहीं है, इस पुस्तक को मुगल शासक अकबर ने किसी संस्कृत जानने वाले अरबी-फ़ारसी के अधकचरे अनुवादक द्वारा लिखवाया था।इसका एक छन्द है-'अस्माल्लामइल्ले-मित्रावरुणा-दिव्यानिधत्ते' जो आधा अरबी है और आधा संस्कृत है, जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता । और यह संस्कृत व्याकरण के विरुद्ध भी है। यह तो फ़ारसी बोलने वाले विदेशी टेरेरिस्टों/आक्रांताओं ने सिन्धु नदी के पूर्वी भूखण्ड में रहने वाले सभी लोगों को हिन्दू कहा; क्योंकि फ़ारसी भाषा में 'स' का उच्चारण 'ह' होता है। तब इसमें 'गर्व' करने की क्या बात है ? जैसे किसी व्यक्ति का नाम 'पंचानन्द मिश्रा' हो, और उसको 'पाँचू' या 'पेंचो' कहकर बुलाया जाय, तो  क्या उसका गर्व बढ़ता है ? आज तक तो धर्म के नाम पर पूरे विश्व में एक धर्म दूसरे धर्म से लड़ते हुए , संघर्ष और हत्या तक करते आ रहे थे, और न जाने क्या-क्या होता आ रहा रहा है। क्या इसको धर्म कहा जाता है ? कोई भी व्यक्ति धर्म के सही अर्थ को समझना नहीं चाहता। कोई भी व्यक्ति सही धर्म क्या है, नहीं जानता। हमारा धर्म तो 'सनातन धर्म ' है; हिन्दू संस्कृति या सिन्धु संस्कृति है, हिन्दू धर्म नहीं है! 
भागवत में कथा आती है कि युधिष्ठिरजी देवर्षि नारद से पूछते हैं कि "भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् । " (७/११/२) भगवन, सनातन धर्म क्या है ? आप मुझे समझाकर कहिये ।  उसके उत्तर में नारदजी ने जो बताया है, वह मार्क्स के साम्यवाद से हजार गुना उत्कृष्ट सिद्धान्त है-नारदजी का वचन है - "वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ ७/११/ ५ ॥" युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है।" जो भगवान विष्णु के मुख से निकला हुआ सनातन धर्म है -वह है, "अन्नाद्यादेः संविभागो भुतेभ्यश्च यथार्थतः । तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥७.११.१०॥-समाज में अन्नादि जो कुछ भी उत्पन्न होगा, उस सकल घरेलू उत्पाद को समाज के समस्त सामान्य लोगों में जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। किन्तु 'सकल घरेलू उत्पाद' का वितरण करने वाले (जो राज्य-कर्मचारी, नेता, या व्यापारी) होंगे उनको वितरण करते समय यह यह मनोभाव रखते हुए वितरण करना होगा कि " तेषु आत्म-देवता बुद्धिः" -अर्थात वे सभी मनुष्य हमलोगों के आत्मास्वरुप, देवता (शिवजी) हैं, इस ज्ञान से देना होगा। (शिव ज्ञान से जीव सेवा करना ) इसको कहते हैं- सनातन धर्म !! Any produce in the country -दूब से लेकर धान-गेंहूँ, या Factory से जो कुछ भी उत्पादन होगा, जहाँ कहीं भी होगा, उसको [Gross domestic product (GDP)] को  प्रत्येक व्यक्ति में जिसको जितनी जरूरत हो, उस हिसाब से वितरण कर देना चाहिए। परन्तु बाँटते समय दृष्टि भगवानमयी बनाकर पश्येत भगवान मय जगत ' देखते हुए देनी चाहिए। मार्क्स के साम्यवाद में यही कमी रह गयी कि वह यह नहीं समझ पाये कि क्यों सबको उनकी जरूरतों के अनुसार वितरण करना चाहिए। बिल्कुल मेरी आत्मा हैं, ऐसा समझकर ... स्वामीजी ने कहा था, "जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा समस्त धर्म उसको रोटी खिलाना ही है। जो ईश्वर भूखे को एक मुट्ठी अन्न नहीं दे सकता, जो किसी विधवा के अश्रु नहीं पोछ सकता, वैसे ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता।" 
ऐसे धर्म को ही सनातन कहते हैं। स्वामीजी ने कहा था, " एक आश्चर्यजनक सत्य मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे केवल एक ही चिरन्तन शास्वत धर्म के भिन्न भिन्न भाव मात्र हैं। यही एक सनातन धर्म चिर काल से समग्र विश्व का आधारस्वरुप रहा है और चिर काल तक रहेगा, और यही धर्म विभिन्न देशों में, विभिन्न भावो में प्रकाशित हो रहा है। "[7/261  (65-29 A)" धर्म सनातन "(धर्म और समाज)]
इस बात  को कहने की आवश्यकता नहीं है कि विचारशील सनातन धर्म  मानता है  कि अन्त्यजो का उद्धार करना सभी विवेकवान मनुष्यों का धर्म है। चाहे वे भारत के हों या विदेशों में बसते हों। अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग (सफाईकर्मी या मजदूर लोग) समाज  हमारे लिए परम आवश्यक और उपकारी हैं, हमारी सेवा सरते हैं , इसलिय उनका उपकार करना हमारा धर्म है। सनातनधर्म को मानने वाले 10000 की गुलामी में बहुत-सा क्लेश सहने पर भी उनकी श्रद्धा आज तक इस धर्म में बनी है।  हमारा सनातनधर्म हमको संसार के समस्त पिछड़े पददलित भाइयो का उद्धार करने के लिए चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा का प्रचार -प्रसार करने का उपदेश करता है; और उसका उत्तम और सरल मार्ग बतलाता है, वह चार-योग या भक्ति का मार्ग है। 
इसीलिए स्वामी जी भगिनी निवेदिता को 7 जून 1896 को लिखित एक पत्र में कहते हैं -(Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.) "संसार के सारे धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं, आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है - चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान प्रभावकारी बना देगा। ... एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल में बलिदान ही नियम था, और दुःख है कि युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों (हीरो) को और सर्वश्रष्ठों को 'बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय ' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों 'बुद्धों'  की आवश्यकता है। "
 स्वामीजी ने कहा था, " जो ईश्वर- सनातन, असीम, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ हैं, वे कोई व्यक्तिविशेष नहीं है -वे तत्व (existence-consciousness-bliss) हैं, तथा जिन व्यक्तियों के भीतर यह यह अनन्त तत्व (श्रीरामकृष्ण देव) जितना अधिक प्रकाशित होता है, वे उतने ही महान होते हैं। बाकी समस्त मनुष्यों को उनकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बनना होगा। एकात्मता की अनुभूति करने के अतिरिक्त धर्म और कुछ नहीं है, तथा प्रेम (भक्ति) ही इसका साधन है। "
अछूतोध्दार/ अन्तर्जातीय उद्धार विधि: महाभारत के वनपर्व में धर्मव्याध की कथा है - एक कौशिक नाम वेदाध्यायी तपोधन ब्राहमण था। बगुला भष्म को सिद्धि समझकर उसमें क्रोध और अभिमान आ गया।  उस दशा में उनको एक पतिव्रता स्त्री ने उपदेश किया कि आप धर्म को अभी नहीं जानते है। आप जाइए मिथिलापुरी में धर्मव्याध रहता है, उससे धर्म का उपदेश लिजिए। ब्राह्मण धर्मव्याध के पास गया, उस समय धर्मव्याध अपनी मांस की दुकान पर बैठा था। काम समाप्त करने के बाद वह ब्राह्मण को अपने घर ले गया और ब्राहमण ने वहा उससे कहा की तुम मुझे शिष्टाचार आदि चरित्र  गुणों का उपदेश करो।  व्याध ने बहुत विस्तार के साथ ब्राह्मण को धर्म का उपदेश किया। यह कथा वनपर्व के १०५ वे अध्याय से २१४ वे अध्याय तक में वर्णित है। उसी प्रसंग में (महाभारत :वनपर्व: २०६-३३) में धर्मव्याध जी कहते हैं ----- अशीलश्चापि चापि पुरुषॊ भूत्वा भवति शीलवान। प्राणि हिंसारतः चापि भवते धार्मिक: पुमान्। कोई भी व्यक्ति जो दुश्चरित्र प्रतीत हो रहा है, वह (मनःसंयोग सीखकर) फिर से सुचरित्र मनुष्य बन सकता है, और प्राणियो की हिंसा में रत रहने वाला मनुष्य भी धार्मिक हो सकता है।  शूद्रयोनौ हि जातस्य सद्गुणानुपतिष्ठतः। वैश्यत्वं भवति ब्रह्मन्क्षत्रियत्वं तथैव च ।। अर्थात, शूद्रयोनी में भी उत्पन्न हुआ पुरुष यदि अपने में अच्छे गुणों को संग्रह करे, तो हे ब्राह्मण ! वह वैश्य हो जाता है, और क्षत्रिय यदि सदाचार से जीवन यापन करे तो उसमे ब्राह्मण की योग्यता भी उत्पन्न हो जाती है। धर्मव्याध ने ब्राह्मण से कहा कि तुम अपने माता-पिता को दुखी करके पढ़ने के लिए (मनःसंयोग सीखने के लिए) घर से निकल आए हो, इसलिए तुम जाकर उन्हें प्रसन्न करो, तब तुम परम धर्म को प्राप्त होगे।  
उस अंतर्निहित दिव्यता (तत्व -existence-consciousness-bliss) आत्मा की शक्ति (3rd'H') को अभिव्यक्त करने की पद्धति को ही, सनातन धर्म में तन्त्र कहा गया है। तन्त्र का सामान्य अर्थ है विधि या उपाय। विधि या उपाय कोई सिद्धान्त नहीं है। सिद्धान्तों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। विग्रह और विशद भी हो सकते हैं, लेकिन विधि के सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं है। डूबने से बचने के लिए तैरकर ही आना पड़ेगा,दौड़ने के लिए पाँव आगे बढ़ाने ही होंगे। पर्वत पर चढ़ना है तो ऊँचाई की तरफ कदम बढ़ाये बिना कोई चारा नहीं है। तन्त्र की दृष्टि में शरीर ही प्रधान निमित्त है। उसके बिना चेतना के उच्च शिखरों तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। इसी कारण से तन्त्र का तात्पर्य ‘तन्’ के माध्यम से आत्मा का ’त्राण’ या अपने आपका उद्धार भी कहा जाता है। आत्मोत्थान की क्रियाएँ ही विधि कहलाती हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उनका उत्तर देते हुए एक विधि का उपदेश करते हैं। अधिकांश प्रश्न आत्मोत्थान की दृष्टि से समस्या प्रधान ही हैं। सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी कोई प्रश्न पूछा गया हो तो भी शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के उपरान्त विधि का ही वर्णन करते हैं। आगम और निगम शास्त्र भगवान शिव तथा माता पार्वती के परस्पर वार्तालाप से अस्तित्व में आये हैं।
जब तंत्र के वक्ता जब साक्षात् शिव होते हैं- " तंत्र वक्ता शिव साक्षात् ", और श्रोता माँ पार्वती (श्रद्धा) होती हैं, तो उस तन्त्र शास्त्र को आगम कहा जाता है। और जब माता पार्वती शिव को कहती हैं,उसे निगम कहा जाता है। इसमें वेद, पुराण, उपनिषद आदि आते हैं। इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया गया है। इसीलिए वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। उस स्वरूप को व्यवहार आचरण और व्यवहार में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बतलाता है, उसे ‘आगम’ कहते हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है। एक भाष्यकार ने ‘आगम’ शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह ‘आगम’ कहलाता है। तन्त्र के सभी ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के अन्तर्गत ही प्रकट हैं। भगवान शिव द्वारा कहा गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया- आगम नाम से जाना जाता हैं; इसके विपरीत पार्वती द्वारा बोला गया तथा शिव जी के द्वारा सुना गया निगम के नाम से जाना जाता हैं।  इन्हें सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा सुना गया हैं तथा उन्होंने ही आगम-निगमो को मान्यता प्रदान की हैं। भगवान विष्णु के द्वारा गणेश, गणेश द्वारा नंदी तथा नंदी द्वारा अन्य गणो को इन ग्रंथों का उपदेश दिया गया हैं, बाद में तंत्र शास्त्रों को शिवजी के गणों द्वारा लिपि-बद्ध किये गए हैं। विष्णु के अनुयायी वैष्णव,  शिव के अनुयायी को शैव कहते हैं, और शक्ति (माँ पार्वती) के अनुयायी को शाक्त कहते हैं। 
सनातन धर्म में दीक्षा (Initiation-बीजारोपण) का अर्थ महत्त्व एवं फल: मनुष्य के  मोह -पास से छूटने (भ्रममुक्त -डीहिप्नोटाइज्ड होने) और पुण्य के मार्ग में ऊपर उठाने के लिये और धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष चारो पदार्थो के सम्पादन करने के लिए शास्त्र के अनुसार दीक्षा (initiation-प्रवर्तनसंस्कार या श्रीगणेश)  ही एक परम साधन है। दीक्षित मनुष्य का महत्त्व दिखाते हुए कुलार्णव-तंत्र में आया है कि जैसे रसेन्द्र से बिधा हुआ लोहा स्वर्ण बन जाता है , वैसे ही दीक्षा – विद्ध आत्मा शिवत्व को प्राप्त होता है।   मनुष्य दीक्षाग्नि से दग्धकर्म हो जाता है और बंधन – रहित हो जाता है।  जीव भी भाव से रहित होकर शिव हो जाता है | जैसे शिवलिंग में देव बुद्धि छोड़कर पत्थर बुद्धि करने से मनुष्य पाप का भागी होता है , उसी प्रकार दीक्षित मनुष्य में उसकी पूर्वावस्था का खयाल करके ('100 -100 बिल्ली खा के बिल्ली चली हज को ? कह कर उपहास करने वाला मनुष्य भी पाप का भागी होता है।दीक्षा का विधान (श्रवण-मनन-निदिध्यासन का विधान) अन्त्यज पर्यन्त सभी सनातनधर्मियों के लिये आया है जिसके प्रभाव से अन्त्यज भी शुद्ध , पवित्र , सदाचारी और मानी हो सकता है। 
योगिनी तंत्र (शिवपुराणम्/संहिता ७ (वायवीयसंहिता)/उत्तर भागःअध्यायः १३/७.२,१३.३) में भी शिव-पार्वती संवाद के माध्यम से से दीक्षा के संबंध में बताया गया है। माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि, " कलौ कलुषिते काले दुर्जये दुरतिक्रमे ॥ अपुण्यतमसाच्छन्ने लोके धर्मपराङ्मुखे ॥ क्षीणे वर्णाश्रमाचारे संकटे समुपस्थिते ॥ सर्वाधिकारे संदिग्धे निश्चिते वापि पर्यये ॥ तदोपदेशे विहते गुरुशिष्यक्रमे गते ॥ केनोपायेन मुच्यंते भक्तास्तव महेश्वर ॥ - अर्थात कलियुग में विकराल काल आने पर जब पापरूपी अन्धकार फैल जाय और लोग धर्म से विमुख हो जायँ और वर्णसंकर बढने लगे। जब सब लोगो को सभी धर्म विषयों पर सन्देह होने लगे, " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" के क्रम से  उपदेश देने का क्रम न रहे; (Be and Make के क्रमानुसार क्रम न रहे ) तो हे महेश्वर !आपके भक्त किस उपाय से पाप से छुटते है (किस उपाय से भ्रममुक्त या D-hypnotized) होते हैं ?
'ईश्वर उवाच'- अर्थात शिवाजी बोले, ईश्वर उवाच अर्थात शिवजी बोले-'मम पञ्चाक्षरी विद्या संसारभयतारिणी ॥' ७.२,१३.६- कलियुग में उत्पन्न प्राणी मेरी पंचाक्षरी विधि का आश्रय लेकर, अर्थात पंचाक्षर मंत्र का नित्य श्रद्धा से जप करके और मेरी भक्ति से अपनी आत्मा को पवित्र करके पाप से छूट सकते है। हे देवि ! मैने पृथ्वी तल पर बार-बार प्रतिज्ञा-पूर्वक यही कहा है कि यदि पतित भी हो तो इस मंत्र के द्वारा पाप से छूट जाता है-भ्रममुक्त हो जाता है। ब्राह्मण से लेकर अन्त्यज पर्यन्त सभी सनातनधर्मानुयायी पुरुषो और स्त्रिओ को पंचाक्षर मंत्र जपने का अधिकार है। भगवन् के नाम अनन्त हैं। विष्णु सहस्त्र-नाम और शिव- सहस्त्र-नाम भी उन नामो को पूर्ण रूप से नहीं गिना सके।  उनमे से किसी एक नाम को भी जो मनुष्य श्रद्धा-भक्ति से उच्चारण करे तो उसका सब प्रकार से मंगल होना निश्चित है। 
 मंत्र किसे कहते है? इस पर शास्त्रों में आया है कि जिसके मनन करने से ब्रह्म का विशेष ज्ञान हो जाता है, संसार-बन्धन से रक्षा होती है, और जिससे सिद्धि प्राप्त होती है, उसे मंत्र कहते है।  किसी ब्रह्मज्ञ गुरु से मंत्र -ग्रहण किये बिना (महामण्डल लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त गुरु/ मार्गदर्शक नेता/शिक्षक से मंत्र-ग्रहण किए बिना) पूजा करने की अपेक्षा मंत्र ग्रहण करके पूजा करने का फल  कोटि गुणा अधिक होता है। इस कारण हे देवि! मंत्र को ग्रहण करके ही मुमुक्षु को इस मंत्र से मेरी पूजा करनी चाहिए। मंत्र-दिक्षा लेकर तथा निषिद्ध कर्मों का त्याग करके जो कोई पुरुष (गृहस्थ या संन्यासी) भक्ति-पूर्वक मेरी पूजा करता है वह मेरे सदृश हो जाता है। इस पर अधिक क्या कहे। मेरे पंचाक्षर मंत्र का सभी भक्तो को अधिकार है।
मंत्र देनेवाले गुरु कैसे होने चाहिए ? इस पर स्कन्द पुराण में लिखा है की गुरु निर्मल , साधू , स्वल्प बोलने वाले , काम क्रोधादि से रहित , जितेन्द्रिय और सदाचारी होने चाहिए | ऐसे गुरु से दिया हुआ मंत्र शीघ्र ही सिद्ध होता है।  'विद्या गुरुमुखी'  इस कर्ण -मन्त्र लेने वाले शिष्य को कैसे होना चाहिए ?  इस पर भविष्य पुराण में लिखा है,  मंत्र ग्रहण एक प्रकार का धार्मिक व्रत धारण करना है।---- व्रत धारण करने वाले शिष्य को अनानादी से शुद्ध , सत्य , दया, क्षमा, दान , जितेन्द्रिय , अग्नि में हवन , देवपूजन , सनतोष , और चोरी न करना , इन दस धर्मो का पालन करना चाहिए। 
मंत्रदीक्षा किस तिथि में होनी चाहिए ? 64 योगिनी तन्त्र में आया है कि जब भगवान् की महापूजा का दिन हो , चतुर्दशी हो , अष्टमी , पंचमी या चतुर्थी हो तो उस दिन दीक्षा कार्य हो सकता है | क्यंकि ये सब तिथिया शुभ देने वाली कही गयी है। पुराण और तन्त्र ग्रन्थो में यह वचन भी आया है कि जिस दिन गुरु मंत्रदीक्षा देने के लिए प्रसन्न हो जाय उस दिन सभी वार , ग्रह , नक्षत्र और राशि शुभ हो जाते है।इतना ही नहीं, किन्तु दिक्षातत्त्व में यह भी वर्णन आया है कि गुरु की आज्ञा के अनुरूप जब इच्छा हो तभी दीक्षा हो सकती है और  जब भी स्वेच्छा से सद्गुरु मिल जाय तभी दीक्षा ली जा सकती है। उस दशा में तिथि, वार, व्रत, होम, स्नान, जपादि क्रियाओ की प्रबल कारणता भी नहीं रहती है। 
दीक्षा किस स्थान में होनी चाहिए ? दीक्षा के लिए सर्वोत्तम स्थानों का निर्देश करते हुए योगिनितंत्र में आया है कि मंत्रज्ञ पुरुष गोशाला, गुरुगृह, देवमंदिर, तीर्थ क्षेत्रादि पुण्य स्थान, बाग-बगीचे, नदी का स्वच्छ किनारा, आवले और बेल के वृक्ष के निकट, पर्वतों की सुंन्दर गुफाओ के समीप और गंगतट पर मंत्रदीक्षा दे।  क्योकि दीक्षा  के लिये ये सब स्थान उत्तम होते है। इनमे भी गंगा का तट करोड़ो गुण वाला होता है। 
दीक्षा देने की विधि क्या होनी चाहिए ?दीक्षा लेने की साधारण और सरल विधि यह है कि गुरु पूर्व रात्रि में ब्रह्मचर्य-पूर्वक उपवास करे।  अगले दिन प्रात:काल शैाच-स्नानादि से शुद्ध होकर दीक्षा के पवित्र स्थान में जावे। वह पर सब दिक्षार्थी उपवास और स्नानादि से शूद्ध होकर दीक्षा ले। जो गुरु कारण विशेष से रात्रि में उपवास न कर सके, वे हविष्यान्न ग्रहण कर सकते है।नारद पंचरात्र में आया है कि मंत्र देनेवाले गुरु पहले दिन उपवास करे। यदि उपवास न कर सके तो हविष्यान्न, अर्थात् नारियल का फल दधि, घी, गौ का शुद्ध दूध, केला, आँवला आदि, अथवा चावल, जैा,मूंग की दाल, टिल आदि हविष्यान्न ग्रहण करे।  अन्त में गुरु शिष्य (would be Leader) को यह आशीर्वाद दे, “हे शिष्य! तुम सदाचारी रहो।  तुम्हे सदा कीर्ति, श्री, कान्ति, मेध, आयु, आरोग्य और बल की प्राप्ति हो। ”उत्तिष्ठ वत्स मुक्तोऽसि सम्यगाचार वान्भव ॥ कीर्तिश्रीकांतिपुत्रायुबलारोग्य सदास्तु ते ॥४०॥ 
यह है आगम और निगम-शास्त्रों में वर्णित सनातन धर्म जो शाश्वत या अविनाशी है। आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण परमहंस जी ने 64 (योगिनी?) तन्त्रों में वर्णित सम्पूर्ण साधनाएं सम्पन्न की थीं। सनातन  धर्म यही कहता है कि समस्त प्राणियों में एक ही वस्तु है, उसको अपनी अनुभूति से जानकर समस्त जीवों की सेवा करना ही धर्म की अंतिम बात है। गीता में भगवान कहते हैं, जो मनुष्य अनन्य भक्ति के साथ 'मेरी' सेवा करता है, वह गुणातीत होकर परम वस्तु को प्राप्त करता है। आचार्य शंकर ने गीता भाष्य में ' मेरी ' शब्द का अर्थ बताते हैं, समस्त जीवों के हृदय में स्थित नारायण या ईश्वर। 
[साभार http://www.malaviyamission.org]
ये है सनातन धर्म जो शाश्वत है। अन्य सम्प्रदायों की तरह सनातन -धर्म वह नहीं है, जिसका एक दिन जन्म होता है, कुछ दिनों तक स्थित रहता है,फिर उसका नाश (लय) हो जाता है। जो कोई 'मतवाद' ऐसा मानता है, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता।  इस धर्म का नाम सनातन है, हिन्दू नहीं। जब इस तरह के यथार्थ धर्म (सनातन धर्म) का पतन हो जाता है, तब हर स्थान में किसी न किसी  महापुरुष को अवतरित होना पड़ता है, जो धर्म को पुनरस्थापित कर देते हैं। 

एक समय ऐसा भी आया था जब संसार के सभी धर्म पतित हो गए थे, विशेष रूप से हजारों वर्ष की गुलामी के कारण धर्म-भूमि भारत में भी धर्म का पतन हो गया था। तब सभी धर्मों को फिर से स्थापित करने के लिए श्रीरामकृष्ण देव को प्रकट होना पड़ा। उन्होंने केवल हिन्दू धर्म को ही पुनरस्थापित नहीं किया, बल्कि इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म और अन्य सभी मतों के मार्ग से 'धर्म-लाभ' -करते हुए घोषणा किये कि " जितने मत उतने पथ। " अर्थात किसी भी मार्ग से साधना करके एक ही सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है। 

इसलिए स्वामी जी ने श्रीरामकृष्ण देव के प्रणाम-मंत्र में उनको 'अवतार-वरिष्ठ' कहा था-
ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्म स्वरूपिणे।
अवतार वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः॥ 
इस प्रणाम-मंत्र में स्वामीजी ने अपने गुरु को अकारण ही 'अवतार-वरिष्ठ' नहीं कहा था। 'रामकृष्ण प्रणाम मंत्र को एक गृहस्थ के पूजा कमरे में रखी हुई 'ठाकुर जी' की छवि के सम्मुख बैठकर उनके मुख से निसृत हुए थे। वह छवि वहाँ आज भी उसी प्रकार रखी हुई है।जब स्वामी विवेकानन्द का नाम अमेरिका में सर्वत्र फ़ैल गया, तब पूरा भारतवर्ष भी उनको जानने के लिए उत्कंठित हो उठा था। लोगों में स्वाभाविक जिज्ञाषा जाग्रत हुई - इस विलक्षण वक्ता का गुरु कौन है ? जब लोगों ने उनसे बहुत अनुरोध किया कि आप अपने गुरुदेव के बारे में कुछ बतलाइये। बहुत अनुरोध करने के बाद उन्होंने कहा था -मेरे गुरुदेव इतने महान थे कि उनके बारे में कुछ भी कहने में मैं असमर्थ हूँ। क्योंकि जो असीम-अनन्त हैं , उनको शब्दों में कैसे कहा जा सकता है ? जब कई बार लोगों ने कुछ कहने का अनुरोध किया तब उन्होंने केवल इतना कहा था कि -He was LOVE personified ! 'वे मूर्तमान प्रेम थे ! भगवान की प्रतिज्ञा है- 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । 
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।4 /7।।
 हे भारत ! उस सनातन धर्मकी [आगम -निगम में वर्णित] वर्णाश्रम आदि जिसके लक्षण हैं, एवं प्राणियोंकी उन्नति और परम कल्याणका जो साधन है,  जब-जब हानि होती है। और अधर्म का अभ्युत्थान अर्थात् उन्नति होती है तब-तब ही मैं मायासे अपने स्वरूप को रचता हूँ। अर्थात् साकार रूपसे प्रकट होता हूँ ! इसीलिये समय के प्रवाह में जब संसार में अधर्म बढ़ जाता है, तब वे मानों अपना कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानी दूर करने के लिये भगवान संसार में अवतीर्ण होते रहते हैं। जीव-जगत के कल्याण के लिये स्वयं श्रीभगवान का आविर्भूत होना जगत के अध्यात्मिक इतिहास में घटित होने वाली एक अनिवार्य घटना है। हर युग में ऐसा ही होता आया है। 
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ । 
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ। समय के प्रवाह में, वर्तमान युग में भी जब संसार में अधर्म का बहुत अधिक उत्थान हो गया, तब अवतार वरिष्ठ श्रीभगवान (श्रीरामकृष्ण) ने अपनी आत्मा को प्रकट कर दिया, यही सार बात है।  उन्होंने यह कभी नहीं कहा मेरा धर्म तुम्हें भी स्वीकार करना पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि संसार के सभी धर्म सत्य हैं, और एक ही सत्य को जानने के भिन्न -भिन्न मार्ग हैं। इसी बात को स्वामी जी ने स्पष्ट करते हुए कहा कि - " जैसे सभी नदियाँ अपना -अपना नाम-रूप छोड़कर समुद्र में मिलकर एक हो जातीं हैं, उसी प्रकार संसार के सभी धर्म, हिन्दू-मुस्लिम-सिख -ईसाई -जैन -पारसी वेदान्त के सागर में मिलकर एक हो जाते हैं। " मानवजाति के इतिहास में ऐसी घोषणा आज तक किसी अन्य ने नहीं किया था। 
" तदात्मानं सः सृजस -इमानी बभूव भारत ।"   ऐसा नहीं है कि बुद्ध देव ने तो केवल इतना ही कहा था कि " मैं जाग गया हूँ " इसीलिये ठाकुर देव उनसे बड़े थे। बल्कि वर्तमान युग में विभिन्न नाम वाले धर्मों के लिये एक दूसरे के प्रती केवल सहिष्णुता (tolerance ) या सम-भाव रखना ही पर्याप्त नहीं हो रहा है, वर्तमान युग की आवश्यकता विश्व के समस्त धर्मों में समन्वय लाने की है।  एक दूसरे के धर्म में निहित सार बातों को अंगीकार (acceptance ) करने की है। अतः श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा  के भावी शिक्षकों /नेताओं को विभिन्न मतावलम्बियों के भिन्न भिन्न उपासना पद्धतियों का तुलनात्मक अध्यन करने के बाद, सभी धर्मों के भीतर जो एक ही सत्य अन्तर्निहित है - को  उद्घाटित करना होगा। उन्हें संस्कारित करना होगा, अर्थात सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बियों के भीतर 'धर्म ' की भावना को जाग्रत करके पुनः प्रतिष्ठित करना, युग-धर्म है ! यह बोध विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में केवल श्रीरामकृष्ण ने ही स्थापित किया है, इसीलिये स्वामीजी उनको  अवतार-वरिष्ठ कहते हैं। गीता 3.21 में कहा गया है -
यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः| 
सः यत् प्रमाणं कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते॥" 
अर्था श्रेष्ठ पुरुष (अवतारी महापुरुष)  जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। तात्पर्य यह कि केवल धर्म-ग्रन्थ रहने से ही काम नहीं चलता, धर्म के आदर्श को अपने जीवन में उतार कर 'उदाहरणस्वरूप' अपना जीवन गठित करने से ही लोग अपने उस जीवन्मुक्त गुरु का अनुसरण करते हैं।और इसी कारण हर युग में श्री भगवान संसार में अवतरित होते हैं, और धर्म को अपने जीवन में आचरण करके युगधर्म का आदर्श -'वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' को शास्त्र की मर्यादा के अनुसार प्रतिष्ठित करते है।  तब उनके जीवन से शिक्षा प्राप्त करके लोग उसी धर्म-मार्ग का अनुसरण करते हैं। हर युग में ऐसा ही होता आया है। श्रीरामकृष्ण की विशिष्टता यही है कि  'समस्त धर्मों को संस्कारित करके पुनः प्रतिष्ठित करना होगा' यह बोध केवल उन्होंने अपने जीवन में प्रतिष्ठित करके प्रमाणित किया था।  इसलिए स्वामीजी ने उनको अवतार वरिष्ठ कहा था। क्योंकि - उनके जैसा दूसरा कोई दिखाई नहीं देता है -'तद समः कोपि न दृश्यते !'
जब हमलोग इस बात को समझ जायेंगे - (जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता बनने और बनाने की पद्धति को समझ जायेंगे) तो नये मनुष्यों का नया भारत गठित हो जायेगा। जो सुनते हैं, उसको यदि जीवन में उतार लें  हमारा जीवन भी बदल जायेगा। समाज बदल जायेगा, नई दुनिया बन जाएगी। सब एक है, अलग -अलग दो कहकर कुछ नहीं है। भीतर से सब एक हैं, अभिव्यक्ति में तारतम्य होने से अंतर रहता ही है। श्री रामकृष्णदेव जगत को यही भाव सिखाने आये हैं। उनको तो व्याकरण का कुछ भी ज्ञान नहीं था। मूर्ख होकर क्या दुनिया को सिखा सकते हैं ? भज गोविन्दम्: संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे।।रे मूढ़ मन ! गोविन्द की खोज कर (अवतार वरिष्ठ को पहचान !) , गोविन्द का भजन कर और गोविन्द का ही ध्यान कर। अन्तिम समय आने पर व्याकरण के नियम तेरी रक्षा न कर सकेंगे। ठाकुर एक कथा कहते थे - एक शास्त्रज्ञ पण्डित एक बार नाव से नदी पार कर रहे थे। माँझी को शास्त्र का उपदेश देने लगे। क्या तुमने रामायण-भागवत कुछ भी नहीं पढ़ा है ? तब तो तुम्हारा आधा जीवन व्यर्थ में चला गया। माँझी बोला बाबा मैं तो अनपढ़ हूँ, और आपने शास्त्रों को पढ़ा है। किन्तु मैं तैरना जानता हूँ। क्या आप तैरना जानते हैं ? पण्डित जी ने कहा नहीं, तब माँझी ने कहा, तूफ़ान आने वाला है। आप यदि तैरना नहीं जानते तो आपका पूरा जीवन ही चला गया। मैं तो नाव को छोड़ कर तैरने चला। व्याकरण का सूत्र तो जानते हों, किन्तु यदि भवसागर से तैरना नहीं जानते, तो डूबना निश्चित है।(अवतारवरिष्ठ के नाम को पुकारने की विधि नहीं जानते, तो डूबना निश्चित है !)
 'धर्म ' किसे कहते हैं, क्या तुमने यह सीखा है ? स्वयं नहीं सीख सकते तो 'तरणि' (छोटी नौका) को पकड़ लो।तरणि या 'धर्म' वह है जो स्वयं नहीं डूबे और तुम्हें भी पार करा दे। यह है धर्म का भाव जो ठाकुर, माँ, स्वामी जी के जीवन से प्राप्त होता है। शास्त्र कामिनी -कांचन को ही वैतरणी नदी कहते हैं इस नदी को ही सबने पार करना है। जिसको पार करना बहुत कठिन माना जाता है ।  ठाकुर के कमरे में आज भी बुद्ध, महावीर, ईसा, चैतन्य सभी जीवन्मुक्त शिक्षकों के चित्र देख सकते हैं। "यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:"  विजय सदा धर्म के पक्ष में रहती है, एवं जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहाँ विजय है।  " यतो धर्मः ततो जयः" - जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है। यह महावाक्य भारत के supreme court  (उच्चतम न्यायालय) का ध्येय वाक्य है। 
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[24 दिसम्बर 2005: सरिसा रामकृष्ण आश्रम: evening class: क्रिसमस की पूर्व संध्या (xmas eve) में आयोजित ईसामसीह के जन्मदिवस पर नवनी दा का भाषण।]

 महामण्डल की संकल्प-ग्रहण पद्धति 
 [Auto Suggestion]  
' पुनरुज्जीवन का उपाय- हम तैयार हैं।'    
 स्वामी जी के जीवन में आज के दिन का एक विशेष महत्व है। क्योंकि 1886 के दिसम्बर महीने में उनके गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द (बाबूराम घोष) की माता के निमंत्रण पर अवतार वरिष्ठ रामकृष्ण देव द्वारा वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित सभी भावी शिक्षक/नेता उनके गाँव (आँटपुर) में एकत्र हुए थे। रात में मकान के बाहर वाले प्रांगण में विराट धुनि रमाकर नरेन्द्र गुरुभाइयों के साथ बैठे हैं। गाँव निस्तब्ध है - ऊपर निर्मल आकाश में ग्रहनक्षत्र झिलमिला रहे हैं। चारों ओर के गाढ़े अंधकार में धुनि की की प्रज्ज्वलित अग्निशिखा के समक्ष बैठे युवा संन्यासियों तपोनिर्मल देह, प्रशान्त मुखमण्डल, निर्मल ललाट उद्भासित हो रहे हैं। आग की धुनि तापते समय नरेन्द्र का ध्यान लग गया, और अचानक को ईसामसीह की अनुभूति प्राप्त हुई। वे उस अनुभूति के विषय में अपने गुरुभाइयों को सुनाते हुए, ईसामसीह के जीवन पर चर्चा करने लगते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक, उनके अपूर्व आत्मत्याग एवं पुनरुत्थान की कहानी का जीवंत वर्णन करने लगते हैं। " विवेकानन्द चरित-८४/   
हम बाइबल में पाते हैं कि येसु की मृत्यु के बाद शिष्य पूरी तरह से हताश और निराश तो थे ही भय से मारे-मारे फिर रहे थे। उन्हें लगा कि सब कुछ का अन्त हो गया है। किन्तु उनके शिष्यों ने देखा कि येसु मारे जाने के बाद तीसरे ही दिन फिर से जी उठे हैं, और वे येसु की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने कि लिये निकल पड़े। और इस प्रकार ईसाई धर्म पूरी दुनिया में फैल गया। ईसा का जीवन समाप्त नहीं हुआ  पर वे सदा-सदा के लिये जीवित हो गये। ईसा के पुनरूत्थान (revivification या पुनरुज्जीवन) को समझना ईश्वर की ओर से दिया गया एक अनुपम वरदान है।  जिसके गहरे अनुभव से हमारा जीवन बदल जाता है और हम इस धरा पर रहते हुए ही एक अलौकिक सुख (मोक्ष -भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव करने लगते हैं। खुद को यह याद दिलाना की कि येसु ने मेरे लिये अपना जीवन दिया और इस दुनिया में जीने और इसे मृत्यु के द्वार से, भवसागर से पार होने के एक ऐसा रास्ता दिखाया जिसमें प्रवेश करने से मेरे जीवन का अन्त नहीं होता, बल्कि मूझे एक ऐसा जीवन मिलता है जो सदा सदा के लिये जीवित रहता है।
ईसाईयों का सबसे बड़ा शिक्षाप्रद-पर्व है पास्का पर्व। पास्का या ईस्टर को नया जीवन पाने के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। यह खुद को बदल देने के लिये-एक संकल्प लेने का त्योहार है, खुद के मन में छिपे पापों, कमजोरियों और झुकाओं या प्रोपेन्सिटीज पर विजयी होने का त्योहार है। और नये उत्साह और आशा से परहितमय और सेवामय जीने के लिये खुद को समर्पित करने का त्योहार है, जिससे हम जहाँ भी रहें या जो कोई काम करें, हमारे व्यवहार को देखने से  दुनिया को यही लगना चाहिये कि मानो एक जीवित येसु ही उनके साथ में हैं। "प्रभु येशु जी उठे हैं। अल्लेलूईया अल्लेलूईया अल्लेलूईया दुनिया के लोगो खुशी मनाओ। तुम्हारे प्रभु जी उठे हैं।”संसार की सृष्टि के प्रारम्भ से ही ईश्वर न केवल हम मनुष्यों के साथ बल्कि सारी सृष्टि के साथ एक अटूट सम्बन्ध (योग) बनाये रखना चाहता है; एक प्रेम भरा सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है। और ज़ाहिर है कि वह सब कुछ का सृष्टिकर्ता है, तो अपनी ही सृष्टि से उसका सम्बन्ध (योग) क्यों नहीं होगा? उसने मनुष्य को पूरी आज़ादी दी है, लेकिन कभी-कभी मनुष्य उस आज़ादी का दुरूपयोग कर, ईश्वर से दूर चला जाता है, और ईश्वर नहीं चाहता कि उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना जिसे उसने अपने ही प्रतिरूप में बनाया है, उससे विमुख होकर नष्ट हो जाये। “यदि कोई यह कहता है कि मैं ईश्वर को प्यार करता हूँ और वह अपने भाई से बैर करता है, तो वह झूठा है। यदि वह अपने भाई को, जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी नहीं देखा, प्यार नहीं कर सकता.” संत योहन (४:२०)
ईसा मसीह का जीवनकाल अल्प रहा पर उनके जीवन का प्रभाव युगानुयुग तक बना रहेगा। इसीलिये क्योंकि उन्होंने सत्य के लिये कार्य किया, जगत को  प्रेम का मार्ग दिखाया और दुनिया को सुन्दर और बेहतर बनाने के लिये दुःखों को गले लगाया। और इस प्रकार नाज़रेत के ईसा – क्रूसित येसु से जगत के मसीहा बन गये। क्योंकि सत्य के लिये जीने वाले सत्य के लिये कार्य करने वाले, लोगों की भलाई और दुनिया की अच्छाई के लिये अपना जीवन न्योछावर कर देने वाले,  मरते नहीं हैं पर वे सिर्फ इस दुनिया से चले जाते हैं; और ईश्वर उन्हें अनन्त जीवन प्रदान करता है।
इसी दिन ईसामसीह (Christ) अपने 12 मछुआरे शिष्यों (Would be Leaders of Mahamandal) से कहा था - "If any man will follow me, let him deny himself, take up his cross and follow me" (Mark 8:34)  “जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह अपने मिथ्या अहं को त्याग दे और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे हो ले.” संत पौलुस न कहा है कि " यदि हमारे भीतर-हमारे अपने जीवन और आचरण में  मसीहा नहीं जी उठते तो हमारा धर्म प्रचार व्यर्थ है और हमारा विश्वास भी व्यर्थ है। अपने जीवन में प्रभु का पुनरुत्थान ही हमारे विश्वास का मूल आधार है।  लेकिन इस वैज्ञानिक युग में प्रभु के मृतकों में से जी उठना की घटना को, अपने चरित्रगठन और जीवन-गठन से सिद्ध करना ही आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। संत पौलुस हमसे कहते हैं कि बपतिस्मा (Initiation या मंत्र-दीक्षा) द्वारा हमें नवजीवन मिला है और हमारा पुराना जीवन मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया जा चुका है ! (देखें रोमियों के नाम पत्र 6:4-14) 
 प्रभु ईसा मसीह ने अपने शिष्यों को अपनी शिक्षाओं को - लिपिबद्ध करने का ही नहीं बल्कि उसका जन-जन तक प्रचार करने का आदेश दिया था !  और ईसा के देह-त्याग के बाद उनके प्रधान शिष्य सन्त पॉल ने किस दृढ़ विश्वास के साथ उनके नव-धर्म का प्रचार किया था। ईश्वरीय संदेश पहुंचाने के मार्ग में हज़रत ईसा को जब यहूदियों के व्यापक विरोध और यातनाओं का सामना करना पड़ा, तो ईसामसीह ने अपने १२ मछुआरे शिष्यों को संबोधित करते हुए पूछा था कि तुम में से कौन है जो मेरी सहायता  करने के लिये तैयार है? उनके उन 12 शिष्यों ने जिन्हें उन पर भरोसा था, एक स्वर में कहा - "हम तैयार हैं।" 
नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों के समक्ष - प्रभु ईसा और उनके शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का प्रभावी वर्णन करते जा रहे थे, जन्म से लेकर मृत्यु तक का, उस अपूर्व आत्मदान एवं पुरुत्थान की कहानी का जीती-जागतीभाषा में वर्णन करते- करते श्रीरामकृष्ण का प्रसंग आया। उधर नरेन्द्र नाथ क्रिसमस इव पर  भारत के उज्ज्वल भविष्य को  ऋषि दृष्टि से देखते हुए अपने गुरुभाइयों से कह रहे थे, " यह प्राचीन पृथ्वी धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, देशप्रेम के नाम पर, नर-रक्त से नहा-नहा कर जिसके लिये हजारों वर्षों से प्रतीक्षा करती आ रही है, उस बहु-प्रार्थित, बहु-इप्सित, 'सर्वधर्म- समन्वय' के सन्देश का प्रचार हमलोग करेंगे- ‘‘अछूतोद्धार - म्लेक्षोद्धार ठाकुर की यही इच्छा थी।’’ नरेन्द्रनाथ कह रहे थे, ‘और ठाकुर ने इस सर्वधर्म -समन्वय की शिक्षा देनेका उत्तरदायित्व (चपरास) मुझे सौंपा था।"  हमलोगों को अपना जीवन  आदर्श मनुष्य या देवमानव के रूप में गठित करके जगत के समक्ष उदाहरण के रूप में रखना होगा, तभी हमलोग बनो और बनाओ के सन्देश को विश्व भर में प्रचारित करने वाले प्रचारक या सन्देश-वाहक बन सकते हैं। हमें पूर्ण त्याग के आदर्श पर चलना होगा तभी आगे चलकर कुछ गृहस्थ युवा भी निसिद्ध कर्मों का त्याग और चरित्रनिर्माण करके  ईश्वर सन्देशवाहक, अग्रदूत या 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में भावी वेदाध्यापक ' के रूप में प्रशिक्षित किये जा सकते हैं। " संस्कृत में शब्द आया है- ‘फलेन परिचियते’। इसका मतलब है फल देखकर अंदाजा लग सकता है कि पेड़ कैसा रहा होगा। "कोई अच्छा पेड़ बुरा फल नहीं देता और न कोई बुरा पेड़ अच्छा फल देता है। हर पेड़ (श्रीरामकृष्ण)अपने फल (स्वामी विवेकानन्द) से पहचाना जाता है।" 
 नरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘‘गुरु भ्राताओ, अब कर्म-यज्ञ " Be and Make " का प्रारम्भ हो रहा है, आहुति चाहिए।’ और सभी गुरुभाइयों ने समवेत स्वर में कहा - ‘सब पूर्णतया समर्पित हैं।’ 
जब नरेन्द्र आदि भक्तगण उस रात्रि में पहले ईसामसीह की जीवनी तथा ईसाई धर्म के प्रथम प्रचारकों के गम्भीर आत्मविश्वास की चर्चा कर रहे थे,उस दिन उन्हें यह ज्ञात न था कि वह ईसामसीह की जन्मरात्रि थी। बाद में इस संयोग की बात को जानकर वे बड़े विस्मित हुए थे! आँटपुर से संन्यासीगण तारकेश्वर जाकर शिवजी की आराधना के बाद वराहनगर लौट आये. " ( विवेकानन्द चरित पृष्ठ ८४-८५ )
क्रिसमस की पूर्व संध्या पर हमें यहाँ आकर मनुष्य बनने में जो अपूर्णता अभी शेष है, उसे दूर हटाकर पूर्ण हो जाना है। किस धर्म में पैदा हुआ वह बड़ी बात नहीं है। किसको बड़ा (बृहद या ब्रह्म) कहा जाता है ? जिसके जीवन से दूसरों को कुछ मिलता है, उसी को बड़ा (ब्रह्म-विद) कहते हैं। नेता को सदा दाता की भूमिका में रहना चाहिए - दाओ दाओ फिरे नहीं चाहो, यदि हृदये थाके संबल ! केवल देने के लिए जो वस्तु कमाई जाती है, वह जीवन-धन है, अपना जीवन गठन ! केवल रुपया -पैसा कमा लेने से कुछ नहीं होगा। जीवन को बनाना होगा। केवल पाना नहीं है, देने के लिए कुछ कमाना है। जीवन को बनाना है। कैसे ? 
यहाँ से कुछ मिलेगा-यही आशा लेकर आये हैं। मनुष्य के तीन अवयव -शरीर और मन के भीतर में एक और वस्तु है, जिसका पता आसानी से नहीं होता। उसको विकसित करने की विद्या भी सीखनी चाहिए। 3'H' को विकसित करने की विद्या सीखनी चाहिए।
दूसरों के सुख दुःख का अपने भीतर बिल्कुल अपने सुख-दुःख जैसा अनुभूति करने की जो शक्ति प्रत्येक मनुष्य में है उसी को हृदय का विकास कहते हैं। हृदय का अर्थ blood pumping machine नहीं है। Do you feel for the poor and destitute people ? क्या तुम अपने देशवासियों के उद्धार की चिंता में अपने घर-परिवार और अपने पद-प्रतिष्ठा सबकुछ को भूल गए हो ? have you forgotten your home and own status ? क्या तुमने दुसरो के दुःख को (मूल कारण अविद्या को) दूर करने का कोई उपाय भी ढूंढ़ निकाला है ?  पूर्ण हृदयवान मनुष्य कैसे बनाया जाता है ? यही सीखने के लिए हमलोग यहाँ आये हैं। 
अभी जो हमारा मनुष्य रूप है वह half animal का है। half animal प्रयास करके हमें मनुष्य बनना है। इस बात को हमें हमेशा याद रखना चाहिए। मनुष्य और ईश्वर (अल्ला) में  कोई फर्क नहीं है- यह हमारे जीवन से प्रकट होना चाहिए। ऐसे मनुष्यों की संख्या यदि 100 से 100,000 हो जाये तो भारत कितना महान हो जायेगा ? वैसा महान भारत बनाने के लिए हमें अपने मन को वशीभूत करने में समर्थ मनुष्य बनकर दिखाना होगा। अब हमलोग 1 मिनट स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करेंगे, ऐसा करने से हमें प्रसाद मिलेगा - जिसका अर्थ होता है प्रसन्नता ! क्योंकि 'विवेकानन्द' का अर्थ होता है -ईश्वर की प्रसन्नता ! यह विवेक जब हमारे जीवन में उतर जायेगा, तो जीवन बिल्कुल बदल हो जायेगा। हमें इसके लिए अवश्य प्रयत्न करना चाहिए।   [मनुष्य को पुनरुज्जीवित करना होगा ! (Revivification of men )blog Tuesday, November 2, 2010] 
संकल्प-ग्रहण :जिस प्रकार ईसामसीह के उन 12 शिष्यों ने जिन्हें उन पर भरोसा था, एक स्वर में कहा था  - "हम तैयार हैं।" यही बात महामण्डल के सामान्य कार्यकर्ताओं और उनके प्रशिक्षकों (शिक्षकों/नेताओं)   पर भी लागू होती है। महामण्डल-घराना  के भावी शिक्षकों या 'would be Leaders'  का आचरण देखकर भान हो जाता है कि इनके मुख्य प्रशिक्षक (पूज्य नवनीदा) कैसे रहे होंगे। महामण्डल के सभी अनुयायियों को अथवा महामण्डल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षित समस्त भावी शिक्षकों/नेताओं को  निषिद्ध कर्मों  का पूर्ण त्याग करना होगा और चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प ग्रहण करना होगा।  [Miracle that obeys you - चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा ! मन में अबलौं नसानी अब न नसैहौं ! " I am He " मैं मन का गुलाम नहीं, प्रभु मैं गुलाम तेरा , तू दिवान मेरा ! का संकल्प लेकर इन्द्रियोन्मुख मन को आत्मिक-जीवन जीने के उसका मोड़ घुमा देना होगा, U-Turn का श्रीगणेश, बीजारोपण,  Initiation-काली के नाम का बेड़ा,अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण नाम का बीजमंत्र का बेड़ा लगाकर माने ईश्वर नाम का बीजारोपण करने की पद्धति रूपी अद्वैत वेदान्त ठाकुर (पूज्य नवनीदा) से प्राप्त हुआ है, उसे सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित करना होगा। हमें भी संसार (प्रवृत्ति) में बंधना नहीं है, हमलोगों को इन्द्रिय भोगों से निकल जाना होगा-क्योंकि दादा ने कहा था Are you a beast ?"निवृत्ति अस्तु महाफला"  और जो वेदान्त (स्वपरामर्श सूत्र और आत्ममूल्यांकन तालिका) नवनी दा से प्राप्त हुआ है, उसको पूरी दुनिया में फैला देना होगा। "
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अब पूज्य नवनीदा की स्मरण-सभा में मेरे नहीं जाने का कारण क्या था ?: मैं जानता हूँ कि नवनीदा शरीर नहीं थे वे भी आकार हीन आवाज थे ! शरीर तो सबका मरता है, किन्तु वे ब्रह्मवेत्ता थे, उनको भी शाश्वत जीवन प्राप्त हुआ है। वे निरंतर मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं। उन्होंने भी मुझे केवल ब्लॉग लिखने -या विवेक-अंजन पत्रिका का प्रकाशन करने का लिखित चपरास ही नहीं दिया था,  बल्कि उसे (महामण्डल के ऑटोसजेशन (बपतिस्मा) पद्धति अथवा 'Be and Make -Vedanta Leadership Training Tradition' मनुष्य बनो और बनाओ वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता निर्माण आंदोलन को) जन-जन तक प्रचारित करने के लिए युवा-प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने का आदेश दिया था। इसका अर्थ है केवल अपने क्षुद स्वार्थ को पूरा करना ही जीवन नहीं है। सबों के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व त्याग देने का दृढ़ संकल्प रहना चाहिए। पाँच इन्द्रियों से जितना भोग हो सकता है, वह सब भोग लेने के बाद भी मनुष्य  संतोष नहीं हो रहा है। वह अब artificial senses बनाने की तैयारी कर रहा है। 
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